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________________ में कुछ ऐसे सूत्र भिन्नों के सम्बन्ध प्राप्त किये जो अन्यत्र उपलब्ध नहीं है । इन्हें संभवतः किन्हीं पूर्व के जैन प्राकृत गणित ग्रन्थों से उद्धत किया गया होगा। इसी प्रकार सूर्यप्रज्ञप्ति प्रभूति ग्रन्थों की टीकाओं में प्राकृत में जो अनेक गणित सूत्र उल्लिखित किये गये हैं उन पर खोज, शोध होना आवश्यक है । यावत् तावत् (प्रा० जावं सार्थ) इस शब्द का उपयोग उन सीमाओं को निर्देशित करता है। जिन तक प्रमाणों को विस्तृत करना होता है । अथवा सरल समीकरण की रचना करनी होती है। इसका अर्थ "जहाँ तक " वहाँ तक " भी होता है । यह शब्द प्राकृत ग्रन्थों में बहुधा प्रयुक्त हुआ है। अभयदेव सूरि ने इसका उपयोग गुणन तथा ढि संकलन में निर्दिष्ट किया है। इसे 'व्यवहार' भी कह सकते हैं । इस सम्बन्ध में उनके द्वारा 11 प्राकृत संख्याओं का योग S निम्न nnx+x) 2x रूप में दिया है S= जहाँ x कोई विवक्षित (पच्छा, वाय या पावत् तावत्) राशि है। इस प्रकार विभूति वाञ्छा भूषण दत्त का अनुमान है कि यावत् तावत् शब्द कूट स्थिति (Rule of false position) से सम्बन्धित है जिसे प्रत्येक देश में रैखिक समीकरणों को साधने हेतु बीजगणित के विकास को प्राथमिक स्थिति में उपयोग में लाया गया होगा' बशाली हस्तलिपि में भी दोनों शब्दों का उपयोग कूट स्थिति नियम हेतु हुआ है । " यह भी सुझाव प्राप्त हुआ है कि इसका सम्बन्ध अनिर्धृत अथवा अपरिभाषित इकाइयों की राशि से भी है । तिलोय पण्णत्ति में "उक्कस्सं संखेज्जं जावं तावं पवेत्तआ" इस अभिप्राय से आया है कि संख्या को संख्यात से उत्कृष्ट संख्यात प्राप्त होने तक गणना कर प्राप्त किया जाये जो जघन्य परीत असंख्येय से केवल एक कम होता है । योजन (प्रा० जोग) यह शब्द एक रेखिकीय माप को प्ररूपित करता है । इस माप का राशि सैद्धान्तिक आधार है क्योंकि इसका सम्बन्ध अंगुल प्रदेश राशि तथा पल्य समय राशि से भी है। यह उतना ही रहस्यपूर्ण है जितना चीनी "लो”। इसका समीपस्थ सम्बन्ध प्रमाणांगुल से है जिससे भौगोलिक, ज्योतिष तथा खगोलीय १ बुले० केल० ० सो० (१९२९), पृ० १२२ २ दत्त (१९२९), वही, (२) [भाग xxi ], पृ० किया गया है । ४ विश्व प्रहेलिका पृ० ११४ १-६० । गणितानुयोग : प्रस्तावना ६३ दूरियों का माप किया जाता है । प्रमाणांगुल सूच्यंगुल से ५०० गुणा होता है। परमाणुओं से स्कन्ध बनता है और एक योजन का आधारीय सम्बन्ध सन्नासन्न, त्रुटिरेणु, त्रसरेणु, तथा रथरेणुस्कन्धों से होता है । क्रमशः इनका सम्बन्ध बाल, लीख, जूं, जव अंगुल पाद, वितस्ति, हाथ, दण्ड और कोस से होता है । इस प्रकार १ योजन में ४ कोस अथवा ७६८०० अंगुल होते हैं । प्रमाणांगुल के आधार पर योजन का मान ४५४५.४५ मील प्राप्त होता है, और सूच्यंगुल के आधार पर उसका मान 11 मील प्राप्त होता है । जी० आर० जैन ने योजन को ४००० मील मानकर लोक की त्रिज्या निकालने का प्रयास किया है श्वेताम्बर आम्नाय के अनुसार लम्बी दूरी वाला योजन ४ क्रोश वाले साधारण योजन से १००० गुणा किया जाता है । किन्तु दिगम्बर आम्नाय के अनुसार वह ४ क्रोश वाले साधारण योजन से ५०० गुणा किया जाता है। इस प्रकार योजन मापन योजना 'चल राशि' रूप में । प्रवृत्त होती है असंख्यात योजन का एक रन्दु होता है। = १ प्रमाण योजन – ५००' आत्मयोजन = १००० उत्सेधयोजन होते हैं। भौगोलिक योजना में ५१० योजन को ४७° के समान मानते हैं । चाप १ गोलीय पृथ्वी पर छायामाप द्वारा ६६.६ मील स्थापित करते हैं । तदनुसार ५१० योजन = ४७६६६ मील होने पर १ योजन ६४ मील स्थापित होता है । यदि योजन को १६००,००० हस्त आत्मप्रणाली से लिया जाये तो वह ४५४५ ४५ मोल होता है । जब इसे प्रमाण प्रणाली में बदलते हैं तो वह मील होता है । लिश्क ने मेरु के अन्तः मण्डल को मेरु से ४६८२० योजन लेकर उसे पृथ्वी के ६६ माने है । इसका मान अनुमानित चीनी ५०००० ली होता है। यहां भारतीय और चीनी योजना प्रणाली में समानता प्रतीत होती है। सूर्य की क्रांति का एक अयन से दूसरे अयन तक ४७° रूप में ५१० योजन स्वीकार करना उचित है । यह सूर्य की वीथियों सम्बन्धी अन्तः तम एवं = देखिये- लोक प्रकाश १,१६५, जहाँ व्युत्पन्न फल प्राप्त ति० प०, भाग १, ४.३०६, Cosmology : Old and New पृ० ११७ आदि । ३ ५ Lishk S. S., Sharma,S. D., Tirthankar, 1.7-12., 1975, pp. 83-92.
SR No.090173
Book TitleGanitanuyoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj, Dalsukh Malvania
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1986
Total Pages1024
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Mathematics, Agam, Canon, Maths, & agam_related_other_literature
File Size34 MB
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