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गणितानुयोग प्रस्तावना
अंतर्गत अनेक राशियाँ गर्भित हैं। इसी प्रकार द्रव्य और भाव विषयक राशियाँ उपरोक्त के बीच स्थित हैं ।
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राजू (प्रा० रज्जु)
रज्जु का अर्थ " रस्सी" है जिसके द्वारा लोक-माप बनता है । ७ राजु की जगश्रेणी होती है । जगक्षणी प्रदेश - राशि भी होती है । इसका सम्बन्ध द्वीप समुद्रों में स्थित चन्द्र बिम्बों के समस्त परिवारों से है जो मध्य लोकान्त में फैले हुए हैं । कॅप्टर के अनुसार मित्रदेश के प्राचीन यंत्री हरपिदोनन्ती रज्जु द्वारा पिथेगोरस के साध्य (कर्ण) 2 = (भुजा) 2 + (लम्ब) 2 को प्रयोग में लाते थे जिसमें ५ : ४ : ३ का अनुपात रहता था ताकि समकोण बन सके ।
जैन तत्व प्रकाश में अमोलक ऋषि द्वारा राजू के उपमा मान का उल्लेख है जिसमें यह कल्पना है कि वह एक ऐसी दूरी है जिसे एक लोहे का गोला जो ३८,१२,७६,७०,००० मन का हो और ६ माह, ६ दिन, ६ प्रहर, और ६ घटी में तय करता हो । किन्तु गुरुत्वाकर्य का कौन सा नियम इसमें लगाया है यह स्पष्ट नहीं है । प्रोफेसर जी० आर० जैन ने रज्जु का मान आइंस्टाइन द्वारा दत्त न्यास से १४५ ( १० ) 21 मील निकाला था ।" यह दूरी इतनी है जिसे कोई देव ६ माह में २०५७१५२ योजन प्रतिक्षण चलते हुए तय करता है। (डेर जैनिस्मस - ले० वाम ग्लास नेप्पिन) । यह लगभग १३०८ (१०) 22 मील प्राप्त होती है ।
तिलोय पण्णत्ति में राजू का प्रमाण सिद्धान्ततः प्रदेश और समय राशियों के आधार पर सूत्र रूप दिया है
(पल्योपम के अर्द्धच्छेद) (असंख्येय)
]
जगश्रेणी = ७ राजू = [घनांगुल]
यहाँ धन का अर्थ चांगुल में समाविष्ट प्रदेश (परमाणु) संख्या है। इसी प्रकार पल्योपम का अर्थ पल्योपम काल समय राशि है।
विवाह पण्णत्त ( पृ० १८२, ३१२, पृ० २१, ४१६) में योजनों के पदों में लोक के आयाम दिये गये हैं । किन्तु संख्या पुनः असंख्येय के कारण उलझ जाती है। इस प्रकार जैन साहित्य
१. गणितानुयोग ६ आदि
३.
ति० प०, श्लो० ० ११३१
५. षट्०, पृ० ५५, ६३१, ६५५, ७७३ इत्यादि ।
७. वही श्लोक २, ११२,
६. धवला, पृ० ३, पु० ३६ इत्यादि ।
में रख्तु के उपयोग का अभिप्राय शुल्य ग्रंथों से बिलकुल भित्र हैं, रज्जु का मान जैन साहित्य में मूलभूत रूप से प्रदेश राशि - परक है ।
सर्व ज्योतिष जीव राशि का मान तिलोय पण्णत्ति (भाग-२ पृ० ७६४-७६७) में निकाला गया है। यह गणना द्वारा प्राप्त किया मान है जो
(भाग २ लोक १० ११ ) में दिया गया है। इसमें ( जगश्रेणी ) 2 - [ ६५५३६ प्रतरांगुल ] सूत्र रूप में तिलोयपणती रज्जु के अर्द्धछेदों का उपयोग कर द्वीप समुद्रों के समस्त ज्योतिष देवराशि प्राप्त की गई है। इसके द्वारा भी रज्जु का मान समझा जा सकता है।
कलासवर्ण (प्रा० कला सवण्ण )
महावीराचार्य के गणितसार संग्रह के अनुसार इसका अर्थ भिन्न (Fraction) होता है । उसमें भिन्नों से सम्बन्धित गुणन, भाग, वर्ग, वर्गमूल, घन, घनमूल, भिन्नों की श्रेढिका क एवं प्रह्रासन, तथा छः प्रकार के भिन्न और उनका विस्तृत विवरण सम्मिलित है ।" भिन्नों पर विभिन्न प्रश्न भी हल किये गये हैं ।
षट्खण्डागम में अगुरुलघु गुण के लिए संख्येय, असंख्येय, और अनन्त भाग वृद्धि हानि का वर्णन मिलता है। तिलोब पण्णत्ती में भिन्नों का लेखन दृष्टिगत है। यहां अंश को हर के ऊपर लिखा जाता है । उसे अवहार रूप में निरूपित करते हैं । उदाहरणार्थ- एक वडे तीन या को लिखते हैं तथा "एक कला विहिता" कहा गया है। सूर्यप्रप्ति में चूर्णिया भाग का भी उपयोग किया गया है, भाग किया गया है। साथ ही कला शब्द का भी उपयोग है । कला का अर्थ भाग होता है और सवण्ण का अर्थ समान रंग वाला होता है।
अर्थात् भाग का
धवला टीकाओं में भिन्नों को राशि सैद्धान्तिक रूप से अभिप्रेत किया गया है। किसी राशि का अन्य राशि द्वारा विभाजन स्पष्ट करने में भाजित पण्डित विरलित एवं अपहृत विधियों का उपयोग किया गया है। अवधेश नारायण सिंह ने इन्हीं ग्रन्थों
२. Cosmology : Old and New, p. 105.
४.
ग० सा० सं०, पृ० ३६–८०
६.
ति० प० श्लोक १, ११८.
८.
गणितानुयोग पृ० २६३, २६४, अन्यत्र भी
१०.
वही, पु० ३, पृ० २७ - ४६