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आगमों में अनुयोग के दो रूप मिलते हैं
नन्दी-सूत्रनिर्दिष्ट श्रुतज्ञान के विवरण में अंग(१) अनुयोग-व्याख्या
प्रविष्ट, अंग-बाह्य, कालिक और उत्कालिक आदि सभी (२) अनुयोग-वर्गीकरण
आगमों की व्याख्या करने के लिए इन चार अनुयोग(१) अनुयोग व्याख्या-आगमों के विशिष्ट सूत्रों द्वारों का ही प्रयोग करने की सूचना दी गई है और इसी की व्याख्या करने की एक पद्धति है।
आधार पर अंगबाह्य, उत्कालिक, आवश्यक की विस्तृत जिस प्रकार नगर की चारों दिशाओं में चार द्वार व्याख्या अनुयोगद्वार-सूत्र में इन चार अनुयोगद्वारों हों तो उसमें प्रवेश करना सबके लिए सरल होता है, द्वारा ही की गई है। इसी प्रकार १. उपक्रम, २. निक्षेप, ३. अनुगम और (२) अनुयोग-वर्गीकरण ४. नय - इन चार अनुयोगद्वारों से आगम रूप नगर में चार अनुयोगों के नाम - प्रवेश करना सबके लिए सरल होता है। अर्थात् इन १. चरणानुयोग, २. धर्मकथानुयोग, ३. गणिताचार अनयोगद्वारों का आधार लेकर जो आगम की नयोग, ४. द्रव्यानयोग। व्याख्या करते हैं, उन सबके लिए आगम ज्ञान प्राप्त उपलब्ध अंग-उपांग आदि आगमों में इन चार अनुकरना अति सरल हो जाता है।
योगों के नाम क्रमशः कहीं नहीं मिलते हैं। जैनागमों की यह अनुयोग-व्याख्या पद्धति अति १. द्रव्यानयोग का नाम-स्थानांग के दशम स्थान चिरंतन काल से उपयोगी रही है। जैनागमों की उप- में मिलता है। और प्रज्ञापना, भगवती आदि आगमों लब्ध टीकाओं के टीकाकारों ने भी इसी अनुयोग व्याख्या के आधार पर इसका नामकरण हुआ है। पद्धति का अपनी टीकाओं में प्रयोग किया है।
२. चरणानुयोग का नामकरण-आचारांग, दशवै
कालिक, उत्तराध्ययन आदि आगमों के आधार पर १ अनुयोगद्वाराणि वाच्यानि,
हुआ है। तथाहि-प्रस्तुताध्ययनस्य महापुरस्येव चत्वारि अनुयोगद्वाराणि भवन्ति
तस्य द्वाराणीव द्वाराणि प्रवेशमुखानि, १. उपक्रमो, २. निक्षेपो, ३. अनुगमो, ४. नयश्च ।
अस्य अध्ययनपुरस्यार्थाधिगमोपाया इत्यर्थः तत्र अनुयोजनमनुयोगः-सूत्रस्यर्थेन सह सम्बन्धनम् ।
पुर-दृष्टान्तश्चात्र अथवा-अनुरूपोऽनुकूलो वा योगो-व्यापारः सूत्रस्यार्थ यथाहि-अकृतद्वारकं पुरमपुरमेव प्रतिपादनरूपोऽनुयोगः ।
कृतेकद्वारमपि दुरधिगम कार्यातिपत्तये च स्यात् आहच
चतुर्मूलद्वारं तु प्रतिद्वारानुगतं सुखाधिगमे कार्यानतिपत्तये अणु जोजणमणुओगो, सुअस्स णियएण जमभिहेएण ।
__ जम्बू. वृत्ति बावारो वा जोगो, जो अणुरूवोऽणुकुलो वा ॥ २ (क) करणानुयोग का नाम-द्रव्यानुयोग के दस भेदों में यद्वा अर्यापेक्षया अणोः-लघो पश्चाज्जात तया वाऽनु
एक भेद के रूप में मिलता है। देखिए-स्थानांग, शब्द वाच्यस्य योऽभिधेयो योगो-व्यापारस्तत् सम्बन्धो
स्थान १०, सूत्र ७२६. वाऽणुयोगोऽनुयोगो वेति ।
(ख) दिगम्बर ग्रन्थों में करणानुयोग गणितानुयोग का आह च
पर्यायवाची माना गया है। अहवा जमत्थओ, थोवपच्छमावेहिं सुअमणु तस्स ।
(ग) स्थानांग, स्था. १० सूत्र ७२६ में द्रव्यानुयोग दस अभिधेये वादारो, जोगो तेण व सम्बन्धो॥
प्रकार का कहा गया है।