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________________ सूत्र ६२ काल लोक : मनुष्य लोक की मर्यादा पबुच्चइ । जावं च णं वासाई वा वासहराई वा तावं च णं अस्स लोए ति पश्च हवा हवाई यातायं च स लोए मणुयलोयस मेरा_ मनुष्य लोक की मर्यादा ६२. माणुसरे पयएता च सोए ६२. जहाँ तक मानुषोत्तर पर्वत है, यहाँ तक यह लोक है ऐसा कहा जाता है। जहाँ तक वर्ष हैं, वर्षधर (पर्वत) हैं वहाँ तक यह लोक हैऐसा कहा जाता है । जहाँ तक यह है, यह पंक्ति है, वहाँ तक यह लोक है, ऐसा कहा जाता है । जहाँ ग्राम हैं यावत् राजधानियाँ हैं, वहाँ तक यह लोक है, ऐसा कहा जाता है । गणितानुयोग त्ति पबुच्चइ । जावं च णं गामाइ वा जाव रायहाणीइ वा तावं च णं अरिस लोए ति पयुच्च । जावं च णं अरहंता, चक्कवट्टि, बलदेवा, वासुदेवा, पडिवासुदेवा, चारणा, विज्जाहरा, समणा, समणीओ, सावया, सावियाओ, मणुया, पगइमद्दगा, विणीया, तावं च णं अस्सि लोए त्ति पबुच्चइ । 7 जावं च णं समयाइ वा, आवलियाइ वा, आणापाणइ वा, थोवाइ वा, लवाइ वा मुहुत्ताइ वा, दिवसाइ वा अहोरत्ताइ बापावा मासा वा उ वा अपवाद वा संवछ राइ वा, जुगाइ वा, वाससयाइ वा, वाससहस्साइ वा वास सहस्साइ वा, पुव्वंगाइ वा, पुण्वाइ वा, तुडियंगाइ वा तुडियाई वा एवं अडडे, अववे, हुहु कए, उप्पले, पउमे, लिले, अच्छिनिउरे, अउए, णउए, मउए, चूलिया, सीस पहेलिया, पलिशोयमे वा सागरोबमेड वा ओसप्पिणी वा, उस्सप्पिणीइ या, तावं च णं अस्स लोए त्ति पवुच्चइ जावं च बावरे विकारे बापरे पणिया अस्सि लोए ति पबुरुच । जायं च बहवे ओराला साहका संसेति समुच्च्छति, वासं वासंति, तावं च णं अस्सि लोए ति पवुच्चइ । जावं च णं बायरे तेक्काए, तावं च णं अस्सि लोए ति पवुच्चइ । जावं च णं आगराइ वा, नईइ वा णिहीइ वा, तावं च णं असि लोए सि पयुच्च । जहाँ तक आकर (खानें ) हैं, नदी हैं, निधि हैं, वहाँ तक लोक है, ऐसा कहा जाता है । जहाँ तक अगर (कूप) है, बापिकाएँ है, वहां तक लोक है, ऐसा कहा जाता है । जावं च णं अगडाइ वा वावीह वा, तावं च णं अस्सि लोए त्ति पबुच्चइ । जायं च चंदोबरागाह वा सूरोवरगाइ वा परिसाइ या सुरपरिसा वा पडदा वा पहिराह वा इंध जहां तक चन्द्रग्रहण सूर्यग्रहण है, चन्द्र परिषद है, सूर्य परिषद है. प्रतिचन्द्र है, प्रतिसूर्य है। इन्द्रधनुष हैं, जलमय है कपि हसित - ( कपि के हास्य समान मेघगर्जन ) हैं वहाँ तक लोक हैऐसा कहा जाता है । वा, उदगमच्छे वा कपिहसियाणि वा तावं च णं अस्सि लोए ति पवच्चइ । जागं च णं चंदिम सूरिय-गह णक्खत्त- ताराख्वाणं अभिगमण- जहाँ तक चन्द्र-सूर्य ग्रह-नक्षत्र - तारकों का अभिगमन-निर्गमननिगमन-बुद्धि-बुद्धि-वय-संतान-संविग्न वृद्धि-निवृद्धि अपरिवर्तित संस्थान संस्थिति कही जाती है—यहाँ तानं च णं अस्स लोए त्ति पवुच्चइ 1 तक यह लोक है, ऐसा कहा जाता है । -- जीवा. पडि ३, उ. सु. १७८, १७६ । ॥ समत्ता लोय पण्णत्त ॥ 1 जहाँ तक अर्हन्, चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव, प्रतिवासुदेव, चारण, विद्याधर भ्रमण धमनियां धावक-धाविका मनुष्य, प्रकृतिभद्रक ( प्रकृति के भद्र ) विनीत हैं, वहाँ तक यह लोक है, ऐसा कहा जाता है । जहाँ तक समय, आवलिका, आनप्राण, स्तोक, लव, मुहूर्त, दिवस, अहोरात्र, पक्ष, मास, ऋतु, अयन, संवत्सर, युग, वर्षशत, वर्षसहस्र वर्षशतसहस्र पूर्णन, पूर्व, त्रुटितांग, त्रुटित इस प्रकार से अटट, अवव, हुहुकृत, उत्पल, पद्म, नलिन, अक्षिनुपूर, अयुत, नियुत, मुकुट, चूलिका, शीर्षप्रहेलिका पल्योपम, सागरोपम, अवसर्पिणी, उत्सर्पिणी है- वहाँ तक यह लोक है, ऐसा कहा जाता है । 1 路 ७३५ , जहाँ तक बादर विद्युत है, बादर स्तनित शब्द है, वहाँ तक यह लोक है - ऐसा कहा जाता है । जहाँ तक अनेक औदारिक वारिधर (बादल) स्वेद उत्पन्न करते हैं, उत्पन्न होते हैं, वर्षा करते हैं, वहाँ तक लोक है, ऐसा कहा जाता है । | लोक प्रज्ञप्ति समाप्त ॥
SR No.090173
Book TitleGanitanuyoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj, Dalsukh Malvania
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1986
Total Pages1024
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Mathematics, Agam, Canon, Maths, & agam_related_other_literature
File Size34 MB
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