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लोक-प्रज्ञप्ति
काल लोक : लोक में रात्रि-दिन
सूत्र ६१
लोए राइंदिया
लोक में रात्रि-दिन६१. तेणं कालेणं तेणं समएणं पासावच्चिज्जा थेरा भगवंतो जेणेव ६१. उस काल उस समय भ० पार्श्वनाथ के स्थविर शिष्य
समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छंति, तेणेव उवागच्छित्ता जहाँ श्रमण भगवान महावीर थे वहाँ आये और उनके समीप समणस्स भगवओ महावीरस्स/अदूरसामंते ठिच्चा एवं वयासी- स्थित होकर इस प्रकार बोलेप०-से नणं भंते ! असंखेज्जे लोए अणंता रातिदिया प्र०-हे भगवन् ! इस असंख्य (प्रदेशी) लोक में क्या अनन्त
उपज्जिसु वा, उप्पज्जंति वा, उप्पज्जिस्संति वा? रात्रि दिन उत्पन्न हुए हैं, होते हैं और होंगे-नष्ट हुए हैं, होते हैं विच्छिसु वा, विगच्छंति वा, विगच्छिस्संति वा? और होंगे ? अथवा परिमित रात्रि दिन उत्पन्न हुए हैं, होते हैं
परित्ता रातिदिया उपज्जिसु वा ३ ? विगिच्छिसु वा ३? और होंगे-नष्ट हुए हैं, होते हैं और होंगे? उ०-हंता, अज्जो ! असंखेज्जे लोए अणंता रातिदिया उ०-हाँ आर्यों ! इस असंख्य (प्रदेशी) लोक में अनन्त
उपज्जिसु वा ३, विगिच्छिसु वा ३, परित्ता रातिदिया रात्रि दिन उत्पन्न हुए हैं, होते हैं और होंगे तथा परिमित रात्रिउप्पज्जिसु वा ३, विििच्छसु वा ३ ।
दिन उत्पन्न हुए हैं, होते हैं और होंगे—इसी प्रकार नष्ट हुए हैं,
होते हैं और होंगे। प०-से केण?णं भंते ! एवं वुच्चइ-असंखेज्जे लोए अणंता प्र०-हे भगवन् ! इस प्रकार कहने का कारण क्या है ?
रातिदिया उपज्जिसु वा ३? विगिर्गाच्छसु वा ३? परित्ता असंख्येय लोक में अनन्त रात्रि दिन उत्पन्न हुए हैं ३, नष्ट हुए हैं ३
रातिदिया उप्पज्जिसु वा ३ ? विििच्छसु वा ३? तथा परिमित रात्रि दिन उत्पन्न हुए हैं ३, नष्ट हुए हैं ३ इत्यादि । उ.-से नणं भे अज्जो ! पासेणं अरहा पुरुसादाणीएणं- उ०-हे आर्यो ! आपके पार्श्व अर्हन्त पुरुषादानीय ने इस
"सासए लोए बुइए, अणावीए अणवदग्गे, परित्ते परि- लोक को शाश्वत अनादि अनन्त परिमित और अलोक से परिबुडे, हेढा वित्थिण्णे, मज्झे संखित्ते, उप्पि विसाले, वृत कहा है-जो नीचे से विस्तीर्ण है, मध्य में संक्षिप्त है, ऊपर अहे पलियंकसंठियंसि, मज्झे वरवइरविग्गहियंसि, विशाल है । नीचे से पल्यंकाकार है, मध्य में उत्तम वज्राकार है, उपि उबमुइंगाकारसंठियंसि अणंता जोवघणा और ऊपर से ऊर्व मृदंगाकार स्थित है। इसमें अनन्त जीवसमूह उत्पज्जित्ता निलीयंति । से भूए उप्पन्ने विगए परि• उत्पन्न हो-होकर विलीन होते हैं। यह लोक भूत है, उत्पन्न है, णए । अजोवेहि लोक्कति, पलोक्कइ ।
विगत है, परिणत है । यह अजीवों के परिणमन धर्म से निश्चित
होता है, विशेष रूप से निश्चित होता है । प०-जे लोक्कइ से लोए ?
प्र०-जो प्रमाण द्वारा जाना जाय वह लोक है ? उ०-हंता भगवं! से तेण?णं अज्जो ! एवं बुच्चति- उ०-हाँ भगवन् ! अतएव हे आर्यो ! इस प्रकार कहा असंखेज्जे लोए-जाव-विगच्छिस्संति वा ।
जाता है-असंख्य लोक में अनन्त रात्रि दिन उत्पन्न हुए हैं ३
इत्यादि पूर्ववत् है। सप्पमिति च णं ते पासावच्चेज्जा थेरा भगवंतो समणं तबसे ये पार्खापत्य स्थविर श्रमण भगवान महावीर को भगवं महावीरं पच्चभिजाणंति-'सव्वण्णु सम्वदरिसि'। “सर्वज्ञ सर्वदर्शी" जानने लगे। तए णं ते थेरा भगवंतो समणं भगवं महावीरं वंदति तदनन्तर वे स्थविर भगवंत श्रमण भगवान महावीर को नमसंति, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वासी-"इच्छामो वंदना नमस्कार कर इस प्रकार बोले-"हे भगवन् ! हम आपके णं णते । तन्मं अंतिए चाउज्जामाओ धम्माओ पंच- समीप चार याम धर्म से (बढ़कर) सप्रतिक्रमण पंचमहाव्रत धर्म महन्वइयं सपडिक्कमणं धम्म उवसंपज्जित्ताणं को स्वीकार कर विचरना चाहते हैं। विहरित्तए।" अहासुहं देवाणुप्पिया ! मा पडिबंध करेह ।
हे देवानुप्रियो ! आपको जिस प्रकार सुख हो वैसा करो
किन्तु प्रतिबन्ध (देर) न करो। तए णं ते पासावच्चिज्जा थेरा भगवंतो-जाव-चरिमेहि तदनन्तर वे पापित्य स्थविर भगवंत-यावत्-अन्तिम उस्सासनिस्सासेहि सिद्धा-जाव-सव्वदुक्खप्पहीणा, अत्ये- श्वासोच्छ्वासों से सिद्ध हुए-यावत्-सब दुखों से मुक्त हुए। गइया देवा देवलोगेसु उववन्ना।
कुछ देवलोकों में उत्पन्न हुए। -भग. स. ५, उ. ६, सु. १४-१६ ।