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________________ सूत्र १०४१ तिर्यक्लोक : सूर्यों को तिरछी गति गणितानुयोग ५४३ मज्झिमं तावक्खेत्तं संपत्ते सूरिए मंदगई भवइ, तया मध्यम ताप क्षेत्र को प्राप्त सूर्य मंदगति वाला होता है, उस णं चत्तारि चत्तारि जोयणसहस्साइं एगमेगे णं मुहत्ते समय वह प्रत्येक मुहूर्त में चार चार हजार योजन (जितने क्षेत्र) णं गच्छा , को पार करता है। ता जया णं सूरिए सव्वन्भंतरं मंडलं उवसंकमित्ता जब सूर्य सर्वाभ्यन्तर मण्डल को प्राप्त करके गति करता चारं चरइ तया णं उत्तमकठपत्ते उक्कोसए अट्ठारस- है, तब परम उत्कर्ष प्राप्त उत्कृष्ट अठारह मुहूर्त का दिन होता मुहुत्ते दिवसे भवइ, जहणिया दुवालसमुहुत्ता राई है और जघन्य मुहूर्त की रात्रि होती है । भवइ, तंसि च दिवसंसि एक्काणउइ जोयणसहस्साई उस दिन इकानवे हजार योजन का ताप क्षेत्र कहा गया है । तावक्खेत्ते पण्णत्ते, ता जया णं सूरिए सव्व बाहिर मंडलं उवसंकमित्ता जब सूर्य सर्व बाह्यमण्डल को प्राप्त करके गति करता है तब चारं चरइ, तया णं उत्तमकट्ठपत्ता उक्कोसिया अट्ठा- परम उत्कर्ष प्राप्त उत्कृष्ट अठारह मुहुर्त की रात्रि होती है और रसमुहुत्ता राई भवइ । जहण्णए दुवालसमुहुत्ते दिवसे जघन्य बारह मुहूर्त का दिन होता है। भवइ, तंसि च णं दिवसंसि एगट्ठि जोयणसहस्साई तावक्खेत्ते उस दिन इकसठ हजार योजन का ताप क्षेत्र कहा गया है । पण्णत्ते तया णं छ वि पंच वि चत्तारि वि जोयण- उस समय सूर्य प्रत्येक मुहूर्त में छः पाँच और चार हजार सहस्साई सूरिए एगमेगे णं मुहुत्ते णं गच्छइ, एगे योजन (जितने क्षेत्र) को भी पार करता है।' एवमाहंसुवयं पुण एवं वयामो हम फिर इस प्रकार कहते हैंता साइरेगाइं पंच पंच जोयणसहस्साई सूरिए एगमेगे सूर्य प्रत्येक मुहूर्त में कुछ अधिक पाँच पाँच हजार योजन णं मुहुने णं गच्छइ, (जितने क्षेत्र) को पार करता है । प०-तत्थ को हेउ ? ति वएज्जा, प्र०-इस प्रकार कथन करने का हेतु क्या है ? उ०-ता अयण्णं जंबुद्दीवे दीवे सव्वदीव-समुद्दाणं उ०—यह जम्बूद्वीप द्वीप सब द्वीप समुद्रों के अन्दर है, सबसे सम्वन्भतराए सव्व खुड्डागे वट्टे-जाव जोयण-सय- छोटा है, वृत्ताकार है-यावत -एक लाख योजन लम्बा चौड़ा सहस्समायाम-विक्खंभे णं, तिन्नि जोयणसयसहस्साइं है, तीन लाख दो सौ सत्तावीस योजन तीन कोस एक सौ अटावीस दोन्नि य सत्तावीसे जोयणसए तिन्नि कोसे, अट्ठावीसं धनुष तेरह अंगुल और आधे अगुल से कुछ अधिक की परिधि च धणुसयं, तेरस य अंगुलाई, अद्धंगुलं च किंचि विसे- कही गई है। साहिए परिक्खेवे णं पण्णत्ते । (१) ता जया गं सरिए सव्वभंतरं मंडलं उवसंकमित्ता (१) जब सूर्य सर्वाभ्यन्तर मण्डल को प्राप्त करके गति चारं चरह तया णं पंच पंच जोयणसहस्साई दोण्णि करता है तब प्रत्येक मुहूर्त में पाँच पाँच हजार दो सौ इक्कावन य एक्कावण्णे जोयणसयाई एगूणतीसं च सट्ठिभाए योजन और एक योजन के साठ भागों में से उनतीस भाग (जितने जोयणस्स एगमेगे णं मुहुत्ते णं गच्छइ, क्षेत्र) को पार करता है। तया ण इहगयस्स मणसस्स सीयालीसाए जोयण- उस समय सेंतालीस हजार दो सौ सठ योजन तथा एक सहस्सेहि दोहि य तेवढेंहि जोयणसएहि एक्कवीसाए योजन के साठ भागों में से इकवीस भाग जितनी दूरी से यहाँ य सट्रिमागेहि जोयणस्स सूरिए चक्खुप्फासं हव्वमा- रहे हुए मनुष्य को सूर्य आँखों से दिखाई दे जाता है। गच्छइ,२ १ विधि-६१००० योजन का हिसाब इस प्रकार है-प्रथम मुहूर्त ६०००, अन्तिम मुहूर्त ६०००, मध्यम मुहूर्त ४००० एवं शेष १५ मुहर्त ५०००x१५%= ७५००, कुल ६०००+६०००+४०००+ ७५०००=६१०००, ६१००० योजन का हिसाब इस प्रकार है-प्रथम मुहूर्त में ६०००, अन्तिम मुहूर्त में ६०००, मध्यम मुहर्त में ४००० एवं हमहर्त में ५०००XE= ४५०००, कुल ६०००+६०००-४०००+४५०००=६१००० । २ सम. ४७ सु. १ ।
SR No.090173
Book TitleGanitanuyoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj, Dalsukh Malvania
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1986
Total Pages1024
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Mathematics, Agam, Canon, Maths, & agam_related_other_literature
File Size34 MB
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