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लोक-प्रज्ञप्ति
अधोलोक
सूत्र १३४-१३६
सटाणेणं लोयस्स असंखेज्जइभागे-तत्य गं बहवे तमप्पमा पुढविनेरइया परिवसंति । काला (जाव) नरगमयं पच्चणुभवमाणा विहरंति।
-पण्ण० पद० २, सु० १७३ ।
लोक के असंख्यातवें भाग में इन नैरयिकों के अपने स्थान है, इनमें तमःप्रभा पृथ्वी के अनेक नैरयिक रहते हैं।
ये नैरयिक कृष्ण वर्ण वाले हैं (यावत्) नरक भयका अनुभव करते रहते हैं।
तमतमापुढविनेरइयाणं ठाणाई
तमस्तमा पृथ्वी के नैरयिक स्थान१३५ : प० [१] कहि णं भंते ! तमतमापुढविनेरइयाणं पज्जत्ता- १३५ : प्र० [१] हे भगवन् ! तमस्तमःप्रभा पृथ्वी के पर्याप्त ऽपज्जत्ताणं ठाणा पण्णत्ता?
और अपर्याप्त नरयिकों के स्थान कहाँ पर कहे गये हैं ? [२] कहि णं मंते ? तमतमापुढ विनेरइया परि- [२] हे भगवन् ! तमस्तमःप्रभा पृथ्वी के नैरयिक कहाँ वसंति?
रहते हैं? उ० [१] गोयमा ! तमतमाए पुढवीए अट्ठोत्तरजोयण- उ० [१] हे गौतम ! एक लाख आठ हजार योजन की
सयसहस्सबाहल्लाए उरि अद्धतेवण्णं जोयण- मोटाई वाली तमस्तमःप्रभा पृथ्वी के ऊपर से साढ़े बावन हजार सहस्साइं ओगाहित्ता, हेट्ठा वि अद्धतेवण्णं योजन अन्दर प्रवेश करने पर और नीचे साढ़े बावन हजार योजन वज्जेत्ता, मज्झे तिसु जोयणसहस्सेसु- एत्य णं छोड़ने पर तीन हजार योजन प्रमाण मध्यभाग में तमस्तमःप्रभा तमतमापुढविनेरइयाणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं' पंच- पृथ्वी के नरयिकों के पाँच दिशाओं में अति विशाल पाँच नरकादिसि पंच अणुत्तरा महइमहालया महाणिरया वास कहे गये हैं, यथा-(१) काल, (२) महाकाल, (३) रौर व, पण्णत्ता, तं जहा-(१) काले, (२) महाकाले, (४) महारौरव, (५) और अप्रतिष्ठान । (३) रोरुए, (४) महारोरुए, (५) अप्पइट्ठाणे।' ते णं गरगा अंतो वट्टा बाहिं चउरंसा (जाव)
ये नरकावास अन्दर से वृत्ताकार हैं, बाहर से चतुष्कोण हैं, असुभा नरगेसु वेयणाओ-एत्थ णं तमतमा- यावत् इन नरकावासों में वेदना भी अशुभ है। इन नरकावासों पढविनेरइयाणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं ठाणा में तमस्तमःप्रभा पृथ्वी के पर्याप्त तथा अपर्याप्त नैरयिकों के स्थान पण्णत्ता।
कहे गये हैं। [२] उववाएणं लोयस्स असंखेज्जहभागे,
[२] लोक के असंख्यातवें भाग में ये नैरयिक उत्पन्न होते हैं। समुग्धाएणं लोयस्स असंखेज्जइभागे,
लोक के असंख्यातवें भाग में ये नैरयिक समुद्घात करते हैं। सटाणेणं लोयस्स असंखेज्जइमागे-तत्थ णं
लोक के असंख्यातवें भाग में इन नैरयिकों के अपने स्थान हैं, बहवे तमतमापुढविनेरइया परिवसंति । इनमें तमस्तमःप्रभा पृथ्वी के अनेक नैरयिक रहते हैं। काला (जाव) णरगभयं पच्चणभवमाणा ये नरयिक कृष्ण वर्ण वाले हैं यावत नरक भयका अनभव विहरति ।
करते रहते हैं। -पण्ण पद० २, सु० १७४ ।
१. २. ३.
सम० सु०१४६, १५० । (क) भग० स० १३, उ० १, सु० १६ । (ख) ठाणं० ५, उ० ३, सु० ४५१ । जीवा०प० ३, उ० १, सु० ८१ । "पर्याप्त तथा अपर्याप्त नैरयिकों के स्थान कहाँ है ?" यह प्रथम प्रश्न है और "वे कहाँ रहते हैं ?" यह द्वितीय प्रश्न है। इन दोनों प्रश्नों के उत्तर भी यहाँ क्रमशः दो ही दिये हैं। महावीर विद्यालय से प्रकाशित प्रज्ञापना स्थान पद सूत्रांक १६७, १६८ और १६६ में यही क्रम रहा। किन्तु सूत्रांक १७० से १७४ पर्यन्त सभी सूत्रों में केवल प्रथम प्रश्न है, द्वितीय प्रश्न नहीं है। जबकि पूर्ववत् उत्तर दोनों ही हैं। इन सत्रों में संक्षिप्त वाचनासूचक जाव, जहा, एवं आदि संकेत वाक्य भी नहीं है। पाठकों की सुविधा के लिए यहाँ सूत्रांक १७० से १७४ पर्यन्त सभी में दो प्रश्न और उनके दो उत्तर क्रमशः दिये गये हैं।