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________________ सूत्र ६८-६६ अधोलोक गणितानुयोग ४५ प० इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए पंकबहुलकंडे प्र० हे भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी का पंकबहुलकाण्ड केवतियं बाहल्लेणं पण्णत्त? कितने विस्तार वाला कहा गया है? उ० गोयमा ! चतुरसीतिजोयणसहस्साई बाहल्लेणं उ० हे गौतम ! चौरासी हजार योजन विस्तार वाला कहा पन्नत्ते। गया है। प० इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए आवबहुलकंडे प्र० हे भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी का अप्-जल-बहुल केवतियं बाहल्लेणं पन्नते? काण्ड कितने विस्तार वाला कहा गया है ? उ० गोयमा ! असोति जोयणसहस्साई बाहल्लेणं पन्नत्ते।' उ. हे गौतम ! अस्सी हजार योजन विस्तार वाला कहा -जीवा० पडि०३, उ०१, सु०७२। गया है। कंडाणं दव्वसरूवं काण्डों का द्रव्य स्वरूपRE:५० इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए खरकंडस्स ६९ :प्र. हे भगवन् ! क्या इस रत्नप्रभापृथ्वी के सोलह हजार सोलस जोयणसहस्स-बाहल्लस्स खेत्तच्छेएणं छिज्जा योजन विस्तृत क्षेत्र छेद से छिद्यमान (कल्पना-कृत विभागवाले) . माणस्स अस्थि दव्वाई। खरकाण्ड में जो द्रव्य हैं वे; वण्णओ काल-नील-लोहित-हालिद्द-सुकिल्लाई; वर्णसे कृष्ण, नील, रक्त, पीत और शुक्ल; गंधतो सुरभिगंधाई दुरभिगंधाई, गन्धसे सुगन्ध और दुर्गन्ध युक्त; रसतो तित्त-कडुय-कसाय-अंबिल-महुराई। रससे तिक्त, कटुक, कषाय अम्ल और मधुर; फासतो कक्खड-मउय-गरुय-लहु-सीत-उसिण-णिद्ध- स्पर्शसे कर्कश, मृदु, गुरु, लघु, शीत, उष्ण, स्निग्ध और रुक्ष; .: लुक्खाई। संठाणतो परिमंडल-वट्ट-तंस-चउरंस आयय-संठाण संस्थानसे परिमंडल, वृत्त, त्रिकोण, चतुष्कोण और आयत ।" परिणयाई अन्नमन्नबधाई, अण्णमण्णपुट्ठाई, अण्णमण्ण संस्थान परिणत, अन्योऽन्यबद्ध, अन्योऽन्यस्पष्ट, अन्योऽन्यअवगाढ़ ओगाढाई, अण्णमण्ण सिणेहपडिबद्धाई अण्णमण्णघडताए स्निग्धता से अन्योऽन्यप्रतिबद्ध और अन्योऽन्य ग्रथित होकर .. चिट्ठति ? रहते हैं ? उ० हंता, अत्थि । उ० हाँ है। प० इमीसे णं भते ! रयणप्पभाएपुढवीए रयणनामगस्स प्र० हे भगवन् ! क्या इस रत्नप्रभा पृथ्वी के एक हजार कंडस्स जोयणसहस्सबाहल्लस्स खेत्तच्छेएणं छिज्ज- योजन विस्तृत क्षेत्र-छेद से छिद्यमान (कल्पनाकृत विभाग वाले) माणस्स अस्थि दव्वाई वण्णओ जाव अण्णमण्णघडत्ताए रत्नकाण्ड में जो द्रव्य हैं वे वर्णन यावत् अन्योन्यग्रथित होकर चिट्ठति ? रहते हैं ? उ० हंता ! अत्थि । एवं जाव रिझुस्स । उ० हाँ हैं । इसप्रकार रिष्टकाण्ड पर्यन्त (सभी काण्डों में जो द्रव्य हैं वे वर्ण से यावत् अन्योन्यग्रथित होकर रहते हैं।) प० इमीसे णं भंते ! रयणप्पमाए पुढवीए पंकबहुलस्स प्र. हे भगवन् ! क्या इस रत्नप्रभा पृथ्वी के चौरासी कडस्स चउरासीतिजोयणसहस्सबाहल्लस्स खेत्तच्छे- हजार योजन विस्तृत क्षेत्र छेद से छिद्यमान (कल्पनाकृत विभाग एणं छिज्जमाणस्स अस्थि दव्वाइं वण्णओ जाव अण्ण- वाले) पंक बहुल काण्ड में जो द्रव्य हैं वे वर्ण से यावत् अन्योऽन्य मण्णघडताए चिट्ठति ? ग्रथित होकर रहते हैं ? उ० हंता ! अत्थि। उ० हाँ है। एवं आवबहुलस्स वि असीतिजोयणसहस्सबाहल्लस्स इसप्रकार अपबहुलकाण्ड में जो अस्सी हजार योजन -जीवा० पडि० ३, उ० १, सु०७३। विस्तृत है (उसमें भी द्रव्य हैं।) १. सम० ८, सु० ५।
SR No.090173
Book TitleGanitanuyoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj, Dalsukh Malvania
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1986
Total Pages1024
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Mathematics, Agam, Canon, Maths, & agam_related_other_literature
File Size34 MB
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