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________________ सूत्र ६०८-६१० तिर्यक् लोक : अन्तरद्वीप वर्णन गणितानुयोग ३३१ एकोरुयदीवे गं तत्थ तत्थ बहवे सेरियागुम्मा-जाव-महा- एकोरुकद्वीप में अनेक जगह अनेक सेरिकागुल्म-यावत्जातिगुम्मा, ते गं गुम्मा दसद्धवणं कुसुमं कुसुमंति विघूय- महाजाइगुल्म हैं वे सभी गुल्म पाँच वर्ण के पुष्पों से सुशोभित हैं ग्गसाहा जेण वायविधूयग्गसाला। . और उनकी शाखायें वायु से हिलती हुई है। एगुरुयदीवस्स बहुसमरमणिज्जभूमिमागं मुक्कपुष्फपुजो- एकोरुकद्वीप के सभी सर्वथा सम एवं रमणीय भूभाग सदा वयारकलियं करेंति । _ खिले हुए पुष्पों से सुशोभित हैं। एकोऽयदीवे णं तत्थ तत्थ बहूओ वणराईओ पण्णत्ताओ, एकोरुकद्वीप में अनेक जगह अनेक वनराजियाँ हैं । ताओ णं वणराईतो किण्हातो किण्होमासाओ-जाव- वे सभी वनराजियाँ अनेकानेक वृक्षों से सघन एवं श्याम हैं। रम्माओ, महामेहणिगुरुबभूताओ-जाव-महति गंधणि मुयं- श्याम ही भासित होती हैं-यावत्-रमणीय हैं। वे श्याम मेघ तीओ पासादीयाओ-जाव-पडिरूवाओ। घटाएँ जैसी दिखाई देती हैं-यावत्-अति उग्र गंध फैलाती रहती हैं अतएव प्रसन्नता पैदा करने वाली है-यावत् मनोहर है । -जीवा. पडि. ३, सु. १११ एगुरुयदीवे दसविहादुमगणा एकोरुकद्वीप में दस प्रकार के वृक्षों के समूह६०६. एगुरुयदीवे तत्थ तत्थ बहवे मत्तंगा णाम दुमगणा पण्णत्ता ६०६. हे आयुष्मान् श्रमण ! एकोरुक द्वीप के अनेक स्थानों में समणाउसो! 'मत्तंग' नाम के अनेक वृक्षसमूह कहे गये हैं। जहा से चंदप्पभ-मणिसिलाग-वरसीधु-पवरवारूणि-सुजात- जिस प्रकार (१) चन्द्रप्रभ, (२) मणिसिलाक, (३) श्रेष्ठ फल-पत्त-पुष्फचोयणिज्जा, संसारबहुदय्वजुत्तसंभारकालसंध- सिधु, (४) उत्तम वारुणी, (५) सुजात (परिपक्व) (६) पत्र, यासवा। (७) पुष्प, (८) फल के साररूप, (६) अनेक प्रकार कल्कों के संयोजन से सजित आसव । महुमेरग-रिट्ठाभ'-बुद्धजातीय-पसन्नतल्लग-सताउ', (१) मधुमेरकसार, (२) रिष्टाभसार, (३) दुग्धजातिसार, खज्जूर-मुद्दियासार-काविसायण-सुपक्क खोयरस-वरसुरा-वण्ण- (४) तल्लक सार, (५) शतायुसार, (६) खजूरसार, (७) मृद्वीकारस-गंध-फरिसजुत्तबलवीरिय-परिणामा, मज्जविहित्थबहुप्प- द्राक्षासार, (८) कपिशायन, (8) सुपक्व, इक्षुरस निष्पन्न सुरा, गारा। श्रेष्ठ वर्ण, गंध, रस, स्पर्श युक्त, बलवीर्य संवर्धक, अनेक प्रकार के मद्यों का विधान है। तहेव ते मत्तंगयावि दुमगणा, अणेगबहुविविहवीससापरिण- उसी प्रकार मत्तंग नामक द्रमगण भी अनेक प्रकार से याए मज्जविहीए उववेया फलेहि पुण्णा वीसंदति । स्वभावसिद्ध मद्य विधान युक्त फलों से पूर्ण विकसित हैं । कुस-विकुस-विसुद्ध-रूक्खमूला-जाव-चिट्ठन्ति । उन वृक्षों के मूल कुश=डाभ, विकुश= बल्बजघास रहित हैं अतएव विशुद्ध हैं। ६१०. एक्कोरुए दोवे तत्थ तत्थ बहवो भिगंगया णाम दुमगणा ६१०. हे आयुष्मान् श्रमण ! एकोरुकद्वीप के अनेक स्थानों में पण्णत्ता समणाउसो! 'भृतांग' नाम के अनेक वृक्षों के समूह कहे गये हैं। जहा से वारग-घड-करग-कलस-कक्करि-पापकंचणि-उदक- जिस प्रकार (१) वारक=मांगल्यघट, (२) घट=घड़ा, वद्धणि-सुपविट्ठर-पारी-चसक-भंगार-करोडि-सरग-थरग-पत्ती. (३) करक, (४) कलश, (५) कर्करी, (६) पादकंचनिका, (७) उदकवर्धनी, (८) सुप्रतिष्ठक-पुष्पपात्र, (६) पारी-घी का बर्तन, (१०) चसक =सुरापान पात्र, (११) भृगार भरणी, (१२) करोड़ी घिलोडी, (१३) सरक=सरवो या सिकोरा, १ जम्बूफलकलिकाभा । २ आस्वादतः क्षीरसदृशी। ३ शतायुर्नाम या सुराशतवारं शोधितापि स्वरूपं न जहाति ।
SR No.090173
Book TitleGanitanuyoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj, Dalsukh Malvania
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1986
Total Pages1024
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Mathematics, Agam, Canon, Maths, & agam_related_other_literature
File Size34 MB
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