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________________ ३५६ लोक- प्रज्ञप्ति उ०- गोयमा ! लवणसमुद्द े दाहिणपेरते धायइडस्स दीवस्स दाहिणद्धस्स उत्तरेणं । सेसं तं चैव । एवं जयंते वि । णवर सीयाए महानदीए उप्पि भाणियव्वे । तिर्थ लोक समुद्र वर्णन एवं अपरिजाते वि । णवरं - दिसिभागे भाणियव्वो । - जीवा. पडि. ३, उ. २, सु. १५४ ६८५. ते णं दारा णं चत्तारि जोयणाई विक्खंभेणं तावइयं चेव पवेसे णं पण्णत्ते, तं जहा - तत्थ णं चत्तारि देवा महिड्ढिया - जाव- पलिओवमट्टिया परिवसंति, तं जहा - १. विजए, २. विजयंते, ३. जयंते, ४. अपराजिए । - ठाणं ४, उ. २, सु. ३०५ उ०- गोयमा ! ( गाहा - ) तिण्णेव सतसहस्सा, पंचाणउति भवे सहस्साइं । दो जोयणसतअसिता, कोसं दारंतरे लचणे ॥ - जाव अबाधाए अंतरे पण्णत्ते । -जीवा. पडि ३, उ. २, सु. १५४ लवणसमदद नामहेड६८७ १० से - लवणसम दस्स दारस्स दारस्स य अंतरं लवणसमुद्र के एक द्वार से दूसरे द्वार का अन्तर ६८६. प० - लवणस्स णं भंते ! समुद्दस्स दारस्स य दारस्स य एस ६६६. प्र० - भगवन् ! लवणसमुद्र के एक द्वार से दूसरे द्वार का णं केवतियं अबाधीए अंतरे पण्णत्ते ? अबाधा अन्तर कितना कहा गया है ? लवणसमुद्र ?" उ०- गोवमा ! लबणे पं सम उदगे आविले रहले लोगे लिंदे खारए कडए । अपेज्जे बहूणं दुपच उपय-मिय-पसु-पक्खि- सिरीसवाणं गण्णत्थ तज्जोणियाणं सत्ताणं ।' उ०- गौतम ! लवणसमुद्र के दक्षिणान्त में धातकीखण्ड द्वीप के दक्षिणार्ध के उत्तर में है। शेष पूर्ववत् है । सोचिए एल्थ लवणाहिबई देवे महिड्डी ए-जापतिओ परिस सेमं तत्थ सामाणिय-जाय लवणसमुदस्स मुविपाए राहाणीए अण्णेंसि च बहूणं वाणमंतरदेवाणं देवीणं आहेबच जाय-बिहरह से एए गोयमा ! एवं बुच्चइ - लवणे णं समुद्दे, लवणे णं समुदे । अदुत्तरं च णं गोपमा ! लवणसमुदे सास-जाव णिच्चे । — जीवा. पडि ३, उ. २, सु. १५४ सूत्र ६८४-६८७ इस प्रकार जयन्त द्वार का भी वर्णन है। विशेष यह है कि यह द्वार शीता महानदी के ऊपर कहना चाहिए । इस प्रकार अपराजित द्वार का भी वर्णन है। विशेष यह है कि इसका दिशाभाग कहना चाहिए । है ६८५. वे द्वार चार योजन चौड़े है उतना ही उनका प्रवेश मार्ग तथा वहाँ चार देव महधिक — यावत - पत्योपम की स्थिति वाले रहते हैं, यथा - ( १ ) विजय, (२) वेजयन्त, (३) जयन्त (४) अपराजित - के नाम का हेतु लवणसमुद्र भंते! एवं बुव" लवणसमु ६०० प्र० भगवन्! लवणसमुद्र को लवणसमुद्र किस कारण से कहा जाता है ? उ०- गौतम ! लवणसमुद्र का जल मलिन है, कीचड़ वाला है, लवणसदृश है, गोबर सदृश है, खारा है, कडुआ है । अनेक द्विपद, चतुष्पद, मुग, पशु, पक्षी और सरीसृपों के पीने योग्य नहीं है। केवल लवणसमुद्र में उत्पन्न प्राणियों के पीने योग्य है । उ०- पौतम (नाचार्थ) लवणसमुद्र के द्वारों का व्यवहित अन्तर तीन लाख पंचानवे हजार दो सौ अस्सी योजन और एक कोश का यावत् — कहा गया है। यहाँ लवणाधिपति सुस्थित देव महधिक — यावत् - पल्योपम की स्थिति वाला रहता है। १ प्र० -- लवणस्स णं भंते ! समुद्स्स उदए केरिसए अस्ताएणं पण्णत्ते ? ३० गोपमा । लवणस्स उदए आइले रहने (खारे) लिंदे लबने हुए गण्णत्थ तज्जोणियाणं सत्ताणं । वह वहाँ सामानिक - यावत् - लवणसमुद्र की सुस्थिता राजधानी में अन्य अनेक वाणव्यन्तर देव देवियों का आधिपत्य करता हुआ - विचरण करता है । गौतम ! इस कारण से लवणसमुद्र को लवणसमुद्र कहा जाता है । अथवा - गौतम ! लवणसमुद्र शास्वत है- यावत् - नित्य है । बहुप-उप-मिग-सु-पवनारसवा - जीवा. पडि. ३, उ. २, सु. १३७
SR No.090173
Book TitleGanitanuyoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj, Dalsukh Malvania
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1986
Total Pages1024
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Mathematics, Agam, Canon, Maths, & agam_related_other_literature
File Size34 MB
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