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________________ १३४ लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक सूत्र २६-३१ -कुन्द-पुप्फरासोति वा, कुमुयरासीति वा, सुक्कछिवाडीति –अथवा कुन्द-पुष्प की राशि के समान है, अथवा कुसुमराशि वा, पेहमिजाति वा, बिसेति वा, मिणालिया ति वा, के समान है, अथवा सूखी हुई सेम की फली के समान है, अथवा गयदंतेति वा, लवंगदलेति वा, पोंडरोयवलेति वा, सिंदु- मयूर पिच्छी के मध्यभाग के समान है, अथवा मृणाल (कमलनाल) वारमल्लदामेइ वा, सेतासोए ति वा, सेय-कणवीरेति के समान है, अथवा कमलनाल के तंतुओं के समान है, अथवा वा, सेयबंधुजीएइ वा, भवे एयासवे सिया ? गजरत्न के समान है, लोंग के वृक्ष के पत्ते के समान है अथवा श्वेत कमल की पंखुरी के समान है, अथवा सिन्दुवार पुष्पों की माला के समान है, अथवा श्वेत अशोकवृक्ष के समान है, अथवा श्वेत कनेर के समान है, अथवा श्वेतबन्धुजीवक के समान है-तो क्या ऐसा श्वेत रूप उन तृणों और मणियों का होता है ? उ० गोयमा ! नो इण? सम? । तेसि णं सुक्किल्लाणं तणाणं उ०-हे गौतम ! यह कथन इनका रूप वर्णन करने में मणीण य एत्तो इद्वत्तराए चेव-जाव-मणामतराए चेव समर्थ नहीं है, वे शुक्ल तृण और मणि इनसे भी इष्टतर-यावत् वणेणं पण्णत्ते। -जीवा०प० ३, उ० १, सु० १२६ मणामतर वर्ण वाले कहे गये हैं। तण-मणीणं इठ्ठयरे गंधे तृण-मणियों का इष्टतर गंध ३०. ५० तत्थ णं जे ते तणाय मणीय तेसि णं भंते ! केरिसए ३०. प्र. हे भगवन् ! वहाँ जो तृण और मणि हैं उनका कैसा गंधे पण्णत्ते ? से जहा णामए-कोट्ठ-पुडाण वा, पत्त- गंध कहा गया है ? वह इन नाम वाले पदार्थों की गंध जैसा हैपुडाण वा, चोय-पुडाण वा, तगर-पुडाण वा, एला-पुडाण कोष्टगंध द्रव्यों के पुटों (पुड़ियाँ) जैसा है, अथवा गंध पत्रपुटों वा, किरिमेरि-पुडाण वा, चंदण-पुडाण वा, कुंकुम-पुडाण जैसा है, अथवा तगर पत्रपुटों जैसा है, अथवा एला (इलायची) वा, उसीर-पुडाण वा, चंपग-पुडाण वा, मरुयग-पुडाण पुटों जैसा है, अथवा अमलतास के पुटों जैसा है, अथवा चन्दन वा, दमणग-पुडाण वा, जाति-पुडाण वा, जूहिया-पुडाण पुटों जैसा है, अथवा कुकुम पुटों जैसा है, अथवा इसीर (खश) वा, मल्लिय-पुडाण वा, णोमालिय-पुडाण वा, वासंतिय- पुटों जैसा है, अथवा चंपक पुटों जैसा है, अथवा मरुवा पुटों जैसा पुडाण वा, केअइ-पुडाण वा, कप्पूर-पुडाण वा, अणु- है, अथवा जूही पुटों जैसा है, अथवा मल्लिका (मोगरा) पुटों वायंसि उभिज्जमाणाण वा, णिन्भिज्जमाणाण वा, जैसा है, अथवा नवमल्लिका पुटों जैसा है, अथवा गंधवासन्ती कोट्ठज्जमाणाण वा, रुविज्जमाणाण वा, उक्किरिज्ज- लता के पुष्प पुटों के समान है, अथवा केतकी (केवडा) पुटों जैसा माणाण वा, विकिरिज्जमाणाण वा, परिभुज्जमाणाण है, अथवा कपूर पुटों जैसा है, और इन सब पुटों की गंध अनुकूल वा, भंडाओ भंड साहरिज्जमाणाणं ओराला मणुण्णा, वायु के चलने से चारों ओर फैल रही हो, ये सब पुट तोड़े जा घाण-मणणिव्वुतिकरा सवओ समंता गंधा अभिणिस्स- रहे हों, कूटे जा रहे हों, टुकड़े किये जा रहे हों, इधर-उधर वंति-भवे एयारूवे सिया ? उड़ाये जा रहे हों, बिखेरे जा रहे हों, उपभोक्ताओं द्वारा उपभोग किये जा रहे हों, एक बर्तन से दूसरे बर्तन में उडेले जा रहे हों, तब इनकी गंध बहुत अधिक व्यापक रूप में फैलती है, और मनोनुकूल होती है, घ्राण और मन को शांतिदायक होती है, और इस प्रकार से वह गंध चारों दिशाओं में सब ओर अच्छी भरह फैल जाती है- तो क्या उनकी गंध इस प्रकार की होती है ? उ० गोयमा ! णो इण8 सम? । तेसि गं तणाण य मणीण उ०-हे गौतम ! यह अर्थ उस गंध का वर्णन करने में समर्थ य एत्तो उ इट्टतराए चेव-जाव-मणामतराए चेव गंधे नहीं है क्योंकि इन तृणों और मणियों की गंध इनसे भी इष्टतर पण्णते। -जीवा०प० ३, उ० १, सु० १२६ -यावत्-मणामतर कही गई है। तण-मणीण इयरे फासे तृण-मणियों का इष्टतर स्पर्श३१. ५० तत्थ पं जे ते तणा य मणी य तेसि णं भंते ! केरिसए ३१. प्र०-हे भगवन् ! वहाँ जो तृण और मणि हैं, उनका स्पर्श फासे पण्णते? से जहा णामए-आईणे ति वा, रूए कैसा कहा गया है ? क्या उनका स्पर्श इस प्रकार का कहा है
SR No.090173
Book TitleGanitanuyoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj, Dalsukh Malvania
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1986
Total Pages1024
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Mathematics, Agam, Canon, Maths, & agam_related_other_literature
File Size34 MB
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