________________
२४२
लोक-प्रज्ञप्ति
तिर्यक् लोक : अभिषेकशिला
सूत्र ३८१-३८२
पंडुसिलाए पमाणं--
पाण्डुशिला का प्रमाण३८१.५०-कहि णं भंते ! पंडगवणे पंडुसिला णामं सिला पण्णता? ३८१. प्र०-भगवन् ! पंडकवन में पाण्डुशिला नामक शिला
कहाँ कही गई हैं ? उ०-- गोयमा ! मंदरदूलिआए पुरथिमेणं पंडगयणपुरथिम- उ०-गौतम ! मंदरचूला से पूर्व में और पंडकवन के पूर्वान्त
- पेरते एत्थ णं पंडगवणे पंडुशिला पाम सिला पण्णत्ता। में पंडकवन में पांडुशिला नामक शिला कही गई है। का उत्तर-दाहिणायपा, पाईग-पडीवित्थिन्ना, अद्धचंद- यह उत्तर-दक्षिण में लम्बी, पूर्व-पश्चिम में चौड़ी, अर्द्ध
संठाण-संठिया । पंच जोअणतपाई आयामेणं, अड्ढा- चन्द्राकार, संस्थान वाली, पांच सौ योजन लम्बी, अढाई सौ इज्जाई जोअणसथाई विक्खभणं, चत्तारि जोअणाई योजन चौड़ी, चार योजन मोटी, सर्वकनकमयी, स्वच्छ-यावत बाहल्लेणं, सवकणगानई अच्छा-जाव-पडिरूवा। -प्रतिरूप है। वेइया-वणसंडेणं सब्दओ समंता संपरिक्खित्ता वण्णओ। यह वेदिका तथा वनखण्ड से सब ओर से घिरी हुई है ।
यहाँ इसका वर्णन कहना चाहिए। तीसे णं पंडुसिलाए चउद्दिसि चत्तारि तिसोवाणपडि- इस पांडुशिला की चारों दिशाओं में चार प्रतिरूप त्रिसोपान रूवगा पण्णत्ता-जाव-तोरणा वण्णओ।
(पंक्तियाँ) कही गई हैं-यावत्-तोरण पर्यन्त सब वर्णन समझ
लेना चाहिए। तीसे गं पंडुसिलाए उपि बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे । इस पाण्डुशिला पर अतिसम और रमणीय भूभाग कहा पण्णत्ते-जाव-देवा आसयंति।
___ गया है - यावत् -वहाँ देव बैठते हैं। तस्सणं बहुसमरमणिज्जस्त भूमिभागस्स बहुमज्झदेसभाए इस सम और रमणीय भूभाग के बीच में उत्तर-दक्षिण की उत्तर-दाहिनेणं, एत्थ णं दुवे सीहासणा पण्णत्ता, पंच ओर दो सिंहासन कहे गये हैं। ये पांच सौ धनुष लम्बे-चौड़े और धणुसयाई आयाम विवखंभेणं, अड्ढाइ ज्जाई धणुसयाई अढाई सौ धनुष मोटे हैं। यहाँ सिंहासन का वर्णन कर लेना बाहल्लेणं। सीहासणवण्णओ भाणिअन्वो विजयदूस- चाहिये किन्तु विजयदूष्य का कथन नहीं करना चाहिये। वज्जोत्ति। तत्थ णं जे से उत्तरिल्ले सोहासणे तत्थ णं बहूहिं इनमें से जो उत्तर की ओर का सिंहासन है वहाँ अनेक भवणवइ वाणमंतर-जोइसिय-देमाणिएहि देवेहि देवीहि भवनपति, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देव-देवियां कच्छ अ कच्छाइया तित्थयरा अभिसिच्चंति।
आदि (आठ विजयों) के तीर्थंकरों का अभिषेक करते हैं। तत्थ णं जे से दाहिणिल्ले सीहासणे तत्थ गं बहुहिं इनमें जो दक्षिण की ओर का सिंहासन है वहाँ अनेक भवनभवणवइ-जाव-वेमाणिएहि देवेहि देवीहि अ वच्छाईया पति-यावत्-वैमानिक देव-देवियाँ वत्स आदि (आठ विजयों) तित्थयरा अभिसिच्चति ।
के तीर्थंकरों का अभिषेक करते हैं। . -जंबु० बक्ख० ४, सु० १०७ पंडुकंबलसिलाए पमाणं
पांडकम्बलशिला का प्रमाण३६२. प०-कहिणं ते ! पंउगवणे पंडुकंबलसिला णामं सिला ३८२. प्र०-भगवन् । पंडकवन में पाण्डुकम्बल नामक शिला पण्णता ?
कहाँ कही गई हैं ? उ०-गोयमा ! मंदरचलिआए दक्षिणेणं, पंडगवणदाहिण- उ०-गौतम ! मेरु पर्वत के दक्षिण में एवं पण्डक वन के पेरते, एत्थ णं पड़कंबलसिलाणामं सिला पण्णत्ता। दक्षिणी चरमान्त में पंडकवन में पाण्डुकंबल नामक शिला कही
गई है। पाईण-पढीणायया, उतर-दाहिणवित्थिन्ना । एवं तं यह पूर्व-पश्चिम में लम्बी और उत्तर-दक्षिण में चौड़ी है। चेव पमाणं वतव्यया य भाणिअब्बा-जाव-तस्स (बहु- इसका सम्पूर्ण प्रमाण पूर्ववत् समझना चाहिए-यावत्-इसके समरमणिज्जस्स भूमिभागस्स बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं समतल रमणीय भूमिभाग के बीचोंबीच एक विशाल सिंहासन महं एगे सीहासणे पण्णत्ते । तं चेव सीहामणप्पमाणे। कहा गया है। इस सिंहासन का प्रमाण वही (पूर्वोक्त) है।