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________________ सूत्र ३८२.३८५ तिर्यक् लोक : अभिषेकशिला w.w तत्व बहुभवणवद-जाव मानिएहि देहि देवीहि य भारा तिरवयरा अहिसिष्यति। - जंबु० वक्ख० ४, सु० १०७ उ०- गोयमा ! मंदरभूलिआए पश्चत्विमे पंडवण पच्चत्थिमपेरते, एत्थ णं पंडगवणे रत्तसिला णामं सिला पण्णत्ता । उत्तरदाहिमाया पाईण-पत्रीणविधिना-याव पमागं सम्ब-तवणिज्जमई अच्छा-जाव-परिस्था उत्तर-वाहिने एश्य दुवे सोहाराणा परता रससिलाए पमाणं रक्तशिला का प्रमाण ३८३. प० कहि णं भंते ! पडगवणे रत्तसिला णामं सिला पण्णत्ता ? ३८३. प्र० - भगवन् ! पंडकवन में रक्तशिला नामक शिला कहाँ कही गई है ? सत्य जे से दाहिमले सीहास तस्य बह भगवद-जाव मागिएहि देहि देवीहि पम्हाहम तित्ययरा अहिसिच्चति । । तत्थ पंजे से उत्तरिल्ले सीहासणे तत्थ णं बहूह भावव-गाव-वेमाणिएहिं देयेहि देवीहियवत्पाद तिति । - जंबु० वक्ख० ४, सु० १०७ उ०- गोवमा मंदरचूलिआए उत्तरेणं, पंडत्तरवरि ! मंते एत्थ णं पंडगवणे रत्तकंबलसिला णामं सिला पण्णत्ता । पागडोगावया उीण दाहिणविश्विना सच्च तबगिजमई, अच्छा--शव-पडिवा बहुमज्शदेसभाए सीहासणं । सत्य हि भववइ-जाव मागिएहि देहि देवी रायगा तिथपरा अहमिति । - - जंबु० वक्ख० ४, सु० १०७ नंदणवणस्स चरिमंताणमंतराई३८५. मंदणवणस्स णं उवरिल्लाओ चरमंताओ पंडयवणस्स हट्ठिल्ले चरम एस अट्टागड जोयणसहस्साई आवाहाए अंतरे णं पणते । - सम. ६९, सु. १ गणितानु २४३ यहाँ अनेक भवनपति — यावत् — वैमानिक देव-देवियाँ भरतन क्षेत्र के तीर्थंकरों का अभिषेक करते हैं । उ०- गौतम ! मेरुपर्वत के पश्चिम में एवं पंडकवन के पश्चिमी चरमान्त में पंडकवन में रक्तशिला नामक शिला कही गई है। - रतकंबलसिलाप्यमाणं रक्त कंबलशिला का प्रमाण ३८४. ५०—–कहि णं भंते ! पंडगवणे रत्तकंबलसिला णामं सिला ३८४. प्र० - भगवन् ! पंडकवन में रक्तकंबल नामक शिला कहाँ पण्णत्ता ? कही गई है ? यह उत्तर-दक्षिण की ओर लम्बी और पूर्व-पश्चिम में चौड़ी है-पाव इसका प्रमाण भी वही है। यह सर्वात्मना तपनीय स्वर्णमयी और स्वच्छ है- यावत् प्रतिरूप है। इसके उत्तरदक्षिण में दो सिंहासन कहे गये है। इनमें से जो दक्षिण का सिंहासन है वहाँ अनेक भावनपतिपायत्-वैमानिक देव-देवियाँ पदमादि (आठ विजयों) के तीर्थंकरों का अभिषेक करते हैं । इनमें जो उत्तर का सिंहासन है वहाँ अनेक भवनपतियावत्-वैमानिक देव-देवियाँ आदि (आठ विजयों) के तीर्थ करों का अभिषेक करते हैं । उ०- गौतम ! मेरुपर्वत के उत्तर में एवं पंडकवन के उत्तरीय चरमान्त में पंडकवन में रक्तकंबलशिला नामक शिला कही गई है । यह पूर्व - पश्चिम में लम्बी, उत्तर-दक्षिण में चौड़ी, सर्व-सुवर्णमय एवं स्वच्छ है यावत् मनोहर है। इसके मध्य भाग में सिहासन है। यहाँ अनेक भवनपति यावत् — वैमानिक देव देवियाँ ऐरावत (वर्ष) के तीर्थंकरों का अभिषेक करते हैं। नन्दनवन के चरमान्तों के अन्तर ३८५. नन्दनवन के ऊपर के चरमान्त से पाण्डुकवन के नीचे के परमांत का अव्यवहित अन्तर अठानवें हजार योजन का कहा गया है।
SR No.090173
Book TitleGanitanuyoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj, Dalsukh Malvania
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1986
Total Pages1024
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Mathematics, Agam, Canon, Maths, & agam_related_other_literature
File Size34 MB
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