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सूत्र ११२६-११२७
तिर्यक् लोक : मान-वृद्धि करने वाले इस नक्षत्र
गणितानुयोग
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णाणस्स बुढिकरा दस णक्खत्ता
ज्ञान वृद्धि करने वाले दस नक्षत्र११२६. दस णक्खत्ता णाणस्स बुढिकरा पण्णत्ता, तं जहा- ११२६. ज्ञान की वृद्धि करने वाले दस नक्षत्र हैं, यथागाहा
गाथायेंमिगसिरमद्दा पुस्सो, तिणि य पुबाई मूलमस्सेसा । . (१) मृगशिर, (२) आर्द्रा, (३). पुष्य, (४) पूर्वाषाढा, हत्थो चित्ता य तहा, दस वुढिकराई नाणस्स ॥१॥' (५) पूर्वाफाल्गुनी, (६) उत्तराफाल्गुनी, (७) मूल, (८) अश्लेषा,
-ठाणं. १०, सु० ७८१ (९) हस्त, (१०) चित्रा । ताराणं अणुत्तं, तुल्लतं
ताराओं का अणुत्व-तुल्यत्व११२७. ५०-(क) अस्थि भंते ! चंदिम-सूरयाणं हिटि पि ११२७. प्र०—(क) हे भगवन् ! चन्द्र-सूर्य-विमान के नीचे जो तारारूवा-अणुपि तुल्लावि?
तारे हैं वे (चन्द्र-सूर्य की कान्ति से) हीन हैं या तुल्य हैं ? (ख) समे वि तारारूवा-अणु पि, तुल्ला वि?
(ख) समक्षेत्र में जो तारे हैं वे हीन हैं या तुल्य हैं ?
(ग) ऊपर जो तारे हैं वे हीन हैं या तुल्य हैं ? उ०-(क-ग) हंता ! गोयमा ! तं चेव उच्चारेयव्वं । उ.-(क-ग) हाँ गौतम ! प्रश्नसूत्र के समान ही (उत्तर सूत्र)
कहना चाहिए। ५०-से केण?णं भंते ! एवं वृश्चइ-"अस्थि णं चंदिम- प्र०-हे भगवन् ! यह किस प्रकार कहा जाता है, चन्द्र-सूर्य
सूरियाणं हिदिपि ताराख्वा-अणु पि तुल्लावि-जाव- विमानों के नीचे जो तारे हैं वे हीन भी हैं, तुल्य भी हैं यावत्उम्पिपि तारारूवा-अणुषि, तुल्लावि?
ऊपर जो तारे हैं वे हीन भी हैं, तुल्य भी हैं ? उ०-गोयमा ! जहा-जहाणं तेसि देवाणं तब-नियम-बम- उ०-हे गौतम ! जिन-जिन देवों के (पूर्वभव के) तप-नियम
चेराणि उसियाई भवंति तहा तहाणं तेसि णं देवाण- ब्रह्मचर्य जितने-जितने उत्कृष्ट होते हैं उन देवताओं के (द्युति-वैभव एवं पण्णायए, तं जहा-अणुत्ते वा, तुल्लत्तेवा। आदि) उतने ही जाने जाते हैं, यथा-हीनत्व या तुल्यत्व ।
- (क्रमशः) सूर्यप्रज्ञप्ति के संकलनकर्ता ने पूरे आगम में सभी गणित के सूत्र दिए हैं केवल यही एक सूत्र इसमें फलित से सम्बन्धित हैं। जैनागमों में निमित्त शास्त्र को पापश्रुत और निमित्त के प्रवक्ता श्रमण को पापश्रमण कहा है, अतः फलित के कथन का प्ररूपण इस आगम में होना श्रमण-साधना से सर्वथा विपरीत है। नक्षत्र भोजन विधान में कतिपय महाविगयों के भोजन तो अहिंसा के उपासक गृहस्थों के लिए भी वर्ण्य हैं। वृत्तिकार ने भी इस सूत्र की वृत्ति में मांस वाचक पदार्थों को फलवाचक सिद्ध करने का प्रयत्न नहीं किया है। किन्तु स्व० आचार्य अमोलकऋषिजी महाराज और स्व० पूज्य श्री घासीलालजी महाराज ने मांस वाचक पदार्थों को फलवाचक सिद्ध करने का प्रयत्न किया है। उनके इस प्रयत्न से यह सूत्र सर्वज्ञ प्ररूपित सिद्ध हो गया है । एक ओर निमित्त कथन को पापश्रुत मानना और दूसरी ओर इस सूत्र को सर्वज्ञ प्ररूपित सिद्ध करना परस्पर विरोधी कथन के अतिरिक्त अपने हाथों से ही अपने पैरों पर कुठाराघात करना है। सम्भव है रूढ़ परम्परा वालों ने ऐसे सूत्रों के कारण ही चन्द्र-सूर्यप्रज्ञप्ति के स्वाध्याय से विक्षिप्त होने के भय का भूत खड़ा कर दिया है। अनेक शोध-निबन्ध लेखक देश-विदेश के विद्वानों ने इन आगमों का पठन-पाठन किया है, फिर भी वे विक्षिप्त नहीं हुए हैं अतः गणितज्ञ इन आगमों का स्वाध्याय काल में स्वाध्याय करके ज्ञान वृद्धि कर सकते हैं। जम्बूदीप प्रज्ञप्ति वक्ष. सु. १५६ में नक्षत्रों के नाम अभिजित् से उत्तराषाढा पर्यन्त कहे गये हैं और सूर्यप्रज्ञप्ति में भी नक्षत्र विषयक सभी कथन अभिजित् से उत्तराषाढ़ा पर्यन्त कहे गये हैं, केवल यही एक सूत्र कृतिका से भरणी पर्यन्त उपलब्ध है अतः यह सूत्र अन्य मान्यता का सूचक है किन्तु इसकी वाक्यावली लिपिकों की भ्रान्ति से परिवर्तित हो गई है। अथवा यह सूत्र प्रक्षिप्त है।
-सम्पादक १ सम. १०, सु.७।