SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 819
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६५४. लोकप्रति तिर्यक् लोक ताराओं का अणुत्व-सुल्यत्व जहा जहा णं तेसि- बेवाणं तव नियम वंभराणि पो उसिपाई भवति सहा तहा गं तैसि देवानं एवं जो पाय, तं जहा असं वा, तुलसेवा । - जंबु० वक्ख० ७, सु० १६२ से एएट्ट णं गोयमा ! एवं बुच्चइ - " अत्थि णं चंदिम सूरियाणं हिट्ठिपि तारारूवा अणुपि, तुल्लावि - जाव-उत्पिपि तावा अणु'पि, तुल्लावि ।" - जीवा० प० ३, उ० २, सु० १६३ ताराणं अबाहा अंतरं परूवणं ११२८. ०९ता जंबुद्दीवे णं वीवे ताराहवस्य वासवस्त य एस णं केवइए अबाहाए अंतरे पण्णत्ते ? उ०- दुविहे अंतरे पण्णत्ते, तं जहा (१) वाधाइमे य, (२) निव्वाधाइने य (क) से बाइसे, से णं जहत्येनं बोणि शोषण, उपलोसे पं. बारस जोषण सहस्साइं दोणि बाबाले जोयणसए तारारूवस्स य ताराबस्स य अबाहाए अंतरे पण्णत्ते । (ख) तस्थ णं जे से णिवाद्याइमे से णं जह पंचधणु समाई, उनकोसे णं अद्धजोयणं तारा रूवस्त य, अबाहाए अंतरे पण्णत्ते । " - सूरिय० पा० १८, सु० ६६ सूत्र ११२७-११२ जिन-जिन देवों के (पूर्वभव के) तप-नियम ब्रह्मचर्य उत्कृष्ट नहीं होते हैं. उनके (बुद्धि-भव आदि) उतने नहीं जाते है, हीनत्व या तुल्यस्थ हे गौतम ! इस प्रकार यह कहा जाता है कि "चन्द्र-सूर्यविमानों के नीचे जो तारे हैं वे हीन भी हैं और तुल्य भी हैं - यावत् - ऊपर जो तारे हैं वे हीन भी हैं और तुल्य भी हैं। ताराओं के अबाधा अन्तर का प्ररूपण ११२८. प्र००- इस जम्बूद्वीप द्वीप में एक ताराः से दूसरे तारा का अबाधा अन्तर कितना है ? उ०- अन्तर दो प्रकार का कहा गया है, यथा- (१) व्यवधान वाला और बिना व्यवधान वाला । (क) इनमें जो व्यवधान वाला है, वह जघन्य दो सौ छासठ योजन का है और उत्कृष्ट बारह हजार दो सौ छियालीस योजन का है । (ख) इनमें जो व्यवधान वाला है, वह जघन्य पाँच सौ धनुष का है और उत्कृष्ट आधे योजन का है। CR.1 ॥ तिर्यक्लोक वर्णन समाप्त ॥ १ (ख) सूरि०पा० १ ० २०१ में ही है (क) जीवा० प० ३, उ०२, सु० ११३ ॥ (ग) यह न केवल बीयाविगम और (घ) यहाँ पदि बारह प्रकार का नियम शौवादि और ब्रह्मविदिनकीकर वाला ज्योतिष्क देवों में उत्पन्न होता है । शेष व्रतों का आराधक ज्योतिष्क देवों में उत्पन्न नहीं होता है"अत्र शेषव्रतानामनुपदर्शनमुत्कटव्रतधारिणां ज्योतिष्केषु उत्पादासम्भवात् - जंबु० वक्ख० ७, सु० १६२ टीका = २ (क) जंबु० वक्ख० ७, सु० १६६, (ख) जीवा० पडि० ३, उ०२, सु०२०१, (ग) चंद० पा० १८, सु० ६६ ॥
SR No.090173
Book TitleGanitanuyoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj, Dalsukh Malvania
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1986
Total Pages1024
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Mathematics, Agam, Canon, Maths, & agam_related_other_literature
File Size34 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy