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________________ ८२ लोक- प्रज्ञप्ति उ० गोयमा ! तेसि णं देवाणं भवपच्चइयवेराणुबंधे । ते गं देवा विमाया परियारेमाणा या आपले देने आयरक्खे वित्ताति । अहालहुस्सगाई रयणाई गहाय आयाए एवं अति प० अस्थि णं भंते! तेस देवाणं अहालहस्सगाई रयणाई ? उ० हंता, अत्थि । प० से मि परेति ? उ० तओ से पच्छा कार्य पव्वहंति । प० पभू णं भंते! ते असुरकुमारा देवा तत्थ गया चेव समाणा ताहि अच्छराहिं सद्धि दिव्वाई भोग भोगाहि जमाना विहरिए ? अधोलोक उ० णो ण् समते पं तओ पडिनियति तओ डिनियत्तित्ता इमागच्छंति, इहमागच्छित्ता जति णं ताओ अच्छराओ आढायंति परियाणंति - पभू णं ते असुरकुमारा देवा साहि अराहि संदिदियाई भोगभोगाई भजमाना विहरिलए, यह णं ताम्रो अच्छराओ नो आढायंति, नो परियाणंति णो णं पभू ते असुरकुमारा देवा ताहि अन्राहि संद्धि दिग्बाई भोगभोगाई भुंजमाणा विहरितए । एवं खलु दोषमा! असुरकुमारा देवा सोहम्मं रूपं गता य, गमिस्संति य । १. - - मग० स० ३, उ०२, सु० ११-१३ । उत्तरिल्लअसुरकुमारठाणाई १६५ : प० [१] कहि णं भंते ! उत्तरिल्लाणं असुरकुमाराणं देवाणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं ठाणा पण्णत्ता ? [२] कहि णं भंते ! उत्तरिल्ला असुरकुमारा देवा परिवर्तति ? उ० [१] गोयमा ! जंबुद्दीवे दोवे मंदरस्स पव्वयस्स उत्तरेणं इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए असीउत्तर जोपणसहसबाहल्लाए उबर एवं सहस्सं ओगाहेता, हे वेगं जोयणसह जे मझे अत्तरे जगतसहस्से एव णं उत्तरिल्लाणं असुरकुमाराणं देवाणं तीसं भवणावास सतसहस्सा भवतीति मक्खातं । ते णं भवणा बाहि वट्टा अंतो चउरंसा सेसं जहा दाहिणिल्लाणं जाव विहरति ।' " - पण्ण० पद० २, सु० १८० - १ । जीवा० प० ३, उ० २, सु० ११६ । www सूत्र १६४-१६५ ! उ० हे गौतम | उन असुरकुमारों का सौधर्मकल्पवासी) देवों से पूर्व जन्म का वैरानुबन्ध हो तो (द लेने के लिए) वैकिय करके भोग भोगते हैं, उनके आत्मरक्षक देवों को त्रास देते हैं तथा छोटे-छोटे रत्नों को लेकर एकान्त में चले जाते हैं । प्रo हे भगवन् ! क्या उन ( वैमानिक) देवों के पास छोटे-छोटे रत्न होते हैं ? उ० हाँ होते हैं। प्रo हे भगवन् ! (वैमानिक देवों के छोटे छोटे रत्न लेकर असुरकुमार जब एकान्त में चले जाते हैं तब ) वे वैमानिक देव उनका क्या करते हैं ? उ० वैमानिक देव उसके बाद (उनके) शरीर को पीडा देते हैं । प्रo हे भगवन्! ये अशुरकुमार देव सौधर्मकल्प में ही उन अप्सराओं के साथ क्या दिव्य भोग भोगने में समर्थ हैं ? उ० ऐसा नहीं है वे वहाँ से (अप्सराओं का अपहरण करके) लौटते हैं और लौटकर यहाँ आते हैं । यहाँ आने के बाद यदि अप्सरायें उन्हें स्वीकार कर लेती हैं या आदर देती हैं तो वे अरकुमार देव उन अप्सराओं के साथ भोग भोग सकते हैं। यदि वे अप्सरायें उन्हें आवर नहीं देती है या स्वीकार नहीं करती हैं तो वे असुरकुमार देव उनके साथ दिव्य भोग नहीं भोग सकते हैं । हे गौतम! इस प्रकार असुरकुमार देव सौधर्मकल्प में गये हैं और जायेंगे भी। उत्तरदिशा के असुरकुमारों के स्थान १६५: प्र० [१] हे भगवन् ! उतरदिशा के पर्याप्त और अपर्याप्त असुरकुमार देवों के स्थान कहाँ कहे गये हैं । [२] हे गवन् ! उत्तरदिशा के असुरकुमार देव कहाँ रहते हैं ? उ० [१] हे गौतम ! जम्बूद्वीप नामक द्वीप के मेरु पर्वत से उत्तर में एक लाख अस्सीहजार योजन मोटाई वाली इस रत्नप्रभा पृथ्वी के ऊपर से एक हजार योजन अवगाहन (अन्दर जाने पर ) करने पर और नीचे से एक हजार योजन छोड़ने पर एक साथ अठत्तर हजार योजन प्रमाण मध्य भाग में उत्तर दिशावासी असुरकुमारों के तीसलाख भवनावास हैं ऐसा कहा गया है। ये भवन बाहर से वृत्ताकार हैं और अन्दर से चतुष्कोण हैं । शेष दक्षिण दिशावासी असुरकुमारों के समान हैं यावत् (दिव्य भोग भोगते हुए) रहते हैं । www
SR No.090173
Book TitleGanitanuyoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj, Dalsukh Malvania
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1986
Total Pages1024
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Mathematics, Agam, Canon, Maths, & agam_related_other_literature
File Size34 MB
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