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________________ १३६ लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक सूत्र ३२-३४ उ० गोयमा ! नो इण? सम? । उ०-हे गौतम ! उस ध्वनि का वर्णन करने में यह अर्थ समर्थ नहीं है। ३३. ५० से जहा णामए-वेयालियाए वीणाए उत्तरमंदा मुच्छि- ३३. प्र०-(अथवा हे भगवन् ! क्या उनकी ध्वनि इस प्रकार ताए अंके सुपतिट्ठियाए कुसलनर नारि संपग्गहिताए की होती है ? जिस प्रकार उतर-मंदा मूर्च्छना से युक्त, अंक चंदणसारकाण पडिघट्टिताए पदोसपच्चूस कालसमयसि (गोद) में अच्छी तरह से रखी गई, वीणावादन में कुशल नर मंदं मंदं एइयाए वेइयाए खोभियाए उदीरियाए ओराला अथवा नारी द्वारा संस्पशित-बजाई जा रही, श्रेष्ठ चन्दन के मणुण्णा कण्णमणणि व्युतिकरा सवओ समंता सद्दा अभि- कोण (वीणा बजाने का दंड-लकड़ी) से संघर्षित (ऐसी वेतालिकी णिस्सर्वति भवे एयारूवे सिया ? वीणा को जब) प्रातःकाल अथवा सायंकाल मंद-मंद स्वर से बजाया जाता है, उच्च स्वर में बजाया जाता है, संक्षुभित किया जाता है, उदिरित-प्रेरित किया जाता है, तब उससे जो उदार, मनोज्ञ, कर्ण और मन को मोहित करने वाला घोष सब ओर से निकलता है तो क्या ऐसी शब्द ध्वनि उन तृणों और मणियों से निकलती है ? उ० गोयमा ! णो तिण? सम?। उ०-हे गौतम ! यह अर्थ भी उसका वर्णन करने में समर्थ नहीं है। ३४. ५० से जहा गामए-किण्णराण वा, किंपुरिसाण वा, महो- ३४. प्र०-(अथवा हे भगवन ! उनका शब्दघोष क्या इनके जैसा रगाण वा, गंधव्वाण वा, भद्दसालवणगयाण वा, नंदण- है ?) यथा-जिस प्रकार किन्नर, किंपुरुष, महोरम और गंधर्व वणगयाण वा, सोमणसवणगयाण वा, पंडगवणगयाण वा, भद्रसालवन में अथवा नन्दनवन में अथवा सोमनसवन में अथवा हिमवंत-मलय-मंदर-गिरिगुह समण्णागयाण वा, एगतो. पण्डक वन में अथवा हिमवन पर्वत की मलय पर्वत की, गुफाओं सहिताणं संमुहागयाणं, समुविट्ठाणं; संनिविट्ठाणं, पमुदिय- में बैठे हों, एक स्थान पर एकत्रित हुए हों, एक-दूसरे के समक्ष पक्कोलियाणं, गीयरतिगंधव-हरिसियमणाणं गेज्ज पज्जं बैठे हों, समुचित रूप से बैठे हों, सम संस्थान से बैठे हों, प्रमोदकत्थं गेयं पयविद्धं पायविद्धं उक्खितयं पवत्तय मंदायं भाव सहित होकर आनन्दपूर्वक क्रीड़ा करने में मग्न हो रहे हों, रोचियावसाणं सत्तसर समण्णागय अटरससुसंपउत्तं छद्दोस- गीत में जिनकी रति हो, गंधर्व नाट्य आदि करने से जिनका मन विप्पमुक्कं एकारसगुणालंकारं अट्ठगुणोववेयं गुजंतवंस हर्षित हो रहा हो, (गद्य, पद्य, कत्थ-कथात्मक गेय, पदबिद्ध, कुहरोवगूढं रत्तं तिट्ठाण-करणसुद्धं मधुरं समं सुललियं पादबिद्ध, उत्क्षिप्त, प्रवर्तक, मंद, रोचित, अवसान वाले, सप्त सकुहर गुजंतवंसततीसुसंपउत्तं, तालसुसंपउत्तं तालसमं स्वरोपेत, शृङ्गार आदि) आठ रसों से युक्त, छह दोषों से [रयसुसंपउत्तं गहसुसंपउत्त] मणोहरं मउय-रिभिय-पय- विमुक्त, ग्यारह गुणों से अलंकृत, आठ गुणों से उपेत, गुंजायमान संचारं सुरभि सुति वरचारुरूवं दिव्वं नट्ट सज्जं गेयं बांसुरी की मधुर ध्वनि से युक्त, राग-रागिनी से अनुरक्त, पगीयाणं-भवे एयारूवे सिया ? त्रिस्थानकरण (वक्षस्थल, कंठ और मस्तिष्क) से शुद्ध, मधुर, समताल और स्वरवाले, सुललित, सस्वर, गूंजती हुई बांसुरी और तंत्री की ध्वनि से बद्ध, समताल के अनुरूप, हस्तताल से सुसंप्रयुक्त (रवमधुर गुज से संयुक्त, गह-तल्लीनता से व्याप्त) मनोहर, मृदु-निर्मित स्वरानुसार पद संचार करने वाले (पैरों में थिरकन पैदा करने वाले), सुरभि (श्रोताओं को आकर्षित करने वाले), सुष्टु प्रकार से अंग प्रत्यंगों को नत करने वाले, श्रेष्ठ सुन्दर रूप वाले, दिव्य नाट्य, षड्ज (स्वर विशेष से युक्त) गीत को गाने वालों के स्वरों जैसा होता है ? उ० हंता, गोचमा! एवं भूए सिया। हे गौतम ! हाँ, उनके शब्द स्वर इसी प्रकार के होते हैं । -जीवा०प०३, उ० १, सु० १२६
SR No.090173
Book TitleGanitanuyoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj, Dalsukh Malvania
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1986
Total Pages1024
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Mathematics, Agam, Canon, Maths, & agam_related_other_literature
File Size34 MB
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