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________________ सूत्र ३०७-३११ तिर्यक् लोक : देवकुरु गणितानुयोग २१३ www.mmmmmmmmmmmmmmmam उ०-गोयमा ! णीलवंतस्स उत्तरेणं, रुप्पिस्स दक्खिणेणं, उ०-गौतम ! नीलवन्त (वर्षधर पर्वत) से उत्तर में, रुक्मि पुरथिमलवणसमुद्दस्स पच्चत्थिमेणं, पच्चत्थिमलवण- (पर्वत) से दक्षिण में, पूर्वी लवणसमुद्र से पश्चिम में और पश्चिमी समुद्दस्स पुरथिमेणं। लवणसमुद्र से पूर्व में (रम्यवर्ष) हैं। एवं जह चेव हरिवासं तह चेव रम्मयं वासं भाणिअव्वं । हरिवर्ष का जैसा कथन किया गया है वैसा ही रम्यकवर्ष णवरं दक्खिणेणं जीवा, उत्तरेणं धणु', अवसेसं तं चेव ।' का कहना चाहिये । विशेष यह है कि इसकी जीवा दक्षिण में है। -जंबु० वक्ख० ४, सु० १११ धनु पृष्ठ उत्तर में, शेष वक्तव्यता यही है। रम्मयवासस्स णामहेऊ रम्यक्वर्ष के नाम हेतु३०८. ५०–से केण?णं भंते ! एवं वुच्चइ-रम्मएवासे रम्मए ३०८. प्र०-भगवन् ! रम्यक्वर्ष किस कारण से रम्यवर्ष वासे? कहलाता है ? उ.- गोयमा ! रम्मएवासे णं रम्मे रम्मए रमणिज्जे, उ.-गौतम ! रम्यक्वर्ष अत्यन्त रम्य एवं रमणीय है, तथा रम्मए अ इत्थ देवे महिड्ढीए-जाव-पलिओवमट्टिइए रम्यक् नामक महद्धिक-यावत्-पल्योपम की स्थिति वाला देव परिवसइ। निवास करता है। से तेण?णं गोयमा ! एवं बुच्चइ-"रम्मएवासे इस कारण गौतम ! यह रम्यक्वर्ष रम्यक् वर्ष कहलाता है। रम्मएवासे।" -जंबु० वक्ख० ४, सु० १११ देवकुराए अवठिई पमाणं च देवकुरु का स्थान-प्रमाणादि३०६.५०-कहि णं भंते ! महाविदेहे वासे देवकुरा णामं कुरा ३०६. प्र०-भगवन् ! महाविदेह वर्ष में देवकुरु नामक कुरु पण्णत्ता ? कहाँ कहा गया है? उ०-गोयमा ! मंदरस्स पब्वयस्स दाहिणणं, णिसहस्स वास- उ०-गौतम ! मेरु पर्वत से दक्षिण में, निषध वर्षधर पर्वत से हरपब्वयस्स उत्तरेणं, विज्जुप्पहस्स वक्खारपब्वयस्स उत्तर में, विद्युत्प्रभ वक्षस्कार पर्वत से पूर्व में, तथा सोमनस पुरथिमेणं, सोमणसवक्खारपवयस्स पच्चस्थिमेणं एत्थ वक्षस्कार पर्वत से पश्चिम में महाविदेह वर्ष में देवकुरु नामक णं महाविदेहेवासे देवकुरा णाम कुरा पण्णत्ता। कुरु कहा गया है । पाईण-पडीणायया, उदीण-शाहिणवित्थिण्णा, अद्धचंद- यह पूर्व-पश्चिम में लम्बा, उत्तर-दक्षिण में चौड़ा है और संठाणसंठिया इक्कारस जोयणसहस्साई अट्ठ य बायाले अर्धचन्द्र संस्थान से स्थित है। इग्यारह हजार आठसौ बयालीस जोयणसए दोणि य एगूणवीसइभाए जोयणस्स विक्खं- योजन तथा दो योजन के उन्नीस विभाग जितना इसका विष्कम्भ भेणं ति। है। ३१०. तीसे णं जीवा उत्तरेणं पाईण-पडीणायया, दुहा ववखारपव्वयं ३१०. उसकी जीवा उत्तर की ओर पूर्व-पश्चिम में लम्बी है। पुट्ठा-तं जहा-पुरिथिमिल्लाए कोडीए पुरिथिमिल्लं दोनों ओर से वक्षस्कार पर्वत से स्पृष्ट है । यथा- पूर्वीय किनारे वक्खारपब्वयं पुट्ठा, पच्चथिमिल्लाए कोडीए पच्चथिमिल्लं से पूर्वी वक्षस्कार पर्वत से स्पृष्ट है तथा पश्चिमी किनारे से वक्खारपब्वयं पुट्ठा । तेवणं जोयणसहस्साई आयामेणं ति । पश्चिमी वक्षस्कार पर्वत से स्पृष्ट है। जीवा की लम्बाई वेपन हजार योजन है। ३११. तीसे गं धणु दाहिणेणं सढि जोयणसहस्साई चत्तारि अ ३११. उसका धनुपृष्ठ दक्षिण में सात हजार चारसौ अठारह अट्ठारसे जोयणसए दुवालस य एगूणवीसइभाए जोयणस्स योजन तथा बारह योजन के उन्नीस विभाग जितनी परिधि परिक्खेवेणं । -जंबु० वक्ख० ४, सु०६७ वाला है। १ (क) सम. सु. १२१ । (ख) सम.७३, सु. १। (ग) सम. ८४, सु. ८ । २ देवकुरु-उत्तरकुरुयाओ णं जीवाश्रो तेवन्नं तेवन्न जोयणसहस्साइं साइरेगाइं आयामेणं पण्णताओ। -सम० ५३, सु० ३ 'जहा उत्तरकुराए वत्तव्वया जाव' इस संक्षिप्त वाचना की सूचना के अनुसार सु०८७ से यहाँ पाठ की पूति की गई है।
SR No.090173
Book TitleGanitanuyoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj, Dalsukh Malvania
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1986
Total Pages1024
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Mathematics, Agam, Canon, Maths, & agam_related_other_literature
File Size34 MB
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