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लोक-प्रज्ञप्ति
तिर्यक् लोक : विजयद्वार
सूत्र १८६-१६२
उववायसभाए देवसणिज्जंसि देवदूसंतरिए अंगुलस्स असंखे- की उपपात सभा में देवदूष्य से अन्तरित देवशय्या पर अंगुल के ज्जइभागमेत्तीए बोंदीए विजयदेवत्ताए उबवणे । असंख्यातवें भाग मात्र अवगाहना वाले शरीर से विजयदेव के रूप
में उत्पन्न हुआ। १६०. तए णं से विजए देवे अहुणोववष्णमेत्तए चैव समाणे पंच. १६०. इसके अनन्तर ही वह विजयदेव उत्पन्न होते ही पाँच
विहाए पज्जत्तीए पज्जत्तीभावं गच्छइ, तं जहा- (१) प्रकार की पर्याप्तियों से पार्याप्तभाव को प्राप्त हुआ, वे पाँच आहारपज्जत्तीए, (२) सरीरपज्जत्तीए, (३) इंदियपज्जत्तीए, पर्याप्तियाँ इस प्रकार हैं-(१) आहारपर्याप्ति, (२) शरीर (४) आणापाणु पज्जत्तीए, (५) भासा-मण-पज्जत्तीए। पर्याप्ति, (३) इन्द्रियपर्याप्ति, (४) श्वासोच्छ्वास पर्याप्ति और
(५) भाषा-मनः पर्याप्ति । १६१. तए णं तस्स विजयस्स देवस्स पंचविहाए पज्जत्तीए पज्जत्ती १६१. तदनन्तर पाँच प्रकार की पर्याप्तियों से पर्याप्त भाव को
भावं गयस्स इमे एयारूवे अज्झथिए चितिए पत्थिए मणोगए प्राप्त उस विजयदेव के मन में इस प्रकार का आध्यात्मिक संकप्पे समुप्पज्जित्था।
चिन्तित, प्रार्थित, मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआकि मे पुछ सेयं ? कि मे पच्छा सेयं ?
मुझे पहले क्या श्रेय रूप है, और पश्चात् क्या हितकर है ? कि मे पुटिव करणिज्ज ? कि मे पच्छा करणिज्ज? पहले मुझे क्या करना चाहिये और पीछे क्या करना चाहिये ?
कि मे पुब्वि वा पच्छा वा हियाए सुहाए खेमाए णिस्से- पहले अथवा पीछे, हित के लिये, सुख के लिये, क्षेम के लिये, साए अणुगामियत्ताए भविस्सइ त्ति कटु एवं संपेहेइ। निःश्रेयस के लिये, और साथ में जाने योग्य कौन-सी वस्तु होगी?
ऐसा उसने विचार किया। १६२. तए णं तस्स विजयस्स देवस्स सामाणिय परिसोववण्णगा १६२. तत्पश्चात् उस विजयदेव के सामानिक परिषदा-स्थानीय
देवा विजयस्स देवस्स इमं एयारूवे अज्झस्थिय, चितिय, देव अर्थात् सामानिक देव विजय देव के उत्पन्न हुए इस प्रकार के पत्थियं, मणोगयं संकप्पं, समुप्पण्णं जाणित्ता जेणामेव से इस आध्यात्मिक, चिन्तित, प्रार्थित और मनोगत संकल्प को विजए देवे तेणामेव उवागच्छंति, तेणामेव उवागच्छित्ता जानकर जहाँ वह विजय देव था वहाँ पर आये, वहाँ आकर विजयं देवं करयलपरिग्गहियं सिरसादत्तं मत्थए अंजलि कटु करयुगल को जोड़कर और मस्तक पर घुमाकर अंजलि पूर्वक उस जएणं विजएणं वद्धाति, जएणं विजएणं बद्धावेत्ता एवं विजय देव को जय-विजय शब्दों से बधाया और जय-विजय शब्दों वयासी
से बधाकर इस प्रकार बोले_ "एवं खलु देवाणुप्पियाणं विजयाए रायहाणीए सिद्धाय- 'हे देवानुप्रिय ! आप की विजया राजधानी में स्थित यणंसि अनुसयं जिणपडिमाणं जिणुस्सेहप्पमाण मेत्ताणं सिद्धायतन में जिनोत्सेध प्रमाण वाली एक सौ आठ जिन प्रतिसंनिक्खित्तं चिट्ठन्ति।
माएँ विराजमान हैं, तथासभाए य सुहम्माए माणवए चेइ यखंभे वइरामएसु गोल- सुधर्मा सभा के माणवक चैत्यस्तम्भ में वचरत्नों से निर्मित वट्टसमुग्गएसु बहूओ जिण सकहाओ संन्निक्खित्ताओ चिट्ठन्ति । गोल वर्तुलाकार समुद्गकों में बहुत-सी जिनेन्द्र देवों की अस्थियाँ
रखी हुई हैं। जाओ णं देवाणुप्पियाणं अन्नेसि च बहूण विजया राय- ये (जिन प्रतिमायें और अस्थियाँ) आप देवानुप्रिय को एवं हाणि वत्थव्वाणं देवाणं देवीण य अच्चणिज्जाओ वंद- विजया राजधानी में निवास करने वाले और दूसरे अनेक देवों णिज्जाओ पूयणिज्जाओ सक्कारणिज्जाओ सम्माणणिज्जाओ और देवियों के लिये अर्चनीय, वन्दनीय, पूजनीय, सत्कारणीय कल्लाणं मंगल देवयं चेइयं पज्जुवासणिज्जाओ-एयण्णं (सत्कार करने योग्य) सम्माननीय है, तथा कल्याण रूप, मंगलदेवाणुप्पियाणं पुटिव पि सेयं, एयण्णं देवाणुप्पियाणं पच्छा रूप, देवरूप और चैत्व रूप होने से पर्युपासना, सेवा करने योग्य वि सेयं, एवण्णं देवाणुप्पियाणं पुबि पि करणिज्जं, एयण्णं हैं, ये सब आप देवानुप्रिय के लिये पूर्व में भी श्रेय रूप हैं, और देवाणुप्पियाणं पच्छा वि करणिज्ज, एयण्णं देवाणुप्पियाणं ये सब पीछे भी आप देवानुप्रिय के लिये श्रेयस्कर है, अतएव आप पुब्वि वा पच्छा वा हियाए-जाव-आणुगामियत्ताए भविस्सइ देवानुप्रिय के लिये यह पहले भी करणीय हैं, और आप देवानुप्रिय त्ति" कटु महया महया जय जय सह पउंजंति । के लिये बाद में भी करणीय-करने योग्य हैं, क्योंकि यह आप
देवानुप्रिय को पहले और बाद में हित के लिये-यावत्अनुगामीरूप से होगा, इस प्रकार कहकर उन्होंने जोर-जोर से जय-जय शब्दघोष किया।