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गणितानुयोग : प्रस्तावना
अबभाग के मुहर्त बनाने हेतु ३६ में ६२ का गुणा कर
६७ ६७ का भाग होते हैं।
कि अभिजित नक्षत्र समाहृत स्वरूपः वाला सबसे अधोवर्ती रहता है। उसका सड़सठिया भाग २१ होता है। अतः सब का योग=२०१+६०३+१००५+२१=१८३० ।
३९४६२२४१८-३६+६२० मु० होते हैं ।
अतः सड़सठिया १८३० होते हैं : ३३१x६ = २०१,२०१
४६=६०३, ६७४१५-१००५, अधोवर्ती=२१
इस प्रकार सड़सठ भागात्मक नक्षत्र पर्याय १८३० होता है,
इस प्रकार ध्रुवराशि
मुहूर्त प्राप्त
होती है। इसे सूर्य आवृत्ति में चंद्र नक्षत्र योग जानने में प्रयुक्त जिसका करने पर ६१५ प्राप्त होता है । इसमें पिछले अयन करते हैं। ___ अब ध्र व राशि को १ से गुणित करने पर यह उसी रूप में पुष्य नक्षत्र का सडसठिया" भाग बीता है। और भाग रहती है । अब इस राशि में से १६ नक्षत्र (अभिजित नक्षत्र से
६७
लेकर उत्तराफाल्गुनी पर्यंत) के विस्तार के ५४६+
+
२०.
४.४.
६४:
शेष है । उसको भी जोड़ने पर-+-
प्राप्त होता है ।
६७
६७,
६.७.
४४ ८७१
अब १२ को शोधित करने पर
६१५ ६७
३६. मुहूर्त को शोधित करने पर (५७३+३६+ ६२५६७) - (५४+४+६३६७) =२४+१३+ मुहूर्त प्राप्त होते हैं । पर इस संख्या
से हस्त नक्षत्र शुद्ध नहीं होता है। हस्त नक्षत्र ३० मुहूर्त का
होता है । इसलिए ३०-- (२४+१३+२७.७)।
=१३ प्राप्त होते हैं। अतः १३ से. आश्लेषादि उत्तराषाढ़ा पर्यन्त के नक्षत्र शोधित होते हैं । इससे स्पष्ट है कि अभिजित् नक्षत्र के प्रथम समय में माघ मास भाविनी प्रथम आवृत्ति प्रवतित होती है।
इसी प्रकार ध्रुवराशि के द्वारा अन्य आवृत्तियों की गणना की जाती है। गणित ज्योतिष इतिहास के दृष्टिकोण से ध्रुवराशि का उपयोग अत्यन्त महत्वपूर्ण है। सूत्र १०६८, पृ० ५७८
इस सूत्र में वार्षिकी आवृत्तियों में चन्द्र और सूर्य के नक्षत्रों का योग काल वर्णित है।
उदाहरणार्थ चन्द्र अभिजित के प्रथम समय में अभिजित नक्षत्र से योग करता है । सूर्य प्रथम आवृत्ति में पुष्य के १६+ ४३ .
१२... मुहूर्त शेष रहने पर नक्षत्र से योग करता हैं । ३३
=५+५०- ६०
६२ '६२
मुहूत हस्त नक्षत्र के शेष रहने पर
वर्तमान रहकर उत्तरायण गतिरूप पहली हेमन्त ऋतु की आवृत्ति को प्रवर्तित करता है।
अगला प्रश्नोत्तर __ प्रथम आवृत्ति के प्रवर्तन काल में सूर्य उत्तराषाढ़ा नक्षत्र के साथ रहता है। गणितीय प्रक्रिया
यहाँ १० अयन से ५ सूर्य नक्षत्र पर्याय लभ्य होते हैं,
प्रथम आवृत्ति बिषयक चन्द्र नक्षत्र योग : ___ यहाँ प्रथम आवृत्ति इष्ट होने से प्रथम आवृत्ति के स्थान में १ का अंक रखते हैं। गाथानुसार (सू० ज्ञ० प्र०, पृ० ५७५) रूपोन करने पर १-१-०, शून्य प्राप्त होता है। अतः आगे का क्रिया सभव नहा है। अतः यहा पाश्चात्य युग भाविना आवृत्ति में जो दशवी आवृत्ति की संख्या १० को रखकर उसमें
अतः १ अयन से-=-पर्याय लब्ध होंगे। यह ज्ञात है