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________________ २२ गणितानुयोग : प्रस्तावना 'सहस्स' शब्द का उपयोग सूत्र ५५६, ५५७, ५५८, ५५६ इकाइयाँ, लीक्षा, यव, यवमध्य, अंगुल, वितस्ति, रत्नि, कुक्षि, में भी हुआ है। धनुष, गाउ, सौ योजन, पर तत्सम्बन्धी वृद्धि कही गयी है जो सूत्र ५७१ पृ० ३१६ विचारणीय है। इसमें यावत्' शब्द का भी उपयोग किया गया है। प्रश्न है कि ६५ इकाइयाँ जाकर ही वृद्धि का वर्णन क्यों इस में १६०५ - को “सोलस पंचुत्तरे जोअण सए पंच य किया गया है। सूत्र ६३६, पृ० ३४१-३४२एगणवीसइभाए जोअणस्स" रूप में उल्लिखित किया गया है। यहाँ शिखा वृद्धि के विषय में बतलाया गया है कि लवण यहाँ एक हजार छः सौ पाँच न कहकर सोलह सौ आदि कहा है। समुद्र के दोनों ओर पंचानवे पंचानवे प्रदेश जाने पर सोलह प्रदेशों इसी प्रकार सूत्र ५८० दृष्टव्य है । किन्तु सूत्र ५८८ पृ० ३२२ में की शिखा वृद्धि होती है। ७४२१ -योजन को 'सत्त जोयण सहस्साई चत्तारि अ एक- सूत्र ६४०, पृ० ३४२ यहाँ भी पंचानवे हजार योजन का उल्लेख है । दाशमिक वोसे जोअण सए एक च एगण वीसहभागं जोअणस्स रूप में संकेतना में संख्याएँ दी गयी हैं। इसी प्रकार सूत्र ६४१, ६४२, उल्लिखित किया गया है। इस प्रकार दो विधियाँ महत्वपूर्ण हैं। ६४४, ६४६, ६५१ में है। एक-एक प्रदेश की श्रेणी से बढ़ते बढ़ते मध्य में योजन शत सहस्र विष्कम्भ कहा गया है। इसी सूत्र ५६६, पृ० ३२५--- प्रकार मुख का मूल दस हजार योजन चौड़ा बतलाया गया है। चौदह हजार को "चोद्दस सलिला सहस्सेहि" बतलाया है। यहाँ भी पल्योपम स्थिति का उल्लेख है। सूत्र ६४३ में अर्द्ध । इसी प्रकार की दाशमिक संकेतना हेतु सूत्र ५६७, ५६८, ६००, पल्योपम का उल्लेख है। ६०३, ६०४ दृष्टव्य हैं। सूत्र ६४६ पृ० ३४४ -- सूत्र ६०६ पृ०३३१-~ यहाँ 'मुहूर्त' का उपयोग हुआ है । तीस मुहूर्त एक अहोरात्रि अनेक प्रकार के वृक्षों का वर्णन सूत्र ६१८ पृ० ३२६ तक रूप है। दिया गया है। सूत्र ६६८, पृ० ३५१सूत्र ६२५ पृ० ३३८ -- यहाँ संख्याएँ दाशमिक संकेतना में हैं। इसी प्रकार सूत्र यहाँ चतुर्थद्वीप का आयाम विष्कम्भ ६०० योजन और उसकी ६७०, ६७१, ६७२, ६७३, ६७४ में दामिक सकतना का परिधि १८६० योजन बतलाई गई है। का मान V१० या उपयोग है। ३.१६२२७ लेने पर परिधि६००-३.१६२२७अथवा.१८६७.३६२ सूत्र ६७५, पृ० ३५२प्राप्त होती है । इसी प्रकार अन्य की परिधि दृष्टव्य है। यहाँ लवण समुद्र की चौड़ाई २ लाख योजन होने से वृत्त का विषम्भ ५ लाख योजन होता है। परिधि भी V१०सूत्र ६२०, पृ० ३४०. ३.१६२२७ लेने पर १५८११३५ योजन प्राप्त होती है। किन्तु यहाँ दाशमिक संकेतना दृष्टव्य है। इसी प्रकार सूत्र ६३२, सूत्र ६३० से अलग यहाँ कथन है कि परिधि १५८११३६ योजन ६३४, ६३५, दृष्टव्य हैं। लवण समुद्र की चौड़ाई २००००० से कुछ कम है । शेष संख्याएँ भी दाशमिक संकेतना में हैं । पल्योपम योजन होने से वत्त का सम्पूर्ण विष्कम्भ ५००००० योजन स्थिति का कथन है। सत्र ६८६. ६८८, ६८६, ६६१, ६६२, हो जाता है अतएव परिधि १० मान 7 का लेकर ६६४, ६६५ में दामिक संकेतना में संख्याएं हैं तथा सूत्र ६८७ १५८११३५ प्राप्त होगी। किन्तु यहाँ १५८११३६ योजन से कुछ में पल्योपम स्थिति का उल्लेख है। अधिक कही गई है। सूत्र ७०१, पृ० ३६१सूत्र ६३८, पृ० ३४१-.. ___ यहाँ धातकीखंडद्वीप की चौड़ाई ४००००० योजन होने यहाँ विचारणीय तथ्य है, “पंचानवे पंचानवे प्रदेश जाने पर से परिधि का मान V१०=३.१६२२७ लेने पर कुल व्यास एक एक प्रदेश की गहराई वृद्धि कही गई है।" इसी प्रकार, १३००००० में गुणा करने पर ४१११९५१ योजन प्राप्त होते हैं । "पंचानवे पंचानवे बालाग्र जाने पर एक एक बालाग्र गहराई की किन्तु ग्रन्थ में ४१११६६१ योजन से कुछ कम को परिधि वृद्धि कही गई है। इस प्रकार अन्य अनेक इसी से सम्बन्धित बतलाई गई है।
SR No.090173
Book TitleGanitanuyoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj, Dalsukh Malvania
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1986
Total Pages1024
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Mathematics, Agam, Canon, Maths, & agam_related_other_literature
File Size34 MB
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