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________________ ५३६ लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक : सूर्य को द्वीप-समुद्र में गति सूत्र १०३८-१०३६ एवं खलु एएणं उवाएणं पविसमाणे सूरिए तयाणंतराओ इस प्रकार इस क्रम से प्रवेश करता हुआ सूर्य तदनन्तर मण्डलाओ तयाणंतरं मण्डलं संकममाणे संकममाणे दो मंडल से तदनन्तर मंडल को संक्रमण करता करता प्रत्येक दो जोयणाई अडयालीसं च एगट्ठिभागे जोयणस्स एग- अहोरात्र में प्रत्येक मंडल के दो योजन और एक योजन के मेगं मण्डलं एगमेगे णं राइदिए णं विकंपमाणे विकंप- इगसठ भागों में से अड़तालीस भाग जितने क्षेत्र को पार करता माणे सव्वन्भंतरं मण्डलं उवसंकमित्ता चारं चरइ, हुआ सर्वाभ्यन्तर मंडल को प्राप्त करके गति करता है । ता जया णं सूरिए सव्वबाहिराओ मण्डलाओ सव्व- जब सूर्य सर्व बाह्यमंडल से सर्व आभ्यन्तर मंडल की ओर भंतरं मण्डलं उवसंकमित्ता चारं चरइ, तया णं लक्ष्य करके गति करता है तब बाह्य मंडल की अवधि से एक सव्वबाहिर मण्डलं पणिहाय एगे णं तेसीए णं राइंदिय- सौ तिरासी अहोरात्र में पांच सौ दस योजन जितने क्षेत्र को सए णं पंचदसुत्तरे जोयणसए विकंपइत्ता चारं चरइ, पारकर सर्वाभ्यन्तर मंडल को प्राप्त करके गति करता है। तया णं उत्तमकट्टपत्ते उक्कोसए अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे तब परम उत्कर्ष प्राप्त उत्कृष्ट अठारह मुहूर्त का दिन होता भवइ, जहणिया राई भवइ, है और जघन्य बारह मुहूर्त की रात्रि होती है। एस णं दोच्चे छम्मासे, एस णं दोच्चस्स छम्मासस्स ये दूसरे छः मास (उत्तरायण से) हैं, यह दूसरे छः मास का पज्जवसाणे, अन्त है। एस णं आइच्चे संवच्छरे एस णं आइच्चस्स संवच्छरस्स यह आदित्य संवत्सर है, यह आदित्य संवत्सर का अन्त है। पज्जवसाणे.' -सूरिय. पा. १, पाहु. ८, सु. १८ सूरस्स दीव-समुद्द-ओगाहणाणतरं चार सूर्य की द्वीप-समुद्र के अवगाहनानन्तर गति३९.१०ता केवइयं ते दीवं वा, समुह वा ओगाहित्ता सूरिए ३६. प्र०-कितने द्वीप-समुद्र का अवगाहन (लंघन) करके सूर्य चार चरइ ? आहिते ति वदेज्जा, गति करता है ? कहें। उ०-तत्थ खलु इमाओ पंच पडिवत्तीओ पण्णत्ताओ, उ०-इस सम्बन्ध में ये पाँच प्रतिपत्तियाँ (मतान्तर) कहे तं जहा गये हैं, यथातत्थेगे एवमाहंसु इनमें से एक (मत वालों) ने ऐसा कहा हैं१. ता एगं जोयण-सहस्सं एगं च तेत्तीस जोयणसयं, (१) एक हजार एक सौ तेतीस योजन (विस्तृत) द्वीप या दीवं वा समुदं वा ओगाहित्ता सूरिए चार चरइ, एगे समुद्र का अवगाहन करके सूर्य गति करता है। एवमाहंसु, एगे पुण एवमाहंसु एक (मत वालों) ने फिर ऐसा कहा है२. ता एग जोयण-सहस्स, एगं च चउत्तीसं जोयणसयं, (२) एक हजार एक सौ चौतीस योजन (विस्तृत) द्वोप या दीवं वा समुह वा ओगाहित्ता सूरिए चारं चरइ, एगे समुद्र का अवगाहन करके सूर्य गति करता है। एवमाहंसु, एगे पुण एवमाहंसु एक (मत वालों) ने फिर ऐसा कहा है३. ता एगं जोयण-सहस्सं, एगं च पणतीसं जोयणसयं (३) एक हजार एक सौ पैंतीस योजन (विस्तृत) द्वीप या दीवं वा समुदं वा ओगाहित्ता सूरिए चार चरइ, एगे समुद्र का अवगाहन करके सूर्य गति करता है। एवमाहंसु, एगे पुण एवमाहंसु एक (मत वालों) ने फिर ऐसा कहा है४. ता अवडढं दीवं वा, समूह वा, ओगाहित्ता सूरिए (४) आधे द्वीप या समुद्र का अवगाहन करके सूर्य गति चारं चरइ, एगे एवमाहंसु, करता है। १ चंद. पा. १ सु. १८ ।
SR No.090173
Book TitleGanitanuyoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj, Dalsukh Malvania
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1986
Total Pages1024
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Mathematics, Agam, Canon, Maths, & agam_related_other_literature
File Size34 MB
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