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________________ -सूत्र १५१, पृ. ७१ इसका टिप्पण १ और २ दृष्टव्य हैं जिनमें देवगति प्रमाण -लेकर आयाम - विष्कम्भ का तुलनात्मक विवेचन है । देखिए, जी. आर. जैन, कास्मालाजी, ओल्ड एण्ड निउ, इंदौर, पू. ११७, १९४२, कोलब्रुक एवं मुनि महेन्द्र कुमार द्वितीय की व्याख्याहेतु देखिए, वि० प्र० पृ० ११३ आदि । 2 इस सूत्र में वृत्त का आयाम-विष्कम्भ, जम्बूद्वीप के सम्बन्ध में एक लाख योजन दिया गया है। इसकी परिधि तीन लाख सोलह हजार दो सौ सत्ताईस योजन, तीन फोस, एक सौ अट्ठा ईस धनुष, तेरह अंगुल और आधे अंगुल से कुछ अधिक बतलाई गई है । किन्तु तिलोय पत्ति भाग १, महाधिकार ४ गाया ५०-३५ में जंबूद्वीप की परिधि तीन लाख सोलह हजार दो सौ सत्ताईस योजन, तीन कोस एक सी अट्ठाईस धनुष 3 और हाथ के -स्थान में शून्य, एक वितस्ति, पाद के स्थान में शून्य, एक अंगुल, पांच जौ, एक यूक, एक लीख, कर्मभूमि के छह बाल, जघन्य भोगभूमि के बालों के स्थान में शून्य, मध्यम भोगभूमि के सात बालाग्र उत्तम भोगभूमि के पाँच बालाग्र, एक रेणु तीन चसरेणु जुटरे के स्थान में शून्य दो सचान, तीन अवसन्नासन्न और तेईस हजार दो सौ तेरह अंश तथा एक लाख पाँच हजार चार सौ नौ भागहार वाला प्रमाण अनन्तानन्त परमाणु निर्देशित करता है। इस गणना को का मान V१० लेकर डा० आर० सी० गुप्ता ने IJHS में शोध लेख " Gupta, R. C. Circumference of the Jambudvipa in Jaina Cosmography", IJHS, vol, 10, No 1, 1975, pp. 38 = 46" में विस्तार से यह वासना सिद्ध की है । इस प्रकार गणितानुयोग के उक्त सूत्र में अंगुल तक समानता इष्टिगत है । अतएव स्पष्ट है कि यहाँ दोनों में का मान १० लेकर उक्त गणना की गयी है । सूत्र १५२, पृ० ७१ नरकावासों के आवलिकाप्रविष्ट संस्थान ज्यामितीय हैं : वृत (गोल), त्रिकोण, चतुष्कोण आवलिकावा संस्थान भी ज्यामितीय हैं तथा २२ प्रकार की आकृतियों रूप हैं - अथकोष्ठ, पिष्टपचनक, कंडू, लोही, कटाह, थाली, पिडक, कृमिपट, किटक, उडव, मुरज, सुदंग, नन्दि मृदंग, आलिंग, सुपोषा दर्द, पण पट, मेरी सल्लरीतं नालि ये ज्यामितीय • आकृतियाँ आगमज्ञों को ज्ञात थीं और उनका उपयोग इस रूप में हुआ । इनके अर्थ पाइअ समहण्णव अथवा अन्य कोश ग्रन्थों से दृष्टव्य हैं । ! 1 गणितानुयोग : प्रस्तावना सूत्र १५३, पृ. ७२, ७३ दुर्गंध की तीव्रता उपमा रूप में दी गई है। इसी प्रकार स्पर्श की तीव्रता उपमा रूप में दी गई है। सूत्र १६३, पृ. ८१ सूत्र १५६, पृ. ७४-७६ वैज्ञानिक शब्द--पर्याप्त, अपर्याप्त, योजन, वृत्त, चतुष्कोण, कमलकणिका, शतघ्नी, मुशल, मुसंडी, लोक का असंख्यातवां भाग, समुद्घात, वीणातल, ताल त्रुटित । १३ यहाँ असंख्य द्वीप समुद्र का उल्लेख है । 7 सूत्र १६६, पृ. ८४ यहाँ जम्बूद्वीप, मेरुपर्वत का उल्लेख है अस्सी उत्तर योजन शतसहस्र योजनसहय अत्तर योजनशतसहस्र चवालीस भवन वास शतसहस्र गणितीय शब्दों का उपयोग है। इसी प्रकार १७०, १७१, १७३, १७५ इत्यादि सूत्रों में उपयोग हुआ है । लोक का असंख्यातवां भाग भी विचारणीय है । सूत्र १८० सूत्र १८३, J. 50-55 इन सूत्रों में दाशमिक संकेतना वाली संख्याओं का कथन है । सूत्र १६२, पृ. ६१ इस सूत्र में दाशमिक संकेतना के साथ गुणनरूप राशियाँ निरूपित हैं। जैसे चौंसठ हजार के चौगुणे, इत्यादि । सूत्र १६५, पृ० ६४-६५ यहाँ संख्याएँ दाशमिक संकेतना में हैं। यथा, छह सौ पचपन करोड़ पैंतीस शतसहस्र । यहाँ उपकारिकालयन का आयाम - विष्कम्भ सोलह हजार योजन है तथा उसकी परिधि पचास हजार पाँच सौ संतानवे योजन में कुछ कम दी गयी है। यहाँ भी अनुमानतः मान दिया गया है जो को ३१६२२७ अथवा १० को लेकर निकाला गया है । इस प्रकार : १६०००X३.१६२२७ = ५०·५ε६३२ × १००० अथवा ५०५६६-३२ होता है जो ५०५६७ से कुछ न्यून है । ज्यामितीय आकृतियों में श्रेष्ठ बख और महामुकुंद संस्थान है। सूत्र १६६, पृ० ३६-६८ यहाँ भी अनेक संख्याएँ दाशमिक संकेतना में दी गई हैं । यहाँ जिस आकृति का विष्कम्भ मूल में एक हजार बाईस योजन दिया गया है, उसी की मूल में परिधि तीन हजार दो सौ बत्तीस
SR No.090173
Book TitleGanitanuyoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj, Dalsukh Malvania
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1986
Total Pages1024
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Mathematics, Agam, Canon, Maths, & agam_related_other_literature
File Size34 MB
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