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गणितानुयोग प्रस्तावना
योजन से कुछ न्यून बतलाई गई है । यह अनुमानत: है । कारण, का मान V १० लेने पर
१०२२ X ३·१६२२७३२३१८३६६४ आता है । अतः यह मान ३२३२ से कुछ न्यून है ।
इसी प्रकार राजधानी एक लाख योजन लम्बी चौड़ी है । उसकी परिधि भी तीन लाख सोलह हजार दो सौ सत्तावीस योजन, तीन कोस, एकसौ अट्ठावीस धनुष, तेरह अंगुल तथा आधे अंगुल से कुछ अधिक कही गई है, जो सूत्र १५१ के अनुसार ही है । यहाँ भी = १० अनुमानतः ३१६२२७ लेने पर उक्त मान स्पष्ट हो जाते हैं ।
इसी प्रकार जिस राजधानी का आयाम विष्कम्भ चौरासी हजार योजन का है, उसकी परिधि दो लाख पैंसठ हजार छः सौ बत्तीस योजन से कुछ अधिक बतलाई गई है। यहाँ भी r=V१०=३·१६२२७ लेने पर ८४०००X३ १६२२७
=२६५६३०·६८
यहाँ ज्ञात नहीं है कि उपर्युक्त मान कैसे प्राप्त किया गया। वहाँ बत्तीस के स्थान में तीस होना चाहिए था । सूत्र १६७, पृ० ६६
यहाँ गणितीय शब्द सागरोपम ध्यान देने योग्य है । उपमा प्रमाण की यह काल - समयों की राशि है जो यहाँ स्थिति निर्दाशत कर रही है। देखिये वि० प्र० पृ० २५२, श्वेताम्बर परम्परा तथा दिगम्बर परम्परा में इसके मान दिये गये हैं । इसका संबंध पल्योपम काल राशि से है ।
सूत्र २२६, पृ० ११२
इसमें भी लोक के असंख्यातवें भाग का कथन है । सूत्र २३१, पृ० ११३
उपरोक्त सूत्र की भाँति यहाँ भी लोक के असंख्यातवें भाग का कथन है । इसी प्रकार सूत्र २३४, २३५, २३८, २३६, २४१ - २४५ में इसी प्रकार के कथन हैं ।
तियंक लोक (मध्य लोक) सम्बन्धी गणितीय विवरण सूत्र २, पृ० १२१
तिर्यक् लोक का क्षेत्रलोक असंख्येय प्रकार का कहा गया है । यहाँ अभिप्राय जम्बूद्वीप से लेकर स्वयंभूरमण समुद्र तक के क्षेत्रलोक का उदाहरण दिया गया है।
सूत्र ३, पृ० ११२
यहाँ ज्यामितीय रूप से तिर्यक् लोक के क्षेत्रलोक का संस्थान झालर कहा गया है ।
सूत्र ४, पृ० १२२
तिर्यक् लोक का मध्यभाग आठ प्रदेशों का रुचक प्रदेश कहा गया है। ज्यामितीय रूप से दस दिशाएँ इसी से निकलती हैं ।
सूत्र ५, पृ० १२२-१२३
तिर्यक् लोक में असंख्य द्वीप समुद्र, वृत्त संस्थान वाले जम्बूद्वीप से लेकर स्वयंभूरमण समुद्र तक बतलाये गये हैं । अग-अ वृत्त संस्थान पिछले - पिछले वृत्त संस्थानों से द्विगुणित विस्तार वाले हैं। यहाँ गुणश्रेणी बनती है जहाँ गुणकार २ होता है । जम्बूद्वीप का विस्तार इसका मुख या प्रथम पद आदि बनता है । यह गुणश्र ेणी असंख्य पद वाली या गच्छ वाली होती है । जम्बूद्वीप के आयाम - विष्कम्भ को एक लाख योजन लेकर उसकी परिधि तीन लाख सोलह हजार दौ सो सत्तावीस योजन, तीन कोस, अट्ठाबीस धनुष, तेरह अंगुल और आधे अंगुल से कुछ अधिक बतलाई गई है। यहां भी ग का मान १० अथवा अनुमानरूपेण ३.१६२२७ का उपयोग किया गया है। इस प्रकार गणना १००००० X ३ १६२२७ को लेकर विभिन्न दूरी इकाइयों को यहाँ प्राप्त किया गया है । पूर्वोल्लिखित डॉ० आर० सी० गुप्ता का लेख देखिये ।
यहाँ ज्यामिति रूप से जम्बूद्वीप की स्थिति द्वीप-समुद्रों के भीतर सबसे क्षुद्र रूप में, विभिन्न प्रकार की उपमा लिए वृत्त संस्थान रूप में है ।
सूत्र ६, पृ० १२४
जम्बूद्वीप की स्थिति द्वीप समुद्रों के सर्वअभ्यंतर बताई गई हैं। पुनः उसे सबसे छोटा तथा पूर्वोक्त आयाम - विष्कम्भ एवं परिधि वाला बतलाया गया है।
सूत्र ७, पृ० १२५
जम्बूद्वीप की गहराई एक हजार योजन तथा ऊंचाई कुछ अधिक निन्यानवे हजार योजन है, इस प्रकार कुल परिमाण कुछ अधिक एक लाख योजन बतलाया गया है। ऐसा प्रतीत होता है। मानो गहराई का सम्बन्ध भूगोल से हो और ऊंचाई का सम्बन्ध ज्योतिष या खगोल से स्थापित किया गया हो । यदि भूगोल सम्बन्धी नाप के लिये १ योजन को ४ कोस लिया जाये और १ कोस को २ मील लिया जाये तो गहराई ८००० मील प्राप्त होती है जो आज की पृथ्वी का आनुमानिक रूप से व्यास प्रतीत होता है।
तिलोय पण्णत्ति, भाग १, महा० ४, सू० १७८१ पृ० ३७५ पर मन्दर महापर्वत को एक हजार योजन गहरा, निन्यानवे हजार योजन ऊँचा बतलाया गया है। ज्योतिष एवं खगोल से मेरु पर्वत का सम्बन्ध ग्रहगमनादि से है ही । किन्तु ज्योतिष एवं खमोल