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________________ ६९६ लोक-प्रज्ञप्ति काल लोक : उदाहरण सहित समय के स्वरूप का प्ररूपण सूत्र ११ सोदाहरणं समयसरूव-परूवणं उदाहरण सहित समय के स्वरूप का प्ररूपण११.५०-से कि तं समए ? ११. प्र०-समय का स्वरूप क्या है ? : उ०-समयस्स परूबणं करिस्सामि - उ०-समय का प्ररूपण करूंगासे जहा णामए-तुण्णागदारए सिया तरुणे, बलवं जिस प्रकार कोई एक नाम वाला चतुर्थ आरे में उत्पन्न जुगवं जुवाणे, अप्पापंके, थिरग्गत्थे, दढपाणि-पाय- सूचिकार पुत्र (दरजी का लड़का) है। जो तरुण युवा बलवान पास-पिटुतरोरूपरिणए, तलजमलजुयल-परिघणिभ- एवं निरोग है । जिसका शरीर संहनन एवं वक्षस्थल बज्रमय है । बाहू, चम्मेदृग-दुहण-मुट्ठियसमाहयनिचियगत्तकाये, जिसके हाथ, पैर, पार्श्वभाग, पृष्ठभाग तथा जंघाएँ सुदृढ़ है । लंघणपवण-जइणवायामसमत्थे, उरस्सबलसमण्णागए, जिसने मुद्गर घुमाकर तथा अनेक प्रकार के व्यायाम करके शरीर छए, दक्खे, पत्तट्ठ कुसले मेहावी निउणे निउणसिप्पो- को सशक्त एवं सामर्थ्य सम्पन्न बना लिया है । जिसके दोनों बाहु वगए एगं महति पडसाडियं वा, पट्टसाडियं वा गहाय ताल जैसे लम्बे, नगर की अर्गला जैसे सीधे एवं पुष्ट हैं । जिसकी सयराहं हत्थेमेत्तं ओसोरेज्जा। हथेलियाँ और अँगुलियाँ अकम्पित है। जो चतुर निपुण शिल्पी है । जो लक्ष्य सिद्धि में सफल तथा कार्यकुशल मेधावी कारीगर है। वह यदि मजबूत बनी हुई पटशाटिका या पट्टी (दरी) को पकड़कर एक झटके में एक साथ फाड़े, (उस समय शिष्य गुरु से इस प्रकार बोला-) प०-तत्य चोयए पण्णवयं एवं वयासी-जे णं कालेणं ते णं .-"जिस समय उस दरजी के लड़के ने उस पटशाटिका तुण्णागदारएणं तीसे पडसाडियाए वा, पट्टसाडियाए या पट्टी को पकड़कर एक झटके में एक साथ एक हाथ फाड़ा" वा सयराहं हत्थमेत्ते ओसारिए से समए भवइ? वह एक समय हुआ ? उ०-नो इण8 समट्ठ। उ०-गुरु बोले—यह अर्थ समर्थ नहीं है। प०-कम्हा ? प्र०-शिष्य ने पूछा-कैसे ? उ०-जम्हा संखेज्जाणं तंतूणं समुदयसमितिसमागमेणं पड- उ०-संख्येय तन्तुओं के सम्मिलित समुदाय के परस्पर साडिया निप्पज्जइ । उवरिल्लम्मि तंतुम्मि अच्छिण्णे मिलने से पटशाटिका का निर्माण होता है। ऊपर वाले तन्तु के हेट्ठिल्ले तंतू णं छिज्जइ । अण्णंमि काले उवरिल्ले तंतू छिन्न हुए बिना नीचे वाला तन्तु छिन्न नहीं होता है। ऊपर छिज्जइ, अण्णम्मि काले हिडिल्ले तंतू छिज्जइ तम्हा वाला तन्तु अन्य काल में छिन्न होता है और नीचे वाला तन्तु से समए न भवइ । अन्य काल में छिन्न होता है इसलिए वह समय नहीं होता है । इस प्रकार कहते हुए गुरु को शिष्य इस प्रकार बोला१०-एवं वपंतं पण्णवगं चोयए एवं वयासी-जेणं कालेणं प्र०-उस सूचिकार (दरजी) पुत्र ने उस पटशाटिका के तेणं तुण्णागदारए णं तीसे पडसाडियाए दा, पट्टसाडि- ऊपर वाले तन्तु को जिस काल में छिन्न किया क्या वह काल याए वा उवरिल्ले तंतू छिण्णे से समए? समय है ? उ०-भवइ। उ०-नहीं। प०-कम्हा? प्र०-कैसे ? उ०-जम्हा संखेज्जाणं पम्हाणं समुदयसमितिसमागमेणं एगे उ०-संख्येय पक्ष्मों (सूक्ष्म तन्तुओं) के सम्मिलित समुदाय तंतू-निष्फज्जइ । उवरिल्ले पम्हम्मि अच्छिण्णे हेट्ठिल्ले के परस्पर मिलने पर एक तन्तु निष्पन्न होता है। ऊपर वाले पम्हे न छिज्जइ । अण्णम्मि काले उरिल्ले पम्हे पक्ष्म (सूक्ष्म तन्तु) के छिन्न हुए बिना नीचे वाला पक्ष्म छिन्न छिज्जइ, अण्णम्मि काले हेढिल्ले पम्हे छिज्जइ-तम्हा नहीं होता हैं । ऊपर वाला पक्ष्म अन्य काल में छिन्न होता है से समए ण भव। और नीचे वाला पक्ष्म अन्य काल में छिन्न होता है। इसलिए वह समय नहीं होता है। इस प्रकार कहते हुए गुरु को शिष्य इस प्रकार बोला
SR No.090173
Book TitleGanitanuyoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj, Dalsukh Malvania
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1986
Total Pages1024
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Mathematics, Agam, Canon, Maths, & agam_related_other_literature
File Size34 MB
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