SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 151
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४ लोक-प्रज्ञप्ति लोक सूत्र ५-६ पवित्तिवाउएण कुणियनिवेयणं प्रवृत्तिव्यापृत्त का कोणिक से निवेदन ५ : तए णं से पवित्तिवाउए इमोसे कहाए लट्ठ समाणे (जाव) ५ : तब प्रवृत्ति-निवेदक उस पुरुष से, यह बात जानकर (यावत्) सयाओ गिहाओ पडिणिक्खिमित्ता चपाए णयरीए मजसंमज्झेणं अपने घर से बाहर निकलकर, चम्पानगरी के मध्य में होता हुआ जेणेव कोणियस्स रणो गिहे जेणेव बाहिरिया उबढाणसाला जहाँ कोणिक राजा का निवास स्थान था, जहाँ बाहरी सभाभवन जेणेव कुणिए राया भंभसारपुत्ते तेणेव उवागच्छइ, उवाग- था और जहाँ भंभसारपुत्र कोणिक राजा था, वहाँ आया और च्छित्ता करयलपरिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलि कटु आकर करतलों से सिर की प्रदक्षिणा की तथा मस्तक पर अंजली जएणं विजएणं वद्धावेइ वद्धावित्ता एवं वयासी लगाकर जय-विजय से बधाया और बधाकर इस प्रकार बोला"जस्स णं देवाणुप्पिया दंसणं कखंति, "हे देवानुप्रिय ! आप जिनके दर्शन चाहते हैं, जस्स णं देवाणुप्पिया दंसणं पीहंति, हे देवानुप्रिय ! आप जिनके दर्शनों की इच्छा करते हैं, जस्स णं देवाणुप्पिया दंसणं पत्थंति, हे देवानुप्रिय ! आप जिनके दर्शनों के लिए प्रार्थना करते हैं, जस्स णं देवाणुप्पिया दंसणं अभिलसंति, हे देवानुप्रिय ! आप जिनके दर्शनों की अभिलाषा करते हैं, जस्स णं देवाणुप्पिया नाम-गोयस्स वि सवणयाए हट्ठ-तुट्ठ. हे देवानुप्रिय ! जिनके नाम और गोत्र को सुनने मात्र से जाव हियया भवंति, से णं समणे भगवं महावीरे पुव्वाणु- हर्षित, सन्तुष्ट यावत् हृदय विकसित हो जाते हैं-वे ही श्रमण पुवि चरमाणे गामाणुग्गामं दूइज्जमाणे चंपाए णयरीए भगवान महावीर क्रमशः विचरते हुए एक ग्राम से दूसरे ग्राम को उवणगरग्गामं उवागए, चंपं गरि पुण्णमद्द चेइयं गमन करते हुए चम्पा नगरी के उपनगर में पधारे हैं, और वे समोसरिउकामे।" पूर्णभद्र चैत्य में आना चाहते हैं।" तं एवं गं देवाणुप्पियाणं पियट्ठयाए पियं णिवेदेमि, पियं ते देवानुप्रिय का प्रीतिकर विषय होने से यह प्रिय समाचार भवउ । निवेदन कर रहा हूँ। वह आपके लिए प्रिय बने । -ओव० सु० ११। कुणियकओ थओ . कोणिक-कृत स्तव ६ : तए णं से कूणिए राया भभसारपुत्ते तस्स पवित्तिवाउयस्स- ६ : तब भंभसारपुत्र कोणिक राजा ने उस प्रवृत्ति-निवेदक से अंतिए एयम सोच्चा णिसम्म (जाव) करयलपरिग्गहियं यह समाचार सुनकर हृदय में धारण कर (यावत्) हाथ जोड़कर सिरसावत्तं मत्थए अंजलि कट्ट एवं वयासी सिर के चारों ओर घुमाये, अंजलि को सिर पर लगाई और इस प्रकार बोला"णमोऽत्यु णं अरिहंताणं भगवंताणं (जाव) सिद्धिगइनामधेयं "नमस्कार हो अरिहंत भगवंतों को (यावत्) सिद्धिगति ठाणं संपत्ताणं। __ नामक स्थान को प्राप्त सिद्ध भगवंतों को। णमोऽत्थु णं समणस्स भगवओ महावीरस्स (जाव) सिद्धिगइ- नमस्कार हो श्रमण भगवान महावीर को (यावत्) सिद्धिगति नामधेयं ठाणं संपाविउकामस्स मम धम्मायरियस्स धम्मो- नामक स्थान को पाने के इच्छुक मेरे धर्माचार्य और धर्मोपदेशक वदेसगस्स, वदामि णं भगवंतं तत्थगयं इहगए पासउ मे भगवं को । यहाँ पर स्थित (मैं) वहाँ पर स्थित भगवान की वन्दना तत्थगए इहगयं" ति कटु वंदइ णमंसद वंदित्ता नमंसित्ता करता हूँ। वहाँ पर स्थित भगवान यहां पर स्थित मुझे देखें।" सीहासणवरगए पुरत्थाभिमुहे णिसीयइ णिसीइत्ता तस्स इस प्रकार (वह कोणिक राजा) वंदना-नमस्कार करता है, वंदना पवित्तिवाउयस्त अछुत्तरसयसहस्सं पोइदाणं दलयइ, नमस्कार करके पूर्व की ओर मुख रखकर सिंहासन पर बैठता है दलइत्ता सक्कारेइ सम्माणेइ सक्कारिता सम्माणिता एवं और बैठकर उस प्रवृत्ति-निवेदक को एक लाख आठ हजार (रजत वयासी मुद्रा) का प्रीतिदान दिया, देकर सत्कार, सम्मान किया । सत्कार सम्मान करके पुनः इस प्रकार बोला
SR No.090173
Book TitleGanitanuyoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj, Dalsukh Malvania
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1986
Total Pages1024
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Mathematics, Agam, Canon, Maths, & agam_related_other_literature
File Size34 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy