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लोक-प्रज्ञप्ति
तिर्यक्लोक : पुष्करवरद्वीप वर्णन
सूत्र ७६८-७७०
पुक्खरवरदीवडढे तुल्ला महद्दुमा
पुष्करवरद्वीपार्ध में तुल्य महाद्र म-- ७६८. पुक्खरवरदीवड्ढपुरच्छिमझे मदरस्स पव्वयस्स उत्तर- ७६८. पुष्करवरद्वीपार्ध के पूर्वार्ध में मन्दर पर्वत से उत्तर-दक्षिण
दाहिणणं दो कुराओ बहुसमतुल्लाओ अविसेस मणाणत्ताओ में दो कुरा अधिक सम एवं तुल्य हैं, न इनमें विशेषता है न इनमें अण्णमण्णं नाइवट्टन्ति, आयाम-विक्खम्भ-संठाण-परिणाहेणं नानापन है । आयाम-विष्कम्भ, संस्थान एवं परिधि से एक-दूसरे त जहा- १. देवकुरा चेव, २. उत्तरकुरा चेव । का अतिक्रमण नहीं करते हैं, यथा-(१) देवकुरा, (२) उत्तर
कुरा। तत्थ णं दो महइमहालया महद्दुमा बहुसमतुल्ला, अवि- वहाँ दो अतिविशाल महावृक्ष अधिक सम एवं तुल्य हैं, न सेसमणाणत्ता अण्णमण्णं नाइवट्टन्ति आयाम-विक्खंभुच्चत्तो- इनमें विशेषता हैं, न इनमें नानापन है, आयाम-विष्कम्भ-ऊंचाई व्वहे-संठाण-परिणाहेण, तं जहा–१. कूडसामली चेव, २. गहराई संस्थान एवं परिधि से एक दूसरे का अतिक्रमण नहीं पउमरुक्खे चैव ।'
_ करते हैं, यथा-(१) कूटशाल्मली वृक्ष (२) पद्मवृक्ष । तत्थ णं दो देवा महिद्दिढया-जाव-महासोक्खा पलिओव- उन वृक्षों पर महधिक-यावत्-महासुखी पल्योपम की मद्विइया परिवसंति, तं जहा-१. गरुले चेव वेणुदेवे, २. स्थिति वाले दो देव रहते हैं, यथा-(१) गरुड वेणुदेव, (२) पउमे चैव।
पद्मदेव। पुक्खरवरदीवड्ढ पच्चत्थिमद्धे णं मदरस्स पब्वयस्स उत्तर- पुष्करवरद्वीपार्ध के पश्चिमार्ध में मन्दर पर्वत से उत्तरदाहिणे णं दो कुराओ बहुसमतुल्लाओ-जाव-आयाम-विक्खंभ- दक्षिण में दो कुरा अधिक सम एवं तुल्य है-यावत-आयाम संठाण-परिणाहेणं, तं जहा-१. देवकुरा चैव, २. उत्तर- विष्कम्भ संस्थान एवं परिधि से एक-दूसरे का अतिक्रमण नहीं कुराओ चेव ।
करते हैं । यथा-(१) देवकुरा, (२) उत्तरकुरा । तत्थ णं दो महइ महालया महदुमा बहुसमतुल्ला-जाव- उन में दो अति विशाल महावृक्ष हैं वे अधिक सम एवं तुल्य आयाम विक्खंभुच्चत्तोब्वेह सठाण-परिणाहेणं, तं जहा- हैं-यावत्-वे आयाम, विष्कम्भ, ऊँचाई, गहराई, संस्थान एवं १. कूडसामली चेव, २. महापउमरुक्खे चेव ।
परिधि से एक-दूसरे का अतिक्रमण नहीं करते हैं, यथा
(१) कूटशाल्मली वृक्ष, (२) महापद्म वृक्ष । तत्थ णं दो देवा महिड्ढिया-जाव-महासोक्खा पलिओवम- उन वृक्षों पर महधिक-यावत्-महासुखी, पल्योपम की द्विइया परिवसंति, तं जहा-१. गरुले चेव वेणुदेवे, २. स्थिति वाले दो देव रहते हैं, यथा-(१) गरुडवेणु देव, (२) पुण्डरीए चेव। -ठाण अ० २, उ० ३, सु०६३ पुण्डरीक देव । अभितर पुक्खरद्धस्स णामहेउ
आभ्यन्तरपुष्करा के नाम का हेतु७६६. ५०-से केण? णं भते ! एवं बुच्चति-"अम्भितरपुक्खरद्धे ७६६. प्र०-भगवन् ! आभ्यन्तर पुष्कराध को आभ्यन्तर पुष्कय, अभितरपुक्खरद्धे य।
रार्ध क्यों कहा जाता है ? उ०-गोयमा ! अभितर पुक्खरद्धण माणुसुत्तरेणं सव्वतो उ०-गौतम ! आभ्यन्तर पुष्कराध को मानुषोत्तर पर्वत
समंता संपरिक्खित्ते णं चिट्ठति । से एएण?णं गोयमा! चारों ओर से घेरकर स्थित है । गौतम ! इस कारण से आभ्यन्तर एवं वुच्चइ-अभितरपुक्खरद्धे य, अभितरपुक्ख- पुष्कराध को आभ्यन्तर पुष्करार्ध कहा जाता है । रद्धे य। अबुत्तरं च णं गोयमा ! अभितरपुक्खरद्ध य सासए अथवा गौतम ! आभ्यन्तर पुष्करार्ध (यह नाम) शाश्वत है
-जाव-णिच्चे । -जीवा. पडि. ३, उ. २, सु. १७६ -यावत -नित्य है। अड्ढाइज्जेसु दीवेसु तुल्लावासा
अढाई द्वीप में तुल्य वर्ष७७०. जंबहीवे दीवे मंदरस्स पब्वयस्स उत्तर-दाहिणणं दो वासा ७७०. जम्बूद्वीप द्वीप के मन्दर पर्वत से उत्तर-दक्षिण में दो क्षेत्र पण्णत्ता,
कहे गये हैं ।
१ ठाणं अ०८ सु०६४१ ।
२ ठाणं अ०८ सु०६४१ ।