________________
सूत्र ६२८-६२६
तिर्यक् लोक : ज्योतिषिकदेव वर्णन
गणितानुयोग
४३१
चारिणो अविस्साममंडलगई पत्तेयणामकपागडियांचध- हैं, अपने अपने मण्डल में निरन्तर गति करने वाले हैं, प्रत्येक देवमउडा महिड्ढिया-जाव-पभासेमाणा,
मुकुट में स्पष्ट नामांकन चिह्न वाले हैं, महाऋद्धि वाले-यावत्
-प्रभासमान हैं। ते णं तत्थ साणं साणं विमाणावाससयसहस्साणं, ये अपने अपने लाखों विमानावासों का, अपने अपने हजारों साणं साणं सामाणियसाहस्सीणं, साणं साणं अग्ग- सामानिक देवों का, अपनी अपनी सपरिवार अग्रमहिषियों का, महिसीणं सपरिवाराणं, साणं साणं परिसाणं, साणं अपनी अपनी परिषदाओं का, अपनी अपनी सेनाओं का, अपने साणं अणियाणं, साणं साणं अणियाहिवईणं, साणं साणं सेनापतियों का, अपने अपने हजारों आत्मरक्षक देवों का और अन्य आयरक्खदेवसाहस्सोणं अणेसि च बहूण जोइसियाणं अनेक देव-देवियों का आधिपत्य एवं पुरोवर्तित्व करते हुएदेवाण य देवीण य आहेवच्चं पोरेवच्चं-जाव-विहरति,' यावत्-विचरते हैं ।
-पण्ण०प०२, सू०१६५/२ चंद-सर-गह-णक्खत्त-ताराविमाणाणं संठाणं
चन्द्र-सूर्य-ग्रह-नक्षत्र और ताराविमानों के संस्थान९२९. प्र०-चंद विमाणे गं भंते ! कि संठिते पण्णते ? ६२६. प्र०-हे भगवन् ! चन्द्र विमान का संस्थान=आकार
किस प्रकार का कहा गया है ? उ०—गोयमा ! अद्धकविट्ठगसंठाणसंठिते पण्णत्ते, सम्वफालि- उ०—हे गौतम ! अर्ध कपित्थगफल जैसा आकार कहा गया यामए अब्भग्गयमूसियपहसिए-जाव-पडिरूवे। है। सारा स्फटिकमय है, चारों ओर से निकलती हुई किरणों से
प्रभासित है-यावत्-प्रतिरूप है। एवं सूरविमाणेवि, गहविमाणेवि, नक्खत्तविमाणेवि, इसी प्रकार सूर्यविमान, ग्रहविमान, नक्षत्रविमान और ताराविमाणे वि अद्धकविट्ठसंठाणसंठिए । ताराविमान अर्धकपित्थक फल जैसे संस्थान से स्थित है।
-जीवा०प० ३, उ० २, सु० १६७ ४ (क) सम. सु. १५० ।
(ख) जीवा. प. ३, सु. १२२।। यावत्करणात्-विविहमणिरयणभत्तिचिते, वाउदयविजयवेजयंती पडागछत्तातिछत्त कलिए, तुंगे गगणतलमणुलिहंतसिहरे, जालंतररयण-पंजरोम्मीलिय-मणि-कणग-थूभियागे बियसियसयवत्तपुंडरीयतिलगरयद्धचंदचित्ते, अंतो बहिं च सण्हे तवणिज्जवालुयापत्थडे, सुहफासे, सस्सिरीयरूवे पासाईए-जाव—पडिरूवे ।
-जीवा. प. ३, उ. २; सु. १६७ की टीका से उद्ध त २ (क) चन्द्र आदि सभी ज्योतिष्क विमानों के संस्थान आकार अर्धकपित्थफल जैसे कहे है किन्तु सभी ज्योतिष्कों के विमान हमें
वर्तुलाकार दिखाई देते हैं-टीकाकार स्वयं इस प्रकार की आशंका करके समाधान करते हैं - प्र०—यदि चन्द्रविमानमुत्तानीकृतार्धकपित्थसंस्थानसंस्थितं तत उदयकालेऽस्तमयकाले वा यदि वा तिर्यक् परिभ्रमत् पौर्णमास्यां
कस्मात्तदर्धकपित्थफलाकारं नोपलभ्पते ? उ०—कामं शिरस उपरि वर्तमानं वर्तुलमुपलभ्यते, अर्धकपित्थस्य शिरस उपरि दूरमवस्थापित-परभागादर्शनतो वर्तुलतया
दृश्यमानत्वात् । उच्यते-इहार्धकपित्थफलाकारं चन्द्रविमान न सामस्त्येन प्रतिपत्तवयं किन्तु तस्य विमानस्य पीठ, तस्य व पीठस्योपरि चन्द्रवेदस्य
ज्योतिष्चक्रराजस्य प्रासादः, स च प्रासादस्तथा कथञ्चनापि व्यवस्थितो यथा पीठेन सह भूयान् वतुल आकारो भवति । स च दूराभावादेकान्ततः समवृत्ततया जनानां प्रतिभासते-ततो न कश्चिद्दोषः नचैतत् स्वमनीषिकाया विजृम्भितं, यत
एतदेव जिनभद्रगणिक्षमाश्रमणेन विशेषेणवत्यामाक्षेप पुरस्सरमुक्तम्गाहाओ-अद्धकविट्ठागारा, उदयत्थमणमि कहं न दीसंति ।
ससि-सूराणविमाणा, तिरियक्वेत्ते ठियाणं च ।। उत्ताणद्धकविट्ठागारं, पीढं तदुरिं च पासाओ । वट्टालेखेण ततो, समवं दूरभावातो ।।
-जीवा. पडि. ३, उ. २, सु. १६७ टीका (ख) सूरिय. प. १८, सु. ६४.
(ग) जंबू. वक्ख. ७, सु. १६५ । (घ) चंद्र. पा. १८, सु. ६४ ।