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प्रतीक
धा 4
als
धा
2
धा
धा
ET9 ETT10
धा. 11
1 धा 12
धा 13
नाम
कृतिधारा
अकृतिधारा
घनधारा
अघनधारा
कृतिमातृकधारा
अकृतिमातृकधारा
धा 14
घन मातृक धारा
अघन मातृक धारा
द्विरूप वर्गधारा
द्विरूप घनधारा
सामान्य पद
ग
( ग ग Eधा धा०)
ग
अ० सं० गो० पृ० ५ आदि
१६ श्रुत स्कन्ध, अ० १, श्लो०- १५४
(ग गEधाधा०) (2)1/2
[(के)112+ग] (3)1/3
[(के) 10+]
(२)
ग
(२)
(२)
ग – १
३ (२)
द्विरूप घनाघनधारा
(२)
यहाँ धा के महत्व को देखना है। इसमें सम्मिलित सभी : द्रव्य गुण पर्यायों का सभी काल के समयों और प्रदेशों उनकी स्थिति आदि तथा भावों की राशि का क्रमबद्ध संख्या में निरूपण है । संचय की स्थितियाँ भी इनमें सम्मिलित हैं । इस प्रकार यह धारा एक सुक्रमबद्ध राशि है जो परिमित तथा अनन्त प्रकारों की अखण्डताओं के अथवा पुद्गल परमाणुओं या भावों की संरचना राशियों में से होकर गुजरती है और प्रत्येक गॅप (gap) को भरती हुई निकलती है । इसमें अनन्त से बड़े अनन्त भी समाए हुए हैं। इसी धारा में धा2 से लेकर धा 14 तक की सभी धाराएँ समाई हैं । 'यहाँ अन्तिम पद केवलज्ञान अविभाग प्रतिच्छेद राशि है जो सबसे बड़ा, उत्कृष्ट अनन्तानन्त रूप है । जार्ज कैण्टर : तथा अन्य गणितज्ञों ने ऐसी सुक्रमबद्धी राशियों की रचना की है तथा सुक्रमबद्धी साध्य को सिद्ध करने का प्रयास किया है । इस साध्य का समतुल्य "वरण का स्वयं सिद्ध" है। सुक्रमबद्धी प्रमेय पर आधारित व्यापक अल्पबहुत्व का प्रमेय है, "कोई भी दो राशियों में से, दोनों समतुल्य होंगी अथवा उसमें से एक, दूसरे की उपराधि के समतुल्य ( equivalent ) होगी।" हारटग्ज ने
ग - २
(३)*(२)
गणितानुयोग : प्रस्तावना | ६९
ET14
13
सिद्ध किया था कि व्यापक अल्पबहुत्व प्रमेय स्थानीय रूप से सुमवद्धी प्रमेय के समतुल्य है। धाराएँ धा धा और धा अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं, क्योंकि उनमें ऐसे पद स्पष्ट होते हैं जो दो की संख्यात्मक घातों पर उत्पन्न होते हैं । कैण्टर ने अनेक प्रकार के ऐसे पद अलिफ (alephs ) रूप में द्विरूपादि वगंधारा के आधार पर उत्पन्न किये थे। फिर भी उन्हें अलिफों की दिशाबद्ध इतनी धाराएं प्राप्त न हो सकी हैं और जैन धारा-गणित में इस विशेष क्षेत्र उपलब्ध है ।
सम्बन्ध में शोध हेतु
अल्पबहुत्व तीन प्रकार का वर्णित है-सचित्त, अचित्त मिश्र । जो अल्पबहुत्व जीवों से सम्बन्धित है उसे सचित्त, जो शेष प्रकार के द्रव्यों से सम्बन्धित है उसे अचित्त प्रकार का कहते हैं । जब राशियाँ ज्ञान, दर्शन, योग, अनुभाग आदि से सम्बन्धित रहती हैं तो अल्पबहुत्व नोआगम प्रकार का होता है । इन सभी प्रकार के अल्पबहुत्वों को तीन मार्गों में व्यवहुत करते हैंस्वस्थान, परस्थान और सर्वपरस्थान । मिश्र प्रकार के अल्पबहुत्व का एक उदाहरण सोलह राशिगत अल्पबहुत्व है। अनन्तगुणा दर्शाने हेतु 'ख' दृष्टि का उपयोग होता है। यदि १६ जीवराशि है तो १६ख पुद्गल राशि हैं । १६ खरब काल की समय राशि है। और १६ख खरब समस्त आकाश प्रदेश राशि होती है । अल्पबहुत्व विधि का उपयोग वहाँ होता है जहाँ किसी राशि का स्थान निर्धारण अनेक राशियों के प्रतिवेश में तथा दूरी पर, परिमित अथवा पारपरिमित दशा में करना होता है । अतीतकाल समय राशि ( ४, ३, २, १) मानने पर उससे अनागत काल समय राशि (१, २, ३, ४, ) को, जहाँ ० वर्तमान काल हो, अनन्तगुणा माना गया है ।
माविकी ( Mensuration )
है,
सूत्रता के अभिमत में "गणित में रेखागणित कमल और शेष अवर है ।" वास्तव में यदि बीजगणित तर्क पर आधारित होता है तो रेखागशित अन्तः प्रज्ञा पर । करणानुयोगविषयक ग्रन्थ लोक का रेखागणित पर आधारित तो हैं ही, साथ ही बीजगणितीय सम्बन्ध पर भी ।
तत्त्वार्थाधिगम भाष्य (उमास्वाति) 7 में निम्नलिखित मापिकी सूत्र उपलब्ध है
:
१ देखिये ज्लाट (१९५७) । इसमें प्राय: सभी सम्बन्धित संदर्भ मिल २ वही ।
१४
३
५
सकते हैं ।
धवला, भाग ३, पृ० ३०, ३१
तत्त्वा० १, ८, १०, पृ० ४२
७ तत्त्वा० भा० (१९०३)