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३० - (१०+६+६३४.८) = १६+६+६३
२४६
६२ उहत
६२४६७ मुहूर्त
४६ गणितानुयोग : प्रस्तावना । होता है कि पुष्य नक्षत्र का उक्त मुहूर्त समाप्त होने पर, अथवा कहा गया है। ध्र वराशि और अबधार्य राशि में जो भी भेद हो
उसे समझना चाहिए । किन्तु यहाँ कोई भेद प्रतीत नहीं होता है। २० ६ २६२४६७/ ६२' ६२४ ६७ अब प्रश्नोत्तर हेतु प्रथम अमावस्या का अंक १ लेकर इससे मुहूर्त शेष रहने पर प्रथम श्रवण मास भाविनी आवृत्ति प्रवर्तित अवधार्य राशि को गुणित करते हैं। अब पुनर्वसु नक्षत्र का होती है।
मुहूर्त शोधनक होने से उसे अवधार्य राशि में घटाने ___अगली आवृत्तियों के नक्षत्र योग ध्र वराशि का उपयोग करते हुए उपरोक्त विधि से प्राप्त कर लेते हैं ।
२१. १ ___ गणित ज्योतिष इतिहास की दृष्टि से ये गाथाएँ ध्र वराशि पर ४३+ -+ -- - मुहूर्त शेष रहते हैं । अतः पुष्य नक्षत्र के उपयोग सम्बन्धी होने से महत्वपूर्ण हैं । इनमें जो पारिभाषिक शब्द आये हैं वे भी भाषा इतिहास की दृष्टि से ज्योतिष सम्बन्धी
के ३० मुहूर्त से शोधित होने पर १३ पणना-काल के सूचक हैं। सूत्र १०६७-६८, पृ० ६१०-६१६
शेष रहते हैं। अब अश्लेषा नक्षत्र द्विक्षेत्रात्मक होने से १५ मुहूर्त ___इस सूत्र में कुल, उपकुल और कुलोपकुल संज्ञक नक्षत्र के प्रमाण होता है जिसे उपरोक्त राशि से शोधित करने पर योग का बोध दिया गया है। मास समान नाम वाले नक्षत्रों की कुल संज्ञा होती है। ये १२ हैं। पर यहाँ १३ नक्षत्र होते हैं। १+-+- मुहूर्त शेष रहने पर श्राविष्ठी अमावस्या मास बोधक कुल संज्ञक नक्षत्र के समीपवर्ती होने से ११ नक्षत्र उपकुल संज्ञक कहे जाते हैं। वक्ष्यमाण अधोनिर्दिष्ट चार नक्षत्र
वक्ष्यमाण अधोनिर्दिष्ट चार नक्षत्र समाप्त होती है। कुलोपकुल संज्ञक कहे गये हैं जो कुल संज्ञक एवं उपकुल संज्ञक दूसरी अमावस्या पर विचार करने हेतु युग की आदि से वह नक्षत्रों के मध्य में कहीं-कहीं रहते हैं : अभिजित्, शतभिषा, आर्द्रा १३वीं संख्या होने से अवधार्य राशि को इससे गुणित कर पुनः और अनुराधा । (देखिये सू० ज्ञ० प्र०, पृ० ७५१ आदि) विगत-प्रक्रिया द्वारा चन्द्र नक्षत्र योग निकालते हैं। तीसरी
युग की आदि में प्रथम श्राविष्ठी अमावस्या कौन चन्द्र योग श्राविष्ठी हेतु युग की आदि से. २५वीं संख्या होने से अवधार्य से युक्त नक्षत्र वाली होकर समाप्त होती है, ऐसा प्रश्न हल करने राशि को २५ से गुणित कर पुनः वही गणना करते हैं । क्या यहाँ
अवधार्य राशि और ध्र बराशि एक सी प्रतीत नहीं होती है ? यह हेतु अवधार्य राशि ६६+ + १ - का उपयोग करते हैं। ६२ ६२४६७
स्पष्ट नहीं हुआ है। अवधार्य राशि निकालने की प्रक्रिया
इस प्रकार उपरोक्त विधि से १२ अमावस्याओं में चन्द्र योग १२४ पर्व संख्या से ५ सूर्य नक्षत्र का पर्याय लभ्य होता है,
नक्षत्र विवेचन करते हैं। इसी सूत्र में इन्ही अमावस्याओं का
कुलादि नक्षत्र योग योजना बतलाई गई है। अतः २ पर्व से २४५ राशि प्राप्त होती है। इस अंक
सूत्र १०६६, पृ० ६१६-६२१ राशि का नक्षत्र करने हेतु अंश में १८३० का गुणा करते हैं तथा
इस सूत्र में नक्षत्रों का पूर्वादि भागों से योग, क्षेत्र और काल हर या छेद राशि में ६७ का गुणा करते हैं।
प्रमाण दिया गया है। यह योग चन्द्र और नक्षत्र के विस्तार तथा राशि प्राप्त होती है।
उनकी सापेक्ष गति पर निर्भर है और दिन के प्रारम्भ एवं अन्त ६२४६७ ४१५४
सम्बन्धी है। इसकी गणना सरल है। यह अवलोकन, स्पष्ट है कि अब इसके मुहूर्त बनाने हेतु अंश में ३० का. गुणा करने पर यह विभिन्न स्थलों के लिए भिन्न-भिन्न होगा । १५०-३० २७४५०० २० = २४४५०० मुहूर्त अथवा ६६+ + सूत्र ११०६, पृ० ६२८-६३२
पूर्वाचार्यों ने आठ गाथाओं द्वारा पौरुषी का परिमाण प्रति- मुहूर्त रूप में प्राप्त हो जाती है जिसे अवधारित राशि पादित किया है । इनका भावार्थ इस प्रकार है ६२४६७
(देखिए सू० ज० प्र०, भाग १, पृ० ६४७)
या
इस प्रकार
^१८३०६१५०