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________________ प्रश्न है। इसका समाधान वैदिक-परम्परा ने इस प्रकार मिक' । ये पांचों भाव जीव के स्वरूप हैं। इन पांचों में किया है-"विश्व का आदि भी है, और अन्त भी है, एक औदयिक भाव वैभाविक है- शेष चार स्वाभाविक अर्थात् सृष्टि का सृजन और संहार दोनों होते हैं।" हैं। औपशमिक आदि तीन भाव उत्तरोत्तर आत्मशुद्धि जैन-दर्शन ने इसका समाधान अनेकान्त-दृष्टि से इस के हैं।10 प्रकार किया है मुक्त जीवों में दो भाव हैं-१. क्षायिक और २ पारि__ "यह लोक द्रव्य और क्षेत्र की अपेक्षा से सान्त है, णामिक। काल और भाव' की अपेक्षा से अनन्त है। संसारी जीवों में से किसी के तीन भाव, किसी के भाव लोक चार भाव और किसी के पांच भाव हैं। दो या एक भाव भाव पांच प्रकार के हैं-१. औपशमिक', २. क्षायो- किसी संसारी जीव में नहीं होते । यह लोक अनन्त जीवों पशमिक, ३. क्षायिका, ४. औदयिक, ५. पारिणा- से व्याप्त है। और वे अनन्त जीव इन पांच भावों से युक्त हैं । इसलिए यह भावलोक भी है। जहाँ तक यह लोक है वहाँ तक ही धर्मास्तिकाय और उदार योगदान अधर्मास्तिकाय है । जीवास्तिकाय और पुद्गलास्तिकाय भी लोकान्त तक ही है। अतः यह लोक द्रव्यापेक्षया सान्त है। गणितानुयोग के प्रस्तुत परिवधित/संशोधित द्वितीय संस्करण के सम्पादन काल में सभी सेवा कार्य करते हए २ यह लोक क्षेत्र से असंख्य कोटा-कोटी योजन पर्यन्त है, संशोधन आदि अनेक महत्वपूर्ण कार्य श्री विनयमुनि जी आगे अलोक है । अतः यह लोक क्षेत्रापेक्षया भी सान्त है। काल दो प्रकार का है :-नश्चयिक काल और व्याव ___ "वागीश" ने विवेक पूर्ण सम्पन्न किये हैं। हारिक काल । नैश्चयिक काल अनन्त है। अतः इसकी सम्पादन सम्बन्धी अनेक विषम समस्याओं के समाअपेक्षा यह लोक भी अनन्त हैं। और यह काल लोक- धान के समय न्याय-साहित्य व्याकरणाचार्य श्री महेन्द्र व्यापी है। अतः यह धर्मास्तिकाय के समान लोक-अलोक ऋषि जी ने विचार विमर्श का योगदान किया है। का विभाजक भी है। समय, आवलिका-यावत-कालचक्र शुद्ध सुन्दर लेखन आदि श्रमसाध्य कार्यों का उदार पर्यन्त व्यावहारिक काल है। चन्द्र, सूर्य आदि ग्रहों के योगदान श्रमणी प्रवरा श्री मुक्तिप्रभा जी एवं श्री दिव्यगमन और उदयास्त के निमित्त से मानव ही व्यावहारिक प्रभा जी का तथा उनकी शिष्याओं का रहा है। काल के विभाग स्थिर करता है। इसलिए मनुष्य-क्षेत्र को इन सब चारित्र आत्माओं के उदार योगदान से ही समय क्षेत्र कहते हैं । यह मनुष्य-क्षेत्र अढाई द्वीप पर्यन्त है। यह संस्करण सम्पन्न हुआ अतएव इनके प्रति मैं कृतज्ञता जीव-द्रव्य, काल की अपेक्षा से अनन्त हैं, अतः जीव समुदाय के औपशमकादि भाव भी काल की अपेक्षा से अनन्त -मनि कन्हैयालाल 'कमल' हैं । और इन औपशमिकादि भावों की अपेक्षा यह लोक अनन्त है। कषाय, ३. तीन लिंग-भेद, ४. एक मिथ्यादर्शन, ५. एक ५ औपशमिक भाव दो प्रकार का है :-१. सम्यकत्व, अज्ञान, ६. असंयम, ७. एक असिद्ध भाव, ८. छः २. चारित्र । लेश्यायें। क्षायिक भाव नव प्रकार का है :-१. ज्ञान, २. दर्शन, ३. दान, ४. लाभ, ५. भोग, ६. उपभोग, ७. वीर्य, पारिणमिक भाव अनेक प्रकार के हैं :-जीवत्व, भव्यत्व ८. सम्यक्त्व, ६. चारित्र। और अभब्यत्व ये तीन तथा अन्य भी पारिणामिक भाव हैं। ७ क्षायोपशमिक भाव अठारह प्रकार का है : १० स्थानांग-स्था. ३, उ. २, सूत्र १५३ में ज्ञान, दर्शन, १. चार ज्ञान, २. तीन अज्ञान, ३. तीन दर्शन, ४. पांच चारित्र को ही भाव-लोक कहा है। केवलज्ञान, केवलदर्शन दानादि लब्धियाँ, ५. सम्यक्त्व, ६. चारित्र-सर्वविरति, और यथाख्यातचारित्र क्षायिक भाव हैं । शेष चार चारित्र और ७. संयमासंयम-देशविरति ।। क्षायोपशमिक भाव एवं औपशमिक भाव हैं। आत्मशुद्धि + औदयिक भाव इक्कीस हैं :-१, चार गतियां, २. चार की अपेक्षा से औपशमिकादि तीन भाव लोक हैं।
SR No.090173
Book TitleGanitanuyoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj, Dalsukh Malvania
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1986
Total Pages1024
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Mathematics, Agam, Canon, Maths, & agam_related_other_literature
File Size34 MB
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