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________________ सूत्र ४१३.४१५ तिर्यक् लोक : गजदंताकार वक्षस्कार पर्वत गणितानुयोग २६३ चत्तारि गजदंतगारा वक्खारपव्वया चार गजदन्ताकार वक्षस्कार पर्वत४१३. जंबु-मंदरस्स पव्वयस्स दाहिणेणं, देवकुराए कुराए पुटवावरे ४१३. जम्बूद्वीप के मेरु पर्वत से दक्षिण में देवकुरा नामक कुरा के पासे, एत्थ णं आसक्खंधगसरिसा अवद्धचंदसंठाणसंठिया दो पूर्व और पश्चिम पार्श्व में अश्वस्कन्ध के सदृश अर्धचन्द्र के वक्खारपच्वया' पण्णत्ता, बहुसमतुल्ला-जाव-परिणाहेणं, तं संस्थान से स्थित दो वक्षस्कार पर्वत कहे गये हैं, वे अधिक समजहा तुल्य है- यावत्-परिधि की अपेक्षा से एक-दूसरे का अतिक्रमण नहीं करते हैं. यथासोमणसे चैव, विज्जुप्पभे चैव । (१) सोमनस, (२) विद्युत्लभ । ४१४. जंबु-मंदरस्स पव्वयस्स उत्तरेणं, उत्तरकुराए कुराए पुवावरे ४१४. जम्बूद्वीप के मेरु पर्वत से उत्तर में उत्तरकुरा नामक कुरा पासे, एत्थ णं आसक्खंधगसरिसा अद्धचंदसंठाणसंठिया दो के पूर्व और पश्चिम पार्श में अश्वस्कंध के सदृश अर्धचन्द्र के वक्खारपव्वया पण्णत्ता, बहुसमतुल्ला-जाव-परिणाहेणं, तं संस्थान से स्थित दो वक्षस्कार पर्वत कहे गये हैं वे अधिक समजहा तुल्य हैं—यावत्-परिधि की अपेक्षा से एक-दूसरे का अतिक्रमण नहीं करते हैं, यथागंधमादणे चेब, मालवते चैव ।। (१) गंधमादन, (२) माल्यवन्त । ---ठाणं २, उ० ३, सु० ८७ मालवंतवक्खारपव्वयस्स ठाणप्पमाणं माल्यवन्त वक्षस्कार पर्वत का स्थान४१५. ५०-कहि णं भंते ! महाविदेहे वासे मालवंते णामं वक्खार- ४१५. प्र०-भगवन् ! महाविदेह वर्ष में माल्यवन्त नामक पव्वए पण्णते ? वक्षस्कार पर्वत कहाँ कहा गया है ? उ०-गोयमा ! मंदरस्स पव्वयस्स उत्तरपुरथिमेणं, णील- उ०-गौतम ! मन्दर पर्वत से उत्तर-पूर्व में, नीलवन्त वर्ष वंतस्स वासहरपब्वयस्स दाहिणेणं, उत्तरकुराए पुरत्थि- धर पर्वत से दक्षिण में, उत्तरकुरु से पूर्व में और वत्स नामक मेणं, वच्छस्स चकवट्टिविजयस्स पच्चत्थिनेगं, एत्थ णं चक्रवर्ती विजय से पश्चिम में, महाविदेह वर्ष में माल्यवन्त नामक महाविदेहे वासे मालवते णामं वक्खारपव्वए पण्णत्ते। वक्षस्कार पर्वत कहा गया है। उत्तर-दाहिणायए, पाईण-पडीणविच्छिन्ने, जं चेव गंध- वह उत्तर-दक्षिण में लम्बा, पूर्व-पश्चिम में विस्तीर्ण और मायणस्स पमाणं विक्खंभो अ, णवरमिमंणाणत्तं-सव्व- गंधमादन पर्वत के बराबर प्रमाण एवं विष्कंभ वाला है। विशेषता वेरूलिआमए, अवसिट्ठ तं चेव । यह है कि यह (माल्यवंत पर्वत) सर्वात्मना वैडूर्यमय है, शेष वर्णन -जंबु० वक्ख० ४, सु०६१ वही है । १ "अवद्धचंद"त्ति, अपकृष्ट मद्ध चन्द्रस्यापार्धचन्द्रस्तस्य यत्संस्थानम् आकारो गजदन्ताकृतिरित्यर्थः । तेन संस्थितावपाढे चन्द्रसंस्थान संस्थितो। "अद्धचन्दसंठाणसं ठिय" त्ति, अर्धचन्द्रसंस्थानसंस्थिताविति क्वचित पाठः । तत्र 'अर्ध' शब्देन विभागमात्र विवक्ष्यते । न तु समप्रविभागतेति । ताभ्यां अर्धचन्द्राकारा देवकुरवःकृताः । अतएव वक्षस्कारक्षेत्रकारिणो पर्वतो वक्षारपर्वताविति । सोमणस-गंधमादण-विज्जुप्पभ-मालवताणं वक्खारपब्बयाणं मंदरपब्वयंतेणं-पंच पंच जोयण-सयाई उड्ढं उच्चत्तेणं पण्णत्ताई, पंच पंच गाउसयाई उबवेहेणं पण्णत्ताई। -सम.१०८
SR No.090173
Book TitleGanitanuyoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj, Dalsukh Malvania
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1986
Total Pages1024
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Mathematics, Agam, Canon, Maths, & agam_related_other_literature
File Size34 MB
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