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लोक- प्रज्ञप्ति
परं
पाण
ते णं वडेंसगा सव्वरयणामया अच्छा-जाव- पडिरूवा ।
एत्थ णं आणय-पाणय देवाणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं ठाणा पण्णत्ता ।
तिनुवि लोगस्स असं भागे।
तत्थ णं बहवे आणय-पाणय देवा परिवसंति, महिड्ढीया - जाव - पभासेमाणा ।
ऊर्ध्व लोक प्राणत देवेन्द्र वर्णक
ते णं तत्थ साणं साणं विमाणावाससयाणं- जावविहरति । -- पण्ण. प. २, सु. २०५/१
पाणय देवेन्द वण्णओ
२४. पाणए यत् देविदे देवराया परिवसइ — जहा सण कुमारे ।
वरं उष्टं विमाणावाससयाणं ।
बीए सामाजिसाहस्सीणं,
असीईए आरक्खदेवसाहस्सीणं - जाव विहरइ ।
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- पण्ण. प. २, सु. २०५ / २
आरणऽध्वाणं देवानं ठाणा
२५. १० – कहि णं भंते! आरणऽच्चुयाणं देवाणं पज्जत्ताऽपज्जताणं ठाणा पण्णत्ता ?
उ०
प० - कहि णं भने ! आरणऽच्चुया देवा परिवसंति ? -गोयमा ! आणय पाणय कप्पाणं उपि सर्पाक्ख सपादिसं एत्थ णं आरणच्या णामं दुवे कप्पा पण्णत्ता
पाईण-पडीणायया उदीण दाहिणवित्थिण्णा अद्ध चंद संठाण संठिया अच्चिमाली भासरासि वण्णाभा असं खेज्जाओ जोयणकोडाकोडीओ आयाम-विक्खभेणं असंखेज्जाओ जोयणकोडाकोडीओ परिक्खेवेणं सब रयणामया अच्छा-जाव पडिरूवा ।
ते णं विमाणा अच्छा-जाव पडिरूवा । तेसि गं विमाणाणं बहुमज्झ देसभाए पंच वडेंसगा तं जहा
१. अंकवडेंसए, २. फलिहवडेंसए, ३. रयणवडेंसए, ४. जायसमय अपडेंए ते णं वडेंसया सव्व रयणामया अच्छा-जाव पडिरूवा ।
सूत्र २३-२५
विशेष - मध्य में प्राणत अवतंसक हैं ।
वे अवतंसक सर्व रत्नमय हैं, स्वच्छ हैं- यावत् प्रतिरूप हैं ।
यहाँ पर्याप्त और अपर्याप्त आनत प्राणत देवों के स्थान कहे गये हैं ।
(१) उपपात ( २ ) समुद्घात, (३) और स्वस्थान की अपेक्षा से वे लोक के असंख्यातवें भाग में हैं ।
वहाँ अनेक आनत प्राणत देव रहते हैं, महधिक - यावत्देदीप्यमान हैं।
वे वहाँ अपने अपने विमानावासों का आधिपत्य करते हुए - यावत् — रहते हैं ।
प्राणतदेवेन्द्र वर्णक -
२४. यहाँ देवेन्द्र देवराज " प्राणत" रहता है ।
शेष सनत्कुमार जैसा है ।
विशेष-चार सौ विमानों का,
बीस हजार सामानिक देवों का,
अस्सी हजार आत्म-रक्षक देवों का आधिपत्य करता हुआ - यावत् रहता है।
आरण- अच्युत देवों के स्थान -
२५. प्र० - भगवन् ! पर्याप्त और अपर्याप्त आरण और अच्युत देवों के स्थान कहाँ कहे गये हैं ?
प्र० - भगवन् ! आरण अच्युत देव कहाँ रहते हैं ? उ०- गौतम ! आनत प्राणत कल्पों के ऊपर समान दिशा में समान विदिशा में आरण और अच्युत नाम के दो कल्प कहे गये हैं ।
पूर्व-पश्चिम में लम्बे उत्तर-दक्षिण में पौड़े, अर्ध चन्द्र के आकार से स्थित सूर्य के किरण समूह सदृश प्रभा वाले असंख्य कोटाकोटी योजन के लम्बे, चौड़े, असंख्य कोटाकोटी योजन की परिधि वाले हैं, सर्व रत्नमय हैं, स्वच्छ हैं - यावत् प्रतिरूप हैं ।
वे देव विमान स्वच्छ हैं— यावत् — प्रतिरूप हैं ।
उन विमानों के मध्य भाग में पाँच अवतंसक कहे गये हैं ।
यथा
( १ ) अंकावतंसक, (२) स्फटिकावतंसक, (३) रत्नावतंसक, (४) जातरूपावतंसक, (५) और मध्य में अच्युता है।
वे अवतंसक सर्व रत्नमय हैं, स्वच्छ हैं—पावत्-प्रतिरूप हैं ।