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________________ सूत्र २१-२३ ऊर्व लोक : सहस्रार देवों के स्थान गणितानुयोग ६६५ सहस्सार देवाणं ठाणाई सहस्रार देवों के स्थान२१. प०–कहि णं भंते ! सहस्सार देवाणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं २१. प्र०-भगवन् ! पर्याप्त और अपर्याप्त सहस्रार देवों के ठाणा पण्णता? स्थान कहाँ कहे गये हैं ? ५०-कहि णं भंते ! सहस्सार देवा परिवसंति ? प्र०-भगवन् ! सहस्रार देव कहाँ रहते हैं ? । उ०-गोयमा ! महासुक्कस्स कप्पस्स उप्पि सपक्खि सपडि- उ० - गौतम ! महाशुक्र कल्प के ऊपर समान दिशा में दिसि बहुइं जोयणाई-जाव-बहुगीओ जोयण कोडा- समान विदिशा में अनेक योजन-यावत्-अनेक क्रोडाक्रोडी कोडीओ उड्ढे दूरं उप्पइत्ता। एत्थ णं सहस्सारे णामं योजन ऊपर दूर जाने पर सहस्रार नाम का कल्प कहा गया है । कप्पे पण्णत्ते । पाईण-पडीणायए जहा बंभलोए । पूर्व-पश्चिम लम्बा ब्रह्मलोक जैसा है। णवर-छविमाणावास सहस्सा भवंतीतिमक्खायं ।' विशेष—यहाँ छ हजार विमान कहे गये हैं । वडेंसगा जहा ईसाणस्स । अवतंसक-ईशानकल्प के अवतंसक जैसे हैं। णवरं-मज्झे यऽत्थ सहस्सार वडेंसए। विशेष--यहाँ मध्य में सहस्रारावतंसक हैं । एत्थ णं सहस्सार देवाणं ठाणा पण्णत्ता। यहाँ सहस्रार देवों के स्थान कहे गये हैं। सेसं तहेव-जाव विहरति । शेष पूर्ववत् यावत् रहते हैं । –पण्ण. प. २, सु. २०४/१ सहस्सार देवेन्द वण्णओ सहस्रार देवेन्द्र वर्णक२२. सहस्सारे यऽत्थ देविंदे देवराया परिवसइ । २२. यहाँ देवेन्द्र देवराज सहस्रार रहता है । जहा सणंकुमारे । शेष वर्णन सनत्कुमार जैसा है। णवरं-छण्हं विमाणावास सहस्साणं, विशेष-छह हजार विमानों का, तीसाए सामाणिय साहस्सीणं, तीस हजार सामानिक देवों का, चउण्ह य तीसाए आयरक्खदेवसाहस्सीणं-जाव-विहरइ । इनसे चौगुने अर्थात् एक लाख बीस हजार आत्मरक्षक देवों -पण्ण. प. २, सु. २०४/२ का-यावत्-आधिपत्य करता हुआ रहता है। आणय-पाणय देवाणं ठाणाइं आनत-प्राणत देवों के स्थान२३.५०-कहिणं भंते ! आणय-पाणयाणं देवाण पज्जत्ताऽपज्ज- २३. प्र०-भगवन् ! पर्याप्त और अपर्याप्त आनत-प्राणत देवों , ताणं ठाणा पण्णता? के स्थान कहाँ कहे गये हैं ? ५०-कहि णं भंते ! आणय-पाणय देवा परिवसंति ? प्र०-भगवन् ! आनत-प्राणत देव कहाँ रहते हैं ? उ०-गोयमा ! सहस्सारस्स कप्पस्स उप्पि सपक्खि सपडि- उ०-गौतम ! सहस्रारकल्प के ऊपर समान दिशा में दिसि बहूई जोयणाई-जाव-बहुगीओ जोयण कोडा- समान विदिशा में अनेक योजन-यावत्-अनेक क्रोडाक्रोडी कोडीओ उड्ढं दूरं उप्पइत्ता एत्थ णं आणय-पाणय योजन ऊपर दूर जाने पर आनत-प्राणत नाम के दो कल्प कहे नामेणं दुवे कप्पा पण्णत्ता। गये हैं। पाईण-पडीणायया उदीण दाहिण वित्थिण्णा अद्ध चंद पूर्व-पश्चिम में लम्बे, उत्तर-दक्षिण में चौड़े, अर्ध चन्द्र के संठाण संठिया अच्चिमाली भासरासिप्पभा । आकार से स्थित, सूर्य के किरण समूह सदृश प्रभा वाले हैं। सेस जहा सणंकुमारे-जाव-पडिरूवा । शेष सनत्कुमार कल्प जैसा है-यावत्-प्रतिरूप है। तत्थ णं आणय-पाणय देवाणं चत्तारि विमाणावाससया वहाँ आनत-प्राणत देवों के चार सौ विमान कहे गये हैंभवंतीति मक्खायं ।-जाव-पडिरूवा। यावत्-वे प्रतिरूप हैं। वडिसगा जहा सोहम्मे । अवतंसक-सौधर्म कल्प जैसे हैं । १ सम. ११६, सु.। २ सम. १०६, सु. ४ ।
SR No.090173
Book TitleGanitanuyoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj, Dalsukh Malvania
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1986
Total Pages1024
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Mathematics, Agam, Canon, Maths, & agam_related_other_literature
File Size34 MB
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