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लोक-प्रज्ञप्ति
ऊर्ध्व लोक : लान्तक देवेन्द्र वर्णक
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सूत्र १७-२०
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णवरं-मज्झे यऽत्थ लंतगवडेंसए।
विशेष-यहाँ मध्य में लान्तकावतंसक हैं । एत्थ णं लंतग देवाणं ठाणा पण्णत्ता।
यहाँ लान्तक देवों के स्थानक कहे गये हैं । सेसं तहेव-जाव-विहरंति।
शेष पूर्ववत्-यावत्-रहते हैं। -पण्ण. प. २, सु. २०२/१ लंतग देवेन्द वण्णओ
लान्तक देवेन्द्र वर्णक१८. लंतए यन्त्य देविदे देवराया परिवसइ । जहा सण कुमारे। १८. यहाँ देवेन्द्र देवराज लान्तक रहता है, शेष सनत्कुमार
. जैसा है। णवरं-पण्णासाए विमाणावाससहस्साणं, पण्णासाए सामा- विशेष-पचास हजार विमानों का, पचास हजार सामानिक णिय साहस्सोणं, चउण्हं य पण्णासाणं आयरक्खदेवसाहस्सी देवों का, इनके चौगुने अर्थात् दो लाख आत्मरक्षक देवों का गं-जाव-विहरइ ।
स्वामी यावत्-रहते हैं। –पण्ण. प. २, सु. २०२/२ महासुक्काणं देवाणं ठाणाई
महाशुक्र देवों के स्थान१९.५०-कहि णं भंते ! महासुक्काणं देवाणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं १६. प्र०-भगवन् ! पर्याप्त और अपर्याप्त महाशुक्र देवों के ठाणा पण्णता?
स्थान कहाँ कहे गये हैं ? प०-कहि णं भंते ! महासुक्का देवा परिवसंति ? . प्र०-भगवन् ! महाशुक्र देव कहाँ रहते हैं ? उ०—गोयमा ! लंतयस्स कप्पस्स उप्पि सपक्खि सपडिदिसि उ०-गौतम ! लान्तक कल्प के ऊपर समान दिशा में
बहूई जोयणसयाई-जाव-बहुगीओ जोयण कोडाकोडीओ समान विदिशा में अनेक सौ योजन-अनेक क्रोडाक्रोडी योजन उड्ढे दूरं उप्पइत्ता । एत्थ णं महासुक्के णाम कप्पे ऊपर दूर जाने पर महाशुक्र कल्प कहा गया है। पण्णत्ते। पाईण-पडीणायए जहा बंभलोए ।
पूर्व-पश्चिम में लम्बा ब्रह्मलोक जैसा है। णवरं-चत्तालीसं विमाणावाससहस्सा भवतीति मयखाय" विशेष- इसमें चालीस हजार विमान कहे गये हैं। वडेंसगा जहा सोहम्मवडेंसगा।
अवतंसक-सौधर्म कल्प के अवतंसकों के समान हैं। णवरं-मज्झे यऽत्य महासुक्कवडेंसए।
विशेष—यहाँ मध्य में महाशुक्रावतंसक हैं। एत्थ णं महासुक्क देवाणं ठाणा पण्णता।
यहाँ महाशुक्र देवों के स्थान कहे गये हैं। सेसं तहेव-जाव-विहरंति ।
शेष पूर्ववत्-यावत्-रहते हैं । -पण्ण. प. २, सु. २०३/१ महासुक्क देवेन्द वण्णओ
महाशुक्र देवेन्द्र वर्णक२०. महासुक्के यऽत्य देविदे देवराया परिवसइ ।
२०. यहाँ देवेन्द्र देवराज महाशुक्र रहता है । जहा सणंकुमारे।
शेष वर्णन सनत्कुमार जैसा है। णवरं-चत्तालीसाए विमाणावाससहस्साणं,
विशेष-चालीस हजार विमानों का, चत्तालीसाए सामाणिय साहस्सीणं,
चालीस हजार सामानिक देवों का, चउण्हं य चत्तालीसाणं आयरक्खदेव साहस्सीणं-जाव- इनसे चौगुने अर्थात् एक लाख साठ हजार देवों का-यावत् विहरइ।
-आधिपत्य करता हुआ रहता है। -पण्ण. प. २. सु. २०३/२
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सम. ४०, सु.८।