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________________ ४२ लोक-प्रज्ञप्ति अधोलोक सूत्र ८६-६३ पुढवीणं परोप्परं अबाहा अंतरं पृथ्वियों का परस्पर अबाधा अन्तर८९ : प० इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए सक्करप्पभाए ८९ :प्र० हे भगवन् ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी और शर्कराप्रभा पृथ्वी य पुढवीए केवतियं अबहाए अंतरे पन्नत्ते ? का अबाधा अन्तर कितना कहा गया है ? उ. गोयमा! असंखेज्जाइं जोयणसहस्साइं अबाहाए उ. हे गौतम ! असंख्य हजार योजन का अबाधा अन्तर अंतरे पन्नत्ते। ___ कहा गया है। प० सक्करप्पभाए णं भंते ! पुढवोए वालुयप्पभाए य प्र० हे भगवन् ! शर्कराप्रभापृथ्वी और बालुकाप्रभापृथ्वी पुढवीए केवतियं अवाहाए अंतरे पन्नत्ते? का अबाधा अन्तर कितना कहा गया है ? उ. गोयमा! एवं चेव। उ० हे गौतम ! इसी प्रकार (पूर्ववत्) है। एवं जाव तमाए अहेसत्तमाए य । इसी प्रकार यावत् सप्तम पृथ्वी पर्यन्त है। -भग० स० १४; उ०८, सु० १-३ । सत्तमनरयपुढवीए अलोगस्स य अबाहा अंतरं- सप्तम नरक और अलोक का अबाधा अन्तर९० : प० अहेसत्तमाए णं मंते ! पुढवीए अलोगस्स य केवतियं १०:प्र० हे भगवन् ! नीचे सप्तम पृथ्वी और अलोक का अबाधा अबाहाए अंतरे पन्नत्ते ? अन्तर कितना कहा गया है ? उ. गोयमा ! असंखेज्जाई जोयणसहस्साई अबाहाए उ. हे गौतम ! असंख्य हजार योजन का अबाधा अन्तर अंतरे पन्नत्ते? कहा गया है। -भग० स० १४, उ०८, सु०४। रयणप्पभा नरयस्स जोइसस्स अबाहा य अंतरं रत्नप्रभा नरक और ज्योतिषी देवों का अबाधा अन्तर६१: प० इमीसे गं मंते ! रयणप्पभाए पुढवीए जोतिसस्स य ११:प्र. हे भगवन् ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी के और ज्योतिषी केवतियं अबाहाए अंतरे पन्नत्ते? देवों के कितना अबाधा अन्तर कहा गया है ? उ० गोयमा! सत्तनउए जोयणसए अबाहाए अंतरेउ. हे गौतम ! सातसौनिव्वे योजन का अबाधा अन्तर पन्नत्ते। कहा गया है। -भग० स० १४, उ०८, सु०५। पुढवीणं अहे गेहाईणं अभावो पृथ्वियों के नीचे गृहादि का अभाव९२: प० अत्थि णं मंते ! इमोसे रयणप्पमाए पुढवीए अहे गेहा ६२:प्र. हे भगवन् ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी के नीचे क्या गृह ति वा गेहावणा ति वा? (घर) या गृहापण (घर के साथ दुकाने) हैं ? उ० गोयमा ! नो इण8 सम8। उ० हे गौतम ! ऐसा नहीं है। प० अत्थि णं भंते ! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए अहे प. हे भगवन् ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी के नीचे क्या ग्राम गामा ति वा जाव सन्निवेसा ति वा? यावत् सन्निवेश हैं ? उ० नो इण8 सम?। उ. हे गौतम ! ऐसा नहीं है । . -भग० स० ६, उ०८, सु०२, ३ । पुढवीणं अहे उराला बलाहयाईणं देवाई कडत्तं- पृथ्वियों के नीचे देवादि-कृत स्थूल मेघादि हैं६३ : प. अत्थि णं भंते ! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए अहे ६३ : प्र. हे भगवन् ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी के नीचे क्या स्थूल उराला बलाहया संसेयंति, संमुच्छंति वासं वासंति? (विशाल) बादल बनते हैं, बिखरते हैं, या वर्षा बरसाते हैं ? उ० हंता ! अस्थि । उ० हाँ गौतम ! (बादल बनते हैं यावत् वर्षा बरसाते) तिण्णि वि परिति-१. देवो वि पकरेति, २. असुरो वि है। यह कार्य देव, असुर और और नाग–ये तीनों करते हैं ? पकरेति, ३. नागो वि पकरेति ।
SR No.090173
Book TitleGanitanuyoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj, Dalsukh Malvania
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1986
Total Pages1024
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Mathematics, Agam, Canon, Maths, & agam_related_other_literature
File Size34 MB
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