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________________ मूत्र ७५.८० तिर्यक् लोक : विजयद्वार गणितानुयोग १४६ .mmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm महता मत्तगयमुहागिइ समाणा पण्णत्ता समणाउसो। रत्नमय स्वच्छ-यावत्-प्रतिरूप है, हे आयुष्मन् श्रमणो ! इनका प्रतिरूप-आकार विशाल मत्त गजराज की मुखाकृति के समान कहा गया है। ७६. तेसि णं तोरणाणं पुरओ दो दो आयंसगा पण्णत्ता। ७६. इन तोरणों के आगे दो दो आरीसा (दर्पण) कहे गये हैं। तेसि णं आयंसगाणं अयमेयारूवे वण्णावासे पण्णत्ते, तं इन आदर्शकों-दर्पणों का वर्णन इस प्रकार का कहा गया है, जहा-तवणिज्जमया पगंठगा, वेरुलियमया छरुहा [थंभया] यथा-इनके प्रकंठक-पीठविशेष तपनीय स्वर्ग के बने हुए हैं. वइरामया वरंगा, णाणामणिमया वलक्खा, अकामया मंडला, वैडूर्य रत्नमय इनके स्तम्भ हैं, इनका पृष्ठभाग वज्रमय है, अणोग्घसिय निग्मलाए छायाए सवओ चेव समणुबद्धा चंद- शृङ्खलादिरूप इनके अवलम्बन अनेक मणियों से बने हुए हैं, मंडलपडिणिकासा, महया महया अद्धकायसमाणा पण्णत्ता इनका मंडल-प्रतिबिम्ब पड़ने का स्थान-करत्न का बना हुआ है, समणाउसो ! ये अनवर्षित-स्वाभाविक प्रतिच्छाया से युक्त एवं निर्मल हैं, चन्द्रमंडल के समान आकार वाले और बहुत बड़े हैं, हे आयुष्मान् श्रमणो ! ये देखने वाले के शरीर के अग्रभाग जितने प्रमाण ७७. तेसि णं तोरणाणं पुरओ दो दो वइरणाभा थाला पग्णत्ता, ७७. इन तोरणों के आगे वज्र के बने हुए दो-दो थाल कहे गये हैं। तेणं थाला अच्छतिच्छडिय सालितंदुल नहसंदुट्ठ बहुपडि- ये थाल तीन बार सूप आदि से फटक कर स्वच्छ शुद्ध किये पुण्णा, चेव चिट्ठन्ति । सव्व जंबूणयामया अच्छा-जाव- गये और ओखली में कूट कर जिनकी भूसी अलग कर दी गई पडिरूवा। महया महया रहचक्कसमाणा पण्णता समणा- है ऐसे शालि-तंदुलों-विशिष्ट जाति के चावलों से परिपूर्ण भरे हुए उसो! हैं । ये थाल सर्वात्मना स्वर्ण से बने हुए, स्वच्छ-यावत्-प्रतिरूप है, आयुष्मान् श्रमणो ! ये थाल विशाल रथ चक्र-रथ के पहिये के समान विशाल आकार वाले कहे गये हैं। ७८. तेसि णं तोरणाणं पुरओ दो दो पातीओ पण्णत्ताओ। ७८. इन तोरणों के आगे दो-दो पात्री कही गई है। ताओ णं पातीओ अच्छोदय पडिहत्थाओ, णाणाविह पंच- ये पात्रियाँ स्वच्छ जल से भरी हुई हैं, तथा नाना प्रकार के वण्णस्स फलहरितगस्स बहुपडिपुण्णाओ विव चिट्ठन्ति । सव- पंचवर्ण वाले हरे फलों से भरी हुई जैसी प्रतीत होती हैं, तथा रयणामईओ अच्छाओ-जाव–पडिरूवाओ, महया महया सर्वात्मना रत्नमय स्वच्छ-यावत्-प्रतिरूप है, हे आयुष्मान गोलिजगच्चक्कसमाणाओ पण्णत्ताओ समगाउसो ! श्रमणो ! ये ऐसी प्रतीत होती है, मानो गाय को खिलाने के चक्राकार पात्र हैं। ७६. तेसि णं तोरणाणं पुरओ दो दो सुपइट्ठगा पण्णत्ता । ७६. इन तोरणों के आगे दो-दो सूप्रतिष्ठक-आधार विशेष बाजोट कहे गये हैं। तेणं सुपइट्ठगा णाणाविह पंचवण्ण-पसाहणगभंड विरचिया, उन सुप्रतिष्ठकों पर पंचवर्णों वाले एवं सर्व औषधियों से सवोसहिपडिपुण्णा सस्वरयणामया अच्छा-जाव-पडिरूवा। परिपूर्ण प्रसाधनभांड सजाकर रखे हैं और ये सुप्रतिष्ठक सर्वात्मना रत्नों से बने हुए स्वच्छ-यावत्-प्रतिरूप हैं। .८०. तेसि णं तोरणाणं पुरओ दो दो मणोगुलियाओ पण्णत्ताओ। ८०. इन तोरणों के आगे दो-दो मनोगुलिकायें-पीठिकायें कहीं गई हैं। तासु णं मणोगलियासु बहवे सुवण्ण-रुप्पामया फलगा इन मनोगुलिकाओं के ऊपर अनेक स्वर्ण और चाँदी के बने पण्णत्ता। हुए फलक-पटिये कहे गये हैं। तेसु णं सुवण्ण रुप्पामएसु फलएसु बहवे वइरामया णाग- इन स्वर्ण-रजतमय फलकों में अनेक वऊमय नागदंतकदंतगा मुत्ताजातरुसिगा, हेम-जाव-गयंदगसमाणा खूटियां लगी हुई हैं, ये खुटियाँ मुक्ताजालों के भीतर लटकती हुई पण्णता। हेममालाओं-यावत्-गजदन्तों के समान कही हैं ।
SR No.090173
Book TitleGanitanuyoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj, Dalsukh Malvania
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1986
Total Pages1024
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Mathematics, Agam, Canon, Maths, & agam_related_other_literature
File Size34 MB
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