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________________ ५५६ लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक : सूर्यमंडलों का आयाम-विष्कम्भ प्ररूपण सूत्र १०४७-१०४६ ता जया णं सूरिए सम्वन्भंतरं उत्तरं अद्धमण्डलसंठिइं जब सूर्य सर्वाभ्यन्तर उत्तरार्धमण्डल-संस्थिति को प्राप्त उवसंकमित्ता चारं चरइ, तया णं उत्तमकट्ठपत्ते उक्को- करके गति करता है तब परम प्रकर्ष को प्राप्त उत्कृष्ट अठारह सए अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ, जहन्निया दुवालस- मुहूर्त का दिन होता है और जघन्य बारह मुहूर्त की रात्रि मुहुत्ता राई भवई, होती है। एस णं दोच्चे छम्मासे एस णं दोच्चस्स छम्मासस्स ये दूसरे छः मास (उत्तरायण के) हुए, यह दूसरे छः मास पज्जवसाणे, का अन्त हुआ। एस णं आइच्चे संवच्छरे एस णं आइच्चस्स संवच्छरस्स यह आदित्य संवत्सर है, यह आदित्य संवत्सर का अन्त है । पज्जवसाणे, -सूरिय० पा० १, पाहु० २, सु० १३ उत्तरे पढम-बितिय-तइय सूरियमण्डलाणं आयाम- उत्तर दिशा के प्रथम-द्वितीय और तृतीय सूर्यमण्डल के विक्खंभ परूवणं आयाम विष्कम्भ का प्ररूपण४८. उत्तरे पढमे सूरिय मण्डले नवनउइ-जोयण-सहस्साइं साइरे- ४८. उत्तर दिशा के प्रथम सूर्य मण्डल का आयाम-विष्कम्भ कुछ गाई आयाम-विक्खंभेणं पण्णत्ते, अधिक निनानबे हजार योजन का कहा गया है । दोच्चे सूरियमण्डले नवनउइ-जोयण-सहस्साइं साहियाइं दूसरे सूर्य मण्डल का आयाम-विष्कम्भ कुछ अधिक निनानवे आयाम-विक्खंभेणं पण्णत्ते। हजार योजन का कहा गया है । तइए सूरियमण्डले नवनउइ-जोयण-सहस्साइं साहियाई आयाम- तृतीय सूर्य मण्डल का आयाम-विष्कम्भ कुछ अधिक निनानबे विक्खंभेणं पण्णत्ते । -सम. ६६, सु. ४-६ हजार योजन का कहा गया है। उत्तरायणे दक्षिणायणे य सूरस्सगइए हाणी-बुड्ढी उत्तरायण और दक्षिणायन में सूर्य की गति की हानि-वृद्धि परूवणं का प्ररूपण४६. उत्तरायणनियट्ट णं सूरिए पढमाओ मण्डलाओ एगूणचत्ता- ४६. उत्तरायण से लौटता हुआ सूर्य प्रथम मण्डल से उनतालीसवें लीसइमे मण्डले अट्ठरि एगसट्ठिभाए विवसखेत्तस्स निवु- मण्डल पर्यन्त एक मुहूर्त अठहत्तर भागों में से इकसठ भाग ड्ढेत्ता रयणिखेत्तस्स अभिनिवुड्ढेत्ता णं चार चरइ, प्रमाण दिन की हानि तथा रात्रि की वृद्धि करता हुआ गति करता है। एवं दक्खिणायणनियट्ट वि। -सम, ७८, सु. ३-४ इसी प्रकार दक्षिणायन से लौटता हुआ भी गति करता है । बाहिराओ उत्तराओ णं कट्ठाओ सूरिए पढम छम्मासं अय- बाह्य मण्डलात्मक उत्तर दिशा से प्रथम छ: मास में माणे चोवालीसइमे मण्डलगते अट्ठासीइ इगसट्ठिभागे मुहुत्त- (दक्षिणायन की ओर) गति करता हुआ सूर्य जब चौवालीसवें स्स दिवसखेत्तस्स निवुड्ढेत्ता रयणिखेत्तस्स अभिनिवुड्ढेत्ता मण्डल में आता है तब एक मुहूर्त के अट्ठायासी भागों में से सूरिए चारं चरइ। इकसठ भाग प्रमाण दिन की हानि तथा रात्रि की वृद्धि करता हुआ गति करता है। दक्षिणकट्ठाओ णं सूरिए दोच्चं छम्मासं अयमाणे चोया- दक्षिण दिशा से दूसरे छः मास में (उत्तरायण की ओर) लीसइमे मण्डलगते अट्ठासीई इगसट्ठिभागे मुहुत्तस्स रयणि- गति करता हुआ सूर्य जब चौवालीसवें मण्डल में आता है तब खेत्तस्स निबुड्ढेत्ता दिवसखेत्तस्स अभिनिवुढित्ता णं सूरिए एक मुहुर्त के अठ्ठयासी भागों में से इकसठ भाग प्रमाण रात्री चारं चरइ। -सम. ८८, सु. ६ की हानि तथा दिन की वृद्धि करता हुआ गति करता है। उत्तराओ णं कठ्ठाओ सूरिए पढमं छम्मासं अयमाणे एगूण- प्रथम छः मास में उत्तर दिशा से (दक्षिण दिशा की ओर) पन्नासतिमे मण्डलगते अट्ठाणउइ एकसट्ठिभागे मुहत्तस्स गति करता हुआ सूर्य जब उनचासवें मण्डल में आता है तब एक दिवसखेत्तस्स रयणिखेत्तस्स अभिनिवुढित्ता णं सूरिए चारं मुहूर्त के अठानवें भागों में से इकसठ भाग प्रमाण दिन की हानि चरइ। तथा रात्रि की वृद्धि करता हुआ गति करता है । १ चन्द. पा. १ सु, १३ ।
SR No.090173
Book TitleGanitanuyoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj, Dalsukh Malvania
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1986
Total Pages1024
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Mathematics, Agam, Canon, Maths, & agam_related_other_literature
File Size34 MB
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