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सूत्र ८३०८३१
तिर्यक् लोक : घृतोद समुद्र वर्णन
गणितानुयोग
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घयोदसमुद्दो
घृतोदसमुद्र
घयोदसमुदस्स संठाणं
घृतोद समुद्र का संस्थान- . ८३०. घयवरण्णं दीवं घतोदे नामं समुद्दे वट्ट वलयागारसंठाण- ८३०. वृत्त एवं वलयाकार संस्थान से स्थित घृतोद नामक समुद्र
संठिए सव्वओ समंता संपरिक्खित्ताणं चिट्ठति ।' घृतवरद्वीप को चारों ओर से घेरकर स्थित है। तहेव समचक्कवाल-संठाणसंठिए,
वह उसी प्रकार समचक्राकार संस्थान से स्थित है। विक्खंभ-परिक्खेवो, संखिज्जाइं जोयणसयसहस्साई,
उसका विष्कम्भ और परिक्षेप संख्यात लाख योजन का है। दारा दारंतरं, पउमवरवेइया, वणसंडे, पएसा, जीवा तहेव, धृतोदसमुद्र के द्वार, दारों के अन्तर पत्मवरवेदिका, बन-जीवा. पडि. ३ उ. २ सु, १८२ खण्ड, द्वीप और समुद्र के प्रदेशों का परस्पर स्पर्श, द्वीप और
समुद्र के जीवों को एक दूसरे में उत्पत्ति पूर्ववत् है। घयोदस मुदस्स णामहेऊ
घृतोदसमुद्र के नाम का हेतु८३१. ५०-से केण?णं भंते ! एवं वुच्चइ-"घतोदे समुद्दे, ८३१. प्र०-भगवन् ! घृतोदसमुद्र घृतोदसमुद्र ही क्यों कहा घतोदे समुद्दे ?
जाता है ? उ०-गोयमा ! घयोदस्स णं समुदस्स उदए से जहा नामए उ०-हे गौतम ! घृतोद समुद्र का जल क्या विकसित
पप्फुल्लसल्लइ-विमुक्कलकण्णियार सरसवसुविबुद्धको- शल्लकी, विकसित कनेर, सरसों, खिले हुए कोरंट पुष्पों की रेंटदामपिडिततरस्स निद्धगुणतेयदीविय निरूवहयवि- गुंथी माला के वर्ण के समान वर्ण वाले, स्निग्ध गुण वाले, अग्नि सिट्टसुन्दरतरस्स सुजायदहिमहियतद्दिव सगहिय नव- पर पकाए हुए किन्तु निरूपहत एवं विशिष्ट सुन्दर, दधि को मथ णीय-पडुवणावियमुक्कड्ढिय उद्दावसज्जविसंदियस्स कर निकाले हुए उसी दिन के नवनीत को तपाकर तैयार किये अहियं पोवरसुरहिगंधमणहरमहुरपरिणामदरिसणि- हुए ताजा, अतिश्रेष्ठ, सुगन्धयुक्त, मनोहर मधुर परिणमन से ज्जस्स पत्थनिम्मलसुहोवभोगस्स सरयकालंमि होज्ज युक्त दर्शनीय पथ्य निर्मल सुखोपभोग्य शरत्कालीन गौघृत के गोघतवरस्स मंडए, भवे एयारूवे सिया।। समान है ? णो तिण8 सम?।
हे गौतम ! नहीं, ऐसा नहीं हैगोयमा! घतोवस्स णं समुद्दस्स एत्तो इट्टतराए चेव घृतोद समुद्र का जल इससे भी अधिक इष्ट-यावत - -जाव-आसाएणं पण्णत्ते।'
आस्वादनीय कहा गया है। कंत-सुकता एत्थ दो देवा महिड्ढीया-जाव-पलिओव- यहाँ कान्त सुकान्त नामक महधिक-यावत् –पल्योपम की मट्ठितिया परिवसंति ।
स्थिति वाले दो देव रहते हैं। से एएण?णं गोयमा ! एवं बुच्चइ-"घतोदे समुद्दे हे गौतम ! इस कारण से घृतोदसमुद्र घृतोदसमुद्र कहा घतोदे समुद्दे।" -जीवा. पडि. ३ उ. २ सु. १०२ जाता है।
१ सूरिय. पा. १६ सु. १००। २ आगमोदय समिति से प्रकाशित जीवाभिगम की प्रति में यह मूलपाठ मुद्रित है किन्तु टीकाकार ने इस मूलपाठ की टीका नहीं
की है। ३ प्र०-घतोदस्स णं भंते ! समुदस्स उदए केरिसए अस्साएणं पण्णत्ते ? उ०-गोयमा ! से जहाणामए सारइयस्स गोघयपरस्स मंडे सल्लइ-कण्णियापुप्फवण्णाभे सुकड्ढित उदारसज्झविसंदिते वर्णणं
उववेते-जाव-फासेण उववेते, भवे एयारूवे मिया? णो तिण? सम? । गोयमा ! घतोदस्स उदए एत्तो इट्टतरा चेव -जाव-अस्साएणं पण्णत्ते ।
-जीवा. पडि. ३ उ.२, सु. १८७ ऊपर अकितपाठ और इस पाठ में घृतोदसमुद्र के पानी के आस्वाद का ही वर्णन है, दोनों पाठों में शब्द साम्य भी है अतः यह पाठ यहां टिप्पण में दिया है।