Book Title: Bharatvarshiya Prachin Charitra Kosh
Author(s): Siddheshwar Shastri Chitrav
Publisher: Bharatiya Charitra Kosh Mandal Puna
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ananAAAAAAAAAAAAAAAAAAAPOWEAAAAAAAAAAAAMA000000000000000004 codai arriabe Padaan DODelaDOULODalal नास्ति विद्यासमं चक्षुः । भारतवर्षीय प्राचीनचरित्रकोश म.म. मिवाशास्त्री चिंगाव भारतीय चरित्रकोश मण्डल पूना ... रिया देवडी वा BalataksDMR400MGHAMILalankarilashtal PAHADIONRG0Indatures8080PM HIROIRLSOdAPSOIN00000 A.VOL SONS HHH MiBURCHUUUUUUUURIHOTUUUUUUUUEERUUUUUUUUURUUUBE Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हमारा महत्वपूर्ण आगामी प्रकाशन भारतवर्षीय मध्ययुगीन चरित्रकोश (मौर्य चंद्रगुप्त से अंग्रेजी साम्राज्य के प्रारंभ तक, ३२१ पू. - १८१८ ई. स. ) इस ग्रंथ में भारतीय इतिहास के मध्ययुगीन कालखंड में उत्पन्न राज कारण, धर्मकारण, समाजकारण, वाव्यय, कला, सनिहाय आदि से संबंधित छ हजार से अधिक व्यक्तियों के जीवनचरित्र एवं तद्विषयक संदर्भसहित सामग्री अकारादि क्रम से एवं सप्रमाण प्रस्तुत की गयी है। भारतीय इतिहास के एक अत्यंत महत्वपूर्ण कालखंड से संबंधित व्यक्तियों की विस्तृत एवं सप्रमाण जानकारी प्रस्तुत करनेवाला यह ग्रंथ भारतीय इतिहास के प्रत्येक विद्यार्थी, अध्येता, संशोधक एवं सर्वसामान्य पाठक के लिए अत्यंत उपादेय होगा । ८ ' मध्ययुगीन चरित्रकोश' का मराठी संस्करण लगभग पच्चीस साल पहले प्रकाशित हो चुका था, जिसके संबंध मैं अपना अभिमत व्यक्त करते समय 'टाईम्स ऑफ इंडिया', बंबई, ने लिखा था : 'It embodies long and painstaking research and as a work of reference it should prove indispensable to those interested in India's Past.' Times of India, 28th Jan. 1938 मराठी में प्रसिद्ध हुए, 'मध्ययुगीन चरित्रकोश का परिवर्धित हिंदी संस्करण अब प्रकाशित हो रहा है, जिसमें मूल मराठी ग्रंथ से अधिक ६०० पृष्ठों की नयी जान कारी समाविष्ट की गयी है। Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतवर्षीय प्राचीन चरित्रकोश (श्रुति, स्मृति, पुराण, सूत्र, वेदांग, उपनिषद्, बौद्ध एवं जैन साहित्य में निर्दिष्ट व्यक्तियों की साधार. जानकारी प्रस्तुत करनेवाला ग्रंथ) महामहोपाध्याय विद्यानिधि सिद्धेश्वरशास्त्री चित्राव पु र स्कार: श्री. भक्तदर्शन उपशिक्षामंत्री, भारत सरकार, नयी दिल्ली, काशमंडल भारतीय २०२१ विक्रम संवत् ] [१९६४ ई. स. . विद्या देश की सेवा में विया देताकी सेवा में भारतीय चरित्रकोश मण्डल, पूना ४. Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ BHARATAVARSHIYA PRACHIN CHARITRAKOSHA ( Dictionary of Ancient Indian Biography, in Hindi) by M. M. Sidheshwar Shastri Chitrao Published by Bharatiya Charitrakosha Mandal, Poona 4. Price: Rs. २०० इस ग्रंथ के पुनर्मुद्रण, अनुवाद, रूपान्तर आदि के सारे . अधिकार भारतीय चरित्रकोश मण्डल, पूना ४ के अधीन है मूल्य : रु. २०० प्रकाशक: विनायक सिद्धेश्वरशास्त्री चित्राव, कार्यवाह, भारतीय चरित्रकोश मंडल, १२०६ अ/४५ जंगली महाराज पथ, पूना ४. मुद्रक : विद्याधर नीलकंठ पटवर्धन, साधना प्रेस, ४३०-४३१ शनिवार पेठ, पूना २ Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपशिक्षामंत्री भारत DEPUTY EDUCATION MINISTER INDIA नयी दिल्ली-२ सत्यमेव जयते पुरस्कार - मुझे यह जान कर हर्ष हुआ कि भारतीय चरित्रकोश मण्डल, पूना, ने मराठी के प्राचीन चरित्रकोश' का हिन्दी संस्करण तैयार कर लिया है, और वह शीघ्र ही प्रकाशित हो रहा है। मुझे ज्ञात हुआ है कि वह कोश तीस चालिस वर्ष पहले मराठी में प्रकाशित हो चका है, और ख्याति प्राप्त कर चुका है। इसका हिन्दी संस्करण निकाल कर मण्डल ने बहुत ही सराहनीय कार्य किया है। कोश के कुछ छपे हुए पृष्ठ मैंने देखे, और मुझे लगा कि यह कोश कई दृष्टियों से बहुत उपयोगी है। इस कोश के द्वारा पहली बार हमको एक स्थान पर अनेक पौराणिक चरित्र नायकों की संक्षिप्त जीवनियां उपलब्ध हो जायेंगी। . इसी प्रकार के कोशों और संदर्भग्रंथों बारा हमको ज्ञान-विज्ञान की सामग्री सामान्य पाठकों के लिए सुलभ बनानी है। पिछले कुछ वर्षों में हिन्दी का संदर्भ-साहित्य सम्रद्ध हुआ है। कोशों और संदर्भ-ग्रंथों के निर्माण की इस परम्परा में मै प्राचीन चरित्रकोश' का विशेष रूप से स्वागत करता हूं, और आशा करता हूं कि, मण्डल भविष्य में भी इस प्रकार के विशिष्ट कोशों और संदर्भ ग्रंथों से हिन्दी साहित्य को समद्ध बनाने में योगदान देगा। सासन - (भक्तदर्शन) १०-११-६४ Page #6 --------------------------------------------------------------------------  Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राक्कथन | चित्राव द्वारा संपादित, प्रस्तुत 'प्राचीन चरित्रकोश' द्वारा एक प्रकार से इस कार्य का श्रीगणेश हो रहा हैं। आधुनिक युग वैज्ञानिक एवं व्यवस्थित अनुसंधान और अनुशीलन का युग है; अतः ज्ञान का एक निश्चित युक्तिसंगत रूप ही आज हमें ग्राह्य है। ज्ञान की एक पूर्वज्ञात शृंखला से हम आज नवोपलब्ध ज्ञान की नवीन शृंखला को जोड़ते जाते हैं, और इस प्रकार सभ्यता के विकास के पथ पर हम आगे बढ़ते जाते हैं । प्राचीन ज्ञान का कितना अंश हमारे लिए ग्राह्य है, यह भी एक विचारणीय विषय है। फिर भी ज्ञान और विद्या की अनेक शाखायें हैं, जिनकी सामग्री प्राचीन भारतीय साहित्य में भरी पड़ी है । परन्तु यह बात सर्वज्ञात नहीं है। अधिकांशतः तो लोग प्राचीन भारतीय ज्ञान की विविध शाखाओं से भी परिचित नहीं हैं। अतः अनेक प्रकार से उन्हें निश्चित, संक्षिप्त एवं व्यवस्थित रूप में उपलब्ध कराना प्रत्येक भारतीय विद्वान् का कार्य है । इस दिशा में अनेक संस्थाएँ एवं व्यक्तिगत रूप में अनेक विद्वान् कार्य कर रहे हैं। पूना नगर का ' भारतीय चरित्रकोश मण्डल ' ऐसी ही संस्थाओं में से एक संस्था है, जो महामहोपाध्याय श्री. सिद्धेश्वरशास्त्री चित्राव की अध्यक्षता में कार्य कर रही है । इस संस्था को अन्य अनेक उत्कृष्ट विद्वानों का सहयोग एवं परामर्श प्राप्त है। 'भारतीय चरित्रकोश मण्डल' के द्वारा अभी तक मराठी में 'प्राचीन चरित्रकोश, ' ' मध्ययुगीन चरित्र - कोश' तथा 'अर्वाचीन चरित्रकोश' प्रकाशित हुए हैं । परन्तु ऐसे कार्य की अखिल भारतीय उपयोगिता को ध्यान में रख कर इस प्रकार के कोशों एवं और ग्रंथों को हिन्दी में भी प्रकाशित किया जाये, यह निर्णय किया गया, जिसके परिणामस्वरूप 'प्राचीन चरित्रकोश' अपने संशोधित एवं परिवर्द्धित रूप में हिन्दी में प्रस्तुत है । हिन्दी के कोश - साहित्य के क्षेत्र में भी इधर कुछ वर्षों महत्वपूर्ण कार्य हुआ है। इसके अन्तर्गत 'विश्वकोश' का संपादन- प्रकाशन कार्य चल रहा हैं । इसके अतिरिक्त 'साहित्यकोश,' 'साहित्यकारकोश,' 'पात्रकोश,' 'मानक शब्दकोश,' 'पारिभाषिक शब्दकोश' आदि प्रणीत एवं प्रकाशित हुए हैं । अन्य अनेक शब्दकोशों का भी निर्माण हुआ है; फिर भी सांस्कृतिक एवं दार्शनिक ज्ञानकोश, एवं चरित्रकोश निर्माण के कार्य हिन्दीभाषी क्षेत्र में अभी नहीं हुए। इस प्रकार के कार्य यहाँ पूना नगर में मराठी में चल रहे हैं, और वे हिन्दी में रूपान्तरित होकर भी प्रकाशित होंगे। महामहोपाध्याय श्री. सिद्धेश्वरशास्त्री जहाँ तक मुझे ज्ञात है, इस विषय को लेकर अब तक हिंदी में एक ही ग्रन्थ प्रकाशित हुआ है, वह है चतुबंदी पंडित द्वारिकाप्रसाद शर्मा - कृत 'भारतीय चरिताम्बुधि' । यह बहुत पहले लखनऊ के नवलकिशोर प्रेस से प्रकाशित हुआ था, तथा अब वह अनुपलब्ध है। उस ग्रन्थ में विवरण थे, पर संदर्भ नहीं । परंतु प्रस्तुत 'प्राचीन भारतीय चरित्रकोश' तो १२०४ पृष्ठों का एक विशालकाय परिपूर्ण चरित्रकोश है। इस कोश की विशेषता इस बात में है कि, इसके अंतर्गत प्रत्येक चरित्र एवं चरित्रगत प्रसंगों के समस्त संदर्भ भी दिये गये हैं। इसके कारण यह कोश सामान्य सूचनात्मक कोश न रह कर एक विशिष्ट प्रामाणिक ज्ञानकोश बन गया है, जिसकी संदर्भ - सामग्री अनुसंधित्सु विद्वानों के लिए उनके शोधकार्य के हेतु उपयोगी संदर्भसंकेत प्रस्तुत करती है। मेरा अपना विचार है कि, इस दृष्टि से यह कार्य अद्वितीय उपादेयता से युक्त है । इसके लिए हिंदी संसार शास्त्रीजी का बड़ा ऋणी रहेगा। १ इस मंडल के अंतर्गत दूसरे अन्य कोश ग्रंथ भी हिंदी में शीघ्र ही प्रणीत एवं प्रकाशित होनेवाले हैं, जिनमें प्रमुख हैं: - 'प्राचीन स्थलकोश ' तथा 'प्राचीन ग्रंथकोश' । इन ग्रन्थों के प्रकाशित होने पर हमें प्राचीन भारतीय संस्कृति एवं इतिहास-संबंधी ज्ञान सरलता से उपलब्ध हो सकेगा। अभी तक हम अपने प्राचीन इतिहास तथा संस्कृति को विदेशी आँखों या चश्मे से देखते रहें हैं; परंतु इस प्रकार के प्रामाणिक एवं निश्चित सुचना देनेवाले ग्रन्थों से हम स्वयं उसके संबंध में अनेक उपयोगी सूचनायें प्राप्त कर सकेंगे । इन सूचनाओं तथा प्राचीन भारत की संस्कृति, साहित्य एवं इतिहास-संबंधी ज्ञान को व्यापक प्रसार देने के उद्देश्य से ही इन ग्रन्थों का प्रणयन तथा प्रकाशन किया जा रहा है । यदि विद्वानों तथा जिज्ञासुओं के द्वारा इन ग्रन्थों का स्वागत तथा उपयोग हो सका, तो हमें विशेष प्रसन्नता तथा प्रोत्साहन प्राप्त होगा, तथा 'मण्डल' अपना कार्य अधिक उत्साह से कर सकेगा। हम अपनी ओर से विद्वानों के सुझाओं तथा सम्मतियों का सहर्ष स्वागत करेंगे | विश्वविद्यालय पूना ४-११-६४ पूना भगीरथ मिश्र प्रधान परामर्शकार, हिंदी विभाग, भारतीय चरित्रकोश मण्डल, पूना Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना इतिहासोत्तमादस्मात् जायन्ते कविबुद्धयः । नवीनराष्ट्रनिर्माणं संस्कृतेः प्रसरस्तथा ॥ ( इतिहास के अध्ययन से मनुष्य बुद्धि प्रगल्भ हो जाती है। संस्कृति के प्रचार एवं नवीन राष्ट्र के निर्माण की प्रेरणा भी इतिहास के अध्ययन से प्राप्त होती है ) । -- | भूमिका मानवीय बुद्धि को प्रगस्म, क्रियाशील एवं उदयशील बनाने के लिए इतिहासाच्ययन जैसा अन्य कोई भी साधन नहीं है । यह तत्त्व महाभारत - रामायणकाल से ही समस्त भारतीय वाङ्मयों में दुहराया गया है। इतिहास का आह्यावरण यद्यपि राजवंशों के नामा वलियों अथवा रक्त की नदी बहा देनेवाली दुर्भाग्यपूर्ण लड़ाइयों के वृत्तान्त से बना है, फिर भी उसकी आत्मा संस्कृति की स्थापना एवं प्रसार से संबंध रखती है। इसी अदा से भारत के प्राचीन इतिहास के अध्ययन एवं संशोधन का कार्य स्वातंत्र्योत्तर काल में प्रारंभ हुआ है । उसी परंपरा में 'प्राचीन चरित्रकोश' को एक इतिहास ग्रंथ के रूप में हिन्दी पाठकों के सम्मुख प्रस्तुत करने में आज मुझे अपार हर्ष हो रहा है । ' महाभारत में ज्ञान को धर्मचक्षु से बढ़ कर अधिक श्रेष्ठ' कहा गया है ( नास्ति विद्यासमो चक्षुः म. शां. ३१६.६)। प्राचीन भारतीय इतिहास के संबंध में ऐसे ही 'चक्षु' का कार्य करने में इतिहास ग्रंथों से सहायता मिलती है । यदि इस ग्रंथ से इस कार्य की थोड़ी सी मी पूर्ति संभव हो सकी, तो मैं अपने प्रयास को कृतकृत्य समझँगा । इतिहास की सामग्री वैदिक, पौराणिक, बौद्ध एवं जैन साहित्य मात्र में ही उपलब्ध है। इस लिए हमारे परंपरागत वेद, पुराण एवं बौद्ध-जैन आदि के धार्मिक ग्रंथ केवल धार्मिक साहित्य ही नहीं हैं, चल्कि उनमें इतिहास की भी प्रचुर उपयोगी सामप्रियाँ संचित हैं। यह तथ्य अब सभी विद्वानों द्वारा स्वीकार कर लिया गया हैं। उपरोक्त साहित्य में राजनैतिक, भौगोलिक एवं ऐतिहासिक ही नहीं, वरन् सांस्कृतिक, सामाजिक एवं आध्यात्मिक सभी प्रकार की शोध सामग्रियाँ उपलब्ध है। • मैक्स मूलर, रॉथ, ओल्डेनबर्ग आदि ने वैदिक साहित्य के, पार्गिटर, हाज़रा आदि ने पौराणिक साहित्य के, डॉ. रामकृष्ण भाण्डारकर, डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल आदि ने पाणिनीय व्याकरण के, एवं डॉ. राईस डेविडज् ने बौद्ध साहित्य के संबंध में युगप्रवर्तक संशोधन पिछली शताब्दी में किये हैं, एवं इन्हीं संशोधक विद्वानों के अथक परिश्रम के कारण इन ग्रन्थों का अद्वितीय महत्त्व भारतीय इतिहास की सामग्री के लिए सिद्ध हो चुका है। आधुनिक दृष्टिकोण की आवश्यकता - यद्यपि प्राचीन्' भारतीय साहित्य में संचित सामग्री अत्यंत महत्वपूर्ण है, फिर भी उनका विश्लेषण एवं समीक्षा आधुनिक इतिहास संशोधन की तर्कपूर्ण दृष्टि से यदि नहीं किया जाय तो उनका वर्तमान युग में कोई महत्व नहीं रह जाता है। इस महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त का प्रतिपादन भी उपर्युक्त विद्वानों के द्वारा ही किया गया है। इस प्रकार इन ग्रन्थों के अध्ययन का एक नया युग उपर्युक्त संशोधकों के संशोधन के कारण प्रारंभ हुआ है। प्राचीन भारतीय इतिहास - भारतीय इतिहास के पृष्ठ अत्यंत उज्वल हैं। जब इजिप्त, रोम आदि पश्चिमी सभ्यताओं का जन्म भी नहीं हुआ था, उस समय यहाँ की सभ्यता एवं संस्कृति चर्मोत्कर्ष पर थी । ईसा से हजारों वर्ष पूर्व का भारतीय इतिहास वैदिक, पौराणिक, बौद्ध एवं जैन साहित्य में उपलब्ध है भारत का परंपरागत इतिहास चंद्रगुप्त मौर्य से प्रारंभ माना जाता है, तथा भारत का पहला साम्राट यही माना जाता है। उसके उत्तरकालीन अनेकानेक शिलालेख, ताम्रपत्र तथा अन्य साहित्य विविध रूपों में उपलब्ध हैं, जो इतिहास लेखन को सुलभ बनाते हैं । किंतु चंद्रगुप्त मौर्य के पूर्वकालीन | के अध्येताओं एवं संशोधकों के बीच प्रस्थापित हो 1 किसी भी देश का इतिहास प्रायः व्यक्ति परित्रात्मक रहता है। इसी कारण इतिहास में निर्दिष्ट व्यक्तियों का सर्वांगीण अध्ययन करना इतिहास के अध्ययन का एक सब से अधिक लाभप्रद मार्ग है, यह तथ्य इतिहास . Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन चरित्रकोश चुका है। इसी ऐतिहासक सामग्री को आधुनिक | हम आशा करते हैं कि, प्राचीन भारतीय इतिहास एवं इतिहाससंशोधन की दृष्टि से जाँच कर, एवं इनसे | संस्कृति के प्रत्येक विद्यार्थी, जिज्ञासु, संशोधक एवं सर्वसंबंधित आज तक हुए महत्त्वपूर्ण शोध का यथा- साधारण पाठक के लिए यह ग्रन्थ अत्यधिक उपादेय योग्य उपयोग कर 'प्राचीन चरित्रकोश' आज पाठकों | सिद्ध होगा। के समक्ष प्रस्तुत किया जा रहा है। प्राचीन भारतीय आभारप्रदर्शन--इस ग्रन्थ का मराठी संस्करण आज व्यक्तिविषयक सामग्री को इतने व्यापक, परिपूर्ण एवं | से बत्तीस वर्ष पूर्व प्रकाशित हुआ था, और मराठीभाषियों प्रामाणिक संदी सहित संकलित करनेवाला भारतीय | के बीच अत्यंत लोकप्रिय हुआ था। मराठी में प्रकाशित भाषाओं में यह सर्व प्रथम कोश कहा जा सकता है। प्राचीन चरित्रकोश' के इस परिवर्धित और परिमार्जित प्राचीन चरित्रकोश-इस ग्रन्थ में वेद, स्मृति, पुराण हिन्दी संस्करण में मूल मराठी ग्रन्थ से अधिक ५५० पृष्ठों आदि प्राचीन भारतीय साहित्य में निर्दिष्ट व्यक्तियों के की जानकारी दी गयी है। जीवनचरित्र, एवं तविषयक संदर्भसहित सामग्री अकारादि | भारत सरकार एवं महाराष्ट सरकार के शिक्षा मंत्रालयों क्रम से एवं सप्रमाण प्रस्तुत की गयी हैं। इस ग्रन्थ | के आर्थिक सहयोग से ही इतने परिवर्धित रूप में यह ग्रंथ में संग्रहित चरित्रों की संख्या लगभग बारह हजार से भी | आज प्रकाशित हो सका है। इसलिए मैं उनका एवं विशेष अधिक है, एवं उनमें राजा, ऋषि, रानी, ऋषि-पत्नी, देवता, कर केंद्रीय सरकार के हिन्दी-निदेशालय का आभारी हूँ। पितर, नाग, सर्प, यक्ष, राक्षस, गंधर्व, किन्नर, भूत, अप्सरा, भारत सरकार के उपशिक्षामंत्री माननीय श्री.भक्तदर्शन राजनीतिज्ञ, सूत्रकार, धर्मशास्त्रकार, गोत्रकार, मंत्रकार | ने 'पुरस्कार' लिख कर इस ग्रंथ का गौरव बढाया है, का आदि विभिन्न प्रकार के चरित्रों का समावेश है । व्यक्ति इस लिए मैं उनका अत्यंत आभारी हूँ। चरित्रों के अतिरिक्त लोक-समूह, जाति-समूह, गणराज्य इस ग्रंथ के सृजन के हर स्तरों पर भारतीय चरित्रको एवं देशों की जानकारी भी व्यक्तिचरित्रों का ही अंगभूत मण्डल के कार्यकारिणी के अध्यक्ष श्री. पाण्डुरङ्ग जयराव भाग मान कर दी गयी है। चिन्मलगुन्द, आइ. सी. एस् , एवं मण्डल के हिन्दी ___ कालमर्यादा-ऐतिहासिक दृष्टि से इस ग्रंथ की काल विभाग के प्रमुख परामर्शकार डॉ. भगीरथ मिश्र एम. ए., मर्यादा यद्यपि चंद्रगुप्त मौय तक ही सीमित है, फिर भी पी. एच. डी. से महत्त्वपूर्ण सहायता मिली है, जिनकी वेद, वेदांग एवं पुराणआदि ग्रंथ, जिनके आधार पर इस | कृतज्ञता ज्ञापन करना मैं अपना कर्तव्य समझता हूँ। ग्रन्थ की रचना की गयी है, उनकी कालमर्यादा को ही | ___मण्डल के अन्य सदस्य श्री. के. पां. जोशी, वकील, यहाँ स्वीकार किया गया है। उदाहरणस्वरूप-मत्स्य, डॉ. ग. रं. धडफले एवं श्री. वसंत अ. गाडगील का · वायु आदि पुराणों में चंद्रगुप्त मौर्य के उत्तरालीन 'भविष्य- | इस ग्रंथ के निर्माण में महत्त्वपर्ण सहयोग रहा है। वंशों की दी गयी जानकारी को इस कोश में समाविष्ट । इस ग्रंथ के निर्माण में प्रा. गोवर्धन परीख, रेक्टर, किया गया है। बम्बई विश्वविद्यालय, तर्कतीर्थ श्री. लक्ष्मणशास्त्री जोशी, बौद्ध एवं जैन साहित्य-यद्यपि वेद, पुराण, महा- अध्यक्ष, महाराष्ट्रराज्य साहित्य संस्कृति मंडळ, श्री. चिं. भारत आदि को आधार मान कर इस ग्रन्थ की | रा. बोंद्रे, डॉ. वा. वि. मिराशी, श्री. बा. ना. तडवलरचना की गयी हैं, फिर भी इन ग्रन्थों में अनुपलब्ध कर, एवं डॉ. ना. कु. भिडे, नयी दिल्ली के रचनात्मक गौतम बुद्ध, वर्धमान महावीर, सिकंदर आदि व्यक्तियों, | सुझाव उपयोगी रहे । एवं उनके समकालीन अन्य लोगों की जानकारी समका- इस ग्रंथ के अनुवादकार्य में प्रा. सुधारक रामचंद्र गोललीनत्व के कारण इस ग्रन्थ के परिशिष्ट में सम्मिलित की गयी वलकर, एम. ए., राजकुमार कॉलेज, रायपुर का सहयोग हैं। पौराणिक राजाओं एवं ऋषियों की जानकारी उनके उल्लेखनीय है। प्रा. चारुचन्द्र द्विवेदी, एम.ए. एवं श्री. वंशों के जानकारी के बिना अर्थहीन प्रतीत होती हैं। बलिराम सिंह के योगदान भी उपयोगी रहे। | इस ग्रन्थ के पुनर्लेखन, संपादन एवं मुद्रण के कार्य में में दी गयी है। व्यक्तियों एवं ग्रन्थों के कालनिर्णय से | चरित्रकोश मण्डल के श्री. विनायक चित्राव, श्री. अरविंद संबंधित एक स्वतंत्र परिशिष्ट भी अंत में जोड़ दिया | जामखेडकर एम. ए., श्रीमती विद्या चित्राव, बी. ए., गया है। | एवं कुमारी कुंदा जामखेडकर के अथक परिश्रम के फल Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना स्वरूप ही यह ग्रन्थ इस रूप में आ पाया है। मैं इन पाण्डुलिपि भी नष्ट हो गयी। महाराष्ट्र सरकार एवं अनेकानेक सभी सहयोगियों का हृदय से आभारी हूँ। हितैषियों के सहयोग से मण्डल के पुनरुत्थान का प्रयत्न जो ___ ग्रन्थ की रूपसज्जा के लिए साधना प्रेस पूना के | पिछले तीन वर्षों में हुआ है, इस ग्रंथ का प्रकाशन उसकी श्री. ह. म. गद्रे, श्री. वि. नी. पटवर्धन एवं श्री. दत्तोबा एक कड़ी मात्र है। निकट भविष्य में ही 'प्राचीन स्थलकोश' टिबे मेरे धन्यवाद के पात्र हैं। भी प्रकाशित होगा, ऐसी में आशा रखता हूँ। इस __अंत में, सन १९६१ ई. के मूठा नदी के पानशेत पुनरुत्थानकार्य में सहायता पहुँचानेवाले हर व्यक्ति का बाढ़ का उल्लेख कर देना अनावश्यक नहीं होगा, जिसमें में सदैव ऋणी रहूँगा। भारतीय चरित्रकोश मण्डल को डेढ़ लाख से भी अधिक मूल्य भारतीय चरित्रकोश मण्डल) की क्षति उठानी पड़ी। इस बाढ़ में मण्डल की दुर्लभ पूना ४. सिद्धेश्वरशास्त्री चित्राव ग्रंथ सामग्रियों के अतिरिक्त 'प्राचीन स्थलकोश' की ५-११-१९६४ कोश कैसे देखें ? (१) इस कोश में वेद, उपवेद, पुराण, उपनिषद् (४) हर एक व्यक्ति की जानकारी देते समय आदि प्राचीन साहित्य में निर्दिष्ट व्यक्तियों के जीवन- | उसके निवासस्थान, कालनिर्णय एवं कर्तृत्त्व की समीक्षा पर चरित्र वर्णमाला के क्रम से दिये गये हैं। इन साहित्यों विशेष जोर दिया गया है। इनके कालनिर्णय की में निर्दिष्ट प्राचीन भारतीय इतिहास चंद्रगुप्त मौर्य के जानकारी के लिए कालनिर्णयकोश का स्वतंत्र परिशिष्ट राज्यकाल तक निर्दिष्ट है । इसी कारण, प्रागैतिहासिक (परिशिष्ट ७) दिया गया है, जिसमें व्यक्ति एवं कालकाल से चंद्रगुप्त मौर्य तक के व्यक्तियों के जीवनचरित्र निर्णय के ग्रंथों के संबंध में उपलब्ध जानकारी संक्षिप्त इस कोश में दिये गये हैं। फिर भी इस कोश की काल- रूप में दी गयी हैं (पृष्ठ ११६९-१९८०)। मर्यादा अधिकतर प्राचीन भारतीय साहित्य से संबद्ध है। व्यक्तियों के कर्तृत्व का यथायोग्य मूल्यमापन करने के इसी कारण उस साहित्य में निर्दिष्ट चंद्रगुप्त मौर्य के लिए उनका ग्रंथकर्तृत्व, तत्त्वज्ञान, संवाद, पूर्वाचार्य, (कालान कई व्याक्तया क जावनचरित्र भा पाराणिक शिष्यपरंपरा युद्धकर्तृत्व आदि की सविस्तृत जानकारी साहित्य में निर्दिष्ट होने के कारण समाविष्ट किये गये है। दी गयी हैं। जहाँ आवश्यक समझा गया वहाँ रामायण, इसी काल में समाविष्ट होनेवाले गौतम बुद्ध, वर्धमान महाभारत एवं पौराणिक साहित्य आदि मूल ग्रंथों के महावीर एवं सिकंदर के एवं उनके समकालीन व्यक्तियों उद्धरण भी अर्थ के सहित दिये गये है। विशेष स्पष्टीकरण के जीवनचरित्र क्रमशः परिशिष्ट १, २, ३ में दिये | के लिए २४ तालिम के लिए २४ तालिकाएँ भी ग्रंथ में समाविष्ट की गयी हैं, गये हैं (पृष्ठ १११७-११३८)। जिनकी अनुक्रमणिका ग्रंथ के आरंभ में ही प्राप्य है। (२) इस कोश में व्यक्तियों के जीवनचरित्र के साथ (५) जैसे पहले ही कहा जा चुका है, इस ग्रंथ में प्राचीन साहित्य में निर्दिष्ट जातिसमूह, मानवसमूह, देवता- दिये गये व्यक्तिचरित्र, वर्णमाला के क्रम से दिये गये समूह, यक्ष, राक्षस, वानर आदि के चरित्र भी सम्मिलित | हैं । कोश के प्रायः सभी आधारभूत ग्रंथ संस्कृत भाषा के किये गये हैं। होने के कारण, इस ग्रंथ का सारा वर्णानुक्रम संस्कृता(३) उपर्युक्त सभी समूहों की जानकारी उनके परि नुसार रखा गया है। लिपि एवं अंकक्रम देवनागरी पद्धति वार एवं वंशों की जानकारी के बिना अपूर्ण सी प्रतीत से दिये गये हैं। होती है । इसी कारण, इन सारे समूहों के वंशों की वर्णमाला के हर एक वर्गों के अक्षरों के पूर्व के सविस्तृत जानकारी परिशिष्ट ४,५,६ में दी गयी है (पृष्ठ | अनुस्वार उसी वर्ग के अनुनासिक ही होंग, यह मान कर ११३९-११६९)। व्यक्ति चरित्रों का क्रम रखा गया है। किन्तु छपाई की Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन चरित्रकोश सुविधा के लिए सर्वत्र अनुस्वार का प्रयोग किया गया है (१०) एक ही नाम के अनेक व्यक्तियों को उनके (उदा. 'अंग', 'विभांडक')। कालक्रम के अनुसार २,३,४ अंकों के साथ प्रस्तुत किया य, र, ल, व, श, ष, स- इनके पहले आनेवाले | गया है। अनुस्वार, तथा श, ष, स, ह इन अक्षरों के पूर्व में (११) जानकारी एवं विवरण की पुनरावृत्ति से बचने आनेवाले विसगयुक्त शब्द, हर एक वर्ण के पहले | के लिए अथवा परस्परसंबंध एवं साम्यता दिखाने के अनुस्वार एवं विसर्ग, इस क्रम से दिये गये हैं। 'क्ष' का | लिए 'विशिष्ट शब्द देखिये ऐसा निर्देश कोष्ठकों में किया अंतर्भाव 'क' वर्ण में, एवं ज्ञ का अंतर्भाव 'ज' वर्ण में | गया है। किया गया है। (१२) 'पुत्र' इस शब्द का प्रयोग 'उत्तराधिकारी' (६) व्यक्तिनामों के मूलशब्द चरित्र के प्रारंभ में | | के रूप में किया गया है। मातृक एवं पैतृक ये विशेषण किया गया मोटे अक्षरों में दिये हैं, एवं उनके पाठभेद भी वहाँ | नाम की व्युत्पत्ति के अनुसार प्रयुक्त किये गये हैं। किंतु कोष्ठक में दिये गये हैं। पाटभेद जब एक से अधिक संख्या में प्राप्त है, वहाँ उनका स्वतंत्र निर्देश भी चरित्र के सर्व- | सकती है। प्रथम परिच्छेद में दिया गया है। (१३) जातिसमूह एवं व्यक्ति के नाम जहाँ एक(७) व्यक्तिनामों के बाद कोष्ठक में दिये गये 'सो. सरीखे हों, वहाँ दोंनों की जानकारी स्वतंत्र रूप से प्रस्तुत कुरु,' 'सो. पूरु' जैसे 'संकेत' वंश से संबंधित है, की गयी है। जिनका सविस्तृत स्पष्टीकरण एवं संदर्भ अंत में दिये गये | परिशिष्ट ४ एवं ५ (पृष्ठ ११३९-११६५) में प्राप्त हैं। (१४) प्रायः सभी व्यक्तिचरित्र उनके मूल संस्कृत (८) इस कोश में चरित्रों की जानकारी प्रायः माता नाम से प्रस्तुत किये गये हैं, किंतु व्यक्तियों के मूल पिता, जन्म, शिक्षा, विवाह, कार्य, वैशिष्टय, परिवार, । संस्कृत नाम जहाँ अनुपलब्ध हैं, वहाँ उनके उपलब्ध नाम ग्रंथपरिचय, वंशावलि, गोत्रकार आदि के क्रम से दी गयी से ही जानकारी प्रस्तुत की गयी है । उदाहरण में निम्न है। संबंधित प्राचीन साहित्य में प्राप्त संदर्भ वहीं के लिखित नामों का निर्देश किया जा सकता है:-अहीना • वहीं निर्दिष्ट किये गये हैं। आश्वत्थ्य, तोंडमान, बम्बाविश्वावयस् आदि । (९) इस ग्रंथ के चरित्र, सर्वप्रथम वैदिक सामग्री. एवं (१५) इस ग्रंथ के लिए प्रयुक्त आधारग्रंथ, उनके - बाद में पौराणिक साहित्य में प्राप्त सामग्री पर आधारित | संस्करण, एवं उनके लिए कोश में प्रयुक्त किये गये संकेत प्रस्तुत किये गये हैं। इस प्रकार चरित्रों में प्राप्त विवरण | ग्रंथ के आरंभ में दिये गये हैं। ऋग्वेदसंहिता, अन्य वैदिकसंहिता, उपनिषद, सूत्र, वेदांग, | (१६) ग्रंथ के अंत में व्यक्तिसूचि एवं विषयसूचि दी - वायु, ब्रह्मांड आदि प्राचीनतर पुराण, एवं पद्म, स्कंद गयी है, जिस में प्रमुख व्यक्तियों एवं विषयों की आदि उत्तरकालीन पुराण इस क्रम से दिये गये हैं। जानकारी संकलित की गयी है । आधार ग्रंथ, उनके लिए प्रयुक्त संकेत एवं संस्करण संस्करण संपूर्ण नाम आदिपुराण आपस्तंवधर्मसूत्र संकेत संपूर्ण नांव अग्नि. अग्निपुराण अध्या. रा. अध्यात्मरामायण अ. प्रा. अथर्वप्रतिशाख्य अ. रा. अद्भुतरामायण ( उत्तर कांड) म. वे. अथर्ववेद संस्करण - संकेत आनंदाश्रम, पूना . आदि. गोरखपुर | आप. ध. हिटनेप्रत मोदवृत्त प्रेस, आवृत्ति | आप.श्री. तीसरी -आ. रा. --सार. श्रीवेंकटेश्वर प्रेस विद्यामुद्राक्षरशाला कुंभकोणम् क्रिष्टल संस्करण आ.ध. आपस्तंबश्रौतसूत्र आनंदरामायण १-सारकांड Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आधारभूत ग्रंथ संकेत संपूर्ण नाम संस्करण | संकेत संपूर्ण नाम संस्करण --यात्रा, २--यात्राकांड गौतम गृह्यसूत्र आनंदाश्रम . याग, ३--यागकाड गौ. ध. गौतम धर्मसूत्र --विलास. ४--विलासकांड छो. उ. छांदोग्य उपनिषद " ---जन्म. ५-- जन्मकांड जैमिनि अश्वमेध पुराण-प्रकाशक मंडल, --विवाह. ६--विवाहकांड वाई --राज्य, ७--राज्यकांड जै. उ. ब्रा. जैमिनीय उपनिषद्-- १ ---(पूर्वा) ब्राह्मण लाहोर, १९२१ - २ ----(उत्तरार्ध) जै. ग. जैमिनिगृह्यसूत्र पंजाब संस्कृत सीरीज . --मनोहर. ८--मनोहरकांड -१ --पूर्वार्ध -पूर्ण. ९–पूर्णकांड --उत्तरार्ध आश्व. गृ. आश्वलायन गृह्यसूत्र निर्णयसागर प्रेम जैमिनीय ब्राह्मण आश्व. श्री. आश्वलायन श्रौतसूत्र आनंदाश्रम पूना। ब्रा. तांड्य ब्राह्मण ( इसे पंचआ. ब्रा, आर्षेणब्राह्मण बर्नेलप्रत । विंश, एवं प्रौढ ब्राह्मण भी कहते है). ई. उ. ईशावास्य उपनिषद् अष्टेकर मंडली चौखम्बा . ऋ. ऋग्वेद मॅक्स मुल्लर री आवृत्ति तैत्तिरीय आरण्यक आनंदाश्रम ऋग्वेदप्रातिशाख्य मॅक्स मुल्लर संस्करण | तैत्तिरीय उपनिषद् आनंदाश्रम . (सूत्रांक, कचित् पटल एवं श्लोक ) तैत्तिरीय प्रतिशाख्य म्हैसूर सीरीज ऐतरेय आरण्यक आनंदाश्रम | ते. ब्रा. तैत्तिरीय ब्राह्मण आनंदाश्रम ऐतरेय उपनिषद् आनंदाश्रम सं. तैत्तिरीयसंहिता आनंदाश्रम ऐतरेय ब्राह्मण आनंदाश्रम | दे. भा. देवी भागवत उ. कठ उपनिषद् अष्टेकर मंडली द्रा. श्री. द्राह्यायण श्रौतसूत्र कठसंहिता लिपझिक, १९१२ | ना.उ. नारायण उपनिषद्, आनंदाश्रम, पूना । कापि. सं. कापिष्ठलसंहिता नारद. नारद पुराण वेंकटेश्वर प्रेस, बंबई। कालि. कालिकापुराण श्रीवेंकटेश्वर प्रेस ' -पूर्व भाग कूर्म. कूर्मपुराण श्रीवेंकटेश्वर प्रेस | -२ -उत्तर भाग केन उपनिषद् निरुत .. वेंकटेश्वर प्रेस, बंबई । कैवल्य उपनिषद् नृसिंह. नृसिंहपुराण गोपाळ नारायण प्रेस। कौशिकसूत्र अमेरिकन ओरि.सो.सी. | पद्म. पद्मपुराण वेंकटेश्वर प्रेस, बंबई; कौटिल्यकृत अर्थशास्त्र -सृ. . १-सृष्टिखंड आनंदाश्रम (कचित्) कौषीतकि उपनिषद् २-भूमिखंड ३-स्वर्गखंड खादिर गृह्यसूत्र ४-ब्रह्मखंड खा. श्री. खादिर श्रौतसूत्र म्हैसूर सीरीज ५-पातालखंड गणेशपुराण मोदवृत्त मुद्रणालय, शक १८२८ ६-उत्तरखंड गरुड, गरुडपुराण श्रीवेंकटेश्वर प्रेस -क्रि. ७-क्रियायोग गर्गसंहिता श्रीवेंकटेश्वर प्रेस पं. ना. पंचविंश ब्रह्मण गोभिल गृह्यसूत्र परा. मा. पराशर माधव निर्णयसागर प्रेस, . गोपथ ब्राह्मण बिब्लिओथिका इंडिका stc' ate atc ate etc to hi क. सं. t -स्व. गणेश. बंबई Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन चरित्रकोश संकेत . संपूर्ण नाम संस्करण संकेत पा. ग. पारस्कर गृह्यसूत्र गुजराथ प्रेस, बंबई. -वि. -स्त्री. -शां. T -महा. -स्व. पाणि निसूत्र-अध्याय, पाद, सूत्र -भी. प्रश्न उपनिषद् आनंदाश्रम, पूना वृ. उ. बृहदारण्यक उपनिषद् -क. (काण्व) -श. बृहद्दे. बृहद्देवता राजेंद्रलाल मित्र ब्रह्म. सू. ब्रह्मसूत्र बौ, ध. बौधायन श्रौतसूत्र ब्रह्म. ब्रह्मपुराण आनंदाश्रम, पूना ब्रह्मवै, ब्रह्मवैवर्तपुराण आनंदाश्रम, पूना -आश्व, ब्रह्मखंड -आश्र, प्रकृति खंड गणपति खंड कृष्णजन्म खंड अमांड. ब्रह्मांड पुराण श्री वेंकटेश्वर प्रेस, मत्स्य . - -प्रक्रियामाद बंबई महा. . मां. उ. -२ -अनुषंगपाद मा. ग. -३ --उपोद्घात पाद --उपसंहार पाद भवि. भविष्यपुराण वेंकटेश्वर प्रेस बंबई .' -ब्रह्म १--ब्राह्मपर्व मा. श्री. - -मध्यम २--मध्यमपर्व मिता. -प्रति ३–प्रतिसर्गपर्व -उत्तर ४--उत्तरपर्व भवि उ. भविष्योत्तर पुराण श्री वेंकटेश्वर प्रेस, | मुद्गल. बंबई भा. भागवत निर्णयसागर प्रेस | मै.सं. श्रीधरी एवं विजय- | याज्ञ. ध्वजी टीकाओं का | यो, वा. उपयोग भी किया गया | र.वं. है; गोरखपुर संस्करण | रेणु. मा. श्री. भारद्वाजश्रौतसूत्र | ला. श्री. भा. सा. भारतसावित्री चित्रशाला प्रेस, पूना म. महाभारत भांडारकर संहिता। लिंग. -आ. १-आदिपर्व (* चिन्ह से भांडारकर -स. २-सभापर्व संहिता के पाठभेद में व. ध, संपूर्ण नाम संस्करण ३-वनपर्व दिये गये श्लोकों का ४-विराटपर्व निर्देश अभिप्रेत है। ५-उद्योगपर्व महाभारत के ६-भीष्मपर्व कुंभकोणम् , कलकत्ता, ७-द्रोणपर्व मुंबई एवं चित्रशाला ८-कर्णपर्व प्रेस पूना के द्वारा ९-शल्यपर्व प्रकाशित संस्करणों का १०-सौप्तिकपर्व उपयोग भी किया ११-स्त्रीपर्व गया है। इनमें से १२-शान्तिपर्व चित्रशाळा संस्करण में १३-अनुशासनपर्व नीलकंठ चतुर्धर टीका १४-आश्वमेधिकपर्व प्राप्त है। १५-आश्रमवातिक पर्व अनुशासनपर्व के १६-मौसलपर्व सारे संदर्भ चित्रशाला १७-महाप्रस्थानिकपर्व संस्करण के लिये १८-स्वर्गारोहणपर्व गये है। मत्स्यपुराण आनंदाश्रम, पूना महाभाष्य १-३ खंड, कीलहान संस्करण मांडूक्य उपनिषद् मानव गृह्यसूत्र मार्कंडेय पुराण मोदवृत्त प्रेस, एवं पार्गिटर का इंग्रजी अनुवाद मानव श्रौतसूत्र मिताक्षरा याज्ञवल्क्य स्मृति पर आधारित मुंडक उपनिषद् आनंदश्रम, पूना मुद्गल पुराण हस्तलिखित मैत्री उपनिषद् मैत्रायणी संहिता याज्ञवल्क्य स्मृति निर्णयसागर योगवासिष्ठ रघुवंश निर्णयसागर रेणुकामाहात्म्य हस्तलिखित लाट्यायन श्रौतसूत्र वाल्मीकि प्रेस कलकत्ता श्री वेंकटेश्वर प्रेस, बंबई. वसिष्ठ धर्मसूत्र Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संकेत वं ब्रा. वराह. वामन. -1 -२ वायु. वा. रा. - बा. -भयो. - अर. - कि. -मुं. न्यु. - उ. बारा श्री, बा. सं. वै. श्री. श. ब्रा. शा. शिव. संपूर्ण नाम वंश ब्राह्मण वराहपुराण वामनपुराण - पूर्वार्ध - उत्तरार्ध वायुपुराण वाल्मीकि रामायण -शत. - कोटि. -उमा वाराह श्रौतसूत्र वाजसनेय संहिता विष्णुधर्म, विष्णुधर्मोत्तर पुराण श्री वेंकटेश्वर प्रेस, बंबई. - स. -स. वैखानस श्रौतसूत्र शतपथ ब्राह्मण (माध्यंदिन ) १- बालकांड २-अयोध्याकांड ३- अरण्यकांड ४- किष्किंधाकांड ५- सुंदरकांड ६-युद्धको ७--उत्तरकांड ( अभिज्ञान ) शाकुंतल शिवपुराण - विद्या १. विद्येश्वर संहिता - रुद्र २. रुद्र संहिता - पा. कु. कलकत्ता श्री वेंकटेश्वर प्रेस, पंचाई (३) शतरुद्र संहिता आधारभूत श्री वेंकटेश्वर प्रेस, बंबई. आनंदाश्रम, पूना. (४) कोटिरुद्र संहिता (५) उमासंहिता (अ) सृष्टि खंड (आ) सती खंड (इ) पार्वती खंड (ई) कुमार खंड ( उ ) युद्ध खंड बेवर संस्करण, अनुवाद जे, एगलिंग (सेक्रेड बुक्स ऑफ दि ईस्ट) निर्णयसागर प्रेस, बंबई श्यामकाशी प्रेस, मथुरा ग्रंथ संकेत - पू. - उ. कैलास -वायवीय शु. प्रा. श्वे. उ. ष. ब्रा. साम. महीधर उवट भाष्य, सांब. निर्णयसागर प्रेस. स. गृ. स. ओ. सां. आ. सां. गृ. सां. बा. सां. श्री. सू. सं. स्कंद. माहेश्वर -१ - वैष्णव -१ -२ - ३. - ८ - ९ - ब्रह्म -१ संपूर्ण नाम (अ) पूर्वार्ध (आ) उत्तरार्ध (६) कैलास संहिता (७) वायवीयसंहिता शुकुयजुर्वेद प्रातिशाख्य सांख्यायन ब्राह्मण सांख्यायन श्रौतसूत्र सामवेद श्वेताश्वतर उपनिषद आनंदाश्रम, पूना विंश ब्राह्मण सत्याषाढ गृह्यसूत्र सत्याषाढश्रौतसूत्र सांख्यायन आरण्यक सांख्यायन गृह्यसूत्र - सपुराण सुतसंहिता स्कंदपुराण ( १ ) माहेश्वर खंड (२) वैष्णवखंड, चौखंबा संस्कृत सीरीज वाराणसी संस्करण आनंदाश्रम, पूना आनंदाश्रम, पूना. ओडेनवर्ग (सेक्रेट बुक्स ऑफ दी ईस्ट ) (अं) केदारखंड (आ) कीमारिका खंड (इ) अरुणाचल महात्म्य - १. पूर्वार्ध २. उत्तरार्थ (३) ब्रह्म खंड श्री. वेंकटेश्वर - प्रेस, बंबई आनंदाश्रम, पूना (अ) वेंकटाचल माहात्म्य (आ) जगन्नाथक्षेत्र माहात्म्य (९) बदरिकाश्रम माहात्म्य (ई) कार्तिकमास माहात्म्य (3) मार्गशीर्षमास माहात्स्य (ऊ) श्रीमद्भागवतमाहात्म्य (ओ) वैशाखमा समाहात्म्य (अ) अयोध्यामाहात्म्य (अं) वामुदेवमाहात्म्य (अ) सेतुमाहात्म्य (आ) धर्मारण्यखंड Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संकेत - ३ - काशी -१ -२ - अवंती -? - २ - नागर संपूर्ण नाम (इ) ब्रह्मोत्तरखंड (४) काशी खंड (अ) पूर्वाध (आ) उत्तरार्ध (५) अवंती खंड प्राचीन चरित्रकोश (६) नागर खंड संस्करण संकेत (अ) अवंती क्षेत्रमाहात्म्य (आ) चतुरशीतिरिंगमाहात्म्य (द) रेवाखंड (1) Altindische Leben-H. Zimmer, 1879, Berlin. (2) Ancient Indian Historical Tradition F. E. Pargiter. Delhi. (3) Cambridge History of India, Vol. I— E. G. Rapson. 1922, Cambridge (4) Catalogous Catalogorum-Theodore Aufrecht. - प्रभास (11) Grihyasutras of Sankhyayana, Ashwalayana, Paraskara, Khadir, Gobhila, २ -२ अंग्रेजी आधारग्रंथ ९ स्मृतिचं. ह. बं. -१ -२ संपूर्ण नाम (७) प्रभास खंड संस्करण Hiranyakeshin and Apastamba-H. Oldenberg, Sacred Books of the East, Vols. XXIX and XXX. (12) History and Culture of Indian People, Vol. I -- Vedic Age – Dr. R. C. Majumdar, 1948, Bombay. (13) History of Ancient Sanskrit Literature - Max Muller. 1912, Allahabad. (5) Chronology of Ancient India – Dr. Si- (14) History of Dharmashastra, Vols. I. tanath Pradhan. V-Dr. P. V. Kane. Poona. (6) Concordance of Principle Upanishadas— (15) History of Indian Literature-Dr. Col. A. A. Jacob. Albrecht Weber. (7) Constructive Survey of Upanishadic Phi- (16) History of Indian Literature, Vol. I— losophy-Dr. R. D. Ranade. Vedic Age-M. Winternitz, 1927, Calcutta. (8) Dharmasutras of Apastamba, Gautama, (17) History of Sanskrit Literature- A. A. Vasista and Baudhayana G. Buhler, Macdonell. Sacred Books of the East Vols. II and XIV. (9) Dictionary of Pali Proper Names (2 Vols.) - G. P. Malalasekhara. 1960, London. (10) Geographical and Economic Studies in the Mahabharata-Upayana Parva-Dr. Motichandra. (अ) प्रभासक्षेत्रमाहात्म्य (आ) वस्त्रापथक्षेत्रमाहात्म्य (इ) अर्बुदाचलमाहात्म्य (ई) द्वारकामाहात्म्य स्मृतिचंद्रिका हरिवंश चित्रशाळा प्रेस, पूना (अ) हरिवंशपर्व (आ) विष्णुपर्व (३) भविष्यपर्व (18) History of Sanskrit Literature C. V. Vaidya. 1930, Poona. (19) Index to the Names in MahabharataS. Sorenson. 1960, Delhi. (20) India as described by Early Greek WritersB. N. Puri. (21) Kautilya's Arthashastra-R. Shamashastri. 1961, Mysore Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आधारभूत ग्रंथ (22) Markandeya Purana (English Transla- (29) Studies in the Upapuranas--Dr. R. C. tion with Notes)-F. E. Pargiter. Hazra. (23) Political History of Ancient India-1 (30) Twenty-five Hundred Years of Buddhism H. C. Raychaudhari. Calcutta. -Ed. Dr. P. V. Bapat. (24) Purana Index--H. V. R. Dikshitar. (31) Vaishnavism and Shaivism-Dr. R. G. Madras. Bhandarkar. Poona. (25) Puranic Dyanasties of Kali Age- (32) Vedic Index (2 Vols.)-Dr. A. A. MacF. E. Pargiter. Benaras. donell & Dr. A. B. Keith. Benaras. (26) Studies in Epics and Puranas-Dr. (33) Vedic Mythology-Dr. A. A. Macdonell. A. D. Pusalkar. Bombay. Benaras. (27) Studies in Indian Antiquities--H. C. (34) Vedische Studien-R. Pischel and K. F. Raychaudhari. 1958, Calcutta. Geldner. (28) Studies in the Puranic Records on Hindu (35) Vishnu Purana-A System of Hindu Rites and Customs--Dr. R. C. Hazra. Mythology and Tradition-H. H. Wilson. Calcutta. ___1961, Calcutta. अंग्रेजी संशोधन-पत्रिका A.B.O.R.I.-Annals of Bhandarkar Oriental | J.A.S.B.-Journal of Asiatic Society of Research Institute, Bombay. . I.A.-Indian Autiquary. J.R.A.S.-Journal of Royal Asiatic Society of Great Britain. हिंदी आधारग्रंथ (१) इतिहास प्रवेश-जयचंद्र विद्यालंकार, १९५७ (७) मार्कडेय पुराण-एक सांस्कृतिक अध्ययन (२) पाणिनिकालीन भारतवर्ष -डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल, १९६१, इलाहाबाद -डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल (८) रामकथा- रे. फादर कामिल बुल्के, १९६२, (३) प्राकृत साहित्य का इतिहास-डॉ. जगदीशचंद्र प्रयाग जैन, १९६० वाराणसी (९) वैदिक वाङ्गमय का इतिहास-पं. भगवद्दत्त (४) भारतीय इतिहास-एक दृष्टि-डॉ. ज्योतिप्रसाद (१०) शैवमत-डॉ. यदुवंशी, १९५५, पटना जैन, १९६१ वाराणसी (५) भारतीय इतिहास की रूपरेखा-जयचंद्र (११) संस्कृत व्याकरणशास्त्र का इतिहास-युधिष्ठिर विद्यालंकार मीमांसक (६) महाभारत की नामानुक्रमणिका-गीता प्रेस, (१२) संस्कृत साहित्य का इतिहास-वाचस्पति गोरखपूर | गेरौला, १९६०, वाराणसी Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन चरित्रकोश मराठी आधारग्रंथ गुना (१) आर्या रामायण-के. वि. गोडबोले (८) भारतीय ज्योतिषशास्त्राचा इतिहास(२) ओरायन ऊर्फ आयांचे मूलस्थान शं. बा दिक्षित लो. बा. गं. टिळक (९) भारतीय युद्धकाल निर्णय-के. ल. दप्तरी नागपूर (३) उपनिषदरहस्य-डॉ. रा. द. रानडे पूना (१०) महाभारताचा उपसंहार-चिं. वि. वैद्य पूना (४) गीतारहस्य-लो. बा. गं. टिळक (११) रामचंद्र कालनिर्णय-के. ल. दप्तरी नागपूर (५) दत्त सांप्रदायाचा इतिहास-रा. चिं. ढेरे पूना . (१२) रामायण समालोचना-महाराष्ट्रिय पूना (६) धर्मरहस्य--के. ल. दप्तरी नागपूर (१३) संशोधनमुक्तावलि-डॉ. वा. वि. मिराशी, नागपूर (७) पुराण निरीक्षण-त्र्यं. गु. काळे पूना अनुक्रमणिका पृष्ठ प्राक्कथन प्रस्तावना .... २-४ ११-१२ १-१११५ ... १११७-११२३ ... ११२३-११३२ ११३२-११३८ ... ११३९-११५६ कोश कैसे देखे ?. ... आधारभूत ग्रंथों की नामावलि . ... अनुक्रमणिका एवं तालिका अनुक्रमणिका भधिक जानकारी ... प्राचीन चरित्रकोश ... ___ परिशिष्ट १--श्रीवर्धमान महावीर के समकालीन प्रमुख व्यक्ति परिशिष्ट २–गौतमबुद्ध के समकालीन प्रमुख व्यक्ति परिशिष्ट ३-सिकंदर के आक्रमण कालीन उत्तर पश्चिम भारतीय लोकसमूह एवं गणराज्य परिशिष्ट ४-पौराणिक साहित्य में निर्दिष्ट राजवंश १. सूर्यवंश ११३९-११४२ २. सोमवंश. ११४२-११५१ ३. स्वायंभुव मनु ११५१-११५२ ४. भविष्य वंश ११५२-११५५ ५. मानवेतर वंश ११५५-११५६ परिशिष्ट ५-पुराणों में निर्दिष्ट राजाओं की तालिका परिशिष्ट ६-पुराणों में निर्दिष्ट ऋषियों के वंश परिशिष्ट ७–कालनिर्णयकोश... १. प्राचीन कालगणनापद्धति ११६९-११७२ २. ग्रन्थों का कालनिर्णय ११७२-११७७ ३. व्यक्तियों का कालनिर्णय ११७७-११८० व्यक्तिसूचि विषयसूचि पुद्धिपन्न ... ११५७-११६५ ... ११६५-११६९ ... ११६९-११८० ... ११८१-११९० ... ११९१-१२०२ ... १२०३-१२०४ Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अधिक जानकारी तालिका अनुक्रमणिका ...९२२ w99 १. नागपुत्र ( पुराणों में) २. दोहक गण ३. मम्वन्तर पाठभेद ४. मरुत्गणों के स्थान ५. यक्षप्रश्न (एवं युधिष्ठिर के उत्तर) ६. भारतीय युद्धकालीन सेनागणनापद्धति ७. अष्ट रुद्र 6. एकादश रुद्र ९. अष्टवसुओं का परिवार ( भागवत में) १०. अष्टवसुओं का परिवार ( महाभारत एवं ___ पुराणों में) ११. विश्वामित्र की पत्नियाँ १२. विष्णु की उपासना ....३५६ | १३. चतुर्व्यह (विष्णु का एक अवतारसमूह) ...८८५ ...४५० १४. व्यास की वैदिक शिष्यपरंपरा ...९२१ - १५. उपलब्ध वैदिक धर्मग्रंथ ...६२४ १६. महापुराणों की तालिका ...९२६ ००१७. सप्तद्वीपात्मक पृथ्वी ...१०९६ १८. जंबूद्वीप विभाग ...१०९६ ...७५९ १९. सूर्यवंश के उपविभाग १३९ ...७५९ २०. सूर्य एवं सोम वंशों का विस्तार ...११४४ ...८११ २.. कश्यप ऋषि की मानवेतर संतति ...११५६ २२. पुराणों में निर्दिष्ट राजाओं की तालिका ...११५७ ११६५ ...८७४ २३. पौराणिक ऋषिवंशों की तालिका ...११६७-१.१६९ ...८८४ २४. पौराणिक युगों की तालिका . ...११७० ...८१२ अधिक जानकारी १९ अद्रि-(सू. इ.) विश्वगश्व का पुत्र । १९४ गोवासन (शैव्य)--युधिष्ठिर का श्वसुर । ३२ अरिष्टनेमि यादव--इसकी कन्या सगरपत्नी १९९ घर्घरस्वन-(मार्जारास्या देखिये)। प्रभा (सुमति) (मत्स्य. १२.४२)। २०० घृताची--(कपिंजली)। ५१ असित-बाहु २०. देखिये २१२ चित्रशिखंडिन् २. यह स्वायंभुव नामक ५२ आसतक्षणा-(मलय २. देखिये)। आँठवें मन्वंतर का अधिपति.था। इससे ही आगे ८४ उद्दालकि २.-इसका पुत्र नचिकेतस् (म. चल कर समस्त सृष्टि एवं शास्त्रों का निर्माण हुआ। अनु. ७१)। २३९ झषाक्ष--रथाक्ष देखिये। ८५ उपचिति-(केतुमाल देखिये)। २४२ तरसाहर--रथंतर देखिये। १०४ औपमन्यव-ऊर्जयत् का पैतृक नाम । २७६ दीर्घिका--(मार्कंडेय २. देखिये) ११३ कपिंजलि घृताची-(वसिष्ठ परिवार देखिये)। २. कौशिक १४. देखिये १३३ कांपिजल्य--इंद्रप्रभति वसिष्ठ का नामांतर। २७९ दुर्दम ४.-(पद्म. उ. १७२) १३३ कापिल्य-(भम्यश्व देखिये)। २९३ देवपन्न-(मांडव्य देखिये)। १३९ कालमार्ग--(कालभीति देखिये) २९९ देवहोत्र--योगेश्वर २. देखिये। १५८ कृमिलाश्व--(भम्यश्व देखिये)। ३०६ द्रुपद के पुत्र-श्रुतंजय, बलानीक, जयानीक, १६० कृष्ण--अर्जुनद्वारा प्रणीत कृष्णचरित्रकथन जयाश्व, श्रुत, पृषध्र, चंद्रदेव (म. द्रो. १३१)। महाभारत में प्राप्त है (म. व. १३, १०-३६) ३६७ ध्यजवती--यह पश्चिम में रहती थी। १७० कौसल्य-सुमनस् का पैतृक नाम । ३५९ नाडायनी--इसे इंद्रसेना, नालायनी, एवं १७२ कोहल--श्रवणदत्त का पैतृक नाम । मुद्गलानी नामांतर भी प्राप्त थे। १८१ गंदिनी-इसकी कन्या वसुदेवा । ३७१ निति घर्घरस्वन-मार्जारास्या का पुत्र १८६ गवेषण २.--वसुदेव एवं श्रद्धादेवी का पुत्र (आ. रा. सार. १३)। (मत्स्य ४६.१९)। ... . १२ Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरी स्वर्गीया पत्नी सौ. यमुताई वित्राव के पवित्र स्मृति में Page #20 --------------------------------------------------------------------------  Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन चरित्रकोश Page #22 --------------------------------------------------------------------------  Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भा र त व ी य प्रा ची न चरित्र कोश अकंपन अंश-अंशुमान आदित्य का नामांतर है। स्तुति न सुनी । इतने में उसका मामा गरूड वहां २. (सो. यदु.) विष्णु के मत में यह पुरुहोत्र का आया । भागीरथी के जल के स्पर्श से काम होगा, पुत्र है। ऐसा बता कर वह चला गया। कपिल जागृत होने ३. तृषित नामक देवगणो में से एक है। के बाद उसने अंशुमान को स्तुति करते हुए देखा। अंशपायन-ब्रह्मदेव के मुष्कर क्षेत्र के यज्ञ में यह उसकी स्तुति से संतुष्ट हो कर उसने इसे भागीरथी की · अध्वर्युगणों का उन्नायक था (पन. स. ३४)। स्तुति करने को कहा । बाद में यह अश्व ले गया तथा . अंशु-अश्विनों ने इसकी रक्षा की थी (ऋ. ८.५. पहले अश्वमेध यज्ञ पूरा करवाया। सगर ने तुरंत ही :२६)। इसे राज्य दिया तथा वह वन में गया। इसने भी । २. कृष्ण तथा बलराम का गोकुल का सखा (भा. १०. अपने पुत्र दिलीप को राजसिंहासन पर बिठाया तथा २२. ३१)। उसे प्रधान के हाथ में सौंप कर भागीरथी के प्राप्त्यर्थ - ३. मार्गशीर्ष (अगहन) माह के सूर्य का नाम (भा. | संपूर्ण जीवन तप में बिताने के लिये यह वन में गया। १२. ११. ४१)। परंतु सिद्धि के पूर्व ही इसकी मृत्यु हो गई (म. व. मंशु धानंजय्य-अमावास्य शांडिल्यायन का शिष्य १०६; वा. रा. बा. ४१-४२)। यह शिवभक्त था। (वं. वा. १)। इसने ३०८०० साल राज किया (भवि. प्रति. १.३१)। अंशमत-एक आदित्य । इसे क्रिया नाम की स्त्री ४. द्रौपदी के स्वयंवर के लिये गया हुआ राजा (म. थी। यह आषाढ में प्रकाशित होता है । इसकी १५०० आ. १७७.१०)। इसे भारतीय युद्ध में द्रोणाचार्य ने किरणें हैं (भवि. ब्राह्म. १६८)। अंशु (३.) तथा यह मारा (म.क. ४.६७)। एक ही है। अंहोमुच वामदेव्य-सूक्तद्रष्टा (ऋ. १०. १२६ )। • २. पंचजन का पुत्र (पद्म. उ. २२. ७)। ३. (सू. इ.) असमंजस का पुत्र । पितरों की मानस अकपि-तामसमन्वन्तर के सप्तर्षियों में से एक । कन्या यशोदा इसकी स्त्री है। सगर का अश्वमेधीय अश्व अकपिवत्-तामसमन्वन्तर के सप्तर्षियों में से एक । ढूंढ लाने के लिये असमंजस में इसे भेजा । मार्ग में इसे अकंपन-कृतयुग का एक राजर्षि । इसको हरि नामक इसके पितृव्य कपिलाश्रम के पास मृत पडे हुए दिखे। एक ही पराक्रमी पुत्र था। युद्ध में उसकी मृत्यु हो गई। वहीं वह अश्व भी दिखा। तब इसने कपिल की स्तुति अतीव दुख के कारण यह शोक कर रहा था। इतने की। परंतु कपिल ध्यानस्थ था। अतएव उसने इसकी में नारद ऋषि वहाँ आये तथा, मृत्यु अनिवार्य है ऐसा Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अकंपन समझा कर उसका समाधान किया ( म. द्रो. परि. १.८. पंक्ति ३५. ३५९ ) 1 २. एक राक्षस । यह रावण का दूत था । जनस्थान में खरादिक राक्षसों के राम द्वारा बध की प्रथम सूचना रावण को इसने ही दी थी (वा. रा. अर. ३१) । इसने सीता को चुरा कर खाने की सह रावण को दी। रावण ने युद्ध के संबंध में इसकी स्वतंत्र सिफारिश की थी (बा. रा. युद्ध ५५. २९ ९ २८ ) । रामरावणयुद्ध में हनुमान के द्वारा इसकी मृत्यु हुई (बा. रा. बुद्ध. ५६.३० ) । प्राचीन चरित्रकोश ३. कश्यप तथा खशा का पुत्र । अकर्कर- एक सर्प (म. आ. ३१. १५) । अकर्ण - कश्यप तथा कद्रू का पुत्र । अकल्मष - तामस मनु के पुत्रों में से एक । । अकृतत्रण — हिमालयस्थ शान्त ऋषि का पुत्र । एक बार म्याम के आक्रमण से भयभीत हो कर यह चिल्लाता हुआ भागने लगा । इसी समय परशुराम, शंकर को प्रसन्न कर के बापस आ रहे थे। इसे भागते हुए देख कर परशुराम ने इसे अभय दिया तथा स्याम को मार डाला। व्याम के द्वारा इस बालक के शरीर पर व्रण न किये जाने के कारण इसका नाम अकृताण प्रचलित हुआ। बाद में परशुराम ने इसको अपना शिष्य बनाया । यह निरंतर परशुराम के साथ रहता था (ब्रह्म ३.२५६६ ) । २. युधिष्ठिरद्वारा किये गये राजसूय यज्ञ में यह उपद्रष्टा था । ( भा. १०.७४.९ ) । इसने रोमहर्षण से सत्र पुराणों का अध्ययन किया (भा. १२. ७. ५-७ अंबा देखिये ) । ३. कृतयुग का एक ब्राह्मण । यह एक बार, जब सरोवर में स्नान कर रहा था, तब एक नक ने इसका पैर पकड़ा तथा उसे जल में खींचने लगा। इस लिये इसने उस सरोवर के जल को एवं जलदेवता को शाप दिया कि, जो कोई इस पानी को स्पर्श करेगा वह तत्काल व्याघ्री हो जायेगा । आगे पांडवों का अश्वमेधीय अश्व इस सरोवर में जलपान के लिये उतरने के कारण ज्या वन गया है. अ. २१) मत्स्य के १-१०१ अकृताश्व वा अकृशाश्व - ( सू० इ. ) मत में यह संहताश्व का पुत्र है। अकृष्टमाच — सूक्तद्रष्टा (ऋ. ९ ८६. ३१-४० ) । अकोप -- इशरथ के अष्टप्रधानों में से एक ( वा. रा. बा. ७)। इसका अशोक नामान्तर भी प्राप्त है। अक्रूर अक्रिय -- (सो. रंम.) गंभीर का पुत्र इसकी संतति तप से ब्राह्मण बन गई थी ( भा. ९.१७.१० ) पुत्र अक्रूर - ( सो. वृष्णि. ) श्वफल्क को गांदिनी से उत्पन्न इसको आसंग आदि ग्यारह तथा सुचिरा नामक भगिनी थी ( भा. ९. २४; १५.१८)। आहुक की कन्या सुतनु इसकी पत्नी थी ( म. स. ११.२२) । इस पर कंस तथा रामकृष्ण का समान ही विश्वास था। रामकृष्ण का कोटा दूर करने के उद्देश्य से कंस ने उन्हें मथुरा खाने के लिये अजूर को भेजा। यह कार्य स्वीकार कर राम कृष्ण को लेकर अक्रूर मथुरा आया। मार्ग में यमुना में स्नान करते समय डुबकी लगाने पर अफूर को राम कृष्णका साक्षात्कार हुआ (भा. १०.३९.४९ ह. वे. २.२६ ) | उसी प्रकार, धृतराष्ट्र पांडवों से अच्छा व्यवहार करता है या नहीं इसे बारीकी से देखने के लिये कृष्ण ने अक्रूर को ही हस्तिनापूर भेजा था (सा. १०. ४९ ) । कुन्ती ने भी अपनी स्थिति मुक्तहृदय से इसको बताई थी। उसी प्रकार, धृतराष्ट्र को भी कुछ उपदेश इसने दिया था, परंतु उसका कुछ लाभ न होगा, यह इसे धृतराष्ट्र के भाषण से मालूम हो गया (भा. १०.४८ ) । कृष्ण ने स्यमन्तक मणि के लिये शतधन्वा की हत्या की, इसकी सूचना मिलते ही भय से अपूर ने मथुरा का त्याग कर दिया। अनूर मथुरा से कहाँ गया, इसका उल्लेख यद्यपि भागवत में नहीं है, तथापि वह काशी गया था ऐसी आख्यायिका है। काशीस्थित वर्तमान अक्रूरघाट से इस आख्यायिका की पुष्टि होती है । उस समय कृष्ण ने सीग्यता से अक्रूर को बताया कि मेरे पास दिखा कर तुम सब का संशय निवारण कर दो । तब अक्रूर ने स्यमन्तक मणि है ऐसा संशय लोगों को है, इस लिये मणि मणि दिखा कर सत्र का संशय निवारण किया ( भा. १०. ५६-५७)। द्रौपदी के स्वयंवरार्थ आये हुए राजाओं में अक्रूर बैठनेवाले राजाओं में भी इसका उल्लेख है (म. . ४था ( म. आ. १७७ - १७ ) | युधिष्ठिर के दरबार में २७ १३-३२ ) । एक बार सूर्यग्रहण के पर्वकाल में यह स्यमन्तपंचक क्षेत्र में गया था ( भा. १०. ८२. ५ ) । यादवी के समय अक्रूर एवं भोज में युद्ध हो कर दोनों मृत हो गये (गा. ११.२० १६) | यह अनूर का नामान्तर है, ऐसा कहने के लिये आधार है ( प (१०.) देखिये) । कई स्थानों पर इसको दानपति कहा गया है Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अक्रूर प्राचीन चरित्रकोश अगस्त्य (भा. १०. ३६. २८, ४९. २६)। इसको देववत् एवं | कयाशुभीय सूक्त में इन्द्र-मरुतों का विवाद है (ऋ. १. उपदेव नामक दो पुत्र थे (भा. ९. २४. १८)। | १६५) तथा अन्त में मरुतों का सांत्वन है। यह विवाद २. कद्रपुत्र। वैदिक ग्रंथों में काफी प्रसिद्ध प्रतीत होता है (तै. सं. अक्रोधन-(सो. पूरु.) अयुतानायिपुत्र । इसकी माता | ७. ५.५.२; तै. बा. २. ७. ११. १; मै. सं. २. १.८; भासा । इसकी पत्नी का नाम कण्डू । इसका पुत्र देवातिथि क. सं. १०.११; पं. बा. २१. १४.५)। इन्द्र पर भी (म. आ. ९०.२०)। भविष्य के मत में यह अयुतायू | इसका काफी प्रभाव था (ऋ. १. १७०)। का पुत्र है । इसने १०५०० वर्षों तक राज्य किया। इसकी पत्नी का नाम लोपामुद्रा (ऋ. १.१७९.४)। __ अक्ष-रावण को मन्दोदरी से उत्पन्न पुत्र । अशोकवन | ऋग्वेद के इस सूक्त में अगस्त्य-लोपामुद्रा संवाद है। वहाँ यह के ध्वंस समय रावण ने हनुमान को पकडने के लिये | वृद्ध है तथा लोपामुद्रा इसे संभोग के लिये प्रवृत्त कर रही है। पांच सेनापति भेजे थे। हनुमान द्वारा वे मारे जाने पर यह खेल नृप का पुरोहित होगा (ऋ. १.१८२.१)। इसको भेजा गया। आठ अश्वों से युक्त रथ में बैठ कर अगस्त्यशिष्य (ऋ. १.१७९.५-६) तथा अगस्त्य स्वस यह अशोकवन में गया तथा हनुमान से युद्ध करते (ऋ. १०.८०.८) के नाम पर कुछ ऋचाएँ हैं । अन्त में उसी के हाथों मारा गया (वा. रा. सुं. ४७)। | ऋषियों में वृद्धतम जान कर इन्द्र ने इसे गायत्र्युपनिषद मक्ष मौजवत-सूक्तद्रष्टा (ऋ. १०.३४)। का उपदेश दिया तथा इसने वह उपदेश इषा को बता भक्षपाद-शिवावतार सोम का शिष्य । (गौतम कर परंपरा प्रारंभ की (जै. उ.बा.४.१५.१,१६. १)। देखिये )। . जैमिनीय उपनिषद्-ब्राह्मण ही गायत्र्युपनिषद् है ।। ____ अक्षमाला-वसिष्ठ की पत्नी (म.उ. ११५.११)। पौराणिक वाङ्मय मे उपरोक्त वर्णन के विरुद्ध कुछ अरुंधती का नामान्तर । विशेष जानकारी प्राप्त नहीं होती है। समुद्र में छिपे अक्षीण-विश्वामित्र का पुत्र (म. अनु. ४.५०)। हुए असुरों में इन्द्रादिकों को जब सताना प्रारंभ किया __ अगस्ति-(स्वा.) पुलस्त्य को हविर्भू से उत्पन्न | तब देवताओं ने अग्नि तथा वायु को समुद्र का शोषण ..पुत्र।. करने को कहा। परन्तु समुद्र के प्राणियों का नाश होने की २. अगस्त्य, दृढद्युम्न और इंद्रबाहु को अगस्ति संज्ञा संभावना से उन्होंने इसे अस्वीकार कर दिया। तब इन्द्र - है (मत्स्य १४५..११४-११५)। के द्वारा दिये गये शाप से मित्रावरुणों के वीर्य से यह मगस्त्य-वसिष्ठ के समान यह भी मित्रावरुणों का | कुंभ में उत्पन्न हुआ। उनमें से अगस्य, अग्नि है। इसी .. पुत्र है (ऋ७.३३. १३)। उर्वशी को देख कर मित्रा- कारण इसको मैत्रावरुणि तथा कुंभयोनि नाम मिले (मत्स्य .. वरुणों का रेत कमल पर स्खलित हुआ तथा उससे वसिष्ठ | ६१.२०१; पम. स. २२. २२; म. व. ९६; द्रो. १३२, एवं अगस्त्य उत्पन्न हुए (बृहद्दे. ५. १३४) । ऋग्वेद में | १८५; शां. ३४४; ब्रह्माण्ड. ३.३५)। अगस्त्य के काफी सूक्त तथा मंत्र हैं (ऋ. १. १६५. १३- अगस्त्य विरक्त था तथापि पितरों की आज्ञानुसार १५:१६६-१६९; १७०.२, ५, १७१-१७८; १७९.३- विदर्भाधिपति की कन्या लोपामुद्रा के साथ इसका विवाह ४; १८०-१९१)। अगस्त्य कुलनाम होने के कारण हुआ (लोपामुद्रा देखिये)। वह राजकन्या होने के कारण अगस्त्य कुल के लोगों द्वारा रचित सूक्त अगस्त्य के नाम उसे अगस्त्य की अपेक्षा ऐश्वर्य में विशेष ऋचि थी। से प्रसिद्ध हैं। एक स्थान पर अगस्त्य का सुमेधस् नाम | अपने तपःसामर्थ्य से जो चाहे वह प्राप्त करने की शक्ति होते आया है (ऋ. १.१८५.१०)। मान्य तथा मान्दार्य ये हुए भी तप का व्यय करने की अगस्त्य की इच्छा न थी। पैतृक नाम भी अगस्त्य के लिये दिये हुए मिलते हैं (ऋ. | परन्तु लोपामुद्रा की तीव्र इच्छा देख कर श्रुतर्वन् , बन्ध्यश्व १.१६५.१४-१५,१६६.१५)। मरुतों के लिये लाये गये | तथा त्रसदस्य इन तीन राजाओं के पास से संपत्ति प्राप्त करने पशु का इन्द्र ने हरण किया, तब वे वज्र लेकर इन्द्र को | का इसने प्रयत्न किया; परन्तु इसे यश प्राप्त नहीं हुआ। मारने के लिये उद्युक्त हुए। उस समय, अगस्त्य में मरुतों | तथापि त्रसदस्यू ने अगस्त्य को इल्वल की अपरंपार संपत्ति का सांत्वन किया तथा इन्द्र-मरुतों में मैत्रीभाव निर्माण | का वर्णन बताया। तब तीनों राजाओं को साथ ले कर यह किया। जिस सूक्त के द्वारा यह मैत्रीभाव सिद्ध किया वह | इल्वल के पास गया तथा अपने अतुल सामर्थ्य से इल्वल अगस्त्य का कयाशुभीय सूक्त है (ऐ. ब्रा. ५. १६)। की संपत्ति प्राप्त कर इसने लोपामुद्रा को संतुष्ट किया। Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अगस्त्य प्राचीन चरित्रकोश अगस्त्य समुद्र में रहनेवाले कालकेयों ने लोगों को काफी त्रस्त | भूखे चांडाल को दिया (पन. स. १९)। प्रजाहित के करना प्रारंभ किया तब इसने समुद्र का प्राशन कर लिया। | हेतु से अगस्त्य ने समस्त मृग देवताओं के लिये प्रोक्षण तदनंतर देवताओं ने कालकेयों की हत्या कर के राब को | किये। इसीसे देवकार्य एवं पितृकार्य में मृग मांस अर्पण यातनामुक्त किया। परन्तु इसको समुद्र को बाहर निकालने करने के लिये कुछ आपत्ति नहीं है (म. अनु. ११५)। की सूचना देने पर इसने बताया कि, वह उदर में हजम परन्तु आगे अगस्त्य ने द्वादशवर्षीय सत्र का प्रारंभ किया हो गया। (पन. स. १९.१८६; म. व. १०३)। तथा पशुहिंसा टाल कर इन्द्र को वर्षा करने के लिये विवश ___ अग का अर्थ है पर्वत । पर्वत का स्तंभन करनेवाला | किया (म. आश्व. ९५)। ऐसी अगस्त्य शब्द की व्युत्पत्ति है (वा. रा. अ. ११)। लोपामुद्रा को इध्मवाह नाम से प्रसिद्ध दृढस्यु नामक यह विंध्य का गुरु था। अगस्त्य के दक्षिण जाने के समय पुत्र था (म. व. ९७. २३-२४)। दृढस्यू को, दृढविंध्य ने इसे नमस्कार किया । तब इसने विंध्य को कहा द्युम्न, इन्द्रबाहु इ. नामान्तर होने चाहिये (मत्स्य. कि, मेरे लौटते तक तुम इसी प्रकार पडे रहो । इस | १४५. ११४)। कथनानुसार विध्य नम्र बन कर पड़ा रहा तथा उत्तर पुलस्त्य, पुलह तथा ऋतु अगस्त्य गोत्रीय न होते हुए का दक्षिण से आवागमन प्रारंभ हुआ(म. व. १०२; दे. भी, इनकी संतति अगस्त्य गोत्रीय मानी जाती है। भा. १०. ३.७)। यह प्रथम काशी में रहता था परंतु | क्यों कि वैवस्वत मन्वन्तर का क्रतु निपुत्रिक होने के कारण विंध्याचल से मार्ग निकाल कर आवागमन को प्रारंभ उसने अगस्त्यपुत्र इध्मवाह को दत्तक लिया था। पुलह करने के लिये, इसने काशीवास का त्याग किया। इस | की संतति राक्षस थी अतएव उसने अगस्त्यपुत्र दृढस्यु प्रसंग में अगत्य को दिये हुए अभिवचन के अनुसार को दत्तक लिया। पौलल्य ने भी इसी प्रकार अगस्त्यकाशी-विश्वेश्वर, रामेश्वर में आ कर रहने लगे (आ. रा. पुत्रों में से दत्तक लिया (मत्स्य. २०२. ८. १२)। सार. १०)। काशी क्षेत्र में रहने की इच्छा अपूर्ण रह परन्तु ब्रह्मांडपुराण में अय, दृढायु तथा विधमवाह नामक जाने के कारण, उन्तीसवें द्वापर युग में यह व्यास बन कर पुत्रों का वर्णन है ( २. ३२.११९)। अगस्त्य की गोत्र काशी में वास करेगा, ऐसा वरदान इसे गोदावरी तट पर परंपरा आगे दी गई है। उसे ही अगस्त्यवंश कहां गया है लक्ष्मी ने दिया (स्कंद ४. १.५)। दक्षिण में आने के (मत्स्य. २०२.६)। यह मंत्रकार तथा ऋषिक था (क्यु. बाद, इसने एक द्वादशवर्षीय सत्र मनाया। इस सत्र के | १.५९. ९२-९४)। ब्राह्मणों को पिप्पल तथा अश्वत्थ नामक असुर खा डाला अगत्स्य का संबंध नित्य दक्षिण से ही आता है (वा. करते थे। उनका नाश शनी ने किया (ब्रह्म. ११८)। रा. अर. ११; ब्रह्म. ८४.११८.२)। लंका के साथ भी नहुष ने वाहन बना कर इसका अपमान करने के कारण अगस्त्य का संबंध आया है। इसे लंकावासी कहा गया है अगस्त्य की जटा में स्थित भृगु ने, नहुष को दस हजार वर्षो (मत्य. ६१. ५१)। अगस्त्य को दक्षिण का स्वामी तथा तक साँप बन कर जीवन यापन करने का शाप दिया (म. विजेता कहा गया है (ब्रही. ११८.१५९)। अगस्त्य का अनु. १००.२५, स्कन्द. १. १. १५)। आश्रम दक्षिण में मलय पर्वत पर था (मत्स्य. ६१. वनवास के समय दाशरथी राम इसके दर्शन के लिये ३७; पद्म. स. २२; वा. रा. कि. ४१. १५-१६ )। पाण्डय आया था। अगस्त्य ने राम को सोने तथा हीरों से सुशोभित तथा महानदी के पास महेंद्र के साथ भी अगस्त्य का सुन्दर धनुष, अमोघ बाण, अक्षय तूणीर तथा स्वर्ण के संबंध है (वा. रा. कि. ४१)। आजकल अगल्य के खडगकोष सहित स्वर्ण का खडग् दिया (वा. रा. अर. मंदिर, जावा इ. द्वीपों में प्राप्य है। वहाँ प्राप्य महाभारत १२. ३१-३५)। अगल्य के आश्रम में ब्रह्मा, अग्नि, भी दाक्षिणात्य पाठसे मिलता जुलता है। अगस्त्याश्रम विष्णु, इन्द्र, सूर्य, सोम, भग, कुबेर, श्वाता, विधाता, वायु, नाशिक के पास है (म. व. ९४.१)। दुर्जया तथा नागराज, अनन्त, गायत्री, अष्टवसु, पाशहस्त, वरुण, मणिमती वातापी के नगर थे (म. आर. ९४.१-४)। कार्तिकेय तथा धर्म के लिये योजित विभिन्न स्थान, वातापी का स्थान दक्षिण में है, ऐसा अभी तक समझा जाता राम को दृष्टिगोचर हुए (वा. रा. अर. १२. १७. २१)। है। वातापी ही बदामी है । परन्तु नन्दलाल डे ने वेरूल के इसने भद्राश्व को गीता सुनाई ( वराह. ३५) पास का स्थान दिया है। विंध्य की कथा से दक्षिण का संबंध इसने अपने लिये निकाला हुआ कमलकन्द एक स्पष्ट है । विदर्भ (महाराष्ट्र) दक्षिण का देश है तथा वहाँ Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन चरित्रकोश अगस्त्य । के राजा की कन्या लोपामुद्रा इसकी पत्नी है । यह सब प्रसंग इसका दक्षिण के साथ अधिक संबंध दर्शाते है यह दक्षिण का ही वासी था ऐसा भी कहा जा सकता था, परन्तु उत्तर की ओर यमुना, प्रयाग, गंगा के साथ इसका संबंध आया है (मत्स्य. १०३ म. आ. २३५. २; व. ९५.११ ) । इससे यह विंध्याचल को नम्र बना कर दक्षिण में आया, इस कथा की पुष्टि होती है | अगस्त्य नामक तारा भाद्रपद माह में दक्षिण की ओर उदित होता है तथा इसके उदय के बाद पानी निर्दोष हो जाता है, इस कथा का संबंध अगस्त्य व्यक्ति से जोड़ा गया है (मत्स्य. ६१ ) । अगस्त्यद्वारा रचित ग्रंथ - १. वराहपुराण में पशुपालोख्यान में प्राप्त अंगस्त्यगीता, २. पंचरात्र की अगस्त्य संहिता, ३. स्कन्दपुराण की अगस्त्य संहिता, ४. शिवसंहिता (c.), ५. भास्कर संहिता का द्वैधनिर्णयतंत्र (ब्रह्मवै. २.१६ ) । अगस्त्य वंश के गोत्रकार करंभ (करंमय), कौशल्य (ग), मतुवंशोदभव, गांधारकायन, पौलस्त्य, पील्ड, मर्योभुव, शकट (करट), सुमेधस ये गोत्रकार अगस्त्य, मयोभुव, तथा महेन्द्र इन तीन प्रवरों के हैं। ६. ब्रह्मदेव का मानसपुत्र उसके कोपसे इसकी उत्पत्ति हुई ( म. शां. ४८. १६) दक्ष प्रजापती की कन्या स्वाहा इसकी पत्नी ( म. व. २२० भा. ४. १. ६० ) । दूसरी पत्नी याकुवंश के दुर्योधन राजा की । इक्ष्वाकुवंश माहिष्मती नगरी के राजा नील की कन्या । नीलम्बर कन्या सुदर्शना (म. अनु. २.२१) । प्रथम पत्नी स्वाहा नीलध्वज ने अपनी कन्या अग्नी को देते समय ऐसा करार किया और जो भी शत्रु माहिष्मती नगरी पर आक्रमण करे, उसका था कि, वह निरन्तर नीलम्बज की नगरी में ही रहे, सैन्य जला डाले। इस करार के कारण अग्नि अपने श्वसुरगृह में घर जमाई बन कर रहने लगा। आगे चल कर जब अर्जुन की सेना से नीलध्वज को लड़ना पड़ा, तब अग्नि ने अर्जुन की सेना को जला दिया (जै. अ. १५) । इसने सहदेव की सेना भी जलाई परंतु अन्त में सहदेव द्वारा स्तुति की जाने पर यह वापस लौटा ( म. स. २८ ) । सप्तर्षियों का हविर्द्रव्य देवताओं को अर्पण कर के लौटते समय, सप्तर्षि की पत्नियाँ इसे गोचर हुई। तब इसके मन में कामवासना उत्पन्न हुई तथा उनकी प्राप्ति की इच्छा से गार्हपत्य में प्रविष्ट हो कर यह चिरकाल तक उनके पास रहा। परन्तु वे इसके वश में न आने के कारण, अत्यंत निराश हो कर देहत्याग का निश्चय कर के वह अरण्य में गया । परंतु उन खियों में से दक्षकन्या । स्त्रियों स्वाहा की प्रीती अग्नि से होने के कारण, वह इसके पीछे वन में गई तथा उसने अन्य सप्तर्षि-पत्नियों का स्वरूप | इस से ज्ञात होता है की अगस्त्य, निमि तथा अलर्क धारण कर के इसकी इच्छापूर्ति की (म.व. २११ - २१४ ) । का समकालीन था । परन्तु वह अरुंधती का रूप न ले सकी । अगस्त्य (ग), पौर्णिमास ( ग ) ये गोत्रकार अगल्य, पारण, पौर्णिमा इन तीन प्रवरों के है ( मल्या. २०२ ) । अगस्त्यगोत्रीय मंत्रकार मत्स्य. १४५.११४-११५२.३२, ११८-१२० अगस्त्य अगस्त्य अय इन्द्र बाहु दृढायु दृढद्युम्न विध्यबाह इनमें से अगस्त्य, इन्द्रबाहु तथा हटयुम्न को अगस्ति संज्ञा है (मत्स्य. १४५. ११४-११५) । अग्नि अगस्त्यशिष्य—वेद की कुछ ऋचाएँ इसके नाम पर हैं (ऋ. १. १७९५-३) । अगस्त्य की पत्नी लोपामुद्रा विदर्भराज निमि की कन्या थी निमि ने उस को लोपामुद्रा के साथ राज्य भी दिया था ( म. अनु. १३. ११ ) । काशी का नृप प्रतर्दन का पोता तथा बस का पुत्र अलर्क ने लोपामुद्रा की कृपा से दीर्घायु प्राप्त की थी (वायु. ९२.६७: ब्रह्माण्ड ११. ५३)। ५ अगस्त्यस्वसृ - मंत्रद्रष्ट्री (ऋ. १०.९०.९ ) । अग्नि-इन्द्र का शिष्य । इसका शिष्य काश्यप (. बा. २ ) । २. एक आचार्य । इसने सोम की विशेष परंपरा सनश्रुत को कथन की ( ऐ. ब्रा. ७. ३४ ) । ३. धर्म तथा वसु का पुत्र । इसको वसोर्धारा नामक पत्नी से द्रविणक . पुत्र हुए तथा कृत्तिका नामक पत्नी से स्कन्द नामक पुत्र हुआ ( भा. ६. ६. ११ ) । ४. स्वारोचिष मन्वन्तर के सप्तर्षियों में से एक ( मनु देखिये) । ५. तामस मन्वन्तर के सप्तर्षियों में से एक ( मनु देखिये) । Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अग्नि प्राचीन चरित्रकोश अग्नि प्राचीन काल में श्वेतकी ने अपरिमित यज्ञ किये। लौटने पर चुगली करने के कारण अग्नि को शाप दिया कि उसके द्वारा किये गये यज्ञसत्र में, बारह वर्षों तक, अग्नि | 'तुम सर्वभक्षक बनोगे। इसपर अमि ने उःशाप मांगा। लगातार हविर्द्रव्य भक्षण कर रहा था । इस कारण इसमें | तब भृगु ने 'सर्वभक्षक होते हुए भी तुम पवित्र ही रहोगे' स्थूलता उत्पन्न हो कर, उसपर उपाय पूछने के लिये यह ऐसा उःशाप दिया (पद्म. पा. १४)। भृगु स्नान करने ब्रह्मदेव के पास गया । तब ब्रह्मदेव ने इसे खांडववन का बाहर गया, यह देख कर उसके आश्रम में, पुलोमा नामक भक्षण करने के लिये कहा। इसलिये इसने उसे जलाना राक्षस प्रविष्ट हुआ तथा उसने अग्नि से पूछा कि, भृगुपत्नी प्रारंभ किया परन्तु इन्द्र ने लगातार पर्जन्यवृष्टि कर के पुलोमा को मैंने पहले मन से वरण किया यह सत्य है या सात बार इसका पराभव किया। अन्त में निराश हो कर असत्य । अग्नि ने बताया कि, यह सत्य है, इसलिये भृगु ने यह पुनः ब्रह्मदेव के पास गया तथा सारा वृत्तान्त उन्हे | उसे उपरोक्त शाप दिया (म. आ. ५-७)। भृगु के निवेदित किया। तब भूलोक में जा कर कृष्णार्जुन से | इस शाप के कारण अग्नि जल में गुप्त हो गया। इससे देवखांडववन मांगने की सलाह ब्रह्मदेव ने इसको दी। यह देवताओं के यज्ञयागकर्म बंद हो गये। देवताओं द्वारा ब्राह्मणरूप से कृष्णार्जुन के पास आया तथा इसने भक्षण | इसका शोध होने पर मत्स्यों ने अग्नि दर्शाया । तब देवताओं करने के लिये वह वन मांगा। तब अर्जुन ने कहा कि, ने इसकी स्तुति की जाने पर, यह बाहर आया तथा हमारे पास युद्धसामग्री की न्यूनता है, वह अगर तुमने पूर्ववत् अपना कार्य करने लगा (म. आ. ७; श. २७, हमें दी तो हम इंद्र से तुम्हारी रक्षा करेंगे। अग्नि ने | व. २२४)। वरुण के पास से, श्वेतवर्णीय अश्वों से जुता हुआ तथा ऋग्वेद में अग्नि के गुप्त होने का यह कारण बताया है। कपिध्वजयुक्त एक दिव्य रथ, गांडीव नामक धनुष तथा वषट्काररूप वज्र से बांधवों की मृत्यु होने के कारण, दो अक्षय तूणीर मांग कर, अर्जुन को दिये तथा श्रीकृष्ण सौचीक नामक अग्नि, वषट्कार तथा हवि उठा ले जाने को सुदर्शन चक्र तथा कौमोदकी नामक गदा दी। इससे वे | में डर गया तथा देवताओ से निकल कर जल में भाग दोनों संतुष्ट हुए तथा उन्होंने अग्नि के संरक्षण का वचन गया (ऋ. १०.५१)। यहाँ अग्नि-देव संवाद है। दे कर, उसे खांडववन का भक्षण करने के लिये कहा । तब ब्राह्मणों के श्रेष्ठत्व के संबंध में, अग्नी का इन्द्रं से संवाद अग्नि उस वन का भक्षण करने लगा। यह समाचार हुआ था (म..अनु. १४)। उसी प्रकार गाय, ब्राह्मण इन्द्र को मिलते ही, वह अमि का निवारण करने के लिये, तथा अग्नि को पादस्पर्श करने वाले पर भयंकर आपत्ति वहाँ आ कर पर्जन्यवृष्टि करने लगा। परंतु कृष्णार्जुन ने | आती है इस अर्थ का धर्मकथन इसने किया है (म. उसका पराभव किया। पंद्रह दिनों तक खांडववन का अनु. १२६)। आतृत भक्षण करन क बाद, आम का स्थूलता नष्ट हुई। सीता को लंका से लाने के बाद, जब राम उसका स्वीकार इस वन से तक्षकपुत्र अश्वसेन, मयासुर तथा महर्षि मन्दपाल नहीं कर रहा था, तब अग्नी ने बताया कि, सीता निरपराध के चार पुत्र शार्ङ्गक पक्षी केवल बचे (म. आ. २१७. है- २०२७), १८)। इक्कीस दिन तक, अग्नि लगातार वह बन दग्ध | इसे स्वाहा नामक पत्नी से स्कन्द नामक पुत्र उत्पन्न हुआ कर रहा था (म. आ. २२५. १५)। | (म. व. २१४)। इसके अलावा, इसी पत्नी से पावक, वृत्र को मारने के बाद, ब्रह्महत्या के भय से भागे हुए पवमान व शुचि नामक तीन पुत्रों ने जन्म लिया (भा.४. इन्द्र की खोज, बृहस्पति के कहने से इसने की (म. उ.. १.६०-६१)। सुदर्शना नामक पत्नी से इसे सुदर्शन १५.१६ )। आगे चल कर उस ब्रह्महत्या से इन्द्र का | नामक पुत्र हुआ (म. अनु. २. ३७)। इसके सिवा, छूटकारा करने के लिये ब्रह्मदेव ने उसके चार भाग | स्वारोचिष नामक इसके पुत्र का उल्लेख पाया जाता है किये। उसका चौथा भाग अग्नि ने ग्रहण किया (म. (भा. ८. १. १९; आप देखिये)। शा. २७३)। ___ अंगिरा की मांग के अनुसार, अग्नी ने उसे बृहस्पति ___ एक बार जब भृगु समिधा लाने के लिये वन में गया था, | नामक पुत्र दिया। अंगिरा की पत्नी तारा । इसी से अग्नितब दमन नामक राक्षस उसके तथा उसकी पत्नी के बारे | वंश की वृद्धि हुई (म. व. २०७-२१२)। पावक, में पूछताछ करने लगा। तब भयभीत हो कर अग्नि ने चुगली | पवमान तथा शुचि इन अग्निपुत्रों से कुल ४९ अनि उत्पन्न की तथा भृगुपत्नी का पता बता दिया। भृगु ने | हुए (भा. ४.१.६०-६१; वायु. २९; ब्रह्मांड २-५३)। Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन चरित्रकोश अग्निप्वात्त अग्निपुत्रो के संख्या के बारे में और भी प्रकार दिये है | पांचों गन्धर्वकन्याओं से विवाह किया तथा पितासमवेत (मत्स्य. ५१)। परंतु वस्तुतः यह अग्नि का वंश न होकर अलकापुरी में रहने लगा (पन. उ. १२८-१२९)। स्वयं अग्नि के विभिन्न स्वरूप है (वैश्वानर देखिये)। अग्निबाह--भौत्य मन्वन्तर के सप्तर्षियों में से एक । ऋग्वेदके एक सूक्त का दृष्टा अनि बताया गया है (ऋ. | २. भौत्य मनु का पुत्र । १०.१२४) (मांधातृ और नीलध्वज देखिये)। ३. स्वायंभुव मनु का पुत्र । ७. आगे होने वाले इन्द्रसावर्णि मन्वन्तर के सप्तर्षियों 'अग्निभाव--अमिताभ देवगणों में से एक । में से एक। अग्निभू काश्यप-इन्द्रभू काश्यप का शिष्य (वं. ब्रा. अग्नि-और्व-यह भार्गव था (ऋचीक तथा और्व | अग्निमाठर-बाष्कल का शिष्य । बाष्कल ने इसको देखिये)। ऋग्वेद की एक संहिता सिखाई । भागवत के अनुसार आग्न गृहपात सहस्पुत्र-सूक्तद्रष्टा (ऋ. ८.१०२) अग्निमित्र तथा ब्रह्माण्ड के अनुसार अग्निमातर पाठभेद है। अग्नि चाक्षुष्--सूक्तद्रष्टा (ऋ. ९. १०६. १-३; (व्यास देखिये) १.-१४)। अग्निमातर-(अग्निमाठर देखिये)। - भग्नि तापस--सूक्तद्रष्टा (ऋ. १०.१४१)। अग्निमित्र-स्वायंभुव मनु का पुत्र । अग्नि धिष्ण्य ऐश्वर-सूक्तद्रष्टा (ऋ. ९. १०९)।। २. अग्निमाठर देखिये अग्नि पावक-सूक्तद्रष्टा (ऋ. १०.१४०)। । ३. शंगराजाओं का प्रथम राजा । यह मार्यराजाओं का अग्नि पावक बार्हस्पत्य-सूक्तद्रष्टा (ऋ. ८.१०२)। | अन्तिम राजा बृहद्रथ के बाद, सिंहासन पर बैठा (शुग अग्नि यविष्ट सहःपुत्र-सूक्तद्रष्टा (ऋ. ८.१०२)। | देखिये )। अग्नि वैश्वानर-सूक्तद्रष्टा (ऋ. १०.७९-८०)। अग्नियुत स्थौर - (अग्नियूप देखिये)। इसने सरस्वती नदी से पुरु और उत्तर पांचाल देश | अग्नियप स्थौर-यह एक सूक्त का द्रष्टा है । अग्नियुत जला दिया (श. बा. १.४.१०-१९)। यह, वैदिक धर्म | पाठभेद भी है (ऋ. १०.११६ )। का प्रसार कैसा हुआ, इसका प्रतीकात्मक वर्णन होगा। | अग्निवर्चस-व्यास के पुराण शिष्यपरंपरा का शिष्य । - अग्नि-शर्मायण-कश्यप गोत्री ऋषिगण । | विष्णु, ब्रह्मांड तथा वायु के मत से रोमहर्षण का शिष्य । . अग्नि सौचिक-सूक्तद्रष्टा (ऋ.१०.५१.२,४,६,८, अग्निवर्ण-(सू. इ.) सुदर्शन राजा का पुत्र । : ५२,५३.४-९-७-९०)। अग्निवेश-शिवावतार शूलिन् का शिष्य । मग्निकेतु-रावणपक्षीय राक्षस | राम के द्वारा अग्निवेश्य-अंगिरागोत्री ऋषि । ::युद्ध में यह मारा गया (वा. रा. यु. ४३.२९)। २. (सू. नरिष्यन्त.) देवदत्त का पुत्र । इसे जातुकर्ण्य अग्निजिव्ह-अंगिरागोत्री ऋषि । तथा कानीन ऐसे नामान्तर है। यह तपद्वारा ब्राहाण बना मग्नितेज-धर्मसावर्णि मन्वन्तर के सप्तर्षियों में से | था। इस कारण, इसके द्वारा उत्पन्न संतति को, अग्निएक। | वेश्यायन नाम प्राप्त हुआ (भा. ९. २. २३)। अग्निप-वेदनिधि नामक ब्राह्मण का पुत्र । एक बार | ३. अगस्त्य ऋषी का एक शिष्य (म. आ.१२२.२४)। प्रमोदिनी, सुशीला, सुस्वरा, सुतारा तथा चन्द्रिका नामक | द्रुपद तथा द्रोणाचार्य ने इसके पास से धनुर्वेद की गंधर्वकन्या इसपर मोहित हो कर, उन्होंने इसे अपने | शिक्षा तथा ब्रह्माशिर अस्त्र प्राप्त किया। यह पांडवों साथ विवाह करने के लिये कहा। परंतु ब्रह्मचारी होने | के समागम में कुछ काल तक द्वैतवन में था। यह के कारण इसने यह अमान्य किया। अन्त में क्रोधित | द्रोणाचार्य का पितृव्य तथा भारद्वाज का छोटा भाई (म. हो कर इन्होंने परस्पर को पिशाच होने का शाप दिया। | आ. १२२. २४)। बाद में, इसके पिता ने इसकी मुक्ति के लिये लोमश मुनि | अग्निस्टत् अथवा अग्निष्टोम-चक्षुर्मनु का नड्वला की प्रार्थना की। तब लोमश के कथनानुसार, सब | से प्राप्त पुत्र । पिशाच्चों ने (छैः) प्रयागतीर्थ में स्नान करने से पूर्वयोनि | अग्निष्वात्त-एक पितृगण । ब्रह्मदेव अपनी मानसप्राप्त की। अन्त में लोमश की आज्ञानुसार, इसने उन | कन्या सन्ध्या को देख कर काममोहित हुए। उस समय Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अग्निप्वात्त प्राचीन चरित्रकोश अंगजा उनके धर्म से यह उत्पन्न हुआ । इनकी संख्या चौसठ | विष्णु ने इसको दी। इसने यमकन्या सुनीथा से गांधर्वहजार है। ये नित्य मनोविग्रह कर के वैराग्य से रहते विधि से विवाह किया। इसे सुनीथा से वेन नामक पुत्र हुआ हैं ( कालि. २)। ये काश्यपपुत्र हैं तथा देवों को पूज्य (पम. भू. ३०-३६)। वह अत्यंत दुष्ट होने के कारण, हैं (म. १४--१५, ह. वं.१)। इनकी पत्नी स्वधा | अंग राजा त्रस्त हो कर गृहत्याग कर के वन में गया। (भा. ४.१)। | इसको सुमनस् , ख्याति, ऋतु, अंगिरस् तथा गय नामक अग्निहोत्र- सविता तथा पृथ्वी का पुत्र (भा.- पांच भ्राता थे (भा. ४.१३.१७-१८)। ६.१८१)। २. (सो. अनु.) बलि का ज्येष्ठ पुत्र । यह बलि की अग्नीध्र- स्वायंभुव मनु का पुत्र (आग्नीध्र देखिये )। भायां सुदेष्णा को दीर्घतम से हुआ। इसे वंग, कलिंग, २. भोत्य मन्वन्तर के सप्तर्षियों में से एक । पुण्ड्र तथा सुह्म नामक चार भ्राता थे (म. आ. ९८.३२. ३. भौत्य मनु का पुत्र । (आग्नीध्र देखिये)। १०.४२, विष्णु ४.१८.१; मत्स्य. ४८.२४-२५, ब्रह्म. अग्नीध्रक- रुद्रसावर्णि मन्वन्तर के सप्तर्षियों में से १३.२९-३१) । इनके सिवा, इसे आंध्र नामक पांचव एक। भाई था। अंग आदि पांच पुत्रों को बली ने राज्याभिषेव अग्रयायिन्- (सो.) धृतराष्ट्र का पुत्र । | किया था। इनके देशों को भी इन्ही के नाम प्राप्त हुए अघ- कंस का अनुचर । यह बकासुर तथा पूतना (ह. वं. १.३१.३४)। इसका एक पुत्र था। उसका राक्षसी का भ्राता था। कंस ने इसे गोकुल में कृष्ण तथा नाम विभिन्न स्थलों में दधिवाहन (मत्स्य.४८.९१; ब्रह्म. बलराम के नाश के लिये भेजा। वहाँ इसने चार योजन | १३. ३७, ह. वं. १.३१.४३), खनपान (भा. ९.२३. लंबा सर्वदेह धारण किया । एवं कृष्ण तथा अन्य | ५) अथवा पार (विष्णु. ४. १८. ३) दिया गया है ! गोपों के गोचारण के मार्ग में, अपना शरीर फैला दिया। अंग राजा के बाद के राजा, अंगवंशीय राजाओं के नाम इसने अपना मुख इतना विस्तीर्ण बना दिया था कि, उसे से प्रसिद्ध हुए (अनुवंश देखिये)। इसने काफी यज्ञ गुफा समझ कर, गायें चराने के लिये योग्य स्थल समझ कर, किये । इसका चरित्र नारद ने संजय को बताया। म. द्रो. गोप समस्त गायों के साथ उसमें प्रविष्ट हो गये । कृष्ण को ५७)। इसका मांधाता ने पराभव किया था (म. शां. यह वर्तमान ज्ञात होते ही, वह वहाँ आया तथा इसके मुख में प्रविष्ट हो कर, बडा स्वरूप धारण करके इसका ३. (सो. अनु.) दधिवाहन का पौत्र तथा दिविरथ मह फाड दिया। इस कारण इसकी तत्काल मृत्यु हो काल मृत्यु हो | का पुत्र । जब परशुराम क्षत्रियों का संहार कर रहा गई (भा. १०१२)। था तब इस का गौतम ने गंगा नदी के तट पर संरक्षण अघमर्ण-(अघमर्षण देखिये)। किया (म. शां. ४९.७२)। अघमर्षण माधुच्छन्दस-सूक्तद्रष्टा (ऋ. १०. ४. भारतीय युद्ध का दुर्योधनपक्षीय म्लेच्छ राजा । १९०)। विश्वामित्र वंश के गोत्रकार मधुच्छंद का पुत्र। इस का वध भीम ने कियां (मद्रो. २५.१४-१७)। इसे अघमर्ण भी कहा गया है। ५. भारतीय युद्ध में नकुल द्वारा मारा गया हुआ __ अघोर-हिरण्याक्ष की सेना का एक असुर । इसका | म्लेच्छ राजा (म. क. १७.१५-१७)। , वध कार्तिकेय ने किया (पन. स. ७५)। ६. (सो. भविष्य.) मत्स्य के मत में जनमेजय का अंग-(स्वा. उत्ता.) उल्मुल्क को पुष्करणी से उत्पन्न पुत्र । यह अत्रि का वंशज है। इस अर्थ से इसे अत्रि का अंग औरव-सूक्तद्रष्टा (ऋ. १०.१३८)। पुत्र कहा है (पन स. ८)। ब्रह्माण्ड में इसके मातापिता के नाम ऊरु तथा षडानेयी दिये गये हैं (ब्रह्माण्ड अंग वैरोचन-अभिषिक्त राजाओं की सूचि में इस २.३६.१०८-११०)। यह कृतयुगान्त में प्रजापति था। उदार राजा का उल्लेख है । इसके पास उदमय आत्रेय एक बार स्वर्ग जानेपर, इन्द्र का वैभव देख कर, यह प्रसन्न नामक पुरोहीत था (ऐ. बा. ८.२२)। हो गया तथा इन्द्र के समान वैभवशाली पुत्र की प्राप्ति के ____अंगचूड-कुबेर सभा का एक यक्ष (म. स.१०.१६) हेतु से, इसने विष्णु की उपासना की। तब भाग्यवान् पुत्र हंसचूड पाठ है। प्राप्ति के लिये कुलीन कन्या से विवाह करने की सूचना | अंगजा-ब्रह्मदेव की कन्या (मत्स्य. ३.१२)। | पुत्र। Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंगद प्राचीन चरित्रकोश अंगिरस् अंगद-वालि को तारा से उत्पन्न पुत्र । यह राम- ३. भारतीय युद्ध में पांडवों के विरुद्ध कौरवों को चन्द्र की सहायतार्थ, बृहस्पति के अंश से निर्माण हुआ था | इसने सहायता की थी (म. द्रो. २४.३६ )। अतएव भाषण कला में अत्यंत चतुर था । युद्ध में, राम । अंगराज-- इसे पालकाप्य ने हाथियों का वैद्यकके बाण से आहत हो कर धराशायी होने पर, अपने पुत्र शास्त्र सिखाया था (अग्नि. २९२)। अंगद की रक्षा करने की प्रार्थना वालि ने राम से की (वा. अंगार-(सो. द्रुह्यु.) मांधाता राजा के साथ इसका रा. कि. १८.४९-५३)। रामचन्द्र ने सुग्रीव को किष्किंधा बडा युद्ध हुआ था (म. शां. २९.८१)। यह युद्ध दस की राजगद्दी पर अभिषिक्त कर तत्काल अंगद को माह तक चलता रहा। इसका अंगारसेतु नाम भी प्राप्त है। यौवराज्याभिषेक किया (वा. रा. कि. २६)। (ब्रह्म. १३.१४९)। इसे आरब्ध, आरद्वत्, शरद्वत् वानराधिपति सुग्रीव ने, दक्षिण दिशा की ओर जिन | तथा अरुद्ध नाम प्राप्त हैं (वंशावलि देखिये)। वानरों को सीता की खोज की हेतु से भेजा. उनका अंगद । अंगारक- मंगल नामक ग्रह । यह पूर्वजन्म का नायक था (वा. रा. कि. ४१.५-६)। सीता की खोज शिवपार्षद वीरभद्र है (मत्स्य. ७१; म. स. ११.२०; करते समय, पर्वत पर एक बडे असुर से इस की मुलाकात मंगल देखिये)। हुई, तथा उसने अंगद पर आक्रमण किया। उस समय २. सौवीर देश का एक राजपुत्र ( जयद्रथ ३. देखिये)। उसे ही रावण समझकर, अंगद ने एक मुक्का उसके मुँह पर ३. जयद्रथ का भ्राता (म. व. २४९. १०-१२)। मारते ही वह रक्त की उलटी करने लगा तथा भूमी पर ४. सुरभि तथा कश्यप का पुत्र निश्चेष्ट गिर गया (वा.रा. कि. ४८.१६-२१)। सीता की अंगारपर्ण-एक गंधर्व । पांडव लाक्षागृह से मुक्त हो खोज में असफल होने के कारण, सब वानरों ने प्रायोपवेशन कर जब गुप्तरूप से रात्रि के समय यात्रा कर रहे थे तब करने का निश्चय किया। इतने में संपाति ने सीता का पता| यह कुंभीनसी आदि स्त्रियों के साथ मार्ग की एक नदी बताया (वा. रा. किं. ५५-५८)। उसी समय समुद्रो- में क्रीडा कर रहा था। अर्जुन के साथ इसकी बोलचाल लंघन कर, कौन कितने समय में पार जा सकता है, इसकी हो कर, अर्जुन का तथा इसका युद्ध हुआ। युद्ध में अर्जुन पूछताछ अंगद ने की । अंगद ने कहा कि, एक उडान में ने उसको जीत लिया। यह देख कर इसने अर्जुन को • वह १०० योजन का अंतर पार कर सकता है (वा. रा. | सूक्ष्मपदार्थदर्शक चाक्षुषीविद्या प्रदान की, तथा अर्जुन के . कि.६५)। अन्त में यह काम हनुमान ने किया। रावण पास से अग्निशिरास्रविद्या स्वयं ली। तदनंतर अर्जुन को के साथ युद्ध करने के पूर्व, साम की भाषा करने के लिये | इसने कहा कि, वे पुरोहित के विना न घूमें तथा राम ने अंगद को वकील के नाते भेजा था परंतु उससे कुछ धौम्य ऋषि को पुरोहित बनायें । इतना कह कर यह चला .. लाभ नहीं हुआ (म. व. २६८; वा. रा. यु. ४१)। गया। आगे चल कर, इसने अपना पहला नाम छोड कर | इसने इन्द्रजित के साथ यूद्ध कर के उसे जर्जर किया चित्ररथ नाम का स्वीकार किया (म. आ. १५८.४२, (वा. रा. यु. ४३)। कंपन के साथ युद्ध कर के उसका वध | १७४.२ )। किया (७६) । नरांतक का-(६९-७०), महापार्श्व का अंगिरस–एक ऋषि । यह वज्रकुलोत्पन्न था (ऋ. १. (९८) तथा वज्रदंष्ट का वध किया (५४)। कुंभकर्ण ५१.४. सायण.)। इसका मनु, ययाति (ऋ.१.३१.१७) के साथ युद्ध करते समय, सब वानर उसका शरीर देख तथा भृगु के साथ उल्लेख है (ऋ.८.४३.१३) । यहाँ यह, कर भयभीत हो गये। उस समय, वीररसयुक्त भाषण | इन लोगों के समान मैं भी अग्नि को बुला रहा हूँ ऐसा करके, सब वीरों को इसने युद्ध में प्रवृत्त किया (६६)। कहता है तथा इतरों के समान अंगिरसों को भी प्राचीन यह सारा कर्तृत्व ध्यान में रख कर, राज्याभिषेक के समय समझता है । दध्यच् , प्रियमेध, कण्व तथा अत्रि के साथ राम ने इसको बाहुभूषण अर्पण किये (१२८)। सुग्रीव भी इसका उल्लेख मिलता है (ऋ. १.१३९.९)। अंगिरस के बाद इसने किष्किंधा पर राज्य किया। के सत्र में इन्द्र ने सरमा को भेजा (ऋ. १.६२.३) । उसी २. दशरथपुत्र लक्ष्मण को उर्मिला से दो पुत्र प्राप्त हुए। प्रकार अंगिरस के द्वारा सत्र करते समय, वहाँ नाभानेउनमें से यह ज्येष्ठ पुत्र है। इसके द्वारा स्थापित नगरी | दिष्ठ मानव, सत्र में लेने के लिये प्रार्थना कर रहे हैं को अंगदीया कहते हैं। वहीं यह राज्य करता था (वा. (ऋ.१०.६२.१-६)। अन्य वैदिक ग्रन्थों में भी नाभा- रा. उ. १०२)। नेदिष्ठ का अंगिरस के साथ संबंध है (ऐ. ब्रा. ५.१४; प्रा. च.२ Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आंगिरस् प्राचीन चरित्रकोश अंगिरस् तै. सं. ३.१.९.४) । अग्नि को अंगिरस नाम दिया गया | अंगिरस मंत्रकार था। परंतु अंगिरस के नामपर मंत्र न है (ऋ. १.१.६)। हो कर, अंगिरस कुल के लोगों के मंत्र हैं । __ अग्नि को प्रथम अंगिरा ने उत्पन्न किया। अंगिरस | यह स्वायंभुव मन्वन्तर में, ब्रह्मा के सिर से उत्पन्न सुधन्वा का निर्देश है (ऋ. १.२०.१)। बृहस्पति अंगिरा हुआ। यह ब्रमिष्ठ, तपस्वी, योगी तथा धार्मिक था का पुत्र था (ऋ. १०.६७)। अंगिरसों ने देवताओं को (ब्रह्माण्ड. २.९.२३) । तथापि स्वायंभुव की संतति की प्रसन्न कर के एक गाय मांगी। देवताओं ने कामधेनु दी | वृद्धि न हुई । इस लिये ब्रह्मा ने स्त्रीसंतति उत्पन्न की । दक्ष परन्तु इन्हें दोहन नहीं आता था । अतएव इन्हों ने | की कन्या स्मृति इसकी पत्नी बनी। इसको स्मृति से सिनीअर्यमन् की प्रार्थना की तथा उसकी सहायता से दोहन | वाली, कुहू, राका तथा अनुमति नामक चार कन्यायें तथा किया (ऋ. १.१३९.७)। अंगिरस तथा आदित्यों में | भारताग्नि एवं कीर्तिमत् नामक दो पुत्र उत्पन्न हुए (ब्रह्माण्ड. स्वर्ग में सर्वप्रथम कौन पहुँचता है, इसके बारे में शर्यत | १.११.१७)। वैवस्वत मन्वन्तर में, शंकर के वर से यह हुई । वह शर्यत आदित्यों ने जीती तथा अंगिरस | पुनः उत्पन्न हुआ। यह ब्रह्मदेव का मानस पुत्र था । यह साठ वर्षों के बाद पहुँचा ऐसा उल्लेख अंगिरसामयन ब्रह्मदेव के मुख से निर्माण हुआ। इसे पैतामहर्षि कहते बताते समय आया है (ऐ, ब्रा. ४.१७)। बहुवचन में हैं। यह प्रजापति था। अग्नि ने पुत्र के समान इसका प्रयुक्त अंगिरा शब्द, हमारे पितरों का वाचक है तथा ये स्वीकार किया था, इसलिये इसे आग्नेय नाम भी प्राप्त है। हमारे पितर हैं ऐसा भी निर्देश है (ऋ. १.६२. २, अग्नि जब क्रुद्ध हो कर तप करने गया तब यह १०.१४.६)। यहाँ इसे नवग्व, भृगु तथा अथर्वन् भी स्वयं अग्नि बना । तप से अग्नि का तेज - कम हो कहा गया है। अंगिरसों ने इन्द्र की स्तुति कर के संसार गया। तब वह इसके पास आया । इसने उसे पूर्ववत का अंधकार दूर किया (ऋ. १.६२.५)। (अथर्वागिरस | अग्नि बन कर, अंधकार का नाश करने को कहा । इसने अग्नि देखिये)। से पुत्र मांगा । वही बृहस्पति है (मत्स्य २१७-२१८)। ___ यह अग्नि से उत्पन्न हुआ अतएव इसे अंगिरस कहते इसके नाम की उपपत्ति अनेक प्रकारों से लगायी जाती है हैं (नि. ३.१७)। (मत्स्य १९५.९; बृहद्दे. ५.९८; ब्रह्माण्ड. ३. १.४१)। __अंगिरस के पुत्र अग्नि से उत्पन्न हुए (ऋ.१०.६२.५)। ब्रह्मदेव ने संतति के लिये, अग्नि में रेत का हवन किया; अंगिरस प्रथम मनुष्य थे । बाद में देवता बने तथा उन्हें ऐसी भी कथा है (वायु, ६५.४०)। ज्ञान प्राप्त हुआ (ऋ. ४.४.१३)। अंगिरस दिवस्पुत्र दक्षकन्या स्मृति इसकी पत्नी (विष्णु. १. ७)। बनने की इच्छा कर रहे थे (ऋ. ४.२.१५)। अंगिरसों चाक्षुष मन्वन्तर के दक्षप्रजापति ने, अपनी कन्या स्वधा को प्रथम वाणी का ज्ञान प्राप्त हुआ तदनंतर छंद का तथा सती इसे दी थी। प्रथम पत्नी स्वधा को पितर हुए ज्ञान हुआ (ऋ. ४.२.१६)। ऋग्वेद के नवम मंडल के | तथा द्वितीय पत्नी सती ने, अथवांगिरस का पुत्रभाव से सूक्त, अंगिरस कुल के द्रष्टाओं के हैं। ब्रह्मविद्या किसने स्वीकार किया (भा. ६.६ ).। इसे श्रद्धा नामक एक पत्नी किसे सिखाई, यह बताते समय, ब्रह्मन्-अथर्वन् - भी थी (भा. ३.१२.२४;३.२४.२२)। शिवा (सुभा) अंगिरस - सत्यवह - भारद्वाज - आंगिरस-शौनक ऐसा नामक एक पत्नी भी इसे थी (म. व. २१४.३) । सुरूपा क्रम दिया है (मुं. उ. १.१.२-३; ३.२.११)। अंगिरस मारीची, स्वराट् कादमी तथा पथ्या मानवी येह तीन स्त्रियाँ का पुराने तत्त्वज्ञानियों में उल्लेख है (शि. उ. १)। कुछ अथर्वन् की बताई गई है (ब्रह्माण्ड. ३.१.१०२-१०३; वायु. उपासनामंत्रों को अंगिरस नाम प्राप्त हुआ है (छां. उ.६५.९८)। तथापि मत्स्य में सुरूपा मारीची, अंगिरस १.२.१०; नृसिं. ५.९.)। यह शब्द पिप्पलाद को की ही पत्नी मानी जाती है (मत्स्य. १९६.१)। ये दोनों कुलनाम के समान लगाया गया है (ब्रह्मोप. १)। अथर्ववेद एक ही माने जाते होंगे । सुरूपा से इसे दस पुत्र हुए। इसने के पांच कल्पों में से एक कल्प का नाम अंगिरसकल्प है। गौतम को तीर्थमाहात्म्य बताया (म. अनु. २५.६९)। कौशिकसूत्र के मुख्य आचार्यों में इसका नाम है। इसने पृथ्वीपर्यटन तथा तीर्थयात्राएं की थीं (म. अनु. आत्मोपनिषद् में अंगिरस ने शरीर, आत्मा तथा ९४)। इसने सुदर्शन नामक विद्याधर को शाप दिया था पुर्वात्मा के संबंध में, जानकारी बताई है (१)। अंगिरस (भा. ४.१३)। इसका तथा कृष्ण का स्यमंतपंचक क्षेत्र कुल के लोग सिरपर पांच शिखायें रखते थे (कर्मप्रदीप)। | में मिलन हुआ था (भा, १०.८४ )। इसको शिवा से १० Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंगिरस् प्राचीन चरित्रकोश अंगिरस् बृहत्कीर्ति, बृहज्ज्योति, बृहद्ब्रह्मन् , बृहन्मनस् , बृहन्मन्त्र, शुद्धिमयूख में अंगिरस ने शातातप का मत ग्राह्य माना है। बृहद्भास तथा बृहस्पति नामक पुत्र तथा भानुमती, रागा| स्मृतिचन्द्रिका में उपस्मृतियों का उल्लेख करते समय (राका ), सिनीवाली, अर्चिष्मती (हविष्मती), महिष्मती, | अंगिरस का निर्देश है । वहाँ इसके गद्य अवतरण भी दिये महामती तथा एकानेका (कुहू ) नामक सात कन्याएं थीं | हैं। अंगिरस ने मनु का धर्मशास्त्र श्रेष्ठ माना है (स्मृतिचं. (म. व. २०८)। बृहत्कीर्त्यादि सब बृहस्पति के विशेषण | | आह्निक ) । आनन्दाश्रम में १६८ श्लोकों की, प्रायश्चित्त हैं, ऐसा नीलकण्ठ का मत है । इसके अलावा भागवत | बताने वाली अंगिरसस्मृति है। उसमें प्रायश्चित्त तथा में सिनीवाली, कुहू , राका तथा अनुमति नामक इसके स्त्री के संबंध में विचार किया गया है । मिताक्षरा में तथा कन्याओं का उल्लेख है (भा. ४.१.३४) । इसके पुत्र | वेदाचार्यों की स्मृतिरत्नावली में बृहद्अंगिरस दिया है । बृहस्पति, उतथ्य तथा संवर्त हैं (म. आ. ६०.५; भा. | मिताक्षरा में मध्यम अंगिरस का कई बार उल्लेख आया है। ९.२.६६)। इसके अतिरिक्त वयस्य (पयस्य), अंगिरस के देवपुत्र-आत्मा, आयु, ऋत, गविष्ठ, शांति, घोर, विरूप तथा सुधन्वन् भी इसके पुत्र थ दक्ष, दमन, प्राण, सत्य, सद तथा हविष्मान् । (म. अनु. १३२.४३)। . | मुख्य गोत्रकार-अजस (अयस्य ), उतथ्य, ऋषिज इसने चित्रकेतु के पुत्र को सजीव करके उस का ( उषिज), गौतम, बृहस्पति, वामदेव तथा संवर्त । सांत्वन किया (भा. ६.१५, चित्रकेतु १. देखिये )। उपगोत्रकार-अत्रायनि, अभिजित्, अरि, अरुणाअंगिरस का धर्मशास्त्र व्यवहार के अतिरिक्त अन्य यनि, उतथ्य, उपबिंदु, ऐरिडव, कारोटक, कासोरू, केराति, सब विषयों में इसका उल्लेख पाया जाता है। याज्ञ- | कोठा कौशल्य (ग), कौष्टिकि, क्रोष्टा, क्षपाविश्वकर, क्षीर, गोतम, औषिकि को वल्क्य ने इसका उल्लेख किया हैं | अंगिरस के मतानुसार, | तौलेय, पाण्डु, पारिकारारिरेव ( पारःकारिररेव ), पार्थिव परिषद में १२१ ब्राह्मणों का समावेश होता है। (याज्ञ. | (ग), पौषाजिति (पौष्यजिति), भार्गवत, मूलप, राहुकर्णि १.९ विश्व.)। धर्मशास्त्र का अवलंब न करते हुए स्वेच्छा (रागकर्णि), रेवाग्नी, रौहिण्यायनि, वाहिनीपति, वैशालि . से किसीने अगर कृत्य किया तो वह निष्फल हो जाता सजीविन, सलौगाक्षि, सामलोमकि, सार्धनेमि, सुरैषिण, - है (याज्ञ. १.५०)। घोर पातक से अपराधी माने गये सोम तथा सौपुरि, ये सब उपगोत्रकार अंगिरा, उशिज, ब्राह्मणों के लिये, वज्र नामक व्रत अंगिरस ने बताया, ऐसा | सवचोतथ्य इन तीन प्रवरों के हैं। • उल्लेख विश्वरूप में पाया जाता है (याज्ञ.३.२४८)। प्रायश्चित्त के संबंध में, विश्वरूप ने (याज्ञ. ३.२६५) इसके दो श्लोक __ अग्निवेश्य, आत्रेयायणि, आपस्तंबि, आश्वलाय नि, दिये हैं। इनमें ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, स्त्रीवध के संबंध में उडुपति, एकेपि, कारकि ( काचापि ), कौचकि, कौरुक्षेत्रि, विचार किया गया है। कुछ पशुपक्षियों के वध के संबंध | कोरुपति, गांगोदधि, गोमेदगंधिक, जैत्यद्रौणि, जैवलायनि, • में भी प्रायश्चित्त बताया है (याज्ञ. ३. २६६)। इसी में तृणकर्णि, देवरारि, देवस्थानि, याख्येय, धमति, भगवान् अंगिरस कहकर बडे गौरव से इसका उल्लेख किया | (भूनित), नायकि, पुष्पान्वेषि, पैल, प्रभु, प्रावहि, प्रावेपि. गया है। परिषद की घटना से संबंधित इसके तेरह श्लोक फलाहार, बर्हिसादिन् , बाष्कलि, बालडि, बालिशायनि, अपरार्क ने (२२-२३) दिये हैं। मिताक्षरा में शंख तथा | | ब्रह्मतन्वि (ब्रह्म तथा तवि), मत्स्याच्छाद्य, महाकपि, अंगिरस के सहगमन-संबंध में काफी श्लोक दिये गये हैं महातेज (ग), मारुत, मार्टिपिंगलि, मूलहर, मौंजवृद्धि, वाराहि, शालंकायनि, शिखाग्रीविन् , शिलस्थलिसरिद्भवि (याज्ञ. १.८६ )। अपरार्क ने (१०९.११२) सहगमन साद्यसुग्रीवि, सालडि (भालुठिवालुठि), सोमतन्वि (सोम संबंध में, चार श्लोक दिये हैं जिसमें कहा है कि, ब्राह्मण स्त्री को सती नहीं जाना चाहिये। मेधातिथि ने ( मनु. ५, | तथा तवि), सौटि, सौवेष्टय तथा हरिकर्णि ये सब उपगोत्रकार अंगिरा बृहस्पति तथा भरद्वाज इन तीन प्रवरों के हैं। १५७.) अंगिरस का सती संबंध में यह मत दे कर, उसके प्रति अपनी अमान्यता व्यक्त की है। इसके अशौच | काण्वायन (ग), कोपचय (ग), क्रोष्टाक्षिन् . गाधिन संबंध के श्लोक, मिताक्षरादि ग्रंथों में तथा इतरत्र आये | गार्ग्य, चक्रिन् , तालकृत, नालविद, पौलकायनि, बलाकिन् हैं । सप्त अंत्यजों के संबंध में, इसका एक श्लोक हरदत्त ने | (बालाकिन् ), बहुग्रीविन् , भाष्कृत, मधुरावह, मार्कटि, (गौतम २०.१) दिया है। विश्वरूप ने लिखा है कि, | राष्ट्रपिण्डिन, लावकृत, लेन्द्राणि, वात्स्यतरायण, श्यामासुमन्तु ने अंगिरस का मत ग्राह्य माना है (याज्ञ. ३.२३७) | यनि, सायकायनि, साहरि तथा स्कंदस, ये सब उपगोत्रकार Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंगिरस् प्राचीन चरित्रकोश अंगिरस् अंगिरा, गर्ग, बृहस्पति, भरद्वाज तथा सैत्य इन पांच भारद्वाज, शैशिरेय, शौग तथा हुत, ये उपगोत्रकार प्रवरों के हैं। अंगिरा, बृहस्पति, भारद्वाज, मौद्गल्य तथा शैशिर इन उरुक्षय, उर्व, कपीतर, कलशीकंठ, काट्य, कारीरथ, | पांच प्रवरों के हैं (मत्स्य. १९६)। कुसीदकि, जलसंधि, दाक्षि, देवमति, धान्यायनि, पतंजलि, | अंगिरस वंश-(इसे अथर्वन् वंश भी कहा जाता बिंदु, भरद्वाजि, भावास्थायनि, भूयसि, मदि, राजकेशिन् , लध्विन्वौषडि, शंसपि, शक्ति, शालि, सोबुधि, व स्वस्तितर, | पथ्या-धृष्णि-सुधन्वन्-ऋषभः । ये सब उपगोत्रकार अंगिरा, उरुक्षय तथा दमबाह्य इन| सुरूपा-१ आधासि, २ आयु, ३ मृत, ४ दनु, तीन प्रवरों के हैं। ५ दक्ष, ६ प्राण, ७ बृहस्पति-भारद्वाज, ८ सत्य, ९ हविष्य __अनेह (अनेहि ), आर्षिणि (आर्पिणि ), गाय॑हरि (गर्गिहर ), गालव (गालवि), गौरवीति, चेनातकि, तंडि, स्वराट-१ अयास्य का कितव, २ उतथ्य का शरद्वान, तैलक, त्रिमार्टिदक्ष, नारायणि (परस्परायणि ), मनु, | | ३ उशिज का दीर्घतपस् , ४ गौतम, वामदेव तथा वामदेव संकृति तथा संबंधि, ये सब उपगोत्रकार अंगिरा, गौरवीति | का बृहदुक्थ । तथा संकृति इन तीन प्रवरों के हैं। इनके अन्य भेद कात्यायनि, कुणेराणि, कौत्स, पिंग, भीमवेग, माद्रि, | अयास्य, आर्षभ, उतथ्य, उशिज, कण्व, कपि,- कितव, मौलि, वात्स्यायनि, शाश्वदर्भि, हंडिदास तथा हरितक, ये | गर्ग, भारद्वाज, भरद्वाज, मुद्गल, रथीतर, रुक्ष, विष्णुवृद्ध, सब उपगोत्रकार अंगिरा. जीवनाश्व (युवनाश्व) तथा | सांकृति, हरित (ब्रह्माण्ड. ३. १. १०४-११२)।। बृहदश्व इन तीन प्रवरों के हैं। __अंगिरस गोत्रीय मंत्रकार . बृहदुक्थ तथा वामदेव, ये उपगोत्रकार अंगिरा, वायु. ५९.९८-१०२;-अंगिरस् , अजमीढ़, अंबरीष, बृहदुक्थ तथा वामदेव इन तीन प्रवरों के हैं। | अमृत, आयाप्य, आहार्य, उतथ्य, ऋषभ, औगज, __ अंगिरा, पुरुकुत्स तथा सदस्यु ये तीन प्रवर कुत्सों कक्षीवान् , कण्व, गाय, सदस्यु, दीर्घतमस् , पुरुकुत्स, के है। पृषदश्व, पौरुकुत्स, बलि, बाष्कलि, बृहदुस्थ, भरद्वाज, अंगिरा, विरूप, रथीतर ये तीन प्रवर रथीतरों के है । | भारद्वाज, मांधाता, मुद्गल, युवनाश्व, वाजश्रवस् , वामदेव, कर्तण (कर्मिण), जतृण, पुत्र तथा विष्णुसिद्धि, वैरपरा- विरूप, वेधस, शेनी, संहृति, संदस्युमान् , सुवित्ति । यण तथा शिवमति ये उपगोत्रकार अंगिरा, विरूप तथा ___ मत्स्य. १४५.१०१.१०५; - अंगिरस् , अजमीढ़, , वृषपर्व इन तीन प्रवरों के हैं। . | अपस्यौष, अंबरीष, अस्वहार्य, उकूल, उतथ्य, ऋषिज, ___ तंबि, मुद्गल, सात्यमुनि तथा हिरण्य इन उपगोत्रकारों के | कक्षीवान् , कवि, काव्य, कृतवान्, गर्ग, गुरुवीत, त्रित, प्रवर अंगिरा, मत्स्यदग्ध तथा मुद्गल । दीर्घतमस् , पुरुकुन्स, पृषदश्व, बृहत् , भरद्वाज, मांधाता, ___ अनिजिह्व, अपाग्नेय, अश्वयु, देवजिह्व, परण्यस्त (ग), मुद्गल, युवनाश्व, लक्ष्मण, वाजिश्रव, वामदेव, विरूप, विमौद्गल, विराड़प (बिडालज) तथा हंस जिह्व इनके प्रवर | वैद्यग, शरद्वान् , शुक्ल, स्मृति संस्कृति, सदस्यवान् , अंगिरा, तांडि तथा मौद्गल्य । सुचित्ति, स्वश्रव। अपांडु, कटु (कंकट), गुरु, नाडायन, नारिन् , प्रागावस । ब्रह्माण्ड, २.३२-१०७-१११; - अंगिरस् , अजमीढ़, (प्रागाथम), मरण (मरणाशन), मर्कटप (कटक), मार्कड | अंबरीष, अयास्य, आहार्य, उतथ्य, असिज, कक्षीवान् , (मार्कट), शाकटायन, शिव तथा श्यामायन ये उपगोत्रकार | कण्व, कपि, ऋतवाच , गर्ग, चक्रवती, तुक्षय, त्रसदस्य, अंगिरा, अजमीढ तथा काट्य इन तीन प्रवरों के हैं। दीर्घतमस् , पुरुकुत्स, पौरुकुत्स, बाष्कलि, बृहदुक्त्थ, कपिभू , गार्ग्य तथा तित्तिरि ये अंगिरा, कपिभू तथ। | भरद्वाज, मांधाता, मुद्गल, युवनाश्व, वाजश्रवस् , वामदेव, तित्तिरि इन प्रवरों के हैं। विरूपाक्ष, वृषादर्भ, शिनि, संकृति, दस्युमान् , सनद्वाज । ऋक्ष, ऋषिमित्रवर, ऋषिवान्मानव, भरद्वाज ये सब (आंगिरस तथा वसुरोचिषु देखिये)। अंगिरा, ऋषिमैत्रवर, ऋषिवान्मानव, भरद्वाज तथा बृहस्पति । २. उत्तानपादवंशीय उल्मुक को पुष्करिणी से उत्पन्न इन पांच प्रवरों के हैं। | पुत्र । Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आंगिरस् ३. श्रावण माह के इन्द्र नामक सूर्य के साथ घूमने• वाला ऋषि (भा. ४. १३; ह. वं. १. १८ ) । ४. एक पितृगण । प्राचीन चरित्रकोश अचल - शकुनि का भाई यह युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में था ( म. स. ३१. ७) । यह महाभारत के युद्ध में अर्जुन के हाथ से मारा गया ( म. द्रो. २९. ११-१२ ) । . यह एकरथ था ( म. उ. १६५. १९ शकुनि देखिये ) । २. (सो. वसुदेव. ) वायु के मतानुसार वसुदेव का मदिरा से उत्पन्न पुत्र | ३. ( मगध. भविष्य . ) मस्य के मतानुसार महीनेत्र का पुत्र । भच्छावाक् क्रतु--ब्रह्मदेव के पुष्कर तीर्थ के यज्ञ का होतृगणों का एक ऋत्विज (पद्म. सृ. ३४ ) । अच्छोदा - बर्हिषद पित्तरों की मानसकन्या । अग्निवात पितरों की कन्या ( ह. वं. १.१८. २६ - २७ ) । इससे अच्छोद सरोवर बना । इसने अनजाने पितरों में से अमावसु को वरण किया; इसलिये यह योगभ्रष्ट हुई तथा द्वापारयुग में अमावस की कन्या हुई ( ब्रह्माण्ड ३.१०. ५४–६४, म. आ. ७; परि. १. ३४. पंक्ति १४, २५, · मत्स्य. १४.३–७ ) । आगे चल कर यही सत्यवती हुई। अच्युत - विभिदुकीयों ने किये सत्र में यह प्रतिहर्ता का काम करता था (जै. ब्रा. ३. २२३ ) । अजमीढ ९. एक ऋषि । इसके कुल में धनंजय, कपर्देय, परिकूट तथा पाणिनि ऋषि हुए ( विश्वामित्र देखिये) । १०. तुषित देवगणों में से एक । ११. इसकी लड़की पृश्नि ( जंतुधना तथा शंड देखिये ) | १२. धर्म तथा मुहूर्ता का पुत्र । अज - (सू. इ. ) राजा रघु का पुत्र तथा दशरथं का पिता । पद्मपुराण में रघु का पौत्र तथा दिलीप द्वितीय का पुत्र (पद्म ८ ) । अजा अर्थात् बकरी पालने के कारण, - इसे अज - नामांतर प्राप्त हुआ । इसने भैरवी का पूजन कर के सुख और ऐश्वर्य प्राप्त किया। उस भैरवी को जातपाश्वरी कहने लगे ( स्कंद. ७. १. ५८ ) । इसका पुत्र दीर्घबाहु तथा उसका पुत्र दशरथ ( पद्म. सृ. ८ ) । २. प्रतिहर्ता को स्तुती से उत्पन्न दो पुत्रों में से ज्येष्ठ पुत्र । इसका भाई भूमन् (भा. ५. १५. ५ ) । अज एकपाद् - यह अग्नि है | दुर्गाचार्य इसका अर्थ 'सूर्य' ऐसा लेते हैं (नि. १२.२९ ) । इसका निवासस्थान स्वर्ग है (नि. ५.६ ) । इसे पेयनिषेक दिया जाता है ( पा. गृ. २.१ ५.२ ) । यह एकादश रूद्रों में से एक है । अजक - दनुपुत्र दानव ( स्कंद. ३.२.८ ) । २. (सो. अमा.) बलाकाश्व का पुत्र । इसका पुत्र कुश अथवा कुशिक । भागवत तथा वायुमत में सुहोत्रपुत्र तथा विष्णुमत मे यह सुजंतु का पुत्र है । ३. (सू. इ. ) मत्स्य मत में दिलीप का पुत्र । यह नाम अज के लिये आया है । ४. ( प्रद्योत . भविष्य . ) विशाखयूपा का पुत्र । अजकर्ण - मय और रंभा का पुत्र । अजगंधा- कश्यप तथा मुनि की कन्या । यह अप्सरा थी । अजन - तेरह सैंहिकेयों में से एक असुर ( सैंहिकेय देखिये) । अजब - वायु तथा ब्रह्मांड मत में व्यास के सामशिष्य परंपरा का हिरण्यनाभ का शिष्य ( व्यास देखिये) । अजबिंदु - सौवीर देश का राजा । लोभ के कारण इसका नाश हुआ (कौ. अ. ६ ) । अजमीढ - ( सो. पुरु. ) विकुंठन तथा दाशार्ही सुदेवा का पुत्र । उस को कैकेय्सी, नागा, गांधारी, विमला तथा ऋक्षा आदि पत्नीयाँ थी । इसको २४०० पुत्र हुए। उन मे वंश चलाने वाला संवरण था । संवरण- वैवस्वती तपती का पुत्र कुरु । (म. आ. ९०.३८-४० ) । २. (सो. पूरु ) सुहोत्र और ऐक्ष्वाकी का ज्येष्ठ पुत्र । इसकी पत्नी के नाम धूमिनी, नीली और केशिनी । धूमिनी का तथा ऋक्ष, नीली के दुःषन्त तथा परमेष्ठिन् केशिनी के जल, जन तथा रूपिन ऐसे पुत्र थे। ये सब पांचाल थे ( म. ३. (सू. निमि.) ऊर्ध्वकेतु जनक का पुत्र पुरुजित् जनक का पिता । ४. (सो. पुरूरवस्. ) विजयकुल में बलाकाश्व राजा का आ. ८९. २६-२९ ) । पुत्र । इसका पुत्र कुश अथवा कुशिक । ५. पांडव पक्षीय एक महारथी ( म. उ. १६८.१२ ) । ६. दाशराज्ञ युद्ध में सुदास का शत्रु (ऋ. ७. १८.१९ ) । ७. सुरभि तथा कश्यप का पुत्र । ८. उत्तम मनु का पुत्र । वायुमें हस्ति के तीन पुत्रो में इसे ज्येष्ठ कहा हैं । इसकी नीलिनी, धूमिनी और केशिनी तीन पत्नियाँ थीं। इसका वंश चलाने वाले तीन पुत्र थे । उनके नाम ऋक्ष, बृहदिषु (बृहद्वसु ) और नील | बृहदिषु से अजमीढ वंश प्रारंभ होता है । ( वायु. ९९. १७० ) १३ Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अजमीढ प्राचीन चरित्रकोश अजमीद से, पांचाल देश में पांचालवंशीय पुरुवंश का स्वतंत्र राज आरंभ हुआ । इस कारण इस वंश का नाम अजमीढवंश हो गया। पांचाल के दो भाग हुए। दक्षिण पांचाल तथा उत्तर पांचाल दक्षिण पांचाल में अजमीढपुत्र बृहदिषु तथा उत्तर पांचाल में अजमीढपुत्र नील राज करनें लगे | बृहदिषु से भाडारपुत्र जनमेजय तक के बंध का उल्लेख, अनेक पुराणों में मिलता है। इस में प्रायः वीस पुरुष है। जनमेजय के पश्चात्, उत्तर पांचाल का नीलवंशीय पृप्त पुत्र राजा द्रुपद, दक्षिण पांचाल का शासक बन गया द्रुपद की कन्या द्रौपदी, पांडवों की पत्नी थी तथा पुत्र धृष्टयुम्न, भारतीय युद्ध में पांडवों का सेनापति था। ·3 अजामिल - कान्यकुब्ज देश का एक ब्राह्मण । यह प्रथम सदाचारी था । परन्तु बाद में किसी वेश्या के मोह में फँसकर इसने वृद्ध मातापिता तथा विवाहिता पत्नी का भी त्याग कर दिया। राहगीरों को लूटना, छूत खेलना, धोखा देना तथा चोरी करना इ. साधनों से यह चरितार्थ चलाता था। इस प्रकार इसने अनुपासी वर्ष बिताये । इस वेश्या से इसे दस पुत्र हुए। उनमें से सबसे छोटे नारायण पर इसकी अधिक प्रीति थी । मरणसमय आने पर यह उसी को पुकारता रहा। केवल नामस्मरण के माहात्म्य से यमदूतों के हाथों से विष्णुदूतों ने इसे मुख द्रोण तथा द्रुपद के युद्ध के पश्चात् उत्तरपांचाल का किया। राव विष्णुदूत तथा यमदूतों का वार्तालाप इंसने अधिपति द्रोण हो गया । सुना । यमदूतों द्वारा कथित, वेदप्रतिपादित गुणाश्रित धर्म तथा विष्णुदूतो द्वारा प्रतिपादित शुद्ध भागवतधर्म भारतीय युद्ध के पश्चात्, पांचाल राज का नाम कही सुन कर इसे कृतकर्म का पश्चात्ताप हुआ तथा हरि के प्रति भक्ति इसके मन में उत्पन्न हुई । अन्त में विरक्त हो कर, मूलतः क्षत्रिय होते हुए भी आगे चल कर इस वंश के यह हरिद्वार को गया तथा गंगा में देहत्याग कर के मुक्त लोग ब्राह्मण हुए (वायु, ९१. ११६) हो गया ( भा. ६. १-२ ) । नही मिलता । , अजमीढ, अंगिरा गोत्र में प्रवर और मंत्रकार है (ऋ. ४. ४३ - ४४ ) । भारतीय युद्ध के लिये, हुपद ही पांडव पक्ष का प्रधान तथा कुशल नियोजक माना जाता है । दक्षिण पांचाल की राजधानी कांपिल्य थी तथा उत्तर पांचाल की राजधानी अहिच्छन। नीलवंशीय पत्पुत्र द्रुपद के समय दोनो पांचाल राज एकत्रित हुए । अजि २. ( शिशु. भविष्य . ) ब्रह्मांडमतानुसार विधिसार राजा का पुत्र । विष्णुमतानुसार बिंदुसार का मत्स्यमतानुसार भूमिमित्र का तथा वायुमतानुसार क्षेमवर्मन् का पुत्र । अजमीह-- अजमीढ का नामान्तर । अजय - ( शिशु. भविष्य.) भागवतमतानुसार दर्भक का पुत्र । अजस्य - अंगिराकुल का गोत्रकार । अयस्य पाठ भी प्रचलित है । अजात - (सो. विदूरथ. ) मत्स्यमतानुसार हृदीक का पुत्र । अजातशत्रु - युधिष्ठिर का नामांतर ( भा. १. ८. ५६ म. भी. ८१.१७ ) । अजातशत्रु काश्य अथवा अजातरिपु-काशी का राजा । गार्ग्य बालाकी नामक अभिमानी ब्राह्मण को इसने वादविवाद में हराया (२.१.११. उ. ४. १ ) । अजामुखी-लंका के अशोकवन में, सीता के संरक्षण के लिये नियुक्त राक्षसियों में से एक ( वा. रा. सुं. २४. ४४ ) । | अजमीळ सौहोत्रसूक्तद्रष्टा ऋग्वेद में इसके दो सूक्त है ( ऋ. ४.४३ - ४४ ) । आजमीळासः ऐसा मंत्र में निर्देश है (ऋ. ४. ४४. ६ ) । पौराणिक उच्चार अजमी है। अजित् - स्वायंभुव मन्वन्तर के याम देवताओं में से एक । २. चाक्षुष मन्यन्तर के वैराग्य तथा संभूति से उत्पन्न विष्णु का अवतार (मनु देखिये) । ३. भौत्य मन्वन्तर के सप्तर्षियों में से एक । अजित - पृथुक देखों में से एक। अजिन - ऊरु को षड़ाग्नेयी से प्राप्त पुत्र । अजिर सर्प सत्र में यह सुब्रह्मण्य नामक विज का कार्य करता था (पं. बा. २५.१५ ) । १४ - २. स्वायंभुव मन्वन्तर के जिदाजित् देवों में से एक । अजिह्न - पारावत देवों में से एक । · Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन चरित्रकोश अजिह्नका अजिह्निका अशोकवन की एक राक्षसी (म.व. २६४. ४४ ) । अजीगर्त सौयवसि - भृगुकुलोत्पन्न एक ब्राह्मण | इसे पुच्छ शुनःशेष तथा गोल नामक तीन पुत्र थे । शुनःशेप को इसने वरुण को बलि देने के लिये, हरिश्चन्द्र को बेच दिया था (ऐ. बा. ७. १५-५७ ) । ( अम्बरीष तथा ऋचीक देखिये ) । अजेय - पारावत तथा विकुंठ देवताओं में से एक। अजैकपात्-- भूत ऋषिको घोरा से उत्पन्न एक रुद्र । २. एक अग्नि, यह रुद्रभी था। (अज एक गद् देखिये) अजैकपाल - शंकर के प्रसाद से प्राप्त पुत्र । इसका एक पैर मनुष्य का तथा दूसरा बकरे का था । बचपन में मृत्यु रोगों के साथ इसे मारने के लिये आया। परंतु इसने मृत्यु को जीत लिया । इस कारण इसे मृत्युंजय नाम प्राप्त हुआ। यह अत्यंत सात्त्विक था (भवि. प्रति. ४. ११) अंजक - कश्यप को दनु से उत्पन्न एक दानव । अंजन - ( सू. निमि.) विष्णु के मत से कुणिपुत्र | २. ऐरावण का पुत्र । यह यम का वाहन है ( ब्रह्मांड ३- ७. ३३० ) । । अंजनपर्वन् घटोकच का पुत्र ( म.उ. १९५ १९०. ५९३ ) । यह रात्रियुद्ध में अश्वत्थामा के हाथों से मारा गया (म. हो. १२१.५२ ) । अंजना -- यह पूर्वजन्म में पुंजकस्पती नामक अप्सरा थी। शाप के कारण यह पृथ्वी पर कुंजर नामक वानर की कन्या हुई। परंतु अन्य स्थानों पर इसे गौतम ऋषि की कन्या माना गया है ( शिव. शत. २० ) । यह केसरी बानर की पत्नी थी (भवि. प्रति. ४. १३) । मतंग ऋषि के कहने से अंजनी ने पति के साथ वेंकटाचल पर जा कर पुष्करिणीतीर्थ पर स्नान कर के, वराह तथा वेंकटेशं को नमस्कार किया। तदनंतर आकाशगंगातीर्थ पर वायु की आराधना की । १००० वर्षों तक तप होने के बाद वायु प्रगट हुआ, तथा उसने कहा ' चैत्र माह की पौर्णिमा के दिन मैं तुम्हारी कामना पूर्ण करूंगा। तुम वरदान मांगो।' इसने पुत्र मांगा । बाद में वायुप्रसाद से इसे मारुती (हनुमान) उत्पन्न हुआ ( स्कन्द २.४०) । इसे मार्करा नामक खोत थी ( आ. रा. सार. १३)। इसका अंजनी तथा अंजना दोनों नामों से उल्लेख भाता है। यह काम रूपधरा थी ( वा. रा. किं. ६६ ) । अरमान - - (आंध्र. भविष्य . ) मेघस्वाती का पुत्र । अतिरथ अट्टहास - वर्तमान मन्वन्तर के बीसवें पौखाने में हिमालय के अट्टहास शिखर पर यह शिव का अवतार हुआ। वहाँ इसे निम्नांकित शिष्य थे- १. सुमन्तु, २. बर्वरी, ३. कच, ४. कुशिकंधर ( शिव शत. ५) । अणि मांडव्य - मांडव्य ऋषी का नामान्तर | . अणीचिन् मौन - धार्मिक विधि के संबंध में एक तत्त्वज्ञ तथा जावाल तथा चित्र गोत्रायणि का समकालीन (सां. बा. २३. ५ ) । अग्रह -- (सो. पूरु.) विभ्राज अथवा पार राजा का शुकाचार्य की कन्या कृत्वी अथवा कीर्तिमती । इसे ब्रह्मपुत्र । इसे नीप नामक दूसरा नाम है। इसकी पत्नी दस तथा अन्य भी सौ पुत्र थे। दत्त अतिकाय -- धान्यमालिनी से रावण को प्राप्त पुत्र । इसका शरीर अत्यंत स्थूल होने के कारण, इसे यह नाम मिला । इसने ब्रह्मदेव की आराधना कर के अस्त्र, कवच, दिव्य रथ तथा सुरामुरो से अवध्यत्व प्राप्त किया। इसी कारण, इसने इन्द्र का पराभव किया तथा वरुण को जीत कर उससे उसका पाश प्राप्त किया । कुंभकर्ण की मृत्यु के बाद यह युद्धार्थ आया तब लक्ष्मण ने इसका वध किया । ( वा. रा. यु. ७१ ) । अतिथि - (सू.इ.) कुरा का पुत्र इसका पुत्र निषध । भविष्य के मतानुसार इसने दस हजार वर्षो तक राज्य किया । २. आय देवगणों में से एक। अतिथिग्व- दिवोदास को इस नाम से संबोधित किया है। इसका संबंध इंद्रोत, पर्णय, करंज और तुर्वयाण से माना जाता है । अतिधन्वन् -- मशक का शिष्य । इसका शिष्य उदर शांडिल्य (वं. बा. २ ) । इसने उदरशांडिल्य को उद्गीथ की उपासना के बारे में जानकारी बताई (छां. उ. १.९.२ ) । अतिनामन् - चाक्षुष मन्वन्तर के सप्तर्षियों में से एक । अतिबाहु- स्वायंभुव मनु का पुत्र (मनु देखिये ) । २. कश्यप को प्राधा से उत्पन्न एक गंधर्व । अतिभानु-- सत्यभामा तथा कृष्ण का पुत्र । अतिभूति - (सू. दिष्ट. ) विष्णु के मत में यह खनिनेत्र का पुत्र है। अतिरथ -- (सो. पुरु. ) मतिनार का पुत्र ( म. आ. ८९. ११ ) । १५ Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अतिरात्र प्राचीन चरित्रकोश अतिरात्र- चक्षुर्मनु का पुत्र (मनु देखिये)। लाता है, ऐसा माना जाता था (ऋ. ५.४०.५-९. अतिसाम एतुरेत-प्राणविद्या की रक्षा करने वाले | ब्रह्माण्ड, ३.८.७७; ह. बं. १.३१. १३-१४, प्रभाकर तत्त्वज्ञानियों में से एक मान कर इसे नमन किया गया है | आत्रेय देखिये)। (जै. उ. ब्रा. २६.१५)। स्वायंभुव मन्वन्तर में प्रजोत्पादनार्थ ब्रह्मदेव द्वारा निर्मित अतुलविक्रम- (सू.इ.) भविष्य के मतानुसार दस मानस पुत्रों में सें यह एक था ( वायु. १.९)। यह क्रोधदान का पुत्र । ब्रह्मदेव के नेत्र से या मस्तक से उत्पन्न हुआ था (भा. ३.१२. अत्यंहस आरुणि-प्लक्ष दय्यांपति के पास सावित्राग्नि | २४; मत्स्यः ३.६-८)। यह स्वायंभुव मन्वन्तर में ब्रह्मा के के बारे में प्रश्न करने के लिये इसने अपना शिष्य भेजा | कान से उत्पन्न हुआ (वायु, ९.१०१; ब्रह्माण्ड, २.९.२३; था। परंतु उस शिष्य की उसने काफी निर्भर्त्सना की (तै. । ब्रह्मन् देखिये)। स्वायंभुव मनु का यह जामात । दक्ष ने ब्रा. ३.१०.९.३-५)। सती एवं शंकर को न बुलाने के कारण, सती ने स्वयं को दग्ध __ अत्यराति जानंतपि- एक पृथ्वीजेता। राजा न कर लिया। इस क्रोध के कारण शंकर ने सब को दग्ध होते हुए भी, वासिष्ठ सात्यहध्य ने इसे ऐन्द्र महाभिषेक कर दिया। उसमें इसकी मृत्यु हो गई । दक्ष की कन्या किया। इस कारण, इसने सारी पृथ्वी जीती। वासिष्ठ अनसूया इसकी पत्नी । अत्रि को अनसूया से पांच पुत्र सात्यहव्य ने जब पौरोहित्य का स्मरण दिला कर उसके हुए। १. श्रुति (शंखपद की माता तथा कर्दम पौलह लिये पुरस्कार मांगा, तब इसने कहा कि, " उत्तर कुरुओं प्रजापती की पत्नी), २. सत्यनेत्र, ३. हव्य, ४. आपोमूर्ति को जीतने के बाद संपूर्ण पृथ्वी का राज्य आपको दे कर मैं शनैश्वर, ५. सोम | इस मन्वन्तर. में हजारो आत्रेय उत्पन्न आपका सेनापति बनूंगा"। इस पर सात्यहव्य ने कहा, हुए (ब्रह्माण्ड. २. ११. २५)। शंकर के वर से ही यह "तुमने मुझको धोखा दिया । क्यों कि मानव उत्तर कुरुओं पुनः वैवस्वत मन्वन्तर में उत्पन्न हुआ। यह एक प्रजापति को नहीं जीत सकते ।” तदनंतर सात्यहव्य ने इसे हतबल था (म. स. ११.१५, शां. २०१; मत्स्य. १७१. २६किया तथा शिबिराजा का पुत्र अमित्रतपन शुष्मिण शैव्य के २७)। कदम प्रजापति के कन्याओं में से, अनसूया इसकी द्वारा इसका वध करवाया (ऐ. ब्रा. ८.२३)। क्षत्रिय ने पत्नी थी (भा. ३. २४. २२)। . . ब्राह्मण के साथ द्रोह नहीं करना चाहिये, इस लिये यह इसे अनसूया से दत्त, दुर्वास तथा सोम नामक तीन पुत्र कथा बताई गई है। . हुए (ब्रह्मांड, ३.८.८२,६५, मार्क. १६; अग्नि २०.१२; अत्रायनि-अंगिराकुल का एक गोत्रकार। | भा. ४.१.१५,३३)। वायु पुराण में अग्नि को दत्त, दुर्वास अत्रि-एक सूक्तद्रष्टा । ऋग्वेद में अत्रि की एक कथा ये दो पुत्र तथा ब्रह्मवादिनी कन्या उत्पन्न हुइ ऐसा का बार बार उल्लेख आता है। इसे अत्यधिक ताप उल्लेख है (७०.७५-७६)। अत्रि को सोम तथा अर्यमा हो रहा था तब अश्विनों ने इसे शांत किया (ऋ. १. नामक दो पुत्र थे ऐसा उल्लेख महाभारत में दिया है ११२.७)। इसे कुछ कारणवश कारागृहवास करना पड़ा (शां. २०१)। पुष्कल महर्षि इसका पुत्र था ऐसा भी था । इसके कारागृहवास का कारण था, जनता का पक्ष उल्लख प्राप्य ह (म. आ.६०.६)। इनक नत्र स चन्द्रमा लेकर राजा से लड़ाई। यह लोकशासित राज्य के लिये उत्पन्न हुआ (भा. ९.१४.२-३)। प्रयत्न करता था (ऋ. ५.६६)। इसे पांचजन्य कहा है स्वायंभुव मन्वन्तर में इसने उत्तानपाद को दत्तक (ऋ. १.११७.३)। यह अग्निकुंड में गिरा या अनी में | लिया था (ब्रह्मांड. २.३६.८४-९०: ह. वं. १.२)। झुलसा । उस अग्नी के दाह से अश्विनों ने इसे मुक्त किया | के बाद से अधिनों ने इसे मक्त किया। इसका गौतम ऋषि के साथ ब्राहाणमहात्म्य पर संवाद (ऋ. १. ११८. ७; ११९. ६)। बहुधा कारागृह की हुआ था (म. व. १८३) । वायु का हैहय अर्जुन के साथ यातनाओं की कल्पना व्यक्त करने के लिये ऐसा वर्णन | जब युद्ध चल रहा था तब राहू ने चन्द्र तथा सूर्य का किया होगा (ऋ. ५.७.८.४, १०.३९. ९)। पांचवें | पराभव कर के सर्वत्र अंधकार कर दिया । उस समय मंडल में अत्रिगोत्र के काफी सूक्तकारों का उल्लेख है। देवताओं की प्रार्थना मान्य कर के अत्रि स्वयं चन्द्र बना ( यजत तथा रातहव्य देखिये ) अत्रि ने चतुराज याग शुरू तथा अंधकार का नाश किया (स. अनु. २६१८)। किया (तै. सं. ७. १.८)। इसे ग्रहण के संबंध में प्रथम यह एक सूक्तकार था (वायु. ५९.१०४, ब्रह्म. १.३२%, ज्ञान हुआ । इसी लिये ग्रहण लगने पर अत्रि सूर्य को वापस मत्स्य. १४५बृ. उ. २.१.१.)। अत्रि को पैतामहर्षि कहा १६ Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अत्रि प्राचीन चरित्रकोश अथर्वन् जाता है (मत्स्य. १७१.२८)। यह शिवावतार गौतम का ३. व्यासपुराण की शिष्यपरंपरा के वायु के अनुसार, शिष्य है । यह स्वायंभुव तथा वैवस्वत मन्वन्तर के सप्तर्षियों | यह रोमहर्षण का शिष्य है (व्यास देखिये)। • में से एक था । उन्नीसवें द्वापर में यह व्यास था। ऋग्वेद के एक सूक्त की दस ऋचाएं अनेक अत्रियों ने भत्रि का धर्मशास्त्र-आनंदाश्रम के स्मृति समुच्चय में | देखी है (ऋ. ९. ८६.३१-४०)। इससे ज्ञात होता अत्रिसंहिता तथा अविस्मृति नामक दो ग्रंथ हैं। अत्रि- | है कि, अत्रिकुल के लोग भी अत्रि नाम से व्यवहृत होते संहिता में नौ अध्याय तथा चारसौ श्लोक हैं तथा अनेक | थे। प्रायश्चित्त बताये हैं । वहाँ योग, जप, कर्मविपाक, द्रव्य- अत्रि भौम-सूक्तद्रष्टा (ऋ.५. २७, ३७-४३; शुद्धि तथा प्रायश्चित्त का विचार किया गया है । ७६, ७७, ८३-८६,९.६७. १०-१२, ८६.४१-४५: - अत्रिस्मृति में नौ अध्याय हो कर प्राणायाम, जपप्रशंसा | १०.१३७. ४)। तथा प्रायश्चित्त बताये हैं। मनु ने गौरव के साथ इसका अत्रि सांख्य-सूक्तद्रष्टा (ऋ. १०.१४३)। मत लिया है (३.१६) । दत्तकमीमांसा में इसके मत का उल्लेख है। इसके लध्वत्रिस्मृति तथा बृहदात्रेयस्मृति अथर्वन्-अश्वत्थ के दानस्तुति का दान ग्रहण करनेनामक दो ग्रंथ भी उपलब्ध हैं। इसने वास्तुशास्त्र पर भी वाला (ऋ. ५. ४७.२४)। यह एक प्राचीन उपाध्याय एक ग्रंथ रचा था (मत्स्य. २५२.१-४)। था (ऋ. १०.१२०.९)। इसीने अग्निमंथन का प्रचार किया भत्रिवंश के गोत्रकार--अर्धपप्य, उद्दालकि, करजिव्ह. | (*... (ऋ. ६. १६.१३; तै. ब्रा. ३.५.११; वा. सं.३०.१५)। कर्णजिव्ह, कर्णिरथ, कर्दमायन शाखेय (ग), इसके द्वारा उत्पन्न अग्नि, विवस्वत् का दूत बना (ऋ. १०. गोणीपति, गोणाय नि, गोपन (ग), गौरग्रीव, गौरजिन, २१.५)। इसीके नाम पर से अग्नि को अथर्वन् नाम चैत्रायण, छंदोगेय, जलद, तकीबिंदु, तैलप, भदगपाद, । प्राप्त हुआ (ऋ. ६. १६. १३)। अग्नि को इसकी उपमा लैद्राणि, वामरथ्य, शाकलाय नि, शारायण, शौण, शौकतव दी गई मिलती है (ऋ. १०. ८७. १२, ८. ९.७)। (शाक्रतव, शीक्रतव), सवैलेय ( सचैलेय), सौनकर्णि | अथर्वन् का अर्थ अग्निहोत्री भी है (ऋ. ७. १. १) (शाणव-कर्णिरथ), सौपुष्पि तथा हरप्रीति (रसद्वीचि) इसका तथा इन्द्र का स्नेह था । इन्द्र इसे सहायता करता 'ये गोत्रकार अत्रि, आर्चनानश (त्रिवराताम् ) तथा था (ऋ. १.४८.२)।इसकी देवताओं में गणना की श्यावाश्व इन तीन प्रवरों के हैं। गई है (बृ. उ. २.६.३, ४.६.३) । इसने इन्द्र • ऊर्णनाभि, गविष्ठिर, दाक्षि, पर्णवि, बलि, वीजवापि, | | को उद्देशित कर के एक स्तोत्र की रचना की है (ऋ. १. भलंदन, मौंजकेश, शिरीष तथा शिलदनि, ये गोत्रकार | ८०.१६)। इसने यज्ञ कर के, स्थैर्य प्राप्त कर लिया . अत्रि, गविष्ठिर तथा पूर्वातिथि इन तीन प्रवरो के हैं। (ऋ. १०. ९२. १०)। इसने यज्ञसामर्थ्य से मार्ग चौडा कालेय (ग), धात्रेय (ग), मैत्रेय (ग) वामरथ्य (ग) कर लेने पर, सूर्य उत्पन्न हुआ (ऋ. १. ८३.५)। मनु . तमा सबालेय (ग) ये गोत्रकार अत्रि, पौत्रि तथा वामरथ्य, तथा दध्यच् के साथ इसने तप किया था (ऋ. १.१०. इन तीन प्रवरों के है (मत्स्य. १९७.१-५)। अत्रिपुत्र १६)। अथर्वागिरस् शब्द प्राप्य है (अ. वे. १०.७.२०. सोम के वंश में विश्वामित्र हुआ (मत्स्य.१९८) अत्रि का श. ब्रा. ११.५.६७)। इसने इन्द्र को सोमरस दिया वंश अनेक स्थानों पर आया है (ब्रह्माण्ड. ३.८.७४-८७; (अ. वे. १८. ३. ५४) । वरुण ने इसे एक कामधेनु दी वायु. ७०.६७-७८; लिङ्ग. १.६३)। अन्यत्र भी | थी (अ. वे. ५. ११; ७. १०४)। इसका देवताओं विमागशः आया है (ब्रह्म. ९. १, ह. व. १. ३१.१२ के साथ स्नेहसंबंध होने के कारण यह स्वर्ग में रहता था | (अ. वे. ४. १.७)। १७; प्रभाकर तथा स्वस्त्यात्रेय देखिये)। अत्रिकुल के मंत्रकार-अत्रि, अर्चिसन, निष्ठर, पूर्वा- यह आचार्य था (श. बा. १४.५.५.२२; ७. ३. तिथि, बल्गूतक, श्यामावान् (वायु. ५९.१०४); अत्रि, |२८)। अथर्वांगिरस् ऋषि का प्रादुर्भाव वैशाली राज्य में अर्धस्वन, कर्णक, गविष्टिर, पूर्वातिथि, शावस्य (मत्स्य. | हुआ। इस शब्द का अनेकवचन पितर अर्थ से आया है १४५. १०७-८); अत्रि, अर्वसन, आविहोत्र, गविष्ठिर, I (ऋ. १०.१४.४-६; १०.१५.८)। वे स्वर्ग में रहनेपूर्वातिथि, शावाश्व (ब्रह्माण्ड. २. ३२.११३-११४)। | वाले देवता थे (अ. वे. ११.६.१३)। एक अद्भुत २. वसिष्ठगोत्र का एक प्रवर । | मूली से ये दैत्यनाश करते थे ( अ. वे. ४. ३७. ७)। प्रा. च. ३] Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथर्वन प्राचीन चरित्रकोश अदीन यह ब्रह्मदेव का ज्येष्ठ पुत्र । यज्ञ नामक इन्द्र इसका | वेदों में उसे विष्णु की पत्नी कहा गया है (वा. स. २९. सहाध्यायी था। इन दोनों को ब्रह्मदेव से ब्रह्मविद्या प्राप्त | ६०; तै. सं. ७.५.१४) । अदिति, अब तथा पृथ्वी से देवता हुई (मुं. उ. १. १.१-२)। उत्पन्न हुए (ऋ. १०.६३.२)। अदिति की द्यौ तथा पृथ्वी यह स्वायंभुव मन्वन्तर का ऋषि था। यह ब्रह्मदेव का | से एकरूप कल्पना की गई है (ऋ. १.७२,९; अ. वे.१३. मानसपुत्र था। इसे कर्दमकन्या शांति तथा चित्ति नामक दो १.३८)। तथापि कई स्थानों पर द्यावापृथिवी की अपेक्षा पत्नियाँ थीं (भा. ४.१; १०.७४. ९.)। इसे सुरूपा | इसका पृथक् उल्लेख किया गया हैं ( ऋ.१०.६३.१०)। मारीची, स्वराट् कादमी तथा पथ्या मानवी ये तीन | एक स्थान पर अदिति विश्वसृष्टि की मूर्ति दिखाई देती पत्नियाँ थीं (ब्रह्माण्ड. ३.१. १०२-१०३; वायु. ६५. है (ऋ. १.८९.१०)। अदिति, आदित्य की माता, ९८)। परंतु सुरूपा मारीची, अंगिरस् की पत्नी मानी | अतएव तेज प्राप्त करने के लिये उसकी प्रार्थना की गयी गई है (मत्स्य. १९६.२)। धृतव्रत, दध्यच् तथा अथर्व- है (ऋ. ४.२५.३ १०.३६.३)। उसके तेज का गौरव शिरस् इसके पुत्र हैं। इन्हें आथर्वण कहते हैं। किया गया है। ऋग्वेद तथा अगले ग्रंथों में अदिति को __ यह युधिष्ठिर के यज्ञ में ऋत्विज था (भा. १०.७४. | गो कहा गया है (ऋ. ७.८२.१०)। उषा को अदितिमुख ९)। अंगिरस कुल का प्रथम कह कर, इसका उल्लेख | कहा है (ऋ. १.१५.३; ८.९०.१५:१०.११.१; वा. सं. किया गया है तथा अथर्ववेद से इसका संबंध है, ऐसा १३.४३:४९)। संस्कार की गाय को सामान्यतः अदिति उल्लेख अथर्ववेद में पाया जाता है (म. उ. १८.७-८; | कहा जाता है। भूलोक के सोम की तुलना - अदिति के मुं. उ. १.१.१-२, वायु. ७४, ब्रह्माण्ड. ३.६५.१२, ह. ध से की गई हैं (ऋ. १.९६.१५)। अदिति की नप्ती वं. १.२५)। इसकी माँ का नाम सती था (भा. ६.६. | (कन्या) दूध को ही माना गया होगा। वह पात्र में १९)। इसने समुद्र से अग्मि बाहर निकाला (म. | गिरते हुए सोम के साथ एकजीव होती है (ऋ. ९.६९. व. २१२.१८)। नहुष, इन्द्रपद से भ्रष्ट होने के पश्चात् | ३)। पहला इन्द्र सिंहासन पर बैठा । तब अंगिरा ने आ कर यह प्राचेतस दक्ष प्रजापति तथा आसिक्नी की कन्या अथर्ववेदमंत्रों से इन्द्र का सत्कार किया। तब इन्द्र ने | तथा कश्यप प्रजापति की पत्नी थी। इससे पता चलता है इसे वरदान दिया कि, 'तुम्हारे वेद का नाम अथर्वांगि वद का नाम अथवााग- कि, ऋग्वेद के एक सूक्त की द्रष्टी अदिति दाक्षायणी यही रस होगा, तुम्हें भी लोग अथवागिरस कहेंगे तथा तुम्हें होगी ( १०.७२)। मैनाक पर्वत के मध्य में स्थित यज्ञभाग भी मिलेगा'(म. उ.१८.५-८; पणि देखिये)|| विनशन नामक तीर्थ पर अदिति ने चरु पकाया था (मा अथर्वशिरस-यह अथर्वन् का पुत्र था (अथर्वन् व. १३५.३)। देवयुग में तीनों लोकों पर देवताओं का देखिये)। स्वामित्व था। उस समय इसने पुत्रप्राप्त्यर्थ सतत एक अथवौगिरस् -अंगिरस को इन्द्र द्वारा दी गई संज्ञा । पैर पर खडे हो कर अति कठिन तपश्चर्या की। उससे अथर्वन् तथा अथर्ववेद की संज्ञा (तै. बा. ३.१२.८.२; विष्णु उत्पन्न हुआ (म. अनु. ९३)। विष्णु के पहले श. वा. ११.५.६.७ मैन्यु. ६.३३; छां. उ. ३.४.१-२; इसे ग्यारह पुत्र हुए थे। विष्णु को मिला कर कुल बारह प्र. उ. २.८)। अथर्ववेद शब्द सूत्र में आया है (को. पुत्र हुए (कश्यप देखिये)। तैत्तिरीय संहिता में कहा सू. ३.१९)। गया है कि, इसे आठ ही पुत्र हुए । इसे सात की कामना __ अथौजस-वैशाखमास के सूर्य के साथ रहनेवाला | थी अतएव आठवा गर्भ इसने फोड़ दिया। केवल सात यक्ष (भा. १२. ११.३४)। पुत्र ले कर यह देवताओं के पास गई। आठवाँ माण्ड अदारि-सुरारि देखिये। अथवा विवस्वान् का इसने त्याग किया। ये आठ पुत्र ही अदिति-मित्रावरुणों की (ऋ. ८.२५. ३, १०३. अष्ट वसु हैं। भूमिपुत्र नरकासुर ने अदिति के कुंडलों का ८३) तथा अर्थमा की (ऋ. ८.४.७९) माता । इसीसे | हरण किया तथा वह प्राग्ज्यातिष नगर म | हरण किया तथा वह प्राग्ज्योतिष नगर में जा कर रहने स्वाभाविकतः इसे राजमाता कहा जाता है (ऋ. २.२७. लगा। आगे चल कर कृष्ण उन्हें जीत लाया तथा अदिति ७)। इसके आठ पुत्र हैं तथा वे अत्यंत बलवान् हैं को उसने वे कुंडल दिये (म. उ. ४७)। (ऋ. १०.७२.८; ३.४.११, ८.५६.११)। पौराणिक अदीन-(सो. क्षत्र.) सहदेव का पुत्र । इसका कथाओं में अदिति, दक्षकन्या तथा कश्यप पत्नी है। परंतु | पुत्र जयत्सेन। १८ Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अदूर . प्राचीन चरित्रकोश अनंतभागिन् अदूर-रुद्रसावर्णि मनु का पुत्र । उसका नालच्छेदन किया तथा उसे अपनी राधा नामक अदृश्यंती-मैत्रावरुणी वसिष्ठपुत्र शक्ति की पत्नी पत्नी को सौंप कर, पुत्र के समान उसका पालन किया तथा पराशर ऋषि की माता । (भा. ९.२३.१३; म. आ. ६७; १३७: व. २९३)। २. चित्रमुख ब्राह्मण की कन्या । इसका पिता पहले अधिसामकृष्ण-(सो. पूरु. भविष्य.) वायु, विष्णु वैश्य था, परंतु तप से ब्राह्मण हो गया (म. अनु. ५३. तथा मत्स्य पुराण में, इसके आगे भविष्यकालीन राजाओं का उल्लेख प्रारंभ हुआ है। इसके राज्य काल में वायु___ अद्ध-ब्रह्मांड के मत में, व्यास के यजुःशिष्यपरंपरा | पुराण लिखा गया (वायु. ९९.२५८) । हस्तिनापुर का, याज्ञवल्क्य का वाजसनेय शिष्य । बह जाने पर, यह अपनी राजधानी कौशांबी में ले गया भद्भुत-अग्निविशेष | इसकी पत्नी प्रिया । पुत्र का (वायु. ९९.२७१)। मत्स्य के मत में यह शतानीकनाम विडुरथ (म. व. २१३.२५)। पुत्र है । विष्णु तथा मत्स्य पुराणों में अधिसोमकृष्ण ऐसा २. दक्षसावर्णि मन्वन्तर में होनेवाला इन्द्र । पाठ है। भागवत में असीमकृष्ण पाठ है। शतानीकअद्म-कश्यप तथा दनु का पुत्र । अश्वमेधदत्त-अधिसामकृष्ण ऐसा वंशक्रम पाया जाता है 'अद्रिका-कश्यप तथा मुनि की कन्या अप्सरा । यह (वायु. ९९.२५७-२५८)। शाप से जल में मत्स्यी बनी । इसने मत्स्य नामक राजा अधिसोमकृष्ण-अधिसामकृष्ण देखिये। तथा मत्स्यगंधा नामक कन्या को जन्म दिया (उपरिचर ____ अधीर--एक राजा । यह शंकर का परमभक्त था। वसु देखिये; म. आ..६४)। यह विमान में अमावसु एक बार गलती से इसने एक निरपराध स्त्री को देहान्त नामक पितरों के साथ क्रीडा करते समय, अच्छोदा के शासन दिया। उसी प्रकार, एक शिवमंदिर भी इसके मन में, अमावसु के प्रति कामेच्छा उत्पन्न हुई (ब्रह्माण्ड | हाथों जलाया गया। इन दो दुष्टकृत्यों के कारण मृत्यु के : ३.१०.५४-६४)। अनन्तर, यह पिशाच बना तथा इसके मुख से निरंतर अधच्छायामय-कश्यप गोत्र का एक ऋषिगण। अग्निज्वाला निकलने लगी। परंतु शंकर के प्रसाद से इसका मधर्म--ब्रह्मदेव के पृष्ठभाग से उत्पन्न धर्मविरोधी पन्न धमावराधा | यह कष्ट दूर हुआ तथा यह शिव गणों में से एक हुआ पुरुष। इसकी पत्नी मृषा । मृषा से दंभ तथा माया यह (पद्म. पा. १११)। मिथुन निर्माण हुआ (मा. ३.१२)। इसने वह अपने अधृति-- अभूतरजस् देवों में से एक । लिये लिया। आगे चल कर, उस मिथुन से लोभ तथा अधृष्ट वा अधृष्णु-सावर्णि मनु का पुत्र । निकृति यह मिथुन उत्पन्न हो कर, आगे क्रमशः क्रोध आध्रिगु-अश्वि तथा इन्द्र ने इसकी रक्षा की (ऋ. तथा हिंसा, कलि तथा दुरुक्ति, मृत्यु तथा भय एवं निरय | तथा यातना इस प्रकार संतति उत्पन्न हुई (भा. ४. ८. | १.११२.२०, ८.१२.३)। १-४)। हिंसा से इसे अमृत तथा निकृति उत्पन्न हुए। अध्वरीवत्- सावर्णि मनु का पुत्र । - उनसे भय, नरक, माया तथा वेदना उत्पन्न हुए। माया अनग्नि-पितरों में से एक । इसकी पत्नी दक्षकन्या से मृत्यु, वेदना से दुःख तथा मृत्यु से व्याधि, जरा, स्वधा । स्वधा से इसे वयुना तथा धारिणी नामक दो शोक, तृष्णा तथा क्रोध उत्पन्न हुए (पन. सृ. ३)। कन्याएँ हुई (भा. ४.१.६२-६४, पन. सृ. ९)। • २. वरुण को ज्येष्ठा से उत्पन्न पुत्र । इसे निति नामक अनघ- उत्तम मन्वन्तर के सप्तर्षियों में से एक । पत्नी थी। इसके पुत्र १. भय, २. महाभय तथा ३.1 २. धर्मसावर्णि मन्वन्तर के सप्तर्षि यों में से एक । मृत्यु (म. आ. ६७)। ३. एक गंधर्व (म. आ. ११४.४४)। अधितंस--(सो.) भविष्यमत में अनुतंस का पुत्र । अनंग-कर्दम प्रजापति का पुत्र (म. शां. ५९. भधिपति-एक देव । यह भृगु का पुत्र है। ९७)। अधिरथ-(सो. अनु.) सत्कर्मा का पुत्र । यह अनंत-कद्रपुत्र (काश्यप देखिये)। सारथ्यकर्म करता था। एक बार गंगातट पर क्रीडा करते २. (सो. यदु.) वीतिहोत्र का पुत्र । इसका पुत्र समय, कुंती ने कर्ण को रख कर नदी में छोडी हुई पेटी दुर्जयामित्रकर्षण (ब्रह्म. १३)। इसको मिली । तदनंतर कर्ण को बाहर निकाल कर, इसने । अनंतभागिन्- भृगु कुल का एक गोत्रकार । Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनंतसेन - । अनंतसेन — देवों में से स्कंद अथवा रुद्र इसने भीष्म के वध के लिये अंधा को माला दी । (अम्बा देखिये) । प्राचीन चरित्रकोश अनंती - शतरूपा का नामान्तर । अनपान - (सो. अनु. ) वायु के मत में दधिवाहन का पुत्र ( 'खनपान देखिये)। इस को अपान द्वार नही था । इस लिये यह नाम है । अनपाया— कश्यप तथा मुनि की कन्या । यह एक अप्सरा थी। अनमित्र - ( सू. इ. ) निघ्नराजा का पुत्र । २. (सो. यदु. ) वृष्णि को इस एक ही नाम के दो पुत्र थे । (सुमित्र देखिये) । । २. (सो. यदु.) शिनि राजा का पुत्र यह बड़ा पराक्रमी था। भागवत में इसे युधाजित् का पुत्र भी कहा है। ४. ब्रह्मसावर्णि मनु का पुत्र । अनरण्य - (सू. इ. ) त्रसदस्यु का पुत्र ( भा. ९. ७.४) । मत्स्य, ब्रह्माण्ड, बाबु तथा लिंग पुराणों के मत में यह संभूत का पुत्र है । यह जब अयोध्या में राज्य कर रहा था, तब रावण ने इस पर आक्रमण किया। उस समय इसने रावण से घमासान युद्ध किया। परंतु रावण अधिक बलवान होने से इसकी संपूर्ण सेना नष्ट हुई। इसने रावण के अमात्य, मारीच शुरू, सारण तथा प्रहस्त का पराभव किया। परंतु जल्द ही यह धरती पर गिरा तथा मरतेमरते इसने रावण को शाप दिया कि, यदि मेरा तप, दान, हवन सत्य होंगे, तो मेरे वंश का दशरथपुत्र राम समस्त कुछ समवेत तुम्हारा नाश करेगा ( वा. रा. कु. ६०; उ. १९) । युद्ध त्याग कर तप करते समय रावण ने इसका वध किया इसलिये इसने शाप दिया । इसका पुत्र श्रसदश्व । भविष्य के मत में यह विश्व का पुत्र है तथा इसने अठाईस हजार वर्षों तक राज्य किया । २. (स. इ. ) सर्वकर्मा का पुत्र इसका पुत्र निम्न (पद्म. सृ. ८ ) । अनसूया (ब्रह्माण्ड २. २. २१-२६ म. आ. ६७ विष्णु. १. १५) । २. विभीषण के अमात्यों में से एक ( मालेय देखिये) । ३. गरुड़ का पुत्र (म. उ. ९९.९ ) । अनला— रोहिणी की दो कन्याओं में से दूसरी इसकी कन्या की। अनर्शनि - इन्द्र का शत्रु ( . ८.३२.२. ) । अनल-धर्म को वसु से उत्पन्न पुत्र इसके पुत्र, कुमार (कार्तिकस्वामी), शास्त्र, विशाख तथा नैगमेय । यह एक वसु है । यह प्रस्तुत मन्वन्तर में आग्नेयी दिशा का स्वामी है । यह कुमार अनल एवं स्वाहा का पुत्र है । २० २. माल्यवान् राक्षस को सुंदरी नामक स्त्री से उत्पन्न कन्या तथा विश्वावसु राक्षस की पत्नी । इसकी कन्या कुम्भीनसी (वा. रा. उ. ६१.१६) । अनवद्या- कश्यप को प्राधा से उत्पन्न अप्सरा । अनश्वन्- (सो. पूरु. ) विदूरथ का पुत्र । इसकी माँ मगध वंश की संप्रिया । इसकी पत्नी का नाम अमृता । इसके पुत्र का नाम परीक्षित् (म. आ. ९० ४२ ) । अगरबत् ऐसा पाठभेद हैं। अनसूयकश्यप गोत्र का एक गोत्रकार । । अनसूया - स्वायंभुव तथा वैवस्वत मन्वन्तर के ब्रह्म मानसपुत्र अत्रि ऋषि की पत्नी यह कर्दम को देवहूती से बाईसवें परिशिष्ट में केवल अत्रि की प्रियपत्नी ऐसा हुई। यह दक्षकन्या भी थी (गरुड. . २६ ) । ऋग्वेद के इसका उल्लेख है। पौराणिक बाब्यय में पतित्रता कह कर इसका उल्लेख है। इसने निराहार तीन सौ वर्षों तक तप कर के शंकर की कृपा संपादित की। इससे इसे दत्तात्रेय, दुर्वासस् तथा चन्द्र नामक दीन पुत्र हुए। चित्रकूट की गंगा इसने प्रवृत्त की ( शिव. के. २.१९ ) । राम वनवास को जाते समय अत्रि के आश्रम में आये थे। तब अत्रि ने निम्नोल्लेखित अनसूया का वर्णन कर के, सीता को, उसके दर्शनार्थं भेजने के लिये राम से कहा। दस वर्षों तक पर्जन्यवृष्टि न होने पर लोग दग्ध होने लगे लाई। यह उम्र तपश्चर्या करनेवाली एवं कड़क नियमवाली तब अनसूया ने फलमूल उत्पन्न कर के आश्रम में गंगा व्रतों से ही ऋषियों की तपस्या के मार्ग में आनेवाले विन है। दस हजार वर्षों तक इसने बड़ी तपस्या की है। इसके दूर हुए। देवकार्यों के लिये परिश्रम करते समय दस रातों अनर्थन - वृत्रासुरानुयायी असुर (भा. ६.१०.१८ की एक रात्रि इसने बनाई सीता ने जब इसका दर्शन लिया । १९) । तब इसके गात्र शिथिल हो गये थे । शरीर पर झुर्रियाँ पड़ गई थी । बाल सफेद थे। हवा से हिलनेवाली कदली के समान इसकी स्थिति हो गई थी। पतिसमवेत वनवास स्वीकारने के लिये, सीता की इसने प्रशंसा की तथा निरंतर ताजी रहनेवाली माला, वस्त्र, भूषण, उबटन, अनुलेपन इ. वस्तुएं दी । तदनंतर स्वयंवर के बारे में, प्रेम Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन चरित्रकोश अनु (म. आ. ६० २४ ब्रह्माण्ड २. २. २९ २६ विष्णु. १. १५. ११० - ११५ ) । २. एक क्षत्रिय । शैब्य अथवा वृषादर्भी का पुत्र । वृषादर्भी ने अपने एक यश में इसे दक्षिणा कह कर, सप्तर्पियोंको अर्पण किया। परंतु अल्पायु होने के कारण, शीम ही इसकी मृत्यु हो गई। उस समय भयंकर अवर्षण होने के कारण, अत्यंत क्षुधातुर सप्तर्षियों ने इसे स्थाली में पका कर खाने का विचार किया । परंतु यह पका नही अतएव वह कार्यरूप में न आ सका ( म. अनु. ९३ ) । २. मित्रबिंदा से कृष्ण को प्राप्त पुत्रों में से एक ( भा. १०. ६१. १६.) । ४. (सो. पूरु. ) विष्णु के मत में तंसु का पुत्र । ५. गरुड़ का पुत्र (म. उ. ९९६९ ) । २. (सो. यदु. ) शूर राजाका पुत्र | ३. श्रीकृष्ण अनुयायी एक यादव (म. आ. २१३, २६; अनिल वातायन - सूक्तद्रष्टा (ऋ. १०१६८ ) । स. ३.५७; वि ६७.२१; उ. १४९.६२ ) । अनिष्टकर्मन (आंध्र भविष्य ) ब्रह्मांड के मताअनाधृष्य - धृतराष्ट्र पुत्रों में से एक (म. आ. ६१ नुसार पटुमानपुत्र तथा भागवत मतानुसार अटमानपुत्र । - १०४ ) । विष्णु के मतानुसार अरिष्टकर्मन् पाठ है। अनानत पारुच्छेप -- एक सूक्तद्रष्टा (ऋ. ९.११ ) । अनायुष - इसके मान के कारण इसके पुत्र की मृत्यु .हुई (मार्के. २४.१६)। अनीकविदारण जयद्रथ का अंधु (म. ६. २४९. १२ ) । अनील कश्यप तथा क्टू का पुत्र । अनीह - ( स इ.) भागवतमत में देवानीकपुत्र | इसे अहीनरादि नामांतर हैं । अनसूया से सीता के साथ बातें की। उसे अलंकार पहना कर बड़े . प्यार से बिदा किया ( वा. रा. अयो. ११७- ११९ ) । मांडव्य ऋषि को जब शूली पर चढाया गया था, तब उस झूल को अंधकार में एक पिनी का धोखे से ऋषिपत्नी धक्का लगा, तब मांडव्य ने उसे शाप दिया कि, सूर्योदय होते ही तुम विधवा हो जाओगी तब उसने सूर्योदय ही नहीं होने दिया। इससे सारे व्यवहार बंद हो गये। उसकी अनसूया सखी होने के कारण, जब प्रार्थना की गई तब उसे वैधव्य प्राप्ति न होने देते हुए, इसने सूर्योदय करवा कर समस्त संसार को सुखी किया ( मांडव्य देखिये) । अनाधृष्टि - (सो. पुरु. ) रौद्राश्व का पुत्र ( म. आ. ८९.१०)। इसकी पत्नी एक अप्सरा थी। अनायुषा - एक राक्षसी । इसे अररु, बल, विज्वर, "बुत्र व नृप नामक पुत्र थे (ब्रह्माण्ड ३.६.२२ ३७ ) | अनिकेत-यक्ष (म.स. १०.१७ ) । अनिमिष - गरुड का पुत्र ( म. उ. ९९.१० ) । ➖➖ अनु-- दाशराश्युद्ध में मुदास के शत्रुओं में से एक ( . ७. १८. १४) । इन्द्र का रथ अनु ने बनाया (ऋ. ५. ३१. ४ ) । यह कारिगर तथा इन्द्र का उपासक था (ऋ. ८.४.१ ) । अनिरुद्ध--(सो. यदु.)-प्रद्युम्न को रुक्मकन्या से उत्पन्न पुत्र यह दस हजार हाथियों के बल से युक्त था (मा. १०.९०.३५-३६, विष्णु, ५३२.५ पर्यंत उखाड कर यह उससे शत्रु को मारा करता था। इसकी अनेक पत्नीयाँ थी तथा सुरा पी कर यह उनसे रममाण होता था (ह. वं. २.११८.७३; ११९. २६ - २७ ) । इसे रुक्मिपौत्री रोचना से वज्र उत्पन्न हुआ ( भा. १०, ६१ ) । इसेही प्राम्नि ऐसा दूसरा नाम है। इसने अन्य यदु कुमारों के साथ अर्जुन के पास धनुर्वेद सीखी ( म. स. ४.२९.५३) । इसने बाणासुर की कन्या उपा के साथ गांधर्व विधि से विवाह किया। यह राजसूय यज्ञ में था ( म. स. ३१.१५ ) । २. (सो.) ययाति को शर्मिष्ठा से उत्पन्न तीन पुत्रों में से ज्येष्ठ (म. आ. ७० ३२ ) । इसने यदु के ही समान, पिता का वृद्धत्व स्वीकार नही किया अतएव इसे मुख्य राज्याधिकार नही था । यह उत्तर में म्लेच्छों का राजा बना ( मत्स्य. ३३. २२-२३ ) । अनु से ले कर कर्णपुत्र वृषसेन तक का वंश भागवत में उद्धृत किया हैं ( भा. ९. २३.१ - १४ ) । अनु से आखाँ पुरुष महामनस् को, उशीनर तथा तितिक्षु नामक दो पुत्र हुए । उशीनर शाखा से केकय तथा मद्रक निकले । ये भारत की वायव्य सीमा की और फैले तथा 1 २. अठारह वास्तुशास्त्रकारों में से एक ( मत्स्य. २५२. बलि के पुत्र, अंग, वंग, कलिंग, सुहा, पुंड्र तथा आन्ध्र ये ३-४) । पूर्व भारत में सागर तक फैल गये । इनमें दशरथ का स्नेही रोमपाद पैदा हुआ उसकी पुत्री शान्ता, ऋप्यरंग की पत्नी । इसी ऋष्यशृंग के कारण दशरथ को रामादि पुत्र- अनिल - अष्टवसूओं में से एक। इसकी पत्नी का नाम शिवा । इसे मनोजव एवं अविज्ञानगति नामक दो पुत्र थे | २१ Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनु प्राचीन चरित्रकोश अनुहवत् प्राप्ती हुई । इसी वंशस्थित अधिरथ ने कुन्तीपुत्र कर्ण का | इसलिये वे दोनो दुर्योधन के पक्ष में चले गये (म. स. पालन कर के बडा किया । कर्णपुत्र वृषसेनादि तथा स्वयं | २८. १०; उ. १६३.६)। इसने पहले कुंतिभोज राजा कर्ण भारतीय युद्ध में कौरवों के पक्ष में थे । इस प्रकार यह | के साथ युद्ध किया (म. भी. ४३. ७१)। अंत में अनुवंश, वायव्य सीमान्तर्गत केकय मद्रक से ले कर, पूर्व | अर्जुन ने इसका वध किया (म. द्रो. ७४.२९)। में आन्ध्र तक फैला हुआ था। अयोध्या, हस्तिनापुर आदि | २. कैकय राजा के दो पुत्रों मे से कनिष्ठ । यह दुर्योधन स्थान के राजाओं से इस वंश के निकट सम्बंध थे। के पक्ष में था। सात्यकि ने इसका वध किया (म. क. ३. (सो. अंध.) क्रथकुल के कुरुवश का पुत्र (भा. | ९.६)। ९.२४.३-६)। ३. (सो. कुरु.) धृतराष्ट्रपुत्र। यह घोषयात्रा में था ४. (सो. कुकुर.) कपोतरोम का पुत्र । तुंबुरु इसका | (म. आर. २३१.८) भीम ने इसका वध किया मित्र था (भा. ९.२४.२०)। (म. द्रो. १०२.९८)। अनुकृष्ण- यजुर्वेदी ब्रह्मचारी। __ अनुवत-(मगध. भविष्य.) मत्स्य के मत में क्षेम अनुग्रह-भौत्य मनु का पुत्र । का पुत्र। अनुतंस-(सो.) भविष्य मत में समातंस का ____ अनुशाल्व-(सो. क्रोष्टु.) सौभपति शाल्वराजा का पुत्र। भाई । शाल्व को कृष्ण ने मारा इसलिये यह कृष्ण से वैर अनुतापन-कश्यप तथा दनु का पुत्र । रखता था। यह कृष्ण का वध करने की संधि देख रहा अनुभूति-यजुर्वेदी ब्रह्मचारी। था। पांडवों के अश्वमेध यज्ञ के समय, कृष्ण सहपरिवार अनुमत्-चाक्षुष के आद्य नामक देवगणों में से एक। हस्तिनापुर में आया हुआ था । यह संधि देख कर, २. तुषित देवों में से एक। अपने सुतार नामक सेनापति के द्वारा, इसने सेना एकत्रित अनुमति-अंगिरा ऋषि से श्रद्धा को उत्पन्न चार करवाई तथा गुप्त रूप से हस्तिनापुर के पास आ कर कन्याओं में से कनिष्ठ (भा. ४.१.३४;)। द्वादशादित्य रहने लगा। कृष्ण अश्वमेध के लिये लाया गया अश्व के धातृ आदित्य की पत्नी (भा. ६.१८.३)। देख रहा है, ऐसी सूचना मिलते ही इसने बडी चपलता २. भृगु गोत्र का एक गोत्रकार । से घोड़े को भगा लिया । तब भीमसेन सेना ले कर इसका अनुम्ल्मोचा-एक अप्सरा । यह भाद्रपद मास में पीछा करने लगा। प्रद्युम्न तथा वृषकेतु ने इसे पकड़ लाने आदित्य के साथ रहती है (भा. १२.११)। का बीड़ा उठाया । आगे चल कर बडा युद्ध हो कर, प्रद्युम्न __ अनुयायिन्-धृतराष्ट्र पुत्रों में से एक (म. आ. का पराभव हुआ, परंतु वृषकेतु इसे. पकड़ लाया। आगे ६८)। भीमसेन ने इसका वध किया (म. द्रो. मृत्युभय से इसने कृष्ण के साथ मित्रता की, तथा १५८)। अश्वमेध की सहायता करने का वचन दे कर यह स्वनगर __ अनुरथ-(सो. यदु.) विष्णु के मत में कुरुवश लौट आया (जै. अ. १२-१४)। का पुत्र । अनुशिख--सर्पसत्र का पोता (पं. ब्रा. २५.१५) अनुराधा-दक्ष तथा असिक्नी की कन्याओं में से ___ अनुहाद--हिरण्यकश्यपु को कयाधू से उत्पन्न चार एक तथा सोमपत्नी । पुत्रों में से एक। इसकी पत्नी सूर्मि । इससे इसे बाप्कल ___ अनुवक्तृ सत्य सात्यकीर्त-एक आचार्य (जै. तथा महिष नामक दो पुत्र हुए ( भा. ६.१८.१२-१३; १६)। यह क्रोध के कारण निपुत्रिक हुआ, ऐसा उल्लेख उ. ब्रा. १.५.४)। मदालसा द्वारा अलर्क को दिये गये उपदेश में आया है ___ अनुविंद--आवंत्य राजा जयसेन को वसुदेवभगिनी (मार्क २४.१५) राजाधिदेवी से प्राप्त कनिष्ठ पुत्र (भा. ९.२४.३९)। इसका पराजय कर, उसकी भगिनी मित्रविंदा से कृष्ण __ अनूचाना-कश्यप तथा प्राधा से उत्पन्न अप्सराओं ने विवाह किया (भा. १०.५८.३०-३१)। इसको में से एक (म. आ. ११४.५०)। विंद नामक ज्येष्ठ भ्राता था। ___ अनूदर-धृतराष्ट्र पुत्रों में से एक । ये दोनों भाई, मित्रविंदा-कृष्ण के विवाह के विरोध में अनृहवत्-यह क्षत्रिय था परंतु तप से ब्राह्मण एवं थे। दिग्विजय में सहदेव ने इनको पराजित भी किया था। | ऋषि बन गया (वायु ९१. ११६-११७)। २२ Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेनस् अनेन (सो. पुरुरवस्) आयु राजा के पांच पुत्रों में से कनिष्ठ (भा. ९.१७. १-२ ) इसकी माता का नाम स्वभांनवी (म. आ. ७०.२२) । इसका पुत्र प्रतिक्षत्र । इसका वंश दिया गया है (ह. वं. १.२९.९५ महा ११.२०-२१ ) । । २. (प.) कुकुत्स्थ राजा का पुत्र भागवत मत में पुरंजय का पुत्र इसे पृथु नामक पुत्र था ( म. व । १९२.२) । ३. (सू. निमि. ) विष्णुमत में क्षेमारिपुत्र । इसका पुत्र मीनरथ । अनेहहि - अंगिराकुल का एक गोत्रकार । अनोवैन - ब्रह्मांड के मत में व्यास के साम शिष्यपरंपरा का लौगाक्षी का शिष्य ( व्यास देखिये) । अनौपम्या बांणासुर की पत्नी । प्राचीन चरित्रकोश अन्तक - ( शुंग. भविष्य. ) सुज्येष्ठ का पुत्र । अंतरिक्ष - ( स्वा. प्रिय.) अपभदेव के सो पुत्रों में से नौ तत्यशानियों में से एक यह बड़ा भगवद्भक्त था 1 इसने जनक को उपदेश दिया था ( भा. ५.४ ९-१२ ११.२.२-१६ ) । २. ( . . भविष्य) मत्स्य के मत में निराश्व का पुत्र विष्णु तथा वायु के मत में किचरका पुत्र तथा भागवत मत में पुष्कर का पुत्र । ३. मुरा के सात पुत्रों में से दूसरा। इसका वध कृष्ण ने किया (भा. १०.५९ ) । ४. एक व्यास (व्यास देखिये) । ५. आय. नामक देवताओं में से एक। ६. (सु. इ. ) भविष्य के मत में केशीनर का पुत्र । अंतर्धान - ( स्वा. उचान. ) पृथु के पुत्रों में से एक। विजिताश्च को, अंतर्हित होने की शति के कारण, । यह नाम दिया गया था। अनावृष्टि इसका पुत्र । इसे तंमु, महान् " 3 अंधक नामक चार पुत्र थे (म. आ. ८९.११)। ऋतेयु का पुत्र । इसका पुत्र प्रतिरथ (गरुड. १४०० १-२ ) । को तक्षककन्या ज्वलन्ती से उत्पन्न पुत्र । इसने सरस्वती नदी के किनारे द्वादशवार्षिक सत्र किया। सत्र समाप्त होने पर सरस्वती नदी स्त्री रूप में प्रगट हुई तथा अपने से विवाह करने के लिये उसने इसे अनुरोध किया। तब इसने उससे विवाह किया। उससे इसे तंमु नामक पुत्र हुआ ( म. आ. ९०.१२; रंतिभार तथा मतिनार देखिये) । २. (सो. यदु. ) कंवलचर्हिप का पुत्र । इसका पुत्र तमोजा । अंत्य-- भृगुपुत्र यह देवो में से एक है। अंत्यायन एक पुत्र अंतिक - (सो. यदु. ) मत्स्य के मत में यदु पुत्र । अंतिदेव - (सो. पृरु. ) मत्स्य के मत में गुरुधिपुत्र । अंतिनार - ( सो. पूरु. ) भद्राश्व का पुत्र । इसे तंसुरोध, प्रतिरथ तथा पुरस्ता नामक तीन पुत्र थे ( अ. २७८. ३ - ५ ) । ऋयू का पुत्र । इसे वसुरोध, प्रतिरोध तथा सुबाहु नामक पुत्र थे (ब्रह्म, १२.५१-५३) कालना । तक्षककन्या से ऋचेयु को उत्पन्न पुत्र । इसे तंसु, प्रतिरथ तथा सुबाहु नामक पुत्र तथा गौरी नामक कन्या थी यही मांधाता सन्नतेयु अथवा अतिरथ व की माता थी (ह. वं. १.३२.१ - ३ ) । -- अंधक- यह पार्वती के धर्मबिंदुओं से उत्पन्न हुआ। हिराण्याक्ष पुत्रप्राप्ति के लिये तपश्चर्या कर रहा था, उस समय शंकर ने उसे यह पुत्र दिया ( लिङ्ग १.९४ ) । हिरण्याक्ष तथा हिरण्यकश्यपु की मृत्यु के पश्चात् यह गद्दी पर आया । परंतु अनन्तर पार्वती को हरण कर ले जाने की योजना इसने की, तब अवंती देश के महाकाल वन में, शंकर का इससे घनघोर युद्ध हुआ। इस युद्ध में, इसके प्रत्येक रक्तबिंदु से इसी के समान व्यक्ति उत्पन्न हो कर, अंधको से संपूर्ण संसार व्याप्त हो गया तब शंकर ने अंकों के रक्त को प्राशन करने के लिये, मातृका उत्पन्न कीया तथा उन्हें अंधक का रक्त प्राशन करने के लिये कहा । वे रक्त पी कर तृप्त हो जाने के बाद, पुनः रक्तबिंदुओं से अगणित अंधक उत्पन्न होने लगे । उन्होंने शंकर का अजगव धनुष्य भी हरण कर लिया (पद्म. सु. ४६ ) | अंत में शंकर त्रस्त हो कर विष्णु के पास गया। विष्णु ने शुष्करेवती उत्पन्न की, तथा उन्होंने सब अंधका नाश कर दिया। शंकर ने मुख्य अंधक को सूली पर चढावा, उस समय अंधक ने उसकी स्तुति की। तब शंकर ने प्रसन्न हो कर इसे गणाधिपत्य दिया (मत्स्य. १७९ ) । इसने पार्वती के लिये स्पष्ट मांग की, इसलिये शंकर का तथा इसका युद्ध हुआ। परंतु शुक्राचार्य संजीवनी विद्या से मृत असुरों को जीवित कर देते थे, इससे इसकी शक्ति कम न होती थी तब शंकर ने शुक्राचार्य को निगल लिया तथा अंधक को गणाधिपत्य दे कर संतुष्ट किया ( शिव. रुद्र. यु. ४८ पद्म सु. ४६. ८१) । रणों का मुख्य स्थान इसे देने के पश्चात् इसका नाम भृंगीरीटी रखा गया । इसके पुत्र का नाम आदि है। । २३ Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंधक । कश्यप को दिति से उत्पन्न पुत्र यह अत्यंत पराक्रमी था। अपनी उग्र तपश्चर्या के बल पर सब देवताओं को जीतने के लिये, इसने शंकर से वरदान मांगा। परंतु विष्णु तथा शंकर के सिवा सबको जीतने का वरदान उन्होंने दिया । तदनन्तर यह ससैन्य अमरावती में प्रविष्ठ हुआ तथा इन्द्र इसकी शरण में आया। इसके बाद इन्द्रकी उचैःश्रवस, उर्वशी आदि अप्सरायें तथा इन्द्राणी को लेकर जब वह लौट रहा था तब देवताओं ने इसके साथ युद्ध किया। परंतु उसमें उनका पराभव हुआ तदनंतर अंधक पाताल में रहने लगा । अन्त में देवताओं के कहने से, विष्णु ने इसके साथ युद्ध किया । उसमें इसका पराभव होने के पश्चात् इसने विष्णु की स्तुति की, तथा शंकर से युद्ध करने की संधि प्राप्त होने के लिये वरदान मांगा। तब विष्णु ने इसे कैलाशपर्वत हिलाने को कहीं। ऐसा उसने करते ही शंकर का तथा इसका युद्ध प्रारंभ हुआ। उसमें शंकर को उसने मूर्च्छित कर दिया परंतु शंकर जागृत होते ही पुनः युद्ध प्रारंभ हुआ । अंधक के प्रत्येक रबिंदु से पुनः दैत्य उत्पन्न होने लगे। उस समय शंकर ने चामुंडा का स्मरण करने पर उसने इसका समस्त रक्त प्राशन कर लिया। तब इसने शंकर की प्रार्थना की। शंकर ने शिवगणों में इसकी स्थापना कर, इसका भृंगीश नाम रखा ( स्कंद ५.३.४५ ) । प्राचीन चरित्रकोश यह उज्जयिनी में राज्य करता था । इन्द्र के कथनानुसार शंकर ने इसके साथ युद्ध किया । उस में अपना पराभव हो रहा है, यह देखते ही इसने माया निर्माण कर, अंधकार उत्पन्न किया तथा देवताओं का हरण कर लिया । अंत में नरादित्य उत्पन्न हो कर, उसके द्वारा निर्मित प्रकाश की सहायता से, शंकर ने इसका वध किया। इसका पुत्र कनकदान (५.२.२६) । महिषासुर की सेना का एक प्रमुख असुर देवों के साथ हुए महिषासुर संग्राम में, विष्णु के साथ इसका अविरत पचास वर्षों तक संग्राम चल रहा था। अन्त में विष्णु ने अपने गदा प्रहार से इसे मूच्छित कर दिया (दे. भा. ५.६ ) | यह आठवाँ सुप्रसिद्ध संग्राम है ( मत्स्य. ४७. ४१ - ४४ ) । इस में शंकर ने असुरों को मारा (बायु, ९७.८१-८४) । अपणी सात्वतपुत्र अंधक से अंधक वंश का प्रारंभ होता है । अंधकपुत्र महाभोज को दो पुत्र थे । प्रथम कुकुर तथा द्वितीय भजमान । यादवों में कुकुर वंश स्वतंत्र है । उस में उग्रसेन कंसादि हुए अंधक वंश भगमान शाखा की उपाधि है। इसी अंधकवंश में भारतीय युद्ध का प्रसिद्ध वीर कृतवर्मा उत्पन्न हुआ (मा. ९ २४ ७ २४ विष्णु. ४.१४.२७) सात्यतपुत्रं भजमान का वंश उपलब्ध नही है भरमान के पुत्र, अंधकपुत्र भजमान के वंश में सामील हुए ऐसा ह. . में लिखा है (१.३८.७-९ वं. अंधिगु श्यावाश्व – कुच ऋचाओ का द्रष्टा । (ऋ. ९.१०१.१ - ३ ) | I अंध्र - ( सो. अनु. ) बलि के छः पुत्रों में से कनिष्ठ । दुष्यन्तपुत्र भरत ने दिग्विजय के समय इसे जीता ( भा. ९. २०.३० ) । २. (सो. यदु. ) सात्वत तथा कौसल्या का पुत्र ( ह. वं. १. ३७. २)। अंधक तथा काश्यदुहिता को कुकुर, भजमान, शमि तथा कम्बलबर्हिष ऐसे चार पुत्र हुए ( ह. वं. १. ३७. १७ ) । २. (स.) यह वायु तथा ब्रह्मांड के मतानुसार नृपदक्ष का पुत्र ( इंदु देखिये) । • अन्नाद कृष्णपत्नी मित्रविंदा का पुत्र ( मा. १०. ६१.१६.) । अन्यतरेय -- स्वरों के विषय में मत देनेवाला एक आचार्य (ऋ. प्रा. २०९ ) । अन्यादृश् -- पांचवे मरुद्रणों में से एक । अन्वग्भानु - (सो. पूरु. ) मनस्यु को मिश्रकेशी नामक अप्सरा से उत्पन्न पुत्र (म. आ. ८८ ) । अपनाप-- ब्रह्मांड के मतानुसार ऋविशष्य परंपरा में भरद्वाज का शिष्य ( व्यास देखिये) । - अपरदारका दूसरे ब्रह्मांड के द्वार पर स्थित एक देवता । नारद ने तपश्चर्या कर के इसे पश्चिम द्वार पर स्थापित किया। चैत्र कृष्ण नवमी को बलि दे कर जो इसकी पूजा करेंगे, वे पातकों में से मुक्त होंगे तथा उनकी समस्त इच्छाएं पूर्ण होगी (स्कंद. १.२.५३ ) । अपराजित - कृष्ण तथा लक्ष्मणा का पुत्र ( भा. १०. ६१ ) । २. (सो. कुरु.) धृतराष्ट्र का पुत्र इसका वध भीम ने कि या (म. भी. ८४.२१ ) । ३. एकादश रुद्रों में से एक । २४ ४. कश्यप तथा कद्रू के पुत्रों में से एक । ५. कालेयांश एक क्षत्रिय (म. आ. ६८ ) । अपर्णा -- महादेव की पत्नी । सती की दक्षयज्ञ में मृत्यु होने के बाद, हिमालय को मैना से जो कन्या हुई, वह अपर्णा । यहाँ इसने पूर्वपति की प्राप्ति के लिये पत्ते भक्षण Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपर्णा प्राचीन चरित्रकोश अभिभू कर, तपस्या प्रारंभ की । फिर भी उनकी प्राप्ति न होने के | अप्नान--भृगु के वश में से एक ऋषि (ऋ. ४.७. कारण उसने पणों का भी त्याग कर दिया तथा महादेव | १; ८.१०२.४ )। को पतिरूप में प्राप्त किया। इस लिये इसे उपरोक्त नाम अप्रतिपिन--(मगध. भविष्य.) मत्स्य के मतानुप्राप्त हुआ। इसेही तर के पश्चात् उमा नाम प्राप्त हुआ। सार श्रुतश्रवस् का पुत्र । (अयुतायु देखिये)। इसका दत्तक पुत्र उशनस् (ब्रह्माण्ड. ३.१०.१-२१; ह. अप्रतिम-ब्रह्मासावर्णि मन्वन्तर के सप्तर्षियों में से वं. १. १८.१५-२०)। एक । __अपवर्मन्--(सू. इ.) भविष्य के मतानुसार ध्रुव- | अप्रतिमौजस्-ब्रह्मसावर्णि मन्वन्तर के सप्तर्षियों संधि का पूत्र । इसने दस हजार वर्षों तक राज्य किया। में से एक । अपष्ठोम--औपलोम देखिये। __अप्रतिरथ--(सू. इ.) कुवलाश्व का नामांतर (म. अपस्यौष--अंगिरस गोत्र का एक मंत्रकार | व. १९५.३०)। अपहारिणी--ब्रह्मधान की कन्या। २. (सो. पूरु.) भागवत के मतानुसार, रतिभार के तीन पुत्रों में से कनिष्ठ पुत्र । इसका पुत्र कण्व ।। अपाग्न्येय--अंगिराकुल का एक गोत्रकार । अपांडु--अंगिराकुल का एक गोत्रकार । अप्रतिरथ ऐन्द्र--सूक्तद्रष्टा (ऋ. १०.१०३; ऐ. भपान--तुषितदेवों में से एक । ब्रा. ८.१०; श. बा. ९.२.३.१-५)। भपांतरतम-एक ब्रह्मर्षि (सारस्वत देखिये)। अप्रीत-यजुर्वेदी ब्रह्मचारी। 'अपांनपात्-एक देवता (ऋ. २.३५ )। यह निथु अभय--स्वायंभुव मन्वन्तर में धर्म को दया से द्रुप अग्नि होगा। यह पानी में प्रकाशित होता हैं। इसे उत्पन्न पुत्र । अग्नि कहा गया है। उसी प्रकार अग्नि को अपानपात् २. (स्वा. प्रिय.) इध्मजिह्व के सात पुत्रों में से कनिष्ठ। कहा गया है। यह प्लक्षद्वीप के सातवें वर्ष का अधिपति था। - अपाला-अत्रि की कन्या। यह ब्रह्मज्ञानी थी। । ३. विश्वामित्र गोत्र का एक गोत्रकार । इसके शरीर पर कोढ होने के कारण, पति ने इसका ४. धृतराष्ट्रपुत्र । इसका वध भीम ने किया (म. द्रो. त्याग कर दिया था। पितृगृह में रह कर, इन्द्र को प्रसन्न १०२.९६)। करने के लिये, इसने तरस्या प्रारंभ की। इन्द्र को सोम ५. (सो. पूरु.) विष्णु के मतानुसार मनस्युपुत्र । - अत्यंत प्रिय है, ऐसा ज्ञात होते ही, यह सोम लाने के | अभयद ऐसा अन्यत्र पाठ है । लिये नदी पर गई । वहाँ प्राप्त सोम इसने मार्ग में ही अभिजित्--(सो. यदु.) नलराजा का पुत्र । इसका - चबा कर देखा। चबाते समय जो आवाज हुआ उसे | पुत्र पुनवेसु । सुन कर इन्द्र वहाँ आया। अपाला ने सोम इन्द्र को। २. अंगिरस गोत्र का एक गोत्रकार । दिया । इन्द्र ने प्रसन्न हो कर इसकी इच्छायें पूर्ण की। अभितंस--भविष्य मत में अधितंस का पुत्र । इसके पिता का गंजापन दूर किया, इसकी खेती उर्वरा अभितपस् सौर्य--मूक्तद्रष्टा (ऋ.१०.३७)। बनाई ( इसके गुह्यभाग पर केश उगाये), तथा इसका कुष्ट- | अभिप्रतारिन् काक्षसेनि-कुरुवंश का एक राजपुत्र । रोग आख पर घिस कर नष्ट कर दिया। यह कथा सायणा- यह तत्त्वज्ञानविवाद में निमम रहता था (पं. ब्रा. १०.५. चार्य ने शाट्यायन ब्राह्मण से ली हैं। इसे मूलभूत मान | ७: १४.१.१२.१५; जै. उ. बा. १.५९.१; २.१.२२, २. . कर ही ऋग्वेद का एक मुक्त बना होगा (ऋ ८.९१)। २.१३, छां. उ. ४.३.५)। इसके जीवनकाल में ही इस सूक्त में एकबार अपाला का निर्देश आया हैं। इसके पुत्रों ने इसकी संपत्ति का बँटवारा कर लिया । अपास्य-अयोज्य देखिये। इसका पुरोहित शौनक था (जै. उ. ब्रा. १.५९.२)। अपि--सावर्णि मनु का पुत्र । __ अभिभू-(सो. क्षत्र.) काश्यपुत्र । यह द्रौपदीअपिकायति-भृगुकुल का एक गोत्रकार | स्वयंवर में होगा (म. आ. १७७.९)। भारतीय युद्ध - अपीतक-(आंध्र. मविष्य.) मत्स्य के मतानुसार में यह पांडव पक्ष में था (म. द्रो. २२.१९) । इसको लंबोदर का पुत्र। वसुदानपुत्र ने मारा (म. क. ४.७४)। प्रा. च. ४] २५ Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिभूत प्राचीन चरित्रकोश अभिमन्यु अभिभूत--(सो. वृष्णि.) वायु के मतानुसार वसु- | पराक्रम--उस स्थान पर, द्रोणाचार्य ससैन्य व्यूह देव तथा रोहिणी का पुत्र । की रक्षा कर रहे थे । परंतु अभिमन्यु सेना की पंक्तियाँ अभिमति--अष्टवसु में द्रोणवसु की पत्नी (भा. ६. | तोड कर, व्यूह में प्रविष्ट हो गया । व्यूह में घुसने के पश्चात् ११)। अभिमन्यू ने, बडे बडे सेनापतियों को अपने शौर्य से अभिमन्यु--(सो. कुरु.) अर्जुन का पुत्र । यह सोमपुत्र | | भगाया । अपनी सेना को, पीछे हटते देख कर, द्रोणावर्चा के अंश से सुभद्रा के उदर में आया। जन्मतः यह चार्य सेना सहित अभिमन्यु पर धावा करने आया परंतु निर्भय, भय उत्पन्न करनेवाला तथा महाक्रोधी प्रतीत होने आक्रमक को चकमा दे कर, इसने अश्मक राजा का तथा के कारण, इसका नाम अभिमन्यु रखा गया (म. आ. शल्य के बंधु का वध किया । तब कर्ण उस पर आक्रमण २१३)। करने दौडा । परंतु उसे भी इसने जर्जर कर दिया । दैत्यों के त्रास से भयभीत पृथ्वी को निर्भय करने के इस प्रकार युद्ध करते करते, अभिमन्यू भीमादिकों से लिये, ब्रह्मदेव ने सब देवताओं को, अंशरूप से पृथ्वी पर काफी दूर चला गया। अभिमन्यु को अकेला देख कर, जन्म लेने के लिये कहा। उस समय सोम ने देवकार्य के दुःशासन उसकी ओर दौडा । परंतु उसे भी रण से भगा लिये अपने पुत्र को पृथ्वी पर भेजा । परंतु वर्चा इसका कर, अभिमन्यु इतनी दूर तक चला गया कि, भीमाअत्यंत प्रिय होने के कारण, यह अधिक दिनों तक पृथ्वी दिकों को वह दिखता ही न था। भीमादिक सरलता से पर नही रहेगा, केवल सोलह वर्ष ही रहेगा, ऐसा सोम ने अपने पास आ सकें, इसके लिये इसने मार्ग खुला रखा सब देवताओं से वचन लिया था। इसीसे इसे सोलह था परंतु जयद्रथ ने रुद्रवर के प्रभाव से, भीमादिक को रोक वर्ष की आयु में मृत्यु प्राप्त हुई (म. आ.६१.८६. परि. रखा तथा अभिमन्यु तक जाने नहीं दिया। . . १. ४२)। शिक्षण-अभिमन्यु की अस्त्रशिक्षा तथा अन्य युद्ध मृत्यु--इधर अभिमन्यु, भीमादिकों की राह देखता कला शिक्षा, अर्जुन की खास देखरेख में हुई थी। यह रहा, इतने में, कर्णपुत्र ने इस पर आक्रमण किया। अभिअस्त्रविद्या में इतना प्रवीण था कि, इसके हस्तचापत्य से मन्यु ने उसका पराभव कर के, दुर्योधनपुत्र लक्ष्मण तथा तथा अस्त्रयोजना नैपुण्य से संतुष्ट हो कर, बलराम ने इसे अन्य योद्धाओंको मार डाला। तब द्रोण, कृप, कर्ण; रौद्र नामक धनुष दिया। यह अत्यंत पराक्रमी था तथा अश्वत्थामा, कृतवर्मा तथा बृहद्बल ये छः लोग, अकेले अपने पराक्रम के बल पर, अल्पवयीन होते हुए भी यह । अभिमन्यु से युद्ध करने लगे। उन सबका इसने अकेले महारथी बना। निवारण किया। तब द्रोणादिकों ने बड़े प्रयास से इसे विरथ युद्धप्रस्थान-भारतीय युद्ध में, द्रोण ने बडी कुशलता किया। अभिमन्यु दाल तथा तलवार ले कर लडने लगा। से अर्जुन को अन्य पांडवों से विलग किया तथा उसे परंतु द्रोण ने उन्हें भी तोड दिया। तब अभिमन्यु ने सेना के बाहर, संशप्तक की ओर संलग्न कर दिया। तदनंतर केवल गदा ली तथा दुःशासन के पुत्र के साथ गदायुद्ध द्रोण ने भीमा दि तीनों को युद्ध में व्यस्त किया। इस प्रकार, आरंभ किया। उस समय अभिमन्यु अत्यधिक श्रान्त हो पांडव तथा अभिमन्यु को अपनी सेना समवेत युद्ध में गया, परंतु भीमादि काफी दूर होने के कारण, इसे उनकी मन देख कर, युधिष्ठिर चिन्ताग्रस्त हो गया । युधिष्ठिर को सहायता न मिल सकी। उस समय, दुःशासनपुत्र की चिन्ताग्रस्त देख कर, अभिमन्यु ने उसे चिन्ता का | गदा का प्रहार इस पर होते ही, इसे मूछी आ गई । उस कारण पूछा। उसपर युधिष्ठिर ने कहा कि, चक्रव्यूह का मूर्छा से पूर्ण सावधान होने के पहले ही, दुःशासनपुत्र भेद करने वाला अपनी सेना में कोई न होने के कारण, मै | ने और एक गदाप्रहार कर, इसका वध कर दिया (म. चिन्ता कर रहा हूँ। यह सुनते ही, अभिमन्यू ने भीम | द्रा. ४८.१३)। की सहायता से, चक्रव्यूह का भेद करने का काम स्वीकार | व्यक्तिमत्व--अभिमन्यु सिंह के समान अभिमानी किया । चक्रव्यूह में प्रवेश करने की विधि ही केवल अभि- | तथा वृषभ के समान प्रशस्त स्कंधों वाला था। यह शौर्य, मन्यु को ज्ञात थी। फिर भी वह नहीं घबराया । तदनंतर | वीर्य तथा रुप में कृष्णतुल्य था। जन्मतः यह दीर्घबाहु युधिष्ठिर का आशिर्वाद ले कर, अमिमन्यु भीम के साथ | था । यह कृष्ण के समान बलराम को भी अत्यंत प्रिय था व्यूहद्वार के पास आया। । (म. आ. २१३.५८-७०)। Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन चरित्रकोश अभिमन्यु वंश - विराट राज की कन्या उत्तरा, अभिमन्यु की पत्नी थी । इसकी मृत्यु के समय उत्तरा गर्भवती थी । उसका पुत्र परीक्षित् नाम से प्रख्यात है। इस परीक्षित के कारण ही, भारतीय युद्ध में अस्तंगत होते हुए पुरु कुल को नवजीन प्राप्त हुआ। २. स्वायंभुव मन्वन्तर के अजित देवों में से एक। ३. सामन्तर के सप्तर्षियों में से एक ४. चाक्षुष मनु तथा नङ्खला का पुत्र | अभिमान -- स्वायंभुव मन्वन्तर के धर्म का पुत्र । अभिमनिन्-मीत्य मन्वन्तर का मनुपुत्र । अभियुक्ताक्षिक मन्नणों में से एक । - चौथे अभिरथ--(सो. क्षत्र..) विष्णु के मतानुसार केतुमान का पुत्र अभिवत् (सो.) कुरु तथा बाहिनी का पुत्र ( म. आ. ८९.४४ अविक्षित् ( २ ) देखिये) । अभूतरजस् -- रैवत मन्वन्तर का देवगण । इसमें दस व्यक्तियों का समावेश होता है। इसे अनूतरयस् नामांतर है। अमित अमर्ष -- (सू. इ. ) विष्णु के मतानुसार सुगविपुत्र । अमर्षण -- (सू. इ. ) संधिराज का पुत्र ( म. ९. १२ । अभ्यीि ऐतशायन-ऐश का पुत्र एकवार, जब ऐश अपने पुत्र के सामने कुछ मंत्रपठन कर रहा था, तब उन्हे अश्लील समझ कर, इसने उसके मुख पर हाथ • रखकर, उनका मंत्रपठन बंद कर दिया। इससे क्रोधित हो कर, तुम्हारा कुल पापी होगा, ऐसा शाप उसने इसे दिया, जिससे सब लोग इसे तथा इसकी संतति को पापी समझने लगे (ऐ. ब्रा. ६.३३ ) । ऐतशायन को और्वकुलोत्पन्न कहा है (सां. बा. २००५)। औवं तथा भृगु कुछ का बिलकुल निकट संबंध होना चाहिए, वा एक ही कूल की ये दो शाखाए होंगी। ऋग्वेद काल से इनका एकत्र उल्लेख पाया जाता है ( एतश देखिये) । मध्यावर्तिन चायमान -- एक राजा । इसने वर शिख के नेतृत्व में वृचिवत् को जीत लिया तथा परशिस के पुत्रों का वध किया । इसीके लिये इन्द्र ने तुर्वश तथा वृचीवत् को जीता । किन्तु वहाँ यह तथा संजय देववात एक ही होने की संभावना है ( ६-२७-७)। इसका पार्थव नाम से भी उल्लेख है ( ६-२७८.५)। अमरेश – इसका गोत्र भारद्वाज । इसने 'वर्णरत्नप्रदीपिका' नामक २२७ लोकों की शिक्षा रची, जिसके आरंभ में कृष्ण नमन हो कर आगे शौनक तथा शाकटायन का उल्लेख है । यह प्रातिशाख्यानुसारिणी है ( श्लो. १२२ ) । 3 अमल-वृष्टबुद्धि प्रधान का पुत्र ( चन्द्रहास देखिये) । अमला -- वैवस्वत मन्वन्तर के अत्रि ऋषी की कन्या । यह ब्रह्मनिष्ठ थी। अमही आंगिरस -- सूक्तद्रष्टा (ऋ. १०.६१ ) । अमावसु-- (सो. पुरुरवस् ) पुरुरवस् वंश में ही दो अमावसु हुए। पहला, पुरुरवस् के पुत्रों में से एक तथा दूसरा, अमावसू के वंश के कुश का पुत्र । इनमें से, पुरुरवसपुत्र अमावसु, कान्यकुब्ज घराने का मूल पुरुष है। इसकी वंशावली अनेक स्थानों पर दी गई है ( ब्रह्म. १०. ह. १९ १४९ ब्रह्माण्ड २.६६. २०-३५० ६. बं. १.२७९ विष्णु. ४.७.२ - ५; वसु तथा जन्हु देखिये) । २. एक अत्यंत स्वरूपवान पितर । इसको देख कर अच्छोश नामक पितरों की मानसकन्या मोहित हो गई । परंतु इसने उसकी प्रार्थना अमान्य की इस कारण वह योगभ्रष्ट हो कर अगले जन्म में वसू की कन्या मत्स्यी (काली, सत्यवती) हुई (पद्म. स. ९.१२.२४ अच्छछेदा देखिये ) | , इसका अगला जन्म इसी नाम से पुरुरवा के पुत्र के रूप में हुआ। अमवासु वंश -- यह वंश, ऐल पुरुरवस् के अमावसु नामक पुत्र ने प्रचलित किया । इसकी राजधानी कान्यकुब्ज नगर थी । इस वंश में, प्रायः पंद्रह पुरुष मिलते है । इनमें कुशिक ( कुशाश्व ), गाथि, विश्वामित्र, मधुच्छेदस, आदि प्रमुख है। नय के पश्चात् इस वंश का उल्लेख नही मिलता । विश्वामित्र ब्रह्मण बन गया, इस कारण यह क्षत्रियवंश समाप्त हो गया। इस वंश में एक अजमीढ राजा का नामोल्लेख मिलता है । अमावास्य शांडिल्यायन -- अंशु धानंजय्य का गुरु (वं. बा. १ ) अमावास्या -- अमावसु तथा अच्छोदा की कन्या ( मत्स्य. १४) । अमाहट - - एक सर्प ( म. आ. ५२.१५ ) । अमित - (सो. पूरु.) जय का पुत्र ( भा. ९५ १५.२) । २७ Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमित प्राचीन चरित्रकोश अंबरीष २. सावर्णि मन्वन्तर का देव । अमृतवत्--स्वायंभुव मन्वन्तर के जिदाजित् देवों ३. रैवत मन्वन्तर का देव । में से एक। अमिताभ-सावर्णि मन्वन्तर का देवगण । अमृता--अरुग्वत् की पत्नी। अमितौजस्--पांडव पक्ष का महारथी (म. उ. | अमोघ-- बृहस्पति तथा तारा की कन्या स्वाहादेवी १६८.१०)। का पुत्र । अग्निविशेष (म. व. २०९)। अमित्र-द्वितीय मरुद्गणों में से एक । दिती का। २. एक कार्तिकेय का नाम (म. व. परि. १. पुत्र । | २२.९)। अमित्रजित्--(सू. इ. भविष्य.) भागवत के मता- अमाधा-शतनु ऋाष का भाया । एक समय, ब्रह नुसार सुतप्त राजा का पुत्र । वायु के मतानुसार सुवर्ण | शंतनु महर्षि के आश्रम में गया । वह ऋषि बाहर पुत्र तथा भविष्य के मतानुसार सुवर्णीग का पुत्र । गया हुआ था, अतएव इसने ब्रह्मदेव की पूजा की । २. एक राजा । इसके राज्य में सर्वत्र शिवमंदिर थे। इसका सुंदर स्वरूप देख कर, उसका वीर्यपतन हो कर लज्जित हो कर वह चला गया । कुछ समय के पश्चात् , यह देख कर नारद ऋषि आनंदित हो कर इसके पास आया तथा इससे बोला, 'चंपकावती नगर में मलय शंतनु वापस आया । उस वीर्य को देख कर-कौन आया गंधिनी नामक एक गंधर्वकन्या है। कंकालकेतु नामक था-ऐसा उसने पूछा । ब्रह्मदेव का अमोघ वीय व्यर्थ नष्ट राक्षस उसका हरण कर रहा है। उससे जो मेरी रक्षा न हो, इस लिये उसका स्वीकार करने की आज्ञा शंतनु ने इसे दी। उस वीर्य से उत्पन्न गर्भ का तेज यह सहन करेगा उसीसे मैं विवाह करुंगी, ऐसी उसकी शर्त है। न कर सकी। तब इसने वह गर्भ युगंधर पर्वत की खाई इस लिये तुम यह काम करो'। नारद के इस कथनानुसार, इसने कंकाल केतु से युद्ध कर के उसका नाश किया के जल में डाल दिया । उससे लोहित नामक तेजस्वी तीर्थातथा उस गंधर्वकन्या के साथ यह अपने नगर लौट आया । धिपति निर्माण हुआ। आगे चल कर, विष्णु को लगा तदनंतर विवाह हो कर इसे वीर नामक पुत्र हुआ (स्कन्द हुआ क्षत्रियवध का पाप, इस तीर्थ में लान करते ही नष्ट हो गया । (पन. सृ. ५५) ४.२.८२-८३)। ___अंबर-वृत्रासुरानुयायी असुर (भा. ६.१०.१८अमित्रतपन शुष्मिण शैब्य--शिबि का पुत्र । इसने १९)। . अत्यराति जानंतपि का वध किया (ऐ. ब्रा. ८.२३)। । | अंबरीष--ऋज्राश्व, सहदेव, सुराधस् एवं भयमान, अमूर्तरजस्--अभूतरजस् तथा अमूर्तरयस् देखिये । | इनके साथ वार्षागिर नाम से इसका उल्लेख है (ऋ. १. अमूर्तरयस्-- (सो. पूरु.) मत्स्य के मतानुसार १००.१७)। अंतिनारपुत्र। यह सूक्तकर्ता है (ऋ. १.१००, ९.९८) । यह २. (सो. अमा.) विष्णु के मतानुसार कुशपुत्र । | अंगिरस गोत्र का मंत्रकार है ।, भागवत के मतानुसार इसका मूर्तरय नाम है। अमूर्तार २. (सू. नभग.) नाभाग का पुत्र (म. स. ८.१२ कुं.)। तथा यह एक ही होगा। विष्णु के मतानुसार अमूर्तरय | यह बडा शूर तथा धार्मिक था । यह हजारों राजाओं से नाम है। अकेला लड़ता था । इसने लाखों राजा तथा राजपुत्र, यज्ञ ३. एक क्षत्रिय । यह गय राजा का पिता था (म. व. में दान दिये थे। अभिमन्यु की मृत्यु से दुःखित धर्मराज ९३.१७) । इसे ही अधूर्तरजस् नामांतर था। की सांत्वना करने के लिये, अंबरीष की भी मृत्यु हो गयी, अमूर्तरय--अमूर्तरयस् (२) देखिये। | ऐसे नारद ने बताया (म. द्रो. ६४; शां. २९.९३. परि अमृत-- (स्वा. प्रिय.) इध्मजिव्ह के सात पुत्रों में १.८. पंक्ति. ५८८) इसने दीर्घकाल राज्य किया से एक । इसका वर्ष इसीके नाम से प्रसिद्ध है (भा. ५. - (कौटिल्य. २२)। २०.२-३)। ___एक बार कार्तिक माह की एकादशी का त्रिदिनात्मक २. अंगिरस गोत्र का मंत्रकार । उपोषण इसे था । द्वादशी के दिन, इसके घर पर दुर्वास ३. अमिताभ नामक देवों में से एक । अतिथि बनकर आया तथा आह्निक करने नदी पर गया। अमृतप्रभ--सावर्णि मन्वन्तर का देव । इधर द्वादशी काल समाप्त हो रहा था, अतः इसने नैवेद्य २८ Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंबरीष. प्राचीन चरित्रकोश अंबा समर्पण किया, तथा तीर्थ ले कर उपवास छोड़ा। यह जान | २. पांडवपक्षीय क्षत्रिय । इसके पुत्र को लक्ष्मण ने मार कर, दुर्वास ने अपनी जटा के केशों द्वारा निर्मित एक | डाला (म. क. ४.२६%)। कृत्या अंबरीष पर छोड़ी। इतने में, विष्णु के सुदर्शन ने | अम्बष्ठ--कंस के कुवलयापीड हाथी का महावत कृत्या का नाश किया तथा वह चक्र दुर्वास के पीछे लगा। (भा. १०.४३.२-५)। इस स्थिति में, विष्णु ने भी उसका संरक्षण करना अस्वीकार | अंबा--काशीराज की तीन कन्याओं में से ज्येष्ठ । कर, पुनः अंबरीष के यहाँ जाने को कहा। दुर्वास को अपनी कन्याँएं उपवर होने के कारण, काशीराज ने उनके अंबरीष के यहाँ लौटने में एक वर्ष लगा। तब तक अंबरीष | स्वयंवर का निश्चय किया । तदनुसार देशदेशांतर के भूखा ही था। इसने दुर्वास को देखते ही उसका स्वागत राजाओं को स्वयंवरार्थ निमंत्रण भेजे । इस स्वयंवर में किया । चक्र की स्तुति कर उसे वापस भेजा तथा दुर्वास कोई भी शर्त नहीं रखी गयी थी । काशीराज ने निश्चय को उत्तम भोजन दिया । (भा. ९. ४-५)। इसने पक्ष- किया था कि, जो सब से अधिक बलवान हो वह इनका बर्धिनी एकादशी का व्रत किया था। योग्य समय पर उपवास हरण करे। छोड़ने के कारण, यह विष्णु को. प्रिय हुआ। अतः इसे | चित्रांगद के निधनोपरांत, भीष्म अपनी सौतेली मां -मोक्ष प्राप्त हुआ (पद्म. उ. ३८.२६-२७)। की संमति से, विचित्रवीर्य के नाम पर हस्तिनापुर का राज्य . इसने भीष्मपंचक व्रत किया था (पद्म. उ. १२५. | चला रहा था । विचित्रवीर्य का विवाह नहीं हुआ था। .२९-३५)। जब यह स्वर्ग में गया, तब इसे स्वर्ग में स्वयंवर का समाचार मिलते ही, विचित्रवीर्य के लिये उन सुदेव नामका इसका सेनापति दिखाई दिया । तब इसे | कन्याओं का हरण करने के लिये, भीष्म स्वयंवर को गया भआश्चर्य हुआ। 'स्वर्ग में कौन आता हैं, इस विषय पर तथा वहां के समस्त राजाओं को हरा कर, तीनों कन्याओं इन्द्र से इसका संवाद हुआ । इन्द्र ने इसे बताया कि, को हरण कर ले आया (म. आ. ९६)। सुदेव की रणांगण में मृत्यु होने के कारण, उसे स्वर्गप्राप्ति भीष्म ने हस्तिनापुर आकर, उन तीनों का विचित्रवीर्य हुई (म. शां. ९९ कु.)। इसके पुत्र का नाम सिंधुद्वीप | से विवाह करने का निश्चित किया। इस बात का पता लगते इसे विरूप, केतुमान तथा शंभु नामक तीन पुत्र भी थे ही, अंबा ने भीष्म से कहा कि, वह पहले से ही शाल्व से (भा. ९. ६:१)। इसने सकल राष्ट्र का दान किया था प्रेम करती है, इस लिये उसका विवाह विचित्रवीर्य से (म. अनु. १. ३७. ८)। करना योग्य नहीं होगा । यह सुन कर भीष्म ने अंबा को ३. (सू.इ.) मांधाता को बिंदुमती से प्राप्त तीन पुत्रों दलबल सहित सम्मान के साथ शाल्व के पास भिजवा में से मँझला (भा. ९.७.१)। दिया। शाल्व ने उसका अंगिकार नहीं किया। भीष्म ने . . ४. (सू. इ.) त्रिशंकु के दो पुत्रों में से दूसरा । इसे सबके सामने उसे हराया था, इस लिये अंबा के साथ श्रीमती नामक कन्या थी । वह नारद तथा पर्वत के बाद विवाह करना शाल्व को योग्य नहीं लगा। अंबा फिरसे भीष्म में विष्णु ने प्राप्त की (अ. रा. ३-४)। यह एक बार के पास आयी और उससे कहा कि, आपने मुझे जीत कर यज्ञ कर रहा था, तब इसके दुर्वर्तन के कारण, इंद्र ने | लाया है, इस लिये शाल्व मुझे स्वीकार नहीं कर रहा है, . इसका यज्ञपशु उडा लिया। तब इसने ऋचीक ऋषि को अतएव आप ही मेरा वरण करें, यही योग्य होगा । परंतु द्रव्य दे कर, उसका शुनःशेप नामक पुत्र खरीद लिया तथा भीष्म ने आजीवन बह्मचर्य व्रत का पालन करने का प्रण यज्ञ पूरा किया। धर्मसेन इसका नामांतर है, एवं यौवनाश्व किया था, इस लिये उन्हे अंबा की इच्छा अस्वीकृत करनी इसका पुत्र है । यही हरिश्चंद्र है (लिङ्ग.२.५.६; वा. रा. | पड़ी। बा. ६१, शुनःशेप देखिये)। चारो ओर निराधार होने के कारण, अंबा अत्यंत ५. एक सर्प | यह कद्रु का पुत्र था। दुःखित हुई । अपनी इस दुर्दशा का कारण भीष्म है, इस अम्बर्य--यह दक्षिण में गौतमी के किनारें, दंडक देश लिये किसी प्रकार से भीष्म से प्रतिशोध लिया जाय, इस का नृप था। इसका नृसिंह ने वध किया (नृसिंह देखिये)। पर यह विचार करने लगी, तथा तप करने के लिये हिमालय अंबष्ट वा अम्बष्टक-दुर्योधनपक्षीय क्षत्रिय । इसका | की ओर चल पड़ी। अभिमन्यु के साथ युद्ध हुआ था (म. भी. ९२.१७)। हिमालय की ओर जाते समय, इसे राह में शैखावत्य ऋषि इसको अर्जुन ने युद्ध में मारा (म. द्रो. ६८.५६)। का आश्रम मिला । ऋषि को इसने अपना निश्चय बताया। Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंबा प्राचीन चरित्रकोश अंबुक तब उन्होंने इसे इसके निश्चय से परावृत्त करने का प्रयत्न | देख, अंबा ने अग्नि में प्रवेश कर, देहयाग किया किया । परंतु वह निष्फल हुआ और अंबा वहीं तप करने | (म. उ. १८८)। लगी। कुछ समय बाद होत्रवाहन नामक एक राजर्षि उस | ___ महाभारत के कुम्भकोणम् प्रति में, उपरोक्त कथा दूसरे आश्रम में आये । वे अंबा के मातामह थे । अंबा की प्रकार दी गयी है, जो इस प्रकार है --अंबा की उत्कृष्ट यह स्थिति देख वे अत्यंत दुखित हुए। अपनी नतिनी तपश्चर्या देख कर कार्तिकस्वामी ने प्रसन्न हो कर उसे एक का दुःख दूर होने के लिये, उन्होंने भीष्म के गुरु परशुराम प्रासादिक तथा दिव्य माला दे कर बताया कि, जो इस के द्वारा भीष्म का परिपत्य कर, उसे अंबा को स्वीकार माला को धारण करेगा वह निःसंशय भीष्म का वध करने के लिये बाध्य करने का निश्चय किया । तदनुसार करेगा। अंबा ने वह माला ली। वह देशदेशांतर में अपनी नतिनी को लेकर, वे परशराम के पास जाने ही यह पूछते हुए विचरण करने लगी 'कोई क्षत्रिय, इस वाले थे कि, परशुराम का शिष्य अकृतव्रण वहाँ आ पहुंचा माला को धारण कर, भीष्म को मारने में समर्थ है ?" तथा उसने बताया कि, परशुराम इसी आश्रम की ओर परंतु भीष्म का वध करने की इच्छा रखनेवाला एक भी आ रहे हैं । इस लिये होत्रवाहन परशुराम से मिलने के क्षत्रिय उसे नहीं मिला । अंत में पांचालराज द्रपद के लिये वहीं रुक गये (म. उ. १७३-१७६)। अस्वीकार करने पर भी, अंबा राजमहल के दरवाजे पर कुछ दिनों बाद, परशुराम उस आश्रम में आ पहुंचे । माला फेंक कर चली गयी। तब द्रुपदने वह माला उठाकर अंबा का वृत्तांत जान कर उसे दुःखमुक्त करने का उन्होने अपने प्रासाद में रख ली। आगे चल कर शिखंडी ने उसी वचन दिया तथा भीष्म के पास संदेश भिजवाया कि, | माला के योग से भीष्म का वध किया (म. आ. परि. अंबा का स्वीकार करो अथवा युद्ध करने के लिये तयार | १.५५)। हो जाओ। भीष्म ने आजन्म ब्रह्मचर्य का अपना निश्चय ___ अंबायवीया-सत्यलोक की एक अप्सस । परशुराम के पास भिजवाया तथा स्वयं युद्ध के लिये तैयार ___ अंबालिका--काशीराज को तीन कन्याओं में से हो गये। आगे चलकर कुरूक्षेत्र में दोनों का भीषण युद्ध कनिष्ठ तथा विचित्रवीर्य की स्त्री ( अंबा देखिये)। पति हुआ, जिस में कोई भी पराजित न हुआ तथा युद्ध रोक से इसे संतति नहीं हुई। पति की मृत्यु होने पर सास दिया गया। सत्यवती तथा देवर भीष्म के अनुमोदन पर, इसने व्यास __ अंबा को यहाँ भी निराशा ही मिली परंतु भीष्म से | से पुत्रप्राप्ति करा ली परंतु गर्भधारणा के समय भयभीत बदला लेने का निश्चय इसने बिलकुल नहीं छोड़ा। भीष्म | हो कर, यह फीकी पड़ गई। अतएव इसका पुत्र भी फीके का वध करने के लिये इसने शंकर की उपासना (कठोर | सफेद रंग का हुआ। इस लिये उसका नाम पांङ रखा तपस्या) प्रारंभ की। गंगा को इसका निश्चय मालूम गया (म. आ. १००.१७-१८; सत्यवती देखिये)। होते ही, उसने अंबा को तप से परावृत्त करने का बहुत | अंबिका--काशीराज की तीन कन्याओं में से मँझली प्रयत्न किया। परंतु अंबा ने गंगा की एक न सुनी । तब तथा विचित्रवीर्य की स्त्री. ( अंबा देखिये)। पति से गंगा ने उसे श्राप दिया कि, 'तू अर्धाग से बरसाती नदी | संतति न होने के कारण इसने व्यास से पुत्र प्राप्ति करा ली। होगी ।' अंबा फिर भी अपने निश्चय पर अटल रही । रति के समय आँखे बंद रखने के कारण अंधे धृतराष्ट्र का (म. उ. १८७)। जन्म हुआ। इसे कौसल्या भी नाम दिया गया था । फिर कुछ कालोपरांत, महादेवजी उसकी तपश्चर्या से संतुष्ट से अच्छा पुत्र हो, इस लिये सास ने इसे फिर से व्यास हो, वरदान देने को तयार हुए। अंबा ने भीष्म को मार के पास जाने को कहा। व्यास का स्वरूप मन में आते ही यह मन में घबरायी, तथा इसने सास को यों ही, हां कह डालने की अपनी इच्छा बतायी । तब महादेवजी ने दिया। परंतु ऐन समय पर, एक दासी को व्यास के पास वरदान दिया कि, इस जन्म में यह संभव नहीं है परंतु अगले जन्म में द्रुपद के घर पहले कन्या रूप में जन्म लेने | | भेज दिया, उससे विदूर का जन्म हुआ (म. आ. १०५के पश्चात् तुझे पुरुषत्त्व प्राप्त होगा। तू शिखंडी नाम से प्रसिद्ध | १०६)। होकर भीष्म का वध करेगी । इतना वरदान दे कर, । २. रुद्रपत्नी (श. ब्रा. २.५.३.९)। शंकरजी अंतर्धान हो गये। अपना मनोरथ पूर्ण हुआ। अंबुक-ब्रह्मधान का पुत्र । Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अबुधारा प्राचीन चरित्रकोश अराल का अंबुधारा--दक्षसावर्णि मन्वन्तर में के ऋषभ अवतार | अयुतायु-(सू. इ.) सिंधुद्वीप का पुत्र (भा. की माता (भा. ८.१३)। _अंबुवीच--मगधदेश के राजगृह नगर का राजा।। २. (सो. कुरु.) विष्णु के मतानुसार आरावी का पुत्र । यह सब प्रकार से पंगु रहने के कारण, प्रधान महाकणि ३. (मगध. भविष्य.) भविष्य के मतानुसार अर्णव का अत्यंत प्रबल हो गया। परंतु दैवयोग से वह राज्य | पुत्र । इसने १००० वर्षों तक राज्य किया। भागवत, वायु, हडप न सका (म. आ. १९६.१७-२२)। मत्स्य तथा ब्रह्माण्ड के मतानुसार श्रुतश्रवस् का पुत्र परंतु अंभृण--इसकी कन्या वाच (वाच देखिये)। विष्णु के मतानुसार श्रुतवान् का पुत्र । अयुतायुत पाठभेद अंभोद--विश्वामित्र का पुत्र (म. अनु. ७.५९)। • अय--स्वारोचिष मन्वन्तर का प्रजापति । यह वसिष्ठ । अयुताश्व--(सू, इ.) भविष्य के मतानुसार सिंधुका पुत्र था। द्वीप का पुत्र । यह वैष्णव था। २. अगस्त्य गोत्र का मंत्रकार । अयोज्य--एक ऋषि (वायु. ५९ ९०-९१)। - ३. तुषित नामक देवगणों में से एक । इसका अपास्य नामांतर था (ब्रह्माण्ड. २.३२.९८४. यजुर्वेदी ब्रह्मचारी। १००)। मयःशिरस्--कश्यप तथा दनु का पुत्र । अयोबाहु--धृतराष्ट्र के पुत्रों में से एक। अयतंस--(सो.) भविष्यमतानुसार परातंस का पुत्र । ___अयोभुज--धृतराष्ट्रपुत्र । इसका वध भीम ने किया मयतायन--विश्वामित्र कुल का एक गोत्रकार। (म. द्रो. १३२.१,३५* ; पंक्ति,)। मयति--(सो.) नहुष का पुत्र (म. आ. ७०.२८)। अयोमुख--कश्यप तथा दनु का पुत्र । अयस्थूण--शौल्बायन जिनका अध्वर्यु था, उन्ही- अयोमखी--एक राक्षसी । सीता को ढूंढते हुए राम का यह गृहपति था । इसीने शौल्बायन को विशिष्ट यज्ञे- लक्ष्मण जब मातंगाश्रम की ओर गये, तब वहाँ लक्ष्मण के साधन का उपयोग सिखाया (श. ब्रा. ११.४.२.१७)। समीप जाकर इसने लक्ष्मण का वरण करने की इच्छा 'मयस्मय--रवारोचिष मनु का पुत्र । प्रदर्शित की। तब लक्ष्मण ने शूर्पणखा के समान इसकी अयस्य--अजस्य देखिये । अवस्था की। तब इसने वहाँ से पलायन किया (वा. रा. मयाप्य--वायुमतानुसार अयास्य का नाम। अर. ६९)। अयास्य आंगिरस--सूक्तद्रष्टा (ऋ. ९.४४-४६; अरजा--उशनस् शुक्र की कन्या । इसका कोमाय १०.६७-६८)। अंगिरस को स्वराज् से उत्पन्न लड़का। दंड राजा ने नष्ट किया था । इस लिये, इसके पिता ने इसका पुत्र कितव (ब्रह्माण्ड. ३.१)। राजसूय यज्ञ में इसे दंडकारण्य में ही भागवाश्रम के पास के सरोवर पर यह उद्गाता था । उस यज्ञ में शुनःशेप को बलि देने | रहने के लिये कहा । तदनंतर यह निष्पाप हूई (वा. रा. .का था (पं. बा.११.८.१०:१४.३.२२; १६.१२.४; सां. | उ. ९१; पन. सृ. ३४)। ना. ३०.६) । धर्मकृत्य में, प्रमाण के लिये इसका बहुत | अरण्य--रैवत मनु का पुत्र । से स्थानों पर उल्लेख आता है। यह आभूति त्वाष्ट्र का आमूात त्वाष्ट्र का । २. हिरण्याक्षानुयायी असुर । इसका वध कार्तिकेय ने शिष्य है (बृ. उ. १.३.८:१९; २.६.३, ४.६.३)। किया ( पन. सु. ७५)। शार्यात मानव के यज्ञ में यह उद्गाता था (जै. उ. बा.| अरप--भृगु गोत्रीय मंत्रकार । २.७.२; १०; ८.३)। अररु--एक दैत्य (तै. सं. १.१.१९)। ।' अयुत--(सो. जह.) राधिका का पुत्र । अराविंद--(सो.) भविष्य के मतानुसार चित्ररथ का अयुताजित्--(सो. भज.) भागवतमतानुसार | पुत्र । सात्वतपुत्र । भजमानस की दूसरी स्त्री से उत्पन्न तीन पुत्रों अराचीन--(सो. पूरु.) जयत्सेन तथा सुषुवा का में कनिष्ठ । | पुत्र । इसकी पत्नी का नाम मर्यादा तथा पुत्र का नाम अयुतानायिन--(सो. पूरु.) महाभौम तथा सुयज्ञा अरिह था (म. आ. ९०.१७-१८)। का पुत्र । इसकी स्त्री भासा । इसका पुत्र अक्रोधन (म. अराल दात्रय शौनक--दृति ऐद्रात शौनक का भा. ९०.१९)। शिष्य । इसका शिष्य शूष (वं. वा. २)। ३१ Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अरालि प्राचीन चरित्रकोश अरिह अरालि--विश्वामित्र पुत्र ।। २. विनता के पुत्रों में से एक (म. आ. ५९.९३)। अरि--अंगिरस कुल का एक गोत्रकार । ३. पौष माह के सूर्य के साथ घूमनेवाला गंधर्व । अरिक्तवर्ण-(आंध्र. भविष्य.) मस्य के मतानुसार | । ४. (सू. निमि.) पुरुजित् जनक का पुत्र । स्वातिवर्ण का पुत्र । ५. अज्ञातवासकाल में, तंतिपाल के साथ यह नाम अरिजित--(सो. यदु.) भद्रा से उत्पन्न कृष्ण का भी सहदेव ने धारण किया था (म. वि. १०)। पुत्र। ६. बलि की सेना का एक दैत्य (भा. ८.६)। __ अरिंजय--(मगध. भविष्य.) वायु के मतानुसार ७. यमसभा का एक क्षत्रिय (म. स. ८.२०)। वरिजित का पुत्र तथा ब्रह्माण्ड के मतानुसार विश्वजित का ८. एक ब्राह्मण । इसका सगर के साथ मोक्षसाधन के पुत्र। | विषय में संवाद हुआ था (म. शां. ७७.२).। अरितायु--(सो. कुरु.) मत्स्य के मतानुसार यह भीमपुत्र है। ९. एक राजा । यह राज्य का त्याग कर के, गंधमादन अरिद्योत्--(सो. अंधक.) दुंदुभि का पुत्र । पर्वत पर तपश्चर्या कर रहा था। यह देख कर, इन्द्र ने अपना अरिंदम--विश्वंतर के सोमयज्ञ में, श्यापर्ण का प्रवेश दूत इसके पास भेजा तथा इसे हवाई जहाज़ में स्वर्ग ले होने पर, उनके द्वारा बताई गई सोम परंपरा में, सनश्रत ने आने के लिये कहा। परंतु स्वर्ग में भी उच्चनीच भेद है अरिंदम को यह परंपरा बताई, ऐसा उल्लेख है (ऐ. ब्रा. तथा पुण्यक्षय होने पर अधःपतन होता है, ऐसा दत से ७.३४)। सुन कर, क्रोध से इसने उसे वापस भेज, 'दिया । परंतु अरिमर्दन-(सो. वृष्णि ) श्वफल्क का पुत्र । इन्द्र ने दूत को पुनः इसकी ओर भेजा, तथा इसको अरिमेजय--सर्पसत्र में इसने आध्वर्यव किया था आत्मज्ञान का बोध होने के लिये, वाल्मीकि के आश्रम (पं. ब्रा. २५.१५)। में ले जाने के लिये कहा । वाल्मीकि से मुलाकात २. ( सो. वृष्णि.) श्वफल्क का पुत्र (विष्णु. ४.१४. होते ही, जीवमुक्त होने के लिये, उसने इसे समग्र २)। सारमेय तथा शरिमेजय पाठ प्राप्त है। इसकी रामायण कथन किया तथा उसके श्रवण, मनन, निदिध्यास पांडवों की ओर जाने की संभावना है, ऐसा धृतराष्ट्र कहता से तुम जीवन्मुक्त हो जाओगे, ऐसा आश्वासन दिया हैं (म. द्रो. १०.२८)। (यो. वा.१.१)। अरिष्ट--कश्यप तथा दनु का पुत्र। अरिष्टनेमि तार्क्ष्य-सूक्तद्रष्टा (ऋ. १०.१७८) । २. कंस ने कृष्णपर भेजा हुआ दैत्य । इसने बैल का हैहय पुत्र कुमार ने इसके पुत्र की मृगया में हत्या की रूप ले कर कृष्ण पर हमला किया । इसने कुल दो | थी। फिर भी यह सदाचार से जीवित रहा (म. आर. आक्रमण किये। दूसरे आक्रमण के समय, कृष्णने इसकी | १८२)। गर्दन मरोडी तथा एक सींग उखाड कर, उसी सींग से उसे अरिष्टसेन-भारतीय युद्ध का दुर्योधनपक्षीय राजा पीटा । तत्काल रक्त की उल्टी कर के, यह मर गया (भा. | (महा. हा १०.३६.१६; ह. वं. २.२१)। ३. विनतापुत्र । इसे अरिष्टनेमि तथा ताय नामांतर ___अरिष्टा-प्राचेतस दक्षप्रजापति तथा असिक्नी की हैं (म. व. १८४; कुं. १८२.८; बंबई प्रत तुलना कन्या। कश्यप की पत्नी। इसे गंधर्व तथा अप्सराएं हुई। करके देखिये)। कश्यप की पत्नीयों के उल्लेख के समय, अरिष्टा बता कर ४. बलि के पुत्रों में से एक । प्राधा नहीं बताई गई है, परंतु संतति के उल्लेख के समय, ५. यमसभा का क्षत्रिय (म. स. ८.१४)। अरिष्टा के बदले प्राधा नाम प्रयुक्त किया है । अतएव ६. वैवस्वत मनु का पुत्र । अरिष्टा तथा प्राधा एक ही है। ७. सावर्णि मनु का पुत्र । ___ अरिह-(सो. पूरु.) अराचीन तथा विदर्भकन्या अरिष्टनेमि--कश्यप का नामान्तर (म. शां. २०८. मर्यादा का पुत्र । इसकी स्त्री का नाम आङ्गी (म. आ. ८)। प्रजापतियों में से यह एक था (वायु. ६६.५३- | ९०.८९९%)। ५४)। | २. अमिताभ देवों में से एक । Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बरुग्वत् प्राचीन चरित्रकोश अरुंधती अरुग्वत्-(सो. कुरु.) विदूरथ तथा संप्रिया का तरह ही तुम भी गायत्री के उपासक हो, इसलिये भला पुत्र (म. आ. ९०.४२)। इसका पुत्र परिक्षित् । इसकी | तुम हमारे पक्ष के कैसे नहीं ? यह सुन, इसने देवताओं पत्नी अमृता। की उपास्य देवी गायत्री का जाप छोड दिया। इससे अरुज-रावणपक्षीय राक्षस | यह बिभीषण द्वारा | देवी ने संतप्त हो कर लाखों भौंरे उत्पन्न कर उन्हें इस पर मारा गया (म. व. २६९.२)। छोडा, तथा बिना युद्ध किये ही सेनासहित इसे मार अरुण--सृष्टद्युत्पत्ती के समय ब्रह्मदेव के मांस से | डाला (दे. भा. १०.१३)। उत्पन्न ऋषि । यह ब्रह्मदेव का पुत्र था (ते. आ. १.२३. ६. (सू. इ.) हर्यश्व को दृषद्वती से उत्पन्न पुत्र । निबंधन तथा त्रिबंधन इसके नामांतर है। २. पंचम मनु के पुत्रों में से एक । ७. नरकासूर का पुत्र । नरकासूर को मारने पर, यह ३. दनु तथा कश्यप का पुत्र ( भा. ६.६)। अपने छः भाइयों समेत कृष्ण पर टूट पड़ा। उस समय ४. विनता तथा कश्यप का पुत्र । अनूरू तथा विपाद | कृष्ण ने इसके सहित इसके छः भाईयों को मार डाला। इसके नामांतर है, क्यों कि, जन्म से ही इसे पैर नही थे। । ८. धर्मसावर्णि मन्वन्तर में होनेवाले सप्तर्षियों में से विनता की सौत कद्र को उनके साथ ही गर्भ रहा था, परंतु | उसके पुत्रों को चलते फिरते देख, विनता अपने दो अंडों अरुण आट-सर्पयज्ञ में का अच्छावाक नामक ऋत्विज में से एक नो फोडा। उसमें से कमर तक शरीरवाला पुत्र | (पं. बा. २५.१५)। निकला । बाहर आते ही, यह जान कर कि, सौत-मत्सर अरुण औपवेशि-एक आचार्य । यह उपवेशी का के कारण इसकी यह दशा हुई है, इसने मां को शाप दिया | शिष्य था तथा इसका शिष्य उद्दालक था (बृ. उ. ६.५. कि, तुम्हे ५०० वर्ष तक सौत की दासी बन कर रहना ३)। अग्न्याधान के समय वाग्यत होना चाहिये, यह पडेगा। परंतु, दूसरे अंडे को परिपक्व होने दिया तो दूसरा बताने के लिये, इस वृद्ध आचार्य की आख्यायिका दी गयी पुत्र दासता से तुम्हे मुक्त करेगा, ऐसा उःशाप कहा (म. है । सत्यपालन के लिये मौन रहना श्रेयस्कर है, ऐसा इसभा. १४, अनु. २०)। आगे चल कर, इसके छोटे भाई का तात्पर्य है (श. बा. २. १. ६. २०; तै. सं. ६. १. गरुड ने इसे पूर्व.भाग में जा कर रखा। इसने अपने | ९. २, ४. ५. १; ते. बा. २. १.५. ११)। विख्यात योगबल से, संतप्त सूर्य का तेज निगल लिया। उसी समय | उद्दालक आरुणि एसका पुत्र है । यह उपवेशि गौतम का से देवताओं के कहने से, सूर्य का सारथी होना इसने शिष्य तथा राजपुत्र अश्वपति का समकालीन था (श. ब्रा. स्वीकार किया (म. आ. परि. १.१४)। कश्यप तथा । १०. ६.१.२)। ताम्रा की कन्या श्येनी इसकी भार्या थी। उससे इसे | ___ अरुण वैतहव्य-सूक्तद्रष्टा (ऋ. १०. ९)। संपाति,- जटायु तथा श्येन आदि पुत्र हुए (म. आ. अरुणा-कश्यप तथा प्राधा की कन्या (म. आ. ६०-६१)। निर्णयसिंधु तथा संस्कार कौस्तुभ में इसके | ६०)। अरुण स्मृति का उल्लेख है (C.C.)। अरुणि-ब्रह्ममानसपुत्र । यह विरक्त था (भा. ४. ५. विप्रचित्ती के वंश का एक दानव । इसने हजारों | ८)। वर्षों तक गायत्रीमंत्र का जाप कर तप किया, तथा 'युद्ध में | अरुद्ध-(सो. द्रुह्यु.) वायुमतानुसार सेतुपुत्र ( अंगार अरुद्ध-(सा. द्रुखु.) वायुमतानुसार स मृत्यु न हो' ऐसा वरदान ब्रह्मदेव से मांग लिया। आगे चल, मदोन्मत्त हो कर अपना निवासस्थान पाताल छोड | अरुंधती-स्वायंभुव मन्वन्तर में, कर्दम प्रजापति को कर, यह भूमि पर आया तथा इंद्रादि देवताओंको युद्ध का | देवहूति से उत्पन्न कन्या। यह वसिष्ठ को ब्याही गयी थी आव्हान देने दूत भेजा। उसी समय आकाशवाणी हई | (३. २३, २४; मत्स्य. २०१. ३०)। कि, जब तक यह गायत्री का त्याग नहीं करेगा, तब तक २. कश्यप की कन्या । इसे नारद तथा पर्वत नामक इसे मृत्यु नहिं आयेगी। तब देवताओं ने बृहस्पति को | दो भाई थे। नारद द्वारा यह वसिष्ठ को ब्याही गयी थी गायत्री का त्याग करवाने भेजा । बृहस्पति को आया देख, (वायु. ७१. ७९. ८३, ब्रह्माण्ड. ३.८.८६; लिङ्ग. १. 'मैं आपके पक्ष का न होते हुए भी आप यहां कहाँ निकल | ६३. ७८-८०, कुर्म. १. १९. २०; विष्णुधर्म. १. पडे' ऐसा इसने पूछा । तब बृहस्पति ने कहा कि, हमारे ११७) । इसने वसिष्ठ की प्राप्ति के लिये, गौरी-व्रत किया प्रा. च.५] Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अरुंधती प्राचीन चरित्रकोश अर्चि था। इस कारण, इसे विवाहसुख प्राप्त हुआ (भ. वि. | अरुंधती के कठिन तप की परीक्षा लेने, शंकर ब्राह्मण का ब्राह्म. २१)। वेश ले कर भिक्षा मागने पधारे । पास में कुछ न होने के ३. मेधातिथि मुनि की कन्या । मेधातिथि ने ज्योति- | कारण, इसने कुछ (लोहे के) बेर उसे दिये । ब्राह्मण ने टोम नामक यज्ञ किया। उस समय यह यज्ञकुंड से उत्पन्न | उसे पकाने के लिये कहा, तब इसने उन्हें पकने के लिये हुई। पूर्वजन्म में यह ब्रह्मदेव की संध्या नामक मानस अग्नि पर रखा तथा अनेक विषयों पर उस ब्राह्मण के साथ कन्या थी । चंद्रभागा नदी के तट पर तपोरण्य में, मेधातिथि | चर्चा प्रारंभ की। चर्चा होते होते बारह वर्ष कब व्यतीत के घर यह बडी होने लगी। पाँच साल के उपरान्त, जब हो गये, इसका पता तक नहीं चला। हिमालय गये सप्तर्षि यह एक बार चंद्रभागा नदी पर गयी थी, तब ब्रह्मदेव ने | फलमूल ले कर वापस लौट आये, तब शंकर ने प्रगट हो विमान में से इसे देखा तथा तत्काल मेधातिथि से मिल | कर, अरुंधती की कडी तपश्चर्या का वर्णन उनके पास कर, इसे साध्वी स्त्रियों के संपर्क में रखने के लिये कहा। किया, तथा उसकी इच्छानुसार, वह तीर्थ पवित्र स्थान ब्रह्मदेव के कथनानुसार, मेधातिथि ने सावित्री के पास | हो कर प्रसिद्ध होने का वरदान दिया (म. श. ४८)। जा कर कहा, 'माँ ! मेरी इस कन्या को उत्तम शिक्षा दो।' आकाश में सप्तर्षिओं में वसिष्ठ के पास इसका उदय सावित्री ने उसकी यह प्रार्थना मान्य की। इस प्रकार होता है । इसका पुत्र शक्ति (ब्रह्माण्ड ३.८.८६.८७)। सात वर्ष बीत गये । बारह वर्ष की आयु पूर्ण होने के ३. दक्ष एवं असिक्नी की कन्या तथा धर्म की दस पश्चात्, एक बार यह, सावित्री तथा बहुला के साथ मानस- | पत्नीओं में से एक (दक्ष तथा धर्म देखिये)। पर्वत के उद्यान में गई। वहाँ तपस्या करते हुए वसिष्ठ अरुपोषण-(सो.) भविष्य के मतानुसार मिहिरार्थ ऋषि दृष्टिगोचर हुए । वसिष्ठ एवं अरुंधती का परस्पर दृष्टि का पुत्र । इसने ३८,००० वर्षों तक राज्य किया । मिलन होते ही दोनो को कामवासना उत्पन्न हुई। तथापि अरुरु-अनायुषा का पुत्र । इसका पुत्र धुंधु । मनोनिग्रह से दोनो अपने अपने आश्रम में गये । सावित्री अर्क-(सो. नील.) पूरुज का पुत्र । को यह ज्ञान होते ही, उसने इन दोनों का विवाह करा २. रामसेना का एक वानर ( वा. रा. यु. ४)। दिया (कालि. २३)। ३. आठ वसुओं में से एक (भा. ६.६.११)। वर्तमान वैवस्वत मन्वन्तर के मैत्रावरुणी वसिष्ठ की मर्कज:-बलीह देखिये। पत्नी (म. स.११.१३२५ व. १३०.१४)। इसका दूसरा अर्कपर्ण--कश्यप तथा मुनि के पुत्रों में से एक । नाम अक्षमाला भी था (म. उ. ११५.११) । अरुंधती इसका नामांतर तृष्णप है। ने स्वयं, 'अरुंधती' शब्द की व्युत्पत्ति, निम्न प्रकार बताई अर्कसावार्ण-नवम मनु (मनु देखिये)। है। यह वसिष्ठ को छोड, अन्य कहीं भी नहीं रहती तथा उसका विरोध नहीं करती (म. अनु. १४२.३९ कुं.)। अष्टिमत्-(सो.) भविष्य के मतानुसार वैकर्तन कमल चुराने के लिये शपथ लेने के प्रसंग में, कमल | का पुत्र । इसने ४१०० वर्षों तक राज्य किया । न चोरने के लिये इसने प्रतिज्ञा की है (म. अनु. १४३. अर्गल काहोर्डि-एक आचार्य (क. सं. २५.७ )। ३८ कुं.)। ऋषियों द्वारा धर्मरहस्य पूछे जाने पर, श्रद्धा, | । अर्चत् हैरण्यस्तूप-सूक्तद्रष्टा (ऋ. १०.१४९)। आतिथ्य तथा गोशंगस्नान का माहात्म्य, इसके द्वारा - मंत्र में भी इसका निर्देश है (ऋ..१०.१४९.५)। वर्णन किये जाने की पुरानी कथा, भीष्म ने धर्म को कथन / अर्चनानस आत्रेय-सूक्तद्रष्टा (र. ५. ६३, ६४; की है (म. अनु.१९३.१-११ कुं.) ८.४२)। इसे मित्रावरुणों ने सहायता की (ऋ. ५.६४. यह अत्यंत तपस्वी तथा पतिसेवापरायण थी। इसी | ७) । श्यावाश्व के साथ अथर्ववेद में इसका उल्लेख है कारण, अग्निपत्नी स्वाहा अन्य छः ऋषिपत्नीओं का रूप (अ. वे. १८.३.१५)। परंतु यह श्यावाश्व का पिता था धारण कर सकी, पर इसका रूप धारण न कर सकी | (पं. ब्रा. ८.५.९; श्यावाश्व देखिये)। (म. व. २७७.१६ कुं.)। अर्चि-(स्वा. उत्तान.) वेन राजा के देहमंथन से एकबार, इसे बदरपाचनतीर्थ पर रख कर, सप्तर्षि | मिथुन उत्पन्न हुआ। उस मिथुन में की यह स्त्री। यह हिमालय में फलमूल लाने गये । तब बारह वर्षों तक | उस मिथुन का पुरुष पृथुराजा की पत्नी बनी । यह लक्ष्मी अवर्षण हुआ। तब सब ऋषि वहीं बस गये । इधर | का अवतार थी। (भा. ४.१५.५ पृथु देखिये)। ३४ Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अचिं प्राचीन चरित्रकोश अर्जुन २. कृशाश्व ऋषी की दो पत्नियों में से एक, एवं धूम- में अत्यंत निष्णात हो गया। द्रोण को भी इसके लिये • केश ऋषि की माता ( भा. ६.६.२०)। काफी अभिमान था, अतएव अर्जुन का पराभव कोई भी ३. ब्रह्मसावर्णि मन्वन्तर के देव । न कर सके, इसलिये उसने कपट से अपने शिष्य अर्चिमालि-सीताशुद्धी के लिये पश्चिम की ओर | एकलव्य का अंगूठा मांग लिया । इतनी अधिक गुरुकृपा गये वानरों में से एक (वा. रा. कि. ४२)। का स्वाभाविक परिणाम यह हुआ कि, 'रथी तथा महाअर्चिष्मत्-दक्षसावर्णि मनु का पुत्र । रथियों में अग्रेसरत्व ले कर लडनेवाला,' ऐसी इसकी अचिप्मती-बृहस्पति की कन्या। बृहस्पति की दूसरी | ख्याति हो गई। पत्नी शुभा की सप्त कन्याओं में से एक । __ परीक्षा-एकबार परीक्षा लेने के लिये, द्रोण ने वृक्ष अर्चिसन-अत्रिगोत्री मंत्रकार । इसे अर्धस्वन तथा पर रखे एक चिन्ह पर लक्ष्य वेध करने के इसे अर्वसन नामांतर है। कहा, तथा सबको पूछा कि, तुम्हें क्या दिख रहा है। अर्जव-ब्रह्मांड के मतानुसार व्यास की ऋक शिष्य- केवल अर्जुन ने ही कहा कि, लक्ष्य के मस्तिष्क के परंपरा का बाष्कलि भरद्वाज का शिष्य । वायु के मता- अतिरिक्त मुझे और कुछ भी नहीं दिखता। तब से द्रोण नुसार अर्यव पाठ है ( व्यास देखिये)। इसपर अत्यधिक प्रसन्न रहने लगा। एकबार, जब द्रोण अर्जुन--(सो. पूरु.) कुन्ती को दुर्वास द्वारा दिये गये | गंगास्नान के लिये गये थे तब मगर ने उसे पकड़ लिया। इन्द्रमंत्रप्रभाव से उत्पन्न पुत्र । यह कुन्ती का तृतीय पुत्र सभी शिष्य दिङ्मूढ हो गये परंतु अर्जुन ने पांच बाण था। इसका जन्म होते ही इसका पराक्रम कथन करने- मार कर द्रोण की मगर से रक्षा की । द्रोणाचार्यद्वारा ली वाली आकाशवाणी हुई (म. आ. ११४.२८)। यह गई शिष्यपरीक्षा में अर्जुन के प्रथम आने के उपलक्ष में, इंद्र के अध सामर्थ्य से हुआ (मार्क..५.२२)। इसके ब्रह्मशिर नामक उत्कृष्ट अस्त्र उसने इसे दिया (म. जन्म के समय, उत्तराफाल्गुनी · समवेत पूर्वाफाल्गुनी आ. १२३), तथा कहा कि, इस अस्त्र का प्रयोग मानव · नक्षत्र, फाल्गुन माह में था, अतएव इसका नाम फाल्गुन पर न करना (म. आ. १५१. १२-१३ कुं.)। एकबार प्रचलित हुआ (म. वि. ३९.१४)। इसका जन्म द्रोण ने अपने सब शिष्यों का शस्त्रास्त्रनैपुण्य दर्शाने के : हिमालय के शतशृंग नामक भाग पर हुआ। पांडू की लिये एक बड़ा समारंभ किया। उस समय अर्जुन ने मृत्यु के पश्चात् , इसके उपनयनादि संस्कार, वसुदेव ने लगातार पांच बाण ऐसे छोडे कि, पांचों मिल कर एक ही काश्या नामक ब्राहाण भेज कर, शतशृंग पर ही करवाए तीर नजर आवे। एक लटकते तथा हिलते सींग में इक्कीस (म. आ. ११५ परि. १.६७)। बाण भरना इ. प्रयोग कर इसने दिखाये, तथा सबसे प्रशंसा '. विद्यार्जन--यद्यपि सब कौरव पांडवों ने शस्त्रविद्या प्राप्त की। परंतु कर्ण इसे सहन न कर सका । अर्जुन द्वारा द्रोण से ही ग्रहण की, तथापि विशेष नैपुण्य के कारण, किये गये समस्त प्रयोग उसने कर दिखाये, तथा अर्जुन के द्रोण की इसपर विशेष प्रीति थी । इस की अध्ययन में साथ द्वंद्वयुद्ध करने की इच्छा प्रदर्शित की । तब अर्जुन ने भी प्रशंसनीय दक्षता थी। द्रोण सब शिष्यों को पानी भरने आगुंतुक कह कर उस का उपहास किया। तथापि द्रोण के लिये छोटें पात्र देता था, परंतु अपने पुत्र का समय की इच्छानुसार यह युद्ध के लिये सुसज्ज हुआ, परंतु 'तुम व्यर्थ न जावे, इसलिये अश्वत्थामा को बडा पात्र देता कुलीन नही हो, अतएव राजपुत्र अर्जुन तुमसे युद्ध नही था। यह बात, सर्वप्रथम अर्जुन के ही ध्यान में आयी करेगा,' ऐसा कृपाचार्य ने कहा । तब दुर्योधन ने कर्ण को तथा बड़ी कुशलता से इसने अश्वत्थामा के साथ आने अभिषेक कर के, अंगदेश का राजा बनाया। युद्ध की का क्रम जारी रखा । इसीसे यह सब से आगे रहा परंतु भाषा प्रारंभ हुई, परंतु गडबडी में यह प्रसंग यहीं समाप्त अश्वत्थामा से पीछे न रहा। एकबार भोजनसमय, हवा हुआ (म. आ.१२६.१२७)।आगे चल कर, गुरुदक्षिणा के कारण बत्ती बुझ गयी परंतु अंधकार होते हुए भी के रूप में द्रुपद को जीवित पकड़ कर लाने का कार्य जब इसका भोजन ठीक तरह से पूर्ण हुआ। तब इस ने तर्क । द्रोण ने शिष्यों को दिया, तब केवल अर्जुन ही यह काम किया कि, अंधकार में भी गलती न करते हुए मुँह में | कर सका (म. आ. १२८)। ग्रास जाने का कारण दृढाभ्यास है। तुरंत, अंधकार में भी पराक्रम-अर्जुन ने आगे चल कर, सौवीराधिपति लक्ष्यवेध करने का इसने प्रारंभ किया, तथा यह धनुर्विद्या दत्तामित्र नाम से प्रसिद्ध सुमित्र को जीता । उसी प्रकार, ३५ Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्जुन प्राचीन चरित्रकोश अर्जुन विपुल को, जो पांडु द्वारा नही जीता गया, जीता। आया। वहाँ चित्रांगदा तथा बभ्रुवाहन से मिल कर गोकर्ण पूर्व तथा पश्चिम दिशायें जीतीं । कुछ प्रतियों में तो कहा गया । वहाँ से प्रभासक्षेत्र में जाने पर कृष्णार्जुन मीलन है कि, अर्जुन ने पंद्रहवें वर्ष की उम्र में दिग्विजय किया हुआ। वहाँ से रैवतकपर्वत तथा द्वारका जा कर, कृष्ण (म. आ. १५१.४४.५० कुं.)। पांडवों की चारों तरफ की सहायता से सुभद्राहरण करने का इसने सोचा, तथा प्रसिद्धी होने के लिये, अर्जुन के पराक्रम का बहुत ही उसके लिये धर्मराज की संमति प्राप्त की । मृगया के उपयोग हुआ। आगे चल कर, जतुगृह से छुटकारा होने | निमित्त्य से बाहर गये अर्जुन ने, रैवतक पर्वत के देवताओं के बाद, सब पांडव ब्राहाणवेष में द्रौपदीस्वयंवर के लिये का दर्शन तथा प्रदक्षिणा किया। पश्चात् द्वारका वापिस जानेगये। राह में रात्रि के समय, अंगारपर्ण गंधर्व ने इन्हें वाली सुभद्रा को अपने रथ में बिठाया तथा वहाँ से पलायन रोका। तब उसका तथा अर्जुन का युद्ध हो कर अंगारपर्ण किया। पश्चात् अर्जुन का पक्ष ले कर, कृष्ण ने बलराम की का इस ने पराभव किया। अंगारपर्ण ने इसे चाक्षुषीविद्या ओर से.अर्जुन को निमंत्रण दिया, तथा बड़े धूमधाम से दी, तथा अर्जुन ने उसे अन्यस्त्र दे कर उसमे मैत्री | विवाह करवाया । वहाँ एक वर्ष रह कर, अर्जुन ने बाकी की (अंगारपर्ण देखिये)। पांचालनगरी में अर्जुन ने, दिन पुष्करतीर्थ में बिताये । परंतु निम्नलिखित लोकद्रौपदी के स्वयंवरार्थ लगाये गये मत्स्ययंत्रभेदन की शर्यत प्रसिद्ध कथा भी कुछ स्थानों पर वर्णित है । सुभद्रा के जीती, तथा द्रौपदी ने अर्जुन का वरण किया (म. आ. दुर्योधन से होनेवाले विवाह की वार्ता, अर्जुन को प्रभास१७९)। आगे चल कर, धृतराष्ट्र ने विदुर को भेज कर पांडवों क्षेत्र में मालूम हुई। उसे प्राप्त करने के लिये, त्रिदण्डी को हस्तिनापुर से वापस लाया। एक बार, आयुधा- सन्यास ले कर द्वारका में चातुर्मास बिताने का निश्चय इसने गार में युधिष्ठिर तथा द्रौपदी जब एकांत में थे, तब अर्जुन को किया। वहाँ सब पौरजनों में यह अत्यंत प्रसिद्ध हुआ। तब विवश हो कर वहाँ जाना पडा । कोई ब्राह्मणों की यज्ञीय बलराम ने भी इसे अपने घर में भोजन का निमंत्रण दिया। गौओं चोरी हो गई थीं, इस लिये वे राजा को सूचना देने | सीधे साधे भोले बलराम इसे पहचान न सके। वहाँ सुभद्रा आये थे । अर्जुन ने निर्भय होने का आश्वासन उन्हें दिया | तथा अर्जुन की दृष्टिभेट हुई । यात्रा के लिये, शहर से बाहर तथा अयुधागार से शस्त्र ले कर गायें वापस लोटा कर लाई। गई हुई सुभद्रा को रथ में डाल कर अर्जुन ने हरण कर युधिष्ठिर तथा द्रौपदी को एकांत में देखा, इस लिये नियत लिया, तथा विरोधकों को मार भगाया । अर्जुन के त्रिदण्डी शर्त के अनुसार यह बारह महीनों तक तीर्थाटन करने | संन्यास की कथा भागवत तथा महाभारत की कुंभकोणम् गया (म. आ. २०५)। प्रति में ही केवल है (भा. १०.८६; म. आ. २३८.४ कुं.)। तीर्थयात्रा-अर्जुन ने इस तीर्थाटन काल में, कौख्य स्कन्दपुराण में भी अर्जुन की तीर्थयात्रा का उल्लेख है नाग की उलूपी नामक कन्या से, पाताल में विवाह | तथा नारद ने अर्जुन को अनेक क्षेत्रों का महात्म्य कथन किया (म. आ. २०६) । तदनंतर यह हिमालय पर गया । किया है ( स्कन्द.१.२.१.५)। वहाँ से बिंदुतीर्थ पर गया । वहाँ से, पूर्व की ओर मुड कर | वस्तुप्राप्ति -अर्जुन को अनेक व्यक्तियों से भिन्न वस्तु उत्पलिनी नदी, नंदा, अपरनंदा, कौशिकी, महानदी, गया प्राप्त होने का उल्लेख है । मय ने बिंदुसर पर से उत्तम तथा गंगा नामक तीर्थस्थान इसने देखे। वहाँ से अंग, | आवाज करनेवाला देवदत्त नामक बारुण महाशंख अर्जुन वंग तथा कलिंग देश देख कर, यह समुद्र की ओर मुड़ा। कों दिया (म. स. ३.७.१८)। उसी प्रकार, अग्नि ने महेंद्र पर्वत पर से मणिपूर के राज्य में प्रविष्ट हुआ। अर्जुन को, खांडववन भक्षणार्थ देने के उपलक्ष में, गांडीव मणिपूर के राजा चित्रवाहन की चित्रांगदा नामक एक सुन्दरी | धनुष्य, दो अक्षय तूणीर, कपिध्वजयुक्त. सफेद अश्वों का कन्या थी । अर्जुन ने उसे अपने लिये मांग लिया। राजा | रथ, आदि चीजें दी (म. आ. ५५.३७; २५१ कुं.)। ने इस शर्त पर कन्या दी कि, कन्या का पुत्र उसे मिले। ये सारी चीजें अग्नि ने वरुण से तथा वरुण ने सोम से प्राप्त अर्जुन मणिपूर में तीन वर्ष रहा । उस अवधी में चित्रा- की थी। अर्जुन यद्यपि इन्द्रांश से उत्पन्न हुआ था, तथापि गदा को एक पुत्र हुआ। उसका नाम बभ्रुवाहन । आगे खांडवदाह के समय वर्षा कर के विरोध करने के कारण, मगरो के कारण, सब के द्वारा त्यक्त पंचतीर्थ में से सौभद्रतीर्थ इन्द्र का अर्जुन से युद्ध हुआ, तथा उसमें इन्द्र को पीछे पर अर्जुन प्रथम गया, तथा वहाँ शाप से मगर बनी हुई हटना पडा (म. आ. २१८)। आगे चल कर, इन्द्र ने अप्सराओं का उद्धार कर के, पुनश्च मणिपूर वापस इसे कवच तथा कुंडल दिये (म. व. १७१.४)। Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्जुन प्राचीन चरित्रकोश अर्जुन दिग्विजय-वनवास के पहले, राजसूययज्ञ के समय | था, तब द्वारपाल ने इसे रोका, तथा यहीं दिग्विजय रोकने इसने किये दिग्विजय की कल्पना निम्नांकित वर्णन से के लिये कहा। क्यों कि, उत्तर कुरू देश में सब चीजें आएगी। प्रथम कुलिंद देश के राजा को जीता । आनत अदृश्य है। तब अर्जुन धर्मराज की. सत्ता को मान्यता तथा कालकुट देशों पर सत्ता स्थापित कर, सुमंडल राजा | ले कर वापस आ गया, तथा इन्द्रप्रस्थ में प्रविष्ट का पराजय किया। आगे चल कर, उसे साथ लेकर, शाकल- | हुवा (म. स. २३-२५)। द्वीप तथा प्रतिविध्य पर आक्रमण किया। उस समय वनवास--वनवास में पाशुपतास्त्र प्राप्ति के लिये, शाकलाहीप के तथा सप्तद्वीप के सब राजाओं को अर्जुन ने इन्द्रकील पर्वत पर अर्जुन ने तपश्चर्या की तथा शंकर को जीता तथा उनके साथ प्राग्ज्योतिष देश पर आक्रमण | प्रसन्न कर लिया। किरातवेष में आये शंकर से इसने किया। वहाँ भगदत्त के साथ अजुन का आठ दिनों तक मकवध पर से युद्ध किया तथा अंत में उससे पाशुपतास्त्र भयंकर युद्ध हुआ। अन्त में जब भगदत्त ने कर देना प्राप्त किया। पाशुपतास्त्र का रहस्यपूर्ण ज्ञान इसने शंकर स्वीकर किया, तब अर्जुन ने कुबेर के प्रदेश पर आक्रमण से प्राप्त किया (म. व. ३८.४१)। अन्य देवों ने भी किया। वहाँ के सब राजाओं से कर वसूल कर, उलूक देश अर्जुन को अनेको अस्त्र दिये (म. व. ४२)।तदनंतर इन्द्र पर आक्रमण किया । उलूक देश के राजा का नाम बृहन्त के निमंत्रण के कारण, उससे भेजे गये रथ में बैठ कर, यह था। उने युद्ध में पराभूत कर तथा कर ले कर, उसके स्वग गया। वहाँ इन्द्र ने अर्जुन का काफी सम्मान कर सहित सेनाबिंदु पर आक्रमण किया, तथा गद्दी से उसे अपने अर्धासन पर इसे जगह दी। वहाँ अर्जुन ने पदच्युत किया। तदनंतर मोदापूर का वामदेव, सुदामन तथा अनेक अस्त्रों की शिक्षा प्राप्त की। इस प्रकार इसने उत्तर उलूक के राजाओं को इकट्ठा कर के उनसे कर अपने पांच वर्ष स्वर्ग में बिताये । इन्द्र के कथनानुसार, वसूल किया । तदनंतर पंचगण देश को जीत कर सेना वाद्य बजाना, नृत्यकला तथा गानकला की भी शिक्षा बिंदू के देवप्रस्थ नगर को यह गया। वहाँ से इसने राजा इसने ली। इस काम में चित्रसेन नामक गंधर्व का पौरव विश्वगश्व पर आक्रमण किया। उसे जीत कर, पर्वत अत्याधिक उपयोग हुआ (म. व. ४५.६)। एकबार में रहनेवाले सात उत्सवसंकेत गणों को जीता, तदनंतर | अर्जुन के पास उर्वशी ने संभोगयाचना की । परंतु इसने काश्मीर के वीरों को जीता तथा दस मांडलिकों के साथ उसे नाही कर दी। इससे क्रोधित हो कर, 'तुम लोहित को जीता। त्रिगत, दाव तथा कोकनद से कर ले नपुंसक बनोगे,' ऐसा शाप उसने अर्जुन को दिया । परंतु कर अभिसारी नगरी जीती। उरगा नगरी के रोचमान इन्द्र ने उसे बताया कि, अज्ञातवास के समय एक वर्ष को जीता । चित्रायुध का सिंहपूर नगरी ध्वस्त किया । तद तक तुम नपुंसक रहोगे, तथा इस शाप का तुम्हें उपयोग नंतर सुा तथा चौल देश उध्वस्त कर के, बाल्हीक देश में ही होगा (म. व. परि.६)। इंद्र ने लोमश के द्वारा प्रविष्ट हुआ । वह देश जीत कर, कांबोज तथा दरद देश अर्जुन का समाचार भी अन्य पांडवों को भेजा । अर्जन हस्तगत किये । उत्तर की ओर के दस्युओं को हस्तगत कर | | कुछ कालोपरांत अपने बांधवों के बीच आते ही, के, आगे लोह, परम कांबोज तथा उत्तर ऋषि को अर्जुन ने अज्ञातवास का समय आया। अज्ञातवास के लिये जीता। ऋषिक देश में भयंकर युद्ध करना पडा, परंतु अन्त द्रौपदी को विराटनगर तक कंधों पर ले जाने का कार्य में विजय प्राप्त हो कर, मयूरवर्ण तथा शुकोदरवर्ण अश्व अर्जुन ने किया (म. वि. ५)। करभार के रूप में प्राप्त हुए । इस प्रकार, निष्कुटसहित ___ अज्ञातवास-अज्ञातवास में अर्जुन ने बृहन्नला नाम हिमालय जीत कर, अर्जुन श्वेत पर्वत पर आ कर रहने तथा नपुंसकत्व का स्वीकार किया, तथा स्वयं ही को द्रौपदी लगा (म. स. २४)। वहाँ से, किंपुरुषावास देश पर की परिचारिका बता कर, उत्तरा को नृत्यगायनादि सिखाने आक्रमण कर के, राजा द्रुमपुत्र से कर वसूल किया। हाटक का काम पाया । आगे जब विराटादि सब लोग, दक्षिणदेश में जाकर, सामनीती से, गुह्यक के पास से कर लिया। गोग्रहण में मग्न थे, तब दुर्योधनादि ने उत्तरगोग्रहण मान सरोवर पर ऋषियों द्वारा निकाली गई नहरें | किया। रजवाड़े में अकेला भूमिज्य (उत्तर) ही था। देखीं । गंधर्वो के देशों पर आक्रमण कर के, तित्तिरिकल्माष उसके पास सारथि न था। बृहन्नला सारथ्य कर सकती तथा मंडूक नामक उत्तम अश्व करभार के रूप में प्राप्त किये। | है यह ज्ञात होने के पश्चात् वह युद्ध के लिये निकला। तदनंतर जब यह हरिवर्ष पर आक्रमण करने जा रहा | परंतु ऐन समय पर घबरा कर, रथ से कूद कर भागने ३७ Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्जुन लगा। बृहत् ने उसे समझा कर स्वयं युद्ध करने का निश्चय किया, तथा शमीवृक्ष पर के आयुध ले कर उत्तर को अपना परिचय दिया। चमावान युद्ध करते गौओं को पुनः प्राप्त करते समय, इसने कर्ण को भगा कर उसके भाई को जान से मारा। इसके उपलक्ष में, अर्जुन को उपहार रूप में उत्तरा को देने का विचार विराट ने प्रकट किया, परंतु अर्जुन ने उसका स्वीकार अभिमन्यु के लिये किया ( म. वि. ६७ ) । प्राचीन चरित्रकोश - कृष्णलहाय्य भारतीय युद्ध की तैय्यारी जब बालू थी, तब दुर्योधन कृष्ण की सहायता प्राप्त करने के लिये द्वारका गया। अर्जुन भी वहीं उपस्थित हुआ। दुर्योधन | खराने की ओर बैठा, तथा अर्जुन नम्रता से पैरों की ओर बैठा। उठते ही प्रथम अर्जुन दिखा। उसी प्रकार यह दुर्योधन से छोटा भी था, अतएव कृष्ण ने प्रथम अर्जुन को माँग प्रस्तुत करने को कहा। देश कोटि गोपालों की नारायण नामक सेना तथा निःशस्त्र स्वयं ऐसा विभाजन कर जो चाहिये उसे मांगने की सूचना कृष्ण ने की। तत्र अर्जुन ने कृष्ण को मांग लिया। अपनी ओर हजारों सैनिक आये, इस बात पर दुर्योधन संतुष्ट हुआ (म. उ. ७ ) कृष्ण जत्र पांडवो के मध्यस्थ कार्य के लिये गया, तब अर्जुन ने कहा कि, उसे जो योग्य प्रतीत हो वही वह तय करे ( म. ३.७६ ) | 3 भारतीययुद्ध - युद्ध के आरंभ में ही, अर्जुन को युद्ध का परिणाम दिखाई देने लगा था। यह सोचने लगा कि, वह स्वयं किसी अविचारी कृत्य में प्रवृत्त हो गया है । इस विचार के कारण, यह युद्ध से निवृत्त होने लगा । परंतु कृष्ण ने इसे कर्तव्यच्युत होने से परावृत्त किया। यही भगवद्गीता है (म. भी. २३.४० ) । युद्ध के प्रारंभ में ही भीमार्जुन युद्ध प्रारंभ हुआ। तीसरे दिन ऐसा प्रतीत होने लगा कि, भीष्म पांडवों को बिल्कुल नही बचने देंगे । परंतु कृष्ण ने प्रतिज्ञा तोड़ कर हाथ में चक्र दिया, तथा अर्जुन ने भी जोर लगाया। तीसरे दिन के अंत में कौरवों का इसने काफी नुकसान किया। " अर्जुन रख कर, अर्जुन अगर मुझ से लड़े तो मेरा वध हो सकता है। क्यों कि, अभद्र ध्वजयुक्त तथा एकबार स्त्री रहनेवाले शिखंडी के समान लोगों पर अपने नियमानुसार भीष्म शस्त्र नही चलाते थे। नववे दिन, अर्जुन या द्रोणाचार्य के साथ युद्ध हुआ । भीष्म के साथ भी जोरदार युद्ध हुआ । संध्या होने के कारण युद्ध रोका गया, परंतु भीष्म के सामने किसी की शक्ति काम नही आती थी, इससे सब निराश हो गये। धर्मराज एवं कृष्ण ने विचार किया कि, वे भीष्म को ही पूछें, कि उसका वध किस प्रकार किया जा सकता है। भीष्म ने भी सरल स्वभाव से कहा कि, शिखंडी को आगे । भीष्मवध - दसवे दिन, शिखंड़ी को भीष्म के सामने छोड़ कर, अर्जुन ने कौरव सेना को विल्कुल त्रस्त कर डाला। कौरवों ने पांडवों को रोकने का अंतिम प्रयत्न किया, परंतु सफलता हाथ न लगी । अर्जुन ने शिखंडी के आड़ में रह कर, हजारों वाण भीष्म पर बरसाये तथा भीष्म को नीचे गिरा दिया हजारों बाण जिसके शरीर में भिदे है, ऐसा भीष्म जब वीरोचित शय्या पर विश्रांति कर रहा था, राम उसकी गर्दन नीचे लटकने लगी अतएव उसने तकिया मांगा। कईयों ने उसे नरम तयेा दिये, परंतु अर्जुन ने वीरशय्या के लिये उचित तीन बांका तकिया तैयार कर के उसे प्रसन्न किया। उसी प्रकार भीष्म के पानी मांगने पर सबने पानी खा दिया। परंतु उसका स्वीकार न कर अर्जुन ने भूमि में बाग मार कर उत्पन्न किये जल का स्वीकार भीष्म ने किया (म.भी. ११६) । इसके सिवा, युद्ध में शत्रुओं को मारेंगे अथवा मरेंगे, ऐसी प्रतिज्ञा कर के बाहर आये हुए त्रिगर्त देश का राजा सत्यरथ, सत्यवर्मा, सत्यव्रत, सत्येषु तथा सत्यंकर्मा तथा प्रस्थलाधिपति सुशर्मा, तथा मावेल्लक, लालित्थ तथा मद्रक आदि अन्य राजाओ को अर्जुन ने परलोक दर्शाया (म.हो. १६ . १३३२:३९ ) । तदनंतर अर्जुन ने हाथी की क. । सहायता से लड़नेवाले भगदत्त को मार डाला । भगदत्त ने एक बार अर्जुन पर प्राणघातक अंकुश फेका, परंतु कृष्ण ने बीच में आ कर उसे अपनी छाती पर लिया तथा अर्जुन को बचाया ( म. हो. २८ ) । , जयद्रथवध -- जयद्रथ ने अभिमन्यु को मृत्यु के बाद खाथ मारने के कारण, अर्जुन ने प्रतिशश की कि दूसरे दिन सूर्यास्त के पहले मैं उसकी हत्या करूंगा। रात्रि में शंकर ने इसके स्वप्न में आ कर इसको धीरज बंधा कर पुनः पाशुपतास दिया ( म. द्रो. ५७)। अर्जुन में वीरश्री का संचार हुआ तथा इसने दुःशासन दुर्योधनादि का कई बार पराभव किया। कर्ण को भगाया। अंबष्ट, श्रुतायुस् तथा अश्रुतायु का वध किया ( म. द्रो. ६८ ) । इस प्रकार तुमुलयुद्धप्रसंग में, सूर्यास्त होने के पहले ही अर्जुन ने जयद्रथ का शिरच्छेद किया ( म. द्रो. १२१ ) । 3 कर्णवध-- तदुपरांत, कर्ण के द्वारा धर्मराज का पराभव होने के कारण, धर्म के मन में कर्ण के प्रति अत्यंत द्वेष ३८ Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन चरित्रकोश अर्जुन उत्पन्न हो गया. परंतु कर्ण के सामने किसी का बस नही | पराजय अर्जुन ने किया । प्राग्ज्योतिषपुर का राजा भगदत्तपुत्र चलता था। तब धर्म ने अर्जुन की निर्भत्सना की, तथा | यज्ञदत्त को इसने अच्छा पाट सिखाया । तदनंतर यह सिंधु कहा कि, कर्णवध करने की शक्ति अगर नहीं है, तो | देश में गया । सिंधुराजा जयद्रथ का वध अर्जुन के द्वारा गांडीव किसी और को दे दो। उसने कर्णवध किये बिना रण | होने के कारण, वहाँ के निवासियों में अर्जुन के प्रति से वापस लौट आने के लिये, अर्जुन को दोष दिया । यह त्वेष जागृत था। उनके द्वारा जोरदार आक्रमण होने के सुनते ही, पूर्व प्रतिज्ञा के अनुसार, गांडीव कीसी दूसरे को दे | कारण, अजुन के हाथों से गाण्डीव छूट गया। परंतु दो, ऐसे कहनेवाले धर्मराज का वध करने के लिये खड्ग उसके बाद भी इसने जोरदार युद्ध शुरू किया। अर्जुन के टेकर दौड़ा । तब कृष्ण ने धर्माधर्म का भेद बना कर कहा | आगमन की सूचना मात्र से जयद्रथपुत्र सुरथ मृत हो कि, धर्मराज के लिये 'आप' शब्द का प्रयोग करने के बदले गया। परंतु जयद्रथ की पत्नी तथा दुर्योधन की भगिनी अगर 'तुम' या 'तू' कहा तो यह अपमान वधतुल्य है। दुःशला, अपने नाती सहित अर्जुन के पास आई, तथा अर्जुन ने यह मानकर, धर्मराज के प्रति कुत्सित शब्दों का | इसे शरण आ कर युद्धसे परावृत्त किया। उपयोग कर, उसका अत्यत अपमान किया । अत म, प्रयभेट-तदनंतर अर्जन मणटर देश में गया। तब एसा करने का कारण बता कर, यह कर्णवध के काम में लग इसका पुत्र बभ्रुवाहन अनेक लोगो के साथ, इसके स्वागत गया । कृष्ण इसे लगातर उत्तेजन दे ही रहा था । कर्णार्जुन के लिये आया। परंतु क्षत्रियोचित वर्तन न करने के कारण -का तुमुल युद्ध शुरू हुआ। अर्जुन ने कर्ण को घायल कर के अर्जुन ने उसकी निर्भत्सना की । पाताल से उलूपी वहाँ आई एक बार बेहोश कर दिया, तथा बाण पर बैठ कर आये तथा उसने भी अपने सापत्न पुत्र को युद्ध के लिये प्रो साहन - हुए तक्षक का वध किया । परंतु युद्ध के ऐन रंग में ही. दिया । बभ्रुवाहन ने घनघोर युद्ध प्रारंभ कर के अर्जुन को कर्ण के रथ का पहिया पृथ्वी ने निगल लिया। कर्ण ने रथ मूञ्छित किया, तथा स्वयं भी मूर्छित हो गया। उसकी से कूद कर पहिया उठाने का प्रयत्न किया, परंतु कुछ लाभ माता चित्रांगदा रणक्षेत्र में आई तथा पुत्र एव पति के नहीं हुआ। उसने धर्मयुद्ध के अनुसार अजुनको रुकने का लिये उसने अत्यंत विलाप किया । बभ्रवाहन ने प्रायोउपदेश किया, परंतु उसका भी कुछ लाभ न हो कर, पवेशन किया । तब, इस पिता पुत्र युद्ध के लिये, उलूपी अर्जुन ने कर्ण का मस्तक उड़ा दिया (म. क. ६७)। को सबके द्वारा दोष दिये के जाने कारण, केवल स्मरण से : "युद्धसमाप्ति-दुर्योधन की मृत्यु के बाद सब उसके शिविर | प्राप्त होने वाले संजीवनीमणि से उसने अर्जुन को जागृत में आये। तब अनेक अरुप्रयोगों से दग्ध, परंतु कृष्ण के, किया । शिखण्डी को सामने रख कर भीष्मवध करने के सामर्थ्य से सुरक्षित अर्जन का रथ, कृष्णाजुन के नीचे उतरते कारण अजिंक्य अजुन का पराभव बभ्रुवाहन कर सका। ही, अपने आप जल कर खाक हो गया (म. श. ६१)। तदुपरांत, अर्जुन मगध देश में गया तथा जरासंधपौत्र • आगे चल कर, अश्वत्थामा ने चिढ कर रात्रि के समय मेघसंधी का इसने पराभव किया। उसके बाद वंग, पुण्ड्र ब्रह्मास्त्र का प्रयोग किया, तथा सबको जलाना प्रांरभ किया। तथा केरल देश जीत कर, दक्षिण की ओर मुड़ाकर इसने तब उसके परिहार के लिये अर्जुन ने भी ब्रह्मास्त्र का | चेदि देश पर आक्रमण किया। वहीं शिशुपालपुत्र शरभ से प्रयोग किया। परंतु वह सब लोगों को अधिक कष्ट देनेवाला सत्कार प्राप्त कर, काशी, अंग, कोसल, किरात तथा तङ्गण सोच कर इसने वापस ले लिया (म. सो.१५)। यद्यपि | देश पार कर, यह दशार्ण देश मंगया। वहाँ चित्रांगढ़ से युद्ध भारतीय युद्ध में, अर्जुन का सारथी कृष्ण था (म. ३. ७. | कर के उसे अपने काबू में लाया । निषादराज एकलव्य के ३४), तो भी पूरु नामक एक सारथि अर्जुन के पास | राज्य में जा कर, उसके पुत्र से युद्ध कर के उसे जीता। निरंतर रहता था (म. स. ३०)। पुनः दक्षिण की ओर आ कर, द्रविड, आन्ध्र, रौद्र, माहिषक अश्वमेध-जब युधिष्ठिर ने अश्वमेध का अश्व छोडा, | तथा कोल्लगिरेय, इनको सुगमता से जीत कर सुराष्ट के तब उसके संरक्षणार्थ अर्जुन की योजना की गई थी। अर्जुन | आसपास गया । वहाँ से, गोकर्ण, प्रभास, द्वारका इ. भाग प्रथम अश्व के पीछे पीछे उत्तर दिशा की ओर गया। से, समुद्रकिनारे से पंचनद देश में गया तथा वहाँ से राह में कई छोटे बड़े युद्ध हुए। उनमें से केवल महत्वपूर्ण गांधार गया । गांधार में, शकुनिपुत्र से इसका भयानक युद्ध युद्धों का वर्णन महाभारत में दिया है। त्रिगर्त का रजा हुआ तथा शकुनिपुत्र की सेना का इसने संहार किया। सूर्यवमा, उसी प्रकार उसका भाई केतुवर्मा तथा धृतवमा का अपने पुत्र की भी यही स्थिति होगी यह जानकर, शकुनि ३९ Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्जुन प्राचीन चरित्रकोश अर्जुनक की पत्नी ने, अर्जुन को युद्ध से परावृत्त किया। इस प्रकार, देखिये)। जो कुछ अंकुर यादव वंश के बचे थे, उनकी बडे गौरव के साथ अश्व के पीछे पीछे दिग्विजय कर के, इसने व्यवस्था की । हार्दिक्यतनय को मृत्तिकावत का राज्य अर्जुन हस्तिनापुर लौट आया । उस समय माघ पौर्णिमा दिया, अश्वपति को खाण्डववन का राज्य दिया तथा थी, तथा यज्ञ चैत्र पौर्णिमा के समय होने वाला था। इस के बाकी सब को इन्द्रप्रस्थ में रख कर, वज्र को इन्द्रप्रस्थ का लिये अर्जुन ने सब को आमंत्रण दिया था (म. आश्व. राजा बनाया (म. मौ. ८; पन. ३. २७९. ५६; ब्रह्म. ७१ ८५-कुं.) युधिष्ठिर को अर्जुन के आगमन की वार्ता | २१०-२१२, विष्णु. ५. ३७. ३८; अग्नि. १५)। इस प्रथम जासूसों द्वारा मालूम हुई । तदनंतर अर्जुन के शरीर-प्रकार व्यवस्था कर के, अर्जुन उद्विग्न अवस्था में व्यास स्वास्थ्य के बारे में उसने कृष्ण के पास विशेष पूछताछ आश्रम में गया, तथा व्यास का दर्शन ले कर, हस्तिनापूर की (म. आश्व. ८९ कुं.)। अर्जुन ने आनेवाले राजाओं आ कर, सब निवेदन युधिष्ठिर को किया (म. मो. ९ कुं) का सन्मान करने के बारेमें बताते समय, बभ्रुवाहन का | मृत्यु-तदपुरांत जब सब पांडव हिमालय पर जा रहे विशेष सन्मान करने के लिये कहा (म. आश्व. ८८. | थे. तब १०६ वर्ष की उम्र में इसका पतन हुआ। भीम ने १८-२१ कुं.) पूछा कि, बीच में ही इसका पतन क्यों हुआ? तब धर्म ने हतबलता-सब यादवों का संहार हुआ, ऐसी वार्ता | कहा कि, यह हमेशा कहता था कि, मैं अकेले ही शत्रुओं दारुक ने हस्तिनापुर में आ कर बताई। तब अर्जन को को नष्ट करूंगा, परंतु उसने ऐसा किया नही। उसी प्रकार. ऐसा लगा कि, यह वार्ता गलत है। परंतु स्वयं द्वारका अन्य धनुर्धारियों का यह अवमान भी करता था, इस में आ कर देखने के बाद, उसे विश्वास हुआ। लिये इसका पतन हुआ (म. महा. ३.२१-२२)। कृष्णपत्नियों का हृदयभेदी विलाप बडे कष्ट से सुन कर कौटुंबिक--अर्जुन को द्रौपदी से उत्पन्न पुत्र श्रुतकीर्ति इसने सबको धीरज बँधाया, तथा यह वसुदेव से मिलने | भारतीय युद्ध में मृत हो गया । सुभद्रा से उत्पन्न पुत्र आया । आँखों में पानी ला कर इसने वसुदेव का चरण- अभिमन्यु चक्रव्यूह में मृत हुआ, तथा चित्रांगदापुत्र बभ्रस्पर्श किया। वृद्ध वसुदेव ने अर्जुन का आलिंगन कर के वाहन मणिपूर का राजा बना । उलूपीपुत्र इरावत की मृत्यु शोक किया, तथा शूर राम-कृष्ण की मृत्यु हो गई, भी युद्ध में हुई। आगे चल कर, अर्जुन का पौत्र परीक्षित् । केवल मैं जीवित बचा, ऐसे खेदजनक शब्द कहे। राजा बना। द्वारका जल्द ही समुद्र में डूबने वाली है, ऐसा बता अर्जुन ने 'हिरण्यपुर के पालोम, कालकेय तथा दानव कर, स्त्रियाँ, रत्न तथा राज्य सम्हालने के लिये वसुदेव ने का वध किया (ब्रह्माण्ड. ३.६.२८)। अर्जुन से कहा तथा देहत्याग किया (म. मौ.६-७)। यह नर का अवतार है। अर्जुन ने सब को द्वारका छोड़ कर इन्द्रप्रस्थ जाने की अस्त्र-परशुराम द्वारा की गई नरस्तुति में अर्जुन के तैय्यारी करने के लिये कहा, तथा वसुदेव, राम तथा | निम्नांकित अस्त्रों का वर्णन है। कृष्ण को अग्नि दी । तदनंतर, इसके नेतृत्व में अवशिष्ट १. काकुदिक (काम), २. शुक (क्रोध), ३. नाक यादवस्त्रियाँ तथा पौर इन्द्रप्रस्थ निकले ही, कि (लोभ), ४. अक्षिसंतर्जन ('मोह ), ५. संतान (मद), इधर द्वारका समुद्र ने निगल ली। इन्द्रप्रस्थ की ओर ६. नर्तक (मान), ७. घोर (मत्सर), ८. आत्यमोदक आते समय, पंचनद देश में अर्जुन ने डेरा डाला । अर्जुन | (अहंकार), (म. उ. ९६) । अर्जुन की उपासना अकेला ही अनेक स्त्रियों को ले कर जा रहा है यह पाणिनी के समय लोक करते थे, ऐसा पाणिनीसूत्रों से ज्ञात देख, वहाँ के आभीर लोगों ने अर्जुन पर आक्रमण किया। होता है (पा. सू. ४.३.९८)। अर्जुन उस समय वृद्ध हो चला था, भाग्य भी बदल गया इसके रथ का नाम नंदिघोष (गरूड, ३.१४५.१६)। था । इससे पहले के समान, धनुष सज्ज कर बाण नही इसने ६५ वर्षों तक गांडीव का उपयोग किया (म. वि. छोड़ सकता था। अस्त्रमंत्र याद नही आ रहे थे, बाण भी | ४७.७)। समाप्त हो गये थे। अंत में, धनुष्य का लाठी के समान २. रैवत मनूका पुत्र (मनु देखिये)। उपयोग कर अर्जुन सब को मारने लगा। इससे कई स्त्रियाँ ३. कार्तवीर्य देखिये। भगाई गई, कई स्वयं भाग गई, तथा बचे हुए परिवार के अर्जुनक-एक लुब्धक । गौतमी नामक ब्राह्मणी का पुत्र साथ बड़ी कठिनाई से अर्जुन इन्द्रप्रस्थ लौट सका (अष्टावक्र | सर्पदंश से मृत होने के कारण, वह शोक कर रही थी । तब ४० Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्जुनक प्राचीन चरित्रकोश अलक्ष्मी इसने उस सर्प को पकड कर लाया, तथा पूछा कि, उसका | प्रकाशित होता है । इसकी ३०० किरणें है (भवि. ब्राह्म. वध किस प्रकार किया जावे। तब, प्राणी कम परतंत्र हैं, कह | १. ७८; भा. १२.११.३४.)। यह अत्रिपुत्र है, इस कर उसने साँप को छोड़ देने को कहा (म. अनु. १)। कथन के लिये, महाभारत छोड़ कर अन्यत्र आधार नही ___ अर्जुनपाल-(सो. यदु.) वसुदेव का अनुज मिलता (म. शां. २०१.९-१०)। शमीक सुदामिनी के दो पुत्र में से एक (भा. ९.२४.४४) २. धर्म तथा मुहूर्ता के पुत्रों में से एक। ___ अर्ण-यदु-तुर्वशो के लिये इंद्र ने चित्ररथ के साथ | अर्यल-यह सर्पसत्र में गृहपति था (पं. ब्रा. २३. सरयु के तट पर इसका वध किया (ऋ. ४. ३०.१८)।। १-५)। अर्थ-स्वायंभुव मन्वन्तर के धर्म तथा बुद्धि का अर्यव-अजव देखिये। पुत्र (भा. ४. १.५१)। अर्ववीर - सावर्णि मनु का पुत्र । अर्थसिद्धि-धर्म तथा साध्या का एक पुत्र | २. स्वारोचिष मनु का पुत्र । इसका नान्मातर और्व । (भा. ६. ६. ७)। ३. पुलह के तीन पुत्रों में से एक (मार्क. ५२)। - अर्धनारीनटेश्वर-ब्रह्मदेव ने प्रजा उत्पन्न करने के अवावसु-रभ्यऋषि के दो पुत्रो म स दूसरा लिये तप प्रारंभ किया। तब शंकर प्रसन्न हुआ, तथा गुणों में उत्तम था (यवक्रीत तथा परावसु देखिये)। इसे ही उसके शरीर में अधनारीनटेश्वर उत्पन्न हुआ (शिव. | सूयमत्रप्रकाशक, रहस्यवदसज्ञक, काठक ब्राह्मण सूर्यमंत्रप्रकाशक, रहस्यवेदसंज्ञक, काठक ब्राह्मण का दर्शन शत. ३) पार्वती की आज्ञानुसार दुर्गाद्वारा महिषासुर | हुआ (म. व. १३९)। इसने पुत्र प्राप्ति के लिये सूर्य की का वध होने के पश्चात् . शंकर संतुष्ट हो कर अरुणाचल | उपासना की । आकाशमार्ग से आ कर, सूर्य ने अरुण के पर तप कर रही पार्वती के पास आया. तथा उसे अपने | द्वारा, इसे सप्तमीकल्प विधि बताया । इससे इसे पुत्र वामांक पर लिया। तब इस प्रेम के कारण. पार्वती शंकर | तथा ऐश्वर्य प्राप्त हुआ (भवि. ब्राह्म. ८०)। के वामांग में ही लीन हो गई। उससे शिव-पार्वती अर्षि-श्रवाऋषि के दो पुत्रों में से ज्येष्ठ (वीतहव्य का वह शरीर आधा शुभ्र, आधा ताम्रछटायक्त, अर्धभाग दखिये)। में चोली, अर्ध में हार, इस प्रकार अर्धनारीनटेश्वर | अर्टिषेण-भृगुकुलोत्पन्न ऋषि (म. श.३९)। इसका दिखने लगा ( स्कंद १.२.३-२१; स्वयंभुव देखिये)। | युधिष्ठिर से संवाद हुआ था (म. व. १५६)। इसका .. अर्धपण्य--अत्रिकुल के गोत्रकार ऋषिगण । | वंशज आर्टिषेण (म. व. १४; देवापि देखिये)। . अर्पिणी-आर्षिणी देखिये। अर्हत-एक राजा | ऋषभ नामक विरक्तं पुरुष दक्षिण अर्बुद-इन्द्र के शत्रु दो असुर । इन्द्र ने इनसे | कर्नाटक के कोकवेंक कुटक देशके कुटकाचल समीप, अरण्य युद्ध कर के, इन पर बर्फ की वर्षा करने से, यह पराभूत | के दावानल में जल कर मृत हुआ। तब यह वहाँ का हो गये। इन्द्र ने अपने वज्र से इसकी हत्या की | राजा था। इसने ऋषभदेव से जैनधर्म का स्वीकार किया (ऋ ८.३२.२६; १०.६७.१२)। | (भा. ५. ६.८.)। अर्बुद कादवेय-यह नागर्षि था। इसने यज्ञ के | अलक्ष्मी-यह कालकूट के बाद समुद्र से निकली। न्यून कैसे सुधारे जाय, तथा सोमरस कैसा निकाला जावे; इसका मुख काला, एवं आँखे लाल थीं। इसके केश पीले इसका ज्ञान बताया (ऐ, ब्रा. ६.१; सां. ब्रा. २९.१)। थे, एवं यह वृद्ध थी। देवताओं ने इसे वरदान दिया कि, सर्पसत्र में यह ग्रावस्तुत था ( पं. बा. २५.१५.)। इन | 'जिस घर में कलह होगा वहाँ तुम रहो। कठोर, असत्य सब स्थानों में उल्लेखित अर्बुद एक ही होगा। बोलनेवाले तथा संध्यासमय भोजन करनेवालों को तुम ताप अर्यमभूति-भद्रशर्मन् का शिष्य (वं. ब्रा. ३)। दो। बिना हाथ मुँह धोये जो भोजन करे, उसे तुम कष्ट दो । अर्यमन्-ऋग्वेद में उल्लखित एक देव । मित्रावरुणों | तुम हड्डिया, कोयला, केश तथा भूसी में रहो, तथा अभक्ष्यके साथ इसका उल्लेख पाया जाता है। आदित्य तथा भक्षक, गुरु, देव, अतिथि इ. का पूजन न करनेवाले, यज्ञ मित्र के समान यह अन्य देवों का स्नेही है । संस्कारों में तथा वेदपाठ न करनेवाले, आपस में कलह करनेवाले इसका उल्लेख प्राप्य है । अन्य देवों के समान यह भी पतिपत्नि तथा द्यूत खेलनेवालों को तुम दरिद्री बना दो।' कश्यप तथा अदिति का पुत्र है। यह द्वादशादित्यों में आगे चल कर, लक्ष्मी का विवाह विष्णु से होने के पहले से एक है। यह पितृगणों में से एक है। यह वैशाख में ही, इसका विवाह उद्धालक नामक ऋषि से कर दिया (पद्म. प्रा. च.६] Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अलक्ष्मी प्राचीन चरित्रकोश अलंबुसा ब्र. ९-१९)। समुद्र में से विषके बाद तथा लक्ष्मी के धारण करनेवाला था। इसका तथा सात्यकी का बड़ा भारी पहले यह उत्पन्न हुई । अतएव इसे ज्येष्ठा कहते हैं। युद्ध हुआ था। अत्यंत संतप्त हो कर इसने सात्यकी पर ___ महाभारत के अनुसार, प्रथम विष, तदनंतर यह कृष्ण- | आक्रमण किया । परंतु सात्यकी ने इसका वध किया रूपधरा ज्येष्ठा, तथा तदनंतर चन्द्र उत्पन्न हुआ (म. अ. (म. द्रो. ११५)। १६.३४ कुं.)। इसका विवाह दुःसह से हुआ। आगे, | २. एक नरभक्षक राक्षस । यह बकासुर का भाई था। दुःसह पाताल में जाने के बाद, यह अकेली ही पृथ्वी पर (म. स्त्री. २६.३७)। इसके भाई का वध भीम ने किया रही (लिंग २.६)। बड़ी का विवाह होने के पहले छोटी था। इस बैर का स्मरण कर, भारतीय युद्ध में पांडवों का का विवाह नहीं हो सकता । इसका विवाह नही हो रहा | नाश करने के लिये, इसने दुर्योधन का पक्ष लिया था। था, इसलिये इसकी कनिष्टं भगिनी लक्ष्मी का विवाह रुक यह काजल के समान काला था (म. द्रो. ८४)। इसका गया। अतः इसका विवाह एक ब्राह्मण के साथ करा दिया। तथा भीम का भयंकर युद्ध हुआ। यह इन्द्र के लिये भी उस ब्राह्मण ने इसका त्याग किया । तब यह एक पीपल | अजेय था। परन्तु शूर सात्यकी ने ऐन्द्रास्त्र की योजना के वृक्ष के नीचे जा कर बैठ गई। हर शनिवार को वहाँ कर, इसे युद्ध से भगा दिया (म. भी. ७७-७८; द्रो. लक्ष्मी अपनी बहन से मिलने आती है । इस लिये, ८४) । इसका तथा अभिमन्यु का एक बड़ा युद्ध हुआ। शनिवार को पीपल लक्ष्मीप्रद, तथा अन्य दिनों में परंतु उसमें इसका ही पराभव हो कर यह भाग गया (म. स्पर्श करने से दारिद्य देनेवाला माना जाता है (सन सुजात- भी. ९६-९७) । अर्जुन के साथ भी इसका यद्ध हुआ था संहितान्तर्गत कार्तिकमा.)। उद्दालक के साथ इसका (म. द्रो. १४२.३४-४१)। अंत में, घटोत्कच के साथ विवाह हुआ था । इसे वैदिक कार्य प्रिय नही था । मद्य, | इसका बड़ा ही मायावी द्वंद्वयुद्ध हुआ, तथा इसकी मृत्यु द्यूत इ. ही अधिक प्रिय था। यह देख कर उद्दालक ने हो गई (म. भी. ४३; द्रो. ८४; क. २)। किर्मीर इसे पीपल के वृक्ष के नीचे बैठाया, तथा स्वयं कहीं चला बकासुर का भाई था (म. व. १२.२२), तथा अलंबुस गया। तब यह ज्येष्ठा रुदन करने लगी। तब लक्ष्मी, विष्णु भी बकासुर का भाई ही था (म. द्रो. ८३.२१-२३; म. के साथ इसका समाचार पूछने आई। विष्णु ने उसे पीपल स्त्री. २६.३७)। इसकी अन्त्येष्टि धर्मराज ने की। -के तने के पास रहने के लिये कहा, तथा बताया कि, जो | ___ अलंबुसा वा अवलंबुसा-एक देवस्त्री। एक बार भी वहाँ तुम्हारी पूजा करेंगे, उन्हें लक्ष्मी प्राप्त होगा ब्रह्मदेव की सभा मे नृत्य करते समय हवा से इसके वस्त्र (पद्म. उ. ११६)। उडे। तब वहाँ उपस्थित अष्टवसुओं में से विधूमा नामक वसू, __ अलंबल-जटासुर का पुत्र । यह एक नरभक्षक | इसे देख कर कामपीडित हआ। तब इन दोनो को ब्रह्मदेव राक्षस था (म. द्रो. १४९.५:७; १९)। इसके पिता का का शाप मिल कर, विधूमा को मनुष्ययोनी के राजकुल में भीम ने नाश किया, इसलिये, यह भारतीय युद्ध में दुर्योधन सहस्रानीक नाम से, तथा अलंबुसा को कृतवर्मा राजा के पक्ष को मिल गया। यह महारथी था तथा मायावी | कुल में मृगवती नाम से जन्म लेना पड़ा । आगे चल कर, युद्ध में कुशल था । इसी युद्ध में, घटोत्कच ने इसका सिर इन दोनों का विवाह हो कर अलंबुसा गर्भवती हई। तब रक्त काट कर, उस सिर को दुर्योधन के रथ में फेक दिया के समान लाल कुएँ में इसके स्नान करने के कारण, एक (म. द्रो. १४९.३२-३६)। पक्षी ने पका फल समझ कर इसे ऊपर उठाया, तथा उँचाई ___ अलंबुषा-कश्यप तथा प्राधा की अप्सरा कन्याओं में पर से उदयाचल पर्वत की गुफा में डाल दिया। उससे से एक । इन्द्र, दधीचि के तप से काफी डरता था । अतः, इसे मूर्छा आ गई । परंतु शीघ्र ही होश में आ कर, यह इन्द्र ने इसे उसके यहां तप भंग करने के लिये भेजा। पतिविरह के कारण शोक करने लगी । इतने में जमदग्नि इससे दधिची से सारस्वत नामक पुत्र हुआ। इसने दिष्टवंश | मुनि ने इसका विलाप सुन कर इसकी सांत्वना की, तथा के बंधुपुत्र तृणबिंदु का वरण किया था, तथा उससे इसे | इसे अपने आश्रम में लाया। कुछ काल बाद यह प्रसूत इड़विड़ा नामक कन्या हुई (भा. ९. २.३१; ब्रह्माण्ड. होकर, इसे उदयन नामक पुत्र हुआ । आगे चल कर, ३. ७. ३५-४०)। सहस्त्रानीक को यह वार्ता मालूम होते ही, उदयाचल पर __अलंबुस-दुर्योधन पक्षीय एक राजा । यह युद्ध से जा कर पुत्र समवेत, उसने इसे राज्य में वापस लाया। कभी भी न भागनेवाला, तथा शरासन एवं सुवर्णकवच तदनंतर उदयन को गद्दी पर बिठा कर, उसने अलंबुसा Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अलंबुसा प्राचीन चरित्रकोश अवधूतेश्वर के साथ चक्रतीर्थ पर स्नान किया। उससे सहस्रानीक | घटोत्कच तथा कर्ण का युद्ध चालू था । कर्ण घटोत्कच के तथा अलंबुसा ब्रह्मशाप से मुक्त हो कर पूर्वस्थिति के प्रत हाथ से आज बच नही सकता, ऐसा प्रतीत होने लगा। गये (स्कन्द, ३.१.५.)। इतने में इसने दुर्योधन से कहा कि, घटोत्कचसहित अलम्म परिजानत-एक आचार्य (माल्य देखिये)। पांडवों का नाश मै करुंगा। दुर्योधन ने हाँ भरते ही यह अलर्क-(सो. क्षत्र.) काशी के दिवोदास राजा का | भीम से युद्ध करने लगा। इसका रथ घटोत्कच के समान प्रपौत्र । इसके पिता का नाम वत्स, प्रतर्दन तथा ऋतध्वज ही शतअश्वों का था । इसने भीम को इतना अधिक प्राप्त है। दिवोदास प्रेम से प्रतर्दन को ही 'वत्स-वत्स' | जर्जर किया कि, कृष्ण ने घटोत्कच को पुकार कर, इसके कहता था। प्रतदन सत्यनिष्ट होने के कारण उसे ऋत- | साथ युद्ध करने के लिये कहा। तब घटोत्कच ने कर्ण से ध्वज ऐसा दूसरा नाम भी था (ह. वं. १.२९, विष्णु. युद्ध करना छोड़ कर, इसके साथ युद्ध प्रारंभ किया। ४.९; भा. ९.१७)। गरुड पुराण के मत मे, दिवोदास उसमें घटोत्कच के द्वारा यह मारा गया (म. द्रो. का पुत्र प्रतर्दन तथा उसका पुत्र ऋतध्वज है (१३९)। १५१-१५३)। इसको बक ज्ञाति (म. द्रो. १५१.३.३३) हरीवश में प्रतर्दन का पुत्र वत्स तथा उसका पुत्र अलर्क | तथा बक का भाई भा कहा है तथा बक का भाई भी कहा है (म. द्रो. १५३.४)। है। इसने काशी म ६६ हजार वर्षों तक राज्य किया (ह. अलाय्य-इसका परशु नष्ट हुवा (ऋ. ९.६७.२०)। वं. १.२९; भा. ९.१७: ब्रह्म. ११)। यह ब्राह्मणों का बड़ा अलि-वारे चिष मन्वन्तर के सप्तर्षियों में सत्कर्ता था तथा अत्यंत सत्यप्रतिज्ञ था। इसने एक बार | से एक। अंध ब्राह्मण को वर मांगने के लिये कहा, तब उसने वर | अलिन--ऋग्वेद में यह शब्द एक बार बहुवचन में मांगा कि, तुम अपनी आखे मुझे दे दो। वचनपूर्ति के | आया है। वहाँ तत्सुओं की गायें भगाई गई. इसलिये लिये इसने अपनी आँखे निकाल कर उसे दे दी (वा. | इन्हें आनंद हुआ है। यह लोग सुदास के विरोधी होने रा.अयो. १२.४३)। लोपामुद्रा की कृपा से यह सदैव चाहिये (ऋ. ७.१८.७)। तरुण रहा, तथा इसका स्वरूप कभी भी नहीं बिगडा। अलिपिंडक-कश्यप तथा कद्र का पुत्र। उसी की कम से इसे दीर्घायुष्य प्राप्त हुआ। निकुंम्भ के अलीकयु वाचस्पत्य--एक यज्ञशास्त्रज्ञ (सां. बा. शाप से निर्मानुष बनी हुई वाराणशी, क्षेमक को मार कर २६. ५:२८.४)। इसने पुनः बसाई (वायु. ९२.६८, ब्रह्माण्ड ३.६७)।। इसने वाराणशी नगरी की पुनः स्थापना की (ह. वं. अलोलुप- धृतराष्ट्र के शतपुत्रों में से एक। अल्पमेधस्--सुमेधस् नामक देवगणों में से एक । इसने प्रथम धनुर्बल से सब पृथ्वी जीती, तथा बाद में अवगाह-(सो. यदु.) मत्स्य के मतानुसार वसुदेव इसका अन्तःकरण सूक्ष्म ब्रह्म की ओर झुका । नाक, कान, | तथा वृकदेवी का पुत्र । मन, जिव्हा इ. इन्द्रिय काबू में रखने के लिये, इसने अवतंस-(सो.) भविष्य के मत में सोमवर्धन का पुत्र नाक कानादिकों से संभाषण किया (म. आश्व.३०.)।। अवत्सार काश्यप-सूक्तदृष्टा (ऋ. ९.५३-६०ः इसे संतति नामक एक पुत्र था ( भा. ९.१४; विष्णु. ४.९; | ऐ. बा. २. २४)। इसे अवत्सार प्राश्रवण कहते हैं वायु. ९२,६६)। (सां. बा. १३.३) । एवावद्, यजत तथा सध्रि के साथ १. २. शत्रुजित्पुत्र ऋतुध्वज से मदालसा को उत्पन्न चौथा। इसका उल्लेख हैं (ऋ. ५. ४४. १०)। पुत्र । इसे मदालसा तथा दत्तात्रेय ने निवृत्तिमार्ग का अवधूतेश्वर-शंकर का एक अवतार । एक बार, शंकर उपदेश कर ज्ञानी बनाया (मार्क. २३-४०)। इसके | के दर्शन के लिये इन्द्र तथा बृहस्पति कैलाश पर्वत पर जा ज्येष्ठ बंधु सुबाहु ने का शिराज की सहायता से इस पर रहे थे। उनकी परीक्षा लेने के लिये, शंकर मार्ग में दिगंबर आक्रमण किया । अत्यंत संकट में रहने पर, माता की | एवं भयंकर रूप लेकर बैठा था। बार बार बता कर भी, न इच्छानुसार त्यागी बन कर इसने अपना राज्य सुबाहु | तो वह मार्ग छोडता था, न ही कुछ बोलता था। अन्त में को दिया ( मार्क. ३४)। इन्द्र ने वज्र बाहर निकाला। उस वज्र का स्तम्भन शंकर । अलायुध---एक मनुष्यभक्षक राक्षस (म. द्रो. ने किया, तथा उसके तृतीय नेत्र से क्रोधाग्नि निकाला। ७१.२७; श. २.३४)। द्रोणयुद्धकाल में रात्रि के समय, बृहस्पति की प्रार्थना से, वह अग्मि अन्त में लवणोदधि में Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अवधूतेश्वर प्राचीन चरित्रकोश अश्मक डाला गया। उससे जालंधर उपन्न हुआ। उसका वध ___ अविज्ञानगति--अनिल देखिये । शंकर ने किया (शिव. शत. ३०)। अविद्ध-- (सो. पूरु.) प्राचीन्वत् का नामान्तर । अवध्य-प्रतर्दन नामक देवगणों में से एक। अविध्य-लंका का एक वृद्ध राक्षस | सीता रामचंद्र अवरात-प्रतर्दन नामक देवगणों में से एक । को वापस देने को इसने रावण से कहा (वा. रा. सुं. अवरीयस्-सावर्णि मनु का पुत्र ३७)। यह राम का कुशल वृत्त लिवा कर, त्रिजटा के अवरोधन-(स्वा.) गय राजा को गयंती से उत्पन्न | द्वारा सीता को सूचित करता था। (म. व. २८०) पुत्र। ___ अविन्द्र--(सो. पूरु.) वायु के मत में जनमेजय और पुत्र। अवस्यु आत्रेय--सूक्तद्रष्टा (ऋ. ५. ३१, ७५)। अविहोत्र--अत्रिकुल का एक मंत्रकर्ता । अविकंपन-एक ब्राह्मण । यह ज्येष्ठ ऋषी का शिष्य अव्यय-रोच्य मन्वन्तर के सप्तर्षियों में से एक । था। २. रोच्य मनु का पुत्र। अविक्षित्-(सू. दिष्ट.) करंधमपुत्र (आविक्षित)। इसने सौ अश्वमेध किये तथा स्वयं बृहस्पती ने इसका ३. बारह भार्गव देवों में से एक (भृगु देखिये)। याजन किया । इसको स्वयंवर से प्राप्त हेमधर्मकन्या वरा, अशना--बली की पत्नी (भा. ६.१८)। . सुदेवकन्या गौरी, बलिकन्या सुभद्रा, वीरकन्या लीलावती, अशनिप्रभ--रावणपक्ष का एक राक्षस । इसे युद्ध में वीरभद्रकन्या विभा, भीमकन्या मान्यवती तथा दंभकन्या द्विविद वानर ने मारा ( वा. रा. यु. ४३.३४) .. कुमुद्धती नामक पत्नियाँ थी (मार्क. ११९. १६-१७)। अशोक-अकोप प्रधान का नाम (वा. रा. यु. १२९ | म. आ. ६१.१४)। विशाल की कन्या वैशालिनी भी इसकी पत्नी थी।। इसने वैशालिनी के स्वयंवर में अन्य राजाओं का पराभव २. दुर्योधन के पक्ष का एक राजा । यह पहले. अश्व किया, तथा वैशालिनी को ले कर यह चला गया । नामक राक्षस था (म. आ. ६१.१४)। यह कलिंग में चित्रांगदकन्या के स्वयंवर में उपस्थित था (म. शां. ४. पश्चात् अन्य राजाओं ने मिल कर इसका पराजय कर के, इसको बंदीवान कर दिया । अन्त में इसका पिता करंधम ने सबका पराजय कर के, इसको मुक्त किया, तथा इसका ____३. (विशोक) भीमसेन का सारथि (म. भी. ६०. ८)। बैशालिनी के साथ विवाह हुआ। ४. (मौर्य. भविष्य.) वायु तथा ब्रह्माण्ड के मताइसका पुत्र मरुत्त (म. आश्व. ४)। सर्पो ने कई नुसार, भद्रसार का पुत्र | परंतु भागवत तथा विष्णु पुराण ऋषिपुत्रों को मार डाला तब मरुत्त सर्प-संहार के लिये में, अशोकवर्धन नाम दिया है, तथा पहले में इसे वारिसार उद्युक्त हुआ। इस समय इसने अपने पत्नी के साथ का, एवं दूसरे में बिंदुसार का पुत्र कहा है। पट्टन के वहाँ जा कर, पुत्र को इस कार्य से निवृत्त किया। सों को | कश्यपकुल के बिंदुसार राजा का पुत्र। यह बौद्धधर्मीय बचा कर अभय दिया। सपों ने भी उन मृत ऋषिपुत्रों था । बौद्ध धर्म के प्रसार के लिये इसने पर्याप्त प्रयत्न को पुनः जीवित किया (मार्क. ११९.१६-१७,१२८)। किये । यह अत्यंत पराक्रमी था (भवि. प्रति. २.७)। २. (सो.) कुरुपुत्र । इसकी माता का नाम वाहिनी ।। अशोकवर्धन--अशोक (४.) देखिये । इसे आठ पुत्र थे। वे इस प्रकार है-१. परीक्षित् प्रकार ह-१. पराक्षित् | अशोकसुन्दरी--पार्वती की कन्या (पार्वती (अश्ववत् ), २. शबलाश्व, ३. अभिराज, ४. विराज, देखिये)। इसने हंड दैत्य को शाप दिया था (हुंड ५. शल्मल, ६. उच्चैःश्रवस, ७. भद्रकार, ८. जितारि देखिये)। इसका विवाह नहुष के साथ हुआ ( पद्म. (म. आ. ८९. ४५-४६)। इसके अश्ववान् तथा । (म. जी. ८. ०1०५। ३० अवमान तथा भू.१०२-११७)। अभिष्वत नाम भी प्रसिद्ध हैं (कुरु देखिये)। अश्मक-(सू. इ.) अश्मा का अर्थ है पत्थर । ३. लीलावती (४.) देखिये। | उसने इसे उत्पन्न किया, अतएक इसका यह नाम प्रचअविज्ञात--(स्वा. प्रिय.) यज्ञबाहु के सात पुत्रों | लित हुआ। यह कल्माषपाद नाम से प्रसिद्ध, मित्रसह में से कनिष्ठ । इसका वर्ष इसीके नाम से प्रसिद्ध है। राजा का पुत्र है (वायु. ८८.१७५-१७७; ब्रह्माण्ड. ३. पुरंजन का यह मित्र था। (भा. ४.२५, ४.२९)। । ६३. १७५-१७७; विष्णु. ४.४.३८)। कल्माषपाद राजा Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अश्मक प्राचीन चरित्रकोश अश्वत्थामन् एक ब्राह्मण के शाप के कारण, स्त्रीसमागम नही कर । २. बुलिल का पितृनाम । सायण के मतानुसार, सकता था। परंतु इक्ष्वाकु कुल की वृद्धि आवश्यक | बुलिल अश्व का लडका तथा अश्वतर का वंशज है। समझ कर, कल्माषपाद ने वशिष्ठ ऋषि से कह कर, उससे | सत्र के कुछ शंसनों के संबंध में गौश्ल के साथ इसका अपने मदयंती नामक पत्नी के उदर में गर्भस्थापना | संवाद हुआ (ऐ. ब्रा. ६.३०.)। करवाई (म. आ. ११३)। बारह वर्ष होने पर भी, यह | अश्वत्थामन्–सप्तचिरंजीवों में से एक । द्रोणाचार्य गर्भ बाहर नही आया। तब मदयंती ने अश्मप्रहार से | तथा गौतमी कृपी का यह एकमेव पुत्रा था । जन्म लेते ही उदरविदारण कर के इसे बाहर निकाला (म. आ. १६७. | उच्चैःश्रवा अश्व के समान जोर से चिल्ला कर, इसने तीनों ६८)। सात वर्षों के बाद, अश्मप्रहार कर वशिष्ठ ने इसे | लोक कंपित किये। अतः आकाशवाणी ने इसका नाम बाहर निकाला (भा. ९.९.३९) । इसने पौदन्य नामक | अश्वत्थामा रखा (म. आ. १६७. २९; द्रो. १६७. नगर बसायां (म. आ. १६८.२५)। इसे मूलक नामक | २९-३०)। टोणाचार्य का पुत्र होने से, इसे द्रोणि वा पुत्र था, जिसे आगे चल कर, नारीकवच नाम प्राप्त | द्रोणायन कहते हैं। रुद्र के अंश से उत्पत्ति होने के हुआ (भा. ९.९)। . कारण, इसमें क्रोध तथा तेज था। २. एक राजा । कर्ण ने इसे जीत कर इससे कर वसूल एक बार, एक धनिक के घरमें उसके पुत्र को गाय किया था (म. क. ८.२०)। भारतीय युद्ध में यह पांडवों | | का दूध पीते इसने देखा । मुझे भी दूध चाहिए, ऐसा हठ के पक्ष में था (म. द्रो. ६१)। यह करने लगा। उसे संतोष दिलाने के लिये, इसकी . ३. भीष्म शरपंजर पर पड़ा था, तब उसके पास रहने- | माता ने यवपिष्ठ में पानी घोल कर इसे पीने को दिया। वाला एक ब्राह्मण । उससे, 'मैंने दूध पिया,' कह कर यह आनंद से नाचने ४. अदमक देश का राजा (म. स. २८.३०७६) यह | लगा (म. आ. परि. १.७५; द्रोण देखिये)। कौरवों के पक्ष में था। व्यूहभेद करने के पश्चात् , अभिमन्यु | अश्वत्थामा को शस्त्रास्त्रविद्या की शिक्षा, कौरव-पांडवों के ने इसका वध किया (म. द्रो. ३६.२३)। साथ ही द्रोणाचार्य के द्वारा मिली । जाति से ब्राह्मण होते - अश्मकी-तीसरे शूर की पत्नी।। हुए भी, क्षत्रिय की विद्या सीखने के कारण इसमें क्षत्रिय: २. प्राचिन्वत् की पत्नी (म. आ. ९०. ३३)। धर्म अधिक था। यह द्रौपदीस्वयंवर में (म. आ. १७७. आश्माकी भी पाठ है। ६.), तथा राजसूय में उपस्थित था (म.स. ३१.८)। - अश्मन्-एक ब्राह्मण । इसका जनक के साथ सुखदुःखनिवृत्ति पर संभाषण हुआ था (म. शां. २८)। ___ भारतीय युद्ध में सब सेनापतियों का पतन होने के . अश्मरथ्य-विश्वामित्रकुल का एक गोत्रकार । पश्चात् , भीम तथा दुर्योधन में गदायुद्ध हो कर, दुर्योधन अश्व-कश्या तथा दनु के पुत्रों में से एक। उस में घायल हुआ। तब उसने अश्वत्थामा को सेनापत्य २. सत्य नामक देवगणों में से एक। का अभिषेक किया। उस समय इसने पांडवों का वध ३. कश्यप तथा खशा का पुत्र । करने की प्रतिज्ञा की (म. श. ६४.३५)। इसने अकेले अश्वकेतु-दुर्योधन पक्षीय मगध देशोत्पन्न राजा।। ही पांडवों की एक अक्षौहिणी सेना का संहार किया। अभिमन्यु ने इसका वध किया (म. द्रो. ४७.७)। अर्जुन तथा भीम के साथ यह काफी देर तक लड़ा। अश्वकंद-अमृत-रक्षक एक देव (म. आ. २८. | अंतमें इसका पराभव हुआ (म. वि. ५३-५४; क. १८)। ११, १२)। अश्वग्रीव--(सो. वृष्णि.) चित्रक राजा का पुत्र। । | अश्वत्थामा पांडवों को प्रिय था, एवं पांडव भी उसे प्रिय 'अश्वचक्र-कृष्णपुत्र सांब द्वारा मारा गया एक राजा | थे। तथापि, 'तुम पांडवों के पक्षपाती हो,' ऐसा दुर्योधन (म. व. १२०.१३)। द्वारा वाक्ताडन होने पर, उसे उत्तर दे कर, इसने द्रोणअश्वजित-(सो. पूरु.) जयद्रथ का पुत्र । पुत्र को शोभा दे ऐसा पराक्रम किया, तथा पांडवसेना अश्वतर-- कद्र पुत्र ( उर्ज देखिये)। मदालसा की | का संहार किया (म. द्रो. १३५)। मृत्यु के पश्चात् , दुसरी मदालसा प्राप्त कर, इसने ऋतध्वज | द्रोण का वध धृष्टद्युम्न द्वारा होने के पश्चात् , जब को दी। | कौरव सेना हाहाःकार मचाती हुई चारों ओर भागने लगी, ४५ Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अश्वत्थामन् प्राचीन चरित्रकोश अश्वथ तब अश्वत्थामा ने कौरवेश्वर से, 'किसका वध होने से यह इतना कर के, इस घटना कथन करने के लिये, यह सेना अस्तव्यस्त हो कर दौड रही है, ऐसे पूछा (म. द्रो. कृतवर्मा तथा कृपाचार्य के साथ उस स्थान पर गया, १६५)। धृष्टद्युम्न ने अधर्म से अपने पिता का वध किया, | जहाँ दुर्योधन घायल हो कर तड़प रहा था। भारतीय यह ज्ञात होते ही अश्वत्थामा ने, धृष्टद्युम्न को मारने की युद्ध के संपूर्ण सेना में, केवल पांच पांडव, श्रीकृष्ण तथा प्रतिज्ञा की (म. क. ४२)। पितृवध से संतप्त अश्वत्थामा हम तीनों ही जीवित हैं, बाकी संपूर्ण सेना का संहार ने सात्यकी, धृष्टद्युम्न, भीमसेन इ. रथीवीरों का पराभव हो गया, यह सुनकर राजा दुर्योधन ने सुख से प्राण कर के उन्हें भगा दिया । द्रोणाचार्य के वध से पश्चात् , | छोडे (म. सौ. ९)। नीलवीर ने कौरवसेना का विध्वंस प्रारंभ किया, तब अश्व- द्रौपदी के सब पुत्रों का वध अश्वत्यामा द्वारा किये स्थामा ने उसका सिर काट दिया (म. द्रो. ३०.२७)। जाने के कारण, उसने अत्यंत शोक किया। अश्वत्थामा पांडवसेना पर इसके द्वारा छोडे गये नारायणास्त्र ने अति- | के मस्तक का मणि निकाल कर युधिष्टिर के मस्तकपर संहार प्रारंभ करने पर, भगवान कृष्ण ने सब को निःशस्त्र देखेंगी, तो ही मै जीवित रहूंगी, ऐसी प्रतिज्ञा उसने की । होने के लिये कहा । तब वह अस्त्र शांत हुआ (म. द्रो. उसकी पूर्ति के लिये भीमसेन ने अश्वत्थामा पर आक्रमण १७०-१७१)। इसने पांडवपक्ष के अंजनपर्वादि राक्षस, किया (म. सौ. ११)। व्यासादि ऋषिसमुदाय में, द्रुपद राजा के सुरथ, शत्रुजय ये पुत्र तथा कुंतिभोज राजा अश्वत्थामा धूल से भरा हुआ उसने देखा । अश्वत्थामा के के दस पुत्रों का तथा घटोत्कच का वध किया (म. द्रो. अस्त्रप्रभाव के सामने भीम का कुछ नही चलेगा, ऐसा १३१.१२६-१३१)। सोच कर, कृष्ण अर्जुनसमवेत भीम का सहायता सब कौरवों की मृत्यु के पश्चात् , एक बार रात्रि के | के लिये निकला। पांडवों के नाश के लिये, अश्वत्थामा ने समय, अश्वत्थामा, कृपाचार्य तथा कृतवर्मा यह तीनों ब्रह्मशीर नामक अस्त्र छोडा। उससे पृथ्वी जलने लगी। विश्रांति के लिये वृक्ष के नीचे लेटे थे। क्या किया उसा अस्त्र का प्रतिकार करने के लिये, अर्जुन ने भी वही जावे, यह अश्वत्थामा सोच रहा था । इतने में एक उल्लू अस्त्र छोड़ा। इन दोनों के युद्ध में पृथ्वी का कहीं नाश ने छापा मार कर, उस वृक्ष के असंख्य कौएं मार डाले। न हो जाये, यह सोच कर, व्यासादि मुनियों ने इस उस घटना से. एक नयी चाल इसने सोंची, तथा पांडवों | अविचार के लिये अश्वत्थामा को डॉट लगाई, तथा की सेना पर रात्रि के समय छापा मारने का निश्चय मस्तक का दिव्यमणि पांडवों को दे कर शरण जाने के इसने किया । इस विचार से इसे परावृत्त करने का काफी लिये कहा। इसने मणि दिया, परंतु उत्तरा के उदर में उपदेश करवर्मा तथा कपाचार्य किया, परंतु उनका न | स्थित पांडव वंश का नाश करके ही अपना अस्त्र शांत सुनते हुए, अश्वत्थामा अकेला ही छापा डालने के लिये होगा, ऐसा जबाब दिया । तब कृष्ण ने उसे शाप दिया निकल पड़ा (म. सौ. ५)। पांडवों के शिबिरद्वार के | कि, पीप तथा रक्त से भरा दूषित शरीर ले कर, तीन पास आते ही, इसने शिबिर की रक्षा करनेवाला एक हजार वर्षों तक मूकभाव से यह अरण्यों में घूमेगा।। भयंकर प्राणी देखा । उससे इसने युद्ध आरंभ किया। उत्तरा के गर्भ को कृष्ण ने 'जीवित किया (म. सौ. अश्वत्थामा के किसी भी शस्त्रास्त्र का प्रयोग इस प्राणी १३-१६; भा. १.७.१६)। पर नही हुआ । इसके सब शस्त्र समाप्त हो गए। तब यह शंकर का अवतार हो कर चिरंजीव है, तथा गंगा निरुपाय हो कर, अश्वत्थामा उस शूलपाणि शंकर की | के तट पर रहता है (शिव. शत. ३७)। शरण में गया (म. सौ. ६)। शंकर की स्तुति करने के यह सावर्णि मन्वन्तर के सप्तर्षियों में एक होगा पश्चात्, इसने अग्नि में स्वयं अपनी आहुती दी। इससे | (मनु देखिये)। यही व्यास भी होगा (व्यास शंकर प्रसन्न हो कर, उन्होंने इसे दर्शन दिये, तथा इसे | देखिये)। दिव्य खड़ग् दे कर इसके शरीर में प्रवेश किया। २. अऋर के पुत्रों में से एक । (म. सौ. ७)। रात्रि में ही, इसने पांडवों के हजारों अश्वथ-ऋग्वेद के दानस्तुती में, पायु को दान देनेवाला सैनिक, द्रौपदी के सब पुत्र, तथा पांचाल, सूत, सोम, | ऐसा इसका उल्लेख है (ऋ. ६.४७.२२-२४) । अश्वथ, धृष्टद्युम्न, शिखंडी आदि अनेक वीरों का नाश किया दिवोदास तथा अतिथिग्व, ये प्रस्तोक के ही अन्य नाम (म. सौ. ८)। [ है, ऐसा सायणाचार्य कहते है। Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अश्वपति प्राचीन चरित्रकोश अश्वि अश्वपति-कश्यप तथा दनु के पुत्रों में से एक। अश्वपेज-वेद की शाखा प्रारंभ करनेवाला ( पाणिनी २. मद्र दश का राजा । इसे मालवी नामक पत्नी थी। देखिये)। इसकी अनेक पत्नीयों मे से वह ज्येष्ठा थी । इसने सावित्री अश्वपेय-वेद की शाखा प्रारंभ करनेवाला (पाणिनी देवी की पराशरोक्तः गायत्री मंत्र से आराधना की, तथा / देखिये)। आराधना के पश्चात का हवन करते समय, सावित्री अग्नि अश्वमित्र गोभिल-वरुणमित्र गोभिल का शिष्य में से प्रगट हुई । उसने इसे वरदान दिया कि, दोनों (वं. बा.३)। ( ससुराल तथा मायका) कुलों का उद्धार करनेवाली कन्या अवमेध-व्यरुणक तुम्हें होगी। उस वर के अनुसार इस सावित्री नामक एक (ऋ५.२७.४-६)। कन्या हुई । इसी सावित्री द्वारा यम से मांग गये वर के अश्वमेध भारत-सूक्तद्रष्टा (३.५.२७) । अनुसार इन सौ पुत्र हए ( ब्रह्मवैवर्त. २.२३; म. आर. ! अश्वमेधज (सो. पुरु.) सहस्त्रानीक राजा का पुत्र । २७७: सावित्री देखिये)। | इसका पुत्र असीमकृष्ण (भा. ९.२२.३९)। अश्वपति कैकय-एक आत्मज्ञानी पुरुष । प्राचीन अश्वमेधदत्त-(सो. कुरु.) शतानीक का पुत्र तथा शालादि कोई विद्वान पुरुष आत्मा के संबंध में जब विचार जनमेज्य का पौत्र । इसकी माता वैदेही (म. आ. ९०. कर रहे थे, तब उन्हें कुछ निश्चय नहीं बन रहा था। नहीं बन रहा था। ९५)। यह अधिसोमकृष्ण हो सकता है। इसे आत्मज मान कर वे इसके पास आये। उसने इनका ___ अश्वयु-अंगिरकुल का एक गोत्रकार । यथायोग्य नत्कार किया तथा दूसरे दिन यह उन्हें दक्षिणा । अश्वरथ-विश्वामित्र गोत्र का एक प्रवर। देने लगा । वह उन्होंने अमान्य कर दी। तब इसे ऐसा अश्वल-वैदेह जनक का होता । वैदेह जनक ने बड़ा लगा कि, इस में कुछ दोप होगा, तभी उन्होनें दक्षिणा यज्ञ किया, तथा काफी दक्षिणा भी रखी। उपस्थित ऋषियों . अमान्य कर दी। तब इसने अपने राज्य की स्थिति का | में, याज्ञवल्क्य सर्वश्रेष्ठ इसलिये जब आगे बढे, तब इसने 'नमे स्तेनो जनपदे, न कदया-न मद्यपो, नानाहितामिनी उसे कुछ प्रश्न पूछ कर रोकने का प्रयत्न किया। परंतु याज्ञ. • विद्वान, न स्वैरी, स्वेरिणी कुतः', इस प्रकार कथन किया। वल्क्य ने इसे चुप कर दिया (बृ. उ. ३.१.२; १०)। आये हुए लोगों ने कहा कि, हम दक्षिण के लिये नही, वैश्वानर आत्मा का ज्ञान पाने के लिये आये है। तब इसने अश्ववत्-(सी. कुरु.) अविक्षित् (२..) देखिये। उन्हें ज्ञान दिया (श. ब्रा. १०.६.१.२; छा. उ. ५.११; अश्वशंकु-कश्यप तथा दनु का पुत्र । ४; मै. उ. १.४)। अश्वसूक्ति काण्वायन-सूक्तद्रष्टा (ऋ.८.१४-१५) तथा सामद्रष्टा (पं. वा. १८.४.१०)। २. केकय देश का राजा । इसकी पत्नी बड़ी साहसी २. फक्य दश का राजा । इसका पत्ना बडा साहसा अश्वसेन-तक्षक का पुत्र। अर्जुन ने जब खांडववन थी । वह किसी भी चीज की चिंता नही करती थी। एक जलाया, तब तक्षक वहाँ नही था। इसकी माता ने इसे ऋषि के द्वारा दिये गये वर के अनुसार इसे पक्षियो की मुँह में पकड़ कर, कूद कर बाहर निकलने का प्रयत्न भाषा समझती थी। एक बार. जंभ पक्षियों के जोडे की बातें किया । तब अर्जुन ने इसकी माँ का सिर काट डाला । सुन कर इसे हंसी आ गई । इसकी पत्नी ने हँसने का परंतु वेगवान् वायु के कारण यह दूर जा कर गिरा तथा .कारण पूछ' । इसने कहा कि, कारण इतना भयंकर है कि | बच गया (म. आ. २१८.९; २२०.४०; ६०.३५)। उसे बताते ही मेरी मृत्यु हो जायेगी । कारण इतना भयंकर | अर्जन से बदला लेने के लिये, इसने कर्ण के बाण पर होते हार भी, उसकी पत्नी ने उसे बताने की जिद की।। आरोहण किया । यह जान कर, कृष्ण ने रथ ऐसा दबाया तब इसने वरदान देने वाले ऋषि को यह बात बताई।। कि, अश्व घुटनों पर बैठ गये। अतः बाण ग्रीवा पर न लग ऋषि ने उससे कहा कि, तुम अपनी पत्नी को भगा दो।। कर मुकुट पर लगा, तथा मुकुट के टुकडे हो गये। पश्चात इसने तत्काल वैसा ही किया। अर्जुन ने इसे मार डाला (म. क. ६६)। इसे युधा जित् तथा कैकयी नामक दो पुत्र थे । इसमें अश्वायु-(सो.) मत्स्य के मतानुसार यह पुरुरवा से, युधाजित भरत का मातुल था । अश्वपति नाम, उपनाम | पुत्र है । के समान भी लगाया जाता था ( वा. रा. अयो. १.२)।। अश्वि -धर्म त का पुत्र। Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अश्विन प्राचीन चरित्रकोश अश्विनीसुत अश्विन् – वैवस्वत मन्वन्तर का एक देव ( अश्विनी से उत्पन्न हुई, यह दीक्षितजी का कथन सब को मान्य होने कुमार देखिये )। लायक है ( भारतीय ज्यो . पा. ६५ ) । अश्विन - सोम की सत्ताइस पत्नीयों में से एक । २. अक्रूर की पत्नीयों में से एक । । अश्विनीकुमार एक ही नाम से पहचानी जाने बाली, थानीय दो देवता ऋग्वेद में इनके वर्णन पर लगभग पचास सूक्त हैं। ये जुड़वाँ भाई हैं तथा कभी एक दूसरे से विलग नहीं होते (ऋ. १.३९.१ ) | ये सरव्यू से प्रभातसमय में उत्पन्न हुए (ऋ. १०.१७.२ ) । परंतु इन दोनोंका जन्म अल्ला' हुआ ऐसा भी उल्लेख है। एक निशा का, तथा दूसरा उषा का पुत्र था ( नि. १२.२ ) । इनके उदय का समय, उषा तथा सूर्योदय के बीच में है (८.५.२ ) । द्विवचन में आनेवाला नासत्य शब्द एकवचन में आया है (ऋ. ४.२.६) । ये तरुण हैं तथा देवों से छोटे हैं (ऋ. ७.६७७१० ते सं. ७.२.७ ) । इनका रथ सुनहला है, तथा उसे पहिये, बैठक तथा धुरियाँ प्रत्येक तीन तीन हैं (ऋ. १.११८.११ २.१८०.१ )। सूर्या के विवाह समारोह में जब ये आये थे, तब इनके रथ का एक चक्र टूट गया (ऋ. १०.८५.१५)। इनके रथ को श्वेन (ऋ. १.११८.१), गरुड़ ( ४ ), हंस (ऋ. ४.४५.४), तथा कुछ स्थानों पर केवल पक्षी जोडे जाने का निर्देश है ( ६.६३.६ ) सोम तथा सूर्या के विवाह प्रसंग में, इनके रथ को रासभ जोडे थे ( ऐ. ब्रा. ४.४ - ९ ) इनका रथ एक दिन में पृथ्वी तथा स्वर्ग आक्रमता है (ऋ. ३.५८.८ ) । इनका वासस्थान द्यु तथा पृथ्वी (ऋ. १. ४४.५), यी तथा अंतरिक्ष (ऋ. ८.८०४), वृक्ष तथा गिरिगव्हर, दिया है (ऋ. ७.७०.३ ) । इनका स्थान अशात ६.६२.१३ ८.६२.४ ) । सूर्यकन्या सूर्या के ये पति है (ऋ. १.११७.१६ ४.४३.६ ) । ये लोगों को संकटमुक्त करते हैं ( अत्रि, घोषा, भुज्यु तथा वंदन देखिये) । परंतु स्त्रियों को पुत्र देना (ऋ. १.११२.२ १०. १८४.२ ) वृद्धों को तरुण बनाना (ऋ. १.११९.७) आदि कथाएं भी प्रचलित है । अथर्ववेद में, प्रेमी युगुलों को मिलाना इ. विषय में भी इनकी प्रख्याति है (अ. वे. २.३०.२)। इसके अतिरिक्त, ये अंध, पंगु तथा रोगग्रस्तों को ठीक करनेवाले (ऋ. १०.३९.३), देवताओं के धन्वन्तरि तथा मृत्यु को टालनेवाले है (ऋ.८.१८.८३ . बा. २.१.२.११) । इन्होंने विश्पता को लोहे का पैर लगाया है. आख्यायिकाये हैं दधीच, भृत्य, कवि तथा विमद देखिये) । अश्वीदेवों की कल्पना गुरुशुक्र के सानिध्य | हमारे वैदिक पूर्वज उत्तर ध्रुव प्रदेश में जब रहते थे, तब उनके द्वारा अवलोकन किये गये दो दृश्य- जिन्हें अंग्रेजी में Astronomical and meterological light या Aurora Borealis कहते है, उन्हीका रूप कात्मक दर्शन अश्विनीकुमारों के प्रतीकों में किया गया है, ऐसा श्री. वडेर का कहना है। संज्ञा जब अधरूप में संचार कर रही थी, तब उसे विवस्वान से अश्विनीकुमार हुए अपनी पत्नी अश्विनी है, यह देख विवस्वान ने अश्वरूप में उससे सहवास किया । परंतु संज्ञा ने उसे परपुरुष समझ कर, उस वीयं को नासापुटों द्वारा त्याग दिया। अश्विनीकुमारों को नासत्य ऐसा भी नामांतर हैं ( म. आ. ६०.२४ भा. ६.६.४० ) इनमें से बड़े को नाम नासत्य, तथा छोटे का नाम दस है (म. अनु. १५०) । देवों के वैद्य, तथा वैवस्वत मन्वन्तर के देव हैं (भा. ८.१३.४; मनु देखिये) । देवों में यह शूद्र हैं ( म. शां. २०७.२६ कुं) । ये " उपमन्यु ने अपना गुरु आपोद धौम्य की आज्ञा से, दृष्टिप्रात्यर्थ इनकी स्तुति की। इस स्तुति से तथा गुरु के प्रति उसकी निष्ठा से संतुष्ट हो कर इन्होंने उसे दृष्टि दी ( म. आ. ३.७५ ) । एक बार, जब ये च्यवनाश्रम में आये थे, तब इन्हें यज्ञ में हविर्भाग प्राप्त कर देने का मान्य कर, च्यवन ने इससे तारुण्य प्राप्त करा लिया (म. व. १२३. भा. ९. ३. २३ - २६ ) । माद्री ने पांडू की आज्ञा से, इनसे आवाहन कर दो पुत्र प्राप्त कर लिये । वे ही नकुल तथा सहदेव हैं (म. आ. ९०.७२ ११५.१६१७) । ये शिशुमारचक्र के स्तन पर है (मा. ५.२३.७१ अश्विनीसुत देखिये) । २. भास्करसंहिता के चिकित्सासारतंत्र नामक प्रकरण का कर्ता (ब्रह्मवे. २.१६ ) । अश्विनीसुत - सुतपस् भारद्वाज का पुत्र । सुतपस् की पत्नी जब तीर्थयात्रा कर रही थी, तब बलात्कार द्वारा सूर्य से उसे अश्विनीसुत नामक सुन्दर पुत्र हुआ। घर आ कर, यह बात उसने पति को बताई । तब उसने इन दोनों का त्याग किया। वह स्त्री गोदावरी नदी बनी। सूर्य ने इसे मंत्रतंत्र तथा ज्योतिष पढाया, अतः यह ज्योतिषी बना। परंतु आगे सुतप ने इन दोनों को शाप दिया की, तुम रोगी तथा यज्ञभागरहित बनोगे। आगे चलकर, ૪૮ Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अश्विनीसुत प्राचीन चरित्रकोश अष्टावक्र सूर्य की स्तुति करने पर यह रोगरहित तथा यज्ञ में भाग | अष्टादंष्ट्र वैरुप-सूक्तद्रष्टा (ऋ. १०.१११) तथा प्राप्त करनेवाला हुआ (ब्रह्मवै. १.१०-११)। अश्विनी- | सामद्रष्टा (पं. बा. ८.९.२१)। कुमारों से यह कथा मिलती जुलती है। अष्टारथ-दिवोदास (२.) देखिये । अश्व्य-वश देखिये। अष्टावक्र-कहोल का पुत्र । उद्दालक के सुजाता अषाढ उत्तर पाराशर्य-एक आचार्य (जै. उ. | नामक कन्या का पुत्र, तथा श्वेतकेतु का मामा (म. ब्रा. ३.४१.१)। व. १३८)। कहोल के द्वारा निरंतर किये जानेवाले अषाढ कैशिन-कुंति देश ने पांचालदेश का परा- | अध्ययन का इसने गर्भवास में ही मज़ाक उड़ाया । तब, भव किया, उस संबंध में इसका उल्लेख है (क. सं. शिष्य के समक्ष तुमने मेरा अपमान किया, इसलिये आठ २६.९)। . स्थानों पर तुम टेढे रहोगे, ऐसा शाप कहोल ने इसे दिया । अषाढ सावयस-एक ऋषि । यज्ञ करते समय, कुछ दिनों के पश्चात् , दशम मास लगने के कारण सुजाता यजमान ने यज्ञ के पूर्व दिन अनशन व्रत करना चाहिये, का प्रसवकाल निकट आ गया। आवश्यक धन न होने ऐसा इसका मत है। क्यों कि, आनेवाले देवताओं के कारण, कहोल जनक के पास धनप्राप्ति के लिये गया। को हवि देने के पहले खाना अयोग्य है (श. ब्रा. परंतु वहाँ, वरुणपुत्र बंदी ने कहोल को वादविवाद में १.१.१.७)। जीत कर, वहाँ के नियमानुमार पानी में डुबो दिया। .. अषाढि सौश्रीमतेय-यज्ञकुंड में ईंटें लगाने के उद्दालक की इच्छानुसार, यह बात गुप्त रख ने का सब ने निश्चय किया। जन्म के बाद, अष्टावक्र उद्दालक को ही लिये अयोग्य पद्धति का स्वीकार किये जाने के कारण, अपना पिता तथा श्वेतकेतु को भाई समझता था। इसकी मृत्यु हो गई (श. बा. ६.२.१.३७)। बारह वर्ष का होने के पश्चात् , एक दिन सहजभाव से अष्टक वैश्वामित्र-सूक्तद्रष्टा (ऋ. १०.१०४ )। यह उद्दालक की गोदमें बैठा था। तब, यह तुम्हारे बाप . विश्वामित्र का पुत्र (ऐ. ब्रा. ७.१७. सा. श्री. सू. १५. की गोदी नही है,-कह कर श्वेतकेतु ने इसका अपमान २६)। विश्वामित्र ऋषि को माधवी से उत्पन्न पुत्र किया। तब पूछने पर सुजाता ने इसे पूरी जानकारी दी। (म. उ. १.१७.१७-१९)। यह बड़ा विद्वान् था। एक तदनंतर, श्वेतकेतु के साथ यह जनक के यज्ञ की ओर बार, अपने प्रतर्दन, वसुमनस् तथा शिबि इन तीन बंधुओं गया। वहाँ प्रवेश के लिये बाधा आई। द्वारपाल से के साथ, जब यह रथ में बैठ कर जा रहा था, तब मार्ग सयुक्तिक भाषण कर के इसने सभा में प्रवेश प्राप्त किया, में नारद इसे मिले। इसने उन्हें रथ में बिठाया तथा पूछा तथा वहाँ बंदी को वाद का आव्हान कर के उसे पराजित कि, हम चारों में से सबसे पहले किसका पतन होगा, किया। बंदी ने जिस जिस व्यक्ति को बाद में जीत कर यह बताओ। तब नारद ने कहा कि, यद्यपि तुमने बहुत पानी में डुबोया था, वे सब वरुण के घर के द्वादश वार्षिक .गोप्रदान किये हैं, तथापि उसका तुम्हें अभिमान होने सत्र में गये थे। वे सब वापस आ रहे है, ऐसा कह कर के कारण, तुम्हारा ही पतन पहले होगा (म. व. इसने सब को वापस लाया। कहोल तथा अष्टावक्र का १९८)। मिलन हुआ। तथापि अन्त में, बंदी को जनक ने सागर में इसका पितामह तथा माधवी का- पिता ययाति डुबो ही दिया (म. व. १३४)। उपरोक्त अष्टावक्र की आत्मश्लाघा के कारण, स्वर्ग से पतित हुआ। तब इसने कथा, लोमश ने युधिष्ठिर को श्वेतकेतु के आश्रम में उससे इसलोक तथा परलोक के संबंध में, अनेक प्रश्न बताई है। कहोल ने समंगा नदी में स्नान करने को बता पूछ कर ज्ञान प्राप्त किया, तथा अपना पुण्य दे कर उसे | कर, इसका टेढा शरीर सीधा किया (म. व. १३२)। पुनः स्वर्ग में भेजा (म. आ. ८३-८५; मत्स्य. | आगे चल कर, वदान्य ऋषि की सुप्रभा नामक कन्या से ३८-४१)। इसका विवाह तय हुआ। परंतु उसने इसे कहा कि, उत्तर . यह विश्वामित्र गोत्र के प्रवर में है। इसके पुत्र का | दिशा में हिमालय के ऊपरी भाग में, एक वृद्ध स्त्री तपश्चर्या नाम लौहि । | कर रही है । वहाँ तक जा कर आने के बाद ही यह विवाह - अष्टम-ब्रह्मसावर्णि मन्वन्तर के सप्तर्षियों में | होगा। अष्टावक्र ने यह शर्त मंजूर की। प्रवास करते से एक। करते, उस दिव्य प्रदेश से कुबेर का सत्कार स्वीकार कर प्रा. च. ७] Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टावक्र . प्राचीन चरित्रकोश असित यह वृद्ध स्त्री के स्थल पर आया। वहाँ इसे ऐश्वर्य की १०)। यह भानुमती का पुत्र था (मत्स्य. १३.९४; परमावधि तथा अनेक सुन्दर स्त्रियाँ दिखीं । उन्हें जाने के | पद्म. स. ८)। लिये कह कर, उस वृद्ध स्त्री के पास रहने का इसने | पूर्वजन्म में यह योगी था, तथापि कुसंगति से योगनिश्चय किया। रात्रि के समय शय्या पर जब यह विश्राम भ्रष्ट हो गया । पूर्वजन्म का स्मरण होने के कारण, कर रहा था, तब वह वृद्ध स्त्री ठंड से कँपकँपाती हुई, इसे कुसंगति के प्रति घृणा उत्पन्न हो गई । पुनः इसके पास आई तथा इसको आलिंगन कर प्रेमयाचना कुसंगति प्राप्त न हो, इस भय से इसने अपना व्यवहार करने लगी। परंतु परस्त्री मान कर अष्टावक्र ने उसकी | असमंजसता का रखा । इस के शरीर में पिशाच का प्रार्थना अमान्य कर दी। उसकी हर चीज की ओर देख | संचार होने से यह ऐसा व्यवहार करता था (ब्रह्माण्ड. कर, अष्टावक्र के मन में घृणा उत्पन्न होती थी। दूसरा ३.५१)। ऐसे वर्तन के कारण, लोक त्रस्त हो कर दूर ही दिन उसी ऐश्वर्य में बिताने के बाद, रात्रि के समय पुनः रहें, ऐसा इसका उद्देश्य रहता था। इस लिये यह लोगों के वही प्रकार हुआ। उस समय, वृद्धा ने यौवनरूप धारण बच्चों को सरयू नदी में डुबो देता था। तब लोगों ने सगर के किया था। उसने यह भी कहा कि, वह कुमारिका है। पास इसकी शिकायत की। इसलिये राजा ने इसे घर से परंतु, मेरा विवाह तय हो गया है, ऐसा बता कर इसने बाहर निकाला। तब यह वन में चला गया, किन्तु जाते उसे निवृत्त किया। तब इसके निग्रही स्वभाव के प्रति समय डुबोये हुए सब बच्चों को इसने योगसामर्थ्य से संतोष प्रगट कर, वृद्धा ने कहा कि, मैं उत्तरदिग्देवता हूँ। जीवित कर, लोगों को वापस कर दिया। तब नागरिकों को तुम्हारे भावी श्वशुर की इच्छानुसार मैंने तुम्हारी परीक्षा ली | आश्चर्य लगा, तथा राजा को अत्यंत पश्चात्ताप हुआ (भा. (म. अनु. ५०-५२) । तदनंतर सुप्रभा के साथ इसका ९.८.१४-१९; म. व. १०७; ब्रह्म.७८.४०-४३.)। विवाह हुआ। यह बड़ा तत्वज्ञानी था। इसके नाम पर दशरथ, कैकेयी तथा सिद्धार्थ नामक प्रधान के. संबाद में 'अष्टावक्रगीता' नामक एक ग्रंथ प्रसिद्ध है। वह गीता | इसका उल्लेख है ( वा. रा. बा. ३६ )। इसने जनक को बताई। इसका पुत्र अंशुमत् । असमंजस् को पंचजन नामांतर एक बार लोकेश्वर नामक ब्रह्मदेव के समय, व्याध के | था (ह. वं. १.१५, ब्रह्म. ८.७३.)। बाण से हरिहर नामक ब्राह्मण का पैर टूट गया । चक्रतीर्थ असमाति-राथप्रौष्ठ-रथप्रोष्ठ कुल का ऐक्ष्वाक राजा में स्नान करने पर, वह पैर उसे पुनः प्राप्त हुआ। चक्रतीर्थ अपने गौपायन नामक दो उपाध्यायों से इसका झगडा हुआ की महत्ता की यह कथा, इसने बताई है (स्कन्द ३.१. (जै. ब्रा. ३.१६७; पं. बा.१३.१२.५; ऋ. १०.५७.१; २४)। ६०.७; सायण-शाट्या. वा.)। तदनंतर, किरात तथा _ 'अष्टावक्रसंहिता' नामक ग्रंथ इसके नाम पर है (C. आकुलि इन दो असुरों ने गौपायन बधुओं को छोड देने के C.)। इसने अप्सराओं को विष्णु को पतिरूप में प्राप्त | लिये राजा को समझाया, तथा उनमें से गौपायन सुबंधु का करने का वरदान दिया, परंतु पानी से बाहर आने पर | वध करवाया। परंतु उस के अन्य बंधुओं ने एक सूक्त के अप्सरायें इसका वक्रत्व देख कर हँस पड़ी । तब इसने उन्हें | जाप से उसे पुनः जीवित कर लिया (ऋ. १०.५७-६०; शाप दिया कि, आभीर तुम्हारा हरण करेंगे (ब्रह्म. २१२. बृहद्दे. ७.९१.९६)। ८६)। उसी के अनुसार, कृष्ण निर्माण के पश्चात् अर्जुन ___ असमौजस्-(सो. यदु.) वायु के मतानुसार जन कष्णपत्नियों को द्वारका से ले जा रहा था, तब मागे | कंबलबर्हिष का पुत्र । में आभीरों ने उनका हरण किया। असिक्नी-पाचेतस दक्ष की पत्नी । पंचजन असकृत्-भृगु तथा पुलोमा का पुत्र। प्रजापति की कन्या होने के कारण, इसे पांचजनी कहा है असंग-(सो. वृष्णि.) मत्स्य तथा विष्णु के मता- (भा. ६.४)। नुसार युयुधानपुत्र। असिज-वायु के मतानुसार उतथ्य का नामान्तर । ___ असमंजस्-(सू. इ.) सगर को केशिनी नामक असित-मांधाता राजा के द्वारा पराभूत एक राजा स्त्री से उत्पन्न पुत्र (भा. ९.८.१५, ह. वं. १.१५, विष्णु. | (म. शां. २९.८१)। ४.४.३; ब्रहा. ८.७३; वायु. ८८.१५९; नारद ८.६८; २. (स्. इ.) भरतराजा का पुत्र । इसके शत्रु हैहय वा. रा. बा. ३८)। यह शैब्या का पुत्र था (म.व. १०६. तालजंघ तथा शशबिंदु ने इसका पराभव कर के, इसे राज्य Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ असित. प्राचीन चरित्रकोश असितमृग से बाहर भगा दिया। तब अपनी दोनों पत्नीयों के साथ, | जैगीपव्य के तप तथा योगाभ्यास का प्रभाव देख कर इसे यह हिमालय पर्वत पर जा कर रहा। वहीं इसकी मृत्यु | बड़ा आश्चर्य हुआ। उस विषय में जिज्ञासा पूर्ण करने के हो गई। मृत्यु के समय, इसकी दोनों पत्नीयाँ गर्भवती | लिये, यह आश्रम से अंतरिक्ष में उड़ा । वहाँ उसने देखा थीं। उन में से, एक ने सौत के गर्भ का नाश हो इस | कि, कोई सिद्धपुरुष जैगीषव्य की पूजा कर रहे है। तब उद्देश से, अपनी सौत कालिंदी को सविध भोजन दिया। यह काफी घबरासा गया। तदनंतर जैगीषव्य भिन्न भिन्न तब वह शोक करने लगी। परंतु च्यवन भार्गव मुनि के | लोको में आगे आगे जाने लगा। पुरे समय, इसने उनका आशिर्वाद से, उसे सगर नामक सविष पुत्र हुआ (वा. पीछा किया। अन्त मे, पतिव्रताओ के लोक में आ कर रा. वा. ७०; अयो. ११०)। जैगीषव्य गुप्त हो गया। वहाँ एक सिद्ध के यहाँ पूछने __असित काश्यप वा देवल-सूक्तद्रष्टा । इसे देवल | पर पता चला कि, वह ब्रह्मपद पर गया है। इसलिये काश्यप कहते हैं (. ९.५-२४)। यह कश्यप का पुत्र | ब्रह्मलोक जाने के लिये इसने उँची उडान ली। किन्तु था। इसका गय (अ. सं. १.१४.४) तथा जमदग्नि के | सामर्थ्य कम होने के कारण, यह नीचे गिर गया। अन्त साथ उल्लख है (अ.सं. ६.१३७.१)। इसे असित | में उस सिद्ध ने इसे वापस जाने के लिये कहा। तब जिस देवल (पं. बा.१४ ११..१८-१९: क.सं. २२.२), तथा | क्रम से यह ऊपर गया था, उसी क्रम से सब लोक असितो देवल कहते है (म. स. ४.८; शां. २२२,२६७)। उतर कर नीचे आया। जैगीषव्य को पहले ही आ कर इसकी स्त्री हिमालय की कन्या एकपर्णा । आश्रम में बैठा हुआ इसने देखा । तब उसके योगयह युधिष्टिर के यज्ञ में ऋत्विज था (भा.१०.७४.७)। सामर्थ्य से यह आश्चर्यचकित हो गया। नम्र हो कर, जब युधिष्ठिर ने मयसभा में प्रवेश किया, तब अन्य ऋषि जैगीषव्य क पास मोक्षधर्म जानने की इच्छा इसने गणों के साथ यह उनके साथ था (म. स. ४.८)। दशाई। उसके बाद, जैगीषव्य ने इसे योग का उपदेश दे नारद जब युधिष्ठिर को ब्रह्मदेव की सभा का वर्णन बता रहे | कर संन्यासदीक्षा दी। उससे इसको परमसिद्धि तथा श्रेष्ठथे, तब यह वहाँ व्रता दिकों का अनुष्ठान कर उपस्थित था | योग प्राप्त हुआ (म. श. ४९; देवल देखिये )। असित (म. स. ११.२२५)। श्रीकृष्ण तथा बलराम से मिलने | देवल तथा यह ये दोनों एक ही है। के लिये, अनेक ऋषियों के साथ यह स्यमंतक क्षेत्र में यह कश्यप तथा शांडिल्य का एक प्रवर भी है। इसने गया था (भा. १०.८४.३) यह तथा श्रतदेव ब्राह्मण | सत्यवती को विवाह के लिये मांगा था (म. आ. ९४. कृष्ण के साथ, बहुलाव से मिलने के लिये, विदेह देश को ७३)। इसका पुत्र देवल (ब्रह्माण्ड. ३.८.२९-३३)। गये थे ( भा. १०.८६.१८) । नारदादिकों के साथ यह | यह कश्यपकुल का गोत्रकार (मत्स्य. १९९.१९; लिंग. पिंडारक क्षेत्र में भी गया था (भा. १.१.११)। १.६३.५१.१), तथा मंत्रकार था (वायु.५९.१०३; मत्स्य. - मुमुक्षु व्यक्ति ब्रह्मपद की प्राप्ति कैसी करे, इस विषय १४५.१०६-१०७; ब्रह्माण्ड. २.३२.११२-११३)। में जैगीषव्य (म. शां. २२२), तथा नारद के साथ (म.। २. जनमेजय के सर्पसत्र का एक सदस्य (म. आ. शां. २६७) इसका संवाद हुआ था। आदित्यतीर्थ- | ५३)। पर यह गृहस्थाश्रम में रहता था. तथा अचल भक्तिभाव असित देवल-असित काश्यप देखिये। 'से इसने योगसंपादन किया था। एकबार जैगीषव्य असित धान्वन-वेदकालीन राजा । असुरविद्या ऋषि भिक्षकवेष में इसके आश्रम में आये। तब इसने | वेद इसका है। दस दिनों तक चलनेवाले परिप्लवाख्यान उत्तम प्रकार से उसका गौरव कर के, काफी वर्षो तक उसका में इसका उल्लेख है (सां.श्री. १६.२.२०)। इसको असित पूजन किया। बहुत काल व्यतीत हो जाने पर भी जैगी- धान्य भी कहा है (श. बा. १३.४.३.११; आ. श्री. पव्य एक शब्द भी नही बोलता, यह देख कर मन ही १०.७; पं. ब्रा. १४.११.१८.३९)। मन यह उसकी अवहेलना करने लगा। पश्चात् यह गगरी असित वार्षगण-हरित काश्यप का शिष्य । इसका ले कर समुद्र गया । जैगीषव्य वहाँ पहले से ही आ कर बैठा शिष्य जिव्हावत् बाध्योग (बृ. उ. ६.५.३ काण्व; हुआ था। उसे देख कर, इसे बड़ा ही आश्चर्य लगा। तद- ६.४.३३ माध्य.)। नंतर स्लान कर के यह आश्रम में लौट आया । आते ही असितमृग--काश्यप एक पुरोहित। इसको जनजेगीषन्य पुनः आश्रम में बैठा हुआ इसे दिखा। तब मेजय ने एक यज्ञ में निमंत्रित नही किया । तथापि इसने Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ असितमृग प्राचीन चरित्रकोश अहल्या राजाद्वारा नियुक्त भूतवीर नामक ब्राह्मण से यज्ञ का नेतृत्व किया। हल का अर्थ है विरुपता, तथा हल्य का अर्थ छीन कर, स्वयं ले लिया (ऐ. ब्रा.७.२७)। इसके अनेक है विरुपता के कारण प्राप्त निंद्यत्व । इसे हल्य न होने के पुत्र थे, उसमें से एक का नाम कुसुरुबिन्दु औद्दालकि था कारण, ब्रह्मदेव ने इसका नाम अहल्या रखा (वा. रा. (जै. बा. १.७५; ष. ब्रा. १.४)। उ. ३०.२५)। आगे चल कर, ब्रह्मदेव ने इसे शरद्वत असिता-एक अप्सरा । कश्यप तथा मुनि की कन्या।। गौतम के पास अमानत के रूप में रखा । उपवर होने पर असितांग-अष्टभैरवों में से एक । उसने इसे ब्रह्मदेव के पास वापस दे दिया। असिपर्णिनी--कश्यप तथा मुनि की एक कन्या। विवाह-शरद्वत गौतम मुनि का जितेंन्द्रियत्व तथा असिलोमन-एक असुर । कश्यप तथा दनु का पुत्र। | तपःसिद्धि देख कर, ब्रह्मदेव ने यह कन्या उसे भार्या कह असीमकृष्ण-(सो. कुरु.) अश्वमेधक राजा | कर दी (वा. रा. उ. ३०.२९; विष्णु. ४.१९; मत्स्य. का पुत्र । इसका पुत्र निमिचक्र ( अधिसामकृष्ण ५०)। परंतु इन्द्र, वरुण, अग्नि इ. देव, दानव, तथा देखिये)। अन्य राक्षसों के मन में भी इसके प्रति अभिलाषा थी। असुरा-एक अप्सरा । कश्यप तथा प्राधा की कन्या। तब प्रत्येक के सामर्थ्य की परीक्षा देखी जावे, इस हेतु से असुरायण-विश्वामित्र का पुत्र (म. अनु. ब्रह्मदेव ने निश्चय किया कि, जो व्यक्ति सर्व प्रथम पृथ्वी ७.५६ कुं.)। प्रदक्षिणा करेगा, उसे ही यह कन्या दी जावेगी । अहल्या २. व्यास की सामशिष्यपरंपरा में से एक । वायु के अभिलाषी प्रदक्षिणा करने लगे। परंतु अर्धप्रसूत धेनु तथा ब्रह्माण्ड के मतानुसार, यह कौथुम पाराशय का | पृथ्वी ही होने के कारण, गौतम ने उसकी प्रदक्षिणा की, शिष्य है (व्यास देखिये)। तथा एक लिंग की प्रदक्षिणा कर के, वह ब्रह्मदेव के पास असूर्तरजस्-मूर्तरय राजा का नामांतर। . गया। गौतम प्रथम आयां ऐसा जान कर, ब्रह्मदेव ने उसे असोम-मणिभद्र तथा पुण्यजनी का पुत्र। अपनी कन्या दी। देवता, एक के पश्चात् एक; आने लगे। अस्ति-जरासंध की दो कन्याओं में से ज्येष्ठ ।। परंतु उन्हें मालूम हुआ कि, अहल्या तथा गौतम का इसकी कनिष्ठ भगिनी प्राप्ति । यह दोनों कंस की पत्नीयाँ विवाह हो गया। यह वार्ता सुन कर, इन्द्र को बहुत दुःख थीं। कृष्ण के द्वारा कंस का वध होने पर, यह दोनों हुआ, क्यों कि, इन्द्र इससे प्रेम करता था। विवाहोपरान्त पितृगृह में आ कर रहने लगीं (भा. १०.५०; म. स. गौतम तथा अहल्या ब्रह्मगिरी पर रहने के लिये गये। १३.३०)।. __भ्रष्टता-कुछ दिन बाद, गौतम को आश्रम से बाहर अस्तिक-हरिमेध देखिये। गया देख कर, इन्द्र गौतम के रूप में इसका उपभोग अस्वहार्य--अंगिरस गोत्रीय मंत्रकार । करने के लिये आया । गणेशपुराण में दिया है कि, नारदअहंयाति--(सो. पूरु.) शर्याति तथा वरांगी का | द्वारा अहल्या के रूप की स्तुति की जाते ही, कामुक बन पुत्र । इसकी पत्नी कृतवीर्यपुत्री भानुमती। इसका पुत्र | कर इन्द्र आया। , सार्वभौम (म. आ. ९०.१४-१५)। भागवत तथा | तब पतिव्रताधर्मानुसार उसका तथा इसका समागम विष्णु के मतानुसार, यह संयातिपुत्र है। मत्स्य में अहं- हुआ (ब्रह्म, ८७; १२२; म. उ. १२; वा. रा. उ. ३०. वर्चस् पाठभेद है । अहंपाति पाठ भी मिलता है। ३२, स्कन्द. १.२.५२)। इंद्र काफी दिनों तक लगातार अहंवर्चस्-अहंयाति देखिये। इसके यहाँ आता था, ऐसा उल्लेख ब्रह्मपुराण में है। अहनू-अष्टवसुओं में से एक । परंतु यह इन्द्र है ऐसा जान कर भी, इसने उससे समागम अहर-कश्यप तथा दनु का पुत्र । किया। उसके शरीर के दिव्य सुगंध से अहल्या ने यह अहल्या--इसका निर्देश शतपथ ब्राह्मण मे अहल्या | जान लिया कि, यह मेरा पति नही है। (वा. रा. बा. मैत्रेयी नाम से मिलता है (श. ब्रा. ३.३.४.१८; जै. | ४८.१९)। इतने में गौतम ऋषि आया । तब इन्द्र तथा ब्रा. २.७९; ष. ब्रा. १.१)। अहल्या को बहुत डर लगा। दो घटिकाओं के बाद यह जन्म—इसका पिता मुद्गल (भा. ९.२१) वयश्व | सामने आई, तथा पति का पदस्पर्श कर के इसने संपूर्ण को मेनका से यह कन्या हुई (ह. वं. १.३२)। यह | वार्ता बताई (गणेश. १.३०)। गौतम रोज-नदी पर ब्रह्ममानसपुत्री है । ब्रह्मदेव ने इसे अत्यंत सुन्दर निर्माण | स्नान के लिये जाने पर भी, दूसरा गौतम विद्यार्थियों को Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन चरित्रकोश अहल्या दिखता था | एक बार जब इन्द्र भीतर था, तब गौतम के आते ही विद्यार्थियों ने उसे भीतर का गौतम दिखाया। क्रोधित होकर गौतम ने इन्द्र तथा अहल्या को शाप दिया । शाप दाशाद गौतम इन्द्र को शाप देनेवाल्या ही था कि, वह माजीर के रूप में जल्दी जल्दी भागने लगा । गौतम को शंका आई, तथा डॉट वर 'कौन है? ऐसा उसने पूछा । स इन्द्रमूर्तिमन्त उसके सामने खड़ा हो । तब गया (बा. ८७ पद्म सु. ५०१ गणेश. १.२१ ) | गौतम ने उसे शाप दिया कि तुम शत्रओं के द्वारा पराभूत होगे । मनुष्यलोक में जारकर्म प्रारंभ करनेवालों के तुम उत्पादक हो, अतएव प्रत्येक जारकर्म का आधा पाप तुम्हारे माथे लगेगा । देवराजों को अक्षयस्थान कभी प्राप्त न होगा (बा. रा. २०१ . १२२ ) । तुम्हारे उ. ब्रह्म. शरीर को सौ छेद हो जायेंगे ( म. अनु. ४१; १५३; ब्रह्म. ८७; पद्म. स. ५० ) । तुम वृषणरहित हो जाओगे ( वा. रा. बा. ४८; लिंग. १.२९) । अहल्या ( ब्रह्म. ८७ ) । शाप से मुक्त होने के पश्चात्, यह पुनः पति के सहबास में गई। शाप के पूर्व इसे शतानन्द नामक पुत्र था। वह निमिवंशीय राजाओं का उपाध्याय था ( वा. रा. बा. ५१, आ. रा. सार. १०३ ) । इसे दिवोदास नामक भाई था ( भा. ९.२१९ . . १.३२) वह उत्तर पंचाल का राजा था। 'अहस्यायै बार ऐसा इन्द्र का गौरवपूर्ण वर्णन देदों में है इससे प्रतीत होता है कि इंद्र अहल्या की कृपा । रूपकात्मक होनी चाहिये। सौदास की पत्नी के कुंडल गुरुदक्षिणा में लाने के लिये कहा समर्थन -- इसने उत्तंक नामक अपने पति के शिष्य को था (म. आ. ५५) इन्द्र के द्वारा इसके साथ किया गया व्यभिचार देवों के कार्य के लिये ही किया गया। क्योंकि, गौतम का तप अधिक हो गया था, अतएव उसका क्षय आवश्यक था (बा. रा. वा. ४९)। इसे गौतमी भी कहा गया है (ब्रह्म. ८७) महर्षि गौतम के वन में अहल्याद्वारतीर्थं प्रसिद्ध है ( म. व. ८२.९३ ) । नया दृष्टिकोन -- अहल्या तथा इन्द्र के संबंध की कथा रूपकात्मक है, ऐसा ब्राह्मणग्रंथ जैमिनीसूत्रों से प्रतीत होता है । . . । तदनंतर अहल्या की ओर मुड़कर गौतम ने कहा, किसी को भी नही दिखोगी ऐसे रूप में तुम्हारा विध्वंस हो जावेगा, तथा तुम्हारे रूप का सर्वत्र विभाजन हो जायेगा। राम जय यहाँ आयेंगे तब तुम्हारा उदार होगा ( वा. रा. बा. ४८ ॐ ३० ) । तुम शिला बन बाओगी (आ. रा. सार. १.१३ स्कन्द १.२.५२ गणेश, १.३१) । जनस्थान में तुम एक शुष्क नदी बनोगी (आ. रा. सार. १.२ ब्रह्म. ८७) तुम्हारे देह पर केवल अस्थिचमं रहेगा। सजीव प्राणियों के समान तुम्हारे शरीर पर मांस तथा नख उत्पन्न नहीं होंगे, तथा तुम्हारे इस रूप के कारण स्त्रियों के मन में पापकर्म के प्रति दहशत उत्पन्न हो जावेगी (पद्म. स. ५४ ) । इसपर अहल्या ने प्रार्थना की कि इन्द्र आपका रूप धारण कर के आया था, इसलिये मैं पहचान न सकी। शरद्वत गौतम ने ध्यानस्थ हो कर यह जान लिया कि, यह अपराधी नही है, तथा अशाप दिया कि, राम जय यहाँ आवेगा तब अपने तत्र पादस्पर्श से तुम्हारा उद्धार करेगा ( वा. रा. बा. ४८८४९ २०९ गणेश १.२१ ) । इसकी मुक्ति के उ. लिये गीतम ने फोटितीर्थ पर तप किया। तब यह मुक्त हुई। उससे अहल्यासरोवर निर्माण हुआ। उस आनंद के कारण ही, गौतम ने गीतमेश्वर लिंग की स्थापना की (द. १२.५२ ) । गोदावरी के साथ तुम्हारा संगम । होने पर तुम पूर्ववत् बनोगी, ऐसा भी इसे उःशाप था २. इन्द्रपत्नी यह इन्दु ब्राह्मण से रत हुई। इसके स्थूल शरीर को सजा दे कर कुछ लाभ नही हुआ, क्यों कि, यह मनोमय शरीर से तादात्म्य हुई थी (यो. वा. ३.८९.८१ ) । ५३ , ( १ ) अहल्या रात्रि है, गौतम चन्द्र है तथा इन्द्र को सूर्य मान कर यह रूपककथा निर्मित की गई है। उसका स्पष्टीकरण करते हुए बताया जाता है कि इन्द्ररूपी सूर्य ने अहल्या रूपी रात्रि का वर्षण किया। यह एक निसर्गदृश्य है (श. बा. २.२.४.२८ ) । डॉ. रवीन्द्रनाथ टागोरजी ने अहल्या का रामद्वारा उद्धार का जो विवरण किया है वह सुन्दर है । । (२) हल का अर्थ है नांगर, हत्या का अर्थ जोती हुई जमीन, तथा अहल्या का अर्थ है बंजर जमीन अगस्य ऋषि ने दक्षिण में प्रथम वास किया, अर्थात् दक्षिण की अहल्या जमीन हत्या कर के उसका उद्धार किया, तथा उस अहल्या भूमि की शाप से मुक्तता की इस प्रकार राम ने अहल्या का उद्धार किया, इसका अर्थ है, उसने दक्षिण की बंजर भूमि उर्वरा बनाई । Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहि प्राचीन चरित्रकोश अहीना अहि-इन्द्र का शत्रु (ऋ. १.५१.४)। यह जब बिंदुओंसे इन दोनों को जीवित करते रहते हैं। इस लिये तुम निद्रित था, तब इन्द्र ने इसे मारकर सप्तसिंधू को मुक्त भ्रमरों को मार डालो। अभी वे सब राक्षसों के निद्रास्थान किया (ऋ. २.१२.३)। में हैं। यह मालूम होते ही, हनुमान ने असंख्य भ्रमर अहित-मणिवर को देवजनी से उत्पन्न पुत्र। इसे मार डाले । एक भ्रमर उसे शरण आया। उसे प्राणदान गुह्यक ऐसा साधारण नाम है। दे कर, हनुमान ने उसे अहिरावण की पत्नि का मंचक भीतर से खोखला करने के लिये कहा, तथा स्वयं राम के ___ अहिरावण-महिरावण-पाताल में, अहिरावण तथा पास गया। इतने में राम के बाण से सब राक्षसों की मृत्यु महिरावण नामक रावण के दो मित्र थे। इन्हें रावण ने हो गई। तदनंतर हनुमान के आग्रह पर, राम नागकन्या राम का नाश करने के लिये कहा । परंतु सुवेल पर्वत पर के मंदिर में गया, तथा पर्यंक को हाँथ लगाते ही वह राम की संपूर्ण सेना अभेद्य दीवाल के भीतर होने के टूट जाने के कारण, उसे तीसरे जन्म में पत्नी बनाने का कारण, इन्होंने आकाश से शिबिर में छलाँग लगाई। । आश्वासन दे कर दोनों सुवेल पर लौट आये। रामवचन पश्चात् , शिला पर सुप्त रामलक्ष्मण को यह शिलासहित पर विश्वास रख कर, अहिरावण की पत्नी ने अग्नी में पाताल में ले गये। परंतु हनुमान इनका पीछा करते देहत्याग किया (आ. रा. सार. ११)। निकुंभिला नगर आया। कपोत कपोती के संवाद से हनुमान को पता चला कि, दैत्य रामलक्ष्मण को देवी के अहिर्बुध्न्य--एक अन्तरिक्षस्थ देवता (नि. ५.४) सामने बलि देने के लिये रसातल में ले गये हैं। उधर यह एक वृत्र का स्वरूप है। ऋग्वेद में इसके लिये स्वतंत्र जाते समय, हनुमान को द्वार पर मकरध्वज मिला। सूक्त न हो कर, कुछ ऋचाओं में इसका स्तवन है। यह प्रश्नोत्तर में, दोनों का पितापुत्र का नाता निकला (मकर एक गार्हपत्य अग्नी का नाम है (वा. सं. ५. ३३; ऐ. ध्वज देखिये)। मकरध्वज ने हनुमान को सुझाया कि, | ब्रा. ३. ३६; तै. ब्रा. ११.१०.३)। . कामाक्षी के मंदिर में जा कर बैठा जावे तथा कार्य किया जावे। । यह रुद्र का नाम है (भा. ६.६.१८)। . सुबह वाद्यों की ध्वनि में राक्षस रामलक्ष्मण को वहाँ ले २. यह दुष्ट राक्षसों के संहारार्थ' सुदर्शनंचक्र की कर आये। तब देवी का स्वर निकाल कर हनुमान ने उन्हें आराधना कर रहा था। राक्षस इसके संहारार्थ आते ही. कहा कि, पूजा झरोखे से की जावे। उसके अनुसार, राक्षसों चक्र प्रगट हो कर राक्षसों का नाश हुआ (स्कन्द. ३.१.. ने देवी को बहुत से उपचार अर्पण किये, तथा रामलक्ष्मण २३)। . . को भी झरोखे से भीतर छोड़ा। तदनंतर तीनों ने मिल । ३. कश्यप तथा सुरभि का पुत्र ( शिव. शत. १८)। अहिशुव-इन्द्र का शत्रु (ऋ. ३२.२)। रावण के लहू से, पुनः वैसे ही राक्षस निर्माण होने लगे। अहीन-(सो. क्षत्र.) सहदेव का पुत्र । अदीन तब हनुमान ने अहिरावण की पत्नी को इसे मारने का | पाठभेद है। उपाय पूछा । वह बोली कि, मैं नागकन्या हूँ। इस दुष्ट ने २. (सो. कुरु. भविष्य.)। विष्णु के मतानुसार उदयनबलात्कार से मुझे यहाँ लाया। महिरावण भी मुझ पर लुब्ध | पुत्र। है। परंतु मैं उसके अनुकूल नही होती । इतना कह कर अहीनगु-अनोह का नामांतर । उसने कहा कि, यदि राम मुझसे विवाह करेगा, तो मैं अहीनज-(सू. इ.) भविष्य के मतानुसार द्वारका उपाय बताती हूँ। हनुमान ने कहा कि, राम के भार से का पुत्र । इसने १०,००० वर्षों तक राज्य किया। अगर तुम्हारा मंचक नहीं टूटा, तो राम तुम से विवाह कर अहीनर-अनी राजा का नामांतर। लेंगे। तब उसने बताया कि, पहले जब कुछ लड़के भ्रमरों २. (सो.) भविष्य के मतानुसार उद्यान का पुत्र । को काँटे चुभा रहे थे, तब उन्हें इन दोनों भाईयों ने मुक्त | अहीना आश्वत्थ्य-इसने सावित्राग्नी के ज्ञान से किया। इस लिये प्रत्युपकार करने के हेतु, वे भ्रमर अमृत- अमरत्व संपादन किया (ते. ब्रा. ३.१०, ९.१०)। Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आकथ प्राचीन चरित्रकोश आग्रायण आ आकथ-मंकण का पुत्र । यह बड़ा ही शिवभक्त आग्निवेश्यायन-क्षत्रिय नरिप्यन्त कुल मे पैदा था। इसके घर में आग लग कर आधा शिवलिंग जल | हुवा एक ब्राह्मणकुल (भा ९.२.२१-२२)। ।। । अतः यह अपना आधा शरार जला रहा था, तब स्वरित कहाँ होता है, यह विशेषरूप से बतानेवाला शंकर प्रसन्न हुए (पन. पा. ११७)। एक आचार्य (तै. प्रा. १४.४२.२)। अग्निवेश्य (२.) आकाशज विप्र--ब्रह्मदेव का नाम । इसे मारा नहीं | देखिये। जा सकता, ऐसा मृत्यु ने यम को बताया । पार्थिव देह तथा कर्म न होने के कारण इसे मृ य नही है । यह केवल __ आग्नीध्र--प्रियव्रत तथा बर्हिष्मती के दस पुत्रों अज तथा विज्ञानरूप है (यो. वा. ३.२, ब्रह्मन् देखिये)। में ज्येष्ठ पुत्र । विष्णु पुराण में अग्नीध्र है। कर्दम की कन्या नामक कन्या का पुत्र । इसे उर्जस्वती नामक बहन आकुलि—एक असुर (असमाति राथप्रौष्ठ देखिये )। थी। दो बहनें और भी थीं, जिनके नाम सम्राज् तथा आकृति--रुचि ऋषि की पत्नी । यह स्वायंभुव मनु | कुक्षि थे। यह जंबुद्वीप का अधिपति था। पुत्रप्राप्ति की तथा शतरूपा की तीन कन्याओं में से प्रथम है । इसे यज्ञ इच्छा से, यह मंदराचल के पहाड़ में जब ब्रह्मदेव की तथा दक्षिणा नामक कन्यारूप मिथुन हुआ (मनु देखिये)। - २. (स्वा. प्रिय) पृथुषेण राजा की पत्नी। आराधना कर रहा था, तब ब्रह्मदेव ने देवसभा में गायन करनेवाली पूर्वचित्ति नामक अप्सरा इसके पास भेजी। ३. (स्वा. उत्तान.) व्युष्टपुत्र सर्वतेजस् की पत्नी, तथा | | उसने शंगारचेष्टा इत्यादि से आग्नीध्र का मन कामवश चक्षुर्मनू की माता (भा..४.१३.१५)। किया। उसके सौंदर्य, बुद्धिमत्ता इ. अलौकिक गुणों पर आकृति-एक गारुड-विद्या का आचार्य । जब । | लुब्ध हो कर, इसने दस कोटि वर्षो तक उसका विषयोपभोग 'युधिष्ठिर ने राजसूय यज्ञ किया, तब सहदेव दक्षिण किया। उससे आग्नीध्र को नौ पुत्र हुए। उनके नामः-- दिशा जीतने गया । तब इसे जीत कर उसने इससे | १. नाभि, २. किंपुरुष ३. हरिवर्ष, ४. इलावृत्त, ५. : ‘करभार लिया था (म. स. २८.३९)। रम्यक (रम्य), ६. हिरण्मय (हिरण्वान), ७. कुरू, ८. · आक्ताक्ष्य--अग्निपूजा के बारे में विचार प्रगट ! भद्गाश्व, तथा ९. केतुमाल | कुछ काल के अनन्तर, वह करनेवाला एक गृहस्थ (श. बा. ६.१.२.२४)। अप्सरा ब्रह्मलोक चली गई। उसके विरह से यह राजा आक्षील--भरद्वाजांगिरस वंशमालिका का एक अत्यंत उदास हो गया । तदनंतर जंबुद्वीप के नौ विभाग -द्विगोत्री ऋषि । कर के, प्रत्येक विभाग को अपने पुत्रों का नाम दे कर, वे ___ आगस्त्य--एक आचार्य (ऋ. प्रा.१-२: सां. आ. | विभाग उन्हें सौप कर, यह शालिग्राम नामक अरण्य में ७.२) । यह अगस्त्य नामक महर्षि का पुत्र, है। तप करने चला गया। कोन सा विभाग किसे दिया इसका संहिता शब्द का अर्थ मांडूकेय तथा माक्षव्य के मता- वर्णन विष्णु पुराण में है, वह इस प्रकार है:-१.नाभी को नुसार क्रमशः वायु संहिता तथा आकाश संहिता ऐसा | हिमवर्ष (हिन्दुस्थान), २. किंपुरुष को हेमकृटवर्ष, ३. है। आगस्त्य का कहना है कि, दोनों सिद्धान्त तुल्यबल हरिवर्ष को नैषधवर्ष, ४. इलावृत्त को मेरुपर्वतयुक्त इलावृत्तहैं (ऐ. आ. ३. १.१)। दहळच्युत देखिये। वर्ष, ५. रम्यक को नील पर्वतयुक्त रम्यकवर्ष, ६. हिरण्वान : आग्ना प्रासेव्य-कश्यप गोत्र का एक ऋषिगण। | काव | को श्वेतदीपवर्ष, ७. कुरू को शृंगवद्वर्ष, ८. भद्राश्व को आग्निवेशि शत्रि--यह दानस्तुति में दान देने वाले | मेरू के पूर्व में स्थित भद्राश्ववर्ष, तथा ९. केतुमाल को राजा का नाम है (ऋ. ५.३४.९) गंधमानवर्ष, (विष्णु. २.१; भा. ५.१.३३; १. २२)। आग्निवेश्य--शांडिल्य, आनभिम्लात तथा गार्ग्य | आग्नीध्रक--रुद्रसावर्णि मन्वन्तर के सप्तर्पियों में से का शिष्य । इसका शिष्य गौतम (बृ.२.६.२, ४.६.२.)। एक। . विसर्गसंधि के विषय में मतप्रतिपादन करनेवाला आचार्य | आग्रायण--इन्द्र शब्द की व्युपत्ती के विषय में, मत (ते. प्रा. ९.४)। | दर्शानेविला आचार्य (नि. १०.९)। ५५ Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आंगरिष्ट प्राचीन चरित्रकोश आटिकी आंगरिष्ट--एक राजर्षि । इसने कामंद ऋषी को शुद्ध ४. शुनक का नामांतर । इसने बभ्र तथा सैन्धवायन धर्मादिकों के संबंध में प्रश्न पूछा था। जिससे चित्तशुद्धि कों अथर्ववेद सिखाया (भा. १२.७.३)। . होती है वह धर्म, पुरुषार्थ साधन होता है वह अर्थ, तथा आंगिरसी-वसू की पत्नी (भा. ६.६.१५)। देह निर्वाह के लिये इच्छा होती है वह काम, ऐसा उत्तर २. ( शश्वती देखिये)। कामंद ऋषी ने इसे दिया (म. शां. १२३)। आंगी-अपराचीन पुत्र अरिह की पत्नी। इसका पुत्र आंगि-हविधान आंगि देखिये। | महाभौम (म. आ. ९०-८९९%)। आंगिरस-अंगिरसवंश के लोगों को यह शब्द कुल आंगुलय वा आंगुलीय-वायु तथा ब्रह्माण्ड के नाम के तौर पर लगाया जाता है । वंशावलि भी प्राप्त है मतानुसार, व्यास की सामशिष्य परंपरा के हिरण्यनाभ (छां. उ. १.२.१०पं. बा. २०.२.१; तै. सं. ७.१.४. | का शिष्य । (व्यास देखिये)। १)। (अंगिरस देखिये)। ___ आंघ्रिक-विश्वामित्र का पुत्र (म. अनु. ७)। - आचार-कश्यप तथा अरिष्टा का पुत्र । अथर्ववेद का प्रवर्तक अंगिरस है। इसके कुल के आजकेशिन-इसका प्रतिकार बक ने किया (जै. ऋषियों ने सत्र किया। यज्ञानुष्ठान के लिये दूध निकालने उ. ब्रा. १.९.३)। के लिये, इन्होंने एक गाय रखी थी। उस गाय का रंग सफेद था। अवर्षण के कारण, उस गाय को हरी घास आजगर-अयाचित वृत्ति से रहने वाला एक ब्राह्मण । मिलना बंद हो गया। यज्ञ में प्राप्त कूटे हुए सोम के प्रल्हाद से इसका संवाद हुआ था (म. शां. १७२)। अवशिष्टांश को खा कर, वह दिन बिता रही थी। भूख के आजद्विष--बम्ब का पैतृक नाम । कारण, उसकी होने वाली दुर्दशा अंगिरस देख नही सकता आजव--कथाजव के लिये पाठभेद। .. था। गाय के लिये काफी चारा यदि हम निर्माण नहीं आजातशत्रव--भद्रसेन देखिये। कर सकते, तो सत्र प्रारंभ कर के क्या लाभ ? इस प्रकार आर्जिहायन--काश्यप गोत्री ऋषिगण । . . के विचार उन्हें कष्ट देने लगे। आगे चल कर इन्होने, आजीगर्ति--शुनःशेप का पैतृक नाम (ऐ. ब्रा. ७. कारीरि' इष्टि की। उससे भरपेट चारा प्राप्त होने लगा। | १७)। आंगिरस नाम से इसका उल्लेख किया गया है। परंतु पितरो ने नये चारे में विष उत्पन्न करने के कारण, (क. सं. १६.११.२) गाय खराब होने लगी । परंतु पितरो को हविर्भाग देने आज्य-सावर्णि मनु का पुत्र । पर, अंगिरसों को उत्कृष्ट चारा मिलने लगा तथा वह खूब आज्यप--एक पितृगण । ब्रह्ममानसपुत्र पुलह के दध देने लगी। (ते. ब्रा. २.१.१)। इन्होंने ही द्विरात्र | वंशज । इन्हें यज्ञ में आज्य (बकरी के दूध से बना घी) का याग शुरू किया (तै. सं. ७.१.४)। अंगिरस के द्वारा | पान करने के कारण, यह नाम पड़ा। इन्हें कहीं कहीं सुस्वध रथीतर की पत्नी में उत्पन्न ब्रह्मक्षत्र संतति को आंगिरस | भी कहा गया है (मत्स्य. १५)। कर्दम प्रजापती के लोकों कहते थे (भा. ९.६.३)। में यह रहते हैं। इन्हें विराजा नामक एक कन्या है। (अभीवर्त, अभहीयु, अयास्य, आजीगर्ति, उचथ्य, यही नहुष की पत्नी है (पन. स. ९)। वैश्य इन्हें पूज्य उत्तान, उरु, उर्ध्वसध्मन, कुस, कृतयशस, कृष्ण, गृत्समद मानते हैं। घोर, च्यवन, तिरश्चि, दिव्य, धरुण, रुव, नृबैध, पवित्र, आंजन-एक दास । यह नेत्रों में अंजन लगाता था। पुरुमिहळ, पुरुमेध, पुरुहन्मन, पूतदक्ष, प्रचेतस, प्रभूवसु यह त्रिककुद पर्वत पर से आया था । त्रिककुद् को यामुन प्रियमेध, बृहन्मत्ति,, बृहस्पति, त्रैद भिक्षु, मूर्धन्वन्, बताया है। यह हिमालय का भाग था (अ. सं. ४.९.१हहूगण, वसुरोचिष, बिंदु, विरूप, विहव्य, वीतहव्य, | १०)। शक्ति व्यश्व, शिशु, शौनहोत्र, श्रुतकक्ष, संवनन, संवर्त, | आटविन्--ब्रह्मांड तथा वायु के मत में व्यास की सहयुग, सव्य, सुकश्य, सुदिति, सुधन्वन् , हरिमंत, हरिवर्ण | यजुःशिष्य परंपरा के याज्ञवल्क्य का वाजसनेय शिष्य हविष्मत् , हिरण्यदत् तथा हिरण्यस्तूप देखिये)। (व्यास देखिये)। आटविन् तथा आवटिन् एक ही है । २. भौत्य मनु का पुत्र । ___ आटिकी-- उपस्ति चाक्रायण की पत्नी (छां. उ. ३. भीष्म के यहाँ आया हुआ ऋषि (भा. १.९. १.१०.१)। इस शब्द का अर्थ, स्तनादि स्त्री-चिह्न ८)। | जिसके अव्यक्त है एसी स्त्री, ऐसा शंकराचार्य करते है । Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन चरित्रकोश आदणार आटणार --पर का पैतृक नाम । आडि -- अंधकासुर का पुत्र तथा बक का भाई | अपने पिता का वध करनेवाले से लेने के देग, ब्रह्मदेव को प्रसन्न कर, इसने अमरत्व माँगा। रूपांतरित अवस्था में ही मृत्यु होगी अन्यथा नहीं, ऐसा वर इसने प्राप्त किया। वरप्राप्ति के पश्चात् तत्काल, यह कैलास पहुँचा | कहाँ के वीरभद्र या पीक द्वारपाल से स्कायट न हो इस हेतु से, इसने सर्परूप धारण कर, भीतर प्रवेश किया। तरी का रूप धारण कर यह शंकर के सामने गया । शंकर ने उसका कपट जान कर तथा रूपांतरित अवस्था की संधि साथ कर, तत्काल इसका वध किया ( मल्ल्य. १५६९ पद्म. सु. ४९.४५-७२, वीरभद्र देखिये) । हरिश्चंद्र का, विश्वामित्र द्वारा दिया गया दुःख देख कर, वसिष्ठ ने विश्वामित्र को, पक्षी योनि में परिणत होने का शाप दिया। इसके उत्तर में विश्वामित्र ने भी वसिष्ठ को यही शाप दिया । पक्षी योनि में भी दोनों युद्ध करते रहे । अन्त में ब्रह्माजी को इनका अगला निठाना पड़ा ये ही दो पक्षी भाडि तथा वक नाम से ख्यात है। आत्रेय | कह दिया कि, उसने फल खा लिया है। बहन ने उसे बताया कि, तू गर्भवती होने का ढोंग कर। मुझे जो पुत्र होगा वह मैं तुझे दे दूंगी क्योंकि वह स्वयं गर्भवती थी। पुत्र होने पर आत्मदेव ने उसका नाम धुंधुकारी रखा । गाय को भी यथा समय पुत्र हुआ । कान, गाय की तरह के होने के कारण, उसका नाम गोकर्ण रखा गया । बुंधुकारी दुर्वृत्त होने के कारण यह तंग आ गया। । गोकर्ण ने उसे संसार से निवृत्त होने को कहा। इसने ईश्वरभक्ति के द्वारा परमार्थ तथा मोक्ष प्राप्त किया (२.१९६ ) । झगडा मिटाते समय ब्रह्माजी ने वसिष्ठ से कथन किया क. पद्यपि विश्वामिप ने हरिचंद्र को पोर देश दिये, तथापि उसके अन्त में स्वर्ग का मार्ग मुक्त कर दिया - (मार्क. ९) । आदि-बक युद्ध देवासुरों के बारह युद्ध में छपी है ( मल्प. ४०.४१-५४) । यहाँ आठि तथा बक ये व्यक्ति • के नाम न हो कर समुदाय के नाम दिखते है । आत्रेय मांटीना शिष्य (बृ. उ. २,१.२) तथा अंगराज का पुरोहित ( ऐ. बा. ८.२२ ) । संधि तथा उच्चार के लिये इसके मत का गौरव के साथ उल्लेख है ( तै. प्रा. ५.३१६ १७.८ ) । यही तैत्तिरीय संहिता का पदपाठकार रहा होगा । तैत्तिरीयों के आचार्यतर्पण में इसका समावेश इसी कारण हुआ है ( स. गृ. २०.८. २०)। जैमिनिसूत्रों में भी (५,२. १८३ ६.१.२६ ) एक आत्रेय का उल्लेख है । आत्रेयी शिक्षा तथा संहिता ये ग्रंथ भी भय के हैं (CC)। गर्भाधान संस्कार के मंत्र कहने के विषय में इसके मत का निर्देश किया गया है ( स. गृ. १९००६२५) । वैद्यक में भी धन्वंतरि के पूर्व, एक आत्रेय हो गया है । धन्वंतरि ने शशादपुत्र ककुत्स्थ का स्मरण इंद्र ने आढियक युद्ध अप्रगीत मृतसंजीवनीकर रसायन (काढ़ा) दिये हैं - में किया था (पा. ८८.२५ ) । (अ. २८५१०९.१४६ ) | ये सब एक हैं वा भिन्न, यह कहना कठिन है । आडीर -- जनापीड देखिये । आत्मन्मंश (ऋ. १.२६.७ ) । २. अंगिरा देवों में से एक। अंगिरा तथा सुरूपा का पुत्र ( मत्स्य. १९६ ) । आत्मवत् भृगुगोत्र का मंत्रवार आत्मावत भी पाठांतर है। अतिथिग्व- इन्द्रोत का पैतृक नाम ( दिवोदास देखिये) । आत्मदेव - एक ब्राह्मण । यह तुंगभद्रा के किनारे कोहल ग्राम में रहता था। इसकी स्त्री गृहकार्य में निपुण परंतु झगडालू थी । निपुत्रिक होने के कारण, यह विरक्त होकर भ्रमण करने लगा। उस समय एक वापिका तट पर उसकी एक सिद्ध से भेंट हुई। सिद्ध ने पुत्र प्राप्ति के हेतु एक फल दिया, जिसे स्त्री को स्विव्यने को कहा। उसने अपनी स्त्री को फल दिया। स्त्री ने अपनी बहन के कहने पर वह फल गाय को खिला दिया तथा पति से झूठा ही प्रा. च. ८] ५७ , (अर्चनानस्, अवस्यु, उरुचक्रि, एवयामरूत्, कुमार, कृष्ण, गय, गविष्ठिर, गातु, गृत्समद, गोपवन, दक्ष कात्यायनि झुग्न, द्वित, पुरु, पौर, प्रतिक्षत्र, प्रतिप्रभ, प्रतिभानु प्रतिरथ वधु बाहुवृत्ति, बुद्धि, गृक्तवाह, यशत, रातहव्य, वत्रि, वसुश्रुति, विश्वसामन्, शंग, शाट्यायनि, श्यावाश्व, श्रुतिवित्, सत्यश्रवस्, सदावृण, सप्तवधि, सस तथा सुतंभर देखिये) । २. एक राजा । इसे एकत, द्वित तथा त्रित पुत्र थे (त्रित देखिये) । २. वामदेव का शिष्य ( परीक्षित देखिये) । Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्रेय प्राचीन चरित्रकोश आदिराज ४. जनमेजय सत्र का एक सदस्य (म. आ. ४८.८)। आदित्यों से इन्द्र अलग है (श. ब्रा. ११.६.३.५)। ५. हंसरूप से संचार करनेवाला ऋषि । इसने साध्यों | आदित्य का उल्लेख वसु, रुद्र, मरुत् , अंगिरस्, ऋभु को नीति बताई (म. उ. ३६)। तथा विश्वेदेव इन देवताओं के साथ कई स्थानों पर आत्रेयायणि-अंगिराकुल का एक गोत्रकार। आया है फिर भी वह सब देवताओं का सामान्य नाम आत्रेयी-अत्रि ऋषि की कन्या। यह अग्निपत्र अंगिरा है। आदित्यों का वर्णन सब देवताओं के सामान्य वर्णनों को व्याही गयी थी। दत्त, दुर्वास तथा सोम इसके बंध हैं। | से मिलताजुलता होते हुए भी आदित्यों में प्रमुग्व मित्राइसके पुत्रों को आंगिरस कहते हैं। आत्रेयी को उसका बरुणा से नही मिलता। सर्वाधार, सर्वपालक. मन के पति, नित्य निष्कारण कठोर शब्द कहता था। एक दिन, 1 विचार जाननेवाले, पापी जनों को सजा देनेवाले तथा उसने ससुरसे इसकी शिकायत (तकरार ) की। उसने | रोग दूर कर दीर्घायु देनेवाले ऐसा इनका वर्णन है। बताया कि, तेरा पति अग्निपुत्र है, अतः बहुत तेजस्वी ब्रह्मदेव को उद्देशित कर, अदिति ने चांवल पकाया, है। उसे तू जलरूप से स्नान करा कर शांत कर। इस पर ताकि, उसके कोख से साध्य देव उत्पन्न हो। आहुति दे आत्रेयी परुष्णी नदी बन गयी तथा अपने जल से पति कर बचा हुआ चांवल उसने खाया जिससे धाता एवं को शांत करने लगी। इसका गंगा से संगम हुआ (ब्रह्म. अर्यमा दो जुडवें पुत्र हुए। दूसरी बार मित्र तथा वरुण १४४)। तीसरी बार अंश एवं भग तथा चौथे बार इन्द्र एवं विवस्वान २. अपाला तथा विश्ववारा देखिये। हुए । अदिति के बारह पुत्र ही द्वादशादित्य या साध्य आत्रेयीपुत्र--गौतमीपुय का शिष्य (बृ. उ. ६.५. नामक देव हैं (ते. ब्रा. १.१.९.१)। आदित्य से सामवेद २)। हुआ (ऐ. ब्रा. २५.७; सां. बा. ६.१०; श. ब्राः ११.५. आथर्वण-अथर्वन् का पुत्र, शिष्य तथा अनुयायी | |८; छां. उ. ४.१७.२; जै. उ. ब्रा. ३.१५.७; ष.ब्रा. ४. अर्थ का शब्द । १; गो. ब्रा. १.६)। पुराणों में आदित्य, कश्यप तथा कबंध, दध्यच् , बृहद्दिव, भिषज, विचारिन देखिये। आदात के पुत्र है (कश्यप देखिये) आदर्श-धर्मसावर्णि मनु का पुत्र । १. अंशुमान् (आषाढ माह, किरण १५००); २. आदित्य-वैवस्वत मन्वंतर में देवताओं के समूह का अर्यमन् (वैशाख, १३००), ३. इंद्र (आश्विन, नाम । ऋग्वेद में इसके लिये छः सूक्त हैं । एक स्थान में १२००), ४. त्वष्ट्र (फालान, ११००), ५. धातृ केवल अदित्यसंघ में छः देवता हैं (ऋ.२.२७.१)। वे इस | (कार्तिक, ११००), ६. पर्जन्य (श्रावण, १४००), प्रकार हैं-१. मित्र, २. अर्यमन् , ३. भग, ४. वरुण, ५. | ७. पूषन् (पौष), ८. भग (माघ, ११००), ९. मित्र दक्ष, तथा ६. अंश । अदिति को आठ पुत्र थे (अ. वे. (मार्गशीष, ११००), १०. वरुण (भाद्रपद, १३००), ८.९.२१)। १. अंश, २. भग, ३. धातृ, ४ इन्द्र, ५ ११. विवस्वत् (जेष्ठ, १४००), १२. विष्णु (चैत्र, १२००)। इनके काय भी बताये हैं (भवि. ब्राहा. ६५ विवस्वत , ६. मित्र, ७. वरुण तथा ८. अर्थमन् (ते. बा. ७४; ७८; विष्णु. १.१५.३२)। अंशुमान् के लिये १.१.९१)। परंतु अदिति का आटवां पुत्र माताण्ड दिया गया है (ऋ. १०.७२. ८-९; श. ब्रा. ६.१.२.८)। अंश या अंशु एसा पाठ है । विष्णु के लिये उस्कम पाठ है। परंतु स्कंदपुराण में बिलकुल भिन्न सूची दी गयी आदित्य बारह है जो बारह माहों के निदर्शक हैं (श. ब्रा. | ११.६.३.८)। वेदोत्तर वाङ्मय में बारह माहों के बारह है । १. लोलार्क, २. उत्तरार्क, ३. सांबादित्य, ४. द्रुपदादित्य, ५. मयूखादित्य, ६. अरुणादित्य, ७. वृद्धाआदित्य या सूर्य प्रसिद्ध हैं (कश्यप देखिये)। उन में दित्य, ८. केशवादित्य, ९. विमलादित्य, १०. गंगादित्य, विष्णु सर्वश्रेष्ठ माना गया है । ऋग्वेद में सूर्य को आदित्य ११. यमादित्य, १२. सकोलकादित्य (रकंद. २.४.४६.)। कहा गया है। इसलिये सूर्य सातवां और मार्ताण्ड आठवां आदित्य होगा। गाय आदित्य की बहन हैं (ऋ.८.१०१. आदित्यकेतु-धृतराष्ट्र पुत्र । इसे भीम ने मारा १५)। (म. भी. ८४.२७)। इन्द्र यह अदिति का पुत्र अर्थात् आदित्यों में से एक आदिराज--(सो. कुरु.) अभिवत् का पुत्र है (ऋ. ७.८५.४; मै. सं. २.१.१२)। परंतु बारह । (म. आ. ८९.४५)। Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदिवराह प्राचीन चरित्रकोश आपस्तंब चौथा पुत्र। आदिवराह--हिरण्याक्ष को मारने के लिये वर्तमान २. वरुण की पत्नी । परंतु इसे अग्नि से पृथ्वी तथा कल्पारंभ में हुआ अवतार । इसे श्वेतवराह भी | आकाश ये दो संताने हुई (तै. सं. ५.५.४)। कहते हैं। आप--अबसु का नाम । आद्य--रैक्तमनु का देवगण (मनु देखिये)। २. स्वारोचिष मन्वन्तर में वसिष्ठपुत्र प्रजापति । २. चाक्षुष मन्वंतर का देव। ३. धर्म तथा बसु का पुत्र । इसके पुत्र वैतंड्य, शांत ३. विश्वामित्र कुल का एक गोत्रकार । यह उपरिचर | तथा ध्वनि (विष्णु. १.१५)। वसु के सोलह ऋत्विजों में एक था। आपगव--औपगव देखिये। आधूर्तरजस्--गय राजा का पिता । अमूर्तरय भी आपमूर्ति--स्वारोचिष मनु का पुत्र । पाठ है । ( म. व. ९३.१७; अमूर्तर यस् ( ३.) देखिये )। आपव वसिष्ट-- वसिष्ठकुल में से एक । इसे आनक--(सो. यदु.) शूर को गरिषा से उत्पन्न वरुणपुत्र कहा गया है (ब्रह्मांड. ३.६९. ४२; वायु. ९४. ४३,९५.१-१३)। हिमालय के पास यह रहता था । कार्त वीर्य के हाथ से इसकी पर्णकुटी जली, इसलिये इसने उसे इसे कंका नामक स्त्री से पुरुजित् एवं सत्यजित् , ऐसे शाप दिया था ( कार्तवीय देखिये)। इसकी कुटी मेरु दो पुत्र हुए। पर्वत के पास थी ऐसा कहीं कहीं उल्लेख मिलता है । आनकदुंदुभि--(सो. यद.) कृष्ण के पिता वसुदेव अष्टवसु इसकी कामधेनु सुरभि को चुराकर ले गये, इस का नाम । इनके जन्म के समय देवताओं ने दुंदुभि बजाई, लिये तुम मत्यलोक में जन्म लो, ऐसा इसने उन्हें शाप इसलिये यह नाम पडा। दिया। इसीके उशाप के कारन, भीष्म को छोड, अन्य आनंद-गालव्यकुलोत्पन्न एक ब्राहाण । इसने | सबको गंगा ने पानी में डुबाया (म. आ. ९३)। ब्रह्माजी का अधिकार धारण कर नवीन यज्ञबद्धति, विवाह आपस्तंब--भृगकुलोत्पन्न एक ब्रताल। यह तैत्तिरीय पद्धति तथा वर्णाश्रमपद्धति स्थापित की (वायु. २१.२६; शाखा का था। कश्यप ने दिति के द्वारा पुत्रकामेष्टि यज्ञ २३.४६ ) । इसके मानस पुत्र विराट ने इसके पश्चात् करवाया, उसमें यह आचार्य था । उसी इष्टि से मरुद्गण राज्य किया। यह राज्य १३२ वर्ष रहा । इसके पश्चात् उत्पन्न हुए (मस्य.७)। .३०० वर्षों तक प्रजासत्ता-मक राज्य चालू था (दप्तरीकृत __ उसकी स्त्री का नाम अक्षसूत्रा तथा पुत्र का नाम कर्कि धर्मरहत्य, पृष्ठ १५४)। (ब्रह्म. १३०.२-३)। इसके रचित ग्रंथ १. आपस्तंब२. मेघातिथि के सात पुत्रों में से एक । इसी नाम से श्रौतसूत्र, २. आपस्तंबगृह्यसूत्र, ३. आपस्तंबब्राह्मण, इसका संवत्सर है (विष्णु. २.४.४ )। ४. आपस्तं बमंत्रसंहिता, ५. आपस्तंबसंहिता, ६. आप३. सत्य नामक देवगण में से एक । स्तंवसूत्र, ७. आपस्तैवस्मृति, ८. आपस्तंबोपनिषद्, ९. · आनंदज चांधनायन-- शांब का शिष्य । इसका आपस्तंबाध्यात्मपटल, १०. आपस्तंबान्त्येष्टिप्रयोग, शिष्य भानुमत् (वं. बा. १)। ११. आपस्तंबापरसूत्र, १२. आपस्तंबप्रयोग १३. आपआनभिम्लात-- यह दूसरे एक आनभिग्लात का | स्तंबशुल्बसूत्र, १४. आपस्तंवधर्मसूत्र (C.C.)। इसके शिष्य (बृ. उ. २.६.२)। | श्रौतसूत्रों में श्रीत, गृह्य, धर्म, शूल्व, मंत्रसंहिता आदि आनर्त-- (सु. शर्याति.) शर्यातिपुत्र । आनर्त देश | भाग हैं। (गुजरात) इसी के नाम से प्रसिद्ध हुआ। इसका पुत्र | इसका नाम याज्ञवल्क्य स्मृति में दिये गये स्मृतिकारों रेवत (दे. भा. २.५)। इसने कुशस्थली नगरी स्थापित | में है । तर्पण में इसका नाम बौधायन के पीछे तथा की (ब्रह्म. ७; ह. वं. १.१०.३२-३३)। सत्याषाढ हिरण्यकेशी के पहले आता है। इससे पता २. (सो. सह.) मत्स्यमतानुसार वीतिहोत्रपुत्र । चलता है कि इसकी शाखा हिरण्यकेशी शाखा के काफी आंतरिक्ष-- एक व्यास (व्यास देखिये)। पहले की होगी। आपस्तंव ने अपने धर्मसूत्र में (२.७. आंध्रभृत्य- (आंध्र. भविष्य.) म स्यमतानुसार १७.१७) उदीच्य लोगों के एक श्राद्ध का उल्लेख किया पुलोमा का पुत्र । है। उदीच्य शब्द का अर्थ हरदत्त ने शरावती नदी के मार-स्वारोचिष मनु का पुत्र । उत्तर की ओर रहनेवाले लोग, ऐसा दिया है। आपस्तंब Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन चरित्रकोश आपस्तंव शरावती नदी के उत्तर की ओर, आंध्र देश में रहता होगा । उसी प्रकार, ऐसा उल्लेख है कि, पल्हव राजाओं ने आपस्तंबी लोगों को काफी भेंट ( देन ) दी ( I. A. v. (155) | इससे प्रतीत होता है कि, आपस्तंची शाखा आंध्र देश के आसपास निकली होगी । आपस्तंच कल्पसूत्र के (२८.२९) दो प्रश्न ही आपस्तंब धर्मसूत्र हैं । उसी प्रकार २५ तथा २६ इन दो प्रश्नों का एकत्रीकरण कर, उसे आपस्तंबीय मंत्रपाठ नाम दिया गया है। कल्पसूत्र के २७ वै प्रभ को आपस्तंचरा यह नाम है । आपस्तंत्र के गृह्यसूत्र तथा धर्मसूत्र में काफी साम्य है। आपस्तंत्रधर्मसूत्र में आचार, प्रायश्चित, ब्रह्मचारी के कर्तव्य तथा उनके व्यवहार के नियम, यज्ञोपवीतधारण के संबंध में नियम, श्राद्ध प्र. के संबंध में जानकारी दी गई है। उसी प्रकार बेटों के छः अंगों का भी विचार किया है। इसने सिद्ध किया है कि, कल्पसूत्र वेद न हो कर वेदांग ही है (आप. धर्म. २.४.८१२ ) । ब्राह्मणग्रंथ नष्ट हो गये हैं । प्रयोग से, वैसे ब्राह्मणग्रंथ होने चाहियें ऐसा इसका कथन है (आप. धर्म. १.४.१२ - १० ) ) आपस्तंच ने संहिता, ब्राह्मण तथा निरुल के कुछ उद्धरण लिये हैं। अपने धर्मसूत्र में कण्वपुष्करसादि दस धर्मशास्त्रकार, बौधायन एवं हारीत इनके भी मत इसने अनेक बार दिये हैं। संसार की उत्पत्ति तथा प्रलय के संबंध में भविष्यपुराण में दिये मत का आपस्तंत्र धर्मसूत्र में उलेख है तथा अनुशासन पर्व ( ९०.४६ ) का एक श्लोक इसने लिया है। आपस्तंत्र ने अपने धर्मसूत्रों में जैमिनि की पूर्वमीमांसा में से बहुत से मत एवं पारिभाषिक शब्दों का उपयोग किया है। आपस्तंव धर्मसूत्र का उल्लेख, शबर, ब्रह्मसूत्र के शांकरभाष्य, विश्वरूप का व्यवहार, मिताक्षरा एवं अपरार्क, इन ग्रंथों में किया गया है। आपस्तं धर्मसूत्र के कितने ही मत पूर्ववर्ती धर्मशास्त्रकारों के विरुद्ध हैं। आपस्तंत्र के मतानुसार नियोग त्याज्य है उसी प्रकार पैशाच तथा प्राजापत्य इन दो विवाह विधियों को, इसकी पूर्ण सम्मति है । इसके मतानुसार किसी भी प्रकार के मांस का भक्षण करने में कोई आपत्ति नहीं है। आपस्तंच धर्मसूत्र पर हरदत्त ने उज्ज्वला वृत्ति नामक टीका की है। आपस्तंब धर्मसूत्र में अध्यात्म विषयक दो पटलों पर शंकराचार्य का भाष्य हैं (१.८. २२-२३ )। अभिप्रतारिण आपस्तंब धर्मसूत्र से मित्र आपस्तंवस्मृति नामक २०७ श्लोकों का एक ग्रंथ, जीवानंद ने प्रकाशित किया है। आनंदाश्रम में प्रकाशित स्मृति में, दस अध्याय है। इस ग्रंथ में प्रायश्चित्त पर विचार किया गया है। स्मृतिचंद्रिका तथा अपरार्क ग्रंथों में इसके उद्धरण कई बार आये हैं । स्मृतिचंद्रिका में स्तोत्रापस्तंत्र नामक एक ग्रंथ का उल्लेख है। ६० र. बुल्हर ने इसका समय खि. पू. ३०० के पूर्व नहीं रहा होगा, ऐसा निश्चित किया है, परंतु तिलकजी ने इसका समय इससे भी पहले का माना है । ( गी. पृ. ५६१ ) । वैद्य ने आपस्तं श्रौतसूत्र का समय खि. पृ. १४२० निश्चित किया है, परंतु काणे रिल. पू. ६००-३०० मानते हैं । । आपस्तंवि अंगिराकुल का एक गोत्रकार । २. भृगुकुल का एक गोत्रकार । यह ब्रह्मर्षि था (म.व. २९९ १८ मत्स्य ७ ) । आपस्थूण बसि गोत्र का एक ऋषि गण -- आपिशलि -- एक व्याकरणकार संधि के विषय में लिखते समय पाणिनि ने इसका गौरव के साथ उल्लेख किया है (६. १. ९२) । इसने आपिशंलि नामक एक ग्रंथ लिखा (C.C.) उसमें प्राप्त, वर्णन का उल्लेख काशिका ( ७.३.९५.) एवं कैयट (५.१.२१ ) में भी प्राप्त है। काशिकाकार तथा तथा केवट ने यह ग्रंथ देखा होगा। २. भृगुकुल का एक ब्रह्मर्षि ।. आपिशी - भृगुकुल का एक गोत्रकार । अपिशली ऐसा पाठ है। आपूरण-- कद्रपुत्र । आपोद -- धौम्य का पैतृक नाम ( धौम्य देखिये) । आपोमूर्ति ( अपांमूर्ति) ब्रह्मसावर्णि मन्वन्तर के सप्तर्षियों में से एक ।' आपोलव-- ( आंध्र भविष्य ) ब्रह्मांडमत में शातकर्णीपुत्र | आप्त- बहूपुत्र । आपत्य त्रित, द्वित एकत तथा भुवन देखिये। आप्यचाप मन्वंतर का देव । - आप्यायन ( स्वा. प्रिय.) यशवाह के सात पुत्रों में से छठवां इसका संवासर इसी के नाम से चालू है। आप्सवमन देखिये। अभिप्रतारिण -- वृद्धद्युम्न देखिये । Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन चरित्रकोश आभूतरजस् आभूतंरजस् - - रैवत मन्वंतर का एक देव ( मनु . देखिये) । आभूति त्वाष्ट्र -- विश्वरूप त्वाष्ट्र का शिष्य (बृ. उ. २.६.३: ४.६.३ ) । आम - - ( स्वा. प्रिय.) घृतपृष्ठ के सात पुत्रों में ज्येष्ठ । इसका संवत्सर आमवर्ष इस नाम से प्रसिद्ध है। २. कृष्ण का सत्यभामा से उत्पन्न पुत्र । यह महारथी था। ३. कान्यकुञ्ज देश के इस राजा ने बुद्धधर्म स्वीकार कर, बुद्धधर्म का प्रचार चालू किया । राम ने मारुती के द्वारा इसका प्रतिकार कर, इसे पुनः वैदिक धर्म में समाया । इसकी राजधानी धर्मारण्य थी ( स्कंद. ३.२.३८ ) । आमहासुर- कश्यप एवं दनु का पुत्र । आमहीयव उरुक्षय देखिये । आमुष्यायण -- एक व्यास । व्यास देखिये | आमूर्तरजसय वा पैतृक नाम आंबरीष सिंधुद्वीप देखिये । आंबष्टय-पर्वत तथा नारद ने इसको राज्याभिषेक किया । इसके बाद इसने सारी पृथ्वी जीत कर अश्वमेध यज्ञ किया ( ऐ. बा. ८.२१ ) । आंबाज - आवेद के लिये पाठभेद । आंभृणी -- वाच् देखिये । आयति-- मेरु की कन्या, नियति की भगिनी तथा मातृ ऋषि की स्त्री। २. (सो.) नहुष का पुत्र । ययाति का बंधु । आयवस—संभवतः यह नहुषों का शासक होगा। इस पराक्रमी राजा के तीन पुत्रों ने कक्षीवन को तंग किया ( १.१२२.१५) । भवाप्य वा आयास्य- अंगिरस गोत्र का मंत्रकार । आयु -- इंद्र ने वेश के लिये इसका पराभव किया था (ऋ. १०.४९.५ ) । इंद्र ने इसका पराभव किया, ऐसा बहुत स्थानों पर उल्लेख मिलता है (ऋ. २.१४. ७८.५२.२) तथापि आयु ने इंद्रकी प्रशंसा के लिये एक सूक्त रचा है (ऋ. ८.५२ ) । यह शब्द सामान्य तथा विशेष अर्थ में उपयोग में लाया गया है। कुत्स तथा अतिथिग्य के साथ इसका उल्लेख है। (सो.) पुरूरवस् को उर्वशी से उत्पन्न पुत्रों में ज्येष्ठ (मा. ९.१५ १३ म. आ. ७० २२ ९०.७ हो. द्रो. ११९ ५ अनु. १४७१ वा. रा. उ. ५६१. १३९. ३: पद्म. सृ. १२. ८७ भू. १०३ ) | दत्तात्रेय ६१ आयु काण्य के आश्रम में सौ वर्ष सेवा करने पर, दत्त ने इसे एक फल दिया। उसने अपनी स्त्री इंदुमती को वह फल खिलाया जिसके कारण वह गरोदर हुई तथा उसे नहुष नामक पुत्र हुआ। उसे हुड नामक दैत्य चुरा कर ले गया इसलिये, वह अपनी पत्नीसहित शोक करने लगा । नारद ने बताया कि, नहुष के द्वारा हुंड दैत्य मारा जायेगा तब वह स्वस्थ हुआ (पद्म. भू. १०३-१०८ ) । इसे स्वर्भानु की कन्या प्रभा नामक दूसरी स्त्री थी, जिससे नहुषादि पुत्र हुए ( भा. ९.१७.१; गरुड. १३९. ८; ब्रह्माण्ड ३.६७. १-२ ब्रह्म. ११ पद्म. पा. १२८७; ह. वं. १. २८ ) । आयु का वंशक्रम इस के पांच पुत्र- -- · १. नहुष, २. वृद्धशर्मन् (क्षत्रवृद्ध ), ३. रम्भ, ४. रजि ५ अनेनस् नहुष का ययाति पूरु आदि वंश प्रसिद्ध है । वृद्धशर्मन् का ही क्षत्रवृद्ध नाम है । उस का वंश काशि और काश्य नाम से प्रसिद्ध है। तीसरा रम्भ अनपत्य था । तथापि कई जगे उसका वंश मिलता है ( भा. ९.१७.१० ) । चौथा रजि उस को सौ पुत्र थे । वे इंद्र द्वारा नष्ट हो गये । अनेनस् का वंश स्वतंत्र रूप से उपलब्ध है (ह. वं. १.२९) । आयुपुत्र रजि वंश को राजेय कहा गया है ( वायु. ९२.७४–९९) । इसका वंश ऊपर दिये गये स्थानों में है । इसने छत्तीस हजार वर्ष राज्य किया (भवि. प्रति. १.१ ) । २. पौष माह में भग नामक आदित्य के साथ भ्रमण करने वाला ऋषि (भा. १२.११.४२ ) । ३. कृष्ण को रोहिणी से उत्पन्न पुत्र ( भा. १०.६१. १७) | ४. अंगिरा तथा सुरूपा का पुत्र एक देव ( मत्स्य. १९६ ) । ५. मंडूकों का एक प्रसिद्ध राजा ( म. व. १९०. २७ ) । ६. प्राण नामक वसु एवं ऊर्जस्नती का पुत्र ( भा. ६. ६.१२ ) । ७. (सो. कोहु.) पुरुहोत्र राजा का पुत्र । इसका पुत्र सात्वत (मा. १९२४.६ ) । ८. धर्म तथा वसु का पुत्र इन्हें वैतंय, शम, शांत सनत्कुमार एवं स्कंद ये पुत्र थे (ब्रह्माण्ड २.२.२१२९) । आयु काण्च सूक्तद्रष्टा (८.५२ ) । Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आयुतायु प्राचीन चरित्रकोश आर्भव आयुतायु--(मगध. भविष्य.) भागवत, वायु एवं | ३.४.१; छां. उ. ५.३.१). प्राणविद्या बताते समय इसका ब्रह्माण्ड के मतानुसार श्रुतश्रवस् का पुत्र । उल्लेख है (जै. उ. ब्रा. २.५.१)। आयुर्दान--पारावत नामक देवगणों में से एक । | आरुषी-मनुकन्या। च्यवन ऋषि की दो स्त्रियों में आयुप्मत-संहाद दैत्य के तीन पुत्रों में से ज्येष्ठ । से ज्येष्ठ । उर्व ऋषि की माता । २. दक्षसावर्णि मन्वंतर में होनेवाले ऋषभ अवतार आरहण्य- सुमंतु का शिष्य । इसका शिष्य चैकिका पिता। तायन (वं. वा. २)। .. ३. उत्तानपाद का पुत्र । ___ आर्भ-प्रियमेध का आश्रयदाता (ऋ. ८.६८.१५आयोगव मरुत्त आविक्षित-मरुत्त देखिये। १६)। अतिथिग्व इंद्रोत तथा आक्ष से दान मिलने का आरणेय-अरणी से उत्पन्न होने के कारण, शक को | उल्लेख प्रियमेध ने किया है। एक अन्य स्थान पर आक्ष दिया गया नाम (दे. भा. १. १७)। श्रुतर्वन् का निर्देश है (ऋ. ८.७४. ४)। आरण्य-एक मध्यमाध्वर्यु । आकायण-गलूनस देखिये। आरण्यक लोमश ने इसे रामायण सुनाई (पन. आर्चत्क-शरका पैतृक नाम (ऋ. १.११६.२२)। पा. ३५. ३७)। ऋचत्क का पुत्र। आरद्वत्-अंगार देखिये। आर्चनानस-अत्रिगोत्र का प्रवर । आरब्ध-अंगार देखिये । आर्चिष्मत्-सुतपदेवों में से एक। आर्जव (आर्जय)-गांधार देशाधिपति शकुनि के आराधिन वा आराविन्-(सो. कुरु.) वायुमता छः बंधुओं में से एक । इसे भारतीय युद्ध में इरावान् ने नुसार जयत्सेन का पुत्र तथा विष्णुमतानुसार आराविन् । मारा (म. भी. ८६. २४; ४२)। .. आराहळि-सौजात देखिये । आरुणायनि-अंगिराकुल का एक गोत्रकार । आर्जुनेय-कुत्सका पैतृकनाम (ऋ. १. ११२. २३; | ४. २६. १; ७. १९. २, ८. १. ११)। आरुणि-उद्दालक का पैतृक नाम (बृ. उ. ३.६.१; आर्तपर्णि-(सू. इ.) ऋतुपर्ण का पुत्र (ह. वं. छां. उ. ३.११.४)। सुब्रह्मण्य का गुरु आरुणि यशस्विन् । यही है (जै. ब्रा. २.८०)। आरुणि ने हृदय के अष्टदलयुक्त | आर्तभाग जारत्कारव-जरत्कारु का पुत्र । यह कमल के स्थान ब्रह्मदृष्टि रख कर ब्रह्मा की आराधना की | आस्तीक ऋषि का ही नाम होगा । दैवराति जनक की (ऐ. आ. २.१.४)। वायुमतानुसार यजुःशिष्यपरंपराके सभा में, याज्ञवल्क से वाद करनेवाला संभवतः यही व्यास का मध्यदेश का शिप्य (व्यास देखिये)। यह होगा (बृ. उ. ३. २. १, १३)। 'कति ग्रहाः' प्रश्न का वासिष्ठ चैकितायन के पास ज्ञानार्जन के लिये गया था उत्तर दे कर, याज्ञवल्क्य ने इसे चुप बिठाया। (जै. उ. बा. १.४२.१)। अन्य स्थान में, अग्नि उध्वर्यु ___ आर्तभागीपुत्र--शौंगीपुत्र का शिष्य, तथा वार्काका नाश न कर शत्रु का नाश करता है, यह बताने के रुणीपुत्र का गुरु (बृ. उ. ६.५.२)। लिये इसके नाम का उल्लेख आता है (श. ब्रा. १.१.२. आर्तव--बर्हिषद पितरों का नामांतर । ११)। अग्निहोत्र की प्रशंसा करते समय भी एक ___ आर्तायनि--ऋतायनपुत्र शल्य का पैतृक नाम (म. आरुणि का उल्लेख है (श. ब्रा २. ३. ३१)। आरुणि भी. ५८. १४)। पांचाल्य का उद्दालक भी नाम है (उद्दालक देखिये)। आर्तिमत्-एक ऋषि । इसके स्मरण से सर्पबाधा २. धर्मसावर्णि मन्वंतर के सप्तर्षियों में एक । नष्ट होती है (म. आ. ५३. २३)। ३. विनता का पुत्र । आर्द्र--(स. इ.) आर्द्रक ऐसा पाठभेद है (म. व. ४. सर्प (म. आ. ५२.१७)। १९३. ३; इंदु देखिये)। ५. एक व्यास (व्यास देखिये)। आईक-आर्द्र देखिये। आरुणि पांचाल्य-- उद्दालक देखिये। आर्द्रा-सोम की सत्ताईस स्त्रियों में से एक ! आरुणेय- औपवेशि के कुल में उद्दालक आरुणि आधुदि--ऊर्ध्वग्रावन् देखिये। तथा पुत्र श्वेतकेतु का यह पैतृक नाम है (श. ब्रा. १०. आर्भव-सूनु देखिये। ६२ Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आर्य प्राचीन चरित्रकोश आश्वतर आश्वि आर्य--माल्य देखिये। आलंबीपुत्र--जयंतीपुत्र का शिष्य तथा कौशिकीपुत्र आर्यक--कद्र पुत्र । इसकी कन्या मारीषा वा भोजा । | का गुरु (बृ. उ. ६.५.१.२ काण्व)। मारीषा यदुकुलोत्पन्न शूर राजा की स्त्री थी, जिससे | आलुकि-भृगुकुल का गोत्रकार । जलाभिद् पाठमेद शूरको पृथा नामक कन्या उत्पन्न हुई। आगे चल कर, | है। इसी का नाम कुंती हुआ। भीम की माता पृथा आर्यक आलेखन-एक आचार्य (आश्व. श्री. ६.१०)। की दौहित्री थी। भीम को दुर्योधनादि कौरवों ने विषयुक्त | आल्लकेय--हृत्स्वाशय देखिये। अन्न खिलाकर, प्रमाणकोटितीर्थ में डुबाया । नदी के | आवटिन्--ब्रह्मांडमतानुसार व्यास की यजुः शिष्य सपाने उसे दंश किया जिस कारण विष उतर गया। परंपरा में से याज्ञवल्क्य का वाजसनेय शिष्य (व्यास भीम सावधान हुआ ही था कि, नाग फिर दंश करने | देखिये)। यही आटविन है। आये । तब भीम ने उनसे युद्ध शुरू किया । यह आवंत्य-भागवत मतानुसार व्यास की सामशिष्य समाचार मिलते ही आर्यक वहां पहुंचा । भीम को उसने | परंपरा में से ब्रह्मवेत्ता का शिष्य (व्यास देखिये)। पहचान लिया, तथा उसे पाताल में ले जा कर अमृतमान | आवरण--(वा.) भरत तथा पंचजनी का पुत्र । कराया । तुझमें दस सहस्र नागों का बल रहे ऐसा | आवाह-(सो. यदु.) विष्णुमतानुसार श्वफल का आशीर्वाद दे, इसने उसे हस्तिनापुर तक पहुंचाया पुत्र | (म. आ. ११९; परि. १. क्र. ७३)। | आविक्षित--मरुत्त का पैतृक नाम । इस मरुत्त का २. धर्मसावर्णि मन्वंतर में होनेवाले विष्णु का पिता। कामप्रि ऐसा दूसरा नाम भी होगा (ऐ. ब्रा. ८. २१; श. आर्यशृंगि-दुर्योधन पक्षीय एक राक्षस । इसने ब्रा. १३.५.४.६; म. शां. २९.१५)। वायुमतानुसार यह अर्जुनपुत्र इरावत् का वध किया (म. भी. ८६.६४)। करंधम का पुत्र है। आषाण-अंगिराकुल का एक गोत्रकार। विहोत्र-ऋषभदेव तथा जयंती का भगवद्भक्त 'आर्टिषेण कृतयुग में हुआ एक राजर्षि। तप के | पुत्र। बल पर यह ब्राह्मण हुआ (म. स. ८.१३; श. ३९.१ आवेद-भृगुकुल का एक गोत्रकार (आंबाज देखिये)। वायु. ९१.११४)। इसका आश्रम हिमालय पर नर- आशावह--विवस्वान का पुत्र । नारायणाश्रम के पास था (म. व. १५३, परि १.१७, २. द्रौपदी के स्वयंवर को आया हुआ यादव (म. 'पंक्ति ३१)। इसके पास पांडव गये थे। (म. व. १५६. १६८)। यह भृगुकुल का मंत्रकार था। इसका अद्विषेण | ___ आश्मरथ्य--आश्मरथ का वंशज । सूत्र ग्रंथों में नाम भी मिलता है (वायु. ५९.९५-९७)। निर्णयसिंधु मतमेद दर्शाने के लिये इसका नाम आता है (आश्व. में इसका आधार लिया गया है। देवापि देखिये। श्री. ६.१०; व्र. सू. १.२.२९, ४.२०)। २. (सो. क्षत्र.) शल का पुत्र (वायु. ९२.५)। आश्माकी--प्रचिन्वत् की पनी । अश्मकी भी पाठ ३. वृद्धा देखिये। है। यादवकन्या । इसका पुत्र शर्याति (म. आ. ९०.१३) आलंब--एक ऋषि । यह धर्मराज की सभा में था | संयाति ऐसा भांडारकर पाठ है। (म. स. ४.२० कुं.)। आश्रया-स्थावरनगर में रहने वाले कौडिन्य की आलंबायन-इंद्र का मित्र । इसने रुद्रका माहात्म्य | पत्नी (गणेश. १.६३)। बताया (म. अनु ४९)। आश्रायणि--कश्यपकुल का एक गोत्रकार । २. वसिष्ठकुल का एक गोत्रकार तथा ऋषिगण। आश्राव्य--इन्द्र सभा का एक ऋपि (म. स. ७.१६)। आलंघायनीपुत्र--आलंबीपुत्र का शिष्य (बृ. उ.६. आश्लेषा--सोम की सत्ताईस नियों में से एक। ५.२. काण्व )। आश्वघ्न--यह कोई स्वतंत्र व्यक्ति होगा, वा मनु के आलंबि-ब्रह्मांड तथा वायुमतानुसार व्यास के यजुः- लिये एक विशेषण होगा (ऋ. १०.६१.२१)। 'शिष्यपरंपरा के प्राच्यों में से एक। आश्चतर आश्वि--बुडिल का पैतृक नाम (ऐ. ब्रा. आलंबी-कश्यप तथा खशा की कन्या । ६.३०; श. वा. ४.६.१.९)। Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वत्थ्य प्राचीन चरित्रकोश आसमंजस आश्वत्थ्य--अहीन का पैतृक नाम (तै. ब्रा. ३.१०. आलेखन (६.१०), आश्मरथ्य (६.१०), कौत्स ९.१०)। १. २, ७.१), गाणगारि ( २. ६; १२. ९-१०), आश्वमेध-एक राजा का पैतृक नाम । इसका उल्लेख गौतम (२.६, ५.६), तौल्बलि (२.६, ५.६), दानस्तुति में आया है (ऋ. ८.६८. १५-१६)। शौनक (१२. १०)। आश्वल--विश्वामित्र का पुत्र तथा ब्रह्मर्षि । इनमें से तौल्वलि पौर्वात्य हैं (पा. सू.२.४.६०आश्वलायन--एक शाखाप्रवर्तक आचार्य । आश्वला- ६१)। विदेहाधिपति जनक का यह होता था । अश्वल से यन शाखा महाराष्ट्र में प्रसिद्ध है, परंतु इस शाखा के संभवतः इसका संबंध है। वेबर के मतानुसार यह पाणि नि संहिता ब्राह्मणादि वैदिक ग्रंथ उपलब्ध नहीं हैं। इसके | का समकालीन रहा होगा। चिं. वि. वैद्य ने इसका काल प्रसिद्ध ग्रंथ निम्न लिखित है १. आश्वलायनगृह्यसूत्र, | खि. पूर्व १०० वर्ष माना है । श्रौतसूत्र तथा गृह्यसूत्र एक २. अश्वलायनश्रौतसूत्र, ३. आश्वलायन स्मृति। ही आश्वलायन के नहीं रहे होंगे। आश्वलायनंगृह्यसूत्र यह शौनक का शिष्य था। इसके सूत्र के अंत में में यद्यपि श्रौतसूत्र का विवरण मिलता है तथापि भाषा'नमः शौनकाय' कहकर शौनक को प्रणाम किया है।। भिन्नता स्पष्ट दिखाई देती है। इसे आश्वलायन की शौनक ने स्वतः १००० भागों का एक सूत्र रचा था।। शिष्यपरंपरा के किसी शिष्य ने लिख कर आश्वलायन किन्तु आश्वलायन का सूत्र, संक्षेप में एवं अच्छा होने के के नाम पर जोड दिया होगा। कारण उसने अपना सूत्र फाड डाला। इसका श्रौतसूत्र २. अथर्ववेदीय कैवल्योपनिषद परमेष्ठी ने आश्वलायन बारह अध्यायों का तथा गृह्यसूत्र चार अध्यायों का है। का बताया है। ऊपर उल्लेखित तथा यह संभवतः एक श्रौतसूत्रों में होत्रकर्म में मंत्र का विनियोग बताया है। | ही हो सकते हैं। दर्शपूर्णमास, अग्न्याधान, पुनराधान, आग्रयण, अनेक ३. कौसल्य का पैतृक नाम । काम्येष्टि, चातुर्मास्य, पशु, सौत्रामणी, अग्निष्टोमादि सप्त ४. शिवावतार में सहिष्णु का शिष्य। .. सोम संस्था, सत्रों के हौत्र तथा अंत में गोत्रप्रवरों का संक्षिप्त संग्रह है। अमिहोमसमान कर्म का भी कहीं आश्वलायनिन-कश्याकुल का गोत्रकार ऋषि गण | कहीं उल्लेख किया है। गृह्यसूत्रों में निम्नलिखित विषय आश्ववातायन-कश्य गोत्र का एक गोत्रकार । प्रमुख वर्णित है--संस्कार, नित्यकर्म, वास्तु, उत्सर्जन, आश्वसूक्ति-सामद्रष्टा (पं. बा. १९.४.२)। उपाकर्म, युद्धार्थसज्जता तथा शूलगव । भाश्वायनि-भृगुकुल का एक गोत्रकार । २. अंगिराकुल का एक गोत्रकार । गृह्यसूत्र में दिये गये तर्पण में ऋग्वेद के ऋषि मंडला आश्विनेय-अश्विनीकुमार देखिये। नुसार लिये हैं, एवं जहां ऋषि लेना असंभव लगा वहां आसंग--(सो. यदु. वृष्णि.) श्वफल्क का पुत्र । प्रगाथ क्षुद्रसूक्त, महासूक्त तथा मध्यम ऐसा उल्लेख किया है । उसी तरह न्यास के शिष्य सुमंतु वगैरह बता कर सूत्र, आसंग प्लायोगि-एक दानशूर राजा तथा सूक्तभाष्य, भारत एवं महाभारत का भी उल्लेख किया है। द्रष्टा (ऋ. ८. १. ३२-३३)। इसका पुरुषत्व नष्ट होने आचार्य तथा पितर इस प्रकार है--शतर्चिन् , के कारण, यह स्त्री बन गया था। परंतु मेध्यातिथि की माध्यम, गृत्समद, विश्वामित्र, वामदेव, अत्रि, भरद्वाज, कृपा से इसे पुरुषत्वं प्राप्त हुआ, इसलिये इसकी स्त्री वसिष्ठ, सुमंतु, जैमिनि, वैशंपायन, पैल, जानंति, बाहवि, शश्वती बहुत आनंदित हुअी, ऐसी एक आख्यायिका गार्ग्य, गौतम, शाकल्य, बाभ्रव्य, मांडव्य, मांडूकेय, गार्गी सायण ने दी है। अन्य लोगों को इसमें सत्यता प्रतीत नहीं वाचकवी, वडवा प्रातिथेयी, सुलभा मैत्रेयी, कहोल, होती। अंतिम ऋचा को संदर्भ भी नहीं है। इसी सूक्त कौषीतक, महाकौषीतक, पैंग्य, महापैंग्य, सुयज्ञ, सांख्यायन में आसंग को याद कहा गया है। इससे यह पता चलता ऐतरेय, महैतरेय, शाकल, बाष्कल, सुजातवक्त्र, औदवाहि, है कि वह यदुवंशी रहा होगा (ऋ. ८.१.३१, ३४)। महौदवाहि, सौजामि, शौनक एवं आश्वलायन । ऐतरेय आसंदिव-नारायण माहात्म्य के लिये इसकी कथा ब्राह्मण से ये सूत्र मिलते जुलते हैं तथा उसमें से कुछ | है (ब्रह्म. १६७)। अवतरण भी इसमें पाये जाते हैं । आश्वलायन के श्रौत- आसमंजस-(सू. इ.) असमंजस्पुत्र अंशुमान् का सूत्र में निम्नलिखित आचार्यों का उल्लेख आता है। नाम । ६४ Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आसारण प्राचीन चरित्रकोश आस्तीक. आसारण-भाद्रपद माह में सूर्य के साथ साथ | इसने उपन्यन के पश्चात् च्यवनात्मज भार्गव ऋषि से घूमनेवाला यक्ष । सांगवेद का अध्ययन किया (म. आ. ४४.१८)। शंकर आसुरायण-दो स्थानों पर त्रैवणी का तथा तीसरे ने इसका व्रतबंध कराया। इसे वेदवेदांगों में निष्णात स्थान पर आसुरी का शिष्य (बृ. उ. २.६.३, ४.६.३; करने के पश्चात् मृत्युंजय मंत्र का अनुग्रह दिया । शंकर बृ. र. ६.५.२) । ब्रह्मांडमतानुसार व्यास के अथर्व शिष्य | की आज्ञानुसार फिर जरत्कारू पुत्रसहित पिता के आश्रम परंपरा के पाराशर्य कौथुम का शिप्य (व्यास देखिये)। में जा कर रही। २. कश्यप गोत्र का एक ऋषिगण । सर्पसत्र-जनमेजय राजा ने अपने मंत्री से सुना कि, ३. विश्वामित्र का पुत्र (म. अनु. ७)। पिताजी की मृत्यु सर्पदंश के कारण हुई। इसलिये आसुरि-यह सायंहोम पक्ष का है। इसने उदित क्रोधित हो कर जनमेजय ने सर्पसत्र कर, सारे सो को होम पक्ष की बहुत निंदा की है (श. बा. २.२.३.९)। मार डालने का निश्चय किया तथा यज्ञदीक्षा ली। यज्ञ इसने अग्नि के उपस्थान का छोटा मंत्र सुझाया है (श. ब्रा. प्रारंभ होनेवाला ही था कि, जनमेजय ने वास्तुशास्त्र में २.३.३.२ )। भारद्वाज का - शिष्य तथा औपजंधनी का निष्णात कारीगर लोहिताक्ष से पूछा कि, यज्ञ मंडप में गुरु (बृ. उ. २.६.३, ४.६.३)। दूसरे स्थान पर याज्ञ- याज्ञिक किस तरह संपन्न होगा, इसपर यज्ञमंडप का वल्क्य का शिष्य तथा आसुरायण का गुरु है (बृ. उ. ६. | स्थान तथा जिस समय भूमापन प्रारंभ हुआ इसे ध्यान ५.२) यज्ञविधि में इसे प्रमाण माना गया है (श. ब्रा. में रख उसने कहा कि, यज्ञ में बडा विघ्न आवेगा तथा १.५.२.२६, २.१.४.२७) । अनिर्बध मत तथा सत्य के | यह यज्ञ एक ब्राह्मण के द्वारा बंद होगा । तथापि राजा ने लिये आग्रह के संबंध में इसे मान्यता प्राप्त थी (श. ब्रा. | यज्ञ की सारी सामग्री जमा कर पूरी व्यवस्था के साथ १४.१.१.३३) । शुक्लयजू के ब्रह्मयज्ञांग पितृतर्पण में यह यज्ञ प्रारंभ कर, सों का संहार शुरू किया। सर्पसत्र में था ( पा. गृ. परिशिष्ट) । ब्रह्माण्डमंतानुसार व्यास की अंत में तक्षक की बारी आयी । सपों ने यह बात जरत्कारू . यजुःशिष्यपरंपरा में मध्यदेशवासी शिष्य (व्यास को बतायी और भाई की रक्षा करने की प्रार्थना की। देखिये)। युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ का एक ऋषि । सपंरक्षण--जरत्कारू ने आस्तीक को मातुलकुल का सांख्यशास्त्रज्ञ कपिल का शिष्य तथा पंचशिख का गुरु रक्षण करने की आज्ञा दी । मातृभक्त आस्तीक आज्ञा (म. शां. २११)। इसका कपिल से व्यक्ताव्यक्त पर शिरोधार्य कर जनमेजय के यज्ञमंडप में पहुंचा। वहां संवाद हुआ (म. शां. परि. १.२९ अ-२९ब)। शिवाव उसने अपनी चतुराई तथा मधुर वाणी से राजा के मन तार दधिवाहन का शिष्य । को आकर्षित कर लिया । सर्पसत्र से घबराया हुआ .. आसुरिवासिन्-प्राश्नीपुत्र का नाम (बृ. उ. ४.५. तक्षक प्राणरक्षणार्थ इंद्र की शरण में गया। इंद्र ने उसे अभय दान दिया। ब्राह्मणों ने यज्ञ में तक्षक का आवाहन . आसरी--(स्वा. प्रिय.) देवता जित् राजा की स्त्री किया पर उसे आते न देख, ब्राह्मणों ने कहा कि, इंद्र तथा देवद्युम्न की माता। ने उसका रक्षण किया है, इसलिये वह नहीं आ रहा ___ आस्तीक---भृगकुलोत्पन्न जरत्कारू. ऋषि तथा तक्षक है। तब राजा ने इंद्रसहित तक्षक का आवाहन करने भगिनी जरत्कारू का पुत्र । गरोदर अवस्था में इसके पति | को कहा । ब्राह्मणों ने 'इंद्राय तक्षकाय स्वाहा' कहा वन को चले गये इसलिये जरत्कारू कैलास पर्वत पर चली | तथा इतना कहते ही इंद्र ने तक्षक का त्याग कर दिया। गयी। यहां शंकर ने उसे ज्ञानोपदेश किया । यहाँ उसने इस कारण तक्षक अकेला ही कुंड के ऊर्ध्व प्रदेश में एक पुत्र को जन्म दिया। पुत्र ने गर्भ में शंकर का उपदेश | खिन्नवदन खडा हो गया (म. आ. ४७-४९)। ब्राह्मणों ग्रहण किया इस लिये इसका नाम आस्तीक रखा गया। के इंद्रसहित तक्षक का आवाहन करते ही, देवतागण माँ ने पति से गर्भ के विषय में पूछा जिसका उत्तर उसे | इंद्र के सहित मनसा के पास गये । तब उसने आस्तीक 'अस्ति' मिला इसलिये पुत्र का नाम 'आस्तीक' रखा पुत्र को सपों के संकट निवारणार्थ आज्ञा दी । आस्तीक के गया (म. आ. ४४.१९-२० दे. भा. २.१२)। भाषण के कारण राजा ने उसे कहा कि, तुम्हें जो 'शिक्षा-आगे चल कर इसकी माता अपने भाई चाहिये मांगो। इसी समय सारे ब्राह्मण कह पडे कि, वासुकि के घर पर रही। वहीं इसका संगोपन हुआ। 'तक्षक आवाहन करने के पश्चात् भी अभी तक नहीं प्रा. च.९] ६५ Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आस्तीक प्राचीन चरित्रकोश इक्ष्वाकु आ रहा है । वह जब तक कुंड में आकर नहीं गिरता आस्त्रबुध्न--इंद्र ने इसके कारण, वेन्य पृथु का वध तब तक इसे वरदान न दीजिये । ' इसी बीच ब्राह्मणों के किया (ऋ. १०.१७१.३)। मंत्रसामर्थ्य के कारण, तक्षक को कुंड के ऊर्वभाग में आहार्य----अंगिरसगोत्रीय मंत्रकार। आया हुआ इसने देखा । उसे 'तिष्ठ तिष्ठ' कह कर रोका तथा यही वर मांगने की योग्य घडी है ऐसा जान कर आहुक--(सो. यदु. कुकुर.) पुनर्वसु का पुत्र । इसके उसने राजा से 'सर्पसत्र रोक दीजिये' ऐसा वरदान मांगा। | सौ पुत्र थे (म. स. १४.५५) । तथापि उनमें से देवक राजा अत्यंत खिन्न हो कर और कोई दसरी चीज मांगने तथा उग्रसेन बहुत प्रसिद्ध थे । शाल्व के साथ कृष्ण के के लिये कहने लगा परंतु वचनबद्ध होने के कारण युद्ध के समय इसने द्वारका का रक्षण किया (म. व. १६. 'तथास्तु' कह कर राजा ने सर्पसत्र रोक दिया। आस्तीक २३)। यह अभिजिन् पुत्र था । इसे श्राहक नामक भाई का सम्मान कर उसे बिदा किया। था । अत्यंत ऐश्वर्यवान् तथा पराक्रमी ऐसी इनकी आस्तीक के इस यशप्राप्ति के कारण, सब सपों ने प्रसिद्धि थी (ब्रह्म. १५.४६-११)। उसका बडा स्वागत किया और प्रसन्न होकर वे इसे वरदान आहकी---पुनर्वसु राजा की कन्या तथा आहक की देने लगे। इसपर आस्तीक ने वर मांगा कि, जो मेरा भगिनी। आख्यान, त्रिकाल पठन करेंगे उन्हें तुम बिलकुल कष्ट न आहत--हेतनामन देखिये। देना (म. आ. ५३. २०)। आस्तीक ने जनमेजय से इंद्र तथा तक्षक के प्राणों की याचना की। तब ब्राह्मणों की * आवृति--(सो. यदु. क्रोष्टु.) कर्ममतानुसार रोम पाद वंश में से एक। आज्ञा ले, राजा ने इसका कथन मान्य कर, सर्पसत्र बंद किया। स्वयं मनसा के पास जा कर, इन्द्र ने उस की आनेय--इसके पिता का नाम शुचि तथा माता का पूजा की तथा उसे बलि चढाई (दे. भा. ९. ४८)। नाम अह्नि था। स्वाध्याय गांव के बाहर करना चाहिये, नंदिवर्धिनी पंचमी के दिन सर्पसत्र बंद हुआ था इसलिये ऐसा नियम होते हुए भी यदि यह संभव न हो, तो गांव यह दिन नागों को अत्यंत प्रिय है (भवि. ब्राहा. ३२; के अंदर ही अध्ययन करना चाहिये ऐसा इसका मत है तक्षक आर्तभाग जारत्कारव देखिये)। (ते. आ. २.१२)। इक्षालव--ब्रह्माण्ड मतानुसार व्यास के ऋक् शिष्य- को दंड देने से स्वर्गप्राप्ति होती है। इस तरह का उपदेश परंपरा का शाकवण रथीतर का शिष्य ( व्यास देखिये)। दे कर, जो कार्य करना होगा उसकी रूपरेखा मनु ने इसे इक्ष्वाकु-(सू.) वैवस्वत मनु के दस पुत्रों में से बतायी। मनु ने पृथ्वी के दस भाग बनाये। वसिष्ठ की ज्येष्ठ (म. आ. ७०.१३; भवि. ब्राह्म. ७९)। इसकी आज्ञानुसार वे सुद्युम्न को न दे कर, इक्ष्वाकु को दिये उत्पत्ति के संबंध में जानकारी इस प्रकार मिलती है । एक (वायु. ८५.२०)। मनु ने मित्र तथा वरुण देवताओं के बार मनु को छींक आयी। उस छींक के साथ ही यह | लिये याग किया। इस कारण इक्ष्वाकु तथा अन्य पुत्र लडका सम्मुख खड़ा हुआ। इस पर से इसका नाम प्राप्त हुए, ऐसी कथा है (विष्णु. ४.१)। वसिष्ठ इक्ष्वाकु इक्ष्वाकु पडा (ह. वं. १.११; दे. भा. ७.८; भा. ९.६; | राजा क कुलगुरु था (म. आ. ६६.९-१०; ब्रह्माण्ड. ३. ब्रह्मा. ७.४४; विष्णु. ४.२.३)। मनु ने कहा कि, तुम ४८.२९; पम. सु. ८.२१९; ४४.२३७. विष्णु. ४.३.१८, एक राजवंश के उत्पादक बनो, दंड की सहायता से राज्य | वा. रा. उ. ५७)। सूर्यवंश में प्रत्येक राजा के समय, करो, तथा व्यर्थ ही किसी को दंड मत दो। अपराधियों वसिष्ठ के कुलगुरु होने का निर्देश है। Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इक्ष्वाकु प्राचीन चरित्रकोश याकु, अयोध्या का पहला राजा था ( वा. रा. अयो. ११० ) । इसे मन्यदेश मिला था . . ११० नि १.६५.२८९ ब्रह्माण्ड २.६०.२०१ मत्स्य १२.१५) । यह क्षुप का पुत्र है ऐसा भी कहीं कहीं उल्लेख हैं । क्षुप ने प्रजापालनार्थ इसे एक खड्ग दी थी ( म. शां. १६०. ७२; आव. ४.३ ) । वंशावली में प्रत्यक्ष क्षुप का उल्लेख नही है । एक समय इश्वाकु यात्रा करते हिमालय की तलहटी के पास आया। वहाँ जा करनेवाला कौशिक नाम का ब्राह्मण था । उसका यम, ब्राह्मण, काल तथा मृत्यु के साथ, निष्काम जप के संबंध में संवाद हुआ। उस समय यह था म. शां. १९२ ) । इक्ष्वाकु कुल में पैदा हुए व्यक्तियों के लिये भी, इक्ष्वाकु कुलनाम दिया गया है। अलंबुपा के पति का नाम तृणबिंदु न हो कर इक्ष्वाकु था, ऐसा निर्देश है (वायु. ८६.१५; वा. रा. बा. ४७.११ ) । श्या के सौ पुत्र थे (ह. बं. १.११ दे. मा. ७.९ मा ९, ६ . अनु. ५ म. आ.. ७५) । इसके पुत्र का नाम विकुक्षि था। वाकु के पश्चात् यही "अयोध्या का राश हुआ। विकुक्षि से निर्मिवंश निर्माण हुआ इकु को दंडक नामक एक विद्याविदीन पुत्र भी था। इसी के नाम से दंडकारण्य बना ( वा. रा. उ. ९- मा. ९.६० विष्णु. ४.२ ) । इसके दसवें पुत्र का नाम शाश्व था। वह माहिष्मती का राजा था (म. अनु. २. ६ ) । विष्णु पुराण में इक्ष्वाकु के एक सौ एक पुत्र • होने का निर्देश है ( ४.२ ) । इक्ष्वाकु ने अपना राज्य सौ पुत्रों को बाँट दिया ( म. आर. ४ ) । इसने शकुनिप्रभृति ५० पुत्र को उत्तरभारत तथा शांति प्रभृति ४८ पुत्रों को, दक्षिणभारत का राज्य दिया । अयोध्या में दयाका राज्य तथा बंध बहुत समय तक रहा। ईक्ष्वाकु वंश में बहुत से महान पुरुष हुए, इस कारण बहुत सारे पुराणों में इनकी वंशावलि मिलती है। पुराणों में दी गयी वंशावलियों में, बहुत साम्य होते हुए भी, रामायण में दी गई वंशावलि से वे भिन्न हैं। पुराणों में इक्ष्वाकु से ले कर, भारतीय युद्ध के बृहद्धल तक भागवतानुसार ८८, विष्णुमतानुसार ९३, तथा वायुमतानुसार ९१, पीढ़ियाँ होती हैं । रामायणानुसार इनमें संख्या की अपेक्षा व्यक्तियों में अधिक मिनता है। संशोधकों के मतानुसार वंशावलि की दृष्टि से पुराणों का वर्णन ही अधिक न्यायसंगत होने की संभावना है। इध्म यद्यपि अधिक विस्तार से इसकी वंशावलि उन् है तथापि यह प्रमुख पुरुषों की है, सब पुरुषों की नही ऐसा वहाँ निर्देश है। . (सुमित्र, राम तथा श्वान देखिये) । इसकी पत्नी सुदेवा ( पद्म. भू. ४२ ) । इट भार्गवस्ता इंद्र ने इस के रथ की रक्षा की (ऋ. १०.१७१.१ ) । इत् काव्य-केशिन् दा का समकालिक (सां. ब्रा. ७.४ ) । इतरत्र भी यह नाम आया है ( पं. बा. १४.९.१६ ) । ६७ इडविड- ( स. इ. ) शतरथ का दूसरा नाम । इडविडा इवित्य देखिये | - इस्पति - ( स्वा.) भागवतमतानुसार यज्ञ एवं दक्षिणा का पुत्र । २. स्वारोचिष मन्वंतर का देव विशेष । इडा -- मनु की कन्या | मनोरवसर्पण के पश्चात्, मनु ने संतति प्राप्ति के लिये यश किया जिससे उसे पुत्री हुई उसका नाम इटा था (श.मा. १.६.२.६-११ ) | मनु की संबंधी तथा यज्ञतत्त्वों का प्रकाशन करने वाली, इडा नामक एक स्त्री थी। देव तथा अनुरों ने अग्न्याधान किया यह सुन कर उसे देखने के लिये इडा गयी। उसे दोनो स्थानों पर अग्निस्थापना का क्रम विपरीत दिखाई दिया वह मनु के पास आयी, तथा बोडी, 'देव तथा असुरों की तरह तेरा यज्ञ निष्फल न होत्रे, इसलिये मैं अग्नि की योग्य क्रम से स्थापना करती हूँ ।' मनु ने इडा के द्वारा अग्न्याधान करवाया । इडा ने, १. गार्हपत्य, २. दक्षिणाग्नि तथा ३. आहवनीय इस क्रम से अन्न की स्थापना की इस कारण, मनु का यश सफल हुआ। यह प्रजा तथा पशुओं से समृद्ध हुआ (तै. ब्रा. १.१.४ ) । मनु यज्ञ कर रहा था तब उस यज्ञ के कारण देवताओं ने बहुत ऐश्वर्य प्राप्त किया । एक समय, इडा मनु के पास गयी, तब देवताओं ने प्रत्यक्ष रूप से तथा असुरों ने अप्रत्यक्ष रूप से इडा को निमंत्रण दिया । वह देवताओं के पास गयी। इस कारण सारे प्राणी देवताओं की ओर गये, तथा उन्होंने असुरों का त्याग किया (तै. सं. १. ७.१ ) । इतरा-ऐतरेय देखिये। पांचवे और छठवें मरुद्गण में से एक। इम (स्वा.) भागवतमतानुसार यशपुत्र । २. स्वारोचिष मन्वंतर का देव । Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन चरित्रकोश इमजिल 1 इध्माजिह - ( स्वा. प्रिय) प्रियन्त तथा बर्हिष्मती के इस पुत्रों में से दूसरा यह उसी का स्वामी था। इसने अपने द्वीप के वर्ष सात भाग किये। ये भाग शिव, यवस, सुभद्र, शांत, क्षेम, अमृक एवं अभय इन सात पुत्रों को क्रमशः उन्हीं के नाम दे कर, दे दिये (भा. ५.२० ) । इध्मवाह सूक्त (ऋ. १.२६)। अगस्यपुत्र दृढस्यू का दूसरा नाम । इसे ऋतु ने दत्तक लिया था । यह अगस्त्यकुल का एक गोत्रकार था ( मत्स्य २०२ )। इन- अमिताभ देवताओं में से एक। इंदीवराक्ष वा इंदीवरविद्याधर- एक गंधर्व यह विद्याधराधिप ननाम का पुत्र था । यद्यपि ब्रहामित्र मुनि ने इसे आयुर्वेद विद्या नहीं दी, तथापि अन्य शिष्यों को पढ़ाते समय इसने वह छुपके से सीखी। इस सीखने में आठ माह ही लगे, इस कारण प्रसन्न हो कर यह हँस पड़ा। आवाज से इसे पहचान कर ब्रह्ममिश्र ने 'तू सात दिनों में राक्षस होगा, ऐसा शाप दिया। पर इसने बिनति करने पर 'तू रागांध हो कर, अपनी ही संतानों को खाने दौडेगा, तब उनके अस्त्रतेज से तुझे ताप होगा । एवं पुनः यह शरीर प्राप्त कर तू स्वस्थानापन्न भी होगा ।' ऐसा इसे उश्शाप मिला । ; इंद्र ३. बृहद्रथ राजा की पत्नी । पूर्वजन्म में इसका कंकण समुद्र - सरस्वती के संगम में गिरने के कारण, इस जन्म में वह ऐश्वर्य उपभोग कर रही थी । प्रतिवर्ष यह प्रभासक्षेत्र में सुवर्णकंकण डालती थी (स्कंद. ७.१.३७ ) । ४. कल्याण वैश्य की पत्नी (गणेश. १. २२) । ५. चंद्रांगद राजा की स्त्री (चंद्रांगद देखिये) । इंदुल -- आह्लाद एवं स्वर्णवती का पुत्र । सात माह के आयु में ही इसे इंद्र स्वर्ग ले गया। इंद्रपत्नी शचि ने यहाँ इसका संगोपन किया इसलिये यह अत्यंत बलवान हुआ । वलकिकन्या चित्रलेखा से इसका विवाह हुआ (भषि प्रति २.२२-२३) । इंदु-- (स. इ. ) विश्वगश्व राजा का पुत्र । इसके तीन नाम क्रमशः आंध्र, चंद्र तथा आर्द्र थे । इसका पुत्र युवनाश्व था । इंद्र -- इसने मेघों को फोड़ा । इसके लिये त्वष्टा ने वज्र तैयार किया । इसने सूर्य द्यू तथा उपस् को उत्पन्न किया । वृत्रासुर के हाथ तोड कर उसका वध किया तथा जल बहाया। नदियां प्रवाहित की । गायें तथा सोम को जीता। भक्तों को पशु दिवे (ऋ. १.३३ ) । दशय का संरक्षण किया (ऋ. १.३३.१४) वियों की गायों का रक्षण किया (ऋ. १.३३.१५) । सामगान से इसे स्फूर्ति मिलती है । यह दासों का शत्रु है । इसके रथ में घोडे लगे रहते हैं जिसके चलने से मेवों की गडगडाहट होती है। पृथ्वी सपाट तथा स्थिर होती है। त्रित से इसकी मित्रता थी। अंगिरस तथा इंद्र । यह अपनी कन्या को खाने दौडा, तब कन्या के पास से सीखी अस्त्रविद्या के सहारे, स्वरोचि ने उसे पराभूत किया। इससे उसका उद्वार हुआ तथा यह फिर से पूर्ववत् हो गया। उसने अपनी कन्या मनोरमा तथा ब्रह्ममित्र के पास से सीखी विद्या स्वरोचि को दी (मार्के ६० ) । स्वरोचि देखिये । । | साथ साथ रहते हैं (ऋ. १. ११) । इसने जन्मते ही देवताओं का रक्षण किया। हिलनेवाली पृथ्वी स्थिर की। अंतरिक्ष की व्यवस्था की तथा गृ को आधार दिया । आहि को मार कर सप्तसिंधुओं को मुक्त किया । वल से गायें छुडाई | बिजली उत्पन्न की। घर को चालीस वर्षों के इंट निकाला (ऋ. २.१२ ) इसे, सोम बहुत अच्छा लगता है (ऋ. २०१४ ) । अंगिरा ने स्कूर्ति दी इसलिये इंद्र, वल को मार सका (ऋ. २. १५.८ ) । इसने सूर्य का २. उग मनोमात्र है यह बताने के लिये षटचक्र फेंक कर एतश को बचाया (. ४.१८ १४ ) । प्रांत में रहनेवाले काश्यप गोत्रीय इंदु की कथा, भानु ने सोम पीने के लिये इंद्र को निमंत्रित किया जाता था ब्रह्मदेव को बतायी ( यो. वा. २. ८५-८७ ) | ( अपाला तथा तुर्वश देखिये) । इंद्र की उपासना न उस में इसने केवल मनःसंकल्प से, ब्रह्मदेव का श्रेष्ठ पढ़ करनेवालों को, अनिंद्र कह कर निंदा करते थे (ऋ. ७. प्राप्त कर, स्थूल शरीर नष्ट होने पर भी उत्पत्ति का १८.१६) | नेम नामक ऋषि ने इंद्र प्रत्यक्ष न दिखने के कारण, इंद्र नहीं है ऐसा प्रतिपादित किया तब इंद्र स्वय इंदुमती- - सिंहलद्वीप के चंद्रसेन राजा की कन्या को प्रमाणित करने, प्रत्यक्ष प्रकट हुआ (ऋ. ८.१०० ) । ( मंदोदरी देखिये) । शत्रु -- वेदों में इसके अनेक शत्रु हैं। उनका मुख्य क्रम चालू रखा था। -- २. सोमवंशीय आयु राजा की पत्नी । इसका पुत्र नहुष दुर्गुण है पानी को रोकना । वे हैं अनर्शनि, अर्णव, अर्बुद, (पद्म. भू. १०४ ) । अहि, अहिए, और्णयाम, अन इली, करंज, कुव ६८ Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन चरित्रकोश क्रिवि. चुमुरि, भीक, धुनि, नमुचि, नार्मर, पर्णय, पिनु माता कद्रू ने इंद्र की स्तुति कर, ताप शमनार्थ वर्षा करायी वर्चिन , वल, शंबर आदि । (म. आ. २१.)। भीमद्वादशी व्रत करने के कारण इसे शस्त्रसंभार--इसके शस्त्र वज्र, अद्रि, दधीचि की इंद्रत्व मिला (पद्म. स. २३)। यह दक्ष के यज्ञ में गया अस्थि (ऋ. १. ८४, १३), धनुषबाण, भाला, फेन, था एवं इसने वीरभद्र से पूछा था कि वह कौन है (ब्रह्म. बर्फ आदि हैं। १२९)। मंदार पर्वत के पंख इसने नष्ट किये थे (स्कंद, यह जगदुत्पादक तथा सृष्टिक्रम निश्चल करनेवाला है।। १.१९.९)। विश्वधर वणिक् के पुत्र के मरने पर वह इसकी पत्नी इंद्राणी (ऋ. १०. ८६)। सीता नामक शोक करने लगा। इसे देख कर यम ऊब कर अपना कार्य स्त्री का भी उल्लेख है (पा. ग. सू. १७.९; शची छोड़, तप करने लगा। इस कारण पृथ्वी पर पापी लोक देखिये)। ये अनेकों का पुत्र हुआ था (शृंगवृष अत्यधिक पापकर्म करने लगे। उन्हें मृत्यु नहीं आती देखिये )। थी। इससे पृथ्वी त्रस्त हो कर इंद्र के पास गयी । इंद्र ने पदमाहान्थ्य----प्रत्येक मन्वंतर में इंद्र रहता है। वह यम की तपस्या भंग करने, गणिका नामक अप्सरा भेजी, पर उससे कोई लाभ न हुआ। तब पिता ने उसे समझाया भूः, भुवः, स्वः इन तीन लोकों का अधिपति है । सौ यज्ञ कर इंद्रपद प्राप्त होता है (नहुष तथा ययाति देखिये)। (ब्रह्मा. ८६)। एक बार कश्यप पुत्रकामेष्टि यज्ञ कर रहा यह वज्रपाणि, सहस्त्राक्ष, पुरंदर तथा मघवान होता है। था । देवतादि उसकी सहायता कर रहे थे । वालखिल्य प्रजासंरक्षण उसका मुख्य कार्य होता है। प्रत्येक मन्वंतर तथा इन्द्र भी मदद कर रहे थे। इंद्र जल्दी जल्दी जा रहा में इंद्र भिन्न भिन्न हो कर भी उनके गुण तथा कार्य एक से था सारे वालखिल्य मिल कर एक समिध ले जा रहे थे । रहते हैं । सप्तर्पि इनके सलाहगार रहते हैं एवं गंधर्व मार्ग में एक गाय के खुर जितने गड्ढे में संचित पानी में अप्सरायें इनका ऐश्वर्य होता है (वायु. १००.११३ गिर कर, ये डुबने उतराने लगे। यह देख कर इंद्र ११४)। जब ये जगत की व्यवस्था नहीं कर पाते तब तिरस्कारपूर्वक हेसा । यह देख कर वालखिल्य क्रोधित हो, सारे अवतार इनकी मदद को आते हैं (मनु देखिये)। दूसरे इंद्र को उत्पन्न करने के हेतु तप करने लगे। तब सौ यज्ञ करने पर इंद्रपद मिलता है, इसलिये जब किसी | इंद्र कश्यप की शरण में आया । उसके माध्यम से वाल- के यज्ञ पूरे होने लगते है, तब यह अश्वमेध का घोडा खिल्यों का क्रोध शांत कराया (मध्यम तथा वालखिल्य देखिये; म. आ. २६)। चुरा कर, विघ्न उपस्थित करता है (सगर, पृथु, रघु)। . . उसी तरह कोई कठिन तपस्या करता है, तो डर के कारण गरुड से संबंध--गरुड ने अपनी माँ को दास्यबंधनों यह अप्सरायें भेज कर, तपभंग करता है। हिरण्यकशिपु, से मुक्त करने के लिये माता के दास्य के बदले नागो को . बलि, एवं प्रह्लाद ये तीनों असुरों में से भी इंद्र हुए थे | अमृत ला देने का वचन दिया, तथा वह अमृत लाने के (मत्स्य. ४७.५५-८९; तारक देखिये)। इस से इसका लिये स्वर्ग लोक गया । गरुड अमृत लिये जा रहा है यह राजकीय स्वरूप अच्छी तरह से व्यक्त होता है । विशेषतः | देख कर, इंद्र ने वज्र फेंका पर उसका कोई असर न हुआ। त्रिशंकु, वसिष्ठ, विश्वामित्र, वामदेव, रोहित, गौतम, | गरुड की शक्ति देख कर इंद्र ने उससे मित्रता करने की गृत्समद, रजि, भरद्वाज, उदारधी, सोम, इंदुल तथा । सोची । तब गरुड ने उसे बताया, कि यदि अमृत वापस अर्जुन इत्यादि प्राचीन तथा अर्वाचीन व्यक्तियों के | चाहते हो, तो उसे बडी युक्ति से चुराना । इंद्र ने युक्ति चरित्र से इन्द्र की पूर्ण कल्पना कर सकते हैं। से काम लिया तथा अमृत फिर वापस ले गया और गरुड पौराणिक कल्पनाए-- इंद्रविषयक पौराणिक कल्पना | को वर दिया कि सर्प तेरे भक्ष्य होंगे (म. आ. ३०)। निम्नलिखित विवरण से व्यक्त हो जायेगी । अदिति पुत्र | महाशनिवध-हिरण्यपुत्र महाशनि इंद्र को जीत कर (कश्यप देखिये.)। इस का शक नामांतर है (भा.६.६)। इंद्राणी सह उसे बांध कर लाया। महाशनि वरुण का • श्रावण माह का सूर्य (भा. १२.११.१७)। देवताओं का | दामाद था, इसलिये देवताओं ने वरुण से कह कर इंद्र राजा (भा. १.१०.३)। यही आज का पुरंदर इंद्र है। | को छुडाया। इंद्राणी के कहने पर इंद्र ने शिव की स्तुति वर्षा का देव । एक बार गरूड की पीठ पर बैठ कर नाग | की। शिव ने विष्णु की स्तुति करने को कहा । इंद्र ने विष्णु जा रहे थे । गरूड उड कर इतना ऊंचा गया कि, सारे | की स्तुति की । फलतः विष्णु तथा शिव के अंश से एक नाग सूर्यताप से मूञ्छित हो कर पृथ्वी पर आ गिरे। । पुरुष गंगा के जल से उत्पन्न हुआ, जिसने महाशनि का Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन चरित्रकोश वध किया। इंद्र हमेशा उसके पीछे पीछे रहने लगा। कोई चिन्ह न देख, नारद ने उसे बताया कि, तू शीघ्र इस कारण एक बार इंद्राणी से इसका प्रेम कलह हुआ ही ऐश्वर्यभ्रष्ट होगा। बलि इस समय इस पर आक्रमण था (ब्रह्म. १२९)। | करने निकला | इंद्र का सारा वैभव जीत कर वह ले जा त्रिपुर उत्पत्ति--वाचक्नवि मुनि की स्त्री मुकुंदा रहा था । जाते जाते राह में वैभव समुद्र में गिर पड़ा। रुक्मांगद गजा पर मोहित थी। इंद्र ने रुक्मांगद का रूप इंद्रादि देवताओं ने यह बात विष्णुजी से कही । विष्णु धारण कर उससे संभोग किया। आगे इसी वीय से मुकुंदा भगवान ने कहा कि, बलि को साम तथा मधुर वचनों को गृत्समद उत्पन्न हुआ । गृत्समद का पुत्र त्रिपुरासुर। में भुला कर उसे समुद्रमंथन करने के लिये उद्युक्त त्रिपुरासुरादिकों से गणेश ने इंद्र को बचाया (गणेश १. करो । इंद्र बलि के पास पाताल में गया। वहां शरणागत ३६-४०)। की तरह कुछ समय रह कर अवसर पा, बडी युक्ति से सुकमाख्यान--सुकर्मा के हजार शिष्य अनध्याय के उसने बलि से समुद्रमंथन की बात कही । बलि को समुद्रदिन अध्ययन करते थे, इसलिये इन्द्र ने उनका वध मंथन असंभव लगता था। तब समुद्रमंथन किस तरह हो किया। सुकर्मा ने प्रायोपवेशन प्रारंभ किया तब इंद्र ने सकता है इस के बारेमें आकाशवाणी हुई । बलि उसे वर दिया, कि इन हजारों के साथ दो शिष्य और समुद्रमंथन के लिये तयार हो गया । मंदराचल को मथनी. भी उत्पन्न होंगे जो सुर होगें । ये ही पौष्यजिन् एवं | बनने के लिये बुलवाया, तथा वह तैयार भी हो गया। हिरण्यनाभ (कौशिल्य ) है (वायु.६१.२९-३३; ब्रह्माण्ड. तब विष्णु जी ने उसे गरुड पर रख कर लाया । ऐरावत, ३५.३३-३७)। उच्चैःश्रवा, पारिजातक तथा रंभा दि समुद्र से निकाले । यज्ञहविर्भाग-- च्यवन को अश्विनीकुमारों ने दृष्टि चौदह रत्नों में से चार रत्न इसने लिये (भा. ६. ९; दी तथा जरारहित किया, इसलिये शर्याति ने उन्हें हवि दिलवाने का प्रयत्न किया। उस समय इंद्र ने बहुत बाधायें दृत्र उत्पत्ति--बृहस्पति लौट नहीं आ रहे थे, इसलिये डाली, परंतु इंद्र की एक न चली, क्यों कि, जब वह वज्र इंद्र ने विश्वरूपाचार्य को उसके स्थान पर नियुक्त किया। मारने लगा, तब च्यवन ने उसके हाथ की हलचल बंद उसकी मां दैत्यकन्या थी, इसलिये विश्वरूप का स्वाभाविक करा दी, तथा उसे मारने के लिये मद नामक असुर उत्पन्न झुकाव दैत्यों की ओर था। देवताओं के साथ साथ दैत्यों को किया। तब इंद्र उसकी शरण में गया, तथा अश्विनी- भी वह हविर्भाग देता था। इंद्र को यह पता लगते ही कुमारों को यज्ञीय हवि प्राप्त करने का अधिकार दिया। उसने विश्वरूप के तीनों सिर काट डाले (विश्वरूप (म. व. १२५-१२६)। देखिये)। अपना पुत्र मार डाला गया यह देख त्वष्टा मरुत्ताख्यान-मरुत्त ने एक बार यज्ञ किया। उसने | ने इंद्रका वध करने के लिये वृत्र नामक असुर उत्पन्न प्रथम बृहस्पति को बुलाया परंतु इंद्र के यहां जाना है, | किया तथा हविर्भाग उमे न मिले ऐसा प्रयत्न किया। ऐसा कह कर उसने कहा बाद में आऊंगा । तब मरुत्त ने | उसने इंद्र पर कई बार चढ़ाई की तथा कई बार उसे उसके भाई संवर्त को निमंत्रित कर यज्ञ प्रारंभ किया। परास्त किया। एक बार तो उसने इंद्र को निगल भी बृहस्पति को जब यह पता चला तब उसने इंद्रसे कहा कि, | लिया। इसका कारण यह था कि, इंद्र एक बार प्रदोषव्रत यह यज्ञ ही नहीं होने देना चाहिये। इंद्रने तुरंत धावा | में महादेव जी की विंडी लां गया था ( स्कन्द, बोल दिया, परंतु संवर्त ने अपने प्रभाव से उसे विकलांग | १. १. १७)। कर दिया। इंद्र ने वहां आने के पश्चात् स्वतः सदस्य का वृत्रवध--वृत्रासुर ने इंद्र को हराया इस लिये गुरु के काम किया (म. आश्व. १०)। इसने भंगास्वन को स्त्री उपदेशानुसार इंद्र ने साभ्रमती के तट पर दुर्धर्षेश्वर की बना दिया (भंगास्वन देखिये)। प्रार्थना की। तब शंकर ने इसे पाशुपतास्त्र दिया, जिससे सागरमंथन -दुर्वासा ऋषि ने इसे एक माला दी थी। उसने वृत्रासुर का वध किया (पद्म. उ. १५३)। इंद्र के द्वारा उसका अनादर हुआ। 'तू ऐश्वर्य भ्रष्ट होगा,' पराभव हुआ तब इंद्र शंकर की शरण गया। शंकर ने उसे ऐसा उसे शाप मिला। इसी समय अपने घर आये गुरु वज्र दिया जिससे उसने वृत्रासुर का वध किया (प. उ. बृहस्पति का इसने उत्थापन द्वारा मान नही किया, १६८)। इंद्र ने वृत्रासुर के वध के लिये दधीचि से इसलिये बृहस्पति वापस चले गये। बृहस्पति के आने के अस्थियाँ मांगी। विश्वकर्मा ने उससे वज्र तैयार किया। ७० Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन चरित्रकोश षण्डामर्क, वरत्री तथा त्वष्टा इन दैत्ययाजकों को इंद्र ने | यमुना के तट पर हजारों यज्ञ किये, जिससे ब्रह्मा, विष्णु जला कर मारा (ब्रह्माण्ड ३.१.८५; दधीचि देखिये)। तथा महेश प्रसन्न हुए (पद्म. उ. १९९)। प्रह्लाद आदि ब्रह्महत्त्या मुक्ति-विश्वरूप, वृत्रासुर तथा नमुचि | दैत्यों ने एक बार इन्द्र का स्वर्ग जीत लिया, तब रजि ने इनके वध के कारण, इंद्र को ब्रह्महत्या लगी। इसलिये | उसे वापस दिलवाया। डर कर वह कहीं तो भी कमल के अंदर छुप गया। इस जयापजय--इस उपकार के लिये, तथा प्रहादादि समय दो इंद्र हुए। नहुष तथा ययाति किन्तु उनका शीघ्र दैत्यों से रक्षा होती रहे, इसलिये इसने उसे ही इंद्रपद ही पतन हुआ (स्कंद १.१.१५)। यह ब्राहत्या किस | दे दिया परंतु आगे चल कर, उसके पुत्र इंद्रपद वापस तरह दूर हुई, इसका वर्णन पुराणों में भिन्न प्रकार से दिया नहीं दिये, बृहस्पति ने अभिन्चारविधान से उनकी बुद्धि गया है। ब्रह्महत्या के चार भाग किये गये । वे भूमि, वृक्ष भ्रष्ट की। भ्रष्टबुद्धि के कारण वे भ्रष्टबल हो गये हैं जल एवं स्त्री को एक एक वरदान दे कर दिये । पृथ्वी पर ऐसा देख कर इंद्र ने उनका वध किया (भा. ९. १७; आप ही आप गड्ढों का भरना तथा उस पर क्षार कर्कट के मत्स्य. ४४; ब्रह्म. ११) । पुराणों में नहुष कब इंद्र रूप में जमना, वृक्ष जहां से टूटे वहां अंकुरों का फूटना हुआ इस संबंध में मतभेद होने के कारण, उसका निश्चित तथा गोंद का निकलना, जिसमें पानी मिलाया जाये उसका ! समय ठीक समझ में नहीं आता। इंद्र एक बार बलि बदना एवं उसमें फेन आना, स्त्रियों को गरोदर रहते हुए को जीत कर उतथ्य के आश्रम में गया। वहां उसकी भी प्रसूति काल तक संभोग करने की क्षमता परंतु रजो- सुंदर स्त्री को शैय्या पर सोये देख, उसने उससे जबरदस्ती दर्शन होना, ये वरदान तथा ब्रह्महत्या के परिणाम है ( भा संभोग किया । स्त्री गरोदर थी। अंतर्गत गम ने अपना ६.९.; स्कंद १.१.१५, लिङ्ग. २.५१)। 'रक्षासि हवा' पतन न हो इसलिये योनिद्वार अपने पैरों द्वारा अंदर से इस मंत्र में इस संबंध में निर्देश किया गया है । ये पातक बंद कर लिया, इस कारण इंद्र का वीर्य धरती पर गिरा। विश्वरूप की हत्या का है। परंतु पद्मपुराण में यह विवरण यह अपने वीय का अपमान हुआ देख, इंद्र ने गर्भ को वृत्रासुरहत्या के पातक पर दिया गया है (३.१६८)। जन्मांध होने का शाप दिया (दीर्घतमस् देखिये)। परंतु इसी पुराण में इन पातकों के निवारणार्थ इसने तप किया । इसके कारण हतवीर्य होकर, इंद्र मेरु की गुफा में जा तथा पुष्कर, प्रयाग, वाराणसी आदि तीर्थों पर स्नान छिपा । इस समय दैत्यों ने बलि को इंद्रासन पर बैठाया। किया ऐसा दिया गया है (पन. भू. ९१ )। यह पातक सारे देवताओं ने गुफा के पास जा कर उसे वापस लाया नष्ट हो, इसलिये इसने अश्वमेध यज्ञ किया । नभुचि के | तथा बृहस्पतिद्वारा अक्षय्यतृतीया व्रत उससे करवा कर, वध से लगी ब्रह्माहत्या के शमनार्थ अरुणा पर स्नान उसे पूर्ववत् ऐश्वयसंपन्न बनाया (स्कंद. २. ७. २३: किया (म. श. ४२.३५ ) । इंद्रागम तीर्थ ( इसके आने बृहस्पति देखिये)। के कारण यह नामकरण हुआ) में स्नान करने से इसके चित्रलेखा तथा उर्वशी को केशी दैत्य भगा ले गया। पाप दूर हुए (पन. उ. १५१)। त्रिस्पृशा एकादशी के व्रत पुरूरवस् ने उन्हें छुड़ाया तथा उर्वशी इंद्र को दी (मत्स्य. के कारण, इसके पाप दूर हुए (प. उ. ३४; अहल्या २४. २५) । कितव नामक एक दुराचारी मनुष्य मृत देखिये)। हुआ। मरते समय उसे अपने दुराचार पर पश्चात्ताप पुरंजयवाहन-एक बार देवासुरसंग्राम हुआ जिसमें हुआ, इसलिये यम ने उसे तीन घंटे के लिये इंद्रपद देवताओं को असुरों पर कब्जा पाना कठिन लगा तब दिया । उतने समय में इसने सारी चीजें ऋषि आदि सूर्यवंशी पुरंजय को, मदद के लिये उन्हों ने निमंत्रित लोगों को दान में दी । इंद्र जब फिर से इंद्रपद पर आया, किया । पुरंजय ने कहकर भेजा कि, यदि इंद्र मेरा वाहन तब उसने यम से सारी चीजें वापस मँगवा लीं। कितव मने तो मैं आउंगा । इंद्र ने पहले तो आनाकानी की, आगे चल कर बलि हुआ (स्कंद. १. १. १९)। पर अंत में मान गया। तथा महावृषभ का रूप धारण | हिरण्यकशिपु तथा हिरण्याक्ष का वध इंद्र ने करवाया, किया (भा. ९.६)। हिरण्यकशिपु ने स्वर्ग जित लिया| इसलिये दिति ने इंद्रघ्न पुत्र निर्माण करने की तयारी चालू तथा देवताओं को कष्ट दिये, इसलिये विष्णु ने नृसिंह की । इंद्र ब्राह्मणवेश में उसकी सेवा करने लगा। योग्य का रूप धारण कर उसका वध कर के, इंद्र को स्वर्ग अवसर पा कर उसने दिति के गर्भ के उनपचास टुकडे घापस दिया । शत्रुओं से कष्ट न होवे, इसलिये इंद्र ने किये । तदनंतर गर्भ के बाहर आ कर सारी बात उसे Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इंद्र प्राचीन चरित्रकोश बतायी । तब उसने इनकी नियुक्ति विभिन्न वायुओं पर ने गोवर्धनयाग करा कर इंद्र का अपमान किया करवा ली, तथा बंधुभाव से उनसे व्यवहार करने का (भा. १.३-२८; १०. २५. १९; ब्रह्म. १८८)। वचन ले कर इसे छोड दिया (मरुत् देखिये; मत्स्य. अर्जुन से मिल कर दिव्यास्त्र प्राप्त कर लेने को कहा (म. ७-८)। दिति ने वज्रांग नामक पुत्र उत्पन्न कर, उसे व. ३९.४३)। कर्ण के शरीर पर कवच कुंडल होने के इंद्र को मारने भेजा । उसने इंद्र को बांध कर लाया तथा कारण वह अजिंक्य तथा अवध्य है ऐसा जान कर ब्राह्मणउसे मारने वालाही था कि, ब्रह्माजी ने बीच में पड़ कर | रूप से उसके पास जा, उसकी दानशूरता से संतुष्ट हो मधुर शब्दों द्वारा उसे रोका ( वज्रांग देखिये)। मेघनाद कर, उसे इसने एक अमोघ शक्ति दी (कर्ण देखिये)। ने इंद्र को पराजित किया (इंद्रजित् देखिये)। सारे देवता इंद्र को छोड कर दूसरे को इंदद दे रहे हैं इंद्रने वज्रांग स्त्री वांगी को कष्ट दिये। इसलिये यह देख इंद्राणी ने बृहस्पति को शाप दिया कि, तेरे जीते वज्रांग ने उससे तारक नामक पुत्र उत्पन्न कर, उसे इंद्र जी इंद्र तेरी स्त्री से एक पुत्र उत्पन्न करेगा। इस कृत्य के पर आक्रमण करने भेजा। उसने इंद्र से बहुत समय तक कारण गुरुपत्नी समागम का इसे दोष लगा ( स्कंद. १.१. युद्ध किया। इंद्र ने जंभासुर को पाशुपतास्त्र से मारा। तारक ने सब देवताओं को बांध कर लाया वाकी लोगों ने इस पातक का क्षालन मृत्यु के सिवा होना संभव बंदरों का रूप धारण किया। उनके हावभावों से संतुष्ट हो नहीं इस लिये, मृत्यु होने तक पानी में डूब कर रहने के कर, तारक ने सब देवताओं को छोड़ दिया। इसी समय लिये बृहस्पति ने कहा (स्कंद. १.१.५१.)। .. तारक ने इंद्रपद का उपभोग लिया था (कंद १.१. पुराणों में स्थान-पुराणों में इंद्र को प्रथम स्थान नहीं १५-२१)। गौतम की स्त्री अहल्या ने उत्तंक को सौदास है परंतु त्रिमूर्ति के पश्चात् है। यह अंतरिक्ष तथा पूर्व राजा के पास से कवचकुंडल लाने को कहा। राह में दिशा का राजा है । यह बिजली चलाता तथा फंफता है, इंद्र ने वृषभारुढ पुरुष के रूप में उसे दर्शन दिया। उत्तक इंद्रधनुष सज्जित करता है । सोम रस के लिये इसे तीव्र को वृषभ का पुरीषपान करने को कहा। उत्तंक को नाग- आसक्ति है । असुरों से युद्ध करता है । असुरों का इसे लोक में अश्वारोही बन कर फिर से दर्शन दिये। अश्व भय लगा रहता है। का अपानद्वार उससे पुंकवाकर वासुकि आदि नागों को अधिकार--यह रूपवान है । श्वेत अश्व या हार्थी पर शरण ला कुंडल फिरसे प्राप्त करा दिये । गुरु के घर वज्र धारण कर सवारी करता है। प्रत्यक्ष रूप से इसकी जल्दी पहुंच जावे इसलिये इंद्र ने उत्तंक को वही घोडा पूजा नहीं होती है । शक्रध्वजोत्थान त्यौहार में इसकी दिया जिसके कारण क्षणार्ध में वह गुरुगृह पहुंच गया। पूजाविधि हैं। इसका निवासस्थान स्वर्ग, राजधानी इस कथा में वृषभ माने अमृतकुंभ तथा उसका पुरीष, अमरावती, राजवाडा वैजयंत, बाग नंदन, गज ऐरावत, अमृत है । वह पुरुष इंद्र एवं अश्व अग्नि है (म. आ. घोडा उच्चैःश्रवा, रथ विमान, मारथि मातली, धनुष्य ३) । सुमुख को इसने पूर्णायु किया इसलिये गरुड उस शक्रधनु एवं तलवार परंज है ।। पर नाराज हुआ। विष्णुजी की मध्यस्थता ने इस का पक्ष । परस्पर संवाद-बृहस्पति ने बताया कि, सब गुणों का सम्हाला गया (गरुड देखिये)। एक बार इंद्र तथा सूर्य अंतर्भाव साम में होता है (म. शां. ८५.३ कु.) उसका भ्रमण कर रहे थे। तब एक सरोवर में स्नान करने के उपयोग शत्रु के साथ करना चाहिये (म. शां. १०४)। कारण, स्त्री बने ऋक्षरज पर यह मोहित हुआ तथा उसके प्रह्लाद ने अपने शीलबल से इंद्रपद फिर प्राप्त किया। केशों पर इन्द्र का वीर्य जा गिरा। इस कारण तत्काल एक उस समय इंद्र ने मोक्षप्राप्ति का श्रेष्ठ उपाय बताया। पुत्र उत्पन्न हुआ। वही वाली है (वालिन् देखिये)।राम इससे भी श्रेष्ठ ज्ञान है ऐसा शुक्र ने बताया तथा उससे रावण युद्ध के समय जब रावण रथारूढ हो कर आया भी अधिक श्रेष्ठ शील है ऐसा प्रह्लाद ने बताया (म. शां. तब इन्द्र ने सारथीसहित अपना रथ भेजा था (म. व. १२४-१२९ कुं.)। इसका एक बार महालक्ष्मी से संवाद २७४)। हुआ (म. शां. २१८ कु.)। नमुचिमुनि ने भगवान के __यह दमयंती के स्वयंवर में गया था (म. व. ५१; नल | चिंतन से मिलनेवाला श्रेय इसे बताया (म. शा. २१६)। देखिये)। इन्द्र के प्रसाद से कुंती को अर्जुन उत्पन्न हुआ। इसका महाबलि से भी संवाद हुआ था (म. शां. २१८ (म. आ. ९०.६९)। नंदादि गोप लोगों द्वारा कृष्ण । कुं.)। मांधाताने इसे राजधर्म बताया (म. शां. ६४ कुं.)। ७२ Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इंद्र युद्ध में मृत्यु अर्थात स्वर्गप्राप्ति ऐसा अंबरीष ने बताया ( म. शां. ९९ कुं. ) । अग्नि ने इसे ब्राह्मण तथा पतिव्रता का महत्व बताया (म. अनु. १४ कुं. ) । शंवर राजर्षि ने इसे ब्राह्मणमाहात्म्य बताया (म. अनु. ७१ कुं.)। प्रशंसनीय क्या है यह एक शु पक्षी ने बताया (म. अनु. ११ कुं.)। किसी भी प्रकार की नौकरी के लिये आवश्यक गुण मातलि ने इसे बताये (म. अनु. ११ .)। धृतराष्ट्र गंधर्व के रूप में, गौतम ने इस से संवाद किया (म. अनु. १५९.) ब्राह्मण्यप्राप्यर्थ इंद्र को उद्देशित कर, मतंग ने तप किया, जिससे उसे ब्राह्मण्य प्राप्त हुआ (म. अनु. ४.११६.) । कृष्णसंबंध - कृष्ण, नरकासुर को मार कर सत्यभामासहित नंदनवन पर से जा रहा था, तब पारिजातक वृक्ष उसे दिखाई पड़ा, जिसे वह उखाड़ कर ले गया (ह. वं. २.६४ ) । उसने इंद्र से वह वृक्ष पहले मांगा तब इंद्र आनाकानी करने लगा । इन्द्र ने जयंतसहित कृष्ण से युद्ध किया परंतु कृष्ण ने इसे पराजित कर दिया तथा पारिजात वृक्ष ले गया (ह. थे. २.७५)। ऐसी परस्पर विरोधी घटना एक ही ग्रंथ में दी है। इसे जयंत को छोड़, ऋषभ एवं मीढुष ऐसे दो पुत्र थे ( भा. ६.१८.७ ) । - प्राचीन चरित्रकोश धनिर्मिति इंद्र ने ब्रह्मकृत राजनीतिशास्त्र संबंधी 'वैशाला ग्रंथ को संक्षिप्त कर, 'बाहुदंतक' नामक पांच इनार अध्यायों का संशित ग्रंथ बनाया (म. शां. ५९.८५ ८९) । वैचक शास्त्र में भी इंद्र के नाम पर अनेक औषधियां इन्द्रजित् नाम पड़ा (बा.रा. उ. २९-२० ) । के पाठ हैं। 5 २. बायु का शिष्य इसका शिष्य अनि (वं. ब्रा. २) । इंद्र मुष्कवत्सूक्तद्रष्टा (ऋ. १०.२) । इंद्र वैकुंठ सूक्त (ऋ. १०.४८-५० ) । इंद्रजानु रामचंद्रजी की सेना का एक वानर यह । १२ करोड वानरों का स्वामी था। प्रा. च. १० इंद्रजित् -- लंका के राजा रावण तथा मंदोदरी का ज्येष्ठ पुत्र । नाम मेघनाद, तथापि इन्द्र को जीतने के कारन, इसका इंद्रजित् नाम पडा । इसी नाम से इसका उल्लेख सर्वत्र किया जाता है (म. व. २००.१२ भा. रा. सा. ५३९ वा. रा. उ. २९-३० ) । जन्मते ही इस ने मेघ सी गर्जना की थी, इसलिये मेघनाद नाम रखा गया था (अध्या. रा. उ. १२ ) । ] इंद्रजित् यज्ञ - मेघनाद स्वभावतः भयंकर था। युवक होते ही इसने शुक्राचार्य की सहायता से निकुंभिला में अश्वमेध तथा अमिष्टोम बहुवर्णक, राजसूय, गोमेघ, वैष्णव, माहेश्वर ये सात यज्ञ किये जिससे उसे शिवप्रसाद से दिव्यरथ, धनुष्यबाण, शस्त्र, तामसी माया इत्यादि प्राप्त हुई । इसने और भी यज्ञ करने का मन में विचार किया था, परंतु रावण देवताओं से द्वेष करता था, इसलिये देवताओं को हविमांग देना इष्ट न था। इस कारण इंद्रजित को और यश करते न बने ( वा. रा. उ. २५ ) । इंद्र पर जय - देवताओं को जीतने के लिये रावण स्वर्गलोक गया था। यहां रावण के मातामह का वध हुआ तथा पराजय के चिन्ह दिखाई देने लगे। मेघनाद ने आगे बढ कर युद्ध किया । पहले तो उसने इंद्रपुत्र जयंत को पराजित किया तथा इंद्र को शस्त्रास्त्रों से जर्जर कर, उसे बांध लिया तथा लंका ले आया। सारे देवता ब्रह्मदेव को साथ ले कर लंका गये तथा मेघनाद को, इंद्र को छोड़ देने के लिये कहने लगे। तब इसने अमरत्व मांगा। आकारवाले सारे पदार्थ नाशवान है इसलिये अमरत्व दुर्लभ है ऐसा ब्रह्मदेव ने कह कर दूसरा वर मांगने को कहा, इस पर उसने वर मांगा जब भी मैं अभि में हवन करें -" तय अभि में से अश्वसहित दिव्य रथ निकला करे तथा जब तक उस रथ पर आरूढ रहूं तब तक में विजयी एवं अमर रहूं" वह वर दे कर ब्रह्मदेव इंद्र को मुक्त करा कर इंद्रपद पर स्थापित किया। उस दिन से मेघनाद का हनुमान से युद्ध - रावण ने सीता को लंका में लाया । तब उसका पता लगाने के लिये राम की आज्ञा से मारुति लंका में आया। उसने अशोकवन विध्वंस कर रावण पुत्र अक्ष तथा अनेक राक्षसों को मारा। रावण के दुःख के निवारणार्थ इंद्रजित् ने वहाँ जा कर, मारुति को ब्रह्मास्त्र से बद्ध कर रावण की सभा में लाया । वास्तव में शास्त्र का मारुति पर कुछ भी परिणाम नहीं हुआ था यह बात इंद्रजित् को भी समझ गयी थी । मारुति ने रावण की सभा देखने तथा उसका भाषण सुनने के उद्देश्य से मैं बद्ध हुआ हूं ऐसा दर्शाया। धर्मबल की सहायता से इंद्रजित् ने यह भी जान लिया था कि, मारुति को अमरत्व प्राप्त है। रावण की सभा में हनुमान को जला देने की सलाह उसके मंत्रियों ने दी परंतु विभीषण ने सलाह दी कि, वानरों को पूंछ प्रिय होती है, अतः हनुमानजी की पूंछ जलाई जाये (वा. रा. सुं. ४८.५२) । ७३ Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इंद्रजित् प्राचीन चरित्रकोश इंद्रद्युम्न विभीषण की भर्त्सना-बिभीषण ने रावण को सलाह | उसे रोकने के लिये कहा। बिभीषण के कारण यह सारा दी कि, सीता को राम के पास पहुंचा कर राम से मित्रता हो रहा है यह जान कर, इंद्रजित् उसका वध करने के कर लें। यह बात किसी को नहीं रुची । उस समय इंद्रजित् लिये प्रवृत्त हुआ। स्वकीयों से युद्ध करने प्रवृत्त हुए ने बिभीषण की बहुत भर्त्सना की । इस पर विभीषण ने | बिभीषण की उसने निर्भर्त्सना की। इंद्रजित् को युद्ध से परावृत्त होने का उपदेश दिया। । वय--यह संवाद चल ही रहा था कि, लक्ष्मण ने नागपाश---सीता की खोज लगाने पर मारुति | बीच में पड़ कर इंद्रजित् से युद्ध चालू कर दिया । पहले किष्किंधा गया। रामचंद्रजी सुग्रीव की वानरसेनासहित | सारथी को मार गिराया। तब इंद्रजित् स्वतः सारथ्य लंका आये तब इंद्रजित् ही प्रथम युद्ध करने आगे आया। तथा युद्ध दोनों करने लगा। उसी समय प्रमाथी, रभम, अंगद से उसका युद्ध हुआ, जिसमें यह अदृश्य हो कर शरभ तथा गंधमादन इन चार वानरों ने इसके चार घोडे लड़ता रहा तथा रामलक्ष्मण को नागपाश में बांध कर, | मार डाले । तब इंद्रजित् दूसरे रथ पर बैठ कर आया देख सारी वानर सेना को मार्छत कर लंका चला गया (वा. । बिभीषण ने लक्ष्मण को सावधानी से युद्ध करने को कहा। रा. यु. ४५)। इंद्रजित तथा लक्ष्मण का घमासान युद्ध तीन दिनों तक __ युद्ध-देवांतक, नरांतक आदि रावणपुत्र, कुंभकर्ण,, हुआ। इंद्रजित मरता नहीं है इसलिये लक्ष्मण ने ऐंद्रास्त्र महापाव, महोदर इ. जब मारे गये, तब रावण बहुत | हाथ में ले, प्रतिज्ञा की कि यदि श्रीराम धर्मात्मा तथा दुखित हुआ। उस समय इंद्रजित् उसे सांत्वना दे कर | सत्य प्रतिज्ञ होंगे, तो इस बाण से इंद्रजित् मरेगा । यह युद्ध करने चल पड़ा। पहले यह शस्त्रास्त्रों को अभिमंत्रित कह कर लक्ष्मण ने अस्त्र छोड़ा जिससे इंद्रजिन् कां किरीटकरने निकुंभिला गया । युद्धभूमि पर आ कर राम की | कुंडलयुत सिर जमीन पर आ गिरा (म. व. २७२सेना को गुप्त रूप से कष्ट देने लगा तथा इस युद्ध में | २७३)। राक्षस सेना पीछे हट गयी तथा भाग कर लंका उसने सडसठ करोड़ वानरों को एक प्रहर में मार डाला में जा इंद्रजित् की मृत्यु का समाचार रावण को दिया। राम एवं लक्ष्मण को मूछित कर, लंका वापस चला वानरों ने उसका सिर उठा लिया और राम को दिखाने गया (वा. रा. यु. ७३)। के लिये सुबल पर्वत की. ओर ले गये (वा..रा. यु. . मायावी युद्ध-मकराक्ष की मृत्यु के बाद, रावण ने ८६-९२) । सासससुर की आज्ञा से इंद्रजित् की स्त्री इसे फिर से. युद्ध करने के लिये भेजा। राम की सेना | सुलोचना ने सहगमन किया (आ. सार. ११)। को बहुत कष्ट दिये । मायावी सीता को निर्माण कर उसे २. दनुपुत्र दानवों में से एक । रथ पर बैठाया, जो दीनवाणी में राम राम कह रही थी। इंद्रजिह्व--रावणपक्ष का राक्षस (वा. रा. सु. ६)। फिर उसका उसने वध किया, जिससे राम तथा अन्य इंद्रतापन--कश्यप तथा दनु का पुत्र ।। लोग दुखित हुए. (वा. रा. यु.८१)। २. वरुण की सभा का एक असुर (म. स. ९)। दिव्यस्थ--बिभीषण ने सबको सांत्वना दी कि, यह ____ इंद्रदत्त--एक स्मृतिकार ) इसने इंद्रदत्त स्मृति की सारी घटना मायावी है। तत्पश्चात् इंद्र जित् निकुंभिला | रचना की हैं (C.C.)। जा कर हवन करने लगा। इस कार्य में कोई विघ्न इंद्रद्यम्न-एक राजर्षि (म. स. ८.१९) । पुण्य उपस्थित न हो इसलिये उसने बहुत से राक्षसों को रक्षा | समाप्त हो जाने के कारण मृत्युलोक में आया, तथा करने को रखा । बिभीषण की सूचनानुसार रामचंद्रजी ने | अपनी कीर्ति नष्ट हुई या नहीं, यह जानने के लिये मार्कलक्ष्मण तथा हनुमान को, वानर मेना दे कर, निकुंभिला | डेय, हिमालय पर रहनेवाले प्रावारकर्ण उलूक, इंद्रद्युम्न भेजा । उन लोगों ने राक्षसोंका संहार कर यज्ञभंग किया। सरोवर के नाडीजंघ बक तथा उसी सरोवर में रहनेवाले इंद्रजित् का यज्ञ पूर्ण होनेवाला ही था अतः उसने अपार कछवे की तरह के एक से एक वृद्ध लोगों के ध्यान नहीं दिया, परंतु जब वानरों ने उसके शरीर को | पास जा कर उसकी कीर्ति उन्हें मालूम है या नहीं यह छिन्नविच्छिन्न करना प्रारंभ किया, तब विवश हो कर वह | पूछा । अंत में अकृपार कछुवे ने बताया कि, इंद्रद्युम्न की क्रोधित हो कर उठा, तथा वानरों को उसने मार भगाया। कीर्ति एक बडे यज्ञकर्ता के नाते प्रसिद्ध है। कीर्ति के रहते, अदृश्य होने के लिये यहाँ उसका वटवृक्ष था। उस बाजू एक मनुष्य का अस्तित्व रहता है यह बताने के लिये वह जाने लगा, तब बिभीषण ने हनुमानादि वानरों को | मार्कंडेय ने यह कथा पांडवों को सुनाई (म. व. १९१)। ७४ Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इंद्रद्युम्न प्राचीन चरित्रकोश इंद्रवर्मन् २. कृतयुग का विष्णुभक्त राजा । इसकी राजधानी ७. धर्मराज जब बकदाल्भ्य के यहां गया था तब उजयिनी थी। यह ओद् देश के पुरुषोत्तम क्षेत्र में उसने अन्य ब्राह्मणों सहित इसका सम्मान किया। पांडव जगन्नाथ जी के दर्शन के लिये गया, तब जगन्नाथ रेत में | इस समय द्वैत वन में थे (म. व. २७.२२)। गुप्त हो गये । तब यह नीलाद्रि पर जा कर प्रायोपवेशन | ८. विष्णु पुराण के अनुसार नाभि वंश के सुमति का करनेवाला था कि, दर्शन होगा, ऐसी आकाशवाणी हुई। पुत्र । इसने अश्वमेध कर नृसिंह का उत्कृष्ट मंदिर बनवाया। इंद्रद्यम्न भाल्लवेय वैयाघ्रपद्य-अग्निवैश्वानर का इसने नारद ने लायी हुई नृसिंह की मूर्ति की स्थापना | क्या धर्म है, इसके बारे में अन्य पुरोहितों के साथ यह ज्येष्ठ शुक्ल द्वादशी के दिन स्वाति नक्षत्र के समय की। सहमत नहीं होता था। अश्वपति कैकेय ने इसे विद्या दी राजा को स्वप्न में नीलमाधव के दर्शन हुए। आकाशवाणी | थी (छां. उ. ५.११.१, १४.१)। भाल्लवेय को धर्मविधि हुई कि, समुद्र में जड वाली एक सुगंधित वृक्ष की चार | में मान है। मूर्तियां बनाओ १. विष्णु, २. बलराम, ३. सुदर्शन इंद्रमि --एक ऋषि (म. शां. २४०.१८ कुं.)। (रक्तवर्ण), ४. सुभद्रा ( केशरिया), तदनुसार वै. शु. इंद्रधन्वन्--बाणासुर एवं लोहिनी का पुत्र। अष्टमी को पुण्यनक्षत्र के समय उसने मूर्तियों की स्थापना की। इंद्रपाल--ब्रह्महोमवंशी हविर्होत्र राजा का पुत्र । (स्कंद. २.२.७-२९) । समुद्र पर से बह कर आने वाली इसका पुत्र माल्यवान् । इसने इंद्रवती नगर बसाया (भवि. लकड़ियों में से विशेष महत्वपूर्ण लकड़ियों से मूर्ति बनाने के | प्रति. ४.१)। लिये इसे दृष्टांत हुआ। एक लकड़ी से कृष्ण की काले रंग | इंद्रपालित-(मौर्य, भविष्य.) ब्रह्मांडमतानुसार की, बलराम की सफेद रंग की तथा सुभद्रा की पीले रंग | बंधुपालित का पुत्र । की मूर्ति बना कर, इसने जगन्नाथपुरी में उनकी स्थापना इंद्रप्रमति--पैल ऋषि का शिष्य । पैल ने, उसे ज्ञात की (नारद. २.५४; ब्रह्म. ४४-५१)। ऋग्वेद के दो भाग कर एक भाग इंद्रप्रमति को सिखाया । ३. मगध देश का राजा। इसकी स्त्री का नाम | इसे मांडुक्य नामक एक शिष्य था (व्यास देखिये)। अहल्या । वह इंद्र नामक ब्राह्मण के साथ व्यभिचार | इंद्रप्रमति वासिष्ठ--वसिष्ठकुल का एक ऋषि । :करती थी। उसे अनेक दंड दिये। अंत में उसका स्थूल | ऋग्वेद में इसकी दो ऋचायें तथा एक सूक्त है (ऋ. ९. शरीर जला देने पर भी, उसकी मानसिक तन्मयता नष्ट | ९७.४-६, १०.१५३)। चंद्रसंपति इसका पाठभेद है। नहीं हुई (यो. वा. ३. ८९-९०)। कुणीति इसका नामांतर था। वसिष्ठ तथा घृताची का ४. पांड्य देश का राजा । यह एक बार तप कर रहा पुत्र । पृथु की कन्या इसकी स्त्री थी (ब्रह्माण्ड ३. ९, ८- था तब वहां अगस्त्य ऋषि आये परंतु ध्यानस्थ राजा उन्हें | १०)। यह श्रुतर्षि था। मंत्रकार भी था (वायु. ५९. देख न सका इस कारण, मुनि को क्रोध हुआ। उसने, | १०५-१०६; ब्रह्माण्ड, २.३२. ११५-११६)। इसे इंद्र- 'तू मत्त हो गया है इसलिये मदोन्मत्त हाथी हो' ऐसा प्रतिम भी कहते है। कापिंजल्य, त्रिमूर्ति इसके नामांतर उसे शाप दिया जिसे सुन कर राजा ने उनकी प्रार्थना | है। इसका पुत्र भद्र । की। तब उसने उश्शाप दिया कि, मगर जब तुझे पानी | इंद्रबाहु-दृढस्यु का नामांतर (मत्स्य. १४५. में पकडेगा तब विष्णु के द्वारा तेरी मुक्ति होगी। देवल | ११४)। यह अगस्त्य गोत्र का मंत्रकार था। विधमवाह मुनि के शाप से हह नामक गंधर्व त्रिकट पर्वत के | इसे नामांतर है। सरोवर में मगर बनकर रहता था। उसने इस हाथी को | इंद्रभू काश्यप-मित्रभू का शिष्य । इसका शिष्य पानी में पकड़ा । विष्णु ने तब उस मगर को मार कर | अग्निभू (वं. वा. २)। हाथी को मुक्त किया (प. उ. १३२, भा. ८-४; इंद्रमात देवजामि-एक सूक्तद्रष्टा (ऋ. १०. आ. रा. सार. ९)। १५३)। ५. (सो. निमि.) इसे ऐंद्रद्युम्न नामक एक पुत्र था । इंद्रमालिन्-उपरिचर वसु का नामांतर । ६. रुक्मी के पक्ष का एक क्षत्रिय । रुक्मिणीस्वयंवर इंद्रवर्मन्--भारतीय युद्ध में दुर्योधनपक्षीय राजा। के समय कृष्ण ने इसे सुदर्शन चक्र से मारा (म. स. | इसके पास अश्वत्थामा नामक नामांकित हाथी था। यह ६१. ६ कुं.)। मालवा का राजा था (म. द्रो. १९१; द्रोण देखिये)। ७५ Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इंद्रवाह प्राचीन चरित्रकोश इरावती इंद्रवाह--(सू. इ.) विकुक्षि का पुत्र । ककुत्स्थ इंद्राभ-(सू. दिष्ट.)। धृतराष्ट्र का पुत्र । वैचित्रवीर्य इसका नामांतर है। धृतराष्ट्र का पुत्र नहीं है। __इंद्रसख-(सो. अज.) वायु के मतानुसार कृत | | इंद्रोत--यह सुदास का पुत्र होगा (ऋ. ८. ६८. राजा का पुत्र । इसे चैद्योपरिचर ऐसा दूसरा नाम भी है। १७)। यहाँ प्रियमेध अंगिरस ने दाता रूप में इसकी. (उपरिचर वसु देखिये)। स्तुति की है। अतिथिग्व के साथ भी इसका संबंध प्रतीत इंद्रसावर्णि-एक मनु (मनु देखिये)। होता है। इंद्रसेन--(स्वा. प्रिय.) ऋषभदेव तथा जयंती का | २. वृषशुष्ण का शिष्य । इसका शिष्य दृति (वं. ब्रा. पुत्र। २. ( सू. नरिष्यंत.) कूर्च राजा का पुत्र । इसका पुत्र | ३. (सो.) पांचाल वंशीय दिवोदास का पुत्र । वीतिहोत्र। ३. (सो. नील.) ब्रह्मिष्ठ का पुत्र । इसका पुत्र विंध्याश्व । । इंद्रोत देवाप शौनक--इसने जनमेजय के अश्वमेध ४. (सो. कुरु.) दूसरे जनमेजय का पुत्र (म. आ. | यज्ञ में पौरोहित्य किया था (श. ब्रा. १३.५.३.५, ४.१; ८९.४८)। सां. श्री. १६.७.७; ८.२७)। जनमेजय का पुरोहित तुर ५. सुतल का दैत्य (भा. १०.८५.५२)। कावषेय था (ऐ. ब्रा. ८.२१) यह श्रुतय का शिष्य (जै. ६. युधिष्ठिर का सारथि। उ. ब्रा. ३.४०.१)। यह भृगुकुल का था। इसने जनमे७. पांडव का दूत (म.स. १२.३०.३०.३० व २५३. जय को गार्ग्य मुनि के शाप से अश्वमेध करवा के मुक्त १०; स्त्री. २६.२५)। इसे पांडवों ने द्वारका भेजा था | किया (म. शां. ४६.२; ब्रह्म. १२; ह. वं. २.१३)। (म. वि. ४.३)। इरा-४ इला देखिये। ८. नल राजा का पुत्र (म. व. ५७.२१)। २. एक अप्सरा (म. स. १०.११)। . ९. कौरवपक्षीय एक क्षत्रिय (म. द्रो. १३१.८५)। ३. दक्ष तथा असिक्नी की कन्या। यह कश्यप की १०. माहिष्मती का राजा । नारद के कथनानुसार | पत्नी । लता, अलता, वीरुधा इसकी कन्यायें हैं। . आश्विन कृष्ण की इंदिरा एकादशी का व्रत कर इसने अपने यमलोक में रहनेवाले पिता को स्वर्ग पहुँचाया (प. उ. इरावत्-पंडुपुत्र अर्जुन को ऐरावत नाग की स्नुषा ५८)। उलूपी से उत्पन्न पुत्र । इसका बाल्यकाल नागलोक में ही इंद्रसेना-नल राजा को दमयंती से उत्पन्न कन्या बीता। आगे चल कर इसका अपने चाचा (ऐरावत (म. व. ५३-१०)। नाग का दूसरा पुत्र अश्वसेन) के साथ हमेशा झगड़ा २. पांचालवंशीय ब्रहिष्ठ राजा की पत्नी तथा वयश्व होने लगा तथा अश्वसेन ने इसे भगा दिया। अर्जुन उस की माता । ब्रह्मिष्ठ मुद्गल का नाम होगा। ऋग्वेद में समय देवलोक में इन्द्र के पास , गया हुआ था। तब मुद्गलानी इन्द्रसेना का उल्लेख है। उसका पिता भर्म्यश्वपुत्र इरावान् स्वर्ग में अर्जुन के पास गया । वहाँ दोनों पितापुत्र मुद्गल ही है (ऋ. १०.१०२.२; मुद्गल देखिये)। । का मिलन हुआ। भारतीययुद्ध में इरावान् ने काफी ३. बाभ्रवी इसका पैतृक नाम है । यह नरिष्यन्त की पराक्रम कर के कौरवसेना को थका दिया। इसने शकुनि पत्नी तथा दम की माता ( ३ वपुष्मत् तथा ३ मौद्गल्य | के छः भाइयों का वध किया। परंतु आगे चल कर वह देखिये)। नरिष्यन्त के वध के पश्चात् यह सती गयी। | आश्यशाग नामक राक्षर आयशंगि नामक राक्षस के हाथों मारा गया (म. भी. इंद्रस्नुषा–यह एक ऋचा की द्रष्टी है (ऋ. १०. । ८६.७०%; वृषक देखिये)। २८.१)। इरावती-अर्जुनपौत्र परीक्षित् राजा की पत्नी। यह इंद्रस्पृश-(स्वा.) ऋषभ को जयंती से उत्पन्न | विराटपुत्र उत्तर की कन्या । पुत्र। । २. ब्रह्मदेव ने मार्तड का गर्भ द्विधा किया। उसका बल इंद्राणी-ऋग्वेद में इसकी अनेक ऋचायें है (ऋ. | इसने नाभि के पास रखा । इससे उसे चार पुत्र हुए। वे १०.८६.२, ६)। पुत्रेच्छा से गौरीव्रत करते ही, इसे | अंजन, ऐरावत, कुमुद तथा वामन दिग्गज हैं (ब्रह्मांड. ३. जयंत पुत्र हुआ (भवि. ब्राह्म. २२; शची देखिये)। । ७.२.९२)। इरावती का विस्तृत वंश ब्रह्मांड में है तथा ७६ Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इरावती प्राचीन चरित्रकोश इल्वल वहाँ उनकी अन्य जानकारी भी हैं । परंतु वह सब हाथी | इलविला--तृणबिंदु तथा अलंबुषा की कन्या, की है। अतएव यहाँ दी नहीं जाती। पुलस्य की पत्नी तथा विश्रवस् की माता (ब्रह्माण्ड.३. __ इल-चैवस्वत मनु (श्राद्धदेव ) तथा श्रद्धा को पुत्र न | ८. ३८)। होने के कारण उन्होंने वसिष्ठ के द्वारा मित्रावरुणों को | इला--वैवस्वत मनु की कन्या (म. आ. ९०.७; ह. उद्देशित कर पुत्रकामेष्टि यज्ञ किया। अनुष्ठानकाल में वं. १.१०; ब्रह्म.७; मत्स्य. ११; भा. ९.१)। मित्राश्रद्धा केवल दूध पी कर रहती थी । होता से उसने कहा वरुणों के अंश से उत्पन्न होने के कारण यह उनके पास कि, मुझे कन्या चाहिये । हवन होने के बाद इसे इला गई । तब तुम हमारी ही कन्या हो, आगे चल कर तुम नामक कन्या हुई । परंतु मनु की इच्छानुसार वसिष्ठ ने सुझुग्न बनोगी ऐसा उन्होने कहा । तब यह वापस लौट इसे पुरुष बनाया । तब इसका नाम इल अथवा सुद्युम्न आई । राहमें बुध से यह मिली । बुध से इसे पुरूरवस् रखा गया। आगे चल कर यह परिवारसहित मृगया नामक पुत्र हुआ। देवी भागवत में उल्लेख है कि के हेत अरण्य में गया। शंकरशाप जिसे था ऐसे | सुद्युम्न की इला हुई तथा श्रीमद्भागवत में उल्लेख है कि शरवन में जाने के कारण यह परिवारसहित स्त्री बन इला से सुद्युम्न हुआ (इल देखिये)। । २. वायु की कन्या । उत्तानपाद ध्रुव की दूसरी स्त्री । हुआ। आगे चल कर वसिष्ठ की कृपा से यह एक | इस उत्कल नामक पुत्र था। महिना पुरुष तथा एक महिना स्त्री रहने लगा (मत्स्य, ३. वसुदेव की स्त्रियों में से एक । ११-१२; पद्म. पा. ८. ७५-१२५)। इसका कारोबार ४. प्राचेतस दक्ष प्रजापति तथा असिक्नी की कन्या विशेष प्रिय न था। इसके बाद पुरूरवस् गद्दी पर बैठा। है । यह कश्यप को भार्यार्थ दी थी । इससे वृक्षादिक हुए इसके प्रदेश को इलावृत्त कहते है (भा. ९.१ (भाग. ६.६)। भागवत छोड़ कर इतरत्र इरा नाम प्राप्त दे.भा. १.१.१२; ब्रह्माण्ड, ३.२१)। यह कर्दम प्रजापति है। . का पुत्र तथा बाल्हिक का राजा। बुध की प्रेरणा से इलावर्त--(स्वा.)। ऋषभ को जयंती से उत्पन्न संवर्त की देखरेख में मरुत्त ने अश्वमेध कर के, इसे पुनः पुत्र । यह नब्बे पुत्रों में ज्येष्ठ था । पुरुष बनाया (वा. रा. उ. ८. ७-९०)। अरुणाचलेश्वर इलावृत--प्रियव्रत राजा का पौत्र तथा आनीध्र को की उपासना से यह पुरुष हुआ (स्कन्द. १.३.१-६)। उपचिति अप्सरा से उत्पन्न पुत्र । इसका वर्ष इसी के नाम एक यक्ष की गुफा इलद्वारा ले ली जाने के कारण, अपनी से प्रसिद्ध है। यह वहाँ का अधिपति था। पत्नी के द्वारा इसे उमावन में ले जा कर उसने इसे स्त्री इलिन–(सो. पूरु.) एक क्षत्रिय । त्रस्नु अथवा तंसु ' बना दिया। वहाँ इसे बुध से पुरूरवस् नामक पुत्र हुआ। इसका पुत्र । मत्स्य के मतानुसार यह अमूर्तरय का पुत्र · गौतमी नदी में स्नान करने पर यह पुनः पुरुष बना है । माता का नाम कालिंदी तथा पत्नी का नाम रथंतरी (ब्रह्म. १०८)। इसकी राजधानी प्रतिष्ठान थी। इसे | था (म. आ. ९०.२८)। पुत्रों के नाम १. दुष्यंत, २. पुरूरवस् छोड़ कर उत्कल, गय तथा विमल नामक तीन | शूर, ३. भीम, ४. प्रवसु, ५. वसु (म. आ. ८९.१५%, पुत्र थे । विमल के लिये हरिताश्व, विनताश्व तथा विनत | इलिल देखिये)। नाम प्राप्त हैं । इल मनु के दस पुत्रों में से ज्येष्ठ । नौ पुत्र इलिना--इसका नाती दुष्यंत (ब्रह्माण्ड. ३.६)। थे, दशम की प्राप्ति के लिये यज्ञ किया परंतु पत्नी की | महाभारत में इलिन नामक पुरुष है । इच्छानुसार इला नामक कन्या हुई तथा उसे बुध से इलिल--इलिन, ईलिन, मलिन, अनिल तथा यह पुरूरवस् हुआ । आगे चल कर पुरुष, स्त्री, पुनः पुरुष | एक ही हैं। हुआ (वायु. ८५. २७; ब्रह्माण्ड, ३. ६०. २७)। इलूष-कवष देखिये। इला को पुरुषत्व प्राप्त हो कर पुनः स्त्रीत्व प्राप्त हुआ। इल्वल-हिरण्यकश्यपु का पौत्र । ह्राद को धमनी यह बुध से संबंध आने के पहले ही हुआ (इला तथा से उत्पन्न पुत्रों में से एक (भा. ६.१८.१५)। सुद्युम्न देखिये)। २ तेरह सैहिकेयों में से पंचम तथा वातापी का बड़ा इलक--मध्यमाध्वर्यु देखिये । भाई । यह मणिमती नगरी में रहता था। एकबार इल्वल इलविल--(सू. इ.) शतरथ राजा का नामांतर। । ने इन्द्रतुल्य पुत्र की प्राप्ति के लिये एक ऋषी से प्रार्थना ७७ Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इल्वल प्राचीन चरित्रकोश ईश्वर की । वह उसके द्वारा अमान्य की जाने पर आदरातिथ्य के को बताई । नित्य श्राद्ध में अगस्य ने जा कर वातापी को मिस ब्राह्मणों को बुला कर मार डालने का क्रम इसने प्रारंभ पेटमें पचा लिया तथा इल्वल के क्रोध से आक्रमण करते किया। ब्राह्मण का आगमन होते ही यह उसका आदर ही, उसे भी दृष्टि से भस्म कर दिया (वा. रा. अर. करता था । तदनंतर मेष बने हुए अपने वातापी बंधू ११.६८, म. व. ९७.४९. म. ३ *)। परंतु इल्वल को का पाक बना कर उसे भोजन देता था । ब्राह्मण जब जाने परशुराम ने मार डाला (ब्रह्माण्ड ३.६.१८-२२)। लगते थे तब उसका शरीर विदीर्ण करके वातापी बाहर इष--(स्वा. उत्तान.) वत्सर को स्वर्वीची नामक आता था तथा ब्राह्मण की मृत्यु हो जाती थी। इस प्रकार भाया से उत्पन्न छः पुत्रों में से एक। से इसने सहस्रावधि ब्राह्मणों को मार डाला । एकबार जब २. उत्तम मनु के पुत्रों में से एक । अगस्त्य को द्रव्य की अपेक्षा थी, वह क्रम से श्रुता, ३. सुधामान नामक देवगणों में से एक । अध्न्यश्व तथा त्रसदस्यु नामक तीन राजाओं के पास गया। इष आत्रेय-सृक्तों का द्रष्टा (ऋ. ५.७-८)। परंतु वहाँ द्रव्य प्राप्ति न होने के कारण, उनके सहित यह इष श्यावाश्वि--यह अगस्त्य का शिष्य (जै. उ. इल्वल के पास आया। उसे देख कर नित्यानुसार इसने अगस्य ब्रा. ४१.६.१)। की कपट पूर्वक पूजा कर, उसे भोजन के लिये रख लिया। ।। इषिकहस्त--पराशर कुल का गोत्रकार. अगस्त्य की कपट पूर्वक जान कर संपूर्ण पाक का भक्षण इषीक--इसने तुंबरु नामक गंधर्व की उपासना करने स्वयं ही कर लिया, तथा वातापि को उदर में जीर्ण किया।। | के लिये बता कर शिखंडी को पुरुषत्व प्राप्त करा दिया यह जान कर इल्वल अगस्त्य के पास प्राण दान के लिये (म. आ. ११०.२३ कुं.)। प्रार्थना करने लगा। तब अगत्य ने अभय दे कर उसे | कहा कि हम चारों द्रव्यार्थी है। अतएव द्रव्य दे कर हमें ___ इषरिथ-विश्वामित्र का मूल पुरुष (विश्वामित्र मार्गस्थ करो । तब इसने त्रिवर्ग राजाओं को बिपुल संपत्ति देखिये)। दे कर अगस्य को उनसे द्विगुणित दी तथा सबको मार्गस्थ. इषुपात्-कश्यप तथा दनु का पुत्र ।' कर ब्राह्मणों का द्वेष छोड़ दिया। इसे बल्वल नामक पुत्र इषुफलि-अष्टकाकर्म में तंत्र किया जावे ऐसा था (म. व. ९४)। | इसका मत है (को. सू. १३८.१६)। रामायण में अगस्त्य के सामर्थ्य का वर्णन करते समय | इषुमत्-(सो. यदु, वृष्णि) देवश्रवस् को कंसावती इल्वल तथा वातापि की कथा राम ने लक्ष्मण तथा सीता | से उत्पन्न पुत्र । chor ईडय--सावर्णि मनु के उत्पन्न होनेवाले पुत्रों में से स्थान पर तुमने तप किया, उस स्थान को ज्ञानवापी एक। कहेंगे (स्कंद २.४.१.३३)। । ईदृश-दितिपुत्र मरुतों के पांचवे गणों में से एक २. देवों के हिरण्याक्ष के साथ हुए युद्धमें इसका वध (ब्रह्माण्ड ३.५.९६)। वायु ने किया (पद्म. सु. ७५) ईलिन-(सो.) तंसु का पुत्र (म. आ. ८८; इलिल । ईश्वर-सुरभि तथा कश्यप के पुत्रों में से एक । देखिये)। २. (सो. पूरु.) पूरु तथा पौष्टी का पुत्र (म. आ.८८) ईशान-इस नाम के एक संन्यासी ने विश्वेश्वर की ३. भारतीय युद्ध में दुर्योधन पक्षीय राजा । यह क्रोध आराधना की। शंकर ने प्रसन्न हो कर कहा कि जिस | वश असुरांश से जन्मा था (म. आ. ६१.६०)। Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उकूल प्राचीन चरित्रकोश उग्रसेन उकूल-अंगिरस गोत्रीय एक मंत्रकार । उग्रतीर्थ--भारतीय-युद्ध का दुर्योधनपक्षीय राजा उक्त-(सो. कुरु. भविष्य )। भागवत के मतानुसार | (म. आ. ६१. ६०)। यह निमिचक्रपुत्र है। उग्रदंष्ट्री--(स्वा. प्रिय.) मेरु की कन्या तथा आग्नीउक्थ-स्वाहा का पुत्र । ध्रपुत्र हरिवर्ष की पत्नी। २. (सू. इ.) विष्णु के मतानुसार यह शलपुत्र है। उग्रदृष्टि स्वायंभुव मन्वन्तर के अजित देवों में परंतु भविष्य के मनानुसार यह छम्भकारीपुत्र । इसने | से एक। दस हजार वर्षों तक राज्य किया। | उग्रदेव--तुर्वश तथा यदु के साथ इसका उल्लेख है उक्षण्यायन--हरयाण तथा सुषामन् के साथ इसका । (ऋ. १. ३६, १८, पं. बा. १४. ३. १७; २३, उल्लेख आया है (ऋ. ८.२५.२२) व्यश्वपुत्र विश्वमनस् १६. ११) । इसका पैतृक नाम राजनि ( तै. आ. कृत दानस्तुति में यह सुषामन् का पैतृक नाम है। ५.४.१२)। उक्ष्णोरंध्र काव्य-एक द्रष्टा (पं. ब्रा. १३. ९. उग्रधन्वन--साल्वराजा। भीम ने इसका वध किया | (म. क. ४. ४०)। . उख--तैत्तिरीयों के पितृतर्पण में आने वाला एक | २. यह कैकय का सेनापति था। इसका कर्णपुत्र सुषेण आचार्य । पितृतर्पण में इसका समावेश होने का कारण यह से युद्ध हुआ था । उसमें सुषेण मारा गया (म. क. होगा कि, यह हिरण्य केशियों के से मिलतीजुलती शाखा प्रवृत्त करनेवाला था (स. गृ. २०.८-२०; चरणव्यूह)। __उग्रपुत्र वैदेह--गार्गी ने याज्ञवल्क्य को प्रश्न पूछते पाणिनी ने शाखा प्रवर्तक कह कर इसका उल्लेख किया समय, इसका उत्तम धनुर्धारी कह कर उल्लेख किया है। यह व्यक्ति का नाम न हो कर सामान्य निर्देश है। (बृ. उ. ३. ८.२)। : उख्य--उच्चार तथा संधि के संबंध में कुछ अलग उग्रंपश्या-एक अप्सरा (ते. आ २. ४)। ही मतों का प्रतिपादन करनेवाला एक आचार्य (तै. प्रा. | उग्रवीर्य-महिषासुरानुयायी असुर । ८. २२; १०. २०; १६. २३)। उग्रश्रवस्-लोमहर्षण सूत का पुत्र । इसे सौति उग्र--यातुधान पुत्र । इसका पुत्र वज्रहा। लोमहर्षणि भी कहते हैं (म. आ. १.१)। . २. वारुणि कवि के आठ पुत्रों में कनिष्ठ । २. धृतराष्ट्रघुत्र (म. आ. परि. १.४१. पंक्ति. १९)। . ३. (सो. कुरु.) धृतराष्ट्रपुत्र । भीम ने इसे मारा उग्रसेन--भीमसेन तथा श्रुतसेन के साथ एक (म. द्रो. १३२. ११३५*)। भां. सं. में उग्रयायिन् पारिक्षितीय तथा जनमेजय का भाई ऐसा इसका निर्देश है। पाठ है। यह अश्वमेध कर के पापमुक्त हो गया (श. बा. १३.५. ४. दिति का पुत्र तथा तीसरे मरुद्गणों में से एक ४.३; जनमेजय देखिये)। यह तथा छठा एक नहीं है। (ब्रह्माण्ड. ३.५. ९४)। २. कश्यप को मुनी से उत्पन्न देवगंधवों में से एक । ५. अमिताभ देवों में से एक। यह सूर्य का सहचर है। ६. भौत्य मनु का पुत्र । ३. (सो. यदु. अंधक) आहुक राजा के दो पुत्रों उग्रक-कद्रूपुत्र। में दूसरा। इसकी पत्नी का नाम पद्मावती (पद्म. भ. ४८. उग्रतप-एक ऋषि । एकबार इसने गोपियों के साथ | ५१)। इसे कंस, सुनामा, न्यग्रोध, कंक, शंकु, सुहू, शृंगारमन कृष्ण का ध्यान किया। इस कारण इसने राष्ट्रपाल, सृष्टि तथा तुष्टिमान् नामक नौ पुत्र, उसी प्रकार गोकुल में सुनंद नामक गोप की कन्या के रूप में जन्म | कंस, कंसावती, कंका, शूरभू तथा राष्ट्रपालिका नामक लिया तथा उस स्थान में इसने श्रीकृष्ण की उत्कृष्ट सेवा पांच कन्यायें थीं। यह पांच वसुदेव के देवभागादि नौ की (पद्म. पा. ७२)। भ्राताओं में से पांच भ्राताओं की स्त्रियाँ थीं। उसका ७९ Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उग्रसेन प्राचीन चरित्रकोश उतथ्य ज्येष्ठ पुत्र कंस अत्यंत दुष्ट होने के कारण उसने इसे बंदी- २. (सो. कुरु.) अविक्षित् तथा वाहिनी का पुत्र गृहमें रखा था। कंस का कृष्णद्वारा वध होने के बाद | (म. आ. ८९. ४६)। कृष्ण ने इसे पुनः मथुरा की गद्दी पर बैठाया (भा. १०. उच्चैःश्रवस् कौपयेय--यह कुरुओं का राजा तथा केशिन् का मामा (चै. उ. ब्रा. ३. २९. १-३)। ४. धृतराष्ट्र के शतपुत्रों में से एक (म. आ. परि. उजयन-विश्वामित्र का पुत्र (म. अनु. ७.५८ कुं.)। १.४१, पंक्ति. १९)। उच्छवृत्ति-एक ब्राह्मण । दारिद्य के कारण इसे ५. भारतीय युद्ध का दुर्योधनपक्षीय राजा। पेट भर खाने के लिये भी नहीं मिलता था । एक दिन ६. (सो. कुरु.) दूसरे जनमेजय का पुत्र (म. आ. | जब यह भिक्षा के लिये घूम रहा था, तब इसे एक सेर ८९.४८)। सत्तू मिला । उसमें से अग्नि तथा ब्राह्मण को दे कर बाकी ७. पांडवो में से अर्जुन का पौत्र परीक्षित उसके चार | अपने पुत्रों को समान भाग में बाँट दिया । यह स्वयं पुत्रों में से एक । जनमेजय का बंधु। खाना शुरु करे इतने में प्रत्यक्ष यमधर्म ब्राह्मणरूप में ८. स्वर्भानु का अंशभूत क्षत्रिय (म. आ. ३.१; | उसके पास आया तथा खाने के लिये मांगने लगा। ६१. १३)। . ब्राह्मण ने अपने हिस्से का सत्त इसे दिया परंतु उसे संतोष ९. पुष्करमालिन् देखिये। न हुआ। तब इसने अपने पुत्रादिकों के हिस्से का सत्तू उग्रसेना--अक्रूर के स्त्रियों में से एक । भी इसे दिया । यह देख कर धर्म प्रसन्न हुआ तथा वह उग्रहय--राम के अश्वमेधीय घोड़े का रक्षण करने के | इस ब्राह्मण को सहकुटुंब तथा सदेह स्वर्ग में ले लिये यह लक्ष्मण के साथ गया था (पन. पा. १२)। । गया। आगे चल कर इस पुण्यात्मा के सत्त के जो कण उग्रा-सिंधु दैत्य की माता का नाम (गणेश. २. भूमिपर गिरे थे उसमें एक नेवला आ कर लोट लगाने १२४)। लगा । शरीर का जो भाग उस सत्तू को लगा, वह एकदम उग्राय-महिषासुर की ओर का एक असुर । सुवर्णमय हो गया। आगे चल कर वह मेवला धर्म के उग्रायुध-(सो. द्विमीढ.) भागवत के मतानुसार | यज्ञ में अपने शरीर का दूसरा भाग भी सुवर्णमय हो, नीप का पुत्र । परंतु अन्यों के मतानुसार कृत का पुत्र । | इस इच्छा से गया परंतु उसकी इच्छा पूरी नही हुई. इसे क्षेम्य नामक पुत्र था । इसने १०१ नीपों का नाश | (जै. अ.६६) । मोक्षधर्म कथन के पश्चात . गृहस्थाश्रमी किया । इसने आठ हजार वर्षों तक तपस्या की थी। मानव भी उच्छवृत्ति का पालन करने से मोक्ष प्राप्त कर इसे यम ने तत्त्वज्ञान सिखाया (मत्स्य. ४९. ५८.६९)। सकता है, यह पुरातन कथा भीष्म ने युधिष्ठिर को कान की इसने भल्लाटपुत्र जनमेजय का वध किया था। शंतनु की (म.शां. ३४१-३५३)। कुरुक्षेत्रस्थ उच्छवृत्तिधारी सक्तुप्रेस्थ मृत्यु के बाद इसने सत्यवती की मांग की। इससे ब्राह्मण के यहाँ त्यक्त पिष्ठ में बदन को घोलने से नकुल क्रोधित हो कर भीष्म ने इसका वध किया (ह. वं. | का अर्धाग सुवर्णमय हुआ, किन्तु बाकी आधा शरीर १. २०)। धर्मराज के यज्ञ में उर्वरित अन्न में घोलने से भी सुवर्ण२. धृतराष्ट्र के शतपुत्रों में से एक (म. आदि. परि. | मय न हो सका। इस प्रकार उच्छवृत्ति की प्रशंसा १.४१; पंक्ति. १६)। उल्लेखित है (म. आश्व. ९२-९३)। .. ३. भारतीय युद्ध का दुर्योधनपक्षीय एक राजा. उच्छवृत्ति के माने, कपोत के जैसे विनायास मिले हुए। ४. कर्ण के द्वारा मारा गया पांडवपक्षीय एक राजा | दाने चून कर जीवन यापन करना । (म.आश्व.९३.२,५)(म. क. ४०.४६ )। यह द्रौपदी स्वयंवर में था (म. इसे सत्य ऐसा नामान्तर था। इस की पत्नी का नाम आ.७७.३)। पुष्करमालिनी (म. शां. २६४.६-७). उग्रास्य-महिषासुर के पक्ष का एक दैत्य । इसका उडुपति-अंगिरस कुल का एक गोत्रकार । वध अंबिका ने किया (मार्क. ८०)। उतथ्य-अंगिरस का पुत्र । इसकी माता का नाम उचथ्य-उतय्य देखिये। स्वराज् । इसका श्रद्धा नाम भी मिलता है । परशुराम द्वारा उच्चैःश्रवस्-एक मछुवा राजा । मत्स्यगंधा का | पृथ्वी निःक्षत्रिय करने के पश्चात् , इसने क्षत्रियों का पुनपोषण करनेवाला पिता (म. आ. ९४.६७)। | रुत्थान किया । इसकी भायां ममता । इसका कनिष्ठ भ्राता Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उतथ्य. प्राचीन चरित्रकोश उत्तंक बृहस्पति, देवताओं का पुरोहित था। बृहसति के ममता मोह से उत्तक वश नही होता यह देख कर संतुष्ट हो कर से बलात् संभोग समय पर, ममता ने अपने देवर बृहस्पति | उसे वरदान दिया। से कहा "मैं गर्भवती हूँ।" तब कामातुर बृहस्पति आपेसे | उत्तंक को अच्छी तरह पढा कर बैदने उसे घर जाने के बाहर हो गया। संभोग के लिये गर्भ का भी विरोध देख कर | लिये कहा। उस समय "आपको मैं क्या गुरुदक्षिणा उसने गर्भ को अन्धा होने का शाप दिया । वह दीर्घतमा | दूँ ?" ऐसा प्रश्न उत्तक ने उनसे पूछा । बैदने दक्षिणा औतथ्य हो गया (म. आ. ९८.५-१६; शां. ३२८)। लेना अमान्य कर दिया । परंतु उत्तक का अत्यधिक इसकी एक और पत्नी सोमकन्या भद्रा थी। वरुण ने | आग्रह देख कर कहा कि, तुम्हारी गुरुपत्नी को जो चीज उसका अपहरण किया, तब इसने समुद्रशोषण किया | चाहिये हो, वह ला कर दो। गुरुपत्नी के पास जा कर तथा समुद्र को मरुस्थल में परिणत कर दिया। सरस्वती | उत्तंक ने पूछा कि तुम्हें क्या चाहिये? तब उसने कहा नदी को जलरहित तथा अदृश्य कर दिया । अन्त में समुद्र ने | कि मुझे पौष्य राजा की पत्नी के कुंडल चाहिये । उसने उचथ्य को भद्रा लौटा दी (म. अनु.२५९.९-३२ कुं.)। पौष्य राजा की पत्नी के पास से वे कुंडल मांग लाये। उन उतथ्य तथा उचथ्य इसके पाठभेद है। मांधाता के | कुंडलों पर तक्षक की नजर है यह पौष्य की पत्नी को साथ इसका क्षात्रधर्म विषय पर सेवाद हआ था (म. शां. मालूम था, अतएव कुंडलों को ठीक से सम्हालने की ९१) जो उतथ्यगीता नामसे प्रसिद्ध है। इसका पुत्र सूचना उसने उत्तक को दी । उत्तक जब कुंडल ले कर जा शरद्वत् । (सत्यतपस् देखिये)। रहा था तब तक्षक उसके पीछे बौद्ध भिक्षु के रुप में जाने २. शिवावतार गुहावासिन् का शिष्य । लगा। जब उत्तक ने वे कुंडल नीचे रखे तब तक्षक उन्हें उत्कचा, उत्कचोत्कृष्टा वा उत्कटा-कश्यप तथा पाताल में ले गया। तब उत्तक पाताल जाने का मार्ग ढूंढने लगा। उस समय इसकी गुरुभक्ति से संतुष्ट हो कर खशा की कन्या । .. . इन्द्र ब्राह्मणरूप में इसे सहायता करने आया। उसने वज्र : उत्कल-(स्वा. उत्तान.) रुवं तथा इला का पुत्र । की सहायता से इसे मार्ग बना दिया। उत्तंक ने पाताल रुव वन में जाने के बाद राज्य इसके पास आया। परंतु से कुंडल लाये तथा वे बैद भार्या को दिये | कुंडलों के विरक्त होने के कारण इसने उसका स्वीकार नहीं किया वापस मिलने पर भी उत्तंक का तक्षक के प्रति क्रोध कम .(भा. ४.१३.६-१०)। नही हुआ। उसका बदला लेने के लिये इसने जनमेजय २. वृत्रासुरानुयायी असुर । समुद्रमंथन के बाद हुए | को सर्प सत्र के लिये प्रेरित किया (म. आ. ३: इन्द्र देवदैत्यप्रसंग में इसने मातृगणों से युद्ध किया (भा. | देखिये)। यही कथा केवल नामों के भेद से अन्य स्थानों ८.१०)। पर भी आई है। यह एक भार्गव था। यह मुनिश्रेष्ठ . ३. सुद्यम्न के तीन पुत्रों में से एक । इसने उत्कल | | गौतम का शिष्य । विद्याभ्यास समाप्त होने पर गुरु को नगरी की स्थापना की (पद्म. स.८; ब्रह्म.७)। गुरुदक्षिणा के रूप में क्या दूं, ऐसा पूछने पर इसकी गुरुपत्नी उत्कल कात्य-सूक्तद्रष्टा (ऋ. ३.१५-१६)। ने सौदास राजाकी पत्नी के स्वर्णकुंडल लाने के लि उत्कला-(स्वा. प्रिय.) सम्राज़ राजा की पत्नी। | कहा । सौदास अत्यंत भयंकर तथा मनुष्यभक्षक था। मरीचि राजा की माता। परंतु बिना डरे उत्तंक उसके पास गया तथा कुडल मांगउत्तंक--यह बैद का शिष्य । यह अत्यंत मनोनिग्रही ने लगा। कुंडल उसके पास न हो कर उसकी पत्नी के था । एकबार जब बैद ऋषि यजमानकृत्य के लिये बाहर | पार पास थे। इससे उत्तक सौदास की पत्नी के पास गया तथा ये हए थे. तब आश्रम पर देखरेख रखने का काम उन्होंने उससे कुंडल माँग कर अपनी गुरुपत्नी को दिये। उत्तंक पर सौंपा । बैद के पीछे उसकी पत्नी ऋतुमती हुई। बाद में उत्तंक निर्जल मारवाड़ देश में तपश्चयां करने तब उत्तंक की परीक्षा देखने के हेतु उसने आश्रम की स्त्रियों | चला गया। एक बार श्रीकृष्ण से इसका मिलन हुआ। के द्वारा संदेशा भिजवाया, कि गुरुपत्नी का ऋतु व्यर्थ न | कौरवपांडवो का भारतीय युद्ध में नाश हो गया, यह हो ऐसा काम तुम करो । परंतु उनका निषेध कर उत्तंक ने | सुनते ही यह कृष्ण को शाप देने लगा। तब तत्त्वकथन उस प्रसंग का निवारण किया। बैद ऋषि के घर लौटने के करते हुए कृष्ण ने इसे विश्वरूप दाया। मरुभूमी में जहाँ बाद उसे यह सब मालूम हुआ। तब किसी भी प्रकार के | इच्छा हो वहाँ पानी प्राप्त करने का वरदान इसने माँगा । प्रा. च. ११] Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तंक प्राचीन चरित्रकोश उत्पल कृष्ण ने कहा कि, मेरा स्मरण करते ही तुम्हें जल प्राप्त हो उत्तर भयभीत हो कर अकेला ही भागने लगा। तब मैं अर्जुन जावेगा । एक बार जब इसने स्मरण किया, तब इन्द्र चांडाल हूँ यह बता कर बृहन्नला ने उसे धीरज बँधाया तथा इसे के रूपमें इसे पानी देने आय।। परंतु अपवित्र मान कर | सारथी होने के लिये कह कर स्वयं युद्ध करने लगा। थोडी इसने उसका स्वीकार नहीं किया। वास्तव में इन्द्र अमृत ही देर में अर्जुन ने गायों के सब समूहों को मुक्त कर लिया। देने के लिये आया था। जिस जिस समय तुम्हें पानी की तदनंतर उत्तर जयघोष करता हुआ नगर में गया (म. वि. आवश्यकता होगी उसी समय इस मरुभूमि में सजल | ६२-११)। यह भारतीय युद्ध में पांडवों के पक्ष में था। मेघ आवेंगे ऐसा कृष्ण ने इसे पुनः वर दिया (म. आश्व. | इसने काफी पराक्रम दिखाया । परंतु शल्य के हाथों यह ५२.५४ )। इसने धुंधु दैत्य का वध करने के लिये, मारा गया (म. भी. ४५.४१)। उत्तर की मृत्यु के समय कुवलाश्व नामक राजा को सहायता दी(म. व. १९२.८) । उसकी पत्नी गर्भवती थी। उसे इरावती नामक कन्या (२ जनमेजय परिक्षित देखिये)। हुई। इसीका विवाह आगे चल कर अभिमन्युपुत्र परीक्षित् उत्तम-चाक्षुष मन्वन्तर के सप्तर्षियों में से एक। के साथ हुआ। २. एक मनु । २. अषाढ उत्तर पाराशर्य देखिये। ३. (स्वा.) उत्तानपाद तथा सुरुचि का पुत्र । यह ३. कश्यपकुल का गोत्रकार। अविवाहित था। इसका वध मृगया में बलाढ्य यक्ष ने उत्तरा-सोम की सत्ताईस पत्नियों में से एक किया (भा. ४.८.९, १०.३)। २. विराट की कन्या । अर्जुन ने बृहन्नला के रूप में उत्तमा--वर्तमान मन्वन्तर का इक्कीसवा व्यास । इसे नृत्यगायनादिकों की शिक्षा दी। गोग्रहणसमय पर. २. मगध देश के देवदास राजा की पत्नी। यमुना में जो पराक्रम अर्जुन ने दर्शाया, उसके लिये विराट ने इसे स्नान कर के यह मुक्त हो गई (पन. ३.२१६)। अर्जुन को देने की इच्छा दर्शाई थी। परंतु अर्जुन ने उत्तमोत्तरीय--विसर्गसंधि के संबंध में मत प्रतिपादन अभिमन्यु के लिये इसका स्वीकार किया। जब भारतीय करनेवाला एक आचार्य (ते. प्रा. ८.२०)। युद्ध में अभिमन्यु की मृत्यू हुई, तब यह गर्भवती थी। उत्तमौजस्-एक पांचालदेशीय राजपुत्र (म. उ. | अश्वत्थामा ने पृथ्वी को निष्पांडव करने की प्रतिज्ञा कर १९७.३)। भारतीय युद्ध में यह पांडवों के पक्ष में था ऐषिकास्त्र छोडां (म. सौ.१५.३१) । कृष्ण ने उस समय (म.द्रो. २०.१५३;* २४.३६,१०५.८१९*)। यह जब इसके गर्भ का रक्षण किया। इसका पुत्र परीक्षित् (म. पांडवों के शिबिर में सो रहा था, तब अश्वत्थामा ने इसका | वि. ११.१८; भा१.८.१५)। . वध किया (म. सौ. ८.३०-३३)। उत्तान आंगिरस--संभवतः एक आचार्य ( पं. बा. उत्तर-विराट तथा सुदेष्णा का पुत्र । इसका दूसरा १.८.११; तै. ब्रा. २.३.२.५) . नाम भूमिंजय था (म. वि. ३३. ९)। यह द्रौपदीस्वयंवर में गया था (म. आ. १७७.८)। गायों का समूह जब उत्तानपाद-स्वायंभुव मनु के शतरूपा से उत्पन्न दुर्योधन हरण कर ले गया, तब गोपों ने यह वाता उत्तर पुत्रों में कनिष्ठ ( मत्स्य. ४)। इसे सुनृता या सुनीति को बताई। विराट अन्य स्थान पर युद्ध में मग्न होने के और सुरुचि ये दो स्त्रियां थीं। सुनीति से कीर्तिवान् एवं कारण गायों को मुक्त करने की जिम्मेदारी उत्तर पर थी। | ध्रुव तथा सुरुचि से उत्तम इस तरह इसके तीन पुत्र थे अन्तःपुर में उत्तर ने अपने पराक्रम की स्वयं प्रशंसा की तथा । (भा. ४.८)। सुरुचि इसे बहुत प्रिय थी (ध्रव देखिये)। स्वायंभुव मन्वंतर में प्रजापति अत्रि ने इसे दत्तक लिया खेद प्रगट किया कि, सारथि न होने के कारण वह युद्ध था। इसे सुनृता से चार पुत्र और दो पुत्रियां हुई। करने नहीं जा सकता । परंतु इसकी परीक्षा लेने के लिये द्रौपदी (सैरंध्री) ने कहा कि, अर्जुन (बृहन्नला) तुम्हारा उनके नाम १. ध्रुव, २. कीर्तिमान् , ३. आयुष्मान्, ४. सारथ्य करेगा। इससे उत्तर को मजबूर हो कर युद्ध में वसु तथा १. स्वरा, २. मनस्विनी (ब्रह्माण्ड. २.३६.८४जाना पड़ा। परंतु रथ में बैठ कर कौरवों की अफाट सेना ९० ह. व. १.२, ध्रुव देखिये)। के पास गया नहीं. इतने में ही भयभीत होकर यह उत्तानबर्हि (स.) शांति राजा के तीन पुत्रों में बृहन्नला को वापस लौटने के लिये कहने लगा। उस समय | ज्येष्ठ । स्त्रियों में की हुई अपनी प्रशंसा की याद दिलाई । परंतु उत्पल-विदल देखिये । Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्साह प्राचीन चरित्रकोश उद्दालक आरुणि उत्साह-भृगुवंश में श्री का पुत्र (भृगु देखिये)। उदासीन--(सो. वृष्णि.) मत्स्यमतानुसार वसुदेव उदषसेन वा उदफ्स्व न-(सो. अज.) विष्वक्सेन | तथा देवकी का पुत्र । का पुत्र । इसका पुत्र भल्लाट । २. (शिशु. भविष्य.) मत्स्यमतानुसार वंशक का पुत्र। उदग्र-महिषासुरानुयायी एक असुर । उदुंबर-विश्वामित्र कुल का एक गोत्रकार । उदग्रज-कश्यपकुल का गोत्रकार ऋषिगण । उद्गातृ--(स्वा. प्रिय.) प्रतीह और सुवर्चला के उदंक-उत्तंक का पाठभेद। तीन पुत्रों में से एक । यह यज्ञ कर्म निपुण था । यह नाम उदंक शौल्बायन-प्राण तथा ब्रह्म एक ही हैं ऐसा | मूल भागवत में नहीं है; परंतु प्रतिहादि कहे जाने के इसका मत था (बृ. उ. ४.१.३)। सत्रमें दशरात्र ऋतु ही कारण आदिपद के द्वारा इसका स्वीकार टीकाकार करते मुख्य भाग है ऐसा इसका मत है (ते. सं. ७.५.४.२)। है (भा. ५.१५.५)। यह विदेह देश के देवरांति बृहद्रथ जनक का समकालीन उद्गाह--वसिष्ठगोत्र का एक ऋषिगण । उद्गाट ऐसा रहा होगा। पाठभेद है। उद्गीथ--स्वायंभुव मन्वंतर में मरीचि ऋषि को ___उदमय आत्रेय-अंग वैरोचन का पुरोहित (ऐ. ब्रा. उर्णा से उत्पन्न छः पुत्रों में दूसरा । आगे चल कर दूसरे ८.२२)। जन्म में कृष्ण के बंधुओं में से एक हुआ। उदयन-(सो. कुरु. भविष्य.) मत्स्य तथा विष्णुमता | २. (स्वा. प्रिय.) भूमन् को ऋषिकुल्या से उत्पन्न पुत्र । नुसार शतानीकपुत्र। ३. (स्वा. नाभि.) विष्णुमतानुसार भुव का पुत्र । २. (शिशु. भविष्य.) विष्णुमतानुसार दर्भक का पुत्र । उद्गाट-उद्गाह देखिये। वायु तथा ब्रह्मांड मतानुसार इसे उदायिन् कहा गया है। उद्दल-व्यास की यजुः शिष्यपरंपरा में वायुमताभविष्य में उदयाश्व ऐसा पाठ है। इसने गंगा के किनारे | नुसार याज्ञवल्क्य का वाजसनेय शिष्य । पुष्पपुर स्थापित किया । पुष्पपुर को पाटलिपुत्र ऐसा नामां उद्दाल--विश्वामित्रकुल का गोत्रकार एवं प्रवर । तर युगपुराण में दिया है। उद्दालक-एक आचार्य । आपोद धौम्य का शिष्य । उदयसिंह-देशराज को देवकी से उत्पन्न पुत्र। एक समय इसे गुरु ने पानी (खेत का) रोकने के लिये उदयाश्व वा उदयिन्-(.२ उदयन देखिये)। कहा; पर इसे पानी को रोकते नहीं बन रहा था। तब उदर शांडिल्य-अतिधन्वन् शौनक का शिष्य (छा. | इसने खुद ही नीचे सो कर पानी रोका । गुरु को खोज करते उ. १.९.३; वं. ब्रा. २)। समय यह पता लगा । तब उन्होंने आरुणि पांचाल्य का २. इंद्रसभा का एक महर्षि (म. स. ७.११)। नाम उद्दालक रखा (म. आ. ३.२०-२९)। इसे उदरेणु-विश्वामित्र कुल का गोत्रकार । कुशिक की कन्या से श्वेतकेतु और नचिकेतस् दो पुत्र तथा उदर्क-१० विदूरथ देखिये। सुजाता नामक पुत्री उत्पन्न हुई । सुजाता कहोल को ब्याही उदल-विश्वामित्र कुल का सामद्रष्टा (पं. ब्रा. गयी थी। इसका पुत्र अष्टावक्र था (म. व. १३२)। एक १४.११.३३)। निपुत्रिक ब्राह्मण ने इसकी स्त्री पुत्रोत्पादनार्थ मांगी। उदवहि-कश्यपकलोत्पन्न शंडिल शाखा का एक | श्वेतकेतु को यह सहन न होने के कारण उसने नियम ऋषि । बनाया कि, स्त्री को केवल एक ही पति होना चाहिये (म. - २. विश्वामित्र गोत्र का ऋषि । आ. ११३)। इस में सत्तासामान्य नामक दिव्यदृष्टि उदान-तुषितदेवों में से एक । निर्माण हुई थी; इस कारण यह हमेशा समाधिसुख में उदापेक्षिन्--विश्वामित्र के पुत्रों में से एक। रहता था। इसका शरीर सूर्य किरणों से शुष्क हो कर यह उदारधी-प्राचीनगर्भ और सुवर्चा का पुत्र । इसकी | ब्रह्मरूप हुआ। इसका शव चामुंडा देवी ने 'खडग तथा स्त्री भद्रा । इसे दिवंजय और रिपुंजय नामक दो पुत्र थे। खट्वांग में भूषण के समान धारण किया (यो. वा. ५.५१पूर्वजन्म में यह इंद्र था (ब्रह्माण्ड. २.३६. १००-११०)।। ५६; चंडी देखिये)। उदारवसु वा उदावसु--(सू. निमि.) मिथि जनक | उद्दालक आरुणि--अध्यात्मविद्या का प्रसिद्ध का पुत्र । इसका पुत्र नंदिवर्धन । | आचार्य । यह अरुण औपवेशि गौतम का पुत्र तथा शिष्य ८३ Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उद्दालक आरुणि था (बृ. उ. ६. ५. ३ ) । इसका पुत्र श्वेतकेतु (बृ. उ. ६.२.१९ छां. उ. ६.१.१ ) । पतंचल काप्य इसका गुरु था । इसने याज्ञवल्क्य को अध्यात्म संबंधी कुछ प्रश्न पूछे थे। वाशवल्क्य ने जिनके उत्तर विस्तृत रूप से दे उसे चुप कर दिया (बृ. उ. ३.७) । एक याश्वस्य इसका शिष्य भी था (बृ. उ. ६.५.३ ) । 1 इसकी ब्रह्मविद्या की परंपरा ब्रह्मा से है। इसे इसके पिता से ही ब्रह्मविद्या मिली थी ( छ. उ. ३.११. ४) । बडे बडे ज्ञानी लोग भी अध्यात्मविद्या संपादनार्थ इसके पास आते थे । इंद्रद्युम्न, सत्ययज्ञ, जन तथा बुडिल इसके पास अध्यात्मविद्या सीखने के लिये आये थे (छां. उ. ५.११.१-२ ) । इसके कुल के मनुष्य विद्वान् थे ऐसी उस समय ख्याति थी । इसने श्वेतकेतु को सिखाया हुआ तत्त्वज्ञान प्रसिद्ध है ( छ. उ. ६.१ श्वेतकेतु देखिये) । प्राचीन चरित्रकोश इसका उल्लेख अन्यत्र भी आता है । राज्याभिषेक के समय कहे जाने वाले मंत्रों के संबंध में इसका मत सर्वमान्य है ( ऐ. बा. ८.७ ) । उद्दालकायन - जाबालायन का शिष्य (बृ. उ. ४. ६. २ ) । उद्दालक - अत्रिकुल का एक गोत्रकार। उदिए चैवस्वत मनु का पुत्र । उद्धत - एक राक्षस का नाम । यह शुकरूप में आया था। तब विनायक ने इसका वध किया। उपकोसल कामलायन अंतिम जन्म है । तुम ने मेरी कृपा संपादन की, इसलिये मैं तुम्हें सर्वश्रेष्ठ आत्मज्ञान बताता हूँ। ऐसा कह कर उद्धव को कृष्ण ने आत्मानात्मविवेक बताया । यही उद्धवगीता तथा अवधूतगीता नाम से प्रसिद्ध है (मा. ११. ७ २९ ) । तब उद्धव ने आनंद मिश्रित दुःख से उसकी प्रदक्षिणा कर बदरिकाश्रम के लिये गमन किया तथा वहां नरनारायण आश्रम में रह कर लोकहितार्थ बहुत तप किया। फिर विशाला को (बदरिकाश्रम) जा कर मोक्ष प्राप्त किया (भा. ११. २९ ४७) । श्रीकृष्ण उद्धव को अपने से अणुमात्र भी कम नहीं समझते ये तथा आत्मज्ञानोपदेश करने के लिये ही उद्धव को उन्होंने अपने पीछे रस छोड़ा था ऐसा शुकाचार्य ने बताया है ( भा. ३.४ ३०-३१ ) उदय द्रौपदीस्वयंवर के समय यहाँ उपस्थित था। (म. आ. १७७.१७) । उद्भव - (सो. यदु.) देवभाग का पुत्र इसकी माता का नाम कंसा | चित्रकेतु तथा वृहद्बल इसके दो ज्येष्ठ बंधु (मा. ९२४.४० ) । इसने बृहस्पति से थे नीतिशास्त्र का अध्ययन किया। यह कृष्ण का प्रिय मित्र था। इसे यादव मंडली में मान प्राप्त था श्रीकृष्ण ने एक बार अपना संदेशा इसे दे कर नंद, यशोदा और गोपियों का समाधान करने के लिये भेजा था। यादवों के नाश के बाद श्रीकृष्ण भी निजधाम जायेंगे यह जान कर इसे बहुत दु:ख हुआ। कृष्ण ने इसे बदरिकाश्रम जाने कहा किंतु अत्यंत प्रेम के कारण कृष्ण के पीछे पीछे यह सरस्वती नदी के तट पर गया । कृष्ण एक वृक्ष को टेक कर अकेले बैठे थे । उद्धव को देख कर कृष्ण ने कहा- " तुम्हे क्या चाहिये वह मैं जानता हूं ” । तू वसु नामक देव का अवतार है । पहले पहल सृष्टि उत्पन्न करने वाले वसु के यज्ञ में मुझे प्राप्त करने के लिये तुमने मेरा पूजन किया था। यह तेरा २. (सो. पुरूरवस् ) मत्स्यमतानुसार नहुष का पुत्र । उद्यान - (सो.) भविष्यमतानुसार शतानीक का पुत्र | " उद्बलायन—- कश्यप कुल का एक गोत्रकार । उन्नत - चाक्षुष मन्वंतर के सप्तर्षियों में से एक। उन्नतिपक्ष और प्रसुति की कन्या धर्म की स्त्री । उन्नाद -- कृष्ण. एवं मित्रविंदा का पुत्र । एक महारथी । उन्मत्त - अष्टभैरवों में से एक । २. अंगराज मायावर्मन् तथा प्रमदा का पुत्र ( भवि. प्रति. २.२१ ) ३. रावण का भ्राता । गवाक्ष कपि ने इसका वध किया ( वा. रा. वु. ७०.६५-०४ ) । उपकीचक - - सूताधिप केकय एवं मालवी के पुत्र तथा कीचक के कनिष्ठ भाई ( म. वि. १५ परि. १.१९.२५२७) भीम ने कीचक के बाद इनका वध किया ( म. वि. २२. २५ ) । उषकेतु -- एक व्यक्ति का नाम (क. सं. १३.१ ) । उपकासेल कामलायन -- कमलपुत्र उपकोसल | सत्यकाम जाबाल के घर ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए अध्ययन करने के लिये रहा। बारह वर्षों के बाद सत्यकाम ने अन्य शिष्यों का समावर्तन कर स्वगृह जाने की अनुमति दी परंतु उपकोसल का समावर्तन नहीं किया । तत्र सत्यकाम की स्त्रीने उससे कहा कि इस ब्रह्मचारी ने अग्नि की सेवा उत्तम प्रकार से की है । अनि हमें | दोष न दे इसलिये आप इसे ब्रह्मज्ञान बताइये । परंतु इस ८४ Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपकोसल कामलायन प्राचीन चरित्रकोश उपमन्यु वासिष्ठ पुत्र। ओर ध्यान न दे, सत्यकाम यात्रा करने चला गया । तब २. (सो. वृष्णि.) अक्रूर का पुत्र । मानसिक दुःख के कारण, उरकोसल ने अन्न वर्ण्य किया। ३. रुद्रसावणि मनु का पुत्र । इस ब्रह्मचारी का तप और उसकी सेवा को ध्यान में उपदेवा--देवक की कन्या। कृष्ण के पिता वसुदेव रख कर तीन अग्नि, इसे ज्ञान देने के लिये प्रगट हुए। की स्त्री । इसे कल्प, वर्ष आदि इस पुत्र थे। तीनों अग्मियों ने इसे बताया कि प्राण, सुम्ब तथा आकाश उपनंद--नंद का मित्र तथा हस्तक । ये प्रत्येक ब्रह्म है। उपकोसल ने कहा 'प्राण ब्रह्म कैसे है २. वसुदेव तथा मदिरा का पुत्र । यह मुझे समझ गया; परंतु सुख और आकाश के संबंध उपनंदक-(सो. कुरु ) धृतराष्ट्र का पुत्र । मे मुझे समझ में नहीं आया। इस पर अग्नि ने योग्य उपनिधि-विष्णुमतानुसार वसुदेव की, भद्रा से उत्पन्न उत्तर दे कर उसका समाधान कर अपना स्वरूप भी उसे कन्या। समझा दिया। उन्होंने अंत में कहा ' उपकोसल ! यह उपबर्हण-नारद देखिये। हमारी विद्या तथा आत्मविज्ञा हम ने तुम्हें बताई । ब्रह्म उपबिंदु--अंगिराकुल का एक गोत्रकार । वेत्ता का अगला मार्ग तुम्हारे आचार्य बतायेंगे । कुछ दिनों उपबिंबा-(सो. वृष्णि.) वायुमतानुसार वसुदेव की, के बाद आचार्य आये और शिष्य का मुखावलोकन कर | भद्रा से उत्पन्न कन्या। कहा-" मेरे बच्चे ! ब्रह्मज्ञानी के मुख की तरह तेरा उपभंग--(सो. यदु.) श्वफल्क का पुत्र । मुख दिखाई देता है; तुझे किसने ज्ञान दिया ?" उप उपमन्यु वासिष्ठ--मंत्रदृष्टा (ऋ. ९.९७.१३कोसल ने बताया कि, अग्नि ने मुझे ज्ञान दिया । तब गुरु १५)। वसिष्ठकुलोत्पन्न व्याघ्रपाद का पुत्र । इसका कनिष्ठ ने उपदेश दिया (छां. उ. ४.१०.१; १४.१)। बंधु धौम्य । इसका आश्रम हिमालय पर्वत पर था । इसकी - उपक्षत्र--(सो. वृष्णि.) विष्णुमत में श्वफल्क का माता का नाम अंबा था। उपमन्यु आपोद (आयोद) धौम्य ऋषि का शिष्य । धौम्य ने उपमन्यु के उदर निवाह के उपगहन-विश्वामित्र का पुत्र (म. अनु. ७.५६ कुं.)। साधन भिक्षा, दूध, फेन आदि बंद किये। अंत में प्राण उपगु-वसिष्ठकुलोत्पन्न एक ऋषि । के अत्यंत व्याकुल होने पर इसने अरकवृक्ष के पत्तों का २: (स. निमि.) विष्णु मतानुसार सात्यरथिपुत्र । भक्षण किया। जिसके कारण वह अंधा हुआ तथा कुएँ उपगुप्त-(स. निमि.) भागवतमतानुसार उपगुरु | में गिर पड़ा । गुरुजी शिष्य को ढूंढने के लिये निकले, जनक का पुत्र । तथा वन में आ कर उपमन्यु को कई बार पुकारा । गुरुजी उपगुरु-(सू. निमि.) सत्यरथ का पुत्र । इसका पुत्र | के शब्द पहचान कर उपमन्यु ने अपना सारा वृत्तांत कहा। उपगुप्त । तब गुरुजी ने इसे अश्विनीकुमारों की स्तुति करने को कहा। उपगु सौश्रवस-कुत्स और्व का पुरोहित । इसने स्तुति करते ही अश्विनीकुमारों ने प्रसन्न हो कर इसे ___इंद्र को हवि दिया इसलिये यजमान ने इसका वध किया एक अपूप भक्षण करने दिया । परंतु इसने गुरु को प्रथम (पं. ब्रा. १४.६.८)। अर्पण किये बिना उसे भक्षण करना अस्वीकार कर उपचित्र--(सो. कुरु.) धृतराष्ट्रपत्र । भीम ने दिया । उपमन्यु को किसी भी प्रकार के मोह के वश न इसका वध किया (म. द्रो. १११.१८)। होते देख, वे उस पर बहुत संतुष्ट हुए। अश्विनीकुमारों उपचित्रा-(सो. वृष्णि.) वसुदेव की मदिरा से ने उसे उत्तम दृष्टि दी । गुरु भी उस पर प्रसन्न हुए (म. उत्पन्न कन्या। आ. ३.३२-८४)। उपजंघनि-सनारु देखिये। बचपन में एक बार उपमन्यु दूसरे मुनि के आश्रम उपदानवी-मयासुर की तीन कन्याओं में से ज्येष्ठ।। में खेलने गया । वहा इसने गाय का दूध निकालते हुए हरण्याक्ष की स्त्री। देखा । बचपन में एक बार इसके पिता एक यज्ञ में २. सद की कन्या । इसका पुत्र दुष्यंत (ब्रह्माण्ड, ३. उसे ले गये, जहाँ इसे दुग्धप्राशन करने मिला था। ६.२५)। इस कारण इसे दूध का गुण तथा उसकी मिठास मालूम ३. विदर्भपत्नी । नामान्तर भोजा । थी (म. अनु. १४.११७-१२०)। लिंग एवं शिव उपदेव--(सो.) देवक का पुत्र । | पुराण में ऐसा दिया है कि, जब वह मामा के घर गय Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपमन्यु वासिष्ठ प्राचीन चरित्रकोश उपरिचर वसु था, तब इसे दुग्धप्राशन करने मिला था (लिङ्ग. १.१०७; नंदिकेश्वरकाशिका से पता चलता है। शेखर के रचयिता शिव. वाय. १.३४.३५)। घर आ कर उपमन्यु माता से | नागेशभट्ट ने नंदिकेश्वर का शिका को प्रमाण माना है। दूध मांगने लगा। मां ने आटा पानी में घोल कर दिया इस बात से पता चल जायेगा कि उपमन्यु, पाणिनि तथा जिस कारण उसे बहुत खराब लगा। मां ने स्नेहपूर्वक पतंजलि के पश्चात् का रहा होगा। व्याघ्रपाद (उपमन्यु उपमन्यु पर हाथ फेरते हुए कहा कि, पूर्वजन्म में शंकर की का पिता), नंदिकेश्वर तथा पतंजलि समकालीन थे, आराधना न करने के कारण, दूध मिलने इतना देव अपने ऐसा प्रतीत होता है। परंतु काल की दृष्टि से सारे उपमन्यु अनुकूल नहीं है । शंकर कैसा है, उसका ध्यान किस तरह एक है यह कहना असंभव लगता है। इसके द्वारा करना चाहिये, इत्यादि जानकारी उसने माता से पूछी। लिखे ग्रन्थ, १. अर्धनारीश्वराष्टक, २. तत्त्वविमर्षिणी, माता को प्रणाम कर वह तपस्या करने चला गया ।। ३. शिवाष्टक, ४. शिवस्तोत्र (बृहत्स्तोत्र रत्नाकर में छपा वहां दुस्तर तपस्या कर शंकर को उसने प्रसन्न किया। प्रथम है), ५. उपमन्युनिरुक्त (C.C.) हैं । इसने एक स्मृति शंकर ने इंद्र के स्वरूप में आ कर कहा कि, मेरी आराधना की भी रचना की थी, ऐसा स्थान स्थान पर आये वचनों करो; परंतु उसे शंकर के अभाव में देहत्याग की तयारी | से पता चलता है। करते देख शंकर ने प्रगट हो उसे अनेक वर दिये। क्षीरसागर दिया तथा गणों का अधिपति नियुक्त किया। ४. कृष्णद्वैपायन व्यास का पुत्र, शुकाचार्य का बंधु । उसने शंकर पर अनेक स्तोत्र रचे। उसने आठ ईटों का । ५. इंद्रप्रमतिपुत्र वसु का पुत्र (ब्रह्माण्ड. ३.९:१०.)। मंदिर बना कर मिट्टी के शिवलिंग की आराधना की, तथा यह ऋग्वेदी श्रुतर्षि मध्यमाध्वर्यु भी था। पिशाचों द्वारा लाये गये विघ्नों पर भी उसने तप को भंग उपमश्रवस्--मित्रातिथि का पुत्र (ऋ.१०.३३.७)। नहीं होने दिया (शिव. वाय. १.३४)। यह शैव था। बालिका के बाद इसका मन इसने कृष्ण को शिवसहस्रनाम बताया (म. अनु. १७)। करने आया (ऋ. १०.३३)। इसी सूक्त में कुरुश्रवण तथा पुत्रप्राप्ति के लिये तप करने जब कृष्ण आया, तब त्रासदस्यव की दानस्तुति है। कुरुश्रवण त्रासदस्य॑व तथा उसे शैवी दीक्षा दी। हिमवान् पर्वत के आश्रम में अंत मित्रातिथिपुत्र उपमश्रवस् का कोई संबंध रहा होगा ऐसा में यह अत्यंत जीर्णवस्त्र ओढ कर रहता था। इसने जटा नहीं लगता (सायणभाप्य व वृहद्दे.)। भी धारण की थी। यह कुतयुग में हुआ था (म. अनु. उपयाज-कश्यपगोत्रोत्पन्न ऋषि (द्रुपद देखिये)। १४-१७; शिव. उमा. १)। शकर के बताये अत्यंत विस्तृत उपयु-पराशरकुल का गोत्रकार । शैवसिद्धांत को इसने ऊरु, दधीच तथा अगस्त्य इनके उपरिचर वसु--(सो. ऋक्ष.) यह कुरुवंश के साथ संक्षेप में कर समाज में प्रसिद्ध किया (शिव. वाय. सुधन्वा की शाखा के कृतयज्ञ या कृति का पुत्र है (सुध३२)। न्वन् देखिये)। इसने यादवों से चेदि देश जीत लिया २. नंदिकेश्वरकृत काशिका ग्रंथ पर व्याघ्रपद के पुत्र तथा चैद्योपरिचर अर्थात् चैद्यों का जेता यह नाम स्वयं उपमन्यु की टीका है। इस टीकाकार ने अपनी लिया (वायु. ९४; ब्रह्माण्ड. ३.६.८; ह. वं. १. ३०; अपनी टीका में इस काशिका के बारे में यह ब्रह्म. १२; म. आ. ५७)। उपरिचर इसकी पदवी है विवरण दिया है कि, शिव ने अपने डमरू के मिष | तथा वसु इसका नाम है। उपरिचर शब्द की भांति ही (बहाने) सनक, सनंदन, सनातन, सनत्कुमार इत्यादि | अंतरिक्षग, आकाशस्थ, ऊर्ध्वचारी आदि शब्द इसके ऋषियों के तथा नंदिकेश्वर, पतंजलि, व्याघ्रपाद आदि | लिये प्रयुक्त हैं। यह सदा विमान में बैठ कर आकाश भक्तों के लिये चौदह मूत्रों के द्वारा ज्ञान प्रगट किया। में विचरण करता था, ऐसा इसके बारे में वर्णित है। परंतु उन में से केवल एक नंदिकेश्वर को इन सूत्रों का | इसके गले में इंद्रमाला के कारण इसे इंद्रमाली कहते थे । तत्त्वार्थ सनझा, तथा उसने इन छब्बीस श्लोकों की | इसकी स्त्री गिरिका । इसने तप कर इंद्र को संतुष्ट काशिका रची ( शिवदत्त-महाभाष्य पृष्ठ ९२ देखिये)। | किया। इंद्र ने इसे स्फटिकमय दिव्य विमान दिया तथा व्याकरण संबंधी माहेश्वर के चौदह वर्णसूत्र प्रसिद्ध | जिसके कमल कभी नहीं मुरझायेंगे ऐसी इंद्रमाला नामक है, जो महेश्वर ने डमरू बजा कर पाणिनि को दिये | वैजयंती अर्पण की और कहा कि, तुम्हे पृथ्वी पर धर्माऐसी प्रसिद्धि है। इन सूत्रों का कुछ गूढार्थ है, ऐसा | चरण करने के बाद पुण्यलोक प्राप्त होंगे; इस लिये तू ८६ Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपरिचर वसु प्राचीन चरित्रकोश उपरिचर वसु चेदि देश में वास्तव्य कर । वैजयंती के प्रभाव से युद्धभूमि | पुत्रों को अलग अलग राज्य दिये ( म. आ. ५७, २८में शास्त्रों के व्रण होने का डर नहीं था। २९)। इसके पुत्रों में मत्स्य तथा काली नाम हैं । बृहद्रथ इंद्र ने तत्पश्चात् साधुओं के प्रतिपालनार्थ बाँस की | ने मगध में बार्हद्रथ कुल की स्थापना की। कुशांब को छडी दी। संवत्सर की समाप्ति के दिन राजा ने उसका (मणिवाहन) कौशांबी, प्रत्यग्रह को चेदि, यदु को थोडा हिस्सा जमीन में गाड़ दिया, तभी से यह रीति करूष तथा पांचवे मावेल्ल को मत्स्य देश मिला (म. द्रो. राजाओं में अमी भी रूढ है। वर्षप्रतिपदा के दिन इसे | ९१)। यह पूर्व जन्म में अमावसु पितर था। छड़ी को वस्त्रभूषणों से सुशोभित कर, तथा गंधपुष्पों से | एक समय इंद्र तथा महर्षियों का यज्ञ में, पशुहिंसा अलंकृत कर उच्चस्थान पर आरोहित करते है राजा वसु | विहित या अविहित है इस पर विवाद हुआ। इतने में के प्रीत्यर्थ हंस रूप धारण किये ईश्वर की इस यष्टि द्वारा | द्वारा | वहां उपरिचर वसु का आगमन हुआ। सत्यवक्ता होने के राजा लोग बडे आदर से विधिपूर्वक पूजा करते है । इस कारण इस से विवाद का निर्णय पूछा गया । इसने इंद्र उत्सव की प्रभा राजा ने फैलाई, यह देख इंद्र ने ऐसा का पक्ष ले कर पशुवध के अनुकूल मत दिया । तब वर दिया कि जो राजा चेदिराजा की तरह मेरा उत्सव ऋषियों ने शाप दिया कि, तुम्हारा अधोलोक में पतन करेगा, उसके राज्य में अखंड लक्ष्मी का वास होगा तथा | होगा । शाप मिलते ही यह रसातल में पतित हुआ जन संतुष्ट रहेंगे। (मत्स्य. १४२)। महाभारत में यह वाद, अजवध नगर के पास से बहनेवाली शुक्तिमती नदी को करना चाहिये या बीज उपयोग में लाना चाहिये, ऐसा कोलाहल नामक पर्वत रोक रहा है, यह देख राजा ने था। उस समय उपरिचर वसु अंतरिक्ष में मार्गक्रमण पर्वतपर एक पदप्रहार किया तथा उसमें एक विवर निर्माण कर रहा था। तब ऋषियों ने निर्णयार्थ इसे बुलाया। कर, नदी के लिये मार्ग बना. दिया। पर्वत की उतनी दोनों पक्षों की बात समझ लेने पर, वसु ने देवताओं का संगति के कारण नदी को एक जुडवा ('एक पुत्र एवं एक पक्ष लिया तब ऋषियों ने शाप दिया कि, चूकि दवतापुत्री) हुआ। नदी ने कृतज्ञ हो, पुत्र तथा-पुत्री राजा को ओं का पक्ष ले कर तुमने अनृत भाषण किया है, इसलिये अर्पण की। राजा ने पुत्र को अपना सेनापति बनाया तुम्हें पृथ्वी के गर्भ में प्रवेश करना पड़ेगा । तदनुसार यह तथा उस पुत्री के साथ पाणिग्रहण किया। यही गिरिका राजा अधोमुख हो पृथ्वी के विवर में घुसा । परंतु नर थीं। वह शीघ्र ही नवयुवती हुई परंतु ऋतुदान के दिन नारायण की कृपा से नारायण का मंत्र जप कर, तथा 'राजा को पितरों ने मृगया हेतु वन में जाने की आज्ञा दी। पंचमहायज्ञ कर इसने नारायण को संतुष्ट किया। अंत आज्ञानुसार राजा मृगया हेतु गया। परंतु अत्यंत कामो में विष्णु की आज्ञानुसार गरुड ने आ कर इसे शापमुक्त त्सुकता के कारण उसका रेत खलित हुआ, जिसे उसने किया तथा पहले की तरह इसे अंतरिक्ष में मार्गक्रमण एक दोने में रखा तथा एक श्येन पक्षी को अपनी भार्या करने के लिये समर्थ बनाया। यह बृहस्पति का पट्टके पास ले जाने को कहा। वह पक्षी ले कर जा रहा था। शिष्य हुआ। उसके पास से इसने चित्राशिखंडी संज्ञक कि, राह में एक दूसरे बुभुक्षु दयेन पक्षी ने उस पर हमला सप्तर्षियों द्वारा रचित शास्त्र का अध्ययन किया । इसने कर दिया। इस संघर्ष में वह दोन यमुना नदी में गिर अश्वमेध यज्ञ किया, जिसमें बृहसति ने होतृत्व स्वीकार पड़ा तथा अद्रिका नामक मत्स्यी को मिला । यह मत्स्यी किया था। इसमें पशु वध नहीं हुआ। इसे यज्ञ में इसे एक शापभ्रष्ट अप्सरा थी। दस महीने के बाद एक धीवर नारायण ने प्रत्यक्ष दर्शन दिया । इस निष्ठावान राजा को के द्वारा पकडी गयी। उसे काटते ही पेट से एक लडका महीतल छोड़ने पर तत्काल परमपद प्राप्त हुआ (म. शां. एवं एक लडकी निकली। तब धीवर उन्हें राजा के पास | ३२२-३२४) । अद्रिका नामक अप्सरा के साथ एक ले गया तथा सारी कथा कह सुनाई । राजा ने लड़के का बार यह विमान पर से जा रहा था। सोमपट्ट में रहने नाम मत्स्य रख, उसे अपने आप रखा तथा लड़की एक | वाले पितरों की मानसकन्या अच्छोदा ने, इसे देख कर धीवर को दे कर उसका लालनपालन करने की आज्ञा दी। इसे अपन। पिता माना, तथा इसने भी उसे कन्या रूप यही सल्यवती (मत्स्यगंधा) है। में स्वीकार किया। यह देख कर उसके पिता ने इसे शाप उपरिचर वसु के पांच पुत्र थे। बृहद्रथ, प्रत्यग्रह, दिया कि तुम इस अप्सरा सहित पृथ्वी पर जाओगे तथा कुशांब, मणिवाहन (मावेल्ल) तथा यदु। इसने अपने तुमसे यह कन्या होगी। यह सुनते ही वसु ने उसके ८७ Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपरिचर वसु चरण पकड़ लिये । तब उन्होंने कहा कि, तुम पृथ्वी पर कृतयज का पुत्र हो कर भगवदाराधना कर वैकुंठ पद प्राप्त करोगे तथा अच्छोदा, अद्रिका के उदर से काली नाम से जन्म लेगी । यही सत्यवती है ( स्कंद २.९.४–७; मस्य. ५० ) । उपरिबभ्रव--शान्त्युदक करते समय कौनसा मंत्र प्रयुक्त करना चाहिये, इस विषय में इसका मत भिन्न है ( कौ. सु. ९.१० ) । उसी तरह, प्रेत किस तरह रखना चाहिये, इस विषय पर इसका मत पितृविधि में लिखा हुआ है ( कौ.सू. ८०.५४) । उपरिमंडल -- भृगुकुल का एक गोत्रकार । परिमंडल ऐसा पाठ है। प्राचीन चरित्रकोश उपलप - वसिष्ठ गोत्र का ऋषिगण । उपलंभ -- (सो. वृष्णि.) अक्रूर का रत्ना उर्फ शैब्या से उत्पन्न पुत्र ( मत्स्य ४५.२९ ) । उपलोम -- वसिष्ठकुलोत्पन्न ऋषि । उपवर्ष - पाटलीपुत्र के शंकरस्वामी का पुत्र तथा पाणिनि का गुरुबंधु । इसने पूर्वोत्तरमीमांसासूत्र पर वृत्ति रची है। शबर और शंकराचार्य ने इसका बारंबार निर्देश किया है (कथासरित्सागर) | यह बौधायन का दूसरा नाम रहा होगा। परंतु श्रीभाष्यकार इन दोनों को एक नहीं मानते क्यों कि ऐकात्म्याधिकरण में (ब्र. सु. ३.३.५३ ) शंकराचार्य ने उपवर्ष का विवरण दिया है। श्रीभाष्यकार उसी अधिकरण को प्रत्यगात्म पर लगाते हैं । उपवर्ष का शबर स्वामी ने भी उल्लेख किया है। ऐसी एक आख्यायिका है कि काश्मीर में रामानुजाचार्य को केवल एक बार बौधायनवृत्ति देखने मिली । यह संधि पा कर उन्होंने उसे पुरा पढ लिया तथा इससे श्रीभाष्य लिखा । उपवाह्यका— संजय की पुत्री और भजमान की स्त्री ( ह. वं. १.३७.३ ) । उपवेशि -- कुश्रि का शिष्य (बृ. उ. ६.५.३.) । उपलोक -- ब्रह्मसावर्णि मनु का पिता । उपसुंद --सुंदोपसुंद देखिये । उपस्तुत वार्ष्टिहव्य--सूक्तद्रष्टा (ऋ. १०.११५ ) । कण्व मेध्यातिथि के साथ इसका निर्देश है (ऋ. १.३६. १०; १७ ) । इसका बहुवचनी स्तोता मानकर उल्लेख हैं (ऋ. ८. १०३. ८ ) । उपस्तुत का ऋग्वेद में कई बार उल्लेख है । उरुधिष्ण्य ( उपाध्याय -- कश्यप को आर्यावती से उत्पन्न पुत्र भवि. प्रति. ४.२१ ) । उपहूत - स्वर्ग में रहने वाले पितर | इनकी कन्या यशोदा । यशोदा का पुत्र खट्वांग ( ब्रह्माण्ड ३. १०.९० ) । ૯૮ उपान -- साध्यदेवों में से एक । उपावि जानश्रुतेय -- उपसदकर्म के विषय में प्रमाण की तरह मान्य एक प्राचीन आचार्य का यह नाम है ( ए. बा. १.२५ ) । उपावृद्धि - - वसिष्ठकुलोत्पन्न एक ऋषि । उपासंगधर -- (सो. वृष्णि. ) मत्स्यमतानुसार वसुदेव का देवरक्षिता से उत्पन्न पुत्र । उपोदिति गौपालेय-- सामद्रष्टा (पं. बा. १२. १३. ११) । उभक्षय -- (सो. पूरु. ) वायुमतानुसार भीम का पुत्र । उभयजात -- भृगुकुलोत्पन्न ब्रह्मर्षि । रमा-- हिमालय की मेना से उत्पन्न पुत्री। इसका पति रुद्र (पद्म. सृ. ९ ) । उपनिषद् में विद्या का उमा हैमवती ऐसा निर्देश है (जै. उ. बा. ४. २०१२ ) । उम्लोचा - एक अप्सरा ( म. आ. ११४.५४) । उर वाणिवृद्ध-- एक आचार्य (सां. ब्रा. ७. ४) । उरुक्रम – आदित्यों में से एक । यह ऊर्ज (कार्तिक) माह में प्रकाशित होता है ( भा. १२.११ ) । परंतु भविष्यपुराण में ऐसा दिया है कि यह चैत (चैत्र) में प्रकाशित होता है और इसकी १२०० किरणें हैं ( भवि. ब्राह्म. १७८; विवस्वान् देखिये ) । विष्णु तथा त्रिविक्रम इसे नामांतर हैं। कीर्ति इसकी भायां थी, जिससे बृहच्छ्लोक नामक पुत्र हुआ (मा. ६.१८.८ ) । उरुक्रिय - (स. इ. भविष्य. ) बृहद्बल का पौत्र व बृहद्रण का पुत्र जिसे अभिमन्यु ने मारा । उरुक्षय इसका नामांतर है । वत्सवृद्ध या वत्सद्रोह इसका पुत्र था । उरुक्षय -- (सो. पुरु. ) विष्णुमतानुसार महावीर्य का पुत्र । यह क्षत्रिय से ब्राह्मण हुआ था। इसे विशाला से उत्पन्न त्र्य्यारुण, पुष्करिन् तथा कपि भी ब्राह्मण थे । २. अंगिरा गोत्र का प्रवर | उरुक्षय आमहीयव--सूक्तद्रष्टा (ऋ. १०.११८ ) । उरुक्षय का बहुवचन में निर्देश इस सूक्त में है (ऋ. १०. ११८.८-९) उरुक्षेप - (सू. इ.) भविष्यमतानुसार बृहदैशान का पुत्र । उरुचत्रि आत्रेय - - सूक्तद्रष्टा (ऋ. ५.६९-७० ) । उरुधिष्ण्य-- धर्मसावर्णि मन्वंतर के सप्तर्षियों में से एक । Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उरुनेत्र प्राचीन चरित्रकोश उर्वशी . उरुनेत्र--जालंधर की सेना का एक राक्षस । इस पर | गया है तथा दसवें मंडल में उर्वशी-पुरूरवा संवाद है। गणपति ने खड्गप्रहार किया, जिससे उसके मुख में से | शर्त के अनुसार, राजा नग्न अवस्था में दिखाई देने के नौ सिर तथा अठारह भुजाओं वाला दैत्य निकला | कारण उर्वशी उसे छोडकर जाती है। वह छोड़कर न (पन. पा. १७.)। जावे इसलिये राजा पागल की तरह भटकते भटकते एक उरुवल्क--वसुदेव तथा इला का पुत्र । सरोवर के पास आया। वहां वह सखियों के साथ क्रीडा - उरुश्रवस्-(सो. नरिष्यंत.) सत्यश्रवस् का पुत्र ।। कर रही थी। उस स्थान पर राजा तथा उर्वशी का संवाद इसका पुत्र देवदत्त । हुआ जो ऋग्वेद में वर्णित है (श. ब्रा. ११,५.१. मा. उर्मि–सोम का पुत्र । ९.१४)। उर्वशी गर्भवती थी इसलिये उसने राजा के उर्मिला-एक गंधर्वी, सोमदा की माता । पास आना अस्वीकार कर दिया। संक्षेप में संवाद का यही २. सीरध्वज जनक की कन्या। दशरथपुत्र लक्ष्मण सार है। अपने लिये प्राणत्याग करने को प्रवृत्त हुए राजा की स्त्री। को प्राणत्याग से निवृत्त होने को बता कर उर्वशी ने नारी उर्व--एक ऋषि । च्यवन ने अपने कुल का वृत्तान्त | स्वभाव की अच्छी कल्पना राजा को दी। उर्वशी देवों में कहा है। उस में ऊर्व नामक एक तेजस्वी कुलवर्धक का | से भी है ऐसा वहां वर्णित है। इसीलिये उसने निर्देश है । उससे अग्नि उत्पन्न हुआ। वह समुद्र में वडवा- राजा को सुझाया है कि मृत्यु के बाद स्वर्ग में आने पर उसे रूप से है । उसका पुत्र ऋचीक । वह बडा योद्धा था।। उसका सहवास प्राप्त होगा। उसने जमदग्नि को अपना पुत्र माना । ऋचीक की पत्नी गाधि की कन्या थी। गाधि का पुत्र विश्वामित्र । ऋचीक उर्वशी को देखकर वासतीवरसत्र में मित्रावरुणों का रेत को गाधिकन्या सत्यवती से क्षत्रियान्त परशुराम पैदा | | स्खलित हुआ तथा उनसे कालोपरांत अगस्त्य तथा वसिष्ठ हुआ। इस प्रकार भृगु तथा कुशिककुल का संबंध है उल्पन्न हुए (कात्यायनकृत सर्षानुक्रमणी. १.१६६; बृहद्दे. (म. अनु. ५६)। . २.३७,४४.१५६; ३.५६)। उर्वशी पुरूरवस का आख्यान बाहु का पुत्र सगर । वह अयोध्या का नृप था। है बहुत प्राचीन काल से प्रसिद्ध है । अप्सराओं का निर्देश . हय तालजंघ ने उसे राजपद से च्युत किया। तब ऊर्व ऋग्वेद में है। . भार्गव ने उसका रक्षण किया (वायु.८८.१२३)। . इससे और्ववंश पैदा हुआ (वायु. ८८.१५७; मत्स्य. नर नारायण ऋषि बदरिकाश्रम में तप कर रहे थे। वे इंद्रपद न ले लें, इस भय से इंद्र ने वसंत, काम एवं मेनका, १२.४०)। इसने अपनी जंघा से और्व अग्नि नामक रंभा, तिलोत्तमा, घृताची आदि सोलह हजार पचास पुत्र उत्पन्न किया । यहाँ ऊर्व को शुक्र कहा है । देव, मुनि अप्सराओं को उन्हें तप से परावृत करने के लिये भेजा तथा दानव इसके अनुयायी थे (पन. सृष्टि. ३८.७४१०७) पद्म में उर्व शब्द ऊर्व है। (दे. भा. ४.६)। विष्णुपुराण में ऐसा वर्णन है कि पुराण पुरुष विष्णु गंधमादन पर तप कर रहे थे तब यह मदन२. (सो. पूरु. भविष्य.) मत्स्यमतानुसार पुरंजय का सेना भेजी गयी थी (पन. सृ. २२)। गायनादि प्रकारों पुत्र। से उन्हें मोहित करने के कई प्रयत्न किये गये; परंतु सब उर्वरा-एक अप्सरा (म. अनु. ५०.४७ कुं.)। निष्फल हुआ देख वे सब खिन्न हो गये । नरनारायणों ने उन उर्वरीयान-सावर्णिमनु का पुत्र । सबका अत्यंत मधुर शब्दों से आदरातिथ्य कर के, पूछा कि उर्वरीवत्--और्व का नामांतर । आपका यहा आगमन किस हेनुसे हुआ है ? | जिससे कामादि उर्वशी-एक अप्सरा की तरह ऋग्वेद के काल से लजित हो अधोमुख कर स्तब्ध खडे हो गये। इतने में प्रसिद्ध है । ऋग्वेद में उर्वशी के एक संवादात्मक सूक्त में उन्होंने देखा कि नारायण की जंघा से सोलह हजार बहुत सी ऋचायें हैं (ऋ. १०.९५) उर्वशी शब्द ऋग्वेद | इक्कावन अप्सरायें प्रगट हुई जिनमें उर्वशी अत्यंत सुंदर में कई बार आया है (ऋ ४.२. १८; ५.४१. १९; ७. थी। यह उरु अर्थात् जंघा से उत्पन्न हुई इसलिये इसका ३३.११, १०.१५.१०, १७)। तथापि अंतिम तीन | नाम उर्वशी हुआ। नरनारायणों ने इंद्र को भेंट करने के स्थानों पर तो निश्चित रूप से व्यक्तिवाचक शब्द है। | लिये नयनाभिरामा उर्वशी कामादि के सुपुर्द की । तदुपरांत सातवें मंडल में इससे वसिष्ठ उत्पन्न हुआ ऐसा बताया | सब अप्सराओं ने नरनारायणों की सेवा में रहने के लिये प्रा. च. १२] ८९ Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उर्वशी प्राचीन चरित्रकोश उलूक प्रार्थना की, परंतु नरनारायणों ने उनकी सेवा स्वीकार | (भा. ९.१४-१५, विष्णु. ४.६-७; दे. भा. १.१३; म. नहीं की (दे. भा. ४.६; भा. ११.४; मत्स्य. ६०)। आ. ७०.२२)। यह एक बार सूर्याराधना को जा रही थी। तब इसने | ___ अर्जुन के जन्म के समय गायन करने वाली ग्यारह अप्सराओं में यह भी एक थी (म. आ. ११४.५४)। मित्र आदित्य को वरण करने का आश्वासन दिया। आगे वरुण मिला उसने भी इसे वरण करने का अभिवचन कुवेर की सभा में उसकी सदा सेवा करने में यह निमग्न मांगा। तब इसने मित्र को वचन देने की बात बताई । रहती है (म. स. १०.११)। अर्जन इंद्र लोक में शिक्षा वरुण ने बाद में इससे प्रेमयाचना की तथा वह इसने ग्रहण करने गया था। वहां एक बार इसकी ओर कुलकी दिया । तदुपरांत वरुण ने इसे उद्देश कर एक कुंभ में जननी इस पूज्यभाव से अर्जुन ने देखा । यह बात इन्द्र के अपना वीर्य डाला। मित्र को यह समझते ही उसने इसे ध्यान में न आयी तथा उसने सोचा कि, शायद काम शाप दिया “ मृत्युलोक में पुरूरवा की स्त्री हो"। तथा इच्छा से अर्जुन इसकी ओर देख रहा है इसलिये इंद्र ने अपना वीर्य एक कुंभ में डाला। इन दोनों कुंभों के चित्ररथ गंधर्व के द्वारा उर्वशी को समाचार भिजवाया वीर्य से अगस्त्य तथा वसिष्ठ का जन्म हुआ (पन. तब यह सायंकाल में सुंदर वस्त्रों से सजधज कर अर्जुन के स. २२; भा. ९.१४; मत्स्य. ६० वा. रा. उ. ५६.५७) पास गयी परंतु अर्जन ने खुद की भावना बता कर इसका मित्रावरुण बदरिकाश्रम में तप कर रहे थे। उस समय निषेध किया । इच्छाभंग होने के कारण इसने अर्जुन सौंदर्यवती उर्वशी फूल तोडते हुए इन्हें दिखाई पड़ी। को, 'तू एक वर्ष तक नपुंसक बन कर रहेगा,' ऐसा शाप तब इनका रेत स्खलित हुआ जिससे अगस्त्य तथा | दिया। तब इंद्र ने अर्जुन को सांत्वना दी कि तेरहवें वर्ष वसिष्ठ का जन्म हुआ। उर्वशी को देखते ही मित्र का (अज्ञातवास में) यह शाप तेरे काम आयेगा (म. व रेत स्खलित हुआ, जिसे उसने शाप के भय के कारण परि. १.६; प. १३२-१५०)। अष्टावक्र के सन्मान के पैरों तले रौंद डाला। तब वसिष्ठ का जन्म हुआ लिये वरुण ने जिन अप्सराओं का नृत्य कराया था उनमें (विष्णु. ४.५)। यह भी थी (म. अनु. १९.४४)। 'अनेकः पवित्र पदार्थ मेरा रक्षण करें; भीष्म के मुख से निकलने वाले एक बार नारद ने पुरूरवस् राजा की बहुत स्तुति की।। इस उल्लेख में पवित्र अप्सराओं में उर्वशी का नाम है। इस कारण यह उस पर मोहित हुई (भा.९.१४) । पुरूरवस् (म. अनु. १६५.१५). उर्वशी के नाम पर उर्वशीतीर्थ पर मोहित होने के कारण लक्ष्मीस्वयंवर नामक प्रबंधनाट्य | नामक एक पवित्र तीर्थस्थान प्रसिद्ध है (म.व. ८२.१३६ करते समय कुछ हावभावों में भूल हो गयी। तब भरत देवव्रत देखिये)। यह ब्रह्म-वादिनी थी ( ब्रह्मांड २.३३)। ऋषि ने शाप दिया, कि तूम पचपन वर्ष लता बन उर्वीभाव्य--(सो. कुरु भविष्य.) मत्स्यमतानुसार कर रहोगी। शाप की अवधि समाप्त होने पर जब यह पुरंजय का पुत्र । पुरूरवस् के पास जा रही थी, तब राह में केशी नामक उर्वीशू-यह पापी था, परंतु व्रत तथा दान के कारण दैत्य इसे उठा कर ले गया; परंतु सौभाग्यवश पुरूरवस् ने इसका उद्धार हुआ (पद्म. क्रि. १९)। ही इसे मुक्त किया (पद्म. स. १२. ७६-८५, मत्स्य, उल वातायन--सूक्तंद्रष्टा (ऋ. १०.१८६)। २४. २३-३२)। उल वार्णिवृद्ध--एक आचार्य (सां. ब्रा. ७.४)। तत्पश्चात् उर्वशी पुरूरवस के नगर में आयी तथा उलुक्य जानश्रुतेय--एक आचार्य (जै. उ. ब्रा. उसने अपनी तीन शतें बतायी। (१) इन दो भेडों को । १.६.३ ) मैं पुत्रवत् पाल रही हूं उनका संरक्षण करना होगा, (२) उलूक-एक ऋषि । (म. शां. ४७.६६*) विश्वामित्र मैं सदा घुताहार करूंगी, (३) मैथुन अतिरिक्त कभी तुम्हें | का पुत्र म. अनु. ७.५१ कुं.) नग्न न देखूगी। इन शर्तों का पालन करते हुए पुरूरवस् | २. एक क्षत्रिय । यह द्रौपदीस्वयंवर में था (म. आ. ने उर्वशी का चित्ररथ व नंदन आदि वनों तथा अलका | १७७.२०)। दुर्योधन ने इसे युद्धारंभ के पूर्व उपप्लव्य नगर आदि नगरों में ६१००० वर्ष तक उपभोग किया। परंतु में धर्मराज के पास दूत बनाकर भेजा था (म. उ. १५७. बाद में तीसरी शर्त भंग हो जाने के कारण वह देवलोक | १६०)। इसे कैतव भी कहते हैं । इसने धर्म को दुर्योधन गई। पुरूरवस् को इससे आयु आदि छः पुत्र हुए थे | का संदेश सुनाया (म. उ. १६०)। युयुत्सु के साथ Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उलूक प्राचीन चरित्रकोश उशनस् इसका युद्ध हुआ था (म. क. १८.१)। सहदेव ने इसका उल्मुक (स्वा.) चक्षुर्मनु तथा नड्वला के ग्यारह वध किया (म. श. २७-२९)। पुत्रों में कनिष्ठ । इसकी स्त्री पुष्करिणी । अंग, सुमनस् , ३ हिरण्याक्ष दैत्य के चार पुत्रों में से एक । ख्याति, तु, अंगिरा तथा गय ये इसके छः पुत्र थे( भा. ४ शिवावतार सोम का शिष्य । ४.१३.१७)। ५ शिवावतार सहिष्णु का शिष्य । २. (सो. वृष्णि.) बलराम का पुत्र । यह राजसूय में . उलूकी-कश्यप तथा ताम्रा की कन्या । इसे उलूक था (म. स. ३१.१६)। भारतीय युद्ध में यह पांडवों के हुए (म. आ. ६०. ५४)। काकी भी इसका नाम | पक्ष में था (म. द्रो. १०.१८)। रहा होगा। उल्लप-उलूप का पाठभेद । उलूखल-व्यास की सामशिष्यपरंपरा के ब्रह्मांड उशंगु-(रुशंगु) एक ऋषि। इसने अपने को मतानुसार हिरण्यनाभ के शिष्यों में से एक (व्यास | वार्धक्य आया देख पृथूदकतीर्थ में देह त्याग कर विष्णुदेखिये )। वायु में उलूखलक ऐसा पाठ है। लोक में गमन किया: (म. श. ३८.२४-२६)। इसके उलूप-विश्वामित्रकुल का ऋषि गण। आश्रम में आर्टिषेण, विश्वामित्र, सिंधुद्वीप, देवापि आदि. उलूपी ऐरावत नाम नागकुल के कौरव्य नाग की | ने तप कर ब्राह्मण्य प्राप्त किया था (म. श. ३८. ३१कन्या । यह ऐरावत नाग के पुत्र से ब्याही गयी थी।। ३२)। उस स्थान पर बलराम तीर्थयात्रा के निमित्त गया विवाहोपरांत कुछ ही दिनों में गरुड ने इसके पति का | था। वध किया। इस कारण यह बालविधवा हुई। कालोपरांत उशद्रथ-(सो. अनु.) भागवतमतानुसार तितिक्षुपंडुपुत्र अर्जुन तीर्थयात्रा करने निकला वह गंगा में स्नान | पुत्र । करने उतरा । उसे देख इसके मन में अजुन के प्रति प्रेम | उशनस-अग्नि देवताओं का दूत है तथा उशना उत्पन्न हुआ तथा वह उसे पानी में खींच ले गयी। काव्य असुरों का कुलगुरु व अध्वर्यु है । अग्नि तथा उशना अर्जुन ने उलूपी की प्रार्थना स्वीकार कर इससे गांधर्व | काव्य दोनों प्रजापति के पास गये, तब प्रजापति ने उशना विधि से विवाह किया । इस विवाह में ऐरावत की भी | काव्य की ओर पीठ कर अग्नि को नियुक्त किया, जिस सम्मति थी कारण इससे अपने वंश का विस्तार होगा | कारण देवताओं की जय तथा असुरों की पराजय हुई यह बात उसने ध्यान में रखी थी। बाद में उलुपी को (तै. सं.२.५.८)। यह असुरों का पुरस्कर्ता था (जै. उ. अजुनसे इरावान् नामक पुत्र हुआ (म. आ. २०६; | ब्रा. २.७.२-६.) वारुणि भृगु का पुलोमा से उत्पन्न पुत्र भी. ८६.६)। पांडवों के अश्वमेध के समय अजुन बभ्रु- (मत्स्य २४९.७; ब्रह्म. ७३.३१-३४)। भृगु का उषा से बाहन के हाथ से मारा गया। वस्तुतः वह मरा नहीं था; | उत्पन्न पुत्र (विष्णुधर्मोत्तर. १.१०६). उमा ने इसे भीष्म को शिखंडी की आड से मारने के कारण लगे पाप दत्तक लिया था (म. शां. २७८.३४)। इसको काव्य का निरसन हो इसलिये उलूपी ने माया के योग से इसे | य. २... वाय.ए.७४-७) कवि(म आ... मलित किया था। फिर उलूपी ने संजीवनी मंत्र का | ४०). शक्र ( अंधक देखिये; म. शां. २७८.३२). कवद्रि चितन किया तथा तुरंत ही नागों ने वह ला दिया जिसके | (म. क. ९८) कविसत, ग्रह, आदि नाम थे। ब्रह्मदेव द्वारा अर्जुन की मूर्छा दूर कर उसे उलूपी ने सावधान कर उस उलूपा न सावधान | ने पुत्र माना इसलिये ब्राह्म, शिव ने वरुण माना इसलिये किया (म. आश्व ७८-८०; बभ्रुवाहन देखिये)। पांडव | वारुण आदि नामों से इसे संबोधित करते हैं। उशना, जब महाप्रस्थान के लिये निकले तब उलूपी उनके साथ शुक्र तथा काव्य ये सब एक हैं (वायु. ६५.७५)। थी। बाद में इसने गंगा में देहत्याग किया (म. महा. | इसकी माता का नाम ख्याति तथा पिता का नाम कवि १.२५)। मिलता है (भा. ४.१)। भृगु का दिव्या से उत्पन्न शुक्र उल्कामुख--राम की सेना का एक वानर । यह | तथा यह एक ही है। (ब्रह्मांड. ३.१.७४)। इसकी अंगद के साथ दक्षिण दिशा में सीता की खोज में गया स्त्री शतपर्वा (म. उ. ११५. १३)। इसकी पितृसुता था (वा. रा. कि. ४१)। आंगी नामक एक स्त्री थी। इसके अतिरिक्त निम्नउल्बण-(स्वा.) वसिष्ठ तथा अरुंधती के सात लिखित स्त्रियां भी थीं। प्रियव्रतपुत्री ऊर्जस्वती (भा. पुत्रों में से एक। ५.१); पुरंदर कन्या जयंती (मस्त्य. ४७)। पितृकन्या Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन चरित्रकोश उशनस् गौ ( ब्रह्मांड ३.१.७४) । यह पर्जन्याधिपति, योगाचार्य, देव तथा दैत्यों का गुरु है ( वायु. ६५.७४-८५ ) । उशनस् काव्य, कुछ सूक्तों का द्रष्टा है ( ऋ, ८.८४९. ८७–८९) । यह दानवों का पुरोहित था ( तै. सं. २.५ ८.५; तां. ब्रा. ७.५.२०; सां. ओ. स. १४.२७.१ ) । इस की योग्यता बडी थी (ऋ. १.२६. १ ) । इसके कुल में भृगु से ही संजीवनी विद्या अवगत है ( भृगु देखिये ) । इसने यह विद्या शंकर से प्राप्त की थी ( दे. भा. ४. ११) । उशनस् ने कुबेर का धन लूट लिया था इसलिये शंकर ने इसे निगल लिया । तब यह शंकर के शिश्न से बाहर आया तथा शंकर का पुत्र हुआ। तब से इसका नाम शुक्र पडा (म. शां. २७८.१२, विष्णुधर्म १.१०६) । अमुर लगातार हारने लगे तब उन्हें स्वस्थ शांत रहने का आदेश देकर शुफ, बृहस्पति को जो मालूम नहीं हैं ऐसे मंत्र जानने के लिये शंकर के पास गया। यह संधि जानकर देवोंने पुनः अमुरों को कष्ट देना प्रारंभ किया। तब शुक्र की माता सामने आयी तथा उसने देवताओं को जलाना प्रारंभ किया । परंतु इंद्र ने पलायन किया तथा विष्णुने इसकी माता का वध कर के देवताओं की रक्षा की परंतु स्त्री पर हथियार चलाने के कारण, भृगु ने विष्णु को पृथ्वी पर जन्म लेने का शाप दिया तथा शुक्र की माता का सिर पुनः चिपका कर उसे सजीव किया तब इंद्र अत्यंत भयभीत हुआ तथा उसने अपनी जयंती नामक कन्या शुक्र को दी। शुक्र ने भी हजार वर्षोंतक तप करके शंकर से प्रजेशत्व, धनेशत्व तथा अवध्यत्व प्राप्त किया (मत्स्य. ४७.१२६; विष्णुधर्म. १.१०६ ) । शुक्र ने प्रभास क्षेत्र में शुक्रेश्वर के पास ( वन्द ७.१.४८) दुर्धर्ष नामक लिंग की स्थापना करके संजीवनी विद्या प्राप्त की ( प. उ.१५३) । जयंती दस वर्षों तक इसके साथ अदृश्य स्वरूप में थी । यह तप वामन अवतार के बाद किया । परंतु वायुपुराण में कहा है कि वे दोनों अदृश्य थे, इसीलिये बृहस्पति का निम्नलिखित षड्यंत्र सफल हुआ । ऐन समय पर युक्ति से बृहस्पति ने शुक्र का रूप ले लिया तथा मैं ही तुम्हारा गुरु हूँ, शुक्र का रूप ले कर आनेवाला यह व्यक्ति झूठा है ऐसा बतला कर उसे वापिस भेज दिया तथा स्वयं ने अमुरों को दुत बनाकर हीन बना डाला ( मत्स्य. ४७; वायु. २.३६; दे. भा. ४. १११२) । इसे ऊर्जस्वती तथा जयंती से देवयानी उत्पन्न हुई । देवी नामक कन्या इसने वरुण को ब्याही थी ( म. आ. ९२ उशिज ६०.५२ ) । इसे षण्ड तथा मर्क नामक दो पुत्र थे ( भा. ७. ५.१ ) । इसे आंगी से त्वष्ट, वरुत्रिन् तथा षण्डामर्क हुए ( कच, वामन तथा बृहस्पति देखिये ) । इसे अरजा नामक एक पुत्री थी (पद्म. सु. ३७) । छठवें मन्वंतर में यह व्यास था । ( व्यास देखिये) । शिवावतार गोकर्ण का शिष्यं । सारा जग मनोमय है, यह बताने के लिये इसकी कथा प्रयुक्त की गयी है ( यो. वा. ४.५ - १६ ) । इसने वास्तुशास्त्र पर एक ग्रंथ रचा है ( मत्य २५२ ) । यह धर्मशास्त्रकार था। उशनसधर्मशास्त्र नामक सात अध्यायोंवाली एक छोटी पुस्तक उपलब्ध है जिसमें आद्ध, प्रायश्वित्त, महापातकों के लिये प्रायश्चित्त तथा अन्य व्यावहारिक निर्बंधों के संबंध में जानकारी दी गयी है। उसके धर्मसूत्र में बहुत से सूप मनुस्मृति तथा बौधायन धर्मसूत्र के सूत्रों से मिलते जुलते हैं या ने इसका निर्देश किया है (१.५); मिताक्षरा ( २.२६० ); तथा अपरार्क ग्रंथ में अशनस धर्मशास्त्र के कुछ उद्धरण लिये गये हैं । उसी तरह औशनसस्मृति नामक दो ग्रंथ पहला ५१ श्लोकों का व दूसरा ६०० श्लोकों का जिवानंदसंग्रह में उपलब्ध है। • राजनीति विषय पर इसका शुक्रनीति नामक ग्रंथ उपलब्ध है। इसमें से कौटिल्य ने बहुत से उद्धरण लिये है। उशनस् उपपुराण का निर्देश औशनस उपपुराण के लिये किया गया है। अनेक स्थानों पर भीशनस उपपुराण का निर्देश मिलता है ( कूर्म. १.३; गरुड. १.२२३. १९ ) । २. उत्तम मनु का पुत्र ।. ३. सावर्णि मनु का पुत्र । - ४. स्वायंभुव मनु का एक देव भौत्य मन्वंतर के सप्तर्षियों में से एक। इसके लिये 'शुद्ध' नाम भी प्रयुक्त है। C ६. सुतप देवों में से एक । ७. उरु तथा षडायी का पुत्र । ८. (सो. व.) भागवतमतानुसार धर्म का पुत्र । भविष्यमतानुसार तामस का पुत्र । उशिक - (सो. क्रोष्टु. ) कृति का पुत्र । इसका पुत्र चेदि । २. शिव के श्वेत नामक दुसरे अवतार का शिष्य । ( भा. ९.२४.२ ) उशिज्— कक्षीवत् देखिये । Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उशिज प्राचीन चरित्रकोश उहाक उशिज-अंगिराकुलोत्पन्न ऋषि । इसे ऋषिज के समय अपने मंदिर में सोई थी तब स्वप्न में एक सुंदर नामांतर प्राप्त है । इसे ममता से उत्पन्न दीर्घतमा नामक | तथा तरुण पुरुष से इसका समागम हुआ। जागृत होने पुत्र था। उषिज इसका पाठभेद है। के पश्चात् इसकी विरहयुक्त चर्या देख कर चित्रलेखा ने उशिति--अंगिरस तथा स्वराज् का पुत्र । उशिति कारण पूछा । इसने उसे स्वप्न की संपूर्ण हकीकत बताई का पुत्र दीर्घतमस् (ब्रह्माण्ड, ३.१)। तथा स्वप्न के उस पुरुष को लाने के लिये कहा। तब उशीनर-(सो. अनु.) चक्रवर्ती महामनस् का पुन । चित्रलेखा ने त्रैलोक्य में प्रसिद्ध पुरुषों के चित्र क्रमशः इसे. तितिक्षु नामक भाई था। इसकी मृगा, कृमी, नवा, उतार कर उसे दिखाये । यादव वंश दिखाते समय प्रद्युम्न दर्वा, तथा दृशद्वती नामक पांच स्त्रियाँ थीं। जिन्हें क्रमशः | का चित्र देख कर यह लज्जित हुई तथा अनिरूद्ध का मृग, नव, कृमि, सुव्रत तथा शिबि औशीनर पुत्र थे। चित्र देख कर लज्जा से अधोमुख हो गई। इससे चित्रउशीनर तथा तितिक्षु ये दो स्वतंत्र वंशशाखायें शुरु हुई। लेखा ने स्वप्न का पुरुष जान लिया। चित्रलेखा में योगइसके राज्य का प्रसार केकय तथा मद्रक देशों में शिवपुर सामर्थ्य था अतएव तीसरे दिन वह शोणितपुर से द्वारका यौधेय, नवराष्ट्र, कृमिला तथा वृष्टा इन स्थानों पर हुआ| योगसामर्थ्य से एक क्षण में गई वहाँ उसे अपने काबू में (वायु. २.३७.१७-२४; विष्णु ४.१८; मत्स्य. ४८)। ले कर तथा कृत्रिम अंधकार में ढाँक कर ले आई (शिव. ययातिकन्या माधवी से इसे शिबि उत्पन्न हुआ (शिबि | रुद्र. यु. ५३)। रात्रि में निद्रिस्त अनिरुद्ध को वह देखिये)। पर्यकसहित लायी तब उस को अत्यंत आनंद हुआ तथा उषस्त वा उपस्ति चाकायण-एक सामवेत्ता | उसने चित्रलेखा के योगसामर्थ्य के प्रति आश्चर्य प्रगट ब्राह्मण | जब कुरु देश में अकाल पड़ा था तब बडी ही किया। बाद में इसने अनिरुद्ध से गंधर्वविवाह किया तथा बुरी हालत में यह एक ग्राम में . पत्नी समवेत रहा।। गुप्त रूप से इसके साथ चार माह तक सुख से रही । बाणा एक बार भूख लगने के कारण, एक महावत को, जब । सुर द्वारा इसकी रक्षा के लिये नियुक्त सेवकों ने एक बार • वह कुलथी खा रहा था, तब उसने होले मांगे। तब होले यह देखा तथा सब बाणासुर को बताया। यह जानते . देकर वह पानी भी देने लगा। तब पानी जूठा होने ही उषा के महल में आया। उसने देखा कि, उषा - के कारण इसने अस्वीकार कर दिया। जब होले तथा अनिरुद्ध द्यूत खेल रहे हैं । तब बाणासुर अत्यंत 1. भी जूठे हैं ऐसा उससे कहा गया तब इसने कहा क्रोधित हुआ तथा उसका अनिरुद्ध से युद्ध हुआ। युद्ध कि उनको बिना खाये मेरा जीना असंभव था, परंतु में नागपाश डाल कर बाण ने अनिरुद्ध को कैद किया। मैं अपनी इच्छानुसार पानी कहीं भी पी सकता हूँ। इधर यादवों ने अनिरुद्ध को खूब ढूंढा परंतु वह मिल न . थोडी कुलथी पत्नी के लिये भी लाये। तदनंतर पास सका । तब नारद ने, अनिरुद्ध का स्थान तथा बाणासुर ने में ही होने वाले यज्ञ में यह गया। फिर भी विद्वान् होने उसकी की हुी दशा बताओ । बाणासुर तथा कृष्ण का के कारण अन्य ऋत्विजों के समान इसे भी राजा ने दक्षिणा तुमुल युद्ध हुआ। बाण की करीब करीब सारी सेना नष्ट दी तथा इसने भी प्रस्तोता की सहायता की । अन्य हो गई तथा बाण के चार हाथ छोड कर बाकी सारें हाथ स्थान पर उपस्ति पाठ है (छां. उ. १.१०.१, ११.१)। कृष्ण ने तोड़ डाले। तब बाणमाता कोटरा तथा रुद्र की इसने आत्मा के प्रत्यक्षत्व के संबंध में, याज्ञवल्क्य को प्रश्न प्रार्थनानुसार कृष्ण ने बाणासुर को जीवनदान दिया। किया तथा याज्ञवल्क्य ने इससे कहा कि, आत्मा प्रत्यक्ष आगे चल कर बडे समारोह से बाण ने उषा को अनिरुद्ध दिखाना असंभव है (बृ. उ. ३.४.२)। यहाँ उषस्त पाठ को दिया। तब सब यादव द्वारका लौट आये (पद्म. उ. २५०; भा. १०.६२-६३; शिव. रुद्र. यु. ५१-५९)। २. त्वाष्ट्री संज्ञा का नामान्तर (ब्रह्म. १६५.२)। उषस्य-काश्यप तथा खशा का पुत्र । उष्ण-(सो. कुरु, भविष्य.) वायु के मतानुसार उषा-बलिदैत्य का पुत्र बाणासुर की कन्या । यौवना- निर्वक्र पुत्र तथा विष्णु के मतानुसार में निचंकु पुत्र । वस्था में आने के बाद, एक बार जब सखियों सहित रात्रि उहाक---वसिष्ठ कुल का गोत्रकार ऋषिगण । -- Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऊरु प्राचीन चरित्रकोश ऋक्ष ऊरु आंगिरस-- मंत्रद्रष्टा (ऋ. ९.१०८.४५)। ऊर्जित--(सो. यदु) कार्तवीर्य के प्रमुख पांच पुत्रों ऊर्ज-स्वारोचिष मनु का पुत्र । सप्तर्षियों में से एक । | में से एक । २. उत्तम मन्वंतर के सप्तर्षियों में से एक । ऊर्ण--पूस में सूर्य के साथ घूमने वाला यक्ष । ३. उत्तम मनु का पुत्र। ऊर्णनाभ--(सो. कुरु) धृतराष्ट्रपुत्र । ४. सुधामन देवों में एक। . २. कश्यप तथा दनु का पुत्र । ५. (स्वा. उत्तान.) वत्सर तथा स्व:थि का पुत्र । ऊर्णनाभि-- अत्रिकुलोत्पन्न ऋषि । ६. (सो. अज.) वायुमतानुसार सुधन्वन् का पुत्र।। ऊर्णा-स्वायंभुव मन्वंतर में मारीचि प्रजापति की स्त्री। ऊर्जयत् औपमन्यव-भानुमत् का शिष्य । इसका | २ (स्वा. प्रिय.) चित्ररथ राजा की स्त्री । इसका पुत्र शिष्य सुशारद (वं. ब्रा. १)। सम्राज् (भा. ५. १५. १४)। ऊर्जयोनि--विश्वामित्र का पुत्र (म. अनु. ५९.७ - ऊर्णायु-इसकी स्त्री मेनका (म. उ. ११५.४००.* पंक्ति ४)। प्राघा से उत्पन्न देवगंधों में से एक। ऊर्जवह-(सू. निमि.) विष्णुमतानुसार शुचिपुत्र । ऊजेव्य-यज्ञ करनेवाले एक यजमान का नाम (ऋ. ऊध्वकृशन यामायन-सूक्तद्रष्टा (ऋ. १०.१४४)। ५.४१.२०)। ऊर्ध्वकेतु--(सू. निमि.) सनद्वाज जनक का. पुत्र । ऊर्जस्वती--(स्वा.) प्रियव्रत तथा बर्हिष्मती की इसका पुत्र अज। कन्या । शुक्र की स्त्री (भा. ५.१.२४)। . २. कश्यप तथा सुरभि के पुत्रों में से एक। . २. अष्ट वसुओं में प्राण वसु की स्त्री। ऊर्ध्वग--कृष्ण तथा लक्ष्मणा का पुत्र । एक महारथी। ऊर्जस्विन्--वैवस्वत मन्वंतर का इंद्र। । ऊर्ध्वग्रावन आदि-- सूक्तद्रष्टा (ऋ. १०.१७५)। ऊर्जा--दक्ष की पुत्री तथा वसिष्ठ की स्वायंभुव । ऊर्ध्वदृष्टि--पुलह तथा श्वेता का पुत्र । इसे पांच पुत्र मन्वंतर की पत्नी। उस समय इसे चित्रकेतु, सुरोचि, , तथा पांच कन्याएं थीं (ब्रह्माण्ड. ३.७.२०५)। . विरजामित्र, उल्बण, वसुभृत् , यान तथा धुमान् नामक सात पुत्र हुए (भा. ४.१.३८)। इससे भिन्न संतति का भी ऊर्ध्वनाभा ब्राह्म-- सूक्तद्रष्टा (ऋ. १०.१०९)। उल्लेख है।--१. पुंडरिका २. रक्षस् (रत्न), ३. गर्त, ऊर्ध्वबाहु-रैवत मन्वन्तर के सप्तर्षियों में से एक । ४. ऊर्ध्वबाहु, ५. सवन, ६. पवन, ७. सुतपस् , ८. शंकु | ऊर्ध्वसद्मन् आंगिरस-मंत्रद्रष्टा (ऋ. ९.१०८.९)। (ब्रह्माण्ड २.१२.३९-४३)। ऊर्व-उर्व देखिये। ऋ ऋक्ष-आक्ष तथा श्रुतर्वन् देखिये। ३. (सो, पुरूरवस्.) अजमीढ़ तथा धूमिनी का पुत्र । २. (सो. पूरु.) ऋचा का पुत्र । इसकी पत्नी तक्षक| इसकी स्त्री रथंतरी । इसका पुत्र संवरण (म. आ. ८९. की कन्या ज्वलन्ती थी। इसका पुत्र अंत्यनार (म. आ. २७-२८; चक्षु देखिये)। ९०.२४; अंतिनार देखिये)। । ४. (सो. कुरु.) वायुमतानुसार देवातिथिपुत्र। . ९४ Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन चरित्रकोश ऋचीक ऋक्ष ५. शुक्र का पुत्र । इसकी स्त्री विरजा (ब्रह्माण्ड, २. (सो. कुरु.) देवतातिथि तथा मर्यादा का पुत्र । ३.७.२११)। इसकी पत्नी अंगराजकन्या सुदेवा । पुत्र ऋक्ष (म. आ. • ऋक्षदेव-(सो. नील) शिखंडी के दो पुत्रों में से | ९०.२२-२३)। एक । यह भारतीय युद्ध में पांडवों के पक्ष में था। युद्ध में | ऋची-आप्नवान की पत्नी (ब्रह्माण्ड. ३.१.७४)। अपने रथ को वह सुनहले रंग के अश्व जोड़ता था • ऋचीक-भार्गवकुल का च्यवनवंशज एक प्रख्यात (म. द्रो. २३)। ऋषि (मनु. ४)। और्व का पुत्र (म. आ. ६०.४६; ऋक्षपुत्र-(सो.) भविष्यमतानुसार अक्रोधन का २,४; ह. वं. १.२७)। यह और्व की जंघा फोड़ कर पुत्र। बाहर आया (ब्रह्माण्ड, ३.१.७४-१००)। यह ऊर्व ऋक्षरजस्-एक समय मेरु पर्वत पर ब्रह्मा ध्यान का पुत्र है (म. अनु. ५६)। इसे काव्यपुत्र भी कहा है मग्न थे। तब उनकी आखों से आंसू गिरे, जिन्हें उन्होंने (ब्रह्म. १०)। इसका और्व ऋचीक कह कर भी उल्लेख अपने हाथों में घिस दिया तब उन अश्रु कणों में से यह है (विष्णुधर्म. १.३२)। उसी प्रकार अनेक स्थानों पर ऋक्षरजसू वानर उत्पन्न हुआ। एकबार प्यास लगने के अनेक बार इसे भृगुपुत्र, भार्गव, भृगुनन्दन, भृगु आदि भी कारण यह सरोवर के पास गया । उसमें अपने प्रति कहा है (म. व. ११५.१० ह. वं. १.२७; ब्रह्म. ३.१०; विव को शत्रु समझ युद्ध करने के लिये इसने सरोवर में वा. रा. बा. ७५.२२; पद्म. उ. २६८)। कार्तवीर्य के छलांग लगायी । वस्तुस्थिति ध्यान में आते ही यह बाहर वंशजों द्वारा अत्यधिक त्रास दिये जाने के कारण सब भार्गव आया। बाहर आते ही वह वानर न रह कर स्त्री हो ऋषि मध्य देश में पलायन कर गये । उस समय अथवा गया है ऐसा उसे लगा । अंतरिक्ष से इंद्र तथा सूर्य की उसके कुछ ही पहले ऋचीक का जन्म हुआ तथा जल्द दृष्टि इस पर पड़ी तथा दोनों ही काम विव्हल हुए। ही उनका मुखिया बन गया । बाल्यावस्था से इसने उत्कट काम विकार के कारण इंद्र का वीर्य इसके सिर पर अपना समय वेदानुष्ठान तथा तप में बिताया। एक बार तथा सूर्य का वीर्य इसके गले पर गिरा। (वाल ) केशों तीर्थयात्रा करते समय विश्वमित्री नदी के किनारे इसने .पर वीर्य गिरने के कारण वाली तथा (ग्रीवा) गले पर कान्यकुब्जराज गाधि की कन्या, स्नानहेतु आई हुई देखी। गिरने के कारण सुग्रीव उत्पन्न हुआ। रात्रि समाप्त होते उसके रूप से मोहित हो कर इसने उसके पिता के पास इसकी ही इस स्त्री को पुनरपि पहले का वानर स्वरूप प्राप्त माँग करने का निश्चय किया । हैहय के विरुद्ध गाधिराज · हुआ। तब यह अपने दोनों पुत्रों लोकोकर ब्रह्मा के पास की मित्रता संपादन करने के लिये यह विवाह तय किया आया तथा सारी हकीकत उसे बताई । ब्रह्मदेव ने ऋक्ष गया। यह जब माँग करने आया तब राजा ना नहीं कह रजस् की अनेक प्रकार से सांत्वना की तथा एक दूत के द्वारा सका । तब उसने कहा कि यदि तुम मुझे सहस्र श्याम। ऋक्षरजसू को किष्किंधा नगरी में राज्याभिषेक किया । वहाँ कर्ण अश्व लाकर शुल्क के तौरपर दोगे तो मैं अपनी • अनेक प्रकार के वानर थे। उनमें चातुर्वर्ण्य व्यवस्था प्रचलित थी। कालांतर में ऋक्षरजस् की मृत्यु हुई। यह कन्या तुम्हें दूंगा (म. अनु. ४.७-१० विष्णु. ४.७; भा. ९.१५.५-११)। सातसौ अश्व मांगे (स्कंद. ६. इसके पश्चात राज्य वाली को मिला (वा. रा. उ. | १६६)। परंतु वनपर्व में राजा कन्या देने के लिये तैय्यार प्रक्षिप्तसर्ग)। हो गया तथापि रूढि के तौरपर एक कानसे श्याम हज़ार ऋक्षशंग--काशी के उत्तर में मंदारवन में तप करने अश्व मांगे (११५.१२)। राजा का यह भाषण सुनते ही वाले दीर्घतपस् का कनिष्ठ पुत्र । चित्रसेन के बाण से इसकी यह तत्काल उस कान्यकुब्जदेशीय गंगा के किनारे गया तथा मृत्यु होने के कारण सब परिवार ने देहत्याग किया। परंतु वरुण की स्तुति कर के उससे आवश्यक अश्व प्राप्त किये बचे हुए दीर्घतपस् ने सबकी अस्थियाँ शूलभेद तीर्थ में (म. व.११५, अनु.४)। अश्वो वोढा नामक (ऋ. ९.११२) डालने के कारण सब स्वर्ग में गये (स्कन्द. ३.५३-५५)। चार ऋचाओं के सूक्त का पठन कर इसने अश्व प्राप्त किये ऋक्षा--अजमीढ की पत्नी । इसका पुत्र संवरण (म. | (स्कंद. ६.१६६)। जहाँ ये अश्व निर्माण हुए, वह स्थान आ. ९०.३९; ३ ऋक्ष देखिये)। कान्यकुब्ज देश में गंगा नदी के किनारे स्थित अश्वतीर्थ ऋच-(सो. कुरु, भविष्य.) विष्णु के मतानुसार नाम से प्रसिद्ध है। अश्व ले कर गाधि राजाने अपनी सुनीथपुत्र (रुच देखिये)। कन्या सत्यवती इसे दी। इसके विवाह में देव इसके पक्ष के ९५ Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऋचीक बाराती थे (म. व. ११५) । ऋचीक ऋषि, सत्यवती भार्या को ले गया तथा आश्रम स्थापित कर गृहस्थधर्म चलाने लगा। तदनंतर का यह तपश्चर्या करने जाने लगा तब इसने पत्नी से वरदान मांगने के लिये कहा । उसने अपने लिये तथा माता के लिये उत्तम लक्षणों से युक्त पुत्र मांगा | उसके इस मांग से संतुष्ट हो कर इसने ब्राह्मणो त्पत्ती के लिये एक तथा क्षत्रियोत्पत्ती के लिये एक ऐसे दो चरु सिद्ध कर के उसे दिये (म. शां. ४९.१० अनु. ५६; ह. वं. १.२७; ब्रह्म. १०; विष्णु. ४.७; भा. ९.१५) इसने च तो दिये ही साथ ही यह भी बताया कि ऋतुस्नात होने पर तुम्हारी माता अश्वत्थ ( पीपल) तथा तुम गूलर को आलिंगन करो (म.व. ११५.५७०० अनु. ४ विष्णुधर्म. १.३२-३३ ) । दो घंटों को अभिमंत्रित कर बताया कि सत्यवती की माता वह वृक्ष की तथा सत्यवती पीपल की सहस प्रदक्षिणायें करे (लन्द, ६. १६६-६७ ) । बाद में गाधि ऋचीक के आश्रम में आया तब सत्यवती को पति द्वारा दिये गये चरु का स्मरण हुआ परंतु माता के कथनानुसार दोनों ने चरु बदल कर भक्षण किये । अल्पकाल में ही जब ऋचीक ने सत्यवती की ओर देखा तब उसे पता चला कि, चरुओं का विपर्यास हो गया है परंतु सत्यवती की इच्छानुसार क्षत्रिय स्वभाव का पुत्र न हो कर पौत्र होगा ऐसा ऋचीक ने इसे आश्वासन दिया । तदनंतर सत्यवती को जमदमि प्रभृति सौ पुत्र हुए वे सब शांति आदि अनेक गुणों से युक्त थे। परंतु जमदमि को रेणुका से उत्पन्न परशुराम उम्र स्वभाव का हुआ गाधि को विश्वामित्र हुआ तथा उसने अपने तपःसामर्थ्य से पुनः ब्राह्मणस्य प्राप्त किया (म. आ. ६१: व. ११५: शां. ४९ अनु. ४.४८ वायु. ९१.६६-८७ मा ९.१५ स्कन्द ६.१६६-१६७) तदनंतर सत्यवती कौशिकी । नदी बनी (ह.. १.२७ ब्रह्म. १० विष्णु, ४.७:१६ वा. रा. बा. २४) । इस ऋषि ने यड़वा ब्रँड निकाला ( विष्णुधर्म. १.३२ ) । शाल्वदेशाधिपति द्युतिमान् शास्यदेशाधिपति द्युतिमान् राजा ने इसे अपना राज्य अर्पण किया था ( म. शां. २२६. ३३ अनु. १३७.२२) । यह परशुराम का पिता मह है (पद्म. भू. २६८ ) । ऋचीक पुत्र तथा कलत्र सहित भगतुंग पर्वत पर रहता था ( वा. रा. बा. ६१. १० - १३ ) | विष्णु ने अमानत के रूप में वैष्णव धनुष्य इसे दिया था । वह इसने जमदग्नि को दिया ( वा. रा. बा. ७५. २२ ) । यह धनुर्विद्या में काफी प्रवीण था (म. अनु. ५६.७ ) इसके वंशजों को आर्थिक कहते हैं। प्राचीन चरित्रकोश ऋणचय ( ब्रह्म. १० ) । जमदग्नि के अलावा वत्स ( विष्णुधर्म. १.३२), शुनःशेप तथा शुनः पुच्छ ( ह. वं. १.१७; ब्रह्म. १० ) इतने नाम प्राप्त हैं । २. प्रथम मेरुसावर्णि मनु का पुत्र । ऋचेयु -- (सो. पूरु. ) रौद्राव को घृताची से उत्पन्न हुआ । इसे तक्षककन्या ज्वलना से अंतिनार हुआ (२ ऋक्ष देखिये) । ऋजिश्वन - - इसे दो बार वैदथिन (ऋ. ४.१६. १३१ ५.२९.११ ) तथा एक बार औशिज कहा गया है (ऋ. १०. ९९.११ ) | ये निर्देश मातापिता के नाम से आये हंग पिप्रू के साथ हुए युद्ध में इन्द्र ने इससे सहायता की (ऋ. १.५१.५ ) । ऋजिश्वन भारद्वाज - सूक्तद्रष्टा (ऋ. ६.४९.५२; ९.९८; १०८ ) । ऋजु (सो. वृष्णि) भागवतमतानुसार वसुदेव देवकी का कंस द्वारा मारा गया पुत्र विष्णु के मतानुसार ऋभुदास, मत्स्य के मतानुसार ऋषिवास तथा वायु के मतानुसार ऋतुदाय नाम हैं। -- ऋजुदाय- देखिये । ऋजुनस् -- सोमयज्ञ करनेवाले लोगों के साथ इसका नाम है (ऋ. ८.५२.२ ) । ऋज्राश्व -- अंबरीष, सुराधस, सहदेव तथा भयमान के साथ इसका एक वाषगिर के रूप में उल्लेख है (ऋ. १. १०० १२-१७ ) इन्हीं पांच भ्राताओं के नाम पर । उपरोक्त संपूर्ण सूक्त है। एक बार अधियों का वाहन गर्द लोमड़ी के रूप में इसके पास आया। तब इसने उसे एक सौ एक भेटें खाने के लिये दीं। तत्र नगरवासी लोगों की हानि की। इसलिये वृषागिर राजा ने इसकी आँखें फोट । दीं। तब श्राश्र ने अश्विदेवों की स्मृति करने पर उन्होंने । इसे दृष्टि दी। उस लोमड़ी का भाषण मी ऋग्वेद में निम्नप्रकार दिया है। ' हे पराक्रमी तथा शूर अभिय इस ब्रांच ने तरुण तथा कामी पुरुष के अनुसार एक सी एक मेडे काट कर मुझे खाने के लिये दी है (ऋ. १. ११६. १६ ११७६ १७ १८ ) । ऋज्रांश्व ऋजूनस् -- इनके यहाँ सोम पी कर इंद्र प्रसन्न हुआ (ऋ. ८. ५२.२ ) । ९६ ऋणज्य -- एक व्यास ( व्यास देखिये) । ऋणचय - यह रुशमाओं का राजा था। इसने बभ्रुस्माओं ने मुझे चार हजार गायें दीं। एक हजार अच्छी नामक सूक्तकार को काफी दान दिया । बभ्रु कहता है, Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऋणंचय प्राचीन चरित्रकोश ऋद्धि गायों के साथ गृह दिया (ऋ. ५. ३०. १२, १४)। २. वृद्धा देखिये। रुशम किस देश को अथवा किन लोगों को कहा गया है। ऋतंभर-एक राजर्षि । जाबाली ऋषि के कथनायह कह नहीं सकते । यह मंत्रद्रष्टा था (ऋ. ९. १०८. नुसार मन से इसने गाय की सेवा की अतएव इसे सत्यवान नामक पुत्र हुआ (पन. पा. २८)। ऋत--अंगिरसपुत्र देवों में से एक । ऋतसेन--मार्गशीर्ष माह में सूर्य के साथ साथ घूमने२. (स. निमि.) विजय जनक का पुत्र । इसका पुत्र वाला एक गंधर्व ।। ऋतस्तुभ--अश्वियों ने इस ऋषि की रक्षा की (ऋ. ३. रुद्र सावणि मन का नामांतर (मत्स्य. ९)। १.११२.२०)। ४. चक्षुमनु तथा नवला का पुत्र! ऋतायन--शल्य के पिता का नाम । ५. आभूतरजस नामक देवों में से एक । ऋतु--फाल्गुन माह में सूर्य के साथ घमनेवाला एक ६. तुपिल नामक देवों में से एक। यक्ष। ७. सुम्ब नामक देवों में से एक । २. प्रतर्दन नामक देवताओं में से एक। ८. यह युधिष्ठिर के राजसूय में उपस्थित था (म. स. ऋतुजित्--(सू. निमि.) विष्णु के मतानुसार यह | अंजनपुत्र है तथा भागवत मतानुसार पुरुजित् । ऋतजित्-दूसरे मरुद्गुणों में से एक । ऋतुधामन्--चौथे मेरु सावर्णि मन्वन्तर का इंद्र। ऋतंजय- एक व्यास (व्यास देखिये)। ऋतुध्वज--ऋतध्वज देखिये। ऋतधामन्--(सो. वृष्णि.) कंक को कर्णिका से उत्पन्न ऋतुपर्ण--यह भंगाश्विन का पुत्र तथा शफाल का पुत्र । कृष्ण का चचेरा भाई। राजा होगा (बौ. श्री. २०.१२)। 'ऋतुपर्णकयोवधि२. रुद्रसावर्णि मन्वन्तर में होनेवाला इन्द्र। भंग्याश्विनौ' उल्लेख है (आप. श्री. २१.२०.३)। ३. तेरहवें मनु का नामान्तर (मत्स्य. ९)। २. (स. इ.) अयुतायुपुत्र (वायु. ८९; ब्रह्म.८.८०%; ऋतध्वज-(सो. काश्य.) यह शत्रुजित् का पुत्र। ह. वं. १.१५)। गोलब ने कुंबलय नामक अश्व दे कर इसे अपने आश्रम का यह अक्षविद्या में अत्यंत निपुण था। नल का सारथि -कष्ट दूर करने के लिये कहा । एकबार सूकर रूप से आये वाप्णय इसके पास सारथि बन कर रहा था (म. व. ५७. हुए पातालकेतु के पीछे लग कर एक गड्ढे में गिर कर २३)। अज्ञातवासकाल में नल बाहुक नाम धारण कर के पाताल में गया । वहाँ पातालकेतु द्वारा भगा कर लाई गई इसी के पास सारथि रूप में रहा । इसका सच्चा सारथी विश्वावसु गंधर्व की कन्या मदालसा थी। उसके साथ जीवल (म. व. ६४.८)। इस ने नल को अपनी इसका विवाह होकर उसे लेकर यह घर आया । तदनंतर | अक्षविद्या दी तथा नल ने भी अपनी अश्वविद्या यमुना के तट पर रहने वाले पातालकेतु के भाई तालकेतु | इसे दी (म. व. ७०)। यह वीरसेन पुत्र नल राजा का ने इसे धोखा दे कर यज्ञ की दक्षिणा के रूप में इसके गले मित्र था। इसे आर्तपर्णि नामक पुत्र था (ब्रह्म.८.८०; ह. का कंटा माग लिया । तथा इसे अपने आश्रम में रख कर | वं. १.१५.२०)। इसका पुत्र सुदास (भा. ९.९)। इसे मदालसा को सूचित किया कि ऋतध्वज मर चुका है तथा सर्वकाम या सर्वकर्मा नाम से नल पुत्र था (वायु. ८८. चिन्ह के तौर पर मृत्यु के समय उसने यह कंठा दिया | १७४)। ऐसा बताया । मदालसा सती हो गई । ऋतध्वज ने अवि- ऋतुमंत-मणिभद्र तथा पुष्यजनी का पुत्र । वाहित रहने का निश्चय किया । परंतु पुत्र की इच्छा ऋतेयु--(सो. पूरु.) रौद्राश्व तथा घृताची के दशनुसार अश्वतर नाग ने सरस्वती से गानविद्या प्राप्त कर पुत्रों में ज्येष्ठ । इसे औचेयु नामांतर प्राप्त है । इसे तक्षकशंकर को प्रसन्न किया तथा उससे पहले के ही समान परंतु कन्या ज्वलना से अंतिभार हुआ (ऋचेयु देखिये)। योगी मदालसा कन्या के तौर पर मांग कर ऋतध्वज को दी। ऋतुध्वज को उससे विक्रान्त, सुबाहु, शत्रुमर्दन तथा अलर्क | ऋथु-क्षत्रिय होते हुये भी यह ब्राहाण तथा ऋषि 'नामक चार पुत्र हुए तथा मदालसा ने उन्हें योगमार्ग का हो गया था ( वायु. २. २९.११४)। उपदेश दिया (मार्क. १८.३४, १९.८८ प्रतर्दन देखिये) ऋद्धि-वैश्रवण की पत्नी । ९७ Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऋभु प्राचीन चरित्रकोश ऋभु यह मानव थे। परंतु तप, यश इ. करके इन्होंने देवत्व प्राप्त किया । परंतु देव इन्हें अपने में शामिल नहीं करते थे । अन्त में प्रजापति के कथनानुसार ऋभुओं को सूर्य के साथ सोमपान करने का मान मिला। फिर भी इनमें मनुष्यत्व का गंध आता है कह कर देव ऋभुओं का अत्यंत तिरस्कार करने लगे (पे, आ. १. १०) एक ब्रह्ममानस पुत्र ( भा. ४.८ ) । इसका शिष्य निदाच निदाघ को तत्वज्ञान का उपदेश किया है ( विष्णु. २.१६ नारद . १.४९ ) । चाक्षुष तथा वैवस्वत मन्वन्तर के देवों ऋभु हैं । ऋभुगीता नामक सत्ताईस अध्यायों का एक वेदान्तविषयक ग्रंथ है (C.C.)। ऋभु ने ऋभुदास -- ऋजु देखिये । । ऋश्यांग का विभांडक का पुत्र एकबार ज विभांडक गंगास्नान के लिये गया था तब उवंशी उसे दृष्टिगोचर हुई तत्काल कामविकार उत्पन्न हो कर उसका रेत पानी में गिरा। इतने में पानी पीने के लिये शाप से हिरनी बनी हुई एक देवकन्या वहाँ आई तथा पानी के साथ वह रेत उसके पेट में गया। उससे वह उत्पन्न हुआ (म.वं. ११० ) । संपूर्ण आकार मानव के समान परंतु सिरपर ऋत्य नामक मृग के समान सींग था, इसलिये इसे ऋश्यशृंग नाम प्राप्त हुआ ( म. व. ११०.१७ ) इसका जन्म होते ही इसकी माता शापमुक्त हो कर स्वर्ग गई तब अनाथ ऋश्यरंग का पालन-पोषण विभांडक ने किया तथा इसे वेदवेदांगों में परंगत किया । मृगयोनि का होने के कारण यह दरपोंक था तथा आश्रम के बाहर कहीं भी न जाता था। विभांडक ने भी उसे ऐसी ही आज्ञा दे रखी थी । इससे इसने पिता को छोड़ अन्य पुरुष न देखा था (म. व. ११०.१८)। इसी समय अंगदेश के चित्ररथ (म. व. ११०.१८ ) । इसी समय अंगदेश के चित्ररथ नामक राजा की गलती से वहाँ अवर्षण हुआ। चित्ररथ दशरथ का मित्र था। वह ब्राह्मणों से असत्य व्यवहार करता था अतः ब्राह्मणों ने इसका त्याग किया। तब उसके देश में अवर्षण हुआ तथा लोगों को अत्यधिक पष्ट होने लगे | तब इन्द्र को वर्षा के लिये मजबूर करनेवाले बड़े बड़े तपस्वियों से इसने पूछा। उनमें से एक ने कहा कि, ब्राह्मण तुमसे कुपित हैं, उनके क्रोध का निराकरण करो। तब उसे पता चला कि ऋश्यशृंग यदि अपने देश में आयेगा तो चारों ओर मुख का साम्राज्य छा जायेगा। ऋश्यशृंग को लाने के लिये जब उसने मंत्रियों से चर्चा की तब वेश्याओं की सहायता छोड अन्य मार्ग ही उन्हें न सूझता था । वेश्याओं से पूछने पर एक वृद्ध वेश्या ने वह ९८ ऋषभ कार्य स्वीकार किया तथा कुछ तरुण वेश्याओं को लेकर विभांडक के अनुपस्थिति में उसके आश्रम में जाने का निश्चय किया। इस के लिये एक नौका पर आश्रम तैय्यार कर वह नौका आश्रम के पास खड़ी कर उसने बड़ी युक्ति से अपनी लड़कियों द्वारा अपने पाश में बांध लिया। श्यांगने का वेश्याओं को मुनिकुमार समझ कर उनसे व्यवहार किया। दूसरी बार गंग को लेकर अंग देश में आयी तर अंग देश में बहुत वर्षा हुई। रोमपाद ने अपनी शान्ता नामक कन्या इसे दी तथा काफी उपहार दिया। विभांडक पुत्र को ढूंढते हुये वहाँ आया तब रोमपाद द्वारा दिये गये उपहार देखकर इसका क्रोध शांत हो गया। इसने एक पुत्र का जन्म होने तक रांग को वहाँ रहने की अनुमति दी तथा स्वयं वापस गया। त्याग भी एक पुत्र के वन के बाद शान्ता के साथ अपने आश्रम वापस गया (म. व. ११०.११३. वा. रा. बा. ९०१० ) । दशरथ के पुत्रकामेष्टि यज्ञ में रोमपाद की मध्यस्थिता से दशरथ ने इसे यज्ञ का अध्वर्यु बनाया । उससे दशरथ को रामलक्ष्मणादि पुत्र हुए (बा. रा. बा. ११ ) | यह ऋश्यशृंग सावर्णि मन्वन्तर के सप्तर्षियों में से एक होगा (भा. ८.१२: विष्णु. ३.२ ) । कौशिकी नदी के किनारे ऋयचंग का आश्रम था । वहाँ वनवास के समय धर्मराज आये । तत्र लोमश ने ऋव्यांग की उपरोक्त जानकारी धर्मराज को बताई है। वहाँ दशरथ वा लेख नहीं है (शृंग देखिये ) 1 इसके द्वारा रचित ग्रंथ १ स्यांगसंहिता, २ऋशंगस्मृति स्यशृंगमृति का उल्लेख विज्ञानेश्वर, हेमाद्रि, हलायुध आदि ने किया है (C. C.)। आचार, अशीच आज तथा प्रायश्चित्त आदि के बारे में इसके विचार मिताक्षरा, अपरार्क, स्मृतिचंद्रिका द अर्थ में प्राप्य है। मिताक्षरा में (या २.११९) का ग्रंथों में प्राप्य हैं। मिताक्षरा में (याज्ञ. २.११९ ) शंख का मानकर दिया गया लोक(७२४) य का मानकर दिया है। इस ठोक में दिया गया है कि नष्ट हुई सम्मिलित संपत्ति अगर किसी हिस्सेदार ने पुनः प्राप्त की तो उसका एक चतुर्थांश उसे प्राप्त होता है तथा बाकी बचे हुए में अन्य लोगों का हिस्सा होता है। स्मृतिचन्द्रि का में (१.३२ ) इसका एक गद्य परिच्छेद दिया गया है। ऋषभ -- (स्वा. प्रिय.) नाभि तथा मेरुदेवी का पुत्र । माता का नाम सुदेवी भी था ( भा. २.७.१० ) । यज नामक इंद्र ने इसे अपनी कन्या जयंती दी थी तथा उससे इस राजा को सौ पुत्र हुये | उन में श्रेष्ठ भरत है । उन में से ८१ पुत्र कर्ममार्गाचरण करनेवाले ऋषि बने तथा कवि, Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऋषभ प्राचीन चरित्रकोश हरि, अंतरिक्ष, प्रबुद्ध, पिप्पलायन, आविर्होत्र द्रुमिल, चमस तथा करभाजन नामक नौ पुत्र ब्रह्मनिष्ठ थे । ऋषभ देव ने भरत, कुशावर्त इलावर्त, ब्रह्मावर्त, मलय, केतु, मद्रसेन, इंद्र, विदर्भ तथा कीट नाम से अपने अनाम के नौ खंड परके उन्हें अधिपति बनाया तथा अवशेष भाग का सार्वभौमस्य भरत को दिया। इसने प्रजा को धर्मानुकूल बनाकर पुत्रों को ब्रहाविद्या का उपदेश दियां' (भा. '५. ३-६ ) । बाल्यावस्था से ही ऋषभदेव के हस्तपादादि अब यवों पर वज्र, अंकुश, ध्वज इ. चिह्न दीखने लगे थे। इसको ऐश्वयं देखकर इंद्र के मन में अस्या उत्पन्न होने लगी तथा उसने उसके खंड में वर्षा करना बंद कर दिया। तब उसका कपट ऋषभ देव ने पहचाना तथा अपनी माया के प्रभाव से अपने खंड में वर्षा कर दी। तदनंतर यह कर्मभूमि है ऐसा ख्याल कर भदेव ने प्रथम गुरुगृह में वास्तव्य किया । तदनंतर गृहस्थाश्रम का स्वीकार किया तथा शास्त्रोक्त विधि से यथासांग आचरण किया । यह आत्मविवेक से बर्ताव करता था । यह ब्राह्मणों की अनुज्ञा से राज्य करता था। कालांतर से ब्रह्मावर्त में अपने पुत्रों को उद्देशित करके संसार को इसने शानोपदेश दिया। उस समय यह पर में ही विक्षिप्त के समान दिगंबर तथा अस्ताव्यस्त रहता था । वदनंतर इसने संन्यास लिया तथा ब्रह्मावर्त से बाहर .निकला। लोग उसे कैसा भी उपसर्ग देते थे तब वह उनकी ओर ध्यान न देकर वह स्वस्वरूप में स्थिर रहता था । ऐसी आनन्दमय स्थिति में यह पृथ्वी पर घूमता था । देहत्याग की इच्छा से इसने मुँह में पत्थर पकड़ा तथा दक्षिण में कटक पर्वत के अरण्य में घूमते समय दानावल से ऋषभ देव का शरीर दग्ध हो गया ( भा. ५. ३ - ६ ) । स्वयं विरक्त हो कर वन में गया (मार्के ५०.४०) तथा अपना श्वासोच्छ्वास मिट्टी की ईंट से बंद कर देहत्याग किया ( विष्णु. २.१.३२ ) । यह भगवंत का आठवाँ अवतार था इसने परमहंस दीक्षा ली थी ( भा. २.७.१०. अर्हत् देखिये) । " ऋषभ वैराज शाकर दो ( म. व. १०९) । आशा कितनी सूक्ष्म तथा विशाल रहती है इसे कृश तनुवीरद्युम्नसंवादरूपी दृष्टांत देकर इसने सुमित्र राजा को समझाया है । इस ऋषि के इस संवाद को ऋषभगीता नाम है ( म. शां. १२५-१२८ ) । | ३. वाराहकल्प के वैवस्वत मन्वन्तर के नवम चौखाने में व्यास के निवृत्ति मार्ग का प्रसार करने के लिये म नामक शिव का अवतार होनेवाला है। उसके अनुक्रम से १. पराशर, २. गर्ग, ३. भार्गव, ४ गिरीश शिष्य होंगे। यह योगमार्ग का उद्धार करनेवाला है ( शिव. शत५. ३६-४८; भद्रायु देखिये ) । भद्रायु के कथनानुसार यह प्रवृत्तिमार्गीय होगा । इसका अनुयायी तथा नाती सुमति इसका अनुयायी होने के कारण लोग सुमति को देव मानने लगे । २. ऋपटांग पर रहनेवाला एक क्रोधी ऋषि । इसके पास अनेक लोग आने लगे तथा उसे कष्ट होने लगे। तत्र इसने पर्वत तथा वायु को आज्ञा दी कि, इधर अगर कोई आने लगे तो उनपर पाषाणवृष्टि कर के वापस कर ९९ ४. स्वारोचिप मन्वन्तर के सप्तर्षियों में से एक । ५. इन्द्र आदित्य का पुत्र ( भा. ६.१८.७ ) । ६. एक असुर । इसका वध करने के बाद उसके चमड़े की दुंदुभि बृहद्रथ राजा ने बनाई थी ( म. स. १९१५) | ७. अंगिरावंश के धृष्ण का पुत्र । इसका पुत्र सुधन्वा ( ब्रह्मांड. ३.१.१०७ ) | यह मंत्रकार था ( वायु. ५९. ९८ - १०२ ) । ८. (सो. अज.) भागवत के मतानुसार कुशाग्र राजाका पुत्र । इसका सत्यहित नामक पुत्र था। ९. एक वानर । राम के राज्याभिषेक के समय वह समुद्र का उदक लाया था तथा मत्त राक्षस का वध किया था (वा. रा. यु. ७०.५८.६३. ) । १०. (सू. इ. ) राम तथा अयोध्यापुर निवासी सच जनों की मृत्यु के बाद पुनरपि शून्य हुये प्रदेश में निवास करनेवाला राजा ( वा. रा. उ. १११ ) । ११. (सो. वृष्णि. ) वृष्णि का पुत्र ( पद्म. सृ. १३ ) । १२. कृष्ण के पुत्रों में से एक ( भा. १.१४.३१ ) । १३. एक गोप का नाम । यह रामकृष्ण का मित्र था ( भा. १०.२२ ) । १४. एक ऋषि । यह युधिष्ठिर की सभा में था (म. स. ११.१२५० पंक्ति ६ ) । १५. आयुष्मान् तथा अंबुधारा का पुत्र । दक्षसावर्णि मन्वन्तर में होनेवाला विष्णु का अवतार (मनु देखिये) । १६. विश्वामित्र का पुत्र ( ऐ. ब्रा. ७.१७.) । ऋषभ याज्ञतुर यह चिक्न का राजा तथा अश्वमेध करनेवालों में एक था (श. बा. १२.८.३.७९१३.५.४. १५; सां. श्रौ. १६.९.८.१०; गौरवीति शाक्त्य देखिये ) । ऋषभ वैराज शाकरसूक्तद्रष्टा (ऋ. १०. १६६) । Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऋषभस्कंद प्राचीन चरित्रकोश एकलव्य ऋषभस्कंद--रामसेनाका एक वानर (वा. रा. यु. ऋषिवास-ऋजु देखिये। ४६)। ऋष्टिषण--एक आचार्य (नि. २.११)। । ऋषिकुल्या--ऋषभदेववंशीय भूमनू की दो पत्निओं ऋष्य--(सो. कुरु.) अजमीढवंशीय जलकुल में से एक । उसका पुत्र उद्गीथ । के देवातिथि का पुत्र । ऋषिज--उशिज का नामान्तर । ऋष्यशृग काश्यप--यह कश्यप का शिष्य है तथा ऋषिर्मित्रवर-अंगिरा गोत्र का एक प्रवर । इसे काश्यप पैतृक नाम भी प्राप्त है (जै. उ. ब्रा. ३. ऋषिमत्रवर-अंगिराकुल का एक गोत्रकार। ४०. १; वं. ना. २; ऋश्यशृंग देखिये)। ऋषिवामानव-अंगिराकुल का एक गोत्रकार ऋष्यशंग वातरशन--मंत्रद्रष्टा (ऋ. १०. १३६. तथा प्रवर। | ७)। एक-(सो. पुरूरवस्.) रय का पुत्र । लिये द्रोणाचार्य ने भीष्म के नातियों को धनुर्विद्या सिखाने एकजटा-सीतासंरक्षण के लिये नियुक्त राक्षसियों का काम स्वीकार किया । धृतराष्ट्र तथा पंडु के पुत्र उसकें में से एक (वा. रा. सं. २३)। पास विद्याध्ययन करने लगे। कुछ दिनों में द्रोणाचार्य के एकत--गौतम का ज्येष्ठ पुत्र (त्रित देखिये)। | अध्यापन कौशल्य की कीर्ति चारों ओर फैल गई। इससे एका नौधस--सूक्तद्रष्टा । इसे अनुक्रमणी में नौधस दूर दूर के देशों के राजपुत्र द्रोणाचार्य के पास विद्याध्ययन नोधःपुत्र कहा गया है (ऋ. ८. ८०)। एकयू का मंत्र के लिये आने लगे। एकलव्य भी विद्यार्जन के लिये में निर्देश है (ऋ. ८.८०.१०)। एकदिव् मूल शब्द द्रोणाचार्य के पास आया। परंतु व्याधपुत्र होने के कारण होगा। द्रोणाचार्य ने उसे पढ़ाना अमान्य कर दिया। तब किसी एकपर्णा--हिमवान की मेना से उत्पन्न तीन कन्या भी प्रकार का विषाद मन में न रखते हुए, द्रोणाचाय पर ओं में दूसरी । अपर्णा तथा पर्णा की भगिनी । यह असित दृढ विश्वास रखकर, नमस्कार कर के यह चला गया (म. ऋषि की पत्नी। इसे देवल नामक एक पुत्र था (ब्रह्मांड. आ. १२३.११) द्रोण के द्वारा विद्यादान अमान्य किये ३. ८. २९-३३; १०.१-२१, ह. व. १.१८)। जाने पर भी अपना निश्चय न छोडते हुए इसने द्रोण की ___एकपाटला-हिमवान् को मेना से उत्पन्न तीन एक छोटी प्रतिम मिट्टी की बनाई तथा उसे अपना गुरु कन्याओं में से एक। यह जैगीषव्य की पत्नी थी। इसके मान कर, उस प्रतिमा के प्रति दृढ विश्वास रखते हुए, पत्र शंख तथा लिखित । परंतु इन्हें अयोनिज विशेषण प्रतिमा के सामने अपना विद्याव्यासंग चालू रखा तथा लगाया गया है (ब्रह्माण्ड. ३.१०.२०-२१, ह. बं. १. विद्या में प्रवीण हो गया। द्रोणाचार्य ने उत्तम ढंग से १८. २४)। अपने शिष्यों को सिखाया था । सब शिष्यों से अधिक एकपाद-कश्यप को कद्रू से उत्पन्न पुत्र । द्रोण की प्रीति अर्जुन पर थी। उसने अर्जुन को आश्वाएकपादा--सीता के संरक्षण के लिये नियुक्त सन दिया था कि किसी भी शिष्य को मैं तुमसे अधिक राक्षसियों में से एक (म. व. २६४. ४४)। पराक्रमी नहीं बनाऊंगा। कुछ दिनों के बाद द्रोणाचार्य सब एकयावन् गांदम-एक आचार्य (पं. ब्रा. २१. शिष्यों के सहित कुत्ता आदि मृगयासामग्री ले कर मृगया १४. २०; ते. ब्रा. २. ७. ११)। ते. बा. में कांदम के लिये गये। शिकार करते समय कुत्ता उनसे काफी दूर पाठ है। एकलव्य के पास गया तथा बलाढ्य, कृष्णवर्णीय व्याध को एकलव्य-व्याधों का राजा । हिरण्यधनु का पुत्र। देखकर भौंकने लगा। तब उसे बिल्कुल जस्म न हो किन्तु द्रुपद से सहायता की अपेक्षा नष्ट होने पर चरितार्थ के उसका भौंकना बंद हो जावे, इस हेतु से, बड़ी कुशलता से, १०० Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकलव्य प्राचीन चरित्रकोश एवावद एकलव्य ने उसके मुख में सात बाण मारे । तब वह कुत्ता | एकानेका-अंगिरस की कन्या । इसे ही कुहू दूसरा उसी प्रकार अपने मालिक के पास आया । उस कुत्ते को नाम है (म. व. २०८.८)। एकानंशा ऐसा पाठ है। देखकर द्रोण को आश्चर्य लगा कि इतनी कुशलता एकायन-भृगुकुल का एक गोत्रकार । शाकायन पाठसे लक्ष्यवेध करनेवाला यह कौन हो सकता है। इधर | भेद है। उधर देखते समय द्रोण को एकलव्य दृष्टिगत हुआ। द्रोण एकावली-एक वीर राजा की पत्नी । रम्य राजा को को देख कर एकलव्य ने अभिवादन किया तथा कहा कि, रुक्मरेखा से उत्पन्न कन्या । मैं आपका शिष्य हूँ। द्रोण को उसकी कुशलता से बडा एकेपि--अंगिरा कुल का एक गोत्रकार । आनंद तथा कौतुक लगा। यह अर्जुन की अपेक्षा यह एक ऋषि का नाम है (सां. ब्रा. ३.८) धनुर्विद्या में श्रेष्ठ है जानकर अर्जुन को दिया गया अपना एतश--ऋग्वेद की एक ऋचा का सर्वानुक्रमणी के वचनभंग हो जाने का डर लगा । परंतु बडी युक्ति से गुरु- अनुसार यह द्रष्टा है (ऋ. १०.१३६.६)। वहाँ इसे दक्षिणा.के तौर पर इसने उसके दाहिने हाथ का अंगूठा वातरशन कहा गया है। एतश को अग्नि के आयुष्य नामक मांग लिया । एकवचनी एकलव्य ने वह दे दिया (म.आ. कुछ मंत्रों की रचना की स्फूर्ति हुई । तब इसने पुत्र से कहा १२३.३७)। परंतु इससे इसकी पहले की चपलता नष्ट कि मेरे मंत्रपठन में बाधा मत लाओ क्योंकि इन मंत्रों हो गई । एकलव्य भारतीय युद्ध में कौरवों के पक्षमें था। के पठनसे यज्ञ के व्यत्यय तथा व्यंग नष्ट हो जाते है। दाहिना हाथ पूर्ण रूपसे निहायोगी होते हुए भी इसने | परंतु ये मंत्र कह ही रहे थे तब उसके अभ्यग्नि नामक अत्यंत पराक्रम दर्शाया । यह श्रीकृष्ण के हाथों मारा पुत्र ने विघ्न उपस्थित किया। इन असंबद्ध मंत्रों के कारण गया (म. द्रो. १५५.२९)। इसे केतुमान नामक एक उसे लगा कि पिताजी पागल हो गये हैं तथा उसने पुत्र था । वह. भीम के द्वारा मारा गया (म. भी. ५०. उनके मुंह पर हाथ रखा । तब क्रोधित होकर इसने ७०)। . उसे शाप दिया कि तुम्हे कुष्ठ हो जायेगा (ऐ. ब्रा. __एकलोचना--सीतासंरक्षण के लिये नियुक्त राक्षसियों ६.३३)। ऐ. ब्रा. में ऐतश शब्द है । इसलिये यह कथा में से एक (म. व. २६४.४४)। संभवतः एतश की होगी। ऐतशायन औवों में अत्यंत • एकवीर--(सो. तुर्वसु.) हरिवर्मा राजा को विष्णु- बुरे मान कर वर्णित हैं । ऐतशप्रलाप आजकल अथर्ववेद 'प्रसाद से प्राप्त पुत्र । यह वाजीरूपधर विष्णु से वड़वारूप का भाग कह कर प्रसिद्ध है तथा अभी वह वैसा ही • धारण की हुई लक्ष्मी के उदरसे उत्पन्न हुआ था। इसलिये असंबद्ध है (अ.वे. २०.१२९-१३२; बृहहे. ८.१०१)। इसे हैहय नाम था। यह यदुकुलोत्पन्न हैहय राजा से स्वश्वपुत्र सूर्य से हुए युद्ध में इंद्र ने एतश को बचाया बिल्कुल भिन्न है। इसे एकावली तथा यशोवती नामक दो (ऋ. १. ५४.६, ६१.१५, ४.१७.१४)। इसे सूर्य ने • स्त्रियाँ थीं. तथा इसकी उपास्य देवता एकवीरा देवी थी घायल किया (ऋ. ८.१.१८)। (दे. भा. ७.१७.२३)। एतश वातरशन--मंत्रद्रष्टा (ऋ. १०.१३६.६)। एकशय-तक्षक का पुत्र अश्वसेन (म. क.६६)। एनक--ब्रह्मदेव के पुष्कर क्षेत्र में हुऐ यज्ञ का एक एकाक्ष-दनु तथा कश्यप का पुत्र (म. आ. ६६.. ऋषि (पद्म. सृ. २४)। २८)। एरक-एक सर्प (म. आ. ५२.१२)। एकांगी-एक ग्वालन । इसे गोव्रत के कारण ऐश्वर्य प्राप्त हुआ (स्कन्द. २.४.९)। एलपत्र-एक सर्प। एकादशरथ-(सो. यदु.) वायु के मतानुसार एलापुत्र--कद्रूपुत्र (नभ देखिये)। दशरथपुत्र। एवयामरुत् आत्रेय-सूक्तद्रष्टा (ऋ. ५.८७ )। एकादशी--मुर देखिये। एवावद--यह नाम क्षत्र, मनस तथा यजत के साथ एकानंगा-यशोदा की कन्या । कृष्ण की भगिनी। आया है (ऋ. ५.४४.१०)। १०१ Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐकादशाक्ष मानुतंतव्य प्राचीन चरित्रकोश ऐशिज ऐकादशाक्ष मानतंतव्य---सूर्योदय के साथ साथ दिया। बाद में श्रीविष्णु के वचनानुसार कोटितीर्थ पर होने होम करनेवाले ( उदितहोमी) एक राजा का नाम (ऐ. वाले हरिमेध्य के यज्ञ में जाकर वेदार्थ पर इसने प्रवचन ब्रा. ५.३०)। यह नगरिन् जानश्रुतेय का समकालीन था। दिया। तब हरिमेध्य ने इसका पूजन कर अपनी कन्या से ऐकेपि--अंगिरस् देखिये। उसका ब्याह कर दिया (स्कंद, १.२.४२, महिदास ऐक्ष्वाक--यह शब्द ब्राह्मण ग्रंथों में बहुतसे व्यक्तियों ऐतरेय देखिये)। के लिये प्रयुक्त हुआ है। राजा हरिश्चंद्र वैधस ऐश्वाक । ऐतश-एतश देखिये। था (ऐ. ब्रा. ७.१३.१६.)। पुरुकुत्स का यह अनुवांशिक ऐतशायन-अभ्यग्नि का पैतृक नाम । नाम है (श. ब्रा. १३.५.४.५)। ऐश्वाक वार्ष्ण नामक ऐमून-आभूतरजस् नामक देवगणों में से एक । . आचार्य का उल्लेख मिलता है (जै. उ. ब्रा. १.५.४)। ऐंद्र--अप्रतिरथ, जय, लव, वसुक्र, विमद, वृषाकपि व्यरुण भी ऐश्वाक था (पं. ब्रा. १३.३.१२)। यह नाम | सर्वहरि देखिये। बृहद्रथ के लिये भी प्रयुक्त हुआ है (मैन्यु. १.२; - ऐद्रद्युम्न--पुष्करमालिन् देखिये। असमाति देखिये)। ऋग्वेद में इक्ष्वाकु का उल्लेख है ऐद्राश्व--(सो.) भविष्यपुराण के अनुसार धन(ऋ. १०.६०.४; भगेरथ देखिये)। यह शब्द इक्ष्वाकु । याति का पुत्र । वंशजों के लिये सामान्यतः प्रयुक्त होता है। ऐद्रोति–दृति ऐंद्रोति शौनक देखिये। ऐक्ष्वाकी--(सो.) भूमन्युपुत्र सुहोत्र की स्त्री । इसे . ऐभावत-प्रतीदर्श का पैतृक नाम है ( श. बा. १२ सुहोत्र से अजमीढ़, सुमीद, तथा पुरुमीढ़ नामक तीन पुत्र ८.२.३)। हुए थे (म. आ. ८९.२६)। ऐरंमद--देवमुनि देखिये। ऐडविड--इडविडा का पुत्र कुबेर । ऐरावत--धृतराष्ट्र नामक नाग का पैतृक नाम (पं. २. (सू. इ.) दशरथ या शतरथ का पुत्र । ब्रा. २५.१५.३)। यहां वर्णित सर्पसत्र में यह ब्रह्मा ऐतरेय--सायण के मतानुसार इतरा नामक स्त्री से नामक त्रत्विज् था (अ. वे.८.१०.२९)। नाग शब्द के उत्पन्न होने के कारण यह मातृमूलक नाम पडा । सर्प तथा हाथी ये दो अर्थ होते हैं इस कारण परावर्ती इसका महिदास ऐतरेय एसा निर्देश है। (ऐ. आ. वाङ्मय में इंद्र के हाथी से संभवतः संबंध जोडा गया २. १.८; ३.७; छां. उ. ३. १६.७) तथा ऐतरेय होगा (जरत्कारू देखिये)। कद्रपुत्र नागों को ऐरावत ऐसा ब्रह्मयज्ञांगतर्पण में उल्लेख है (आश्व. गृ. ३.४.४)। कहते हैं। जनमेजय के सर्पसत्र में इनके दस कुल दग्ध ऐतरेयिन् स्वरूप में (अनुपद सूत्र ८. १; आश्व. श्री. हुए जिनके नाम ये हैं पारावत, पारियात, पांडुर, हरिण, सूत्र १.३) उल्लेख है। कृश, विहंग, शरभ, मोद, प्रमोद तथा संहतापन (म. आ. ___ हारीत ऋषि के वंश में मांइकि ऋषि को इतरा नामक २१.९७ स. ९.८. उ. १०१.११)। स्त्री से उत्पन्न होने के कारण इसका नाम ऐतरेय पड़ा। २ फाल्गुन माह में सूर्योदय के साथ साथ घूमने वाला बचपन से ही यह 'नमो भगवते वासुदेवाय ' मंत्र जपने पर्जन्य नामक नाग (मा. १२.११.४०)। लगा। यह किसी से नहीं बोलता था इसलिये मांडूकि ने ऐरीडव-अंगिरा गोत्र का एक महर्षि पिंगा नाम दूसरी स्त्री से विवाह किया। जिससे उसे ऐल--पुरूरवस् का नामांतर । चार पुत्र हुए। वे बहुत विद्वान थे इसलिये उनका उत्तम ऐलविल--कुबेर देखिये । सन्मान हुआ। इतरा ने अपने पुत्र से कहा कि, तेरे | ऐलाकि-जीवल का पैतृक नाम । गुणवान न होने के कारण तेरे पिता मेरा अपमान करते हैं। ऐलिक--भृगुकुल का एक गोत्रकार । मैं अब देहत्याग करूंगी। तब ऐतरेय ने इसे धर्मज्ञान दे ऐलूष--कवष का यह पैतृक नाम है। कर देहत्याग के विचारों से परावृत्त किया । कालोपरांत विष्णु ऐशिज-एक ऋषि (वायु. ५९, ९०-९१ ।। ने उन दोनों को साक्षात् दर्शन दिया तथा आशीर्वाद ब्रह्मांड में उशिज पाठ मिलता है। १०२ Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐश्वर प्राचीन चरित्रकोश औदन्य ऐश्वर-अग्नि धिष्डण्य देखिये । २.७.३२) । सायण के मतानुसार एषवीर के वंशज अर्थ ऐषकृत--शितिबाहु देखिये । का कोई विशेषनाम भी प्रचलित है तथा इन्हें ब्राह्मणों ऐषरथ--कुशिक देखिये । की एक निंद्य जाति मानी जाती है (श. बा.९.५.१.१६; ऐषावीर--यद्यपि एक यज्ञ में ये याज्ञिक का कार्य सां. बा. १.१)। इति से करते थे (श. ब्रा. ११.। ऐषुमत-त्रात का पैतृक नाम । ओघरथ-(सू. नृगं.)। ओघ राजा का पुत्र। ओंकार--शंकर का एक अवतार था। विंध्य के लिये इसका पुत्र नृग (म. अनु. २)। यह पृथ्वी पर आया । ओंकार मांधाता में यह लिंग रूप ओघवत्-(स. नृग.)प्रतीक का पुत्र (भा. ९.२)। में तथा पृथ्वी पर प्रणव रूप में है (शिव. शत. ४२)। इसका पुत्र ओघरथ तथा कन्या ओघवती (म. अनु. २)। इसका उपलिंग कर्दमेश है (शिव. कोटि. १)। ओज--श्रीकृष्ण तथा लक्ष्मणा का पुत्र (भा. १०. २. ओघवत् का पुत्र (भा. ९.२)। । ६१)। यह महारथी था। ओघवती-प्रतीक की कन्या तथा सुदर्शन की पत्नी ओजस-वैशाख माह में अर्यमा नामक सूर्य के (भा. ९. २)। . . साथ साथ घूमनेवाला यक्ष (भा. १२. ११.३४)। - . २ (सू. नृग.) ओघवत् राजा की कन्या। ओघरथ ओजस्विन--भौत्य मन्वंतर में मनु पुत्र । की भगिनी (म. अनु. २)। ओजिष्ट-पृथुक नामक देवगण में से एक । औक-(सू, इ.) वायुमतानुसार बल का पुत्र । औत्तम वा औतमी मनु-उत्तानपाद के पुत्र उत्तम औगज-अंगिरस गोत्र का एक मंत्रकार । ऋषिज तथा बभ्रुकन्या ब्राभ्रव्या का पुत्र । उत्तम का पुत्र होने के तथा असिज इसके नाम हैं। कारण इसे औत्तम या औत्तमी मनु कहते हैं (मार्क. __ औग्रसेन्य-युधांश्रीष्टि का पैतृक नाम (ऐ. बा. ८. ६९)। यह प्रयव्रत का वशज था (विष्णु.३.१.२४.)। २१.७)। भागवत में इसे प्रियव्रत की दूसरी स्त्री का पुत्र कहा गया ___औघरथ -सूर्यवंशी दूसरा नृगराजा। ओघरथ का | है तथा नाम उत्तम ही दिया है । ( भा. ८.१.२३; मनु पुत्र। . देखिये)। इसने वाग्भव मंत्र से तीन वर्ष उपवास करके औचथ्य-दीर्घतमस् देखिये। देवी की उपासना की (दे. भा १०.८)। यह तृतीय औचेयु-ऋतेयु देखिये। मन्वन्तराधिप मनु है। औडलोमि--एक तत्त्वज्ञानी । ब्रह्मसूत्र में इसके मत का अनेक बार मतभेदप्रदर्शनार्थ निर्देश मिलता है (ब.! __ औदन्य--मुंडभ का पैतृक नाम। भ्रूणहत्या का स,१.४.२१,३.४.४५,४.४.६ )। | प्रायश्चित्त बताने के लिये इसका उल्लेख किया गया है १०३ Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औदन्य प्राचीन चरित्रकोश और्व (तै. ब्रा. ३.९. १५.३)। यहां इसका नाम औदन्यव औपस्थव- विश्वामित्रगोत्र का ऋषिगण । दिया गया है। औपस्वती-पाराशरीपुत्र का शिष्य (बृ. उ. ३.५.१)। औदभारि-खंडिक का पैतृक नाम (श. बा. ११. औपावि जानश्रतेय-एक राजर्षि (श.वा. ५.१.१. ८.४.६)। ५-७)। इसने वाजपेय किया था (मै. सं. १.४.५)। __ औदमय-अंग वैरोचन का पुरोहित (ऐ. बा. ८. औपोदिति--कर का स्थपति (सेनानी ) व्याघ्रपाद २२)। वेबर के पाठानुसार आत्रेय का यह नाम है। का पत्र । गौपालायन इसका पैतृक नाम है (बौ. श्री.२०. कुछ प्रतियों में उदमय पाठ भी दिखायी देता है। २५)। उयोदिता नामक स्त्री का पुत्र (श. ब्रा. १.७.४. औदवाहि-भारद्वाज का गुरु (बृ. उ. २.५.२०:४. । १६)। श. बा. की कण्वप्रति इसका नाम तुर्निज औमो दितेय वैयाध्रपाद्य देती है (श. वा. १.९.३.१६)। . औदुंबरायण-निरुक्त में शब्द के नित्यत्व के औपोदितेय--औपोदिति का नामान्तर । संबंध में बोलते समय, शब्द अनित्य हैं ऐसा कहने के । औरस-व्यास की सामशिष्यपरंपरा में वायु तथा कारण, इसका उल्लेख किया गया है (१.२.१)। ब्रह्मांडमतानुसार कुथुमी का शिष्य (व्यास देखिये)। औहालकि--असुरविंद (जै. बा.१.७५) वा कुसु __ और्णवाभ-कौण्डिण्य का शिष्य (बृ. उ. ४.५.२६ रुचिंद (प.बा. १.१६; पं. बा. २२.१५.१०), इस नाम से माध्य.)। निरुक्त में दो स्थानों पर यह नैरुक्त नामक पहचाने जाने वाले आचार्य तथा श्वेतकेतु (श. बा. ३. | व्याकरणकारों के मतों का अनुसरण करता है (७.१५:१२. ४.३.१३, ४.२.५.१५) का पैतृक नाम है। कठोपनिषद् १९)। दूसरे दो स्थानों पर ऐतिहासिकों के मतों का में नचिकेतस् के लिये औद्दालकि नाम प्रयुक्त है (१. अनुसरण करता है (६.१२; १२.१)। . . . और्व--एक कुल । भृगुवंश में होने के कारण भृगु से औपगव-वसिष्ठकुल के गोत्रकार ऋषिगण । आप इसका निकट संबंध था (ऋ.८.१०२.४ )। एतश औवों गव पाठभेद है। में से एक था । इस कुल का अभ्यग्नि ऐतशायन पापिष्ठ है। औपगवि-उद्धव का नाम (भा. ३.४)। (ऐ. बा. ६.३३; सां. ब्रा. ३०.५)। औरों ने स्वतः अत्रि औपजंघनि--आसुरि का शिष्य । इसका शिष्य त्रैवणि से पुत्र प्राप्त किये थे (ते. सं. ७.१.८.१) दो औवों का (बृ. उ. २.६.३; ४.६.३)। उल्लेख सम्मान के साथ आया है (पं. बा. २१.१०.६)। औपतस्विनि-राम का पैतृक नाम (श. ब्रा. ४.६. और्व यह भृग के बडे कुल की शाखा रही होगी। और्व, १.७)। | गौतम, भारद्वाज इन तीन गोत्रों का उल्लेख भी है (स. औपमन्यव-बहुत से अध्यापकों के लिये यह नाम श्री. १.४)। प्रयुक्त दिखाई पड़ता है। एक मंत्र के पठन के बारे में इसने परीक्षित् के प्रायोपवेशन के समय आया हुआ जानकारी बताई है (बौ. श्री. २.२.१)। एक वैयाकरण | एक आचार्य (जै. ब्रा. १. १८)। एक ब्रह्मर्षि (भा. है (नि. १.१.५, २,२.११; ३.१८) पक्षियों का नाम- १.१९.१०)। च्यवन ऋषि की भायां मनुपुत्री आरुषी करण उनके द्वारा निकाली ध्वनि के कारण होता है इस का पुत्र (म. आ. ६०.४५)। इसका नाम ऊंव है (म. मत का औपमन्यव ने निषेध किया है (कांबोज, प्राचीन- | अनु. ५६ )। आत्मवान् तथा नापी का पुत्र (विष्णुशाल, महाशाल देखिये)। धर्म. १.३२)। २. वसिष्ठगोत्र का ऋषि । कृतवीर्य नामक एक हैहयवंशीय राजा के उपाध्याय औपर-दंड का पैतृक नाम (ते. सं. ६.२.९.४)। | भगकुलोत्पन्न थे। कृतवीर्य ने बहुत से यज्ञ कर भगुओं औपलोम--वसिष्ठकुल का एक गोत्रकार ऋषिगण । | को बहुत सी संपत्ति दी थी। भविष्य में कृतवीर्य के वंशअपष्टोम ऐसा पाठभेद है। जों को द्रव्य का अभाव महसूस होने लगा। तब उन्होंने औपवेशि--उद्दालक के पिता अरुण का पैतृक नाम | अपने उपाध्याय के पास द्रव्य की मांग की। कुछ लोगों (क. सं. २६.१०; अरुण औपवेशि देखिये)। ने भय मे द्रव्य दिया। कुछ लोगों ने जमीन में गाड़ औपशवि-एक वैयाकरण (शु. प्रा. ३.१३२)। कर रख दिया। एक भार्गव ऋषि का घर खोद कर देखने औपस्थल--वसिष्टकुल का एक गोत्रकार । पर कुछ द्रव्य प्राप्त हुआ। इससे कृतवीय के वंशज अत्यंत Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन चरित्रकोश और्व क्रोधित हए तथा भार्गव ऋषियों के शरण आने पर भी इसका पुत्र ऋचीक (म. आ.६०.४६, अनु. ५६)। उनका संहार करना प्रारंभ कर दिया । इतना ही नहीं वे गर्भ / परीक्षित् शापित होने पर जो ऋषि उससे मिलने आये का भी नाश करने लगे। तब भगुवंश की स्त्रियाँ भयभीत | उनमें यह था (भा. १.१९)। और्व तथा ऋचीक एक हो कर, हिमालय की ओर चली गई। जाते जाते एक | हैं (विष्णुधर्म, २.३२)। इसका नाम अग्नि होगा तथा स्त्री ने अपना गर्भ गर्भाशय से निकाल कर जंघा में रख ऊर्व का वंशज होने के कारण, इसे और्व नाम प्राप्त हुआ लिया। यह बात एक स्त्री ने राजा को बताई । हैहय गर्भ होगा। इसका काल जमदग्नि के पश्चात् का होगा (कूर्म. १. का वध करने वाला ही था, इतने में सौ वर्षों तक जंघा में | २१)। इसके नाम का अर्थ उर्वी पर रहनेवाला अर्थात् रहा वह गर्भ बाहर आया। उसके तेज से वे क्षत्रिय नेत्र- | पृथ्वी पर रहनेवाला होगा। जमदग्नि गंगा किनारे रहते थे। हीन हो गये। बाद में उन अंधे क्षत्रियों द्वारा और्व को, | इस जानकारी में यह भी पाया जाता है कि, और्व मध्य'प्रसन्न हो' कहते ही उन्हें दृष्टि प्राप्त हो गई। देश में रहते थे, तथा वहीं इनके विवाह हुए थे (पन. माता के ऊरु से निर्माण होने के कारण इसे और्व नाम उ. २६८.३)। परंतु ब्रह्मांड में उल्लेख है कि, यह नर्मदा प्राप्त हुआ (म. आ. ६०.४५, १६९-१७०, अनु. | पर था (ब्रह्माण्ड. ३.२६, ४५)। इसने सगर की सहा यता की। परंतु रामायण में भृगु द्वारा सहायता का उल्लेख है। यह अंतिम और्व है। हैहयादिकों का नाश सगर हैहयवंशीय राजाओं ने अपने ज्ञातिबांधवों को कष्ट | द्वारा होने पर भी कहा जाता है कि, वह सारा पराक्रम दिया, इसलिये बड़े होने पर भी इसने उनके संहार परशुराम ने किया। इसका कारण यह है कि, और्व ने के लिये तप किया। परंतु हमें मृत्यु प्राप्त हो, इस हेतु से उसे आग्नेयास्त्र सिखाया था। परंतु आगे चल कर इन ही हमने यह अन्यायपूर्ण कृत्य किया। हमारी मृत्यु के दो औवों में गडबड हो गई ऐसा प्रतीत होता है। यह लिये तुम क्रोधाविष्ट मत बनो, ऐसा पितरों ने उसे भृगुगोत्रीय हो कर मंत्रकार भी था। बताया । तब पितरों के संदोष के लिये इसने अपना 'क्रोधाग्नि समुद्र में छोड़ दिया । पराशर को राक्षसों के २. इसका पिता भृगुवंशीय ऊर्व, जब तप कर रहा था, नाश से निवृत्त करने के लिये वसिष्ट ने यह कथा बताई तब सब देव एवं ऋषि इससे मिलने आये। अनंतर (म. आ. १६९-१७० )। इसका उग्र तप देख कर | विवाह कर के प्रजोत्पादन करने की प्रार्थना ऋषियों ने इससे ब्रह्मदेव ने सरस्वती के द्वारा इसे समुद्र में डाल दिया। की । तब इसे ऐसा लगा, 'इन ऋषियों के मत में मेरे वहाँ अग्मितीर्थ उत्पन्न हुआ (स्कन्द. पु. ७. १. ३५)। जैसा तपस्वी, बिना विवाह के प्रजोत्पादन करने में असमर्थ रहेगा।' इसलिये इसने कहा, 'यह देखो, . अयोध्याधिपति वृकपुत्र बाहु को उसके शत्रु हैहय मैं पुत्र उत्पन्न करता हूँ किन्तु वह भयंकर तथा तालजंघ ने राजच्युत किया। बाद में इसके आश्रम के | होगा।' ऋषियों को ऐसा बताकर इसने अपनी जंघा अग्नि पास आ कर बाहु की मृत्यु हो गई। तब उसकी पत्नी सती | में डाली । तदनंतर एक दर्भ से उसका मंथन करके जाने लगी। परंतु यह गर्भवती है, यह देखकर और्व ने | उस जंघा से एक- पुत्र निर्माण किया । उसीका नाम उसे सती जाने से निवृत्त किया। बाद में उसे सगर नामक | और्व है (मत्स्य. १७५)। पुत्र के साथ उत्पन्न माया, पुत्र हुआ। और्व ने सगर को अनेक अस्त्र तथा शस्त्रों की | ऊर्व ने हिरण्यकश्यपु को दी (पद्म. स. ३८; ब्रह्माण्ड. ३. शिक्षा दी । राम का प्रख्यात आग्नेयास्त्र भी सिखाया।। १.७४-१००)। जन्मतः यह खाने के लिये मांगने लगा। तदनंतर सगर ने हैहय, तालजध, यवन इन सबको जीत तथा इसने संसार का दाह करना आरंभ कर दिया। इस लिया । तब वसिष्ठ ने इसे राज्याभिषेक किया। राज्या- प्रकार तीन दिन दाह करने के बाद ब्रह्मदेव ने स्वयं भिषेक के समय, यह आया तथा इसने केशिनी एवं सुमति | आकर इससे प्रार्थना की। जहाँ मैं स्वयं रहता है (नारद. १.८), प्रभा तथा भानुमती (लिङ्ग. १.६६ ) इन | उसी समुद्र में इस बालक को स्थान देना मान्य किया सगर की पत्नियों को संतानवृद्धिदायक वर दिये (मत्स्य. तथा कहा कि, मैं स्वयं एवं यह बालक युग के अंत में १२; पद्म. स. ८; लिङ्ग. १. ६६; नारद. १. ७. ८; संसार का नाश करेंगे । ऐसा कहने पर अपना तेज भा. ९.८; ९. २३) इसने सगर का अश्वमेध किया | पितरों में डाल कर यह और्वाग्नि समुद्र में रहने के लिये (भा. ९.८)। | गया (मत्स्य. १७५, पद्म, स. ३८-४१)। यह विष्णु प्रा. च. १४] १०५ Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और्च था (म. व. १८९, ब्रह्माण्ड ३.७२ ) । इसी युग के अंत में प्रलयकारक, पाताल का विषामि, विष्णु के मुख से निकला हुआ तथा शंकर के तृतीय नेत्र में रहने वाला है ( मत्स्य. २ ) । इसके वडवामुख बड़वानल, संवर्तक तथा समुद्रप नाम है (वायु ४० ) इसका पुत्र संवर्तक अनि है ( मत्स्य. ५२ ) । यही और्वाग्नि कहलाता है । प्राचीन चरित्रकोश ३. मालव देश में रहनेवाला एक ब्राह्मण । इसकी पत्नी का नाम सुमेधा तथा पुत्री का नाम शमीका । इसने अपनी कन्या का विवाह शौनक का शिष्य, धौम्यसुत मंदार के साथ किया। विवाहोसर कुछ दिनों के पश्चात् अपनी पत्नी बड़ी हो गई यह जान कर उसे ले जाने के लिये वह और्व के घर आया। और्व ने बडे आनन्द से उन्हें बिदा किया। मार्गक्रमण करते समय राह में भृशुंडी को देख कर दोनों हँस पडे । इसलिये उसने इन्हें 'वृक्ष बनो' ऐसा शाप देने पर वे वृक्ष बने। भवं तथा शौनक जब ढूँढते ढूँढते आये, तब उन्हें पता चला कि वे वृक्ष बन गये हैं। तब इन्हें अत्यंत दुख हुआ। इन्होंने ईश्वर की आराधना की। और्व अग्निरूप से शमीवृक्ष में रहा तथा मंदार की मूली से गणेशमूर्ति बना कर उसका पूजन करता हुआ शौनक क कंस आश्रम में गया। दोनों के अनुष्ठान से शमीमंदार गणेश को प्रिय हुआ ( गणेश. २.३६ ) । ४. स्वारोचिप मन्वन्तर के सप्तर्पियों में से एक। ५. सावर्णि मन्वन्तर के सप्तर्षियों में से एक । और्वेय-- भृगु गोत्र का एक ऋषिगण । औलान -- सायणाचार्य ने इसका अर्थ निकाला है उल का वंशज यह शंतनु का नाम होना संभव है (ऋ. १०. ९८.११ ) । औलुंड्य -- यह सुप्रतीक वा पैतृक नाम है (वं. ब्रा. १) । औशनस -- उशनस् तथा षण्डामर्क देखिये । औशिज -- यह शब्द कक्षीवत्, ऋश्विन् तथा दीर्घअवस के लिये प्रयुक्त किया गया है। मशीनर अथवा औशीनरि-- उशीनर से माधवी को उत्पन्न शिबि ( म. द्रोण, परि. ७, पंक्ति, ४०९ ) । इसे भौशीनरि भी कहा गया है ( म. स. ८.१४९ . २९६ ३५) एक शिवि औशीनर द्रौपदीस्वयंवर में था (म. आ. १७७.१५) । औषदश्वि--वसुमत् देखिये । माक्षि -- साति का पैतृक नाम । (वं. बा. १) । 66 कंस -- (सो. यदु. कुकुर. ) उग्रसेन का पुत्र । उग्रसेन की पत्नी को यह द्रुमिल नामक दानव से हुआ (ह. बं. २. २८ ) । यह बड़ा शूर, मल्लविद्याविशारद तथा सर्व शास्त्र पारंगत था । इसे राज्य मिलेगा इस शर्तपर जरासंघ ने अपनी कन्या इसे दी थी इसलिये सब मंत्रि मंडल ने इसे राज्याभिषेक किया। वसुदेव इसका प्रधान था । परंतु आगे चलकर इसने पिता को कारागृह में ड़ाल दिया । यह वसुदेव का भी कुछ न मानता था ( म. स. १२. २९-३१) | पिता को कारावास देकर इसने राज्य स्वयं ले लिया (मा. १०. १. ६९ ) । कंस तथा वमुदेव ये दोनों यद्यपि यदुवंशांतर्गत है तथापि वंशावली से उनका संबंध काफी दूर का है। बाद में कंस के चाचा उर्फ देवक की कन्या देवकी का विवाह वसुदेव से निश्चित हुआ । इस विवाह के बाद देवकी को वसुदेव के पास पहुँचाते समय लगाम हाथ में लेकर रथ हाँकने का कार्य कंस ने खुद स्वीकार किया। बड़े ठाठ से बारात जा रही थी कि आकाशवाणी हुई, जिसका रथ तुम हाँक रहे हो, उसीका आठवाँ गर्भ तुम्हारा वध करेगा "। यह सुनते ही उसने सोचा कि अगर बहन ही न रही तो उसका आठवाँ गर्भ कहाँ से आवेगा । उसकी हत्या का निश्चय कर देवकी के केश पकड़ कर उसे मारने के लिये यह सज्ज हुआ। तत्र इसके सत्र पुत्र तुम्हें सौंप दूंगा यह आश्वासन देकर बड़ी कठिनाई से वमुदेव ने इससे देवकी की रक्षा की इस आश्वासन के अनुसार वसुदेव ने प्रथम पुत्र इसे दिया, परंतु आट से मय है, प्रथम से नहीं यह सोच कर इसने उस पुत्र को वापस ले जाने के लिये वसुदेव से कहा परंतु नारद ने यादवों के बारे में इसका मत कलुषित किया । इससे इसने २०६ Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कंस प्राचीन चरित्रकोश कंसा वसुदेव देवकी के पैरों में बेड़ियाँ डालकर बंदिवास में | गोकुल में थीं, अतएव गोकुल की ओर इसकी वक्रदृष्टि घूमी, डाला तथा प्रत्येक पुत्र का वध करने का क्रम प्रारंभ किया। तथा उन्हीं दिनों जन्मे पुत्रों पर उसने विशेष दृष्टि रखना • जरासंध के समान प्रलंब, बक आदि अनेक लोग सकी । प्रारंभ किया । पूतना के द्वारा गोकुल पर अरिष्ट आना सहायता करते थे । यादवों में से प्रमुख लोग इसके द्वारा प्रारंभ हो गया। परंतु इन सब संकटों से कृष्ण की रक्षा दिये जानेवाले कष्टों के कारण कुरू, पांचाल, केकय, | हो गई। अंत में कुश्तियों का मैदान बांध कर उसमें अपने शाल्व, विदर्भ, निषध, विदेह, कोसल आदि देशों में चले | मल्लों के द्वारा कृष्ण को मारने का षड्यंत्र इसने रचा। गये। कुछ कंस का प्रेम संपादित करके उसी के पास रहे कृष्ण तथा बलराम ख्यातनाम पहलवान थे। उसी के (भा..१०. २. ३-४)। चाणूरादिक जो लोग इसने | अनुसार धनुर्याग कर के मल्लयुद्धों का बडा मैदान अपनाये थे वे युद्ध के द्वारा ही अपनाये थे। इसने रखा । दिग्विजय के समय परशुराम का जो धनुष्य यह पूर्वजन्म में कालनेमि असुर था (म. आ. ६१. कंस ने प्राप्त किया था, वह भी रखा तथा जो कोई उसे ५५९५; भा. १०.१.६९)। विष्णु के साथ युद्ध करते करते | चदायेगा उसके लिये इनाम भी घोषित किया गया। उस यह मृत हुआ। परंतु शुक्र ने संजीवनी विद्या द्वारा इसे | धनुष्य को कृष्ण ने आसानी से चढा दिया (गर्गसंहिता जीवित किया। तब इसने विष्णु को जीतने के लिये मंदार | १.६ ) तथा अनेक बार घुमा कर तोड भी दिया (ह. वं. पर्वत पर तपस्या प्रारंभ. की। दूर्वांकुरों का रस पीकर | २.२७.५७)। सौ वर्षों तक दिव्य तप करने के बाद ब्रह्मदेव प्रसन्न | हुआ। तब इसने वरदान मांगा कि, मुझे देवों के हाथों मृत्यु--द्वार पर महावत को सूचना दे कर कंस ने एक मत्त हाथी कृष्ण को मारने के लिये रखा था। कृष्ण ने मृत्यु प्राप्त न हो। ब्रह्मदेव ने कहा कि, यह अगले जन्म | हाथी के दाँत पकड़ कर मार दिया तथा हाथी-महावत को में संभव होगा। तदनंतर इसने उग्रसेन की पत्नी के उदर भी मार दिया । तदनंतर कृष्ण ने चाणूर एवं तोसलक तथा में जन्म लिया। आगे चलकर जब जरासंध विजयप्राप्ति बलराम ने आंध्रमल मुष्टिक के साथ मल्लयुद्ध कर के उन्हें के हेतु बाहर निकला तब यमुना के किनारे उसका मृत प्राय किया। तदनंतर वेग से कंस पर हमला पड़ाव था। तब कुवलयापीड़ नामक हाथी संकल तोड़ कर करके उसके केश पकड़ कर सिंहासन से उसे नीचे छावनी में से भाग कर, जहाँ मल्लयुद्ध प्रारंभ था वहाँ आया। तब सब मल्ल भयभीत होकर भाग गये। घसीट कर उसका वध किया । कंस के शरीर पर कृष्ण के परंतु कंस ने इसकी सूंड पकड कर उसे जमीनपर पटक नखों के बहुत चिन्ह हुए थे। यह कार्य कृष्ण ने इतनी चपलता से किया कि कृष्ण के जयजयकार में क्या हुआ • दिया, पुनः उठाकर हवामें गोल घुमाया तथा सौ योजन दूर जरासंध की छावनी पर फेंक दिया। यह अद्भुत इसका भी पता किसी को न चला (ह. वं. २.२८-३०)। .. 'सामर्थ्य देखकर जरासंध ने इसे अपनी अस्ति तथा प्राप्ति उसी प्रकार कंस के कंक, न्यग्रोध आदि आठ बंधुओं का नामक दो कन्यायें दीं। माहिष्मती के राजा के चाणूर, भी बलराम ने तत्काल वध किया (भा. १०.४४.४०)। मुष्टिक, कूट, शल, तोशलक नामक पुत्र कंस, मल्लयुद्ध के | कंस वारकि--यह दक्ष कात्ययनि आत्रेय का शिष्य द्वारा अपने नियंत्रण में लाया (गर्ग संहिता १.६.७): है (जै. उ. ब्रा. ३.४१.१)। कृष्ण से वैर--यह राज्यक्रांति का इतिहास है। कंस वारक्य-यह प्रोष्ठपाद वारस्य का शिष्य है वसुदेव उग्रसेन का सुप्रसिद्ध मंत्री था । अपने को वह कुछ | (जै. उ. ब्रा. ३.४१.१)। अपाय करेगा एवं उग्रसेन को गद्दी पर बैठायेगा इस भय कंसवती-उग्रसेन की कन्या तथा कंस की भगिनी । से कंस ने उसे कारागृह में डाला, तथा उसके पुत्रों के वध यह वसुदेव का कनिष्ठ भ्राता देवश्रवा की पत्नी । इसे का क्रम प्रारंभ कर दिया (वायु. ९६.१७३;१७९; | उससे सुवीर तथा इषुमत् नामक दो पुत्र हुए (भा. ९. २२८)। आठवीं बार योगमाया से उसे मालूम हुआ कि उसका शत्रु सुरक्षा से बढ़ रहा है । तब पश्चात्ताप हो कर २४)। इसने वसुदेवदेवकी को बंधमुक्त किया। परंतु मंत्रियों से कंसा-उग्रसेन की कन्या तथा वासुदेवभ्राता देवभाग सलाह करके शत्रु को ढूंढकर उसका नाश करने का प्रयत्न की स्त्री। इसे उससे चित्र केतु, बृहद्बल तथा उद्धव नामक उसने जोर से चालू किया। वसुदेव की शेष स्त्रियाँ तीन पुत्र हुए. (भा. ९.२४)। Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कंसारी प्राचीन चरित्रकोश . कंसारी-याज्ञवल्क्य की भगिनी । इसे बृहस्पति के | मशार के तीन पुत्रों ने कक्षीवत् को कष्ट दिये थे। यह शाप से याज्ञवल्क्य के वीर्य से पिप्पलाद हुआ | पज्रकुल का था इसलिये अपने को पज्रिय कहलाता है (ऋ. (याज्ञवल्क्य देखिये)। | १.११६.७; ११७.६)। इसे पज्र भी कहा है (ऋ. १. ककुत्स्थ --(सू. इ.) शशादविकुक्षि का पुत्र । आडि- १२६.४, पं. ब्रा. १४.११.१६)। विवाह के समय बक के साथ इंद्र युद्ध कर रहा था, तब इसने इंद्र को इसकी उम्र काफी होगी (ऋ. १.५१.१३)। यह काफी वृषभ बनाया तथा उस पर आरोहण कर के युद्ध | वृद्ध रहा होगा (ऋ. ९.७४.८) । ऋग्वेद में भी यह पुरामें जय प्राप्त की। इसलिये ककुत्स्थ उपाधि प्राप्त की तन माना जाता था (ऋ. १.१८.१; ४.२६.१) । दीर्घ (वायु. ८८.२५)। इसे क्वचित् इंद्रवाह, पुरंजय आदि तमस् तथा कक्षीवत् का ऋग्वेद की एक ऋचा में एक साथ नाम भी प्राप्त है ( भा. ९.१.२)। कहीं चन्द्रवाह भी उल्लेख है (ऋ. ८.९.१०)। यह क्षत्रिय था परंतु तप कहा है (दे. भा. ७.९) । इसने पापनाशिनी एकादशी से ब्राह्मण तथा ऋषि हुआ था (वायु. ९१.१००, ११४)। का व्रत किया (पद्म. स्व ३८)। इसके पुत्र का नाम | इसे घोषा नामक एक कन्या थी । एक सूक्त से अश्वियों अनेनस् (म. व. १९३.२). को प्रसन्न कर के इसने उत्तम लोक प्राप्त किया था (ऋ. ककुदि-मरीचिगर्भ देवों में से एक। १.१२०; ऐ. ब्रा. १.२१; जै. ब्रा. १.६.११)। यह सूक्त- . ककुद्मिन रैवत-(सू. शर्यात.) रेवत राजा का पुत्र । | द्रष्टा है (ऋ १.११६-१२५, १२६.१-५, ९.७४)। इसे रेवती नामक कन्या थी। उसे ले कर यह ब्रह्मदेव के | विद्याध्ययन करने के बाद यह वापस जा रहा था, पास उसके लिये वर पूछने गया। वहाँ गायन चालू होने राह में स्वनय भावयव्य से इसकी मुलाकात हुई। के कारण, क्षणभर रुका। तदनंतर इसने ब्रह्मदेव | अंगिरस कुल का औचथ्य दीर्घतमस् का यह पुत्र है, से पूछा, तब ब्रह्मदेव हँस कर बोला, "तुम्हारे | ऐसा मालूम होते ही, उसने इसे अपनी दस कन्यायें तथा पृथ्वी से यहाँ आने तक पृथ्वी पर चार युगों | बहुत संपत्ति दी। तब इसने उसकी प्रशंसा की (बृहदें. ३. के सत्ताईस चक्कर हो चुके हैं। सांप्रत द्वापारयुग | १४१-१५०)। काक्षीवत औशिज या कक्षीवत् नाम आगे में परमेश्वर अंश से बलराम का जन्म हुआ है, उसे यह दिये गये ग्रंथों में भी हैं (म. स. ४.१५, ७.१६, अनु. कन्या दो” (भा. ९.३)। इसे रैवत कहते थे (विष्णु. | २७१.३७ कुं.)। अंगिरसकुल के मंत्रकारों में इसका ४.१.२१, २.१-२)। यह सौ भ्राताओं में ज्येष्ठ था | नाम है ( दीर्घतमंस देखिये)। इसकी राजधानी कुशस्थली थी। इसके वापस आने २. भीष्म से मिलने आया हुआ ऋषि (भा. १.९)। तक कुशस्थली की द्वारका बन गई थी (ब्रह्माण्ड. ३.६१. कक्षेयु-(सो. पुरुरवस्. ) विष्णु के मतानुसार २२; वायु. ८६.२७)। रौद्राश्व तथा मत्स्य के मतानुसार भद्राश्व पुत्र है। ककुम्--धर्म ऋषि के अरुंधती नामक स्त्री का नामांतर । यह दक्षकन्या है (भा. ३.६)। कंक--वाराहकल्प के वैवस्वत मन्वन्तर में यह शंकर कक्षसेन--असित पर्वत पर रहनेवाला एक राजर्षि। गाज | का अवतार है । इसे निम्नलिखित चार पुत्र हैं--सनक, (म. अनु. १३७.१५)। इसने वसिष्ठ का धन रक्षण सनातन, सनंदन, सनत्कुमार | यह निवृत्तिमार्गीय था। किया। इसने तत्कालीन सवितृ व्यास की सहायता की (शिव. २. युधिष्ठिर की सभा का एक क्षत्रिय (म. स. ४.१९)।। शत. ४)। ३. (सो. कुरु.) दूसरे जनमेजय का पुत्र (म. आ. २. वृष्णिवंश का एक क्षत्रिय (म. आ. १७७.१८)। ८९. ४८)। ४. यम सभा का एक क्षत्रिय (म. स. ८.१७)। ३. म्लेच्छ राजाओं का वंश । इनका पराभव दुष्यंत पुत्र भरत ने किया (भा. ९.२०)। कक्षवित्--यह दीर्घतमस् का पुत्र | इसकी माता का | नाम उशिज् । इसे औशिज कहा गया है (ऋ. १.१८.१; | ४. (सो. यदु.) शूर राजा को मारीषा अथवा भोजा दीर्घतमस् देखिये)। इसकी पत्नी का नाम वृचया से उत्पन्न दस पुत्रों में सातवाँ । वसुदेव का भ्राता। इसे (ऋ.१.५१.१३)। स्वनय भावयव्य ने इसे देन दी थी। कर्णिका स्त्री से ऋतधामन् तथा जय नामक पुत्र हुए थे (ऋ.१.१२५:१२६, सां. श्री. १६.४.५)। आयवस तथा । (भा. ९.२४)। Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन चरित्रकोश कच ५. (सो. वृष्णि.) उग्रसेन के नौ पुत्रों में से चौथा। प्राप्ति में विलंब न होगा क्यों कि, देवयानी शुक्राचार्य यह कंस का कनिष्ठ भ्राता, जिसका वध बलराम ने किया का दूसरा प्राण है। यह बता कर देवताओं ने उसे • (भा. ९.२४)। आशीर्वाद दिया। ६. अज्ञातवासकाल में विराटगह में प्रवेश करते समय गुरुसेवा--कच विद्यासंपादन के लिये देवताओं को युधिष्ठिर ने धारण किया हुआ नाम (म.वि.१.२०:७.१०)। || छोड़ कर शक्राचार्य के पास आया। शुक्राचार्य ने पूछा, यह विराट का सभासद था । विराट इससे अक्षक्रीड़ा करता 'तुम कौन हो? कहाँ से आये हो ?' तब कच ने बड़ी था । दक्षिण गोग्रहण के समय विराट ने सुशर्मा पर आक्रमण नम्रता से कहा, 'मैं बृहस्पतिपुत्र कच हूँ तथा विद्याकिया तब उसने इसे साथ लिया था तथा वहाँ सुशर्मा उसे संपादन के हेतु आया हूँ।' शुक्राचार्य ने उसे अतिथि बांध कर ले जा रहा था । इसने अपने भाई के द्वारा विराट को मुक्त कराया (विराट देखिये)। समझ कर तथा गुरुपुत्र होने के कारण, वंदनीय मान कर अपने पास रख लिया। तत्पश्चात् वह गुरुभक्ति से तथा ७. कलियुग के सोलह राजाओं का एक वंश (भा. ब्रह्मचर्य से सेवा करने लगा। शुक्राचार्य की तरुण कन्या १२.१) देवयानी के मनोरंजन के लिये कच, गाना, वाद्य कंकट-कटु के लिये पाठभेद। .. कंकतीय-एक कुल का नाम है । इस कुल ने शांडिल्य बजाना, नाचना, पुष्प तथा फल लाना एवं बताये हए काम तथा गायें चराना आदि काम करने लगा। इस ऋषि से अग्निचयन करना सीखा (श. बा. ९.४.४.१७)। एक कंकटी ब्राह्मण का उल्लेख आपरतंबश्रौतसूत्र (१४.२०. प्रकार शुक्राचार्य तथा उसकी प्रिय कन्या देवयानी के कार्य ४) में आया है। शायद बौधायन श्रौतसूत्र के (२५.६) में कहीं भी न्यूनता न रखते हुए, कड़े ब्रह्मचर्यव्रत से कच ने उन की ५०० वर्षों तक उत्तम सेवा की। इससे तथा छागलेय ब्राह्मण में उल्लेखित ब्राह्मण यही होगा। आचार्य उस पर प्रसन्न हो गये, तथा देवयानी तो उसे कंकमुद्र-ऋग्वेदी ब्रह्मचारी । . अपना बहिश्वर प्राण समझने लगी। ... कंका-उग्रसेन की कन्या तथा कंस की भगिनी।। वसुदेव के भाई आनक की स्त्री। __संकटपरंपरा-१. देवगुरु बृहस्पति का पुत्र कच अपने कंकी-(सो. ककर.) विष्णुमत में उग्रसेन की कन्या। आचार्य के पास विद्या संपादनार्थ आया है । अवश्य ही कच-एक महर्षि (म.अन. २६.)। यह संजीवनी विद्या संपादन करने के लिये आया होगा - . २. वर्तमान मन्वन्तर में अंगिरापुत्र बृहस्पति का | यह सोच कर दैत्यों ने उसका वध करने का का निश्चय किया। पुत्र । परंतु इसकी माता कौन थी इसका पता नहीं चलता एक दिन उन्हों ने उसे गौओं को चराते हुए देखा। है क्यों कि, बृहस्पति की शुभा तथा तारा नामक दोनों क्रोधावशात् उन्हों ने इसे पकड़ा तथा इसके शरीर के - स्त्रियों की संतति में इसका नाम नहीं है। खंडशः टुकडे कर सियारों को खिला दिये तथा वे वापस . देवकार्यार्थ गमन-एक बार देव एवं दैत्यों मैं त्रैलोक्य अपने स्थान पर लौट आये। इधर सूर्यास्त होने पर भी का आधिपत्य तथा ऐश्वर्य प्राप्त करने के लिये तुमुल युद्ध कच घर लौट नहीं आया, यह देख कर देवयानी ने यह खबर पिता तक पहुँचाई। इस पर शुक्राचार्य ने संजीवनी .. हुआ। उसमें दैत्यों के गुरु शुक्राचार्य संजीवनी विद्या के विद्या का प्रयोग किया । तत्काल सियारों के शरीर फाड़ कारण मृत राक्षसों को तत्काल जीवित कर देते थे। इस कारण दैत्यों की शक्ति कम नहीं होती थी। देवगुरु । कर कच सजीव हो कर आचार्य तथा देवयानी के समक्ष आ कर खड़ा हो गया। कच को आया जान कर देवयानी बृहस्पति को यह विद्या प्राप्त न होने के कारण, ने विलंब का कारण पूछा। तब उसने दैत्यों का सारा कृत्य देवताओं का बहुत नुकसान होता था। तब इन्द्र तथा | उसे बताया। अन्य देवताओं ने कच से प्रार्थना कर कहा, कि तुम शक्राचार्य तथा उसकी तरुण कन्या देवयानी को प्रसन्न । २. एक बार पुनः देवयानी के कथनानुसार जब कच कर, संजीवनी विद्या सीख कर आवो। तुम्हारा शील, अरण्य में गया था, तब राक्षसों ने उसे देखा । पुनः उसके सौंदर्य, माधुर्य, मनोनिग्रह तथा आचरण देवयानी को टुकड़े कर के, उन्होंने समुद्र में फेंक दिये । इस समय भी प्रसन्न करने के साधन हैं। देवयानी को वश करने का | पिता को बता कर देवयानी ने इसे पूर्ववत् सजीव कारण यही है कि, यदि वह प्रसन्न हो गयी तो विद्या- | कराया। Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कच प्राचीन चरित्रकोश कच ३. इस समय इसे मार कर, इसका चूर्ण बना | अपना पिता शुक्राचार्य तथा कच दोनों को जीवित देख कर राक्षसों ने जलाया सुरा के पात्र में वह रक्षा मिलाई। कर, देवयानी को अत्यंत आनंद हुआ। वही पात्र शुक्राचार्य को पीने के लिये दिया तथा ___सुरापान के कारण यह भी समझ में न आया कि, अपने अपने घर चले गये। मैं कच की राख पी रहा हूँ। इसके लिये शुक्राचार्य को देवयानीप्रणय-दिन का अवसान हो गया। रात अत्यंत खेद हुआ। सुरादेवी पर क्रोधित हो कर शुक्राचार्य हई, किन्तु कच नहीं आया। यह देख, देवयानी ने ने मद्यपान पर निम्मलिखित निर्बंध लगा दिया।" जो पिता से कहा कि, अभी तक कच नहीं आया । हो न हो, ब्राह्मण आज से भविष्य में व्यसनी लोगों के चंगुल में उसे अवश्य राक्षसों ने मार डाला होगा । उसे तत्काल फँस कर मुर्वत से अथवा मूर्खता से सुरापान करेगा, वह जीवित कर के आश्रम में लाने के लिये, देवयानी हठ धर्मभ्रष्ट हो कर ब्रह्महत्या के पातक का भागीदार बनेगा । करने लगी। तब शुक्राचार्य ने देवयानी से कहा कि, बार उसे इहपरलोक में अप्रतिष्ठा तथा अनंत कष्ट भोगने बार जीवित करने पर भी कच की मृत्यु हो जाती है, इस पडेंगे।" इस प्रकार धर्ममर्यादा स्थापित कर के उसने लिये भला मैं क्या कर सकता हूँ? अब तुम रुदन दैत्यों से कहा, 'तुम्हारी मूर्खता के कारण मेरे प्रिय शिष्य मत करो। कच की मृत्यु के लिये दुःख मनाने का अब कच को यह संजीवनी विद्या प्राप्त हो गई। इस प्रकार कुछ प्रयोजन नहीं है। तब देवयानी ने उसके रूपगुणों का | हजार वर्षों तक गुरु के पास रहने के बाद कच ने देवलोक रसभरा वर्णन किया एवं शोकावेग से वह प्राणत्याग करने में जाने के लिये गुरु की आज्ञा मांगी। के लिये प्रवृत्त हो गई। देवयानी का यह अविचारी कृत्य देख कर शुक्राचार्य असुरों को बुला लाये । तथा उनसे | शुक्राचार्य ने कच को जाने की आज्ञा दी। कच बोले, "मेरे पास विद्याप्राप्ति के हेतु आये हुए मेरे | देवलोक जा रहा है यह देख कर, देवयानी ने उससे प्रार्थना शिष्य को मार कर तुम लोग क्या मुझे अब्राह्मण बनाना | की । ' हम दोनों समान कुलशीलवाले हैं । मेरी चाहते हो ? तुम्हारे पापों का घड़ा भर गया। प्रत्यक्ष | तुम पर अत्यंत प्रीति है। इस प्रीति के कारण ही तीन इन्द्र आदि का भी घात ब्रह्महत्या के कारण होता है फिर बार राक्षसों द्वारा मारे जाने पर भी मैंने तुम्हें जीवित तुम्हारी क्या हस्ती ?" क्रोध से ऐसा कह कर, शुक्राचार्य किया, इसलिये मेरा पाणिग्रहण किये बिना तुम्हारा देवने कच को पुकारा । तब संजीवनी विद्या के प्रभाव से लोक जाना ठीक नहीं है। कच ने उसे बहुत ही समझाया, शक्राचार्य के उदर में जीवित कच ने वह उदर में कि हम दोनों का जन्म एक ही उदर से होने के कारण किस प्रकार आया, तथा दैत्यों ने किस प्रकार उसे मारा धर्मदृष्टि से तुम मेरी गुरुभगिनी हो। तस्मात् तुम मुझे वह बताया। तदनंतर उसने कहा, 'गुरुहत्या के पाप गुरु के समान पूज्य हो। इतना कहने पर भी देवयानी ने का भागीदार मैं न बनूँ तथा देवयानी का मेरा एवं संपूर्ण अपना हठ नहीं छोड़ा। तब कच ने कहा, 'अपने पुत्र विश्व का अकल्याण न हो, इस हेतु से मैं गर्भवास ही। के भाँति तुमने मुझे प्यार किया। तुम्हारा तथा मेरा जन्म स्वीकार करता हूँ। एक ही पिता से हुआ है, अतएव तुम मेरे द्वारा पाणितब शुक्राचार्य ने देवयानी से कहा, 'अगर तुम्हें | ग्रहन की कामना मत कसे' इतना कह कर कच ने देवयानी को दृढ मनोभाव से शुक्राचार्य की सेवा करने के लिये कच चाहिये तो मेरा वध होना आवश्यक है। अगर मैं तुम्हें प्रिय हूँ तो उदरगत कच का बाहर आना असंभव कहा तथा उससे आशीर्वाद मांगा। है। तब देवयानी ने कहा कि, 'तुम दोनों मुझे प्रिय | शापप्रतिशाप-भनमनोरथा देवयानी ने अत्यंत संतप्त हो। दोनों में से किसी का भी विरह मेरे लिये दुखदायी | हो कर उसे शाप दिया कि, मेरी प्रार्थना अमान्य कर ही होगा। | बड़े अहंकार से, जो विद्या प्राप्त कर तुम जा रहे हो वह प्रथमतः शुक्राचार्य ने कच को उदर में, संजीवनी तुम्हें कभी फलद्रा न होगी। तब कच ने शांति से विद्या का उपदेश किया तथा बाहर आने के बाद अपने को | कहा, 'चूकि तुम गुरुभगिनी हो एवं मैं सात्विक ब्राह्मण हूँ, जीवित करने के लिये कहा । तदनंतर संजीवनीविद्याप्राप्त | मैं तुम्हें प्रतिशाप नहीं देता। यह शाप कामविकारजन्य है। कच शुक्राचार्य का उदरविदारण कर बाहर आया तथा | अर्थात् तुम्हारा वरण ब्राह्मण पुत्र करे, यह तुम्हारी इच्छा उसी विद्या से तत्काल उसने शुक्राचार्य को जीवित किया। | कभी सफल नहीं हो सकती। मेरी विद्या मुझे फलद्रूप ११० Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन चरित्रकोश कण्व नहीं होगी, ऐसा शाप तुमने दिया । ठीक है । जिसे वह कंठायन--(सो. पुरूरवस् .) वायुमत में मेघातिथि. विद्या मैं सिखाऊँगा, उसे वह फलद्रूप होगी'। पुत्र। गौरव--इतना कह कर कच देवायानी से विदा ले कर | कंठेविद्धि--ब्रहाविद्धि का शिष्य । इसका शिष्य देवलोक गया। इस प्रकार विद्या संपादन कर के जब गिरिशर्मन् (वं. बा.१)। वह देवलोक वापस आया तब देवों ने तथा इन्द्र ने इसका कंडरीक-ब्रह्मदत्त का मंत्री तथा योगी (ह. वं. १. स्वागत किया तथा यज्ञ का भाग इसे दिया (म. आ. २०.१३)। पितृवर्तिन् तथा ब्रह्मदत्त देखिये। यह ७१.७२, मत्स्य. २५-२६)। सर्वशास्त्र प्रवर्तक था (मत्स्य. २१.२५) । इसको द्विवेद, कच्छनीर-वैशाख माह में अर्यमा नामक सूर्य के छंदोग तथा अध्वर्यु कहा है (ह. वं. १.२३.२१-२२) साथ भ्रमण करनेवाला नाग (मा. १२.११)। ___कंडु--एक ब्रह्मर्षि । इसके एक वर्ष के पुत्र की जिस कच्छप-कुबेर के मूर्तिमान नौ निधियों में से वन में मृत्यु हुई, उस वन को इसने उदकरहित किया पाँचवाँ। | (वा. रा. कि. ४८) । इसका तप नष्ट करने के लिये इंद्र कंजाजना--दाशरथि राम-पुत्र लव की कनिष्ठ । ने प्रग्लोचा नाम की अप्सरा भेजी थी। इस की कन्या स्त्री। मारीषा (विष्णु. १.१५. भा. ४.३०)। - कटक-मर्कटप के लिये पाठभेद । २. व्यास की सामशिष्यपरंपरा के वायु तथा ब्रह्माण्ड कटायनि-भृगुकुल का गोत्रकार । मतानुसार लांगलि का शिष्य । कटु-एक अंगिराकुल का गोत्रकार । इसके लिये कंड-कलिंग कन्या तथा अक्रोधन की स्त्री। इसके कटय तथा कंकट पाठभेद हैं। | पुत्र का नाम देवातिथि । भांडारकर प्रति में करंदु पाठ कठ-वसिष्ठकुल के गोत्रकार ऋषिगण (म. आ. है (म. आ. ९०.२१)। ८.२३०; स. ४.१५)। इसके नाम पर कठ परिशिष्ट, कण्व--एक गोत्रप्रवर्तक तथा सूक्तद्रष्टा । घोर के कण्व कठब्राह्मण, कठ संहिता, कठवल्ल्युपनिषद् तथा कठसूत्र तथा प्रगाथ नाम के दो पुत्र थे। वन में एक बार प्रगाथ ग्रंथ आये हैं । कठसूत्र का निर्देश कात्यायन श्रौतसूत्र में ने कण्व की स्त्री को छेडा । इसलिये कण्व शाप देने लगा। है (१.३.२३, ४.८.१३)। यही कठशाखा का प्रवर्तक तब प्रगाथ ने इन्हें माता एवं पिता माना। कालांतर में .. होगा (पाणिनी देखिये)। कठ तथा कपिष्ठल कठ का ही इसके वंशजों ने ऋग्वेद वा आठवाँ मंडल तयार किया (बृहद्दे. ६.३५-३९)। कण्व शब्द का अर्थ सुखमय होता कठ कृष्णयजुर्वेद की शाखा है। कठ लोग विस्तृत है (नीलकंठ टीका)। यह यदतुर्वश का पुरोहित रहा 'प्रदेश में आबाद थे । सिकंदर को कठों ने कड़ा विरोध होगा क्यों कि, कण्वकलोत्पन्न देवातिथि इंद्र से प्रार्थना . किया । कठो का स्थान पंजाब के अन्तिम भाग में सिंधु | भाग म सिधु करता है कि यदु तथा तुर्वश तुम्हारी कृपा से मुझे सदैव - के तट पर दीखता है। सुखी दिखाई दें (ऋ. ८.४.७)। २. रेवती देखिये। इस पुरातन ऋषि कण्व का ऋग्वेद तथा इतरत्र बार बार कठशाठ--एक शाखाप्रवर्तक (पाणिनि देखिये)। उल्लेख आता है (ऋ. १.३६.८,१०.११ आदि; अ. कणिक-- धृतराष्ट्र का नीतिशास्त्रविशारद ब्राह्मण वे; ७. १५. १: १८. ३. १५; वा. सं १७. ७४; पं. मंत्री । इसने पांडवों के संबंध में धृतराष्ट्र को विपरीत ब्रा.८.१.१; ९.२.६; सां. ब्रा. २८.८)। इसके पुत्र सलाह दी थी (म. आ. परि. १.८१)। इतनी शत्रुता तथा वंशजों का नाम बारबार आता है। यह सूक्तद्रष्टा था बढ जाने पर युद्ध के अतिरिक्त कोई दूसरा मार्ग नहीं है, (ऋ. १.३६-४३,८; ९.९४)। अंगिरसकुल में कण्व ऐसा इसने बताया । कणिक पाठ भी मिलता है। मंत्रकार थे । कण्व का वंशज उसके अकेले के कण्व नाम से इसका कथन कणिकनीति नाम से प्रसिद्ध है तथा (ऋ. १.४४.८; ४६.९; ४७.१०, ४८.४, ८.४३.१) भांडारकर महाभारत में परिशिष्ट में दिया है। तथा पैतृकनामसहित, जैसे कण्व नार्षद (ऋ. १.११७. कणीशा-कश्यप तथा क्रोधा के कन्या तथा पुलह ८: अ. वे. ४.१९.२), तथा कण्व श्रायस (तै सं. ५. की स्त्री। ४.७.५; क. सं. २१.८; मै. सं ३.३.९.) ऐसा संबोधित कंठ-(सो. पुरूरवस् .) वायुमत में अजमीढ़ पुत्र। । है । इसके अतिरिक्त इसका अनेकवचनी (बहुवचन) १११ Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कण्व प्राचीन चरित्रकोश कण्व होगी। उल्लेख कण्वाः. सौश्रवसाः नाम से होता है (क. सं. १३. उद्धरण स्मृतिचंद्रिका में (आन्हिक तथा श्राद्ध के संबंध से) १२; सां. श्री. १६.११.२०)। अथर्ववेद के ( २.२५) लिये गये हैं। उसी तरह मिताक्षरा नामक ग्रंथ में कण्व के एक उद्धरण से प्रतीत होता है कि, उनसे शत्रुतापूर्ण | ग्रंथ के बहुत से उद्धरण लिये गये हैं। (मिता. ३.५८%; व्यवहार किया जाता था। १३.६०)। क्षत्रियों के गायत्रीमंत्र में कण्व ने, सूर्य से प्राप्त की | इनके ग्रंथ निम्नलिखित हैविश्वकल्याणकारक सद्बुद्धि हमें मिले, ऐसा उल्लेख (१) कण्वनीति. (२) कण्वसंहिता (३) कण्वोपमिलता है (वा. सं. १७.७४) । ऋग्वेद में (१.११९.८) | निषद् (४) कण्वस्मृति । कण्वस्मृति का उल्लेख हेमाद्रि, निम्नलिखित कथा एक कण्व के. संबंध में आयी है। मध्वाचार्य आदि ने किया है (C.C.)। ब्राह्मणत्व की परीक्षा लेने के लिये असुरों ने कण्व को, २. कश्यपगोत्रोत्पन्न एक ऋषि । इसके पिता मेधातिथि अंधकारमय स्थान पर रख कर कहा कि, तुम यदि ब्राह्मण (म. अनु. २५५.३१ कुं.)। इसका आश्रम मालिनी होगे तो, उषःकाल कब होगा, पहचानोगे । इसे अश्वियों ने नदी के तट पर था। इसने शकंतला का पालन पोषण आकर बताया कि, जिस समय उषःकाल होगा उस समय बड़े प्रेम से किया था। एक बार यह बाहर गया हम लोग वीणावादन करते हुए आयेंगे। उस शब्द के | था, तब दुष्यंत ने शकुंतला से गंधर्वविवाह किया। सुन कर तुम कह देना कि उषःकाल हो गया है। इसने वापस आकर उसे योग्य कह कर उस विवाह की विष्णु मतानुसार यह ब्रह्मरात तथा भागवत मतानुसार | पुष्टि की (म. आ. ६४.६८;भा. ९.२०)। इसने दुर्योधन देवराज के पुत्र याज्ञवल्क्य के पंद्रह शिष्यों में से एक को मातलि की कथा बतायी। यह बोधप्रद कथा सुन कर था (व्यास देखिये)। आगे चल कर इसने यजुर्वेद में कण्व । | भी जब उसने एक न सुनी, तब इसने शाप दिया 'कि, ' शाखा स्थापित कर उसके ग्रंग निर्माण किये (भा. | तेरी जंघा फोडने से तेरी मृत्यु होगी (म. उ. ९५.१०३. १२.६)। वे ग्रंथ बहुत सी बातों में याज्ञवल्क्य के विरुद्ध हैं। कुं)। काल की दृष्टि से यह कथा किसी अन्य कण्व की कण्व अंगिरस गोत्रोत्पन्न है तथा इनका कुल पूरुओं से उत्पन्न हुआ। कुछ स्थानों पर मतिनार पुत्र अप्रतिरथ से यह गौतम के आश्रम में गया था। वहाँ की समृद्धि. यह उत्पन्न हुआ (ह. वं. १.३२, विष्णु. ४.१९) ऐसा | देख कर वैसी ही समृद्धि प्राप्त होवे, इसलिये मिलता है, परंतु कुछ अन्य स्थानों पर कण्व को अजमीढ- | इसने तपस्या की । गंगा तथा क्षुधा को प्रसन्न किया। पुत्र कहा गया है (वायु. ९९.१६९-१७० कण्ठ; मत्स्य. | उसने आयुष्य, द्रव्य, भुक्तिमुक्ति की मांग की। ४९)। पीढियों की दृष्टि से इन दोनों में काफी भेद है। वह तथा उसके वंशज कभी क्षुघापीड़ित न हों, विष्णु पुराण में दोनों वंश दिये गये हैं। ऐसा वर मांगा । वह उसे मिला भी । जहाँ प्रगाथ काण्व दुर्गह के नातियों का समकालीन था (ऋ. उसने तप किया था उस तीर्थ का नाम आगे चल ८.६५.१२; दुर्गह देखिये)। कण्व वंश की वंशावलि कर कण्वतीर्थ पड़ा (ब्रह्म. ८५)। भरत के यज्ञ में यह बहुत से स्थानों पर मिलती है (मत्स्य. ५०; ह. वं. मुख्य उपाध्याय था (म. आ. ६९.४८)। इसे भरत १.३२; भा. ९.२१; प्ररकण्व तथा मेघातिथि देखिये)। ने एक हजार पद्मभार शुद्ध जम्बूनद स्वर्ण (म. द्रो. परि. कण्व गोत्र गोत्रियों को दक्षिणा नहीं देनी चाहिये, ऐसा १.८. पंक्तिं. ७५०-७५१) तथा एक हजार पद्म घोड़े सत्याषाढश्रौतसूत्र (१०.४ ) में दिया गया है। क्यों कि । (म. शां. २९.४०) दक्षिणा में दिये । भरत के यज्ञ के गोपीनाथ भट्ट ने भाप्य में “कप्वं तु बधिरं विद्यात्" समय यह अथवा इसका पुत्र रहने की संभावना है। ऐसा कहा है, परंतु उसे भी यह अँचा नहीं । ब्रह्मदेव के | इसका पुत्र बाहीक (काण्व ) था (ब्रह्म. १४८)। पुष्कर क्षेत्र के यज्ञ में यह था (पद्म. स. ३४)। ३. कश्यप का पुत्र । कलियुग शुरू हो कर एक हजार धर्मशास्त्रकार- एक धर्मशास्त्रकार । आपस्तंब ने प्रथम वर्षों के बाद इसने भरतभूमि में जन्म लिया। उसकी पत्नी “किसका अन्न ग्राह्य है ?" ऐसी शंका उद्धृत कर, उसके देवकन्या आर्यावती थी। उपाध्याय, दीक्षित, पाठक, समाधान के लिये कण्व के ग्रंथ का उद्धरण दिया है शुक्ल, मिश्र अग्निहोत्री, द्विवेदी, त्रिवेदी, पांडव, चतुर्वेदी 'किसी ने भी आदर से दिया हुआ अन्न ग्राह्य है' इसके पुत्रों के नाम हैं । कण्व ने अपनी संस्कृत वाणी से (आप. थ. १.६.१९.२-३)। कण्व के ग्रंथ के बहुत से । मिश्र देश के दस हजार म्लेच्छों को वश में किया। इन ११२ Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कण्व प्राचीन चरित्रकोश - कपिल बनें हुए म्लेच्छों के दो हजार वैश्यों में से कश्यप सेवक | कनकध्वज-(सो. कुरु.) धृतराष्ट्र का पुत्र | यह पृथु को कण्व ने क्षत्रिय बना कर राजपुत्रनगर दिया (भवि | द्रौपदीस्वयंवर में उपस्थित था (म. आ. १७७.३ )। वि. प्रति. ४.२१)। भीम ने इसका वध किया (म. भी. ९२.२६)। कण्वायन--इसके दातृत्व के संबंध में कृश ने प्रशंसा | कनकांगद वा कनकायु-(सो. कुरु.) धृतराष्ट्रपुत्र । की है (ऋ. ८.५५,४)। कनकोद्भव-(सो. विदूरथ.) वायुमतानुसार हृदीक कत वैश्वामित्र--सूक्तद्रष्टा (ऋ ३. १७; १८)। | का पुत्र । कुशिक कुल का गोत्रकार तथा मंत्रकार था। कनिष्ट-भौत्य मन्वन्तर का देवगण । कति--विश्वामित्र का पुत्र । कनीयक-(सो. विदूरथ.) मत्स्यमत में हृदीकपुत्र । कंदली--दुर्वास की पत्नी । कत्तृण--अंगिराकुल का गोत्रकार । कंधर-मदनिका देखिये। कथक:-विश्वामित्र कुल का गोत्रकार । कन्यक--कश्यपकुल का गोत्रकार । कद्र-एक पुरोहित । इंद्र ने इसका सोम पिया कप-देवविशेष । पहले इसने स्वर्ग का अपहार किया (ऋ. ८.४५.२६)। | था। तब ब्राह्मणों ने इंद्र का पक्ष ले कर इसका नाश किया कद्र-दक्ष प्रजापति तथा असिक्नी की कन्या (म.आ. | (म. अनु. २६२.४ कुं.)। ६६; भा. ६.६)। यह बहुत सुंदर तथा गुणवती थी परंतु । कपट-कश्यप तथा दनु का पुत्र । इसकी एक ही आंख थी (भवि. प्रति. १. ३२)। दक्ष | कपर--कश्यप तथा दनु का पुत्र । ने कश्यप के साथ इसका ब्याह कर दिया था। आगे कपर्देय-विश्वामित्रकुल का गोत्रकार । चलकर इसने कश्यप से वर प्राप्त किया कि मेरे समान | कपालभरण-- विंध्य पर्वत पर त्रिवक्रकन्या बल वाले सहस्र सप हो । उचैःश्रवा के रंग के संबंध से | सुशीला को शुचि नामक ब्राह्मण से उत्पन्न पुत्र । इसने अपनी सौत विनता से शर्त लगायी जिसमें कद्रु | इंद्र ने इसका वध किया । इसका वध करने के पश्चात् कहा था, कि उचैःश्रवा का रंग सफेद है पर पूंछ काली है। इंद्र ने सीतासरसतीर्थ में स्नान किया। इसके बाद इसका अपनी बात सत्य सिद्ध करने के लिए इसने अपने पुत्रों की | पुब्र दुर्मेधस गद्दी पर बैठा (स्कंद. ३.१.११)। सहायता मांगी, पर वे सहायता करने तैयार न हुए, तब कपालिन्-कश्यप तथा सुरभि का पुत्र । एक रुद्र । इसने इन्हें शाप दिया कि तुम सब सर्पसत्र में भस्म होगे। कपि-तामस मन्वंतर के सप्तर्षियों में से एक । दुष्ट सपों का नाश करने का यह अच्छा सुअवसर जानकर | २. भृगु गोत्र का एक ऋषि तथा प्रवर (भृगु देखिये)। ब्रह्मदेव ने आकर इसके शाप की पुष्टि की (म. आ. १८)। । ३. (सो. पुरूरवस्.) विष्णुमतानुसार उरुक्षय तथा कहा कि उनका सापत्न बंधु उनका भक्षण करेगा। का-पुत्र तथा वायुमतानुसार उभक्षयपुत्र । यह क्षत्रिय होते आगे चलकर उन्हों ने उदशाप मांगा तथा सहायता करने हुए भी तप कर ब्राह्मण हुआ (वायु. ९१. ११६) का वचन दिया। तदनुसार वे उचैःश्रवा की पूंछ में जा ४. रैवत मन्वंतर के मनु का एक पुत्र । लगे (म. आ. १८)। इस तरह उच्चैःश्रवा की पूंछ ५. अंगिरस गोत्र का मंत्रकार। काली है, ऐसा कद्र ने विनता को दिखलाया। विनता कार्पजल-वसिष्ठकुल का एक गोत्रकार । शर्त में हार गयी। अतः कद्र की वह १,००० वर्षों तक दासी कपित्थक-कद्भुपुत्र एक सर्प । रहे यह निश्चित हुआ। पांच सौ वर्षों के बाद गरुड ने कपिभू-अंगिराकुल का गोत्रकार । अपनी माता विनता को दास्य से मुक्त किया (म. आ. कपिमुख-पराशरकुल का गोत्रकार । कपिश्रवस् पाठ१८,३०; कश्यप देखिये)। भेद है। कद्वशंकु-(सो. कुकुर.) वायुमत में उग्रसेनपुत्र। कपिल-सांख्यशास्त्रज्ञ कपिल का निर्देश श्वेताश्वतर • कनक--(सो. सहस्र.) मत्स्यमतानुसार दुर्दमपुत्र | उपनिषद् में है (५.२)। तथा वायुमतानुसार दुदर्मपुत्र । वास्तव में यहाँ कपिल का अर्थ हिरण्यगर्भ है। '२. विप्रचिति तथा सिंहिका का पुत्र । इसे परशुराम ने एक अग्निविशेष । कर्म ऊर्फ विश्वपति अग्नि तथा मारा (ब्रह्माण्ड. ३.६.१९-२२)। रोहिणी (हिरण्यकशिपुकन्या) का पुत्र। इसे सांख्यशास्त्र प्रा. च. १५] १९३ Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कपिल प्राचीन चरित्रकोश कपिल प्रवर्तक कपिल कहा गया है। इसे अग्नथधिकार अर्थात् में भी गाय अवध्य है, इसी विषय पर वादविवाद किया आहुति पहुँचाने का अधिकार है (म. व. २११.२१)। (म. शां. २६०)। भागवत में "सांख्यशास्त्र की २. कर्दम को देवहूति से उत्पन्न पुत्र । यह स्वायंभुव मन्वं- रचना के लिये पंचम जन्म लोगे ऐसा कहा तथा मेरे घर में तर का अवतार है। कर्दम ऋषि ने संन्यस्त होने का निश्चय जन्म लिया," इस वचन के कारण भागवत का कपिल किया। तब देवहूति ने पूछा, 'संसारचक्र से मेरी रक्षा | सांख्यशास्त्रज्ञ रहा होगा तथा यह विष्णु का अवतार ही कौन करेगा ? ' श्री हरि के वचन--'मैं तेरे घर जन्म लूंगा' है (भा. १. ३. १०, ३. २४.६९; विष्णु. २. १४)। स्मरण होने के कारण, कर्दम ने कहा, 'श्रीहरि तुम्हारी सांख्यशास्त्रज्ञ कपिल की स्मृति ने निंदा की है, तथा श्रुति कोख से जन्म लेंगे तथा वे तुम्हें ब्रह्मज्ञान दे कर संसारचक्र में एक कपिलमाहात्म्य वर्णित है (श्वे. उ. ५.२, ब्र. से मुक्त करेंगे। श्रीहरि की आराधना करो जिससे वे | सू. २. १-१ शांकरभाष्य)। अथात् यह वेदांती कपिल तुम्हारे उदर में आवेंगे।' तदनुसार उसने श्रीहरि की रहा होगा। इसके वासुदेव (म. व. १०६. २) तथा आराधना की, जिससे कपिल उत्पन्न हुआ। कपिल का चक्रधनु (म. उ. १०७. १७) नामांतर हैं। वासुदेव जन्म सिद्धपुर में हुआ (दे. भा. ९.२१)। यह हमेशा तथा चक्रधनु दोनों कपिल सगरपुत्रघ्न अर्थात् एक ही हैं। बिंदुसर पर रहता था (भा. ३.२५.५)। ये दोनों स्थान कामरूप देश में इसने कपिलेश्वर की स्थापना की (स्कंद. समीप रहे होंगे। ___ कालांतर में देवहूति को इसने ब्रह्मज्ञान बताया तथा उसे | ब्रह्मदेव से वरदान प्राप्त कर रावण पश्चिम 'तंट पर संसारचक्र से मुक्त कर खुद पाताल में जा कर रहने लगा। गया । वहाँ उसने एक तेजस्वी पुरुष देखा । रावण ने उसे वहाँ यह ध्यानस्थ था। उस समय अश्वमेध के अश्व युद्ध के लिये चुनौती दी। तब उस पुरुष ने रावण को को खोजते खोजते सगर-पुत्र वहाँ आये। यह सो रहा | एक तमाचा लगाया, जिसके कारण वह चक्कर खा कर था ऐसा हरिवंश में दिया गया है। (ह. वं. १.१४- धरती पर गिर पड़ा। तदनंतर वहाँ उसने एक सुंदर स्त्री देखी १५.)। यही चोर है, इसी ने हमारा अश्व चुराया है तथा उसकी अभिलाषा की। तब इस पुरुष ने यह जान यों समझ कर उन्होंने कपिल पर शस्त्रास्त्रों से प्रहार कर उसकी ओर केवल देखा, जिससे रावण फिर धरती पर किया। तब कपिल ने क्रोधयुक्त दृष्टि से देख कर उन्हें गिर पड़ा। रावण ने उठ कर उससे फिर पूछा, “आफ् कौन भस्म कर दिया। इनमें से चार लोग जीवित रहे (सगर हैं ?" तब इसने बताया कि, मेरे हाथ से शीघ्र ही तेरी देखिये)। भागवत में दिया है कि, सब लोग भस्म हो मृत्यु होगी। इससे यह पता चलता है कि, यह विष्णु गये (भा. ९.८.१०)। का अवतार रहा होगा। राम के प्रश्न का उत्तर देते व्यक्ताव्यक्त तत्त्व पर आसरि से इसका संभाषण | समय, वसिष्ठ ने बताया कि, यह पुरुष कपिल महर्षि है हुआ था। जिसमें आसरि पृच्छक था तथा कपिल निवेदिता (वा. रा. उ. ५ प्रक्षिप्त)। था। __ वेनवध के पश्चात् इसी के कहने पर पृथु को उत्पन्न इसका शिष्य आसरि । आसरि का शिष्य पंचशिख किया गया। पृथु ने कपिल को वत्स बना कर पृथ्वी (नारद. १.४५) था । पंचशिख कपिल का अवतार है को स्थिरस्थावर बनाया (भा. ४.१८-१९)। गौतमीयों उसक सांख्यज्ञान के प्रभाव से लोगों को प्रतीत होता | कपिलासंगम का माहात्म्य बताते समय, यह जानकारी दी था (म. शां. २११)। नारदपुराण में दो कपिल दिये गये | गयी है (ब्रहा. १४१)। आगे चल कर सांख्य का तत्त्वहैं। उनमें से एक ब्रह्मा का (नारद. १.४५) तथा दूसरा ज्ञान बताया गया है, परंतु वहा कपिल का नामोल्लेख भी विष्णु का अवतार था (नारद. १.४९)। आचार्यतर्पण में नहीं है (ब्रह्म. २३९; पंचशिख देखिये)। पंचशिखादि के साथ इसका उल्लेख है (मत्य. १२. ९८; इसके रचित ग्रंथ:-- १. सांख्यसूत्र, २. तत्त्वसमास, कात्या. परि.)। | ३. व्यासप्रभाकर, ४. कपिलगीता (वेदांतविषयक), इनमें से कौन सा सांख्यशास्त्रज्ञ तथा कौन सा वेदांती | ५. कपिलपंचरात्र, ६. कपिलसंहिता (उत्कलतीर्थमाहात्म्य था, यह समझ में नहीं आता। कपिल नामक किसी | ७. कपिलस्तोत्र, ८. कपिलस्मृति । वाग्भट ने वैद्यविषयक ऋषि ने स्यूमरश्मि से संवाद किया था। उनका संवाद | ग्रंथरचयिता कह कर इसका उल्लेख किया है (C.C.)। कपिल के वेदविषयक कथन से शुरू हुआ। इसने यज्ञ ३. रुद्रगणों में से एक। .. ११४ Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कपिल प्राचीन चरित्रकोश कबंधिन् कात्यायन ४. विश्वामित्र के पुत्रों में से एक। कपोतक--पातालस्थित नागराज का नाम (माकै. ५. दनु एवं कश्यप का पुत्र, एक दानव । ६८)। • ६. कद्रु तथा कश्यप का पुत्र, एक नाग । ___ कपोतरोमन्-(सो. कुकुर.) भागवतमतानुसार ७. ब्रह्मांडमतानुसार वसुदेव का सुगंधी से तथा वायु- विलोमा पुत्र, विष्णुमतानुसार धृष्टपुत्र, वायुमतानुसार मतानुसार वनराजी से उत्पन्न पुत्र । यह राज्य न कर धृतिपुत्र तथा मत्स्यमतानुसार वृष्टिपुत्र । विरक्त हो कर वन में चला गया। कबंध--दंडकारण्य का एक राक्षस । इसका सिर ८. विंध्य पर रहनेवाला एक वानर । इसकी छाती में था। इस लिये इसे कंबंध (शिरविरहित) ९. वेन का वध करनेवाले ऋपियों में से एक। नाम दिया गया । जटायुवध के बाद राम तथा लक्ष्मण, १०. (सो. नील.) भद्राश्व का पुत्र । अन्य पुराणों में सीता की खोज में वन में घूम रहे थे । खोजते खोजते वे कापिल्य ऐसा पाठभेद है। क्रौंचवन के पूर्व में तीन कोस दूर स्थित मातंग मुनि के ११. शिवावतार दधिवाहन का शिष्य । . आश्रम समीप पहुँचे । वहाँ उन्हें बहुत जोर की ध्वनि १२. एक यक्ष । इसने खशाकन्या केशिनी से यक्ष-सुनाई पड़ी। यह ध्वनि कबंध राक्षस की थी। एक कोस राक्षस उत्पन्न किये । इल की नीला नामक कन्या थी की दूरी पर रह कर भी यह राम लक्ष्मणों को दिखा । जब (ब्रह्मांड. ३.७.१)। यह भक्ष्य के लिये हाथ फैला रहा था, तब उस में राम... १३. एक ब्राह्मण । एकादशी उपवास करने के कारण लक्ष्मण पकड़े गये । राम लक्ष्मणों के पास तरवारें थीं । राम यह संपन्न हुआ (पद्म. उ. ३०)। को छूट जाने के लिये कह कर, लक्ष्मण स्वयं मरने के लिये कपिला-दक्ष एवं असिक्नी की कन्या तथा कश्यप तैय्यार हो गया । परंतु उसे धीरज दे कर राम ने रोका । की स्त्री। अपने आप ही भक्ष्य उसके पास आया, इससे राक्षस को २. पंचशिख ऋषि की माता (नारद.. १.४५; कबंधी अत्यंत आनंद हुआ। उसने ऐसा कहा भी। परंतु लक्ष्मण, देखिये)। ने कहा कि, क्षत्रिय के लिये ऐसी मृत्यु अयोग्य है। तब ३. कश्यप तथा खशा की कन्या। राक्षस को क्रोध आया तथा वह इन्हें खाने के लिये प्रवृत्त हुआ। तब राम ने इसका बायाँ हाथ तोड़ दिया कपिलाश्व--(सू. इ.) भागवत तथा विष्णुमत में | तथा लक्ष्मण ने इसका दाहिना हाथ तोड़ दिया । तब कुवलयाश्वपुत्र । मत्स्य तथा वायु मत में कुवलाश्वपुत्र। । गतप्राण हो कर यह नीचे गिर पड़ा । तदनंतर इसके . कपिलोम--कश्यप तथा खशा का पुत्र। शरीर से एक दैदीप्यमान पुरुष निकल कर आकाश में कपिवन भौवायन-एक आचार्य । (मै. सं. १. । | गया । तब राम ने पूछा कि तुम कौन हो । तब इसने कहा .४५; क. से. ३.२.२)। कि, "मैं विश्वावसु नामक गंधर्व हूँ। ब्राह्मण के शाप से . इसके नाम पर दो दिन चलनेवाला एक यज्ञ है | यह राक्षसयोनि मुझे प्राप्त हुई थी। सीता का हरण (ता. बा. २०.१३.४ का. श्री. २५, २-३; आश्व. श्री. | रावण ने किया है। तुम सुग्रीव के पास जाओ। वह तुम्हें १०.२)। सहायता करेगा, क्यों कि, सुग्रीव को रावण के मंदिर की .. कपिश-कश्यप तथा दनु का पुत्र । जानकारी है।" इतना कह कर यह गुप्त हो गया (म. व. कपिश्रवस--कपिमुख देखिये। २६३; वा. रा. अर. ६९-७३)। कपिष्ठल-वसिष्ठकुल का गोत्रकार ऋषिगण । यह कठ २. अट्टहास नामक शिवावतार का शिष्य । का एक भाग है। कपिष्ठलसंहिता उपलब्ध है। पाणिनि ३. व्यास के अथर्वन् शिष्यपरंपरा के वायु, विष्णु, कपिष्ठलगोत्र निर्देश करता है (पा. सू. ८.३. ९१) | ब्रह्मांड तथा भागवत मतानुसार सुमंतु का शिष्य। (कठ देखिये)। यह कृष्ण यजुर्वेद की शाखा है।। कबंध आथर्वण--यह पतंचल काप्य की पत्नी कपीतर--अंगिराकुल का एक गोत्रकार । के देह में संचार करता था। इसने पतंचल को कुछ कपोत--गरुड का पुत्र । अध्यात्मज्ञान बताया है (बृ. उ. ३.७)। २. एक राजा । यह आत्मज्ञानी था। कबंधिन् कात्यायन-पिप्पलाद का ब्रह्मविद्या का कपोत नैर्ऋत--सूक्तद्रष्टा (ऋ. १०.१६५)। । शिष्य (प्र. उ. ११.३)। ११५ Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कबंधी प्राचीन चरित्रकोश करंभक 'देखिये) । कबंधी — पंचशिख ऋषि की माता ( कपिला २. यह स्वयं स्त्रीस्वभाव के अनुसार वह उपदेश भूल गई ( भा. ६.१८; ७.७; हिरण्यकशिपु देखिये) । कयोवधि--ऋतुपर्ण देखिये । कमठ- - युधिष्ठिर की सभा का एक क्षत्रिय ( म. स. ४.१९)। २. महीनगर के हारित नामक ब्राह्मण का पुत्र । वृद्ध ब्राह्मण का रूप ले कर सूर्य इसके पास आया तथा उसने कुछ प्रश्न पूछे। उसके इसने समर्पक उत्तर दिये । तत्र सूर्य ने इसे बताया कि, तेरा पिता स्मृतिकार होगा, इस स्थान का त्याग नहीं करेगा तथा यह स्थान जयादित्य नाम से प्रसिद्ध होगा (स्कन्द. १.२.५१ ) । करकर्ष - (सो. क्रोटु.) । शिशुपाल के चार पुत्रों में से एक । इसका चेकितान यादव से अत्यंत स्नेह था । भारतीय युद्ध का दुर्योधनपक्षीय राजा ( म. द्रो. १९.२०) । इस के लिये करकाक्ष पाठ है । करकायु - (सो. कुरु. ) धृतराष्ट्रपुत्र । कराज - कर्णजिह्व देखिये । करंज- इंद्र का एक शत्रु (ऋ. १.५३.८९ १०.४८. ८)। कमधू -- विमद की पत्नी (ऋ. १०.६५.१२ ) । कमला—-वल्लभ भीम की पत्नी (गणेश. १.१९. ४०; दक्ष देखिये) । करट — शकट देखिये । करंड --कंडू देखिये। कमलाक्ष -- त्रिपुर का सुवर्णपुराधिपति असुर ( लिंग. २.७१) । तारकासुर का पुत्र ( म. क. २४.४ ) । रुद्र ने इसका वध किया | करथ - भास्करसंहिता के सर्वधरतंत्र का कर्ता (ब्रह्मवै. २.१६) । कंपन - अंगद ने युद्ध में मारा हुआ लंका का राक्षस ( वा. रा. यु. ७५ ) । २. युधिष्ठिर की सभा का एक क्षत्रिय ( म. स. ४. १९)। कंबल — कद्रूपुत्र । पाताल के नागों का अधिपति ( भा. ५.२४ ) । यह अश्विन माह में त्वष्टृ नामक सूर्य के साथ रहता है ( भा. १२.१९ ) । यह अश्वतर का भाई है (मार्के. २१.५० ) । कंबलबर्हिष--(सो, क्रोष्टु. ) अंधक का कनिष्ठ पुत्र । २. (सो. विदूरथ. ) मत्स्य तथा वायु के मत में देवार्हपुत्र । ३. (सो. यदु.) मत्स्य तथा वायु के मत में मरुत्तपुत्र | इसका पुत्र असमौजस् । करंधम - (सो. तुर्वसु. ) भागवतमत में त्रिभानुपुत्र, विष्णुमत में त्रिशांत्र, वायुमत में त्रिसारिपुत्र तथा मत्स्यमत में त्रिसानुपुत्र । २. (सू. दिष्ट. ) भागवत तथा वायु के मतानुसार खनिनेत्र का पुत्र तथा विष्णु के मतानुसार अतिभूतिपुत्र । अवीक्षित राजा का पिता तथा मरुत्त राजा का पितामह. ( म. अनु. १३७.१६ ) । इसका मूल नाम सुवर्चस् था करंधम नाम प्रचलित होने का कारण यह है। एक बार अनेक राजाओं ने मिल कर इसे अत्यंत त्रस्त किया। तब इसने अपने हस्त कंपित कर के सेना उत्पन्न की तथा सब का पराभव किया (म. आश्व. ४.९ - १६) । इसे कालभीति ने उपदेश किया था ( स्कन्द १.२.४०-४२ ) । महाभारत में तथा मार्कडेय में बलाश्व पाठभेद मिलता है (मार्के. ११८.८; २१.) । करभाजन -- ऋषभदेव के नौ सिद्धपुत्रों में से एक । यह योगी तथा ब्रह्मज्ञानी था । इसने विदेह के यज्ञ में ज्ञानोपदेश किया (भा. ५.४; ११.२ ) । इसकी माता जयंती | करंभ - अगस्त्यकुल का एक गोत्रकार । २. एक दनुपुत्र । ३. (सो. क्रोष्टु.) मत्स्य तथा वायु के मत में शकुनि - पुत्र ( करंभि देखिये) । कयाधू -- तारक के जम्भासुर नामक सेनापति की कन्या । इसका पति हिरण्यकशिपु । पहिली बार जब यह गर्भवती थी, तब हिरण्यकशिपु मंदार पर्वत पर तपश्चर्या करने के लिये गया था। यह मौका देख कर इन्द्र ने सत्र दैत्यों का पराभव किया। इसके गर्भ का जन्म होते ही उसे मार सकें, इस विचार से इंद्र कयाधू को ले कर जाने लगा । इतने में मार्ग में नारद मिला। उसने बताया कि इसके उदर में स्थित गर्भ भगवद्भक्त है। तत्र इंद्र ने इसे छोड़ दिया। बाद में नारद ने इसे आत्मबोध किया । वह इसके गर्भ ने उसे सुना तथा ध्यान में रखा। परंतु | पुत्र | १९६ करंभक -- (सो. विदूरथ. ) मत्स्य के मत में हृदीक Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करभि प्राचीन चरित्रकोश कर्ण करंभि (सो. क्रोष्ट.) भागवत तथा विष्णु के मता- | न हो। उसी प्रकार वनवास समाप्त होने तक उसे कोई न नुसार शकुनिपुत्र (करंभ देखिये)। पहचाने, इस उद्देश्य से विरूप भी बना दिया। 'सुरुप कररोमन् वा करवीर--कश्यप तथा कद्रू का पुत्र । होने की इच्छा होते ही मेरे द्वारा दिये गये दो वस्त्र कराल जनक-ब्राह्मण स्त्री की अभिलाषा के कारण | परिधान कर लेना, यों इसने नल को बताया (म. व. इसका नाश हुआ (कौ. अ. पृ. २२)। वसिष्ठ के साथ | ६३)। कर्कोट नामक भारतवर्ष के विभाग के कर्कोटक इसका क्षराक्षरलक्षण के संबंध में संवाद हुआ था (म. | लोगों को महाभारत में विधर्मी कहा गया है (म. क. ३. शां. २९१-२९६; ब्रह्म. २४०-२४४)। वंशावली में | ४५)। इसका नाम अप्राप्य है। कर्ण--कुंती का सूर्य से उत्पन्न पुत्र (म. आ. १०४. करिक्रत वातरशन-मंत्रद्रष्टा (ऋ. १०.१३६.५)। ११)। करीराशिन्—विश्वामित्रकुल का गोत्रकार। । ___ जन्मते ही कुंती ने इसे अश्व नदी में छोड़ दिया (म. करीश--विश्वामित्रकुल का गोत्रकार ऋषिगण । व. २९२. २२)। संदूक में यह बालक बहते बहते करूष-वैवस्वत मनु के दस पुत्रों में से एक । इसकी चर्मण्वती नदी में आया । वहाँ से यमुना तथा भागीरथी संतति कारूषक नाम से प्रसिद्ध है। इसका आधिपत्य नदी में बहते समय, उसे धृतराष्ट्रसारथि अधिरथ ने उत्तर की ओर था (मनु देखिये)। देखा । इसे ले कर उसने अपनी पत्नी राधा को दिया। २. यह दक्ष सावर्णि मन्वन्तराधिप था। इसने अपने यह बालक देखते ही उसकी आँखों में आनन्दाश्रु आ भाइयो के साथ कालिंदीतीर पर, वायुभक्षण कर के देवी गये । जन्मतः कर्ण पर कवच तथा कुंडल होने के कारण की कडी तपश्चर्या की । इससे प्रसन्न हो कर देवी ने इसे यह अब तक जीवित था । देवदत्त पुत्र मान कर राधा ने वरदान दिया, कि तुम मन्वन्तराधिप बनोगे ( दे. भा. इसका भरणपोषण किया । यह तेजस्वी था, इसलिये १०.१३)। . . . राधा ने इसका नाम वसुषेण रखा (म. आ. ६४,६८; . करेणुमती--पंडुपुत्र नकुल की पत्नी । यह शिशुपाल १०४. १५. क. २१. १४)। की कन्या थी। शिक्षा-इसका बाल्य काल अंगदेश में गया । कर्कद-मर्यादा पर्वत पर रहनेवाला एक भील । | द्रोणाचार्य ने इसे शस्त्रास्त्रविद्या सिखाई (म. शां. इसे विष देने के लिये तत्पर पत्नी को इसने गोकर्ण २.५)। यह शस्त्रास्त्रविद्योद्यत था (म. आ. ६८; क्षेत्र में मार डाला। इससे वह मुक्त हो गई (पन. १०४.१६)। परीक्षा के मैदान में प्रविष्ट होने पर उ. २२२)। इसने द्रोण तथा कृप को नमस्कार किया, जिस में आदर कर्कटी-हिमालय की उत्तर दिशा में रहनेवाली एक के भाव नहीं थे (म. आ. १२६. ६)। इसने सक्षसी । इसे विष चिका तथा अन्यायबाधिका नाम है। द्रोण से ब्रह्मास्त्र सिखाने के लिये केवल प्रार्थना की थी इसने लोगों को मारने का वर प्राप्त किया। परंतु बाद में (म. शां. २. १०)। कृष्ण ने कहा है कि, यह सब वेद इसने वह काम छोड़ दिया। यह हिमालय में रहती है। तथा शास्त्र जानता था (म. उ. १३८.६-७) । कर्ण अर्जुन वहाँ इसका नाम कंदरा देवी है। कंकडे के आकार के | पर भी श्रेष्ठत्व प्राप्त कर सकता था, इसका दर्योधन ने राक्षस की कन्या होने के कारण, इसे कर्कटी कहते है अनुभव किया था । जिस समय कौरवपांडवों में विरोध (यो. वा. ३.६८-८४)। प्रारंभ हुआ था, तबसे इसे उत्तेजना दे कर, उसने अपने कर्कधु-इसका संरक्षण अश्वीदेवों ने किया (ऋ. १. | पक्ष में कर लिया था। ११२.६)। यद्यपि कर्ण ने द्रोण से धनुर्विद्या प्राप्त कर ली थी, कर्कोटक कद्रूपुत्र एक नाग । यह वरुण की सभा | तथापि उसे ब्रह्मास्त्रप्राप्ति नहीं हुई थी । इस एक ही में रहता है (म. स. ९.९)। यह नागों के भोगवती | कारण से अर्जुन इससे श्रेष्ठ हो गया था। तब इसने द्रोण नामक राजधानी में रहता है (म. उ. १०१.९)। नारद से कहा, 'निष्पत्ति प्रकार तथा उपसंहार के साथ मुझे के शाप से जब यह दावाग्नि में फँस गया, तब नलराजा । ब्रह्मास्त्र सिखाओ ।' परंतु कुछ कारणवश द्रोण ने यह ने इसे बाहर निकाला था। इस उपकार के कारण इसने अमान्य कर दिया । परंतु अर्जुन से श्रेष्ठत्व प्राप्त करने नल को दंश कर के ऐसा बनाया कि, उसे कलि से पीड़ा की इसकी महत्त्वाकांक्षा होने के कारण, यह महेन्द्र पर्वत ११७ Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्ण प्राचीन चरित्रकोश कण निवासी परशुराम के पास गया। परशराम क्षत्रियद्वेष्टा परिस्थिति भय, आनंद एवं दुखमिश्रित हो गई थी। होने के कारण, वह क्षत्रियों को विद्या नहीं सिखाता था । पुत्रप्रेम से उसका हृदय भर आया । परंतु उसकी अवस्वकार्य यशस्वी करने के लिये, कर्ण ने असत्य कथन | हेलना तथा पांडवबैर देख कर उसे अत्यंत दुख हुआ किया एवं परशुराम को उसने बताया कि, वह भृगु- | (म. आ. १२६)। कुलोत्पन्न ब्राह्मण है, इसलिये शिष्य बन कर रहने की कृतज्ञता--कर्ण के राजपुत्र एवं क्षत्रिय न होने के अनुमति परशराम ने दी। उसने कर्ण को सप्रयोग एवं कारण, यह अपमान उसे सहना पड़ता था। उस यथाविधि ब्रह्मास्त्र सिखाया। समय दुर्योधन ने कहा कि, शौर्य कुल पर निर्भर नहीं एक दिन उपवास से श्रांत परशुराम कर्ण की गोद में सिर रहता । उसने कर्ण को अंगदेश का राज्य दे कर गौरवारख कर सोया था, तब एक कृमि ने आ कर उसकी जांघ न्वित किया। इस उपकार के विनिमय की पृच्छा करने काट खायी। रक्त पेशे से परशुराम जागृत हआ। पर दुर्योधन ने कर्ण से मित्रत्व भाव कायम रखने इतनी वेदनाएं कोई ब्राह्मण शांति से सहन नहीं कर सकता, की इच्छा प्रदर्शित की। इस प्रकार बाल्यावस्था से यह सोच कर कर्ण के बारे में परशुराम के मन में शंका | इनमें अकृत्रिम मित्रत्व स्थापित हो कर इसने उसके उत्पन्न हुई। चाहे जो हो, यह अवश्य क्षत्रिय है। कर्ण ने लिये मृत्यु तक का स्वीकार किया (म. आ. १२६ ] । सत्यकथन कर उसे संतुष्ट किया, तथापि इसे शाप मिला कि, जरासंधस्नेह--इसने मल्लयुद्ध कर के जरासंध का बराबरी के योद्धा से युद्ध करते समय, तथा अंतिम समय जोड़ ढीला कर दिया, इसलिये जरासंध ने इसे मालिनी-- इसे अस्त्र की स्फूर्ति न होगी, अन्य समय पर होगी। नगर दे कर इससे स्नेहसंपादन किया (म. शां. ५.६)। असत्यकथन के कारण, परशुराम ने कर्ण से जाने के लिये | विवाह--कर्ण ने काफी सूतकन्याओं से विवाह किये कहा, परंतु यह आशीर्वाद भी दिया कि, तुम्हारे समान | (म. उ. १३९.१०)। द्रौपदीस्वयंवर में यह मत्स्यदूसरा कोई भी क्षत्रिययोद्धा न होगा (म. शां. ३.३२)। भेद के लिये आगे बढा, तब द्रौपदी ने कहा, "मैं सूतपुत्र गोवत्सहत्या-एक बार धनष्य बाण समवेत यह को नहीं वरूंगी।" यह सुन कर इसे पीछे हटना पडा आश्नम के बाहर गया हुआ था, तब असावधानी से एक | (म. आ. १७८. १८२७११)। ब्राह्मणधेनु का बछड़ा इसके द्वारा मारा गया। तब उस बुद्धिभेदयत्न--कौरव पांडवों के वैर के कारण. ब्राह्मण ने इसे शाप दिया, 'युद्ध में भूमि तुम्हारे रथ निष्कारण कर्ण तथा पांडवों में बैर आया। यह देख कर का पहिया निगल लेगी तथा असावध अवस्था में तुम्हारा कुंती को अत्यंत दुख हुआ। उसने इसका समाधान कर के शिरच्छेद होगा,'। इससे कर्ण को अत्यंत दुख हुआ। पांडवों की सहायता के लिये, इसे प्रवृत्त करने के लिये इसने धन दे कर उःशाप मांगने का प्रयत्न किया, शिष्टाई के हेतु से कृष्ण को इसके पास भेजा । शिष्टाई के परंतु उसने इसका धिक्कार किया (म. क. २९; शां. बाद कृष्ण कर्ण के पास गया. तथा उसने कर्ण से उसका २.२३-२९)। जन्म वृत्त बता कर कहा, कि तुम्हें सार्वभौम पद का लाभ अवहेलना-धृतराष्ट्र की अनुज्ञा से द्रोण ने कौरव | होगा। पांडवों के समान शूर नररत्न तुम्हारी सेवा करेंगे। पांडवों का शस्त्रास्त्रकौशल्य देखने के लिये रंगमंच तैय्यार द्रौपदी तुम्हारी अर्धांगी बनेगी। कौरवों द्वारा तुम्हारी हार किया। परंतु कर्ण ने कहा कि. अर्जन के द्वारा दिखाये गये | नहीं होगी, तथा भविष्य में होनेवाला क्षय भी टेल जायेगा। कौशल की अपेक्षा अधिक कौशल में दिखा सकता हूँ। सब कार्य ठीक से होगा। ऐसे कई प्रलोमन इसे दिखाये। तब कौरव पांडवों का झगड़ा हो कर, कर्ण ने अर्जुन को द्वंद्व | कर्ण ने उत्तर में कृष्ण से कहा कि, यद्यपि कुन्ती युद्ध का आव्हान दिया। उस समय सब लोग आश्चर्य- मेरी माता है एवं पांडव मेरे बंधु हैं यह कथन मुझे मान्य मूढ हो कर, कर्ण की ओर देख रहे थे। परंतु दुर्दैव से | है, तथापि मुझे नदी में छोड कर, कुन्ती ने बडी भारी भूल कर्ण का जन्मवृत्त किसी को मालूम न होने के कारण इसे | की है । उसी के कारण मुझे अधिरथ के पास रहना यहाँ नीचा दिखना पड़ा। इसके अतिरिक्त कर्ण का पड़ा। मैं ने सूतकन्याओं से विवाह किये तथा उनसे मुझे पालनकर्ता पिता अधिरथ वहाँ आया तथा कर्ण ने उसे | पुत्रपौत्रादि भी हुए। इन कारणों से, एवं राधा के अनुपम नमस्कार किया । तब सब लोक सूत, सूतपुत्र राधेय आदि एवं अकृत्रिम प्रेमपाश से मैं बद्ध हो गया है। अब यह कह कर इसकी अवहेलना करने लगे। इस समय कुंती की | संबंध तोड़ना मेरे लिये असंभव है। इसके अतिरिक्त मैं Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्ण प्राचीन चरित्रकोश कर्ण ने दयोधन को वचन दिया है कि, मैं उससे आमरण | तथा अश्वत्थामा को मर्मभेद्य भाषण से दुखाया। झगड़ा मित्रत्व रखूगा। इस परिस्थिति के कारण पांडवों के | बहुत बुरी तरह हुआ था, परंतु ले दे कर दुर्योधन ने सब पक्ष में आना मेरे लिये अनुचित है। यह सुन कर कृष्ण | को समझाया (म. वि. ४३-४६)। इसने द्रपदपुत्र निरुत्तर हो गया (म. उ. १३९)। प्रियदर्शन का वध किया था (म. आ. १९२, परि.१०३ - भेंट-कुंती स्वयं कर्ण से मिलने गई, तथा पुत्र | पंक्ति. १३३)। ऋह कर अपना परिचय उसे दिया। तब प्रथम बताये दिग्विजय--चित्रसेन गंधर्व से दुर्योधन की रक्षा पांडवों अनुसार सारा वृत्त कथन कर के, पांडवों का पक्ष लेना ने की इसका स्मरण दिला कर, भीष्म ने पांडवों के साथ उसने साफ अमान्य कर दिया । परंतु कुंती के कथना- मेल करने के लिये दुर्योधन से कहा। तब दुर्योधन केवल नुसार वचन दिया कि, मैं केवल अर्जुन से युद्ध कर के | हँसा। अपना अजिंक्यत्व सिद्ध कर के भीष्मादिकों का उसका वध करुंगा, अन्य पांडवों को में.हानि नहीं पहुंचा- | मुँह हमेशा बंद करने के लिए, योग्य मुहर्त देख कर, कर्ण ऊँगा । यह सुन कर कुंती वापस चली गई (म. उ. | दिग्विजय के लिये निकला । प्रथम द्रुपदनगर को घेरा डाल १४४)। कर द्रुपद तथा उसके अनुयायियों को जीत कर, इसने उनसे द्रोणवध के बाद कर्ण सेनापति हुआ। तब महासमर कर लिया। तदनंतर यह उत्तर की ओर गया। प्रथम की आज्ञा मांगने के लिये कर्ण भीष्म के पास गया। भगदत्त को जीत कर, हिमवान् पर्वतीय राजाओं को उस समय भीष्म ने इसे इसका जन्मवृत्त कथन कर, युद्ध | भी इसने जीता तथा करभार लिया । तदनंतर पूर्व की से परावृत्त करने का प्रयत्न किया । परंतु कर्ण ने उसकी | ओर नेपाल, अंग, वंग, कलिंग, शंडिक, मिथिल, मागध, बात न सुनी। इसी समय कर्ण ने भूतकाल में किये गये कर्कखंड, आवशीर, योध्य, अहिक्षत्र, वत्सभूमि, मृत्तिअपने कृत्यों के लिये, भीष्म से क्षमायाचना की (म. कावती, मोहननगर, त्रिपुरी तथा कोसला नगरी जीत भी. ११७)। कर करभार लिया । अनंतर दक्षिण की ओर कुंडिनपूर . गंधर्वयुद्ध-कौरव घोषयात्रा के लिये गये थे, तब के रुक्मी के साथ युद्ध किया। युद्ध में कर्णप्रभाव से . कर्ण भी उनके साथ गया था । वहाँ चित्रसेन गंधर्व संतुष्ट होकर वह शरण में आया तथा कर्ण के साथ उसकी के साथ दुर्योधन का युद्ध हो कर उसमें प्रथम कर्ण ने सहायता करने के लिये गया। पांड्य, शैल, केरल तथा । गंवों का पराभव किया। परंतु बाद में संपूर्ण सेना ने | नील प्रदेश जीत कर, कर प्राप्त किया। तदनंतर शैशुपालि उसी पर आक्रमण किया एवं उसे भग्नरथ कर के विकर्ण . को जीत कर, पार्श्व तथा अवंती प्रदेश के सब राजाओं को के रथ में बैठ कर भागने के लिये मजबूर किया (म. व. जीता । बाद में कर्ण पश्चिम की ओर गया । वहाँ यवन .. २३१)। तथा बर्बरों को जीत कर उसने कर लिया। इस प्रकार विराटनगरी में-पांडव अज्ञातवासकाल में जब विराट | सब दिशाओं को जीतने के बाद, कर्ण ने म्लेच्छ, अरण्यके पास रहते थे, तब दुर्योधन ने विराट नगरी पर | वासी तथा पर्वतवासी राजा, भद्र, रोहितक, आग्रेय, आक्रमण किया। कीचक की मृत्यु के कारण, उस समय मालव आदि का पराभव किया। तदनंतर शशक तथा विराट अत्यंत निर्बल हो गया था । दुर्योधन को कर्ण, | यवनों का पराभव कर के, नमजित् प्रभृति महारथी संशप्तक, वीर सुशर्मा आदि की सहायता प्राप्त थी. फिर | नृपसमुदाय को जीता। भी इस युद्ध में दुर्योधन का पूर्ण पराभव हुआ। इस युद्ध इस प्रकार संपूर्ण पृथ्वी पादाक्रान्त कर के, कर्ण हस्तिनामें कर्णार्जुन का तुमुल युद्ध हुआ, जिस में कर्ण का पूर्ण | पुर आया । वहाँ उसका उत्तम स्वागत हुआ। इस पराभव हो कर उसके भाई शत्रुतप का वध अर्जुन ने अपूर्व विजय के कारण दुर्योधनादि को लगा कि, किया (म. वि.५६)। यह लड़ाई उत्तरगोग्रहण के युद्ध में कर्ण अवश्य ही पांडवों को पराजित कर देगा नाम से प्रसिद्ध है । इसी युद्ध में विराट की एक लक्ष (म. व. २४१. परि. १.२४)। जब दुर्योधन ने गौएं सुशर्मा ने ले ली थीं (म. वि. ४९-५५) स्वयंवर में कलिंग के चित्रांगद की कन्या का राजपुर से कृपाचार्य से सामना--कर्ण ने अर्जन का पराभव करने हरण किया तब कर्ण ने उस की रक्षा की (म. शां.४)। की प्रतिज्ञा की, परंतु कृपाचार्य ने उसका निषेध किया। राज्यविस्तार- दुर्योधन की कृपा से कर्ण अंगदेश का कर्ण ने बदले में उसका उपहास किया तथा कृपाचार्य | राजा बन सका । उस देश की सीमाएँ निम्नलिखित हैं । ११९ Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्ण प्राचीन चरित्रकोश भागलपूर तथा उसके आसपास का मोंगीर प्रदेश मिला | सलाह देता हूँ, फिरभी तुम नहीं मानते, तो कम से कर अंगदेश बना था। भारत के अठारह राजकीय भागों | कम इन्द्र से एक शक्ति मांग लो।" कर्ण ने यह मान्य में यह एक था । चंपा अथवा चंपापुरी उसकी राजधानी कर लिया तथा वह इन्द्र की प्रतीक्षा करने लगा थी । इस राज्य की उत्तर मर्यादा का पश्चिम छोर गंगा तथा (म. व. २८४-२९४)। शरयू का संगम था। यह रामायण के रोमपाद का तथा | शक्तिप्राप्ति--एक दिन इन्द्र ब्राह्मणरूप में कर्ण के भारत के कर्ण का राज्य था। रामायण में उल्लेख है कि, पास आया। उस समय कर्ण जप कर रहा था। उस यही महादेव ने मदन को मारा। इसलिये इस देश को | समय इन्द्र ने उसके कवचकुंडल माँगे। कर्ण उदार अंग तथा मदन को अनंग नाम मिला (वा. रा. बा. था। किसी भी ब्राह्मण ने कुछ भी माँगा हो, उसे वह २३.१३-१४) । अंगदेश में वीरभूम तथा मुर्शिदाबाद वस्तु अवश्य देता था । कर्ण ने तत्काल इन्द्र से हाँ कहा। जिले आते हैं । कुछ तज्ञों के मतानुसार संताल परगना | यह कवच त्वचा से संलग्न होने के कारण, उसको निकाल भी आता है । महाभारत में लिखा है कि, यह देश ते समय त्वचा का छिल जाना अवश्यंभावी था । फिर भी इन्द्रप्रस्थ के पूर्व की ओर दूर स्थित मगध देश के इस | कर्ण विचलित नहीं हुआ। उसने तत्काल उन्हें निकाल ओर है। राजसूय के दिग्विजय में भीम ने कर्ण का यहाँ कर इन्द्र को दे दिया। तब इन्द्र अत्यंत आश्चर्यचकित पराजय किया (म. स. २७.१६-१७)। अंगदेश का नाम हुआ तथा प्रसन्न हो कर उसने एक अमोघ शक्ति कण को सर्वप्रथम अथर्ववेद में आया है (अ. वे. ५. १४ )। दी तथा कहा कि, जिस पर तुम यह शक्ति फंकोगे, उसकी औदार्य--अंगराज कर्ण उस समय अत्यंत प्रसिद्ध धनु- तत्काल मृत्यु हो जावेगी । इतना कह कर इन्द्र गुप्त हो र्धर था । यह मानी हुई बात थी, कि भविष्य में यह कौरव गया । कवचकुंडलों का कर्तन कर देने के कारण, कर्ण को । पांडव युद्ध में अर्जुन के विरुद्ध लड़ेगा । इसलिये इन्द्र वैकर्तन नाम प्राप्त हुआ (म. आ. ६७)। कवचकुंडल अत्यंत चिंतित हुआ। कुन्ती को अर्जुन इन्द्र से हुआ छील कर निकालने के कारण कुरूपता प्राप्त न हो, इसके था। पुत्र का कल्याण करना उसका कर्तव्य था, अतएव लिये कर्ण ने शर्त रखी थी (म. व. २९४.३०)। कर्ण को हतबल करने के लिये उसके कवचकुंडल मांगने ____घटोत्कचवध-भारतीय युद्ध का प्रारंभ होने के बाद का विचार उसने किया । इन कवचकुंडलों के कारण कर्ण | भीष्म के पश्चात् द्रीण कौरवों का सेनापति बना । उस अजिंक्य एवं अमर था तथा कर्ण के द्वारा अर्जुनवध समय घटोत्कच ने कौरवसेना को अत्यंत त्रस्त किया । होना संभव था। परंतु कर्ण अत्यंत उदार होने के कारण, कृष्ण के मन से, यद्यपि कर्ण के कवचकुंडलों का भय इन्द्र की इच्छा पूरी होना संभव था। जैसे अर्जुन की | नष्ट हो चुका था, तथापि कर्ण की वासवी शक्ति से कृष्ण चिन्ता इन्द्र को थी, उसी प्रकार कर्ण की चिन्ता सूर्य को काफी साशंक था। उस शक्ति का नाश करने की इच्छा से थी । इन्द्र का हेतु सूर्य को विदित था। इसलिये कर्ण के ही, उसने उस दिन घटोत्कच की योजना की थी। घटोत्कच स्वप्न में आ कर सूर्य ने दर्शन दिया । सूर्य ने इसे कहा | ने कौरवसेना के असंख्य सैनिकों का नाश कर उनको कि, इन्द्र ब्राह्मण वेष से आ कर तुम्हें कवचकुंडल माँगेगा बिल्कुल त्रस्त कर छोड़ा। तब दुर्योधन कर्ण के पास गया, परंतु तुम मत देना। कवचकुंडल अमृत से बने हुए हैं, तथा उस अमोघ शक्ति का प्रयोग घटोत्कच पर करने की इसलिये तुम अमर बन गये हो। कवचकुंडल दे कर प्रार्थना की। कर्ण ने वह अमोध शक्ति खास अर्जुन तुम अपनी आयु का क्षय मत करो, तब कर्ण ने सूर्य को के लिये रखी थी। यह बात उसने दुर्योधन को बताई। पहचान लिया। कर्ण ने कहा कि, आयु की अपेक्षा कीर्ति | परंतु उससे कुछ लाभ न हुआ। अन्त में नाखुशी से वह श्रेयस्कर है, तथा कीर्ति मे ही उत्तम गति प्राप्त हो सकती | शक्ति घटोत्कच पर छोड़ कर उसने उसका वध किया है । मैं अमरत्व की आशा से कवचकुंडल की अभिलाषा | (म. द्रो. १५४)। नहीं रखूगा । इस पर सूर्य ने कहा कि, अर्जुन का वध | सैनापत्य-द्रोणाचार्य के बाद कर्ण को सैनापत्याभिषेक कर के जीवितावस्था में तुम कीर्ति प्राप्त कर सकते हो, | हुआ (म. क. ६. ४४-४५)। कर्ण के समान अद्वितीय अतएव कवचकुंडल देना अमान्य कर दो। परंतु कर्ण | योद्धा को, उतने ही अद्वितीय सारथि की आवश्यकता ने उसकी मंत्रणा अमान्य कर दी । यह सुन कर सूर्य | थी। इस समय केवल दो उत्तम सारथि थे। एक श्रीकृष्ण को अत्यंत दुख हुआ। उसने कहा, "तुम्हारे हित की | तथा दूसरा भद्र देशाधिपति शल्य । उनमें से कृष्ण अर्जुन १२० Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्ण प्राचीन चरित्रकोश कर्णिरथ का सारथि था। तब दुर्योधन ने शल्य को कर्ण का सारथ्य करना ही श्रेयस्कर है। इस प्रकार कर्ण बडे ही संकट में करने के लिये कहा। इससे क्रोधित हो कर शल्य ने कहा | फँस गया। इसने एक हाथ से पहिया उठाते ही, भूमि चार • कि, मैं युद्ध छोड़ कर चला जाऊँगा । वह कौरवों का ज्येष्ठ अंगुल ऊपर उठाई गई परंतु पहिया नहीं निकला। दूसरे आप्त तथा राजा था । कण का जन्मवृत्त किसी को मालूम | हाथ से यह अर्जुन से लड़ रहा था। इस प्रकार व्यस्त न होने के कारण, उसे सब सूत पुत्र कह कर ही जानते | अवस्था में अर्जुन ने इस का वध किया। इस युद्ध में धर्म, थे। इस लिये हीन कुलोत्पन्न का सारथ्यकर्म करना इसे भीम तथा नकुल का पराभव कर के, कर्ण ने उन्हें छोड़ अपमानास्पद प्रतीत हुआ। परंतु कर्ण के समान शल्य | दिया था (म. क. ६३.६६-६७)। भी दुर्योधन के लिये तन-मन-धन खर्च करने वाला था। परिवार--कर्ण की मृत्यु से गांधारी को अत्यंत दुःख इसलिये यह कार्य भी उसने मान्य कर लिया। परंतु | हुआ (म. स्त्री. २१)। इसके छः पुत्र इस युद्ध में मारे 'सारथ्य के समय उचित प्रतीत हो, सो मैं बोलूँगा तथा गये । उनमें से सुबाहु तथा वृषसेन का वध अर्जुन ने, एवं उसे कर्ण को सहना ही पड़ेगा, यों शर्त इसने रखी | सत्यसेन, चित्रसेन तथा सुषेण का वध नकुल ने किया (म. क. २३. ५३; २५.६)। (म. क. ६२-६३; श. ९)। ___ कर्ण के सैनापत्य में घनघोर युद्ध शुरू हुआ। भीष्म, | कर्ण के छः भाइयों का वध इस युद्ध में हुआ। उनमें द्रोणादि के प्रहारों से पांडवों की जो आधी सेना बची | से शत्रुजय, शत्रुतप तथा विपाट का वध अर्जुन ने किया , थी, उन में से आधी इसने नष्ट कर दी । द्रौपदी की | (म. वि. ४९; क. ३२)। एक का वध अभिमन्यु ने अप्रतिष्ठा के कारण, इसे मन ही मन काफी पश्चात्ताप हो | किया (म. द्रो. ४०. ४)। द्रुम तथा वृकरथ का वध रहा था। परंतु जिसका नमक खाया है, उसकी ईमान- | भीम ने किया (म. द्रो. १३०. २३. १३२. १८)। दारी से नौकरी करने के लिये, भीष्म द्रोणदिकों के समान | अर्जुन ने कर्ण का वध किया, इस लिये धर्मराज ने इसे भी युद्ध के लिये सज्ज होना पड़ा। युद्ध के प्रारंभ | अर्जुन को बधाई दी (म. क. ६९)। परंतु आगे चलमें शल्य ने अपनी शर्त का काफी उपयोग कर लिया । | कर कुंती ने बताया कि, कर्ण उसका पुत्र था (म. स्त्री. हर प्रकार से अर्जुन का शौर्य तथा बल इनका वर्णन कर, | २७. ७-१२)। इससे पांडवों को अत्यंत दुख हुआ। उसने कहा कि, अर्जुन के समक्ष तुम टिक नहीं सकते । इसी समय धर्मराज ने शाप दिया कि, स्त्रियों के मन में परंतु भयंकर युद्ध में मग्न होते हुए भी, इस प्रकार धैर्य | कुछ मी गुप्त नहीं रहेगा (म. शां. ६.१०)। भविष्य'गलित करने वाला भाषण सुन कर, कर्ण नहीं घबराया। पुराण में लिखा है कि, कर्ण आगे चल कर तारक नाम से इसने खरे खरे उत्तर दे कर उसे चुप कर दिया (म. / जन्म लेगा (भवि. प्रति. ३.१)। क. २६-२७)। किंतु इसके पश्चात् शल्य ने इसे प्रोत्सा- २. कश्यपगोत्रीय ऋषि । इन दिया (म. क. ५७.६२)। कर्णक-अत्रिकुलोत्पन्न एक ब्रह्मर्षि (अत्रि देखिये )। | यह मंत्रकार था (मत्स्य. १४५. १०७-१०८)। . मृत्यु--युद्ध चालू रहते समय, कर्ण का पुत्र वृष- | कर्णजिह्व--अत्रिगोत्रीय ऋषिगण ।। सेन मारा गया (म. क. ६२.६०)। इससे इसे अपरिमित दुख हुआ, तथा यह त्वेष से लड़ने लगा। इस __ कर्णवेष्ट-पांडवपक्षीय एक राजा (म. उ. ४. प्रकार कर्णार्जुन का घनघोर युद्ध प्रारंभ हो गया। उस २०)। समय पीछेवर्णित शाप के समान इसकी स्थिति होने लगी। | कर्णश्रवस् आंगिरस-सामद्रष्टा (पं. ब्रा. १३. ब्रह्मास्त्र का स्मरण यह न कर सका । इसके रथ का पहिया | ११. १४-१५). भूमि में फंस गया । तब लाचार हो कर यह रथ के नीचे ___ कर्णश्रुत् वासिष्ठ-मंत्रद्रष्टा (ऋ. ९. ९७. २२उतरा, तथा पहिया उठाने का प्रयत्न करने लगा। | २४)। इस प्रसंग में युद्ध असंभव था, अतः इसने अर्जुन कर्णिका--एक अप्सरा। को कुछ देर रुकने के लिये कहा । परंतु कृष्ण ने अर्जुन २. (सो. वृष्णि.) वसुदेवबंधु कंक की पत्नी। इसे से कहा कि, केयल इसी स्थिति में कर्ण का वध होना ऋतुधामन् तथा जय नामक पुत्र थे। • संभव है, अन्यथा असंभव है। तदनंतर कर्ण के दुष्कृत्यों कर्णिकार-जटायु के पुत्रों में से एक। का स्मरण दिला कर कृष्ण ने कहा कि, तुम्हारा वध | कर्णिरथ-अत्रिकुल का एक गोत्रकार । प्रा. च. १६] १२१ Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्दम . प्राचीन चरित्रकोश कलाधर कर्दम-एक ऋषि (ब्रह्माण्ड. २.०३२. ९८-१००)। बाद में एकांत में कपिल को मिल कर, कर्दम ने उसे इसे कम भी कहते हैं (वायु. ५९. ९०-९१)। यह | नमस्कार किया। उसके बाद, संन्यास ले कर तथा वन में ब्रह्मदेव की छाया से उत्पन्न हुआ (भा. ३. १२; म. | जा कर विष्णुध्यान से यह वैकुंठलोक गया (भा. ३. स. ११) । यह एक प्रजापति था ( वायु. ६५. | २१-२४)। ५३-५४) । इसका जन्म स्वायंभुव मन्वन्तर में हुआ | २. लक्ष्मीपुत्र । (भा. ३. १२. २७) । यह पूर्वजन्म में क्षत्रिय था। कर्दमायन शाखेय--अत्रिकुल का गोत्रकार ऋषिगण | सौभरि ने इसे गणेशव्रत बताया था (गणेश. १. १५१)। कर्मजित्-(मगध. भविष्य.) बृहत्सेन राजा का पुत्र । इसका पुत्र सृतंजय । अवतारकथन--ब्रह्मदेव ने कर्दम ऋषि से प्रजा कर्मश्रेष्ठ--स्वायंभुव मन्वन्तर में पुलह के तीन पुत्रों उत्पन्न करने के लिये कहा। यह सरस्वती नदी के किनारे | में ज्येष्ठ । इसकी माता का नाम गति (भा. ४.१)। गया, तथा वहाँ दस हजार वर्षों तक इसने तपश्चर्या की । कर्मिन्-शुक्राचार्य के चार पुत्रों में से कनिष्ठ । . तब इसे विष्णु का दर्शन हुआ, तथा तुम्हारी इच्छा पूरी | होगी, ऐसा उसने इसे बताया। विष्णु ने कहा | कल-सिंधुदैत्य का बहनोई (गणेश. २.११८)। "ब्रह्मदेव का पुत्र मनु सार्वभौम राजा है, तथा ब्रह्मावर्त | कलशपोतक-कदूपुत्र । एक सर्प (म. उ. १०१. में रह कर, सप्तसमुद्रांकित पृथ्वी का पालन करता है ।। ११)। वह धर्मज्ञ राजर्षि अपनी शतरूपा नामक पटरानी के साथ | कलशीकंठ--अंगिराकुल का एक गोत्रकार ।। परसो तक यहाँ आवेगा । उसकी उपवर कन्या देवहूति, | कलहा--सौराष्ट्रनगरवासी भिक्षु नामक ब्राह्मण की योग्य पति के प्राप्ति की बाट जोह रही है । वह तेरे | पत्नी । इसकी आदत थी. पति के कहने के ठीक विपरीत अनुरूप है, इसलिये तू उससे विवाह कर । वह तेरी कार्य करना। इसलिये, जो कार्य करना हो उसके ठीक सेवा उत्तम रीति से करेगी। उसके गर्भ में तेरे वीर्य विपरीत बोलने का नियम, उसके पति ने कर लिया था। के साथ मैं प्रवेश कर अवतार लूँगा, तथा सांख्यशास्त्र उससे पति के सब कार्य उसकी इच्छानुसार पूर्ण हो जाते निर्माण करूँगा” | इतना कह कर विष्णु चले गये। थे । एकबार गलती से श्राद्धपिंड गंगा में डालने के लिये उसने कहा । तब पति की आज्ञा के ठीक विपरीत करने प्रपंच-कालोपरांत मनु राजा अपनी रानी के साथ के हेतु से इसने वह पिंड शौच्यकूप में फेंका । यों इसका कर्दम के यहां आया । उसने अपनी कन्या देवहूति बडे दुष्ट स्वभाव था। इस कारण इसे पिशाच्ययोनि प्राप्त हुई। ठाठ बाट के साथ कर्दम को अर्पण की । कर्दम ने विष्णु उससे धर्मदत्त ने इसका उद्धार किया (आ. रा. सार. के कहने के अनुसार, देवहूति को स्वीकार किया। परंतु ४)। करवीरस्थ धर्मदत्त ने द्वादशाक्षरी मंत्र, तथा कार्तिकउससे एक बार ही समागम करूंगा यह शर्त रखी, तथा मास का आधा पुण्य दे कर इसे मुक्त किया । इस पुण्य समागम के बाद संन्यास लूंगा यों चेतावनी दी । तदनुसार से धर्मदत्त तथा कलहा अगले जन्म में दशरथ-कौसल्या , दोनों लोग कालक्रमण करने लगे । पतिव्रता देवहूति की सेवा बन कर, उनके उदर से राम का जन्म हुआ (पद्म. उ. से संतुष्ट हो कर कर्दम ने उसे इच्छित वस्तु को मांगने को १०६-१०७; चंडी देखिये)। . कहा । उसने संभोग की इच्छा प्रकट की। देवहूति की इच्छा मान कर इसने एक विमान तयार किया। उस ___कला-कर्दम प्रजापति तथा देवहूति की नौ कन्याविमान में समागम के ऐश्वर्ययुक्त साधन निर्माण किये, ओं में से प्रथम । मरीचि ऋषि की पत्नी । इसे कश्यप तथा तथा लगातार सौ वर्षों तक देवहूति से समागम किया। पूण पूर्णिमा नामक दो पुत्र थे (भा. ३.२४.२२)। तब देवहूति को कला, अनसूया, श्रद्धा, हविर्भू, गति, । २. बिभीषण की ज्येष्ठ कन्या। अशोकवन में बारक्रिया, ख्याति, अरुंधती, शांति आदि नौ कन्याएं हुई। बार जा कर, राम के कुशल वृत्त का निवेदन, यह सीता ब्रह्माजी के कहने पर उन्हें क्रमशः मरीचि, अत्रि, के पास करती थी (वा. रा. सु. ३७)। अंगिरा, पुलस्त्य, पुलह, ऋतु, भृगु, वसिष्ठ, अथर्वा आदि कलाधर-यह विद्याधर था । दुर्वास द्वारा दिये गये को प्रजोत्पादन हेतु से दिया। देवहूति के उदर से विष्णु शाप से मुक्त होने के लिये, इसने अरुणाचलेश्वर की ने कपिल नाम से जन्म लिया। | प्रदक्षिणायें की (स्कंद. १.३.२.२३)। इसने एक बाण १२२ Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलाधर प्राचीन चरित्रकोश कल्प पर त्रिपुर को नगर बांध दिया, तथा उससे शंकर के पास | दुखी रहता था। फिर भी यह उसका पीछा न छोड़ता था। की चिन्तामणि की मूर्ति मँगाई (गणेश १.४१)। एक बार एक मुनि पर वह मोहित हुई। परंतु उस मुनि कलापिन्--कृष्णयजुर्वेद का एक शाखाप्रवर्तक । ने उसका धिक्कार किया। यह संधि देख कर, यह मुनिरूप वैशंपायन का एक प्रमुख शिष्य । इसके चार शिष्य | से उसके पास आया, तथा यह शर्त रखी कि, क्रीडा के हरिद्रु, छगलिन् , तुम्बुरु तथा उलप । कलापि का चरण | समय वह इसे न देखे । तदनंतर यह उससे रममाण (शाखा) उदीच्य कहा जाता है । पाणिनि ने इस चरण | हुआ। उससे इसे स्वरोचि नामक पुत्र हुआ (मार्क. ४९)। का निर्देश किया है (पा. सू. ४.३.१०८) महाभाष्य में | इसे अपनी भार्या से निर्मार्टि नामक कन्या हुई (मार्क. ४८)। हर ग्राम में कठकालाप है, ऐसा लिखा है। कलि प्रागाथ-सूक्तद्रष्टा (ऋ. ८.६६)। कलावती--नारद देखिये। कलिंग-(सो. अनु.)। बलि के छः पुत्रों में से २. सत्यनारायण के प्रसाद का अपमान करने से क्या | एक। बलि की भार्या को यह दीर्घतमस् से हुआ (अंग होता है. यह बताने के लिये सत्यनारायणमाहात्म्य में | देखिये)। इसकी कथा दी गयी है। . । २. यह द्रौपदीस्वयंवर में था (म. आ. १७७.१२)। कलि---एक वृद्ध ब्राह्मण। अश्विनों ने इसे तरुण बनाया | ३. कृतयुग का एक दैत्य । इसने स्वर्ग जीत कर दिग्पालों के स्थान पर दैत्यों की स्थापना की । परंतु श्री(ऋ. १०.३९.८), तथा पत्नी दी (ऋ. १.११२.१५)। मातादेवी ने इसके हृदय पर पर्वत रखा, तथा उस पर २. अधर्म के वंश में क्रोध तथा हिंसा का पुत्र । इसे | वह स्वयं बैठी (स्कन्द. ७.३.२२)। दुरुक्ति नामक बहन थी। इसे कली से भय नामक पुत्र तथा मृत्यु नामक कन्या ऐसे दो अपत्य हुए (भा. ४.८. कलिल-सोम का पुत्र । ३-४)। यह दमयंती स्वयंवर के लिये जा रहा था, कल्कि कलियुग में बौद्धावतार के बाद होनेवाला तब मार्ग में इन्द्र ने बताया कि, स्वयंवर हो चुका है। इससे अवतार । शंभल ग्रामनिवासी विष्णुयशस् नामक ब्राह्मण अत्यंत क्रोधित हो कर, इसने नल के शरीर में प्रवेश किया, | के घर में, दसवाँ अथवा ग्यारहवाँ अवतार इसका होगा। तथा उससे द्यूतक्रीड़ा करवा कर अत्यंत पीड़ित किया । कलियुग में फैले हुए अधर्म का यह नाश करेगा। सब आगे चल कर, दमयंती के शाप से यह बाहर आया, तथा दैत्यरूप म्लेच्छों का यह पूर्णनाश करेगा। संपूर्ण पृथ्वी इसने कहा कि, मैंने तक्षक से त्रस्त हो कर तुम्हारे शरीर म्लेछमय होने के बाद, हाथ में लंबी तलवार ले कर, देवदत्त • का आश्रय लिया था। तदनंतर इसने एक वृक्ष में प्रवेश अश्व पर बैठ कर, तीन रात में यह दैत्यों का संहार करेगा। किया। इसके अवतार से होनेवाले कलियुग का वर्णन इस समय कई कोटि राजाओं का वध होगा। कलि की 'मार्कडेय ने युधिष्ठिर को बताया (म. ब. ५५.५६, ७०. सजा तथा उसके नाश के लिये ही इसका अवतार होगा . १८८)। इंसे चतुर्भुजमिश्र टीका में तिष्य नामांतर दिया (म. व. १८८.८९; पश्न. उ. २५२; ब्रह्म. २१३.१६४; है (म. मी. १०.३)। भांडारकर की पुस्तक में पुष्य पाठ ह.वं. १.४१.६४; भा. १.३, २.७,१२.२) । इस है (म. भी. १०.३)। अवतार के समय कृतयुग का प्रारंभ होगा (विष्णुधर्म. इसने वृषभरूप धर्म, तथा गोरूप पृथ्वी को त्रस्त करना | १.७४) । इस प्रकार अवतारकार्य समाप्त कर के, यह प्रारंभ किया। यह देख कर, परीक्षित ने इसे निवास समाधिस्थ होगा (ब्रह्मैव. २.७)। उस समाधि से योगाग्नि के लिये, द्यूत, मद्यपान स्त्रीसंग, हिंसा, सुवर्ण आदि का उद्भव होगा तथा प्रलय होगा। कलि बली के पास पांच स्थान दिये। (भा. १.१७)। यह पूर्ण रूपक है। जायेगा। पुनः कर्मभूमि निर्माण हो कर, वर्णोत्पत्ति भी यह जाति से म्लेच्छ है । प्रद्योत ने म्लेच्छों का संहार होगी । वैवस्वत मनु इसकी आज्ञा से अयोध्या में राज्य. किया, तब यह नारायण के पास गया, तथा इसने नारायण | करेगा (भवि. प्रति. ४.२६)। यह अदृश्य, पराशर की स्तुति की । इसने भगवान को बताया कि, प्रद्योत तथा गोत्री, ब्राह्मणसेनायुक्त, तथा याज्ञवल्क्य की सहायता से उसके भाई वेदवान् ने, मेरा स्थान नष्ट कर दिया है। युक्त होगा (ब्रह्माण्ड. ३.७३.१०४; विष्णुयशस् देखिये)। ३. कश्यप तथा मुनि के पुत्रों में से एक । इसका वरु'थिनी नामक अप्सरा पर प्रेम था, परंतु उसने इसे धिक्कार | कल्प-(स्वा. उत्तान) ध्रुव को भ्रमी से उत्पन्न पुत्र । दिया। उसके द्वारा धिक्कारे जाने के कारण, यह अत्यंत २. सैंहिकेयों में से एक ( विप्रचित्ति देखिये)। • १२३ Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प प्राचीन चरित्रकोश कल्माषपाद ३. (सो. यदु. वसु.) वसुदेव को उपदेवा से उत्पन्न कहा कि, मेरा कथन असत्य नही हो सकता। तुम केवल पुत्र। बारह वर्षों तक नरमांसभक्षक रहोगे। कल्मष-वायु के द्वारा सूर्य की सेवा में नियुक्त एक ___ संयम-यह सुन कर क्रुद्ध हो कर, इसने मुनी को शाप पारिपार्श्वक (भवि. ब्राह्म. ५३)। देने के लिये हाथ में पानी लिया। परंतु गुरु को शाप कल्मषपावन-(सू.) भविष्य के मत में सर्वकामपुत्र ।। देना अयोग्य है, यों कह कर भार्या ने इसका निषेध कल्माष-कश्यप तथा कद्रु का पुत्र । किया । तब इसने सोचा कि, यह पानी यदि पृथ्वी पर २. सूर्य के द्वारपालों में से एक ( भवि. ब्राह्म. ७६ )। पडेगा, तो अनाज आदि जल कर खाक हो जायेंगे, तथा आकाश की ओर डाला तो मेघ सूख जावेंगे। ऐसा कल्माषपाद-(सू. इ.) सुदास राजा का पुत्र । इसे कोसलाधिपति मित्रसह अथवा सौदास ये नामांतर है न हो, इसलिये इसने वह पानी अपने पैरों पर डाला । इसके क्रोध से वह पानी इतना अधिक तप्त हो गया था (म. आ. १६८; वायु. ८८.१७६; लिङ्ग. १.६६; ब्रह्म.८; ह. वं. १.१५)। परंतु इसे ऋतुपर्ण का पुत्र भी कहा है कि, वह पानी पडते ही इसके पैर काले हो गये । तबसे इसे कल्माषपाद कहने लगे (वा. रा. उ.६५, भा. ९. (मस्त्य. १२; अमि. २७३)। कल्माषपाद नाम से यह विशेष प्रख्यात था। ९.१८-३५; नारद. १.८-९; पद्म. उ. १३२). नामप्राप्ति—यह नाम इसे प्राप्त होने का कारण यह अन्यमत--महाभारतादि ग्रंथों में; इस के राक्षस होने था। एक बार जब यह मृगयाहेतु से अरण्य में गया | के कारण भिन्न भिन्न दिये गये हैं। एक बार जब यह शिकार था, तब इसने दो बाघ देखे। वे एक दूसरों के मित्र | से वापस आ रहा था, तब एक अत्यंत सँकरे मार्ग पर (वा. रा. उ. ६५), तथा भाई भाई थे (भा.९.९)। रेवा | वसिष्ठपुत्र शक्ति तथा इसकी मुलाकात हुई। मार्ग इतनां तथा नर्मदा के किनारे शिकार करते समय, नर्मदा | सँकरा था कि, केवल एक ही व्यक्ति वहाँ से जा सकता था। तट पर, इसने बाघ का एक मैथुनासक्त जोङ। देखा। इसने शक्ति को हटने के लिये कहा, परंतु उसने अमान्य उन में से मादा को इसने मार डाला । परंतु मरते मरते | कर दिया । बल्कि वह राजा को बताने लगा कि, मार्ग वह बहुत बड़ी हो गई (नारद. १.९)। तब दूसरे बाघ ने | ब्राह्मणों का है। धर्म यही है कि, राजा ब्राह्मण को मार्ग दे। राक्षसरूप धारण करके कहा कि, कभी न कभी मैं तुमसे | अन्त में अत्यंत क्रोधित हो कर, इसने राक्षस के समान बदला अवश्य चुकाऊंगा । यों कह कर वह गुप्त हो गया। उस ब्राह्मण को चाबुक से खूब मारा | तब शक्ती ने वसिष्ठकोप-एक बार इसने अश्वमेध यज्ञ प्रारंभ कल्माषपाद को शाप दिया कि, तुम आज से नरभक्षक किया । तब यज्ञ के निमित्य से, वसिष्ठ ऋषि लंबी अवधि | राक्षस बनोगे । यही राजा जब यज्ञ करने के लिए तैय्यार तक इसके पास रहा। यज्ञसमाप्ति के दिन, एक बार हुआ तब, विश्वामित्र ने इसका अंगिकार किया। इसी वसिष्ठ स्नानसंध्या के लिये गया था। यह संधि देख | लिये वसिष्ठ तथा विश्वामित्र में वैरभाव निर्माण हुआ। कर उस राक्षस ने वसिष्ठ का रूप धारण कर लिया, तथा विश्वामित्र ने इसे कहा कि, जिसे तुमने मारा वह वसिष्ठराजा से कहा कि, आज यज्ञ समाप्त हो गया है, | पुत्र शक्ति है। तब इसे अत्यंत दुख हुआ। बाद में जब इसलिये तुम मुझे जल्द मांसयुक्त भोजन दो। राजा ने यह शक्ती के पास उश्शाप मांगने गया, तब विश्वामित्र आचारी लोगों को बुला कर, वैसा करने की आज्ञा दी । | ने इसके शरीर में रुधिर नामक राक्षस को प्रवेश करने की राजाज्ञा से आचारी घबरा गये। परंतु पुनः उसी राक्षस | आज्ञा दी (लिंग. १.६४) । राक्षस के द्वारा त्रस्त, यह राजा ने आचारी का रूप धारण कर, मानुष मांस तैय्यार कर के | एक दिन वन में घूम रहा था, तब क्षुधाक्रान्त ब्राह्मण राजा को दिया। तदनंतर वह अन्न राजा ने पत्नी मदयंती | ने इसे देखा । उस ब्राह्मण ने इसके पास मांसयुक्त भोजन सह गुरु वसिष्ठ को अर्पण किया। भोजनार्थ आया हुआ की याचना की । उसे कुछ काल तक स्वस्थ रहने की आज्ञा मांस मानुष है यह जान कर, वसिष्ठ अत्यंत क्रुद्ध हुआ तथा | दे कर यह घर आया, तथा अन्तःपुर में स्वस्थता से सो उसने राजा को नरमांसभक्षक राक्षस होने का शाप दिया। गया । मध्यरात्रि के समय जब यह जागृत हुआ, तो इसे तब इसने कहा कि, आपने ही मुझे ऐसी आज्ञा दी। ब्राह्मण को दिये हुए वचन का स्मरण हुआ। तब इसने यह सुनते ही वसिष्ठ ने अन्तर्दृष्टी से देखा । तब उसे पता | आचारी को मांसयुक्त भोजन बनाने की आज्ञा दी । वहाँ चला कि, यह उस राक्षस का दुष्कृत्य है। तदनंतर उसने | मांस बिल्कुल न था। तब राजा ने कहा कि, अगर दूसरा Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्माषपाद प्राचीन चरित्रकोश कल्याण आंगिरस मांस नहीं है तो मनुष्यमांस ही बना दो। उसको भोजन दो | इससे सब पातकों से मुक्त हो कर, वसिष्ठ ने बड़े सन्मान बस । आचारी ने आज्ञानुसार कार्य कर, वह अन्न उस | से इसे राज्याभिषेक किया । गौतम ऋषी की अनुज्ञा से तपस्वी ब्राह्मण को दिया । तब वह अन्न अभोज्य है, ऐसा | गोकर्ण क्षेत्र में जा कर यह मुक्त हुआ। अन्त में यह जान कर उसने भी इसे नरमांसभक्षक राक्षस होने का शाप | शिवलोक गया (स्कंन्द. ३. ३. २; नारद. १. ८-९)। दिया। तीसरे दिन इन दोनों शापों से इसके शरीर में | साभ्रमती में स्नान करके यह मुक्त हो गया (पन. उ. राक्षस का संचार हुआ। यह शापदान नौमिषारण्य में हुआ | ६. १३२)। (वायु. १.२)। राज्याभिषेक-इसकी पत्नी मदयंती अरण्य में निरंतर असुरजीवन-आगे चल कर थोडे ही दिनों में, इसकी | इसके साथ रहती थी (म. आ. १७३.५-६ )। यह शक्ति से मुलाकात हुई। वंशावली की दृष्टि से यह गलत | दिन के छठवें प्रहर में आहार करता था। उस समय है ( शतयातु देखिये)। तब इसने कहा, "चूंकि तुमने मुझे केवल वह सामने नहीं आती थी। एक बार अहिल्या के अयोग्य शाप दिया है, मैं तुमसे ही मनुष्यभक्षण प्रांरभ | कथनानुसार गौतमशिष्य उत्तंक मदयंती के कुंडल मांगने करता हूँ।" यों कह कर इसने उसे खा डाला । आगे | आया । यह उसको खाने के लिये दौड़ा। परंतु उसने कहा, चल कर, इस राजा के शरीर में प्रविष्ट राक्षस को विश्वामित्र | कि मेरा कार्य हो जाने दो, मैं वापस आ रहा हूँ। त के बारबार उपदेश करने के कारण, इसने वसिष्ठ के | इसने पूछा कि तुम्हें क्या कार्य है, तथा कार्यपूर्ति के लिये सौ पुत्र भी खा डाले । वसिष्ठ ने पुत्रशोक से प्राण देने| इसने उत्तंक को मद्यती के पास जाने के लिये कहा। का काफी प्रयत्न किया, परंतु वह असफल रहा (म. आ. मदयंती ने पति से एक चिन्ह लाने के लिये कहा। वह १६६-१६७; अनु. ३; ब्रह्माण्ड. १. १२)। एक बार चिन्ह इससे लाते ही मदयंती ने कुंडल उत्तंक को यह नर्मदा के किनारे (नारद. १.९), वन में घूम | दिये, तथा सम्हाल कर ले जाने के लिये कहा। जाते रहा था, तब इसने एक ब्राह्मण दंपती को क्रीड़ा में निमग्न | जाते कल्माषपाद ने उत्तंक को प्रतिज्ञा से मुक्त कर दिया देखा। उन्हें देखते ही, कल्माषपाद ने दौड़ कर उनमें से (म. आश्व. ५५-५६)। पतिव्रता के उपरोक्त शाप ब्राह्मण का भक्षण कर लिया। तब क्रुद्ध हो कर ब्राह्मणी | के कारण यह प्रजोत्पादन नहीं कर सकता था। तब ने उसे शाप दिया कि, स्त्री समागम करते ही तुम मृत | इसने वसिष्ठ के द्वारा अपनी पत्नी मदयंती में गर्भधारणा हो जाओगे। यों कह कर वह सती हो गई (म. आ. करवाई। वही अश्मक है (म. आ. ११३. २११८२, भा. ९. ९. १८-३५, रकंन्द. ३. ३.२)। २२; १६८.२१-२५, शां. २२६.३०; अनु. १३७.१८%, ___ मुक्ति-वसिष्ठ ने इसे उश्शाप दिया कि, तुम राक्षस वा. रा. सु. २४; वायु. ८८. १७७)। इसे सर्वकर्मा बनोगे तथा आगे चल कर तुम्हारे शरीर पर । नामक पुत्र था (मत्स्य. १२)। इसका वसिष्ठ के साथ गाय के माहात्म्य के बारे में संवाद हुआ था। इसने काफी गायें गंगाबिंदु पडेंगे, तब तुम मुक्त होगे। परंतु ब्राह्मणी ने उपरोक्त वर्णित शाप दे कर, तुम सदा राक्षस ही रहोगे दान में दी। मृत्यु के बाद इसे सद्गति मिली (म. अनु. ७८.८०)। ऐसा शाप दिया। इसको दूसरे शाप से क्रोध आया तथा इसने ब्राह्मणी को उलटा शाप दिया कि, पुत्रसमवेत कल्याण-एक वैश्य । यह सिंधुदेश में पालीग्राम तुम पिशाची बनो। आगे चल कर पिशाची तथा यह राक्षस में रहता था। इसकी पत्नी इंदुमति । पुत्र बल्लाल । अगले जन्म में यह दक्ष बना (गणेश १.२२)। एक स्थान पर आये, जहाँ पीपल था । वहाँ कल्माषपाद तथा सोमदत्त नामक एक ब्रह्मराक्षस का गुरुविषयक संवाद ___ कल्याण आंगिरस--एक ऋषि । स्वर्गप्राप्ति के लिये हो कर उन दोनों के पाप नष्ट हो गये। उधर से एक गर्ग सत्रानुष्ठान करने वाले अंगिरसों को, देवों की ओर जाने नामक कलिंगदेशीय मुनि गंगा ले कर जा रहा था। का देवयानमार्ग प्राप्त नहीं होता था । सत्रानुष्ठान करनेवाले इनकी प्रार्थना से उसने इनके शरीर पर गंगोदक छिड़कते उन ऋषियों में से कल्याण नामक यह ऋषि, इस देवयान के ही, वह पिशाची तथा ब्रह्मराक्षस दोनों मुक्त हो गये। | बारे में विचार करता हुआ उर्ध्वमार्ग से जा रहा था । राह यह शोक कर रहा था, तब आकाशवाणी हुई, "शोक | में इसे अप्सराओं सह झूले पर बैठ कर क्रीड़ा कर रहा मत करो। तुम भी मुक्त हो जावोगे।" वहाँ से यह काशी. | उर्णायु नामक एक गंधर्व मिला । इस गंधर्व को जब इसने गया, तथा छः महीनों तक इसने गंगास्नान किया। देवयान के बारे में पूछा, तब उसने देवयानमार्ग प्राप्त कर १२५ Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्याण आंगिरस प्राचीन चरित्रकोश कशाय देनेवाले एक साम का उपदेश इसे किया । तब कल्याण कवि-स्वायंभुव मन्वंतर के ब्रह्मपुत्र भृगु ऋषि के ने अंगिरसों को आ कर बताया कि, देवयानमार्ग प्राप्त कर तीन पुत्रों में कनिष्ठ । इसका पुत्र उशनाऋषि । यह सूक्तदेनेवाला साम मुझे प्राप्त हो गया है। वह मार्ग किस से प्राप्त द्रष्टा था (ऋ. ९.४७-४९; ७५-७९ म. आ. ६०.४०)। हुआ यह बताना इसने अमान्य कर दिया । उस और्णायुव । २. प्रियव्रत राजर्षि के बर्हिष्मति से उत्पन्न दस पुत्रों नामक साम से अंगिरसों को स्वर्गप्राप्ति हुई । परंतु में कनिष्ठ । यह बाल्यावस्था से विरक्त था (भा. ५.१)। असत्यकथन के कारण कल्याण को स्वर्गप्राप्ति नहीं हुई, ३. तामस मन्वंतर के सप्तर्षियों में से एक। बल्कि कोढ हो गया। और्णायव साम नाम के बदले कही। ४. रैवत मनु के दस पुत्रों में से पाँचवा । कही और्णायुव साम नाम दिया है। यह भी एक अंगिरस ५. (स्वा. प्रिय.) भागवत मत में ऋषभदेव तथा ही था (पं. ब्रा. १२.११.१०-११)। जयंती के नौ सिद्धपुत्रों में ज्येष्ठ । कल्याणिनी--धर नामक वमू की स्त्री। इसे द्रविण । ६. वैवस्वत मनु के दस पुत्रों में कनिष्ठ। यह विरक्त अथवा रमण नामक पुत्र था। हो कर अरण्य में गया (भा. ९.२)। २. एक अप्सरा । भीमद्वादशीव्रत करने के कारण यह । ७. भागवत मत में मनुवंशी यज्ञ तथा दक्षिणा का पुत्र । इन्द्रपत्नी शची बनी, तथा इसकी दासी ने जब यह व्रत । ८. वैवस्वत मन्वंतर के ब्रह्मा का पुत्र । इसे वारुणि किया तब वह कृष्णपत्नी सत्यभामा बनी (पद्म. सृ.२३)। कवि ऐसी संज्ञा थी। इसके कवि, काव्य, धृष्णु, उशनस्, कवचिन्-धृतराष्ट्र पुत्र । भीम ने इसका वध किया | भृगु, विरजस्, काशि तथा उग्र नामक. आठ पुत्र थे (म. क. ६२.५)। (म. अनु. ८५.३३)। कबष--एक स्मृतिकार । कवषस्मृति का निर्देश ९. ब्रह्मपुत्र वारुणि कवि के आठ पुत्रों में ज्येष्ठ (म. पराशरस्मृतिव्याख्या में है (C.C.) अनु. ८५.३३)। ___२. एक आचार्य। युधिष्ठिर के राजसूययज्ञ में यह १०. (सो. पूरू.) दुरितक्षय का मँझला पुत्र । यह होता नामक ऋत्विज था (भा. १०.७४.७ )। | तप से ब्राह्मण हुआ (भा. ९.२१.१९)। कवष ऐलूष--सूक्तद्रष्टा (ऋ. १०.३१-३३)। यह ११. कौशिक ऋषि के सात पुत्रों में से एकः (पितृकुरुश्रवण का उपाध्याय था (ऋ. १०.३२.९)। वर्तिन् देखिये) ___ इलूषपुत्र कवष सरस्वती के किनारे अंगिरसों के। १२. कृष्ण का कालिंदी से उत्पन्न पुत्र । सत्र में आया, तब शूद्रापुत्र, अब्राह्मण एवं जुआड़ी १३. कृष्ण का एक प्रपौत्र । यह महारथी था। कह कर इसे यज्ञ के लिये अयोग्य घोषित किया । तथा १४. स्वारोचिष मन्वंतर का एक देव । जंगल में इसे छोड़ कर ऐसी व्यवस्था की गई कि, । १५. शिव के श्वेत नामक दो अवतार हुए । उन में इसे पानी भी प्राप्त न हो। परंतु अपोनप्त्रीय सूक्त कहने | से दूसरे का शिष्य । . के कारण, सरस्वती स्वयं इसकी ओर मुड़ गई। अभी भी कविरथ-(सो. पूरु. भविष्य.) भागवत मतानुसार उस स्थान को परिसारक नाम हैं। ऋषियों ने बाद में चित्ररथ का पुत्र । मस्य में शुचिद्रव, वायु में शुचिद्रथ, इसका महत्त्व जान कर इसे वापस बुलाया (ऐ. बा.| तथा विष्णु में शुचिरथ, यों पाठभेद है। २.१९; सां. बा. १२.१-३)। सांख्यायन ब्राह्मणों में यह | कव्यवाह-पितरविशेष । ब्रह्मदेव की मानसकन्या अब्राह्मण था, इसीलिये इसे यज्ञ से निकाल दिया, ऐसा | संध्या को देख कर, दक्षादि मोहित हुए । उनके अंगों से स्पष्ट लिखा है। तृत्सुओं के लिये इन्द्र ने कवषादिकों | निकले स्वेदबिंदुओं से इनकी उत्पत्ति हुई । इन में सोमप, का पराभव किया तथा उनके मजबूत किले उध्वस्त कर | आज्यप, स्वकालीन आदि भेद हैं । क्रतु के पुत्र सोमप, दियो (ऋ.७.१८.१२)। इसके सूक्त में कुरुश्रवण, | वसिष्ठ के पुत्र खधावत् तथा पुलत्य के पुत्र आज्यप ये उपमश्रवस् तथा मित्रातिथि का निर्देश है (ऋ१०.३२- सब हविर्भागी हैं। नरक को इसने नारद की जानकारी बताई ३३)। मित्रातिथि की मृत्यु से दुखी उपमश्रवस् का । (दे. भा. ११.१५)। कव्य के माने पितरों को दिया समाचार पूछने के लिये यह आया था। गया अन्न । उसे पितरों तक पहुंचाने वाले को कन्यवाह कवषा-एक ऋषिपत्नी । तुर ऋषि की माता | कहते हैं (पितर देखिये)। (तुर देखिये)। ___ कशाय-एक शाखाप्रवर्तक (पाणिनि देखिये)। १२६ Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कशु चैन प्राचीन चरित्रकोश कश्यप कशु चैद्य-ब्रह्मातिथि काण्व ने इसके औदार्य की | में जा कर रहा। महाभारत में इसे कोंकण कहा गया है। प्रशंसा की है। इसने ब्रह्मातिथि को सौ ऊंट, दस हजार | बम्बई के पास सोपारा नामक एक ग्राम है, वही यह होगा गायें तथा दस राजा सेवा करने के लिये दिये । यह | (म. शां. ४९.५६-५९)। बाद में कश्यप ने पृथ्वी इतना उदार था, कि, इससे दान प्राप्त कर फिर किसी के | ब्राह्मणों को सौंप कर, स्वयं वन में रहने के लिये गया। पास जाने की आवश्यकता नहीं रह जाती थी। इसका पुत्रप्राप्ति-कश्यप जब पुत्रेच्छा से यज्ञ कर रहा था, राज्य विस्तृत था (ऋ. ८.५.३७-३९)। तब देव ऋषि तथा गंधर्व सब ने उसे सहायता की । वालकशेरुमत्-एक यवन। इसका कृष्ण ने वध किया | खिल्य इसी प्रकार सहायता कर रहे थे, तब इंद्र ने (म. व. १२.२९; म.स.परि.१ क्र. २१. पंक्ति.१५४६)। वालखिल्यों का अपमान किया। इससे वे अत्यंत क्रोधित कशेरुक पाठ भी मिलता है। हो गये। इस क्रोध से अपनी रक्षा करने के लिये इन्द्र कश्यप कशोजू-संभवतः दिवोदास का नाम (ऋ. १.११२. के पास गया । तब बडी चतुराई से कश्यप ने वालखिल्यों १४)। . को खुष किया। अनेक कृपाप्रसाद से इसे गरुड़ तथा कश्यप-अग्नि का शिष्य । इसका शिष्य विभांडक | अरुण नामक दो पुत्र हुए। नये इन्द्र के लिये किया गया (वं. बा.२)। 'न्यायुषप्' मंत्र में आयुवृद्धि की प्रार्थना तप वालखिल्यों ने इसे दिया तथा इन्द्र निर्भय हो गया। करते समय इसका निर्देश है (जै. उ. बा. ४.३.१)। सपों को शाप-तदनंतर विनता तथा कद्र में उच्चैः__ गोत्रकार-इसके कुल के मंत्रकार आगे दिये गये हैं | श्रवा के रंग के बारे में शर्त लगाई गई। यह शर्त (हरित, शिल्प, नैध्रव देखिये)। इसका एवं वसिष्ठ का जीतने के लिये कद्रू ने अपने पुत्र नागों की सहायता निकट संबंध है (बृ. उ. २.२.४)। माँगी । परंतु नाग सहायता न करते थे, इसलिये उसने कुल-इन्द्रियों का अधिष्ठान जो शरीर उसका पालन उन्हें शाप दिया कि, तुम जनमेजय के सत्र में मरोगे। करनेवाला जीव ही कश्यप है (म.अनु. १४२)। यह ब्रह्मा इस शाप को पुष्टि दे कर दुष्ट सपों का नाश करने का मानसपुत्र है । मरीचिपत्नी तथा कर्दम की कन्या कला | के हेतु से ब्रह्मदेव वहाँ आया, तथा उसने सो को कश्यप तथा पूर्णिमा नामक दो पुत्र हुए। उनमें से का नाश होगा (म. आ. १८. ८-१०), इतना कश्यप ज्येष्ठ है (भा. ४.१) । इसे तार्थ्य तथा अरिष्टनेमि ही नही, उनका सापत्न बंधु गरुड़ भी उनका भक्षण नामान्तर थे। यह सप्तर्षियों में से एक, उसी प्रकार करेगा, यों शाप दिया (पन. सृ. ३१)। इस शाप से प्रजापतियों में से भी एक था (म. अनु. १४१)। परंतु कश्यप को दुख होगा, यह सोच कर ब्रह्म ने इसे विषहारिसप्तर्षियों की सूच में कश्या के बदले भृगु तथा मरीचि विद्या दी तथा इसकी सांत्वना की (म. आ. १८.११)। नाम भी प्राप्त हैं। स्वायंभुव तथा वैवस्वत मन्वन्तर के उस विद्या का इसने उपयोग भी किया था ( काश्यप ब्रह्मपुत्र मरीचि वास्तवतः एक ही हैं। इसलिये दोनों देखिये)। समय के कश्यप भी एक ही हैं। इसे पूर्णिमा नामक सगा दैत्यसंहार-इन्द्रादि देवों का दैत्यों ने पराभव किया, भाई था तथा छः सापत्न बंधु थे। इसकी सापत्न माता इसलिये वे कश्यप के पास शरण आये, तथा उन्होंने इसे का नाम ऊर्णा था। अग्निष्वात्त नामक पितर भी इसके ही | सब कुछ बताया। तब यह काशी में शंकर के पास गया, भाई थे । इसे सुरुपा नामक एक बहन भी थी, जो | तथा उसे दैत्यों का ता नष्ट करने के लिये कहा। तब वैवस्वत मन्वन्तर के अंगिरा नामक ब्रह्मा के मानसपुत्र शंकर ने इसकी पत्नी सुरभि के उदर में ग्यारह अवतार को दी थी (वायु. ६५.९८)। लिये तथा दैत्यों का नाश किया। यह अवतार अद्यापि ____ क्षत्रियरक्षा--इक्कीस बार पृथ्वी निःक्षत्रिय करने के आकाश में ईशान्य की ओर रहते है (शिव. पश्चात् परशुराम ने सरस्वती के किनारे अश्वमेध यज्ञ | शत. १८)। किया। उस समय कश्यप अध्वर्यु था । दक्षिणा के रूप में | | तीर्थोत्पत्ति-कश्यप ने अर्बुद पर्वत पर बडी तपश्चर्या पृथ्वी कश्यप को दानरूप में प्राप्त हुई। अवशिष्ट की। उस समय दूसरे ऋषियों ने गंगा लाने के लिये इसकी क्षत्रियों का नाश न हो इस हेतु से, कश्यप ने परशुराम प्रार्थना की। तब शंकर से प्रार्थना कर के कस्यप ने शंकर को अपनी सीमा के बाहर जा कर रहने के लिये कहा। | से गंगा प्राप्त की। उस स्थान पर कश्यपतीर्थ बना (पद्म. इस कथनानुसार परशुराम समुद्रद्वारा उत्पन्न शूरिक देश | उ. १६४)। बाद में गंगा ले कर यह स्वस्थान में गया। १२७ Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन चरित्रकोश कश्यप उस स्थान पर केशरंध्रतीर्थ बना । कश्यपद्वारा गंगा लाई गई इस लिये उसे काश्यपी कहते हैं । उसे ही चारों युगों में अनुक्रम से कृतवती, गिरिकर्णिका, चंदना तथा भ्रमती नाम है ( प . १२५ ) । विष्णुवाहन गरुड - यह तपश्चर्या चालू थी, तब गरुड़ अपने पिता के पास आया तथा उसने कहा कि, एक अदृष्य शक्ती ने मुझे वाहन बनने के लिये कहा है तथा मैं ने वह मान्य भी किया है। कश्यप ने अन्तर्शन से जान कर कहा कि, तुम विष्णु के वाहन बने हो तथा अब तुम्हें उसकी ही आराधना करनी चाहिये। वो बता कर काश्यप ने उसे नारायणमहालय का कथन किया। पृथ्वीरक्षा — इतने में अंग राजा ने पृथ्वी का दान करने का निश्चय किया। इस लिये अपना शरीर त्याग कर पृथ्वी ब्रह्मदेव के पास गई। इससे उसका शरीर निर्जीव बन गया । तब योगशक्ति के द्वारा कश्यप अपने शरीर से बाहर निकला तथा पृथ्वी के शरीर में प्रविष्ट हो कर उसे सजीव बनाया। कुछ दिनों के बाद पृथ्वी वापस आई, तथा कश्यप को नमस्कार कर, अपने शरीर में प्रविष्ट हुई। इस प्रकार कश्यप की कन्या होने के कारण पृथ्वी को काश्यपी कहते हैं । う क्षत्रियाधिपति--आगे चल कर दुष्टों की पीड़ा के कारन पृथ्वी डूबने लगी । तब कश्यप ने अपने ऊरु का आधार उसे दिया तथा उसे तारा। इस लिये उसे काश्यपी तथा ऊर्बी नाम प्राप्त हुए ( म. शां. ४९.६३-६४ ) । उसने अपने लिये राजा मांग कर बहुत से क्षत्रियों का नाम सुझाया । तब कश्यप ने उन सब को अभिषेक किया। पृथ्वीपर्यटन एक बार कश्यपादि सप्तर्षि पृथ्वी पर घूम रहे थे। तब शिविपुत्र शैव्य उर्फ वृषादर्मि ने सप्त यों को एक यज्ञ में अपना पुत्र दक्षिणास्वरूप में दिया । इतने में उस पुत्र की मृत्यु हो गई । तब उन क्षुधार्त ऋषियों ने उसके मांस को पकाने के लिये रखा। यह वृषादर्भि ने देखा, तथा उस अघोरी कृत्य से ऋषियो को परावृत्त करने के लिये, उनकी इच्छानुसार दान देने का निश्चय किया । किन्तु न तो वे दान लेने के लिये तैय्यार हुए, न मांस ही पका । इसलिये उसे छोड़ कर वे चले गये। । आगे एक सरोवर में कमल थे । उन्हें खाने की इच्छा से, उन्होंने वहाँ की कृत्या यातुधानी की अनुमति से कमल तोड़ कर किनारे पर रखे । कुछ कारण से इन्द्र उन्हें चुरा कर ले गया । तदनंतर कश्यप तथा ऐल का 1 कश्यप संवाद हुआ । उसमें ब्राह्मण का महत्व, पापपुण्यसूक्ष्मभेद तथा रुद्र ये विषय कश्यप ने समझाये । परिसंवाद - तार्क्ष्य मुनिका सरस्वती से संवाद हुआ था। उन दोनों में से श्रेष्ठ कौन, किस कृत्य से व्यक्ति धर्मभ्रष्ट नहीं होता, अग्निहोत्र के नियम, सरस्वती कौन है, मोक्ष आदि विषय चर्चा के लिये थे परंतु यह तार्क्ष्य कश्यप ही था, यह नही कह सकते (म. व. १८.४ ) । तदनंतर कश्यप ने एक सिद्ध देखा । तथा उससे शानप्राप्ति के हेतु से बडी ही एकाग्रता से उसकी पूजा की। सिद्ध कीं आज्ञा से कश्यप ने प्रश्न पूछे । सिद्ध ने उसके उत्तर दिये तथा इसे संतुष्ट किया (म. आश्व. १७) । यह एक ऋषि था (बाबु. ५९.९० ब्रह्माण्ड २.२२.९८ - १०० ) । इसके शरीर से तिल उत्पन्न हुए (भाषि. ब्रहा. ७)। यह स्वारोचिष तथा वैवस्वत मन्वन्तर के सप्तर्षियों में से एक था । व्यास की पुराणशिष्य परंपरा के भागवतमतानुसार यह रोमहर्षण का शिष्य था ( व्यास तथा आपस्तंत्र देखिये) । ग्रंथ कश्यप के नाम पर चरकसंहिता के काफी पाठ है। भूतप्रेतादि पर भी इसके कुछ मंत्र है। इसके नाम पर निम्नलिखित ग्रंथ हैपर निम्नलिखित ग्रंथ है- १. कश्यपसंहिता (वैद्यकीय) २. कश्यपोत्तरसंहिता २. कश्यपस्मृति, जिसका उल्लेख हेमाद्रि, विज्ञानेश्वर तथा माधवाचार्य ने किया हैं ( C. C. ) ४. कश्यपसिद्धांत (नारदसंहिता में इसका उल्लेख भाया है ) । परिवार - कश्यप को बत्सार तथा असित नामक दो पुत्र थे । वत्सार को निध्रुव तथा रेभ नामक दो पुत्र हुए। निध्रुव को सुमेधा से अनेक कुंडपायिन हुए । रेभ से रैभ्य उत्पन्न हुए । इसी प्रकार की वंशावली अन्यत्र भी प्राप्त है ( ब्रह्माण्ड ३.८.२९ - ३३; वायु ७०.२४-२५; लिंग. १.६२ कूर्म. १.१९ ) । कश्यप की स्त्रिया -- अदिति, अरिष्टा, इरा, कद्रू, कपिला, कालका, काला, काष्ठा, क्रोधवशा क्रोधा, खशा धावा, ताम्रा, तिमि, वन, बनायु, दया, दिति, धनु, नायु, पतंगी, पुलोमा, प्राधा, प्रोवा, मुनि, यामिनी, वसिष्ठा, विनता, विश्वा, सरमा, सिंही, सिंहिका, सुनेत्रा, सुपर्णा, सुरभि, सुरसा, सूर्य । यथार्थ में कश्यप को तेरह स्त्रियाँ थीं । बाकी नाम तो पाठान्तर से आये है, तथा संततिसादृश्य के कारण, बाकी सब एक ही मालूम होती है। भागवत तथा विष्णु मतानुसार इसे किसी समय अरिष्टनेमि नामक चार स्त्रिया बतायी गयी हैं । ये सब दक्ष कन्यायें थी । पुलोमा तथा कालका वैश्वानर की कन्यायें है । 1 Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन चरित्रकोश कश्यप अदितिपुत्र-- आदित्य बारह हैं। अंश (अंश, कालका को कालकेय ऊर्फ कालकंज ये पुत्र हुए। अंशुमत, विधातृ), अर्थमन् (यम), इंद्र (शक), कालापुन-क्रोध, क्रोधशत्रु, क्रोधहंत, विनाशन । उरुक्रम (विष्णु), त्वष्टा, धातृ, पूषन् , भग, मित्र, वरुण काष्ठा को अश्वादि एक खुरवाले प्राणी हुए। (पर्जन्य), विवस्वत् (मार्तीड), सवितृ (तै. आ. १. __ क्रोधवशा की कन्याएं-इरावती, कपीशा*, तियां, १३)। दंष्ट्रा, मद्रमना *, भूता, मातंगी, मृगमंदा*, मृगी, अरिष्टापुत्र--अतिबाह, आचार, ज्योतिष्टम, तंबुरु, रिषा, शार्दूली, श्वेता, सरमा, सुरसा, हरि, दारुण; पूर्णण, पूर्णांश (पूणायु), बह्वीच (ब्रींच) हरिभद्रा* | क्रोधवशा की ये कन्याएं पुलह की भार्या ब्रह्मचारिन, भानु, मध्य, रतिगुण ( शतगुण), वरूथ*, थीं । इनके सिवा, क्रोधवशा को क्रूर जलचर पक्षी, वरेण्य, वसुरुचि, विश्वावसु, सिद्ध, सुचंद्र, सुपर्ण, दंदशकादि सर्प तथा क्रोधवश नाम के राक्षस हुए। इन सुरुचिछ, हंस, हाहा, हह, आदि गंधर्व अरिष्टा के पुत्र ! में से क्रोधवश मुख्य है (अरिष्टा देखिये)। थे। इनमें से तारांकित लोग क्रोधा के पुत्र हैं, ऐसा खशा को अकंपन, अश्व, उषस्य, कपिलोमन् , कथन, उल्लेख ब्रह्माण्ड में आता है। चंद्राकभीकर, तुंडकोश, त्रिनाभ, त्रिशिरस् , दुर्मुख, धूम्रित, अरिष्टाकन्या-अनवद्या, · अरुणा* अरूपा, निशाचर, पीडापर, प्रहासक, बुध्न, बृहज्जिन्ह, भीम, अलंबुषा, असुरा, केशिनी, तिलोत्तमा, भासी, मनु, मधु, मातंग, लालवि, वक्राक्ष, विस्फूर्जन, विलोहित, मनोरमा, मार्गणप्रिया, मिश्रकेशी, रक्षिता, रंभा, वंशा, शतदंष्ट्र, सुमालि आदि पुत्र तथा आलंबा, उत्कचोत्कृष्टा, विद्युत्पर्णा*, सुप्रिया, सुबाहु, सुभगा, सुरजा*, सुरता। कपिला, केशिनी, निर्कता, महाभागा, शिवा आदि इनमे से तारांकित स्त्रीया मुनि की कन्याएं हैं, ऐसा कन्याएं हुई । ये सब यक्ष, राक्षस, मुनि तथा अप्सराएँ हैं। उल्लेख ब्रह्माण्ड में दिया गया है। ग्रावा को श्वापद हुए। . इरा को वृक्षादि पुत्र हुए। ताम्रा को अरुणा, उलकी, काकी, क्रौंची, गृधिका कपुत्र--अकर्कर, अवर्ण, अक्रूर, अनंत, अनील, । (गधी), धृतराष्ट्रिका (धृतराष्ट्री), भासी, शुकी, शुची, अपराजित,अंबरीष, अलिपिंडक, अश्वतर,आपूरण, आप्त, श्येनी, सुग्रीवी, तथा गायें, भैसें कन्यारूप में हुई। आयक, उग्रक, एलापत्र, ऐरावत, कपित्थक, कपिल, कंबल, तिमि को जलचरगण हुए। कररोमन् , करवीर, कर्कर, कर्कोटक, कदम, कलपपोतक, दनुपुत्र-अजक, अप्र, अनुपायन, अशिरस् , अयोमुख, कल्माष, कालिय, कालीयक, कुंजर, कुटर, कुंडोदर, कुमुद, अरिष्ट, अरुण, अश्व, अश्वग्रीव, अश्वपति, अश्वशंकु, कुमुदाक्ष, कुलिक, कुहर, कर्म, कृष्मांडक, कोरग्य, कौण- अश्वशिरस् , असिलोमन् , अहर, आमहासुर, इंद्रजित्, पाशन, क्षेमक, गंधर्व, ज्योतिक, तक्षक, तित्तिरि, दधिमुख, | इंद्रतापन, इरागर्भशिरस् , इषुपात, ऊर्णनाभ, एकचक्र, दुर्मुख, धनंजय, धृतराष्ट्र, नहुष, नाग, निष्ठानक, नील, | एकाक्ष, कपट, कपिल, कपिश, कालनाभ, कुपथ, कुंभनाभ, पतंजलि, पम (संवर्तक), पाणिन, पिंगल, पिंजर | कुंभमान, केतु, केतुवीर्य, केशिन, गनमूर्धन्, गविष्ठ, (पिंजरक), पिठरक, पिंडक, पिंडारक, पुष्पदंष्ट्र, पूर्णभद्र, गवेष्टिन, चंद्रमस् , चूर्णनाभ, जभ, तारक, तुहुंड, दीर्घजिह्व, प्रभाकर, प्रह्लाद, बलाहक, बहुमूलक, बहुल, बाह्यकर्ण, | दुहुँ भि, दुर्जय, देवजित् , द्विमूर्धन्, धूम्रकेश, धृतराष्ट्र, बिल्वक, बिल्वपांडुर, ब्राह्मण, भुजंगम, मणि, मणिस्थक, । नमुचि, नरक, निचंद्र, पुरुंड, पुलोमन् , प्रमद, प्रलंब, महाकर्ण, महानील, महापन, महापप्र, महाशंख, महोदर, | बलक, बलाढ्य, बाण, बिंदु, भद्र, भृशिन् , मघ, मघवत, मुद्गर, मूषकाद, वामन, वालि शिख, वासुकि, विमलपिंडक, मद, मय, मरीचि, महागिरि, महानाभ, महाबल, विरजस् , वृत्त, शंकुरोमन् , शंख, शंखपाद, शंखपाल, महाबाहु, महामाय, महा शिरस् , महासुर, महोदक, शंखपिंड, शंखमुख, शंखरोमन् , शंखशिरस् , शबल, | महोदर, मारी चि, मूलकोदर, मेघवत् , रसिप, वज्रनाथ, शालिपिंड, शुभानन, शेष, श्रीवह, इवेत, सुबाहु, सुमन, वज्राक्ष, वनायु, वातापि, वामन, विकुभ, विक्रांत, विक्षोभ, सुमुख, सूनामुख, हरिद्रक, हल्लक, हस्तिकर्ण, हस्तिपद, - विक्षोभण, विद्रावण, विषाद, विप्रचित्ति, विभावसु, विभु, हस्तिपिंड, हेमगुह। विराध, विरूपाक्ष, वीर, वीर्यवत् , वृक, वृषपर्वन् , वैमृग, कपिला को अमृत, ब्राह्मण, गंधर्व, अप्सरा, नंदिन्यादि | वैश्वानर, वैसृप, शकुनि, शंकर, शंकुकर्ण, शंकुशिरस, गायें तथा दो खुरवाले प्राणी हुए । शंकुशिरोधर, शठ, शतग्रीव, शतमाय, शत-हद, शंकुरय, प्रा. च. १७] Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कश्यप शास्तृ, सदसस्पति, सर्प नामक पुत्र हुए तथा गांधारी (गांधर्वी) एवं रोहिणी ये कन्याए हुई ( शिव. शत. १८) । सुरसा को याजुधानादि राक्षस तथा १००० सर्प हुए | सूर्य को यमधर्म हुआ । दनायु को बल, विक्षर, वीर, वृत्रादि उत्पन्न पुत्र हुए । दयाको पर्वत हुए । दिति को मरुत् ( उनपचास ), वज्रांग, सिंहिका, हिरण्यकशिपु, हिरण्याक्ष आदि पुत्र हुए। पद्मपुराण में दैत्यों सा कृत्य करने वाला प्रत्येक व्यक्ति दितिपुत्र माना गया है (बल तथा वृत्र देखिये) । कश्यप को अरुंधती, नारद, पर्वत ( वायु. ७०.७९; लिंग १.६३.७२ - ८० . ) तथा मनसा ये मानसपुत्र तथा कन्याएं थी ( विष्णु. १.१५ मत्स्य. ६; स्कन्द. १.२.१४,.. ३.२.८; वायु. ६७. ४३; ह. वं. १.३; ब्रह्मांड. ३.३ ) । अरिष्टापुत्र केवल ब्रह्माण्ड तथा महाभारत में दिये हैं। धनु-विष्णुधर्मोत्तर में दनु का नामांतर है। इसका सुरभिपुत्र वायु तथा शिवपुराण में दिये हैं । मुनिपुत्र था पुत्र रजि ( १.१०६ ) | क्रोधापुत्र ब्रह्मांड, महाभारत में दिये हैं । कद्रूपुत्र वायु, स्कन्द तथा भागवत में नहीं है । दनुपुत्र स्कन्द तथा वायु पतंगी को पक्षी हुए । पुलोमा को पौलोम हुए। पौलोम तथा कालकेय मिल में नहीं हैं । उपरोक्त आदित्य स्कंद में नहीं हैं (आदित्य कर साठ हजार वा चव्हत्तर हजार थे, जिन्हें निवातकवच कहते थे । देखिये) । कश्यप प्राचीन चरित्रकोश शत-हाद, शतव्हय, शंबर, शरभ, शलभ, सत्यजित्., सप्तजित्, सुकेतु, सुकेश, सुपथ, सूक्ष्म, सूर्य, हयग्रीव, हर, हिरण्मय, हिरण्यकशिपु । प्राधा -- अरिष्टा की संतति देखिये । प्रोवा - इसे संतति नहीं थी । मुनिपुत्र--मुनि को अर्कपर्ण, उग्रसेन, कलि, गोपति ( गोमत्), चित्ररथ, धृतराष्ट्र, नारद, पर्जन्य, प्रयुत, भीम, भीमसेन,वरुण, शालिशिरस्, सत्यवाच् (सर्व जित्), सुपर्ण, सूर्यवर्चस् नामक सोलह गंधर्व, तथा अजगंधा, अनपाया, असता, असिपर्णिनी, अद्रिका, क्षेमा, पुंडरीका, मनोभवा मारीचि, लक्ष्मणा, वरंवरा, विमनुष्या, शुचिका, सुदती, सुप्रिया, सुबाहु, सुभुजा, सुरसा तथा अन्य है (अरिष्टा देखिये ), इस तरह कुल चोबीस अप्सरायें हुई । वसिष्ठा यह नाम मुनि का नामांतर होगा। , यामिनी को टिड्डिया हुए । विनता को अरिष्टनेमि, अरुण, आरुणि, गरुड, तार्क्ष्य, वारुणि नामक पुत्र, एवं सौदामिनी नामक कन्या हुई । अरिष्टनेमि तथा तार्क्ष्य गरुड के नामांतर होने का उल्लेख मिलता है । गोत्रकार -- अग्निशर्मायण ( ग अधच्छायामय ( ग ), आम्ना प्रासेव्य ( ग ), आजिहायन (ग), आश्रायणि, आश्वलायनिन (ग), आश्रवातायन, आसुरायण ( ग ), उदग्रज ( ग ), उद्वलायन ( ग ), कन्यक (ग), कात्यायन ( ग ), कार्तिकेय, काश्यपेय . ( ग ), काष्ठाहारिण, कौबेरक (ग), कौरिष्ट (ग), गोमयान (ग), ज्ञानसंज्ञेय पैलमोलि, प्रागायण ( ग ), प्राचेय, बर्हि, भवनंदिन्, (ग), दाक्षायण, देवयान ( ग ), निकृतज (ग), भृगु (ग), भोज (ग), भौतपायन ( भीमपायन, ग ),. महाचक्रि, माठार (ग), मातंगिन (ग), मारीच (ग), मृगय ( ग ), मेष किरीटकायन ( ग ), मेषा (ग) (ग), योगगदायन (ग), योधयान ( ग ), वात्स्यायन ( ग ), वैकर्णय (वैकर्णिक, ग ), वैवशय, शक्रय (शाक्रायण (श्रुतयं), सासिसाहारितायन (ग), हस्तिदान ( ग ), ग), शालहलेय (ग) श्याकार (ग), श्यामोदर, श्रोतन हास्तिक ( ग ), ये सब कश्यप, निध्रुव, तथा वत्सर इन त्रिप्रवरों के हैं । अनसूय, काद्रुपिंगाक्षि ( कार्द्रपिंगासि), दिवावष्ट ( दिवावस, दिवावसिष्ठ ग ), नाकुरय, यामुनि (सामुकि ), राजवर्तप ( राजवल्लभ ), रौपसेवकि ( शेषसेवकि ), शैशिरोदवहि, सजातंवि, सैरंधी ( सैरंधि), स्नातप ये भी द्विगोत्री हो कर कश्यप, वत्सर तथा वसिष्ठ इन तीन प्रवरों के है । विश्वा को करोड़ों यक्ष तथा राक्षस हुए । सरमा को वनचर हुए। सिंहि ऊर्फ सिंहिका को चंद्रप्रमर्दन, चंद्रहर्तृ, राहु तथा सुचंद्र पुत्र हुए। सुरभि को अंगारक, अज ( अजपाद ), अहिर्बुध्न्य (हिर्बुध्न्य), ईश्वर, ऊर्ध्व केतु, एकपाद, कपाला ( कपालि) चंड, ज्वर, निर्ऋति, पिंगल, भल, भीम, भुवन, मृत्यु, विरूपाक्ष, विलोहित, वृषभ ( महादेव का नंदी ), शंभु | १३० मुख, गोभिल, जलंधर, दानव, देवजाति, नभ, निदाघ, उत्तर, कर्दम, काश्यप, कुलह, केरल, कैरात, गर्दभीपिप्पल्य, पूर्य, पैप्पलादि, भर्त्स्य, भुजातपूर, मसृण, मृगकेतु, Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन चरित्रकोश कश्यप वृषकंड, शांडिल्य, संयाति, हिरण्यबाहु ये असित, कश्यप तथा देवल इन त्रिप्रवरों के हैं ( मत्स्य. १९९ ) । कश्यपगोत्री मंत्रकार — असित, कश्यप, देवल, निध्रुव ( नैध्रुव), रैभ्य, तथा वत्सार । वायु में 'विक्षम' तथा मत्स्य में ' नित्य ' अधिक है ( ब्रह्माण्ड २.३२. ११२ - ११३; मत्स्य. १४५.१०६-१०७; वायु. ५९.१०२१०३) । ये ब्रह्मवेत्ता थे । ऋग्वेद में वत्सार के लिये अवत्सार, नैध्रुव के लिये निध्रुवि, इसके अतिरिक्त भूतांश, रेभ तथा वित्रि ये कश्यप माने गये है । कश्यप नैध्रुव -- एक आचार्य (बृ. उ. ६.५.३ ) । कश्यप मारीच -- ऋग्वेदमंत्रद्रष्टा (ऋ. १. ९९ ८. . २९; ९.६४;६७.४-६; ९१-९२; ११३ - ११४ ) । कषाय - एक शाखाप्रवर्तक ( पाणिनि देखिये ) | कहो वा कहोल कौषीतकेय — एक ऋषि । व्रीहि, यवादि नये अनाज वृष्टि से उत्पन्न होने के कारण, पहले देवताओं के लिये आग्रयण ( अर्थात अन्न का याग ) कर भक्षण करना चाहिये, यह रीति इसने आरंभ की। आश्वलायनगृह्यसूत्र में ब्रह्मयज्ञांगतर्पण में इसका नाम है। इसका कौषीतकेय नामान्तर भी मिलता है (बृ. .उ. ३.५.१ ) । यह याज्ञवल्क्य का समकालीन था (श. क्र. २.३.५१; सां. आ. १५; काहाडी देखिये ) | काण्वायन यह उद्दालक ऋषि का शिष्य था । इसने गुरुगृह में रह करं गुरु की उत्तम प्रकार से सेवा की, इसलिये गुरु ने प्रसन्न हो कर इसे अपनी कन्या सुजाता ब्याह दी। उसे . ले कर इसने गृहस्थाश्रम में प्रवेश किया । सुजाता . गर्भवती हुई। एक बार यह अध्ययन कर रहा था, - तत्र सुजाता के गर्भ ने इसे अध्ययन न करने के लिये कहा । तत्र क्रोधित होकर इसने उस गर्भ को शाप दिया कि, तुम आठ स्थानों पर वक्र बनोगे । कुछ काल के बाद इसे अष्टावक्र नामक पुत्र हुआ। आगे चल कर, एकबार जब यह द्रव्ययाचना के लिये जनक राजा के पास गया, तत्र वरुणपुत्र बंदी ने अनेक ऋषियों को बाद में जीत कर पानी में डुबा दिया (म.व. १३४ ) । उस में यह भी डूब गया। वहाँ से इसके पुत्र ने, बंदी को बाद में के जीत कर वापस लाया (म. व. १३४-३१ ) । यह एक मध्यमाध्वर्यु है । काकवर्ण - ( शिशु. भविष्य . ) इसका पुत्र क्षेत्रधर्मन् । काकी – कश्यप तथा ताम्रा के कन्याओं में से एक । २. स्कन्द के शरीर से उत्पन्न मातृकाओं में से एक । १३१ काकुत्स्थ - अनेन का पैतृक नाम । कायस्थ – कृष्णपराशर कुल का एक गोत्रकार । इसके लिये कार्केय पाठभेद है । | काक्षसेनि – अभिप्रतारिन् का पैतृक नाम ( दृति ऐन्द्रोत देखिये ) | काक्षीवत-- दीर्घतमस् देखिये। कांकायन -- एक ऋषि | शांत्युदक करते समय कौनसा मंत्र लिया जावे, इसके संबंध में इसका मत है ( कौ. सू. ९.१० ) । काचापि -- कारक देखिये | कांचन -- च्यवन भार्गव का नामांतर ( वा. रा. उ. ६६.१७ ) । २. (सो. पुरूरवस्.) भागवत तथा विष्णु पुराण के मतानुसार यह भीमपुत्र है। वायु के मतानुसार भी भीमपुत्र ही है, परंतु वहाँ इसे कांचनप्रभ कहा गया है । कांचनमालिनी -- एक अप्सरा । प्रयाग में माघस्नान करने से यह मुक्त हुई ( पद्म. उ. १२७ ) । काट्य - अंगिरस कुल का गोत्रकार तथा प्रवर | कांठेविद्धि - एक आचार्य (वं. बा. २) कांडमायन -- विसर्गसंधि आवश्यक है, यो मत रखनेवाला आचार्य ( तै. प्रा. ९.१ ) । कांडराय -- पराशरकुल का एक गोत्रकार । कांड्रायन - एक व्याकरणकार। पदपाठ में प्लुत यह बतानेवाला, ऐसा इसका उल्लेख अनुनासिक शांखायन के साथ आया है ( तै. प्रा. १५.७ ) । कांड्डिय-- एक उद्गाता (जै. उ. ब्रा. ३.१०.२; जनश्रुत, नगरिन् तथा सायक देखिये) । काण्व -- स्वरविषयक मत बतानेवाला आचार्य ( शु. प्रा. १.१२३; १४.९) । २. वसिष्ठ गोत्री ऋषिगण । ३. वायु के मत में, व्यास की यजुः शिष्यपरंपरा का याज्ञवल्क्य की शाखा में से एक ( व्यास देखिये) । ( आयु, इरिंबिठ, कण्व, कुरुसुति, कुसीदिन्, कृषि, त्रिशोक, दवातिथि, नाभाक, नारद, नीपातिथि, पर्वत, पुनर्वत्स, पुष्टिगु, पृषत्र, प्रगाथ, प्रस्कण्व, ब्रह्मातिथि, मातरिश्वन्, मेधातिथि, मेध्य, मेध्यातिथि, वत्स, शशकर्ण, श्रुष्टिगु, सध्वंस, सुपर्ण, सोभरि, तथा सौश्रवस काण्व देखिये) । काण्वायन - अंगिराकुल का एक गोत्रकार । कृश ने काण्वायन के लिये प्रार्थना की है (ऋ. ८. ५५.४ ) । Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन चरित्रकोश पुरूकुल से निकला हुआ एक ब्राह्मणकुल ( अश्वसूक्तिन् भाषिक शब्दों के लिये स्वर, व्यंजन आदि शब्दों तथा गोसूक्तन् देखिये) । का उपयोग किया है। इससे, तथा कथासरित्सागर के यह ऐन्द्रशाखा का पुरस्कर्ता होने के उल्लेख से प्रतीत होता. है कि, कात्यायन पाणिनि की अपेक्षा भिन्न शाखा का पुरस्कर्ता था । वार्तिको का मुख्य उद्देश्य पाणिनि के सूत्रों का विशदीकरण कर, उन्हें समझने के लिये सरल बनाना है । इसने वाजसनेयी प्रातिशाख्य नामक दूसरा ग्रंथ लिखा है । कात्यायन के पहले भी काफी वार्तिककार हो गये हैं । उनमें से शाकटायन, शाकल्य, वाजप्यायन, व्याडि, पौष्करसादि का इसने उल्लेख किया है । काण्वायन कावपुत्र - कापीपुत्र का शिष्य (बृ. ६.५.१ ) । काण्व्यायन -- एक आचार्य । कात्थक्य -- अर्थविषयक विचार करनेवाला एक आचार्य (नि. ८. ५; ६; ९. ४१ ) । कात्य -- उत्कल काव्य देखिये । कात्यायन - एक आचार्य । इसके १. कात्य, २. कात्यायन, ३. पुनर्वसु, ४. मेधाजित् तथा ५ वररुचि, ऐसे नामान्तर त्रिकांडकोश में दिये गये है । याज्ञवल्क्य का पौत्र तथा कात्यायनपुत्र वररुचि, अष्टाध्यायी का वार्तिककार होने की संभावना है। आंगिरस, कश्यप, कौशिक, व्यामुष्यायण तथा भार्गव गोत्र में भी कात्यायन है । कात्यायन कथासरित्सागर की कथा से प्रतीत होता है कि, कात्यायन पाणिनि का समकालीन होगा। परंतु उपरोक्त जानकारी से पता चलता है कि, पाणिनि तथा इसमें काफी अंतर होना चाहिये । कथासरित्सागर में इसका संबंध नन्द से आया है। इससे कात्यायन का काल अनुमानत: खि. पूर्व ५००-३५० तय किया जा सकता है। पतंजलि ने इसे दाक्षिणात्य कहा है ( प्रियतद्धिता दाक्षिणात्याः, ८) । इसकी एक स्मृति व्यंकटेश्वर प्रेस द्वारा दिये हुए स्मृतिसमुच्चय में है । वह २९ अध्यायों की है, तथा उसमें यज्ञोपवीतविधि, संध्योपासना, अंत्यविधि, आदि विषयों का विवेचन है। महाभाष्य इसके वार्तिकों पर ही लिखा हुआ ग्रंथ है। इसके ग्रंथ-१. श्रौतसूत्र, २. इष्टिपद्धति, ३. कर्मप्रदीप, ४. गृह्यपरिशिष्ट, ५. त्रिकाण्डकसूत्र, ६. श्राद्धकल्पसूत्र, ७. पशुबंधसूत्र, ८. प्रतिहारसूत्र, ९. भ्राजश्लोक, १०. रुद्र विधान, ११. वार्तिकपाट, १२. कात्यायनी शांति, १३. कात्यायनीशिक्षा, १४. स्नान विधिसूत्र, १५. कात्यायनकारिका, १६. कात्यायनप्रयोग, १७. कात्यायनवेद प्राप्ति, १८. कात्यायनशाखाभाष्य, १९. कात्यायन स्मृति (इसका उल्लेख याज्ञवल्क्य, हेमाद्रि, विज्ञानेश्वर आदि ने किया है ), २०. कात्यायनोपनिषद् ( C. C. ), २१. कात्यायनगृह्यकारिका, २२. वृषोत्सर्गादिपद्धति, २३. आतुरसंन्यासविधि, २४. मूल्याध्याय, २५. गृह्यसूत्र, २६. शुक्लयजुः प्रातिशाख्य । इसके साधारणतः छः हजार वार्तिक हैं । वार्तिक की व्याख्या:- इस प्रकार है 'सूत्रेऽनुक्तदुरुक्तचिंता करत्वं वार्तिकत्वम् (नागेशः ), वा उक्तानुक्तदुरुक्तानां चिंता यत्र प्रवर्तते, तं ग्रंथ वार्तिक प्राहुर्वार्तिकज्ञा मनीषिणः ( छाया ) ' । , वार्तिक — कात्यायन एक व्याकरणकार था । इसने ऐन्द्रशाखा का पुरस्कार किया था। इसके मतानुसार उणादिसूत्र पाणिनिकृत हैं । इन सूत्रों का इसने विशदीकरण किया तथा बाद में इसे ही उणादिसूत्रों का कर्ता कहने लगे (विमल सरस्वती कृत 'रूपमाला', दुर्गसिंहकृत कातंत्र का 'कृत् ' प्रकरण ) । कात्यायन ने मुख्यतः पाणिनि के करीब करीब १५०० सूत्रों पर वार्तिक लिखे । वार्तिक के लिये इसे पाणिनि की परिभाषा का उपयोग करना पड़ा, तथापि इसने अच्, हल, अक्, आदि पाणिनीय पारि कात्यायन ने त्रयोदश श्लोकों से युक्त कात्यायन शिक्षा रची । उसपर जयंतस्वामी ने टीका लिखी। इसके नामपर स्वरभक्तिलक्षणपरिशिष्टशिक्षा नामक एक और शिक्षा है । यह शुक्लयजुर्वेद की ही शिक्षा है । परंतु प्रारंभ में काफी संज्ञायें आदि ऋक्प्रातिशाख्य के अनुसार हैं। | १३२ इसकी जानकारी निर्बंधग्रंथ में दिये गये इसके उद्धरण से प्राप्त होती है। इसके अतिरिक्त शंखलिखित, याज्ञवल्क्य (१.४ - ५ ) तथा पराशर ने धर्मशास्त्रकार कह कर इसका निर्देश किया है। बौधायनधर्मसूत्र में कात्यायन का उल्लेख है ( १.२.४७ ) । व्यवहार के बारे में लिखते समय, इसने नारद तथा बृहस्पति के मतों को मान्य समझा है । परिभाषा आदि भी यों ही स्वीकार लिया है। इसने स्त्रीधन के अनेक प्रकार सोचे हैं, तथा स्त्रियों के अधिकार भी लिखे हैं । व्यवहार के बारे में इसके ६०० श्लोक स्मृतिचन्द्रिका में आये हैं। इसने मनु के नामपर दिये उल्लेख मनुस्मृति मे नही मिलते । भृगु के मतों के संबंध में भी ऐसा ही है । इसके श्रौतसूत्र पाणिनि के पहले रचे गये होंगे, परंतु इसकी स्मृति इ. ४००-६०० तक बनी होगी। Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कात्यायन प्राचीन चरित्रकोश काम उसमें बयालीस श्लोक हैं। उसमें विशेष कर के | कापटव सुनीथ--सुतेमनस शांडिल्यायन का शिष्य स्वरभक्ति का ही विचार किया गया है (पारस्कर तथा | (वं. बा. १)। इसका पैतृक नाम कापटव था। वररुचि देखिये)। __कापिलेय--विश्वामित्रपुत्र । शुनःशेप को विश्वामित्र ने २. राम के अष्ट धर्मशास्त्रियों में एक। . मृत्यु से मुक्त करने के बाद अपनी गोद में लिया । ३. कबंधिन् देखिये। शुनःशेप को उसका पिता अजीगत वापस मांगने लगा, ४. विश्वामित्र पुत्र कति का पुत्र । तब विश्वामित्र ने कहा कि, शुनःशेप मेरा पुत्र है तथा कात्यायनि-दक्ष कात्यायनि आत्रेय देखिये। कापिलेय तथा बाभ्रव इसके बंधु हैं । इससे प्रतीत होता है कि, यह तथा बाभ्रव, विश्वामित्र के पुत्रों में से होगे कात्यायनी--- याज्ञवल्क्य की दो स्त्रियों में से एक । (ऐ. ब्रा. ७.१७)। याज्ञवल्क्य का संसारत्याग का विचार पक्का होने के बाद, प्रपंचविषयक वस्तुओं का, मैत्रेयी तथा कात्यायनी में समान । २. कुंभ को कपिला से उत्पन्न संतती का मातृक नाम विभाजक करने को उसने कहा। परंतु मैत्रेयी अध्यात्म (ब्रह्मांड ३.७.१४५)। ज्ञान में पारंगत होने के कारण प्रापंचिक वस्तुएं कापीपुत्र-आत्रेयीपुत्र का शिष्य । इसका शिष्य कात्यायनी के पास रही (बृ. उ.२.४.१; ४.५.१)। वैयाघ्रपदीपुत्र (बृ. उ. ६.५.१२)। कात्यायनीपुत्र---गौतमीपुत्र तथा कौशिकीपुत्रं का कापीय--व्यास के सामशिष्यपरंपरा का हिरण्यनाभ शिष्य । इसके शिष्य पाराशरीपुत्र तथा पौतिमाषीपुत्र | का शिष्य । थे (बृ. उ. ६.५.१) । जातूकर्ण्य नामक एक कात्यायनी- | कापेय--एक ऋषि । चित्ररथ द्वारा द्वि-रात्र यज्ञ करके, पुत्र का आचार्य कह कर निर्देश है (सां. आ.८.१०)। | इसने उसे धनसंपन्न किया (क. स. १३.१२, पं. ब्रा. काद्रवेय-कद्रुपुत्र का मातृक नाम।. २०.१२.५) कापेय का अर्थ है, कापेयी शाखा का . २. अर्बुद देखिये। अध्ययन करनेवाले लोग (सां. श्री. ९.८:ज्योत्स्नाटीका)। काद्वापिंगाक्षि-कश्यपकुलोत्पन्न एक गोत्रकार । इसके | शौनक ऋषि कपि गोत्र का होने के कारण, उसे. यह लिये काापिंगाक्षि पाठभेद है। गोत्रनाम कह कर लगाया है (छां. उ. ४.३.५-७)। कापोत--एक मुनि । उर्वशी तथा ककुत्स्थ की कानांध-वयश्व का पुत्र (बौ. श्री. २१.१०)। कन्या चित्रांगदा इसकी पत्नी थी। इसके तुंबुरु तथा कानिनी--ब्रह्मांड मत में व्यास के साम शिष्यपरंपरा सुवर्चस् नामक दो पुत्र थे । बाद में इसने कुबेर से द्रव्य के हिरण्यनाभ का शिष्य (व्यास देखिये)। ला कर इन पुत्रों को दिया । चन्द्रशेखर राजा की पत्नी कानीत--पुथुश्रवस् का पैतृक नाम (ऋ. ८.४६. | तारावती को दो वानरमुखी पुत्र होंगे, यों शाप इसने २१; २४) .. दिया (कालि. ५३)। कानीन--(सू. दिष्ट.) भागवतमत में देवदत्तपुत्र । काप्य--कैशोर्य काप्य का शांडिल्य शिष्य । यह २. अग्निवेश्य, व्यास, कर्ण देखिये । कुमारहारित का शिष्य था (बृ. उ. २.६.३; ४.६.३)। कान्तिमती--भरतपुत्र पुष्कल की स्त्री (पद्म. पा. | पैल, पतंचल तथा पुरुकुत्स का काप्य यह पैतृक नाम है। १२)। उसी प्रकार विभिंदुकीयों के सत्र में आविज्य करनेवाले २. वीरबाहु देखिये। सेनक तथा नवक का भी यह पैतृक नाम है। ३. व्याधस्त्री (शंख देखिये)। काबांध-यह अथर्वन् है । यह मांधाता के यज्ञ में कान्तिशालिन्-एक विद्याधर | पापनाशन लिंग के | गया तथा वहाँ यज्मान तथा ऋत्विज को इसने कुछ प्रश्न दर्शन से यह मुक्त हुआ (स्कन्द. १.३.२.४)। पूछे (गो. बा. १.२.९)। जलोद्भव अश्व से वेद डर गये। कांदम-एक यावन् का पैतृक नाम (ते. ब्रा. २. | उस अश्व का शमन इसने किया (गो. बा. ९.१८)। ७.२१.२)। गांदम देखिये । विचारिन का यह पैतृक नाम है । कबंध का वंशज ऐसा कान्वायन--(शिशु. भविष्य.) मत्स्य के मतानुसार अर्थ हो सकता है (कबंध आथर्वण देखिये)। विध्यासेना का पुत्र। काम--ब्रह्मदेव के हृदय से उत्पन्न पुत्र । इसकी पत्नी कापच्य-कायव्य देखिये । । रति । यह शंकर के तृतीय नेत्र से दग्ध हुआ परंतु रुक्मिणी १३३ Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काम के उदर में पुनः प्रद्युम्न नाम से इसने जन्म लिया ( भा. २.१२.२६ : १०.५५.१) । जहाँ इसे दब किया, वह स्थल अंगदेश है। इसने बंधुभगिनी में कामविकार उत्पन्न किया, इस लिये शंकरद्वारा दग्ध होने का शाप इसे मिला। शंकर को पुत्रेच्छा होगी तब उत्पत्ति होने का उपशाप भी इसने प्राप्त किया ( शिय. रुद्र. सती ३ ) | । २. संकल्प का पुत्र (मा. ६.६.१० ) । ३. वैवस्वत मन्वन्तर के बृहस्पती का दौहित्र । प्राचीन चरित्रकोश ४. धर्मऋषी का एक पुत्र हर्ष इसका (पद्म. सृ. ३ ) । रिक्षपुत्र है ( कपिल १०. देखिये ) । ५. परशुराम का बंधु (काकाम देखिये) । कामकंटका - घटोत्कच देखिये । कामकायन - विश्वामित्र कुलोत्पन्न गोत्रकार तथा उल्लेख आया है (नि. २.२ ) । ब्रह्मर्षि कामगम तथा कामज -- धर्मसावर्णि मन्वन्तर के देवगण विशेष | कामठक-एक सर्प (म. आ. ५२.१५ ) | कामंद --सोमकान्त देखिये । आनंद से हँसती थी, तब गंगा में गिरे हुए इसके अश्रु कमल बनते थे (नारद. २.६८.१४ ) । क्षीरसागर में से कमोदा, लक्ष्मी, ज्येष्ठा तथा वारुणी उत्पन्न हुई थीं। यहा अमृत के फेन में से उत्पन्न हुई । यही तुलसी है । यह कामोदनगर में रहती है। इसके हंसने से पीले फूल उत्पन्न होते थे (बिड देखिये . ११८-१२१ ) | काम्पिल्य- (सो. नील. ) भागवतमतानुसार भयस्वपुत्र, विष्णुमतानुसार हर्यश्वपुत्र तथा वायुमतानुसार कामप्रि-मरुत्तका नामान्तर यह मरुत्त के लिये उपाधि की तरह प्रयुक्त किया है ( ऐ. बा. ८.२१ ) । सायण इसका अर्थ कामपूरक ऐसा लगाते हैं। कामलायन - उपकोसल का पैतृक नाम (छां. उ. ४. १०.१ ) । कामली रेणुका देखिये। रेणुका का नामांतर । २. विश्वामित्र कुल का गोत्रकार । कामहानि-व्यास की सामशिष्य परंपरा के वायुमतानुसार खांगली का शिष्य । काम्बोज औपमन्यव -- एक आचार्य (वं. बा. २ ) । निरक्त में इन दोनों शब्दों का दूसरे अर्थ में परंतु एकत्र २. एक गिरिष्ट राजा ने इससे पूछा था कि शुद्ध धर्म, अर्थ तथा काम कौन हैं ? इसने उत्तर दिया कि, जिस से चित्तशुद्धि हो वह धर्म, पुरुषार्थ साध्य हो वह अर्थ तथा केवल देहनिर्वाह की इच्छा हो वह काम है ( म. शां. १२३ ) | कायव्य- एक निषाद अरण्य के सब दस्युओं का यह अधिपति था । यह शूर तथा परमधार्मिक था । इसने अपने अनुयायीयों को बताया कि वे ब्राह्मणों की कभी भी द्वेष न करें । उन्हें सर्वभाव से भजें, तथा छोटे बालक, स्त्रियां, भयभीत, भागनेवाले तथा निरायुध का वध न करें। जो ब्राह्मणों के शत्रु हैं, उनसे युद्ध करो तथा उन्हें मार डालो । इस तरह का व्यवहार करोगे तो उत्तम गति प्राप्त होगी । सदाचार का अवलंबन करने से दस्युओं का भी उद्धार होता है, यह बताने के लिये यह पुरातन कथा दी गयी कामप्रमोदिनी -- माण्डव्य की पत्नी ( माण्डव्य है ( म. शां. १३५ ) । इसे कापच्य भी कहते हैं । देखिये ) । कारक - - अंगिराकुल का एक गोत्रकार । काचापि इसका पाठभेद है। काय नि - भृगुकुल का एक गोत्रकार । काय कारडि - भगवत् औपमन्यव कारडि देखिये। कारंधम -- अविक्षित् का नामांतर । कारीर—उद्रीय के संबंध में विशेष ज्ञान रखने वाला आचार्य (कै. उ. बा. २.४.४) । कारीरथ - - अंगिरांकुल का एक गोत्रकार । कारीरदि एक आचार्य (जै. उ. बा. २.४.४ ) काररिय- अंगिर कुलोपन एक गोत्रकार । कारीषि - विश्वामित्र का पुत्र ( म. अनु. ४.५५ कुं.) कारुकायण विश्वामित्र कुछ का एक गोत्रकार । कामा -- देवी ( घटोत्कच देखिये) । कामान्ध-यय का पुत्र ( औ. औ. २१.१० ) । इसका पाठभेद कामुकायन है। कामायनी श्रद्धा देखिये। कामुकायन - - कारुकायण का पाठभेद । कामोदा -- क्षीरसागर से कामोदा, रमा, वरा, तथा वारुणी नामक चार कन्याएं उत्पन्न हुई। पहली तीन विष्णु की स्त्रियां बनीं तथा वारुणी दैत्यों के हिस्से में पड़ी। यह १३४ -- कारूप करूपक देश का राजा वृद्धशर्मा का नामांतर | इसका पुत्र दंतवक भारतीय युद्ध में यह राजा दुर्योधन के पक्ष में था ( भा. ९.२४.३७ ) । कारोटक - - अंगिराकुल का एक गोत्रकार । काय - ' कायस्थ' का पाठभेद । Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कार्तवीर्य प्राचीन चरित्रकोश कार्तवीर्य कार्तवीर्य-(सो. सह.) इसकी माता का नाम कार्तवीर्य राजमहल में नहीं है। यह इस समय नर्मदा पर राकावती (रेणु.१४)। शिवपूजाभंग होने के कारण यह स्त्रियों सहित क्रीडा करने गया था। आगे चल कर, रावण करविहीन जन्मा। मधु अगले जन्म में शिवशाप के कारण | विंध्यपर्वत पार कर नर्मदा तट पर गया। वहां स्नान कर कार्तवीय हुआ (रेणु. २८)। शंकर की पूजा करने बैठा। इधर कार्तवीर्य ने सहज इसके लिये अर्जुन, सहस्रार्जुन तथा हैहयाधिपति लीलावश नदी का प्रवाह अपने सहस्र हाथों से रोक दिया। नामांतर प्राप्त है। यह सुदर्शन चक्र का अवतार है वह रुका हुआ पानी विविध दिशाओं में बहने लगा। इस (नारद. १.७६ )। कृतवीर्य के सौ पुत्र च्यवन के शाप | प्रकार का एक वेगवान प्रवाह रावण तक पहँचा। उससे से मृत हुए। केवल यह सप्तमी व्रतस्नान के कारण उस उसका पूजाभंग हो गया। इस प्रकार पूजाभंग करनेवाला शाप से मुक्त हुआ (मत्स्य. ६८)। कृतवीय ने संकष्टीव्रत। कार्तवीय है, यह समझते ही रावण ने इस पर आक्रमण करते समय जम्हाई दे कर उसके प्रायश्चित्तार्थ आचमन नहीं किया। परंतु इसने उसके मंत्रियों को हतवीयं कर दिया किया। गणेश के प्रसाद से चतुर्थीव्रत करने से उसे पुत्र तथा रावण को पकड लिया। अपना पौत्र पकड़ा गया. हुआ, परंतु उपरोक्त पापाचरण. के कारण इसे केवल दो ऐसा वर्तमान सुन कर पुलस्त्य ऋषि कार्तवीर्य के पास कंधे. मंह, नाक तथा आखें इतनी ही इंद्रियाँ थीं। यह देख आया। इसने उसका सम्मान किया तथा इच्छा पछी। कर इसके माता-पिता ने बहंत शोक किया। एक बार दत्त तब इसने रावण को छोड़ देने की प्रार्थना की। इसने उनके पास आये, तब उन्होंने उसे पुत्र दिखाया। उस आनंद से रावण को छोड़ दिया, तथा अग्नि के समक्ष एक समय यह बारह वर्ष का था। दत्त ने इसे एकाक्षरी मंत्र दूसरे से स्नेहपूर्वक व्यवहार करने की तथा पीडा न देने की बता कर. बारह वर्ष गणेश की आराधना करने के लिये प्रतिज्ञा की (वा.रा. उ. ३१-३३; विष्णु. ४.११; आ. कहा । इसने तदनुसार आराधना की, तब गणेश ने इसे रा. सार. १३; भा. ९.१५)। कार्नवीय ने नर्मदा के किनारे सुंदर शरीरयष्टि तथा सहस्र हाथ दिये । इसी कारण इसका खडे रह कर पांच बाण छोडे, जिससे लंकाधिपति रावण नाम सहस्रार्जुन हुआ (गणेश. १.७२-७३)। । मूर्छित हुआ। उसे धनुष्य से बांध कर यह माहिष्मती दत्तउपासना, वरप्राप्ति--कृतवीर्य के पश्चात् जब के पास लाया। बाद में पुलस्त्य की प्रार्थनानुसार उसे छोड़ . अमात्य इसको राज्याभिषेक करने लगे, तब कार्तवीर्य ने दिया (मत्स्य. ४३; ह. वं. १.३३; पद्म. सु. १२; ब्रह्म. गद्दी पर बैठना अस्वीकार कर दिया। इसे ऐसा लगता | १३) । वंशावली के अनुसार रावण इसका समकालीन था कि, राजा के नाते कर का योग्य मोबदला अपने द्वारा होना असंभव है । रावण व्यक्तिनाम न हो कर तामिल प्रजा को नहीं मिलेगा। इसे गर्गमुनि ने सह्याद्रि की भाषा का Irivan या Iraivan शब्द का संस्कृत रूप होना गुहाओं में दत्त की सेवा करने की सलाह दी (मार्क. चाहिये । इस शब्द का अर्थ हैं देव, राजा, सार्वभौम १६) । निष्ठापूर्वक एक हजार वर्ष तक दत्तात्रेय अथवा श्रेष्ठ (JRA S. 1914, P 285)। रावण विशेषकी सेवा करने पर, इसे चार वर मिले:-१. सहस्रबाहू, नाम समझा गया, इसलिये यह घोटाला हुआ। विष्णुपुराण २. अधर्मनिवृत्ति, ३. पृथ्वीपालन, ४. युद्धमृत्यु । इसने । की इस कथा में पुलस्त्य का नाम नहीं है (४.११)। कर्कोटक नाग से अनूप देश की माहिष्मती अथवा भोगावती । पृथ्वी जीत कर इसने बहुत यज्ञ किये (भा. ९.२३) नगरी जीती। यही वर्तमान ओंकार मांधाता है। वहाँ १०००० यज्ञ किये, सात सौ यज्ञ किये (ह.व. १.३३) मनुष्यों को बसा कर, इसने अपनी राजधानी बनायी। यों भी कहा गया है। उस समय इसे यज्ञ से एक दिव्य तदुपरांत कार्तवीय को दत्त तथा नारायण ने राज्याभिषेक | रथ तथा ध्वज प्राप्त हुआ (मत्स्य. ४३; ह. वं. १.३३; किया। उस समय समस्त देव, गंधर्व तथा अप्सरायें | मार्क. १७; पद्म. स. १२; अग्नि. २७५, ब्रह्म. १३; उपस्थित थीं (माक. १७)। विष्णुधर्म. १.२३)। बाद में प्रजा को यह इतना दुख देने __ पराक्रम- थोडे ही समय में, इसने समस्त पृथ्वी जीत लगा, कि पृथ्वी त्रस्त हो गई। तब देवताएं विष्णु के ली, तथा यह उसका पालन करने लगा। इसने मारी नामक | पास गये तथा उन्होने सब कथा बताई । विष्णु ने उन्हे राक्षस का वध किया (नारद.१.७६)। इससे युद्ध करने के अभय दिया तथा कार्दवीय के नाशार्थ परशुरामावतार लिये रावण अपने मित्र शुक, सारण, महोदर, महापार्श्व तथा लेने का निश्चय किया। शंकर ने परशुराम को कार्तवीर्य धूम्राक्ष सहित आया था। उस समय ऐसा पता चला कि, संहार के लिये आवश्यक बल दिया (म. क. २४. १३५ Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कार्तवीर्य प्राचीन चरित्रकोश कार्तवीर्य १४७-१५६: विष्णुधर्म २.२३)। हैहयाधिपति मत्त होने | किया । कार्तवीर्य की पत्नी मनोरमा ने इसे युद्ध के कारण, कुमार्ग की ओर प्रवृत्त हुआ। यह अत्रिमुनि पर न जाने के लिये प्रार्थना की, परंतु यह नहीं मानता का अपमान कर रहा है, यह देखते ही कार्तवीर्य को दग्ध यो देख कर उसने प्राणत्याग कर दिया। दत्त के वर से प्राप्त करने के लिये दुर्वास सात दिनों में ही माता के उदर से | इनकी बुद्धि नष्ट हो गई। तदनंतर इसका परशुराम से च्युत हो गया (मार्क. १६.१०१)। दुर्वास दत्त का बडा युद्ध हुआ। अंत में बाहुच्छेद हो कर यह मृत हो गया। भाई था । दत्त की कृपा भी कार्तवीर्य ने संपादन की थी। यह युद्ध गुणावती के उत्तर में तथा खांडवारण्य तदनंतर आदित्य ने विप्ररूप से इसके पास आ कर के दक्षिण में स्थित टीलों पर हुआ (म. द्रो. परि.१.क्र. खाने के लिये कुछ भक्ष्य मांगा। इसने कौनसा भक्ष्य ८. पंक्ति. ८३९ टिप्पणी)। बाद में परशुराम द्वारा दूं, ऐसा उमे पूछा । तब उसने सप्त द्वीप मांगे। परंतु किये गये कार्तवीर्य के वध की वाती जमदग्नि ने सुनी । उन्हें देने के लिये यह असमर्थ दिखने के कारण उसने राम से कहा, 'यह कार्य तुमने अत्यंत अनुचित आदित्य ने कहा, 'तुम पांच बाणों को छोड़ो। उनके किया । क्षमा ब्राह्मण का भूषण है। अब प्रायश्चित के अग्रभाग पर मैं बैलूंगा तथा अपनी इच्छानुसार प्रदेश लिये एक वर्ष तक तीर्थयात्रा करने के लिये जाओ'। खाऊंगा'। यह मान्य कर के इस ने पांच बाण छोड़े। इस कथनानुसार परशुराम तीर्थयात्रा करने के आदित्य ने जो पूर्व तथा दक्षिण के प्रदेश जलाये, उसमें लिये गया। तब पहले बैर का स्मरण कर कार्तवीर्य आपव वसिष्ठ ऋषि का आश्रम भी जला दिया। यह ऋषि के पुत्रों ने ध्यानस्थ जमदग्नि का बाणों से वध वरुण का पुत्र था। वह कार्यवश आश्रम के बाहर, १०००० किया तथा उसका मस्तक ले कर वे भाग गये । परशराम वर्षों तक जल में रहने के लिये गया था। वापस आते ही के लौटने पर, यह वृत्त उसे मालूम हुआ । माता की उसने देखा कि, आश्रम दग्ध हो गया है। उसने कार्तवीर्य | सांत्वना के लिये, उसने इक्कीस बार पृथ्वी निःक्षत्रिय करने को शाप दिया, 'तुम्हारा वध परशुराम रण में करेगा' की प्रतिज्ञा की, तथा उन पुत्रों पर आक्रमण किया। पांच (वायु. ९४.४३-४७; ९५.१-१३. मत्स्य. ४३-४४; / को छोड़ बाकी सब पुत्रों का वध कर के, परशुराम पिता ह. वं. १.३३; पद्म. सु. १२, ब्रह्म, १३; विष्णुधर्म १. का मस्तक वापस ले आया (म. व. ११७; भा. ९.१५, ३१) । कई ग्रंथों में आदित्य के बदले अग्नि भी दिया अग्नि. ४.)।कई स्थानों पर लिखा है कि कार्तवीय ने जमदग्नि गया है (म. शां. ४९.३५)। का वध किया (वा. रा. बां. ७५, प. उ. २४१)। __ काफी दिन बीत जाने के बाद, यह एक बार मृगया | पद्मपुराण में तमाचा लगाने का भी उल्लेख है। के हेतु बाहर गया, तथा घूमते-घूमते जमदग्नि के आश्रम ऊपर दिया गया है कि, इसे हजार हाथ थे, परंतु इसे में गया। वहाँ उमदामि की पत्नी तथा जमदग्नि ने घरेलु तथा अन्य कार्यो के लिये दो हाथ थे (ह. . १. इन्द्र द्वारा दी गई कामधेनु से इसका सत्कार ३३; ब्रह्म. १३)। परंतु इसे सहस्रबाहु नाम था (ह.वं. किया। तब यह जमदग्नि से वह गाय मांगने लगा। १.३३; मत्स्य. ६८; अग्नि. ४; गणेश १.७३)। महाजमदग्नि ने इसे ना कर दिया। तब यह जबरदस्ती उस भारत में लिखा है कि, आपव का आश्रम हिमालय गाय को ले जाने लगा। परंतु उस गाय के आक्रोश से | के पास था। यह आश्रम अग्नि को दे सका, इससे तथा शृंगों से इसकी संपूर्ण सेना एक पल में मृत हो गई। यह स्पष्ट है कि, इसका राज्य मध्यदेश पर होगा। कामधेनु स्वर्ग में चली गई (पन. उ. २४१)। परंतु अयोध्या का राजा हरिश्चन्द्र तथा त्रिशंकु इसके समआखिर कार्तवीर्य यह गाय तथा साथ में उसका बछड़ा ले कालीन थे । यद्यपि मथुरा के शूरसेन देश की स्थापना स्वयं ही गया। इसके पुत्रों ने इसको न मालूम होते ही बछड़ा | शत्रुध्नपुत्र शूरसेन ने की, तथापि लिंगपुराण में वर्णन है चुरा लाया (म. शां. ४९.४०)। कि इसकी स्थापना इसके पुत्र ने की (१.६८)। इसके परशराम तपश्चर्या के लिये गया था। केशव को | सब पुत्रों के लिये स्वतंत्र देश थे (ब्रह्माण्ड. ३.४९)। संतुष्ट कर के अनेक दिव्यास्त्र ले कर वह अपने आश्रम | यह संपूर्ण कथा, जमदग्नि की कामधेनु को मुख्य मान कर में आया। कामधेनु ले जाने का वर्तमान उसे ज्ञात बताई गई है। पद्मपुराण में उसी गाय को सुरभि माना हुआ। तब क्रोध से कार्तवीय पर आक्रमण कर, गया है ( उ. २४१)। वहाँ इक्कीस बार पृथ्वी निःक्षत्रिय नर्मदा के किनारे उसने इसे युद्ध के लिये आमंत्रित करने की प्रतिज्ञा का उल्लेख नहीं है । वहाँ (ब्रह्मांड. ३. १३६ Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कार्तवीर्य प्राचीन चरित्रकोश कालकंज २१.५-४७.६१) उल्लेख है कि, परशुराम ने कान्य- कार्शकेयीपुत्र-प्राचीनयोगीपुत्र का शिष्य । इसका कुब्ज तथा अयोध्या के सब राजाओं की सहायता से | शिष्य वैदृभतीपुत्र था (बृ. उ. ६. ५. २ काण्व)। अर्जुन को मारा तथा भार्गवों का पराभव किया। माध्यदिन में गुरु प्राश्नीपुत्र आसुरवासिन् है (बृ. उ. चक्रवर्तिपद-इसका शासन ८५ हजार वर्षों तक रहा। | ६. ४. ३३)। इस प्रदीर्घ शासनकाल में इसने हैहयसत्ता तथा वैभव | कार्षणि-भृगुकुल का गोत्रकार । पार्वणि पाठको अत्यंत वृद्धिंगत किया । प्रतीत होता है कि, इसने | भेद है। नर्मदा के मुख से हिमालय तक का प्रदेश जीत लिया। कार्णाजिनि--एक प्राचीन आचार्य (जै. सू. ४. था । इसकी सत्ता चारों ओर सुदूर तक फैली थी, इसका | ३. १७; ६. ७. ३५, ब्रह्मसूत्र. ३. १. ९; का. श्री. १. प्रमाण यह है कि, इसे कई स्थानों पर सम्राट तथा चक्रवर्ति ६. २३)। इसने कार्णा जिनिस्मृति नामक ग्रंथ रचा । कहा गया है (ह. वं. १.३३; पद्म. सृ. १२; ब्रह्म. १३; | पैठीनसि, हेमाद्रि, माधवाचार्य आदि ग्रंथकार इस विष्णुधर्म १.२३; नारद. १.७६ )। स्मृति का उल्लेख करते हैं (C.C.)। मिताक्षरा (याज्ञ. नर्मदा तथा समुद्र का अपने हाथों से यह इस प्रकार | ३. २६५), अपरार्क, स्मृतिचंद्रिका तशा श्राद्धविषयक मंथन करता था कि, सब जलचर इसके शरण आ जाते | अन्य ग्रंथों में इसका उल्लेख है। अपरार्क में (प्र. थे । यमसभा में यह यम के पास अधिष्ठित रहता है। १३८) इसका एक श्लोक दिया है । उसमें ब्रह्मदेव के (म. स. ८.८)। इसका ब्राह्मणों के श्रेष्ठत्व के संबंध में | सनक, सनंदन, सनातन, कपिल, आसुरि, ओढ तथा पवन से संवाद हुआ था (म. अनु. १५२-१५७)। उसी पंचशिख इन सात पुत्रों का उल्लेख है । राशियों के चिह्नों प्रकार, मुझसे लड़ने लायक शक्तिशाली कौन है, इस | के संबंध मे इसका एक श्लोक अपरार्क में दिया है विषय पर समुद्र से भी इसका संवाद हुआ है (म. आश्व. | (४२०)। २९)। इसने प्रवालक्षेत्र में प्रवालगणर का बड़ा मंदिर कार्णायन--कृष्णपराशरकुल का गोत्रकार । बनाया (गणेश. १.७३.) । माघस्नानमाहात्म्य के संबंध | कार्णि-कृष्ण के पुत्रों का, विशेषतः प्रद्युम्न का में इसका दत्त से संवाद हुआ था (पद्म.उ. २४२-२४७)। नाम (भा. १०.५५)। 'नारदपुराण में इसकी पूजाविधि बतायी है। इसके २. अभिमन्यु (म. भी. ४५.२०)। शरीरवर्णन में दिया है कि यह काना था (नारद. १.७६)।। ३. विश्वक देखिये। - संतति-इसे सौ पुत्र थे । उनके नाम शूर, शूरसेन, | काल--ध्रुव वसु का पुत्र । वृष्ट्याद्य, वृष, ज्यध्वज (वायु. ९४ ४९-५०) धृष्ट, कोष्ट | २. जालंदर की सेना का एक असुर (पद्म. उ. (मस्त्य. ४३), कृष्ण (ह. वं.१.३३; पद्म. स. १२), सूर, | १२)। सूरसेन (अग्नि. २७५), वृषण, मधुपध्वज (ब्रह्म. १३), ३. परशुराम का बंधु (कालकाम देखिये)। धृष्ट, कृष्ण (लिंग. १.६८), वृषभ, मधु, ऊर्जित (भा. ४. ग्यारह रूद्रों में से एक (भा. ३. १२)। ९.२३)। भागवत में कहा है कि, इसे दस हजार पुत्र कालक--विजर का पुत्र । कालकंज-ये असुर थे। ये आकाश में रहते २. (सो. सह.) मत्स्य तथा वायु के मत में कनक थे (अ. वे. ६. ८०.२)। इनका पराभव इंद्र ने किया। के चार पुत्रों में से एक। ये इंद्र के पराक्रम का एक स्थान हैं (क. सं. ८.१, कार्ति-(सो. द्विमीढ.) उग्रायुध का पैतृक नाम । मै. सं. १.६.९; तै. ब्रा. १. १. २. ४-६; कौ. उ. कार्तिकस्वामिन-स्कंद तथा गजानन देखिये। ३.१)। इन्होंने स्वर्गप्राप्ति के लिये अग्निचयन कार्तिमती-शुककन्या तथा अणुह की पत्नी। अनुष्ठान आरंभ किया । तब इसका पराभव करने के कार्तिवय-कश्यपगोत्र का एक ब्रह्मर्षि । लिये, इंद्र वेषांतर कर इनके पास आया तथा इससे कार्दमायनि-भृगुगोत्र का एक ब्रह्मर्षि । उसने कहा, 'हे असुरों ! मैं ब्राह्मण हूँ। तुम्हारे अनुष्ठान काईपिंगाक्षि-काद्रुपिंगाक्षी का पाठभेद । में मुझे लेलो। मुझे भी स्वर्ग जाना-है' । असुर मान गये । कार्पणि-भृगुकुलोत्पन्न एक ब्रह्मर्षि । चयन के लिये असुर इष्टक (इंटें) जमा रहे थे । उनके कार्मायन---मांकायन का पाठभेद । | साथ साथ इंद्र ने अपनी एक ईट जमायी तथा अपनी प्रा. च. १८] १३७ थे। Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन चरित्रकोश कालकंज चित्रा नामक ईंट का मन में स्मरण रखा। अनुष्ठान समाप्त होने के पश्चात् चयन पर आरोहण कर असुर स्वर्ग जाने लगे । इतने में चयन में से इंद्र ने अपनी ईंट धीरे से निकाल ली। जिससे चयनरूपी श्येनपक्षी ध्वस्त हो कर नीचे गिरा, तथा असुरों का स्वर्ग जाना रुक गया। कुछ लोग स्वर्ग की आधी राह में थे। चयनध्वंस की घटना के कारण वे मकोड़ा नामक छैः पैरों के कीडे बने । दो अमुर श्रद्धातिशय के कारण स्वर्ग जा पहुँचे, परंतु चयनभ्रष्टता के पाप से दोनों देवलोक में श्वान बने (तै. बा. १.१.२ कालकेय देखिये) । कालकवृक्षीय- एक ऋषि इसके पास भूत भविष्य तथा वर्तमान जाननेवाला एक पक्षी था। एक बार यह कोसल देशाधिपति क्षेमदर्शी राजा के यहाँ गया । राजाने पक्षी का गुण जान कर प्रश्न पूछा, 'मेरे मंत्री मेरे संबंध में कैसे हैं ?' इस पर पक्षी ने एक मंत्री के जो दुर्गुण थे, वे बताये। दूसरे दिन अन्यों के दुर्गुण बताना तय किया। तब रात्रि में अन्य मंत्रियों ने उस पक्षी की हत्या की। इससे राजा समझ गया कि, ये सारे मंत्री अनिष्टचिंतन करनेवाले हैं। इस ऋषि की सहायता से राजा ने सबको सजा दी ( म. शां. १०१; स. ७.१६ ) । एक बार क्षेमदर्शी निर्बल हो कर इस मुनि के पास आया उसने मुनि से पूछा "अब क्या करें ?" मुनि । ने उसकी सब तरह से परीक्षा लेकर क्षेमशी राजा को अपना प्रधान नियुक्त करने का विदेहपति को आदेश दिया। विदेहपति ने यह मान्य किया। दोनों ने मुनि का आदरपूर्वक पूजन किया ( म. शां. १०५-१०७; क्षेमदर्शिन् देखिये) । कालका -- वैश्वानर दानव की कन्या तथा कश्यप प्रजापति की स्त्री (भा. ६.६ ) । कुछ लोगों का दावा है कि, यह मारीच राक्षस की स्त्री है। उपरोक्त विधान ठीक नहीं है। कश्यर को मारीच भी कहते है, अतः वह कश्यप ही की पत्नी है। इसके कालकेय ऊर्फ कालकंज नामक असंख्य पुत्र हुए ( कश्यप तथा कालकंज देखिये; म. व. १७० ) । कालनेमि कालकामुक कार्मुकपर राक्षस के बारह अमात्यों में से एक ( खर देखिये) । कालकाम- विश्वेदेवों में से एक संप्रति परशुराम क्षेत्र में परशुराम के पास रहते है । वहाँ के लोग संकल्प में भी इसका उच्चार करते हैं, परंतु इस विषय में प्रमाण अप्राप्य है। कालकाक्ष -- गरुड़ के द्वारा मारा गया एक राक्षस । कालकीर्ति -- एक क्षत्रिय ( म. आ. ६१.३४ ) । कालकूट - - त्रिपुरासुर का आश्रित दैत्य ( गणेश. १. ४३ ) । . कालकेतु एक असुर एकवीर नामक हैहय राजा ने इसका वध किया । कालकेय ( कालेय) हिरण्यपुर में रहनेवाले असुर । इन्हें अर्जुन ने मारा ( म. व. ९८. १७० ) । मारीच की कालका नामक स्त्री थी । उसके पुत्र कालकेय । इनके लिये कासवंग भी नामांतर है ( म. स. ९.१२ ) । इनके साथ रावण का युद्ध हुआ था। तब रावण की भगिनी शूर्पणखा का पति विद्युज्जिह्न अनजाने रावण द्वारा मारा गया। कालकेय १४ सहस थे ( वा. रा. उ. २४.२८ ) । कालखंज -- कालकंज, कालका, कालकेय देखिये । कालघट - - जनमेजय राजा के सर्पसत्र का एक सदस्य म. आ. ४८.८ ) । ( कालजित् -- लक्ष्मण का सेनापति ( कुशीलव देखिये) । कालजित एक रुद्रगण । । । कालनर - ( सो, अनु.) भागवतमतानुसार समानर का पुत्र इसके पुत्र संजय इसे कालानल भी कहते हैं। कालनाभ -- हिरण्यकशिपु की सभा का एक दैत्य तथा स्पाभानु का पुत्र (भा. ७.२ ) । २. कश्यप तथा दनु का पुत्र ( . ६ १.२.१००) | ३. विप्रचित्ति तथा सिंहिका का पुत्र । इसे परशुराम ने मारा (ब्रह्माण्ड. ३.६.१८-२२ ) । ४. कृष्णपुत्र सांब के द्वारा मारा गया दैत्य । कालनेमि - लंका का एक राक्षस । लक्ष्मण युद्ध में मूर्च्छित हुआ। उसे औषधि लाने के लिये हनुमान द्रोणाचल कि ओर जा रहा था। रावण को यह समाचार मिला । मार्ग में रोड़ा अटकाने के लिए उसने कालनेमि की योजना की । यह ऋषि के वेष में हनुमान् के, मार्ग में जा बैठा । पानी के लिये हनुमान् वहाँ रुका। इसका कपट जल्दी ही समझ गया, इसलिये इसे मार कर वह अविलंब आगे बढ़ा ( अध्या. रा. यु. ७) । सौ मुखोंवाला एक दैत्य (मत्स्य. १७७ ) । १३८ Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कालनेमि प्राचीन चरित्रकोश कालयवन . पातालवासी एक दैत्य (पन. उ. ६; म. स. गार्ग्य कडे ब्रह्मचर्य से रहता था। एक बार उसके साले ५१)। विरोचन बद्ध होने पर इसने सारी सेना का | ने उसे षंढ (नपुंसक) कहा। यह सुन कर गार्ग्य अत्यंत क्रुद्ध पराभव किया। विष्णु पर आक्रमण करने के कारण चक्र हुआ। इसलिये उसने दक्षिण में जाकर लोह पिष्ट भक्षण ने इसके सौ हाथों को तथा मस्तकों को तोड़ डाला, किया। बारह वर्ष तपस्या की। शंकर को प्रसन्न कर एवं इसके प्राण ले लिये ( पन. सृ. ४)। विष्णु ने वध | लिया। शंकर से यादवों को पराजित करनेवाला पुत्र उसने किया, इस लिये प्रतिशोध लेने के लिये यह कंस हुआ | मांग लिया। यह घटना दक्षिण में अजितंजय नामक नगर में (भा. १०.१; कंस देखिये)। हुई। उस समय यवनाधिपति राजा निपुत्रिक था । वह पुत्र संहाद का पुत्र । इसके चार पुत्रः-ब्रह्म जित् , ऋतु की कामना कर रहा था। उसे गार्ग्य के वर का पता चला। जित्, देवांतक तथा नरांतक । तब उसने गार्य को गोपस्त्रियों में से गोपाली नामक ग्वालन से पुत्र होने का प्रबन्ध किया। इस तरह उत्पन्न पुत्र कालपथ--विश्वामित्र ऋषि का पुत्र (म. अनु. ४. कालयवन है। ५०)। ___ यवनराज के घर छोटे से बडा हुआ कालयवन कालपृष्ठ--कश्यप को दिति से उत्पन्न दैत्य । इसने सौभाग्य से उसके राज्य का अधिपति बन गया। इसका तास्या कर वर मांगा, 'जिसके सिर पर मैं हाथ रख, वह | कृष्ण के साथ संजोग से युद्ध हुआ वा सहेतुक रचाया भस्म होवे ।' बाद में इसका प्रयोग यह शंकर पर करने गया, इस विषय में पुराणों की एकवाक्यता नहीं है। लगा। विष्णु ने मोहिनीरूप धारण कर, इसे आपने ही कालयवन दिग्विजय के लिये निकला । मथुरा के सिर पर हात रखने को उद्युक्त किया । अतः यह स्वयं बलशाली यादवों पर इसने आक्रमण किया। इसी प्रकार भस्म हो गया (स्कन्द, ५.३.६७; भस्मासुर देखिये)। का निर्देश कुछ ग्रंथों में है। जरासंध कृष्ण को जीतने में कालभीति--एक शिवभक्त । गर्म में ही यह काल असमर्थ था, अतः हेतुपुरस्सर सौभपति शाल्वद्वारा मार्ग नामक असुर से डर रहा था, इस लिये कालयवन को निमंत्रित करने का उल्लेख हरिवंश में है। इसका नाम काल भीति रखा गया । इसके पिता मांटी ने ___जाते समय, कृष्ण शायद विघ्न डालेगा इस लिये पुत्रप्राप्ति के हेतु से १०० वर्षों तक रुद्र का अनुष्ठान सौभपति शाल्व जरासंध का संदेश लेकर इसके पास किया । तब मांटी की पत्नी गर्भवती हुई । चार आकाशमार्ग से आया । कालयवन इसी संधि की ताक में वर्ष होने पर भी गर्भ बाहर नहीं आता था । तब मांटी ने था। इसने उसी दिन विपुल सेना ले कूच करने की गर्भ से इसका कारण पूछा। गर्भ ने उत्तर दिया, मुझे तैयारी की। यह यवन था, तथापि कूच करने के कालमार्ग का डर लग रहा है। अनंतर मांटी ने शिवजी को पहले इस के द्वारा अग्निहवन देने का उल्लेख मिलता है इस वृत्तान्त का कथन किया। शिवजी ने इसे धर्म, ज्ञान, (ह. व. २.५४)। वैराग्य आदि का बोध कराने को कहा । बोध प्राप्त होने पर | ___इधर जरासंध के बारबार के आक्रमणों से कृष्ण त्रस्त गर्भ बाहर आया। आगे चल कर, इसका संस्कार होने पर कालभीतिक्षेत्र में इसने अनुष्ठान किया । यह स्वर्ग हो गया था। इसलिये उसने मथुरा के समान समतल मैदान सुख का उपभोग करने लगा । शिवजीने इसकी भक्ति में स्थित राजधानी छोड़ कर दूरस्थ समुद्रवेष्टित द्वारका को राजधानी बनाने की यादवों से मंत्रणा की। एक ओर देख प्रसन्न हो कर वर दिया, 'तुम ने कालमार्ग पर विजय प्राप्त की, अतः तुम 'महाकाल' नाम से से जरासंध तथा दूसरी ओर से कालयवन के आगमन को देख कर, चतुर कृष्ण ने एक रात में ही राजधानी बदलने प्रख्यात हो जाओगे।' साथ ही उन्होंने आशीर्वाद दिया का निश्चय किया। कि, तुम यहाँ करंधम को उपदेश दोगे। अनंतर मेरे | इसके पूर्व उसने कालयवन को डराने का प्रयत्न प्रतिहारी नंदी बनोगे। (स्कंद. १.२.४०)। किया । एक काले सर्प को घडे में रख कर, उस पर मुद्रा कालभैरव--भैरव तथा रुद्र देखिये । लगाई गई। अपने दूत के द्वारा वह घडा कृष्ण ने कालकालयवन--गार्ग्य (गर्ग) तथा गोपाली का पुत्र । यवन के पास भिजवाया। इसका विशेष प्रभाव नहीं पड़ा। इसका पिता गार्ग्य वृष्णि तथा अंधक का पुरोहित था। | कालयवन ने सर्प देख कर स्वाभाविक रूप से उद्गार कहीं उसे गर्ग नाम से भी उल्लेखित किया गया है। निकाले, 'कृष्ण इस काले सर्प की तरह है।' उस घडे में १३९ Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कालयवन प्राचीन चरित्रकोश कालेय काटने वाली बहुत सी ची टियाँ भर कर, वह घड़ा कृष्ण कालिक-व्यास की सामशिष्य परंपरा का वायु तथा को लौटा दिया । इस संदेश का तात्पर्य यह था कि, तुम ब्रह्मांडमत में हिरण्यनाभ का शिष्य (व्यास देखिये)। यद्यपि कालसर्प की तरह प्रबल हो, तो मैं संख्या में २. मय तथा रंभा के पुत्र (ब्रह्माण्ड. ३६.२८-३०)। अधिक हूँ। अतः चींटियों की तरह तुम्हें नष्ट करूँगा। | कार्लिंग--एक अंत्यज । यह चोरी करने गया था, यह देख कर कृष्ण ने एक रात्रि में राजधानी बदल | तब तीर्थ में इसकी मृत्यु हुई, इसलिये इसका उद्धार हुआ ली। सबको धैर्य बँधा कर, वह स्वयं पुनः मथुरा में | (पन. उ. २१७)। पैदल आया। निःशस्त्र स्थिति में मथुरा से बाहर | कालिंदी--कृष्ण की पत्नी । पूर्वजन्म में यह सूर्यआये हुए कृष्ण को कालयवन ने देखा । काल- कन्या थी। उस जन्म में, कृष्णप्राप्ति के लिये यह यवन ने कृष्ण का पीछा किया । ऐसे काफी दूर जाने के | यमुना के तट पर तपस्या कर रही थी। इसका मनोदय बाद, कृष्ण एक गुफा में प्रविष्ट हुआ । वहाँ मुचकुंद. जान कर कृष्ण ने इसका पाणिग्रहण किया। इसे श्रुत, सोया था । कृष्ण ने अपना वस्त्र धीरे से मुचकुंद के शरीर | कवि, वृष, वीर, सुबाहु, भद्र, शांति, दश, पूर्णमास तथा पर डाला । तथा स्वयं ओट में छिप गया (भा. १० सोमक ये दस पुत्र हुए. (भा. १०.६१)। ५१-५२) । अन्यत्र शरीर पर वस्त्र डालने का उल्लेख | कालिय--यह काद्रवेयकुल के पन्नग जाति का नाग नहीं है । कालयवन ने सुप्त मुचकुंद को ही कृष्ण समझा था (भा.१०.१७.४; म. आ. ३१.६; स. ५३.१५-१६)। तथा उसपर लत्ता-प्रहर किया । इस से मुचकुंद एकदम यह पहले रमणकद्वीप में था। गरुड़ त्रस्त न करें, इसलिये जागृत हो गया। क्रोधित हो कर केवल दृष्टिक्षेप से | हर माह में पौर्णिमा को. यह उसको भक्ष्य पहुँचा देता था। कालयवन को उसने जला दिया (ह. वं. २. ५२-५७; एक बार इसने गरुड़ का भाग भक्षण कर लिया। गरुड़ ने पद्म. उ. २७३. ४८-५७; विष्णु. ५. २३; ब्रह्म. १४. क्रुद्ध हो कर इसे मारा। किंतु एक प्रहार लगते ही, यह ४८-५२; १९६; म. शां. ३२६.८८)। यमुना में जा कर छिप गया। सौभरि के शाप के कारण, कालवीर्य-एक असुर (सैंहि केय देखिये )। गरुड वहाँ न आ सकता था। कालिय के कारण वहाँ का कालशिख-वसिष्ठगोत्रीय ऋषि । पानी विषमय बन गया। उसे प्राशन करने के कारण, काला-काष्ठा देखिये। गोप तथा गौओं की मृत्यु हो गई। तब एक वृक्ष पर चढ़ २. देवों की स्तुति से प्रसन्न हो कर, शुंभनिशुंभ का कर, कृष्ण कर, कृष्ण ने यमुना के जलाशय में छलांग लगाई। कालिय वध करने के लिये देवी पार्वती द्वारा उत्पन्न शक्ति । इसने | को वहाँ से रमणकद्वीप की ओर भगा दिया, तथा गरुड़ धूम्रलोचन, चंड़मुड़, रक्तबीज, शंभनिशुंभ आदि का | द्वारा संत्रस्त न होने का प्रबंध किया । इसे पांच मुखे थे, वध किया (दे. भा. ५. २२-३१, शंभनिशंभ तथा । तथा यह बड़े ही ऐश्वयं से रहता था (भा. १०.१६; रक्तबीज देखिये)। इसे काली, कालिका तथा कौशिकी | ह. वं. २.१२; विष्णु. ५.७)। नामांतर हैं। उपरोक्त युद्ध में सब देवताओं की शक्तियाँ, २. दाशरथि राम की सभा का एक हास्यकार । अपने अपने लक्षणों से युक्त हो कर, इसकी सहायता | काली-दुर्गा देखिये। करने के लिये आई। उनके नाम १. ब्रह्माणी, २. वैष्णवी, २. मत्स्यी के उदर से जन्म ली हुई उपरिचर वसु राजा ३. शांकरी, ४. इन्द्राणी, ५. वाराही, ६. नारसिंही, ७, की कन्यां । इसे मत्स्यगंधिनी, योजनगंधा आदि नाम थे। याम्या, ८. वारुणी, ९. कौबेरी (दे. भा. ५.२८)। बाद में सत्यवती नाम भी प्राप्त हुआ। यही आगे चल कर कालाक्ष-घटोत्कच देखिये। शंतनु की पत्नी बनी। इसे कौमार्यावस्था में पराशर कालानल-(सो. अनु.) कालनर तथा यह एक | नामक पुत्र हुआ। ३. पंडुपुत्र भीमसेन की दूसरी स्त्री । इसे उससे सर्वगत २. एक दैत्य । गजानन ने विजयपुर में इसका वध | नामक पुत्र हुआ (भा. ९.२२.३१)। इसके लिये काशी, किया । वहाँ गजानन का नाम विघ्नहर है (गणेश. १. | काशेयी तथा काश्य पाठभेद क्वचित् प्राप्त हैं । यह शिशुपाल की भगिनी थी (म. आश्र. ३२.११) कालायनि--व्यास की ऋशिष्य परंपरा का बाप्कलि | कालीयक-कद्र तथा कश्यप का पुत्र । का शिष्य (व्यास देखिये)। । कालेय-अत्रिकुल का गोत्रकार (अत्रि देखिये)। १४० Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कालेय प्राचीन चरित्रकोश काश्यप २. रसातल में रहनेवाले दैत्यों में से एक (भा. ५. काशिराज--अंबा, अंबिका तथा अंबालिका का २४)। यह कालकेय का भाई था। भाई की मृत्यु के | पिता | परंतु यह नाम काशी के किसी भी राजा को कारण, चित्ररथ पर इसने आक्रमण किया। परंतु इन्द्र पुत्र | लगाया जाता है (भा. ९.२२ प्रतर्दन देखिये)। जयंत ने बीच ही में इसका वध किया (पद्म. सृ.६६)। २. भारतीय युद्ध में दुर्योधनपक्षीय राजा (म. आ. कावषेय-यह तुर का मातृक नाम है । यह तत्त्वज्ञान | ६१-६७)। का आचार्य था (ऐ. आ. ३.२.६; सां. आ. ८.२)। ३. भास्करसंहिता के 'चिकित्साकौमुदी' तंत्र का कर्ता यह तुर ऋषि को कवषा से उत्पन्न हुआ था (भा. ९.२२) | (ब्रह्मवै. २.१६)। काव्य--बर्हिषद पितरों में से एक, तथा स्वतंत्र पितृगण | काश्य--(सो.क्षत्र.) भागवत मत में महोत्र का, एवं वायु (वायु. ५६.१३)। यह कविपुत्र है। तथा विष्णु के मत में सुनहोत्र का पुत्र । ब्रह्मांड, भागवत तथा वायु के मत में, काश्यवंश अमावसुपुत्र क्षत्रवृद्ध से २. वारुणि कवि का पुत्र । भार्गव तथा अंगिरस गोत्र प्रारंभ हुआ। ब्रह्म तथा अग्नि पुराण के मत में वह पौरव के मंत्रकार तथा ऋषि । सामवेदी श्रुतर्षि ( उशनस् देखिये) सुहोत्र से निकला । परंतु, ब्रह्म तथा अग्नि में सुहोत्र तथा ३. तामस मन्वन्तर के सप्तर्षियों में से एक. सुनहोत्र नामसाम्य से गड़बड़ हो गई होगी । इस वंश को ४. उशनस् का पैतृक नाम (ऋ. १.५१.११; ८३.५ क्षत्रवृद्धवंश अथवा काश्यवंश कहते हैं (काशि देखिये)। १२१.१२, ६. २०.११; ८.२३.१७; अ. वे. ४.२९.६: २. सांदीपनी का नामांतर । ते. सं. २.५.८.५)। इटत् , तथा उक्ष्णोरंध्र का भी यह । ३. (सो. अज.) सेनजित राजा के चार पुत्रों में से पैतृक नाम है। तीसरा । मत्स्य में काव्य नामांतर प्राप्त है। काश-काश्य देखिये। ४. भारतीय युद्ध में पांडवपक्षीय राजा । एकरथ होते काशकृत्स्न--एक व्याकरणकार। इसका तीन अध्यायों हुए भी, युद्ध के समय किसी वरप्रभाव से यह अष्टरथी * का व्याकरण है (काशिका. ५.१.५८)। एक तत्त्वज्ञानी | हो जाता था (म. उ. १६८.१२१)। (ब्र. सू. १.४.२२)। ५. काशिराज अर्थ से यह नाम अजातशत्रु के लिये काशि वा काश्य-इन लोगों का वैदिक वाङ्मय में • पर्याप्त उल्लेख आता है। काशी राजा के लिये इस शब्द काश्यप--किसी विस्तृत कुल का नाम । प्रजापति . का उपयोग किया गया होगा। शतानीक सात्राजित के के द्वारा उत्पन्न सभी प्रजायें काश्यप माने कश्यपकुलोत्पन्न द्वारा काशी राजा धृतराष्ट्र का पराभव हुआ। तब पुनः | है (श. ब्रा. ७.५.१.५, कश्यप देखिये)। ब्राह्मणों के हाथों में सत्ता आने की अवधि तक के लिये, यह सर्वसाधारण पैतृक नाम है (ते. आ. २.१८; काश्य लोगों ने यज्ञ करना बंद कर दिया (श. बा. १३.५. १०.१.८)। अगत्स्य तथा परशुराम के समान, यह भी ४.१९)। दूसरा अजातरिपु भी काशी का राजा था। भद्र- दक्षिण का निवासी माना जाता है। अपने वंश अथवा उपसेन भी काशी का राजा था। काशी विदेह सामासिक नाम निवेश का काश्यप से संबंध जोड़नेवाले तथा काश्यप प्राप्य है । काशी, कोसल एवं विदेह का एक ही पुरोहित | गोत्रीय माननेवाले लोग सभी जातियों में पाये जाते हैं। था (सां. श्री. १६.२९.५)। काशी तथा विदेह एक | शाकटायन के साथ व्याकरणज्ञ कह कर, इसका उल्लेख है दुसरे के बिल्कुल समीप थे (बौ. श्री. २१.१३)। काशी- (शु. प्रा; ४.५)। कौशल्य निर्देश भी पाया जाता है (गो. बा. १.९)। कश्यप गोत्र का मंत्रकार । यह ऋषि भी है (भृगु, २. वारुणि कवि के आठ पुत्रों में से सातवाँ (कवि | कश्यप अवत्सार, ऋश्यशंग, देवतरस् , श्यावसायन, शूष देखिये)। . | वाह्नेय, गौतम असित देवल, निध्रुवि, भूतांश, रेभ, रेभ३. (सो. क्षत्र.) भागवत मत में काश्यपुत्र । वायु | सूक्ति, विवि तथा हरित देखिये)। तथा विष्णु के मत में काश पुत्र । वायु में इसे काश्य कहा | २. एक मांत्रिक ब्राह्मण । सर्पदंश हुए परीक्षित को अपने है । विष्णु में इसे काशिराज कहा है । (काश्य देखिये)। मंत्रसामर्थ्य से जीवित कर के, धनप्राप्ति करने के लिये काशिक-भारतीय युद्ध में पांडवपक्षीय राजा (म. यह जा रहा था। यह समाचार पाते ही, वृद्ध ब्राह्मण का उ. १६८.१४)। | रूप ले कर, मार्ग में तक्षक ने काश्यप से भेंट की, तथा इससे Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काश्यप प्राचीन चरित्रकोश काषायण कहा, 'तुम्हारे सामने इस वृक्ष को मैं काटता हूँ। अपने तथा शिक्षाकार भी था। इसके नाम पर निम्नलिखित ग्रंथ मंत्रसामर्थ्य से तुम इसे जीवित करो, तभी तुम्हारा मंत्र- उपलब्ध हैं:-१. काश्यपपंचरात्र, २. काश्यपसंहिता, सामर्थ्य मैं सत्या मानूंगा' | तक्षक के दंश से भस्मसात् वृक्ष, | ३. काश्यपस्मृति, ४. काश्यपसूत्र । कश्यपस्मृति एवं कश्यप इसने मंत्रसामर्थ्य से अंकुरित कर के दिखाया। इसके | संहिता, तथा काश्यपरमृति एवं काश्यपसंहिता इन ग्रंथों का मंत्रसामर्थ्य के प्रति तक्षक को पूर्ण विश्वास हो गया। रचयिता एक ही होगा (C.C.)। राजा से प्राप्त होनेवाली संपदा से अधिक धन दे कर, अठारह ज्योतिषसंहिताकारों में से एक । इसकी तक्षक ने इसे विदा किया। ब्राह्मणशाप के सामने अपना | काश्यपसंहिता प्रसिद्ध है। इस संहिता के कुल पचास मंत्र सिद्ध न होगा, इस आशंका से काश्यप घर लौटा अध्याय हैं। कुल श्लोकसंख्या करीब-करीब १५०० है। (म. आ. ३९) । परंतु राजा के पास न जाने के कारण, | कहते हैं कि, इस ग्रंथ में सूर्य पर प्राप्त धब्बों का उल्लेख लोगों ने इसे जातिच्युत कर दिया। तब यह व्यंकटाचल है, तथा दूरवीक्षणादि यंत्रों का भी वर्णन है (कवि पर गया। वहाँ के तीर्थस्नान से यह पापमुक्त हो गया | चरित्र )। (स्कंद. २. १. ११)। ५. भौत्य मन्वन्तर का एक मनुपुत्र । ___३. एक ब्राह्मण । काश्यप की एक पुरानी कथा, भीष्म ६. सावर्णि मन्वन्तर के सप्तर्षियों में से एक। ने ज्ञान के महत्त्व का वर्णन करने के लिये, युधिष्ठिर को ७. स्वारोचिष मन्वन्तर के सप्तर्षियों में से एक । बताई है, वह निम्न प्रकार से है। ८. वैवस्वत मन्वन्तर के सप्तर्षियों में से एक.. काश्यप नामक एक तपस्वी तथा सदाचारसंपन्न ब्राह्मण ९. अत्रि का मानसपुत्र (ब्रह्माण्ड ३.८.७४-८७)। था । इसे एक वैश्य ने रथ का धक्का दे कर गिरा दिया। १०. एक शाखाप्रवर्तक (पाणिनि देखिये)। . तब विकल हो कर, क्रोध से यह प्राण देने के लिये प्रवृत्त . ११. गोकर्ण नामक शिवावतार का शिष्य। हो गया। यह जान कर, इन्द्र शृगाल रूप से वहाँ आया। १२. दाशरथि राम की राजसभा का एक धर्मशास्त्री। उसने इसे मानवदेह तथा उसमें भी ब्राह्मण्यप्राप्ति की १३. दाशरथि राम की सभा का एकं हास्यकार । प्रशंसा कर के मृत्यु से निवृत्त किया, तथा ज्ञान की या ज्ञान की १४. पांडवों के साथ यह द्वैतवन में था । . ओर इसका ध्यान प्रेरित किया । तब काश्यप को भी १५. वसुदेव, का पुरोहित । पांडवों के जातकर्मादि आश्चर्य हुआ। इसे पता चला, कि शृगाल न हो कर यह | संस्कार इसने किये (म. आ. परि. १; क्र. ६७. पंक्ति. इन्द्र है। तब इन्द्र की पूजा कर यह घर लौट आया | | २०)। (म. शां. १७३; नारद देखिये)। . काश्यपि-कश्यप के वंशज का नाम । अरुण के लिये ४. एक धर्मशास्त्रकार । अठारह उपस्मृतिकारों में से | भी यही नाम प्रयुक्त है। यह एक है (स्मृतिचन्द्रिका १; सरस्वती विलास पृष्ठ । २. भृगुगोत्रीय ऋषि । १३)। उसी प्रकार, पाराशरधर्मसूत्र में भी धर्मशास्त्र- ___ काश्यपी-शिखंडिनी देखिये । कर्ता कह कर इसका उल्लेख है। परंतु याज्ञवल्क्य- ___ काश्यपीबालाक्या माठरीपुत्र-- एक आचार्य । स्मृति में इसका नामनिर्देश नहीं है। इसके ग्रंथो में | यह कौत्सीपुत्र का शिष्य था। इसका शिष्य शौनकी पुत्र आह्निककर्म, श्राद्ध, अशौच, प्रायश्चित्तादि के बारे में | (श. ब्राः १४.९.४.३१-३२)। काफी जानकारी दी गई है। मिताक्षरा, स्मृतिचन्द्रिका दि काश्यपेय--कश्यपगोत्रीय एक गोत्रकार गण। यह ग्रंथों में इसके धर्मशास्त्र से उद्धहरण लिये गये है। काश्यप- | नाम सूर्य को भी दिया जाता है। स्मृति नामक एक स्वतंत्र ग्रंथ हैं । उसमें गृहस्थ के कर्तव्य, २. कृष्ण के दारुक नामक सारथि का नाम (म. द्रो. भिन्न भिन्न प्रकार के प्रायश्चित्तादि की जानकारी है। कश्यप | १२२.५२)। नामक एक धर्मशास्त्रकार का उल्लेख बौधायनधर्मसूत्र में काश्या-भीम की पत्नी ( देखिये काली ३.)। है ( १.२.२०)। परंतु यह तथा कश्यप दोनों भिन्न भिन्न | २. जनमेजयपत्नी।। हैं, वा एक ही हैं, इसके विषय में निश्चित जानकारी | काषायण--एक आचार्य । यह सायकायन का शिष्य प्राप्त नहीं होती है । एक व्याकरणकार के रूप में पाणिनि | हैं (बृ. उ. ४.६.२ काण्व)। यह सौकरायण का भी ने इसका उल्लेख किया है (८.४.६७)। यह शिल्पकार | शिष्य है (बृ. उ. ४.५.२७ माध्य.)। . १४२ Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काष्ठा प्राचीन चरित्रकोश कीर्तिमत् काष्ठा--प्राचेतस दक्ष प्रजापति तथा असिनी की | २. धर्मपुत्र संकट का पुत्र । इससे भूमि पर के दुर्गाभिकन्या । यह कश्यप की पत्नी थी (कश्यप देखिये)। नानी देव उत्पन्न हुए (भा. ६.६)। काष्टाहारिण--कश्यपगोत्रीय एक गोत्रकार । कीचक--केकय तथा मालवी के एक सौ छः पुत्रों में कासार-व्यास की ऋशिष्यपरंपरा के बाष्कलि | ज्येष्ठ । इसके छोटे भ्राताओं को उपकीचक कहते थे। का शिष्य (व्यास देखिये)। विराट की पत्नी सुदेष्णा इसकी सौतेली मौसेरी बहन थी। कासोरु--अंगिरागोत्रीय एक गोत्रकार । यह बाण का अंशावतार था (म. वि. परि. १.१९. काहोडि--अगल का पैतृक नाम । २५-२७)। विराट ने इसे अपना सेनापति बनाया था। किंकर-एक राक्षस । विश्वामित्र की आज्ञानुसार यह एक बार सुदेष्णा के महल में, सैरंध्री का वेश धारण कल्माषपाद गजा के शरीर में प्रविष्ट हुआ था। की हुई द्रौपदी इसे दिखाई दी। पूछताछ करने के बाद किंकिण--(सो. क्रोष्ट.) सात्वतपुत्र भजमान की यह उससे अनुनय करने लगा। द्रौपदी ने इसका दूसरी स्त्री के तीन पुत्रो में दूसरा । विष्णुमत में इसे कृकण धिक्कार किया। उसने इसे धमकी दी कि, उसके गंधर्वपति तथा मत्स्यमत में कृमिल नाम है। इसका वध कर डालेंगे। बहन से सलाह कर, यह सैरंध्री किंदम-मृगरूप ले कर मृगी के साथ क्रीडा करने को अपने घर ले आया, तथा उससे अतिप्रसंग करने लगा। वाला एक ऋषि । इसका वध पांडुराजा ने किया, अतः परंतु वहाँ से भाग कर वह राजदरबार में गई। वहाँ इसने पांडुराजा को शाप दिया (म. आ. १०९)। भरी सभा में, उस पर लत्ताप्रहार कर, इसने उसकी चोटी किन्नर--(सू. इ. भविष्य.) विष्णु तथा वायु के मत | पकड कर नीचे गिरा दिया। कीचक के घर जाते समय द्रौपदी में सुनक्षत्र का पुत्र । मत्स्यपुराण में किन्नराश्व पाठमेद है। ने सूर्य की प्रार्थना की। सूर्य से निजरक्षा के लिये प्राप्त इसका मुख्य नाम पुष्कर था। राक्षस ने इसे दूर फेंक दिया। सैरंध्री ने यह समाचार भीम किन्नराश्व-किन्नरं देखिये। से कहा । उसने बडी ही कुशलता से इस को काबू में ला किम्पुरुष-आग्नीध्र के नौ पुत्रों में दूसरा । इसकी | कर, इसका वध किया (म. वि. २१. ६२; भीमसेन पत्नी का नाम प्रतिरूपा । यह किंपुरुषवर्ष का ही अधिपति | देखिये)। था (भा. ५.२; आग्नीध्र देखिये)। २. भारतीय युद्ध का दुर्योधनपक्षीय राजा। २. स्वारोचिष मन्वन्तर का एक मनुपुत्र। कीर्ति--कुन्ति २. देखिये । किरात-एक शिवावतार । मूक नामक दानव का | २. दक्ष प्रजापति की कन्या, तथा धर्म की पत्नी (म. इसने सूकर रूप में वध किया (असमाति देखिये)। । ने देखिये )। आ. ६०.१३)। - किर्मीर--एक नरभक्षक राक्षस । बकासुर का भ्राता का माता । ३. प्रियव्रत राजा की ज्येष्ठ पत्नी (गणेश.२.३२.१३; (म. आर. १२.२२)। यह काले रंग का था तथा | विनियो। वैत्रकीय नामक वन में (बेत के वन में) रहता था। ४. सुतपदेवों में से एक । हस्तिनापुर से निकल कर पांडव जब काम्यकवन में आये। कीर्तिधर्मन--भारतीययुद्ध में पांडवपक्ष का एक राजा तब भीमसेनद्वारा अपने भाई के वध का प्रतिशोध लेने के लिये, यह उस वन में आया। इसने पांडवों का | (मद्रा. १३३.२७)। मार्ग चारों ओर से रोक दिया। भीमसेन के साथ इसका | कीर्तिमत्--(सू. इ.) नृगपुत्र। इसने वैशाख घनघोर युद्ध हुआ । उसमें इस की मृत्यु हो गई (म. माहात्म्य के बल से यमलोक निर्जन बनाया (स्कन्द. २. व. १२.६७)। बाद में पांडव द्वैतवन गये। ७.१२-१३)। किलकिल--ब्रह्मांडमतानुसार किलकिला नगरी में । २. उत्तानपाद तथा सुनृता के दो पुत्रों में से कनिष्ठ । राज्य करनेवाला एक राजवंश । ध्रुव्र का भ्राता। किशोर-बलि दैत्य के पुत्रों में से एक (मत्स्य. | ३. भागवत, विष्णु, मत्स्य तथा वायु के मतानुसार देवकी से जनित वसुदेवपुत्र । कंस ने इसका वध किया। कीकट--(स्वा. प्रिय.) भागवतमतानुसार ऋषभ | यह कृष्ण का बड़ा भाई था। वादे के अनुसार न मारते हुए तथा जयंती का पुत्र। . कंस ने इसे छोड़ दिया था, परंतु नारद के उपदेश के Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कीर्तिमत् । प्राचीन चरित्रकोश कुटीचर कारण बाद में उसने इसे मारा (भा. ९.२४; १०,१)।। से यह कृष्ण के यहाँ गया। जाते समय कुछ साथ ले वायु के मत में यह रोहिणी से उत्पन्न वसुदेवपुत्र है। | जाना चाहिये, इस विचार से पत्नीद्वारा उधार माँग कर __ कीर्तिमती-शुक्राचार्य तथा पीवरी की कृत्वी नामक | लाया गया चार मुष्ठियाँ चिउड़ा, एक जीर्ण कपड़े में बांधकर कन्या का नामांतर । यह नीप अथवा अणुह राजा की | साथ लिया। पत्नी थी। इसके पुत्र का नाम ब्रह्मदत्त था। द्वारका आ कर कृष्ण से मुलाकात होने पर, अपने कीर्तिमालिनी-(पिंगला १. देखिये)। | पुराने मित्रत्व के नाते, कृष्ण ने इसका पर्याप्त सत्कार कीर्तिमुख--शंकर की जटा से निकला हुआ एक | किया। गुरुकुल की अनेक घटनाओं का स्मरण किया। शिवगण । इसके तीन मुख, तीन पैर, तीन पुच्छ तथा सात | हाथ में हाथ डाल कर बहुत गप्पं लड़ाई। कृष्ण ने हाथ थे। शंकर ने इसे प्रेत खाने के लिये कहा। बाद में स्वयं इससे पूछा, 'तुम मेरे लिये क्या लाये हो। इसके इसका साहस देख कर, शंकर ने वर दिया कि, तुम्हारा | द्वारा दिये गये चिउड़े में से, एक मुष्टि चिउड़ा बडे आनंद स्मरण करने के सिवा मेरा दर्शन लेनेवाला का अधःपात | से कृष्ण ने भक्षण किया । एक रात्रि बडे आनंद से वहाँ होगा (पन. उ. ५०)। बिताई । दूसरे दिन यह वहाँ से निकला । इसकी कीर्तिरथ-(सू. निमि.) वाय के मत में प्रतित्वक- | अयाचित वृत्ति के कारण, न तो कृष्ण ने इसे कुछ दिया.. पुत्र । यह कृतिरथ का दूसरा नाम है। न कि इसने कृष्ण से कुछ माँगा। कृष्ण ने अपने को कीर्तिरात-(सू. निमि.) कृतिरात का नामांतर। क्यों धन नहीं दिया इस विषय में, धनप्राप्ति के बाद शायद कुकण-एक सर्प (म. उ. १०१.१० )। मैं ईश्वर को भूल जाऊंगा, इस तरह का उलटा तर्क इसने कुकर्दम--पिंडारक क्षेत्र का राजा । यह अत्यंत दुष्ट | लड़ाया। परंतु घर आने के बाद इसने देखा, इसे, उत्तम था। अनेक पापकृत्यों के कारण, इसे प्रेतयोनि प्राप्त हुई। ऐश्वयं प्राप्त हो गया है (भा. १०.८०.७)। . वहाँ इसे अनेक अनुयायी प्राप्त हुए । एकबार घूमते-घूमते | भागवत में कहीं भी इसे सुदामन अथवा श्रीदामन नहीं यह कहोड़ ऋषि के आश्रम में आया। अपने इस शिष्य | कहा गया है । किन्तु जनसाधारण में वैसी ही प्रसिद्धि है। के उद्धार के लिये कहोड ने गोखुरा के संगम पर श्राद्ध | सत्यविनायक की कथा में, यही कथा सुदामन माम पर किया। औरों का भी श्राद्ध किया। तब इसका उद्धार | आई है। . हुआ (पद्म. उ. १३९)। कुज--मंगल तथा नरकासुर का नाम । कुकुर--(सो. क्रोष्टु.) अंधक का नप्ता। इससे | का नता। इसस | कुजंभ--एक दैत्य । इसने तारकासुर को राज्याभिषेक कुकुरवंश उत्पन्न हुआ, जिसमें में उग्रसेन, कंसादि हुए। | किया (मत्स्य. १४७.२८)। . कुक्षि-रोच्य मनु का पुत्र। इसे रोच्य ने सात्वत धर्म बताया। (म. शां. ३३६.३८-३९)। कुजूंभ-एक दानव । इसके पास सुनंद नामक मूसल शिया इसने सामवेद की मोथा। जिसके कारण यह अजेय था। केवल स्त्रीस्पर्श से ही संहिताओं का अध्ययन किया (व्यास देखिये)। मूसल निर्बल बनता था। कुजंभ का निवासस्थान निविंध्या कुक्षेयु--(सो. पूरु.) रौद्र के दस पुत्रों में से एक। नदी के किनारे, अरण्य में भूमि के अंदर था। एक कक्षेयु पाठभेद प्राप्त है। समय, वैशालीनरेश विदूरथ की कन्या मुद्यावती का, कचैल-(हीन वस्त्रोंवाला) कृष्ण का एक भक्त कुजंभ ने अपहरण किया। आगे भलंदनपुत्र वत्सप्रि ने, तथा सांदीपनिआश्रम में बना हुआ उसका पुराना मुद्रावतीद्वारा मूसल को स्त्रीस्पर्श करवा कर निर्बल कर ब्राह्मण मित्र । यह बड़ा ही विरक्त, जितेन्द्रिय एवं दिया, तथा कुजंभ का वध किया। पश्चात् , मुदावती के ज्ञानी था। सरलता से जितना मिलता था, उसी पर साथ वत्सप्रि का विवाह हुआ (मार्क. ११३)। निर्वाह करने की वृत्ति के कारण, यह अत्यंत दरिद्री था। कुंजर--तारकासुर का एक सेनापति। . दरिद्रता से त्रस्त हो कर इसकी पत्नी ने इसे कृष्ण के पास २. एक वानर | अंजनी का पिता । जाने के लिये कहा । क्यों कि, कृष्ण इसका पुराना मित्र ३. सौवीरदेशीय एक राजपुत्र । तथा बड़ा ही उदार था। पत्नी के बार बार आग्रह करने | ४. कश्यप तथा कद के पुत्रों में से एक। . पर, 'अयं हि परमो लाभ उत्तम लोकदर्शनम्', इस विचार | कुटीचर-रुद्रगणविशेष। १४४ Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुटुंबिनी कुटुंबिनी - कामंद वैश्य की पत्नी ( गणेश. १. ७. .१२) । प्राचीन चरित्रकोश • कुठर -- कश्यप तथा कटु का पुत्र । कुणरवाडव -- एक व्याकरणकार। इसने शंकर के लिये शंगरा, तथा वहीनर के लिये विहीनर शब्द सुझाया है ( महाभाष्य. ३.२.१४; ७.३.१ ) । कुणारु -- एक असुर (ऋ. ३.३०.८ ) । कुणि -- एक व्याकरणकार तथा स्मृतिकार । कैयट ने इसका निर्देश किया है ( पा. सृ. १.१.७५ ) । २. (सो. वृष्णि. ) सात्यकि के दस पुत्रो में से एक । यह भारतीय युद्ध में मृत हुआ । ३. (सो. यदु. ) जयराज का पुत्र, इसका पुत्र युगंधर । ४. (सृ. निमि.) विष्णु के मत में सत्यध्वजपुत्र | ५. वेदशिरस् नामक शिवावतार का शिष्य । कुणि गर्ग वा. गार्ग्य - इस की कन्या वृद्धकन्या । वृद्धावस्था में इस का विवाह गांधर्वपुत्र शृंगवत् के साथ एक रात्रि के लिये हुआ (वृद्धकन्या देखिये) । कुणिक - एक आचार्य ( आप.. ध. १.१९.७ ) । 1. कुणिबाहु - शिवावतार वेदशिरस् का शिष्य । कुणीति – वसिष्ठ तथा घृताची का पुत्र । इसकी पत्नी पृथुकन्या । • कुंड -- गजरूपी असुर । इसकी मृत्यु विनायक के द्वारा हुई ( गणेश. २.१४ ) । कुत्स -- रुरु नामक राजर्षि का पुत्र । कमजोर होने के कारण सहायता के लिये इसने इन्द्र की आराधना की । इन्द्र ने आकर इस के शत्रुओं का वध किया । तदनंतर उसकी तथा कुत्स की मित्रता हो गयी। एक बार जब इन्द्र कुत्स के पास बैठा था, तब शची वहाँ आई । इनमें से इन्द्र कौनसा है, यह शची पहचान न सकी ( ऋ ४.१६.१० सायणभाष्य ) । इसे आर्जुनेय कहा है । इससे पता चलता है कि, यह अर्जुनी नामक स्त्री का पुत्र होगा (ऋ. १.११२.२३, ४.२६.११ ७.१९.२; ८.१.११ ) । यह एक योद्धा था । इसको अपने काबू में लेकर इन्द्र नेवेत का कल्याण किया (ऋ. १०.४९.४ ) । इन्द्र ने इस के लिये शुष्ण का लोहे के चक्र से वध किया (ऋ. १.६३.३; १२१.९; १७५.४ ) इन्द्र ने इसके लिये सूर्यरथ के पहिया की चोरी की अथवा उसे तोड़ दिया । इस तरह की अस्पष्ट कथा ऋग्वेद में दी गयी है (ऋ. १.१७४.५; ४.१६.१२; ३०.४ ) । अतिथिग्व तथा आयु के साथ इन्द्रस्तुति में इसका उल्लेख है। सूर्य के रथ का कुंडक -- (सू. इ. भविष्य. ) विष्णु के मत में क्षुद्रक एक पहिया इन्द्र ने अलग किया । दूसरा पहिया कुत्स को •की पुत्र | दिया (क्र. ५.२९.१० ) । इंद्र कुत्स के घर गया था 'कुंडकर्ण--दंडीमुंडीश्वर नामक शिवावतार का शिष्य । (ऋ. ५.२९.९ - १० ) । कुत्स तथा लुश दोनों इन्द्र को कुंड -- (सो. कुरु. ) धृतराष्ट्र के सौ पुत्रों में से एक । एकदम बुलाते थे । इन्द्र कुत्स के पास आया । परंतु कुत्स कुंडजठर -- जनमेजय के सर्पसत्र का एक सदस्य । शंका आने के कारण, इन्द्र को इसने सौ चर्मरज्जुओं से कुंडधार--एक सर्प (म. स. ९.९)। अंड़ के स्थान पर बाँध दिया। परंतु लुश के द्वारा बुलाये २. (सो. कुरु. ) धृतराष्ट्र का पुत्र । भीमसेन ने इसका जाते ही इन्द्र इन रज्जुओं को तोड़ कर निकल आया । तब कुत्स ने एक साम कहकर पुनः इन्द्र को वापस बुलाया (ऋ. १०.३८.५; पं. बा. ९.२.२२; जै. ब्रा. २२८ ) । यह कथा निश्चित रूप से नहीं समझती । इन्द्र का तथा इसका बैर होगा (कुत्स और देखिये) । यह इन्द्र का हमेशा का शत्रु न था (ऋ. १.५१.६; ६.२६.३) । पराक्रम दिखाने के लिये इन्द्र को कुत्स तथा रथ के पहिये की जरूरत रहती थी (ऋ. १.१७४.५ ) । २. (स्वा. उत्तान. ) चक्षुर्मनु तथा नड़वला के ग्यारह पुत्रों में से दूसरा (भा. ४.१३ ) । १४५ वध किया (म. भी. ८४.२२ ) । कुंड पायिन - - एक आचार्य (पं. बा. २५.४.४; आश्व. श्रौ. १२.४.६; कात्या. श्री. २४.४.२१ ) । सूत्रग्रंथ में इसके नाम से एक सत्र प्रसिद्ध है । कुंडपाय्य -- रंगवृष का पैतृक नांम (ऋ. ८.१७. १३) । कुत्स कुंडला - मदालसा की सखी । यह विंध्यवान की कन्या तथा पुष्करमालीन् की पत्नी थी । इसके पति का वध शुभ ने किया (मार्के. १९) । कुंडिन - वसिष्ठकुल का एक गोत्रकार, मंत्रकार तथा प्रवर । कुंभेदिन - धृतराष्ट्रपुत्र । भीम ने इसका वध किया . ( म. द्रो. १०२.६८; भी. ९२.२६ ) । भीष्मपर्व में इसका नाम ‘कुंड़भेद ' दिया है। प्रा. च. १९] कुंडिनेय - मित्रावरुण का पुत्र । कुंडोदर -- कश्यप तथा कद्रू का पुत्र । Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन चरित्रकोश कुत्स कुंती ३. भृगुकुल का गोत्रकार। उत्पत्ति हुई (म. व. २८७-२८९)। इसका पुरुजित् ४. दाशरथि राम की सभा का एक ऋषि (वा. रा. | नामक एक अतिरथि पुत्र था। द्रोण ने उसका वध किया उ. २ प्रक्षिप्त)। (म. उ. १६९.२; भी. २३.५, क. ४.७३)। इसे ५. अंगिराकुल का गोत्रकार तथा मंत्रद्रष्टा (ऋ. १. | दस पुत्र और थे। उन सबका वध अश्वत्थामा ने ९४-९८; १०१.११५, ९.९७.४५-५८)। किया (म. द्रो. १३१. १२९) । यह स्यमंतपंचक कुत्स औरव-एक राजा। उपगु सौश्रवस इसका | क्षेत्रमें गया था (भा. १०.८२.२५)। इसका वध द्रोण पुरोहित था। इस ने जाहिर किया था कि, जो भी कोई ने किया (म. क. ४.७३.)। ऋथपुत्र कुंति तथा यह इन्द्र को हवि देगा, उसका मस्तक में काट दूंगा। इंद्र ने | एक नहीं है। वह इससे भी प्राचीन है। गर्व के साथ इससे कहा, 'सुश्रवा ने मुझे हवि दिया है। कुंती--यदुकुलोत्पन्न शूर राजा की कन्या तथा इस ने तत्काल क्रोधित हो कर, सामगान करते हुए उपगु | वसुदेव की भगिनी । सौश्रवस का शिर काट दिया । सुश्रवा ने इन्द्र से शिकायत | महाभारत में उल्लेख है कि, कुंतिभोज राजा ने इसे दत्तक की। इन्द्र ने उसका शिर फिर से जोड दिया (पं. ब्रा. लिया था (म. आ. ६१.१२९ परि. १ क्र. ४३)। १४.६.८; कुत्स १. देखिये)। चंबल नदी को मिलनेवाली अश्वरथ अथवा अश्व नदी के कुत्सन्य-भृगुकुलोत्पन्न एक ब्रह्मर्षि । किनारे, कुंतिभोजक नामक नगर में इसका जन्म हुआ। कुथुमि-विष्णु तथा वायु के मत में व्यास की साम- | इस नगर को कुंति देश कहा गया है (म.भी. १०. शिष्य परंपरा के पौष्यं जि का शिष्य । ब्रह्मांड में कुशमि | ४१; वि. १.१३; बृहत्संहिता. १०.१५)। पाठ है (व्यास देखिये)। कुंतिभोज राजा ने अतिथिसत्कार के लिये कुंती की ___ कुनाल-(मौर्य, भविष्य.) वायु के मत में अशोक | योजना की। यह कार्य इसने उचित ढंग से किया। दुर्वास का पुत्र। की कडी सेवा कर के इसने उन्हें प्रसन्न कर लिया। कुनेत्रक--वेदशिरस् नामक शिवावतार का शिष्य। भविष्य में कुछ बाधाएँ खड़ी होगी, यह जान कर दुर्वास कुंतल---कौंतलपुराधिपति एक राजा (चन्द्रहास १. ने इसे एक वशीकरणमंत्र सिखाया। दुर्वास ने कहा, 'इस देखिये)। मंत्र से जिस देवता का तुम आवाहन करोगी, उस देवता कुंतलस्वातिकर्ण--(आंध्र. भविष्य.) मत्स्य के मत के प्रभाव से तुम्हें पुत्र होगा।' अनंतर कुन्ती के मन में में मृगेन्द्रस्वातिकर्णपुत्र। मन्त्रप्रतीति की जिज्ञासा खडी हुई। उस मंत्र का जप ___ कुंति--एक राजा । इसने पांचालों का पराभव किया कर के इसने सूर्य को बुलाया। सूर्य को आते देख कर (क. सं. २६.९; मै. सं. ४.२.६)। इसे विस्मय लगा। सूर्य से कुंती को कवचकुंडलयुक्त कर्ण २. (सो. सह.) भागवत के मत में नेत्रपुत्र । विष्ण नामक पुत्र हुआ। लोकभय से कुंती ने कर्ण को अश्वनदी तथा मत्स्य के मत में धर्मनेत्रपुत्र । वायु में यह नाम | में छोड़ दिया। उसका पालन राधा के पति अधिरथ कीर्ति है। ने किया (म. आ.. १०४; अधिरथ देखिये)। ३. ( सो. यदु.) भागवत, विष्णु, मत्स्य तथा वायु के | सयानी होने पर अनेक राजाओं से कुन्ती की मत में क्रथपुत्र। मँगनियाँ होने लगी। इनराजाओं को बुला कर, कुंतिभोज-एक राजा। कुंतिभोज वा भोज नाम से | कुंतिभोज ने इसका स्वयंवर किया। तब कुंती ने पांडु इसका उल्लेख आता है । वसुदेवपिता शूर की कन्या पृथा उर्फ का वरण किया। तदुपरांत पांडु कुंती को ले कर कुन्ती इसे दत्तक दी गई थी। यह उसकी बुआ का लड़का हस्तिनापुर गया। (म. आ. १०५. ११३१)। मृगया था तथा अनपत्य था। शूर ने कुछ समयपूर्व अपना प्रथम के लिये गये पांडु ने, मृगरूप धारण कर के मैथुन पुत्र इसे देने का वचन भी दिया था (म. आ. ६१. परि. करनेवाले किंदम ऋषि का वध किया। इस समय ऋषि की १ क्र. ४३)। एक बार दुर्वास कुंतिभोज के घर आये | शापवाणी हुई: " इसी प्रकार रतिक्रीड़ा के ही साथ मौत थे। कुंतिभोज ने कुन्ती को उनकी सारी व्यवस्था करने के तुम्हें उठा लेगी"। इससे पांडु का पुत्रोत्पादन का मार्ग लिये कहा। कुन्ती को दुर्वास से सब देवताओं को प्रसन्न | बंद हो गया । स्वर्गप्राप्त्यर्थ अपत्य की जरूरी होने के कारण, करने के मंत्र मिले थे। इसीसे आगे चल कर पांडवों की । पांडु ने श्रेष्ठजाति के पुरुषों से पुत्रोत्पादन करने की कुंती Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुंती प्राचीन चरित्रकोश कुपति को आज्ञा दी। तब इसने उसका निषेध किया। इस बारे | नियत हुवाँ, तथा उसके लिये एक विस्तीर्ण मंडप भी में भद्रा का अनुकरण करने का इसने निश्चय किया। परंतु | बनाया गया। सब पांडवकौरव वहाँ अपना कौशल्य श्वेतकेतु का नियम बता कर, पांडु ने पुनः वही आज्ञा की। दिखा रहे थे । तब कर्ण वहाँ आया । उसने कहा की, मैं तब दुर्वास के द्वारा दिये गये मंत्रप्रभाव से यमधर्म, वायु अर्जुन से भी जादा कौशल्य दिखा सकँगा । कर्ण ने अर्जुन तथा इन्द्र को बुला कर इसने युधिष्ठिर, भीम तथा अर्जुन को | को युद्ध का आवाहन किया। कुंती सत्यस्थिति जानती जन्म दिया। पुनश्च पांडु ने पुत्रोत्पादन करने कहा, जिसे थी। इस लिये, यह देख कर वह मूछित हो गई । इसी इसने अमान्य कर दिया। बाद में, पांडु की प्रार्थनानुसार | समय इसने कर्ण को प्रथम पहचाना होगा (म. आ. कुंती ने माद्री को अपना मंत्र दिया । तब माद्री से नकुल | १२३-१२६) । कर्ण दुर्योधन के पक्ष के मिल गया, तथा सहदेव ये जुड़वाँ पुत्र उत्पन्न हुए । यही पाँच पुत्र | यह देख कर कुंती ने उसका जन्मवृत्त उसे बता कर पांडव हैं (म. आ. १०९.१११-११५)। पांडवों का पक्ष लेने के लिये कहा; परंतु कर्ण ने यह बचपन की साधारण लीलाओं में भी, पांडवों ने कौरवों मान्य नहीं किया। कुंती ने विदुर को भी बताया कि, पर विजय प्राप्त की । पांच पांडव सौ कौरवों को बिल्कुल ही कर्ण उसका पुत्र है (म. उ. १४२-१४४)। त्रस्त कर डालते थे। भीम तो कौरवों की नाक में दम | भारतीय युद्ध के बाद, सब स्त्रियाँ गंगा के किनारे करता था। इससे कौरवपांडवों में विरोध उत्पन्न हुआ | अपने प्रियजनों के लिये शोक कर रही थी। तब कुंती ने (म. आ. ११९)। धर्म से कहा कि, कर्ण तुम लोगों का भाई था। तब धर्म इसलिये दुर्योधन ने धृतराष्ट्र के द्वारा, पांडव तथा कुंती | को अत्यंत दुःख हुआ। उसने कहा, 'इसके बाद स्त्रियों को वारणावत में यात्रा के लिये मेजा। वहाँ पुरोचन- के मन में कुछ भी गुप्त न रहेगा' (म. स्त्री. २७.८०)। द्वारा जतुगृह बनवा कर दुर्योधन ने पांडवों के नाश कुंती धृतराष्ट्र के साथ वन में गई। युधिष्ठिर ने काफी की सिद्धता थी। परंतु विदुर की सूचनानुसार सुरंग खुदवा | मनाया, परंतु यह वापस न आई (म. आश्व. २२.३कर, पांडवों ने अग्नि से अपनी रक्षा की । एक भीलनी | १७)। अरण्य में दावानल लगा । तब गांधारी, कुंती उस गृह में अपने पांच बच्चों के साथ सो रही थी। तथा धृतराष्ट्र ने अग्नि-प्रवेश किया (म. आश्व. ३५.३१) । ..वह अपने बच्चों के साथ जल कर मर गई । जतुग्रह की कुंतीभोज-(सो. यदु.) भविष्य के मत में काथरचना करनेवाला पुरोचन भी जल कर मर गया। भीलनी पुत्र । वृषपर्वा की कन्या का पुत्र पूरु, तथा पूरु के पुत्री तथा उसके पांच पुत्रों के शव देख कर, कौरवों ने मान का पुत्र कुंतीभोज । यह कुंतीभोज नगर में रहता था। लिया कि, पांडवों का नाश हो गया। उसकी उत्तर अन्य पुराणों में यही कुन्ति है (कुंति ३. देखिये)। क्रिया भी की । परंतु पांडव वन में सुरक्षित घूम रहे थे (म. आ. १३०-१३७)। कुंददंत-एक ब्राह्मण । इसके दांत कुंदकलिकाओं के कुंती का स्वभाव परोपकारी था। व्यास की अनुमति समान थे, इसलिये इसे यह नाम प्राप्त हुआ। यह से, पांडव कुंती के साथ एकचक्रा नगरी में आ कर रहने विदेहदेश में रहता था। इसे आत्मज्ञान प्राप्ति की लगे । वहाँ वे भिक्षा मांग कर अपना उदरभरण करते थे। इच्छा हुई। तब गृह छोड़ कर यह अरण्य में घूमने लगा। एक ब्राहाण के घर ये लोग रहाते थे। एक दिन कुंती इसने कदंब को अपनी ज्ञानप्राप्ति की इच्छा दिखाई । परंतु 'तथा भीम ने उस ब्राह्मण पर आई हुई विपत्ति सुनी। अभी तक इसने अपने इंद्रियों को पूर्ण रूप से नहीं जीता, यह देख कर कदंब ने इसे अयोध्या जाने के लिये कहा। बकासुर को तीस मन भात, दो भैंसे तथा एक आदमी देने की नौबत उस ब्राह्मण पर आई थी। तब धर्म के विरोध उस कथनानुसार सब उपाधियों को छोड़ कर, यह अयोध्या में राम के पास रहने लगा । वसिष्ठ के मुख से मोक्षोपाय को न मानते हुए, कुंती ने भीम को भेज कर बकासुर का नामक संहिता श्रवण कर के इसे आत्मज्ञान प्राप्त हो गया वध करवाया । उस ब्राह्मणकुटुंब को संकट से मुक्त किया। इसलिये सब लोगों ने एक ब्रह्मोत्सव भी किया (म. आ. (यो. वा. ६.१८०-१८६)। १४५-१५२)। कुपट-कश्यप तथा दनु का पुत्र । द्रोणाचार्य के नेतृत्व में, कौरवपांडवों ने शस्त्रास्त्रविद्या | कुपति-अष्टभैरवों में से एक। इसे ही कपालिन् संपादन की। एक दिन उनकी परीक्षा लेने के लिये | नाम है। १४७ Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुबेर प्राचीन चरित्रकोश कुब्जा कुबेर-वैवस्वत मन्वन्तर के विश्रवा ऋषि का पुत्र । पर्वत है। उसकी तराई में मानससरोवर है। वहाँ सरयू इसकी माता का नाम इडविड़ा अथवा मंदाकिनी दिये गये है। नदी का उद्गम होता है। उसके किनारे वैभ्राज नामक एक (विश्रवस् देखिये)। यह पुलस्त्य तथा गो का पुत्र था (म. दिव्य वन है। वहाँ प्रहेतृपुत्र ब्रह्मधान नामक एक राक्षस व. २५८.१२)। इस लिये इसे वैश्रनण तथा ऐडविड़ कहा रहता है। वह कुवेर का सेवक है (वायुः ४७.१८)। गया है (म. उ. १३६; श. ४६.२२)। ब्रह्मा ने इसे राक्षस- यह उस प्रदेश में रहनेवाले यक्ष, राक्षस, पौलस्त्य तथा गणोंसहित लंका, पुष्पक विमान, यक्षों का आधिपत्य, राज- अगस्ति लोगों का राजा तथा अलकाधिप है (वायु. राजत्व, धनेशत्व, अमरत्व, लोकपालत्व, रुद्र से मित्रता तथा ६९.१९६)। यह सूर्य के उत्तर की ओर रहता है (भवि. नलकूबर नामक पुत्र आदि दिये। उनमें से रावण ने लंका ब्राह्म. १२४)। अर्जुन को शिवदर्शन होने के बाद, वरुण तथा पुष्पक ले लिये (म. व. २५८-२५९)। लंका इसने | के समान इसने भी अर्जुन को दर्शन दिया तथा एक अस्त्र रावण को स्वयं दे दी । पुष्पक विमान, रावणद्वारा युद्ध में दिया (म. व. ४२.७.) । द्रौपदी की प्रार्थनानुसार, इसे पराजित कर के लिया गया (वा. रा. अर. १५.२२)। भीम ने कुवेर के उपवन के सरोवर में खिले कमल, वहाँ धनपतित्व के लिये तपस्या कर के, यह कुबेर हो के राक्षसों का कथन न मानकर ले लिये। कुवेर ने इसे गया। जिस स्थान पर इसने तपस्या की, उस स्थान पर नहीं रोका (म. व. १५२)। जब इसे पता चला कि, कौवेरतीर्थ बना (म. श. ४६.२२)। इस स्थान पर | भीम ने मणिमान का वध किया तब यह क्रोधित हो इसकी मूल नगरी अलकावती है। इसी तप के गया, तथा सेनासहित पांडवों के पास गया। एक दूसरे कारण उपरोक्त वस्तुयें इसे प्राप्त हो गई (शिव, रुद्र. को देख कर पांडव तथा यह आनंदित हुए। कुबेर ने १.१९)। पार्वती की ओर आँखे मिचमिचा कर देखने पांडवों को योग्य उपदेश किया तथा कहा कि, इन्द्र अर्जुन से इसकी बॉई आँख नष्ट हो गई, तथा दाहिनी पीली पड | की प्रतीक्षा कर रहा है (म. व. १५९)। पूर्वजन्म में गई । इस लिये इसे एकाक्षपिंगलिन् नाम प्राप्त हुआ (वा. रा. यह कां पिल्य नगरी में अग्निहोत्री यज्ञदत्त का गुणनिधि उ. १३)। इसे मणिग्रीव तथा नलकूबर नामक दो पुत्र थे | नामक पुत्र था (शिव. रुद्र. स. १९.)। ब्राह्मण क्षत्रिय (भा. १०.९.२२-२३)। यह उत्तराधिपति है तथा उत्तर एकता से राज्यसुख की वृद्धि होती है, इस विषय पर की ओर स्थित यक्षलोक में रहता है। वृद्धि तथा ऋद्धि मुचकुंद से कुवेर का संवाद हुआ था (म. शां. ७५)। इसकी शक्तियाँ हैं। मणिभद्र (वा. रा. उ. १५), रुव का यक्षों से युद्ध होने के बाद, इसने उसे उपदेश पूर्णभद्र, मणिमत् , मणिकंधर, मणिभूष, मणिस्त्रग्विन , | किया (भा. ४.१२.२)। इसे सोम नाम भी है। इसी माणिकार्मुकधारक नामक यक्ष इसके सेनापति है (दे. | लिये उत्तर दिशा को सौम्या नाम प्राप्त हुआ है। भा. १२.१०)। इसकी कुबेरसभा नामक एक सभा है। इस सभा में, यह ऋद्धि तथा अन्य सौ स्त्रियों के साथ | कुबेर वारक्य--जयंत वारक्य का शिप्य (जै. उ. बैठता है। इसे नलकूबर नामक एक पुत्र था (म. स. | ब्रा. ३.४१.१)। . १०.१९)। कुबेर की एक पत्नी का नाम भद्रा दिया गया कुबेराणि--अंगिरांसकुल का गोत्रकार । है (म. आ.१९१.६)। यक्षों के अधिपतित्व के लिये कुब्जा--एक विरूप स्त्री । दुर्दैव से इसे बाल्यावस्था इसने कावेरीनर्मदासंगम पर तप किया, तब शिवकृपा | में ही वैधव्य प्राप्त हुआ। इसने साठ वर्षों तक अपना से इसकी इच्छा पूरी हुई (पद्म. स्व. १६)। गंधमादन | जीवन पुण्यकर्म में व्यतीत किया । प्रत्येक वर्ष माघस्नान पर्वत में स्थित संपत्ति का चतुर्थांश भाग इसके काबू में | भी किया। तदनंतर यह वैकुंठलोक में गई। सुंदोपसुंदों है। इसी संपत्ति का षोडशांश-मानवों को दिया है। यह का नाश करने के लिये, इसने तिलोत्तमा के नाम से अपने राक्षसों सहवर्तमान गंधमादन पर्वत के शिखर पर | अवतार लिया। इसके हावभावों से मोहित हो कर, रहता है (पन. स्व. ३.)। मेरूपर्वत के उत्तर में स्थित सुंदोपसुंद एक दूसरे से लड़ मरे। तब इसका अभिनंदन विभावरी इसका एक वासस्थान है (भा. ५. २१.७)। कर, ब्रह्मदेव ने इसे सूर्यलोक में स्थान दिया (पद्म. उ. कैलास पर्वत पर यह राक्षस अप्सराओं के साथ रहता | १२६)। है। सौगंधिक नामक वन इसका है (भा. ४.६.२३)। २. कंस की दासी । यह शरीर के तीन स्थानों में वक्र यह अलकाधिप हैं । कैलास के दक्षिण भाग में वैद्युत नामक | थी। कंस ने धनुर्याग के लिये कृष्ण तथा बलराम को Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुब्जा प्राचीन चरित्रकोश कुंभकर्ण मथुरा में लाया। तब कृष्णप्रसाद से इसका शरीर सरल कुमारी--चित्रलेखा देखिये। हुआ (भा. १०.४२; ब्रह्म. १९६)। २. धनंजय की पत्नी। ३. कैकयी की मंथरा नामक दासी का अन्य नाम कुमुद-विष्णु के पार्षदगणों में से एक (भा. ८. (मंथरा देखिये)। | २१)। कुमार--ब्रह्मदेव का मानसपुत्र तथा प्रजापति (वायु २. गोमती नदी के किनारे, रम्यक पर्वत पर रहनेवाला ६६.५३)। वायुपुराण में, ब्रह्मदेव के सनक, सनंद, सनातन | रामसेना का एक वानर (वा. रा. यु. २६)। अकंपन के तथा सन कुमार इन पुत्रो के लिये कुमार नाम की | साथ हुए युद्ध में इसने काफी पराक्रम दिखाया (वा. रा. योजना की गई हैं। ये ब्रह्ममानसपुत्र सर्वदा पांच छः वर्ष यु. ५५)। के बालकों के समान दीखते हैं। इसी लिये इन्हें कुमार | ३. कश्यप तथा कद्र का पुत्र । कहा गया है। ४. वायु, विष्णु, ब्रह्मांड तथा भागवत मतानुसार यह अपने भ्राताओं सहवर्तमान जब वैकंठ गया था, तब | व्यास की अथर्वन् शिष्यपरंपरा के पथ्य का शिप्य । द्वारपालों ने इसे प्रतिबंध किया। इसलिये इसने उन्हें शाप | कुमुदाक्ष-एक नाग । कश्यप एवं कद्रू का पुत्र (म. दिया (भा. ७.१.३७)। इसने सांख्यायन को भागवत | आ. ३१.१५)। कथन किया (भा. ३.८.७ )। २. मणिवर तथा देवजनी का पुत्र । इनके पुत्रों का २. स्कंद देखिये। साधारण नाम गुह्यक है। ३. अनल नामक वसु को स्वाहा से उत्पन्न पुत्र । कुमुदेक्षण--विष्णु का पार्षद । ४. सोम नामक शिवावतार का शिष्य । कुमुद्वती--दाशरथि राम की स्नुषा तथा कुश की ५. शिल्पशास्त्र पर लिखनेवाले अठारह वास्तुशास्त्र- | दूसरी स्त्री। अतिथि राजा इसी का पुत्र था । चंपका इसकी कारों में से एक (मत्स्य. २५२.२)। सौज थी। उसे पुत्र न था, इसलिये इसका पुत्र अतिथि __ कुमार आग्नेय--सूक्तद्रष्टा (ऋ. ७.१०१, १०२)। सूर्यवंश का विस्तार करनेवाला हुआ। एक बार जलक्रीडा वत्स देखिये। करते समय, कुश के हस्तभूषण सरयू में गिर पड़े, जिन्हें __ कुमार आत्रेय-सुक्तद्रष्टा (ऋ. ५.२.१; ३-८; कुमुद नाग की बहन कुमुद्वती नागलोक ले गयी। कुश ने १०-१२)। क्रोधित हो कर सरयू को सोखने के लिये हाथ में धनुषकुमार यामायन--(ऋ. १०.१३५)। बाण लिया। तब कुमुद नाग ने हस्तभूषणसहित कुमुद्रती कुमार हारित-गालव का शिष्य । इसका शिष्य | कुश को अर्पित कर दी (आ. रा. विवाह. ४)। कैशोर्य काप्य (बृ. उ. २.६.३; ४.६.३)। रेत का महत्त्व | २. मयूरध्वज राजा की स्त्री तथा ताम्रध्वज राजा वर्णन करते समय बताई गई आचार्यपरंपरा में, इसका | की माता। नाम है (बृ. उ. ६.४.४)। कुंपत-कश्यप तथा दनु का पुत्र । कुमार हैहय--एक राजा। एक बार मृग समझ कर | कुंभ-प्रल्हाद दैत्य के पुत्रों में से एक (म. आ. इसने एक ऋषिपुत्र का वध किया। तब इसे अत्यंत पश्चा- | ५९. १९)। त्ताप हुआ। वह ऋषिपुत्र कौन होगा, उसकी इसने खोज २. कुंभकर्ण का ज्येष्ठ पुत्र (कुंभनिकुंभ देखिये)। की । खोजतेखोजते यह अरिष्टनेमि तार्क्ष्य के आश्रम में | ३. लंका का एक सामान्य राक्षस (भा. ९. १०. गया, तथा उन्हें वंदन कर नीचे बैठा । इतने में मारा गया | १८)। . हुआ ऋषिपुत्र वहाँ आया। उसे देख कर राजा को आश्चर्य | ४. हिरण्याक्ष की सेना का एक असुर । कुबेर से यह हुआ। यह. ऋषि से कुछ पूछने ही वाला था कि, ऋषि ने | युद्ध कर रहा था, तब कुबेर ने इसके सब दांत गिरा कहा, हे राजा, तुम आश्चर्य मत करो। हमलोग तपोबल दिये। यह कुबेर की मदद को आनेवाले इंद्र पर झपटा । से इच्छामरणी बन चुके हैं । इसलिये, तुम्हारे हाथों ब्रह्म- | इंद्र ने वज्रप्रहार कर इसका वध किया (पन. सृ. ७५)। हत्या हुई, ऐसी शंका मन में मत लाओ । इतना सुन कर | कुंभकर्ण-रावण का छोटा भाई। वैवस्वत मन्वंतर यह अपने नगर में गया (म. व. १८२)। यह हैहय | में, पुलस्त्यपुत्र विश्रवा ऋषि को-कैकसी से उत्पन्न चार नाम से प्रसिद्ध है, लेकिन वंशावलि में अप्राप्य है। | पुत्रों में दूसरा । भागवत के मत में, केशिनी इसकी माता १४९ Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुंभकर्ण प्राचीन चरित्रकोश कुंभकर्ण थी। इसने जन्मते ही हजारों लोगों को खा डाला । तब | नौ महीने हो जाने पर भी सोया ही रहा । इसे जागृत करने इसकी शिकायत ले कर लोग इंद्र के पास गये। इंद्र ने | के लिये आये हुए लोगों ने, यह जागृत होते ही खाने क्रोधित हो कर इस पर वज्र फेंका। कुंभकर्ण हाथ पैर | के लिये मृग, महिष तथा वराह के बडे बडे ढेर इसके पटक कर और भी गर्जना करने लगा। इस कारण लोगों द्वार के पास रच दिये । अन्न की ढेरियाँ तैय्यार की। को अधिक कष्ट होने लगे। इसने ऐरावत का एक दांत रक्त, मांस तैय्यार किया। चन्दन का लेप इसके शरीर उखाडकर इंद्र पर फेंका, तथा इंद्र को रक्तरंजित कर | को लगाया । सुगंधित द्रव्य सुंघाये । भयंकर आवाज की । दिया । ब्रह्मदेव को इस बात का पता चला। तब फिर भी कुछ परिणाम नहीं हुआ। तब इसके वक्षस्थल उन्होंने लोकसंरक्षणार्थ इसे सदा निद्रित रहने का शाप | पर प्रहार करना प्रारंभ किया। इसके कान में पानी दिया। रावण की प्रार्थना पर, इसे छ: माहों में एक दिन | डालना, काट खाना आदि प्रयत्न हुए। जब इसके शरीर जागने का ब्रह्मा ने उःशाप दिया (वा. रा. यु. ६१)। पर हजार हाथी घुमाये, तब कहीं यह जागृत हुआ । कुबेर की बराबरी करने के लिये, रावणादि के साथ इसने | जम्हाई लेते हुए सामने रखी हुई सब सामग्री इसने भी गोकर्णक्षेत्र में दस हजार वर्षों तक तपस्या की। जब | भक्षण की। धीरे से लोगों ने सारा वृत्त इसे कथन ब्रह्मदेव इसे वरदान देने लगे, तो देवों ने विरोध किया। किया। तब यह तुरंत युद्ध करने के लिये ही निकला। परंतु देवों ने कहा, इसने नंदनवन के सात अप्सरायें, इन्द्र के | महोदर ने सुझाया कि, पहिले रावण की सलाह ले कर, दस सेवक, उसी प्रकार अन्य कई लोग तथा ऋषियों का | फिर युद्ध के लिये जाना अधिक योग्य रहेगा। तब यह बंधु भक्षण किया है। इसलिये इसे वर मत दो। देवों की | के पास गया । वहाँ इसने प्रथम रावण को ही उपदेश की इच्छा सफल हों, इसलिये ब्रह्मदेव ने सरस्वती को बुलाया | चार बाते सुनायीं। परंतु रावण को यह उपदेश पसंद तथा उसकेद्वारा कुंभकर्ण को उपदेश करवाया। तब इसने नहीं आया। तब रावण खुष हों, ऐसी बातें कहने का प्रारंभ दीर्घकालीन निद्रा मांगी। ब्रह्मदेव 'तथास्तु' कह कर | इसने किया। महोदर ने सुझाया कि, यदि रावण की मृत्यु चला गया। पीछे यह पछताने लगा, परंतु उसका कुछ हो गई है, यों अफवाएं चारों ओर फैला दी, तो सीता लाभ नही हुवा (वा. रा. उ. १०)। स्वयं ही शरण आ जावेगी । तब कुंभकर्ण ने इस मार्ग का कुबेर की लंका रावण ने छीन ली। तब रावण तिरस्कार किया तथा युद्ध का पुरस्कार किया। के साथ यह भी लंका में गया । वहाँ जाने पर यह रणांगण में दाखल हुआ। इसका प्रचंड शरीर देख विरोचनपुत्र बलि की पौत्री वज्रज्वाला से इसका | कर बंदरसेना भयभीत हो कर भागने लगी। परंतु सब विवाह हुआ (वा. रा. उ. १२)। रावण ने अपने को धीरज दे कर, अंगद ने एकत्रित किया। प्रथम इसने निद्राप्रिय बंधु के सोने की उत्कृष्ट व्यवस्था कर रखी थी। | शूल से हनूमान को आहत किया। तब अपनी सेना कों उसने विश्वकर्मा से चार कोस चौड़ा तथा आठ कोस लंबा नील ने धीरज बँधाया। ऋषभ, शरभ, नील तथा गवाक्ष एक सुंदर घर बनवाया। वहाँ यह सदैव निद्रिस्त पडा | को कुंभकर्ण ने खून की उल्टी करवाई । बंदरों से भरे वृक्ष रहता था ( वा. रा. उ. १३)। जागृत रहने पर, यह के समान कुंभकर्ण का शरीर दिखने लगा। कुंभकर्ण के द्वारा सभा में भी आता था। युद्ध होने के पहले बुलाई गई । फेंका गया शूल अंगद ने बडी युक्ति से बचा लिया, तथा एक सभा में यह उपस्थित था। वहाँ सीताहरण के | इसकी छाती पर प्रहार कर, इसे मूर्च्छित किया । होश में लिये इसने रावण को दोष दिया। फिर भी रावण से | आते ही, अंगद को कुंभकर्ण ने बेहोश किया। इसने कहा, "मैं भविष्य में सब प्रकार से तुम्हारी सुग्रीव को लेकर यह लंका की ओर चला गया। तब सहायता करूंगा (वा. रा. यु. १२)। तदनंतर अनेक | सुग्रीव ने इसके नाक, कान तोड दिये तथा वह राम के पास योद्धाओं की मृत्यु के बाद, रावण अकेला ही राम से युद्ध | लौट आया । उस विद्रूप स्थिति में भी, यह लौट आया तथा कर रहा था। तब रावण का पराभव हुआ। रणांगण से | इसने भयंकर युद्ध किया । अन्त में राम तथा लक्ष्मण के वापस आने के बाद उसे अपने बंधु का स्मरण हुआ।। साथ युद्ध करते समय अर्धचन्द्र बाण से राम ने इसके पैर उसने यूपाक्ष को कुंभकर्ण को जागृत करने के लिये भेजा। तोड़ दिये । तब इसका भयंकर शरीर भूमि पर गिर पड़ा। युद्ध के संबंध में प्राथमिक चर्चायें जिस सभा में हुई, वहाँ। फिर भी मुँह फैला कर राम की ओर सरकते हुए कुंभकर्ण उपस्थित था। तब से जो कुंभकर्ण सोया था, वह आने का यह प्रयत्न कर ने लगा। तब ऐन्द्रबाण से राम १५० Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुंभकर्ण ने इसकी वध किया (बा. रा. यु. ६०-६७ ) । रामायण के अनुसार इसका वध राम ने किया। परंतु महा भारत के अनुसार लक्ष्मण ने किया (म. व. २७१-१७)। इसका शरीर गिरने से लंका के अनेक गोपुर भग्न हो गये ( म. व. २८६-८७ ) । इसे कुंभनिकुंभ नामक दो बलाढ्य पुत्र थे । प्राचीन चरित्रकोश कुंभनाभ - कश्यप तथा दनु का पुत्र । कुंभनिकुंभ - कुंभकर्ण को ज्याला से उत्पन्न दो पुत्र । ये अत्यंत पराक्रमी तथा बलवान् थे। रावण ने जब इन्हें रामसेना से लड़ने के लिये भेजा, तब इन्होंने भयंकर युद्ध किया। अन्त में सुग्रीव ने कुंभ का तथा हनुमान ने निकुंभ का वध किया ( वा. रा. यु. ७५-७७ ) । । कुंभमान कश्यप तथा दनु का पुत्र । कुंभयोनि- अगस्त्य ऋषिका नामांतर । कुंभरेतस्-- भारद्वाज अभि तथा बीरा का पुत्र । इसे शरयू नामक स्त्री तथा सिद्धि नामक पुत्र था । वीर, रथप्रभु तथा रथाध्वान ये नाम इसीके ही है। यह एक प्रकार का अनि है (म.व. २०९)। कुंभहनु -- प्रहस्त का सचिव । इसका वध तार नामक बंदर ने किया (बा. रा. यु. ५८ ) । कुंभांड - बाणासुर का मंत्रि । बलि के मंत्रियों में श्रेष्ठ (नारद. १.१० ) । चित्ररेखा का पिता ( भा. १०.६२ ) । बलराम के साथ इसका युद्ध हो कर उसीमें इसकी मृत्यु हुई ( भा.. १०.६३) । कुरुश्रवण कुंभोदर - राम को तीर्थयात्रा करवानेवाला एक ऋषि (आ. रा. याग. ५-६ ) । वाहिनी के पुत्र के नाम:- अश्ववत् ( अविष्ठत् ), अभिवत्, चित्ररथ, मुनि तथा जनमेजय (म. आ. ८९.४४ ) । २. द्रोणाचार्य को भी यह नाम दिया जाता है (म. भागवत के मत में परीक्षित, सुधन, जह तथा निषयाव जह्न । द्रो. १५९.४ ) परंतु मत्स्य में निषधाश्व के बदले प्रजन है ( मत्स्य. ५० २३ ) | भविष्य मत में यही अहीनजपुत्र है। वैदिक वाङ्मय में कुरु का उल्लेख है (जै. उ. बा. १.३.८.१ ) । इससे सुप्रसिद्ध कुरुवंश प्रारंभ हुआ। इसके वंशजों को कौरव कहते हैं । इसीकी तपश्चर्या से कुरुजांगल प्रदेश कुरुक्षेत्र नाम से प्रसिद्ध हुआ ( म. आ. ८९.४३) । कुरुक्षेत्र की पवित्रता तथा वहाँ का सदाचार बेदकाल से प्रसिद्ध है । उपनिषदों में कुरुपांचाल देश के तत्त्वज्ञ का निर्देश आया है ( कौ. उ. ४.१. बृ. उ. ३.१.१,६.१.९) कुरुक्षेत्र का माहात्म्य अनेक पुराणों में हैं। यश, उशीनरसहित कुरुपांचाल मध्यप्रदेश है (पं. बा. ८.१४ ) । २. माल्यवान् राक्षस की पन्या अनला को विधायसु राक्षस से उत्पन्न कन्या । मधु नामक राक्षस ने इसका हरण किया तथा इससे विवाह किया। उससे इसे उत्पन्न पुत्र लवणासुर नाम से प्रख्यात है। कुयव-कुल्स के लिये इसका वध इन्द्र ने किया (ऋ २.१९.६ ) । कुयवाच इन्द्र ने दुर्योग के लिये इसका वध किया (ऋ. १.१७४.७ ) । ( ४. पुष्पकाको विवाऋषि से उत्पन्न कन्या लिंग १.६२ ) । ५. अंगारपर्ण गंधर्व की स्त्री । ६. चित्ररथ गंधर्व की स्त्री (म. आ. १५८.२१ ) । कुरु · (स्वा प्रिय) आमीम को पूर्वचिती से उत्पन्न सातवाँ पुत्र इसकी पत्नी मेरुसन्या नारी है। इसका वर्ष इसीके नाम से प्रसिद्ध है ( भा. ५.२.१९ - २१ ) । 1 २. (सो. अज. ) संवरण को तपती से उत्पन्न पुत्र । इसकी पत्नियों के नाम शुभांगी तथा वाहिनी । शुभांगी के पुत्र का नाम विडूरथ ( म. आ. ९०-४१ ) । २. दंडी मुंडीश्वर नामक शिवावतार का शिष्य । कुंभीनसी--बलि दैत्य की कन्या तथा बाणासुर की श्रौत देखिये) । भगिनी ( मत्स्य. १८७.४१ ) । २. सुमाली राक्षस को केतुमती से उत्पन्न चार कन्याओं में कनिष्ठ रावणमाता कैकसी की यह भगिनी थी। ३. यह एक विशिष्ट लोगों का नाम है ( देवभाग कुरूंग - देवातिथि का ने इसके दान की प्रशंसा की है । यह तुर्वसों का राजा था (ऋ. ८.४.१९ ) । कदाचित् यह कुरुवंश का होगा (नि. ६.२२ ) । कुरुवत्स - ( सो.) भविष्य के मत में नवरथपुत्र । कुरुवश - (सो. क्रोष्टु. ) मधुराजा का पुत्र । इसका पुत्र अनु (भा. ९.२४.५) । कुरुश्रवण त्रासदस्यव - त्रसदस्यू का पुत्र । इसके दान की कवम ऐश ने प्रशंसा की है (ऋ. १०.३३.४-५) । इसी सूक में, मित्रातिथि की मृत्यु के बाद उसके पुत्र उपमश्रवस् का समाचार लेने के लिये कवप ऐल्श के आने का निर्देश है | वास्तविक रूप से, इस सूक्त में आये १५१ Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन चरित्रकोश कुरुश्रवण हुए दो घटनाओं का कुछ संबंध नहीं है, यह सायणमत योग्य है। व केवल सूक्तकार है (बृहद्दे. ७.३५ - २६ ) | कुरुसुति काण्व - सूक्तद्रष्टा (ऋ. ८.७६-७८ ) । कुल- दाशरथि राम की सभा का एक हास्यकार । २. वाशरथि राम की सेना का एक वानर कुलक - (स. इ. ) रणक राजा का नामांतर । २. (सू. इ. भविष्य. ) मस्त्य के मत में क्षुद्रकपुत्र । इसे भागवत में रणक, विष्णु में कुंड़क तथा वायु में क्षुभिक कहा है। कुलह -- कश्यप कुल का एक गोत्रकार । कुलिक -- कद्रू पुत्र एक नाग ( म. आ. ५९.४० ) । कुल्मलबर्हिस् - - सामद्रष्टा ( तां. बा. १५.३.२१ ) । कुल्मलबर्हिम् शैलूषसूक्तद्रष्टा (ऋ. १०.१२६) । कुवल - वीरवर्मन का पुत्र ( वीरवर्मन् देखिये) । कुवलयाश्व -- (सो. काश्य.) एक चक्रवर्ति राजा (मै. उ. १.४) । दिवोदासपुत्र प्रतर्दन का नामांतर । इसेही कुवलाश्व शुमत् शत्रुजित् तथा ऋतुध्वज नामांतर हैं। भविष्य के मत में यह बृहदश्व का पुत्र था । कुवला— हंसध्वज की कन्या तथा सुधन्वा की भगिनी । 3 3 । कुवलाश्व - - (सू. इ. ) बृहदश्व राजा का पुत्र । वन में जाते समय, बृहदश्व ने इसे उत्तकाश्रम को पीड़ा देने वाले, धुंधु नामक दैत्य का पारिपत्य करने के लिये कहा। तब उत्तंक को साथ ले कर यह धुंधु के निवासस्थान पर गया | धुंधु दैत्य उज्जालक नामक वालुकामय समुद्र के तल में, अपने अनुयायियोसहित सोया था तब कुवलाश्व ने अपने दृढाश्वादि सौ पुत्रों को भागवत में पुत्रसंख्या २१००० दी गई है ( ९.६ ) – उस वालुकामय सागर की वालुका हटाने के लिये कहा । संपूर्ण वालुका हटाने के बाद धुंधु बाहर आया। उस समय उसके मुख से अग्नि की ज्यालायें निकल रही थी। उन ज्वालाओं से कुवलाश्व के दृढाश्व, कपिलाश्व तथा भद्राश्व को छोड़कर अन्य सब पुत्र जल गये । अतः कुपस्थ स्वयं धुंधु से लड़ने के लिये गया । तब विष्णु ने उत्तक ऋषि को दिये वर के कारण अपना तेज कुवलाश्व के शरीर में डाला । तात्काल कुवलाश्व कुशध्वज मार्केड मतानुसार कुवलाश्व शत्रुजित का पुत्र था ( मदालसा देखिये) । २. प्रतर्दन देखिये । कुश (सो. आयु ) भागवत मत में सुहोत्र राजा के तीन पुत्रों में दूसरा। इसका पुत्र प्रति । कुश राजा से कुशवंश प्रारंभ हुआ । २. (सो. क्रोष्टु. ) विदर्भ राजा के तीन पुत्रों में प्रथम । ३. (सो. पुरूरवस्.) अजक राजा का पुत्र । इसे कुशिक भी कहते थे । इसे कुशांबु, असूर्तरजस्, वसु तथा कुशनाभ नामक चार पुत्र थे। उन्हें कौशिक संशा थी (महा. २.१२) । ५. एक दैत्य । इसने शंकर से अमरत्व प्राप्त किया। इस कारण, विष्णु इसे मार नहीं सकता था। अन्त में इसका सिर जमीन में गाड़ कर उस पर शिवलिंग स्थापित किया। तब यह शरण आया (कंद, ७.४.२० ) । । स्कंद. कुशकेतु-मकान्त देखिये। धुंधु का पराभव किया, तथा धुंधुमार नाम प्राप्त किया । कुवलाश्व के बाद दृढाश्व गद्दी पर बैटा ( म. व. १९३; ह. कं. १,११ वायु ८८ ब्रह्माण्ड २.६२.२९, ब्रह्म ७ भा. ९.६; विष्णुधर्म. १.१६; कुवलयाश्व देखिये ) । ४. (सू. इ.) भविष्य के मत में दाशरथि राम का पुत्र । इसने १००० वर्षों तक राज्य किया ( कुशलय देखिये) । कुशध्वज - रथध्वज राजा का पुत्र तथा वेदवती का पिता ( वेदवती देखिये) । २. (सू. निमि ) ह्रस्वरोमा नामक जनक के, दो पुत्रों में दूसरा । सीरध्वज जनक का कनिष्ठ बंधु । यह मिथिला में सांकाश्य नामक राजधानी में राज्य करता था ( वा. रा. बा. ७१. १६ - १९ ) । मांडवी तथा श्रुतकीर्ति इसकी दो कन्यायें थीं । वे दशरथपुत्र भरत तथा शत्रुघ्न को क्रमशः दी गई थीं। सीर को पुत्र न था इसलिये उसके । पश्चात् यह मिथिला का राजा बना था । इसके पुत्र का नाम धर्मध्वज जनक | कुछ स्थानों पर इसे सीरप्यय का पुत्र भी कहा गया है ( भा. ९. १३; वायु ८९ ) । ३. बृहस्पति का पुत्र (बृहस्पति देखिये ) । ४. एक राजा । पूर्वजन्म में यह वानर था । उस समय यह झूले पर स्थित शंकर को रात भर झुलाता था । उस पुण्यसंचय से इसे यह जन्म प्राप्त हुआ। इस जन्म में इसने दमनकबत किया। बाद में, अग्निवेश ऋषि की कन्या जब नग्नस्थिति में स्नान कर रही थी, तब इसने उसका हरण किया । इसलिये उस ऋषि ने इसे ' तुम गृध्र बनोगे ' ऐसा शाप दिया । परंतु इसने क्षमा मांगने पर उरशाप दिया, 'इन्द्रद्युम्न को सहायता करने से, तुम मुक्त हो जाओगे ( स्वन्द. १. २०१२ ) । १५२ Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुशनाभ प्राचीन चरित्रकोश कुशलव कुशनांभ-(सो. अमा.) कुश अथवा कुशिक राजा | इसके बाद वाल्मीकि ने इनके जातकर्मादि संस्कार के चार पुत्रों में चौथा । इसने महोदय नामक नगरी की किये । वेद एवं वेदों के दृढीकरण के लिये उन्हें रामायण स्थापना की थी। इसकी सौ कन्यायें वायु के कोप से | सिखाया । धनुर्विद्या के समान क्षात्रविद्या में इन्हें निष्णात वक हो गई। उन्हें कांपिलीपुरी के चुलिसूनु ब्रह्मदत्त | किया। बाद में अश्वमेध करने के लिये राम ने अश्वमेधीय राजा को दिया गया । तब उनका शरीर सीधा हुआ। अश्व छोड़ा। इन्हों ने उसे पकड़ लिया। उस अश्व के परंतु काम्पिल्य देश को कान्यकुब्ज नाम जो मिला, वह | मस्तक पर लिखे हुए लेख ने इनका क्षत्रियत्व जागृत वैसा ही रहा (वा. रा. बा. ३२.३३; मा. ९.१५)। किया । उस लेख में लिखा थाः२. वैवस्वत मन्वन्तर का एक मनुपुत्र । "एकवीराद्य कौसल्या तस्याः पुत्रो रघूद्रहः। तेन कुशरीर-वेदशिरस् नामक शिवावतार का शिष्य। | रामेण मुक्तोऽसौ वाजी गृह्णात्विमं बली"। यह देख कर कुशल--यह तथा इसकी पत्नी दुराचारी थे। परंतु | लव ने कहा, "क्या हमारी माँ वंध्या है, क्या वह पुत्रद्वारा गया में पिंडदान किये जाने के कारण, इनका | एकवीरा नहीं है ?” मुनिकुमारों द्वारा निवारण किये उद्धार हुआ (पन. उ. २१३)। जाने पर भी लव ने उनकी एक न सुनी । बल्कि कहा 'सीता २. प्रियव्रत का प्रधान (गणेश, २.३२-१४)। का पुत्र हो कर भी, यदि मैने तुम्हारे जैसा ही व्यवहार कुशलव--दाशरथि राम से सीता को उत्पन्न जुड़वाँ किया, तो मै एक कृमी ही सिद्ध हो जाऊंगा। अश्व पुत्र । लोकापवाद के भय से, राम ने सीता का त्याग करने रक्षा के लिये शत्रुत नियुक्त था। उसने जब लव का निश्चय किया। लक्ष्मण के द्वारा, उसे तमसा के किनारे। को मूञ्छित किया, तब कुश ने आ कर शत्रुघ्न, वाल्मीकि आश्रम के समीप छोड़ दिया। यह वार्ता शिष्यों को मूछित किया। बाद में लक्ष्मण अपनी सेनासहित के द्वारा वाल्मीकि को ज्ञात हुई। तब आश्रम में मुनि आया। लब ने जागृत हो कर, सूर्य से नया धनुष्य पत्नियों के पास सीता की रहने की व्यवस्था उसने कर | प्राप्त किया । लक्ष्मण, भरत तथा हनुमान का भी लव ने दी (वा. रा. उ. ४८-४९)। पराभव किया। तब राम को मजबूरी से रणांगण पर ... बाद में श्रावण माह में, आधी रात के समय सीता आना पड़ा । बिभीषण तथा सुग्रीव को ले कर राम रणांगण प्रसूत हुई. तथा उसे दो पुत्र हुए। जैसे ही वाल्मीकि को पर आया। दोनों कुमारों को देखते ही उसने "तुम ने धनु-यह मालूम हुआ, वैसे ही बालकों की सुरक्षा के लिये वह वेद किससे सीखा ?, तुम्हारे माँ बाप कौन है ?, आदि प्रश्न दौडा । निचले हिस्से में तोड़ी हुई दर्भमुष्टि, अभिमंत्रित पूछे । अंत में राम ने कहा कि, जब तक तुम अपना कुल कर के उसने वृद्ध स्त्रियों को दी, तथा प्रथम जन्मे हुवें नहीं बताते, तब तक मैं युद्ध नहीं करूंगा। तब इन्होंने • पुत्र के शरीर पर से घुमाने के लिये कहा। बाद में जन्मे | कहा, 'हम सीता के पुत्र हैं'। यह सुनते ही राम • पुत्र के शरीर से, दर्भ का उपरीला हिस्सा घुमाने के लिये के हाथ से धनुष गिर पड़ा । सुग्रीव आदि ने बहुत प्रयत्न कहा। इन दोनो पुत्रों का नाम क्रमशः कुश तथा लव किये। फिर भी सब का वध कर, तथा राम को भी मूच्छित रखने के लिये कहा (वा. रा.उ. ६६)। दर्भ तथा दूर्वांकुरों | कर, दोनों बालक घर गये। ये हनुमान को सीता के मनोसे इनके शरीर पर पानी सींचा गया, इस लिये इनके रंजन के लिये साथ लाये। परंतु सीता ने उसे वापस भेजने नाम कुश तथा लव रखे गये ( जै. अ. २८)। जिस दिन के लिये कहा। अब तक वाल्मीकि आश्रम में नहीं था। ल्व तथा कुश का जन्म हुआ, उस दिन लवणासुर का वापस आते ही, उसने पुत्र तथा पत्नी का स्वीकार करने पारिपत्य करने के लिये जाता हुआ शत्रुघ्न वाल्मीकि के लिये राम से कहा । पश्चात् बालक अश्वों के संरक्षक बने के आश्रम में ही था । यह वार्ता ज्ञात होते ही ला तथा यज्ञ पूर्ण हुआ (जै. अ. २८-३६)। उसे अत्यंत आनंद हुआ। पद्मपुराण में लिखा गया है, वाल्मीकि रामायण में इस प्रसंग का उल्लेख नहीं है। लवणासुर का पारिपत्य कर के शत्रुघ्न जब वह वापस जा इस ग्रंथ में लिखा है कि, कुशलव तथा राम की भेंट रहा था, तब वह आश्रम में आया था, परंतु सीता रामायणगान के कारण हुई। जिस समय राम ने अश्वआश्रम में प्रसूत हो गई है, यह वार्ता वाल्मीकि ने उसे | मेध किया, तब अनेक कलाकार एकत्रित हुए थे । वाल्मीकि नहीं बताई ( पन. पा. ५९)। यह कथन उपरोक्त कथन | को भी बड़े सम्मान से निमंत्रण मिला था। उसके साथ के ठीक विपरीत है। ये दोनों भी अयोध्या गये। वहाँ वाल्मीकिद्वारा सिखाया प्रा. च. २०] १५३ Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुशलव प्राचीन चरित्रकोश कुशबिल गया रामायण महाकाव्य तालसुरों के साथ गाना इन्हों। हैं (ऋ. ३.२१. १:२९.१५,३०.२०,४२.९; ऐ. ब्रा. ७. ने प्रारंभ किया। ऋषियों के पवित्र स्थान, ब्राह्मणों के | १८; सां. श्री. १५.२७)। शुनःशेप की कथा में इसका निवासस्थान, उपमार्ग, राजमार्ग, राजाओं के निवासस्थान, | नाम है। यह भरतकुल का पौरोहित्य करता था। यह राम का निवासस्थान, तथा जहाँ ऋत्विजों के अनुष्ठान विशेषतः इन्द्राराधना करता था। इसीलिये इन्द्र को हो रहे थे, ऐसे स्थानों पर रामायण गाने का क्रम | कौशिक कहते हैं (ऋ. १.१०.११; मै. सं. ४.५.७; श. इन्होने जारी रखा । यह कभी इस मेल को बिगाड़ते नहीं | ब्रा. ३.३.४.१९; ते. आ. १.१.४) थे। रोज ये बीस सगों का गायन करते थे। इन्हें | यह कुश का पुत्र था। भागवत मत में इसे कुशाबु, वाल्मिकी की आज्ञा हुई थी कि, धन की अपेक्षा न विष्णु मत में कशांब तथा वायु मत में कुशास्य नाम हैं। की जाये। यदि कोई धन देने ही लगे, तो कहा जाये | इसका पुत्र गाधि तथा पौत्र विश्वामित्र । यह विश्वामित्रकुल कि, हम मुनिकुमारों को धन की क्या आवश्यकता है ? | का एक गोत्रकार है। इसे इषीरथपुत्र कहा गया है अगर किसी ने पूछा कि, तुम किसके पुत्र हो, तो ये | (वेदार्थदीपिका ३)। कहते थे कि, हम वाल्मीकि के शिष्य है। परंतु रामायण | कुशिक महोदयपुर में रहता था। एक बार इसका श्रवण से राम को पता चला कि, कुशलव उसीके पुत्र है | श्वशुर, च्यवन इसके पास रहने के लिये आया। (वा. रा. उ. ९३-९४)। उसका हेतु था, कि इनके कुल का नाश कर दिया जावे। राम ने कोसल देश का राज्याभिषेक लव को किया। क्यों कि. आगे चल कर इसके वंश में संकर होनेवाला उत्तर कोसल का राज्यभिषेक कुश को किया (वा. रा. था। कुशिक ने स्त्री के साथ च्यवन की उत्कृष्ट सेवा उ. १०७)। लव की सुमति तथा कंजानना नामक दो की. तथा अपने वंश को ब्राह्मणत्व प्राप्त करने का वरदान पत्नियाँ थीं, तथा कुश की चंपका नामक पत्नी थी (आ. रा.. | प्राप्त किया। उस प्रकार हआ भी (म. अनु. ८५-९० विवाह.६-७)। कुं विष्णुधर्म. १.१४)। इन्द्र के समान पुत्र हो, इस कुशाग्र (सो. अज.) भागवत मत में उपरिचर | हेतु से कुशिक ने तपस्या की। इसलिये इन्द्र ने इसके वसु का पुत्र वृहद्रथ के दो पुत्रों में से दूसरा। जरा- | उदर से गाधि के रूप में जन्म लिया (ह. वं. १.२०; संध का कनिष्ठ बंधु । इसका पुत्र ऋषभ । परंतु वायु तथा | म. शां. ४८ )। मस्त्य पुराणों में जरासंध का उल्लेख कुशाग्रबंश में दिया | कुशिककल के मंत्रकार-अघमर्षण, अष्टक, देवरात, है । अन्य पुराणों में यह स्वतंत्र वंश है। देवश्रवस्, धनंजय, पुराण, बल, भूतकील, मधुच्छंदस् , कुशांब-(सो. अमा.) कुश अथवा कुशिक राजा | माम्बुधि, लोहित, विश्वामित्र, शालंकायन, शिशिर (मत्स्य, के चार पुत्रों में प्रथम । इसे कुशांबु भी कहते थे। | १४५.११२-११३)। इसके द्वारा स्थापित नगरी का नाम कौशांबी । इसके पुत्र __अघमण, कत, कोल, पूरण, उद्गल, रेणु, ये ब्रह्मांड में का नाम गाधि था (कुशिक देखिये)। अधिक है (२.३२.११७-११८)। २. (सो. ऋक्ष.) उपरिचर वसु राजा के पुत्रों में एक । । २. लकुलिन् नामक शिवावतार का शिष्य । यह चेदि देश का अधिपति था (भा. ९.२२)। इसे कुशिक ऐषाराथि—सूक्तद्रष्टा (ऋ. ३.३१; कुशिक मणिवाहन नामांतर था (म. आ. ५७.१०)। देखिये)। कुशांबु-कौशांबी नगरी में रहनेवाला एक राजा (कुशांब देखिये)। कुशिक सौभर-सूक्तद्रष्टा (ऋ. १०.१२७)। कुशाल-(मौर्य, भविष्य.) ब्रह्मांड के मत में अशोक कुशिकंधर-अट्टहास नामक शिंवावतार का शिष्य । कुशावर्त (स्वा. प्रिय.) एक राजा। ऋषभदेव | कुशीबल-भावशर्मा नामक एक ब्राहाण । अत्यधिक तथा जयंती का पुत्र । इसका खंड इसीके नाम से प्रसिद्ध | ताड़ीसेवन से इसकी मृत्यु हुई । इसे ताड़ का जन्म प्राप्त है (भा. ५.४)। हुआ। कुछ भी दान न करने के कारण, उस ताड़ पर कुशिक-(सो. अमा.) विश्वामित्र का पूर्वज (ऋ. | कुशीबल नामक ब्राह्मण, ब्रह्मराक्षस बन कर सहकुटुंब ३.३३.५)। वैदिक ग्रंथों में इसके अनेक उल्लेख प्राप्य | रहता था। गीता के आठवें अध्याय का पाठ करने से, पुत्र। १५४ Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुशीबल प्राचीन चरित्रकोश भावशर्मा और कुशीबल दांपत्य का उद्धार हुआ (पद्म. - कुसुमायुध-यह ब्रह्मदेव के हृदय से उत्पन्न हुआ उ. १७८)। (मत्स्य. ३.१०; काम देखिये)। कुशीलव-(स. इ.) राम के पुत्र कुश तथा लव कुसुमि-सामवेदी श्रुतर्षि । थे । इनके लिये वाल्मीकि रामायण में, सर्वत्र कुशीलव । कुसुरुबिंद औद्दालकि- एक ऋषि पशुसंपत्ति प्राप्त शब्द का प्रयोग आया है । आलोचक लिखते है कि, यह करने के लिये, इसने सप्तरात्र याग किया तथा चतुष्पाद आर्ष प्रयोग है (वा. रा. बा. ४.५)। इनका कुश तथा संपत्ति से समृद्ध हुआ (तै. सं. ७.२.२.१)। इसने लव नामकरण कर के (वा.रा.उ.६६.९), वाल्मिकी जान दशरात्र याग शुरू किया। अन्यत्र कुसुरबिंद (पं. बा. २२. बूझ कर कुशीलव प्रयोग करता है यों ज्ञात होता है। १५.१-१०), कुसुरुबिंदु (सां. श्री. १६.२२.१४) निर्देश कुशीलव शब्द का अर्थ, गुणगान का व्यवसाय करनेवाला हैं । यह संस्कारशास्त्र का ज्ञाता था (ष. ब्रा. १.१६) इसे बन्दीजन । वाल्मीकि ने अपना नाम न बताने की उनको औद्दालकि कहा गया है। इससे पता चलता है कि, आज्ञा दी थी, यह भी ध्यान में रखने की बात है।। श्वेतकेतु इसका बंधु होगा। लोगों में कुशलव के लिये कुशलव शब्द प्रयुक्त होने का | कुस्तुक शार्कराक्ष्य--श्रवणदत्त का शिष्य । इसका यही कारण होगा (कुशलव देखिये)। शिष्य भवत्रात (वं. बा. १)। कुस्तुंबुरु-एक यक्ष (म. स. १०.१५)। ... कुशमिन्-ब्रह्मांड मत में व्यास की सामशिष्य | कुहन-सौवीरदेशी राजपुत्र । यह जयद्रथ का बंधु परंपरा के पौष्यं जि का शिष्य । था (म. व. २४९. १०)। कुशुंभ--(सो.) भविष्य के मत में शकुनिपुत्र । कुहर-भारतीय युद्ध में दुर्योधन के पक्ष का राजा। कुश्रि वाजश्रवस--वाजश्रवस् तथा राजस्तंबायन २. कश्यप तथा कद्र का पुत्र। यज्ञवचस् का शिष्य । इसे अग्निचयन का ज्ञान था कुहू-स्वायंभुव मन्वंतर में अंगिरा ऋषि को श्रद्धा से (श. ब्रा. १०.५.५.१)। इसके शिष्य उपवेशि तथा | उत्पन्न चार कन्याओं में द्वितीय । वात्स्य (बृ. उ. ६.५.३-४)। २. हविष्मंत नामक पितरों की स्त्री। - कुषंड-सर्पसत्र में पंड नामक ऋत्विज के साथ ३. द्वादश आदित्यों में धाता नामक आदित्य की स्त्री। इसका नाम आया है । इस सत्र में इसके पास अभिगिर ४. मयासुर की तीन कन्याओं में कनिष्ठ । (स्तुति ) तथा अपगर. (निंदा ) नामक कर्म थे (पं. ब्रा.. कूट-कंस की सभा का एक मल । धनुर्याग के समय २५.१५.३; ला. श्री. १०.२०.१०)। बलराम ने इसका वध किया (भा. १०.४४)। कुर्षातक सामश्रवस-शमनी मेद नामक व्रात्यों | २. पाषाणरूपी इस असुर का गणेश ने नाश किया '. का.यज्ञप्रमुख । यह व्रात्यों का मुख्य हुआ, इसलिये इसे | (गणेश. २. १३)। लुशाकपि खागलि ने 'भ्रष्ट होगे' ऐसा शाप दिया।। कपकर्ण-एक रुद्रगण । बाणासुर के युद्धप्रसंग में इसीलिये कौषीतकी शाखा के लोग (सांख्यायन), | इसका बलराम से युद्ध हुआ था (भा. १०. ६३)। कहीं भी महत्त्वपूर्ण स्थान को प्राप्त नहीं हुए (पं. बा.१७. २. बलि के प्रधानों में अग्रेसर (नारद. १.१०)। ४.३)। कूर्च-(सू, नरि.) भागवत मत में मीट्ठस् राजा कुसीदकि-अंगिराकुल का गोत्रकार । का पुत्र । इसका पुत्र इंद्रसेन । कुसीहि-विष्णु मत में व्यास की सामशिष्यपरंपरा | ___ कूर्चामुख--विश्वामित्र ऋषि का पुत्र (म. अनु. ७. के पौष्यंजि का शिष्य । ५३ कुं.)। कुसु-मणिवर तथा देवजनी का पुत्र । __ कूर्म-एक अवतार । प्रजापति संतति निर्माण करने कुसुदिन काव्य--सूक्तद्रष्टा (ऋ. ८.८१-८३)। के लिये, कर्मरूप से पानी में संचार करता है (श. ब्रा. कुसुमामोदिनी-पार्वती की माता की सहेली।। ७.५.१. ५-१०; म. आ. १६; पन. उ. २५९)। पार्वती तपस्या करने मंदराचल पर गयी। तब उसने इसे | प्रजापति ने कूर्मरूप धारण कर प्रजोत्पादन किया। प्रार्थना की कि, वह उधर किसी को भी न आने दे | यह ग्यारहवाँ अवतार है (भा. १. ३. १६)। पृथ्वी (पद्म. सृ. ४४)। रसातल को जा रही थी, तब विष्णु ने यह अवतार Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन चरित्रकोश कृतवाय प्राय लिया (लिंग, ९४ ) इस कूर्म की पीठ का घेरा एक ५. कृति ५. देखिये। लाख योजन था। दुर्वास द्वारा दी गयी पारिजातक की कृतक-वसुदेव को मदिरा से उत्पन्न पुत्रों में से माला का इंद्र ने अपमान किया, इसलिये ऋषि ने तीसरा (भा. ९.२४)। उसे, 'वैभव नष्ट होगा' यों शाप दिया । इस कारण कृतंजय-(स. इ. भविष्य.) भागवत मत में लक्ष्मी समुद्र में गुप्त हो गयी। उसे प्राप्त करने के | बर्हिराज का, विष्णु मत में धर्म का, वायुमत में धर्मिन् लिये विष्णु ने बताया, 'लक्ष्मी को निकालने के का, तथा मत्स्य मत में बृहद्राज का पुत्र । लिये, मंदराचल की मथनी, वासुकी का डोर एवं २. एक व्यास (व्यास देखिये)। एक ओर देव तथा दूसरी ओर दैत्य, समुद्रमंथन करें। कृतति-चित्र केतु राजा की करोड स्त्रियों में से उस समय मैं स्वयं कूर्म रूप ले कर, पीठ पर ज्येष्ठ । इसे अंगिराऋषि की कृपा से पुत्र हुआ। यह मंदराचल पर्वत धारण करूंगा, तब लक्ष्मी प्राप्त होगी' इसकी सौतों को सहन नहीं हुआ । इसलिये उन्होंने इसके (पद्म. ब्र. ८.)। समुद्रमंथन के समय मंदराचल नीचे जाने पुत्र को विष दिया । परंतु अंगिरा ने उसे पुनः जीवित लगा, तब विष्णु ने कूर्मावतार धारण किया। अमृतप्राप्ति के | किया (भा. ६.१४; चित्रकेतु देखिये)। लिये यह अमृतमंथन चल रहा था (पद्म.उ.२३१-२३३; कृतध्वज-प्रतर्दन राजा का नामांतर। भा.२.७.१३; ८.७.८)। देवदानवों ने इस तरह क्षीरसागर २.(सू. निमि.) धर्मध्वज जनक के दो पुत्रों में से का मंथन कर चौदह रत्न निकाले तथा पूर्ववत् वैभव | एक । संपादित किया । लोहाघाट के पास विष्णु ने मंदर पर्वत | कृतप्रज्ञ-भारतीय युद्ध में दुर्योधन के पक्ष के राजा धारण करने के लिये कूर्मावतार लिया । कूर्मावतार के भगदत्त का पुत्र । नकुल ने इसका वध किया (म.. क. ४. पश्चात् , लोग एकादशी का उपवास करने लगे (पद्म, उ. | २९)। २६०)। ___ कृतयशस् आंगिरस--मंत्रद्रष्टा (ऋ. ९.१०८.१०२. कश्यप तथा कद्रू का पुत्र (म. आ. ३५)। ११)। - कर्म गार्ल्समद-सूक्तद्रष्टा (ऋ. २.२७.२९)। । कृतवर्मन्-(सो. यदु. अंधक.)। ह्रदीकपुत्र (मस्य कृशांब स्वायव लातव्य-साम का एक प्राचीन | ४४.८०-८१)। यह द्रौपदीस्वयंवर में गया था (म. आदि. आचार्य । इसने यज्ञायज्ञीय साम में, गिरा के स्थान पर | १७७.१७) । दुर्योधन के पक्ष में यह एक अक्षौहिणी इरा कहने के लिये बताया (पं. वा. ८.६.८)। यह | सेना ले कर आया था (म. उ. १९.१७)। बलराम द्वारा लातव्य कुल के स्वायु का पुत्र होगा। रैवतक पर्वत पर किये गये उत्सव में यह आया था (म. कृष्मांड-एक दैत्य । कार्तिक शुक्ल नवमी के दिन आ. २११.११)। इसने पांडवों से भीषण युद्ध किया इसे विष्णु ने मारा (स्कंद. २.४.३१)। था; किन्तु भीम ने इसे तीन बाणों से विद्ध किया (म. कूष्मांडराज-रुद्रगणविशेष । द्रो. ९०.१०.)। दुर्योधन के पक्ष के बचे तीन वीरों में कृकण-किंकिण देखिये। से यह एक था (म. सौ. ९.४७-४८)। बाद में यह कृणु-एक ऋषि । वाल्मीकि देखिये। द्वारका गया । युधिष्ठिर के अश्वमेध यज्ञ में अश्व के संरकृत(सो. कुश.) राजा जय का पुत्र । इसका पुत्र क्षणार्थ यह अर्जुन के साथ गया था। यादवी युद्ध में इसे हर्यवन । | सात्यकि ने मारा (भा. ९.२४.२७; म. मौ.३)। २. वसुदेव को रोहिणी से उत्पन्न पुत्र (भा. ९.२४)।। २. (सो. सह.) भागवत मत में धनकपुत्र (कृतवीय ३. मणिवर तथा देवजनी का गुह्यक पुत्र । ४. व्यास की सामशिष्य परंपरा के भागवत, वायु | कृतवात्र-अंगिरसकुल का मंत्रकार । ऋतवाच् पाठतथा ब्रह्मांड मतानुसार हिरण्यनाभ का शिप्य । भागवत | भेद है। के अनुसार यह चतुर्विशशाखाध्यायी है। यह सन्नति- | कृतवीर्य--(सो. यदु. सह.) भागवत तथा विष्णु पुत्र तथा हिरण्यनाभ कौसल्य का शिष्य था। इसने साम- | मत में राजा धनक के चार पुत्रों में ज्येष्ठ । इसका पुत्र संहिता का चतुर्विशतिधा विभाग किया। उनको प्राच्यसाम | कार्तवीर्याजुन । उसे सहस्रार्जुन भी कहते हैं (म. आ. कहते है। (ह. वं. १.२०.४२-४३) | १६९; स. ८.८)। मस्य तथा वायु में धनक के स्थान देखिये)। Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कृतवार्य प्राचीन चरित्रकोश कृप पर कनक पाठ है । संकष्टीचतुर्थी व्रत के प्रभाव के कारण, कृतौजस-(सो. सह.) मत्स्य मत में कनकपुत्र । इसे कार्तवीर्यार्जुन जैसा पराक्रमी पुत्र हुआ (गणेश | भागवत तथा विष्णु मत में धनकपुत्र । कृत्तिका-प्राचेतस दक्ष ने सोम को दी सत्ताइस कृताग्नि-(सो. सह.) राजा धनक के चार पुत्रों | कन्याओं में से एक। में से दूसरा। २. अग्नि नामक वसु की पत्नी । इसका पुत्र स्कंद (भा. कृताश्व--(सू. इ.) संहताश्व राजा के दो पुत्रों में | ६.६; मत्स्य. ५. २७)। से ज्येष्ठ । कृशाश्व नामांतर है । इसका पुत्र श्येनजित् वा कृत्नु भार्गव-सूक्तद्रष्टा (ऋ. ८. ७९)। प्रसन्न था। कृत्वी-कृष्णद्वैपायन पुत्र शुक की कन्या। इसका कृताहार--पुलह तथा श्वेता का पुत्र । | दूसरा नाम कीर्तिमती है। अजमीढ़ कुल में उत्पन नीप कृति-(सो. आयु.) नहुष के छः पुत्रों में से कनिष्ठ । | वा अणुह राजा की यह पत्नी थी। इसका पुत्र ब्रह्मादत्त । २. (सू. निमि.) बहुलाश्व जनक का पुत्र। इसका पुत्र कृप-रुशम एवं श्यावक के साथ इंद्र के सहायक महावशिन् । विष्णु एवं वायु मत में, इस के समय निर्मि | के रूप में आया है (ऋ. ८. ३.१२, ४.२)। वा विदेह वंश समाप्त हुआ। कृतरात-देखिये। २. (सो. अज.) उत्तर पांचाल देश के राजकुल में ३. (सो. कोष्टु.) रोमपादपुत्र बभ्रु का पुत्र । इसका | गौतम नामक मुनि का पौत्र । पांचाल देश, आज का पुत्र राजा उशिक (भा. ९.२४.)। रुहेलखंड है। गौतम का शरबत् नामक महान् तपस्वी ४. ( सो. द्विमीढ.) सन्नतिमान् राजा का पुत्र । इसने पुत्र था। सत्यधृति का पुत्र शरद्वत् , ऐसा भी कहीं कहीं हिरण्यनाम से प्रांच्यसामों की छः संहिताएँ संपादित की उल्लेख मिलता है। इसकी तपस्या भंग करने के लिये इंद्र थी। इसका पुत्र नीप। | ने जालपदी नामक अप्सरा भेजी थी (म. आ. १२०. ५. (सो. कुरु.) भागवत मत में च्यवनपुत्र। इस | ६)। कुछ स्थानों पर इस अप्सर को उर्वशी कहा गया उपरिचर वसु नामक पुत्र था । कृत पाठभेद है। है (भा. ९. २१. ३५, मत्स्य. ५०. १-१४)। कुछ ६. भारतीय युद्ध में दुर्योधनपक्षीय राजा । इसका पुत्र स्थानों पर तो, सत्यधृति का तपोभंग करने के हेतु उर्वशी रुचिपर्वन् (म. द्रो. २५.४८)। को भेजा गया, यों उल्लेख है । उस अप्सरा को देखते ही . . ७. संहाद की पत्नी । इसका पुत्र पंचजन ( भा. ६. इसका वीर्यस्खलन हुआ। यह वीर्य, शर नामक घास के .१८)। द्वीप पर गिरा, जिससे एक पुत्र एवं एक कन्या उत्पन्न हुई। ८. वसुपुत्र विश्वकर्मन् की पत्नी । इसे चाक्षुष नामक | कालोपरांत उसी वन में राजा शंतनु शिकार खेलने आया। छठवा मनु हुआ। (भा. ६.६)। वह इन्हें उठा कर ले गया, तथा उसने इनका पालन .. ९. सावर्णि मन्वंतर में एक मनुपुत्र । कृपापूर्वक किया। इसलिये कुप तथा कुपी उनका नामकरण .१०. रुद्रसावर्णि मन्वंतर के सप्तर्षियों में से एक। हुआ (म. आ. १२०)। इनमें से कृपी अश्वत्थामा की ११. रैवतमनुपुत्र । माता तथा गुरु द्रोणाचार्य की पत्नी थी (म. आ. १२. विष्णुमत में व्यास की सामशिष्यपरंपरा के | १२१. ११; विष्णु. ४. २०; अग्नि. २७७. गरुड. पौष्यंजि का शिष्य । १४०)। शंतनु पुत्र तथा पुत्री को वन से उठा कर ले गये, कृतिमत्-(सो. द्विमीढ.) भागवत मत में यवीनर- | यह बात तपःसामर्थ्य से गौतम ने जान ली। राजा के पुत्र । इसे सयधृति भी कहते थे। पास जा कर उसने अपने पुत्र को गोत्र आदि की कृतिरथ-(स. निमि.) प्रदीपकपुत्र । वायु मत में | जानकारी दी। उसे चारों प्रकार के धनुर्वेद तथा सब कीर्तिरथ। प्रकार की अस्त्रविद्या सिखायी (म.आ. १२०.१९-२०)। कृतिरात--(सू. निमि.) विष्णु तथा भागवत मत में इसके बाद राजा धृतराष्ट्र ने, वेदशास्त्रों में निपुण महाधृतिपुत्र। इसका नाम वायु मत में कीर्तिराज तथा | कृपाचार्य के पास, अपने सब पुत्रों को अध्ययन के लिये भागवत मत में कृति है। भेजा। कोरवों ने द्रोणाचार्य के पहले कृपाचार्य के पास , कृतेयु---(सो. पूरु.) भागवत तथा वायु मत में | धनुर्वेद सीखा था (म. आ. परि. १. क्र. ७३; पंक्ति रौद्राश्व को घृताची से उत्पन्न पुत्र । १३४)। १५७ Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कृप प्राचीन चरित्रकोश कृष्ण भारतीय युद्ध में यह कौरवों के पक्ष में था, फिर भी कृमि--(सो. अनु.) विष्णु तथा बायु के मत में इसका मन पांडवों की ओर था। यह हमेशा कर्ण की | उशीनरपुत्र । निंदा करता था, तथा अर्जुन की प्रशंसा करता था। (म. २. (सो. ऋक्ष.) मत्स्य के मत में च्यवनपुत्र । कृत, वि. ४४.१; द्रो. १३३.१२-२३)। एक बार कृपाचार्य कृतक, कृति आदि इसी के नाम रहे होंगे । पांडवों की स्तुति तथा कर्ण की निंदा कर रहा था। कर्ण । कृमिल--(सो. क्रोष्ट.) किंकिण देखिये । ने कहा, 'हे दुर्मति, यदि पुनः तुम इस तरह अप्रिय कृश-इसने यज्ञद्वारा इन्द्र को प्रसन्न किया (ऋ शब्द बोलोगे, तो इस तलवार से तुम्हारी जिव्हा काट | ८.५.४२)। यह सत्यवक्ता था (ऋ. ८.५९.३)। दूँगा (म. द्रो. १३३.५२) । इसी तरह हमेशा कर्ण | आश्विनों ने शयु के साथ इस पर भी कृपा की थी (ऋ. . तथा कृपाचार्य में ठन जाया करती थी। इसने भारतीय १०.४०.८)। सूक्तद्रष्टा कृश काण्व यही रहा होगा (ऋ. युद्ध में अतुल पराक्रम दिखा कर, अनेकों वीरों को स्वर्ग ८.५५)। भेजा । जयद्रथवध के बाद कृप तथा अश्वत्थामा ने | कृश वा कृशातनु-एक ऋषि तथा शंग ऋषि का अर्जुन पर आक्रमण किया, तब अर्जुन के बाणों से | मित्र (म. आ. ३६)। इसने प्रतिग्रह न ले कर कृपाचार्य बेहोश हुआ (म. द्रो. १२२.८)। इसने युद्ध | अपना सारा समय, तपस्या में ही व्यतीत किया। यह में धृष्टद्युम्न पर अमोघ बाण छोड़ कर, उसे जर्जर कर दिया | अत्यंत कृश था। इसी कारण इसका यह नामकरण हुआ। था (म. क. १८.५०)। दुर्योधन के वध के बाद, वीरद्युम्नपुत्र भरिद्युम्न नष्ट हो गया था। तब तपोबल से अश्वत्थामा अत्यंत क्रोधित हुआ। उसने कृपाचार्य | उसे वापस ला कर उसने इसे उपदेशपर कई बाते भी से कहा कि, मैं पांडवों के पुत्रों को निद्रित अवस्था | बतायी थीं (म. शां. १२६ )। में ही मार डालना चाहता हूँ। तब कृपाचार्य ने | , २. विकंठदेवों में से एक । उसे उपदेश किया, जिससे इसकी सही योग्यता का कृशानु- सोमसंरक्षक गंधर्वो में से एक- (तै. सं. १. पता चलता है। कृपाचार्य ने कहा, 'उद्योग की | २.७) । अश्विनों ने युद्ध में इसकी रक्षा की (ऋ. १. स्थिति कमजोर होने पर केवल भाग्य कुछ नहीं कर ११२.२१)। सकता। इसलिये कभी भी कार्य के प्रारंभ में बड़ों से कृशाश्व--एक ऋषि तथा प्रजापति । प्राचेतस दक्ष ने. विचारविमर्श करना चाहिये। अतः हम धृतराष्ट्र, अपनी साठ कन्याओं में से दो कन्याएं इसे दी थीं। गांधारी, तथा विदुर की सलाह लें' (म. सौ. ३.३० उनका नाम अर्चि एवं धिषणा था। अर्चि को धूम्रकेश, ३३)। इसने विवाह नहीं किया। यह चिरंजीव है। तथा धिषणा को वेदशिरस् , देवल, वयुन तथा मनु ये पुत्र कौरवों की मृत्यु के बाद इसने दुर्योधन का सांत्वन किया। हुवे । इसके अतिरिक्त इसे जया एवं प्रभा नामक दो पश्चात् स्वयं पांडवों के भय के कारण, घोडे पर सवार कन्याएं भी थीं। किंतु ये किस स्त्री से उत्पन्न हुई, इसका हो कर हस्तिनापुर की ओर रवाना हुआ (म. सौ. ९)। यह उल्लेख नहीं मिलता (वा. रा. बा. २१)। यह यजुर्वेदी भविष्य में सावर्णिमन्वंतर के सप्तर्षियों में से एक होनेवाला ब्रह्मचारी था। है (भा. ८.१३-१५)। कृपाचार्य रुद्रगण का अवतार २. (सू. दिष्ट.) राजा सहदेव का पुत्र । इसका पुत्र था (म. आ. ६१.७१) सोमदत्त । . ३. उत्तानपादपुत्र रुव का पौत्र । शिष्ट के चार | ३.(सू. इ.) कृताश्व राजा का नामांतर । पुत्रों में से ज्येष्ठ । ४. नाट्यकला का आचार्य एक ऋषि (पा. सू. ४.३. कृपी-(सो. अज.) द्रोणाचार्य की स्त्री तथा विष्णु, कृष्ण-(सो. यदु. वृष्णि.) वसुदेव को देवकी से वायु एवं मत्स्य के मत में सत्यधृतिकन्या । जालपदी नामक उत्पन्न आठ पुत्रों में कनिष्ठ । इस का जन्म मथुरा में कंस अप्सरा को देख कर, शरद्वत् का रेत शरस्तंभ पर के कारागृह में हुआ (भा.९.२४.५५, १०.३; विष्णु. ४. स्खलित हुआ। उससे यह उत्पन्न हुई । शंतनु ने इसका | १५, ५.३; ह. वं. १.३५; कूर्म.१.२४; गरुड.१.१३९)। लालनपालन किया। इसका पुत्र अश्वत्थामा (कृप | विवाह के पश्चात् , श्वशुरगृह में बहन को पहुंचाते समय, देखिये)। देवकीपुत्र द्वारा अपनी हत्या होगी यह जान कर, कंस ने Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कृष्ण प्राचीन चरित्रकोश वसुदेवदेवकी को कारागार में रखा । देवकी के सात पुत्रों को क्रम से उसने पटक मारा कृष्ण आठवाँ पुत्र है, जिसका जन्म विक्रम संवत् के अनुसार, भाद्रपद वद्य अष्टमी की मध्यरात्रि में रोहिणी नक्षत्र पर हुआ। वह दिन बुधवार था ( निर्णय सिंधु ) । वसुदेव उग्रसेन का मंत्री था। उग्रसेन को बंदिस्त कर के कंस राजगद्दी पर बैठा था। अतः कंस पहले से वसुदेव को प्रतिकूल था । वसुदेव के देवकी से उत्पन्न पुत्रों को ही नहीं, बल्कि अन्य स्त्रियों से प्राप्त पुत्रों को भी कंस द्वारा मारे जाने का उल्लेख, भागवत को छोड़ कर, अन्य शुराणों में मिलता है (वायु. ९६.१७३ १७८)। वसुदेव ने कृष्ण की रक्षा के लिये, गोकुल में नंद के घर पहुँचाया। गोकुल से यशोदा की कन्या ले कर वसुदेव पुनः कारागार में उपस्थित हुआ । कंस ने उस धन्या को भी मारने का यत्न किया, किन्तु वह हाथ से छूट गयी । यहीं कंस को पता लगा कि, वमुदेवसुत पैदा हो कर सुरक्षित स्थान पर पहुँच गया है। नन्दकुलोपाध्याय गर्गमुनि ने गुप्तरूप से कृष्ण का जातक तथा नामकरण संस्कार किया। इसी समय कृष्ण के जीवन कृत्यों का भविष्यकथन भी किया। कृष्ण बाललीला प्रथमं फंस ने कृष्णधार्थ पूतना भेजी, जो उसकी बहन वा दाई थी गोकुल के बालकों को । विषयुक्त स्तनपान करा कर मारने का क्रम पूतना ने बारी रखा। कृष्ण को स्तनपान कराने पर कृष्ण ने उसका पूरा सहू चूस लिया तथा उसके प्राण लिये । पास समाप्त होती है । पूतना, धेनुक, प्रलंब, अघ इन का वथ, इन्द्रगर्वहरण, कालियामर्दन, दायामिभक्षण, गोवर्धनोद्वार, रासक्रीड़ा तथा कंसवध ये घटनाएं सब स्थानों में वर्णित हैं, केवल क्रम में भिन्नता है । कहीं संक्षेप में तथा कहीं विस्तार से वर्णन है । विष्णुपुराण में संक्षेप में बाललीला का वर्णन आया है। विशेषतः भागवत, ब्रह्मवैवर्त, हरिवंश एवं गर्गसंहिता में कृष्ण की केवल बाललीलाओं का वर्णन है । कृष्ण का पांडवों से संबंध केवल गर्गसंहिता में ही है महाभारतवर्णित कृष्णचरित्र पुराणों में नहीं मिलता । उसका पांडवों को अप्रतिम सहाय, राजकाजकौशल्य और गीता केवल महाभारत में ही अंकित है। बाललीला में राधाकृष्ण - संबंध वर्णन करने की ब्रह्मवैवर्त पुराण की प्रवृत्ति है । यह संबंध आध्यात्मिक माना जाता है। राधाकृष्ण विवाह ब्रह्मदेवद्वारा संपन्न हुआ था (४.१५ ) । कंसवध--कृष्ण की मल्लविद्या की कीर्ति सुन कर, कंस उसे अक्रूरद्वारा मथुरा ले आया । मथुरा में वसुदेव-देवकी से मिलना कंस को अप्रिय होगा यह अक्रूर द्वारा बताने पर भी आत्मविश्वास के साथ कृष्ण अपने मातापिता से मिले। शहर में घूमते समय, एक धोबी से कृष्ण 'ने कपडे लिये, एक माली ने पुष्पहार गले में डाला तथा कुब्जा ने चंदन लेप चढ़ाया। शस्त्रागार में जा कर इसने भम्य धनुष का भंग किया। यह सब देख कर कंस ने चाणूर, मुष्टिक नामक मल्लों को, कृष्ण के साथ मल्लयुद्ध करने के लिये भेजा । मैदान के द्वार पर ही, कंस द्वारा छोडे गये कुवलयापीड हाथी को कृष्ण ने सहजता से मारा। मल्लयुद्ध में चाणूर तथा तोपलक को मारा। कृष्ण के ये सब पराक्रम देख कर कंस का मस्तक चकराने लगा। कृष्ण ने उसे सिंहासन से खींच कर उसका वध किया । समुदाय ने कृष्ण की जयध्वनि की । वसुदेवदेवकी से मिल कर तथा उग्रसेन को गद्दी पर बिठा कर, कृष्ण ने मथुरा में शांति प्रस्थापित की। बलराम ने पूरे समय तक कृष्ण की साथ की । तृणावर्त असुर का भी, पत्थर पर पटक कर कृष्ण ने वध " किया। उसी समय यशोदा को कृष्ण के मुँह में विश्वरूपदर्शन हुआ। कार, बलासुर अघासुरादि का भी इसने वध किया । कालिया के फूकार के कारण, यमुनाजल विषयुक्त हुआ था। उसे भी मर्दन कर कृष्णने भगाया । धेनुकासुर, प्रलंत्रासुर, अरिष्ट, व्योम तथा केशि का भी कृष्ण ने वध किया । एक समय नन्द को यमुना से डूबते डूते बचाया । गोकुल का प्रतिवार्षिक 'इन्द्रोत्सव ' बंद कर के कृष्ण ने वहाँ गोवर्धन उत्सव का आरंभ किया । इससे इन्द्र ने कुपित हो कर गोकुल पर अतिवृष्टि की। कृष्ण ने गोवर्धन पर्वत का आश्रय ले कर गोकुलवासियों को इस संकट से शिक्षा - नंदादि गोपालों को मथुरा वा कर, तथा सत्कार कर कृष्ण ने उन्हें वापस गोल भेजा । यशोदा के सांत्वनार्थ उद्धव को गोकुल भेजा । गर्गमुनि द्वारा उपनयन संस्कारबद्ध हो कर, रामकृष्ण, काश्य सांदीपनि के यहाँ अध्ययनार्थ अवंति गये । एकपाठी होने से ६४ दिनों में ही इन्हों ने वेदों का तथा धनुर्वेद बचाया । कई पुराणों में कृष्ण के बालचरित्र का ही केवल वर्णन है। यह बाला पूतनावध से प्रारंभ हो कर के शिवध के १५९ Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कृष्ण प्राचीन चरित्रकोश का अध्ययन किया (ब्रह्म. १९४ २१ ह. बं. २. ३२० भा. १०. ४५. ३६; विष्णु. ५. २१ ) । सांदीपनि ने इन्हें गायत्री मंत्रोपदेश देने का भी उल्लेख है (दे. भा. ४. २. १ ) । इसके उपनयन प्रसंग में देव, नंद, यशोदा तथा विधवा कुन्ती उपस्थित थीं ( ब्रह्मवै. ४. १०१ ) । इस संजय कृष्ण की आयु १२ वर्षों की थी ( भा. ४. दे. २४) । गुरुदक्षिणा के रूप में सांदीपनि का, सूत पुत्र दत्त कृष्ण 'ने सजीव कर दिया (पद्म. २. २४६ ब्रह्म. १९४. (२१)। वहीं पंचों का वध कर के विख्यात पांचजन्य शंख कृष्ण ने प्राप्त किया (भा. १०.४५.४२; म. भी. २२. १६ ) । विवाह -- इसने शिशुपाल का पराभव कर के, भीष्मक राजा की कन्या रुक्मिणी का हरण किया । स्यमन्तकमणिप्रसंग में, जांबवती तथा सत्यभामा से इसका विवाह हुआ । इसी समय सत्राजित का वध करनेवाले शतधन्यन् का कृष्ण भवती को पुत्र प्राप्ति हो इस हेतु से कृष्ण ने महादेव की तपस्या कर के, उससे वर प्राप्त किया (म. अनु. ४६ ) | । एक बार यह अपनी स्त्रियों से क्रीड़ा कर रहा था । तब नारद के आदेशानुसार जांबवतीपुत्र सांब वहाँ गया । उस समय कृष्ण की पत्नियों ने मद्यपान किया था । अतएव वे उस पर मोहित हो गई। तब कृष्ण ने उन्हें तत्र शाप दिया कि, 'तुम लोग चुरा ली जाओगी। किन्तु दास्यद्वारा बताये गये व्रत द्वारा तुम्हारा उदार होगा ? | इसने सांब को शाप दिया कि, तुम कुष्ठरोगी बनोगे (पद्म. सृ. २३; स्कंद्र. ७.१.१०१ ) । मथुरा में यशोदा की कन्या एकानंगा के साथ रामकृष्ण की भेंट हुई। इसके लिये ही कृष्ण ने कंस का वध किया ( म. स. १.२१.१४२८ - १४३० ) । बाणासुर के. हज़ार इसने वध किया । कुछ काल के बाद, कृष्ण कुछ यादवों हाथ भी इसने तोड़े (ब्रह्मांड. ३.७२.९९-१०२; वायु. सह पांडवों से मिलने के लिये इन्द्रप्रस्थ गया | तब चातुर्माससमाप्ति तक पांडवों ने इसे वही रख लिया । उस काल में इसका कालिंदी से विवाह हुआ। बाद में द्वारका जाने पर, मित्रबंदा, सत्यानाशशिती), भद्रा, कैकेयी तथा लक्ष्मणा (मुलक्षणा ) का स्वपराक्रम से हरण कर के इसने विवाह किया ( भा. १०.५८; ९०.२९ - ३० ) । इसके अष्टनायिकाओं में सुलक्षणा, नामजिती तथा सुशीला थी। सुमित्रा, शैव्या, सुभीमा, मात्री, कौसल्या, विरजा (पद्म. सु. १३. १५५-१५६ ) अनुविंदा तथा सुनंदा यो भिन्न नाम भी प्राप्त हैं (पद्म. पा. ७०-३३ ) । इन में कई नाम गुणदर्शक दीखते हैं। कृष्ण ने नरकासुर का वध किया । उसके कारागृह में सोलह हजार स्त्रियाँ थीं। उन्हें मुक्त कर कृष्ण ने उनसे विवाह किये (भा.१०.५९.३३; विष्णु . ५.२९.३१ ) । इस प्रकार उनके उद्धार का श्रेय भी संपादन किया। एक ही समय अनेक रूप धारण करने का कृष्ण में सामर्थ्य था । नरकासुर का वध कर के खौटते समय, कृष्ण ने इंद्र का पारिजात वृक्ष तोड़ दिया। तब क्रोधित हो कर इंद्र ने कृष्ण से युद्ध किया परंतु इन्द्र का बस नहीं चला । तब कृष्ण ने उससे कहा कि, जतक मैं पृथ्वी पर हूँ, तब तक यह वृक्ष यहीं रहने दो | बाद में उसे ले जाना ( पद्म, ३. २४८-२४९) । कृष्ण के कुल अस्सी हजार पुत्र थे ( पद्म. स. १३) । पुत्रों के नाम उनकी माताओं के चरित्र में देखिये । १६० ८८.९८ - १०१ ) । इसके अधों के नाम शैव्य, सुत्रीय मेषपुष्प तथा बलाहक थे (म. आय.१.४.३४२४ ) | पांडवों के राजसूप तथा अधमेथ में यह उपस्थित था (म. आय. ८. ९ ) । जरासंध के कारण जरासंध क्रुद्ध हुआ ।. कंस जरासंध का दामाद था उस समय जरासंघ सम्राट था। जरासंध के कारागार में हजारों नृप बंदिवान थे। उन्होंने भी कृष्ण के पास अपनी मुक्तता के लिये संदेश भिजवाया था ! कृष्ण ने यादवसभा में इस प्रश्न को उठाया । जरासंध ने मथुरा पर आक्रमण किया । कई राजा उसके सहायक थे। कृष्ण ने उसका सत्रह बार पराजय किया । कालयवन का भी जरासंध ने सहाय्य लिया । कालयवन ने मथुरा को चारों ओर घेरा डाला । कृष्ण, इस समय अगतिक हो कर भागते भागते, मुचकुंद सोया था वहाँ आया । पीछे कालयवन भी आ पहुँचा। कृष्ण से आँखों से ओझल हो गया। मुचकुंद धन द्वारा मारा गया। जरासंध के आक्रमण के भय से कृष्ण मथुरा छोड़ कर सुदूर द्वारका में आ बसा वहाँ इसने आनी राजधानी बसायी । जरासंध भी द्वारका पहुँचा । तब कृष्ण प्रवणगिरि में जा छिना जरासंध ने यहाँ भी आग लगा दी तथा वह छोटा कृष्ण बच गया। कुछ खानों पर प्रवणगिरि की जगह गोमंतक का उल्लेख हैं। 1 Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कृष्ण . प्राचीन चरित्रकोश कृष्ण इसी समय इंद्रप्रस्थ से युधिष्टिर ने दूतद्वारा अपना नाते भेजा। किन्तु कुछ लाभ न हुआ। कृष्ण आयेगा, इस राजसूय यज्ञ का विचार कृष्ण को कथन कर, उसको | लिये धृतराष्ट्र ने हस्तिनापुर से वृकस्थल तक मार्ग सुशोभित पाचारण किया। कृष्ण के सामने प्रश्न निर्माण हुआ कि, | किया था (म. उ. ७१.९३)। दुर्योधन ने कृष्ण को किस को अग्रस्थान दे। उद्धव ने, प्रथम इंद्रप्रस्थ जा कर भोजन का निमंत्रण दिया। कृष्ण ने उसे अमान्य किया पश्चात् जरासंध के यहाँ जाने की मंत्रणा, कृष्ण को दी।। (म. उ. ८९.११)। वहाँ दिये गये भाषण से कौरवों के कृष्ण ने स्वयं इंद्रप्रस्थ जा कर, जरासंध के बंदिस्त राजाओं | सब दुष्कृत्य स्पष्ट हुए । सब सदस्यों को पांडवों का पक्ष को तुरन्त ही मुक्त करने का आश्वासन दूतद्वारा भेजा। न्यायसंगत प्रतीत हुआ। भीष्म द्रोणादिक भी कृष्ण के राजसूय यज्ञ के लिये भी, जरासंध जैसे प्रतापी प्रति- | समर्थक बने । भीष्म, द्रोणाचार्य, गांधारी, धृतराष्ट्र, कण्व, स्पर्धी का विनाश आवश्यक था । इसलिये ब्राह्मण वेष में | नारदादि ने अनेक प्रकार से दुर्योधन को समझाया। कृष्ण, अर्जुन तथा भीम जरासंध के पास उपस्थित हुए। | किन्तु वह नहीं माना। वहाँ गदायुद्ध में भीमद्वारा जरासंध का वध हुआ। सभा की शांति नष्ट होते देख, दुःशासन ने दुर्योधन उसके पुत्र को गद्दी पर बिठा कर, ये सब लौट आये (म. | को इशारे से बाहर जाने को कहा। भीष्म ने इस समय, स. १२.२२)। . 'क्षत्रियों का विनाश काल समीप है,' यों प्रकट - शिशुपालवध--करुषाधिप. पौंड्रक वासुदेव, तथा | किया। दुर्योधन का कृष्ण को बंदिस्त करने का विचार था, करवीराधिप शृगाल यादव का कृष्ण ने वध किया। भीष्म | जो सात्यकि ने सभा में प्रकट किया। उल्टे दुर्योधन को ने राजसूय यज्ञ में कृष्ण को अग्रपूजा का मान दिया। ही पांडवों के यहाँ बाँध कर ले जाने का सामर्थ्य कृष्ण ने इस कारण शिशुपाल ईष्या से भड़क उठा। तब सुदर्शन | विदित किया । तब धृतराष्ट्र, विदुरादि न दुय चक्र से कृष्ण ने शिशुपाल का वध किया। यज्ञसमाप्ति के | पर्याप्त निर्भर्त्सना की । कृष्ण ने इस समय अपना उग्र : बाद यह द्वारका गया। बाद में शाल्व, दंतवक्र तथा विश्वरूप प्रकट किया । सब भयभीत हुये। कृष्ण शांति से विदूरथ का भी वध कृष्ण ने किया। सभागृह के बाहर आया । दुर्योधन के न मानने की बात भारतीययुद्ध-पांडव वनवास में थे। उस समय उनके | धृतराष्ट्रद्वारा विदित होते ही कृष्ण ने हस्तिनापुर छोडा - यहाँ कृष्ण गया था। कृष्ण ने कहा, 'मेरे होते हुए (म. उ. १२९)। बाहर आकर कर्ण को उसका पांडवों 'तक्रीडा असंभव हो जाती थी। कुछ दिन वहीं रह कर, से भ्रातृसंबंध कथित कर, उसे पांडवपक्ष में आने का . सुभद्रा तथा अभिमन्यु को लेकर यह द्वारका गया (म. आग्रह किया। उसके न मानने पर, कृष्ण उपप्लव्य व. १४.२४)। पांडव काम्यकवन में थे। कृष्ण सत्यभामा | चला आया। युद्धार्थ तैयारियाँ प्रारंभ हुई (म. उ. के साथ वहाँ गया था। कुछ दिन वहाँ रह कर द्वारका | १३८-१४१)। लोटा (म. व. १८०.२२४)। दुर्योधन के कथनानुसार | कृष्ण ने धृष्टद्युम्न तथा सात्यकि की सहायता से पांडव दुर्वास पांडवों के यहाँ गया था। तब द्रौपदी की सहायता सेना की बलिष्ठ सिद्धता की (म. उ. १४९.७२)। कर कृष्ण ने दुर्वास ऋषि को तुष्ट किया (म. व. परि. | अर्जुन की प्रार्थना पर कृष्ण ने उसका रथ दोनों सेनाओं १.२५)। अभिमन्यु के विवाहार्थ कृष्ण उपप्लव्य गया के बीच ला कर खडा किया । आप्तजन तथा बाँधवों के था । तब सम्मिलित राजाओं की उपस्थिति में इसने संहार का चित्र सामने देखकर अर्जुन युद्धनिवृत्ति की पांडवों के हिस्से का प्रश्न उठाया । दुर्योधन को बातें करने लगा। कुष्ण ने उसे 'गीता' सुनाकर, पुनः अमान्य है यह जान कर, इसने उधर जाने का निश्चय | युद्धार्थ सिद्ध किया (म. भी. २३-४०)। यह दिन किया (म. वि. ६७)। अर्जुन तथा दुर्योधन कृष्ण के | मार्गशीर्ष शुद्ध त्रयोदशी था। समीप युद्धार्थ सहायता माँगने गये। दुर्योधन की माँग के ___ कृष्ण ने पांडवों को महान् संकटों से बचाया। रथ के अनुसार उसे यादव सेना दी। स्वयं अर्जुन के पक्ष में | अश्वों की सेवा की। उन्हें पानी तक पिलाया (म. गया । युद्ध में प्रत्यक्ष भाग न लेने की कृष्ण की प्रतिज्ञा द्रो. १७५.१५)। भगदत्त के वैष्णवास्त्र से अर्जुन की थी। फिर भी अर्जुन ने उसे ही माँग लिया (म. उ.७)। रक्षा की (म. द्रो. २८.१७)। अभिमन्युवध के बाद, इस प्रकार युद्ध की तैयारियाँ कौरव-पांडव कर रहे थे। | सुभद्रा का सांत्वन किया (म. द्रो. ५४.९)। भूरिश्रवा को तब युधिष्ठिर ने धृतराष्ट्र के यहाँ कृष्ण को मध्यस्थ के | अन्तिमसमय में स्वर्ग की जानकारी दी (म. द्रो. ११८. प्रा. च. २१] १६१ Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कृष्ण प्राचीन चरित्रकोश , ९६८* ) । अंधकार उत्पन्न कर के, जयद्रथवध की प्रतिज्ञापूर्ति अर्जुन द्वारा करवाई ( म. द्रो. १२१ ) । घटोत्कच को युद्ध में भेज कर कर्ण की बारावी शक्ति से अर्जुन की रक्षा की ( म. द्रो. १५४ ) । द्रोणवध के लिये, असत्य भाषण की सलाह युधिष्ठिर को दी ( म. द्रो. १६४ ) । गांडीव धनुष्य दूसरे को देने की सलाह युधिधिर से मुनते ही, अर्जुन उस पर तरबार खींच पर दौड़ा। इस समय उसे कृष्ण ने कौशिक - कथा बताकर इस कृत्य से परावृत्त किया (म. क. ४९; अर्जुन देखिये) । रथ को पाँच अंगुल धरती में गाड़ कर, कर्ण के सर्पयुक्त बाण से अर्जुन की रक्षा की (म.क. ६६.१०८८०) । धर्म को शल्यवध करने के लिये कहा ( म. श. ६.२४ - २८ ) । भीमद्वारा | दुर्योधन की जाँघ पर गढ़ा प्रहार करा के उसका वध करवाया ( म. श. ५७.१-१०) । इन सब कृत्यों के लिये दुर्योधन ने इसे दोष दिया (म. श. ६० ) । गांधारी की सांत्वना के लिये धर्म ने कृष्ण को हस्तिनापुर भेजा (म.श. ६१.३९ ) । कृष्ण ने कौरवों के अन्यायपूर्ण व्यवहार उसे बताये । फिर भी गांधारी ने कृष्ण को दुर्मरण का शाप दिया (म. स्त्री. २५) । कृष्णा अध्यात्म का बोध किया ( भा. ११.७ - २९ ) । यह बोध अवधूतगीता वा उद्धवगीता नाम से विख्यात है । अनन्तर द्वारका में दुश्चिह्न प्रकट होने लगे । बलराम ने सागर तट पर देह विसर्जन किया। कृष्ण अश्वत्थ वृक्ष के नीचे, दाहिनी जाँघ पर बाँया पैर रख कर, चिन्तनवस्था में वृक्ष को चिपक कर बैठा था। इसी समय जरा नामक व्याथ ने तवे पर मृग समझ कर तीर मारा, जो इसके बायें तलुवे में लगा । यह देखकर व्याध अत्यंत दुःखित हुआ । उसने कृष्ण से क्षमायाचना की । कृष्ण ने उसकी सांत्वना की तथा उसे आशीर्वाद दिया । की | कृष्ण का सारथि दारुक वहाँ आया । उ कृष्णा वन्दना की । इसी समय कृष्ण का रथ भी गुप्त हो गया। कृष्ण ने दारुक से कहा, "मेरा प्रयाणसमय समीप आ गया है। द्वारका जा कर यह अनिष्ट प्रकार उपसेन से कथन करो । द्वारका शीघ्र ही समुद्र में डूबेगी। अतः सब लोगों को द्वारका से सुदूर जाने को बताओ " । दारुक से यह वृत्त सुन कर द्वारका में हाहाकार मच गया । देवकी तथा रोहिणी ने देह विसर्जित किये । अष्टनायिकाओं ने कृष्ण के साथ अग्निप्रवेश किया ( ब्रह्म. २११ - १२) | प्रद्युम्नादिकों की पत्नियों ने भी यहीं किया । धृतराष्ट्र भीम से मिलने आया । लोहप्रतिमा उसकी गोद में सरका कर कृष्ण ने भीम की रक्षा की ( म. स्त्री. ११.१५ ) । अश्वत्थामा के अस्त्र से उत्तरा के गर्म की रक्षा की (म. सौ. १६.८; उत्तरा देखिये ) । इसने | वसुदेव को भारतीययुद्ध कथा बतायी ( म. आश्व. ५९) । | इस समय अर्जुन भी इन्द्रप्रस्थ से आया । स्त्रियाँ तथा बालकों को लेकर ग्रह इन्द्रप्रस्थ जा रहा था कि, द्वारकां समुद्र में डूबी ( म. मौ. ८.४०, देवकी तथा बहुलाश्र देखिये) । मृत्युकाल में कृष्ण की आयु १२५ से भी अधिक थी (मा. ११.६.२५ ब्रह्मव. ४.१२९.१८ ) । १३५ की आयु में कृष्ण का निर्याण हुआ (भवि. प्रति. १.३.८१ ) । कृष्ण अर्जुन से ३ महीने ज्येष्ठ भ्रा यादव-कष्य ऋषि का उपहास करने के कारण, इसने सांब को शाप दिया (पद्म. उ. २५२ ) । इसी सांच को मूसल पैदा हुआ। उसी मूसल से सच यादवों का संहार हुआ । सांत्र, चारुदेष्ण, प्रद्युम्न तथा अनिरुद्ध मृत हो गये। पुत्रों की मृत्यु देख कर कृष्ण क्रोधित हुआ । गढ़ का पतन देख कर इसका क्रोध अनिवार्य हुआ । तत्र बचे हुए सब यादवों का इसने वध किया । इस समय दारुक तथा बभ्रु ने कहा, 'भगवान् बचे हुए अधिकांश लोगों की हत्या तो तुम ने कर ही दी। अब हमें बलराम की खोज करनी चाहिये। कृष्ण ने यादवों में किसी का खास प्रतिकार नहीं किया, क्योंकि, कासव अब उलटा चल रहा है, यह उसने देख लिया ( म. मौ. ४ ) । 3 निर्याण - कृष्ण का निर्याणसमय समीप आ गया । इसका उद्भव को पता चलते ही उसने कृष्ण की प्रार्थना की, "मुझे भी अपने साथ ले चलिये । ” कृष्ण ने उसे । १६२ तत्वज्ञ कृष्ण–कृष्णचरित्र अपूर्व है । जन्म से निर्वाण तक प्रत्येक अवस्था में इसने असामान्यता प्रकट की। कारागृह में जन्म ले कर, सुरक्षा के लिये गोकुल जाना पडा | नन्द के घर बालकृष्ण ने बाललीला की । गोगोपिकाओं के साथ ग्यालों का कार्य कर के मुरलीधर तथा राधाकृष्ण नाम प्राप्त किये मलविया से ख्याति तथा लोकप्रियता संशदित कर के कुस्ती के मैदान में कंस का वध किया। सम्राट जरासंध के साथ मुकाबला करने से हस्तिनापुर के राजकारण में इसका प्रवेश हुआ । जरासंधवध तथा स्वयंवरों में शिशुपालादि बलि नृपों को पराजित करने से युद्धकुशलता प्रकट हुई। आध्यात्मिक अधिकार के कारण भीष्म ने इसे राजसूयुयज्ञ में अग्रपूजा Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कृष्ण. प्राचीन चरित्रकोश कृष्ण का मान दे कर सम्मानित किया । भारतीययुद्ध में अर्जुन ५. भारतीययुद्ध में कृष्ण की हाथ में शस्त्र धारण न का सारथ्य तथा कुशल संयोजक की इसकी भूमिका थी। | करने की प्रतिज्ञा थी। भीष्म की ठीक इसके विपरीत, युद्ध के प्रारंभ में अर्जुन युद्धपरावृत्त होने लगा। गीता कृष्ण को शस्त्र उठाने को विवश करने की प्रतिज्ञा थी। सुना कर उसे पुनः युद्धप्रवृत्त किया। अन्तसमय उद्धव | घमासान लड़ाई में अर्जुन को भीष्म के सामने हारते देख, को ज्ञान दिया । भगवद्गीता तथा उद्धव का उपदेश ये | कृष्ण ने चतुर्भुज रूप धारण कर भीष्म पर धावा बोल अध्यात्म्यशास्त्र के अपूर्व ग्रंथ हैं । कर्म कर के कर्मबंधन | दिया। प्रतिज्ञापूर्ति के आनंद में भीष्म ने हाथ जोड़ कर से मुक्ति पाने के लिये दोनों ग्रंथों में संकेत हैं । ज्ञान, | शस्त्र नीचे रखा। भक्ति तथा लोकाचार का अटूट संबंध प्रतिपादन करने से, ६. इन्द्रप्रस्थ में अर्जुन को अनुगीता सुना कर द्वारका कृष्ण का यह बोध अमर हुआ है । विशेषतः इन ग्रंथों ने लौटते समय, मरुभूमि में कृष्ण की उत्तक ऋषि से भेंट हुई। कृष्ण को पूर्णावतार बना दिया है। . उत्तंक ने कृष्ण के होते हुए, भारतीय युद्ध के भयानक द्वैत, विशिष्टाद्वैत, अद्वैत आदि मतप्रतिपादक प्राचीन | संहार का उत्तरदायित्व इसपर डाल कर, इसकी आचार्यो के भाष्यस्वरूप ग्रंथ भगवद्गीता पर उपलब्ध हैं। निर्भर्त्सना की । उत्तंक की सांत्वना के लिये कृष्ण ने वहाँ आधुनिक साहित्य में तिलकजी का 'गीतारहस्य' ज्ञान- भी उसे विश्वरूपदर्शन कराया तथा इच्छित वर दिये मूलक, भक्तिप्रधान, निष्काम कर्मयोंग का प्रतिपादक है। (म. आश्व, ५४. ४)। महात्मा गांधी का 'अनासक्तियोग' ग्रंथ गीताप्रतिपादन __युद्ध में सब बांधवों का वध होने के कारण युधिष्ठिर के स्पष्टीकरणार्थ ही है। अत्यंत अस्वस्थ हुआ । वक्तृत्वपूर्ण भाषण द्वारा युधिष्ठिर का युद्धारंभ में कृष्ण ने अर्जुन से गीता कह कर युद्धप्रवृत्त | मन कृष्ण ने शांत किया । भीष्म के द्वारा भी कृष्ण ने किया । पश्चात् अर्जुन गीतोपदेश भूल गया, तथा पुनः एक अनेक प्रकार का ज्ञान धर्म को दिलाया, जो महाभारत के बार उसे सुनने की उसने कृष्ण से प्रार्थना की। कृष्ण ने | शान्ति एवं अनुशासन पर्व में उपलब्ध है। कहा, "मैं भी उस समय विशेष योगावस्था में था । उस समय जो प्रतिपादन किया, वह मैं अब दुहरा नहीं सकता। इस कारण से ही बालकृष्ण, मुरलीधर, गोपालकृष्ण, . तथापि उसका कुछ अंश मैं तुम्हें कथन करता हूँ।" राधाकृष्ण, भगवान् कृष्ण आदि अनेक अवस्थाओं में उसी का नाम 'अनुगीता' है (म. आश्व. १६-५०)। इसकी उपासना प्राचीन काल से आजतक प्रचलित है । प्रत्येक अवस्था पर कई रचित ग्रंथ हैं। अतः यह भगवद्गीता का महत्व अनुगीता को प्राप्त नहीं हुआ। पूर्णावतार है। ... विश्वरूपदर्शन--कृष्णचरित्र में विश्वरूपदर्शन एक ऐतिहासिक चर्चा--पाणिनि के समय, कृष्ण सन्मानमहत्वपूर्ण भाग है। १. बाललीला में कृष्ण ने, मृत्तिका नीय माना जाता था । तथापि क्षत्रिय नहीं समझा जाता भक्षण की। कृष्ण ने यशोदाद्वारा किये गये मृत्तिका था। सामान्य क्षत्रियवाचक शब्द से 'गोत्रक्षत्रियाख्येभ्यो भक्षण के आरोप को अस्वीकृत किया। मुँह खोलने को बताने पर, यशोदा को मुँह में विश्वरूपदर्शन हुआ। बहुलं वुञ् (पा. सू. ४.३.९९) इस सूत्र से प्रत्यय बताया है। वासुदेव क्षत्रिय न होने के कारण, 'वासुदेवार्जुनाभ्यां २. अक्रूर को विश्वरूपदर्शन दिया। वुन्' (पा. सू. ४.३.९८) इसने पुनः वुन् बताया है। ३. हस्तिनापुर में कृष्ण दौत्यकर्म करने गया था। यह स्पष्टीकरण पतंजलि ने किया है। इससे स्पष्ट है कि, दुर्योधन कृष्ण को बंदिस्त करने को उद्युक्त हुआ । इस सोमवंश के क्षत्रिय यादवकुल से कृष्ण का संबंध बाद में समय कृष्ण ने अपना उग्र स्वरूप प्रकट किया, जिसका जोड़ा गया। वर्णन विश्वरूप के समान ही है। ४. भारतीय युद्ध के प्रारंभ में, गीता के ग्यारहवें | वासुदेव तथा अर्जुन को नरनारायण अवतार मान कर, अध्याय में अर्जुन को अपना विश्वरूप बताया । वहाँ | उपास्य देवताओं में भी सम्मीलित कर लिया गया था । उसका विस्तृत वर्णन है। उसकी भयानकता से अर्जुन | इससे इनका क्षत्रियत्व लुप्त हो कर उससे भी श्रेष्ठ उपाधि भी घबराया। उसने सौम्यरूप धारण करने की कृष्ण से | इन्हें प्राप्त हो गयी थी। इसलिये पाणिनि को स्वतंत्र सूत्र प्रार्थना की। | बनाना पड़ा। १६३ Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कृष्ण प्राचीन चरित्रकोश महाभारत में प्राप्त नर-नारायण उपासना का संप्रदाय कृष्ण हारित-एक आचार्य ( ऐ. आ. ३.२. पाणिनि तथा पतंजलि काल में भी प्रचलित था। नर-६)। इसने अपने शिष्य को वाग्देवता संबंधी उपासना नारायण का स्थान कृष्णार्जुन को ही दिया जाता था। का एक प्रकार बताया। पाठभेद-कृत्स्न हारित (सां. आ. ययाति की जरा का स्वीकार न करने के कारण, यदु- ८.१०) कृष्ण हारित नामक महर्षि ने कालात्मक प्रजा कुल आक्षिप्त माना जाता था । यह आक्षेप कृष्णावतार उत्पन्न की । इस कारण इसके अवयव विकल हुए, परंतु से दूर हुआ तथा यदुकुल उज्ज्वल हो गया। इसने छंदों से अपना शरीरबल संपन्न किया। इस कारण खिस्त के पूर्व दो सदी के करीब लिखे गये 'घोसुंदी | छंदःसंहिता का अस्तित्व है, यह तात्त्विक अर्थ इसने शिलालेख' में वासुदेवपूजा का निर्देश है। | बताया (ऐ. आ. ३. २. १४)। २. (स्वा. उत्तान.) हविर्धान राजा को हविर्धानी नामक कृष्णदत्त लौहित्य-श्यामसुजयंत लौहित्य का शिष्य भायां से उत्पन्न छः पुत्रों में चौथा । | (जै. उ. बा. ३. ४२. १; त्रिवेद देखिये)। ३. विश्वक का काणि तथा कृष्णीय पैतृक नाम । इस कृष्णधृति सात्यकि-सत्य श्रवस का शिष्य (जै. विश्वक का कृष्ण नाम का कोई पूर्वज होगा (विश्वक कार्णि उ. ब्रा. ३. ४२.१; त्रिवेद देखिये)। तथा कृष्णीय देखिये)। कृष्णीय---विश्वक काणि देखिये। ४. कद्रूपुत्र नागों में से एक । केकय-एक राजा। इसे एक बार अरण्य में एक ५. शुक्राचार्य को पीवरी से उत्पन्न चार पुत्रों में से | राक्षस ने पकड़ लिया। इसने अपने राज्य में लोग कैसे एक। धार्मिक हैं, यह बताया तथा कहा कि, इसी कारण मुझे ६. (आंध्र. भविष्य.) भागवत, विष्णु, मत्स्य तथा राक्षसों का भय नहीं लगता। इसे राक्षस ने छोड़ कर घर ब्रह्मांड के मतानुसार सिंधुक का भ्राता। जाने को कहा (म. शां. ७.८; अश्वपति कैकय देखिये)। कृष्ण आंगिरस--मंत्रद्रष्टा (ऋ. ८.८५.३-४)। २. (सो. अनु.) शिबिराजा के पाँच पुत्रों में चौथा। ३. भारतीययुद्ध में पांडव पक्ष का राजा (म. उ. कष्ण आत्रेय-यह आयुर्वेद पृथ्वी पर प्रथम लाया | १६८.१३ )। (म. शां. २०३.१९)। अग्निवेश, भेड, हारित आदि ४. एक सूताधिप । इसे मालवी नामक स्त्री से कीचकांदि इसके ही शिष्य थे (चरकसंहिता)। पुत्र हुए। इसकी दूसरी पत्नी मालवी की बहन थी । उसकी कृष्ण देवकीपुत्र-घोर आंगिरस का शिष्य (छां. कन्या सुदेष्णा, जो विराट की भार्या थी (म. वि. परि. उ. ३.१७१.६)। वसुदेव-देवकीपुत्र कृष्ण, तथा यह | १. क्र. १९; पंक्ति. २५-३२)। एक होने का प्रमाण उपलब्ध नहीं है। ५. इसकी कन्या सैरंध्री। वह मरुत्त की पत्नी थी नामसादृश्य तथा तप, दान, आर्जव, अहिंसा, सत्य | (मार्क. १०८)। आदि कथित गुण, गीताप्रतिपादित दैवी संपत्ति के साथ | ६. भारतीययुद्ध में दुर्योधन पक्ष का राजा (म. उ. मिलते हैं । तत्रापि मरणकाल में अक्षय ( अक्षित ), अव्यय १९६.५)। (अच्युत) तथा प्राणसंशित वृत्ति रखने का घोर आंगिरस | केतव-वायु मत में व्यास की ऋशिष्यपरंपरा के का उपदेश गीता में नहीं है । गीता में केवल ईश्वरध्यान | शाकपूर्ण रथीतर का शिष्य (व्यास देखिये)। तथा प्रणवोच्चार बताया है। केतु-(स्वा.) ऋषभदेव तथा जयंती के सौ पुत्रों में __इसलिये घोर आंगिरस का शिष्य कृष्ण देवकीपुत्र | से एक। इसके पिता ने जंबुद्वीप के नौ वर्षों में से तथा गीताप्रतिपादक भगवान कृष्ण एक नहीं हैं। पुराणों | अजनाभवर्ष के नौ खंड किये । तथा उन में से एक इसे में घोर आंगिरस का कृष्णचरित्र में निर्देश भी नहीं है। दिया। कृष्ण द्वैपायन-बादरायण तथा यह एक ही हैं। २. तामसमनु के पुत्रों में से एक (भा. ८.१)। (मत्स्य. १४. १४-१६)। तपोधन इसका नामांतर रहा होगा। कृष्ण पराशर--पराशर कुलोत्पन्न एक ब्रह्मर्षि । इसके । ३. दनु तथा कश्यप का पुत्र । यही केतु नामक ग्रह कुल में कार्णायन, कपिमुख, काकेयस्थ, अंजःपाति तथा | होगा। पुष्कर मुख्य ऋषि थे (पराशर देखिये)। ४. ऋषियों के एक संघ का नाम (म. शां. १९.१२) । १६४ Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन चरित्रकोश केशिन ५. धूमकेतु का नामांतर । प्रजा की अत्यंत वृद्धि हो रही । केदार--एक राजर्षि (दे. भा. ९.४२)। है, यह देख कर ब्रह्मदेव ने मृत्यु नामक एक कन्या निर्माण केदारेश्वर--एक शिवावतार । नरनारायण इसे की। उसे प्रजा का संहार करने के लिये कहा, तब वह | पृथ्वी पर लाये। यह उस भाग का अधिपति है (शिव. रोने लगी। उसके अश्रुओं से अनेक रोग उत्पन्न हुए, शत. ४२)। भूतेश इसका उपलिंग है (शिव. कोटि. १)। इसलिये उसने जप किया। इस तप के कारण, उसे वर मिला केरल--कश्यपगोत्र का गोत्रकार गण । कि, तुम्हारे निमित्त किसी को भी मृत्यु नहीं आयेगी। तब । केलि--ब्रह्मधान का पुत्र । उसने एक दीर्घ श्वास छोड़ा, जिससे केतु उत्पन्न हुआ। केवल-(सू. दिष्ट.) नर राजा का पुत्र । इसका पुत्र उस केतु को एक शिखा थी। इसे केतु वा धूमकेतु कहते | बंधूमत् । हैं (विष्णुधर्म. १.१०६)। २. स्वायंभुव मन्वन्तर के अजित्देवों में से एक । ६.(सो.) मत्स्य के मत में द्रुह्यपुत्र । ३. ब्रह्मांड मतानुसार व्यास की यजुःशिष्यपरंपरा के केतु आग्नेय-सूक्तद्रष्टा.(ऋ. १०.१५६)। याज्ञवल्क्य का वाजसनेय शिष्य (व्यास देखिये)। केतु वाज्य--वाज्यऋषि का शिष्य । इसका शिष्य | केवलबर्हि-(सो. यदु.) भागवत मत में अंधककोहल (वं. बा. १)। पुत्र। केतुजाति--पराशरकुल के ऋषिगण । केश--ब्रह्मदेव के पुष्कर क्षेत्र के यज्ञ का एक ऋषि केतुमत्-दनुपुत्र दानवों में से एक । (पद्म. सृ. ३४)। २. (सो. क्षत्र.) धन्वन्तरि का पुत्र । इसे भीमरथ केशलंब-तप नामक शिवावतार का शिष्य । वा भीमसेन नामक एक पुत्र था। ३. एकलव्य का पुत्र तथा निषध देश का राजा । यह केशिध्वज--(सू. निमि.) कृतध्वज जनक का पुत्र । दुर्योधन के पक्ष में था । कलिंग के वध के बाद भीम ने यह आत्मविद्याविशारद था (भा. ९.१३.२०) इसका इसका वध किया (म. भी. ५०.७०)। मयसभा में | पुत्र भानुमत् जनक (खांडिक्य देखिये )। उपस्थित क्षत्रियों के बीच का केतुमान् यही होगा। केशिन-कश्यप एवं दनु का पुत्र (ह. वं. १.२. • ४. (.सू. इ.) पृथुराजा द्वारा नियुक्त दिक्पालों में से ८६) । इसने प्रजापति की देवसेना एवं दैत्यसेना नामक तीसरा। अर्थात् यह पश्चिम का दिक्पाल होगा (पृथु दो प्रसिद्ध कन्याओं का हरण किया । दैत्यसेना इसके देखिये)। वश में हुई । परंतु देवसेना आक्रोश करने लगी तथा 'कोई ५. (सू. नाभाग) भागवत मत में अंबरीषपुत्र ।। तो भी छुड़ावो' कह कर चिल्लाने लगी। इसी समय ६. प्रतर्दनदेवों में से एक। देवसेना का आधिपत्य जो स्वीकार कर लेगा, ऐसा - ७. सुतार नामक शिवावतार का शिष्य । सेनापति हूँढने के लिये इन्द्र मानसपर्वत पर आया । ८. दारुक नामक शिवावतार का शिष्य । उसने केशी से युद्ध कर के देवसेना को बचाया केतुमती--सुमालि राक्षस की स्त्री । रावण की (म. आर. ११३.८-१५)। कुछ दिनों के बाद, इसने नानी। चित्रलेखा तथा उर्वशी आदि अप्सराओं को भगा लिया। केतुमाल--(स्वा.) आनीध्र राजा के नौ पुत्रों में यह पुरूरवा (बुधपुत्र) ने देखा। उसने इस दानव से कनिष्ठ । इसकी स्त्री मेरुकन्या देववीति थी। इसका वर्ष | युद्ध कर, इन दोनों को छुडाया (मत्स्य. २४.२३. पद्म. इसी के नाम से प्रसिद्ध है (भा. ५.२)। इसकी माता | सृष्टि. १२.७६)। का नाम उपचिति था। २. वसुदेव को कौशल्या से उत्पन्न पुत्र । केतुवर्मन्--त्रिगर्ताधिपति सूर्यवर्मा का भ्राता । अर्जुन ३. कंस ने कृष्ण वध के लिये केशी नामक दैत्य भेजा ने इसका वध किया (म. आश्व. ७३.१५)। था। इसने अश्वरूप धारण कर कृष्ण पर आक्रमण किया । केतुवीर्य--कश्यप एवं दनु का पुत्र । परंतु अश्व ने खाने के लिये फैलाये मुख में हाथ डाल कर, २. मगधराज । इसकी कन्या सुकेशी, जो मरुत्त से | कृष्ण ने इसका वध किया (भा. १०.३७.२६; म. स. परि. ' ब्याही गयी थी। ४, क्र.२१;पंक्ति. ८४३-८४४)। यह ऋष्यमूक पर्वत केतुशंग--त्रिधामन् नामक शिवावतार का शिष्य । | पर रहता था (गर्ग. सं. १.६)। १६५ Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ केशिन दार्य प्राचीन चरित्रकोश केसरिन् केशिन दाय॑ वा दाल्भ्य एक राजा तथा सामद्रष्टा | दोनों अपत्यों को भेज कर, क्या होता है यह सविस्तर रूप (पं. ब्रा. १३.१०.८)। उच्चैःश्रवस् कौपयेय की बहन | से पुछवाया। का पुत्र (जै. उ. ब्रा. ३.२९.१)। पांचाल इसके प्रजा- ६. एक अप्रतिम लावण्यवती राजकन्या । इसने अपना जन थे, इसलिये केशिन् इसकी एक शाखा रही होगी | स्वयंवर रचा था। इसमें अंगिरा ऋषि का पुत्र सुधन्वा (क. सं. ३०.२; बौ. श्री. २०.२५)। धार्मिक विधि के एवं प्रह्लादपुत्र विरोचन आया था। इनमें जो श्रेष्ठ होगा बारे में, इसका खंडिक से एकमत नहीं होता था (मै. उसे वरण करूँगी ऐसा केशिनी ने कहा । तब इनका आपस स. १.४.१२; श. ब्रा. ११.८.४.१)। दीक्षा का महत्व | में विवाद हुआ। प्राणों की बाजी लगा कर वे प्रह्लाद के इसे सुवर्ण पक्षी ने सिखाया (सां. ब्रा. ७.४; केशिन् | पास गये। प्रह्लाद ने बताया कि, सुधन्वा का पक्ष सही है। सात्यकामि देखिये)। उच्चैःश्रवस् कौपयेय मरने पर | प्रह्लाद के कहने पर उदार अंतःकरणवाले सुधन्वा ने केशिन् दाय॑ दुःख के कारण, वन में भटकने लगा। विरोचन को छोड़ दिया। केशिनी ने विरोचन का वरण उस समय उच्चैःश्रवस् इसे धूम्ररूप में मिला । इसके पूछने किया (म. स. ६१; उ. ३५*)। यह कथा 'भूमि के पर, मृत्यु के बाद धूम्रशरीर उसे कैसे प्राप्त हुआ यह | लिये असत्य नहीं बोलना चाहिये,' यह समझाने के लिये बताया। यह उससे प्रेम से गले मिलने लगा किन्तु वह उद्योगार्व में विदुर ने धृतराष्ट्र को बताई। द्रौपदीवस्त्रहाथ में नहीं आया (जै. उ. ब्रा. ३. २९-३०)। हरण के समय, यही कथा यह स्पष्ट करने के लिये बताई केशिन सत्यकामि-एक आचार्य । इसने केशिन् गई कि, असद्धर्म से व्यवहार न करते हुए अंगर कोई दाभ्यं को सप्तपदी शाक्वरी मंत्र की विशेष जानकारी दी प्रश्न पूछे, तो योग्य तथा सत्य निर्णय देना चाहिये । सत्यकथन के लिये कभी डर अथवा लजा, संकोच.नहीं, (तै. सं. २.६.२.३; मै. सं.१.६.५)। मानना चाहिये। केशिनर--(सू. इ.) भविष्य मत में सुनक्षत्रपुत्र। | यह कथा दो स्वरूपों में प्राप्य है। उद्योगपर्व में कहा केशिनी--कश्यप एवं प्राधा की कन्याओं में से एक | गया है कि, सख्य होने पर ही यह वादविवाद हुआ; अप्सरा। परंतु सभापर्व में कहा गया है कि, आपस में झगडा होते २. सगर की दो स्त्रियों में से ज्येष्ठ (म. व. १०४. समय यह वादविवाद हुआ, तथा प्रल्हाद ने कश्यप से' ८)। इसके शैब्या, भानुमती एवं सुमति नामांतर भिन्न पूछ कर निर्णय दिया। ... भिन्न स्थानों पर मिलते हैं। इसकी सौत का नाम सुमति ७. कश्यप तथा खशा की कन्या । था (भा. ९.८.१५)। सगर ने इन दोनों स्त्रियोंसहित ८. बृहध्वज देखिये । पुत्रप्राप्ति के लिये तपस्या कर, शंकर से पुत्रप्राप्ति का | केसरप्राबंधा-वैतहव्यों ने इसकी एक बकरी मार वरदान प्राप्त किया। इससे सगर को असमंजस् नामक कर पकायी। पश्चात् उस पातक में से वे मुक्त हुए। इस पुत्र उत्पन्न हुआ (सगर देखिये)। यह विदर्भकन्या थी| संबंध में इसका निर्देश है (अ. वे. ५.१८.११)। भृगु (वायु. ८८.१५५)। का वध करने के कारण, उत्कर्ष के शिखर पर पहुँचे हुए ३. (सो. पूरु.) सुहोत्र के पुत्र अजमीढ़ की तीन | वैतहव्य संजय नष्ट हुए. ('अ. वे. ५.१९.१)। स्त्रियों में से एक। इसे जह्न, जन, रुषिन् आदि तीन केसरिन्-अंजनी का पति तथा एक वानर । (वा. रा. पुत्र हुए (म. आ. ८९.२८)। | उ. ६६)। यह गोकर्ण नामक पर्वत पर रहता था । अंजनी ४. विश्रवस् ऋषि की पत्नी। इससे रावण, कुंभकर्ण, तथा मार्जारास्या नामक इसकी दो त्रियाँ थीं । एक बार बिभीषण आदि तीन पुत्र हुए (भा. ४.१.३७; ७.१. शंबसादन नामक असुर ने, अनावर बन कर ऋषियों को कष्ट ४३)। दिये। तब इसने ऋषियों की आज्ञा से उससे युद्ध किया ५. दमयंती के मायके की चेटी। दमयंती का नल ने | तथा उसका वध किया। ऋषियों ने संतुष्ट हो कर इसे त्याग किया। इसे दमयंती ने चार बार बाहुक के पास | आशीवाद दिया, 'तुझे अच्छे स्वभाववाला, भगवद्भक्त भेजा। पहली बार उसकी जानकारी, दूसरी बार उसकी | तथा बलवान् पुत्र होगा।' तदनुसार हनुमान् उत्पन्न विस्तृत जानकारी, तीसरी बार नलद्वारा पकाये माँस का हुआ (वा. रा. सु. ३५)। कुछ हिस्सा मँगाना तथा चौथी बार इसी के साथ अपने २. गद्गद वानर का पुत्र । जांबवत् का कनिष्ठ भ्राता। १६६ Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कैकरसप प्राचीन चरित्रकोश कोकिल कैकरसप--कश्यपकुलीन गोत्रकार ( मत्स्य. | किया। इस कारण सामान्य स्त्रीस्वभावसुलभ इसका मन १९९.७ )। मत्सर से भड़क उठा। देवासुरसंग्राम के समय से बचे कैकसी--सुमाली राक्षस की कन्या तथा विश्रवा ऋषि | हुए वरदानों की याद उसीने दिलायी। मंथरा की सलाह की पत्नी । इसके विवाह की मँगनियाँ होने पर समाली | के अनुसार, कैकेयी ने दशरथ को दो वरदानों का स्मरण कुछ भी कारण बता कर, उनकी माँग को अस्वीकार दिला कर, राम के लिये वनवास तथा भरत के लिये राज्य करता था । इसका परिणाम यह हुआ कि, सबों ने | माँगा। राजा ने ये दोनों वरदान दिये। यथार्थ बात तो मँगनी करना बंद कर दिया। कन्या का यौवन ढल यह थी कि, कैकेयी के पिता ने पहले से ही यह व्यवस्था रहा है, यह देख कर इसके पिता ने विश्रवा को, इसका | कर रखी थी। बूढ़े राजा को लड़की ब्याहते समय, कैकेयी वरण करने की सलाह दी। समय का ख्याल न रख, ऐन के पिता ने यह शर्त रखी थी कि, इसके पुत्र को राजसंध्या के समय यह विश्रवा के सामने जा खडी हुई । ऋषि गद्दी मिले। दशरथ ने यह शर्त स्वीकार भी की थी, ने इसका मनोगत ताड़ लिया। क्रूर घटिका होने के कारण | परंतु इस बात का कैकेयी को पता न था। इसे तीन अपत्य बुरे तथा इसकी इच्छानुसार चौथा पुत्र भरत ने कैकेयी की बहुत निर्भर्त्सना की, जिसके कारण अच्छा हुआ। उनके नाम क्रमशः रावण, कुंभकण, इसका सारा षड्यंत्र नष्ट हो गया। भरत ने इसका वर्णन शूर्पणखा (शूर्पनखा), एवं बिभीषण थे (वा. रा. उ.९; निम्नलिखित विशेषणों से किया है-क्रोधी, अविचारी, स्कंद. ३.१.४७)। घमंडी, अपने को भाग्यवान समझने वाली, ऐश्वर्यलुब्ध, कैकेय-अश्वपति कैकेय एवं सुमित्रा देखिये। दुर्जन होते हुए सजन की तरह दिखने वाली, दुष्ट, तथा २. ( सो. अनु.) भागवत तथा विष्णु मत में शिबि | पापबुद्धि (वा. रा. अयो. ९२.१६ )। का पुत्र। भरत ने राम को लाने के लिये सपरिवार वन जाना कैकेयी केकय देश के राजा अश्वपति की कन्या, एवं निश्चित किया । तब सुमित्रा एवं कौसल्या के साथ कैकेयी .राजा दशरथ की कनिष्ठ किंतु अत्यंत प्रियपत्नी। इसका पुत्र भरत । भरत के लिये ही इसने राम को वनवास भी वन जाने के तयार हुई (वा. रा. अयो. ८३.६; सुवेषा २. देखिये)। दिलाया, जिससे दशरथ की मृत्यु हुई। ... राजा दशरथ देवदानवों के युद्ध में, देवताओं की __ कैटभ-मधुदैत्य का अनुज । इसका वध विष्णु ने • सहायता करने गये। उस समय रथ के पहिये की कील परिकको किया (मधुकैटभ देखिये)। टूट गयी । कैकेयी ने अपना हाथ वहाँ लगा कर राजा को २. एक राक्षस । इसके अश्वत्थ, पिप्पलादि दो ब्रह्म' बचाया। राजा ने इसे दो वर माँगने को कहा (ब्रह्म. | भक्षक पुत्र थे । उन का अगस्ति ने सौरि शनैश्चर की मदद ' १२३)। इससे पता चलता है, कि यह युद्ध में रही | से नाश किया (ब्रह्म. ११८)। होगी ( कलहा देखिये)। राम के यौवराज्यभिषेक के | कैतव--शकुनिपुत्र उलूक का नामांतर (म.उ. १६०. दिन समीप आये। गांव सजाने लगे तब अभिषेक की | ९)। बात मंथरा ने इसे बतायी । दशरथ ने कैकेयी के महल कैतवक-शकुनि का नामांतर (म. स. ५४.१)। में सतत रहते हुए भी, इसे अभिषेक की बात का पता कैरात--कश्यपकुल का गोत्रकार । लगने नहीं दिया था। मंथरा के बता देने के बाद, कैराति-अंगिराकुल का गोत्रकार । राजा ने इसे, अभिषेक का समाचार भिजवाया। राम- कैरिशिय-सुत्वन् का पैतृक नाम । यौवराज्याभिषेक का समाचार मंथरा से सुन कर, इसने कैलासक-एक सर्प (म. उ. १११.११)। आनंद प्रदर्शित किया । भरत तथा राम मेरे लिये समान कैशोर्य-काप्य का पैतृक नाम (बृ. उ. २.५.२२; हैं यों कह कर, समाचार लानेवाले मंथरा को ४.५.२८)। पुरस्कार देना चाहा। मंथरा ने इसके मन में जहर भर कोक-सत्रासह नामक पांचाल के राजा का पुत्र दिया । उसने कहा, 'रोने के समय में क्यों हँसती हो ?' | (श. ब्रा. १३.५.४.१७)। (वा. रा. अयो. ७.३)। राम के ऐश्वर्य तथा भरत की | कोकिल-एक राजपुत्र का नाम ( काटक-अनुक्रमणी, हीनदशा का चित्र, मंथरा ने कैकेयी के सामने प्रस्तुत । वेबर )। १६७ Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कोचरश प्राचीन चरित्रकोश कौडिन्य कोचरश--एक राजा । इसकी भार्या सुप्रज्ञा । वह कोलाहल--(सो. अन.) मत्स्य मत में सभानरपुत्र । एकादशी के दिन विष्णु के सामने जागरण कर रही | कालनर, कालानर, कालानल तथा यह एक ही है। थी। उस समय वहाँ शौरी नामक ब्राह्मण आया। कोष--एक आचार्यकुल (श. ब्रा. १०.५.५.८%; राजारानी को आनंद से देवता के सामने नाचते | सुश्रवस् देखिये)। देख, ब्राह्मण बहुत खुश हुआ। रानी ने उसे अपना कोहल--वायु तथा ब्रह्मांड मत में व्यास की सामपूर्वजन्मवृत्त कथन किया। उसने कहा, 'पूर्वजन्म में शिष्य परंपरा में लांगलि का शिष्य । पाठभेद कोलद मैं एक वेश्या थी । यह राजा एक शूद्र था। (व्यास देखिये)। जनमेजय के सर्पसत्र का एक सदस्य एकादशी के दिन बीमारी के कारण, सहजरूप से (म. आ. ४८.९)। जागरण तथा उपवास हो गया । देवताओं के नाम भी २. भगीरथ देखिये। मुँह से निकल पडे। इस कारण अब राजकुल में जन्म हुआ। कौकुर--कुकुरवंशोत्पन्न कारस्कर राजा । यह वृत्तांत सुन कर ब्राह्मण ने भी एकादशीव्रत प्रारंभ कौकुरुंडि-उत्तम मन्वन्तर के सप्तर्पियों में से एक। किया। कालांतर में तीनों को वैकुंठ प्राप्त हुआ (पद्म. उ. कौकस्त-इसके द्वारा यज्ञ में विपुल दक्षिणा दी ८१)। | जाने का निर्देश है (श. ब्रा. ४.६.१.१३)। कोटरक--एक सर्प (म. आ. ३१.८)। २. तामस मन्वन्तर के योगवर्धनों में से एक (मनु देखिये)। कोटरा--बाणासुर की माता । यह पुत्र के प्राणों की कौचकि--अंगिराकुल का गोत्रकार। रक्षार्थ, कृष्ण के सामने मुक्तकुंतला एवं वस्त्ररहित खडी कौचहस्तिक--भृगुकुल का गोत्रकार। . . हुई थी (भा. १०.६३.२०; बाण देखिये)। कोंच--हिरण्याक्ष एवं देवताओं के बीच हुए युद्ध में कोटिक वा कोटिकाश्य-(सो. अनु.) सूरथपुत्र। वायु ने इसका वध किया (पद्म. स. ७५)। इसने जयद्रथ के लिये द्रौपदी की पूँछताछ की थी । पश्चात् कौटिल-भृगुकुलोत्पन्न गोत्रकार। ज्यद्रथ द्रौपदी को हरण कर ले जा रहा था। तब पांडवों कौटिल्य--चाणक्य देखिये। से हए युद्ध में भीम ने इसका वध किया (म. व. २४८, कोणकुत्स;-एक ऋषि (म. आ. ८.२१)। . २४९; २५५.२४)। कौणप--एक सर्प (म. आ. ५२.५)। कोटिश--एक सर्प (म. आ. ५२.५)। कौणपाशन--कद्रू पुत्र सर्प । कोपचय--अंगिराकुल का गोत्रकार । कौठरव्य-एक आचार्य (सां. आ. ७.१४, ८.२)। कोपवेग--युधिष्ठिर की सभा का एक ऋषि (म. स. इसने अक्षरोपासना वा अक्षरों के संबंध की जानकारी ४.१४)। प्रचार में लायी (ऐ. आ. ३.२)। कोमरुक--जनमेजय के सर्पसत्र का एक सर्प (म. कौडिनी--पाराशरीकौंडिनी पुत्र देखिये । आ. ५२.१५)। कौडिन्य--हिरण्यकेशि शाखा के पितृतपण में इसका कोरकृष्ण--वसिष्ठकुल का ऋषिगण । पाठभेद-कौर- उल्लेख है। यह वृत्तिकार था। परंतु इसने किसपर वृत्ति कृष्ण। रची यह नहीं कह सकते (स. श्री. २०.८.२०)। कोरग्य--कश्यप तथा कद्रू का पुत्र । २. एक आचार्य । 'ह' कार को क वर्ग होता है, कोल--कुशिकगोत्र का मंत्रकार । - इस कथन के लिये, सम्मानार्थ लिये गये कई आचार्यो के कोलद--वायु तथा ब्रह्मांडमत में व्यास की सामशिष्य परंपरा के लांगलि का शिष्य । पाठभेद-कोहल। । | नामों में इसका भी नाम समाविष्ट है (ते. प्रा. ५.३८)। ३. शांडिल्य का शिष्य । इसका शिष्य कौशिक कोलासुर--एक दैत्य । कहोड़ का पिता पिप्पलाद | (बृ. उ. २.६.१.४; ६.१, विदर्भिन् देखिये)। दुग्धेश्वर के पास तपस्या कर रहा था। एक बार वह ध्यानस्थ था। उस समय कोलासुर उसे यातना देने पहुँचा। तब ४. एक ब्रह्मर्षि । यह कुंडिनकुलोत्पन्न था ( म. स. ४. कहोड ने एक कृत्या निर्माण कर उसका वध किया (पद्म. १४)। यह युधिष्ठिर के अश्वमेध का एक सदस्य था (जै. उ, १५७)। अश्व, ६३)। यह स्थावर (थेउर) में रहता था। इसकी १६८ Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कौडिन्य प्राचीन चरित्रकोश कौशल्य स्त्री आश्रमा। दुर्वांकुरमाहात्म्य बताने के लिये इसकी | कौमानरायण--कौलायन का पाठभेद । कथा दी गयी है (गणेश. १.६३)। कौंभ्य--बभ्रु का पैतृक नाम । ५. एक ऋषि । इसका आश्रम हस्तिमती एवं साभ्र- कौरकृष्ण-कोरकृष्ण का पाठभेद । मती नदियों के संगम पर था। एक बार अतिवृष्टि के कौरयाण--पाकस्थामन् का पैतृक नाम (ऋ. ८.३. कारण, आश्रम में पानी आया । इसलिये इसने नदी को | २१)। सूख जाने का शाप दिया तथा स्वयं विष्णुलोक चला गया | कौरव्य--कुरु वंश का एक राजा । परीक्षित के शासन (पन. उ. १४५)। | में, यह अपने स्त्रीसहित सुख से रहता था (अ. वे. २०. कौतस्त-अरिमेजय प्रथम एवं जनमेजय का पैतृक | १२७.८; खिल. ५.१०.२; सां. श्री. १२.१७.२; वैतानसू, नाम। ३४.९)। बाल्हिक प्रातिपीय राजा को कौरव्य कहा गया है - कौत्स--महित्थि का शिष्य । इसका शिष्य मांडव्य (श. ब्रा. १२.९.३.३)। एक आख्यायिका में, आर्टिषेण (श. बा. १०.६.५.९; बृ. उ. ६.५.४)। वेद अनर्थक | एवं देवापि भी कौरव्य नाम से संबोधित किये गये हैं है, इस कौत्स के मत का निरुक्त में निषेध दर्शाया गया है | (नि. २.१०)। यह वसिष्ठकुल का गोत्रकार था। (नि. १.१५)। . . २. ऐरावत कुलोत्पन्न एक नाग तथा उलूपी का पिता। एक आचार्य (आ. औः १०.२०.१२, आश्व. श्री. जनमेजय के सर्पसत्र में इसके कुल के ऐंडिल, कुंडल, मुंड, १.२.५, ७.१,१९ आ. ध. १.१९.४.२८.१)। वेणिस्कन्ध, कुमारक, बाहुक, शृंगबेग, धूर्तक, पात, तथा २. भृगुकुल कां गोत्रकार। पातर ये कुल दग्ध हुए (म. आ. ५२.१२)। ३. अंगिराकुल का गोत्रकार। कौरव्यायणीपुत्र--एक आचार्य । 'खं' शब्द का ४. विश्वामित्र का शिष्य । विश्वामित्र के मना करने आकाश अर्थ लेने के लिये इसका मत माना गया है पर भी, इसने रघुराजा के पास से चौदह कोटि मुहरें | (बृ. उ. ३.५.१.१)। दक्षिणा में ला कर उसे दी (स्कन्द. २.८.५)। रघुवंश में | कौरिष्ट-कश्यपकुल का ऋषिगण । कौरुक्षेत्रिन्-अंगिराकुल का गोत्रकार । बरतंतुशिष्य. कौत्स की, ठीक ऐसी ही कथा दी गयी है (र. वं. ५)। कौरुपति--अंगिराकुल का गोत्रकार । ५. एक ब्रह्मर्षि । भृगुवंशीय राजा भगीरथ ने इसे कौरुपथि--शांत्युदक करते समय किस मंत्र का अपनी कन्या हंसी दी थी (म, अनु. २०० कुं; दुर्मित्र उपयोग करना चाहिये, इस संबंध में इसके मत का कौत्स एवं सुमित्र कौत्स देखिये)। निर्देश किया गया है (को. ९.१०)। कौत्सायन-मंत्रद्रष्टा (मैन्यु. ५.१)। कौरुपांचाल--आरुणि के लिये यह शब्द प्रयुक्त कौथुम पाराशर्य--वायु तथा ब्रह्मांड मत में व्यास | होता था क्यों कि, वह इसी प्रांत का था (श. ब्रा. ११. की सामशिष्य परंपरा में एक । ४.१.२)। इसका व्यवसाय भी इसी नाम से दर्शाया कोथमि--हिरण्यनाभ नामक ब्राह्मण का पुत्र । एक | जाता है (श. बा. १.७.२.८ )। बार यह जनक के आश्रम में गया । वहाँ उसने ब्राह्मणों कौलकावती-इस नाम के दो ऋषियों ने रथप्रोत से विवाद किया तथा कोपविष्ट हो कर एक ब्राह्मण का दार्य से एक विशिष्ट यज्ञ कराया था (मै. सं. २.१.३)। वध किया। इस कारण इसे महारोग तथा कुष्ठ हआ। कौलायन-वसिष्ठकुल का ऋषि । पाठभेद-कौमानब्रह्महत्या इसके पीछे लगी। सारे तीर्थ करने पर भी | रायण । उसने पीछा न छोड़ा। आगे चल कर, पिता की सलाह कौलितर--एक दास (ऋ. ४.३०.१४)। यह शंबर के अनुसार इसने श्राव्यसंजक सूक्त का सूर्य के सामने का नाम रहा होगा। यहाँ इसका अर्थ कुलितर का पुत्र है। निरंतर जप किया एवं पुराणश्रवण किया। इससे इसका कौशल--एक राजवंश । इस वंश के सात राजाओं उद्धार हुआ (भवि. ब्राहा. २११)। का निर्देश प्राप्त है। कौपयेय-उच्चैःश्रवस् का पैतृक नाम । कौशल्य--अगस्त्यकुल के गोत्रकारगण । कौबेरक-कश्यपकुल के गोत्रकारगण । २. अंगिराकुल के गोत्रकारगण । कौब्जायनि--मोजायनि का पाठभेद । ३. पिप्पलाद का आश्वलायनकुल का एक शिष्य । प्रा. च. २२] १६९ Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कौशल्य प्राचीन चरित्रकोश कौशिक ४. सुकर्म ब्राह्मण का शिष्य । इसने सामवेद का | ४. एक गायक । यह विष्णु के अतिरिक्त किसी अध्ययन किया (भा. १२.६)। का गुणगान नहीं करता था। इसके अनेक शिष्य थे। ५. जटीमालिन् नामक शिवावतार का शिष्य । इसकी कीर्ति सुन कर, कलिंग देश का राजा इसके पास ६. कोसल देश का इस अर्थ में प्रयुक्त। कौसल्य आया तथा 'मेरी कीर्ति गाओ' कहने लगा। तब पाठभेद भी मिलता है (कौसल्य देखिये)। कौशिक ने कहा "वह विष्णु के अतिरिक्त किसी का कौशापि--भृगुकुल के गोत्रकारगण । गुणगान नहीं करता।" सब शियों ने गुरु का समर्थन कौशांबय--प्रोती का पैतृक नाम । किया। राजा ने अपने नौकर को अपना गुणगान करने कौशिक-कौंडिण्य का शिष्य । इसके शिष्य गौपवन को कहा । तब कौशिक ने, मैं विष्णु के अतिरिक्त किसी तथा शांडिल्य थे (बृ. उ. २.६.१; ४.६.१)। वायु तथा का गुणगायन नहीं सुनता, यह कह कर अपने कान बंद ब्रह्मांड मत में व्यास की सामशिष्य परंपरा के हिरण्यनाभ कर लिये। इनके शिष्यों ने भी अपने कान बंद कर का शिष्य (व्यास देखिये)। एक शाखाप्रवर्तक (पाणिनि लिये। अंत में इसने नुकीली लकड़ी से अपने कान एवं देखिये)। एक ऋषि (मत्स्य. १४५.९२-९३)। अथर्व- जबान छेद डाली । ऐसे एकनिष्ठ गायन से ईश्वर की सेवा वेद के गृह्यसूत्र का रचयिता कौशिक नामक एक आचार्य | कर, यह वैकुण्ठ सिधारा (आ. रा.५)। था। शांत्युदक देते समय कौन सा मंत्र कहा जावे, इस सावर्णि मन्वंतर में होनेवाले सप्तर्षियों में से एक । अध म इसक मत का उल्लख ह (का. ९.१०, युवा | यह गालव का नामांतर है। कौशिक देखिये)। इसके नाम पर निम्नलिखित ग्रंथ उपलब्ध ६. शरपंजरावस्था में भीष्म के पास आया हुआ एक हैं। १. कौशिकगृह्यसूत्र, २. कौशिकस्मृति, इस स्मृति का ऋषि (भा. १.९.७)। उल्लेख हेमाद्रि ने परिशेषखंड में किया है (१.६.३१, ६.३.७)। उसी तरह नीलकंठ ने भी इस स्मृति का ७. एक ऋषि । वृक्ष के नीचे तप करते समय, वृक्ष पर उल्लख श्राद्धमयूख में किया है। इसके नाम पर एक से एक बगली ने इस पर विष्ठा कर दी। इसने क्रोधित शिक्षा भी है। कौशिकपुराण भी इसीने रचा (C.C.)| होकर ऊपर देखा। ऊपर देखते ही तप के प्रभाव कौशिक कुल के मंत्रकार--कौशिक कुल में १३ से वह पक्षिणी निर्जीव हो कर नीचे गिरी । अपने मंत्रकार दिये हैं। उन के नाम-१ विश्वामित्र, २ देवरात, | कारण यह बुरी घटना हुई देख इसे बहुत दुःख ३ बल, ४ शरद्वत् , ५ मधुछंदस् , ६. अघमर्षण, ७ हुआ। गांव में यह भिक्षा मांगने एक पतिव्रता के घर अष्टक, ८ लोहित, ९ भूतकाल, १० अम्बुधि, ११, गया । पतिकार्य में व्यस्त होने के कारण, भिक्षा देने में धनंजय, १२ शिशिर, १३ शावकायन (मत्स्य. १४५. उसे देर हो गयी। इस कारण पतिव्रता ने इससे क्षमा११२-११४)। याचना की । फिर भी यह उस पर नाराज हुआ। तब उस स्त्री ने कहा कि मैं बगली नही हूँ। तुम्हें अभी भी धर्म २. (सो. अमा.) कुशांक, गाधिन , विश्वामित्र आदि | समझ में नहीं आया है। उसे समझने के लिये तुम लोगों का सामान्य नाम । विश्वामित्र के ब्राह्मण होने पर उसके कुल में उत्पन्न हुआ एक ऽपि । इसकी हैमवती मिथिला के धर्मव्याध के पास जाओ। इसे यह बात ठीक नामक स्त्री थी । (म. उ. ११५.१३)। जची तथा इसका क्रोध शांत हुआ। पश्चात् यह धर्मव्याध के पास गया । धर्मयाध ने इसे 'धर्म अनेक प्रकार से ३. सत्यवचनी ब्राह्मण । गांव के पास संगम पर यह तपस्या करता था । सत्य कहते समय, योग्य तारतम्य इस में समझाया। तदनुसार यह अपने मातापिता की शुश्रुषा न था। एक बार कुछ पथिक, चोरों के आक्रमण के कारण, करने लगा। युधिष्ठिर ने वनवास में मार्कंडेय से इसके आश्रम में जा छिपे । लुटेरे (चोर ) पूछने आये। | पतिव्रतामाहात्म्य के बारे में पूछा, तब उसने यह कथा इसने सत्य बात कह दी तब चोरों ने पथिकों को मार बताई (म. व. १९६-२०६)। डाला । इस कारण, यह ब्राह्मण अधोगति को प्राप्त हुआ। ८. कुरुक्षेत्र में रहनेवाला ब्राह्मण । पितृवर्ती आदि सत्य बोलते समय तारतम्य रखना चाहिये यह समझाने | सात पुत्रों का पिता (पितृवर्तिन् देखिये)। के लिये कृष्ण ने अर्जुन को यह कथा बतायी है (म. क. ९. जरासंध के हंस नामक सेनापति का उपनाम वा ४९)। | नामांतर (म. स. २०, ३०)। . १७० Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कौशिक प्राचीन चरित्रकोश कौसल्या १०. एक राजा । यह रात्रि में मुर्गा बन जाता था। कौशीती- ऋग्वेदी ब्रह्मचारी। विशाला इसकी स्त्री थी । सर्वत्र अनुकूलता होने पर भी, । कौश्रेय-सोमदक्ष का पैतृक नाम (का. सं. २०.८%, "अपना पति रात को कुक्कुट हो जाता है, यह देख उसे | २१.९)। बहुत दुःख होता था। वह गालव ऋषि के पास | कौषारव वा कोषारवि-मैत्रेय का पैतृक नाम गयी। ऋषि ने राजा का पूर्ववृत्तांत उसे निवेदन किया। (ऐ. बा. ८.२८)। पिछले जन्म में, यह शक्ति प्राप्त करने के लिये बहुत कौषीतकि-एक ऋषि । इसके नाम पर कौषीतकि कुक्कुट खाने लगा। इस बात का कुक्कुट राजा ताम्रचूड | ब्राहाण, आरण्यक, उपनिषद, सांख्यायन, श्रौत तथा गृह्यसूत्र को पता लगा। उसने इसे शाप दिया कि, रात्रि में तू आदि ग्रंथ हैं । उसमें इसके नाम से संबंधित कुछ मत आये कुक्कुट होगा। ज्वालेश्वर लिंगके पूर्व में स्थित लिंग की हैं। कौषीतकि या कौषीतकेय यह कहोड़ का पैतृक नाम है पूजा करने से राजा मुक्त होगा । गालव ऋषि ने यह कथा | (श, ब्रा. २.४.३.१; छां. उ. ३.५.१)। लुशाकपि ने इसे विशाला को बताई । तदनुसार इसने काम किया तथा तथा इसके शिष्यों को शाप दिया था (पं. ब्रा. १७.४.७. शापमुक्त हुआ। उस दिन से उस लिंग को कुक्कुटेश्वर | ३)। इन शिष्यों में दो अध्यापक थे । पहला कहोड एवं कहने लगे (स्कंद. ५.२.२१)। दूसरा सर्वजित् (सां. बा. १४.२४.७१)। ११. (सो. यदु.) मस्स्य, विष्णु एवं वायु मत में इसे ही सांख्यायन कहते हैं। इंद्रप्रतर्दनसंवाद में प्राणविदर्भपुत्र । | तत्व को संसार का मूलाधार कहा है (कोषी. उ. २.१)। १२. (सो. वृष्णुि) विष्णु तथा मत्स्य मत में वैशाली इसका शिष्य सर्वजित् (कौषी. २.७)। इसने पुत्र को से उत्पन्न वसुदेवपुत्र । वायु मत में वैशाखी से उत्पन्न | उपदेश दिया (छां. उ. १.५.२; कुषीतक सामश्रवस वसुदेवपुत्र। .. देखिये)। यह प्राण को ब्रह्म मानता था । १३. गाधिन् देखिये। . कौषीतकेय-कहोड का पैतृक नाम । १४. प्रतिष्ठान नगर का एक ब्राह्मण। यह कुष्ठरोगी २. इसने सोमतीर्थ पर तपस्या की। शंकर के प्रसन्न था, परंतु इसकी स्त्री पति की अत्यंत सेवा करती थी। होने पर, वहां सोमेश्वर नामक शिवलिंग की इसने स्थापना यह व्यसनी ब्राह्मण अपनी स्त्री के कंधे पर बैठ कर वेश्या की (पद्म. उ. १६१)। के घर जा रहा था। राह में सूली पर चढ़े हुए मांडव्य कोषय-एक ब्रह्मर्षि (वा. रा. उ. १.४)। ऋषि को इसका धक्का लगा। तब ऋषि ने धक्का लगानेवाले कौष्टिकि-अंगिराकुल का एक गोत्रकार ऋषि । की सूर्योदय के पूर्व मृत्यु होगी, यों शाप दिया । परंतु इसके कौष्य-सुश्रवस का पैतृक नाम । पत्नी के पातिव्रत्य के कारण, सूर्योदय ही नहीं हुआ। तब २.शंख का पैतृक नाम । ..देवताओं ने इसकी स्त्री को संतुष्ट किया तथा अनुसूया के कौसला-कृष्णपत्नी सत्या का दूसरा नाम । द्वारा इसके पति को जीवित किया (मार्क. १६.१४-८८; कौसल्य-पर आटणार तथा हिरण्यनाभ देखिये। गरुड. ११४२)। कौसल्य आश्वलायन-एक तत्त्वज्ञ । प्राणी की कौशिकायति–एक आचार्य । घृतकौशिक का | उत्पत्ति किससे हुई, यह इसकी पृच्छा थी (प्रश्नोपनिषद. शिष्य । वैजपायन तथा सायकायन इसके शिष्य थे (बृ. उ. २.६.२, ४.६.२)। कौसल्या-कोसल देश के भानुमान् राजा की कन्या कौशिकी-जमदग्नि की माता सत्यवती । नदी में इसका तथा राजा दशरथ की पटरानी। इसे हजार गाँव स्त्रीरूपांतर हुआ, तब उसे यह नाम प्राप्त हुआ (वा. रा. | धन के स्वरूप में नहर से मिले थे (वा. रा. अयो. बा.३४;म. आ. २०७.७; व.८२,११३; भी १०.१७)। ३१. २२-२३)। इसका पुत्र रामचंद्र । यह दशरथ की कौशिकीपुत्र-आलंबीपुत्र तथा वैयाघ्रपदीपुत्र का पहली स्त्री थी। राम को युवराज्याभिषेक करने की बात शिष्य । इसका शिष्य कात्यायनीपुत्र (वृ. उ. ६.५.१)। निश्चित हुई । यह समाचार कौसल्या को राम के द्वारा ही कौशिल्य-सामवेदी श्रुतर्षि । मिला । कैकेयी को बताने के लिये राजा स्वयं गया था। . कौशीतक-इस ऋषि ने बकुलासंगम पर परमेश्वर | भरत के कहने से पता चलता है कि, कौसल्या कैकयी के की सेवा की (पद्म. उ. १६८)। | साथ बहन सा व्यवहार करती थी (वा. रा. अयो. ७३. १७१ Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कौसल्या प्राचीन चरित्रकोश क्रतु १०)। परंतु कैकेयी एवं उसके परिवार के लोग बार ऋतु की दो बहनें पुण्य तथा सत्यवति थी। ये दोनों बार इसका अपमान करते थे (वा. रा. अयो. २०. पूर्णमाससुत पर्वश की स्नुषायें थी (ब्रह्माण्ड २.१२. ३९)। कैकेयी व्यंगवचनों से इसका मर्मभेद करती थी | ३६-३९)। (वा. रा. अयो. २०.४४)। यह शिववर से वैवस्वत मन्वन्तर के प्रारंभ में उत्पन्न राम इसके पास वन जाने के लिये अनुमति माँगने हुआ। ब्रह्माजी ने प्रजा निर्माण करने के लिये, जो मानस गया। तब लक्ष्मण ने, पिता का निग्रह कर राज्य पर अधिकार पुत्र निर्माण किये थे, उनमें यह था (मत्स्य.३.६-८)। करने का उपाय सुझाया। उस समय कौसल्या ने प्रच्छन्न | यह प्रमुख प्रजापतियों में से एक था (मै. उ. २.३; मत्स्य, रूप से संमति दी (वा. रा. अयो. २१. २१)। १७१.२७-२८; ३.६-८; वायु. ६५.२२; विष्णु. १.७. संभवतः निरुपाय हो कर इसने संमति दी होगी। राम ४-५:१०; म. स. ११.१२; आ. ५९.१०, ६०.४; शां. को इस बात की स्पष्ट कल्पना थी कि, वन जाने के बाद | २०४)। यह ब्रह्मदेव के हाथ से उत्पन्न हुआ (भा. ३. माता की कुछ भी कदर नहीं होगी (वा. रा. अयो. | १२)। कर्दम प्रजापति, की नौ कन्याओं में से क्रिया ३१.११)। पंद्रहवें वर्ष राम के लौटने पर भरत राज्य | इसकी स्त्री थी । उससे इसे साठ हजार पुत्र उत्पन्न हुए। एवं कोश लौटा देगा, इसकी संभावना न थी (वा. रा. | ये वालखिल्य ऋषि अंगूठे जितने बड़े तथा ब्रह्मर्षि थे। अयो. ६१.११)। उनके चित्रकेतु, सुरोचि, विरजा, मित्र, उल्वण, वसुभृद्यान राम के वन चले जाने के बाद, यह दशरथ से एवं द्युमान आदि नाम थे। उसी तरह, इसकी दूसरी स्त्री मर्मस्पर्शी बातें करने लगी। उस समय दयनीय | से शक्ति आदि पुत्र हुए (भा. ४.१)| उन्नति नामक स्त्री अवस्था में दशरथ ने कौसल्या को हाथ जोडे । तब से वालखिल्य हुए (विष्णु. १.१०.१०-१५)। कौसल्या को अपनी भूल ध्यान में आयी। पुत्रशोक से | २. एक ऋषि । वैवस्वत मन्वन्तर में इसे परिवार व्याकुल होने के कारण, कटुवचन कहे, यह बात उसने नही था (वायु. ७०.६६; ब्रह्माण्ड, ३.८; लिंग. १. मान्य की (वा. रा. अयो. ६२.१४)। . ६३.६८; कूर्म. १.१९.)। इसने अगस्त्यं के पुत्र यह मृदु स्वभाव की थी। पतिसुख से वंचित तथा - इध्मवाह को गोद में लिया था। इस नाम से ही ऋतु सौतद्वारा सताये जाने के कारण, यह उदासीन वृत्ति से | के वंशजों को आगस्त्य नाम पड़ा (मत्स्य. २०२.८.)। रहती थी । इस वृत्ति का राम के चरित्र पर बहुत परिणाम | कुछ पुराणों में बताया है कि, इससे ब्राह्मणों की उत्पत्ति हुआ। राम के चरित्र में अंतर्भूत धार्मिकता का अंश नहीं हुई (वायु. ६५.४९-५०; ब्रह्माण्ड, ३.१. इसी की देन थी। २. काशीराज की कन्या अम्बिका (म. आ. ३. पांचाल देश का एक क्षत्रिय । इसका कर्ण ने वध १००.४.१०७५*)। किया (म. क. ५१.४६.)। ३. कृष्ण पिता वसुदेव की एक पत्नी | ४. एक राक्षस । वैश्वानरकन्या हयशिरा इसकी स्त्री कौसवी-द्रुपदपत्नी सौत्रामणी का नामांतर । थी (भा. ६.६.३४)। कौसि-भृगुकुल का गोत्रकार । .५. भृगुऋषि द्वारा उत्पन्न बारह भार्गव, देवों में से एक कौसुरबिंदु--प्रोति का पैतृक नाम । (वायु. ६५.८७)। इसकी माता पौलोमी (मत्स्य. कौसुरुबिंदि--प्रोति कौशंबेय का पैतृक नाम । १९५.१३-१४)। कोहल--मित्रविंद एवं प्रातरह का पैतृक नाम । ६. दस विश्वेदेवों में से एक । क्रतु--एक ऋषि । यह स्वायंभुव मन्वंतर में ब्रह्मा के | ७. श्रीकृष्ण का जांबवती से उत्पन्न पुत्र (भा. १०.६१. अपान से उपन्न हुआ। यह स्वायंभुव दक्ष का दामाद १२)। था। दक्षकन्या संतति इसकी पत्नी। इसे वालखिल्य ८. फाल्गुन माह में पर्जन्य नामक सूर्य के साथ घूमनेनामक साठ हजार पुत्र हुए। वे सब ऊर्ध्वरेत होने के | वाला यक्ष (भा. १२.११.४०)। कारण, उनका वंश नहीं है। ये सब अरुण के आगे सूर्य ९. उल्मूक एवं पुष्करिणी के छः पुत्रों में चौथा (भा. के साथ रहते है। | ४.१३.१७)। १७२ Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऋतु १०. वैवस्वत मन्वन्तर में हुआ। यह आयु नाम से पौष माह में सूर्य के साथ साथ घूमता है। ११. स्वायंभुव मन्वन्तर में जितदेवों में से एक । १२. स्वायंभुव मन्यन्तर में सप्तर्षियों में से एक । १३. अगस्त्य कुल का गोत्रकार । १४. अमिताभ देवों में से एक। क्रतुजित् जानाकि एक ऋषि दृष्टि साफ होने के लिये, कमजोर आखवाले रजनकोणेय द्वारा इसने त्रिविका नामक दृष्टि करायी ( तै. सं. २.२.८.१ ) । यह रजनकोय का उपाध्याय था ( क. सं. ११.१; ऋतुविद् देखिये) । - क्रतुविद् – एक ऋषि विश्वंतर के सोमयज्ञ में श्यापर्णो का प्रवेश हुआ। उनके द्वारा बताये गये सोम की विशिष्ट परंपरा में अरिंदम ने क्रतुविद को उपदेश दिया । इसने जानकी को उपदेश दिया ( ऐ. बा. ७.३४ ) । ऋतुस्थला-यक्ष २. देखिये। कथ- शुक्तिमान पर्वत के पूर्व में स्थित एक राजा । भारतीय युद्ध में यह दुर्योधन के पक्ष में था । २. (सो. क्रोष्टु.) विदर्भराज के चार पुत्रों में से एक । इसका पुत्र कुंति या कृति । भविष्य में क्राथ पाठभेद है । • कथक - विश्वामित्र कुछ का एक गोत्रकार । क्रथन -- अमृत का रक्षणकर्ता एक देव ( म. आ. २८.१८ ) । २. एक असुर (म. स. ९.१३) । ३. (सो. कुरु.) धृतराष्ट्रपुत्र | प्राचीन चरित्रकोश -- ६. कश्यप एवं खशा का पुत्र । कथल - एक ऋग्वेदी ब्रह्मचारी । कानुजातेय - राम का पैतृक नाम क्रोधदान २. कर्दम ऋषि की नौ कन्याओं में एक । ऋतु ऋषि की पत्नी । क्रिया -- स्वायंभुव मन्वन्तर के दक्षप्रजापति की कन्या । धर्म ऋषि की स्त्री (म. आ. ६०.१३) । इसका पुत्र योग। इसके साठ हजार बालखिल्य हुए। ३. द्वादशादित्य में से अंशुमान् आदित्य की स्त्री । क्रिवि--व्यक्ति के लिये प्रत्युक्त देशवाचक शब्द | सायण इसका अर्थ कुंआँ लेते हैं (ऋ. ८. २०.२४; २२.१२; क्रैव्य पांचाल देखिये ) । पांचाल देश का यह प्राचीन नाम है। कीत वैतहोत्र इसका कुरु देश से संबंध था (मे सं. ४.२.६ ) । -- क्रोध - यह ब्रह्मदेव की भृकुटि से उत्पन्न हुआ (भा. ३.९.२२) । एक बार जमदग्नि श्राद्ध कर रहे थे। यह वहाँ गया । जमदग्नि ने होमधेनु के दूध से खीर तयार की थी। इसने सर्व रूप धारण कर खीर पर गरल डाला, परंतु जमदग्नि क्रोधित न हुआ क्योंकि, उसने क्रोध को जान लिया था। तब क्रोध भयभीत हो कर शरण में आया । कहने लगा, " प्रासज्ञान से मैं सारे भागवों को शीमकोपी समझाता था। अब अनुभव से ज्ञात हुआ कि, भार्गव क्षमाशील है। " उसने अभ्ययाचना की। जमदग्नि ने उसे अभयदान दिया तथा कहा "पितरों के क्रोध को तुम ही ४. वरुणलोक का असुरविशेष । " ५. रामसेना में इस नाम के दो वानराधिपति थे सम्हालो ” । पितरों ने इसे नाराज हो कर शाप दिया । क्रोध ( वा. रा. यु. २६.४२ ) । को इसलिये नकुलयोनि प्राप्त हुई। आगे चल कर पितरों को संतुष्ट कर, इसने उःशाप की याचना की । पितरों ने उःशाप दिया, ' धर्म की सभा में कृष्ण की उपस्थिति में उच्छवृत्ति ब्राहाण की कथा कहने पर तुम मुक्त हो काथ (सो. कुरु. ) पृतराष्ट्रपुत्र इसे भीमसेन ने जागि' ( . अ. ६७: उच्छवृत्ति देखिये) । युद्ध में मारा ( म. स. ३५.१५ ) । २. एक क्षत्रिय (म. आ. ६१.३८ ) । ३. एक राजा । इसके पुत्र का भारतीय युद्ध में कलि एवं दुरुक्ति नामक दो संतान हुई ( मा. ४.८.३ ) । अभिमन्यु ने वध किया | ३. अष्टभैरवों में से एक । ४. काला एवं कश्यप का पुत्र ( म. आ. ५९.३४ ) । क्रोधदान - (सू. इ. ) भविष्य मत में शाक्यवर्धन का पुत्र । १७३ कुंच आंगिरस - सामद्रष्टा (पं. बा. १२.९०११४ ११.२० ) । इसके दो साम हैं। उसके कारण, इसे आवश्यक छठवाँ दिन प्राप्त होता था। कैव्य पांचाल -निवि देश का राजा। इसने परिवा ( एकचक्रा) नगरी के निकट अश्वमेध किया (श. ब्रा. १३.५.४.७१ देखिये) । कोडोदय - वसिष्ठकुल का गोत्रकार । क्रोडोदरायण - वसिष्ठकुल का गोत्रकार । २. ब्रह्मदेवपुत्र अधर्म के वंशज लोभ तथा निकृति का पुत्र । इसकी हिंसा नामक बहन थी, जिससे क्रोध को Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रोधन प्राचीन चरित्रकोश क्षमा क्रोधन-कौशिक ऋषि के सात पुत्रों में से एक । २. विष्णु मत में व्यास की ऋक् शिष्यपरंपरा के २. ( सो. कुरु.) अयुत राजा का पुत्र । इसका पुत्र | शाकपूणी का शिष्य (व्यास देखिये)। देवातिथि। क्रॉचिकीपुत्र-वैभतीपुत्र का शिष्य । इसका शिष्य ३. पितृवर्तिन् देखिये। | भालुकीपुत्र । ये दो रहे होंगे (बृ. उ. ६.५.२)। क्रोधनायन-पराशरकुल का गोत्रकार । क्रौंची-कश्यप एवं ताम्रा की कन्या । क्रोधवश-कश्यप एवं क्रोधा वा क्रोधवशा के पुत्रों क्रौष्टकि-एक आचार्य । इसने द्रविणोस् शब्द का में ज्येष्ठ (म. आ. ५९.३१)। क्रोधा के सब पुत्रों का अर्थ इंद्र माना है (नि. ८.२.)। यह एक वैयाकरण था क्रोधवश सामान्य नाम है । इनके वंशजों का भी यही नाम (बृहहे. ४.१३७: छस. ५.)। इसे क्रोष्टकि भी कहा था। इनके वंशजों में से कुछ लोगों को, कुबेर ने सौगंधिक नामक सरोवर के रक्षणार्थ नियुक्त किया था। इस सरोवर क्षत-विदुर का नाम । दासीपुत्र के अर्थ में यह के कछ सौगंधिक नामक कमल लेने के लिये भीम आया। नाम विदर को दिया गया है (म. आ. २ कुं.)। इन्होंने उसे कुबेर की अनुमति लिये बिना हाथ नहीं क्षत्र--मनस, यजत एवं अवत्सार के साथ इसका लगाने दिया। इस कारण भीम का इनसे युद्ध हुआ। भीम उल्लेख ऋग्वेद में आता है (ऋ. ५.४४.१०)। ने इनमें से बहुतों का वध किया (म. व. १५१-१५२)। क्षत्रंजय--(सो. नील.) धृष्टयन का पुत्र (म. द्रो. २. इंद्रजित का राक्षस अनुयायी। यह तथा इसके | ९.४९)। द्रोण के हाथ से यह मारा गया-(म. द्रो. साथ कुछ राक्षस, वानरों से अदृश्य हो कर युद्ध कर रहे | १३०.१२)। थे। तब अंतर्धानविद्यापटु विभीषण ने इसे प्रकट किया। क्षत्रदेव--(सो. नील.) शिखंडी का पुत्र । यह वानरों ने इसे मार डाला । (म. व. २६९.४)। उत्तम रथी था (म. उ. १७१. १०; भी. ९३. १३; ३. महातल का सर्पविशेष । ये सब कद्रू के वंशज थे।। द्रो. २२.१६०)। दुर्योधनपुत्र लक्ष्मण ने इसका वध ये गरुड़ से बहुत डरते थे । इसलिये कचित् तापद बनते | किया (म. क. ४. ७७ )। थे (भा. ५.२४)। क्षत्रधर्मन् (क्षत्रवर्मन् )--धृष्टद्युम्न का पुत्र (म. उ. क्रोधवशा--क्रोधा देखिये। १७१. ७)। द्रोणाचार्य द्वारा यह मारा गया (म. द्रो. क्रोधशत्रु--काला एवं कश्यप का पुत्र । १०१.६२)। क्रोघहंत-काला एवं कश्यप का पुत्र । क्षत्रबंधु--एक राजा । यह दिखने में बड़ा क्रूर एवं २. पांडवपक्षीय एक रथी (म. उ. १७१.१९)। हिंसक था। परंतु ज्ञानी होने के कारण इसका उद्धार हुआ सेनाबिंदु यही होगा। (पन. उ. ८०)। क्रोधा--दक्षप्रजापति की कन्या तथा कश्यप की स्त्री। क्षत्रवर्मन्–क्षत्रधर्मन् देखिये। क्रोधवशा इसका नामांतर है । इसके पुत्रों को भी क्रोधवश क्षत्रवृद्ध--(सो. पुरूरवस्.) आयुराजा का द्वितीय कहते हैं (म. आ. ५९.१२)। पुत्र । ये कुल पाँच भाई थे । यह नहुष का छोटा भाई क्राधिन्--वसिष्ठकुल का गोत्रकार । था। इसका पुत्र सुहोत्र । इससे काश्यवंश प्रारंभ हुआ। क्रोष्टकि-क्रोष्टुकि देखिये। २. रौच्य मन्वंतर का एक मनुपुत्र। . क्रोष्टाक्षिन्--अंगिराकुल का गोत्रकार । क्षत्रश्री प्रातदनि- यह भरद्वाजों का आश्रयदाता है क्रोष्ट्र-अंगिराकुल का गोत्रकार । (ऋ. ६.२६.८)। २. (सो. यदु.) यदु का पुत्र। इसका पुत्र वृजिन क्षत्रोपेक्ष--(सो. यदु.) श्वफल्क यादव के तेरह (नि)वान् । ब्रह्म, हरिवंश एवं पद्मपुराण में इसेही वृष्णि | पुत्रों में से एक । कहा गया है । क्रोष्टुकुल में से ज्यामघ, भजमान, वृष्णि क्षत्रीजस्--(शिशु. भविष्य.) वायुमत में अजातएवं अंधक इन स्वतंत्र वंशों का प्रारंभ होता है। | शत्रु का पुत्र । विष्णु तथा ब्रह्मांड मत में क्षेमधर्मपुत्र । ___ क्रौंच-हिमवान् पर्वत का मेना से उत्पन्न पुत्र । जिस | क्षपाविश्वकर--अंगिराकुल का एक गोत्रकार । द्वीप में यह रहता था, उसका नाम इसी के कारण | क्षम--सुधामन् देवों में से एक । क्रौंचद्वीप पड़ा । यह मैनाक का पुत्र है ( ह. वं. १.१८)। क्षमा--दक्षकन्या तथा पुलह की स्त्री। १७४ Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन चरित्रकोश क्षेमदर्शिन् २. ब्रह्मधान की कन्या । क्षेत्रज्ञ--(शिशु. भविष्य.) भागवत मत में क्षेमधर्मन् क्षमावत्--देवल ऋषि का पुत्र । का पुत्र। २. प्रत्यूष नामक वसु का नाती। क्षेम-(स्वा. प्रिय.) इध्वजिव्ह का पुत्र । इसके वर्ष क्षय--(सू. इ. भविष्य.) वायुमत में बृहत्क्षय का | को यही नाम है (भा. ५.१)। पुत्र । २. स्वायंभुव मन्वंतर के धर्मऋषि का तितिक्षा से क्षान्ति--तामस मनु का पुत्र । उत्पन्न पुत्र। ३. (सो. मगध, भविष्य.) भविष्य, भागवत, मत्स्य, क्षाम-सुधामन् देवों में से एक । क्षितिमुखाविद्ध-विदा देखिये । वायु तथा ब्रह्मांड मत में शुचि का पुत्र । विष्णु मत में इसे क्षेम्य कहा गया है। इसने अट्ठाईस वर्ष राज्य क्षिप्रप्रसादन-(स्वा. प्रिय.) प्रियव्रत के पुत्र का किया। नाम (गणेश .२.३३.२८)। ४. सत्य देवों में से एक । क्षीर--अंगिराकुल का एक गोत्रकार । ५. ब्रह्मधान का पुत्र । क्षुद्रक-(सू. इ. भविष्य.) प्रसेनजित् का पुत्र। क्षेमक--पांडवपक्षीय राजा (म. स. ४.१९)। क्षुद्रभृत-मरीचि ऋषि के छः पुत्रों में एक । यह । २. ( सो. पूरु. भविष्य.) भविष्य एवं मत्स्य मत में स्वायंभुव मन्वंतर में था। निरमित्र पुत्र । वायु मत में निरामित्रपुत्र, भागवत मत में २. कृष्णजन्म के पहले देवकी से उत्पन्न पुत्रों में निमिपुत्र तथा विष्णु मत में खंडपाणिपुत्र। पांडववंश से एक । यह कंस के हाथ से मारा गया (भा. १०. का यह अंतिम राजा था (शनक ३. देखिये)। ३. कद्रूपुत्र तथा सर्पविशेष ।। . शुधि--कृष्ण का पुत्र । यह मित्रविंदा से उत्पन्न ४. एक राक्षस, जो निर्जन वाराणसी में रहता था 'हुआ। यह कृष्ण का अंतिम अर्थात दसवाँ पुत्र था (भा. । (ब्रह्माण्ड. ३.६७.२७; वायु. २३०.२४)। अलर्क ने इसका वध कर, वाराणसी नगरी को फिर से बसाया क्षप-एक प्रजापति का नाम । इसकी जन्मकथा | (ब्रह्माण्ड. ३.६७.७२, वायु. २.३०.६९)। इस प्रकार है । एक बार ब्रह्मदेव को यज्ञ करने की इच्छा क्षेमकर-सोमकांत राजा का मंत्री (गणेश. १.२९)। • हुई। योग्य ऋत्विज कोई नहीं मिल रहा था। तब उसने २. पश्चिम त्रिगर्तदेशीय राजा (जयद्रथ देखिये)। बहुत वर्षों तक मस्तक में एक गर्भ धारण किया। इस जयद्रथ के द्रौपदीहरणोपरांत हुए संग्राम में, क्षेमंकर का बात. को हजार वर्ष हो गये। एक छींक के साथ वह गर्भ | नकुल से युद्ध हुआ, जिसमें यह मारा गया (म. व. बाहर आया। यही क्षुप प्रजापति था। यह ब्रह्मदेव के | २५५.१७)। यज्ञ में ऋत्विज् था (म. शां. १२२.१५-१७)। क्षेमजित्--(शिशु. भविष्य.) मत्स्य मत में क्षेमधर्म २. (सू. दिष्ट.) खनित्रपुत्र । नारद ने युधिष्ठिर को यम- का पुत्र । इसे भागवत में क्षेत्रज्ञ, एवं विष्णु, वायु, तथा सभा का वृत्तांत सुनाया, जिसमें राजाओं की मालिका में | ब्रह्मांड में क्षत्रौजस् कहा गया है । इसका नाम था (म. स. ८.१२; अनु. १७७.७३ कुं.)। २. एक क्षत्रिय (म. स. ४.२५)। ३. एक क्षत्रिय राजा । ब्राह्मण श्रेष्ठ हैं या क्षत्रिय | क्षेमदर्शिन्-उत्तर कोसल देश का राजा । राज्यइस संबंध में, इसका दधीचि से वाद हुआ था। इसके | भ्रष्ट तथा दुर्बल हो कर, यह कालकवृक्षीय नामक ऋषि के पश्चात दधीचि ऋषि पर इसने चढाई की, परंतु | पास आया। ऋषि ने इसे कपटनीति एवं सुनीति बतायी। शिवभक्ति के प्रभाव से दधीचि ने इसे हरा दिया (लिंग. | अंत में इसकी सद्धर्म की ओर वृत्ति देख, ऋषि ने १.३४-३५)। विदेहवंशीय जनक राजा से इसकी मित्रता करा दी। क्षुभ्य-भृगुकुल का एक गोत्रकार | विदेहाधिपति ने इसकी योग्यता देख, जेता की तरह क्षुलिक-कुलक देखिये। इसे अपने घर रखा तथा सत्कार किया। संकटकाल में क्षुव - इसने विष्णु को पराजित किया था (शिव. राजा किस तरह व्यवहार करे, यों बात धर्म को भीष्म रुद्र. स. ३८)। ने इस कथा द्वारा बतायी (म. शां. १०५-१०७)। १७५ Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षेमधन्वन् क्षेमधन्वन --क्षेमधृत्वन् पौण्डरिक देखिये । २. धर्मसावर्णि मनु का पुत्र । क्षेमधर्मन् नाम भी प्राप्त है। प्राचीन चरित्रकोश क्षेमधर्मन--( शिशु, भविष्य) भागवत, मत्स्य, ब्रह्मांड तथा विष्णु मत में काकवर्ण का पुत्र वायु में इसे क्षेमवर्मन् कहा गया है (क्षेमधन्वन् २. देखिये) । क्षेमधी - (सू. निभि.) चित्ररथ जनक का पुत्र । विष्णु में इसे क्षेमारि कहा गया है। क्षेमधूर्ति--सास्य का सचिव तथा सेनापति खांब ने इसे पराजित किया (म. व. १७.११)। भारतीय युद्ध में यह दुर्योधन के पक्ष में था। बृहत्क्षत्र ने इसका वध फिया (म. द्रो. ८२.६ ) । क्रोधवंश के एक राक्षस का । यह अंशावतार था (म. आ. ६१.५९ ) । २. क देश का अधिपति एवं एक क्षत्रिय । भीम ने इसका वध किया (म. क. ८.३२-४५ ) । २. (सो. कुरु) पृतराइपुत्र ( क्षेममूर्ति देखिये) । ४. एक क्षत्रिय बृहन्त का बंधु सत्यकि के साथ इसका युद्ध हुआ था (म. हो. २०२५ - ४८ ) । क्षेकत्वन पौंडरिक-- (सू.. इ. ) मुझमन् नदी के तट पर पौंडरीकश कर के इसने समृद्धि प्राप्त की। पुराणों में इसे पुंडरीकपुत्र क्षेमधन्वन् कहा है (पं. ब्रा. २२.१८.७) । ख खगण - (स. इ.) भागवत मत में बनाम का पुत्र इसका पुत्र विधृति । विष्णु मत में शंसनाम तथा बायु मत में शंखण यही होगा । खटवांग क्षेमभूमि - (ग. भविष्य) वायुमत में भागवतपुत्र । क्षेममूर्ति -- धृतराष्ट्रपुत्र । भीम ने इसका वध किया। दाक्षिणात्य प्रति में क्षेमपूर्ति एवं उत्तरीय प्रति में क्षेमवृद्धि पाठभेद प्राप्त है (म. आ. परि. १.४१ पंक्ति १९ ) । २. पुलह तथा श्वेता का पुत्र (ब्रह्मांड. २.०.१८०१८१ ) । क्षेमवर्मन-क्षेमधर्मन् देखिये । क्षेमवृद्धि - साल्व राजा का सेनापति (म.व. १७. ११) । क्षेमशर्मन्दुर्योधन के पक्ष का एक राजा । भारतीय सुपणकार की थी। उस में गरुड की गर्दन की जगह युद्ध में दोणाचार्य सेनापति थे । उन्होंने सेना की रचना फलिंग, सिंहल आदि राजाओं के साथ यह राजा भी पूर्ण तयारी से खड़ा था (म. प्रो. २०.६ ) । - क्षेमा -- एक अप्सरा | कश्यप एवं मुनि की कन्या । क्षेम्य - - (सो. पूरु. ) उग्रायुधं राजा का पुत्र । इसे सुवीर नामक पुत्र था। २. क्षेम ४. देखिये । क्षैमि सुदक्षिण का पैतृक नाम (जै. उ. प्र. २.६. ३; ७.१ ) । २. श्याम पराशरकुलोत्पन्न एक ऋषि । प्रमति को रुरु नामक पुत्र होगा। उससे भेंट होगी, तब तू शापमुक्त हो कर पूर्वस्वरूप को प्राप्त होगा " . (म. आ. ११)। स्वगम एक तपस्वी ब्राह्मण यह एक बार अग्निहोत्र कार्य में निमग्न था । उस समय सहस्रपाद नामक एक मित्र ने विनोद से तृण का सर्प इसके ऊपर फेंका । इस कारण यह मूर्च्छित हो गया। सावधान होने के बाद इसने शाप दिया, 'जिस प्रकार के साँप से तूने मुझे डराया है, उसी प्रकार वा तृणतुल्य सर्प तू होगा। यह शाप सुन कर दुःख से बिल हो कर मित्र ने दया की विव्हल याचना की। तब खगम ने उःशाप दिया, "भृगुकुल में खट्वांग -- (सृ. ३) विश्वसह राजा का पुत्र । देवदैत्यों के युद्ध में, यह देवताओं की मदद करने स्वर्ग गया था युद्ध समाप्त होने पर, देवताओं ने इसे वर मांगने को कहा । इसने पूछा कि, उसकी आयु कितनी अवशेष 3 १७६ खंज ---दनसंशी राजा ब्रह्मदेव के वरदान के कारण, यह महापराक्रमी हुआ। अर्जुन ने इसका वध किया (पद्म.. ६) Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खट्वांग प्राचीन चरित्रकोश खर है। उन्होंने कहा कि, केवल मुहूर्त्तमात्र शेष है। तब खनपान-(सो. अनु.) भागवतमत में अंगराज और कुछ न माँग कर, यह द्रुतगामी विमान पर बैठ कर पुत्र, विष्णुमत में पारपुत्र, मत्स्य एवं वायु मत में शीघ्र ही अयोच्या आया। अपने पुत्र दीर्घबाहु को गद्दी दधिवाहनपुत्र । अपानद्वार न होने के कारण, इसे पर बैठ कर, आत्मस्वरूप में लीन हो गया (भा.९.९)। अनपान कहते थे । इसका पुत्र दिविरथ। दिलीप प्रथम को खट्वांग मानते है (ब्रह्म. ८.७४; हं.वं. __ खनित्र--(सू. दिष्ट.) भागवतमत में प्रमति राजा १.१५.१३)। वस्तुतः दिलीप द्वितीय को खट्वाँग कहना का पुत्र । इसका पुत्र चाक्षुष । विष्णु तथा वायु के मत में चाहिये (दिलीप देखिये)। प्रजनिपुत्र । इसका पुत्र क्षुप । सदाचारी होने के कारण खड्गधर-सौराष्ट्र देश का एकराजा। इसके मदमत्त इसके उपर अभिचार का परिणाम नहीं हुआ (मार्क. हाथी का मद, एक ब्राह्मण ने गीता के सोलहवें अध्याय | ११४-११५)। के पठनसामर्थ्य से उतारा (प. उ. १९०)। खनिनेत्र--(सू. दिष्ट.) भागवतमत में रंभपुत्र । खड्गबाह--एक राजा। इसके पुत्र का दुःशासन | वायु एवं विष्णु मत में विविंशपुत्र । वायुमत में इसका नामक सेनापति था । वह मदमत्त हाथी से गिर कर मर पुत्र करंधम तथा विष्णुमत में अतिभूति । गया। अगले जन्म में वह हाथी हुआ। सिंहल देश के ___ इसके कुल चौदह भाई थे। यह अत्यंत दुष्ट था । राजा ने वह हाथी खड्गबाहु को दिया। खड्गबाहु ने उसे इसलिये इसने सब भाईयों का हक छीन कर स्वयं अकेले एक कवि को तथा कवि ने मालव देश के राजा को दिया ने राज्य किया। यह प्रजा को अप्रिय था, इसलिये शीघ्र ( पन. उ. १९१)। ही पदच्युत हुआ। पश्चात् इसका पुत्र सुवर्चा गद्दी पर बैठा खड्गहस्त - दक्षसावर्णि मनु का पुत्र । (म. आश्व. ४)। यह हिंसा से उद्विग्न हो कर तपस्या खड्गिन--(सो. कुरु.) धृतराष्ट्रपुत्र । भारतीययुद्ध | करने लगा (मार्क. ११७) । इसका पुत्र बलाश्व । में भीम ने इसका वध किया (म. क. ६.२)। खर--विश्रवा ऋषि का राका से उत्पन्न पुत्र । • खंडपाणि--(सो. कुरु. भविष्य) भविष्य एवं | शर्पणखा इसकी बहन तथा रावण सौतेला भाई था विष्णु के मत में अहीन का पुत्र । अन्य पुराणों में दंडपाणि (म. व. २५९. ८)। शूर्पणखा के कथन से पता पाठभेद हैं। चलता है कि, दूषण इसका भाई था (वा. रा. अर. खंडिक औद्भारि-केशिन का गुरु तथा एक शास्त्रा- | १७)। यह बचपन में वेदवेत्ता, शूर तथा प्रवर्तक (पाणि नि देखिये)। केशिन् के यज्ञ में शेर ने | उत्कष्ट सदाचारी था । यह पितासहित गंधमादन 'गाय को मारा । प्रायश्चित् क्या है, यह पूछने पर सब | पर्वत पर रहता था । दक्षिण दिशा में यह रावण लोगों ने उसे इसके पास भेजा । इसने सभा बुला कर | का सीमारक्षक अधिकारी था (वा. रा. अर. ३१)। विचार किया तथा प्रायश्चित बताया (श. वा. ११. ८. इसके अधिकार में चौदह सेनापति तथा चौदह हजार ४. १)। यह केशिन का प्रतिस्पर्धी था। खंडिक एवं | सैनिक थे (वा. रा. अर. १९; २२)। खांडिक्य एक ही होंगे (मै. सं. १. ४. १२)। । ___ शूर्पणखा ने रामलक्ष्मण से प्रेमयाचना की। राम खनक--विदुर का मित्र । यह पच्चीकारी के काम में | के संकेतानुसार लक्ष्मण ने उसके नाक, कान काट अत्यंत कुशल था। पांडवों को मारने के लिये दुर्योधन ने | डाले। वह आक्रोश करते हुए जनस्थान में खर पुरोचन के द्वारा लाक्षागृह तैयार कराया। पांडव के पास गयी । खर ने अपने चौदह सेनानायक एवं, लाक्षागृह में रहने लगे। एक दिन खनक, विदुर की | चौदह हजार सैनिक राम पर आक्रमण करने भेजे । आज्ञा से विदुर की चिह्नस्वरूप अंगूठी ले कर युधिष्ठिर | राम ने सब का वध किया। अपने सेनापति दूषण के के पास आया । विदुर के द्वारा बताया गया समाचार नेतृत्व में सेना तयार कर, इसने स्वयं राम पर आक्रमण उसने निवेदन किया। युधिष्ठिर ने संतुष्ट हो कर, पुरोचन | किया। राम ने लक्ष्मण को सीता की सुरक्षा के लिये, को पता न लगते हुए पांडवों की लाक्षागृह से मुक्ति | एक पर्वत की गुहा में जाने को कहा । उन के जाने के बाद, करने के लिये, इससे कहा। इसने लाक्षागृह के मध्य से | राम कवच धारण कर, युद्ध के लिये तत्पर हुआ । युद्ध खंदक तक एक सुरंग बनायी (म. आ. १३५.१)। प्रारंभ होने के बाद, राम ने केवल धनुष बाण से दूषण प्रा. च. २३] १७७ Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खर प्राचीन चरित्रकोश ख्याति त्रिशिरस् तथा खर को ससैन्य मार डाला । यह सारी । इधर ज्ञाननिष्ठ केशिध्वज ने कर्मबंधन से मुक्त होने के घटना डेढ़ मुहूत्तों में हुई। लिये, बहुत से यज्ञ किये। एक बार वह यज्ञ कर रहा था, प्रेक्षक के नाते उपस्थित अकंपन राक्षस भाग कर लंका तत्र निर्जन वन में एक व्याघ्र ने उसकी गाय को मारा । गया । उसने रावण को सारा वृत्तांत निवेदित किया उसने ऋविजों से इसका प्रायश्चित्त पूछा, जिन्होंने उसे (वा. रा. अर. १८-३१)। इस युद्ध में, यह बात कशेरू के पास भेजा । कशेरू ने भृगु के पास तथा भृगु ने स्पष्ट दिखाई देती है कि, राम धनुष से युद्ध करते थे। शुनक के पास प्रायश्चित्त पूछने को कहा । अंत में शुनक के राक्षसों के पास धनुष न थे। इसे मकराक्ष नामक कहने पर वह अरण्य में खांडिक्य के पास गया । खांडिक्य पुत्र था। इसने जनस्थान के ऋषियों को अत्यंत कष्ट ने उसे देखते ही उसकी निर्भर्त्सना की एवं उसके वध दिया था। इस कारण, इसकी मृत्यु से उन्हें बहुत आनंद के लिये तत्पर हुआ। परंतु केशिध्वज ने सारी स्थिति हुआ, तथा उन्होंने राम की अत्यंत प्रशंसा की ( वा.रा. निवेदन की। तब लांडिक्य ने यथाशास्त्र धेनुवध का अर. ३०)। प्रायश्चित्त बताया। २. लंबासुर का भाई, एक असुर (मत्स्य. १७.६.७)।। । केशिध्वज ने तदनुसार यज्ञभूमि के स्थान पर जा कर, ३. विजर का पुत्र । यज्ञ सफल बनाया। खांडिक्य को गुरुदक्षिणा देना शेष खरवान्--विश्वामित्रकुल का गोत्रकार । रह गया । अतः केशिध्वज खांडिक्य के पास आया। खांडिक्य पुनः उसका वध करने को उद्यत हुआ। खलीयस--व्यास की ऋशिष्यपरंपरा के शालीय केशिध्वज ने बताया कि, 'वह वध करने नहीं आया है। का पाठभेद। अपितु गुरुदक्षिणा देने आया है। आप गुरुदक्षिणा . खल्यायन--धूम्रपराशर के कुल में से एक एवं गण । माँगे'। खांडिक्य ने सब दुःखों से मुक्ति पाने का खशा-प्राचेतस दक्षप्रजापति तथा असिक्नी की मार्ग उससे पूछा। केशिध्वज ने इसे देह की नश्वरता कन्या । यह कश्यप प्रजापति से ब्याही गयी थी। इससे तथा आत्मा के चिरंतनत्व का महत्त्व समझाया, तथा कहा यक्ष राक्षस आदि उत्पन्न हुए। कि, 'सारे दुखों का नाश योग के सिवा किसी अन्य मार्ग से खसृप-पितृवतिन् देखिये । नहीं हो सकता। तदनंतर खांडिक्य ने योगमार्ग का कथन खाडायन--एक शाखाप्रवर्तक (पाणिनि देखिये)। करने के लिये कहा । केशिध्वज ने उसे परब्रह्म का उपदेश खांडव-भृगुकुल के मित्रयकुल में उत्पन्न एक ब्रह्मर्षि। | कर, मोक्षपद के पास ले जानेवाला योग बताया (विष्ण. २. पौडव का पाठभेद । ६.६-७; नारदं १.४६-४७; केशिन् दाभ्यं देखिये)। खांडवायन-एक ब्रह्मणवंश । परशुराम ने एक बडा खाति–तामस मनु का पुत्र । भारी यज्ञ किया। उसमें पृथ्वी के साथ दस वाव | खादिर--द्राह्यायण का दूसरा नाम (द्राह्यायण ( अंदाजन दो गज ) लंबी तथा नौ वाव ऊँची सुवर्णमय | देखिये)। वेदिका कश्यप को अर्पण की। कश्यप की अनुमति से | खार्गलि--लुशाकपि का पैतृक नाम तथा मातृनामोद्गत अन्य ब्राह्मणों ने उसके टुकडे कर, आपस में बाँट लिये। नाम । इस कारण, वे ब्राह्मण खांडवायन नाम से प्रसिद्ध हुए खालीय--व्यास की ऋशिष्यपरंपरा के शालीय का . (म. व. ११७. ११-१३)। | पाठभेद। खांडिक्य--(सू. निमि.) भागवतमत में मितध्वज- खिलि तथा खिलिखिलि--विश्वामित्रकुल का गोत्रकार पुत्र । यह क्षत्रिय था। इसे खांडिक्यजनक कहा गया है | एवं प्रवर । केशिध्वज इसका चचेरा भाई था। खांडिक्य कर्ममार्ग में | खेल--एक राजा । इसकी स्त्री विश्पला । इसका पैर अत्यंत प्रवीण था। केशिध्वज आत्मविद्याविशारद था। | युद्ध में टूट गया। तब अश्वियों ने एक रात में इसे लोहे एक दूसरे को जीतने की इनकी इच्छा हुई। केशिध्वज | का पैर लगा कर, दूसरे दिन युद्ध के लिये तैयार कर दिया ने खांडिक्य को राज्य के बाहर भगा दिया। यह | (ऋ. १.११६.१५)। अगस्य इसके पुरोहित थे। मंत्री तथा पुरोहित के साथ अरण्य में चला गया (भा. | ख्याति--(स्वा. उत्तान.) भागवत मत में उल्मुक ९.१३.२१)। | तथा पुष्करिणी का पुत्र । १७८ Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ख्याति २. (स्वा.) भृगुपत्नी । कर्दम तथा देवहूती की कन्या । प्राचीन चरित्रकोश ३. तामस मनु का पुत्र । ग । । । । गगनमूर्धन्— कश्यप तथा दनु का पुत्र गंगा -- एक स्वर्गीय देवी। एक समय सब देवियों - अह्मदेव के पास गयीं। उनके साथ गंगा तथा इक्ष्वाकुकुलो सन महाभिप भी गया। यकायक इनके वस्त्र या के वायु कारण उड गये। सब लोगों ने सिर नीचे कर लिया। परंतु महाभिषनिक इनकी ओर देखता रहा। यह देख कर ब्रह्माजी ने शाप दिया "तुम मृत्युलोक में जन्म लोगे एवं गंगा तुम्हारी स्त्री होगी वह तुम्हें अधिसे कृत्य करेगी। तुम्हें इसके कृत्यों के प्रति क्रोध उत्पन्न होगा। तब मुक्त हो कर तुम इस लोक में आओग" शाप सुन कर महाभिने प्रतीप के पेट में जन्म लेने का निश्चय किया। सि के शाप के कारण मृत्युत्येक में आने वाले अब इसे राह में मिले। उन्होंने इसके पेट में जन्म लेने अष्टवसु कां निश्चय किया । परंतु उन्होंने यह शर्त रखी कि जो भी पुत्र जन्म लेगा, इसे यह जल में छोड़ देगी। परंतु इसने भी यह शर्त रखी कि जिससे में विवाह करुँगी उसे पुत्रच्छा अवश्य रहेगी, इसलिये कम से कम एक जीवित रहना ही चाहिये । तत्र अष्टवसुओं ने मान्य किया कि, अपने वीर्य से एक पुत्र ये इसे देंगे। वह वीर्यवान् परंतु निपुत्रिक रहेगा । , पुत्र ४. उरू एवं षडायी का पुत्र । ख्यातेय - नीलपराशर कुछ का एक ऋषि 1 भगीरथ स्वर्ग से अपने पितरों के उद्धार के लिये गंगा नीचे लाया । जब यह समुद्र की ओर जा रही थी, तब राह में जल ने इसे प्राशन कर लिया, तथा पुनः छोड़ दिया ( भगीरथ एवं जह्रु देखिये) एकवार प्रतीप । प्यानस्थ बैठा था। तब गंगा पानी से बाहर आई तथा उसकी दाई गोद में आ कर बैठ गई। यह देख कर उसने इसकी इच्छा पूँछी । इसने अपना स्वीकार करने के लिये कहा। तब दौई गोद में बैठने के कारण, स्नुषारूप में इसका स्वीकार करना उसने कबूल किया। गंगा ने अपनी शर्त रखी कि, आपकी स्नुषा होने के बाद, मैं जो कुछ भी गंगा , करूँगी, उसके बारेमें अपका पुत्र कुछ भी हस्तक्षेप न करें जब तक यह शर्त मान्य की जायेगी, तब तक आपके पुत्र का सहवास में मान्य करूँगी तथा उसे सुख दूँगी। उसे पुण्यवान् पुत्र होंगे तथा उन्हीं के साथ । उसे स्वर्गप्राप्ति होगी। इस प्रकार तय कर के गंगा अन्तर्धान हो गई । कुछ दिनों के बाद महाभिष ने प्रतीप के घर शांतनु नाम से जन्म लिया बड़ा होने पर उसे अपने पिता से सारा समाचार माइम हुआ। बाद में गंगा शांतनु पास गई, तब उसने इससे विवाह किया। इसके कुल आठ पुत्र हुए। उनमें से सात को इसने पानी में डुबा दिया आठवें पुत्र को शंतनु ने हुशने नहीं | दिया। गंगा का आठवाँ पुत्र ही भीष्म है। बाद में उसे ले कर यह स्वर्लोक गई। वहाँ इसने सब प्रकार की शिक्षा उसे दी शांतनु जब मृगया के हेतु आया, तब इसने भीष्म को उसे सौंप दिया (म. आ. ९१-९३) । गंगा आन्हवी (म. उ. १७९.२३ भी. १९१५.५२ ) तथा भागीरथी (म. अनु. १३९.७; आश्व. २.७ ) नामों से दे रहा प्रसिद्ध है। भीष्म शांतनु को गंगाद्वार में पिंड़ था । गंगा ने उसकी सहायता की ( म. अनु. ८४ ) । परशुराम से युद्ध करते समय, भीष्म के सारथी की मृत्यु हो गई। तत्र स्वयं घोडों को सम्हाल कर इसने भीष्म की रक्षा की ( म. उ. १८३.१५ - १६ ) । भीष्म ने अंबा का स्वीकार न करने के कारण, उसने तप कर के भीष्मबघ के लिये पुरुषजन्म माँग लिया। एक बार नित्यक्रमानुसार, अंगा गंगास्नान करने गई थी, तब गंगा यहाँ आई । उसने इसे शाप दिया, 'तुम डेडी मेडी नदी बन कर केवल बरसात में ही महोगी। अन्य दिनों में सूख जाओगी। बरसात में तुम्हारे पात्र में उतार भी नहीं मिलेगा' (म. उ. १८७.२४-२५) । भीष्मवध के बाद इसके दुख का निरसन श्रीकृष्ण ने किया (म. अनु. २७४२७ कुं.) । १७९ Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गंगा प्राचीन चरित्रकोश गणपति गंगा ने एकबार प्राचीमाधव नामक विष्णु से पूछा कि, | कलियुग में अश्व पर आरूढ होनेवाला धूम्रकेतु:-- 'मुझमें पोपी स्नान करते हैं । इन पापों से मेरी मुक्ति कैसी यह म्लेच्छों का नाश करेगा (गणेश. २.१४९) अदिति होगी?' विष्णु ने इसे रोज पूर्ववाहिनी सरस्वती में के गर्भ से महोत्कट रूप में इसने अवतार लिया (गणेश स्नान करने के लिये कहा । परंतु गंगा को यह तापदायक | २.५-६)। प्रतीत हुआ। तब उसने इसे त्रिपृशा का व्रत करने के लिये पार्वती स्नान कर रही थी. तब द्वाररक्षक का कार्य कहा। उससे यह पापमुक्त हुई। एकादशी, द्वादशी तथा | करनेवाले गणपति ने शंकर को भी भीतर जाने से रोका। त्रयोदशी जिस एक तिथि को स्पर्श करते हैं, उस तिथि | तब इनका युद्ध हो कर शंकर ने इसका मस्तक तोड दिया। को त्रिस्पृशा कहते हैं। इस दिन सुवर्ण की विष्णुमूर्ति परंतु पार्वती के लिये, शंकर ने इन्द्र के हाथी का मस्तक की पूजा की जाती है (पद्म. उ. ३४)। ला कर, इसके धड़ पर जमा दिया ( शिव. कु. १६)। गज-यह राम सेना में वानरों का अधिपति था | शनि के दृष्टिपात से गणपति का मस्तक जल गया, परंतु (पन. सृ. ३८; म. व. २६७. ३)। देवों ने वहाँ हाथी का मस्तक लगा दिया (ब्रह्मवै. ३. २. दुर्योधन का मामा । शकुनि के कुल छः कनिष्ठ १८; भवि. प्रति. ४.१२)। परशराम ने शंकरद्वारा दिया भाई थे। यह सबसे बड़ा था । भारतीययुद्ध में अर्जुनपुत्र गया परशु इस पर फेंका। परंतु परशु शंकर का होने के इरावत् ने इसका वध किया (म. भी. ८६.२४; ४२)। कारण, प्रतिकार न करते हुए, इसने वह आक्रमण दाँतों गजकर्ण-एक यक्ष (म. स. १०. १५)। पर सह लिया। इसी से इसका एक दाँत टूट गया। उसे २. महिषासुर का पुत्र । तपश्चर्या कर के इसने शंकर इसने हथियार के समान हाथ में ले लिया (ब्रहावै. ३. को प्रसन्न किया तथा यह अमर हो गया। अंत में | ४१-४४)। शंकर के त्रिशूल से इसकी मृत्यु हुई। इसकी इच्छानुसार एकदंत नाम प्राप्त होने के अन्य कारण भी प्राप्त है शंकर ने इसकी कृत्ति (चर्म) धारण की, तथा कृत्तिवासस् (बाण २. देखिये) । गणपति मेरा वध करेगा, एसा ज्ञात नाम धारण किया। गजासुर का वध काशी में हुवा । होते ही सिंदूरासुर ने, इसको नर्मदा में फेंक दिया। इसलिये काशी के लिंग को कृत्तिवासेश्वर कहते हैं (शिव. वहाँ गणपति के रक्त से नर्मदा लाल हो गई। इसीलिये रुद्र. यु. ५७)। यह तारकासुर का सैनिक था। अभी भी नर्मदा में नर्मदागणपति प्राप्त होते हैं। इसने गजेन्द्र-इंद्रद्युम्न, जयविजय तथा हूहू देखिये। सिंदरासुर का वध कर के उसके सुवासिक रक्त से अपने गजेन्द्रमोक्ष का आख्यान महाभारत में नहीं है। शरीर का लेपन किया । पश्चात् घृष्णेश्वर के पास सिंदुरवाड़ गणपति-एक देवता । 'गणानां त्वा गणपति' (ऋ. को अवतार समाप्त किया (गणेश.२.१३७)। इसीलिये २.२३.१), यह गणपति का सूक्त माना जाता है। यह गणपति को सिंदूर प्रिय है। कृष्ण के बालचरित्र के ब्रह्मणस्पतिका सूक्त है। इसे ब्रह्मणस्पति भी कहते हैं। ऐसे | | अनुसार गणपति का भी बालचरित्र है। अपनी अन्य गमक इतरत्र भी हैं (मै. सं. २. ६.१)। शंकर- बाललीलाओं में इसने अनेक असुरों का वध भी किया पार्वती का पुत्र हो कर भी यह अयोनिज था (ब्रह्मवै. ३. है (गणेश. १.८१-१०६)। ८; लिंग. १०५)। पार्वती ने अपने शरीर के उबटन की मूर्ति बना कर वह सजीव की (पद्म. स. ४३; स्कन्द. ७. गृत्समद, राजा वरेण्य तथा मुद्गल आदि इसके बडे १. ३८; मत्स्य. १५३)। भक्त हैं। इसने शंकर को गणेशसहस्रनाम (गणेश १. इसके अवतार--कृतयुग में कश्यपपुत्र विनायकः-- ४४-४५) तथा वरेण्य को गणेशगीता बताई (गणेश. यह सिंह पर आरूढ होता था। इसने देवांतक नरांतक २. १३८-१४८) । शंकर ने एक फल इसे न दे कर का नाश किया। कुमार को दिया, तब चंद्र ने हँस दिया । इसलिये इसने चंद्र को अदर्शनीय होने का शाप दिया। परंतु बाद में त्रेतायुग में मयूरारुढ रहनेवाला शिवपुत्र मयूरेश्वरः-- उश्शाप दे कर, केवल गणेशचतुर्थी के दिन अदर्शनीय इसने सिंधू का वध किया। माना (गणेश. १.६१)। उसी प्रकार गणेशचतुर्थी छोड़ द्वापारयुग में शिवपुत्र गजाननः--इसने सिंदूर का कर अन्य दिनों में, गणेश को तुलसी भी वयं है (ब्राँवै. बध किया तथा वरेण्य राजा को गणेशगीता बताई। ३.४६ )। १८० Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणपति प्राचीन चरित्रकोश गंधमाद इसके जन्मदिन वैशाख पौर्णिमा, ज्येष्ठ शुद्ध चतुर्थी, | पति मानते हैं । किसी भी देवता के उपासक सर्वभाद्रपद शुद्ध चतुर्थी तथा माघ शुद्ध चतुर्थी हैं । शुक्लपक्षीय | प्रथम गणपति की पूजा करते हैं (पद्म. स. ६३)। तथा कृष्णपक्षीय चतुर्थी तिथि इसे प्रिय है। सिद्धि तथा | प्रणव का अर्थ ॐकार है। अ, उ तथा मका ॐकार बुद्धि इसकी दो पत्नियाँ हैं (गणेश. १.१५)। इसकी बनता है। तुरीय नामक एक चतुर्थ भाग भी ॐकार में उपासना से कार्तवीय अव्यंग हुआ था (गणेश. २.७३- समाविष्ट हैं। जागृति, स्वप्न, सुषुप्ति तथा तुरीय इन चार ८३)। इसके चार हाथ हैं तथा इसका वाहन मूषक है। अवस्थाओं का ॐकार द्योतक है । ॐकार का जप तथा ___ इस पर लिखे गये प्रसिद्ध ग्रंथः-गणेशपुराण, मुद्गल- ध्यान का उपनिषदों में विशेष माहात्म्य है। साध्य तथा पुराण, ब्रह्मवैवर्त का गणेश खंड, भविष्यपुराण का ब्राह्मखंड, साधन दोनों रूपों में ॐकार वर्णित है । इसलिये वेदों का गणेश तापिनी, गणेशाथर्वशीर्ष, गणेश तथा हेरंब उप- प्रारंभ ॐकार से करने की प्रथा शुरू हो गई। आगे चल निषद् । याज्ञवल्क्य स्मृति में विनायक-शांति दी है कर, ॐकार से ही गजमुख गणेशजी का स्वरूप विकसित (याज्ञ. १.२७०)। . हुआ। ॐकार का लेखन तथा गणेशजी की मूर्ति में साम्य __ अष्ट विनायक के स्थान-- १. मोरगांव (मोरेश्वर ), भी है । गजमुख गणेश सामान्यतः खिस्त के पंचम सदी के २. रांजनगांव (गणपति), ३. थेऊर (चिंतामणि), पूर्व उपलब्ध नहीं है । कालिदास ने निकुंभ का गौण रूप ४. जुन्नरलेण्याद्रि (गिरिजात्मज), ५. मुरुड़, पाली से निर्देश किया है। भवभूति ने स्पष्ट रूप से गजमुख का (बल्लालेश्वर ), ६. सिद्धटेक (गजमुख), ७. ओझर निर्देश किया है । ज्ञानेश्वरी में गजमुख तथा ॐकार की (विघ्नेश्वर ) ८. मढ (विनायक)। ये सब स्थान पूना के एकता स्पष्ट की है। इस एकता से ही, उपनिषदप्रतिपादित आसपास हैं। इनके अतिरिक्त अड़तालीस तथा एक- अकार, वेद में तथा सार्वत्रिक सर्वकायारंभ में आद्य सौवीस स्थान भी हैं। काशी में छप्पन विनायकों की सूचि | स्थान में आ गया है। प्राप्त है (गणेश. २.१५४)। । गंडकंडू-एक यक्ष। महाभारत जैसा विस्तृत ग्रंथ लिखने में व्यास ने | गंडष--(सो. यदु.) शूर का पुत्र । गणपति की सहायता प्राप्त की थी। मैं बीच में नहीं रुकूँगा, गंडा-पशुसख की स्त्री (म. अनु. १४१.५. कुं.)। 'ऐसी शर्त गणपति ने रखी थी। उसी प्रकार व्यास ने भी | इसे चंडा भी कहते थे। शर्त रखी थी कि, बिना अर्थ समझे आगे नहीं लिखोगे। गतायु--(सो. पुरूरवस् .) वायुमतानुसार पुरूरवीगणपति को लिखने के लिये अधिक समय लगे तथा स्वयं पुत्र। को समय मिले, इस हेतु से व्यास ने महाभारत में अनेक गति-(स्वा.) देवहूति तथा कर्दम की कन्या । पुलह • कूट सम्मिलित किये हैं (म. आ. १. परि. १ क्र. १; | की पत्नी । गांगेय और बाण देखिये)। गतिन-विश्वामित्रगोत्र का प्रवर। गणपति का और एक रूप निकुंभ है । वाराणसीस्थित | गद-(सो. यदु. वसु.) कृष्ण का सौतेला भाई । यह निकुंभ की आराधना करने पर भी दिवोदास की पत्नी भारतीय युद्ध में पांडव पक्ष का था। यह यादवी में सुयशा को पुत्र न हुआ। इसलिये निकुंभमंदिर दिवोदास | मारा गया (म. मौ. ४. ४४.)। ने उध्वस्त किया। निकुंभ ने भी वाराणसी नष्ट होने का २. एक असुर । इसे मार कर इसकी अस्थियों से गदा शाप दिया। तालजंघादि हैहयों ने वाराणसी नगरी बनवायी । इसे हाथ में धारण करने के कारण विष्णु को उध्वस्त की, तथा दिवोदास को भगा दिया । अन्त में निकुंभ | गदाधर कहते है. (अग्नि. ११४; वायु. १०९.३-१२)। की फिर से स्थापना हुई । वाराणसी समृद्ध हो गई। इस | गदवमेन्-(सो. यदु.) शूर का पुत्र । कथा में वर्णित निकुंभ ही गणपति नाम से प्रसिद्ध हुआ। गद्गद-जांबवत् तथा केसरी इन वानरों का पिता गणेश, गणपति, गणेश्वर, बहुभोजन और कामपूरक नाम | (वा. रा. यु. ३०.)। से भी निकुंभ का वर्णन प्राप्त है (वायु. ९२.३६-५१)। गंधमाद-रामसेना का एक सेनापति, जो वानरों की यह ओंकाररूप है । गणपति उपासना का मतलब पर- | सेना लेकर राम की सहायता करने आया था (भा. ९. ब्रह्म की उपासना है (गणेशाथर्वशीर्ष गणेश. १.१३- | १०. १९; म. व. २६७.५)। १५)। इसलिये इसे सर्व विद्या तथा कलाओं का अधि- २. (सो. यदु.) श्वफल्क के तेरह पुत्रों में से एक। १८१ Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन चरित्रकोश गंधमोक्ष गंधमोक्ष - (सो. यदु.) श्वफल्क का पुत्र । गंधर्व—एक मानववंश | कश्यप तथा अरिष्टा की संतति को गंधर्व कहते हैं । हाहा, हूहू, तुंबुरु, किन्नर आदि इनके भेद हैं। गंधवों का देश हिमालय का मध्यभाग है | गंधर्व तथा किन्नर देश भी पुराणों में निर्दिष्ट हैं। गंधर्व की स्त्रियाँ अप्सराएँ हैं । कश्यप-खशा के संतान अप्सराएँ कही जाती हैं । चित्ररथ, विश्वावसु, चित्रसेन आदि गंधर्वनृपों का निर्देश सर्वत्र आता है । चित्ररथ गंधर्व तथा पांडवों का संघर्ष प्रसिद्ध है । गंधर्वसेना- कैलास पर स्वयंप्रभा नगरी में रहनेवाले धनवाहन नामक गंधर्व की कन्या । यह सोमवार का व्रत करने के कारण कुष्ठरहित हुई ( स्कंद. ७.१.२४ - २५ ) । गंधर्वाण बाय अग्निवेश्य - एक पांचाल (बौ. श्री. २०.२५ ) । । गंधवती -- सत्यवती का नामांतर (म. आ. ५७-६७) गभस्तिनी प्रातिथेयी -- लोपामुद्रा की बहन तथा दध्यच् ऋषि की स्त्री (ब्रह्म. ११०.७.६१ ) । गंभीर—(सो. आयु.) रभसपुत्र ( भा. ९.१७.१०) । २. भौत्य मनु का पुत्र । गंभीरबुद्धि-- इंद्रसावर्णि मनु पुत्र ( मनु देखिये ) | गय - एक दैत्य । विष्णु ने इसका कीकट देश में नाश किया । इसकी देह पांच कोस तथा सिर एक कोस लंबी थी ( स्कंद. ५.१.५९ ) । उसका शरीर अत्यंत विशाल था । यह विष्णुभक्त था, इसलिये ब्राह्मणों ने इसकी पवित्र देह, यज्ञ के लिये माँगा । इस ने लोकोपकारार्थ अपनी देह विष्णुजी को दे दी । तत्पश्चात् ब्रह्मा ने इसे कोलाहल पर्वत के पास उत्तर की ओर सिर कर के दक्षिणोत्तर सुलाया । यह न हिले, इसलिये इसपर आदिगदाधर की स्थापना की । इसे सबका उद्धार करने का वरदान दिया । यह स्थान कीटक देश में है । इसके पैर प्रभासक्षेत्र में हैं । गयाक्षेत्रमाहात्म्य उपलब्ध है (वायु. १०५ - ११२. ) । गरुड २. (स्वा. उत्तान.) भागवत मतानुसार उल्मुक तथा पुष्करिणी का पुत्र । ३. (स्वा. उत्तान. ) भागवत मतानुसार हविर्धान का ५. (सो. आयु. ) आयु का पुत्र (म. आ. ७०. २३)। उर्वशी, धृताची, मेनका, रंभा आदि अप्सराओं का निर्देश भी सर्वत्र आता है । ६. ( सो पुरूरवस्. ) अधूर्तरजस् का पुत्र ( म. स. ८.१७ श. ३७.१-९) । यह बड़ा धर्मात्मा एवं यज्ञ करनेऋषि, मुनि राजाओं के साथ पत्नी आदि रूप में भी वाला था । लगातार सौ वर्षों तक यह यज्ञ करता रहा । अप्सराएँ दिखती हैं। गयादेश में यज्ञयाग करते समय इसने सरस्वती नदी इस वंश के लोक सुरूप, शूर तथा विशेष शक्तिशाली को आमंत्रित किया । सरस्वती वहाँ प्रादुर्भूत हुई । इसी थे (यक्ष देखिये ) । नदी को विशाला कहने लगे (म. व. ९३.१२१) । पुत्र । ४. ( स्वा. प्रिय. विष्णु तथा भागवत मतानुसार नक्त तथा द्रुति का पुत्र । इसकी स्त्री गयंती । इसके चित्ररथ, सुगति तथा अवरोधन नामक तीन पुत्र थे ( भा. ५.१५. ६) । ७. (सु.) इला अथवा सुद्युम्न राजा का पुत्र । यह गयापुरी में राज्य करता था ( भा. ९.१.४१ ; पद्म. सृ. ८ ) । ८. दक्षसावर्णि मनु का पुत्र । ९. उरु तथा डायी का पुत्र । गय आत्रेय - सूक्तद्रष्टा (ऋ. ५.९-१० ) । गय प्लात - सूक्तद्रष्टा (ऋ. १०.६३-६४) । यह प्रति का पुत्र था ( ऐ. ब्रा. ५.२ ) । इसने अपने सूक्त में एक स्थान पर उल्लेख किया है कि, नहुषपुत्र ययाति के यज्ञ में जानेवाले देव इसे धन दें (ऋ १०.६३.१७) । असित तथा कश्यप के साथ इसका उल्लेख आया (अ. वे. १.१४ ) । गयंती - नक्तपुत्र गथ की स्त्री । गर -- सुबाहु का पुत्र | यह विशेष धार्मिक न था । हैहय, तालजंघ, शक, यवन, पारद, कांबोज तथा पंलव राजाओं ने मिलकर इसका राज्य हरण किया । इसलिये यह अपने कुटुंबसहित भार्गव ऋषि के आश्रम में रहने गया । वहाँ जाकर यह अल्पकाल में ही मर गया । इसकी स्त्री कल्याणी तथा पुत्र सगर (पश्च. उ. २० ) । २. सामद्रष्टा एवं इंद्र का मित्र (पं. बा. ९.२.१६ ) । ३. वीरभद्र देखिये । गरिष्ठ - एक ऋषि । यह इंद्र की सभा में उपस्थित था ( म. स. ७.११) । गरुड -- विष्णु का वाहन, एक पक्षी । १८२ Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गरुड प्राचीन चरित्रकोश श्येन एक शक्तिशाली पक्षी के रूप में वेदों में आता है । यह संभवतः गरुड़ का वेदकालीन नाम है । बाद के संस्कृत साहित्य में श्येन का अर्थ 'बाज' दिया है । सुपर्ण श्येन का पुत्र है (ऋ. १०. १४४.४ ) । श्येन तथा सुपर्ण भिन्न थे (ऋ. २.४२.२ ) । स्पेन ने स्वर्ग से सोम पृथ्वी पर लाया (ऋ. १. ४२. ७; ४. २६. ६; ८. ९५. ३; ९. १००.८ ) । सोम को पेना कहा है (१.८०.२ ८.९५.३ ) । ग स्वर्ग से अमृत लाया। यह निवेदन पुराणों ने किया है। अन्त में यह विष्णु का सेवक तथा बाहक हो गया । गरुड बताई तथा नागों का कपट भी बताया। तब गरुड़ ने माता की दास्यत्वमुक्ति के लिये कद्रू से उपाय पूछा। उसने दास्यत्व के बदले में अमृत माँगा ( म. आ. २१. २ - ३ ) | गरुड़ ने अमृत लाने के लिये माता से अनुमति माँगी । क्षुधानिरसन के लिये क्या है, सो पूछा । तब माँ ने इसे निपादों को खाने के लिये कहा। खाते खाते, निषाद को भी खा लिया। इससे गरुड़ का गा इतना जला कि, समझ कर इसने एक ब्राह्मण तथा उसकी केवट पत्नी इसे उन्हें छोड़ देना पड़ा (म. आ. २४) । उगलते समय लिया। इससे गरुड़ का गला इतना जला कि, | यह कस्यप तथा विनता का पुत्र तथा अरुण का कनिष्ठ बंधु था । अरुण ने अपनी माता को शाप दिया था ( अरुण ३. तथा विनता १. देखिये ) । उसके अनुसार, वह कटू नामक खोत का दास्यत्य कर रही थी। इधर अंड़े से बाहर निकलते ही, गरुड़ तीव्र गति से आगे बढा तथा उड़ गया ( म. आ. २०. ४-५ स. ५९. ३९; उ. ११० ) । वालखिल्यों ने इंद्र उत्पन्न करने के लिये किये तप का फल कश्यप को दिया। वही फल कश्यप ने विनता को दिया। तब उसने एक अंड़ा डाला। उसीसे गरुड़ उत्पन्न हुआ (म. आ. २७. अनु. २१ कुं. ) । कुछ निषाद भी बाहर आये। वे लेच्छ बने (पद्म सु. ४७) । इतने में यह उस स्थान पर आया, जहाँ इसका पिता माँगा । तब पिता ने एक सरोवर में लड़ रहे हाथी तथा कश्यप तपस्या कर रहा था । इसने क्षुधानिवारणार्थ कुछ कछुवा जो पूर्वजन्म में सगे भाई हो कर भी एक दूसरे के दुश्मन थे- दोनों को खाने के लिये कह कर, इसे शुभाशीर्वाद दिया । कश्यपद्वारा दर्शाये गये सरोवर में लड रहे हाथी तथा कछुवा को इसने पंजे से उठा लिया । उड़ कर यह एक सौ पर बैठा। इतने में यह शाखा टूट गई। इसी शाखा से योजन लंबी तथा उसी परिमाण में मोटी वटवृक्षशास्त्रा देख कर इसने वह शाखा चोंच में पकड़ी । हाथी, उलटे लटक कर बालखिल्य तपस्या कर रहे थे। यह कछुवा तथा वालखिल्यों के साथ उड़ कर यह पुनः कश्यप के पास आया। कश्यप ने कुशल प्रश्न पूछ कर वालखिल्यों का क्रोध दाल दिया। बाद में उस शाखा से छूट कर वालखिल्य हिमालय पर गये । कश्यप के कथनानुसार गरुड ने वह शाखा एक पर्वत शिखर पर अमृतार्थ आगे बढ़ा। रख दी। वहीं उस हाथी तथा कछुए को खा कर, यह , " यह उड़ कर जाने लगा, उस समय गरुड को पक्षियों 'का इंद्र मान कर वासियों ने अभिषेक किया। उड़ते समय वह इतना प्रखर तथा तीन प्रतीत होने लगा कि इसके तेज से लोगों के प्राण दराने लगे। तभी इसे अमि • समझ कर लोग इसकी स्तुति करने लगे। यह जानकर इसने अपना तेज संकुचित किया । बादमें इसने अपने बड़े भाई अरुण को पीठ पर बैठा कर, पूर्वदिग्भाग में ले गाकर रखा (म. आ. परि. १ क्र. १४ अरुण देखिये) । तदनंतर यह क्छू के दास्यस्य मे बद्ध हुई अपनी माँ बिनता के पास गया । वहाँ इसने देखा कि, विनता अत्यंत दुःखी तथा कष्ट में है । इतने में कद्रू ने नागों के उपवन में जाने का निश्चय किया। स्वयं विनता के कंधे पर बैठ कर, उसने अपने अनुचर नागों को कंधे पर ले जाने की आशा गरुड़ को दी उड़ते उड़ते यह इतनी ऊँचाई पर गया कि, सूर्य की उष्णता के कारण सब नाग नीचे गिर गये । तब इन्द्र की स्तुति कर कद्रू ने वर्षा करवाई। बाद में नाग इससे मन चाहे जैसी आज्ञा करने लगे । तब गरुड़ ने माता के पास शिकायत की। विनता ने इसे दासीभवन की समस्त कथा | १८३ अमृतप्राप्ति के लिये गरुड़ आ रहा है, यह जान कर देवों ने इससे लड़ने की तैय्यारी चालू की। बाद में इसका यक्ष, गंधर्व तथा देवों से युद्ध हुआ, परंतु उसमें उनका पराभव हो गया। इस समय इन्द्र ने इस पर अपना वज्र फेंका; किंतु इसपर कुछ भी असर नहीं हुआ। इसने इंद्र के तथा जिस दधीचि की हड्डियों से वह वज्र बना था, उस दधीचि के सम्मान के लिये, अपने एक पर का त्याग किया । बाद में यह अमृतगुफा की ओर घूमा । वहाँ सुदर्शनचक्र के समान एक चक्र उस गुफा की रक्षा कर रहा था। चारों ओर अनि का परकोटा था ( यो. वा. १.९ ) Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गरुड प्राचीन चरित्रकोश गरुड अतिसूक्ष्म रूप धारण कर के, इस चक्र के बीच में विष्णु ने लीला से अपना एक हाथ इसके शरीर पर स्थित तूंबी के छेद से इसने भीतर प्रवेश किया। परंतु रखा । इससे इसके प्राण घबराने लगे। तब यह विष्णु अमृत के दोनों ओर दो नाग थे। जो भी कोई उनके की शरण में गया। उस सुमुख नामक नाग को अपने दृष्टिपथ में आता, एकदम भस्म हो जाता था । अंगूठे से उड़ा कर, विष्णू ने गरुड़ की छाती पर रखा। उनके दृष्टिपथ में आ कर भस्म न होवे, इसलिये तब से वह सुमुख गरुड़ की छाती पर है (म. उ. इसने उनकी आँखों में धूल झोंक दी। उन्हें आँखे बंद | १०३)। करने के लिये मजबूर कर के स्वयं अमृत कुंभ ले कर गालव नामक ऋषि इसका मित्र था। गालव जब गुरुबाहर निकला । इतने में इसकी विष्णु से भेंट हुई। | दक्षिणा की विवंचना में था, तब गरुड़ उसके पास आया। तब संपूर्ण कुंभ पास में होते हुए भी, इसने एक बूंद | उसकी सहायता के हेतु से गरुड़ ने उसे पीठ पर बैठाया। अमृत को भी स्पर्श नहीं किया, यह देख कर विष्णु चारों ओर घूम कर, दोनों ऋषभ पर्वत पर शांडिली अत्यंत प्रसन्न हुए। तथा उसने इसे दो वर माँगने के नामक एक ब्राह्मणी के आश्रम में आ उतरे। यह तथा लिये कहा । इन दो वरों से, 'मैं तुम्हारे साथ लेकिन गालव उसी आश्रम में विश्राम कर रहे थे। तब गरुड़ ऊँचा रहूँ, तथा बिना अमृत प्राशन किये भी मैं अमर रहूँ' ने सोचा कि, यह ब्राह्मणी अत्यंत तपोनिष्ठ है। इसे वैकुंट ऐसे दो वर इसने विष्णु से माँगे, तथा पूछा कि 'मैं तुम्हारी ले जाना चाहिये। तभी अंशतः उपकार इसपर हो सकेगा। सेवा किस प्रकार कर सकता हूँ? तब विष्णु ने कहा, 'तुम परंतु ब्राह्मणी को यह पापविचार प्रतीत हुआ। उसने मेरे वाहन बनो । तुम्हारे प्रथम वर की पूर्ति के लिये, मैं योगबल से इसके पर तोड़ डाले। गरुड़ ने उससे रथ में बैलूंगा, तब तुम मेरे ध्वज पर बेठो' (म. आ. क्षमायाचना की। तब इसे पहले से भी शक्तिपूर्ण पर २८-२९)। प्राप्त हुए। फिर दोनों मित्र मार्गक्रमण करने लगे। मार्ग बाद में पुनः यह बदरिकाश्रम में कश्यप के में गालव का गुरु विश्वामित्र मिला। वह दक्षिणा के लिये पास आया तथा आपबीती उसे बताई। कश्यप तथा उतावली करने लगा। तब त्वरित द्रव्यप्राप्ति की इच्छा तत्रस्थ ऋषिओं ने इसे नारायणमाहात्म्य का निवेदन से गरुड़ उसे ययाति राजा के पास ले गया। परंतु किया । तदनंतर इसकी तथा इंद्र की मित्रता हो कर, इंद्र ययाति के पास, द्रव्य नहीं था। इस कारण, उसने ने इसे अमृत ले जाने का कारण पूछा । गरुड़ द्वारा अपनी कन्या माधवी इसे इस शर्तपर दी कि, इससे बताये जाने पर इंद्र ने कहा, 'तुम्हारी माता को कपट से | उत्पन्न पुत्रों पर ययाति का अधिकार होगा। गालव दासी बनाया गया है । हम कपटाचरण से ही उसकी से उसने कहा, 'कोई भी राजा तुम्हारी इच्छित कीमत मुक्ति करायेंगे'। सख्यत्व दर्शाने के लिये इंद्र ने इसे वर दे कर इसे ले लेगा।' बाद में गुरु-दक्षिणार्थ अश्वप्राप्ति दिया माना जा रहसने का साधन प्राप्त होते ही इसने गालवं को विदा किया । अमृतकुंभ दर्भ पर रखा तथा सो से कहा, कि तुम पश्चात् यह अपने स्थान पर वापस लौट आया (म. उ. स्नानादि कर के इसका भक्षण करो। इस प्रकार सब साँप | १०५.१११)। जब स्नान के लिये गये थे, तब इंद्र ने आ कर अमृतकुंभ इसे सुमुख, सुनामन् , सुनेत्र, सुवर्चस् , सुरूच् तथा का हरण कर लिया। इस प्रकार साँपों को धोखा दे कर, सुबल नामक छः पुत्र थे (म. उ. ९९.२-३)। महाभारत इसने अपनी माता की मुक्ति की। के इसी अध्याय में एक और नामावलि दी गयी है । इस ___ इसकी पत्नियों के नाम भासी, क्रौंची, शुकी धृतराष्ट्री | नामावलि के प्रारंभ में कहा गया है, 'गरुड के कुल के एवं श्येनी थे (ब्रह्माण्ड. ३.७.४४८-४४९)। | अन्य नाम बता रहा हूँ' । अन्त में कहा गया है, 'ये एक बार इंद्र ने सुमुख नामक नाग को अमरत्व दिया। सब गरुड़पुत्रों में से है। क्रुद्ध हो कर गरुड़ इंद्र के पास गया । 'तुम मेरे इंद्र ने सुमुख को अमरत्व दिया। इस कारण इंद्र मुख से मेरा भक्ष्य क्यों छीन रहे हो ? मैं सरलता से | से लड़ने गरुड़ गया था। तब इसने स्वयं ही बताया विष्णु का वहन कर सकता हूँ, इसलिये मैं सबसे, था, 'मैं ने श्रुतश्री, श्रुतसेन, विवस्वान् , रोचनामुख, अर्थात् विष्णु से भी बलवान् हूँ।' ऐसी वल्गनायें प्रस्तुत, तथा कालकाक्ष राक्षसों का वध कर के अचाट यह करने लगा। इसका गर्व हरण करने के लिये | कर्म किये हैं ' (म. उ. १०३)। . Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गरुड प्राचीन चरित्रकोश गवाक्ष इसके विभिन्न कार्यों से इसे विभिन्न नाम प्राप्त हुएं । उन- वारिशास्त्र तथा मयूरचित्रक नामक दो ग्रंथ उपलब्ध . में से, काश्यपि इसका पैतृक नाम तथा वैनतेय इसका मातृक | हैं । इन दोनों ग्रंथों में वर्षा के भविष्य के संबंध में विस्तीर्ण नाम है। सुपर्ण, तार्थ्य, सितानन, रक्तपक्ष, सुवर्णकाय, | जानकारी अर्थात् वायुविद्या है। मयूरचित्रक, गर्ग तथा गगनेश्वर, खगेश्वर, नागांतक, पन्नगाशान, साराति, भागुरि का संवादरूप ग्रंथ है (कविचरित्र)। गर्ग ने वास्तुविष्णुरथ, अमृताहरण, सुधाहर, सुरेंद्रजित्, वज्रजित्, शास्त्र पर एक ग्रंथ लिखा था (मत्स्य. २५२)। गरुत्मत् , तरस्विन् , रसायन, कामचारिन् , कामायुष, | ४. कलिंग देश का निवासी । मुख से विश्वनाथ का नाम चिराद आदि इसके अनेक नाम हैं। इसका रूप अति | लेते, यह कंधे पर गंगा की डोली लेकर जा रहा था । राह विचित्र था। इसके मस्तक, पर, चोंच तथा नख गरूड़पक्षी | में ब्रह्मराक्षस बने सोमदत्त तथा कल्माषपाद से इसकी भेंट के समान थे । शरीर तथा इंद्रियाँ मनुष्य जैसी थीं। । हुई । उनपर तुलसीमिश्रित गंगाजल डालने से सोमदत्त तर इसीके वंश के पिंगाक्ष, निबोध, सुपुत्र तथा सुमुख ने | गया तथा कल्माषपाद पश्चात्तापदग्ध हुआ। सरस्वती के व्यासपुत्र जैमिनि की महाभारत पर की शंकाओं का द्वारा आश्वासन दिये जानेपर, छः मास काशी में रहकर निरसन किया (मार्क. ४)। ये चारों श्वास रोक कर वेद- कल्माषपाद अपने राज्य लौटा (नारद. १.१४१)। पठन करते थे (मार्क. ४.४)। इसने ही गरुडपुराण । ५. एक ऋषि ( पितृवर्तिन् देखिये)। इसने भीष्मकश्यप को बताया (गरुड़. १.२)। इसकी उपासना | पंचककव्रत किया था (पध्म. उ. २४)। काफ़ी प्राचीन है। इसकी गायत्री प्रसिद्ध है (महाना. ६. अंगिराकुल का गोत्रकार। ३.१५, गरुडोपनिषद् देखिये)। ।। ७. ऋषम नामक शिवावतार का शिष्य । गरुड केवल व्यक्ति का नाम न हो कर, समुदाय एवं ८. लकुलिन् नामक शिवावतार का शिष्य । मनुष्यजाति का नाम होगा। गर्ग भारद्वाज-सूक्तद्रष्टा (ऋ. ६.४७)। .. गर्ग-(सो. काश्य.) दिवोदासपुत्र प्रतर्दन के दो गर्गभूमि--(सो. क्षत्र.) वायुमतानुसार गार्ग्यपुत्र । पुत्रों में से एक (ह. वं. १.३०)। गर्दभीमुख-कश्यपकुल का गोत्रकार। २. (सो. पूरु.) मन्यु नृप का पुत्र । इसका पुत्र | गर्दभीमुख शांडिल्यायन--एक आचार्य । इसका शिनि । गुरु उदरशांडिल्य (वं. ब्रा. २)। ३. यादवों का पुरोहित । इसने कृष्ण का नामकरण | गर्दभीविपीत-गौतमकुल का एक ऋषि । तथा उपनयन संस्कार किया (भा. १०.८)। देवकी को। २. भारद्वाजकुल का एक ऋषि । पुत्र होते ही तत्काल उनका वध करने का क्रम कंस ने | ३. एक तत्त्वज्ञ । जनक ने याज्ञवल्क्य को बताया कि, जारी किया। इन पुत्रों को दीर्घायु बनाने का उपाय | इसने श्रोत्र ब्रह्म है, ऐसा कहा है (बृ. उ. ४. १.५)। वसुदेव ने इससे पूछा । तब इसने देवीभागवत श्रवण | इसे विभीत भी कहते हैं। करने का उपाय उसे बताया । कारागृह में वह असंभव | गर्भ--(सो. तुर्वसु.) मत्स्य के मतानुसार यह था, इसलिये गर्गमुनि ने स्वयं देवीभागवत का पाठ किया। | तुर्वसुपुत्र है। देवी ने वरदान दिया कि, शीघ्र ही कृष्णावतार होगा गर्व--धर्म ऋषि का पुत्र । इसकी माता पुष्टि । (दे. भा. १.२)। गर्ग ने चौसष्ट कलाओं पर एक ग्रंथ गलूनस आाकायण--एक आचार्य । इसका तथा लिखा होगा (म. अनु. ४९.३८ कुं.)। गर्गस्मृति से | जैवलि का साम के बारे में संवाद हुआ है (जै. उ. ब्रा. हेमाद्रि तथा माधवाचार्य ने उद्धरण लिये हैं। १. ३८. ४)। यह प्रसिद्ध ज्योतिषी था। इसने कृष्णजन्म का जातक | गवय--यह रामसेना का वानर था। राम ने जब ठीक ठीक कथन किया था। गर्गसंहिता नामक बारह | यज्ञ किया, तब अश्व के रक्षणार्थ शत्रुघ्न के साथ इसे भेजा हजार श्लोकों का कृष्णचरित पर एक ग्रंथ उपलब्ध है। | गया था (म. व. २६७.३; पद्म. स. ३९; पा. ११)। वह इसी गर्ग का है, ऐसा कहा जाता है। इतिहास पर | गवल्गन--यह सूत था तथा संजय का पिता था। लिखे गये इस ग्रंथ के अनुसार, ज्योतिष पर भी एक गवाक्ष-शकुनि का भ्राता। भारतीययुद्ध में यह गर्गसंहिता पहले होनी चाहिये। बृहद्गार्गीय संहिता | इरावत् के द्वारा मारा गया (म. भी. ८६.२४-३४)। नामक एक ग्रंथ हाल ही में पाया जाता है। गर्ग के | २. रामसेना का एक वानराधिपति (म. व. २६७. ४)। प्रा. च. २४] १८५ Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गवाक्ष प्राचीन चरित्रकोश गाधि ३. भारतीययुद्ध में भीम के द्वारा मारा गया राजा गाथिन--विश्वामित्र तथा विश्वामित्रवंशजो का पैतृक (म. द्रो. १३२.२०)। नाम (ऐ. ब्रा. ७.१८)। गविजात-एक ब्रह्मर्षि (च्यवन तथा शंगिन् गाधि--(सो. अमा.) वायुमतानुसार कुशाश्वपुत्र, देखिये)। भागवत तथा विष्णु मतानुसार कुशांबुपुत्र । इसेही कौशिक गविष्ठ-कश्यप तथा दनु का पुत्र । एक दानव (म. कहते हैं। यह कान्यकुब्ज देश का अधिपति था। इसकी आ. ५९.२९) माता पुरुकुत्स की कन्या थी । इसे सत्यवती नामक कन्या २. अंगिरसपुत्र देवों में से एक। थी। उसे ऋचीक ऋषि ने इससे माँगा । तब इसने गविष्ठिर आत्रेय--सूक्तद्रष्टा (ऋ. ५.१.१२; १०. उससे एक हजार श्यामकर्ण घोडे ले कर, सत्यवती उसे दी। १५०.५, अ. सं. ४.२२.५; आश्व. श्री. १२.१४.१; ऋचीक ऋषि ने दिये चरु के प्रभाव से, इसे विश्वामित्र ब्रह्मांड. २.३२)। यह अत्रिगोत्र का प्रवर है। नामक पुत्र हुआ (ऋचीक देखिये; म. आ. १६५ व. गवेषण-(सो. यदु. वृष्णि.) अक्रूर के पुत्रों में से ११५, शां ४९; अनु. ७ कुं; भा. ९.१५.४; १६.२८; एक। ह. वं. १.२७)। गवेष्टिन्--दनुपुत्र। गाग्र-(सो. पुरूरवस् .) वायु के मतानुसार भुवन्मन्यु- २. कोसल देश में रहनेवाला एक ब्राह्मण। यह पुत्र । इसके पुत्रों को गाग्र यह सामान्यनाम दिया गया है। श्रोत्रिय एवं बुद्धिमान् था। यह बचपन से ही विरक्त था। अन्य पुराणों से प्रतीत होता है कि, ये गर्ग होंगे। कुछ इष्टकार्य की सिद्धि के लिये, यह भाईयों को छोड़ कर गांगेय--भीष्म का मातृक नाम (म.आ. ९४.७७)। तपस्या करने के लिये अरण्य में एक सरोवर के किनारे २. गणपति देखिये। गया । विष्णुदर्शन होने तक पानी में तप करने का इसने गांगोदधि--अंगिराकुलोत्पन्न गोत्रकार । निश्चय किया। दर्शन दे कर विष्णु ने इसे वर माँगने का कहा। इसने विष्णु से भ्रामक संसारमाया दिखलाने की गांग्यायनि-चित्र का पैतृक नाम । गार्गायणि नामांतर प्रार्थना की। है (को. उ. १.१)। गाणगारि-आश्वलायन देखिये । एक दिन स्नान करते समय, दर्भ हाथ में ले कर गातु आत्रेय-सूक्तद्रष्टा (ऋ५.३२)। पानी मथना इसने प्रारंभ किया। तब इसे ऐसा दृश्य दिखा कि, जोरों का तूफान आने के कारण, एकादे वृक्ष के समान गातु गौतम--संवर्गजित् लामकायन का शिष्य (वं. उसका शरीर नीचे गिर गया है । वजन रो रहे हैं, तथा ब्रा. २)। शुष्क शरीर चिता में डाल कर जला डाला गया है । बाद गात्र-उत्तम मन्वंतर के सप्तर्षियों में से एक। में भूतमंडल देश की सीमा पर, एक ग्राम में, एक चांडाल गात्रवत्-कृष्ण का लक्ष्मणा से उत्पन्न पुत्र (भा. स्त्री के उदर में गर्भवास की नरकयातना भोगते हुए इसने १०.६१.१५)। अपने को देखा । बाद में क्रमशः बढते बढते, यह विषयलोलुप गाथिन् -विश्वामित्र का पिता तथा कुशिक का पुत्र । बन गया। इसने चांडालकन्या से विवाह किया। वहाँ सर्वानुक्रमणी में इसका निर्देश है। गाथिन् कौशिक इसे संतति प्राप्त हो कर, यह वृद्ध हुआ। तदनंतर यह कुछ ऋचाओं का द्रष्टा है (ऋ.३.१९-२२) । विश्वामित्र ने | अरण्य में वास करने लगा। कुछ कालोपरांत, घर के शुनःशेप को दत्तक लिया। इसलिये वह, मूलवंश के तथा | लोगों की मृत्यु होना प्रारंभ हुआ। यह भ्रमिष्ट के समान गाथिन् के वंश के, यज्ञयागादि दैवी कमों में तथा मंत्रसाध्य वन में घूमने लगा। घूमते-घूमते यह कर लोगों की कमों में, प्रामुख्य प्राप्त करनेयोग्य हुआ (ऐ. ब्रा. ७. | राजधानी में आया । वहाँ के राजा की मृत्यु हो गई थी। १८)। विश्वामित्र के वंश के लिये, गाथिन् शब्द बहुवचन हाथी ने इस चांडाल को सूंड से पकड़ कर गंडस्थल पर प्रयुक्त होता है (आश्व. श्री. ७.१८)। यह अंगिराकुल बैठाया । इसलिये लोगों ने इसे राजा बनाया। इस प्रकार का गोत्रकार तथा इंद्र का अवतार था (वेदार्थदीपिका गवल नाम से इसने आठ वर्षों तक कीर देश का राज्य ३)। पुराणों में इसे गाधि कहा गया है (विश्वामित्र | चलाया। बाद में, नागरिकों को ज्ञान हुआ कि, अपना देखिये)। राजा चांडाल है। उन्हों ने अग्निप्रवेश किया। उनके Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाधि प्राचीन चरित्रकोश गांधारी दुख से, यह स्वयं भी अग्निप्रवेश करने को सिद्ध हो गया, गांधारी-गांधार देशाधिपति सुबल की कन्या (म. तथा अग्निराशि पर गिर गया। इसके अवयव जलने लगे। आ. ९०.६१)। इसने बाल्यावस्था में रुद्र की आराधना इसी समय, सरोवर के जल में अघमर्षण करनेवाला | की थी, जिस कारण इसे सौ पुत्र होंगे ऐसा वरदान गाधि ब्राह्मण, इस दीर्घस्वप्न से जागृत हुआ। मिला। कुरुवंश में संतति का अभाव था। इसी कारण चार घटिकाओं के बाद, इसका भवभ्रम नष्ट हुआ। भीष्म आदि लोगों ने धृतराष्ट्र के लिये, गांधारी की स्वप्न की सब घटनाओं का स्मरण कर, यह विचार करने | माँग की (म. आ. १०३. ९-१०)। तदनुसार सुबल लगा। तदनंतर गाधि ने देढ साल तक तपस्या की। तब इसे | ने धृतराष्ट्र को गांधारी दी। यह महापतिव्रता थी। दर्शन दे कर विष्णु ने बताया कि, तुमने देखी हुई सब | धृतराष्ट्र अंधा था । इसलिये इसने भी अपनी आँखों पर घटनायें माया है। विष्णुवचन की सत्यासत्यता अजमाने | पट्टी बाँध कर अंधत्व अंगिकार किया। यह परपुरुष के लिये, यह पुनः कीर देश में गया। विष्णुद्वारा का दर्शन भी न करती थी (म. आ. १०३.१३)। इसका मोह निरसन होने के पश्चात् , यह जीवन्मुक्त हुआ (यो. वा. ५.४४.४९)। | वर के अनुसार इसके उदर में गर्भ रहा। इसे समागानबंध-वाराहकल के घोरकल्प में से प्रसिद्ध | चार मिला कि, कुंती को युधिष्ठिर उत्पन्न हुआ है। जल्दी गायनाचार्य । तत्कालीन नारद ने इससे गायन सीखा। | पुत्र हो, इसलिये इसने बलपूर्वक अपना गर्भ बाहर निकाला आगे चल कर कुछ कारणवश, इसे उलूक्योनि प्राप्त हुई । (म. आ. १०७.१०-११)। उससे मृतप्राय सा मांस (अ. रा. ७)। का पिंड बाहर आया। इतने में वहाँ व्यास आये। यह गांदम-एकयावन का पैतृक नाम (ता. ब्रा. २१. | सारा हाल देख कर उन्हें इस पर बडी दया आई । उन्होंने १४, २०; तै. ब्रा. २..७. ११. २)। तैत्तिरीय ब्राह्मण गर्भ के सौ टुकडे बनवा दिये । पश्चात् घृतकुंभ मँगवा कर, में कांदम पाठ है। . उसमें गर्भ रखने का आदेश दिया। कहा कि, 'यथागांदिनी-काशिराज की कन्या, तथा यदवंश के | अवसर योग्य काल पा कर गर्भ व्यवस्थित हो जावेगा। श्वकल्क की पत्नी । अक्रूर आदि इसके पुत्र थे (भा.१०. | तदनुसार योग्य समयपर गर्भ सजीव हुआ (म. आ. ४१)। यह अनेक वर्षों तक गर्भ में थी। इसका कारण १०७.१२-१४)। इसी समय कुंती को भीम उत्पन्न इसके पिता ने पूछा । इसने कहा कि, 'अगर तुम मुझसे हुआ (म. आ. ११४.१४)। गांधारी को दुर्योधन आदि हमेशा गोदान कराओगे, तो ही मैं जन्म लूंगी। इसके सौ कौरव तथा दुःशला नामक कन्या यों एक सौ एक पिता ने यह कबूल किया (वायु. ९६. १०५-१०९; संताने हुई (धृतराष्ट्र देखिये)। ह. वं. १. ३४. ६-१०)। दुर्योधन ने पांडवों से शत्रुता प्रारंभ की, तब गांधारी . गांधार-(सो. द्रुह्यु.) भागवत मतानुसार आरब्ध | ने हितोपदेश दिया। उसका कुछ भी परिणाम नही हुआ का, विष्णु मतानुसार सेतुपुत्र वा आरद्वत् का, मत्स्य | | (म.उ. १२७) । दुर्योधन की मृत्यु के समय, कृष्ण ने इसे मतानुसार शरद्वत् का तथा वायुमतानुसार अरुद्ध का सांत्वना दी (म.श.६२)। गांधारी ने रणक्षेत्र में आ कर, पुत्र । गांधार देश के राजाओं को, विशेषतः शकुनि को पुत्रशोक से संतप्त हो, सब के शव (प्रेत) दिखाये । कृष्ण यह नामप्रयुक्त होता था (गांधार नमजित् देखिये)। को शाप दिया कि, छत्तीस वर्षों में तेरे कुल का क्षय होगा। . गांधार नग्नजित्-एक गांधार राजा । इसे सोम- | तब कृष्ण ने हँस कर कहा कि, यह मुझे मालूम ही था विषयक ज्ञान प्राप्त था (ऐ, ब्रा. ७. ३४)। शतपथ | (म.स्त्री.२६.४१-४३)। इसके बाद व्यास आदि लोगों ने ब्राह्मण में इसका अथवा स्वर्जिन्नानजित् का, ननजित् | इसका सांत्वन किया। दुर्योधनवध तथा दुःशासन का रक्तऐसा उल्लेख मिलता है। एक बार, प्राण शब्द के अर्थ के | प्राशन, इस विषय पर भीम से इसका संवाद हुआ। तब संबंध में दिया हुआ इसका मत, राजन्यबंधु होने के | भीमसेन ने कहा, 'दुःशासन का लहू दांत तथा ओठों के कारण अस्वीकृत हुआ (८.१.४.१०)। सायणाचार्य | अंदर बिल्कुल ही नहीं गया' (म. स्त्री. १४.१४)। एक गांधार तथा नगजित् को दो पृथक् व्यक्ति मानते हैं (ऐ. ब्रा. बार इसकी संतापपूर्ण दृष्टि धर्म के पैरों की अंगुलियों पर भाष्य.)। पड़ी । इससे उसकी अंगुलियों के अत्यंत सुंदर नख विद्रूप गांधारकायन-अगस्त्यकुल का एक गोत्रकार। । हो गये (म. स्त्री. १५.७)। द्रौपदी तथा कुन्ती अपने १८७ Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गांधारी अपने पुत्रों के लिये शोक कर रहीं थीं। इसने उनकी सांत्वना की (म. स्त्री. १५-१७ ) । इसके बाद, गांधारी धृतराष्ट्र के साथ पांडवों के पास ही रहने लगी | युधिष्ठिर अत्यंत सुस्वभावी था । इन्हें किसी भी चीज की कमी नहीं होने देता था । किंतु भीम हमेशा कठोर भाषण करता था। इससे वैराग्य उत्पन हो कर, गांधारी धृतराष्ट्र, कुन्ती तथा विदुर के साथ वन में गई । वहाँ इसने पति के साथ देहत्याग किया ( भा. १.१३.२७ ९.२२ - २६; म. आश्र. ४५ ) । प्राचीन चरित्रकोश २. क्रोष्टु की पत्नी । इसे सुमित्र अथवा अनमित्र नामक एक पुत्र था (ब्रह्म. १४.२; ३४; ह. वं. २.३४.१ ) । ३. अजमीढ़ की तीसरी पत्नी । गार्गी वाचक्नवी-वचक्नु ऋषि की कन्या होने के कारण, इसे गार्गी वाचक्री कहते है। यह अत्यंत ब्रह्म निष्ठ थी तथा परमहंस की तरह रहती थी । दैवराति जनक की सभा में याशवल्क्य से इसका बाद हुआ (बृ. उ. ३.६.१; ८.१; आव. गृ. ३.४.४; सां. गृ. ४.१०१ ५. कृष्णपत्नी । इसने अंत में अभिप्रवेश किया (म. अथर्वपरि. ४३.४.२२) ऋग्वेदियों के ब्रह्मवशगतर्पण मो. ७) । में इसका नामोल्लेख आता है । ४. कश्यप तथा सुरभि की कन्या । । गार्गीय - भृगुकूल का गोत्रकार । गायत्री - एक देवपत्नी पुराने काल में चाक्षुष मन्वन्तर में ब्रह्मदेव ने यज्ञ प्रारंभ किया। शंकर, विष्णु आदि देव तथा भृगु आदि ऋषि आये थे । यज्ञदीक्षा के लिये, ब्रह्माजी ने अपने स्वरा नामक पत्नी को पुकारा । वह किसी कार्य में मन थी । इधर मुहूर्त टल रहा था। इसलिये इन्हों ने गायत्री को पुकारा। तब यह आई तथा स्वरा के स्थान पर बैठी। गार्ग्य गायत्री को वेदमाता कहा है ( म. आश्र. ९९.२४ ) । गायत्री को सूर्यमंत्र मान कर उसे सावित्री कहते हैं। (बृ. उ. ५.१४.५) उ. बा. को गायत्रोपनिषद कहते हैं (जै. उ. बा. ४.१७ ) । इस ग्रंथ में गायत्र साम की अत्यंत प्रशंसा की है। बाद में स्वरा मंडप में आई । अपने स्थान पर गायत्री को बैठी देख कर, क्रोध से उसने सब को जद हो जाने का शाप दिया। तब गायत्री ने भी उसे वही शाप दिया। बाद में, देव जड़ अर्थात् जलरूप रहें, तथा प्रत्येक नदी देवता हो, ऐसा तब हुआ सावित्री तथा गायत्री पश्चिमवाहिनी नदीयाँ बनीं। विष्णु कृष्णा का तथा शंभर वेण्या का स्वामी बना (पद्म उ. ११२ ) । सावित्री ने देवों को शाप दिया। तब गायत्री ने यह बताया कि, शाप का उपयोग कैसे किया जावे (पद्म. सृ. १७ ) । पश्चात् ब्रह्मदेव ने एक स्त्री, यशकार्य के लिये खाने की आज्ञा, इन्द्र को दी । इन्द्र ने,एक अधिराज की (ग्वाले की ) कन्या उठा लाई । उसकी स्थापना ब्रह्मदेव के पास की ब्रह्मदेव ने इसका गांधर्वविधि से स्वीकार किया (पद्म. स. १६ - १७; सावित्री, बुड़िल तथा अश्वपति २ देखिये ) । । गायन-भृगुकुलोपन एक गोत्रकार गार्ग-- विश्वामित्र का पुत्र । गार्गिहर- गार्ग्यहरि का पाठभेद । गार्ग्य-- एक ऋषिपरंपरा । गर्ग परंपरा के लोग गार्ग्य नाम से प्रथित हुवे । वेद, प्रतिशाख्य, यज्ञ, व्याकरण, ज्योतिष, धर्मशास्त्र आदि विषय में उनके ग्रंथ तथा विचार उपलब्ध है। यह कार्य एक का नहीं। परंपरा में आये अनेक शिष्यप्रशिष्य द्वारा यह संपन्न हुआ, इस में संदेह नही यहाँ केवल निर्देश किये हैं। फाल तथा भिन्नता प्रकट करना अशक्य है । एक व्याकरणकार पाणिनि ने तीन बार इसका उल्लेख किया है (पा. सु. ७. २. ९९ ८ २. २०१ ४. ६७ ) । ऋक्प्रातिशाख्य तथां वाजसनेय प्रातिशाख्य में भी गार्ग्यमत उद्धृत किया है (ऋ. प्रा. १३.३० ) । निरुक्त में भी गार्ग्यमत है ( नि. १.३.१२; ३.१३ ) । यास्क तथा रथीतर के साथ इसका निर्देश- है ( बृहद्देवता १. २६ ) । सामवेद का पदपाठ गार्ग्यविरचित है। सामवेद परंपरा में शर्वदत्त का गार्ग्य पैतृक नाम है । सामवेदियों के उपाकर्माग तर्पण में इसका नाम है (जैमिनि देखिये) । एक गृह्यकर्मविशारद । शांत्युदक तथा मधुपर्क विषयक इसके मत उपलब्ध है ( कौ. सू. ९. १०; १३. ७; १७. २७ )। गायत्री मंत्र तथा गायत्री छंद की प्रशंसा ब्राह्मण, उपनिषद तथा महाभारतादि पुराणों में प्राप्त है ( छां.उ. ३. १२.१ म. व. ९९.२२ - २७ ११५.२७.२९ ) । एक तत्त्वज्ञ | यह गौतम का शिष्य था । इसका शिष्य अग्निवेश्य (बृ. उ. ४. ६. २)। १८८ Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गार्ग्य प्राचीन चरित्रकोश गार्दभ एक ज्योतिषी के नाते हेमाद्रि ने इसका निर्देश किया | यह देखने का उसने प्रयत्न किया । परंतु बारह वर्ष की है (C. C)। मेरु की कर्णिका ऊर्ध्ववेणीकृत आकार की है ( वायु. ३४.६३ ), यह ज्योतिषशास्त्रीय सिद्धान्त इसने प्रस्थापित किया । कड़ी तपश्चर्या के कारण, इसका वीर्य स्खलित नहीं हुआ। इससे सबकी कल्पना ऐसी हुई कि, यह नपुंसक है । बाद में दक्षिण में जा कर इसने शंकर की आराधना की तथा यह अंगिराकुल का एक गोत्रकार तथा मंत्रकार है । यादवों का पराभव करनेवाला पुत्र माँग लिया । तब ग्वालपरंतु ऋग्वेद में गाय का मंत्र नही है । कन्या गोपाली से इसे कालयवन नामक महापराक्रमी पुत्र हुआ (विष्णु. ५.२३; ह. वं. १.३५.१२ ) । अन्य कई स्थानों में इस कथा का उल्लेख है ( कालयवन देखिये) । इसे क्वचित् गर्ग भी कहा गया है। इसे यादवों का उपाध्याय कहा है । यादवों के उपाध्याय को गर्ग तथा कुलनाम गार्ग्य दोनों लगाते थे ( वृद्धगर्ग तथा वृद्धकन्या देखिये) । इसने धर्म को धर्मरहस्य बताया ( म. अनु. १९०.९ कुं.)। । श्राद्ध, धर्मशास्त्रकार — वृद्धयाज्ञवल्क्य का एक श्लोक विश्व रूपरचित विवरण नामक ग्रंथ में है । उसमें उल्लेख है कि यह धर्मशास्त्रकार है (१. ४ - ५ ) । गाय के ग्रंथ का एक वचन लिया गया है, उससे पता चलता है कि, गार्ग्य का धर्मशास्त्र पर कोई ग्रंथ अवश्य उपलब्ध होगा अपरार्क, स्मृतिचन्द्रिका, मिताक्षरा आदि ग्रंथों में प्रायश्चित्त तथा आह्निक आदि विषयों पर इसके उद्धरण लिये गये हैं । पाराशरधर्मसूत्र में भी यह धर्मशास्त्रकार है, यों उल्लेख है । अपरार्क में इसके ग्रंथ से ज्योतिषविषयक श्लोक भी लिये गये हैं । गर्गसंहिता के ज्योतिषविषयक श्लोक भी प्राप्त हुए हैं। स्मृतिचन्द्रिका में ज्योतिर्गार्ग्य एवं बृहद्गार्ग्य इन दो ग्रंथों का उल्लेख हुआ है। नित्याचारप्रदीप में गर्ग तथा गार्ग्य नामक दो भिन्न स्मृतिकारों का उल्लेख हैं । ४. (सो. काश्य.) । यह वायु के मतानुसार वेणुहोत्र - पुत्र । भर्ग तथा भार्ग इसके नामांतर है । शर्वदत्त गार्ग्य, शिशिरायण गार्ग्य, तथा सौर्याणि गार्ग्य देखिये । गार्ग्य बालाकि – गर्गगोत्रीय बलाक नामक ऋषि का पुत्र । अपने ब्रह्मज्ञान के प्रति अभिमानी बन कर, काफी स्थानो पर इसने अपने ज्ञान की प्रशंसा की। एकबार काशिराज अजातशत्रु के पास जा कर इसने उससे कहा, '# तुम्हें बताता हूँ कि ब्रह्म क्या है ' । अजातशत्रु ने उस ज्ञान के बदले इसे हजार गायें देने का निश्चय किया । तब बालाकि ने प्रतिपादन प्रारंभ किया, परंतु अजातशत्रु ने इसके सब तत्त्वों का खंडन किया। तब अपने गर्व के प्रति लज्जित हो कर इसने अजातशत्रु को ब्रह्मज्ञानकथन की प्रार्थना * पूरुवंश के गर्ग तथा शिनि की संतति को गार्ग्य यह सामान्यनाम दिया जाता था । यह क्षत्रिय थे, परंतु तप से वे गार्ग्य तथा शैन्य नाम के ब्राह्मण हो गये थे ( भा. ९.२१.१९; विष्णु. ४. १९.९ ) । केकयदेशाधिपति युधाजित् राजा का गार्ग्य नामक पुरोहित था । यह युधाजित् राजा की ओर से गंधर्वदेश जीतने के लिये राम के पास आया था । उसने तक्ष तथा पुष्कलों की सहायता से यह कार्य पूर्ण किया ( वा. रा. यु. १०० ) । २. एक ऋषि । रुद्र ने ययाति को एक सोने का रथ दिया । वह रथ उसके कुल में प्रथम जनमेजय पारिक्षित तक था । परंतु गार्ग्य के एक अल्पवयीन पुत्र ने उसे कुछ कहा, तब जनमेजय ने उसका वध कर दिया। तब गार्ग्य ने उसे शाप दिया तथा वह रथ जनमेजय के पास से चेदिपति बसु के पास गया। उसके बाद, वह रथ जरासंध, भीम तथा अंत में कृष्ण पास गया (वायु. ९३.२१२७; ह. वं. १.३० ) । ३. विश्वामित्र के पुत्रों में से एक का नाम (म. अनु. ७.५५. कुं.)। ४. एक ऋषि । वृकदेवी नामक त्रिगर्त राजा की कन्या शिशिरायण गार्ग्य को दी थी । गार्ग्य पुरुष है अथवा नहीं, १८९ । तत्र अजातशत्रु ने कहा, 'अध्यापन क्षात्रधर्म के विरुद्ध है । इसलिये मैं इस राजसिंहासन का त्याग करता हूँ। तुम इसका स्वीकार करो, तब मैं अध्यापन योग्य बनूंगा'। ऐसा करने के बाद, अजातशत्रु ने बालाकि को ब्रह्मविद्या प्रदान की ( कौ. उ. ४.१) । इसे दृप्तबला कि भी कहते थे ( श. बा. १४.५.१ ) । गार्ग्यहरि- - अंगिराकुल का गोत्रकार । गार्गिहर पाठभेद है । गाययण - उद्दालकायन का शिष्य । इसका शिष्य पाराशर्यायण (बृ. उ. ४.६.२)। २. भृगुकुल का एक गोत्रकार गाग्ययणि-गांग्यायनि देखिये । गार्दभि -- विश्वामित्र के पुत्रों में से एक। पाठभेदगर्दभि ( म. अनु. ७.५९ कुं. ) । Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गार्दभि प्राचीन चरित्रकोश गिरिक्षित् २. भृगुकुल का गोत्रकार। बेचने का विचार रहित कर के, वह स्वगृह लौट आई। गार्हायण-भृगकुलोत्पन्न एक गोत्रकार ऋषि । तबसे उसके इस पुत्र का नाम गालव प्रचलित हुआ (ह. गाल-एक राजा। इसने नीलपर्वत पर एक मंदिर | व. १.१२, वायु. ८९.८३-९२; ब्रह्म. ७.१०२-१०९; बनवाया था। इन्द्रद्युम्न ने जगन्नाथक्षेत्र इसके काबू में | म. अनु. ७.५२ कु. ब्रह्मांड. ३.६३.८६-८९;६६.७२)। दिया (स्कन्द. २.२.२६)। ४. कुंतल राजा का पुरोहित । अरिष्टाध्याय सुना कर इसने राजा को बताया, 'जल्द ही तुम्हारी मृत्यु का योग गालव--विदर्भीकौंडिन्य का शिष्य । इसका शिष्य है। अतः राजकन्या चंपकमालिनी का चन्द्रहास से कुमारहारित (बृ. उ. २.६.३, ४.६.३)। विवाह करने की संमति राजा ने दी (जै. अ. ५१)। २. विश्वामित्र का एक शिष्य (म. उ. १०४-११६)। ५. सावर्णि मन्वन्तर में होनेवाला सप्तर्षियों में से एक गुरु की अत्युत्कृष्ट सेवा कर के, इसने पूर्ण कृपा संपादन | (भा. ८.१३.१५)। की। इसके द्वारा विशेष आग्रह किये जाने के कारण, । ६. अंगिराकुल का एक गोत्रकार। विश्वामित्र ने किंचित् रोष से आठसौ श्यामकर्ण अश्व गुरु ७. एक व्याकरणकार (नि. ४.३; पा. सु. ६.३.६१; दक्षिणा के रूप में माँगे (म.उ. १०४.२६)। यह ७.१.७४; ३.९९; ८.४.६७)। यह, राजा ब्रह्मदत्त का सुन कर, यह अत्यंत भयभीत हुआ। इसने विष्णु की मित्र था। यह बड़ा योगाचार्य था। इसने क्रमशिक्षा का आराधना की। इसकी निस्सीम भक्ति से तुष्ट हो कर, विष्णु ने गरुड़ को इसके पास भेजा, तथा इसको मदद करने ग्रथन किया । लोगों में क्रमपाठ का प्रचार किया (ह..वं. के लिये कहा। गरुड़ गालव के पास गया । इसकी इच्छा १.२०.१३, २४.३२) । बाभ्रव्य पांचाल (ल्य) ने जान कर, अश्व धूंढने के लिये ये दोनों बाहर निकले । जाते क्रमपाठ निर्माण किया। नंतर गालव ने शिक्षाग्रंथ का जाते गरुड़ इसे ययाति के पास ले गया। उस समय निर्माण किया, एवं क्रम का प्रचार किया (म. शां. ३३०. ययाति की सांपत्तिक स्थिति अच्छी नहीं थी। वह स्वयं ३७-३८)। अरण्य में रहता था। गालव की इच्छापूर्ति के लिये ___ बाभ्रव्य पांचाल तथा गालव भिन्न व्यक्ति है । ऋक्प्रातिआवश्यक द्रव्य भी उसके पास नहीं था, फिर आठसौ शाख्य तथा पाणिनि इन्हें अलंग व्यक्ति मानते हैं.। ब्रह्मअश्वप्राप्ति तो असंभव ही थी। फिर भी अपनी कन्या यज्ञांगतर्पण में गालव का नाम नहीं हैं किंतु बाभ्रव्य का नाम माधवी, उसके होनेवाले पुत्रों पर अधिकार रख कर, ययाति मिलता है (आश्वलायनगृह्यसूत्र)। मत्स्य में सुबालक ने इसे दी, तथा उसके सहाय्य से इसने गुरुदक्षिणा की पूर्ति | पाठ है । यह मंत्रिपुत्र कहा गया है (मत्स्य. २०.२४; बाभ्रव्य पांचाल देखिये)। की (म. उ. १०४-११७; माधवी देखिये)। इसका आश्रम जयपुर से तीन मील की दूरी पर था। ८. वायु के मतानुसार व्यास की यजुःशिष्यपरंपरा का याज्ञवल्क्य का वाजसनेय शिष्य (व्यास देखिये )। इसका दूसरा आश्रम चित्रकूट पर्वत पर था। इसकी स्मृति का हेमाद्रि ने उल्लेख किया है। ३. विश्वामित्र का पुत्र । सत्यव्रत राजा के निंद्य आचरण से सर्वत्र अकाल पड गया। उस समय अपने तीन पुत्र गालवि--अंगिराकुल का गोत्रकार । इसे गालविन् तथा पत्नी के उदरनिर्वाह का कुछ भी विचार न करते हुए, नामांतर है। विश्वामित्र तपश्चर्या करने के लिये चला गया। काफी अर्से गावल्याण-संजय का पैतृक नाम (संजय ८ देखिये)। तक इसकी पत्नी ने कुछ उपाययोजना कर के मुश्किल से गिरिका-एक पर्वतकन्या। कोलाहल पर्वत को बच्चो को जिलाया। एक बार उदरनिर्वाह के लिये कुछ भी शुक्तिमती नदी से जुडवाँ अपत्य हुए। उनमें से यह प्राप्त न हआ। बच्चे भूख से तिलमिला कर रोने लगे। गिरिका नामक कन्या शुक्तिमती नदी ने उपरिचर वस् मजबूर हो कर, इस पुत्र के गले को दर्भरज्जू से बाँध कर को दी। बाद में राजा ने इस के साथ विवाह किया। उससे वह इसे बेचने के लिये जाने लगी। इतने में राह में इसे बृहद्रथ आदि छः पुत्र, तथा काली अथवा मत्स्यगंधिनी सूर्यवंशीय इक्ष्वाकुकुलोत्पन्न सत्यव्रत राजा उससे मिला । | नामक कन्या हुई (म. आ. ५७)। उसके द्वारा पूछे जाने पर उसने संपूर्ण हकीकत बताई । तब गिरिक्षत्र--(सो. वृष्णि.) विष्णुमत में श्वफकपुत्र । सत्यव्रत ने कहा, "विश्वामित्र के आने तक रोज थोड़ा माँस गिरिक्षित्-दुर्गहपुत्र । इसका पुत्र पुरुकुत्स (ऋ.४. मैं तुम्हें दूँगा । उस पर अपना निर्वाह करो"। तब पुत्र को | ४२.८)। इसी कुल में त्रसदस्यु हुआ (ऋ. ५.३३.८) १९० Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन चरित्रकोश गिरिक्षित् गिरिक्षित् औच्चामन्यव – एक ऋषि । इसका अभि. प्रतारिन् काक्षसेनि के साथ गायत्रसाम के बारे में संवाद हुआ था (पं. ब्रा. १०.५.७ ) । गिरिज बाभ्रव्य - एक ऋषि । सत्र के यज्ञीय पशु के अवयव सब ऋत्विजों में किस प्रकार बाँट दिये जावें, इसकी जानकारी इसे एक गंधर्व से मिली। वह इसने सब को बताई (ऐ. बा. ७.१ ) । इसके पहले यह जानकारी देवभाग को थी, परंतु मृत्यु तक वह उसने किसी को न बताई | गिरिश - ऋषभ नामक शिवावतार का शिष्य । गिरिशर्मन् — शेषावतार देवदत्त का पुत्र । इसने बड़े बड़े विद्वानों को जीता था । अंत में यह शंकर का परमभक्त हुआ (भवि. प्रति. ४.११ ) । गिरिशर्मन् कांठेविद्धि--ब्रह्मवृद्धि का शिष्य ( वं. ब्रा. १) । को गीतविद्याधर - - एक प्रसिद्ध गंधर्व । पुलस्त्य इसके गायन से तकलीफ होने लगी । सूअर का स्वाँग ले कर इसने उसे और भी तंग किया । इसलिये शाप से उसने इसे सूअर बना दिया । उःशाप माँगने पर, इक्ष्वाकु के द्वारा मारे जाने पर पूर्ववत बनोगे, ऐसा उःशाप दिया । अनंतर यह पूर्ववत् हुआ (पद्म. सृ. ४६ ) । गुंग--एक देश और लोग । ऋग्वेद में ये अतिथिग्व के मित्र बन कर आये हैं (ऋ. १०.४८.८ ) । गुणकेशी -- इंद्रसारथि मातलि तथा उसकी पत्नी सुधर्मा की कन्या । ढूँढने पर भी इसके लिये योग्य वर नहीं मिला । अंत में नागलोक के चिकुरनाग के सुमुख नामक पुत्र को इसने पसंद किया । उसका गरुड से वैर था । मातलि सुमुख को इंद्र के पास ले गया। वहाँ उसे अमृत पिला कर अमरत्व प्रदान किया । विष्णु ने गरुड को समझा कर उनका वैरभाव नष्ट किया, तथा सुमुख से गुणकेशी का विवाह करवाया म. उ. ९५.१०३) । गुह गुणनिधि - श्रोत्रिय यज्ञदत्त का पुत्र । यह अत्यंत दुर्गुणी तथा व्यसनी था । शिवपूजा देखने के कारण, तथा शिवदीप की बाती प्रज्वलित करने के कारण, यह मुक्त हुआ (शिव. रुद्र. स. १८ ) । तदनंतर कुबेर ने इसे उत्तर दिशा का अधिपति नियुक्त किया (स्कंद. ४. १. १३) । २. पुलह तथा श्वेता का पुत्र । गुप्त -- वैपश्चित दार्दजयंति गुप्त लौहित्य यह इसका पूरा नाम है (जै. उ. बा. ३.४२ ) । गुप्त इसका सही नाम है। बाकी तीनों पैतृक नाम हैं । गुप्तक-- पांडवों के समकालीन सिंधु देश का राजा । गुरु बृहस्पति का नामांतर । मरीचि प्रजापति की सुरूपा नामक पुत्री तथा अंगिरस की स्त्री । देवाचार्य बृहस्पति उसका पुत्र था । इसे ही गुरु कहते थे । यह महाबुद्धिमान् तथा वेदवेदाङ्गपारंगत था ( विष्णुधर्म. १. १०६; बृहस्पति देखिये ) | २. (सो. पुरूरवस् . ) भागवत मतानुसार संकृतिपुत्र । मत्स्य में इसे गुरुधि, विष्णु में रुचिरधि तथा वायु में गुरुवीर्य कहा गया है। गुरुवीत तथा गौरवीति यही रहा होगा। अंगिराकुल का गोत्रकार भी यही होगा ( सांकृति देखिये) । ३. भौत्य मनु का पुत्र । गुरुक्षेप--(सू. इ. भविष्य . ) विष्णुमत में बृहत्क्षण पुत्र । गुरुधि - (सो. पुरूरवस्.) मत्स्य मतानुसार संकृतिपौत्र तथा महायशस् का पुत्र ( गुरु २. देखिये) । गुरुभार -- गरुडपुत्र । गुरुवीत -- अंगिराकुल का मंत्रकार ( गुरु २. देखिये) । गुरुवीर्य - (सो. पुरूरवस्.) वायु के मत में सांकृतिपुत्र ( गुरु २. देखिये ) | गुर्वक्ष - बलि दैत्यों के सौ पुत्रों में से एक । गुह — कार्तिकेय का नाम ( भा. ३.१.२२ ) । २. शंगवेर नामक नगरी का किराताधिपति । यह दशरथ का परममित्र था । राम अयोध्या से निकल कर दंडकारण्य जा रहा था, तब एक रात गुह के घर रहा था। उस समय गुह ने उसका अच्छा आदरातिथ्य किया । राम के वनवास के बारह वर्ष वहीं व्यतीत हो, ऐसी प्रार्थना गुह ने राम से की। गुह द्वारा लाये गये . फलादिकों को स्पर्श कर, राम ने दर्शाया कि, वह परान्नग्रहण नहीं करता । राम ने वहाँ रहना भी अमान्य कर दिया। उस दिन, राम तथा सीता दर्भ बिछा कर सोये, तथा गुह राम की रक्षा के लिये खड़ा रहा। उस समय राम के विचित्र प्रारब्ध के बारे में इसके मन में विचार आ रहे थे । इस विषय पर इसका लक्ष्मण से संभाषण भी हुआ ( वा. रा. अयो. गुणवती -- सत्राजित् देखिये । गुणाकर- प्रक्षद्वीप का राजा । इसकी पत्नी सुशीला । ५०.५१ ) । दूसरे दिन गुह ने राम की आज्ञानुसार गंगा के इसकी कन्या सुलोचना (पद्म, क्रि. ५) । दक्षिण तीर पर उन्हें पहुँचा दिया ( वा. रा. अयो. ५२ ) । १९१ Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुह प्राचीन चरित्रकोश गृत्समद राम चित्रकूटपर्वत पर था। भरत बड़ी सेना के | १२)। (३) गृत्समद के घर में अकेले आये इंद्र को साथ उसे वापस लाने के लिये गया। उस समय भरत | देख कर शत्रुओं ने घेरा । तब इंद्र गृत्समद का रूप ले कर रामनाशार्थ जा रहा है, इस संदेहवश इसने अपनी | भाग गया। घर के गृत्समद को उन्हों ने इंद्र समझ कर सेना सज की । भरत का सत्य हेतु ज्ञात होते ही, इसने | पकड़ लिया। तब इसने यह सूक्त कह कर इंद्र का वर्णन उसे ससैन्य गंगापार पहुँचाया। भरत के साथ यह स्वयं | किया (ऋ. २.१२)। चित्रकूट तक गया था (वा. रा. अयो. ८४-८७)। । ऋग्वेद के दूसरे मंडल में गृत्समद का बार बार उल्लेख गुहवासिन्- वाराहकल्प के वैवस्वत् मन्वन्तर के | आता है (ऋ. २.४.९; १९.८ इ.)। इसे शुनहोत्र भी सत्रहवें चौकडी का यह शंकरावतार है। इसका स्थल कहा है (ऋ. २.१८.६, ४१.१४; १७)। ऋग्वेद के हिमालय का महोत्तंगक्षेत्र है। इसके निम्नलिखित चार दूसरे मंडल की ऋचाओं का उल्लेख गामिद ऋचा के पुत्र थे:-उतथ्य, वामदेव, महायोग तथा महाबल नाम से प्राप्य है (सां. आ. २२.४; २८.२)। (शिव. शत. ५)। । यह भृगुकुल का गोत्रकार, प्रवर तथा मंत्रकार है। गृत्स--एक महासुर । इसने अपने मित्र भृगु के गृत्समद भार्गव शौनक ऋग्वेद का सूक्तद्रष्टा है (ऋ.२.१पत्नी का अपहरण किया। उसने इसे शाप दिया । शाप | ३८-४३; ९.८६, ४६-४८ )। एक बार चाक्षुष मनु के कारण यह अलर्क नाम का कृमि बन गया। यह का पुत्र वरिष्ठ इंद्र के सहस्त्रवार्षिक सत्र में आया। साम कृमि अष्टपद, तीक्ष्णदंष्ट्र तथा सूचिसमान तीक्ष्णकेशयुक्त अशुद्ध गाने के लिये इसे दोष दे कर, रुक्ष अरण्य में कर था । कर्ण के अंक पर परशुराम निद्रित था । उस समय, पशु बनने का शाप वरिष्ठ इसे दिया। परंतु शंकर की इस कृमि ने कर्ण की जाँच में छेद किया। जाँघ से निकले | कृपा से यह मुक्त हुआ (म. अनु. १८.२०-२८)। . रक्त के स्पर्श से, परशुराम की नींद खुल गयी। गृसमद का भृगुवंश में उल्लेख है (मत्स्य. १९५.४४परशुराम के दर्शन से अलर्क शापमुक्त हो गया। (म. | ४५)। गृत्समद का पैतृक नाम शौनक है। यह शुनहोत्र शां. ३.१२-२३)। का औरस पुत्र तथा शुनक का दत्तक पुत्र था। अंतः प्रथम गृत्समद-यह एक व्यक्ति का तथा कुल का भी यह आंगिरस कुल में था, एवं बाद में भृगुकुल में गया नाम है। यह अंगिरस् कुल के शुनहोत्र का पुत्र हैं | ( (ऋष्यनुक्रमणी २) (सर्वानुक्रमणी देखिये)। यह बाद में भार्गव हो गया। २. एक ऋाष । भृगु क कहन पर ब्राहाण बन वातहव्य गृत्समद शब्द की व्युत्पत्ति, ऐतरेय आरण्यक में आयी | का पुत्र । इसका पुत्र सुचेतस् ।' है। गृत्स का अर्थ है प्राण, तथा मद का अर्थ है अपान । ३. दंडकारण्य में रहनेवाला एक ऋषि । इसके सौ इसमें प्राणापानों का समुच्चय था, इसलिये इसे गृत्समद पुत्र थे (अ. रा. ८)। कहते है (ऐ. आ. २.२.१)। ४. (सौ. क्षत्र.) वायु तथा विष्णु मतानुसार सुनयह तथा इसके कुल के व्यक्ति, ऋग्वेद के दूसरे मंडल | होत्रपुत्र । आयुकुल के सुहोत्र वा सुतहोत्र राजा के के द्रष्टाएँ हैं (ऐ. ब्रा. ५.२.४; ऐ. आ. २.२.१; सर्वानु- | तान पुत्रा मकानष्ठ । इस शुनक नामक पुत्र था । क्रमणी देखिये)। ११.३२.३४; ह. वं. १.२९.६७)। __ एक बार तपप्रभाव से इसे इंद्र का स्वरूप प्राप्त हुआ। ५. भीष्म शरपंजर में पडे थे, तब उनके पास आया इस बारे में तीन आख्यायिकाएँ प्रसिद्ध है। (१)| हुआ एक ऋषि (भा. १.९.७)। धुनि तथा चुमुरि ने इसे इंद्र समझ कर घेर लिया। 'मैं ६. इंद्र का मुकुंदा से उत्पन्न पुत्र । एक बार रुक्मांगद इंद्र नहीं हूँ,' यह बताने के लिये इसने इंद्र का उत्कृष्ट | बाहर गया था, तब उसकी पत्नी मुकंदा काममोहित हुई। वर्णन करनेवाला ‘स जनास इंद्रः' (ऋ. २.१२), यह | इंद्र ने रुक्मांगद का रूप ले उससे संभोग किया । उसे गर्भ टेकयुक्त सूक्त कहना प्रारंभ किया । (२) इंद्रादिक देवता रहा तथा पुत्र उत्पन्न हुआ। यही गृत्समद था। आगे चल वैन्य के यज्ञ में गये। वहाँ गृत्समद भी था । दैत्य इंद्र का | कर, यह बड़ा विद्वान हुआ। यह वादविवाद में किसी से वध करने के हेतु से वहाँ आये। इंद्र गृत्समद का रूप ले | पराजित नहीं होता था। एक बार मगध देश के राजा के कर भाग गया। असुरों ने गृत्समद को घेरा । उस समय एक | घर, वसिष्ठादि मुनि श्राद्ध के लिये एकत्रित हुए । तब अत्रि सूना से इसने इंद्र का उत्कृष्ट वर्णन किया (ऋ. २. ने तुम पंक्तिपावन नहीं हो, कह कर इसका उपहास किया। । सखिय)। Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गृत्समद प्राचीन चरित्रकोश गोधा माता के पास आ कर, इसने पूछताछ की। तब मुकुंदा ने | गोकर्ण-एक शिवावतार । सातवें वाराहकल्प के . इसका जन्मवृत्त का इसे कथन किया। इसने मुकुंदा को | वैवस्वत मन्वन्तर के सोलहवें चौखट में गोकर्ण नामक शिवाशाप दिया 'तुम कंटकवृक्ष बनोगी। उसने भी उलटा। वतार हुआ। जिस वन में यह निवास करता था, इसका शाप दिया 'तुम्हें दैत्य पुत्र होगा' बाद में 'गणानां | नाम भी गोकर्ण हो गया। इसके चार पुत्र थे:-कश्यप, त्वा' मंत्र का अनुष्ठान कर के, इसने गणपति को प्रसन्न | उशनस् , च्यवन एवं बृहस्पति (शिव. शत. ५)। कर ब्राह्मण्य भी प्राप्त किया (गणेश. १.३७)। २. आत्मदेव देखिये। गृध्र-कृष्ण को मित्रविंदा से उत्पन्न पुत्र (भा. १०. गोखल-विष्णुमतानुसार व्यास की ऋक् शिष्य परंपरा के वेदमित्र का, एवं भागवत, वायु तथा ब्रह्मांड मतानुसार गृधिका--कश्यप तथा ताम्रा की कन्या । देवमित्र का शिष्य । भागवत में गोखल्य पाठ है। २. अरुण की पत्नी । उसके पुत्र संपाति तथा जटायु | गोखल्य-शाकल्य ऋषि का शिष्य । उसने इससे ऋग्वेद की एक शाखा का अध्ययन करवाया (भा. १२. ब्रह्माण्ड. ३.७.४४६)। ६.५७; गोखल देखिये)। गृहपति--एक ऋषि । नर्मदा के किनारे नर्मपुर में | गोणायनि-गोणीपति का पाठभेद । विश्वानर नामक एक मुनि ब्रह्मचर्य से वेदाध्ययन कर के रहता था । गोत्र शांडिल्य । पत्नी का नाम शुचिष्मती । यह गोणीपति-अंगिराकुल का गोत्रकार । अत्यंत आचारशील था। इसे पुत्र न था। स्त्री की इच्छा २. अत्रिकुल का गोत्रकार । नुसार इसने काशी जा कर वीरेश्वर के पास कड़ी तपश्चर्या गोतम-कश्यपकुलोत्पन्न एक ऋषि (भवि. प्रति. की । एक दिन इसे ईश्वर का प्रत्यक्ष दर्शन हुआ । अभि ४.२१)। २. व्यास देखिये। . लाषाष्टक कहने पर, 'जल्द ही पुत्र होगा'; ऐसा वर इसे प्राप्त या। बाद में विवाहानि से गोतम राहूगण-एक ऋषि । ऋग्वेद में इसके बहुत नवम वर्ष चालू था, नारद ने आ कर बताया कि इसे | सूक्त है (ऋ. १.७४-९३; ९.३१; ६७.७-९, १०. बारहवे मास में विद्युत् अथवा अग्नि से भय है। इसने १३७.३)। इसका अनेक स्थानों पर उल्लेख है (ऋ. तप कर के शंकर को प्रसन्न किया। शंकर ने इसे अग्नि । १.६२.१३; ७८.२, २, ५)। अंगिरस् से इसका बार यह उपाधि दी। इसके द्वारा काशी में स्थापित लिंग को बार संबंध आता है (ऋ. १.६२.१, ७१.२)। इसका अनीश्वर नाम है (शिव. शत. १५)। राहूगण यह पैतृक नाम ऋग्वेद एवं अन्यत्र भी मिलता है . २. अग्नि गृहपति सहरपुत्र देखिये। (ऋ. १.७८.५; श. ब्रा. १.४.१.१०; ११.४.३.२०)। ' - गृहेषु-धर्मसावर्णि मनु का पुत्र । यह माथव विदेह का पुरोहित था (श. ब्रा. १.४.१.१०)। वैदेह जनक तथा याज्ञवल्क्य का यह समकालीन था । एक गैरिक्षित-त्रसदस्यु तथा यास्क का पैतृक नाम । स्तोम का यह कर्ता है (श. ब्रा. १३.५.१.१; आश्व. श्री. गो-मानस नामक पितरों की कन्या। ९.५.६)। अन्यत्र भी इसका उल्लेख है (अ. वे. ४. २. (सा. पूरु.) ब्रह्मदत्त राजा का भाया तथा दवल | २९.६; १८.३.१६; बृ. उ. २.२.६ )। इसे वामदेव तथा ऋषि की कन्या । इसे सरस्वती अथवा सन्नति भी कहते हैं। | नोधस नामक दो पुत्र थे (आश्व. श्री. १२.१०)। ३. शमीक ऋषि की भार्या । इसका पुत्र शूगिन् ऋषि ।। इसका भद्र नामक एक साम है । इस साम के ४. वरुण का सेनापति (वा. रा. उ. २३)। फलस्वरूप गौतम को श्रेष्ठपद प्राप्त हुआ। इसी कारण, ५. इसे गौ नामांतर प्राप्त है । विधिमानसपुत्र पुलस्त्य | इसके पहले के तथा बाद के लोग गोतम नाम से प्रसिद्ध ऋषि से इसे वैश्रवण नामक सामर्थ्यसंपन्न पुत्र हुआ | हएँ (पं. ब्रा. १३.१२.६-८)। इसका गौतम नामक भी (म. व. २५८.१२)। एक साम है (पं. बा. १२.३.१४)। ६. शुक्र की पत्नी। 'गोतमीपुत्र-भारद्वाजीपुत्र का शिष्य (बृ. उ. ७. यति देखिये। ६.५.१)। गो आंगिरस--एक सानद्रष्टा (पं. ब्रा. १६.७.७; गोत्रवत्-कृष्ण एवं लक्ष्मणा का पुत्र । ला. श्री. ६.११.३)। गोधा-मंत्रद्रष्टा (ऋ. १०.१३४.६-७)। प्रा. च. २५ १९३ Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गोनर्द प्राचीन चरित्रकोश गोश्रुति गोनर्द-काश्मीर का नृप । यह जरासंध का सहायक माना है (द्राह्यायण देखिये)। गोभिलसूत्र तथा खादिरथा (ह. वं. २.३५.३९)। सूत्र में पर्याप्त साम्य है। गोपति--कश्यप एवं प्राधा का पुत्र। | २. कुबेर का दूत | विदर्भ देश के राजा सत्यकेतु की २. पांडवपक्षीय पांचाल राजा (म. द्रो. २२.४३)। | कन्या तथा उग्रसेन की स्त्री पद्मावती, एक दिन जलक्रीडा, ३. शिबिपुत्र । गायों ने इसकी रक्षा की थी। पृथ्वी | कर रही थी। कुबेर का गोभिल नामक दूत आकाशमार्ग ने कश्यप से याचना की, 'यह मेरे संरक्षकों में से एक | से जा रहा था। यह पद्मावती का सौंदर्य देख कर होवे'। तदनुसार कश्यप ने इसका अभिषेक किया (म. मोहित हुआ। उसे अंतर्ज्ञान से पहचान कर, उसकी प्राप्ति शां. ४९.७०)। के लिये इसने उग्रसेन का रूप धारण किया। पास ही एक ४. एक राक्षस । कृष्ण ने इरावती के तट पर इसका | वृक्ष के नीचे गाते हुए यह जा बैठा। इससे मोहित हो वध किया (म. व. १३.३०)। . कर वह फँस गयी ( पन. भू. ४९)। ५. विश्वभुज् नामक अग्नि का नामांतर। इसकी स्त्री गोम--शंभु का पुत्र । नदी (म. व. २०९.१९-२७)। गोमत्-कश्यप तथा मुनि का गंधर्वपुत्र । गोपद--तुषित देवों में से एक । गोमतीपुत्र-(आंध्र. भविष्य.) भागवत तथा विष्णु गोपन--अत्रिकुल का गोत्रकार । मतानुसार शिवस्वाति का पुत्र । गोपवन आत्रेय-सूक्तद्रष्टा (ऋ. ८.७३-७४)।। गोमयान--कश्यप कुल का गोत्रकार । निधव वंशऋग्वेद में इसका उल्लेख है। अंगिरस् से इसका प्रत्यक्ष | मालिका में से यह एक था। संबंध दिखता है (ऋ८.७४.११)। पौतिमाष्य देखिये।। गोमुख--मातलि का पुत्र। इंद्रपुत्र जयंत का यह गोपायन--गौपायन का पाठभेद । सारथी था (म. उ. ९८.१८)। गोपालि--गौरपराशरकुल में से एक । गोमेदगांधक--अंगिराकुल का गोत्रकार.। गोपाली--एक ग्वालन । इसको गार्ग्य से हुआ पुत्र गोरथ--वसिष्ठकुल का गोत्रकार ऋषिगण । कालयवन नाम से प्रसिद्ध है (कालयवन देखिये)। गोलभ-एक गंधर्व । वालि से इसका लगातार पंद्रह गोबल वार्ण--एक आचार्य । (तै. सं. ३.११.९. वर्षों तक युद्ध चलता रहा । अन्त में, वालि ने इसका वध ३; जै. उ. ब्रा. १.६.१) । इसने नचिकेताग्नि के लिये किया (वा. रा. कि. २२.२७-३७)। पाँच दिशाओं में पाँच पाँच इंटें रखीं, जिनसे इसे पशु | गोवासन-एक क्षत्रिय । यह शैब्य नाम से प्रसिद्ध प्राप्त हुए (ते. ब्रा. ३.११.९३) । है। भारतीययुद्ध में यह कौरवों के पक्ष में था (म. द्रो. गोभानु-(सो. तुर्वसु.) विष्णु तथा वायु मतानुसार ७०.३८)। इसने एक हजार सैनिकों के समवेत, विजयी वह्निपुत्र । मत्स्य मतानुसार गर्भपुत्र । काशिराजपुत्रों का विरोध किया। गोभिल--वत्समित्र का शिष्य (वं. बा. ३)। यह गोवषध्वज--कृपाचार्य का नामान्तर (म. द्रो. ८०. कुलनाम अनेक लोगों के लिये प्रयुक्त होता है (पूषमित्र, | १४)। अश्वमित्र, वरुणमित्र, मूलमित्र, वत्समित्र, गौल्गुलवीपुत्र तथा । 14 गोशर्य--एक ऋषि । यह अश्वियों का कृपापात्र है बृहद्वसु देखिये)। यह कश्यप कुल का एक गोत्रकार था। (ऋ. ८.८.२०)। यहाँ इसे सायण ने गोशर्य शयु कहा गोभिलगृह्यसूत्र, गोभिलगृह्यकारिका, गोभिलपरिशिष्ट आदि है । पक्थ, कण्व तथा सदस्यु के साथ साथ इसका इसके द्वारा रचित ग्रंथ हैं (C.C.)। इनमें से गोभिल उल्लेख आया है (ऋ. ८.४९.१०, ५०.१०)। गृह्यसूत्र प्रकाशित हुआ है । यह सामवेद का है । गोभिलस्मृति आनंदाश्रम में छपवायी गई है। उसमें तीन प्रपाठक गोथु जाबाल--एक यशकर्ता । सुदक्षिण क्षेमि, प्राचीनहैं । इस ग्रंथ का आरंभ एवं अंत पढ़ने से लगता है कि, | शालि तथा शुक्र जाबाल, ये सब इसके समकालीन थे उसका नाम कर्मप्रदीप रहा होगा। उसमें श्राद्धकर्मादि (जै. उ. ब्रा. ३.७.७)। लक्षणों, नित्यकर्म, संस्कार आदि का निरूपण है। यह गोश्रुति वैयाघ्रपद्य-एक ऋपि । सत्यकाम जाबाल स्मृति गोभिलगृह्यसूत्र के स्पष्टीकरणार्थ रची गयी। हेमाद्रि | ने इसे वाणी, श्रोत्र, मन तथा प्राण का महत्व तरतमभाव ने गोभिल को राणायनीय तथा कौथुमशाखा का सूत्रकार से बताया। प्राणों का महत्व कथन किया। आगे चल १९४ Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • गोश्रुति कर, महत्वप्राप्ति के हेतु से एक व्रत भी निवेदित किया (छां. उ. ५.२.३ ) । गोक्ति काण्वायन --सृक्तद्रष्टा (ऋ. ८.१४१५) । इसके नाम 'एक गोषूक्त -साम प्रसिद्ध है ( पं. ब्रा. १९.४.९)। प्रतिग्रह के कारण इसे लगा हुआ दोष, इस साम से नष्ट हुआ (गौपूक्ति देखिये) । गोष्ठायन - भृगुकुल का गोत्रकार । गौडिनि--वसिष्ठकुल का गोत्रकार (जौडिलि देखिये) । गौतम -- एक ऋषि । अरुण, आग्निवेश्य उद्दालक आरुणि, कुश्रि, मेधातिथि, साति तथा हारिद्रुमत, का यह पैतृक नाम है । प्राचीन चरित्रकोश गौतम पितरों का आया । उस समय गौतम ने उससे पूछा, ऋण किस प्रकार चुकाया जावे' । यम ने कहा, 'सत्य, धर्म, तप तथा शुचिर्भूतता का अवलंब कर के मातापितरों का पूजन करना चाहिये । इससे स्वर्गादि की प्राप्ति होती है' ( म. शां. १२७ ) । बारह वर्षों तक अकाल पड़ा । इसने भोजन दे कर ऋषियों को बचाया ( नारद. २.७३ ) । यही वर्णन दे कर, शक्तिउपासना का महत्व बताया गया है ( दे. भा. १२.९; शिव कोटि २५-२७)। गौतम तथा भगीरथ ने तप कर के शंकर को प्रसन्न किया तथा गंगा माँगी। शंकर ने गौतम को गंगा दी | वही गौतमी के नाम से प्रसिद्ध हुई ( पद्म उ. २६८. ५२-५४) । गौतमी - (गोदावरी) माहात्म्य विस्तृत रूप में उपलब्ध है (ब्रह्म. ७० - १७५ ) । प्राचीनयोग्य, शांडिल्य, आनभिम्लात, गार्ग्य, भारद्वाज, वात्स्य, मांटि, सैतव आदि गौतम के शिष्य थे । यह दीर्घतमस् का पुत्र था। इसकी माता का नाम प्रद्वेषी ( म. आ. ९८.१७; १०३७ स. ४.१५; ११.१५ ) इसके पिता आंगिरसकुल के थे ( म. अनु. १५४.९ ) । वह बृहस्पति के शाप के कारण जन्मांध हुआ था (ऋ. १.१४७; म. आ. ९८.१५ ) । कुछ स्थानों पर, दीर्घतमस् ने ही गौतम नाम धारण किया, ऐसा प्रतीत होता है ( बृहदे. ३.१२३; म. शां. ३४३; मत्स्य. ४८.५३-८४) । गौतम नाम से गौतम के पशुतुल्य वर्तन का बोध होता है ( वायु. ९९.४७ - ६१, ८८९२; ब्रह्मांड. ३.७४. ४७ - ६१ ९०-९४ मत्स्य. ४८. ४३–५६; ७९–८४ )। गौतम को औशीनरी नामक शुद्र स्त्री से कक्षीवत् आदि पुत्र हुए ( दीर्घतमस् देखिये) । गौतम वैवस्वत मन्वन्तर के सप्तर्षियो में से एक था । ब्रह्मदेव की मानसकन्या अहल्या इसकी स्त्री थी ( अहल्या देखिये) । जनक का पुरोहित शतानंद इसका पुत्र था (म. व. १८५)। इसका अंगिरस से नदीमाहात्म्य के संबंध संभाषण हुआ था (म. अनु. २५ ) । इसके नाम गोदावरी का नाम गौतमी हुआ (दे. भा. ११.९)। अन्न का अकाल पड़ने के कारण, वृषादर्भि राजा दान कर रहा था। जिन सप्तर्षियों ने उसे दान लेना अमान्य कर दिया, उनमें से एक गौतम था ( म. अनु. ९३ ) । गौतम को उत्तक नामक एक शिष्य था । उसे गौतम ने अपनी कन्या दी थी । उत्तंक ने सौदास राजा के पास से कुंडल ला कर, गुरुपत्नी को गुरुदक्षिणा में दी ( म. आश्व. ५५-५६) । • गौतम का आश्रम पारियात्र पर्वत के पास था । इसने वहाँ साठ हजार वर्षों तक तप किया। तब स्वयं यम वहाँ न्यायशास्त्र लिखने वाले गौतम का निर्देश प्राप्त (शिव. उमा. २.४३-४७) । यह अंगिराकुल का एक ऋषि तथा प्रवर है | त्र्यंबकेश्वर का अवतार इसी के लिये हुआ था ( शिव. शत. ४३ ) । वही ज्योतिर्लिंग नासिक के पास त्र्यंबकेश्वर नाम से प्रसिद्ध है । शाखाप्रवर्तक - - यह व्यास की सामशिष्य परंपरा का हिरण्यनाभ का शिष्य है ( व्यास देखिये) । वायु तथा ब्रह्मांड के मतानुसार यह सामवेद की राणायनि शाखा के नौ उपशाखाओं में से एक शाखा का आचार्य है (द्रा. श्रौ. १.४.१७ ) । गौतम का आचार्य रूप में उल्लेख है ( ला. श्रौ. १.३.३ ४.१७ ) । उसी प्रकार सामवेद के गोभिलगृह्यसूत्र में भी गौतम का उल्लेख अनेक बार आया है । धर्मशास्त्रकार - गौतमस्मृति यह ग्रंथ गद्यमय है । उसमें ग्रंथकर्ता द्वारा किया हुआ अथवा बाहर से लिया गया एक भी पद्य श्लोक नहीं है। इस ग्रंथ के कुल अठ्ठाईस विभाग किये गये हैं। कलकत्ता प्रत में, एक विभाग अधिक है । परंतु हरदत्तद्वारा रचित मिताक्षरा में इस विभाग का बिल्कुल उल्लेख नही है | इससे प्रतीत होता है कि, यह भाग प्रक्षिप्त होगा । वेंकटेश्वर आवृत्ति कलकत्ताआवृत्ति से गई है। के धर्मसूत्रकार - गौतमधर्मसूत्र में चातुर्वर्णियों के व्यवहार नियम, उपनयनादि संस्कार, विवाह तथा उसके प्रकार, प्रायश्चित, राजधर्म, स्त्रियों के कर्तव्य, नियोग, महापातक तथा उपपातकों के लिये प्रायश्चित, कृच्छ्र, अतिकृच्छ्र, आदि प्रकारों का विचार किया गया है । गौतमधर्मसूत्र में संहिता, ब्राह्मण, पुराण, वेदांग आदि के काफी उल्लेख आये है । गौतम ने तैत्तिरीय आरण्यक १९५ Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गौतम प्राचीन चरित्रकोश के पच्चीस उद्धरण तथा कई मत अपने ग्रंथ में लिये हैं ।। यह कालक्रमणा कर रहा था। इसका एक मित्र इसके गौतमधर्मसूत्र का उल्लेख सर्वप्रथम बौधायनधर्मसूत्र में पास आया तथा उसने इसे दुराचरण से परावृत्त किया। प्राप्त है। उसी प्रकार वसिष्ठधर्मशास्त्र, अपरार्क, तंत्र- गौतम वहाँ से निकला । राह में यह नाडिजंघ नामक क, वेदातों पर लिखा गया शाकरभाष्य आदि ग्रथा म कश्यपपुत्र के पास आया। वह राजधर्मन् के नाम से भी गौतमधर्मसूत्र के काफी उद्धरण लिये गये हैं। मनुस्मृति प्रसिद्ध था । गौतम का यथोचित सत्कार कर के, अपने में गौतम का उतथ्यपुत्र के नाम से उल्लेख है (मनु. ३. राजा विरूपाक्ष के पास, वह इसे ले गया। राजा के द्वारा १६)। भविष्यपुराण में भी, गौतम का सुरापाननिषेध के पूछे जाने पर इसने सब हकीकत बताई। राजा के घर बारे में उल्लेख है । गौतमधर्मसूत्र का उल्लेख बौधायन, वसिष्ठ | इसे ब्राह्मणोंसह उत्तम भोजन तथा अच्छी दक्षिणा आदि धर्मशास्त्रकारों ने किया है। इससे प्रतीत होता है कि, मिली । संपत्ति का भार सिर पर ले कर यह एक वटवृक्ष के यह वसिष्ठ तथा बौधायन के पूर्व का होगा । यवनों का नीचे बैठा । वहाँ बैठे बैठे, राजधर्मन् का वध करने का उल्लेख भी आया है । यवन शब्द का अर्थ स्वयं गौतम ने विचार इसके मन में आया । इस विचार के अनुसार, दिया है, 'ब्राह्मण को शूद्रा से उत्पन्न संतति' । इसी अर्थ वध कर के, उसे जला कर उसकी संपत्ति ले कर यह रवाना से यह शब्द गौतमधर्मसूत्र में आया है (४.१७) । इससे | हआ। परंतु जल्द ही विरुपाक्ष ने इसे राक्षसोंद्वारा पकड़ प्रतीत होता है कि, ब्राह्मण तथा शूद्र के मिश्रण से बनी लाया तथा इसके टुकड़े टुकड़े करके शबरों को खाने यवनजाति भारत में ग्रीकों के आने के पहले भी थी। के लिये दिये। यह कृतघ्न होने के कारण, किसी शबर. उसपर से गौतम का काल निश्चित करना असंभव है। | ने इसे नहीं खाया। बाद में राजधर्मन् जीवित होने के गौतमधर्मसूत्र पर हरदत्त ने मिताक्षरा नामक टीका तथा | बाद, उसने गौतम को जीवित किया, तथा द्रव्य दे कर घर मस्करी तथा असाहाय ने भाष्य भी लिखे है। मिताक्षरा, पहुँचाया । गौतम ने शूद्र स्त्री के द्वारा, पापकर्म करनेवाले स्मृतिचन्द्रिका आदि ग्रंथों में, श्लोकगौतम, अपराके अनेक पुत्र निर्माण किये। तब देवताओं ने इसे शाप एवं दत्तकमीमांसा में वृद्धगौतम तथा बृहद्गौतम इन दिया, 'यह दुष्ट विधवा स्त्री के द्वारा प्रजोत्पादन कर के थों का उल्लेख है। उसी प्रकार जीवानंद ने १७०० नरक में जावेगा' (म. शां. १६२-१६७)। श्लोको की गौतमस्मृति छपवायीं है । यह स्मृति कृष्ण ने युधिष्ठिर को, चातुर्वण्य के धर्मकथन करने के लिये बताई, ६. अत्रिकुल का एक ब्रह्मर्षि । वैन्य ऋषि को विधाता कहने पर इसने अत्रि से स्पष्टीकरण माँगा था (म. व. ऐसा उस स्मृति में उल्लेख है। परंतु वह स्मृति महाभारत के आश्वमेधिकपर्व से ली गई होगी। क्योंकि, पराशर १८३)। सत्यवत् जीवित है, ऐसा चैता कर इसने द्युमत्सेन को धीरज बँधाया था (म. व. २८२-१३)। माधवीय में तथा अन्य कई ग्रंथों में, इस स्मृति के श्लोक | ७. ब्रह्मदेव ने यज्ञ के लिये, इस नामका ऋत्विज आश्वमेधिकपर्व से लिये गये हैं। आह्निकसूत्र, पितृमेध निर्माण कर के, गया में यज्ञ किया (वायु. १०६.३८)। सूत्र तथा दानचंद्रिका के अतिरिक्त न्यायसूत्र, गौतमी ८. दारुक नामक शिवावतार, का शिष्य (नोधस् शिक्षा आदि गौतम के ग्रंथ हैं। वामदेव देखिये)। २. एकत, द्वित तथा त्रित का पिता (म. श. ३५.९; त्रित देखिये)। गौतम आंध्र-(आंध्र. भविष्य.) वायुमतानुसार ३. इसे चिरकारिन् नामक पुत्र था। इसने उसे | शिवस्वामिन् का पुत्र । पापकर्मी माता का वध करने के लिये कहा। परंतु चिरकारिन् गौतम आरुणि-एक ऋषि । इससे चैकितानेय के दीर्घसूत्री आचरण के कारण, वह काम नहीं हो सका वसिष्ठ का ब्रह्मज्ञान के संबंध में संवाद हुआ था (जै. उ. (म. शां. २५८. ७-८)। ब्रा. १.४२.१)। ४. पूषन् नामक सूर्य के साथ घूमनेवाला एक ऋषि | गौतम कूष्मांड-कक्षीवत् की संतान के लिये (भा. १२. ११.३९)। सामान्य नाम (ब्रह्मांड. ३.७४.९९) । कूष्मांड के लिये ५. मध्यदेश में रहनेवाला एक ब्राह्मण । इसे बिल्कुल | वायु में कृष्णांग पाठभेद है (वायु. ९९.९७)। गृहस्थों वेदज्ञान नहीं था । एक गांव में, एक अमीर शूद्र के पास | के नित्यतर्पण में, देवता की तरह कूष्मांड का समावेश है यह गया। उसने इसे एक विधवा स्त्री दी। उसके साथ | (विष्णु. ३.११.३२, ५.३०.११)। १९६ Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गौतम प्राचीन चरित्रकोश गौश्रायणि गौतम व्यास-यह वैवस्वत मन्वन्तर में हुआ | ३. एक राजा । इसने चिंतामणि मणि की सहायता से • (व्यास देखिये)। | सुप्रतीकपुत्र दुर्जय को ससैन्य भोज दिया। इसका वैभव गौतमी--अश्वत्थामन् की माता (भा. १.७.४७)। | देख कर मोहित हुए दुर्जय ने, उस मणि की इससे २. एक वृद्ध ब्राह्मण स्त्री (अर्जुनक देखिये)। इसने | याचना की। गौरमुख के न देनेपर उसने इससे युद्ध अपने पुत्र को मारनेवाले सर्प को 'भूतदया' के कारण | किया। इसी कारण दुर्जय का संपूर्ण नाश हुआ (वराह. छोड़ दिया। | ११-१५)। गौतमीपुत्र-भारद्वाजीपुत्र का शिष्य । कात्यायनी- गौरवाहन--पांडवों का समकालीन एक राजा (म. पुत्र तथा आत्रेयीपुत्र इसके शिष्य थे (बृ. उ. ६.५.१-२ | स. ३१.१५)। काण्व.)। गौरवीति-अंगिराकुल का गोत्रकार तथा प्रवर । २. वात्सीपुत्र का शिष्य । इसका शिष्य आत्रेयीपुत्र | गौरवीति शाक्त्य--सूक्तद्रष्टा (ऋ५.२९, ९.१०८. (बृ. उ. ६.४.३१. माध्यं.)। १;२; १०.७३; ७४; ऐ. ब्रा. ३.१९८.२)। गौतमीपुत्र आंध्र--(आंध्र. भविष्य.) मत्स्यमता- विभिंदुकी के किये गये सत्र में यह प्रस्तोतृ था (जै. नुसार शिवस्वाति का पुत्र । ब्रा. २.२३३) । यह शक्ति का पुत्र था, ऐसा कहा गया है । गौपवन--गोपवन का वंशज । यह पौतिमाष्य एवं | इससे पता चलता है कि, यह तथा पराशर एक ही व्यक्ति कौशिक का शिष्य था (बृ. उ. २.६.१, ४.६.१)। रहे होंगे। गौरिवीति शाक्त्य का एक साम गौरिवित नाम गौपायन--वसिष्ठकुल का गोत्रकार । पाठभेद-गोपायन से प्रसिद्ध है (तां. बा. ११.५.१३-१५)। ऋषभ याज्ञतुर २. सुबंधु आदि भाई गौपायन के वंश के थे । का यह पुरोहित था (श. ब्रा. १२.८.३.७)। ऋषभ याज्ञतुर असमाति ऐक्ष्वार्क के ये पुरोहित थे। इन्हें छोड़ कर राजा की गाथा गौरीवीति शाक्त्य ने की होगी (श. ब्रा. १३. ने दूसरे पुरोहित बुलाये, तब ये राजा पर मंत्रतंत्र छोड़ने ५.४-१५)। इसका गौरीविति ऐसा भी पाठ है (ता. लगे । इसीसे क्रुद्ध हो कर आये हुए पुरोहितों ने इनका ब्रा. ११.५, १२.१३, २५.७; श. ब्रा. १२.८.३.७)। वध किया (ऋ. सायणभाष्य. १०.५७; बृहद्दे. ७.८३; गौरशिरस्--एक ऋषि (म. स. ७.९)। · पं. बा..१३.१२.५; जै. ब्रा. ३.१६७)। ___गौराश्व-एक क्षत्रिय । यमसभा में उपस्थित (म. गौपालायन-शुचिवृक्ष का पैतृक नाम (औपोदिति देखिये)। गौरिक-(सू . इ.) वायुमतानुसार युवनाश्वपुत्र । मांधातृ का मूल नाम। गौपालेय-उपोदिति का पैतृक नाम । गौरी-मत्स्यमतानुसार अंतिनार की कन्या। मांधातृ गौर-शुक एवं पीवरी का पुत्र । की माता (युवनाश्व तथा प्रसेनजित् देखिये)। २. विकुंठ देवों में से एक। २. (सुदेव ९. देखिये)। गौरग्रीव-अत्रिकुल का गोत्रकार। गौरीविति शाक्त्य-गौरवीति देखिये। गौरजिन-अत्रिकुल का गोत्रकार। गौरुडि-एक ऋषि । उपाकर्मागतर्पण में इसका संग्रह गौरपराशर-एक ऋषि । इसके कुल में कांडूषप, | है (जैमिनि देखिये। वाहनप, जैझप, भौमतापन तथा गोपालि ये प्रसिद्ध ऋषि | गौलवि-एक ऋषि । उपाकर्मागतर्पण में इसका हुए। | संग्रह है (जैमिनि देखिये )। गौरपृष्ठ-एक क्षत्रिय । यम की सभा में इसकी | गौल्गुलवीपुत्र गौभिल--एक ऋषि । इसका पिता उपस्थिति का उल्लेख मिलता है (म. स. ८.१९)। । बृहद्वसु । पिता के पास इसने सामवेद का अध्ययन किया गौरप्रभ-शुक एवं पीवरी का पुत्र । . (वं. बा.३)। गौरमुख--उग्रसेन का उपाध्याय । सांब से, इसका गौश्र-गुश्री का वंशज । इसे मधुक नामक एक ऋषि सूर्यविषयक संवाद हुआ था (भवि. ब्राह्म. १३९)। ने 'सोमवल्ली की देवता कौन हैं ? ' ऐसा प्रश्न पूछा था २. शमीक ऋषि का शिष्य। इसने गुरु की आज्ञा | (सां. ब्रा. १६.९:२३.५)। पा कर परीक्षित् राजा को उसकी मृत्यु निवेदित की (म. | गौश्रायणि--एक आचार्य । चित्र का पैतृक नाम । आ. ३८.१४-१९)। जाबालसत्र में यह पुरोहित था (सां. ब्रा. २३.५)। . ../. स.८.१७) १९७ Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गौश्ल प्राचीन चरित्रकोश घटोत्कच गौश्ल-यज्ञ में शस्त्रकथन का बुलिल आश्वतर का हुआ । इस में यह विष्णु के द्वारा मारा गया (मत्स्य. सांप्रदाय इसने अनुचित सिद्ध किया । वहाँ अपनी पद्धति | १५०-१५१)। से शस्त्रकथन करवाया (ऐ. ब्रा. ६.३०; गो. ब्रा, २. ६. ग्रामणी-देववती का पिता । ग्रामद-भृगुकुल का गोत्रकार । गौषाक्ति--इष श्यावाश्वि के शिष्य का नाम (जै. ग्राम्यायणि--भृगुकुल का गोत्रकार। उ. ब्रा. ४.१६.१; पं. वा. १९. ४. ९; गोषूक्तिन् । ग्रावा--कश्यपप्रजापति की स्त्री। दक्ष प्रजापति की काण्वायन देखिये)। कन्याओं में से एक। ग्रावाच्यवन--ब्रह्मदेव के पुष्करक्षेत्र के यज्ञ के ग्रंथिक--पांडव द्रौपदी सहित अज्ञातवास में थे, तब होतृगणों में से एक ऋत्विज् (पन. सृ. ३४)। नकुल ने (विराट के घर) यह नाम धारण किया था ग्रावाजिन--स्वायंभुव मन्वंतर का अजित् देव । (म. वि. १२.१०)। ___ ग्लाव मैत्रेय-एक आचार्य । बक दाल्भ्य तथा यह असन-तारकासुर का सेनापति । तारकासुर ने इंद्र एक ही है (छां. उ. १.१२.१.३; गो. बा. १.१.३१)। से युद्ध किया। वहाँ यह उसके साथ था (पद्म. स. पंचविश ब्राह्मण के सर्पसत्र में यह प्रस्तोतृ था। षड्विंश ४२)। आगे चल कर यम के साथ तारकासुर का युद्ध ब्राह्मण में भी इसका उल्लेख है (१.४)। घटजानुक--एक ऋषि (म. स. ४.११)। प्रागज्योतिषपुर में थी। बल तथा बुद्धि द्वारा अपने को घटोत्कच--(सो. कुरु.) भीम तथा हिडिंबा का पुत्र। जीतनेवाले पुरुष के साथ विवाह करने का, उसने प्रण जन्मतः इस का सिर घट के समान तथा केशरहित था, | किया था। सब की प्रेरणां से, बुद्धि, राक्षसीबिद्या तथा अतः इसका घटोत्कच (घट + उत्कच ) नामकरण हुआ। शरीरबल के क्षेत्र में, घटोत्कच ने उसे जीत लिया। इंद्रइस नाम के अतिरिक्त, इसे मैग्य, भैमसेनी, हैडिंब वा प्रस्थ में इसका विवाह मौर्वी के साथ सम्पन्न हुआ। इनका हैडिंबेय कहते थे (म. आ. १४३)। स्मरण करते ही पुत्र बर्बरीक था (स्कंद. १.२.५९-६०)। उपस्थित रहने का, इसने अपनी दादी कुन्ती से वादा राजसूययज्ञ के समय, यह करभार लाने के लिए, किया था (म. आ. १४३.३७) । इसकी शिक्षा माता दक्षिण दिग्विजय में लंका गया था (म. स. २८.३०९; के पास हुई। हिडिंबा ने इसे राक्षसीविद्याओं में प्रवीण परि. १.१५)। कुंभकोणआवृत्ति ही में इसके लंकाबनाया। प्रयाण का उल्लेख उपलब्ध है। बंबई की आवृत्ति में एक बार पांडव गंधमादन पर्वत पर चढ रहे थे। । सहदेव द्वारा दूत भेजने का विवरण प्राप्त है। वह दूत आरोहण में, भीम के अतिरिक्त अन्य सब थक गये। घटोत्कच ही होगा। इस बेला में, कुन्ती ने घटोत्कच का स्मरण किया । तुरन्त प्रकट हो कर, इसने ऋषियों के साथ सब को नरनारायण ___ महाभारत के अनुसार, यह बड़ा होने के बाद हिडिंबा आश्रम तक पहुँचा दिया (म. व. १४५.१-९)। इसे ले कर कुन्ती के पास आई। इस समय घटोत्कच का पितृसेवा के उद्देश्य से हिडिंबा ने इसे पांडवों की ओर व्याह हो चुका था। महाभारत में इसकी पत्नी का नाम भेज दिया। धर्मराज ने इसका यथोचित गौरव किया, नहीं है। घटोत्कच की पत्नी देवी कामा की कृपा से अजेय एवं इसके विवाह का निश्चय किया । कृष्ण ने थी। उसे एक विचित्र प्रश्न पूछ कर, घटोत्कच काबू में कहा, 'मुरु दैत्य की कन्या मौर्वी (कामकटंकटा) लाया, तथा नख से सेना निर्मिति कर उसे जीत लिया। घटोत्कच के लिए योग्य हैं।' वह भगदत्त राजा के | इसके अंजनपर्वन् एवं मेघवर्ण नामक दो पुत्र थे । Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ घटोत्कच प्राचीन चरित्रकोश घृतपृष्ठ भारतीययुद्ध में यह पांडवों के पक्ष में था। इसका रथ होने पर भी, यह अमानुष था। बलशाली राक्षस-पिशाच, आठ पहियों का तथा सौ अश्वों का था। इसके रथ पर बचपन में भी इसे थाम नहीं सकते थे। बाल्यकाल ही से गृध्रपक्षी का ध्वज था। विरूपाक्ष नामक राक्षस इसका इसका रूप उग्र था। जन्मतः यह अस्त्रविद्यापारंगत एवं सारथ्यकर्म करता था। यह हाथ में पौलस्त्य धनुष्य कामरूपधर था। पैदा होते ही, इसने माता पितरों के पैर रखता था (म. द्रो. १५०.१२-१४)। पकड़ लिए थे। द्रोण सेनापति थे। एक दिन रात्रि में युद्ध हुआ। घटोदर-रावण के पक्ष का एक राक्षस (वा. रा. कर्ण की वासवी शक्ति के कारण, अर्जुन की उससे युद्ध | उ. २७; म. स. ९. १४)। करने की हिम्मत नहीं हो रही थी। इस समय कृष्ण ने | २. पूतना देखिये। घटोत्कच का गौरव किया, तथा कहा, 'रात्रि की वेला | घंट--वसिष्ठकुल का एक ब्राह्मण । इसने बिल्वदल में युद्ध करने से तुम्हारी शक्ति प्रज्वलित हो उठती है, (बेलपत्र ) से शंकर की १०० वर्षों तक सेवा की । आगेअतः तुम महासमर करो।' इस प्रसंग में, इसके साथ | चलकर इसने देवल ऋषि की नातन की माँग की। यह युद्ध करने के लिए दुर्योधन ने बकबंधु अंलायुध तथा | कुरूप है, ऐसा पता लगने के कारण, उसने इसे अस्वीकार अलंबुष नामक दी दैत्यों को भेज दिया। इसने दोनों का | किया। तब इस ने उसका हरण कर उससे गांधर्व विवाह वध किया। अलंबुष का सिर काट लिया। उसे हाथ में ले | किया। उसके पिता ने इसे शाप दिया; परंतु नये कर यह दुर्योधन के सामने प्रस्तुत हुआ। घटोत्कच ने उससे | रिश्ते को याद कर, निशाचर याने राक्षस न हो कर उलूक कहा, 'रिक्तपाणिर्न पश्येत् राजानम् ।' अर्थात् , 'राजा | होगे तथा इंद्रद्युम्न की सहायता करने पर मुक्त होगे,' लोगों का दर्शन, खाली हाथों नही लेना चाहिये।' यों कह | ऐसा उःशाप दिया (स्कंद. १. २. ७)। कर इसने अलंबुध का सिर दुर्योधन के सामने फेंक दिया। घंटाकर्ण--शिव का एक गण | शंकर के नाम वा उपहासयुक्त शब्दों में, चिढ़ाते हुए इसने कहा, 'राजन् । गुणों के अतिरिक्त कृछ भी कानों को सुनने न मिले, चन्द पलों ही में मैं कर्ण के मस्तक का उपहार पेश करने | इसलिये यह कान को घंटा बांधता था । इसलिये इसका के लिए आता हूँ।' | नाम घंटाकर्ण हुआ। यह स्कंद का पार्षद था (म. श. यह समाचार सुन कर कर्ण भी एक बार थरी ४४. २२)। - उठा। बाध्य एवं अगतिक बन कर कर्ण ने इस पर घंटामुख--विभावसु देखिये। वासवी शक्ति का प्रयोग किया। उस प्राणहारक शस्ति घन-लंका का एक राक्षस (वा. रा. सु. ६)। को देख कर मरने के पहले घटोत्कच ने पर्वतप्राय धर्म तापस--सूक्तद्रष्टा (ऋ. १०.११४)। देह धारण की । शक्ति लगते ही, यह कौरवसेना पर जा घर्म सौर्य-मंत्रद्रष्टा (ऋ. १०. १८१.३)। गिरा । मृत्यु के उपरान्त भी, इसकी देह ने शत्रुदल का घुश्मेश्वर-शंकर का बारहवाँ अवतार। देवगिरि एक भाग कुचल कर पीस डाला। परिणामस्वरूप अर्जुन के पास वेरूल में है। घुश्म के संरक्षणार्थ यह वहाँ वासवी शक्ति से निर्भीक हुआ (म. द्रो. १४८-१५४)। आया (शिव. शत. ४२)। व्याघेश्वर इसका उपलिंग है मार्गशीर्ष कृष्ण एकादशी की मध्यरात्रि को इस की मृत्यु | (शिव. को टि. १)। हुई (भारतसावित्री)। घर्णिका-देवयानी की दायी का नाम (म. आ. घटोत्कच का रूप भयानक था। उसकी देह विशाल | ७३. २४)। थी । बाप से बेटा सवाई था। गंधमादन पर्वत का प्रसंग घृणि-मरीचिपुत्र (मरीचि देखिये)। इसका सबूत है । इसके अतिरिक्त, बुद्धि, प्रत्युत्पन्नमतित्व, २. (सू. इ.) धुंधुमार का पुत्र (पद्म. स. ८)। मातृपितृभक्ति तथा आनंदीवृत्ति आदि गुणों से इसका घंतकौशिक-पराशर्यायण का शिष्य । इसका शिष्य चरित्र विभूषित हुआ है। इसके नेत्र विद्रूप थे। कान कौशिकायनि (बृ. उ. २. ६.३; ४. ६. ३, २. ५. शंकु के आकार के थे। मुख बड़ा था। ओष्ठ आरक्तवर्ण २१, ४. ५. २७. माध्य.) के थे। दाढ़े तीक्ष्ण थीं। नासिका लंबी एवं सीना चौड़ा । २. विश्वामित्र देखिये। था। पिंडुलियाँ टेढीमेढी तथा मोटी थी। कुल मिला कर घृतपृष्ठ-(स्वा. प्रिय.) भागवतमतानुसार प्रियव्रत आकृति तथा आवाज़ खौफ़नाक थीं । इस का जनक मनुष्य | को बर्हिष्मती से उत्पन्न पुत्र । क्षीरोद से वेष्टित क्रौंचद्वीप १९९ Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ घृतपृष्ठ प्राचीन चरित्रकोश चक्रधनु का यह अधिपति था। इसने अपने द्वीप के वर्षसंज्ञक सात २. वैवस्वत मन्वंतर के अंगिरस् ऋषि के आठ पुत्रों में भाग किये थे। आम, मधुरुह, मेघपृष्ठ, सुधामन् , से एक (म. अनु. १३२.४३ कुं; अंगिरस देखिये)। भ्राजिष्ठ, लोहितार्ण तथा वनस्पति नामक सात पुत्रों को ३. लंकास्थित एक राक्षस । लंकादहन के अवसर पर उन्हीं के नाम दे कर, ये वर्ष विभाजित कर दिये थे हनूमत् ने इसका घर जलाया था (वा. रा. सु. ५४)। (भा. ५.१.२५, २०.२०)। घोष-कक्षीवत् पुत्री घोषा का पुत्र। पज्रिय कक्षीवत् घताची-एक अप्सरा। कश्यप तथा प्राधा की के साथ इसका भी उल्लेख आता है (२.१.१२०.५% कन्या (म. आ. १५४.२)। इसी के कारण रेतस्खलन | घोषा देखिये)। हो कर, भरद्वाज से द्रोण, व्यास से शुक, प्रमति से रुरु । २. धर्म ऋषि तथा लंबा का पुत्र । तथा रौद्राश्व से तेयु आदि पुत्र हुये। प्रमति तथा ३. (शंग. भविष्य.) पुलिंद का पुत्र । इसका पुत्र रौद्राश्व के पास यह दीर्घकाल तक रहती थी। वज्रमित्र । विष्णु मतानुसार इसका नाम घोषवसु है। २. माघ मास में आदित्य के साथ घुमनेवाली अप्सरा । घोषा-कक्षीवत् की सूक्तद्रष्टी पुत्री (ऋ. १०.३९(भा. १२,११.३९)। ४०)। कुष्ठरोग होने के कारण, इसे पिता के घर अविघृताशिन--एक ऋषि । इसने गोपीमोहन कृष्ण का वाहित रहना पड़ा। अश्वियों की कृपा से इसका कुष्ठ दूर ध्यान किया । इसलिये इसे गोपी का जन्म प्राप्त हुआ हुआ (ऋ. १०.३९; ३-६), तथा इसे पति भी मिला (पन. पा. ७२)। (ऋ. १.११७)। घृतेयु--(सो. पुरूरवस्.) विष्णु वायु तथा मत्स्य रोगग्रस्त रहने के कारण, यह साठ वर्षों तक मतानुसार रौद्राश्वपुत्र । घृतोद-महावीर १ देखिये। पिता के गृह में अविवाहित स्थिति में रही। पिता की घोर-हिरण्याक्ष की सेना का एक असुर । कार्तिकेय | तरह अश्वियों को प्रसन्न कर, यह निरोगी हुई तथा इसे ने इसका वध किया (पद्म. स. ७५)। . पति मिला (वृहदे. ७.४३; ४८)। इसके पति का नाम २. कण्वपुत्र। नहीं मिलता। इसे घोष तथा सुहत्य नामक पुत्र थे (बृहद्दे. घोर आंगिरस-मंत्रद्रष्टा ( ऋ. ३.३६.१०)। ७.४८; सुहस्त्य देखिये)। माता पिता पुत्र को शिक्षा अन्य वैदिक ग्रंथों में इसका उल्लेख है (सां. बा. ३०.६ देते है, उसी तरह शिक्षा देने के लिये इसने अश्वियों छां. उ. ३.१७.६; आश्व. श्री. १२.१०)। इसने से प्रार्थना की थी (ऋ. १०.३९.६)। शत्रुओं से युद्ध देवकीपुत्र कृष्ण को ब्रह्मज्ञान का उपदेश दिया, (छां. उ. करने में समर्थ बनाने के संबंध से इसकी प्रार्थना का ३.१७.६) । कठ संहिता में अश्वमेधखंड में इसका उल्लेख उल्लेख है (ऋ. १०.४०.५)। है (२६.७)। अथर्ववेद का भिषज सें, तथा आंगिरस वेद का घोषय-घोष तथा सुहत्य देखिये। घोर से संबंध है (आश्व. श्री. १०-७; सां औ. १६.२) घ्राण--तुषित देवों में से एक । चकोर-(आंध्र. भविष्य.) सुनंदन का पुत्र । वायु चक्र--रावण की सेना का एक राक्षस (वा. रा. मुं. में इसे सातकर्णि, विष्णु में चकोरशातकर्णि, एवं ब्रह्मांड में ६.२४)। शातकर्णि कहा गया है। चक्रक--विश्वामित्र का पुत्र । चक्क--एक ऋत्विज । जनमेजय के सर्पसत्र में, यह । उन्नेतृ नामक ऋत्विज का काम करता था। इसके साथ | चक्रदेव--एक यादव (म. स. १४.५६)। पिशंग का उल्लेख प्राप्त है (पं. बा. २५.१५.३)। चक्रधनु--कपिल ऋषि का नामांतर। . २०० Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चक्रधर्मन प्राचीन चरित्रकोश चंडमुंड चक्रधर्मन--विद्याधर का नामांतर (म. स. परि. १. | चक्रिन्--अंगिरा कुल का गोत्रकार । क्र. ३. पंक्ति. ६)। चक्षु--(स्वा. उत्तान.) सर्वतेजस् एवं आकूति का • चक्रपाणि--सिंधु दैत्य के पिता का नाम (गणेश २. | पुत्र । इसकी स्त्री नड्वला। यह छठवाँ मनु माना जाता नों की उपालित वैशाल, गया ए देवों में से एक अनुपुत्र । इस चक्रमालिन्--रावण के सचिवों में से एक । २. (सो. नील.) विष्णु मत में पुरुजानुपुत्र । इसे ही चक्रवर्तिन्–सर्वश्रेष्ठ नृपों की उपाधि । कार्तवीर्यार्जुन भागवत में अर्क, मत्स्य में पृथु, एवं वायु में रिक्ष कहा हैहय, भरत दौष्यन्ति पौरव, मरुत्त आविक्षित वैशाल, I गया है। महामन महाशाल आनव, मांधातृ यौवनाश्व ऐक्ष्वाक, ३. तुषित देवों में से एक। शशबिंदु चैत्ररथि यादव, आदि राजाओ को चक्रवर्तिन ___४. (सो. अनु.) भागवत मत में अनुपुत्र । इसे ही कहा, गया है। विष्णु एवं मत्स्य में चाक्षुष, ब्रह्मांड में कालचक्षु, तथा वायु __अंतरिक्ष, पाताल, समुद्र तथा पर्वतों पर अप्रतिहत में पक्ष कहा गया है। गमन करनेवाले, सप्तद्वीपाधिपति तथा सर्वाधिक सामर्थ्ययुक्त चक्षुस् मानव-मंत्रद्रष्टा (ऋ. ९.१०६.४-६)। नृपों को चक्रवर्तिन् कहते है (वायु. ५७.६८-८०; ब्रह्माण्ड चक्षुस सौर्य-सूक्तद्रष्टा (ऋ. १०.१५८)। २.२९.७४-८८; मत्स्य. १४२.६३-७३)। चंचला--एक वेश्या । इसने विष्णु के मंदिर की __ हिमालय से महासागर तक, तथा पूर्वपश्चिम १००० दीवार को सहज भाव से एक उँगली चूना लगाया। इस योजन भूमि का अधिपति चक्रवर्तिन् है ( कौटिल्य. पृ. | पुण्य के प्रभाव से इसे वैकुंठ प्राप्त हुआ (पन. ब्र.६)। ५ ७२५)। चंचु-(सू. इ.) विष्णु, वायु एवं भविष्य मत में कुमारी से बिंदुसरोवर तक भूमि के अधिपति को | हरितपुत्र । भागवत में इसे चंप कहा गया है। चक्रवर्तिन् संज्ञा दी जाती थी (काव्यमीमांसा १७)।। चंचुलि-विश्वामित्र कुल का गोत्रकार। . समुद्रपर्यंत भूमि का अधिपति सर्वश्रेष्ठ नृप समजते थे चंड-एक व्याध । शिवरात्रि के दिन, सहज ही शिव ('ऐ. बा. ८. १५, र. वं. १)। वेदों में चक्रवर्तिन् शब्द नही है। सम्राज् आदि शब्द पर बिल्वपत्र डालने के कारण, यह जीवन्मुक्त हुआ (पद्म. . उपलब्ध है। उ. १५४; स्कन्द, १.१.३३)। अंबरीष नाभाग, गय आमूर्तरयस, दिलीप ऐलविल २. त्रिपुरासुर का अनुयायी। त्रिपुर तथा शंकर के 'खट्वांग, बृहद्रथ अंग, भगीरथ ऐक्ष्वाक, ययाति नाहुष, युद्ध के समय, इसका एवं नंदी का युद्ध हुआ था (गणेश. रंतिदेव सांकृति, राम दाशरथि, शिबि औशीनर, सगर १.४३; चंडमुंड देखिये)। •. ऐक्ष्वाक, सुहोत्र ये सर्वश्रेष्ठ नृप थे (म. द्रो. ५५-७०; ३. विष्णु के पार्षदों में से एक । शां. २८)। ४. अष्टभैरवों में से एक। २. अंगिरसकुल का गोत्रकार । ५. बाष्कल का पुत्र । चक्रवर्मन्--बल का पुत्र । कर्ण के पूर्वजन्म का नाम।। ६. काश्यप तथा सुरभि का पुत्र (शिव. शत. १८)। चक्रवात-तृणावर्त राक्षस का नामांतर । चंडकौशिक--कक्षीवत् ऋषि का पुत्र । इसके प्रसाद चक्रायण--उपस्त मुनि का पिता । से बृहद्रथ को जरासंध हुआ (म. स. १६.१७९%)। चक्रिक-एक व्याध । यह मातृपितृभक्त एवं विष्णु- चंडतुंडक--गरुडपुत्र । भक्त था । विष्णु को फलोपहार अर्पण करने के पहले, | चंडबल--राम की सेना का सुप्रसिद्ध वानर । कुंभकर्ण यह स्वयं एक एक फल चख रहा था। उससे से एक फल | ने इसका वध किया। इसके गले में अटक गया। वह फल विष्णु को अर्पण | चंडभार्गव च्यावन-च्यवनवंश का एक ऋषि । करने के लिये, इसने अपनी गर्दन स्वयं काट ली । विष्णु | जनमेजय के सर्पसत्र में यह होता का काम करता था (म. ने इसे जीवित कर, दर्शन दिया। बाद में, द्वारकाक्षेत्र में | आ. ४८.५)। मृत्यु होने के कारण, इसको मुक्ति मिल गयीं (पद्म. कि. चंडमंड---शुंभनिशुंभ के सेनापति । चंड तथा मुंड ये | दो असुर शुंभनिशुंभ के अनुयायी थे। प्रा. च. २६] २०१ Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चंडमुंड प्राचीन चरित्रकोश चन्द्र _शुभ की ओर से, यह दोनों देवताओं की सेना से लड १.१०६; स्कन्द. ४.१.१४)। यह अत्रि की आँखों से रहे थे (पद्म. उ. १७)। शुम एवं शंकर के युद्ध में भी, उत्पन्न हुवा (ह. वं. १.२५, ६-९; वायु. ९०.५)। शुभ ने इन्हे जालंधर के शोधार्थ भेजा था। | चन्द्र तथा आकाश में स्थित चन्द्रमा दोनों एक ही है। ___ एक बार इन्हे एक सुंदर स्त्री दिखाई दी। उसे वश | दक्ष प्रजापति की सत्ताईस कन्यायें इसे पत्नीरूप दी गयी करने के लिये, शंभनिशुभ ने इन्ही की योजना की । वह | थीं। चन्द्र की इन सत्ताईस पत्नियों के नाम बाद में सत्ताईस सुंदर स्त्री कालिका देवी का मायावी रूप था। पश्चात्, | नक्षत्रों को प्राप्त हुए (म. आ. ६०.१२, १५, ह. वं. कालिका देवी ने इन्हे मार डाला। १.२५.२२, स्कन्द. ७.१.२०)। कई ग्रंथों में, उस सुंदर स्त्री को देवी चंडी कहा है। पृथ्वी की औषधि वनस्पति, चन्द्र से प्रभावित होने के यही कथा, कुछ भिन्नता से अन्य ग्रंथों में भी आयी है | अनेक निर्देश प्राप्त है। इसने तपस्या करने पर, इसकी (वायु. ५५, मार्क. ८४)। आँखों से सोमरस टपकने लगा। इसीसे सब ओपधियाँ चंडश्री-(आंध्र. भविष्य.) मत्स्यमत में विजय उत्पन्न हुई (स्कन्द. ७.१.२०)। इसका अय होने पर पृथ्वी का पुत्र । इसके लिये चंद्रविज्ञ, चंद्रश्री एवं दंसश्री नाम | की ओषधि वनस्पतियाँ सूख गयी (म. श. ३४) । इसने प्रयुक्त हैं। अमृत दे कर अनाथ मारिषा की रक्षा की । इन सब चंडा-गंडा देखिये। कथाओं से चन्द्र-चन्द्रमा रूपक को पुष्टि मिलती है । चंडाश्च-(सू. इ.) कुवलाश्व का पुत्र। इसका | चन्द्र के सत्ताईस पत्नियों में, रोहिणी पर इसकी विशेष भद्राश्व नामांतर भी प्राप्त है। प्रीति थी । यह न सह कर, इसकी अन्य स्त्रियों ने अपने चंडिक-बर्बरिक का नामांतर । पिता दक्ष के पास शिकायत की । दक्ष ने चन्द्र को समचंडी--उद्दालक की पत्नी। इसकी कथा कलहा की झाया। परंतु कुछ लाभ नहीं हुआ। तरह ही है (जै. अ. १६)। | दक्ष ने चन्द्र को शाप दिया कि, तुम्हें क्षयरोग हो चंडीश-रुद्रगणों में से एक। इसके चंडी, चंड़, | जावेगा । क्षय से चद्ध क्षीण होने लगा। उसका दुष्परिणाम चंडेश्वर, चंडघंट आदि नाम प्राप्त हैं। दक्षयज्ञविध्वंस के पृथ्वी की ओषधिवनस्पतियों पर हुआ । देवों को समय, इसने पूषन् नामक ऋत्विज को बाँधा था (भा. | मजबूरी से दक्ष के पास प्रार्थना करनी पडी। दक्ष ने कहा, ४.५.१७; पद्म. उ. १३.५९)। 'चन्द्र का पंद्रह दिन क्षय तथा पंद्रह दिन वृद्धि होगी, चंडोदरी--अशोकवन की एक राक्षसी (वा. रा. सु. परंतु उसके लिये चन्द्र को सुत्र पत्नियों की ओर समान ४)। ध्यान देना पडेगा। पश्चिम सागर के पास सागरमुख में चतुरंग--(सो. अनु.) भागवत एवं विष्णु मत में स्नान करना होगा' । वहाँ स्नान करने के बाद चन्द्र को चित्ररथ अथवा रोमप का पुत्र। ऋश्यशृंग के पुत्रकामेष्टि पूर्ववत् कान्ति प्राप्त हुई। इसीलिये इस क्षेत्र को प्रभास यज्ञ के कारण, इसका जन्म हुआ। इसका पुत्र पृथुलाक्ष | नाम प्राप्त हुआ (म. श. ३४)। (भा. ९.२३.१०)। शशपानतीर्थ पर देव तथा दैत्यों ने अमृतमान चतर्मख--ब्रह्मदेव का नामांतर । कमल में से ब्रह्मदेव किया। वहाँ कुछ देरी से जाने के कारण, इसे अमृत का जन्म होते ही, उसने चारों दिशाओं की ओर देखा । प्राप्त नहीं हुआ। वहाँ का तीर्थ लेने के लिये देवों ने चारों ओर देखते ही उसे चार मुख प्राप्त हुए। इसी | इसे कहा । एक खरगोश उस तीर्थ का प्राशन कर रहा कारण उसे यह नाम पड़ा (भा. ३.८.१६, ब्रह्मन् | था। उसे भी इसने खा लिया। वह अभी भी इसके देखिये)। | उदर में है। (स्कन्द. ७. १. २५८)। .. चन्द्र-अत्रि तथा अनसूया का पुत्र । यह सोम नाम | अत्रिपुत्र सोम यह चन्द्र का ही नामांतर है। से मी प्रसिद्ध था (भा. ४.१३; म. शां. २००.२४)। एकबार सोम अत्यंत बलिष्ठ हुआ । राजसूययज्ञ इसे सूर्य तथा भद्रा का पुत्र भी कहा गया है। कर के इसने त्रैलोक्य को जीत लिया। बृहस्पति की ___ यह स्वायंभुव मन्वन्तर में पैदा हुवा था (म.आ.६०, पत्नी तारा का जबरदस्ती हरण कर लिया। उसके १४)। इसके जन्म की अनेक आख्यायिकाएं प्राप्त है। लिये तारकामय नामक बहुत बड़ा युद्ध हुआ। ब्रहादेव अत्रि ने दसों दिशाओं से इसे उत्पन्न किया ( विष्णुधर्म. ने मध्यस्थता की। इसने तारा को वापस किया। २०२ Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्र परंतु वह गर्भवती थी । बृहस्पति ने तारा को गर्भ का याग करने के लिये कहा । तब तारा ने एक वृक्ष पर उसे छोड़ दिया । वह गर्भ अत्यंत तेजस्वी था। यह देख कर पुनः बृहस्पति तथा चन्द्र लड़ने लगे । तब तारा ने कहा कि, 'गर्भ चन्द्र का है' । वह गर्भ चन्द्र को दिया गया । यह बुध हैं । यहीं से चन्द्रवंश प्रारंभ हुआ ( भा. ९. १४; ह. वं. १.२५; पद्म. पा. १२; ब्रह्म ९; मत्स्य. २३; दे. भा. १.११; वायु. ९०.२ - ९ ) । प्राचीन चरित्रकोश सोमवंश का प्रथम राजा सोम ही था । इसकी पत्नी रोहिणी । इसकी राजधाधी प्रयाग थी । ( पद्म. उ. १५६; सोम तथा पुरूरवसू देखिये) । बदरिकाश्रम में तप कर के इसने ग्रहाधिपत्य प्राप्त किया ( स्कन्द . २.३.७ ) । इसने उमासहित सोम की आराधना की, इसलिये इसे सोम नाम प्राप्त हुआ (स्कन्द. ४.१.१४ ) । धर्म प्रजापति को वसु नामक स्त्री से उत्पन्न अष्टवसुओं में से एक का नाम सोम है ( म. आ. ६०.१७; लिंग. ६१ ) | यह वैवस्त म्रन्वन्तर का था । पीछे वर्णित सभी कथा इसीकी होनी चाहिये । सोमवंश -- भारत का प्राचीन इतिहास सोम एवं सूर्यवंश का ही इतिहास है । सोम चंद्र का ही नामांतर है । सोम़ तथा सूर्य इन दोनों वंशों का मूलपुरुष वैवस्वत मनु है। सूर्यवंश वैवस्वत मनु के पुत्र से शुरू होता है । सोमवंश उसकी कन्या इला से प्रारंभ होता है । वैवस्वत मनु की कन्या इला सोमपुत्र बुध से ब्याहीं थी। उसीसे पुरूरवस्-आयु-नहुष—ययाति तक का वंशविस्तार • हुआ । इसे ही पुरूरवस् वा ऐल वंश कहते है । पुरूरवस्पुत्र अमावसु से कान्यकुब्ज में अमावसुवंश शुरू हुआ। आयुपुत्र वृद्धशर्मन् वा क्षत्रवृद्ध से काश्य वा काशिवंश का प्रारंभ हुआ। रजिवंश, अनेनस्वंश तथा रंभवंश ये भी आयुवंश की उपशाखाएं हैं। क्षत्रवृद्ध का द्वितीय पुत्र प्रतिक्षत्र था । उसीसे पुरूरवस् ( ऐल) वंश की एक अलग उपशाखा निर्माण हुई। चंद्रगुप्त (३) अनुवंश -- उशीनर ( केकय, मद्रक), तितिक्षु ( अंग, वंग, कलिंग, सुझ, पुंडू ) । नहुषपुत्र ययाति के अनु, पूरु, द्रुहयु, तुर्वसु एवं यदु नामक पाँच पुत्र थे । इन पाँच पुत्रों से पुरूरवस् वंश की पाँच उपशाखाएं निकली । ये उपशाखाएं इस प्रकार है( १ ) तुर्वसुवंश - - यह दुष्यन्त के समय पुरुवंश मे सम्मीलित हुवा 1 (२) पूरुवंश --अजमीढ, कुरु, चेदि, जह्नु, द्विमीढ, नील । (४) यदुवंश -- अनमित्र, अंधक, कुकुर, क्रोष्टु, ज्यामध, भजमान, रोमपाद, वसुदेव, विदर्भ, विदूरथ, विष्णु वृष्णि, सहस्रजित् सात्वत, हैहय । (५) दुधुवंश - - द्रुह्यु का वंश पुराणों में मिलता है। उसकी शाखाएँ नहीं हैं । सूर्यवंश की विस्तृत समीक्षा के लिये विवस्वत् देखिये । २. (स. इ.) भागवत मत में विश्वरंध्री का पुत्र ( इन्दु देखिये ) | ३. (सृ. इ. ) भानु राजा का पुत्र । इसे श्रुतायु नामक पुत्र था । ४. दाशरथि राम के सूज्ञ नामक मंत्री के पुत्रों में से एक । अश्वमेध का अश्व वापस लाने के लिये हुए युद्ध में, कुश ने इसका वध किया ( वा. रा. उ. १ ) । ५. कृष्ण तथा नानजिती के पुत्रों में से एक ( भा. १०.६१.१३) । ६. कश्यप तथा दनु का पुत्र । चंद्रकला -- माधव ५. देखिये । चंद्रकांत -- एक गंधर्व । इसकी कन्या सुतारा । चंद्रकेतु -- हंसध्वज राजा का भ्राता । २. (सु. इ. ) वायुमत में लक्ष्मण पुत्र । ३. भारतीय युद्ध में दुर्योधनपक्षीय राजा । यह कृपाचार्य का चक्ररक्षक था । अभिमन्यु ने किया ं (म. वि. ५२. ९२८ पंक्ति ६; द्रो. ४७. १५)। चंद्रगिरि - ( सू. उ. ) मत्स्य तथा पद्म मत में तारापीड का पुत्र ( पद्म. सृ. ८ ) । चंद्रगुप्त - (मौर्य. भविष्य . ) एक राजा । नंदवंश नष्ट होने पर यह गद्दी पर बैठा । यह महापद्म नंद की मुरा नामक शूद्रा से उत्पन्न पुत्र था। इस कारण इसके वंश का नाम मौर्यवंश हुआ, ऐसा प्रवाद है । आचार्य चाणक्य ने सब नंदों का नाश कर के इसे सिंहासन पर बैठाया । इसने कुल चौबीस वर्ष राज्य किया । इसे वारिसार नामक पुत्र था (भा. १२.१.१३ ) । इसने पौरसाधिपति सुलून राजा की यवन कन्या के साथ विवाह किया । इसका पुत्र बिंदुसार (भवि. प्रति. १.७ ) । २. कार्तवीर्यार्जुन का मंत्री । इसने जमदग्नि ऋषि का शिरच्छेद किया (ब्रह्मांड. ३.३०.८ ) । २०३ Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चंद्रदेव चंद्रदेव - पांचाल देश का नृप । यह युधिष्ठिर का चक्ररक्षक था। भारतीययुद्ध में कर्ण ने इसका वध किया (म.क. ४४. १५ ) । २. दुर्योधन के पक्ष का नृप। भारतीययुद्ध में अर्जुन ने इसका वध किया (म. प्रो. ४४.२९ ) । चंद्रप्रदर्शन- कश्यप तथा सिंहिका के कनिष्ठ | चंद्रप्रमर्दन इसका नामान्तर है । प्राचीन चरित्रकोश चन्द्रह अतः उसके प्रत्येक अक्षर से एकेक विष्णुदूत उत्पन्न हो कर उन्होनें इस चांड़ालयुग्म को भगा दिया। वह चंडायुग्म मनुष्यवेषधारी पाप एवं निंदा थे (पद्म. 3. १८२ ) । ३. मागध देश का ब्राह्मण । इसने गुरुहत्या की थी । पुत्रों में बिदुर के साथ कलिंजर पर्वत जाने पर उसे एक सिद्ध मिला। उसके उपदेश से इसने सोमवती अमावास्या के चंद्रप्रभ - एक राजा । यह मणिभद्र तथा पुण्यवनी दिन, पुष्करतीर्थ में स्नान किया तथा यह गुद हुआ का पुत्र था । (पद्म. भू. ९१-९२ ) । चंद्रभानु-- (सो. यदु. वृष्णि. ) कृष्ण तथा सत्यभामा का पुत्र (मा. १०.६१.१० ) । चंद्रमस् -- अत्रि तथा अनुसूया का पुत्र । २. कश्यप एवं दनु का पुत्र । ३. समुद्र के दक्षिण तट पर निवास करनेवाला ऋषि । इसने जटायु के भाई संपाति को अध्यात्मज्ञान दिया । सीता की खोज के लिये आये वानरों को मार्ग दिखाने का आदेश इसने जटायु को दिया। पश्चात् यह स्वर्ग सिधारा । चंद्ररूपा - राथंतरकल्प के प्रजापति की पत्नी । इसने त्रिरात्र तुलसीव्रत किया था ( पद्म. उ. २६ ) । चंद्रवती -- प्रचेतस् एवं मारिषा की कन्या । यह प्राचेतस् दक्ष की बहन थी । चंद्रचर्मन् कांग्रेज देश का नृप (म. आ. ६१. ५५६* )। चंद्रवाह - काकुत्स्थ शशाद राजा का नामांतर | चंद्रविज्ञ--(आंध्र. भविष्य.) भागवत मत में विजय का पुत्र (चंडश्री देखिये) । चंद्रशर्मन - - मायापुरी का अग्निगोत्रज ब्राह्मण । यह देवशर्मन् का शिष्य था । देवशर्मन् की कन्या गुणवती इसकी पत्नी थी। एक बार देवशर्मन् तथा यह अरण्य में धर्म समिधा लाने के लिये गये। एक राक्षस ने इन दोनों के प्राण लिये | अत्यंत धार्मिक होने के कारण यह वैकुंठ गया। यह कृष्ण के समय अक्रूर नाम से प्रसिद्ध हुआ (पद्म. कु. ८८-८९ ) । २. सूर्यवंश का एक राजा । यह कुरुक्षेत्र में रहता था । एक बार सूर्यग्रहण के समय, तुलापुरुषदान देने की इच्छा से, इसने एक ब्राह्मण को बुलाया । परंतु वह निंद्य दान होने के कारण, तुलापुरुषदान करते ही उस में से एक चंदलयुग्म उत्पन्न हुआ। इसमें ब्राह्मण ने गीता के नवम अध्याय का पाठ प्रारंभ किया था। चन्द्रशेखर -- एक राजा । यह पुषन् का नाती तथा पौष्य का पुत्र था । इसका राज्य दृपद्वती नदी के किनारे करवीर में था। इसके पिता पौष्य ने पुत्र के लिये, शंकर की आराधना की। शंकर ने उसे प्रसादरूप में एक फल दिया। उस फल के तीन भाग कर के पौष्य ने अपनी तीनं स्त्रियों को दिये। बाद में पौप्यस्त्रियों को तीन भमपुत्र ऐसे हुए की, उन तीनों को जोड़ कर एक पुत्र न सके तीन भागों में बनने के कारण, इसे व्यवक नाम मिला। सूर्यवंशीय राजा ककुत्स्थ एवं भोगवती की कन्या तारावती से इसका विवाह हुआ तारावती को कपोत मुनि के शाप से, भृंगी तथा महाकाल ये भैरव एवं वेतालयोनि के पुत्र हुए (कालि. ५०-५२ ) । इसे दमन, उपरिचर तथा अर्क नामक तीन औरस पुत्र थे। चन्द्रश्री - (आंध्र भविष्य . ) विष्णु के मत में विजय का पुत्र (चंड़श्री देखिये) । चन्द्र सावर्णि-चौदहवाँ मनु ( मनु देखिये ) | चन्द्रसेन सिंहलद्वीप का राजा तथा मंदोदरी का पिता ।. । २. दुर्योधनपक्षीय एक राजा भारतीययुद्ध में यह शल्य का चक्ररक्षक था । यह युधिष्ठिर के द्वारा मारा गया (म. श. ११.५२ ) । २. पांडवपक्षीय क्षत्रिय राजा ( म. स. २७.२२ ) । यह समुद्रसेन राजा का पुत्र था ( म. आ. १७७.११ ) । भारतीययुद्ध में अश्वत्थामा ने इसका वध किया ( म. द्रो. १३१.१२९ ) । यह एक उत्तम रथी था ( म.उ. १६८.१८ ) । इसके रथ को सामुद्र अश्व जोडे गये थे । पाठभेद - चन्द्रदेव । २०४ ४. सम्म राजा का बंधु । चन्द्रहर्तृ -- कश्यप तथा सिंहिका का पुत्र । Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रहास प्राचीन चरित्रकोश चन्द्रहास चन्द्रहास-केरलाधिपति सुधार्मिक राजा का पुत्र। | करने दो ।' आठ वर्ष की आयु में इसका व्रतबंध हुआ। इसका जन्म मूल नक्षत्र पर हुआ था। इसके अतिरिक्त, तदनंतर इसने वेदाध्ययन किया । बाद में यह धनुर्विद्या दारिद्यदर्शक छठवीं अंगुलि इसके चायें पैर को थी। में भी प्रवीण हो गया। पंद्रह वर्ष की आयु होते ही इस अशुभ चिन्ह के कारण, इसका जन्म होते ही इसने दिग्विजय करने की इच्छा दाई । परंतु कुलिंद ने शत्रुओं ने इसके पिता का वध किया। इसकी माता ने कहा, 'अपनेसे बलवान राजाओं को भला तुम किस सहगमन किया। इस प्रकार यह अनाथ हो गया। एक प्रकार जीत सकोगे ? जाने की इच्छा हो, तो जाओ। दाई ने इसको सम्हाला । वह इसे कौतलकापुरी ले गई। कौंतल राजा के दुश्मन मुझे हमेशा त्रस्त करते है । क्योंकि वहाँ तीन वर्षों तक मजदूरी कर के उसने इसका भरण | मैं उसका अंकित हूँ। पोषण किया। कुछ दिनों के बाद वह मृत हुई। भिक्षान्न यह सुन कर चन्द्रहास दिग्विजय करने गया । इसने सेवन कर के इसने दिन बिताये। बाद में कुछ स्त्रियों ने सब राजाओं को जीत लिया। इस प्रकार विजयी हो कर इसका पालन किया। यह पाँच साल का हुआ, तब अन्य तथा अपरंपार संपत्ति ले कर यह चंदनावती लौटा । लड़कों में खेलने लगा। इसे बहुत स्त्रियों ने नहला यह सुन कर कुलिंद इसका स्वागत करने आया। धुला कर खाना खिलाया। बाद में कुलिंद के कथनानुसार, चन्द्रहास ने अपने __एक दिन सहजवश यह धृष्टबुद्धि प्रधान के घर गया। सेवकों द्वारा कौंतल राजा को करभार भेजा। सेवकों ने वहाँ ब्राह्मणभोजन चालू था । वहाँ निमंत्रित योगीश्वर तथा उसे बताया, 'कुलिंद राजा सुखी है। उसके पुत्र मुनियों को चन्द्रहास को देख कर, अत्यंत विस्मय हुआ। चन्द्रहास ने दिग्विजय कर के यह संपत्ति भेजी है। इससे उन्होने इसे आशीर्वाद दिया कि, यह राजा बनेगा। उसी | विस्मयाभिभूत हो कर कौंतल चन्द्रहास को देखने चंदनाप्रकार उन्होने धृष्टबुद्धि से कहा, 'तुम्हारी संपत्ति की रक्षा वती आया। कुलिंद से मिल कर उसने कहा, 'पुत्रजन्म भी यही करेगा।' इससे कुंद्ध हो कर तथा मन में शंका | का वृत्त तुमने हमें क्यों नहीं सूचित किया। चंद्रहास आ कर, उसने इस बालक को जल्लादों के हाथों में सौंप | का सारा जन्मवृत्तांत कुलिंद ने उसे बताया। इससे कौंतल दिया। जल्लाद वध करने के लिये, इसे अरण्य में ने चन्द्रहास को पहचान लिया, तथा मन ही मन कुछ लाये। फिर भी यह पूरे समय हास्यवदन ही था। मार्ग में | शंकित हुआ। पुनः चन्द्रहास का वध करने के विचार मिला हुआ शालिग्राम, इसने बडी भक्ति से अपने मुख में उसके मन में आये । इस संबंध में एक पत्र अपने पुत्र रखा था। जल्लादों ने तीक्ष्ण शस्त्र उठाये। इसने उनकी मदन को लिख कर, वह ले जाने के लिये चन्द्रहास स्तुति की । इससे जल्लादों के मन में इसके प्रति पूज्य बुद्धि से कहा। उत्पन्न हुई। उन्होंने इसका वध न कर के, केवल छठवी | चन्द्रहास कुंतल नगरी के लिये रवाना हुआ। राह में अंगुलि काट ली। वही अंगुलि धृष्टबुद्धि प्रधान को दे एक रम्य स्थान पर यह सोया था। उस स्थान पर कर इनाम प्राप्त किया। राजकन्या चंपकमालिनी अपनी सखियों के साथ आई। ____जल्लादों द्वारा वन में छोड़े जाने के बाद, यह अरण्य | उसके साथ धृष्टबुद्धि प्रधान की कन्या विषया भी थी। में इधर उधर घूमने लगा । इस समय कुलिंद देश का उसने चन्द्रहास को सरोवर के किनारे निद्रामग्न अवस्था राजा, मृगया के हेतु से इसी अरण्य में आया था। इस में देखा । अपने पैरों से नूपुर निकाल कर धीरे-धीरे वह बालक को देख कर, राजा का मन द्रवित हुआ। उसने | उसके पास गई। वहाँ उसने एक पत्र देखा । उसने वह इसकी पूछताछ की । पश्चात् चंदनावती नगरी में इसे पत्र पदा। उस पत्र में चन्द्रहास के लिये विषप्रयोग की अपने साथ ले जा कर, उसे रानी मेधावती को सौंप दिया। सूचना थी। इससे उसका प्रेमी हदय भग्न हो गया । राजा ने इसका नाम चन्द्रहास रखा। सब विद्याएँ भी उसने पत्र के विषमस्मै' शब्द के बदले आम के गोंद इसे सिखायी । चन्द्रहास के कारण कुलिंद में सर्वत्र से 'विषयास्मै' लिखा । पश्चात् पत्र बंद कर वहीं रख आनंद फैल गया । शिक्षाप्राप्ति के समय, चन्द्रहास केवल | दिया । इस प्रकार धृष्टबुद्धि से इसकी रक्षा हुई । बाद में 'हरि' शब्द का ही उच्चारण करता था। इससे कुपित | यह पत्र ले कर चन्द्रहास, मदन के पास गया । यह पत्र हो कर गुरु ने इसकी शिकायत राजा के पास की । परंतु, पढ कर मदन को अत्यंत आनंद हुआ। इधर विषया ने राजा ने कहा, 'इसकी इच्छा के अनुसार इसे व्यवहार | भी देवी की, 'यही पति मुझे प्राप्त हो' इस इच्छा से २०५ रण कुलिंबाएं भी सूचना थी। Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रहास प्राचीन चरित्रकोश चरक उत्कट आराधना की । तदनंतर योग्य मुहूर्त पर मदन ने प्राचीन नाम है । परंतु कुंतलपूर वर्तमान खेड़ा जिला का चन्द्रहास तथा विषया को विवाहबद्ध कर दिया। सरनाल ग्राम है । इसलिये बड़ोदा को चंदनावती नहीं कह सकते । कनिंगहॅम ने लिखा है कि, कुंतलपुर ग्वालियर प्रांत में है । चन्द्रा- वृषपवी दानव की कन्या तथा शर्मिष्ठा की भगिनी २. कृष्ण के समय की एक गोपी (पद्म. पा. ७७ ) । चन्द्रार्क भीकर-कर तथा खशा का पुत्र । चन्द्रावली - कृष्ण की प्रियपत्नी (पद्म. पा. ७० ) 1 चन्द्रायलोक (इ.) मत्स्य के मत में सहाध पुत्र । इसका पुत्र तारापीड़ । इसी समय, धृष्टबुद्धि ने चंदनावती में कुलिंद को बद्ध कर के, प्रजा पर अनन्वित अत्याचार किये। इस प्रकार अत्याचार से प्राप्त धन ले कर वह कुंतलपुर आया । वहाँ बाबों का दान हो रहा था। मया ने चन्द्रहास को विषयादी, यह वृत्त उसे मालूम हुआ। वह अत्यंत संतप्त हुआ तथा मदन पर क्रोधित हुआ । परंतु बाद में मदन ने उसे समझाया। फिर भी चन्द्रहासवध की कल्पना उसके मन से नहीं हटी। देवी के दर्शन के लिये जाने की आज्ञा, धृष्टबुद्धि ने चन्द्रहास को दी। वहाँ उसने इसके वध के लिये दो अंत्यज रखे । परंतु इस समय भी धृष्टबुद्धि के दुर्दैव से चन्द्रहास के बदले मदन का वध हुआ । इसके पूर्व ही कौंतल ने अपनी कन्या चंपकमालिनी तथा सब राज्य चन्द्रहास को दिया । पश्चात् वह स्वयं अरण्य में चला गया। चन्द्रहास राज्य बन गया ऐसा सुन कर भृष्टबुद्धि क्रोध से पागल सा हो गया। चंडिकादर्शन के लिये न जा कर, चन्द्रहास ने कुलप्रथा तोड़ दी, यह सुन कर भी इसे अत्यंत क्रोध आया। वह तुरंत चंडिकामंदिर में गया । वहाँ मदन मृत पड़ा हुआ था। इस समय कृतकर्म का उसे अत्यंत पश्चात्ताप हुआ। उसका मन कहने लगा, 'वैष्णवों से द्रोह करने का यह दुष्परिणाम है'। अंत में पुत्रशोक अनावर हो कर स्तंभ पर सिर पटक कर उसने प्राण दिये। यह वृत्त सुन कर चन्द्रहास को अत्यंत दुःख हुआ । अपने मांस का होम कर के इसने देवी को प्रसन्न किया। देवी ने इसे दो वरदान दिये। इन वरों से मदन तथा धृष्टबुद्धि जीवित हो गये । कुलिंद राजा तल के अत्याचारों से त्रस्त हो कर पत्नी समेत अभिप्रवेश कर रहा था। इतने में धृष्टबुद्धि ने चन्द्रहास का वृत्त उसे कथन किया। बाद में चन्द्रहास अपने पिता के आज्ञानुसार राज्य करने लगा । चन्द्राश्व - (स. इ.) विष्णु के मत में कुवल्याश्रपुत्र । भागवत, वायु तथा मत्स्य मत में दंडपुत्र | । चन्द्रोदय - विराट का भाई ( म. द्रो- १३२.४० ) । चमस - ( स्वा. प्रिय. ) ऋषभ को जयंती से उत्पन्न पुत्र । यह महायोगी था । इसने विदेह के यज्ञ में जा कर, उसे ज्ञानोपदेश दिया ( भा. ५.४.११ ११.५.२ ) । चंप-- चंचु देखिये | २. (सो. अनु. ) मत्स्य तथा विष्णु के मत में पृथुलाक्ष का पुत्र । इसने मालिनीनगर को चंपा नाम दे दिया | चंपक - कुंडलनगरी के सुरथ का पुत्र (पद्म. पा. ४९ ) । चंपकमालिनी - कौंतल देश के राजा की कन्या तथा चन्द्रहास की पत्नी । इसे पद्माक्ष नामक पुत्र था । २. रामपुत्र कुश की चंपिका नामक ज्येष्ठपत्नी से हुयीं नौ कन्याओं से एक । युधिष्ठिर के अश्वमेध यज्ञ के समय, इसने उसका अश्वमेधीय अश्व पकड़ लिया था। परंतु श्रीकृष्ण की आशानुसार अर्जुन ने इसके साथ संधि कर ली। इस कारण, चन्द्रहास ने अयमेव में काफी सहायता की। चन्द्रहास को विषया से मकराक्ष तथा चंपकमालिनी से पद्माक्षनामक दो पुत्र हुए ( अ. ५०-५९)। चन्द्रहास की राजधानी चंदनावती कौतलपुर से छः दूर थी (जै. अ. ५२ ) । चंदनावती बड़ोदा का योजन २०६ चंपा -- चन्द्रसेना नामक राक्षस स्त्री का नामांतर । चंपका - - रामपुत्र कुश की दों पत्नियों में से ज्येष्ठ । चंपकमलिनी आदि नौ कन्यायें हुई। चयत्सेन - बृहत्कल्प का इंद्र । गौतमपत्नी अहल्या से इसने अनैतिक संबंध रखा था ( खन्द्र, ६.२.५ ) । चर - मणिवर तथा देवजनी का पुत्र । इसे चरक - आयुर्वेदीय 'चरकसंहिता' नामक महान् ग्रंथ का कर्ता । यह विशुद्ध नामक ऋषि का पुत्र तथा अनन्त संज्ञक नाग का अवतार था। संभवतः यह नागवंश का होगा भारत के पश्चिमोत्तर प्रदेश का वर्णन इसके ग्रंथ में अधिक आता है। इससे यह उसी प्रदेश का रहनेवाला होगा ( भावप्रकाश ) | शतपथब्राह्मण में चरक का निर्देश है। शतपादाण चरकसंहिता एवं याज्ञवल्क्यस्मृति में शारीरविषयक Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चरक प्राचीन चरित्रकोश चरक विवेचन प्रायः समान है । चरक तथा याज्ञवल्क्य दोनों ने | याज्ञवल्क्यकालीन चरक तथा कनिष्ककालीन चरक ये दो मानवी अस्थिसंख्या ३६० बताई हैं । याज्ञवल्क्य तथा अलग व्यक्तियाँ मानना होगा। चरक दोनों एक ही वैशंपायन के शिष्य थे। २. कृष्णयजुर्वेद का एक शाखाप्रवर्तक । इसका सही चरकसंहिता--उपलब्ध आयुर्वेदीय संहिताओं में नाम कपिष्ठल-चरक था। प्रवरमाला में इसका नामोल्लेख 'चरकसंहिता' सर्वश्रेष्ठ ग्रंथ है। सुश्रुतसंहिता शल्यतंत्र- | है। प्रधान तथा चरकसंहिता कायाचिकित्साप्रधान ग्रंथ है । इस ३. कृष्णयजुर्वेद की एक उपशाखा। कृष्णयजुर्वेद में ग्रंथ में चिकिल्ला-विज्ञान के मौलिक तत्त्वों का जितना उत्तम 'चरक' नाम धारण करनेवाली बारह शाखाएँ (भेद) विवेचन किया गया है, उतना अन्यत्र नही हैं। इसके हैं। उनके नाम :-चरक, आह्वरक, कठ, प्राच्यकठ, अतिरिक्त, इस ग्रंथ में सूत्ररूप में सांख्य, योग, न्याय, कपिष्ठलकठ, आरायणीय, वारायणीय, वार्तान्तवेय, वैशेषिक, वेदान्त, मीमांसा इन आस्तिक दर्शनों का, श्वेताश्वतर, औपमन्यव, पातण्डनीय, तथा मैत्रायणीय । चार्वाक आदि नास्तिक दर्शनों का, तथा परोक्ष रूप से | इनमेसे मैत्रायणीय शाखा में मानवादि छः भेद हैं । चरक व्याकरण आदि वेदांगों का भी.संकलन सुन्दरता से किया वाराहसूत्रानुयायी तथा मैशयणीय मानवसूत्रानुयायी है गया है। इस लिये, इस ग्रंथ को यथार्थता से 'अखिल- | (चरणव्यूह)। शास्त्रविद्याकल्पद्रुम' कहा जा सकता है। | कृष्णयजुर्वेद की एक शाखा, कृष्णयजुर्वेद की सामान्य __ 'चरक संहिता' में दी गयीं आयुर्वेदीय विद्यापरंपरा संज्ञा, तथा कृष्णयजुर्वेद पढनेवाले लोग, ये तीन ही इस प्रकार है । आयुर्वेद सर्वप्रथम ब्रह्मा ने निर्माण किया। अर्थ से 'चरक' नाम का निर्देश उपलब्ध है (श. ब्रह्मा से प्रजापति ने, प्रजापति से अश्विनीकुमारों ने, उनसे ब्रा. ३.८.२.२४, ४.१.२.१९; २.३.१५, ४.१.१०; इंद्र ने, तथा इंद्र से भरद्वाज ने आयुर्वेद का अध्ययन ६.२.२.१-१०, ८.१.३.७; ७.१.१४.२४)। किया । फिर भरद्वाज के प्रभाव से दीर्घ, सुखी तथा | कृष्ण यजुर्वेद की सर्व शाखाओं के लिये चरक यह आरोग्य जीवन प्राप्त कर अन्य ऋषियों में उसका प्रचार नाम प्रयुक्त होता है। तथापि महाराष्ट्र में कृष्णयजुर्वेद किया। तदनन्तर पुनर्वसु आत्रेय ने अग्निवेश, भेड, की चरक नामक ब्राह्मणज्ञाति उपलब्ध है। वह ज्ञाति जतूकर्ण, पराशर, हारीत तथा क्षीरपाणि नामक छः शिष्यों | मैत्रायणी शाखा की है। उनका सूत्र मानव एवं वाराह को आयुर्वेद का उपदेश किया। इन छः शिष्यों में सबसे है। चरक ब्राह्मणग्रंथ का निर्देश ऋग्वेद के सायणभाष्य अधिक बुद्धिमान् अग्निवेश ने सर्वप्रथम 'अग्निवेशतंत्र' में भी आया है (ऋ. ८.६६.१०)। नामक एक संहिता का निर्माण किया (च.मू.अ. १)। इसी 'चरक' नाम का शब्दशः अर्थ, 'प्रायश्चित्त करनेग्रंथ का प्रतिसंस्कार बाद में चरक ने किग, तथा उसका | वाले' ऐसा है । वैशंपायन के लिये जिन्होंने प्रायश्चित्त नाम "चरकसंहिता' पड़ा। उपलब्ध चरकसंहिता के किया, वे सब वैशंपायन शिष्य चरक नाम से प्रसिद्ध चिकित्सास्थान, के १७ अध्याय तथा १२-१२ अध्याय के हुए। वैशंपायन को 'चरकाध्वर्यु' कहा गया है कल्पस्थान तथा सिद्धिस्थान चरक ने लिखे मूल संहिता (वैशंपायन देखिये). में नहीं थे। उनकी पूर्ति दृढबल ने की (च. चि. ३०)। परुषमेध में. चरक (आचार्य) को बलिप्राणियों में बौद्ध त्रिपिटक ग्रंथ में, कुषाणवंशीय राजा कनिष्क का समाविष्ट किया गया है (वा. सं. ३०.१८)। शुक तथा राजवैद्य यों कह कर चरक का निर्देश प्राप्त है। योगसूत्र, कृष्णयजुर्वेद का परस्परविद्वेष इससे प्रकट होता है। कार तथा महाभाष्यकार पतंजलि तथा चरक एक ही थे । याज्ञवल्क्य के अनुयायियों के लिये यह नाम प्रयुक्त ऐसी जनश्रति है। कनिक तथा पतंजलि का काल इसापूर्व नहीं होता था। क्यों कि, उन्होंने वैशंपायन के लिये प्रायश्चित दूसरी सदी निश्चित है । वह चरक काल होगा। नहीं किया (वैशंपायन तथा व्यास देखिये)। श्यामा वैशंपायनशिष्यत्व, एवं पाणिनि तथा शतपथ मे निर्देश यनि (उदीच्य), आसुरि (मध्य) तथा आलंबि के कारण चरव.काल भारतीययुद्ध से नजदीक होने का (प्राच्य ) ये चरकाध्वर्यु तथा तैत्तिरीयों के मुख्य है। वपा संभव है। पाश्चात्य चिकित्सापद्धति के आचार्य हियो तथा पृषदाच्य में प्रथम अभिधार किसे किया जावे, इस क्रिटीस (इ. पू. ६००) ने भी इसके सिद्धान्तों का भाव विषय में चरकाध्वयु का याज्ञवल्क्य से मतभेद है (श. लिया है, ऐसा कई विद्वानों का मत है। ऐसा हो तो, बा. ३.६.३.२४)। २०७ Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चरंग प्राचीन चरित्रकोश चाक्षुष पुत्र । चरंत (सो. छत्र) वायु के मत में आर्ष्टिषेण- आखिर केवल वायुभक्षण कर के इसने तप किया। इस प्रकार बारह वर्ष तक इसने वाग्भव मंत्र का विकाल जप चरिष्णु --होनेवाले सावर्णि मनु के पुत्रों में से एक किया । इससे देवी प्रसन्न हो गई । उसने इसे मन्वन्तरा(मनु देखिये ) । विपत्व तथा दस उत्तम पुत्र दिये ( दे. भा. १०.९ ) । मार्कंडेय पुराण में इसकी जीवनकथा अलग ढंग से दी गयी है (मार्क. ७३ ) | पहले जन्म में यह ब्रह्मदेव चक्षुओं से उत्पन्न हुआ था । अतः इस जन्म में इसे चाक्षुष नाम प्राप्त हो गया। जन्मतः इसे पूर्वजन्म का ज्ञान था । अनमित्र राजा को यह भद्रा से उत्पन्न हुआ । जन्मते ही सात दिन के अंदर इसने हँस दिया । तच खा चर्मचत् शकुनि का कनिष्ठ भ्राता भारतीययुद्ध में इरावत् ने इसका वध किया ( म. भी. ८६.२४ ) । चर्मशिरस्-व्युत्पत्ति बतानेवाला एक आचार्य (नि. ३.१५) । के चर्षणी -- वरुण नामक नवम आदित्य की पत्नी । इसे भृगु नामक पुत्र था (भा. ६.१८.४ ) । " २. अर्थमा आदित्य के मातृका से उत्पन्न पुत्रों का नाम ने इसे पूछा, 'तुम्हें हँसी कैसे आई तब इसने कहा, (भा. ६.६.४२ ) । 'स्वार्थबुद्धि से एक मार्जारी तथा एक जातहारिणी मुझे खाने के लिये घात लगाये बैटी हैं। तुम भी उन्हीं के चलकुंडल - भृगुकुल का गोत्रकार । चलि -- भृगुकुल का गोत्रकार | चलिक - भृगुकुल का गोत्रकार | चलुभि - यजुर्वेदी ब्रह्मचारी । चाक - एक आचार्य । रेवोत्तरस् स्थपति पाटव चाक्र (श. बा. १२.८.१.१७ ), तथा रेवोत्तरस् पाटव चाक्र स्थपति (श. ब्रा. १२.९.३.१ ), इन भिन्नभिन्न नामों से इसका उल्लेख प्राप्त है । इसने कौरव्य राजा आहिक प्रातिपीय के विरोध की पर्वाह न करते हुए, दुष्टरीतु को, दस पीढियों के बाद, पुनः राजगद्दी पर स्थापित किया। चाक्रायण -- उषस्त का पैतृक नाम । चानुपप देखिये । अनुसार, 'बादमें यह मुझे सुख देगा,' इस स्वार्थबुद्धि से मेरा भरणपोषण कर रही 3 " हो तब 'मैं स्वार्थी नहीं भद्रा इसे वहीं छोड कर चली गई । उस समय जातहारिणी इसे उठा कर ले गई। यह दर्शाने के लिये, उसी समय विक्रान्त की पत्नी हैमिनी प्रसूत हुई थी । उसकी शय्या पर जातहारिणी ने इसे रखा । विक्रान्त का पुत्र 'बोध नामक ब्राह्मण के घर ले जा रखा । बोध ब्राह्मण का पुत्र उसने खा लिया। यह जातहारिणी रोज इसी प्रकार पुत्रों की दल-दल कर के क्रम से आनेवा तीसरा पुत्र खा लेती थी । 3 विक्रान्त ने इसका नाम आनंद रखा। रंध होने के बाद इसे गुरु को सौंपा। गुरु ने इसे माँ को नमस्कार कर २. ४. देखिये। २. विश्वकर्मा का पुत्र । इसे विश्वेदेव तथा साध्यगण के आने के लिये कहा। तच संपूर्ण हकीकत पता कर इसने पूछा, 'मैं किस माता को प्रणाम करूं ? " नामक दो पुत्र ध थे। ४. भौत्य मन्यन्तर का देवगण | ५. अनि देखिये। ६. चक्षु का पुत्र ( भा. ८. ५. ७) । यह पष्ठ मन्वंतर का अधिपति एवं मनु था । चक्षु सर्वतेजस् तथा आकृति का यह पुत्र था । इसे नड्वला नामक पत्नी थी ( भा. ४. १३. १५) । भागवत में अन्यत्र इसके पिता चक्षु को ही मनु माना है। बाद में स्वयं ही इसने विक्रांत को कहा, तुम्हारा पुत्र विशाल ग्राम में बोध नामक ब्राह्मण के घर में है। उसे ले आओ। मैं वन में तपश्चर्या करने जा रहा (विक्रान्तं देखिये) । बाद में यह वन्द में जा पर वय करने लगा । ब्रहादेव ने आ कर इसे तपश्चर्या से परावृत्त किया तथा कहा, 'तुम छठवें मनु बननेवाले हो, अतएब अपनी कर्तव्यपूर्ति के लिये सिद्ध रहो। ब्रस देव के कथना नुसार यह कार्यप्रवण हुआ। उम्र राजा की भी कन्या विदर्भा से इसने विवाह किया। उससे इसे दस पुत्र हुए (मनु देखिये) । । यह अंग राजा का पुत्र था यह पुलह ऋषि की शरण में गया । पुलह ने इसे उपदेश किया। इस उपदेश के अनुसार, इसने विरजा नदी के किनारे बारा साल तक घोर तपस्या की तपस्या का प्रथम वर्ष वृक्ष के पत्ते खा कर यह रहा । पश्चात् केवल पानी पी कर तथा | ( भा. ८.५.७ - १० ) । २०८ कर्मावतार तथा समुद्रमंथन इसीके मन्वार में हुए Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाणक्य प्राचीन चरित्रकोश चार्वाक चाणक्य-एक विद्वान् ब्राह्मण । शिशुनागवंश का | चारुनेत्रा--एक अप्सरा (म. स. १०.११)। अंतिम राजा महानंदिन था। इसके बाद शूद्रापुत्र नंद | चारूपद--(सो. पूरु.) भागवत मत में मनस्यु का गद्दी पर आया । उसका तथा सुमाल्य आदि अन्य आठ | पुत्र । इसका नाम विष्णु में अभय, मत्स्य में पीतायुध नंदों का संहार इसने किया। मौर्य चंद्रगुप्त को गद्दी पर | तथा वायु में जयद दिया गया है। बैठाया। नंदो का राज्यकाल सौ वर्षों का था। उनमें से चारुमती--कृष्ण तथा रुक्मिणी की कन्या। यह अंतिम बारह वर्षों में आठ नंदों का इसने संहार किया (भा. | कृतवर्मन् के पुत्र बलि की भार्या थी। १२.१; विष्णु ४.२२-२४; वायु. ९९. मत्स्य. २७२; | चारुमत्स्य--विश्वामित्र का एक पुत्र (म. अनु. ब्रह्मांड. ३.७४) । इसे ही विष्णुगुप्त, कौटिल्य तथा कौटिलेय | ७.५९ क.)। कहते हैं। इसका 'कौटिलीय अर्थशास्त्र' एक सुप्रसिद्ध ग्रंथ चारुवर्मन्-दशार्णाधिपति । इसकी कन्या सुमना । है। (विष्णुगुप्त देखिये)। वह दम की पत्नी थी (मार्क. १३०)। चाणिक्य-एक राजर्षि । शुक्लतीर्थ पर तप करने के . चारुशीर्ष-इन्द्र का प्रियमित्र तथा एक राजर्षि । कारण, इसे सिद्धि प्राप्त हुई (पन. सृ. १९.१४)। यह आलंब गोत्रज था। इसलिये इसका आलंबायन नाम चाणूर--युधिष्ठिर की सभा का एक क्षत्रिय (म. स. प्रचलित हुआ। इसने गोकर्णक्षेत्र में सौ वर्षों तक उग्र ४.२२)। तपस्या की । इसे सौ पुत्र हुए (म. अनु. १८.५)। २. कंस की सभा का एक मल्ल । कृष्ण धनुर्याग के लिये चारुहासिनी--कौंडिन्यपुर के भीम राजा की पत्नी मथुरा आया, तब उसने इसका वध किया (म. स. परि. | | (गणेश. १.१९.७) । रुक्मांगद इसका पुत्र था। १. क्र. २१ पंक्ति . ८४६; भा. १०.४४)। चार्वाक-नास्तिक जड़वाद का प्रातिनिधिक आचार्य । चातकि-- गुकुल का गोत्रकार।। यह बृहस्पति का शिष्य था। बृहस्पतिसूत्र जडवाद का चातुर्मास्य-सवितृ नामक पाँचवें आदित्य एवं पृश्नी ग्रंथ है । इस ग्रंथ में केवल प्रयक्ष प्रमाण तथा ऐहिक सुख की संतानों में से एक (भा. ६.१८.१)। को ही परमश्रेय माना है। . चांद्रमसि-भृगुकुल का गोत्रकार । • चांधनायन--आनंदज का पैतृक नाम (वं. बा.१.१)। । तत्त्वज्ञान-चार्वाकप्रणीत 'नास्तिक जड़वाद' के चामुंडा-दुर्गा देखिये। | अनुसार, केवल भौतिक जगत् ही सत्य है। पंचमहाभूतों में - चांपेय--विश्वामित्र का पुत्र (म. अनु. ७.५८. से पृथ्वी, जल, वायु तथा अग्नि चार भूत प्रत्यक्ष एवं सत्य कुं.)। है, आकाश अप्रत्यक्ष है । इन चार भूतों के योग से ही विश्व चायमान--अभ्यावर्तिन का पैतृक नाम (ऋ.६.२७. के समस्त पदार्थों की उत्पत्ति है। आत्मा पृथक नहीं है। चार ५८)। भूतों के योग से ही चैतन्य उत्पन्न हो जाता है। मरने के चारु--कृष्ण तथा रुक्मिणी का पुत्र । बाद जीव नाम की कोई वस्तु शेष नहीं रह जाती। चतुर्भूतों २. (सो. कुरु.) धृतराष्ट्रपुत्र । का विलय हो जाता है। उनके योग से उत्पन्न चैतन्य नष्ट चारुगुप्त-कृष्ण तथा रुक्मिणी का पुत्र । | हो जाता है । अतः परलोक, स्वर्ग, नरक, ये सब कविचारुचंद्र-कृष्ण तथा रुक्मिणी का पुत्र । कल्पनाएँ है। संसार का नियंत्रण करनेवाला राजा ही चारुचित्र--(सो. कुरु.)धृतराष्ट्रपुत्र । भारतीययुद्ध | परमेश्वर है । धर्मकर्म धूर्त पुरोहितों का जीविकासाधन में भीम ने इसका वध किया (म. द्रो. १११.१९)। | है। भस्मीभूत देह का पुनरागमन नही होता । अतः जबचारुचित्रांगद-(सो. कुरु.) धृतराष्ट्रपुत्र । तक जिये सुखपूर्वक जिये । ऋण कर के भी धृतपान करे । चारुदेष्ण-विष्णु, भागवत, तथा महाभारत के मत | इस मत के प्रतिपादको में पुराण कश्यप, अजितकेशकंमें कृष्ण तथा रुक्मिणी का पुत्र । इसकी बहन चारुमती। | बलिन् , पकुध, काच्छायन आदि आचार्य प्रमुख थे। यह भोज के हाथों मारा गया। (म. मौ. ४.४३)। इस विचारधारा के प्रतिपादन के लिये, चार्वाक के नाम २. मद्रदेशीय राजपुत्र । इसकी पत्नी मंदोदरी। का प्रातिनिधिक रूप से निर्देश किया जाता है । इस मत चारुदेह-कृष्ण तथा रुक्मिणी का पुत्र (भा. १०. | का प्रतिपादन करनेवाले चार्वाकदर्शनादि कई ग्रंथ भी ६१.८)। | उपलब्ध है। प्रा. च. २७] २०९ Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चार्वाक प्राचीन चरित्रकोश चित्रगंधा एक सामान्य लोकमान्य मत चार्वाक प्रतिपादन करता चित्रकेतु--स्वायंभुव मन्वन्तर में वसिष्ठ ऋषि तथा है। अतः चार्वाकदर्शन को लोकायतदर्शन भी कहते है। । ऊर्जा का पुत्र (भा. ४.१.४१)। २. दुर्योधन का मित्र । ब्राह्मणों का अवमान करने से | २. शूरसेन देश का राजा । इसकी एक करोड़ स्त्रिया इसका नाश हुआ (म. शां. ३९-४०)। इसका पूर्वजन्म | थीं पर वे सारी अनपत्य थीं। भी यहाँ दिया है। एक बार अंगिरस ऋषि इसके पास आये। तब इसकी चिकित्वत्--तुषित देवों में से एक । प्रार्थनानुसार उन्होंने यज्ञ किया। उसमें आदित्य को चिकुर—एक सर्प । यह आयक का पुत्र तथा सुमुख | हविभाग देने के बाद, इसकी पटरानी कृतयुति ने हुतशेष का पिता था (म. उ. १०१.२४)। भक्षण किया। इससे उसे पुत्र हुआ। परंतु यह उसकी चिक्तित-लक्ष्मीपुत्र। .. सौतों को सहन न हो कर, उन्होंने बालक को विष दे दिया। चिक्षर-महिषासुर का सेनापति । चिक्षुराक्ष इसका इससे सब शोकाकुल हो गये। इतने में अंगिरस् ऋषि नामांतर है (महिषासुर देखिये)। तथा नारद वहाँ प्रकट हुए। 'अनित्य के लिये शोक चित्ति--स्वायंभुव मन्वन्तर के अथर्वण ऋषि की करना उचित नही है,' ऐसा उपदेश उन्होंने इसे किया। भायां । इसे दध्यच् नामक अश्वमुखी पुत्र था (भा. ४. अपने दुख को सम्हाल कर, इसने पुत्र की उत्तरक्रिया १.४२)। की। पश्चात् नारद का उपदेश ले कर, यह तपस्या करने चित्र-एक सर्प (म. स. ९.८)। यमुना के किनारे गया। २. दुर्योधन के पक्ष का एक राजा। भारतीययुद्ध में ___ दूसरे जन्म में यह विद्याधरों का राजा बना। एक बार प्रतिविंध्य ने इसका वध किया (म. क. १०.३१)। यह विमान में घूम रहा था। तब इसने देखा कि, शंकर ' ३. पांडवपक्षीय चैद्य राजा । भारतीय युद्ध में कर्ण ने पार्वती को गोद में ले कर, सभा में बैठे हैं। यह देख कर इसका वध किया (म. क. ४०.५०) इसने हँस दिया। तब पार्वती ने इसे, 'तुमं राक्षस बनोंगे' ४. (सो. कुरु.) धृतराष्ट्र का पुत्र । भारतीय युद्ध में ऐसा शाप दिया। यह परम विष्णुभक्त था। इस कारण, भीम ने इसका वध किया (म. द्रो. ११२.३०)। शाप देने की शक्ति होते हुए भी, इसने पार्वती को उलटा. ५. (सो. वृष्णि.) वृष्णि राजा का पुत्र । इसका नाम शाप नही दिया । इसने उससे क्षमा माँगी, तथा यह वापस भारावत मे चित्ररथ तथा वायु में चित्रक दिया है। वायु गया। पार्वती के शाप से यह वृत्रासुर बना (भा. ६. में इसे पृश्निपुत्र कहा है। १४-१७)। ६. एक राजा । सोभरि के सूक्त में इसका उल्लेख है ३. दशरथपुत्र लक्ष्मण के चन्द्र केतु नामक पुत्र का (ऋ. ८.२१.१७-१८)। यह सोभरि का आश्रयदाता था नामांतर। यह चंद्रकांतनगर में रहता था (भा. ९.११. (ऋ. ८.२१.१८)। १२)। ७. द्रविड़ देश का एक राजा। यह त्रिवेणीसंगम पर ४. (सो. नील.) पांचालदेश का राजा। यह द्रुपद स्नान करने से मुक्त हुआ (प. उ. १२९; चित्रगुप्त का पुत्र था। द्रोणाचार्य ने इसके भाई वीरकेतु का वध देखिये)। | किया। इसलिये क्रोधित हो कर इसने द्रोणाचार्य पर चित्र गाायणि-एक क्षत्रिय नृप । आरुणि ने आक्रमण किया। परंतु द्रोणाचार्य ने इसका भी वध किया इससे ब्रह्मज्ञान प्राप्त किया (को. उ. १.१)। चित्र (म. द्रो. १२२)। इसे सुकेतु नामक पुत्र था (म. आ. गांग्यायणि इसीका नामान्तर है । चित्र गौश्रायाण-एक आचार्य (सां. ब्रा. २३. १८६; क. ३८.२१)। ५. (सो. वृष्णि.) भागवत मतानुसार देवभाग एवं चित्रक--(सो. वृष्णि.) वृष्णिपुत्र (चित्र ५. देखिये)।। कंसा का ज्येष्ठ पुत्र। २. (सो. कुरु.) धृतराष्ट्रपुत्र । ६. (सो. वृष्णि.) श्रीकृष्ण तथा जांबवती का पुत्र । ३. एक राजा। राजसूय यज्ञ में इसने पांडवों की । ७. गरुड का पुत्र (म. उ. ९९. १२)। सहायता की थी। चित्रगंधा-गोकुल की एक गोपी । जाबालि ऋषि चित्रकुंडल-(सो. कुरु.) धृतराष्ट्रपुत्र । ने श्रीकृष्ण की उपासना की थी। इसलिये गोकुल के प्रचंड २१० Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चित्रगंधा प्राचीन चरित्रकोश चित्ररथ नामक ग्वाले के घर उसे चित्रगंधा नामक गोपी का जन्म | इसके लिये कापेय ने द्विरात्रयज्ञ किया। इस कारण प्राप्त हुआ (पन. पा. ७२)। इसके कुल को क्षत्रपतित्व प्राप्त हुआ, एवं अन्य लोग चित्रगु-श्रीकृष्ण का सत्या से उत्पन्न पुत्र । इसके आश्रित हुए। इससे इस कुल के श्रेष्ठत्व का पता चित्रगुप्त-(सो. कुरु.) धृतराष्ट्र का पुत्र। चलता है (पं. ब्रा. २०.१२.५)। इसके कुल में ज्येष्ठ २. पूर्वकाल में कायस्थ जाति में मित्र नामक गृहस्थ । राजपुत्र सिंहासन पर बैठता था, एवं उसके भाई उसके अनुचर होते थे (शौनक देखिये)। था। उसकी दो संतानें थीं। चित्र नामक पुत्र, तथा चित्रा नामक पुत्री। मित्र की मृत्यु के बाद, उसकी स्त्री सती २. (सो. पुरु.) कुरु का पुत्र (म. आ. ८९.४४)। हुई । कालांतर में चित्र एवं चित्रा प्रभासक्षेत्र में सूर्य की ३. मुनि तथा कश्यप के देवगंधर्व पुत्रों में से एक २. नान तथा आराधना करने लगे। इसका ज्ञान देख कर, यमधर्म ने (अंगारपर्ण देखिये)। युधिष्ठिर ने यज्ञ किया, तब इसने इसको अपने कार्यालय में लेखक नियुक्त किया। यही उसे सौ अश्व दिये (म. स. ४८.२२)। चतुर्विध चित्रगुप्त नाम से प्रसिद्ध हुआ (स्कंद. ७.१.१३९)। आश्रमों से किसी एक आश्रम का मनुष्य, तथा चातुर्वर्यो इसने धर्म का रहस्य यम को बताया (म. अनु. १९३. | में से किसी एक वर्ण का मनुष्य, जिन लक्षणों पर से १३ कुं.)। चित्रलेखा ने चित्रगुप्त को ऐश्वर्यसंपन्न बनाया। पहचाना जा सकता है, वे लक्षण इसने युधिष्ठिर को इस ऐश्वर्य को देख, वैवस्वत मन्वन्तर में विचित्रवस्तु निर्माण बताये। उसी प्रकार उसे तापत्यसंवरणाख्यान बता कर, करनेवाला विश्वकर्मा इसका प्रतिस्पर्धी बन गया (भवि. पांडव तापत्य किस प्रकार हैं, यह समझाया (म. आ.' प्रति. ४.१८)। १५९-१६०)। ४. (स्वा. प्रिय.) गय को गयंती से उत्पन्न पुत्रों में से चित्रचाप--(सो. कुरु.) धृतराष्ट्रपुत्र । भीम ने | ज्येष्ठपुत्र । इसे ऊर्णा नामक स्त्री से सम्राट नामक पुत्र हुआ इसका वध किया। . (भा. ५.१५.१४)। चित्रज्योति-प्रथम मरुद्गणों में से एक । . चित्रदर्शन--(सो. कुरु.) धृतराष्ट्रपुत्र । ५. वीरबाहु का पुत्र । कुश की कन्या हेमा के स्वयंवर के समय, इसने अन्य लोगों पर मोहनास्त्र डाल कर, हेमा चित्रधर्मन्--क्षत्रिय राजा। भारतीययुद्ध में यह | का हरण किया । परंतु कन्या को चोरी से ले जाना ठीक दुर्योधन के पक्ष में था। नहीं, इसलिये इसने मोहनास्त्र वापस लिया । यह स्वयं नगर - चित्रध्वज--चंद्रप्रभ नामक राजा का पुत्र । इसने के बाहर खडा हुआ। तत्पश्चात् युद्ध हुआ, जिसमें इसने कृष्ण को प्रिय लगनेवाली सुंदरी की उपासना की। इस लिये सब को पराजित किया। लव को यह पराजित न कर इसे सुंदर गोपकन्या का जन्म प्राप्त हुआ (पन. पा.७२)। सका। तब पास ही खडे हो कर, युद्ध का अवलोकन करने'चित्रबह--गरुडपुत्र । वाला वीरबाहु आगे बढा । उसने लव को मूछित किया। चित्रवाण-(सो. कुरु.) धृतराष्ट्रपुत्र । कुश वीरबाहू को बाँध लाया। राम ने उन्हें बताया चित्रबाहु--(सो. कुरु.) धृतराष्ट्रपुत्र । कि, यह मेरा मित्र है, तथा उसे छुडाया। बाद में लव की २. कृष्ण का एक पुत्र । यह महारथी था (भा. १०. मूर्छा उतरने पर, हेमा का चित्ररथ से विवाह करवाया। ९०.३३)। पश्चात् वीरबाहु को राम ने बड़े सम्मान से बिदा किया चित्रभानु-(सो. वृष्णि.) कृष्ण का नाती। यह | (आ. रा. राज्य. २.३)। महारथी था (भा. १०.९०.३३)। | ६. (सू. निमि.) सुपार्श्व जनक का पुत्र । विष्णु मताचित्रमहस् वासिष्ठ--सूक्तद्रष्टा (ऋ.१०.१२२)। नुसार इसे संजय कहा गया है । इसका क्षेमधी नामक पुत्र चित्रमुख--एक ऋषि । यह प्रथम वैश्य था। बाद में | था। यह ब्राह्मण बना तथा ब्रह्मर्षि हुआ। इसने अपनी कन्या | ७. (सो. अनु.) राजा रोमपाद का नामांतर । दशरथ वसिष्ठपुत्र को दी थी (म. अनु. ५३. १७. कुं.)। इसका मित्र था। यह निपुत्रिक था, इसलिये दशरथ ने चित्ररथ--एक राजा । यह तुर्वशों का शत्रु था। | अपनी पुत्री शांता इसे दत्तक दी। इसने शांता ऋश्यशंग इन्द्र ने सुदास के लिये सरयू नदी के तट पर अर्ण तथा | ऋषि को दी। बडी युक्ति से उसे अपनी नगरी में चित्ररथ का वध किया (ऋ४.३०.१८)। निमंत्रित कर, स्वयं पुत्रकामेष्टि यज्ञ करवाया तथा दशरथ Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चित्ररथ प्राचीन चरित्रकोश चित्रशिखंडिन से भी करने को कहा । इसी कारण दोनों राजाओं को पुत्र २. पार्वती की सखी । पूर्वजन्म में यह शतशंग की हुए। इसे चतुरंग नाम एक पुत्र हुआ (भा. ९.२३. | कन्या थी । जन्म से ही इसे बकरी का मुख था । ७-२०)। इसके पूर्वजन्म में यह बकरी थी। महीसागर संगम में ८. दशरथ का सारथि। केवल इसका धड़ गिरा। इसके धड़ ने राजकुल में जन्म ९. (सो. क्रोष्ट.) भागवत मतानुसार रुशेकु तथा | लिया । सिर अलग जा गिरने के कारण, वह उसी रूप में मत्स्य मतानुसार सौम्य का पुत्र (रुशेकु देखिये)। जन्मा। बाद में स्तंभतीर्थ पर इसने व्रत, उद्यापन आदि १०. वृष्णिपुत्र (चित्र ५. देखिये)। किया। सिर हूँढ कर उसका भस्म कर संगम में डाला । स्कन्द ११. मार्तिकावतक देशीय राजा। यह जमदग्नि का | के द्वारा बाँधा गया मंदिर जीण हो गया था। उसे सोने समकालीन था। इसकी क्रीड़ा देखते रहने के कारण, का बना कर इसने उसका जीर्णोद्धार किया। तब शंकर ने रेणुका को नदी से घर वापस आने में देर हुई (म. व. इससे कहा, तुम्हारे 'कुमारी' नाम के कारण, मैं यहाँ ११६.६; जमदग्नि देखिये;)। "कुमारीश" के नाम से प्रसिद्ध होऊंगा। शंकर ने इसे महाकाल नामक सिद्ध से विवाह करने के लिये कहा। १२. भारतीययुद्ध में पांडवों के पक्ष का एक शैब्य तदनंतर उससे विवाह कर के यह रुद्रलोग में गई । वहाँ राजा (म. द्रो. २२.५१)। पार्वती ने इसे चित्रलेखा नामक अपनी सखी बनायी १३. (सो. नील.) द्रुपदपुत्र । द्रोणाचार्य ने इसका (स्कन्द. १.२.३.९)। वध किया । इसे वीरकेतु, चित्रवर्मा तथा सुधन्वा नामक तीन भाई थे (म. द्रो. ९८.३७)। ३. चित्रगुप्त देखिये। १४. अंग देश का राजा। इसकी स्त्री प्रभावती, ऋषि चित्रवती-वसु की पत्नी । देवशर्मा की रुचि नामक स्त्री की बहन थी। प्रभावती के चित्रवर्मन् (सो. कुरु.) धृतराष्ट्र का पुत्र । भीम घर होनेवाले विवाह समारंभ में अप्सराओं द्वारा | ने इसका वध किया (म. द्रो. १११.१८-१९:)। नीचे डाले गये पुष्पों में से कुछ पुष्प, रुचि ने अपने २. (सो. नील.) द्रुपदपुत्र पांचाल । भारतीय युद्ध में बालों में लगाये। यह देख कर प्रभावती ने कहा, 'मुझे द्रोण ने इसका वध किया (म. द्रो. ९८.३७-४१.)। भी ऐसे पुष्प दो। तब रुचि ने यह बात अपने पति को | इसका बंधु वीरकेतु। . बताई। उसके पति देवशर्मा ने अपने शिष्य विपुल द्वारा ३. पांचाल सुचित्र का पुत्र । भारतीययुद्ध में द्रोण ने ऐसे पुष्प मँगवाये (म. अनु. ७७. कुं.)। इसका वध किया (म. क. ४.७८)। १५. (सो. कुरु. भविष्य.) भविष्य मतानुसार निश्चक्र ४. सीमंतिनी देखिये। का पुत्र । मत्स्य मतानुसार भूरिपुत्र, भागवत मतानुसार | चित्रवाहन-मणलूर नगर का पांड्य राजा । प्रभंजन उक्तपुत्र, वायु तथा विष्णु मतानुसार उष्णपुत्र । इसने | इसका मूल (आदि) पुरुष था । मलयध्वज तथा प्रवीर एक हजार वर्ष राज्य किया। इसके अन्य नाम हैं। अर्जुन तीर्थयात्रा करने जाने लगा। चित्ररूप--रुद्रगणों में से एक । उस समय इसने अपनी कन्या चित्रांगदा, अर्जुन की इच्छाचित्ररेखा--कृष्ण की प्रिय गोपी ( पन. पा. ७७)। नुसार, विवाहविधि से इसे दी। बाद में अर्जुन से उसे २. बाणासुर के कुंभांड नामक प्रधान की कन्या। यह बभ्रुवाहन नामक पुत्र हुआ। उसी के हाथ में इसने राज्यउषा की सखी थी। यह चित्रकला में कुशल थी। इसने सूत्र दिये (म. आ. २०७.१४; स. परि. १. ऋ. १५)। कृष्ण के नाती अनिरुद्ध को योगसामर्थ्य से उठा लाया था। भारतीययुद्ध में अश्वत्थामा ने इसका वध किया (म. क. चित्रलेखा भी इसका नाम है. (भा. १०.६२.१४)। । ५६.)। चित्ररेफ--(स्वा. प्रिय.) मेघातिथि के सात पुत्रों | चित्रवेगिक--एक सर्प (म. आ. ५२.१७)। में से एक । इसका खंड इसी के नाम से प्रसिद्ध है (भा. चित्रशिखंडिन्--मरीचि, अंगिरा, अत्रि, पुलस्त्य, १०.६२.१४)। पुलह, ऋतु, तथा वसिष्ठ इन सप्तर्पियों के समुदाय के चित्रलेखा--एक अप्सरा । पुरूरवस् ने केशिन् नामक | लिये यह संज्ञा दी गयी है (भवि. ब्राह्म. २२; म. शां. दैत्य को मार कर इसे मुक्त किया था । | ३२२.२७)। २१२ Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चित्रसेन प्राचीन चरित्रकोश चित्रांगदा चित्रसेन--(सू. दिष्ट.) भागवत मतानुसार निरष्यंत- | २. सोम की सत्ताईस स्त्रियों में से एक । पुत्र । इसका पुत्र दक्ष । ३. चित्रगुप्त की स्त्री। २. देवसावर्णि मनु का पुत्र । ४. वाराणशी के सुवीर नामक वैश्य की स्त्री। इसने ३. (सो. कुरु.) धृतराष्ट्र का पुत्र । भारतीय युद्ध में | एक संन्यासी की सेवा की एवं उसे आदरपूर्वक भोजन भीम ने इसका वध किया (म. क. ४.२२.)। कराया था (पद्म. मू.८६ दिव्यादेवी देखिये)। इस कारण ४. अभिसारपुरी का क्षत्रिय राजा। अर्जुन ने इसे | अगले जन्म में यह राजकन्या बन गयी । पराजित किया (म. स. २४.१८)। यह दुर्योधन के | ५. एक अप्सरा (म. अनु. ५०.४७ कुं.)। पक्ष में था। श्रुतकर्मन् ने भारतीय युद्ध में इसका वध | चित्राकुमारी--(सो. वसु.) वायुमतानुसार वसुदेव किया (म. क. १०.१४)। की पौरवी से उत्पन्न पुत्री। ५. पांडवों के पक्ष का राजा । भारतीययुद्ध में समुद्रसेन | चित्राक्ष-(सो. कुरु.) धृतराष्ट्रपुत्र । भारतीय युद्ध ने इसका वध किया (म. क. ४.२७)। में भीम ने इसका वध किया (म. द्रो. १११.१८)। ६. कर्णपुत्र । भारतीययुद्ध में नकुल के द्वारा यह | चित्रांग-(सो. कुरु.) धृतराष्ट्रपुत्र । मारा गया (म. श. ९.१९)। २. एक योद्धा । राम ने अश्वमेध यज्ञ किया, तथा ७. द्रुपद का पुत्र | भारतीय युद्ध में कर्ण ने इसे मारा | अश्व की रक्षा के लिये शत्रुघ्न को ससैन्य भेजा । चित्रांग (म. क. ३२-३७)। | ने उसकी सेना पर बाणवृष्टि की । पुष्कल तथा चित्रांग ८. जरासंध का सेनापति (म. स. २०.३०)। का घमासान युद्ध हुआ, जिसमें पुष्कल ने चित्रांग का वध ९. एक गंधर्व (म. स. ४.३१.)। विश्वावसु नामक किया (पन. पा. २७)। गंधर्व का पुत्र । इसकी गणना देवर्षियों में होती है। चित्रांगद-एक गंधर्व । इसने शंतनु के पुत्र चित्रांगद इसने देवलोक में अर्जुन को गंधर्व विद्या सिखायी ( म. व. | का माया के द्वारा वध किया (म. आ. ९५.१०)। ४५.६) । इन्द्र के कहने पर, इसने उर्वशी को अर्जन के २. सीमंतिनी नामक राजकन्या का पिता (शिव. पास भेजा था (म. व. परि. १. क्र. ६.)। इंद्र के | उमा. २)। कहने पर, घोषयात्रा हेतु निकले दुर्योधन का अपमान ३. (सो. कुरु.) शंतनु का सत्यवती से उत्पन्न पुत्र । करने के लिये, यह वहाँ गया (म. व. २२९.२८)। शंतनु की मृत्यु के बाद यह गद्दी पर बैठा । परंतु बाद में इसके साथ कर्ण का युद्ध हुआ। अंत में कर्ण पराजित चित्रांगद गंधर्व ने हिरण्वती नदी के किनारे तीन वर्ष युद्ध हो कर भाग गया। इसने दुर्योधन को अंध लिया, एवं उसे | कर के इसका वध किया (म. आ. ९५)। इसे संतति न यह इंद्रलोक ले गया (म. व. २३१)। अंत में अर्जुन | होने के कारण, इसके बाद विचित्रवीर्य राजगद्दी पर बैठा । ने इसे पराजित किया (म. व. २३१-२३३)। ४. कलिंगदेशीय राजपूर नगरी का राजा (म. आ. १०. एक राजा । इसने अनेक पाप किये थे। एक १७७.१९)। दुर्योधन ने इसकी कन्या का हरण किया था बार, एक बाघ का पीछा करते हुए, यह एक अरण्य में | (म. शां ४.२)। . गया । तब कई अंत्यज स्त्रियों को इसने जन्माष्टमी का व्रत ५. द्रौपदी स्वयंवर में उपस्थित एक राजा । यह दशार्ण करते हुए देखा। राजा को भूख लगी थी। इसलिये उन देश का राजा था। अर्जुन ने इसे पराजित किया स्त्रियों ने, नैवेद्य के लिये जो अन्न लाया था, उसमें से | (म. आश्व, ८६.६)। थोड़ा अन्न माँगा। उन्होंने इसे यह व्रत बताया चित्रांगदा--चित्रवाहन राजा की कन्या । अर्जुन की तथा अन्न नहीं दिया। इससे इसकी पापबुद्धि नष्ट हो भार्या । इसका पुत्र बभ्रुवाहन (चित्रवाहन देखिये)। गई। इसने यह व्रत करने के बाद इसका उद्धार हुआ | इसने पांडवों के राजसूय यज्ञ के लिये करभार दिया था ( पद्म. ब्र. १३)। (म.स. परि. १. क्र. १५)। यह बभ्रुवाहनसहित याग के चित्रसेना--एक अप्सरा । कश्यप की प्राधा से उत्पन्न लिये हस्तिनापुर गयी थी (म. आश्व. ८९.२५)। पांडवों कन्या । के महाप्रस्थान के समय, यह अपने पिता के घर वापस चित्रा-(सो. वसु.) वायुमतानुसार वसुदेव की | आ गयी। मदिरा से उत्पन्न पुत्री। २. कापोत देखिये। २१३ Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चित्रायुध चित्रायुध -- पांचाल राजा । द्रौपदीस्वयंवर में उपस्थित राजाओं में से यह एक था ( म. आ. १७७.१० ) । भारतीय युद्ध में कर्ण ने इसका वध किया ( म. क. ४०. ५० ) । यह महारथी था ( म. उ. १६८.१६ ) । २. (सो. कुरु. ) धृतराष्ट्र का पुत्र । भारतीय युद्ध में भीम ने इसका वध किया (म. द्रो. १११.१८ ) । चित्राश्व शास्त्र देशाधिपति गुमत्सेन का पुत्र | सावित्री के पति सत्यवान का यह नामांतर था बचपन में इसे अश्व बहुत प्रिय थे। यह मिट्टी के अध था, उनके चित्र खींचता था। अतः इसका नाम चित्राश्व पड़ा (म. व. २७८.१३ ) । नाता प्राचीन चरित्रकोश २. एक राजर्षि (म. अनु. १६५.४९ ) । चित्रोपचित्र--(सो. कुरु. ) धृतराष्ट्रपुत्र । भारतीय युद्ध में भीम ने इसका वध किया (म. द्रो. १११. १८ ) । मत में चिदि - (सो. क्रोष्टु. ) मत्स्य एवं वायु कौशिक का पुत्र । विष्णु एवं पद्म में इसे चेदि कहा गया है । भागवत में इसे उशिक का पुत्र कहा गया है । इसके देश का नाम चेदि था । इसके वंशज चैद्य या चेदि कहलाते थे ( भा. ९.२४.२ ) । चिबिलक—(आंध्र. भविष्य.) लंबोदर राजा का पुत्र विष्णु में इसका नाम दिविक, तथा मत्स्य में पुत्र। विष्णु में इसका नाम दिविलक, तथा मत्स्य में अपीतक दिया है । इसका पुत्र मेधस्वाति । चिरकारिन या चिरकारिक-मेधातिथि गौतम के दो पुत्रों में से कनिष्ठ । इसकी माता अहल्या गौतम ऋषि । को अहल्या के व्यभिचार का पता चला तब उसने इसे मातृवध करने के लिये कहा । परंतु चिरकारी अपने नाम के अनुसार दीर्घसूत्री था । यह विचार करते बैठा रहा। बाद में, पत्नी का वध करने के लिये कहने पर गौतम ऋषि को पश्चाताप हुआ। वह पत्नी के पास आया । चिरकारी शस्त्र ले कर मातृवध के लिये खड़ा था । पिता को देखते ही शस्त्र नीचे रख कर, इसने पिता को नमन किया। विचारी होने के कारण, इतके हाथों हत्या नहीं हुई ( म. शां. २५.८; स्कंद. १.२.६ ) । चेदि ने इन दोनों का वध किया (ऋ. १.११२.२३) । अन्यत्र, शम्बर, पिप्रु तथा शुष्ण के साथ इन दोनों का इंद्रद्वारा पराभूत होने का, तथा इनके दुर्गो को नष्ट करने का उल्लेख है (ऋ. ६.१८.८ ) । चूटाला-शिलिध्वज राजा की भार्या। यह आत्मशानी थी। इसका पति राज्य छोड़ कर भरण्य में चला गया। उसको आत्मशान का मार्ग दर्शा कर इसने पुनः राज्य करने के लिये प्रेरित किया ( यो. वा. ७७-१११ ) । चूर्णनाभ- कश्यप तथा दनु का पुत्र । | चूल भागवित्ति-मधुप पैग्य का शिष्य (बृ. उ. ६. ३.९-१० ) । माध्यंदिन आवृत्ति में निर्दिष्ट चूद इसका पाठभेद है। 1 चूलि - एक ऋषि यह तपस्या कर रहा था। सोमदा नामक पर्थी इसकी सेवा कर रही थी तपश्चर्या पूर्ण होने के बाद, गंधर्थी ने पुत्रप्राप्ति की इच्छा दर्शाई । इसने एक मानसपुत्र निर्माण कर के उसे दिया। उसका नाम ब्रह्मदत्त ( वा. रा. बा. ३३) । चेकितान- वृष्णिवंशीय क्षत्रिय राजा । यह पांडवों के पक्ष में था ( म.स. ४९.९ . २५.२ ५६.२:१९६. भारतीययुद्ध में भी यह था । इसके रथ के अश्व कुछ २३; भी. १९.१४ ) । यह द्रौपदीस्वयंवर में गया था । भारतीययुद्ध में भी यह था। इसके रथ के गंध कुछ पीलाहट लिये थे । सुशर्मा के साथ, काफी देर तक, इसका । युद्ध हुआ। द्रोण ने इसके सारथी पाणि को मार डाला । म. द्रो. १२५ ) भारतीययुद्ध में यह दुर्योधन के द्वारा मारा गया (म.शं.१९.३१ ) । ( २. एक ब्राह्मण। यह कृषि करता था। एक दिन यह खेती का काम कर, पसीने से लथपथ हो घर आया । नैवेद्य अर्पण किया। मरणोपरांत यह शिवलोक गया। पसीना न पोंछ कर ही जल्दी में इसने शंकर की पूजा कर, वीरभद्र ने इसे शाप दिया, पसीना न पोछने के पहले ही शिव पूजन किया, इसलिये तुम्हारे शरीर से हमेशा पसीने की धाराएँ बहती रहेंगी। तुम्हें स्पेवगण नाम मिलेगा ' ( पद्म. पा. ११७ ) । चुमरि - एक अनार्य राजा। यह तथा इसका मित्र धुनि, दभीति ऋषि को सताते थे। दभीति के कहने पर इंद्र २१४ चेदि - (सो. यदु. रोमपाद ) उशिक का पुत्र । यह विदर्भपुत्र रोमपाद के वंश में से एक था। इससे चैद्यनृप चिरांतक - गरूडपुत्र ( म. उ. ९९.१३ ) । चीरवास एक यक्ष (म. १. १०.१७) । २. दुर्योधनी एक राजा (म. आ. ६१.५६ ) । पैदा हुएँ (मा. ९. २४. १-२ चिदि । शिशुपाल चीरवास इसीका पाठभेद है । चैव देखिये) । दिदेश विध्य के पश्चिम शु भाग में था । इस देश के नृप महाभारतादि ग्रंथों में प्रसिद्ध है। तथा Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चेदिप - प्राचीन चरित्रकोश च्यवन चेदिप-(सो. ऋक्ष.) उपरिचर वसु का पुत्र एवं | चैलकि-जीवल का पैतृक नाम (श. ब्रा. २.३.१. चेदि देश का राजा (भा. ९. २२.६)। | ३४)। चेनातकि-अंगिराकुल का गोत्रकार । चोल--द्रमिड देश का क्षत्रिय राजा (म. स. परि. चेलक शांडिल्यायन-एक ऋषि । एक विशेष | १. क्र. १५, पंक्ति ५६)। उपासना के प्रकार का यह ज्ञाता था (श. बा. १०. २. कांतिपुर का राजा । अनंतशयन में बड़े ठाठबाठ ४. ५.३)। | से इसने श्रीरंग की पूजा की। तदनंतर विष्णुदास चैकितानेय-सामविद्या का एक आचार्य (जै. उ. | नामक ब्राह्मण ने तुलसीपत्र से श्रीरंग की बड़ी भक्ति से ब्रा. १. ३७.७; ४२. १, २.५२)। इसका सही नाम | पूजा की । एक गरीब ब्राह्मण की यह मजाल देख कर, राजा वसिष्ठ चैकितानेय था। साम के बारे में लिखते समय, | बड़ा ही क्रोधित हुआ। इसका नामनिर्देश प्राप्त है (बृ. उ. १.३. २४)। पश्चात् इन दोनों ने तय किया कि, जो श्रेष्ठ विष्णुभक्त पड़र्विस ब्राह्मण (४१), तथा वंशब्राह्मण में भी होगा, वह पहले वैकुंठ जावेगा । तदनंतर इसने दानइसका उल्लेख आया है . (२)। बहुत सारे ग्रंथों में | दक्षिणा, यज्ञयाग आदि प्रारंभ किया। विष्णुदास ने माघ इसका निर्देश चैकितानेय नाम से प्राप्त है। शंकराचार्य तथा कार्तिक व्रत, तुलसीवन का पोषण, एकादशी, द्वादशाने चैकितानेय का अर्थ, चैकितान का पुत्र लगाया है। क्षर मंत्र, उसी प्रकार विष्णुस्मरण, पूजन, नृत्य, गायन, परन्तु वंशब्राह्मण के भाष्य में, चैकितानेय एक विशेष | तथा जागरण यह क्रम प्रारंभ किया। अन्त में इस भक्ति नाम माना गया है। यह वासिष्ठ आरैहण्य का शिष्य प्रभाव से विष्णुदास इसके पहले वैकुंठ गया । तब इसे था । ब्रह्मदत्त का यह पैतृक नाम था। उपरति हो कर, भक्ति छोड़ बाकी सब तुच्छ हैं, यह इसने चैकितायन-दाल्भ्य का पैतृक नाम (छां. उ. १. जान लिया । इसने यज्ञ में छलांग लगाई । परंतु विष्णु ने इसे झेल लिया। विष्णु इसे स्वर्ग ले गया। चोल तथा विष्णुदास को स्वर्ग में सुशील तथा पुण्यशील ये नये नाम चैत्य--मरुद्गणों के प्रथम गणों में से एक। प्राप्त हो गये। वे ईश्वर के द्वारपाल बने । राज्यत्याग के चैत्र--यज्ञसेन का पैतृक नाम ( का. सं. २१, ४)। बाद इसने अपने भतीजे को गद्दी पर बैठाया। (पद्म. उ. २.स्वारोचिष मन्वंतर के मनु का पुत्र । १०८.१०९; स्कंद. २.४.२६-२७)। चैत्ररथ-चित्ररथ राजा का पुत्र । भारतीययुद्ध में चौक्षि--भृगुकुल का गोत्रकार । यह पांडवों के पक्ष में था। चौलि--वसिष्ठकुल का गोत्रकार । चैत्रसेनि--चित्रसेन पांचाल का पुत्र । यह पांडव च्यवतान मारुताश्व-एक राजा । यह मरुताश्व का वंशीय था तथा भारतीययुद्ध में पांडवों के पक्ष में था।। वंशज था । ध्वन्य, पुरुकुत्स तथा यह संवरण के आश्रयचैत्रा-ज्यामध राजा की भार्या तथा शिबि राजा दाता थे (ऋ. ५. ३३.९)। की कन्या । शैव्या इसीका नामान्तर है। च्यवन--(सो. नील) एक राजा। दिवोदास को चैत्रायण--अत्रिकुल का गोत्रकार । मित्रेयु नामक एक पुत्र था। च्यवन उसका पुत्र है। इस चैत्रियायण-यज्ञसेन का वंशज । इसने छंदोभिद | को बाद में सुदास नामक एक पुत्र हुआ (भा. ९. नामक इष्टकों की चिति से, पशुओं की प्राप्ति कर ली (ते. | २२.१)। सं. ५.३.८.१)। | २. (सो. ऋक्ष.) भागवत, विष्णु तथा वायु के मत चैद्य-(सो. अज.) मत्स्य मत में मैत्रेयपुत्र । में सुहोत्र का पुत्र, तथा मत्स्य के मत में सुधन्वन् चैद्योपरिचर वसु--(सो. ऋक्ष.) उपरिचर वसु | का पुत्र । देखिये। ३. गोकर्ण नामक शिवावतार का शिष्य । २. शिशुपाल को चैद्य कहते थे (कशु तथा चिदि ४. एक धर्मशास्त्रकार । अपरार्क तथा मिताक्षरा देखिये । ग्रंथों में इसके धर्मशास्त्र का उल्लेख प्राप्त है (अप. १. चैल--व्यास की सामशिष्यपरंपरा के वायु मता- | २०७, ३; २६४-२६५, मिता. ३. ३०, ३. २९२)। नुसार शृंगीपुत्र का शिष्य । निम्नलिखित विषयों पर इसने रचे काफी सूत्र तथा २१५ Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ च्यवन प्राचीन चरित्रकोश च्यवन श्लोकों का उद्धरण, इन दो ग्रंथो में दिया हैं:-(१) गोदान | से पुलोम जल कर भस्म हो गया । बालक को ले कर पुलोमा के समय कहे जानेवाले मंत्र, (२) कुत्ता, चण्डाल, प्रेत, भृगृआश्रम में वापस आई (म. आ. ४-६; ६०.४४)। चिताधम, मद्य, मद्यपात्र आदि अस्पर्श वस्तुओं का स्पर्श | बडा होने पर, च्यवन वेदवेदांगों में निष्णात बना। होने पर किये जानेवाला प्रायश्चित्तविधी, (३) गोवध पश्चात् यह कठोर तपस्या करने लगा। तपश्चर्या करते समय, का प्रायश्चित्तविधी। इसके शरीर पर एक बड़ा वल्मीक तैयार हो गया। इसी भास्करसंहिता के अन्तर्गत जीवदानतंत्र का यह | वन में, राजा शांति अपने परिवार के साथ क्रीड़ा करने रचयिता है (बह्मवै. २. १६)। हेमाद्रि, माधवाचार्य, आया । उसकी रूपवती कन्या सुकन्या अपनी सखियों के एवं मदनपारिजात इन तीन ग्रंथों में इसके आधार लिये | साथ घूमते घूमते, उस वल्मीक के पास आई । उसने देखा गये हैं। कि, वल्मीक के अंदर कुछ चमक रहा है। चमकनेवाला च्यवन भार्गव---एक प्राचीन ऋषि । ऋग्वेद में इसे | पदार्थ क्या है, यह देखने के लिये उसने कांटों से उसे एक वृद्ध तथा जराकान्त व्यक्ति के रूप में दिखाया गया टोका। इससे च्यवन ऋषि की आँखें फूट गई। अत्यंत है। इसे अश्वियों ने पुनः युवावस्था तथा शक्ति प्रदान संतप्त हो कर, इसने संपूर्णसेना समेत राजा का मलमूत्रावरोध की, तथा इसे अपनी पत्नी के लिये स्वीकार्य तथा कन्याओं कर दिया । राजा हाथ जोड़ कर इसकी शरण में आया। का पति बना दिया (ऋ. १.११२.६, १०, ११७.१३; च्यवन ने कहा, 'तुम्हारी कन्या मुझे दो' । राजा ने यह ११८.६; ५.७४.५, ७.६८.६; १०.३९.४)। मान्य किया । सुकन्या का वृद्ध च्यवन से विवाह हो गया ऋग्वेद में सर्वत्र इसे च्यवान कहा गया है। च्यवन (म. आ. ९८)। नाम से इसका निर्देश, ऋग्वेद के अतिरिक्त अन्य सभी बाद में उसी वन में, सुकन्या अपने पतिसमवेत वास वैदिक ग्रंथों में, निरुक्त में तथा महाकाव्य में मिलता है। | करने लगी। एक दिन अश्विनीकुमारों ने उसे देखा। (नि.४.१९)। सर्वानुक्रमणी में इसे भार्गव कहा है (ऋ. उसने सुकन्या से कहा, 'तुम हमारे साथ चलो' । तब १०.१९)। यह भृगु का पुत्र था। इसने अपने पातिव्रत्य से अश्चियों को आश्चर्यचकित कर दिया। सुकन्या ने कहा, 'मेरे पति को यौवन प्रदान ब्राह्मणों में इसे दाधीच कहा गया है (श. ब्रा. ४.१. | करो'। अश्विनीकुमारों के प्रसाद से च्यवन तरुण हुआ। ५, पं. ब्रा. १४.६.१०)। ग्राम के बाहर बैठे हुए, भयानक | | एक तालाब में डुबकी लगाने के कारण, च्यवन पुनः युवा आकृतिवाले, तथा अत्यंत वृद्ध च्यवन को, बालकों ने पत्थर हो गया, ऐसी कथा ब्राह्मणों में दी गयी है (श. बा. ४. . मारे, आदि कथाएँ पुराणों के समान ब्राह्मणों में भी प्राप्य है। यह सामों का द्रष्टा भी था (पं. ब्रा. १३.५.१२, अश्वियों का इस उपकार का बदला चुकाने के लिये, १९.३.६)। च्यवन अपने श्वसुर के गृह में गया। शर्याति राजा के ऋग्वेद में, इसे अश्विनों का मित्र, तथा इंद्र एवं उसका हाथ से एक विशाल यज्ञ करवा कर, अश्विनीकुमारों को एक उपासक पक्थ तुर्वयाण का विरोधक दर्शाया है यह हविर्भाग देने लगा। परंतु अश्चियों को हविर्भाग (ऋ. १०.६१.१-३)। भृगु का अन्य पुत्र विदन्वत् ने मिलना, इंद्र को अच्छा न लगा। उसने इसे मारने के इसे इंद्र के विरुद्ध सहायता की थी (जै. ब्रा. ४.१.५. लिये बज्र उठाया । च्यवन ने इन्द्र के नाशार्थ मा नामक १३)। आगे चल कर, इंद्र से इसकी संधि हो गई (ऋ. | राक्षस उत्पन्न किया। उसे देखते ही भयभीत हो कर, ८.२१.४)। इन्द्र इसे शरण आया । इसी समय से, अश्विनीकुमारों को यह भृगु ऋषि तथा पुलोमा का पुत्र था। पुलोमा के यज्ञ में हविर्भाग मिलने लगा (म. व. १२१-५२५%, उदर में भृगूवीर्य से गर्भसंभव हुआ। एक बार, भृगु | अनु. २६१ कुं; भा. ९.३; दे. भा. ७.३-७)। नदी पर स्नान करने गया। तब पुलोम नामक राक्षस ने ___ एक बार प्रयागक्षेत्र में च्यवन ने उदबासव्रत का पुलोमा का हरण किया। कई ग्रंथों में, इस राक्षस का प्रारंभ किया। रातदिन यह जल में जा कर बैठता था। नाम दमन भी दिया गया है (पन. पा. १४)। सब मछलियाँ इसके आसपास एकत्रित हो जाती थीं। ___ भय के कारण, मार्ग में ही पुलोमा प्रसूत हो गई। अतः | एक बार कुछ मछुओं ने मछलियाँ पकड़ने के लिये. जाल इस पुत्र को च्यवन नाम प्राप्त हो गया। च्यवन के दिव्यतेज | लगाया। तब उसमें मछलियों के साथ, च्यवन ऋषि भी सम २१६ Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ च्यवन प्राचीन चरित्रकोश छाया पकडा गया। मछुएँ घबरा कर नहुष राजा के पास गये। जाता था। ऐसी स्थिति में भी, राजा इसके पीछे भागता . राजा ने ऋषि की पूजा की। कहा, 'आपको जो चाहिये रहा। यह अदृश्य होते ही, राजा राजमहल में आया। आप मुझे से माँग लें'। तत्र च्यवन ने कहा, 'मेरी योग्य | उसने देखा, च्यवन सो रहा है। कीमत आँक कर इन मछुओं को दे दे। अपना संपूर्ण • कुछ समय के बाद, यह जागृत हुआ। किंतु दूसरी करवट राज्य देने के लिये राजा तैय्यार हो गया। फिर भी च्यवन ले कर पुनः २१ दिन तक सोया। बाद में जागृत होते ही, की योग्य कीमत आँकी नहीं गई। तब गविजात नामक च्यवन ने रथ को घोड़ों के बदले एक ओर कुशिक को तथा ऋषि ने राजा को इसे गोधन देने के लिये कहा। राजा दूसरी ओर उसकी पत्नी को जोत लिया। स्वयं हाथ में द्वारा गायें दी जाने पर, यह अत्यंत संतुष्ट हुआ। पश्चात् | चाबुक ले कर, उन्हें मारते हुए यह अरण्य से रथ हाँकने इसने नहुष को गोधन का महत्व समझाया (म. अनु. | लगा। यह सब च्यवन ने इसी उद्देश्य से किया कि, त्रस्त ८५-८७)। हो कर कुशिक उसका तिरस्कार करें। तब इस निमित्त कुशिकवंश के कारण, अपने वंश में भिन्नजातित्व का | को लेकर, यह उसे जला कर भस्म कर सके । इसी उद्देश्य दोष उत्पन्न होगा, यह इसने तपःसामर्थ्य से जान लिया। से इसने कई प्रकारों से कुशिक को अत्यधिक कष्ट दिये । उस वंश का नाश करने के उद्देश्य से, यह कुशिक राजा पर कुछ फायदा नहीं हुआ। अन्त में प्रसन्न हो कर इसने . के पास गया। उससे कहा, 'हे राजा ! मैं तपश्चर्या उस राजा को वर दिया, 'तुम्हारे कुल में ब्राह्मण उत्पन्न करना चाहता हूँ। इसलिये तुम अपनी भार्यासमवेत होगा' (म. अनु. ८७-९०)। अहर्निश मेरी सेवा करो'। राजा ने ऋषि का यह कहना मान्य किया। तदनंतर राजा को इसने भोजन लाने को इसे मनुपुत्री आरुषी से और्व नामक एक पुत्र हुआ कहा । भोजन लाते ही, च्यवन ने उस भोजन को जला कर (म. आ. ४-६)। इसका आश्रम गया में था (वायु. भस्म कर दिया। तदनंतर यह राजपर्यंक पर निद्राधीन हो १०८.७६)। च्यवन एक उत्कृष्ट वक्ता था, तथा सप्तर्षियों गया। राजा अपनी भार्या सहवर्तमान इसके पैर दबाने में से एक था (म. अनु. ८५)। इसे प्रमति नामक एक लगा। इसप्रकार एक ही करवट पर, यह २१ दिन तक पुत्र था (म. आ. ८.२। यह भृगुगोत्र का एक प्रवर भी सोया रहा। तब तक बिना कुछ खाये पीये, राजा.इसके | था। यह ऋषि तथा मंत्रकार था (भार्गव देखिये)। इसे पैर दबाते बैठ गया। कांचन ऐसा नामांतर था (वा. रा. उ. ६६.१७)। • २१ दिन के बाद नींद से जागृत हो कर, यह यकायक च्यवान--च्यवन भार्गव ऋषि का नामांतर । ऋग्वेद भागने लगा । क्षण में यह दिखता था, क्षण में अदृश्य हो में सर्वत्र यही रूप निर्दिष्ट है (च्यवन भार्गव देखिये)। छगल--दंडीमुंडीश्वर नामक शिवावतार का शिष्य । छंदोगेय-अत्रिकुल का गोत्रकार । छगलिन्-कृष्णयजुर्वेद का एक शाखाप्रवर्तक । छंदोदेव-मतंग को इंद्र की कृपा से मिला हुआ वैशंपायनशिष्य कलापिन् का यह शिष्य था । पाणिनि ने नाम (मतंग देखिये )। इसका निर्देश किया है (पा. सू. ४.३.१०९)। चार - छाया--संज्ञा को सूर्य का तेज सहन नहीं होता था, अप्रसिद्ध उपनिषदों में छागलेयोपनिषद् प्रसिद्ध हुआ हैं इसलिये उसने अपनी ही प्रतिकृतिस्वरूप यह स्त्री (डॉ. श्री. कृ. बेलवलकर स. १९२५)। 'छगलिन् प्रोक्त' निर्माण की। अपने पति की सेवा तथा बच्चों के लालनब्राह्मण ग्रंथ अध्ययन करनेवाले को छागलेयिन कहते थे। पालन करने के लिये इसे रखा। तदनंतर इसे तीन पुत्र छंदोगमाहकि--ब्रह्मवृद्धि का पैतृक नाम । हुए । इससे इसमें सापत्नभाव बढ़ गया। यह श्राद्धदेव, प्रा. च. २८] २१७ Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छाया प्राचीन चरित्रकोश जटासुर यम तथा यमुना इन संज्ञापुत्रों को सापत्नभाव से देखने से, सूर्य ने पहचान लिया कि, यह कौन है। तब वह संज्ञा लगी। यम को यह सहन नहीं हुआ। उसने छाया पर के पास चला गया (विवस्वत् , संज्ञा, तथा यम देखिये)। लत्ताप्रहार किया। तब इसने उसे शाप दिया । इस शाप जघन--धूम्राक्ष का पुत्र (गणेश. २.३१.१२)। इसने पंखों से उड़ा दिये। अंत में रावण ने इसके पंख जंगारि--विश्वामित्रकुल का गोत्रकार । तोड़ कर, इसे मृतप्राय कर दिया। जंघ--रावण के पक्ष का एक राक्षस । ___इस प्रकार, जटायु को हतबल कर, सीता को रावण ले जंघाबंधु--युधिष्ठिर की सभा में उपस्थित एक ऋषि | गया। सीता को खोजते हुए रामलक्ष्मण वहाँ आये। (म. स. ४.१४)। सीता का हरण रावण ने किया, यह वृत्त जटायु ने राम जंघारि--विश्वामित्र का पुत्र । को बताया। इसने कहा, 'चूंकि सीता का हरण विन्द जटायु--गरुड जाति का एक मानव । विनता- | मुहूर्त पर किया गया है, अतएव वह तुम्हें पुनः . पुत्र अरुण को श्येनी से उत्पन्न दो पुत्रों में से यह एक था | अवश्य प्राप्त होगी (वा. रा. आर. ६८.१२)' । राम.ने (म. आ. ६०.६७; वा. रा. अर. १४.३; ३३)। यह इसे पूज्य मान कर आलिंगन किया ( वा. रा. अर. ६७. एक राजा था, जो योग्य रीति से अपनी प्रजा का २३; ६८.२६-३६)। तदनंतर इसने प्राणत्याग किया। पालन करता था (वा. रा. अर. ५०. २०)। राम ने रामलक्ष्मण ने इसे पूज्य मान कर इसकी उत्तरक्रिया जब इसे सर्वप्रथम देखा, तब उसे लगा, यह कोई की। इस समय इसकी आयु साठ हजार वर्षों की थी राक्षस होगा। आगे चल कर, राम एवं सीता को यह (म. व. २७९; आ. रा. सार.७; वा. रा. अर. ५०-५२; गृध्रस्वरूप में दिखाई दिया। राम ने पूछा. 'तुम कौन ६८.२६-३६)। हो ?' अपना परिचय दे कर इसने कहा, 'रामलक्ष्मण ___ जटायु की मृत्युवातर्ता ज्ञात होते ही, अंगदादि वानरों जब बाहर जायेंगे तब मैं सीता की रक्षा करूँगा' (वा. की सहायता से, संपाति वहाँ आया। उसने जटायु रा. अर. १४.३,३३-३४, ५०)। यह हितचिंतक है, का तर्पण किया (वा. रा. कि. ५८.३३-४५)। संपाति यों बाद में प्रतीत होने लगा। इसका बड़ा भाई था (वा.रा. कि.५३.२३;म. आ. ६५)। यह दशरथ का मित्र था (म.व.२६३.१ वा. रा. अर. इसे काक, गृध्र तथा कर्णिक नामक तीन पुत्र थे (ब्रह्मांड १४.३)। अपनी स्नुषा के समान सीता को, रावण की ३.७-४४८)। स्वयं जटायु तथा संगति में, वे मनुष्यों मे गोद में देख कर इसे अत्यंत क्रोध आया। यह रावण से भिन्न है, ऐसी भावना नहीं थी (वा. रा. कि.५६.४)। युद्ध करने के लिये तैय्यार हो गया। रावण सीता को ले जटासुर-एक राक्षस । वनवास के समय पांडव एक जा रहा था, तब इसने उसे उपदेश किया। उपदेश में बार बदरिकाश्रम आये। तब ब्राह्मण के वेश में यह राक्षस रावण को वेदतत्त्व बता कर, परस्त्रीअपहार के लिये इसने उनके पास रह कर, अपने तप की प्रशंसा करता रहा। उसका निषेध किया (वा. रा. अर. ५०)। इसने रावण पांडवों के शस्त्रास्त्र तथा द्रौपदी का हरण करने का यह से कहा, 'तुम चुपचाप सीता को छोड दो, अन्यथा सोचता था। परंतु शक्तिशाली भीम के सामने इसकी डाल परिणाम अच्छा नहीं होगा'। परंतु रावण ने यह नहीं नही गलती थी। भीम पहचान गया था कि, यह अवश्य माना । तब दोनों में युद्ध छिड़का। इसने अपने तीक्ष्ण | कोई राक्षस है। नखों से, तथा चोंच से रावण को घायल किया। रक्त से एक दिन भीम अरण्य में गया था। अर्जुन लथपथ कर दिया। रावण के द्वारा छोड़े गये सब बाण इंद्रलोक गया था। यह अवसर देख, द्रौपदी, धर्म, नकुल २१८ Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जटासुर प्राचीन चरित्रकोश जनक तथा सहदेव को ले कर, यह भागने लगा। सहदेव ने जन-(सो. पूरु.) अजमीढ एवं केशिनी का पुत्र अपने आप को मुक्त कर लिया। धर्मराज ने इसे बहुत | (म. आ. ८९. २८)। उपदेश दिया परंतु इसने एक न सुनी । इतने में गदाधारी | जन शार्कराक्ष्य--एक ऋषि । अश्वपति कैकेय, भीम वहाँ आ पहुँचा। उसने इससे मल्लयुद्ध कर के | अरुण औपवेशि तथा उसके पुत्र उद्दालक आरुणि का इसका वध किया (म. व. १५४)। इसे अलंबुस नामक | यह समकालीन रहा होगा। उद्दालक आरुणि के पास, पुत्र था (म. द्रो. १४९.५-९)। यह तत्वज्ञान सीखने के लिये गया था (श. बा.१०. २. मद्राधिपति । धर्मराज की मयसभा में यह एक | ६.१.१; छां. उ. ५.११.१; १५. १)। सदस्य था (म. स. ४.२१.)। जनक-निमि या विदेहवंश का कुलनाम । इनकी जटिन्-पातालस्थित एक नाग । रावण ने इसपर | वंशावलि भी पुराणों में कई स्थानों पर मिलती है। विजय प्राप्त की थी (वा. रा. यु. ७)। (ब्रह्मांड. ३. ६४; वायु. ८९; भा. ९. १३; विष्णु. जटिल-एक ब्रह्मचारी। शंकर ने जटिल नामक ४. ४, गरुड. १. १३८)। सूर्यवंशीय इक्ष्वाकुपुत्र निमि से ब्रह्मचारी का रूप धारण किया था। . निकली हुई यह एक वंशशाखा है। यह वंशावलि अनेक दक्षयज्ञ में सती के . देहत्याग के बाद, हिमालय को स्थानों पर मिलती है, फिर भी उनमें साम्य नहीं है। मैना से पार्वती उत्पन्न हुई। वह शंकर के लिये तपस्या विशेषतः भागवत आदि पुराणों में कुछ व्यक्ति अधिक कर रही थी। 'जटिल ब्रह्मचारी' का वेष धारण कर शंकर जोड़ दिये गये हैं । विदेहवंश का द्वितीय पुरुष मिथिजनक वहाँ आया । इसने शंकर की बहुत निंदा की । यह और था । इसीने मिथिलानगरी स्थापित की। इसीसे भी निंदा करेगा, यह सोच कर पार्वती ने अपनी सखी 'जनक' यह सामान्यनाम चल पड़ा। जनक नाम से इस विजया के द्वारा, इसको भगाने की सोची। इतनेमें | वंश के लोगों का उल्लेख करने की रीति है (श. ब्रा. शंकर अपने असली रूप से प्रकट हुआ। कुमारसंभव के ११. ३. १. २, ४. ३. २०; ६. २. १; बृ. उ. ३. १. पंचम संग से इस कथा का काफी साम्य है। इसे ब्रह्म १; ४.१.१; २.१; जै. बा. १.१९.२; कौ. उ. ४.१)। चारिन् भी कहा गया है (शिव. शत. ८४)। याज्ञवल्क्य वाजसनेय तथा श्वेतकेतु आरुणेय से इसकी अनेक विषयों पर चर्चा हुई थी। वैदिक वाङ्मय : जटिला--गौतम के वंश की एक स्त्री । सप्तर्षि इसके में भी ब्रह्मवेत्ता के रूप में, महापुरुष का स्थान इसे प्राप्त पति थे (म. अ. १८८. १४)। है (तै. ब्रा. ३. १०. ९. ९)। इसने सप्तरात्र नामक . जटीमालिन्--एक शिबावतार । वाराह कल्प के | याग किया (सां. श्री. १६. २. ७.७) । वैदेह जनक को वैवस्वत मन्वंतर में उन्नीसवीं चौखट में हिमालय पर सावित्राग्निविद्या का उपदेश अहोरात्र के अभिमानी देवों ने यह शिवावतार हुआ। वहाँ, इसके क्रमानुसार हिरण्य- दिया (तै. बा. ३.१०. ९. २१; भरद्वाज देखिये)। • नामन् , कौशल्य, लोकाक्षिन् , प्रधिमि ये चार पुत्र हुएँ यह याज्ञवल्क्य का समकालीन था। उस समय इसका (शिव. शत. ५)। नाम दैवराति था । वंशावलि के अनुसार, राम का श्वसुर जड--जनस्थान का कौशिकगोत्री दुराचारी ब्राह्मण । सीरध्वज जनक से, यह जनक कई पीढियों बाद का है। यह एक बार व्यापार करने गया, तब चोरों ने इसके २. एक राजा । भागवत तथा विष्णु मत में यह प्राण ले लिये। पूर्वजन्म के पापों के कारण, यह | निमिपुत्र तथा वायु मतानुसार नेमिपुत्र था । वसिष्ठ पिशाच हुआ। इसका पुत्र अत्यंत सदाचारी था। पिता | के शाप के . कारण, निमि का देहपात हुआ । का उत्तरकार्य करने के लिये वह काशी जाने निकला। देवताओं के कहने पर ब्राह्मणों ने उसके देह वह उसी स्थान पर आया, जहाँ उसका पिता झाड पर का मंथन किया। उसमें से यह उत्पन्न हुआ। इसे पिशाचअवस्था में रहता था। उसने गीता के तीसरे जनक, विदेह मिथिल आदि अन्य नाम थे । इसने मिथिला अध्याय का पाठ किया । उसे श्रवण कर, यह मुक्त नगरी की स्थापना की। इसका पुत्र उदावसु । इसके हुआ ( पद्म. उ. १७७) । मार्कंडेय पुराण में भी एक वंशजों को जनक नाम से ही संबोधित किया जाता है जड़ का उल्लेख है। (भा. ९. १३. १३, ६. ३. २०)। पंचशिख के साथ जतृण--अंगिराकुल का एक गोत्रकार । इसका अध्यात्मविषय पर संवाद, प्रजापालन करने के Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जनक प्राचीन चरित्रकोश जनमेजय कौतस्त लिये क्षत्रिय के आवश्यक कार्य, इस विषय पर पत्नी से जनमेजय-सू. दिष्ट.) भागवत मत में सुमतिपुत्र । हुआ संभाषण, तथा अश्मन् नामक ब्राह्मण से संवाद आदि विष्णु एवं वायु मत में सोमदत्तपुत्र । प्रसिद्ध हैं (म. शां. १८, २८, ३०७)। इसने अपने २.(सो. पूरु.) पूरु का पुत्र । इसे प्राचीन्वत् नामक योद्धाओं को स्वर्ग तथा नरक दिखाये थे (म. शां. पुत्र था। इसकी पत्नी मागवी सुनंदा। १००)। ३. (सो. पूरु.) दुप्यन्तपुत्र (म. आ. ७८.१८)। आगे चल कर इच्छामरणी जनक प्राणत्याग कर, ४. (सो. अनु.) विष्णु, वायु तथा मल्य मत में स्वर्ग जा रहा था । मार्ग में इसे यमलोक मिला। वहाँ पुरंजयपुत्र। भागवत मत में सुजयपुत्र। अनेक जीव नाना यातनाएँ पाते हुए इसने देखे। (सो. अनु.) मत्स्य मत में वृहद्रथपुत्र तथा वायु पुण्यवान् जनक को स्पर्श करती हुई हवा, उन पापी जीवों | मत में हरिथपुत्र । को जा लगी । इस कारण उनके सब दुःखों का नाश हुआ। ६. (सो. अज.) भल्लाट का पुत्र (वायु. ९९.१८२; उन्होंने जनक को वहीं रहने का आग्रह किया। तदुपरांत मत्स्य, ४९.५९)। इसके लिये उग्रायुध कार्ति ने, नीयों यम ने इसे नरकलोक की सारी जानकारी दी, एवं इसे | का संहार किया। अंत में उग्रायुध ने जनमेजय का भी स्वर्ग जाने को कहा । जनक ने उसकी एक न सुनी । यम के वध किया। अतएव इसे 'कुलयांसन' कहते है (म. उ. कहने पर, अपना सारा पुण्य दुखियों को बाँट कर, सारे ७२.१२)। कुलपसिन का शब्दशः अर्थ, दुर्वर्तन से पापियों का इसने उद्धार किया ( पन. पा. ३०)। । अपने कुल का नाश करनेवाले लोग, यों होता है। ३. विदेह देश का राजा । इसकी चार स्त्रियाँ थीं। उनमें अठारह कुल्घातक लोगों के नाम उपलब्ध है (म.उ. सुमति पटरानी थी। बहुत वर्षों तक पुत्रसंतान न होने | ७२.१२)। के कारण, इंसने, पुत्रकामेष्टि यज्ञ किया । तब दो पुत्र जनमेजय कौतस्त-कुतस्त का पुत्र । अरिमेजयतथा सीता, नामक कन्या इसे पृथ्वी से प्राप्त हुए । पृथ्वी प्रथम इसका भाई था । ये दोनों भाई पंचविंश ब्राह्मण के के कथनानुसार इसने, १६ वर्षों तक नरकासुर का पालन सर्पसत्र में अध्वर्यु तथा प्रतिप्रस्थातृ थे। किया। त्रेतायुग के पूर्वार्ध की यह घटना है (कालि.३८)। दूसरे जनमेजय परिक्षित के द्वारा किया गया सर्पसत्र, नारद ने अमंगल ब्राह्मण का रूप धारण कर इसका तक्षशिला समीप के सलोगों का संहार था। पंचविंश गर्वपरिहार किया (गणेश. १.६५)। जनक के संबंध | ब्राह्मण का सर्पसत्र सर्पलोगों ने अपने स्थैर्य के लिये में बहुत सी कथाएँ हैं । वे किसी एक जनक की न हो कर किया था (२५.१५.३ )। निमिश म उत्पन्न अन्यान्य लोगों की हैं। उदाहरणार्थ- पचविंश ब्राह्मण के सर्पसत्र में, कौनसा कार्य याज्ञवल्क्य के समय देवराति जनक था। उसके बाद काफी किसने किया इसका इस प्रकार निर्देश है:-१. जर्वर वर्षों के पश्चात्, राम का श्वसुर सीरध्वज जनक हुआ। (गृहपति), २. धृतराष्ट्र ऐरावत (ब्रह्मा), ३. पृथुनरकासुर का पालन करनेवाला जनक, कृष्णसमकालीन श्रवस् दौरेश्रवस (उद्गाता),, ४. ग्लाव (प्रस्तोतृ ), बहुलाश्व होगा (देवराति, बहुलाश्व तथा सीरधज देखिये)। ५.अजग (प्रतिहर्तृ), ६. दत्त तापस (होतृ), ७. शितिपृष्ठ ४. भास्कर साहता क 'वद्यसदहभजन' तत्र का (मैत्रावरुण), ८. तक्षक वैशालेय (ब्राहाणाच्छंसी), कर्ता (ब्रह्मवै. २. १६.१५)। ९. शिख (नेष्ड), १०. अनुशिख (पोतृ), ११. अरुण ५. (प्रद्योत. भविष्य.) विशाखयूप का पुत्र। आट (अच्छावाक), १२. तिानेर्घ दरेश्रुत (अनी ), जनदेव--जनकवंशीय ज्ञानी राजा । इसके पास सौ | १३. कौतस्त अरिमेजय (अध्वर्यु), १४. जनमेजय आचार्य थे, जिनसे इसने आत्मप्राप्ति का उपाय पूछा।। (प्रतिप्रत्थातृ), १५. अर्बुद (श्रावस्तुत), १६. अजिर इसका समाधान कोई भी न कर सका । एक बार (सुब्रह्मण्य), १७. चक (उन्नेत), १८. पिंशग, १९. पंड पंचशिख इसके पास आया। इसने वही प्रश्न उससे | (अभिगर),२०. कुपंड (अपगर)। पूछा । उसने इसे मोक्ष का मार्ग बताया (म. शां. इन दोनों सर्प सत्रों का नाम एक है, तथापि इनका २११)। बंशावलि में इसका नाम नहीं मिलता (२. धमे- परस्पर संबंध नहीं है। एक सौ के नाश के लिये है, तथा स्वज देखिये)। दूसरा उनकी सुस्थिति के लिये है (पं.बा.२५.१५)। जनपादप--विश्वामित्र कुल का गोत्रकार । | दूसरा सत्र किसने किया, बता नहीं सकते। Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जनमेजय पारीक्षित प्राचीन चरित्रकोश जनमेजय पारीक्षित जनमेजय पारीक्षित-सो. (पूरु.) कुरुपुत्र परीक्षित् था। फिर भी हस्तिनापुर के सिंहासन पर इसे ही अभिषेक का पुत्र । इसको जनमेजय पारीक्षित-प्रथम कहते है। हुआ। इसने प्रजा का पुत्रवत् पालन किया । इसका पुत्र वेदों में इसे पारीक्षित जनमेजय कहा है (श.बा.१३. | प्राचीन्वत् (म. आ. ४०)। ५.४.१, ऐ. ब्रा. ७.३४,८. ११, २१; सां. श्री. १६.८. | इसकी पत्नी, काशी के सुवर्णराजा की कन्या वपुष्टमा २७.)। इसकी राजधानी का नाम आसन्दीवत् (ऐ. वा. ( काश्या) थी। ८.२१, श.बा. १३.५.४.२)। इसके बंधुओं के नाम एक बार यह कुरुक्षेत्र में दीर्घसत्र कर रहा था । सारउग्रसेन, भीमसेन तथा श्रुतसेन थे। इसने ब्रह्महत्या की | मेय नामक श्वान वहाँ आया। इसने श्वान को मार भगाया। थी। पापक्षालनार्थ अश्वमेधयज्ञ भी किया था। उसमें उसकी माँ देवशुनी सरमा पुत्र को ले कर वहाँ आयी। पुरोहित इन्द्रोत दैवाप शौनक था (श. बा. १३.५.३.५ ) | उसने अपने निरपराध पुत्रों की ताड़ना का कारण पूछा। तुरकावषेय का भी नाम प्राप्य है (ऐ. बा. ८.२१)। इसे उसने पश्चात् शाप दिया, 'तुम्हें दैवी विघ्न इसका अमियों के साथ, तत्त्वज्ञान विषय में संवाद हुआ | आवेगा। था (गो. ब्रा. १.२.५)। .. तक्षक से प्रतिशोध लेने के लिये, इसने तक्षशिला पर ... मणिमती से इसे सुरथ तथा मतिमन् ये दो और पुत्र थे आक्रमण किया। उसे जीत कर ही यह हस्तिनापुर लौटा । (ह. वं. १.३२.१०२)। इसके भाइयों का नाम भी उस समय उत्तक ने इसे सर्पसत्र की मंत्रणा दी । सब सो कई जगह आया है (श. ब्रा. १३.५.४.२; अग्नि. का नाश करने का निश्चित हुआ। यज्ञमंडा सजा कर २७८. ३२, गरुड. १. १४०)। सर्पसत्र प्रारंभ हुआ। इतने में स्थाति (शिल्पी) नामक कठोर वचन से संबोधन करने के कारण, गार्ग्यपुत्र का, व्यक्ति वहाँ आया। उसने कहा, 'एक ब्राह्मण तुम्हारे इसने वध किया । ब्रह्महत्या के कारण, इसे राज्य यज्ञ में विघ्न उपस्थित करेगा। अगणित सर्प वेग के साथ त्याग करना पडा । शरीर में दुर्गधि भी उत्पन्न हुई । इसी उस कुंड में गिरने लगे। तक्षक भयभीत हो कर इंद्र की कारण लोहगंध जनमेजय तथा दुर्बुद्धि नाम से यह शरण में गया। इंद्र ने उसकी रक्षा का आश्वासन ख्यात हुआ। इन्द्रोत दैवाप शौनक ने अश्वमेध करा के दिया। पश्चात् वासुकि की बारी आयी । वह जरत्कारु इसे ब्रह्महत्यापातक से मुक्त किया। फिर यह राज्य नहीं नामक अपने बहन के पास गया। जरत्कारु का पा सका। पुत्र आस्तीक था। आस्तीक ने वासुकि को अभय दिया। . सुरथ को वह राज्यपद मिला। ययाति को रुद्र से बाद में राजा ने अपने प्रमुख शत्रु तक्षक को आवाहन दिव्य रथ प्राप्त हुआ था। इस ब्रह्महत्या के कारण, करने की ऋत्विजों से विनंति की। तक्षक इंद्र के यहाँ . 'पूरुकुल मे वंशपरंपरा से आया हुआ, वह रथ | आश्रयार्थ गया था। 'इंद्राय तक्षकाय स्वाहा', कह कर , वेसुचैद्य को दिया गया। वहाँसे बृहद्रथ, जरासंध, भीम | ऋत्विजों ने आवाहन किया । इंद्रसहित तक्षक वहाँ उपतथा अंत में कृष्ण के पास आया । कृष्ण निर्माण के बाद स्थित हुआ। अग्नि को देखते ही इंद्र ने तक्षक का त्याग वह रथ अदृश्य हुआ (वायु. ९३.२१-२७; ब्रह्मांड. ३. किया। इतने में आस्तीक वहाँ पहुँचा। उसने राजा की ६८.१७-२८; ह. वं. १.३०.७-१६; ब्रह्म. १२.७-१७)। | स्तुति की। वर माँगने के लिये राजा से आदेश मिलते 'अबुद्धिपूर्वक किया गया पाप प्रायश्चित्त से नष्ट हो ही, आस्तीक ने सर्पसत्र रोकने को कहा । विवश हो कर जाता है, इस संदर्भ में भीष्म ने युधिष्ठिर को जनमेजय की | राजा को सर्पसत्र रोकना पडा । इस तरह स्थाति तथा यह पुरानी कथा बतायी है (म. शां. १४६-१४८)। सरमा की शापवाणी सच्ची साबित हुई। २. (सो. कुरु.) यह द्वितीय जनमेजय पारीक्षित है। श्रुतश्रवस् को सर्पजाति के स्त्री से उत्पन्न हुआ पुत्र 'जनमेजय' का अर्थ है, 'लोगों पर धाक जमानेवाला। सोमश्रवस् इस यज्ञ में, था। श्रुतश्रवस् को राजा ने अर्जुन-अभिमन्यु-परीक्षित्-जनमेजय इस क्रम से यह | आश्वासन दिया था, 'तुम्हें जो चाहिये सो माँग लो. मैं वंश है । परीक्षित ने मातुलकन्या ( उत्तर की कन्या) से उसकी पूर्ति करूँगा' (म. आ. ३.१३-१४)। विवाह किया था। उससे, जनमेजय, भीमसेन, श्रुतसेन | सर्पस्त्र के ऋत्विज--१. चंडभार्गव च्यावन (होतृ), तथा उग्रसेन नामक चार पुत्र हुएँ। तक्षक ने परीक्षित की। २. कौत्स जैमिनि (उद्गातृ), ३. शार्झरव (ब्रह्मन् ), हत्या की । उस समय उम्र में जनमेजय अत्यंत छोटा | ४. पिंगल (अध्वर्यु), ५. व्यास (सदस्य), ६. उद्दालक, Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जनमेजय पारीक्षित प्राचीन चरित्रकोश जमदग्नि ७. प्रमदक, ८. श्वेतकेतु, ९. पिंगल, १०. असित, इसने समाज में मान्यता प्राप्त कर ही दी। इसलिये ११. देवल, १२. नारद, १३. पर्वत, १४. आत्रेय, | इसे महावाजसनेय कहते हैं (मत्स्य. ५०.५७-६४; वायु. १५. पुंड, १६. जठर, १७. घालघट, १८. वात्स्य, | ९९. २४५-२५४)। १९. श्रुतश्रवस् , २०. कोहल, २१. देवशर्मन् ,२२.मौद्गल्य, जनश्रुत शांडिक्य-जनश्रुत याने लोकप्रसिद्ध । यह २३. समसौरभ (म. आ. ५३.४-९)। हृस्वाशय का शिष्य था (जै. उ. ब्रा. ३.४०.२)। व्यास के शिष्य वैशंपायन ने जनमेजय को भारत कथन | जनश्रुत वारक्य-एक आचार्य (जै. उ. ब्रा. ३. किया (म. आ. १.८-९; क. ३)। इसे काश्या नामक | ४१.१)। पत्नी से दो पुत्र हुए; एक चंद्रापीड तथा दूसरा सूर्यापीड जनापीड--(सो. तुर्वसु.) वायुमत मं शरूथपुत्र । (ब्रह्म. १३.१२४)। इसने संर्पसत्र किया, जिसमें तुर ब्रह्मांड में इसे आडीर कहा है। कावर्षय पुरोहित था (भा. ९.२२.३५)। जनार्दन-मित्रसह ब्राह्मण का पुत्र । यह हंसडिंभक यह बडा दानी था। इसने कुंडल तथा दिव्य यान का मित्र था (ह. व. ३. १०४.४)। ब्राह्मणों को दान दिये (म. अनु. १३७.९)। जंतु-(सो. पूरु. ऋश.) विष्णुमत में सुधन्वन् का सर्पसत्र के बाद राजा जनमेजय ने पुरोहित, ऋत्विज | पुत्र । भागवत में इसे जह्न कहा है। आदि को एकत्रित कर के, अश्वमेध का प्रारंभ किया। २. (सो. यदु. क्रोष्टु.) पुरुदतपुत्र । वहाँ व्यास प्रगट हुआ। उस समय इसने व्यास की ३. (सो. नील.) भागवत, विष्णु, मत्स्य तथा वायु के यथाविधि पूजा की। कौरव-पांडवों के युद्ध के संबंध में मत में सोम का ज्येष्ठ पत्र। अनेक प्रश्न पूछे। उससे कहा, 'अगर आपको यह ज्ञात | | जंतुधना यातुधान की माता। था कि, इस युद्ध का अन्त क्या होगा, तो आपने उन्हें | जन्यु-तामस मन्वन्तर के सप्तर्षियों में से एक। परावृत्त क्यों नहीं किया ?' व्यास ने कहा, 'हे राजन् ! इसके लिए जन्य नाम भी प्रयुक्त है (पा. स. ७)। उन्होंने मुझसे पूछा न था। बिना पूछे मैं किसी को कुछ जपातय-पराशरकुल का गोत्रकार । पाठभेद-स्यातभी नहीं बताता। तुम्हारे इस अश्वमेध में इन्द्र बाधा डालेगा तथा इतःपर पृथ्वी पर कहीं भी अश्वमेध न जबाला-स्यकाम जाबाल की माता का नाम। .. होगा'। जमदग्नि-एक ऋषि तथा परशुराम का पिता। दूसरा जनमेजय पारीक्षित अत्यंत धार्मिक था। इसने | ऋग्वेद में इसका अनेक बार उल्लेख आया है (ऋ. ३.६२. अपने यज्ञ में वाजसनेय को ब्रह्मा बनाया। तब वैशंपायन | १८८.१०१.८,९.६२.२४,६५.२५, अ. वे. ४.२९.३)। ने इसे शाप दिया। ब्राह्मणों ने क्षत्रियों का उपाध्यायकर्म इन निर्देशों से मित्रावरुण, अश्वियों एवं सोम से जमदग्नि बंद कर दिया। परंतु वाजसनेय लोगों की सहायता से | का संबंध प्रतीत होता है। सौदास के यज्ञ में, वसिष्ठपुत्र इसने दो अश्वमेध किये। यह पराक्रमी होने के कारण, शक्ति ने विश्वामित्र को बाद में पराजित किया। उसे यज्ञ अन्य क्षत्रियो ने इसका समर्थन किया। वाजसनेयों का में से भगा दिया। तब सूर्य से ससर्परी नामक वाणी का समर्थन करने के कारण, ब्राह्मणों ने इसे पदच्युत कर सामथ्र्य बढानेवाली विद्या ला कर, जमदग्नि ने उसे विश्वाअरण्य में भेज दिया। ब्राह्मणों के साथ कलह करने से मित्र को दी तथा उसके कुल की वृद्धि की । ससर्परी का इसका नाश हुआ (कौटिल्य पृ. २२)। इसके बाद | अर्थ है भाषणकौशल्य । इस स्थान पर, जमदग्नि को वयोवृद्ध शतानीक राजा बना। कहा है (ऋ. ३.५३.१५-१६)। यहाँ बहुवचन का ___ इस समय तक, याशवल्क्य द्वारा उत्पन्न वेद को निर्देश होने के कारण, यह कुल का निर्देश प्रतीत होता है। प्रतिस्पर्धी वैशंपायनादि ने मान्यता नहीं दी थी। वाजसनेयों | संहिता ग्रंथों में भी, यह विश्वामित्र के पक्ष का, तथा को राज्याश्रय प्राप्त होने के बाद भी, वैशंपायनों ने काफी वसिष्ठ के प्रतिपक्ष का बताया गया है (तै. सं. ३.१.७.३)। गडबड की। वादविवाद कर के, वाजसनेयों को हराने के | परंतु हरिश्चंद्र के राजसूय में विश्वामित्र होता, वसिष्ठ ब्रह्मा काफी प्रयत्न किये। परंतु जनमेजय ने उनकी एक नहीं | तथा जमदगि अध्वर्य थे (ऐ. ब्रा. ७.५६)। चतूरात्र चलने दी। लोगों का तथा ब्राहाणों का विरोध, इतना ही नामक यज्ञ करने के कारण, इसके वंश में कोई भी दरिद्री नहीं, राज्यत्याग भी स्वीकार किया। परंतु वाजसनेयों को नहीं हुआ (तै. सं. ७.१.९.१; पं. बा. २१.१०)। २२२ Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जमदग्नि प्राचीन चरित्रकोश जमदग्नि असित, अत्रि, कण्व तथा वीतहव्य के साथ इसका निर्देश भी वध किया । बाद में परशुराम ने अपनी माता का है ( अ. वे. २.१२.२०१६.१२०.१ ) । शिरच्छेद किया। तब जमदग्नि ने प्रसन्न हो कर परशुराम को वर माँगने के लिये कहा । परशुराम ने वरद्वारा अपनी माता तथा भाइयों को जीवित किया ( भा. ९.१५.१६; विष्णुधर्म १.३५-३६ ) अन्य कई स्थानों में इसका उल्लेख है ( अ. वे. ४. २९.२३ ५.२८.७१ ६.१३७.१० १८.२.१५-१६) । यह बड़ा तपस्वी था (तै. सं. २.२.५.२ ) । जमदग्नि भार्गव के वेद में काफी सूक्त है (२.६२.१६ - १८१ ८. १०१ ९.६२, ६५ ६७.१६-१८१ १०.११०३ १३७. ६; १६७ ) । । जम िशब्द का अर्थ नेत्र लिया है (वा. । सं. १३.५६, महीधर भाग्य ) | यह अक्षर ब्रह्म का उपदेश करता था । वेदप्रचार के लिये तथा अक्षर ब्रहा के उपदेश के लिये, इंद्र ने इसकी योजना की थी (तै. आ. १.९.) । यह इतना कोबी था, तथापि कालवशात् अत्यंत शांत हो गया। यह सचमुच शांत बना है अथवा नहीं, यह देखने के लिये, एकवार को सर्परूप धारण कर, पितृक्रोध तिथि के दिन इसके घर आया। जमदग्नि ने उस दिन श्राद्ध के लिये खीर बनाई थी। उस खीर में सर्परूपी फोध ने अपना गरल डाल दिया । परंतु यह क्रोधित नहीं हुआ । तब क्रोध ने इसकी स्तुति की (जै. अ. ६८ ) । स्त्री- पुत्रादिकों के वध का स्मरण कर, इसे अत्यंत पश्चात्ताप हुआ । क्रोध के ही कारण यह अनर्थ हुआ, यह सोच कर इसने क्रोध का त्याग कर दिया (रेणु. २७) । 1. भृगुकुल के ऋचीक नामक ऋषि को, गाधिराजकन्या सत्यवती से जमदधि उत्पन्न हुआ (म. आ. ६०.४६ ११६.८ . ६.१.२७.३५, महा. १० स्कंद ६.६६) भृगुकुल के लोगों को भृगुपुत्र कहते थे ( पद्म. उ. २६८. १) । इसका पैतृक नाम आर्चिक था। रेणुका इसकी पत्नी थी। उससे इसे रुमवंत् सुपेण, वसुमत विश्वावसु तथा परशुराम नामक पाँच पुत्र हुए ( रेणुका देखिये) । , . जमदग्नि अत्यंत क्रोधी था एकवार लीलया यह वाण छोड़ रहा था। उन्हें लाने के लिये, इसने रेणुका से कह दियां । कड़ी धूप होने के कारण, रेणुका थक गई । विश्रांति के लिये, एक वृक्ष के नीचे थोड़ी देर के लिये, वह बैठ गई। उसे बाण वापस लाने में देर हो गई। तब क्रोधित हो कर इसने देरी का कारण पूछा। रेणुकाशरा देरी का कारण बताया जाते ही, यह सूर्य पर क्रोधित हुआ । बाण से सूर्य को छेदने के लिये तैय्यार हो गया । तब सूर्य इसकी शरण में आया। उसने इसे छाता, तथा पादत्राण दिये तथा कहा, 'मैं तुम्हारे उदर से जन्म लूँगा'। बाद में वह परशुराम के रूप में, जमदग्नि के घर में उत्पन्न हुआ। (म. अनु. ९५ ) । गंगातीर पर एक हजार वर्ष तपस्या कर के, जमदग्नि ने इन्द्र से कामधेनु माँग ली । उसी समय इन्द्र ने इसे वरदान दिया, 'तुम्हें एक ईश्वरांशभूत पुत्र होगा। कश्यप ने इसे षडक्षर मंत्र दिया था (पद्म. उ. २६८ ) । एकवार हैइय देशाधिपति कार्तवीर्य, ससैन्य जमदग्नि के आश्रम में, आया। कामधेनु की सहायता से जमदि ने उसका उत्कृष्ट आदिरातिथ्य किया । बाद में कार्तवीर्य के मन में जमदग्नि के ऐश्वर्य के बारे में असूया उत्पन्न हुई । वह कामधेनु को बलात्कार से ले जाने लगा। उस समय कामधेनु ने अपने शरीर से काफी यवन निर्माण किये। उनके द्वारा कार्तवीर्य का पराभव हुआ तब कार्तवीर्य ने जमदग्नि के आश्रम का विध्वंस कर, कामधेनु का हरण कर लिया। यह वृत्त परशुराम को ज्ञात होते ही, उसने कार्तवीर्य का वध कर के, गाय को छुड़ा लिया । परंतु कार्तवीर्य के वध का कृत्य जमदग्नि को बूरा लगा । कार्तवीर्यपुत्रों ने पिता के वध का बदला लेने के लिये, परशुराम की अनुपस्थिति में, जमदग्नि को इक्कीस बाणों से विद्ध किया तथा उसकी हत्या कर डाली। यह वृत्त परशुराम को शात होते ही, उसने क्षत्रियों का इक्कीस बार निःपात कर, जमदग्नि के वध का बदला ले लिया ( म. शां. ४९.५६९ ब्रह्मवै. २४ ब्रह्मांड २.४५५ कार्तवीर्य देखिये) । ३. एकवार रेणुका सरोवर पर स्नान करने गई थी । वहाँ उसने चित्ररथ अथवा चित्रांगद को, अपनी भार्याओं के साथ क्रीड़ा करते हुए देखा। उसका ऐश्वर्य देख कर उसके मन में राजा के प्रति अभिलाषा उत्पन्न हुई । उसकी क्रीड़ा देखते हुए, वह थोड़ी देर तक वहीं खड़ी रही। इससे उसे घर जाने में विलंब हुआ। उसीसे जमदग्नि अत्यंत क्रोधित हुआ । पुत्रों से अपने माता का शिरच्छेद करने के लिये इसने कहा । परंतु परसुराम को छोड़ अन्य किसी ने भी इसका कहना नहीं माना। इससे जमदग्नि ने उनका कई स्थानों पर उल्लेख है कि, जमदग्नि का वध कार्तवीर्य ने ही किया ( म. द्रो. परि. १ क्र. ८. पंक्ति. ८३० के आगे; वा. रा. वा. ७५) इसे ऐसे मार कर इसका बच किया गया (पद्म. उ. २६८.२७) । वैवस्वत मन्वन्तर के २२३ Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जमदग्नि प्राचीन चरित्रकोश जयत्सेन सप्तर्षियों में से यह एक था (मत्स्य. ९; ब्रह्म.५:मा. ६. (सो. नील.) मत्स्यमत में भद्राश्वपुत्र । भागवत ७९)। मत में संजय, एवं विष्णु तथा वायु के मत में संजय श्राद्ध विधि का प्रारंभ जमदग्नि ने किया। यह भृगुकुल यही था। का गोत्रकार तथा प्रवर भी था। ७. (सू . निमि.) भागवत मत में श्रुतपुत्र, विष्णु एवं वायु के मत में सुश्रुतपुत्र । जंबुमालिन्--रावण के मंत्री प्रहस्त का पुत्र । हनुमान् ८. (स्वा. उत्तान.) भागवत मत में बत्सर का स्वर्वीथी ने अशोकवन उध्वस्त किया। रावण की आज्ञा से, हनुमान् । से उत्पन्न पुत्र। को रोकने के लिये यह वहाँ गया। हनुमान् ने इतका ९. विश्वामित्रपुत्र (भा. ९.१६.३६)। वध किया (वा. रा. सु. ४२-४४)। १०. शुक्राचार्य तथा पीवरी से उत्पन्न पाँच पुत्रों में से २. एक राक्षस । यह भी हनुमान् के द्वारा मारा गया | एक। (वा. रा. यु. ४३)। ११. विष्णु के द्वारपालों में से एक (जयविजय देखिये)। जंबूक-शंबूक देखिये । १२. विकुंठ देवों में से एक । जंभ-बलि का मित्र । इसे जंभासुर भी कहते थे ।। १३. यमसभा का एक क्षत्रिय (म. स. ८.१४)। । इंद्र तथा बलि के युद्ध में, इंद्र के वज्र के आघात से बलि । १४. (सो. यदु.) भागवत मत में कंक तथा कर्णिका मूछित हो गया। वहाँ इसने सिंह पर आरूढ हो कर, इंद्र | का पुत्र । से युद्ध किया । इंद्र ने इसका वध किया (भा. ८.११. १५. (सो. यदु.) भागवत मत में कृष्ण तथा भद्रा १३)। का पुत्र। २. तारकासुर का एक प्रमुख हस्तक | तारकासुर के १६. (सो. यदु.) भागवत मत में युयुधानपुत्र । मत्स्य युद्ध में, विष्णु ने इसका वध किया। इसकी कन्या कयाधु | तथा विष्णु में यही असंग है। (भा. ६.१८.१२)। १७. ( सो. कुरु.) धृतराष्ट्र का पुत्र । भारतीययुद्ध में ३. रावणपक्षीय राक्षस तथा ताटकापति सुंद का पिता। भीम ने इसका वध किया (म. द्रो. ११०.२९-३५)। ४. रामसेना का एक वानर (वा. रा. यु. ४)। १८. पांडवं पक्ष का.राजा । कर्ण ने इसका वध किया ५. जालंधर की सेना का एक राक्षस (पद्म. उ. १२)।। | (म. क. ५६.४०)। , ६. कश्यपस्त्री दिति के पुत्रों में से एक (पन. उ. २३०)। १९. दुर्योधन पक्ष का एक राजा (म. द्रो. ५२.१६)। ७. कश्यप एवं दनु का पुत्र । जयद्रथवध के समय, इसने अर्जुन के साथ युद्ध किया था ८. संहाद का पुत्र । इसका पुत्र शतदुंदुभि (ब्रह्मांड. | (म. द्रो. ६६.३६ ) । ३.५.३८-३९)। २० अज्ञातवासकाल में युधिष्ठिर का गुप्तनाम (म. जंभक-इंद्र के द्वारा मारा गया एक दैत्य । तारका वि. ५. ३०; २२.१२)। सुर की सेना का यह एक नायक था (वा. सं. ३०.१६, जय ऐन्द्र-सूक्तद्रष्टा (ऋ. १०.१८०)। सां. आ. १२.६५)। जयक लौहित्य-यशस्विन् जयंत लौहत्य का शिष्य __ जय--(सो. पुरूरवस्.) भागवत मत में पुरूरवस्- | (जै. उ. ब्रा. ३.४२.१)। पुत्र । जयत्सेन-(सो, कुरु.) मत्स्य, वार, एवं महा२. (सो. पुरूरवस्.) भागवत मत में मन्युपुत्र । भारत के मत में सार्वभौम का कैकयी से उत्पन्न पुर। ३. (सो. प्रति.) वायुमत में विजयपुत्र । भागवत में भविष्य, भागवत तथा विष्णु मत में इसे जय तेज कहा गया इसे कृत तथा विष्णु में यज्ञकृत नाम है । | है । इसे सुश्रवा नामक स्त्री तथा अराचिन नामक पुत्र था ४. (सो. प्रति.) भागवत एवं वायु के मत में संजयपत्र. (म. आ.१०.१७) विष्णु मत में सुंजय का पुत्र । २. (सो. कुरु.) धृतराष्ट्र का पुत्र । भारतीय युद्ध में, ५.(सो. प्रति.) भागवत मत में संकृतिपुत्र । भीम ने इसका वध किया (म. श. २५.९.)। Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयत्सेन प्राचीन चरित्रकोश जयद्रथ ३. (सो. प्रति.) विष्णु मत में अहीनपुत्र, तथा वायु | देश के द्वादश राजपुत्र तथा सेना भी थी। जाते जाते, के मतानुसार अदीनपुत्र । भागवत में इसे जयसेन कहा | इसने उसी काम्यकवन में पड़ाव डाला, जहाँ पांडव रहते गया है। थे। पास ही पांडवों का आश्रम था। वे मृगया के लिये ४. भारतीययुद्ध में पांडव पक्षीय राजा (म.उ.४.१६)। | बाहर गये थे। आश्रम में धौम्य ऋषि, दासी, एवं द्रौपदी ५. दुर्योधन के पक्ष का मगध का राजा। कालेय के आठ | ये तीन ही व्यक्ति थे। द्रौपदी को देखते ही, उसे अपने पुत्रों में से प्रथम-पुत्र का, यह अंशावतार था। भारतीय- | वश में लाने की इच्छा जयद्रथ को हुई । इसने पूछताछ युद्ध में श्वेत ने इसे त्रस्त कर, दो बार इसका धनुष तोडा करने के लिये, कोटिक को उसके पास भेजा। वहाँ जा था । अंत में अभिमन्यु ने इसका वध किया (म. भी. | कर कोटिक ने द्रौपदी से पूछा, 'तुम कौन हो ? यहाँ क्यों परि. १. क्र. ४. पंक्ति. ९)। आई हो?' द्रौपदी के द्वारा सब वृत्तांत कथन कर दिये ६. भारतीययुद्ध में दुर्योधनपक्षीय राजा (म. श. ६. | जाने के बाद, कोटिक वापस आया। उसने जयद्रथ को सब बताया। यह सुनते ही, सेना से निकल कर जयद्रथ ७. विराटनगर में नकुल का गुप्तनाम (म. वि. ५.३०; | द्रौपदी के पास गया। जयद्रथ को पहचान कर द्रौपदी ने २२.१२.)। उसका उचित आदरसत्कार किया। द्रौपदी की प्राप्ति जयद--(सो. पूरु.) वायुमत में मनस्युपुत्र (चारुपद के लिये जयद्रथ ने काफी प्रयत्न किये । अन्त में द्रौपदी देखिये)। को इसके निर्लज्ज कृत्य के प्रति अत्यंत क्रोध आया। जयद्वल-अज्ञातवासकाल में सहदेव का गुप्तनाम द्रौपदी ने इसे तुरन्त निकल जाने को कहा। परंतु उसे (म. वि. ५.३०; २२,१२)। बरज़ोरी से अपने रथ में डाल कर इसने भगाया। यह देख - जयद्रथ--(सो. अनु.) भागवत, विष्णु एवं वायु | कर धौम्य ऋषि ने इसका पीछा किया. (म. व. २४६के मत में बृहन्मनस्पुत्र। मत्स्य में बृहन्मनस् की जगह २५२)। इतने में पांडव आश्रम में लौट आये। आते ही हा गया है। बहन्मनस को दो | द्रौपदी की दासी ने संपूर्ण वृत्त उन्हें बताया। काफी दूर पलियाँ थीं। एक यशोदेवी तथा दूसरी सत्या। यह दोनों | भागे गये जयद्रथ के समीप वे पहुँच गये। काफी देर तक चैद्य की कन्याएँ थी। इनमेंसे जयद्रथ यशोदेवी का पुत्र | युद्ध हुआ। कोटिकादि कई जयद्रथपक्षीय वीर मारे गये। था (वायु. ९९.१११)। इसे संभूति नामक पत्नी तथा इसने देखा, अपना पक्ष पराजित हो रहा है। पांडवों की विजय नामक पुत्र था (भा. ९.२३.११) दृष्टि बचा कर, इसने रणांगण से पलायन किया । जयद्रथ . २. (सो. अज.) भागवत के मत में बृहत्काय का, भाग गया, यह ज्ञात होते ही, अर्जुन तथा भीम ने इसका -विष्णु तथा वायु के मत में बृहत्कर्मन् का, तथा पद्म एवं पीछा किया। संपूर्ण सेना का नाश होने के बाद, धौम्य मत्स्य के मत मैं बृहदिषु का पुत्र । ऋषि तथा अन्य पांडव आश्रम लौट आये। काफी देर ३. सिंधुदेशाधिपति वृद्धक्षत्र का पुत्र (म. द्रो. १२१. | पीछा करने के बाद, अर्जुन तथा भीम ने जयद्रथ को १७)। धृतराष्ट्रकन्या दुःशला का यह पति था (म. आ. पकड़ा। भीम ने इसकी अच्छी मरम्मत की । परंतु वध न १०८. १८; द्रो. १४८)। करते हुए, इसके केशों का पाँच हिस्सों में मुंडन कर, भीम यह सिंधु, सौवीर तथा शिबि देशों का राजा था। यह इसे आश्रम में लाया । युधिष्ठिर ने जयद्रथ से, द्रौपदी पांडवों का द्वेष करता था। इसे बलाहक, आनीक, विदारण क्षमायाचना करने के लिये कहा। युधिष्टिर ने भीम से आदि छः भाई थे (म. व. २५०.१२)। कहा, 'तुम जयद्रथ का वध मत करो। उससे दुःशला पांडव वनवास में थे। जयद्रथ स्वयंवर के लिये अपने दुखित होगी। धृतराष्ट्र एवं गांधारी भी शोकमग्न होंगे'। देश से शाल्व देश जा रहा था। इसके साथ छः भ्राता, जयद्रथ का वध न कर के उसे छोड़ दिया गया। शिबिकुलोत्पन्न सुरथ राजा का पुत्र कोटिक अथवा कोटि- | इस प्रकार पांडवों के द्वारा इसकी दुर्दशा हुई । इसने कास्य, त्रिगर्तराजपुत्र क्षेमंकर, इक्ष्वाकुकुलोत्पन्न सुभ- | मन में अत्यंत अपमानित स्थिति का अनुभव किया। वपुत्र सुपुष्पित, एवं कलिंदपुत्र थे। इसके सिवा अंगारक, | समस्त सेना को राजधानी वापस भेज कर, यह अकेला ही कुंजर, गुप्तक, शचुंजय, संजय, सुप्रवृद्ध, प्रभंकर, गंगाद्वार चला गया । यहाँ तीव्र तपश्चर्या से इसने शंकर को भ्रमर, रवि, शूर, प्रताप तथा कुहन नामक सौवीर प्रसन्न किया। 'मैं सब पांडवों को जीत सकूँ,' ऐसा वर इस प्रा. च. २९] २२५ Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयद्रथ प्राचीन चरित्रकोश जयध्वज ने शंकर से माँगा। शंकर ने इसे बताया, 'अर्जुन की अनु- देख कर, दुर्योधन भयभीत हो गया, एवं जयद्रथ के पास पस्थिति में बाकी पांडवों का पराभव तुम कर सकोगे'। रक्षणार्थ जा बैठा (म. द्रो.७४-७६) । इतने में जयद्रथ को इससे संतुष्ट हो कर यह अपने नगर लौट आया । इस | बाहर निकालने के हेतु से, कृष्ण ने समस्त सेना में ऐसा वर के कारण ही अभिमन्युवध के समय, यह पांडवों का | आभास निर्माण किया की, मानों सूर्य का अस्त हो रहा पराभव कर सका (म. व. २५२.२५६)। है । उस समय जयद्रथ ने सूर्यास्त देखने के लिये गर्दन भारतीययुद्ध में अर्जन संशप्तकों से युद्ध करने में व्यस्त | उठाई । तब कृष्ण ने 'वह रहा जयद्रथ, ' ऐसा संकेत था। मौका देख कर, इसने पांडवों का पराभव किया। | अर्जुन को किया । अर्जुन ने तत्काल इसका सिर काट दिया अकेला अभिमन्यु चक्रव्यूह में घिरा कर मारा गया। अर्जुन ने | एवं संध्या कर रहे जयद्रथ-पिता वृद्धक्षत्र के गोद में घोर प्रतिज्ञा की, 'कल सूर्यास्त के पहले मैं जयद्रथ का वध गिराया। यह घटना मार्गशीर्ष कृष्ण नवमी को हुई करूंगा'। इस प्रतिज्ञा से घबरा कर, यह स्वदेश वापस | (भारतसावित्री)। लौटने का विचार करने लगा। उसी रात्रि में दुर्योधन इसे ले जयद्रथ का सिर काट कर, उसके पिता की ही गोद में कर द्रोणाचार्य के पास गया । द्रोणाचार्य ने इसकी रक्षा | क्यों डाला गया, इसके लिये कृष्ण ने अर्जुन को निम्नांकित . का आश्वासन दे कर, इसे रोक लिया (म. द्रो. ५१- कथा बताई। ५२)। __ कृष्ण ने कहा, "वृद्धक्षत्र जयद्रथ का पिता था। काफी लंबी जयद्रथ-वध की प्रतिज्ञापूर्ति के बारे में अर्जुन अत्यंत | कालावधि के बाद उसे यह पुत्र हुआ । उसके जन्म के समय चिंतित था । द्रोण ने शकटव्यूह की रचना कर, उसके | आकाशवाणी हुई, 'तुम्हारा यह पुत्र कुलशील मनोनिग्रहादि अंदर चक्रव्यूह तथा सूचिव्यूह की रचना की। पश्चात् | गुणों से प्रसिद्ध योद्धा बनेगा । परंतु लड़ने समय रणांगण. इन तीन व्यूहों के अंदर उसने जयद्रथ को बैठाया ।। में ऐसा योद्धा उसकी गर्दन काटेगा, जिसकी ओर इसका तथा वह स्वयं व्यूह के द्वार पर खडा रहा (म. | ध्यान नहीं है । इसे सुन कर वृद्धक्षत्र ने कहा, 'लड़ते द्रो.५७-६३)। समय जो कोई मेरे पुत्र का मस्तक काट कर भूमि पर कृष्ण ने अर्जुन को सत्वर व्यूह में प्रविष्ट होने के लिये | गिरायेगा, उसका भी मस्तक शतधा विदीर्ण होगा। इतना कहा । वहाँ द्रोण तथा अर्जुन युद्ध में मिले तथा काफी कह कर, तथा जयद्रथ को राजगद्दी पर बैठा कर, वह देर तक उनका युद्ध हुआ। अंत में कृष्ण की | स्यमंतपंचक के बाहर बन में गया, और उग्र तपश्चर्या कर ने सलाह के अनुसार, द्रोण को छोड़ कर अर्जुन आगे जाने लगा । इसलिये वृद्धक्षत्र के ध्यान में न आये, इस तरह लगा । तब द्रोण ने उसे कहा 'मुझे न जीत कर व्यूह दिव्यास्त्र से जयद्रथ का सिर काट कर उसीकी गोद में उडा में प्रविष्ट होना तुम्हारे लिये अयोग्य है । यह सुन कर दिया है। यदि जयद्रथ का मस्तक तुम भूमि पर गिराओगे, अर्जुन ने कहा, 'आप आचार्य तथा मेरे गुरु हैं। शत्रु तो तुम्हारा मस्तक शतधा विदीर्ण हो जावेगा"। जयद्रथ नही। मैं आपका शिष्य हो कर पुत्र के सदृश हूँ। युद्ध | का सिर गोद में गिरते ही, वृद्धक्षत्र का मस्तक शतधा में आपको जीत सके, ऐसा पुरुष इस लोक में कोई नहीं है | | विदीर्ण हो गया (म. द्रो. १२१)। जयद्रथ का ध्वज (म. द्रो. ६६)। वराह चिह्न का था (म. द्रो. ८०.२०)। मार्ग के अनेक योद्धाओं का वध करता हुआ, अर्जुन | इसके एक पुत्र का वध, अर्जुन ने द्रौपदीस्वयंवर के आगे बढा । मार्ग में उसके अश्व प्यासे हो गये। रथ | समय किया (म. आ. २१८.३२)। इसका दूसरा पुत्र रोक कर, तथा जयद्रथ के पास पहुँचने के लिये अभी काफी दुःशला से उत्पन्न सुरथ । अश्वमेध के समय अश्व के साथ अवकाश है, यह सोच कर अर्जुन रुक गया। वहीं बाणगंगा अर्जुन आया, यह सुनते ही उसने प्राणत्याग किया (म. निर्माण कर, उसने अपने अश्वों को पानी पिला दिया तथा आश्व. ७७.२७)। वह आगे बढा । वह जयद्रथ के समीप पहुँचा । इतने में ४. धर्मसावर्णि का पुत्र । युधिष्ठिर ने अर्जुन की सहायता के लिये ययुधान को भेजा ५. ब्रह्मसावर्णि मनु का पुत्र (म.द्रो. ७५)। बाद में युधामन्यु तथा उत्तमौंजस् नामक दो | जयध्वज-(सो. यदु. सह.) भागवत, विष्णु, मत्स्य चक्ररक्षक (म. द्रो. ६६.३५), एवं सात्यक तथा भीमसेन | एवं वायु के मत में सहस्राजुनपुत्र । इसका पुत्र तालजंघ । व्यूह का भेद कर वहाँ तक पहुँचे। इन सब को एकत्रित | यह महारथी था (पभ, सृ. १२)। . २२६ Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयंत प्राचीन चरित्रकोश जयविजय से उपेन्द्र गये। पर रा जयंत-('सो. यदु. बृष्णि.) मत्स्य मत में वृषभ- | जयरात--कलिंग देश के भानुमत् राजा का भाई । पुत्र तथा पम मत में ऋषभपुत्र (पा. स. १३)। पद्म में | भारतीय युद्ध में इसका भीम ने वध किया (म. द्रो. १३०. इसीका नामांतर श्वफल्क रहा होगा । ३१)। २. पांचालदेश का राजा ।। पांडवपक्षीय महारथी (म. जयवर्मन्--दुर्योधन पक्ष का राजा (म. द्रो. १३१. उ. १६८.१०)। ८६)। ३. इंद्र का पौलोमी से उत्पन्न पुत्र (म. आ. १०६. जयविजय--कर्दम प्रजापति को देवहूती से उत्पन्न ४; भा. ६.१८.७)। देवासुर युद्ध में इसने कालेय | पुत्र । ये बडे विष्णुभक्त थे । हमेशा अष्टाक्षर मंत्र का जप तथा विष्णु का व्रत करते थे। इससे इन्हें विष्णु का राक्षस का वध किया (पद्म. स. ६६.)। साक्षात्कार होता था। ये यज्ञकर्म में भी कुशल थे। ४. भीम का गुप्त नाम । जयेश देखिये। ५. धर्म ऋषि का मरुत्वती से उत्पन्न पुत्र। इसे उपेन्द्र ___ एकबार मरुत्त राजा के निमंत्रण से, ये उसके यज्ञ के लिये गये। उसमें जय 'ब्रह्मा, ' तथा 'विजय' याजक हुआ। कहते थे (भा. ६.६.८)। यज्ञसमाप्ति पर राजा ने इन्हें विपुल दक्षिणा दी। वह ६. दशरथ के अष्टप्रधानों में से एक (वा.रा. वा. ७)। दक्षिणा ले कर घर आने के बाद, दक्षिणा का बँटवारा ७. एक रुद्र एवं रुद्रगण-1 करने के बारे में इनमें झगड़ा हुआ। अन्त में जय ने विजय ८. विष्णु का एक पार्षद (भा. ८.११.१७)। को, 'तुम मगर बनोगे' ऐसा शाप दिया। विजय ने भी ९. त्रेतायुग में परमेश्वर का नाम (भा. ११.५.२६)। जय को, 'तुम हाथी बनोगे' ऐसा शाप दिया। परंतु शीघ्र १०. यशस्विन् लौहित्य का नाम (जै. उ. ब्रा. ३.४२.१; ही कृतकर्म के प्रति पश्चात्ताप हो कर, यह दोनों विष्णु की दक्ष जयंत लौहित्य देखिये)। शरण में गये। विष्णु ने आश्वासन दिया, 'शाप समाप्त जयंत पाराशर्य--एक आचार्य । विपश्चित् का शिष्य | होते ही मैं तुम्हारा उद्धार करूँगा' । शाप के अनुसार, एक (जै. उ. ब्रा. ३.४१.१)। मगर, तथा दूसरा हाथी बन कर, गंड़की के किनारे रहने जयंत वारक्य--कुबेर वारक्य का शिष्य । उसका लगे। बाद में एक दिन हाथी कार्तिकस्नान के हेतु से गंड़की दादा केस वारक्य का शिष्य था (जै. उ. ब्रा. ३.४१.१)। नदी में उतरा । मगर ने उसका पैर पकड़ लिया। | तब इसने विष्णु को पुकारा । विष्णु ने आ कर दोनों का २. सुयज्ञ शांडिल्य के नाम से भी एक जयंत वारक्य उद्धार किया। उन्हें वह विष्णुलोक ले गया। पश्चात् जय का उल्लेख है (जै. उ. ब्रा. ४.१७.१)। तथा विजय विष्णु के द्वारपाल बने (स्कन्द. २.४.२८; पद्म. जयंती-स्वायंभुव मन्वंतर के यज्ञ नामक इंद्र की | उ. १११-११२)। केन्या, तथा ऋषभदेव राजर्षि की भार्या । इसे भरतादि | बाद में सनकादि देवर्षियों को, विष्णुदर्शन के लिये इन्होंसौ पुत्र थे (भा. ५.४.८)। ने जाने नही दिया। अतः उनके शाप से, वैकुंठ से पतित २. वर्तमान वैवस्वत मन्वंतर के पुरंदर नामक इंद्र की हो कर, ये असुरयोनि में गये । इनमें से जय ने हिरण्याक्ष कन्या, तथा वारुणि भृगु के पुत्र शुक्र की स्त्री । देवताओं का जन्म लिया। पृथ्वी सिर पर धारण कर के वह उसे के नाश के लिये, शुक्राचार्य उग्र तपश्चर्या कर रहे थे। तप | पाताल ले गया। तब वराह अवतार धारण कर के, विष्णु ने में विघ्न उपस्थित करने के लिये, इंद्र ने शुक्राचार्य के पास इसे | इसका वध किया एवं पृथ्वी की रक्षा की (भा. ३.१६.३२%, भेजा। वहाँ जाने पर जयंती ने उत्कृष्ट प्रकार से उसकी सेवा | पद्म. उ. २३७)। की। बाद में शंकर से शुक्राचार्य को वरप्राप्ति होते ही, उसने | अश्वियों ने, 'तुम पृथ्वी पर तीन बार जन्म लोगे' इसका हेतु पहचाना। इसे साथ ले कर वह घर आया ऐसा शाप इन्हे दिया। इन्होंने भी अश्वियों को, 'तुम भी और गृहस्थाश्रम का उपभोग करने लगा। इससे उसे एक बार पृथ्वी पर जन्म लोगे' ऐसा शाप दिया । शाप के देवयानी नामक कन्या हुई (मत्त्य. ४७; पद्म. स. १३; अनुसार, जयविजय ने क्रमशः हिरण्याक्ष तथा हिरण्यउशनस् देखिये)। कश्यपु के रूप में जन्म लिया , बाद में रामावतार के समय ३. सुपेण राजा की कन्या । यह इसने राजपुत्र माधव । रावण तथा कुंभकर्ण, तथा कृष्णावतार में शिशुपाल तथा को दी थी (पन क्रि. ६)। | वक्रदन्त नामों से ये प्रसिद्ध हुएँ। २२७ Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयशर्मन जयशर्मन - अवंतीनगर के शिवशर्मा ब्राह्मण का पुत्र । व्यसनी हो कर भी, इसने अधिकमास में वद्य एकादशी का व्रत आचरण किया। लक्ष्मी ने इसे एकादशी माहात्म्य बताया (पद्म. उ. ६२ ) । • जयसेन - - जयत्सेन १.२. देखिये । प्राचीन चरित्रकोश २. (सो. क्षत्र. ) भागवत मत में अहीनपुत्र ( जय- पोषण की जिम्मेवारी मुझ पर न हो। इस शर्तपर, उससे त्सेन देखिये )। ३. क्षत्रिय राजा मागध ( म. स. ४.२३ ) । ४. अवंत्य राजा । इसे राजाधिदेवी नामक स्त्री थी । इसके पुत्र विंदानुविंद एवं कन्या मित्रविंदा थी । वह कृष्ण को विवाह से दी गयी थी। जया -- कृशाश्व प्रजापति की कन्या तथा पार्वती की दासी (स्कंद. १.३.२.१८ ) । यह पार्वती की सखी होने का उल्लेख भी प्राप्त है। (वामन ४ पद्म. उ. १६ ) | जयानीक - द्रुपदपुत्र पांचाल । भारतीययुद्ध में यह अश्वत्थामा से मारा गया ( म. द्रो. १३१.१२.७ ) । २. विराट का भाई ( म. द्रो. १३३.३९ ) । जयावह -- मणिवर तथा देवजनी का पुत्र । जयाश्व - जवानी का भ्राता अश्वत्थामा ने भारतीययुद्ध में इसका वध किया (म.द्रो. १२१.१२७) । २. विराट का भाई ( म. द्रो. १३३.३९ ) । जयेश -- विराट नगरी में भीम द्वारा धारण किया गया गुप्त नाम (म. वि. ५.३० २२.१२ भांडारकर प्रति: जयंत ) । जरासंध रहा है । अतः किस तरह क्यों न हो, हमारे पुत्र से विवाह करने को कहो' । तब इसने कहा, 'मैं तुम्हारा ही पुत्र हूँ । में ने ब्रह्मचर्यावस्था में रहने का निश्चय किया था। तुम्हारी यह स्थिति देख कर मैंने अपना विचार बदल दिया है। मेरे ही नाम की कन्या मुझे भिक्षा में प्राप्त हो । उसके जर—जरस् देखिये । जरत्कारु -- ऐरावत सर्प तथा एक सूक्तद्रष्टा (ऋ. १०.७६ ) । २. एक ऋषि । कारु का अर्थ है शरीर । शरीर को तप से क्षीण करता है, वह जरत्कारु, यह इस शब्द की व्युत्पति है ( म. आ. ३६.२ ) । यह यायावरों का पुत्र था ( म. आ. ४१.१६ ) । मैं विवाह कर लूँगा' । " वृद्ध होने के कारण कोई भी इसे कन्या नहीं देता था । पश्चात् अरण्य में वासुकि ने अपनी जरत्कारु नामक भगिनी इसे दी, तथा उसका पोपण करने की जिम्मेवारी स्वयं उठा ली। विवाह होने पर पतिपत्नी एकत्र रहने लगे । परंतु इसने शुरु मे ही इसे चेतावनी दी की, 'मेरे मन के विरुद्ध अगर तुम व्यवहार करोगी, तो मैं तुम्हें छोड़ दूंगा'। एक दिन यह अपनी पत्नी की गोद में सिर खा कर सोया था । सायंकाल होने के बाद, संध्यालोप न हो, इसलिये उसने पति को जागृत किया तब में सोया हूँ। सूर्य की क्या मजाल है कि, वह अस्तायमान हो ? ऐसा क्रोध में वह कर यह पुनः तप करने के लिये गया ( म. आ. ४२.२९ ) । इस समय जरत्कारु] गर्भवती थी । उसे आस्तीक नामक पुत्र हुआ । जरत्कारु की पत्नी कश्यपकन्या मनसा से, आस्तीक का जन्म हुआ (दे. भा. ९४७-४९ मनसा देखिये) । ३. जरत्कारु की पत्नी ( जरत्कारु २. देखिये) । जरद्गौरी -- आस्तीक की माता जरत्कारु का नामांतर । जरस् -- वसुदेव को रथराजी नामक स्त्री से उत्पन्न द्वितीय पुत्र । इसे 'जर' नामांतर है। यह क्षत्रिय था, परंतु दुराचरण से व्याध बना। इसीके बाण से कृष्ण की मृत्यु हुई। बाद में भलतीर्थ में इसकी मृत्यु हो गई (भा. ११. ३०.३२ म. मौ. ५.१९-२२ स्कन्द ७.१.२३९-२४१) । जरा एक राक्षसी तथा जरासंध की उपमाता ( जरासंध देखिये) । जरासंध ने कृष्णादि को का वध करने के लिये गदा फेंकी उसका प्रतिकार करने के हेतु, राम ने स्थूणाकर्ण नामक अस्त्र फेंका। इन दोनों के बीच में आने के कारण, इसकी मृत्यु हो गई (म. द्रो. १५६.१४) । ब्रह्मचारी अवस्था में जरत्कारु तीर्थयात्रा कर रहा था। तब इसे पास के आश्रय से एक गड्ढे में लटकनेवाले वीरणक नामक पितर दिखे । घास का जड़ चूहों द्वारा कुतरा जा रहा था। इसी कारण उनका आधार कब टूट जावेगा कह नही सकता था । उनकी इस अवस्था का कारण इसने पूछा। उन्होंने कहा, 'जरत्कारु अविवाहित होने के कारण हमारा वंश खंडित हो गया है । इस लिये हमारी यह स्थिति हो गई है। केवल तप के भरोसे हम भाज तक जीवित हैं। परंतु उस तप को कालरूपी चूहा दिनरात कुतर | विवाह किये थे। लंबी कालावधि तक वह अनपत्य रहा। जरासंध - (सो. मगध . ) वायु मत में नभस्- पुत्र । भागवत, विष्णु एवं मत्स्य मत में राजा वृहद्रथ का पुत्र | इसलिये इसे बार्हद्रथि नामांतर था । । वृहद्रथ राजा ने काशिराज की जुड़यों कन्याओं से २२८ Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन चरित्रकोश जरासंध काक्षीवत तमपुत्र चंडकौशिक ने उसे पुत्रप्राप्ति के लिये प्रसादस्वरूप एक आम्रफल दिया। दोनों पत्नियों से समभाव से व्यवहार करूँगा, ऐसी उसकी प्रतिशा थी । अतः उसकी दोनों पत्नियों ने, उस फल आधा आधा मक्षण किया। कुछ फाल के बाद, उन्हें आधा आधा पुत्र हुआ। वे टुकडे उन्होंने दासियों के द्वारा चौराहे पर ले जा कर, रखवा दिये। पश्चात् जरा अथवा गृहदेवी नामक राक्षसी ने उन तुकडों को जोड़ दिया। उससे एक बालक निर्माण हुआ । बाद में इस बालक को खाने के लिये, वह खींच कर ले जाने लगी। परंतु उस बलवान् बालक को यह खींच नहीं सकी। बाद में उस बालक ने रुदन प्रारंभ किया। तब राजा बाहर आया। राक्षसी ने वह बालक उसे दे डाला। राजा ने इसका नाम जरासंध रखा ( म.स.१६-१७ मत्स्य. ५० ) । | "बृहद्रथ की एक ही पत्नी को बालक के दो टुकड़े हुएँ। उसने उन्हें चौराहे पर फेंक दिया। जरा नामक राक्षसी उन टुकड़ों के पास बैठ कर, लीलावश बारबार 'जीवित हो, ' ऐसा कहने लगी । इस मंत्र से उन जुडे टुकडों में 'जान आ गई, " ऐसी भी कथा प्राप्त है ( भा. ९.२२ ) । इसका जन्म विप्रचित्ति दानव के अंश से हुआ था ( म. आ. ६१.४) । यह मगध देश का अधिपति था। इसकी राजधानी का नाम गिरित्रज था । यह द्रौपदी के स्वयंवर में उपस्थित था। परंतु धनुष्य उठाते समय, घुटनों पर गिर कर यह फजीहत हुआ। अतः सीधा अपने देश वापस चला गया (म. आ. १७८१८१८० ) । रुनिमणीस्वयंवर में भी यह उपस्थित था वहाँ भीष्मक के सामने इसके द्वारा किया गया कृष्णस्तुतियुक्त भाषण, इसके कृष्णद्वेष से विसंगत प्रतीत होता है ( ह. वं. २.४८ ) । इसने अपनी दो कन्यायें तथा सहदेव की कनिष्ठ बहनें, अस्ति तथा प्राप्ति कंस को दी थीं कंसवध की वार्ता उनके मुख्य से शात होते ही, इसने सेनासहित मथुरा पर आक्रमण किया । इसकी सेना तेईस अक्षौहिणी ( विष्णु ५.२२ ) अथवा बीस अक्षौहिणी थी (ह. वं. २.२६ ) । कृष्ण तथा बलराम नगर के बाहर आ कर इससे युद्ध करने के लिये तैय्यार हो गये। जरासंध तुणीर तथा कौमोदकी गदा प्राप्त की। बलराम ने भी संवर्तक हल तथा सौनंद मुसल प्राप्त किया (ह.वं. २. ३५.५९-६५ विष्णु. ५.२२.६-७ ) । जरासंध के द्वारा मथुरा के चारों द्वारों पर आक्रमण करने के लिये, जिन राजाओं की योजना की थी, वे निम्नलिखित है:-- जरासंध जैसे शक्तिमान् शत्रु से टक्कर देनी थी। बलराम तथा कृष्ण को इस काम में प्रभावी शस्त्रों की आवश्यकता थी। अतः कृष्ण ने शार्ङ्ग धनुष, अक्षय दक्षिण में दरद, चेदिराज तथा स्वयं जरासंध; उत्तर दिशा में — पूरुकुलोत्पन्न वेणुदारि, विदर्भाचिपति सोमकराज, भोजेश्वर रुक्मिन, सूर्यच तथा मालवेश, अवंतिदेश के विंद तथा अनुविंद, दंतवक्त्र, छागलि पुरमित्र, विराट, कौरव्य, मालव, शतधन्वा, विदूरथ, भूरिश्रवा, त्रिगर्त, बाण एवं पंचनद; , पूर्व में— उलूक, केतव, अंशुमान् राजा का पुत्र एकव्य बृहत्क्षत्र, बृहद्धर्मन, जयद्रथ, उत्तमीजस, शस्य, कौरव, कैकेय वैदिश, बामदेव तथा सिनि देश का राजा सांकृति; पश्चिम में— मद्रराजा, कलित्रापति, चेकितान, शाहिक, काश्मीराधिपति गोनर्द, करुषेश द्रुमराजा, किंपुरुष तथा पर्वतप्रदेश का अनामय ( ह. वं. २.३५ ) । इस प्रकार इसने व्यवस्था की। परंतु यादव सेना संख्या में कम होते हुए भी उसने इसकी पराजय की । इस युद्ध में, एकबार बलराम इसे मारने के लिये प्रवृत्त हो गया था । परंतु आकाशवाणी ने उसे सुझाया, 'इसका वध किसके द्वारा होगा यह तुम्हें मालूम है, इसलिये तुम इसका वध मत करो (ह. बं. २.२६ ) | जरासंध को बलराम ने कई बार जीता। परंतु इसका वध नहीं किया। इसके साथ के राजाओं पर, उसने अच्छा हाथ चलाया ( ह. वं. २.६२.५.१२) । इस युद्ध में भाग लेनेवाले राजाओं की तीन सूचियाँ प्राप्त हैं, परंतु वे एक दूसरे से मेल नहीं रखती। एक में चेदिराज शिशुपाल है, तो दूसरी में चेदिराज पुरुषोत्तम । एक में सिनिराज सांकृति, तो दूसरे में केशिरान सांकृति । कहीं एक ही सूचि में, दरद तथा दरदेश्वर नामक दो राजाओं का उल्लेख है। इनके अतिरिक्त राजाओं का भी मेल नहीं बैठता (ह. यं. २०३४) । इस प्रकार इसने मथुरा पर कुल सत्रह बार आक्रमण किये। हर समय इसका पराभव ही हुआ । बिना किसी कारण, यह कृष्ण से शत्रुत्व रखता था। जयद्रथ के आक्रमण से बचने के लिये, कृष्ण ने मथुरा छोड़ी। पश्चिम समुद्र तट पर रैवतक पर्वत के पास, द्वारका में नये राज्य २२९ Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जरासंध की स्थापना की। इस युद्ध में कृष्ण के पक्ष में, कुल अठारह राजकुल थे ( म. स. १३; विष्णु. ५.२२; ब्रहा. १९५ ) । इस प्रकार, इस युद्ध में पराजित हो कर, यह वापस लौटा। पश्चात् इसने अपनी सहायता के लिये कालयवन को आमंत्रित किया (ह. . २.५३ ) । प्राचीन चरित्रकोश , यद्यपि कृष्ण ने इसका पराभव किया था, तथापि यह अत्यंत शूर था। इसे राज्य प्रदान कर, इसके मातापिता ने वनगमन किया । पश्चात् इसने अतुल पराक्रम दर्शाया । मोज्कुल के क्षत्रियों को पादाक्रांत कर उन्हें अपने काबू सत्र में लाया। तब सभीयों ने इसे सार्वभौमपद पर स्थापित किया ( म. स. १३ ) । गिरित्रज राजधानी में, ९९ बार घूमा कर इसके द्वारा फेंकी गई गदा, ९९ योजन दूर मथुरा के पास आ कर गिरी। हंस तथा डिमक नामक दो पराक्रमी भाई इसके सेनापति थे ( म. स. १३) । कर्ण तथा जरासंध का युद्ध हो कर, उसमें कर्ण विजयी हुआ। इससे इसमें तथा कर्ण में मित्र उत्पन्न हो कर इसने उसे मालिनीनगरी अर्पण की (म. शां. ५.६ ) । जरासंध की सहायता से ही, कंस ने पिता का राज्य छीना ( हं. वं. २.३४.६-७)। 6 धर्मराज के मन में, राजसूय यज्ञ करने की इच्छा उत्पन्न हुई । उसने कृष्ण को इन्द्रप्रस्थ बुला कर उसकी सलाह ली कृष्ण ने उसे कहा, चूंकि जरासंध ने ८६ राजाओं को कैद कर रखा है, उसे बिना जीते राजसूय यज्ञ यह पूरा न हो सकेगा। भागवत में २०८०० राजाओं का उल्लेख है । इसका निश्चय था कि उन राजाओं को वह महादेव को चिढ़ायेगा। प्रत्येक कृष्ण चतुर्दशी को यह एक एक राजा की बलि भैरव को चढाता था । जरित् जरासंध ने कृष्ण तथा अर्जुन को नालायक मान कर भीम से युद्ध करने का निश्चय किया । सहदेव को राज्याभिषेक कर स्वयं युद्ध प्रारंभ किया । प्रथम इनका गदायुद्ध हुआ, परंतु एक दूसरे के शरीरों पर काफी बार आघात होने के कारण गढ़ायें टूट गई । द्वंद्वयुद्ध प्रारंभ हुआ । यह शु. युद्ध दिनरात चलता था। यह युद्ध कार्तिक १ से कार्तिक शु. १४ तक १४ दिन ( म. स. २१.१०-१८) २५ दिन (पद्म उ. २७९ ) अथवा २७ दिन ( भा. १०.७२. ४०) चल रहा था। युद्ध के अंतिम दिन दोनों अत्यंत थक गये थे। कृष्ण की उत्तेजना से भीम ने जरासंध का वध किया (म. स. २२.६ . २० - २४ ) | अंतिम दिन में भीम ने जरासंध को फाड़ डाला। यह पुनः दुई कर युद्ध के लिये सिद्ध हो गया। यह देख कर भीम इस विचार में पड़ा, इसकी मृत्यु कैसी हो। इतने में कृष्ण ने एक तृण हाथ में ले कर उसका छेद किया । दाहिने हाथ का तृण ई ओर तथा बाँयें हाथ का तृग दाहिनी ओर फेंकने का संकेत कृष्ण ने भीम को किया। भीम ने वैसा करते ही जरासंघ की मृत्यु हो गई (पश्च. उ, २५२१ २७८ ) । कृष्ण को यह युक्ति उद्धव ने सुझाई थी। , जरासंध मृत होते ही, इसका पुत्र सहदेव शरण आया । कृष्ण ने उसे अभय दिया। उसको राज्य पर स्थापित कर के सब राजाओं को कारागृह से छुड़ा दिया। बाद में उन सब राजाओं को राजसूय यज्ञ में आमंत्रित कर, वह भीमार्जुन के साथ इन्द्रप्रस्थ लोटा ( म. स. २२ पद्म उ. २५२ ) । परंतु महाभारत में लिखा है कि, जरासंध वध का कृत्य दिविजय के पहले किया गया। भागवत में लिखा है। कि सारा दिग्विजय पूरा होने के बाद, जरासंघ अजित रहा, इसलिये यह आक्रमण करना पड़ा। २. (सो. कुरु.) धृतराष्ट्रपुत्र | 3 इसलिये जरासंघ को जीतने के लिये कृष्ण तथा अर्जुन को लेकर कृष्ण गिरि में गया। उन्होंने ब्राह्मणवेश धारण किया था। इसके महाद्वार पर रखी गई अत्यंत बड़ी तीन दुंदुभियों को फोड कर, उन्होंने इसके घर गमन किया । जरासंध ने उनसे मिल कर उनका सत्कार किया तथा इच्छा पूछी कृष्ण ने कहा, 'इन दोनों का मौन है, इसलिये हम मध्यरात्रि के बाद वार्तालाप करेंगे'। मध्यरात्रि के बाद जरासंघ अर्घ्यपाद्य दे कर उनका सत्कार करने लगा। उन्होंने उसे ग्रहण नहीं किया। तब उनकी आकृति देख कर, जरासंध ने पहचाना कि वे क्षत्रिय है। उनसे आगमन का कारण पूछा। कृष्ण ने तीनों के नाम बता कर कहा, 'जिससे युद्ध करने की तुम्हारी इच्छा हो, उससे तुम युद्ध करो'। जरितारि - मंदपाल ऋषि को शाङ्ग जरिता से उत्पन्न पुत्र (म. आ. २२४.६, अनु. ५३.२२ कुं.) । । जरित शाह-मंत्रद्रष्टा (ऋ. १०.१४२.१२) । २. मंदपाल ऋषि की पत्नी । शाङ्ग एक पक्षी की जाति है। मंदपाल से इसे चार पुत्र हुए। उनके नाम जरितारि, सारिसृक्क, द्रोण तथा स्तम्बमित्र थे ( म. आ. २२४.६ ) | ये ही नाम उपरोक्त सुखों के क्रम से दो दो । ऋचाओं के द्रष्टाओं के हैं। उन पुत्रों को मंदपालद्वारा भगा दिये जाने पर, वे दावाग्नि में घिर गये । परंतु उपरोक्त दो मंत्रों से, अभि की प्रार्थना करने पर दावाभि से ये मुक्त हो गये। सायण ने इस कथा का अनुक्रमणी के २३० Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जरित प्राचीन चरित्रकोश आधार से संबंध जोड़ा है । महाभारत तथा अनुक्रमणी| जहावी-यह शब्द ऋग्वेद में दो बार आया है (ऋ. में प्रथम पुत्र के नाम में मतभेद है । महाभारत में जरि- | १.११६. १९; ३.५८.६)। जन्हु की स्त्री, वा सायण के तारि नाम दिया है । अनुक्रमणी एवं बृहद्देवता ने प्रथम | मत में जन्हु का वंश, यों इस शब्द का अर्थ होगा (जन्हु पुत्र का नाम जरितृ बता कर, माता का नाम नहीं दिया है। | देखिये)। जरूथ-पानी में रहनेवाला कोई राक्षस रहा होगा | जह्व-सो. अमा.) भागवत के मत में होत्रकपुत्र, एवं (ऋ. १०.८०.३)। वसिष्ठ ने प्रज्वलित अग्नि से इसे विष्णु तथा वायु के मत में सुहोत्रपुत्र। भस्म किया (ऋ. ७.९.६)। जरदुष्ट्र के साथ इसकी तुलना की जाती है। ___जह्न तथा वृचीवत् में विरोध था। विश्वामित्र जाह्नव जर्वर--सर्पसत्र में गृहपति ( यजमान) (पं. ब्रा. | ने वृचीवतों को परास्त किया। राष्ट्र का स्वामित्व विश्वा२५.१३)। मित्र जाह्वव ने प्राप्त किया (ता. ब्रा. २१.१२.२)। जल जातकर्ण्य--काशी विदेह तथा कोसल के लोगों विश्वामित्र को सौ पुत्र थे। फिर भी विश्वामित्र ने का वा राजाओं का पुरोहित (सां. श्री. सू. १६.२९.६ | शुनःशेप को अपना पुत्र माना । शुनःशेप का देवरात नाम जातूकर्ण्य देखिये)। रख दिया। इतना ही नहीं, उसे सब पुत्रों में ज्येष्ठत्व जलद-अत्रिकुल का गोत्रकार । दिया । पहले पचास पुत्रों ने देवरात को ज्येष्ठ मानना जलंधर--कश्यपकुल का गोत्रकार । अमान्य किया। दूसरे पचास पुत्रों का मुखिया २. महाघमंडी तथा त्रैलोक्य विजयी गृहस्थ । इसको मधुच्छंटस् था। उन्होंने देवरात का ज्येष्ठत्व मान लिया। शिव ने 'अंगुष्ठरेखोत्थ' चक्र से मारा (शिव. शत. | विश्वामित्र ने देवरात को जल तथा गाथिन् का आधिपत्य दिया। यज्ञ, वेद, तथा धन का उसे अधिकारी बनाया जलसंध--अंगिरा कुलोत्पन्न एक ब्रह्मर्षि । इसका । (ऐ. ब्रा. ७.१८)। नाम जलसंधि दिया गया है। इससे पता चलता है कि, शुनःशेप का कुलनाम जद्द . २. (सो. कुरु.) धृतराष्ट्र का पुत्र । भीम ने इसका था, तथा विश्वामित्र का कुलनाम गाथिन् वा गाधि था। वध किया.(म. भी. ६०.२८; क. ६२.४)। दोनो कुलों का उत्तराधिकारी शुनःशेप ( देवरात) था । ... ३. मागधराज । यह रथवर था (म. आ. १७७.११; अत एव, उसको यामुष्यायण कहते हैं। • उ. १६४.२४ )। भारतीय युद्ध में यह दुर्योधन के पक्ष __जह्न शब्द से जहावी शब्द हुआ। जहावी शब्द ऋग्वेद में था । यह सात्यकि द्वारा मारा गया । यह बड़ा शूर एवं • 'शुचिभत था (म. द्रो. ९१.४५)। | में दो बार आया है । 'जह्न की प्रजा,' यों उस शब्द का अर्थ जलसंधि-जलसंध १. देखिये। है (ऋ. १.११६.१९;३.५८.६)। जलापा-ब्रह्मवादिनी । यह मानवी थी (ब्रह्मांड. २. अमावसुवंश के जह्न तथा पूरुवंश के जह्न दोनों बिलकूल ३३.१७)। भिन्न थे। नामसाम्य से, कई पुराणों में अमावसुवंश के जलाभित-आलुकि का पाठभेद । विश्वामित्रादि लोक, पूरुवंश के जह्न के वंश में दिये गये जलयु--(सो. पूरु.) भागवत, विष्णु, वायु तथा | हैं। वस्तुतः विश्वामित्रादि लोग अमावसुवंश में उत्पन्न महाभारत के मत में रौद्राश्व के दस पुत्रों में से एक (म. हुए है। जह्नवंश से उनका कोई संबंध नहीं हैं (भरत आ. ८९.९)। एवं विश्वामित्र देखिये)। जल्प- तामस मन्वंतर के सप्तर्षियों में से एक । २. (सो. पूरु.) अजमीढ़पुत्र | इसकी माता का नाम जव-दंडकारण्य के विरोध राक्षस का पिता । केशिनी था (म. आ. ८९.२८; अग्नि. २७८.१६)। जविन--भृगुकुल का गोत्रकार । अजमीढ़ का पिता हस्तिन् ने हस्तिनापुर की स्थापना की। जवीनर-(सो. नील.) मत्स्यके मत में भद्राश्वपुत्र। भगीरथ ने लायी हुयी गंगा इसने रोकी थी। भगीरथ ने इसे भागवत में यवीनर, वायु में यवीयस् तथा विष्णु में | उसे फिर मुक्त किया (वा. रा. बा. ४३; वायु. ९१)। प्रवीर कहा गया है। गंगा को जाह्नवी कहने का यही कारण है। २३१ Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन चरित्रकोश जानपदी ३. (सो. पूरु.) मिथिल का पुत्र । इसका पुत्र | किया है । स्मृतिचन्द्रिका में दी गयी, 'आंगिरस स्मृति' के सिंधुद्वीप (म. अनु. ७.३.कुं.)। जह्न आदि विश्वामित्र- | एक उद्धरण में, जातूकर्ण्य को उपस्मृतिकार कहा है। इसी कुल के लोग, महाभारत में कई जगह पुरुवंश में दिये | प्रकार विद्यार्थियों के कर्तव्य, अन्य जाति की स्त्री से विवाह हैं। दूसरे स्थल में भिन्न प्रतिपादन है (म. शां. ४९)। | का प्रतिबंध, श्राद्धकाल आदि के संबंध में जातूकण्य के ४. (सो. पूरु. कुरु.) भागवत, विष्णु, मत्स्य, तथा | सूत्र प्राप्त है । जातूकर्ण्य ने आचार तथा श्राद्ध आदि पर वायु के मत में कुरु के पाँच पुत्रों में तीसरा । इसका पुत्र काफी प्राचीन सूत्र लिखे थे । बारह राशियों में से, कन्या सुरथ । उस से हस्तिनापुर में कुरुवंश का विस्तार हुआ। | राशि के संबंध में जातूकण्य के एक श्लोक का उल्लेख, अपरार्क ५. तामस मन्वन्तर का एक ऋषि । ने किया है। इससे प्रतीत होता है कि, जातूकर्ण्य का काल जाजलि-एक ऋषि । इसे अपने तप पर घमंड हो | ईसवी सन २०० से ४०० के बीच का होगा। श्रौतसूत्र में गया था। तुलाधार नामक एक धर्मात्मा वैश्य से संवाद | एवं हलायुध तथा हेमाद्रि के ग्रंथों में भी इसके आधार करने पर, इसका घमंड़ नष्ट हुआ । इसे पश्चिमी समुद्र के | लिये गये है (का. श्री. ४.१.२७, २०.३.१७; २५.७. किनारे पर मुक्ति मिली (म. शां. २५३-२५७; भा. ४. | ३५, सां. श्री. १.२.१७, ३.१४; २०.१९; १६.२९.६)। ३१.२)। | २. (सू. दिष्ट.) भागवत के मत में देवदत्त पुत्र । २. विष्णु, वायु, ब्रह्मांड तथा भागवत के मत में व्यास | ३. (सू. नरि.) एक ऋषि (म. स. ४.१२)। की अथर्वन् शिष्यपरंपरा के पथ्य का शिष्य । अग्निवेश्य का यह नामांतर था (भा. ९.२.२१)। ३. भास्करसंहिता के वेदांगसारतंत्र का कर्ता (ब्रह्मवै. ४. व्यास की ऋशिष्य परंपरा के शाकल्य मुनि का २.१६)। शिष्य । इसने शाकलसंहिता का अध्ययन किया था ४. ऋग्वेदी श्रुतर्षि । (व्यास देखिये)। जाटासुरि-जटासुर के पुत्र अलंबुष का नामांतर । ५. वसिष्ठगोत्र का प्रवर । जाटिकायन-एक ऋषि । शांत्युदक करते समय किस ६. एक व्यास (व्यास देखिये)। जातूकर्ण ऐसा पाठ मंत्र का उपयोग करना चाहिये, इस विषय में इसका मत भी उपलब्ध है। यह जरदुष्ट्र से मिलने के लिये ईरान. दिया गया है (कौ. ग. ९.१०)। गया था (दसतिर.१३.१६३)। जात शाकायन्य-एक ऋषि । कर्म के एक विशिष्ट | ७. ब्रह्मांड पुराण की परंपरा का एक आचार्य । संप्रदाय प्रवर्तक के नाते इसका के उल्लेख है (क. सं. | जातूष्ठिर-एक व्यक्ति । इंद्र ने इसकी सहायता की २२.७)। यह शंख कौष्य का समकालीन था। | थी (ऋ. २.१३.११)। जातूकर्ण-जातूकर्ण्य ६. देखिये । जान-वृश का पैतृक नाम । जातूकर्ण्य--आसुरायण एवं यास्क का शिष्य । इसका जानांक-ऋजित् (ते. सं. २.३.८.१; क. सं. शिष्य पाराशर्य (बृ. उ. २.६.३; ४.६.३)। यह कात्या १), तथा अयस्थूण (बृ. उ. ६.३.१०)का पैतृक नाम । यनी का पुत्र था (सां. आ. ८.१०)। अलीकयु वाचस्पत्य उपनिषदों में इसे चूल भागवित्ति का शिष्य तथा तथा अन्य ऋषियों का यह समकालीन था । अन्य काफी | सत्यकाम जाबाल का गुरु कहा गया है। उपरोक्त वर्णित स्थानों में इसका उल्लेख है (ऐ, आ. ५.३.३; सां. श्री. सार जानाक एक ह या अनक, यह कहा नहीं जाता। १.२.१७, ३.१६.१४, २०.१९, १६.२९.६, का. श्री. | २. एक ऋाष । विश्वतर के सोमयाग में, श्यापर्ण के ४.१.२७; २०.३.१७, २५.७.३४; सां. बा. २६.५)।। प्रवश करन क बाद, एक विशिष्ट पद्धति की सोम की संधिनियम के बारे में विचार करनेवाला, यह एक परंपरा बताई गयी। वह परंपरा ऋतुविद् ने जानकि को आचार्य था (शु. प्रा. ४.१२३; १५८५.२२)। सांख्या सिखायों (ऐ. ब्रा. ७.३४)। यन श्रौतसूत्र में इसे जल जातूकर्ण्य कहा है। | ३. दुर्योधनपक्षीय क्षत्रिय राजा (म. आ. ६१.३६ )। ____एक पैतृक नाम के नाते, जातूकर्ण्य शब्द का उपयोग स्वर्ग में रहनेवाले चंद्रविनाशन दैत्य का यह अंशावतार भी प्राप्त है। ___धर्मशास्त्रकार-विश्वरूप ने, वृद्ध याज्ञवल्क्य से लिये गये जानंतपि--अत्यराति का पैतृक नाम । एक उद्धरण में, जातूकर्ण्य का धर्मशास्त्रकार के नाते उल्लेख जानपदी--जालपदी या जालवती का नामांतर । २३२ था। Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जानश्रुति जानश्रुति — पोत्रायण का पैतृक नाम ( छ. उ. ४. १.१ २.२ ) । इस उदार गृहस्थ ने सर्वत्र अन्नछेत्र खोल दिये थे (रैक्व देखिये )। प्राचीन चरित्रकोश जानश्रुतेय - उपावि, उक्य, श्रीपावि नगरिन तथा सायक का पैतृक नाम | जानुजंध - एक क्षत्रिय (म. आ. १.१७६. अनु. २७१.५९ कुं.)। 3 २. तामस मन्वन्तर में से मनुपुत्र । जांदकार--सूर्य के समीप रहनेवाले अठारह विनायकों में से एक (सांब. १६ ) । जांदकार का शब्दशः अर्थ है 'सहायता करनेवाला' यह हमेशा यम का कार्य करता है। जाबाल -- महाशाल तथा सत्यकाम का मातृक नाम । एक सत्र का यह गृहपति था (सां. ब्रां. २३.५) । २. भृगुकुल का गोत्रकार । ३. विश्वामित्र का एक पुत्र । ४. विश्वामित्रकुल का गोत्रकार तथा एक ऋषिगण । ५. ब्रह्मांड मंत में व्यास की यजुः शिष्य परंपरा के, याश्वल्क्य का वाजसनेय शिष्य ( व्यास देखिये) । ६. भास्करसंहिता के तंत्रसारतंत्र का कर्ता (ब्रह्मवे. २. १६) । जाबालायन - माध्यंदिनायन का शिष्य उद्दालकायन (बृ. उ. ४.६.२ जाबालि विश्वामित्र का पुत्र । २. दशरथ का एक मंत्री। यह राम के विवाह में · उपस्थित था (वा. रा. बा. ६९.४ ) । पित्राज्ञा तोड कर अयोध्या आने के लिये, इसने राम को कहा । इसलिये राम ने इसका निषेध किया ( वा. रा. अयो. १०८ ) । रामसभा का धर्मशास्त्री के नाते भी इसका उलेख प्राप्त है । जाबालनीति नामक इसका एक ग्रंथ है। भारत के ' कणिकनीति ' से वह साम्य रखता है । शिष्य । इसका ) । ३. एक ऋषि । इसके वंश में पैदा हुए लोगों को भी यही नाम प्रयुक्त है। मंदार पर्वत पर इसकी तपश्चर्या की जगह थी। इसके लाखों शिष्य थे। निपुत्रिक राजा ऋतंभर को पुत्रप्राप्ति के लिये, इसने विष्णुसेवा, गोसेवा तथा शिवसेवा करने के लिये कहा। जांबवत उसकी जन्मकथा पूछी। बाद में कृष्णोपासना का रहस्य उससे जान पर यह स्वयं कृष्ण की आराधना करने लगा । उस तपश्चर्या के फलस्वरूप, गोकुल के प्रचंड नामक गोप के घर में, चित्रगंधा नामक गोपी का जन्म इसे मिला (पश्न. पा. ३०.७२,१०९ ) । ४. एक ऋषि एकवार यह घोर तपश्चय कर रहा था । इन्द्र ने रंभा को इसके पास भेजा । रंभा ने इसको मोहित किया। उससे इसे एक कन्या हुई। बाद में उस कन्या का चित्रांगद राजा ने हरण किया तब जाबालि ने उसे कुठरोगी बनने का शाप दिया (स्कन्द ६.१४११४४ ) । ५. भृगुकुलोत्पन्न एक ऋषि भृगु देखिये) । इसकी लिखी एक स्मृति प्रसिद्ध है। हेमाद्रि तथा हलायुध ने उस में से आधार लिये हैं। जामघ - - ( सो.) भविष्य के मत में पारावतसुत का पुत्र । जामदशिय-एक पैतृक नाम जमदमि के दो के लिये यह नाम प्रयुक्त है ( तै. सं. ७.१.९.१ ) । और्व खोगों को शमदमय कहा गया है (पं. बा. २१.१०.६ ) । जामदग्न्य - परशुराम का पैतृक नाम । २. सावर्णि मन्वन्तर का एक ऋषि । जामि -- यामि देखिये । जामित्र - तुषित देवों में से एक । जांबबत् प्रजापति तथा रक्षा का पुत्र इसकी पत्नी व्याघ्री । इसकी कन्या जांबवती ( ब्रह्मांड. ३.७.३०१ ) । ब्रह्मदेव की जम्हाई से यह पैदा हुआ ( वा. रा. बा. १७) । यह ऋक्षों का राजा था ( वा. रा. यु. ३७ ) । २. एक वानर सीताशोध के लिये इसने राम की काफी सहायता की (बा. रा. यु. ७४) रावणवध के बाद, राम का जय होने की वार्ता, नगाडे पीट कर इसने सब को बताई। राम के राज्याभिषेक के लिये समुद्र का पानी इसीने लाया था ( वा. रा. यु. १२८ ) । राम के अश्वमेध यज्ञ के समय, अश्वरक्षण के लिये, शत्रुघ्न के साथ यह भी गया था ( पद्म. पा. ११.१५ ) । ३. वानर जाति का एक मानव । स्यमंतकमणि के लिये, कृष्ण से इसका अठ्ठाईस दिनों तक युद्ध हुआ । अन्त में कृष्ण रामावतार है, यह जान कर इसने उसकी स्तुति की। पश्चात् स्यमंतक मणि के साथ अपनी कन्या एक दिन यह अरण्य में गया था । वहाँ तालाब के किनारे, एक सुंदर तथा तरुण तापसी तपश्चर्या करती हुई इसे दिख पड़ी। उसे जानने के लिये, यह वहाँ सौ वर्ष तक रुका। उसकी समाधि समाप्त होने पर आवालि ने यती इसने कृष्ण को दी ( भा. १०.५६.२२; पद्म. उ. २७६ ) । | प्रा. च. २० २३३ Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जांबवत् प्राचीन चरित्रकोश इसने दशांग पर्वत पर शिवलिंग की स्थापना की थी। फिर भी विष्णुमाया से लज्जित हो कर, वृन्दा में अमिउस लिंग को इस के नाम पर 'जांबवत लिंग'नाम प्राप्त प्रवेश किया ( शिव. रुद्र. यु. २३; आ. रा. सार. ४)। हुआ (प. उ. १४३)। दूसरी जगह यह कथा भिन्न रूप में आयी है। वृंदा जांबवती--ऋक्षराज जांबवत् की कन्या, तथा कृष्ण ने विष्णु को शार दिया, 'तुम्हारी स्त्रियों का भी इसी की अष्टनायिकाओं में से एक । इसे सांब, सुमित्र, पुरुजित्, प्रकार हरण होगा'। बाद में वृंदा ने देहत्याग किया शतजित् , सहस्त्रजित् , विजय, चित्र केतु, वसमत्, द्रविड | (पन. उ. १५)। शंकर ने इसका सिर सुदर्शन चक्र से तथा ऋतु नामक पुत्र, तथा एक कन्या थी (म. स. परि. काट दिया (स्कंद. २.४.१४-२२)। १, क्र. २१, पंक्ति. १४११; भा. १०.५६.३२, ६१.१२, | जालंधरायण-जालंधर-त्रिगर्त-कांग्रा यह प्रदेश विष्णु. ४.१३)। अन्त में इसने अग्निप्रवेश किया (म. | पाणिनिकाल से आज तक सतलज (शुतद्र) नदी के पश्चिम मौ. ८.७२)। भाग में ख्यात है। जायद्रथ--जयद्रथपुत्र सुरथ का नामांतर । जालपदी--देवकन्या । इसे देख कर शरत् का जायंत--जयंती से ऋषभदेव को उत्पन्न शतपुत्रों का रेतस्खलन हो कर, कृप एवं कृपी ये पैदा हुएँ (म. आ. नामांतर। १२०.६)। जाहुष-एक राजा। अश्वियों की कृपा से. इसका जायंतीपुत्र--आलंबीपुत्र का गुरु तथा मांडूकायनी राज्य पुनः प्राप्त हुआ। च्यवन तथा यह, एल्यों का पुत्र का शिप्य (बृ. उ. ६.५.२)। राजा तुर्वयाण के विरुद्ध के पक्ष में थे (ऋ. ७.७१.५ )। जायंतेय--जायंत का नामांतर । जाह्नव-विश्वामित्र का पैतृक नाम (पं. बा. ११.१२, जार-वृषजार देखिये। जह्न तथा विश्वामित्र देखिये)। जारत्कारव---आर्तभाग का पैतृक नाम (बृ. उ. | जिगीषु--पृथुक देवों में से एक। ३.२.१)। जारासंधि-जरासंधपुत्र सहदेव का नामांतर । जित्--एक देवप्रकार । स्वायंभुव मन्वन्तर में देव ताओं को 'याम' कहते थे। उन्हीं में से एक प्रकार जित जाति--तंति का नामांतर। नाम से प्रसिद्ध था। . जालधि-भृगुकुल का एक गोत्रकार । जित--(सो. यदु.) वायुमत में यदुपुत्रों में से एक । जालंधर-एक दैत्य । यह समुद्र में पैदा हुआ। यह जितकाम--मधुवन के शाकुनि ऋषि का पुत्र । यह शास्त्रवेत्ता था। इसका वध शंकर ही कर सकेंगे, ऐसा अत्यंत विरक्त था, तथा संन्यास वृत्ति से रहता था (पाम. ब्रह्मदेव ने इसे वरदान दिया था (स्कंद.,२.४.१४; पभ. स्व.३१)। उ. ४-१९; शिव. रूद्र. यु. १४)। जितवती-उशीनर की कन्या तथा नामक वसु समुद्र तथा गंगा का यह पुत्र, जालंधर देश में रहता | की भार्या। था। इसका राज्य पाताल एवं स्वर्ग पर भी था। इसकी जितव्रत-(स्वा. उत्तान.) भागवत मत में हविपत्नी वृंदा । शुक्र के सहाय्य से यह पृथ्वी का शासन र्धान का पुत्र । इसकी माता हविभीनी । . करता था। संजीवनीविद्या भी इसे अवगत थी। यह जिताजित-स्वागंभुव मन्वन्तर में से एक देवसर्वथा अजेय था। इंद्रपद पर इसने कब्जा किया था। प्रकार। लक्ष्मीनारायण भी इसके घर में रहते थे। जितारि--(सो. कुरु.) अविक्षित् का पुत्र । नारद ने एक बार पार्वती के सौंदर्य की प्रशंसा की। जित्वन शैलिनि-शिलीन ऋषि का पुत्र। इसका इसने पार्वती को लाने के लिये राह को भेजा। शंकर ने | भ्राता जिन । एक स्थान पर इसका नाम शैलिन् आया है राहु को भगा दिया। अन्त में शंकर तथा जालंधर का (बृ. उ. ४.१.५; माध्य.)। परंतु काप्य प्रति में शैलिनि घमासान युद्ध हुआ। शस्त्रयुद्ध के बाद मायायुद्ध शुरू नाम दिया है (४.१.२)। जनक एवं याज्ञवल्क्य का यह हुआ। पार्वती के पास यह शंकर का रूप ले कर गया। | समकालीन था । यह वाग्देवता को ब्रह्म समझता था। विष्णु जालंधर का रूप ले कर वृन्दा के पास आया। वृंदा | जिन-जित्वन् देखिये। ने विष्णु को, द्वारपालद्वारा पराजित होने का शाप दिया। २. बर्बरिक, अर्हत् , ऋषभ एवं वृहस्पति देखिये। २३४ Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिष्णु प्राचीन चरित्रकोश जैमिनि जिष्णु-विष्णु, इंद्र, एवं अर्जुन का नामांतर । गमन का सामर्थ्य था (म. श. ४९ ) । असित देवल के २. भौत्य मन्वन्तर के मनु का पुत्र । साथ इसका ब्रह्मप्राप्तिविषयक संवाद प्रसिद्ध है ( म. 'जिष्णुकर्मन--पांडवों के पक्ष का एक राजा । कर्ण शां. २२२ ) । अश्वशिरस् राजा के दरबार में, कपिल ने ने इसका वध किया (म. क. ४०.५० ) । विष्णु का तथा इसने गरुड का रूप लिया था ( वराह. जिह्नक- भृगुकुल का गोत्रकार | ४) । इसे योगशास्त्र की जानकारी देने के लिये, ब्रह्मदत्तजिह्वावत् बाध्योग - असित वार्षगण का शिष्य । पुत्र विष्वक्सेन ने, योगशास्त्र पर ग्रंथ लिखा ( भा. ९. इसका शिष्य वाजश्रवस् (बृ. उ. ६.५.३ ) । जीमूत -- (सो. यदु.) भागवत, विष्णु, मत्स्य तथा बायुमत में व्योमपुत्र । २. एक मल । विरागृह में भीम ने इसे मारा ( म. वि. १२.२३ ं)। ३. एक विप्रर्षि । यह उशीस्बीज नामक क्षेत्र में रहता कहते हैं ( स्कंद. ७.१.१४) । था (म. उ. १०९.२४) । ४. (सो. यदु.) भीम का पुत्र । जीव-- अंगिरस का पुत्र ( शुक्क देखिये) । जीवनाश्व -- अंगिराकुल का गोत्रकार । पाठभेद युवनाश्व । जीवंति -- भृगुकुल का गोत्रकार । जीवंती - एक पतिता वेश्या । रामनाम कहने से • इसका उद्धार हुआ (पद्म. क्र. १५) । जीवल-- अयोध्याधिपति ऋतुपर्ण का अश्वपाल । नल के अज्ञातवास में, यह उसके लिये सहानुभूति रखता था. ( म. व. ६४.११ ) । : जीवल चेलक - एक यज्ञवेत्ता । अग्निहोत्र की जानकारी इसने दी है (श. बा. २.३.१.३१ - ३५ ) । जूहु -- बृहस्पति की पत्नी (ऋ. १०.१०९) । २. ब्रह्मदेव की पत्नी ( सर्वांनुक्रमणी ) । जूति- -- एक सूक्तकर्ता । यह वातरशन का पुत्र था । (ऋ. १०.१३६.१) । कुंभक-एक यक्ष | धर्मारण्य के ऋषियों को यह त्रस्त करता था (स्कंद. ३.२.९) । जेतृ - अमिताभ देवों में से एक । जेतृ माधुच्छंदस--सूक्तद्रष्टा (ऋ. १.११) । जैगीषव्य-- एक ऋषि ( म. स. १२५ पंक्ति ५९ अनु. ४९.३७ कुं. ) । इस के पिता का नाम शतशलाक ( ब्रह्माण्ड ३.१०.२० ) । इसकी तीन पत्नियाँ थी : -- १. पर्णा (मत्स्य. १७९), २. हिमवान की कन्या एकपाटला (ह. वं. १.१८.२४ ), ३. योगवती ( पद्म. स. ९) । इसके शिष्य . का नाम असित देवल था । उसे इसने अपने तर का अद्भुत तेज तथा लीलायें दर्शाई। इसमें ब्रह्मलोक २१.२५-२६ ) । इसने प्रभास क्षेत्र में घोर तपश्चर्या की । पूर्वकल्प में 'महोदय' नाम से प्रसिद्ध लिंग की इसने स्थापना की । शिव के प्रसन्न होने पर, 'मुझे ज्ञानयोग दीजिये,' यो वर इसने माँगा । इसके द्वारा स्थापित लिंग को आजकल सिद्धेश्वर दूसरे स्थान पर विभिन्न कथा प्राप्त है । इस ऋषि ने जिद की, 'जब तक मुझे शिवदर्शन नहीं होगा, तत्र तक मैं पानी भी नहीं पीऊंगा' । शंकर को यह ज्ञात होते ही, वह पार्वती के साथ इसे दर्शन देने आया । शंकर ने इसकी सारी इच्छाएँ पूरी की, तथा इससे शिवलिंग की स्थापना करवायी (स्कंद. ४.२.६३ । । २. वाराहकल्प के वैवस्वत मन्वन्तर में से शंकर का अवतार । यह काशी के दिव्य प्रदेश में दर्भासन पर बैठनेवाला महायोगी था । इसे सारस्वत, योगीश, मेघवाह तथा सुवाहन नामक चार पुत्र थे (शिव. शत. ४) । जैत्यद्रोणि- अंगिराकुल का गोत्रकार । जैत्र-कृष्ण का एक सेवक ( भा. १०. ७१.१२) । २. (सो. कुरु. ) धृतराष्ट्र का पुत्र । भीम ने इसका वध किया (म. क. २५. १२-१३ ) । जैत्रायण सहोजित - राजसूय यज्ञ करनेवाले एक राजा का नाम । (क. सं. १८. ५ ) । परंतु का पिठल संहिता में इंद्र की उपाधि के रूप में यह शब्द प्रयुक्त किया है ( कापि. सं. २८. ५ ) । जैमिनि- - एक ऋषि । यह कौत्सकुलोत्पन्न था, तथा युधिष्ठिर के यज्ञ में ऋत्विज था ( भा. १०.७४.८ ) । मयसभा में प्रवेश करने के बाद, युधिष्ठिर ने बड़ा समारोह किया। उस समय यह उपस्थित था ( म. स. ४. ९ ) । भीष्म शरपंजर पर पड़ा था, तब अन्य मुनिगणों के साथ यह वहाँ था ( म. शां. ४७.६५ ) । जनमेजय के सर्प - सत्र में यह उद्गाता था (म. अ. ४८.६ ) । यह कृष्ण द्वैपायन व्यास का सामवेद का शिष्य था ( म. आ. ५७.७४; व्यास देखिये ) । यह लांगलि का भी शिष्य था । २३५ Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैमिनि प्राचीन चरित्रकोश ज्ञानभद्र जैमिनि ने अपनी शिष्यपरंपरा कैसी बढायी, इसका से प्रसिद्ध है। यशविषयक वाक्यों का अर्थविषयक मतभेद पता कई प्राचीन ग्रंथों से मिलता है। किंतु उसमें एक- दूर कर के संगति लगाना, जैमिनिसूत्रों का मुख्य कार्य है। वाक्यता न होने के कारण, वह जानकारी यहाँ नहीं दी | इन्ही सूत्रों से वाक्यार्थविचारशास्त्र पैदा हुआ। सूत्रों की गई है (अग्नि. १५०.२८-२९; ब्रह्माण्ड. १.१३; २.३५. | संख्या २५०० है । वे ग्यारह अध्यायों में विभाजित है। ३१; वायु. ६१.२७-४८; व्यास देखिये)। सूत्रग्रंथों में जैमिनिसूत्र प्राचीनतम माने जाते हैं। इस ___ जैमिनि ने लिखा हुवा, 'जैमिनि अश्वमेध' ग्रंथ विषय में प्राचीन आचार्यों का भी निर्देश जैमिनि ने किया प्रसिद्ध है। यह ग्रंथ इसने पूरे महाभारत के रूप में है। 'जैमिनिसूत्रों के उपर, उपवर्ष की वृत्ति, शाबरभाष्य, प्रथम लिखा था। परंतु उसमें पांडवों का गौरव कम था। प्रभाकर की बृहती (गुरुमत), कुमारिलभट्ट का वार्तिक इस कारण, अश्वमेध के सिवा इस ग्रंथ का बाकी भाग नष्ट | (इ.स.७००), पार्थसारथि मिश्र की शास्त्रदीपिका, मंडनकरने की आज्ञा, व्यास ने इसे दी। उस आज्ञानुसार मिश्र के विधिविवेक एवं भावनाविवेक, खंडदेव की भाट्ट जैमिनि ने वह ग्रंथ नष्ट कर दिया। दीपिका, आदि ग्रंथ विख्यात है। यज्ञद्वारा प्राप्त होनेवाले 'जैमिनि अश्वमेध, महापुराण तथा उपपुराण से बिल्कुल | स्वर्ग की अभिलाषा प्रारंभ में थी। धीरे धीरे टीकाकारों भिन्न है । उसमें भागवत का निम्नलिखित उल्लेख है:- | ने मोक्ष का भी अंतर्भाव पूर्वमीमांसाशास्त्र में कर दिया । 'भारतं हरिवंशं च पुत्रदं धनदं भवेत् ।। 'बादरायणसूत्रो' में वेद का उत्तरभाग माने गये उपनिषदों श्रीमद्भागवतं पुण्यं भुक्तिमुक्तिफलप्रदम् ।।' के वाक्यों का विचार है । इसलिये बादरायणसूत्रों को उत्तर (जै. आ. ५८.९)। 'जैमिनि अश्वमेध का काल' खि. | मीमांसा नाम से ख्याति प्राप्त हुई। पू. सौ वर्ष माना जाता है (पुराण निरीक्षण, पृ. ८२)। जैवंतायन-एक ऋषि । रौहिणायन के शिष्य शौनक सामवेद के राणायनीय नामक शाखा का जैमिनीय | तथा रैभ्य के साथ इसका उल्लेख है (बृ. उ.४.५.२९; नामक नवम भेद इसने लिखा है। यह संहिता कर्नाटक | पा. सू. ४.१.१०३)। में विशेष ख्यातनाम है। उसी प्रकार जैमिनीय ब्राह्मण | जैवंत्यायनि-भृगुकुल का गोत्रकार (भृगु देखिये)। तथा जैमिनीयोपनिषद ब्राह्मण नामक सामवेद के ब्राहाण जैवलि-प्रवाहण का पैतृक नाम । जैवलि नामक इसने लिखे । वे दोनों ग्रंथ आज भी उपलब्ध है। राजा भी यही होगा। राजा जैवलि का गलूनस आक्षाकायण इसके अतिरिक्त निम्नलिखित ग्रंथ भी इसने लिखे से साम के विषय में संवाद. हुआ था (जै. उ. वा. १. है:--"जैमिनिसूत्र, जैमिनिनिघंटु, जैमिनिपुराण, ज्येष्ठ- | ३८.४; प्रवाहण देखिये)। माहात्म्य, जैमिनिभागवत, जैमिनिभारत, जैमिनिगृह्यसूत्र, | २. एक तत्त्वज्ञ। इसका शिष्य आरुणि (बृ. उ. ६. जैमिनिसूत्रकारिका, जैमिनिस्तोत्र, जैमिनिस्मृति (C.C.)। २.५.७) । यह क्षत्रिय था। ब्राह्मणों में आरुणि सब से सुमन्तु, वैशंपायन, पुलस्त्य, तथा पुलह इनके समान | प्रथम ब्रह्मज्ञानी हुआ (छां. उ.५.३७; चित्र गाायणि यह भी वज्रनिवारक था (शब्दकल्पद्रुम)। इसका पुत्र | देखिये)। सुमंतु (विष्णु. ३.६.२)। जैह्मप-गौरपरांशरकुलीन एक ऋषि । 'समय' जैमिनिगृह्यसूत्र के उपाकर्मीगतर्पण में, जैमिनि ने | इसीका ही पाठभेद। निम्नलिखित आचार्यो का उल्लेख किया है:-१. जैमिनि, जैखलायनि--अंगिराकुल का एक गोत्रकार । २. तलवकार, ३. सात्यमुग्र, ४. राणाय नि, ५. दुर्वासस् , ६. भागुरि, ७. गौरुण्ड़ि, ८. गौर्गुलवि, ९. भगवान् जौडिलि-गोडिनी के लिये पाठमेद। औपमन्यव कारडि, १०. सावर्णि, ११. गार्ग्य, १२. वार्ष ज्ञाति-(सो. क्रोष्ट.) मत्स्यमत में बभ्र का पुत्र । गण्य तथा १३. दैवन्त्य (जैमिनि गृह्यसूत्र १.१४ )। यह | विष्णु मत में इसे धृति, भागवत मत में कृति, तथा वायु सामवेदी श्रुतर्षि था। ब्रह्मांडपुराण के प्रवर्तक ऋषियों की | मत में आहुति नाम है। परंपरा में, इसका नामोल्लेख आता है। ज्ञानगम्य--सोमकांत राजा का प्रधान ( गणेश, जैमिनिसूत्र का परिचय- जैमिनि ने यज्ञप्रतिपादक | २९.)। ब्राह्मण ग्रंथ का वाक्यार्थ निश्चित करने के लिये सूत्ररचना ज्ञानभद्र-द्वापार युग का एक महायोगी। यह की । जैमिनि रचित सूत्र 'पूर्वमीमांसा' वा 'कर्ममीमांसा' नाम | सौराष्ट्र में रहता था। . २३६ Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानभद्र प्राचीन चरित्रकोश ज्योतिर्लिंग एक बार अकाल पड़ने के कारण, लगातार बीस दिनों किनारे के दूरदूर के प्रदेशों पर आक्रमण करने को, इसे उत्सा तक इसे, तथा इसकी पत्नी को उपवास करना पड़ा । एक हित किया। मृत्तिकावती नामक नगरी उने प्रदेशों की राजपर्वत पर जा कर यह एक कुम्हड़ा ले आया। इतने में धानी था। बाद में ऋक्षवत् पर्वत पर आक्रमण कर, इसने भारी वर्षा के कारण, भीगा हुआ एक गोप ठंड से उसे जीता। वहाँ की शुक्तिमती नामक नगरी में उपनिवेश ठिठुरते हुए इसके घर आया। वह बीस दिनों से भूखा प्रस्थापित किया। बाद में मृत्तिकावती प्रदेश जीतने के होने के कारण, यह कुम्हडा इन्होंने उस गोप को दिया। कारण प्राप्त, उपदानवी नामक कन्या साथ ले कर, यह इससे वह संतुष्ट हो गया। बाद में उपवास के कारण, अपने राज्य आया। ' यह कन्या मैंने तुम्हारे पुत्र के यह दोनों यकायक मृत हो गये। उससे दोनों को सायुज्य- लिये लाई है' ऐसा इसने अपने पत्नी को झूठ ही बता मुक्ति प्राप्त हुई (पन. क्रि.२५)। दिया । परंतु पुत्र न होने के कारण, यह झूठ बोलना उसे ज्ञानथति--गोदावरी के किनारे स्थित प्रतिष्ठान नहीं ऊँचा । बाद में उस कन्या के तपःप्रभाव से' वृद्ध (पैठण) शहर का पुण्यशील राजा। आकाश से उड़ने काल में गर्भधारण कर, शैब्या ने विदर्भ नामक पुत्र को वाले हंस से इसे मालूम हुआ कि, रेक नामक ब्रह्मवेत्ता ! जन्म दिया। विदर्भ का उपदानवी से विवाह किया अपने से अधिक पुण्यवान है। तब इस पुण्यशील को | उससे उपदानवी को क्रथ, कोशिक तथा लोमपाद नामक ढूँढने के लिये, इसने अपने सारथि से कहा । सारथि तीन पुत्र हुएँ (ह. वं. १.१.३७; १३-२०; ब्रह्म. १४. द्वारा उसका पता लगने पर, बड़ा नजराना ले कर यह रैक १०-२०, लिंग. १.६८.३२-४१; मत्स्य. ४४.३२९ के पास गया। परंतु उसने राजा का नजराना अस्वीकार | ब्रह्मांड. ३.७०.३३ पन. स. १३.११-१९)। विष्णु पुराण कर दिया। राजा ने पूछा, 'यह निरिच्छ वृत्ति आपको | में रुक्मकवच को ज्यामघ का पितामह कहा है। कैसी पाप हुई' ? उसने बताया, 'यह सब गीता के तथापि रुक्मकवच तथा रुचक एक ही होंगे। - छठवें अध्याय पढने का फलं है' (पझ. उ. १८०; रैक्व ज्यामहानि--ब्रह्मांड मत में व्यास की सामशिष्य देखिये)। परंपरा के लांगलि का शिष्य (व्यास देखिये)। ज्ञानसंज्ञेय--कश्यपकुल का गोत्रकार ऋषिगण । ज्येष्ठ--एक ब्रह्मर्षि तथा ज्येष्ठ साम का कर्ता । बर्हिषद ज्यामघ--(सो. क्रोष्ट.) विष्णु के मत में परावृत्त- से वेदपारग ज्येष्ठ ऋषि को सात्वतधर्म प्राप्त हुआ। इसके पुत्र, मत्स्य तथा वायु के मत में रुक्मकवचपुत्र तथा साम श्रीहरी को अत्यंत प्रिय थे। अविकंपन राजा को भागवतमत में रुचकपुत्र। इसे चैत्रा अथवा शैव्या सात्वतधर्म इसी ब्रह्मर्षि से प्राप्त हुआ। (म. शां. ३३६. ' नामक पत्नी थी। इसे संतति नहीं थी। परंतु अपनी पत्नी के भय से, यह दूसरा विवाह नही कर सकता था । ज्येष्ठा-- अलक्ष्मी देखिये। एक बार भोज देश की राजकन्या का स्वयंवर संपन्न २. सोम की सत्ताईस पत्नियों में से एक । हुआ था। यह स्वयंवर में गया । पराक्रम से राजकन्या ३. शुक्र की कन्या । द्वादशादित्यों में वरुण की स्त्री। भोजा को जित कर, एवं रथ में बैठा कर, यह अपने इसे बल, अवर्त नामक पुत्र, तथा सुरा नामक कन्या थी नगर ले आया। परंतु चैत्रा ने पूछा, 'यह कौन है'। (म. आ. ६०.५२-५३)। घबराकर इसने कहा 'यह तुम्हारी स्नुषा है। ज्योति--स्वारोचिष मन्वन्तर के मनु का पुत्र । पुत्रवती न होने के कारण, इन शब्दों से चैत्रा को अत्यंत २. वसिष्ठ का पुत्र । स्वारोचिष मन्वन्तर का प्रजापति दुःख हुआ। परंतु जल्द ही चैत्रा को विदर्भ नामक पुत्र हुआ। उसका भोजा से विवाह किया गया (भा. ९.२३. ३. वंशवर्तिन् देवों में से एक । ३५, वायु. ९५)। ज्योतिर्धामन्-तामस मन्वन्तर के सप्तर्षियों में से __हरिवंश मे, यही कथा किंचित् अलग ढंग से दी गयी | एक (भा. ८.१.२८)। है । रुक्मेषु तथा पृथुरुक्म नामक बंधुओं ने मिल कर ज्योतिर्मुख-रामसेना का एक वानर (वा. रा. यु. ज्यामध राजा को राज्य से भगा दिया। तब अरण्य | ३०.७३)। में आश्रम बना कर, यह शांत चित्त से रहने लगा। परंतु | ज्योतिर्लिंग-शिव के बारह अवतारों का सामूहिक वहाँ के ब्राह्मणों ने इसकी राज्यतृष्णा जागृत कर, नर्मदा | नाम । २३७ ४२)। Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्योतिर्लिंग प्राचीन चरित्रकोश ज्वाला पुराणों में निर्दिष्ट ग्यारह ज्योतिर्लिंग के नाम इन प्रकार ४. मरुतों के प्रथम गणों में से एक। है:-(१) घुश्मेश, (२) व्यंबक, (३) मल्लिकार्जुन, ज्योतिस--कश्यप एवं कद्रू का पुत्र। . (४) महाकाल, (५) रामेश्वर, (६) विश्वेश, (७) | ज्योत्स्ना--सोम की कन्या तथा वरुणपुत्र पुष्कर की सोमनाथ, (८) ॐकार, (९) केदार, (१०) नागेश, स्त्री। ज्योत्स्ना काली इसीका नामांतर है (म. उ. ९६. (११) भीमाशंकर (१२) वैद्यनाथ । इनमें से घुश्मेश, व्यवक, मल्लिकार्जुन, महाकाल, | ज्वर-कश्यप तथा सुरभि का पुत्र। . रामेश्वर,, विश्वेश, एवं सोमनाथ इन ज्योतिलिंग के स्थान | २. एक रोग एवं बाणासुर का सैनिक । यह शिवजी के बारे मे मतभेद नहीं है। के स्वेद (पसीना ) से पैदा हुआ। यह बडा शक्तिशाली ॐकार, कंदार, नागेश, भीमशंकर तथा वैद्यनाथ इन | था। संसार के कल्याण के लिये, शिवजी ने इसके ज्योतिलिंग के स्थान के बारे में मत भेद है। टुकडे टुकड़े किये एवं वे इतस्ततः बिखेर दिये (म. शां. (१) ॐकार - माधाता में, ॐकारेश्वर एवं २७४)। अमलेश्वर (परमेश्वर ) ये दोनों मिल कर एक ज्योतिलिंग बाणासुर तथा कृष्ण के युद्ध में, बलराम को इसने मानते हैं । जर्जर किया था। कृष्ण पर भी इसने हमला किया। (२) केदार–हिमालय पर्वत में । १. केदार, २. | अन्त में यह कृष्ण की शरण में आया । इसका त्रिपाद, मध्यमेश्वर, ३. तुंगनाथ, ४. रुद्रनाथ, ५. कल्पेश्वर, | त्रिशिरस् ऐसा स्वरूप वर्णन प्राप्त है (ह. वं. २.१२२६. पशुपतिनाथ यों छः लिंग हैं। उनमें से केदार एवं | १२३; भा. १०.६३)। पशुपतिनाथ मिल कर एक ज्योतिलिंग माना जाता है। ज्वलना--तक्षक की कन्या । सोमवंशी औचेयु बाकी चार शिवलिंग ज्योतिलिंग के बाहर के शिवस्थान | अथवा ऋतेयु की स्त्री। माने जाते हैं। ज्वाला--तक्षक की कन्या एवं ऋक्ष की पत्नी। (३)नागेश--सौराष्ट्र में प्रभासपट्टण, महाराष्ट्र में इसका पुत्र अंतिनार (म. आ. ९०.२४)। औंढ्या नागनाथ, एवं अल्मोडा में जागेश्वर इन तीनों २. नीलध्वज की स्त्री। नीलध्वज ने अर्जुन को अश्वस्थान पर नागेश ज्योतिलिंग माना जाता है। मेध का अश्व वापस दिया, यह इसे अच्छा न लगा। (४) भीमशकर-१. महाराष्ट्र में पूना के पास इसने अर्जुन से युद्ध करने के लिये, नीलध्वज से पर्याप्त सह्यादि शिखर पर, २. आसाम में गोहट्टी के पास ब्रह्मपुर | अनुरोध किया, किंतु इसकी एक न चली। पश्चात् यह पर्वत पर एवं ३. हिमालय में नैनिताल के पास उजनक में उल्मुक नामक अपने भाई के पास गयी। इसने उसे भीमाशंकर ज्योतिलिंग माना जाता है। . अर्जुन से युद्ध करने को कहा । उसने भी इसकी बात नही . (५) वैद्यनाथ--१. बिहार में संथाळ परगणा में | मानी । देवघर, २. महाराष्ट्र में परळी वैजनाथ तथा ३. काश्मीर यह रुष्ट हो कर गंगा के किनारे गयी । गंगा का जल में पठाणकोट के पास वैजनाथ पपरोला, वैद्यनाथ ज्योति- | पैर को लगते ही इसने कहा, 'मुझे जो गंगास्पर्श हुआ लिंग माना जाता हैं। है, यह महापाप हुआ है। यह सुनकर गंगा विस्मित और भी एक तेरहवा ज्योतिलिंग, बंगाल में जि. | हो, सुमंगला देवी के रूप में प्रकट हुई। गंगा स्पर्श को चटगांव, सीताकुंड (पूर्व पाकिस्तान ) में चंद्रनाथ का | पापी कहने का कारण गंगा ने इससे पूछा। तब ज्वाला ने स्थान माना जाता है । ( शिव. शत. ४२.२-४; ६.५५)। | कहा, 'तुम ने अपने सात पुत्रों को जल में डुबो कर मारा. ज्योतिष्टम--- कश्यय तथा अरिष्टा का पुत्र । है। तदुपरांत तुमने शंतनु से आठवाँ पुत्र माँग लिया। ज्योतिष्मत--स्वायंभुव मन्वन्तर के मनु का पुत्र | उसका अर्जुन ने रणांगण में वध किया। अतः तुम निपु(पन. सृ. ७)। . त्रिक एवं पापी हो'। यह सुन कर गंगा ने अर्जुन को शाप २. मधुवन में रहनेवाले शाकुनि नामक ऋषि का पुत्र । | दिया, 'छः माहों में तुम्हारा शिरच्छेद होगा'। अर्जुन यह अग्निहोत्री था तथा गृहकृत्यों में तत्पर था (पन्न | को शाप मिला देख, ज्वाला को आनंद हुआ। आगे चल स्व. ३१)। कर, अर्जुन एवं बभ्रुवाहन के युद्ध में, यह बभ्रुवाहन के ३. दक्षसावर्णि मन्वंतर का एक ऋषि । | भाते (तूणीर) में बाणरूप से जा पहुँची, तथा अर्जुन का २३८ Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्वाला . प्राचीन चरित्रकोश दुण्डि इसने शिरच्छेद किया (जै. अ. १५)। पश्चात् अर्जुन- ज्वालायन--गोषुक्तिन् का शिष्य (जै. उ. ब्रा. ४. पत्नी उलुपी ने नागलोक में से अमृत ला कर अर्जुन को | १६.१)। पुनः जीवित किया (अर्जुन देखिये)। झिल्ली--वृष्णिवंश का एक यादव । यह द्रौपदीस्वयंवर | में उपस्थित था (म. आ. १७७.१८; द्रो. १०.२८)। ट टण्ड--एक शाखाप्रवर्तक (पाणिनि देखिये)। | टिभ--वरुण लोक का असुर । ड डंभोद्भव--दंभोद्भव देखिये। समाचार डिंभक को किसीने बताया । तब हंस के बिना डिभक-डिंभक देखिये! इस लोक में नहीं रहूँगा, यह कह कर डिंभक ने यमुना में डिभक-जरासंध का प्रधान तथा हंस का कनिष्ठ प्राण छोड़ दिये (म. स. १३.४१, ह. वं. ३.१०३भ्राता । इसे डिभक अथवा डिंभक भी कहते है (दुर्वासस् १२९)।। देखिये)। इसके भाई हंस की मृत्यु हो गयी। यह । ढ दुण्डा -एक राक्षसी। ... दुण्डि-शक्ति-पुत्र । गणेश का नामान्तर । दुरासद देखिये। २३९ । Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन चरित्रकोश तंडि तंसु-(सो. पूरु.) अंतिनारपुत्र । इसे इलिन नामक क्षपणक का वेष धारण कर के, तक्षक उसका पीछा करने पुत्र था। इसे त्रस्नु नामांतर है। (म. आ. ९०.२६; लगा। यह क्षण में दिखता था, क्षण में अदृश्य हो जाता अंतिनार देखिये)। था। रास्ते में, कुंडल भूमि पर रख कर, उत्तंक लघुशंका तकवान-एक मंत्रकार ऋषि (ऋ. १.१२०.६)। करने बैठा । उसे इस प्रकार व्यस्त देख कर, क्षपणक तकवान शब्द ऋग्वेद के एक मंत्र में मंत्रकार के रूप में वेषधारी तक्षक ने उसके कुंडल चुरा लिये । आचमन आया हुवा है। संभवतः कक्षीवत् कुल का मंत्रकार होगा कर के उत्तक वापस आया। उसने देखा कि, पीछे पीछे (ऋ. १.१२०.६ )। दूसरे स्थान पर तकु शब्द का तकवे | आनेवाला क्षपणक कुंडल ले कर भाग रहा है । उत्तंक ने रूप आया है। तक का तकवान बना होगा। फिर भी ये| इसके पीछे दौडना प्रारंभ किया । इतने में, क्षपणक ने सारे निर्देश अनिश्चित स्वरूप के है (ऋ. ९.९७.५२)।। अपना मूल तक्षक का रूप धारण किया, तथा एक बिल तकिबिंदु-अत्रिकुल का गोत्रकार। के मार्ग से पाताल में पलायन किया। उत्तंक ने उस बिल तक्ष-(सू. ई.) दशरथपुत्र भरत को मांडवी से को खोद लिया। तक्षक का पीछा करते करते उत्तक पाताल उत्पन्न पुत्र । अपने पुष्कर नामक भाई के साथ इसने पहुँचा । पाताल में, नागों की स्तुति कर के उत्तंक ने अपने गांधार देश पर आक्रमण किया । उस देश को जीत कर कुंडल वापस ले लिये (म. आ. ३.१५४-१५८; दे. भा. " इसने तक्षशिला नगरी की स्थापना की (वा. रा. उ. | २.१०)। १०१; विष्णु. ४. ४, वायु. ८८.१८९)। पश्चात् , तक्षक का वध करने के लिये, सर्पसत्र का तक्षक-कश्यप तथा कद् का पुत्र एवं एक नाग आयोजन करने की सलाह, उत्तंक ने जनमेजय, को दी। (विष्णु. १.१५; मत्स्य. ६; म. आ. ५९. ४०; ह. वं. अपने पिता परीक्षित् के मृत्यु का बदला लेने के लिये, १. ३. १२)। इसे एक पत्नी तथा अश्वसेन एवं श्रुतसेन जनमेजय पहले से ही उत्सुक था। उसने सर्पसत्र आयोनामक दो पुत्र थे (म. आ. ३. १४५-१४६)। जित किया । इस सर्पसत्र में, इसके परिवार में से अठारह अर्जुन ने खांडववन अग्नि को दिया, तब तक्षक की पत्नी सर्पकुल जल कर भरण हुवें। उन सर्पकुलों के नाम ये थे। तथा अश्वसेन वहाँ थे । अश्वसेन की माता ने उसे मुँह पिच्छांडक, मंडलक, पिंडरिक्त, रमेणक, उच्छिक, शरभ, में ले लिया। वह आकाशमार्ग से भागने लगी। यह भंग, बिल्वतेजस् , विरोहण, शिली, हालकर, मूक, सकुमार, देखते ही अर्जुन ने उसका शिरच्छेद किया। परंतु तक्षक प्रवेचन, मुदगर, शिशुरोमन् , सुरोमान् , महाहनु । इंद्र का मित्र था। इसलिये अश्वसेन का रक्षण करना इंद्र ___ सर्पसत्र में, तक्षक भी मरनेवाला था। परंतु यह बच ने अपना कर्तव्य समझा । इसलिये अर्जन के विरुद्ध गया (म. आ. ४८.१८, आस्तीक तथा इन्द्र दलिये)। वर्तन करके इंद्र ने अश्वसेन की रक्षा की (म. आ. २. (स.इ.) प्रसेनजित् का पुत्र । इसका पुत्र बृहल २१८. ९)। (भा. ९.१२.८)। इस समय तक्षक कुरुक्षेत्र में था (म. आ. २१९. तक्षक वैशालेय–विराज का पुत्र (अ. वे. ७. १३; काश्यप २. देखिये)। पश्चात् , शमीक ऋषि का पुत्र १०.२९) । सर्पसत्र के ब्राह्मणाच्छंसी पुरोहित (पं. बा. शंग की प्रेरणा से, अर्जुन का पौत्र परीक्षित् को गले में काट कर तक्षक ने उसका वध किया (परीक्षित् देखिये)। | तक्षन्–एक ऋपि । जीवल ऐलकि से इसका कुछ ___जनमेजय के सर्पसत्र की कथा पुराणों में सुविख्यात विषयों में मतभेद हुआ था। ब्रह्मवर्चसकाम आरुणि को है । जनमेजय तथा तक्षक का वैर बैद ऋषि का शिष्य इसने अग्निसंबंध में जानकारी दी थी (श. बा. २.३.१. उत्तंक के कारण हुआ । पौष्य राजा की पत्नी | ३१-३५)। का उत्तंक गुरु था । पौष्यपत्नी ने उत्तंक को तंडि--कृतयुग का एक अंगिरसगोत्री ऋषि । इसने गुरुदक्षणा के रूप में अपने कुंडल दिये (म. आ. दीर्घकाल तक तपस्या की । शिवसहस्र नाम के योग से ३.८५)। उत्तंक से ये कुंडल छीनने के लिये, एक | इसने शंकर को प्रसन्न किया । सूर्यकुलोत्पन्न रजा निधन्वन् Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तंडि . प्राचीन चरित्रकोश तरंत इसका शिष्य था । शंकर ने इसकी स्तुति से प्रसन्न हो कर तपस्--एक शिवावतार । वाराह कल्पान्तर्गत वैवस्वत वर दिया, 'तुम्हारा पुत्र सूत्रकार होगा' (म. अनु. १६, मन्वन्तर के ग्यारहवे चौखट के कलियुग में, गंगाद्वार पर लिंग. १.६५ )। शिवपुराण में तंडि की जगह दंडि दिया | यह शिवावतार हुआ। इसके चार पुत्र थे । उनके नाम गया है। उपमन्यु को शिवसहस्र नाम का व्रत केवल | लंबोदर, लंबाक्ष, केशलंब तथा प्रलंबक (शिव. शत. ५)। तंडि ने ही बताया है (शिव. उ.३)। इस कारण, तंडि तपस्य--तामस मनु के पुत्रों में से एक। तथा दंडि एक ही रहने की संभावना दिखती है। तपस्विन्--मत्स्यमत में चक्षुर्मनु का नड़वला से तत्त्वदर्शिन्-रोच्य मन्वन्तर का एक ऋषि । उत्पन्न पुत्र । चक्षुर्मनु के पुत्रों के नामावली में इसका २. पितृवतिन् का भाई । पितृवर्तिन् के सात भ्राता थे। नाम उपलब्ध नहीं है। उनमें से चार कांपित्यनगर के सुदरिद्र ब्राहाण से उत्पन्न | तपुद्र्धन बार्हस्पत्य--सूक्तद्रष्टा (ऋ.१०.१८२)। हुए थे । उनमें से यह एक था ( पितृवर्तिन् देखिये)। तपोत्सुक-सुदरिद्र ब्राहाण के चार पुत्रों में से एक तत्पुरुष--एक शिवावतार । (पितृवर्तिन देखिये)। तनु-कृश देखिये। तपोद्युति--तामस मनु के पुत्रों में से एक । तंति--धूम्रपराशर कुलोत्पन्न.ऋषि । इसके लिये जाति | तपोधन--तामस मनु के पुत्रों में से एक । पाठभेद उपलब्ध है। तपोनित्य पीरुशिष्टि—एक तत्त्वज्ञ तथा पुरुशिष्ट का तंतिपाल-अज्ञातवास के समय, विराट के यहाँ पुत्र । इसके मत में, उपोषण तथा द्रव्यदान ही केवल सहदेव ने धारण किया हुआ गुप्त नाम (म. वि. ३.७)। तप है (तै. उ. १.९.१)। इसका 'तपोनित्य' नाम कुंभकोण प्रति में तंत्रीपाल पाठभेद है (म. वि. ४.१५)। भी तप का पुरस्कार करने से आया होगा। . तंत्रीपाल--तंतिपाल देखिये । तपोभागिन्-तामस मनु के पुत्रों में से एक । .तप--तामसमनु के पुत्रों में से एक (पमा. सु. ७)। तपोभूति----रुद्रसावर्णि मन्वंतर में होनेवाले सप्तर्षियों २. सुख देवों में से एक । में से एक। ३. सुतन देवों में से एक। तपोमूल-तामस मनु के पुत्रों में से एक । तपती-विवस्वत् सूर्य की छाया से उत्पन्न कन्या | तपोयोगिन--तामस मनु का पुत्र । (म. आ. ९०.४०. भा. ९. २२. ४, ६. ६. २१)। तपोरति-तामस मनु का पुत्र । यह अत्यंत रूपवती थी। इसकी सावित्री नामक बहन थी।। तपाराशि--तामस मनु का पुत्र (पद्म. सु. ७)। एकबार ऋक्षपुत्र संवरण मृगया खेल रहा था। उसका तम--गृत्समदवंशीय श्रव नामक ब्राह्मण का पुत्र । अश्व अचानक मृत हो गया । वह पास के पर्वत पर | इसका पुत्र प्रकाश (म. अनु. ८.६३ कुं.)। पैदल ही घूमने लगा। वहाँ तपती इसे दिखाई पडी। २. (सो. क्रोष्ट.) विष्णुमत में पृथुश्रव्य का पुत्र । इसके रूपयौवन पर वह मोहित हुआ। अपने साथ गांधर्व-धर्म एवं सुयज्ञ इसीका नामांतर था। विवाह करने के लिये तपती से उसने प्रार्थना की। इस पर तमौजस्--(सो. अंधक.) असंमजस् राजा का पुत्र । तपती ने कहा, 'हमारे विवाह के लिये, अपने पिता की २. (सो. विदू.) मत्स्य मत में देवाह का पुत्र । संमति चाहिये । पश्चात् सूर्याराधना कर, संवरण ने तपती तंबि--अंगिराकुल का गोत्रकार। से विवाह करने की अनुमति सूर्य से प्रात की । तपती से तरंत--एक क्षत्रिय दाता। पुरुमीळ तथा यह ये संवरण को कुरुवंशसंस्थापक कुरु नामक पुत्र हुआ (म. | दोनो श्यावाश्व ऋषि के प्रतिपालक एवं आश्रयदाता थे आ. १६०-१६२)। (ऋ५.६१.१०)। पुरुमीहळ की भाँति यह भी विददश्व तपन--पांडवपक्षीय पांचाल राजा । इसका कर्ण ने | का पुत्र था। इसलिये, इसे 'वैदिदश्वि' यों पैतृक नाम वध किया (म. क. ३२. ३७)। था (वड. ५.६१.१०)। सायणद्वारा दिये गये शाट्यायन २. एक देव । इस पर अमृत के रक्षण का भार सौंपा | की आख्यायिकानुसार पुरुमीळ तथा यह ये दोनों भाई गया था (म. आ. २८. १८)। थे । षड्गुरु की भी इसे संमती है। ३. रावण के पक्ष का एक असुर (वा. रा. उ, ४९)। इसकी पत्नी का नाम शशीयसी। इसको शशीयसी गज नामक वानर द्वारा यह मारा गया। 1 से एक पुत्र था। रथवीती दाभ्यं की कन्या को इन्होंने प्रा. च. ३१] २४१ Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तरंत प्राचीन चरित्रकोश था। इस पुत्र के लिये माँगा था। किंतु इस पुत्र का नाम प्राप्त से यह मारीच के साथ मलद तथा करुष देशों में आकर नहीं है (बृहद्दे. ५.५०-८१)। रहने लगी। वह प्रदेश उजड़ कर 'ताटकावन' नाम से पुस्मीहळ तथा यह ये दोनों जन्म से क्षत्रिय थे। किंतु | प्रसिद्ध हुआ। आपत्काल के जरियें इन्हे ऋषि बनना पडा। क्षत्रियों के पास ही में विश्वामित्र का आश्रम था। उसने यज्ञ प्रारंभ लिये दानग्रहण का निषेध होने के बावजूद, ध्वस्त्र तथा किया कि, यह माँ बेटे उसका विध्वंस करते थे। त्रस्त पुरुषन्ति से इन्होंने दान स्वीकार कर के प्रतिग्रह-दोष हो कर विश्वामित्र अयोध्या गया, तथा यज्ञ के संरक्षण के मंत्रप्रभाव से हटा दिया (पं. ब्रा. १३.७१२; जै. लिये, दशरथ के पुत्रों को ले आया। ताटका की सारी ब्रा. ३.१३९)। अपने दान-कर्ताओं की प्रशस्ति भी पापी हरकतें बता कर, उसने उन पुत्रों को इसका वध इन्होंने बनायी थी (ऋ. ९.५८.३, शा. बा. सायण- | करने के लिये कहा। तब राम ने इसका वध किया भाष्य; साम. २.४१०)। किंतु सर्वानुक्रमणी के अनुसार | (वा. रा. बा. २५-२६)। इस दानप्रशस्ति का कर्ता ये नहीं, बल्की अवत्सार काश्यप | ताड़का-ताटका का नामांतर । ताड़कायन--विश्वामित्र का पुत्र (म. अनु. ७.५६ तरस--राम सेना का एक वानर। यह हनुमान के | कुं.)। साथ पश्चिम द्वार का रक्षण करता था। | तांड--एक आचार्य । ताम गायन करते समय गायत्री तरुक्ष--एक दाता। दास बल्बुथ के साथ ऋग्वेद की छंद के मंत्र का प्रस्ताव, अष्टाक्षरी होना चाहिये 'इस मत दानस्तुति में इसका उल्लेख आया है। वशाश्व्य का यह का यह प्रवर्तक था (ला. श्री. ७.१०.१७) । लाट्यायन आश्रयदाता था। इससे दान मिलने का प्रशस्तीपूर्वक श्रौतसूत्र में इसे पुराणताण्ड कहा गया है। . निर्देश वशाय ने किया है (ऋ.८.४६.३२)। तांडविंद वा तांडविंदव-एक आचार्य (सां. आ. तरुणक-एक सर्प (म. आ. ५२.१७)। ८.१०)। तजे-उत्तम मनु का एक पुत्र । तांडि--अंगिरागोत्र का प्रवर । ' सामविधान तर्पय-वसिष्ठकुल का गोत्रकार । ब्राह्मण' में दिये विद्यावंश से, यह बादरायण का शिष्य तष--अर्क नामक वसु का पुत्र । प्रतीत होता है। तल-एक शाखाप्रवर्तक (पाणिनि देखिये)। तांडिन्-एक छन्दशास्त्रज्ञ आचार्य । महावृहती छन्द तलक-(आंध्र. भविष्य.) भागवत मत में हालेय | को यह सतोबृहतीं छन्द कहता है (छन्दःशास्त्रम् ३.३६)। का पुत्र । पंचपत्तलक, पत्तलक, एवं मंदुलक इसीके ही तांड्य--एक आचार्य (श. बा. ६.१.२.२५)। नाम है। 'अनिचिती' से संबंधित किसी विषय पर इसका उद्धरण तलवकार--एक शाखाप्रवर्तक (पाणिनि देखिये)।। दिया गया है। जैमिनिगृह्यसूत्र के उपकौगतर्पण में इसका उल्लेख है। वैशंपायन का यह शिष्य था। वैशंपायन के शिष्यों तवि-सोमतन्वि पाठभेद हैं। में से ऋचाभ, आरुणि, तथा यह, मध्य देश के थे। ताटका--एक राक्षसी । यक्षिणी होने की वजह से, सामवेद का 'तांड्य महाबाहाण' इसने निर्माण किया है। मनचाहे मायावी रूप यह ले सकती थी। हजार हाथियों | यह ग्रंथ सामवेद की कौथुम शाखा का है, एवं तंडिनो का बल इसमें था। की परंपरा का प्रतिनिधित्व करता है। उसे 'पंचविंश यह सुकेतु नामक यक्ष की कन्या थी। सुकेतु को यह ब्राह्मण' अथवा 'प्रौढ ब्राह्मण' भी कहते है । विचक्षण ब्रह्मदेव के वर से उत्पन्न हुई थी। जंभपुत्र सुंद की यह का तांड्य यह पैतृक नाम है (वं. बा.२)। पत्नी थी। सुंद से इसे मारीच तथा सुबाहु ये पुत्र हुए। महाभारत में भी इसके नाम का निर्देश है (म. स. __ सुंद के द्वारा कुछ अपराध होने के कारण, अगस्त्य ने | ७.१०; शां. २३६.१७)। शाप दे कर उसको नष्ट किया। बदला लेने के हेतु से तान्व--पुथु का पुत्र (ऋ. १०.९३. १५)। पुथु अपने पुत्रों समेत, ताटका ने अगस्त्य पर आक्रमण किया। राजाओं में इसका उल्लेख आया है । तन्व का वंशज, इस तब अगस्य ने मारीच को राक्षस होने का, तथा ताटका | अर्थ से भी यह नाम प्रयुक्त होगा। पैतृक धन कन्या को को मनुष्यभक्षक भद्दा राक्षसी होने का शाप दिया। तब | नही, बल्की पुत्र को मिलना चाहिये, ऐसा इसका मत था Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तान्व प्राचीन चरित्रकोश तारा (ऋ. ३.३१.२०)। ऋग्वेद के एक सूक्त में, दुःशीम की ताम्रलोचन-एक शिवगण । इसने उदार दाता कह कर स्तुति की है (ऋ. १०. ९३. ताम्रा--प्राचेतस दक्ष प्रजापति एवं असिनी की कन्या । यह कश्यप को दी गयी थी (कश्यप देखिये)। तापनीय--ब्रह्मांड़मत में व्यास की यजुःशिष्यपरं- । २. वसुदेव की स्त्रियों में से एक । इसका पुत्र सहदेव । परा के याज्ञवल्क्य का वाजसनेय शिष्य । ताम्रायण-वायुमत में व्यास की यजुःशिष्य तापस--दत्त का उपनाम । यह जनमेजय कौतस्त के | परंपरा के याज्ञवल्क्य का वाजसनेय शिष्य (व्यास सर्पसत्र में होता था (पं. ब्रा. २५.१५)। देखिये)। २. अग्नि, धर्म एवं मन्यु देखिये। ताम्रौष्ठ–एक यक्ष (म. स. १०. १६)। तामरसा-अत्रि की स्त्री (ब्रह्मांड़. ३.८.७४.८७)। तार-मयासुर का एक मित्र (मत्स्य. १७७)। तामस-धर्म एवं हिंसा का पुत्र । २. रामसेना का एक प्रमुख वानर (म. व. २८५. २. (सो.) भविष्य मत में श्रवस् का पुत्र । ९)। इसने निखर्वट राक्षस के साथ युद्ध किया । सुग्रीव ३. (स्वा. प्रिय.) प्रियव्रत का तीसरा पुत्र तथा उत्तम | की स्त्री रुमा इसकी कन्या थी। इसे तारापिता भी कहा का भाई (भा. ८.१.२७)। कई ग्रंथों में इसे प्रियव्रत | गया है (वा. रा. उ. ३४.४)। का वंशज कहा है (विष्णु. ३.१.२४)। | ३. मधुवन में रहनेवाले शाकुनि नामक ऋषि का - स्वराष्ट्र नामक राजा को विमर्द नामक राजा ने पदच्युत | पुत्र । यह अत्यंत तेजस्वी था (पा. स. ३१)। किया। स्वराष्ट्र राजा की पत्नी उत्पलावती, मृत्यु के बाद, | तारक-कश्यप एवं दनु का पुत्र । हरिणी योनि में उत्पन्न हुई । स्वराष्ट्र का कामुक स्पर्श उस | २. एक असुर । वांग तथा वरांगी को ब्रह्मदेव के हरिणी को होने के कारण, यह पुत्र उत्पन्न हुआ (मार्क. | कृपाप्रसाद से यह पुत्र प्राप्त हुआ था ( वज्रांग देखिये)। ७१.४६ )। माता को तामस योनि प्राप्त होने पर उत्पन्न | इसने पारियात्र पर्वत पर १०,००० वर्षोंतक तपस्या की। होने के कारण, इसे तामस मनु कहते थे। पिता ने सारी | ब्रह्मदेव ने इससे वर माँगने को कहा। इसने अमरत्व बातें इसे बतायीं । तब इसने पिता के शत्रू विमर्द राजा को | माँगा । यह मिलना असंभव है, ऐसा मालूम होने पर कैद कर लाया (माकै. ७१.४७ )। बाद में पिता के कहने | इसने सात दिन के शिशु के द्वारा मृत्यु होने का वर पर इसने उसे छोड़ दिया। इस तरह राज्य प्राप्त कर | माँगा। यह सार्वभौम बना। इस वर के प्रभाव से उन्मत्त हो कर, इसने इंद्रादि देवों इसने नर्मदा के दक्षिण तट पर महेश्वरी की आराधना | को पराजित किया । शंकर के औरस पुत्र के द्वारा ही की। कामराजकूट का जय किया। वसंत एवं शरदऋतु | तारकासुर की मृत्यु होगी ऐसा देवताओं का संकेत था । में नवरात्र पूजा भी की। इस तपस्या से यह चतुर्थ | इसलिये शंकर ने पार्वती से विवाह किया। उन्हें स्कंद मन्वंतराधिपति मनु बना (दे. भा. १०. ८)। यह | नामक पुत्र हुआ। स्कंद ने उम्र के सातवें दिन इसका वध अपनी भार्या के साथ स्वर्ग लोक गया । गजेंद्र मोक्ष की | किया (मत्स्य. १३०-१३९; १४६; पद्म. स. ४२,तारेय घटना इसी के ही काल में हुई थी (भा. ८. १; मनु | २. देखिये )। देखिये)। इसके तीन पुत्र थे । उनके नामः-त्रिपुरोत्पादक- ताम्र-महिषासुर का कोशाध्यक्ष । | ताराक्ष (तारकाक्ष), कमलाक्ष तथा विद्युन्माली (म. क. २. मुर दैत्य के सात पुत्रों में से एक । कृष्ण ने इसके | २३.३-४; लिंग. १.७१)। पिता का वध किया। इस लिये अपने भाईयों सहित तारा-बृहस्पति की दो स्त्रियों में से दूसरी । सोम ने इसने कृष्ण पर आक्रमण किया। किंतु यह स्वयं मारा | इसका हरण किया था। ऋग्वेद में इसका असष्ट उल्लेख गया (नरक ३. देखिये)। है (ऋ. १०.१०९)। सोम से इसे बुध नामक पुत्र उत्पन्न ताम्रतप्त-कृष्ण का रोहिणी से उत्पन्न पुत्र । हुआ। वह सोमवंश का मूलपुरुष था (चंद्र देखिये)। ताम्रध्वज--मयूरध्वज का पुत्र । २. सुषेण वानर की कन्या तथा वालिन् की स्त्री। ताम्रलिप्त--वंगदेशीय क्षत्रिय (म. आ. १७७ | इसके पिता का नाम तार (तार २. देखिये)। इसका १२; स. २७. २२)। पुत्र अंगद (वा, रा. किं. २२.१३)। वालिन् तथा सुग्रीव २४३ Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तारा प्राचीन चरित्रकोश ता_पुत्र का पूर्वापर वैर था। राम की सहायता से सुग्रीव ने | भारतीय युद्ध के समय, यह गर्भवती थी। गर्भवती वालिन् के उपर जोरदार हमला किया। उस समय, सुग्रीव | अवस्था में, कौरव पांडवो के युद्धक्षेत्र के ऊपर से यह से सुलह करने की सलाह इसने वालिन् को दी थी। जा रही थी। उड़ते उड़ते, उस स्थान पर यह आई, ३. सूर्यवंशीय हरिश्चंद्र राजा की पत्नी । इसे तारामती | जहाँ अर्जुन तथा भगदत्त का युद्ध हो रहा था। अर्जुन के नामांतर था (तारामती देखिये)। बाण से इसका उदर विदीर्ण हुआ। उसमेंसे चार अंडे ४. एक ब्रह्मवादिनी। नीचे गिरे। ताराक्ष---तारकासुर का पुत्र । इसे तारकाक्ष नामांतर इसी समय सुप्रतीक नामक हाथी के गले की प्रचंड था (म. क. २३.३-४)। घंटा नीचे गिरी । ताी के चार अंडों को, बीच के पोले तारापीड-(स. इ.) मत्स्य के मत में चन्द्रावलोक | भाग में ले कर, वह घंटा कीचड़ में फंस गई। बाद में शमीक राजा का पुत्र । इसका पुत्र चन्द्रगिरि। ऋषि उन अंडों को ले गया (मार्क. ३.३१-४४)। इसी तारामती--शैब्य देश के राजा की कन्या तथा समय ताी की मृत्यु हो गई । उन अंडे से बाहर निकले अयोध्यापति हरिश्चन्द्र की पत्नी (मार्क ७.९)।हरिश्चन्द्र | बच्चे, पिंगाक्ष, विबोध, सुपुत्र तथा सुमुख ये नाम से की सौ पत्नियों में यह पटरानी थी। वरुणकृपा से इसे प्रसिद्ध हुए। रोहित नामक पुत्र हुआ (दे. भा. ७.१४)। ता_--एक आचार्य (ऐ. आ. ३.१.६; सां. आ. विश्वामित्र की दक्षिणा पूर्ण करने के लिये, हरिश्चन्द्र ने | ७.१९)। विशिष्ट ज्ञान संपादन करने के हेतु, इसने इसको तथा राजपुत्र रोहित को, काशी के एक वृद्ध ब्राहाण | गुरुगृह में रह कर उसकी गाय की रक्षा की। इसके नाम को बेच दिया (दे. भा. ७.२२)। पश्चात् , सर्पदंश से | का 'तारुक्ष्य' पाठभेद कई जगह प्राप्त है। किंतु बहुत सारी रोहित की मृत्यु हो गयी । उसे ले कर यह स्मशान गई। जगह, इसे तार्क्ष्य ही कहा है (ऐ. आ. १.५.२, सां. वहाँ लड़के खानेवाली राक्षसी समझ कर, लोग इसे राजा के | श्री. ११.१४.२८; १२.११.१२; आश्व. श्री. ९.१)। पास ले गये । राजा ने चांडाल को इसका वध करने के | अरिष्टनेमि तार्थ्य तथा यह एक ही होने की संभावना है। लिये कहा। चांडाल ने यह कार्य करने की आज्ञा | किंतु इस बारे में, निश्चित रूप से कहा नही जा सकता। हरिश्चन्द्र को दी। उसने पत्नी को तथा पुत्र को पहचान | २. अरिष्टनेमि का पैतृक नाम । लिया। यह अग्निप्रवेश करने को तैय्यार हुई। किंतु इन्द्र . ३. कश्यप प्रजापति का नामांतर । ताय नाम धारण ने रोहित को जीवित किया । पश्चात् इन्द्र की कृपा से इसे | किये कश्यप को दक्ष ने अपनी कन्याएं दी थीं। सरस्वती स्वर्गप्राप्ति हई (दे. भा. ७.२५-२७; हरिश्चंद्र देखिये)। | से इसका संभाषण हुआ था (म. व. १८४. १; कश्य तारावती-चंद्रशेखर देखिये। देखिये)। तारुक्ष्य-१. तार्क्ष्य देखिये । ४. एक पराक्रमी पक्षी (खिल. २.४.१) । यह तारेय--एक वानर । तारापुत्र अंगद का यह नामांतर पक्षियों का राजा था (श: ब्रा., १३.४.३.१३)। संभवतः यह सूर्य का प्रतीक था। एक दिव्य अश्व के रूप में भी २. एक राक्षस । यह तारकासुर का पुत्र था। हिरण्याक्ष इसका उल्लेख प्राप्त है (ऋ० १.८९.६:१०.१७८.१)। के पक्ष में यह लड़ रहा था। उस वक्त, अपने पिता के | सोम लाने के लिये, इसका उपयोग किया गया था वध का बदला लेने के लिये इसने कार्तिकेय पर अग्न्यस्त्र । ( सुपर्ण ३. देखिये)। तथा रौद्रास्त्र की वर्षा की । किन्तु ये सब अस्त्र प्रभावहीन | ५. कश्यप तथा विनता का पुत्र । इसका भाई गरुड । साबित हुएँ । अन्त में कार्तिकेय ने इसका वध किया ६. एक यक्ष । मार्गशीर्ष माह में यह अंशुमान् सूर्य (पद्म. स. ६९)। के साथ रहता है (भा. १२.११)। तार्श इसीका ताः--तायं ६. देखिये। नामांतर है। ताी --एक पक्षिणी । पूर्वजन्म में, यह वपु नामक | ७. कश्यप का नामान्तर (म. व. १८२.८)। अप्सरा थी। दुवास ऋषि के शाप से, इसे पक्षियोनि | तार्थ्य वैपश्वित--एक आचार्य (आश्व. श्री. १०. प्राप्त हुई । कंधर तथा पक्षिरूपधारी मदनिका की यह | ७)। कन्या बनी। द्रोण नामक पक्षी इसका पति था। | तार्क्ष्यपुत्र-सुपर्ण तायपुत्र देखिये । २४४ Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तालक प्राचीन चरित्रकोश तालक-वायु एवं ब्रह्मांड मत में व्यास की साम शिष्य परंपरा के हिरण्यनाभ का शिष्य । तालकृत् - अंगिरा कुल का गोत्रकार । तालकेतु -- कृष्ण के द्वारा मारा गया एक राक्षस । २. भीष्म का नामांतर ( म. भी. ४५.९, उ. १४८. ५) । ३. कुवलयाश्व के द्वारा मारा गया एक राक्षस (मार्के मृदु का पुत्र | १८.२३) । तालजंघ - (सो. सह) कार्तवीर्य का नाती तथा जयध्वज का पुत्र । इसके पुत्रों को भी तालजंघ कहते थे, चीतोष, शार्यात, इंडिकेर भोज तथा अवंती इन पाँच वीतहोत्र, वंशों को, ' तालजंघ' यह संयुक्त नाम दिया जाता है । तालजंघ को १०० पुत्र थे । उनमें से पाँच गण मुख्य थे। उनके पाठभेद से नामः वीरहोत्र, भोज, आवर्ति लुडिकेर, तालमंच। ये सारे तालजंघ नाम से ही प्रसिद्ध मे ( वायु. ९४.५०-५२ ) । तित्तिरि तिग्म - (सो. कुरु. भविष्य . ) मत्स्यमत में उर्वपुत्र, तथा विष्णुमत में मृदुपुत्र । तिमि तिग्मज्योति, ये सारे एक ही है । तिग्मकेतु - (खा. उत्तान) भागवतमत में वत्सर तथा स्वर्वीथिका पुत्र | तिग्मज्योति - (सो. कुरु. भविष्य.) भविष्यमत में परशुराम से ड़र कर, अपने सारे भाईयों सहित, यह हिमालय की गुफाओं में रहता था। परशुराम तप करने गया, तब यह निर्भय हो कर सपरिवार पुनः माहिष्मती नगर में आकर रहने लगा । कुछ कालोपरांत अयोध्या पर आक्रमण कर इसने सगर के पिता फल्गुतंत्र को जीत लिया ( ब्रह्मांड. २. ४०) । इसका बदला चुकाने के द्विये सगर ने और्ष रूप द्वारा प्राप्त आग्नेयास्त्र से इसको तथा इसके सारे परिवार को जला दिया। इनमें से केवल वीतिहोत्र बच गया (भा. ९.२३ ) इन्हे जीतने पर और्व ऋषि की आज्ञा के कारण, संगर ने इनका बंध नहीं किया। किन्तु इन्दे विष कर, छोड़ दिया (भा. ९.८.५ पद्म. उ. २०, वीतहव्य तथा बाहु देखिये) । गुकुल के साथ कल करने से, हैहय तथा तालजंघो का नाश हुआ (कौटिल्य. पृ. २२) । २. (स्. शर्याति. ) शर्याति राजा का पुत्र ( म. अनु. ८.८. कुं. ) । ३. मुर दैत्य का पिता । तालन - - कलियुग का एक राजा । इसने महावती नगरी पर आक्रमण किया। इसके आठ पुत्र थे । उनके नाम :- अल्कि, भलामति, काल, पत्र, पुष्पोदरी, वरीकरी, नरी तथा सुललित । अपना वनरस नामक नगर इसने इन पुत्रों को दिया। म्लेच्छों की पूजापद्धति से इसने असुर देवताओं की पूजा की ( भवि. प्रति ३.७)। तितिक्षा - स्वायंभुव मन्वन्तर के दक्षप्रजापति की कन्या तथा धर्म की स्त्री । इसका पुत्र क्षेम । तितिक्षु -- (सो. अनु. ) एक चक्रवर्तिन् सम्राट् । भागवत, मत्स्य, एवं बायु के मत में, चक्रवर्तिन् महामनस् का यह पुत्र था। विष्णु मत में, यह महामणि का पुत्र था | पश्चिमोत्तर भारत में राज्य स्थापन करनेवाला सम्राट् उशीनर इसका भाई था। तितिक्षु से ही प्रारंभ हुआ। यह वंश, अनुवंश की ही तितिक्षुवंश -- पूर्व भारत में ख्यातिप्राप्त तितिक्षुवंश, स्वतंत्र शाखा थी । तितिक्षुवंश में पैदा हुवे, बलि ने पूर्व भारत में बलाढ्य साम्राज्य स्थापन किया । को अंग, वंग, कलिंग, सुहा, पु नाम पाँच पुत्र थे। बलि के साम्राज्य के पाँच देश, इन पाँच पुत्रों के नाम से ही सुविख्यात हुवे | अयोध्यापति दशरथ का समकालीन रोमपाद राजा अंगवंश का था। भारतीय युद्ध में, कर्ण तथा वृषसेन ये दोनों तितिक्षुवंशांतर्गत अंगवंश के थे। तितिक्षु का भाई सम्राट् उशीनर का वंश, पश्चिमोत्तर भारत में केकय, मद्र आदि प्रदेशों में राज्य करता था (अनु. उशीनर, तथा बलि देखिये) । तित्तिर वा तित्तिरि - ( सो. कुकुर . ) कपोतरोमन् का पुत्र । इसका पुत्र बहुपुत्र । तित्तिरि कश्यप तथा कटु का पुत्र एक नाग | २. एक ऋषि तथा शाखाप्रवर्तक ( म. स. ४.१०; पाणिनि देखिये) । अंगिरस्कुल के ऋषिओं की एक शाखा के, अंगिरस, तैत्तिरि, कापिभुव ये तीन प्रवर हैं । उनमें से तैत्तिरि का यह पिता होगा | कृष्ण यजुर्वेद के एक शाखा का 'तैत्तिरीय यह उपनाम है । उस शाखा का मूल आचार्य तित्तिरि रहा होगा । वैशंपायन के शिष्य वायव्य के नेतृत्व में वह शाखा पहले थी । किंतु कुछ कारणवश, वैशंपायन ने याज्ञवल्क्य के नेतृत्व से वह शाखा निकाल ली । वह वैशंपायन के बाकी बचे ८५ शिष्यों ने धारण की। उस समय उन्होंने २४५ Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तित्तिरि प्राचीन चरित्रकोश तुन तित्तिरि पक्षियों के रूप लिये थे। उस कारण, उन्हे | किसी को दान देनेवाले राजा के रूप में, इसका 'तित्तिरि,' एवं उनके शाखानुयायिओं को 'तैत्तिरीय निर्देश ऋग्वेद की एक दानस्तुति में प्राप्त है (ऋ. नाम प्राप्त हुआ (विष्णु. ३.५, भा. १२.६.६५)। ८.६.४६-४८)। वत्स काण्व को इस राजा से दान मत्स्य के मत में, तित्तिरि ऋषि अंगिराकुल के प्रवर स्वरूप उपहार मिला था (सां. श्री. १६.११.२०)। यह का एक ऋषि है । एक शाखाप्रवर्तक के जरियें भी इसका | धन यदु राजाओं से तिरिंदर ने प्राप्त किया था । यदु उल्लेख प्राप्त है ( पाणिनि देखिये )। हिरण्यकेशिन् लोगों | राजाओं को वेबर ईरानी मानते है, एवं भारत तथा ईरान के पितृतर्पण में इसका निर्देश आता है ( स. गु. २०.८. के बीच घनिष्ठ संबंध का प्रमाण इस कथा को समझते है २०)। | (इन्डि. स्टुडि. ४.३५६)। तिथि-भृगुकुल का एक गोत्रकार । तिर्यच् आंगिरस--सामद्रष्टा (पं. वा. १२.६. २. कश्यप एवं क्रोधा की कन्या तथा पुलह की स्त्री।। १२)। तिमि--प्राचेतस दक्ष प्रजापति एवं असिनी की तिलोत्तमा--एक अप्सरा । यह काश्यप तथा अरिष्टा कन्या तथा कश्यप की भार्या । की कन्या थी। पूर्वजन्म में यह कुब्जा नामक स्त्री थी। २. (सो. पूरू. भविष्य.) भागवत मत में दुर्व का पुत्र दीर्घ तपस्या कर यह वैकुंठ गई। देवों के कार्य के लिये (तिग्म देखिये)। ब्रह्माजी ने इसे सुंदोपसुंद के पास भेजा था। तिमिंगल—एक राजा । यह रामक पर्वत पर रहता प्रत्येक वस्तु का तिलतिल सौंदर्य, इसके सौंदर्य निर्माण था। राजसूय यज्ञ के समय, सहदेव ने इसे जीतकर | के लिये लिया गया था। इसलिये इसे तिलोत्तमा नाम धन प्राप्त किया (म. स. २८.४६)। प्राप्त हुआ। सुंदोपसुंद के नाशार्थ जाने के पहले, इसने तिमिध्वज--वैजयन्त नगरी का राजा। यह शंबर सब देवों तथा ऋषियों की प्रदक्षिणा की। उस समय इसके नाम से भी प्रसिद्ध था। मनमोहनी रूप यौवन से, शंकर तथा इंद्र आदि देवसभां इसका राज्य दक्षिण भारत में दंडकारण्य के पास | के ज्येष्ठ देव भी स्तिमित हो गये। था। डॉ. भांडारकरजी के मत में, आधुनिक कालीन विजय- | इसे देखते ही, सुंदोपसुंद का आपस में झगडा हो कर, दुर्ग ही प्राचीन वैजयन्त नगरी है । डे के मत में, आधुनिक | एक ने दूसरे का वध कर दिया। तब ब्रह्मदेव ने इसे . वनवासी शहर का वह प्राचीन नाम है। वरदान दिया, 'जहाँ जहाँ सूर्य का प्रवेश होगा, यहाँ तुम देवासुर युद्ध चालू था। यह असुरों के पक्ष में मिल भी प्रविष्ट हो सकोगी। तुम्हारे लावण्य का प्रभाव दाहक कर, इंद्र से युद्ध करने लगा। इन्द्र ने अयोध्या से | एवं गहरा होगा। इस कारण कोई भी तुम्हारी ओर दशरथ राजा को बुलाया । परंतु युद्ध करते समय, घायल आँख उठा कर देख न सकेगा' (म. आ. २०३-२०४; हो कर दशरथ बेहोश हो गया । तब सारथ्य करनेवाली पद्म. उ. १२६)। कैकयी ने बडे चातुर्य से रथ बाजू में ले कर दशरथ की रक्षा | यह अश्विन में त्वष्टा सूर्य के साथ घूमती है (भा की। बाद में तिमिध्वज का क्या हुआ इसके बारे में | १२.११)। कुछ उल्लेख नहीं है (वा. रा. अयो. ९; ब्रह्म.१२३)। | तीक्ष्णवेग--रावण-पक्षीय एक असुर । तिमिर्घ दौरश्रत--अग्नीध ऋत्विज का नामांतर । तीर्णक--एक ऋषि । ब्रह्मदेव ने पुष्करक्षेत्र में किये सों उत्कर्षके के लिये किये गये सर्पसत्र में यह उपस्थित | यज्ञ में यह उपस्थित था (पन. स. १४)। था ('पं. बा. २५.१५.३)। तीवरथ-हंसध्वज के सुमति नामक सचिव का तिरश्ची आंगिरस--सूक्तद्रष्टा (ऋ. ८.९५-९६)। पुत्र। पंचविंश ब्राह्मण में भी इसके नाम का निर्देश आया है | तुक्षय--अंगिरसकुल का एक मंत्रकार । (१२.६.१२)। इसके सूक्तों में इंद्र की आराधना की | तुग्र-अश्वियों के कृपापात्र भुज्यु का पिता । इसलिए गई है (ऋ. १२.६.१२)। भुज्यु को तुग्र्य अथवा तौय भुज्यु कहते हैं (भुज्यु तिरिंदिर पारशव्य-एक राजा । सायण, के मत में, | देखिये)। यह पशु का पुत्र था । इसलिये इसे पारशव्य पैतृक नाम | २. एक राजा । यह इंद्र का शत्रु था। (ऋ. ६.२०.. प्राप्त हुआ। 1८:२६.४:१०.४९.४)। २४६ Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुम्य प्राचीन चरित्रकोश तुग्य--भुज्य का पैतृक नाम। तौय्य इसका सही | (प्रथम) का यह पुरोहित था। इसीने उसे राज्याभिषेक • नाम रहा होगा। किया (ऐ. ब्रा. ४.२७;७.३४:८.३१)। इसका शिष्य तुजि--एक राजा । इसपर इंद्र की कृपा थी (ऋ.६. | यज्ञवचस् राजस्तंबायन (बृ. उ. ६.५.४)। पंचविश२६.४; १०.४९.४)। तूतुजि इसीका नाम होगा (ऋ. ६. ब्राह्मण में (२४.१४.५) उल्लिखित तुर तथा यह एक २०.८)। ही होगा। तुंड--नल वानर के द्वारा मारा गया, रावणपक्षीय | इसने दूसरे जनमेजय पारीक्षित से सर्पसत्र करवाया एक राक्षस। | (भा. ९. २२.३५)। दूसरे जनमेजय पारीक्षित के साथ तुंडकोश-कश्यप तथा खशा का पुत्र। भागवत ग्रंथ में, जोडा गया इसका संबंध केवल नामसाम्य तुमिंज औपोदिति-एक ऋषि । यह यज्ञसत्र में होतृ | के कारण हुआ है। वास्तव में यह प्रथम जनमेजय का काम करता था। संश्रवस् ऋषि के साथ, इड़ा के पारीक्षित का पुरोहित था। इसीलिये. इसने उसे राज्याबारे में इसका वादविवाद हुआ था (तै.सं.१.७.२.१)। भिषेक किया था। __ तुंबरु-एक गंधर्व । कश्यप तथा प्राधा के पुत्रों में तुरश्रवस–एक ऋषि । पारावत ने इन्द्र के लिये से एक । यह चैत्र माह के धाता नामक सूर्य के साथ | सोमयाग किया। वहाँ इस ऋषि ने दो साम कह कर इंद्र रहता था (भा. १२.११.३३)। इसकी भार्या का नाम को प्रसन्न किया। इंद्र ने, उपस्थित ऋषियों में से केवल रंभा था (म. उ. ११५.४००* पंक्ति.४)। तुरश्रवस् ने सादर किये हवि का स्वीकार किया (पं. बा. ब्रह्माजी की सभा में, यह नारद के साथ गायन | ९.४.१०)। कर, भगवत् का गुण गाता था (भा. ५.२५.८)। | तुरु--एक राक्षस । हिरण्याक्ष के साथ हुए देवों के श्रीकृष्ण के इंद्र और कामधेनु कृत अभिषेक के समय, | युद्ध में, वायु ने इसका वध किया (पद्म. स. ७५)। यह कृष्ण के पास आया था (भा. १०. २७. तुरुक--(तुरुष्क. भविष्य.)एक राजवंश । भागवत२४)। यह अनुयादव का मित्र था (भा. ९.२४.२०)। मत में इस वंश में, कुल चौदह राजा हुए । इतरत्र इसे गोग्रहण के समय अर्जुन का युद्ध देखने के लिये यह | तुषार कहा गया है । स्वयं आया था (म. वि. ५६. १२)। युधिष्ठिर के तुर्व--एक राजा । यह मनु का अनुयायी था (ऋ. अश्वमेघ में भी यह उपस्थित था (म.आश्व. ८८.३९)।| १०.६२.१०)। - यह रंभा पर आसक्त होने के कारण, कुबेर ने शाप दे तुर्वश--एक वैदिक राजा तथा ज्ञातिसमूह । हॉपकिन्स कर इसे विराध नामक राक्षम बनाया। बाद में रामलक्ष्मण | के मत में, 'तुर्वश' एक ज्ञातिसमूह का नाम है, जिसका 'से हुए युद्ध में मृत हो कर इसने अपना मूल रूप प्राप्त | एकवचन उसके राजा का द्योतक है (उ. पु. २५८)। यदु *किया (वा.रा. अर. ५: विराध देखिये)। राजा एवं ज्ञाति से तुर्वशों का धनिष्ठ संबंध था (ऋ. ४. २. एक गंधर्व। यह सुबाहु तथा मुनिकन्या का पुत्र | ३०.१७; १०.६२.१०)। था। इसे मनुवंशी एवं सुकेशी नामक दो कन्यायें थी दाशराज्ञ-युद्ध में, तुर्वश राजा ने सुदास के विरुद्ध युद्ध (ब्रह्मांड. ३.७.१३)। किया था। किंतु इस युद्ध में यह स्वयं पराभूत हुआ (ऋ. ३. एक राक्षस । हिरण्याक्ष मे हुए देवों के युद्ध में, | ७.१८.६)। इस युद्ध में भागने ('तुर') के कारण, वायु ने इसका वध किया (पम. स. ७५)। इसका नाम तुर्वश पड़ गया (हॉपकिन्स. उ. पु. २६४)। - तुंबुरु-तुंबरु देखिये। इस राजा पर इंद्र की कृपा थी। इस कृपा के कारण, तुर कावषेय -एक वैदिक ऋषि । ओल्डेनबर्ग के मत | दाशराज्ञ-युद्ध के पश्चात् , इंद्र ने इसकी सहायता की। में, वैदिक काल के अंतिम चरण में यह पैदा हुआ था अनु तथा द्रुहयु के समान, यह पानी में डूब कर नहीं (सी. गे. ४२. २३९)। | मरा । इसकी द्वारा की गयी इंद्रस्तुति में, 'तुमने यदुतुर्वशों एक तत्त्वप्रतिपादक के जरिये इसका निर्देश ब्राह्मणों में की रक्षा की, उसी प्रकार हमारी रक्षा करो, ऐसी प्रार्थना प्राप्त है (श. बा. १०.६.५.९)। कारोंती नदी पर, अशि आयी है (मर. ४.४५.१)। उसी प्रकार, 'अतिथिग्व का की वेदिका इसके द्वारा बनाई जाने का उल्लेख शांडिल्य | कल्याण करनेवाले तुम यदुतुर्वशों का वध करो,' ऐसी भी ने किया है (श. बा. ९.५.२.१५)। जनमेजय पारीक्षित प्रार्थना की गयी है । तुर्वश तथा यदु ने, अर्ण एवं चित्ररथ २४७ Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुर्वश प्राचीन चरित्रकोश तुष्टिमत् राजाओं का सरयू के किनारे वध किया था (ऋ. ४.३०. तुर्वीति--तुर्वशों का राजा । वय्य के साथ (ऋ. १. १८)। | ५४.६; २.१३.१२, ४.१९.६), एवं अकेले (ऋ. सुदास के पिता दिवोदास पर तुर्वश एवं यद् | १. ३६. १८, ६१. १८; ११२. २३), इसका कई ज्ञातियों ने आक्रमण किया था (ऋ. ६.४५.२, ९.६१ | बार उल्लेख प्राप्त है। तीन स्थानों पर, इन्द्र ने इसे बाढ २)। वृचीवत् , वरशिख तथा पार्थव ज्ञातियों का तुर्वशों से बचा ने का उल्लेख मिलता है (ऋ. १.६१.११, २. से अतिनिकट संबंध था। यव्यावती तथा हरियूपीया | १३. १२, ४. १९.६)। नदीयों के तट पर, दैवरात तुर्षश को वृचीवन्तों ने मदद | तुलसी-- शंखचूड नामक असुर की स्त्री । वृंदा के की थी (ऋ. ६.२७.५-७)। यदुतुर्वशों के पुरोहित कण्व शरीर के पसीने से यह उत्पन्न हुई (पद्म. उ. १५)। . थे (ऋ. ८.४.७)। इन्हे अभ्यावर्तिन् चायमान ने जीता धर्मध्वज को यह माधवी से उत्पन्न हुई, ऐसा वैकल्पिक था (ऋ. ६.२७.२८)। शोण सात्रासह पांचाल राजा से निर्देश भी प्राप्त है। यदुतुर्वशों का काफी सख्यत्व था। तैतीस तुर्वश अश्व एवं __यह अत्यंत धर्मशील एवं पतिव्रता थी। इसके पातिव्रत्य छह हजार सशस्त्र सैनिकों के साथ इन्होंने पांचाल राजाओं के कारण, शंखचूड देवताओं के लिये अजेय था । विष्णु को मदद की थी। ब्राह्मणों में अनेक तौवंशों का निर्देश है | ने कपट से इसके पातिव्रत्य को भंग कर, शंकर से शंखचूड (श. ब्रा. १३.५.४.१६ )। अन्त में, तुर्वश लोग पांचालों । का वध करवाया (शंखचूड देखिये)। पश्चात् इसने विष्णु में विलीन हो गये (ओल्डेनबर्ग-बुद्ध. ४०४)। | को शाप दिया, 'तुम शिलारूप होगे' । तदनुसार विष्णु इन लोगों के निवासस्थान के बारे में निश्चित पता नहीं शालिग्राम बना (ब्रहावे. २.२१; शंखचूड देखिये)। लगता । इन लोगों ने परुण्णी नदी को पार किया था (ऋ. । एकवार कामविद्ध हो कर यह गणपति के पास गयी। ७.१८)। ये लोक पश्चिम से पूर्व दिशा की ओर भरतो के | तब गणपति ने इसे शाप दिया, 'तुम वृक्षरूप होगी'। देश में आगे बढे, ऐसा प्रतीत होता है (पिशेल. वेदि. इस शाप के कारण, इसका मनुष्य देह नष्ट हुआ। स्टुडि. २.२१८)। आगे चल कर समुद्रमंथन के अवसर पर, समुद्र से अमृत बाहर आया। उसकी कुछ बुदें जमीन पर गिरी। पुराणों में तुर्वशों का निर्देश 'तुर्वसु' नाम से किया | उन में से ही तुलसी का पेड़ बाहर निकला। पश्चात् इस.. गया है। पेड़ को ब्रह्मा ने विष्णु को दिया (पद्म. सु. ६१; स्कंद. __ तुर्वसु-(सो. पुरूरवस्.) ययाति राजा को देवयानी से उत्पन्न पुत्र । पिता का वृद्धत्व इसने स्वीकार नहीं किया। तुलाधार-वाराणसी क्षेत्र में रहनेवाला एक वैश्य । अतः ययाति ने इसे शाप दिया। इस शाप की वजह से जाजलि नामक एक द्विज को अपने तप की धमंड थी। इसके छत्रचामर छीन लिये गये, एवं निंद्य आचरन वह इसने उतार दी । (म. शां. २५३-२५६)। करनेवाले पश्चिमभारत का यह राजा बना (भा. ९.२२)। तुषार -(तुषार. भविष्य.) कलियुग के एक वंश का इसे वह्नि नामक पुत्र था (भा. ९. २३.१६)। नाम । इस में १४ राजा हुएँ (मत्स्य. २७३, वायु. ९९; तुर्वसुवंश-इसका वंश अनेक स्थानों पर प्राप्त है। ब्रह्मांड. ३.७४)। इस वंश के राजा शकद्वीप में रहते थे (मत्स्य. ४८; ब्रह्मांड. ३. ७४; वायु. ९९; ब्रह्म. १३; | (वै. का. राजवाडे. भा. इ. सं. म. इतिवृत. १८३५. ह. वं. १. ३२; अग्नि. २७६; विष्णु. ४.१६, गरुड़ १. ५९)। १३९; भा. ९. २३)। अमिपुराण में, द्रुहय वंश के | तुषित-स्वायंभुव तथा स्वारोचिष मन्वंतर के देवगण गांधार का इसी वंश में समावेश किया है। विष्णु | (मनु देखिये)। आदि तीन पुराणों में, इस वंश का अंतिम भाग प्राप्त तुषिता-स्वारोचिष मन्वंतर के वेदशिरस् ऋषि की नहीं है। इस वंश के, मरुत्त ने पौरव दुष्यंत को गोद | स्त्री । इसे विभु नामक पुत्र था (भा. ८.१.२१)। लिया। इस प्रकार यह वंश पौरवों में समाविष्ट हुआ। तुष्ट-हंसध्वज का प्रधान । इसी वंश के अंतिम लोगों ने, दक्षिण में पांड्य तथा चोल | तुष्टि-धर्म ऋषि की पत्नी । स्वायंभुव मन्वंतर के दक्ष राज्यों की स्थापना की ( ययाति देखिये)। ने उस ऋषि को दस कन्याएँ दी। उनमें से यह एक थी। वेदों में तुर्वसु को तुर्वश कहा है (तुर्वश देखिये,)। तुष्टिमत्--कंस का भ्राता। Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन चरित्रकोश त्याज्य तुहुंड-दनुपुत्र । तृत्सु-एक राजा एवं ज्ञातिसंघ । तृत्सु नामक राजा २. (सो. कुरु.) धृतराष्ट्र पुत्र । का निर्देश ऋग्वेद में अनेक बार आता है (ऋ. ७.१८. ताज-इंद्र का एक आश्रित । इंद्र ने द्योतन नामक | ३.)। राजा के लिये तुग्र, वेतसु, दशोणि एवं इसको पराजित । तृसुओं के ज्ञातिसंघ का निर्देश भी प्राप्त है (ऋ. ७. किया (ऋ. ६.२०.८)। तुजि एवं तूतु जि दोनों एक १८.६,७,१५,१९:३३.५,६:८३.४,६,८)। इस संघ के ही हैं। लोक, दाशराज्ञ युद्ध में सुदास के सहायक थे । वसिष्ठ तूर्वयाण--एक नृप । अतिथिग्व, आयु एवं कुत्स का ज्ञातिसंघ के लोगों के साथ तृत्सुओं का घनिष्ठ संबंध था यह शत्रु था, तथा दिवोदास का मित्र था। (ऋ. १.५३. दास का मित्र था। (ऋ. १.१३ (सुदास देखिये)। १० ६.१८.१३; १०.६१.१)। तेज-सुतप देवों में से एक । तृक्षि-त्रसदस्यु का पुत्र (ऋ. ६.४६.८८.२२.७; तेजस्विन्-एक इंद्र । आगे चल कर, यही पांडुपुत्र | सहदेव हुआ। त्रासदत्यव देखिये)। द्रुह्य तथा पुरु के साथ इसका निर्देश प्राप्त है (ऋ. ६.४६.८) २. गोकुल का एक गोप । कृष्ण का यह परम मित्र था . (भा. १०.२२.३१)। तृणक--एक क्षत्रिय (म. स. ८.१६ )। तेजोयु--एक क्षत्रिय । यह रौद्राश्व का पुत्र था (म. तृणकर्णि-अंगिराकुल का गोत्रकार। आ. ८९.१०)। तृणबिंदु-(सू. दिष्ट.) भागवत एवं वायु के मता तैटिकि--एक आचार्य (नि. ४.३)। नुसार बंधु राजा का पुत्र । इसे विशाल, शून्यबंधु, धूम्रकेतु तैत्तिरि--तित्तिरि ऋषि का पुत्र । एवं इडविडा नामक चार संताने थीं। तैत्तिरीय-वैशंपायन एवं याज्ञवल्क्य के सिवा यजुःविष्णु एवं रामायण के मतानुसार बुध राजा का यह | शिष्यपरंपरा के अन्य शिष्यों का सामान्यनाम । इन्होंने पुत्र था। इसकी स्त्री अलंबुषा । इसे विशाल एवं इलविला तित्तिरि पक्षियों के रूप धारण कर, याज्ञवल्क्यद्वारा त्यक्त नामक दो संतानें थीं । इलविला पुलस्त्य को दी गयी थी। वेद का ग्रहण किया (व्यास देखिये)। यह नेतायुग के तीसरे पाद में राज्य करता था (ब्रह्मांड. तैलक--अंगिराकुल का एक गोत्रकार । .३.८.३६-६०; वायु. ७०.३१; २४.१५)। इसके पुत्र तैलप--अत्रिकुल का गोत्रकार विशाल से वैशाली राजवंश का आरंभ हुआ। तैलेय--धूम्रपराशरकुलोत्पन्न एक ऋषिगण । २. वैवस्वत मन्वंतर के तेईसवाँ तथा चौबीसवाँ व्यास | २. अंगिराकुल का गोत्रकार । (व्यास देखिये)। तोडमान-एक ऋषि । सोमकुल के सुवीर को यह - इ. एक ऋषि । यह पांडवों के साथ काम्यकवन में नंदिनी नामक पत्नी से पैदा हुआ। पांड्य राजा की कन्या रहता था (म. व. २६४)। यह अत्यंत धर्मशील तथा पद्मा इसकी पत्नी थी। पूर्वजन्म में यह रंगदास था। संयमी था। प्रत्येक माह, घांस के एक तृण को पानी में | संकटाचल की उपासना कर यह मुक्त हुआ (स्कन्द, डुबा कर, उसके साथ जितने जलबिंदु बाहर आते थे, | २.१.९-१०)। (भीम २३. देखिये )। उतन हा पा कर यह रहता था। इसके इस नियम के तोशालक--कंससभा का एक मल्ल । कृष्ण ने इसका कारण, इसका नाम तृगबिंदु हुआ (कंद. ७.१.१३८)। वध किया (भा. १०.४४.२७)। ४. वेन देखिये। तोष--तुपित देवों में से एक । तृणावर्त---कृष्ण के द्वारा मारा गया एक असुर २. (वा.) भागवतमत में यज्ञ तथा दक्षिणा का पुत्र । (पन. ब्र. १३)। कंस ने इसे कृष्णवध के लिये तोग्य-भुज्यु का पैतृक नाम। गोकुल भेजा था। इसने आँधी का रूप धारण कर गोकुल में तौरुष्य--लकुलिन् नामक शिवावतार का शिष्य । प्रवेश किया, तथा सारे गोकुल को धूलिमय कर दिया। तौल्वालि--आश्वलायन देखिये । पश्चात् कृष्ण को ले कर यह उड़ गया। किंतु कृष्ण ने इसे | तोसुक-सौमुक के लिये पाठभेद । एक शिला पर पछाड़ कर, इसके प्राण ले लिये (भा.१०. त्याज्य-भृगु तथा पौलोमी का पुत्र । यह देवों में से ७.२६ )। | एक था (मत्स्य. १९५.१३)। प्रा. च. ३२] २४९ Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रयी प्राचीन चरित्रकोश त्रसदस्यु त्रयी--सवितृ तथा पृश्नि की कन्या (भा. ६.१८)। पुरुकुत्स के समय ही समाप्त हो गया था। त्रसदस्यु का त्रय्यारुण--(सू. इ.) विष्णु, मत्स्य तथा पद्म | इस युद्ध से कुछ भी संबंध नहीं था। मत में निधन्वन् का पुत्र। इसका पुत्र त्रिशंकु (पन. कालान्तर में कुरु तथा पूरु दोनों लोग एक हो गये। सृ.८)। इसका प्रमाण त्रसदस्युपुत्र कुरुश्रवण के नाम से २. एक व्यास (व्यास देखिये)। भागवत में इसे ज़ाहिर होता है। कुरुश्रवण तथा तृक्षि (ऋ. ८. २२. .. अरुण कहा है। ७), दोनों को भी 'त्रासदस्यव' (त्रसद्रस्यु का पुत्र) ३. (सो. पूरु.) उरुक्षय का पुत्र (त्रय्यारुणि ३. देखिये)। कहा गया है । द्रुह्य तथा पूरु लोगों के साथ, साथ एक त्रय्यारुणि--एक व्यास (व्यास देखिये)। स्थान पर (ऋ. ६.४६. ८), तृक्षि का भी उल्लेख प्राप्त है। २. भागवत मतानुसार व्यास की पुराण शिष्यपरंपरा जब तक कुछ विरोधी साक्षी नहीं मिलती, तब तक यह के रोमहर्षण का शिष्य। मानने में कुछ हर्ज नहीं है कि, कुरुश्रवण एवं तृक्षि दोनों भाई भाई थे। कुरु लोगों का निवासस्थान मध्यदेश ___३. (सो. पूरु.) भागवत तथा वायु के मतानुसार में था। पूरु लोग सरस्वती के किनारे रहते थे। यह दुरितक्षय का पुत्र। इसने तपोबल से ब्राहाणत्व प्राप्त सरस्वती भी मध्यदेश की ही है। यह भी कुरु-पूरुओं किया। इसने रोमहर्षण से पुराणों का अध्ययन किया का साधयं एवं एकरूपता दर्शाता है। (भा. १२.७)। विष्णु मत में इसे त्रय्यारुण कहा है। - इसने अपनी पचास कन्याएँ सौभरि काण्व को, पत्नी त्रसद--त्रसदस्यु का नामांतर । के रूप में दी थीं (ऋ. ८. १९. ३६)। त्रसदश्व--पृषदश्व २. देखिये। ऋग्वेद में, त्रिवृषन् , त्रसदस्यु, व्यरुण ब्यवृष्ण तथा, त्रसदस्यु पौरुकुत्स्य-(सो. पूरु.) एक सूक्तद्रष्टा | अश्वमेध (ऋ. ५. २७. ४-६) ये सारे समानार्थक, (ऋ. ४. ४२, ५.२७; ९. ११०)। यह 'पूरुओं का | एवं एक ही व्यक्ति के नामांतर माने गये है। किंतु राजा' था (ऋ. ५.३३.८; ७.१९.३, ८. १९. | त्रिवृषन् अथवा व्यरुण के साथ, सदस्यु का वास्तव में ३६)। इसका 'पौरुकुत्सि' (ऋ. ७. १९. ३), तथा | क्या संबंध था, यह वैदिक ग्रंथो से नही समझता।. 'पौरकुत्स्य' (ऋ. ५.३३.८), नामों से उल्लेख आया प्राचीन काल में, प्रसिद्ध यज्ञ करने वाले के रूप में, है। इसका पैतृक नाम गैरिक्षित था। | त्रसदस्यु पर आटणार, बीतहव्य श्रायस तथा कक्षीवत् यह पुरुकुत्स का पुत्र था (ऋ. ४. ४२. ८; ७. | औशिज के साथ त्रसदस्यु का उल्लेख आया है (तै. सं. ५. १९. ३)। एक अत्यंत महान् विपत्ति के समय, पुरुकत्स | ६.५.३; क. सं. २२.३, पं. बा. १३.३)। इन सब को की पत्नी पुरुकुत्सानी के गर्भ से यह उत्पन्न हुआ। पुरातन थोर राजा ('पूर्व महाराजाः') कहा गया है (ऋ. ४. ३८.१)। सायण के मत में, इसके जन्म के (जै. उ. बा. २.६.११)। समय पुरुकुत्स कारागार में बन्दी या उसकी मृत्यु | एक बार व्यरुण राजा अपना पुरोहित वृश जान को हो गयी थी। साथ ले कर रथ में जा रहा था। पुरोहित के द्वारा रथ दूत यह गिरिक्षित् का वंशज था (ऋ. ५. ३३. ८), गति से चलाया जाने से, एक ब्राह्मण-पुत्र की रथ के नीचे एवं इसका पिता पुरुकुत्स दुर्गह का वंशज था। अतः | मृत्यु हो गई । तब राजा ने पुरोहित से कहा, 'तुम रथ इसका वंशक्रम इस प्रकार प्रतीत होता है:- दुर्गह, | जब हाँक रहे थे, तब लड़का मृत हुआ। इसलिये गिरिशित् , पुस्कुस, एवं त्रसदस्यु । त्रसदस्यु को हिरणिन् | इस हत्या के लिये जिम्मेवार, तुम हो।'। परंतु नामक एक पुत्र था (ऋ. ५. ३३.७), एवं तृक्षि का | पुरोहित ने कहा, 'रथ तुम्हारा होने के कारण, इस यह पूर्वज था (ऋ. ८. २२. ७)। त्रसदस्यु का पिता | हत्या के जिम्मेवार तुम ही हो'। इस प्रकार लड़ते पुरुकुत्स सुदास का समकालीन था। किंतु वह सुदास का | झगड़ते दोनों इक्ष्वाकु राजा के पास गये । इक्ष्वाकु राजा मित्र था, या शत्रु (लुडविग. ३. १७४), यह निश्चित ने कहा कि रथ पुरोहित के द्वारा हाँका जा रहा था, रूप से नहीं कह सकते । सुदास का पूर्वज दिवोदास के | इसलिये हत्या करनेवाला वृश जान ही है। साथ पूरु लोगों का एवं तृत्सुओ का शत्रुत्व था, यह | तदनंतर वार्श साम नामक स्तोत्र कह कर, वृश दाशराज्ञयुद्ध से ज़ाहिर होता है। तथापि यह युद्ध | जान ने उस बालक को पुनः जीवित किया। फिर Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन चरित्रकोश को ही घर से भी इक्ष्वाकु राजा ने पक्षपात कर वृश जान दोषी ठहराया, इसलिये इक्ष्वाकु राजा के अनि गुप्त हो गया। यज्ञयाग बंद हो गये पूछताछ करने पर राजा को पता चला कि, वृश जान को मैं ने दोषी कहा, , इसलिये अभि मेरे घर से चला गया है। बाद में राजा वृश जान के पास गया। तब उसने वार्श सामसूक्त कह कर अग्नि को वापस लाया। इससे इक्ष्वाकु राजा के घर के यज्ञयाग पूर्ववत प्रारंभ हो गये ( ऋ ५.२१; सायण भाष्य में से ' शाट्यायन ब्राह्मण,' तथा तांड़क. ५. २.१ ) । इस कथा का श्वेद से (५.२) संबंध दर्शाया गया है । यहाँ व्यरुण, वृष्ण तथा त्रसदस्यु को एक ही माना गया है, एवं उसे ऐश्वाक कहा है। परंतु यह बात सायणाचार्य मान्य नहीं करते (ऋ. ५.२७.३; बृहद्दे. ५९ १३-२२ ) । इसका पुत्र कुरुश्रवण (ऋ. १०.३३.४ ) । इसे हिरणिन् नामक और भी एक पुत्र होगा । परंतु सायण के मतानुसार ‘हिरणिन् ' धनवान् के अर्थ का विशेषण है (ऋ. ५.५३.८३ ६.६३.९) । यह अंगिरस गोत्रीय मंत्रकार त्रित जमीन में हल चला कर यह अपना उदरनिर्वाह करता था । त्रासदस्यच वृद्धि तथा कुरुश्रवण का पैतृक नाम । त्रिंशदश्व-- (स. इ.) भविष्य के मतानुसार पुरुकुत्स का पुत्र । इसका रथ तीस घोड़ों का था । इसका राज्य सत्ययुग के दूसरे चरण में था । त्रिककुद्~~(सो. आयु. ) भागवत मतानुसार शुचि राजा का पुत्र । त्रिगर्त - - एक क्षत्रिय ( म. स. ८.१९ ) । त्रिचक्षु (सो. पूरु. भविष्य.) रुच का पुत्र चक्षु कहा गया है। वनवास गमन के पहले राम ने लक्ष्मण से कुछ दानधर्म करने के लिये कहा । उस समय, अपनी तरुण पत्नी के कथनानुसार, धनप्राप्ति की आशा से यह भी आया । इसे वृद्ध देख कर, राम को इसपर दया आयी । हाथ में एक लकडी ले कर, उसने इससे कहा, 'यह लकडी इन गायों के बीच में फेंको। जहाँ तक यह लकडी जावेगी, वहाँ तक की गौएँ तुम्हें दी जायेंगी ।" यह गायों को पार कर, सरयू के भी तब राम ने उस क्षेत्र की सब गौएँ इसे दीं, तथा साथ में कुछ धन भी दिया ( वा. रा. अयो. ३२.२९ - ४३ ) । ने लकड़ी फेंकी। उपपार चली गई । था। २. (सू. इ. ) पुरुकुत्स एवं नर्मदा का पुत्र ( वायु. त्रित - एक ऋषि तथा देवता । परंतु निरुक्त में इसे ८८.७४) । मत्स्य में इसे वसुद कहा है। भविष्य में इसके लिये त्रिंशदश्व पाठभेद है । मत्स्य में नर्मदा को त्रसदस्यु अर्जुन का वध किया (ऋ. २.११.२०)। त्रित ने एक. द्रष्टा कहा है (नि. ४.६ ) । इन्द्र ने त्रित के लिये की पत्नी बताया है (मत्स्य. १२.२६ ब्रह्म. ७.९५ ) । त्रिशीर्ष का ( १०.८.८) एवं विश्वरूप का यह सूर्यवंश का था । त्वष्टुपुत्र किया (ऋ. १०.८०९) । मरुतों ने युद्ध में का त्रसद्दस्यु--मांधातृ का नामांतर ( भा. ९.६.३३ ) । सामर्थ्य नष्ट नहीं होने दिया (ऋ ८.७.२४) । त्रित ने प्राक्षायाणि - विश्वामित्र कुछ का गोत्रकार । त्रात ऐषुमत - निगड पाणैवरिक का शिष्य (के. बा. १.३)। इन्द्र के लिये सोम पीसा (ऋ. ८.३२.२ ३४.४१ २८. २) | त्रित ने सोम दे कर सूर्य को तेजस्वी बनाया (ऋ. ९.२७.४) । ति तथा मित आल्य, एक ही होने का संभव है । त्रितको आपत्य विशेषण लगाया गया है । इसका अर्थ सायण ने उदकपुत्र किया है (ऋ ८.४७. १५ ) | यह अनेक सूक्तों का द्रष्टा है । (ऋ. १.१०५; त्रिजट्--गार्ग्य-कुल का एक वृद्ध ब्राह्मण । हल, कुदलि, तथा बेंत ले कर यह हमेशा वन में घूमता था के त्रिजटा -- लंका की एक राक्षसी । रावण ने सीता संरक्षण के लिये जो राक्षसियों रखीं थीं, उनमें यह एक थी (म. व. २६४.५३ ) | स्वप्न में इसने देखा कि, रावण का नाश तथा राम का उत्कर्ष होनेवाला है। तब से सीता को कुछ तकलीफ न हो, यह व्यवस्था इसने जारी की (बा. रा. सुं. २७) । ८.४७; ६.२२ ३४; १०२ १०. १-० ) । एक स्थान पर इसने अग्नि की प्रार्थना की है कि, मरुदेश के प्या के समान पूरुओं को धन से तुष्ट करते हो (ऋ. १०.४ ) । इंद्र के लिये उपयोग में लाया गया है (ऋ. १.१८७.२ ) । उसी प्रकार इंद्र के भक्त के रूप में इसे भी इसका उल्लेख है ( . ९.३२.२ १०.८.७-८ ) । त्रित तथा गृत्समद कुछ का कुछ संबंध था, ऐसा प्रतीत होता है (ऋ. २.११.१९ ) । त्रितको विभूवस का पुत्र | कहा गया है (ऋ. १०.४६.२ ) । ति अभि का नाम है २५१ । । Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रित प्राचीन चरित्रकोश त्रिपुर (त्र. ५.४१.४)। त्रित की वरुण तथा सोम के साथ | उस समय उसे यह पूर्वयुग की कथा सुनाई गयी (म. एकता दर्शाई है (ऋ. ८.४१.६;९.९५.४)। श. ३५; भा. १०.७८)। आत्रेय राजा के पुत्र के रूप एक बार यह कुएँ में गिर पड़ा । वहाँ से छुटकारा हो, में, त्रित की यह कथा अन्यत्र भी आई है (स्कन्द. ७.१. इस हेतु से इसने ईश्वर की प्रार्थना की। यह प्रार्थना | २५७)। बृहस्पति ने सुनी तथा त्रित की रक्षा की (ऋ. १.१०५. २. चक्षुर्मनु को नब्बला से ऊ पुत्रों में से एक । १७)। भेडियों के भय से ही त्रित कुएँ में गिरा होगा। ३. अंगिरस् गोत्र का एक मंत्रकार । (१८)। इसी ऋचा के भाष्य में, सायण ने शाट्यायन ४. ब्रह्मदेव के मानस पुत्रों में से एक । ब्राह्मण की एक कथा का उल्लेख किया है। एकत, द्वित निधन्वन--(सू. इ.) विष्णु, वायु तथा भविष्य के तथा त्रित नामक तीन बंधु थे। त्रित पानी पीने के लिये मतानुसार वसुमनस् का पुत्र; परंतु मत्स्य तथा पद्म के कुएँ में उतरा। तब इसके भाईयों ने इसे कुएँ में धक्का मतानुसार संभूति का पुत्र । भागवत में अरुणपुत्र त्रिबंधन दे कर गिरा दिया, तथा कुँआ बंद करवे चले गये । तब | | का निर्देश आया है । वह तथा यह एक ही है। मुक्ति के लिये, त्रित ने ईश्वर की प्रार्थना की (इ. १. १०५)। यह तीनों बंधु अग्नि को उदक से उत्पन्न हुएँ थे त्रिधामन-वर्तमान मन्वन्तर का दशम व्यास (व्यास देखिये)। (श. ब्रा. १.२.१.१-२; तै. ब्रा. ३.२.८.१०-११)। २. दसवाँ शिवावतार। इसने काशी में तपस्या की। महाभारत में, त्रित की यही कथा कुछ अलग ढंग से दी गयी है । गौतम को एकत, द्वित तथा त्रित नामक पुत्र इसे भंग, बलबंधु, नरामित्र, तथा केनुशंग नामक चार शिष्य थे। इसके समय भृगु ऋषि व्यास था (शिव. शत. ५)। थे। यह सब ज्ञाता थे। परंतु कनिष्ठ त्रित तीनों में श्रेष्ठ होने के कारण, सर्वत्र पिता के ही समान उसका सत्कार __त्रिनाभ---कश्यप तथा खशा का पुत्र। . होने लगा। एकत तथा द्वित का लोगों पर अधिक प्रभाव | त्रिनेत्र--(मगध. भविष्य.) मस्त्य के मतानुसार न पड़ता था। इन्हें विशेष द्रव्य भी प्राप्त नहीं होता था। निवृत्ति का पुत्र । वायु में इसको सुव्रत, ब्रह्मांड तथा एक बार त्रित की सहायता से यज्ञ पूर्ण कर के, इन्होंने | विष्णु में सुश्रम, तथा भागवत में शम कहा गया है। काफी गौों प्राप्त की। गौों ले कर जब ये सरस्वती के मत्स्य के मतानुसार इसने अट्ठाईस, तथा वायु तथा ब्रह्मांड : किनारे जा रहे थे, तब त्रित आगे था। दोनों भाई गौओं | के मतानुसार 'अडतीस वर्षों तक राज्य किया। को हाँकते हुए पीछे जा रहे थे। इन दोनों को गौओं का त्रिपुर-एक असुरसंघ । मयासुर ने ब्रह्माजी के हरण करने की सूझी। त्रित निःशंक मन से जा रहा था। प्रसाद से तीन पुरों (नगरों) की रचना की। उन पुरों इतने में सामने से एक भेडिया आया। उससे रक्षा करने क्रमशः लोहमय, रौप्यमय, एवं सुवर्णमय थे। नगर के हेतु से त्रित बाजू हटा, तो सरस्वती के किनारे के एक | पूर्ण होने के पश्चात्, उनका अधिपत्य तारकासुर के कुएँ में गिर पड़ा। इसने काफी चिल्लाहट मचाई। परंतु | ताराक्ष, कमलाक्ष एवं विद्युन्मालि इन तीन पुत्रों को दिया भाईयों ने सुनने पर भी, लोभ के कारण, इसकी ओर | गया (म. क. २४.४)। ये तीन असुर 'त्रिपुर' नाम से ध्यान नहीं दिया । भेड़िया का डर तो था ही। प्रसिद्ध हुएँ। जलहीन, धूलियुक्त तथा घास से भरे कुों में गिरने के मयासुर ने नगर निर्माण कर असुरों को दिये। उस बाद, त्रित ने सोचा कि, 'मृत्यु भय से मैं कुों में गिरा। समय उसने त्रिपुरों को चेतावनी दी कि, 'तुम्हें देवताओं इसलिये मृत्यु का भय ही नष्ट कर डालना चाहिये। इस को न तो त्रस्त करना चाहिये, नहीं तो उनका अनादर विचार से, कुएँ में लटकनेवाली वल्ली को सोम मान कर | करना चाहिये। इसने यज्ञ किया। देवताओं ने सरस्वती के पानी के द्वारा किंतु बाद में विपरीत बुद्धि हो कर, त्रिपुर अधर्माचरण इसे बाहर निकाला। आगे वह कूप 'त्रित-कूप' नामक तीर्थ- करने लगे। इसलिये शिवजी के हाथ से इनका नाश स्थान हो गया। हुआ। यह अधर्माचरण विष्णु ने इनमें फैलाया (शिव. घर वापस जाने पर, शाप के द्वारा इसने भाईयों को | रुद्र. ४.५)। त्रिपुरा में धार्मिकता होने के कारण, उनपर भेड़िया बनाया। उनकी संतति को इसने बंदर, रीछ आदि | विजयप्राप्ति असंभव थी। इसलिये विष्णु ने बुद्ध के बना दिया । बलराम जब त्रित के कूप के पास आया, रूप में इन पुरों को धर्मरहित किया। बाद में देवों ने Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिपुर . प्राचीन चरित्रकोश त्रिशंकु युद्ध प्रारंभ किया (मस्त्य. १३०-१३७; भा. ७.१०; सत्यव्रत था। परंतु वसिष्ठ के शाप के कारण, इसे त्रिशंकु म. अनु. २६५.३१ कुं.)। नाम प्राप्त हुआ। इनसे युद्ध करते समय शंकर के शरीर से जो धर्मबिंदु इसका तथा इसका पिता व्यय्यारुण, एवं पुत्र हरिश्चंद्र निकले, वे ही रुद्राक्ष बने (पन. सृ.५९)। जिन अमृत- का कुलोपाध्याय 'देवराज' वसिष्ठ था। वसिष्ठ से त्रिशंकु कुंडों के कारण ये अमर थे, उनका प्राशन देवताओं ने | का पहले से ही शत्रुत्व था। कान्यकुञ्ज का राजा विश्वरथ, गोरूप से कर लिया। पश्चात् शिवजी ने त्रिपुर का दहन | जो आगे तपसाधना से विश्वामित्र ऋषि बना, त्रिशंक का किया (पा. स. १३)। इसी समय ताराक्ष, कमलाक्ष मित्र एवं हितैषी था। वसिष्ठ एवं विश्वामित्र इन दो तथा विद्युन्मालि असुरों का अंत हुआ (म. द्रो. १७३. | ऋषियों के बीच, त्रिशंकु के कारण जो झगड़ा हुआ, उससे ५२-५८; लिंग. १.७०-७२)। त्रिशंकु का जीवनचरित्र नाट्यपूर्ण बना दिया है। त्रिपुरसुंदरी-एक देवी। अर्जुन को इसने बाला- वसिष्ठ एवं त्रिशंकु के शत्रत्व की कारणपरंपरा, 'देवी विद्या दी (पद्म. पा. ७४)। . भागवत ' में दी गयीं है। यह शुरू से दुर्वर्तनी था। इस त्रिबंधन-(सू. इ.) भागवत के मतानुसार अरुण | कारण इसके बारे में किसी का भी अनुकूल मत न था। का पुत्र (त्रिधन्वन् देखिये)। निबंधन तथा यह एक ही एक बार, इसने एक विवाहित ब्राह्मण स्त्री का अपहार किया। 'उस स्त्री की सप्तपदी होने के पहले मैंने उसे त्रिभानु -(सो. तुर्वसु.) भागवत के मतानुसार | उठा लिया हैं, अतः मैं दोषरहित हूँ,' ऐसा इसका भानुमत् राजा का पुत्र। इसका पुत्र करंधम। विष्णु में कहना था। किंतु इसकी एक न सुन कर, इसे राज्य के इसे त्रैशांब, वायु में त्रिसानु, तथा मत्स्य में त्रिसरि कहा बाहर निकालने की सलाह, वसिष्ठ ने इसके पिता को दी । गया है। पिता ने इसे राज्य के बाहर निकाल दिया। वह स्वयं, त्रिमार्टि-अंगिराकुल का गोत्रकार । दूसरा अच्छा पुत्र हो, इस इच्छा से राज्य छोड कर, त्रिमूर्ति-इंद्रप्रमति का नामान्तर । तपस्या करने चला गया। त्रिमूर्धन्--रावण का एक पुत्र । अयोध्या में कोई भी राजा न रहने के कारण, वसिष्ठ त्रिवक्रा--कंसदासी कुब्जा का नामांतर (भा. १०. | राज्य का कारोबार देखने लगा। किंतु राज्य की आम४:२३)। दानी दिन बे दिन बिगड़ती गई । लगातार नौ वर्षों तक 'त्रिवराताम-आर्चनानस के लिये पाठभेद । राज्य में अकाल पड़ गया। त्रिवृश-एक व्यास (व्यास देखिये)। इस समय त्रिशंकु अरण्य में गुजारा करता था। जिस '. त्रिवेद कृष्णरात लौहित्य--श्याम जयन्त लौहिस्य | अरण्य में यह रहता था,उसी अरण्य में विश्वामित्र का आश्रम का शिष्य (जै. उ. वा. ३.४२.१)। था। परंतु तपस्या के कारण, विश्वामित्र कही दूर चला त्रिशंकु--एक साक्षात्कारी तत्वज्ञ । यह ब्रह्म से एक- | गया था। इसलिये आश्रम में केवल उसकी पत्नी तथा तीन रुप हो गया था। अपना 'वेदानुवचन' (आत्मानुभव) पुत्र ही थे। त्रिशंकु, रोज थोड़ा मांस, आश्रम के बाहर पेड़ में वर्णन करते समय इसने लिखा है, 'मैं संसार को हिलाने- बाँध देता था। उससे विश्वामित्र की पत्नी तथा एक पुत्र का वाला हूँ। मेरे सामने सब तुच्छ है। मैं साकार हुआ| गुज़ारा चलता था। एक बार अन्य पशु न मिलने के कारण, पावित्र्य हुँ । मैं सूर्यस्थित अमर तत्व हूँ। मैं अमूल्य इसने वसिष्ठ की गाय कामधेनु को मार डाला । तब वसिष्ठ द्रव्यनिधि हूँ। मैं ज्ञानयुक्त, अमर, तथा अक्षय हूँ। (तै. ने उसे शाप दिया कि, 'तुम्हारे सिर पर तीन शंकु निर्माण उ. १.१०)। होंगे । गोवध, स्त्रीहरण तथा पिता के क्रोध के कारण तुम __पौराणिक त्रिशंकु, तथा यह दोनों अलग व्यक्ति प्रतीत | | पिशाच बनोगे, तथा तुम्हें लोग त्रिशंकु के नाम से होते है। पहचानेंगे। २. (सू. इ.) अयोध्या का राजा । यह निबंधन राजा वसिष्ठ के इस शाप के कारण, त्रिशंकु तथा वसिष्ठ का का ज्येष्ठ पुत्र था। कई ग्रंथो में इसके पिता का नाम वैर अधिक ही बढ़ गया। प्रथम इसे दुर्वर्तनी कह कर, अय्यारुण या अरुण दिया है (ब्रहा. ८.९७; ह.. १. वसिष्ठ ने इसे राज्य के बाहर निकल दिया। पश्चात् , १२, पद्म. स. ८; दे. भा. ७.१०)। इसका मूल नाम । कामधेनु वध के निमित्त से इसे पिशाच बनने का शाप २५३ Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिशंकु दिया। बाद में देवी की कृपा से इसका पिशाचत्त्व नष्ट हो गया पश्चात् पिता ने भी इसे राजगद्दी पर बिठाया (दे. भा. ७.१२ ) । प्राचीन चरित्रकोश तपश्चर्या से वापस आने पर विवामित्र को पता चला कि, उसके कुटुंब का पालनपोषण त्रिशंकु ने किया । तन के प्रति उसे कृतक्ता महका दुई या उसने इसे वर माँगने के लिये कहा । तत्र सदेह स्वर्ग जाने की इच्छा त्रिशंकु विधामित्र के पास प्रकट की। बाद में विश्वामित्र ने इसे राज्य पर बैठाया, इससे यज्ञ करवाया, तथा सव देवता के विरोध के बावजूद उसने त्रिशंकु को स्वर्ग पहुँचा दिया ( ह. बं. १. १३) । वाल्मीकि रामायण में, त्रिशंकु की सदेह स्वर्गारोहण की कथा कुछ अलग ढंग से दी गयी है । सदेह स्वर्ग जाने की इच्छा त्रिशंकु सिष्ठ के सामने रखी। बसि ने इसे साफ उत्तर दिया कि यह असंभव है व यह वसिष्ठ के पुत्रों के पास गया। उन्हों ने यह कह कर इसका निषेध किया कि, जब हमारे पिता ने तुम्हें ना कह दिया है, तब तुम हमारे पास क्यों आये ? त्रिशंकु ने उन्हें जवाब दिया कि, 'दूसरी जगह जा कर, कुछ मार्ग मै अवश्य इंट खाऊँगा तब उन पुत्रों ने इसे शाप दिया कि तुम चांडाल बनोगे। बाद में यह विश्वामित्र की शरण में गया । " त्रिशंकु यह देख कर विश्वामित्र अत्यंत क्रोधित हुआ वह 'रुको, रुको' ऐसा विज्ञाने लगा पश्चात् उसने दक्षिण की और नये सप्तर्षि एवं नक्षत्रमा निर्माण किये। 'अन्यमिन्द्रं करिष्यामि, लोको वा स्यादनिन्द्रकः ' ( ' या तो दूसरा इन्द्र निर्माण मैं करूँगा, या मेरा स्वर्ग ही इंद्ररहित होगा), ऐसा निश्चय कर विश्वामित्र से नया स्व निर्माण करना प्रारंभ किया । उससे देव चिंताक्रान्त हुए । उन्होंने कहा कि जिस व्यक्ति को गुरुशाप मिला है, वह स्वर्ग के लिये योग्य नहीं हैं। विश्वामित्र ने कहा, 'मैं अपनी प्रतिज्ञा असल नहीं कर पता तब देवताओं ने उसे मान्यता दी। 'पःस्थितज्योतिष्क के बाजू में दक्षिण की ओर तुम्हारे नक्षत्र रहेंगे, तथा उनमें त्रिशंकु रहेगा, ऐसा आश्वासन दे कर, विश्वामित्र की प्रतिशा देवों ने पूर्ण की ( वा. रा. बा. ५७-६१ ) पचात् अपने कान में दिशेकुभाख्यान के कारण बहुत भारी चित्र आया है यह सोच कर विश्वामित्र ने अपनी तप का स्थान दक्षिण की ओर पुष्करतीर्थ पर बदल दिया (६२) । , विश्वामित्र ने उसे सदेह स्वर्ग ले जाने का आश्वासन दिया, एवं सब को यश के लिये निमंत्रण दिया। वसिष्ठ को छोड़कर अन्य सारे ऋषियों ने विश्वामित्र के इस निमंत्रण का स्वीकार किया किंतु वसिष्ठ ने रुट शब्दों में संदेश भेजा कि, 'जहाँ यश करनेवाला चांदाल हो उपाध्याय क्षत्रिय हो, वहाँ कौन आवेगा? इस यज्ञ के द्वारा स्वर्ग में भी भला कौन जावेगा ?' यह संदेश सुन कर विश्वामित्र अत्यंत क्रोधित हुआ । उसने सारा वसिष्ठकुल भस्मसात् कर दिया एवं बसि को शाप दिया कि, अगला जन्म तुम्हें डोम के घर में मिलेगा ' । विश्वामित्र का यश शुरू हुआ। विश्वामित्र अध्यर्यु के स्थान में था। निमंत्रित करने पर भी देवता यज्ञ में नहीं आयें। तब अपना तपः सामर्थ्य खर्च कर विश्वामित्र ने त्रिशंकु को सदेह स्वर्ग ले जाना प्रारंभ किया। देखते देखते त्रिशंकु स्वर्ग चला गया। किंतु इन्द्रसहित सब देवताओं ने इसे नीचे ढकेल दिया । यह 'त्राहि त्राहि ' करते हुए नीचे सिर, तथा ऊपर पैर कर के नीचे आने लगा। 6 · त्रिशंकुआख्यान की यही कथा स्कंदपुराण में काफी अलग तरीके से दी गई है । सदेह स्वर्ग जाने के लिये यश करने की त्रिशंकु की कल्पना, वसिष्ठ ने अमान्य कर दी, एवं इसे गया गुरु ढूँढने के लिये कहा पश्चात् वसिष्ठ के पुत्रों से इसने यज्ञ करने की विज्ञापना की, जिससे उनसे इसे चांडाल होने का शाप मिला । तत्काल इसका शरीर काया एवं दुर्गंधयुक्त हो गया। तब अपने दुराग्रह के प्रति स्वयं इसी के मन में घृणा उत्पन्न हुई। पर खौटने के बाद, द्वार से ही इसने अपने पुत्र को राज्याभिषेक करने के लिये कहा। पश्चात् यह स्वयं संदेह स्वर्गारोहण के प्रयत्न में लगा । जगन्मित्र विश्वामित्र के सिवा इसे अन्य कोई भी मित्र नही था । विश्वामित्र के यहाँ जाने पर, पहले तो इसे किसीने भीतर ही न जाने दिया। परन्तु बाद में विवामित्र से मुलाकात होने पर उसने बसपुत्रों के शाप की हकीकत इसे पूछ की। वसिष्ठ से स्पर्धा होने के कारण, त्रिशंकु को सदेह स्वर्ग ले जाने की प्रतिशा विश्वामित्र ने की । इसका चांडालत्व दूर करने के लिये, विश्वामित्र ने इसे साथ ले कर तीर्थयात्रा प्रारंभ की। परंतु इसका चांडालत्व नष्ट न हो सका । बाद में अदा पर मार्कडेय ऋपि इनसे निते । उन्हें विश्वामित्र ने सारा वृत्तांत्त, अपनी प्रतिज्ञा के सहित बताया। इसका चांडालत्व दूर होने की २५४ Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिशंकु तरकीब भी मार्केय ऋषि से पूछी मार्कंडेय इसेने हाटकेश्वर क्षेत्र में जा कर पातालगंगा में स्नान, तथा "हाटकेश्वर का दर्शन लेने के लिये कहा। हाटकेश्वर दर्शन के पश्चात् इसका चांडा दूर हुआ। प्राचीन चरित्रकोश इसलिये पश्चात् यज्ञ की सामग्री एकत्रित करने के लिये, विश्वामित्र ने इसे कहा। त्रिशंकु के यज्ञ की तैयारी पुरी होते ही, विश्वामित्र स्वयं ब्रह्मदेव के पास गया । ब्रह्माजी से विश्वामित्र ने कहा कि, 'त्रिशंकु को सदेह तुम्हारे लोक में लाने के लिये, मैं उससे यज्ञ करवा रहा हूँ आप सब देवों के साथ यहाँ आ कर, यज्ञभाग का स्वीकार करे' तंच ब्रह्मदेव ने कहा, 'देहान्तर के बिना स्वर्गप्राप्ति असंभव है । इसलिये यज्ञ करने के बाद त्रिशंकु को देहान्तर (मूत) करना ही पडेगा परना उसका स्वर्गप्रवेश असंभव है ' । यह सुन कर विश्वामित्र संतप्त हुआ, तथा उसने कहा, 'मैं अपनी तपश्चर्या के सामर्थ्य से त्रिशंकु को सदेह स्वर्गप्राप्ति दे कर ही रहूँगा । इतना कह कर, विश्वामित्र त्रिशंकु के पास वापस भाया। स्वयं अध्वर्यु बन कर, विश्वामित्र ने यज्ञ शुरू किया। शांडिल्य आदि ऋषियों को उसने होता आदि ऋत्विजों के काम दिये | बारह वर्षों तक विश्वामित्र का यज्ञ चालू रहा। पश्चात् अवभृतस्नान भी हुआ। किंतु त्रिशंकु को. स्वर्ग प्रवेश नही हुआ । सि के सामने अपना उपहास होगा, वह सोच कर इसे अत्यंत दुख हुआ। विश्वामित्र ने इसे सांत्वना दी, एवं कहा की, 'समय पाते ही मैं प्रति निर्माण करूँगा' प्रति सृष्टि निर्माण करने की शक्ति प्राप्त हो, इस हेतु से विश्वामित्र ने शंकर की आराधना शुरू की पश्चात् बैसा बर भी शंकर से उसने प्राप्त किया, एवं प्रतिसृष्टि निर्माण करने का काम शुरू किया । त्रिशंकु सत्यलोक गया (स्कन्द ५.१.२.७) । भविष्य के मतानुसार, त्रिशंकु ने दस हजार वर्षों तक राज्य किया । ब्रह्मदेव ने विश्वामित्र के पास आ कर उससे कहा, 'इंद्रादि देवों का नाश होने के पहले, प्रतिसृष्टि निर्माण करना बंद करो' । विश्वामित्र ने जवाब में कहा, 'अगर त्रिशंकु को सदेह स्वर्ग प्राप्त हो जाये, तो मैं प्रतिष्ठि निर्माण करना बंद कर दूंगा । ब्रह्मदेव के द्वारा अनुमति दी जाने पर, निर्माण की गई प्रति सृष्टि अक्षय होने के लिये, विश्वामित्र ने ब्रह्मदेव से प्रार्थना की। तब ब्रह्मदेव ने कहा, 'तुम्हारी सृष्टि अक्षय होगी, परंतु यशार्ह नहीं बन सकती ' । इतना कह कर, ब्रह्मदेव त्रिशंकु के साथ २५५ इसकी पत्नी का नाम सत्यरथा था । उससे इसे हरिश्चन्द्र नामक सुविख्यात पुत्र हुआ (ह. वं. १.१३. २४ ) । त्रिशंकु की धार्मिकता का वर्णन, विश्वामित्र के मुख में काफी बार आया है ( वा. रा. बा. ५८ ) । इसने सौ यज्ञ किये थे। क्षत्रियधर्म की शपथ ले कर इसने कहा है मैंने कभी भी असत्य कथन नहीं किया, तथा नहीं करूँगा। गुरु को भी मैं ने शील तथा वर्तन से संतुष्ट किया है, प्रजा का धर्मपालन किया है। इतना धर्मनिष्ठ होते हुये भी, मुझे यश नहीं मिलता, यह मेरा दुर्भाग्य है। मेरे सब उद्योग निरर्थक हैं, ऐसा प्रतीत होता है। विश्वामित्र को भी इसके बारे में विश्वास था (५९) । वसिष्ठ को भी त्रिशंकु के वर्तन के बारे में आदर था । 'यह कुछ उच्छृंखल है, परंतु बाद में यह सुधर जाएगा' ऐसी उसकी भावना थी (ह. वं. १.१३ ) । वनवास के समय इसका वर्तन आदर्श था। यहाँ इसने विश्वामित्र के बालकों का संरक्षण किया, इससे इसकी दयालुवृत्ति जाहीर होती है । ब्राह्मण की कन्या के अपहरण के संबंध में जो उल्लेख आयें है, उसका दूसरा पक्ष हरिवंश तथा देवी भागवत में दिया गया है। उस माँमले में इसकी विचारपद्धति उस काल के अनुरूप ही प्रतीत होती वसिष्ठ की गाय इसने जानबूझ कर मारी यह एक आक्षेप है। किंतु वसिष्ठ के साथ इसका शत्रुत्व था । गोहत्या का यही एक समर्थनीय कारण हो सकता है। है सदेह स्वर्ग जाने की इच्छा, इसके विचित्र स्वभाव का एक भाग है। सदेह स्वर्ग जाना असंभव है, यो वसिष्ठ ने कहा था। तथापि वसिष्ठविश्वामित्रादि ऋषि स्वर्ग में जा कर वापस आते थे, यह हरिश्चन्द्र की कथा से प्रतीत होता है । त्रिशंकु की कथा में भी वैसा उल्लेख आया है । कुछ दिन स्वर्ग में जा कर, अर्जुन ने इन्द्र के आतिथ्य का उपभोग किया था, ऐसा उल्लेख भी महाभारत में प्राप्त है । इस दृष्टि से त्रिशंकु को भी स्वर्ग जाने में कुछ हर्ज नहीं था परंतु बसि के द्वारा अमान्य किये जाने पर, इसे ऐसा लगा, अपना तथा वसिष्ठ का शत्रुत्व है, इसीलिये वह अपनी इच्छा अमान्य कर रहा है'। इन्द्रादि देवों ने भी इसे स्वर्ग में न लेने का कारण, 'गुरु का शाप' यही कहा है । स्वर्गप्राप्ति के लिये देहान्तर Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिशंकु प्राचीन चरित्रकोश त्वष्ट अनिवार्य है, यह नहीं कहा। इससे प्रतीत होता है कि, त्र्यक्षी-अशोकवन की एक राक्षसी । सदेह स्वर्ग जाना उस काल में असंभव नहीं था। अम्बकेश्वर-शिव का एक अवतार । यह गोदावरी स्वर्ग के मार्ग पर, त्रिशंकु को इंद्र के विरोध से रुकना के तट पर रहता था। गौतम की प्रार्थना से, यह पृथ्वी पडा । अभी वहाँ त्रिशंकु नाम का एक तारा है। पृथ्वी पर आया (शिव. शत. ४२) । ज्योतिलिंग देखिये। से उस तारे का अन्तर तीन शंकु (= तीस महापद्म व्यरुण वृष्ण सदस्यु-त्रसदस्यु देखिये। मील) त्रिशंकु इतना ही हैं, ऐसा खगोलज्ञ कहते हैं। त्र्यारुण-अत्रिकुलोत्पन्न एक ऋषि । त्रिशिख-तामस मन्वंतर का इंद्र । त्वष्ट--देवताओं का शिल्पी (अ. वे. १२.३.३३)। त्रिशिरस--विश्ववसु एवं वाका का पुत्र । (विश्वरूप इसका पुत्र विश्वरूप। इंद्र ने उसका वध किया। तब सब देखिये)। कार्य इन्द्रविरहित करने का इसने निश्चय किया। फिर भी २. दूषण राक्षस के चार अमात्यों में से एक। यह इसके सोमयाग में, इंद्र खुद आ कर सोम पी गया। परंतु राम के हाथों मारा गया। उस सोम का इंद्र को बमन करना पड़ा। बचे सोम का इसने ३. त्रिशीर्ष का नामांतर । हवन किया। उस हवन से एक इंद्रशत्र देवता निर्माण ४. कश्यप एवं खशा का पुत्र । हुअी। उसे वृत्र कहते हैं (श. ब्रा. १.६.३.१)। त्रिशिरस् त्वाष्ट्र-एक सूक्तद्रष्टा (ऋ. १०.८.९)। गर्भवृद्धि के लिये इसकी प्रार्थना की जाती हैं (बृ. उ. त्रिशीर्ष-रावण के पुत्रों में से एक। हनुमान ने इसका वध किया (वा. रा. यु. ७०)। ६.४.२१, ऋ. १०.१८४.१)। असुर-पुरोहित वरुत्रिन् के साथ इसका उल्लेख प्राप्त है (मै. सं. ४.८.१; क. सं. त्रिशोक काण्व-सूक्तद्रष्टा (ऋ. ८.४५)। इसके नाम का एक साम है (पं.बा. ८.१)। 'पंचविश ब्राह्मण' । ३०.१)। में यह शब्द अनेक बार आया है, किंतु वह सर्वत्र व्यक्ति शुक्र तथा गो का यह पुत्र था। इसकी पत्नी का नाम वाचक ही है, ऐसा निश्चित रूप से कहा नहीं जा सकता। बैरोचिनी यशोधरा (ब्रह्मांड. ३.१.८७.)। विश्वकर्मा तथा त्रिसानु एवं त्रिसारि--(सो. तुर्वसु.) गोभानु का प्रजापतियों में यह एक था। विश्वकर्मा तथा प्रजापति के पुत्र (त्रिभानु देखिये)। अधिकार इसे थे। इसलिये इसे ये नाम मिले । हस्तकौशल्य त्रिस्तनी--अशोक-वन में सीता की संरक्षक राक्षसी । से जो भी किया जा सकता है, वह करने का इसे त्रैतन-दीर्घतमस् का शत्रु एवं एक दास । त्रित का अधिकार था। इस अधिकार के अनुसार, हर चीज यह संबंधी रहा होगा (ऋ. १.१५८.५)। इसीके द्वारा बनवाई जाती थी। इस प्रकार संपूर्ण प्रजा इसीके द्वारा बनवाई जाती थी। इसलिये इसे प्रजापति त्रैधात्व-न्यरुण का पैतृक नाम (पं. बा. १३.३. | १२)। कहते हैं। इन्हें 'विश्वकर्मन्' भी कहा है (भा. ६.९. त्रैपुर-त्रिपुरी का राजा। राजसूययज्ञ के समय सहदेव ने इसे जीत कर, इससे बहुत करभार लिया था (म. स. इसे कुल तीन अपत्य थे। उनके नाम त्रिशिरस , विश्वरुप २८.३८)। तथा विश्वकर्मन् थे (ब्रह्मांड. ३.१.८६)। इसे संन्निवेश त्रैपुरि-त्रिपुर का पुत्र । शंकर ने इस के पिता का नामक और एक पुत्र भी था (भा.६.६:४४ )। वध किया। इसलिये इसने शिवपुत्र गजानन पर आक्रमण यह शिल्पशास्त्रज्ञ था। सुंदोपसुंद के वध के लिये इसने किया। परंतु गजानन ने इसका वध किया (पद्म. सु. तिलोत्तमा नामक अप्सरा निर्माण की (म. आ. २०३. ७२)। ११-१७)। त्रिपुरवध के लिये, आकाश, तारे आदि त्रैवणि-औपजघन का शिष्य (बृ. उ. ४.६.३)। वस्तुओं से, इसने शंकर के लिये, एक रथ निर्माण किया वृष्ण-व्यरुण का पैतृक नाम (ऋ.५.२७.१)।। (म. आ. २३१.१२)। इसने दधीचि ऋषि की हडिओं त्रैशांव-(सो. तुर्वसु.) गोभानु का पुत्र (त्रिभानु | से एक वज्र निर्माण कर, वह वृत्रवध के लिये इंद्र को दिया देखिये)। था (पन्न. स. १९; भा. ६.९.५४)। त्रैशंग-शृंगायण देखिये। | वज्रनिर्माण का निर्देश अन्यत्र भी है (म. व. २००. त्रैशंगायण-वसिष्ठ गोत्र का ऋषि । पाठमेद-शृंग।। २४)। इंद्र ने इसका पुत्र त्रिशिरस् का वध किया, तब २५६ Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्वष्ट प्राचीन चरित्रकोश दक्ष इसने इंद्र के नाश के लिये वृत्र निर्माण किया ( भा. ६. इसे विरोचना नामक स्त्री थी, जिससे इसे विरज नामक १६१८५४ उ ९.४३ विश्वरुप देखिये) । पुत्र उत्पन्न हुआ (भा. ५. १५.१५ ) । ६. ग्यारह रुद्रों में से एक। 3 २. महाभारतकालीन स्थापत्यविशारद । युधिष्टिर के अर्थराज्याभिषेक के समय इंद्र ने इसे भेज कर इंद्रप्रस्थ नगरी तयार करने को कहा । तदनुसार इसने उस नगरी की निर्मिति की (म. आ. १९९६१९८०० ) । खांडववन के दाह के समय, इंद्र की मदद करने यह उपस्थित था । ३. कश्यप तथा अदिति का पुत्र एक आदित्य ( भा. ६.६.३९) । यह प्रत्येक इप ( आश्विन ) माह में प्रकाशित होता है ( भा. १२.११.४३ ) । ४. प्रभास बहु तथा अंगिरसूकन्या ब्रह्मवादिनी का पुत्र (भवि. ब्राह्म. २.७९.१६ - १७) | यह प्रत्येक फाल्गुन माह में प्रकाशित होता है। इसकी ११०० किरणें हैं (भवि. ब्राह्म. ७८ ) । ४. (स्वा. प्रिय.) भागवत मतानुसार राजा भौवन तथा दूषणा का पुत्र विष्णु मतानुसार मनस्तु का पुत्र । । दंष्ट्र-- लंकास्थित एक राक्षस ( वा. रा. सुं. ६ ) । दंष्ट्रा- कश्यप तथा मोधा की कन्या पुलह की स्त्री । दक्ष - अंगिराकुल का गोत्रकार । २. अंगिरा तथा सुरूपा का देवपुत्र ( मत्स्य. (२) । १९५. ३. गु तथा पौलोमी का देवपुत्र ( मत्स्य. १९५६.१३) । ४. बाष्कल का पुत्र ( ब्रह्माण्ड २.५.२८-३९ ) । ५. ( सो. कुरु. ) मत्स्य मतानुसार देवातिथि का पुत्र इसे विष्णु तथा वायु के मतानुसार ऋक्ष एवं भागवत मतानुसार ऋश्य कहा है। । ७. तारासुर तथा देवताओं के संग्राम में तारासुर की ओर का एक दानव ( मत्स्य. १७२ ) । त्वष्टाधर शुक्राचार्य का एक पुत्र यह असुरों का याजक था । यह अत्यंत तेजस्वी, तथा ब्रह्मविद्या में प्रवीण था ( म. आ. ५९. ३६ ) | भांडारकर इन्स्टिटयूट महाभारत में ' त्वष्टावर ' यों पाठ उपलब्ध है । त्वाष्ट्र - त्वष्टृ प्रजापति का पुत्र ( भा. ६.९.१८ ) । आभूति और विश्वरुप का यह पैतृक नाम है। द त्वाष्ट्रीय की कन्या। यह आदित्य को दी गयी । थी । इसे अश्विनीकुमार नामक दो पुत्र उत्पन्न हुएँ (म. आ. ६०.२४; संशा देखिये) । में, इस का एक गद्य उद्धरण भी ' अपरार्क' में दिया गया है (अ. १६८) । 'नौ अदेय वस्तुओं का विवरण भी इसने किया है ( अपरार्क. ४०४ ) । ' जीवानंद संग्रह ' में दक्षस्मृति दी गई है, जिसके सात भाग तथा २२० श्लोक है | अह्निक, संस्कार, योग, तथा व्यवहार आदि का उस स्मृति में विचार किया गया है। विश्वरूप द्वारा किये गए दक्ष का उल्लेख, मुद्रित 'दक्षस्मृति में तथा अन्यत्र भी प्राप्त हैं । अपरार्क में दक्ष के चालीस श्लोक हैं, जिस में से कुछ दक्षस्मृति में अप्राप्य हैं। डेक्कन ' कॉलेज के संग्रह में १९७ लोकों की 'दक्षस्मृति दी गई है (डे. कॉ. नं. १२०, इ. स. १८९५ - १९०२ ) । बंबई विश्वविद्यालय ने भी ऐसी ही 'दक्षस्मृति प्रकाशित की है। ६. एक धर्मशास्त्रकार । याज्ञवल्क्य ने धर्मशास्त्रकारों मैं इसकी गणना की है। विश्वरुप ने इसके अनेक लोक दिएँ है (याज्ञ. १. १७; ३. ३०; ३.६६; ३.१९१ ) । मिताक्षरा में इसका मत दिया है कि, ब्राह्मण क्षणभर भी आश्रमधर्म से अलिप्त न रहे (याश. १.८९) । आचार, . अशौच, श्राद्ध आदि आचारधर्म के विषय में इसके ९. पश्चिमोत्तर भारत का एक मानवसंघ (पाणिनि श्लोक उपलब्ध है (अपरार्क. ३६८ ) । सुवर्णदान के संबंध | देखिये ) । इस संघ का राज्य पश्चिमोत्तर भारत वा प्रा.च.३२] २५७ ७. गरुड़ की प्रमुख संतानों में से एक (म. उ. १०१. १२ ) । ८. एक विश्वेदेव (म. अनु. ९१.३५ ) । Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दक्ष प्राचीन चरित्रकोश दक्ष प्रजापति उदीच्य देशों में था । इनका अंक तथा लक्षण | एकबार सृष्टि निर्माण करनेवाले प्रजापति यज्ञ कर रहे (राज्यचिह्न) का निर्देश भी प्राप्त है (काशिका. ४. थे। दक्ष प्रजापति वहाँ आया। उस समय शंकर तथा ब्रह्म३. १२७)। दाक्षिकूल तथा दाक्षिकर्ष ये इनके प्रमुख देव छोड, अन्य सब देव खडे हो गएँ । इससे यह क्रोधित ग्राम थे । कर्ष का अर्थ है 'गरैया'। दाक्षि लोग प्राच्य हुआ, एवं इसने शंकर को शाप दिया। नंदिकेश्वर ने भी देश, भरत जनपद, एवं उशीनर देश के बाहर, पश्चिमो- | इसे शाप दिया। दक्ष के शाप को अनुमति देने के कारण, त्तर भारत में बसे थे। शेरकोट (उशीनर) तथा गंधार के ऋषियों को शाप मिला, 'जन्ममरणों का दुख अनुभव समीप 'दक्षसंघ' का स्थान होगा। पाणिनि स्वयं गांधार | करते हुएँ तुम्हें गृहस्थी के कष्ट उठाने पडेंगे'। इसी समय का रहनेवाला था। वह दक्षसंघ में से एक होना संभवनीय | भृगु ऋषि ने भी शंकर के शिष्यों को दुर्धर शाप दिये है। इसलिये उसको दाक्षिपुत्र कहा गया है। (वासुदेव- (भा. ४.२; ब्रह्मांड. १.१.६४)। इस प्रकार दक्ष तथा शरण-पा. भा. १४) शंकर इन श्वसुर-दामाद में शत्रुत्व बढ़ने लगा। दक्ष कात्यायनि आत्रेय--शंख बाभ्रव्य का शिष्य ब्रह्मदेव ने दक्ष को प्रजापतियों के अध्यक्षपद का (जै. उ. ब्रा. ३.४१.१, ४.१७.१)। अभिषेक किया। उससे गर्वाध हो कर, इसने शंकर आदि दक्ष जयंत लौहित्य-कृष्णरात लौहित्य का शिष्य | सब ब्रह्मनिष्ठों को निमंत्रित न करते हुए, यज्ञ प्रारंभ किया। (जै. उ.बा. ३.४२.१)। प्रथम वाजपेय यज्ञ कर, बाद में बृहस्पतिसव प्रारंभ किया। दक्ष पार्वति-एक प्राचीन राजा । इसने प्रजा एवं | इस यज्ञ में दक्ष ने सारे ब्रह्मर्षि, देवर्षि तथा पितरों का समृद्धि, प्राप्त करने के लिये यज्ञ किया । इसे कुछ लोग | उनकी पत्नीयों के सहित सम्मान किया, एवं उन्हें दक्षिणा 'दाक्षायण-यज्ञ' अथवा 'वसिष्ठ-यज्ञ' कहते हैं। उसके | दे कर संतुष्ट किया । वंशजों को उस यज्ञ से राज्यप्राप्ति हुई (श. बा. १.४. दक्ष के घर में हो रहे यज्ञ की वार्ता, दक्षकन्या सती ने १.६; सां. ब्रा. ४.४)। | सुनी । तब वहाँ चलने की प्रार्थना उसने शंकर से की। दक्ष प्रजापति-एक सृष्टिनिर्माणकर्ता देवता एवं किंतु उसने वह प्रार्थना अमान्य की । मजबूरन सती को ऋषि । ऋग्वेद में, सृष्टि की उत्पत्ति भू, वृक्ष, आशा, | अकेले ही जाना पड़ा। इसके साथ नंदिकेश्वर, यक्ष, तथा अदिति, दक्ष, अदिति इस क्रम से हुई (ऋ. १०.७२. शिवगण भी भेजे गये। यज्ञमंडप में माता तथा भगिनियों ४-५)। अदिति से दक्ष उत्पन्न हुआ, एवं दक्ष से के सिवा, अन्य किसी ने सती का स्वागत नहीं किया। अदिति उत्पन्न हुई, यों परस्पर विरोधी निर्देश ऋग्वेद में स्वयं दक्ष ने उसका अनादर किया। इस कारण सती ने हैं। इस विरोध का परिहार, 'ये सारी देवों की कथा हैं | पिता की खूब निर्भर्त्सना की, तथा क्रोधवश वह स्वयं आग (देवधर्म), यों कह कर निरुक्त में किया गया है (नि. में दग्ध हो गयी। ११.२३)। । यह वर्तमान सुन कर, शंकर ने वीरभद्र का निर्माण पुराणों में दी गयी 'दक्षकथा' का उद्गम उपरिनिर्दिष्ट | किया, एवं उसे दक्षवध करने की आज्ञा दी। महाभारत ऋग्वेदीय कथा से ही हुआ है। पुराणों में, दक्ष प्रजापति के अनुसार, वीरभद्र शंकराज्ञा के अनुसार दक्षयज्ञ में गया। ब्रह्मदेव के दक्षिण अंगूठे से उत्पन्न हुआ (विष्णु उसने दक्ष से कहा कि, मैं तुम्हारे यज्ञ का नाश करने १.१५, ह. वं. १.२ भा. ३.१२.२३) । स्वायंभुव आया हूँ। तत्काल दक्ष शंकर की शरण में आया (म. मन्वंतर में यह पैदा हुआ था। स्वायंभुव मनु की कन्या | शां. परि. १.२८)। फिर भी उसने दक्षवध किया। प्रसूति इसकी पत्नी थी। इससे दक्ष को सोलह कन्याएँ । दक्षवध के बाद ब्रह्मदेव ने शंकर का स्तवन किया । तब हुई । उनमें से श्रद्धा, मैत्री, दया, शांति, तुष्टि, पुष्टि, | दक्ष को बकरे का सिर लगा कर जीवित किया गया । तत्काल क्रिया, उन्नति, बुद्धि, मेधा, तितिक्षा, तथा मूर्ति ये तेरह | दक्ष ने शंकर से क्षमा माँगी (भा. ४.३-७)। वायुपुराण कन्याएँ इसने प्रजापति को भार्यारूप में दी। स्वाहा अग्नि | में दक्ष का अर्थ 'प्राण' दिया है ( १०.१८) दक्ष का को, स्वधा अग्निष्वात्तों को तथा सोलहवी सती शंकर को | यज्ञ दो बार हुआ। तथा ऋषि दो बार मारे गये। प्रथम दी गयीं (भा. ४.१)। ब्रह्मदेव के दाहिने अंगूठे से जन्मी | यज्ञ, स्वायंभुव मन्वंतर में हुआ। दूसरा यज्ञ चाक्षुष हुई स्त्री दक्ष की पत्नी थी। उसे कुल ५०० कन्याएँ हुई | मन्वंतर में संपन्न हुआ (ब्रह्मांड, २.१३.४५, ६५-७२, (म. आ. ६०.८-१०)। | सती देखिये)। २५८ Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दक्ष प्राचेतस प्राचीन चरित्रकोश दंड दक्ष प्राचेतस प्रजापति--एक ऋषि । प्राचीनबर्हि- पुराण में, दक्षकन्याओं का विभाजन कुछ भिन्न है। उन पुत्र प्रचेतस् एवं कंडुकन्या मारिषा का यह पुत्र था। ग्रंथों में, इसकी कन्याओं की संख्या साठ दी गई है। उनमें सवर्णा नामक समुद्रकन्या को प्राचीनबर्हि से प्रचेतस् | से धर्म को दस, कश्यप को तेरह, सोम को सत्ताईस, नामक दस पुत्र हुएँ। उनके तप करते समय, पृथ्वी | अरिष्टनेमि को चार, भृगुपुत्र को दो, अंगिरस को दो, पर अनेक जातियों के वृक्ष बढ़े। अत्यधिक वृक्षवृद्धि के | इसने विवाह में देने का निर्देश है (ह. वं. १.३; विष्णु कारण, पृथ्वी जंगलमय हो गई। अनाज का उत्पादन बंद | १.१५)। दक्ष को सुव्रता नामक एक कन्या और थी। हो गया। इससे क्रुद्ध हो कर वे दस प्रचेतस् , वृक्षों का | उसे दक्ष, ब्रह्म, धर्म, तथा रुद्र नामक चार पुत्र हुएँ। नाश करने लगे। तब वृक्षों के राजा सोम ने उनसे कहा, | उन चार पुत्रों में से चार मनु उत्पन्न हुएँ, जिनके वर्ण से 'संपूर्ण पृथ्वी अब वृक्षशून्य हो गई हैं। अब वृक्षों का नाश | पुत्रत्व तय होने के कारण, उन्हें सावर्णि कहते हैं (वायु. बंद कीजिये । पश्चात् कंडु की कन्या मारिषा से प्रचेतस् | १००.४२)। का विवाह हुआ। . ___दक्ष के पहले, संकल्प, दर्शन, एवं स्पर्श से संतति सोम का आधा तेज तथा प्रचेतस् का आधा तेज मिल | निर्माण होती थी। दक्ष के पश्चात् मैथुन से संतति-निर्मिति कर, इसे दक्ष नामक तेजस्वी पुत्र हुआ। यही प्राचेतस | होने लगी (मत्स्य ५.२)।। दक्ष प्रजापति है (ह. वं. १.२; म. आ. ७०; भा. ४. सृष्टि-निमाण का क्रम दक्ष के चरित्र म दिया ३०:६.४, ब्रह्म. २.३४,३९-४०; विष्णु. १.१४.१५)। निर्माणशास्त्र पर यह कथा प्रकाश डालती है। दक्ष ने अपने वीर्य के द्वारा, एवं मन के द्वारा सृष्टि का दक्षपितर--दक्ष प्रजापति के पुत्रों का नामांतर (तै. निर्माण किया । मानससृष्टि से प्रजासृष्टि वृद्धिंगत नहीं हुई। | सं. १.२.३)। इसलिये विंध्याचल के समीप के अघमर्षणतीर्थ में इसने | दक्षसावर्णि--दक्ष का पुत्र । यह दक्ष तथा उसी की तपस्या की। इस तपस्या से प्रसन्न हो कर, श्रीहरि ने कन्या सुव्रता से चाक्षुष मन्वंतर में उत्पन्न हुआ। यह पंचजन प्रजापति की कन्या असिनी (वीरिणी) भार्या नवम मन्वन्तराधिप मनु था । रूप में इसे दी, एवं प्रजावृद्धि करने के लिये इसे कहा। यह वरुण से उत्पन्न हुआ था (भा. ८.१३.१८)। उस स्त्री से इसे हर्यश्व नामक दस हजार पुत्र हुएँ । दक्ष | इसे दत्तपुत्र भी कहा गया है। किंतु 'दत्त' दक्ष का ही ने उन्हें प्रजा निर्माण करने के लिये कहा। परन्तु नारद अपभ्रंश होगा (मार्क. ९१; मनु देखिये)। इस मन्वन्तर की सलाह के अनुसार, उन्होंने यह कार्य नहीं किया। का अधिपति एवं वैवस्वत मनु का पुत्र करुष माना गया . बाद में नारद के कहने पर, ब्रह्मदेव ने दक्ष को समझाया । है (दे. भा. १०.१३)। इसे रोहित नामांतर है (ह. वं. -तब इसने पुनः साठ कन्याएँ निर्माण की (भा. ६.४-६)। १.७.६३; वायु. १००)। • प्राचेतस दक्ष को इस के समान गुणशील संपन्न एक हजार दक्षिणा--रुचि को आकृति से उत्पन्न कन्या । यह पुत्र हुएँ। उन्हें नारद ने 'मोक्षशास्त्र' एवं ' सांख्यज्ञान' | यज्ञ को दी गई थी। यज्ञ से इसे तुषित नामक बारह का उपदेश दे दिया। इस उपदेश से वे विरक्त हो कर, घर पुत्र हुएँ । यज्ञ इसका भाई ही था। किंतु वह विष्णु का से निकल गएँ । तब इसने 'पुत्रिकाधर्म' के अनुसार, अवतार होने के कारण, उसने लक्ष्मीरूप से अवतीर्ण दौहित्रों को अपना पुत्र मानने का संकल्प किया, एवं उस अपनी दक्षिणा नामक बहन से ही विवाह किया (भा. कार्य के लिये पचास कन्याएँ उत्पन्न की (म. आदि. ४.१)। ७५.६-८)। | एक बार राधा के सामने, दक्षिणा कृष्ण की गोद में उनमें से धर्म को दस, कश्यप को तेरह, चन्द्र को | बैठ गई । क्रोधित हो कर, राधा ने इसे वहाँ से भगा सत्ताईस, भूत, अंगिरस् तथा कृशाश्व, इनको प्रत्येक को दिया। बाद में यह लक्ष्मी के शरीर में प्रविष्ट हुई। वहाँ से दो दो, तथा ताय नामक कश्यप को चार कन्याएँ ब्रह्माजी के पास गई । पश्चात् ब्रह्माजी से इसका विवाह इसने विवाह में दे दी (भा. ६.४-६)। अन्य स्थान पर | संपन्न हुआ (ब्रह्मवै. २.४२)। दिया है कि, असिनी वीरण प्रजापति की कन्या थी, | दंड-(सू. इ.) इक्ष्वाकुपुत्रों में से कनिष्ठ पुत्र । जिससे दक्ष को पाँच हजार पुत्र हुएँ (ब्रह्मांड. ३.२.५)। यह जन्मतः मूढ, विद्याहीन तथा उन्मत्त था । यह अति वीरिणी तथा असिनी एक ही है। हरिवंश तथा विष्णु- शूर तथा विद्वान था, परंतु इसके घोर नामक दोष के २५९ Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन चरित्रकोश दंड " कारण, इक्ष्वाकु ने इसे दूर का राज्य दिया। किस स्थान का राज्य इसे दें, इसका विचार कर इक्ष्वाकु ने इसे विंध्यादि तथा शैवल पर्वत के बीच का आधिपत्य दिया । इसका राज्य विध्य, तथा नील पर्वतों के बीच था। इसने विंध्य के दो शिखरों के बीच, मधुमत्त नामक नगरी बसाई (पद्म. स. ३४; ३७ ) । नगर का नाम मधुमंत भी दिया गया है ( वा. रा. उ. ७९ ) । इसने उशनस् शुक्र को पुरोहित बनाया था ( वा. रा. उ. ७९.१८ ) । में यह अनेक वर्षों तक जितेन्द्रिय था। एक बार चैत्र माह यह भार्गवाश्रम में गया था । तब वहाँ इसने गुरु की ज्येष्ठ कन्या अरजा को, कामातुर हो कर देखा तब उसने कहा, 'मैं तुम्हारी गुरुभगिनी हूँ। इसलिये मेरे पिता के पास तुम मेरी याचना करो। उनसे संमति मिलने पर पाणिग्रहणविधि से मेरा वरण करो'। इस उन्मत्त एक न सुनी। उस पर बलात्कार कर के, यह स्वनगर भाग गया। इधर ऋषि आश्रम में वापस आया, तब उसने देखा कि राजा ने बड़ा ही अन्याय किया है। उसने राजा को क्रोध से शाप दिया, 'बल कोशादि सहित तुम एक सप्ताह में नष्ट हो जावोगे। इन्द्र तुम्हारे राज के उपर धूली की वर्षा करेगा ' । इसने अरण्यवासी लोगों को राज्य छोड़ कर जाने के लिये कहा । अरजा को देहशुद्धि के लिये, वहीं सरोवर समीप १०० वर्षों तक तपस्या करने के लिये कहा। बाद में ऋषि के जाने पर राजा नष्ट हो गया । इन्द्र की आज्ञा से वहाँ १०० योजन ( वा. रा. उ. ८१ ), ४०० योजन (पद्म. स. ३७ ) धूली की वर्षा हो कर यह देश अरण्यप्राय हो गया । तबसे उस प्रदेश को दंडकारण्य नाम प्राप्त हुआ ( वा. रा. उ. ८०-८१)। इसे दंडक नामांतर था राम के द्वारा, 'दंडकारण्य निर्मनुष्य क्यों है ? ' ऐसा पूछा जाने पर अगस्त्य ने दंडक की उपरिनिर्दिष्ट कथा उसे बताई । दंडनायक । भारतीय युद्ध में यह दुर्योधन के पक्ष में था। इसका वध अर्जुन ने किया (म.क. १२.१९ ) । २. सूर्य का एक पार्षद । इसे दंडिन् नामांतर है । ३. (सू. इ. ) कुवलाश्व का पुत्र ( चन्द्राश्व देखिये) । ४. वृत्र का छोटा भाई 'हंता' का अंशावतार 'क्रोधहंता' ( म. आ. ६१.४३ ) । यह द्रौपदीस्वयंवर में उपस्थित था। यह मगधाधिपति विदंड राजा का पुत्र एवं दंडधार का भाई था (म. आ. १७७.११)। पांडवों के राजसूय यज्ञकालीन दिग्विजय में भीम ने इसे जीता था। इसने भीम के साथ कर्ण पर गिरित्रजपुर में आक्रमण किया था ( म. स. २७.१५ ) । ५. कर्ण के द्वारा मारा गया पांडव पक्षीय राजा (म. क. ४०.५० ) । ६. उत्कल के तीन पुत्रों में से कनिष्ठ । इसीने दंडकारण्य का निर्माण किया (ह. वं. १.१०.२४ ) । ७. (सो. आयु. ) आयु के पाँच पुत्रों में से चौपा (पद्म. सृ. ४२ ) । दंड औपर एक ऋषि इसने किये एक मा निर्देश आया है ( तै. सं. ६.२.९.४; मै. सं. ३.८.७) । दंडक - एक चोर । इसने केवल पाप किये थे । एक यार यह विष्णु मंदिर में चोरी करने गया था। वहाँ सर्पदंश से इसकी मृत्यु हुई ( पद्म.. २ ) । २. इक्ष्वाकु के सौ पुत्रों में से तृतीय ( भा. ९.६३; पद्म. सृ. ८; दंड देखिये) । दंडकर -- एक चोर । चोर होते हुए भी इसने किये विष्णुपंचक व्रत के कारण यह मुक्त हुआ (पद्म. ब्र. २३ ) | दंडकेतु - पांडवपक्षीय पांड्य राजा ( म. द्रो. २२. ५८ ) । दंडगौरी - एक अप्सरा । दंडधार - मगधाधिपति विदंड का पुत्र । इसका भाई दंड | यह क्रोधवर्धन राक्षस का अंशभूत था ( म. आ. ६१.४४) । यह कौरवपक्षीय रथी एवं हस्तियुद्ध में अत्यंत प्रमीण था। राजसूयय के समय, भीम ने इसे जीता था ( म. स. २७.१५ ) । भारतीययुद्ध में अर्जुन ने इसका वध किया (म. क. १३..१५ ) । भारतीय युद्ध मैं भीम ने इसे मारा (म. आ. परि० १० २. (सो. कुरु. ) धृतराष्ट्र के शतपुत्रों में से एक । क्र. ४१, पंक्ति २३; क. ६२.२-५ ) । ३. पांडव पक्षीय एक चैद्य राजा । इसका वध कर्ण ने किया (म.फ. ४०.४८-४९ ) । ४. एक पांचाल | इसका वध कर्ण ने किया (म. क. ४४.२९) । दंडनायक- रवि के वामभाग में रहनेवाला इन्द्र । इसे ही दंडि नामांतर है। यह दंडनीतिकार होने के कारण, इसे दंड नामक दूसरा नाम प्राप्त हुआ (सांच १६; पिंगल देखिये)। २६० Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दंडपाणि प्राचीन चरित्रकोश दत्त आत्रेय दंडपाणि--(सो. कुरु. भविष्य.) मत्स्य तथा भागवत | त्रिमुखी दत्त की उपासना प्रचलित है। इसे तीन मुख, मत में बहीनर पुत्र तथा वायुमत में मेधाविपुत्र (खंडपाणि छः हस्त चित्रित किये जाते हैं। दत्तमूर्ति के पीछे एक देखिये)। गाय, एवं इसके आगे चार कुत्ते दिखाई देते हैं । किंतु २. काशिराज उर्फ पौंड्रक का पुत्र । कृष्ण ने पुराणों में त्रिमुखी दत्त का निर्देश उपलब्ध नहीं है। उन इसके पिता का शिरच्छेद करने पर, इसने पुरोहित के ग्रंथों में, त्रिनुख में अभिप्रेत तीन देवताओं को तीन कथनानुसार, महेश्वर नामक यज्ञ किया। शंकर प्रसन्न | अलग व्यक्ति समझ कर, उन्हे दत्त, सोम, एवं दुर्वासस् होने पर, उसके पास इसने कृष्ण के नाश के लिये एक | ये तीन अत्रिपुत्र के नाम दिये गये है। दत्त के आगेकृत्या माँगी । वह कृत्या जोर से चिल्ला कर द्वारका गई। पीछे गाय एवं कुत्ते रहने का निर्देश भी पुराणों में उपलब्ध परंतु कृष्ण के द्वारा सुदर्शन चक्र छोड़ते ही, वह घबरा | नहीं है। कर वाराणसी में लौट आई । वहाँ उस चक्र में उस कृत्या | महाराष्ट्र में, त्रिमुख दत्त का प्राचीनतम निर्देश सरस्वती का, इसका तथा सब लोगों का संहार किया एवं इसका | गंगाधर विरचित, 'गुरुचरित्र ' ग्रंथ में मिलता है। उस नगर जला दिया (पन. उ. २७८)। ग्रंथ में इसे परब्रह्मस्वरूप मान कर, इसे तीन सिर, छः ३. प्रजा देखिये। हस्त, एवं धेनु तथा श्वान के समवेत वर्णन किया है। दंडभृत्--रामायण कालीन एक वीरपुरुष । राम के | औदुंबर वृक्ष के समीप इसका निवासस्थान दिखा दिया अश्वमेध अश्व के रक्षणार्थ, यह शत्रुघ्न के साथ गया था | है। 'गुरुचरित्र' का काल लगभग इ. स. १५५० माना (पन. पा. ११)। जाती है । महाकवि माघ के शिशुपालवध काव्य में, दत्त दंडश्री--(आंध्र. भविष्य.) वायु तथा ब्रह्मांडमत में को विष्णु का अवतार कहा है (इ. स. ६५०)। दत्त विजय का पुत्र (चंड़श्री देखिये )। अवतार का यह प्रथम निर्देश है। दंडिन्--भृगुकुल का गोत्रकार | इसके लिये दर्भि ____ अवतारकार्य-दत्त अवतार का मुख्य गुण क्षमा पाठभेद है। | है । वेदों का यज्ञक्रियासहित पुनरुज्जीवन, चातुर्वण्य की २. (सो. कुरु.) धृतराष्ट्र पुत्र ।। पुनर्घटना, तथा अधर्म का नाश यही इसका अवतारकार्य दंडीमंडीश्वर-वाराहकल्प के वैवस्वत मन्वन्तर की | है (ब्रह्म. २१३.१०६-११०; ह. बं. १.४१)। सातवी चौखट का शिवावतार । वहाँ इसके क्रमशः निम्न- | इसने संन्यासपद्धति का प्रचार किया (शिव. शत. लिखित शिष्य है:-छगल, कुंडकर्ण, कुंभांड तथा प्रवाहक | १९.२६) तथा कार्तवीर्य के द्वारा पृथ्वी म्लेंच्छर हित की (शिव. शत. ५)। (विष्णुधर्म. १.२५.१६)। . दत्त--सांदीपनि का पुत्र । कृष्ण सांदीपनि का शिष्य आत्मज्ञान एवं शिष्यारंपरा-दत्त ने अपने पिता था। उस ने गुरुदक्षिणा के रूप में, शंखासुर से इस गुरु अत्रि से पूछा, 'मुझे ब्रह्मज्ञान की प्राप्ति किस प्रकार पत्र को मुक्त किया। श्वेतसागर से उसे वापस ला कर होगी ?' अत्रि ने इसे गोतमी (गोदावरी) नदी पर जा सांदीपनि को अर्पण किया। कर, महेश्वर की आराधना करने को कहा। इस प्रकार २. स्वारोचिष मन्वन्तर के सप्तर्षियों में से एक (पन. आराधना करने से, इसे आत्मज्ञान प्राप्त हुआ। गोदावरी सृ.७)। तीर के उस स्थान को 'ब्रह्मतीर्थ' कहते है (ब्रह्म. ११७)। ३. पुलस्त्य एवं प्रीति का पुत्र । यह पूर्वजन्म में | यह ब्रह्मनिष्ठ था। इसे धर्म का दर्शन हुआ था ( पन. स्वायंभुव मन्वंतर में अगस्य था (मार्क. ४९.२४-२६)। भू.१२.५०)। इसके अलर्क, प्रह्लाद, यदु तथा सहस्रार्जुन दत्त आत्रेय-एक देवता । विष्णु के अवतारों में से मासिने अवासे नामक शिष्य थे। उन्हें इसने ब्रह्मविद्या दी (भा. १. यह एक था । यह अत्रि ऋषि एवं अनसूया का पुत्र था।| ३.११)। इसने अलर्क को आत्मज्ञान, योग, योगधर्म, अत्रि ऋषि के दत्त, सोम, दुर्वासस् ये तीन पुत्र थे (भा. | योगचर्या, योगसिद्धि तथा निष्कामबुद्धि के संबंध में ४.१.१५-३३)। उनमें से दत्त विष्णु का, सोम ब्रह्माजी उपदेश दिया (मार्क ३५-४०)। का, एवं दुर्वासस् रुद्र याने शंकर के अवतारस्वरूप थे। आयु, परशुराम तथा सांकृति भी दत्त के शिष्य थे। इसे निमि नामक एक पुत्र था (म. अनु. १३८.५ कुं.)। दत्त-आश्रम-गिरिजगर में दत्त का आश्रम (विष्णुआजकल के जमाने में, ब्रह्मा-विष्णु-महेशात्मक | पद) था । पश्चिम घाट में मल्लीकीग्राम (माहूर ) में दत्त २६१ Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दत्त आत्रेय प्राचीन चरित्रकोश दधिवाहन का आश्रम था। उस स्थान पर परशुराम ने जमदग्नि को | दत्तजन्मकाल--दत्तजन्मकाल मार्गशीर्ष सुदी चतुर्दशी अग्नि दी, एवं रेणुका सती गई । इसलिए वहाँ मातृतीर्थ को दोपहर में वा रात्रि में माना जाता है। दत्त जयन्ति निर्माण हुआ (रेणुका. ३७)। का समारोह भी उसी वक्त मनाया जाता है। कई स्थानों ___ आयु को पुत्रदान-ऐलपुत्र आयु को पुत्र नहीं था।| में, मार्गशीर्ष सुदी पौर्णिमा के दिन मुबह, शाम, या पुत्र प्राप्ति के लिये वह दत्त के पास आया। दत्त मध्यरात्रि के बारह बजे दत्तजन्म मनाया जाता है। स्त्रियों के साथ क्रीडा कर रहा था। मदिरापान के | दत्तप्रणीत ग्रंथ-अवधूतोपनिषद् , जाबालोपनिषद् , कारण इसकी आँखे लाल थीं। इसकी जंघा पर एक | अवधूतगीता, त्रिपुरोपास्तिपद्धति, परशुरामकल्पसूत्र (दत्तस्त्री बैठी थी। गले में यज्ञोपवीत नहीं था। गाना तंत्रविज्ञानसार), ये ग्रंथ दत्त ने स्वयं लिखे थे। तथा नृत्य चालू था। गले में माला थी। शरीर को दत्तमतप्रतिपादक ग्रंथ-अवधूतोपनिषद् , जाबालोपचंदनादि का लेप लगा हुआ था । आयु ने वंदना करके | निषद् , दत्तात्रेयोपनिषद् , भिक्षुको पनिषद, शांडिल्योपपुत्र की माँग की। दत्त ने अपनी बेहोष अवस्था उसे बता | निषद् , दत्तात्रयतंत्र आदि ग्रंथ दत्तसांप्रदाय के प्रमुख ग्रंथ दी। इसने कहा, 'वर देने की शक्ति मुझमें नही है। माने जाते हैं। आयु ने कहा, 'आप विष्णु के अवतार है'। अन्त में दत्तसंप्रदाय-तांत्रिक, नाथ, एवं महानुभाव संप्रदायों दत्तात्रेय ने कहा, 'कपाल' (मिट्टी के भिक्षापात्र) में मुझे | में दत्त को उपास्य दैवत माना जाता है । श्रीपाद श्रीवल्लभ माँस एवं मदिरा प्रदान करो। उसमेंसे माँस खुद के हाथों | (पीठापुर, आंध्र), श्रीनरसिंहसरस्वती (महाराष्ट्र), से तोड कर मुझे दो'। इस प्रकार उपायन देने पर इसने | आदि दत्तोपासक स्वयं दत्तावतार थे, ऐसी उनके भक्तों प्रसन्न हो कर, आयु को प्रसादरूप में एक श्रीफल दिया, | की श्रद्धा है । प. प. वासुदेवानंदसरस्वती (टेंबेस्वामी) एवं वर बोले, 'विष्णु का अंश धारण करनेवाला पुत्र | आधुनिक सत्पुरुष थे (इ. स. १८५४ -१९१४)। वे दत्त तुम्हें प्राप्त होगा'। इस वर के अनुसार आयु को नहुष | के परमभक्त, एवं मराठी तथा संस्कृत भाषाओं में दत्तनामक पुत्र हुआ। पश्चात् नहुष ने हुंड नामक असुर का | विषयक विपुल साहित्य के निर्माता थे । पदयात्रा कर के, वध किया (मार्के. १६; ३७; पभ. भू. १०३-१०४)। । एवं भारत के सारे विभागों में दत्तमंदिरादि निर्माण कर सहस्रार्जुन को वरप्रदान-दत्तचरित्र से संबंधित इसी | के, उन्होंने दर्तभक्ति तथा दत्तसंप्रदाय का प्रचार किया। ढंग की और एक कथा महाभारत में दी गयी है । गर्गमुनि दत्त तापस-एक ऋषि । सर्पसत्र में इसने होतृ के कहने पर कार्तवीर्यार्जुन राजा दत्त आत्रेय के आश्रम में नामक ऋत्विज का काम किया था (पं.बा. २५.१५.३)। आया । एकनिष्ठ सेवा कर के उसने इसे प्रसन्न किया। दत्तामित्र-एक यवननृप (विपुल ३. दखिये)। तब दत्त ने अपने वर्तन के बारे में कहा, 'मद्यादि से दत्तोलि--पुलस्त्य को प्रीदि नामक पत्नी से उत्पन्न मेरा आचरण निंद्य बन चुका है । स्त्री भी मेरे पास हमेशा | पुत्र (अग्नि. २०.१३; मार्क. २२.२३)। रहती है। इन भोंगो के कारण मैं निंद्य हूँ। तुम पर दधिकावन्--मरीचिगर्भ नामक देवों में से एक । अनग्रह करने के लिये मैं सर्वथा असमर्थ हैं। किसी अन्य | ऋग्वेद में इस देवता पर एक सूक्त उपलब्ध है । उस सूक्त समर्थ पुरुष की तुम आराधना करो'। परंतु अन्त में में 'दधिक्रावन् ' शब्द 'अश्व' अर्थ में लिया गया है कार्तवीर्यार्जुन की निष्ठा देख कर, इसने विवश हो कर उसे | (ऋ. ४.४०)। वर माँगने के लिए कहा। कार्तवीर्य ने इससे चार वर | दधिमुख-कश्यप तथा कद्रू का पुत्र । माँगे, जो इस प्रकार थे:-१. सहस्रबाहुत्त्व, २. सार्व- । २. रामसेना का एक वानर । यह सोमपुत्र था, तथा भौमपद, ३. अधर्मनिवृत्ति, ४. युद्धमृत्यु।। स्वभाव से भी सौम्य था (वा. रा. यु. ३०)। अपनी ___ दत्त आत्रेय ने वरों के साथ कार्तवीर्य को सुवर्ण विमान | प्रचंड सेना के साथ, यह राम से आ मिला । किंतु राम(म. व. परि. १.१५.६) तथा ब्रह्मविद्या का उपदेश भी | रावणयुद्ध के समय यह वृद्ध था (म. व. २६७.७ ) । दिया (भा. १.३.११)। कार्तवीर्य ने भी अपनी सर्व | राम के अश्वमेधीय अश्व की रक्षा करने के लिये, शतृघ्न संपत्ति दत्त को अर्पण की (म. अनु. १५२-१५३)। | के साथ यह गया था (पम. स. ११)। कार्तवीर्य की राजधानी नर्मदा नदी के किनारे स्थित दधिवाहन--वाराह कल्प के वैवस्वत मन्वन्तर में से माहिष्मती नगरी थी। अष्टम चौखट का शिवावतार । यह वसिष्ठ एवं व्यास की २६२ Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन चरित्रकोश दधिवाहन सहायतार्थ प्रपन्न हुआ था । इसे कुल चार पुत्र थे । उनके नाम: - कपिल, आसुरि, पंचशिख, तथा शाल्वल । ये सारे पुत्र योगी थे (शिव शत ४१ मोगेश्वर देखिये ) " , २. (सो. अनु. ) मत्स्य तथा वायु के मत में अंगपुत्र ( खनपान देखिये) । यह दिविरथ का पिता था। अंगपुत्र इसीका ही नामांतर था ( म. शां. ४९.७२ ) । दय आथर्वण एक महान ऋषि एवं तत्ववेता इसे दधीचि एवं दधीच ये नामांतर थे देवअसुर युद्ध में इसने अपनी हड्डियाँ, बज्र नामक अस्त्र बनाने के लिये, देवों को प्रदान की थीं। इस अपूर्व त्याग के कारण इनका नाम त्यागमूर्ति के नाते प्राचीन भारतीय इतिहास में अमर हुआ । यह अथर्वकुलोत्पन्न था। कई जगह, इसे अथर्वन् का पुत्र भी कहा गया है।' इस कारण इसे आवर्षण ' पैतृक नाम प्राप्त हुआ । इसे ' आंगिरस' भी कहा गया है (ता. १२.८.६३ गो. बा. १.५.२१) । अथर्वन् एवं अंगिरस् लोग पहले अलग थे, किंतु बाद में वे एक हो गये । इस कारण इसे 'आंगिरस' नाम मिला होगा। , , ब्रह्माण्ड के मत में, यह वैवस्वत मन्वंतर में पैदा हुआ था। च्यवन एवं सुकन्या का यह पुत्र था (ब्रह्माण्ड २.१. ७४)। किंतु भागवतमत में, यह स्वायंभुव मन्वंतर में पैदा हो कर इसकी माता का नाम चिति वा शांति था ( ४.१.४२ ) । , इसके पत्नी का नाम सुवर्चा था ( शिव शत. २४१ १. १. १८) । कई जगह इसके पत्नी का नाम "गर्भस्थनी वड़वा दिया गया है। वह लोपामुद्रा की बहन थी कुलनाम के जरिये उसे 'प्रतिषेध' भी कहते थे ( ब्रह्म. ११० ) । " इसे सारस्वत एवं पिप्पलाद नामक दो पुत्र थे । उसमें से सारस्वत की जन्मकथा महाभारत में दी गयी है ( म. श, ५० ) । एक बार अबुपा नामक अप्सरा को इंद्र ने दधीचि ऋषि के पास भेज दिया। उसे देखने से दधीचि का रेत सरस्वती नदी में पतित हुआ । उस रेत को सरस्वती नदी ने धारण किया। उसके द्वारा सरस्वती को हुए पुत्र का नाम 'सारस्वत रखा दिया गया। इसने प्रसन्न हो कर सरस्वती नदी को वर दिया, 'तुम्हारे उदक का तर्पण करने से देव, गंधर्व, पितर आदि संतुष्ट होंगे ' । , दध्यच धोती, इसकी दासी सुभद्रा ने परिधान की । स्नान के समय वस्त्र से चिपके हुए इसके शुक्रबिंदुओं से, सुभद्रा गर्भवती हुई। इसकी मृत्यु के पश्चात् उस गर्म को सुभद्रा ने अपने उदर फाड कर बाहर निकाला, एवं उसे पीपल वृक्ष के नीचे रख दिया। इस कारण, उस गर्भ से उत्पन्न पुत्र का नाम 'पिप्पलाद' रख दिया गया। उसे वैसे ही छोड़ कर, सुभद्रा दधीचि ऋषि के साथ स्वर्गी गयी (ब्रहा. ११० स्कन्द, १.१.१७) । दधीचि ऋषि का मुख अश्व के समान था। इसे अधमुख कैसा प्राप्त हुआ, वह कथा इस प्रकार है। इंद्र ने इसको 'प्रवयविया' एवं 'मधुविया' नामक दो विद्याएँ सिखाई थीं। ये विद्याएँ प्रदान करते वक्त इंद्र ने इसे यों कहा था, 'ये विद्याएँ, तुम किसी और को ' सिखाओंगे, तो तुम्हारा मस्तक काट दिया जायेगा । पश्चात् अश्वियों को ये विद्याएँ सीखने की इच्छा हुई । विद्याएँ प्राप्त करने के लिये, उन्होंने दधीचि का मस्तक काट कर वहाँ अश्वमुख लगाया । इसी अश्वमुख से उन्होंने दोनों विद्याएँ प्राप्त की । इंद्र ने अपने प्रतिज्ञा के अनुसार इसका मस्तक तोड़ दिया। अश्वियों ने इसका असली मस्तक उस पक्ष पर जोड़ दिया (ऋ. १. ११६. १३ ) । इन्द्र उस अश्व का सिर ढूँढता रहा। उसे वह शर्यणावत ' सरोवर में प्राप्त हुआ (ऋ. १. ८४. १२ ) । ये " सायणाचार्य ने शाट्यायन ब्राह्मण के अनुसार दधीचि की ब्रह्मविद्या की कथा दी है । यह जीवित था तब इसकी ब्रहाथिया के कारण इसे देखते ही असुरों का पराभव होता था । मृत्यु के बाद असुरों की संख्या क्रमशः बढ़ने लगी। इंद्र ने इसे ढूँढा । उसे पता चला कि, यह मृत हुआ । इसके अवशिष्ट अंगों को ढूँढने पर, अश्वियों कों मधुविद्या बतानेवाला अश्वमुख, शर्यणावत् सरोवर पर प्राप्त हुआ । इसकी सहायता से इंद्र ने असुरों का पराभव किया (ऋ. १.११६.१२३ सायणभाष्य देखिये) । ब्राह्मण ग्रंथ, उपनिषद ग्रंथ, पुराण आदि में ब्रह्मविद्या के महत्त्व की यह कथा दी गयी है (श. बा. ४.१.५.१८१ ६.४.२.१३ १४.१.१.१८६ २०.२५ बृ. उ. २.५.१६.१७ ६२ मा ६.९.५१-५५ दे. भा. ७.३६ ) । इसका दूसरा पुत्र पिप्पलाद यह मुभद्रा नामक दासी से उत्पन्न हुआ। एक बार इसने पहन कर छोड़ी हुई मधुविद्या - इसका तत्त्वज्ञान 'मधुविद्या' नाम से प्रसिद्ध है। इस विद्या का संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है:- मधु का अर्थ मूलतत्त्व | संसार का मूलतत्त्व पृथ्वी, पृथ्वी का अभि | २६३ Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दध्यञ्च प्राचीन चरित्रकोश दंदशूक इस क्रम से वायु, सूर्य, आकाश, चंद्र, विद्युत् , सत्य, विदित था। नारायण वर्म (कवच) का निर्देश भागवत आत्मा तथा ब्रह्म की खोज हर एक तत्त्वज्ञ को करनी में मिलता है (भा. ६.८)। दधीच-तीर्थ कुरुक्षेत्र में पडती है । मूल तत्त्व पता लगाने से, आत्मतत्त्व का संसार | प्रख्यात है (म. व. ८१.१६३ )। से घनिष्ठ तथा नित्य संबंध ज्ञात होता है । संसार तथा | मत्स्य तथा वायुमत में यह भार्गव गोत्र का मंत्रकार आत्मतत्त्व ये एक दूसरों से अभिन्न है । चक्र के जैसे आरा, था। कई ग्रंथों में इसका ऋचीक नामांतर भी प्राप्त है उसी प्रकार आत्मतत्त्व का संसार से संबंध हैं । संसार का | (ब्रह्मांड २.३२.१०४)। मूल तत्त्व ब्रह्म है। ब्रह्म तथा संसार की प्रत्येक वस्तु 'ब्राह्मण एवं क्षत्रियों में श्रेष्ठ कौन', इस विषय पर परस्परों से अभिन्न है'। क्षुप एवं दधीच ऋपि में बहुत बड़ा विवाद हुआ था। उस ऋग्वेद की ऋचाओं में इसके द्वारा प्रतिपादित वाद में, प्रारंभतः दधीच का पराभव हुआ। किंतु अंत में मधुविद्या, बृहदारण्यकोपनिषद' में उन मंत्रों की व्याख्या यह जीत गया, एवं इसने ब्राहाणों का श्रेष्ठत्त्व प्रस्थापित कर के अधिक स्पष्ट की गयी है। किया (लिंग. १.३६)। इसी विषय पर शुक्थु के साथ भी इस विद्या के महत्त्व के कारण ही, दधीच का नाम | इसका विवाद हुआ था । उस चर्चा में अपना विजय हो, एक तत्त्वज्ञ के रूप में वेदों में आया है (तै. सं. ५.१.४. इसलिये क्षुवथु ने विष्णु की आराधना की । पश्चात् विष्णु ४; श. ब्रा. ४.१.५.१८, ६.४.२.३; १४.१.१.१-८२२६; | ब्राह्मणरूप में दधीच के पास आया। विष्णु एवं दधीच तां. बा. १२.८.६; गो. बा. १.५.२१; बृ. उ. २.५.२२; का युद्ध हुआ। पश्चात् इसने विष्णु को शाप दिया, ४.५.२८)। 'देवकुल के सारे देव रुद्रताप से भस्मसात हो जायेंगे। अस्थिप्रदान-वृत्र के कारण देवताएँ त्रस्त हुई। | दनायु--प्राचेतस दक्ष प्रजापति तथा असिन्नी की देवताओं ने वृत्रवध का उपाय विष्णु से पूछा । उसने कहा, | कन्या तथा कश्यप की भार्या (कश्यप देखिये)।.. 'दधीच की हड्डियों से ही वृत्र का वध होगा । उन हड्डियों के | दनु--प्राचेतस दक्ष प्रजापति तथा असिनी की कन्या त्वष्टा से वज्र बना लो । हड्डियाँ माँगने को अश्वियों को भेजो'।। | तथा कश्यप की भार्या (कश्यप देखिये.)। इससे दानव हड्डियों के प्राप्त्यर्थ इस पर हथियार चलाने को त्वष्टा | उत्पन्न हुएँ। दानव एक जाति का नाम हैं। केशिन् , डरता था। किंतु आखिर वह राजी हुआ। उसने इसके | नमुचि, नरक, शंबर आदि दानव सुविख्यात थे। इसके शरीर पर नमक का लेप दिया । पश्चात् गाय के द्वारा नमक | पुत्र का नाम वृत्र था (श. ब्रा. १.५.२.९)। के साथ ही इसका मांस भी भक्षण करवाया। पश्चात् | दनुपुत्र--एक ऋषि । ऋग्वेद की कुछ ऋचाओं का यह इसकी हड्डियाँ निकाली गयी। त्वष्टा ने उन हड्डियों से | द्रष्टा हैं (ऋ. ३.६.१-१४, कश्यप देखिये)। षट्कोनी वज्र तथा अन्य हथियार बनाये । | दंतक्रूर-एक क्षत्रिय । इसे परशुराम ने मारा (म. ___ दधीचि के अस्थिप्रदान के बारे में, पुराणों में निम्न- | द्रो. परि. १ क्र. ८. पंक्ति. ८३७)। लिखित उल्लेख प्राप्त है। देवासुर संग्राम के समय, | दंतवक्र--करुष-देश का राजा । यह वृद्धशर्मन् तथा देवों ने इसके यहाँ अपने हथियार रखे थे। पर्याप्त | श्रुतदेवी का पुत्र था। कलिंगराज चित्रांगद की कन्या के समय के पश्चात् भी, उसे वापस न ले जाने से, दधीच ने | स्वयंवर में यह उपस्थित था (म. शां. ४.६)। द्रौपदी उन हथियारों का तेज, पानी में घोल कर पी लिया। बाद | स्वयंवर में, लक्ष्यवेध का असफल प्रयत्न इसने किया था। में देवताएँ आ कर हथियार माँगने लगे। इसने सत्त्यस्थिति | वहाँ इसका वक्र नाम से निर्देश है (म.आ. १८२४४)। उन्हें कथन की, एवं उन हथियारों के बदले अपनी हड़ियाँ | पांडवों के राजसूययज्ञ के समय, दक्षिण दिग्विजय में सहदेव लेने की प्रार्थना देवों से की। देव उसे राजी होने पर, | ने इसे जीता था (म. स. २८.३. भा. ९.२४.३७)। योगबल से इसने देहत्याग किया (म. व. ८८.२१, श. | भारतीययुद्ध में इसे पांडवों की ओर से रण-निमंत्रण ५०.२९; भा. ६.९.१०; स्कन्द. १.१.१७; ७.१.३४; ब्रह्म. | दिया गया था (म. उ. ४.२२)। शिशुपाल, शाल्व, ११०; पक्षा. उ. १५५; शिव. शत. २४)। सौभ, विदूरथ के बाद, कृष्ण ने इसका वध किया (भा. इसका आश्रम सरस्वती के किनारे था ( म. व. ९८. | १०.७८.१३; जयविजय देखिये)। १३)। गंगाकिनारे इसका आश्रम था(ब्रह्म .११०.८)। दंतिल--मतंग ऋषि का पुत्र । इसका भाई कोहल | इसे 'अश्वशिर' नामक विद्या तथा 'नारायण नामक' वर्म | दंदशूक-क्रोधवशा से उत्पन्न सों में से प्रमुख । २६४ Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दभीति. प्राचीन चरित्रकोश दमयन्ती दभीति--इंद्र का एक कृपापात्र गृहस्थ । इंद्र ने इसके | इसके चार शिष्य थे। उनके नामः-विशोक, विशेष, विपाप लिये चुमुरि तथा धुनि का वध किया (ऋ. २.१५.९; तथा पापनाशन । उस समय भार्गव नामक पुरुष व्यास ६.२६.६; ७.१९.४; १०.११३.९ )। इसके लिये इंद्र ने | था। उसकी सहायता इसने चार शिष्यों द्वारा की । यह तीस हजार दासों का वध किया (ऋ. ४.३०.२१)। निवृत्तिमार्ग का उपदेशक था ( शिव. शत. ४)। दस्युओं का भी वध किया (ऋ. २.१३.९)। अश्वियों ने ७. भारद्वाज का पुत्र । यज्ञोपवीत के बाद यह यात्रा तुर्वीति सह इस पर कृपा की (ऋ. १.११२.२३)। यह करने निकला । राह में अमरकंटक के समीप इसकी गर्ग भी इंद्र की आराधना करता था (ऋ. ६.२०.१३)। मुनि से भेंट हुई । उससे इसने काशीमाहात्म्य सुना एवं दम-(स. दिष्ट.) भागवतमतानुसार मरुत्त का पुत्र । वहाँ तपस्या कर, यह मुक्त हुआ (स्कंद. ४.२.७४)। विष्णु, वायु एवं मार्कडेय के मत में नरिष्यन्त का पुत्र।। ८. एक राक्षस । इसीने भृग ऋषि की स्त्री का हरण इस की माता का नाम इंद्रसेना बाभ्रवी । माता के उदर | किया। यह तथा पलोमन एक ही व्यक्ति रहे होंगे ( पा. में इसका गर्भ नौ वर्षों तक रहा था। पा. १४; अग्नि देखिये)। इस ने दैत्यराज वृषपर्वन् से धनुर्वेद, दैत्यश्रेष्ठ दुंदुभि दमनक-एक दैत्य । यह समुद्र में रहता था । मत्स्यासे अस्त्रसमुदाय, शक्ति से साङ्गवेद, तथा राजर्षि आर्टिषेण | वतार में, भगवान् विष्णु ने चैत्र शुक्ल चतुर्दशी के दिन से योगशास्त्र सीखे थे। . इसका वध किया। इसका कलेवर धरती पर फेंक दिया। । दशार्णाधिपति चारुवर्मन् की कन्या सुमना ने इसका भगवान् के स्पर्श के कारण, यह सुगंधी तृण के रूप में स्वयंवर में वरण किया था। पृथ्वी पर रह गया। यह तृण 'दौना' नाम से आज इसका पिता नरिष्यन्त वानप्रस्थाश्रम में गया था। प्रसिद्ध है (स्कन्द. २.२.३९)। मुनिअवस्था में तपस्या कर रहे नरिष्यन्त का वपुष्मत् ने दमयन्ती--विदर्भदेशाधिपति भीम राजा की कन्या : वध किया । इसलिये इसने वपुष्यत् का वध किया तथा निषधदेश के राजा नल की पत्नी। भीम राजा की (मार्क. १३०.१३२; वपुष्मत् ३. देखिये)। कन्या होने से इसका पैतृक नाम भैमी था । एक उपाख्यान २. (सो. क्रोष्टु.) विदर्भ का पुत्र एवं दमयंती का के रूप में, नल-दमयंती की कथा महाभारत में दी गई भ्राता। . है। विदर्भदेश के राजा भीम को संतति नहीं थी। एक ३. अंगिराकुल का एक ऋषि । सुदमोदम एवं मोदम बार अपने घर आये, दमन ऋषि का उसने स्वागत किया। इसीका ही पाठभेद है। इस ऋषि के आशीर्वाद से भीम राजा को दम, दांत, दमन ४. आभूतर जस् देवों में से एक । आदि तीन पुत्र, एवं दमयन्ती नामक कन्या हुई (म.व. . ५. सुधामन् देवों में से एक। ५०.९)। ६. विकुंठ देवों में से एक । अपने अद्वितीय सौंदर्य से, इसने सब सुंदर स्त्रियों का - दमघोष-चेदि देश का राजा । इसकी पत्नी श्रुत गर्व हरण किया था। इसलिये इसे दमयन्ती नाम मिला । अवा, कृष्ण की बुआ थी। इसका पुत्र शिशुपाल (म. व. एक सुवर्ण हंस द्वारा इसने नल राजा के गुण सुने । १५.३; प्रत्यग्रह देखिये)। उसीके द्वारा इसने अपना प्रेम नलराज को विदित दमन--एक ऋषि । इसके प्रसाद से भीम राजा को किया। इसके स्वयंवर के समय देश देश के राजा एवं दम आदि चार संतान हुई (म. व. ५०.६)। इंद्र, अग्नि, वरुण, आदि देव भी उपस्थित थे। उन सब २. दमयंती का भाई (म. व. ५०.९)। का त्याग कर इसने निषधाधिपति नल का ही वरण किया। ३. कौरवों के पक्ष का क्षत्रिय । यह पौरव का पुत्र था उससे इसे इंद्रसेना तथा इंद्रसेन नामक अपत्य हुएँ। (म. भी. ५७.२०)। राज्यसौख्य का उपभोग इन दोनों को, अधिक वर्षों तक नहीं ४. (सो. वसु.) मत्स्य तथा वायुमत में वसुदेव का मिला । द्यूत में नल अपना सब ऐश्वर्य तथा राज्य गँवा पौरवी से उत्पन्न पुत्र । बैठा । नल-दमयन्ती को एक ही वस्त्र से वन में जाना पड़ा। ५. एक देव । यह अंगिरा तथा सुरूपा का पुत्र था। ६. एक शिवावतार । यह वराह कल्प के वैवस्वत मन्वंतर वन में नल एवं दमयंती पर अनेक संकट आये। इन की तीसरी चौखट के कलि में पुरांतिक में पैदा हुआ था। । संकटों से त्रस्त हो कर, दमयंती को सुप्तावस्था में अकेली प्रा. च. ३४] २६५ Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन चरित्रकोश दमयन्ती छोड़ कर नल चला गया। बाद में अयोध्या के ऋतुपर्ण राजा के यहाँ, बाहुक नाम से वह सारथ्यकर्म करने लगा। बाद में इसे एक अजगर निगलने लगा। उस समय एक भील ने इसको बचाया। परन्तु उसके मन में दमयंती के लिये, पापवासना जागृत हुई। इस कारण, इसने अपने पातिक्रत्य सामर्थ्य से उसे दग्ध किया । तदनन्तर सार्थवाहों के काफिले के साथ, यह चेदिपुर आई, तथा सैरंध्री नाम धारण करने लगी । इसके पिता द्वारा इसकी खोज के लिये भेजे गये एक दूत ने इसे ढूँढ निकाला । पश्चात् यह अपने मायके में जा कर रहने लगी । नल का पता लगाने के हेतु, इसने अपना दूसरा स्वयंवर जाहीर किया। उस स्वयंबर में नल उपस्थित हुआ । नल तथा दमयंती का पुनर्मीलन हुआ। बाद में नल ने पुष्कर से अपना राज्य पुनः जीता। इससे इन दोनों का जीवन सुख से व्यतीत हुआ (म. व. ५४–७८; नल देखिये ) । दमयंती ने अपने दूसरे स्वयंवर का केवल नाटक रचाया था । इस स्वयंवर के लिये बाहुक (नल ) एवं ऋतुपर्ण के सिवा और किसी को नहीं बुलाया था। इसके पिता भीम को भी इस स्वयंवर का पता नहीं था। बाहुक नल ही है या नहीं, इसकी जाँच लेने के लिये, स्वयंवर का नाटक इसने रचाया था। २. शैब्यपुत्र संजय की कन्या । एक बार, नारद तथा पर्वत ऋषि, बरसात शुरू होने कारण चार माहों तक, संजय राजा के घर में रहने के लिये आये । उनकी योग्य व्यवस्था कर राजा ने दमयंती को उनकी सेवा के लिये नियुक्त किया । बाद में नारद के प्रति इसके मन में प्रीति उत्पन्न हो गयी । पर्वत की अपेक्षा, नारद के आदरातिथ्य की ओर, यह जादा ध्यान देने लगी। पर्वत को संशय आकर उसने नारद से पूछा। नारद ने कबूल किया कि, 'वह दमयंती से प्रेम करता है'। यह देख कर पर्वत ने क्रोधित हो कर नारद को शाप दिया, 'तुम वानरमुख बनोगे ' । नारद ने भी पर्यंत को शाप दिया, 'तुम स्वर्ग में न जा सकोगे । , दरद भी जामात के नाते नारद पसंद नहीं था । तदनुसार उसने इसे समझाने का बहुत प्रयत्न किया । परंतु इसने कहा, 'मूर्ख राजपुत्र से शादी करने के बजाय, गायनविद्या जाननेवाले, गुणग्राही तथा मधुर संभाषण करनेवाले नारद का वरण ही श्रेयस्कर है । अन्त में दमयंती के कथनानुसार, इसका विवाह संजय ने नारद से कर दिया। कालांतर में पर्वत मुन ने अपना दिया हुआ शाप वापस लिया, तथा नारद पूर्ववत् दिखने लगा । दमयंती ने भी आनंद से यह वृत्तांत अपने मातापिता को बता दिया ( दे. भा. ६. २६ - २७; म. द्रो. परि. १. क्र. ८. पंक्ति. २७४ से आगे; श्रीमती देखिये) । दमवाह्य - अंगिरस् गोत्र का प्रवर । चमदाह्य इसका पाठभेद है । दंभ - विप्रचित्ति दानव का पुत्र ! २. (सो. पुरूरवस् . ) मत्स्य मतानुसार आयु का पुत्र 1 ·30 दंभोद्भव -- एक राजा । यह अपने ऐश्वर्य से मत्त हो कर, हमेशा ब्राह्मणों से पूछता था, "मुझे से बढ़ पर श्रेष्ठ इस पृथ्वी पर कौन है। ब्राह्मणों ने इसका प्रअ सुन कर इसकी मज़ाक उड़ायी फिर भी यह आदत से बाज न आया । तब ब्राह्मणों ने श्रेष्ठ नरनारायण का नाम इसे बताया। यह सेनासहित नरनारायण के आश्रम में गया। नरनारायण ने इसका पराभव किया, तथा इसका गर्व दूर किया । कृष्णदौत्य के समय परशुराम ने दभोद्भव की यह कहानी बतायी है ( म. उ. ९४९ कि. ५१.९१७९ पंक्ति ३१* ) । कोटिल्य के अर्थशास्त्र' में भी इसकी मदोन्मत्तता तथा नरनारायण के साथ युद्ध का निर्देश है । वहाँ डम्भोद्भव पाठ है ( कौटिल्य. पृ. २८ ) । दंभोलि -- दृढास्य का पुत्र । यह अगस्त्यकुलोत्पन्न था। परंतु इसके पिता हढ़ास्य को पुलहने अपना पुत्र माना । इसलिये यह पौलह बना ( विष्णु. १.१०.९ ) । दया- कश्यप प्रजापति की स्त्री, एवं दक्ष प्रजाप्रति की कन्या (स्कंद. १.२.१४) । यह धर्म की पत्नी थी, यों कई स्थानों पर उल्लेख है। इसे अभय नामक पुत्र था ( भा. ४.१.५० ) । शाप के कारण, नारद वानर के समान दिखने लगा । तथापि दमयंती ने उसकी सेवा में कमी न की संजय दमयंती के लिये वरसंशोधन कर रहा था। अपनी माता के द्वारा दमयंती ने पिता को सूचित किया कि, 'मैं नारद से प्रेम करती हूँ। बानरमुख एवं भिक्षुक नारद को अपनी कन्या देना राजा को योग्य न लगा। दमयंती की माता को दरद — दुर्योधन के पक्ष का एक वाह्निक राजा (म. आ. ६१.५५८० पंक्ति ६ । ) २६६ + Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दरिद्योत प्राचीन चरित्रकोश दशरथ दरिद्योत--(सो. कुकुर.) भागवत मतानुसार दुंदुभि दशज्योति-सुभ्राज् का पुत्र (म. आ. १.४२)। का पुत्र । विष्णु तथा वायु में, इसे अभिजित् कहा | दशधु--एक राजा । इसका तुग्र से युद्ध हुआ था । गया है। इस युद्ध में इंद्र ने दोनों का ही संरक्षण किया (ऋ. १. दरीमुख-राम का सेनापति । ३३.१४, ६.२६.४)। दर्प-(वा.) धर्म का उन्नति से उत्पन्न पुत्र । दशमी--ब्रह्मदेव की मानसकन्या। दर्पणासि--कारुष राजा का पुत्र । इसने अपनी माता | दशरथ-(सू. इ.) सूर्यवंश का एक विख्यात राजा। की आज्ञा के अनुसार, अपने पिता राजा कारुष का वध 'वाल्मीकिरामायण' का नायक एवं भारत की एक किया (भवि. ब्राह्म.८)। प्रातःस्मरणीय विभूति रामचंद्र का यह पिता था। इसीके दर्भक-(शिशु. भविष्य.) भागवत, विष्णु तथा नाम से राम, 'दाशरथि राम' नाम से प्रसिद्ध हुआ। ब्रह्मांड मतानुसार अजातशत्रु का पुत्र । वायु मतानुसार __यह अज राजा का पुत्र था । यह अतिरथी, यज्ञयाग इसे दशक तथा मत्स्य मतानुसार वंशक कहा गया है। करने वाला, धर्मनिष्ठ, मनोनिग्रही तथा जितेन्द्रिय था दर्भवाह--अगस्त्यकुलोत्पन्न एक ऋषि । . | (वा. रा. बा. ६. २-४)। इसके पूर्वपुरुष अज-दीर्घ दर्भि--एक ऋषि । इसने सातों समुद्रों से कहा था, | बाहु-प्रजापाल इस रूप में भी प्राप्त है (पन. सु.८. 'तुम सारे एक तीर्थ उत्पन्न करो'। उन्होंने 'अर्धकील' | १५३)। यह अयोध्या का राजा था (पा. पा. ७)। नामक एक पापनाशक तीर्थ उत्पन्न किया (म. व. ८१. अतिविषयासक्त होने के कारण, इसके वृद्धावस्था के १३३-१३६)। . सारे दिन अनर्थकारी साबित हुएँ, एवं पुत्रशोक से इसे २. दण्डिन देखिये। मरना पड़ा। दर्वा-उशीनर की पत्नी। कौसल्या, सुमित्रा तथा कैकेयी नामक दशरथ की तीन .: दार्वन्-(सो. उशी.) विष्णुमतानुस्वार उशीनर का पत्नियाँ प्रसिद्ध हैं । दशरथ को कौसल्या, सुमित्रा, सुरुपा पुत्र। . तथा सुवेषा नामक चार पत्नियाँ थीं, ऐसा भी कहा गया दर्श-कृष्ण का कालिंदी से उत्पन्न पुत्र (भा. १०. | है ( पध्न. पा. ११६ )। किंतु वास्तव में इसे तीन सौ पचास विवाहित स्त्रियाँ थीं। इतनी पत्नियों के पति '२. धाता नामक आदित्य एवं सिनीवाली का पुत्र (भा. होनेवाले पुरुष की गृहस्थिती जैसी रहनी चाहिये, वैसी ६.१८.३)। ही इसकी थी। 'वाल्मीकिरामायण' में प्राप्त सीता के दर्शक-(शिशु. भविष्य.) वायुमत में विविसारपुत्र। | उद्गारों से इसकी पुरी जानकारी मिलती है । सीता अनसूया दर्शनीय-मणिभद्र तथा पुण्यजनी का पुत्र । से कहती है, 'राम जिस प्रकार का व्यवहार अपनी माता दल-(सू. इ.) राजा परीक्षित् का मंडूककन्या | कौसल्या से करता है, उसी प्रकार का व्यवहार अन्य राजशोभना से उत्पन्न पुत्र (म. व. १९०.४३; शल देखिये)। स्त्रियों से भी करता है। किंतु दशरथ हरएक स्त्री के तरफ विष्णु एवं वायु मतानुसार, यह राजा पारियात्र का पुत्र उपभोग्य दृष्टि से देखता है। ऐसी स्त्रियों से भी राम माता था। भागवत में बल नाम उपलब्ध है। वंश तथा पुत्रसाम्य के समान ही व्यवहार रखता है' (वा. रा. अयो. ११८. के कारण, परीक्षित तथा पारियात्र ये दोनों व्यक्ति शायद | ५-६ ) । लक्ष्मण, भरत एवं राम के भाषण में भी इसके एक ही प्रतीत होते है। लिये आधार प्राप्त है। राम वनवासगमन कर रहा है, २. कश्यप तथा दनु का पुत्र। ऐसा ज्ञात होते ही, लक्ष्मण ने कौसल्या से कहा, 'विषयदलशु-बलेक्षु देखिये। भोगों के नियंत्रण में रहनेवाला, तथा जिसकी बुद्धि का दवशद-गौतम नामक शिवावतार का पुत्र । | विपर्यास हो गया है, ऐसा यह विषयी तथा वृद्ध राजा, दशग्व-एक आंगिरस कुल । नवग्व के साथ अनेक | कैकेयी की प्रेरणा से क्या नहीं बकेगा'? (वा. रा. अयो. स्थानों पर इसका उल्लेख मिलता है (ऋ. १.६२.४, ३. २१. ३)। ३९.५)। इंद्र ने इसका संरक्षण किया, ऐसा एक स्थान कैकेयी से इसका विवाह इसकी विषयलंपटता पर कलश पर स्पष्ट उल्लेख है (ऋ. ८.१२.२)। आंगिरस का यह चढानेवाला है। इस विवाह के वक्त, यद्यपि कैकेयी एक कुल रहा होगा। | बिलकुल जवान थी, बुढ़ापे की साया इसके शरीर पर २६७ Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशरथ प्राचीन चरित्रकोश दशवज छाने लगी थी। कैकेयी से उत्पन्न पुत्र को, अयोध्या का होने के लिये कहा। विष्णु ने वह मान्य कर के 'चरु' सम्राट् बनाने का वचन दे कर, इसने कैकेयी के पिता को | (यज्ञ की आहुति के लिये पके चावल) में प्रवेश किया। कन्यादान के लिये राजी किया था (वा. रा. अयो. दशरथ ने उस चरु के चार भाग कर के अपनी चार स्त्रियों १०७. ३)। राम के यौवराज्याभिषेक के समय भी, | को दिये। बाद में कौसल्या, सुमित्रा, सुरुषा तथा सुवेषा कैकेयी युवा अवस्था में थी, एवं बुढा दशरथ उसकी मुट्ठी | को क्रमशः राम, लक्ष्मण, भरत, तथा शत्रुघ्न नामक पुत्र में था। हुएँ । ब्रह्मदेव ने उनके जातकर्मादि संस्कार किये । (पन. ___ अपने बुढे पिता ने अपने माँ को विवाह के समय | पा. ११६)। दिये वचन के कारण, राम युवराज नहीं बनेगा, यह | पूर्वजन्म में यह धर्मदत्त नामक विष्णुभक्त ब्राह्मण कैकेयीपुत्र भरत को अच्छा नही लगा। इस कारण, वह था । इसने राक्षसयोनि प्राप्त हुएँ कलहा नामक स्त्री को अपने ननिहाल चला गया। यह अवसर देख कर, उसके | | अपना कार्तिकत्रत का आधा पुण्य दिया, एवं उसका हाल में से किसी को न बताते हुएं, दशरथ ने | उद्धार किया। इस जन्म में कलहा कैकेयी नाम से इसकी राम को यौवराज्याभिषेक करने की तैय्यारी की। किंतु | पत्नी बनी (पद्म. उ. १०६-१०७)। एक संकट टालने के लिये इसने कोशिस की, तो उधर | गृहराज शनि के द्वारा, 'रोहिणीशकट' नक्षत्रमंडल कैकेयी ने दूसरा ही संकट खड़ा किया। परंतु उससे का भेद होने का संकट, एक बार, पृथ्वी पर आया। यह सूर्यवंश का यश मलिन न हो कर, अधिक उज्वल ग्रहयोग ज्योतिषशास्त्र की दृष्टि से बड़ा ही खतरनाक ही हुआ। समझा जाता है। उससे बारह वर्षों तक पृथ्वी में अकाल __इसे शांता नामक एक कन्या थी। उसे इसने अंगदेश | पड़ता है। उसे टालने के लिये, यह स्वयं नक्षत्रमंडळ में का राजा, एवं इसका परममित्र रोमपाद को दत्तक दिया | गया। धनुष्य सज्ज कर, इसने भयंकर संहारास्त्र की योजना था। ऋश्यशृंग ऋषि को शांता विवाह में दे कर, उस | की। यह देख कर, शनि इससे प्रसन्न हुआ, एवं उसने ऋषि के सहाय से, इन दोनों मित्रों ने पुत्रकामेष्टियज्ञ का | इष्ट वर माँगने के लिये इसे कहा । तब इसने कहा, 'जब समारोह किया (भा. ९. २३.८)। | तक पृथ्वी है, आकाश में चन्द्रसूर्य हैं, तब तक तुम पुत्रकामेष्टियज्ञ की प्रेरणा इसे कैसी मिली, इसकी | रोहिणीशकट का भेद मत. करो'। यह वर प्राप्त करते कथा पद्मपुराण में दी गयी है। इसने सौ अक्षौहिणी ही, दशरथ अपने नगर में वापस आया (पन. उ.३३)। सेना के साथ, सुमानसनगरी पर आक्रमण किया, अंत में श्रावण के शाप के अनुसार, पुत्रशोक से वहाँ के राजा साध्य से एक माह युद्ध कर के उसे बंदी | इसकी मृत्यु हुअी (श्रावण देखिये)। दशरथ की मृत्यु बनाया। तब उसका अल्पवयी पुत्र भूषण इसके साथ युद्ध | के बाद, भरत आने तक इसका शव अच्छा रहे, इस करने आया । परंतु उसका भी इसने पराभव किया। | हेतु से, उसे तेल में रखा गया था (आ. रा. सार.६)। युद्धसमाप्ति के बाद, एक माह तक, यह साध्य तथा | २. (सू. इ.) सूर्यवंश का राजा । यह मूलक का पुत्र भूषण के साथ रहा। उन दोनों का परस्परप्रेम देख कर | था । रामपिता दशरथ के पूर्वकाल में यह अयोध्या का इसके मत में विचार आया, 'मुझे भी भूषण के समान | राजा था। गुणवान् पुत्र हो'। इसने साध्य राजा को पुत्रप्राप्ति । ३. (सो. क्रोष्टु.) भविष्य, भागवत, विष्णु, वायु तथा का उपाय पूछा । साध्य ने इसे 'विष्णु को संतुष्ट करने | पन के मतानुसार नवरथ का पुत्र (पन. सू. १३)। को कहा। | मत्स्य के मतानुसार इसे दृढरथ नाम है। बाद में सुमानसनगर साध्य राजा को देकर, यह ४. (मौर्य. भविष्य.) विष्णु के मतानुसार सुयशस् का अयोध्या लौट आया । अनेक व्रत करने के बाद इसने पुत्र । मत्स्य के मतानुसार यह शक का नाती था । अन्य पुत्रकामेष्टियज्ञ किया। तब विष्णु ने प्रकट हो कर इसे वर पुराणों में इसका उल्लेख नहीं है। माँगने के लिये कहा। तब इसने दीर्घायुषी, धार्मिक तथा ५. रोमपाद १. देखिये। लोगों पर उपकार करनेवाले चार पुत्र माँगे। विष्णु ने दशवज-एक राजा । अश्विनों ने इसका संरक्षण कौसल्या, सुमित्रा, सुरुपा, तथा सुवेषा को चार पुत्र होंगे, | किया था (ऋ. ८.८.२०)। इंद्र ने भी इसपर कृपा यों आशीर्वाद दिया। दशरथ ने विष्णु से अपना पुत्र | की थी (ऋ. ८.४९.१०; ५०.९)। . २६८ Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशशिम प्राचीन चरित्रकोश दानिन दशशिप्र - एक ऋत्विज । इसके घर सोम पी कर इंद्र तक, समृद्ध जीवन व्यतित कर रहे थे (श. बा. २.४.४. । प्रसन्न हुआ था (ऋ. ८.५२.२.) । ६ दक्ष देखिये) । दशारि - ( सो. फो. ) भविष्यमत में निरावृत्ति का पुत्र | अन्यत्र इसे दशार्ह कहा गया है। दशार्णाधारराज सुबल की कन्या, तथा धृतराष्ट्र की पत्नी । दशाई- - ( सो. क्रोष्टु. ) भागवत, विष्णु तथा व मत में निर्वृति का पुत्र । मत्स्यमत में यह निर्वृति का पौत्र एवं विदूरथ का पुत्र था । दशावर-- वरुणलोक का एक असुर । दशाश्व (इ.) इक्ष्वाकु के शतपुत्रों में से एक (म. अनु २.६ कुं.) । यह महिष्मती नगरी का राजा था। इसे मदराव नामक पुत्र था । दशोणि— ऋग्वेदकालीन एक राजा । पणियों से इसका बुद्धल रहा था, तब इंद्र ने इसकी सहायता कर, पणियों को भगाया (ऋ.६.२०.४) । योतमान से हुए युद्ध में, दशोणि पर इंद्र ने कृपा की (ऋ. ६.२०.८ ) । अन्य स्थानों पर आये 'दशोणि ' शब्द का अर्थ 'दस ऊंगलियाँ' । यह व्यक्तिवाचक शब्द नहीं है (. १०.९६.१२) दशोण्य- एक ऋत्विज । इस पर इंद्र की निरतिशय कृपा थी. (ऋ ८.५२.२)। दशशिप्र के साथ इसका . निर्देश प्राप्त है । । अथर्ववेद एवं यजुर्वेद संहिताओं में, शतानीक सात्रजित ऋषि को दाक्षायणों ने स्वर्ण प्रदान करने का निर्देश प्राप्त है (अ. वे. १.३५.१-२९ वा. सं. २४.५१५२; खिल. ४.७.७.८ ) । कई जगह, दाक्षायण ' व्यक्तिवाचक न होकर, 'स्वर्ण' अर्थ से भी प्रयुक्त किया है (ए. आ. २.४० ) । महामाध्य में, पाणिनि को दाक्षायण कहा गया है । दाक्षायणी --सती का नामांतर | दाक्षि-- अंगिरस कुल का गोत्रकार । २. अत्रिकुल का गोत्रकार । दाक्षीपुत्र - पाणिनि देखिये । दांडिक्य- एक भोजवंशीय नृप। एक ब्राह्मणकन्या का इसने अपहरण किया । उससे इसका नाश हुआ । दंड राजा एवं यह दोनो एक ही होंगे (कौटिल्य ४ २८ ) । पृ. दातृमुख देवों में एक । दात्रेय - अराल शौनक का पैतृक नाम (इन्डि. स्टूडि. ४.३७३) । ' दार्तेय ' ( दृति का वंशज) इसीका ही पाठभेद रहा होगा। दाधीच व्यथन का पैतृक नाम ' दाधीच का शब्दशः अर्थ 'दध्यञ्च का वंशज, ' ऐसा होता है (पं. बा. १४.६ च्यवन देखिये) । दानपारावत देवों में से एक। २. सुख देवों में से एक । दानकाय -- वसिष्ठ गोत्र का ऋषिगण । दानपति अक्रूर का नामांतर ( भा. १०.४९ ) । संतति 'दानव' कहलाती थी। दानव एक मानव जाति कश्यप तथा दन की दस्यवे वृक—एक राजा । इसके औदार्य का वर्णन प्राप्त है (ऋ. ८. ५५.१ ५६ . २ ) । यह दस्युओं का विजेता, " एवं स्तावकों का उदार प्रतिपालक था । वालखिल्यों में, कृश तथा पृथन के सूक में, इसका वर्णन आया है। इससे प्रतीत होता है कि, वे इसके आश्रयदाता थे। इसका ऋषि के रूप में भी निर्देश प्राप्त उल्लेख है (८५१.२) । ग्वेद के छप्पनचे मुक्त से तर्क चलता है कि इसका पिता पूतक्रतु तथा माता पूतक्रता थी (ऋ. ८.५६.४ ) । दुख-अश्विनीकुमारों में से एक सहदेव इसीके अंश से उत्पन्न हुआ था ( भा. ९.२२ ) । दहन -- एकादश रुद्रों में से एक । दाकव्य एवं दाकायनपसिकुल का गोपकार शंचर, हिरण्यकशिपु । करण | दाक्षपाय कश्यपकुल का गोत्रकार । " दाक्षायण एक राजवंश 'दक्ष राजा के वंशज - । संभवतः इस नाम से प्रसिद्ध हुए थे। इस वंश के राजा संस्कारविशेष के कारण, ‘शतपथ ब्राह्मण' के समय २६९ देव एवं असुरों के संग्राम में, देवों के विरुद्ध पक्ष में दानव, असुर, राक्षस, पिशाच, आदि शामिल थे। दानवों में निम्नलिखित लोग प्रमुख माने जाते थे-केशिन्, तारक, नमुचि, नरक, बाण, विप्रचित्ति, वृषपर्वन्, दानवों का निवासस्थान प्रायः हिमालय के पश्चिम भाग का पर्वतप्रदेश रहा होगा । २. कश्यपकुलोत्पन्न एक गोत्रकार (कश्यप तथा दनु देखिये) । दानिन् मुख देवों में से एक। - Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दान्त प्राचीन चरित्रकोश दिडि दान्त-राजा भीमक का पुत्र तथा दमयंती का भ्राता ६१.१७)। यह पैतृक नाम अन्यत्र भी कई बार आया (म. व. ५०.९)। है (तै. सं. २.६.२.३; मै. सं. १.४.१२, ६.५, सां. ब्रा. २. विकुंठ देवों में से एक । ७.४)। यह नाम केशिन् तथा रथप्रोत के लिये भी ३. सुधामन् देवों में से एक । प्रयुक्त है (मै. सं. २.१.३; दाल्भ्य देखिये)। ४. एक ऋषि । इसने भद्रतनु नामक ब्राह्मण को काम, दालकि-एक ऋषि । वायुमत में यह व्यास की क्रोध, लोभ आदि के लक्षण बताये, एवं उनका त्याग ऋशिष्यपरंपरा के शाकपूर्ण रथीतर का शिप्य था। करने को उसे कहा (पद्म. क्रि. १७)। दाल्भि-बक का पैतृक नाम (का. सं. १०.६)। दान्ता-एक अप्सरा (म. अनु. ५०.४८ कुं.)। दाल्भ्य-- एक राजा 'दाल्भ्य' का शब्दाशः अर्थ दाम-सुख देवों में से एक। | 'दल्भ का वंशज' हैं । यह दाभ्यं का पर्यायवाची शब्द दामग्रन्थिन्--अज्ञातवास में विराटगृह में रहनेवाले रहा होगा । यह केशिन् (पं. बा. १३.१७.८), चेकितान नकुल का नाम (म. वि. ३.२)। भांडारकरपाठ-ग्रंथिक । (छां. उ. १.८.१; जै. उ. ब्रा. २.३८.१) तथा बक (छो. दामघोषि--शिशुपाल का पैतृक नाम। उ. १.२.१३, १२.१.३; का. सं. ३०.२; म. व. २७५ दामचंद्र-पांडवपक्षीय एक राजा (म. द्रो. १३३. २८२.१७) का पैतृक नाम है। दाभ्य एवं दाल्भ्य में ३७).। गड़बड़ी जान पड़ती है (दाय॑ देखिये) । एक वैयाकरण दामोष्णीष-एक ऋषि (म. स. ४.११)। के नाते भी इसका उल्लेख प्राप्त है (शु. प्रा. ४.१६)। दारुक--कृष्ण का सारथि (म. व. २३.२७; भा. २. द्युमत्सेन का मित्र । १०.५०; पद्मा. उ. २५२)। रथ सज्ज करने के बारे में, ३. उत्तम मन्वन्तर के सप्तर्षियों में से एक (पद्म.. कृष्ण से इसका संभाषण हुआ था । भारतीययुद्ध में, यह | सृ. ७)। पांडवों के पक्ष में शामिल था (म. द्रो.५६.१७-४१; मौ. दावसु अंगिरस--एक सामद्रष्टा (पं. बा. २५.५. १२.१४)। २. एक शिवावतार। यह वाराहकल्प के वैवस्वत दाशर्म-आरुणि का समकालीन एक आचार्य (क. मन्वंतर के इक्कीसवीं चौखट में संपन्न हुआ। इस कारण, | सं. ७.६)। उस स्थान का नाम दारुवन हुआ। प्लक्ष, दार्भायणि, केतुमत् दाशाह-मथुरा का राजा व्योमन् का पैतृक नाम । तथा गौतम इसके पुत्र थे (शिव. शत. ५)। शिवमंत्र से यह पापमुक्त हुआ (स्कंद. ३.३.१)। ३. एक दैत्य । २. विदुरथ का मातृक नाम । दारुकि-दारुक का पुत्र तथा प्रद्युम्न का सारथि (म. दाशूर--तपस्वी शरलोम का पुत्र । यह मगध देश व. १९.३)। के एक पर्वत पर रहता था। शरलोम की मृत्यु होने के दारुण-कश्यप एवं अरिष्टा का पुत्र । कारण, यह शोकमग्न हुआ। तब इसके सामने अग्नि २. गरुड का पुत्र (म. उ. ९९.९)। प्रकट हुआ। उसने वृक्षाग्र पर बैठ कर स्थिर रहने का वर, दाढजयन्ति-वैपश्चित गुप्त लौहित्य तथा वैयश्चित् इसे प्रदान किया। इस प्रकार कदंब वृक्ष के अग्र पर दृढजयन्त लौहित्य का पैतृक नाम (जै. उ. ब्रा. ३.४२.१)। यह बैठ गया। उससमय सारी दिशाएँ इसे स्त्रियों के दातेय--एक यज्ञवेत्ता । यज्ञ के संबंध में यथार्थ मत समान दिखने लगी । फिर भी मानसिक यज्ञ से इसे देनेवाला, ऐसा इसका उल्लेख मिलता है (क. सं. ३१. | आत्मबोध हुआ। २)। दृति एवं वातवत् ऋषियों का यह पैतृक नाम है। पश्चात् कदंब दाशूर ऋषि नाम से यह प्रसिद्ध हुआ उन्होंने खांडववन में सत्र किये थे। वह सत्र वातवत् ने इसे वनदेवता से एक पुत्र उत्पन्न हुआ था। उसे इसने अधूरा छोडा, परंतु दृति ने पूरा किया। इसलिये दार्तेयों का ज्ञानोपदेश दिया (यो. वा. ४. ४.८-५१)। उत्कर्ष हुआ (पं. ब्रा. २५.३.६; अराल देखिये)। दासवेश--वेश देखिये। दार्भायणि-दारुक नामक शिवावतार का शिष्य। दिक्पति-मत्य देवों में से एक । दाद्य--रथवीति का पैतृक नाम (बृहद्दे. ५.४९. दिडि-सूर्य के सामने रथ में बैठनेवाला एक सेवक । ७९)। ऋग्वेद की ऋचा में इसका उल्लेख है (ऋ. ५. यह सूर्य का प्रधान, एवं एकादश रुद्रो में से एक था २७० Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिडि. प्राचीन चरित्रकोश दिलीप (भवि. ब्राह्म.७६.१९) । ब्रह्माजी का शिरच्छेद इसके हाथ भागवत एवं विष्णुमत में विश्वसह का, ब्रह्मांड एवं से हुआ था। सूर्य के सन्निध रहने से, उस पातक | वायुमत में विश्वमहत् का, तथा मत्स्यमत में यह रघु का से यह मुक्त हुआ (सांब. १६)। इसे दिडिन् भी कहा है। पुत्र था। कई ग्रंथों में, इसे दुलिदुह का पुत्र भी कहा गया यह महातपस्वी गणाधिपति था। पहले की गयी है (ब्रह्म. ८.८४; है. वं. १.१५)। मत्स्य, पन, एवं अग्नि ब्रह्महत्या के निरसनार्थ. इसने सूर्याराधना की। सूर्य की पुराणों में दी गयीं इसकी वंशावलि में एकवाक्यता नहीं कृपा से, यह ब्रह्महत्या से मुक्त हुआ। पश्चात् सूर्य से है। इसने क्रियायोग श्रवण किया ( भवि. ब्राह्म. ६३)। पितृ की कन्या यशोदा इसकी माता थी। इसकी पत्नी यह शंकर का अवतार था (भवि. ब्राह्म. ९१)। यह | का नाम सुदक्षिणा था। इसका पुरोहित शांडिल्य था। सूर्य के पूर्व में स्थित है। निरंतर भ्रमणशील होने के दिलीप खट्वांग के प्रशंसा पर एक पुरातन श्लोक भी उपलब्ध है (ब्रह्मांड. ३.१०.९०-९२; ह. वं. १.१८; कारण, इसके लिये रुद्र नाम प्रयुक्त है (भवि. ब्राह्म. १२४)। वायु. ७३.८४ )। दिति-प्राचेतस - दक्ष प्रजापति तथा असिनी की कन्या, एवं कश्यप की भार्या (कश्यप देखिये )। ऋग्वेद | ___ काफी दिनों तक दिलीप राजा को पुत्र नहीं हुआ। में इसका तीन स्थानों पर उल्लेख है। उनमें से दो स्थानों पुत्रप्राप्ति के हेतु से, यह वसिष्ठ के आश्रम में गया । राजा के द्वारा विनंति की जाने पर, वसिष्ठ ने इसे पर, अदिति के साथ इसका उल्लेख आयां है (ऋ. ५. पुत्र न होने का कारण बताया। वसिष्ठ बोले, " एक बार ६२.८, ४. २. ११)। तीसरे स्थान, इसका उल्लेख अदिति के साथ न हो कर, अग्नि, सवितृ एवं भग के तुम इन्द्र के पास गये थे। उसी समय तुम्हारी पत्नी साथ आया है (ऋ: ७. १५. १२)। कई वैदिक ग्रंथों त्रस्तुस्नात होने का वृत्त तुम्हें ज्ञात हुआ । तुम तुरंत घर लौटे । मार्ग में कल्पवृक्ष के नीचे कामधेनु खडी थी। उसे में इसे 'देवी' कहा गया है ( वा. सं. १८. २२; अ. वे. १५. १८. ४; १६.६. ७)। अर्थववेद में इसके | नमस्कार किये बिना ही तुम निकल आये। उस लापरवाही पुत्रों का निर्देश आया है वे दैत्य एवं देवों के शत्र मालूम | के कारण उसने तुम्हें शाप दिया, 'मेरे संतति की सेवा किये बिना तुम्हें संतति नहीं होगी। उस शाप से छुटकारा होते हैं (भा. ७.७.१)। इससे पता चलता है कि, दिति एवं अदिति एक पक्ष में न हो कर, विरोधी पक्ष में थी। | पाने के लिये मेरे आश्रम में स्थित कामधेनुकन्या नंदिनी की तुम सेवा करो। तुम्हें पुत्र होगा।" इसी समय वहाँ . दिलीप (प्रथम)-(सू. इ.) अयोध्या के अंशुमत् नंदिनी आई। उसे दिखा कर वसिष्ठ ने कहा, 'तुम्हारी राजा का पुत्र । अपने 'भगीरथ' प्रयत्नों से, गंगा गदी कार्यसिद्धि शीघ्र ही होगी। .पृथ्वी पर लानेवाले परमप्रतापी भगीरथ राजा का यह इसने धेनु को चराने के लिये, अरण्य में ले जाने पिता था (भा. ९.९; मत्स्य. १२.४४; पद्म भू. १०; उ. • का क्रम शुरू किया। एक दिन मायावी सिंह निर्माण कर, २१; ब्रह्म. ८.७५, लिंग. २.५.६; म. व. १०६.३७ नंदिनी ने इसकी परीक्षा ली। उस समय स्वदेहार्पण ४०)। रामायण में, भगीरथ का पिता दिलीप (प्रथम), कर, धेनुरक्षण करने की सिद्धता इसने दिखायी। तब एवं रघु का पितामह दिलीप खट्वांग, ये दोनो एक ही माने धेनु प्रसन्न हो कर, इसे रघु नामक विख्यात पुत्र हुआ गये है (वा. रा. बा. ४२)। किंतु वे दोनों अलग थे। (पद्म. उ. २०२-२०३)। यह कथा कालिदास के रघुवंश अपने पितामह सगर का उद्धार करने के लिये इसने में पूर्णतः दी गयी है। गगा पृथ्वी पर लाने को चाहा । उसके लिये इसने तीस यह पृथ्वी पर का कुबेर था। इसने सैकडों यज्ञ किये हजार वर्षों तक तपस्या की। किंतु गंगा लाने से पहले ही थे। प्रत्येक यज्ञ में लाखों ब्राह्मण रहते थे। इसने सब पृथ्वी इसकी मृत्यु हो गयीं। ब्राह्मणों को दान दी थी। इसीके यज्ञों के कारण, यशदिलीप खदवांग-(सू. इ.) अयोध्या के सुविख्यात | प्रक्रिया निश्चित हुई। इसके यज्ञ में सोने का यूप था। रघु राजा का पितामह । महाभारत में, खट्वांग नाम से इसका रथ पानी में डूबता नहीं था। दिलीप के घर पर इसका निर्देश प्राप्त है । रामायण में, भगीरथ का पिता | 'वेदघोष,' 'धनुष की रस्सी की टॅकार', 'खाओ', 'दिलीप (प्रथम), एवं यह, ये दोनों एक ही माने गये है। | ‘पियो', एवं 'उपभोग लो', इन पांच शब्दों का उपयोग किंतु वे दोनों अलग थे। | निरंतर होता था (म. द्रो. परि. १. क्र. ८. पंक्ति. ५१० २७१ Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिलीप प्राचीन चरित्रकोश दिवोदास से आगे; शां. २९.६४-७२)। सम्राट तथा चक्रवर्ति | आश्रम में छिपने के लिये मजबूर कर दिया (म. अनु. के नाते इसका निर्देश किया जाता था। ८ कुं.)। प्रतर्दन के साथ भारद्वाज ऋषि का स्नेहसंबंध ३. (सो. कुरु.) एक पौरव राजा। भागवत मत में | था (क. सं. २१.१०)। ऋश्य का, एवं विष्णु, मत्स्य तथा वायु के मत में भीमसेन | इसकी पत्नी का नाम दृषद्वती। इसे दृषद्वती से ही का पुत्र। प्रतर्दन हुआ था (ब्रह्म. ११.४०.४८) । प्रतर्दन, दिलीवय--भविष्य मत में मनुवंशी दशरथ का पुत्र । अप्रतिरथ, शत्रुजित्, ऋतध्वज, तथा कुवलाश्व ये सारे दिवंजय-उदारधी एवं भद्रा का पुत्र । एक ही है (भा. ९.१७.६)। दिवस्पति-रोच्य मन्वंतर में होने वाला इंद्र । _इसे ययातिकन्या माधवी से प्रतर्दन हुआ, यह कथा दिवस्पर्श--तुषित देवों में से एक । महाभारत में दी गयी है (म. उ. ११५.१.१५)। किंतु दिवाकर-गरुड का पुत्र (म. उ. ९९.१४)। कालदृष्टि से वह विसंगत अतएव असंभव मालूम पडती २. (स. इ. भविष्य.) भागवतमत में भानु राजा का | है। यह यमसभा का एक सदस्य था (म. स. ८.११)। पुत्र । इसका पुत्र सहदेव । वायुमत में यह प्रतिव्यूह का | 'भास्करसंहिता' के 'चिकित्सादर्पणतंत्र' का यह कर्ता है पुत्र, एवं मस्त्य तथा विष्णुमत में प्रतिव्योम का पुत्र | (ब्रह्मवे. २.१६)। धन्वन्तरि के आगे दिवोदास शब्द था। इसके शासनकाल में 'मस्यपुराण' का निर्माण हुआ | जोड़ा जाता है । वह शब्द वंशदर्शक होगा। (मत्य. २७१)। पौरव राजा अधिसोमकृष्ण तथा २. (सो. काश्य.) काशी देश का राजा । यह सुदेव मगध देश का राजा सेनजित् इसके समकालीन थे। | का पुत्र तथा अष्टारथ का पिता था। परंतु ब्रह्म तथा महा ३. (सो.) भविष्य मत में आतिथ्यवर्धन का पुत्र। भारत के सिवा अन्य स्थान की बंशावलि में, इतनी दिवावप्र-कश्यपकल का गोत्रकार ऋषिगण ।। जानकारी भी नहीं मिलती। दिवावस एवं दिवाबसिष्ठ ये इसीके पाठभेद है। ___ हैहयवंशों से तुलना करने पर काश्यवंश में दो दिवावष्टाश्व--कश्यपकुल का गोत्रकार । दिवोदासों को मान्यता देना अनिवार्य प्रतीत होता दिवावस--दिवावष्ट देखिये। है। इसने भद्रश्रेण्य से काशी जीत ली, एवं वहाँ दिवावसिष्ठ-दिवावष्ट देखिये। अपना राज्य स्थापित किया। किंतु निकुंभ के शाप से, दिवि-सत्य देवों में से एक। इसे काशी छोड़ कर, गोमती तीर पर दूसरी राजधानी दिविरथ-(सो. अनु.) भागवतमत में खनपान | स्थापित करनी पड़ी। अतः हैहय तथा काश्य घरानों के का पुत्र, एवं रथ राजा का पिता । विष्णुमत में यह पार का झगड़ा कुछ काल के लिये स्थगित हुआ। किंतु भद्रश्रेण्य एवं वायु तथा मत्य मत में दधिवाहन का पुत्र था। इसका का पुत्र दुर्मद बड़ा होने पर, उसने दिवोदास का पराभव पुत्र धर्मरथ । महाभारत मे इसे दधिवाहन का पुत्र कह किया (म. अनु. ३०; ब्रह्म. ११.४८; १३.५४; ह. वं. कर, इसका पुत्र अंग बताया है (म. शां. ४९.२०२)। १.२९; ब्रह्मांड. ३.६७; वायु: ९२.२६)। इसकी पत्नी दिवीलक-(आंध्र. भविष्य.) विष्णुमत में लंबोदर का नाम सुयशा था। उससे इसे अष्टारथ नामक पुत्र का पुत्र । इसका नाम अपीतक एवं चिवीलक भी प्राप्त है। हुआ था (ब्रह्म. १३.३१)। दिवोदास--(सो. काश्य.) भागवत तथा विष्णुमत दिवोदास अतिथिग्व-(सो. नील.) वैदिक युग का में भीमरथपुत्र तथा विष्णुमत में अभिरथपुत्र । ब्रह्म एक प्रमुख राजा । यह वयश्व का पुत्र, एवं भरतवंशातथा वायु मत में यह भीमरथ का ही दसरा नाम न्तर्गत तृत्सु लोगों का सुविख्यात राजा सुदास का पिता है। महाभारत में इसे काशीपति सौदेव कहा गया है। (वा पितामह) था। 'अतिथिग्व' का शब्दशः अर्थ है, इसका पितामह हर्यश्व हो कर, पिता सुदेव अथवा भीमरथ | 'अतिथि का सम्मान करनेवाला'। यह उपाधि दिवोदास था। इसका पराजय हैहय वीतहव्य ने किया। तब यह एवं सुदास को लगायी जाती थी (ऋ. १.५१.६; ७.१९. भरद्वाज ऋषि की शरण में गया। ८)। 'अतिथिग्व' की उपपत्ति सायणाचार्य ने 'अतिथिग इसके द्वारा पुत्रकामेष्टियज्ञ करने पर, इसे प्रतर्दन वा का पुत्र' ऐसी दी है (ऋ. १०.४८.८)। अप्रतिरथ नामक शत्रुनाशक पुत्र हुआ। उसने हैहय सरस्वती की कृपा से वन्यश्व को दिवोदास पुत्ररूप वीतहव्यों का पराभव किया तथा वीतहव्य को भृगु के में प्राप्त हुआ (ऋ. ६.३१.१)। यह भरतों में से एक २७२ Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिवोदास प्राचीन चरित्रकोश दीननाथ था (ऋ. ६.१६.४; ५.१९), एवं तुर्वशों तथा यदुओं| दिव्यजायु-पुरूरवा के उर्वशी से उत्पन्न आठ पुत्रों का विरोधी था (ऋ, ७.१९.८; ९.६१.२)। संभवतः | में छटवाँ (पद्म. सृ. १२)। इसके पुत्र का नाम 'पिजवन' हो कर, सदास इसका दिव्यमान—पारावत देवों में से एक । पौत्र था। वयश्व, दिवोदास, पिजवन, तथा सुदास इस | दिव्या-हिरण्यकशिपु की कन्या तथा भृगु की पत्नी। प्रकार इनका वंशक्रम होगा। दिव्यादेवी--- प्लक्षद्वीप के दिवोवास राजा की कन्या। इसका महान् शत्रु शंबर एक दास एवं किसी पर्वतीय | दिवोदास ने इसका विवाह रूपदेश का चित्रसेन राजा जाति का प्रधान था (ऋ. १.१३०.७; २.१२.११, ६. से निश्चित किया। विवाहविधि शुरु होते ही चित्रसेन २६.५, ७.१८.२०)। इसने शंबर का कई बार पराभव | मृत हो गया। तब विद्वान् ब्राह्मणों के कथनानुसार, किया (ऋ. १.५१.६; शंबर देखिये)। इसने रूपसेन से विवाह किया। परंतु वह भी मृत हो अपने पिता वयश्व के समान, यह भी अग्नि गया। इस प्रकार इसके इक्कीस पति मृत हो गये। का उपासक था (ऋ. ६.१६:५; १९)। इस लिये बाद में मंत्रियों की सलाह के अनुसार, इसका स्वयंवर अग्नि को दैवोदास अग्नि नाम पड़ा (ऋ. ८.१०.२)। रचा गया। किंतु स्वयंवर के लिये आये हुएँ सारे राजा, परुच्छेप के सूक्त में इसका संबंध दिखता है (ऋ. १. आपस में लड़ कर मर गये। इस अनर्थपरंपरा से इस १३०.१०) । भरद्वाज के छठवें मंडल में इसके काफी को अत्यंत दुख हुआ, एवं यह अरण्य में चली गई महत्त्वपूर्ण उल्लेख हैं.। इसका पुरोहित भरद्वाज था। आयु (पम. भू. ८५)। एवं कुत्स के साथ, यह इंद्र के हाथों से पराजित हुआ एक बार उज्वल नामक शुक प्लक्षद्वीप में आया । था । किंतु अदारसृत नामक साम के प्रभाव से, यह पुनः शोकमग्न 'दिव्यादेवी को उसने 'अशून्यशयन' व्रत - वैभवसंपन्न हुआ (पं. वा. १५.३.७) भरद्वाज के साथ बताया । मनोभाव से यह व्रत चार वर्षो तक करने पर, इसका संबंध पुराणादि में भी बार बार आया है। यह विष्णु ने इसे दर्शन दिया, तथा वह इसे विष्णुलोक ले तथा दिवोदास नील वंशज एक ही होंगे। गया (पन. भू. ८८)। पूर्वजन्म में यह चित्रा नामक वैश्य की स्त्री थी अध्यश्व को मेनका से एक कन्या तथा एक पुत्र हुएँ। (चित्रा ४. देखिये। उनमें से पुत्र का नाम दिवोदास, एवं कन्या का नाम | दिव्याधक-दिव्य देखिये। अहल्या था। अहल्या शरदूत गौतम को दी गयी थी दिष्ट-(स. दिष्ट.) वैवस्वत मनु का पुत्र । इसका (ह. वं. १.३२)। भागवतमत में यह मुद्गल का, विष्णु बंधु नाभाग (भा. ८. १३; नभग देखिये)। मत में वध्यश्व का, वायुमत में अध्यश्व का, तथा म स्यमत में विष्याश्व का पुत्र था । पुराणों में इसका पुत्र मित्रयु दीक्षित कण्व का आर्यावती से उत्पन्न पुत्र । यह दिया गया है। परंतु वेदों में (ऋ. ८.६८.१७) इसका द्विविद का भाई था (भवि. प्रति. ४. २१)। पुत्र इंद्रोत दिया है । ऋक्ष अश्वमेध, पूतक्रतु, प्रस्तोक | दीननाथ-एक विष्णु भक्त राजा । यह द्वापर युग तथा सौभरि ये लोग इसके समकालीन थे । में पैदा हुआ। इसे संतान न थी। पुत्रप्राप्ति के लिये . ५. भृगुकुल का एक ऋषि, प्रवर तथा मंत्रकार (भृगु इसने गालव ऋषि की सलाह से, नरयज्ञ करने का निश्चय देखिये)। यह प्रथम क्षत्रिय था। बाद में ब्राह्मण बना किया। योग्य मनुष्यों को ढूँढ लाने के लिये इसने दूत (मत्स्य. १९५.४२; परुच्छेप दैवादासि देखिये)। नियुक्त किये। ५. दिव्यादेवी देखिये। ___इन दुतों को, दशपुर नगरी के कृष्णदेव ब्राह्मण के सुशीला से उत्पन्न तीन पुत्र, योग्य दिखाई पड़े। ब्राह्मण एक दिवोदास भैमसेनी-अरुणिका समकालीन (क. | भी पुत्र देने के लिये तयार नही था । चार लाख मुहरे सं. ७. १.८)। दे कर, दूत जबरदस्ती उसका ज्येष्ठ पुत्र ले जाने लगे। दिव्य-(सो. क्रोष्टु.) वायुमत में सात्वत का पुत्र ।। ब्राहाण ने प्रार्थना की 'उसे छोड दो। मैं स्वयं आ रहा भागवत एवं मत्स्यमत में इसे अंधक, एवं विष्णुमत में हूँ। पश्चात् ब्राह्मण के छोटे पुत्र को ले जाने की इसे दिव्यांधक कहा गया है ( अंधक २. देखिये)। कोशिश दूतों ने की, तो माता ने उन्हे रोक लिया । तब प्रा. च. ३५] २७३ Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीननाथ प्राचीन चरित्रकोश दीर्घतमस् एक। मँझले पुत्र को वे जबरन ले गये । मातापिता ने अत्यधिक | 'मामतेय' एवं 'औचथ्य' ये उपनाम प्राप्त हुएँ (ऋ शोक किया। १. १५२.६:४. ४. १३)। 'दीर्घतपस्' इसीका ही बाद में सेवकों का पड़ाव विश्वामित्र के आश्रम में | पाठभेद है (वायु. ५९, ९८; १०२)। पड़ा। तब विश्वामित्र ने ब्राह्मण के मँझले पुत्र के बदले, बृहस्पति के शाप के कारण, यह जन्म के समय अंधा खुद को नरमेध के लिये बलि के रुप में प्रस्तुत किया। था (वृहहे. ४.११.१५, २१-२५ अ. १. १४०परंतु नौकरों ने वह मान्य नहीं किया । पश्चात् विश्वामित्र | १६४) । इसलिये इसे 'दीर्घतमस् ' (= दी। अंधकार) राजा के पास आया। विश्वामित्र ने राजा से कहा, 'पूर्णा- नाम प्राप्त हुआ। यह सौ वर्षों तक जीवित रहा (ऋ. हुति दे कर भी पुत्रप्राप्ति हो सकती है । यह सुनते ही १. १५८. ६: सां. आ. २. १७)। सो साल की बूढी उस पुत्र को छोड़ कर, राजाने यश किया। उस ब्राहाणपुत्र उमर में इसने 'केशव' परमेश्वर की उपासना की। की जान बचाने के पुण्य से, विश्वामित्र को स्वर्गप्रान्ति, | उससे इसे दृष्टी प्राप्त हुी, एवं लोग इसे 'गोतम' तथा दीननाथ को पुत्रप्राप्ति हुई (पा. व. १२; शुनः- (= उत्तम नेत्रवाला) कहने लगे (म. शां. ३२८)। शेप देखिये)। | 'सुरभि' ने सूंघने पर इसे दृष्टि प्राप्त हुी, ऐसी भी दीप्तलोचन--(सो. कुरु.) धृतराष्ट्र का एक पुत्र । | कथा उपलब्ध है (वायु. ९१)। भीम ने इसका वध किया (म. भी. ९२.२६)। ___ 'भरत' राजाओं का यह पुरोहित था। भरत दौयंति दीप्ति-अमिताभ देवों में से एक। को इसने 'ऐन्द्र अभिषेक' किया था (ऐ. बा. ८. दीप्ति तु-दक्षतावर्णि मनु का एक पुत्र । २३)। यह अभिषेक यमुना के किनारे प्रपन्न हुआ दीप्तिमत्--सावर्णि मन्वन्तर के सप्तर्षियों में से (भा. ९. २०.२५, भरत देखिये)। एक मंत्र गायक के रुप में, इसका उल्लेख ऋग्वेद में प्राप्त है (ऋ. १. दीप्तिमेधस्--सुमेधस् देवों में से एक । १५८.१)। दीर्घ-मगध देश का एक क्षत्रिय । पांडु ने इसका वध | एक बूढे एवं का भी व्यक्ति के रूप में, इसकी कई किया (म. आ. १०५.१०)। कथाएँ प्रडग्वेद में, उपलब्ध है। इस वृद्ध को सम्हालते... दीजिड-दनुपुत्र | यह दानवों में से एक था। सम्हालते इसके नौकर त्रस्त हो गये । यह मर जाये, इस हेतु २. एक विषैला सर्प । शेष के कोष में एक मृतसंजीवक से उन्होंने इसे अग्नि में डाल दिया, पानी में गला दिया। मणि था। उसके संरक्ष कों में से यह एक था। (जै. अन्त में, त्रैतन नामक दास ने इसका सिर काट लिया, अ. ३८)। एवं इसकी छाती फोड़ दी। फिर भी, प्रयेक समय दीर्घजिला-अशोकवन की एक राक्षसी। अश्वियों ने इसकी रक्षा. की (ऋ. १. १५८. ४-६; दीर्धतपस्-(सो. काश्य.) राष्ट्र का पुत्र ( दीर्घतमस वृहद्दे. ४. ११. १४)। बाद में इसे नदी में फेका दिया २. देखिये)। ब्रह्मपुराण में इसे काशेय का पुत्र बताया गया। नदी में बहता हुआ, यह अंग देश के किनारे गया है (ब्रह्म. १३.६४)। जा लगा। वहाँ इसने उशिज् नामक दासकन्या से विवाह २. जंबुद्वीप के महेंद्र पर्वत पर रहने वाला एक | किया। उशिज से इसे कक्षीवत् आदि पुत्र हुएँ (बृहद्दे. तपस्वी । इसे पुण्य तथा पावन नामक दो पुत्र थे। उम्र | ४. २३)। के सौवें वर्ष में, पत्नी के सह इसकी मृत्यु हुई। उस पुराणों में यही कथा कुछ अलग ढंग से दी गयी है। कारण इसका पुत्र पावन शोकग्रस्त हुआ। तब पुण्य ने दीर्घतमस् को गर्भावस्था में ही सारे वेद, वेदांग तथा उसे उपदेश कर उसका मोह निरसन किया (यो. वा. ५. शास्त्र पूर्णतया अवगत थे (वायु. ९९. ३६-७८% १९-२१)। 'तृष्णाक्षय' के हेतु से यह कथा बताई ३७; मत्स्य. ४०; म. शां. ३२८-४७-४८)। विद्या के गयी है। बल पर इसने प्रदेषी नामक रूपसंपन्न स्त्री से विवाह ३. एक व्यास । इसका पुत्र शुक (पद्म. पा. ७२)। किया। उससे इसे गौतमादि अनेक पुत्र हुए। अपने कुल दीर्घतमस् मामतेय औचथ्य--अंगिरसकुल का की अधिक वृद्धि हो, इस हेतु से इसने कामधेनु के पुत्रों एक सूक्तद्रष्टा ऋषि (ऋ. १. १४०-१६४)। से 'गो-रति' विद्या सीखी। उस विद्या के कारण, दिन यह ममता एवं उचथ्य ऋषि का पुत्र था। इसलिये इसे ! के उजाले में, सब लोगों के समक्ष, यह स्त्रीसमागम करने २७४ Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीर्घतमस् प्राचीन चरित्रकोश दीर्घप्रज्ञ लगा। आश्रम के अन्य ऋषियों को यह पसंद नहीं ऋषि को शांत कर, तथा पत्नी को समझा कर, बलि ने फिर आया । वे इसे आश्रम से भगा देने को उद्युक्त | एक बार सुदेष्णा को दीर्घतमस् के पास भेज दिया। इससे हो गये। उसे पाँच पुत्र उत्पन्न करवाये। उनके नाम अंग, वंग, ___ इसकी पत्नी प्रद्वेषी को पुत्रप्राप्ति हो गयी थी, एवं| पुंड, सुझ तथा कलिंग थे। इन्हे बालेय क्षत्र तथा वालेय अंधा पति उसे अच्छा भी न लगता था। वह इसे भगाने | ब्राह्मण कहते है (ह. वं. १.३१; विष्णु. ४.१८; भा. ९. के लिये अन्य आश्रमवासियों को सहाय करने लगी।। २०, २३; ब्रह्म. १.३)। वह कहने लगी, 'दीर्घतमस से तलाक ले कर मैं दूसरा। बाद में काक्षीवानादि पुत्रों को ले कर, यह गिरिव्रज पति कर लुंगी'। (मस्त्य. ४८), वा गिरिप्रज (वायु. ९९) गया। ___घर छोड़ने के लिये उद्यक्त हुए अपने पत्नी को काबू कक्षीवान को इसने उर्दक ऋषि के पास शिक्षाप्राप्ति के में रखने के लिये, इसने धर्मशास्त्रकार नाते से पत्नीधर्म | लिये भेजा (स्कन्द ३.१.१७-१८)। के नये नियम प्रस्थापित किये। वे नियम इस प्रकार | महाभारत में, दीर्घतमस् ऋषि का निर्देश अनेक बार थे:- 'जन्मभर स्त्री को एक ही पति रहेगा, वही उसका आया है। यह इन्द्रसभा में इन्द्र के मनोरंजन का काम ईश्वर होगा। पति जीवित रहें या मृत, दूसरा पति स्त्री करता था (म. स. ७.१०)। यह पश्चिम दिशा के नही कर सकेगी। अगर स्त्री ने दूसरा पति किया, तो वह आश्रय में रहता था (म. अनु. १६५.६२)। इसे पतित हो जावेगी। पति के बिना रहनेवाली स्त्रियाँ भी | आशिज, औशिज, तथा असित कहा गया है (वायु. ९९ पतित रहेंगी। उनके पास धन होने पर भी, उन पतिशून्य ४४; मस्त्य. ४८.८३)। उशिज इसका पितामह होने के स्त्रियों का परपुरुषसंभोग तथा तज्जन्य संतति व्यर्थ, कारण, इसका पैतृक नाम 'औशिज' होना संभवनीय अकीर्तिकर तथा निंदास्पद ही होंगी'। बाद में प्रद्वेषी के कहने पर, इसके पुत्रों ने एक तख्ते | इसका पुत्र कक्षीवत् एवं उसके भाईओं का 'गौतम' पर इसे बांध कर, वह तख्ता गंगा में छोड़ दिया (म. आ. | यह पैतृक नामांतर कई जगह प्राप्त है (मल्य. ४८.५३: ९८.१८)। मत्स्य के अनुसार दीर्घतमस् अपने चचेरे ८४) । गोतम, दीर्घतमस् का ही अन्य नाम था । इसके भाई शरद्वत् के आश्रम में रहता था। दीर्घतमस् अपने पशुतुल्य आचरण के कारण, इसे यह नाम मिला (वायु. स्नुषा से विषयवासनायुक्त भाषाण बोलने लगा। यह | ९९; ब्रह्मांड. ३.७४.३)। कई जगह, इसे गौतम भी स्वैराचारी वर्तन शरद्वत् को अच्छा न लग कर, उसने इसे कहा है (म. शां. ३२८.५०; म. स. १९.५-७)। - 'आश्रम के बाहर निकाल दिया (मत्स्य. ४८)। लो. तिलकजी ने ऋग्वेद के 'दीर्घतमस्' शब्द का अर्थ, नदी में छोड़ा गया दीर्घतमस् ऋषि, बहते-बहते आनव 'दीर्घ दिन के बाद अस्तंगत होनेवाला सूर्य,' किया है . देश के सीमा के समीप आया। उस देश का राजा बलि (आर्यों का मूलस्थान पृ. १४६ )। सहजभाव से घूमते घूमते वहाँ आया था। उसने इस | ___ कई ग्रंथों में, सुदेष्णा रानी की शूद्रा दासी का नाम ऋषि को बडे सम्मान तथा आनंद से अपने अंतःपुर में 'उशिज्' बताया है। इसीलिये, उस शूद्रा से उत्पन्न, रख लिया। तदनंतर बलि राजा ने सुदेष्णा नामक अपनी इसके कक्षीवत् एवं दीर्घश्रवस् ये पुत्र, 'औशिज' यह रानी को, संतति हेतु मन में रख कर, इस ऋषि की सेवा मातृक नाम से प्रसिद्ध हुएँ (दीर्घश्रवस् औशिज देखिये) करने के लिये कहा। परंतु इसे अंध जान कर सुदेष्णा ने | २. (सो. काश्य.) यह भागवत, विष्णु तथा वायु के आप के बयाज, अपने "औशीनरी" नामक शूद्रवर्णीय मत में काशिराज राष्ट्र का पुत्र। इसे धन्वन्तरि नामक दासी को इसके पास भेजा। उससे इस ऋषि को कक्षीवत्. | पुत्र था। | पुत्र था। वायु में दीर्घतपस् पाठभेद है । दीर्घश्रवस् आदि ग्यारह पुत्र हुएँ (म. स. १९.५)। । दीर्घनीथएक वैदिक ऋषि । इंद्र ने इस को संपत्ति वायुपुराण में इन पुत्रों में से 'कक्षीवत्' का नाम | दी थी (ऋ. ८.५०.१०)। "काक्षीवत्" दिया है। दीर्घनेत्र-(सो. कुरु.) धृतराष्ट्र का पुत्र । भीम ने बाद में बलि एवं दीर्घतमस् इन दोनों में, नवजातपुत्र | इसका वध किया (म. द्रो. १०२.४२)। किस का है, इस बारे में वाद शुरू हुआ। दीर्घतमस् ने दीर्घप्रज्ञ-दुर्योधनपक्षीय एक राजा (म. आ. ६१. राजा को सुदेष्णा द्वारा की गयी चालबाजी बतायी। तब । १५)। २७५ Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीर्घबाहु दीर्घबाहु -- (सू. इ. ) खट्वांग (दिलीप द्वितीय) राजा का पुत्र । इसका पुत्र रघु ( भा. ९.१०.१ ) । मत्स्य तथा पद्मपुराण में यही अजपुत्र के नाते उल्लिखित है । यह विष्णुभक्त था । इसे गद्दी पर बिठा कर, खट्वांग आत्मस्वरूप में लीन हो गया । ब्रह्म, हरिवंश तथा शिवपुराण, ' दीर्घबाहु' को रघु का विशेषण मानते हैं । इसीलिये रघुवंश में ‘दीर्घबाहु' का उल्लेख नहीं है । गरुड पुराण में रघु का उल्लेख न हो कर केवल दीर्घबाहु का ही निर्देश है। २. (सो. कुरु. ) धृतराष्ट्र का पुत्र । भीम ने इसका वध किया (म. भी. ९२.२६ ) । दीर्घयज्ञ - - अयोध्या का राजा । राजसूय के समय, भीम ने इसे पराजित किया था ( म. स. ३१.२ ) । प्राचीन चरित्रकोश दीर्घरोमन - (सो. कुरु. ) धृतराष्ट्र का पुत्र । दीर्घलोचन - - (सो. कुरु. ) भीमद्वारा मारा गया धृतराष्ट्र का पुत्र ( म. भी. ९२.२६ ) । दीर्घश्रवस् औशिज—एक राजा । यह दीर्घतमस् एवं उशिज् का पुत्र था (दीर्घतमस् मामतेय देखिये) । यहाँ इसे वणिज कहा गया है । इस पर अश्वियों ने कृपा की थी (ऋ. १. ११२.११ ) । इस राजा को देश से निकाल दिया गया था । इसलिये यह भूख के कारण मर रहा था । एक साम गा कर इसने अन्न प्राप्त किया । (पं.ब्रा. १५.३.२५) । कक्षीवत् के साथ इसका निर्देश है । दीर्घायु -- एक क्षत्रिय । यह श्रुतायु का पुत्र था । भारतीय युद्ध में अर्जुन ने इसका वध किया ( म. द्रो. ६८.२९)। दीर्घिका -- वीरशर्मन् की कन्या । यह बहुत ऊँची थी। शास्त्रों में लिखा है, 'ऊँची लड़की से ब्याह करने वाला, छै माह में मर जाता है ' । इस लिये इससे ब्याह करने को कोई तयार नहीं होता था । | अच्छा पति मिले, इसलिये इसने तपश्चर्या शुरू की । तप करते करते यह वृद्ध हो गयी । पश्चात् एक कुष्ठ रोग पीडित वृद्ध गृहस्थ, इसके पास आया । उसकी शर्तें स्वीकार कर, इसने उससे विवाह किया । कालोपरांत पति ने इसे यात्रा करने का अपना विचार बताया । यह उसे कंधे पर ले कर चली। जाते जाते शूलि पर चढाये गये मांडव्य को, इसका धक्का लग गया । क्रुद्ध हो कर मांडव्य ने इसे शाप दिया । परंतु पातित्रय प्रभाव से इस पर उस शाप का कुछ परिणाम नहीं हुआ (स्कंद. ६. १३५; मांडव्य देखिये) । शांडिली एवं यह एक ही रही होंगी । दुःशासन दुःशल- (सो. कुरु. ) धृतराष्ट्र का पुत्र | को दुःशला -- धृतराष्ट्र की कन्या । यह सिंधुराज जयद्रथ विवाह में दी गयी थी ( म. आ. १०८.१८ ) । इसका पुत्र सुरथ । दुःशासन - (सो. कुरु. ) धृतराष्ट्र का द्वितीय पुत्र (म. आ. १०८.२ ) । यह दुर्योधनी व्यवहार करता था, इसलिये उसने इसे यौवराज्य प्रदान किया था । यह पौलस्त्य का अंशावतार था । इसने शस्त्रास्त्रविद्या तथा धनुर्विद्या की शिक्षा द्रोण से ली थी । द्रौपदी स्वयंवर के समय, उपस्थित राजाओं में यह भी शामिल था (म. आ. १७७.१ ) । बाद में द्रौपदीसहित] पांडव द्यूत में हार गये । कर्णद्वारा कानाफूसी मिलने पर, इसने भरी सभा में द्रौपदी का वस्त्रहरण किया । कृष्ण की आराधना कर, द्रौपदी ने अपनी रक्षा की । इसी समय दुःशासन का वध कर उसके रक्त का प्राशन करने की घोर प्रतिज्ञा भीमसेन ने की (म. स. ६१.४६ ) । पांडव अज्ञातवास में थे। तब उन्हें ढूंढने के उद्देश से कौरवों ने, मत्स्य देश के विराट राजा की गोशालाओं का ध्वंस किया, तथा जबरदस्ती से उसकी गायों का हरण किया । इस हमले में दुःशासन शामिल था ( म. वि. ३३.३ ) । अर्जुन ने विराटपुत्र उत्तर को सारथि बना कर, गोहरण कर के भागनेवाले कौरवोंका, पीछा किया । तत्र दुःशासन, विकर्ण, दु:सह तथा विविंशति नामक चार योद्धाओं ने महाधनुर्धर अर्जुन पर एक साथ आक्रमण किया । दुःशासन ने उत्तर को घायल किया अर्जुन के वक्षभाग पर प्रहार कर उसे जख्मी किया। परंतु आखिर अर्जुन ने अपने बाणों से इसे घायल किया, एवं इसे भगा दिया ( म. वि. ५६.२१-२२ ) । भारतीययुद्ध के प्रथम दिन के संग्राम में, नकुल के साथ इसका द्वंद्वयुद्ध हुआ था ( म. भी. ४५.२२-२४) । पश्चात् भीष्मद्वारा इकट्ठी की गयी सेना को भेद कर, भीम ने दुःशासनादि योद्धाओं पर आक्रमण किया । तब दुःशासन ने उसे घेर लिया ( म. भी. ७३.१० ) । भीष्मार्जुन युद्ध के समय शिखंडिन् को सामने ले कर अर्जुन युद्ध करने लगा। यह देखते ही भीष्म के संरक्षण के लिये, दुःशासन ने अर्जुन पर आक्रमण किया। दोनों में युद्ध हो कर, दुःशासन घायल हुआ (म. भी. १०६. ४३) । २७६ Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुःशासन प्राचीन चरित्रकोश दुदर्भ पश्चात् सामने की कौरव सेना की पंक्ति तोड़ कर, | प्रकार सिंह के द्वारा कोई प्रचंड़ हाथी मारा जाये, उस अर्जुन उन्हें घायल करने लगा। उस समय पुनः दुःशासन | प्रकार भीम द्वारा मारा गया मेरा दुःशासन अपने प्रचंड तथा अर्जुन में युद्ध हो कर उसमें भी दुःशासन का पराभव | बाहु फैला कर सोया है (म. स्त्री. १८. १९. २०)। हुआ (म. द्रो. ६५.५)। दुःशासन को दौःशासनि नामक एक अत्यंत पराक्रमी अभिमन्यु का पराक्रम देख कर, द्रोण द्वारा की गई पुत्र था। भारतीय युद्ध में दौःशासनि तथा अभिमन्यु उसकी प्रशंसा, दुर्योधन से सही नहीं गई। उसने दुःशास- | का प्रचंड़ युद्ध हुआ। अनेक वीरों से लड़ कर थका हुआ नादि वीरों को उस पर आक्रमण करने की आज्ञा दी। अभिमन्यु दौःशासनि के एक गदाप्रहार से बेहोश हो दुःशासन तथा अभिमन्यु में काफी देर तक तुमुल युद्ध | गया (म. द्रो. ४८. १२)। बाद में दौःशासनि को हुआ। अभिमन्यु के प्रबल बाणों से, व्यथित हो कर | द्रौपदी पुत्र ने मारा (म. क. ४. १४)। दुःशासन रथ में गिर पड़ा। इसे प्रल मूर्छा आई। यह सब शस्त्रास्त्रविद्या, सारथ्यकर्म तथा धनुर्विद्या में इसका सारथि इसे रण से दूर ले गया (म. द्रो. ३९. | निपुण, अत्यंत शूर एवं पराक्रमी था (म. उ. १६२, ११-१२)। १९)। परंतु दुष्टबुद्धि एवं मत्सरी होने के कारण, इसका बाद में रणांगण में, सात्यकि से मिलते ही घबरा कर | नाश हुआ। दुःशासन भाग आया, तब द्रोण ने इसका अत्यंत उपहास | २. खड्गबाहु के पुत्र का सेनापति । एक बार गर्व से किया (म. द्रो. ९८) । वास्तविक देखा जावे, तो सात्यकि / एक उन्मत्त हाथी पर यह बैठा। उस हाथी ने पैरों के के साथ हुएँ युद्ध में ही दुःशासन मर सकता था, परंतु | नीचे कुचल कर इसे मार डाला। द्रौपदी वस्त्रहरण के समय की. भीम की प्रतिज्ञा का स्मरण | बाद में यह हाथी हुआ। सिंहल देश के नृप ने इसे हो कर, उसने दुःशासन का वध नहीं किया (म. द्रो.- खड्गबाहु को दिया । उसने इसे एक कवि को दिया। .६६. २६)। . उसने इसे मालव राजा को बेच दिया। उसने इसका इस प्रकार घनघोर भारतीययुद्ध चालू ही था। उस अच्छा पालनशेषण किया। फिर भी यह मृतप्रायसा समय भीम ने दुःशासन पर आक्रमण किया। दोनों का होने लगा। तब स्वयं राजा इसके पास आया । हाथी . घमासान युद्ध हो कर, दुःशासन ने भीम पर साक्षात् ने मनुष्यवाणी से उसे कहा, 'गता के १७ वें अध्याय • मृत्यु के समान, प्रचंड शक्ति छोडी। परंतु भीम ने अपनी का पाठ करनेवाला कोई व्यक्ति मेरे पास आयेगा, तो मेरी गदा यूँ फेंकी जिससे उस दारुण शक्ति का विदारण मानसिक पीड़ा नष्ट होगी,'। हो कर, वह गदा दुःशासन के मस्तक पर जा गिरी। ___इतना कह कर इसने अपना पूर्ववृत्तांत राजा को तत्काल दुःशासन भूमि पर गिर पड़ा। उसके मस्तक निवेदन किया । राजा ने उपरोक्त प्रकार का ब्राह्मण से रुधिरस्राव होने लगा। तत्काल भीम इसपर झपटा। लाकर उसके द्वारा अभिमंत्रित जल हाथी पर डलवाया। 'द्रौपदी वस्त्रहरण, 'केशग्रहण' तथा वनगमन के समय, जल के गिरते ही यह दिव्यदेह धारण कर स्वर्ग गया 'गौौं ' कहने का स्मरण उसे दे कर, एवं अपनी प्रतिज्ञा का भी स्मरण दिला कर भीम ने इसके गले पर पैर रखा। दुःशीम-एक दाता । तान्य ने अपने सूक्त में इसका इसके दोनों हाथ पकड़े। पास ही में खडे दुर्योधन. कर्ण. | उदार कह कर उल्लेख किया है (ऋ. १०.९३.१४)। कृपाचार्य अश्वत्थामा आदि वीरों की ओर देख कर भीम । दुःषन्त-(सो. पूरु.) दुष्यंत देखिये। ने क्रोध से कहा, 'अगर किसी में सामर्थ्य हो तो वह दुःसह--धृतराष्ट्र के शत पुत्रों में से एक | यह भीम इसकी रक्षा करे। मेरी प्रतिज्ञा के अनुसार, अब मैं इसका के द्वारा मारा गया (म. द्रो. ११०.२९, ३५)। रक्तप्राशन करनेवाला हूँ'। इतना कह कर उसने दुःशासन २. लक्ष्मी की भगिनी 'अलक्ष्मी' का पति (लिंग. का वक्षविदारण किया, तथा सब के सामने इसका रक्त | १.६)। प्राशन करने लगा। वक्षस्थलमेद होने के कारण, दुःशासन । ३. (सू. इ.) पुरुकुत्स का पुत्र । इसकी पत्नी का की तत्काल मृत्यु हो गई (म. क.६१)। नाम नर्मदा । दुःशासन की मृत्यु के बाद, गांधारी ने श्रीकृष्ण के दुःस्वभाव--दुर्बुद्धि देखिये। पास, अत्यंत शोक व्यक्त किया । रोते रोते वह बोली जिस | दुदर्भ--सुहोत्र नामक शिवावतार का शिष्य। २७७ Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुंदुभि प्राचीन चरित्रकोश दुर्जय दुंदुभि--मयासुर का पुत्र । मयासुर को हेमा नामक राक्षस का नाश हुआ। काशी के 'व्याधेश्वरमाहात्म्य' अप्सरा से दो पुत्र उत्पन्न हुएँ । उनमें से यह कनिष्ठ | में यह कथा दी गयी है (शिव. रुद्र. यु.५८)। था (वा. रा. उ. १२.१३)। दुरतिक्रम--शिवावतार सुहोत्र का शिष्य । दीर्घ तपस्या कर के इसने सहस्रावधि हाथियों का बल | दुराचार-एक दुराचारी ब्राह्मण । वैवाल आदि की प्राप्त किया तथा महिष का रूप धारण किया। पश्चात् | पीड़ा से यह ग्रस्त था । धनुष्कोटितीर्थ, जाबालतीर्थ, एवं इसने समुद्र को युद्ध का आह्वान दिया। समुद्र ने इसे | कटाचलतीर्थ पर जाने के कारण, यह मुक्त हुआ हिमालय के पास भेजा। हिमालय ने इसे वालिन् के | (कंद. २. १. २. ५, ३. १. ३६)। पास भेजा। वालिन् के साथ हुएँ युद्ध में, दुंदुभि का | दुराधन--(सो. कुरु.) वृतराष्ट्र का पुत्र । पराजय हुआ । यह एक गुफा में जा छिपा। वहाँ वालिन् दुराधर-(सो. कुरु.) धृतराष्ट्र का पुत्र । ने इसका वध किया। दुरासद--भस्मासुर का पुत्र । इसने शिव से पंचाक्षरी मृत्यु के पश्चात इसका कलेवर वालिन ने दर फेंका। विद्या प्राप्त कर, उसका जाप किया। उस जाप से संतुष्ट वह मतंग ऋषि के आश्रम में जा गिरा । आश्रम की | हो कर, शंकर ने इसे इच्छित वर दिया । उस वर के सारी वस्तुएँ रक्तरंजित हो गयी । वृक्ष भी टूट गये। तब | प्रभाव से, प्रमत्त हो कर यह सब को कष्ट देने लगा। मतंग ने क्रुद्ध हो कर वालिन् को शाप दिया, 'मेरे आश्रम | शीघ्र ही शक्तिपुत्र हुँढि ने इसका वध किया। (गणेश. में आते ही तुम मृत हो जावोगे'। तब से वह आश्रम वालिन् | १. ३८-४२)। के लिये अगम्य हो कर, सुग्रीव का वासस्थान बन गया। दुरितक्षय--(सो. पूरु.) महावीर्य राजा का पुत्र । राम का सुग्रीव से दोस्ती का सुलूक हो गया । पश्चात् | विष्णु मत में उरुक्षय इसीका नामांतर है। त्रय्यारुणि, अपना सामर्थ्य दर्शाने के लिये, दुंदुभि के शरीर का कवि, एवं पुष्करारुणि नामक इसके तीन पुत्र थे (भा. ९. कंकाल, राम ने अपने अंगूठे से दस योजन तक दूर उड़ा २१.१९) । तपस्या के कारण, वे सब ब्राह्मण हो गएँ । . दिया (वा. रा. किं. ११.७-६५) । दुंदभि ने सोलह दुर्ग--हिरण्याक्ष के वंश के रुरु दैत्य का पुत्र । हजार स्त्रियों को कैद में रखा था। उन स्त्रियों की दुर्गम--एक दैत्य । दुर्गादेवी ने इसका वध किया मुक्ति राम ने की । एक लाख स्त्रियों से एकदम विवाह (स्कंद १. २. ६५.)। करने का इसका संकल्प था (आ. रा. राज्य. १.११)। २. रुरु दैत्य का पुत्र। इसने सब ब्राहाणों तथा २. एक गंधर्वी । ब्रह्मदेव की आज्ञानुसार अयोध्या ऋषियों के आधारस्तंभ, वेदों का नाश किया। इस में यह कैकेयी की मंथरा नामक दासी बनी (म. व. २५. कारण नित्य नैमित्तिक कर्म बंद हो गये । सर्वत्र हाहाकार मच गया । तब चतुर्भुजादेवी ने इसका वध किया ९.१०)। ३.(सो. यदु, कुकुर.) अनुपुत्र अंधक का पुत्र | ( ( (शिव. उ.५०)। इसका पुत्र अरिद्योत। ३. (सो. द्रुहयु.) विष्णु मत में धृत का पुत्र । दुर्दम, ४. कश्यप तथा दनु का पुत्र । दुर्मनस् एवं विदुष इसके नामांतर हैं । ५. सुतार नामक शिवावतार का शिष्य । ४. रेवती १. एवं विकाठा देखिये। दुर्गमभूत---(सो. वतु.) विष्णु मत में वसुदेव का दुंदुभिनिहाद-एक राक्षस । यह दिति का पुत्र, रोहिणी से उत्पन्न पुत्र। एवं प्रलाद का मामा था। देव-असुर युद्ध में, देवों का दुगह-- सायण के मत में पुरकुत्स का पिता । पुरुविजय एवं असुरों का पराभव होने लगा । देवों के इस कुत्स को दौर्गह यह पैतृक नाम प्रयुक्त है (क्र. ४.४२.८; विजय के लिये, ब्राह्मण ही उत्तरदायी है यह सोच कर, पुरुकुत्स देखिये)। इसने ब्राह्मणों का संहार प्रारंभ किया। इस कार्य के लिये, दुर्गा-विश्वव्यापक आदिमाया का एक नाम । इसे काशी जैसे क्षेत्रों पर अपना अधिकार भी जमाया। त्रिगुणात्मिका एवं देवी भी कहते है ( देवी देखिये)। पश्चात् काशीवासी ब्राह्मणों को शंकर ने अभय दिया, दुर्जय--दनुपुत्र दानवों में से एक । 'मेरा स्मरण कर, जो ब्राह्मण दुंदुभिनिहाद का विरोध २. ( सू. इ.) दशाश्व शाखा में से सुवीर का पुत्र । करेंगे, वे सदा अजेय रहेंगे । बाद में शिवशक्ति से इस ) इसे दुर्योधन नामक एक पुत्र था (म. अनु. २.१२) । २७८ Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुर्जय प्राचीन चरित्रकोश दुर्मर्ष ३. एक रुद्रगण । के कारण इसकी मृत्यु हो गयी । पश्चात् इसका उद्धार ४. खर राक्षस के बारह अमात्यों में से एक। | हुआ । एवं विमान में बैठ कर यह गंधर्व लोक में गया ५. (सो. कुरु.) धृतराष्ट्र का पुत्र। भीम ने इसका | (स्कन्द. ३.१.४)। वध किया (म. द्रो. १०८.३८)। दुर्दमन-(सो. कुरु.) भविष्य तथा भागवत के ६. पांडवपक्षीय एक राजा । कर्ण ने इसका वध किया मतानुसार शतानीक का पुत्र । इसके लिये उदयन तथा (म. क. ४०.४६)। उद्यान नामांतर भी प्राप्त है। ७. सुप्रतीक का पुत्र। इसने सब देश जीते । इसने हेतृप्रहेतृ की कन्या से विवाह किया ( हेताहेत देखिये)। दुर्धर-रावण का एक प्रधान (वा. रा. सं. ४९. गौरमुख मुनि के पास चिंतामणि नामक एक मणि था।' उसे प्राप्त करने के प्रयत्न में, यह मारा गया। जिस २. रामसेना का एक वानर । इसके पिता का नाम स्थान पर इसकी मृत्यु हुई, उस स्थान को 'नैमिषारण्य' | वसु ( वा. रा. यु. ३०.३३ )। कहते हैं (वराह. ११)। । ३. महिषासुर के पक्ष का एक राजा । दुर्जयामित्रकर्षण--(सो. सह.) अनंत का पुत्र । ४. (सो. कुरु.) धृतराष्ट्र का पुत्र | भीम ने इसका (सुप्रतीक १. देखिये)। वध किया (म. द्रो. ११०.२९, ३५)। दुर्दम-(स्वा. प्रिय.) विक्रमशील राजा का पुत्र।। दुधेषे-हनूमत् द्वारा मारा गया रावण का सेनापति इसकी माता का नाम कालिंदी था। प्रनुच नामक ऋषि | (वा. रा. सु. ४६)। की कन्या रेवती इसकी पत्नी थी। । २. राम के द्वारा मारा गया एक रावणपक्षीय राक्षस २. दुर्गम का नामांतर (दुर्गम ३. देखिये)। (वा. रा. यु. ९. २१)। ३. (सो. सह.) रुद्रश्रेण्य का पुत्र । कई ग्रंथों में, ३. (सो. कुरू.) धृतराष्ट्र का पुत्र । इसे भद्रश्रेण्य का पुत्र कह कर, इसका नाम दुर्मद बताया ४. हिरण्याक्ष के पक्ष का एक असुर । यम ने इसका . है (ह. व. १.२९.६९; ब्रह्म. ११.४८)। वध किया (पद्म. . ७०)। पद्म मत में यह भद्रसेन का पुत्र था। इसका पुत्र धनक | दुर्धार-अंगदेश के राजा मायावर्म का पुत्र (भवि. (पद्म. सृ. १२)। । प्रति. ३.३१)। हैहय एवं काश्य कुलों की परस्पर स्पर्धा में भद्रश्रेण्य दुर्बुद्धि-धृतराष्ट्र नाग का पुत्र । इसने अपने पिता के अन्य पुत्रों का दिवोदास ने वध किया। किंतु अनजान | के कहने पर, अपने बंधु की सहायता से, मृत हुएँ अर्जुन • होने से इसे छोड़ दिया । कालोपरांत इसने दिवोदास के सिर का हरण किया (जै. अ. ३९.६६-७६)। . को पराजित कर, अपने पिता के वध का बदला लिया। दुर्बुद्धि जनमेजय- जनमेजय पारिशित २. ४. गोदावरी के तट पर प्रतिष्ठान नगर में रहनेवाला | देखिये । एक ब्राह्मण । यह किसी भी व्यक्ति से दान लेता था। दुर्मद-(सो. कुरु.) धृतराष्ट्र का पुत्र । भीम ने इसलिये इसे नरक प्राप्त हुआ। इसका वध किया। (म. द्रो. १३०-३४)। ५. विश्वावसु गंधर्व का पुत्र । एक बार कैलास में | २. दुर्दम ३. देखिये। वसिष्ठ, अत्रि आदि ऋषि शंकर की उपासना कर रहे थे। उस वक्त, अपनी सैंकडों पत्नियों के साथ यह वहाँ आया, ३. वसुदेव का पोरवी से उत्पन्न पुत्र । तथा पास के 'हालास्यतीर्थ' में नमस्थिति में स्नान ४. मयासुर का पुत्र । युद्ध के लिये वालिन् को इसने करने लगा। उसकी यह बदतमीजी को देख कर वसिष्ठ ने आह्वान दिया था । इस आह्वान को स्वीकार कर वालिन् इसे शाप दिया, 'तुम राक्षस बनोंगे'। परंतु इसकी ने इसे पराजित किया। पश्चात् यह भागने लगा । वालिन् पत्नियों द्वारा प्रार्थना की जाने पर वसिष्ठ ने कहा, ने इसका पीछा करने पर यह एक गुफा में जा कर छिप 'सोलह वर्ष के बाद तुम्हारा पति शाप से मुक्त हो कर | गया (आ. रा. सार.८)। तुम्हें वापस मिलेंगा । बाद में राक्षस हो कर यह गालव दुर्मर्ष-एक असुर । समुद्रमंथन के वक्त इसने ऋषि को खाने दौडा । तब भगवान् विष्णु के सुदर्शन चक्र । देवताओं से युद्ध किया था (भा. ८. १०.३३)। २७९ Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुर्मर्पण प्राचीन चरित्रकोश सुजय दुर्मर्षण-- (सो. क्रोष्टु.) वसुदेव का बंधु को यह राष्ट्रपाली नामक भार्या से उत्पन्न हुआ था। ( भा. ९. २४.४२ ) । २. (सो. कुरु. ) भीम के द्वारा मारा गया धृतराष्ट्र १३३.३६ ) । का एक पुत्र ( म. श. २५.७ ) । दुर्मित्र - (भविष्य.) कलियुग का एक राजा । यह बाह्निक के बाद हुएँ पुष्पमित्र राजा का पुत्र था ( भा. १२. २.२४ ) । २. (किलकिला. भविष्य.) भागवत मतानुसार किलकिला नगरी का एक राजा । विष्णु मतानुतार इसे पटुमित्र, तथा वायु एवं ब्रह्मांड मतानुसार पट्टमित्र कहते थे । दुर्मित्र कौत्स - सूक्तद्रष्टा । इसके सूक्त में, यह कुत्सपुत्र होने का निर्देश है (ऋ. १०.१०५. ११ ) । दुर्मुख-कश्यप एवं राशा का पुत्र । २. कद्रु का पुत्र एवं एक सर्प । दुर्योधन- (सो. कुरु.) धृतराष्ट्र तथा गांधारी के सौ पुत्रों में से ज्येष्ठ पुत्र एवं ' भारतीय युद्ध ' का सूत्रचालक | व्यास के ( में एक महाभारत खलनायक' के रूप में दुर्योधन की व्यक्तिरेखा चित्रांकित की गयी है। स्वजनों की हर एक वस्तु पर, पापी नजर डालने - वाला, लोभी, मत्सरी एवं मूढ राजा के रुप में इसका चरित्र महाभारत में दर्शाया गया है। किंतु दुर्योधन का यह चरित्र चित्रण एकांगी एवं इसके अन्य गुणों पर अन्याय करनेवाला है । यह उत्तम विद्यामंडित, रथी, सारथी शरत्रास्त्रविद्या में निष्णात एवं उत्तम राज्यशासक था ( म.उ. १६२. १९) गायुद्ध में भी यह अत्यंत प्रवीण था (म. आ. १३१ ) । यह एक सच्चा ४. राम के पक्ष का एक वानर ( वा. रा. यु. ३०. मित्र भी था । कर्ण, अश्वत्थामा, शल्य आदि अपने मित्रोंके लिये इसने अपना सब कुछ न्योछावर किया, एवं उनकी आमरण मैत्री संपादित की । एक राजा के नाते यह प्रजाहितदक्ष एवं आदर्श था, यों प्रशस्ति स्वयं युधिष्ठिर ने दी है। ३. सुहोत्र नामक शिवावतार का शिष्य । अतीय राज्यहृष्णा एवं पांडों के प्रति मत्सर के कारण, आमरण इसने पांडवों का द्वेष किया। इसके यही द्वेष का पर्यवसान आखिर 'भारतीय युद्ध जैसे दारुण युद्ध में हुआ। उस युद्ध में इसका सारे संबंधियों के साथ सर्वनाश हुआ। भारतीय युद्ध के प्रारंभ में कृष्ण ने अर्जुन को गीता सुनाई, एवं गीता से स्फूर्ति पा कर अर्जुन ने उस युद्ध में विजय प्राप्त किया । इस लिये अर्जुन को ही लोग भारतीययुद्ध का नायक समझते है । किंतु महाभारत में हरेक व्यक्ति से मित्रता वा शत्रुता के नाते संबंध रखनेवाला दुर्योधन यह एक ही सामर्थ्यशाली व्यक्ति है । दुर्दम महत्त्वाकांक्षा, संकुचित मनोवृत्ति, क्रूरता, एवं विनाश प्रवृत्ति इन स्वभावगुणों के कारण, दुर्योधन भारतीययुद्ध एवं महाभारत का खलनायक तथा नायक इन दो रूपोंमें एक ही साथ प्रतीत होता है। दुर्योधन ब्रा. ८.२३) । यह युधिष्ठिर की सभा में उपस्थित रहा होगा ( म. स. ४.१९ ) । इसका पुत्र जनमेजय । भारतीय युद्ध में वह युधिष्ठिर के पक्ष में शामिल था ( म.द्रो. २३) । ५. वरुण की सभा का एक राक्षस सभासद ( म. स. ९.१३)। ६. हिरण्याक्ष के पक्ष का एक राक्षस यम ने दुर्धर्ष का वध किया । इसलिये इसने चिढ़ कर यम पर आक्रमण किया किंतु यम ने खड़ग से इसका वध किया (पद्म. स. ६८.१८ ) । ७. रावण के पक्ष का एक राक्षस ( वा. रा. यु. ९.३)। ८. महिषासुर के पक्ष का एक असुर । महिषासुर के कोषाध्यक्ष ताम्र ने इसे बाष्कल के साथ देवी से युद्ध करने के लिये भेजा। उस युद्ध में, देवी ने इसका वध किया (दे. भा. ५.१३)। पूर्वजन्म में यह पौलस्त्यों में से एक था (म. आ. ६१.८२ ) । ९. (सो. कुह. ) धृतराष्ट्र का पुत्र । यह द्रौपदी - स्वयंवर में गया था (म. आ. १७७.१ ) । सहदेव ने इसे पराजित किया ( म. द्रो. १०९.२० ) । इसे यशोधर नामक पुत्र था ( म. द्रो. १५९.४ ) । ' भांडारकर ' महाभारत में, इसके नाम का यशोधन पाठभेद उपलब्ध है । दुर्मुख पांचाल -- पांचाल देश का राजा । इसको बृह दुक्थ वामदेव ऋषि ने महाभिषेक किया तथा महाभिषेक का रहस्य बताया । इसी कारण यह सम्राट् हुआ ( ऐ. जन्म- - इसके जन्म के बारे में, महाभारत में दी गयी सारी आख्यायिकाएँ हेतुतः वक्रोक्तिपूर्ण एवं इसके बारे में पाठकों का मन कलुषित कर देनेवाली है । यह कलि के अंश से उत्पन्न हुआ था । इसलिये इसके कारण सारे क्षत्रियों का नाश हुआ (म. आ. ६१.८० ) । जन्म होते | २८० Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुर्योधन प्राचीन चरित्रकोश दुर्योधन ही दुर्योधन रोया। इसका रुदन गधे के चिल्लाने जैसा मार्ग ढूँढ़ता रहा। इसका मामा शकुनि एवं इसका था। इसके रोते ही गधे, गीध, सियार, कौओ, आदि | मित्र कर्ण, उस कार्य में इसकी सहायता करने लगे। चिल्लाने लगे। तूफान चलने लगा, एवं दसों दिशाओं में एक बार भीम शहर के बाहर बाग में सोया था। खलबली मच गई। धृतराष्ट्र अत्यंत भयभीत हुआ। | उस वक्त, उसे गंगा नदी में फेंक कर, एवं अर्जुन तथा उसने भीष्म, विदुर, अनेक ब्राह्मणों तथा आप्तों को बुला । युधिष्ठिर को कैद कर, राज्य हासिल करने की कर कहा, 'राजपुत्र युधिष्ठिर दुर्योधन से बड़ा है। वह तरकीब इसने सोची। गंगा नदी के किनारे प्रमाणकोटि हमारे वंश का विस्तार भी करेगा। इस पर हमारा कुछ | तीर्थ पर इसने जलक्रीडा समारोह का आयोजन किया। आक्षेप नही है। किंतु उसके बाद दुर्योधन राजा बनना | सारे पांडवों को इसने उस समारोह के लिये बुलाया । चाहिये । हमारी इच्छानुसार वह राजा बनेगा, या नहीं, भीम अत्यंत भुक्खड़ है, यह जान कर, उसके तयार अन्न एवं बाद में क्या होगा, यह बताइये। . में कालकूट विष इसन मिलाया। एवं बडे ही प्रेम से वह धृतराष्ट ने यह कहते ही, कर तथा हिंस्र पशु फिर से | अन्न भीम को खिलाया। बाद में कौरव पांडव सारे मिल चिल्लाने लगे। चारों ओर से भयंकर अपशकुन हुएँ। कर जलक्रीड़ा करने गये। वहाँ जलविहार से भीम थक उपस्थित ब्राह्मण एवं विदुर ने धृतराष्ट्र से कहा, 'इस गया, तथा गंगा किनारे आराम से सो गया। वहाँ पुत्र के जन्मकाल में, च कि इतने अपशकुन हएँ है, इससे | के ठंडे वायु ने तथा विषप्रभाव ने उसे निश्चेष्ट बना स्पष्ट है कि, यह कलक्षय करेगा। इसलिये इसका | दिया । यह अवसर पा कर, दुर्योधन ने उसे गंगा नदी में त्याग करना ही उचित है। तुम्हारे कुल का क्षेम एवं ढकेल दिया (म. आ. १२७) । इस तरह, भीमरूपी संसार का कल्याण यदि तुम चाहते हो, तो इस पुत्र का कंटक अपनी राह में से दूर हुआ, यह सोच कर दुर्योधन त्याग करो' (म. आ. १०७)। . को अत्यंत आनंद हुआ। किंतु भीम पुनः वापस आया, | एवं इसकी यह अधम कृति, उसने बंधुओं को बताई। अस्रविद्या--दुर्योधन युधिष्ठिर से छोटा था। किंतु इस प्रकार भीम का वध करने का दुर्योधन का षड्यंत्र दुर्योधन एवं भीम का जन्म एक ही दिन हुआ था। विफल रहा। फिर भी, भीम के सारथी को इसने गला बचपन में कौरव एवं पांडव इकठे खेलते थे। धनुर्विद्या, घोंट कर मार ही दिया (म. आ. १२८)। . अस्त्रविद्या आदि की शिक्षा, इन सब भाईयों ने मिलजुल के द्रोणाचार्य से ली थी (म. आ. १२२-१२३)। गदा __ लाक्षागृहदाह-भीम का वध करने का यह प्रयत्न युद्ध की शिक्षा इसने बलराम से प्राप्त की थी (भा. १० असफल होने के पश्चात् , पांडव एवं उनकी माता कुंती को जला कर मार डालने का व्यूह इसने रचा । इसने वारणावत५७. २६; विष्णु. ४.१३)। तीर्थ में, अपने मित्र पुरोचन द्वारा एक लाक्षागृह बनवाया। पांडवों को विषप्रयोग--पांडवों का युद्धकौशल्य एवं पश्चात् , धृतराष्ट्र के द्वारा पांडवों को, तीर्थयात्रा के निमित्त दिन ब दिन बढ़ता हुआ सामर्थ्य देख कर, कौरवों, वारणावत भिजवाने की व्यवस्था इसने की। इसने बनायें एवं विशेष कर इसके मन में उनके प्रति मत्सर उत्पन्न | लाक्षागृह में पांडव जल कर मरनेवाले ही थे, किंतु विदुर हुआ। हर एक जगह पाडवों के आगे जाने की ईर्ष्या | की सहायता से वे बच गये। उनकी जगह, अपने पाँच इसके मन में उत्पन्न हुई। कौरव-पांडवों के गुरु द्रोणाचार्य | पुत्रों सहित एक भीलनी जल कर मृत हो गई। उनकी ने गुरुदक्षणा के रूप में, द्रुपद को रणांगण में जीत कर | छः लाशें देख कर दुर्योधन अत्यंत आनंदित हुआ। लाने की आज्ञा की। पांडवों को फजीहत करने के हेतु ।। पाडवा का फजाहत करन क हेतु | लाक्षागृह की इस दुर्घटना का दोष लोगों ने कौरवों पर दुर्योधन ने सर्व प्रथम द्रुपद को जीतने का प्रयत्न | ही लगाया। इस प्राणसंकट से पांडव बच गये, यह किया । किंतु दुर्योधन का यह प्रयत्न विफल हुआ, एवं | ज्ञात होते ही दुर्योधन अत्यंत शरमाया (म. आ. कौरवों की दुर्दशा हुई। १२९-१३८)। यह वृत्त धृतराष्ट्र को ज्ञात होने पर, धनुर्विद्या एवं अस्त्रविद्या में पांडव कौरवों से | उसने पांडवों को इन्द्रप्रस्थ में ला रखा । धृतराष्ट्र व कतिपय श्रेष्ठ है, यह जान कर उनके नाश के लिये, यह नये- | यह कृत्य दुर्योधन को बिल्कुल अच्छा नहीं लगा। नये षड्यंत्र रचने लगा । सारा राज्य मुझे ही प्राप्त | विवाह-द्रौपदीस्वयंवर में दुर्योधन उपस्थित था (म. हो, इस लोभ के कारण यह पांडवों के नाश के नये-नये | आ. १७७. १)। दुर्योधन ने, कलिंग देश के राजा प्रा. च. ३६] २८१ Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुर्योधन प्राचीन चरित्रकोश दुर्योधन चित्रांगद की कन्या का, स्वयंवर में हरण किया (म. शां. घोषयात्रा--एकबार, पांडव द्वैतवन में हैं, यह ज्ञात ४. १२-१३)। काशिराज की कन्या दुर्योधन की स्त्री थी होते ही, घोषयात्रा के निमित्त यह वहाँ गया। इसके (म. आ. परि. १. क्र. १०७.पंक्ति १)। इसकी पत्नी | साथ इसके अनुयायी कर्ण, दुःशासन आदि थे। गोधन का नाम भानुमती था (स्कंद, ६. ७३-७४)। यह के अवलोकन के बाद, यह द्वैतवन के समीप, सरोवर में बलराम का भी दामाद था (मार्क. ६.३)। इसका पुत्र क्रीड़ा करने के लिये गया। उस वन में, पांडवों के संरक्षण लक्ष्मण तथा कन्या लक्ष्मणा ।। के लिये, इन्द्र ने चित्रसेन गंधर्व को रखा था। चित्रसेन अर्धराज्य-प्रदान-धृतराष्ट्र ने पांडवों को आधा राज्य वही सरोवर में अपनी स्त्रियों के साथ जल क्रीड़ा कर रहा था। दे कर इन्द्रप्रस्थ में रखा। वहाँ उन्होंने अगणित संपत्ति | उसने दुर्योधन से वहाँ आने के लिये मनाई की । दुर्योधन प्राप्त की । युधिष्ठिर ने राजसूय यज्ञ किया । उसमें दुर्योधन | ने उसे ही वहाँ से चले जाने के लिये कहा । इससे क्रोधित धृतराष्ट्रसहित आया था । दुर्योधन को कोशागार का । | हो कर उन दोनों में युद्ध हुआ। उसमें चित्रसेन ने कर्ण को अधिकार दिया था। पांडा फजीहत हो इस हेतु से, | भगा दिया तथा दुर्योधन को बद्ध कर दिया। इसने कोशागार में से अपरिमित द्रव्य खर्च किया परंतु एक सैनिक के द्वारा यह वृत्त पांडवों को मालूम हुआ। द्रव्य की कमी नहीं पड़ी । इसके अतिरिक्त पांडवों की | तब भीम को बड़ा अच्छा लगा। परंतु युधिष्ठिर ने पांडवों . मयसभा देख कर, इसे पांडवों के तथा उनकी संपत्ति के | को उपदेश दे कर दुर्योधन को छुड़वाया । अर्जुन ने चित्रसेन, प्रति, बड़ी ही ईर्ष्या उत्पन्न हुई (म. आ. १२९. ९- | का पराभव किया तथा दुर्योधन को छुड़ाया। धर्मराज को . १०)। मयसभा की रचना में पानी की जगह जमीन, | वंदन कर, मानहानि से क्रोधित हो कर, यह हस्तिनापुर तथा जमीन की जगह पानी दीखता था। इससे इसकी | वापस गया। फजीहत हो कर, अन्य स्त्रियों के साथ द्रौपदी भी हँसी। हस्तिनापुर वापस आते ही, इसके मित्र कर्ण ने इसका इससे इसे अत्यंत विषाद हुआ। यह हस्तिनापुर | अभिनंदन किया। किंतु दुर्योधन ने उसे सारी घटना. चला गया (म. स. परि. १. क्र. ३२. पंक्ति ११, सुनाई तथा कहा कि, 'यह मुक्तता अर्जुन द्वारा हो गई। अध्याय ४३)। पांडवों की संपत्ति देख कर दुर्योधन को है।' इसीलिये प्रायोपवेशन कर, प्राणत्याग करने का . बुरा लगा । तब धृतराष्ट्र ने इसे शील का महत्त्व निवेदित | निश्चय इसने किया । अपने भाई दुःशासन को बुला कर, किया (म. शां. १२४)। परंतु उससे इसे कुछ फायदा शकुनि तथा कर्ण की सहायता से, राज्य करने के लिये नहीं हुआ। इसने उसे कहा । कर्ण तथा शकुनि ने इसे बहुत समझाया चूतक्रीडा-पांडवों की संपत्ति हरण करने के हेतु से, परंतु इसका निश्चय नहीं बदला । इसने वल्कल परिधान इसने कपटात में पारंगत शकुनि मामा की अनुमति से, | किये तथा दर्भासन पर यह बैठ गया। 'आथर्व मंत्र' युधिष्ठिर को द्यूत खेलने के लिये आवाहन किया । द्यूत में कह कर इसने होमहवन शुरू किया। इतने में इसने एक पांडवों का सर्वस्व इसने जीत लिया। द्रोपदी की इसने | स्वप्न देखा। उस स्वप्न में इसे दिखा कि, इसका भरी सभा में अवहेलना करवाई। इसने भीष्म-द्रोण | सारा कौरवपरिवार एवं अनुयायी दैत्य ही है। पश्चात् आदि के प्रतिकार की भी पर्वाह नहीं की। यत में हार | एक राक्षसी की सहायता से, यह पाताल में गया। वहाँ जाने के कारण, पांडवों को बारह वर्ष वनवास तथा एक | दैत्यों ने आशीर्वाद दे कर इसे वापस भेज दिया। वर्ष अज्ञातवास का स्वीकार करना पड़ा । इसके अतिरिक्त हस्तिनापुर आने के पश्चात् , भीष्म ने इसे पांडवों से सख्य अज्ञातवास में प्रकट होने पर, पुनः बारह वर्षों तक वनवास | करने के लिये कहा; परंतु इसने उसका उपहास किया करना पडेगा, यह शर्त भी उन पर डाली गयी। इस | (म. व. २३७-२४१)। तरह, पांडवों को वनवास में भेज कर, यह उनके राज्य | वैष्णवयज्ञ-इसके बाद, दर्योधन ने कौरवों की ओर का उपभोग लेने लगा। से, कर्ण को दिग्विजय के लिये भेजा। उसके आने के बाद, पांडवों के वनवास गमन के पश्चात् , कीर्तिप्राप्ति की दुर्योधन ने राजसूय यज्ञ करने का निश्चय किया। परंतु इच्छा से, इसने नीति से राज्य किया। किंतु पांडव कहाँ पुरोहितों ने कहा, 'यह यज्ञ युधिष्ठिर द्वारा किया गया है, हैं, क्या करते हैं आदि के बारे में गुप्त खोज यह हमेशा | अतः तुम न कर सकोगे'। तब दुर्योधन ने 'वैष्णवयज्ञ' करता रहता था। | किया तथा खिजलाने के हेतू, पांडवों को यज्ञ का निमंत्रण २८२ Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुर्योधन प्राचीन चरित्रकोश दुर्योधन दिया । उस पर युधिष्ठिर ने आनंद प्रदर्शित कर कहा, उपजीविका करना क्षत्रियों के लिये निंद्य है ऐसा यदि 'तेरह वर्ष पूर्ण होने के पहले हम नहीं आ सकते' तुम सोंचते हो, तो क्षत्रियधर्म से तुम कृष्ण या द्रुपद के (म. व. २४१ -२४३)। दरबार में रह सकते हो । कृष्ण तुम्हारा मित्र है । तथा द्रौपदी सत्वपरीक्षा-पांडवों का नाश करने की ही | द्रुपद तुम्हारा श्वशुर है । उसके पास रहने पर वे तुम्हें ना इच्छा दुर्योधन के मन में हमेशा रहती थी। एक नहीं करेंगे। इसलिये दो में से एक मार्ग का स्वीकार कर बार अपने 'अयुत' नामक शिष्यपरिवार के साथ राज्यविभाग न माँग कर, चुपचाप रहो,' (म. उ. २७)। दुर्वास ऋषि इसके पास आया। इसने दीर्घकाल तक संजय का यह भाषण सुन कर युधिष्ठिर को अत्यंत आश्चर्य दुर्वास की कठिन सेवा की। संतुष्ट हो कर दर्वास ने इसे हुआ। उसने कृष्ण को धृतराष्ट्र के पास भेजा (म. वर माँगने के लिये कहा। तब कर्ण, शकुनि आदि की उ. ७०)। फिर भी उसका कुछ उपयोग न हो कर युद्ध सलाह से इसने वर माँगा, 'जिस प्रकार आप यहाँ के सिवा पांडवों को कोई चारा नहीं रहा। पांडव तथा अतिथि बन कर आये हैं. उसी प्रकार शिष्यों सह आप | दुर्योधन सेनाएँ इकट्ठी करने लगे। मद्रदेश का राजा पांडवों के पास काम्यकवन में जायें तथा उनका भोजन होने | शल्य, पांडवों के पक्ष में जाना चाहता था । बडी युक्ति से के बाद, द्रौपदी से अन्न माँग कर उसे त्रस्त करें। दुर्योधन ने उसे अपने पक्ष में ले लिया (म.उ.८.५३७)। द्रौपदी अन्न न दे सके, तो उसे शाप दे' यह | | कृष्ण की सहायता प्राप्त करने के लिये, दुर्योधन चाल दर्वास को अच्छी नहीं लगी. परंतु निरुपाय हो । स्वयं द्वारका गया था । अर्जुन तथा यह कृष्ण के यहाँ कर उसने इसे मान्यता दी। पश्चात् पांडवों के पास एक ही साथ पहुँचे । अर्जुन ने स्वयं कृष्ण तथा जा कर, दुर्वास ने अन्न की याचना की । द्रौपदी के द्वारा दुर्योधन ने समस्त यादव सेना, अपने लिये कृष्ण यह मांग पूरी होने के बाद, दुर्वास के शाप से पांडव बच | से माँग ली (म. उ. ७.१९-२०)। बाद में दुर्योधन गये (दुर्वास देखिये)। . | कृतवर्मा के पास गया । उसने एक अक्षौहिणी सेना इसे विराटनगरी में बारह वर्ष वनवास के बाद, विराट दी (म. उ. ७.२९,१९.१७)। के घर अज्ञातवास करने के लिये पांडव गये । दुर्योधन कृष्णदौत्य-दुर्योधन को युद्ध से परावृत्त करने के को कीचकवध का समाचार मिला (म. वि. २९.२७)। लिये कृष्ण (म. उ. ९३), परशुराम (म. उ. ९४. इसको शंका आई, 'चाहे जो हो, पांडव विराट ३), कृपाचार्य (म. श.३), द्रोण (म. उ. १३७. 'के घर ही होंगे। इस समय यदि उन्हें हूँढा गया, तो २२), भीष्म (म. भी. ११६.४६) तथा अश्वत्थामा उन्हें पुनः बारह वर्षों तक वनवास में रहना पड़ेगा। (म. क. ६४.२०) ने प्रयत्न किये; परंतु उसका कुछ .. पांडवों को ढूंढने के हेतु, विराट का गोधन हरण करने उपयोग नहीं हुआ। कण्व ने भी उसे काफी उपदेश का बहाना इसने सोचा, एवं उस काम के लिये इसने किया। परंतु कुछ उपयोग न हो कर, इसने कण्व का केवल सुशर्मा को भेज दिया। परंतु वहाँ सुशर्मा का पराभव उपहास किया। इस कारण कण्व ने इसे शाप दिया हुआ। बाद में भीष्मादिकों को साथ ले कर, इसने उत्तर (म. उ. ९५)। दिशा से विराट नगरी पर आक्रमण किया। उस समय भी यह पराजित हुआ। पांडवों की ओर से, दौत्य करने के लिये कृष्ण हस्तिनासंजयदौत्य-इस प्रकार जो भी उपाय इसने किये, पुर में आया। उस समय, दुर्योधन ने कृष्ण को भोजन सब निष्फल हो कर पांडव प्रकट हुएँ तथा उपप्लव्य नगर | के लिये बुलाया। किंतु कृष्ण ने उसे अस्वीकार कर दिया में रहने लगे। यथान्याय आधा राज्य हमें मिले, इस (म. उ. ८९.३२)। पश्चात् धृतराष्ट्र के दरबार में इसने हेतु से, उन्हों ने द्रुपद राजा के पुरोहित को धृतराष्ट्र के कृष्ण से कहा, सुई के अग्र पर रहेगी, इतनी भी भूमि हम पास भेजा । परंतु उसका कुछ उपयोग नहीं हुआ। उल्टे पांडवों को नहीं देंगे (म. उ. १२५.२७)। इतना कह कर धृतराष्ट्र ने ही संजय को युधिष्ठिर के पास भेजा । संजय ने भरी सभा से यह अपने बंधु तथा अनुयायियों सहित चला धृतराष्ट्र का संदेश पांडवों को बताया, 'तुम पांडव धर्मात्मा गया (म. उ. १२६.२४-२७)। कृष्णदौत्य के समय कृष्ण हो । इसलिये हिंसारूप युद्ध न करते हुए भिक्षा माँग को कैद करने का षड्यंत्र इसने रचा था, किंतु वह असफल कर कहीं भी स्वस्थ चित्त से वास करो। भिक्षा से | हो कर पुनः इसकी फजीहत हुई। Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुर्योधन भारतीययुद्ध इस प्रकार युद्ध प्रारंभ हुआ। कौरव पक्ष का पहला सेनापति भीष्म था। उसके बाद, अश्वत्थामा तक अनेक सेनापति हुएँ परंतु उनके होते हुए भी दुर्योधन का अनेक बार पराजय ही हुआ। - प्राचीन चरित्रकोश " प्रमुख योद्धाओं का रण में पतन होने के बाद, दुर्योधन अत्यंत भयभीत हुआ (म. श. २८.२४ ) । अन्त में 'जलस्तंभन विद्या के योग से यह द्वैपायन सरोवर के जल में छिप कर बैठ गया ( म. श. २९.७ ) । यह वृत्त पांडवों को ज्ञात हुआ, तब वे वहाँ आये । उस समय दुर्योधन बाहर नहीं आता था, इसलिये युधिष्ठिर ने इसके साथ कठोर भाषण किया ( म. श. ३० ) । मृत्यु दुर्योधन बढ़ा मानी तथा जिद्दी था। युधिष्ठिर के कहने पर द्वैपायन हृद से यह बाहर आया । गदायुद्ध की तय्यारी होने लगी। युधिष्ठिर ने इसे उदार भाव से कहा, ' पांडवों में से किसी एक के साथ तुम युद्ध करो। उस युद्ध में तुम्हारा जय होने पर, तुम्हारा राज्य तुम्हे वापस देने का आश्वासन हम देते हैं'। नकुल एवं सहदेव से गदायुद्ध कर के, उनका पराजय करना इसके लिये आसान था। फिर भी इसने तुल्यबल भीम को ही युद्ध के लिये आवाहन किया। आखिर भीम ने गदाके नियम तोड़ कर इस पर गदाप्रहार किया एवं इसका वध किया (म. श. ३३ ) । युद्ध भीम ने गदा युद्ध के नियम तोड़ कर इसकी बायी जाँघ गदाप्रहार से भिन्न कर दी। गदायुद्ध का सर्व मान्य संकेत है कि, नाभि के नीचे कभी भी प्रहार नही किया जाता। फिर भी गदायुद्ध में दुर्योधन का पराजय अशक्य देख कर अंधा पर गदाप्रहार करने का इशारा कृष्ण ने भीम को किया । उस इशारे के अनुसार गदा प्रहार कर के भीम ने दुर्योधन की बायी घ तोड़ डाली। यह अधर्म देख कर बलराम भड़क उठा। यह घटना मार्गशीर्ष बदि अमावस्या के दिन दोपहर में हुई ( भारतसावित्री ) । दुर्योधन राज्य का उचित हिस्सा पांडवों द्वारा माँगने पर भी इसने नहीं दिया। यह अधम पुरुष न तो मित्र कहने के लायक है, न शत्रु । इस अवयवभन एवं काष्ठवत् मनुष्य के साथ बात करने में कुछ फायदा नहीं । चलो चलें | बडी अच्छी बात हुई, जो यह पापी पुरुष अपने बांधवों के साथ नष्ट हुआ । कृष्ण का यह निंदागर्भ वक्तव्य सुन कर, दुर्योधन, यद्यपि खून से लथपथ तथा शक्तिहीन था, घुटनों के बल धरती पर हाथ टेक कर, ऊपर उछल पड़ा । जैसा कोई पूँछहीन सॉप उछल कर सीधा खंडा हो जाय। अपनी द्वेषभरी नजर चारों ओर घुमा कर, वेदना की तीव्रता के बावजूद, यह ठोस एवं कड़े शब्दों में बोला, ' हे कंस के दास के पुत्र, तू बड़ा ही बेशरम भीम को घावात करने को प्रेरित कर, तू ने मेरा अधर्म से वध किया है । धर्मयुद्ध करने वाले कुरुकुल का तू ने ही कुटिलता से संहार किया है'। है " 'लज्जा एवं घृणा ये चीजें तेरे पास नहीं है। शिखंडी को आगे बढ़ा कर, पितामह भीष्म को तू ने मारा | अश्वत्थामावध की किंवदन्ती उड़ा कर तू ने ही द्रोण का वध करवाया। अर्जुनवध के लिये कर्ण ने रखी हुई 'अमोषशक्ति घटोत्कच पर खर्च करने के लिये को, तू ने ही विवश किया । हस्तविहीन भूरिश्रवा का बघ तू ने ही करवाया। कर्ण के सर्पचाण से, रथ को जमीन में दबा कर अर्जुन को तू ने ही बचाया। भूमि में फँसे हुए रथ चक्र को कर्ण बाहर निकाल ही रहा था, कि तू ने अधर्म से उस का वध करवाया। सीधे मार्ग से लड़ने पर जय मिलना पांडवों के लिये असंभव था। इस कारण, अधर्म से लड़ने पर तू ने पांडवों मो विवश किया ' । , दुर्योधन का मनोगत - मृत्यु के पहले, कृष्ण एवं दुर्योधन में जो संवाद हुआ, उससे दुर्योधन का व्यक्तित्त्व मनोगत एवं मनोव्यथाओं पर गहरा प्रकाश पडता है महाभारत के शल्यपर्व में दिया गया यह संवाद, दुर्योधनचरित्र की दृष्टि से अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। । मृत्युशय्या पर पडे हुए दुर्योधन की ओर इशारा कर के कृष्ण ने कहा, 'इस दुर्योधन ने लोभवश, भीष्म द्रोण आदि का आज्ञापालन नहीं किया। अपने पिता के २८४ दुर्योधन ने आगे कहा, 'आयु भर, मैं ने दानधर्म किया, अत्युत्तम राज्य चलाया, धर्म एवं नीति के साथ आचरण किया। आखिर तक मैं ने धर्मयुद्ध किया, एवं धर्मवुद्ध करते करते ही मैं जा रहा हूँ । देवदुर्लभ तथा मानवों को अप्राप्य ऐश्वर्य का उपभोग में ले चुका हूँ। आज वैसा ही मृत्यु मुझे मिल रहा है। मैं सत्रांधव स्वर्ग सिधारूँगा। । किंतु अधर्म पर चलनेवाले तुम, नरक में ही गमन करोंगे | दुर्योधन के इस प्रकार कहने पर उसपर आकाश से देवगंधर्वो द्वारा फुलों की बौछार हुई । स्वयं कृष्णार्जुन यह देख कर चकाचौंध हो गये, फिर साधारण जनता का क्या पूँछे पश्चात् सारे लोग युद्ध निवासस्थान पर वापस लौटे Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुर्योधन प्राचीन चरित्रकोश दुर्वासस् पश्चात् संजय दुर्योधन को मिलने के लिये आया। जन्मकथा-दुर्वासस् का जन्म किस प्रकार हुआ, इसकी • उस समय भी अन्य समाचार के साथ, दुर्योधन ने | तीन अलग कथाएँ प्राप्त है। वे इस प्रकार है: अपने धर्माचरण की गवाही पुनः पुनः दी। | (१) ब्रह्माजी के मानसपुत्रों में से, दुर्वासस् एक था। __ अश्वत्थामा खबर लेने पहुँचा । दुर्योधन ने उसे सैना- (२) अत्रि तथा अनसूया के तीन पुत्रों में से, दुर्वासस् पत्य दे कर, फिर यही बात दुहरायी। अपना धर्मपालन एक था (भा. ४.१, विष्णु. १.२५)। पुत्रप्राप्ति के हेतु, तथा पांडवों के अनी तिमय आचरण का कड़ा निषेध | अत्रि त्र्यक्षकुल पर्वत पर तपस्या करने गया। वहाँ उसने इसने व्यक्त किया । अश्वत्थामा क्रोधवश पांडवों के | काफी दिनों तक तपस्या की । उस तपस्या के कारण, उसके संहारार्थ निकला। लगभग पूरे संहार की खबर | मस्तक से प्रखर ज्वाला निकली, एवं त्रैलोक्य को त्रस्त करने दुर्योधन को स्वयं अश्वत्थामा ने दी। उस पर दुर्योधन ने | लगी । पश्चात् ब्रह्मा, विष्णु, एवं शंकर अत्रि के पास आये। संतोष व्यक्त किया, तथा यह पंचतत्व में विलीन हुआ | अत्रि का मनोरथ जान कर, अपने अंश से तीन तेजस्वी (म. सौ. ९)। पुत्र होने का वर उन्होंने अत्रि को दिया। उस वर के दुर्योधन के अग्निसंस्कार का निर्देश प्राप्त नहीं है।। कारण, अत्रि को ब्रह्मा के अंश से सोम ( चंद्र ), विष्णु फिर भी यह स्वर्ग में देवताओं के साथ बैठा हुआ के अंश से दत्त, एवं शंकर के अंश से दुर्वासस् ये तीन युधिष्ठिर ने प्रत्यक्ष देखा (म. स्वर्गा. १.४-५)। | पुत्र हुएँ (शिव. शत. १९) ___ कौटिल्य के मत में, बांधवों के साथ वैर करने से इसका | (३) शंकर के अवतारो में से दुर्वासस् एकथा (मार्क. नाश हुआ (कौटिल्य. अर्थशास्त्र. पृ. २२)। | १७.९-११; विष्णु. १.९.२)। शंकर ने त्रिपुर का नाश २. (सू. इ.) दुर्जय राजा का पुत्र । इसकी पत्नी करने के लिये एक बाण छोड़ा। त्रिपुर का नाश करने के नर्मदा । इसे सुदर्शना. नामक कन्या थी । वह अग्नि को बाद, वह बाण छोटे बालक का रूप ले कर, शंकर की गोद विवाह में दी गयी थी (म. अनु..२.१२-५० कुं.)। में आ बैठा । उस बालक को ही दुर्वासस् नाम प्राप्त हुआ • दुवे--(सो. कुरु. भविष्य.) नृपंजय राजा का पुत्र । | (म. अनु. १६०.१४-१५)। मत्स्यमत में उर्व तथा विष्णुमत में मृदु पाठभेद है। पुराणों में इसे अत्रि ऋषि का पुत्र एवं दत्त आत्रेय २. बुध ७. देखिये। का भाई कहा गया है (ब्रद्दा. ११७.२; अग्नि. २०.१२) । - दुर्वाक्षी--वसुदेव के भाई वृक की पत्नी। किंतु कौन से निश्चित काल में यह पैदा हुआ, यह कहना दुर्वार-कुंडलनगराधिपति सुरथ राजा का पुत्र। मुश्किल है। पौराणिक कथाओं में, कालदृष्टि से परस्परों से सुरथ राजा ने राम का अश्वमेधीय अश्व पकड़ लिया। सुदूर माने गये अनेक राजाओं के साथ, इसका निर्देश 'उस अश्व को छुड़ाने के लिये शत्रुघ्न ने सुरथ से युद्ध प्राप्त है। उनके नाम इस प्रकार है:-(१) अंबरीष * किया । उस युद्ध में यह शामिल था ( पन. पा.४९)। (भागवत. ९.४.३५), (२)श्वेतकि (म. आ. परि.१. दुर्वारण-जालंधर दैत्य का दूत । जालंधर की आज्ञा- | ११८), (३) राम दाशरथि (पान. उ. २७१.४४), नुसार, क्षीरसागर से देव-दैत्यों ने निकाले चौदह रत्न | (४) कुन्ती (म. आ. ६७), (५) कृष्ण (ह. वं. माँगने के लिये, यह इंद्र के पास गया । परंतु उन्हें देने | २९८-३०३), (६) द्रौपदी (म. व. परि.१ क्र. २५)। से इन्कार कर, इंद्र ने जालंधर से युद्ध घोषित किया। इन निर्देशों से, प्रतीत होता है कि, नारद के समान पश्चात् देव दैत्यों का संग्राम हो कर, उस में यम के साथ दुर्वासस् भी तीनों लोक में अप्रतिबंध संचार करनेवाली इसका युद्ध हुआ (पान. उ.५)। बाद में विष्णु या शंकर एक अमर व्यक्तिरेखा थी। इंद्र से अंबरीष, राम एवं कृष्ण में से प्रथम किससे युद्ध किया जावे, यह समस्या जालंधर तक, तथा स्वर्ग से पाताल तक किसी भी समय वा स्थान, के सामने आई। तब इसने उसे सलाह दी, 'वह प्रकट हो कर, अपना विशिष्ट स्वभाव दुर्वासस् दिखाता प्रथम शंकर से युद्ध करें' (पन. उ. १६)। | है। कालिदास के 'शाकुंतल' में भी, शकुंतला की संकट दुर्वासस् आत्रेय--बडे उग्र तथा क्रोधी स्वभाव का परंपरा का कारण, दूर्वासस् का शाप ही बताया गया है। एक ऋषि (मार्क. १७.९-१६, विष्णु. १.९.४.६)। क्रुद्ध हो कर शाप देना, एवं प्रसन्न हो कर वरदान देना, इसीके नाम से, क्रोधी एवं दूसरे को सतानेवाले मनुष्य | यह दुर्वासस् के स्वभाव का स्थायिभाव था। इस कारण को 'दुर्वाससू' कहने की लोकरीति प्रचलित हो गयी हैं। | सारे लोग इससे डरते थे। २८५ Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुर्वासस्स् प्राचीन चरित्रकोश दुर्वासस् इसका स्वभाव बड़ा ही क्रोधी था। इसके क्रोध की | कठिनाई देख कर; उसने अपने वस्त्र का पल्ला फाड अनेक कथाएँ पुराणों में दी गयी है। यह स्वयं कठोर व्रत | कर पानी के प्रवाह में उसे बहा दिया । उस पल्ले से इसका का पालन करनेवाला तथा गूढ स्वभाव का था। इसके लजारक्षण हुआ। द्रौपदी की समयसूचकता से इसे अत्यंत मन में क्या है, इसका पता यह किसी को नहीं लगने | आनंद हुआ। इस उपकार का प्रतिसाद देने के लिये, देता था। इसने द्रौपदी वस्त्रहरण के प्रसंग में, द्रौपदी का लज्जास्वरूपवर्णन-इसका वर्ण कुछ पिंग हरा तथा | रक्षण किया (शिव. शत. १९)। दाढी बहुत ही लंबी थी । यह अत्यंत कृश तथा पृथ्वी के क्रोध कथा--(१) वायुंभुव मन्वन्तर में, एक विद्याधर अन्य किसी भी ऊँचे मनुष्य से अधिक ऊना था। यह द्वारा दी गई पुष्पमाला इसने इंद्र को दी। इंद्र का ध्यान हमेशा चिथड़े पहनता था । एक बिल्ववृक्ष की लंबी लकड़ी न रहने के कारण, वह माला ऐरावत के पैरों के नीचे. हाथ में पकड़ कर तीनों लोकों में स्वच्छन्दता से धुमने की कुचली गयी। माला के इस अपमान को देख कर, यह इसकी आदत थी (म. व. २८७.४-६, अनु. १५९. भड़क उठा । इसने इंद्र को शाप दिया. 'तुम्हारी संपत्ति १४-१५)। अपने क्रोधी स्वभाव से यह हमेशा लोगों नष्ट हो जायगी। इंद्र ने क्षमा माँगी । फिर भी को त्रस्त करता था। इसने उःशाप नहीं दिया । तव विष्णु की आज्ञा से इंद्र ने और्व ऋषि की कन्या कंदली इसकी पत्नी थी। एक समुद्रमंथन कर के संपत्ति पुनः प्राप्त की (विष्णु. १.९ बार इसने क्रोधित हो कर, शाप से उसको जला दिया पा. स. १-४)। समुद्रमंथन का यह समारोह चाक्षुष (ब्रह्मवै. ४.२३-२४)। मन्वन्तर में हुआ (भा. ९.४; पम. स. २३१-२३३; जाबालोपनिषद में इसका निर्देश है (जा. ६, नारद ब्रा. वै.२.३६: स्कंद. २.९.८-९)। तथा वपु देखिये)। जैमिनिगृह्यसूत्र के उपाकर्माग तर्पण | (२) एक बार अम्बरीष राजा को इसने बिना किसी में दुर्वासस् का निर्देश है । उस से ज्ञात होता है कि यह कारण ही अस्त किया। किंतु पश्चात् विष्णुचना से जीवित एक सामवेदी आचार्य था। इसके नाम पर; आया द्विशती, बचने के लिये, इसे अम्बरीप के ही पैर पकड़ने पडे देवीमहिम्नस्तोत्र, परशिवमहिमास्तोत्र, ललितास्तवरत्न | (अम्बरीष २. देखिये)।। आदि ग्रंथों का निर्देश है (C.C.)। (३) एकबार दुर्वासस् ने.एक हजार वर्षों का उपवास दुर्वासस् के क्रोध की एवं अनुग्रह की अनेक कथाएँ | किया । उस उपवास के बाद भोजन पाने के लिये, यह पुराणों में दी गयी है। उनमें से कुछ उल्लेखनीय कथाएँ दाशरथि राम के पास गया। उस समय राम, काल से नीचे दी गयी हैं। कुछ संभाषण कर रहा था। किसी को अन्दर छोड़ना ___ अनुग्रह-कथा-(१) श्वेतकि नामक राजा का यज्ञ | मना था। आज्ञाभंग का दंड मृत्यु था । इस कारण, इसने यथासांग पूर्ण करवाया (म. आ. परि. १.११८)। लक्ष्मण ने दुर्वासस् को भीतर जाना मना किया । (२) एक बार शिलोञ्छवृत्ति से रहनेवाले मुद्गल की | दवसिस ऋद्ध हो कर शाप देने को तैयार हो गया। यह सत्वपरीक्षा इसने ली । अनन्तर उस पर अनुग्रह कर के, | देख कर लक्ष्मण ने इसे भीतर जाने दिया। राम ने इसने उसे सदेह स्वर्ग जाने का वरदान दिया (म. व. | इच्छित भोजन दे कर इस को तृप्त किया । किंतु लक्ष्मण २४६)। को आज्ञा भंग के कारण, देह छोड़ना पडा (वा. रा. उ. (३) कुन्ती की परिचर्या से संतुष्ट हो कर, इसने | १०५, पद्म. उ. २७१)। कुन्ती को देवहूती नामक विद्या दी । उस विद्या के | (४) एक बार द्वारका में यह कृष्णगृह में गया । कृष्ण कारण, कुन्ती को इंद्रादि देवताओं से कर्णादि छः पुत्र | ने अनेक प्रकार से इसका स्वागत किया । इमो कृष्ण हुएँ। (भा. ९.२४.३२)। इसने कुंती को 'अथर्व शिरस् | का 'सत्त्वहरण' करने के लिये, काफी प्रयत्न किये। मंत्र' भी दिए थे (म. व. २८९.२०)। इसने अपनी जूठी खीर, कृष्ण तथा रुक्मिनी के शरीर को (४) एक बार स्नान करते समय, इसका वस्त्र बह | लगायी। उन्हें रथ में जोत कर, द्वारका नगरी में यह गया। नग्न स्थिति में पानी के बाहर आना, इसे | घूमने लगा। राह में रुक्मिणी थक कर धीरे-धीरे चलने लजास्पद एवं कष्टकर महसूस हुआ। इसी समय पानी के | लगी। तब इसने उसे कोड़े से मारा । फिर भी कृष्ण ने उपरी भाग में द्रौपदी स्नान कर रही थी। दुर्वासस् की सहनशीलता नहीं छोड़ी। तब प्रसन्न हो कर दुर्वासस् ने कृष्ण Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुर्वासस् प्राचीन चरित्रकोश दुष्प्रधर्ष को वर दिया, 'तेरे शरीर के जितने भाग को जूठी खीर | पापी हेतु जान कर, दुर्वासस् ने उसे शाप दिया, 'तुम लगायीं है, उतने सारे भाग वज्रप्राय होंगे एवं किसी भी | गरुड पक्षिणी बनोगी' (मार्क. १)। शस्त्र का प्रभाव उनपर नहीं पडेगा' (म. अनु. २६४ कुं.)। दुर्विगाह--(सो. कुरु.) धृतराष्ट्र का पुत्र । रथ खींचते समय, थक कर रुक्मिणी को प्यास लगी। तब दुर्विनीत-पांड्य देश के इध्मवाहन का पुत्र । यह कृष्ण ने उसे पीने के लिये पानी दिया । तब अपनी मात्रागमनी था। धनुष्कोटि तीर्थ में स्नान करने से यह आज्ञा के बिना रुक्मिणी ने पानी पिया, यह देख कर मुक्त हुआ (स्कंद. ३.१.३५)। दुर्वासस् ने उसे शाप दिया, 'तुम भोगावती नामक नदी दुर्विमोचन-(सो. कुरु.) धृतराष्ट्र का पुत्र । भीम बनोगी, मद्यादि पदार्थों का भक्षण करोगी, तथा पतिविरही ने इसका वध किया (म. श. २५.१३)। बनोगी' (स्कन्द. ७. ४. २-३)। | दर्विरोचन-(सो. कुरु.) धृतराष्ट का पुत्र । भीमसेन (५) पांडव वनवास गये थे, तब दुर्वासस् ऋषि ने इसका वध किया (म. द्रो. १२०.६२)। दयोधन के पास गया । दुर्योधन ने उसकी उत्कृष्ट सेवा दर्विषह--(सो. कुरु.) धृतराष्ट्र का पुत्र । भीम ने की। तब प्रसन्न हो कर वासस् ने उसे वर माँगने के लिये इसका वध किया (म. श. २५.१६)। कहा । दुर्योधन ने कहा, 'पांडव तथा द्रौपदी का भोजन दुलिदुह-(सू. इ.) अनमित्र का पुत्र । यह महान् होने के बाद, आप उनके पास भोजन माँग ने जायें, तथा | ज्ञाता था (ब्रह्म. ८.८४; ह. वं. १.१५.२४)। अन्य आपकी इच्छा पूर्ण न होने पर उन्हें शाप दें। दुर्योधन | प्रसिद्ध पुराणों में इसका नाम नहीं है (म. आ. १.१७३)। का यह भाषण सुन कर यह पांडवों का सत्वहरण करने के दुवस्यु--वान्दन देखिये। लिये, उनके पास गया । परंतु वहाँ भी इसकी कृष्ण के दुष्कंत--एक राजा । रावण ने इसे जीता था। कारण, फजीहत हुई। यह कथा, केवल महाभारत के बंबई दुष्कर्ण-(सो. कुरु.) धृतराष्ट्र का पुत्र । शतानीक आवृत्ते में दी गयी है (म. व. परि. १ क्र. २५)। । ने इसका वध किया (म. भी. ७५.४८-४९)। ' (६) ब्रह्मदत्त के पुत्र हंस तथा भिक मृगया करते २. भारतीय युद्ध में भीम ने इसका वध किया (म. हाँ दुर्वासस् के आश्रम में गये। वहाँ उन्होंने आश्रम | द्रो. १३०.३४)। का विध्वंस कर दुवासस् को अत्यंत कष्ट दिये। उस समय दपरीत--संभवतः एक व्यक्ति का नाम (ऋ. २.२१. इसने अपना हमेशा का क्रोधी खभाव छोड़ सहनशीलता दीई । परंतु बाद में हंस डिभक अधिक ही त्रस्त करने दुष्टरीतु पौस्यायन--संजय लोगों का राजा । इसके लंग, तब कृष्ण के पास इसने शिकायत की, एवं कृष्ण से | वंश में, लगातार दस पीढीयों से चलते आये राज्य से, इसे उनका वध करवाया (ह. वं. ३.१११-१२९)। च्युत किया गया। परंतु चाक स्थपति ने बाहिक प्रातिपीय . (७) तीर्थाटन करने के बाद, यह काशी में शिवाराधना के विरोध की एर्वाह न करते हुए, इससे सौत्रामणी यज्ञ करने लगा। काफी तपस्या करने के बाद भी शंकर करवाया एवं इसे पुनः गद्दी पर बैठाया (श. बा. १२.९. प्रसन्न नहीं हुआ, तब यह शंकर को ही शाप देने लगा। ३.१-३; १३)। दुष्टरीतु शब्द ऋग्वेद में दो बार आया यह देख कर शंकर को इसके प्रति, वात्सल्ययुक्त प्रेम का है। किंतु वहाँ वह शब्द व्यक्तिवाचक है या नहीं, यह अनभव हआ। उसने प्रत्यक्ष दर्शन दे कर इसे संतुष्ट | कहना मुष्किल है (ऋ. २.२१.२; ६.१.१)। किया (स्कन्द ४.२.८५)। दुप्पण्य--पशुमान का पुत्र । दूसरे के लड़कों को भगा (८) दुर्वासस् एक बार गोमती के तट पर, स्नान कर, यह पानी में डुबो देता था। राज्य की सीमा के करने गया था। उस समय, कई देय वहाँ आये तथा | बाहर निकाल देने पर भी, यह वही कार्य करता रहा । इसउन्होंने दुर्वासा को पीटा । राक्षसनाश के लिये दुर्वासस् ने लिये ऋषियों ने इसे पिशाच होने का शाप दिया। किंतु कृष्ण की आराधना की (स्कन्द ७.४.१८)। सुतीक्ष्ण ने अग्मितीर्थ पर इसका क्रिया-कमीतर करने से यह (९) एक बार यह तप कर रहा था। इसके इस तप | मुक्त हो गया (स्कंद. ३.१.२२)। के कारण, सारे देव भयभीत हो गये। उन्होंने वपु नामक दुप्रधर्ष-(सो. कुरु.) धृतराष्ट्र का पुत्र । भीम ने अप्सरा को, इसका सत्वहरण करने के लिये भेजा । उसका | इसका वध किया (म. श. २५.१५)। २८७ Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुष्प्रधर्षण प्राचीन चरित्रकोश दुष्यंत दुष्प्रधर्षण-----धृतराष्ट्र का पुत्र । द्रौपदी के स्वयंवर में लाक्षी नामान्तर से इसे लक्षणा नामक दूसरी भार्या यह उपस्थित था (म. आ. १७७.१)। तथा उसे जनमेजय नामक पुत्र था। यह जानकारी दुष्प्रहर्ष--(सो. कुरु.) धृतराष्ट्र का पुत्र । भीम ने | महाभारत की कुंभकोणम् आवृत्ति में प्राप्त है (म. इसका वध किया (म. श. २६.१८-१९)। आ. ९०.९०१५; ८९.८७७*)। इसकी राजधानी गजदुष्यंत--(सो. पूरु.) का सुविख्यात राजा एवं 'चक्रवर्ति' | साह्वय ( हस्तिनापुर) थी (म. आ. ६८.१२)। सम्राट् भरत का पिता। वैशाली देश का तुर्वसु राजा | तुर्वसु कुलोत्पन्न करंधम के पुत्र मरुन्त राजा ने एवं करंधम का पुत्र 'चक्रवर्ति' मरुत्त आविक्षित ने 'पौरव' | अपना पुत्र मान कर, इसे अपना सारा राज्य दिया वंश में जन्मे हुए दुष्यंत को गोद में लिया। कुरुवंशोंयों | (भा. ९.२३.१६-१७; विष्णु. ४.१६)। यह राज्यका राज्य मांधात के समय से हैहय राजाओं ने कबजे में | लोलुप था। इसलिये इसने राज्य स्वीकार किया। राज्य लिया था । वह इसने पुनः प्राप्त किया, एवं गंगा तथा | मिलने के बाद, यह पुनरपि पौरववंशी बन गया ( भा. ९. सरस्वती नदीयों के बीच में स्थित प्रदेश में अपना राज्य २३.१८)। ययाति के शाप के कारण, मरुत्त राजा का यह पुनः स्थापित किया । इसलिये इसे 'वंशकर' वंश पुरुवंश में शामिल हो गया (मत्स्य. ४८.१-४)। कहा जाता है (म. आ. ६२.३; भागवत. ९.२३.१७ ययाति के शाप से, इसका तुर्वसु वंश से संबंध आया १८)। (वायु. ९९.१-४)।. .. दुष्मंत, दुःषन्त आदि इसीके ही नामांतर थे। इसके । ब्रह्मपुराण में तुर्वसुवंशीय करंधमपुत्र मरुत्त ने, अपनी पुत्र भरत को 'दौष्यन्ति' 'दौःषन्ति' आदि नाम इसके | संयता नामक कन्या संवर्त को देने के बाद, उन्हें दुष्यंत इन नामों से प्राप्त हुए थे (ऐ. बा. ८.२३; श. ब्रा. १३. पौरव नामक पुत्र हुआ, ऐसा उल्लेख है (१३) । हरिवंश में यही हकीकत अलग ढंग से दी गयी है। यज्ञ ५.४.११-१४)। शतपथ ब्राह्मण के उपरोक्त उद्धरण में, करने के बाद, मरुत्त को सम्मता नामक कन्या हुई. वह भरत का पैतृक नाम 'सौद्युम्नि' दिया गया है । वह | कन्या उसने यज्ञ दक्षिणा के रूप में, संवर्त नामक ऋत्विज वस्तुतः 'दौष्यन्ति' चाहिये । मत्स्य पुराण में दुष्यंत को ही भरत दौष्यंति कहा है (मत्स्य. ४९.१२)। को दी। पश्चात् संवर्त ने वह कन्या सुघोर को दी। उससे . सुघोर दुष्यंत नामक पुत्र हुआ। दुष्यंत अपनी कन्या का ___ इसके जन्मदातृ पिता एवं माता के नाम के बारे में एक- पुत्र होने के कारण, मरुत्त ने उसे अपनी गोद में ले लिया। वाक्यता नहीं है । भागवत में इसे रेभ्य राजा का पुत्र | इसी कारण तुर्वसु वंश पौरवों में शामिल हआ (१.३२) । कहा गया है (भा. ९.२०.७)। भविष्यमत में, इसके पिता और कासीमा गाया गया का नाम तसु था। हारवश म, तसु के दुष्यत आदि किया. तथा पुरु वंश की पुनः स्थापना की। यह स्थिति प्राप्त चार पुत्र दिये गये है (ह. वं. १.३२.८)। किंतु होने के पहले ही, इसका दत्तविधान हुआ होगा। इसका विष्णुपुराण में दुष्यंत को तंसुपुत्र अनिल का पुत्र कहा | राज्य हैहयों ने नष्ट कर दिया था। इसीलिये इस राज्यच्युत गया है (विष्णु ४.१९)। महाभारत 'कुंभकोणम्' आवृत्ति राजपुत्र को गोद लिया गया होगा। परंतु पौरवों की सत्ता में इसके पिता का नाम ईलिन दिया है (म. आ. ८९. को पुनर्जीवित करने के हेतु से यह अपने को पौरववंशीय १४; मत्स्य. ४९.१०)। ईलिन को दुष्यंत आदि कहने लगा। पौरव सत्ता का पुनरुज्जीवन, दुष्यंत ने हैहय पाँच पुत्र थे, ऐसा भी उल्लेख मिलता हैं । ब्रह्मांड में | सत्ता सगर द्वारा नष्ट की जाने पर, तथा सगर के राज्य के इसे ईलिन का नाती कहा गया है । वायु पुराण में इसके | नाश के बाद ही किया होगा। अगर ऐसा होगा, तो यह पिता का नाम मलिन दिया है। इसके पिता के नाम के | मरुत्त से एक दो पीढियाँ तथा सगर से दो पीढियाँ आगे संबंध में जैसी गड़बड़ी दिखती है, उसी तरह इसकी माता | होगा। के नाम के बारे में भी दिखाई पड़ती है। इसकी माता के | एक बार यह मृगया के हेतु से, कण्व काश्यप ऋषि उपलब्ध नाम है उपदानवी (वायु. ६९.२४), रथंतरी | के आश्रम में गया । वहाँ इसने काण्व आश्रम में (म. आ. ९०.२९)। शकुन्तला को देखा । कण्व काश्यप बाहर गया हुआ पौरव वंश के इतिहास में, तंसु से ध्यंत के बीच के | था । इसलिये परस्पर संमति से दुष्यन्त एवं शकुंतला का राजाओं के बारे में, पुराणों में एकवाक्यता नहीं है। गांधर्व विवाह हो गया। बाद में शकुन्तला को इससे गर्भ २८८ Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुष्यंत प्राचीन चरित्रकोश दृढाच्युत रह कर भरत नामक पुत्र हुआ। परंतु यह विवाह छुपके | २. अगस्त्य गोत्र का मंत्रकार (मत्स्य. १४५.११४से किये जाने के कारण, शकुंतला को यह अस्वीकार करने | ११५)। दृढ़ायु इसीका नामांतर था (ब्रह्मांड, २.३२. लगा। बाद में आकाशवाणी ने सत्य परिस्थिति बतायी।। ११९-१२०) तब राजा को उसके स्वीकार में कुछ बाधा नहीं रही (म. दृढधन-(सो. अज.) विष्णु तथा वायु के मत में आ. २.६३-६९, ९०; द्रो. परि. १.क्र.८, पंक्ति ७३० | सेनजित् का पुत्र । दृढरथ एवं दृढहनु इसीका नामांतर है । से आगे; शां.२९; आश्व. ३: भा. ९.२०.७-२२; विष्णु. दृढधन्वन् कौरव-(सो. कुरु.) द्रौपदीस्वयंवर के ४. १९-२१: ह. व. १. ३८; वायु. ९९. १३२)।| लिये आया हुआ एक क्षत्रिय (म. आ. १७७.१५)। शकंतला को दोषवती मानने से इसे दुष्यंत नाम प्राप्त दृढनमि-(सो. द्विमीढ.) भागवत, वायु तथा मत्स्यहुआ, एसा इसके 'दुष्यंत' नाम का विश्लपण 'शब्द- | मत में सत्यधृती का पुत्र । विष्णु मत में धृतिमान् का पुत्र । कल्पदुम' में दिया है (दुष दोषवती मन्यते शकुन्तलाम् दृढमति- एक शूद्र। इसके पीछे ब्रह्मराक्षस लगा इति)। शकुन्तला से इसे भरत नामक पुत्र हुआ। उसे हुआ था। किन्तु वेंकटाचल जाने पर उस पीड़ा से यह ब्राह्मण ग्रंथों में दौष्यंति नाम से, एवं अन्य ग्रंथों में मुक्त हुआ (स्कन्द. २.१.१९)। सर्वदमन कहा गया है । दुष्यंत को पौरव कुल का आदि दृढरथ-(सो. कुरु.) धृतराष्ट्र का पुत्र । संस्थापक माना जाता है। राज्यशकट चलाने की इसकी पद्धति बहुत अच्छी थी (म. आ. ६२)। २. (सो. कोष्टु.) मत्स्यमत में नवरथ का पुत्र | (दशरथ ३. देखिये)। २. (सो. अज.) अजमीढ का पुत्र । इसकी माता | ३. (सो. अज.) मत्स्यमत में सेनाजित् का पुत्र नीली (म. आ. ८९.२८)। परमेष्ठिन् राजा इसका भाई था। उत्तर एवं दक्षिण पंचाल देशों का राजवंश इन दो (दृढधनु देखिये)। • भाईयों से शुरू हुआ। दृढरथाश्रय-(सो. कुरु.) धृतराष्ट्र का पुत्र । दृढरुचि--प्रियव्रतपुत्र हिरण्यरेता का पुत्र। दूरसोम--मणिभद्र एवं पुण्य जनी का पुत्र । दृढवर्मन्-(सो. कुरु.) धृतराष्ट्र का पुत्र । दूर्व--गौड देश का एक ब्राह्मण (गणेश. १.३६.७६)। दृढसंध-(सो. कुरु.) धृतराष्ट्र का पुत्र । दूषण-खर राक्षस का भाई (म. व. २६१.४३)। दृढसेन-द्रोण द्वारा मारा गया एक पांडवपक्षीय वज्रवेग तथा प्रमाथी नामक इसे दो भाई और थे। राम राजा (म. द्रो, २०.४०)। ने इसका वध किया (भा. ९.१०; म. व. २६१.४३)। २. (सो. मगध. भविष्य.) विष्णु तथा ब्रह्मांडमत में २. विश्ववसु एवं वाका का पुत्र । सुश्रम का तथा वायुमत में सुव्रत का पुत्र । द्युमत्सेन इसीदूषणा-ऋषभदेव के वश के भौवन राजा की पत्नी । का नामांतर है। इसका पुत्र त्वष्टा। दृढस्यु-अगस्त्य एवं लोपामुद्रा का पुत्र । यह अत्यंत दृढ--धृतराष्ट्र के पुत्रों में से एक । भीम ने इसका तपस्वी तथा विद्वान था । यह अरण्य में से समिधा वध किया (म. द्रो. ११२.३०; १३२.११३५००, पंक्ति २)। | के बड़ेबड़े गठ्ठर लाता था। इस कारण, इसे इध्मवाह नाम २. दुर्योधन के पक्ष का एक राजा । इसका अदृढ नाम | प्राप्त हुआ। भी उपलब्ध है (म. क. ४.४१)। ऋतु ऋषि निःसंतान था। इसलिये उसने दृढस्य को दृढक्षत्र-(सो. कुरु.) धृतराष्ट्र का पुत्र। अपना पुत्र माना था। उसी तरह पुलह एवं पुलस्त्य इन दृढच्युत आगस्त्य-सूक्तद्रष्टा (ऋ. ९.२५)। यह | दोनों की संतति दुष्ट होने के कारण, वे भी इसे अपना अगस्य ऋषि एवं कृष्णेक्षणा का पुत्र था । इसीलिये इसका | पुत्र मानते थे (म. व. ९७.२३-२५) । इसके दृढास्यु, पैतृक नाम 'अगस्ति' दिया गया है। विभिंदुकीय के | दृढायु एवं दृढद्युम्न नामांतर थे । सत्र में यह उद्गाता था (जै. बा. ३.२३३)। इसका पुत्र दृढहनु-(सो. अज.) भागवत मत में सेनजित् इध्मवाह (भा. ४.२८)। | राजा का पुत्र (दृढधनु देखि)। दृढजयंत--विपश्चित् दृढज्यंत लौहित्य देखिये। दृढहस्त--(सो. कुरु.) धृतराष्ट्र का पुत्र । दृढद्युम्न दृढस्यु का नामांतर । दृढाच्युत-अगत्स्यपुत्र दृढास्यु का नामांतर । प्रा. च. ३७] २८९ Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दृढायु प्राचीन चरित्रकोश दृढायु--(सो.) पुरूरवा को उर्वशी से उत्पन्न पुत्र । पुनः पुनः मिलता है। इन सारे ज्ञातिसंगों में, देव लोगो (म. आ. ७०.२२; पन. स. १२)। का ज्ञातिसंघ बौद्धिक, सांस्कृतिक एवं आध्यात्मिक दृष्टि से २. अगत्स्यपुत्र (म. अनु. २७१.४० कुं. दृढस्यु सर्वाधिक प्रगत एवं बलिष्ठ प्रतीत होता है। देखिये)। ___ आधुनिक काल में, पृथ्वी पर अनेक मानवजातियाँ दृढायुध--(सो. कुरु.) धृतराष्ट्र का पुत्र। | रहती है। उसी प्रकार प्राचीन काल में, देव, असुर, दृढाव-(सू, इ.) भागवत, विष्णु तथा भविष्य- गंधर्व, सर्प, नाग, गरुड, दानव, दैत्य आदि अनेक मत में कुवलयाश्व का पुत्र । मत्स्य एवं वायु मत में यह | मानवजातियां अस्ति च में थी। इन जातियों के स्त्रीपुरुषों कुबलाश्व का पुत्र था । पनमत में यह कुवलाश्व का नाती | को, सर्वसामान्य मानवों जैसे, हर्ष वेदादि विकार थे। तथा धुंधुमार का पुत्र था ( पन. सृ.८)। उनके विवाह हो कर उन्हें संतति पैदा होती थी। लड़ाई दृढास्य-दृढत्यु का नामांतर। कर के वे आपस में झगड़ते भी थे। दृति ऐद्रोत--इंद्रोत देवाप का शिप्य (जै. उ. ब्रा. सर्वथैव मानुषि का धारण किये हुएँ, ऐसे बहुत सारे ३.४०.२)। अभितारिन् काक्षसे नि के साथ इसका देव प्राचीन ग्रंथों में प्राप्त है। वैदिक ग्रंथो में से, अग्नि, उल्लेख प्राप्त है (पं. बा. १४.१.१२, १५)। 'दृतिवात- | इंद्र, मित्र, वरुण आदि देवों का चरित्रचित्रण इसी वन्तौ' में निर्दिष्ट दृति भी यही रहा होगा (पं. बा. २५. मानुषि आकृति से मिलता-जुलता है। पुराणों में से, ३.६)। 'महाव्रत' नामक श्रौतकर्म का सतत आचरण | राम, कृष्ण, शिव, विष्णु आदि देवों का. व्यक्तिचित्रण करने के कारण, इसका उत्कर्ष हुआ। यह सत्र भी | भी मानुषि ढंग का ही है। इसी के नाम से प्रसिद्ध हुआ (का. श्री. २४.४.१६, ६. निरुक्त में, य, अंतरिक्ष एवं पृथ्वी, ये तीन प्रदेश : २५, आश्व. श्री. १२.३; सा. श्री. १३.२३.१; ला. श्री. देवों का निवासस्थान बताये गये हैं। इससे जाहीर है कि, १०.१०.७) । दृत तथा दृति दोनों एक ही रहे होंगे। कई देव पृथ्वी पर, कई अंतरिक्ष में, एवं कई धुलोक में इति ऐद्रोत शौनक---इंद्रोत शौनक का पुत्र एवं रहते थे। देवो मे से अष्ट वसु पृथ्वी पर, ग्यारह शिष्य (वं. ब्रा. २)। | रुद्र अंतरिक्ष में, एवं बारह आदित्य दुलोक में रहते थे। दृप्तबालाकि गार्ग्य--एक आचार्य (श. बा. १४. | हिंदु श्राद्ध विधि में, वसु, रुद्र, एवं आदित्य इन तीन ५.१; बृ. उ. २.१.१)। गार्ग्य बालाकि ऋष अत्यंत | देवताओं को पिता, पितामह एवं प्रपितामह मान कर गर्विष्ठ होने के कारण, उसे यह नामांतर प्राप्त हुआ। काशी | उन्हें तर्पण किया जाता है। के अजातशत्रु नामक राजा का यह समकालीन था। मनुष्यों में से अनेक पुरुष देवज्ञाति में प्रवेश पा. अजात शत्र को उपदेश देने के लिये यह गया था। सकते थे । जो पहले मनुष्य थे, किंतु पश्चात् देव हो गये, दृभीक--इंद्र ने इसका वध किया (ऋ.२.१४.३)। ऐसे ऋभु आदि व्यक्तिओं का निर्देश वै देक ग्रंथो में प्राप्त दृशाल भार्गव-एक मंत्रद्रष्टा (क. सं. १६.८)। है | अश्विनीकुमार भी पहले मनुष्य ही थे, किंतु बाद में दृषी -(सू. इ.) हर्यश्व राजा की पत्नी। वे देव हो कर, उन्हें यज्ञ की आहुति प्राप्त होने लगी। २. विश्वामित्र की स्त्री (ब्रह्म. १०.६७; ह. वं.१.२७; | काशिराज धन्वन्तरि भी पहले मनुष्य था, किंतु पश्चात् ब्रह्मांड. ६६.७५; वायु. ९२.१०३)। पंचमहायज्ञ के वैश्वदेव में उन्हे देव के नाते प्रवेश ३. काशी के दिवोदास (प्रथम) की पत्नी । प्राप्त हुआ। रामकृष्ण आदि अवतारी पुरुष भी पहले ४. उशीनर की पत्नी। मनुष्य ही थे। दृष्टरथ-एक बड़ा राजा (म.अनु. २७१.५०.कुं.)। देवों के शासकवर्ग में, इंद्र, सप्तर्षि आदि लोग प्रमुख दृष्टशर्मन--(सो. वृष्णिा.) विष्णुमत में श्वफल्क का थे। इंद्रादि देवों के वर्णन से पता चलता है कि, वे भी पुत्र। पहले पराक्रमी मानव ही थे। अपने अतुल पराक्रम के देय--सुन्य देवों में से एक । कारण वे देव हो गये। पृथ्वी पर से सर्वाधिक पराक्रमी देव-एक प्राचीन मानवज्ञातिसंघ । प्राचीन वैदिक | व्यक्ति को केवल देवत्व ही नही, इंद्रपद भी प्राप्त हो सकता एवं पौराणिक ग्रंथों में, देव, असुर, राक्षस, पितर आदि | था। प्र येक मनु के इंद्र एवं सप्तर्षि अलग रहते थे। जातिसंघो का, एवं इन ज्ञ तियो के स्त्री पुरुषों का निर्देश इंद्रपद के प्राप्ति के लिये प्राचीन काल में कितने झगड़े २९० Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देव हुआ करते थे, एवं इंद्र के अश्वमेध यज्ञ का अश्व उड़ाने कितने प्रयत्न अन्य राजाओं से होते थे, इसका सारांत इतिहास पुराणों में दिया गया है। जन्म से मनुष्य हो कर, इंद्रपद प्र.स करनेवाले प्राचीन राजाओं में रजि, रजिपुत्र एवं नहुष, ये प्रमुख है । असुरो में से, प्रल्हाद, बलि, हिरण्यकशिपु ये राजा इंद्रपद प्राप्त करने में कामयाब हुए थे। प्राचीन चरित्रकोश मनुष्य वंश के राजाओं में 'राजसूय यज्ञ' किया जाता था, उसी प्रकार देवशति के राजा भी कर्तदर्शाने वाला यह यश करते थे। इस यश करनेवाले मनुष्य एवं देवाति के राजा समशः 'मनुष्यराजन् ' एवं 'देवरा जन् इन उपाधि से विभूषित किये जाते थे । प्राचीन चक्रवर्ति राजाओं में से, दिवोदास, वध्यश्व, वीतहव्य आदि सम्राट 'मनुष्यराजन् थे एवं दीर्घवम् पृथु कक्षीवत् आदि सम्राट् 'देवराजन् ' थे ( तां. बा. १८. १०.५)। 5 ' " देव, असुर, एवं मनुष्य ज्ञातियों में आपस में विवाह होते थे। पुराणों में प्रसिद्ध 'कच देवयानी प्रणय में, कल देवों के पुरोहित बृहति का पुत्र था, एवं देवयानी अमु के पुरोहित शुक की कन्या थी। अन्त में, देवयानी का विवाह सोमवंशी क्षत्रिय नृप ययाति से हुआ । ययाति की द्वितीय पत्नी एवं देवयानी की सौत शर्मिला, असुर राजा नृपान् की कन्या थी। - ऋषि के पुत्र देवशाति में प्रविष्ट होने के कई उदाहरण भी प्राप्त है । भृगु ऋषि को पौलोमी नामक पत्नी से भुवन मौवन आदि बारह पुत्र हुएँ ये पुत्र भृगुदेव' • नाम से प्रसिद्ध हो गये ( मस्त्य. १९.५.१२-१४ ) । " - | देव एवं असुरों के संग्राम की कथाएँ वेदकाल से पौराणिक काल तक अप्रतिहत रूप में प्राप्त होती हैं। इन संग्रामों में देवों द्वारा। किये गये बारह निम्नलिखित संग्राम विशेष तौर पर उलेखनीय है- ( १ ) नारासंद हिरण्यकशिपु हनन, ( २ ) वामन - बलिबंधन, (३) वराह - हिरण्याक्षहनन, समुद्रवीकरण, (४) अनइंद्र एवं प्रह्लाद का युद्ध, महादवराज्य, (५) तारकामय इंद्र द्वारा प्रह्लादपुत्र विरोचन का वध, (६) आकि इंद्र एवं आड़ियक का युद्ध · ( ७ ) त्रैपुर - शंकर एवं त्रिपुर का युद्ध (८) अंधक - शंकर एवं असुर, पिशाच तथा दानव का युद्ध, ( ९ ) वृघातक - वृत्र का वध, (१०) धात्र (प), (११) इंद्र एवं असुर का युद्ध, (१२) एवं दैयानव का युद्ध ( मत्स्य. ४७.४२-४५; ४६-७३; पद्म. स. १३.१८३-१९६ ) । २९१ - देव पद्मपुराण में 'आबिक' के स्थान में 'आजाव' एवं 'धात्र ' के स्थान में 'ध्वजपात' संग्राम का निर्देश है। इन युद्धो में, देवज्ञाति के प्रमुख, इंद्र एवं शंकर बताये गये है। देव, पितर एवं मनुष्य ज्ञाति के मानवसंघ देवों के प्रमुख सहायक दर्शाये गये है । असुर ज्ञाति में हिरण्यकश्यपु, हिरण्याक्ष, बलि, प्रहाद, विरोचन, ऋत्र, विप्रचित्ति, नृप ये असुर प्रमुख थे। उनके अनुयायी में पिशाच, दानव एवं सुर प्रमुख थे । जिस में सामर्थ्य एवं शक्ति का साक्षात्कार है, वह हर एक व्यक्ति देव बन सकती है, ऐसी प्राचीन भारतियों की धारणा थी। इसी धारणा से अभि, वायु, आदि पंचमहा भूतों को देव मानने की प्रवृत्ति वैदिक काल में निर्माण हुआ । इनं पंचमहाभूतों से भी अधिक शक्ति 'ब्रह्म' में है, ऐसी धारणा उपनिषदों के काल में प्रचलित हुई। इसीलिये, उस काल में 'ब्रह्म' को देव कहने लगे । 'केनोपनिषद' में लिखा है कि, अग्नि, वायु आदि कितने भी सामर्थ्यशाली हो, उनकी शक्ति महद्भुत ब्रह्म के सामने कुछ भी नहीं है। इस क्रम से, जिस में अधिक शक्ति हो, उसे देव मानने की प्रवृत्ति प्रस्थापित हुई। स्वायंभुव आदि मन्वन्तर में, सर्वश्रेष्ठ शासक राजा को 'इंद्र उपाधि प्राप्त हुई। नाना तरह के अधिकार धारण करनेवाले साध्य, तुषित, तप, भृगु आदि लोग देवशाति में शामिल किये गये। मानकों से जिन में अधिक सामर्थ्य था, वे यक्ष, गंधर्व, साध्य आदि ज्ञाति भी 'देवगण में गिने जाने लगी। । संसार के आदिकरण को 'देव' कहलाने की प्रवृत्ति उपनिषत्काल में ही प्रचलित हुई । जनकसभा में विदग्ध शाकल्य ने याज्ञवल्क्य को पूछा, 'कति देवाः ' ( देव कितने है ) ? उत्तर में याज्ञवल्क्य ने कहा, 'संसार में एक ही देव है। पृथ्वी उसका शरीर है, अभि नेत्र है, ज्योति मन है । संसार के सारे जीवों का अधिष्ठान बना हुआ पुरुष पृथ्वी पर एक ही है, एवं वही केवल देव है। दम (इंद्रियदमन ), दया, दान, इन तीन 'द' कारों से कोई भी मनुष्य देवत्त्व पा सकता है, ऐसी भी एक धारणा भारतीय संस्कृति में दृढमूल है । इसी तत्त्व के विशदीकरण के लिये, 'बृहदारण्यकोपनिषद' में एक कथा दी गयी है । एक समय देव, मनुष्य एवं दानव प्रजापति के पास ज्ञान के लिये गये। प्रजापति ने उन सब को 'द' अक्षर का उपदेश श्रेवप्राप्ति के लिये दिया । उस 'द' कार का अर्थ देव, दानव, एवं मनुष्यों ने अपने Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देव प्राचीन चरित्रकोश देवकीपुत्र अपने स्वभावानुरूप किया। देवों ने दमन (इंद्रिय- | देवक--(सो. कुरु.) युधिष्ठिर को पौरवी से उत्पन्न दमन) कर के, मनुष्यों ने दान से, एवं दानवों ने दया | पुत्र (भा. ९.२२.३०)। से श्रेयप्राप्ति करने की कोशिश की (बृ. उ. ५.२.१- २. (सो. कुकुर.) आहुक राजा का पुत्र । पूर्व जन्म में ३)। किंतु 'देवत्व' प्राप्त करने के लिये इन तीनों 'द' | यह गंधों का राजा था। की जरूरत रहती है, ऐसा अनिषदों का कहना है। इसकी कन्या देवकी मथुरा के उग्रसेन राजा के मंत्री | वसुदेव को दी गयी थी (म. आ. ६१.६२; भा. ९.२४; इसी ढंग की और एक कथा महाभारत के 'अनुगीता' | विष्णु. ४.१४ )। ममत में देवकी इसकी बहन थी। में दी गयी है । प्रजापति के पास श्रेयप्राप्ति का उपाय इससे साथ और छः बहनें इसने वसुदेव को दी थी। पूछने, पन्नग, देवर्षि, नाग तथा असुर आ गये। प्रजापति उग्रसेन इसका कनिष्ठ बंधु था । इसके पुत्र देववान् , ने सब को 'ॐ' अक्षर से ही उपदेश दिया । उपदेव, सुदेव एवं देवरक्षित थे (पद्म. स. १३)। उस उपदेश का अर्थ, हर एक व्यक्ति ने अपने | अपने स्वभाव के अनुसार ग्रहण किया। सों ने दंश, देवक मान्यमान-एक असुर । यह तृ सुओं का असुरों ने दया, देवों ने दान एवं महर्षिओं ने दमन, इस | शत्र, एवं शंबर का स्नेही था (क्र. ७.१८.२०)। कई अर्थ से यह 'ॐ' स्वरूप उपदेश का अर्थ किया, एवं लोगों के मत में, 'स्वयं को देव माननेवाले ' शंबर का वैसे ही आचरण उन्होंने करना शुरू किया (म. आश्व. हा यह नामांतर था। २६)। इस कथा से प्राचीन समाज के सर्प, असुर, देव देवकर-(सू. इ.) भविष्यमत में प्रतिव्योम का आदि भिन्न भिन्न ज्ञातिसंघ के स्वभाववैशिष्टयों का पता पुत्र । इसका पुत्र सहदेव। . चलता है। देवकी--देवक की कन्या एवं कृष्ण की माता । यह वसुदेव की पत्नी थी। इसके विवाह के उपरिनिर्दिष्ट चर्चा से ज़ाहिर है कि, प्राचीन काल में देव समय आकाशवाणी हुई, 'इसके अॅम पुत्र के नाम की मानवों की एक ज्ञाति थी। पश्चात् उस जाति के द्वारा मथुरा के कंस राजा का वध होगा। इसलिये व्यक्तिओं के उपर अधिदैविक एवं आध्यात्मिक संस्कार कर कंस ने इसे एवं इसके पति वसुदेव को कारागृह के, देवों को अतिमानुषा एवं दैवी रूप दिया गया। उससे में रखा। बाद में इसे कीर्तिमत् , सुषेण, भद्रसेन, ऋजु, देव नामक मानवजाति का स्वरूप धुंधला सा हो गया। संमर्दन, भद्र, बलराम तथा कृष्ण नामक आठ पुत्र हुए। रामकृष्णादि महापुरुषों का मानुष तथा दैविक स्वरूप कृष्णजन्म के बाद, उसे कंस से बचाने के लिये, कृष्ण संमिश्ररूप में स्पष्ट है। इंद्रादि देव भी पहले मानव थे। को नंद के घर छोड़ने की सलाह इसने वसुदेव को दी . अनन्तर देवत्व का आरोप उन पर किया गया । उपनिषदों थी। (पा. ब्र. १३)। में 'इंद्र-विरोचनासंवाद' में, एक विशेष अध्यामिक बलराम तथा कृष्ण के पहले जन्मे हएं, इसके छ: स्थान भी उन्हें दिया गया है । दत्त, गणपति, स्कंद, उमा, पुत्रों को कंस ने मार डाला। कृष्ण द्वारा कंसवध होने के आदि देव पहले सिद्ध, समर्थ, पराक्रमशील व्यक्ति के बाद, देवकी तथा कृष्ण का मिलन हुआ। उसने देवकी की स्वरूप में लोगों के आदरस्थान बने । अनन्तर उन्हें देवता उसके मृत पुत्रों से भेट करवायी (भा. ९..२४; १०.३; बनाया गया । अन्त में उनको आध्यात्मिक शुद्ध | ४४)। पूर्वजन्म में यह सुनार की पत्नी पृश्नि थी (भा. परब्रह्म रूप देने का प्रयत्न हुआ। शिवादि देवों का पहला १०. ३)। कृष्णनिर्याण की वार्ता सुनते ही इसने अग्निरुद्रादि स्वरूप तथा बाद का शिवस्वरूप सर्वथा भिन्न है। प्रवेश किया। आध्यात्मिकता इष्ट है। फिर भी इन देवों का वास्तव २. शैब्य की कन्या (ब्रह्म. २१२.४)। यह युधिष्ठिर स्वरूपदर्शन तथा प्राचीन मानव समाज का विभागात्मक की पत्नी थी। इसका पुत्र यौव्य (म. आ. ९०.८३)। ज्ञान भी इतिहास के अध्ययन लिये आवश्यक है। | ३. ऋषभदेव के वंश के उद्गीथ की पत्नी (भा. ५. २. एक व्यास (व्यास देखिये)। १५)। भांडारकर संहिता में देविका पाठभेद उपलब्ध देवऋषभ--वैवस्वत मन्वन्तर के धर्म ऋषि को | है। भानु नामक स्त्री से उत्पन्न पुत्र । इसका पुत्र इंद्रसेन देवकीपुत्र-कृष्ण का मातृक नाम (छां. उ. ३ (भा. ६.६.५)। १७.६; कृष्ण देवकीपुत्र देखिये)। २९२ Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवकुल्या प्राचीन चरित्रकोश देवभाग देवकु ल्या-स्वायंभुव मन्वंतर के मरीचि ऋषि के लिये जाने का निश्चय किया । माग में एक सिद्ध इन्हें पुत्र की कन्या । इसने पूर्वजन्म में विष्णु के पग धोये मिला। उसने एक उदाहरण बता कर इन्हें इंद्रप्रस्थ के थे, इसलिये इस जन्म में इसे 'स्वर्धनी' (गंगा नदी) का बदरितीर्थ पर जाने के लिये कहा। तब यह दोनों इंद्रप्रस्थ जन्म प्राप्त हुआ (भा. ४. १४)। गये । यमुना में स्नान करते ही, उद्धार हो कर यह दोनों २. भागवतमत में पूर्णिमा की कन्या (प्रस्ताव स्वर्गलोक सिधारे (पद्म. उ. २१२)। देखिये)। २. एक सुवर्णकार (रूपवती देखिये)। देवक्षत्र-(सो. क्रोष्टु.) भागवत, विष्णु, मत्स्य, देवद्युति--एक ऋषि । यह सरस्वती के किनारे वायु एवं पममत में देवरात का पुत्र । भविष्यमत में आश्रम में रहता था। विष्णु के वर से इसे सुमित्र नामक देवरथ का पुत्र । पुत्र हुआ था। देवगर्भ--एक ऋषि । ब्रह्मदेव के पुष्कर क्षेत्र के यज्ञ देवद्युति ग्रीष्म ऋतु में पंचाग्निसाधन करता था। बड़ी में, इसने होता का काम किया था (पन. सृ. ३४)। । भक्ति से उसने १००० वर्षों तक तपश्चया तथा विष्णुदेवज--(स. दिष्ट.) संयमन राजा का पुत्र। भक्ति की । उससे इसे अपूर्व तेज प्राप्त हुआ । वैशाख देवजनी--मणिवर की पत्नी । मास में एक दिन इसने विष्णु की स्तुति की। तब प्रगट देवजाति-कश्यपकुल का गोत्रकार । वेदसाति इसीका | हो कर विष्णु ने इसे वर माँगने के लिये कहा। परंतु पाठभेद है। निरिच्छ होने के कारण, इसने विष्णु की भक्ति ही माँगी देवजित्--कश्यप तथा दनु का पुत्र । (पा. उ. १२८)। २. अंगिराकुलोत्पन्न एक ब्रह्मर्षि । देवद्युम्न-(स्वा. प्रिय.) भागवतमत में सुमति का देवतरस् श्यावसायन काश्यप--ऋश्यशृंग का पुत्र ( देवता जित् देखिये)। ' शिष्य (जे. उ.बा.३.४०.२)। वंशवाहाण में भी इसका | देवन-(सो. क्रोष्टु.) एक राजा। यह देवक्षत्र के उल्लेख है। वहाँ इसे काश्यप शिष्य 'शवस' का पुत्र एवं बाद राजगद्दी पर बैठा। शिप्य बताया है। देवपति--भृगुकुल का गोत्रकार । देवताजिंत--(वा. प्रिय.) समति एवं वृद्धसेना | देवप्रस्थ–एक गोप। यह कृष्ण का मित्र था ( भा. 'का पुत्र । इसकी स्त्री का नाम आसुरी, एवं पुत्र का नाम | १०.२२)। देवद्युम्न था (भा. ५.१५.२)। __ देवबाहु (सो. क्रोष्टु.) भागवतमत में हृदीक का देवदत्त--(सू. नरि.) भागवतमत में उरुश्रवस् | पुत्र । • राजा का पुत्र । अग्नि, कानीन तथा जातुकर्ण्य ये इसके २. रैवत मन्वंतर के सप्तर्षियों में से एक (पष्मा. स.७)। तीन पुत्र थे। देवभाग-(सो. क्रोष्टु.) शूर का पुत्र । कंस की देवदत्त शठ-एक शाखाप्रवर्तक (पाणिनि देखिये)।। भगिनी कंसा इसकी पत्नी थी। उससे इसे चित्रकेतु, देवदर्श--कबंधायन का शिष्य । कबंध ने इसे अथर्व- बृहद्बल एवं उद्धव नामक तीन पुत्र हुएँ। वेदसंहिता सिखायी थी। पिप्पलाद, ब्रह्मबल, मोद एवं देवभाग श्रौतर्ष--एक यज्ञवेत्ता ऋषि । यह श्रुत का शौल्कायनि आदि इसके चार शिष्य ये (व्यास देखिये)। पुत्र था। यज्ञपशु के शरीर के विभिन्न भाग किन्हें बाँट वायु में वेदपर्श पाठ है। यह एक शाखाप्रवर्तक भी था देना चाहिये, इसका ज्ञान इसे हुआ था । मृत्यु के समय (पाणिनि देखिये) । पाणिनि इसे देवदर्शन कहता है। | भी, इसने यह गूढज्ञान किसी को नहीं बताया। पश्चात् देवदर्शन--देवदर्श देखिये। एक अमानवीय व्यक्ति ने यह ज्ञान बभ्रु के पुत्र गिरिज देवदास--मगध देश का एक ब्राहाण । इसकी स्त्री | को बताया (ऐ. बा. ७.१)। उत्तमा अतीव पतिव्रता थी। इसके पुत्र का नाम अंगद दाक्षायणयाग के कारण, संजय तथा कुरु राजाओं में तथा पुत्री का नाम वलया था। वलया ससुराल में सुखी | स्नेहभाव उत्पन्न हुआ। उस समय उन दोनों का यह पुरोहित था (श. ब्रा. २.४.४.५)। 'तैत्तिरीय ब्राह्मण' इसका पुत्र अंगद तथा उसकी कन्या वलया गृहस्थी | में सावित्र अग्नि के बारे में इसके मतों का उद्धरण दिया का भार उठाते थे । अतः इस पतिपत्नी ने तीर्थाटन के | गया है (ते. ब्रा. ३.१०.९.११)। यज्ञ में इसके हाथों से २९३ थी। Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवभाग प्राचीन चरित्रकोश देवयानी गलती होने के कारण, संजयों का नाश हुआ। यह वासिष्ठ यह सुन कर, शाकल्य क्रोध से पागल सा हो गया। सातहव्य का समकालीन था (तै. सं. ६.६.२.२)। । याज्ञवल्क्य के कथनानुसार इसने उसे हजार प्रश्न पूछे । देवभूति--(शुंग. भविष्य.) भागवत तथा विष्णुः | उन सारे प्रश्नों के उत्तर याज्ञवल्क्य ने दिये। पश्चात् मत में भागवत का पुत्र । देवभूमि तथा क्षेमभूमि इसी के | याज्ञवल्क्य द्वारा शाकल्य को प्रश्न पूछा जाने का समय नामांतर थे। आया। य ज्ञवल्क्य ने शर्त लगायी, 'इन प्रश्नों का उत्तर देवभूमि-(शुंग. भविष्य.) मत्स्य मत में पुनर्भव का, | न दे सके, तो शाकल्क्य को मृ-यु स्वीकारनी पडेगी। एवं ब्रह्मांड मत में भागवत का पुत्र । इसने दस वर्षों तक | शाकल्य ने वह शर्त स्वीकार की। पथात् याज्ञवल्क्य ने राज्य किया (देवभूति देखिये)। प्रश्न पूछे, परंतु शाकल्य उनके उत्तर न दे सका । इसलिये देवमत-एक ऋषि । नारद के साथ इसका सृष्टि- | शाकल्य ने मृत्यु का स्वीकार किया। उत्पत्ति के विषय में संवाद हुआ (म. आश्व. २४)। देवमित्र शाकल्य की मृत्यु के कारण, सत्र ब्राह्मणों को देवमति--अंगिराकुलोत्पन्न एक ब्रह्मर्षि । ब्रह्महत्या का पातक लगा । अतः पवनपुर जा कर वहाँ देवमालिम्लुच--रहस्यु का उपनाम । उन्होंने द्वादशाक, वालुकेश्वर तथा न्यारह रुद्रों का देवमानुषि--(सो. क्रोष्ट.) भागवत तथा वायु के दशन लिया। चर कुंडों में स्नान किया । वाडवा दित्य के मत में शूर राजा को अश्मकी से उत्पन्न पुत्र । इसे 'देवमी- प्रसाद से उत्तरेश्वर का दर्शन ले कर, वे सारे मुक्त हो गये दुष' भी कहा गया है। (वायु. ६०.६९)। देवमित्र शाकल्य--मांडु केय ऋषि का पुत्र । इसने देवमीढ--(स. निमि.) भागवतमत में कृतिरथ का सौभरि आदि शिष्यों को संहिता कथन की । भागवत में | तथा वायुमत में कीर्तिरथ का पुत्र । इसे शाकल्य का साथी माना गया है। परंतु वाय तथा . २. (सो. क्रोष्टु.) भागवतमत में हृदीक का पुत्र । ब्रह्मांड के मत में, यह शाकल्य का शिष्य था। देवमित्र इसका पुत्र शूर । इसकी पत्नी का नाम ऐश्वाकी था शाकल्य ने पाँच संहितायें पाँच शिष्यों को सिखाई। (मत्स्य. ४६ )। देवमीढुष, देवमानुषि एवं देवमेधस् उनके शिष्यों के नाम-मुद्गल, गोखल, मत्स्य, खालीय इसाक नामातर है। तथा शैशिरेय । इसके नाम का वेदमित्र पाठभेद भी ३. (सो. पू.) द्विमीढ का नामांतर । प्राप्त है ( वेदमित्र, याज्ञवल्क्य तथा व्यास देखिये)। । ४. (सो. वृष्णि.) वृष्ण के पाँच पुत्रों में से तीसरा अपने अश्वमेध यज्ञ के समय, जनक राजा ने एक प्रण | (पन्न. सृ. १३)। जाहिर किया। सम्मीलित ब्राह्मणों में जो सर्वश्रेष्ठ देवमीदुष-(सो. कोष्ठु.) विष्णुमत में हृदीक का, साबित हो, उसे हजार गायें, उनसे कई गुना अधिक तथा म स्यमत म भजमान का पुत्र (देवमीद २. देखिये)। सुवर्ण, ग्राम, रत्न तथा असंख्य सेवक दिये जायेंगे, देवमुनि ऐमद--सूक्तद्रष्टा (इ. १०.१४६) । ऐसा प्रस्ताव उसने ब्राह्मणों के सामने रखा। अनेक 'पंचविश ब्राहाण' के मत में यह तुर का ही नामांतर ब्राह्मण स्पर्धा के कारण झगड़ने लगे। इतने में है ( २५.१४.५)। . ब्रह्मवाहसुत याज्ञवल्क्य वहाँ आया । उसने अपने | देवमेधस--(सो. क्रोष्ट.) भविष्यमत में हरिदीपक शिष्यों से कहा, 'यह सारा धन ले चलो, क्योंकि मेरी का पुत्र (देवमीढ२. देखिये)। बराबरी करनेवाला वेदवेत्ता यहाँ कोई नहीं है। जिसे यह । देवयान--कश्यपकुल का गोत्रकार ऋषिगण । अमान्य होगा, वह मेरा आह्वान स्वीकार करे। देवयानी--असुरों के राजपुरोहित शुक्राचाय की कन्या। अनेक ब्राह्मण वाद के लिये सामने आये तथा अनेक पुरंदर इंद्र की कन्या जयंती इसकी माता थी। शुक्राचार्य महत्त्वपूर्ण विषय पर विवाद हुएँ। सब को जीतने पर को प्रसन्न कर, दस वर्षों तक उसके पास रहने के बाद याज्ञवल्क्य ने शाकल्य से कुछ उपमर्दकारक बातें कहीं। जयंती को यह कन्या हुई। प्रियव्रतपुत्रो उर्जस्वती इसकी वह बोला, 'ब्राह्मण का बल विद्या तथा तत्त्वज्ञान में माता थी, ऐसा भी उल्लेख प्राप्त है (भा. ५.१.२५)। नैपुण्य होता है । किसी भी प्रश्न का उत्तर देने के लिये देवों के कथनानुसार संजीवनी विद्या सीखने के लिये मैं तैयार हूँ। इसलिये कौन सा भी प्रश्न पूछने का मैं बृहस्पतिपुत्र कच असुर गुरु शुक्राचाय के पास आ कर तुम्हें आह्वान देता हूँ। रह गया । कच का आकर्षक व्यक्तिमत्त्व देख, देवयानी २९४ Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवयानी प्राचीन चरित्रकोश देवयानी उससे प्रेम करने लगी। कच से विवाह करने का प्रस्ताव कर इसे बाहर निकाला। बाद में इससे बिदा हो कर, इसने उसके सामने प्रस्तुत किया। किंतु गुरुकन्या मान | वह अपने नगर वापस गया। कर कच ने इसका पाणिग्रहण नहीं किया । तब 'तुम्हारी | देवय नी को ढूंढने के लिये घूर्णिका नामक एक दासी विद्या तुम्हें फलद्रूप नहीं होगी, ऐसा शाप देवयानी ने | आयी। देवयानी ने उसके द्वारा, अपने पिता उशनस् उसे दिया । निरपराध होते हुए शा देने के कारण, क्रुद्ध | शुक्र को संदेशा भिजवाया, 'मैं वृषपर्वन् के नगर में नहीं हो कर, कच ने भी इसे शाप दिया, 'कोई भी ऋ.पपुत्र | आऊंगी'। घूर्णिका ने यह वृत्त, वृषपर्वन् के राजदरबार तुम्हारा वरण न करेगा। इसीसे इसे क्षत्रियप नी में बैठे शुक्राचार्य को बताया। उसे सुनते ही शुक्राचार्य बनना पड़ा। तुरंत वन में आया, एवं अपनी दुःखी कन्या से मिला । कच के वापस जाने के बाद, एक बार वृषपर्वन् राजा | इसकी हालत देखते ही वह बोला, 'अवश्य ही पूर्व जन्म की कन्या शामठा, तथा यह अपनी सखियों के साथ में तुमने कुछ पाप किया होगा, जिसके कारण तुम्हें यह क्रीड़ा करने गइ । उस वन में अपने अपने वस्त्र किनारे सज़ा मिल रही है। पश्चात् देवयानी ने उसे शर्मिष्ठा के रख कर, ये बालायें जलक्रीड़ा करने लगी। नटखट इन्द्र शब्द बताये। उन्हें सुन कर शुक्राचार्य को अत्यंत क्रोध ने इनका मजाक उडाने के लिये, मत्र के वस्त्र मिल जुल आया। परंतु देवयानी ने पिता की सांत्वना की, एवं कर रख दिये । जलक्रीड़ा समाप्त होने पर सब सख्यिाँ | कहा, 'वृषपर्वन् की कन्या ने, तुमसे भी मेरा ज्यादा एकदम बाहर आई, तथा गड़बड़ी म जो भी वस्त्र जिसे अपमान किया है। उससे मैं बदला ले कर ही रहँगी। मिला, उसे पहनने लगी। भागवत में कहा है कि, नंदी बाद में कोपाविष्ट शुक्राचार्य, दैत्य राजा वृषपर्वन् का त्याग पर बैठ कर नदी किनारे से शंकर जा रहे थे। इस कारण | करने के लिये प्रवृत्त हुआ। वृषपर्वन् ने नम्रता से उसकी लज्जित हो कर, ये लड़कियाँ पानी से बाहर आयी, एवं क्षमा माँगी । तब शुक्र ने कहा, 'तुम देवयानी को समझाओ, .वस्त्र परिधान करने लगी (भा. ९. १८)। क्यों कि, उसका दुख मैं सहन नहीं कर सकता। तब इरा गड़बड़ी में, गलती से शामष्ठा ने देवयानी की साड़ी वृषपर्वन् ने कहा, 'आप हमारे सर्वस्व के स्वामी हैं। पहन ली। अपनी साडी शर्मिष्टा द्वारा पहनी देख कर, | इसलिये आप देवयानी को हमें माफ करने को कह दें। दवयांनी अत्यंत क्रोधित हुई। देवयानी ने कहा, "मेरी यह सारा वृत्त शुक्राचार्य ने देवयानी को बताया। शिःया होहुरमतुमने मेरा वस्त्र परिधान क्यों किया? जवाब में इसने कहा कि, 'यह सब राजा मुझे स्वयं आ तुम्हारा कभी भी कल्याण न होगा। तब शमिठा ने कहा, कर कहे। तब वृषपर्वन ने इससे कहा, 'हे देवयानी । 'मैं राज्यन्या हूं तथा तुम मेरे पिता के पुरोहित शुक्राचाय तुम जो चाहो, मैं करने के लिये तैय्यार हूँ। किंतु तुम की कन्या हो । इतनी नीच हो कर भी, मेरे जैसी राज- नाराज न हो'। तब देवयानी ने कहा, 'तुम्हारी कन्या कन्या से नेढी बत करने में तुम्हे शर्म आनी चाहिये ।। शर्मिष्ठा अपनी सहस्र दासियों सह मेरी दासी बने, तथा इस प्रकार वे दोनों एक दूसरे को गालियाँ दे कर जिससे मैं विवाह करूंगी, उसके घर भी वह दासी बन वस्त्रों का बींचतान करने लगीं । अन्त में शर्मिष्ठा ने वहीं | कर, मेरे साथ आये। एक कुएं में इसे ढकेल दिया। इसकी मृत्यु हो गयी, देवयानी की यह शर्त मान्य कर, वृषपर्वन् ने ऐसे समझ कर वह नगर में वापस गई। शर्मिष्ठा को बुलावा भेजा । बुल नेवाली दासी ने - जिस बुर में देवयानी गिरी थी, उसके पास मृग देवयानी की शर्त के बारे में, सारा कुछ शर्मिष्ठा को के पीछे दौड़ता हुआ, नहपात्र ययाति पहुंच पहले ही बताया था । देवयानी के पास जा कर, गया। उदकप्राशनार्थ उस कुर में उसने झाँक कर शर्मिष्ठा ने उसकी शर्त मान्य कर ली। तब देवयानी देखा, तो भीतर एक अत्यंत तेजस्वी कन्या उसे न उपहास से उसे कहा, 'क्यों ? मैं तो याचक दिग्ख पड़ी। यह नग्न होने के कारण, उसने अपना की कन्या हूँ ! राजा की कन्या पुरोहितकन्या की दासी उत्तरीय इसे पहनने के लिये दिया (भा. ९. १८)। भला कैसे हो सकती है!' शर्मिष्ठा ने कहा, 'मेरे बाद में यंयाति ने इसे सारा वृत्तांत पूछा। तब इसने दासी होने से, अगर मेरे हीनदीन ज्ञातिबांधव मुखी हो बताया, 'मैं शुक्राचार्य की कन्या हूँ। यह ब्राहाणकन्या सकते है, तो दास्यत्व स्वीकार करने के लिये मैं तैयार है, यह जान कर ययाति ने इसका दाहिना हाथ पकड़ हूं'। तब देवयानी संतुष्ट हुई। बाद में इसका विवाह २९५ Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन चरित्रकोश देवयानी ययाति राजा से हुआ । शर्त की अनुसार, शर्मिष्ठा भी इसकी दासी बन कर ययाति के यहाँ गयी (म. आ. ७३. ७५; मत्स्य २७ - २९ ) । से बाद में इसकी दासी बनी हुआ शर्मिष्ठा को, ययाति 'पुत्र उत्पन्न हुआ । तब यह क्रोधित हो कर फिर एक बार अपने पिता के पास गयी। इस कारण शुक्र ने ययाति को शाप दिया 'तुम वृद्ध बन जाओगे ' । अन्त में ययाति के द्वारा बहुत प्रार्थना की जाने पर शुक्र ने उसे उःशाप दिया, 'तुम अपना वार्धक्य तरुण पुरुष को दे सकोगे। देवयानी को ययाति से यदु तथा तुर्वसु नामक दो पुत्र हुएँ से ( बाबु. ९२.७७-७८) । किन्तु उन दोनों ने ययाति का वृद्धत्व स्वीकारना अमान्य कर दिया। ययाति ने उन दोनों को शाप दे दिया। देवरक्षित (मो. कुकुर) विष्णु, मत्स्य तथा पद्म के मत में देवक का पुत्र देवरंजित एवं देववर्धन इसीके नामांतर है (पद्म. स. १३) । - देवरक्षिता – देवक राजा की कन्या एवं वसुदेव की स्त्री इसे गद आदि नौ पुत्र थे (मा. ९.२४) । देवरंजित - (सो, कुकुर) वायुमत में देवक का पुत्र ( देवरक्षित १. देखिये) । " निर्देश आया है ( वा. रा. उ. ५८ ) । रामायण में, देवयानी के केवल यदु नामक पुत्र का किये, उन्हें 'मनुष्यराजन् ' कहा जाता था । 'मनुष्यराजन् के प्रमुख नाम देवोदास वाध्यक्ष, वैतन्य । 'देवराजन् ' एवं ' मनुष्यराजन् ' के कुछ साम प्रसिद्ध है (पं. बा. १८.१०.५) । 6 देवरात (सो. क्र. ) एक यादव राजा भागवत विष्णु, मत्स्य तथा पद्म के मत में यह करंभ का पुत्र था। वायुमत में करंभक का पुत्र । भविष्यमत में इसे देवरथ कहा गया है (पद्म. सृ. १३ ) । २. एक ऋषि भागवत के अनुसार इसका पुत्र याज्ञवल्क्य । वायु तथा ब्रह्मांड में ब्रह्मवाह पाठभेद है। देवरथ - (सो.) भविष्यमत में कुभ का पुत्र (देवरात २. देखिये ) । ३. एक गृहस्थ । इसे कला नामक कन्या थी । उसके पति का नाम शोण था । मारीच द्वारा कला का वध देवराज--(स. इ.) विकुक्षि का नामांतर ( मरत्य होने के बाद, देवरात तथा शोण उसको ढूँढ़ने, १२.२६ ) । विश्वामित्र के यहाँ गये । वहाँ से वसिष्ठ को साथ ले कर वे शिवलोक में गये। मरतें, समय, 'हर का नाम मुख से निकलने के करण, इसकी कन्या कैलास में पार्वती की दासी बनी थी। पार्वती ने इसे एवं शोण को सोमप्रत समारोह के लिये टैरने के लिये कहा। वह समारोह समाप्त होने पर ये दोनों वापस आये (पद्म. पा. ११२ ) । २. (सु. निमि.) देवरात का पाठभेद । ३. एक ब्राह्मण । यह किरात नगर में व्यापार करता था। यह अत्यंत धूर्त एवं शराबी था। एक बार तालाब में यह स्नान करने गया। वहाँ शोभावती नामक वेश्या से इसका संबंध जड़ा | उसके कारण माँ, बाप तथा पत्नी का भी इसने वध किया | देवरात देवराज वसिष्ठ - एक ऋषि । यह अयोध्या का राजा त्रय्यारुण का पुरोहित था । इसीके कारण त्रय्यारुण ने सत्यत्रत त्रिशंकु को, अयोध्या देश के बाहर निकाल दिया तथा अपना राज्य इस पर ( अपने पुत्र ) सौंप दिया ( त्रिशंकु देखिये ) । इसी के द्वारा विश्वामित्र ने आप को ब्राह्मण कहलवाया (JRAS १९१७. ४०-६७ ) । देवराजन - एक सन्मान्य उपाधि । देवों में से जिन्होंने राजसूययज्ञ किया, उन्हें यह उपाधि लगायी जाती थी ( देव देखिये) । प्राचीन काल के सुविख्यात 'देवराजन् ' की नामावली सायणाचार्य ने दी है। उनके नाम सिंधुक्षित, दीपंअवसदेपंधरा, पृथु पार्थ, कक्षीयत एवं काक्षीवत् मानवों में जिन्होंने राज २९६ - ४. युधिष्ठिर की सभा का एक क्षत्रिय ( म. स. ४. २२ ) । | एक बार यह प्रतिष्ठान नगर में गया। वहाँ इसने शिव का दर्शन लिया तथा शिवकथा सुनी। पश्चात् एक माह के बाद इसकी मृत्यु हुई। केवल अकाल किये गये शिवपूजन के कारण, इसे कैलास में जाने का भाग प्राप्त हुआ (शिवपुराण माहात्म्य ) | देवरात जनक - (सू. निमि.) विदेह देश के सुविख्यात 'जनक' राजाओं में से एक (म. शां. २९८ ) । भागवत एवं वायु में इसे सुकेतु का, तथा विष्णु में यह स्वःकेतु का पुत्र बताया है। इसके घर में रुद्र ने एंक शिवधनुष्य रखा था । 'सीता स्वयंवर' के समय, उस ४. काशी का राजा इसकी कन्या मुदेवा इक्ष्वाकु की पत्नी थी (पद्म. भू. ४२.६ ) । Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवरात प्राचीन चरित्रकोश देववर्णिनी | ४६.७)। धनुष का राम ने भंग किया (वा. रा. अयो. ६६)। रचनाकाल भी काफी अर्वाचीन होगा। क्योंकि, इस राम का ससुर एवं सीता का पिता ' सीरध्वज जनक' से | स्मृति के १७-२२ श्लोक तथा ३०-३१ श्लोक विष्णु के हैं, यह बहुत ही पूर्वकालीन था। यह याज्ञवल्क्य का सम- ऐसा अपरार्क में (३.१२००) बताया गया है । अपरार्क कालीन था। वायु में इसे 'देवराज' कहा गया है। तथा स्मृतिचन्द्रिका में 'देवल स्मृति' से दायविभाग, धनुष का इतिहास बताते समय इसे निमि का पुत्र | स्त्रीधन पर रहनेवाली स्त्री की सत्ता आदि के बारे में कहा गया है (वा. रा. बा.६६.८)। किंतु 'रामायण' उद्धरण लिये गये हैं। इससे प्रतीत होता है कि, स्मृतिकार में दिया गया इसका वंशक्रम, पुराणों में दिये गये क्रम देवल, बृहस्पति, कात्यायन आदि स्मृतिकारों का समकालीन से अधिक विश्वासार्ह प्रतीत होता है। इसका पुत्र बृहद्रथ | होगा। देवल विरचित धर्मशास्त्र पर श्लोक एकत्रित कर, (दैवराति देखिये)। . तीनसौ श्लोकों का संग्रह 'धर्मप्रदीप' में दिया गया हैं। देवरात वैश्वामित्र--शुनाशेप का नामांतर । शुनःशेप उससे इसके मूल स्मृति की विविधता तथा विस्तार की को विश्वामित्र ने पुत्र मान कर स्वीकार किया। उस समय पूर्ण कल्पना आती है। शुनःशेप को यह नाम दिया गया (ऐ. बा. ७.१७; सां. २. जनमेजय के सर्पसत्र का एक सदस्य (म. आ. श्री. १५.२७)। पश्चात् एक गोत्र एवं प्रवर को भी यह नाम दिया गया । यह एक मंत्रकार भी था (अजीगर्त ३. प्रत्यूष का पुत्र (म. आ. ६०.२५, विष्णु. एवं जह्न देखिये ) १.१५.१७)। इसका भाई असित । स्वर्ग में जा कर, इसने पितरों को महाभारत का निरूपण किया था (म. देवराति-अंगिराकुलोत्पन्न एक गोत्रकार। आ. १.६४; अजित देखिये)। देवल-एक ऋपि (क. सं. २२.११)। असित को ४. एक शिवशिष्य । शिव ने श्वेत नाम से दो अवतार एकपर्णा से उत्पन्न पुत्रों में से यह एक था। यह कश्यप | लिये। उनमें से दूसरे का शिष्य । .गोत्र का एक मंत्रकार एवं प्रवर था। इसने हुहू गंधर्व को ५. कृशाश्व को धिषणा से उत्पन्न पुत्र (भा. ६.६. शाप दिया था (भा. ८.४)। असित देवल तथा देवल | २०)। इन दोनों नामों से इसका निर्देश प्राप्त है। इसका छोटा ६. एक ऋषि । ब्रह्मदेव के पुष्कर क्षेत्र के यज्ञ में, भाई धौम्य । वह पांडवों का पुरोहित था (असित | ब्रह्मगणों का यह अग्नीध् था (पद्म. स. ३४)। देखिये)। देववत्--एक वैदिक राजा । इसका नाती सुदास (ऋ. धर्मशास्त्रकार--एक स्मृतिकार के नाते भी देवल | ७.१८.२२)। इसका रथ अप्रतिहतगति था (ऋ. ८. सुविख्यात था। याज्ञवल्क्य पर लिखी गई 'मिता- ३१.१५)। वन्यश्व, दिवोदास तथा सुदास, इस प्रकार क्षरा' (१.१२८), 'अपराक,' 'स्मृतिचन्द्रिका' | यदि वंशावलि मानी जाय, तो सुदास को देववत् का आदि ग्रंथों में देवल का उल्लेख किया गया है। उसी | दौहित्र मानना चाहिये। प्रकार देवल की स्मृति के काफी उद्धरण 'मिताक्षरा' में | २. रुद्रसावर्णि मनु का पुत्र (मनु देखिये)। लिये गये हैं (१.१२०)। 'स्मृतिचन्द्रिका' में देवल | ३. (सो. कुकुर.) देवक का ज्येष्ठ पुत्र । उपदेव, सुदेव स्मृति से ब्रह्माचारी के कर्तव्य, ४८ वर्षों तक पाला जाने-एवं देवरक्षित इसके बंधु थे (पद्म. स. १३)। वाला ब्रह्मचर्य, पत्नी के कर्तव्य आदि के संबंध में ४. (सो. वृष्णि.) अक्रर का पुत्र ( पद्म. स. १३)। उद्धरण लिये गये हैं (स्मृ. ५२, ६३)। उसी प्रकार । ५. एक ऋषि । पूर्वजन्म में यह केशव था। यह विष्णु. 'मिताक्षरा,' हरदत्त कृत 'विवरण, ' अपरार्क आदि ग्रंथों स्वामी के मतों का अनुयायी था । इसने ‘रामज्योत्स्नामें 'देवलस्मृति' में से आचार, व्यवहार, श्राद्ध, प्रायश्चित | मय' नामक ग्रंथ लिखा (भवि. प्रति. ४.२२)। तथा अन्य बातों के संबंध में उद्धरण लिये गये हैं। देववती--ग्रामणी गंधर्व की कन्या एवं सुकेश राक्षस 'देवल स्मृति' नामक ९० श्लोकों का ग्रंथ आनंदा- | का पत्ता ।। श्रम में छापा है। उस ग्रंथ में केवल प्रायश्चित्तविधि | देववर--यजुर्वेदी ब्रह्मचारी । बताया गया है। किंतु वह ग्रंथ मूल स्वरूप में अन्य देववर्णिनी--भारद्वाज ऋषि की कन्या तथा विश्रवा स्मृतियों से लिये गये श्लोकों का संग्रह होगा । इसका | ऋषि की पत्नी । इसे वैश्रवण नामक पुत्र था । प्रा. च. ३८] २९७ Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देववर्धन देववर्धन--(सो. कुकुर.) भागवतमत में देवक का पुत्र ( देवरक्षित देखिये) । देववर्मन - (मौर्य भविष्य.) वायु तथा ब्रह्मांडमत मैं इंद्रपाति का पुत्र । इसने सात वर्षों तक राज्य किया। सोमशर्मा इसी का ही नामांतर है। देववर्ष -- प्रियव्रत राजा का पुत्र ( भा. ५.२०.९ ) । देवचात भरत का पुत्र इसके भाई का नाम देव प्राचीन चरित्रकोश अवस् था । इन दोनों का एक संपूर्ण सूक्त है । दृषद्वती सरस्वती एवं आपया नदी के तट पर, इसने यज्ञ किये थे (ऋ. ३.२२.२ ) । देववत- मालिनी देखिये । २. भीष्म का नामांतर (म. आ. ९०.५० ९४० ६७)। २. एक कर्मठ ब्राह्मण। एक बार एक कृष्णमक ने कृष्ण का पूजन किया। तीर्थ देने पर इसने उसे अश्रद्धा से ग्रहण किया। देववीति - ( स्वा. प्रिय.) मेरु की नौ कन्याओं में किया पश्चात् यह पृथ्वी पर आया, एवं अन्य लोगों से एक तथा अभीपुत्र केतुमाल की स्त्री । की सहायता से महीसागरसंगम पर इसने श्राद्ध किया। उससे इसके पितरों का उद्धार हुआ (स्कन्द १. २. ३)। अतः इसे चाँस का जन्म मिला। पश्चात् पुण्यसंचय के कारण, उस बाँस से कृष्ण ने अपनी मुरली बनायी, एवं इसका उद्धार हो गया (पद्म. पा. ७३ ) । देवशर्मन - एक ऋषि । इसकी स्त्री रुचि (म. अनु. ७५. १८; ४१ कुं.) । २. जनमेजय के सत्र का एक सदस्य ( म. आ. ४८.९) । २. वायुमत में व्यास की ऋशिष्यपरंपरा के शाकपूर्ण रथीतर का शिष्य ( व्यास देखिये) । ४. एक सदाचारी ब्राह्मण । अपने पिता का वर्षश्राद्ध सुयोग्य ब्राह्मण के हाथों से, यह हर साल करता था। एकबार श्राद्ध के बाद यह आँगन में बैठा था । तब एक बैल तथा कुतिया का संभाषण इसने सुना। उस संभाषण से इसे पता चला कि वे दोनों इसके माता पिता हैं, तथा श्राद्ध की गड़बड़ी वो दोनों भूखे रह गये है । अपने मातापिता को, बैल एवं कुतिया का जन्म कैसे प्राप्त हुआ, इसका कारण पूछने के लिये, यह वसिष्ठ के पास गया। देवशर्मन दुस्थिति प्राप्त हुई है ' । इस पर उपाय पूछने पर, वसिष्ठ भाद्रपद शुद्ध पंचमी को, ऋषिपंचमी व्रत करने के लिये इसे कहा उसे करने के बाद इसके मातापिता का उद्धार हुआ (पद्म. उ. ७७ ) । ५. एक ब्राह्मण प्रत्येक पर्व में यह समुद्रसंगमा पर श्राद्ध करता था । उस श्राद्ध से इसके पितर प्रत्यक्ष आ कर इसे आशीर्वाद देते थे। एक बार अपने पितरों के साथ यह पितृलोक गया। यहाँ अपने पितरों से भी अधिक सुखी अन्य पितर इसने देखे। उसका रहस्य पूछने पर इसे ज्ञात हुआ कि, उनके श्राद्ध महीसागरसंगम पर होते हैं। वहीं श्राद्ध करने का इसने निय ६. पुरंदर नगर में रहनेवाला एक ब्राह्मण । इसने अनेक पुण्यकृत्य किये। किंतु उनसे इसके मन को शांति प्राप्त नहीं हुई । अन्त में भगवद्गीता के दुसरे अध्याय से इसे मनःशांति प्राप्त हुई । ( पद्म. उ. १७६ ) । ७. मायापुरी में रहनेवाला अलि का एक ब्राह्मण । इसकी कन्या का नाम गुणवती तथा दामाद का नाम चन्द्रशर्मा था। चंद्रशर्मा इसका शिष्य भी था। एक बा ये दोनों अरण्य में दर्भसमिधा लाने के लिये गये। एक राक्षस ने इनका वध किया । अनेक प्रकार के धर्माचरणों के कारण वे बैकुंठ गये (पद्म उ ८८ सत्यभामा देखिये) । ८. कावेरी नदी के उत्तर तट पर रहनेवाला एक ब्राह्मण कार्तिक माह में अपने पुत्र को इसने स्नानादि कर्म करने के लिये कहा । उसने दुर्लक्ष किया। तब क्रुद्ध हो कर, इसने पुत्र को शाप दिया, 'तुम चूहा बनींग' बाद में पुत्रद्वारा प्रार्थना की जाने पर, इसने उःशाप दिया, कार्तिकमाहात्म्य सुनने पर तुम मुक्त हो जायोग ' । उस शाप के अनुसार, इसका पुत्र चूहा बन कर अरण्य में गया। एक बार एक आँवले के वृक्ष के नीचे, विश्वामित्र ऋषि अपने शिष्यों को कार्तिकमाहात्म्य बता रहा था । उसे सुन कर वह ब्राह्मणपुत्र मुक्त हुआ ( स्कंद. २.४.१२ ) । ' वसिष्ठ ने सारी घटनायें अन्तशान से जान कर इसे बताया, 'रजस्वला स्थिति में तुम्हारी माता ने भोजन पका कर ब्राह्मणों को खिलाया। इस कारण उन दोनों को यह २९८ ९. विष्णु का एक अवतार जालंधर देत्य एवं देवताओं का युद्ध छ रहा था। उस समय, जालंधर दैत्य की पत्नी वृंदा को एवं उसकी सखी स्मरदूति को फँसाने के लिये, विष्णु ने देवशर्मा नामक तपस्वी का वेष धारण किया। Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवशर्मन् प्राचीन चरित्रकोश देवापि अपने को भरद्वाज गोत्रज ऋषि बता कर, देवशर्मा के रूप | है (ऋ. ८.४.१९) । एकबार अकाल पड़ा। यह अपने धारण करनेवाला विष्णु वृंदा को अपने आश्रम में ले | पुत्रों के साथ कंदमूल लाने के लिये अरण्य गया। वहाँ गया । पश्चात् जालंधर का रूप धारण कर के, विष्णु ने इसे कूष्मांड के फल प्राप्त हुएँ । इसने एक साम कह कर, देवशर्मा के आश्रम में वृंदा का उपभोग लिया (पद्म. उ. उन फलों को गायों में परिवर्तित कर दिया (पं. बा. ९. १८; जालंधर देखिये)। २.१९)। देवश्रवस्--(सो. कोटु.) शूर राजा को मारिपा से २. (सो. कुरु.) क्रोधन एवं कंडू का पुत्र । विष्णु, उत्पन्न पुत्र । कंस की भगिनी कंसवती इसकी स्त्री थी। इसे | मत्स्य तथा वायु पुराणों में इसे अक्रोधन का पुत्र कहा सुवीर एवं इपुमान् नामक दो पुत्र थे (भा. ९.२४)। गया है । वैदर्भी मर्यादा इसकी स्त्री थी एवं ऋष्य वा रुच २. एक पि (म. शां. ४७.५)। यह विश्वामित्र के | इसका पुत्र था (म. आ. ९०.२२;भा. ९.२२.११)। कुल में पैदा हुआ था, एवं उसी के वंश का एक प्रवर भी देवाधिप-दुर्योधन के पक्ष का एक राजा (म. आ. था । इसे कुशिक गोत्र का मंत्रकार भी बताया गया है। ६१.२७)। - देवश्रवस् भारत-भरतवंश का एक राजा । देवानंद--(सो. मगध. भविष्य.) प्रियानंद राजा का दृपद्धती, सरस्वती, एवं आपया नदीयों के तट पर, इसने पुत्र । इसने बीस वर्षों तक राज्य किया। देववात् राजा के साथ काफी यज्ञ किये थे (ऋ. ३.२३. देवानीक--(सू. इ.) क्षेमधन्वा का पुत्र (पद्म. सु. २-३)। महाभारत (भांडारकर इन्स्टिटयूट आवृत्ति) में ८)। 'वेदश्रवस्' नाम से इसका निर्देश प्राप्त है। देवांतक-रावण का पुत्र । हनुमानजी ने इसका वध देवश्रवस् यामायन--एक सूक्तद्रष्टा (ऋ. १०. किया (वा. रा. यु. ६.७०)। .१७) अनुक्रमणी में इसे यम का पुत्र कहा गया है। । २. एक राक्षस । यह हिरण्याक्ष राक्षस का मित्र था देवश्रेष्ठ--रुद्रसावर्णि मनु का एक पुत्र । उसकी ओर से युद्ध करते समय, यह यम के हाथों मारा देवसावर्णि-रोच्य मनु का नामांतर । यह तेरहवाँ | गया (पम. सु. ७०)। मनु थी, एवं तेरहवे मन्वंतर का अधिपति था (भा. ८. ३. एक असुर । यह रौद्रकेतु का पुत्र था । इसने अपने ५३; ब्रह्मवै. २.५४)। पुराणों में इसका ऋतधामा कृत्यों द्वारा त्रैलोक्य को त्रस्त कर रखा था। तब विनायक ने नामांतरं दिया गया है (मस्य. ९; मनु देखिये)। कश्यप के गृह में अवतार ले कर, इसका वध किया । देवसेना--दक्ष प्रजापति की कन्या। केशी दैत्य इसे ४. कालनेमि का पुत्र। हरण कर ले जा रहा था। इस वक्त इद्र ने इसे छुड़ाया। देवापि आEिषेण--(सो. करु.) करुवंश का एक पश्चातं इसने कार्तिकेय को वरण किया (म. घ. २१३. राजा एवं सूक्तद्रष्टा (ऋ.१०.९८)। इसके सूक्त में शंतनु १,२१८.४७)। महाभारत में दी गयी देवसेना की | राजा का उल्लेख भी प्राप्त है। कथा रूपकात्मक प्रतीत होती है। ___ शंतनु तथा यह दोनों कुरुवंश का राजा प्रतीप एवं देवस्थान-एक ब्रापि (म. शा. २०.१,४७.६)। सुनंदा के पुत्र थे। उनमें से यह ज्येष्ठ तथा शंतनु कनिष्ठ देवहव्य-एक ऋषि (म. स. ७.१६)। बंधु था। फिर भी शंतनु गद्दी पर बैठा । इसी कारण राज्य देवहूति-स्वायंभुव मनु की कन्या, एवं कर्दम- में १२ वर्षों तक अवर्षण हुआ। ब्राह्मणों ने उससे कहा, प्रजापति की पत्नी (भा. ३.१२.५४)। इसे नौ कन्याएँ 'तुम छोटे भाई हो कर गद्दी पर बैठे हो, इस कारण एवं कपिल नामक एक पुत्र था (भा. ३.२४) । कपिल ने भगवान् वृष्टि नहीं करते है। इसे सांख्यशास्त्र का उपदेश दिया था। बाद में यह शंतनु ने देवापि को राजसिंहासन पर बैठने के लिये देहत्याग कर नदी बनी (भा. ९.३३)। बुलवाया। परंतु देवापि ने उसे कहा, 'तुम्हारा पुरोहित देवहोत्र--एक ऋषि । उपरिचर वसु के यज्ञ में यह बन कर मैं यज्ञ करता हूँ। तब वर्षा होगी।' तब इसने ऋग्वेद ऋत्विज था। में इसके नाम से प्रसिद्ध सूक्त का उद्घोष किया (नि. २. देवातिथि काण्व--एक सूक्तद्रष्टा (ऋ. ८.४)। ११)। त्वचारोग होने के कारण, इसने राज्य अस्वीकार इसके सूक्त में रुम, रुशम, श्यावक तथा कृप का उल्लेख | कर दिया तथा यह तपस्या करने अरण्य गया। सौ वर्ष है (ऋ. ८.४.२), तथा अन्त में कुरूंग की दानस्तुति की | का अवर्षण होने के कारण, शंतनु की प्रार्थना से इसने यज्ञ २९९ Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवापि प्राचीन चरित्रकोश ९°ा किया ( बृहहे. ७.१४-८; ८.७)। इससे प्रतीत होता है, देवावृध-(सो. क्रोष्टु) सात्वत राजा का पुत्र । क्षत्रिय हो कर भी, इसने ब्राह्मणवर्ण स्वीकार कर रोहित्य इसका पुत्र बभ्रु । पद्ममत में यह सात्वत का द्वितीय किया। पृथूदक नामक तीर्थ पर तपस्या कर के, इसने यह पुत्र था । इसे पुत्र न था, इसलिये इसने पर्णाशा नदी ब्राह्मणत्त्व प्राप्त किया था (म. श. ३९.१०)। के तट पर तपस्या की। तब नदी ने कन्या का रूप धारण 'बृहस्पति की स्तुति कर, इसने वर्षा करवाई। अपने कर इसे वरण किया । पश्चात् उस कन्यारूपधारी नदी से सूक्त में इसने स्वयं को 'औलान' कहलाया है (ऋ. १०. | इस बभ्रु नामक पुत्र उत्पन्न हुआ (पद्म. स. १३ )। ९८.११)। पुराण में कुछ भेद से यही जानकारी उपलब्ध | इसने यज्ञ में ब्राह्मणों को कांचनछत्र अर्पण कियी था ('म. शां. २२६.२१; अनु. २००.७ कुं.)। महाभारत में इसे प्रतीप एवं शैब्या-स्त्री सुनंदी का | देवी-एक अप्सरा । पुत्र बताया गया है (म. आ. ९०.४६)। भागवत, २. प्रलादपुत्र वीरोचन की स्त्री (भा. ६. १८.१६)। मत्य, वायु एवं विष्णुमत में यह प्रतीपपुत्र होने के ___३. वरूण की पत्नी । इसे बल नामक पुत्र एवं सुरा बारे में मतभेद नहीं है। इसे शंतनु तथा बाहिक नामक नामक कन्या थी (म. आ. ६०.५१; देवी ४. देखिये )। दो भाई थे । बचपन में ही इसने विरक्ति स्वीकार की ४. विश्वव्यापक आदिमाया के लिये प्रयुक्त सामान्य(म. आ. ८९.५२, ९०.४६; ह. वं. १.३२.१०६)। नाम । देवी का शब्दशः अर्थ 'स्त्री देवता' है। धर्मशान की इच्छा से विरक्त हो कर, यह वन में गया। इस अर्थ से, देवों के स्त्रियों के लिये, यह शब्द बाद में यह देवों का उपाध्याय बना। इसे च्यवन तथा प्रयुक्त किया जाता है। किंतु 'देवी' यह नाम प्रायः इष्टक नामक दो पुत्र थे (वायु. ९९.२३२; ब्रह्म. १३. आदिमाया ने पृथ्वी पर लिये नानाविध अवतारों के ११७)। कुष्ठरोग से पीडित होने के कारण, लोगों ने लिये, अधिकतर प्रयुक्त किया जाता है। इसे राजा बनाना अमान्य किया था (मत्स्य. ५०. । पुराणों में 'देवी' यह देवता अत्यंत प्रभावशाली मानी गयी है। इसलिये किसी भी संकट के समय, देव भागवत में उपरोक्त सारी कथा दे कर, उसमें और एवं मानव, इसकी शरण में जा कर संकट मुक्त होते है। कुछ जानकारी भी दी गयी है। शंतनु ने देवापि को स्कंद, पद्म, मत्स्य पुराणों में देवी की पराक्रम की अनेक राज्य का स्वीकार करने की प्रार्थना की। शंतनु के प्रधानों कथाएँ ग्रथित की गयी हैं। 'कालिका पुराण' एवं 'देवी ने कुछ बुद्धिमान् ब्राह्मणों को भेज कर इसकी मति पाखंड भागवत' ये ग्रंथ देवीमाहात्म्य बताने के लिये ही केवल मतों की ओर प्रवृत्त की । अंत में शंतनु के पास आ कर | | लिखे गये है । मार्कडेय पुराण में, देवीमाहात्म्य बताने के यह वेदमाग की निंदा करने लगा। इससे यह पतित लिये 'सप्तशती' नामक उपाख्यान की रचना की गयी सिद्ध हो कर, राज्य के लिये अयोग्य बना, तथा शंतनु का है (मार्क ७८-९०)। उसका पटन देवीभक्त लोग दोष नष्ट हो गया (विष्णु. ४.२०.७)। प्रतिदिन किया करते हैं। बाद में यह कला पिग्राम में रहने लगा। कलियुग में मानव एवं सृष्टि में जो शक्तिखोत है, उसकी आसना, सोमवंश नष्ट होने के बाद, कृतयुगारंभ में इसने पुनः 'देवी उपासना' का आद्य अधिष्ठान है । देवगणों में से एक बार, सोमवंश की स्थापना की (भा. ९.२२)। दत्त, शिव, एवं गणेश इन देवताओं में, एवं स्वयं मनुष्य कलियुग में वर्णाश्रमधर्म नष्ट होने के बाद, नये कृतयुग के शरीर में जो सामथ्य एवं शक्ति है, उनी एकत्रित कर के आरंभ में, वर्णाश्रमधर्म की स्थापना इसीके हाथों से | के कार्यप्रवण बनाना, यह 'देवी आसना' का मुख्य होनेवाली है (भा. १२.२; विष्णु. ४. २०.७; ९; उद्देश्य है। देवीद्वारा विश्व की उत्पत्ति होती है, एवं सुवर्चस् देखिये)। विश्व का विस्तार ही उसीके कृपाप्रसाद से होता है। २. चेदि देश का एक क्षत्रिय । कर्ण ने इसका वध | सृष्टिविस्तार के लिये, उस सृष्टि में हरएक प्राणिमात्र की किया (म. क. ४०.५०)। आसक्ति या काम निर्माण होना बहुत जरूरी है। जब तक ३. आष्टिषेण राजा के उपमन्यु नामक पुरोहित का पुत्र | सृष्टि में मोह नहीं, तब तक सृष्टि का विस्तार नहीं हो (मिथु देखिये)। | सकता। सृष्टि के चराचर वस्तुओं के बारे में, उपासकों के देवाह-(सो. विद.) वायुमत में हृदीक का पुत्र ।। मन में आसक्ति या काम निर्माण करना, एवं पश्चात् उस २00 Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवी प्राचीन चरित्रकोश देवी , आसक्ति को पूरी करना, यह 'देवी उपासना' से ही भेज दिये। किंतु देवी ने उन दोनों का ही वध किया । "केवल साध्य हो सकता है । उस कारण इसे 'चामुंडा नाम प्राप्त हुआ। चण्ड-मुण्ड को मारने के बाद, चामुंडा ने शुंभ-निशुंभ का भी वध किया ( स्कंद्र.५.१.३८;चंड ३ . देखिये ) | देवी के अनेक अवतार पृथ्वी पर हो गये हैं। उस हर एक अवतार का प्रभाव एवं रूप अलग है। देवी के उस अवतार का नाम भी इसके उस अवतार के रूप एवं गुणवैशिष्टय के अनुसार विभिन्न रखा गया है। देवी के इन विभिन्न अवतारों के नाम एवं उनके गुणवैशिष्ट्य इस प्रकार है : , (१) त्रिगुणात्मिका - चराचर सृष्टि का स्वरूप सत्त्व, रज एवं तम इन तीनो गुणों से युक्त, अंतएव ' त्रिगुणास्मक है। उन तीनो स्वरूप देवी धारण करती है। इसलिये उसे 'त्रिगुणात्मिका' कहते है। अपने गुणात्मक स्वरूप के कारण, आध्यात्मिक शक्ति के साथ आदि दैविक एवं आधिभौतिक सांमध्ये ही देवी अपने भक्तों को प्रदान करती है उस कारण 'देवी उपासना' से । भक्तों की आध्यात्मिक, आधिदैविक एवं आधिभौतिक उन्नति हो जाती है। , (२) दुर्गा - माकैडेय पुराणान्तर्गत 'देवी माहात्म्य' में, देवी का निर्देश दुर्गा नाम से किया गया है, एवं उसे काली, लक्ष्मी, एवं सरस्वती का अवतार कहा है । दुर्गम नामक असुर का वध करने के कारण, देवी को 'दुर्गा' नाम प्राप्त हुआ। देवों के नाश के लिये, दुर्गम तपस्या कर रहा था | ब्रह्मदेव को प्रसन्न कर, उसके वर से दुर्गम ने सारे वेद, पृथ्वी पर से चुरा लिये। उस कारण यशयागादि सारे कर्म बंद हुएँ पृथ्वी पर अनावृष्टि का भय छा गया। ब्राह्मणों ने विनंती करने पर देवी ने शवनेत्रयुक्त रूप धारण कर, दुर्गम का वध किया, एवं उसने चुरायें हुएँ वेद मुक्त किये (पद्म स्व. २८९ दे. भा. ७.२८ ) । ( ३ ) महिषासुर मर्दिनी एवं महालक्ष्मी - महिप नामक राक्षस, ब्रह्मदेव के वर के कारण उन्मत्त हो कर देवों को अस्त करने लगा। देवों ने प्रार्थना करने पर आदिमाया ने अष्टादश भुजायुक्तरूप धारण किया, एवं रणांगण में महिषासुर का वध किया। देवी के उस अवतार को 'महिषासुर मर्दिनी एवं महालक्ष्मी ' ' ' कहते है (महिषासुर देखिये) । महिषासुर का वध करने के बाद, उस स्थान पर महालक्ष्मी ने पापनाशनतीर्थ उत्पन्न किया (स्कंद १.२.६५०२.२० ) । (४) चामुंडा -- शुंभ-निशुंभ नामक दो दानवों ने, देवी का वध करने के लिये, चण्ड-मुण्ड नामक दो राक्षस ३०१ शुंभ-निशुंभ के पक्ष का रक्तबीज नामक और एक असुर था। ब्रह्मदेव के दरभाव से उसके रक्त के बिंदु भूमि पर पडते ही उतने ही राक्षस निर्माण होते थे । इस कारण यह युद्ध में अजेय हो गया था चामुंडा ने उसका सारा रक्त, भूमी पर एक ही रक्तबिंदु छिड़कने का मौका न देते हुये, प्राशन किया। उस कारण रक्तबीज का नाश हुआ (दे. भा. ५.२७- २९ मार्के. ८५९ शिव. उमा. ४७; रक्तबीज देखिये) । ( ५ ) शाकंभरी - अपने क्षुधित भक्तों को, देवी ने कंदमूल एवं सब्जियों खाने के लिये दी। उस कारण उसे 'शाकंभरी' नाम प्राप्त हुआ। ( ६ ) सती -- दक्ष प्रजापति की कन्या के रूप में आदिमाया ने अवतार लिया, उसे 'सती' कहते है । अपनी इस कन्या का विवाह दक्ष ने महादेव से कर दिया । पश्चात् दक्ष ने एक पशयन प्रारंभ किया। उस यज्ञ के लिये, दक्ष ने अपनी कन्या सती एवं जमाई शिव को निमंत्रण नहीं दिया। फिर भी सती पिता के वशखान यज्ञस्थान में यज्ञसमारोह देखने आयी । वहाँ दक्ष ने उसका अपमान किया। तब कोश सती ने यज्ञकुंड में अपना देह शोंक दिया। शिव को यह ज्ञात होते ही, दुखी हो कर सती का अर्धदग्ध शरीर कंधे पर ले कर, वह नृत्य करने लगा। उस नृत्य से समस्त त्रैलोक्य त्रस्त हो गया। पश्चात् विष्णु ने शंकर को नृत्य से परावृत्त करने के लिये, सती के कलेवर का एक एक अवयव शस्त्र से तोड़ना प्रारंभ किया । जिन स्थानों पर सती के अवयव गिरे, उन स्थानों पर सती या शक्ति देवी के इक्कावन स्थान प्रसिद्ध हुएँ उन्हे 'शक्तिपीठ' कहते है ( शक्ति देखिये) । (७) पार्वती, काली, एवं गौरी - - दक्षकन्या सती ने हिमालय के उदर में पुनः जन्म लिया। हिमालय की कन्या होने से, इसे हैमवती, गिरिजा, एवं पार्वती ये पैतृक नाम प्राप्त हुएँ। इसकी शरीरकांति काली होने के कारण, उसे 'काली' नामांतर भी प्राप्त हुआ था। एक बार शंकर ने मजाक के हेतु से, पार्वती की कृष्णवर्ण के उपलक्ष में, उसे 'काली' कह के पुकारा। Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दवी प्राचीन चरित्रकोश देवी इसने यह अपमान समझा, एवं गौरवर्ण प्राप्त करने के | प्रकाश देती है। ४. योगीश्वरी--यह उत्तर दिशा में रहती लिये तपस्या करने, यह हिमालय पर्वत में गयी । शंकर है। उसके दृष्टिपान से सनकादिक योगी सिद्ध बने । अत्यंत स्त्रीलंपट होने से, उसके मंदिर में किसी भी स्त्री ५. त्रिपुरा-त्रिपुरासुर का वध करने के लिये, इसने शंकर का प्रवेश न हो, ऐसी व्यवस्था इसने की। अपनी माता की | की मदद की। ६. कोलंबा-यह पूर्व दिशा में वाराह गिरि सखी कुसुमामोदिनी एवं शिवगणों में से वीरक को, शंकर पर रहती है । ७. कपालेशी--यह कोलंबा के साथ रहती की मंदिरद्वार पर कड़ा पहारा रखने के लिये इसने कहा।। है। ८. सुवणाक्षी । ९. चर्चिता। १०. त्रैलोक्यविजया-- फिर भी वीरक की दृष्टि बचा कर, अंधकासुर का अड़ि | यह पश्चिम दिशा में रहती है। ११.वीरा। १२.हरिसिद्धि-- नामक पुत्र सर्प का रूप ले कर शिवमंदिर में पहुँच गया। यह प्रलय की देवता है । १३. चंडिका---ईशान्य में पश्चात् पार्वती का रूप ले कर उसने शंकर को भुलाने का रहनेवाली इस देवी ने चंडमुंड का वध किया । १४. प्रयत्न किया। किंतु शंकर ने अंतर्ज्ञान से उसे पहचान कर भूतमाला अथवा भूतमाता--यह गुह के भ्रमध्य से उसका नाश किया। निकली (स्कंद १.२.४७; ३.१.१७; मत्स्य. १३; दे. वीरक पहारे पर होते हुए भी, अडि राक्षस को भा. ९)। शिवमंदिर में प्रवेश मिल गया। उस लापरवही के लिये देवीपीठ--उपरिनिर्दिष्ट देवी अवतारों के अतिरिक्त, पार्वती ने उसे शाप दिया, 'तुम पृथ्वी पर शिलाहो कर | देवी के १०८ नाम, एवं स्थान पुराणों में मिलते हैं । देवी गिरोंगे' । पश्चात् पार्वती की तपस्या से संतुष्ट हो कर, के ये स्थान 'देवीपीठ' नाम से पहचाने जाते हैं। पुराणों में ब्रह्मदेव ने उसे गौरवर्ण प्रदान किया। उससे इसे गौरी | निर्दिष्ट देवीपीठ एवं वहाँ स्थित देवी के अवतार के नाम . नाम प्राप्त हुआ (पद्म. सृ. ४४; मस्त्य. १५५-१५८; निम्नलिखित सूची में दिये गये है। इस सूची में से प्रथम . कालि. ४७)। नाम देवीपीठ का, एवं उसके बाद कंस में दिया नाम (4) कालिका-दारुक दैत्य का संहार करने के लिये, वहाँ स्थित देवी के अवतार का है :पार्वती ने शंकर के कंठ से, एक महाभयानक देवी निर्माण अच्छोद ( सिद्धदायिनी ), अट्टहास (फुलरा), की। वह कृष्णवणीय होने से उसे 'कालिका 'नाम प्राप्त | अमरकंटक (चण्डिका), अम्बर (विश्वकाया ), अम्बर । हुआ। कालिका ने एक गर्जना करते ही, दारुक अपने | (विश्वकाया देवी), अश्वत्थ (वन्दनीया देवी), उज्जसैन्य के साथ मृत हो गया। शिव के कंठ से उत्पन्न होने यिनी (चण्डिका), उत्कलात (विमला), उत्तरकर के कारण, कालिका के शरीर में शिवकंठ में स्थित विष | (औषधि ), उत्पलावर्तक (लोला), उष्मतीर्थ (अभया), उतर गया था। उस कारण दारुक के वध पश्चात् , कालिका | एकाम्रक (कीर्तिमती), कन्यकाश्रम ( शर्वाणी), कपालके उग्र स्वरूप से स्वयं देव त्रस्त हो गये। पश्चात् | मोचन ( शुद्धा, शुद्धि, ), कमलाक्ष (महोत्पलादेवी), शंकर ने बालरूप धारण कर, कालिका का स्तनपान किया कमलालय (कमला, कमलादेवी), करतोया तट (अपां), एवं उसका सारा विष शोषण किया । तब यह शान्त हो | करवीर (महिषमर्दिनी), करवीर (महालक्ष्मी), कर्कोट गयी (स्कंद. १.२.६२)। (मुकुटेश्वरी), कर्णाट (जयदुर्गा), कर्णिक (पुरुहूता), (९) मातृका-देवी का और एक अवतार मातृका कश्मीर (महामाया), काञ्ची (देवगर्भा), कार्तिकेय है। घंटाकर्णि, त्रैलोक्यमोहिनी आदि सात मातृका (सप्त- (शाङ्करी, यशस्करी देवी), कान्यकुब्ज (गौरी), मातृका) प्राचीनकाल से प्रसिद्ध हैं। मुहेंजोदड़ो एवं | कामगिरी (कामाख्या), कायावरोहण (माता), कालंजर हड़प्पा के उत्थनन में उपलब्ध 'सिंधुघाटी संस्कृति में भी (काली), कालमाधव (काली), कालीपीठ (कालिका), मातृका की मूर्तियाँ प्राप्त हुई हैं (मातृका देखिये)। काश्मीरमण्डल (मेधा), किरीट (किरीट), किष्किंध इसके अतिरिक्त देवी भागवत एवं मस्त्य पुराण में, | पर्वत ( तारा ), कुब्जाम्रक (त्रिसंध्या ), कुमुद देवी के अन्य चौदह अवतारों का निर्देश किया गया है। (सत्यवादिनी), कुरुक्षेत्र (सावित्री), कुशद्वीप देवी के वे चौदह अवतार इस प्रकार है :-- (कुशोदका), कृतशौच (सिंहिका ), केदार (मार्गदायिनी), १. सिद्धांबिका-स्कंद ने उसकी स्थापना की। कोटितीर्थ (कोटवी), गंगाद्वार (हरिप्रिया, रतिप्रिया २. तारा–यह दक्षिण दिशा में स्थित है। ३. भास्करा- देवी), गंगा (मंगला), गण्डकी (गण्डकी), गन्धमादन यह पश्चिम दिशा का पालन करती है, एवं नक्षत्रों को | (कामुका, कामाक्षी), गया (मंगला), गोकर्ण (भद्र ३०२ Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवी प्राचीन चरित्रकोश . दैव्यांपति कालिका, भद्रकर्णिका ), गोमन्त (गोमती), गोदाश्रमे (अरोगा), वैश्रवणालय (निधि), शङखोद्धार ( ध्वनि), (त्रिसंध्या), गोदावरी तट ( विश्वेशी), चट्टल (भवानी), | शालिग्राम (महादेवी), शिवकुण्ड (शिवानन्दा), चन्द्रभागा ( काला ), चित्त ( ब्रह्मकला देवी ), | शिवचक्र ( शुभा-चण्डा), शिवलिंग (जनप्रिया), शिवचित्रकूट (सीता), चैत्ररथ (मदोत्कटा), छगलाण्ड | संनिधि (पार्वती), शुचि (नारायणि), शोण (प्रचण्डा), जनस्थान (भ्रामरी), जयन्ती (जयन्ती) जालन्धर (शोणाक्षी), शोणसंगम (सुभद्रा), श्रीपर्वत (श्रीसुंदरी), (त्रिपुरमालिनी), जालन्धर (विश्वमुखी), ज्वालामुखी, श्रीशैल ( महालक्ष्मी), श्रीशैल (माधवी ), सती (अम्बिका), त्रिकूट (रुद्रसुंदरी ), त्रिपुरा (त्रिपुरसुंदरी), | (अरुन्धती), सन्तान (ललिता), सरस्वती ( देवमाता), त्रिस्त्रोता (भ्रामरी) देवदारुवन (पुष्टि), देवलोक | सर्वशरीरिन (शक्ति), सहस्त्राक्ष (उत्पलाक्षी), सह्याद्रि ( इंद्राणी ), देविकातट ( नन्दिनी ), द्वारवती | (एकवीरा), सह्याद्रि (एकवीरा), सिद्धपुर (मातालक्ष्मी (रुक्मिणी), नंदीपुर (नंदिनी), नलहाटी (नला), | देवी), सिन्धुसंगम (सुभद्रा), सुगन्धा (सुनन्दा), नागबंधन (सुगंधा ), नेपाल ( महामाया ), नैभिप | सुपार्श्व (नारायणी), सूर्यबिम्ब (प्रभा), सोमेश्वर (लिंगधारिणी), पञ्चसागर ( वाराही ), पयोष्णी | ( वरारोहा), स्थानेश्वर (भवानी), हरिश्चन्द्र (चन्द्रिका), ( पिंगलेश्वरी ), पाताल ( परमेश्वरी ), पारतटे ( पारा), हस्तिनापुर (जयन्ती), हिंगुला (कोटरी), हिवावतपृष्ठ पिण्डारक वन (कृति), पुण्ड्वधन ( पाटला), पुरुषोत्तम (नंदा), हिमाद्रि ( भीमादेवी), हिरण्याक्ष (महोत्पला), (विमला), पुष्कर ( सावित्री, पुरुहूतादेवी), प्रभास | हेमकूट (मन्मथा), कालिका. ६४; मत्स्य. १३; पद्म. (चंद्रभागा ), प्रभास ( पुष्करावती), प्रयाग(ललिता), | सृष्टि. १७; दे. भा. ७.७;)। बदरी ( उर्वशी), बहुला (चण्डिका ), बिल्वक (बिल्व- | देहिन्-अमिताभ देवों में से एक । पत्रिका), ब्रह्मास्य (सरस्वती), भद्रेश्वर (भद्रा), भर- दैत्य--एक मानवजाति । कश्यप एवं दिती की संतती ताश्रम ( अनंता, अंगना), भैरवपर्वत (अवन्ति), | "दैत्य' कहलाती थी। उस वंश के लोगों से ही यह मकरन्दक ( चण्डिका ), मगध (सर्वानंदकरी), मणिवेदिक | मानवजाति उत्पन्न हो गयी होगी। ( गायत्री), मथुरा ( देवकी ), मन्दर (कामचारिणी), दैत्यों का सुप्रसिद्ध राजा वृषपर्वन था। उसकी कन्या मर्कोट ( मुकुटेश्वरी ), मलयपर्वत ( रम्भा ), मलयाचल शर्मिष्ठा पुरु राजा ययाति को विवाह में दी गयी थी। ( कल्याणी ), महाकाल (महेश्वरी), महालय (महापद्मा, | उससे आगे पुरु आदि वंश निर्माण हएँ। महाभागा ), महालिंग ( कपिला ), मांडव्य (माण्डवी दैत्यों का पुरोहित शुक्र था। उसके पास मृत को देवी), मातृणा ( वैष्णवी), माधव वन (सुगन्धा ), जीवित करनेवाली 'संजीवनी विद्या' थी। वह विद्या मानस (दाक्षायणी ), मानस (कुमुदा ), मायापुरी| देवों ने, अपने पुरोहित बृहस्पति के पुत्र कच के द्वारा ' (नीलोत्पला ), मायापुरी ( कुमारी ), माहेश्वरपुरी | शक्र से संपादित की। (स्वाहा ), मिथिला (महादेवी), मुकुट (सत्यवादिनी), शुक्र के वंश में से शंड, मर्क, त्वष्ट्र, वरुत्रि, त्वष्ट, यमुना ( मृगावती ), यशोर ( यशोरेश्वरी ), युगाद्या | त्रिशिरस , विश्वकर्मन वृत्र, वरुचिन ये पुरुष प्रसिद्ध हैं। (भूतधात्री ), रत्नावली ( कुमारी), रामगिरि ( शिवानी), | ये सारे दैत्यों के पुरोहित एवं इंद्र के शत्र थे । उनमें से रामतीर्थ ( रमणा ), रामा ( तिलोत्तमा ), रुद्रकोटि शंड एवं मर्क' दैत्यों को छोड़ कर देवों के पक्ष में जा (रुद्राणी ), लंका (इंद्राक्षी), ललित (संनति), वक्त्रेश्वर | मिले। उस कारण शुक्र ने उनको शाप दिया। (महिषमर्दिनी ), वराहशैल ( जया ), वस्त्रेश्वर (तृष्टि ), आगे चल कर, दानव, देय, राक्षस, नाग, दस्यु वाराणसी ( विशालाक्षी), विकूट ( भद्रसुंदरी), विनायक आदि शब्द वंशवाचक न रह कर गुणवाचक हो गये। ( उमादेवी), विन्ध्य (विन्ध्यनिवासिनी), विन्ध्य कन्दर दैत्यद्वीप---गरुड का पुत्र (म. उ. ९९.११)। (अमृता), विपाशा ( अमोघाशी), विपुल (विपुला), | दैत्यसेना---दक्ष प्रजापति की कन्या तथा केशी दैत्य विभाष ( कपालिनी), विराट (अम्बिका विशालाक्षी), | की स्त्री (म. व. २१३.१)। विश्वेश्वर (पुष्टि, विश्वा), वृन्दावन ( उमा), वृन्दावन दैय्यांपति--पक्ष का पैतृक नाम (दै. ब्रा. ३.१०.९. (राधा), वेगल (प्रचण्डा ), वेणानदी ( अमृता), | ३-५)। अग्निचिति की ईटें बनाने की विद्या शांडिल्यायन वेदवदन ( गायत्री ), वैद्यनाथ ( जयदुर्गा ), वैद्यनाथ | ने इसे सिखायी थी (श. बा. ९.५.१.१४)। ३०३ Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दैर्घतम प्राचीन चरित्रकोश धुमत् दैर्घतम--(सो. काश्य.) दीर्घतमा का पुत्र । धन्वंतरि दोश्शासनि-दुशासनपुत्र का पैतृक नाम । अभिका यह पैतृक नाम था। मन्यु वध के लिये यह निमित्तमात्र बना । दैर्घतमस--कक्षीवत् देखिये। दोषान्त तथा दौष्यन्ति--भरत के पैतृक नाम दैव-अथर्वन् का पैतृक नाम। (ऐ. बा. ८.२३; श. ब्रा. १३.५.४; ११)। दैवत्य--एक ऋषि । ' उपाकर्मीगआचार्यतर्पण' ग्रंथ द्यावापृथिवी---एक देवताद्वय । ऋग्वेद में इन्हें कई बार में इसका उल्लेख है (जैमिनि देखिये)। एक राजा। माता पिता कहा गया है । द्यो को पिता तथा पृथिवि को देवराति-(सू. निमि.) देवरातपुत्र बृहद्रथ का यह | माता मानने का संकेत ऋग्वेदकाल से प्रचलित है। यह पैतृक नाम था। इसके द्वारा किये गये अश्वमेध यज्ञ में जोड़ी इन्द्रादि की भी मातापिता है । पृथ्वी के सारे लोगों याज्ञवल्क्य का शाकल्य से वाद हुआ था। पश्चात् याज्ञ- | के मातापिता भी यही हैं। वल्क्य ने इसे तत्त्वज्ञान का उपदेश किया (म. शां. द्य--अष्टवसुओं में से एक । एक बार सारे वसु. २९८.४)। अपने भार्याओं के साथ वसिष्ठ के आश्रम में क्रीड़ा करने २. (सो. क्रोष्टु.) देवरातपुत्र देवक्षत्र का पैतृक नाम। गये। वहाँ उन्होंने वसिष्ठ की कामधेनु देखी । कामधेनु दैवल--एक ऋषि । असित का यह पैतृक नाम था। के रूप एवं गुण देख कर, हरण करने का विचार उन्होंने (पं. ब्रा. १४.११.१८, असित देखिये)। किया । वसुओं में से द्यु ने कामधेनु चुरा ली। देववात-एक राजा । संजय राजा का यह पैतृक | कामधेनु के हरण की वार्ता ज्ञात होते ही, वसिष्ट ने नाम था (ऋ. ४.१५.४)। यह अमिपूजक था एवं तुर्वश उन सब वसुओं को शाप दिया, 'तुम सब मनुष्य योनि तथा वृचीवत् राजाओं पर इसने विजय प्राप्त किया था | में जन्म लो'। इस शाप के अनुसार यु ने गंगा के उदर (ऋ.४.१५.४) । सिमर के मत में, अभ्यावर्तिन् से भीष्म के रूप में जन्म लिया (म. आ. ९३.४४ )। चायमान पार्थव राजा एवं यह दोनों एक ही थे | ‘द्युत-धृत देखिये । (अल्टिन्डिशे लेवेन १३३, १३४) । दिवोदास राजा की घतान मारुत—एक ऋषि एवं सूक्तद्रष्टा (ऋ. ८.. तरह, इसका राज्य भी सिंधु नदी के पश्चिम में था । कुरु ९६; पं. ब्रा. १७.१.७; ६.४.२)। अन्य कई स्थानों में राजा देववात के साथ भी इसका धनिष्ट संबंध था, यह 'वायु देवता' अर्थ से इसका निर्देश प्राप्त है (वा. 'सं. इसके नाम से जाहिर होता है। ५.२७; तै. सं. ५.५:९.४, ६.२.१०.४; क. सं. १५.७; . दैवाप--इन्द्रोत का पैतृक नाम (श. बा.१३.५.४.१)। श. ब्रा. ३.६.१.१६)। दैवावृध-बभ्रु का पैतृक नाम (ऐ. ब्रा. ७.३४)।। ___ द्युति--द्रुति का नामांतर। ' सायणाचार्य दैवावृध एवं बभ्र दो व्यक्ति मानते है। द्युतिमत्-(सू, इ.) मदिराश्व राजा का पुत्र । दैवोदास--भृगुकुलोत्पन्न एक ऋषि । इसका पुत्र सुवीर (म. अनु. २.९ कुं.)। दैवोदास-प्रतर्दन का पैतृक नाम (सां. ब्रा. २६. | । २. शाल्वदेशीय एक राजा। अपना राज्य इसने ५. सां. उ. ३.१)। सुदास का भी यह पैतृक नाम रहा ऋचीक को दान दिया था। उस कारण इसे मरणोत्तर होगा (परुच्छेप एवं प्रतर्दन देखिये)। सद्गति प्राप्त हुई (म. अनु. १३७. २२-२३; शां. __ दोष--अष्ट वसुओं में से एक । २२६-३३)। दोषा--(स्वा. उत्तान.) पुष्पार्ण राजा की स्त्री । इसे ३. स्वायंभुव मनु का एक पुत्र (पन. सृ. ७)। प्रदोष, निशीथ एवं व्युष्ट नामक तीन पुत्र थे । ४. दक्ष सावर्णि मन्वन्तर के सप्तर्षियों में से एक । दौरश्रवस--पृथुश्रवस् का पैतृक नाम (पं. बा. २५. ५. आभूतरजस देवों में से एक । १५:३)। ६. सरस्वती के तट पर स्थित भद्रावती नामक नगर दौरेश्रुत--तिमिर्थि का पैतृक नाम (पं. वा. २५. | का राजा ( पद्म. उ. ४९)। १५,३)। ७. मणिभद्र तथा पुण्य जनी का पुत्र । दौर्गह--दुर्गह देखिये। धुमत्-वायंभुव मन्वन्तर के वसिष्ठ तथा ऊर्जा का दौर्मुखि-यशोधरा का पैतृक नाम । पुत्र (भा. ४१.४१)। दौश्शालेय--दुःशलापुत्र सुरथ का पैतृक नाम । । २. खारोचिष मनु का एक पुत्र (मनु देखिये)। ३०४ Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन चरित्रकोश घुमत् ३. प्रतर्दन राजा का नामांतर ( प्रतर्दन देखिये) । ४. शाल्व राजा का प्रधान । कृष्ण ने इसका वध किया (मा. १०.६) । घुमत्सेन -- शाल्वदेशीय सत्यवत् वा चित्राश्व राजा का पिता (सावित्री देखिये ) | २. एक राजा । राजसूय दिग्विजय के समय, अर्जुन ने इसे जीता। यह धर्मराज की सभा में उपस्थित था (म. स. ४.२७; २३.२७०* पंक्ति ४) । यह कृष्ण के द्वारा मारा गया (म. स. परि. १ क्र. २१) । ३. (सो. मगध. भविष्य.) भागवत मत में शम का पुत्र मत्स्य के मत में त्रिनेत्र का पुत्र ( हदसेन २० देखिये ) । द्युम्न - ( स्वा. उत्तान . ) चक्षुर्मनु तथा नड्वला का पुत्र ( मनु देखिये) । घुम्न विश्वचर्षणि आत्रेय - सूक्तद्रष्टा (ऋ. ५. २१) । द्युम्नीक वासिष्ठ - सूक्तद्रष्टा (ऋ. ८.८७ ) । द्योतन - सायण के मत में एक राजा का नाम (ऋ. ६.२०.८)। २. सुतप देवों में से एक। द्रविड़ कृष्ण तथा का पुत्र । द्रविड़ा (सु. दि.) वायु के मत में वैशाली के -- विंदु राजा की कन्या विदा इसीका ही नामांतर था। इसका पुत्र विश्रवस् ( वायु. २.२४.१६; विश्रवस् देखिये) । २. कई जगह इसे विश्रवस् की पत्नी बता कर कुबेर को इन दोनों का पुत्र कहा है ( मा. १.४.२ ४.१.२६)। द्रविण पृथु तथा अर्चिमा पुत्र (मा. ५.२२.२४) । २. धर नामक वसु का पुत्र ( म. आ. ६०.२० ) । २. तुति देखों में से एक। -- इणिक अभि को वसोधरा से उत्पन्न पुत्र (भा. ६.६.१३) । द्रुपद द्रुति - - ( स्वा. प्रिय. ) नक्त की पत्नी । इसे गय नामक एक पुत्र था ( मा. ५.१५.६ ) । द्राह्यायण - - (णि) सामवेद के श्रोत तथा गृह्यसूत्र तैयार करनेवाला आचार्य इसे खादिर भी कहते हैं खभूती का यह पैतृक नाम था। इसे राणायनीय शाखा का सूत्रकार माना जाता है। किंतु हेमाद्रि के मत में, राणायनीय तथा कीथुम शाखा का सूत्रकार गोमिल नामक आचार्य है (आद कल्प)। इसके द्वारा रचित 'स्वादिर तसूत्र' शाक्शाखा का माना जाता है (भगव जै. उ. बा. प्रस्तावना पृ. १७ ) । प्रा. च. ३९] द्रुपद - (सो. अज.) पांचाल देश का सुविख्यात राजा एवं द्रौपदी का पिता । उत्तर पांचाल देश के सोमक राजवंश के पत् राजा का यह पुत्र था। इस लिये, इसे ' सौमकि ' नामांतर भी प्राप्त था ( म. आ. परि. १. ७५.२७) । पांचालाधिपति पत् राजा को काफी वर्षों तक पुत्र नहीं हुआ । पुत्रप्राप्ति के लिये उसने तपस्या की । तप करते समय, एक बार मेनका नामक अप्सरा वहाँ आयी । उसका लावण्य देख कर पुफ्त मोहित हो गया, एवं उसका वीर्य स्खलित हो गया । उस वीर्य से एक बालक का जन्म हुआ। वही द्रुपद है ( म. आ. परि. १ क्र. ७९, पंक्ति १५२-१७५ ) | यह मरुद्गणों के अंश से हुआ (म. आ. ६१.७४) । द्रुपद को यज्ञसेन (म. आ. १२२.२६), पांचाल, तथा पार्पत नामांतर भी प्राप्त थे। द्रोणविरोध द्रुपद ने अस्त्रशिक्षा तथा धनुर्विद्या शिक्षा, द्रोणाचार्य के पिता भरद्वाज के निरीक्षण में प्राप्त की थी । इसलिये द्रोण द्रुपद का गुरुबंधु था । धनुर्विद्या पूर्ण होने पर, द्रुपद ने भरद्वाज को गुरु दक्षिणा दी, एवं वचन दिया, 'मेरे राज्यारूढ होने पर यदि तुम या तुम्हारा पुत्र द्रोण मेरे पास सहायता मांगने आओगे, तो मैं तुम्हें अवश्य सहायता करूँगा। बाद में द्रुपद अपने राज्य में चला गया । -- । द्रुपद को राज्याधिकार प्राप्त होने के बाद, पूर्ववचनानुसार इसकी सहायता माँगने के लिये, द्रोण इसके पास आया परन्तु मदांध हो कर, द्रुपद ने सहायता की जगह द्रोण का अत्यंत उपहास किया। इस अपमान का बदला लेने के लिये, द्रोण ने पांडवों का आचार्यत्व मान्य किया, एवं उनके द्वारा द्रुपद से प्रतिशोध लिया ( द्रोण देखिये) । बाद में द्रोण ने इसका आधा ( उत्तर पांचाल ) राज्य स्वयं लेकर, दूसरा आधा ( दक्षिण पांचाल ) राज्य वापस दे दिया। द्रुपद गंगातट पर दक्षिण पांचाल में माकंदी में राज्य करने लगा (म. आ. १२८.१५ ) प्राचीन पांचाल ही आधुनिक रोहिलखंड है। सोमक एवं संजय राजवंश के लोग भी इसके साथ दक्षिण पांचाल पधारे। ये सारे लोग भारतीय युद्ध में द्रुपद के साथ पांडवों के पक्ष में शामिल थे। धृष्टद्युम्नजन्म - द्रोण ने अपने शिष्यों के द्वारा इसकी दुर्दशा करने के कारण, द्रुपद द्रोण पर अत्यंत ३०५ Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रुपद प्राचीन चरित्रकोश क्रोधित हुआ, तथा उसके नाश के लिये उपाय ढूँढने युद्ध में इसने काफी पराक्रम दर्शाया । भारतीय युद्ध के लगा। द्रोणविनाशक पुत्र की प्राप्ति के लिये यह ऋषियों | पंद्रहवे दिन हुए रात्रियुद्ध में, मार्गशीर्ष वद्य एकादशी के के एवं ब्राह्मणों के आश्रम में घूमने लगा। एक बार दिन प्रभात समय में, द्रोण के हाथों इसकी मृत्यु हुई उपयाज ऋषि के कहने पर, याज नामक काश्यपगोत्रीय | (म. द्रो. १६१. ३४; भारत-सावित्री)। ब्राह्मण के आश्रम में यह गया। वह ब्राह्मण अत्यंत लोभी द्रौपदी तथा धृष्टद्युम्न के सिवा, द्रुपद को शिखंडी, होने के कारण, कौनसा भी असूक्त कर्म करने के लिये सुमित्र, प्रियदर्शन, चित्रकेतु, सुकेतु, ध्वजकेतु (म. आ. सदा तैयार रहता था। द्रुपद ने उसे पुत्रप्राप्ति का उपाय परि. १.क्र. १०३. पंक्ति. १०८-११०), वीरकेतु (म. पूछा, एवं पुत्र होने पर एक अर्बुद धेनु दान देने का प्रलोभन द्रो. ९८.३३), सुरथ एवं शत्रुजय (म. द्रो. १३१. उसे दिखाया (म. आ. १६.७.२१)। उसपर पुत्रप्राप्ति | १२६) नामक अन्य पुत्र थे। धृष्टकेतु नामक पौत्र भी के लिये, यज्ञ करने की सलाह याज ने इसे दी। इसे था। इसके पुत्रों में से शिखंडी, जन्म के समय स्त्री उपयाज के उस सलाह के अनुसार, उपयाज तथा उसका था। बाद म एक यक्ष क प्रसाद स उस पुरुषत्व प्रात भाई याज दोनों को अपने साथ नगर में ला कर, इसने यज्ञ हुआ। द्रुपद ने उसे शंकर से भीष्म के वध के लिये माँग किया। यज्ञसमाप्ति पर सिद्ध किया गया चरु खाने के लिया था (सौत्रामणि देखिये)। लिये, याज ने द्रुपद की पत्नी सौत्रामणि को बुलाया। - द्रुम--अधिरथ सूत का पुत्र तथा कर्ण का भाई। परन्तु उसके आने में विलंब होने पर, याज ने वह चरु | भारतीय युद्ध में भीम के द्वारा यह मारा गया (म: द्रो. अग्नि में झोंक दिया। तत्काल अग्नि में से एक कवचकुंडल- १३०. २३)। भांडारकर मंहिता में ध्रुव पाटभेद धारी दिव्य पुरुष, तथा एक श्यामवर्णा स्त्री प्रकट हुई। प्राप्त है। उन्हें अपने पुत्र एवं पुत्री मान मान कर, इसने उनके नाम | . २. महाभारतकाल का एक राजा। यह शिबि मामक धृष्टद्युम्न तथा द्रौपदी रख दिये (म. आ. १५५)। दैत्य के अंश से पैदा हुआ था (म. आ. ६१.८)। . द्रौपदीस्वयंवर--द्रौपदी उपवर होते ही द्रपद ने उसके ३. गंधर्वो का पुरोहित (म. स. परि. १. क्र. ३, स्वयंवर की तैयारी की। मत्स्ययंत्र का, धनुष्य द्वारा वेध | पंक्ति. १०)। कुबेर सभा में रह कर, यह कुबेर की करने वाले को ही द्रौपदी दी जायेगी, ऐसी शर्त इसने | उपासना करता था (म. सभा. परि. १.३.३०)। भीष्मक.. रखी थी। ब्राह्मण वेष में पांडव इस स्वयंवर में आये थे। पुत्र रुक्मिन् का यह गुरु था (म. उ. १५५. ७) । इसने अर्जुन ने शर्त पूरी की। इसे द्रुपद ने द्रौपदी दी। उसे विजय नामक धनुष्य दिया था (म.उ. १५. 'क्षत्रियों को छोड़ कर द्रुपद ने एक ब्राह्मण को अपनी कन्या | ११०)। दी, एवं हमारा अपमान किया, ऐसी सारे क्षत्रिय | द्रमसेन--एक क्षत्रिय राजा । यह गविष्ठ नामक राजाओं की कल्पना हुई। दैत्य के अंश से उत्पन्न हुआ था (म. आ. ६१. ३२)। उस कारण वे द्रुपद से लड़ने के लिये प्रवृत्त हो गये। यह शल्य का चक्ररक्षक था । युधिष्ठिर द्वारा इसका वध किंतु पांडवों ने उन सब का पराजय किया। बाद में द्रपद ने | हुआ (म. श. ११.५२)। अपना पुरोहित पांडवों के निवासस्थान पर भेजा। द्रौपदी- २. दुर्योधनपक्षीय एक राजा (म. आ. ६१. ३२)। स्वयंवर का प्रण जीतने वाले पांडव ही हैं, यह जान कर यह धृष्टद्युम्न के द्वारा मारा गया (म. द्रो. १४५ इसे अत्यंत आनंद हुआ। बाद में बड़े ही समारोह के | २४)। साथ, इसने पाँच पांडवों के साथ द्रौपदी का विवाह कर दुमिल-ऋषभदेव तथा जयंती के शतपुत्रों में से दिया (म. आ. १९०)। एक । यह भगवद्भक्त था (भा. ५.४; ११.४)। ___ भारतीय युद्ध में द्रपद, पांडवों के पक्ष में प्रमुख था। द्रुह्य--द्रुहथु का नामांतर। इसने पांडवों की ओर से मध्यस्थता करने के लिये. द्रहय --ऋग्वेदकालीन एक मानवजाति । यदु, तुर्वश, अपने पुरोहित को धृतराष्ट्र के पास भेजा था। परंतु | अनु, पूरु एवं द्रुह्य ये ऋग्वेदकालीन पाँच सुविख्यात समझौते के सारे प्रयत्न निष्फल हो कर युद्ध प्रारंभ हुआ। जातियाँ थी (ऋ. १. १०८. ८)। इस 'गण' के ब अपने पुत्र, बांधव तथा सेना के सहित द्रपद, पांडवों लोग भारत के उत्तर पश्चिम विभाग में रहते थे (राथकी सहायता के लिये, युद्ध में शामिल हुआ। भारतीय | त्सु. वे. १३१-१३३)। महाभारतकाल में यह लोग ३०६ Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन चरित्रकोश द्रोण गांधार देश में रहते थे (पार्गि. ज. ए. सो. १९१०. ही पुत्र था, एवं बभ्रु को सेतु नामक पुत्र हुआ, ऐसा भी ४९)। निर्देश प्राप्त है (विष्णु. ४.१७.१; भा. ९.२३.१४)। ___एकवचन तथा बहुवचन में 'ब्रह्य' का निर्देश ऋग्वेद दुष्यन्त ने यह वंश पूरुवंश में मिला दिया। भृगु वंश के में कई बार आया है (ऋ. ६. ४६.८,७. १८.६; ऋषे इसके उपाध्याय थे। १२, १४, ८. १०.५ ) । उनमें से एकवचन का ३. पूरुवंश के मतिनार राजा के चार पुत्रों में से एक निर्देश द्रुह्य गण के राजा से संबंधित रहा होगा। यह | (म. आ. ९४.११)। राजा सुदास का शत्रु था, एवं पानी में डूब कर उसकी | द्रोण-भारतीय युद्धकालीन सुविख्यात युद्धशास्त्रज्ञ, मृत्यु हो गयी (ऋ. ७. १८)। दाशराज्ञ युद्ध में इसे | कौरव एवं पांडवों का गुरु, एवं धर्मज्ञ आचार्य । आंगिरस काफी महत्त्वपूर्ण स्थान था । इंद्र, अमि, एवं अश्वियों का | गोत्रीय भरद्वाज ऋषि का यह पुत्र था। उस कारण, इसे यह भक्त था (ऋ.१.१०८.८८.१०.५)। 'द्रोण आंगिरस' भी कहते थे (म. उ. १४९.१७)। २. आयुपुत्र नहुष का पौत्र तथा ययाति को शर्मिष्ठा वसिष्ठ गोत्रीय शुक्राचार्य, एवं असित देवल, धौम्य, याज, से उत्पन्न तीन पुत्रों में से एक (म. आ. ७८.१०,८४, काश्यप आदि ऋषि इसके समकालीन थे। आंगिरस गोत्रीय . १०; ९५. ९; गरुड. १.१३९; पद्म. सु. १२) । अनु | कृपाचार्य की बहन कृपी इसकी पत्नी थी। उससे इसे तथा पूरु इसके भाई थे। ययाति ने सब पुत्रों को बुला कर, | अश्वत्थामन् नामक पुत्र हुआ था (म. आ. १२१.१-१ उन्हें अपनी जरा लेने के लिये कहा । शर्मिष्ठा से उत्पन्न | १२, विष्णु. ४.१९.१८)। पूरू नामक पुत्र ने ही जरा लेना मान्य किया । तब अन्य | द्रोण के पिता भरद्वाज ऋषि का आश्रम गंगाद्वार पर पत्रों को शाप दे कर, ययाति ने पूरु को ही गद्दी पर | था (म. आ. १२१.१३३१५७; १२३.६८)। एक दिन बैठाया। भरद्वाज मुनि गंगा नदी में स्नान करने के लिये गये थे। . जरा लेना अमान्य करने के कारण ययाति ने इसे | वहाँ घृताची नामक अप्सरा पहले से ही स्नान कर के, शाप दिया, 'तुम्हारे प्रिय मनोरथ एवं भोग-आशा सदा | वस्त्र बदल रही थी। उसका वस्त्र खिसक गया था। उस अंतृप्त रहेंगी। जहाँ नित्य ज्यवहार नावों से होता है, ऐसे अवस्था में उसे देख कर, भरद्वाज का वीर्य स्खलित हो गया। दुर्गम देश में तुम्हे रहना पडेगा, एवं वहाँ भी राज्या- भरद्वाज ने उस वीर्य को उठा कर, एक द्रोण में रख दिया । •धिकार से वंचित हो कर, 'भोज' नाम से तुम प्रख्यात उसी द्रोण से इसका जन्म हुआ। उस कारण इसे 'द्रोण' होंगे' (वायु. ९४.४९-५०; ह. वं. १.३०.२८-३१, नाम प्राप्त हुआ। द्रोणकलश में जन्म होने के कारण, इसे ब्रह्म. १२; १४६; म.आ. ७०)। उस शाप के अनुसार, 'अयोनिसंभव' (म. आ. ५७.८९; १२९.५, १५४. इसको एवं इसके वंश को म्लेंछ लोगों के प्रदेश में राज्य | ५), 'कुंभयोनि' (म. द्रो. १३२.२२), 'कुंभसंभव' मिल गया । इसके वंश की जानकारी अधिकांश पुराणों | (म. द्रो. १३२.३०) आदि नाम प्राप्त हुएँ थे। इसके में मिलती है। सिवा, शोणाश्व, रुक्मरथ, तथा भारद्वाज आदि नामांतर - ययाति ने सप्तद्वीप पृथ्वी को समुद्र के साथ जीता | से भी इसका उल्लेख पाया जाता है (म. आ. १२२. था। उसके पाँच भाग कर, उसने अपने पुत्रों में बाँट | १)। बृहसति एवं नारद के अंश से द्रोण का जन्म हुआ दिये। उनमें से पश्चिमी भाग ह्य को मिला (ह. व. १. था, ऐसे निर्देश भी विभिन्न ग्रंथो में प्राप्त है (म. आ. ३०. १७-१८; विष्णु. ४. १०.१७)। परंतु इसके | ६१.६३, पद्म. स. ७६ )। वंशज भरतखंड के उत्तर की ओर राज्य करते थे। शिक्षा-धनुर्वेद तथा ऋग्वेदादि अन्य वेदों का अध्यइसके राज्य में म्लेंच्छ लोगों की काफी बस्ती होने यन, इसने अपने पिता के ही पास किया । इसके अग्निका वर्णन प्राप्त है ( भा. ९.२३.१६) । द्रुह्यु को | वेश नामक चाचा ने इसे 'आग्नेयास्त्र' सिखाया (म. पूर्व की ओर का राज्य दिया गया था, ऐसा भी आ. १२१.७)। पिता के पास अध्ययन करते समय, कई जगह उल्लेख प्राप्त है (लिंग. १.६७)। इसे | पांचाल देश के पृषत् राजा का पुत्र द्रुपद, द्रोण का सहाबभ्रु तथा सेतु नामक दो पुत्र थे (ह. बं. १.३२.१२४; | ध्यायी था। यही द्रुपद आगे इसका सब से बड़ा दुष्मन अग्नि. २७६ )। मत्स्य के मत में इसे सेतु तथा केतु | बन गया। भारतीय युद्ध में, इसका वध द्रुपदपुत्र धृष्टद्युम्न नामक दो पुत्र थे (मत्स्य. ४८)। द्रुह्यु को बभ्रु नामक एक | ने ही किया। ३०७ Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रोण प्राचीन चरित्रकोश द्रोण तपस्या करते समय एक बार द्रोण को पता चला कि, द्रोण के पास बहुत सारे राजपुत्र विद्याध्ययन के लिये जामदग्न्य परशुराम ब्राह्मणों को संपत्ति बाँट रहा है । द्रव्य- रहते थे। किंतु उन विद्यार्थओं में अर्जुन इसका सब से याचना के हेतु से द्रोण परशुराम के पास गया । परंतु | अधिक प्रिय शिष्य था । एक बार सारे शिष्यों को ले कर, परशुराम ने अपनी संपत्ति पहले ही ब्राह्मणों में बाँट डाली द्रोण नदी पर स्नान करने गया। उस वक्त एक नक ने थी। अतएव अपने पास की अस्त्रविद्या ही उसने इसे | इसका पैर पकड़ लिया। यह देख कर, अन्य सारे दी। परशुराम से द्रोण को 'ब्रह्मास्त्र' नामक अस्त्र की | राजपुत्र भाग गये, किंतु अर्जुन ने नक्र से इसकी रक्षा की। प्राप्ति हुई (म. आ. १५४.१३; १२१)। परशुराम तब प्रसन्न हो कर, द्रोण ने उसे ब्रह्मास्त्र सिखाया (म. आ. जामदग्न्य का काल देवराज वसिष्ठ के समकालीन, एवं | १२३.७४)। द्रोण से काफी पूर्वकालीन माना जाता है। इस कारण, 'द्रपद का पराभव-बाद में द्रोण ने अपने सारे महाभारत में दी गयी 'ब्रह्मास्त्र विद्याप्रदान' की यह शिष्यों के धनुर्विद्यानैपुण्य की परीक्षा लिवायी। उसे कहानी अविश्वसनीय मालूम पडती है । पता चला कि, वे सब धनुर्विद्या में काफी जानकार हो इस प्रकार द्रोण अस्त्रविद्या में पूर्णतः कुशल बन गया। गये हैं । यह देख कर, अपने पुराने शत्रु द्रुपद पर किंतु इतना विद्वान् होने पर भी, यह विपन्न एवं निर्धन आक्रमण करने का इसने निश्चय किया। काफी दिनों से ही रहा। जो हेतु मन में था, उसे पूर्ण करने के लिये, अपने तब द्रव्यसहायताप्राप्ति की इच्छा से, यह अपने पुराने शिष्यों द्वारा द्रुपद का पराभव करने की तैयारी इंसने की। सहाध्यायी द्रुपद राजा के पास गया। परंतु द्रुपद ने इसका बाद में जल्द ही पांचाल देश पर आक्रमण कर, इसने द्रुपद अपमान कर, इसे वापस भेज दिया (म. आ.१२२.३५ को जीत लिया । द्रुपद का आधा राज्य (उत्तर पांचाल) -३७)। तब द्रोण द्रुपद पर अत्यंत क्रोधित हुआ, तथा अपने पास रख कर, बचा ( दक्षिण पांचाल) इसने उसे उससे बदला लेने का विचार करने लगा । इस हेतु से यह वापस दे दिया (म. आ. १२८.१२)।. .. हस्तिनापुर में गया एवं गुप्त रूप से अपने पत्नी के भाई यद्यपि अर्जुन इसका प्रिय शिष्य था, फिर भी 'सेवक' कृपाचार्य के पास रहने लगा। के नाते यह पहले से ही दुर्योधन का पक्षपाती था। हस्तिनापुर में एक बार कौरव तथा पांडव गल्लीडंडा पांडवों के अज्ञातवासकाल में, कौरवों ने विराट के गोधनों खेल रहे थे। तब उनकी गुल्ली पास ही के एक कुएँ में का हरण करवाया । तब विराटपुत्र उत्तर के साथ गिर पड़ी । वे उस गुल्ली को न निकाल सके । पास ही में अर्जुन गायों की रक्षा के लिये आया। उस समय द्रोण द्रोण बैठा था। कुमारों ने गुल्ली निकाल देने की प्रार्थना कौरवों के पक्ष में युद्ध कर रहा था। युद्ध में अर्जुन ने द्रोण द्रोण से की । द्रोण ने दर्भ की सहायता से गुल्ली निकाल तथा अन्य रथी.महारथियों का पराभव कर, गायों की दी। कुमारों ने यह वृत्त भीष्म को बताया । द्रोणाचार्य रक्षा की (म. वि. ५३)। उस युद्ध में, अर्जुन ने स्वयं का मंत्रसामर्थ्य तथा अस्त्रविद्यानैपुण्य भीष्म को पूर्व से | द्रोण को घायल कर, रणभूमि से पलायन करने के लिये ही ज्ञात था । कुमारों के अध्यापन के लिये, द्रोण को मजबूर किया। नियुक्त करने के लिये, पहले से वह उत्सुक था । द्रोण हस्ति- अज्ञातवास पूर्ण होने के बाद, पांडव यथाकाल प्रकट नापुर में आया है, यह ज्ञात होते ही, भीष्म इसे अपने | हुएँ । उन्होंने दुर्योधन के पास अपने राज्य की मांग की। घर में ले आया, एवं राजपुत्रों को धनुर्विद्या सिखाने का | उसके लिये उन्होंने कृष्ण को मध्यस्थता के लिये भेजा। काम इसे सौंप दिया (म. आ. १२२)। उस समय द्रोण ने दुर्योधन को काफी उपदेश किया। द्रोण कौरवपांडवों को धनुर्विद्या सिखाने लगा। इसके पांडवों का हिस्सा उन्हें वापस देने के लिये भी कहा शस्त्रविद्याकौशल्य की कीर्ति चारों ओर फैल गई। नाना देशों के राजपुत्र इसके पास शिक्षा पाने के लिये आने | परंतु द्रोण का यह कृत्य कर्णादि को पसंद नहीं आया। लगे। एक बार एकलव्य नामक निषाद का पुत्र इसके कर्ण एवं द्रोण की गरमागरम बहस हो कर, झगड़ा आगे पास विद्याध्ययन के लिये आया। किंतु निषादपुत्र होने | बढ़ा। परंतु भीष्म के द्वारा मध्यस्थता करने पर, उन के कारण, द्रोण ने उसे विद्या नहीं सिखाई। दोनों का झगड़ा मिट गया (म. उ. १३७-१४८)। ३०८ Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रोण. प्राचीन चरित्रकोश द्रोण भारतीयंयुद्ध--दुर्योधन ने किसी का भी उपदेश नहीं मना करने पर भी धर्म ने, अश्वत्थामा के पश्चात् सुना। भारतीययुद्ध का प्रसंग निर्माण हुआ। निरुपाय हो | 'हाथी' शब्द का उच्चार किया। परंतु वह उच्चारण कर, द्रोण को कौरवों के पक्ष में लड़ना पड़ा। अनेक वर्ष इतने धीरे से किया गया कि, द्रोण उसे सुन न सका। कौरवों का नमक खाने के बाद, उन्हें सहायता देने का | धर्म से यह वार्ता सुनते ही, पुत्रशोक से विव्हल हो अवसर संपन्न हुआ था । उस अवसर पर उन्हे सहायता | कर द्रोण ने शस्त्रसंन्यास किया। इतने में द्रोण के न देना, इसे योग्य नहीं प्रतीत हुआ। भरद्वाजादि पितर वहाँ आकर उन्होंने इसे कहा, 'ब्राह्मण भारतीययुद्ध के दसवें दिन, कौरवों का प्रथम सेनापति होते हुएँ भी क्षत्रियों के समान युद्ध कर, अस्त्रों से भीष्म मृत हुआ। तत्पश्चात् दुर्योधन ने द्रोण को सैनापत्य तुमने पृथ्वी को ताप दिया हैं। यह महत्पाप है। दिया। इसके रथ के ध्वज पर कृष्णा जिन तथा कमंडलु इसलिये विलंब मत करो । शस्त्र नीचे रख कर, योगमार्ग का चिन्ह था (म. द्रो. परि. १. क्र. ५, पंक्ति १-२)। का आलंबन करो'। यह सुन कर, द्रोण ने शस्त्र नीचे रख पाँच दिन युद्ध कर के, इसने पांडवसेना में हाहाकार मचा दिया। अच्छी संधि देख कर, द्रुपदपुत्र धृष्टद्युम्न ने निःशस्त्र दिया। द्रोण का खड्ग से वध किया (म. द्रो. १६५. ५४)। द्रोण के सैनापत्य के प्रथम दिन, दुर्योधन ने धर्मराज । पौष वद्य द्वादशी को दोपहर में द्रोण का वध को जीवित पकड़ लाने की प्रार्थना इसे की। इसने अर्जुन हुआ (भारत-सावित्री)। नीलकंठ का कथन है कि, के अतुल सामर्थ्य का वर्णन दुर्योधन के पास किया। उसे मृत्यु के समय इसकी उम्र चारसौ वर्ष की थी, परंतु इसकी सुन कर, दुर्योधन तथा कर्ण ने व्यंग वचनों से इसे कहा, उम्र पच्यासी वर्ष की होना अधिक संभवनीय है । 'अशीति'पांडवों की जय हो, यही भावना आपके हृदय में है। इस | कात् परः' पाठभेद इस विषय में प्राप्त है। उससे प्रतीत कारण, आप युद्ध में बेमन से लड़ते है' (म. द्रो. १६०)। होता है कि, युद्धकाल में द्रोण की आयु अस्सी से तब कोपाविष्ट हो कर द्रोण ने प्रतिज्ञा की, 'पांडवपक्ष पच्यासी वर्ष की थी (म. द्रो. १६५.४९)। के किसी न किसी शूर योद्धा का वध मैं कल अवश्य ही करूंगा'। इस प्रतिज्ञा के अनुसार, इसने द्रुपद का वध | भारतीय युद्ध में, इसने द्रुपदपुत्र शंख (म. भी. ७८. किया (म. द्रो. १६१.३४)। | २१), वसुदान (म. द्रो. २०.४३ ), एवं विराट तथा द्रुपद का वध किया था (म. द्रो. १६१.३४)। . अभिमन्युवध की वार्ता सुन, संतप्त हो कर अर्जुन ने जयद्रथवध की प्रतिज्ञा की। तब द्रोण ने एक में एक ऐसे ___ मृत्यु के पश्चात् , द्रोण स्वर्ग में गया, एवं कुछ काल तीन व्यूह रच कर, जयद्रथ के संरक्षण की पराकाष्ठा के बाद बृहस्पति के अंश में विलीन हो गया (म. स्व. ४. की। फिर भी अर्जुन ने जयद्रथ वध किया ही । जयद्रथ २१५.१२)। श्रीव्यास ने आवाहन करने पर, परलोकवध का बदला लेने के लिये, द्रोण ने अहोरात्र युद्ध चालू वासी कौरव-पांडव वीरों के साथ, यह गंगाजल से प्रगट रखने की प्रतिज्ञा की, एवं मशालों की सहायता से रात्रि हुआ, एवं इसने युधिष्ठिर को दर्शन दिया (म. आश्र. के समय भी युद्ध चालू रखा। ३२.७)। वध-वह युद्ध का पंद्रहवा दिन, अर्थात् द्रोण के इंद्रियसंयम एवं तपस्या के कारण, समाज में इसे काफी सैनापत्याभिषेक का पाँचवाँ दिन था। दिन के युद्ध से | मानमान्यता थी। इसका युद्धशास्त्रप्रभुत्व भी परशुराम सारे वीर थक गये थे, तथापि ईर्ष्यावश, रात्रि के समय | जामदग्न्य जैसा ही अतुलनीय था। किंतु परशराम का भी वीरता से लड़ रहे थे। किंतु धीरे-धीरे सारी सेना साहस एवं ज्वलंत स्वाभिमान इसमें न होने के कारण, को निद्रा ने घेर लिया। यह संधि देख कर, भीम ने | इसकी सारी आयु सेवावृत्ति में ही व्यतीत हुई । उस इन्द्रवर्म राजा का अश्वत्थामा नामक हाथी मार डाला, | दुर्बल सेवावृत्ति से, इसकी उत्तरआयु अयशस्वी एवं एवं अश्वत्थामा मृत हो गया, ऐसी गर्जना की। असमाधानी शाबित हुई। - चिरंजीव होते हुए भी अश्वत्थामा मृत कैसे हुआ, इस | द्रोण शार्ग-एक मंत्रद्रष्टा पक्षी (ऋ. १०. १४२. विचार से द्रोण को आश्चर्य हुआ, एवं निर्णय के लिये, यह | ३-४)। मंदपाल ऋषि को शार्गी नामक पक्षिणी से धर्मराज के पास गया । कृष्ण के कथनानुसार युधिष्ठिर ने | उत्पन्न चार पुत्रों में से यह एक था (म. आ. २२८. द्रोण से कहा, 'अश्वत्थामा मृत हो गया है, '। कृष्ण के | १७)। ३०९ Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रोण प्राचीन चरित्रकोश द्रौपदी यह ब्रह्मवेत्ताओं में श्रेष्ठ होगा, ऐसा मंदपाल ऋषिभिन्न देशों के राजा आये थे, परंतु मत्स्यवेध की शर्त वे का इसके विषय में भविष्यकथन था (म. आ. २२९. पूरी न कर सके (द्रपद देखिये)। अर्जुन ने मत्स्यवेध का ९-१०)। उस भविष्यकथन के अनुसार, उत्तर आयु में प्रण जीतने पर, द्रौपदी ने अर्जुन को वरमाला पहनायी। यह बड़ा ब्रह्मवेत्ता बन गया। इसने खांडववनदाह के बाद में पांडव इसे अपने निवासस्थान पर ले गये। समय, अग्नि की प्रार्थना कर, अपनी तथा अपने भाइयों | धर्म ने कुंती से कहा 'हम भिक्षा ले आये हैं।' उसे की रक्षा की (म. आ. २२३. १६-१९; अनु. ५३. सत्य मान कर, कुंती ने सहजभाव से कहा, 'लायी हुई २२ कुं.)। इसने कंधरकन्या ताी से विवाह किया था। भिक्षा पाँचों में समान रूप में बाँट लो'। पांडवों के द्वारा उससे इसे पिंगाक्ष, विबोध, सुपुत्र तथा सुमुख नामक लायी भिक्षा द्रौपदी है, ऐसा देखने पर कुंती पश्चात्ताप करने चार पुत्र हुएँ (मार्क. ३. ३२; १. २४)। लगी। परंतु माता का वचन सत्य सिद्ध करने के लिये, . २. एक वसु । इसकी पत्नी का नाम धरा था । अपने | धर्म ने कहा, 'द्रौपदी पाँचों की पत्नी बनेगी। अगले जन्म में यह दोनों नंद तथा यशोदा बने (भा. १०. ८.४८-५०)। इसकी अभिमति नामक और एक पत्नी | द्रुपद को पांडवों के इस निर्णय का पता चला। एक थी। उससे इसे हर्षशोका दि पुत्र हुएँ (भा. ६.६.११)। स्त्री पाँच पुरुषों की पत्नी बने, यह अधर्म है, अशास्त्र है, द्रोणायन - भृगुकुलोत्पन्न एक ऋषि । ऐसा सोच कर वह बडे विचार में फँस गया। इतने में द्रौणायनि तथा द्रौणि--अश्वत्थामा का पैतृक नाम । व्यासमुनि वहाँ आये, तथा उसने द्रुपद को बताया, 'द्रौपदी. व्यास नाम से इसका निर्देश करते समय, इसी नाम का को शंकर का वर प्राप्त है कि, तुम्हें पाँच पति प्राप्त होंगे। उपयोग किया जाता है (अश्वत्थामन् देखिये)। अतः पाँच पुरुषों से विवाह इसके बारे में अधर्म नहीं है। द्रुपद ने उसके पूर्वजन्म की कथा पूछी। व्यास ने द्रौपदी- द्रुपद राजा की कन्या, एवं पांडवों की कहा, 'द्रौपदी पूर्वजन्म में एक ऋषिकन्या थी। अगले पत्नी । स्त्रीजाती का सनातन तेज एवं दुर्बलता की | जन्म में अच्छा पति मिले, इस इच्छा से उसने शंकर की। साकार प्रतिमा मान कर, श्री व्यास ने 'महाभारत' में आराधना की । शंकर ने प्रसन्न हो कर, उसे इच्छित वर इसका चरित्रचित्रण किया है। स्त्रीस्वभाव में अंतर्भूत | माँगने के लिये कहा। तब उसने पाँच बार 'पति दीजिये .. प्रीति एवं रति, भक्ति एवं मित्रता, संयम एवं आसक्ति यों कहा। तब शंकर ने इसे वर दिया कि, तुम्हें इनके अनादि द्वंद्व का मनोरम चित्रण, 'द्रौपदी' में पाँच पति प्राप्त होंगे (म.आ. १८७-१८८)। इसलिये दिखाई देता है। स्त्रीमन में प्रगट होनेवाली अति शुद्ध द्रौपदी ने पाँच पांडवों को पति बनाने में अधर्म नहीं है।' भावनाओं की असहनीय तड़पन, अतिरौद्र पाशवी यह सुन कर, द्रुपद ने धौम्य ऋषिद्वारा शुभमुहूर्त पर, वासनाओं की उठान, एवं नेत्रदीपक बुद्धिमत्ता का तुफान, क्रमशः प्रत्येक पांडव के साथ, द्रौपदी का विवाह कर इनका अत्यंत प्रभावी आविष्कार 'द्रौपदी' में प्रकट होता दिया (म. आ. १९०)। है। इसी कारण इसकी व्यक्तिरेखा प्राचीन भारतीय इतिहास की एक अमर व्यक्तिरेखा बन गयी है। ब्रह्मवैवर्त पुराण में, द्रौपदी के पंचपतित्व के संबंध में याज एवं उपयाज नामक ऋषिओं की सहायता से, द्रुपदं निम्नलिखित उल्लेख हैं। रामपत्नी सीता का हरण रावण ने 'पुत्रकामेष्टि यज्ञ' किया। उस यज्ञ के अग्नि में से, द्वारा होनेवाला है, यह अग्नि ने अंतर्ज्ञान से जान लिया। धृष्टद्युम्न एवं द्रौपदी उत्पन्न हुएँ (म. आ. १५५)। यज्ञ में | उस अनर्थ को टालने के लिये, सीता की मूर्तिमंत प्रतिकृति से उत्पन्न होने के कारण, इसे 'अयोनिसंभव' एवं 'याज्ञ- अपनी मायासामर्थ्य के द्वारा उसने निर्माण की। सच्ची सेनी' नामांतर प्राप्त हुएँ (म. आ. परि. ९६.११,१५)। सीता को छिपा कर, मायावी सीता को ही राम के आश्रम पांचाल के राजा द्रपद की कन्या होने के कारण, इसे | में रखा। इससे सीता को राम का वियोग होने लगा। 'पांचाली', एवं इसके कृष्णवर्ण के कारण, 'कृष्णा' | तब उसने शंकर की आराधना प्रारंभ की। शंकर ने प्रसन्न भी कहते थे । लक्ष्मी के अंश से इसका जन्म हुआ था | हो कर उसे वर माँगने के लिये कहा । पाँच बार, ' पति(म. आ. ६१. ९५-९७; १७५-७७)। समागम प्राप्त हो,' ऐसा वर सीता ने माँग लिया। तब स्वयंवर, पंचपतित्व-द्रौपदी विवाहयोग्य होने के बाद, शंकर ने उसे कहा, 'अगले जन्म में तुम्हें पाँच पति । द्रुपद ने इसके स्वयंवर का निश्चय किया। स्वयंवर में भिन्न | प्राप्त होगे' (ब्रह्मवै. २.१४)। पाँचों पांडव एक ही इन्द्र Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रौपदी प्राचीन चरित्रकोश द्रौपदी के अंश होने के कारण, वस्तुतः द्रौपदी एक की ही | से अर्जुन ने उसे शांत किया। इस पर धृतराष्ट्रपुत्र विकर्ण पत्नी थी (मार्क.५)। सामने आया, तथा द्रौपदी के प्रश्न का उत्तर देने की __ द्यूत-विवाहोपरांत काफी वर्ष द्रौपदी ने बडे सुख में प्रार्थना उसने भीष्मादिकों से की । परंतु कोई उत्तर न दे बिताये। पांडवों का राजसूय यज्ञ भी उसी काल में संपन्न | सका । तब विकर्ण ने कहा, 'दाँव पर जीते गये धर्म ने हुआ। पांडवों से इसे प्रतिविंध्यादि पुत्र भी हुएँ । किंतु चकि द्रौपदी को दाँव पर लगाया, अतः सचमुच यह जीती पांडवों के बढ़ते ऐश्वर्य के कारण, दुर्योधन का मत्सर | ही नहीं गई। यह कहते ही सार | ही नहीं गई। यह कहते ही सारे सभाजन विकर्ण की दिन प्रतिदिन बढ़ता गया। उसने द्यत का षड्यंत्र रच | वाहवाह करने लगे। लिया, एवं द्यूत खेलने के लिये शकुनि को आगे कर, द्रौपदी का यह नैतिक विजय देख कर, कर्ण सामने युधिष्ठिर का सारा धन हड़प लिया। अन्त में द्रौपदी को आ कर बोला, 'संपूर्ण संपत्ति दाँव पर लगाने पर, द्रौपदी भी युधिष्ठिर ने दाँव पर लगा दिया। उस कमीने वर्तन अजित रह ही नहीं सकती। इसके अतिरिक्त द्रौपदी के लिये उपस्थित राजसभासदों ने युधिष्ठिर का धिक्कार अनेक पतिओं की पत्नी होने के कारण, धर्मशास्त्र के किया। विदुर को द्रौपदी को सभा में लाने का काम सौंपा अनुसार पत्नी न हो कर, दासी है। इसलिये पूरी संपत्ति गया। उसने दुर्योधन को अच्छी तरह से फटकारा, एवं | के साथ यह भी दासी बन गई है। पश्चात् द्रौपदी उस काम करने के लिये ना कह दिया। पश्चात् द्रौपदी की ओर निर्देश कर के उसने दुःशासन से कहाँ, 'द्रौपदी को सभा में लाने का कार्य प्रतिकामिन् पर सौंपा गया। के वस्त्र खींच लो। पांडवों के वस्त्र भी छीन लों'। वह भी हिचकिचाने लगा। __तब पांडवों ने एक वस्त्र छोड़, अन्य सभी वस्त्र उतार फिर यह काम दुःशासन पर सौंपा गया । दुःशासन डालें। द्रौपदी का वस्त्र खींचने दुःशासन बढा, एवं इसके का अन्तःपुर में प्रवेश होते ही द्रौपदी भयभीत हो कर वस्त्र खींचने लगा। उसपर यह आर्तभाव से भगवान् को स्त्रियों की ओर दौडने लगी। अंत में दौडनेवाली द्रौपदी के पुकारने लगी (म. स. ६१.५४२-५४३*)। भीम क्रोध 'केश पकड़ कर, दुःशासन खींचने लगा । उस समय द्रौपदी ने | से लाल हो गया । दुःशासन के रक्तप्राशन की प्रतिज्ञा कहा, 'मैं रजस्वला हूँ। मेरे शरीर पर एक ही वस्त्र है। उसने की। विदुर सामने आया । द्रौपदी के प्रश्न का : ऐसी स्थिति में मुझे सभा में ले जाना अयोग्य है'। उस उसने सभा को पुनः स्मरण दिला कर सुधन्वा की कथा पर दुःशासन ने कहा, 'तुम्हें चूत में जीत कर हमने बताई (सुधन्वन् देखिये)। द्रौपदी लगातार आक्रोश दासी बनाया हैं | अब किसी भी अवस्था में तुम्हारा कर रही थी, 'स्वयंवर के समय केवल एक बार मैं राजसभा में आना अयोग्य नहीं है। इतना कह कर लोगों के सामने आई । आज मैं पुनः सब को दृष्टिगत हो अस्ताव्यस्त केशयुक्त, जिसका पल्ला नीचे गिर पड़ा है, रही हूँ। इस शरीर को वायु भी स्पर्श न कर सका, ऐसी द्रौपदी को वह बलपूर्वक केश पकड कर, सभा में ले उसकी भरी सभा में आज अवहेलना चालू है। आया (म. स. ६०.२२-२८)। दुःशासन इसके वस्त्र खींच ही रहा था, किंतु इसकी द्रौपदी का प्रश्न-सभा में आते ही आक्रोश करते लज्जारक्षा के लिये श्रीकृष्ण स्वयं धीररूप हो गये, हुए द्रौपदी ने प्रश्न पूछा, “धर्म ने पहले अपने को दाँव एवं एक के बाद एक नये चीर उसने प्रकट किये पर लगाया, तथा हारने पर मुझे लगाया । तो क्या मैं (म. स. ६१. ४१)। द्रौपदी के शील की रक्षा हुई। दासी बन गई ?' इसके प्रश्न का उत्तर कोई भी न दे | अपने कृत्य के प्रति लज्जित हो कर, अधोमुख दुःशासन • सका (म. स. ६०.४३-४५)। अपने स्थान पर बैठ गया (म. स. ६१. ४८)। अन्त में भीष्म ने सुनी अनसुनी की। बाकी सभा स्तब्ध रही। धृतराष्ट्र ने दुर्योधन को कडी डॉट लगाई। द्रौपदी को यह लगातार प्रश्नों की बौछार कर रही थी। सुन कर भी | इच्छित वर दे कर, पतियों सहित उसने इसे दास्यमुक्त किसी के कान पर तक नहीं रेंगी। कर्ण, दुःशासनादि | किया (म. स. ६३. २८-३२)। द्रौपदी की 'दासी दासी' कह कर अवहेलना करने लगे। वनवास-युधिष्ठिर के द्युत के कारण, पांडवों के भीम अपना क्रोध न रोक सका। जिन् हाथों से धर्म ने साथ वन में जाने का प्रसंग द्रौपदी पर आया । वनवास में द्रौपदी को दाँव पर लगाया था, उन हाथों को जलाने के कौरवों के कारण, इसे अनेक तरह के कट उठाने लिये, अग्नि लाने को उसने सहदेव से कहा। बडी कठिनाई । पड़े। एक बार इसका सत्वहरण करने के लिये, परमकोपी ३११ Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रौपदी दुर्वास ऋषि को दुर्योधन ने भेज दिया। दुर्वास ऋपि अपने शिष्यों के साथ, रात्रि के समय पांडवों के घर आया, एवं आधी रात में भोजन माँगने लगा। उस समय द्रौपदी का भोजन हो गया था । इसलिये सूर्यप्रदत्तस्थाली में पुनः अन्न निर्माण करना असंभव था तब ऋषियों को क्या परोसा जावे, यह धर्मसंकट इसके सामने उपस्थित हुआ। आखिर विवश हो कर इसने कृष्ण का स्मरण किया । कृष्ण ने भी स्वयं वहाँ आकर, इसके संकट का निवारण किया (म. व. परि. १. क्र. २५. पंक्ति. ५८११७) । , प्राचीन चरित्रकोश पांडवों का निवास काम्यकवन में था । एक बार जयद्रथ आश्रम में आया। उस समय पाँचों पांडव मृगया के लिये गये थे । तत्र अच्छा अवसर देख कर, जयद्रथ ने द्रौपदी का हरण किया । इतने में पांडव वापस आये । जयद्रथ को पराजित कर, उन्होंने द्रौपदी को मुक्त किया । बाद में अपमान का बदला चुकाने के लिये जयद्रथ के सिर का पाँच हिस्सों में मुंडन कर उसे छोड़ दिया गया ( म. व. २५६. ९; जयद्रथ देखिये) । , अज्ञातवास - वनवास की समाप्ति के बाद, अज्ञातवास के लिये पांडव विराटगृह में रहे। द्रौपदी सेरंभी बन कर एवं ‘मालिनी' नाम धारण कर, सुदेष्णा के पास रही। उस समय इसने सुदेष्णा से कहा था, 'मैं किसी का पादसंवाहन अथवा उच्छिष्टभक्षण नही करूँगी । कोई मेरी अभिलाषा रखे, तो वह मेरे पाँच गंधर्व पतियों द्वारा मारा जायेगा' । द्रौपदी के इन सारे नियमों के पालन का आश्वासन सुदेष्णा ने इसे दिया ( म. वि. ८.३२ ) । एक बार कीचक नामक सेनापति ने इसकी अभिलाषा रखी, परंतु भीम ने उसका वध किया ( म. वि. १२ - २२ ) । वनवास तथा अन्य समयों पर भी अपनी तेजस्विता तथा बुद्धिमत्ता इसने कई बार व्यक्त की है (म. व. २८२५२ शां. १४) । द्रौपदी अनुकुल बनाया (म. ड. ८० ) । इसने कृष्ण से कहा, 'कौरवों के प्रति द्वेषामि, तेरह साल तक, मैने अपने हृदय में, सांसों की फूँकर डाल कर, आज तक प्रज्वलित रखा हैं । कौरवों से युद्ध टाल कर, पांडव आज उस अग्नि को बुझाना चाहते है उन्हें तुम ठीक तरह से समझ लो । नही तो मेरे वृद्ध पिता द्रुपद, एवं मेरे पाँच पुत्र के साथ, मैं खुद कौरवों से लड़ाई करूँगी, एवं नष्ट हो जाऊँगी ( म. उ. ८०. ४-४१ ) । भारतीय युद्ध में अश्वत्थामन् ने द्रौपदी के सारे पुत्रों का वध किया । दारुक से यह वार्ता सुन कर द्रौपदी ने अन्नत्याग कर, प्राणत्याग करने का निश्चय किया। तब भीम ने उसे समझाया। अन्त में अश्वत्थामन को पराजित कर, उसके मस्तकस्थित मणि ला कर, युधिष्ठिर के मस्तक पर देखने की इच्छा इसने प्रकट की। पश्चात् भीम ने वह कार्य पूरा किया (म. सी. १५.२८-३०१ १६.१९२६ ) । पांडवों का बनवास तथा अज्ञातवास समाप्त होने पर वे हस्तिनापुर लौट आये, एवं कौरवों के पास राज्य का हिस्सा माँगने लगे । अपने कौरव बांधवों से लड़ने की ईर्ष्या युधिविर मन में नहीं थी। उनसे स्नेह जोड़ने के लिये युधिडिर दूत भेजना चाहता था किंतु कौरवों के द्वारा किये गये अपमान का शल्य द्रौपदी भूल न सकती थी । कौरवों के साथ दोस्ती सलुक की बाते करनेवाले पांडवों के प्रति यह भड़क उठी। पांडवों के साथ कृष्ण को भी कड़े वचन कह कर इसने उसको युद्ध के प्रति 3 राज्यप्राप्ति - भारतीय युद्ध के बाद, पांडवों को निष्कंटक - राज्य मिला। उस समय द्रौपदी ने काफी सुखोपभोग लिया । बाद में स्त्री तथा बांधवों के साथ, युधिष्ठिर महाप्रस्थान के लिये निकला राह में ही द्रौपदी का पतन हुआ। अपने पतियों में से, यह अर्जुन पर ही विशेष प्रीति रखती. थी ( म. महा. २.६ ) । उस पाप के कारण इसका पतन हुआ । किंतु कृष्ण का स्मरण करते ही, यह स्वर्ग चली गई ( भा. १.१५.५० ) । इसे युधिष्ठिर से प्रतिविंध्य भीम से मुतसोम, अर्जुन से श्रुतकीर्ति, नकुल से शतानीक, तथा सहदेव से श्रुतसेन नामक पुत्र हुएँ (म. आ. ९०.८२ ५८.१०२-१०३३ ६१.८८ २१३.७२-७३) । श्रुतसेन के लिये श्रुतकर्म पाठ 'भागवत' में प्राप्त है ( भा. ९.२२.२९ ) । , स्वभाव — द्रौपदी मानिनी थी । स्वयंवर के समय इसका प्रण जीतने कर्ण समर्थ था । किन्तु सूतपुत्र को वरने का इसने इन्कार किया (म. आ. १८६ ) । वनवास में पांडव तथा कृष्ण को द्रौपदी ने बार बार युद्ध की प्रेरणा की। कृष्ण के शिष्टाई करने जाते समय इसने अपने मुक्त केशसंभार की याद उसको दिलाई थी भारतीय युद्ध में, अपने पुत्रों के वध का समाचार सुनते ही अवस्थामा के वध की चेतावनी इसने पांडवों को दी । युद्ध के पश्चात्, युधिष्ठिर राज्य स्वीकार करने के लिये हिचकिचाने लगा । उस समय भी इसने उसे राजदण्ड धारण करने के लिये समझाया। 3 ३१२ Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रौपदी. प्राचीन चरित्रकोश धनंजय महाभारत में द्रौपदी तथा भीम का स्वभावचित्रण | वंश है। विष्णु, गरूड़ तथा भागवत में इसके बारे में विशेष रूप से किया है। द्रौपदी के स्वभावचित्रण काफी मतभेद है। में व्यावहारिक विचार, स्त्रीसुलभ अपेक्षा, जोश तथा द्विमूर्धन्--दनुपुत्र एक दानव । पृथ्वीदोहन के समय स्फूर्ति का आविष्कार बडी खूबी से किया गया है। भीम यह दोग्धा बना था। विरोचन ने वत्स का काम किया था भी द्रौपदी के विचार का समर्थक बताया गया है। (म. द्रो. ६९. ३९. कुं.; परि. १.८.८०२) । द्रौपदी तथा भीम युधिष्ठिर के बर्ताव के बारे में कड़ा। द्विविद-सुषेण वानर का पुत्र एवं सुग्रीव के प्रधान विरोध करते हुएँ दिखते है । किंतु आखिर युधिष्ठिर के | मैंद का भाई । इसने राम को काफी सहायता की थी। सौम्य प्रतिपादन से वे दोनों भी चूप बैठने पर विवश | इसमें १०,००० हाथियों का बल था। होते हैं। २. किष्किंधा का राजा एवं नरकासुर का मित्र । राजसूय द्वारक--(सू.इ.) भविष्यमत में क्षेमधन्य का पुत्र । | यज्ञ के समय, इसने सहदेव को करभार दिया था (मैद द्विगत भार्गव–एक ऋषि । यह एक साम के पठन देखिये)। से स्वर्ग गया, तथा वहाँ से वह फिर मृत्युलोक में नरकासुर का वध कृष्ण ने किया, यह सुनते ही यह आया । पश्चात् यह पुनः स्वर्ग गया (पं. ब्रा. १४. ९. कृष्ण तथा बलराम को त्रस्त करने लगा । बाद में बलराम से लड़ाई हो कर, यह बलराम के द्वारा मारा गया (म. द्विज--(सो. अनु.) वायुमत में शूरसेन का पत्र। व. २७३. ४; भा. १०.६७)। द्विवेदिन--काश्यप कण्व को आर्यावती से उत्पन्न पुत्र द्विजिह्व--रावणपक्षीय एक राक्षस (वा. रा. सु. (भवि. प्रति. १.६; ४. २१)। द्वैतरथ--(सो. क्रोष्टु.) वायुमत में हृदीक का पुत्र । द्वित-ब्रह्ममानसपुत्र (भा. १०.८४)। द्वैतवन-ध्वसन् का पैतृक नाम (श. ब्रा. १३. ५. २. गौतम ऋषि का पुत्र (त्रित देखिये )। द्वित आप्तों | ४.९)। के नाम पर एक सूक्त है (ऋ. ९. १०३)। द्वैपायन-पराशरपुत्र व्यास का नामांतर (व्यास द्विमीद--(सो. पूरु.) भागवत, मत्स्य तथा वायु- | देखिये)। • मत में हस्ति का, एवं विष्णुमत में हस्तीनर का पुत्र । द्वयक्षी--अशोकवन की एक राक्षसी । पद्मपुराण में इसे देवमीढ़ कहा गया है। यह एक स्वतंत्र । व्याख्येय--अंगिरस् कुल का एक गोत्रकार । धनक-(सो. सह.) भागवतमत में भद्रसेन का की रस्सी बनाया गया था (म. क. २४.७२)। पूषन् पुत्र । विष्णु एवं पन के मत में दुर्दम का पुत्र (पन. सृ. के साथ यह माघ माह में घूमता है (भा. १२.११.. १२)। धनंजय-एक प्रमुख नाग । कश्यप एवं कद्र का यह २. अर्जुन का एक नाम । संपूर्ण देशों को जीत कर, पुत्र था (म. आ. ३१.५)। यह पाताल में रहता था कररूप में धन ले कर, उसके बीच में स्थित होने के कारण, (भा. ५.२४.३१)। अर्जुन का नाम धनंजय हुआ था (म. वि. ३९.११; यह वरुण की सभा में उपस्थित हो कर, भगवान् वरुण | अर्जुन देखिये)। की उपासना करता था (म. स. ९.९)। इसे त्रिपुरदाह ३. भगवान् शंकरद्वारा स्कंद को दी हुई असुरसेना के समय, भगवान् शिव के रथ में घोड़ों के केसर बाँधने का नाम (म. श. २७६%)। प्रा. च. ४०] ३१३ Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धनंजय प्राचीन चरित्रकोश धनुर्ग्रह २. वसिष्ठकुल का एक ब्राह्मण । इसे १०० स्त्रियाँ | 'धनधर्मन्-(भविष्य.) वायुमत में मथुरा नगरी में तथा अनेक पुत्र थे। इसने अपना धन उनमें बराबर राज्य करनेवाला तथा ब्रह्मांडमत में वैदेश का नागवंशी . बाँट दिया। फिर भी उन पुत्रों में अनबन बनी रहती राजा । यह नखवान के बाद राजगद्दी पर बैठ गया। थी। उन झंझटों से तंग आ कर, इसका करुण नामक पुत्र, धनपाल-अयोध्या नगरी का एक वैश्य । इसने सूर्य भवनाशिनी नदी के तट पर रहने के लिये गया । अंत में का एक दिव्य मंदिर बनवाया । एक पुराणिक को एक पूरे अंत में शिवभस्म से इसका उद्धार हुआ । 'शिवभस्म' | साल का वेतन दे कर, वहाँ पुराणपठन के लिये कहा। का माहात्म्य बताने के लिये यह कथा दी गयी है | बाद में छः मास में ही इसकी मृत्यु हो गई। इसके (पद्म. पा. १.१५२)। संचित पुण्य के कारण, सूर्य ने विमान से इसे ले जा कर ३. एक वैश्य । दक्षिण समुद्र के तट पर यह रहता था। अपने आसन पर बिठाया, इसकी पूजा करवाई। पश्चात् इसकी माता की मृत्यु होने पर, यह उसकी अस्थियाँ ले इसे ब्रह्मलोक में पहुँचाया (भवि. ब्राह्म. ९४)। कर काशी गया। अस्थियाँ ढोनेवाले शबर साथी ने उसे | २. (सो.) भविष्यमत में सावित्री का पुत्र । इसने ३००० द्रव्य का हाँडा समझ कर चुरा लाया। तब धनंजय पुनः | वर्षों तक राज्य किया। उस शबर के घर गया। उसकी स्त्री को यथेच्छ द्रव्य | ३. सरस्वती के तट पर भद्रावती नगर में रहनेवाला . देना मान्य कर, उसने वह हाड़ा माँगा । परंतु शबर ने वह | एक वैश्य । इसे धृष्टबुद्धि नामक दुर्वर्तनी पुत्र था (धृष्टबुद्धि जंगल में ही छोड दिया था। इसलिये इसे वह नहीं मिला | देखिये)। (स्कन्द, ४.१.३०)। धनयाति--(सो.) भविष्यमत में संयाति का पुत्र । ४. त्रेतायुग का एक ब्राह्मण । इसने विष्णु की अत्यंत धनवर्धन-कृतयुग में पुष्कर क्षेत्र में रहनेवाला ।। भक्ति की। वस्त्रप्रावरण न होने के कारण, इसने पीपल एक सदाचारी वैश्य । एक बार वैश्वदेव कर के यह . की एक शाखा तोड़ कर आग जलाई। पीपल को तोड़ते इत | भोजन कर रहा था। बाहर 'अन्नं देहि ' ऐसा शब्द इसने ही, विष्णु के शरीर पर जख्म के घाव पड गये। सुना । बाहर आ कर इसने देखा तो वहाँ कोई न था। तब इसके भक्ति से प्रसन्न हो कर विष्णु इसके पास आया। वापस जा कर त्यक्त अन्न का भोजन इसने शुरु किया। इसने विष्णु के शरीर के जख्मों का कारण उसे पूछा ।। | त्यक्त अन्न खाने के पाप के कारण, उसी क्षण इसके सौ विष्णु ने कहा, 'अश्वत्थ की शाखा तोड़ने के कारण, मेरे टुकड़े हो गये (भवि. ब्राह्म. ३.४२-४७)। शरीर पर ये घाव पड़े है' । तब यह अपनी गर्दन तोड़ने धनशर्मन्-मध्यदेश में रहनेवाला एक ब्राह्मण । को तैय्यार हो गया। विष्णु ने इसे वर माँगने के लिये यह एक बार दर्भ, समिधा आदि लाने के लिये अरण्य कहा। इसने वररूप में 'विष्णुभक्ति' की ही याचना की में गया। अरण्य में इसने तीन पिशाच देखे । उन्हें देख (पद्म क्रि. १२)। 'अश्वत्थमाहात्म्य' बताने के लिये कर इसने उनकी दुःस्थिति का कारण पूछा । बाद में उन यह कथा दी गयी है। पिशाच के उद्धार के लिये, इसने तिल तथा शहद का ... ५. अत्रि के कुल की वंशवृद्धि करनेवाला एक ऋषि । दान कर के 'वैशाख स्नान' का व्रत किया । उस व्रत का ६. वर्तमान मन्वन्तर का सोलहवाँ व्यास (व्यास | पुण्य इसने उन पिशाचों को दिया । इस पुण्य के.बल, उन देखिये)। पिशाचों को मोक्षप्राप्ति हुई (पन. पा. ९८)। ७. विश्वामित्रकुल का एक मंत्रद्रष्टा ब्रह्मर्षि (कुशिक धनायु--(सो. पुरूरवस्.) मत्स्य के मत में पुरूरवा देखिये)। | के पुत्रों में से एक। ८. कुमारी का पति (म. उ. ११५.४६०* पंक्ति. ५)। धनिया-सोम की सत्ताईस स्त्रियों में से एक तथा धनद--कुबेर का नाम । तृणबिंदु की कन्या इडविड़ा | प्राचेतसदक्ष की कन्या। का पुत्र (म. स. ११.१३४% पंक्ति. २; भा. ९.२.३१- धनिन्-कप नामक देवों का दूत । ब्राह्मणों के पास ३२)। जा कर इसने 'कप' देवों के सदाचार का वर्णन किया २. मरुद्गणों में से तीसरे गणों में एक । (म. अनु. २६२.८-१६ कुं.)। धनदा-स्कन्द की अनुचरी मातृका (म.-श. ४५. धनुर्ग्रह-(सो. कुरु.) धृतराष्ट्र के सौ पुत्रों में से एक (म. आ. १०८.११)। इसके नाम के 'धनुग्रह' एवं ३१४ १३)। Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धनुग्रह प्राचीन चरित्रकोश धन्वन्तरि 'धनुर्धर ' ये पाठभेद उपलब्ध हैं। भीमसेन ने इसका | (म. आ. १६.३७)। इसे आदिदेव, अमरवर, वध किया (म. क. ८४.२-६)। अमृतयोनि एवं अब्ज आदि नामांतर भी प्राप्त है। धनुर्धर-धनुग्रह का नामांतर (धनुग्रह देखिये)। | दुर्वासस् ने इंद्र को शाप दे कर, वैभवहीन बना दिया तब गतवैभव पुनः प्राप्त करने के लिये, देव दैत्यों ने धनुर्वक्त्र-स्कंद का एक सैनिक (म. श. ४४.५७)। क्षीरसमुद्र का मंथन किया। उस समुद्रमंथन से प्राप्त, धनुष-(सो. ऋक्ष.) एक राजा । मत्स्यमत में यह .चौदह रत्नों में से धन्वन्तरि एक था। समुद्र में से प्रकट सत्यधृति का पुत्र था। इसके लिये सुधन्वन् पाठभेद होते समय, इसके हाथ में अमृतकलश था। जब यह उपलब्ध है। समुद्र से निकला तब तेज से दिशाएँ जगमगा उठी (ह. धनुषाक्ष-(धनुषाख्य) रैभ्यकुलोत्पन्न एक ऋषि । वं. २९.१३)। यह विष्णु का अवतार एवं 'आयुवेदबालधि ऋषि के पुत्र मेधाविन् ने इसका अपमान किया। प्रवर्तक' देवता था (विष्णु. १.९.९६; भा. १.३.१७; अतः उसके नाश के लिये इसने शाप दिया, जिसका कुछ ८.८.३१-३५)। इसे आयुर्वेदशास्त्र का ज्ञान इंद्र के परिणाम नहीं हुआ। तब इसने पर्वत शिला गिरा कर प्रसाद से एवं चिकित्साज्ञान भास्कर के प्रसाद से प्राप्त उसका विनाश कर दिया। पर्वत गिरने से ही मेधाविन् हुआ था (भवि. १.७२; मस्त्य. २५१.४)। की मृत्यु होगी ऐसां उसको वर था (म. व. १३६; शां. __ समुद्रमंथन से निकलने के पश्चात्, विष्णु भगवान् को ३२३.७)। इसने देखा। उसे देख कर यह ठिठक गया । विष्णु ने धनेयु-(सो. पुरूरवस् .) विष्णुमत में रौद्राश्व का इसे 'अब्ज' (पानी से जिसका जनम हुआ) कह कर पुत्र । इसे अन्यत्र धर्मेयु कहा है। पुकारा । पश्चात् इसने विष्णु से. प्रार्थना की, 'यज्ञ में २. एक ऋषि । उपरिचर वसु के यज्ञ में यह सदस्य मेरा भाग एवं स्थान नियत कर दिया जाय। विष्णु ने था (म. शां. ३२३.७)। कहा, 'यज्ञ के भाग एवं स्थान तो बँट गये है। किंतु धनेश्वर-अवन्ती नगरी का एक पापी ब्राह्मण । यह अगले जन्म में तुम्हारी यह इच्छा पूरी होगी। उस जन्म निषिद्ध पदार्थों का व्यापार करता था। एक बार व्यापार के में तुम विशेष ख्याति प्राप्त करोंगे । 'अणिमादि' लिये यह माहिष्मती नगरी में गया। कार्तिक माह होने सिद्धियाँ तुम्हें गर्भ से ही प्राप्त होगी, एवं तुम सशरीर के कारण, अनेक पुण्यात्माओं से, तथा कीर्तन, पुराण, | देवत्व प्राप्त करोंगे। तुम 'आयुर्वेद ' को आठ भागों में भजन, गायन आदि से उसका संबंध सहजवश आ गया। विभक्त करोंगे। एवं उस कार्य के लिये, लोग तुम्हें मंत्र से त्रिपुरी पौर्णिमा का दीपोत्सव भी इसने देखा। उसी रात्रि | आहुति देने लगेंगे। को सर्पदंश के कारण, इसकी मृत्यु हो गयी। यम ने इसे | विष्णु के उस आशिर्वचनानुसार, धन्वन्तरि ने द्वापरएक कल्प तक नर्क में रखने के लिये कहा। किन्तु उस नर्क | युग में काशिराज धन्व (सौनहोत्र ) के पुत्र के रूप में के अग्निकुंड में भी यह बिनाकष्ट जीवित रहा । माहिष्मती | पुनर्जन्म लिया। उस जन्म में, इसने भरद्वाज ऋषिप्रणीत नगरी में इसने किये हुए पुण्य का यह फल है, ऐसा नारद 'आयुर्वेद ' आठ विभागों में विभक्त किया, एवं प्रजा ने यम को बताया। नारद की सूचनानुसार यम ने इसे को रोगमुक्त किया (वायु. ९२.९-२२, धन्वन्तरि २. यक्ष योनि में भेज दिया। वहाँ यह कुबेर का सेवक बना देखिये)। (पम. उ. ११३-११४; स्कंद. २.४.२९)। उस महान कार्य के लिये, नित्यकर्मान्तर्गत पंचमहाधन्या-उत्तानपाद ध्रुव की पत्नी । यज्ञ 'वैश्वदेव' में बलिहरण के समय, 'धन्वंतरये धन्व-(सो. काश्य.) काशी देश का राजा । यह | स्वाहा' कर के इसे यज्ञाहुति मिलने लगी। इस तरह, दीर्घतपस् के पश्चात् राजगद्दी पर बैठ गया। इसका | इसकी विष्णु भगवान् के पास की गयी प्रार्थना सफल 'धर्म' पाठभेद भी उपलब्ध है। आयुर्वेदशास्त्र का | हुई । वैद्यक एवं शल्यशास्त्र में पारंगत व्यक्तिओं को आज प्रणेता धन्वन्तरि इसीका पुत्र था (धन्वंतरि २. देखिये)। | भी 'धन्वन्तरि' कहा जाता है (उल्लणकृत 'सुश्रुत धन्वन्तरि-देवताओं का वैद्य एवं 'आयुर्वेदशास्त्र' | संहिता टीका' सू. १. ३)। का प्रवर्तक देवता । समुद्रमंथन के समय, यह अमृत | धन्वन्तरि स्वरूप वर्णन-धन्वन्तरि देवता का स्वरूप का श्वेत कमंडलु हाथ में रख कर समुद्र से प्रकट हुआ | वर्णन प्राचीन ग्रंथों में उपलब्ध है (भा. ८. ८. ३१ Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धन्वन्तरि प्राचीन चरित्रकोश धन्वन्तरि ३५) । आधुनिक भिपम्बर एवं वैद्य उसे 'धन्वन्तरि ( शरीरशास्त्र), २. पाल (रोग), २. ग्रह (भूत स्तोत्र' नाम से नित्य पठन करते है: प्रेतादि विकार ), ४. उर्ध्वंग ( शिरोनेत्रादि विकार ), ५. शल्य ( शस्त्रघातादि विकार ), ६. दंष्ट्रा (विषचिकित्सा ), ७. जरा (रसायन), ८. वृष ( वाजीकरण ) (ह.वं. २९.२० ) । अयोदधेर्मथ्यमानात् काश्यपैरमृतार्थिभिः । उदतिष्ठन्महाराज पुरुषः परमाद्भुतः ॥ दीर्घपीवर दोर्दण्डः कम्बुग्रीवोऽरुणेक्षणः । श्यामस्तरुणः कम्बी सर्वाभरणभूषितः ॥ पीतवासा महोरस्कः सुमृष्टमणिकुण्डलः । स्निग्धकुञ्चितकेशान्तः सुभगः सिंहविक्रमः ॥ पूर्णकलशं चिद्वयभूषितः । वै विष्णोरंशांशसंभवः ॥ भगवतः साक्षाद् धन्वन्तरिरिति ख्यातः आयुर्वेद इज्यभाक् । स ' धन्वन्तरि की मूर्ति के बारे में, दक्षिण भारतीय तथा उत्तर भारतीय ऐसे कुल दो पाठ उपलब्ध हैं । उस प्रकार की मूर्तियाँ भी प्राप्त हैं। दक्षिण की धन्वन्तरि की मूर्ति आंध्र फार्मसी ने मद्रास में तैयार की है। उत्तर की मूर्ति, गीर्वाणंद्र सरस्वति कृत 'प्रपंच सार ग्रंथानुसार तैयार की गयी है, एवं वह काशी में वैद्य त्र्यंबक शास्त्री के पास श्री । दोनों मूर्तियों की तुलना करने पर पता चलता है कि, । वे समान नहीं है। उन में दाहिनी ओर की वस्तुएँ बाय । ओर, तथा बायीं ओर की वस्तुएँ दाहिनी ओर दिखायी दी गयी हैं । दक्षिण की मूर्ति में दाहिने उपरवाले हाथ में चक्र है। काशी की मूर्ति के उसी हाथ में शंख है। दक्षिण के नीचेवाले दाहिने के हाथ में जोंक हैं, तो काशी की मूर्ति के हाथ में अमृतकुंभ है । बाई ओर के हाथों के बारे में भी यही फर्क दिखाई देता हैं । इसे केतु नामक पुत्र था । (ब्रहा. १३.६५; वायु. ९. २२; ९२; ब्रह्मांड, २.६७ . भा. ९.४१ ) । सुविख्यात आयुर्वेदाचार्य धन्वन्तरि दिवोदास इसका पौत्र वा प्रपौत्र था। उसके सिवा इसके परंपरा के भेल, पाठकाप्य आदि भिषग्वर भी 'धन्वन्तरि' नाम से ही संबोधित किये जाते है । विक्रमादित्य के नौ रत्नों में भी धन्वन्तरि नामक एक भिषग्वर था। , २. (सो. काश्य.) काशी देश का राज एवं 'अष्टांग आयुर्वेदशास्त्र का प्रवर्तक । यह काशी देश के धन्य (धर्म) राजा का पुत्र एवं दीर्घतपस् राजा का वंशज था। विष्णु भगवान् के आशीर्वाद से, समुद्रमंथन से उत्पन्न धन्वन्तरि नामक विष्णु के अवतार ने पृथ्वी पर पुनर्जन्म लिया । वही पुनरावतार यह था ( धन्वन्तरि १. देखिये ) । दूसरे युगपर्यय में से द्वापर युग में, काशिराज धन्व ने के लिये, तपस्या एवं अब्जदेव की आराधना पुत्र की। अब्जदेव ने धन्व के घर स्वयं अवतार लिया। गर्भ में से ही आणिमादि सिद्धियाँ इसे प्राप्त हो गयी थीं। भारद्वाज ऋषि से इसने भिषक् क्रिया के साथ आयुर्वेद सीख लिया, एवं अपनी प्रजा को रोगमुक्त किया। उस महान कार्य के लिये, इसे देवत्व प्राप्त हो गया। इसने आयुर्वेदशास्त्र 'अष्टांगों' ( आठ विभाग ) में भक्त किया। वे विभाग इस प्रकार है: - १. काय धन्वन्तरि-मनसा युद्ध--सर्पदेवता मनसा तथा वैद्यविद्यासंपन्न धन्वन्तरि राजा के परस्परविरोध की एक कथा महावैवर्त पुराण कृष्णजन्मखंड में दी गयी है। एक दिन, धन्वन्तरि अपने शिष्यों के साथ कैलास की ओर जा रहा था। मार्ग में तक्षक सर्प अपने विपारी फूलकार डालते हुए इन पर दौड़ा शिष्यों में से एक को औषधि मालूम होने के कारण, बड़े ही अभिमान से वह आगे बढ़ा। उसने तक्षक को पकड़ कर, उसके सिर का मणि - निकाल कर, निकाल कर, जमीन पर फेंक दिया । यह वार्ता सर्पराज वासुकि को ज्ञात हुई । उसने हजारों विषारी सर्प द्रोण, कालीय, कर्कोट, पुंडरीक तथा धनंजय के नेतृत्व में भेजे । उनके श्वासोच्छ्वास के द्वारा बाहर आई बिपारी वायु से, धन्वन्तरि के शिष्य मूर्च्छित हो गये। धन्वन्तरि ने, वनस्पतिजन्य औषध से उन्हें सावधान कर के, उन सपों को अचेत किया। वासुकि को यहं शाल हुआ। उसने शिवशिष्य मनसा को भेजा। मनसा तथा गहूर शिवभक्त थे। धन्वन्तरि, गदूर का अनुयायी था । जहाँ धन्वन्तरि था, वहाँ मनसा आई। उसने धन्वन्तरि के शिष्यों को अचेत कर दिया। इस समय स्वयं धन्वन्तरि भी, शिष्यों को सावधान न कर सका । मनसा ने स्वयं धन्वन्तरि को भी, मंत्रतंत्र से अपाय करने का प्रयत्न किया, किंतु वह असफल रही । तब शिव द्वारा दिया गया त्रिशुल वह इस पर फेंकने ही वाली थी कि, शिव तथा ब्रह्म वहाँ आये । उन्होंने वह झगड़ा मिटाया । अंत में मनसा तथा धन्वन्तरि ने एक दूसरे की पूजा की। उसके बाद रात्र सर्प, देव, मनसा तथा धन्वन्तरि, अपने अपने स्थान रवाना हुएँ (ब्रह्मवै कृष्ण १.५१ ) । ३१६ • Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धन्वन्तरि प्राचीन चरित्रकोश धरुण धन्वन्तरि के ग्रंथ-धन्वन्तरि के नाम पर निम्नलिखित | ब्रह्मवैवर्तपुराण में इसे शंकर का उपशिष्य कहा है ग्रंथ प्रसिद्ध हैं-१. चिकित्सातत्त्व विज्ञान, २. चिकित्सा- | (ब्रह्मवै. ३.५१)। दर्शन, ३. चिकित्साकौमुदी, ४. अजीर्णामृतमंजरी, ५.रोग- अन्य कई स्थानों में, इसे कृष्णचैतन्य का शिष्य कहा निदान, ६. वैद्यचिंतामणि, ७. वैद्य प्रकाश चिकित्सा, है। एक बार यह कृष्णचैतन्य के पास गया। प्रकृति ८. विद्याप्रकाशचिकित्सा, ९. धन्वन्तरीय निघंटु, | श्रेष्ठ या पुरुष श्रेष्ठ, इसके बारे में, इसका एवं कृष्णचैतन्य १०. चिकित्सासारसंग्रह, ११.भास्करसंहिता का चिकित्सा- | का विवाद हुआ। इसका कहना था, 'प्रकृति से पुरुष तत्त्व विज्ञानतंत्र, १२. धातुकल्प, १३. वैद्यक स्वरोदय | श्रेष्ठ है। किन्तु कृष्ण चैतन्य ने कहा, 'दोनों भी (ब्रह्मवै. २.१६ )। इनके सिवा, इसने वृक्षायुर्वेद, अश्वायु- श्रेष्ठ है । कृष्णजी का कहना इसे मान्य हुआ एवं यह वेद तथा गजायुर्वेद का भी निर्माण किया था (अग्नि. | उसका शिष्य बन गया। कृष्णचैतन्य के शिव्यत्त्व की २८२)। यह कहानी धन्वन्तरि 'दिवोदास' की ही है, या किसी धन्वन्तरि 'अमृताचार्य'--एक आयुर्वेदशास्त्रज्ञ। अन्य धन्वन्तरि की, यह निश्चित रूप से कहना मुष्किल है। यह अंबष्ठ ज्ञाति में पैदा हुआ था। आद्य धन्वन्तरि से धन्विन्--तामस मनु का एक पुत्र । इसका निश्चित क्या संबंध है, यह कह नही सकते । इसके । धमति--अंगिराकुल का एक ऋषि । धूनति पाठभेद जन्म के बारे में निम्नलिखित कथा उपलब्ध है :-- एक | है। बार गालव ऋषि दर्भ एवं काष्ठ लाने के लिये अरण्य में धमनी-ह्लाद नामक असुर की पत्नी । इसके पुत्र गया था। अधिक घूमने के कारण, वह तृषार्त हो गया । | इल्वल तथा वातापि (भा. ६.१८.१५)। उतने में पानी ले जानेवाली एक लड़की को इसने देखा। धमिल्ला-अनुशाल्व राजा की पत्नी (जै. अ.६१)। उसने इसे पानी पिलाया । तब गालव ने उसे वर दिया, धमधमा- स्कन्द की अनुचरी मातृका (म. श. ४५. •'तुम्हे अच्छा पुत्र पैदा होगा। किंतु उस लड़की ने कहा, | १९)। 'अभी मेरा विवाह भी नहीं हुआ है। धर-धर्म तथा धूम्रा का पुत्र । इसकी पत्नी पश्चात् गालव ने दर्भ की एक पुरुषाकृति बना कर, | मनोहरा । इसके पुत्र द्रविण, हुतहव्यवह, शिशिर, प्राण उस वीरभद्रा नामक वैश्यकन्या को दी। उस पुरुषा- | रमण (विष्णु. १.१५) तथा रज (ब्रह्मांड ३.३.२१कृति से पुत्र निर्माण करने को उसे कह दिया । वीरभद्रा | २९)। महाभारत के मत में, इसे द्रविण तथा हुतहव्यको उस दर्भपुरुष से एक सुंदर पुत्र हुआ। ब्राह्मण पिता से | वह ये केवल दो ही पुत्र थे (म. आ. ६०.२०)। वैश्य स्त्री को वह पुत्र उत्पन्न हुआ, इस कारण वह अंवष्ठ | २. सोम का पुत्र। ज्ञाति का बना । उसका नाम अमृताचार्य रखा गया । वही | ३. एक पांडवपक्षीय राजा (म. द्रो. १३३-३७)। धन्वन्तरि है (अम्बष्ठाचारचंद्रिका)। यह युधिष्ठिर का संबंधी एवं सहायक था। धन्वन्तरि दिवोदास'-(सी. काश्य.) काशी के धरापाल-विदिशा नगरी का राजा । एक बार देवी धन्वन्तरि राजा का पौत्र एवं आयुर्वेदशास्त्र का एक प्रमुख ने अपने एक गण को शाप दिया, 'तुम सियार बनोगे'। आचार्य । बाल्यकाल से ही यह विरक्त था । बड़े प्रयत्न सियार का स्वरूप प्राप्त हुए उस, गण ने वेतसी तथा से इसे काशी का राजा बनाया गया (भवि. १.१)। । वेत्रवती नदी के संगम पर प्राणत्याग किया। पश्चात् विश्वामित्र का पुत्र सुधृत एवं वृद्ध नामक ब्राह्मण इसके| उसे ले जाने के लिये यम ने विमान भेज दिया। प्रमुख शिष्य थे (भवि.प्रति. ४.२०; अग्नि. २६९.१)। यह देख कर धरापाल ने वहाँ एक विष्णुमंदिर इसने 'काल्पवेद' (काल्प-रोगों से क्षीण हुआ देह) की बाँधा। एक पुराणज्ञ व्यक्ति को पुराणकथन के लिये रचना की। काल्पवेद के दर्शन से रोग नष्ट हो जाते थे। नियुक्त किया। उस पुण्यसंचय के कारण, इसकी मृत्यु सुश्रुत ने उसका पठन कर, सौ अध्यायों का 'अश्रत तंत्र के बाद इसे ले जाने के लिये, यम ने विमान भेजा, तथा का निर्माण किया (भवि. प्रति. ४.९.१६-२३)। इसे स्वर्ग में पहुंचा दिया (पन. उ. २८)। कई प्राचीन ग्रंथों में, इसे कल्लदत्त ब्राह्मण का पुत्र धरिणी-अग्निष्वाचादि पितरों की मानसकन्या । कहा गया है । विष्णु ने गरुड को आयुर्वेद सिखाया, एवं | इसे वयुना नामक एक बहन थी। इसने वह गरुड से सीख लिया (गरुड. १.१९७.५५)। | धरुण आंगिरस-सूक्तद्रष्टा (३ ५.१५)। ३१७ Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म धर्म- संपूर्ण लोगों को सुख देनेवाली एक देवता एवं ब्रह्माजी का मानसपुत्र । यह स्वायंभुव मन्वंतर में ब्रह्माजी के दाहिने स्तन से उत्पन्न हुआ (म. आ. ६०. ३०; मस्य. ३.१०; भा. ३.१२.२५ ) । यह एक प्रजापति था, एवं बुद्धि से उत्पन्न हुआ था । इसे भगवान् सूर्य का भी पुत्र कहा गया है (म. आ. ८१. ८९ ) । इसके वृध, यम आदि नामांतर उपलब्ध हैं । दक्ष प्रजापति की दस पुत्रियाँ इसकी पत्नी थी ( म. आ. ६०.१२-१४) । उनके नामः कीर्ति, लक्ष्मी, धृति, मेधा, पुष्टि, श्रद्धा, क्रिया, बुद्धि, लज्जा एवं मति । आठो वसु इसके पुत्र थे (म. आ. ६०.१७ ) । इसके तीन श्रेष्ठ पुत्र थेः शम, काम, हर्ष ( म. आ. ६०.३१ ) । इसे सत्या नामक और एक कन्या भी थी। वह इसने शंयु नामक अभि को दी ( म.व. २०९.४) । प्राचीन चरित्रकोश भागवत एवं पुराणों में, दक्ष प्रजापति की तेरह कन्याएँ इसे भार्यारूप में दी गयी थी, ऐसा निर्देश है (भा. ४. १ ब्रह्मांड. २.९.५० ) । उनके नामः -श्रद्धा, मैत्री, दया, शांति, तुष्टि, पुष्टि, क्रिया, उन्नति, बुद्धि, मेधा, तितिक्षा, ही, एवं मूर्ति । इनमें से प्रथम बारह स्त्रियों से इसे बारह पुत्र हुएँ। उनके क्रमशः नामः -- शुभ, प्रसाद, अभय, मुख, मुद, स्मय, योग, दर्प, अर्थ, स्मृति, क्षेम तथा प्रश्रय | तेरहवे मूर्ति नामक स्त्री से इसे नर-नारायण ऋषि पुत्ररूप में हुएँ। इसीके अंश से विदुर एवं युधिष्ठिर पैदा हुए थे ( म. आ. ६१.८४१ ११०६ म. व. २९८८२१) । इसने यक्षरूप से नकुल, सहदेव, अर्जुन एवं भीमसेन को मूर्च्छित किया (म.व. २९८.६ ) । पश्चात् युधिष्ठिर के साथ इसके प्रश्नोत्तर हो गये (म. व. २९८.६ - २५ ) । इसने युधिष्ठिर से पूछा, ' धर्म के पास पहुँचने के द्वार कौन से है' बुधिष्ठिर ने उत्तर दिया, अहिंसा, समता, शान्ति दया, एवं अमत्सर ये धर्म के पास पहुँचने के द्वार हैं । युधिष्ठिर के उस उत्तर से प्रसन्न हो कर, यह धर्मरूप में प्रकट हुआ । इसने युधिष्ठिर को वरदान दिया, 'अज्ञातवास में कौरवों से तुम सुरक्षित रहोंगे ' ( म. व. २९८.२५ ) । विदेह का राजा जनक से भी इसका संवाद हुआ था ( म. आश्व. ३२ ) । धर्म २. भागवत में पुनः दूसरे स्थान पर, धर्म की पत्नी एवं पुत्रपरिवार के बारे में अन्य जानकारी दी गई है। यहाँ लिखा है कि, धर्म को भानु, लंबा, कुकुर, यामी (जामि ) विश्वा, साध्या, मरुत्वती, वसु, मुहूर्ता तथा संकल्पा नामक दस पत्नियाँ थी। उनसे इसे देव ऋषभ, विद्योत, संकट, स्वर्ग, विवेदेव साध्यगण, मरुत्वान्, जयंत, मुहूतांम मानी, देवगण, संकराय, द्रोण, प्राण, ध्रुव, अर्क, अत्रि, दोष । वसु तथा विभावसु नामक पुत्र हुएँ (भा. ६.६.४-१०; मत्स्य ५.२०३ विष्णु. २.१५, १०६ - ११० ) । अन्य कई जगह, कुकुप् की जगह अरुंधती नाम प्राप्त है (ब्रह्मांड. ३.३.१.४४; वसु देखिये ) । यह जानकारी उस समय की है, जब पहले का धर्म महादेव के शाप से मृत हो गया था, एवं वैवस्वत मन्वंतर में ब्रह्मदेव के द्वारा अन्य धर्म उत्पन्न किया गया था. ( वायु. ४) । इससे जाहिर होता है कि, धर्म एवं उसका परिवार प्रत्येक युग में नया उत्पन्न हो कर उसी युग में लय भी होता था युगभेद के अनुसार, जानकारी में । फर्क होता है । असंगति भी उसी कारण प्रतीत होती है । पुराणों में भी यह कहा गया है ( विष्णुः १.१५.८४९ . १०६ - ११०; पितर देखिये ) | ३. यम का नाम (मा. ९.२२.२७ ) । ४. ( सो. दुधु.) गांधार का पुत्र । इसका पुत्र धृत । ५. (सो. यंदु. वृष्णि. ) लिंग के मत में अक्रूर पुत्र | ६. (सो. यदु क्रोड) भागवतमत में युवा का पुत्र (तम देखिये) । ७. (सो. यदु, सह.) हैहय राजा का पुत्र । इसे धर्मतत्व तथा धर्मनेत्र भी कहा गया है। 1 ८. (सो. क्षत्र. ) वायु के मत में दीर्घतमस् का पुत्र | ९. एक ब्रह्मर्षि। इसकी पत्नी वृत्ति ( म.उ. ११७. १५, ११५.४६१* ) । १०. उत्तम मन्वन्तर के सत्यसेन अवतार का पिता । इसकी पत्नी सूनृता ( भा. ८.१.२५) । ११. चाक्षुष मन्वन्तर का अवतार । इसके पुत्र नरनारायण (दे. भा. ४.१६ ) । पांडवों के महाप्रस्थान के समय, कुत्ते का रूप धारण कर, धर्म उनके पीछे-पीछे गया था (म. महाप्रस्थान. २.१२) । विदूर एवं युधिदिर के मृत्यु के पश्चात् वे दोनों धर्म में ही विलीन हो गये ( म. स्वर्गा. ५.१९ ) । ३१८ १२. सुतप देवों में से एक । १३. ब्रह्मदेव के पुष्कर क्षेत्र के यज्ञ का सदस्य (पद्म. सु. २४ ) | १४. एक धार्मिक वैश्य । यह ग्राहकों से अत्यंत Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन चरित्रकोश धर्मद्रवा .स.५०)। पुत्र। सचाई से व्यवहार करता था (नरोत्तम देखिये; पद्म. | भाषण सुन कर, सिंह पुनः यक्ष बना एवं विमान में बैठ कर अलकापुरी चला गया। १५. (पौर, भविष्य.) विष्णु के मत में रामचन्द्र का | धर्मगुप्त के पागल होने की वार्ता सुन कर, नंद राजा राजधानी में वापस आया। उसने जैमिनि ऋषि को, १६. ( सो. मगध. भविष्य.) विष्णु के मत में सवत | अपने पुत्र के पागलपन का उपाय पूछा। उसने राजा का पुत्र । अन्यत्र इसे धर्मनेत्र, धर्मसूत्र तथा सुनेत्र नाम को पुष्करिणी तीर्थ पर, स्नान करने के लिये कहा । नंद ने वैसा करने पर, उसके पुत्र धर्मगुप्त का पागलपन निकल गया। पश्चात् नंद राजा पुनः तप करने के लिये १७. एक व्यास (व्यास देखिये)। वन में गया (स्कन्द, २.१.१३)। धर्मकेतु-(सो. क्षत्र.) भागवतमत में सुकेतन का | धर्मजालिक-बाल देखिये। एवं विष्णु तथा वायु के मत में सुकेतु का पुत्र । धर्मतत्व-(सो. सह.) बायु मत में हैहय राजा का धर्मगुप्त-सोमवंशीय मंद राजा का पुत्र | एक बार | पुत्र (धर्म ७. देखिये)। यह अरण्य में गया था। संध्यासमय होने के कारण, | धर्मद- स्कंद का एक सैनिक (म. श. ४४.६७)। उसी अरण्य के एक वृक्ष का इसने रातभर के लिये धर्मदत्त--एक ब्राह्मण । यह करवीर नगर में रहता सहारा लिया। | था। एक बार पूजासाहित्य ले कर, यह मंदिर में जा रहा रात के समय, उसी वृक्ष का सहारा लेने एक रीछ | था। राह में इसे कलहा नामक राक्षसी दिखी । उसे देखते आया। उसके पीछे एक सिंह लगा हुआ था। रीछ ने ही यह भय से गर्भगलित हो गया। थोड़ा धीरज बाँध राजा से कहा, 'मित्र, तुम घबराना नहीं। सिंह के डर कर, इसने पास का पूजासाहित्य उस के मुख पर फेंक से मैं यहाँ आया हूँ। हम दोनों इस वृक्ष के सहारे रात दिया। उस साहित्य में से एक तुलसीपत्र कलहा के बिता लेंगे। आधी रात तक तुम जागो । आधी रात तक शरीर पर गिरा, एवं उस से उसे पूर्वजन्म का स्मरण हो मैं जाग कर तुम्हें सम्हालूंगा'। राजा निश्चिंत मन से सो | गया। गया। ___ अपना क्रूर स्वभाव त्याग कर, दुष्ट राक्षसयोनि से . नीचे खड़ा सिंह, रीछ से बोला, 'तुम राजा को नीचे | मुक्ति का उपाय, कलहा ने धर्मदत्त से पूछा । धर्मदत्त के . फेंक दो'। रीछ ने यह अमान्य कर कहा, 'विश्वासघात | | हृदय में कलहा के प्रति दया उत्पन्न हो गयी, एवं करना बहुत ही बड़ा पाप है। बाद में राजा को जागृत इसने अपने कार्तिक व्रत का पुण्य उसे दे दिया। इससे • कर, वह स्वयं सो गया। उसका उद्धार हुआ (पद्म. उ. १०६-१०८; स्कन्द. २. सिंह ने राजा से कहा, 'तुम रीछ को नीचे ढकेल दो'।। ४. २४-२५)। दुर्बुद्धि सूझ कर राजा ने रीछ को नीचे ढकेल दिया, परंतु कार्तिकवत के पुण्य के कारण, अगले जन्म में यह सावधानी से रीछ ने वृक्षों के डालो में अपने आप को | दशरथ बना। कलहा इसके आधे पुण्य के कारण, फँसा दिया । पश्चात् इसने क्रोधवश राजा को शाप दिया, | इसकी पत्नी कैकयी बनी (दशरथ देखिये; आ. रा.सार. 'तुम पागल हो जाओगे'। रीछ आगे बोला, 'मैं भृगुकुल का ध्यानकाष्ट नामक | २. कश्या का स्नेही। कश्यपपुत्र गजानन को यह ऋषि हूँ । मन चाहा रूप में ले सकता हूँ। तुम विश्वास- हमेशा अपने घर भोजन के लिये बुलाता था (गणेश. घात से मुझे नीचे ढकेल रहे थे, इसलिये मैंने तुम्हें शाप | २.१४ )। दिया है। सिंह से भी उसने कहा, 'तुम भद्र नामक धर्मदा-(सो. वृष्णि.) विष्णुमत में श्वफल्कपुत्र । यक्ष तथा कुबेर के सचिव थे। गौतम ऋषि के आश्रम धर्मद्रवा--गंगा नदी का नामांतर । यह ब्रह्म देव की में दोपहर में निर्लज्जता से स्त्री के साथ क्रीड़ा करने | सात भार्याओं में से एक थी । इसे ब्रह्मदेव ने अपने के कारण, गौतम ने तुम्हें सिंह बनने का शाप दिया | कमंडलु में रखा था । वामनावतार द्वारा विष्णु ने बली था। मेरे साथ संवाद करने पर पुनः यक्षरूप प्राप्त होने | को बाँध कर देवों को निर्भय कर दिया । तत्पश्चात् ब्रह्मदेव का उःशाप भी, तुम्हे मिला था। ध्यानकाष्ट का यह ने इसे विष्णु के पैरों पर डाल कर, उसके पाँव धो डाले। ३१९ Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मद्रवा प्राचीन चरित्रकोश धर्मवल्लभ कन्या थी। यह आकाश से हेमकूट पर्वत पर गिरी, तब शंकर ने | धर्मभृत-दंडकारण्यवासी एक ऋषि । पंचाप्सर इसे जटा में धारण किया। भगीरथ द्वारा ऐरावत की सरोवर में की जानकारी इसने राम को बतायी, एवं उस प्रार्थना की जाने पर, उसने अपने दाँतों से हेमकूट पर्वत सरोवर में से आनेवाले चमत्कृतिजनक आवाज का कारण में तीन छेद खोद डाले। उनमें से गंगा बहने लगी। उस | भी इसने उसे बताया (वा. रा. अर. ११)। कारण इसे 'त्रिस्त्रोता' भी कहते हैं (पद्म. सु.६२)। २. मत्स्यमत में अऋर का तथा वायुमत में श्वफल्क धर्मध्वज--रथध्वज राजा का पुत्र । इसे तुलसी नामक | का पुत्र । धर्ममूर्ति-बृहत्कल्प का एक राजा । इसकी पत्नी २. (सू. निमि.) विदेह देश का राजा। भागवतमत | भानुमती । उसके सिवा इसे १०००० स्त्रियाँ थी । इसका में यह कुशध्वज जनक का पुत्र था। इसे कृतध्वज तथा | कुलगुरु वसिष्ठ था । पूर्वजन्म में एक वेश्या के घर में मितध्वज नामक दो पुत्र थे। यह पंचशिख का शिष्य था | स्वर्णकार का जन्म इसे मिला था । इसके द्वारा (म. शां. ३०८, ४-२४)। यही जनदेव होगा। महा- बनाया गया सुवर्णवृक्ष, उस वेश्या ने ब्राह्मणों को दान भारत में दिये गये, 'धर्मध्वज-सुलभासंवाद' में मोक्ष का किया । अतः सद्यः जन्म में यह वैभवसंपन्न राजा बना। प्रतिपादन है (म. शां. ३०८)। यही कथा पद्मपुराण में कुछ अलग ढंग से दी गयी है। धर्मध्वजिन्-विदेह देश के जनककुल का एक पहले यह शूद्र था । उसके बाद के जन्म में यह केंडा क्षत्रिय । इसे असित ने पृथ्वीगीता बताई (विष्णु.४.२४)। बना, एवं स्वर्ग द्वारेश्वर के सामने मृत हो गया । उस परंतु पृथ्वीगीता का प्रतिपादन इमे देवल ने किया, ऐसा पुण्यसंचय के कारण, यह सद्यःजन्म में वैभवसंपन्न राजा भी निर्देश प्राप्त है ( पद्म. उ. १९७.२७)। बन गया (पद्म. स. २१, स्कन्द. ५.२. २२)। . . धर्मन--(सू. इ. भविष्य.) विष्णु के मत में यह धर्मरथ-(सो. अनु.) अनुवंश का एक राजा । बृहद्राज का पुत्र । इसके लिये धर्मिन् तथा बर्हि नाम भी यह दिविरथ राजा का पुत्र था । इसका पुत्र चित्ररथ ऊर्फ रोमपाद वा लोमपाद । धर्मनारायण-एक व्यास (व्यास देखिये)। २. (स. इ.) सगर का एक पुत्र, जो कपिल के शाप धर्मनेत्र--(सो. सह.) हैहय वंश का एक राजा । | से बचा था (प. उ. २०)। विष्णु, मत्स्य तथा पन के मत में यह हैहय राजा का पुत्र धर्मराज--गौड़ देश का राजा । यह गौड़ाधिपति था (पन. सृ. १२; धर्म ७. देखिये)। गुणशेखर का पुत्र था। जैन धर्म का वैदिक धर्म पर २. (सो. मगध. भविष्य.) वायुमत में भुवन का पुत्र | हमला चालू था । तब इसने स्वयं वैदिक धर्म का स्वीकार तथा ब्रह्मांड मत में सुव्रत का पुत्र । इसने पांच वर्षों तक | किया, तथा अपनी कृति से वैदिक धर्म का श्रेष्ठत्व सत्र को राज्य किया (धर्म १३. देखिये)। दर्शा दिया। इसने अपने पिता का भी उद्धार किया ____३. (सो. पूरु.) कुरु का प्रपौत्र एवं जानमेजय धृतराष्ट्र | ( भवि. प्रति. २. १०)। . का पुत्र (म. आ. ८९.८९२७)। | धर्मवर्ण-एक ब्राह्मण । कलियुग के अन्तिम काल में धर्मपाल--दशरथ का अमात्य (वा. रा. अयो. ७)। यह आनर्त देश में रहता था। एक बार यह पितृलोक २. (सो.) भविष्यमत में आनंदवर्धन का पुत्र । इसने गया। वहाँ इसने देखा कि, इसके पितर दूर्वीकर के २७०० वर्षों तक राज्य किया। आधार पर लटक रहे हैं। उन्होंने अपने उद्धार के लिये धर्मबुद्धि--एक चोलवंशीय राजा। नास्तिकों के | इसे विवाह करने के लिये कहा। तब इसने विवाह सहवास के कारण, दूसरे जन्म में यह गड़ा बना । उस किया। पश्चात् पुत्रजन्म होते ही, यह गंधमादन पर तपस्या जन्म में सुलोचना ने इसका वध किया। उस समय | करने चला गया (स्कन्द. २. ७. २२)। सुलोचना ने वीरवर नामक पुरुष का वेष धारण किया था। | धर्मवर्मन्--(सो. वृष्णि.) मत्स्यमत में अक्रूर गंगासागर संगम तीर्थ में मरने के कारण, उस गंडे | का पुत्र । का उद्धार हुआ। विष्णुदूतों के साथ स्वर्ग में जाते समय, धर्मवल्लभ--पुण्यपुर का राजा। अपने सत्यप्रकाश सुलोचना को इसने वर दिया, 'तुम्हारा पति से मिलन | नामक मंत्री के साथ, इसका अध्यात्म के विषय में संभाषण होगा' (पद्म. क्रि. ६)। हुआ था (भवि. प्रति. २.११)। .. ३२० Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मवृद्ध. प्राचीन चरित्रकोश धर्मसख धर्मवृद्ध-(सो. वृष्णि.) श्वफल्क के पुत्रों में से एक महाभारत में धर्मव्याध के द्वारा, निम्नलिखित विषयों (भा. ९.२४.१६)। पर विवरण किया गया है :- वर्णधर्म का वर्णन (म. ___२. (सो. क्षत्र.) एक राजा । वायुमत में यह आयु का व. १९८.१९-५५); शिष्टाचार का वर्णन (म. व. १९८. पुत्र था । क्षत्रवृद्ध इसीका नामांतर था। वायु पुराण के । ५७-९४); हिंसा एवं अहिंसा का वर्णन (म. व. १९९); क्षत्रवृद्ध वंश का प्रारंभ इसी राजा से हुआ है। धर्मकर्मविषयक मीमांसा (म. व.२००); विषयसेवन से धर्मव्याध-मिथिला नगरी में रहनेवाला एक धर्म हानी एवं ब्राह्मीविद्या का वर्णन (म. व. २०१); इंद्रियपरायण व्याध । इसने कौशिक नामक गर्वोद्धत ब्राह्मण को, निग्रह का वर्णन (म. व. २०२)। मातापिता की सेवा का माहात्म्य बता कर विदा किया | ___कालंजर गिरि पर इन्द्र के साथ सोम पीने का सम्मान (म. व. १९७.२०६)। इसे अर्जुन तथा अर्जुनी नामक | इसे मिला था (ब्रह्म. १३.३९)। अपत्य थे। उनमें से अर्जुनी विवाह योग्य होने के पश्चात् , धर्मवता--धर्म को धर्मवती से उत्पन्न कन्या । ब्रह्मपुत्र मतंग ऋषि के पुत्र प्रसन्न से उसका विवाह हुआ। मरीचि की यह पत्नी थी। एक बार मरीचि ऋषि धर्मव्याध अत्यंत धार्मिक था। पंच महायज्ञ, अग्नि सोया हुआ था, उस वक्त ब्रह्मदेव इसके घर आया। इसने उसका सत्कार किया। किंतु उस प्रसंग के कारण, परिचर्या तथा श्राद्धादि कर्म यह बहुत ही भाविकता से मरीचि को इसके चारित्र्य पर शक आ गया। उसने हररोज करता था। परंतु यह सारे धर्मकृत्य यह मृगया क्रोधवश इसे शाप दिया, 'तुम शिला बन जाओगी'। करते करते ही करता था। एक बार, अर्जुनी की सास ने। उसे व्यंग वचन कहें, 'यह तो जीवघात करनेवालों की उसी शिला पर गया की विष्णुमूर्ति स्थित है। इसे देवव्रता कन्या है । यह, तप करने वालों के आचार भला क्या नाम भी प्राप्त है (अमि. ११४)। समझेंगी? धर्मशर्मन्--एक ब्राह्मण । कश्यपकुल के विद्याधर ब्राह्मण के तीन पुत्रों में से, यह सब से कनिष्ठ था। इसके : धर्मव्याध को इसका पता चल गया। मतंग को इसने भाईयों में से वसुशर्मा तथा नामशर्मा ये दोनों बड़े भाई समझाया, 'शाकाहरी होते हुए भी तुम जीवघातक हो। विद्वान् थे। किंतु इसे विद्याध्ययन में रुचि नहीं थी। पश्चात् इसने संसार के सास ससुरों को शाप दिया, सासससुर पर बहुएँ कभी भी विश्वास नही रखेगी, तथा ___ वृद्धापकाल में इसे अपने कृतकर्म पर पश्चात्ताप हुआ। यह भी न चाहेंगी कि उन्हें सासससुर हों (वराह. पश्चात् एक सिद्ध के उपदेश के कारण, इसे आत्मज्ञान ८.)। प्राप्त हुआ। ___ इसने अपने मनोरंजन के लिये एक तोता पाल रखा ..पूर्व जन्म में यह एक सामान्य व्याध था। काश्मीराधि था। एक बार उस तोते को बिल्ली ने खा लिया। तब पति वसु राजा को इसने पूर्वजन्म का ज्ञान दिया। उस | अत्यंत दुखित हो कर, यह मृत हो गया। दूसरे जन्म में कारण वसु राजा ने इसे वर दिया, 'अगले जन्म में तुम इसे शुक का ही जन्म प्राप्त हो गया, एवं पूर्वसंचित के धर्मव्याध बनोगे' (वराह. ६)। कारण यह जन्मतः आत्मज्ञानी बना (पद्म. भू. १-३)। महाभारत में यही कथा कुछ अलग ढंग से दी गयी २. वायुमत में व्यास की ऋशिष्य परंपरा के शाकपूर्ण है। पूर्व जन्म में यह एक वेद पारंगत ब्राह्मण था। परंतु | रथीतर का शिष्य (व्यास देखिये)। एक राजा की संगत में आ कर क्षात्रधर्म में एवं धनुर्विद्या धर्मसख-केकयवंश का एक राजा । इसे सौ पत्नियाँ में इसे रुची उत्पन्न हो गयी। एक बार यह उस राजा के थी परंतु संतान नहीं थी। अन्त में वृद्धापकाल में सुचन्द्रा . साथ शिकार के लिये गया । अनजाने में इसके हाथ एक नामक ज्येष्ठ स्त्री से इसे एक पुत्र हुआ। परंतु अन्य स्त्रियाँ ऋषि का वध हो गया । ऋषि ने इसे शाप दिया, 'तुम वैसी ही संतानहीन रही । उनका दुख मन ही मन जान शूद्रयोनि में व्याध बनोंगे' | अनजाने में अपराध हो कर, धर्मसख राजा ने अपने मंत्रियों की सलाह के अनुसार, गया आदि प्रार्थना ऋषि से करने पर, उसने उःशाप पुत्रकामेष्टि यज्ञ करने का निश्चय किया । दक्षिण समुद्र के दिया, 'व्याध होते हुए भी तुम धर्मज्ञ बनोंगे । पूर्वजन्म | पास के हनुमत्कुंड के पास यह यज्ञ प्रपन्न हुआ। उस का स्मरण तुम्हें रहेगा, एवं अपने मातापिता की सेवा तुम | यज्ञ के फलस्वरूप, इसकी सौ स्त्रियों को सौ पुत्र हुएँ (स्कन्द. करोगे' (म. व. २०५, कौशिक ७. देखिये.)। ३.१.१५)। प्रा. च. ४१] ३२१ वित हो कर, गया, एव१ -३), Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मसारथि प्राचीन चरित्रकोश धात धर्मसारथि-(सो. आयु.) त्रिककुद् राजा का पुत्र । अपना मस्तक मोहिनी को अर्पण किया। यही धर्मागद इसका पुत्र शांतरथ । अगले जन्म में सुव्रत बना (पद्म. भृ. २२)। धर्मसावर्णि--एक मनु । धर्म तथा दक्षकन्या सुव्रता धर्मात्मन्-वायु तथा ब्रह्मांड के मत में व्यास की को यह चाक्षुष मन्वन्तर में उत्पन्न हुआ। ग्यारहवें सामशिष्य परंपरा का हिरण्यनाभ का शिष्य । मन्वन्तर का यह अधिपति था। वायुपुराण में लिखा है २. ऋग्वेदी ब्रह्मचारी। कि, यह दसवें मन्वन्तर का अधिपति था ( मनु देखिये)। धर्मारण्य--एक ब्राह्मण (म. शां. ३४९.५)। देवी भागवत में उस मन्वन्तर का नाम 'सूर्यसावर्णि' पद्मनाभ नामक नाग से इसने अध्यात्मविद्या प्राप्त की तथा दे कर, उसके अधिप का नाम वैवस्वतपुत्र 'नाभाग' दिया उस के कारण यह कृतार्थ हो गया। गया है (दे. भा. १०.१३)। धर्मसूत्र--(सो. मगध. भविष्य.) भागवतमत में धर्मिन्--(सू. इ. भविष्य.) वायु के मत में भरद्वाजसुव्रत का पुत्र (धर्म १३. देखिये)। पुत्र (धर्मन् देखिये)। सेत--एक विष्णअवतार । यह आर्यक तथा । धर्मयु--(सो. पूरु.) एक राजा। भागवत, मत्स्य वैधृता से धर्मसावर्णि मन्वन्तर में उत्पन्न हुआ था (भा. तथा वायुमत में यह रौद्राश्व का पुत्र था। उसे यह ८.१३.२६)। मिश्रकेशी नामक अप्सरा के गर्भ से उत्पन्न हुआ (म.आ. धर्मसेन-(सू . इ. ) मांधातापुत्र अंबरीष का ८९.१०; धनयु देखिये। नामांतर। धातकि-प्रियव्रतपुत्र दीतिहोत्र का पुत्र । वीतिहोत्र धर्मस्व-एक ब्राह्मण । एक बार गंगा की डोली ले ने इसे पुष्करद्वीप का आधा भाग दिया था (भा. ५. २०.३१)। कर, यह घर जा रहा था। रास्ते में एक बैल ने, रत्नाकर नामक व्यापारी के कापकल्प नामक नौकर की हत्या की। धातु--मरुतों के तीसरे गणों में से एक। . कापकल्प स्वयं अत्यंत पापी था। किंतु उसकी अचानक धातृ--वैवस्वत मन्वन्तर के बारह आदित्यों में से एक मृत्यु के कारण, धर्मस्व के हृदय में उसकी प्रति दया (भा. ६.६.३९; पन. सृ.६)। इसकी माता का नाम उत्पन्न हुई। इसने उसके शरीर पर तुलसीपत्र से गंगोदक | अदिति, एवं पिता का नाम कन्या था (म. आ..५९. छिड़क दिया। इससे कापकल्प का उद्धार हो गया। १५)। खाण्डववनदाह के समय, श्रीकृष्ण एवं अर्जुन के गंगोदक का यह प्रभाव देख, धर्मस्व ने स्वयं गंगा की बीच युद्ध का संभव उत्पन्न हुआ था। उस समय, यह आराधना की, एवं वर प्राप्त किया, 'गंगा का नाम लेते देवताओं की ओर से आया था (म. आ. २१८.३३)। लेते ही मुझे मृत्यु प्राप्त हो' (पद्म. क्रि. ७)। - इसके द्वारा स्कंद को पाँच पार्षद प्रदान किये गये थे। धर्माकर-एक धार्मिक गृहस्थ । एक राजपुत्र ने उनके नाम :--कुन्द, कुसुम, कुमुद, डम्बर, एवं आडम्बर . अपनी सुस्वरूप भार्या, सुरक्षितता के उद्देश्य से छः महिनों (म. श. ४४.३५)। । तक इसके पास रख दी। फिर भी इस सच्चरित्र पुरुष के। इसे कुहू, सीनीवाली, अनुमति, एवं राका नामक चार मन में उस स्त्री के बारे में कामवासना उत्पन्न नहीं हुई। पत्नियाँ थी। उनसे इसे, सायंकाल, दर्श, पूर्णमास, एवं छः महिने के बाद राजपुत्र वापस लौटा । कुत्सित लोगों ने | प्रातःकाल नामक चार पुत्र हुएँ (भा. ६.१८.३)। इसके राजपुत्र के हृदय में संशय उत्पन्न करने का प्रयत्न किया. | पुत्रों के ये नाम रूपकात्मक प्रतीत होते है। परंतु कुछ लाभ नहीं हुआ। बाद में लोकनिंदा से त्रस्त हो। आदित्य के नाते, यह हरसाल कार्तिक मास में कर, यह चिताप्रवेश करने लगा । उस अग्निपरिक्षा में से | प्रकाशित होता है, एवं इसके ११०० किरणें रहती हैं यह विनाकष्ट बाहर आया, एवं इसके निंदकों के मुख पर | (भवि. ब्राह्म. १.७८)। भागवतमत में, यह चैत्रमास कोढ हो गया। देवों ने इसे 'सजनाद्रोहक' पदवी दी थी । ('मधुमास') में प्रकाशित होता है (भा. १२.११.३३; (पद्म. सु. ५०)। विवस्वत् देखिये)। धर्मांगद-एक राजा । विदिशा नगरी के ऋतुध्वज- । २. ब्रह्माजी का पुत्र । भागवतमत में, यह भृगु ऋषि पुत्र रुक्मभूषण को संध्यावली नामक भायों से यह उत्पन्न | को ख्याति से उत्पन्न हुआ था। इसके दूसरे भाई का हुआ था। पिता की इच्छा पूर्ण करने के लिये, इसने | नाम विधाता, एवं बहन का नाम लक्ष्मी (श्री) था । ३२२ Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धात प्राचीन चरित्रकोश धुनि विधाता एवं यह मनु के साथ रहते थे (म. आदि. | धाटक--धृष्ट १. देखिये । ६०.५०)। धिषणा-कृशाश्व ऋषि की पत्नी । मेरुकन्या आयति इसकी पत्नी थी। उससे इसे मृकण्ड २. एक देवी। इसने स्कंद के अभिषेक के समय नामक पुत्र हुआ था (भा. ४.१.४३-४४)। पदार्पण किया था (म. श. ४४.१२)। .. हस्तिनापुर जाते समय, मार्ग में श्रीकृष्ण से इसकी धिष्ण्य-प्रतर्दन देवों में से एक । भेंट हुई थी (म. उ. ८१.३८८)। २. अग्नि धिष्ण्य ऐश्वर देखिये। ३. भृगु का पुत्र । धीमत्-(सो. पुरूरवस् .) पुरूरवा को उर्वशी से 'धात्र--एक पौराणिक योद्धा । 'द्वादश-संग्राम' में । उत्पन्न पुत्रों में से द्वितीय पुत्र (म. आ. ७०.२२)। से धात्र नामक दशम-संग्राम में, इसने भाग लिया था। वार्त इसीका नामांतर था (मत्स्य. ४७.४४-४५)। । २. तामस मन्वन्तर के सप्तर्षियों में से एक । धात्रेय--अत्रिकुल का एक गोत्रकार । ३. अगस्य का पुत्र | पुलस्त्य ने इसे दत्तक लिया था। धायिका-द्रौपदी की दासी । जयद्रथ द्वारा द्रौपदी | यह अगस्त्यगोत्रीय था। के अपहरण का समाचार इसने पांडवों को बताया था धीर शातपर्णेय-शतपर्ण का वंशज, एक ऋषि । (म. व. २५३.१५)। यह महाशाल का शिष्य था (श. ब्रा. १०.३.३.१)। धीरधी--काशी का एक शिवभक्त ब्राह्मण । अनन्य धानंजय्य-अंशु का पैतृक नाम । २. एक आचार्य का पैतृक नाम (ला. श्री. १.१.२५; शिवोपासना करने के कारण, शिवजी इसपर प्रसन्न हुएँ, २.१.२; ९.१०)। एवं इसकी हरप्रकार सहायता करने लगे। धानाक--लुश देखिये। शिवजी का इस पर प्रेम देख कर, शिवगणों को धान्यमालिनी--रावण की पत्नी। इसका पुत्र आश्चर्य हुआ। तब इसकी पूर्वजन्म की कहानी शिवजी अतिकाय (वा. रा. सु. २२)। ने अपने गणों से कथन की । शिवजी बोले, 'यह ब्राह्मण २. एक अप्सरा । शाप के कारण, यह मगर बनी थी। | पूर्वजन्म में एक हंस था। एक बार यह एक सरोवर कालनेमि राक्षस के वध के समय, हनुमान ने इसका उद्धार के उपर से जा रहा था। यकायक यह थक गया, एवं जमीन पर गिर पडा । पश्चात् इसका सफेद रंग बदल कर, धान्यायनि-अंगिराकुल का एक ऋषि । यह कृष्णवर्ण हो गया। इसका सफेद रंग बदलने का धान्व-असित नामक असुरों के ऋषि का पैतृक नाम कारण, सरोवर में स्थित एक कमलिनी ने इसे बताया, एवं (श. बा. १३.४.३.११)। इसका 'धान्वन् ' नामांतर गीता के दसवें अध्याय का पठन करते हुए शिवोपासना भी प्राप्त है (शां. श्री. १६.२.२०)। करने को उसे कहा। इस पुण्यसंचय के कारण, उस हंस को अगले जनम में ब्राह्मणजन्म प्राप्त हुआ है। धाम--एक ऋषिसमुदाय का नाम । उत्तर दिशा में शिवजी ने आगे कहा, 'पूर्वकथा में निर्देश किया हुआ रह कर, श्री गंगा-महाद्वार का ये रक्षण करते है (म. उ. हंस, अपने पूर्वजन्म में ब्राह्मण ही था। किंतु गलती से १०९.१४)। गुरु को पादस्पर्श करने के पाप के कारण, उसे हंस की धामन्–अमिताभ देवों में से एक । २. तामस मन्वन्तर के सप्तर्षियों में से एक । योनि प्राप्त हुई। ३. एक नक्षत्र (ऋ. ९.६६.२)। पश्चात् शिवकृपा से यह जीवन्मुक्त हुआ , एवं स्वर्ग धारण-चन्द्रवत्सकुल में उत्पन्न एक कुलांगार नरेश। चला गया (पद्म. उ. १८४)। अपने दुर्वर्तन के कारण, यह स्वजनोंसमेत नष्ट हो गया धीरोष्णी--एक पुरातन विश्वेदेव (म. अनु. १३८. (म. उ. ७२.१६)। ३२. कुं.)। २. एक कश्यपवंशीय नाग (म. उ. १०१.१६)। । धुनि--इन्द्र से शत्रुत्व रखनेवाला एक आदिवासी धारिणी-(स्वा.) स्वधा को पितरों से उत्पन्न कन्या। प्रधान । यह एवं चुमुरि, इंद्र एवं दभीति के शत्रुपक्ष में थे यह ब्रह्मचारिणी तथा ब्रह्मनिष्ठ थी (भा. ४.१.६४)। (ऋ. २.१५.९; ६.१८.८, २०.१३, ७.१९.४; इन्द्र धार्मिक-रामचन्द्र के सुज्ञ नामक मंत्रि का पुत्र। | देखिये)। किया। Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धुंधु प्राचीन चरित्रकोश धूम्र पराशर धुंधु--एक राक्षस । यह मधुकैटभों का पुत्र, एवं | विशल्या था। उसके द्वारा अत्यंत कुअवसर पर, इसे एक 'उदकराक्षस' था (म. व. १९५.१)। देवताओं एवं | पुत्र पैदा हुआ। हिरण्याक्ष राक्षस के युद्ध में, यह हिरण्याक्ष के पक्ष में । उस पुत्र का विवाह होने पर भी, वह एक शूद्र स्त्री शामिल था (पम. सु. ६५)। से रत हुआ। बाद में उसने उस स्त्री का वध किया। उज्जालक नामक वालुकामय प्रदेश में खुद अपने | उस स्त्री के भाई ने धुंधुमूक राजा का, एवं विशल्या का को वालूका में दबा कर यह रहता था। इसकी तपस्या | वध किया। शूद्रोंद्वारा वध होने के कारण, धुंधुमूक के से संतुष्ट हो कर, ब्रह्मदेव ने इसे अवध्यत्व प्रदान | सारे घराने का नाश हुआ। किया। उस वरदान से उन्मत्त हो कर, यह सबको सताने ____पश्चात् धुंधुमूक के दुराचारी पुत्र को किसी ने 'लिंगलगा। सूर्यवंशीय कुवलाश्व राजा के पुत्रों को इसने | पूजावत' का माहात्म्य बताया । शिवपंचाक्षर मंत्र दग्ध किया। फिर उत्तंक ऋषि की प्रेरणा से कुवलाश्व ('शिवतराय') तथा शिवषडाक्षर मंत्र ('ॐ नमःने इसका वध किया (वायु. ८८; विष्णुधर्म. १.१६; | शिवाय') का अखंड जाप करने के कारण, उसका तथा ब्रह्मांड. ३.६३.३१; ब्रह्म. ७.५४.८६; विष्णु. ४.२; ह. उसके सारे मृत बांधवों का उद्धार हो गया (लिंग. २.८)। वं. १.११; भा. ९.६; कुवलाश्व देखिये)। इसे अररु का | | धुंधुर--एक दैत्य । कश्यपगृह में अवतीर्ण गणेशजी पुत्र भी कहा गया है (ब्रह्मांड. ३.६.३१)। का विनाश करने के लिये, इसने एक तोते का रूप धारण , २. एक राजा । इसने जीवन में कभी मांस नही खाया | किया, एवं यह कश्यप के घर आया। किंतु गणेशजी ने .' (म. अनु. १७७.७३. कुं.)। इस पुण्यसंचय के कारण, | इसका नाश किया (गणेश. २.८)। यह स्वर्ग गया। धुंधुली-आत्मदेव की पत्नी । एक सिद्ध ने आत्मदेव...' ३. (सो. पुरूरवस्.) मत्स्यमत में पीतायुध का पुत्र | 1| को पुत्रप्राप्ति के लिये फल दिया था। वह फल उसने , तथा वायुमत में जयद का पुत्र । अपनी पत्नी धुंधली को भक्षण करने के लिये दिया। परंतु. धुंधुकारिन् आत्मदेव का पुत्र । यह अत्यंत दुर्वर्तनी अपनी बहन की बूरी सलाह मान कर, इसने वह फल .. होने के कारण, इसका पिता आत्मदेव अरण्य में चला गाय को खिला दिया, एवं स्वयं गर्भवती होने का स्वाँग . गया (पन. उ. १९६; धुंधुली देखिये)। रचा दिया। पश्चात् अपनी बहन का पुत्र स्वयं ले कर, धुंधुमत्--(सू. दिष्ट.) विष्णुमत में केवल का पुत्र।। इसने झूटमूठ ही पति को बता दिया, मुझे पुत्र हुआ इसे बंधुमत् भी कहते थे। है ' । उस पुत्र का नाम धुंधुकारी रख दिया गया (पद्म. - धुंधुमार--सूर्यवंशी बृहदश्वपुत्र कुवलाश्व का नामांतर उ. १९६)। (म. द्रो. ९४.४२)। धुंधु दैत्य का वध करने के कारण, धूमती-अंगिराकुलोत्पन्न एक ब्रह्मर्षि । इसे यह नाम प्राप्त हुआ (म. व. १९५.२९)। ऐडविड़ धूमपा-पितरों एवं ऋषियों के एक समुदाय का राजा ने रुद्र से प्राप्त हुआ खड्ग इसे प्रदान किया (म. | नाम। ये लोग दक्ष के यज्ञ में उपस्थित थे (म. शां. शां. १६६.७६)। उसी खड्ग से इसने धुंधु का वध किया। २८४.८-९)। अगस्त्य ऋषि के कमलों की चोरी होने पर, इसने शपथ खायी थी (म. आ. १४.३ )। कई जगह, इसे कुवलाश्व धूमिनी-(सो.) पूरुवंशी अजमीढ़ राजा की पत्नी । का पुत्र भी कहा है (पझ. स. ८)। इसे दृढाश्व, घृण इसका पुत्र ऋक्ष (म. आ. ८९.२८)। (भद्राश्व), तथा कपिलाश्व नामक तीन पुत्र थे। धंधु के धूमोर्णा-यमराज की भार्या (म. अनु. २७१.११. साथ हुएँ युद्ध में, इसके एक हजार इक्कीस पुत्रों में से, | कु.)। केवल उपरोक्त तीन पुत्र बचे (वायु. ८८; म. व. १९३. २. मार्कडेय ऋषि की पत्नी (म. अनु. २४८.४. कुं.)। ५-६; १९५.३६; भा. ९.६.२३)। इसने 'वरुथिनी. धूम्र-रामसेना के गद्गद् नामक वानर का पुत्र । एकादशी का व्रत किया था । इस कारण इसे स्वर्गप्राप्ति २. एक ऋषि । यह इंद्र की सभा में विराजमान होता हुई (पन. ४८; कुवलाश्व तथा धुंधु देखिये)। | था (म. स. ७.१६*)। धुंधुमूक-एक राजा । यह मेघवाहन कल्प में तीसरे । ३. स्कंद का सैनिक (म. श. ४४.५९)। त्रेतायुग में उत्पन्न हुआ था। इसकी पत्नी का नाम । धूम्र पराशर--पराशर कुलोत्पन्न एक कुल। ३२४ Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धूम्रकेतु प्राचीन चरित्रकोश धृतराष्ट्र धूम्रकेतु-(स्वा. प्रिय.) भरत तथा पंचजनी का | एवं द्विधा स्वभाव का अंध एवं अपंग पुरुष मान पुत्र । | कर, श्रीव्यास ने 'महाभारत' में धृतराष्ट्र का २. (सू. दिष्ट.) भागवतमत में तृणबिंदु तथा अलंबुषा | चरित्रचित्रण किया है। अंध व्यक्तिओं में प्रत्यहि का पुत्र । दिखनेवाली लाचारी, परावलंबित्व एवं प्ररप्रत्येयनेय बुद्धि धूम्रकेश-कश्यप तथा दनु का पुत्र । के साथ, उसका संशयाकुल स्वभाव एवं झूटेपन, इन २. (स्वा. प्रिय.) वेनपुत्र पृथु तथा वेनकन्या अर्चि सारे स्वभावगुणों से धृतराष्ट्र का व्यक्तिमत्त्व ओतप्रोत के पाँच पुत्रों में से तीसरा (भा. ४.२२.५४)। पृथु की | भरा हुआ था। इस कारण, यद्यपि यह मूह से, 'पांडव मृत्यु के पश्चात् , उसके ज्येष्ठ पुत्र विजिताश्व ने इसे दक्षिण | एवं कौरव मेरे लिये एक सरीखे है, ऐसा कहता था, दिशा का स्वामित्त्व प्रदान किया (भा. ४.२४.२)। | फिर भी इसका प्रत्यक्ष आचरण कौरवों के प्रति सदा ३. कृशाश्व तथा दक्षकन्या अर्चि का पुत्र (भा. ६.६. | पक्षपाती ही रहता था। अपंगत्व के कारण मेरा राज्यमुख २०)। चला गया, मेरे पुत्रों का भी यही हाल न हो,' यह एक धूम्रलोचन-शुंभनिशुंभ दैत्यों का एक प्रधान ।। | ही चिंता से यह रातदिन तड़पता था । इस कारण, वृद्ध कालिका देवी ने इसका वध किया। एवं अपंग हो कर भी, इसके प्रति अनुकंपा एवं प्रेम नहीं धूम्रा-दक्ष प्रजापति की कन्या, एवं धर्म नामक वसु | प्रतीत होता है। की पत्नी । इसे धर एवं ध्रुव नामक दो पुत्र थे (म. आ. कुरुवंश का सुविख्यात राजा विचित्रवीर्य का धृतराष्ट्र ६०.१८)। 'क्षेत्रज' पुत्र था। विचित्रवीर्य राजा निपुत्रिक अवस्था में धूम्राक्ष--धूम्राश्व का नामांतर । मृत हो गया। तत्पश्चात् कुरुवंश का क्षय न हो, इस हेतु से २. रावण का प्रधान । हनुमानजी ने इसका वध किया सत्यवती की आज्ञानुसार, विचित्रवीर्य की पत्नी अंबिका (वा. रा. यु. ५२.१; म. व. २७०.१४)। के गर्भ से, व्यास ने इसे उत्पन्न किया । गर्भाधान प्रसंग में .३. (सू. दिष्ट.) भागवत मत में हेमचंद्र का पुत्र । व्यास का तेज सहन न हो कर, अंबिका ने आँखे मूंद ली । इसे धूम्राश्व नामांतर भी प्राप्त है। , इसीलिये धृतराष्ट्र जन्म से अंधा पैदा हुआ (म. आ.१. धुम्रानीक-(स्वा. प्रिय.) मेधातिथि का पुत्र । ९८)। हँस नामक गंधर्व के अंश से इसका जन्म हुआ धम्राश्व-(सू. दिष्ट.) वैशाली के सुचंद्र राजा का | था (म. आ. ६१.७-८:९९-१००% भा. ९.२२.२५) । पुत्र । इसे धूम्राक्ष भी कहते थे। धूम्रित-कश्यप एवं खशा का पुत्र । . धृतराष्ट्र का पालनपोषण तथा विद्याभ्यास भीष्म की धूर्त-प्रियव्रत राजा का प्रधान (गणेश. २.३२.१४)। खास निगरानी में हुआ (म. आ. १०२.१५-१८)। २. एक प्राचीन क्षत्रिय नरेश (म. आ. १.१७८)। जन्मतः बुद्धिवान् होने के कारण, यह शीघ्र ही वेदशास्त्रों धूर्तक--कौरव्यकुल में उत्पन्न एक नाग । जनमेजय में निष्णात हुआ । शिक्षा पूर्ण होने के बाद, भीष्म ने सुबल के तर्पसत्र में यह जल कर मारा गया (म. आ. ५२.१२)। राजा की कन्या गांधारी से इसका विवाह कर दिया (म. धृत-(सो. द्रुह्यु.) धर्म का पुत्र । धृत वा द्युत इसीके आ. १०३)। गांधारी के सिवा, इसे निम्नलिखित स्त्रियाँ ही पाठभेद है। थी:-सत्यव्रता, सत्यसेना, सुदेष्णा, सुसंहिता, तेजःश्रवा, धृतक-(सो. इ.) वायुमत में रुरूक का पुत्र । वृक सुश्रवा, निकृति, शंभुवा तथा दशार्णा (म. आ. १०४इसका पाठभेद है। | १११३ परि, पंक्ति. ५)। धृतदेवा-(सो. वृष्णि.) देवक राजा की कन्या । यह गांधारी से धृतराष्ट्र को दुर्योधनादि सौ पुत्र, तथा दुःशला वसुदेव से ब्याही गयी थी। इसे विपृष्ट नामक एक पुत्र | नामक एक कन्या हुई (म. आ. १०७.३७) । दुःशला था (भा. ९.२४)। | का विवाह सिंधुराज जयद्रथ से किया गया था (म. आ. धृतधर्मन्-प्रतर्दन देवों में से एक। १०८.१८)। इन अपत्यों के अतिरिक्त, इसे युयुत्सु नामक धृतराष्ट्र--(सो. कुरु.) दुर्योधन, दुःशासन आदि | एक दासीपुत्र भी था (म. आ. १०७.३६)। कौरवों में सौ कौरवों का जन्मांध पिता, एवं महाभारत की | दुर्योधन, दुःशासन, विकर्ण तथा चित्रसेन प्रमुख थे (म. अमर व्यक्तिरेखाओं में से एक । अशांत, शंकाकुल | आ. ९०.३२)। ३२५ Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन चरित्रकोश धृतराष्ट्र धृतराष्ट्र का भाई पाण्डु शापग्रस्त होने के कारण, वानप्रस्थाश्रम में चला गया, एवं अंधा हो कर भी धृतराष्ट्र कुरु देश का राजा बना पश्चात् पाण्डु एवं उसकी पत्नी मादी एकसाथ मर गये एवं पाण्डुपुत्र युधिष्ठिर को यौवराज्याभिषेक किया गया (म. आ. परि. १. ८०.२) । अपने पश्चात् युधिष्ठिर ही हस्तिनापुर का राजा बनेगा, एवं अपने पुत्र राज्य से वंचित होगे, इस चिंता से धृतराष्ट्र अस्वस्थ हो गया। इतने में कणीक नामक इसके अमात्य ने पांडवविनाश की राह बतानेवालया कूटनीति' का उपदेश इसे किया ( म. आ. परि. १. ८९.१.१९०१ कणिक देखिये) । उस उपदेश के अनुसार पांडवों के प्रति प्रेमभावना का दिखावा कर, उनके विनाश का षड्यंत्र रचने का काम इसने एवं इसके दुर्योधनादि पुत्रों ने शुरू किया। 6 पांडवों का नाश करने के लिये, धृतराष्ट्र ने उन्हें वारणावत नगरी में भेज दिया। उस नगरी में तयार किये 'लाक्षागृह' में, पांडवों को जला कर मार डालने का इसके पुत्र दुर्योधन का पड्यंत्र था उसीके अनुसार, पांडवों के मृत्यु कि खबर भी इसे मिल गयी (म. आ. १३७०४), पांडवों के लिये इसने मिथ्या विलाप किया (म. आ. १३७.१० ), एवं उनको 'जगी भी प्रदान की (म. आ. १३७.११ ) । पश्चात् पांडव जीवित है, यह देख कर भीष्म, द्रोण एवं विदूर के आग्रह के खातिर, पांडवों को आधा राज्य देना, धृतराष्ट्र ने बड़े ही कष्ट से मान्य किया ( म. आ. १९९.२५ ) । युधिडिर को इसने आधे राज्य का अभिषेक किया, एवं अपने भाइयों सहित खाण्डवप्रस्थ में रहने के लिये उसे कह दिया (म. आ. १९९.२६ ) । युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में भी यह उपस्थित था ( म. स. ३१.५) । 3 पांडवों को आधा राज्य मिला, यह दुर्योधन को अच्छा नहीं लगा। यूत खेल कर वह पांडयों से छीन लेने का विचार उसने किया । धृतराष्ट्र ने भी दुर्योधन के इस विचार को मूकसंमति दी । इसने विदूर के द्वारा, पांडवों कोयत के लिये आमंत्रण दिया ( म. स. ५१.२०-२१) क्रीडा में दुर्योधन ने पांडवों को जीत लिया, यह सुन कर इसे आनंद हुआ। द्रौपदीवस्त्रहरण के प्रसंग में भी, इसने दुर्योधनादि को परावृत्त नहीं किया (म. आ. ६१. ५१)। किंतु पश्चात् द्रौपदी ने विनंति करने पर, दास बने हुए पांडवों को धृतराष्ट्र ने मुक्त कर दिया ( म. स. ६३. २८-३२) । धृतराष्ट्र " । पांडवों के बनवासकाल में भी धृतराष्ट्र पांडवों के पराक्रम की वार्ताएँ सुन कर कभी संतप्त होता था (म. व. ४६ ), या कभी भयभीत होता था (म.ब. ४८.१-१०) पांडयों को फजित करने के हेतु से, इसने दुर्योधन के घोषयात्रा के प्रस्ताव को संमति दी (म.व. २३९-२२) घोषयात्रा में पांडयों ने किये पराक्रम के कारण, धृतराष्ट्र चिन्ताग्रस्त हो गया, एवं सारी रात जागता बैठा। पश्चात् इसने बिदुर को बुलवा कर, उससे कल्याण का मार्ग पूछ लिया (म. उ. २३.९-११) । विदुर ने इसे पांडवों का राज्य उन्हें वापस देने के लिये कहा। किंतु विदुर की यह सलाह धृतराष्ट्र एवं दुर्योधन दोनों को ही अप्रिय सी लगी। पांडवों का वनवासकाल समाप्त हुआ । कृष्ण ने दुर्योधन से कहा, ' राज्य का योग्य हिस्सा पांडवों को दे दो ' । वह न देने पर, युद्ध करने की धमकी भी कृष्ण ने दुर्योधन को दी। उस समय धृतराष्ट्र ने संजय द्वारा युधिष्ठिर को उपदेश किया, ' अपनी तेरह वर्ष की तपश्चर्या का नाश कर के, तुम दुर्योधन के साथ युद्ध मत करो। दुर्योधन द्वारा कुछ न मिलने पर, भिक्षा माँग पर अपना निर्वाह करो । धृतराष्ट्र के इस उपदेश से, इसकी कौरवों के प्रति पक्षपाती वृत्ति, एवं इसके स्वार्थीपन के बारे में, श्रीकृष्ण की खातरजमा हो गयी। 'कृष्ण शिपाई की. सभा में श्रीकृष्ण को कैद करने का दुर्योधन का विचार था । किंतु धृतराष्ट्र ने उसे इस विचार से परावृत्त किया म. उ. १२९ ) । पश्चात् विश्वरूपदर्शन के लिये, इसने श्रीकृष्ण से आँखों की याचना की, एवं श्रीकृष्ण के कृपा से नेत्र पा कर, यह भगवत्स्वरूप दर्शन से कृतार्थ हुआ ( म. उ. १२९.४९५* ) । 1 , ( बाद में अल्प ही कालावधि में भारतीय युद्ध छिड़ा । धृतराष्ट्र अंध होने के कारन, यह युद्ध में भाग न ले सका । युद्धप्रसंग प्रत्यक्ष देख भी न सका। युद्ध की घटनायें संजय के मुख से इसने सुनी। भीष्मद्रोणादि तथा इसी प्रकार अन्य कई वीर योद्धाओं के वध की वार्ता इसने सुनी। इसे प्रतीत होने लगा, 'कुरुकुल का क्षय होने वाला है, कृष्ण की भविष्यवाणी सत्य सिद्ध होनेवाली है'। धृतराष्ट्र दुर्योधन को कहने लगा, 'युद्ध से परावृत्त हो कर पांडवों का उचित अंश उन्हें दे दो' परंतु अब बहुत देर हो चुकी थी। दुर्योधन ने पूरी जिद ठान ली श्री धृतराष्ट्र के उपदेश का कुछ लाभ नहीं हुआ। बाद में भारतीय युद्ध में इसके दुर्योधनादि सौ पुत्र तथा काफी ३२६ Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धृतराष्ट्र प्राचीन चरित्रकोश धृतराष्ट्र रथीमहारथी मृत हो गये । कौरवसेना में केवल | सलाह पूछी। विदुर ने उचित राजनीति बताकर, युद्ध टालने अश्वत्थामा, कृपाचार्य तथा कृतवर्मा ये ही बड़े योद्धा | का उपदेश किया। यह कथाभाग उद्योग पर्वस्थित 'विदुर बचे। नीति' में काफी विस्तार के साथ दिया गया है। पूरी रात यह सुन कर धृतराष्ट्र, पुत्रशोक से विव्हल हो गया। | जाग कर, यह विदुर की सलाह लेता रहा । उस कारण, पांडवों पर यह अत्यंत क्रोधित हुआ, तथा भीम से | महाभारत के इस पर्व का नाम 'प्रजागर पर्व' रखा गया है। बदला चुकाने के लिये, इसने उसे कपट से आलिंगन के शूद्र होने के कारण, विदुर को ब्रह्मज्ञान-कथन का लिये बुलाया । परंतु इसका कपट कृष्ण ने पहचान लिया। अधिकार नहीं था। अतः उसने सनत्सुजात ऋषि के द्वारा, उसने भीम क बदले, एक लोहे की मूति धृतराष्ट्र के | धृतराष्ट्र को तत्त्वज्ञान की बाते सुनवायी । अन्त में धृतराष्ट्र सामने रखी । उस मूर्ति को क्रोध से आलिंगन दे कर, ने कहा, 'यह सब सत्य है, न्याय्य है, उचित है, किन्तु धृतराष्ट्र ने उसे चूरचूर कर दिया । अपनी फजीहत देख दुर्योधन की उपस्थिति में, मैं अपने मन को सम्हाल नहीं कर, यह अत्यंत लज्जित हुआ। बाद में लोकलज्जास्तव सकता (म. उ. ४०.२८-३०)। यह पांडवों से प्रेमपूर्ण व्यवहार करने लगा (म. स्त्री. __इतराष्ट्र के पुत्र-धृतराष्ट्र को गांधारी से कुल सौ पुत्र हुएँ । उन्हे 'कुरुवंश के इस अर्थ से 'कौरव' कहते थे। युधिष्ठिर हस्तिनापुर का राज्य करने लगा। उस समय उन सौ कौरवों की नामावलि महाभारत में ही अलग अलग धृतराष्ट्र काफी दिनों तक वहीं रहा । उस समय युधिष्ठिर | ढंग से दी गयी है। उनमें से तीन नामावलियाँ अकारादि को इसने राजनीति का उपदेश किया (म. आश्व. ९- क्रम से नीचे दी गयी हैं। इनमें प्रारंभ में दिया क्रमांक १२) । युधिष्ठिर भी धृतराष्ट्र के साथ बडे आदर से | 'पुत्रक्रम' का है :व्यवहार करता था। किंतु भीम के मर्मभेदिनी बातों से नामावलि क्र. १ :--९०. अनाधृष्य , ७६. अनु- व्यथित हो कर धृतराष्ट्र ने वन में जाने का निश्चय किया।। यायिन् , १३. अनुविंद, ५७. अनूदर, ६५. अपराजित, अपने वनगमन के समय, गांधारी, कुन्ती तथा विदुर । ८७. अभय, ४२. अयोबाहु, ८६. अलोलुप, ७३. आदित्यआदि को यह साथ ले गया था। वनभ्रमण में व्यास केतु, ८२. उग्र, ६२. उग्रश्रवस् , ६३. उग्रसेन, ५० से इसकी मुलाकात हुई । उस समय धृतराष्ट्र की प्रार्थना उग्रायुध, २२. उपचित्र, ३३. उपनंदक, ३०. ऊर्णनाभ, नुसार, व्यास ने इसके सारे मृत बांधवों का दर्शन इसे | ९७. कनकध्वज, ५२. कनकायु, २०. कर्ण, ७७. कवचिन् , कावाया। ९८. कुंडाशी, ९१. कुंडभेदिन् , ३६. कुंडोदर, ६४. क्षेमबाद में धृतराष्ट्र ने उग्र तप प्रारंभ किया । तप करते मूर्ति, २४. चारूचित्रांगद, २१. चित्र, ९९. चित्रक, ४४. समय दावाग्नि में किस कर इसकी मृत्यु हो गई (म. आश्र.४५. ३४; भा. १.१३. ५६)। मृत्यु के पश्चात्, ५८. जरासंध, ९ जलसंध, ८०. दंडधार,७९.दंडिन्पाशी, यह कुवेरलोक गया (म. आश्र, २७. ११)। ९४. दीर्घबाहु, ९३. दीर्घलोचन, ६७. दुराधर, १४. दुर्धर्ष, धृतराष्ट्र की मृत्यु के समय, उसके औरसपुत्रो में से १८. दुर्मख, २५. दुर्मद, १७. दुर्मर्षण, ६. दुर्मुख, एक भी जीवित न था। अतः इसके बाद पांडवकुल | १. दुर्योधन, ४१. दुर्विमोचन, ५. दुःशल, ३. दुःशासन, प्रारंभ हुआ। | १९. दुष्कर्ण, १६. दुष्प्रधर्षण, २६. दुष्प्रहर्ष, ४. स्वभाव-धृतराष्ट्र स्वभाव से बड़ा ही सीधा तथा दुःसह, ५५. दृढक्षत्र, ८४. दृढरथ, ५४. दृढवर्मन् , गुणों का पक्षपाती था। इसके मन में कृष्ण, विदुर आदि ५९. दृढसंध,६९. दृढहस्त, ५३. दृढायुध, ८१. धनुग्रह, के लिये बडा आदर था। किंकर्तव्यमूढ अवस्था में यह ३२. नंद, ७५. नागदन्त; ७८. निषंगिन् , ६६. विदुर से सलाह प्राप्त करता था। एक दिन, पांडवों के साथ | पंडितक, ३१. सुनाभ, ७. अपर, ४८. बंलाकिन् , युद्ध टालने के विषय में बातचीत चल रही थी। इतने में | ७४. बदाशी, ४७. भीमबल, ८३. भीमरथ, ४९. भीम पांडवों से बातचीत कर संजय वापस लौटा। दूसरे दिन । विक्रम (बलवर्धन), ४६. भीमवेग, ५१. भीमशर, ९५. राजसभा में वह पांडवों का मनोगत करनेवाला था। महाबाहु, ४३. महाबाहु, ३७. महोदर, २. युयुत्सु, ८८. धृतराष्ट्र को इस बात का पता लगने पर, यह रात भर सुख | रौद्रकर्मन् , ७१. वातवेग, २८.विकट,९.विकर्ण, १२. विंद, की नींद न सो सका। इसने विदूर को आमंत्रित कर उससे ! ९२.विराविन् , २७. विवित्सु, ८. विविंशति, ६७.विशालाक्ष, ३२७ Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धृतराष्ट्र प्राचीन चरित्रकोश धृतराष्ट्र ८४. वीर, ८५. वीरबाहु, ९६. व्यूढोरू,६०. सत्यसंघ, २९. | विरोचन, शत्रुजय, शत्रुसह, श्रुतर्वन् , श्रुतायु, श्रुतांत, सम, ६१. सहस्रवाक, ४५. सुकुंडल, १५. सुबाहु, ११. संजय, सुचारू, सुचित्र, सुजात, सुदर्शन, सुलोचन। . सुलोचन, ७२. सुवर्चस् , ४०. सुवर्मन् , ३५. सुषेण, ७०.| इनका उल्लेख द्रौपदी स्वयंवर, घोषयात्रा, उत्तरगोग्रहण सुहस्त, ३४. सेनापति, ५६. सोमकीर्ति, १००. दुःशला, | भारतीय युद्ध आदि प्रसंग में आया है (म. आ. १७७, (कन्या) तथा, १०१. युयुत्सु (वैश्यापुत्र) (म. आ. भी. ६०, ७३, ७५, ८४; द्रो. १३१; १३२; वि. ३३; ६८. परि. १ क्र. ४१.)। क. ६२; श. २५)। नामावलि क्र. २:-- ७८. अग्रयायिन् , ९१. अना- | उपरिनिर्दिष्ट नामावलियों में कुछ नाम बार बार आये धृष्य, १०. अनुविंद, ५७. अनूदर, ६७. अपराजित, | हैं। कई जगह समानार्थक दूसरे शब्द का उपयोग किया ८८. अभय, ४०.अयोबाहु, ८७. अलोलुप, ७५. आदित्य- | गया है। इन नामावलि में प्राप्त पुत्रों की कुल संख्या भी केतु, ८४. उग्र, ६३. उग्रश्रवस् , ६४. उग्रसेन (अश्व- | सौ से अधिक है। किंतु उन में से सही नाम कौन से है, उग्रसेन), ४७. उग्रायुध, २४. उपचित्र, ३५. उपनंदक, | इसका निर्णय करने का कुछ भी साधन प्राप्त नहीं है। - ३२. ऊर्णनाभ, १००.कनकध्वज, १७. कर्ण, ७९. कवचिन् , २. नागकुल का एक नाग। यह वासुकि का पुत्र था। ४९, ८२. कुंडधार, ९२. कुंडभेदिन् , ६८. कुंडशायिन् , अर्जुन के अश्वमेध यज्ञ के समय, अर्जुन एवं उसका १०१.कुंडा शिन् , ८१. कुंडिन् , ८०.क्रथन, २६.चारुचित्र, पुत्र बभ्रुवाहन में युद्ध संपन्न हुआ । उस युद्ध में, अर्जुन. २३. चित्र, ४२, ९४. चित्रकुंडल, ३६. चित्रबाण, ३७. | का सिर बभ्रुवाहन ने तोड़ दिया। फिर अर्जुन को पुन: चित्रवर्मन् , २५. चित्राक्ष, ४१. चित्रांग, ५० चित्रायुध, जीवित करने के लिये, 'मृतसंजीवक' नामक मणि की ५९. जरासंध, ६. जलसंघ, ९८. दीर्घबाहु, ९७. दीर्घ खोज़, बभ्रुवाहन ने शुरू की । वह मणि शेष नाग के पास रोमन, ७०. दुराधर, ११.दुर्धर्ष, २८. दुर्मद, १४. दुर्मर्षण, था, एवं उसके रक्षण का काम धृतराष्ट्र नाग पर सौंपा । १५. दुमुख, १. दुयाधन, २९. दुावगाह, २९. दुाव | गया था। उसने बभ्रवाहन को वह मणि देने से इन्कार मोचन, ५. दुःशल, ३. दुःशासन, ४. दुःसह, १६. दुष्कर्ण, कर दिया। ६६. दुष्पराजय, १३. दुष्प्रधर्षण, ५५. दृढक्षत्र, ९०. दृढरथाश्रय, ५४. दृढवर्मन् , ५८. दृढसंध, ७१. दृढहस्त, पश्चात् धृतराष्ट्र एवं बभ्रुवाहन का युद्ध हो कर, बभ्रु८३. धनुर्धर, ३४. नंद, ७७. नागदत्त, ५१. निषंगिन्, | वाहन ने वह मणि छीन लिया । उस मणि के कारण, ५२. पाशिन् , ९५. प्रमथ, ९६. प्रमाथिन् , ४६. बलवर्धन, | अर्जुन पुनः जीवित हो जावेगा, यह धृतराष्ट्र को अच्छा ४५. बलाकिन् , ७६. बह्वाशी, ४४. भीमबल, ८५.भीमरथ, न लगा। इसने अपने पुत्रों के द्वारा अर्जुन का सिर चुरा ४३. भीमवेग, २. युयुत्सु, ८९. रौद्रकर्मन् , ७३. वातवेग, | लिया, एवं उसे बक दाल्भ्य के आश्रम में फेंक दिया १३. विकटानन, १९. विकर्ण, ९. विंद, १०२. विरजसं, (जै. अ. ३९)। ९३. विराविन् , ३०. विवित्सु, १८. विविंशति, ६९. | ३.कश्यप एवं कद्रू से उत्पन्न एक नाग (म. आ. विशालाक्ष, ८६, वीरबाहु, ५३. वृंदारक, ९६. व्यूढोरस् , | ३१.१३)। यह वरुण की सभा में रह कर, उसकी २७. शरासन, २०. शल (शरसंध), ६०. सत्यसंध, २१. | उपासना करता था (म. स. ९.९)। नागों द्वारा पृथ्वी सत्व, ६१.सद, ७. सम, ८. सह, ३३. सुनाथ, १२. सुबाहु, के दोहन के समय, यह दोग्धा बनाया गया था (म. २२. सुलोचन, ७४. सुवर्चस् , ३८. सुवर्मन् , ६२.सुवाक, | द्रो. परि. १.८.८०६)। इसे शिवजी के रथ के ४८. सुषेण, ७२. सुहस्त, ६५. सेनानी, ५६. सोमकीर्ति, 'ईषादण्ड' में स्थान दिया गया था (म. क. ३४.७२)। एवं १०३. दुःशला (कन्या)(म.आ. १०७.२-१४)। बलराम के शरीरत्याग के समय, उस 'भगवान् अनंतनाग' ___ नामावलि क्र.३--अनाधृष्टि, अयोभुज, अलंबु, उपनद, के स्वागत के लिये, यह प्रभासक्षेत्र के समुद्र में उपस्थित करकाय. कंडक. कंडभेदिन, कंडलिन. काथ, खजिन हुआ था (म. मौ. ५.१४ )। चित्रदर्शन, चित्रसेन, चित्रोपचित्र, जयत्सेन, जैत्र, तुहुंड, ४. एक देवगंधर्व । यह कश्यप एवं मुनि का पुत्र था दीप्तलोचन, दीर्घनेत्र, दुर्जय, दुर्धर, दुर्धर्षण, दुर्विषह, (म. आ. ५९.४१)। यह अर्जुन के जन्मोत्सव में उपस्थित दुष्प्रधर्ष, दृढ, नंदक, पंडित, बाहुशालिन् , भीम, भीम- | था (म. आ. ११४.४४)। देवराज इन्द्र ने इसे दूत के गरत, भूरिबल, मकरध्वज, रवि. वायवेग, विराज, | नाते मरुत्त के पास भेजा था (म. आश्व. १०.२-८)। ३२८ Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धृतराष्ट्र प्राचीन चरित्रकोश धृति यही देवगंधर्व भूतल पर धृतराष्ट्र राजा के रूप में उत्पन्न | पांडवों के अश्वमेध यज्ञ के समय. अर्जन ने त्रिगर्त हुआ था (म. स्व. ४.१२)। देश पर हमला किया। तत्पश्चात् संपन्न हुए युद्ध में, • ५. जनमेजय पारिक्षित (प्रथम) राजा का पुत्र, एवं त्रिगत देश का राजा सूर्यवर्मा पराजित हुआ, एवं उसका भरतवंशी पूरु राजा का पौत्र (म. आ. ८९.४९)। जन- भाई केतुवर्मा मारा गया। उस अवसर पर, सूर्यवर्मा मेजय के पश्चात् यह राजगद्दी पर बैठा । ये कुल आठ एवं केतुवर्मा का भाई धृतवर्मा, अर्जुन के साथ युद्ध भाई थे। उनके नामः- पांडु, बाहीक, निषध, जांबूनद, करने के लिये स्वयं आगे वढा । इसने अर्जुन पर बाणों कुंडोदर, पदाति, एवं वसाति । इसे 'कुण्डिक' आदि की वर्षा की । इसके तेजस्वी बाण से अर्जुन के हाथ में पुत्र थे (म. आ. ८९.४९-५०)। उनके नामः- गहरी चोट लगी, एवं गाण्डीव धनुष उसके हाथ से गिर कुण्डिक, हस्तिन् , वितर्क, नाथ, कुण्डुल, हविःश्रवस् , गया । पश्चात् रोष से भरे हुए अर्जुन ने धृतवर्मा पर बाणों इंद्राभ, सुमन्यु, अपराजित । की वर्षा की । धृतवर्मा को बचाने के लिये त्रिगर्त योद्धाओं ६. कश्यप एवं दनु का पुत्र । । ने अर्जुन पर एकसाथ हमला किया। किंतु अर्जुन ने ७. पाथुश्रवस का नामांतर (जै. उ. ब्रा. ४. २६. अठारह त्रैगर्त वीरों को मार कर, युद्ध में विजय संपादन १५; पार्थश्रवस देखिये)। किया । पश्चात् धृतवर्मा आदि सारे त्रिगर्त, दास बन कर धृतराष्ट्र ऐरावंत--एक सर्पदैत्य । धृतराष्ट्र इसका | अर्जुन की शरण में आये (म. आश्व. ७३.१६-२८)। नाम हो कर, ऐरावत (इरावत् का वंशज) इसका पैतृक धृतवत--स्वायंभुव मन्वन्तर के अर्थवण ऋषि का नाम था (अथर्व. ८.१०.२९, पं. ब्रा. २५.१५.३)। चित्ति नामक भार्या से उत्पन्न पत्र। सर्पसत्र में यह 'ब्रह्मा' था। ___२. चक्षुर्मनु का नड्वला से उत्पन्न पुत्र । 'धृतराष्ट्र पांचाल-एक राजा । बक दाल्भ्य ऋषि ने ३. (सो. अनु.) धृति राजा का पुत्र । इसका पुत्र इसका गर्वहरण किया था (बक दाल्भ्य देखिये)। । धृतराष्ट्र पाथुश्रवस-एक आचार्य (जै. उ. वा. | | सुकर्मा । ४. अंगिरा ऋषि के पुत्रों के लिये प्रयुक्त सामुहिक ४. २६.१५)। नाम (म.आ.६०.५)। ..धृतराष्ट्र वैचित्रवीर्य-काशी का राजा (श. ब्रा. १३. ५. ४. २२)। इसने किये अश्वमेध यज्ञ के धृतसेन--दुर्योधन के पक्ष का एक राजा (म. श. दिग्विजय के समय, शतानीक सत्राजित ने इसका पराजय किया, एवं इसके अश्वमेध का घोडा चरा लिया। धृति-दक्ष प्रजापति की कन्या, एवं धर्म की पत्नी शतानीक सत्राजित पांचाल देश का राजा था (क. सं. (म. आ.६०.१४; धर्म देखिये)। नकुल तथा सहदेव -- १०. ६; श. ब्रा. १३. ५. ४. १८-२३)। उससे | की माता माद्री इसाका अवतार | की माता माद्री इसीका अवतार मानी जाती है (म. ज्ञात होत है कि, धृतराष्ट्र वैचित्रवीर्य का राज्य कुरुपांचाल | आ. ६१.९८ )। से कुछ अलग, एवं उससे कही दूर बसा हुआ था। २. सावर्णि मनु का पुत्र (मनु देखिये)। ___ 'वैचित्रवीर्य' यह इसका पैतृक नाम था । उसका ३. (सो. अनु.) भागवत तथा विष्णुमत में विजय अर्थ 'विचित्रवीर्य का वंशज' ऐसा प्रतीत होता है। का पुत्र। बक दाल्भ्य नामक पांचाल देश में रहनेवाले ऋषि से | ४. (सू. निमि.) विदेह देश का राजा। यह वीतहव्य इसका संवाद हुआ था (क. सं. १०.६)। जनक का पुत्र था। कुरुपौरव राजा विचित्रवीर्य एवं कृष्ण धृतराष्ट्रिका--धृतराष्ट्री देखिये। द्वैपायन व्यास ये दोनों इसके समकालीन थे। इसका पुत्र धृतराष्ट्री--ताम्रा की कन्या, एवं गरुड की पत्नी । | बहुलाश्व । इसने सभी प्रकारों के हंस, कलहंस, तथा चक्रवाकों को | ५. (सो. कुकुर.) वायुमत में आहुक का पुत्र । जन्म दिया था (म. आ. ६०.५६)।। ६. ब्रह्मधाना का पुत्र। धृतवर्मन्--त्रिगर्तराज सूर्यवर्मन् एवं केतुवर्मन् का ७. सृष्टि तथा छाया का पुत्र । भाई (म. आश्व. ७४. २२)। कौरवों के पक्ष का यह ८. सुतप देवों में से एक। अत्यंत पराक्रमी महारथि था । ९.सुधामन् देवों में से एक । प्रा. च. ४२] ३२९ Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धृति प्राचीन चरित्रकोश धृष्टकेतु १०. (सो. कुकुर.) मत्स्यमत में वृष्णि का, तथा पद्म- | वे वैश्य बन गये (गरुड. १.१३८.१५)। धृष्टक लोगों के मत में वृष्टि का पुत्र (पद्म. सु. १३)। लिये 'धार्टक' नामांतर भी प्राप्त है। ११. (सो. वसु.) सारण राजा का पुत्र, एवं कृष्ण | २. हिरण्यकशिपु की सभा का एक दैत्य (भा. ७.२. तथा रोहिणी का पौत्र। सारण को सत्य एवं धृति नामक | १८)। दो पुत्र थे । इसके नाम का 'सत्यधृति' पाठभेद भी ३. (सो. सह.) मत्स्यमत में सहस्रार्जुन का पुत्र । प्राप्त है (विष्णु. ४.१५.४)। ४. (सो. क्रोष्टु.) एक यादव राजा । वायु तथा मत्स्य १२. (सो. कोष्ट.) विष्णुमत में रोमपादपुत्र बभ्रु का | मत में यद ति राजा का पत्र था। धधि तथा अप्णि इसी पुत्र (ज्ञाति देखिये)। के नामांतर हैं। १३. (सू. निमि.) महाधृति का नामांतर । ५. (सो. कुकुर.) विष्णुमत में कुकर राजा का पुत्र । १४. कुशद्वीप का राजा एवं ज्योतिष्मत् का पुत्र। | इसे वह्नि, वृष्टि तथा वृष्णि भी कहा गया है। इसका देश इसीके नाम से प्रसिद्ध था (विष्णु. २.४)। धृष्टकेतु--(सो. ऋक्ष.) चेदिराज शिशुपाल का पुत्र, १५. मनु नामक रुद्र की पत्नी। एवं एक पराक्रमी पांडवपक्षीय राजा । हिरण्यकशिपु का १६. एक सनातन विश्वेदेव। पुत्र अनुहाद के अंश से यह उत्पन्न हुआ था (म. धृतिमत्--रैवत मनु का पुत्र । आ. ६१. ७)। यह एवं इसके पुत्र अत्यंत शूर थे २. सुदरिद्र ब्राह्मण का पुत्र (पितृवर्तिन् देखिये)। | (म. उ. १६८.८)। इसके साथ रण में युद्ध करने की ३. (सो. पुरूरवस्.) मत्स्य तथा पनमत में पुरूरवा किसी की हिम्मत न होती थी (म. उ. ७८.१४)। को उर्वशी से उत्पन्न पुत्रों में से एक (पन. स. १२)। भीम के द्वारा शिशुपाल का वध होने पर, धृष्टकेतुं ४. (सो. द्विमीढ़.) द्विमीढ राजवंश के यवीनर राजा | को चेदि देश के राजसिंहासन पर अभिषिक्त किया गया का पुत्र । भागवत में इसे 'कृतिमत् ' कहा गया है। (म. स. ४२. ३१)। यह पहले से ही पांडवों का ५. (सू. निमि.) एक राजा । वायुमत में यह पक्षपाती एवं मित्र था। पांडवों के वनवास में, यह उन्हें महावीर्य जनक का पुत्र था। सत्यधृति एवं सुधति इसी के मिलने के लिये गया था (म. व. १३. २)। . नामांतर है। धृतिमत् अंगिरस्-एक अग्नि । यह भानु का पुत्र ___ भारतीय युद्ध शुरू होते ही, पांडवों की ओर से था, एवं इसका गोत्र अंगिरस था (म. व. २११.१३)। धृष्टकेतु को रणनिमंत्रण दिया गया (म. उ. ४. ८)। इसके लिये दर्श तथा पौर्णमास याग में 'हविष्य 'समर्पण | | एक अक्षौहणी सेना के साथ, यह पांडवों के पक्ष में किया जाता है । विष्णु इसीका नामांतर है। शामिल हुआ (म. उ. १९. ७)। इसके पास कांबोज धृष्ट--वैवस्वत मनु के नौ पुत्रों में से एक (भा. ८. देश के सफेद-काले रंग के अत्युत्कृष्ट अश्व थे । वे भी इसने युद्ध के लिये लाये थे (म. द्रो. २२. १६)। १. १२)। हरिवंश, लिंग, एवं शिवपुराणों में इसे धृष्णु कहा गया है (ह. वं. १.१०.१)। महाभारत पांडवों के सात सेनापतियों में से एक के पद पर, इसे (भांडारकर इन्स्टिटयूट संहिता) में भी 'धृष्णु' पाठ | नियुक्त किया गया था (म. उ. १५४. १०-११)। प्राप्त है (म. आ. ७०.१३)। अर्जुन के रथ का चक्ररक्षण का काम इस पर सौंपा गया इसे धृष्टकेतु, स्वधर्मन् एवं रणधृष्ट नामक तीन पुत्र थे | था। वह कार्य भी इसने उत्कृष्ट तरह से निभाया (म. (मत्स्य. १२.२०-२१, पन. स. ८; लिंग. १.६६.४६)। भी. १९. १८)। उन पुत्रों से 'धृष्टक' नामक मानवज्ञातियाँ निर्माण हुई। भारतीय युद्ध में, इसने निम्नलिखित प्रतिपक्षीय वीरों 'धृष्टक' ज्ञाति के लोग क्षत्रिय थे, एवं बालीक देश | से युद्ध कर के पराक्रम दिखाया था:-(१) बाह्रीक (आधुनिक पंजाब प्रांत में स्थित वाल्हीक प्रदेश ) में रहते थे | (म. भी. ४३. ३५-३६); (२) भूरिश्रवा (म. भी. (पागि. मार्क. पृ. ३११; शिव. ७.६०.२०; वायु. ८८. | ३८०. ३५-३७); (३) पौरव (म. भी. ११२. १३४-५, ब्रहा. ७.२५, विष्णु. ४.२.२ )। धृष्टक लोग पहले | २४): (४) कृपाचार्य (म. द्रो. १३. ३१-३२); क्षत्रिय थे, किंतु तपःसामर्थ्य से ब्राह्मण बन गये, ऐसा भी | (५) अंबष्ठ (म. द्रो. २४. ४७-४८); (६) वीरनिर्देश प्राप्त है (भा. ९.२.१७)। गरुड पुराण के मत में | धन्वन (म. द्रो. ८१. ९-१०)। . ३३० Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धृष्टकेतु प्राचीन चरित्रकोश धृष्टद्युम्न एक बार यह तथा केकय देश का राजा बृहत्क्षत्र ६. (सू.) एक राजा । वायु, मत्स्य तथा पनमत में यह द्रोणाचार्य पर आक्रमण कर रहे थे। उस वक्त, त्रिगर्तराज | धृष्ट का पुत्र, एवं वैवस्वत मनु का पौत्र था (पद्म. स.८)। वीरधन्वन ने इन्हे रोकने की कोशिश की । फिर धृष्टकेतु | ७. नृग का पुत्र (लिंग. १.६६.४६)। एवं वीरधन्वन् इन वीरों में भयंकर युद्ध हुआ। वीर भयकर युद्ध हुआ। वार- धृष्टद्युम्न-(सो. अज) पांचालराज द्रुपद का अग्निधन्वन् ने एक बाण छोड़ कर, इसका धनुष तोड़ दिया। तुल्य तेजस्वी पुत्र । यह पृषत् अथवा जंतु राजा का नाती, फिर अपना तूटा हुआ धनुष फेंक, इसने सुवर्ण की | एवं द्रपद राजा का पुत्र था । द्रोणाचार्य का विनाश करने मूटवाली एक महावीर्यशाली फौलादी शक्ति दोनों हाथों के लिये, प्रज्वलित अग्निकुंड से इसका प्रादुर्भाव हुआ में पकंड ली, एवं बराबर लक्ष्य वेध कर वह वीरधन्वन् | था। फिर उसी वेदी में से द्रौपदी प्रकट हुई थी। अतः इन के रथ पर फेंक दी । उस शक्ति के भयंकर प्रहार से दोनों को 'अयोनिसंभव,' एवं इसे द्रौपदी का 'अग्रज वीरधन्वन् का सीना विदीर्ण हो गया, एवं वह तत्काल | बंध' कहा जाता है (म. आ. ५७.९१)। अग्नि के अंश मृत हो गया (म. द्रो. ८२. ९-१७)। | से इसका जन्म हुआ था (म. आ. ६१.८७)। इसे पश्चात् द्रोण से लड़ते-लड़ते, इसका मित्र केकयराज | 'याज्ञसे नि', अथवा 'यज्ञसेनसुत' भी कहते थे। बृहन्क्षत्र मृत हो गया। फिर इसने अपने सारथी को द्रोण से बदला लेने के लिये, द्रुपद ने याज एवं उपयाज अपना रथ द्रोण के रथ की ओर बढ़ाने को कहा । पतंग | नामक मुनियों के द्वारा एक यज्ञ करवाया । उस यज्ञ के जिस प्रकार अग्नि ज्योति पर झपटता है, उस प्रकार इसने | 'हविष्य' सिद्ध होते ही, याज ने द्रुपद की रानी द्रोण पर आक्रमण किया। किंतु इसके सीने पर एक तीक्ष्ण | सौत्रामणी को, उसका ग्रहण करने के लिये बुलाया। बाण मार कर द्रोण ने इसका वध किया (म. द्रो. महारानी के आने में जरा देर हुई। फिर याज ने क्रोध १०१.२२-३८)। . से कहा, 'रानी! इस हविष्य को याज ने तयार किया है, मृत्यु के पश्चात. यह स्वर्गलोक में जा कर विश्वेदेवों में | एवं उपयाज ने उसका संस्कार किया है। इस कारण इससे विलीन हो गया (म. स्व. ५.१३-१५ ) । व्यासजी ने | संतान की उत्पत्ति अनिवार्य है । तुम इसे लेने आवो, या आवाहन करने पर, परलोकवासी कौरवपांडव वीरों के न आओ'। इतना कह कर, याज ने उस हविष्य की अग्नि साथ, यह भी गंगाजल से प्रगट हुआ था (म. आश्र. | में आहुति दी। फिर उस प्रज्वलित अग्नि से, यह एक ४०.११)। तेजस्वी वीरपुरुष के रूप में प्रकट हुआ (म. आ. १५५. ३७-४०)। इसके अंगों की कांति अग्निज्वाला के इसे करेणुमती नामक एक बहन, एवं रेणुमती नामक समान तेजस्वी थी। इसके मस्तक पर किरीट, अंगों में एक कन्या थी। उनमें से रेणुमती नकुल से ब्याही गयी उत्तम कवच, एवं हाथों में खड्ग, बाण एवं धनुष थे। 'थी-(म. आ..९०.८६ )। वीतहोत्र नामक एक पुत्र भी इसे था (गरुड. १.१३९)। अग्नि से बाहर आते ही, यह गर्जना करता हुआ एक रथ पर जा चढ़ा, मानो कही युद्ध के लिये जा रहा २. (सू. निमि.) विष्णुमत में सत्यधृति का पुत्र । हो (म. आ. १५५.४०)। उसी समय, आकाशवाणी भागवत तथा वायुमत में यह सुधृति का पुत्र था। हुई, 'यह कुमार पांचालों का दुःख दूर करेगा । द्रोणवध ३. (सो. काश्य.) भागवतमत में सत्यकेतु का एवं | के लिये इसका अवतार हुआ है (म. आ. १५५.४४ )। लि विष्णु तथा वायुमत में सुकुमार का पुत्र (गरुड. १.१३९)। यह आकाशवाणी सुन कर, उपस्थित पांचालो को बड़ी ४. (सो. अज.) भागवत, विष्णु तथा वायुमत में | प्रसन्नता हुई। वे 'साधु, साधु' कह कर, इसे शाबाशी धृष्टद्युम्न का पुत्र । यह भारतीय युद्ध में पांडवों के पक्ष में | | देने लगे। था । द्रोण ने इसका वध किया। इसकी मृत्यु से पांचाल | द्रौपदी स्वयंवर के समय, 'मस्त्यवेध' के प्रण की घोषणा वंश समाप्त हुआ (म. द्रो. १३०.१२)। द्रुपद ने धृष्टद्युम्न के द्वारा ही करवायी थी (म. आ. ५. केकय देश का राजा । इसकी स्त्री श्रुतकीर्ति । इसे | १७६-१७९)। स्वयंवर के लिये, पांडव ब्राह्मणों के वेश संतर्दन (विष्णु. ४.१४; भा. ९.२४.३८), चेकितान, | में आये थे। अर्जुन द्वारा द्रौपदी जीति जाने पर, 'एक बृहत्क्षत्र, विंद तथा अनुविंद (वायु. ९६.१५६) नामक | ब्राह्मण ने क्षत्रियकन्या को जीत लिया', यह बात सारे पाँच पुत्र थे। राजमंडल में फैल गयी। सारा क्षत्रिय राजमंडल क्रुद्ध हो ३३१ Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धृष्टद्युम्न प्राचीन चरित्रकोश धौंधुमारि गया। बात युद्ध तक आ गयी। फिर इसने गुप्तरूप से | ६२,१३०.१२), एवं द्रुपद के पांचाल राजकुल का निर्देश पांडवों के व्यवहार का निरीक्षण किया (म. आ. १७९), हो गया (म. द्रो. १५६; धृष्टकेतु देखिये)। एवं सारे राजाओं को विश्वास दिलाया 'ब्राह्मण रूपधारी | धृष्टबुद्धि-भद्रावती का वैश्य । वैशाख शुक्ल एकादशी व्यक्तियाँ पांडव राजपुत्र ही है' (म. आ. १८४)। का व्रत आचरने के कारण, यह मुक्त हुआ (पद्म. उ. धृष्टद्युम्न अत्यंत पराक्रमी था। इसे द्रोणाचार्य ने ४९)। धनुर्विद्या सिखाई । भारतीय युद्ध में यह पांडवपक्ष में था। धृष्टसुत-(सो. क्रोष्टु.) धृष्ट का नामांतर । वायुमत प्रथम यह पांडवों की सेना में एक अतिरथी था। इसकी में यह कृति राजा का पुत्र था। धृष्ट राजा के लिये युद्धचपलता देख कर, युधिष्ठिर ने इसे कृष्ण की सलाह से | 'धष्टसुत' यह पाठ गलत मालूम पडता है। संभवतः सेनापति बना दिया (म. उ. १४९.५४१) | धृष्ट नामक सुत' की जगह धृष्ट का पुत्र ('धृष्टसुत') युद्धप्रसंग में धृष्टद्युम्न ने बड़े ही कौशल्य से अपना उत्तर- | असावधानी से लिखा गया होगा (धृष्ट ४. देखिये)। दायित्व सम्हाला था । द्रोण सेनापति था, तब भीम ने | धृष्टि-दशरथ का प्रधान (वा. रा. अयो. ७)। अश्वत्थामा नामक हाथी को मार कर, किंवदंती फैला दी कि, २. (सो. क्रोष्टु.) भागवत मत में कुंति राजा का . 'अश्वत्थामा मृत हो गया। तब पुत्रवध की वार्ता सत्य | पुत्र । इसका पुत्र विदूरथ था (धृष्ट ४. देखिये)। मान कर, उद्विग्न मन से द्रोणाचार्य ने शस्त्रसंन्यास किया। धृष्णि-अंगिरस एवं पथ्या का पुत्र । इसका पुत्र तब अच्छा अवसर पा कर, धृष्टद्युम्न ने द्रोण का शिरच्छेद | सुधन्वा (ब्रह्मांड. ३. १)। किया (म. द्रो. १६४; १६५.४७)। धृष्णु-एक कवि । यह वारुणि कवि के पुत्रों में से एक. धृष्टद्युम्न ने द्रोणाचार्य की असहाय स्थिति में उसका | था। यह ब्रह्मज्ञानी एवं शुभलक्षणी था (म.अ. ८५.११३)। वध किया। यह देख कर सात्यकि ने धृष्टद्युम्न की बहुत | २. यादव राजा धृष्ट का नामांतर (धृष्ट ४. देखिये)। भर्त्सना की। तब दोनों में युद्ध छिड़ने की स्थिति आ गयी। | ___३. वैवस्वत मनु का द्वितीय पुत्र (म. आ. ६९. परंतु कृष्ण ने वह प्रसंग टाल दिया। १८; ह. वं. १. १०.१, २९)।'धार्टिक' नामक आगे चल कर, युद्ध की अठारहवे दिन, द्रोणपुत्र | क्षत्रिय वंश इसीसे उत्पन्न हुआ। अश्वत्थामन् ने अपने पिता के वध का बदला लेने के लिये, | धेना--बृहस्पति की पत्नी । कौरवसेना का सैनापत्य स्वीकार किया। उसी रात को, धेनुक-एक असुर । यह तालवन में निवास त्वेष एवं क्रोध के कारण पागलसा हो कर, वह पांडवों के करता था, एवं गधे का रूप धारण कर रहता था। शिबिर में सर्वसंहार के हेतु घुस गया। सर्वप्रथम अपने जो लोग वन में फल लेने आते थे, उन्हें यह मार पिता के खूनी धृष्टद्युम्न के निवास में वह गया। उस डालता था। एक समय कई ग्वालबाल अपनी गायें । समय यह सो रहा था । अश्वत्थामन् ने इसे लत्ताप्रकार चराते हुएँ तालवन के पास गये । फलों की सुगंध के कर के जागृत किया। फिर धृष्टद्युम्न शस्त्रप्रहार से मृत्यु कारण, सबके मन में उन फलों को खाने की इच्छा हुई। स्वीकारने के लिये तयार हुआ। किंतु अश्वत्थामन् ने फिर बलराम ने वहाँ के फल चुराये । इतने में वन का कहा, 'मेरे पिता को निःशस्त्र अवस्था में तुमने मारा हैं। | रक्षक धेनुक, गधे का रूप धारण कर बलराम पर झपटा । इसलिये शस्त्र से मरने के लायक तुम नहीं हो'। किंतु बलराम नें इसे पटक कर, इसका वध किया (भा. __ पश्चात् अश्वत्थामन् ने इसे लाथ एवं मुक्के से कुचल | १०.१२)। कर, इसका वध किया (म. सौ. ८.२६)। बाद में | धेनुमती--(स्वा. प्रिय.) देवद्युम्न राजा की स्त्री। उसने पांडवकुल का ही पूरा संहार किया। केवल पांडव इसका पुत्र परमेष्ठिन् (भा. ५. १५.३)। ही उसमें से बच गये (म. सौ. ८.१७-२४)। यह | धौतमूलक-चीन देश का राजा । इसने अपनी घटना पौष वद्य अमावस को हुई (भारतसावित्री)। मूर्खता के कारण, अपना एवं अपने कुल का नाश कर धृष्टद्युम्न के कुल पाँच पुत्र थे । उनके नामः--क्षत्रंजय, | लिया (म. उ. ७२. १४)। क्षत्रवर्मन् , क्षत्रधर्मन् , क्षत्रदेव, एवं धृष्टकेतु । ये सारे धौंधुमारि--धुंधुमार कुवलाश्व राजा के पुत्रों का धृष्टद्यानपुत्र द्रोण के हाथों मारे गये (म. द्रो. १०१. | पैतृक नाम । ३३२ Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धौम्य प्राचीन चरित्रकोश धौम्य धौम्य-देवल ऋषि का कनिष्ठ भ्राता, एवं पांडवों का | वह बोला, 'आप वन में न आयें । मैं भला वहाँ युरोहित । यह अपोद ऋषि का पुत्र था, एवं गंगानदी के आप को क्या दे सकता हूँ ? ' फिर धौम्य ने युधिष्ठिर को तट पर, उत्कोचक तीर्थ में इसका आश्रम था (म. आ. | सूर्योपासना के लिये प्रेरणा दी (म. व. ३.४-१२), एवं १७४.६ )। इसके पिता ने अन्नग्रहण वर्ण्य कर, केवल | उसे सूर्य के 'अष्टोत्तरशत' नामों का वर्णन भी बताया पानी पी कर ही सारा जीवन व्यतीत किया। उस कारण, (म. व. ३.१७-२९)। धौम्य ने युधिष्ठिर से कहा, 'हे उसे 'अपोद' नाम प्राप्त हुआ। अपोद ऋषि का पुत्र | राजन् , तुम घबराओ नहीं । तुम सूर्य का अनुष्ठान करो। होने के कारण, धौम्य को 'आपोद' यह पैतृक नाम प्राप्त | सूर्य प्रसन्न हो कर, तुम्हारी चिन्ता दूर करेगा। हुआ (म. आ. ३.१९)। इसे 'अग्निवेश्य' भी कहते धौम्य के कथनानुसार युधिष्ठिर ने सूर्य की स्तुति की। थे (म. आश्व. ६३.९)। उससे प्रसन्न हो कर, सूर्यनारायण ने उसे 'अक्षयपात्र' चित्ररथ गंधर्व की मध्यस्थता के कारण, धौम्य ऋषि प्रदान किया, एवं कहा, 'यह पात्र तुम द्रौपदी के पास दे दो । उससे वनवास में तुम्हे अन्न की कमी कभी भी अर्जन अपने भाईयों के साथ द्रौपदी स्वयंवर के लिये जा | महसूस नहीं होगी। फिर धर्म ने वह पात्र द्रौपदी के पास रहा था। उस वक्त, मार्ग में उसे चित्ररथ गंधर्व मिला। | दे दिया (म. व. ४; द्रौपदी देखिये)। उसने अर्जुन से कहा, 'पुरोहित के सिवा राजा ने कहीं पांडवों के वनवासगमन के बाद, अर्जुन अस्त्रप्राप्ति के भी नहीं जाना चाहिये । देवल मुनि का छोटा भाई धौम्य | हेतु इन्द्रलोक चला गया। अर्जुन के जाने से युधिष्ठिर उत्कोचक तीर्थ पर तपश्चर्या कर रहा है । उसे तुम अपना | अत्यंत चिंताग्रस्त हो गया। फिर धौम्य ने उसे भिन्नपुरोहित बना लो'। फिर अर्जुन ने धौम्य से प्रार्थना | | भिन्न तीर्थो, देशों, पर्वतों, एवं प्रदेशों के वर्णन कर, उसे अपना पुरोहित बना लिया. (म. आ. १७४. | बताये, एवं कहा, 'तुम तीर्थयात्रा करो' । उससे तुम्हारे, अंतःकरण को शांति मिलेगी' (म. व. ८४-८८)। • पांडवों का पौरोहित्य स्वीकारने के बाद, धौम्य ऋषि वनवास में जयद्रथ राजा ने द्रौपदी का अपहरण करने पांडवों के परिवार में रहने लगा (म. स. २.७ ) । पांडवों | का प्रयत्न किया। उस वक्त धौम्य ने जयद्रथ को फटकारा, के घर के सारे धर्मकृत्य भी, इसी के हाथों से होने | एवं द्रौपदी की रक्षा करने का प्रयत्न किया (म. व. २५२. लगे। पांडव एवं द्रौपदी का विवाह तय होने पर, उनका | २५-२६)। * विवाहकार्य इसीने संपन्न किया । उस कार्य के लिये, इसने पांडवों के वनवास के बारह वर्ष के काल में, धौम्य वेदी पर प्रज्वलित अग्नि की स्थापना कर के, उस में ऋषि अखंड उनके साथ ही था। पांडवों के अमिहोत्र'मंत्रों द्वारा आहुति दी, एवं युधिष्ठिर तथा द्रौपदी का गठ- रक्षण की जिम्मावारी धौम्य ऋषि पर थी। वह इसने बंधन कर दिया। पश्चात् उन दोनों का पाणिग्रहण करा | अच्छी तरह से निभायी (म. व. ५. १३९)। वनवास कर, उनसे अग्नि की परिक्रमा करवायी, एवं अन्य समाप्त हो कर अज्ञातवास प्रारंभ होने पर, युधिष्ठिर ने शास्त्रोक्त विधियों का अनुष्ठान करवाया। इसी प्रकार | बडे ही दुख से धौम्य से कहा, 'अज्ञातवास के काल में क्रमशः सभी पांडवों का विवाह इसने द्रौपदी के साथ | हम आपके साथ न रह सकेंगे । इसलिये हमें बिदा कराया (म. आ. १९०.१०-१२)। कीजिये। पांडवों के सारे पुत्रों के उपनयनादि संस्कार | उस समय धौम्य ने युधिष्ठिर को अत्यंत मौल्यवान् धौम्य ने ही कराये थे (म, आदि. २२०.८७)। | उपदेश किया, एवं युधिष्ठिर की सांत्वना की । धौम्य ने युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में धौम्य ' होता' बना था (म. | कहा, 'भाग्यचक्र की उलटी तेढी गती से देव भी बच स. ३०.३५)। युधिष्ठिर को 'अर्धराज्याभिषेक' भी । न सके, फिर पांडव तो मानव ही है' । अज्ञातवास काल धौम्य ने ही किया था (म. स. ४९.१०)। में विराट के राजदरबार में किस तरह रहना चाहिये, - पांडवों के वनगमन के समय, महर्षि धौम्य हाथ में | इसका भी बहुमूल्य उपदेश धौम्य ने युधिष्ठिर को किया कुश ले कर, यमसाम एवं रुद्रसाम का गान करता हुआ, . (म. वि. ४.६-४३)। फिर पांडवों के अग्निहोत्र का अग्नि वनगमन के लिये उद्युक्त हुआ (म. स. ७१.७)। इसे | को प्रज्वलित कर, धौम्य ने उनकी समृद्धि, वृद्धि. उस अवस्था में देख कर, युधिष्ठिर को अत्यंत दुख हुआ। राज्यलाभ तथा भूलोक-विजय के लिये, वेदमंत्र पढ़ कर Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धौम्य हवन किया । जब पांडव अज्ञातवास के लिये, चले गये, तब उनका अग्रिहोत्र का अनि साथ लेकर चौग्य पांचाल देश चला गया ( म. वि. ४. ५४–५७ ) । भारतीय युद्ध में, भीष्म निर्याण के समय, धौम्य ऋषि युधिष्ठिर के साथ उसे मिलने गया था। युद्ध समाप्त होने पर, श्रीकृष्ण ने पांडवों से विदा ली। उस समय भी धौम्य उपस्थित था (भा. १. ९ ) । भारतीय युद्ध में मारे गये पांडवपक्ष के संबंधी जनों का दाहकर्म धौम्य ने ही किया था (म. स्त्री. २६.२७ ) । । प्राचीन चरित्रकोश युधिष्ठिर राजगद्दी पर बैठने के पश्चात्, उसने धौम्य की धार्मिक कार्यों के लिये नियुक्ति की (म. शां. ४१. १४ ) । धृतराष्ट्र, गांधारी एवं कुंती वन में जाने के बाद, एक बार युधिष्ठिर युयुत्सु के साथ उन्हे मिलने गया । उस वक्त हस्तिनापुर की व्यवस्था युधिष्ठिर ने धौम्य पर सौंपी थी (म. आश्र. ३०. १५) । धौम्य ने धर्म का रहस्य युधिष्ठिर को बताया था ( म. अनु. १९९ ) । धर्मरहस्य वर्णन करते समय, धौम्य कहता है, 'टूडे हुएँ भर्तन, टूटी खाटें, मुर्गियाँ, कुत्ते आदि को घर में रखना, एवं घर में वृक्ष लगाना अप्रशस्त है। फूटे बर्तनों में कलि वास करता है, टूटी खाट में दुर्दशा रहती है, तथा वृक्षों के आसपास केतु रहते हैं। इसलिये उन सब से बचना चाहिये' धौम्य ने सौम्यस्मृति नामक एक ग्रंथ की रचना भी की थी ( C. C. )। 6 भय ध्रुक - ( शुंग. भविष्य. ) वायु मत में वसुमित्र राजा का पुत्र इसे अंतक, आर्द्रक, भद्र, एवं भद्रक नामांतर भी प्राप्त थे । एक बार उत्तानपाद राजा की गोद में, सुरुचि का पुत्र उत्तम खेल रहा था। यह देख, ध्रुव को भी पिता की गोद में खेलने की इच्छा हुई। अतः वह अपने पिता के गोड़ पर चढ़ने लगा। किंतु राजा ने ध्रुव के तरफ देखा तक नही । ध्रुव की सौतेली माता सुरुचि ने ध्रुव का हाथ पकड कर कहा 'ईश्वर की आराधना कर के तुम मेरे उदर से पुनः जन्म लो । तभी तुम राजा की गोद में खेल सकोगे ' । " २. एक ऋषि व्यापाद ऋषि के दो पुत्रों में से यह एक था । इसके ज्येष्ठ भाई का नाम उपमन्यु था (म. अ.नु. ४५. ९६. कुं.) । हस्तिनापुर के मार्ग में श्रीकृष्ण से इसकी भेट हुई थी ( म. उ. ३८८ ) । सत्यवान का पिता शुमत्सेन अपने प्रिय पुत्र तथा स्नुषा को देते ते, इस ऋषि के आश्रम में भाया था। फिर इसने उसे भविष्य बताया, 'तुम्हारा पुत्र शीघ्रं ही स्नुषा के साथ जीवित वापस आयेगा' ( म. व. २८२. १९) । ध्रुव - ( स्वा. उत्तान ) उत्तानपाद राजा एवं सुनीति का पुत्र एवं एक प्रातःस्मरणीय राजा (म. अनु. १५० ) | अपने दृढनिश्चय एवं लगन की कारण, पाँच वर्ष की छोटी उम्र में, इसने ऋपियों को भी अप्राप्य ' श्रीविष्णुदर्शन एवं नक्षत्रमंडल में ध्रुवपद प्राप्त किया। नक्षत्रमंडल में सप्ताओं के पास स्थित 'ध्रुव तारा' यही है ( भा. ४. १२.४२-४३)। -- ४. एक मध्यमाध्वर्यु | धौम्र-एक कपि शरशय्या पर पड़े हुए भीष्म से । यह मिलने गया था ( म. शां. ४७.६६* पंक्ति ९ ) । ध्यानकाष्ठ-भगुकुलोत्पन्न एक ऋषि ( धर्मगुप्त एक ऋषि ( धर्मगुप्त देखिये) । ध्युषिताश्व - (सू. इ. ) वायु मत में शंखण राजा का पुत्र । भागवत में इसे विधृति, एवं विष्णु में इसे व्युत्थिताश्व कहा गया है । 1 उत्तानपाद राजा की सुरुचि एवं सुनीति नामक दो रानियाँ थी । उनमें से सुरुचि उसकी प्रिय रानी थी, एवं सुनीति ( सुनृता) से वह नफरत करता था । राजा के अप्रिय पत्नी का पुत्र होने के कारण, बालक ध्रुव को भी प्रतिदिन अपमान एवं मानहानि सहन करनी पडती थी। 3 सौतेली माता का कठोर भाषण सुन कर ध्रुव अत्यंत खिन्न हुआ। उस समय राजा भी चूपचाप बैठ गया। फिर ध्रुव रोते रोते अपनी माता के पास गया। सुनीति ने इसे गोद में उठा लिया । सौत का कठोर भाषण पुत्र के द्वारा सुन कर उसे अत्यंत दुख हुआ अपने कमनसीब को दोष देते हुई, वह फूट फूट कर रोने लगी । पश्चात् ईश्वराधना का निश्चय कर, ध्रुव ने अपने पिता के नगर का त्याग किया। यह बात नारद को ज्ञात हुई । ध्रुव का ईप्सित, जान लेने पर, उसने अपना वरदहस्त ध्रुव 'के सिर पर रखा । ध्रुव का स्वाभिमानी स्वभाव तथा क्षात्रतेज देख कर, नारद आश्चर्यचकित हो गया । उसने ध्रुव से कहा "तुम अभी छोटे हो इतनी छोटी यंत्र में तुम इतने स्वाभिमानी हो, यह बड़ी खुषी की बात है। किंतु मान-अपमान के झंझटों में पड़ कर मन में असंतुष्टता का अमिसिगाना ठीक नहीं है क्योंकि, असंतोष का कारण मोह है, तथा मोह से दुःख ही दुःख पैदा होते है । भाग्य से जो भी मिले, उस पर संतोष - मानना चाहिये । ईश्वर के आराधना का तुम्हारा निश्चय ३३४ Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्रुव प्राचीन चरित्रकोश ध्रुव बड़ा ही कठिन हैं। उसमें बड़ोबड़ों ने हार खाई है। अतः | पीना भी छोड़ दिया, एवं केवल वायु पी कर, यह रहने यह मार्ग त्याग कर, तुम घर लौट जाओ। लगा। नारद का भाषण सुन कर ध्रुव ने कहा, 'मैं ने न्याय- तपस्या के पाँचवे महीने में, प्राणवायु भी इसके वश निष्ठर क्षत्रिय वंश में जन्म लिया है। मेरे स्वभाव में | में आ गया, एवं वायु पीना भी ध्रुव ने बंद किया। एक लाचारी नहीं है। सुरूचि के अपशब्दों से मेरा हृदय भग्न पाँव पर खड़ा हो कर, अहोरात्र यह श्रीविष्णु के ध्यान हो गया है। अतः आपके उपदेश का परिणाम मेरे उपर के पदेशका परिणाम मेरे उपर में मगन होने लगा। होना असंभव है। त्रिभुवन में श्रेष्ठ स्थान प्राप्त करने की छः महीनों तक ऐसी कड़ी तपस्या करने के पश्चात् , आकांक्षा मेरे मन में जाग उठी है। वह स्थान मुझे कैसे | तपस्या की सिद्धि ध्रुव को प्राप्त हुई । इसकी अंगूठे के भार प्राप्त होंगा, यह आप मुझे बताइये। आप त्रैलोक्य में से पृथ्वी दबने लगी, एवं इन्द्रादिकों के श्वासों का अवरोध घूमते हैं । उस कारण मेरी समस्या का सुझाव, केवल होने लगा। फिर सारे देव श्रीविष्णु की शरण में गये । विष्णु आप ही कर सकते है ।' ने ध्रुव को तपश्चर्या से परावृत्त करने का आश्वासन देवजनों ध्रुव का यह भाषण सुन कर, नारद के अन्तःकरण में को दिया। उस आश्वासन से सारे देव संतुष्ट हुएँ, एवं ध्रुव के प्रति अनुकंपा उत्पन्न हुअी। उसने कहा, 'अपने माता | अपने अपने स्थान पर वापस लौटे। की आज्ञानुसार तुम श्रीहरि की कृपा संपादन करो। उसके पश्चात् गरुड़ पर आरूढ हो कर, श्रीविष्णु मधुवन में लिये यमुना के किनारे मधुवन में जा कर, तुम इन्द्रिय- ध्रुव के पास आये, एवं उन्होंने सगुण स्वरूप में इसे दर्शन दमन करो'। इतना कह कर नारद ने ध्रुव से 'ॐ नमो | दिया। जिसके ध्यान में छः महीनों तक ध्रुव मग्न था, भगवते वासुदेवाय' नामक द्वादशाक्षरी गुप्तमंत्र प्रदान | उसे साक्षात् देख कर वह अवाक् हो गया (भा. ४.८किया, एवं आशीर्वाद दे कर वह चला गया। स्कन्द तथा ९)। श्रीविष्णु का गुणवर्णन करने की बहुत सारी कोशिश विष्णु पुराण में लिखा गया है कि, यह मंत्रोपदेश ध्रुव ध्रुव ने की। किंतु वह करने में इसे असमर्थता प्रतीत को सप्तर्षियों द्वारा प्राप्त हुआ। बाद में उत्तानपाद राजा | हुई। को अपने कृतकर्म का पश्चात्ताप हुआ, एवं वह ध्रुव को फिर श्रीविष्णु ने ध्रुव के कपोल को वेदस्वरूपी शंख से 'वापस लाने के लिया घर से निकला। किंतु उसे नारद ने | स्पर्श किया। पश्चात् उस शंख के कारण प्राप्त हुएँ वेदमय कहा, 'तुम्हारा पुत्र शीघ्र ही महत्कार्य कर के वापस वाणी से, ध्रुव ने विष्णु का स्तवन किया। इससे आनेवाला है। इसलिये उसे वापस बुलवाने की कोशिश, प्रसन्न हो कर, विष्णु ने इसे इच्छित वर माँगने इस समय तुम मत करो।' के लिये कहा । ध्रुव ने नक्षत्रमंडल में अचल - नारद के कथनानुसार, ध्रुव ने मथुरा के पास यमुना | स्थान प्राप्त करने का वर श्रीविष्णु से माँग लिया। के तट पर मधुवन में तपस्या प्रारंभ की, एवं 'ॐ नमो | विष्णु ने वह वर इसे दिया, एवं कहा, 'उत्तानपाद राजा भगवते वासुदेवाय' यह द्वादशाक्षरी मंत्र का जाप प्रारंभ | तुम्हें राजगद्दी पर बैठा कर वन में जावेगा । तुम छत्तिस किया । तपस्या के समय ध्रुव की उम्र केवळ पाँच साल | हजार वर्षों तक राज्य करने के बाद, नक्षत्रमंडल में अचलकी थी। स्थान प्राप्त करोगे। तुम्हारा सौतेला भाई उत्तम । मृगया के फलाहार, उदकपान, एवं वायुभक्षण क्रमशः कर के, एक लिये वन में जावेगा, तब वहीं उसका नाश होगा। उत्तम पैर पर खड़ा हो कर, ध्रुव श्रीविष्णु की आराधना करने की माता सुरुचि उसके मृत्यु के दुख के कारण, अरण्य में लगा । तपस्या के पहले दिन ध्रुव ने 'अनशन' किया। दावानल में प्रविष्ट होगी। तुम अनेक यज्ञ कर के सब को दूसरे दिन से यह विधिपूर्वक आराधना करने लगा। वंद्य तथा संसारमुक्त हो जाओगे। बाद में ध्रुव ने तपस्या के पहले महीने में, तीन दिन में एक बार यह | श्रीविष्णु की पूजा की, तथा पश्चात् यह स्वनगर चला कैथ एवं बेर के फल खा कर गुजारा करता था। आया। दूसरे महीने में, हर छठे दिन सूखे पत्ते एवं कुछ तिनखे ध्रुव के आगमन की वार्ता उत्तानपाद को ज्ञात होते ही खाने का क्रम इसने शुरू किया। तीसरे महीने में केवल | वह अत्यंत आनंदित हुआ। ध्रुव महत्कार्य कर के वापस पानी पर रहना इसने प्रारंभ किया। वह पानी भी यह | आनेवाला है, यह नारद के भविष्यवाणी से उत्तानपाद हर नवे दिन पीता था। चौथे महीने में, इसने पानी | पहले से जानता ही था। ध्रुव ने राजधानी में प्रवेश करते ३३५ Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन चरित्रकोश ध्रुव ही, इसे शृंगारित हाथी पर बैठा कर नगर में लाया गया। पिता ने इसके मस्तक का अवमाण किया । ष दोनों माताओं से मिला | सुरुचि ने इसे 'चिरंजीव हो ' ऐसा आशीर्वाद दिया । माता, पिता तथा बंधुओं के साथ ध्रुव सुख से कालक्रमणा करने लगा। पश्चात् राजा ने इसे राज्याभिषेक किया तथा स्वयं का में चला गया । , " एक बार ध्रुव का सौतेला भाई उत्तम, पर्वत पर मृगया के हेतु से गया । एक बलाढ्य यक्ष ने उसका वध किया । यह सुन कर ध्रुव ने अत्यंत क्रोधित हो कर यक्षों के पारिपत्य के लिये विजयशाली रथ में बैठ कर, यक्षनगरी अलका पर आक्रमण किया । वहाँ घमासान युद्ध हुआ । यक्ष ने मायाजाल फैलाकर, भुव को निर्वल बना दिया। ध्रुव फिर ऋषियों ने ध्रुव को आशीर्वाद दिया, 'तुम्हारे शत्रु का निःपात होगा । बादमें 'नारायणास्त्र के योग से, भुव यक्षो का मायापटल दूर कर के, यक्षों को पराजित किया । इस प्रकार ध्रुव गुहयक नामक यक्षों का नाश कर रहा था । तब स्वायंभुव मनु को यक्षों पर दया आई। अपने नाती ध्रुव को उसने युद्ध से तथा गुह्य के हनन से परावृत्त किया। इतना ही नहीं, यक्षवध के कारण क्रोधित हुए कुबेर को प्रसन्न करने के लिये, मनु ने इसे कहा। फिर ध्रुव ने युद्ध बंद किया, एवं पितामह के कथनानुसार कुबेर का स्नेहभाव संपादित किया । कुबेर ध्रुव पर प्रसन्न हुआ एवं उसने इसे वर माँगने के लिये कहा। तब ध्रुव ने वर माँगा, 'मैं अहरि का असेद स्मरण करता रहूँ'। छत्तिस हजार वर्षों तक राज्य करने के बाद, अपने यत्सर नामक पुत्र को गद्दी पर बैठा कर अब बदरिकाश्रम में गया। इसे स्वर्ग में ले जाने के लिये एक विमान आया । उसमें बैठने के लिये यह जैसे ही तैयार हुआ, वैसे ही मृत्यु ने आ कर इससे कहा, 'स्वर्ग में जाने से पहले तुम्हें देहत्याग करना पड़ेगा। परंतु यह मान्य न कर, मृत्यु के सिर पर पाँव रख कर, ध्रुव विमान में बैठ गया। स्वर्ग जाते समय इसे अपने सुनीति माता का स्मरण हुआ, तथा उसे भी अपने साथ स्वर्ग ले जाने की इच्छा हुई। इतने में इसने देखा कि, सुनीति इसके पहले ही स्वर्ग जा पहुंची है । , अन्त में इसे सप्तर्षियों के समीप अचल ध्रुवपद प्राप्त हुआ। वह तारा 'ध्रुव' नाम से प्रसिद्ध है (भा. ४.८-१२ विष्णु. १.११-१२ मत्स्य ४.२५ २८ १.६२ स्कन्द. ४.१.१९-२१; ह. वं. १.२.९ - १३ ) । ध्रुव अपने पूर्वजन्म में ध्रुव एक ब्राह्मणपुत्र था। इसने मातापिता की योग्य शुश्रूषा तथा धर्मपालन किया। पश्चात् एक राजपुत्र से इसकी मित्रता हुई। उसका वैभव देख कर इसे भी राजपुत्र बनने की इच्छा हुई । अपने पूर्वसंचित पुण्य के कारण, अगले जन्म में, यह उत्तानराद राजा का पुत्र बना । ( विष्णु. १.१२.८४ - ९० ) । ध्रुव ने पक्षवर्धिनी एकादशी का व्रत किया था ( पद्म. उ. ३६ ) । अयपरिवार भुय के कुल चार पत्नीयों का निर्देश प्राचीन ग्रंथों में प्राप्त है। उनके नाम इसप्रकार है: ( १ ) भ्रमि - यह शिशुमार प्रजापति की कन्या थी । इससे भुव को कल्प एवं यत्सर नामक दो पुत्र हुएँ। उनमें ध्रुव वत्सर ध्रुव के पश्चात् राजगद्दी पर बैठा । से ( २ ) इला - यह वायु ऋषि की कन्या थी । इससे ध्रुव को उत्कल (विरक्त ) नामक एक पुत्र हुआ । ( ३ ) शंभु -- इससे ध्रुव को लिष्ट एवं भव्य नामक दो पुत्र हुएँ (विष्णु. १.१२.१६ . . १.२ - १४) । को ( ४ ) धन्या -- यह मनु की कन्या थी । इससे ध्रुव. शिष्टि नामक एक पुत्र हुआ ( मत्स्य. ४.३८ ) । २. (सो. पुरूरवस् . ) नहुष का पुत्र, एवं ययाति का भाई ( म. आ. ७०.२८ ) । इसके नाम के लिये 'उद्धव' पाठभेद उपलब्ध है । ३. पांडवपक्षीय एक राजा । भारतीय युद्ध में पांडवों का ही विजय होगा, यह कर्ण को बताते समय, कृपाचार्य ने जिन पांडवपक्षीय राजाओं के नाम बताये, उनमें से यह एक था। ४. एक राजा । यमसभा में बैठ कर, यह सूर्यपुत्र यम की उपासना करता था ( म. स. ८.१० ) । इसके नाम के लिये 'भव' पाठभेद भी उपलब्ध है । ५. कौरवपक्ष का एक योद्धा भीम ने इसका वध किया ( म. द्रो. १३०.२३) । ६. मुख देवों में से एक । ७. विकुंठ देवों में से एक । ८. लेख देवों में से एक । ९. धर्म एवं वसु का पुत्र । १०. धर्म को धूम्रा के गर्भ से उत्पन्न द्वितीय बसु (म. आ. ६०.१८ ) । ११. मधुबन के शाकुनि ऋषि के नौ पुत्रों में से ज्येष्ठ । ३३६ Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्रुव आंगिरस ध्रुव आंगिरस -- सूक्तद्रष्टा (ऋ. १०.१७३) । इसके मूलों में राष्ट्र तथा राजा के संबंध में प्रजातंत्रात्मक विचार दिखाई देते हैं। प्राचीन चरित्रकोश संधि, सुसंधि एवं शंत्रण, ये इक्ष्वाकु वंश के राजा, दाशरथिराम के पूर्वकाल में हुए थे, ऐसा रामायण का कहना है । किंतु पुराणों में उन्हें दाशरथि राम के वंशज बताया गया है ( पार्गि. ९३ ) । ध्रुवसोधि——ध्रुवसंधि देखिये । ध्वनि-सुधामन् देवों में से एक। ध्रुवक- स्कंद का एक सेनिक ( म.श. ४४.६० ) । ध्रुवक्षिति--तेल देवों में से एक। ध्वन्य-- एक राजा । यह लक्ष्मण का पुत्र था । प्रजापति पुत्र संवरण ऋषि ने दान देने के कारण राजा की ध्रुवरत्नान्द की अनुचरी एक मातृका (म.श. प्रशंसा की है ( . ५.२३.१० ) । स एवं मास्ताच त्रसदस्यु ४५.४.)। ऋषि ध्वन्य के आश्रय में थे । ध्रुवसंधि--( इ.) कोशल देश के पुण्य राजा का पुत्र । इसे 'पौष्य' भी कहते थे। इसे लीलावती तथा मनोरमा नामक दो स्त्रियाँ थी। एक बार यह ससैन्य मृगया के हेतु वन में गया। वहाँ इसकी एक क्रूर सिंह से मुठभेड़ हुई। उस में यह मारा गया। इसे लीलावती से शत्रुजित, | तथा मनोरमा से सुदर्शन नामक पुत्र हुए थे (वे. भा. ३. १४) भविष्य में इसके नाम का 'ध्रुवसेधि' पाठ । प्राप्त है। • ध्रुवाश्व - - ( स. इ.) भानुमान राजा का नामांतर | २. (सू. इ. भविष्य.) मत्स्यमत में सहदेव का पुत्र इसका बृहद नामांतर भी प्राप्त है। - ध्वज प्रधान राजा का नाम (सांत्र ३. देखिये ) | ध्वजकेतु द्रुपद का पुत्र ( म. आ. २१८.१९ ) । 'ध्वजवती सूर्यदेव की आज्ञा से आकाश में ठहरने वाली हरिमेधा ऋषि की कन्या ( म. उ. १०८.१३ ) । ध्वजसेन द्रुपद का पुत्र (म. आ. परि. १०३. पंक्ति. १०९) । ध्वजग्रीव रावण के पक्ष का एक राक्षस (बा. रा. सुं. ६) । प्रा. च. ४३ ] ध्वत्र ध्वजवती -- हरिमेधा ऋषि की कन्या ( म. उ. १०८. १२) । ध्वसन द्वैतवन - मत्स्य देश का एक राजा सरस्वती नदी के तट पर इसने अश्वमेध यज्ञ किया (श. जा. १३. ५.४.९ ) । -- ध्वसन्ति वेदकालीन एक राजा इंद्र के । शत्रु पुरुपंति के साथ इसका उल्लेख प्राप्त है। यह दोनों कश्यप कुल के अवत्सार ऋषि के आश्रयदाता थे । अवत्सार ऋषि ने उल्लेख किया है कि इन दोनों राजाओं से उसे धन मिला था (ऋ. ९.५८.३ ) । अश्विनों द्वारा इसे सहायता दी गयी थी (ऋ. १.११२.२३) । वस्त्र तथा ध्वसंति एक ही होने की संभावना है। पुरुपंति के साथ भी ध्वस्र का उल्लेख प्राप्त है (ऋ. ९.५८.३, साम. २. ४०९)। ध्वसे यह स्त्रीलिंगी द्विवचन भी प्राप्त है ( पं. बा. १३.७.१२), किंतु वे किसी स्त्रियों के नाम होंगे या नहीं, यह कहना मुष्किल है ( ध्वस्त्र देखिये) । ध्वत्र - ऋग्वेदकालीन एक राजा । ध्वस एवं पुरुषन्ति राजाओं से विपुल संपत्ति प्राप्त करने का उल्लेख, अवत्सार काश्यप ने किया है (ऋ. १.५८.३ - ४ ) । इसने तुरंत तथा पुरुमिह को दान दिया था (पं. बा. १२.७.१२ जे. प्रा. २.१३९ ) । सायण ने शाख्यायन ब्राह्मण से उद्धरण ले कर इसका उल्लेख किया है ( . ९.५८. २ ) । इसका उल्लेख द्विवचन की तरह भी कभी कभी किया जाता है। सायण के मत में वह आप स्त्रीलिंग है। वल एवं ध्वसंति एक ही व्यक्ति रहे होगें । ३३७ Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नकवत् प्राचीन चरित्रकोश नकुल 'न नकवत्-(सो. क्रोष्टु.) वायुमत में हृदीक का पुत्र । समय, कुन्ती ने द्रौपदी से नकुल एवं सहदेव की विशेष नकुल-(सो. कुरु.) हस्तिनापुर के पांडु राजा के देखभाल करने को कहा था। पुत्रों में से एक, एवं पाँच पांडवों में से चौथा पांडव ।। पांडवों के उपनयन के बाद, शतशृंगनिवासी ऋषि अश्विनी कुमारों के द्वारा पांडुपत्नी माद्री के गर्भ से नकल | उन्हें हस्तिनापूर ले आये, एवं उन्हें भीष्माचार्य के हाथों एवं सहदेव ये जुडवें पुत्र उत्पन्न हएँ। उनमें से नकुल में सौंप दिया गया (म. आ. ११७.२९) । अन्य पांडवों के . ज्येष्ठ था। साथ, नकुल को भी द्रोणाचार्य ने नानाप्रकार के दिव्य एवं मानव अस्त्रों की शिक्षा प्रदान की (म. आ. १२२.२९)। नकुल एवं सहदेव, ये दोनों अनूपम रूपशाली एवं विचित्र प्रकार से युद्ध करने में, नकुल विशेष प्रवीण हो परम मनोहर थे (म. आ. १.१४४)। नकुल स्वयं अश्वविद्यानिपुण भी था । कुरुकुल में नकुल जैसा रूपशाली गया । इस कारण, इसे 'अतिरथी' उपाधि प्राप्त हुई (म. आ. १३८.३०), एवं द्रुपद के साथ किये गये युद्ध और कोई नहीं था, इस कारण इसे 'नकुल' नाम में, इसे सहदेव के साथ पांडवपक्ष का 'चक्ररक्षक' बना प्राप्त हुआ था (म. वि. ५.१६७%)। दिया गया (म. आ. १३७.२७) । नकुल के शंख. का युधिष्ठिर, अर्जुन, एवं भीमसेन इन पांडवों के हर | नाम 'सुघोष ' था (म. भी. २३.१६)। विचार एवं कृति में सहाय करनेवाले, मितभाषी एवं अन्य पांडवों के साथ, धौम्य ऋषि ने नकुल का भी विवाह । आज्ञापालक बंधुओं के रूप में, नकुल एवं सहदेव का. द्रौपदी से लगा दिया (म. आ.१९०.१०-१२) । द्रौपदी चरित्रचित्रण 'महाभारत' में किया गया है । ये दोनों | | से नकुल को शतानीक नामक पुत्र हुआ (म. आ. २२०.. बंधु पराक्रमी हैं। किंतु उस पराक्रम को स्वतंत्र अस्तित्त्व ७९)। द्रौपदी के सिवा, शिशुपाल की कन्या एवं धृष्टकेतु न हो कर, वह अन्य पांडवों के पराक्रम में विलीन सा | की बहन रेणुमती अथवा करेणुमती नकुल को विवाह में, हुआ है। ये दोनों बंधु परम मातृभक्त हैं। किंतु उस दी गयी थी (म. आ. ९०.८६)। उससे इसे निरमित्रमातृभक्ति का सारा झुकाव इनकी सापत्न माता कुंती की नामक पुत्र हुआ था (भा. ९.२२)। ओर है, एवं इनके बदले कुंती के ही चरित्र को, वह युधिष्ठिर के राजसूययज्ञ के समय, नकुल दिग्विजय अधिक उठाव देता है। अपनी पत्नी द्रौपदी पर इन दोनों करने, पश्चिम दिशा में गया था। अपने 'पश्चिम दिग्विबंधुओं का काफी प्रेम है। किंतु द्रौपदी की इनके प्रति जय' में, इसने वहाँ के राजाओं को जीत कर अगणित भावना मातृवत् वात्सल्य की थी । इस कारण, अन्य करभार लाया । इसने जीत कर लाये हुए खजाने का बोझ पांडवों की तुलना में ये दोनों बंधु फीके से प्रतीत होते हैं। दस हजार ऊँट, बड़ी कठिनाई से तो कर ला सके थे (म. नकुल का जन्म शतशृंग नामक हिमालय के एक स. २९.१७-१८)। . शिखर पर हुआ (म. आ. ११५) । शतशृंगनिवासी अपने पश्चिम दिग्विजय के लिये, खांडवप्रस्थ से बाहर ऋषियों ने इसका नामकरणविधि किया (म. आ. ११५. निकलने पर: नकुल सर्वप्रथम कार्तिकेय को प्रिय रोहीतक १९)। कृष्णपिता वसुदेव ने काश्यप ऋषि द्वारा, अन्य पर्वत पर गया। वहाँ इसने मत्तमयूरकों से युद्ध किया। पांडवों के साथ नकुल का भी उपनयन करवाया। मत्तमयूरकों को जीत कर, इसने मरुभूमि, बहुधान्यक, शुकाचार्य द्वारा इसने अस्त्रविद्या एवं ढालतरवार चलाने | शैरीषक तथा महेत्थ आदि देशों को जीत लिया। आक्रोश की कला में निपुणता प्राप्त की (म. आ. १२३.३१)। नामक राजर्षि का पराजय किया। बाद में दशार्ण, शिबि, पांडु की मृत्यु के पश्चात्, नकुल की माता माद्री ने त्रिगर्त, अंबष्ठ, मालव, कर्पट, मध्यमकेय, वाटधान तथा इसे एवं सहदेव को कुन्ती के हाथों सौंप दिया। वह | द्विज देशों को जीत कर यह वापस आया । स्वयं पति के साथ चिता पर आरूढ हो गयी (म. आ. दिग्विजय के दूसरे भाग में, इसने पुष्करवन के लोग, १२४)। अन्य पांडवों की अपेक्षा, कुन्ती की नकुल | उत्सवसंकेतगण, सिंधु तीर के ग्रामणीय, सरस्वती तीर के सहदेव से विशेष प्रीति थी। पांडवों के वनवासगमन के | मत्स्याहारी शूद्र, एवं आभीर, पंचनद, अमर पर्वत, ३३८ Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नकुल प्राचीन चरित्रकोश नकुल उत्तर ज्योतिष, दिव्यकटपूर, द्वारपाल, राम, हारहूण, -५२)। इनमें से दुर्योधन के साथ हुए युद्ध में, इसने सुराष्ट्र, मद्र आदि देशों के राजाओं को अपनी सत्ता | दुर्योधन पर.सैंकडों बाण छोड़ कर, उसे बहुत ही जर्जर किया मान्य करने के लिये, इसने विवश किया एवं उनसे करभार था । कर्ण के चित्रसेन, सत्यसेन, एवं सुषेण आदि तीन लिया। पुत्रों का नकुल ने वध किया (म. श. ९.१७-४९)। _अपने इस 'दिग्विजय' में, इसने पांडवों के कर्ण के साथ हुए युद्ध में, नकुल बुरी तरह से हारा पितृतुल्य मित्र भगवान् श्रीकृष्ण एवं अपने मातुल मद्रराज | गया था । उस युद्ध में, कर्ण नकुल को मारनेवाला ही शल्य को भी नहीं छोड़ा। था। किंतु अपनी माता कुंती को दिये वचन के अनुसार, ___ बाद में समुद्र के किनारे रहनेवाले पलक, वर्षक, किरात, कर्ण ने इसे जीवितदान दिया, एवं रण से पलायन करते यवन तथा शक लोगों से इसने करभार लिया, एवं हजारों हुए नकुल को जीवित छोड़ दिया (म. क. १७.९५)। उँटों पर वह लाद कर यह इन्द्रप्रस्थ वापस आया (म. युधिष्ठिर हस्तिनापुर का राजा होने के पश्चात्, उसने स. २९; भा. १०.७२)। . नकुल को सेनाध्यक्ष पद पर नियुक्त किया (म. शां. युधिष्ठिर एवं दुर्योधन में हुए द्यूतसमारोह में, युधिष्ठिर | ४१.११)। इसे धृतराष्ट्रपुत्र दुर्मर्षण का सुंदर महल रहने ने इसे जूए के दाँव पर रखा, एवं वह इसे हार बैठा | के लिये दिया (म. शां. ४४.१०-११)। युधिष्ठिर के (म. स. ५८.११)। फिर अन्य पांडवों के साथ, अपने | अश्वमेधयज्ञ के समय,नकुल एवं भीम पर हस्तिनापुर की शरीर पर धूल लपेट कर, यह भी वनवास के लिये चला | रक्षा का काम सौंपा गया था (म. आश्व. ७१.२५)। गया। वनवास में इसने क्षेमकर, महामुख एवं सुरथ | उस यज्ञ के पहले, नकुल 'दक्षिणदिग्विजय' के लिये नामक राक्षसों का वध किया (म. व. २७१.१६- गया था। उस दिग्विजय में, इसने साभ्रमती नदी के २२)। किंतु द्वैतवन के 'यक्षप्रश्न' के प्रसंग में, यह अर्जुन, किनारे देवी 'पांडुरा' नामक, तीर्थ की स्थापना की भीम आदि के साथ बूरी तरह से हारा गया एवं | (पद्म. उ. १६१)। सरोवर पर गिर पड़ा। पश्चात् युधिष्ठिर ने अपने सारे | महाप्रस्थान के समय; पांडव पृथ्वीप्रदक्षिणा करने बंधुओं की मुक्तता की (म. व. ३१२.१३)। निकले। हिमालय पर्वत पार कर, उत्तर की ओर जाते अज्ञातवासकाल में यह विराट दरबार में, ग्रंथिक समय, उन्हे वालुकामय सागर दिखा । उस सागर में से, • अथवा दामग्रंथिक नाम धारण कर के रहा था । इसका गुप्त वे द्रुतगती से जा रहे थे। राह में सर्वप्रथम द्रौपदी नाम जयत्सेन था। यह पहले से ही अश्वविद्या में कुशल की, एवं तत्पश्चात् नकुल की मृत्यु हुई। था। उस विद्या का उपयोग इसे विराट के दरबार में हुआ। अश्वों के रोग सुधारना, उनकी बुरी आदतें नकुल के इस अकाली मृत्यु का कारण भीम ने निकालना, एवं उन्हें शिक्षा देना आदि कामों में यह युधिष्ठिर से पूछा । युधिष्ठिर ने कहा, 'अपने देहसौंदर्य प्रवीण था। इस कारण, विराट ने अपनी अश्वशाला का नकुल को बड़ा ही गरूर था । उस कारण, इसकी नकुल के हाथों सौंप दी थी (म. वि. १२.८)। मार्ग में ही मृत्यु हो गयी है (म. महा. २.१२.१६)। मृत्यु के समय, इसकी आयु १०५ वर्षों की थी (युधिष्ठिर . 'कृष्णदौत्य' के समय, नकुल ने श्रीकृष्ण से सम- | देखिये)। योचित वर्तन कर युद्ध टालने की प्रार्थना की थी। नकुल ने कहा, 'कौरवों से संधि कर, युद्ध रुका देने की संभावना स्वर्ग जाने पर, युधिष्ठिर ने नकुल को देखने की अभी तक बाकी है। इसलिये कौरवों से सुलूक का प्रयत्न | इच्छा प्रगट की (म. स्व. २.१०)। फिर नकुल एवं आखिर तक करना जरूरी है।' (म. उ. ७८)। सहदेव तेजस्वी रूप में अश्विनीकुमारों के स्थान पर भारतीय युद्ध में, नकुल ने कौरव पक्ष के निम्नलिखित विराजमान होते हुएँ युधिष्ठिर को दिख पड़े (म. स्व. ४. योद्धाओं से युद्ध कर, पराक्रम दिखाया था :-(१) दुःशासन (म. भी. ४३.२०-२२); (२) गांधारराज शकुनि नकुल के नाम पर 'वैद्यकसर्वस्व' नामक एक ग्रंथ (म. भी. १०१.३०-३१); (३) धृतराष्ट्रपुत्र विकर्ण | उपलब्ध है (ब्रह्मवै. २.१६)। (म. भी. १०६.११); (४) बाल्हीकराज शल्य (म. २. युधिष्ठिर के अश्वमेध यज्ञ को तुच्छ बतानेवाला द्रो. १४.३०-३२); (५) दुर्योधन (म. द्रो. १६३.५१ । एक नेवला (म. आश्व. ९२ )। युधिष्ठिर नकुल को .८)। मय, न | ९)। ३३९ Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नकुलीश नकुलीश पाशुपत दर्शनकार इसका कारावन से संबंध आया था ( लकुलिन् देखिये) । प्राचीन चरित्रकोश नक्त—(स्वा. प्रिय. ) पृथुषेण राजा का पुत्र । इसकी माता का नाम आकुति । द्वति नामक पत्नी से इसे गय नामक पुत्र हुआ था ( भा. ५. १५.६ ) । नखवत् (भविष्य) वायु के मतानुसार मथुरा में राज्य करनेवाला एक राजा । २. (भविष्य. ) ब्रह्मांड के मतानुसार वैदेश का एक नागवंशीय राजा | नग - शत्रुध्न का सेनापति । नगरिन जानतेय उदित होमवादी एक आचार्य (ऐ. बा. ५.३० ) । इसका पूरा नाम नगरिन् जानतेय काय था (जे. उ. प्रा. ३. ४०. २ ) | सायण ने नगरिन् का अर्थ ' नगर में रहनेवाला यों किया है। इसका ऐकदिशाक्ष मानुतंतव्य के साथ निर्देश कई जगह प्राप्त है । नगृहू - नग्रह देखिये । ननक एक निषाद शातिसमुदाय अमृत लाने गये गरूड़ ने, क्षुधाशमनार्थ पृथ्वी पर के कई निषाद ला लिये । पश्चात् गलें में जलन होने के कारण, खाये हुएँ सारे निषाद उसने बाहर उगले ( गरूड़ देखिये) । • 6 गरुड़ ने उगले हुएँ वे निषाद छन गये। उनमें से आग्नेय दिशा की ओर जो निषाद गिरे, उन्हे 'नक' नाम प्राप्त हुआ (पद्म. सु. ४७ ) । नग्नजित्——गांधार देश का एक क्षत्रिय राजा, एवं कृष्ण की पत्नी सत्या का पिता । यह 'इषुपाद' नामक दैत्य के अंश से उत्पन्न हुआ था (म. आ. ६१.२१ पापजित् पाठ ) । कर्ण के दिग्विजय में, उसने इसका पराभव किया था (म. व. परि. १.२४.७० ) । भगवान् श्रीकृष्ण ने नमजित् के समस्त पुत्रों को पराजित किया था ( म.उ. ४० ६९ ) । भारतीय में यह कौरवों के पक्ष में था। युद्ध नचिकेतस् नग्नजित् गांधार -- गांधार देश का एक यज्ञवेत्ता राजा । पर्वत एवं नारद ने इसकी राजगद्दी पर प्रतिष्ठापना की थी ( ऐ. ब्रा. ७. ३४ ) । ' शतपथ ब्राह्मण' में अपने स्वर्जित नामक पुत्र के साथ इसका उल्लेख प्राप्त है (श. बा. ८.१.४.१० ) । उस ग्रंथ में, संस्कार विषयक इस राजा के किसी वक्तव्य का व्यंग्योक्तिपूर्ण दृष्टि से निर्देश किया गया है। २. एक वास्तुशास्त्रज्ञ । इसने वास्तुशास्त्र पर एक ग्रंथ लिखा था ( मस्त्य. २५२ ) । नचक्षु - ( सो.) भविष्यमत में मषपाल का शिष्यं । नचिकेतस - कग्वेदकालीन सुविख्यात ऋषिकुमार | यह वाजश्रवसू का पुत्र एवं एक 'गोतम' था (ते. बा. : ३.११.८ ) । कठोपनिषद में इसे बाजश्रवसू के साथ उद्दालक का पुत्र भी कहा गया है (कं. उ. १.११ १. ११) । उद्दालक के पुत्र होने के कारण, एवं ' आरुणि उद्दालकि ' दोनों एक ही थे, ऐसा निर्देश महाभारत में प्राप्त है (म. अनु. ७१) किंतु यह मत सर्वा असंभव एवं प्रसिद्ध आरुणि सेनति का संबंध लगाने के उद्देश्य से प्रसृत किया गया प्रतीत होता है । ऋग्वेद के सुविख्यात 'यमसूक्त' में, 'कुमार' नाम से संशोधित किया गया ऋषिकुमार नचिकेतस ही है ऐसा सायणाचार्य का कहना है (ऋ. १०.१३५) | का पुत्र नचिकेत अपने पिता की आशा के अनुसार यम के पास गया, एवं यम को प्रसन्न कर वापस आया । यह भांडारकर संहिता में इसके नाम के लिये 'पाप जित्' कथा नचिकेतस् के नाम का स्पष्ट निर्देश न करते हुए, उस पाठभेद उपलब्ध है। सूक्त में दी गयी है । ३. प्रल्हाद का शिष्य, एक दैत्य । पृथ्वी पर, राजा 6 'सुबल' नाम से इसने अवतार लिया था । 'नमजित् गांधार,' यह एक ही व्यक्ति मान कर ' शतपथ ब्राह्मण' एवं 'ऐतरेय ब्राह्मण' में इसका निर्देश किया गया है । फिर भी सायणाचार्य 'नग्नजित् ' एवं 'गांधार' को दो अलग व्यक्तियाँ मानते है । 'शतपथ ब्राह्मण के जिस परिच्छेद में इसका निर्देश आया है, वहाँ अनेक राजाओं के ही नाम इकडे दिये गये हैं । उनमें से प्रत्येक व्यक्ति अलग मान कर अर्थ किया जाये, तो वह यथार्थ नहीं होगा। नग्नहू--नग्रहू देखिये । C नग्रहू - एक ऋषिक ( वायु. ५९.९२ - ९४ ) । इसके. 'नमहू' एवं 'नगृहू ' नामांतर भी प्राप्त हैं ( मत्स्य. १४५.९५ ९९ १.२२.१०१-१०३ ) । नचिकेतस का यह आख्यान विस्तृत रूप से तैतिरीय ब्राह्मण में दिया गया है। नचिकेतस का पिता उद्दालक " 'विश्वजित् ' नामक यज्ञ कर रहा था। नचिकेतस् उम्र से - छोटा हो कर भी, बड़ा ही परिणतप्रज्ञ एवं श्रद्धावंत था । ३४० Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नचिकेतस् प्राचीन चरित्रकोश नचिकेतस् अपने पिता का यज्ञ यथासांग संपन्न होने में, यह हर तरह है । इसे मारना ठीक नहीं है । फिर यम ने आदर से की सहायता करता था । नचिकेतस् सेकहा, 'भगवन्, मैं प्रसन्न हो गया हूँ। आप जो चाहे वह वर माँग लो । ' C विश्वजित' यश में, याजक को सर्वस्व का दान करना पड़ता है। नचिकेत ने सोचा, 'यदि सर्वस्व दान करना है, तो मेरे पिता को मेरा दान भी कर देना चाहिये उसके सर्वस्व में मेरा प्रमुख रूप से अंतर्भाव होता है ' । अपनी इस शंका का समाधान पूछने के लिये यह पिता के पास गया। इसका पिता अनेक प्रकार के दान दे रहा था । किंतु अच्छी गायों के बदले दूध न देनेवाली दुक्ली गायें वह दान में दे रहा था। इस पापकर्म के कारण, यश यथासांग न हो कर पिता को दोष लगेगा एवं उसका प्रायश्चित्त पिता के साथ मुझे भी भुगतना पड़ेगा, इस चिंता से नचिकेत शोकाकुल हो गया। अपने पिता को ऐसे गिरे हुए दान से परावृत्त करने की दृष्टि से नचिकेतस ने पूछा, कस्मै मां बारयसि ? मुझे किसको दोगे ?' इसे बालक समझ कर पिता ने इसका प्रश्न का कोई भी जवाब नहीं दिया फिर भी नचिकेतस ने उसका पीछा नहीं छोड़ा। तत्र उद्दालक ने डाँट कर इसे कहा, मैं तुम्हें मृत्यु को दे देना चाहता । 1 उसी समय आकाशवाणी हुई, "हे गौतमकुमार नचिकेतम् तुम्हारे पिता का उद्देश्य है कि तुम यमगृह आओ यम घर में न हो एवं प्रवास के लिये गया हो, उसी दिन तुम यमगह में जाना यम घर में न होने के कारण, उसकी पत्नी एवं पुत्र तुम्हें भोजन के लिये प्रार्थना करेंगे। किंतु उस भोजन का तुम स्वीकार नहीं करना। वापस आने पर यम तुम्हारी पूछताछ करेंगा। फिर उसे कहना, 'तीन रात्रि हो गई हैं। फिर यम तुम्हें पूछेगा, पहले दिन क्या खाया फिर तुम उसे ?' जवाब देना, 'तुम्हारी प्रजा खाई ' । इससे यम को पता चलेगा कि अतिथि यदि एक दिन अपने घर में भूखा रहा, तो प्रजा का क्षय होता है। दूसरे तथा तीसरे दिन के बारे में भी ऐसा ही प्रश्न पूछे जाने पर जवाब देना 'दूसरे दिन तुम्हारे पशु एवं तीसरे दिन तुम्हारा सुकृत खाया। इससे यम को पत्ता चलेगा कि, अतिथि दूसरे तथा तीसरे दिन भूखा रहने पर घरसंसार के एवं पशु सुकृत की भी हानि होती है। " नचिकेतस ने यम से निम्नलिखित तीन वर माँग लिये, १. जीवित वापस जा कर मैं अपने पिता से मिलूँ ; २. मेरे द्वारा श्रौतस्मार्त कर्म अक्षय रहे; ३. मैं मृत्यु पर विजय प्राप्त कर सकूँ इस तरह, 'ब्रह्मविद्या' एवं योगविधि प्राप्त कर के नचिकेतस पर वापस आया (ते. बा. १. ११.८. उ. ६.१८ ) । " ८ ब्रा. 'कठोपनिषद' में दिये गये 'नचिकेतस् आख्यान' में नचिकेतम् की यही कथा कुछ अलग ढंग से दी गयी है। । नचिकेतस के पिता ने क्रोधवश इसे यम के यहाँ जाने के लिये कहा। अपने पिता की आशा प्रमाण मान कर, नचिकेतसु यम के पास गया, एवं अपने प्रगाढ़ एवं यस्तुल्यपूर्ण भाषण के कारण, इसने यमधर्म को प्रसन्न किया। यम ने इसे तीन पर दिये। उनमें से द्वितीय वर । के कारण, अशि का शान एवं उसके चयन की सिद्धि नचिकेतस को प्राप्त हो गयी। यम ने इसे वर दिया था, ' तुम्हारे द्वारा चयन किया गया अमि, तुम्हारे ही नाम से प्रसिद्ध होगा ' ( एतमत्रिं राचैव प्रवश्यन्ति जनासः ' ) ( क. उ. १. १९ ) । इस वर के अनुसार, अनि के चयन की इसकी पद्धति 'नचिकेतचयन' नाम से प्रसिद्ध हो गयी। 3 , 'तैत्तिरीय ब्राह्मण के 'नचिकेताख्यान में दिया गया, आकाशवाणीद्वारा इसे हुए मार्गदर्शन का कथाभाग 'कठोपनिषद' में नही दिया गया है। 3 , । 'नाचिकेत आख्यान का यही कथाभाग 'वराहपुराण' एवं 'महाभारत' में कुछ फर्क के साथ दिया गया है ( वराह. १७०-१७६; म. अनु. ७१ ) । एक बार नाचिकेत का पिता उद्दालक नदी पर स्नान करने के लिये गया। स्नान तथा वेदाध्ययन में मन्न होने के कारण, नदी तट से समिधा, दर्भ, कलश, भोजनसामग्री आदि खाने का स्मरण उसे नहीं रहा। तब उसने अपने पुत्र नाचिकेत से यह सामग्री लाने के लिये कहा। पिता की भाशानुसार यह नदी के किनारे गया। किंतु इसके जाने के पहले ही पिता द्वारा माँगी गयी सारी वस्तुएँ पानी में बह गई थीं उस कारण, यह पिता की कोई भी चीज वापस न खा सका। यह सारी दुर्घटना इसने पिता को बतायी। फिर श्रम तथा क्षुधा से व्याकुल उद्दालक के मुख से, 'मरो शब्द निकला शाप के कारण, । आकाशवाणी के कथनानुसार नचिकेतस यमग्रह गया। यम के घर पहुँचने पर इसने यम के प्रभों को 'आकाशवाणी ने कहे मुताबिक जवाब दिये। फिर यम ने सोचा, 'यह कोई बड़ा अधिकारी' बालक मालूम होता , ३४१ Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नचिकेतस् प्राचीन चरित्रकोश पक्षीयों को यह ४.१-२)। उत्पन्न हुई थी। यह नाचिकेत तत्काल मृत हो गया। पुत्रमृत्यु के कारण, ५१)। एक बार यह गुप्त रूप से वसुदेव से मिला भी था उद्दालकि अत्यंत शोकाकुल हुआ, एवं उसी शोकमग्न (भा. १०.४६.२७-३०)। स्थिति में वह दिन तथा रात्रि इसने बिताई । दूसरे दिन श्रीकृष्ण बहुत वर्षों तक नंद गोप के घर रहा था । नाचिकेत यमगृह से वापस आया एवं उसने यम के एक बार यह पानी में डूब रहा था। किंतु कृष्ण ने द्वारा बताया गया 'गोदानमाहात्म्य' अपने पिता को इसे बाहर निकाला (भा. १०.२८.२-९)। यह स्यमन्तबताया । 'गोदानमाहात्म्य' बताने के लिये, नाचिकेत की | पंचक क्षेत्र में कृष्ण से मिलने गया था (भा. १०.८२. यह पुरानी कथा 'महाभारत' में भीष्म ने युधिष्ठिर को ३१)। यह हरसाल 'इंद्रयाग' नामक इंद्र का उत्सव करता बतायी है । नचिकेतस् अंगिरस कुल में पैदा हुआ था था। किंतु वह उत्सव बंद कर, कृष्ण ने इससे कार्तिक शुद्ध ऐसा कई अभ्यासकों का मत है। इसे नाचिकेत एवं प्रतिपदा के दिन 'अन्नकुट' का उत्सव प्रारंभ किया नचिकेत नामांतर भी प्राप्त थे। (भवि. प्रति. ४.१९.६१)। यह जब कृष्ण विरह से नड़ नैषध-एक राजा। इसके विजयों के व्याकुल हुआ। तब उद्धव ने इसका सांत्वन किया (भा. कारण, अपने शत्रुपक्षीयों को यह मृत्यु के देवता 'यम' देवा १०.४६.२७-३०)। के समान प्रतीत होता था (श. ब्रा. २.२.४.१-२)।। ___नंदगोप के कुल में यशोदा के गर्भ से एक कन्या 'शतपथ ब्राह्मण' में दक्षिण के यज्ञाग्नि से इसकी तुलना | उत्पन्न हुई थी। यह साक्षात् जगज्जननी दुर्गा का स्वरूप की गयी है। इस रूपकात्मक वर्णन का यथार्थ अर्थ क्या है, | मानी जाती हैं। युधिष्ठिर ने विराटनगर जाते समय, उस .. यह नहीं समझ पाता । संभवतः यह दक्षिण देश का कोई देवी का चिंतन किया, एवं देवी ने प्रत्यक्ष दर्शन दे कर राजा होगा । उसी कारण, दक्षिण दिशा का स्वामी 'यम' | उस वर दिया (म. वि. पार. १.४) । अर्जुन ने भं से इसकी तुलना की गयी सी दिखती है। नंदगोप के कुल में उत्पन्न इस, देवी का स्तवन किया,.. एवं उसे विजयसूचक आशीर्वाद प्राप्त हुआ (म. भी. नड़ एवं दमयंती का पति नल एक ही होंगे। 'डलयोर भेदः' इस नियमानुसार, 'नड़' का बाद में प्रचार २३)। में आया रूप नल होगा । नल राजा निषध देश ___ यह मधुपुरी उर्फ मथुरा के आसपास के महावन में का सम्राट था, एवं इसी लिये 'नैषध' नाम से प्रसिद्ध रहनेवाले आभीर भानु नामक गोपों का मुखिया था। था, यह बात यहाँ ध्यान में रखना जरूरी है। इसके नाम आभीर भाबु-चन्द्रसुरभि-सुश्रवस्-कालमेदु-चित्रसेन-नंद का 'नड़ नैषिध' पाठभेद भी कई जगह प्राप्त है। इस क्रम से इसकी वंशावलि महाभारत में दी गयी है। इसके पिता चित्रसेन को कुल नौ पुत्र थे:-१. सुनंद, २. नड़ायन-भृगुकुल का एक गोत्रकार | इसके नाम का उपनंद, ३. महानंद, ४. नंदन. ५. कुलनंद, ६. बंधुनंद, नवप्रभ पाठभेद भी प्राप्त है। ७. केलिनंद, ८. प्राणनंद, ९. नंद (आदि. ११)। नड्वला-वीरण प्रजापति की कन्या, तथा चक्षुर्मनु | २. एक विष्णुभक्त राजा। इसकी भक्ति से संतुष्ट हो की पत्नी (भा. ४.१३.१६)। कर विष्णु ने इसे एक सुंदर विमान दिया था। एक बार नदाकि-जिद्दक का नामांतर। इसे मानससरोवर के सुवर्णकमलों का अपहार करने की नदिवर्मन्--(ऐति.) परिहरवंशीय शांतिवर्मा का दुर्बुद्धि हुई। तत्काल इसका विमान नष्ट हो कर इसके सारे पुत्र (भवि. प्रति. ४.४)। शरीर पर कोढ़ हुआ। पश्चात् वसिष्ठ की सलाह के अनुसार, नज-एक प्राचीन राजा। पांडवों की ओर से इसे | इसने प्रभासक्षेत्र में तप किया। उस तप के पुण्यसंचय के 'रणनिमंत्रण भेजा गया था (म. उ. ४.२०)। कारण यह मुक्त हो गया (स्कन्द, ७.१.२५६)। ' नंद--गोकुल एवं नंदगाँव में रहनेवाला गोपों का | ३. वसुदेव को मदिरा से उत्पन्न पुत्र (भा. ९. २४. राजा एवं कृष्ण का पालक पिता (म. स. परि. १.२१. |८)। ७४५-७४७) । इसकी पत्नी यशोदा । यह द्रोणनामक | ४. (सो. कुरु.) धृतराष्ट्र का पुत्र । भीम ने इसका वसु के अंश से उत्पन्न हुआ था (भा. १०.८.४८; पन. | वध किया (म. क. ३५.१७)। सु. १३; ब्र. १३) । बसु देव ने अपने नवजात बालक | ५. (नंद. भविष्य.) मगध देश का राजा । महानंदिन् . श्रीहरि को इसके घर में छिपा दिया था (भा. १०.३. | के समय, शिशुनाग वंश का अंत हो कर शूद्रापुत्र नंद ३४२ Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन चरित्रकोश नंदिन गद्दी पर बैठा। इसने महानंदी का वध कर राज्य छीना | नंदपाल---न्यूहवंशीय चन्द्रदेव राजा का पुत्र। इसका था। इसके वंश में सुमाल्यादि आठ पुरुषों ने सौ वर्षोंतक | पुत्र कुंभपाल था (भवि. प्रति. ४.३)। राज्य किया। कौटिल्य ने नंद के आठ राजपुत्रों का वध नंदभद्र-एक धार्मिक वैश्य । काफी वर्षों तक इसे कर, चन्द्रगुप्त को गद्दी पर बैठाया। (भा. १२.१) संतति नहीं हुई। इसकी कपिलेश्वर पर अत्यंत भक्ति थी। ____ कई पुराणों में, 'सुमाल्या ' दि के बदले 'सुकल्पा' दि वृद्धापकाल में इसे एक पुत्र हुआ, परंतु विवाह होते ही पाठ प्राप्त है (विष्णु. ४.२२-२४; वायु. २.३७; ब्रह्मांड, कछ दिनो में वह भी मृत हो गया। .३.७४)। नंद के जीवितकाल में ही कौटिल्य का विरोध | इससे वैराग्य की इच्छा उत्पन्न हो कर, यह अध्यात्मप्रारंभ हो कर, नंद तथा उसके आठ पुत्र कौटिल्य के ज्ञान संपादन करने का प्रयत्न करने लगा। कुछ दिनों के षड्यंत्र के कारण मारे गये, तथा नवनंदों का नाश हो कर बाद, एक सात वर्ष का बालक इसे मिला। तथा उसने इसकी चन्द्रगुप्त गद्दी पर बैठा (मत्स्य. २७२)। अध्यात्मज्ञान की लालसा तृप्त की। बाद में सूर्य तथा रुद्र की उपासना कर के यह स्वर्ग पहुँच गया (स्कन्द. १. ___ कलि के तीन हजार तीन सौ दस वर्ष समाप्त होने पर, नंदराज्य का प्रारंभ हुआ था (स्कन्द, १.२.४०)। २.४६)। नंदवर्धन--मागधवंशीय उदापाश्व राजा का पुत्र । ___६. एक पिशाच । इसके पिशाच योनि में जाने पर इसका पुत्र नंदसुत (भवि. प्रति. २.६)। मुनिशर्मा नामक ब्राह्मण ने इसका उद्धार किया (पद्म. २. (प्रद्योत. भविष्य.) भागवत मतानुसार जनक का पा. ९४)। पुत्र । इसके नाम के लिये नंदिवर्धन तथा वर्तिवर्धन ७. विष्णु का एक पार्षद (भा. ४.१२.२२)। पाठभेद प्राप्त हैं। ८. एक कश्यपवंशी नाग (म. उ. १०१.१२)। नंदसुत-नंदवर्धन १. देखिये। ९. स्कंद का एक सैनिक (म. श. ४४.६३)। नंदा-धर्मप्रजापति के तीसरे पुत्र हर्ष की पत्नी १०. स्कंद का एक सैनिक (म. श. ४४.६४)। (म. आ. ६०.३२)। भांडारकर संहिता में, इसके नाम नंदक-(सो. करु.) धृतराष्ट्र का पुत्र (म. भी. ६०. | के लिये 'नंदी' पाठभेद उपलब्ध है। ६)। यह द्रौपदी के स्वयंवर में उपस्थित था। भीम ने २. पाताल के कपोत नाग की कन्या (मार्क. ६८.१९)। पाताल के कपोतनाग की कन्या ( Er. इसका वध किया। नंदायनीय--वायुमत में व्यास की ऋशिष्य२. वसुदेव को वृकदेवी से उत्पन्न पुत्र । परंपरा के बाष्कलि भारद्वाज का पुत्र तथा शिष्य । ३. एक दुर्योधनपक्षीय योद्धा (म. भी. ६०.२१)। नंदि--धर्म का पौत्र तथा स्वर्ग का पुत्र (भा. ६.६. ४. एक कश्यपवंशीय नाग (म. उ. १०१.११)। ६)। नंदन--(सो. क्रोष्टु.) वायु के मतानुसार मनुवश | २. उत्कल देश का राजा। इसने सुरथ के कोला नामक राजा का पुत्र। नगरी को घेरा डाला तथा सुरथ को जीता । किंतु अन्त में २. हिरण्यकशिपु का पुत्र। यह श्वेतद्वीप में राज्य | सुरथ ने इसका पराजय किया । पराजित हो कर भागते करता था। शंकर के वर के कारण, यह सबको अजित समय, पुष्पभद्रा नदी तट पर इसकी मुलाकात एक वैश्य हो गया था । दस हजार वर्ष राज्य करने के बाद, कैलास से हुई। उसे ले कर यह मेधसाश्रम गया, एवं उससे इसे में जा कर यह शिवगणों में से एक बन गया (शिव. उ. | मंत्रोपदेश प्राप्त हुआ (ब्रह्मवै. २. ६२; दे. भा. ५.३२२)। ३. मणिभद्र तथा पुण्यजनी का पुत्र । ___३. एक देवगंधर्व । अर्जुन के जन्मकालिक उत्सव में ४. अश्विनीकुमारों द्वारा स्कंद को दिये गये दो पार्षदो | यह शामिल हुआ था (म. आ. १४४.४५)। *से एक । दूसरे पार्षद का नाम वर्धन था (म. श. नंदिन--भगवान शिव का दिव्य पार्षद एवं वाहन । ४४.३३-३४)। यह शालंकायनपुत्र शिलाद ऋषि का पुत्र था। इसे ५. स्कंद का एक सैनिक (म. श. ४४.६०)। शैलादि पैतृक नाम प्राप्त है। निपुत्रिक होने के कारण, नंदनोदरदुंदुभि--(सो. कुकुर.) नल राजा का | इसके पिता शिलाद ने पुत्रप्राप्ति के लिये तपस्या की। नामांतर (नल ४. देखिये)। उस तपस्या से प्रसन्न हो कर शंकर ने उसे पुत्रप्राप्ति का वर ३४३ Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नंदिन प्राचीन चरित्रकोश नप्त दिया। उस वर के अनुसार, यज्ञ के लिये जमीन जोतते | की कामनाएँ पूरी करने के कारण इसे 'कामधेनु' कहते समय, शिलाद को तीन आँखोंवाला, चार हाथोंवाला, एवं | थे । जो मनुष्य इसका दूध पीता था, वह दस हजार वर्षों जटामुकटधारी शंकररूप बालक प्राप्त हुआ। यही नंदिन् | तक युवावस्था में जीवित रहता था (म. आ. ९३. १९)। शिलाद इसे घर ले आया। तत्काल इसका रूप बदल यह वरुणपुत्र वसिष्ठ की 'होमधेनु' थी (म. आ. कर, यह अन्य मनुष्यों के समान हुआ। नंदी आठ दस | ९३.९)। उसके तापसवन में यह चरती रहती थी। वर्षों का होने पर, मित्रावरुणों द्वारा इसे पता चला, एकबार, द्यु नामक वसु ने इसका अपहरण किया। इस 'यह अल्पायु है'। तब अपमृत्यु से बचने के लिये, कारण वसिष्ठ ने वसुओं को शाप दिया (म. आ. ९३.४४ इसने शंकर की आराधना की एवं अमरत्व प्राप्त किया। यु देखिये) इसके तप से प्रसन्न हो कर शंकर ने इसे पुत्र माना, तथा इसके प्राप्ति के लिये, विश्वामित्र ने वसिष्ठ से याचना अपने पार्षद गणों में इसे स्थान दिया। की थी। वसिष्ठ ने उसका इन्कार करने पर, विश्वामित्र ने . नंदिन् ने मरुतों की कन्या सुयशा से विवाह किया था | इसका हरण किया (म. आ. १६५.२१)। पश्चात् (शिव. पा. ७)। दक्षयज्ञ विध्वंस के प्रसंग में, इसने भग | अपने विभिन्न अंगों से हूण, यवन, किरात आदि की नामक ऋत्विज को बद्ध किया था (भा. ४. ५. १७)। | सृष्टि निर्माण कर, नंदिनी ने विश्वामित्र के सेना को दक्ष को भी तत्त्वविमुख होने का शाप दिया था (भा. | पराजित किया एवं उस सेना को नष्ट कर दिया. (म.श.. ४. २. २१)। इसने रावण को भी शाप दिया था | ३९.२०-२१)। (वा. रा. उ. ५०)। अपने पितामह शालंकायन से नंदिवर्धन-(सू. निमि.) एक राजा । यह उदावसु. इसने स्कन्दपुराण का 'अरुणाचलमाहात्म्य' सुना, | का पुत्र था । इसका पुत्र सुकेतु जनक । तथा वह मार्कडेय ऋषि को बताया (स्कन्द. १. ३. २. | २. (प्रद्योत. भविष्य.) एक राजा । भागवत के मता- . १६)। राम के अश्वमेध प्रसंग में इसका हनुमान से | नुसार यह राजक का, मत्स्य के मतानुसार सूर्यक का तथा युद्ध हुआ था (पन. पा. ४३)। ब्रह्मांड के मतानुसार अजक का पुत्र था । मत्स्य मतानुसार नंदिन ऋषिपुत्र था, एवं स्वयं भी एक ऋषि ही था । | इसने तीस वर्ष तथा 'ब्रह्मांडमतानुसार बीस वर्ष राज्य । फिर भी जनमानस में, शिव का वाहन नंदी 'बैल' | किया। माना जाता है। इस जनरीति का प्रारंभ कैसे हुआ, यह ३.(शिश. भविष्य.) एक राजा । भागवतमत में कहना मुष्किल है । शिव के पार्षद, नृत्यके समय, अश्व, | यह अजय का, विष्णुमत में उदयन का, वायु तथा बैल आदि प्राणियों के वेष परिधान करते थे। उसी ब्रह्मांड के मत में उदयिन् का तथा मत्स्यमत में उदासीन कारण, उस प्राणियों से उनका साधय प्रस्थापित किया | का पुत्र था। इसने चालीस वर्षों तक राज्य किया। गया होगा। नंदिवेग-एक क्षत्रियवंश, जिसमें 'शम' नामक २. इन्द्रग्राम में रहनेवाला एक ब्राह्मण । महाकाल | कुलांगार नरेश पैदा हुआ था. (म. उ. ७२, १७)। नामक किरात के भक्तियोग से इसे शिवदर्शन का लाभ | नंदिषेण ब्रह्माजी के द्वारा स्कंद को दिये चार हुआ, एवं इसका उद्धार हुआ । पश्चात् यह शिवगणों | पार्षदों में से एक । शेष तीन पार्षदों के नाम:- लोहिताक्ष, में से एक बन गया (पद्म. उ. १४४)। कई ग्रंथों में इसे | घंटाकर्ण, केमुदमालिन् (म. श. ४४. २२)। वैश्य कहा गया है (स्कन्द. १. १.५)। __ नंदीश-वास्तुशास्त्र पर लिखनेवाला एक ग्रंथकार ३. कश्यप को मुनी नामक स्त्री से उत्पन्नपुत्र । (मत्स्य. २५२)। नंदियशस्-(नाग, भविष्य.) एक राजा । वायु | नंदीश्वर-भगवान् शिव का एक दिव्य पार्षद । के मत में यह मथुरा नगरी के मधुनंद राजा का, तथा | नन्दिन् इसीका ही नामांतर है (नन्दिन् १. देखिये)। यह . ब्रह्मांडमत में यह बैदेश नगरी के भूतिनंद का पुत्र था। | कुबेर सभा में उपस्थित हुए शिव का, वाहन था (म. नंदिनी-कश्यप के द्वारा सुरभि के गर्भ से उत्पन्न | स. परि. १.४.९)। एक गौ (म. आं. ९३.८)। समस्त जगत् पर अनुग्रह | नप्त-एक सनातन विश्वदेव (म. अनु. ९१. करने के लिये इस गौ का अवतार हुआ था, एवं पूजको | ३७. कुं.)। ३४४ Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नभ प्राचीन चरित्रकोश नमुचि नभस्वारोचिष मनु का पुत्र। . नमी साप्य-ऋग्वेद में निर्देश किया गया एक राजा २. उत्तम मनु का पुत्र । (ऋ. ६.२०.६)। ३. चाक्षुषमनु का पुत्र। 'नमुचि' राक्षस के साथ इंद्र ने किये युद्ध में, इसने ४. वैवस्वतमनु का पुत्र । इंद्र को काफी मदद की थी (ऋ. १०.४८.९)। ऋग्वेद ५. काश्यपकुल का एक गोत्रकार । में कई जगह, इसका निर्देश केवल 'नमी' नाम से ही ६. भार्गवकुल का एक मंत्रकार। किया गया है (ऋ. १.५३.७)। सायण का कथन है कि, ७. (सू, इ.) एक राजा । भागवतमत में यह निषध | यह एक ऋषि था। परंतु पंचविंश ब्राह्मण के मतानुसार का, तथा वायु मतानुसार यह नल का पुत्र था। इसका | यह विदेह का राजा होगा (पं. बा. २५.१०.१७ निमि पुत्र पुंडरीक । दखिये)। नभःप्रभेदन वैरूप-सूक्तद्रष्टा (ऋ. १०.११२)। __ नमुचि-इंद्र का शत्रु एक राक्षस । समुद्र के 'फेन' नभंग-वैवस्वत मनु का पुत्र । इसका पुत्र नाभाग | | (फेंस) के द्वारा इंद्र ने इसका वध किया । पौराणिक (भा. ८.१३.२, ९.४.१)। भागवत में नाभाग के नाम | नृसिंह अवतार की कल्पना का मूल, इंद्र एवं नमुचि के युद्ध पर दी गई कथा, शिवपुराण में इसके नाम पर दी गई है में ही है (ऋ८.१४.१३) । समुद्र के फैंस के द्वारा इसकी (शिव. शत. २९) । इसके नाम के लिये नभग, नाभाग, मृत्यु होने का कथाभाग, कुछ रूपकात्मक प्रतीत होता है। नाभागारिष्ट, नाभानेदिष्ट आदि पाठभेद प्राप्त है। पं. सातवलेकरजी के मत में, यह समुद्र के फेंस से नभस्-(सू. इ.) एक राजा । विष्णु, मत्स्य तथा ठीक होनेवाला कोई रोग होगा। पद्म के मत में यह नल का पुत्र था (पा. स. ८)। भागवत महाभारत में, नमुचि को कश्यप एवं दनु का पुत्र कहा तथा वायुपुराण में इसे नभ भी कहा है । गया है (म. आ. ५९.२२)। हिरण्यकशिपु ने देवों पर आक्रमण किया एवं उनका पराभव कर दिया। इस युद्ध २. उत्तममनु का पुत्र। . में, नमुचि हिरण्यकशिपु राक्षस का सेनापति था । ३. ब्रह्मसावर्णि मन्वन्तर का एक ऋषि । (म. स. परि. १. क्र. २१; पंक्ति. ३५८)। यह वृत्र का .. ४..(सो. ऋक्ष.) एक राजा । वायुमत में यह ऊर्ज का । अनुयायी था (भा. ६.१०.१९)। स्वर्भानुकन्या सुप्रभा पुत्र था (संभव देखिये)। इसकी भार्या थी (भा. ६.६.३२)। · नभस्य-स्वारोचिष मनु का पुत्र। __एक बार भयभीत हो कर, यह सूर्यकिरण में प्रविष्ट २. उत्तममनु का पुत्र । हुआ तथा इसने इन्द्र से मैत्री की । उस समय इंद्र ने .. नभस्वत्-मुर दैत्य का एक पुत्र । कृष्ण ने इसका इससे बहुत सारे विषयों पर चर्चा की। संकट के कारण ... वध किया था (भा. १०.५९.१२)। उत्पन्न होनेवाला दुख भगवत्-चिंतन से किस प्रकार दूर नभस्वती-(स्वा. उत्तान.) विजिताश्व राजा की | हो जाता है, इस विषय पर दोनों का संभाषण हुआ पत्नी । इसका पुत्र हविर्धान (भा. ४.२४.५)। (म. शां. २१९)। फिर इसके वाक्पटुत्त्व एवं विद्वत्ता नभाक--एक ऋषि (ऋ. ८.४०.४-५)। इसने | के कारण, प्रसन्न हो कर इंद्र ने इसे वरप्रदान किया, तयार किये ऋचाओं के द्वारा, देवों ने वल के कब्जे में गये | 'तुम आर्द्र अथवा सूखें किसी भी शस्त्र से मृत न होगे। अपनी गायों को बचा लिया (ऐ. बा. ६.२४) । ऋग्वेद | परंतु बाद में इंद्र ने सागरजल के फेन से इसका शिरच्छेद अनुक्रमणी में इसके नाम का निर्देश 'नाभाक' नाम से | किया, तब उसके केवल सिर ने ही इंद्र का पीछा किया किया गया है । 'नाभाक काण्व' के नाम पर भी ऋग्वेद (म. श. ४२.३२)। पश्चात् ब्रह्मदेव के कहने पर, में दो सूक्त हैं (ऋ. १०.३९; ४२)। नमुचि ने जिस तीर्थ में गुप्त रूप से स्नान किया था, नभाग तथा नभागदिष्ट-नभग देखिये। उसी 'अरुणासंगम' नामक तीर्थ में इंद्र ने स्नान नभोग-ब्रह्म सावर्णि मन्वन्तर का एक ऋषि । किया। फिर इंद्र के पीछे पीछे नमुचि का सिर भी उस नभोद-एक सनातन विश्वेदेव (म. अनु. ९१.३४)। | तीर्थ में आ गिरा। उस स्नान के कारण, नमुचि को नमस्य--(सो. पूरु.) भागवतमतानुसार प्रवीर राजा | समस्तक सद्गति मिली, एवं इच्छित अक्षय लोक उसे प्राप्त का पुत्र । इसका पुत्र चारुपद (मनस्यु देखिये)। | हुआ (म. शं. ४२.२९-३२)। वामनावतार में, वामन प्रा. च. ४४] ३४५ Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमुचि प्राचीन चरित्रकोश नरक स्वरूप विष्णु ने बलि के साथ नमुचि को भी पाताल | कर दिया । अतः नर को 'खंडपरशु' नाम प्राप्त हुआ में गाड़ रखा था (म. स. परि. १. क्र. २१. पंक्ति. (म. शां. ३३०.४९)। ३५८-३५९)। पश्चात् नर अपने बंधु नारायण के समवेत बदरिका२. हिरण्याक्ष का सेनापति । इंद्र को मूच्छित कर इसने | श्रम में तपस्या करने लगे। उस तपस्या के कारण, यह ऐरावत को नीचे गिराया, तथा माया से अनेक जंतु महान् तपस्वी बन गये (म. व. १२२४*) दंभोद्भव नामक उत्पन्न किये। वे जंतु विष्णु ने अपने चक्र से नष्ट किये। असुर सम्राट से इसका एवं इसके भाई नारायण का महान् पश्चात् इंद्र ने वज्र से इसका वध किया (पन. सृ. युद्ध हुआ था। उस युद्ध में दंभोद्भव का पराजय हुआ। पश्चात् पराजित हुए दंभोद्भव को इसने उपदेश प्रदान ३. हिरण्याक्ष का एक और सेनापति । इंद्र पर इसने | किया (म. उ. ९४)। पाँच बाण छोड़े। परंतु इंद्र ने उन्हें बीच में ही तोड़ दिया। | द्रौपदी वस्त्रहरण के समय, द्रौपदी ने अपनी लाज़ बाद में इसने अपनी माया से अंधकार उत्पन्न किया। बचाने के लिये भगवान् श्रीकृष्ण के साथ, नर को भी परंतु अपने एक अस्त्र के द्वारा, इंद्र ने उस अंधकार को पुकारा था (म. स. ६१.५४२%)। नष्ट किया। बाद में इंद्र के समीप आ कर, इसने २. एक गंधर्व । यह कुवेर की सभा में रह कर, उसके ऐरावत हाथी के दाँत पकड़े एवं इंद्र को नीचे गिरा उसकी उपासना करता था (म. स. १९.१४)। .. दिया। परंतु उस काम में उसे मन देख कर, इंद्र ने । ३. एक प्राचीन नरेश | इसने जीवन में कभी मांस अपने खड्ग से इसका सिर काट दिया (पन. सृ. | | नहीं खाया था (म. अनु. ११५.६४)। . ६९)। ४. तेरह सैंहिकयों में से एक। विप्रचित्ति एवं ____३. तामस मनु का पुत्र। . सिंहिका का यह पुत्र था । परशुराम ने इसका वध किया ४. (सू, दिष्ट.) सुधृति राजा का पुत्र । . (पन. सृ. ६७)। ५. (सो. अनु.) विष्णु के मत में उशीनर राजा का नय-रौच्य मनु का पुत्र । पुत्र । इसके नाम के लिये 'नववत्' पाठभेद उपलब्ध है। २. तुषित साध्य देवों में से एक। ६. एक वीरपुरुषः। शंकर ने ब्रह्मदेव का पंचम मस्तक : नर-'नरनारायण' नामक भगवत्स्वरूप देवताद्वयों तोड़ दिया। फिर शंकर को संजा देने के लिये ब्रह्मदेव ने में से एक । भगवान् नारायण इसका भाई था । नारायण अपने पसीने से एक उग्र पुरुष निर्माण किया। उसने एवं दोनों भगवान् वासुदेव के अवतार तथा धर्म के पुत्र शंकर को अत्यंत त्रस्त किया । फिर शंकर ने स्वरक्षणार्थ थे। पांडुपुत्र अर्जुन इसीका अवतार बताया गया है विष्णु की प्रार्थना की । विष्णु ने अपनी अंगुलि काट कर (म. आ..१; नरनारायण देखिये)। रक्त से एक पुरुष निर्माण किया। उसी का नाम नर दैत्यों को अमृत से वंचित करने के कारण हुए देवासुर है। ब्रह्माजी के पसीने से निर्माण हुए उग्र पुरुष का वध संग्राम में, नर ने अपने दिव्य धनुष से असुरों से संग्राम | | कर, इसने शंकर को निर्भय बना दिया (पद्म. सृ. १४; किया था। उस महाभयंकर संग्राम में इसने पंखयुक्त बाणों भवि. ब्राह्म. २३)। द्वारा पर्वत शिखरों को विदीर्ण किया, एवं समस्त आकाश ७. तुषित साध्य देवों में से एक । मार्ग को आच्छादित कर दिया। इस संग्राम के पश्चात, ८. (स्वा. नाभि.) विष्णुमत में गय का पुत्र | देवों को प्राप्त अमृत की निधि, उन्होंने किरीटधारी नर ९. (सो. पूरु.) भागवतमत में मन्युपुत्र । विष्णु, के पास रक्षा के लिये सौंप दी। वायु तथा मत्स्यमत में भुवन्मन्यु पुत्र है। ____दक्षयज्ञ के विध्वंस के लिये, शिव ने प्रज्वलित | नर भारद्वाज-सूक्तद्रष्टा (ऋ. ६.३५.१६)। त्रिशूल चलाया था। यज्ञ का नाश करने के पश्चात् , वह | भरद्वाज के पाँच पुत्रों में से एक । भरत ने भरद्वाज को नर के भाई नारायण की छाती में आ लगा । उस कारण | दत्तक लेने के कारण, इसे बृहस्पति तथा भरत नामक दो शिव एवं नरनारायणों के दरमियान युद्ध शुरू हुआ। उस | दादा थे (ऋग्वेद वेदार्थदीपिका ६.५२)। युद्ध में नर ने शिव पर सींक चलायी। परश बन कर वह नरक-एक दानव। यह कश्यप तथा दनु का पुत्र था शिव के शरीर पर चली । किंतु शिव ने उसे खंडित | (म. आ. ५९.२८)। इंद्र ने इसे परास्त किया था। Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नरक प्राचीन चरित्रकोश नेरक २. तेरह सैहिकेयों में से एक। यह विप्रचिति दानव | थे। उस समय समस्त देवमंडल को साथ ले कर इंद्र वहाँ तथा दितिकन्या सिंहिका का पुत्र था । आया । उस ने कृष्ण से पापी नरकासुर का वध करने की ३. एक असुर, एवं प्राग्ज्योतिषपुर का राजा । पृथ्वी | प्रार्थना की । श्रीकृष्ण ने भी नरक का वध करने की का पुत्र (भूमिपुत्र) होने के कारण, इसे भौम नाम भी | प्रतिज्ञा की। प्राप्त था । इसकी माता भूदेवी ने विष्णु को प्रसन्न कर, पश्चात् सत्यभामा एवं इंद्र को साथ ले कर तथा गरुड इसके लिये 'वैष्णवास्त्र' प्राप्त किया था। उसी अस्त्र | पर आरुढ हो कर, श्रीकृष्ण प्राग्ज्योतिषपुर राज्य के के कारण, नरकासुर बलाढ्य एवं अवध्य बना था। अपनी | सीमा पर पहुँच गया । उस राज्य की सीमा पर मुर दैत्य मृत्यु के पश्चात् , यही अस्त्र इसने अपने पुत्र भगदत्त को की चतुरंगसेना खड़ी थी। उस सेना के पीछे मुर दैत्य के प्रदान किया (म. द्रो. २८)। बनाये हुएँ छः हजार तीक्ष्ण पाश थे। श्रीकृष्ण ने उन नरक का राज्य नील समुद्र के किनारें था। इसकी पाशों को काट कर, एवं मुर को मार कर राज्य की सीमा राजधानी प्राग्ज्योतिषपुर अथवा मूर्तिलिंग नगर में थी। में प्रवेश किया। पश्चात् पर्वतों के चट्टानों के घेरे के इसके पाँच राज्यपाल थे।-- हयग्रीव, निशंभ, पंचजन, | रक्षक, निशुंभ पर श्रीकृष्ण ने हमला किया। इस युद्ध में विरुपाक्ष एवं मुर (म. स. परि.१क्र. २१ पंक्ति. १००६)। निशुंभ, हयग्रीव आदि आठ लाख दानवों का वध कर पृथ्वी भर की सुंदर स्त्रियाँ, उत्तम रत्न एवं विविध श्रीकृष्ण आगे बढ़ा । पश्चात् ओदका के अंतर्गत विरुपाक्ष वस्त्र आदि का हरण कर, नरक अपने नगर में रख देता एवं पंचजन नाम से प्रसिद्ध पाँच भयंकर राक्षसों से श्रीकृष्ण था। किंतु उन में से किसी भी चीज का यह स्वयं उपभोग का युद्ध हुआ। उनको मार कर श्रीकृष्ण ने प्राग्ज्योतिषपुर नहीं लेता था। नगर में प्रवेश किया। ____गंधर्व, देवता, एवं मनुष्यो की सोलह हजार एक सौ प्राग्ज्योतिषपूर नगरी में, श्रीकृष्ण को दैत्यों के साथ कन्याएँ, एवं अप्सराओं के समुदाय में से सात अप्सराओं | बिकट युद्ध करना पड़ा। उस युद्ध में लक्षावधि दानवों को का नरक ने हरण किया था। त्वष्टा की चौदह वर्ष की | मार कर, श्रीकृष्ण पाताल गुफा में गया । वहाँ नरकासुर कन्या कशेरु का, उसे मुछित कर नरक ने अपहरण | रहता था। वहाँ कुछ देर युद्ध करने के बाद, श्रीकृष्ण ने किया था। उस समय इसने हाथी का मायावी रूप धारण | चक्र से नरकासुर का मस्तक काट दिया (म. स. परि. १क्र. किया था (म. स. परि. १क्र. २१पंक्ति. ९३८-९४०)।| २१ पंक्ति. ९९५-११५५)। इसका वध करने के पहले, इंद्र का ऐरावत हाथी एवं उचैःश्रवा नामक अश्व का | श्रीकृष्ण ने इसे ब्रह्मद्रोही, लोककंटक एवं नराधम कह कर भी इसने हरण किया था। देवमाता अदिति के कुंडलों | पुकारा (म. स. परि. १क्र. २१ पंक्ति. १०३५)। ' का भी नरक ने अपहरण किया था। नरकासुर एवं श्रीकृष्ण के युद्ध की कथा हरिवंश में नरक ने पृथ्वी से अपहरण किया सारा धन, एवं | कुछ अलग ढंग से दी गयी हैं। पंचजन दैत्य का वध स्त्रियाएँ अलका नगरी के पास मणिपर्वत पर 'औदका' करने के पश्चात् , श्रीकृष्ण ने प्राग्ज्योतिषपुर नगरी पर नामक स्थान में रखी हुई थी। मुर के दस पुत्र एवं अन्य | हमला किया। प्रधान राक्षस, उस अंतःपुर की रक्षा करते थे। इसके राज्य नरकासुर से युद्ध शुरु करने के पहले श्रीकृष्ण ने की सीमा पर, मुर दैत्य के बनाये हुएँ छः हजार पाश | पांचजन्य शंख पूँका । उस शंख की आवाज़ सुन कर नरक लगाएँ गये थे। उन पाशों के किनारों के भागों में छुरे | अत्यंत क्रोधित हुआ, एवं अपने रथ में बैठ कर युद्ध के लगाएँ हुए थे। इस के बाद बड़े पर्वतों के चट्टानों के ढेर | लिये बाहर चला आया । नरक का रथ अत्यंत विस्तृत, से एक बाड़ लगाई गयी थी। इस ढेर का रक्षक निशंभ मौल्यवान एवं अजस्त्र था। इसके रथ को हजार घोडे था। औदका के अंतर्गत लोहित गंगा नदी के बीच | जोते गये थे। इस प्रकार सुसज्ज हो कर, नरकासुर युद्धभूमि विरूपाक्ष एवं पंचजन ये राक्षस उस नगरी के रक्षक थे। में आया, एवं श्रीकृष्ण से उसका तुमुल युद्ध हुआ। (म. स. १.२१.९५३)। | आखिर श्रीकृष्ण ने सुदर्शन चक्र से उसका सिर काट नरक का वर्तन हमेशा ही देव तथा ऋषिओं के खिलाफ लिया । फिर नरकासुर की माता ने, श्रीकृष्ण के पास आ ही रहता था । स्वयं श्रीकृष्ण का भी इसने अपमान कर, अदिति के कुंडल एवं प्राग्ज्योतिषपुर का राज्य उसे किया था। एक बार सारे यादव दाशाही सभा में बैठे हएँ । अर्पण कर दिया (ह. व. २.६३; भा. १०.५९) पश्चात् ३४७ Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नरक .प्राचीन चरित्रकोश नरनारायण श्रीकृष्ण ने नरकासुर के महल में प्रवेश कर बंदीगृह में धर्म के पुत्र के रूप में प्रगट हुएँ (म. शां. ३३४.९-१२) रखी गयी सोलह हजार एक सौ स्त्रियों की मुक्तता की उनके नाम क्रमशः नर, नारायण, हरि एवं कृष्ण थे। (पन. उ. २८८)। उन स्त्रियों को एवं काफी संपत्ति ले | उनमें से नर एवं नारायण यह बंधुद्वय पहले देवतारूप कर श्रीकृष्ण द्वारका लौट आया (भा. १०.५९)। में, पश्चात् ऋषिरूप में, एवं महाभारतकाल में अर्जुन एवं नरकासुर वध की कथा पद्मपुराण में भी दी गयी है। कृष्ण के रूप में, अपने पराक्रम एवं क्षात्रतेज के कारण किंतु उस में 'नरकचतुर्दशी माहात्म्य ' को अधिक महत्त्व अधिकतम सुविख्यात है (नर एवं नारायण देखिये)। दिया गया है। नरनारायण की उपासना काफी प्राचीन है। महामारत नरकासुर ने तप तथा अध्ययन कर, तपःसिद्धि प्राप्त | काल में अर्जुन एवं कृष्ण को, नरनारायणों का अवतार की थी। फिर इन्द्र को इससे भीति उत्पन्न हुई, एवं उसने समझने के कारण, नरनारायणों की उपासना को नया रूप नरकासुर का वध करने की प्रार्थना कृष्ण से की। पश्चात् प्राप्त हो गया । पाणिनि में नरनारायणों के भक्तिसंप्रदाय श्रीकृष्ण ने इस तपःसिद्ध नरकासुर को हस्ततल से प्रहार | का निर्देश किया है। कर के इसका वध किया। यह मरणोन्मुख हो कर देवी भागवत के मत में, नरनारायण चाक्षुष मन्वन्तर भूमि पर गिरा तब इसने कृष्ण की स्तुति की। कृष्ण में उत्पन्न हुएँ थे (दे. भा. ४.१६)। ये धर्म को दक्षने इसे वर माँगने के लिये कहा। इसने वर माँगा 'मेरे कन्या मूर्ति से उत्पन्न हुये थे (भा. २.७)। ये धर्म को . मृत्युदिन के तिथि को, जो सूर्योदय के पहले मंगलस्नान कला नामक स्त्री से उत्पन्न हुए थे, ऐसा भी उल्लेख करेंगे, उन्हें नरक की पीड़ा न हो'। यह कार्तिक वद्य प्राप्त है। पूर्ण शांति प्राप्ति के लिये, इन दोनों ने दुर्घट चतुर्दशी को मृत हुआ। इसलिये उस दिन को 'नरक तप किया था (भा. १.३)। नरनारायण के दुर्घट तप से . चतुर्दशी' कहने की प्रथात शुरु हुई। उस दिन किया | भयभीत हो कर, इन्द्र ने इनके तपोभंग के लिये कुछ . प्रातःस्नान पुण्यप्रद मानने की जनरीति प्रचलित हुई | अप्सराएँ भेजी। यह देख कर नारायण शाप देने के . (प. उ. ७६.६७)। लिये सिद्ध हो गया, परंतु नर ने उसका सांत्वन किया लोमश ऋषि के साथ पांडव तीर्थाटन के लिये | (दे. भा. ४.१६; भा. २.७; पद्म. सृ. २२)। पश्चात् गये थे। अलकनंदा नदी के पास जाने पर, शुभ्र नारायण ने अपनी जंघा से उर्वशी नामक अप्सरा निर्माण । पर्वत के समान प्रतीत होनेवाला शिखर लोमश कर, वह इन्द्र को प्रदान की (भा. ११.४.७)। इन्द्र द्वारा ने उन्हें दिखाया। वे नरकासुर की अस्थियाँ थी भेजी गई अप्सराओं को अगले अवतार में विवाह करने (म. व. परि. १. क्र. १६. पंक्ति. २८-३१)। वरुण | का आश्वासन दे कर इसने विदा किया (दे. भा. ४. सभा में नरकासुर को सम्माननीय स्थान प्राप्त हुआ था | १६)। बाद में इन्होंने कृष्ण तथा अर्जुनरूप से अवतार (म. स. ९.१२)। लिया । कृष्णार्जुनों को दर्शन दे कर इन्होंने उपदेश भी नरकासुर के वध के बाद उसकी माता के कथनानुसार, दिया (दे. भा. ४.१७; भा. १०.८९.६०)। यह बदरिकृष्ण ने इसके पुत्र भगदत्त को अभयदान दिया । उस पर काश्रम में रहते थे (भा. ११.४.७ )। इन दोनों ने नारद वरदहस्त रखा तथा उसे राज्य दिया (भा. १०.५९)। से किये अनेक संवादों का निर्देश प्राप्त है (म. शां. नरकासुर की कथा कालिकापुराण में निम्नलिखित ढंग से दी गयी है। त्रेतायुग के उत्तरार्ध में यह वराहरूपी | एक बार हिरण्यकश्यपु का पुत्र प्रह्लाद ससैन्य तीर्थयात्रा विष्णु को भूमि के द्वारा उत्पन्न हुआ। विदेह देश के | करते करते, नरनारायण के आश्रम के पास आया। उस राजा जनक ने सोलह वर्षों तक इसका पालन किया। स्थान पर उसने बाण, तरकस आदि युद्धोपयोगी चीजें प्राग्ज्योतिषपुर के किरातों से युद्ध कर के, इसने उनका | देखीं। इससे उसे लगा कि, इस आश्रम के मुनि शांत न नाश किया। बाद में राज्यश्री के कारण मदोन्मत्त होने पर, | हो कर दांभिक होंगे। उसने इन्हें वैसा कहा भी । इससे द्वापार युग में कृष्ण ने इसका नाश किया (कालि. ३९- | गर्मागर्म बातें हो कर, युद्ध करने तक नौबत आ गयी । ४०)। पश्चात् नरनारायण एवं प्रह्लाद का काफी दिनों तक तुमुल नरनारायण-एक भगवत्स्वरूप देवताद्वय । स्वायंभुव | युद्ध हुआ। उसमें कोई भी नहीं हारा । इस युद्ध के कारण मन्वन्तर के सत्ययुग में भगवान् वासुदेव के चार अवतार | देवलोक एवं पृथ्वी लोक के सारे लोगों को तकलीफ होने ३४८ Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नरनारायण प्राचीन चरित्रकोश नर्मदा लगी । फिर विष्णु ने मध्यस्थ का काम किया तथा यह युद्ध | काफी पुण्य संपादन किया था। इसके गीले वस्त्र आकाश रोक लिया ( दे. भा. ४.४.९)। में अधर सूखते थे। नरवाहन--कुवेर का नाम । __एक बार एक बगुले को शाप देने के कारण, इसका नरसिंह--गौड देश का राजा । इसके सेनापति का | काफी पुण्य तथा दैवी सामर्थ्य नष्ट हो गया। इसे काफी नाम सरभभेरुंड था । वह गीतापाठ करने के कारण मुक्त दुख हुआ। इतने में इसने आकाशवाणी सुनी, 'तुम मूक हुआ (सरभभेरुंड देखिये)। नामक धार्मिक चांडाल के पास जाओ। वह तुम्हें धर्म का नरांतक-अंगद द्वारा मारा गया रावण का पुत्र | उपदेश करेगा'। यह उस चांडाल के पास गया । (भा. ९.१.१८; वा. रा. यु. ६९)। उस समय मूक अपने माता पितरों की सेवा कर रहा था। २. रावण के प्रहस्त नामक प्रधान का पुत्र । यह द्विविद | उसने इसे रुकने के लिये कहा । फिर भी यह नहीं रुका । वानर के द्वारा मारा गया (वा. रा. यु: ५-८)। फिर मूक ने इसे एक पतिव्रता के पास जाने के लिये ___३. रौद्रकेतु दैत्य का पुत्र । अपने दुष्कृत्यों से इसने कहा। सारे त्रैलोक्य को अत्यंत त्रस्त किया था। बाद में इसे पता। इतने में ब्राह्मण रूपधारी विष्णु अपने घर से बाहर चला कि, कश्यपं गृहोत्पन्न विनायक के द्वारा अपनी मृत्यु | निकला तथा उसने इसे पतिव्रता के घर पहुचा दिया। वह होगी । तब विनायक के नाश के लिये इसने काफी प्रयत्न | पतिसेवा करने में मग्न होने के कारण, उसने भी इसे रुकने किये । परंतु वे निष्फल हो कर, विनायक ने इसका वध के लिये कहा। इसे रुकने के लिये समय न होने के किया (गणेश. २.६१)। कारण, उसने इसे धर्म वैश्य के पास जाने के लिये कहा। ४. कालनेमि राक्षस का पुत्र । हिरण्याक्ष के साथ हुए वह ग्राहकों को माल देने में मग्न था, इसलिये उसने इसे देवों के संग्राम में, जयंत ने इसका पराभव किया था | धर्माकर के पास जाने के लिये कहा । उसने इसे एक (पद्म. सु. ७५)। ' वैष्णव के पास भेजा। वैष्णव के पास जाने पर उसने नरामित्र-त्रिधामन् नामक शिवावतार का शिष्य । | कहा, कि 'अवश्य ही तुम्हें विष्णु का दर्शन हुआ है। नरि-(सो. कुकुर.) बहुपुत्र राजा का पुत्र । इसका | अब तुम्हारे वस्त्र अधर सूरखेंगे। पुत्र अभिजित् (पद्म. सू. १३)। ___परंतु इस पर नरोत्तम ने कहा, मुझे अब तक विष्णु नरिन्-वनरस नगर के तालन राजा का पुत्र (भवि. | का दर्शन नहीं हुआ है। फिर वह वैष्णव इसे पूजागृह में प्रति. ३.७)। ले गया । पूजागृह में इसे पतिव्रता का घर दिखानेवाला नरिष्यन्त-वैवस्वत मनु का पुत्र, एक राजा (म. | ब्राह्मण कमलासन पर बैठा हुआ दिखा। फिर नरोत्तम आ. ७०-१३)। इसका पुत्र शुक (पद्म. स.८)। उसके उसकी शरण में गया । पश्चात् विष्णु ने इसे माता पिता की सिवा, इसे चित्रसेन, ऋक्ष, मीढ्वस, कूर्च, इंद्रसेन आदि सेवा करने के लिये कहा। उस सेवाधर्म के कारण, यह पुत्र भी थे। पश्चात् इसीके कुल में अग्निवेश्यायन ब्राह्मण | स्वर्लोक पहुँच गया (पन्न. सु. ४७)। पैदा हुएँ (भा. ९.२.१९-२२)। 'शक' लोग भी नर्मदा-सोमप नामक पितरों की मानसकन्या। इसीके पुत्र कहलाते थे (ब्रह्म. ७.२४)। इसका पूरा २. एक गंधर्वी । अपनी तीन कन्याएँ इसने सुकेश वंश 'भागवत' में दिया गया है (भा. ९. २. १९- राक्षस के तीन पुत्रों को दी थीं (वा. रा. अर.५)। २२)। ३. (सू. इ.) मांधातृ राजा की स्नुषा तथा पुरुकुत्स २. (सो. दिष्ट.) एक राजा । वायु एवं विष्णुमत में राजा की पत्नी। यह सर्पकन्या थी जो सों ने यह मरुत्त का पुत्र था। इसकी पत्नी का नाम बाभ्रवी | पुरुकुत्स राजा को विवाह में दी थी (विष्णु. ४.३.१२इंद्रसेना, एवं पुत्र का नाम दम था (मार्क. १३०.२)।। १३; भा. ९.७.२)। किंतु यह पुरुकुत्सपुत्र त्रसंदस्यु की वानप्रस्थाश्रम में रहते हुए इस राजा का वपुष्मत् ने | पत्नी थी, ऐसा भी निर्देश कई ग्रंथों में प्राप्त है। वध किया। इसकी मृत्यु के बाद, इसकी पत्नी इंद्रसेना ४, एक नदी । एक बार, इक्ष्वाकु कुलोत्पन्न दुर्योधन सती गयी (मार्क. १३१)। राजा से विवाह करने की इच्छा इसे हुई । तब मनुष्य नरोत्तम-एक ब्राह्मण । यह अपने मातापितरों का रूप धारण कर इसने उससे विवाह किया (म. अनादर करता था। फिर भी तीर्थयात्रादिकों के योग से | अनु. २.१८)। दुर्योधन राजा से, इसे सुदर्शना नामक ३४९ Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नर्मदा कन्या पैदा हुई। किसी और समय, इसने मान्धातृका पुत्र पुरुकुत्स को अपना पति बनाया था ( म. आश्र. २०. १२-१३; नर्मदा ३. देखिये) । प्राचीन चरित्रकोश नये - एक दानी पुरुष । इंद्र ने इसकी रक्षा की थी (ऋ. १.५४.६; ११२.९; नार्य देखिये ) । नल--निषध देश का सुविख्यात राजा । यह वीरसेन राजा का पुत्र था (पद्म; सृ. ८; लिंग. १.६६.२४ - २५, वायु. ८८; १७४ मत्स्य. १२.५६ . . १.१५ २.६३.१७३-१७४)। मत्स्य तथा पद्म के मतानुसार वीरसेनपुत्र नल तथा निषधपुत्र नल दोनों इक्ष्वाकु वंश ही हैं । किंतु लिंग, वायु तथा ब्रह्मांड एवं हरिवंश में वीरसेनपुत्र नल का वंश नहीं दिया गया है। पांडवो के वनवास काल में युधिष्ठिर ने वृहदश्व ऋषि से कहा, 'मेरे जैसा बदनसीब राजा इस दुनिया में कोई नहीं होगा ' | फिर बृहदश्व ने, युधिष्ठिर की सांत्वना के लिये उससे भी ज्यादा बदनसीब राजा की एक कथा सुनायी । वही नल राजा की कथा है ( म.व. ५० ) । नल राजा निषध देश का अधिपति था, एवं युद्ध में अजेय था (म. आ. १.२२६ - २३५) | एक बार, नल ने सुवर्ण पंखों से विभूषित बहुत से हंस देसे उनमें से एक हंस को इसने पकड़ लिया ( म. व. ५०.१९ ) । फिर उस हंस ने नल से कहा, 'आप मुझे छोड़ दें। मैं आपका प्रिय काम करूँगा। विदर्भनरेश भीम राजा की कन्या दमयंती को आप के गुण बताउँगा, जिससे वह आपके सिवा दूसरे का वरण नहीं करेंगी । हंस का यह वचन सुन कर, नल ने उसे छोड़ दिया (म. व. ५०.२०-२२ ) । पश्चात् हंस ने दमयंती के पास जाकर गल के गुणों का वर्णन किया। उससे दमयंती न के प्रति अनुरक्त हो गयी (म.व. ५०-५१ ) । " नल यथावकाश दमयंती- स्वयंवर की घोषणा विदर्भाधिपति भीम राजा ने की। उसे सुन कर, नल राजा स्वयंवर के लिये विदर्भ देश की ओर रवाना हुआ। नारद द्वारा दमयंती स्वयं वर की हकीकत इंद्रादि लोकपालों को भी ज्ञात हुई। वे भी स्वयंवर के लिये विदर्भ देश चले आये । नल को देखते ही इसके असामान्य सौंदर्य के कारण, दमयंती प्राप्ति की आशा इंद्रादि लोकपालों ने छोड़ दी। बाद में इंद्र ने नल राजा को सहायता के वचन में फँसाया एवं उसे दूत बनाकर दमयंती को बताने के लिये कहा, 'लोकराल तुम्हारा वरण करना चाहते है । ' 3 इंद्र के आशीर्वाद के कारण, अदृश्य रूप में यह कुंडिनपुर दमयंती के मंदिर में प्रविष्ट हो गया। वहाँ दमयंती तथा उसकी सखियों के सिवा यह किसी को भी नहीं दिखा। इस कारण, यह दमयंती तक सरलता से पहुँच - सका। दमयंती के मंदिर में नल के प्रविष्ट होते ही उसकी सारी सखियाँ स्तब्ध हो गई तथा दमयंती भी इस पर मोहित हो गई। बाद में दमयंती द्वारा पूछा जाने पर नल ने अपना नाम बता कर देवों का संदेशा भी उसे बताया ( म. व. ५१-५२ ) फिर भी दमयंती का नल को पति बनाने का निश्चय अटल रहा | • नल का वरण दमयंती द्वारा किये जाने के कारण, देवों को भी आनंद हुआ तथा उन्होंने इसे दो दो वर दिये । इंद्र ने इसे वर दिया, 'तुम्हे यज्ञ में मेरा प्रत्यक्ष दर्शन होगा, तथा सद्गति प्राप्त होगी ' । अभि ने वर दिया, ' चाहे जिस स्थान पर तुम मेरी उत्पत्ति कर सकेंगे, तथा मेरे समान तेजस्वी लोक की प्राप्ति तुम्हें होगी ' । यम ने इसे अन्नरस तथा धर्म के उपर पूर्ण निष्ठा रहने का, उसी प्रकार वरुण ने इच्छित स्थल पर जल उत्पन्न करने की शक्ति का वर दिया। वरुण ने इसे एक सुगंधी पुष्पमाला भी प्रदान की, एवं वर दिया, 'तुम्हारे पास के पुष्प कभी भी नहीं कुम्हलायेंगे ' । इन वरों के अतिरिक्त, देवताप्रसाद से कहीं भी प्रवेश होने पर इसे भरपूर जगह मिलती थी, ऐसी भी कल्पना है । पश्चात् भीमराज ने दमयंती विवाह का बड़ा समारोह किया। काफी दिनों तक नल को अपने पास रख लेने के बाद, इसे दमयंती सहित निषध देश में पहुँचा दिया । ३५० दमयंती स्वयंवर में, उसकी परीक्षा लेने के लिये, नल के ही समान रूप धारण कर, इंद्रादि देव सभा में बैठ गये। स्वयंवर के लिये भाये सहस्रावधि राजाओं का वरण न कर, दमयंती उस स्थान पर आई जहाँ बै था। वहाँ उसने देखा, पाँच पुरुष एक ही स्वरूप धारण कर एक साथ बैठे हैं। उसके सामने बड़ी ही समस्या उपस्थित हो गई। बाद में उसने कहा कि 'नल के प्रति मेरा अनन्य प्रेम हो, तो यह मुझे गोचर हो।' इतना कहते ही उसके पातिव्रत्यबल से सारे देव उनके " वास्तव देवता स्वरूप' में उसे दिख पडे । घर्मबिंदुविरहित स्तब्ध दृष्टिवाले, प्रफुल्ल पुष्पमाला धारण करनेवाले, धूलि स्पर्शविरहित, तथा भूमि को स्पर्श न करते हुएँ खडे देव उसने देखे । उन देवों को नमन कर, दमयंती ने नल को वरमाला पहनायी। Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नल प्राचीन चरित्रकोश नल निषध आने के बाद, इसने प्रजा का उत्तम पालन किया पश्चात् अपना राज्य छोड़ कर, नल एवं दमयंती तथा अश्वमेधादि यज्ञ कर देवों को भी तृप्त किया। अरण्य के मार्ग से जाने लगे। काफी दिन इसी प्रकार कुछ काल के बाद, दमयंती से इसे इंद्रसेन नामक पुत्र, | व्यतीत होने पर, क्षुधाग्रस्त नल को सुवर्णमय पंखयुक्त तथा इंद्रसेना नामक कन्या ये अपत्य भी पैदा हुएँ (म. कुछ पंछी दिखे । खाने के लिये तथा धनप्राप्ति के हेतु से, व. ५३-५४)। वे पक्षी पकड़ने की इच्छा नल को हुई । इसलिये इसने __एक बार देवसभा में, इंद्रादि देवों ने नल की स्तुति | उन्हें अपने वस्त्र में पकड़ लिया किंतु दुर्दैववशात् द्यूत के की। वह स्तुति वहाँ बैठे कलिपुरुष को सहन नहीं हुई। प्यादे ही नल का पीछा करते हुए, पक्षीरूप धारण कर देवों के जाने के बाद वह द्वापर नामक युगपुरुष के पास | के आये हुए थे। वे इसका वस्त्र ले कर उड़ गये। परिगया, एवं उसने कहा, 'अगर तुम द्यूत के प्यादों' में | णामतः नल के पास जो एक वस्त्र था, वह भी चला मुझे प्रविष्ट होने दोंगे, एवं मेरी सहायता करोंगे, तो मैं | गया एवं नम स्थिति में यह आगे जाने लगा। जल को राज्य भ्रष्ट कर दूंगा' (म. व. ५५-१३)। ___ जाते जाते नल ने दमयंती को कोसल तथा विदर्भ देश द्वापर के द्वारा मान्यता मिलने पर, उसे ले कर कलि- की ओर जानेवाला मार्ग दर्शाया, एवं कहा, “तुम अपने पुरुष निषध देश में गया। वहाँ नल के शरीर में प्रविष्ट | पिता के घर विदर्भ देश चली जाओ'। फिर दमयंती ने होने की संधि देखते हुए, गुप्तरूप से वह अनेक वर्षों तक नल से कहा, 'हम दोनों ही विदर्भ देश को जायें' किंतु रहा । एक दिन मूत्रोत्सर्ग करने के बाद, पादप्रक्षालन न | नल को यह अच्छा न लगा। करते हुए ही नल संध्योपासना करने बैठा। यह संधि पश्चात् मार्ग में नल एवं दमयंती को एक घर दिखा। देख, कली ने इसके शरीर में प्रवेश किया। दोनों उस घर में गये । थकावट के कारण दमयंती शीघ्र शरीर में कलि प्रविष्ट होते ही, नल को छूत खेलने की | ही निद्राधीन हो गई । यह देख, उसे छोड़ कर अकेले इच्छा हुई। इसने तत्काल . अपने पुष्कर नामक भ्राता चले जाने की इच्छा नल के मन में उत्पन्न हुई। तलवार को यूत खेलने के लिये बुलाया । पुष्कर ने पास ही वृषभ से दमयंती का आधा वस्त्र काट कर, वह इसने परिधान रूप ले कर खड़े कलि को दाँव पर लगा कर, नल को किया। तथा चुपचाप उसे वहीं छोड़ कर, यह चला गया खेलने का आह्वान दिया । दमयंती के सामने दिया यह (म. व. ५८.५९; दमयंती देखिये)। बाद में चेदि देश आह्वान अपना अपमान समझ कर, नल ने दाँव पर दाँव के सुबाहू राजा की पत्नी की सैरंध्री बन कर दमयंती ने लगाना शुरू किया। यह वृत्त नागरिकजनों को ज्ञात होते अपने बुरे दिन व्यतीत किये। ही उन्होंने मंत्रियों ने तथा स्वयं दमयंती ने हर प्रकार से | दमयंती को छोड़ कर चले जाने के बाद, नल ने एक इसे द्युत से परावृत्त करने की कोशिश की । शरीर में स्थान पर प्रदीप्त दावाग्नि देखा। उससे करुण ध्वनि निकल स्थित कलि के प्रभाव के कारण, नल यत खेलता ही रहा। रही थी, 'हे नल! मेरी रक्षा करो। फिर अग्नि में घिरे उस कारण, इसकी सारी संपत्ति, सुवर्ण, वाहन, रथ, घोडे कर्कोटक नाग को इसने बाहर निकाला । तब वह नाग प्रसन्न तथा वस्त्र दूसरे पक्ष ने जीत लिये । अपना तथा अन्य हो कर उसने नल से कहा, 'एक, दो, तीन, इस क्रम से किसी का भी उपदेश राजा नहीं सुन रहा है यह देख, | तुम चलना शुरू करो। मैं तुम्हारा कुछ कल्याण करना दमयंती न अपने पुत्र तथा कन्या को वार्ष्णेय नामक चाहता हूँ।तुम्हारा चलना शुरू होते ही, वह कार्य मैं पूरा सारथि के साथ रथ में बैठा कर, अपने पिता के यहाँ करूँगा। कुंडिनपुर भेज दिया (म. व. ५६-५७)। कर्कोटक के आदेशानुसार यह कदम गिनते गिनते चलने . नल का समस्त राज्य हरण कर लेने के बाद, पुष्कर ने इसे | लगा। अपने दसवें कदम पर इसने 'दश' कहा। 'दश' एक वस्त्र दे कर राज्य के बाहर निकाल दिया। इसके साथ | कहते ही कर्कोटक नाग ने इसे दंश किया, जिससे इस का दमयंती भी एक वस्त्र पहन कर निकल पडी । नगर के रूप बदल कर, यह कृष्णवर्ण एवं कुरूप बन गया। फिर बाहर नल तीन दिनों तक रहा । पुष्कर ने ढिंढोरा पिटवाया, नल ने व्याकुल हो कर कर्कोटक से पूछा, 'तुमने यह क्या 'जो नल का सत्कार करेंगे, या उससे सज्जनता का | किया ? ' कर्कोटक ने इस पर कहा, 'तुम नाराज न हो। व्यवहार करेंगे, उन्हें मृत्यु की सजा दी जावेगी'। इस तुम्हारे लाभ के लिये ही मैंने तुम्हें दंश किया है। तुम्हारे कारण किसीने नल की सहायता नहीं की। ये बदले हुए रूप से अब तुम्हें कोई भी पहचान नहीं ३५१ Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नल प्राचीन चरित्रकोश सकेगा। इतना ही नहीं, मेरे विष की बाधा तुम्हारे शरीरस्थ कलि को ही हो जायेगी ' । नल को एक वस्त्र प्रदान कर कर्कोटक ने आगे कहा, 'अब तुम बाहुक नामांतर से अयोध्या के राजा ऋतुपर्ण के पास जा कर वास करो। जब पूर्ववत् सुरूप होने की इच्छा तुम करोगे, तब स्नान करके यह वस्त्र ओढ लेना। इससे तुम्हे पूर्वस्वरूप प्राप्त होगा' । इतना कह कर कर्कोटक अंतर्धान हो गया (म. व. ६२. १९-२३)। कर्कोटक के गुप्त होने के बाद नल दस दिनों से अयोध्या जा पहुँचा। ऋतुपर्ण राजा से मिल कर इसने कहा, 'मुझे अश्वविद्या तथा सारथ्य का पूर्ण ज्ञान है । आप मुझे आश्रय पूर्ण है। आप मुझे आज दें, तो मैं अपने पास रहने के लिये तैयार हूँ । ऋतुपर्ण ने इसे अपने आश्रय में रखा, एवं इसे अपनी अश्वशाला का प्रमुख बना दिया । नल के पुराने सारथि वार्ष्णेय तथा जीवल पहले से ही ऋतुपर्ण की अश्वशाला में काम करते थे । संयोगवश नल के ये पुराने नौकर इसके सहायक बना दिये गये। किंतु इसके नये रंगरूप में वे इसे पहचान नहीं सके । नल सत्कार कर तथा साथ में सेना दे कर पालकी से इसे कुंडिनपुर पहुँचा दिया । दमयंती को देख कर भीम को अत्यंत आनंद हुआ । कन्या का शोध लगने के कारण एक चिंता से भीमराजा मुक्त हुआ। केवल नल ही को मालूम हो ऐसे संकेतदर्शक वाक्यों के साथ भीमराय ने अनेक ब्राह्मण देश देश में नल को ढूँढने के लिये भेज दिवे (म. व. ६४-६६ ) । । अपनी पत्नी दमयंती, कन्या, तथा पुत्र का स्मरण कर के यह रोज विलाप करता था । एक दिन जीवल ने इसे पूछा, ' किसके लिये तुम हररोज शोक करते हो ?' कुछ न कह कर यह स्तब्ध रह गया (म. व. ६४.१२-१९) ऋतुपर्ण राजा के यहाँ नौकरी करने से पहले ही वार्ष्णेय ने दमयंती के कथनानुसार उसके पुत्र तथा कन्या को कुंडिनपुर में भीमराजा के पास पहुँचा दिया था, तथा कहाँ था, फिन तासक हो गया अब उसका कोई भरोसा नहीं है'। बाद में भीमराजा को ज्ञात हुआ कि राज्यभ्रष्ट हो कर नल दमयन्ती सह अरण्य में चल गया है । उनमें से पर्णाद नामक ब्राह्मण अयोध्या नगरी में आया । वहाँ पहुँचने के बाद दमयंती द्वारा बताये गये पूर्वस्मृति-निदर्शक तथा कर्तव्यबुद्धि आगृत करनेवाले अनेक वाक्य कहते कहते, वह नगर की बस्ती यस्ती में घूमने लगा । वे वाक्य सुन कर नल को अत्यंत दुख हुआ तथा एकांत में पर्णाद से मिल कर इसने कहा 'दीन दशा प्राप्त होने के कारण मैंने पत्नी का त्याग किया, इसलिये अयोध्या से चला गया, एवं कुंडिनपुर आ कर यह यह मुझे दोष न दे। इतना होते ही पर्णाद द्रुतगति से वृत्त उसने दमयंती को बताया । यह वृत्त सुन, दमयंती को अत्यंत आनंद हुआ, किंतु पर्णाद द्वारा किये गये बाहुक के रूपवर्णन के कारण वह संदेह में पड गयी । उस संदेह की निष्कृति करने के लिये उसने अपनी माता के द्वारा ऋतुपर्ण को संदेखा भेजा, 'नल जीवित है या मृत यह न समझने के कारण दमयंती अपना दूसरा स्वयंवर कल सूर्योदय के समय कर रही है; इसलिये अगर इच्छा हो तो आप वहाँ आयें ' (म. व. ६५) । कुंडिनपुर से अयोध्या काफी दूर होने के कारण, एक दिन में वहाँ पहुँचना ऋतुपर्ण को अशक्यप्रायसा लगा। फिर भी अपने सारथि बाहुक से उसने पूछा । बाहुक ने एक दिन में रथ से अयोध्या पहुँचने की शर्त मान्य की एवं बडी ही तेजी से रथ हाँका । मार्ग में ऋतुपर्ण का उत्तरीय गिर पड़ा। उसे उठाने के लिये राजा ने बाहुक को रथ खड़ा करने के लिये कहा। फिर बाइक ने कहा 'आपका वस्त्र एक योजन पीछे रह गया है ' । यह देख कर ऋतुपर्ण बाहुक के सारथ्यकीशल्य पर बहुत ही खुष हुआ। बाद में बाहुक से अश्वहृदयविद्या सीख कर, ऋतुपर्ण ने उसे 'अक्षयविद्या ( रात खेलने की कला ) प्रदान की ( म. व. ७०.२६ ) । इस प्रकार ये दोनों परम मित्र बन गये (ह. वं. १. १५; वायु. २६, विष्णु. ४. ४. १८९ ब्रह्म. ८. ८० ) । अपनी बन्या एवं जमाई को ढूँढ़ने के लिये भीमराजा ने सारे देशों में ब्राह्मण भेजे । उनमें से सुदेव नामक ब्राह्मण घूमते घूमते वहाँ गया, जहाँ दमयंती राजपत्नी की सैरंध्री बन कर दिन काट रही थी। दमयंती के पीपलपत्ते के समान ताम्रवर्णीय दाग़ के कारण उसने दमयंती को पहचान लिया, तथा कहा, 'तुम्हारे पिता की आज्ञानुसार मैं तुम्हें ढूँढ़ने आया हूँ'। यह सुन कर दमयंती अपने आपको सम्हाल न सकी, एवं फूट फूट कर रोने लगी । यह सारा वृत्त चेदिराजपत्नी सुनंदा ने राजमाता को बताया, उसे दमयंती की दुखभरी कहानी सुन कर बहुत ही खेद हुआ। बाद में उसने दमयंती का बड़ा | ३५२ Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नल प्राचीन चरित्रकोश नल अक्षहृदय विद्या प्राप्त होते ही, कलिपुरुष नल के के कारण मुझे कुछ शंका हो रही है । अगर आपकी 'शरीर से बाहर निकला । उसे देख कर जब नल उसे शाप आज्ञा मिले तो उसे बुला कर, मैं कुछ परीक्षा ले लूँ'। देने के लिये उद्युक्त हुआ, तब कलि ने इसकी प्रार्थना | माता की आज्ञा प्राप्त होते ही उसने बाहुक से कहा, करते हुए कहा " हे पुण्यश्लोक नल! तुम मुझे शाप मत | 'प्रतिव्रता तथा निरपराध स्त्री को अरण्य में अकेली छोड़ दो। कर्कोटक नाग के विष से मेरा शरीर दग्ध हो गया | जानेवाला पुरुष पृथ्वी पर नल राजा के सिवा अन्य है। दमयंती के शाप से भी मैं पीड़ित हूँ। आयदा से, कोई नहीं है। यह सुनते ही बाहुक ने कहा, 'पति कर्कोटक, दमयंती, नल तथा ऋतुपर्ण का नामसंकीर्तन | सदाचारी तथा जीवित होते हुए भी, स्वयंवर करनेवाली करनेवालों को कलि की बाधा न होगी (म. व. ७८)। स्त्री तुम्हारे सिवा अन्य कोई नहीं है। फिर नल एवं इतना कहते हुए कह बेड़ेलि के वृक्ष में प्रविष्ट हुआ। इस दमयंती ने एक दूसरी को पहचान लिया । दमयंती ने 'कलिप्रवेश' के कारण, बेहड़े (बिभीतक) का वृक्ष अपवित्र | कहा, 'यह सारा नाटक तुम्हे ढूँढ़ने के लिये ही मैंने माना जाने लगा (म. व. ७०.३६)। | रचाया था । दूसरी बार स्वयंवर करने की ही लालसा मुझे सायंकाल होने के पहले ही, बाहक ने रथ कुंडिनपुर होती, तो क्या मैं अन्य राजाओं को निमंत्रित नहीं करती?' पहुँचाया 1 किंतु वहाँ स्वयंवरसमारोह का कुछ भी इतना कह कर वह स्तब्ध हो गई। इतने में वायु द्वारा चिह्न मौजुद नहीं था। इस कारण, ऋतुपर्ण मन ही मन आकाशवाणी हुई 'दमयंती निर्दोष है । तुम उसका स्वीकार शरमा गया, एवं अपना मुँह बचाने के लिये कहा, करो'। उसे सुनते ही नल ने कर्कोटक नाग का स्मरण 'यूँ ही मिलने के लिये मैं आया हूँ' । आये हुएँ लोगों | किया एवं उसने दिये दिव्य वस्त्र परिधान कर लिया। उस में दमयंती को नल नहीं दिखा । किंतु ऋतुपर्ण के त्वरित वस्त्र के कारण, नल का कुरूपत्व नष्ट हो कर, वह सुस्वरूप आगमन का कारण नल ही है ऐसा विश्वास उसे हो गया, दिखने लगा। फिर नल ने दमयंती तथा पुत्रों का आलिंगन तथा जादा पूँछताछ के लिये, उसने अपने केशिनी नामक | किया (म. व. ७३-७४)। दासी को बाहुक के पास भेज दिया। उस दासी ने बड़े ही नल एवं दमयंती का मीलन होने के पश्चात् भीम: चातुर्य से, बाहुक के साथ दमयंती के बारे में प्रश्नोत्तर राजा ने उनको एक माह तक अपने पास रख लिया। तब किये। फिर नल का हृदय दुख से भर आया, तथा वह रुदन . करने लगा। यह सब वृत्त केशिनी ने दमयंती को बताया बाद में दमयंती एवं पुत्रों को साथ ले कर, नल राजा निषध देश की ओर मार्गस्थ हुआ । वहाँ पहुँचते ही नल (म. व. ७१-७२)। ने पुष्कर को बुलावा भेजा, तथा उससे द्यूत खेल कर अपना ____ बाद में दमयंती ने केशिनी को बाहुक की हलचल पर राज्य हासिल किया (म. व. ७७)। मृत्यु के पश्चात् , सक्त नजर रखने के लिये कहा । बाहुक की एक बार नल यमसभा में उपस्थित हो कर, यम की उपासना करने परीक्षा लेने के लिये, दमयंती ने अग्नि तथा उदक न देते लगा (म. स. ८.१०)। भारतीय युद्ध के समय, यह हुए अन्य पाकसाहित्य दिलाया। वह ले कर एवं जल देवराज इंद्र के विमान में बैठ कर, युद्ध देखने आया था तथा अग्नि स्वयं उत्पन्न कर बाहुक ने पाकसिद्धि की। उसी (म. वि. ५१.१०)। प्रकार बाहुक को अवगत 'पुष्पविद्या' (मसलने पर भी पुष्षों का न कुम्हलाना) तथा आकृति विद्या ('छोटी | | पूर्वजन्म-पूर्व जन्म में, नल राजा गौड देश के सीमा पर चीज बडी बनाना') आदि बातें केशिनी ने स्वयं देखी स्थित एक देश के पिप्पल नामक नगर में, एक वैश्य था। (म. व. ७३.९, १६)। संसार से विरक्त हो, यह एक बार अरण्य में चला गया। बाद में दमयंती ने अपने पुत्र एवं पुत्री को दासी के | वहाँ एक ऋषि के उपदेशानुसार, 'गणेशव्रत' करने के साथ बाइक के पास भेज दिये । नल अपना शोक संयमित कारण यह अगले जन्म में नल राजा बन गया (गणेश. न कर सका। बाद में ही बाहुक ने फिर दासी से कहा | २.५२)। इसके ही पहले के जन्म में, नल एवं दमयंती 'मेरे भी पुत्र ऐसे होने के कारण मुझे उनकी याद आयी आहुक एवं आहुका नामक भील तथा भीलनी थे । शिव(म. व. ७३.२६-२७)। प्रसाद से उन्हें राजकुल में जन्म प्राप्त हुआ। शंकर ने फिर दमयंती ने अपनी माता के पास संदेश भिजवाया, हंस का अवतार ले कर उन्हें सहायता दी थी (यतिनाथ 'यद्यपि नल के अधिकांश चिह्न बाहुक में हैं, तथापि रूप | देखिये)। प्रा. च. ४५] ३५३ Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नल प्राचीन चरित्रकोश पाकशास्त्र तथा अश्वविद्या पर लिखित, नल राजा के तथा नवग्रहों की पूजा की थी (आ. रा. सार. १०)। कई ग्रंथ प्रसिद्ध हैं। प्रतपन, अकंपन, तथा प्रहस्त आदि रावणपक्षीय राक्षसों २. (स. इ.) अयोध्या के ऋतुपर्ण राजा का पुत्र । से युद्ध करते समय इसने काफी पराक्रम दर्शाया था इसे सुदास नामक पुत्र था। इसका मूल नाम सर्वकर्मन् | (कुशलव देखिये )। राम केअश्वमेध यज्ञ के समय, यह अथवा सर्वकाम था (लिंग. १.६६.१)। . अश्वरक्षण के लिये शत्रुघ्न के साथ गया था (पद्म. पा. इसका पिता ऋतुपर्ण, निषध देश के नल राजा का 10 राजा का ११)। मित्र था (नल १. देखिये)। वायुपुराण के मत में, नलकबर-देवों के धनाध्यक्ष कुवेर का पुत्र (म. प्राचीन भारतीय इतिहास में दो नल सुविख्यात थे: स. १०.१८)। इसे मणिग्रीव नामक ज्येष्ठ बंधु था। . १. अयोध्या का राजा इक्ष्वाकुवंशज नल-यह ऋतुपर्ण एकबार ये दोनों भाई अपने स्त्रियों के साथ गंगानदी का पुत्र था। २. वीरसेन का पुत्र नैषध नल (वायु.८८. के तट पर कैलास पर्वत के उपवन में क्रीडा कर रहे थे। १७४-१७५)। सुरापान की नशा के कारण, इन में से किसी के शरीर पर ३. (सो. क्रोष्टु.) भागवतमत में यदु राजा का पुत्र । वस्त्र न था। उसी मार्ग से नारद जा रहे थे। नारद को इसे 'नील' नामांतर भी प्राप्त था। देखते ही शाप के भय से, इसकी स्त्रियों ने बाहर ओं ४. (सो. कुकुर.) यादव राजा विलोमन् (तित्तिरि) कर अपने अपने वस्त्र परिधान कर लिये। परंतु नलकबर का पुत्र | इसे 'नंदनोदरदुंदुभि' नामान्तर भी प्राप्त तथा मणिग्रीव इतने वेहोश थे कि, उन्होंने देवर्षि की कुछ था (मत्स्य. ४४.६३)। मत्स्यमत में यह सर्प था। | भी मर्यादा न रखी । नग्नस्थिति में इन्हें देखते ही इन ५. इन्द्रसभा में उपस्थित एक ऋषि । दोनों को अच्छा सबक सिखाने का विचार नारद ने किया। ६. (सू. इ.) दल का नामान्तर । अपने शरीर पर वस्त्र है या नहीं, इसका भी होश जिन्हें ७. तेरह सैंहिकेयों में से एक (ब्रह्म. ३)। नहीं है, उनके लिये वृक्षयोनि ही ठीक है, ऐसा विचार ८. निषध राजा का पुत्र । इसका पुत्र नभ अथवा नारद ने किया, एवं इन्हे सौ वर्षोंतक वृक्ष होने का शाप नभस् (ह. वं. १. १५. २८; ब्रह्म. ८; पद्म. सू. ८; दिया। नारद की कृपा से, उस स्थिति में भी इन्हें अपने मत्स्य. १२. ५६)। | पूर्वजन्म का स्मरण रहा, तथा कृष्ण के सान्निध्य से इनकी ९. रामसेना का एक वानर, एवं रामसेतु बाँधनेवाला मुक्ति हो गयी। स्थापत्यविशारद । यह देवों के शिल्पी विश्वकर्मा एवं कृष्णावतार में नंदगोप के घर के द्वार में स्थित 'अर्जुनघृताची नामक अप्सरा का पुत्र था (म. व. २६७. वृक्षों का जन्म इन्हें प्राप्त हुआ था । एक बार नटखट ४१)। ऋतुध्वज मुनि के शाप से, विश्वकर्मा को वानर- कृष्ण की शैतानी से तंग आ कर, यशोदा ने कृष्ण को ऊखल योनि प्राप्त हुई | उसी जन्म में उसे यह पुत्र गोदावरी से बांध दिया। कृष्ण ऊखल का खाचत ख से बाँध दिया। कृष्ण ऊखल को खींचते खींचते धीरे धीरे नदी के तट पर पैदा हुआ (वामन, ६२) । इसे अग्नि चलने लगा। चलते चलते आँगन में खड़े अर्जुनवृक्ष की का पुत्र भी कहा है (स्कंद. ३. १. ४२)। जोड़ी के बीच, वह ऊखल अटक गया । फिर कृष्ण ने ऊखल __ जी चाहे वह वस्तु निर्माण करने की शक्ति का वर, जोर से खींचते ही दोनो वृक्ष आमूलाग्र गिर पड़े तथा नल इसके पिता ने इसे दिया था (वा. रा. यु. २२)। राम कुबर एवं मणिग्रीव वृक्षयोनि से मुक्त हो गये (भा. १०. की आज्ञा से इसने दक्षिण समुद्र पर सौ योजन लंबे एवं | ९-१०; ह. वं. २.७.१४-१९; पौलस्त्य देखिये)। ९-१०, ह. व. २.७. दस योजन चौड़े सेतु का निर्माण किया । वह सेतु एक बार इसकी प्रेयसी रंभा इसे मिलने जा रही थी। 'रामसेतु' अथवा 'नलसेतु' नाम से प्रसिद्ध है (म. राह में, रावण ने रंभा पर बलात्कार किया। फिर इसने व. २६७-४६)। इसने एक ब्राह्मण को जाह्नवी नदी रावण को शाप दिया, 'तुम्हें न चाहनेवाली किसी भी स्त्री में शालिग्राम विसर्जन करने के कार्य में मदद की थी। को तुम स्पर्श नहीं कर सकोंगे (म. व. २६४.६८-६९)। इस पुण्यकार्य के कारण, उस ब्राह्मण ने इसे वर दिया. बलात्कार करते ही तुम्हारी मृत्यु हो जायेमी' (वा. रा.उ. 'तुम्हारे पत्थर पानी में तर सकेंगे।' इसी सिद्धि के २६; रावण देखिये)। कारण, सेतुबंधन का कार्य यह सफलता से कर सका। नव-(सो. अनु.) मत्स्यमत में उशीनर राजा का सेतु बांधने का कार्य शुरु करने से पहले इसने गणेश पुत्र (नर ४. देखिये)। ३५४ Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवक प्राचीन चरित्रकोश नवक-एक ऋषि । विभिदुक राजा के सत्र में इसने पत्नी के लिये इच्छा दर्शायी थी (जै. बा. २.२३३ ) । नवग्व-- अंगिरसों में से एक वर्ग का नाम । इन्होंने इन्द्र की स्तुति की है (ऋ. ५.२९.१२ ) । नौ महीनों में ये यश समाप्त करते थे इसलिये इन्हें नवग्य कहते है (ऋ. १०.६२.४-६ दशग्य देखिये) । २. एक श्रेष्ठतम अंगिरस ऋषि यह प्राचीनकालीन रहस्यवादी जाति के लोगों एवं अंगिरसों के साथ संबंधित ये (४.५१.४ ९.१०८.४ ) । पद्मपुराण में, नहुष की जन्मकथा इस प्रकार दी गयी है । दत्तकृपा से आयु राजा की पत्नी इंदुमती गर्भवती नवतन्तु विश्वामित्र के ब्रह्मवादी पुत्रों में से एक रही। उस समय, हुंड राक्षस की कन्या अपनी सखियों के ( म. अनु. ४.५८ ) । साथ नंदनवन में क्रीडा करने के लिये गयी। वहाँ सिद्ध नवप्रभनड़ायन देखिये। चारणों के मुख से उसने सुना कि अपने पिता हुंड की मृत्यु आयुपुत्र नहुष के द्वारा होनेवाली है। तत्काल घर जा कर इसने यह वृत्त अपने पिता को बताया । नवरथ - (सो. क्रोष्टु.) भागवत, विष्णु, मत्स्य तथा पद्म के मतानुसार भीमरथ राजा का पुत्र वायु तथा ब्रह्मांड मतानुसार यह रथवर राजा का पुत्र था । नववास्त्व--अग्नि का आश्रित । वोरपुत्र कथ ने अग्नि की प्रार्थना कर, नववास्तव को अपने पास भेजने के लिये कहा है (ऋ. १. ३६.१८ ) । संभवतः यह उशनस् का पुत्र एवं इंद्र के प्रियपात्रों में से एक था। किंतु ऋग्वेद में कई अन्य स्थानों में इंद्र द्वारा इसका वध होने का निर्देश भी प्राप्त है। भरद्वाज ने इन्द्र के द्वारा इसका वृध करवा कर उशनस् का पुत्र वापस ला दिया (ऋ. ६. २०११) । ऋग्वेद में तीसरे एक स्थान पर, नववास्त्व थ' नाम से इसका निर्देश आया है। इंद्र ने इसका नाश किया (ऋ. १०.४९.६)। नहुष्-ऋग्वेदकालीन एक व्यक्ति (ऋ. १. १२२.१५) । 'हुस्' एवं यह दोनों एक ही रहे होंगे । 6 , नहुष -- एक राजा । यह संभवतः 'पुथुश्रवस् कानीत' का कोई रिश्तेदार रहा होगा (ऋ. ८.४६.२७१ नाहुष देखिये) । २. (सो. पुरूरवस्. ) प्रतिष्ठान (प्रयाग) देश का सुविख्यात सम्राट्, एवं वैवस्वत मनु की कन्या इला का प्रपौत्र यह पुस्रम् ऐ राजा का पीत्र, आयु राजा का । ऐल पुत्र एवं ययाति राजा का पिता था (लिंग १.६६.५९ ६०१ कूर्म. १.२२.३ - ४ ) । इसे कुछ चार भाई थे। उनके नाम :-क्षत्रवृद्ध ( वृद्धशर्मन्), रंभ, रजि अनेनस् (विपाप्मन्) (वायु. ९२.१ २ ब्रह्म. ११. १-२) । नहुष (ह. वं. १.२८.१ म. आ. ७०.२३) । किंतु पचमत में, यह आयु की पत्नी इंदुमती को दत्त आत्रेय की कृपा से पैदा हुआ था ( पद्म भू. १०५ ) । वायुमत में, यह आयु को विरजा नामक पत्नी से उत्पन्न हुआ था (वायु. ९४ ब्रह्म. १२.२४ ) । सुस्वधा पितरों की कन्या विरजा इसकी पत्नी थी। उससे इसे ययाति नामक पुत्र पैदा हुआ ( [मत्स्य. ३५.२२ ) । यह आयु राजा को दानव राजा राहु या स्वर्भानु की कन्या प्रभा ( स्वर्भानवी) नामक पत्नी से उत्पन्न हुआ था , इन्दुमती के गर्म का नाश करने के उद्देश से, देवेंद्र हुंड एक अमंगल दासी के शरीर में प्रविष्ट हुआ, तथा नहुष का जन्म होते ही रात्रि के समय इसे अपने घर ले आया। बाद में अपनी विपुला नामक भार्या के पास, नहुष को स्वाधीन कर, हुंड ने कहा, यह मेरा शत्रु है। इसलिये इसका मास पका कर, तुम मुझे खिला दो विपुला ने इस बालक को अपने रसोइये को सौंपा। किंतु रसोइये को इस पर दिया आ कर उसने इसे वसिष्ठ ऋषि के घर मैं पहुँचा दिया तथा हुँड को हिरन का माँस पका कर खाने के लिये दिया । इस बालक को देखते ही, वसिष्ठ ने दिव्य दृष्टि से इसका सारा पूर्वेतिहास जान लिया तथा इसे ' नहुष ' नाम प्रदान किया । वसिष्ठ ने ही इसका उपनयन करवाया एवं इसे वेद तथा धनुर्विया सिखाई । पश्चात् वसिष्ठ के कथनानुसार इसने हुड राक्षस पर आक्रमण किया। उस समय सारे देवों ने इसकी सहायता की । इस युद्ध में नहुष का विजय हो कर, इस हुंड का वध किया। बाद में वसिष्ठ की अनुशा से, इसके विरह में रातदिन व्याकुल हुआ अशोक सुंदरी नामक स्त्री से इसने विवाह किया तथा उसे लेकर यह अपनी राजधानी छोट आया (पद्म भू० १०५-११७ ) । एक बार, च्यवन ऋषि मछुओं के जाल में फँस गया । उसे मदुओं के हाँथ से छुड़ाने के लिये, नहुप - ; ने च्यवन से उसके सही मूल्य के बारे में चर्चा की, एवं लाखों की संख्या में गौ मधुओं को दे कर, व्ययन की मुक्तता की ( म. अनु. ८६.६ ) । फिर च्यवन ने संतुष्ट हो कर नहुष ३५५ Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नहुष को पर दे दिया । घर आये त्वष्ट्ट का नहुष ने सम्मान किया था, एवं उस कार्य के लिये ' गवालंभन भी किया था (म. शां. २६०.६) । " - इंद्रपदप्राप्ति — अपने पराक्रम, गुण एवं पुण्यकर्म के कारण, देवताओं को भी तुर्लभ 'इंद्रपद प्राप्त होने का सौभाग्य नहुष को प्राप्त हुआ। इतने में देवों का राजा इंद्र ने त्रिशिर नामक ब्राह्मण का वध किया। इस 'ब्रह्महत्या के पातक के कारण, पागल सा हो कर, इंद्र इधर उधर घूमने लगा एवं इंद्रपद की राजगद्दी खाली हो गयी। , " इस अवसर पर सारे देव एवं ऋषियों ने अपनी तपश्चर्या का बल नहुष को दे कर, इसे 'इंद्रपद ' प्रदान किया, एवं आशीवाद दिया, 'तुम जिसकी ओर देखोगे, उसके तेज का हरण करोंगे ' ( म. आ. ७०.२७ ) । इंद्रपद पर आरूढ होने के बाद कुछ काल तक, नहुष ने बहुत ही निष्ठा, नेकी, एवं धर्म से राज्य किया। स्वर्ग का राज्य प्राप्त होने के बाद भी यह देवताओं को दीपदान, प्रणिपात एवं पूजा आदि नित्यकर्म मनोभाव से करता रहा । प्राचीन चरित्रकोश ܕ किंतु बाद में, 'मे देवेंद्र हूँ' ऐसा तामसी अभिमान इसके मन में धीरे धीरे छाने लगा। फिर सारी धार्मिक विधियाँ छोड़ कर, यह मतिभ्रष्ट एवं विषयलेट बन गया। रोज भिन्न भिन्न उपवन में जा कर यह स्त्रियोंके साथ क्रीडाएँ करने लगा। इस प्रकार कुछ दिन बीतने पर, इसने भूतपूर्व इंद्र की पत्नी इंद्राणी को देखा । उसका मोहक रूपयौवन देख कर यह कामोत्सुक हुआ, एवं इसने देवों को हुकुम दिया, 'इंद्राणी को मेरे पास ले आओ' ( म. आ. ७५) । फिर डर के मारे भागती हुई इंद्राणी बृहस्पति के पास गयी । बृहस्पति ने उसे आश्वासन दिया, 'मैं नहुष से तुम्हारी रक्षा करूँगा' । बाद में सारे देवों के सलाह के अनुसार, इंद्राणी नहुष के पास आयी, एवं उसने कहा, 'आपकी माँग पूरी करने के लिये मुझे कुछ वक्त आप दें दे । उस अवधि में, मैं अपने खोये हुए पति को ढूँढ़ना चाहती हूँ' । नहुष इंद्राणी नहुष के पास आयी, एवं उसने अपनी शर्त उसे बतायी। नहुष ने यह शर्त बड़े ही आनंद से मान्य की। इसने सप्तर्षिओं को अपने पालकी को जीत लिया, तथा स्वयं पालकी में बैठ कर, यह इंद्राणी से मिलने अपने घर से निकला । मार्ग में पालकी और तेज़ी से भगाने के लिये, कामातुर नहुष में सप्तर्षिओं में से अगस्त्य ऋषि को उत्ताप्रहार किया, एवं बड़े क्रोध से कहा, सर्प, सर्प' (' जल्दी चलो ' ) । C 66 नहुष ने इंद्राणी की यह शर्त मान्य की फिर देवों की कृपा से, इंद्राणी ने इंद्र को ढूँढ निकाला, एवं सारा वृत्तांत उसे बता दिया | फिर इंद्र ने उसे कहा, तुम नहुष के पास जा कर उसे कहो, 'अगर सप्तर्पिओं ने जोती हुए पालकी में बैठ कर, तुम मुझे मिलने आओगे तो मैं तुम्हारा वरण करूंगी " । 3 इस पर अगस्त्य ऋषि ने इसे क्रोध से शाप दिया, 'हे मदोन्मत्त ! सप्तर्षिओं को पालकी को जोतनेवाला स्वयंही पृथ्वी पर दस हजार वर्षों तक सर्प बन कर पड़े रहेगी। अगस्त्य के इस शाप के अनुसार नहुष तत्कांस सर्प बन गया एवं पालकी के बाहर गिरने लगा। फिर अगस्त्य को इसकी दया आयीं, एवं उसने इसे उःशाप दिया, 'पांडुपुत्र युधिष्ठिर तुम्हें इस हीन सर्पयोनि से मुक्त कर देगा ( म. उ. ११.१७१ अनु. १५६-१५७१ मा. ६.१८.२-२३ दे. भा. ६.७-८ विष्णु. १,२४) । अगस्यस्वयं सप्तर्षियों में से एक नहीं था। किंतु उसके जटा संभार में छिपा हुआ भृगु ऋषि सप्तर्षियों में से एक था। संभवतः इसी भृगु के कारण अगस्त्य को नहुष ने अपने पालकी का वाहन बनाया होगा। महाभारत के मत में, भृगु ऋषि के कारण ही नहुष का स्वर्ग से पतन हुआ था नहुष को सारे देवों ने तथा ऋषियों ने वर दिया था, तुम जिसकी ओर देखोगे, उसका तेज हरण कर लोगे । उस वर के कारण अन्य सप्तर्षियों के साथ, अगस्य ऋषि का तेज हुने हरण किया, एवं उसे अपने पालकी का वाहन बनाया। किंतु अगत्स्य की जटा में गुप्तरूप से बैठे भृगु को नहुष कुछ न कर सका, एवं उसका तेज कायम रहा। नहुष ने लत्ताप्रहार करते ही बाकी ऋषि चुपचाप बैठ गये। किंतु भृगु ने उसे शाप दिया (म. अनु. १५७ ) । शापमुक्ति — बाद में सरस्वती नदी के तट पर द्वैतवन में पांडव अपने वनवास का काल व्यतीत करने आये । एक दिन भीमसेन हाथ में धनुष्य ले कर वन में मृगया के लिये निकला। यमुनागिरि पर घूमते घूमते, उसने एक गुफा के मुख में चित्रविचित्र रंग का एक अजगर देखा । भीम को देखते ही उस अजगर ने उसके ऊपर डाली, तथा उसकी दोनों बाहें ओर से पकड़ ली। दशसहस नागों का वल अपने भुवाओं में धारण करनेवाले भीम की शक्ति उस अजगर के सामने व्यर्थ हो गई। ३५६ Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नहुष प्राचीन चरित्रकोश नांग . तब भीम ने पूछा, 'हे सर्पराज, तुम कौन हो ? मेरा तेज (२) ययाति-यह नहुष के पश्चात् प्रतिष्ठान देश हरण करने की शक्ति तुझमें कैसी पैदा हो गई ?' | के राजगद्दी पर बैठ गया । इसी के नाम से 'पुरुरवस् फिर अजगर ने कहा, 'मैं नहुष नामक एक राजर्षि हूँ। वंश' को 'ययाति वंश' यह नया नाम प्राप्त हुआ। अनेक विद्या, यज्ञ, कुलीनता, तथा पराक्रम के कारण, मैने (३) संयाति-यह उत्तर आयु में 'परिव्राजक' बन त्रैलोक्य का आधिपत्य प्राप्त किया था। किंतु पश्चात् गया। इसके नाम के लिये, 'शर्याति' नामांतर भी प्राप्त मदोन्मत्त हो कर, मैंने सप्तर्षियों को अपने पालकी का है (पा. स. १२; अग्नि. २७४)। वाहन बनाया। इसलिये अगत्स्य ऋषि ने शाप दे कर, | (४) आयति या अयति--इसके नाम के लिये, मुझे इस हीन सर्पयोनि में जाने के लिये कहा। उःशाप | 'उद्भव' नामांतर प्राप्त है (मत्स्य. २४.५०; पद्म. सु. माँगने पर उसने मुझे कहा, 'तुम जिस प्राणी पर | १२; अग्नि. २७४)। झपटोगे, उसकी शक्ति हरण कर लोगे | आत्मनात्माविवेक | (५ अश्वक( कूर्म. १.२२)-- इसके नाम के लिये, के ज्ञान से परिपूर्ण पुरुष से मुलाकात होने पर, तुम शाप- पार्श्वक (ब्रह्म. १२), अंधक (लिंग. १.६६), वियति मुक्त हो जाओगे'।' तबसे ऐसे ही पुरुष का मैं इन्तजार (विष्णु. ४.१०; भा. ९.१८.१; पद्म. स. १२)नामांतर कर रहा हूँ। प्राप्त है। __इतने में युधिष्ठिर भीम को ढूँढ़ते ढूँढ़ते वहाँ (६) वियाति(मत्स्य. २४)- इसके नाम के लिये पहूचा । अजगर के द्वारा भीम को पकड़ा हुआ देख विजाति (लिंग. १.६६), सुयाति (ह. वं. १.३०.२, .कर, उसने सर्प से पूछा, 'तुम कौन हो ? भीम को तुमने | ब्रह्म. १२), कृति ( विष्णु. ४.१०; भा. ९.१८.१), ध्रुव क्यों पकड लिया है ?' तब अजगरस्वरूपी नहष ने कहा. | (म. आ. ७०.२८) नामांतर प्राप्त है। 'मैं तुम्हारा पूर्वज, एवं आयु नामक राजा का पुत्र हूँ।। (७) मेवजाति(मत्स्य. २४.५०)- इसके नाम तुम्हारे द्वारा मेरे प्रश्नों के उत्तर दिये जाने पर मैं भीम | के लिये, मेघपालक नामांतर प्राप्त है (अग्नि. २७४)। को छोड़ दूंगा'। ३. कश्यप एवं कद्रू से उत्पन्न एक प्रमुख नाग। ... बाद में नहुष ने युधिष्ठिर से प्रश्न किया, 'ब्राह्मण किस | ४. वैवस्वत मनु का पुत्र । को कहते है ? '• युधिष्ठिर ने उत्तर दिया, 'सत्य, दान; नहुष मानव-एक मंत्रद्रष्टा (ऋ. ९.१०१.७-९)। क्षमा, सच्छीलत्व, एवं इंद्रियदमन जिसके पास हो, वह नाक-दक्षसावर्णि मनु का पुत्र (मनु देखिये)। मानव ब्राह्मण कहलाता है। फिर सर्प ने पूछा, 'पृथ्वी नाक मौद्गल्य-एक तत्त्वज्ञ आचार्य । ब्राह्मणों में कई में सर्वश्रेष्ठ ज्ञान कौनसा है' । युधिष्ठिर ने जवाब दिया, बार इसका निर्देश प्राप्त है (जै. उ. ब्रा. ३.१३.५, श. 'ब्रह्म का ज्ञान सर्वश्रेष्ठ कहलाता है'। इन उत्तरों से प्रसन्न | ब्रा. १२.५.२.१) अधिकांश स्थानों पर इसका निर्देश केवल हो कर, इसने भीम को छोड़ दिया, एवं इसका भी 'नाक' नाम से आता है। किंतु नाक मौद्गल्य ऐसा स्पष्ट उद्धार हो कर, यह स्वर्ग में चला गया (म. व. १७५ निर्देश एक ही स्थान पर है (बृ. उ. ६.४.४)। इसका १७८)। ग्लाव मैत्रेय ऋषि से वाद हुआ था (गो. ब्रा. १.१.३१)। पुत्र-नहुष के पुत्रों की संख्या एवं नामों के बारे में, वेदों का अध्ययन तथा अध्यापन एक तरह की तपःसाधना पुराणों में एकवाक्यता नहीं है। अधिकांश पुराणों एवं | है, ऐसा इसका प्रतिपादन था (तै. उ. १.९)। महाभारत के मत में, नहुष को कुल छः पुत्र थे (म. | नाकुरय-कश्यप कुल का गोत्रकार। आ. ७०.२८; ह. वं. १.३०.२; ब्रह्म. १२; विष्णु. ४. १०; भा. ९.१८.१; लिंग, १.६६)। कूर्म एवं पद्म के नाकुलि-भृगुकुल का एक गोत्रकार । इसके नाम के मत में, इसे कुल पाँच पुत्र थे (कूर्म. १.२२; पद्म. सू. लिये, 'लिंबुकि' पाठभेद उपलब्ध है। १२)। मत्स्य एवं अग्नि में, नहुष के सात पुत्रों के नाम । २. नकुल का नामांतर। दिये गये है (मत्स्य. २४.५०; अग्नि. २७४)। नाग-कश्यप तथा कद्रु का पुत्र। यह मेरुकर्षिका पुराणों में दिये गये नहुष के पुत्रों के नाम इन प्रकार | नामक स्थान पर रहता था (भा. ५.१६.२६)।यह वरुण की सभा का सभासद था (म. स. ९.८; सर्प देखिये)। (१) यति-यह नहुष का ज्येष्ठ पुत्र था। | २. प्राचीन मानव जातियों में से एक । दक्षकन्या कद्र ३५७ Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाग प्राचीन चरित्रकोश नांग को कश्यप ऋषि से एक सहस्र सर्प पैदा हुएँ । उन पुत्रों से सर्पसत्र में दग्ध हुएँ नाग--जनमेजय के सर्पसत्र में ही आगे चल कर, नागजाति के लोग निर्माण हुएँ। दग्ध हुएँ, नाग वंश एवं नागों की विस्तृत नामावलि . ___ कश्यप के नागपुत्रों में निम्नलिखित नाग प्रमुख थे:- | 'महाभारत' में दी गयी है। उन में से प्रमुख नागवंश अनन्त, वासुकि, तक्षक, कर्कोटक, पद्म, महापन, शंख | एवं नागों के नाम इस प्रकार है। तथा कलिक। वासुकिवंश-कोटिक, मानस, पूर्ण, सह, पैल, ___एक बार ये प्रजा को बहुत कष्ट देने लगे। फिर ब्रह्म | हलीसक, पिच्छिल, कोणप, चक्र, कोणवेग, प्रकालन, देव ने इन्हें शाप दिया, 'जनमेजय के सर्पसन के द्वारा, हिरण्यावाह, शरण, कक्षक, कालदन्तक, (म. आ. ५२. एवं तुम्हारे सापत्न बंधु गरुड के द्वारा तुम्हारा नाश होगा। शरण आने पर ब्रह्मदेव ने इन्हें उःशाप दिया, एवं एक ___ तक्षकवंश-पुच्छण्डक, मण्डलक, पिण्डभेतृ, रमेणक, सुरक्षित स्थान इनके लिये नियुक्त कर, वहाँ रहने के लिये | उच्छिख, सुरस, द्रङ्ग, बलहेड, विरोहण, शिली शिलकर, इन्हे कहा। वहाँ 'नागतीर्थ निर्माण हआ। जिस दिन ये | मूक, सुकुमार, प्रवपन, मुद्गर, शशरोमन् , सुमनस् , वेगब्रह्मदेव से मिलने गये, वह सावन माह के पंचमी का दिन | वाहन (म. आ. ५२.७-९)। था । नागमुक्ति का दिन होने के कारण, वह दिन 'नागपंचमी' | ऐरावतवंश-पारिवात, पारिमात्र, पाण्डर, हरिण, . नाम से प्रसिद्ध हुआ (पन. सु. ३१)। कृश, विहंग, शरभ, मोद, प्रमोद, संहतांङ्ग, (म. आ.. ५२.१०)। प्रमुख नागपुत्रों के बारे में पुराणों में प्राप्त जानकारी ___ कौरव्यवंश--ऐण्डिल, कुण्डल, मुण्ड, वेणिस्कन्ध, 'परिपत्रक' के रूप में, नीचे दी गई है :-- कुमारक, बाहुक, शृङ्गवेग, धूर्तक, पात, पातर (म. आ. . ५२.१२)। धृतराष्ट्रवंश--शकुकर्ण, पिङ्गलक, कुठारमुख; पेचक, ' पूर्णाङ्गद, पूर्णमुख, प्रहस, शकुनि, हरि, अंमाठक, कोमठक, श्वसन, मानव, वट, भैरव, मुण्डवेगाङ्ग, पिशङ्ग, ' उद्रपारथ, ऋषभ, वेगवत् , पिण्डारक, महाहनु, रक्ताङ्ग, सर्वसारङ्ग, समृद्ध, पाट, राक्षस, वराहक, वारणक, सुमित्र, चित्रवेदिक, पराशर, तरुणक, मणिस्कन्ध, आरुणि (म. आ. ५२.१४-१७)। निवासस्थान-नागों के तीन प्रमुख निवासस्थानों का निर्देश महाभारत में प्राप्त है। वे स्थान इस प्रकार दिशा चिह्न दृष्टि पद्म उत्पल कमल पन शूल छत्र दक्षिण स्वस्तिक ईशान्य अर्धचन्द्र आग्नेय पूर्व नैऋत्य पश्चिम वायव्य बायीं ओर दायी ओर आरक्त बार बार निश्चेष्टित उत्तर सामने सर्वत्र (कपिल) चंचल नीचे कृष्ण पीछे आरक्त पीत कृष्ण पीत ब्राह्मण शुक्ल क्षत्रिय वैश्य शूद्र शूद्र वैश्य क्षत्रिय कुलिक (कंबल ) ब्राह्मण शुक्ल अनंत __ वासुकि पद्म (नाम) तक्षक कर्कोटक शंखपाल रंग (१) नागलोक-यह नागों का प्रमुख निवासस्थान था (म. उ. ९७.१)। नागराज वासुकि इस देश के. राजा थे । इस लोक की स्थिति भूतल से हजारो योजन दूर थी (म. आश्व.५७.३३)। यह लोक सहस्त्र योजन विस्तृत था। (२) नागधन्वातीर्थ-सरस्वती नदी के तटवर्ती एक प्राचीन तीर्थ, जहाँ नागराज वासुकि का निवासस्थान था। यही उसको नागराज के पद पर अभिषेक हुआ था। (३) नागपुर-नैमिषारण्य में गोमती नदी के तट पर स्थित एक नगर, जहाँ पद्मनाभ नामक नाग का इन नागों के दंश आदि की विस्तृत जानकारी | निवासस्थान था (म. शां. ३४३.२-४)। भविष्य पुराण में दी गयी है ( भवि. ब्राह्म.३३-३६)। २. मथुरा का एक राजवंश (भोगिन् देखिये)। वर्ण महापद्म नाम Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन चरित्रकोश नागदत्त नागदत्त - (सो. कुरु.) धृतराष्ट्र के शतपुत्रों में से एक यह भीम के द्वारा मारा गया (म. हो. १३२. ११३५*)। 1 नागदत्ता - एक अप्सरा । नागवीथी -- धर्म ऋषि की यामी से उत्पन्न कन्या । नागाशिन - गरुड की एक प्रमुख संतान ( म. उ. ९९.९ । ) नागेय - वसिष्ठ कुल का गोत्रकार । नागेश्वर--शंकर का एक अवतार । दारुक नामक राक्षस को मार कर, इसने सुप्रिय नामक वैश्यनाथ का संरक्षण किया था। यही अवतार 'ओढ्य नागनाथ है नाम से प्रसिद्ध है (शिव शत. ४२ ) । भूतेश्वर इसका उपलिंग है ( शिव. कोटि. ४.१ ) । नग्नजित स्वर्जित का पैतृक नाम । नाग्नजिती - सत्य ५. देखिये । नाचिक ( कि ) - विश्वामित्र का पुत्र । नाचिकेत– नचिकेतस् ऋषि का नामांतर (नचिकेत देखिये)। नादापती- शकुंतला के लिये प्रयुक्त विशेषण। इसका अर्थ निश्चित रूप से बताया नहीं जा सकता ( श. ब्रा. १३.५.४.१३ ) । नसयनीय-ब्रह्मांडमत में व्यास की सामशिष्य परंपरा के लोकाक्षि का शिष्य ( व्यास देखिये) । नाडायन --- अंगिराकुल का गोत्रकार । नाडीजंघ -- एक बकराज । यह कश्यप ऋषि का पुत्र, एवं ब्रह्माजी का मित्र था । इसे ' राजधर्मन् ' नामांतर भी प्राप्त था । देवकन्या के गर्भ से जन्म लेने के कारण, इसकी शरीर की कान्ति देवता के समान दिखायी देती थी । यह बड़ा विद्वान्, एवं दिव्य तेज से संपन्न था (म. शां. १६३.१९-२० ) । गौतम नामक कृतन ब्राह्मण ने इसका वध किया। किंतु सुरभि के फेन से यह पुनः जीवित हुआ ( गौतम ५. देखिये) । २. इंद्रद्युम्न सरोवर पर रहनेवाला एक चिरजीवि बक ( म. व.) । नाभाग नाथ - विकुंठ देवों में से एक । नान्यादृश-- मरुद्रणों के छठवें गणों में से एक । नाभ -- नामाक राजा का नामान्तर ( नाभाक २. देखिये) । २. चाक्षुष मन्वंतर का एक ऋषि । ३. (सो.) एक राजा । यह नल राजा का पुत्र था । इसने दस हजार वर्षों तक राज्य किया। नाभावत्ति -- भागवत्ति देखिये । नाभाक- एक सूक्तद्रष्टा ऋषि (ऋ. ८.३९-४१ ) । यह 'नभाक' ऋषि का पुत्र था। ऋग्वेद के तीन या चार सूक्तों के प्रणयन का श्रेय इसे दिया गया है (ऋ. ८.४१. २)। 'नाभाक काण्व' नाम से इसका निर्देश, कई जगह प्राप्त है। किंतु लुडविग के मत में, यह ' काण्व' न हो कर, 'आंगिरस वंश का था (ड. ऋग्वेद अनुवाद २. १०७) । इसके एक सूक्त में, यह सूर्यवंशी आंगिरस होने का निर्देश भी प्राप्त है। अपने एक सूक्त में इसने कहा है, मेरे पिता नभाक, अंगिरस, मांधातृ एवं अशी के तरह नये स्तोत्र तयार कर मैं इंद्र एवं अग्नि की स्तुति कर रहा हूँ (ऋ. ८.४०. १२) । इस निर्देश के कारण, ऋषि इस काल मांधातृ के पश्चात् का था, यह शापित होता है। २. (स. इ.) अयोध्या देश का एक राजा । वायु, भागवत, तथा विष्णुमत में, यह श्रुत का पुत्र था। मत्स्य मत में यह भगीरथ का पुत्र था। मत्स्य में इक्ष्वाकु राजा 'भुत' का निर्देश ही नहीं है। 6 विष्णु एवं वायु में इसे ' नाभाग', एवं भागवत में इसे 'नाम' कहा गया है । इसने समुद्रपर्यंत पृथ्वी को सात दिन में जीता था, एवं सत्य के द्वारा उत्तमं लोकों पर विजय पायी थी ( म. व. २६.११) । पृथ्वी को जीतने के बाद इसने उसे दक्षिणा के रूप में ब्राह्मणों को दे दिया ( म. शां. ९७. २१) । किंतु शीलवान् एवं दयालु होने के कारण, दी नाड्वलायन एवं नाड्वलेय - नड्वला के पुत्रों का हुआ पृथ्वी स्वयं इसके पास वापस आ गयी ( म. शां. मातृक नाम । १२४.१६-१७) । नाभाग -- वैवस्वत मनु के दस पुत्रों में से एक, एवं प्राचीनकाल के एक महाप्रतापी राजा ( पद्म. सृ. ८ ) । कई ग्रंथों में, इसे वैवस्वत मनु का पौत्र, एवं नभग पुत्र कहा गया है (म. आ. ७७.१४; भा. ९.४ ) । इसने जीवन में कभी मांस नहीं खाया था। मांसभक्षण के त्याग के इस पुण्य के कारण, इसे 'परावरतत्त्व' का ३५९ Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाभाग प्राचीन चरित्रकोश नारद ज्ञान हो गया, एवं ब्रह्मलोक में इसे प्रवेश मिल गया (म. | नामांतर भी प्राप्त हैं (अग्नि. २७२. १७१; नभग अनु. ११५.५८-६८)। देखिये)। इसके सत्याचरण एवं उदारता की एक कथा पद्मपुराण ३. (सू. दिष्ट.) वैशाली देश का राजा । यह वैवस्वत । में दी गयी है। अपने कुमारआयु में, यह गुरुगृह में मनु का पौत्र, एवं दिष्ट राजा का पुत्र था । विष्णुमत विद्यार्जन कर रहा था । यह मौका देख, वैवस्वत मनु के | में यह 'नेदिष्ट' का भागवतमत में यह 'दिष्ट' का, अन्य पुत्रों ने उसका राज्य आपस में बाँट लिया । नाभाग एवं वायुमत में यह मनु का पुत्र था (सुप्रभा ३. को उसके राज्य के हिस्से से वंचित कर, इसे इसका पिता | देखिये)। हिस्से के रूप में दिया। फिर इसके पिता ने इसे कहा, नाभानेदिष्ठ मानव-एक सूक्तद्रष्टा ऋषि (ऋ १०. 'तुम चिंता मत करो। विपुल धनार्जन का रास्ता मैं तुम्हे | ६१-६२)। यह स्वायंभुव मनु का पुत्र था । पुराणों दिखाता हूँ। आंगिरस ऋषि यज्ञ कर रहे है। यज्ञ के | में 'नाभाग' के नाम पर दी गयी 'आंगिरस यज्ञ' की छठवें दिन उन्हे कुछ भ्रम सा हो कर, यज्ञ के मंत्र की | कथा वैदिक ग्रंथों में इसके नाम पर दी गयी है (ऐ. उन्हे विस्मृति हो जाती है। उस वक्त, तुम उसे दो वैश्व- | ब्रा. ५. १४; तै. सं. ३. १. ९. ४-६; सां. बा. २८. देवसूक्त' गा कर बताओ। उससे उसका यज्ञ पूरा होगा, | ४; ३०. ४; सां. श्री. २६. ११. २८-३०)। एवं प्रसन्न हो कर, यज्ञ के लिये एकत्रित किया सारा धन | 'पंचविंशब्राह्मण' में इसके नाम का निर्देश 'नाभाने-' वह तुम्हे दे देंगा।' | दिष्ठी' नाम से कर, इसने प्रणयित ऋग्वेद सूक्तों को पिता के कथनानुसार, इसने अंगिरस् को 'मंत्रस्मरण | 'नाभानेदिष्ठीय सूक्त' कहा गया है (पं. बा. २०.' के बारे में सहायता दी' एवं अंगिरस् ने भी यज्ञ का | ९.२)। सारा धन इसे दे दिया। किंतु इसी वक्त एक कृष्णवर्णीय | नाभि-एक राजा । प्रियव्रतपुत्र आग्नीध्र राजा को. पुरुष का रूप धारण कर, रुद्र वहाँ उपस्थित हुआ, एवं | पूर्वचित्ति नामक अप्सरा से यह उत्पन्न हुआ था । इसे : यज्ञधन माँगने लगा। यज्ञ का अवशिष्ट धन पर रुंद्र का | मेरुदेवी नामक स्त्री थी, जिससे इसे ऋषभदेव नामक ही अधिकार रहता है, यह जानते ही नामाग ने सारा पुत्र हुआ। इसके नाम से, इसके 'वर्ष' (राज्य), द्रव्य रुद्र को दे दिया । इसकी इस उदारता से प्रसन्न को 'अजनाभवर्ष' नाम प्राप्त हुआ (भा. ५. २. १९; हो कर, रुद्र ने आंगिरस के यज्ञ की सारी संपत्ति नाभाग ४.२)। .. को प्रदान की एवं इसे 'ब्रह्मविद्या' भी सिखायी (पन. | नाभिगुप्त-कुशद्वीप का राजा ' श्रेयव्रत' हिरण्यरेतस् सृ.८)। के सात पुत्रों में से एक । हिरण्यरेतस् ने अपने राज्य के बिल्कुल यही कथा नाभानेदिष्ठ के नाम पर प्राचीन | सात भाग कर, वे अपने सात पुत्रों में बाँट दिये थे (भा. वैदिक ग्रंथों में दी गयी है (ऋ १०.६१-६२)। ऋग्वेद | ५.२०.१४; हिरण्यरेतस् देखिये)। के उन सूक्तों की रचना 'नाभाककाण्व ' ने की हैं (ऋ. __ नायकि-अंगिरसकुल का मोत्रकार। ८.३९-४१; नि. १०.५)। नायु-दक्ष एवं असिनी की कन्या, तथा कश्यप की नाभाग को अंबरीष नामक एक पुत्र था । इसके वंश | पत्नी। की विस्तृत जानकारी बारह पुराणों में दी गयी है (वायु. नारद-एफ वैदिक द्रष्टा एवं यज्ञवेत्ता (अ. वे. ५. - ८९; विष्णु. ४.२; अग्नि. २७२, ब्रह्मांड. ३.६३, ब्रह्म. १९.९; १२.४.१६; २४; ४१; मै. सं. १.५.८)। यह ७; मत्स्य. १२; ह. वं. १.१०; भा. ९.४-६)। हरिश्चंद्र राजा का पुरोहित था, एवं पुरुषमेध करने की राय २. (सू. इ.) अयोध्या देश का राजा । विष्णु, वायु | इसीने उसे दी थी (ऐ. ब्रा. ७.१३)। वशा धेनु का मांस एवं भागवतमत में, यह श्रुत राजा का पुत्र था । मत्स्य- ब्राह्मण ने भक्षण करना योग्य है या अयोग्य, इस विषय में मत में, भगीरथ राजा के दो पुत्रों में से यह कनिष्ठ पुत्र | इसका नामनिर्देश अथर्ववेद में कई बार आया है। था। भागवत में इसका 'नाम' नामांतर प्राप्त है। इसके यह बृहस्पति का शिष्य था (सां. ब्रा. ३.९)। यद्यपि पुत्र का नाम अंबरीष था। किंतु रामायण में अंबरीष | सारी विद्याएँ इसने बृहस्पति से प्राप्त की थी, तथापि इसके पूर्वकालीन बताया गया है। 'ब्रह्मज्ञान' के प्राप्ति के लिये, यह सनत्कुमार के पासइसके नाभागारिष्ट, नाभानेदिष्ट, एवं नाभागदिष्ट | गया था (छां. उ. ७.१.१)। ३६० Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नारद प्राचीन चरित्रकोश इसने " । सोमक साहदेव्य नामक अपने शिष्य को सोमविया सिखायी थी (ऐ, ब्रा. ७.२४) पर्यंत नामक अन्य आचार्य के साथ, इसने आंष्टय एवं सुधांश्रष्टि राजाओं को ऐंद्रमहाभिषेक किया था (पे ब्रा. ८.२१ ) । 3 " । . २. एक देवर्षि एवं ब्रह्माजी का मानसपुत्र एक धर्मश तत्त्वज्ञ, वेदांत, राजनीतिज्ञ एवं संगीतज्ञ के नाते, नारद का चरित्र चित्रण महाभारत में किया गया है (म. आ. परि. १. १११) जी चाहे वहाँ भ्रमण । करनेवाले एक ऋषि के नाते, नारद तीनों त्रिकाल आकाशमार्ग से प्रवास करता था, एवं इसका संचार तीनों लोकों में रहता था। यह वेद एवं वेदांत में पारंगत, ब्रह्मशनयुक्त, एवं नयनीतिश था। राजाओं के घर में इसे वृहस्पति जैसा मान था । यह 'नानार्थकुशल', एवं लोगों के धर्म, राजनीति एवं नित्यव्यवहार आदि विषयों के संशय दूर करने में प्रवीण था। स्वभाव से यह पुण्यशील सीदासादा एवं मृदुभाषणी था । यह उत्कृष्ट प्रवचनकार एवं संगीतकार था । स्वरूपवर्णन - नारद की शरीरकांति श्वेत एवं तेजस्वी थी। इंद्र ने प्रदान किये सफेद, मृदु एवं धूत वस्त्र यह परिधान करता था। कानों में सुवर्णकुंडल, कंधों पर वीणा, • एवं सिर पर, ' श्लक्ष्ण शिखा' (मृदु चोटी ) से, यह अलंकृत रहता था । नारद कश्यप प्रजापति के घर लिये अपने अगले जन्म में भी, दस के शाप की पीड़ा इसे पूर्ववत् ही भुगतनी पड़ी। जन्म-नारद ब्रह्माजी का मानसपुत्र एवं विष्णु का तीसरा अवतार था ( भा. १.३.८९ मत्स्य. ३.६ - ८ )। यह ब्रह्माजी की जंघा से उत्पन्न हुआ था (भा. २.१२. (२८) । यह नरनारायणों का उपासक था ( भा. १.३ ), एवं दर्शन तथा जिज्ञासापूर्ति के हेतु यह उनके पास हमेशा जाता था (म. शां. ३२१.१३-१४ ) । यह चाक्षुष मन्वन्तर के सप्तर्षिओं में से एक था। दक्ष के शाप की यही कहानी, अन्य पुराणों में कुछ अलग ढंग से दी गयी है। हरिवंश के मत में, दक्ष ने नारद को शाप दिया, 'तुम नष्ट हो कर, पुनः गर्भवास का दुख सहन करोगे (ह. सं. १.१५)। परमेष्ठी ने अन्य अार्थियों को आगे कर, नारद को उःशाप देने की प्रार्थना दक्ष से की। फिर दक्ष ने परमेष्ठी से कहा, 'मैं अपनी कन्या तुम्हें विवाह में दे दूँगा, एवं उस कन्या के गर्भ से नारद का पुनर्जन्म हो जायेगा ( वायु. ६६.१३५१५० ब्रह्मांड २.२.१८ ) । इस उःशाप के अनुसार, परमेशी का विवाह दक्षकन्या से होने के पश्चात् उन्हे नारद पुत्ररूप में प्राप्त हो गया (अ. १२.१२-१५) । , " देवी भागवत के मत में, दक्ष ने नारद को शाप दिया, 'तुम्हारा नाश हो कर, अगला जन्म तुम्हें मेरे ही पुत्र के नाते लेना पड़ेगा। इस शाप के अनुसार, नारद मृत हो गया एवं 'दक्ष' एवं वीरिणी के पुत्र के नाते, नया जन्म लेने पर विवश हो गया (दे. भा. ७०१) । बायुपुराण के मत में, शिवजी के शाप के कारण जिन प्रजापतियों की मृत्यु हो गयी, उनमें नारद भी एक था ( वायु. ६६.९ ) । अपने अगले जन्म में, यह कश्यप प्रजापति का पुत्र एवं अरुंधती तथा पर्वत इन कश्यप संतति का भाई बन गया ( वायु. ७१. ७८. ८० ) । महाभारत के मत में, पर्वत नारद का भाई न हो कर, भतीजा था ( म. शां. १०० ५३ . भा. दे. ६.२७ ) । • ब्रह्मवैवर्तपुराण में नारद के पुनर्जन्म की कहानी कुछ अलग ढंग से दी गयी है। दक्ष के शाप के कारण, एक शूद्रस्त्रीगर्भ से यह पुनः उत्पन्न हुआ । इस नये जन्म में इसकी माता कलावती नामक शुद्ध स्त्री थी। इमिल नामक शुद्र की वह पत्नी थी। अपने पति की अनुमति से, कलावती ने पुत्रप्राप्ति के हेतु, कश्यप प्रजापति का वीर्य प्राशन किया। बाद में मिल ने देहत्याग किया, एवं कलायती एक ब्राह्मण के घर प्रसूत हो कर, उसे एक पुत्र हुआ। वही नारद है । बाद में इसे कश्यप ऋषि को अर्पण किया गया | कृष्णस्तव के कारण, यह शापमुक्त हुआ, एवं ब्रह्मदेव ने इसे सृष्टि उत्पन्न करने की अनुज्ञा भी दी। किंतु यह आजन्म ब्रह्मचारी ही रहा। महाभारत में, कश्यप एवं मुनि के पुत्र के रूप में, पुनर्जन्म - नारद ने दक्ष के ' हर्यश्व' नामक दस हवार पुत्रों को सांख्यान का उपदेश दिया, जिस कारण वे सारे विरक्त हो कर घर से निकल गये (म. आ. ७०. ५-६ ) । अपने पुत्रों को प्रजोत्पादन से परावृत्त करने के कारण, दक्ष नारद पर अत्यंत क्रुद्ध हुआ, एवं उसने इसे शाप दिया (विष्णु. १.१५ ) । इस शाप के कारण, नारद ब्रह्मचारी रह कर हमेशा भटकता रहा, एवं सारी दुनिया में झगड़े लगाता रहा ( मा. ६.५.२७-३९ ) । दक्ष का शाप इसे जन्मजन्मांतर के लिये मिला था। इस कारण प्रा. च. ४६ ] ३६१ Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नारद नारद ने पुनः जन्म लिया, ऐसा निर्देश प्राप्त है ( म. आ. ५९. ४३ ) । देवों का वार्ताहर - त्रैलोक्य के राजाओं का वार्ताहर, एवं सलाहगार ऋषि मान कर, नारद का चरित्रचित्रण महाभारत में किया गया है। अर्जुन के जन्म के समय नारद उपस्थित था (म. आ. ११४.४६ ) | द्रौपदी के स्वयंवर में, अन्य गंधर्व एवं अप्सराओं के साथ, यह गया था (म. आ. १७८.७) । पश्चात् द्रौपदी के निमित्त पांडवों का आपस में कोई मतभेद न हो, इस उद्देश्य से नारद इंद्रप्रस्थ चला आया। पांडवों के प्रति, मुंद एवं उपसुंद की कथा का वर्णन कर, द्रौपदी के विषय में झगड़े से बचने के लिये कोई नियम बनाने की प्रेरणा, इसने पांडवों को दे दी ( म. आ. २०४ ) 1 प्राचीन चरित्रकोश युधिष्ठिर इंद्रप्रस्थ का राजा होने के पश्चात्, नारद ने उसे हरिश्चंद्र की कथा सुना कर, राजसूय यश की प्रेरणा दी ( म. स. ११.७० ) । राजसूययज्ञ में अवभृथस्नान के समय, नारद ने स्वयं युधिष्ठिर को अभिषेक किया (म. स. ४९६.१० ) । विदर्भ देश की राजकन्या दमयंती के स्वयंवर की बार्ता इंद्र को नारद ने ही कथन की थी (म. व. ५१.२०-२४)। राजा अश्वपति के पास जा कर, सत्यवान् एवं सावित्री के विवाह का प्रस्ताव नारद ने ही प्रस्त किया था (म. व. २७८.११-३२) । प्राचीन राजाओं की अनेक कथाएँ नारद के द्वारा 'महाभारत' में कथन की गयी हैं । उनमें से इसने सृज्य राज्य को कथन किये, 'पोटश राजकीय उपाख्यान की कथाएँ विशेष महत्त्वपूर्ण मानी जाती है (म. द्रो, परि. १.८.३२५-८७२ ) । उन कथाओं में निम्नलिखित राजाओं के चरित्र, पराक्रम, महत्ता, दानशीलता, एवं उत्कर्ष का वर्णन किया गया है:-१. आविक्षित मस्त २. वैदिथिन सुहोत्र, ३. पौरव, ४. औशीनर शिबि, ५. दाशरथि राम, ६. ऐक्ष्वाकु भगीरथ, ७. ऐलविल दिलीप, ८. यौवनाश्व मान्धातृ, ९. नाहुष ययाति, १०. नाभाग अंबरीष, ११. यादव शशबिंदु, १२. आमूर्तरयस गय, १३. सांकृति रंतिदेव, १४. दौष्यन्ति भरत, १५ वैन्य पृथु, १६. जामदग्न्य परशुराम । नारद ने कथन की हुआ येही कथाएँ, भारतीय युद्ध के बाद, श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर से निवेदन की थी ( म. शां. २९ ) । 6 नारद द्रो. १३८ ) । भारतीय युद्ध में हुए कौरवों के संपूर्ण विनाश की वार्ता, बलराम को नारद ने ही सुनायी थी ( म. श. ५३. २३-३१) । अर्जुन एवं अश्वत्थामा के युद्ध यें ब्रह्मास्त्र को शांत करने के लिये नारद प्रकट हुआ था (म. सी. १४० ११-१२ ) । युद्ध के पश्चात् युधिि के पास आ कर, उसका कुशल समाचार नारद ने पूछा था ( म. शां. ९-१२ ) | युधिष्ठिर के अधमेधयज्ञ के समय नारद उपस्थित था (म. अश्व. ९०.३८ ) । प्राचीन ऋषिओं की तपः-. सिद्धि का दृष्टान्त दे कर, नारद ने धृतराष्ट्र की तपस्याविषयक श्रद्धा को बढाया था ( म. आश्व. २६.१) । वन में धृतराष्ट्र, कुन्ती एवं गांधारी दावानल से दग्ध होने का समाचार, नारद ने ही युधिष्ठिर को कथन किया. पा ( म. आश्व. ४५. ९ - ३१ ) | नारद ने युधिष्ठिर से कहा, 'धृतराष्ट्र लौकिक अग्नि से नहीं, किंतु अपने ही अनि से दग्ध हो गया है ' । इतना कह कर, इसने युधिष्ठिर से धृतराष्ट्र को जलांजली प्रदान करने की आज्ञा दी ( म. आश्व. ४७. १- ९ ) । सांत्र के पेंट से मुसल पैदा होने का शाप देनेवाले ऋषिओं में नारद एक था (म. मौ. २. ४) । तत्वज्ञ नारद- एक तत्व के नाते, नारद श्रेष्ठ विभूति थे। तत्त्वज्ञ नारद ने दिये उपदेश के अनेक कथाभाग 'महाभारत' में निर्देश किये गये है। तीस लाख श्लोकोवाला 'महाभारत' मारद ने देवताओं को सुनाया था ( म. आ. परि. १. ४) ' पंचरात्र' नामक आत्मतत्त्व का उपदेश नारद ने व्यास को दिया था ( म. शां. ३२६) । इसने सूर्य के अष्टोत्तरशत नाम का उपदेश धौम्य को दिया था ( म. व. ३. १७- २९ ) । इसने शुकदेव को वैराग्य, ज्ञान आदि विविध विषयों का उपदेश दिया था (म. शां. ३१६-३१८) । मार्कडेय को नारद ने धर्मशास्त्र एवं तत्वज्ञान के बारे में जानकारी दी थी (म. अनु. ५४ - ६३ कुं.) । पूजनीय पुरुषों के लक्षण, एवं उनके आदरसत्कार से होनेवाले लाभ का वर्णन इसने श्रीकृष्ण को बताया था (म. अनु. ३१.५-२५) | श्रीकृष्ण की माता देवकी को, विभिन्न नक्षत्रों में विभिन्न वस्तुओं के दान का महत्व नारद ने कथन किया था ( म. अनु. ६४.५-३५) । " श्रेयःप्राप्ति के लिये नारायण की उपासना करने का उपदेश, नारद ने पुंडरीक को दिया था ( म. अनु. १२४ ) । समुद्र के किनारे महासत्र करनेवाले ज्ञानी भारतीय युद्ध के रात्रियुद्ध में, नारद ने कौरवपांडवों की सेनाओं में दीपक का प्रकाश निर्माण किया था ( म. ३६२ " Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नारद प्राचीन चरित्रकोश नारद प्रचेताओं को नारद ने ज्ञानोपदेश दिया था (म. शां. | करने के हेतु, यह तुंबरु के पास गया। वहाँ इसे सारी ३१६-३१९)। सृष्टि की उत्पत्ति तथा लय के बारे में | रागिनियाँ टूटी मरोड़ी अवस्था में दिखाई पड़ीं। इसने जानकारी इसीने देवल को बतायी थी (म. शां. २६७)। उन्हें उनकी यह विकल अवस्था का कारण पूछा। फिर समंग के साथ इसका ज्ञानविषयक संवाद हुआ था (म. | | उन्होंने कहाँ, 'तुम्हारे बेढंगे' गायन के कारण, हमारी यह शां. २७५)। पुत्रशोक करनेवाले अकंपन राजा को, मृत्यु | हालत हो चुकी है । तुंबरु का गायन सुनने के बाद हमें की कथा बता कर इसने शांत किया था (म. शां. २४८- | पूर्वस्थिति प्राप्त होगी। २५०)। शास्त्रश्रवण से क्या लाभ होता है, इसकी रागिनियों के इस वक्रोक्तिपूर्ण भाषण से लज्जित हो जानकारी इसने गालव को दी थी (म. शां. २७६)। कर, यह श्वतद्वीप में गया। वहाँ इसने विष्णु की प्राणापान में से प्रथम क्या उत्पन्न होता है, इसका | आराधना की । उस आराधना से प्रसन्न हो कर श्रीविष्णु ज्ञान नारद ने देवमत को प्रदान किया (म. आश्व. २४)। ने इससे कहा, 'कृष्णावतार में मैं खुद तुम्हें गायन शतयूषा को इसने स्वर्ग के बारे में जानकारी दी (म. | सिखाऊंगा'। इस वर के अनुसार, कृष्णावतार के आश्व. २७)। समय, यह कृष्ण के पास गया । वह जांबवती, सत्यभामा भागवत आदि ग्रंथों में भी तत्त्वज्ञ नारद के अनेक | एवं रुक्मिणी, इन कृष्णपत्नियों ने तथा बाद में स्वयं कृष्ण निर्देश दिये गये है। सावर्णि मनु को 'पंचरात्रागमतंत्र' ने इसे गायनकला में पूर्ण पारंगत किया। श्रीकृष्ण के पास का उपदेश नारद ने दिया था (भा. १.३.८, ५.१९. | जाने के पहले यह पुनः एक बार तुंबरु के पास गया था। १०)। इसने व्यास को 'भागवत' ग्रंथ लिखने की परंतु वहाँ धैवतों के साथ षड्जादि छः देवकन्याओं को इसने प्रेरणा दी थी (भा. १.५.८)। ऋषिओं को इसने | देखा, एवं शरम के मारे यह वहाँसे वापस चला आया। ‘भागवतमाहात्य' बताया था (पध्न. उ. १९३- | नारद-नारदी-पुराणों में नारद का व्यक्तिचित्रण, एक धर्मज्ञ देवर्षि की अपेक्षा, एक हास्य जनक व्यक्ति के संगीतकलातज्ज्ञ---नारद श्रेष्ठ श्रेणी का संगीतकलातज्ज्ञ | नाते भी किया गया प्रतीत होता है। एवं 'स्वरज्ञ' था (म. आ. परि. १११.४०)। इसका विष्णु की माया के कारण, नारद का रूपांतर कुछ नारदसंहिता' नामक संगीतशास्त्रसंबंधी एक ग्रंथ भी | काल के लिये 'नारदी' नामक एक स्त्री में हो गया था। प्राप्त है। यह कथा विभिन्न पुराणों में, अलग अलग ढंग से दी गई • नारद ने संगीत कला कैसी प्राप्त की, इसके बारे में | है। 'नारदपुराण के मत में, वृंदा के कहने पर नारद ने कल्पनारम्य कथा अध्यात्मरामायण में दी गई है (अ. रा. | एक बार सरोवर में डुबकी लगाई। उस सरोवरस्नान के ७)। एक बार लक्ष्मी के यहाँ संगीत का समारोह हुआ। कारण, इसका रूपांतर नारदी नामक स्त्री में हो गया । उस समय गायनकला न आने के कारण, लक्ष्मी ने नारद इसी नारदी का कृष्ण से वैवाहिक समागम हो गया। को दासियों के द्वारा बेंत एवं धक्के मार कर सभास्थान से | पश्चात् अन्य एक सरोवर में स्नान करने पर, इसे पुरुषरूप निकाल दिया, एवं संगीतकलाप्रवीण होने के कारण तुंबरु | फिर वापस मिल गया (नारद, २.८७; पद्मका सम्मान किया । यह अपमान सहन न हो कर, इसने | पा. ७५)। लक्ष्मी को शाप दिया, 'तुम राक्षसकन्या बनोगी। मटके | यही कथा 'ब्रह्मपुराण' में इस प्रकार दी गयी है। में इकट्ठा किया गया खून पी कर रहनेवाली स्त्री के उदर एक बार श्वेतद्वीप में जा कर, नारद ने श्रीविष्णु की स्तुति से तुम्हारा जन्म होगा । अपने माता के नीच कृत्य के की। उसने प्रसन्न हो कर इसे वर माँगने के लिये कहा । कारण, तुम्हें घर से निकाल दिया जायेगा। फिर इसने कहा, 'भगवन् मुझे अपनी माया दिखाओ'। गायन सीखने के लिये यह गानबंधुओं के पास गया । इसे गरुड़ पर बैठा कर विष्णु कान्यकब्ज देश ले गया, तथा वहाँ यह गानविद्याप्रवीण बन गया, एवं इसे स्वरज्ञान हो | एक सरोवर में स्नान करने के लिये उसने इसे कहा । कर, संगीतकला में अन्तर्गत दशसहस्र स्वरों का सूक्ष्म स्नान के लिये सरोवर में डुबकी लगाते ही इसे पता चला भेदाभेद यह समझने लगा। किन्तु इसका संगीत ज्ञान केवल | कि, इसका रूपांतर काशिराज की कन्या सुशीला नामक ग्रांथिक ही रहा। इसके गले से निकलनेवाले स्वर अभी | स्त्री में हो गया है । बाद में सुशीला का रूप धारण किये तक बेढंगे ही रहे । अपने अधुरे संगीतज्ञान का प्रदर्शन | हुए नारद का ब्याह विदर्भ राजा सुशर्मा से हुआ। पश्चात् ३६३ Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नारद प्राचीन चरित्रकोश नारद विदर्भ राजा सुशर्मा, तथा काशिराज का आपस में युद्ध | ले लिये । पश्चात् संजय की कन्या दमयती से नारद का हो कर, दोनों का ही नाश हो गया। जनककुल तथा | ब्याह हो गया (दमयंती देखिये)। भर्तृकुल दोनों का ही नाश देख कर, दुःखातिरेक से इसने | सुवर्णष्ठीविन् कथा-संजय की सेवा से संतुष्ट हो कर, चिता में प्रवेश किया। . नारद ने उसे बर माँगने के लिये कहा । संजय ने सर्वगुणबात यहाँ तक बढ़ते ही यह पानी से बाहर आया | संपन्न पुत्र माँगा। नारद के वरानुसार कुछ दिनों के बाद एवं यह सारा कथाभाग इसे सपने जैसा प्रतीत होने संजय को एक पुत्र हुआ। महाभारत द्रोणपर्व के अनुसार, लगा। किन्तु उस प्रसंग के चिह्नस्वरूप जलने की निशानी जिसके मूत्रपूरीषादि उत्सृष्ट पदार्थ सुवर्ण के है, ऐसा पुत्र इसकी जाँघ पर रह गई, तथा उसके दुःख से यह लगातार | संजय ने नारद से माँगा । नारद के आशीर्वाद से उसे वैसा तड़पने लगा । सरोवर के किनारे बैठे हुए विष्णु का दर्शन | ही सुवर्णष्ठीविन् नामक पुत्र पैदा हुआ। सुवर्णमय मलमूत्र लेते ही, इसकी वेदना शान्त हो गयी (ब्रह्म. २२८)। विसर्जन करनेवाले उस बालक को कई चोर चुरा ले गये 'देवीभागवत' के कथनानुसार, अपने नारीअवतार | तथा उसका उदर उन्होंने विदीर्ण किया। किन्तु इच्छित में नारद तालजंघ राजा की पत्नी बना था, जिससे इसे | सुवर्णप्राप्ति न होने के कारण, क्रोधित होकर वे आपस में बीस पुत्र पैदा हुएँ थे (दे. भा. ६. २८-३०)। ही लड़ कर मर गये (म. द्रो. ५५)। ___ एक बार गाने की मधुर आवाज सुन कर, नारद ने शान्तिपर्व में यही कथा कुछ अलग ढंग से दी गई वृंदा से पूछा, 'यह गाने की आवाज कहाँ से आ रही है। 'अपना पुत्र इंद्र का पराजय करनेवाला हो,'ऐसी है ? फिर उसने इसे गीतगायन में तल्लीन कुब्जा दिखाई, सुंजय की इच्छा थी। 'तुम्हारा पुत्र दीर्घायु नहीं होगा' एवं कुब्जा का जन्मवृत्तांत इसे बताया (नारद २.८०)। ऐसा शाप पर्वत ने संजय को दिया था। फिर संजय ... विवाह-शिबिराज संजय की दमयंती नामक कन्या अत्यंत निराश हो गया । उसका दीनवदन देख कर के साथ नारद का विवाह हुआ था, ऐसा कथाभाग कई | नारद ने उसे कहा, 'पर्वत के शाप से तुम्हारा पुत्र मृत पुराणों में दिया गया है। 'नारदविवाह' की ब्रह्मवैवर्त होते ही, मेरा स्मरण करो। मैं तुम्हे उसी रूपगुण का पुराण में दी गयी कथा इस प्रकार है (ब्रह्मवै. ४.१३०.१० | दूसरा पुत्र प्रदान करूँगा।' -१५)। एक बार नारद तथा उसका भतीजा पर्वत घूमते | नारद के वर के अनुसार संजय को एक पुत्र हुआ। घूमते शैव्यपुत्र संजय (संज्य) के घर आये, एवं वहाँ कुछ उसका नाम सुवर्णष्ठीविन् रख दिया गया। वह अपना काल तक रह गये। संजय ने इनका स्वागत किया, एवं पराभव करेगा ऐसा भय इंद्र को लगा । इसलिये इंद्र अपनी कन्या दमयंती को इनके सेवा में नियुक्त किया। ने उस पुत्र के पीछे वज्र छोडा, जिससे कुछ फायदा नहीं उस समय नारद तथा पर्वत में एसा करार हुआ था, हुआ। बाद में एक दाई के साथ वह पुत्र सरोवर की 'इन दोनों के मन में जो भी बात आवेगी, वह छिपाना ओर घूमने गया । उस समय उसे एक शेर ने मार नहीं बल्कि तत्काल दूसरे को कथन करना, अगर कोई कुछ डाला । पुत्रशोक से पागल से हुए, संजय ने नारद का छिपाने की कोशिश करे, तो दूसरा उसे शाप दे सकता| स्मरण किया। फिर नारद प्रकट हुआ, एवं संजय के शोकहरणार्थ इसने उसे काफी उपदेश किया। उपदेश करते ___ कई दिन बीतने के बाद, नारद दमयन्ती पर प्रेम करने समय इसने मरुत्ता दि राजाओं का चरित्र कथन कर के लगा, किन्तु यह बात इसने पर्वत से छिपा रखी । नारद | उसका दुःख कम किया। उसका शोक दूर होने पर, नारद की इस दगाबाजी को देख कर, पर्वत इस पर अत्यंत क्रोधित ने उसे उसका मृत पुत्र वापस दिया (म. द्रो. परि. १. हुआ, एवं उसने इसे शाप दिया, 'तेरा मुख वानर के | क्र. ५८)। सदृश हो जावेगा, एवं अन्यों को तुम साक्षात् मृत्यु शत्रुघ्न को चेतावनी-रामायणकाल में राम का के समान दिखाई दोगे'। यह शाप सुन कर, नारद ने भी अश्वमेधीय अश्व वीरमणि ने पकड़ लिया। उस समय पर्वत को प्रतिशाप दिया, 'तुम्हें स्वर्गप्राप्ति नहीं होगी। वहाँ प्रकट हो कर, नारद ने अश्व की रक्षा करनेवाले शत्रुघ्न इस पर पर्वत दीन हो कर नारद की शरण में आया, को चेतावनी दी, एवं सावधानी से युद्ध करने के लिये तथा इसे अपना शाप वापस लेने के लिये प्रार्थना करने कहा। 'युद्धभूमि में विजय अत्यंत प्रयत्न से ही प्राप्त लगा। फिर नारद एवं पर्वत ने अपने अपने शाप वापस | होता है,' ऐसा इसके उपदेश का सार था। Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नारद प्राचीन चरित्रकोश नारद कलियुग में एक बार पुष्करक्षेत्र में ऋषिओं का सत्र | फिर फजिहत हो कर, नारद कृष्ण की शरण में गया चालू था। वहाँ अनेक प्रकार की चर्चाएँ चल रही थीं। (भा. १०.५९.३३-४५)। उस में कलियुग के बारे में चर्चा करते वक्त एक एक बार श्रीकृष्ण अपनी पत्नी रुक्मिणी के पास बैठा ऋषि ने कहा, 'अन्य कौन से ही युग से कलियुग अच्छा था। उस वक्त नारद ने प्रकट हो कर, उसे स्वर्ग का पारिहै, क्यों कि उसमें फलप्राप्ति शीघ्र होती है।' इतने में जातक पुष्प दिया। श्रीकृष्ण ने उसे रुक्मिणी को दिया । नारद एक हाथ में शिश्न, तथा एक हाथ में जबान पकड़ इस कारण सत्यभामा तथा कृष्ण में झगड़ा हो गया (ह. कर वहाँ आया। इसने ऋषियों से कहा, 'ये दो इन्द्रिय वं. २.६५-७३; विष्णु. ५.३०)। 'पति का दान करने कलियुग में अनिवार्य होती है । इसलिये इस पाखंड पर वही पति जन्मजन्मान्तर में प्राप्त होता है', आदि प्रचुर भारत का त्याग कर आप अन्यत्र चलें'। यह कह कर, इसने सत्यभामा से स्वयं ही श्रीकृष्ण का दान सुनते ही ऋषियों ने सत्र समाप्त कर दिया, तथा वे वहाँ | ले लिया। पश्चात् कृष्ण तथा पारिजातक वृक्ष के भार का से चले गये ( स्कन्द. २. ७. २२)। जिस समय ब्रह्मदेव सुवर्ण ले कर, इसने उसे लौटा दिया (पद्म. उ.८८)। ने सत्र किया, उस समय . उपस्थित ब्रह्मगणों में नारद पार्वती का विवाह शंकर के साथ करने की सलाह एक था (पद्म. स. ३४)। इसने कोटितीर्थ, जयादित्य, नारद ने हिमालय को दी थी (पद्म. स. ४३)। नवदेवी, भट्टादित्य इ. तीर्थों की स्थापना की (स्कन्द. १. ४३.-४७)। इंद्वसभा में--एक बार इन्द्र अपनी सभा में अप्सराओं ___ कृष्णकथाओं में नारद-एक बार नारद नंद के घर के साथ बैठा था। उस वक्त नारद वहाँ गया। उत्थापन गया। वहाँ इसने सोचा कि, कृष्ण जब प्रत्यक्ष विष्णु है, | के द्वारा योग्य मान देने के बाद, इन्द्र ने नारद से पूछा, तो उसकी पत्नी लक्ष्मी ने भी यहीं कहीं अवतार अवश्य 'मैं किस अप्सरा को नृत्य करने का आदेश दूँ'? नारद लिया होगा। इसी विचार से इसने नंद के परिवार में ने कहा 'गुणरूप में जो खुद को श्रेष्ठ समझती हो वही नृत्य .लक्ष्मी का तलाश करना प्रारंभ किया। पश्चात् इसने देखा करें। तब मैं श्रेष्ठ, मैं श्रेष्ठ कह कर सारी अप्सराएँ आपस . कि, भानु नामक गोप की अंधी, लूली, एवं बहरी कन्या में झगड़ने लगी। यह देख इन्द्र ने उन्हें कहा, 'इसका निर्णय नारद ही कर देंगे' । नारद से पूछा जाते ही इसने बन कर, लक्ष्मी ने नंदपरिवार में जन्म लिया है (पन. कहा, 'तप करनेवाले दुर्वासस् को जो मोहित कर सके उसे . पा. ७१)। ही मैं श्रेष्ठ कहूँगा' । पश्चात् वपु नामक एक अप्सरा ही कृष्णजन्म के समय, उसके पिता वसुदेव एवं माता | इस काम के लिये तैयार हुई (मार्क. १.३०-४७)। देवकी मथुरा का राजा कंस के कारागार में कैद किये इनके अतिरिक्त अनेक पौराणिक व्यक्तिओं के साथ • गये थे। उस समय, वसुदेव एवं देवकी के आँठवे पुत्र नारद का संबंध आता है (नलकूबर, प्रह्लाद, रुद्रकेतु, शेष • से अपने को धोखा है, यह समझ कर, कारागार में पैदा तथा वृन्दा देखिये)। हुएँ उनके पहले छः पुत्रों को कंस छोड़ देना चाहता था। किंतु कंस की पापराशि बढ़ाने के हेतु, उन सारे पुत्रों का धर्मशास्त्रकार-धर्मव्यवहार पर नारद के 'लघुवध करने की प्रेरणा नारद ने कंसराजा को दी । उस नारदीय ' एवं 'बृहन्नारदीय' ऐसे दो ग्रंथ उपलब्ध हैं। उपदेश के अनुसार, कंस ने देवकी के छः पुत्रों का, मनु तथा नारद के मतों में काफी साम्य है। याज्ञवल्क्य जन्मते ही वध किया (भा. १.१.६४)। तथा पराशर ने प्राचीन धर्मशास्त्रकारों में नारद का उल्लेख नरकासुर के बंदीखाने से मुक्त किये सोलह हजार नहीं किया है। किंतु विश्वरूप ने, वृद्धयाज्ञवल्क्य का स्त्रियों से, कृष्ण ने भिन्न मिन्न मंडयों में एक ही मुहूर्त पर (याज्ञ. १.४-५) एक श्लोक उद्धृत कर, नारद को दस धर्मशास्त्रकारों में से आद्य धर्मशास्त्रकार मान लिया है। विवाह किया। यह चमत्कृतिजनक वृत्त सुन कर नारद को बड़ा ही आश्चर्य हुआ। इस वार्ता की सत्यता अजमाने विश्वरूप ने अन्यत्र भी इसका उल्लेख अनेक बार किया के लिये, यह कृष्ण के घर स्वयं चला आया, एवं हर है (याज्ञ. २.१९०; १९६; २२६; ३.२५२)। एक कृष्णपत्नी की कोठी में जा कर जाँच लेने लगा। वहाँ मेधातिथि ने नारद का एक गद्य उद्धरण ले कर, इसका इसने देखा कि, अपने हरएक पत्नी के कोठी में, कृष्ण | अनेक बार उल्लेख किया है। अग्निपुराण में नारदस्मृति उपस्थित है, एवं किसी न किसी कार्य में वह मन है।। का काफी भाग आया है। 'स्मृतिचन्द्रिका', 'हेमाद्रि' ३६५ Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नारद प्राचीन चरित्रकोश नारायण 'पराशरमाधवीय' आदि ग्रंथों में, नारद के काफी श्लोक | वह स्त्री बना। उस समय उसे नारदी नाम प्राप्त हुआ लिये गये हैं। (नारद. उ. ८०, नारद देखिये)। नारद याज्ञवल्क्य का परवर्ती होगा। नारद ने सात नारायण--एक सूक्तद्रष्टा (ऋ. १०.९०)। प्रकार के दिव्य दिये हैं। याज्ञवल्क्य ने पाच ही प्रकार के २. एक भगवस्वरूप देवता, एवं स्वायंभुव मन्वंतर के दिये हैं। नारद ने न्यायशास्त्र का सुसंगत विवेचन नहीं सत्ययुग में प्रकट हुएँ भगवान् वासुदेव के चार अवतारों किया। याज्ञवल्क्य ने उसे व्यवस्थित ढंग से किया है। में से एक । यह एवं इसके तीन भाई नर, हरि एवं कृष्ण नारद किस प्रदेश का रहनेवाला था, यह बताना कठिन धर्म ऋषि के पुत्र के रूप में पृथ्वी पर अवतीर्ण हुए थे है। इसने कार्षापण (सिक्का) का उल्लेख किया है । यह (म. शां. ३३४.९.१२; नरनारायण एवं नर देखिये)। सिक्का पंजाब में प्रचलित था। कुछ लोग कहते हैं कि, यह देवकीपुत्र कृष्ण इसीका ही अवतार बताया गया है नेपाल का निवासी होगा। (म. आ. १.१)। ___ भट्टोजी दीक्षित ने 'ज्योतिर्नारद' नामक ग्रंथ का उल्लेख | ___ दक्षयज्ञ के समय, भगवान् शंकर ने एक प्रज्वलित किया है (चतुर्विशतिमत. ११)। रघुनंदन ने 'बृहन्नारद' त्रिशूल चलाया। दक्षयज्ञ का विध्वंस कर के, वह भगवान् का एवं 'निर्णयसिंधु', 'संस्कारकौस्तुभ' आदि ग्रंथों में नारायण की छाती में आ लगा। फिर नारायण ने हुंकार . 'लघुनारद' का निर्देश किया है । 'खुले आम किये गये किया, एवं वह त्रिशल शंकर के हाथ में लौटा दिया। पातक की अपेक्षा, गुप्तरूप से किया गया पातक कई गुना अपने त्रिशूल के अवमान से क्रुद्ध हो कर, शंकर ने नर एवं . कम दोषाह है, क्यों कि, उसमें कम से कम पातक नारायण पर आक्रमण किया। पश्चात् हुए रुद्र-नारायण करनेवाले आदमी की धर्म के प्रति भीरूता प्रकट होती युद्ध में, नारायण ने रुद्र का गला दबा दिया। अतः रुद्र । है', ऐसा धर्मशास्त्रकार के नाते नारद का कहना था 'नीलकंठ' हो गया (म. शां. ३३०.४९)। (नारद. १३.२७)। नारायण ने देव एंव दानवों को समुद्रमंथन के लिये शिक्षाकार-नारद ने सामवेद पर एक 'शिक्षा' की | | प्रवृत्त किया (म. आ. १५.११-१३)। पश्चात् इसने रचना की। यह शिक्षा प्रायः श्लोकबद्ध है। 'भट्ट मोहिनी का रूप धारण कर, देवताओं को अमृत पिलाया शोभाकर' ने उस पर भाष्य लिखा है। (म. आ. १६.३९-४००)। देवासुरसंग्राम में इसने असुरों अन्य ग्रंथ-नारद के नाम पर 'नारदपुराण' एवं | का संहार किया था (म. आ. १७.१९-३०)। वास्तुशास्त्रसंबंधी अन्य एक ग्रंथ उपलब्थ हैं। उनमें से नारायण के कृष्ण एवं श्वेत केश, श्रीकृष्ण एवं बलराम 'नारदपराण ' इसने 'सारस्वत कल्प' में बताया था के रूप में प्रगट हुए थे । महाभारत काल में, यह अपने (नारद. २.८२)। भाई नर के साथ, बदरिकाश्रम में सुवर्णमय रथ पर बैठ ३. विश्वामित्र के ब्रह्मवादी पुत्रों में से एक (म. अनु. | कर तपस्या करता था (म. शां. १२२४६ )। ४.५९)। महाभारत में, श्रीविष्णु के वाराह, नृसिंह आदि ४. राम की सभा का एक धर्मशास्त्री। इसने शूद्र हो कर अवतार नारायण के ही अवतार बताये गये हैं (म. स. भी तपस्या करनेवाले शंबूक नामक शूद्र का, राम के द्वारा ३८)। पृथ्वीलोक से श्रीकृष्ण का निर्माण होने के बाद, वध करवाया । सोलह साल की छोटी उम्र में मृत हुए एक अपने नारायणस्वरूप में वह विलीन हो गया (म. स्वर्गा. ब्राह्मणपुत्र को इसने पुनः जीवित कर दिया (वा. रा. उ. ५.२४*)। ७४)। __पौष मास में नारायण के पूजन से प्राप्त होनेवाले नारद काण्व--एक सूक्तद्रष्टा (ऋ. ८.१३, ९. पुण्यफल का वर्णन महाभारत में दिया गया है (म. अ. १०४-१०५)। १०९.४)। नारद-पर्वत-वैदिक ऋषिद्वय (ऐ. बा. ७.३४ | पद्ममत में, पुष्करक्षेत्र में हुए ब्रह्माजी के यज्ञ में, ८.३१; नारद १. देखिये)। उद्गातृगणों में से एक प्रतिहर्ता के नाते, नारायण उपस्थित नारदिन--विश्वामित्र का पुत्र । था (पम. सृ. ३४)। नारदी--नारद ने एक बार वृंदारण्य के कौसुम सरोवर ३. तुषित एवं साध्य देवों में से एक । में स्नान किया, जिस कारण उसका पुरुषत्व नष्ट हो कर | ४. (कण्व. भविष्य.) एक राजा । भागवत तथा ३६६ Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नारायण प्राचीन चरित्रकोश निकोथक भायजात्य विष्णु मत में यह भूमित्र का, वायुमत में भूतिमित्र का, निकुंत--भविष्य के मत में शोणाश्व का पुत्र । तथा मत्स्य तथा ब्रह्मांड के मत में भूमिमित्र का | निकुंभ--कृष्ण के द्वारा मारा गया एक दानव (ह. पुत्र था। | वं. २. ८५-९०; षट् पुर देखिये)। नारायणि-अंगिरा कुल का गोत्रकार । ' परस्परा- | । २. प्रह्लाद का तृतीय पुत्र (म. आ. ५९. १९)। यणि' इसका ही पाठभेद है। इसके सुंद एवं उपसुंद नामक दो पुत्र थे (म. आ. २०१. नारायणी-मुद्गल ऋषि की स्त्री। इसी को 'इंद्रसेना' २०००)। कहते थे। ____३. (स.इ.) अयोध्या के हर्यश्व राजा का पुत्र (वायु. २. दुर्गा का एक नाम । मार्कंडेय पुराण में इसका ८८.६२)। इसे संहिताश्व नामक एक पुत्र था (पन. माहात्म्य दिया गया है (मार्क. ८८)। सृ. ८, क्षेमक देखिये)। भागवत में इसके पुत्र का नारी-मेरु की कन्या, तथा अग्रीध्रपुत्र करू की स्त्री | नाम बर्हणाश्व दिया हैं। (भा. ५.२. २३)। ४. गणेश का प्राचीन नाम। वाराणसी में इसका नारीकवच--(सू. इ.) अश्मक देश के मूलक राजा मंदिर था । इसकी पूजाआराधना करने पर भी, दिवोदास का नामांतर (मूलक १. देखिये)। परशुराम के भय के की स्त्री सुयशा को पुत्र न हुआ। इसलिये उसने इसका कारण, यह सदैव नारीसमुदाय में रहता था। इस | देवालय तथा देवमूर्ति को उद्ध्वस्त किया। फिर क्रुद्ध कारण इसे यह नाम प्राप्त हुआ। हो कर, निकुंभ ने वाराणसी उद्ध्वस्त होने का शाप नार्मर-एक वैदिक राजा । यह 'उर्जयन्ती' का दिया (ब्रह्मांड. ६७.३०-५५, वायु. ९०.२७.५२; ब्रह्म. राजा था। सहवसु के राजा के साथ इन्द्रशत्रु के रूप में, ११.४३; गणपति देखिये)। उस शाप के अनुसार, इसका उल्लेख प्राप्त है (ऋ. २. १३.८)। क्षेमक राक्षस के द्वारा, वाराणसी उद्ध्वस्त हो गयी। नार्मेध-एक सूक्तंद्रष्टा (शकत देखिये)। ५. कश्यप एवं दनु का पुत्र, एक दानव (म. आ. . नार्य--एक उदार वैदिक राजा । नर्य का वंशज होने | ५८.२६)। से इसे नार्य नाम प्राप्त हुआ। ६. कुंभकर्ण के वृत्रज्वाला से उत्पन्न हुए दो पुत्रों में से नार्षद--कण्व ऋषि का पैतृक नाम (ऋ. १०.३१. दूसरा पुत्र (भा. ९.१०.१८) हनुमानजी ने इसका वध . ११; अ. वे. ४. १९.२)। किया (वा. रा. यु. ७५)। २. इन्द्र का शत्रु एक असुर (ऋ १०. ६१. ७. रावण के पक्ष का एक राक्षस । नील नामक वानर ने इसका वध किया (वा. रा. यु. ९.४३)। ३. अश्विनों का आश्रित । इसकी पत्नी का नाम ८. दुर्योधन के पक्ष का एक योद्धा (म. द्रो. १३१. रूशती था (ऋ. १. ११७.८)। नालायनी-इन्द्रसेना का नामांतर (मौद्गल्य ३. ९. स्कन्द का एक सैनिक (म. श. ४४.५२)। देखिये)। निकुंभनाभ-बलि दैत्य के सौ पुत्रों में से एक । नालीजंध-नाड़ीजंघ देखिये। निकुषज--ब्रह्मसावर्णि मनु का पुत्र । नासत्य-अश्विनीकुमारों में से एक का नाम ।। निकृषज--कश्यप कुल का एक ब्रह्मर्षि । 'निकृतिज' दूसरे का नाम दस्र था (म. शां. २०१.१७)। मार्ताण्ड | इसका नामांतर हैं। नामक आठवे प्रजापति के ये पुत्र थे। निकृति-सुबल राजा की कन्या, गांधारी की बहन, नाविक-विदुर का मित्र । लाक्षागृह से बाहर आने | तथा धृतराष्ट्र की भार्या (म. आ; १०३. १११३; पंक्ति. के बाद, पांडवों को अपनी नौका के सहारे, इसने | ४)। गंगा के पार पहुँचाया (म. आ. परि. १. क्र. ८५. २. दंभ एवं माया की कन्या (भा. ४.८.३)। पंक्ति.७)। यह सामान्यनाम होगा। निकृतिज-निकृतज देखिये। नाहुष-एक सूक्तद्रष्टा (ययाति देखिये)। निकोथक भायजात्य--एक ऋषि । भयजात का २. एक राजा । यह नहस् जाति के लोगों का राजा | वंशज होने से इसे यह नाम प्राप्त हुआ। यह प्रतिथि था। इसके पास अच्छे अश्व थे (ऋ. ८. ६.२४)। | देवतरथ का शिष्य था (वं. बा. २) ३६७ राखया Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निक्षुभा प्राचीन चरित्रकोश निबंधन निक्षुभा--स्वर्गलोक की एक अप्सरा । सूर्य के शाप | एवं वायु के मतानुसार, यह अनमित्र राजा का पुत्र था। के कारण, इसे मृत्युलोक में जन्म प्राप्त हुआ, एवं सुजिह्व | इसे 'निम्न' नामांतर भी प्राप्त था। नामक मिहिर गोत्रीय सदाचारी ब्राह्मण के घर, कन्यारूप निचक्नु--(सो. कुरू. भविष्य.) एक राजा। विष्णु से इसका जन्म हुआ। मत में यह अधिसामकृष्ण का पुत्र था (निमिचक्र अपने पिता की आज्ञानुसार, यह हमेशा अग्नि | देखिये)। प्रज्वलित कर लाया करती थी। एक दिन, इसके हाथ | निचंद्र--कश्यप एवं दनु का पुत्र, एक दानव (म.. में स्थित अग्नि भड़क उठा, एवं उसकी फड़कती ज्वाला | आ. ५९. २६)। में, इसका अपूर्व रूपयौवन सूर्य को दिख पड़ा । सूर्य को नितंभू--एक महर्षि । यह शरशय्या पर पड़े हुए इसके प्रति कामवासना जागृत हुई। | भीष्मजी को देखने आया था (म. अनु. २६.८)। पश्चात् सूर्य मनुष्यरूप धारण कर, सुजिह्न के पास | नितान मारुत--एक वैदिक व्यक्तिनाम (क. सं. आया, एवं कहने लगा, 'मैने निक्षुभा का पाणिग्रहण | २५. १०)। किया है, एवं मुझसे उसे गर्भधारणा भी हुयी है'। फिर नित्य--मरीचिकुलोत्पन्न एक ऋषि । क्रुद्ध हो कर सुजिह्व ने निक्षुभा को शाप दिया, 'तुम्हारा २. कश्यप कुल का मंत्रकार । गर्भ अग्नि से आवृत होने के कारण, तुम्हारी होनेवाली ३. शांडिल्यकुल का एक ऋषि । यह मंत्रद्रष्टा था। . संतति, लोगों के लिये निंद्य एवं तिरस्करणीय होगी। । निदाघ--कश्यपकुल का गोत्रकार | यह भृगु ऋषि । फिर सूर्य अग्नि का रूप धारण कर, निक्षुभा के पास | का शिष्य था। आया एवं उसने इसे कहा, 'तुम्हारी संतति अपूज्य | २. पुलस्त्य का पुत्र, एक ऋषि । यह ब्रह्मपुत्र ऋभु का होने पर भी, वह सद्विद्य एवं सदाचारी रहेंगी, एवं मेरे | शिष्य था (नारद. १.४९)। पूजा का अधिकार उसे प्राप्त होगा। निदाज--(सो. क्रोष्टु.) एक राजा । वायुमत में यह बाद में इसे सूर्य की गर्भ से अनेक पुत्र हुएँ । मग, | शूरराजा का पुत्र था। द्विजातीय, भोजक आदि उनके नाम थे, एवं शाकद्वीप निद्राधर-कश्यप तथा दनु का पुत्र, एक दानव। । में वे रहते थे। पश्चात् कृष्णपुत्र सांब ने, उन्हे जम्बुद्वीप निधि-सुख देवों में से एक। में से सांबपुर में स्थित सूर्यमंदिर में पूजाअर्चा का काम निध्रुव काण्व-एक सूक्तद्रष्ट्रा (ऋ. ९.६३)। करने के लिये, नियुक्त किया। उनके साथ, उनके अठारह कश्यपवंश के वत्सार ऋषि का यह पुत्र था । च्यवन ऋषि कुल सांबपुर में आये एवं बस्ती बना उधर ही रहने तथा सुकन्या की कन्या सुमेधस् , इसकी स्त्री थी। कुंडलगे। सांब ने भोजकुल में पैदा हुई कन्याएँ उन्हे प्रदान पायिन् नामक सुविख्यात आचार्य इसीका ही पुत्र था। की (भवि. ब्राह्म. १३९-१४०; मग देखिये)। (ब्रह्मांड.. ३.८.३१; वायु. ७.२७)। भविष्यपुराण में दी गयी सूर्यवंशीय एवं मिहिरकुलीय निदिताश्व--एक वैदिक राजा। यह मेध्यातिथि का लोगों की यह कथा रूपकात्मक प्रतीत होती है। शुरू में आश्रयदाता था (ऋ. ८.१,२०)। जातिबहिष्कृत माने गये वे लोग, बाद में आनर्त देश के 'तिरस्कार्य अश्वोंवाला, ' ऐसा इसका नाम का अर्थ भोजवंश में सम्मीलित हो गये से दिखते है। लगाया जाये, तो यह कोई ईरानी राजा प्रतीत होता है। निखवेट-रावण के पक्ष का एक राक्षस । तार नामक | किंतु सायणाचार्य इसके नाम का अर्थ, अपने विपक्षियों वानर ने इसका वध किया (म. व. २६९. ८)। | के अश्वों को लज्जित करनेवाला,' एसा लगाते है। . निगद पार्णवल्कि-एक वैदिक ऋषि । यह पर्णवल्क | निबंधन--(स्. इ.) अयोध्या के अरुण राजा का का वंशज, एवं गिरिशर्मन् कष्टिविद्धि का शिष्य था (वं. | पुत्र । इसका पुत्र सत्यव्रत 'त्रिशंकु' नाम से प्रसिद्ध हुआ ब्रा. १)। था (त्रिशंकु देखिये)। इसे त्रिबंधन भी कहते थे ( भा. निघ्न--(सू. इ.) अयोध्या का राजा । यह अनरण्य | ९.७.४; त्रिधन्वन देखिये)। राजा का पुत्र था। इसे अनमित्र तथा रघूत्तम नामक दो पुत्र | २. एक ऋषि । इसकी माता भोगवती के साथ इसका थे (पद्म. सु. ८)। | अध्यात्म विषय पर हुआ संवाद मनन करने योग्य है २. (सो. वृष्णि) एक यादव राजा । विष्णु, मत्स्य (म. शां. परि. १. क्र. १५, पंक्ति.६)। . ३६८ Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • प्राचीन चरित्रकोश निमि 'विदेह' निमि 'विदेह' - अयोध्यापति इक्ष्वाकु राजा का बारहवाँ पुत्र, एवं 'विदेह' देश तथा राजवंश का पहला राजा ( वा. रा. उ. ५५; म. स. ८.९ ) । यह एवं इसका पुरोहित वसिष्ठ के दरम्यान हुए झगडे में इन दोनों ने परस्पर को विदेह ( देहरहित ) बनने का शाप दिया था। उस विदेहत्व की अवस्था के कारण, इसे एवं इसके राजवंश को 'विदेह नाम प्राप्त हुआ (मत्स्य ६१.२२-२६ पद्म. पा. २२ २४-३७१ वायु ८९.४ ) । इसके नाम के लिये, 'नेमि' पाठभेद भी उपलब्ध है। • इसका पिता इक्ष्वाकु मध्यदेश ( आधुनिक उत्तर प्रदेश ) का राजा था। इक्ष्वाकु के पुत्रों में विकुक्षि शशाद एवं निमि, ये दो प्रमुख थे। उनमे से विकुक्षि इक्ष्वाकु के पश्चात् अयोध्या का राजा बना, एवं उसने सुविख्यात इक्ष्वाकुवंश की स्थापना की निमि को विदेह का राज्य मिला, एवं इसने विदेह राजवंश की स्थापना की।. गौतम ऋषि के आश्रम के पास, निमि ने इंद्र के अमरावती के समान सुंदर एवं समृद्ध नगरी की स्थापना की थी । उस नगरी का नाम 'वैजयंत' या 'जयंत' था। यह नगरी दक्षिण दंडकारण्य प्रदेश में थी, एवं रामायण काल में, वहाँ तिमिध्वन नामक राजा राज्य करता था (बा. रा. अयो. ९.१२) । ' जयंत' नगरी निश्चितरूप मैं कहाँ बसी थी, यह कहना मुश्किल है। डॉ. भांडारकर के मत में, आधुनिक विजयदुर्ग ही प्राचीन जयंतनगरी होगी | श्री. नंदलाल दे के मत में आधुनिक वनवासी शहर की जगह जयंतनगरी बसी हुयी थीं । ' निमि की राजधानी 'मिथिला' नामक नगरी में थी उस नगरी का मिथिला नाम इसके पुत्र 'मिथि जनक के नाम से दिया गया था ( वायु ८९६१-२ ब्रह्मांड. २. ६४.१-२ ) । निमि 'विदेह' वसिष्ठ के इस कहने पर, निमि चुपचाप बैठ गया। उस मौनता से वसिष्ठ की कल्पना हुयी कि, यश पाँचसी वर्षों तक रुकाने की अपनी सूचना निमि ने मान्य की है। इस कारण, वह इंद्र का यज्ञ करने चला गया । इंद्र का यज्ञ समाप्त करने के बाद, वसिष्ठ निमि के घर वापस आया। वहाँ उसने देखा कि राजा ने उसके कहने को न मान कर पहले ही यज्ञ शुरू कर दिया है, एवं गौतम ऋषिको मुख्य बनाया है। फिर क्रुद्ध हो कर वसिष्ठ ने पर्येक पर सोये हुये निमि को शाप दिया, 'अपने देह से तुम्हारा वियोग हो कर, तुम विदेह बनोगे । जागते ही इसे वसिष्ठ के शाप का वृत्तांत विदित हुआ। फिर निद्रित अवस्था में शाप देनेवाले दुष्ट बलिष्ठ गुरु से यह संतप्त हुआ, एवं इसने भी उसे वही शाप दिया ( विष्णु. ४.५.१ - ५ भा. ९.१३.१ - ६; वा. रा. उ. ५५-५७) । 6 एक बार, निमि ने सहस वर्षों तक चलनेवाले एक महान् वश का आयोजन किया। उस यश का होता (प्रमुख आचार्य) बनने के लिये इसने बड़े सम्मान से अपने कुलगुरु वसिष्ठ को निमंत्रण दिया । उस समय वसिष्ठ और कोई यश में व्यस्त था। उसने इससे कहा, 'पाँचों वर्षों तक चलनेवाले एक यश के कार्य में, मैं अभी व्यस्त हूँ। इसलिये वह यज्ञ समाप्त होने तक तुम ठहर जाओ। उस यज्ञ समाप्त होते ही, मैं तुम्हारे यज्ञ का ऋत्विज बन जाऊँगा । प्रा. च. ४७ ] पद्म पुराण में ' वसिष्ठशाप' की यही कथा कुछ अलग ढंग से दी गयी है। अपने त्रियों के साथ, निमि द्यूत खेल रहा था । इतने में वसिष्ठ ऋषि यकायक वहाँ आ गया । द्यूत-क्रीडा में निमग्न रहने के कारण, निमि ने उसे उत्थापन आदि नही दिया । उस अपमान के कारण, वसिष्ठ ने इसे 'विदेह' बनने का शाप दिया (पद्म. पा. ५.२२ ) । वसिष्ठ के शाप के कारण, निमि का शरीर अचेतन हों कर गिर पड़ा, एवं इसके प्राण इधर-उधर भटकने लगे इसका अचेतन शरीर सुगंधि तैलादि के उपयोग से स्वच्छ एवं ताज़ा रख दिया गया । निमि का यज्ञ समाप्त होने पर, यज्ञ के हविर्भाग को स्वीकार करने देवतागण उपस्थित हुये। फिर उन्होंने निमि से कुछ आशीर्वाद माँगने के लिये कहा। निमि ने कहा, 'शरीर एवं प्राण के वियोग के समान दुखदायी घटना दुनिया में और नहीं है एक बार 'विदेह' होने के बाद, मैं पुनः शरीरग्रहण करना नहीं चाहता । दुनिया हर व्यक्ति की आँखो में मेरी स्थापना हो जाये, जिससे मानवी शरीर से मैं कभी भी जुदा न हो सकूँ । निमि की इस प्रार्थना ' के अनुसार, देवों ने मानवी आँखों में इसे जगह दिलायी। आँखों में स्थित निमि के कारण, उस दिन से मानवों की आँखे झपाने लगी एवं आँख पाने की उस क्रिया को 'निमिष कहने लगे ( विष्णुधर्म, १.११७) ।. ' मत्स्य एवं पद्मपुराण के मत में, 'विदेह अवस्था के शाप से मुक्ति पाने के लिये, निमि एवं वसिष्ठ ब्रह्माजी के पास गये । ब्रह्माजी ने वर प्रदान कर, निमि को मानवों ३६९ , Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निमि'विदेह' प्राचीन चरित्रकोश निरमित्र के आँखों में रहने के लिये कहा, एवं वसिष्ठ को मित्र राज गरुड़ से युद्ध हुआ था (म. आ. २८.१९)। एवं वरुण के अंश से जन्म लेने के लिये कह दिया। इसके नाम के लिये, भांडारकर संहिता में 'निमेष' . (मत्स्य. २०१.१७-२२; पन. पा. २२.३७-४०)। पाठभेद प्राप्त है। मृत्यु के समय निमि निसंतान था, और भावी युवराज निमेष-गरुड़ के पुत्रों में से एक । के न होने के कारण, अराजकता फैलने का धोखा निम्न-(सो. वृष्णि) एक यादव राजा । भागवतमत था। निमि के अचेतन शरीर से पुत्र निर्माण करने के में यह अनमित्र राजा का पुत्र था (निघ्न देखिये)। हेतु, उसे यज्ञ की 'अरणी' बनायी गयी। उस 'अरणी' | निम्लोचि-एक यादव राजा (निमि. ४. देखिये)। का मंथन करने के बाद, उससे एक तेजस्वी पुत्र उत्पन्न नियज्ञ-(सू. इ.) अयोध्या का एक राजा । यह हुआ। वह 'अरणी' के मंथन से निकला, इसलिये उसे विश्वसह राजा का पुत्र था । इसके राज्यकाल में 'मिथि' कहने लगे (वायु. ८०)। माता के बिना, अधार्मिकता के कारण भयानक अनावृष्टि उत्पन्न हयी.. केवल पिता से ही उसका जन्म हुआ, इस कारण उसे | एवं उससे इसका राज्य नष्ट हुआ। इसकी रानी के द्वारा 'जनक' की उपाधि प्राप्त हुयी। 'विदेह' पिता का प्रार्थना करने पर, वसिष्ठ ऋषि ने एक यज्ञ किया। उस पुत्र होने के कारण, मिथि जनक को 'वैदेह' नामांतर | यज्ञ के कारण, इसे खट्वांग नामक पुत्र पैदा हुआ, एवं भी प्राप्त था (वा. रा. उ. ५७)। इसके राज्य में पुनः एक बार सुखसमृद्धि उत्पन्न हुयी मृत्यु के पश्चात्, निमि यमसभा में प्रविष्ट हुआ, एवं (भवि. प्रति. १.१)। .. सूर्यपुत्र यम की उपासना करने लगा (म. स. ८.९)। । | नियति-ब्रह्माजी के सभा में रह कर, उसकी २. विदर्भ देश का राजा । इसने अगस्त्य ऋषि को उपासना करनेवाली एक देवी । यह मेरु की कन्या अपनी कन्या एवं राज्य अर्पित किया था। उस पुण्य के एवं स्वायंभुव मन्वंतर के विधाता की पत्नी थी (भा. ४ कारण, इसे स्वर्गलोक प्राप्त हुआ (म. अनु. १३७. १.४४)। ११)। २. रौच्य मनु का पुत्र । ३. (सो. आयु.) एक राजा। यह नहुष का कनिष्ठ ३. अत्रि कुल में उत्पन्न एक ऋषि । यह दत्त आत्रेय का पुत्र था (पद्म. स. १२)। पुत्र था (म. अनु. ९१.५)। इसने श्रीमान् नामक अपने | नियम-सुख देवों में से एक । मृतपुत्र को पिंडदान किया, एवं इस तरह मृतों के लिये २. आभूतरजस् देवों में से एक। 'श्राद्ध' करने का संस्कार सर्व प्रथम आरंभ किया (म. नियुतायु-कलिंग देश के श्रुतायु राजा का पुत्र । अनु. ९१.१४-१५)। इसके द्वारा स्मरण करने पर, भारतीय युद्ध में यह कौरवों के पक्ष में शामिल था। इसके पितामह अत्रि ऋषि ने इसे दर्शन दिया था, एवं अर्जुन ने इसका वध किया (म. द्रो. ६८.२७, २९; इससे संभाषण किया था (म. अनु. ९१.१८)। 'अयुतायु' भांडारकर संहिता)। ४. एक यादव राजा। विष्णु, वायु, एवं मत्स्यमत में, नियुत्सर्पि-शिव नामक रुद्र' की पत्नी (भा. ३. यह अंधक राजा का बंधु सात्वत भजमान का पुत्र था। भागवत में इसे 'निम्लोचि' कहा गया है (भा. ९.२४. १२.१३)। नियुत्सा प्रस्ताव राजा की स्त्री । इसे विभु नामक ६-८)। ५. (सो. कुरु. मविष्य) एक राजा । भागवतमत में एक पुत्र था। नियोधक-विराट राजा के दरबार में उपस्थित एक यह दंडपाणि राजा का पुत्र था। दंगली पहलवान (म. वि. २.५)। यह सामान्य नाम निमिचक्र-(सो. कुरु. भविष्य) कुरु देश का राजा। होगा। अधिसामकृष्ण का पुत्र था। इसके राज्यकाल में, यमुना | निरताल—एक मध्यमाध्वर्यु । नदी में बाढ़ आ गयी। इस कारण हस्तिनापुर छोड कर, | निरमित्र-(सो. कुरु.) पांडूपुत्र नकुल का पुत्र । इसने कौशांबी नगर में अपनी नयी राजधानी बसायी। | इसकी माता करेणुमती (म, आ. ९०.८४) । इसका पुत्र चित्ररथा । इसे निचक्नु, निर्वक्र, एवं विवक्षु । | २. सहदेव द्वारा मारा गया एक त्रिगर्तदेशीय राजआदि नामांतर भी प्राप्त थे। कुमार । इसके पिता का नाम वीरधन्वन् (म. द्रो. ८२. निमिष-अमृतरक्षक देवों में से एक। इसका पक्षी- । २६ )। ३७० Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरमित्र प्राचीन चरित्रकोश __ निशठ भा। ३. (सो. मगध भविष्य.) भागवत और विष्णु मता- निर्भयच्य मनु का पुत्र । नुसार अयतायु का पुत्र । निरामित्र पाठभेद है। निर्मित्र--(सो.) एक राजा। भविष्यमत में यह निरय--एक प्रकार की म्लेंच्छ जाति । गरुड ने बहुत | अहीनर का पुत्र था। से निषाद खाये। उन्हें उगलने के बाद, वे सारे के सारे | निर्मोक-सावर्णि मनु के पुत्रों में से एक । ग्लेच्छ बन गये उनमें से ईशान में जो निषाद गिरे उन्हें २. देवसावर्णि मन्वंतर के सप्तर्षियों में से एक । 'निरय' नाम प्राप्त हुआ (पद्म. सृ. ४७)। निर्मोहक--रैवत मनुका पुत्र । निराकृति--दक्षसावर्णि मनु का पुत्र । निरामय इसी २. सावर्णि मनु का पुत्र। का ही पाठभेद है। ३. रोच्य मन्वंतर का ऋषि । निरामय-एक प्राचीन नरेश (म. आ. १.१७७)।। ४. मधुवन के शकुनि ऋषि का पुत्र। यह महान् निरामर्द-एक प्राचीन राजा (म. आ. १. | विरक्त था तथा संन्यास वृत्ति से रहता था। १७७)। निर्वक्र--(सो. कुरु. भविष्य.) एक राजा। वायु निरामित्र--ब्रह्मसावर्णि मनु का पुत्र । | मत में यह अधिसामकृष्ण का पुत्र था (निमिचक्र देखिये)। २. (सो. मगध. भविष्य.) एक राजा । मस्त्यमत में • यह अप्रतीपिन् राजा का पुत्र था। वायु तथा ब्रह्मांड निर्वृत्ति--(सो. क्रोष्ट.) एक यादव राजा । भागवतमत में यह अयुतायु का पुत्र था। मत्स्य तथा ब्रह्मांड मत में, यह सृष्टि का, मत्स्य एवं वायुमत में धृष्ट का, मत में इसने १०० वर्ष राज्य किया, किंतु वायु के मता- | विष्णुमत में वृष्णि का तथा पनमत में सृष्टि का पुत्र था। नुसार इसने ४० वर्ष राज्य किया (निरमित्र ३. देखिये)। । २. (सो. मगध. भविष्य.) एक राजा। मत्स्यमत में ३/मो भविष्य जा। मय | यह सुनेत्र का पुत्र था। इसके नाम के लिये, 'नृपति' वायु मत में यह दंडपाणि राजा. का पुत्र था। पाठभेद प्राप्त है। इसने ५८ वर्षों तक राज्य किया। . निराव-वसुदेव का पौरवी से उत्पन्न पुत्र। निल--राक्षसराज विभीषण का एक प्रधान । . निरावृत्ति-(सो.) एक राजा। भविष्यमत में यह निवात--(सो. कोप्टु.) एक यादव राजा । वायुमत वृष्णि का पुत्र था। इसने पांच हजार वर्षों तक राज्य में यह शूर राजा का पुत्र था। किया। निवातकवच-दैत्यों का एक दल। हिरण्यकशिपु निरुक्तकृत-विष्णुमत में व्यास की ऋशिष्य- | पुत्र संहाद के पुत्रों को यह 'सामूहिक' नाम प्राप्त परंपरा के शाकपूणि का निरूक्ताध्यायी शिष्य । था । इस दल के दैत्य रावण के मित्र थे, एवं इंद्र को भी . निरुत्सुक--रेवतमनु का एक पुत्र (पद्म. .७)। अजेय थे (वा. रा. उ. २३)। २. रोच्य मनु का एक पुत्र । पांडवों के वनवासकाल में अर्जुन के साथ इनका युद्ध निरुद्ध-ब्रह्मसावर्णि मन्वंतर का देवगण । हुआ, एवं अर्जुन ने इनका संहार किया (म. व. १६७. निर्ऋता--कश्यप एवं खशा की कन्या । १०; १६९.२; भा. ५.२४; ६.६; पद्म. सु.६)। निक्रति-कश्यप एवं सुरभि का पुत्र।। २. कश्यप एवं पुलोमा के पौलोम तथा कालकेय नामक २. एकादश रुद्रों में से एक (पन. सृ. ४०)। यह | दैत्य पुत्रों के लिये प्रयुक्त सामूहिक नाम। इनकी संख्या ब्रह्माजी का पौत्र एवं स्थाणु का पुत्र था (म. आ. साठ सहस्र या चौहत्तर सहस्र थी (कश्यप देखिये)। निवावरी-एक सूक्तद्रष्टा (सिकता देखिये)। ६०.२)। यह नैर्ऋत, भूत, राक्षस तथा दिक्पाल लोगों निशठ--एक वृष्णिवंशी राजकुमार (भा. ११.३०. राजा इसकी उपासना करते थे (भा. २.३.९)। यह | १७ म. आ. २११.१०)। हरिवंश के अनुसार यह अर्जुन के जन्मोत्सव में उपस्थित था (म. आ. ११४.५७)। | बलराम एवं रेवती का पुत्र था। यह सुभद्रा के लिये दहेज ३. वरुणपुत्र अधर्म को इसे भय, महाभय तथा मृत्यु | ले कर खांडवप्रस्थ में आया था । युधिष्ठिर के नामक तीन पुत्र थे (म. आ. ६०.५२-५३)। ये सारे | राजसूय एवं अश्वमेध यज्ञ में यह उपस्थित था (म. स. पुत्र 'नैत' जनपद के रहनेवाले थे एवं भूत, राक्षस- | ३१.१६; ६५.४)। उपप्लव्यनगर में अभिमन्यु के सदृश योनि के समझे जाते थे । विवाह में भी यह उपस्थित था (म. वि. ६७.२१)। ३७१ Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निशठ मृत्यु के पश्चात्, यह विश्वेदेवों में विलीन हो गया (म. स्व. ५.१६ ) । २. यमसभा में रह कर, सूर्यपुत्र यम की उपासना करनेवाला एक प्राचीन राजा ( म. स. ८.९०७)। प्राचीन चरित्रकोश निशा - भानु (मनु) नामक अग्नि की तीसरी पत्नी । इसने आने एवं सोम नामक दो पुत्र एवं रोहिणी नामक कन्या को जन्म दिया था। उनके अतिरिक्त इसे पाँच अभिस्वरूप पुत्र भी थे। उनके नाम-वैश्वानर विश्वपति, संनिहित, कपिल, एवं अग्रणी । निशाकर -- गरुड़ के प्रमुख पुत्रों में से एक ( म.उ. ९९.१४) । निशुंभ-- शुंभ असुर का भाई, एवं जालंधर दैत्य का सेनापति (शुंभनिशुंभ देखिये) । इंद्र की अमरावती जीतने के बाद, जालंधर ने इसे युवराज्याभिषेक किया था (पद्म. उ. ८ ) । चंडिका देवी ने इसका वध किया ( [मार्क] ८६.२२) । निसुंद निषधाश्व - - (सो. अज. ) एक राजा । भागवत के अनुसार, यह कुरु राजा का पुत्र था। निषाद - ( स्वा. उत्तान. ) एक म्लेच्छ राजा । यह मृत्यु की मानसी कन्या सुरथा का पौत्र एवं वेन राजा का पुत्र था । वेन राजा की मृत्यु के पश्चात्, ऋषियों ने उसके दाहिने जाँघ का मंचन किया। उस मंथन के कारण, एक 'हस्वाकार' एवं कृष्णवर्ण पुरुष बाहर निकला । ऋषियों ने उसे कहा, 'निधीद (बैठ जाओ ) ' उस कारण उस पुरुष का नाम 'निषाद हो गया। आगे चलकर इससे वन में रहनेवाले 'निवाद' नामक म्लेच्छ जाति की उत्पत्ति हुयी ( म. शां. ५९.१०३; भा. ४.१४.४५; वेन देखिये) । २. एक जाति (तै. सं. ४.५.४.२ फा. सं. १७. १३: ऐ. बा. ८.११) । संभवतः आधुनिक मिल लोग यही होंगे। इनके एक ग्राम का एवं ' स्थपति' (नेता). का उल्लेख प्राप्त है (ला. श्री. ८.२.८ ) । ३. एक राजा । यह कालेय एवं फोधता नामक दै के अंश से उत्पन्न हुआ था ( म. आ. ४८.६१ ) | निष्कम्प - रौच्य मन्वंतर के सप्तर्षिओं में से एक। निष्किरीय- एक वैदिक पुरोहितवर्ग का सामूहिक नाम (पं. बा. १२.५.१४ ) । २. नरकासुर के चार प्रमुख राज्यपालों में से एक । यह भूतल से ले कर देवयान तक का मार्ग रोक कर खड़ा रहता था । श्रीकृष्ण ने इसका वध किया ( म. स. परि. १.क्र. २१. पंक्ति. १५३६ ) । निश्चक्र - - (सो.) एक राजा । भविष्य के अनुसार यह यशदत्त राजा का पुत्र था। इसने एक सहस वर्ष तक राज्य किया । निश्चर — धर्मसावर्णि मन्वन्तर के सप्तर्षिओं में से निष्कुटिका की अनुचरी मातृका (म. श. ४५.१२) । निष्कृति -- एक अग्नि । यह निश्च्यवन का पुत्र था, एवं इसे 'विपात्मन् ' नामांतर था। लोगों को संकट से ' निष्कृति' (छुटकारा ) दिलाने के कारण, इसे निष्कृति नाम प्राप्त हुआ । इसका पुत्र स्वन ( म. व. २०९.१४; विपाप्मन् देखिये) । निष्टानक - कश्यप एवं कद्रू से उत्पन्न एक नाग । एक । २. बृहस्पतिपुत्र निश्चवन का नामांतर । निश्च्यवन -- बृहस्पति के तारा में उत्पन्न सात पुत्रों में से एक । यह अग्नि के समान यश, वर्चस् एवं कान्तियुक्त था। यह निष्पाप, निर्मल, विशुद्ध एवं तेजःपुंज था. इसके पुत्र का नाम विपाप्मन् या निष्कृति था ( म. व. २०९. १२ ) । इसके पौत्र का नाम सत्य था । २. स्वारोचिप मन्वन्तर के सप्तर्षिों में से एक । निषंगिन - ( सो. कुरु. ) धृतराष्ट्र के शतपुत्रों में से एक भीम ने इसका वध किया (म. क्र. ६२.५ ) । निषध -- (सू. इ. ) अयोध्या का एक राजा । यह अतिथि राजा का पुत्र था । २. (सो. पूरु. ) भरतवंशी कुरु राजा का पौत्र, एवं जनमेजय राजा के चार पुत्रों में से चौथा पुत्र (म. आ. ८९.५० ) । यह धर्म, अर्थ में कुशल, एवं समस्त प्राणिमात्रों के हित में संलग्न रहता था ( म. आ. ९.५० ) । ३७२ निष्ठुर -- एक व्याध | कार्तिक माह में, चंद्रशर्मा नामक ब्राह्मण से ' दीपमाहात्म्य' सुनने के कारण, इसे मुक्ति मिल गयी (स्कंद. २.४.७ ) । २. अत्रिकुल का एक मंत्रकार । इसे ' गविष्ठर ' भी कहते थे । निष्ठुरिक-एक कश्यप वंशी नाग (म.उ. १०१० १२ ) । निष्प्रकम्य - रौच्य मन्वंतर के सप्तर्षियों में से एक । निसंदि -- एक असुर ( वा. रा. उ. २२.२५ ) ।' निसुंद-नरकासुर के परिवार में से एक दैत्य । यह श्रीकृष्ण द्वारा मारा गया ( म. व. १३.२६ ) । Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निहाद प्राचीन चरित्रकोश नील । निहाद-जालंधर की सेना का एक राक्षस । कुबेर लिये, राम लंकानगरी जा रहे थे। उस समय किष्किंधा ने इसका वध किया (पन. उ.६)। । नगरी में, यह राम के दर्शन के लिये आया था नीच्य--सिंधु एवं पंजाब प्रदेश में रहनेवाले लोगों (पद्म. मृ. ३८)। . का सामुहिक नाम (ऐ. बा. ८-१४)। रामरावण युद्ध में, इसने निकुंभ, प्रहस्त, एवं महोदर नीतिन-भगुकुल का एक गोत्रकार । राक्षसों से घनघोर युद्ध किया; एवं निकुंभ तथा महोदर नीथ--एक वृष्णिवंशी राजकुमार (म. व. १२०. | का वध किया (वा. रा. यु. ४३; ५८; ७०)। बाद में १८)। राम के अश्वमेधय के समय, यह शत्रुघ्न के साथ अश्वरनीप--(सो. पुरु. ) पुरुवंश का सुविख्यात राजा । क्षणार्थ देशविदेश गया था (पन. पा. ११)। भागवत, वायु एवं विष्णु के अनुसार यह पार (प्रथम) । ४. (सो. सह.) अनूप देश का एक राजा एवं पांडवराजा का पुत्र था । मस्त्य के अनुसार, यह पौर का पुत्र पक्ष का महान योद्धा । यह उदार, रथी, संपूर्ण अस्त्रों का था। इसके पत्नी का नाम कृती अथवा कीर्तिमती था। ज्ञाता, एवं महामनस्वी था (म. आ. १७७.१०)। . उससे इसे ब्रह्मदत्त नामक पुत्र हुआ ( भा. ९.२१.२४ )। ___ भारतीय युद्ध में, इसका अश्वत्थामन् के साथ दो बार इसके कीर्तिवर्धन आदि सौ पुत्र थे । वे सारे 'नीप' युद्ध हुआ था। पहली बार अश्वत्थामन् ने इसके सीने में नाम से ही प्रसिद्ध थे। आगे चल कर, उन्हीसे सुविख्यात प्रहार कर, इसे घायल किया (म. भी. ९०.३३); एवं 'नीप वंश' का निर्माण हुआ। दूसरी बार इसका वध किया (म. द्रो. ३०.२५) ।धृतराष्ट्र२. नीप राजा से प्रारंभ हुआ क्षत्रियवंश। इसी वंश पुत्र दुर्जय से भी इसका युद्धा हुआ था (म. द्रो. २५. में, जनमेजय दुबुद्धि नामक कुलांगार राजा निर्माण हुआ ४३)। (म. उ. ७२.१३ )। उस राजा के दुर्वर्तन के कारण, उग्रायुध ने उसका वध किया; एवं नीपवंश नष्ट हो कर, ५. (सो. पुरु.) पुरुवंश का सुविख्यात राजा। यह • द्विमीढ वंश में शामिल हो गया ( मस्त्य. ४९; ह. वं अजमीढ एवं नलिनी का पुत्र था। इसका पुत्र शांति । .१.२०, वायु. ९९. १७८)। नील ने उत्तर पांचाल देश में स्वतंत्र राज्य स्थापित ३. (सो. द्विमीढ.) द्विमीढवंश का एक राजा।। किया। इसकी राजधानी अहिच्छत्र नगरी थी। इसने .. भागवत के अनुसार यह कृती राजा का पुत्र था। अन्य | उत्तर पांचाल के सुविख्यात 'नीलराजवंश' की नींव पुराणों में इसका उल्लेख प्राप्त नहीं है । यह धनुर्धर एवं | डाली। तीक्ष्णशस्त्रधारी था। इसका पुत्र भल्लाट था (भा. ९. ६. उत्तर पांचाल देश का सुविख्यात राजवंश। इस २१.२-८)। | वंश के नील से पृषत् तक के सोलह राजाओं का निर्देश नीपातिथि ' काण्व'- एक वैदिक ऋषि एवं | पुराणों में अनेक स्थानों पर प्राप्त है (वायु. ९९.१९४सूक्तद्रष्टा (ऋ. ८. ३४. १, १५)। किसी एक युद्ध में, २११; मत्स्य. ५०.१-१६)। उन राजाओं के नाम इस इंद्र ने इसका रक्षण किया था (ऋ.८.४९. ९)। यह प्रकार है:--१. नील, २. सुशांति, ३. पुरुजानु ४. रिक्ष, एक ख्यातिप्राप्त होता था, एवं स्वयं इंद्र ने इसके ५. भाश्व, ६. मुद्गल, ७. वध्यव, ८. दिवोदास, घर आ कर सोम प्राशन किया था (ऋ. ८. ५१.१)।। ९. मित्रयु, १०. मैत्रेय, ११. च्यवन, १२. पंचजन, एक 'सामन् ' का भी यह रचयिता था (पं. बा. १४. १३. सुदास, १४. सहदेव, १५. सोमक, १६. पृषत् १०.४)। यह राजवंश बहुत ही महत्त्वपूर्ण माना जाता है, क्यों नील- कश्यप एवं कद्रू से उत्पन्न एक नाग कि, इनमें से अनेक राजाओं का निर्देश वैदिक ग्रंथों में (म. आ. ३१.७) मिलता है। इस वंश के मुद्गल, वन्यश्व, दिवोदास, सुदास, २. विश्वकर्मा के अंश से उत्पन्न हुआ रामसेना का एक च्यवन, सहदेव, सोमक, पिजवन (पंचजन) आदि वानर (भा. ९. १०.१६; म. व. २७४. २५)। इसने राजाओं का निर्देश ऋग्वेद एवं ब्राह्मणादि ग्रंथों में प्राप्त है। दूषण का छोटा भाई प्रमाथि का वध किया था। ऋग्वेद में वर्णित दाशराज्ञ युद्ध 'सुदास' ने किया था। ३. अमि के अंश से उत्पन्न हुआ रामसेना एक पृषत् राजा का उत्तराधिकारी द्रुपद था। द्रुपद राजा वानर ( वा. रा. कि. ३१)। बिभीषण से मिलने के एवं द्रोणाचार्य के संघर्ष के कारण, पांचाल देश उत्तर ३७३ Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नील प्राचीन चरित्रकोश एवं दक्षिण विभागों में पुनः एक बार बाँट दिया गया | ध्वज स्वयं युद्धभूमि में प्रविष्ट हुआ, एवं उसका अर्जुन से (द्रुपद एवं द्रोण देखिये)। घमासान युद्ध प्रारंभ हुआ। ७. दक्षिणापथ में से माहिष्मती नगरी का राजा, एवं अपने ससुर नीलध्वज की सहायता के लिये, अग्नि दुर्योधनपक्ष का महान योद्धा । यह क्रोधवश नामक दैत्य | युद्धभूमी में प्रविष्ट हुआ, एवं वह अर्जुन की सेना को दग्ध के अंश से उत्पन्न हुआ था। यह द्रौपदीस्वयंवर के लिये | करने लगा। अर्जुन अग्नि की शरण में गया। फिर अग्नि गया था (म. आ. १७७.१०)। संभवतः 'नीलध्वज' ने नीलध्वज एवं अर्जन इन दोनों के बीच में मित्रत्व इसीका ही नामांतर था (नीलध्वज देखिये)। स्थापित किया। बाद में, नीलध्वज अर्जुन की सहायता के पांडवों के राजसूय यज्ञ के समय, सहदेव द्वारा किये गये | लिये, उसके साथ दक्षिण दिग्विजय में शामिल हुआ (जै.. दक्षिण दिग्विजय में, इसका उससे भीषण युद्ध हुआ था | अ. १४.१४)। (म. स. २८.१८)। उस युद्ध के समय, अग्निदेव ने इसे | स। नीलपराशर--पराशरकुलोत्पन्न एक ऋषिगण (पराशर की सहायता की थी। अग्नि को इसने अपनी कन्या प्रदान की | टेनिस थी। उस कारण, अग्नि ने इसकी सेना को अभयदान नीलरत्न--राम के अश्वमेध यज्ञ के समय, अश्व के दिया था। फिर भी सहदेव ने इसे पराजित किया, एवं यह सहदेव की शरण में गया (म. स. २८.३६-३७)। संरक्षणार्थ शत्रुघ्न के साथ गया हुआ एक वीर (पद्म. पा. ११)। ___ इसने नर्मदा नदी को भार्यारूप में पा कर, उसके गर्भ से सुदर्शना नामक कन्या उत्पन्न की। उसे अग्नि चाहने नीला--कपिल तथा केशिनी की कन्या । इसके लगा। फिर इसने उन दोनों का विवाह करा दिया । उन्हें द्वारा आलंबेय ने 'नैल' उत्पन्न किये। इसकी विकचा सुदर्शन नामक पुत्र हुआ (म. अनु. २)। नामक कन्या थी (ब्रह्मांड. ३.७.१४७-१४८)। ___भारतीययुद्ध में, यह दुर्योधन के पक्ष में शामिल था २. (सत्या ५. देखिये)। (म. उ. १९.२३)। यह कौरवों के पक्ष का एक नीलिनी--अजमीढ़ राजा की एक पत्नी।। ख्यातिप्राप्त रथी था (म. उ. १६३.४)। नीली--अजमीढ़ राजा की पत्नी। इसके दुष्यन्त ८. (सो.) एक राजा एवं यदुपुत्रों में से तीसरा पुत्र । तथा परमेष्ठिन् नामक दो पुत्र थे (म. आ. ८९.२८)। ९. भृगुकुल का एक गोत्रकार । नीवार--वेदकालीन एक जंगली जाति (का. सं. १०. भृगुकुल का एक ब्रह्मर्षि । १२.४; मै. सं. ३.४.१०; श. ब्रा. ५.१.४.१४)। नीलकंठ--शिवजी का एक नामांतर । समुद्र से निकला नग' ऐक्ष्वाक'--(सू. इ.) एक प्राचीन दानी हुआ 'हलाहल विष' शिवजी ने प्राशन किया। इसीसे राजा । भागवत एवं महाभारत के अनुसार, यह इक्ष्वाकु जल कर उनके कंठ का वर्ण नीला हो गया । इसलिये उन्हे | के शतपुत्रों में से एक था ( म. स. ८.८) । इक्ष्वाकु के यह नाम प्राप्त हुआ (भा. ८.७)। ४८ पुत्रों को दक्षिणापथ में राज्य प्राप्त हुआ था। उनमें शिवजी एवं नारायण के बीच में हुये युद्ध में, नारायण | से नृग का राज्य पयोष्णी (तापी) नदी के तट पर था ने शिवजी का गला घोंट दिया। इस कारण उसका गला | (म. व. ८६.४-६)। नीला पड़ गया, ऐसी भी कथा प्राप्त है (नारायण देखिये)। नग ने पयोष्णी नदी के किनारे वाराहतीर्थ में यज्ञ नीलध्वज--हस्तिनापुर के दक्षिण में नर्मदा नदी के किया था । उस समय इसने एक कोटि के उपर किनारे स्थित माहिष्मती नगरी का राजा (जै. अ. १४. | गौ का दान किया। उनमें से एक गौ गलती से पुनः १४)। महाभारत में निर्दिष्ट नील राजा एवं यह दोनों | एक बार राजा के गोसमूह में वापस आयी, एवं दूसरे संभवतः एक ही होगे (नील ७, देखिये)। ब्राहाण को पुनः दान में दी गयी । इससे उन दो ब्राह्मणों _ 'जैमिनि अश्वमेध' के अनुसार, इसकी पत्नी का नाम में झगड़ा शुरू हो कर, वे दोनों राजा के पास फैसले के सुनंदा, एवं पुत्र का नाम प्रवीर था। पांडवों के द्वारा छोड़ा | लिये आये। गया अश्वमेधीय अश्व प्रवीर ने पकड़ लिया, एवं अश्व- उस झगड़े का फैसला देने में तृग को देर हुई। रक्षणार्थ नियुक्त किये वृषकेतु को पराजित किया। किंतु | उस कारण, उन ब्राह्मणों ने इसे शाप दिया, 'तुम पश्चात् अनुशाल्व ने प्रवीर को पराजित किया । फिर नील- | गिरगिट बनोंगे' । राजा ने प्रार्थना कर 'उःशाप' माँगा । ३७४ II Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन चरित्रकोश नृग फिर ब्राह्मणों ने 'उःशाप' दिया, 'भगवान् कृष्ण के द्वारा तुम्हारा उद्धार होगा । पश्चात् अपने वसु नामक पुत्र को गद्दी पर बैठा कर, यह वन में गया। बाद में कृष्ण के हस्तस्पर्श से गिरगिट योनि से इसका उद्धार हो गया ( म. अनु. ७०; भा. १०.६४; वा. रा. उ. ५३-५४) । शौर्य एवं दान के कारण, मृत्यु के पश्चात् नृग को उत्तम लोकों की प्राप्ति हो गयी ( म. भी. १७.१० ) । इसने आजन्म मांसभक्षण का निषेध किया था। उस कारण, इसे 'परावरतत्त्व' का ज्ञान हो कर, यह यमराज की सभा में विराजमान हो गया (म. अनु. ११५.६० ) । नंग 'औशीनर'-- (सो. अनु.) एक राजा भागवत एवं मास्त्र के अनुसार, यह उशीनर राजा का पुत्र था। वायु में इसे 'मृग' कहा गया हैं। नृग 'मानव' - (सु. ) पद्म के अनुसार मनु के दस पुत्रों में से दूसरा पुत्र । पुराणों में कई जगह मनुपुत्र नाभाग एवं नृग एक ही माने गये है ( लिंग. १. ६६.४५ ) । इसके पुत्र का नाम सुमति था। भागवत में राग राजा की 'वंशावलि विस्तृतरूप से दी गयी है (भा. ९.२.१७-९८ ) । किंतु वह विश्वासार्ह नहीं प्रतीत होती है। नग एवं उसका पितामह ओघवंत के पूर्वपुरुषों के महाभारत में दिये गये नाम इस ' वंशावलि ' में नृग के ' वंशज ' के नाते दिये गये है । नृचक्षु -- (सो. पूरु. भविष्य . ) पूरुवंश का एक राजा । भागवत तथा मत्स्य के अनुसार यह सुनीथ का, एवं विष्णु के अनुसार ऋच का पुत्र था ( त्रिचक्षु देखिये ) | नृत्यप्रिया -- स्कंद की अनुचरी मातृका ( म. श. ४५. १०) । नृपंजय -- (सो. द्विमी. ) द्विमवंश का एक राजा । विष्णु के अनुसार यह सुवीर का, एवं मत्स्य के अनुसार सुनीथ का पुत्र था । २. (सो. पूरु. भविष्य. ) पूरुवंशीय एक राजा । विष्णु, भागवत, एवं भविष्य के अनुसार यह मेधाविन् का पुत्र था इसे ' पुरंजय' नामांतर भी प्राप्त है । नृसिंह । ९०; ९८ ९९ ९.२७ २९ ) । अभि के कृपा से इसे शकपूत आदि पुत्र प्राप्त हुये। मित्रावरुणों ने इसका एवं सुमेधस् का रक्षण किया था (ऋ. १०.१३२.७ ) । परुच्छेप ऋषि ने इसके साथ स्पर्धा करने की कोशिश की, किंतु इसने उसको पराजित किया ( तै. सं. २.५.८.३ ) । नृपति (सो. मगध, भविष्य) मगध देश का एक राजा । वायु एवं ब्रह्मांड के अनुसार, यह धर्मनेत्र का पुत्र था। इसने ५८ वर्षों तक राज्य किया (निर्वृत्ति देखिये ) । नृपद -- एक वैदिक ऋषि (१० ३१.११ ) । यह कण्व ऋषि का पिता था, एवं इसके नाम से उसे 'ना कण्व नाम प्राप्त हुआ था । नृसिंह-- भगवान् विष्णु का चौदहवाँ अवतार । इसका आधा शरीर सिंह का एवं आचा मनुष्य का था। इस कारण, इसे ' नृसिंह' नाम प्राप्त हुआ । इसका अवतार चौथे युग में हुआ था (दे. भा. ४.१६ ) । पुराणों में निर्देश किये गये बारह देवासुर संग्रामों में, 'नारसिंहसंग्राम' पहले क्रमांक में दिया गया है (मस्त्य. ४७. ४२ ) । हिरण्यकशिपु नामक एक राक्षस ने ग्यारह हजार पाँच सौ वर्षों तक तप कर, ब्रह्माजी को प्रसन्न किया, एवं ब्रह्माजी से अमरत्व का वर प्राप्त कर लिया। उस वर के कारण, देव, ऋपि, एवं ब्राह्मण अत्यंत त्रस्त हुये, एवं उन्होंने हिरण्यकशिपु का नाश करने के लिये अवतार लेने की प्रार्थना श्रीविष्णु से की। हिरण्यकशिपु का पुत्र प्रह्लाद भगवद्भक्त था उसको भी उसके पिता ने अत्यंत तंग किया था। फिर प्रह्लाद के संरक्षण के लिये, एवं देवों को अभय देने के लिये श्रीविष्णु नृसिंह अवतार ' ले कर, प्रगट हुये । ' हिरण्यकशिपु के प्रासाद के संभे तोड़ कर, नृसिंह प्रगट हुआ (नृसिंह. ४४.१६ ), एवं सायंकाल में इसने उसका वध किया (भा. २.७; ह. वं. १.४१; ३९.७१; लिंग. १.९४ मत्य. ४७.४६ पपा. उ. २३८ ) । गंगा नदी के उत्तर किनारे पर हिरण्यकशिपु का वध कर, नृसिंह दक्षिण हिंदुस्थान में गोतमी (गोदावरी) नदी के किनारे पर गया, एवं उसने वहाँ दण्डक देश का राजा अंचर्य का वध किया (ब्रदा. १४९)। इस प्रकार वध करने से इसे खून चढ़ गया। फिर शिवजी ने शरम का अवतार ले कर, नृसिंह का वध किया (सिंग १.९५)। नृमेध आंगिरस -- अमि का एक आश्रित एवं सामद्रष्टा ऋषि (ऋ. १०.८०.३, पं. बा. ८. ८. २१ ) । ऋग्वेद के अनेक सूक्तों का प्रणयन इसने किया था (ऋ. ८.८९९ वेदों में प्राप्त नमुचि की एवं नृसिंह की कथा भनेक दृष्टि से समान है । 'नृसिंह अवतार ' का निर्देश 'तैत्तिरीय आरण्यक' में भी प्राप्त है। नृसिंहतापिनी नामक एक ' ' उपनिषद् भी उपलब्ध है । नृसिंह की कथा प्रायः सभी पुराणों में दी गयी है । किन्तु प्रह्लाद की संकटपरंपरा एवं | ३७५ Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नृसिंह प्राचीन चरित्रकोश नैर्ऋत नृसिंह का खंभे से प्रगट होने का निर्देश, कई पुराणों में नेतिष्य (नेतिण्य) भगुकुलोत्पन्न एक ब्रह्मर्षि । अप्राप्य है (म. स. परि. १. क्र. २१; पंक्ति. २८५- नेत्र-(सो. सह.) एक राजा । भागवत के अनुसार २९५, ह. वं. ३.४१-४७; मस्त्य. १६१-१६४; ब्रह्मांड. यह धर्म राजा का पुत्र था। ३.५; वायु. ३८.६६)। नेदिष्ट--वैवस्वत मनु का पुत्र । नृसिंह की उपासना-नृसिंह की उपासना भारतवर्ष । नेम भार्गव-एक सूक्तद्रष्टा (ऋ. ८.१००)। में आज भी अनेक स्थानों पर बड़ी श्रद्धा से की जाती नेमि-बलि के पक्ष का एक दैत्य (भा. ८. ६.२२) है। नृसिंह के मंदिर एवं वहाँ पूजित नृसिंह के नाम, २. (सू. इ.) एक राजा। वायु के अनुसार यह स्थानीय परंपरा के अनुसार, अलग अलग दिये जाते है। इक्ष्वाकु के पुत्रों में से एक था। अन्य पुराणों में, इसे इन नृसिंहस्थानों की एवं वहाँ पूजितं नृसिंहदेवता के 'निमि' कहा गया हैं। स्थानीय नामों की सूचि नीचे दी गयी है। उनमें से पहला नेमिकृष्ण-(आंध्र. भविष्य.) एक राजा । वायु के . नाम नृसिंहस्थान का, एवं 'कोष्ठक' में दिया गया नाम अनुसार, यह पटुमत् राजा का पुत्र था। इसने २५ वर्षों नृसिंह का स्थानीय नाम का है। तक राज्य किया। नमिचक्र-(सो. पूरु. भविष्य.) हस्तिनापुर का एक नृसिंहस्थान-अयोध्या (लोकनाथ ), आढ्य राजा। यह असीमकृष्ण राजा का पुत्र था। यमुना नदी के (विष्णुपद),उज्जयिनी (त्रिविक्रम ), ऋषभ (महाविष्णु), बाढ़ से हस्तिनापुर नगर बह जाने के बाद, इसने अपनी कपिलद्वीप (अनन्त), कसेरट (महाबाहु ),कावेरी (नाग नयी राजधानी कौशांबी नगर में बसायी। इसका पुत्र शायिन् ), कुण्डिन (कुण्डिनेश्वर), कुब्ज (वामन ), चित्ररथ (भा. ९. २२.३९)। ... कुब्जागार (हृषीकेश), कुमारतीर्थ ( कौमार), कुरुक्षेत्र नैकजिह्व- भगुकुल का एक गोत्रकार। (विश्वरूप), केदार (माधव), केरल (बाल), कोकामुख नैकद-विश्वामित्र का पुत्र। (वराह ), क्षिराब्धि (पद्मनाथ), गंधद्वार (पयोधर), गन्धमादन (अचिन्त्य), गया (गदाधर), गवांनिष्क्रमण नैकशि-भृगुकुल का एक गोत्रकार। . (हरि), गुह्यक्षेत्र (हरि), चक्रतीर्थ (सुदर्शन ), नैगम--शाकपूर्ण रथीतर ऋषि के चार प्रमुख शिष्यों चित्रकूट (नराधिप), तृणबिंदुवन (वीर), तैजसवन में से एक । अन्य तीन शिष्यों के नाम-केतव, दालकि, (अमृत), त्रिकूट (नागमोक्ष), दण्डक (श्यामल), | शतबलाक। दशपुर (पुरुषोत्तम), देवदारुवन (गुह्य ), देवशाला नैगमेश--कुमार कार्तिकेय का तृतीय भ्राता। इसके (त्रिविक्रम), द्वारका (भपति), धृष्टद्युम्न (जयध्वज ). पिता का नाम अनल था (म. आ. ६०.२२)। निमिष (पीतवासस् ), पयोष्णी (सुदर्शन ), पाण्डुसह्य । २. कार्तिकेय के चार मूर्तियों में से एक मूर्ति का (देवेश), पुष्कर (पुष्कराक्ष), पुष्पभद्र (विरज), नाम। अन्य दो मूर्तियों के नाम शाख एवं विशाख थे। प्रभास ( रविनन्दन), प्रयाग (योगमूर्ति), भद्रा (हरिहर). I (म. श. ४३.३७)। भाण्डार (वासुदेव), मणिकुण्ड (हलायुध ), मथुरा ३. अनल वसु का पुत्र। (स्वयंभुव), मन्दर (मधुसूदन), महावन (नरसिंह), नद्राणि--अत्रिकुल का एक गोत्रकार । महेन्द्र (नृपात्मज), मानसतीर्थ (ब्रह्मेश), माहिष्मती नैधृव--कश्यपकुल का गोत्रकार । यह कश्यप ऋषि (हुताशन), मेरुपृष्ठ (भास्कर), लिङ्गकूट (चतुर्भुज), | का पौत्र, एवं अवत्सार ऋषि का पुत्र था। यह छः कश्यप लोहित (हयशीर्षक), वल्लीवट ( महायोग), वसुरूढ | 'ब्रह्मवादिनों में से एक था। अन्य ब्रह्मवादिनों के नाम(जगत्पति), वाराणसी (केशव), वाराह (धरणीधर ) कश्यप, अवत्सार, रैभ्य, असित, देवल ( वायु. ५९.१०३; वितस्ता (विद्याधर), विपाशा (यशस्कर ), विमल | मस्त्य. १४५. १०६-१०७; कश्यप देखिये)। (सनातन), विश्वासयूप (विश्वेश), वृंदावन (गोपाल), २. काश्यपवंश में से एक प्रमुख गोत्र का नाम । वैकुण्ठ (माल्योदपान), शालग्राम (तपोवास), शिवनदी | अन्य दो प्रमुख गोत्र-शांडिल्य, एवं रैभ्य । (शिवकर ), शूकरक्षेत्र (शूकर), सकल (गरुडध्वज), नैध्रवि--कश्यप ऋषि का पैतृक नाम (बृ. उ. ६.४. सायक (गोविंद), सिंधुसागर (अशोक), हलाङ्गर | ३३)। (रिपुहर), (नृसिंह. ६५)। . । नैर्ऋत--एक सूक्तद्रष्टा (कपोत नैत देखिये)। ३७६ Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन चरित्रकोश पक्षगंत २. एक राक्षस । यह पृथ्वी के प्राचीन शासकों में से २. भरिष्य एक राजवंश । नल नैषध राजा के वंश में एक था (म. शा. २२०.५१-५३)। उत्पन्न नौ राजा इस वंश में शामिल थे। उन्हें 'मेघ' नामांतर ३. एक 'रात्रीराक्षस' गण। उस गण के अन्य राक्षस भी प्राप्त था। वे कोमला नामक नगरी में रहते थे । समूह-पौलस्य, आगस्त्य, कौशिक (पार्गि. २४२)। नैषिध-दक्षिण देश के नड़ राजा का पैतृक नाम नैमिशि-शितिबाहु ऐष नामक वैदिक ऋषि की एवं उपाधि ( श. बा. २. ३. २.१-२)। इस नाम का उपाधि (जै. ब्रा. १.३६३)। शितिबाहु 'नैमिश' वन का बाद का रूप 'नैषध' है। रहनेवाला होने से, उसे यह उपाधि मिली होगी। . नोधस-एक वैदिक कवि एवं सूक्तद्रष्टा (ऋ. १.६१. र ति कति नैमिशीय-नैमिशवन में रहनेवाले लोगों का सामूहिक १४, ६२. १३; एका देखिये )। यह पुरुकुत्स राजा का नाम ( पं: बा. २५. ६. ४; जै. बा. १.३६३)। ये लोग। समकालीन था। बहुत ही पूज्य माने जाते थे (कौ: ब्रा. २६.५)। । नोधस् गौतम--एक वैदिक सूक्तद्रष्टा (ऋ.५.१.५८इस कारण नैमिशारण्यवासी ऋषियों को महाभारत सुनाया गया था। ६४, ८. ८८, ९. ९३ )। यह कक्षीवत् ऋषि का वंशज नैल-एक ऋग्वेदी श्रुतर्षि । . (पं. ब्रा. ७. १०.१०, २१. ९.१२, ऐ, ब्रा. ४. २७; अ. वे. १५. २. ४; ४.४ ), एवं गोतम ऋषि का पुत्र था २. एक ज्ञातिसमूह (नीला १. देखिये)। नैषध--दुर्योधन पक्ष के 'पौरव' राजा का नामांतर । (ऋ. १.६०.५, ४. ३२. ९८.८८. ४)। यह निषध देश का राजा होने के कारण, उसे यह नाम नौकर्णी--स्कंद की अनुचरी मातृका (म.श. ४५. प्राप्त हुआ था(पौरव देखिये)। धृष्टद्युम्न ने इसका वध २८)। इसके नाम के लिये, सुकर्णी एवं नैककर्णी पाठभेद किया (म. द्रो. ३१.६३)। . भी उपलब्ध हैं। २. दक्षिण देश के नड़ राजा की उपाधि (नैषिध न्यग्रोध--(सो. कुकुर ) भागवत के अनुसार मथुरा देखिये) के उग्रसेन राजा का पुत्र, एवं कंस का भाई । धनुर्याग के नैषाद--निषाद् जाति का एक व्यक्ति (को. ब्रा. समय, कृष्ण ने कंस का वध किया । फिर अपने भाई के '२५. १५वा. सं. ३०.८)। मृत्यु का बदला लेने के लिये, यह आगे दौड़ा । उस नैषादि-- द्रोण शिष्य एकलव्य का नामांतर (म. द्रो. समय, बलराम ने 'परिघ' फेंक कर इसका वध किया। पक्थ--एक वैदिक ज्ञातिसमूह (ऋ. ७.१८.७)। ऋग्वेद में एक जगह, इसका नाम 'तूर्बायण' बताया है, इस जाति के लोगों ने दाशराज्ञयुद्ध में तृत्सु-भरतों का एवं इसे च्यवान ऋषिका शत्र कहा है (ऋ. १०.६१.१-२)। विरोध किया था। सिमर के मत में, आधुनिक पक्ष-देवयोनि के अंतर्गत 'गुह्यक' जाति में से अफगानिस्तान में स्थित 'पख्तून' जाति के लोग यही एक पुरुष । यह मणिवर एवं देवजनी के तीस पुत्रों में से होगे (सिमर-अल्टिन्डिशे लेबेन पृ.४३०)। एक था (मणिवर देखिये)। २. पस्थ लोगों का एक राजा, एवं अश्विनों का आश्रित २. (सो. अनु) एक राजा । वायु के अनुसार, अनु (ऋ. ८.२२.१०)। इसपर इंद्र की कृपा थी (ऋ.८. राजा का पुत्र चक्षु एवं यह, दोनों एक ही थे (चक्ष ४९.१०)। दाशराजयुद्ध में यह त्रसदस्यु के पक्ष में, एवं | दाखय)। सुदास के विरोधी पक्ष में शामिल था (ऋ, ७.१८.७।)। पक्षगंत-एक ऋग्वेदी श्रुतर्षिगण । प्रा. च. ४८] ३७७ Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पक्षालिका प्राचीन चरित्रकोश पंचजन पक्षालिका-रकंद की अनुचरी एक मातृका (म.श. (२) पंचमानव-(अ. वे. ३.२१.५, २४.३, १२. ४५.१९)। पंकजित्-गरुड़ की प्रमुख संतानों में से एक (म. (३) पंचकृष्टि - (ऋ. २.२.१०; ३.५३.१६, ४. उ. ९९.१० पाठ)। | ३८.१०; अ. वे. ३.२४.३)। पंकदिग्धाग-स्कंद का एक सैनिक (म. श.४४.६३)। (१) पंचक्षिति-(ऋ. १.७.९; ५.३५.२ ७.७५.४) पंचक--इंद्र द्वारा स्कंद को दिये गये दो पार्षदों में से (५) पंचचर्षणि-(ऋ. ५.८६.२; ७.१५.२ ९. एक । दूसरे का नाम उत्क्रोश था (म. श. ४४.३२ पाठ)। १०१.९) । पंचकर्ण वात्स्यायन--एक वैदिक गुरु । 'वात्स्य' | 'पंचजन कौन थे--वैदिक वाङ्मय निर्दिष्ट, 'पंचजन' का वंशज होने के कारण, इसे 'वात्स्यायन' नाम प्राप्त (पाँच जातिया) निश्चित कौन लोग थे, यह अत्यंत हुआ था। | अनिश्चित है । इस बारे में कुछ मतांतर नीचे दिये गये मनुष्य के मस्तक में रहनेवाले सात प्राण, योगशास्त्र की परिभाषा में, 'सप्तसूर्य ' कहलाते हैं। उन सप्तसूर्यों का | ऐतरेय ब्राह्मण के अनुसार, देवता, मनुष्य, गंधर्व, दर्शन पंचकर्ण को हुआ था। इस अपूर्व अनुभव का वर्णन सर्प एवं पितृगण ये पाँच ज्ञातिसमूह 'पंचजन' कहलाते भी इसने दिया है (ते. आ. १.७.२)। 'वात्स्यायन थे (ऐ. वा. ३.३१)। कामसूत्र' नामक विश्वविख्यात कामशास्त्रविषयक ग्रंथ का ___औपमान्यव एवं सायणके अनुसार, ब्राह्मण, क्षत्रिय, रचयिता संभवतः यही होगा। वैश्य, शूद्र एवं निषाद थे पाँच वर्ण 'पंचजन' थे पंचचड़ा-पाँच जूडोंवाली एक अप्सरा (म. व. (नि. ३.८; ऋ. १.७. ९)। १३४.११)। यह कुबेरसभा में विराजमान रहती थी (म. यास्क के अनुसार, गंधर्व, पितरः, देव, असुर, स. १०.११२*)। | एवं रक्षस् इनका ही केवल 'पंचजनों में समावेश होता. था (निरुक्त. ३.८; बृ. उ.४.४.१७ शांकरभाष्य)। परमपदप्राप्ति के लिये ऊपर की ओर जाते हुए शुकदेव रॉथ एवं गेल्डनर--के अनुसार, पृथ्वी के उत्तर, को, एक बार इसने देखा, एवं यह आश्चर्यचकित हो उठी | दक्षिण पूर्व, पश्चिम इन चार दिशाओं में रहनेवाले लोग (म. शां. ३३२.१९-२०)। एवं उनके बीच में स्थित आर्यगण ये पाँच पंचजन । नारी स्वभाव की निंद्यता का वर्णन इसने नारद के 'पंचजन' में अभिप्रेत है ( सेन्ट पीटर्सबर्ग कोश ) । अपने समक्ष किया था (म. अनु. ३८.११-३०)। पश्चात् वही मत की परिपुष्टि के लिये, उन्होंने अथर्ववेद में प्राप्त, 'पंच नारीस्वभाव-वर्णन मीष्म ने युधिष्ठिर को बताया था। प्रदिशो मानवीः पंच कृष्टयः' (अ. वे. ३.२४.३ ) ऋचा इसे 'पुंश्चली' एवं 'ब्राह्मी' नामांतर भी प्राप्त है। | का उद्धरण दिया है। . पंचजन-वेदकालीन पाँच प्रमुख ज्ञानियों का सामूहिक लिमर के अनुसार, वैदिक 'पंचजनो' में केवल नाम (ऐ. ब्रा. ३.३१; ४.२७: तै. सं. १.६.१.२; का. आय लोगों का समावेश अभिप्रेत है। इस कारण, अनु, सं. ५.६; १२.६) । ऋग्वेद के प्रत्येक मंडल में 'पंचजनों' द्रुह्य, यदु, तुर्वश एवं पूरु इन आर्य जातियों को ही का उल्लेख मिलता है :--मंडल क्रमांक २, एवं ४ में एक वैदिक ग्रंथों में 'पंचजन' कहलाना अधिकतम ठीक होगा। एक बार; मंडल क्र. १.५.६.७. एवं ८ में दो दो बार; उपरिनिर्दिष्ट मतांतरों में से सिमर का मत. सब मंडल क्रमांक ३ एवं ९ में तीन-तीन बार; तथा मंडल से अधिक मान्य है। 'ब्राह्मण' ग्रंथों के काल में, क्रमांक १० में चार बार। पंचजनों के अंतर्गत पाँच जातियों को संभवतः 'पंचाल' एक योगिक शब्द के रूप में 'पंच जनों' का निर्देश यह नया नाम प्राप्त हुआ। पश्चात् कुरु लोगों का पंचजनों उपनिषद में मिलता है (बृ. उ. ४.४.१७)। ये लोग में समावेश हो कर, 'कुरु पंचाल' ये लोग 'सप्तजन' सरस्वती नदी के तट पर रहते थे (ऋ. ६.६१.१२)। नये नाम से प्रसिद्ध हुये (श, ब्रा. १३.५.४.१४; ऐ. बा. 'पंचजनों के निम्नलिखित नामांतर वैदिक ग्रंथों में ८.२३; वेबर-इन्डिशे स्टुडियन १.२०२)। मिलते है : २. नरकासुर के परिवार में स्थित पाँच राक्षसों का (१) पंचमानुष--(ऋ. ८.९.२)। समूह । श्रीकृष्ण ने इनका वध किया (नरक देखिये )। ३७८ Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचजन प्राचीन चरित्रकोश पंचशिख ३. (सो. नील.) उत्तर पांचाल देश का सुविख्यात विभावसु का पौत्र, एवं आतप का पुत्र । इसकी माता का राजा । इसे 'च्यवन' नामांतर भी प्राप्त है। ऋग्वेद में नाम उषा था। इसी के कारण पृथ्वी पर से सारे प्राणी इसका निर्देश 'पिजवन' नाम से किया गया प्रतीत होता कर्मप्रवृत्त हो जाते है (भा. ६.६.१६)। है (ऋ. ७.१८.२२)। 'पंचजन' यह संभवतः 'पिजवन' | पंचवक्त्र--स्कन्द का एक सैनिक (म. श. ४४. का ही अपभ्रष्ट रूप होगा। अग्नि पुराण में, इसके नाम ७१)। के लिये 'पंचधनुष' पाठभेद उपलब्ध है। पंचवीर्य-एक सनातन विश्वेदेव (म. अनु. ९१. यह संजय राजा का पुत्र था। इसका पुत्र सोमदत्त । (ब्रह्म. १३.९८; ह. वं. १.३२.७७)। पंचशिख--एक प्राचीन ऋषि । इसे 'पंच कोशों' ४. एक दैत्य । यह संहाद नामक देत्य का पुत्र था। का एवं उन कोशों के बीच में स्थित ब्रह्म का अग्निशिखा यह शंख का रूप धारण कर समुद्र में रहता था । सांदीपनि के समान तेजस्वी ज्ञान था। इसलिये इसे 'पंच शिख' ऋषि के मरे हुए पुत्र को, समुद्र में से वापस लाने के लिये नाम प्राप्त हआ था (म. शां. २११.६१२७)। श्रीकृष्ण समुद्र में गया। उस समय, उसने पंचजन का वध ___ इसकी माता का नाम कपिला था। कपिला इसकी किया, एवं इसके अस्थियों से एक शंख बनाया । भगवान् जन्मदात्री माता नहीं थी । उसका दूध पी कर यह बड़ा श्रीकृष्ण का सुविख्यात 'पांचजन्य' शंख वही है (भा. हुआ था। इसकी माता के नाम से, इसे 'कापिलेय' ६.१८.१४; १०.४५.४०)। मातृक नाम प्राप्त हुआ। सांख्य ग्रंथों में इसे 'कपिल' ५. एक प्रजापति । इसके 'पांचजनी' (असिक्नी) कहा गया है (मत्स्य. ३.२९)। नामक एक कन्या थी। वह प्राचेतस दक्ष को पत्नी के रूप __ गुरुपरंपरा--यह याज्ञवल्क्य शिष्य आसुरि ऋषि का में दी गयी थी (भा. ६.४.५१)। प्रमुख शिष्य था (म. शां. २११.१०) । 'बृहदारण्यक ६. कपिल ऋषि के शाप से बचे हुये सगर के चार उपनिषद' में इसकी गुरुपरंपरा इसप्रकार दी गयी है:पुत्रों में से एक (पद्म. उ. २०; ब्रह्म. ८.६३)। उपवेशी, अरुण, उद्दालक, याज्ञवल्क्य, आसुरि, पंचशिख पंचजनी-ऋषभ राजा का पुत्र भरत की पत्नी ।। (बृहदारण्यक. ६.५.२-३)। पुराणों में इसकी गुरुपरंपरा . इसके कुल पाँच पुत्र थे। उनके नाम-सुमति, राष्ट्रभृत , कुछ अलग दी गयी है, जो इस प्रकार है:- वोढु, सुदर्शन, आवरण, एवं धूम्रकेतु हैं (भा. ५.७.१-३)। कपिल, आसुरि, पंचशिख (वायु. १०१.३३८)। . २. दक्ष की पत्नी (मत्स्य. ५.४)। इस गुरुपरंपरा में से कपिल ऋषि पंचशिख ऋषि का पंचधनुष-(सो. नील.) उत्तर पंचाल के पंचजन परात्पर गुरु ( आसुरि नामक गुरु का गुरु ) था। महाराजा का नामांतर। भारत में, कपिल एवं पंचशिख इन दोनों को एक ही पंचपत्तलक-(आंध्र. भविष्य. ) एक राजा। मानने की भूल की गयी है (म. शां. ३२७.६४ )। उस ब्रह्मांड के अनुसार यह हाल राजा का पुत्र था (तलक भूल के कारण, पंचशिख को चिरंजीव उपाधि दी गयी, देखिये)। जो वस्तुतः कपिल ऋषि की उपाधि थी (म. शां. २११. पंचम वाय एवं ब्रह्मांड के अनुसार व्यास की। १०)। सांख्यशास्त्र के अभ्यासक, कपिल ऋषि को सामशिष्यपरंपरा के हिरण्यनाभ का शिष्य (व्यास ब्रह्माजी का अवतार समझते हैं, एवं पंचशिख को कपिल देखिये)। का पुनरावतार मानते हैं। पंचमेद्र-एक राक्षस । इसकी पाँच इंद्रियाँ, पाँच पैर, शिष्य--मिथिला देश का राजा जनदेव जनक पंचशिख दस हाथ तथा आठ सिर थे। यह असाधारण आहार ऋषि का शिष्य था। उससे इसका 'नास्तिकता' के बारे लेता था । इसलिये वाली से युद्ध करते समय, इसने उसे में संवाद हुआ था ( नारद. १. ४५)। इस संवाद के निगल लिया था। वाली के बंधु सुग्रीव, तथा दधीचि पश्चात् , जनदेव जनक ने अपने सौ गुरुओं को त्याग कर, कश्यपादि ऋषियों को भी इसने निगल लिया था । परंतु पंचशिख को अपना गुरु बनाया। फिर इसने उसे सांख्य वीरभद्र ने इससे युद्ध कर, इसके पेट का विच्छेद किया तत्त्वज्ञान के अनुसार, मोक्षप्राप्ति का मार्ग बताया। एवं इन सबको बाहर निकाला (पन. पा. १०६)। निवृत्तिमार्ग के आचरण से जनन-मरण के फेरें से मुक्ति पंचयाम-भागवत के अनुसार, अष्ट वसुओं में से | एवं परलोक की सिद्धि कैसी प्राप्त हो सकती है, इसका ३७९ Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचशिख प्राचीन चरित्रकोश पंचाल । उपदेश पंचशिख ने अनदेव जनक को दिया (म. शां. उन पर सांख्यकारिका का प्रभाव स्पष्ट दिखाई देता है। ( वेदान्तसूत्र २.१.१८ ) । कनिष्ठ अधिकारियों के लिये एवं न्याय, मध्यम अधिकारियों के लिये सांख्य, और उत्तम अधिकारियों के लिये वेदान्त का कथन किया गया है । सांख्यदर्शन में प्रकृति के विभिन्न रूपगुणों की व्याख्या परिमाणवाद या विकासवाद का प्रतिपादन, पुरुष एवं प्रकृति का विवेचन, पुनर्जन्म, मोक्ष एवं परमतत्त्व का विश्लेषण, बहुत ही सुक्ष्म एवं वैज्ञानिक दृष्टि से किया गया है ( गेरौला - संस्कृत साहित्य का इतिहास ४७१४७३ ) । २. दधिवाहन नामक शिवावतार का शिष्य । पंचहस्त - दक्षसावर्णि मनु का पुत्र । २११-२१२ ) । 6 पंचशिख का एक और शिष्य धर्मध्वज जनक राजा था ( म. शां. ३०८ ) । महाभारत में प्राप्त सुलभा धर्मध्वज जनक संवाद' में, धर्मध्वज ने इसे अपना गुरु कहलाया है । • भारतीय षड् दर्शनों की परंपरा में 'सांख्यदर्शन' सब से प्राचीन है । उस शास्त्र के दर्शनकारों में पंचशिख पहला दार्शनिक आचार्य माना जाता है । निम्नलिखित लोगों को पंचशिख ने सांख्यशास्त्र सिखाया थाः (१) ' सिखाया थाः - ( १ ) धर्मध्य जनक (२) विश्वावसुगंध (म. शां. ३०६ ५८ ) ; ( ३ ) काशिराज संयमन ( म. शां. परि. १. क्र. २९) । 3 पंचशिख 'पराशर गोत्रीय था । संन्यासधर्म एवं तत्त्वज्ञान का इसे पूर्ण ज्ञान था वह ब्रह्मनि था, एवं इसमें ' उहापोह (ब्रह्मशन का ग्रहण एवं प्रदान ) की शक्ति थी। इसने एक सहस्र वर्षों तक मानसयश ' किया था । — पंचरात्र ' नामक यज्ञ करने में यह निष्णात था ( म. शां. २११; नारद. १.४५ ) । , -- ' शुक्लयजुर्वेदियों के ‘ब्रह्मयज्ञांगतर्पण' में इसका निर्देश प्राप्त है ( पारस्करगृह्य परिशिष्ट मस्त्य. १०२. १८ ) । ग्रंथ' सांख्यशास्त्र' पर इसने परिक्षेत्र' नामक एक ग्रंथ भी लिखा था ( योगसूत्रभाष्य. १. ४ २ १३; ३. १३ ) । वह ग्रंथ आज उपलब्ध नहीं है। सांख्यदर्शन पर उपलब्ध होनेवाला प्राचीनतम ग्रंथ ईश्वर कृष्ण का 'सांख्यकारिका है ईश्वरकृष्ण का काल चौथी शताब्दी के लगभग माना जाता है । , सांख्यतत्वज्ञान --सांख्य अनीश्वरवादी दर्शन है । पुरुष एवं प्रकृति ही उसके प्रतिपादन के प्रमुख विषय हैं। सांख्य के अनुसार, प्रकृति एवं पुरुष अनादि से प्रभुत्वबान् है।' मैं सुखदुःखातिरिक्त तीन गुणों से रहित हूँ, इस प्रकार का विवेक प्रकृति एवं पुरुष में उत्पन्न होता है, समशानोपलब्धि होती है। जय प्रारम्भ कर्म का भोग समाप्त होकर आत्मतत्त्व का साक्षात्कार हो जाता है, तब मोक्षप्राप्ति हो जाती है। पंचाल - शतपथ ब्राह्मण फालीन एक लोकसमूह (श. ब्रा. १२.५ ४.७ . बा. २.२९१) यही लोग 'क्रिवि' नाम से एवं महाभारतकाल में ये लोग ' पांचाल नाम से प्रसिद्ध थे (म. आ. ५५२१६ पांचाल देखिये) । पंचाल लोगों का निर्देश प्रायः कुरु लोगों के साथ. आता है । कुरु पंचालों के राजाओं का निर्देश 'ऐतरेय' ब्राह्मण' में प्राप्त है ( ऐ. बा. ८.१४ ) । उनमें से क्रैव्य, दुर्मुख प्रवाहण जेवलि पर्व शोन ये पंचाल राजा प्रधान एवं महत्वपूर्ण है। केशिन् दाल्भ्य नामक और एक पंचाल राजा का निर्देश 'काटक संहिता' में प्राप्त है (का. सं. २.२ ) । इन लोगों के नगरों में, 'परिचक्रा कॉपील, कौशांबी ये प्रमुख थे (श. प्रा. १२.५. ४.७ ) । " 6 96 पंचाल लोगों के अंतर्गत 'किवियों के अतिरिक्त थीं। ' अन्य जातियाँ भी सम्मीलित थी 'पंचाल नाम से पाँच जातियों का संदर्भ प्रतीत होता है। ऋग्वेद में निर्देशित पाँच अतियों (पंच) एवं पंचाल एक ही थे, ऐसा कई अन्यासकों का कहना है (चवन देखिये) । , पंचाल देश के ब्राह्मण दार्शनिक एवं भाषाशास्त्रीय वादविवादों में प्रवीण रहते थे (बृ. उ. ६.११. छ. उ. ५.२.१) । महाभारतकाल में पंचाल देश का उत्तर एवं दक्षिण के रूप में विभाजन किया गया था। किंतु वैदिक साहित्य में उस विभाजन का कुछ उल्लेख नहीं मिलता । २. (सो. नील. ) भद्राश्व ( भर्म्याश्व ) राजा के पाँच पुत्रों के लिये प्रयुक्त सामूहिक नाम 'पंच अहम् ' सांख्य सत्कार्यवादी दर्शन है। सत्कार्यवाद की स्थापना के लिये, उस दर्शन में, असदकरण, उपादानग्रहण, सर्वसंभवाभाव, शक्यकरण एवं कारणाभव ये पाँच हेतु दिये गये है (सांख्यकारिका ) । शंकराचार्यजी ने भी न्याय के असत्कार्यवाद के खंडनार्थ जो युक्तियों कथन की है, ३८० Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचाल ( पाँच-पराक्रमी ) के अर्थ से यह नाम भद्राश्व के पुत्रों के लिये प्रयुक्त किया जाता था। उन्ही के नाम से, उनके राज्य को 'पंचाल ' नाम प्राप्त हुआ ( पार्गि. ७५) । पंचालखंड - पंचाल देश में उत्पन्न एक वैदिक ऋषि वाणी के द्वारा ही वैदिक संहिताएँ 'संहित की जाती है, ऐसा इसका मत था (ऐ. आ. ३.१.६; सां. आ. ७. १९)। । प्राचीन चरित्रकोश पंचिक - दक्षिण पांचाल देश के 'ब्राभ्रव्य पांचाल ' आचार्य का नामांतर (ह. वं. २३.१२५६, बाभ्रव्य पांचाल देखिये) । " फ्ज्र - एक वैदिक कुलनाम । पज्रिय कक्षीवत् ऋषि इसी कुल में पैदा हुआ था (ऋ. १.२२६.२ - ५ ) । यह कुल अंगिरस फुल की ही एक उपशाखा थी (ऋ. १.५१.४ सायण) । सोम को 'पद्मागर्म ' कहा गया है (ऋ. ९.८२.४ ) । पज्रिय वा पज्य - ' कक्षीवत् दीर्घतमस् औशिज' ऋषि का पैतृक नाम (ऋ. १.११६ ११७.१०५ १२२. ७८) । इसके सूक्त में उत्तर पांचाल देश का राजा दिवोदास का निर्देश प्राप्त है. (ऋ. १.११६.१८ ) । यह ऋषि भरत राजा के समकालीन, कक्षीवत् ऋषि से अलग एवं पश्चात्कालीन था, ऐसा पाटिर का कहना है ( पार्गि २२३ ) । " पटच्चर--' पटच्चर' देश के निवासियों का सामूहिक नाम ये लोग जरासंध की भय से दक्षिण की ओर भाग गये थे ( म. स. १३.२५ ) । सहदेव ने इन्हें दक्षिणदिग्विजय के समय जीता था ( म. स. २८.४ ) । भारतीय युद्ध में, ये लोग युधिष्ठिर के पक्ष में लड़ने आये थे, एवं उसके साथ चव्यूह के पृष्ठभाग में खड़े थे (म. भी. ४६.४७) । २. एक राक्षस रथसेन राजा ने इसका वध किया । ( म. द्रो. २२.५३ ) । पणि पटुमित्र - (किलकिला. भविष्य. ) विष्णु के अनुसार एक राजा । जो पटवासक -- धृतराष्ट्र के कुल में उत्पन्न एक नाग, जनमेजय के सर्पसत्र में जल कर मर गया (म. आ. ५७ १८; भांडारकर संहिता पाठ - ' पटवासन' ) । रॉथ के अनुसार, 'पणि' शब्द ' पण ' (विनिमय ) धातु से व्युत्पन्न हुआ था, एवं 'पणि ऐसे जाति के लोग थे, जो बिना किसी प्रतिप्राप्ति के अपना कुछ नहीं देते थे, अतः ये ऐसे कृपण लोग थे जो न तो देवों की उपासना करते थे, और न पुरोहितों को दक्षिणाएँ देते थे रॉथ-सेंट पिटर्सबर्ग कोश ) । यास्क एवं सायणाचार्य भी पणि को वणिज जाति का कहते हैं ( निरुक्त. २.१७; ६.२६ ) । ( । ऋग्वेद के सूक्तकार अपने विरोधियों को 'इंद्रशत्रु, ' 'अयज्वन् ' आदि अपमान दर्शक शब्दों से संबोधित करते हैं। इस प्रकार पणियों को भी संथेधित किया गया है । इन्हे गंदे, कंजूस आदि विशेषणों से संबोधित किया गया है (ऋ. १०.१०८ ) । इन पर आक्रमण करने की प्रार्थना देवों से की गयी हैं एवं वामदेव ने अपनी प्रार्थना में कहा है, 'अत्यंत निविड़ अंधकार में पनि गिरे (ऋ. ४.५१.३)। ऋग्वेद में एक स्थल पर, इन्हें शत्रु के नाते भेड़िया कहा गया है ( . ६.५१.१४ ) एवं दूसरे एक स्थल पर इन्हें 'बेकनाट' (ब्याज स्थानेवाला) कहा है (ऋ. ८-६६.१० ) एक अन्य स्थल पर, इन्हें 'दस्यु ' कह कर, इनके लिये 'सूत्रवाच' (कटु वाणी बोलनेवाला, एवं ' ग्रथिन् ' (अपरिचित वाणी बोलनेवाला ) शब्दों का 3 ३८१ पटुमत्-- ( अ. भविष्य.) एक राजा विष्णु के (आंध्र. । अनुसार यह मेघस्थाति का ब्रह्मांड के अनुसार आपोसव का, एवं वायु के अनुसार आपादबद्ध का पुत्र था । भागवत में इसे अटमान कहा गया है। इसने २४ वर्षों तक राज्य किया पटुश-एक राक्षस, जिसने श्रीरामसेना के प नामक वानर से युद्ध किया था (म.ब. २६९.८ ) । पट्टमित्र - ( भविष्य . ) ब्रह्मांड एवं वायु के अनुसार पुष्पमित्र के बाद के तेरह राजाओं का सामूहिक नाम । पठर्वन् -- अवियों का कृपापात्र एक राजा (ऋ. १. ११२.१७ सायणभाष्य ) | पदग्रभि एक वैदिक असुर (ऋ. १०.४९.५) 6 , 'पगृमि का शब्दशः अर्थ 'पैर को पकड़ लेनेवाला', ऐसा होता है। श्रुतवर्मन् राजा के रक्षणार्थ, इंद्र ने इसको पराजित किया था । पणव -- (सो. क्रोष्टु. ) एक राजा । वायु के अनुसार यह भजमान का पुत्र था। पणि- एक वैदिक जाति । इस जाति के लोग वैदिक ऋषियों के देवताओं की उपासना न करनेवाले लोगो में मे ये संभवतः ये कही आदिवासी अनार्थ वा दैत्य रहे होंगे। इनके राजा का नाम 'बृबु' था। (ऋ. ६.४५. ३१ - ३३; बृबु देखिये ) 6 Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पणि प्राचीन चरित्रकोश पतंजलि प्रयोग किया गया हैं (ऋ. ७.६.३)। इन्हें 'वैरदेय' | को मृत्यु के पश्चात् 'धूम्रशरीर की प्राप्ति हो गयी (जै. कह कर मनुष्यों से हीन माना गया है (ऋ. ५.६१.८)। | उ. ब्रा. ३.३०.३)। कृपण के रूप में, पणि वैदिक यज्ञकर्ताओं के विरोधी | पतंचल 'काप्य'–एक वैदिक ऋषि । अंगिरसकुल के थे (त्ररु.१.१२४.१०; ४.५१.३) । दैत्यों के रूप में आ कर कपि नामक क्षत्रिय ब्राह्मणवंश में इसका जन्म हुआ था। ये आकाश की गायों या जलों को रोक रखते थे (ऋ. यह मद्र देश में रहता था। एकबार भुज्यु लाहथायनि १.३२.११; श. बा. १३.८.२.३)। ऋग्वेद के 'सरमा नामक याज्ञवल्क्य का समकालीन ऋषि, घूमते घूमते पणि संवाद ' में ऐसी ही एक कथा दी गयी हैं (ऋ. १० इसके घर आया । वहाँ उसकी मुलाकात पतंजल की कन्या १०८) । पाणया ने इंद्र की गायों का हरण किया। फिर से हो गयी। उस कन्या के शरीर में सुधन्वन अंगिरस बंद के दत बन कर, सरमा पणियों के पास आयी, एवं | नामक एक गंधर्व वास करता था। सुधन्वन् का कृपा से इंद्र की गायें लौटाने की धमकी उसने इन्हें दे दी। वही भुज्यु को विशेष ज्ञान की प्राप्ति हो गयी। इसी ज्ञान 'सरमा-पणि-संवाद' है। विषयक प्रश्न, 'याज्ञवल्क्य-भुज्यु संवाद' में भुज्यु पणियों का वध कर के देवों ने उन्हें पराजित किया ने याज्ञवल्क्य से पूछे (बृ. उ. ३.३.१; ७.१)। किंतु था। फिर पणियों की सारी संपत्ति कब्जे में ले कर, देवों | अंत में याज्ञवल्क्य ने उसे पराजित किया । ने उसे अंगिरसों को दे दी (ऋ. १.८३.४)। अथर्वन् पतंजलि-संस्कृत भाषा का सुविख्यात व्याकरणकार अंगिरस इंद्र का गुरु था, एवं उसने अनि उत्पन्न कर, पणन वाध्यायी व्याकरण उसे हवि अर्पण किया था। इस पुण्य के कारण, देवों ने | | प्रामाणिक व्याख्याकार । संस्कृत व्याकरणशास्त्र के बृहद अंगिरसों पर कृपा की। नियमों एवं भाषाशास्त्र के गंभीर विचारों के निर्माता के लुडविग के अनुसार, 'पणि' लोग आदिवासी | नाते पाणिनि, व्याडि, कात्यायन, एवं पतंजलि इन व्यवसायी थे एवं काफिलों में चलते थे (लुडविग-ऋग्वेद चार आचार्यों के नाम आदर से स्मरण किये जाते है। अनुवाद ३.२१३-२१५)। हिलेब्रान्ट के अनुसार ये | उनमें से पाणिनी का काल ५०० खि पू. हो कर, शेष लोग इराण में रहनेवाले थे, एवं स्ट्राबो के 'पर्नियन', | वैय्याकरण मौर्य युग के (४०० खि. प.-२०० ई. पू.) टॉलेमी के 'पारूपेताइ,' अर्रियन के 'बारसायन्टेस' से माने जाते है। समीकृत थे (हिलेवान्ट-वेदिशे माइथोलोजी १.८३)। | वैदिकयुगीन साहित्यिक भाषा ('छंदस्' या 'नैगम') दिवोदास राजा के साथ हुए पणियो के युद्ध का संबंध भी एवं प्रचलित लोकभाषा ('लौकिक') में पर्याप्त अंतर हिलेब्रान्ट ने इराण से ही लगाया है। किंतु दिवोदास एवं था। 'देववाक्' या 'देववाणी' नाम से प्रचलित पणियों का यह स्थानान्तर असंभाव्य प्रतीत होता है। साहित्यिक संस्कृत भाषा को लौकिक श्रेणी में लाने का युग प्रवर्तक कार्य आचार्य पाणिनि ने किया । पाणिनीय व्याकरण २. पाताल का एक असुर (भा. ५.२४.३०)। | के अद्वितीय व्याख्याता के नाते, पाणिनि की महान् ख्याति पण्डक-धर्मसावर्णि मन्वंतर के मनु का पुत्र ।। को आगे बढ़ाने का दुष्कर कार्य पतंजलि ने किया। पण्डित--एक विद्वान व्यक्ति के अर्थ से प्रयुक्त व्याकरणशास्त्र के विषयक नये उपलब्धियों के स्रष्टा, एवं नये सामान्य नाम (बृ. उ. ३.४.१; छां. उ. ६.१४.२)। उपादनों का जन्मदाता पतंजलि एक ऐसा मेधावी वैय्याकरण २. (सो. कुरु.) धृतराष्ट्र के सौ पुत्रों में से एक। था कि, जिसके कारण ब्रह्माजी से ले कर पाणिनि तक की भीमसेन ने इसका वध किया (म. भी. ८४.२४; पाठमेद संस्कृत व्याकरणपरंपरा अनेक विचार वीथियों में फैल कर, पण्डितक)। चरमोन्नत अवस्था में पहुँची। पतंग प्राजापत्य-एक सूक्तद्रष्टा (ऋ. १०. पतंजलि पाणिनीय व्याकरण का केवल व्याख्याता ही १७७)। यह प्रजापति के वंश में उप्तन्न हुआ था। न हो कर, स्वयं एक महान् मनस्वी विचारक भी था। इसलिये इससे 'प्राजापत्य' उपाधि प्राप्त हुी थी। इसकी उँची सूझ एवं मौलिक विचार इसके 'व्याकरण __ ऋग्वेद के उस सूक्त की रचना इसने की है, जिसमें | महाभाष्य' में अनेक स्थानों पर दिखाई देते हैं । इसीलिये 'पतंग' का अर्थ 'सूर्य पक्षी' है (ऋ. १०.१७७.१)। | इसको स्वतंत्र विचारक की कोटि में खड़ा करते हैं । अपने इसने प्रणयन किये साम के कारण, ' उचैःश्रवस् कौपेय' निर्भीक विचार एवं असामान्य प्रतिभा के कारण, इसने ३८२ Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पतंजलि प्राचीन चरित्रकोश पतंजलि कों एवं कोशा गोणिकापुत्र पतंजलि पाणिनीय व्याकरण की महत्ता बढ़ायी, एवं 'वैयाकरण | रचना की। आखिर 'विष्णुमाया' के योग से, यह पाणिनि' को 'भगवान् पाणिनि' के उँची स्तर तक पहुँचा | चिरंजीव बन गया ( भवि. प्रति. २.३५)। दिया। ___व्याकरणमहाभाष्य-पाणिनि का 'अष्टाध्यायी' का नामांतर-प्राचीन ग्रंथों एवं कोशों में. पतंजलि के | Jथ लोगों को समझने के लिये कठिन मालूम पड़ता था। निम्नलिखित नामांतर मिलते है :-- गोनीय, गोणिकापुत्र इस लिये अपने 'व्याकरणमहाभाष्य' की रचना नागनाथ, अहिपति, फणिभृत् , फणिपति, चूर्णिकाकार, | पतंजलि ने की। पदकार, शेष, वासुकि, भोगींद्र (विश्वप्रकाशकोश १.१६; ___पाणिनि के 'अष्टाध्यायी' में आठ अध्याय एवं १९; महाभाष्यप्रदीप. ४.२.९२; अभिधान. पृ. १०१)। प्रत्येक अध्याय में चार पाद हैं । इस तरह कुल ३२ पादों में 'अष्टाध्यायी' ग्रंथ का विभाजन कर दिया गया है। इन नामों में से, ‘गोनीय' संभवतः इसका देशनाम पतंजलि के महाभाष्य की रचना 'आह्निकात्मक' है । था, एवं 'गोणिका पुत्र' इसका मातृकनाम था । उत्तर प्रदेश इस ग्रंथ में कुल ८५ आह्निक है। 'आह्निक' का के गोंडा जिला को प्राचीन गोनद देश कहा गया है। शब्दशः अर्थ 'एक दिन में दिया गया व्याख्यान' कल्हणकृत 'राजतरंगिणी' में, गोनद नाम से काश्मीर है। हर एक आह्निक को स्वतंत्र नाम दिया है। उन में के तीन राजाओं का निर्देश किया गया है। 'गोनर्दीय' से प्रमुख आह्निकों के नाम इस प्रकार है :- १. पस्पशा उपाधि के कारण, पतंजलि कश्मीर या उत्तर प्रदेश का रहनेवाला प्रतीत होता है। 'चूर्णिकाकार' एवं (प्रस्ताव), २. प्रत्याहार (शिवसूत्र-अइउण् आदि), 'पदकार' इन नामों का निर्वचन नहीं मिलता। ३. गुणवृद्धि संज्ञा, ४. संयोगादि संज्ञा, ५. प्रगृह्यादि संज्ञा, पतंजलि के बाकी सारे नामांतर कि वह भगवान शेष ६. सर्वनामाव्ययादि संज्ञा, ७. आगमादेशादिव्यवस्था, का अवतार था, इसी एक ही कल्पना पर आधारित है।। ८. स्थानिवद्भाव, ९. परिभाषा। शेष, वासुकि, फणिपति आदि पतंजलि के बाकी सारे पाणिनि के 'अष्ठाध्यायी' पर सर्वप्रथम कात्यायन ने नाम इसी एक कल्पना को दोहराते है। 'वार्तिकों' की रचना की। उन 'वार्तिकों' को उपर पतंजलि ने दिये व्याख्यान 'महाभाष्य' नाम से प्रसिद्ध ___ काल-पतंजलि की 'व्याकरण महाभाष्य' में पुष्य- | | है। पाणिनि-सूत्र एवं वार्तिकों में जो व्याकरणविषयक मित्र एवं चंद्रगुप्त राजाओं की सभाओं का निर्देश प्राप्त है | भाग है उसका स्पष्टीकरण महाभाष्य में तो है ही, किन्तु (महा. १.१.६८)। मिनन्डर नामक यवनों के द्वारा उसके साथ, जिन व्याकरणविषयक सिद्धान्त उन में रह साकेत नगर घेरे जाने का निर्देश भी, 'अरुद्यवनः गये है, उनको महाभाष्य में पूरा किया गया है। उसके साकेतम्' इस रूप में, किया गया है। पुष्यमित्र राजा | साथ, पूर्वग्रंथों में जो भाग अनावश्यक एवं अप्रस्तुत है, का यज्ञ संप्रति चालू है ('पुष्यमित्रं याजयामः') इस यह पतंजलि ने निकाल दिया है । उसी कारण, पतंजलि वर्तमानकालीन क्रियारूप के निर्देश से पतंजलि उस के ग्रंथ को महाभाष्य कहा गया है। अन्य भाष्यग्रंथों में राजा का समकालीन प्रमाणित होता है। इसी के कारण, ", | मूलग्रंथ का स्पष्टीकरण मात्र मिलता है, किन्तु पतंजलि के डॉ. रा. गो. भांडारकर, डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल, महाभाष्य में मूलग्रंथ की अपूर्णता पूरित की गयी है। डॉ. प्रभातचंद्र चक्रवर्ति प्रभृति विद्वानों का अभिमत इसी कारण पाणि नि, कात्यायन एवं पतंजलि के है कि, पतंजलि का काल १५० खि. पू. के लगभग था। व्याकरणविषयक ग्रंथों में पतंजलि का महाभाष्य ग्रंथ जीवनचरित्र-पतंजलि का जीवनचरित्र कई पुराणों | सर्वाधिक प्रमाण माना जाता है। अन्य शास्त्रों में सर्वाधिक में प्राप्त है । भविष्य के अनुसार, यह बुद्धिमान् ब्राह्मण | पूर्वकालीन ('पूर्व पूर्व' ) आचार्य का मत प्रमाण माना एवं उपाध्याय था। यह सारे शास्त्रों में पारंगत था, फिर | जाता है। किन्तु व्याकरण शास्त्र में पतंजलि ने की हुई भी इसे कात्यायन ने काशी में पराजित किया। प्रथम यह | महत्त्वपूर्ण ग्रंथ की रचना के कारण, सर्वाधिक उत्तरविष्णुभक्त था। किंतु बाद में इसने देवी की उपासना की, | कालीन आचार्य (पतंजलि) का मत प्रमाण माना जाता जिसके फलस्वरूप, आगे चल कर, इसने कात्यायन को | हैं। 'यथोत्तरं मुनीनां प्रामाण्यम्' इस आधेनियम वादचर्चा में पराजित किया। इसने 'कृष्णमंत्र' का काफी | व्याकरण-शास्त्र में प्रस्थापित करने का सारा श्रेय पतंजलि प्रचार किया। इसने 'व्याकरणभाष्य' नामक ग्रंथ की | को ही है। ३८३ Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पतंजलि प्राचीन चरित्रकोश पतंजलि व्याकरण जैसे क्लिष्ट एवं शुष्क विषय को पतंजलि ने | | व्याख्याएँ पतंजलि के पहले लिखी जा चुकी थी। इसी अपने महाभाष्य में अत्यंत सरल, सरस, एवं हृदयंगम ढंग | प्रकार भारद्वाज, सौनाग आदि के वार्तिकपाठों पर भी से प्रस्तुत किया है। भाषा की सरलता, प्रांजलता, स्वाभा- अनेक भाष्य लिखे गये थे (महा. १.३.३ ३.४.६७; विकता एवं विषयप्रतिपादन शैली की दृष्टि से इसका | ६.३.६१ )। महाभाष्य, समस्त संस्कृत वाङ्मय म आदशभूत है । इस पतंजलि के महाभाष्य में निम्नलिखित वैयाकरणों के ग्रंथ में तत्कालीन राजकीय, सामाजिक, आर्थिक एवं | एवं पूर्वाचार्यों के मत उधृत किये गये है-- भौगोलिक परिस्थिति की यथातथ्य जानकारी मिलती है। १. गोनीय (महा. १. २. २१, २९, ३.१.९२)-- भगवान पाणिनि के जीवन पर भी महाभाष्य में काफी कैयट, राजशेखर, एवं वैजयन्ती कोश के अनुसार, यह महत्त्वपूर्ण जानकारी मिलती है। स्वयं पतंजलि का ही नाम है । शुद्ध उच्चारण का महत्व--कृष्ण यजुर्वेद के अनुयायी, | । २. गोणिकापुत्र (महा. १.४.५१)-वात्स्यायन के कठ लोगों का पाठ, पतंजलि के काल में परम शुद्ध माना कामसूत्रों में भी, इस आचार्य का निर्देश है ( काम. जाता था। उनके बारे में पतंजलि ने कहा है, 'प्रत्येक नगर में कठ लोगों के द्वारा निर्धारित पाठ का प्रचलन ३. सौर्यभगवत् (महा. ८. २. १०६)-कैयट के है। उनका 'काठकधर्मसूत्र' नामक धर्मशास्त्रग्रंथ बहुत अनुसार, यह सौर्य नगर का रहिवासी था (महाभाष्य प्रसिद्ध है, एवं 'विष्णुस्मृति' उसी के आधार पर बनी प्रदीप. ८.२.१०६; काशिका. २.४.७)। है। आर्य साहित्य में जब तक उपनिषदों का महत्त्व रहेगा तब तक कठ लोगों का नाम भी बराबर बना रहेगा (महा. ४. कुणरवाडव (महा. ३.२.१४, ७.३.१)। | टीकाकार--पतंजलि के महाभाष्य पर निम्नलिखित ४.३.१०१)। टीकाकारों की टीकाएँ लिखी जा चुकी थी। उनमें से कुछ. _ 'पाणिनि-शिक्षा की तरह, पतंजलि ने भी वेदपाठ के | टीकाएँ नष्ट हो चुकी हैं-- शुद्धोच्चारण, शुद्ध स्वरक्रिया एवं विधिपूर्वक संपन्न किये १. भर्तृहरि--महाभाष्य की उपलब्ध टीकाओं में 'याग' पर बड़ा जोर दिया है। इसका कहना है, अच्छा जाना हुआ, एवं अच्छी विधि से प्रयोग किया हुआ एक सर्वाधिक प्राचीन एवं प्रामाणिक टीका भर्तृहरि की है। ही शब्द, स्वर्ग तथा मृत्यु दोनों लोकों की कामना पूर्ण करता इसने लिखे हुए टीकाग्रंथ का नाम 'महाभाष्यदीपिका' था। मीमांसकजी के अनुसार, भर्तृहरि का काल ४५० है (एकः शब्दः सम्यग् ज्ञातः सुष्ठ प्रयुक्तः स्वर्ग लोके च कामधुग् भवति)। वि. पू. था। पतंजलि के महाभाष्य में 'काठक', 'कालापक', २. कैयट-महाभाष्य पर कैयट ने लिखे हुए 'मौदक', 'पैप्पलाद' एवं 'आथर्वण' नामक प्राचीन टीकाग्रंथ का नाम 'महाभाष्य प्रदीप' था। कैयट स्वयं धर्मसूत्रों का निर्देश किया है। ये सभी धर्मसूत्र संप्रति कश्मीरी था, एवं उसका काल ११०० माना जाता है । अनुपलब्ध है। किन्तु इन विलुप्त धर्मसूत्रों का काल । ३. मैत्रेयरक्षित (१२ वीं शती)-टीका का नाम७०० खिस्त. पू. माना जाता है। भारतीय युद्ध का | 'धातुप्रदीप' । निर्देश पतंजलि ने अपने 'महाभाष्य' में दिया है। ४. पुरुषोत्तमदेव (१२ वीं शती वि.)- टीका का 'कंसवध' एवं 'बलिबंध' नामक दो नाटक कृतियों का | नाम-'प्राणपणित'। निर्देश भी 'महाभाष्य' में दिया गया है। 'वासवदत्ता', ५. शेषनारायण (१६ वीं शती)-टींका का नाम'सुमनोत्तरा', 'भैमरथी', आदि आख्यायिकाएँ | 'मुक्तिरत्नाकर'। पतंजलि को ज्ञात थी एवं उनमें अपने हाथ से यह काफी । ६. विष्णुमित्र (१६ वीं शती )-टीका का नामउलट-पुलट चुका था (महा. ४.३.८७) । पाटलिपुत्रादि | 'महाभाष्य टिप्पण'। नगरों का निर्देश भी महाभाष्य में अनेक बार आया है।। ७. नीलकंठ (१७ वी शती )-टीका का नाम पूर्वीचार्य---पाणिनि के अष्टाध्यायी पर लिखे गये | 'भाषातत्त्वविवेक'। अनेक वार्तिक भाष्यों का निर्देश, पतंजलि ने 'महाभाष्य' ८. शिवरामेंद्र सरस्वती ( १७ वीं शती वि.)-टीका में किया है। अकेले कात्यायन के पाट पर तीन | का नाम-'महाभाष्यरत्नाकर'। .. Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पतंजलि प्राचीन चरित्रकोश पतंजलि ८. शेषविष्णु (१७ वीं शती )-टीका का नाम- | आषाढवर्मा के 'परिहारवार्तिक' एवं रामचंद्र दीक्षित महाभाष्यप्रका शिका'। के 'पतंजलि चरित' में पतंजलि के इस ग्रंथ का निर्देश १७ वीं शताब्दी में तंजोर के शहाजी राजा के | है ('वैद्यकशास्त्रे वार्तिकानि च ततः')। पतंजलिरचित आश्रित 'रामभद्र' नामक कवि ने पतंजलि के जीवन | 'वातस्कंध-पैत्तस्कंधोपेत-सिद्धांतसारावलि' नामक और पर 'पतंजलि चरित' नामक एक काव्य लिखा था। एक वैद्यकशास्त्रीय ग्रंथ लंदन के इंडिया ऑफिस लायब्रेरी महाभाष्य का पुनरुद्धार-इतिहास से विदित होता | में उपलब्ध है। है कि, महाभाष्य का लोप कम से कम तीन बार अवश्य आयुर्वेदाचार्य पतंजलि के द्वारा कनिष्क राजा की कन्या हुआ है। भर्तृहरि के लेख से विदित होता है कि बैजि, को रोगमुक्त करने का निर्देश प्राप्त है। इससे इसका काल सौभव, हर्यक्ष आदि शुष्क तार्किकों ने महाभाष्य का प्रचार | २०० ई०, माना जाता है। नष्ट कर दिया था। चन्द्राचार्य ने महान् परिश्रम कर के | पतंजलि ने 'रसशास्त्र' पर भी एक ग्रंथ लिखा था, दक्षिण से किसी पार्वत्य प्रदेश से एक हस्तलेख प्राप्त कर ऐसा कई लोग मानते है। किंतु रसतंत्र का प्रचार छठी के उसका पुनः प्रचार किया। शताब्दी के पश्चात् होने के कारण, वह पतंजलि एवं चरककरण की 'सजतरंगिणी' से ज्ञात होता है कि विक्रम | संहिता पर भाष्य लिखनेवाले पतंजलि एक ही थे, ऐसा की ८ वीं शती में महाभाष्य का प्रचार पुनः नष्ट हो गया निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता। था। कश्मीर के महाराज जयापीड ने देशान्तर से 'क्षीर' । ३. 'पातंजलयोगसूत्र' (या सांख्यप्रवचन) नामक • संज्ञक शब्दविद्योपाध्याय को बुला कर विच्छिन्न महाभाष्य | सुविख्यात योगशास्त्रीय ग्रंथ का कर्ता । कई विद्वानों ने - का पुनः प्रचार कराया। 'पातंजल योगसूत्रों' को षड्-दर्शनों में सर्वाधिक प्राचीन विक्रम की १८ वीं तथा १९वीं शती में सिद्धांतकौमुदी बताया है, एवं यह अभिमत व्यक्त किया है कि, उसकी तथा लघुशब्देंदुशेखर आदि अर्वाचीन ग्रंथों के अत्यधिक | रचना बौद्धयुग से पहले लगभग ७०० ई. पू. में हो चुकी प्रचार के कारण, महाभाष्य का पठन प्रायः लुप्तसा हो गया | थी ('पतंजलि योगदर्शन' की भूमिका पृ. २)। था। स्वामी विरजानंद तथा उनके शिष्य स्वामी दयानंद | किंतु डॉ. राधाकृष्णन् आदि आधुनिक तत्वाज्ञों के अनुसार सरस्वती ने महाभाष्य का उद्धार किया, तथा उसे पूर्वस्थान 'योगसूत्र' का काल लगभग ३०० ई. है ('इंडियन प्राप्त कराया। फिलॉसफी २.३४१-३४२)। उस ग्रंथ पर लिखे गये 'महाभाष्य' के उपलब्ध मुद्रित आवृत्तियों में, डॉ. प्राचीनतम बादरायण, भाष्य की रचना व्यास ने की थी फ्रॉन्झ कीलहॉर्नद्वारा १८८९ ई. स. में संपादित उस भाष्य की भाषा अन्य बौद्ध ग्रंथों की तरह है, एवं . त्रिखण्डात्मक आवृत्ति सर्वोत्कृष्ट है। उसमें वार्तिकादिकों उसमें न्याय आदि दर्शनों के मतों का उल्लेख किया गया है । ___का निर्णय बहुत ही शास्त्रीय पद्धति से किया गया है।। 'योगसूत्रों' पर लिखे गये 'व्यासभाष्य' का निर्देश 'महाभाष्य' में उपलब्ध शब्दों की सूचि म. म. 'वात्स्यायनभाष्य' में एवं कनिष्क के समकालीन भदन्त श्रीधरशास्त्री पाठक, एवं म. म. सिद्धेश्वरशास्त्री चित्राव | धर्मत्रात के ग्रंथों में उपलब्ध है। इन ग्रंथकारों ने तयार की है, एवं पूना के भांडारकर | योगसूत्र परिचय–विभिन्न प्राचीन ग्रंथों में विखरे इन्स्टिटयूट ने उसे प्रसिद्ध किया है। | हुए योगसंधी विचारों का संग्रह कर, एवं उनको अपनी ये सारे ग्रथ महाभाष्य की महत्ता को प्रष्ट करते है। प्रतिभा से संयोज कर, पतंजलि ने अपने 'योगसूत्र' ग्रंथ . अन्य ग्रंथ-व्याकरण के अतिरिक्त, सांख्य, न्याय, की रचना की।' योगदर्शन' के विषय पर, 'योगसूत्रों, काव्य आदि विषयों पर पतंजलि का प्रभुत्त्व था।| जसा तकसमत, गभार ए जैसा तर्कसंमत, गंभीर एवं सर्वांगीण ग्रंथ संसार में दूसरा 'व्याकरण महाभाष्य' के अतिरिक्त पतंजलि के नाम पर नहीं है । उस ग्रंथ की युक्तिशृंखला एवं प्रांजल दृष्टिकोण निम्नलिखित ग्रंथ उपलब्ध है:- (१) सांख्यप्रवचन, अतुलनीय है, एवं प्राचीन भारत की दार्शनिक श्रेष्ठता सिद्ध (२) छंदोविचिति, (३) सामवेदीय निदान सूत्र (C.C.) करता है। २. 'चरक संहिता' नामक आयुर्वेदीय ग्रंथ का प्रति- 'पातंजल योगसूत्र' ग्रंथ समाधि, साधन, विभूति एवं संस्करण करनेवाला आयुर्वेदाचार्य । ' चरकसंहिता' पर कैवल्य इन चार पादों (अध्यायों) में विभक्त किया गया इसने 'पातंजलवार्तिक' नामक ग्रंथ की रचना की थी। है । उस ग्रंथ में समाविष्ट कुल सुत्रों की संख्या १९५ है। प्रा. च. ४९] ३८५ Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन चरित्रकोश पतंजलि उसका लक्षण का उद्देश्य चिन को एकाग्र करने की " चित्त समाधिपाद में योग एवं साधन वर्णन किया है। पद्धति इस 'पाद में बतायी गयी है। साधनपाद में कर्म एवं कर्मफल का वर्णन क्लेश, है इंद्रियमन कर के ज्ञानप्राप्ति कैसी की जा सकती है, उसका मार्ग इस ' पाद' में बताया गया है। विभूति पाद - में योग के अंग, उनका परिणाम, एवं ' अणिमा', 'महिमा' आदि सिद्धियों का वर्णन किया गया है। कैवल्यपाद में मोक्ष का विवेचन है। शानप्राप्ति के - बाद आत्मा कैवल्यरूप कैसे बनती है, इसकी जानकारी इस ' पाद' में दी गयी है । योग दर्शन आत्मा एवं जगत् के संबंध में सांख्यदर्शन जिन सिद्धांतो का प्रतिपादन करता है, 'योगदर्शन' भी उन्ही का समर्थक है। 'सांख्य' के अनुसार 'योग' ने भी पच्चीस तत्वों का स्वीकार किया है। किंतु 'योग दर्शन' में एक छब्बीसवाँ तत्त्व ' पुरुषविशेष ' शामिल करा दिया है, जिससे योग दर्शन सांख्यदर्शन जैसा निरीश्वरवादी बनने से बच गया है। फिर भी 'ईश्वर 'प्रणिधानाद्वा' (१.२३ ) सूत्र के आधार पर कई विद्वान पतंजलि को 'निरीश्वरवादी मानते है। 3 , ' योग सूत्रों' के सिद्धांत अद्वैती है या द्वैती, इस विषय पर विद्वानों का एकमत नहीं है 'ब्रह्मसूत्रकार व्यास एवं शंकराचार्य ने पतंजलि को द्वैतवादी समझ कर, सांख्य के साथ इसका भी खंडन किया है । 2 'योग सूप' के सिद्धांतो के अनुसार, चित्तवृत्तियों का सूत्र' निरोध ही योग है (योग १.२ ) । इन चित्तवृत्तियों का निरोध अभ्यास एवं वैराग्य से होता है (योग १.१२ १५) । पुरुषार्थविरहीत गुण जब अपने कारण में लय हो जाते है, तब ' कैवल्यप्राप्ति होती है ( योग. ४.३४ ) ! योगदर्शन का यह अंतिम सूत्र है । " पद्म 'योग-दर्शन' के अनुसार, संसार दुःखमय है । जीवात्मा को मोक्षप्राप्ति के लिये 'योग' एकमात्र ही उपाय है। 'योगदर्शन' का दूसरा नाम कर्मयोग भी है, क्यों कि साधक को वह 'मुक्तिमार्ग सुझाता है। ४.वर्ष (भारतवर्ष) के उत्तर के मध्यदेश में उत्पन्न एक आचार्य | " अविद्या अस्मिता, राग, द्वेष एवं अभिनिवेश इन पंचविध कुश से योग के द्वारा विमुक्त हो कर मोक्ष प्राप्त करना, यह 'योगदर्शन' मा उद्देश्य है। चंचल चित्तवृत्तियों को रोकने एवं योगसिद्धि के लिये, 'योगसूत्र' कार ने ग्यारह साधनों का कथन किया है। वे साधन इस प्रकार है: यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, अभ्यास, वैराग्य, ईश्वरप्रणिधान, समाधि वैराग्य, ईश्वर प्रणिधान, समाधि एवं विषय | ५. कश्यप एवं कद्रू का पुत्र, एक नाग । ६. अंगिराकुल में उत्पन्न एक गोत्रकार । - की पथ्य – विष्णु, वायु एवं भागवत के अनुसार, ज्यात अन् शिष्यपरंपरा के पांच का शिष्य (ज्यात देखिये) । कबंध ने इसे एवं देवदर्श को अध सिखाया । अथर्ववेद था। इसके तीन प्रमुख शिष्य थे जिनके नाम :जाजलि कुमुदादि, शौनक है। ७. वायु एवं ब्रह्मांड के अनुसार, व्यास की सामशिवपरंपरा के कौथुम पाराशर्य ऋषिका शिष्य (व्यास देखिये) । पतत्रि - कौरवपक्षीय योद्धा । भीमसेन ने इसको रथहीन किया था (म. क. ३२.५२ ) । पतन - एक राक्षस । यह रावण के पक्ष में था (म. व. २६९.२, भांडारकर संहिता पाठ - ' पूतन ' ) । पताकिन् -- एक सर्प । वरुण का यह उपासक था ( म. स. ९.१० ) । २. कौरवपक्षीय एक योद्धा इसे साथ ले कर भन पर आक्रमण करने का आदेश दुर्योधन ने शकुनि को दिया था (म. द्रो. १३१.८५ ) । । पत्तलक--(आंध्र. भविष्य . ) विष्णुमत में हल का पुत्र तक देखिये) पथिन् सौभरं-- एक ऋषिं । यह अयास्य आंगिरस का शिष्य एवं वत्सनपात गुरुथा (उ. २. ६.२ ४.६.२. काण्व ) । पथ्यवत्रीच्य मन्वंतर के सप्तर्पियों में से एक। पथ्या - मनु की कन्या तथा अथर्वन् आंगिरस ऋषि की पत्नी इसका पुत्र पृष्णि ( ब्रह्मांड. २.१.१०५ ) । । ! पदाति- पारिक्षित जनमेजय ( प्रथम ) राजा का सातवाँ पुत्र (म. आ. ८९.५० ) । पद्म- कश्यप एवं कद्रू के पुत्र, दो नाग। इन्हें संवर्तक और पद्मनाभ नामांतर प्राप्त वे (म. आ. २१. १० म. शां. ३६५४) । ये बहुत धार्मिक थे तथा य की सभा के समास [ ( म. स. ७८)। ये दोनों सूर्य थे । का रथ खींचने के लिये गये थे । ( म. शां. ३४५.८ ) । ૩૮૬ Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन चरित्रकोश पन्नगारि २. ऐरावत का पुत्र, एक हाथी। इसे मंद नामांतर | हुई । हरिवंश में, 'गोभिल' के बदले 'द्रुमिल' नाम भी प्राप्त था । यह ऐलविल का वाहन था ( ब्रह्मांड. ३. | दिया गया है (ह. वं. २.२८)। ७.३३१)। इसका वर्ण श्वतशुभ्र था। इसने गर्भ को नष्ट करने का बहुत प्रयत्न किया परंतु ३. माणिभद्र नामक शिवगण एवं पुण्यजनी का पुत्र । अंत में उस गर्भ ने कहा, 'कालनेमिदैत्य का विष्णु ने वध . ४. एक निधि, जो कुबेर की सभा में थी (म. स. | किया । उसका बदला लेने के लिये मैं जन्म ले रहा हूँ। परि. १, ३.३०)। | कालोपरांत यह प्रसूत हुयी तथा इसने कंस को जन्म दिया ५. स्कंद का एक सैनिक ( म. श. ४४.५२)। (पद्म. सु. ४८-५१)। ६. एक राजा, जो यमसभा में रह कर सूर्यपुत्र यम की। २. प्रणिधी नामक एक श्रीमान् वैश्य की स्त्री। एक उपासना करता था (म. स.) | बार इसका पति व्यापार करने दूसरे ग्राम चला गया था । पद्मकेतन-गरुड़ का पुत्र। . यह स्नान कर रह थी। फिर धनुर्ध्वज नामक अंत्यज ने पद्मगंधा-पूर्व जन्म में यह क्रौंची थी। इसकी | इसे देखा । पाप वासना मे जागृत हो कर वह इसके बारे हड्डियाँ गंगा में गिरने के कारण, यह इंद्र की प्रिया दासी में पूछताछ करने लगा। इसकी सखियों द्वारा काफी बनी (जयंत ११ देखिये)। . निषेध किये जाने पर भी वह न माना। फिर उसकी पद्मचित्र-कद्रु-पुत्र नाग। मज़ाक उड़ाने के हेतु उन्होंने कहा, 'गंगा यमुना संगम पद्मनाभ-एक ब्राह्मण | एक राक्षस इसे भक्षण में अगर प्राण दोगे, तो पद्मावती की प्राप्ति तुम्हे करने के लिये आया, तब विष्णु ने अपने चक्र से इसकी | होगी। रक्षा की । इसी. कारण उस जगह पर चक्रतीर्थ उत्पन्न | फिर गंगा के संगम में जा कर सचमुच ही उसने प्राण दे हुआ ( स्कंद २.१.२३)। . दिये । तत्काल उसका रूप पद्मावती के पति प्राणिधी वैश्य २. कश्यप एवं कद्रु का पुत्र, एक नाग । यह के समान बन गया। बाद में सच्चा प्रणिधी तथा धनुर्ध्वज नैमिषारण्य में गोमती नदी के तट पर 'नागपूर ' नगर दोनों पद्मावती के घर पहुँच गये। फिर अपना वास्तव में रहता था (म. शां)। यह आत्मज्ञानी था। एक | पति कौन है ? इसके बारे में पद्मावती के मन में संदेह ब्राह्मण के पूछने पर इसने उसे सूर्यमंडल की कथा सुनायी उत्पन्न हो गया । पश्चात् , श्री विष्णु ने स्वयं प्रकट हो कर, . थी। इसके शिष्य का नाम धर्मारण्य था। इसे दोनों के साथ पत्नी के रूप में रहने के लिये कहा, - ३. (सो. कुरु.) धृतराष्ट्र के सौ पुत्रों में से एक । किंतु भूमंडल पर यह निषिद्ध है, ऐसा इसके द्वारा कहे ४. मणिवर नामक शिवगण, एवं देवजनी का पुत्र । जाने पर, श्री विष्णु उन तीनों को वैकुंठ ले गये (पन. पद्ममित्र--(किलकिला. भविष्य.) विष्णु के अनुसार एक राजा। ३. शृगाल वासुदेव देखिये। पद्मवर्ण---मणिवर नामक शिवगण और देवजनी पद्मिनी-श्रीनिवास देखिये। का पुत्र । पनस-राम की सेना का एक वानर । इसका पटुशों पद्महस्त--राजा नल का अमात्य ( गणेश. १.५२. से युद्ध हुआ था (म. व. २६७.६; २६९.९)। राम बिभीषण से मिलने के लिये लंका जा रहा था । राह में पद्माकर-बिंदुगढ़ के राजा शारदानंद (कामपाल) वह किकिधा नगरी के पास ठहरा । तब यह उत्सुकताका पुत्र (भवि. प्रति. ३.२५)। पूर्वक उसके दर्शन करने आया था (पद्म. सु. ३८)। पद्माक्ष-राजा चंद्रहास का कनिष्ठ पुत्र । २. बिभीषण के अमात्यों में से एक। २. सीता देखिये। पन्नग-ऋग्वेदी श्रुतर्षि । पद्मावती-विदर्भनृप सत्यकेतु की कन्या, एवं मायुर पन्नगारि-व्यास की ऋक् शष्य परंपरा के वायु तथा देश के मथुरा नगर के उग्रसेन राजा की स्त्री। इस दम्पति | ब्रह्मांड मत में बाष्कली भरद्वाज का शिष्य । का एक दूसरे पर अतीव प्रेम था। एक बार यह नैहर गयी | २. वसिष्ठ कुल का एक गोत्रकार | पांगारि इसका थी। वहां गोभिल नामक कुबेर के एक दूत से गर्भवती | पाठभेद है। ३८७ Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पयस्य पयस्य ' वारुण' - एक महर्षि । अंगिरस् के वारुण संशक आठ पुत्रों में से एक (म. अनु. ८५,२०) | पयोदः - विश्वामित्र कुलोत्पन्न गोत्रकार ऋषिगण । पयोदा – स्कंद की अनुचरी मातृका ( म. श. ४४. ५२) । पर विश्वामित्र का पुत्र । प्राचीन चरित्रकोश २. (सो. पूरु. ) वायु के अनुसार समर राजा का पुत्र । पर आदणार (सो. आयु ) एक वैदिक महाराजा यह 'अणार' का वंशज था, इसलिये इसे ' पर आदार नाम प्राप्त हुआ था। कई ग्रंथों में इसे 'हिरण्यनाभ कौसल्य' कहा गया है (सां. ओ. १३ . श. मा. १३.५.४.४; हिरण्यनाभ कौसल्य देखिये) । संभवतः यह कोसल देश के हिरण्यनाम राजा का वंशज था । , -- एक विशेष यश करने के बाद इसे पुत्र की प्राप्ति हुयी थी . . ५.६.५.२.२२.३ पं. बा. २५ १६.३; जै. उ. ब्रा. २.६.११ ) । सांख्यायन श्रौतसूत्र में इसे ' पर आहार वैदेह' कहा गया हैं, जिससे कोसल एवं विदेह देश के घनिष्ट संबंध प्रतीत होते है ( सो श्री. १३.९.११) । परंजय - (सू. इ. ) विष्णु मत में विकुक्षित पुत्र का नामांतर है। भागवत मत में पुरंजय इसका नामांतर है । परण्यस्त - अंगिराकुल के गोत्रकार ऋषिगण । परंप- सामस मनु के दस पुत्रों में से एक। परपक्ष -- (सो. अनु. ) एक राजा । वायु के अनुसार यह अनु का पुत्र था। इस के परमेक्ष, परमेषु परोक्षप तथा पराक्ष नामांतर थे। परम - वसिष्ठ कुल का गोत्रकार । परमक्रोधिन्– एक विश्वेदेव (म. अनु. २१.३२ ) परमेक्ष - (सो. अनु. ) विष्णु के अनुसार अनुपुत्र परपक्ष राजा का नामांतर ( परपक्ष देखिये ) परमेषु – (सो. अनु. ) मस्त्य के अनुसार अनुपुत्र परपक्ष राजा का नामांतर ( परपक्ष देखिये) । परमेष्ठिन – एक वैदिक सूक्तद्रष्टा ( प्रजापति देखिये )। यह ब्रह्मा का शिष्य था । इसका शिष्य सनग (बृ. उ. २. ६.२; ४.६.३ ) । ‘जैमिनि ब्राह्मण के अनुसार यह प्रजापति का शिष्य था (जै. उ. बा. ३.४०.२; नारद देखिये) । परशुराम २. (स्वा. प्रिय. ) एक राजा । भागवत के अनुसार देवचुम्न का तथा विष्णु के अनुसार इंद्रन राजा का धेनुमती से उत्पन्न पुत्र । इसे सुवर्चला नामक स्त्री से प्रतीह नामक पुत्र हुआ ( भा. ५.१५.३ ) । ३. (सो.) एक राजा । भविष्य के अनुसार यह आत्मपूजक राजा का पुत्र था। इसने २७०० वर्षों तक राज्य किया। ४. (सो. अज.) पांचाल देश का एक राजा । यह अजमीढ राजा को नीली से उत्पन्न हुआ था। यह एवं उसका भाई दुष्यंत के सारे पुत्रों को ‘पांचाल ' कहते थे (म. आ. ८९.२८)। परवीराक्ष -- खर राक्षस के १२ अमात्यों में से एक । परशु उत्तम मनु का पुत्र । २. एक राक्षस । यह शाकल्य को खाने आया था, तब विष्णु की कृपा से मुक्त हुआ (ब्रह्म. १६२ ) । परशुचि- उत्तम मनु का पुत्र । । परशुबाहु - वियत्र पुत्र प्रसादन] राजा का नामांतर काशी क्षेत्र में धुंडीराजा ने अपने हाथ का परशु इसे दिया तथा यह नाम रखा (गणेश. २.४९५६ देखिये) । परशुराम जामदम्य महर्षि जमदनिका महान पराक्रमी पुत्र, जिसने इक्कीस बार क्षत्रियों का संहार किया था । भृगुवंश में पैदा होने के कारण, जमदग्नि एवं परशुराम 'भार्गव' पैतृक नाम से ख्यातनाम थे । भार्गव वंश के ब्राह्मण पश्चिम भारत पर राज्य करने वाले हैहय राजाओं के कुलगुरु थे । भार्गववंश के ब्राह्मण आनर्त (गुजरात) देश के रहनेवाले थे । पश्चात् हैहय राजाओं से भार्गवों का झगड़ा हो गया एवं वे उत्तरभारत के कान्यकुब्ज देश में रहने गये । फिर भी, बारह पीढ़ियों तक हैहय एवं भार्गव का वैर चलता रहा। इसीलिये प्राचीन इतिहास में २५५० ई. पू. २३५० ई.पू. तक वह काल 'भार्गव - हैहय' नाम से पहचाना जाता है । हैहय एवं भार्गवों के पैर की चरम सीमा पराराम अमय के काल में पहुँच गयी, एवं परशुराम ने हैहयों का और संबंधित क्षत्रियों का इक्कीस बार संहार किया । इसी कारण ब्राह्मतेज की मूर्तिमंत एवं ज्वलंत प्रतिमा बन कर परशुराम इस विशिष्ट काल के इतिहास में अमर हो गया है । Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परशुराम 'राम भागवेय' नामक एक वैदिक ऋषि का नाम एक सूक्तद्रष्टा । सूक्ता के रूप में आया है (ऋ. १०.११० ) । 'सर्वांनु क्रमणी' के अनुसार यही परशुराम है । 'राम भार्गवेय' श्यापर्ण लोगों का पुरोहित था राम भार्गवेय एवं । परशुराम एक ही थे यह निश्चित रूप से नहीं कहा जा प्राचीन चरित्रकोश सकता । हैहय राजा कार्तवीर्य एवं परशुराम के युद्ध का निर्देश अथर्ववेद में संक्षिप्त रूप में आया है (अ. वे. ५.१८०१०) अथर्ववेद के अनुसार, कार्तवीर्य राजा ने ममि ऋषि जमदग्नि की धेनु हठात् से जाने का प्रयत्न किया। इसीलिये परशुभम द्वारा कार्तवीर्य एवं उसके वंश का पराभव हुआ। परशुराम महर्षि जमदग्नि के पाँच पुत्रों में से कनिष्ठ पुत्र था। इसकी माता का नाम 'कामली रेणुका' था जो इक्ष्वाकु वंश के राजा की पुत्री थी। परशुराम धनुर्विद्या मैं ही नहीं, बल्कि अन्य सभी अस्त्र-शस्त्र सम्बन्धी विद्याओं । प्रवीण था (ब्रह्म. १०) । यह विष्णु का अवतार था (पद्म, उ. २४८ मरस्य ४७.२४४ वायु. ९९.८८९ २६.९०)) इसका जन्म वैशाख शुक्ल तृतीया को हुआ था (रेणु. १४) । यह १९ वें त्रेतायुग में उत्पन्न हुआ था (दे. भा. ४.१६ ) । त्रेता तथा द्वापर युगों के संधिकाल में परशुराम का अवतार हुआ था (म. आ. २:३) । शिक्षा -- उपनयन के उपरांत यह शाख्याम पर्वत पर गया । वहाँ कश्यप ने इसे मंत्रोपदेश दिया ( पद्म. ३. २४१ ) । इसके अतिरिक्त इसने शहर को प्रसन्न कर धनुर्वेद, शस्त्रास्त्रविद्या एवं मंत्र प्रयोगादि का ज्ञान प्राप्त किया (रेणु, १५. ३.२२-५६-६० ) । शिष्य तपस्या से वापस आते समय राह में शालग्राम शिखर पर शान्ता के पुत्र को लकड़बग्घे से मुक्त करा कर यह उसे अपने साथ ले आया । वही आगे चल कर, अकृतत्रण नाम से परशुराम का शिष्य प्रसिद्ध हुआ । आश्रम - जमदग्नि का आश्रम नर्मदा के तट पर था (ब्रह्मांड. ३.२३.२६ ) । परशुराम का आश्रम भी वही था। - परशुराम भजेय हो, तथा स्वेच्छा पर ही मृत्यु को प्राप्त हो सकते हो ( विष्णुधर्म. १,३६.११ ) | अविद्या- परशराम को निम्नलिखित भन्छ-त्रों की जानकारी प्राप्त थी: 3 १ ब्रह्मास्त्र, २ वैष्णव, ३ रौद्र, ४ आग्नेय, ५ वासव, ६ नैर्ऋत, ७ याम्य, ८ कौबेर, ९ वारुण, १० वायव्य, ११ सीम्य १२ सौर, १२ पार्वत, १४ चन, १५ बज्र, चक्र, १६ पाश, १७ सर्व १८ गांधर्व, १९ स्वापन, २० भीत २१ पाशुप्त २२ ऐशीक, २३ सर्जन, २४ प्रास २५ भारुड, २६ नर्तन, २७ अस्त्ररोधन, २८ आदित्य, २९ रेवत, २० मानय ३१ अक्षिवर्जन, १२ भीम, ३३ जृम्भण, ३४ रोधन, २५ सौपर्ण, २६ पर्जन्य, २० राक्षस, २८ मोहन, ३९ कालाख, ४० दानवास्त्र, ४१ ब्रह्मशिरस ( विष्णुधर्म २.५० ) । हैहयों से शत्रुत्व -- हैहय राजा कृतवीर्य ने अपने कुलगुरु 'ऋचीक और्व भार्गव' को बहुत धन दिया था । पश्चात् वह धन वापस करने का ऋचीक ने इन्कार कर दिया। उस कारण कृतवीय का पुत्र सहस्रार्जुन कार्तवीर्य अर्जुन) ( ने ऋचीक के उपर हाथ चलाया, जिस कारण अपने अन्य भार्गव बांधवों के साथ वह कान्यकुब्ज को भाग गया । ऋचीक स्वयं अत्यंत स्वाभिमानी एवं अस्त्रविद्या में कुशल था कान्यकुब्ज पहुँचते ही हैहयों से अपमान का लेने की वह कोशिश करने लगा। उस कार्य के लिये, इसने नाना प्रकार के शस्त्रास्त्र इकट्ठा किये एवं उत्तर भारत के शक्तिशाली राजाओं को अपने पक्ष में खाने का प्रयत्न करने लगा। इस हेतु से मान्यकुब्ज देश के गाधि राजा की कन्या सत्यवती के साथ विवाह किया एवं अपने पुत्र जमदशि का विवाह अयोध्या के राजवंश में से रेणु राजा की कन्या रेणुका के साथ कराया। इस तरह, कान्यकुब्ज एवं अयोध्या के ये दो देश भार्गवों के पक्ष में आ गये । , कामधेनुहरण -- जमदग्नि पराक्रमी एवं अस्त्रविद्या निपुण था। पर उसका पुत्र परशुराम उससे भी अधिक पराक्रमी था। एक बार परशुराम जब तप करने गया था, तब कार्तवीर्य अर्जुन जमदग्नि से मिलने उसके आश्रम में आया । तपश्चर्या को जाने के पहले, अपनी कामधेनु नामक गौ परशुराम ने अपने पिता जगदमि के पास अमानत रूप मे रखी थी । कार्तवीर्य ने उसे जमदग्नि से छीनने की कोशिश की। कामधेनु के शरीर से उत्पन्न हुये हजारों यवनों ने कार्तवीर्य का वध करने का प्रयत्न किया। किंतु अंत में रेणुकावध – एक बार जमःशि रेणुका पर क्रोधित हुये तथा परशुराम को उसका वध करने की आशा दी, जिसका परशुराम ने तुरन्त पालन किया ( म. व. ११६.१४ ) । मनि इस पर प्रसन्न हुये तथा इनकी इच्छानुसार रेणुका को पुनः जीवित कर इसे वरदान दिया- तुम | ३८९ Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परशुराम प्राचीन चरित्रकोश परशुराम जमदग्नि को धूंसे लगा कर, एवं उसका आश्रम जला कर | कार्तवीर्य के सहस्र बाहु काट दिये, एवं एक सामान्य श्वापद कार्तवीर्य कामधेनु के साथ अपने राज्य में वापस चला | जसा उसका वध किया (म. शां. ४९.४१)। कानवीर्य गया। के शूर, वृषास्य, वृष, शूरसेन तथा जयध्वज नामक पुत्रों ने तपश्चर्या से लौटते ही, परशुराम को कार्तवीर्य की | पलायन किया। उन्होंने हिमालय की तराई में स्थित दुष्टता ज्ञात हुई, एवं इसने तुरंत कार्तवीर्य के वध की प्रतिज्ञा | अरण्य में आश्रय लिया । परशुराम ने युद्ध समाप्त किया। की। कई पुराणों के अनुसार, कार्तवीर्यवध की इस प्रतिज्ञा पश्चात् यह नर्मदा में स्नान कर के शिवजी के पास से इसको परावृत्त करने का प्रयत्न जमदग्नि ऋषि ने किया। गया। वहाँ गणेशजी ने इसे कहा 'शिवजी के पास जाने उसने कहा-'ब्राह्मणों के लिये यह कार्य अत्याधिक अशो- | का यह समय नहीं हैं। फिर क्रुद्ध हो कर अपने फरसे से भनीय है। परंतु परशुराम ने कहा 'दुष्टों का दमन न | इसने गणेशजी का दाँत तोड़ दिया (ब्रह्मांड. ३.४२)। करने से परिणाम बुरा हो सकता है। फिर जमदग्नि ने पश्चात् जगदाग्नि के आश्रम में आ कर, इसने उसे इस कृत्य के लिये ब्रह्मा की, तथा ब्रह्मा ने शंकर की | कार्तवीर्यवध का सारा वृत्तांत सुनाया। संमति लेने के लिये कहा । संमति प्राप्त कर यह सरस्वती क्षत्रियहत्या के दोषहरण के लिये, जमदग्नि ने परशुके किनारे अगस्त्य ऋषि के पास आया, तथा उसकी राम को बारह वर्षों तक तप कर के, प्रायश्चित्त करने के आज्ञा से गंगा के उद्गम के पास जा कर, इसने तपश्चर्या | लिये कहा । फिर परशुराम प्रायश्चित करने के लिये महेंद्र . की । इस तरह देवों का आशीर्वाद प्राप्त कर, परशुराम | पर्वत चला गया। मत्स्य के अनुसार, यह कैलास पर्वते . . नर्मदा के किनारे आया । वहाँ से कार्तवीर्य के पास दूत पर गणेशजी की आराधना करने गया (मत्स्य. ३६)। भेज कर, इसने उसे युद्ध का आह्वान किया। जिघर जिधर यह जाता था, वहाँ क्षत्रिय डर के मारे छिए । हैहय एवं भार्गवों के शत्रुत्व का इतिहास जान लेने पर, | जाते थे, तथा अन्य सारे लोग इसकी जयजयकार करते. जमदग्नि ने परशुराम को कार्तवीर्यवध से परावृत्त करने की | थे (ब्रह्मांड. ३.४४)। कोशिश की थी, यह कथा अविश्वसनीय लगती है। जमदग्निवध-परशुराम तपश्चर्या में निमग्न ही था युद्ध-परशुराम की प्रतिज्ञा सुन कर, कार्तवीर्य ने भी कि, इधर कार्तवीर्य के पुत्रों ने तपस्या के लिये समाधि युद्ध का आह्वान स्वीकार किया, एवं सेनापति को सेना लगाये हुवे जमदग्नि ऋषि का वध कर दिया, तथा वे सजाने के लिये कहा। अनेक अक्षौहिणी सेनाओं के उसका सिर ले कर भाग गये। ब्रह्मांड के अनुसार, जमदग्नि सहित कार्तवीर्य युद्धभूमि पर आया । उसका का वध कार्तवीर्य के अमात्य चंद्रगुप्त ने किया (ब्रह्मांड. परशुराम ने नर्मदा के उत्तर किनारे पर मुकाबला ३.२९.१४)। किया । युद्ध के शुरु में कार्तवीर्य की ओर से बारह वर्षों के बाद, परशुराम जब तपश्चर्या से वापस मत्स्य राजा ने परशुराम पर जोरदार आक्रमण किया। आ रहा था, तब मार्ग में ही इसे जमदग्नि के वध की बड़ी सुलभता के साथ परशुराम ने उसका वध किया। घटना सुनायी गयी। जमदग्नि के आश्रम में आते ही, बृहद्बल, सोमदत्त एवं विदर्भ, मिथिला, निषध, तथा मगध | रेणुका ने इक्कीस बार छाती पीट कर जमदग्निवध को कथा देश के राजाओं का भी परशुराम ने वध किया। सात फिर दोहरायी। फिर क्रोधातुर हो कर, परशुराम ने अक्षौहिणी सैन्य तथा एक लाख क्षत्रियों के साथ आये केवल हैहयों का ही नहीं, बल्कि पृथ्वी पर से सारे क्षत्रियों हुये सुर्यवंशज सुचन्द्र को परशुराम ने भद्रकाली की कृपा के वध करने की, एवं पृथ्वी को निःक्षत्रिय बनाने की से परास्त दिया । सुचन्द्र के पुत्र पुष्कराक्ष को भी सिर से दृढ़ प्रतिज्ञा की। पैर तक काट कर, इसने मार डाला । मातृतीर्थ की स्थापना–परशुराम के प्रतिज्ञा की यह ___ कार्तवीर्यवध-बाद में प्रत्यक्ष कार्तवीर्य तथा उसके कथा 'रेणुकामहात्म्य' में कुछ अलग ढंग से दी गयी है। सौ पुत्रों के साथ परशुराम का युद्ध हुआ। शुरु में कार्तवीर्य जब जमदग्नि से मिलने उसके आश्रय में गया, कार्तवीर्य ने परशुराम को बेहोश कर दिया। किन्तु अन्त तब कामधेनु की प्राप्ति के लिये उसने जमदग्नि का वध में परशुराम ने कार्तवीर्य एवं उसके पुत्रों का सौ अक्षौहिणी किया । फिर अपने पिता का औचंदैहिक करने के लिये, सेनासहित नाश कर दिया (ब्रांड. ३.३९.११९; म. द्रो. परशुराम एक डोली में जमदग्नि का शव, एवं रेणुका को परि. १ क्र.८)। महाभारत के अनुसार, परशुराम ने बैठा कर, 'कान्याकुब्जाश्रम' से बाहर निकला । अनेक ३९० Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परशुराम प्राचीन चरित्रकोश परशुराम तीर्थस्थानों एवं जंगलों को पार करता हुआ, यह दक्षिण इस प्रकार इक्कीस बारा इसने पृथ्वी भर के क्षत्रियों का मार्ग से पश्चिम घाट के मल्लकी नामक दत्तात्रेयक्षेत्र में वध कर, उसे निःक्षत्रिय बना दिया (ब्रह्मांड. ३.४६ )। आया । वहाँ कुछ काल तक विश्राम करने के उपरांत यह निःक्षत्रिय पृथ्वी--इस तरह परशुराम ने चौसठ कोटि चलनेवाला ही था, कि इतने में आकाशवाणी हुयी क्षत्रियों का वध किया। उनमें से चौदह कोटि क्षत्रिय 'अपने पिता का अग्निसंस्कार तुम इसी जगह करों'। सरासर ब्राह्मणों का द्वेष करनेवाले थे। बचे हुए क्षत्रियों आकाशवाणी के कथनानुसार, परशुराम ने दत्तात्रेय की को इसने नाना प्रकार की सजाएँ दी। दंतक्रूर का इसने अनुमति से, जमदग्नि का अंतिम संस्कार किया। रेणुका वध किया। एक हजार वीरों को इसने मूसल से मार भी अपने पति के शव के साथ आग्नि में सती हो डाला। हजारों की तलवार से काट डाला । हजारों को पेड़ गयी। पर टाँग कर मार डाला, तथा उतने ही लोगों को पानी बाद में परशुराम ने मातृ-पितृप्रेम से विह्वल हो कर में डुबो दिया। हजारों के दाँत तोड़ कर नाक तथा कान इन्हें पुकारा। फिर दोनों उस स्थान पर प्रत्यक्ष उपस्थित काट लिये। सात हजार क्षत्रियों को मिर्च की धुनी दी। हो गये। इसी कारण उस स्थान को 'मातृतीर्थ' (महाराष्ट्र बचे हुये लोगों को बाँधकर, मार कर, तथा मस्तक तोड़कर में स्थित आधुनिक माहूर ) नाम दिया गया। इस नष्ट कर दिया । गुणावती के उत्तर में तथा खांडवारण्य मातृतीर्थ में परशुराम की माता रेणुका स्वयं वास करती के दक्षिण में जो पहाड़ियाँ हैं, उनकी तराई में क्षत्रियों हैं। इस स्थान पर रेणुका ने परशुराम को आज्ञा दी, से इसका युद्ध हुआ। वहाँ इसने दस हजार वीरों का 'तुम कार्तवीर्य का वध करो, एवं पृथ्वी को निःक्षत्रिय बना नाश किया। उसके बाद काश्मीर, दरद, कुंति, क्षुद्रक, दो। मालव, अंग, वंग कलिंग, विदेह, ताम्रलिप्त, रक्षोवाह, नर्मदा के किनारे मार्कण्डेय ऋषि का आश्रम था। वहाँ वीतिहोत्र, त्रिगर्त, मार्तिकावत, शिबि इत्यादि अनेक मार्कण्डेय ऋषि का आशीर्वाद लेकर, परशुराम ने कार्तवीर्य | देश के राजाओं को कीड़ेमकोड़े के समान इसने वध कर का वध किया एवं पृथ्वी निःक्षत्रिय करने की अपनी दिया। इसी निर्दयता से जंगली लोगों का भी वध किया। प्रतिज्ञा निभाने के लिये, यह आगे बढ़ा ( रेणु. ३७- इस प्रकार परशुराम ने बारह हजार मूर्धामिषिक्त राजाओं • ४०)। के सिर काट डाले । बाद में हजारों राजाओं को पकड़ कर, हैहयविनाश-अपनी प्रतिज्ञा निभाने के लिये, यह कुरुक्षेत्र ले आया। वहाँ पाँच बड़े कुण्ड खोद कर परशुराम ने सर्वप्रथम अपने गुरु अगस्त्य का स्मरण | इसने उसे कैदी राजाओं के रक्त से भर दिया। पश्चात् किया। फिर अगस्त्य ने इसे उत्तम रथ एवं आयुध दिये। उन कुंडों में परशुराम ने 'रुधिरस्नान' किया एवं अपने . सहसाह इसका सारथि बना (ब्रह्मांड. ३.४६.१४)। रुद्र- पितरों को तर्पण दिया। वे कुंड 'समंतपंचक तीर्थ' द्वारा दिया गया 'अमित्रजित् ' शंख इसने फूंका। था 'परशुरामहृद' नाम से आज भी प्रसिद्ध है । कार्तवीर्य के शूरसेनादि पाँच पुत्रों ने अन्य राजाओं बाद में गया जाकर चन्द्रपाद नामक स्थान पर इसने को साथ ले कर, परशराम का सामना करने का प्रयत्न | श्राद्ध किया (पन, स्व. २६)। इस प्रकारे अदभुत किया। उनको वध कर, अन्य क्षत्रियों का वध करने का | कर्म कर के परशुराम प्रतिज्ञा से मुक्त हुआ। पितरों को सत्र इसने शुरू किया । हैहय राजाओं की राजधानी यह क्षत्रियहत्या पसन्द न आई। उन्हों ने इस कार्य से माहिष्मती नगरी को इसने जला कर भस्म कर दिया। छुटकारा पाने तथा पाप से मुक्ति प्राप्त करने के लिये, हैहयों में से वीतिहोत्र केवल बच गया, शेष हैहय मारे प्रायश्चित करने के लिये कहा (म. आ. २.४.१२)। गये। पितरों की आज्ञा का पालन कर, यह अकृतव्रण के साथ __ हैहयविनाश का यह रौद्र कृत्य पूरा कर, परशुराम सिद्धवन की ओर गया। रथ, सारथि, धनुष आदिको महेंद्र पर्वत पर तपस्या करने के लिये चला गया। नये | त्याग कर इसने पुनः ब्राह्मणधर्म स्वीकार किया। सब क्षत्रिय पैदा होते ही, उनका वध वरने की इसकी प्रतिज्ञा तीर्थो पर स्नान कर इसने तीन बार पृथ्वी की प्रदक्षिणा थी। उस कारण यह दस वर्षों तक लगातार तपस्या की, और महेन्द्र पर्वत पर स्थायी निवास बनाया। करता था, एवं दो वर्षों तक महेंद्र पर्वत से उतर कर, नये अश्वमेधयज्ञ-पश्चात् , जीती हुयी सारी पृथ्वी पैदा हुए क्षत्रियों को अत्यंत निष्ठरता से मार देता था। कश्यप ऋषि को दान देने के लिये, परशुराम ने एक ३९१ Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परशुराम प्राचीन चरित्रकोश परशुराम महान् अश्वमेध यज्ञ का आयोजन किया। उस यज्ञ के (६) शिबीराजा गोपालि-गायों ने इसकी रक्षा की । लिये, बत्तीस हाँथ ऊँची सुवर्णवेदी इसने बनायी, एवं (७) प्रतर्दनपुत्र वत्स-इसकी रक्षा गोवत्सों ने की। . निम्नलिखित ऋषिओं को यज्ञाधिकार दिये-काश्यप (८) मरुत्त-इसे समुद्र ने बचाया। (अध्वर्यु), गौतम (उद्गातृ), विश्वामित्र (होतृ) तथा इन राजाओं के वंश के लोग क्षत्रिय होते हुये भी, मार्कण्डेय (ब्रह्मा)। भरद्वाज, अग्निवेश्यादि ऋषियों ने भी शिल्पकार, स्वर्णकार आदि कनिष्ठ श्रेणी के व्यवसाय इस यज्ञ में भाग लिया। इस प्रकार यज्ञ समाप्त कर करने पर विवश हये। परशुराम ने महेन्द्र पर्वत को छोड़ कर, शेष पृथ्वी कश्यप इस प्रकार परशुराम के कारण, चारों ओर अराजकता को दान दे दी (म. शां. ४९; अनु. १३७.१२)। फैल गयी। उस अराजकता को नष्ट करने के लिये, कश्यप पश्चात 'दीपप्रतिष्ठाख्य' नामक व्रत किया (ब्रह्माड | ने चारों ओर के क्षत्रियों को ढूंढना पुनः प्रारंभ किया, एव ३.४७)। उनके राज्याभिषेक कर सुराज्य स्थापित करने की कोशिश नया हत्याकांड-इस व्यवहार के कारण, परशुराम के | की (म. शां. ४९.५७-६०)। बारे में लोगों के हृदय में तिरस्कार की भावना भर गयी। 'शूर्पारक' की स्थापना-अवशिष्ट क्षत्रियों के बचाव कुछ दिनों के उपरांत विश्वमित्र-पौत्र तथा रैम्यपुत्र परावसु के लिये, कश्यप ने परशुराम को दक्षिण सागर के पश्चिमी. ने भरी सभा में के इसे चिढ़ाया तथा कहा 'पृथ्वी किनारे जाने के लिये कहा। 'शूरक' नामक प्रदेश : निःक्षत्रिय करने की प्रतिज्ञा तुमने की । परन्तु ययाति के समुद्र से प्राप्त कर, परशुराम वहाँ रहने लगा। भृगुकच्छ । यज्ञ के लिये एकत्रिप प्रतर्दन प्रभृति लोग क्या क्षत्रिय (भडोच ) से ले कर कन्याकुमारी तक का पश्चिम समुद्रनहीं हैं ? तुम मनचाही बकबास कहते हो । सच बात यह तट का प्रदेश 'परशुराम देश' या 'शूपरिक ' नाम से । है कि सब ओर फैले क्षत्रियों के डर से तुम वन में मुँह | प्रसिद्ध हुआ। छिया कर बैठे हो'। इससे संतप्त हो कर परशुराम शूर्पारक प्रांत की स्थापना के कई अन्य कारण भी ने पुनः शास्त्र हाथ में लिया, तथा पहले निरपराधी पुराणों में प्राप्त हैं । सगरपुत्रों द्वारा गंगा नदी खोदी जाने मानकर छोड़े गये क्षत्रियों का वध किया। छोटों का विचार पर, 'गोकर्ण' का प्रदेश समुद्र में डूंबने का भय उत्पन्नं न कर, इसने माँ के गर्भ में स्थित बच्चों का भी नाश हुआ। वहाँ रहनेवाले 'शुष्क आदि ब्राह्मणों ने महेंद्र पर्वत किया। अन्त में सम्पूर्ण पृथ्वी का दान कर स्वयं महेन्द्र | जा कर, परशुराम से प्रार्थना की। फिर गोकर्णवासियों के पर्वत पर रहने के लिये चला गया (म. द्रो. परि. क्र. | लिये नयी बस्ती बसाने के लिये, इसने समुद्र पीछे हटा २६ पंक्ति ८६६)। कर, दक्षिणोत्तर चार सौ योजन लम्बे शूर्पारक देश की अभिमन्यु की मृत्यु से शोकग्रस्त युधिष्ठिर को यह स्थापना की (ब्रह्मांड. ३. ५६.५१-५७)। कथा बताकर नारद ने शांत किया। ___परशुरामकथा का अन्वयार्थ- परशुराम द्वारा हत्याकांडसे बचे क्षत्रिय-परशुराम के हत्याकांड से पृथ्वी निःक्षत्रियकरण की प्राचीन कथा में कुछ अतिशयोक्ति बहुत ही थोड़े क्षत्रिय बच सके । उनके नाम इस प्रकार | जरूर प्रतीत होती है । अयोध्या एवं कान्यकुब्ज के राजा अपनी माता रेणुका एवं मातामही सत्यवती के तरफ से (१) हैहय राजा वीतिहोत्र—यह अपने स्त्रियों के परशुराम के रिश्तेदार थे। उन राजाओं को साथ ले कर अंतःपुर में छिपने से बच गया। | परशुराम ने हैहयों को एवं हैहयपक्षीय राजाओं को इक्कीस (२) पौरव राजा ऋक्षवान्-यह ऋक्षवान् पर्वतों बार युद्धभूमियों पर पराजित किया, इस 'परशुराम कथा' के के रीघों में जाकर छिपने से बच गया। अन्वयार्थ लगा जा सकता है । हैहयविरोधी इस युद्ध में, (३) अयोध्या का राजा सर्वकर्मन्-पराशर ऋषि ने अयोध्या एवं कान्यकुब्ज के अतिरिक्त, वैशाली, विदेह, शूद्र के समान सेवा कर इसे बचाया। काशी आदि देशों के राजा भी परशराम के पक्ष में शामिल (४) मगधराज बृहद्रथ-गृध्रकुट पर्वत पर रहने- थे। इसी कारण, परशुराम एवं हैहयों का युद्ध, प्राचीन वाले बंदरों ने इसकी रक्षा की। भारतीय इतिहास का पहला महायुद्ध कहा जाता है। (५) अंगराज चित्ररथ -गंगातीर पर रहने वाले कई अभ्यासकों के अनुसार, भार्गव लोग एवं स्वयं गौतम ने इसकी रक्षा की। | परशुराम 'नाविक' व्यवसाय के लोग थे, एवं पश्चिम ३९२ Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परशुराम प्राचीन चरित्रकोश परशुराम समुद्र किनारे रह कर, योरप, अफ्रीका आदि देशों से किया (ह. वं. २.४४) । सैहिकेय शाल्व का वध भी व्यापारविनिमय करते थे। इस व्यापार के कारण उन्होंने कृष्ण ने परशुराम के कहने पर ही किया (ह. बहुत संपत्ति इकट्ठा की थी। पश्चिम भारतवर्ष पर राज्य | वं. २. ४४ )। सैहिकेय शाल्व के वध के बाद, शंकर करनेवाले हैहय लोग, विदेशी व्यापारविनिमय आर्य | ने परशराम को 'शंकरगीता' का ज्ञान कराया (विष्णुलोगों के कब्जे में लाना चाहते थे। इस कारण, कार्तवीय धर्म. १.५२.६५)। जरासंघ के आक्रमण से डर कर, अर्जुन ने 'अत्रि' नामक नाविकव्यवसायी लोगों से दोस्ती | बलराम तथा कृष्ण राजधानी के लिये नये स्थान हूँढ रहे की, एवं उनसे एक सहस्र युद्धनौकाएँ, बना लीं। उसी एक | थे। उस समय उनकी भेंट परशुराम से हुयी थी। परशुराम हज़ार नौकाओं के कारण, कार्तवीय को सहस्र हाथोंवाला | ने उन्हें गोमंत पर्वत पर रह कर जरासंध से दुर्गयुद्ध करने ('सहस्रार्जुन' ) नामक उपाधि मिली । पश्चात् कार्तवीर्य की सलाह दी (ह. वं. २.३९)। ने, भागवों से उनकी संपूर्ण संपत्ति मांगी। इस कारण, महेंद्र पर्वत पर जब यह रहता था, तब अष्टमी तथा ऋद्ध हो कर परशराम ने हैहयों का नाश किया, एवं नर्मदा | चतुर्दशी के ही दिन केवल अभ्यागतों से मिलता था नदी के प्रदेश में से सारे हैहय राज्य का विध्वंस किया। (म. व. ११५.६) । पूर्व समुद्र की ओर भ्रमण करते यही विध्वंस पुराणों में 'निःक्षत्रिय पृथ्वी' के नाम से | हये युधिष्ठिर की भेंट एक दिन परशुराम से हुयी थी। वर्णित है। बाद में युधिष्ठिर गोदावरी नदी के मुख की ओर चला गया इस तरह ध्वस्त हैहय प्रदेश में परशुराम ने नया | (म. व. ११७-११८)। राज्य स्थापित किया, एवं पश्चिम समुद्र किनारे के भृगुकच्छ | शूर्पारक बसाने के पूर्व परशुराम महेंद्र पर्वत पर रहता से लेकर कन्याकुमारी तक सारा प्रदेश नया बसाया। यही था । उसके उपरांत शूर्पारक प्रदेश में रहने लगा (ब्रह्मांड. प्रदेश 'शूपारक' नाम से प्रसिद्ध हुआ, एवं पश्चिम के | न्यापारविनिमय का केंद्रस्थान बन गया । हैहयों के विनाश से, पश्चिमी विदेशों का व्यापार उत्तर हिंदुस्थान के आर्य ___ भीष्माचार्य को परशुराम ने अस्त्रविद्या सिखायी थी । लोगों के हाथों से निकल गया, एवं दाक्षिणात्य द्रविड़ों के भीष्म अम्बा का वरण करे, इस हेतु से इन गुरुशिष्यओं • हाथों में वह चला गया (करंदीकर-'नवाकाळ' निबंध, | के | का युद्ध भी हुआ था। एक महीने तक युद्ध चलता रहा, अन्त में परशुरान ने भीष्म को पराजित किया (म. उ. १८६.८)। परशुराम ने क्षत्रियों की हिंसा की। उसके फिर भी परशुराम हैहयों का संपूर्ण विनाश न विषय में भीष्म ने इसे मुँहतोड़ जवाब दिया था । अपने कर सका। परशुराम के पश्चात, हैहय लोग 'तालजंघ' | को ब्राहाण बताकर कर्ण ने परशुराम से शिक्षा प्राप्त की • सामूहिक नाम से पुनः एकत्र हुये। तालजंधों में पाँच थी। बाद में परशुराम को यह भेद पता चला, और - उपजातियों का सामवेश था, जिनके नाम थे: उन्होंने उसे शाप दिया। वीतहोत्र, शांत, भोज, अवन्ति, कुण्डरिक (मत्स्य. ४३.४८-४९; वायु. ९४.५१-५२)। उन लोगों ने परशुराम ने द्रोण को ब्रह्मास्त्र सिखाया था। दंभोद्भव कान्यकुब्ज, कोमल, काशी आदि देशों पर बार बार आक्रमण | राक्षस की कथा सुनाकर, परशुराम ने दुर्योधन को युद्ध से किये, एवं कान्यकुब्ज राज्य का संपूर्ण विनाश किया। | परावृत करने का प्रयत्न किया था ( म. उ.८४)। बम्बई ऐतिहासिक दृष्टि से, परशराम जामदग्न्य, राम के वाल्केश्वर मंदिर के शिवलिंग की स्थापना परशुराम ने दाशरथि एवं पांडवों से बहुत ही पूर्वकालीन हैं। फिर | की थी (स्कंद. सह्याद्रि. २-१)। भी 'रामायण' एवं 'महाभारत' के अनेक कथाओं रामायण में--रामायण में भी परशुराम का निर्देश में परशुराम की उपस्थिति का वर्णन प्राप्त है। कई बार आया है। सीता स्वयंवर के समय राम ने शिव महाभारत में- सौभपति शाल्व के हाथों से परशुराम के धनुष को तोड़ दिया । अपने गुरु शिव का, पराजित हुआ। फिर कृष्ण ने शाल्व का वध किया (म. अपमान सहन न कर, परशुराम राम से युद्ध करने स. परि. १. क्र. २१. पंक्ति, ४७४-४८५)। करवीर | के लिये तत्पर हुआ। किंतु उस युद्ध में राम ने परशुराम शृगाल के उन्मत्त कृत्यों की शिकायत परशराम ने बलराम को पराजित किया, एवं परशुराम के तपसामर्थ्य नष्ट एवं कृष्ण के पास की। फिर उसका वध भी कृष्ण ने होने का उसे शाप दिया (वा. रा. बा. ७४-७६)। प्रा. च.५०] ३९३ Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परशुराम प्राचीन चरित्रकोश पराक्ष कालविपर्यास---परशुराम के महाभारत एवं रामायण (७) परशुगमतीर्थ ( नर्मदा नदी के मुख में स्थित में प्राप्त निर्देश कालविपर्यस्त हैं अतएव अनैतिहासिक प्रतीत आधुनिक 'लोहाय' ग्राम)--परशुराम का तपस्याहोते है। जैसे पहले ही कहा है, परशुराम रामायण एवं स्थान। महाभारत के बहुत ही पूर्वकालीन थे । इस कालविपर्यास (4) परशुरामताल ( पंजाब में सिमला के पास का स्पष्टीकरण महाभारत एवं पुराणों में, परशुराम को | 'रेणुका तीर्थ' पर स्थित पवित्र तालाब)--परशुराम के चिरंजीव कह कर दिया गया है । संभव है कि, प्राचीन-पवित्रस्थान । यहाँ के पर्वत का नाम 'जमदग्निपर्वत' है। काल के परदाराम की महत्ता एवं ब्रह्मतेज का रिश्ता | (९) रेणुकागिरि (अलवार-रेवाडी रेलपार्ग पर महाभारत एवं रामायण के पात्रा से जोड़ने क लिय यह खैरथल से ५ मील दर स्थित आधनिक 'रनागिरि 'ग्राम) 'चिरंजीवत्व' की कल्पना प्रसृत की गयी हो। -परशुराम का आश्रमस्थान । परशुराम के स्थान--परशराम के जीवन से संबंधित | ( (१०) चिपळूण (महाराष्ट्र में स्थित आधुनिक पण / अनेक स्थान भारतवर्ष में उपलब्ध है। वहाँ परशुराम की रशुराम का चिपळूण ग्राम)-परशुराम का पवित्रस्थान । यहाँ परशुराम उपासना आज भी की जाती है। उनमें से कई स्थान इस प्रकार हैं--- (११) रामद (कुरुक्षेत्र के सीमा में स्थित एक (१) जमनाग्नि आश्रम (पंचतीर्थी )--परशराम का तीर्थस्थान)-परशुराम का तीर्थ स्थान । यहाँ परशराम ने जन्मस्थान एवं सहस्रार्जुन का वधस्थान । यह उत्तरप्रदेश पाँच कुंडों की स्थापना की थी (म. व. ८१.२२-३३)। में मेरठ के पास हिंडन ( प्राचीन 'हर') नदी के किनारे इसे 'समंतपंचक' भी कहते है। है। यहाँ पाँच नदियों का संगम है। इसलिये इसे | ___परशुरामजयंती--वैशाख शुध तृतीया के दिन, रात्रि. 'पंचतीर्थी' कहते है। यहाँ 'परशुरामेश्वर' नामक के पहले 'प्रहर' में परशुरामजयंती का समारोह किया शिवमंदिर है। जाता है। (धर्मसिंधु पृ. ९)। यह समारोह अधिक तर (२) मातृतीर्थ (महाराष्ट्र में स्थित आधुनिक 'माहूर' | दक्षिण हिंदुस्थान में होता है, सौराष्ट्र में यह नहीं किया ग्राम)-रेणुका दहनस्थान । जाता है। इस समारोह में, निम्नलिखित मंत्र के साथ, (३) महेंदपर्वत (आधुनिक 'पूरबघाट)- परशुराम को 'अर्य' प्रदान किया जाता है-- परशुराम का तपस्या स्थान । क्षत्रियों का संहार करने के जमदग्निसुतो वीर क्षत्रियान्तकरः प्रभो। पश्चात् परशराम यहाँ रहता था। परशुराम ने समस्त पृथ्वी ग्रहाणायं मया दत्तं कृपया परमेश्वर ॥ कत्यप को दान में दी, उस समय महेंद्रपर्वत भी कश्यप को दान में प्राप्त हुआ। फिर परशुराम 'शूपरिक' के नये परशुराम साम्प्रदाय के ग्रंथ–'परशुरामकल्पसूत्र' नामक बस्ती में रहने के लिये गया। | एक तांत्रिक सांप्रदाय का ग्रंथ परशुराम के नाम से प्रसिद्ध (४) शूर्पारक (बंबई के पास स्थित आधुनिक है। 'परशुरामप्रताप' नामक और भी एक ग्रंथ 'सोपान' ग्राम)--परशुराम का तपस्यास्थान । समुद्र को | उपलब्ध है। हटा कर, परशुराम ने इस स्थान को बसाया था। परशुरामशक-मलाबार में अभी तक 'परशराम (५) गोकर्णक्षेत्रा ( दक्षिण हिंदुस्थान में कारवार जिले | शक' चालू है। उस शक का वर्ष सौर रीति का है, में स्थित 'गोकर्ण' ग्राम)-परशराम का तपस्यास्थान । एवं वर्षारंभ 'सिंहमास' से होता है। इस शक का समुद्र में डूबते हुये इस क्षेत्र का रक्षण परशुराम ने किया | 'चक्र' एक हजार साल का होता है। अभी इस शक था। का चौथा चक्र चालू है। इस शक को कोलमडु' (६) जंबुवन (राजस्थान में कोटा के पास चर्मण्वती । (पश्चिम का वर्ष) कहते है (भा. ज्यो. ३७७)। नदी के पास स्थित आधुनिक 'केशवदेवराय-पाटन' | परस्परायाण-अंगिराकुल का एक ब्रापिं(नारायणि ग्राम)--परशुराम का तपस्यास्थान । इछीस बार पृथ्वी | देखिये )। निःक्षत्रिय करने के बाद परशुराम ने यहाँ तपस्या की पराक्ष-(सो. अनु ) एक राजा । ब्रह्मांड के अनुसार, | यह अनु राजा का पुत्र था ( परपक्ष देखिये)। ३९४ थी। Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पराप्स प्राचीन चरित्रकोश पराशर . परातस-(सो.) एक राजा । भविष्य के अनुसार, कुल तीन भाई थे। उनके नामः-अधीगु, गौरीविति, एवं यह प्रतंस का पुत्र था। जातूकर्ण या जातूकर्ण्य हैं। परानंद-मगध देश का राजा । नंदसुत को शूद्र स्त्री ऋग्वेद अनुक्रमणी के अनुसार, ऋग्वेद के कुछ सूक्तों से उत्पन्न हुए, प्रनंद नामक राजा का यह पुत्र था । इसने | का प्रणयन पराशर ने किया था (ऋ. १.६५-७३)। १० वर्षों तक राज्य किया (भवि. प्रति. १.६)। | एक परंपरा के रूप में 'पराशरों' का काठक अनुक्रमणी' परायण-वायु एवं ब्रह्मांड के अनुसार, व्यास की में उल्लेख प्राप्त है (इन्डिशे स्टूडियेन ३.४६८०)। दस सामशिष्यपरंपरा के कौथुम पाराशर्य का शिष्य (व्यास | राजाओं के युद्ध में विजय पानेवाले सुदास राजा की देखिये)। प्रशस्ति में, अपने चाचा तयातु एवं पितामह वसिष्ठ के परावसु--एक ऋषि, जो रैभ्य मुनि का पुत्र एवं साथ पराशर ऋषि का निर्देश आया है (ऋ. ७.१८.२१) अर्वावसु ऋषि का बड़ा भाई था। विश्वामित्र ऋषि इसका इन तीन ऋषियों ने इंद्र के पास जा कर, सुदास के लिये पितामह था । यह अंगिरा का वंशज माना जाता था (म. उसकी सहायता प्राप्त की थी (गेल्डनर-इन्डिशे स्टुडियेन शां. २०१.२५)। . २. १३२)। हिंसक पशु के धोखे में, इसने अपने पिता रैभ्य का निरुक्त में 'पराशर' शब्द की व्युत्पत्ति बूढे ऋषि को वध किया (म. व. १३९.६)। इस वध के कारण, इसे | उत्पन्न पुत्र ('पराशीणस्य स्थविरस्य जज्ञे') ऐसी दी ब्रह्महत्या का पाप लगा, एवं यज्ञ के ऋत्विज का गयी है (नि.६.३०)। उसका शब्दशः अर्थ ले कर, कार्य करने के लिये अपात्र बन गया। कई लोग पराशर को वसिष्ठ ऋषि को उसके बुढ़ापे में उत्पन्न अपने ब्रह्महत्या का पातक दूर करने के लिये, इसने | हुआ पुत्र मानते हैं। किंतु यह ठीक नहीं है । अपने अपने छोटे भाई अर्वावसु को वेदमंत्रयुक्त अनुष्टान एवं | सातों पुत्रों की मृत्यु हो जाने पर, दुःख से पीड़ित वृद्ध तपस्या करने की आज्ञा दी, एवं यह स्वयं बृहद्द्यम्न राजा वसिष्ठ ऋषि को पराशर का आधार प्राप्त हुआ था। •का यज्ञ करने चला गया (म. व. १३९.२)। उसीका संकेत निरुक्त के इस व्युत्पत्ति में किया गया है। . बृहदाम्न के यज्ञ से 'ब्रह्मघातकी' होने के कारण, | महाभारत में भी निरुक्त के व्युत्पत्ति को इसी अर्थ से ले इसे निकलवा दिया। किंतु अर्वावसु के प्रयत्न | कर, पराशर को वसिष्ठ का पौत्र एवं शक्ति का मृत्यु के -से, यह निर्दोष साबित हुआ (म. व. १३९.१५)। पश्चात् उत्पन्न पुत्र कहा गया है (म. आ. १६७.१५)। पश्चात् उपरिचर के अश्वमेध यज्ञ में भी इसे स्थान दिया | एक बार वसिष्ठ का पुत्र शक्ति पुष्पादिक लाने के लिये गया (म. शां. ३२७.७)। अरण्य में गया था। वहाँ विश्वामित्र के लोगों ने उसे पकड़ . एक बार परशुराम से इसकी मुलाकात हो गयी। कर अग्नि में झोंक दिया । अग्नि में जल कर मरते हए शक्ति इक्कीस बार पृथ्वी निःक्षत्रिय करनेवाले परशुराम से इसने | ने, 'इंद्र ऋतुं न आ भर पिता पुत्रेभ्यो यथा' (हे इंद्रव्यंग्य से कहा, 'पृथ्वी पर क्षत्रिय तो बहुत बाकी है। खुद | हमें ज्ञान दे । पिता अपने पुत्र को प्रदान करता है, वैसा को निःक्षत्रिय पृथ्वी करनेवाला कहला कर, तुम व्यर्थ ही | धन तुम हमे दे) ऋचा के अर्धभाग की रचना की। आत्मप्रशंसा करते हो। इस के इस उद्गार के कारण, | पश्चात् वसिष्ठ ने उस ऋचा को पूरा किया (ऋ. ३२.२६)। परशुराम क्रोधित हुआ, एवं क्षत्रियसंहार का कार्य उसने. महाभारत के अनुसार, शक्ति ऋषि का वध राक्षसयोनि पुनः आरम्भ किया (म. द्रो. परि. १ क्र. ८)। प्राप्त हुए कल्माषपाद ने किया (म. आ. १६६.३६ )। ___ परावृत्--(सो. क्रोष्टु.) एक राजा । पद्म तथा विष्णु शक्ति ऋषि के द्वारा उसकी पत्नी अदृश्यन्ती के गर्भ में से के अनुमार, यह रुक्मकवच का पुत्र था। पराशर की उत्पत्ति हुई। बारह वर्षों तक अपने माता के पराशर-एक वैदिक सूक्तद्रष्टा, स्मृतिकार, एवं गर्भ में रह कर इसने वेदाभ्यास किया। 'आयुर्वेद' तथा 'ज्योतिषशास्त्र के प्रवर्तक ऋषिओं में से | अपने पुत्रों के मृत्यु से एवं वंशाक्षय के दुःख के कारण एक । यह वसिष्ठ ऋषि का पौत्र, एवं शक्ति ऋषि का पुत्र | जीवन से ऊबकर, एक बार वसिष्ठ आश्रम से बाहर निकल था। यह शक्ति ऋषि के द्वारा 'अदृश्यन्ती' के गर्भ से | पड़ा। शक्ति की विधवा पत्नी अदृश्यन्ती भी उसके पीछेउत्पन्न हुआ था। इसीलिये इसे पराशर 'शाक्त्य' कहते पीछे जाने लगी। इतने में यकायक वसिष्ठ के कानों पर थे। वसिष्ठ का भाई शतयातु ऋषि इसका चाचा था। इसके सुस्वर 'वेदध्वनि' आने लगी। उसने पीछे मुड़ कर देखा। Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पराशर प्राचीन चरित्रकोश पराशर उसे पता चला कि, अदृश्यन्ती के गर्भ से वेदध्वनि आ को भक्षण करती हुयी आज भी दृष्टिगोचर होती है रही है। अपना वंश अभी तक जीवित है, यह जान कर (म. आ. १६९-१७०, १७२; विष्णु. १.१; लिंग १.. वसिष्ठ को अत्यंत आनंद हुआ, एवं वह आश्रम में वापस | ६४)। आया। कुछ दिनों के बाद, अदृश्यन्ती से पराशर उत्पन्न | व्यासजन्म-एक बार पराशर तीर्थयात्रा के लिये गया । हुआ। इसके पितामह वसिष्ठ ने इसका पालन-पोषण था। यमुना नदी के किनारे, उपरिचर वसु राजा की किया। दूसरे का लड़का खुद का समझ कर वसिष्ठ ने इसे कन्या सत्यवती को इसने देखा । सत्यवती के शरीर सँभाला, इस कारण इसका ‘पराशर' नाम रखा गया में मछली जैसी दुर्गध आती थी। फिर भी उसके रूप (म. आ.१६९. ३)। यौवन पर मोहित हो कर पराशर ने उससे प्रेमयाचना की। . बाल्यकाल में पराशर, वसिष्ठ ऋषि को अपना पिता पराशर के संभोग से अपना 'कन्याभाव' (कौगाय ) नष्ट समझ कर, उसे 'दादा, दादा' कह कर पुकारता था। होगा, ऐसी आशंका सत्यवती ने प्रकट की। फिर पराशर ने वसिष्ठ को 'दादा' कह कर पुकारते ही, इसकी माता| उसे आशीर्वाद दिया, 'संभोग' के बाद भी तुम कुमारी अदृश्यन्ती के आँखों में पानी भर आता था। अदृश्यन्ती | रहोगी, तुम्हारे शरीर से मछली की गंध (मत्स्यगंध ) लुप्त ने इसे कई बार समझाया. "वसिष्ठ को तुम 'दादा' न हो जायेगी और एक नयी सुगंध तुम्हे प्राप्त होगी, एवं वह कह कर, 'बाबा' (पितामह ) कहो"। किंतु पराशर सुगंध एक योजन तक फैल जायेगी। इसी कारण लोग तुम्हे यह सूक्ष्म मेदाभेद नहीं समझता था। | 'योजनगंधा' कहेंगे (म. आ. ५७.६३) । पश्चात् ' ___ पराशर के बड़े होने पर, अदृश्यन्ती ने राक्षसद्वारा हुए मनसोक्त एकांत का अनुभव लेने के लिये, पराशर ने शक्ति ऋपि के घृणित वध की सारी कहानी इसे सुनायी। सत्यवती के चारों ओर नीहार का पर्दा उत्पन्न किया। ' उसे सुनते ही, यह संपूर्ण जगत के विनाश के लिये तत्पर | पराशर को सत्यवती से व्यास नामक एक पुत्र हुआ। हआ। किंतु भृगवंशी ऋचीक और्व ऋषि की कथा इसे | यमुना नदी के द्वीप मे उसका जन्म होने के कारण, उसे सुना कर, वसिष्ठ ने इसे जगविनाश के संकल्प से परावृत्त 'द्वैपायन' व्यास कहते थे । (म. आ. ७७.९९; भा किया (म. आ. १७२)। | १.३)। सत्यवती को काली' नामांतर भी प्राप्त था। राक्षससत्र-फिर भी पराशर का राक्षसों के प्रति क्रोध उस काली का पुत्र होने के कारण, व्यास को 'कृष्णद्वैपायन' शमित न हुआ । आबालवृद्ध राक्षसों को मार डालने के उपाधि प्राप्त हो गयी (वायु. २.१०,८४)। लिये, इसने महाप्रचंड 'राक्षससत्र' का आयोजन किया। पार्गिटर के अनुसार, प्राचीन काल में 'पराशर शाक्त्य' राक्षसों के प्रति वसिष्ठ भी पहले से ऋद्ध था। इस कारण, | एवं ' पराशर सागर' नामक दो व्यक्ति वसिष्ठ के कुल में पराशर के नये सत्र से वसिष्ठ ने न रोका। किंतु इसके उत्पन्न हुए। उनमें से 'पराशर शाक्य' वैदिक सुदास 'राक्षससत्र 'से अन्य ऋषियों में हलचल मच गयी। अत्रि, | राजा के समकालीन वसिष्ठ ऋषि का पौत्र एवं शक्ति अपि पुलह, पुलस्त्य, ऋतु, महाक्रतु आदि ऋषियों ने स्वयं सत्र का पुत्र था। दूसरा 'पराशर सागर' सगर वसिष्ठ का के स्थान आकर, पराशर को समझाने की कोशिश की। पुत्र, एवं कल्माषपाद तथा शंतनु राजा का समकालीन था। पुलस्त्य ऋषि ने कहा, 'अनेक दृष्टि से राक्षस निरुपद्रवी | इन दो पराशरों में से 'पराशर शाक्त्य' ने राक्षससत्र एवं निरपराध है । अतः उनका वध करना उचित किया था, एवं दूसरे पराशर ने सत्यवती से विवाह किया नहीं'। फिर वसिष्ठ ने भी पराशर को समझाया, एवं | था (पार्गि. २१८)। किंतु पार्गिटर के इस तकनरंपरा 'राक्षससत्र' बंद करने के लिये कहा । उसका कहना मान | कलिय विश्वसनाय आधार उपलब्ध न के लिये विश्वसनीय आधार उपलब्ध नहीं है। पौराणिक कर, पराशर ने अपना यज्ञ स्थगित किया। इस पुण्यकृत्य वंशावली में भी एक 'शक्तिपुत्र पराशर' का ही केवल के कारण पुलस्त्य ने इसे वर दिया, 'तुम सकल शास्त्रों | निर्देश प्राप्त है। में पारंगत, एवं पुराणों के 'वक्ता' बनोगे (विष्णु. १. आदरणीय ऋषि--एक आदरणीय ऋषि के नाते, १)। महाभारत में पराशर का निश अनेक बार किया गया राक्षससत्र के लिये सिद्ध की अग्नि, पराशर ने | है। इसने जनक को कल्याणप्राप्ति के साधनों का उपदेश हिमालय के उत्तर में स्थित एक अरण्य में झोंक दी। दिया था (म. अनु.२७९-२८७) । कालोपरांत वही उपदेश वह अग्नि 'पर्वकाल' के दिन, राक्षस, पाषाण एवं वृक्षों । भीष्म ने युधिष्ठर को बताया था। उसे ही 'पराशरगीता' ३९६ Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पराशर प्राचीन चरित्रकोश पराशर कहते है । इसने युधिष्ठर को 'रुद्रमाहात्म्य' कथन किया | उस समय धर्माधर्म की विशेष चिन्ता करने की जरूरत था (म. अनु. ४९)। इसने अपने शिष्यों को विविध | नहीं, ऐसा पराशर का कहना है (परा. ७)। पुत्रों के ज्ञानपूर्ण उपदेश दिये थे (म. अनु. ९६.२१)। पराशर | प्रकार बताते समय, 'औरस' पुत्रों के साथ, 'दत्तक, द्वारा किये गये 'सावित्रीमंत्र' का वर्णन भी महाभारत में | क्षेत्रज' एवं 'कृत्रिम' इन पुत्रों का निर्देश पराशर ने प्राप्त है (म. अनु. १५०)।। किया है (रा. ४.१४)। पति के मृत्यु के बाद, पत्नी का परिक्षित राजा के प्रायोपवेशन के समय, पराशर | सती हो जाना आवश्यक है, ऐसा पराशर का कहना है गंगानदी के किनारे गया था (भा. १.१९.९)। शरशय्या (परा. ४) । क्षत्रिकों के आचार, कर्तव्य एवं प्रायश्चित के पर पड़े हुए भीष्म को देखने के लिये यह कुरुक्षेत्र गया | बारे में भी, पराशर ने महत्त्वपूर्ण विचार प्रगट किये हैं था (म. शां. ४७.६६)। इंद्रसभा में उपस्थित ऋषियों | (परा. १.६-८)। में भी, पराशर एक था (म. स. ७.९.)। 'पराशरस्मृति' में आचार्य मनु के मतों के उद्धरण वेदव्यास-ब्रह्मा से ले, कर कृष्णद्वैपायन व्यास तक | अनेक बार लिये गये है ( परा. १.४, ८)। सभी शास्त्रों उत्पन्न हुए ३२ वेदव्यासों में से पराशर एक प्रमुख | के जाननेवाले एक आचार्य के रूप में इसने मनु का निर्देश वेदव्यास था। ओ ऋषिमुनि वैदिक संहिता का विभाजन किया है। मनु के साथ उशनस् (१२.४९), प्रजापति या पुराणों को संक्षिप्त कर ले, उसे 'वेदव्यास' कहते थे। (४.३; १३), तथा शंख (४.१५) आदि धर्मशास्त्रउन वेदव्यासों में ब्रह्मा, वसिष्ठ, शक्ति, पराशर एवं कृष्ण- | कारों का भी, इसने निर्देश किया है । वेद वेदांग, एवं द्वैपायन व्यास प्रमुख माने जाते है। धर्मशास्त्र के अन्य ग्रंथो का निर्देश एवं उद्धरण 'पराधर्मशास्त्रकार--पराशर अठारह स्मृतिकारों में से एक | शरस्मृति' में प्राप्त है । अपने स्मृति के बारहवें अध्याय प्रमुख था। इसकी 'पराशरस्मृति' एवं उसके उपर में इसने कुछ वैदिक मंत्र दिये हैं। उनमें से कई ऋग्वेद आधारित 'बृहत्पराशर संहिला' धर्मशास्त्र के प्रमुख ग्रंथों | में एवं कई शुक्लयजुर्वेद में प्राप्त हैं । में गिने जाते हैं। पराशर के नाम पर निम्नलिखित | पराशर के राजधर्मविषयक मतों का उद्धरण कौटिल्य ने धर्मशास्त्रविषयक ग्रंथ उपलब्ध है : अपने 'अर्थशास्त्र' में अनेक बार कहा है । 'मिताक्षरा' (1) पराशरस्मृति--यह स्मृति जीवानंद संग्रह | 'अपरार्क', 'स्मृतिचंद्रिका', 'हेमाद्रि' आदि अनेक . (२.१-५२), एवं बॉम्बे संस्कृत सिरीज़ में उपलब्ध है। ग्रंथों में पराशर के उद्धरण लिये गये हैं । विश्वरूप ने भी डॉ. काणे के अनुसार, इस स्मृति का रचनाकाल १ली शती | इसका कई बार निर्देश किया है (याज्ञ. ३.१६; २५७ )। एवं ५ वी शती के बीच का होगा | याज्ञवल्क्यस्मृति इससे स्पष्ट है की ९ वें शती के पूर्वार्ध में 'पराशर. एवं गरुड़ पुराण में इस स्मृति के काफी उद्धरण स्मृति' एक 'प्रमाण ग्रंथ ' माना जाता था। एवं सारांश दिये गये हैं (याज्ञ. १. ४; गरुड़. १. | (२) बृहत्पराशरसंहिता-यह स्मृति जीवानंद १०७)। ___ इस स्मृति में कुल बारह अध्याय, एवं ५९२ श्लोक संग्रह में (२.५३-३०९) उपलब्ध है। 'पराशरस्मृति' के पुनर्सस्करण एवं परिवृद्धिकरण कर के इस ग्रंथ की है। इस स्मृति की रचना कलियुग में धर्म के रक्षण रचना की गयी है। इस ग्रंथ में बारह अध्याय एवं ३३०० करने के हेतु से की गयी है । कृतयुग के लिये 'मनुस्मृति', त्रेतायुग के लिये 'गौतमस्मृति', द्वापारयुग के श्लोक हैं । पराशर परंपरा के सुव्रत नामक आचार्य ने इस लिये 'शंखलिखितस्मृति', वैसे ही कलियुग के लिये | ग्रंथ की रचना की है । यह ग्रंथ काफ़ी उत्तरकालीन है। 'पराशरस्मृति' की रचना की गयी (परा, १.२४)। (३) वृद्धपराशर स्मृति–पराशर के इस स्वतंत्र मनुस्मृति गौतम स्मृति की अपेक्षा, पराशरस्मृति अधिक | स्मृतिग्रंथ का निर्देश अपरार्क ( याज्ञ. २.३१८), एवं 'प्रगतिशील' प्रतीत होती है। उसमें ब्राह्मण व्यक्ति | माधव (पराशर माधवीय. १.१.३२३०) ने किया है। को शूद्र के घर भोजन करने की एवं विवाहित स्त्रियों को | (४) ज्योति पराशर-इस स्मृतिग्रंथ का निर्देश पुनर्विवाह करने की अनुमति दी गयी है। परचक्र, | हेमाद्रि ने अपने 'चतुर्वर्गचिंतामणी (३.२.४८) में प्रवास, व्याधि एवं अन्य संकटों के समय, व्यक्ति ने | एवं भट्टोजी दिक्षित ने अपने 'चर्तुविशांतिमत' में किया सर्वप्रथम अपने शरीर का रक्षण करना आवश्यक है, | है। ३९७ Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन चरित्रकोश (५) पराशर नितिश की टिल्य ने इसका निर्देश केवलसार तथा एक ग्रंथ और भी पराशर ने लिखा किया है। था। पराशर ज्योतिषशास्त्रकार -- सिद्धांत, होरा एवं संहिता इन तीन स्कंधों से युक्त ज्योतिषशास्त्र के प्रवर्तक अठारह ऋषियों में पराशर प्रमुख था । ज्योतिषशास्त्रकार अठारह ऋपियों के नाम इस प्रकार है— सूर्य, पितामह, व्यास, वसिष्ठ, अत्रि, पराशर, कश्यप, नारद, गर्ग, मरीचि, मनु, अंगिरा, लोमश, पौलिश, च्यवन, यवन, भृगु एवं शौनक ( कश्यप संहिता)। अपने ज्योतिषशास्त्रीय ग्रंथों में, पराशर ने 'वसंत संपात' स्थिति का निर्देश किया है । पराशर के ज्योतिषशास्त्रीय ग्रंथ इस प्रकार है( १ ) परागरसंहिता - इस ग्रंथ में, पराशर ने प्रयोतिषशास्त्र से संबंधित निम्न पूर्वाचायों का निर्देश किया है:- ब्रह्मा मायारुण, वसिष्ठ, मांडव्य, वामदेव । पराशर के ज्योतिषशास्त्रीय शिष्यों में मैत्रेय एवं कौशिक प्रमुख थे। आयुर्वेदशास्त्रज्ञ - पराशर एक आयुर्वेदशास्त्रज्ञ मी था । यह अग्निषेश मेल, काश्यप एवं खण्डकाप्य इन आयुर्वेदाचार्यों से समकालीन था । पराशर के नाम पर निम्नलिखित आयुर्वेदीय ग्रंथ प्राप्त हैं। -- ( १ ) पराशरतंत्र, (२) वृद्धपराशर, (३) हस्तिआयुर्वेद, (४) गोलक्षण, (५) ( ४ ) वेतपराशर - इस वंश के प्रमुख कुल: -- इषी (२) बृहत्पाराशरहोराशा - इस ग्रंथ में १२००० कहस्त उपय (ग), बालय (ग), आविश्वायन, स्वाव श्लोक है । (ग)। ( ३ ) लघुराराशरी । पुराण इतिहास पराशर पुराण एवं इतिहास शास्त्र में भी पारंगत था । पुराण ग्रंथो में, 'विष्णु पुराण' सारस्वत ने पराशर को एवं पराशर ने अपने शिष्य मैत्रेयको बताया था। विष्णु पुराण में, पराशर को इतिहास एवं पुराणों में विश कहा गया है ( विष्णु. १. १) । 'भागवत पुराण' भी सांख्यायन ऋपिद्वारा पराशर एवं बृहस्पति को सिखाया गया, एवं वह पराशर ने मैत्रेय को सिखाया ( भा. ३.८ ) । पराशर के नाम पर 'पराशरोप पुराण' नामक एक पुराण ग्रंथ उपलब्ध है । माधवाचार्य ने उसका निर्देश किया है। पराशर पराशर वंश -- पराशर के वंश की कुल छः उपशाखायें उलब्ध है। उनके नाम:- १. गीरपराशर, २. नीलपराशर २. कृष्णपराशर, ४. वेतपराशर, ५. श्यामपराशर, ६. धूम्राराशर ( मल्य. २०० ) । ( १ ) गौरपराशर -- इस वंश के प्रमुख कुल:- कांडय ( कांडशय ), गोपालि, जैाप (समय), भौमतापन समतापन ), वाहनप ( वाहयौज ) । ( ( २ ) नीलपराशर -- इस वंश के प्रमुख कुल:--केतु जातेय, सातेय (ग) प्रपोहय ( ग ), वामय हवंय 3 ( ४ ) पाराशर्यकल्प — विमानविद्या पर महाग्रंथ, क्रोधनायन, क्षमि, बादरि, वाटिका, स्तंत्र । - पराशरपरंपरा के किसी ध्यासने लिखा है। अन्य ग्रंथ - - पराशर के नाम पर पराशर वास्तुशास्त्र ' नामक एक वास्तुशास्त्र विषयक एक ग्रंथ भी उपलब्ध है | विश्वकर्मा ने उसका निर्देश किया है। 'पराशर (३) कृष्णपराशर -- इस वंश के प्रमुख कुल:-- कपिमुख (मपिश्ववम्) (ग), कायस्थ (काव्य) ( ग ), कार्ष्णायन ( ग ), जपातय ( ख्यातपायन ) ( ग ), . पुष्कर । ( ५ ) श्यामपराशर - इस वंश के प्रमुख कुल : (६) धूम्रपत्र- इस वंश के प्रमुख कुल खल्यायन (ग), तंति (जर्ति), तैलेय, यूथप, एवार्ष्णायन । उपनिर्दिष्ट वंशो में से, 'गौरपराशर वंश के लोग वसिष्ठ, मित्रावरुण एवं कुंडिन इन तीन प्रवरों के हैं। बाकी सारे वंश के लोग पराशर, वसिष्ठ एवं शक्ति इन तीन प्रवरों के हैं । २. एक ऋग्वेदी श्रुतर्षि, ऋषिक एवं ब्रह्मचारी । यह व्यास की शिष्यपरंपरा में से बाध्य ऋषि का शिष्य था । इसके नाम से इसकी शाखा को 'पराशरी' नाम प्राप्त हुआ २. वायु एवं ब्रह्मांड के अनुसार, व्यास की सामशिष्यपरंपरा में से हिरण्यनाभ ऋषि का शिष्य । ब्रह्मांड में इसके नाम के लिये पाराशय पाठभेद प्राप्त है। ' " ४. व्यास की सामशिष्यपरंपरा में से कुकुमि ऋपिका शिष्य । से ५. ब्रह्मांड के अनुसार, व्यास की यजुः शिष्यपरंपरा में याज्ञवल्क्य का बाय शिष्य ( व्यास देखिये) । ६. ऋयम नामक शिवावतार का शिष्य । ७. धृतराष्ट्र के वंश में उत्पन्न एक नाग, जो जनमेजय के सर्पसत्र में स्वाहा हो गया ( म. आ. ५२.१७ ) । ३९८ Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पराशर प्राचीन चरित्रकोश परिक्षित् ८. एक ऋषि । इसने ऋतुपर्णपुत्र नल राजा का रक्षण | प्रकार थे:--शबलाश्व, आदिराज, विराज, शाल्मलि, किया था (भा. ९.९.१७; सर्वकर्मन् देखिये)। उच्चैःश्रवा, भंगकार और जितारि। परिकूट--विश्वामित्रकुल का एक गोत्रकार । । इसके माता का नाम वाहिनी था। इसे कुल सात परिकृष्ट-- वायु और ब्रह्मांड के अनुसार, व्यास की पुत्र थे। उनके नाम--१. कक्षसेन, २. उग्रसेन ३.चित्रसेन, सामशिष्यपरंपरा के हिरण्यनाभ ऋषि का शिष्य। ४. इंद्रसेन, ५. सुषेण, ६. भीमसेन, ७. जनमेजय (म. परिक्षित्-एक कुरुवंशीय वैदिक राजा । अथर्ववेद | आ. ८९.४६-४८)। वे सारे पुत्र धर्म एवं अर्थ के में इसके राज्य की समृद्धि एवं शान्ति का गौरवपूर्ण ज्ञाता थे। निर्देश किया गया है (अ. वे. २०.१२७.७-१०)। ४.(सो. कुरु.) एक कुरुवंशीय राजा। यह कुरु अथर्ववेद के जिन मंत्रों में इसकी प्रशस्ति है, उन्हें ब्राह्मण | राजा अरुग्वत् (अनश्वत् ) एवं मागधी अमृता का ग्रंथों में 'पारिक्षित्य मंत्र' कहा गया है (ऐ. ब्रा ६.३२. पुत्र था। इसकी पत्नी का नाम बाहुदा सुयशा था। उससे १०; कौ. ब्रा. ३०.५; गो. बा. २.६.१२; सां. श्री. १२- इसे भीमसेन नामक पुत्र हुआ था। कुरु राजा से लेकर १७; सां. ब्रा. ३०.५.)। शंतनु तक का इसका वंशक्रम इस प्रकार है:--कुरु-विडूरथ वैदिक साहित्य में जनमेजय राजा का पैतृक नाम | अरुग्वत्-परिक्षित्-भीमसेन -प्रतीप--शंतनु (म. आ. 'पारिक्षित' दिया गया हैं। वह उपाधि उसे वैदिक | ९०.४३-४८)। साहित्य में निर्दिष्ट 'परिक्षित् ' राजा के पुत्र होने से | ५. एक कुरुवंशीय सम्राट् । यह अर्जुन का पात्र तथा मिली होगी। अभिमन्यु एवं उत्तरा का पुत्र था। महाकाव्य में इसे 'प्रतिश्रवस्' का पितामह एवं भारतीय युद्ध के पश्चात् , हस्तिनापुर के राजगद्दी पर 'प्रतीप' का प्रपितामह कहा गया है । सिमर के अनुसार, | बैठनेवाला पहला 'कुरुवंशय' सम्राट परिक्षित है। अथर्ववेद में निर्दिष्ट 'प्रातिसुंत्वन् ' एवं 'प्रतिश्रवस्' राजधर्म एवं अन्य व्यक्तिगुणों से यह परिपूर्ण था। किंतु दोनों एक ही थे (सिमर. आल्टिन्डिजे लेवेन. १३१)। | इसकी राज्य की समृद्धि एवं इसने अन्य देशों पर किये इस राजा की प्रशंसा करने के लिये, अन्य देवताओं, आक्रमणों की जो कथाएँ क्रमशः अथर्ववेद एवं पुराणी विशेषतः अग्नि के साथ, इसकी स्तुति की गयी है। में दी गयी है, वे इसकी न हो कर, संभवतः किसी पूर्व २. (सू. इ.) अयोध्या का इक्ष्वाकुवंशीय राजा। कालीन 'परिक्षित् ' राजा की होगी (परिक्षित १. मंडूकों के राजा आयु की कन्या सुशोभना से इसका देखिये)। विवाह हुआ था। विवाह के समय, सुशोभना ने इसे शर्त | महाभारत के अनुसार, परिक्षित् का राज्य सरस्वती रखी थी, 'मेरे लिये पानी का दर्शन वर्ण्य है। इसलिये | एवं गंगा नदी के प्रदेश में स्थित था । आधुनिक थानेश्वर, पानी का दर्शन होते ही, मैं तुम्हें छोड़ कर चली जाऊँगी।' | देहली एवं गंगा नदी के दोआब का उपरिला प्रदेश एक बार यह मृगया के लिये वन में गया था। वहाँ | उसमें समाविष्ट था (रॉयचौधरी-पृ. २०)। कलियुग का प्रसंगवशात् यह अपनी पत्नी के साथ एक बावड़ी के पास | प्रारंभ, एवं नागराज तक्षक के हाथों इस की मृत्यु, हुयी थी आया। वहाँ पानी का दर्शन होते ही, अपने शर्त के | ये परिक्षित् के राज्यकाल की दो प्रमुख घटनाएँ थी। अनुसार, सुशोभना पानी में लुप्त हो गयी। फिर क्रुद्ध हो। जन्म--- अश्वत्थामा के द्वारा छोड़े गये ब्रह्मास्त्र के कर, परिक्षित् ने अपने राज्य में मंडूकवध का सत्र शुरू किया | कारण, उत्तरा के गर्भ में स्थित परिक्षित् झुलसने लगा। उस सत्र से घबरा कर, मंडूकराज आयु इसकी शरण में | फिर उत्तरा ने भगवान् विष्णु को पुकारा । श्रीविष्णु ने आया, एवं इसकी खोई हुई पत्नी उसने इसे वापस | इस गर्भ की रक्षा की । इसलिये इसका नाम 'विष्णरात' दी। पश्चात् सुशोभना से इसे शल, दल, तथा बल नामक | रखा गया। तीन पुत्र हुये (म. व. १९०)। जन्म लेने के उपरांत, यह गर्भकाल में अपनी रक्षा ___३. (सो. कुरु) एक कुरुवंशीय राजा, एवं कुरु राजा करनेवाले श्रीविष्णु को इधरउधर हूँढने लगा। इस कारण, का पौत्र । यह कुरु आविक्षित के आठ पुत्रों में से ज्येष्ठ । इसे 'परीक्षित् ' (परि+ईक्ष) नाम प्राप्त हुआ (भा. १. था। इसे अश्ववत् तथा अभिष्वत् नामांतर भी प्राप्त थे १२.३०)। 'परिक्षित् ' नाम की यह व्युत्पत्ति कल्पनारम्य, (म. आ. ८९.४५-४६)। इसके भाइयों के नाम इस प्रतीत होती है, क्यों की, इस व्युत्पत्ति के अनुसार, 'परिक्षित' ३९९ Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिक्षित् प्राचीन चरित्रकोश परिक्षित् का नाम 'परीक्षित् ' होना चाहिये। किंतु महाभारत में में निमग्न था, अतएव जल के लिये की गई याचना सुन सर्वत्र इसका नाम 'परिक्षित् ' दिया गया है। महाभातर | न सका। क्रोधित हो कर, धनुष की नोक से ए क मृत सर्प के अनुसार, कुरुवंश 'परिक्षीण' होने के पश्चात् इसका उठा कर, इसने शमीक ऋषि के गले में डाल दिया, और जन्म हुआ, इस कारण 'परिक्षित् ' नाम प्राप्त हुआ (म. | अपने नगर वापस लौट आया (म. आ. ३६.१७-२१)। आश्व. ७०.१०) पास ही खेल रहे शमीक ऋषि के शुंगी नामक पुत्र को श्रीकृष्ण के मृत्यु के पश्चात् , युधिष्ठिर ने छत्तीस वर्षों | यह ज्ञात हुआ। उसने क्रोधित हो कर इसे शाप दिया, तक राज्य किया। पश्चात् युधिष्ठिर ने राज्यत्याग कर, इसे | मेरे पिता के कंधे पर मृत सर्प डाल कर जिसने उसका राजगद्दी पर बैठाया गया (म. महा. १.९) बाद में द्रौपदी | अपमान किया है, उस परिक्षित् राजा को आज से के सहित सारे पाण्डव महाप्रस्थान के लिए चले गये। सातवें दिन मेरे द्वारा प्रेरित नागराज तक्षक दंश करेगा। राज्याभिषेक के समय यह छत्तीस वर्ष का था। इसकी इस कथा में से शमीक ऋषि के पुत्र का नाम, कई जगह पत्नी भद्रवती थी। बंबई आवृत्ति में इसका नाम भाद्रवती 'गविजात' दिया गया है। प्राप्त है। भागवत में लिखा है कि, इसके मातुल बाद में, शमीक को अपने पुत्र का शापवचन ज्ञात की कन्या इरावती इसकी पत्नी थी। उससे इसे जनमेजय, हुआ। उसने अपने शिष्य गौरमुख के द्वारा यह शाप श्रुतसेन, उग्रसेन तथा भीमसेन नामक चार पुत्र हुयें (म. परिक्षित को सूचित कराया, और पुत्र की भर्त्सना की (म. आ. ९०-९३; आश्व.६८; भा. १.१२.१६; ९.२२.३५)। आ. ३८.१३-२८)। राज्य में कलिम्वेश-कृपाचार्य को ऋत्विज बना कर, इसने | शाप का पता चलते ही, परिक्षित् को अपने कृतकर्म भागीरथी के तट पर तीन अश्वमेधयश किये। इसके यज्ञ का पश्चाताप हुआ। अपनी सुरक्षा के लिये, इसने सात में देव प्रत्यक्ष रूप से अपना हविर्भाव लेने आये थे। मंजिलवाला स्तम्भयुक्त महल बनवाया, एवं औषधि, जब यह कुरजांगल देश में राज्य कर था, इसे ज्ञात हुआ। मंत्र आदि जाननेवालों मांत्रिको के समेत यह वहाँ कि कलि ने राज्य में प्रवेश लिया है। तत्काल यह रहने लगा। भागवत में लिखा है की, शाप सुनते ही अपनी चतुरंगी सेना ले कर निकल पड़ा । भारत. परिक्षित् को वैराग्य उत्पन्न हो गया, और यह गंगा. के केतुमाल, उत्त कुरु, भद्राश्व आदि खण्ड जीत कर, इसने | किनारे प्रायोपवेशन के विचार से ईश्वर का ध्यान करने । वहाँ के राजाओं से करभार प्राप्त किया। लगा। वहाँ अत्रि, अरिष्टनेमि इत्यादि कई ऋषि आये। ___एक बार इसने सरस्वती के किनारे गोरूप धारी पृथ्वी, | बाद में इसने अपने पुत्र जनमेजय का राज्याभिषेक तथा तीन रोंवाले वृक्षभरूपधारी धर्म का संवाद सुना। किया। महाभारत में दिया गया है कि, परिक्षित की मृत्यु इस संबाद से इसे पता चला कि, श्रीकृष्ण के निजधाम | के बाद जनमेजय का राज्याभिषेक हुआ। ऋषियों के चले जाने के कारण, कलि ने इस पृथ्वी में प्रवेश पा लिया | बीच बातचीत चल ही रही थी कि सोलहवर्षीय ३ काचार्य है, और शूद्ररूप धारण कर वह सब को दुःख देता ऋषि सहज भाव से उस स्थान पर उपस्थित हुआ । सबने हुआ गाय बैलों को मार रहा है। इस से खिन्न हो | उनका स्वागत किया। परिक्षित् ने भी उसे उच्चासन कर कलि को समाप्त करने के लिये यह उद्यत हो उठा।| दिया तथा श्रद्धा के साथ उनकी पूजा की । इसने उनसे कलि इसकी शरण में आया। इसके राज्य से बाहर जाने | मरणोन्मुख पुरुष के निश्चित कर्तव्य तथा सिद्धि की आज्ञा स्वीकार कर उसने राजा से पूछा, 'मेरे निवास | के साधन पूछे। इसके सिवाय और भी प्रश्न किये। के लिये कौन कौन स्थान हैं ?' तब जुआ, मद्य, व्यभिचार, | शुक्राचार्य ने इसके सारे प्रश्नों के यथायोग्य उत्तर दिये हिंसा, तथा स्वर्ण नामक पाँच स्थान, राजा ने कलि के रहने | (भा. १.१७.१९; २.८)। इस प्रकार समग्र ‘भागवत' के लिये नियत किये। इससे धर्म तथा पृथ्वी को भी | पुराण शुकाचार्य के द्वारा श्रवण कर, यह पूर्ण ज्ञानी बना। संतोष हुआ (भा. १.१६.१७)। इसका तक्षक दंश का भय नष्ट हुआ, तथा शुकाचार्य भी शाए--एक बार जब यह मृगया के लिये अरण्य में | वहाँ से चला गया। गया था, तब अत्यधिक प्यासा हो कर पीने के लिए जल | पूर्व में दिये गये शाप के अनुसार, प्राषिपुत्र शंगी के हूँढ़ने लगा। इधर उधर जल ढूँढ़ने के उपरांत, यह | द्वारा सातवें दिन भेजा गया तक्षक, परिक्षित् को दंश शमीक ऋषि के आश्रय गया। शमीक उस समय ध्यान | करने जा रहा था। इसी समय मार्ग में काश्यप नामक ४०० Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिक्षत् प्राचीन चरित्रकोश परिप्लव मांत्रिक, राजा का विष उतार कर, द्रव्य प्राप्ति की इच्छा | परिक्षित् न कर सका, एवं तक्षक के हाथों इसकी मृत्यु हो से राजा के पास जा रहा था। उसे विपुल धनराशि | गयी। दे कर तक्षक ने वापस भेज दिया (काश्यप २. पौराणिककाल-परीक्षित के राज्यारोहण से ले कर, देखिये)। मगध देश के बृहद्रथ राजवंश के समाप्ति तक का काल, • तक्षकदंश-तक्षक ने कुछ नागों को फल, मूल, दर्भ, | प्राचीन भारतीय इतिहास में 'पौराणिककाल' माना उदक आदि देकर तापस वेश से परिक्षित् के पास भेजा। जाता है। यह कालखंड भारतीययुद्ध (१४०० ई. पू.) तक्षक स्वयं अतिसूक्ष्म जन्तु का रूप धारण कर फलों में से शुरु होता है, एवं मगध देश में 'नंद राजवंश' के प्रविष्ट हुआ। तापसवेषधारी नाग राजद्वार के पास | उदयकाल (४०० ई. पू.) से समाप्त होता है। इस काल आकर कहने लगे, 'हम राजा को अथर्वण मंत्रों से | में उत्तर एवं पूर्वभारत में उत्पन्न हुये पौरव, ऐक्ष्वाकु, आशीर्वाद देकर अभिषेक करने के लिये, तथा राजा को | एवं मागध राजाओं की विस्तृत जानकारी पुराणों में मिलती उत्कृष्ट फल देने के लिये आये हैं।' है। उन राजाओं के समकालीन पंचाल, काशी, हैहय, परिक्षित ने उनके फल स्वीकार किये। वे फल सुहृदों | कलिंग, अश्मक, मैथिल, शूरसेन एवं वीतहोत्र राजवंशों की को खाने के लिये दे कर, इसने एक बड़ा सा फल स्वयं | प्रासंगिक जानकारी पुराणों में दी गयी है । कहीं-कहीं तो, खाने के लिये फोड़ा। उसमें से एक सूक्ष्म जन्तु बाहर | विशिष्ट राजवंश में पैदा हुए राजाओं की केवल संख्या ही निकला। उसका वर्ण लाल तथा आखें काली थी। उसे | पुराणों में प्राप्त है। पुराणो में प्राप्त इस 'कालखंड' की देख कर, परिक्षित् ने बड़े ही व्यंग्य से मंत्रियों से कहा, | जानकारी, आधुनिक उत्तर प्रदेश एवं दक्षिण बिहार से 'आज सातवाँ दिन है, एवं सूर्य अस्ताचल को जा रहा | मर्यादित है। है। फिर भी नागराज़ तक्षक से. मुझे भय प्राप्त नहीं पुराणों के अनुसार, 'परिक्षित्जन्म' से लेकर मगध हुआ। इसलिये कहीं यह जन्तु ही तक्षक न बन जाये, | देश के महापन नंद के अभिषेक तक का कालावधि, एक तथा मुझे डस कर मुनिवाक्य सिद्ध न कर दे। हजार पाँचसौ वर्षों का दिया गया है (मत्स्य. २७३.३६)। . इतना कह कर परिक्षित् ने उस जन्तु को अपनी गर्दन | किंतु 'विष्णुपुराण' में 'ज्ञेय' के बदले 'शतं' पाठ पर धारण किया । तत्काल तक्षक ने भयंकर स्वरूप धारण | मान्य कर, यही अवधि एक हजार एक सौ पंद्रह वर्षों का कर इसके शरीर से लिपट गया, तथा अपने मुख से | निश्चित किया गया है (विष्णु. ४.२४.३२)। निकलनेवाली भयंकर विषमय ज्वालाओं से परिक्षित् ७. एक प्राचीन नरेश, जो कुरुवंशी अभिमन्युपत्र से के शरीर को दग्ध करने लगा। पश्चात् तक्षक आकाशमार्ग भिन्न था। इसके पुत्र जनमेजय की ब्रह्महत्या का . से चला गया (म. आ. ३६-४०, ४५-४७; दे. भा. निवारण इन्द्रोत मुनि ने किया था (म. शां. १४७२.८-१०)। १४८)। भागवत के अनुसार, ब्राह्मणरूप धारण कर, तक्षक ने परिघ-(सो. क्रोष्ट.) एक राजा । मत्स्य तथा वायु परिक्षित् के महल में प्रविष्ट पाया, तथा परिक्षित को दंश किया। जिससे परिक्षित् की मृत्यु हो गयी (भा. १२.६)। | के अनुसार, यह रुक्मकवच का पुत्र था । पद्म के अनुसार, मृत्यु के समय इसकी आयु छियान्नवे वर्ष की थी। इसने यह रुक्मकवच का पौत्र, एवं परावृत् का पुत्र था (पन. कुल साठ वर्षों तक राज्य किया (दे. भा. २.८)। सु. १३)। इसे पालित तथा पुरुजित् नामांतर प्राप्त थे । परिक्षितकथा का अन्वयार्थ--महाभारत एवं पुराणों । । २. अंशद्वारा स्कंद को दिये गये पाँच पार्षदों में से में प्राप्त 'परिक्षित्वध' की उपनिर्दिष्ट कथा ऐतिहासिक एक । अन्य चार पार्षदों के नाम इस प्रकार थेः-वट, दृष्टि से यथातथ्य प्रतीत होती है। परिक्षित् के राज्यकाल भीम, दहति, एवं दहन। में, गांधार देश में नाग लोगों का सामर्थ्य काफी बढ़ गया ३. बिडालोपाख्यान में वर्णित व्याध का नाम (म. था। भारतीययुद्ध के कारण, हस्तिनापुर के पौरव राज्य | शां. १३६-११०)। क्षीण एवं बलहीन बन गया था। उसकी इस दुर्बल अवस्था | परिप्लव--(सो. कुरु. भविष्य.) एक राजा । विष्णु के का फायदा उठा कर, नागों के राजा तक्षक ने हस्तिनापुर | अनुसार, यह सुखीबल राजा का पुत्र था। किन्तु भागवत पर आक्रमण किया। तक्षक के इस आक्रमण का प्रतिकार | में इसे सुखीनल का पुत्र कहा गया है। इसके नाम के प्रा. च. ५१] ४०१ Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिप्लव प्राचीन चरित्रकोश पर्णिन लिये प्रजानि, परिष्णाव, एवं परिप्लत पाठभेद भी प्राप्त है | वे. ४.१५.१), वशा (ऋ. ७.१०१.३), पिता (ऋ (सुनय देखिये)। ९.८२.३; अ. वे. ४.१५.१२), पृथ्वी की माता, एवं परिप्लत-परिप्लव का नामांतर । पर्जन्य का पिता (अ. वे. १०.१०.६) कहा गया है। परिबह-गरुड़ के पुत्रों में से एक । यह वशा की पत्नी कही गयी है। इसमें एवं इंद्रदेवता में परिमति--भव्य देवों में से एक । काफी साम्य है (ऋ. ८.३.१)। परिव्याध-पश्चिम दिशा में रहनेवाला एक महर्षि २. रैवत मन्वंतर का एक सप्तर्षि । ३. फाल्गुन माह में भ्रमण करनेवाला सूर्य (भा. १२. (म. शां. २०१.२९)। परिश्रवस्--कुरुवंशीय राजा प्रतीप का नामान्तर ११.४०)। इसके साथ निम्नलिखित लोग रहते हैं :(प्रतीप दखिये ।। (१) ऋतु नामक यक्ष, (२) वर्चस् नामक राक्षस, परिश्रुत-स्कंद के दो सैनिकों के नाम (म. श. ४४.१३ (३) भरद्वाज नामक ऋषि, (४) विश्वा नामक अप्सरा, ५५-५६)। | (५) सेन जित् नामक गंधर्व, तथा (६) ऐरावत नामक परिष्णव-- (सो. कुरु. भविष्य.) एक राजा । मत्स्य नाग। के अनुसार यह सुखीनल का पुत्र था। परिप्लव इसीका | ४. कश्यप एवं मुनि के पुत्रों में से एक देवगंधर्व (म. ही नामांतर था (परिप्लव देखिये)। आ. ५९.४३)। पाठभेद 'प्रद्युम्न'। यह अर्जुन के परिप्वंग--एक ऋष। यह स्वायंभुवमन्वंतर के | जन्मोत्सव में उपस्थित था (म. आ. ११४.४५)। .. ' मरीचि ऋषि को. ऊर्णा नामक स्त्री से उत्पन्न, छः पुत्रों में से पर्णजंघ--विश्वामित्र के पुत्रों में एक । एक था । इसके अन्य पाँच भाइयों के नाम इस प्रकार पर्णय---एक दानव। इंद्र ने अतिथिग्व राजा के लिये । थे:--स्मर, उद्गीथ, क्षुद्रभृत् , अग्निश्वात्त, एवं घृणी इसका वध किया (ऋ. १.५३.८; १०.४८.८)। . (भा. १०.८५ दे. भा. ४.२२)। अगले जन्म में इसने | पर्णवि--अत्रिकुलोत्पन्न एक गोत्रकार। कृष्ण के छः बंधुओं में से एक को पुनः जन्म लिया, एवं | पर्णा--हिमवत् को मेना से उत्पन्न तीन कन्याओं में कंस के हाथों यह मारा गया (भा. १०.८५.५१)। से एक । 'एकराटला' इसीका ही नामांतर था (एकपाटला .. परिहर-चित्रकूट के पास स्थित कलिंजर नगर का | देखिये)। एक राजा। यह अथर्वपरायण एवं बौद्ध लोगों पर विजय पर्णागारि--वसिष्ठकुल का एक गोत्रकार (पन्नगारि ३. पानेवाला था। इसने बौद्ध लोगों की हिंसा कर, उन पर देखिये)। विजय पाया था (भवि. प्रति. ११.७)। इसने बारह पर्णाद-एक विदर्भनिवासी ब्राहाण। इसे दमयंती वर्षों तक राज्य किया (भवि. प्रति ४.४)। ने नल राजा के शोधार्थ अयोध्या भेजा था। बाहुक परुच्छेप दैवोदासी-एक वैदिक सूक्तद्रष्टा (ऋ. १. | नामधारी नल का समाचार इसने दमयंती को बताया। १२७-१३९)। सूक्तद्रष्टा नाते से ब्राह्मण ग्रंथों में भी फिर दमयंती ने इसे पुरस्कार दिया (म. व. ६८.१)। इसका उल्लेख प्राप्त है (ऐ. ब्रा. ५.१२-१३; सां. बा. २. एक ऋषि | विदर्भवासी सत्य नामक ब्राह्मण के यज्ञ २३.४; को. बा. २३.४.५)। कुछ शब्दों का बार-बार | मैं, इसने होतृ का काम किया था (म. शां. २६४. उपयोग करने की इसकी आदत थी (नि. १०.४२)। । ८ पाठ)। नृमेध तथा परुच्छेप ऋषियों में मंत्रसामर्थ्य के बारे । ३. युधिष्ठिर की सभा का एक ऋषि (म. स. ४.११)। में स्पर्धा हुई थी। उसमें नृमेध ने गीली लकड़ी से धुआँ हस्तिनापुर जाते समय, मार्ग में श्रीकृष्ण से इसकी भेंट उत्पन्न किया। फिर परुच्छेप ने बिना लकड़ी से अग्नि | हुयी थी (म. उ. ३८८४)। उत्पन्न कर, नृमेध को हराया (तै. सं. २.५.८.३)। । पर्णाशा-वरुण की सभा में उपस्थित एक नदी परुष--खर राक्षस के १२ अमात्यों में से एक। (म. स. १०३४)। इसने वरुण के द्वारा श्रुतायुध परोक्ष--(सो. अनु.) भागवत के अनुसार, अनु नामक पुत्र को जन्म दिया। वरुण ने उस पुत्र को अवध्य राजा के तीन पुत्रों में से कनिष्ठ (परपक्ष देखिये)। होने का वर दिया था (म. द्रो. ६७.४४-५८)। __ पर्जन्य--एक देवता । ऋग्वेद में इस देवता का वर्णन | पर्णिन--वायु के अनुसार, व्यास की यजुः शिष्यपरंपरा तीन सूक्तों में आया है। इसे वृषभ (ऋ. ५.८३.१; अ. | के याज्ञवल्क्य का वाजसनेय शिष्य (व्यास.देखिये)। Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्णिनी प्राचीन चरित्रकोश पलिंगु पर्णिनी-एक अप्सरा (ब्रह्मांड. ३.७.१८-२४)। के जन्म में हम दोनों हंस होनेवाले हैं, तथा उसके बाद पर्युषित--एक पापी पुरुष । प्रेतयोनि में गये इस | हमें मनुष्य देह प्राप्त होगी। उसके कथनानुसार इसे मनुष्य का पृथु नामक ब्राह्मण ने उद्धार किया (पद्म. स. | फिर मनुष्यजन्म प्राप्त हुआ (पद्म. उ. १२९)। ३२)। -पाणिनि के अनुसार एक आयुधजीवि संघ पर्वण--रावण के पक्ष के राक्षसों एवं पिशाचों का एक | (पा. स. ५.३.११७) । ऋग्वेद में इन लोगों का निर्देश दल (म. व. २६९.२)। पृथु लोगों के साथ 'पृथु-पर्शव' नाम से प्राप्त है (ऋ.७ पर्वत-एक देवर्षि । यह कश्यप ऋषि का मानसपुत्र | ८३.१) । इन दो लोगों ने सुदास राजाको मदद दी, एवं (ब्रह्मांड. ३.८.८६), एवं नारद महर्षि का भतीजा था | मिल कर कुरुश्रवण राजा को पराजित किया (ऋ. १०. (म. स. ४.१३; ७.९, १०.२७; शां. ३०.२८)। महा- ३३.२)। लुडविग के अनुसार, आधुनिक मध्य एशिया भारत में अनेक स्थलों पर, यह एवं नारद का साथ साथ । | में रहनेवाले 'पर्थियन' एवं पर्शियन लोग ही, संभवतः निर्देश प्राप्त है। इन दोनों को गंधर्व एवं देवर्षि माना प्राचीन 'पृथुपार्शव' मानवसंघ रहा होगा (लुडविग, ऋग्वेद जाता है। अनुवाद)। यह जनमेजय के सर्पसत्र का सदस्य था (म. आ. ४८. प्राचीन पर्शिया के लोगों के साथ वैदिक आर्यों का ८)। यह युधिष्ठिर की सभा में (म. स. ४.१३), इंद्र- | घनिष्ठ संबंध था। उस ऐतिहासिक संबंध को पृथु एवं सभा में (म. स. ७.९), एवं कुबेरसभा में (म. स. पशुओं के निर्देश से पुष्टि मिलती है। भाषाशास्त्रीय दृष्टि १०.२६) विराजता था। यह शरशय्या पर पड़े हुये भीष्म से. वैदिक 'पर्श' एवं प्राचीन ईरानी 'पास' तथा के दर्शन के लिये गया था (भा. १.९.६)। पांडवों के | बावेरु भाषा में प्राप्त 'परसु' (बहिस्तून शिलालेख) वनवासकाल में, यह उन्हें मिलने 'काम्यकवन' गया था, | ये तीन ही शब्दों में काफी साम्यता है। एवं शुद्धभाव से तीर्थयात्रा करने की आज्ञा उन्हें दी थी | __'पर्श' संघ का हरएक सदस्य 'पार्शव' कहलाता .(म. व. ९१.१७-२५)। था । पाणिनि के समय, ये लोग भारत के दक्षिणपश्चिम एक बार संजय राजा की कन्या दमयंती से, नारद एवं के प्रदेश में रहते थे । उत्तर भारत में रहनेवाले 'पार्थोई' यह दोनों एकसाथ प्रेम करने लगे। पश्चात् दमयंती एवं | लोगों का निर्देश 'पेरिप्लस' में प्राप्त है। . नारद का विवाह होने पर, इसने क्रुद्ध हो कर नारद को २. ऋग्वेद के दानस्तुति में निर्दिष्ट एक राजा (ऋ. शाप दिया, 'तुम वानरमुख बनोंगे' (म. शां. ३०.२४; | ८.६.४६ )। यह संभवतः 'पशु' मानवसंघ का राजा नारद देखिये)। रहा होगा । वत्स काण्व ऋषि का प्रतिपालक ' तिरिंदर . ब्रह्मसरोवर के तट से, अगस्त्य ऋषि के कमलों | पारशव्य' नामक एक राजा था (सां. श्री. १६.११.२०) • की चोरी होने पर, अन्य ऋषियों के साथ इसने भी | वह संभवतः इसी 'पशु' राजा का पुत्र होगा। 'शपथ खायी थी (म. अनु. १४३.३४)। शु मानवी--पश लोगों की एक राजकुमारी (ऋ. - पर्वत काण्व-एक वैदिक सूक्तद्रष्टा (ऋ. ८.१२, | १०.८६.२३)। कात्यायन के अनुसार, यह पशु लोगों में ९.१०४; १०५)। नारद के साथ इसका कई बार उल्लेख से एक स्त्री का नाम था (पा. सू. ४.१.१७७ वार्तिक . आया है (ऐ. ब्रा. ८.२१, ७.१३; ३४; सां. श्री. १५. | २)। इसे कल बीस पत्र हये थे। १७.४ )। इसे देव भी माना गया है । ___ सायण के अनुसार, यह एक मृगी का नाम था । पर्वतायु--बालधि ऋषि का पुत्र । 'मेधावी' इसीका । पलस्तिजमदग्नि-एक ऋषि इसने ससर्परीविद्या सूर्य से नामांतर था। ला कर विश्वामित्र को दी । सायण इसका अर्थ दीर्घायुषी पर्वतेश्वर--विंध्य देश का राजा । प्रजा को अत्यधिक जमदग्नि लेते हैं (ऋ. ३.५३.१६)। त्रस्त करने, तथा द्रव्य का अति लोभ करने के कारण, यम ने इसे घोर नरक में भेजा। बाद में इसे वानर का जन्म | पलांडु- एक यजुर्वेदी श्रुतर्षि । प्राप्त हुआ। अपहार के कारण, इसका पुरोहित सारसपक्षी पलाला-सप्तमाताओं में से एक (म. व. २१७.९)। बना। एक बार यह वानर उस पक्षी को पकड़ने के लिये पलिंगु- इसका उल्लेख हिरण्यकेशी शाखा के पित. गया। तब सारस पक्षी ने गतजन्म बता कर कहा, 'बाद तर्पण में है (स. गु. २०,८.२०)। ४०३ Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पलित प्राचीन चरित्रकोश पांचाल ११)। पलित--बिडालोपख्यान में वर्णित एक चूहे का पशु--सविता नामक पाँचवें आदित्य के पृश्नि नामक नाम (म. शां. १३६.२१)। इसका लोमश नामक | स्त्री से उत्पन्न आठ संतानों में से एक (भा. ६.१८.१)। बिलाब के साथ संवाद हुआ था (म. शां. १३६.३४- पशुदा--स्कन्द की एक अनुचरी मातृका (म. श. १९८)। ४५.२७)। पलिता--रकंद की अनुचरी मातृका । पाठभेद- | पशमत-दुष्पण्य देखिये। 'पालिता" 'पाणिता' 'प्राणिता' (म. श. ४५.३)। पशुसख-सप्तर्षियों का सेवक, एक शूद्र । यह पल्लिगप्त लौहित्य- एक ऋषि । यह श्याम जयंत | पशुओं का मित्र था, इस कारण इसे यह नाम प्राप्त हुआ लौहित्य ऋषि का शिष्य था (जै. उ. बा. ३.४२.१)। (म. अनु. १४२.४३ )। इसकी स्त्री का नाम गंडा था प्राचीन वाङ्मय में पलि शब्द प्राप्त नहीं है। (म. अनु. १४१.५)। वसिष्ठ ऋषि के कमल की चोरी पवन--उत्तममनु के पुत्रों में से एक। के समय, इसे भी शपथ खानी पड़ी थी (म. अनु. पवमान--अग्नि के स्वाहा से उत्पन्न तीन पुत्रों में | १४३.४०)। से एक। इसका पुत्र हव्यवाह । यह अरणी से उत्पन्न | पशुहन--वृषा का पुत्र । गार्हपत्य अग्नि का अंश था तथा गृहस्थों को पूज्य था | पष्टवाह--एक वैदिक सामदृष्टा (पं. बा. १२.५. (मत्स्य. ५१.३)। २. (स्वा. उत्तान.) विजिताश्व राजा के तीन पुत्रों में | पह्वव--हरिश्चंद्र के कुल से गर राजा का राज्य छीनसे दूसरा पुत्र । यह पूर्वजन्म में अग्नि था। वसिष्ठ के | लेनेवाले राजाओं में से एक । इसे गर के पुत्र सगर ने शाप के कारण इसे मनुष्यजन्म प्राप्त हुआ था (भा. | जीत कर, दाढ़ी रखने की शर्त पर छोड़ दिया (पद्म. ४.२४.४)। ३.२०)। ३. ( स्वा. प्रिय.) मेधातिथि के सात पुत्रों में से | २. एक म्लेंछ जाति, जो 'नंदिनी' नामक गौ की पूँछ तीसरा पुत्र । इसका खंड इसी के नाम से प्रसिद्ध है | से उत्पन्न हुई थी (म. आ. १६५.३५)। नकुल ने (भा. ५.२०.२५)। इस जाति के लोगों को जीता था (म. स. २९.१५)।. पवित्र--एक ब्राह्मण । इसकी स्त्री बहुला । अनपत्य- | ये लोग युधिष्ठिर के राजसूययज्ञ में उपहार लाये थे (म. पति ब्राह्मण इसका मित्र था। इन दोनों के पूछने पर, | स. ४८.१४)। ये मान्धाता के राज्य में निवास करते थे लोमश ने इन्हें अतिथिधर्म बताया था। (म. शां. ६५.१३-१४)। ' एक बार पवित्र ने तीक्ष्ण तथा नुकीले हथियार से एक | पाक-इंद्र के द्वारा मारा गया एक असुर । इसीके चूहे को मारा। उस चूहेको मरते हुए देख कर इसने उस | कारण इंद्र का नाम 'पाकशासन' हुआ (भा. ७.२.४; ८. पर तुलसी के पत्ते रखे, तथा नारायण का नामोच्चार | ११. २२; म. शां. ९९.४८)। करने लगा। तब उस चूहे का उद्धार हुआ (पद्म. क्रि. | पाकस्थामन् कौरयाण--एक ऋषि । मेधातिथि २५)। काण्व ने इसके उदारतापूर्ण दान का गौरव गान किया था २. भौत्यमन्वन्तर का देवगण । (ऋ. ८.३.२१-२४)। ३. इंद्रसावर्णि मन्वन्तर का देव । पाचि--(सो. पुरु.) एक राजा । मस्त्य के अनुसार, पवित्र आंगिरस--एक वैदिक सूक्तद्रष्टा (ऋ. ९. | यह नहुष राजा के सात पुत्रों में से एक था ( मल्य. ६७.२२ ३२,७३, ८३)। २४.५०)। पवित्रपाणि-एक ब्रह्मर्षि (म. स. ४.१३; ७.८२)। पांचजनी--दक्षपत्नी असिनी का नामांतर (असिनी यह युधिष्ठिर की सभा एवं इंद्रसभा का सदस्य था (म. | देखिये)। स. ४.१५, ७.८२%)। पांचजन्य--पाँच ऋषियों के अंश से उत्पन्न एक पवीरु-एक राजा श्रुष्टिगु ने उल्लेख किया है कि | अग्नि । इसे 'तपस्' नामांतर भी प्राप्त था (म. व. इंद्र की कृपा से इसे संपत्ति प्राप्त हुई (ऋ. ८.५१.९)।। २१०.५)। 'आयुधवान् ' इस अर्थ का इसे विशेषण भी माना है। पांचाल--प्राचीन उत्तर भारत का एक लोकसमूह । (वा. सं. ३३. ८२)। | इन्हीं लोगों का निर्देश वेदों में 'क्रिवि' नाम से, एवं ४०४ Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांचाल ब्राह्मणग्रंथों में ' पांचाल ' नाम से किया हुआ प्रतीत होता है ( पंचाल देखिये) । प्राचीन चरित्रकोश 9 इन लोगों के देश के, 'उत्तर पांचाल एवं 'दक्षिण पांचाल ' ऐसे दो विभाग, गंगा नदी के द्वारा किये गये थे । उनमें से उत्तर पांचाल देश पर 'नील' राजवंश का । राज्य था, एवं दक्षिण पांचाल पर 'अजमीढ ' वंश का । इसी देश का पश्चिम-पूर्व प्रदेश 'प्राच्य पांचाल ' नाम से सुविख्यात था ( संहितोपनिषद् ब्राह्मण २ ) | महाभारत काल में दक्षिण पांचाल देश का राजा द्रुपद था, एवं उसकी कन्या द्रौपदी थी। पांचाल देश की होने के कारण उसे 'पांचाली' नामांतर प्राप्त था (म. आ. .)1 २. दुर्मख एवं शोण राजाओं का नामांतर (ऐ.ब्रा. ८.२३ श. बा. १२.५.४.७) । पंचाल जाति के लोगों का राजा होने के कारण, उन्हें यह नाम प्राप्त हुआ था । ३. एक ऋषि । इसका मूल नाम 'सुबालक' या 'गाव' था । इसका गोत्र 'बाभ्रव्य ' था, एवं यह ' पंचाल ' देश का रहनेवाला था । इस कारण इसे ' बाभ्रव्य पांचाल कहते थे (बाभ्रव्य देखिये) । , वामदेव द्वारा बताये ध्यानमार्ग से इसने भगवान् की आराधना की। उसीके कृपां से वेदों का क्रमविभाग करने का दुष्कर कार्य, यह सर्वप्रथम कर सका ( म. शां. • ३२०.२०-२८] पितृवर्तिन् देखिये) । पांचालचंड--एक वैदिक ऋषि । वैदिक संहिता का 'तत्त्वज्ञान की दृष्टि से अर्थ लगाने के लिये ' वाचू' (वाणी) यही संहिता है, ऐसा इसका मत था ( ऐ.आ. २.१.६) । पांचाली -- पांचाल देश के द्रुपद राजा की कन्या 'द्रौपदी' का नामांतर ( भा. १.७.३८; द्रौपदी देखिये) । पांचाल्य—आरुणि उद्दालक ऋषि का नामांतर (म. आ. ३.२४) । यह स्वैदायन शौनक एवं शौचेय प्राचीनयोग्य ऋषियों का समकालीन था ( श. बा. ११. ४.१ - ९ ) । इसके शिष्यों में कहोद ( कौशीतकी) प्रमुख था, एवं इसने अपनी सुजाता नामक कन्या उसे विवाह में दी (उद्दालक देखिये) । पांचि -- एक वैदिक ऋषि । ' पंचन् ' का वंशज होने से इसे 'पांचि नाम प्राप्त हुआ था (श. ब्रा २१. ४.२७ ) । ' सोमयज्ञ' में, तीन अंगुल ऊँची वेदि बनाने की पद्धति इसने प्रस्थापित की ( श. बा. १.२.५.९ ) । पाणिनि पाटव' चाल ' नामक वैदिक ऋषि का पैतृक नाम श. बा. १२.८.१.१७१ ९२.१) । 'पटु का वंशज इस अर्थ से 'पाटन शब्द का उपयोग किया होगा । ' पाटिक - 'श्याम पराशर ' के कुल में उत्पन्न एक ऋषि ( पराशर देखिये) । पाडक-वायु के अनुसार, व्यास की सामशिष्य परंपरा के हिरण्यनाभ ऋषि का शिष्य पाठभेद-'मांडूफ' । । पाणिक - अंगिराकुल का एक ऋषि । पाणिकर्मखंद का एक सैनिक (म. . ४४.७१) । पाठभेद' पाणि कूर्च | -- पाणिन कश्यप एवं कटू का पुत्र, एक नाग। पाणिनि-लौकिक संस्कृत भाषा का वैयाकरण, जिसका 'अष्टाध्यायी' नामक ग्रंथ संस्कृतभाषा का श्रेष्ठतम व्याकरणग्रंथ माना जाता है । C संस्कृत भाषा के क्षेत्र में, एक सर्वथा नये युग के निर्माण का कार्य आचार्य पाणिनि एवं इसके द्वारा निर्मित 'पाणिनीय व्याकरण' ने किया । यह युग लौकिक संस्कृत का युग कहा जाता है, जो वैदिक युग की अपेक्षा सर्वधा भिन्न है । जब वैदिक संस्कृत भाषा पुरानी एवं दुर्बोध होने लगी, तब उत्तर पश्चिम एवं उत्तर भारत के ब्राह्मणों में उस भाषा का एक आधुनिक रूप साहित्यिक भाषा के रूप में प्रस्थापित हुआ । इस नये साहित्यिक भाषा को व्याकरणबद्ध करने का महत्त्वपूर्ण कार्य पाणिनि ने किया, एवं इस भाषा को 'लौकिक संस्कृत' यह नया नाम प्रदान किया । पाणिनि केवल व्याकरणशास्त्र का ही आचार्य नहीं था। एक व्याकरणकार के नाते, खौकिक संस्कृत का भाषाशास्त्र एवं व्याकरणशास्त्र की सामग्री इकठ्ठा करते करते, तत्कालीन भारतवर्ष ( ५०० ई. पू.) की राजकीय, सांस्कृतिक, सामाजिक, एवं भौगोलिक सामग्री शास्त्रदृष् करने का महान् कार्य पाणिनि ने किया । अन्य व्याकरणकारों की अपेक्षा, इस कार्य में पाणिनि ने अत्यधिक सफलता भी प्राप्त की । इस कारण, पाणिनि की 'अष्टाध्यायी' वेद के उत्तरकालीन एवं पुराणों के पूर्वकालीन प्राचीन भारतीय इतिहास का श्रेष्ठतम प्रमाणग्रंथ माना जाता हैं । ढाई सहस्त्र वर्षों के दीर्घ कालावधि के पश्चात्, पाणिनि के ' अष्टाध्यायी' का पाठ जितने शुद्ध एवं प्रामाणिक रूप में आज भी उपलब्ध है, उसकी तुलना केवल वेदों के विशुद्ध पाठों से की जा सकती है। किंतु वेदों के शब्द हमें पाटल - - एक वानर । विभीषण से मिलने लंका जा रहे राम से, यह किष्किंधा नगरी में मिला था, एवं इसने राम का बड़े ही भक्तिभाव से दर्शन लिया (पद्म. सृ. ३८ ) । ४०५ Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाणिनि प्राचीन चरित्रकोश पाणिनि विशुद्धरूप में प्राप्त हो कर भी, उनका अर्थ अस्पष्ट एवं प्राप्त की, एवं वहाँ शास्त्रपरीक्षा में यह उत्तीर्ण हुआ धुंधला सा प्रतीत होता है । संस्कृत व्याकरणशास्त्र की श्रेष्ठ (काव्यमी. १०)। माहेश्वर को भी पाणिनि का गुरु परंपरा के कारण, पाणिनीय व्याकरण के शब्द एवं अर्थ | कहा गया है, जिसका कोई आधार नहीं मिलता है। कई दोनों भी विशुद्ध रूप में आज.भी उपलब्ध है । इस कारण | अभ्यासकों के अनुसार, पाणिनि की शिक्षा तक्षशिला में ऐतिहासिक दृष्टि से, पाणिनि के 'अष्टाध्यायी' का मूल्य हुई थी (एस्. के. चटर्जी, भारतीय आर्यभाषा तथा हिंदी' वैदिक ग्रंथों की अपेक्षा आज अधिक माना जाता है। | पृ.६६)। कई वर्षों के पूर्व, केवळ शब्दसिद्धि के दृष्टि से पाणिनी के अनेक शिष्य भी थे (महा. १.४.१)। 'पाणिनीय व्याकरण' का अध्ययन किया जाता था। फिर उनमें 'कौत्स' नामक शिष्य का निर्देश 'महाभाष्य' में कई अध्ययनशील लोगों ने ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक | प्राप्त है (३.२.१०८)। दृष्टि से 'पाणिनीय व्याकरण' की समालोचन करने का अष्टाध्यायी के प्राणभूत १४ सूत्रों का अध्ययन करने कार्य शुरू किया, एवं ऐतिहासिक सामग्री का एक नया | पर पता चलता है कि, पाणिनि ने शिवोपासना कर के विश्व, अभ्यासकों के लिये खोल दिया। ई. पू. ५०० ।। । इ. पू. ५०० | १४ माहेश्वरी सूत्रों' (प्रत्याहार सूत्रों) की प्राप्ति साक्षात् के लगभग भारत में उपलब्ध प्राचीन लोकजीवन की | शिवजी से की थी, एवं उन सूत्रों के आधार पर अपने जानकारी पाने के लिये, एवं उस काल के ऐतिहासिक व्याकरणग्रंथ की रचना की। अंधयुग में नया प्रकाश डालने के लिये 'पाणिनीय व्याकरण' का अध्ययन अत्यावश्यक है, यह विचारप्रणाली __ निवासस्थान-' शालातुरीय' नाम से, पाणिनि' आज सर्वमान्य हो चुकी है। इस नयी विचारप्रणाली के शलातुर ' ग्राम का रहनवाला था, ऐसा कई अभ्यासका निर्माण का बताया विटापी के डॉ| का कहना है (वर्धमान कृत 'गणरत्न महोदधि' पृ... वासुदेवशरण अग्रवाल एवं उनके ग्रंथ 'पाणिनिकालीन | १)। अफगानिस्थान की सीमा पर, अटक के समीप स्थित भारतवर्ष' को देना जरूरी है। आधुनिक लाहुर ग्राम ही प्राचीन शलातुर है । अन्य कई नामांतर--पुरुषोत्तमदेव के 'त्रिकांडशेष' कोश के | | अभ्यासकों के अनुसार, शलातुर पाणिनि का जन्मस्थान न | हो कर, इसके पूर्वजों का निवासस्थान था। पाणिनि का अनुसार, पाणिनि को निम्नलिखित नामांतर प्राप्त थे:-- पाणिन् , दाक्षीपुत्र, शालंकि, शालातुरीय, एवं आहिक। जन्म वाहीक देश में कहीं हुआ था (अष्टा. ४.२. ११७)। मातापिता-पतंजलि ने पाणिनी को 'दाक्षीपुत्र' कहा है, जिससे प्रतीत होता है की, पाणिनि के माता का नाम | काल-पाणिनि पारसीकों तथा उनके सेवक यवनों 'दाक्षी' था, एवं वह दक्षकुल से उत्पन्न था (महा. | या ग्रीकों से परिचित था। उससे पाणिनी का काल १.१.२०)। इसके पिता का नाम 'शलंक' था, एवं संभवतः ५ वी शताब्दी ई. पू. रहा होगा । डॉ. पाणिनि' इसका कुलनाम था। हरिदत्त के अनुसार, अग्रवाल के अनुसार, ४८०-४१० ई. पू., पाणिनि पाणिपत्र 'पाणिन् ' नामक ऋषि का पाणिनि पुत्र था | का काल था। पाणिनि की मृत्यु एक सिंह के द्वारा हुई (पदमंजरी २.१४)। छंदःशास्त्र का रचयिता पिंगल ऋषि | थी (पंचतंत्र श्लो. ३६)। पाणिनि का छोटा भाई था (षड्गुरुशिष्यकृत 'वेदार्थ- पूर्वाचार्य--पाणिनि को लौकिक संस्कृत का पहला दिपिका')। व्याडि नामक व्याकरणाचार्य को 'दाक्षायणि' | वैय्याकरण माना जाता है। किंतु स्वयं पाणिनि ने नामांतर था, जिससे प्रतीत होता हैं कि, वह पाणिनि का | 'अष्टाध्यायी' में 'पाराशर्य' एवं 'शिलालि' इन मामा था । व्याडि के 'संग्रह' नामक ग्रंथ की प्रशंसा | दो पूर्वाचायों का, एवं उनके द्वारा विरचित पतंजलि ने की हैं (महा. २.३.६६)। 'भिक्षुसूत्र' एवं 'नटसूत्र' नामक दो ग्रंथो का निर्देश अध्ययन-पाणिनि के विद्यादाता गुरु का नाम 'वर्ष' किया है (अष्टा.४.३.११०)। उनके सिवा, 'अष्टाध्यायी' था (कथासरित. १.४.२०)। ब्रह्मवैवर्त के अनुसार, में निम्रलिखित आचार्यों का निर्देश प्राप्त है--अपिशालि शेष इसका गुरु था (ब्रह्मवै. प्रकृति. ४.५७)। काव्य- (६.१.९२), काश्यप (८.४.६७), गार्ग्य, गालव मिमांसा के अनुसार, वर्ष, उपवर्ष, पिंगल एवं व्याडि इन (६.३.६१, ७.१.७४; ३.९९; ८.३.२०; ४.६७), सहाध्यायियों के साथ, पाणिनि ने पाटलीपुत्र में शिक्षा | चाक्रवर्मन (६.१.१३०), भारद्वाज (७.२.६३), ४०६ Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाणिनि प्राचीन चरित्रकोश पाणिनि - शाकटायन (३.४. १११, ८.३.१९; ४.५१), सेनक कुल ३९९५ सूत्र हैं। इन सूत्रों में 'अइउण' आदि १४ (५.४.११२), स्फोटायन (६.१.१२१)। माहेश्वरी सूत्रों का भी संग्रह है। ___ 'अष्टाध्यायी' में निम्नलिखित ग्रंथों का निर्देश प्राप्त | ___लौकिक संस्कृत भाषा को व्याकरणीय नीतिनियमों में है-अनुब्राह्मण (४.२.६२), अनुप्रवचन (२.१.१११), बिठाना, यह 'अष्टाध्यायी' के अंतर्गत सूत्रों का प्रमुख कल्पसूत्र (४.३.१०५), क्रम (४.२.६१), चात्वारिंश उद्देश्य है । वहाँ संस्कृत भाषा का क्षेत्र वेद एवं लोकभाषा (ऐतरेय ब्राह्मण) (५.१.६२), त्रैश (सांख्यायन ब्राह्मण) | माना गया है, तथा उन दोनों भाषाओं का परामर्श (५.१.६२), नटसूत्र (४.३.११०), पद (४.२.६१), 'अष्टाध्यायी' में लिया गया है । संस्कृत की भौगोलिक भिक्षुसूत्र (४.३.११०), मीमांसा (४.२.६१), शिक्षा | मर्यादा, गांधार से आसम (सूरमस ) में स्थित सरमा (४.२.६१)। उपनिषद एवं आरण्यक ग्रंथों का निर्देश नदी तक, एवं कच्छ से कलिंग तक मानी गयी है। उत्तर 'अष्टाध्यायी' में अप्राप्य है।' उपनिषद' शब्द के काश्मीर कांबोज से ले कर, दक्षिण में गोदावरी नदी 'पाणिनीय व्याकरण' में आया है। किंतु वहाँ उसका अर्थ | के तट पर स्थित अश्मक प्रदेश तक वह मर्यादा मानी 'रहस्य के रूप में लिया गया है (१.४.७९)। गयी है। 'अष्टाध्यायी के लिये जिन वैदिक ग्रंथों से, पाणिनि अष्टाध्यायी में किया गया शब्दों का विवेचन, दुनिया ने साधनसामग्री ली उनके नाम इस प्रकार है:-- की भाषाओं में प्राचीनतम समझा जाता है । उस ग्रंथ में अनार्ष (१.१.१६, ४.१.७८.), आथर्वणिक (६.४. | किया गया प्रकृति एवं प्रत्यय का भेदाभेददर्शन, तथा १७४), ऋच् (४.१.९; ८.३.८), काठक-यजु (७.४. | प्रत्ययों का कार्य निर्धारण के कारण पाणिनि की व्याकरण३८), छन्दस् (.१.२.३६), निगम (३.८१; ४.७४; ४. | पद्धति शास्त्रीय एवं अतिशुद्ध बन गयी है। ९, ६.३.११३; ७.२.६४), ब्राह्मण (२.३.६० ५.१. पाणिनीय व्याकरणशास्त्र--पाणिनि ने अपनी 'अष्टा६२), मंत्र ( २.४.८०), यजुस् (६.१.११५, ७.४. ध्यायी' की रचना गणपाठ, धातुपाठ, उणादि, लिंगानु३८८.३.१०२), सामन् (१.२.३४)। शान तथा फिटसूत्र ये ग्रंथों का आधार ले कर की है। 'अष्टाध्यायी' में निम्नलिखित वैदिक शाखाप्रवर्तक उच्चारण-शास्त्र के लिये अष्टाध्यायी के साथ शिक्षा ग्रंथों ऋषियों का निर्देश प्राप्त है :-- अश्वपेज, उख, कठ, | के पठन-पाठन की भी आवश्यकता रहती है। पाणिनि कठशाठ, कलापिन् , कषाय, (कशाय, का.) काश्यप, | प्रणीत व्याकरणशास्त्र में इन सभी विषयों का समावेश कौशिक, खंडिक, खाडायन, चरक, द्दगल, छंदोग, तल, | होता है। पतंजलि के अनुसार, गणपाठ की रचना तलवकार, तित्तिरि, दण्ड, देवदर्शन, देवदत्त शठ, पैङ्गच पाणिनि व्याकरण के पूर्व हो चुकी थी (महाभाष्य. १. (४.३-१०५, उदाहरण), पुरुषांसक (पुरुषासक), | ३४)। परस्पर भिन्न होते हुए भी व्याकरण के एक बहवृच, (४.३.१२९), याज्ञवल्क्य (वातिक) रज्जुकंठ, | नियम के अंतर्गत आ जानेवाले शब्दों का संग्रह रज्जुभार, वरतंतु, वाजसनेय, वैशंपायन, शापेय (सपिय, | 'गणपाठ' में समाविष्ट किया गया है। गणपाठ में का.), शाष्पेय (शाखेय, का.) शानरव (सांगरव, का.) संग्रहीत शब्दों का अनुक्रम प्रायः निश्चित रहता है। शाकल, शौनक, सापेय, स्कन्द, स्कन्ध, स्तंभ (स्कंभ, गण में छोटे छोटे नियमों के लिये अंतर्गणसूत्रों का का.) (पा. सू, ४.३.१०२-१०९ गणों सहित; १२८, | प्रणयन भी दिखलायी पड़ता है। गणपाठ की रचता १२९)। पाणिनिपूर्व आचार्यों द्वारा की गयी होगी। फिर भी वह इन में केवल तलवकार तथा वाजसनेय प्रणीत ब्राह्मण पाणिनि व्याकरण की महत्त्वपूर्ण अंग बन गयी है। ग्रंथ आज उपलब्ध हैं। अन्य लोगों के कौन से ग्रन्थ थे धातुपाठ तथा उणादि सूत्र भी पाणिनि पूर्व आचार्यों यह बताना असंभव है। द्वारा प्रणीत होते हुए भी, 'पाणिनि व्याकरण' का महत्त्वउलप, तुंबरु तथा हरिद्रु (४.३.१९४) ये नाम पर्ण अंग बन गयी है। लिंगानुशासन पाणिनिरचित है। 'काशिका' में अधिक हैं। 'पाणिनीय शिक्षा में पाणिनि के मतों का ही संग्रह है। 'अष्टाध्यायी'--पाणिनि की 'अष्टाध्यायी' ग्रंथ | फिटसूत्रों की रचना शांतनवाचार्य ने की है। फिर भी आठ अध्यायों में विभक्त है । प्रत्येक अध्याय में चार पाणिनि ने उनको स्वीकार किया है। प्रत्येक शब्द पाद हैं । बत्तीस पाद एवं आठ अध्यायों के इस ग्रंथों में | स्वाभाविक उदात्तादि स्वरयुक्त हैं। तदनुसार, शब्दों का ४०७ Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाणिनि उच्चारण करने मात्र से ही शब्दों का शुद्ध तथा अर्थबोधक ध्वनि निकलती है । इसलिए केवल वर्णों के पठनमात्र से ही नहीं बल्कि आघातादि सहित शब्दों का उच्चारण वांछनीय है । इसलिए पाणिनि ने स्वरप्रक्रिया लिखी तथा 'फिट्सूत्र' जो उदात्त, अनुदात्त व स्वरित शब्दों का संग्रह तथा नियम बतलाया है और उसको मान्यता दी है । प्राचीन चरित्रकोश गणपाट, धातुपाठ, उणादि, लिंगानुशासन, फिंट्सूत्र तथा शिक्षा ये पाणिनि सूत्रों के महत्त्वपूर्ण अंग हैं। इनका संग्रह करने से, सूत्रों की रचना करने में, पाणिनि को सुलभता प्राप्त हुई। इस प्रकार व्याकरण के क्षेत्र में एक रचनात्मक कार्य करके पाणिनि ने संस्कृत भाषा को सर्वाधिक शक्तिशाली बनाया। पाणिनि का समन्वयवाद — व्याकरणशास्त्र में पाणिनि ने नैरुक्त एवं गार्ग्य सम्प्रदायों के बीच समन्वय स्थापित करने का प्रयत्न किया | नैरुक्त संप्रदाय एवं शाकटायन के अनुसार, संज्ञावाचक शब्द धातुओं से ही बने हैं। गार्ग्य तथा दूसरे वैय्याकरणों का मत इससे कुछ भिन्न था। उनका कहना था, खींचतान करके प्रत्येक शब्द को धातुओं से सिद्ध करना उचित नहीं है । पाणिनि ने ‘उणादि ’ शब्दों को अव्युत्पन्न माना है, तथा धातु से प्रत्यय लगाकर, सिद्ध हुये शब्दों को 'कृदन्त' प्रकरण में स्थान दिया है । पाणिनि के अनुसार, ' संज्ञाप्रमाण' एवं ' योगप्रमाण' दोनों अपने अपने स्थान पर इष्ट एवं आवश्यक हैं। शब्द से जाति का बोध होता है, या व्यक्ति का, इस संबंध में भी पाणिनि ने दोनों मतों को समयानुसार मान्यता दी है। धातु का अर्थ 'क्रिया' हो, अथवा 'भाव' हो, यह भी एक प्रश्न आता है । पाणिनि ने दोनों को स्वीकार किया है। पाणिनि पाणिनिकालीन भूगोल -- अष्टाध्यायी में प्राप्त भौगोलिक विवरण का महत्त्व अन्य सारे विवरणों की अपेक्षा कहीं अधिक है । ५०० ई. पू. प्राचीन भारत के जनपदों, पर्वतों, नदियाँ, वनों एवं ग्राम व नगरों की स्थिति का अत्यधिक प्रामाणिक ज्ञान अष्टाध्यायी द्वारा प्राप्त होता है। लोकजीवन -- जैसे पहले कहा जा चुका पाणिनि की अष्टाध्यायी में, ५०० ई. पू. के प्राचीन भारतवर्ष के सांस्कृतिक, सामाजिक राजनैतिक एवं धार्मिक लोकजीवन की ऐतिहासिक दृष्टि से अत्यधिक प्रामाणिक जानकारी प्राप्त होती है। प्राचीन भारतवर्ष के वर्ण, एवं जातियों, आर्य एवं दासों के संबंध, शिक्षा आदि सामाजिक विषयों पर पाणिनि ने काफ़ी प्रकाश डाला है । पाणिनिकालीन भारत में राजशासित एवं लोकशासित दोनों प्रकार की शासन पद्धतियाँ वर्तमान थीं जिसका विवरण अष्टाध्यायी में प्राप्त है। ( १ ) जनपद - पाणिनि के अष्टाध्यायी, एवं गणपाठ में निम्नलिखित जनपदों का निर्देश प्राप्त है: -- अंबष्ठ (८. २.९७ ); अजाद ( ४.१.१७१ ); अवन्ति ( ४.१.१७६); अश्मक ( ४.१.७३ ); उदुंबर (४.३.५३ ); उरश (४. ३.९३; गण. ); उशीनर ( ४.२.११८ ); ऐषुकारि (४. २.५४ ); कंबोज ( ४.१.१७५ ); कच्छ ( ४.२.१३४ ); कलकूट ( ४.१.१७१ ); कलिंग ( ४.१.१७० ); काश्मिर ( ४.२.१३३; ४.३.९३; गण. ); कारस्कर (६.१.१५६ ); काशि ( ४.१.११६ ); किष्किंधा ( ४.३.६३; गण. ); . कुरु ( ४.१.१७२; १७६ २.१३० ); कुंति ( ४.१. १७६ ); केकय ( ७.३.२ ); कोसल ( ४.१.१७१ ); गंधारि ( ४.१.१६९ ); गब्दिका ( ४.३.६३; गण. ) त्रिगर्त ( ५.३.११६ ); दरद् ( ४.३.९३; गण. ); धूम ( ४.२.१२७ ); पटच्चर ( ४.२.११०; गण. ) प्रत्यग्रंथ ( ४.१.१७१ ); पारस्कर ( ६.१.१४७ बर्बर ( ४.३.९३; गण. ); ब्राह्मणक (५.२.७१ ); मर्ग (४.१.१११ ); भारद्वाज (४.१.११० ); मौरिकि (४.२. ५४ ); मगध ( ४.१.१७० ); मंद्र ( ४.२.१३१ ); यकृलोम (४.२.११०९ गण. ); युगंधर (४.२.१३० ); यौधेय ( ४.१.१७८१ ५.३.११७); रंकु (४.२.१०० ); वाहीक ( ४.२.११७ ); वृजि ( ४.२.१३१ ); सर्वसेन ( ४.३.९२; गण. ); साल्व ( ४.२.१३५ ); साल्वावयव ( ( ४.१.१७३ ); साल्वेय ( ४.१.१६९ ); सूरमस ( ४.१.१७० ); सिंधु (४.३.९२); सौवीर (४.२.७६) । (२) पर्वत - पाणिनि के अष्टाध्यायी में निम्नलिखित पर्वतों का निर्देश प्राप्त है:-अंजनागिरि, किंशुलगिरि, (६.२.११६ ); त्रिककुत् ( ५.४.१४७ ); भंजनागिरि; लोहिता गिरि; विदूर (४.३.८४ ); शाल्वका गिरि । (३) नदियाँ -- पाणिनि के अष्टाध्यायी में निम्नलिखित नदियों का विवरण प्राप्त है: -- अजिरवती (६.३.११७); उभय (३.१.११५ ); चर्मण्वती ( ८.२.१२ ); देविका ( ७.३.१ ); भिद्य (३.१.११५ ); वर्णु ( ४.२.१०३ ); विपाश् ( ४.२.७४ ); शरावती ( ६.३.११९ ); सरयू (६.४. १७४ ); सिंधु ( ४.६.९३ ); सुवास्तु ( ४.२. ७७)। ४०८ Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाणिनि प्राचीन चरित्रकोश पाणिनि (५) वन--पाणिनि के अष्टाध्यायी में निम्न वनों का | (३) परिमाण-- अंजलि (५. ४. १०२); उल्लेख प्राप्त है:-- अग्रेवण (८.४.४); कोटरवण, | आढक (५.१.५३); कंस (५.१.२५, ६.२.१२२); कुंभ पुरगावण, मिश्रकावण, शारिकावण, तथा सिध्रकावण। | (६.२.१०२); खारी (५.१.३३); निष्पाव ( ३.३.२८); (५) ग्राम व नगर-पाणिनि के अष्टाध्यायी में | पाय्य (३.१.१३९); वह (३.३.११९); शूर्प (५.१. निम्नलिखित ग्राम एवं नगरों का निर्देश प्राप्त है:- | २६; ६.२.१२२ )। अज़स्तुंद (६.१.१५५); अरिष्टपुर (६.२.१००); (४) क्षेत्रपरिमाण--अंगुलि (५.४.८६), काण्ड आश्वायन (४.२.११०); आश्वकायन या अश्वक | (४,१.२३); किष्कु (६.१.१५७) दिष्टि (६.२.७१); (४.१.९९); आसंदीवत् (८.२.१२, ४.२.८६ ); | पुरुष (४.१.२४); योजन (४ कोस; ५.१.७४); ऐषुकारिभक्त (४.२.५४); कत्त्रि (४.२.९५); कपिस्थल | वितस्ति (६.२.७१); हस्ति (५.२.३८) (७.२.९१); कापिशी (४.२.९९); कास्तीर (६.१. अष्टाध्यायी के वार्तिककार-- पतंजलि के महाभाष्य १५५); कुण्डिन (४.२.९५, गण.); कूचवार (४.३.९४); | में अष्टाध्यायी के निम्नलिखित वार्तिककारों के निर्देश प्राप्त कौशाम्बी (४.२.९७); गौडपुर (६.२.२००); चक्रवाल है:-- कात्य वा कात्यायन (३.२.११८); कुणरवाडव (४.२.८०); चिहणकंथ (६.२.१२५); तक्षशिला (४. (३.२.१४;७.३.१) भारद्वाज (१.१.२०); सुनाग ३.९३); तूदी (४.३.९४); तौषावण (४.२.८०); (२.२.१८); कोष्टा (१.१.३); वाडव (८.२.१०६), नड्वल (४.२.८८); नवनगर (६.२.८९); पलदी (४. व्याघभूति एवं वैयाघपद्य । २.११०); फलकपुर (४.२.१०१); मार्देयपुर (४.२. १०१); महानगर (६.२.८९); माहिष्मती (४.२. ___ अष्टाध्यायी के वृत्तिकार - 'अष्टाध्यायी' पर ९५); मंडु तथा खंडु (४.२.७७ ); रोणी (४.२.७८); लिखे गये 'वृत्ति' एवं भाष्यग्रंथों में, जयादित्य एवं वरण (४.२.८२); वर्मती (४.३.९४); वाराणसी (४. वामन नामक ग्रंथकारों द्वारा लिखी गयी, 'काशिका' २.९७); वार्णव (४.२.७७-१०३); शलातुर (४.३. नामक ग्रंथ अत्यधिक महत्त्वपूर्ण माना जाता है। ९४); शर्करा (४.२.८३); शर्यणावत् (४.२.८६); 'का शिका' के अतिरिक्त, निम्नलिखित वृत्तिकारों ने शिखावल (४.२.८९); श्रावस्ती (४.२.९७ ); संकल 'अष्टाध्यायी' पर भाष्य एवं वृत्तियाँ लिखी हैं । उन (४.२.७५); सरालक (४.३.९३); सांकाश्य (४.२.८०); ग्रंथकारों के लिखे हुए 'वृत्तिग्रंथ ' का निर्देश इसी सूची - सौभूत (४.२.८०); सौवास्तव (४.२.७७); हास्तिनायन में किया गया है। (६.४.१७४)। ___ 'काशिका' के पूर्वकालीन वृत्तिकार--१ कुणी (अष्टा सिक्के--पाणिनि के 'अष्टाध्यायी' में निम्नलिखित | ध्यायीवृत्ति) २. माथुर (माथुरिंवृत्ति ); ३. श्वोभूति सिक्कों का निर्देश प्राप्त है:--कार्षापण (५.१.२९:३४. | (श्वोभूतिवृत्ति); ४. वररुचि (वाररुचवृत्ति) ५. ४८); त्रिशक्त (५.१.२४); माष (५.१.३४); विंशतिक | देवनंदी (शब्दावतारन्यास), ६. दुर्विनित (शब्दावतार) (५.१.२७ ); शतमान (५.१.२७); शाण ( ५.१.३५) काशिका के उत्तरकालीन वृत्तिकार- १. भर्तृहरि सुवर्णमाशक (५.१.३४ ); सुवर्ण हिरण्य (६.२.५५)। । (भागवृत्ति); २. भीश्वर; ३. भट्टजयंत; ४. केशवः ५. परिमाणदर्शक शब्द-पाणिनि के अष्टाध्यायी में निम्न- | इंदुमित्र (इंदुमतिवृत्ति); ६. मैत्रेयरक्षित (दुर्घटलिखित परिमाणदर्शक शब्द प्राप्त हैं:-- वृत्ति); ७. पुरुषोत्तमदेव (भाषावृत्ति); ८. शरणदेव (1) कालपरिमाण-अपराह्न (४.३.२४); अहो (दुर्घटवृत्ति); ९. भट्टोजीदीक्षित (शब्दकौस्तुभ); १०. रस्त्र (२.४.२८); नक्तंदिव (५.४.७७ ); परिवासर अप्पय दिक्षीत (सूत्रप्रकाश ); ११. नीलकंठ वाजपेयी (५.१.९२.); पूर्वाह्न (४.३.२४); मास (५.१.८१); (पाणिनीय दीपिका), १२. अन्नभट्ट (पाणिनीय व्युष्ट (५.१.९७ ); संवत्सर (४.३.५०)। | मिताक्षरा); १३. स्वामी दयानंदसरस्वती (अष्टाध्यायी (२) वस्तुपरिमाण-आचित (४.१.२२, ५.१. भाष्य)। ५३); कुलिज (५.१.५५); बिस्त (४.१.२२:५.१. | पाणिनि के व्याकरण ग्रंथ--१. अष्टाध्यायी, २.धातुपाठ, ३१); भार (६.२.३८); मंथ (६.२.१२२); शाण | ३. गणपाठ, ४. उणादिसूत्र, ५. लिंगानुशासन । इनमें से (५.१,३५, ७.३.१७)। 'अष्टाध्यायी' को छोड़ कर बाकी सारे ग्रंथ, उसी मूल प्रा. च. ५२] ४०९ Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाणिनि प्राचीन चरित्रकोश पांडु ग्रंथ के पाणिनिसम्मत परिशिष्टस्वरूप हैं। इसी कारण, | भस्मचर्चित उग्र आकृति देख कर, अंबालिका मन ही प्राचीन ग्रंथकार उनका 'खिल' शब्द से व्यवहार करते हैं। मन घबरा गयी, एवं भय से उसका मुख फीका पड़ गया। उपरिनिर्दिष्ट ग्रंथों के अतिरिक्त, पाणिनि के नाम पर | यह देखते ही क्रुद्ध हो कर व्यास ने उसे शाप दिया, शिक्षासूत्र, जाम्बवती विजय (पातालविजय ) नामक काव्य | 'मुझे देखते ही तुम्हारा चेहरा निस्तेज एवं फीका पड़ एवं 'द्विरूपकोश' नामक कोशग्रंथ भी उपलब्ध हैं। गया है, अतएव तुम्हारा होनेवाला पुत्र भी निस्तेज एवं पाणिमत्--एक नाग । यह वरुण की सभा में रह श्वतवर्ण का पैदा होगा एवं उसका नाम भी पांडु रक्खा कर वरुण की उपासना करता था (म. स. ९.१००*)। | जायेगा'। बाद में अंबालिका गर्भवती हुई, एवं उसे व्यास पाणीतक-पूषाद्वारा स्कन्द को दिये गये दो पार्षदों की शापोक्तिनुसार, श्वतवर्ण का पाण्डु नामक पुत्र में से एक । दूसरे का नाम 'कालिक' था (म. श. | हुआ (म. आ. ५७.९५, ९०.६०; १००; स.८.२२)। ४४.३९)। पाठ-पालितक । शिक्षा--पाण्डु का पालनपोषण इसके चाचा भीष्म ने पांड--कण्व के पुत्रों में से एक । इसकी माता का पत्रवत किया। उसने इसके उपनयनादि सारे संस्कार नाम आर्यावती था। 'सरस्वती' की कन्या से इसे सोलह भी किये । इससे ब्रह्मचर्यविहित योग्य व्रत तथा अध्ययन पुत्र हुये । वे सब आगे चलकर गोत्रकार बन गये (भवि. करवाया । यह श्रुति-स्मृतियों में पंडित तथा व्यायाम पटु प्रति. ४.२१)। बना । चार वेद, धनुर्वेद, गदा, खड्ग, युद्धशास्त्र, गजपांडर--ऐरावत के कुल में उत्पन्न हुआ एक नाग । | शिक्षा, नीतिशास्त्र, इतिहास, पुराण, कला तथा तत्वज्ञान . जनमेजय के सर्पसत्र में यह जलकर मर गया (म. आ. में यह पारंगत दृया (म. आ. १०२.१५-१९)। ५८.१०)। पांडव-कुरुवंशीय पाण्डु राजा के पाँच पुत्रों का विवाह--कुंति-भोज राजाने अपनी कन्या पृथा सामूहिक नाम । युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन, नकुल तथा सहदेव (कुंती ) का स्वयंवर किया, वहाँ कुन्ती ने पाण्डु का. ये पाँचों पाण्डु-पुत्र, पाण्डव कहलाते हैं (पांडु देखिये)। वरण किया। उसे ले कर पाण्डु हस्तिनापुर आया । बाद पांडु-(सो. कुरु.) हस्तिनापुर का कुरुवंशीय राजा में, भीष्म के मन में पाण्डु का दूसरा विवाह करने की एवं 'पांडवो' का पिता। यह एवं इसका छोटा भाई इच्छा हुयी। वह मंत्री, ब्राह्मण, ऋषि तथा चतुरंगिनी सेना के साथ मद्र-राज, शल्य के नगर में गया। शल्य धृतराष्ट्र कुरुवंशीय सम्राट विचित्रवीर्य के दो 'क्षेत्रज' पुत्र । थे। इनमें से धृतराष्ट्र जन्म से अंधा था, एवं यह जन्मतः ने आदर के साथ उसका स्वागत किया। भीष्म ने पाण्डु 'पांडुरोग से पीड़ित था । शारीरिक दृष्टि से पंगु व्यक्ति | के लिये शल्य की बहन माद्री को माँगा। शल्य को यह प्रस्ताव पसन्द आया। किंतु उसने कहा, 'मेरे कुल की का जीवन कैसा दुःखपूर्ण रहता है, इसका हृदय हिला | देनेवाला चित्रण, पांडु एवं धृतराष्ट्र इन दो बंधुओ के रीति पूर्ण होनी चाहिये । इस रीति के अनुसार, स्वर्ण, चरित्रचित्रण के समय श्रीव्यास ने 'महाभारत' में स्वर्णाभूषण, हाथी, घोड़े, रथ, वस्त्र, मणि, मूंगा तथा किया है। अनेकानेक प्रकार के रत्न मुझे माद्री के बदले प्राप्त होना जन्म- कुरुवंश में पैदा हुए शंतनु राजा के चित्रांगद ज़रूरी है। भीष्म ने यह शर्त मंजूर की। ये सारी चीजें एवं विचित्रवीर्य नामक दो पुत्र थे। उनमें से चित्रांगद उसने शल्य को दी। उन्हें पा कर शल्य अत्याधिक संतुष्ट गंधर्वो के द्वारा, युद्धभूमि में मारा गया, एवं विचित्रवीर्य हुआ तथा अपनी बहन माद्री को यथाशक्ति अलंकार छोटा हो कर भी, हस्तिनापुर के राज्य का अधिकारी हुआ। पहना कर, उसने भीष्म के हाथों सौंप दिया। माद्री के __ पश्चात् विचित्रवीय की युवावस्था में ही अकाल मृत्यु साथ भीष्म हस्तिनापुर आया, तथा सुमुहूर्त में पाण्डु ने हो गयी। उस समय उसकी पत्नी अंबालिका संतानरहित माद्री का पाणिग्रहण किया (म. आ. १०५)। ।। थी। फिर कुरुकुल निर्वशी न हो, इस हेतु से विचित्र- | राज्यप्राप्ति (दिग्विजय)-पांडु के बंधुओं में से वीर्य की माता सत्यवती ने अपनी पुत्रवधू अंबालिका को | धृतराष्ट्र अंधा तथा विदुर शूद्र था। अतएव पांडु का 'नियोग' के द्वारा संतति प्राप्त करने की आज्ञा दी। | राज्याभिषेक किया गया तथा यह हस्तिनापुर का राजा पराशर ऋषि से उत्पन्न अपने ज्येष्ठ पुत्र व्यास को भी यही बना (म. आ. १०३.२३)। माद्री के पाणिग्रहण के आज्ञा सत्यवती ने दी। उस आज्ञा के अनुसार, व्यास | ठीक एक माह के उपरांत, पाण्डु संपूर्ण पृथ्वी जीतने के अंबालिका के शयनमंदिर गया। व्यास की जटाधारी एवं | उद्देश्य से बाहर निकला । इसने साथ में एक बड़ी सेना ४१० Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांड प्राचीन चरित्रकोश भी ली। सब से पहले इसने पर्वतों पर रहनेवाले | मैं ब्रह्मलोक से वंचित किया जा रहा हूँ। मैने देव, दशाण नामक लुटेरे लोंगों को जीत लिया, एवं उनकी | ऋषि, तथा मानवों को तुष्ट किया है, तथापि पितरों को सेना तथा निशानादि छीन लिये। बाद में अनेक राजाओं | संतुष्ट नहीं कर पाया। ऐसी स्थिति में मुझे क्या करना को लूटकर उन्मत्त बने मगधाधिपति दीर्घ को उसी के चाहिये ? जिस 'नियोग' के मार्ग से मेरा जन्म व्यास प्रासाद में मारकर, उसके राज्यकोष एवं हाथियों का दल | से हुआ, उसी प्रकार क्या मेरी पत्नियों को पुत्र की प्राप्ति ले लिया। इसी प्रकार काशी, मिथिला, सुह्म तथा पुंडू | नहीं हो सकती हैं ?' ऋषियों ने अशीवाद र्वक इससे राजाओं को पराजित कर, इसने उन सारे देशों में कौरवों कहा, 'तथास्तु । उत्कृष्ट तपस्या के कारण तुम्हें यही पुत्रों का ध्वज फहराया। यही नहीं, पृथ्वी के सब राजाओं ने | की प्राप्ति हो जायेगी। पाण्डु को 'राजेंद्र' माना, तथा इसे काफ़ी नज़राने दिये । इस प्रकार अनेक देश तथा राजाओं को पादाक्रांत पश्चात् इसने कुंती से 'नियोग' द्वारा पुत्र उत्पन्न कर दिग्विजयी हो कर, यह हस्तिनापुर लौट आया (म. करने के लिए आग्रह किया । इसने कुंती से कहा, 'तुम्हारे आ. १०५)। बहनोई एवं तुम्हारी बहन श्रुतसेना का पति केकयराज विभिन्न देशों को जीत कर लायी हुयी धनराशि, पांडु शारदंडायनि 'नियोग' संतति के पुरस्कर्ताओं में से एक ने अपने बंधुबांधवों में बाँट दी । पश्चात् , धृतराष्ट्र ने पांडु | है। पुत्रों के बारह प्रकार होते हैं। औरस संतति न होने के नाम से सौ अश्वमेधयज्ञ किये, एवं हर एक यज्ञ में पर, स्वजातियों से अथवा श्रेष्ठ जातियों से 'नियोग' के लाख लाख स्वर्ण मुद्रायें दक्षिणा में दान दी (म. आ. द्वारा संतति प्राप्त करने की आज्ञा शारदंडायनि ने दी है। इसलिये अपने पूर्वजों एवं स्वयं को अधोगति से बचाने के लिये, तुम 'नियोग' से तपोनिष्ठ ब्राह्मण के द्वारा शाप-एकबार यह मृगया के लिये बन में गया था । संतति प्राप्त करो' (म. आ. १११)। तब मृगरूप धारण कर अपने मृगरूपधारिणी पत्नी से ___ कुंती ने इसका विरोध किया। उसने इसे कहा, मृगरूप धारण कर के मैथुन करनेवाले किंदम नामक मुनि 'व्युषिताश्व राजा की पत्नी भद्रा को उस राजा के शव से को साधारण मृग समझ कर इसने उस पर बाण छोड़े। पुत्र उत्पन्न हुआ था। यह मार्ग कितना भी नीच क्यों इससे मुनि का मैथुनभंग हुआ, तथा उसके प्राणपखेरू उड़ न हो, पर इसे 'नियोग' से कहीं अधिक अच्छा समझती चले । मरण के पूर्व उसने पांडु को शाप दिया, 'मिथु हूँ। तब पाण्डु ने क्रुद्ध हो कर कहा, 'पुत्रोत्पत्ति के लिए नासक्त अवस्था में मेरा वध करनेवाले तुम्हारी मृत्यु भी समागम करने की आज्ञा पति के द्वारा दी जाने पर, जो मैथुनप्रसंग में ही होगी' (म. आ. १०९.२८)। स्त्री वैसा आचरण नहीं करती, उसे भ्रूणहत्या का पाप इस शाप के कारण, पांडु को अत्यधिक पश्चात्ताप हुआ, | लगता है। उद्दालकपुत्र श्वेतकेतु नामक आचार्य का यही तथा इसने संन्यासवृत्ति लेकर अवधूत की तरह रहने | धर्मवचन है। इसी धर्मवचन के अनुसार, सौदास राजा ने का निश्चय किया । इसके साथ इसकी पत्नियों ने भी अपनी पत्नी दमयंती का समागम वसिष्ठ ऋषि से करवा कर, वानप्रस्थाश्रम में रह कर तपस्या करने की इच्छा प्रकट 'अश्मक' नामक पुत्र प्राप्त किया था '। इतना कह कर, की । कुन्ती तथा माद्री को साथ लेकर यह घूमते घूमते पाण्डु ने कुन्ती को स्मरण दिलाया, 'मेरा जन्म भी व्यास नागशत, कालकूट, हिमालय तथा गंधमादन आदि पर्वतों के द्वारा इसी 'नियोग' मार्ग से हुआ है। (म. आ. को लाँध कर, चैत्ररथवन गया। वहाँ से यह इन्द्रद्युम्न ११२-११३)। सरोवर गया। पश्चात् हंसगिरि पर्वत को लाँघ कर यह शतशंगगिरि पर गया, और वहाँ तपस्या करने लगा | पुत्रप्राप्ति-फिर कुन्ती ने पांडु को दुर्वासा के (म. आ. ११०)। द्वारा उसे प्राप्त हुए पुत्रप्राप्ति के मंत्र की कथा बताकर पुत्रेच्छा—एक बार कुछ ऋषि ब्रह्माजी से मिलने जा | कहा, 'उस मंत्र का जप कर, इष्टदेवता का स्मरण रहे थे। पाण्ड को भी उनके साथ स्वर्ग जाने की इच्छा | करने पर तुझे अवश्य पुत्रप्राप्त होगा। फिर पांडु हुई। किंतु ऋषियों ने इसे कहा, 'तुम हमारे साथ ब्रह्मलोक | के आज्ञा के अनुसार, कुन्ती ने उस मंत्र का तीन बार न जा सकोगे, क्योंकि, तुम निःसंतान हो। फिर पाण्डु | जाप कर, क्रमशः यमधर्म, वायु एवं इंद्र को आवाहन ने उनसे कहा, 'निःसंतान होने के कारण, आज किया। उन देवताओं के अंश से कुन्ती को क्रमशः Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांडु प्राचीन चरित्रकोश पांड्य युधिष्ठिर, भीम एवं अर्जुन नामक पुत्र उत्पन्न हुये (म. | २. एक पांड्यवंशीय राजा । श्रीकृष्ण ने इसका वध आ. ११४)। किया (म. द्रो. २२.१६७*) ___ इसके उपरांत पुत्रोत्पत्ति करना व्यभिचार होगा, यह ३. पांड्य राजा मलयध्वज का नामांतर । इसके पिता कहकर कुन्ती ने पुत्रोत्पन्न करना अमान्य कर दिया। | का वध श्रीकृष्ण ने किया (पांड्य २. देखिये) । फिर बाद में पांडु की आज्ञा से, कुन्ती ने माद्री को दुर्वासा | अपने पिता के वध का बदला लेने के लिये, पांड्यराज का मंत्र प्रदान किया, तथा अश्विनीकुमारों के प्रभाव से, | मलयध्वज ने भीष्म, द्रोण एवं कृप से. अस्त्रविद्या प्राप्त उसे नकुल सहदेव नामक जुड़वा पुत्र हुये (म. आ. | की एवं यह कर्ण, अर्जुन, रुक्मि के समान शूर बना। १११ - ११३)। यह श्रीकृष्ण की द्वारकानगरी पर आक्रमण करना मृत्यु-एक बार वसंत ऋतु में, पांडु राजा अपने | चाहता था। किंतु इसके सुहृदों ने इसे इस साहस से भार्याओं के साथ अरण्य में घूम रहा था । अरण्य की उद्दीप्त | परावृत्त किया एवं यह पांडवों का मित्र बना। सुषमा से प्रभावित हो कर यह कामातुर हुआ। माद्री यह द्रोपदास्वयवर म (म. आ. १७७.१८१६*) अकेली इसके पीछे पीछे आ रही थी। झीने वस्त्रों से | तथा युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में (म. स. ४८.४७७*) सुसज्जित माद्री के यौवनाकर्षण पर मुग्ध हो कर उसके | उपस्थित था। न कहने पर भी हठात् इसने उसके साथ समागम किया। भारतीय युद्ध में, यह पांडवों के पक्ष में शामिल था किंदम ऋषि द्वारा दिये गये शाप के अनुसार, माद्री से (म. उ. १९.९) । इसके रथ पर सागर के चिह्न से संभोग करते ही इसकी मृत्यु हो गयी। युक्त ध्वजा फहराती थी एवं इसके रथ, के अश्व चन्द्रइसके परलोकवासी होने पर, माद्री इसके शव के | किरण के समान श्वेत थे। इसके अश्वों के उपर 'वैदूर्यसाथ सती हो गयी। पांडवों ने इसका एवं माद्री की मणियों' की जाली बिछायी थी। (म. द्रो. २४.१८३७) अंत्येष्टि क्रिया कश्यप ऋषि के द्वारा सम्पन्न करायी | अंत में अश्वत्थामा ने इसका वध किया (म. क. १५. (म. आ. ११६; ११८)। ३-४३)। २. धाता का पुत्र (वायु. १.२८) ____ महाभारत में इसके लिये निम्नलिखित नामांतर प्राप्त ३. ( सो. कुरु.) एक कुरुवंशीय राजा । यह जनमे- | जय पारिक्षित (प्रथम) का पुत्र था। इसे धृतराष्टादि (१) चित्रवाहन--यह मणलूर का नृप, एवं अर्जुन सात भाई थे (म. आ. ९९.४९)। की पत्नी चित्रांगदा का पिता था (म. आ. २०७.१३४. अंगिराकुल में उत्पन्न एक गोत्रकार । १४)। पांडुर--स्कन्द का एक सैनिक । (२) मलयध्वज पांड्य-सहदेव ने अपने दक्षिण' | दिग्विज्य में इसे जीता था (म. स. परि. १.१५. पांडुरोचि--भृगुकुलोत्पन्न एक गोत्रकार । पांड्य--(सो. तुर्वसु.) दक्षिण भारत का एक राजवंश (३). प्रवीर पांडय-यह पांड्य देश का राजा था एवं लोकसमूह । इस वंश के राजा तुर्वसुवंश के जनापीड़ । (म.क. १५.१-२)। राजा के वंशज कहलाते थे। ४. विदर्भ देश का राजा । यह महान् शिवभक्त था। तुर्वसुवंश का मरुत्त राजा पुत्रहीन था । उसने पूरु- एक दिन प्रदोष के समय यह शिवपूजा कर रहा था। वंशीय दुष्यंत राजा को गोद लिया, एवं इस तरह नगर के बाहर कुछ आवाज सुनाई देने पर, शिवपूजा तुर्वसुवंश का स्वतंत्र अस्तित्त्व नष्ट करके, उसे पूरुवंश में वैसी ही अधूरी छोड़कर यह बाहर आया । पश्चात् इसके शामिल कर लिया गया। किंतु पद्म के अनुसार, तुर्वसुवंश राज्य पर हमला करने के लिये आये शत्रु के प्रधान का में आगे चल कर, दुष्कृत, शरूथ, जनापीड़ ये राजा इसने वध किया। उत्पन्न हुये । उनमे से जनापीड राजा को पांडथ, केरल, शत्रुवध का कार्य समाप्त कर यह घर वापस आया एवं चोल्य एवं कुल्य नामक चार पुत्र थे । इन चारों पुत्रों ने | शिव की पूजा वैसी ही अधूरी छोड़कर इसने अन्नग्रहण (दक्षिण भारत में क्रमशः पांडथ, केरल, चोल एवं कुल्य किया। इस पाप के कारण, अगले जनम में इसे सत्यरथ कोल) राज्यों की स्थापना की (वायु. ९९.६)। | नामक राजा का जन्म प्राप्त हुआ एवं शत्रु के हाथों इसकी ४१२ Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांड्य प्राचीन चरित्रकोश पारशव नीप पार सुकृति अकाल मृत्यु हो गयी (शिव. शतरुद्र ३१.४७-५५, भागवत अन्य पुराण सत्यरथ देखिये)। पात-ऐरावत कुल का एक नाग । जनमेजय के समर सर्पसत्र में यह अपने पातर नामक मित्र के साथ मारा गया (म. आ. ५७.१२)। पृथु पातालकेतु--जालंधर की सेना का एक असुर (पद्म. उ. १२)। पार विभ्राज २. एक असुर । विश्वावसु नामक गंधर्व की मदालसा नीप अणुह नामक कन्या का हरण कर, यह उसे पाताल ले गया। ब्रह्मदत्त ब्रह्मदत्त ऋतध्वज नामक राजा ने इसे पराजित कर मदालसा को पुराणों में प्राप्त इन दो वंशक्रमों को एकत्र करने मुक्त किया (ऋतध्वज देखिये)। पर 'पार' एवं 'विभ्राज' ये दोनों एक ही थे, एवं पार का पाथ्य-वृषन् ऋषि का पैतृक नाम (वृषन् पाथ्य | | नामान्तर विभ्राज था, ऐसी गलत धारणा हो जाती है । देखिये)। . . भागवत में दिये वंशक्रम में नीप से अणुह तक के पाँच पादप--वसिष्ठकुलोत्पन्न एक गोत्रकार । राजाओं के नाम नहीं दिये गये है। इस कारण, यह गड़बड़ी हो गयी है। पादपायन-मत्स्य के अनुसार पालंकायन ऋषि का ३. (सो. अनु.) एक राजा । विष्णु के अनुसार यह नामांतर (पालंकायन देखिये)। अंगराजा का पुत्र था। पापनाशन-दमन नामक शिवावतार का शिष्य । ४. दक्षसावर्णि मन्वन्तर का एक देवगण। पायु-अंगिराकुल का एक ऋषि । पारःकारिररेव-'पारिकारारिरेव' नामक अंगिरा कुल के गोत्रकार। पायु भारद्वाज-- एक सूक्तद्रष्टा (ऋ. ६.७५)। यह दिवोदास राजा का आश्रित था (अश्वत्थ . पारण--अगस्त्यकुल में उत्पन्न एक गोत्रकार देखिये)। भारद्वाज नामक ऋषि की 'पायु' उपाधि थी ऋषिगण । (ऋ. ६.४७.२४)। पारद--एक प्राचीन जाति का नाम । ये लोग युद्ध के शस्त्रों का वर्णन करनेवाले, तथा राजाओं | आधुनिक उत्तर बलूचिस्तान के प्रदेश में कहीं रहते थे। को युद्ध के लिये आवाहन करनेवाले ऋग्वेद के एक युद्ध युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ के समय, ये लोग हर तरह के सूक्त के प्रणयन का श्रेय पायु को दिया गया है (ऋ. " उपायन" ले कर उपस्थित हुये थे (म. स. ४७. ६.७५)। बृहदेवता के अनुसार, अभ्यावर्तिन् चायमान एवं प्रस्तोत सर्जिय नामक राजाओं को सहाय देने के । महाभारतकालीन एक लोकसमूह । ये लोग द्रोणालिए, इसने इस सूक्त की रचना की थी (ब्रहहे. ५. | चार्य के साथ भीष्मजी के पीछे पीछे चल रहे थे (म. भी. १२४)। ८३.७)। पार--(सो. पुरु.) कान्यकुब्ज देश का राजा ।। २. एक राजा । हरिश्चन्द्र के वंश के गर राजा का राज्य भागवत, विष्णु एवं मस्स्य के अनुसार, यह 'पृथुसेन' | जीतनेवाले राजाओं में से यह एक था। गर राजा के एवं वायु के अनुसार, यह 'पृथुषेण' का पुत्र था। | पुत्र सगर ने, इसके सिर के सारे केशों का मुंडन कर इसे मत्स्य में इसे 'पौर' कहा गया है । इसके पुत्र 'नीप' | मुक्त किया था (पद्म. उ. २०)। नामक सामूहिक नाम से प्रख्यात थे। पारशव-धृतराष्ट्र एवं पांडु राजा के बंधु विदुर का २. ( सो. पूरु.) एक नीपवंशीय राजा । विष्णु | नामांतर | शूद्रा के गर्भ से ब्राह्मणद्वारा उत्पन्न पुत्र को एवं वायु के अनुसार, यह समर राजा का पुत्र था। 'पारशव' कहते थे (म. अनु. ४८.५)। अंबलिका इसका वंशक्रम भागवत में एवं अन्य पुराणों में विभिन्न | रानी की शूद्र दासी के गर्भ से व्यासमुनि द्वारा विदुर का पद्धति से दिया गया है, जो इस प्रकार है :-- । जन्म हुआ। इस कारण उसे 'पारशव' कहते थे। ४१३ Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पारशवी प्राचीन चरित्रकोश पाराशर्य पारशवी-विदुर की पत्नी । यह देवराज की कन्या ४. ऐरावत कुल का एक सर्प, जो जनभेजय के सर्पसत्र थी। | में जल कर मर गया था (म. आ. ५२.१०)। पारशव्य-तिरिंदिर ऋषि का पैतृक नाम (सां. श्री. पाराशर--वैदिक कालीन एक आचार्य । पाराशर ने सू. १६.११.२०)। 'परशु'का वंशज होने से तिरिंदिर | ६१ श्लोकों से युक्त पाराशरी शिक्षा लिखी है। यह को यह उपाधि प्राप्त हो गयी होगी। शुक्रयजुर्वेद की शिक्षा है। शुक्लयजुर्वेद के कहे जानेवाले पारस्कर-शुक्लयजुर्वेद के पारस्कर' गृह्यसूत्र' नामक स्वर, आनुनासिक, विसर्ग आदि का आजकल प्रचलित वर्णन सुविख्यात ग्रंथ का कर्ता । डॉ. जयसवाल के अनुसार के समान वर्णन इस शिक्षा में प्राप्त है। याज्ञवल्की, पारस्करगृह्यसूत्र का रचनाकाल ५०० ई. पू. एवं उसके वासिष्ठी, कात्यायनी, पारशरी, गौतमी, मांडव्यी तथा वर्तमान संस्करण का काल २०० ई. पू. है। पाणिनि आदि शिक्षाओं का उल्लेख इस शिक्षा में प्राप्त है (श्लो. ७७-७८)। उससे प्रतीत होता है कि यह शिक्षा गाईस्थ्यजीवनविषयक धार्मिक विधियों का वर्णन काफी आधुनिक काल की होगी। यह शिक्षा कहने वाले करना यह गृह्यसूत्रों का प्रमुख उद्देश्य है । 'पारस्कर' गृह्य को वैष्णवपद प्राप्त होगा, ऐसा फल अन्त में बताया गया सूत्र के अतिरिक्त अन्य प्रमुख गृह्यसूत्रों के नाम इस है (श्लो. १६९)। प्रकार है :- आश्वलायन-गृह्यसूत्र, शांखायन-गृह्यसूत्र, पाराशरीकौडिनीपुत्र--वैदिक कालीन एक ऋषि । मानव-गृह्यसूत्र, बौधायन-गृह्यसूत्र आपस्तंब-गृह्यसूत्र यह गार्गीपुत्र का शिष्य था (श. ब्रा. १४.९.४.३०)। हिरण्य केशी-गृह्यसूत्र,भारद्वाज-गृह्यसूत्र, पारस्कर-गृह्यसूत्र, . माध्यंदिन शाखा के 'बृहदारण्यक उपनिषद' में दिये द्राह्यायण-गृह्यसूत्र, गोभिल-गृह्यसूत्र, खादिर-गृह्यसूत्र तथा अंतिम 'विद्यावंश' में भी इसका निर्देश प्राप्त है (बृ. कौशिक-गृह्यसूत्र । उ. ६.४.३०)। कई अभ्यासकों के अनुसार, पारस्कर एवं कात्यायन पाराशरीपुत्र-वैदिक कालीन एक ऋषि । 'बृहंदा- . एक ही थे। रण्यक उपनिषद' में दिये 'विद्यावंश' में इसे विभिन्न पारावत-वैदिककाल में यमुना नदी के तट पर रहने स्थानों में निम्नलिखित आचार्यों का शिष्य कहा गया हैवाला एक लोकसमूह (ऋ.८.३४.१८) । पंचविंश ब्राह्मण कात्यायनीपुत्र (बृ. ६.५.१), औरस्वतीपुत्र (बृ. उ. में, इन लोगों का निर्देश, 'पारावत-गण' नाम से किया ६.५.१) । वात्सीपुत्र (बृ. उ. ६.५.२) । तथा गया है एवं तुरश्रवस् को इनका पुरोहित बताया गया है वार्कारूणीपुत्र (श. ब्रा. १४.९.४.३१)। इसके शिष्यों (पं. बा. ९.४.१०-११) । इन लोगों द्वारा दिये गये में भारद्वाजीपुत्र, औपस्वतीपुत्र तथा वात्सीपुत्र प्रमुख थे। दानों का निर्देश वसुरोचिष् के दानस्तुति में किया गया | इस में संदेह नहीं कि, इन विद्यावंशों में एक ही है (ऋ. ८.३४.१८)। सरस्वती नदी को 'पारावतघ्नी' | 'पाराशरीपुत्र' अभिप्रेत न हो कर, इनसे अलग अलग (पारावतों का वध करनेवाली) कहा गया है (ऋ. ६. व्यक्तियों का तात्पर्य है। ६१.२)। यह निर्देश भी, इनके यमुना नदी के तट पर | । पाराशर्य-एक उपनिषदकालीन ऋषि । बृहदारण्यक रहने की पुष्टि करता है। उपनिषद में दिये गये 'विद्यावंशों' में इसे अन्योन्य हिलेब्रांट के अनुसार, गेड़ोसिया की उत्तरी सीमा पर | स्थानों में भरद्वाज, वैजवापायन तथा जातकर्ण्य का शिष्य बसे हयें टॉलेमीकालीन 'पारुएटे' लोग ये ही थे विदिये | कहा गया है (बृ. उ. ३.६.२, ४.६.३)।वैजवापायन का माइथोलोजी १.९७ ) । इन लोगों का मूल नाम 'पर्वतीय' | शिष्य होने का अन्यत्र समर्थन हैं (ते. आ. १.९.२) । था एवं पश्चात् अपभ्रंश से पारावत बना। सामविधान ब्राह्मण में किसी व्यास पाराशर्य ऋषि को २. वसिष्ठ के बारह पुत्रों का सामूहिक नाम । बारह विष्वक्सेन का शिष्य बताया गया है (सामविधान ब्रा. 'पारावतों' के नाम इस प्रकार हैं:-अजिह्म, अजेय, ३.४१.१)। आयु, दिव्यमान, प्रचेतस् , महाबल, महामान, दान, इसके शिष्यों में पाराशर्यायण, सैतव प्राचीन योग्य यज्वत् , विश्रुत, विश्वेदेव तथा समंज (ब्रह्मांड. २.३६. | तथा भारद्वाज ये प्रमुख थे (बृ. उ. २.६.२-३)। पाणिनि ९-१५)। के सूत्रों में, भिक्षुसूत्र रचियता पाराशर्य का निर्देश है ३. स्वारोचिष मन्वंतर का देवगण । । (४.३.११०)। Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाराशर्य प्राचीन चरित्रकोश पार्वती २. युधिष्ठिर की सभा का एक ऋषि (म. स. ४.११) पारुच्छेप--अनानत ऋषि का पैतृक नाम । हस्तिनापुर जाते समय, श्रीकृष्ण से इसकी भेंट हुई थी। पार्णवल्कि--निगद ऋषि का पैतृक नाम । ३. सांकृत्य का शिष्य (बृ. उ. २.५.२०, ४.५.२६ | पार्थ--कुन्ती (पृथा ) के पुत्रों के लिये प्रयुक्त मातृक माध्य.) नाम । महाभारत में यह नाम प्रायः युधिष्ठिर एवं अर्जुन पाराशय कौथम-एक आचार्य । वायु तथा ब्रह्मांड | के लिये ही प्रयुक्त है। किंतु कई जगह कुन्ती के तीनों के अनुसार, यह व्यास की सामशिष्यपरंपरा में से एक | पुत्रों के लिये. एवं एक पुत्रों के लिये, एवं एक स्थान पर 'कर्ण' के लिये भी था । यह कुथुमिनू का शिष्य रहा होगा । इसका प्रयोग किया गया है (म. उ.)। . पाराशर्यायण-पाराशर्य नामक आचार्य का शिष्य। पार्थव--अभ्यावर्तिन् चायमान देखिये। इसका शिष्य घृतकौशिक (बृ. उ. २.६.३, ४.६.४)। पार्थिव--अंगिराकुल का गोत्रकार गण । पारिकारारिरेव-अंगिराकुल का गोत्रकार। पाथुश्रवस-धृतराष्ट्र नामक आचार्य का पैतृक .पारिक्षित-जनमेजय नामक आचार्य का पैतृक नाम (जै. उ. ब्रा. ४.२६.१५) शांत्युदक के समय नाम । अथर्ववेद के कुछ मंत्रों का नाम 'पारिक्षितिऋचा' कौन सा मंत्र कहना चाहिये इस संबंध में इस आचार्य का दिया गया है (ऐ. ब्रा. ६.३२; सां. ब्रा. ३०.५; गो. | मत दिया गया है (कौ. सू. ९.१०)। मधुपर्क गाय से ब्रा. २.६.१२)। चे मंत्र अथर्ववेद में हैं (१२७.७ | करे ऐसा इसका कथन है (को. सू. १७.२७)। १०) पारिक्षित आगे चल कर नामशेष हो गये होंगे, पार्थ्य--तान्व नामक वैदिक आचार्य का पैतृक क्योंकि पारिक्षित कहाँ होंगे , इसके बारे में आध्यत्मिक | नाम । इसके द्वारा दान माँगने का निर्देश प्राप्त है उपपत्ति जोड़ी गयी है (बृ. उ. ३.३.१)। उससे यह इस (ऋ. १०.९३.१५)। सर्वानुक्रमणी से ऐसा प्रतीत समय भी प्राचीन था। यह शब्द पारिक्षित तथा होता है की 'पार्थ्य' के स्थान पर 'पार्थ ' है जो तान्व पारीक्षित दोनों प्रकार से उपलब्ध है। का पैतृक नाम है। आश्वलायन श्रौतसूत्रों में भी पार्थ का पारिजात-नारद के साथ मय की सभा में आया निर्देश प्राप्त है (१२.१०; तान्व देखिये)। हुआ एक ऋषि (मः स. ५.३)। पार्वणि-कार्षणि देखिये। २. पुलह तथा श्वेता का पुत्र (ब्रह्मांड. ३.७.१८० पाति-दक्ष का पैतृक नाम (श. ब्रा. २.४.४.६; १८१)। कौ. ब्रा. ४.४)। पारिजातक-जितात्मा मुनि, जो युधिष्ठिर की सभा में विराजते थे (म. स. ४.१२)। पार्वती--हिमालय तथा मेना की कन्या एवं शिवजी की पत्नी । नारद के कहने पर हिमालय ने इसे शंकर को पारिप्लव-रैवत मन्वन्तर के भूतरजसों में एक ब्याह दिया। एक समय यह शंकर के साथ क्रीडा कर देवगण । रही थी, तब इसने शंकर के नेत्र बंद कर लिये। शंकर पारिभद्र-(स्वा. प्रिय.) एक राजा । यह प्रियव्रतपुत्र | के नेत्रों में सोम, सूर्य तथा अग्नि का वास होने के कारण यज्ञबाहु के सात पुत्रों में से पाँचवा पुत्र था। | चारों ओर अंधकार फैल गया तथा विनाश (क्षय) आरंभ पारभटक-कौरव पक्ष के योद्धाओं का एक दल, | हो गया। ऋषियों के कहने पर इसने क्रीड़ा रोक दी। बाद जो संभवतः परिभद्र देश का निवासी था (म. भी. ४७. | में शंकर के कथनानसार इसने अरुणाचल पर तपश्चर्या ९)। | की। गौतम ने इसे अरुणाचल का माहात्म्य बताया ३. ऐरावतकुल में उत्पन्न एक नाग, जो जनमेजय के (स्कन्द. १.३.३-१२)। सर्पसत्र में जलकर मर गया था (म. आ.)। | पहले यह काले रंग की थी परंतु अनरकेश्वर तीर्थ पारियात्र-(सू. इ.) भागवतमत में अनीह का, में स्नान कर वहाँ के लिंग के समक्ष दीपदान करने के वायुमत में अहीनगु का, विष्णुमत में रुरु का तथा कारण यह गौरवर्ण की हो गयी ( स्कंद. ५.१.३०)। इसने भविष्य मत में कुरु का पुत्र। 'गौरीव्रत' का निर्माण किया तथा उसकी महिमा धर्म२. सर्पसत्र में दग्ध हुए ऐरावतकुल का एक सर्प | राज को बतायी (भवि. ब्राह्म, २१)। . (म. आ. ५२.१०)। एक समय कल्पवृक्ष के नीचे बैठ कर इसने सुंदर स्त्री पारिश्रुत-स्कन्द का एक सैनिक (म.श. ४४.५५)।। की इच्छा की, जिससे 'अशोकसुंदरी' एक सुंदर स्त्री ४१५ Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पार्वती प्राचीन चरित्रकोश पावक उत्पन्न हुई। उसे पार्वती ने अपनी कन्या माना तथा पालक--(प्रद्योत. भविष्य.) एक राजा । यह प्रद्योत उसे वर दिया 'तुम सोमवंश के राजा नहुष की स्त्री होगी' राजा का पुत्र था । मत्स्य के अनुसार, इसने अट्ठाइस (अशोकसुंदरी देखिये)। वर्षों तक, तथा वायु तथा ब्रह्मांड के अनुसार, चौबीस वर्षों इसके शरीर के मल से गजानन की उत्पत्ति हुयी। तक राज्य किया। शंकर से इसे कार्तिकेय नामक पुत्र उत्पन्न हुआ। इसके पालकाप्य--एक वैद्यकाचार्य एवं 'हत्यायुर्वेदसंहिता' अतिरिक्त बाण तथा वीरभद्र को इसने अपने पुत्र माने । नामक मविख्यात ग्रन्थ का रचयिता । प्रस्तत ग्रन्थ में. थे । देवताओं की प्राथना पर इसने दुष्टों के संहार के हाथियों के रोग-निदान की विवेचना प्राप्त है। इस ग्रंथ लिये अनेक अवतार लिये। इस कारण इस के अनेक में निम्नलिखित विषयों की व्याख्या की गयी है:-१. नाम हैं (देवी, दुर्गा तथा सती देखिये)। | महारोगस्थान (अध्याय.संख्या १८); २. क्षुद्ररोगस्थान पार्वतीय-महाभारत काल का एक राजा, जो कुपथ | (अध्याय. ७२); ३. शल्यस्थान (अध्याय. ३४); ४. नामक दानव के अंश से उत्पन्न हुआ था (म. आ.६१ | उत्तरस्थान (अध्याय. ३६)। ५५८*)। पालकाप्य ने अंगदेश के राजा रोमपाद को 'हस्त्यायु२. दुर्योधन के मामा शकुनि का नामांतर। वेंद' सिखाया था। इसका यह ग्रंथ प्रायः श्लोकबद्ध ३. महाभारतकालीन एक लोगसमूह । युधिष्ठिर के है, किन्तु कई अध्यायों की रचना गद्य में भी की गयी . राजसूय यज्ञ के समय, ये लोग उपहार ले कर आये थे है। (म. स. ४८.७) । पांडवों के वनवास काल में जयद्रथ । 'हत्यायुर्वेद के अतिरिक्त पालकाप्य के लिखे अन्य की सेना में शामिल हो कर, इन लोगों ने पांडवों पर ग्रंथ इस प्रकार हैं:-- १. गजायुर्वेद (अमि. २२९.४४); आक्रमण किया था (म. व. २५५.८)। २. गजचिकित्सा; ३. गजदर्पण; ४. गजपरीक्षा । इन . भारतीययुद्ध में ये लोग कौरवदल में शामिल थे, में से 'गजायुर्वेद' संभवतः हत्यायुर्वेद का ही नामांतर एवं शकुनि तथा उलूक के साथ रहा करते थे (म. क. | होगा । ३१.१३)। पांडव वीरों ने इनका युद्ध में संहार किया | पालंकायन-वसिष्ठकुल का एक गोत्रकार । मत्स्य । (म. श. १.२६)। | में इसका नाम 'पादपायन' दिया गया है (मत्स्य. पार्वतेय-एक राजर्षि, जो क्रयनामक दैत्य के अंश २००.१२)। से उत्पन्न हुआ था (म. आ. ६१.५५५*)। __पालित-(सो. क्रोष्टु.) एक राजा । विष्णु के अनुसार पार्षत--द्रुपद राजा का नामांतर (म. आ. १२१. यह परावृत राजा का पुत्र था। इसके 'परिघ' एवं 'पुरुजित् ' नामांतर भी प्राप्त हैं । (परिघ १. देखिये)। पार्षद्वाण-एक वैदिक राजा । 'पृषद्वाण' का वंशज पालिता--स्कंद की अनुचरी मातृका (म. श. ४५. होने से इसे यह नाम प्राप्त हुआ। एक आश्चर्यजनक ३)। पाठभेद-(भांडारकर संहिता)- पलिता'। कार्य करनेवाले राजा के रूप में, इसका निर्देश ऋग्वेद में | पालितक-पूषन् द्वारा खंद को दिये गये पार्षदों में प्राप्त है (ऋ. ८.५१.२) । ऋग्वेद में इसके बारे में जो से एक । दसरे पार्षद का नाम 'कालिक' था (म. श. सूक्त प्राप्त हैं, वह श्रुष्टिगु द्वारा रचित हैं । यह प्रस्कण्व का ४४.३९)। आश्रयदाता था (ऋ ८.५१.२)। पालिशय--वसिष्ठकुल के गोत्रकार ऋषिगण । पार्ण शैलन--वैदिककालीन एक आचार्य (जैः | पावक--(स्वा. उत्तान.) एक राजा । यह विजिताश्व उ. ब्रा. २.४.८)। का पुत्र था। वसिष्ठ के शाप से, इसे मनुष्ययोनि में पाणि--चेकितान राजा का सारथि । जन्म लेना पड़ा (भा. ४.२४.४)। पार्णिक्षमन्--एक विश्वेदेव (म. अनु. ९१.३०)। २. एक वैदिक सूक्तद्रष्टा । यह अग्नि एवं 'स्वाहा' पाल-वासुकि के कुल में उत्पन्न एक नाग जो जनमे- का पुत्र था (अग्नि एवं अग्नि पावक देखिये)। जय के सर्पसत्र में दग्ध हो गया (म. आ. ५२.५)। ३. 'प्रजापति भरत' नामक अग्नि का पुत्र। इसे . पाठभेद 'पैल'। | 'महत् ' नामांतर भी प्राप्त है (म. व. २०९.८)। Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पावकाक्ष प्राचीन चरित्रकोश पिंगल पावकाक्ष-राम की सेना का एक वानर (वा. रा. व्याकरण है, किंतु उसमें वैदिक छंदों पर भी प्रकाश यु.७३६४)। डाला गया है। पावन--भगवान् कृष्ण का मित्रविंदा नामक पत्नी से | 'ऋक्प्रातिशाख्य' में उपलब्ध छंद विषयक जानकारी उत्पन्न पुत्र (भा. १०.६१.१६) काफ़ी अधूरी है, इसी कारण पिंगल का 'छंदःशास्त्र' वेदांग । २. दीर्घतपस् ऋषि का कनिष्ठ पुत्र । इसके बड़े भाई | का सर्वाधिक प्राचीन एवं महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ माना जाता है। का नाम 'पुण्य' था (पुण्य १, देखिये)। इसमें वैदिक छंदों के साथ लौकिक छंदों पर भी प्रकाश ३. एक विश्वेदेव (म. अनु. ९१.३०)। डाला गया है। इस ग्रन्थ में आरंभ से चौथे अध्याय के पावमान्य--एक वैदिक मंत्रसंघ (ऐ. आ. २.२. सातवें सूत्र तक, वैदिक छंदों की जानकारी दी गयी है। २)। आश्वलायन लोगों के तर्पण में, इनका उल्लेख है। शेष अवशिष्ट ग्रन्थ में लौकिक छंदों की चर्चा की गयी पाशद्युम्न वायत-वैदिककालीन एक राजा । पाश- है। इसी ग्रन्थ का एक संस्करण 'प्राकृतपिंगल' नाम द्युम्न राजा का 'वायत' पैतृक नाम है। से प्रसिद्ध है, जिसमें प्राकृत के छन्दों की जानकारी दी - इसके द्वारा किये गये यज्ञ में, इन्द्र स्वयं उपस्थित | गयी है। 'प्राकृतपिंगल' का रचनाकाल १४ वीं शती हुआ था । किन्तु वसिष्ठ के कहने पर, इन्द्र इसके यज्ञ | माना जाता है। को त्याग कर, सुदास राज के यज्ञ में चला गया (क्र. ७. | पूर्वाचार्य-छन्दःशास्त्र के प्रवर्तक भगवान् शिव माने ३३.२)। गये हैं । छन्दःशास्त्र की गुरुपरंपरा इस प्रकार दी पाशिन-(सो. करु.) धृतराष्ट्र के सौ पत्रों में से | गयी है:-शिव--बृहस्पति--दुश्च्यवन--इंदु-मांडव्य एक । भीमसेन ने इसका वध किया था (म. क. -पिगल। ६२.२-३)। . . पिंगल के 'छन्दःशास्त्र' में निम्नलिखित पूर्वाचार्यों का पाप्यजिति-अंगिराकुल का एक गोत्रकार । निर्देश प्राप्त है :-- अग्निवेश्य, आंगिरस, काश्यप (७. पौषमजिति' इसी का पाठभेद है (पौषा जिति देखिये)।। ९), कौशिक ( ३.६६), क्रौष्टुकि (३.२९), गौतम : पिंग-अंगिराकुल का एक गोत्रकार | (३.६६'), ताण्डिन् (३.३६), भार्गव (३.६६), .. पिंगल--एक छंदःशास्त्रज्ञ आचार्य एवं छंदःशास्त्र माण्डव्य (७.३४), यास्क ( ३.३०), रात (७.३४), नामक सुविख्यात ग्रंथ का कर्ता । | वसिष्ठ ( ३.६६), सैतव (५.१८)। ___इसे पिंगलाचार्य या पिंगल नाग कहते थे (भट्ट हलायुध २. कश्यप तथा कद्र से उत्पन्न एक नाग (म. आ. 'टीका)। कई विद्वानों के अनुसार, यह सम्राट अशोक का ' गुरु था। किन्तु 'पाणिनिशिक्षा' की 'शिक्षाप्रकाश' | ३. भृगुकुल का एक ऋषि । यह जनमेजय के सर्पसत्र नामक टीका के अनुसार 'छन्दःशास्त्र' का रचयिता पिंगल, | में सदस्य था (म. आ. ४८.६ )। इसी नाम के एक और वैयाकरण पाणिनि का अनुज था (शिक्षासंग्रह पृ. ऋषि का निर्देश महाभारत में अन्यत्र प्राप्त है (म. आ. ३८५) : कात्यायन के सुविख्यात वृत्तिकार षड्गुरुशिष्य | ४८.७) । पाठभेद-'बोलपिंगल'। का भी यही मत है (वेदार्थदीपिका पृ. ९७ ) । अन्य । ४. एक यक्षराज, जो भगवान शिव का सखा था। विद्वानों के अनुसार यह पाणिनि का मामा था। यह शिव की रक्षा के लिए श्मशानभूमि में निवास __छन्दःशास्त्र-छन्दःशास्त्र को छ: वेदांगों में से एक | करता था (म. व. २२१.२२)। गिना जाता है । पाणिनि के गणपाठ में छन्दःशास्त्र के ५. सूर्य के 'अठारह विनायक' नामक अनुचरों में छंदोविजिति, छंदोविचिति, छंदोमान तथा छंदोभाषा ये चार | से एक । सूर्य के द्वारा प्राप्त वरदान के बल पर, दैत्यों ने पर्याय प्राप्त हैं (ऋगयनादिगण ४.३.७३)। शेष पाँच | देवों को त्रस्त करना प्रारंभ किया। तब उन दैत्यों का - वेदांग इस प्रकार हैं, शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त तथा संहार करने के हेतु, ब्रह्मादि देवों ने 'अठारह विनायक' ज्योतिष। नामक सशस्त्र अनुचरों का एक दल सूर्य के पास तैनात छन्दःशास्त्रविषयक प्राचीनतम उपलब्ध ग्रन्थ किया। उनमें से पिंगल नामक अग्नि की योजना सूर्य के 'ऋक्यातिशाख्य' है। उस ग्रंथ का मुख्य विषय | दक्षिण दिशा में की गयी। यह अग्नि का वर्ण 'पिंगल' प्रा. च. ५३] ४१७ | ३१.९)। Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पिंगल प्राचीन चरित्रकोश पिठर होते के कारण, इसे यह नाम प्राप्त हुआ था (भा. ११.८.२२-४४)। इसने अवधूत को आत्मज्ञान (साम्ब. १६; भवि. ब्राह्म.५६, ७६; ११७)। का उपदेश दिया था, जिससे वह इसे अपना गुरु मानता ६. पुरुकुत्स नगर का एक दुराचारी ब्राह्मण । इसकी था (भा. ११.७.३४)। पत्नी व्यभिचारिणी थी, जिसने इसका वध किया। इसकी जीवनगाथा भीष्म ने युधिष्ठिर को सुनायी थी अगले जन्म में, इसकी पत्नी को तोते का एवं इसे गीध (म. शां. १६८.४६-५२)। का जन्म प्राप्त हुआ। पूर्वजन्म की शत्रुता याद कर के, ३. अयोध्या नगरी की एक स्त्री। एक बार यह गीध (पिंगल) ने तोते का वध किया । बाद में एक विषयोपभोग की इच्छा से, राम के पास गयी । किन्तु व्याध ने इसका भी वध किया। पश्चात् , गंगातट पर एकपत्नीव्रतधारी राम ने, इसकी माँग अस्वीकार कर रहनेवाले बटु नामक ब्राह्मण ने गीता के पाँचवें अध्याय दी, तथा कहा, 'कृष्णावतार में तुम कंस की कुब्जा नामक को सुनाकर इनका उद्धार किया। इस प्रकार इन दोनों दासी बनोगी । उस समय कृष्ण के रूप में, मैं तुम्हे स्वीकार को पितृलोक की प्राप्ति हुयी (पद्म. उ. १७९)। करूँगा। ७. एकादश रुद्रो में से एक । ब्रह्मा ने अपनी ग्यारह यह बात जब सीता को ज्ञात हुयी, तब क्रुद्ध हो कर कन्याओं से विवाह कर, 'एकादश रुद्र' नामक ग्यारह उसने पिंगला को शाप दिया 'राम से विषय-भोग की पुत्रों को उत्पन्न किया। उनमें पिंगल एक था (पा. स. लिप्सा रखनेवाली सुंदरी, तेरा शरीर अगले जन्म में तीन ४०)। स्थानों से टेढ़ा होगा'। पिंगला ने सीता से. दया की.' ८. कश्यप एवं सुरभि का पुत्र (शिव. रुद्र. १८)। याचना की। फिर सीता ने कहा, 'अगले जन्म में ९. एक राक्षस । भीम नामक एक व्याध शिकार के कृष्ण तुम्हारा उद्धार करेगा' (आ. रा. विलास. ८)। . लिए अरण्य में घूम रहा था। उस समय पिंगल राक्षस पिंगलाक्ष-शिव के रुद्रगणों में से एक। .. उसके पीछे लग गया। फिर भीम शमी के पवित्र पेड़ पिंगा--मांडूकी ऋषि की द्वितीय पत्नी (ऐतरेय पर चढ़ गया। पेड़ पर चढ़ते समय, शमी की एक | देखिये)। रहनी टूट कर, नीचे स्थित गणेशजी की मूर्ति पर गिर पिंगाक्ष--एक शबर । परोपकार करते हुये, इसकी पड़ी। इस पुण्यकर्म के कारण, भीम व्याध एवं पिंगल मृत्यु हो गयी। इस कारण, मृत्यु के पश्चात यह 'निति राक्षस का उद्धार हो गया ( गणेश. २.३६)। लोक' का अधिपति बन गया (स्कन्द ४.१.१२)। १०. सूर्य का एक अनुचर, एवं लेखक (भवि. ब्राह्म. २. मणिभद्र नामक शिवगण एवं पुण्यजनी के पुत्रों में ५६, ७६; १२४)। | से एक (मणिभद्र देखिये)। पिंगलक--एक यक्ष, जो शिव का सखा एवं स्कन्द | पिंगाक्षी--स्कन्द की अनुचरी मातृका (म. श. का अनुचर था (म. स. १०. १७; म. व. २२१. ४५.२१)। २२)। पिच्छल--वासुकिवंश में उत्पन्न एक नाग, जो जनपिंगला--अवन्तिनगर की एक वेश्या । मंदर नामक | मेजय के सर्पसत्र में जल कर.मर गया (म.आ. ५२.५)। एक ब्राह्मण इस पर आसक्त था। पाठभेद (भांडारकर संहिता)-'पिच्छिल'। . ___ इसने ऋषभ नामक योगी की सेवा की । इस पुण्य पिजवन एक वैदिक राजा, एवं सुदास राजा का के कारण, इसे अगले जन्म में चंद्रांगद राजा के कुल में पिता (नि.२.२४)। ऋग्वेद में, सुदास के लिए 'पैजवन' जन्म प्राप्त हुआ। यह चंद्रांगद की पत्नी सीमंतिनी उपाधि पैतृक नाम के नाते प्रयुक्त की गयी है (ऋ.७. के गर्भ से उत्पन्न हुयी, तथा इसका नाम कीर्तिमालिनी १८.२२, २३, २५, ऐ. बा. ८.२१)। रखा गया । पश्चात् , यह भद्रायु राजा की पत्नी बनी कई अभ्यासकों के अनुसार, 'पिजवन' एवं 'पंचजन, (भद्रायु देखिये)। दोनों एक ही थे (पंचजन ३. देखिये)। २. विदेह देश के मिथिला नगर की एक वेश्या । एक पिंजरक-कश्यप एवं कद्र पुत्र, एक नाग (म. आ. दिन यह हर रोज़ की तरह अर्धरात्रि तक प्रतीक्षा करती | ३१.६; म. उ. १०१.१५)। रही, पर कोई ग्राहक न आया । इस घटना से इसे पिठर--वरुण की सभा का एक असुर (म. स. ९. वैराग्य उत्पन्न हुआ, तथा अंत में इसे मोक्ष प्राप्त हुआ | १३)। ४१८ Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पिठरक पिठरक -- कश्यप एवं कद्रु का पुत्र, एक नाग (म. आ. ३१.१४) । यह जनमेजय के सर्पसत्र में जल कर "मर गया था ( म. आ. ५२.१४ ) । पाठभेद - ' पीठरक' ( म. उ. १०१.१४ ) । प्राचीन चरित्रकोश पिठीनस् – एक वैदिक राजा । इसके रक्षण के लिये, इंद्र ने रजि नामक दानव का वध किया था (ऋ. ६.२६. ६ ) । सायणाचार्य के अनुसार, 'रजि' एक स्त्री का नाम है, जिसे इंद्र ने पिठीनस् को प्रदान किया था । पिंडसेक्ट -- तक्षककुल का एक नाग, जो जनमेजय सर्पसत्र में मारा गया (म. आ. ५२.७ ) । पाठभेद ( भांडारकर संहिता)- ' पिंडभेत ' । पिंडारक—-कश्यपवंशी एक नाग, जो जनमेजय के सर्पसत्र में मारा गया (म. आ. ५२.१६ ) । २. एक यादव राजा, जो द्रोपदीस्वयंवर में उपस्थित था (म. आ. १७७.१८ ) । ३. (सो. वसु. ) एक राजा । यह वसुदेव राजा का पुत्र था । मत्स्य के अनुसार, यह उसे रोहिणी से, एवं वायु के अनुसार, पौरवी से उत्पन्न हुआ था । ४. धृतराष्ट्रकुल का एक नाग, जो जनमेजय के सर्पसत्र में मारा गया (म. आ. ५२.१६ ) । पितरः---एक देवतासमूह। इन्हे ' पिंड़' नामांतर भी प्राप्त है (म. शां. ३५५. २० ) । मनुष्य प्राणी के • पूर्वजों एवं सारे मनुष्यजाति के निर्माणकर्ता देवतासमूह, इन दोनों अर्थों में 'पितर' शब्द का उपयोग ऋग्वेद, महाभारत एवं पुराणों में मिलता है । प्राचीन भारतीय 'वाङ्मय में प्राप्त ' पितरों' की यह कल्पना प्राचीन ईरानी वाम में निर्दिष्ट 'फ्रवेशि' से मिलती जुलती है । ऋग्वेद में प्राप्त 'पितृसूक्त' में पितरों के उत्तम, मध्यम, एवं अधम प्रकार दिये गये है (ऋ. १०.१५.१) । ऋग्वेद में निम्नलिखित पितरों का निर्देश प्राप्त है: - अंगिरस, वैरूप, अथर्वण, भृगु, नगग्व, दशग्व (ऋ. १०.१४.५ ६)। इनमें से ' अंगिरस ' पितर प्रायः यम के साथ रहते थे (ऋ. १०.१४.३-५) । वे अग्नि से (ऋ. १०. ६२.१ ), एवं आकाश से (ऋ. ४.२.१५) उत्पन्न हुये थे । नगग्व एवं दशख अंगिरस पितरों के ही उपविभाग थे । पितरः मृत व्यक्ति की आत्मा, अग्नि के माध्यम से यमलोक में बसे हुये पितरों तक पहुँच जाती थी (ऋ. १०.१६.१-२ ) । पितरो के इस मार्ग को 'पितृयाण ' या ' अर्चिरादि ' कहते थे (गी. ८.२४-२६ ) । पितरों का राजा यम था । यम का राज्य 'माध्यामिक ' ( पितृलोक ) नामक लोक में स्थित था ( निरुक्त ११.१८ ) । मानवों में पितृलोक पहुँचने वाला, पहिला मृतक यम था । इसलिये वह पितृलोक का राजा बना। पितृलोक का यह यमराज स्वर्ग में सर्वोच्च था । तैत्तिरीय ब्राह्मण में भूलोक एवं अंतरिक्ष के साथ, पितृलोक का निर्देश प्राप्त है, एवं उसे तृतीयलोक कहा गया है ( तै. बा. १.३.१०.५ ) । बृह्मदारण्यकोपनिषद में भी भूलोक, देवलोक, एवं पितृलोक ऐसे तीन लोकों का निर्देश प्राप्त है (बृ. उ. १.५.१६ ) । मनु के अनुसार, पितरो का जन्म ऋषियों से हुआ, एवं उन पितरों से देव एवं मनुष्य जाति का निर्माण हुआ । आगे चल कर, देवों नें चर एवं अचर सृष्टि का निर्माण किया (मनु. ३.२०१ ) । वैदिक वाङ्मय में, पितरों को देवों से अलग माना गया है । ऐतरेय ब्राह्मण के अनुसार, मानववंश के गंधर्व, पितर, देव, सर्प, एवं मनुष्य ये पाँच प्रमुख विभाग थे । उनमें से, देव एवं पितरों से मनुष्यजाति का निर्माण हुआ ( ऐ. बा. ३.३१ ) । उत्तरकालीन ग्रन्थों में तीन से अधिक पितरों का निर्देश पाया जाता है। 'नंदिपुराण' के अनुसार, आग्निष्वात्त, बर्हिषद, काव्य, सुकालिन् ये क्रमश ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्रों के पितर माने गये है । मनुस्मृति में इन चार वर्णों के पितरो के नाम, सोमप, हविर्भुज, आज्यप एवं सुकालिन् दिये गये हैं (मनु. ३.१९३ - १९८ ) । मनु ने अन्य एक स्थान पर, अनमिदग्ध, अग्निदग्ध, काव्य, बर्हिषद, आग्निष्वात्त, सौम्य इन पितरों को ब्राह्मणों के पितर कहा है (मनु. ३.१९९ ) । पुराणों एवं महाभारत में प्रायः सर्वत्र सात पितृगणों का निर्देश प्राप्त है। स्कंदपुराण में नौ पितृगणों का निर्देश हैं, जिनके नाम इस प्रकार है :- अग्निष्वात्त, ४१९ पितरों को सोमरस प्रिय था (ऋ. १०.१५.१ ) । इन्हें यज्ञ में 'स्वधा' कह कर आहुति दी जाती थी । ये कुशासन पर सोते थे (ऋ१०.१५.५ ) । अग्नि एवं इंद्र के साथ, ये यज्ञभाग को स्वीकार करने के लिए उपस्थित होते थे (ऋ. १०.१५.१० ) । शतपथ ब्राह्मण में, पितरों के सोमवंत, बर्हिषद, एवं अग्निष्वात्त, ऐसे तीन प्रकार दिये गये है ( श. बा. २.६. १.७ ) । उस ग्रन्थ के अनुसार, 'सोमयज्ञ, ' ' चरुयज्ञ,' एवं 'सामान्ययज्ञ' करनेवाले व्यक्ति मृत्यु के बाद, क्रमशः सोमवन्त, बर्हिषद, एवं अग्निष्वात्त पितर बन जाते हैं । Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पितरः प्राचीन चरित्रकोश पितर. बर्हिषद, आज्यप, सोमप, रश्मिप, उपाहूत, अयंतु, श्राद्ध- | के द्वारा, पितर भक्षण करते हैं। इन्हें गंडक का मांस, भुज, नांदिमुख (स्कंद. ४.२१६.९-१०)। इनमें से | चावल, यव, मूंग, गन्ना, सफेद पुष्प, फल, दर्भ, उड़द, अमिष्वात्त, बर्हिषद, आज्यप एवं सोमप, ये क्रमशः पूर्व, | गाय का दूध, घी, शहद आदि पदार्थ विशेष पसंद थे। दक्षिण, पश्चिम तथा उत्तर दिशाओं के रक्षक हैं। इनके अप्रिय पदार्थों में, मसूरी, सन एवं सेमी के __मार्कंडेय पुराण में पितरों के कुल ३१ गणों का निर्देश | बीज, राजमाष, कुलीथ, कमल, वेल, रुई, धतूरा, कडवा, प्राप्त है, जिनके नाम इस प्रकार हैं :-- विश्व, विश्वभुज, | नीम, अडुलसा, भेड़ बकरियाँ एवं उनका दूध प्रमुख था। आराध्य, धर्म, धन्य, शुभानन, भूतिद, भूतिकृत, भूति, | इस कारण, ये सारे पदार्थ 'श्राद्धविधि' के समय निषिद्ध कल्याण, कल्पताकर्तृ, कल्प, कल्पतराश्रम, कल्पताहेतु, | माना गया है। अनघ, वर, वरेण्य, वरद, पुष्टिद, तुष्टिद, विश्वपातृ, धातृ, | मनोविकार-पितरों को लोभ, मोह तथा भय ये विकार महत् , महात्मन, महित, महिमावत् , महाबल, सुखद, | उत्पन्न होते हैं, किंतु शोक नहीं होता। ये जहाँ जी चाहे धनद, धर्मद, भतिद। इनमें से शुभ्र, आरक्त, सुवर्ण एवं | वहाँ 'मनोवेग 'से जा सकते हैं, किंतु अपनी इच्छायें व्यक्त कृष्णवर्णीय पितरों की उपासना क्रमशः ब्राह्मण, क्षत्रिय, | करने में ये असमर्थ रहते हैं। वैश्य, एवं शूद्र करते हैं (माकै. ९२.९२)। | हर एक कल्प के अंत में, ये शाप के कारण नष्ट हो पितगणों में से निम्नलिखित पितर, अंगिरस एवं जाते हैं, एवं कल्यारंभ में, उ:शाप के कारण, पुनः जीवित स्वधा के पुत्र माने जाते है:-अग्निप्वात्त, बर्हिषद, सौम्य, होते हैं (ब्रह्मांड. ३.९-१०, वायु. ७१.५९-६०; पृम. आज्यप, साग्नि, एवं अनग्नि । दक्षकन्या स्वधा इनकी | स. ९ ह. व. १.१६-१८; मत्स्य. १३-१५:१४१)। पत्नी थी, एवं उससे इन्हें वयुना एवं धारिणी नामक दो तैत्तिरीय संहिता के अनुसार, 'स्मशानचिति' करने कन्यायें उत्पन्न हुयी थीं (भा. ४.१.६४)। से हरएक मनुष्य को 'पितृलोक' में प्रवेश प्राप्त हो सकता उत्पत्ति--वायुपुराण में पितरो की उत्पत्ति की कथा है (तै. सं. ५.४.११)। धर्मशास्त्र के अनुसार, पितृकार्य इस प्रकार दी गयी है। कि, सबसे पहले ब्रह्माजी ने देवों से देवकार्य श्रेष्ठ माना गया है। की उत्पत्ति की । आगे चल कर, देवों ने यज्ञ करना बंद | पितृगण--पितरों के गणों के देवी एवं मानुष ऐसे दो किया । इस कारण ऋद्ध हो कर, ब्रह्माजी ने देवों को शाप | मुख्य प्रकार थे। इनमें से देवी पितृगण अमूर्त हो कर दिया, 'तुम मूढ़ बनोंगे' । देवों के मूढ़ता के कारण, पृथ्वी स्वर्ग में ब्रह्माजी के सभा में रहते थे (म. स. ११.४६.)। के तीनों लोकों का नाश होने लगा। फिर ब्राजी ने देवों | वे स्वयं श्रेष्ठ प्रकार के देव हो कर, समस्त देवगणों से को अपने पुत्रोंकी शरण में जाने के लिये कहा। पूजित थे । वे स्वर्ग में रहते थे, एवं अमर थे। __ ब्रह्माजी की इस आज्ञा के अनुसार, देवगण अपने मानुष पितृगण में मनुष्य प्राणियों के मृत पिता, पितापुत्रों के पास गये। फिर देवपुत्रों ने देवगणों को प्राय- मह, एवं प्रपितामह का अन्तार्भाव था। जिनका पुण्य अधिक श्चित्तादि विधि कथन किये। इस उपदेश से संतुष्ट हो | हो ऐसे ही 'मृत पितर' मानुष पितृगणों में शामिल हो कर, देवगणों ने अपने पुत्रों से कहा, 'यह उपदेश कथन सकते थे। इन पितृगणों के पितर प्रायः यमसभा में रहते करनेवाले तुम हमारे साक्षात् 'पितर' ही हो। उस दिन थे। सहस्र वर्षों के हर एक नये युग में, इस पितृगण के से समस्त देवपुत्र 'पितर' नाम से सुविख्यात हुये, एवं सदस्य नया जन्म लेते थे, एवं उनसे नयें मनु एवं नये स्वर्ग में देव भी उनकी उपासना करने लगे (वायु. २. मनुष्यजाति का निर्माण होता था। . १०; ब्रह्मांड. ३.९)। यहाँ पितरः-का प्रयोग 'पाताः' दैवी पितर-इन्हें 'अमूर्त' 'देवदेव''भावमूर्ति' (संरक्षण करनेवाला) ऐसे अर्थ से किया गया है। 'स्वर्गस्थ ' ऐसे आकार, उत्पत्ति, महत्ता एवं वसतिस्थान बाकी सारे पुराणों में, पितरों को ब्रह्माजी का मानसपुत्र दर्शानेवाले अनेक नामांतर प्राप्त थे। ये आकाश से भी कहा गया है (विष्णु. १.५.३३)। पुराणों में निर्दिष्ट सूक्ष्मस्वरुप थे, एवं परमाणु के उदर में भी रह सकते थे। सात पितृगणों को सप्तर्षिको का पुत्र भी, कई जगह कहा। फिर भी ये अत्यधिक समर्थ थे। देवी पितृगण संख्या में गया है। | कुल तीन थे, जिनके नाम इस प्रकार हैं:प्रियखाद्यपदार्थ-श्राद्ध के समय 'प्राचीनावीति' कर, (१) वैराज-यह पितृगण विरजस् ( सत्य, सनातन ) एवं 'स्वाध' कह कर दिया गया अन्न एवं सोम, योगमार्ग | नामक स्थान में रहता था। इस पितृगण के लोग ब्रह्माजी ४२० Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पितरः प्राचीन चरित्रकोश पितरः के सभा में रहकर, उनकी उपासना करते थे (म. स. इस जानकारी के अनुसार, सात मुख्य पितरों ने अपने १३३४) इनकी मानसकन्या मेना थी । दैत्य, यक्ष, राक्षस, अपने मन से एक एक कन्या ('मानसी कन्या') उत्पन्न किन्नर, गंधर्व, अप्सरा, भूत, पिशाच, सर्प, एवं नाग | की। उन कन्याओं के नाम इस प्रकार थे:-मेना, इनकी उपासना करते थे। अच्छोदा ( सत्यवती), पीवरी, गो, यशोदा, विरजा, (२) अग्निष्वात्त-यह पितृगण वैभ्राज (विरजस् )। नर्मदा। इस कन्याओं की विस्तृत जानकारी पुराणों में नामक स्थान में रहता था। दैत्य, यक्ष, राक्षसादि इसकी | उपासना करते थे। (१) मेना-इसका विवाह हिमवंत पर्वत से हुआ ' (३) बर्हिषद--यह पितृगण दक्षिण दिशा में सोमप| था। इसको मैनाक नामक एक पुत्र, एवं अपर्णा, एकपर्णा, (सोमपदा) नामक स्थान में रहता था। इनकी मानस- | एवं एकपाताला नामक तीन कन्याएँ उत्पन्न हुयी थीं। कन्या पीवरी थी। मेना की तीन कन्याओं में से, अपर्णा 'देवी उमा' बन महाभारत में तृतीय दैवी पितर का नाम एकशंग दे कर, | गयीं। एकपर्णा ने असित ऋषि से विवाह किया, जिससे बर्हिषद को मानुष पितर कहा गया है (म. स. ११.३०; | उसे देवल नामक पुत्र उत्पन्न हुआ। एकपाताला का विवाह शतशिलाक के पुत्र जैगीषव्य ऋषि से हुआ, १३३*) . जिससे उसे शंख एवं लिखित नामक दो पुत्र हुए। मूर्त अथवा मानुष पितर-इन्हें 'मूर्त, ''संतानक.' (२) अच्छोदा-सविख्यात अच्छोदा नदी यही है। (सांतनिक ), सूक्ष्ममूर्ति ऐसे नामांतर भी प्राप्त थे। इन इसने पितरों की आज्ञा अमान्य कर, चेदि देश का राजा पितृगणों में, निम्नलिखित पितृगणों का समावेश होता वसु एवं अद्रिका' नामक अप्सरा के कन्या के रूप में पुनः जन्म लिया, एवं यह नीच जाति की कन्या १. हविष्मत् (काव्य)--यह पितृगण मरीचिगर्भ प्रदेश ('दासेयी' ) बन गयी इसे काली एवं सत्यवती नामांतर में रहता था। इनकी मानस कन्या गो थी। ब्राह्मण इनकी | भी प्राप्त थे। उपासना करते थे। इसे पराशर ऋषि से व्यास नामक एक पुत्र, एवं .२. सुस्वाधा (उपहूत) यह पितृगण कामग (कामधुक्) शंतनु राजा से विचित्रवीर्य, एवं चित्रांगद नामक दो पुत्र प्रदेश में रहता था। इनकी मानसकन्या यशोदा थी। | हुये। क्षत्रिय इनकी उपासना करते थे। (३) पीवरी-इसका विवाह व्यास ऋषि के पुत्र ३. आज्यप--यह पितृगण पश्चिम दिशा में मानस | शुक्राचार्य से हुआ था। उससे इसे कृष्ण, गौर, प्रभु, (सुमनस् ) प्रदेश में रहता था। इनकी उपासना वैश्य | शंभु एवं भूरिश्रुत ऐसे पाँच पुत्र, एवं कीर्तिमती (कृत्वी) करते. थे। नामक एक कन्या उत्पन्न हुयी (ब्रह्मांड. ३.१०.८०-८१)। . ४. सोमप--यह पितृगण उत्तर दिशा के सनातन (स्वर्ग) पीवरी की कन्या कीर्तिमती का विवाह अनुह राजा प्रदेश में रहता था। इनकी मानसकन्या नर्मदा थी। शूद्र इन से हो कर, उससे कीर्तिमती को ब्रह्मदत्त नामक पुत्र उत्पन्न की उपासना करते थे। महाभारत में, 'मानुषि पितर' हुआ। नाम से सोमप, बर्हिषद, गार्हपत्य, चतुर्वेद, तथा इन, चार (४) गो-इसे 'एकशंगा' नामांतर भी प्राप्त था। पितृगणो का निर्देश किया गया है। वहाँ हविष्मत . सस्वधा. | इसका विवाह शुक्राचार्य से हो कर, उससे इसे सुविख्यात आज्यप इन पितृगणों का निर्देश अप्राप्य है। । 'भृगु वंश की स्थापना करनेवाले पुत्र उत्पन्न हुये। पितकन्या-पराणों में अनेक जगह पितरों के वंश (५) यशोदा-इसका विवाह अयोध्या के राजा (पितृवंश ) की विस्तृत जानकारी दी गयी है (वायु. ७२. वृद्धशर्मन् (विश्वशर्मन् ) के पुत्र विश्वमहत् (विश्वसह) १-१९; ७३. ७७.३२.७४-७६; ब्रह्मांड. ३.१०.१-२१: | राजा से हुआ , जिससे इसे दिलीप द्वितीय (खटांग) ५२-९८, ३.१३.३२, ७६-७९; ह. वं. १.१८; ब्रह्म. | नामक पुत्र हुआ। ३४.४१-४२, ८१.९३,मत्य. १३.२-९, १४.१- (६) विरजा-इसका विवाह सुविख्यात सोमवंशीय १५ पन. सृ. ९.२-५६; लिंग. १.६.५-९; ७०.३३१; | राजा नहुष से हो कर, उससे इसे ययाति नामक पुत्र ८२.१४-१५, २.४५.८८) उत्पन्न हुआ। ४२१ Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पितरः (७) नर्मदा इसका विवाह अयोध्या के राजा पुरूकुल्स से हो कर उससे इसे सदस्य नामक पुत्र उत्पन्न हुआ। कई उत्तरकालीन, ग्रंथों में, नर्मदा को 'नदी' कहा गया है, एवं उसका सुविख्यात नर्मदा नदी से एकात्म स्थापित किया गया है ( मत्स्य. १५. २८ ) । इनके सिवा निम्नलिखित पितृकन्याओं का निर्देश पुराणों में प्राप्त है। : प्राचीन चरित्रकोश १. कृषी (कीर्तिमती) अणु है. पानी (ह.नं. १२२. ६) २. एक २. एकाव्य, ४. अपर्णा (उमा)। 'पितृकन्या' कथा का अन्ययार्थ - पाटिर के अनुसार, पितृकन्याओं के बारे में पुराणों में दी गयी सारी जानकारी, इतिहास एवं काल्पनिक रम्यता के संमिश्रण से बनी है। पुराणों में निर्दिष्ट पितृकन्याओं में, विरमा ( वायु. ९३. १२ ), यशोदा ( वायु ८८. १८१यशो ( बाबु ८८. १८१ १८२), कृत्पी, (कीर्तिमती) ये तीन प्रमुख है। इनके पतियों के नाम क्रमशः नहुष विश्वमहत् एवं अनुह हैं। ये तीनों कन्याएँ एवं उनके पतियों का आपस में बहन भाई का रिश्ता था | अपने बहनों (पिता की कन्याओ ) से हुए विश्वमहत् एवं अनु ने विवाह किया। इस कारण इन कन्याओं को 'पितृकन्या' (पिता की कन्या) नाम प्राप्त हुये पिया के इस ऐतिहासिक अर्थ को त्याग कर, 'पितरों की कन्या' यह नया अर्थ पुराणों ने प्रदान किया है। भाई एवं बहन का विवाह निषिद्ध मानने के कारण, यह अर्थान्तर पुराणों द्वारा स्थापित किया गया होगा । , पुरुकुत्स ( नर्मदा ), शुक्र (गो), शुक (पीवरी ) इन राजाओं ने भी शायद अपने बहनों के साथ शादी की होगी । पितृकन्याओं में से मेना काल्पनिक प्रतीत होती है मेना की कन्याओं में से एकताला, एकपणा, । एवं अपनी ये तीनों नाम वस्तुतः उमा ( देवी पार्वती) केही पर्यायवाची शब्द हैं ( पार्गि ६९-७०)। , पितृवंश -- ब्रह्मांड पुराण में, अग्निष्वात्त एवं बर्हिषद इन दो पितरों के (ब्रह्मांड. २. १३. २९-४३ ) वंश | की विस्तृत जानकारी दी गयी है। पुराणों के अनुसार, 'मैथुनज' मानवी संतति का निर्माण बाप दक्ष से हुआ था। स्वायंभुव दक्ष के पूर्वकालीन मानव वंश की जानकारी अग्निध्यात एवं बर्हिपद स्तिरों के वंशावलि में प्राप्त है, जिस कारण, 'ब्रह्मांडपुराण' में प्राप्त पितृवंश की जानकारी नितांत महत्त्वपूर्ण प्रतीत होती है। पितामह ब्रह्मांड के पुराण के अनुसार, अभि एवं पर इन दो पितरों को स्वधा से क्रमशः 'मेना' एवं 'धारणा' नामक दो कन्याएँ उत्पन्न हुयीं। इनमें से मेना का विवाह हिमवत् से हो कर उसे मैनाक नामक पुत्र हुआ धारणी का विवाह मेरु से हो कर उससे उसे मंदर नामक पुत्र एवं वेला, नियति, तथा आयति नामक तीन कन्याएँ उत्पन्न हुयीं। इनमें से वेला का विवाह समुद्र से हुआ, एवं उससे उसे सवर्णा नामक कन्या उत्पन्न हुयी। सवर्ण का विवाह प्राचीनवर्हि से हो कर, उससे उसे प्रचेतस् नामक द पुत्र हुये । प्रचेतस् को स्वायंभुव दक्ष नामक पुत्र था, जिसके पुत्र का नाम चाक्षुष दक्ष था उसी स्वायंभुव एवं चाक्षुप दक्ष से आगे चलकर 'मैथुनव' अर्थात् मानवी सृष्टि का निर्माण हुआ। पितामह - एक स्मृतिकार | एक प्राचीन धर्मशास्त्रकार के नाते से इसका निर्देश वृद्धवाक्यस्मृति' में किया गया है । ' 6 , इसके शौच विषयक अभिमतों का निर्देश विश्वरूप ने किया है (या 6 १.१७)। मिताक्षरा ' 6 , एवं अपरार्क में, पितामह के व्यवहारशास्त्र, आहिक संबंधी मतों का उद्धरण प्राप्त है 'स्मृतिचंद्रिका' एवं में भी, इसके व्यवहार एवं श्राद्धविषयक दस लोकों का उद्धरण लिया गया है। ४२२ ', ( पितामहस्मृति में विशेषतः व्यवहारशास्त्र ? का विचार किया गया है। पितामह के अनुसार, वेद, वेदांग, मीमांसा, स्मृति, पुराण, एवं न्याय ये सारे ग्रंथ मिला कर 'धर्मशास्त्र' का रूप निर्धारित करते हैं (पिता. पृ. ६०१ ) । इसकी स्मृति में, ' क्रयपत्र, "" स्थितिपत्र समाधिपत्र विशुद्ध आदि दस्तखतों की विशुद्धिपत्र ' व्याख्या प्राप्त है । राजा के न्यायसभा में आवश्यक सेवकों एवं वस्तुओं की नामावलि पितामह ने दी है, जो इस प्रकार है: - लेखक, गणक, शास्त्रपाल, साध्यवाल, सभासद, हिरण्य, अग्नि, एवं उदक | " ' 3 किन्हीं दो व्यक्तियों में विवाद होने पर, सर्वप्रथम ग्रामपंचायत के सामने उसका निर्णय होना चाहिये, ऐसा पितामह का मत है। उसके बाद, 'नगरसभा ' एवं अन्त में राजा के सामने इस क्रम से विवाद का निर्णय होना आवश्यक है, एसा इसने लिखा है । " बृहस्पतिस्मृति का निर्देश कारण, पितामह का का पितामह की स्मृति में प्राप्त है । इस निर्देश के 3 Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पितामह चौथी से सातवीं ईसवी के बीच माना जाता है । पितृ-- दक्षकन्या स्वधा का पति । इसे 'पितर नामांतर भी प्राप्त है ( पितर देखिये) । प्राचीन चरित्रकोश पितृवर्तिन - कुरुक्षेत्र के कौशिक ब्राह्मण के सात पुत्रों में से कनिष्ठ पुत्र । इसके स्वसृप (खसृप ), क्रोधन, हिंस्र, पिशुन, कवि और वाग्दुष्ट आदि भाई थे। ये सात भाई गर्ग ऋषि के शिष्य बन कर रहे थे । हरिवंश के अनुसार, कौशिक विश्वामित्र नामक इनके पिता ने इन्हें शाप दिया, तत्पश्चात् यह एवं इसके भाई गर्ग ऋषि के शिष्य बने । पिता के पश्चात् इन्हें बड़ा कष्ट सहना पड़ा। एक दिन सातो भाई गर्ग की' कपिला नामक गाय को उसके बछड़े के साथ अरण्य में ले गये। वहाँ क्षुधाशांति के हेतु, इसके भाइयों ने गाय को मार कर खाने की योजना बनायी । कवि तथा स्वसृम ने इसका विरोध किया, परन्तु श्राद्धकर्मनिपुण पितृवर्ति ने कहा, 'अगर गोवध करना ही है, तो पितृ के श्राद्ध के हेतु करो, जिससे गाय को भी सद्गति मिलें और हम लोगों को पाप न भुगतना पड़े ' । इसका कथन सब को मान्य हुआ। दो भाइयों को देवस्थान पर, तीन को पितृस्थान पर, तथा एक को अतिथि के रूप में बैठाया, एवं स्वयं को यजमान बनाकर, पितृवर्तिन् ने गाय का 'प्रोक्षण किया। संध्या . के समय गर्गाश्रम में वापस आने के बाद, बछड़ा गुरु को सौंप कर, इन्होंने बताया, कि 'धेनु व्याघ्र द्वारा भक्षित की गयी' । कालांतर में इन सातों बन्धुओं की मृत्यु हो गयी। क्रूरकर्म करने, तथा गुरु से असत्य भाषण करने के कारण, इन लोगों का जन्म व्याधकुल में हुआ । इस योनि में इनके नाम निर्वैर, निर्वृति, शान्त, निर्मन्यु, कृति, वैधस तथा मातृवर्तिन् थे । पूर्वजन्म में किये पितृतर्पण के कारण, इस जन्म में, ये 'जातिस्मर' बन गये थे । मातृपितृभक्ति में वैराग्यपूर्वक काल बिता कर इनकी मृत्यु हुयी । मृत्यु के पश्चात् इन्हें कालंजर पर्वत पर मृगयोनि प्राप्त हुयी । मृगयोनि में इनके नाम निम्नलिखित थे:-- उन्मुख, नित्यवित्रस्त, स्तब्धकर्ण, विलोचन, पंडित, घस्मर तथा नादिन् कहा जाता है । कहा जाता है, अभी तक कालंजर पर्वत पर इनके पदचिह्न दिखाई पड़ते हैं। यह कालंजर पर्वत, वर्तमान बुंदेलखण्ड के बांदा जिले में बदौसा तहसील में स्थित, कालंजर ही होगा । पितृवर्तिन तीसरे जन्म में, ये शरद्वीप में चक्रवाक पक्षी बने । इस जन्म में, इनके नाम इस प्रकार थे : – निस्पृह, निर्मम, क्षांत, निर्द्वन्द्व, निष्परिग्रह, निर्वृत्ति तथा निभृत (ह. वं. १.२१.३१ ) । पद्म पुराण में, इनके नाम इस प्रकार दिये गये है : --सुमना, कुसुम, वसु, चित्तदर्शी, सुदर्शी, ज्ञाता तथा ज्ञानपारंग (पद्म. सृ. १० ) । मस्त्यपुराण के अनुसार, मृगयोनि में इनके नाम इस प्रकार थे: सुमनस्, कुमुद, शुद्ध, छिद्रदर्शी, सुनेत्रक, सुनेत्र तथा अंशुमान् ( मस्त्य. २०.१८ ) । चौथे जन्म में ये मानससरोवर पर हंस पक्षी हुये । उस समय के इनके नाम हरिवंश में प्राप्त हैं, पर वहाँ भिन्न भिन्न अध्यायों में भिन्न भिन्न नाम दिये गये है। छिद्रप्रदर्शन, सुनेत्र तथा स्वतंत्र । अन्य स्थान पर वे इस पर उनके नाम इस प्रकार हैं:-सुमना, शुचिवाच, शुद्ध, पंचम, प्रकार प्राप्त हैं: -- पद्मगर्भ, अरविंदाक्ष, क्षीरगर्भ, सुलोचना, उरुबिंदु, सुबिंदु तथा हेमगर्भ । पद्मपुराण तथा मत्स्यपुराण में 'हंसयोनि ' नहीं दी गयी है, परन्तु उन पुराणों के चक्रवाकयोनि' में दिये गये नामों में, तथा हरिवंश में 'हंसयोनि' के प्रथम दिये गये सात नामों में अत्यधिक साम्य है । एक बार ये सातो बन्धु मानससरोवर पर तपश्चर्या कर रहे थे । तत्र कांपिल्य नगर का पुरूकुलोत्पन्न नीप राजा 'विभ्राज' अपने पत्नी के सहित वहाँ आया, एवं सरोवर में क्रीड़ा करने लगा । पद्मपुराण में इसी राजा का नाम 'अणुह' दिया गया है। राजा का ऐश्वर्य देख कर, स्वतंत्र ( पितृवर्तिन् ), छिद्रदर्शन (कवि ), तथा सुनेत्र (स्वसृप ) के मन में ऐश्वर्य प्राप्त करने के लिए लिप्सा जागृत हुयी । फिर अन्य भाइयों ने क्रुद्ध हो कर इन तीन भाइयों को शाप दिया । इस शाप के कारण, स्वतंत्र ( पितृवर्तिन् ) अगले जन्म में विभ्राज राजा के कुल में जन्म लेने को विवश हुआ । विभ्राज राजा का पुत्र अणुह एवं उसकी पत्नी कृत्वी के कोख में, इसने ब्रह्मदत्त नाम से जन्म लिया । इन सातो बंधुओं द्वारा बध की गयी कपिला, नये जन्म में सन्नति नाम से देवल ऋषि की कन्या, एवं ब्रह्मदत्त की पत्नी बनी। उसे ब्रह्मदत्त से विष्वक्सेन नामक पुत्र हुआ । यह पुत्र पूर्वजन्म में स्वयं राजा विभ्राज ही था । ब्रह्मदत्त वेदवेदांगों में निपुण था, एवं उसको समस्त प्राणीजाति की भाषाओं का ज्ञान था ( ब्रह्मदत्त देखिये ) । ४२३ Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पितृवर्तिन प्राचीन चरित्रकोश पिप्पल पूर्वोक्त शाप के ही कारण, स्वतंत्र (पितृवर्तिन् ) के | के फलस्वरुप ही, इन्हें उत्तरोत्तर उच्च जन्म की प्राप्ति अन्य दो भाई छिद्रदर्शन तथा सुनेत्र ने पांचाल (पांचाल्य, होती रही, तथा अन्त में इन्हें मोक्ष प्राप्त हुआ। मोक्ष पांचिक ) एवं कंडरिक नाम से वत्स तथा बाभ्रव्य प्राप्ति के पूर्व, इन्हें जो योनि प्राप्त हुयी, एवं इन्हें जो वंश में जन्म लिया एवं वे ब्रह्मदत्त के मित्र बने । इनके नामांतर मिलते रहे, वे इनके पूर्वसंचित पुण्यकर्मों के नाम पद्मपुराण में 'पुंडलीक' तथा 'सुबालक,' तथा | कारण ही प्राप्त हुए थे। किन्तु पुराणों में इनके सारे मत्स्यपुराण में 'कंडरीक' तथा 'सुबालक' दिये गये है, जन्मों का, एवं इन्हे प्राप्त हुए सारे नामों की पूरी जानकारी एवं उन्हे ब्रह्मदत्त के मंत्री का पुत्र कहा गया है। प्राप्त नहीं है । सभी पुराणों में इस बारे में एकवाक्यता उन दो भाइयों में से पांचाल (कवि) ऋग्वेद में प्रवीण | भी नहीं है तथा कहीं कहीं कथनों को टोटाया था, तथा उसने ब्रह्मदत्त का आचार्यत्व स्वीकार किया। है। पश्चात् पांचाल ने वेदों का क्रम लगाया तथा 'शिक्षा' पितृवर्तिन् की उपर्युक्त कथा मार्कंडेय ऋषि ने नामक ग्रन्थ का निर्माण कर के, 'योगाचाय' की पदवी प्राप्त भीष्माचार्य को सुनायी थी। श्राद्धकर्म के समय, इन की । कण्डरीक सामवेद तथा यजुर्वेद में निष्णात था, तथा | कौशिकपुत्रों के पहले निर्दिष्ट किये श्लोकों का पठन किया उसने ब्रह्मदत्त का छंदोगत्व तथा अध्वयुत्व स्वाकार जाता है ( ह.बं १.२१.२४; मत्स्य. २०-२१, पद्म, स. किया। १०)। बचे हुये चारों बंधुओं ने एक दरिद्री ब्राह्मण के घर में, पितृवर्धन-- (सो.) एक राजा। भविष्य के '' ध्रतिमान् , क्षुमनस् , विद्वान् तथा सत्यदर्शी नामों से जन्म अनुसार श्राद्धदेव का पुत्र था। लिया । मत्स्यपुराण में, उनके नाम धृतिमान् , तत्वदर्शी, विद्याचण्ड तथा तपोत्सुक प्राप्त है । बाद में, उन ब्राह्मण- पिनाकिन्-- ग्यारह रुद्रों में से एक (म. आ. ६०. पुत्रों ने अरण्य में तपश्चर्या करने का निश्चय किया, एवं | २; मं. शां. २०१.१९)। यह ब्रह्माजी के पौत्र, तथा । उस कार्य के लिये, उन्होंने अपने वृद्ध पिता से अनुमति स्थाणु का पुत्र था। अर्जुन के जन्मकाल में यह उपस्थित माँगी । किंतु वृद्ध पिता ने, उसे इन्कार कर दिया। तब | था (म, आ. ११४.५७)। . इन्होंने अपने पिता की उपजीविका के लिये ब्रह्मदत्त । २. भगवान् शिव का नामांतर । भगवान शिव का राजा के पास जाने के लिये कहा। वहाँ निम्न-लिखित | पिनाक नामक धनुष था, जिसके कारण उसे पिनाकिन् श्लोक कहने के लिये कह कर, वे बंधु स्वयं अरण्य में नाम प्राप्त हुआ। इसने त्रिपुरासुर को भस्म कर, उससे चले गयेः शशमण्डल का राज्य जीत लिया (भवि. प्रति. ३.८) सप्तव्याधा दशार्णेषु, मृगाः कालिंजरे गिरौ ॥ महाभारत के अनुसार, भगवान् शंकर का त्रिशूल चक्रवाकाः शरद्वीपे, हंसाः सरसि मानसे ॥१॥ उसके पाणि (हाथ ) से आनत होकर (मुड़कर ) धनुतेऽभिजाताः कुरुक्षेत्रे, ब्राह्मणा वेदपारगाः ॥ षाकृति बन गया। इस कारण, उस धनुष को 'पिनाक' प्रस्थिता दीर्घमध्वान, यूर्ग किमयसीदथ ॥२॥ एवं उसके धारण करनेवाले शिव को 'पिनाकिन् । भिन्न भिन्न स्थानों में ये श्लोक भिन्न भिन्न तरह से नाम प्राप्त हुआ (म. शां. २७८.१८ (२८९.१७-१८ दिये गये है। किंतु सर्वत्र उनका अर्थ एक ही है। नीलकंठ टीका)। जैसे ही ब्राह्मण ने ये श्लोक ब्रह्मदत्त के यहाँ जा कर पिप्पल-- मित्र नामक आदित्य एवं रेवती के तीन कहे, वैसे ही ब्रह्मदत्त, पांचाल्य, तथा कण्डरीक को अपने | पुत्रा म स कानष्ठ पुत्र ( भ. ६. १८. ६)। पूर्वजन्म का स्मरण हो आया, तथा वे मूञ्छित हो कर २. एक ब्राह्मणभक्षक राक्षस, जो अगस्त्य ऋषि के गिर पडे । बाद में, ब्रह्मदत्त ने उस ब्राह्मण को विपुल धन | द्वादशवर्षीय सत्र के समय लोगों को त्रस्त करता था । दिया, तथा विष्वक्सेन का राज्याभिषेक कर, अपनी । ३. एक कश्यप कुलोत्पन्न ब्राह्मण । उग्र तपस्या के कारण पत्नी तथा प्रधान के साथ तपश्चर्या करने चला गया। इसका अहंकार काफ़ी बद गया था। पर, एक बार इन सात बन्धुओं ने जो पित्रार्चन किया, उसके कारण | माता-पिता की सेवा कर के सर्ववश्यता प्राप्त करनेवाले इन्हें अगले सभी जन्मों में अपने पूर्व ब्राह्मण-जन्म का | सुकर्मन् ऋषि को देखकर इसका अहंकार जाता रहा (पा. ज्ञान रहा, एवं ये उग्रतम तपस्या करते रहे । इस तपस्या । भू. ६१-६३, ८४; सुकर्मन् देखिये)। . ४२४ Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ " पिप्पलाद पिप्पलाद-- उपनिषद्कालीन एक महान् ऋषि एवं अथर्व वेद का सर्वप्रथम संकलनकर्ता यह व्यास की अर्थवन् शिष्य परम्परा में से देवदर्श ( वेदस्पर्श ) का शिष्य था ( व्यास देखिये, ब्रहा. उ. १) । पिप्पलाद का । शब्दार्थ, पीपल के फल खाकर जीनेवाला ( पिप्पल+अद् ) होता है। अथर्ववेद की पिप्पलाद नामक एक शाखा उपलब्ध है । इस शाखा का प्रवर्तक शायद यही होगा । इसके माता-पिता के नाम के बारे में, भिन्न-भिन्न जानकारी प्राप्त है। दधीचि ऋषि को प्रातिथेयी ( वटवा अथवा गभस्तिनी) नामक पत्नी से यह उत्पन्न हुआ । किन्तु कई ग्रंथों में इसके माता का नाम सुवची अथवा सुभद्रा दिया गया है। इनमें से सुभद्रा दधीचि ऋषि की दासी थी । सम्भवतः यह दधीचि का दासीपुत्र था । अन्य कई ग्रंथों में इसे याज्ञवल्क्य एवं उसकी बहन का पुत्र कहा गया है | फिर भी यह दधीचि ऋषि के पुत्र के रूप यें विख्यात है | प्राचीन चरित्रकोश पिप्पलाद मानकर उनसे बदला लेने के लिए इसने शंकर की आराधना की तथा एक कृत्या का निर्माण करके उसे देवों पर छोड़ा। यह देखकर शंकर ने मध्यस्थ होकर देवों तथा इसके बीच मित्रता स्थापित करायी। बाद में, अपनी माता-पिता को देखने की इच्छा उत्पन्न होने के कारण, देवों ने स्वर्ग में इसे दधीचि के पास पहुँचाया। दधीचि इसे देखकर प्रसन्न हुआ तथा इससे विवाह करने के लिए आग्रह किया । स्वर्ग से वापस आकर इसने गौतम की कन्या से विवाह किया (ब्रा. ११०.२२५ ) । दधीचि की मृत्यु के समय उसकी पत्नी प्रातिथेयी गर्मी थी। अपने पति की मृत्यु का समाचार सुनकर उसने उदरविदारण कर अपना गर्भ बाहर निकाला तथा उसे पीपल वृक्ष के नीचे रखकर दधीचि के शव के साथ सती हो गयी। उस गर्म की रक्षा पीपल वृक्ष ने की। इस "कारण इस बालक को पिप्पलाद नाम प्राप्त हुआ । पशु-पक्षियों ने इसकी रक्षा की, तथा सोम ने इसे सारी विद्याओं में पारंगत कराया। मायकाल में मिले हुए कष्टों का कारण, शनि ग्रह को मानकर, इसने उसे नीचे गिराया। त्रस्त होकर शनि इसकी शरण में आया। इसने शनिग्रह को इस शर्त पर छोड़ा कि यह बारह वर्ष से कम आयु वाले बालकों को तकलीफ न दे। कई ग्रन्थों में बारह वर्ष के स्थान पर सोलह वर्ष का निर्देश भी प्राप्त है। इसीलिये आज भी शनि की पीड़ा से छुटकारा पाने के लिए पिप्पलाद, गाधि एवं कौशिक ऋषियों का स्मरण किया जाता है ( शिव. शत. २४-२५ ) । एकवार, जब यह पुष्पभद्रा नदी में स्नान करने जा रहा था, तत्र वहाँ अनरण्य राजा की कन्या पद्मा को देखकर इसने उसकी माँग की शापभय से अनरण्य राजा ने अपनी कन्या इसे प्रदान की। जिससे इसे दस पुत्र हुये ( शिव. शत. २४-२५ ) । दधीचि के देहत्याग के स्थान पर कामधेनु ने अपनी दुग्धधारा छोड़ी। इसीसे इस स्थान को 'दुश्वेश्वर' कहते थे यहाँ पिप्पलाद तपश्चर्या करता था। एकचार जब यह अपनी तरस्या में निमन था तब अपनी तपस्या में निमग्न था तब वहाँ कोलासुर आकर इसका ध्यानभंग करने के हेतु इसे पीड़ित करने लगा। उससे कोलार का बच कराया। इसी से इस स्थान को तत्काल, इसके पुत्र कहोड़ ने एक कृत्या का निर्माण करके 'पिप्पलादतीर्थ' नाम प्राप्त हुआ (पद्म. उ. १५५, १५७ ) स्थान को 'पिप्पलाद तीर्थ कहते हैं (स्कन्द. ५.२.४२) । नर्मदा तट पर इसने तपस्या की थी। इसी से उस - ' शरशय्या पर पडे हुए भीष्म के पास अन्य ऋषिगणों के साथ यह भी वहाँ भाया था ( म. शा. ४०.६६ पंक्ति ६) । एक बार अपने पिता पर क्रोधित होकर इसने एक कृत्या का निर्माण कर, उसे याज्ञवल्क्य पर छोड़ा। याज्ञवल्क्य शंकर की शरण में गया। इस कृत्या का नाश किया तथा यशवस्य एवं पिप्पलाद में मित्रता स्थापित करायी ( स्कन्द. ५.३. ४२ ) । पैप्पलाद संहिता -- अथर्ववेद की कुल दो संहितायें उपलब्ध हैं। उनमें से एक की रचना शौनक ने की है, एवं दूसरी का रचयिता पिप्पलाद है। पिप्पलाद विरचित अथर्ववेद की संहिता 'पैस्थाद संहिता' नाम से प्रसिद्ध है। यह संहिता बीस काण्डों की है, तथा उस संहिता का प्रथम मंत्र 'शन्नो देवी : ' है। पतंजलि के व्याकरण महाभाष्य में एवं ब्रह्मयज्ञान्तर्गत तर्पण में, इसी मंत्र का उद्धरण प्राप्त हैं। व्हिटने के अनुसार, 'वैप्पलाद संहिता' में 'शीनक संहिता' की अपेक्षा, 'ब्राह्मण पाठ अधिक है, तथा अभिचारादि कर्म भी अधिक दिये गये हैं । (व्हिटने कृत अथर्ववेद अनुवाद - प्रस्तावना पृ. ८० ) । यही कथा ब्रह्मपुराण में कुछ अलग ढंग से दी गयी है । अपनी माता-पिता की मृत्यु का कारण देवताओं को । प्रा. प. ५४ ] ४२५ Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पिप्पलाद प्राचीन चरित्रकोश पिशाच अथर्ववेदसंहिता का संकलन करते समय पिप्पलाद ने सुकेशा भारद्वाज ने छठा प्रश्न किया, 'पोडश कल ऐन्द्रजालिक मंत्रों का संग्रह किया था। कुछ दिनों बाद | पुरुष' (परमात्मा) का रूप क्या है ? ' पिप्पलाद ने पैप्पलाद शाखा के नौ खण्ड हुये जिनमें शौनक तथा | उत्तर दिया, "वह हर एक व्यक्ति के शरीर में निवास पैप्पलाद ( काश्मीरी ) प्रमुख थे। अथर्ववेद के पैप्पलाद | करता है, जिसके कारण वह सर्वव्यापी है। बहती गंगा शाखा के मूलपाठ को शाबें तथा ब्लूमफील्ड ने जिस प्रकार समुद्र में विलीन हो जाती है उसी प्रकार समस्त हस्तलिपि के फोटो-चित्रों में सम्पादित किया है, जिसका | सृष्टि उसी में विलीन हो जाती है। केवल पुरुष शेष कुछ अंश प्रकाशित भी हो चुका है। रहता है। इस ज्ञान की प्राप्ति पर मानव को अमरता ___ अन्यग्रंथ-पिप्पलाद का 'पैप्पलाद ब्राहाण' नामक | प्राप्त होती है । वही परब्रह्म है।" एक ब्राह्मणग्रंथ उपलब्ध है, जिसके आठ अध्याय है।। इन छै संवादों में पिप्पलाद द्वारा व्यक्त किये गये उसके अतिरिक्त 'पिप्पलाद श्राद्धकल्प' एवं 'अगस्त्य | विचारों में उनके क्रमबद्ध तत्त्वज्ञान का प्रत्यक्ष परिचय कल्पसूत्र' नामक पिप्पलादशाखा के और दों ग्रंथ भी प्राप्त है। उपलब्ध हैं। २. परिक्षित् राजा के पास आया हुआ एक ऋषि तत्त्वज्ञान-प्रश्नोपनिषद में एक तत्त्वज्ञानी के नाते | (भा. १.१९.१०)। इसका निर्देश प्राप्त है। मोक्ष शास्त्र को पैप्पलाद कहने पिप्पलायन--(स्वा. प्रिय.) एक भगवद्भक्त राजा। ऋषभ देवों द्वारा जयंती नामक स्त्री से उत्पन्न नौ सिद्धपुत्रों । की प्रथा थी (गर्मोपनिषद्)। प्रश्नोपनिषद, अथर्ववेद का एक उपनिषद है। में से एक (भा. ५.४.११, ११.३.३५ )। पिप्पलाद के पास सुकेशा भारद्वाज, शैव्य सत्यकाम, पिप्पल्य--कश्यपकुल का एक गोत्रकार । सौर्यायणि गाये, कौसल्य आश्वलायन, भार्गव वैदर्भी तथा | पिम्र--वैदिक कालीन एक असुर राजा, एवं इंद्र का कबंधिन् कात्यायन आदि ऋषि ब्रह्मज्ञान प्राप्त करने आये | शत्रु । ऋजिश्वन ऋषि के लिए इंद्रने इसको कई बार थे। उन्हें एक वर्ष तक आश्रम में रहने के बाद, प्रश्न पूछने | पराजित किया था (ऋ. १.१०१.१-२, ४.१६.१३, ५.. की अनुज्ञा प्राप्त हुयी । उन्होंने जिस क्रम से प्रश्न पूछे | २९.११, ६.२०.७)। वह ब्रह्मज्ञान की स्वरूपता समझने के लिये पर्याप्त हैं। यह अनेक दुर्गो का स्वामी था. (ऋ. १.५१.५)। __कबंधिन् कात्यायन ने प्रथम प्रश्न किया, 'किस मूलतत्त्व यह दास था (ऋ.८.३२.२); एवं. काली संतानोवाले से सृष्टि पैदा हुयी?' पिप्पलाद ने कहा, 'प्रजापति ने | तथा काली जाति के लोग इसके मित्र थे। 'रयि' (अचेतन) एवं प्राणों (चेतन) के मिथुन से | रॉथ के अनुसार, यह एक दानव था (सेन्ट पीटर्सबर्ग सृष्टि का निर्माण किया कोश)। लुडविग इसे 'मानवशत्र' मानते हैं । 'पिग्रु' भार्गव वैदर्भी ने दूसरा प्रश्न किया ' उत्पन्न सृष्टि की का शब्दार्थ 'प्रतिरोधक' होता है। धारणा किन देवताओं द्वारा होती है। पिप्पलाद ने उत्तर | पिलि--भृगुकुल का एक गोत्रकार । दिया, 'प्राण देवता द्वारा सृष्टि की धारणा होती है। पिशंग--वैदिककालीन एक ऋषि । पञ्चविश ब्राह्मण कौसल्य आश्वलायन ने तीसरा प्रश्न किया 'प्राण की | के अनुसार, सपोत्सव करने वाले दो 'उन्नेतृ' पुरोहितों उत्पत्ति कैसे होती है ? पिप्पलाद ने उत्तर दिया, 'आत्मा में से यह एक था (पं. बा. २५.१५.३)। । २. धृतराष्ट्रकुल में उत्पन्न एक नाग, जो जनमेजय के सौर्यायणि गाय ने चौथा प्रश्न किया' 'स्वप्न में सर्पसत्र में जलकर मर गया था । जागृत तथा निद्रित कौन रहता हैं ?' उत्तर मिला, 'निद्रा ३. मणिवर एवं देवजनी के 'गुह्यक' पुत्रों में से एक में आत्मा केवल जागृत रहती है, शेष सब निद्रा में | ( मणिवर देखिये)। विलीन हो जाते हैं। पिशाच--दानवों का एक लोकसमूह । ये लोग शैव्य सत्यकाम ने पाचवाँ प्रश्न किया, 'प्रणव का उत्तर-पश्चिम सीमा प्रदेश, दर्दिस्थान, चित्रल आदि ध्यान करने से मानव की इच्छा कहाँ तक सफल होती | प्रदेशों में रहते थे । काफ़िरिस्थान के दक्षिण की ओर है ?" उत्तर मिला, "सदैव प्रणव ध्यान करनेवाला मनुष्य | एवं लमगान (प्राचीन-लम्याक) प्रदेश के समीप रहने आत्मज्ञान प्राप्त कर अमरता को प्राप्त होता है।" वाले, आधुनिक 'पशाई-काश्मिर' लोग सम्भवतः यही Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पिशाच प्राचीन चरित्रकोश पिशाच हैं । ग्रियर्सन ने भी ध्वनिशास्त्र की दृष्टि से इस मत | गणों में माना जाता है (ब्रह्मांड. २. ७. ८८को समीचीन माना है। (पिशाच, ज, रॉ. ए. सो. १७०)। १९५०; २९५-२८८) महाभारत में, एक विशेष भूतयोनि के रूप में पिशाचों 'पिशाच' का शब्दार्थ 'कच्चा माँस का भक्षण | का निर्देश प्राप्त है। ये कच्चा माँस खानेवाले व रक्त करने वाला है' । अर्थववेद के अनुसार, इन लोगों में पीनेवाले लोग थे (म. द्रो. ४८.४७)। इन्होंने घटोत्कच कच्चे माँस के भक्षण करने की प्रथा थी, इस कारण इन्हें के साथ रह कर उसकी सहायता की थी और कर्ण पर पिशाच नाम प्राप्त हुआ (अ. वे. ५. २९. ९)। आक्रमण किया था (म. द्रो. १४२.३५,१५०.१०२)। वैदिक वाङमय में निर्दिष्ट दैत्य एवं दानवों का उत्तर- | अजुन और कर्ण के युद्ध में ये उपस्थित थे (म. क. कालीन विकृत रूप पिशाच है। पिशाचों का अर्थ ६३.३१)। सम्भवतः 'वैताल' अथवा 'प्रेतभक्षक' था। प्रघस नामक एक राक्षस व पिशाचों का संघ था (म. अर्थववेद में दानवों के रूप में इसका नाम कई बार | श. २६९.२)। पिशाचों के राजा के रूप में रावण का आया है (अ. वे. २..१८. ४, ४. २०.६-९, ३६. निर्देश भी कई जगह प्राप्त है (म. व. २५९.३८)। ४,३७. १०५.२९. ४-१०; १४; ६. ३२. २, ८. ब्रह्मा एवं कुबेर के सेवक के रूप में इनका निर्देश २. १२, १२. १.५०)। इन लोगों का निर्देश ऋग्वेद प्राप्त है (म. स. ११.३१)। शिवजी के पार्षदो में 'पिशाचि' नाम से किया गया है (ऋ. १. १३३. के रूप में भी पिशाचों का निदेश आता है। गोकर्ण ५)। राक्षसों तथा असुरों के साथी मनुष्य एवं पितरों | पर्वत पर इन लोगों ने शिवजी की आराधना की थी के विरोधी लोगों के रूप में इनका निर्देश वैदिक साहित्य (म. व. ८३.२३)। मुजवत पर्वत पर पार्वती सहित में स्थान स्थान पर हुआ है (तै. सं. २. ४: १.१: का. तपस्या करते हुए शिव की आराधना इन लोगों ने की सं. ३७-१४) किन्तु कहीं कहीं इनका उल्लेख मानव थी (म. आश्र. ८.५)। रूप में भी हुआ है । कुछ भी हो यह लोग संस्कारों से | पैशाची भाषा एवं संस्कृति -इनकी भाषा पैशाची हीन व बर्बर थे और इसी कारण यह सदैव घृणित दृष्टि | थी, जिसमें 'बृहत्कथा' नामक सुविख्यात ग्रंथ 'गुणाढ्य' से देखे जाते थे। उत्तर पश्चिमी प्रदेश में रहने वाले | (४ थी शती ई. पू.) ने लिखा था। गुणाढ्य का मूल अन्य जातियों के समान ये भी वैदिक आर्य लोगों के ग्रंथ आज उपलब्ध नहीं है, किंतु उसके आधार लिखे गये शत्रु थे। सम्भवतः मानव माँस भक्षण की परस्परा इनमें 'कथासरित्सागर' (२री शती ई.) एवं 'बृहत्कथाकाफी दिनों तक प्रचलित रही। | मंजरी' नामक दो संस्कृत ग्रंथ आज भी प्राप्त हैं, एवं ब्राह्मण ग्रन्थों के अनुसार, इन लोगों में, 'पिशाच- संस्कृत साहित्य के अमूल्य ग्रंथ कहलाते हैं। इनमें से वेद' अथवा 'पिशाचविद्या' नामक एक वैज्ञानिक | 'कथासरित्सागर' का कर्ता सोमदेव हो. कर, 'बृहत्कथाविद्या प्रचलित थी (गो. बा. १. १. १०; आश्व, श्री. मंजरी' को क्षेमेंद्र ने लिखा है। सू. १०. ७. ६)। अथर्ववेद की एक उपशाखा इन सारे ग्रंथों से अनुमान लगाया जाता है कि. 'पिशाचवेद' नाम से भी उपलब्ध है ( गो. ब्रा. ईसासदी के प्रारंभकाल में, पिशाच लोगों की भाषा एवं १. १०)। संस्कृति प्रगति की चरम सीमा पर पहुँच गयी थी। यहाँ ब्रह्मपुराण के अनुसार, पिशाच लोगों को गंधर्व तक, कि, इनकी भाषा एवं ग्रंथों को पर्शियन सम्राटों ने गुह्यक, राक्षस के समान एक 'देवयोनिविशेष' कहा अपनाया था। इनकी यह राजमान्यता एवं लोकप्रियता गया है। सामर्थ्य की दृष्टि से, इन्हे क्रमानुसार इस देखने पर पैशाची संस्कृति एवं राजनैतिक सामर्थ्य का पता प्रकार रखा गया है-गंधर्व, गुह्यक, राक्षस एवं पिशाच । चल जाता है। सर्वप्रथम मध्यएशिया में रहनेवाले ये ये चारों लोग विभिन्न प्रकार से मनुष्य जाति को पीड़ा लोग, धीरे धीरे भारतवर्ष के दक्षिण सीमा तक पहुँच गये। देते हैं- यक्ष गंधर्व 'दृष्टि' से, राक्षस शरीरप्रवेश से | महाभारतकालीन पिशाच जनपद के लोग। ये एवं पिशाच रोगसदृश पीड़ा उत्पन्न करके । ये सारे | लोग युधिष्ठिर की सेना में क्रौंचव्यूह के दाहिने पक्ष की लोग पुलस्त्य, पुलह एवं अगस्य वंशोत्पन्न थे। इनमें से | जगह खड़े किये थे (म. भी. ४६.४९)। इनमें से बहुत से पिशाचो का स्वतंत्र वंश उपलब्ध है। वह रुद्र के उपासक | लोग भारतीययुद्ध में मारे गये थे (म. आश्र. ३९.६)। ४२७ Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पिशाच प्राचीन चरित्रकोश पुंडरीका दुर्योधन की सेना में राजा भगदत्त के साथ पिशाचदेशीय | पुंडरीक-(सू. इ.) इक्ष्वाकुवंश का एक राजा । सैनिक थे (म. भी. ८३.८)। श्रीकृष्ण ने किसी समय | इसे पुंडरिकाक्ष भी कहते थे (पा. स्.८)। पिशाच देश के योद्धाओं को परास्त किया था (म. द्रो. यह नभ राजा का पुत्र था । इसे क्षेमधन्वन् अथवा १०.१६)। | क्षेमधृत्वन् नामक पुत्र था (क्षेमधृत्वन् पुंडरिक देखिये)। ३. एक यक्ष का नाम (म. स. १०.१५)। २. कश्यप वंश का एक नाग, जो पाताललोक में पिशाचि--पिशाच लोगों का नामांतर (पिशाच रहता था (म. उ. १०३.१३, बभ्रुवाहन देखिये)। दखिये)। ३. यम की सभा का एक सभासद (म. स. ८. पिशुन--कुरुक्षेत्र के कौशिक ब्राह्मण के सात पुत्रों | १४)। में से एक। इसके अन्य भाइयों में पितृवर्तिन् प्रमुख था | ४. एक तीर्थसेवी ब्राह्मण, जिसका नारद से 'सर्वो(पितृवर्तिन् देखिये)। त्तमतत्व' के संबंध में संवाद हुआ था (म. अनु. १८६, पीठ--नरकासुर का सेनापति, एक असुर । भगवान् | ३; पम. उ. ८०)। कृष्ण ने इसका वध किया (म. द्रो. १०.५, भा. १०. इसे भगवान् नारायण का प्रत्यक्ष दर्शन हुआ था, ५९.१४)। एवं उसके साथ परमधाम की प्राप्ति भी हुयी थी (म. पीडापर-कश्यप एवं खशा के पुत्रों में से एक। | अनु. १२४)। पीतहव्य--वीतहव्य का नामांतर । ५. एक दिग्गज (म. द्रो. १२१.२५ बंबई प्रत)। . ६. एक राजा, जो अम्बरीष राजा का मित्र था । इन' पीतायुध--(सो. पूरु.) एक राजा । मत्स्य के | दोनों ने अधर्म का आचरण किया । बाद में पश्चाताप अनुसार, चारुपद इसीका नामांतर था (चारुपद | कर के इन्होंने जगन्नाथ की आराधना की, जिस कारण' देखिये)। | इन्हें भगवान का प्रत्यक्ष दर्शन हुआ, एवं मोक्ष की प्राप्ति । पीवर--तामस मन्वंतर के सप्तर्षियों में से एक। हुयी (स्कंद. २.२.४-५)। पीवरी--अमिष्वान्त पितरों की कन्या तथा व्यास ७. नागपुर का नाग राजा । इसके दरबार में ललित ऋषि के पुत्र शुक की स्त्री। इसे कृष्ण, गौर, प्रभु, शंभु नामक एक गायक था । 'कामदा एकादशी का व्रत तथा भूरिश्रुत नामक पाँच पुत्र एवं कीर्तिमती नामक एक | करने के कारण इसका उद्धार हुआ (पझ. उ. ४०)। ' कन्या थी । कीर्तिमती का विवाह अणुह राजा से हुआ 'कामदाएकादशी' का माहात्म्य कथन करने के कारण था, एवं उससे उसे ब्रह्मदत्त नामक पुत्र हुआ था | इसकी कथा दी गयी है। (ब्रह्मांड. ३.१०.८०-८१)। ८. एक भगवद्भक्त, जिसका ' 30 नमो नारायणाय' पद्मपुराण में, इसके पुत्रों के नाम कृष्ण, गौरप्रभ एवं मंत्र से उद्धार हुआ। अंत में विष्णु इसे अपने साथ शंभ तथा कन्या का नाम कृत्वी बताया गया है (पन. | वैकुंठ ले गया (पन. उ.८१.)। स. ९-४०-४११; पुलह २. देखिये)। ९. एक भगवद्भक्त । यह विदर्भ नगर के मालव पितरों द्वारा उत्पन्न की गयी मानसकन्याओं में पीवरी नामक ब्राहाण का भतीजा था। इसके घर विष्णु एक मास एक थी (पितरः देखिये)। तक रहा था। इसका भरत नामक एक दुष्टचरित्र भाई पुंजिकस्थला--दस प्रधान अप्सराओं में से एक। | था। भरत के मृत्योपरांत, इसने पुष्करतीर्थ में उसका अर्जुन के जन्ममहोत्सव में इसने गाया था (म. आ. | क्रियाकर्म किया, जिस के कारण भरत का उद्धार हुआ ११४.४६ )। यह कुबेर की सभा में रहकर, उसकी (पद्म. उ. २१५.)। उपासना करती थी (म. स. १०.१०)। १०. कुरुक्षेत्र के कौशिक ब्राह्मण के सात पुत्रों में शाप के कारण, अगले जन्म में यह कुंजर नामक ) से एक ( पितृवर्तिन् देखिये)। वानर की कन्या अंजना हुयी (वा. रा. कि. ६६; अंजना पुंडरीका--एक अप्सरा, जो कश्यप तथा मुनि की देखिये)। | कन्या थी। इसने अर्जुन के जन्मोत्सव में नृत्य किया था पुंजिकस्थली-वैशाख में सूर्य के साथ रहनेवाली | (म. आ. ११४.५२)। एक अप्सरा (भा. १२.११.३४)। २. वसिष्ठ ऋषि की कन्या। ४२८ Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुंडरीकाक्ष प्राचीन चरित्रकोश पुनर्भव पुत्र। पुंडरीकाक्ष-इक्ष्वाकु वंश के पुंडरीक राजा का होकर, रैवत के सौ भाई राज्य से भाग कर इधर उधर नामांतर (पुंडरीक १. देखिये)। चले गये। आगे चलकर शर्यातवंश हैहयवंश में विलीन २. भगवान् श्रीकृष्ण का नामांतर (म. उ. ६८.६)। हो गया (विष्णु. ४.२.१-२)। पुंडरीयक-- एक सनातन विश्वेदेव (म. अनु. | पुण्यजनी-मणिभद्र नामक शिवगण की पत्नी। इसके ९१.३४)। पिता का नाम ऋतुस्थ था। मणिभद्र से इसे तेइप्स पुत्र पुंडलिक-- कुरुक्षेत्र के कौशिक ब्राह्मण के सात पुत्रों | हुये (ब्रह्माड ३.७.१२२-१२५, मणिभद्र देखिये)। में से एक ( पितृवर्तिन् देखिये )। पुण्यनामन्--स्कंद का एक सैनिक (म. श. ४४. पुंड्र--(सो. अनु.) अनुवंश का एक राजा । यह । ५५)। बलि राजा के छः पुत्रों में से एक था ( अंग एवं बलि | पुण्यनिधि-मथुरा का चन्द्रवंशी राजा। इसने देखिये)। रामेश्वर में रहकर विष्णु की आराधना की। तब इसकी . २. पुंड देश के लोगों के लिये प्रयुक्त एक सामूहिक तपस्या से प्रसन्न होकर, भगवान विष्णु 'सेतुमाधव' नाम नाम । इन लोगों को पाण्डु राजा ने जीता था (म. आ. से रामेश्वर में निवास करने लगे (स्कंद. ३.५१)। १०५.१२)। युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ के समय ये लोग पुण्यवत्-(सो. ऋक्ष.) एक राजा । मस्त्य के भेंट लेकर आये थे (म. स. ४८.१७) अनुसार यह वृषभ राजा का पुत्र था। इसे 'पुष्यवत्' कर्ण ने अपने दिग्विजय के समय इन लोगों को, एवं नामांतर भी प्राप्त था। इनके पौंड्रक वासुदेव नामक राजा को जीता था (म. क. पुण्यशील-गोदावरी के तट पर निवास करनेवाला ५.१९)। पाण्डवों के अश्वमेध यज्ञ के समय अर्जन ने एक ब्राह्मण । एक बार इसने एक वंध्या स्त्री के ब्राह्मण पति इन्हें जीता था (म. आश्व. ८४.२९)। को श्राद्धकर्म के लिए बैठाया । इस पापकर्म के कारण इसका ३. वसुदेव के सुतनु से उत्पन्न दो पुत्रों में से ज्येष्ठ मुख गर्दभ के समान हो गया। अन्त में, वेंकटाचल के स्वामितीर्थ में तथा आकाशगंगातीर्थ में स्नान करने के ४. ब्रह्माण्ड के अनुसार, व्यास के यजःशिष्य परंपरा | उपरांत, इसे इस शाप से छुटकारा मिला, एवं इसका में से याज्ञवल्क्य का वाजसनेय शिष्य । मुख पहले की तरह हो गया (स्कंद. २.१.२२)। पुंडक-एक प्राचीन क्षत्रिय नरेश, जो युधिष्ठिर की पुण्यश्रवस--एक ऋषि । विष्णुभक्त होने के कारण, सभा में उपस्थित था (म. स. ४.२६)। युधिष्ठिर के कृष्णावतार के समय इसने नंद के भाई के घर, मे लवंगा राजसूय यज्ञ में यह 'दुकूलादि ' भेंट लाया था ( म. स. | नामक गोपी के रूप में जन्म लिया (पद्म. पा.७२.१५२)। ४८.४७)। पुत्र--स्वारोचिष मनु के पुत्रों में से एक । पुण्य--महेन्द्रपर्वत पर रहनेवाले दीर्घतपस नामक पुत्रक-(सो. ऋक्ष.) एक राजा । वायु के अनुसार तपस्वी के दो पुत्रों में से एक । इसका भाई पावन था. यह कुरु राजा का पुत्र था। इसका 'प्रजन' नामांतर जो अत्यधिक गँवार था। अपने माता-पिता की मृत्यु के अनामिका में भी प्राप्त है। उपरांत इसने अपने शोकग्रस्त भाई पवन को उपदेश | पुत्रव--अंगिराकुल का एक गोत्रकार। देकर उसे शोक से मुक्त किया (यो. वा. ५.१९- पुत्रसेन--मैत्रायणी संहिता में निर्दिष्ट किसी एक २१)। व्यक्ति का नाम (मै. सं. ४.६.६)। २. (सो. ऋक्ष.) एक राजा । मत्य के अनुसार, यह पुत्रिकर्षण--(आंध्र. भविष्य.) एक आंध्रवंशीय पुण्यवान नामक राजा का पुत्र था। राजा । वायु के अनुसार, हाल तथा पंचसप्तक राजाओं पुण्यकृत्-एक सनातन विश्वेदेव (म. अनु. ९१. | के पश्चात् यह राजगद्दी पर बैठा (वायु. ९९.३५३)। ३०)। इसके पुरीन्द्रसेन, पुरीषभीरु तथा प्रविल्लसेन नामांतर पुण्यजन-एक राक्षस । कुशस्थली (द्वारिका) का | भी प्राप्त है । इसने इक्कीस वर्षों तक राज्य किया। शर्यातवंशीय राजा ककुमिन् रैवत जब ब्रह्माजी से मिलने | पुनर्दत्त--सांख्यायन आरण्यक में निर्दिष्ट एक गया था, तब उसकी अनुपस्थिति में इसने उसके | आचार्य (सां. आ. ८.८)। राज्य पर अधिकार जमा लिया। इसके भय से त्रस्त पुनर्भव समाभाग वा भागवत --(शुंग. भविष्य.) ४२९ Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुनर्भव प्राचीन चरित्रकोश पुरंजय प्राप्त हैं। एक शृंगवंशीय राजा । मात्त्य के अनुसार यह वज्रमित्र | का उपदेश देते थे, एवं विद्वानों की सभाओं में भाग लेते राजा का पुत्र था। थे। महर्षि भरद्वाज के द्वारा आयोजित एक 'वैद्यक-समा' पुनर्वत्स काप्य--एक वैदिक सूक्तद्रष्टा (ऋ. ८. में यह उपस्थित थे। शिष्य--आत्रेय के कुल छः शिष्य थे, जिनके नाम पुनर्वसु--(सो. कुकुर.) एक यादव राजा । भागवत | इस प्रकार थे:-अग्निवेश, भेल, जतूकर्ण, पराशर, हारीत के अनुसार यह दरिद्योत का, वायु तथा विष्णु के | तथा क्षीरपाणि (चरक. १.३०,३७)। अनुसार अभिजित का, तथा मत्स्य के मतानुसार नल या | ग्रन्थ--- इसका सुविख्यात ग्रन्थ 'आत्रेयसंहिता' है। नंदनोदरदुंदभि का पुत्र था। इसके आहुक तथा आहुकी | इस ग्रन्थ के अनेक हस्तलेख विभिन्न हस्तलेखसंग्रहों में नामक दो पुत्र थे। २. दक्ष की कन्या, जो सोम की पत्नी थी। आजकाल प्रकाशित 'हारीतसंहिता' में पाँच विभिन्न पुनर्वसु आत्रेय --- एक प्राचीन आयुर्वेदाचार्य । चरक | 'आत्रेय संहिताओं' के निर्देश प्राप्त हैं, जिनकी श्लोकसंहिता के मूल ग्रंथ 'अग्निवेशतंत्र' के रचयिता अग्निवेश का | संख्या क्रमशः चौबीस हज़ार, बारह हज़ार, छः हजार, तथा उसके सहपाठी भेल आदि का यह गुरु था। तीन हज़ार एवं पंद्रह सौ दी गयी है। यह ब्रह्मा के मानसपुत्र देवर्षि अत्रि का पुत्र था। आत्रेय के नाम पर लगभग तीस 'आयुर्वेदीय योग । आत्रेय शब्द से 'अत्रिपुत्र' 'अत्रिवंशज' एवं | उपलब्ध हैं । इनमें से 'बल तैल' एवं 'अमृताद्य तेल'.. 'अत्रि-शिष्यपरम्परा' का बोध होता है, किन्तु यहाँ का निर्देश चरक संहिता में प्राप्त है (चरक. चि. २८. 'आत्रेय' शब्द पुत्र-वाचक ही है। क्योंकि, चरकसंहिता | १४८-१५६; १५७-१६४)। में विभिन्न स्थानों पर इसके लिये 'अत्रिसुत', 'अत्रि पुरंजन--एक प्राचीन राजा । स्वायंभुव मन्वन्तर के . नंदन' आदि का स्पष्ट निर्देश है (चरक. सू. ३.२९; | प्राचीनबर्हि राजा को ब्रह्मज्ञान का उपदेश देते समय, ३०.५०.)। नारद ने इस राजा का निर्देश किया था (भा. ४.२५-". इसके पिता अत्रि ऋषि स्वयं आयुर्वेदाचार्य थे।| २९)। 'काश्यपसंहिता' के अनुसार, इन्द्र ने कश्यप, पुरंजय--(सू. इ.) एक इक्ष्वाकुवंशीय राजा । इसे वसिष्ठ, अत्रि एवं भृगु ऋषियों को आयुर्वेद की शिक्षा दी | 'इंद्रवाह' एवं 'ककुत्स्थ' नामांतर भी प्राप्त थे। थी। अश्वघोष के अनुसार, आयुर्वेद चिकित्सातंत्र का जो २. (सो. अनु.) एक अनुवंशीय राजा । विष्णु, भाग अत्रि ऋपि पूरा न कर सके, उसे उसके पुत्र पुनर्वसु मत्स्य, एवं वायु के अनुसार, यह संजय राजा का पुत्र आत्रेय ने पूर्ण किया (अश्वघोष- 'बुद्धचरित' १. था । मत्स्य के अनुसार, इसे 'वीर' नामांतर भी प्राप्त ४३)। था। इसकी माता का नाम चन्द्रभागा था, जिस कारण इसे 'चान्द्रभाग' अथवा चान्द्रभागी नामांतर भी ३. (सो. पूरु. भविष्य.) एक पूवंशीय राजा । मत्स्य के अनुसार, यह 'मेधावि ' राजा का पुत्र था। प्राप्त है (काश्यप. उपोद्घात पृ. ७७)। कृष्णयजुर्वेदीय होने के कारण इसे 'कृष्णात्रेय' भी कहते हैं (चरक. ४. एक नागवंशीय राजा । विष्णु के अनुसार, यह किलकिला का, एवं ब्रह्मांड के अनुसार यह मथुरा का सू. ११.६५)। अपने पिता अत्रि ऋषि तथा भरद्वाज ऋषि से आयुर्वेद राजा था। इसके पिता का नाम विध्यशक्ति था। का ज्ञान प्राप्त कर, यह आयुर्वेदाचार्य बना। सामान्यतः ५. (सो. मगध. भविष्य.) मगध देश का एक राजा। यह भरद्वाज ऋषि का समकालीन माना जाता है । किन्तु भागवत के अनुसार, यह जरासंध के वंश का अंतिम एक तिब्बतीय कथा के अनुसार, सुप्रसिद्ध बौद्ध भिक्षु राजा था । इसके प्रधान का नाम शुनक था, जिसने जीवक की आयुर्वेदीय शिक्षा आचार्य आत्रेय द्वारा इसका वध कर 'प्रद्योत' नामक स्वतंत्र राजवंश की नींव तक्षशिला में हुयी थी। डाली (भा. १२.१.२)। पुनर्वसु आत्रेय यायावर ऋषि थे, एवं इनके रहने का विष्णु में इसका नाम 'रिपुंजय' दिया गया है . कोई स्थान निश्चित न था। यह पर्यटन करते हुये आयुर्वेद (४. रिपुंजय देखिये)। ४३० Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरंजय प्राचीन चरित्रकोश पुरुकुत्स ६. (भविष्य) मागधवंशीय विश्वस्फूर्ति राजा का | राजा । मत्स्य के अनुसार, यह मदुलक का पुत्र था। इसे नामांतर | पापबुद्धि होकर भी यह अति पराक्रमी था। पुत्रिकरण नामान्तर मी प्राप्त है (पुत्रिकर्षण देखिये)। इसकी राजजधानी पद्मावती नगरी थी। गंगाद्वार से पुरीमत्-आंध्र. भविष्य.) एक आंध्रवंशीय राजा प्रयाग तक का सारा प्रदेश इसके राज्य में शामिल था। भागवत के अनुसार, यह गोमतीपुत्र का पुत्र था । इसे इसने 'वर्णाश्रम व्यवस्था' को नष्ट कर, पुलिंद, यदु | 'पुलीमत् ' एवं 'पुलोम' नामांतर भी प्राप्त थे । तथा मद्रक नामक नये वर्ण स्थापित किये (भा. १२.१. परीषभीरु-(आंध्र. भविष्य.) एक आंध्रवंशीय ३६-४०)। पुराणों में दी गयी वंशावली में इसका नाम अप्राप्त है। राजा । भागवत के अनुसार, यह तलक का, एवं ब्रह्मांड के अनुसार, यह पंचपत्तलक का पुत्र था। इसे 'पुत्रिकपुरंदर-वैवस्वत मन्वन्तर के इन्द्र का नामांतर पेण' नामान्तर भी प्राप्त है (पुत्रिकपेण देखिये )। (इन्द्र देखिये)। मत्स्य पुराण में निर्दिष्ट अठारह वास्तु परीष्य--पंचचित नामक अग्नि का नामान्तर । यह शासकारों में पुरंदर का निर्देश प्राप्त है (मस्त्य. २५२. विधाता नामक आठवें आदित्य को क्रिया नामक पत्नी से २-३)। अन्य वास्तुशास्त्रकारों के नाम इस प्रकार है:भृगु, अत्रि, वसिष्ठ, विश्वकर्मा, मय, नारद, नग्नजित्, उत्पन्न हुआ था (भा. ६.१८.४)। विशालाक्ष, ब्रह्मा, कुमार, नन्दीश, शौनक, गर्ग वासुदेव, पुरु-एक प्राचीन क्षत्रिय नरेश, जो युधिष्ठर की शुक्र, बृहस्पति, अनिरुद्ध । सभा में उपस्थित था (४.२३ पाठ.)। महाभारत के अनुसार, भगवान् शिव ने धर्म, अर्थ, २. भागवत के अनुसार, वसुदेव एवं सहदेवा का पुत्र । एवं काम शास्त्र पर 'वैशालाक्ष' नामक एक ग्रन्थ की रचना | पुरुकुत्स--अंगिराकुल के कुत्स नामक उपगोत्रकार की, जिसकी अध्यायसंख्या कुल दस हज़ार थी। उस के तीन प्रवरों में से एक। एक मंत्रद्रष्टा के रूप में भी वृहद्ग्रन्थ का संक्षिप्तीकरण, आचार्य पुरंदर ने किया। इसका निर्देश प्राप्त है (अंगिरस् देखिये)। इसके इस ग्रन्थ का नाम 'बाहुदंतक' था, जिसमें पुरुकुत्स 'ऐक्ष्वाक'-(सू. इ.) पुरु देश का एक अध्यायों की संख्या पाँच सहस्र थी। संभवतः आचार्य इक्ष्वाकुवंशीय राजा (श. बा. १३.५.४.५)। पुरंदरं की माता का नाम बहुदंती था। हो सकता है इसी ' सुविख्यात वैदिक राजा सुदास के समकालिन राजा के कारण, इसने अपने इस ग्रन्थ का नाम 'बाहुदंतक' रक्खा नाते से, इसका निर्देश ऋग्वेद में कई बार आया है (ऋ. हो (म. शां. ५९.८९-९०)। १.६३.७)। संभवतः दाशराज्ञ युद्ध में सुदास राजा ने २. तप अथवा पांचजन्य नामक अग्नि का पुत्र । महान् | इसे पराजित किया था (ऋ. ७.१८ )। इस युद्ध में तपस्या के पश्चात् 'तप' अग्नि को 'तपस्याफल' की यह मारा अथवा पकड़ा गया था, जिसके बाद इसकी प्राप्ति हुयी। उसे प्राप्त करन के लिए, पुरंदर नाम से | पत्नी पुरुकुत्सानी ने 'पुरुओं' के भाग्य को लौटाने के स्वयं इंद्र ने अग्नि के पुत्र के रूप में जन्म लिया था (म. लिये, एक पुत्र की उत्पत्ति थी की। उस पुत्र का नाम व. २११.३)। त्रसदस्यु था (ऋ. ४.४२.८); एवं उसे 'पौरुकुत्स्य' पुरांधि-वधिमती नामक एक वैदिक स्त्री का नामान्तर । (ऋ. ५.३३.८); तथा 'पौरुकुल्सि' (ऋ.७.१९.३), (ऋ. १.११६.१२)। अश्विनों ने इसे हिरण्यहस्त | नामांतर भी प्राप्त थे। नामक एक पुत्र प्रदान किया था। दासों पर विजय पानेवाला पुरु राजा के नाम से, परय----एक वैदिक राजा। ऋग्वेद की एक दानस्तुति | पुरुकुत्स का निर्देश ऋग्वेद में प्राप्त है (ऋ.६.२०.१०)। में इसका निर्देश प्राप्त है (ऋ. ६.६३.९)। भरद्वाज को | दिव्य अस्त्रों की सहायता से, यह अनेक युद्धों में इस के द्वारा अश्वों की प्राप्ति हुयी थी। विजित हुआ (ऋ. १.११२.७; १४)। पुराण-काठकसंहिता में निर्दिध एक ऋषि का नाम | | ऋग्वेद में एक स्थान पर पुरुकुत्स को 'दौर्गह' (का. सं. ३९.७) विशेषण लगाया गया है (ऋ. ४.४२.८)। इससे २. कुशिककुल का मंत्रकार । इसे 'पूरण' नामान्तर | प्रतीत होता है की, यह 'दुर्गह' का पुत्र या वंशज भी प्राप्त था। था। किंतु 'सीग' के अनुसार, 'दौगह ' किसी अश्व का पद्रिसेन-(आंध्र, भविष्य.) एक आंध्रवंशीय | नाम हो कर, पुरुकुत्स के पुत्रप्राप्ति के लिये आयोजित ४३१ Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरुकुत्स प्राचीन चरित्रकोश पुरुमित्र किये अश्वमेध यज्ञ की ओर संकेत करता है (सा. ऋ. के समान विविध रंगी थे (म. द्रो. २२.३९)। दुर्मुख ९६-१०२)। के साथ इसका युद्ध हुआ था (म. द्रो. २४.३८)। द्रोण ___पुराणों में भी पुरुकुत्स का निर्देश कई बार प्राप्त है। ने इसका वध किया था (म. क. ४.७३)। मृत्यु के भागवत, विष्णु तथा वायु के अनुसार, यह इक्ष्वाकुवंशीय पश्चात् , यह यमसभा में यम की उपासना करने लगा राजा मांधाता का बिंदुमती से उत्पन्न पुत्र था । नागकन्या (म. स. ८.१८)। नर्मदा इसकी पत्नी थी। । ३. (सो. कोष्टु.) एक राजा । भागवत के अनुसार, नागों से शव्रता करनेवाले गंधवों का इसने नाश किया यह ऋचक राजा के पाँच पुत्रों में से ज्येष्ठ था। जिस कारण नागों ने इसे वर दिया, 'तुम्हारा नाम लेते ४. (सो. कुकुर.) एक राजा । भागवत के अनुसार, ही, किसी भी आदमी को सर्पदंश के भय से छुटकारा यह वसुदेव का भाई एवं अपने पिता आनक के दो प्राप्त होगा' (भा. ९.६.३८, ९.७.३)। पुत्रों में से कनिष्ठ था (भा. ९.२४.४१)। इसकी माता इसके वसुद, त्रसदस्यु, तथा अनरण्य नामक तीन पुत्र का नाम कंका था। थे। पद्म के अनुसार, इसके धर्मसेतु, मुचकुंद तथा | ५. श्रीकृष्ण तथा जांबवती के पुत्रों में से एक। शक्तमित्र नामक तीन भाई तथा दुःसह नामक एक पुत्र पुरुणीथ शातवनेय-वैदिककालीन एक यज्ञकर्ता था (पद्म. स. ८)। | ऋषि, एवं भारद्वाज लोगों का पुरोहित (ऋ. १.५९.७) . मत्स्य के अनुसार इसे 'पुरुकृत् ' नामांतर भी प्राप्त | 'शातवनेय' इसका यह नाम संभवतः शतवनी का पुत्र .. है । कुरुक्षेत्र के वन में तपस्या कर, इसने 'सिद्धि' | या वंशज होने की ओर संकेत करता है। भारद्वाज प्राप्ति की थी, जिस कारण यह स्वर्गलोक में पहुँच गया | लोगों से इसका घनिष्ठ संबंध था। ऋग्वेद में अन्य एक (म. आश्व. २६.१२.१३)। यह यम सभा में रह कर, स्थान पर, एक स्तावक के रूप में इसका निर्देश प्राप्त है. यम की उपासना करता था (म. स. ८.१३)। (ऋ. ७.९.६ )। पुरुकुत्स काप्य-एक क्षत्रिय राजा, जो तप से पुरुड-एक दानव, जो कश्यप एवं दनु का पुत्र था। ब्राह्मण बन गया था (वायु. ९१.११६ )। पुरुदम-अथर्ववेद में निर्दिष्ट एक स्तोता (अ.वे. . पुरुकुत्सानी-इक्ष्वाकुवंशीय पुरुकुत्स राजा की पत्नी पसल राजा की पत्नी | ७७.७३.१)। इसका निर्देश बहुवचन के रूप में प्राप्त है, एवं त्रसदस्यु राजा की माता (ऋ. ४.४२.९)। जिस कारण, यह किसी समूह का नाम प्रतीत होता है । पुरुकृत्-मत्स्य के अनुसार, इक्ष्वाकुवंशीय पुरुकुत्स पुरुद्वत्-(सो. क्रोष्टु.) एक राजा । मस्त्य के राजा का नामांतर (पुरुकुत्स 'ऐश्वाक' देखिये)। अनुसार, यह पुरूवस् का तथा वायु के अनुसार, यह पुरुज--(सो. नील.) एक नीलवंशीय राजा । भागवत महापुरुवेश का पुत्र था। पुरुद्वह--धर्मसावर्णि मनु के पुत्रों में से एक। के अनुसार, यह सुशांति राजा का पुत्र था । विष्णु, वायु तथा मत्स्य में, इसे 'पुरुजानु' कहा गया है । कई अन्य २. (सो. क्रोष्टु) एक राजा । वायु के अनुसार यह पुराणों में, इसका 'पुरुजाति' नामांतर भी प्राप्त है (ह. पुरुद्वत् राजा का भद्रवती से हुआ पुत्र था (वायु. २४.४७)। वं.१.३२.६४; ब्रह्म. १३.८३)। पुरुपांथन-एक वैदिक राजा, जो भरद्वाज ऋषि पुरुजाति तथा पुरुजानु--नीलवंशीय पुरुज राजा का | का दाता था (ऋ. ह. ६.६३.१०) नामांतर (पुरुज देखिये)। पुरुमाय्य-एक वैदिक राजा, जो इन्द्र का आश्रित था पुरुजित्-(सू. निमि.) एक निमिवंशीय राजा।। (ऋ. ८.६८.१०)। संभवतः यह अतिथिग्य, ऋक्ष एवं भागवत के अनुसार, यह अज नामक 'जनक' राजा का अश्वमेध राजाओं का पिता अथवा रिश्तेदार था। सायण पुत्र था। इसके पुत्र का नाम अरिष्टनेमि था। के अनुसार, यह व्यक्तिवाचक नाम न हो कर, प्रियमेध २. एक राजा, जो कुन्तिभोज राजा का पुत्र एवं कुंती | राजा की केवल उपाधि थी। का भाई था। इसके दूसरे भाई का नाम भी कुन्तिभोज | पुरुमित्र--एक वैदिक राजा, जिसकी कन्या का नाम ही था (म. स. १३.१६-१७)। कमय था। कमद्य ने अपने पिता की इच्छा के विरुद्ध . ___ भारतीय युद्ध में, यह पांडवपक्ष में शामिल था (म. विमद नामक ऋषि से विवाह किया था (ऋ१.११७.२०; उ. १६९.२; भी. २३.५)। इसके रथ के अश्व इंद्रधनु | १०.३९.७; विमद देखिये)। ४३२ Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरुमित्र प्राचीन चरित्रकोश पुरूरवस् २. (सो. कुरु.) धृतराष्ट्र के ग्यारह महारथि पुत्रों में | अनुष्ठान के कारण, इसे अपार राज्यवैभव प्राप्त हुआ से एक (३२८%)। पांडवों के ग्रतक्रीड़ा के समय यह | था (स्कंद २.७.१५-१६)। उपस्थित था (म. स. ५२.५३)। पुरुवस-(सो. क्रोष्ट.) एक राजा। मत्स्य के ___ भारतीय युद्ध में यह अभिमन्यु द्वारा घायाल हुआ था अनुसार यह मधु राजा का पुत्र था। इसे 'कुरुवंश' (म. भी. ६९.२३)। तथा 'कुरुवत्स' नामांतर भी प्राप्त थे। ३. एक क्षत्रिय राजा, जो भारतीय युद्ध में दुर्योधन के पुरुवसु-एक वैदिक स्तोता (ऋ५.३६.३)। पक्ष में शामिल था (म. भी. ५३.२५)। पुरुष-चाक्षुष मनु के पुत्रों में से एक । पुरुमीहळ 'आंगिरस'- एक वैदिक सूक्तद्रष्टा (ऋ. २. मरुतों के छठवें गण में से एक । ८.७१)। पुरुमीहळ 'वैददश्वि' एक वैदिक ऋषि (ऋ.१. पुरुषन्ति-एक वैदिक राजा, जिसने किसी गायक को १५१.२; १८३.५, अ.वे. ४.२९.४; १८.३.१५)। उपहार प्रदान किये थे (ऋ. ९.५८.३)। ऋग्वेद में अन्य रनका आश्रित एवं तरन्त ऋषि ये दोनों विददश्व के पुत्र | एक स्थान पर, इसे अश्विनों का आश्रित कहा गया है (ऋ. थे। श्यावाश्व नामक एक गायक था (बृहद्दे. ५४९)। १.११२.२३)। इन दोनों स्थानों पर, इसका निर्देश ओल्डेन बर्ग के अनुसार, यह कथा असंभाव्य प्रतीत | | ध्वसन्ति एवं ध्वस राजाओं के साथ प्राप्त है। होती है। ऋग्वेद की एक दानस्तुति में, इसकी एवं ध्वस्त्र राजा ऋग्वेद में अन्य एक स्थान पर इसे एवं तरन्त को की स्तुति अवत्सार काश्यप ऋषि द्वारा की गयी है (ऋ. ९. ध्वस्त्र तथा पुरुषन्ति नामक राजाओं से दान मिलने का | ५९.३-४)। पंचविंश ब्राह्मण के अनुसार, 'ध्वस्त्रा' एवं निर्देश प्राप्त है (ऋ. ९.५८.३)। 'सीग' के अनुसार 'पुरुषन्ति' ये दोनों स्त्रीलिंगी प्रयोग हैं एवं संभवतः किन्हीं पुरुमिहळ तथा तरन्त ये दोनों राजा थे एवं जब तक ऋषि स्त्रियों के नाम प्रतीत होते हैं (पं. ब्रा. १३.७.१२)। नहीं बन जाते तब तक अपने जाति के नियमों के पुरुषासक-एक वैदिक शाखाप्रवर्तक (पाणिनि - अनुसार ये दान नहीं ग्रहण कर सकते थे। देखिये)। ___ पुरुमिहळ सौहोत्र-एक वैदिक सूक्तद्रष्टा (ऋ. ४. | पुरुषोत्तम-पौंडूक वासुदेव का नामान्तर । पुरुहन्मन्-एक वैदिक सूक्त द्रष्टा (ऋ. ८.७०)। ४३-४४)। पूरुवंश का सुविख्यात राजा पुरुमीढ यह ऋग्वेद सर्वानुक्रमणिका में इसे आंगिरस कहा गया है। दोनों एक ही होंगे! पंचविंश ब्राह्मण के अनुसार, यह 'वैखानस' वंशीय था पुरुमीढ-(सो. पूरु.) एक पूरुवंशीय राजा । मत्स्य (पं. बा. १४. ९ २९)। वायु तथा भागवत के अनुसार, यह हस्ती राजा का, एवं | पुरुहोत्र-(सो. क्रोष्ट्र) एक राजा। भागवत के विष्णु के अनुसार यह हस्तिनर राजा का पुत्र था। यह अनुसार यह अनु राजा का, पन के अनुसार कुरुवंश, निःसंतान ही था कि मर गया। विष्णु के अनुसार अनुरथ का, एवं भविष्य के अनुसार महाभारत के अनुसार, यह सुहोत्र राजा का तृतीय कुरुवत्स का पुत्र था। इसे 'पुरुवस' नामांतर भी प्राप्त पुत्र था, एवं इसकी माता का नाम ऐश्वाकी था। इसके था। इसके पुत्र का नाम अंशु था (पन. सृ. १३)। अजमीढ एवं सुमीद नामक दो भाई थे (म. आ. पुरूरवस् 'ऐल'-प्रतिष्ठान (प्रयाग) देश का ८९.२६)। महाभारत में दिये गये इसके मातापिता के सुविख्यात राजा । सुविख्यात सोमवंश की प्रतिष्ठापना नाम गलत मालूम होते हैं, क्योंकि, वहाँ दी हुयी करनेवाले राजा के रूप में, यह पुरुरवस् प्राचीन भारतीय वंशावली में कई पीढ़ेयाँ छोड़ दी गयी हैं। इतिहास का एक महत्त्वपूर्ण राजा माना जाता है। यह पुरुमेध आंगिरस--एक वैदिक सूक्तद्रष्टा (ऋ. ८. | एवं इसके ऐल वंश का राज्य यद्यपि प्रतिष्ठान में था. ८९-९०)। फिर भी यह स्वयं हिमालय प्रदेश का रहनेवाला था। पुरुयशस्-एक पांचाल देश का राजा। स्कंद के पुरूरवस् राजा सूर्यवंश के इक्ष्वाकु राजा के समकालीन अनुसार, यह भूरियश राजा का पुत्र था। याज एवं था। यह स्वयं अत्यंत पराक्रमी था । इसने पृथ्वी के सात उपयाज नामक ब्रह्मण इसके गुरु थे, जिनके उपदेश से द्वीप जीतकर उन पर अपना राज्य स्थापित कर, सौ इसने 'वैशाख धर्म' का अनुष्ठान किया था। इस | अश्वमेध यज्ञ किये थे। प्रा. च. ५५] ४३३ Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरूरवस् प्राचीन चरित्रकोश पुरूरवस् इसके राज्य के उत्तर में अयोध्या जैसा बलिष्ठ राज्य पुरूरवा ने उर्वशी को केशी से मुक्त कराया। पश्चा था, एवं दक्षिण में युद्धशास्त्र में विख्यात करुष लोग | इसने उर्वशी के रूप पर मोहित हो कर, उससे विवाह थे। इस कारण इसका राज्य पूर्व एवं उत्तरपूर्व दिशाओं | करने की इच्छा प्रदर्शित की। उर्वशी ने इसकी बात तो में स्थित गंगाके दोआब, मालवा एवं पूर्व राजपूताना प्रदेशों मान ली, किंतु उसके साथ तीन विचित्र शर्ते रक्खी:--- तक फैला था। पुरूवरस् के मृत्यु के समय, यह सारा (१) मेरे द्वारा पुत्रवत् पाली गयी तीन भेड़े हैं, जिनकी प्रदेश ऐल साम्राज्य में समाविष्ट हो गया। | रक्षा सतर्कता से होनी चाहिये । (२) मैथुन को छोड़कर पुरूरवस् को 'ऐल' (इडा नामक यज्ञीय देवी का तुम कभी भी मुझे नग्न स्थिति में न दिखायी दो (३) वंशज) उपाधि प्राप्त थी। यद्यपि. पुरूरवस् का निर्देश | मेरा आहार केवल घी होगा । हरिवंश में उर्वशी की वैदिक ग्रंथों में बार बार प्राप्त है, फिर भी इसकी ऐल तीसरी शर्त कुछ भिन्नता से दी गयी है। उसमें लिखा उपाधि इसे पुराणकालीन राजा के रूप में स्थापित है की उर्वशी ने इसे कहा, 'तुम्हें केवल घी खाकर ही करती है। | जीवित रहना होगा' (ह. वं १.३६.१४-१५)। उर्वशी एवं पुरूरवस् का सुप्रसिद्ध 'प्रणयसंवाद' उवशा का सारा शत मानकर राजा न उसस विवाह वैदिक ग्रंथों में प्राप्त है (ऋ. १०.९५ श. ब्रा. ११.५. कर कर लिया। उर्वशी गन्धवों की प्रिय थी, अतएव उन्होंने १)। ऋग्वेद में इसे 'ऐल' कहा गया है। यह स्वयं | उसे स्वग वापस लाने की योजना बनायी। एक दिन क्षत्रिय हो कर भी वैदिक सूत्रकार एवं मंत्रकार था, पलंग के पाये से बंधी भेड़ों को गन्धर्वगण. खोल कर जिसका निर्देश ऋग्वेद एवं पुराणों में प्राप्त हैं (ऋ. जाने लगे । यह देख कर उर्वशी चिल्लाई, तथा पुरूरवा १०.९५, मत्स्य. १४५.११५-११६. ब्रह्मांड. २.३२. नग्नावस्था में ही पलंग से शीघ्र दौड़ कर भेड़ो को पकड़ने १२०-१२१)। अनि के द्वारा पुरूरवस् पर अनुग्रह के लिए आगे बढ़ा । इतने में बिजली के कौंध से, नग्न किये जाने का निर्देश भी ऋग्वेद में प्राप्त है (ऋ. १. | पुरूरवा उर्वशी को दिख गया। फिर अपने नियम के . अनुसार, उर्वशी इसे छोड़कर गंधर्वलोक चली गयी। ३४)। उर्वशी के वियोग में पुरुरवा पागल सा इधर उधर पौराणिक ग्रंथों के अनुसार पुरूरवस् बुध राजा को इला | भटकने लगा। ऐसी ही अवस्था में उर्वशी ने इसे देखा। से उत्पन्न हुआ था (म. आ. ७०.१६; मत्स्य. १२. | फिर इसके प्रति दयालु होकर, उसने इसे कहा, १५, पन. स. ८; १२; ब्रह्म. १०; दे. भा. १.१३; भा. | 'गंधर्व तुम्हें वरप्रदान करने वाले हैं। उस समय तुम ९.१५, ह. वं. १.११.१७)। यह सोमवंश का मूल पुरुष मेरे नित्य साहचर्य का वर माँग लो । है। इसको ऐल कहा है (वायु. ९१.४९-५०)। पश्चात् , गंधवा द्वारा वर माँगने के लिये कहे जाने पर, पुरूरवा की राजधानी प्रतिष्ठानपुरी थी (ब्रह्म. ७.२२; इसने उनसे गंधर्वत्व एवं उर्वशी के साहचर्य का वर ह. वं. १.१०.२२-२३)। माँग लिया। गंधयों ने इसे अग्नि के सहित एक स्थाली __ यह काशी का राजा था। इसके द्वारा प्रयाग प्रांत पर प्रदान की। उर्वशी न देकर, गंधर्वो ने केवल स्थाली ही भी राज्य करने का उल्लेख मिलता है (वा. रा. उ. २५, दी. इससे नाराज़ होकर, इसने वह स्थाली अरण्य में ह. वं. २.२६.४९)। यह सप्तद्वीप का राजा था, तथा ही फेंक दी, एवं यह घर वापस लौट आया । इसने सौ अश्वमेध किये थे (मत्स्य. २४.१०-१३)। कालोपरांत, इसे अपने कृतकर्म का पश्चात्ताप हुआ। महाभारत में, इसे त्रयोदश समुद्रद्वीपों का अधिपति कहा। फिर अरण्य में फेंक दी 'स्थाली' वापस लाने, यह अरण्य गया है (म. आ. ७०.१७)। | गया। वहाँ इसने देखा की 'स्थाली' लुप्त हो गयी है, एक बार देवसभा में नारद ने पुरुरवा के गुणों का एवं उस स्थान पर एक अश्वत्य वृक्ष उत्पन्न खड़ा है। उस गान किया था। यह सुनकर उर्वशी पुरूरवा पर मोहित हो | अश्वत्थ वृक्ष को अग्निरूप मानकर इसने उससे एक गयी । उसी समय भूतल पर जाने का शाप मित्रावरुणों ने | 'अरणि' तथा 'मंथा' बनाई, तथा उससे अग्नि उत्पन्न उसे दिया । उर्वशी भूतल पर आई । पृथ्वी पर आते ही किया। बाद में उस अग्नि के दक्षिणाग्नि, आहवनीय तथा 'केशी नामक दैत्य ने उसे देख लिया, तथा उसका हरण | गार्हपत्य नामक तीन विभाग कर, इसने उनसे उत्कृष्ट हवन किया। | किया। इस हवन से प्रसन्न होकर, गुन्धों ने इसे ४३४ प्रदान की। उर्वशी न ता है (वा. रा. उ. ह.व. २.२६.४९ Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरुरवस् प्राचीन चरित्रकोश पुरूरवस् 'सालोक्य-' गंधर्वास्था प्रदान की (श. बा. ११.५.१. वर्गों की उत्पत्ति, तथा उनके अधिकार के बारे में इसका १३-१७; विष्णु. ४.६.१) वायु से, तथा इन चारों वर्गों के परस्परव्यवहार के * शतपथ ब्राह्मण में दी गयी यह कथा ऐतिहासिक दृष्टि सम्बन्ध में कश्यप से संवाद हुआ था (म. शां. ७३. से महत्त्वपूर्ण है । पुरूरवस् के पहले एक ही अग्नि की | ७४)। उपासना प्रचलित थी। उसे बदल कर इसने तीन अग्नि पद्म एवं ब्रह्म पुराणों में प्राप्त 'एकादशीमाहात्म्य' की उपासना शुरू की (अग्नि. २७४.१४. विष्णु.४.६. की कथाओं में पुरूरवा का निर्देश प्राप्त है। एकादशी को उपवास करने के पश्चात्, द्वादशी के दिन तेल खाने एक बार धर्म, अर्थ, काम नामक तीनों पुरुषार्थ मानव का पाप पुरूरवा ने किया, जिस कारण इसका शरीर रूप धारण कर इसका सत्त्व देखने आये। इसने सबका | कुरूप हो गया । इसने दुःखी हो कर तीन महीने तक सत्कार किया, परंतु धर्म को अत्यधिक आदर एवं सम्मान | उपवास कर, विष्णु की आराधना की। इसीसे संतुष्ट हो दिया। इससे कुपित होकर अर्थ तथा काम ने इन्हें शाप | कर, विष्णु ने इसे ऐसा सुन्दर स्वरूप प्रदान किया कि, दिया, 'लोभ के कारण तुम्हारा विनाश हो जायेगा। उर्वशी इस पर मोहित हो गयी (पद्म. उ. १२५)। गंधर्वलोक में देवअनुचर तुंबरु का उपहास करने के | ऐसी ही और एक कथा मत्स्य में दी गयी है। पूर्व कारण, वह उर्वशी तथा पुरुरवा से क्रुद्ध हुआ एवं उसने | जन्म में यह द्विजग्राम का ब्राह्मण था। द्वादशी के दिन इन्हे शाप दिया, 'परस्पर वियोगावस्था को प्राप्त कर तुम | उपवास कर, इसने राज्यप्राप्त की इच्छा से जनार्दन की दोनो दुःखी होगे'। पश्चात् , इन दोनों ने गंधमादन पर्वत | पूजा की। इस पुण्यकर्म के कारण, उसी जन्म में इसे मद्रके 'साध्यामृत तीर्थ' में स्नान किया,.एवं इस पुण्यक्रम से देश का राज्य प्राप्त हुआ। किंतु पश्चात् उपवास के दिन दोनों शापमुक्त हो गये (स्कन्द ३.१.२२.)। हर महीने की अभ्यंग स्नान करने के पाप के कारण, यह रूपहीन बन अमावास्या को यह पितरों को तृप्त करता था (वायु. ५६)| गया । फिर अपना विगत सौंदर्य पुनः प्राप्त करने के लिए, नैमिषारण्य के द्वादश वार्षिक सत्र के समय यह | यह हिमालय पर तपश्चर्या करने गया (मत्स्य. ११५)। अयोध्या का राजा था। उर्वशी इस पर मोहित हो गयी पुरूरवा का पुरोहित वसिष्ठ था (ब्रह्म. १५१. ८थी। समुद्र के अठारह द्वीप इसने जीते थे, तथापि इसे १०, पद्म. भू. १०८)। इसका हिमालय से विशेष . संपत्ति का लोभ न छूटा । इसने संपत्ति के लोभ से द्वादश सम्बन्ध दिखता है । ऐलवंश के राजाओं के मूलस्थान वर्षीय सत्र के स्वर्णमय वेदी पर हमला किया। के सम्बन्ध में पुरूरवाचरित्र से काफी बोध होता है। अग्नि को गंगा से एक पुत्र उत्पन्न हुआ था। उस पुत्र की पुरूरवा का पिता 'इल' था, जिसके नाम से 'इलावृत' .. नाल को जैसे ही पर्वत पर डाला गया, नाल स्वर्णमय हो देश स्थापित हुआ था (मत्स्य. १२, १४, पद्म. सु. गयी। उसी स्वर्ण को लेकर इस द्वादशवर्षीय सत्र की वेदी ८)। यह देश भारतमें हिमालय के उत्तर की ओर, मेरु • बनायी गयी। बृहस्पति स्वयं वहाँ उपाध्याय था। ऐल पर्वत के समीप बसा हुआ था। पुरुरवा मृगया करते हुए वहाँ आया । सोने की वेदी देख | इसके अतिरिक्त, पुरूरवा की जन्मकथा भी कर उसे आश्चर्य हुआ। लोभ से पागल होकर यह स्वर्ण- | इसी प्रदेश से संलग्न प्रतीत होती है । ऐलों की सत्ता का वेदी के स्वर्ण का हरण करने लगा । तब सब ऋषि क्रोधित | उद्गम प्रयाग (इलाहाबाद) में हुआ था। फिर भी उनका हो गये। उन्होंने दर्भरूपी वज्र से इसका वध किया, और मूलस्थान हिमालय के मध्यभाग से तथा उसपार के देशों उर्वशी से उत्पन्न आयु नामक पुत्र गद्दी पर बैठाया गया। में था। इसके कई उदाहरण प्राप्त हैं । पुरूरवा की कथा में कौटिल्य ने, इस प्रसंग का संकेत करते हुये लिखा है, निर्दिष्ट सारे स्थान, जैसे कि मंदाकिनी नदी, अलका, 'पुरुरवा राजा ने अत्याचार तथा अनाचारपूर्वक धन | चैत्ररथ और नंदनवन, गंधमादन तथा मेरु पर्वत एवं इकट्ठा किया (कौटिल्य पृ. २२)। | कुरु देश नाम से प्रसिद्ध गंधर्वो का देश, ये सारे इसी प्रदेश पश्चात् पुरुरवस् पुत्र आयु ने सब को शान्त कर, सत्र के हैं। यह निश्चित है कि उत्तर कुरु प्रान्त से गंधर्वो का को पुनः आरम्भ किया (ब्रह्मांड. १.२.१४-२३; वायु. | संबन्ध प्राचीन काल से चला आरहा है (मत्स्य.११४ ' २)। महाभारत एवं वायु में कश्यप से पुरूरवा ने किये ८२, वायु ३५, ४१, ४७)। तत्त्वज्ञान पर संवादो का निर्देश प्राप्त है । ब्राह्मणादि चारों | पुरूरवा की पत्नी उर्वशी गंधर्वी थी। इसके वंशजो ने ४३५ Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरूरवस् प्राचीन चरित्रकोश पुलस्त्य सत्यायु, स्याम इस प्रकार २२)। भी गंधर्वकन्याओं से विवाह किया था (कूर्मः १.२३. अपने मूलस्थान गंधर्वलोक से सहायता ली, तथा ४६)। अन्त में यह स्वयं एक गंधर्व बन गया। अपना राज्यशासन सुव्यवस्थित किया । पुरूरवस् के पितृव्य उर्वशी से इसे कुल छः पुत्र हये, जिनके नाम इस | वेन नामक राजा का भी ब्राह्मणों ने वध किया था। प्रकार थेः-आयु, श्रुतायु, सत्यायु, रय, विजय, जय (भा. धनलोभ के कारण अत्याचार करने से इसका नाश ९.१५.१)। महाभारत में उर्वशीपुत्रों के नाम इस प्रकार होने का निर्देश, कौटिल्य ने भी किया है (अर्थशास्त्र पृ. दिये गये है :-आयु, धीमत्, अमावसु, दृढायु, वनायु, । २२)। एवं श्रुतायु (म. आ. ७०.२२)। कई ग्रंथो में इसके | २. दीप्ताक्षवंश का एक कुलपांसन राजा । कुलपासन आठ पुत्रों का भी उल्लेख है और कुछ में सात पुत्र बताये | होने के कारण, अपने सुहृद एवं बांधवों के साथ इसका गए हैं (ब्रह्म. १०; लिंग १.६६; ह. वं.१.२७.१-२)। नाश हुआ (म. उ. ७२.१५)। भागवत में दिया गया है कि, इसने अग्नि को भी पुत्र पुरोचन--दुर्योधन राजा का म्लेच्छ मंत्री एवं मित्र । माना था (भा. ९.१५)। | दुर्योधन के कथनानुसार पांडवों के नाश के लिए इसने कुछ स्थानों पर रय, विजय तथा जय के स्थान पर | वारणावत में लाक्षागृह का निर्माण किया था (म. आ. 'धीमान् , 'अमावसु,' 'शतायु,' तथा 'विश्वावसु' पाठभेद | १३२. ८-१३)। भी मिलता है (वायु ९१.५१-५२)। मत्स्य, एवं अग्नि वारणावत नगरी में इसने पांडवों का स्वागत किया, पुराणों में इसके आठ पुत्रों के नाम इस प्रकार दिये गये एवं उन्हें समस्त सुख-सामग्री प्रदान कर लाक्षागृह में हैं:-आयु, दृढायु, अश्वायु, धनायु, धृतिमत्, वसु, शुचिविद्य | ठहराया (म. आ. १३४.८-१२)। बाद में, पांडवों के साथ (दिविजात), शतायु (मत्स्य. २४.३३-३४; अमि. रहने के उद्देश्य से यह वहाँ गया। उस समय इसने अपने २७४.१५, पद्म. स. १२)। रथ में खर जोत रक्खे थे । अन्त में, अपने बनाये हुये . इसके पुत्रों में से आयु को प्रतिष्ठाननगरी का राज्य | लाक्षागृह में ही जल कर यह मर गया (म. आ. १३२प्राप्त हुआ, तथा अमावसु (विजय) कन्नौज का अधिपति १३६)। बना। इसके पुत्रों के जो सात अथवा आठ नाम पुराणों पुरोजव--(स्वा. प्रिय.) एक राजा। भागवत के. में प्राप्त होते हैं, वे संभवतः किसी एक या दो व्यक्तियों | अनुसार यह मेधातिथि के सात पुत्रों में ज्येष्ठ पुत्र था। के नामांतर होंगे। क्योंकि इसके दो प्रमुख पुत्र आयु तथा २. प्राण नामक वसु का कनिष्ठ पुत्र, जिसकी माता अमावसु के नाम सारे पुराणों में एकवाक्यता से प्राप्त | का नाम ऊर्जस्वती था (भा. ६.६.१२)। होते हैं। ३ अनिल नामक वसु का पुत्र। पुरूरवस्कथा का अन्वयार्थ--ब्राह्मण लोगों के साथ पुराहवे--धर्मसावर्णि मनु के पुत्रों में से एक । पुरूरवस् द्वारा किये विरोध का कथाभाग, ऐतिहासिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण माना जाता है। वैवस्वत मनु के समय ब्राह्मणों पुलक-एक मृगरूपी दैत्य । तप कर इसने शंकर को तथा क्षत्रियों में सहकार्य था। ऐल पुरूरवस् के समय प्रसन्न किया, तथा उनसे अदभुत सुगंध के प्राप्त की याचना ब्राह्मण-क्षत्रियों में विरोध पैदा हुआ । ऐल पुरूरवस् ब्राह्मणों कर, वर प्राप्त किया। बाद में, उस सुगंध से यह देवस्त्रियों के साथ विरोध करने लगा। ब्राह्मणों की दौलत पुरूरवस् को मोहित कर, संसार को त्रस्त करने लगा। ऐसी ने हठ से जब्त कर ली। सनत्कुमार ने ब्रह्मलोक से आकर, परिस्थिति में देवों ने शंकर से इसकी शिकायत की। पुरूरवस् से को ब्राह्मणविरोध न करने के लिये कहा। फिर भी शंकर ने कुपित होकर, इससे असुर देह छोड़ने के लिए पुरूरवस् ने एक न सुनी । तब ब्राह्मणों ने लोभवश पुरू कहा। इसने शंकर के आदेश को मानते हुए उनसे रवस् को शाप दिया, एवं उसे नष्ट करने का प्रयत्न किया। प्रार्थना की, कि मेरे द्वारा धारण की हुयी सुगंध मुझ से तब पुरूरवस् ने उर्वशी के मध्यस्थता से गंधर्वलोग की वापस न ली जाये (स्कंद १.३.१.१३)। सहायता प्राप्त की। गंधर्वलोक से अग्नि को प्राप्त कर २. मन्स्य के अनुसार, शुनक राजा का नामांतर।। पुरूरवस् ने अपना कार्य फिर शुरू किया (म. आ.७०. पुलस्त्य--ब्रह्माजी के आठ मानसपुत्रों में से एक, जो १२-२१)। इस का तात्पर्य यह होता है कि, स्थानीय छः शक्तिशाली महर्षियों में गिने जाते हैं (म. आ.६०.४)। . लोगों के विरोध की शान्त करने के लिये, पुरूरवस् ने | ब्रह्माजी के अन्य सात मानस पुत्रों के नाम इस प्रकार हैं: Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुलस्त्य प्राचीन चरित्रकोश पुलस्त्य - भृगु, अंपिरस, मरीचि, अत्रि, वसिष्ठ, पुलह एवं ऋतु | तृणबिंदु राजा का काल, त्रेतायुग का तीसरा मास माना (वायु. ४९.६८-६९)। जाता है। विश्रवस् का निवासस्थान नर्मदा नदी के किनारे * स्वायंभुव मन्वन्तर में यह ब्रह्मा के उदान से | पश्चिम भारत प्रदेश में था (म. व. ८७.२-३)। उत्पन्न हुआ। यह स्वायंभुव दक्ष का दामाद तथा इन दो निर्देशों के आधार पर, पुलस्त्य का काल एवं स्थलशंकर का साढ़ था। दक्ष द्वारा अपमानित होने पर, शंकर निर्णय किया जा सकता है। ने इसे दग्ध कर मार डाला। दक्षकन्या प्रीति इसकी एक बार 'महीसागर संगमतीर्थ' अतिगर्व के कारण, पत्नी थी (ब्रह्मांड. २.१२.२६-२९; विष्णु. १.१०)। उद्धत हो उठा। इसलिये पुलस्त्य ने उसे 'स्तंभगर्व' यह __ शंकर के शाप से ब्रह्माजी के बहुत सारे पुत्र मर गये, नया नाम प्रदान किया (स्कंद. १.२.५.८)। ब्रह्माजी ने जिनमें यह एक था (मत्स्य.१९५)। पुष्करतीर्थ पर किये यज्ञ समारोह में, अध्वर्यु के स्थान पर महाभारत के अनुसार, यह ब्रह्माजी के कान से उत्पन्न पुलस्य की योजना की गयी थी। हुआ था(म. आ.५९.१०; मत्स्य ३.६-८; वायु.६६.२२; पुत्र-पुलस्य को इडविड़ा से विश्रवस् ऐडविड़ भा. ३.१२.२४)। ब्रह्माजी द्वारा उत्पन्न हुये प्रजापतियों में | | नामक एक पुत्र उत्पन्न हुआ था। विश्रवस् से उत्पन्न यह एक था (मत्स्य. १७१.२६-२७; भा. ३.१२)।। पुलस्त्यवंश की बहुत सारी संतति राक्षस थी। इस कर्दम प्रजापति की कन्यां हविर्भुवा अथवा हविर्भुक् इसकी कारण पुलस्त्य ने अगत्य ऋषि का एक पुत्र गोद लिया पत्नी थी। महाभारत में इसके प्रतीच्या एवं संध्या नामक (मत्स्य. २०२.१२-१३)। इसी दत्तोलि (दंभोलि) दो और पत्नियों का भी निर्देश प्राप्त है (म. उ.११५. नामक पुत्र से, आगे चल कर, पुलस्त्यवंश की 'अगस्त्य ४६०% ११५.११)। शाखा' का निर्माण हुआ। पुत्र-पुराणों में दी गयी पुलस्त्य के पुत्रों की नामावली पुलस्त्यवंश-पुलस्त्यवंश की विस्तृत जानकारी इस प्रकार है : महाभारत एवं पुराणों में प्राप्त है (म. आ. ६६; वायु. (१) प्रीतिपुत्र-दानाग्नि, देवबाहु, अत्रि ( ब्रह्मांड. ७०.३१-६३; ब्रह्मांड. ३.८; लिंग. १.६३; मत्स्य. २०२, २.१२.२६-२९); दंभोलि (अगस्त्य) (विष्णु.१.१०)। भा ४.१.३६)। इस वंश के लोग 'पौलस्त्य राक्षस' नामक : हविर्भुवापुत्र-अगस्त्य; विश्रवा (भा. ४.१.३६)। सामूहिक नाम से प्रख्यात थे, जिसमें निम्नलिखित तीन .. इनके सिवा, पुलस्त्य को प्रीति से सद्वती नामक एक शाखाओं का अंतर्भाव होता था :. कन्या उत्पन्न हुयी थी। २. वैवस्वत मन्वतर में पैदा हुआ आद्य पुलस्त्य ऋषि | | (१) कुबेर वैश्रवण शाखा-पुलस्त्यपुत्र विश्रवस्. . . का पुनरावतार । शिवाजी के शाप से मरे हुए ब्रह्माजी को बृहस्पतिकन्या देववर्णिनी से कुबेर नामक पुत्र हुआ। . के सारे मानसपुत्र, वैवस्वत मन्वंतर के प्रारंभ में ब्रह्मा जी कुबेर स्वयं यक्ष था, किंतु उसके चार पुत्र (नलकूबर, द्वारा पुनः उत्पन्न किये । उस समय यह अग्नि के 'पिंगल' रावण, कुंभकर्ण, एवं बिभीषण), तथा एक कन्या (शूर्पकेशों में से उत्पन्न हुआ। णखा ) राक्षस थे। उन्हीं से आगे चल कर, पौलस्त्य एक बार यह मेरु पर्वत पर तपस्या कर, रहा था। उस | राक्षसवंश की स्थापना हुयी । इन राक्षसों का सम्राट स्वयं समय गंधर्वकन्यायें पुनः पुनः इसके समीप आकर इसकी कुबेर ही था। तपस्या में बाधा डालने लगी। फिर इसने क्रुद्ध हो कर, (२) अगस्त्य शाखा-पुलस्त्य ने गोद में लिये उन्हें शाप दिया, 'जो भी कन्या मेरे सामने आयेगी, अगस्त्यपुत्र दत्तोलि (दंभोलि ) से आगे चल कर, अगस्त्य वह 'गर्भवती हो जायेगी। नामक 'ब्रह्मराक्षस' वंश की स्थापना हुयी । ब्राह्मणवंश से वैशाली देश के तृणबिंदु राजा की कन्या गौ अथवा | उत्पन्न हुये राक्षसों को ब्रह्मराक्षस कहते थे। ये ब्रह्मराक्षस इडविड़ा असावधानी से इसके सामने आ गयीं । तुरंत | वेदविद्याओं में पारंगत थे, एवं रात्रि के समय, यज्ञयागादि अप्सराओं को इसके द्वारा दिये गये शाप के कारण, वह विधि करते थे । हिरण्यशंग पर ये कुबेर की सेवा करते गर्भवती हो गयी । बाद में पुलस्त्य से उसका विवाह हो गया, थे (वायु. ४७.६०-६१, ब्रह्मांड २.१८.६३-६४)। एवं उससे इसे विश्रवस ऐडविड़ नामक पुत्र उत्पन्न | इस शाखा के राक्षस प्रायः दक्षिण हिंदुस्थान एवं 'सीलोन' हुआ (म. व. २५८.१२ वा. रा. उ. ४)। में रहते थे। ४३७ Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुलस्त्य प्राचीन चरित्रकोश पुलह था। (३) विश्वामित्र तथा कौशिक शाखा-अगस्त्यों के मृगा जिनदान के विषय में, पुलल्य का एक गद्य उद्धरण साथ, विश्वामित्र एवं कौशिक शाखा के लोग भी 'पौलस्त्य | लिया गया है। ब्रह्मराक्षसों में गिने जाते थे। ये लोग पौलस्त्यवंश में 'पुलस्त्यस्मृति' का रचनाकाल संभवतः ईसा के किस तरह प्रविष्ट हुये, यह नहीं कह सकते, किंतु | चौथी, सातवीं शताब्दी के बीच कहीं होगा)। 'अगस्त्यों' की तरह इन्हे भी 'रात्रिराक्षस' कहा जाता ५. चैत्र माह में धाता नामक आदित्य के साथ घूमने वाला एक ऋषि (भा. १२.११.३३ । ३. महाभारतकालीन एक ऋषि । अर्जुन के जन्ममहोत्सव पुलह--ब्रह्माजी के आठ मानसपुत्रों में से एक, जो में यह उपस्थित था (म. आ. ११४.४२)। पराशर द्वारा | छः शक्तिशाली ऋषियों में गिना जाता था (म. आ. किये राक्षससत्र का विरोध करने के लिए अन्य महर्षियों के | ६०.४)। साथ, यह भी था। एवं इसने पराशर को समझाकर | स्वायंभुव मन्वंतर में यह ब्रह्माजी के नाभि से अथवा राक्षससत्र बंद करने पर विवश किया (म. आ. 'व्यान' से उत्पन्न हुआ (भा. ४.१.३८)। यह १७२.१०-११)। स्वायंभुव दक्ष का दामाद तथा शिवजी का साढ़ था। इसने भीष्म को विभिन्न तीर्थों का वर्णन, एवं पृथ्वी दक्ष द्वारा अपमानित होने पर, शिवजी ने इसे दग्ध कर प्रदक्षिणा का महात्म्य कथन किया था (म. व. ८०- | मार डाला । दक्षकन्या क्षमा इसकी पत्नी थी। ८३)। शरशय्या पर पड़े हुये भीष्म से मिलने आये हुये ___भागवत् में, इसके गति नामक और एक पत्नी का. ऋषियों में, यह भी शामिल था (म. शां. ४७.६६*)। निर्देश प्राप्त है। ब्रह्माजी के अन्य मानसपुत्रों के साथ, ४. एक धर्मशास्त्रकार । 'वृद्धयाज्ञवल्क्य ' में प्राप्त यह भी शिवजी के शाप से मृत हुआ (मत्स्य. १९५)। . स्मृतिकारों की नामावली में इसका निर्देश प्राप्त है। क्षमापुत्र-अपने क्षमा नामक पत्नी से, इसे निम्न- . 'शारीर शौच' के विषय पर, इसके एक श्लोक का लिखित पुत्र उत्पन्न हुए:उद्धरण विश्वरूप ने दिया है (याज्ञ. १.१७ )। श्राद्ध विधि (१) कर्दम-अत्रि ऋषि की आयी 'अति' नामक के समय, ब्राह्मण शाकाहार का, क्षत्रिय तथा शूद्र माँस | कन्या से इसका विवाह हुआ था, जिससे इसे शंखपाद . का, एवं शूद्र शहद का उपयोग करे, ऐसा इसका मत था | एवं काम्या नामक दो सन्ताने हुयीं। उनमें से शंखपाद (याज्ञ. १.२६१)। दक्षिण दिशा का प्रजापति था । काम्या का विवाह स्वायंभुव 'मिताक्षरा' में, पुलस्त्य के दो श्लोकों का उद्धरण प्राप्त | मनु का पुत्र प्रियव्रत राजा से हुआ था, जिससे उसे दस पुत्र, एवं दो कन्यायें उत्पन्न हुयीं। उन दस प्रियव्रतपुत्रों है, जिनमें ग्यारह नशा लानेवाली वस्तुओं के नाम देकर, | ने आगे चल कर, क्षत्रियत्त्व को स्वीकार किया, एवं वे बारहवें अत्यंत बुरे मादक पदार्थ के रूप में शराब का निर्देश किया गया है (याज्ञ. ३.२५३)। सप्तद्वीपों के स्वामी बन गये (ब्रह्मांड. २. १२.३०-३५; प्रियव्रत देखिये)। संध्या, श्राद्ध, अशौच, संन्यासधर्म, प्रायश्चित्त आदि (२) कनकपीठ--अपनी यशोधरा नामक पत्नी से, के संबंध में, 'पुलस्त्य स्मृति' के अनेक श्लोकों का निर्देश | इसे सहिष्णु एवं कामदेव नामक दो पत्र उत्पन्न हए। अपराक ने किया है। ज्ञानकर्मसमुच्चय के संबंध में भी, एक सबध म भा, (३) उर्वरीवत् (४) सहिष्णु (५) पीवरी पुलस्त्य के दो श्लोक अपराक ने दिये हैं (अपरार्क. याज्ञ. I n ३.५७) । आह्निक तथा श्राद्ध के विषय में, पुलस्त्य के | गतिपुत्र--अपने गति नामक पत्नी से, इसे कर्दम, चालीस श्लोक 'स्मृतिचंद्रिका' में दिये गये हैं। रविवार, उर्वरीवत् एवं सहिष्णु नामक तीन पुत्र उत्पन्न हुए (विष्णु मंगलवार, एवं शनिवार के दिन स्नान करने से क्या पुण्यफल की प्राप्ति होती है, इसके बारे में भी, पुलस्त्य | २. वैवस्वत मन्वन्तर में पैदा हुआ आद्य पुलह ऋषि का निर्देश 'स्मृति चंद्रिका ' में प्राप्त है। का पुनरावतार | शिवजी के शाप से मरे हुये ब्रह्माजी राम, परशुराम, नृसिंह तथा त्रिविक्रम आदि के के सारे मानसपुत्र, उसने वैवस्वत मन्वन्तर में पुनः उत्पन्न जपानुष्ठान से क्या लाभ होता है, इस विषय में इसके किये। उस समय, यह अग्नि के लंबे केशों में से उत्पन्न । मत उल्लेखनीय है। चंडेश्वर के 'दानरत्नाकर' में, | हुआ। Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन चरित्रकोश पुलह इसे संध्या नामक एक पत्नी थी। इसके अतिरिक्त क्रोधा की बारह कन्यायें इसकी पत्नियाँ थीं, जिनके नाम इस प्रकार थे -- मृगी, मृगमंदा, हरिभद्रा, इरावती, भूता, कपिशा दंद्रा, रिषा, तिर्या, श्वेता सरमा तथा सुरसा ( ब्रह्मांड. ३.७.१७१ ) । पुलवंश -- महाभारत के अनुसार, पुलह की संतति मनुष्य न हो कर, मृग, सिंह, रीछ, व्याघ्र, किंपुरुष आदि योनि की थीं ( म. आ. ६०.७ ) । वायु के अनुसार, इसके पुत्रों में दानव, रक्ष, गंधर्व, किन्नर, भूत, सर्प, पिशाच आदि प्रमुख थे ( वायु. ७०. ६४-६५ ७३.२४.२५) । मार्कण्डेय के अनुसार, पुलह के कर्दम, अर्ववीर एवं सहिष्णु नामक तीन पुत्र थे ( मार्क. ५२.२३ - २४ ) । ये पुत्र दुष्टचरित्र थे, अतएव पुलह ने अगस्त्य के दृढ़ा (दृढ़च्युत) को गोद लिया । पद्म में इसी अगस्त्यपुत्र का नाम दंभोलि दिया गया है। पुत्र इसी कारण पुलह के वंश की दो शाखायें हो गयीं। इनमें से पुलह के निजी पुत्र 'पौलह' अमानुषी योनि के थे, एवं अगस्त्यशाखा के पुत्र ब्रह्मराक्षस योनि के थे ( मत्स्य. २०२.९-१० ) । ३. महाभारतकालीन एक ऋषि । यह अर्जुन के जन्मोत्सव में उपस्थित था (म. आ. ११४.४२ ) । शरशय्या पर पड़े हुये भीष्म के पास आये हुये ऋषियों यह कथा (म. अनु. २६.४ ) । अलकनंदा नदी के तट पर यह जप-तप करता था (म. व. परि. १.१६.१२) ४. एक ऋषि, जो ब्रह्माजी के द्वारा पुष्करक्षेत्र में किये यज्ञ में " प्रत्युद्गाता था ( पद्म. स. ३४ ) । ५. वैशाख माह में अर्यमा नामक सूर्य के साथ घूमनेवाला एक ऋषि (भा. १२.११.३४ ) पुलिन - अमृतरक्षक देवों में से एक (म. आ. २८. १९) । पुलिन्द - ( शुंग. भविष्य . ) एक शुंगवंशीय राजा । भागवत के अनुसार यह भद्रक का, ब्रह्मांड के अनुसार भद्र का, वायु के अनुसार ध्रुक का, एवं मत्स्य के अनुसार अन्तकका पुत्र था । विष्णु में इसे 'आर्द्रकपुत्र पुलिंदक कहा गया है। पुलोमजा शूद्र बन गये ( म. अनु. ३३.२२ - २३) । ये म्लेच्छ जातियों में थे, जो कलियुग में पृथ्वी के शासक बने (म.व. १८६.३० ) । वसिष्ठ ऋषि की गौं नन्दिनी के कुपित होने पर, उसके भुख से निकले फेन से ये उत्पन्न हुये थे (म. आ. १६५.३६) । भीम ने इन लोगों पर हमला किया, एवं इनके महानगर को ध्वस्त कर, इनके राजा सुकुमार एवं सुमित्र को जीत लिया ( म. स. २६.१० ) । सहदेव ने भी इन्हीं दोनों राजाओं पर विजय प्राप्त की थी (म. स. २८.४ ) । भारतीय युद्ध में, ये लोग दुर्योधन की सेना में सम्मिलित थे ( म. उ. १५८.२० ) । पांड्य- नरेश के साथ इनका युद्ध हुआ था एवं उसके बाणों द्वारा ये आहत हुये थे ( म. क. १५.१० ) । पुलिमत्- (आंध्र. भविष्य . ) एक आन्ध्रवंशीय राजा । विष्णु के अनुसार, यह गोमतीपुत्र राजा का पुत्र था । इसे ' पुरीमत् ' नामांतर भी प्राप्त था (पुरीमत् देखिये) । पुलुष प्राचीनयोग्य - एक वैदिक ऋषि, जो प्राचीनयोग' का वंशज था । यह दृति ऐन्द्रोत शौनक नामक ऋषि का शिष्य था (जै. उ. ब्रा. ३.४०.२) । पुलोमत्-- एक राक्षस, जिसने भृगुपत्नी पुलोमा का हरण किया था ( म. आ. ५.१५) । हरण के समय पुलोमा के गर्भ में च्यवन ऋषि था, जिसके तेज से यह राक्षस जल कर भस्म हो गया ( पुलोमा देखिये) । २. एक राक्षस, जो हिरण्यकशिपु एवं वृत्रासुर का अनुयायी था ( भा. ६.६.३१; १०.२०; ७.२.५ ) । ३. एक दानव, जो कश्यप एवं दनु के पुत्रों में से एक था। ४. प्रहेति नामक राक्षस का पुत्र । इसके मधु, पर, महोग्र तथा लवण नामक चार पुत्र थे । ५. (आंध्र. भविष्य . ) एक आंध्रवंशीय राजा । मत्स्य के अनुसार, यह गौतमीपुत्र राजा का पुत्र था। इसने अठ्ठाइस वर्षों तक राज्य किया । ६. (आंध्र. भविष्य. ) एक आंध्रवंशीय राजा । मस्त्य के अनुसार, यह चण्डी का पुत्र था। इसने सात वर्षों तक राज्य किया । इसके पुलोवा, पुलोमारि, पुलोमाचि, २. किरातों का एक राजा, जो युधिष्ठिर की सभा में सलोमार्चि नामक चार पुत्र थे । उपस्थित था (म. स. ४.४७ ) । पुलोमजा - पुलोमत् दैत्य की कन्या ।' शिव ३. पुलिंद देश के निवासियों के लिए प्रयुक्त सामूहिक करने के कारण यह इन्द्रपत्नी शची बनी (स्कंद. नाम | ये पहले क्षत्रिय थे, किंतु ब्राह्मणों के शाप के कारण । ४.२.८० ) । ४३९ Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुलोमा प्राचीन चरित्रकोश पुष्कर पुलोमा वारुणि भृगु ऋषि की पत्नी, एवं च्यवन ब्रह्माजी ने इसे एवं कालका को इच्छित वर प्रदान ऋषि की माता (विष्णुधर्म. १. ३२; गणेश. ५. २९)। | किया एवं प्रजापति कश्यप को इससे विवाह करने की इसे पौलोमी नामांतर भी प्राप्त है (विष्णु. ७.३२)। | आज्ञा दी ! कश्यप से इसे असंख्य संताने हुयीं, जो इसका पति भृगु ब्रह्ममानसपुत्रों में से एक था। 'पौलोम' नाम से सुविख्यात हुयीं। ___पुलोमा जब बहुत छोटी थी, तब इसे डराने के विचार | ब्रह्माजी के वर से कालका को प्राप्त पुत्रों को कालकंज से इसके पिता ने सहजभाव से कहा, 'हे राक्षस! | कहते थे। आगे चलकर 'पौलोम' एवं 'कालकंज, निवातइसे ले जा ।' संयोग की बात थी, कि उधर से पुलोमत् । कवच' नाम से विख्यात हुये, जो इनका सामूहिक नाम नामक राक्षस जा रहा था। उसने यह कथन सुनकर, मन था। वे लोग संख्या में साठ-हज़ार थे, एवं हिरण्यपुर से इसका वरण किया । कालांतर में, जब यह बड़ी हुई, नामक नगरी में रहते थे (म. व. १६९; निवातकवच तब इसके पिता ने इसकी शादी भृगु के साथ कर दी, | २ देखिये)। क्योंकि उसे पूर्व की अघटित घटना का ज्ञान न था। । पुलोभारि--(आंध्र. भविष्य.) एक राजा । ब्रह्मांड के एक बार जब यह गर्भवती थी, तब पुलोमत् इसके अनुसार, यह दण्डश्री राजा का पुत्र था (पुलोमत् ६. आश्रम में आया। उस समय भृगु ऋषि स्नान हेतु बाहर | देखिये)। गये थे, अतएव इसने पुलोमत् का उचित आदरसत्कार पुलोमार्चि--(आंध्र. भविष्य.) एक राजा । विष्णु के. कर, उसे कंदफलादि खाने के लिए दिये । पुलोमत् ने अनुसार, यह चण्डश्री राजा का पुत्र था (पुलोमत् ६. मिले हुये सत्कार को स्वीकार कर, वह पुलोमा के हरण | देखिये)। की बात सोचने लगा। पुलोवा-(आंध्र भविष्य.) एक राजा। वायु के - जिज्ञासा को संतुष्ट करने के लिये, उसने अग्नि से | अनुसार, यह दण्डश्री राजा का पुत्र था (पुलोमत ६.. पूछा, 'मैने पुलोमा का मन से वरण किया है, पर समझ | देखिये)। नहीं पा रहा, वास्तव में यह किसकी पत्नी है। अग्नि ने पुष्कर-वरुणदेव का प्रिय पुत्र, जिसके नेत्र विकसित कहा 'तुमने इसके बाल्यकाल में ही अपने मन में कमल के समान सुंदर.थे। इसी कारण, सोम की 'ज्योत्स्ना अवश्य वरण कर लिया हो, किन्तु यह भृगु ऋषि की पत्नी काली' नामक कन्या ने पतिरूप से इसका वरण किया था है। मेरे समक्ष भृगु ने इसका विधिवत् वरण किया है। । (म.उ. ९६.१२)। पुलोमत् राक्षस अग्नि के उत्तर से सहमत न हुआ, २. निषधाधिपति नल का छोटा एवं सौतेला भाई, और वराहरूप धारण कर, उसने पुलोमा का हरण किया।। जिसने नल राजा का सारा राज्य जुए के खेल में जीत अपनी माँ पुलोमा का हरण देखकर, उस के गर्भ में स्थित | लिया था (म. व. ५६.९) च्यवन ऋषि ने गर्भ से बाहर आकर, वराहरूप राक्षस को ___ कलि ने इसे नल राजा से- जुआ खेलने का आदेश अपने तेज से दग्ध किया। दिया था। उस आदेशानुसार, इसने नल से जूआ खेला ___पुलोमा के कुल उन्नीस पुत्र हुये, जिनमें से बारह एवं नल का सर्वस्व जीत लिया। देव तथा सात राक्षस थे । इन पुत्रों की सूची भृगुवंश में नल राजा के अज्ञातवास के पश्चात् , उसने पुनः एकबार प्राप्त है (म. आ. ५-६)। पुष्कर को जुआ खेलने का आवाहन किया, एवं इससे . २. दैत्य कुल की एक कन्या, जिसके पुत्रों को पौलोम' | अपना राज्य वापस जात लिया (म. व. ७७.१८)। कहते हैं । यह वैश्वानर दानव की कन्याओं में से एक थी। ३. कृष्णपराशर कुल का एक गोत्रकार। . ___ इसने एवं इसकी सहेली कालका ने घोर तपस्या कर | ४. ( सु. इ.) एक इक्ष्वाकुवंशीय राजा। यह राम के ब्रह्माजी से वर माँगा 'देवता, राक्षस एवं नागों के श्रम मागों के | दाशरथि का पुत्र, कुश का वंशज, एवं सुनक्षत्र राजा का पुत्र लिए अवध्य पुत्रों की प्राप्ति हमें हो। उन्हे रहने के लिये | था। इसके पुत्र का नाम अंतरिक्ष था (भा. ९.१२.१२)। एक सुन्दर नगर हो. जो अपने तेज से जगमगा रहा हो । इसे 'किन्नर' एवं 'किन्नराश्व' नामांतर भी प्राप्त थे। विमान की भाँति आकाश में विचरनेवाला हो, एवं नाना ति आमा में विनानेवाला दो नाना ५. श्रीकृष्ण के पुत्रों में से एक (भा. १०.९०.३४)। प्रकार के रत्नों से युक्त हो। वहाँ ऐसा नगर हो जिसे ६. वसुदेव के भाई वृक को दुर्वाक्षी नामक पत्नी से देवतागण जीत न सकें (म. व.१७०.७-१२)। उत्पन्न पुत्र (भा. ९.२४.४३)। ४४० Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष्करमालिन पुष्करमालिन -- विदेह देश का राजा ऐंद्रद्युम्न जनक का नामांतर । इसे ' उग्रसेन' नामांतर भी प्राप्त था । महाभारत के अनुसार, पुष्करमालिन् ऐंद्रद्यम्न एवं उग्रसेन एक ही जनक राजा के नामांतर थे, एवं यह राजा वरुणपुत्र बंदिन एवं अष्टावक्र ऋषियों के वाद सभा में उपस्थित था (म. व. १३३.१३; १३४.१; बंदिन् देखिये) । पुराणों में प्राप्त वंशावलि में, इनमें से एक भी जनक का नाम प्राप्त नहीं है । इस कारण, इन नामों में से सही नाम कौनसा है, यह बताना कठिन है । पुष्करमालिनी -- एक धर्मचारिणी स्त्री, जो विदर्भ देश में ' उंच्छवृत्ति' से रहनेवाले सत्य नामक ऋषि की पत्नी थी। महाभारत में, इसके नाम के लिये 'पुष्करचालिनी' एवं 'पुष्करधारिणी', पाठभेद उपलब्ध हैं । प्राचीन चरित्रकोश अत्यंत व्रतस्थ होने के कारण, यह 'कृशतनु' एवं पवित्र बन गयी थी । यह पति के कथनानुसार आचरण करती थी, एवं वन में सहजरूप ये प्राप्त मोरपंखो से बना • हुआ वस्त्र धारण करती थी। पशुयज्ञ से इसे सख्त नफरत थी (म. शां. २६४.६ ) । पुष्कराक्ष - (सु. दिष्ट. ) एक राजा, जो सुचंद्र राजा का पुत्र था। परशुराम जामदग्न्य ने सर से पाँव तक . . विच्छेद कर, इसका वध किया ( ब्रह्मांड. ३.४०.१३, परशुराम देखिये ) । पुष्करारुणि- (सो. पूरु. ) एक पुरुवंशीय राजा । भागवत के अनुसार, यह दुरतिक्षय राजा के तीन पुत्रों में से कनिष्ठ था। जन्म से यह क्षत्रिय था, किंतु 'तपस्या के कारण ब्राह्मण बन गया ( भा. ९.२१.२० ) । इसे 'पुष्करिन् ' नामांतर भी प्राप्त था । पुष्करिणी – सम्राट भरत की स्नुषा, एवं भरतपुत्र भुमन्यु की पत्नी (म. आ. ८९.२१ ) । इसे कुल छः पुत्र थे, जिनके नाम इसप्रकार थे:- सुहोत्र, दिविरथ, सुहोता, सुहवि, सुजु एवं ऋचीक । २. व्युष्ट राजा की पत्नी, जिसे सर्वतेजस् नामक पुत्र उत्पन्न हुआ था (भा. ४.१३.१४))। ३. उल्मुक राजा की पत्नी । इसे कुल छः पुत्र थे, जिनके नाम इस प्रकार थे:-अंग, सुमनस, ख्याति, ऋतु, अंगिरा एवं गय (भा. ४.१३.१७ ) । पुष्करिन्–(सो. पूरु.) एक पूरुवंशीय राजा । वायु के अनुसार, यह उभक्षय राजा का, एवं विष्णु के अनुसार उरुक्षय राजा का पुत्र था। इसे 'पुष्करारुणि' नामांतर भी प्राप्त था (पुष्करारुणि देखिये) । प्रा. च. ५६ ] पुष्टि पुष्कल – (सू. इ. ) एक इक्ष्वाकुवंशीय राजा, जो दशरथपुत्र भरत के दो पुत्रों में से कनिष्ठ था। इसकी माता का नाम मांडवी था ( वायु. ८८; ब्रह्मांड. ३.६२. १९०; विष्णु. ४.४७; अग्नि ११.७-८;९;११-१२ ) । पद्म पुराण के पातालखंड में, राम दाशरथि के अश्वमेधां यज्ञ का विस्तृत वर्णन प्राप्त है, जिससे इसकी शूरता की प्रचीति मिलती है ( पद्म. पा. १ –६८ ) । राम दाशरथि ने कुल तीन अश्वमेध यज्ञ किये। उन तीनों यज्ञ के समय, अश्व की रक्षा करने का काम शत्रुघ्न के साथ पुष्कल ने ही निभाया था ( पद्म. पा. १.११ ) । इस कार्य में अनेक राक्षस एवं वीरों से इसे सामन करना पड़ा। सुबाहुपुत्र दमन को इसने परास्त किया (पद्म. पा.२६) । चित्रांग के साथ हुए युद्ध में, इसने उसका वध किया ( पद्म. पा. २७) । विद्युन्माली एवं उग्रदंष्ट्र राक्षसों से इसका भीषण युद्ध हुआ (पद्म. पा. ३४ ) | रुक्मांगद एवं वीरमणि से भी इसका युद्ध हुआ था ( पद्म. पा. ४१-४६ अन्त में लव ने राम का अश्वमेधीय अश्व रोक करा इसे पराजित किया (पद्म. पा. ६१ ) । वाल्मीकि रामायण के अनुसार, पुष्कल ने गांधार देश जीत कर, उस देश में पुष्कलावती अथवा पुष्कलावत नामक नगरी की स्थापना की, एवं उसे अपनी राजधानी बनायी ( वा. रा. उ. १०१.११ ) । पद्म के अनुसार इसकी पत्नी का नाम कांतिमती था (पद्म. पा. ६७ ) । २. (सु. इ. भविष्य . ) एक इक्ष्वाकुवंशीय राजा मत्स्य के अनुसार, यह शुद्धोदन राजा का पुत्र था । इसे सिद्धार्थ नामान्तर प्राप्त है ( मत्स्य, २७२. १२; सिद्धार्थ देखिये ) । इसे 'राहुल', 'रातुल' एवं ' लांगलिन् ' नामांतर भी प्राप्त थे । पुष्टि-- स्वायंभुव मन्वन्तर की कन्या, एवं धर्म की पत्नी ( म. आ. ६०.१३ ) । स्मय इसका पुत्र था ( भा. ४.१.४९ - ५१ ) । यह ब्रह्माजी के सभा में रह कर उनकी उपासना करती थी ( म. स. ११.१३२) । अर्जुन जब इंद्रलोक की यात्रा के लिए गया था, तब उसकी रक्षा के लिए द्रौपदी ने इसका स्मरण किया था (म. व. ३८.१४९)। २. ब्रह्मांड के अनुसार, व्यास की सामशिष्यपरंपरा के हिरण्यनाभ का शिष्य । ३. (सो, बसु. ) एक राजा वायु के अनुसार, यह ४४१ Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष्टि सुवदेव राजा का पुत्र था एवं इसकी माता का नाम मदिरा था। प्राचीन चरित्रकोश ४. धर्मसावर्णि मन्वन्तर के सप्तर्षियों में से एक। पुष्टिगु काण्व - एक वैदिक सूक्तद्रष्टा (ऋ. ८, ५०) । ऋग्वेद के 'बालखिल्य सूक्त' में इसका निर्देश प्राप्त है (ऋ. ८.५१.१ ) । पुष्टिद मार्कंडेय पुराण के अनुसार, इक्तीस - पितृगणों में से एक (मार्के ९२ ९४ पितर देखिये) । पुष्टिमति - भरत नामक अभि का नामांतर | यह | संतुष्ट होने पर पुष्टि प्रदान करता है, इस कारण इसका नाम 'पुष्टिमति' है (म.व. २११.१ ) । पुष्प (सु.) एक इक्ष्वाकुवंशीय राजा विष्णु के अनुसार, यह हिरण्यनाभ राजा का पुत्र था। इसे ' पुष्य ' नामांतर भी प्राप्त था ( पुण्य देखिये ) | २. कश्यपवंशीय एक नाग (म. उ. १०१.१३) | पुण्पदंष्ट्र- - एक नाग, जो कश्यप एवं कद्रू का पुत्र था । पुष्पदंत - विष्णु का एक पार्षद ( भा. ९. २१. १७) । २. एक गन्धर्व, जिसके पुत्र का नाम माल्यवान था (पद्म, उ. ४३) । देवी भागवत के अनुसार, यह 'शिवमहिम्न स्तोत्र' का रचयिता था (दे. भा. ९.२० ) । ३. एक रुद्रगण (प. उ.१२ ) । ४. मणिवर एवं देवनी के 'क' पुत्रों में से एक । ५. पार्वती द्वारा कुमार कार्तिकेय को दिये गये तीन पार्षदों में से एक अन्य दो पार्षदों के नाम उन्माद C । ' एवं ' शंकुकर्ण थे ( म. श. ४४.४७ ) । पुष्पदंती - चित्रसेन गंधर्व की नातिन एक बार इन्द्र की सभा में, यह एवं माल्यवत् गंधर्व अन्य देवगंधर्वों के साथ नृत्य कर रहे थे । नृत्य के बीच में ही माल्यवत् के रूप पर मुग्ध हो जाने के कारण, यह तालस्वर से अलग नृत्य करने लगी । इस कारण क्रुद्ध होकर इन्द्र ने इन दोनों को पिशाच हो जाने का शाप दिया। पश्चात् 'जया' नामक एकादशीव्रत करने के कारण, ये दोनो इन्द्रशाप से मुक्त होकर स्वर्ग में फिर शामिल हो गये (पद्म. उ. ४३; माल्यवत् देखिये) । पुष्पधन्वन -- रति का पति, कामदेव का नामांतर पुष्प का धनुष धारण करने के कारण, कामदेव को यह नामांतर प्राप्त हुआ। पुष्पोत्कटा पुष्पशस् अदवजि - एक वैदिक आचार्य, जो संकर गौतम नामक ऋषि का शिष्य था। इसका शि भद्रशर्मन्था (वं. बा. ३ ) | । पुष्पवत् - (सो. ऋक्ष) महाभारत के अनुसार, एक पृथ्वीशासक राजा अत्यधिक पराक्रमी एवं अजेय होकर भी, अन्त में इसे मृत्यु का मुख देखना पड़ा (म. शां. २२०.५०-५५ ) । भागवत, विष्णु एवं वायु के अनुसार, यह ऋषभ राजा का पुत्र था । पुष्पवाहन - रथंतर कल्प का एक राजा । इसकी पत्नी का नाम लावण्यवती था, जिसके दस हज़ार पुत्र थे । पूर्वजन्म में यह व्याध था । ' द्वादशीव्रत करनेवाली अनंगवती नामक वेश्या को विष्णु-पूजन के लिये इसने कमल के फूल भक्ति भाव से प्रदान किये थे। इसी पुण्य के कारण, अगले जन्म में इसे पुष्पवाहन राजा की योनि प्राप्त हुयी । N , भृगुऋषि ने पुष्पवाहन राजा को इसके पूर्वजन्म की कथा को बताकर इससे इस जन्म में भी द्वादशीत करने को कहा, जिससे मुक्ति की प्राप्त हो सके (पद्म. स. २० ) पुष्पातन - एक यक्ष, जो कुबेर की सभा में रहकर उसकी उपासना करता था ( म. स. १०.१७ ) । पुष्पान्वेषि- अंगिराकुल में उत्पन्न एक गोत्रकार पुष्पण (स्वा. उत्तन. ) एक राजा, जो सुविख्यात बालयोगी ध्रुव राजा का पौत्र था। इसके पिता का नाम वत्सर, एवं माता का नाम स्वर्वीथी था । यह अपने छ । भाइयों में ज्येष्ठ था। इसके प्रभा एवं दोषा नामक दो पत्नियों थी प्रमा से इसे प्रातः, सायं, एवं मध्याह्न, तथा दोषा से प्रदोष, निशीथ और • व्युष्ट नामक पुत्र उत्पन्न हुए ( भा. ४. १३.. १२-१४ ) | पुष्पोत्कटा एक अतिसुन्दरी राक्षसकन्या जो सुमालि राक्षस की पुत्री थी। इसकी माता का नाम केतुमती था ( वा. रा. उ. ५.४० ) । इसके पति का नाम विश्वस् था, जिससे इसे रावण एवं कुंभकर्ण नामक पुत्र हुये थे । कुवेर ने इसे विश्रवस् की सेवा में नियुक्त किया था । यह गायन एवं नृत्य में निपुण थी (म.व. २५९७ ) । ४४२ Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन चरित्रकोश पुण्य | पुण्य ( इ. ) एक इक्ष्वाकुवंशीय राजा स, भागवत एवं वायु के अनुसार, यह हिरण्यनाथ राजा का पुत्र था। वायु एवं विष्णु में इसे 'पुष्प' कहा गया है। इसके पुत्र का नाम था (वे. मा. २०१४ ) । पुष्यश्रवस् -- एक विष्णुभक्त ऋषि । विष्णुभक्ति के कारण, कृष्णावतार में इसने नंद के भाई के यहाँ ' लवंगा ' नामक कन्या के रूप में जन्म लिया था ( पद्म. पा. ७२)। पूजनी - कांपिल्य नगर के ब्रह्मदत्त राजा के भवन में निवास करनेवाली एक चिड़िया (म. शां. १३७.५) यह समस्त प्राणियों की बोली समझती थी, तथा सर्वज्ञ और सम्पूर्ण तच्चों को जाननेवाली थी। राजकुमार सर्वसेन ने इसके बच्चे मार डाले थे, अतएव इसने भी उसकी आँखें फोड़ दी थीं (म. शां. १३७.१७ ) । पश्चात् इसने राजभवन छोड़ना चाहा। राजा ब्रह्मदत्त ने इससे रहने के लिए आग्रह किया, किन्तु इसने राजा की प्रार्थना अस्वीकार कर दी। राजभवन छोड़ते समय इसका एवं ब्रह्मदत्त का तत्वज्ञान सम्बन्धी संवाद हुआ था (म. शां. १३७.२१-१०९; ब्रह्मदत्त देखिये ) । पूतक्रता--ऋग्वेद के 'बासिस्य सूक्त में निर्देशित • एक स्त्री, जो संभवतः पूत राजा की पत्नी थी (ऋ. १. ५६.४) । पाणिनि के व्याकरण के अनुसार, इस शब्दका रूप 'पूतक्रतायी था (पा. ४.१.३६ ) पूतक्रतु - एक वैदिक राजा, जो अश्वमेध राजा का पुत्र था (ऋ. ८.६८.१७ ) | कई विद्वानों के अनुसार, अतिथिग्य इंद्रोत, अश्वमेध तथा पूतक्रतु सम्भवतः एक ही व्यक्ति के नाम थे। सायण के अनुसार, पूतक्रतु किसी स्वतंत्र व्यक्ति का नाम नहीं था। इसके पुत्र का नाम दस्यवृकथा (ऋ. ८.५६.२)T पूतना दूध के साथ इसके प्राणों को भी चूसना शुरू कर दिया। पूतना वेदना में व्याकुल होकर तड़पने लगी, और प्राण त्याग दिये ( म. स. परि. १ क्र. २१. पंक्ति ७५९; भा. १०.६ पद्म.. १३ विष्णु. ५.५. महावे. ४.१० ) । हरिवंश के अनुसार, यह कंस की दाई थी। इसने पक्षिणी का रूप धारण कर, गोकुल में प्रवेश किया था। दिनभर आराम कर, रात में सब के सो जाने पर, कृष्ण के मुख में दूध पिला कर मारने के हेतु से, इसने अपना स्तन दिया। कृष्ण ने दूध के साथ, इसके प्राणों का शोषण कर, इसका वध किया (ह. व. २.६ ) आदिपुराण के अनुसार, यह कैतवी नामक राक्षस की कन्या, एवं स राजा की पत्नी की सखी थी। इसकी चहन का नाम वृकोदरी था । कंस के आदेशानुसार गोकुल में जाकर, दस बारह दिन के आयुवाले बच्चो को कालकूटयुक्त स्तन के दूध को पिला कर इसने उनका नाश किया। बाद में जब कृष्ण को मारने की इच्छा से यह उनके पर गयी, तो कृष्ण ने इसका वध किया (आदि. १८) । पूर्वजन्म में यह बलि राजा की कन्या थी, और इसका नाम रत्नमाला था । बलि के यज्ञ के समय, वामन भगवान् को देखकर इसकी इच्छा हुयी थी कि, सामन मेरा पुत्र हो, और इसे मैं अपना स्तनपान करावें। इसकी यह इच्छा जान कर, वामन ने कृष्णावतार में कृष्ण के रूप में इसका स्तनपान कर, इसे मुक्ति प्रदान किया था ( ब्रह्मवै. ४.१० ) । इसे राक्षसयोनि क्यों प्राप्त हुयी इसकी कथा आदि पुराण में इस प्रकार दी गयी है। एक बार कालभीरु ऋषि अपनी कन्या चारुमती के साथ कहीं जा रहे थे कि, उन दोनों ने सरस्वती के तट पर तपस्या करते हुये कक्षीवान् ऋषि को देखा । कक्षीवान के स्वरूप को देखकर, एवं उसे योग्य वर समझकर, कालभीरू अपनी पुत्री चारुमती को शास्त्रोक्त विधि से उसे अर्पित की। बाद में, कक्षीवान् तथा चारुमती दोनों मुखपूर्वक रहने लगे। एकवार कक्षीवान् तीर्थयात्रा को गया था। इसी बीच एक शूद्र ने चारुमती को अपने वंश में कर लिया । आते ही कक्षीवान् को अपनी पत्नी का दुराचरण ज्ञात हुआ, तथा उन्होंने उसे राक्षसी बनने का शाप दिया । चास्मती के अत्यधिक अनुनयविनय करने पर पक्षीवान् ने कहा, 'जाओ, कृष्ण के द्वारा ही तुम्हें मुक्तिं प्राप्त होगी । पूतदक्ष आंगिरस - एक वैदिक सूक्तद्रष्टा (ऋ. ८. ९४ ) । पूतना एक राक्षसी, जो कंस की बहन, एवं घटोदर राक्षस की पत्नी थी । कंस ने इसे श्रीकृष्ण का वध करने के लिये गोकुल भेजा था । गोकुल में यह नवतरुणी स्त्री का रूप धारण कर, अपने स्तनों में विष लगाकर, वहाँ के बच्चों को अपने स्तन से दूध पिलाकर उनका वध करने लगी। इस प्रकार गोकुल्याम के न जाने कितने बालकों की जान लेकर, श्रीकृष्ण की भी इसी भाँति मारने की इच्छा से, एक दिन यह नंद के घर गयी। इसने अपने स्तनों में श्रीकृष्ण को लगाया ही था, कि बालक कृष्ण ने । ४४३ कक्षीवान् ऋषि के उपर्युक्त शाप के कारण, चारुमती को पूतना राक्षसी का जन्म प्राप्त हुआ (आदि. १८ ) । Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूतना प्राचीन चरित्रकोश किन्तु वहाँ पुरुकुत्सकश्रवण २. स्कंद की अनुचरी एक मातृका (म. श. ४५.१६)। था, एवं काले रंग के अनेक 'दास' लोगों पर उसने अन्य मातृकाओं के समान यह भी बालकों द्वारा पूजित है | विजय प्राप्त किया था (ऋ. ७. ५. ३)। काले रंग के (म. व. २१९.२६)। दासों से लड़नेवाला पुरुकुत्स राजा स्वयं गौर- . पूतिमाष-अंगिराकुल में उत्पन्न एक ऋषि । वर्णीय होगा। कई विद्वानों के अनुसार ऋग्वेद में प्राप्त पूरण वैश्वामित्र--विश्वामित्रकुल का एक गोत्रकार, | कृष्णवर्णीय दासों का यह वर्णन, भारतवर्ष के आदिसूक्तकार तथा प्रवर (ऋ. १०.१६०)। इसे 'पुराण' वासियों को लक्षित करता है । किन्तु इस संबंध में नामान्तर भी प्राप्त था। निश्चित रूप से कहना कठिन है । ऋग्वेद के अनुसार, महाभारत में एक ऋषि के रूप में इसका निर्देश प्राप्त पुरूकल्स के पुत्र त्रसदस्यु का जन्म अत्यंत दुरवस्थ काल है (म. शां. ४७.६६, पंक्ति ११*) । किन्तु वहाँ इसके में हुआ था (ऋ. ४. ४२. ८-९)। दाशराज्ञ युद्ध में नाम का निर्देश 'पूरण' नाम से तो किया गया है, पर पुरुकुत्स राजा की मृत्यु हो गयी थी। वहाँ इसकी 'वैश्वामित्र' उपाधि का कोई भी उल्लेख प्राप्त पूरुवंश के 'कुरूश्रवण त्रासदस्यव ' नामक एक राजा नहीं है। का निर्देश ऋग्वेद में प्राप्त है (ऋ. १०. ३३. ४)। दाशराज्ञ युद्ध के पश्चात् , तृत्सु, भरत एवं पूरु जातियों पूरु-ऋग्वेदकालीन एक जातिसमूह । अनु, द्रुहथु, में मित्रता स्थापित हुयी, एवं इन तीन जातियों को मिला . तुर्वसु, एवं यदु लोगों के साथ, इनका निर्देश ऋग्वेद में कर 'कुरु जाति' की स्थापना की गयी । कुरु जाति का . प्राप्त है (ऋ. १.१०८.८)। प्रत्यक्ष निर्देश ऋग्वेद में प्राप्त नहीं है, किंतु कुरुश्रवण । ' दाशराज्ञ युद्ध में, सुदास राजा के हाथों पूरु लोगों को त्रासदस्यव राजा के निर्देश से इस मित्रता का अप्रत्यक्ष पराजित होना पड़ा (ऋ. ७. ८. ४)। ऋग्वेद के एक प्रमाण मिलता हैं । सुदास, पौरुकुत्सि, त्रसदस्यु, एवं पूरु । सूक्त में, पूरु लोगों के एक राजा का, एवं सुदास की पराजय इन सभी राजाओं का इंद्रद्वारा रक्षण किया जाने का । के लिए असफल रूप में प्रार्थना करनेवाले राजपुरोहित निर्देश ऋग्वेद में प्राप्त है (ऋ. ७. १९. ३)। विश्वामित्र का निर्देश प्राप्त है (ऋ. ७. १८.३)। . वैदिक ग्रंथो में इसके नाम के लिए, सर्वत्र 'पूरु' यद्यपि दाशराज्ञ युद्ध में पूरुओं का पराजय हुआ, फिर भी ऋग्वेदकाल में ये लोग काफी सामर्थ्यशाली पाठ उपलब्ध है। केवल शतपथ ब्राह्मण में 'पुरु' पाठ प्रतीत होते हैं । इन लोगों ने अनेक आदिवासी लोगों पर प्राप्त है, एवं वहाँ पुरु की 'असुर रक्षस्' हा गया है विजय प्राप्त किया था (ऋ. १. ५९. ६; १३१. ४, ४. (श. ब्रा. ६. ८. १. १४)। पौराणिक ग्रंथों में से, २१. १०) तृत्सु एवं भरत जातियों से इन लोगों का केवल वायुपुराण में 'पुरु ' पाठ उपलब्ध है। अत्यंत घनिष्ठ संबंध था, एवं उन जातियों के साथ, पूरु | | २. 'पौरववंश' की स्थापना करनेवाला सुविख्यात लोग भी सरस्वती नदी के किनारे रहते थे (ऋ. ७. राजा, जो महाभारत के अनुसार, ययाति राजा के पाँच ९६.२)। पुत्रों में से एक था । ययाति राजा के शेष चार पुत्रों के नाम कई विद्वानों के अनुसार, पूरु लोग सर्वप्रथम | इसप्रकार थः- अनु, द्रुहयु, यदु एव तुवशु (म. आ. दिवोदास राजा के साथ सिन्धु नदी के पश्चिम में रहते १. १७२)। ययाति राजा' एवं उनके पाँच पुत्रों थे, और बाद को ये सरस्वती नदी के किनारे रहने लगे।| का निर्देश ऋग्वेद में भी प्राप्त है, किन्तु वहाँ ययाति सिकंदर को एक पौरव राजा 'उस हयदस्पीस' नामक एक ऋषि एवं सूक्तद्रष्टा बताया गया है, एवं अनु, ह्या स्थान के समीप मिला था (अरियन-इंडिका ८. ४)।। यदु, तुर्वशु तथा पूरु का निर्देश स्वतंत्र जातियों के नाते यह स्थान सरस्वती नदी एवं पश्चिम प्रदेश के बीच में से किया गया है। 'वैदिक इंडेक्स' के अनुसार, कहीं स्थित था। ऋग्वेद की जानकारी अधिक ऐतिहासिक है, एवं महाभारत पुरु लोगों के अनेक राजाओं का निर्देश ऋग्वेद में | तथा पुराणों में दी गयी जानकारी गलत है (वै. इ. प्राप्त है, जिससे इन लोगों का महत्व प्रस्थापित होता | २. १८७ )। है । ऋग्वेद में प्राप्त पूरु राजाओं की वंशावलि इस प्रकार | महाभारत के अनुसार, यह ययाति राजा को शर्मिष्ठ है :-दुर्गह- गिरिक्षित- पुरुकुत्स- त्रसदस्यु । इन में | के गर्भ से उत्पन्न हुआ था (म. आ. ७०.३१)। इसकी से पुरुकुत्स, तृत्सु लोगों का राजा सुदास का समकालीन | राजधानी प्रतिष्ठान नगर में थी। Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन चरित्रकोश पूर्णदंष्ट्र यह अपने पिता के सभी पुत्रों में कनिष्ठ था। किंतु | विभाग में समाविष्ट किये जाते हैं; २. (सो.ऋक्ष) अजमीढ इसने ययाति की जरावस्था लेकर उसे अपना तारुण्य | से लेकर कुरु तक के राजा इस विभाग में समाविष्ट होते प्रदान किया था (म. आ. ७०.४१) इस उदारता एवं | है; ३. (सो. कुरु)-कुरु से ले कर पांडवों तक के राज पितृभक्ति से प्रसन्न होकर, कनिषु होकर भी, ययाति ने | इस विभाग में आते हैं। इसे अपना समस्त राज्य दे दिया, एवं इसे 'सार्वभौम | पूरुवंश के अजमीढ राजा को नील, बृहदिषु एवं राज्याभिषेक' करवाया। इसके राज्याभिषेक के समय, | ऋक्ष नामक तीन पुत्र थे। इनमें से ऋक्ष हस्तिनापुर के सभाजनों ने दृढ़तापूर्वक कहा, 'जो पिता की आज्ञा का | राजगद्दी पर बैठा । नील एवं बृहदिषु ने उत्तर एवं पालन करता है वहीं उसका वास्तविक पुत्र है, एवं उसे ही | दक्षिण पांचाल के स्वतंत्र राज्य स्थापित किये। राज्याधिकार मिलना चाहिये। अन्त में ययाति के | ऋक्ष राजा के वंश में से कुरु राजा ने सुविख्यात कुरु आदेशानुसार, पूरु का राज्याभिषेक किया गया । इसके | वंश की स्थापना की । कुरु राजा को जह्न, परीक्षित् एवं अन्य भाइयों को भी राज्य प्रदान किये गये, पर अपने | सुधन्वन् नामक तीन पुत्र थे। उनमें से जह्न, कुरु राजा पिता का 'सार्वभौमत्त्व' पूरु को ही प्राप्त हुआ (भा. ९. का उत्तराधिकारी बना, एवं उसने हस्तिनापुर का कुरुवंश १९. २३)।सुविख्यात 'पूरुवंश' की स्थापना इसने की। आगे चलाया। सुधन्वन् का वंशज वसु ने चेदि एवं इस कारण इसे 'वंशकर' भी कहा गया है (म. आ. | मगध में स्वतंत्र राजवंश की स्थापना की। परिक्षित् का ७०.४५)। पुत्र जनमेजय (दूसरा) ने गार्ग्य ऋषि के पुत्र का अपमान कालांतर में, विषयोपभोग से ऊबकर, ययाति ने पूरु किया, जिस कारण गार्ग्य ने उसे शाप दिया। उस शाप के का तारुण्य वापस कर दिया (ह. व. १. ३.३६; मत्स्य. | कारण, उसका एवं उसके श्रुतसेन, उग्रसेन एवं भीमसेन ३२; ब्रह्म. १२, वायु. ९३.७५, विष्णु. ४.१०-१६)। नामक पुत्रों का राज्याधिकार नष्ट हो गया। महाभारत में, पूरु को 'पुण्यश्लोक' राजा कहा गया ___ जह्न राजा का पुत्र सुरथ था सुरथ से ले कर अभिमन्यु है। यह मांसभक्षण का निषेध कर, परावर-तत्त्व का ज्ञान प्राप्त कर चुका था (म. अनु. ११५.५९) । यह तक की वंशावलि पुराणों एवं महाभारत में विस्तार तक यमसभा में रहकर यम की उपासना करता था (म. स.८.८)। से दी गयी है। · पुत्र-पूरु की कौसल्या तथा पौष्टी नामक दो पत्नियाँ २. अर्जुन का सारथि, जिसे राजसूय यज्ञ के लिये थी। कौसल्या से इसे जनमेजय, तथा पौष्टी से प्रवीर, । | अन्नसंग्रह के काम पर जुट जाने का आदेश मिला था (म. स. ३०.३०)। ईश्वर, तथा रौद्राश्व नामक पुत्र हुए। इसके पुत्रों में से जनमेजय वीर एवं प्रतापी था, अतएव वही इसके पश्चात् | ३.(स्वा. उत्तान.) एक राजा। यह चक्षुर्मनु की नड़वला से उत्पन्न पुत्रों में से ज्येष्ठ था। इसे 'पूरुष' राजगद्दी का अधिकारी हुआ (म. आ.९०.११)। । महाभारत में अन्यत्र, 'पौष्टी' कौसल्या काही नामांतर नामांतर भी प्राप्त था (भा. ८.५.७ ) भागवत में इसे माना गया है, एवं जनमेजय तथा प्रवीर एक ही व्यक्ति 'पुरु' भी कहा गया है (भा. ४.१३.१६)। मान कर प्रवीर को 'वंशकर' कहा गया है ( म. आ. ४. (सो. अमा.) एक राजा। भागवत के अनुसार ८९.५)। भागवत में प्रवीर को पूरु का नाती कहा गया यह जह्न का पुत्र था। इसे अज एवं अजमीढ नामांतर है (भा.९.२०.२)। भी प्राप्त थे। इसका पुत्र बलाकाश्व था। पूवंश-पूर ने सुविख्यात पूरुवंश की स्थापना की। पूरु आत्रेय-एक वैदिक सूक्तद्रष्टा (ऋ. ५.१६इसलिये इसके वंशज 'पौरव' कहलाते है, एवं उनकी | १७)। विस्तृत जानकरी आठ पुराणों एवं महाभारत में प्राप्त है। पूर्ण-वासुकि-कुलोत्पन्न एक नाग, जो जनमेजय के (वायु. ९९.१२०; ब्रह्म. १३.२-८; ह. वं.१.२०.३१-३२, सर्पसत्र में दग्ध हुआ था (म. आ. ५२.५)। मत्स्य.४९.१; विष्णु. ४.१९; भा.९.२०-२१, अग्नि.२७८. २. एक देवगंधर्व, जो कश्यप द्वारा प्राधा (क्रोधा) १; गरुढ़.१.१३९; म. आ.८९-९०)। से उत्पन्न पुत्र था (म. आ. ५९.४५)। पूरुवंश के तीन प्रमुख विभाग माने जाते है :- १ पूर्णदंष्ट्र-एक नाग, जो कश्यप एवं कद्रू का पुत्र (सो. पूर)-पूरु से लेकर अजमीढ तक के राजा इस | था (म. आ. ३१.१२) Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्णदं २. कुबेर के अनुचरों में से एक ( दे. भा. १२.१० ) ३. गंधमादन पर्वत पर रहने वाले रत्नभद्र यक्ष का पुत्र ( स्कंद. ४.१.३२ ) । इसे हरिकेश ( पिंगल ) प्राचीन चरित्रकोश नामक एक पुत्र था । इसका पुत्र हरिकेश शिवभक्त था, अतएव कुबेरभक्त पूर्णभद्र ने उसे घर से निकाल दिया। अन्त में शिव का कृपापात्र होकर हरिकेश, गणेश बन गया ( मत्स्य. १८० ) । स्कंदपुराण में, पूर्णभद्र को भी शिवभक्त कहा गया है। ४. मणिवर तथा देवजनी के 'गुह्यक' पुत्रों में से एक । पूर्णभद्र वैभांडकि-- एक पौराणिक ऋषि, जिसकी कृपा से चंप नामक राजा को हग नामक पुत्र हुआ था । यह चंप एवं उसके पुत्र हयैंग का आचार्य था। इसी कारण हयेंग के यज्ञ में यह इंद्र का ऐरावत लाया था (ह. वं १.३१.४९-५०; ब्रह्म. १३.४४; मत्स्य. ४८. ९८ ) । पूर्णमास - अगस्त्यकुल का एक गोत्रकार ( अगस्त्य देखिये) । २. भागवत के अनुसार, कृष्ण के कालिन्दी से उत्पन्न दस पुत्रों में से एक (भा. १०.६.१ ) ३. बारह आदित्यों में से धातृ नामक आदित्य का पुत्र । इसकी माता का नाम अनुभति था (भा ६.१८.३) । ४. मणिवर तथा देवजनी के 'गुह्यक' पुत्रों में से एक । पूर्णमुख – धृतराष्ट्रकुलोत्पन्न एक नाग, जो जनमेजय के सर्पसत्र में दग्ध हुआ था ( म. आ. ५२.१४ ) । पूर्णरसा - कृष्ण की प्राणसखी (पद्म. पा.७४) । पूर्णाश - एक देवगंधर्व, जो कश्यप तथा क्रोधा का पुत्र था। पूर्णांगद - धृतराष्ट्र कुलोत्पन्न एक नाग, जो जनमेजय के सर्प-सत्र में दग्ध हुआ था ( म. आ. ५२.१४ ) । पूर्णायु- -- एक देवगंधर्व, जो कश्यप एवं क्रोधा (प्राधा) का पुत्र था (म. आ. ५९.४५ ) । पूर्णिमत्-कर्दम प्रजापति की कला नामक कन्या के दो पुत्रों में से कनिष्ठ | वह मरीचि ऋषि का पुत्र था । इसके भाई का नाम 'पूर्णिमा' था । इसके विरंग तथा विश्वग नामक पुत्र, तथा देवकुल्या नामक एक कन्या थी ( भा. ४.१.१४)। दो पूषन पूर्णात्संग -- (आंध्र. भविष्य) एक आन्ध्रवंशीय राजा । विष्णु के अनुसार यह शातकर्णिका, मत्स्य के अनुसार श्रीमल्लकर्णि का, तथा भागवत के अनुसार श्रीशांतकर्ण का' पुत्र था । भागवत में इसका 'पौर्णमास' नामांतर प्राप्त है । इसने अठ्ठारह वर्षों तक राज्य किया था । पूर्य -- कश्यपकुल का एक गोत्रकार । पूर्वचित्ति-स्वायंभुव मन्वंतर की एक अप्सरा, जिसकी गणना छः सर्वश्रेष्ठ अप्सराओं में की जाती थी ( म. आ. ११४.५४ ) । अर्जुन के जन्ममहोत्सव में जिन दस अप्सराओं ने भाग लेकर, नृत्य प्रस्तुत किया था, यह एक थी (म. आ. ११४.५४ ) । यह प्रियव्रतपुत्र अमीत्र राजा की पत्नी थी। इसे ब्रह्मदेव ने उसके पास भेजा था । अग्रीम से इसे कुल नौ पुत्र हुए, जिनके नाम इस प्रकार थे - नाभि, किंपुरुष, हरिवर्ष, इलावृत, रम्यक, हिरण्यमय, कुरु, भद्राश्वव तथा केतुमाला । इसके बाद यह पुनः ब्रह्मदेव के पास चली गयी ( भा. ५. २. ३-२० ) । मलय पर्वत पर शुकदेवजी की श्रेष्ठता को देखकर, यह. आश्चर्यचकित हो उठी थी, एवं श्रद्धावनत होकर इसने आदरभाव व्यक्त किया था ( म. शां. ३१९.२० ) । २. एक अप्सरा, जो कश्यप एवं प्राधा की कन्याओं में से एक थी । यह पूस के महीने में भग नामक सूर्य के साथ घूमती है (भा. १२. '११. ४२ ) । पूर्वपालिन् -- महाभारतकालीन एक राजा, जो भारतीय युद्ध में पांडवों के पक्ष में शामिल था (म. उ. ४. १७ ) । पूर्वा - सोम की सत्ताइस पत्नियों में से एक । पूर्वा भाद्रपदा - सोम की सत्ता इस पत्नियों में से एक । पूर्वातिथि -- अत्रिकुलोत्पन्न एक प्रवरं एवं मंत्रद्रष्टा । पूर्वेन्द्र - - ' पूर्वकल्प' में पांडवों के रूप में उत्पन्न पाँच इन्द्र । पूषणा -- स्कंद की अनुचरी मातृका (म. श. ४५.२० ) । पूषन् ऋग्वेद में निर्दिष्ट एक देवता, जो संभवतः सूर्यदेवता का नामांतर है । ऋग्वेदान्तर्गत आठ सूक्तों में, इस देवता का वर्णन प्राप्त है । इनमें से एक सूक्त में इन्द्र एवं पूषन् की स्तुति की गयी है, एवं दूसरे एक सूक्त में सोम एवं पूषन् को संयुक्त देवता मानकर उनकी स्तुति की गयी है । उत्तरकालीन वैदिककाल में इस देवता का निर्देश अप्राप्य है। इसकी महत्ता का वर्णन जहाँ वेदों में पूर्णिमागतिक – भृगुकुल का एक गोत्रकार | कई ग्रंथों में, इसके नाम के लिए 'पौर्णिमागतिक ' - पाठभेद प्राप्त है । ४४६ Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन चरित्रकोश पूषन प्राप्त है, वहाँ इसका स्वरूपवर्णन स्पष्ट नहीं हो पाया है। रुद्र की भाँति यह जटा एवं दाढ़ी रखता है (ऋ. ६.५५. २; १०. २६. ७ ) । इसके पास सोने का एक भाला है ( ऋ१.४३. ६ ) । इसके पास एक अंकुश भी है (ऋ. ६.५३.९ ) । यह दंतहीन है। यह पेज या आटे को तरल पदार्थ के रूप में ही खा सकता है (ऋ. ६.५६ १; श ब्रा. १. ७. ४. ७) । अग्नि की तरह, यह भी समस्त प्राणियों को एक साथ देख सकता है । यह सम्पूर्ण चराचर का स्वामी है (ऋ. १. ११५. १ ) इसे उत्तम सारथि भी कहा गया है (ऋ. ६.५६. २ ) । बकरे इसके रथ के वाहन हैं (ऋ. १.३८.४ ) । सूर्य एवं अग्नि की भाँति, यह अपनी माता (रात्रि ) एवं बहन (उषा) से प्रेमयाचना करनेवाला है ( ऋ. ६ ५५. ५) । इसकी पत्नी का नाम सूर्या था (ऋ. ६.५८. ४.) । इसकी कामतप्त विह्वलता देखकर देवताओं ने इसका विवाह सूर्या से संपन्न कराया । सूर्या के पति के नाते, विवाह के अवसर पर इसका स्मरण किया जाता एवं इससे प्रार्थना की जाती है, 'नववधू का हाथ पकड़ कर उसे आर्शीवाद दो । ' सूर्य के दूत के नाते, यह अन्तरिक्षसमुद्र में अपने स्वर्णनौका में बैठकर विहार करता है (ऋ. ६.५८.३ ) | यह द्युलोक में रहता है, एवं सारे विश्व का निरीक्षण करता हुआ भ्रमण करता है। सूर्य की प्रेरणा से, यह सारे प्राणियों का रक्षण करता है। यह ' आणि ' अर्थात अत्यंत तेजस्वी माना जाता है। पृथ्वी एवं द्युलोक के बीच यह सदैव घूमता रहता है । इस कारण, यह मृत व्यक्तियों को अपने पितरो तक पहुँचा देता है । यह मार्गों में व्यक्तियों का संरक्षण करनेवाला देवता माना जाता है, जो उन्हे लूटपाट, चोरी तथा अन्य आपत्तिविपत्तियों से बचाता है (ऋ. १.४२.१ - ३ ) । इसी कारण यह 'विमुचो नपात्' अर्थात् मुक्तता का पुत्र कहा जाता है । कई जगह इसे ' विमोचन' कह कर, पापों से मुक्ति प्राप्त करने के लिए इसकी प्रार्थना की गयी है (अ. वे. ६.११२. (३) । शत्रु दूर होकर मार्ग संकटरहित होने के लिये, इसकी प्रार्थना की जाती है (ऋ. १.४२.७) । इसी कारण, प्रवास के प्रारंभ में ऋग्वेद के ६.५३ सूक्त का पठन कर, पूषन् को बलि देने के लिये सूत्रग्रंथों में कहा गया है (सां. गृ. २. १४.१९)। पूषन् यह पथदर्शक देवता माना जाता है ( वा. सं. २२. २० ) | यह मार्गज्ञ होने के कारण, खोया हुआ माल पुनः प्राप्त करवा देता है (ऋ. ६. ४८. १५; आव. गृ. ३. ७.९ ) । यह पशुओं की रक्षा करता है, एवं उन्हें रोगों तथा संकटों से बचाता है (ऋ. ६.५४. ५-७ ) । इसे प्राणिमात्र अत्यंत प्रिय हैं । यह भूलेभटके प्राणियों को सुरक्षित वापस लाता है (ऋ. ६. ५४. ७) । यह अश्वों का भी रक्षण करता है । इसीकारण गायों के चराने के लिये लेते समय, पूषन् की प्रार्थना की जाती है (सां. गृ. ३. ९ ) । ऋग्वेद में इसके लिये निम्नलिखित विशेषण प्रयुक्त किये गये हैं :अजाश्व, विमुखोनपात्, पुष्टिंभर, अनष्टपशु, अनष्टवेदस्, करंभाद, विश्ववेदस्, पुरूवस्, तथा पशुप । इनमें से विश्ववेदस्, अनष्टवेदस्, पुरुवस्, पुष्टिंभर इन सारी उपाधियों का अर्थ 'वैभव देनेवाला ' होता है । 'पूषन् ' का शब्दार्थ ही यही है । निरुक्त के अनुसार, पूषन् को आदित्य एवं सूर्यदेवता का एक रूप माना गया है। वेदोत्तर वाङ्मय में भी ' सूर्य का नामांतर ' अर्थ से 'पूषन् ' का निर्देश अनेक बार किया गया है। इसे मार्गरक्षक, एवं प्राणिरक्षक देवता मानने का कारण भी संभवतः यही होगा । 'पूषन् ' की दन्तविहीन होने की अनेक कथाएँ ब्राह्मण ग्रंथों में प्राप्त हैं। अपनी कन्या के साथ विवाहसंबंध रखनेवाले प्रजापति को रुद्र ने वध किया । प्रजापति के यज्ञ में से अवशिष्ट भाग पूषन् ने भक्षण किया । इस कारण 'पूषन् ' दन्तविहीन बना (श. बा. १. ७. ४. ७ ) । प्रजापति द्वारा किये हुए यज्ञ में रूद्र को आमंत्रित न करने के कारण, उसने उस यज्ञ को रोक दिया । पश्चात् यज्ञसिद्धि के लिये देवों ने रुद्र को प्रसन्न किया, एवं हविर्भाग का कुछ भाग पूषन् को दिया । देवों ने प्रदान किये उस हविर्भाग के कारण, पूषन् के दाँत टूट गये ( तै. सं. २. ६.८.२ - ७) । पौराणिक ग्रंथोंमें भी, पूषन् का निर्देश प्राप्त है । भागवत के अनुसार, यह स्वायंभुव मन्वन्तर के दक्षयज्ञ में ऋत्विज था । उस यज्ञ में इसनें शंकर की हँसी उड़ायी। इसकारण शिवगणों में से चंडीश नामक गण ने इसे बाँध कर इसके दाँत तोड़ डाले ( भा. ४. ५. २१-२२ ) पश्चात्, शंकर ने इसे वर दिया, " तुम यजमानों के दाँतो से हविर्भाग भक्षण करोगे एवं लोग तुम्हे ' पिष्टभुज' कहेंगे " । उसी दिन से यह 'पिष्टभुज' बना, एवं ४४७ Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूषन जिनके हाथ न हों, ऐसे लोगों के यशकार्य यह करने लगा (भा. ४. ७. ४-५ ) । २. बारह आदित्यों में से एक ( भा. ६.६.३९, पद्म. स. ६, म. आ. ५९.१५ ) | यह तपस् ( माप) माह में प्रकाशित होता है ( भा. १२.११.३४ ) । कई ग्रन्थों के अनुसार, यह पौष माह में प्रकाशित होता है ( भवि. ब्राह्म. ७.८ ) । भागवत के अनुसार, दक्षयज्ञ में उपस्थित पूषन् तथा यह दोनों एक ही थे ( भा. ६.६. ४३) । महाभारत में भी, भगवान् शंकर द्वारा इसके दाँत तोड़ने का निर्देश प्राप्त है ( म. द्रो. १७३.४८ ) । किन्तु दशवंश का पूपन एवं द्वादशादित्यों में से एक पूषन् संभवतः दो अलग व्यक्ति थे । क्यों कि, स्वायंभुव मन्वन्तर में द्वादशादित्य अस्तित्व में नहीं थे। उन्हें दक्ष ने यज्ञ कर के वैवस्वत मन्वन्तर में उत्पन्न किया था । इसने स्कंद को 'पालितक' एवं 'कालिका' नामक दो पार्षद प्रदान किये थे ( म. श. ४४.३९ ) । पमित्र गोभिल - एक वैदिक ऋषि, जो अथमित्र गोभिल का शिष्य था । इसके शिष्य का नाम सगर था (वं. बा. ३) पृथ -- रौच्य मनु के पुत्रों में से एक । प्राचीन चरित्रकोश पृथग्भाव- चाक्षुष मन्वन्तर का एक देवगण | पृथवान – दुःशीम नामक उदार दाता का नामांतर (ऋ. १०.९३.१४) । पृथा-पांडयों की माता कुंती का नामांतर | वह शूरसेन यादव की कन्या थी, एवं संसार की अनुपम सुंदरी मानी जाती थी। कुम्ती या कुंतिभोज राजा ने इसे गोद लिया था (भा. ९.२४.१९, पद्म. . १२) । । पृथाश्व-- एक प्राचीन नरेश, जो यमसभा में रह कर उसकी उपासना करता था (म. स. ८.१८)। पाठभेद (भांडारकर संहिता ) - ' पृथ्वश्व ' । पृथिन वैन्यम्य राजा का नामांतर (पृथु वैन्य देखिये) । ' -- पृथिवी' यावापृथिवी नामक देवताद्वय में से एक । ॠग्वेद में इसे सर्वत्र माता एवं देवता कह कर, इस पर अनेक सूक्त रचे गये है ( द्यावापृथिवी देखिये)। पृथिवीजय वरुण की सभा का एक असुर (म. स. ९.१२ ) । पृथु - - ( स्वा. नाभि ) एक राजा । विष्णुमतानुसार यह प्रसार राजा का पुत्र था। २. दक्षसावर्णि मनु का पुत्र । -- पृयु २. तामसमनु का पुत्र । ४. तामस मन्वंतर के सप्तर्षियों में से एक । ५. आदि अष्ट वसुओं में से एक। भाइयों के कथनानुसार इसने वसिष्ठ की गाय चुराई। अतः वसिष्ठ ने इसे तथा इसके अन्य भाइयों को शाप दिया, 'तुम्हें मनुष्य जन्म प्राप्त होगा ।' बाद में यह शंतनु से गंगा के उदर में अपने अन्य भाइयों के साथ जन्मा । परंतु द्यु को छोड़ कर, अन्य वसुओं को जन्मतः ही पानी में डुबों देने के कारण, यह पुनः वसु के जन्म में आया ( म. आ. ९३)। ६. ( इ. ) एक राजा । भागवत तथा विष्णु के अनुसार, यह इक्ष्वाकुवंशीय अनेनस् राजा का पुत्र था । वायु में अनेनस् को पृथुरोमन् नामांतर दिया गया है। इसने सौ यज्ञ किये थे । इसके पुत्र का नाम विश्वगश्व थाम. १९३२ - २) रामायण में इसे अनरण्य राजा का पुत्र कहा गया हैं, और इसके पुत्र का नाम त्रिशंकु दिया गया है ( वा. रा. वा. ७०.२४) । ७. (सो. अज.) एक राजा । विष्णु तथा मस्त्य के अनुसार यह पार द्वितीय राजा का पुत्र था। इसे वृषु नामांतर भी प्राप्त है। ८. (सो. नील. ) एक राजा मस्य के अनुसार यह पुरुजानु राजा का पुत्र था ( चक्षु २. देखिये ) ९. (सो. वृष्णि ) एक राजा । भागवत के अनुसार यह चित्ररथ राजा का पुत्र था। १०. (सो. वृष्णि. ) एक राजा । मत्स्य के अनुसार वह अक्रूर का पुत्र एवं इसकी माता का नाम अचिनी है । के अनुसार यह सनक राजश का पुत्र था। वह द्रौपदी ११. (सो. वृष्णि. ) एक वृष्णिवंशीय राजा । भागवत रुचक । स्वयंवर में उपस्थित था (म. आ. १७७.१७) । रेवतक पर्वत के उत्सव में यह शामिल था ( म. आ. २११. १०) हरिबंश में इसे 'पृथुरुम' कहा गया है। संभव है, पृथु तथा रुक्म को मिलाकर ही इसे यह नाम प्रात हुआ हो । " । १२. शुक के पाँच पुत्रों में से प्रभु का नामांतर १३. ऋग्वेद में निर्दिष्ट एक मानव संघ (ऋ. ७.८३. १ ) । इनका निर्देश प्रायः 'पर्शु ' लोगों के साथ आता है | लुडविग के अनुसार, आधुनिक पार्शियन एवं पर्शियन खोग ही प्राचीन 'पृथु एवं पशु लोग होंगे। ' ' 6 6 ૪૮ Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृथु प्राचीन चरित्रकोश पृथु १४. एक सदाचारसंपन्न ब्राह्मण । एक बार यह कराया, एवं इस तरह एक नई संस्कृति एवं सभ्यता का तीर्थयात्रा करने जा रहा था। इसे पाँच विद्रूप प्रेतपुरुष निर्माण किया । दिखलायी पड़े। वे सब अन्नदान के अभाव तथा याचकों | कृषि-कला के साथ साथ पृथु ने लोगों को एक जगह के साथ अशिष्ट व्यवहार के कारण निंद्य प्रेतयोनि में गये बस कर रहना भी सिखाया । इस प्रकार, ग्राम, पुर, थे। उनमें से प्रत्येक व्यक्ति विकलांगी था । 'पर्युषित' पत्तन, दुर्ग, घोष, व्रज, शिबिर, आकर, खेट, खर्वट आदि बेढब था। ' सूचिमुख' सुई के समान था। शीघ्रग पंगु | नए नए स्थानों का निर्माण होने लगा। इसके साथ ही था। 'रोहक' गर्दन न उठा सकता था, तथा 'लेखक' | साथ लोगों को पृथ्वी के गर्भ में छिपी हुयी सकल औषधि, को चलते समय अत्यधिक कष्ट होता था। बाद में, इस धान्य, रस, स्वर्णादि धातु, रत्नादि एवं दुग्ध आदि प्राप्त ब्राह्मण ने उन्हें प्रेतत्व की निवृत्ति के लिए आहार, आचार | करने की कला से इसने बोध कराया (भा. ४.१८)। तथा व्रतं बतलाये, तब उन सबका उद्धार हुआ (पा. इसने पृथ्वी के सारे मनुष्य एवं प्राणियों को हिंसक स. २७.१८-४६)। . पशुओं, चोरों एवं दैहिक विपत्तियों से मुक्त कराया। पथ 'वैन्य-पृथ्वी का पहला राजा एवं राज- अपनी शासन-व्यवस्था द्वारा यक्ष राक्षस, द्विपाद चतुष्पाद संस्था का निर्माता (श. ब्रा. ५. ३.५.४; क. सं. ३७. सारे प्राणियों, एवं धर्म अर्थादि सारे पुरुषार्थों के जीवन ४; ते. ब्रा. २.७. ५. १, पद्म. भू. २८.२१)। इसी | को सुखकर बनाया। इसने अपने राज्य में धर्म को प्रमुखता कारण प्राचीन ग्रंथो में, 'आदिराज', 'प्रथमनृप', दी, एवं राज्यशासन के लिए दण्डनीति की व्यवस्था 'राजेंद्र', 'राजराज', 'चक्रवर्ति', 'विधाता', 'इन्द्र' दी। प्रजा की रक्षा एवं पालन करने के कारण इसे 'प्रजापति' आदि उपाधियों से यह विभूषित किया गया 'क्षत्रिय' तथा 'प्रजारंजनसम्राज्' उपाधि से विभूषित है। महाभारत मे सोलह श्रेष्ठ राजाओं में इसका निर्देश | किया गया (म. शां. ५९.१०४-१४०)। किया गया है (म. द्रो. ६९; शां. २९.१३२; परि. १. पृथु ने पृथ्वी पर ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्यादि वर्गोंकी क्र.९)। प्रतिष्ठापना की, एवं हर एक व्यक्ति को अपनी वृत्ति के ___पृथ्वीदोहन अथवा नव समाजरचना--इसने भूमि को अनुसार उपजीविका का साधन उपलब्ध कराया। इसी अपनी कन्या मानकर उसका पोषण किया। इसी कारण कारण यह संसार में मान्य एवं पूज्य बना (ब्रह्मांड. 'भू' को 'पृथुकन्या' या 'पृथिवी' कहते है (विष्णु. २.३७.१-११)। १.१३; मत्स्य. १०; पद्म. भू. २८; ब्रह्म. ४; ब्रह्मांड. महाभारत के अनुसार, कृतयुग में धर्म का राज्य था। २.३७; भा: ४.१८; म. शां. २९.१३२)। अतएव दण्डनीति की आवश्यकता उस काल में प्रतीत पृथु के द्वारा पृथ्वी के दोहन की जाने की रूपात्मक न हुयी । कालान्तर में लोग मोहवश होकर राज्यव्यवस्था कथा वैदिक वाङ्मय से लेकर पुराणों तक चली आ रही | को क्षीण करने लगे। इसी कारण शासन के लिए राजनीति, है। इस कथा की वास्तविकता यही है कि, इसने सही शासनव्यवस्था एवं राजा की आवश्यकता पड़ी। पृथु ही अर्थों में पृथ्वी का सृजन सिंचन कर, उसे धन-धान्य से | पृथ्वी का प्रथम प्रशासक था। पूरित किया। पृथु के 'पृथ्वीदोहन' की कथा पद्मपुराण में इस मानवीय संस्कृति के इतिहास में, कृषि एवं नागरी प्रकार दी गयी है। प्रजा के जीवन-निर्वाह व्यवस्था के व्यवस्था का यह आदि जनक था। इसके पूर्व, लोग पशु लिए यह धनुष-बाण लेकर पृथ्वी के पीछे दौड़ा। भयभीत पक्षियों के समान इधर उधर घूमते रहते थे, प्राणियों को होकर पृथ्वी ने गाय का रूप धारण किया। इससे विनती मार कर उनका माँस भक्षण करते थे। इस प्रकार पथ्वी | की, 'तुम मुझे न मारकर, मेरा दोहन कर, सर्व प्रकार की प्राणि-सृष्टि का विनाश होता जा रहा था. एवं उनके | के वैभव प्राप्त कर सकते हो। पृथ्वी की यह प्रार्थना हत्या का पाप लोगों पर लग रहा था। इसे रोकने के | पृथु ने मान ली एवं इसने पृथ्वी का दोहन किया (पन. लिए पृथु ने कृषि व्यवस्था को देकर लोगों को अपनी | स.८)। जीवकोपार्जन के लिए एक नए मार्ग का निर्देशन किया। दोहकगण-पृथ्वी की नानाविध वस्तुओं के दोहन यह पहला व्यक्ति था, जिसने भूमि को समतल रूप दिया, करनेवाले देव, गंधर्व, मनुष्य, आदि की तालिका अथर्वउससे अन्नादि उपजाने की कला से लोगों को परिचित | वेद में एवं ब्रह्मादि पुराणों में दी गयी है । उनमें से प्रा. च. ५७] Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृथु प्राचीन चरित्रकोश कृषि एव सस्य तप तथा वेद स्वधा अंतर्धान बल सुगंध । माया । विष तोड जाने पर भी पुन निर्माण होना महौषधि तथा रत्न । पात्र लोह रौप्य पृथ्वी छदस् चमस् कमल kholt तूंबा परल पलस पत्थर कुबेर अथर्ववेद में प्राप्त तालिका इस प्रकार है (अ. वे. | ब्राहाण में इसका निर्देश 'पृथु' नाम से किया गया है, ८.२८):-- किन्तु सायणभाष्य में सर्वत्र इसे 'पृथिन् ' कहा गया हैं । अथर्ववेद में भी 'पृथिन् ' पाठ उपलब्ध है (अ. वे. ८. २८.११)। राज्यभिषेक--शतपथ ब्राह्मण के अनुसार, पृथ्वी में सर्वप्रथम पृथु का राज्याभिषेक हुआ। इसी कारण राज्याभिषेक का धार्मिक विधियों में किये जानेवाले 'पूर्वोत्तरांगभूत' होम को 'पार्थहोम' कहते हैं । इस राज्याभिषेक के कारण ग्राम्य एवं आरण्यक व्यक्तियों एवं पशुओं का पृथु राजा हुआ (श. ब्रा. ५. ३.५.४) । इसने 'पार्थ' नामक साम कहकर समस्त पृथ्वी का आधिपत्य प्राप्त किया (पं. बा. १३. ५.२०)। एक ऋषि एवं तत्त्वज्ञानी के नाते भी इसका निर्देश प्राप्त है (जै. उ. ब्रा. १.१०.९; ऋ १०.१४८.५)। इसका राज्य भिषेक महारण्य अथवा दंडकारण्य में । संपन्न हुआ (म. शां. २९.१२९)। इसके राज्याभिषेक के समय, भिन्न भिन्न देवों ने इसे विभिन्न प्रकार के उपहार प्रदान किये । इन्द्र ने अक्षय्य धनु एवं स्वर्ण मुकुट, कुबेर ने स्वर्णासन, यम ने दण्ड, बृहस्पति ने कवच, विष्णु ने सुदर्शन चक्र, रुद्र ने चन्द्रबिम्बांकित तलवार, त्वष्ट्र ने रथ : एवं समुद्र ने शंख दिया। ___ पुराणों में इसे बैन्य अथका वेण्य कहा गया है। यह चक्षुर्मनु के वंश के वेन राजा का पुत्र था (पद्म. स. २)। इस तालिका अनुसार, मानवों के जातियों में से असुर, | वेन राजा अत्यधिक दुष्ट था जिससे प्रजा बड़ी त्रस्त थी। पितर आदि 'वर्गो' ने पृथ्वी से माया, स्वधा आदि | | उस समय के महर्षियों ने पूजा के साथ सद्व्यवहार करने वस्तुओं का दोहन किया (प्राप्ति की), जिन पर उन के लिए बहु उपदेश दिये, पर उसका कोई प्रभाव न पड़ा। विशिष्ट वर्गो का गुजारा होता है। इस तालिका में, मनुष्य संतप्त होकर ऋषियों ने वेन को मार डाला । राजा के जाति का प्रतिनिधि पृथु वैन्य को मानकर उसने पृथ्वी | अभाव में अराजकता फैल गयी, जननां चोर, डाकुओं से से 'कृषि' एवं 'सस्य' को प्राप्त किया ऐसा कहा गया पीडित हो उठी । पश्चात, सब ऋषियों ने मिलकर वेन की दाहिनी भुजा का, तथा विष्णु के अनुसार दाहिनी जंघा पृथु वैन्य चाक्षुष मन्वन्तर में पैदा हुआ माना जाता है। का मंथन किया। ध्रव उत्तानपाद राजा के पश्चात् एवं मरुतों के उत्पत्ति के इस मंथन से सर्व प्रथम विन्ध्य निवासी निषाद तथा अनंतर, पृथ वैन्य का युगारंभ होता है। पृथ वैन्य के धीवर उत्पन्न हुए । तत्पश्चात् वेन की दाहिनी भुजा से पश्चात् पृथ्वी पर वैवस्वत मनु एवं उसके वंश का राज्य पृथु नामक पुत्र एवं अर्चि नामक कन्या उत्पन्न हुयी शुरू होता है। | (भा. ४.१५.१-२) पृथु विष्णु का अंशावतार था एवं एक उदारदाता, कृषि का आविष्कर्ता, एवं मनुष्य तथा | जन्म से ही धनुष एवं कवच धारण किये हुए उत्पन्न हुआ पशुओं के अधिपति के रूप में वैदिक साहित्य में, इसका था। इसके अवतीर्ण होते ही महर्षि आदि प्रसन्न हुए निर्देश प्राप्त है (ऋ. १०.९३.१४; अ. वे. ८. १०.२४ | तथा उन्होंने इसे सम्राट बनाया (पन. भृ. २८)। पं. बा. १३. ५.१९)। वेन का वंशज होने के कारण राज्याभिषेक होने के उपरांत पृथु ने प्राचीन सरस्वती इसे 'वैन्य' उपाधि प्राप्त थी (ऋ. ८.९.१०) शपतथ। नदी के किनारे ब्रह्मावर्त में सौ अश्वमेध करने का संकल्प ४५० | । विरोचन | यम | वैवस्वतमनु| | सोम | चित्ररथ | हिमालय । |तक्षक | सुमाली । दोहन करनेवाला । वत्स वृक्ष |शाल (जिसेस राल | पिंपरी बनते हैं) धृतराष्ट्र असुर | द्वमूर्धन् पितर । अंतक मनुष्य | पृथुवैन्य | रवि ऋषि । बृहस्पति यक्ष | रजतनामि गंधर्व | वसुरुचि राक्षस | जातुनाभ पर्वत । मेरु वर्ग देव Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृथु प्राचीन चरित्रकोश पृथु मला हा किया। निन्यानवे यज्ञ पूरे ही जाने के बाद इन्द्र को शंका | राजनीति की दृष्टि से इस प्रतिज्ञा में नियतधर्म एवं हुयी कि, कहीं यह मेरा इन्द्रासन न छीन ले। अतएव | शाश्वतधर्म के पालन पर जो जोर दिया गया है, वह उसने यज्ञ के अश्व को चरा लिया। यही नहीं, कापालिक | अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है। राज्य में विभिन्न धर्मों के वेष धारण कर इन्द्र ने पृथु का यज्ञ न होने दिया। इस | माननेवाले व्यक्ति होते हैं, पर राजा उन सबको एकसूत्र पर क्रोधित होकर पृथु इन्द्र का वध करने को उद्यत हुआ। में बाँधकर जिस धर्म के द्वारा राज्य करता है वह समन्वयदोनों में काफी संघर्ष न हो, इस भय से बृहस्पति तथा | वादी, समतापूर्ण, सर्वजनहिताय होता है। इसी को विष्णु ने मध्यस्थ होकर, दोनों में मैत्री की स्थापना कराई।। इस प्रतिज्ञा में 'नियत' एवं शाश्वत 'धर्म' कहा गया है। 'भागवत के अनुसार अत्रि ऋषि की सहायता से पृथु-पुत्र | यह शाश्वत धर्म के पालन की कल्पना प्राचीन भारतीय विजिताश्व ने इन्द्र को पराजित किया (भा. ४.१९) संस्कृति की देन है। पृथु वैन्य की यह प्रतिज्ञा ___ इसने महर्षियों को आश्वासन दिया, 'मैं धर्म के | इग्लैण्ड आदि की राज्य-प्रतिज्ञा से काफ़ी मिलती है। साथ राज्य करूँगा । आप मेरी सहायता कीजिये। अन्तर केवल इतना है, कि वहाँ की प्रतिज्ञा किसी विशेष महर्षियों ने इस पर 'तथास्तु' कहा। तत्पश्चात् शुक्र धर्म प्रणाली में ही आबद्ध है, पर पृथु द्वारा ग्रहण की गयी इसका पुरोहित बना, एवं निम्नलिखित ऋषि इसके | प्रातज्ञा आखल मानव-धम का ही राजधम मानकर उसे अष्टमंत्री बनेः- वालखिल्य-सारस्वत्य, गर्ग-सांवत्सर, | हा ही प्रतिस्थापित करते की बात कहती है। अत्रि-वेदकारक, नारद- इतिहास, सूत, मागध, बंदि कालिदास के रघुवंश में प्राप्त रघु राजा की प्रशस्ति में (म. शां. ५९. ११६ ११८, १३१४,)। पुरोहित, भी, 'प्रकृतिरंजन,' प्रजा का 'विनयाधान' एवं सारस्वत्य, सांवत्सर, वेदकारक, इतिहास, और राजा ये | | 'पोषण ' आदि शब्दों द्वारा यही कल्पना दोहरायी, छः नाम मिलते है। बाकी दो नाम का निर्देश नहीं है । | गयी है। सूत-मागध ये बंदिजन अलग है । महाभारत के अनुसार, पृथु के अश्वमेध यज्ञ में अत्रि सम्भव है मध्ययुगीन काल में, महाराष्ट्र के छत्रपति | | ऋषि ने इसे 'प्रथमनृप' 'विधाता,''इंद्र' और 'प्रजापति' शिवाजी ने अष्टप्रधान की शासनव्यवस्था यही से अपनायी कहकर इसका गौरवगान किया। यह गौतम को असहनीय था अतएव उसने अत्रि ऋषि से वाद-विवाद किया। इस पृथु की राजप्रतिज्ञा-राज्याधिकार प्राप्त करने के | वाद-विवाद में सनत्कुमार ने अत्रि का पक्ष लेकर उसका पूर्व, ऋषियों ने पृथु वैन्य से निम्नलिखित शपथ ग्रहण करने समर्थन किया। तत्पश्चात् पृथु ने अत्रि को बहुत सा धन को कहा देकर उसका सत्कार किया (म. व..१८३)। . “नियतो यत्र धर्मो वै, तमशङ्कः समाचर । पृथु की राजपद्धति प्रजा के लिए अत्यधिक सुखकारी - प्रियाप्रिये परित्यज्य, समः सर्वेषु जन्तुषु ॥ | सिद्ध हुयीं। इसकी राजधानी यमुना नदी के तट पर थी। कामक्रौधौ च लोभं च, मानं चोत्सृज्य दूरतः॥ | सृत एवं मागध नामक स्तुतिपाठक जाति की उत्पत्ति इसी यश्च धर्मात्प्रविचलेल्लोके, कश्चन मानवः ।। के राज्यकाल में हुयी। उनमें से सूतों को इसने अनूप देश निग्राह्यस्ते स बाहुभ्यां, शश्वद्धर्ममवेक्षतः। | एवं मागधों को मगध एवं कलिंग देश पुरस्कार के रूप प्रतिज्ञा चाधिरोहस्व, मनसा कर्मणा गिरा ॥ में प्रदान किये (वायु. ६२.१४७; ब्रह्मांड २.३६.१७२, प्रालयिष्याम्यहं भौम, ब्रह्म इत्येव चासकृत् "। ब्रह्म. ४.६७; पद्म भू. १६.२८; अग्नि. १८.८५; वा. रा. [ मैं नियत-धर्म को निर्भयता के साथ आचरण बा. ३५.५-३५, कूर्म. पू. १.६; शिव. वाय. ५६.३०में लाऊँगा । अपनी रुचि तथा अभिरुचि को महत्त्व न ५६.३०-३१)। देकर समस्त प्राणियों के साथ समता का व्यवहार करूँगा। काफी समय तक राज्य करने के उपरांत पृथु को वन में, काम, क्रोध, लोभ और मान को छोड़कर धर्मच्युत | में जाने की इच्छा हुयी। और यह अपनी पत्नी अर्चि व्यक्तियों को शाश्वत धर्म के अनुसार दण्ड दूँगा। को साथ लेकर वन गया। वन में इसकी मृत्यु हो गयी ___ मैं 'मनसा वाचा कर्मणा ' बार बार प्रतिज्ञा करता हूँ | और इसके साथ इसकी पत्नी भी सती हो गयी (भा. कि प्रजाजन को भौमब्रह्म समझकर उसका पालन करूँगा | ४.२३)। (म. शां. ५९. १०९-११६)।] | पुत्र-भागवत के अनुसार पृथु को कुल पाँच पुत्र थे, हो। Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृथु जिनके नाम इस प्रकार थे : - विजिताश्व ( अन्तर्धान ), धूम्रकेश, हर्यश, द्रविण एवं वृक ( मा. ४.२२.५४) । विष्णु के अनुसार, इसके अंतधिं तथा पालित नामक दो पुत्र ( विष्णु. १.१४.१ ) । थे पृथुवंश -- पृथुवंश की जानकारी ब्रह्मांड पुराण में दी गयी है (२.३७.२२-४२) । पृथु के पुत्र का नाम अंतर्धान बन्या का नाम शिखण्डिनी था, जिसके पुत्र । का नाम हविर्धन था । हविर्धान को आग्नेयी धिषणा नामक पत्नी से कुछ पुत्र हुए, जिनके नाम निम्न लिखित है:- प्राचीनवर्हिष, शुक्ल, गय कृष्ण, प्रज, अजित इनमें से प्राचीनवहिंप का विवाह समुद्रतनया सबसे हुआ, जिससे उसे दस प्रचेतस् उत्पन्न हुए । प्रचेतसों का विवाह वृक्षकन्या मारिषा से हुआ जिससे उन्हें दक्ष प्रजापति नामक पुत्र उत्पन्न हुआ । पृथु वंश में पृथु से लेकर दक्ष प्रजापति तक की संतति ' अयोनिज' सन्तति कहलाती है । दक्ष प्रजापति के पश्चात मैथुनज सन्तति का आरम्भ हुआ । प्राचीन चरित्रकोश --- पृथुक - रैवत मन्वंतर का देवगण । इस गण में निम्नलिखित आठ देवता सम्मिलित हैं :- अजित, ओजिष्ठ जिगीषु, वानहष्ट, विजय, शकुन, सत्कृत और सत्यदृष्टि ( ब्रह्मांड. २.२६.७३ ) | पृथुकर्मन (सो. को) एक राजा विष्णु के अनुसार यह शशबिन्दु का पुत्र था । पृथुकीर्ति (सो. फ्रो.) एक राजा मत्स्य, विष्णु तथा वायु के अनुसार, यह शशबिन्दु राजा का पुत्र था । २. शूर राजा की कन्या श्रुतदेवा का नामांतर पृथुग - चाक्षुष मन्वंतर का देवगण | पृथुगश्व एक राजा, जो यम सभा में उपस्थित था। इसके नाम के लिए 'पृथुलाश्व' पाठभेद भी उपलब्ध है ( म. स. ८.२० ) । 6 - पृथुरोमन । पृथुदातृ ( सो मोहु.) एक राजा । वायु के अनुसार, यह शशविन्दु राजा का पुत्र था। पृथुदान (सो, क्रो) एक राजा विष्णु के । अनुसार, यह शशबिन्दु राजा का पुत्र था । पृथुधर्मन (सो. कोपु.) एक राजा मत्स्य और वायु के अनुसार, यह शशबिन्दु राजा का पुत्र था । पृथुपशु-- ऋग्वेद में निर्दिष्ट मानव जातिसंत्रद्रय (ऋ. ७. ८३. १ ) । लुडविग के अनुसार, आधुनिक पार्थियन एवं पर्शियन लोग ही प्राचीन 'पृवु एवं 'पर्श' लोग होंगे । 6 सायण के अनुसार, 'पृथु ' किसी जाति का नाम न होकर 'पर्श' का विशेषण है, तथा 'पृथुपर्श' नाम से चौड़े कुठार वाले किसी जाति विशेष की ओर संकेत मिलता है। पृथुरश्मि के अनुरोध पर इन्द्र ने इसे क्षात्रविद्या के साथ क्षत्रियों का सामर्थ्य भी प्रदान किया। इसके नाम से 'पार्थरम' नामक साम प्रसिद्ध है, जिसका पठन-पाठन पृथुग्रीव सर राक्षस का एक अमात्य इसे क्षत्रियों का तेज संवर्धित करता है (पं. प्रा. १२.४.१७ 'पृथुध्याम' नामांतर भी प्राप्त है। यति देखिये) । पृथुजय - (सो. क्रोष्टु. ) एक राजा । भागवत के अनुसार यह महाभोज राजा का पुत्र था। विष्णु, मत्स्य, तथा वायु में इसे शशविन्दु का पुत्र कहा गया हैं । पृथुतेजस (सो. क्रो.) एक राजा यह शशनिंदु राजा का नाती था (पद्म. स. १३) । " पृथुदर्भ - ( सो अनु.) शिषि 'ओशीनर के पुष बृहद्गर्भ राजा का नामांतर | पृथुमनस् - - (सो. क्रोष्टु. ) एक राजा । मत्स्य के अनुसार, यह शशबिन्दु राजा का पुत्र था । पृथुयशस् - - (सो. क्रोष्टु. ) एक राजा । भागवत के अनुसार, यह महाभोज राजा का पुत्र था । विष्णु, मत्स्य एवं वायु में इसे शशबिन्दु राजा का पुत्र कहा गया है । पद्म के अनुसार यह शशविन्दु का नावी था ( पद्म. सृ. १३) । पृथुरश्मि -- यति नामक यज्ञविरोधी लोगों में से एक । यति होग यशविरोधी होने के कारण, इंद्र की आज्ञा से लकड़बग्घे के द्वारा मरवा डाले गये। इनमें से बृहद्गिरि, रायोवाज एवं पृथुरश्मि ही बच सके । इन्द्र ने इन तीनों का संरक्षण किया एवं उन्हें क्रमशः ब्रहाविद्या, वैश्यविया एवं क्षत्रियविया सिखायी। ब्रह्मांड पुराण में, पुथुरश्मि के पिता का नाम वरुप्रिन् कहा गया है ( ब्रह्मांड. ३. १.८३ - ८४ ; वरुत्रिन् देखिये) । पृथुरुक्य - - (सो. क्रोष्टु. ) एक राजा । विष्णु एवं पद्म के अनुसार यह परावृत्त राजा का पुत्र था। मत्स्य तथा वायु में इसे रूक्मकवच का पुत्र कहा गया है। पृथुरोमन - - इक्ष्वाकुवंशीय अनेनस् राजा का नामांतर ( पृथु. ६. देखिये) । ४५२ Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृथुलाक्ष प्राचीन चरित्रकोश पृश्निमेधस् पृथुलाक्ष--(सो. अनु.) एक अनुवंशीय राजा, जो | भागवत में इसे रुचिराश्व राजा का नाती एवं पार राजा चतुरंग राजा का पुत्र था। इसके चार पुत्र थे, जिनके नाम बृहद्रथ, बृहत्कर्मन् , बृहद्भानु और चंप थे (भा. ९. | २. (सो. अनु.) मत्स्य के अनुसार अंगराज कर्ण का २३. ११; म. स. ८.९)। पाठभेद (भांडारकर संहिता) | पुत्र (मत्स्य. ४८)। किन्तु अन्यत्र इसका नाम अप्राप्य -'पृथ्वक्ष। पथवक्त्रा--स्कंद की एक अनचरी मातृका (म. श. प्रशिन--सविता नामक आदित्य की पत्नी (भा. ६. ४५.१८)। इसके नाम के लिए 'पृथुवक्षा' एवं | १८१.)। 'पृथुवस्त्रा' पाठभेद उपलब्ध हैं। २. मरुतों की माता। इसे देवी मान कर ऋग्वेद की प्रथवेग--एक राजा, जो यम की सभा में उपस्थित कई ऋचाओं की रचना की गयी है (ऋ.६.४८.२१था (म. स. ८.१२) । पाठभेद (भांडारकर संहिता)- २२)। 'पंचहस्त। ३. स्वयंभुव मन्वंतर के सुतपा प्रजापति की पत्नी । पृथुश्याम--पृथुग्रीव नामक राक्षस का नामांतर। इसीने कृष्णावतार में देवकी के रुप में जन्म लिया था प्रथश्रवस --दक्ष सावाणि मन के पत्रों में से एक । (भा. १.३.३२) । इसके उदर से कृष्ण का जन्म हुआ २. (सो. क्रोष्टु.) एक यादववंशी राजा । विष्णु, था । अतएव कृष्ण को 'पृश्निगर्भ' भी कहा जाता है | (पृश्निगर्भ देखिये)। • मत्स्य और वायु के अनुसार, यह शशबिन्दु राजा का तथा भागवत के अनुसार महाभोज राजा का पुत्र था।। । ४. (सो. वृष्णि.) एक यादव राजा, जो वायु और पद्म में इसे शशबिन्दु राजा का नाती कहा गया है विष्णु के अनुसार, अनमित्र राजा का पुत्र था। इसे (पा. स. १३) . . वृष्णि और वृषभ नामांतर भी प्राप्त थे। .. ३. द्वैतवन में पांडवों के साथ रहनेवाला ऋषि । यह ५. एक प्राचीन महर्षियों का समूह, जिन्होंने द्रोणाचार्य युधिष्ठिर का बड़ा सम्मान करता था (म. व. २७.२२)। के पास आकर उनसे युद्ध बंद करने को कहा था ४. एक राजा, जो पुरुवंशीय राजा अयुतनायी की पत्नी | (म. द्रोण. १६४.८८)। इन्होंने स्वाध्याय के द्वारा स्वर्ग कामा का पिता था (म. आ. ९०.२०)। यह यमसभा प्राप्त किया था (म. शां. परि. १.४.१३)। मैं रहकर यम की उपासना करता था (म. स.८.१२)। पृश्निगर्भ--भगवान् श्रीकृष्ण का नामांतर | श्रीकृष्ण ५. स्कंद का एक सैनिक (म. श. ४४.५७)। की माता देवकी पूर्वजन्म में सुतपा प्रजापति की पत्नी पृश्नि ६. एक नाग, जो बलराम के स्वागतार्थ प्रभासक्षेत्र थीं। उसी का पुत्र होने के कारण कृष्ण को पृश्निगर्भ :: 'मैं.आया था (म. मौ. ५.१४)। कहते हैं । यह त्रेतायुग का उपास्य देव है, जो कि विष्णु . पृथुश्रवस् कानीत--एक उदार दाता, जो वश अश्व्य का अवतार माना जाता है (भा. १०.३.३५, ११.५. नामक ऋषि का आश्रयदाता था (ऋ. ८.४६.२१)। २६)। अश्विनी कुमारों ने इस पर कृपा की थी (ऋ.१.११६. महाभारत के अनुसार,-अन्न, वेद, जल और अमृत २१)। को पृश्नि कहते हैं । ये सारे तत्त्व भगवान् श्रीकृष्ण के पृथुश्रवस् दौरेश्रवस--एक ऋषि, जो सर्पसत्र में गर्भ में रहते हैं, इसलिये उसका नाम पृश्निगर्भ पड़ा। 'उद्गातृ' नामक पुरोहित का काम करता था (पं. बा.| इस नाम के उच्चारण से त्रित मुनि कूप से बाहर हो गये २५.१५.३)। 'दूरेश्रवस्' का वंशज होने के कारण, | थे (म. शां. ३२८.४०)। इसे दौरेश्रवस उपाधि प्राप्त हुयी होगी। पृश्निगु--अश्विनियों के अश्रित राजाओं में से एक पृथषेण-(स्वा. प्रिय.) एक राजा, जो विभु राजा | (ऋ.१.११२.७)। पुरुकुत्स और शुचन्ति राजाओं के का पुत्र था। इसकी स्त्री का नाम आकुति तथा पुत्र का | साथ इसका निर्देश ऋग्वेद में प्राप्त है। नाम नक्त था (भा.५.१५.६)। २. गेल्डनर के अनुसार, एक वैदिक जाति का सामूहिक • पृथुसेन--(सो. अज.) एक राजा। विष्णु, मत्स्य, नाम (क्र.७.१८.१०)। तथा वायु के अनुसार यह रुचिराश्व राजा का पुत्र था।। पृश्निमेधस्--सुमेधस् देवों में से एक । Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृषत प्राचीन चरित्रकोश पृषत--(सो. नील.) उत्तर पांचाल देश का एक पृषध्र--एक राजा, जो वैवस्वत मनु का नवाँ पुत्र था। राजा, जो भरद्वाज ऋषि का मित्र एवं द्रुपद राजा का पिता इसकी माता का नाम संज्ञा था (म. आ. ७०.१४; ह. था (म. आ.१५४.६; ह. वं. १.३२.७९-८०)। विष्णु वं. १.१०.२)। भागवत के अनुसार, इसकी माता और वायु के अनुसार यह, सोमक राजा का पुत्र था। श्रद्धा थी (भा. ९.१.१२)। च्यवन ऋषि का यह भागवत में इसे 'जंतु' राजा का पुत्र कहा गया है। शिष्य था। उत्तर पांचाल देश का राजा सुदास अत्यंत पराक्रमी था, महाभारत के अनुसार यह प्रातःसायंकालीन कीर्तन किन्तु सुदास के पश्चात् पुरु एवं द्विमीढ राजाओं ने उत्तर करने योग्य राजाओं में से एक है. क्योंकि इसको स्मरण पांचाल देश पर आक्रमण कर के उसे जर्जरित कर दिया। करने से धर्म की प्राप्ति होती है (म. अनु. १६५.५८द्विमीढ़ राजा उग्रायुध ने सुदास राजा के नाती एवं पृषत | ६०) इसने कुरुक्षेत्र में तपस्या करके स्वर्ग प्राप्त किया राजा के पितामह सोमक का वध किया, एवं उत्तर पांचाल | था (म. आश्र. २६.११)। का राज्य जीत लिया। इस तरह राज्य से पदच्यत हआ | पृषध्र के कुल दस भाई थे, जिनके नाम इस प्रकार राजकुमार पृषत् दक्षिण पांचाल देश के कांपिल्य नगरी है:-श्राद्धदेव (सौतेला भाई), इक्ष्वाकु, नृग, शांति, में भाग गया। तत्पश्चात् उग्रायुध ने कुरु राज्यपर आक्रमण दिष्ट, धृष्ट, करुषक, वरिष्यन्त, नभग तथा कवि । कई किया किन्तु कुरु राजा भीष्म ने उसे पराजित कर उसका अन्य ग्रन्थों में इसके कई और भाइयों के नाम भी प्राप्त वध किया। है (मनु देखिये)। पश्चात् भीष्म ने पृषत को उत्तर पांचाल देश देकर २. एक ब्राह्मणपुत्र । गुरुगृह में शिक्षा प्राप्त करते पुनः राज्यगद्दी पर बिठाया। हुए, एक दिन इसने एक सिंह को देखा कि वह गाय को . पृषत राजा के पुत्र का नाम द्रुपद था इसी कारण द्रुपद | मुँह में दबाये आश्रम से लिये जा रहा है। गाय की रक्षा .. को पार्षत कहते थे । उत्तर पांचाल देश में गंगाद्वार में के हेतु इसने अपना खड्ग शेर को मारा, पर सायंकाल - भरद्वाज ऋषि का आश्रम था। भरद्वाज पृषत राजा का के समय अंधेरा हो जाने के कारण, वह खड्ग गाय को. मित्र भी था। इसी कारण पृषत् ने अपने पुत्र द्रुपद को | लगा और वह तत्काल मर गयी। दूसरे दिन गुरु को जैसे भरद्वाज ऋषि के यहाँ विद्या अध्यपन के लिये भेजा था। ही यह समाचार ज्ञात हुआ उसने पृषध्र को उत्पाति तथा भरद्वाजपुत्र द्रोण एवं द्रुपद में पहले बडी मित्रता थी।। उद्दण्ड समझकर तत्काल शाप दिया, 'तू शूद्र हो जा'। पर बाद में दोनों एक दूसरे के कट्टर शत्रु बन गये। इस शाप के कारण, यह शूद्र होकर वन वन भटकता अपने शिष्य अर्जुन की सहायता से द्रोण ने उत्तर हुआ अन्त में दावानल से घिरकर मृत्यु को प्राप्त हुआ पांचाल का राज्य द्रुपद से जीत लिया एवं उसे दक्षिण (भा. ९.२.२-१४, ह. वं. १.११, वायु, ८६.२४.२, पांचाल देश की ओर भगा दिया। (द्रुपद देखिये; ह. ब्रह्मांड. ३.६१.२, ब्रह्म. ७.४३ लिंग. १.६६.५२, मत्स्य. , वं. १.२०७४-७५, म. आ. १२८१५)। १२.२५; अग्नि. २७२.१८; विष्णु..४.१.१३; गरुड. पृषदश्व--(सू. नाभाग.) एक राजा । भागवत, विष्णु | १.१३८.५, पन. स. २)। तथा ब्रह्मांड के अनुसार यह विरूप राजा का पुत्र था। ३. द्रुपद का एक पुत्र, जो भारतीय युद्ध में अश्वत्थामा इसके पुत्र का नाम रथीवर था। अंगिरस ऋषि की सेवा | की सेवा द्वारा मारा गया था (म. द्रो. १६१.१२९)। करने के कारण इसने ब्राह्मणपद प्राप्त किया एवं. यह पृषध्र काण्व-एक वैदिक सूक्तदृष्टा (ऋ. ८.५९)। अंगिरस गोत्र का मंत्रकार हुआ। पाठभेद (भांडारकर ऋग्वेद के बालखिल्य सूक्त में मी इसका निर्देश प्राप्त है। संहिता)-- ‘रुपदश्व। वहाँ मेध्य एवं मातरिश्वन के साथ इसका उल्लेख आया २. (सू. इ.) एक राजा। विष्णु के अनुसार यह है (ऋ. ८.५२.२)। अनरण्य राजा का पुत्र था। वायु में इसे त्रसदश्व कहा पृषध्र मध्य मातरिश्चन्--एक वैदिक राजा, जो गया है। प्रकण्व का प्रतिपालक था (सां. श्री. १६.११.२५-२७)। ३. यम की सभा का एक क्षत्रिय राजा (म. स. ८. पृष्टध्र-वायु के अनुसार, व्यास की सामशिष्य १३)। इसे अष्टक राजा के द्वारा खड्ग की प्राप्त हुयी परंपरा में हिरण्यनाभ ऋषि का एक शिष्य। . थी (म. शां. १६०.७९)। । पेदु-एक वैदिक राजा, जो अश्विनियों का. आश्रित ४५४ Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन चरित्रकोश पैठीनसि था (ऋ. १११७.९, ११८.९,११९.१०:१०.३९.१०) के ब्रह्मयज्ञांगतर्पण में इसका उल्लेख है। पौर्णिमा इष्टि एक निकृष्ट अश्व को बदलने के लिए अश्विनियों ने इसे | तथा आमवास्या इष्टि के विषय में पैंग्य तथा कौषीतकि के एक प्रथित अश्व प्रदान किया था। इसीलिये उस अश्व | मतों में विभिन्नता है (ऐ. बा.७.१०)। को 'पैद' कहा गया है (ऋ. ९. ८८. ४. अ. वे. १०. निदानसूत्र एवं अनुपदसूत्रों में इसके अनुगामियोंको . ४.५) । मैकडोनेल के अनुसार, 'पैद' अश्व सम्भवतः | 'पैंगिन' कहा गया है (निदा. ४.७; अनु. १.८)। सूर्य के अश्व का ही प्रतिनिधित्व करता है (वैदिक माइ- | इसके शिष्यों में चूड भागवित्ति प्रमुख था। थॉलॉजी पृ. ५२)। ग्रन्थः- पैंग्य के नाम से निम्न लिखित ग्रन्थ प्राप्त है:पेरुक-एक वैदिक राजा, जो भरद्वाज का आश्रयदाता | १. पैंग्यायन (नि) ब्राह्मण, जिसका निर्देश बौधायन था। भरद्वाज ने इससे धन प्राप्त किया था (ऋ. ६. ६३. | श्रौतसूत्र में किया गया है (बौ. श्री. २.७; आ. श्री. ५. १५.८;); २. पैंगलीकल्प, जिसका निर्देश जैन पैंगलायनि-भृगुकुलोत्पन्न एक ऋषि । 'पिंगल' के शाकटायन की 'चिन्तामणिवृत्ति' में किया गया है (चिंतामणि. ३. १.७५); ३. पैंगलोपनिषद, ४. पैंगिवंश में उत्पन्न होने के कारण, इसे 'पैंगलायनि' नाम | रहास्य ब्राह्मण ५. पैंग्य स्मृति प्राप्त हुआ। . .. २ एक ऋषि, जो युधिष्ठिर की सभा में उपस्थित था - पैगि-यास्क का पैतृक नाम (बेवर : इन्डिशे (म.स. ४.१५ )। पाठभेद (भांडारकर संहिता)-'पैंग' स्टूडियन. १.७१)। पैज-एक ऋषि, जो भागवत के अनुसार व्यास की पेंगीपत्र--एक ऋषि, जो शौनकीपुत्र का शिष्य था | ऋकशिष्य परंपरा के जातूकर्ण्य ऋषि का शिष्य था (वृ. उ. ६.४.३०, माध्य.)। 'पिंग' के किसी स्त्री (व्यास देखिये)। वंशज का पुत्र होने के कारण ही, सम्भव है इसे 'पैंगी पैजवन-सुदास राजा का पैतृक नाम। पिजवन का : पुत्र' नाम प्राप्त हुआ हो। . पुत्र या पिजवन का वंशज, उन दोनों अर्थ से 'पैजवन' पैंग्य--एक तत्त्वज्ञ जो कौषीतकियों से सम्बद्ध ऋग्वेदिक | उपाधि प्रयुक्त हो सकती है। संभवतः दिवोदास एवं सुदास . परम्परा का गुरु, एवं याज्ञवल्क्य का शिष्य था (बृ. उ. ३. | के बीच में उत्पन्न कोई राजा का नाम पिजवन हो। . ७.११)। एक अधिकारी विद्वान् के रूप में, 'कौषीतकि | गेल्डनर के अनुसार, 'पैजवन' दिवोदास राजा की . ब्राह्मण' में अनेक बार इसका उल्लेख आया है (को. ब्रा. | उपाधि थी, एवं दिवोदास सुदास राजा का पिता था ८.९, १६.९) । 'कौषीतकि उपनिषद्' में इसे आचार्य | (ऋग्वेद ग्लॉसरी. ११५)। ..कहा गया है (कौ. उ. २. २.१)। आपस्तंब श्रौतसूत्र २. एक शुद्र, जिसने वेदों का अधिकार न होने के में इसका उल्लेख 'पैंगायणी' नाम से किया गया है। कारण, 'ऐंद्राग्न' विधि से मंत्रहीन यज्ञ कर के, उसकी (आ. श्री. ५.१५.८)। दक्षणा के रूप में एक लाख पूर्णपात्र दान किये थे (म. __शतपथ ब्राह्मण में, इसका नाम मधुक दिया गया है | शां. ६०.३४-३८)। __ एवं पैंग्य इसका पैतृक नाम बताया गया है (श. ब्रा. पैठक-एक असुर, जिसका श्रीकृष्ण ने वध किया १२.२.२.४; ११.७.२.८)। 'पैंग्य' शब्द से एक | था (म. स. परि. १.२१.१५८२)। व्यक्ति को बोध होता है अथवा अनेक का, यह कहना | पैठीनसि--एक स्मृतिकार एवं 'पैठनसि धर्मसूत्र' असम्भव है। नामक ग्रंथ का कतो । यद्यपि याज्ञवल्क्य स्मृति में इसका - इसके सिद्धान्त को पेंग्य-मत कहते ह (को. ब्रा ३. १. | उल्लेख प्राप्त नहीं है, फिर भी यह काफी प्राचीनकालीन १९.९)। प्रवर्तन के समान, यह भी प्राण को ब्रह्म | रहा होगा। माननेवाला था। काशिकाकार ने प्राचीन कल्पों की श्रेणी धर्मशास्त्रांतर्गत श्राद्धसंबंधी इसके द्वारा दी बहुत में पैगी तथा अरूणपराजी और नवीन कल्पों की श्रेणी में | सारी विधियाँ अथर्ववेद से मिलती जुलती है। अतः अश्मरथ को उद्धृत किया है। सांख्यायन ब्राह्मण में यह संभवतः अथर्ववेद परंपरा का रहा होगा। अनेक स्थानों पर यज्ञकर्मों में इसके मतों को स्वीकार 'स्मृतिचंद्रिका,' 'अपरार्क,' 'मिताक्षरा,' एवं किया गया है (सां. बा. २६.४)। आश्वलायन गृह्यसूत्र | अन्य कई में ग्रंथों में इसके मतों के उद्धरण प्राप्त है। . ४५५ Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पैठीनास प्राचीन चरित्रकोश पौंड्रक वासुदेव पैठीनसी-भरद्वाज ऋषि की पत्नी (ब्रह्म. १३३.२) ३. पौंड देश के निवासियों के लिये प्रयुक्त एक पैप्पल--कश्यप कुलोत्पन्न एक गोत्रकार । सामूहिक नाम मांधाता के राज्य में जो निवास करते थे २. वसिष्ठकुलोत्पन्न एक गोत्रकार । (म. शां. ६५.१४)। ये लोग पहले क्षत्रिय थे, किन्तु पैल--अंगिराकुल का एक गोत्रकार । ब्राह्मणों के क्रोधसे शूद्र हो गये (म. अनु. ३५.१७-१८)। २. एक ऋषि, जो पिली ऋषि का वंशज एवं भृगु- इन लोगों को श्रीकृष्ण ने पराजित किया था। (म. • कुलोत्पन्न गोत्रकार था (म. आ. ५७.७४)। स. परि. १.२१.१५६३) युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में भी ३. एक ऋषि, जो कृष्ण द्वैपायन व्यास का शिष्य था। ये लोग उपस्थित थे (म. व. ४८.१८)। इसको व्यास ने संपूर्ण वेदों का एवं महाभारत का भारतीय युद्ध में ये लोग, युधिष्ठिर की ओर से क्रौंच अध्ययन कराया था (म. आ. ५७.७४)। व्यासने इसे | व्यूह में शामिल थे (म. भी. ४६.४९)। अंत में कर्ण ब्रह्मांडपुराण भी सिखाया था (ब्रह्मांड. १.१.१४)। ने इन को पराजित किया था (म. द्रो. ३२०)। यह वसु ऋषि का पुत्र था, एवं युधिष्ठिर के राजसूय | पौंड्रक--धर्मसावणि मनु के पुत्रों में से एक । यज्ञ में धौम्य ऋषि के साथ यह 'होता' बना था (भा. २. कुंभकर्ण का नाती एवं, कुंभकर्णपुत्र निकुंभ का पुत्र। १.४.२१, १२.६.५२)। शरशय्या पर पड़े हुए भीष्म | राम रावण युद्ध के समय निकुंभ की पनि गर्भवती होने के पास, अन्य ऋषियों के साथ यह भी आया था। के कारण, नैहर गयी थी। इस युद्ध में हनुमानजी ने (म. शां. ४७.६५७)। निकुंभ का वध किया था। तत्पश्चात उसकी पत्नी ने. इस के शिष्यों में, इंद्रप्रमति एवं बाष्कल प्रमुख थे। पौंड़क नामक पुत्र को जन्म दिया। • (व्यास देखिये)। आनंद रामायण के अनुसार, इसने मायापुरी का राजा ४. एक ऋषि, जो ब्रह्मांड के अनुसार, व्यास की | शतमुखी रावण की सहायता से विभिषण को राज्यभ्रष्ट ऋशिष्य परंपरा के शाकवैण रथीतर ऋषि का शिष्य था। | करने का व्यूह रचा था। किंतु राम ने इसे पकड़ कर ५. 'भास्कर संहिता' के अंतर्गत 'निदानतंत्र' | विभीषण के हवाले कर दिया, एवं रावण का वध किया ग्रंथ का कर्ता (ब्रह्मवै. २.१६)। (आ. रा. राज्य. ५)। ६. वासुकिकुल एक नाग, जो जनमेजय के सर्पसत्र में । पौड़क मत्स्यक--एक क्षत्रिय राजा, जो दनायु के जल कर मारा गया था (म. आ. ५२.५)। बलवीर नामक दैत्यपुत्र के अंश से उत्पन्न हुआ था (म. पैलगाये-एक ऋषि, जिसके आश्रम पर काशिराज आ. ६१.४१ ) । भारतीय युद्ध में यह दुर्योधन के पक्ष में की कन्या अंबा ने तपस्या की थी (म. उ. १८७.२७)। शामिल था। पैलमौलि--कश्यपकुल एक गोत्रकार। पौंड्रक वासुदेव-पुंड, करूष, एवं वंग देशों का राजा पोतक-कश्यपवंश का एक नाग (म. उ. १०१ जो जरासंध के पक्ष में शामिल था (म. स. १३.१९)। पोष्ट--अमिताभ देवो में से एक इसके पिता का नाम वसुदेव था (म. आ. १७७. १२)। पुंड देश का राजा होने से इसे पौंड्रक कहते थे। पौंस्यायन--संजय राजा दुष्टरीतु का पैतृक नाम (श. कृष्ण वसुदेव से विभिन्नता दर्शाने के लिये इसका पौंड्रक ब्रा. १२.९.३.१)। वासुदेव नाम प्रचलित हुआ था। चेदि देश में यह पीडव--वसिष्ठकुल का एक गोत्रकार । इसके नाम | पुरुषोत्तम' नाम से विख्यात था। यह द्रौपदीस्वयंवर के लिये 'खांडव' पाठभेद उपलब्ध है। में उपस्थित था (म. आ. १७७.१२)। पौंडरिक--इक्ष्वाकु राजा क्षेमधृत्वन् (क्षेमधन्वन्)। कौशिकी नदी की तट पर किरात, वंग, एवं पुंड्र देशों का पैतृक नाम (पं. बा. २२.१८.७)। पर इसका खामित्व था । यह मुर्ख एवं अविचारी था। पौंड्र--करुष राजा पौंड्रक वासुदेव का नामांतर (भा. इस कारण यह स्वयं को परमात्मा वासुदेव कहलाने लगा, ११.५.४८)। एवं भगवान कृष्ण का वेष परिधान करने लगा। युधिष्ठिर २. नंदिनी गौ के पार्थभाग से प्रकट हुयी एक म्लेच्छ | के राजसूय यज्ञ के समय, इसने उसे करभार दे कर युधिष्ठिर जाति (म. आ. १६५.३६) । इनके लिये 'पुंड्र' | का एवं भगवान् कृष्ण का सार्वभौमत्व मान्य किया था पाठभेद प्राप्त है। । (म. स. २७.२०.२९२)। फिर भी इस युद्ध के पश्चात् Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पौंड्रक वासुदेव प्राचीन चरित्रकोश पौरव बडी उन्मत्तता से भगवान कृष्ण को इसने संदेशा भेजा, | पौति मत्स्यक-एक राजा, जिसे भारतीय युद्ध में 'पृथ्वी के समस्त लोगों पर अनुग्रह कर उनका उद्धार | पांडवो की ओर से रणनिमंत्रण भेजा गया था (म. उ. करने के लिये, मैंने वासुदेव नाम से अवतार लिया है।। ४. १७)। भगवान् वासुदेव का नाम एवं वेषधारण करने का पौतिमाषीपूत्र-काण्वशाखा के बृहदारण्यक उपनिषद अधिकार केवल मेरा है। इन चिह्नोंपर तेरा कोई भी में निर्दिष्ट एक आचार्य (बृ. उ. ६.५.१)। संभवतः यह अधिकार नहीं है। तुम इन चिह्नों को एवं नाम को | 'पूतिमाष' के किसी स्त्रीवंशज का पुत्र होगा। इसके तुरन्त ही छोड़ दो, वरना युद्ध के लिये तैयार हो जाओ।' गुरु का नाम कात्यायनीपुत्र था। इसकी यह उन्मत्त वाणी सुनकर, कृष्ण अत्यंत क्रुद्ध | पौतिमाष्य--काण्व शाखा के बृहदारण्यक उपनिषद हआ, एवं उसने इसे प्रत्युत्तर भेजा, 'तेरा संपूर्ण विनाश | में निर्दिष्ट एक आचार्य (बृ. उ. २.६.१, ४.६.१ )। करके, मैं तेरे सारे गर्व का परिहार शीघ्र ही करुंगा'। संभवतः यह 'पूतिमाष' का पुत्र या वंशज होगा। इसके यह सुनकर, पौंड्रक कृष्ण के विरुद्ध युद्ध की तैयारी | गुरु का नाम गौपवन था। शुरू करने लगा। अपने मित्र काशीराज की सहायता प्राप्त पौतिमाष्यायण-एक आचार्य, जो कौडिन्यायन करने के लिये यह. काशीनगर गया। यह सुनते ही | एवं रैभ्य नामक आचार्यों का गुरु था। संभवतः यह कृष्ण ने ससैन्य काशिदेश पर आक्रमण किया। कृष्ण | 'पौतिमाष्य' का वंशज होगा। आक्रमण कर रहा है यह देखकर, पौंड्रक स्वयं दो | पौत्रायण-एक उदार दाता, जिसका पैतृक नाम अक्षौहिणी सेना लेकर बाहर निकला। काशिराज भी | जानश्रुति था (छां. उ. ४.१.१; जानश्रुति देखिये)। तीन अक्षौहिणी सेना लेकर इसकी सहायता करने पौत्रि--अत्रिकुल का एक प्रवर । आया । युद्ध के समय पौंड्रक ने शंख, चक्र, गदा, शाङ्ग धनुष, वनमाला, रेशमी पीतांबर, उत्तरीय वस्त्र, मौल्यवान् । पौर--एक पूरु राजा, जिसकी सहायता इंद्र ने की आभूषण आदि धारण किया था, एवं यह गरुड़ पर थी। रुम एवं रुशम राजाओं के साथ, ऋग्वेद में इसका . आरूढ था। इस नाटकीय ढंग से, युद्धभूमि में प्रविष्ट भी निर्देश प्राप्त है (ऋ. ८.१३.१२)। सिकंदर का हुए इस 'नकली कृष्ण' को देखकर भगवान कृष्ण को | प्रतिद्वंदी राजा पौरव (पूरोस) संभवतः यही होगा (ऋ अत्यंत हँसी आयी। पश्चात् इसका एवं इसके परिवार के | ५.७४.४)। लोगों का वध कर, कृष्ण द्वारका नगरी वापस गया । । २. भृगुकुलोत्पन्न एक गोत्रकार। काशिपति के पुत्र सुदक्षिण ने अभिचार से कृष्णपर हमला | ३. (सो. पूरु.) एक पूरुवंशीय राजा, जो मत्स्य के किया, जिसे कृष्ण ने पराजित किया ( भा. १०.६६)। | अनुसार, पृथुसेन राजा का पुत्र था। पद्मपुराण के अनुसार, पौंड्रक वासुदेव एवं इसके मित्र | पौर आत्रेय-एक वैदिक सूक्तद्रष्टा (ऋ. ५.७३काशिराज, दोनों एक ही व्यक्ति थे, एवं इसका और कृष्ण | ४७)। का युद्ध द्वारका नगरी में संपन्न हुआ था। इसने शंकर की | पौरव-एक राजा. जो शरभ नामक दैत्य के अंश से घोर तपस्या कर, वरदान प्राप्त किया था, 'तुम कृष्ण | उत्पन्न हुआ था (म. आ. ६१.२८)। इसका सही नाम के समान होगे' । युद्ध में कृष्ण ने इसका शिरच्छेद किया, | 'विष्वगश्व' एवं कुलनाम पौरव था। यह पर्वतीय देश एवं इसका सर काशी नगरी की ओर झोंक दिया। का राजा था, एवं युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ के समय, दण्डपाणि नामक इसक पुत्र न एक कृत्या कृष्ण पर छाड़ | अर्जुनद्वारा पराजित हुआ था (म. स. २४.१३)। दी। कृष्ण ने अपने सुदर्शनचक्र के द्वारा उस कृत्या एवं | भारतीय युद्ध में, एक महारथि के नाते, यह दुर्योधन दण्डपाणि का वध किया, एवं काशीनगरी को जला कर के पक्ष में शामिल था (म. उ. १६४.१९)। चेदिराज भस्म कर दिया (पद्म. उ. २७८)। धृष्टकेतु के साथ इसका द्वंद्वयुद्ध हुआ था (म. भी. ११२. पौतऋत-ऋग्वेद में निर्दिष्ट दस्यवें वृक राजा | १५)। पश्चात् इसका अभिमन्यु के साथ युद्ध हुआ, नामान्तर। दस्यवे वृक की माता का नाम संभवतः | जिसमें अभिमन्यु ने इसके केश पकड़कर इसे घसीटा था पूतकता था, इस कारण इसे यह नाम प्राप्त हुआ हो (म. क. ४.३५)। इसके पुत्र का नाम दमन था (म. (क्र. ८.५६.१) । पृषध्र के सूक्त में इसका निर्देश प्राप्त है। भी. ५७.२० । प्रा. च. ५८] ४५७ Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पौरव प्राचीन चरित्रकोश पौलोमी २. पूरुकुल का दानवीर राजा, जिसका निर्देश महा- पौलकायनि--अंगिराकुलोत्पन्न एक गोत्रकार। भारत में 'षोडष-राजकीय' उपाख्यान में किया गया । पौलस्त्य--पुलस्त्य ऋषि के पुत्र विश्रवस् ऋषि का । है (म. द्रो. परि. १, क्र.८; पंबित ३८४)। सुंजयराजा पैतृक नाम (१ पुलस्त्य देखिये)। के अश्वमेध में, नारद ने इसका जीवनचरित्र कथन । २. पुलस्त्यकुल के राक्षस, जो दुर्योधन के भाइयों के किया था। रूप में पुनः उत्पन्न हुए थे (म. आ. ६१.८२)। ३. पांडवों के पक्ष का एक राजा, जिसका अश्वत्थामा ने ३. भृगुकुलोत्पन्न एक गोत्रकार। रथशक्ति फेंक कर वध किया था (म. द्रो. १७१-६४)।। ४. अगस्त्यकुलोत्पन्न एक गोत्रकार । ४. विश्वामित्र के ब्रह्मवादी पुत्रों में से एक (म. अ. के ब्रह्मवादा पुत्रा म स एक (म. अ. ५. भौत्य मनु के पुत्रों में से एक । ४.५५)। पौलह-नक्षसावर्णि मन्वंतर के सप्तर्षियों में से एक । पौरवक--एक क्षत्रियजाति, जिसके लोग युधिष्ठिर के साथ क्रौंचव्यूह में खडे थे (म. भी. ४६.४७)। २. अगस्त्यकुलोत्पन्न एक गोत्रकार, जो पुलह का दत्तक पौरची--- युधिष्ठिर की पत्नी, जिससे इसे देवक नामक ! पुत्र दृढ़ास्यु के वंश में उत्पन्न हुआ था (२ पुलह देखिये)। पुत्र हुआ था (भा. ९.२२.३०)। ३. पुलहकुल के राक्षस । २. वसुदेव की स्त्रियों में से एक (पश्न. स. १३)। पौलि-वसिष्ठकुल का एक गोत्रकार। इसके निम्नलिखित पुत्र थे:-सुभद्र, भद्रवाह, दुमद, एवं पौलषि-सत्ययज्ञ नामक आचार्य का पैतृकनाम । भद्र (मा. १२.११.३५)। | (श. ब्रा. १०.६.१.१)। 'पुलुष' का वंशज होने के पौरा--गाधि की माता पौरुकुत्सा का नामांतर (ब्रह्म. कारण, इसे यह नाम प्राप्त हुआ होगा। जैमिनीय उप१०.२८; पौरुकुत्सा देखिये)। निषद् ब्राह्मण में 'पौलुषित' पाठभेद प्रात है (जै. उ. . पौरिक--पुरिका नगरी का एक राजा, जिसे पाप के ब्रा. १.३९.१)। कारण सियार की योनि में जन्म प्राप्त हुआ था (म. पौलोम-पुलोमा नामक देव्यकन्या के पुत्रों के शां. १२२.३-५)। लिये प्रयुक्त सामुहिक नाम (२ पुलोमा देखिये)। पौरुकुत्स-अंगिराकुल का मंत्रकार । ये हिरण्यपुर नामक नगरी के स्वामी थे (म. व. २. पूरुराजा त्रसदस्यु का पैतृक नाम । १७०.१२-६३; भा. ६.६.३५)। ब्रह्माजी ने इनकी पौरुकुत्सा-कान्यकुब्ज देश के गाधि राजा की माता माता पुलोमा को दिये वर के कारण, ये अत्यंत उन्मत्त (रेणुका. ७)। इसे पौरा नामांतर भी प्राप्त है। हो गये थे । फिर अर्जुन ने इनके साथ युद्ध कर, इनका पौरुकुत्सि--पूरुराजा त्रसदरयु का पैतृक नाम । संहार किया (म. स. १६९; पहा. स.६:२ निवातकवच पौरुकुन्स्य--पूरूराजा त्रसदस्यु का पैतृक नाम। देखिये। पौरुशिष्टि--तपोनित्य नामक आचार्य का पैतृक नाम २. दक्षिण समुद्र के समीप स्थित पौलोमतीर्थ' में (त. उ. १.९.१; तै. आ. ७.८.१) । पुरुशिष्ट का वंशज ग्राह बन कर रहनेवाली एक अप्सरा । इसका एवं इसके होने के कारण, इसे यह नाम प्राप्त हुआ होगा। वर्गा नामक सखी का अर्जुन ने उद्धार किया था (म. आ. पौरुषेय-ज्येष्ठ माह में सूर्य के साथ घूमनेवाला एक २०८.३ )। राक्षस (भा. १२.११.३५)। पौलोमी-वारुणि भृगु ऋषि की पत्नी पुलोमा का २. यातुधान राक्षस का पुत्र । इसे निम्नलिखित पुत्र नामांतर (विष्णु. ७.३२, पुलोमा देखिये)। इसे भृगु थ:- ऋर, विकृत, रुधिराद, मेदाश एवं वपाश (ब्रह्मांड. ऋषि से च्यवन नामक पुत्र उत्पन्न हुआ था (ब्रह्मांड, ३. ३.७.९४)। १.७४-१००; भृगु देखिये)। पौर्णिमास-अगस्य कल का गोत्रकार । ___२. पुलोमा नामक असुर की कन्या, जिसे 'शची' २. (आंध्र. भविष्य) आंध्रवंशीय पूर्णोसंग राजा का नामांतर भी प्राप्त है (शची देखिये)। शची पौलोमी का नामांतर(पूर्णोत्संग देखिये)। निर्देश एक ऋग्वेद सूक्त की द्रष्टीके रूप में प्राप्त है (ऋ. पौर्णिमागतिक--भृगुकुल का गोत्रकार 'पुर्णिमा- १०.१५९)। यह देवराज इंद्र की पत्नी थी, जिससे इसे गतिक' के लिये प्रयुक्त पाठभेद । | जयंत नामक पुत्र उत्पन्न हुआ (म. आ. १०६.४)। Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पौ अध्यात्म रामायण में, इसे पुलोम असुर की कन्या • कहा गया है ( अध्या. रा. अयो. १.१५ ) । भागवत के अनुसार, यह द्वादश आदित्यों में से शक नामक आदित्य की पत्नी थी, जिससे इसे जयंत, ऋषभ एवं मीढुष नामक पुत्र उत्पन्न हुए थे ( भा. ६.१८.७ ) । पौषाजिति — अंगिराकुलोत्पन्न एक गोत्रकार एवं ऋषि । इसके नाम के लिये ‘पौषजिति' एवं 'पाष्याजिति' पाठभेद उपलब्ध हैं। प्राचीन चरित्रकोश पौष्करसादि—सांख्यायन आरण्यक में निर्दिष्ट एक गुरु एवं आचार्य (सां. आ. ७.१७; आप. ध. १.६.१९. ७; १०.२८.१)। संभवतः यह किसी 'पुष्करसादि ' का वंशज रहा होगा। उपनयन के बाद, उसी दिन गायत्री मंत्र का उपदेश ‘उपनीत ' बालक को करना चाहिये, ऐसा इसका मत था (सां. आ. ७.१७ )। तदनुसार गायत्रीमंत्र का उपदेश आज भी किया जाता है। तैत्तिरीय प्रातिशाख्य में, एक वैय्याकरण के नाते पौष्करादि का निर्देश प्राप्त है ( तै. प्रा. ५.३७-३८ पा. सू. वार्तिक. ८.४.४८ ) । संभवतः धर्मशास्त्रकार एवं वैय्याकरण पौष्करसादि दोनों एक ही होंगे। पौष्टी - पूरु राजा की पत्नी, जिसे पूरुद्वारा प्रवीर, ईश्वर एवं रौद्राश्व नामक तीन पुत्र उत्पन्न हुए थे (म. आ. ८९.४) । पूर राजा की कौसल्या नामक और एक पत्नी भी थी । किंतु महाभारत में एक स्थान पर प्राप्त निर्देश के अनुसार, 1. पौष्टी का ही नामांतर कौसल्या था ( म. आ. ९०.११ ) । पौष्णायन - भृगुकुलोत्पन्न एक गोत्रकार । पौपिण्डय - सामविधान ब्राह्मण में निर्दिष्ट एक गुरु एवं आचार्य, जो जैमिनि का शिष्य था ( वेबर, इन्डिशे स्टूडियेन, ४.२७७ ) । व्यास की सामशिष्यपरंपरा का सुविख्यात आचार्य 'पौप्यंजि' अथवा 'पौष्पिजि संभवतः यही होगा (पौष्यंजि देखिये) । प्रगाथ घौर था। इसकी तीन स्त्रियाँ होते हुए भी इसे एक भी पुत्र न था। आगे चल कर शंकर की कृपा से इसे चंद्रशेखर नामक एक पुत्र हुआ । इसकी राजधानी दृषद्वती नदी के किनारे ब्रह्मावर्त के समीप स्थित करवीर नगरी में थी ( कालि. ४९ ) । पौष्यंजि - एक आचार्य, जो व्यास की सामशिष्य परंपरा के सुकर्मन् जैमिनि का शिष्य था । इसे 'पौपिजि ' एवं ' पौष्पिंड्य ' नामांतर भी प्राप्त हैं। यह सामवेदी श्रुतर्षि था । सुकर्मन् जैमिनि नामक सुविख्यात आचार्य के ' पौष्यजि ' एवं ' हिरण्यनाभ कौसल्य' ये दो प्रमुख शिष्य थे । उनमें से पौष्यंजि ने सामवेद की पांचसो संहिताएँ बनायी, एवं वे अपने लागाक्षि ( लोकाक्षि ), कुथुमि, कुशुमिन्, एवं लांगलि नामक चार शिष्यों को सिखायीं। आगे चल कर उसी चार शिष्यों से सामवेद की परंपरा का निर्माण हुआ ( व्यास देखिये ) । इसके निर्माण किये, सामदेवपरंपरा को सामवेद की 'उदीच्या शाखा ' कहते है । ब्रह्मांड के अनुसार, इसने याज्ञवल्क्य को योगविद्या सिखाई थी। पौप्यायन -- भृगुकुल का एक गोत्रकार । प्रकालन - - वासुकिलकुल का एक नाग, जो जनमेजय के सर्पसत्र में जलकर मारा गया ( म. आ. ५२.५)। प्रकाश -- एक भृगुवंशी ब्राह्मण, जो गृत्समदवंशीय 'तम' नामक ऋषि का पुत्र था ( म. अनु. ३०.६३ ) । प्रकाशक -- रैवत मनु के पुत्रों में से एक । प्रकृति -- रैवत मन्वंतर का एक देवगण । प्रगाथ काण्व -- एक वैदिक मंत्रद्रष्टा, जो 'प्रगाथ नामक मंत्रो का प्रणेता था (ऋ. ८.१.१ - २; ऐ. आ. २. २.२)। " ऋग्वेदांतर्गत एक मिश्र जाति के छंद का नाम 'प्रगाथ । उस छन्द में निबद्ध मंत्रों की रचना करने के कारण, इसे यह नाम प्राप्त हुआ । ऋग्वेदानुक्रमणिका के अनुसार, यह दुर्गह राजा का समकालीन था । आश्वलायन के ब्रह्मयज्ञांग तर्पण में इसका निर्देश प्राप्त है । प्रगाथ घौर - घोर आंगिरस ऋषि के दो पुत्रों में से एक । इसके भाई का नाम कण्व था । एक बार इस कण्व की पत्नी से छेड़छाड़ की। इस कारण, कण्व इस पर कुद्ध हुआ, एवं इसको शाप देने लगा । फिर इसने उससे एवं उसकी पत्नी की क्षमा माँगी ( कण्व १. देखिये) । पौप्य – इक्ष्वाकुवंशीय राजा पुष्यपुत्र ध्रुवसंधि का नामांतर | आचार्य वेद इसका पुरोहित था । इसकी पत्नी ने अपने दिव्य कुंडल उत्तक ऋषि को प्रदान किये थे ( म. आ. ३.८५ ) । पश्चात् इसका एवं उत्तऋषि का झगड़ा हो गया, जिस कारण, इसने उसे 'अनपत्य' होने का शाप दिया । उत्तंक ने भी इसे अंधा होने का प्रतिशाप दिया (म. आ. ३.१२७ ) । २. एक राजा, जो करवीर नगरी के राजा पूषन् का पुत्र | ४५९ Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रघस प्राचीन चरित्रकोश प्रजंघ प्रघस-रावण के पक्ष का एक राक्षस, जो हनुमान् | स्मृतिकारोंकी तालिका में दिया गया है। किंतु याज्ञवल्क्य के द्वारा मारा गया ( वा. रा. सु. ४६. ३७; म. व. | स्मृति में इसका निर्देश उपलब्ध नहीं है। २६९.२)। नित्यकर्म, श्राद्ध, अशौच, एवं प्रायश्चित के संबंध में २. एक राक्षस, जो सुग्रीव के द्वारा मारा गया (वा. | प्रचेतस् के मतों के गद्य उद्धरण 'मिताक्षरा', 'अपरार्क' रा. यु.४३)। ‘स्मृतिचंद्रिका', एवं 'हरदत्त' (गौतम. २३) में प्राप्त ३. राक्षस एवं पिशाचों के दल (म. व. २८५. | हैं। अशौच एवं प्रायश्चित के संबंध में इसने अपने 'बृह१ - २)। | प्रचेतस' नामक ग्रंथ में दिये मतों का निर्देश 'मिताक्षरा' प्रघसा--एक राक्षसी, अशोकवन में सीता के रक्षणार्थ | (याज्ञ. ३.२०.२६३-२६४)। 'हरदत्त' (गौतम. २२ नियुक्त की गयी थी (वा. रा. सु. २४.४१)। १८), तथा अपरार्क में किया है। २. स्कंद की अनुचरी मातृका (म. श. ४५.१६ ।) | "रसोइया, शिल्पकार, वैद्य, दासदासी, राजा एवं प्रघास-लेखदेवों में से एक । राजा का अधिकारीवर्ग, इन लोगों को अशौचपालन करने की आवश्यकता नहीं है। ऐसा इसका अभिमत था प्रघोष--श्रीकृष्ण का लक्ष्मणा से उत्पन्न एक पुत्र | (याज्ञ. ३.२७)। प्रचेतस् के इस श्लोक का मेधातिथि (भा. १०. ६१. १५)। ने स्मृति की तरह निर्देश किया है (मनु. ५.६०)। किंतु प्रचंड-एक राक्षस, जिसने त्रिपुरासुर एव शंकर के वहाँ प्रचेतस् के नाम का निर्देश नही किया गया है। . युद्ध में कार्तिकेय से युद्ध किया था (गणेश. १.४३)। इस उद्धरण से जाहिर है कि, मनु एवं विष्णु जैसे श्रेष्ठ २. एक गोप, जिसके घर जाबालि ऋषि ने चित्रगंधा | स्मृतिकारों में प्रचेतस् का निर्देश मेधातिथि के काल में गोपी के रुप में जन्म लिया था। हुआ करता है। ३. विष्णु का एक पार्षद। ___ इसके द्वारा लिखित 'वृद्धप्रचेतस्' नामक और भी : प्रचिन्वत्--(सो. पूरु.) एक पूरूवंशीय राजा, | एक ग्रंथ था, जिसके उद्धरण 'मिताक्षरा' एवं 'अपराक' . भागवत एवं विष्णु के अनुसार, जनमेजय (प्रथम) का | में दिये गये है। पुत्र था। इसे प्राचिन्वत् नामांतर भी प्राप्त है। ४. लेखदेवों में से एक। प्रचेतस--एक प्रजापति, जो ब्रह्मा के मानसपुत्रों में ५. पारावत देवों में से एक। ... से एक था (वायु. ६५.५३-५४)। ६. प्रसूत देवों में से एक। २. प्राचीनबर्हिष तथा समुद्रतनया सवर्णा के दस पुत्रों | ७.(सो. ह्य.) एक राजा, जो भागवत के अनुसार का सामूहिक नाम। भागवत में इसके माता का नाम | 'दुर्मन' राजा का, विष्णु के अनुसार 'दुर्गम' का, एवं शतद्रुती दिया गया है (भा. ४.२४.१३)। मत्स्य के अनुसार, 'दुर्दम' का पुत्र था । इसे 'सुचेतस्' ये दस प्रचेतस् धनुर्वेद में पारंगत थे (विष्णु. १.१४. नामांतर भी प्राप्त है। . . ६; ह. वं. १.२.३३)। इन्होंने समुद्रजल में रहकर दस इसके प्राचेतस नामक सौ पुत्र थे, जो उत्तर दिशा में हजार वर्षों तक तपस्या की । उस समय पृथ्वी पर जंगल ही | जा कर म्लेंच्छ लोगों के राजा बन गये। इस प्रकार जंगल थे । वृक्षों की वृद्धि को देखकर, प्रचेतस् जंगलों को नष्ट | इसका 'द्रुह्यु' वंश. विनष्ट हो गया। करने लगे। तब वृक्षों के अधिपति सोम ने इन्हें वृक्षों को ८. भार्गवकुल का एक मंत्रकार । नष्ट करने से रोका, तथा भेंट के रूप में वृक्षकन्या वार्षी ९. वरुण का नामांतर (भा. ७.१२.२८; म. स. ७. अथवा मारिषा इन्हें अर्पित की (मारिषा देखिये)। दस १४)। प्रचेतसो द्वारा मारिषा से दक्ष नामक पुत्र हुआ। वही | प्रचेतस आंगिरस-एक वैदिक सूक्तद्रष्टा (ऋ.१०. पुत्र दक्ष प्रचेतस तथा दक्ष प्रजापति नाम से प्रसिद्ध हुआ | १६४)। (विष्णु, १.१५.१-९; है. वं. १.२.४६ )। इसी प्राचेतस प्रचेष्ट-तालध्वज नगर के माधव नामक राजकुमार दक्ष से, आगे चल कर 'मैथुनज' मानवसृष्टि का प्रारम्भ | का सेवक (माधव ५. देखिये; पद्म. क्रि. ५)। हुआ। । प्रजंघ-रावण के पक्ष का एक राक्षस, जो अंगद । ३. एक स्मृतिकार, जिसका निर्देश पराशरस्मृति में प्राप्त | द्वारा मारा गया (वा. रा. यु. ७६.२७)। Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन चरित्रकोश प्रजापति २. सम के पक्ष का एक वानर, जिसने संपाति नामक | जन्म (जात) हुआ है। यह श्वास लेनेवाले समस्त राक्षस का वध किया (वा. रा. यु. ४३)। गतिशील जीवों का राजा है। यही सब देवों में श्रेष्ठ है। प्रजन–(सो. ऋक्ष.) एक राजा, जो मत्स्य के | इसी के विधानों का सभी प्राणी पालन करते हैं। यही अनुसार कुरु राजा के पाँच पुत्रों में से कनिष्ठ था। | नहीं, इसका यह विधान देवताओं को भी मान्य है। प्रजा-एक ब्राह्मण, जो पूर्वजन्म में 'भिल' था। इसने आकाश तथा पृथ्वी की स्थापना की है, यही अपने व्याध योनि में, इसने श्रीविष्णु के पूजा के लिये | अन्तरिक्ष के स्थानों में व्याप्त है, तथा समस्त विश्व तथा कमल के फूल एकत्र कर, एक ब्राह्मण को प्रदान किये। समस्त प्राणियों को अपनी भुजाओं से अलिंगन करता है। इस पुण्यकर्म के कारण, अगले जन्म में इसे शुचिर्भूत अथर्ववेद तथा वाजसनीय संहिता में साधारणतया, ब्राह्मणकुल में जन्म प्राप्त हुआ (पद्म. क्रि. १३)। ब्राह्मण ग्रन्थों में नियमित रूप से, इसे सर्व प्रमुख प्रजागरा-एक अप्सरा, जिसने इंद्रसभा में संपन्न देवता माना गया है। शतपथ ब्राह्मण के अनुसार, यह हुए अर्जुन के स्वागतसमारोह में नृत्य गायन किया था | देवों का पिता है (श. ब्रा. ११.१.६ ते. ब्रा. ८.१.३)। (म. व. ४४.३०)। सृष्टि के आरम्भ में अकेले इसी का अस्तित्व था ( श. ब्रा. प्रजाति--स्वायंभुव मन्वंतर के जिंत देवों में से एक।। २.२.४ ), एवं यह पृथ्वी का सर्वप्रथम याशिक था (श. २. मनु के पुत्रों में से एक। इसके पुत्र का नाम क्षुप ब्रा. २.४.४, ६.२.३)। देवों को ही नहीं, वरन् असरों था (म. आश्व. ४.२)। इसके नाम के लिये "प्रसंधि' को भी इसीने बनाया था (ते. ब्रा. २.२.२)। पाठभेद भी उपलब्ध है। ___ सूत्रों में, इसे ब्रह्मा के साथ समीकृत किया गया है प्रजादर्प--एक मध्यमाध्वर्यु । (आश्व. गृ. ३.४)। 'वंशब्राह्मण' में इसे ब्रह्मा का शिष्य कहा गया है, एवं इसके शिष्य का नाम मृत्यु कहा प्रजानि--(सू. दिष्ट.) एक राजा । विष्णु एवं वायु। गया है (वं. वा. २)। ऋग्वेद के कई सूक्तों का यह के अनुसार यह प्रांशु राजा का पुत्रं था। भागवत में इसे मन्त्रद्रष्टा भी है (ऋ. ९.१०१.१३-१६)। 'प्रमति' कहा गया है। २. प्रांशुपुत्र प्रजाति राजा का नामांतर। इसके पुत्र का | सर्वप्रमुख देवता-उत्तरकालीन वैदिक साहित्य में, नाम खनित्र था (मार्क. ११४.७-८) इसे सर्वप्रमुख देवता के स्थानपर प्रतिस्थापित किया गया प्रजापति--एक वैदिक देवता, जो संपूर्ण प्रजाओं का | है। उपनिषदों के दर्शनशास्त्र में इसे 'परब्रह्म' अथवा स्रष्टा माना जाता है। महाभारत एवं पुराणों में निर्दिष्ट । 'विश्वात्मा' कहा गया हैं । तत्वज्ञान के संबंध में जब कभी 'ब्रह्मा' देवता से इस वैदिक देवता का काफी साम्य है, किसी प्रकार की शंका उठ खड़ी होती थी, तब देव, दैत्य, एवं ब्रह्मा की बहुत सारी कथाएँ इससे मिलती जुलती हैं | एवं मानव प्रजापति के पास आकर अपनी शंका का .(ब्रह्मन् देखिये)। | समाधान करते थे (ऐ. ब्रा. ५.३; छां. उ. ८.७.१; . ऋग्वेद के दशम मण्डल में चार बार प्रजापति का नाम श्वेत. उ. ४.२)। एक देवता के रूप में आया है। देवता प्रजापति को बहुत | ऋग्वेद, ब्राह्मण एवं उपनिषद् ग्रन्थों में प्रजापति को सन्तानों 'प्रजाम् ' को प्रदान करने के लिये आवाहन किया । प्रायः देवता के रूप में माना गया है। लेकिन, इन्ही ग्रन्थों गया है (ऋ. १०.८५.४३)। विष्णु, त्वष्ट्र तथा धातृ के | में कई स्थानों में इसे अन्य रूपों में भी निरूपित किया साथ इसकी भी सन्तान प्रदान करने के लिए स्तति की | गया है। गयी है (ऋ. १०.१८४)। इसे, गायों को अत्यधिक | ऋग्वेद में एक स्थानपर, प्रजापति उस 'सवितृ' की दुग्धवती बनानेवाला कहा गया है (ऋ. १०.१६९)। | उपाधि के रूप में आता है, जिसे आकाश को धारण इसकी प्रशस्ति में ऋग्वेद का एक स्वतंत्र सूक्त है, | करनेवाला, एवं विश्व का प्रजापति कहा गया है (ऋ. ४. जिसमें इसे पृथ्वी का सर्वोच्च देवता कहा गया है (ऋ. | ५३)। दूसरे एक स्थानपर इसे सोम की उपाधि के रूप १०.१२१)। इस सूक्त में, आकाश एवं पृथ्वी, जल | में प्रस्तुत किया गया है (ऋ. ९.५)। ब्राह्मण एवं उपनिषद एवं सभी जीवित प्राणियों के स्रष्टा के रूप में इसकी स्तुति | ग्रंथों में, प्रजापति शब्द, विभिन्न अर्थोसे प्रयुक्त किया गया की गयी है, तथा कहा गया है, पृथ्वी में जो कुछ भी | है, जिनमें से कई इस प्रकार है:-यज्ञ, बारह माह, वैश्वाहै, उसके अधिपति (पति) के रूप मे प्रजापति का । नर, अन्न, वायु, साम, एवं आत्मा । इससे प्रतीत होता ४६१ Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रजापति प्राचीन चरित्रकोश प्रजापति है कि, उस समय किसी भी वस्तु की महत्ता वर्णित करने | उसमें अपने आप को समर्पित कर, देवों से अपनी प्रजा के लिए, 'प्रजापति' उपधि का प्रयोग होता था । पंचविंश | पुनः प्राप्त की (पं. ब्रा. ७.२.१ )। ब्राह्मण में, सभी का महत्व वर्णन करने के लिए, उन्हें | मनुष्य होते हुए भी देवत्व प्राप्त ऋषिओं को, एकवार प्रजापति उपाधि दी गयी है (पं. ब्रा ७.५.६)। प्रजापति ने 'तृतीयसवन' में बुलाकर, उनके साथ सृष्टि-आरंभ-वैदिक वाङमय में प्रजापति के जीवन | सोमपान किया । इसको उचित न समझकर, अग्नि आदि सम्बन्धी कई कथायें दी गयी हैं जिनमें से निम्नलिखित देवताओं ने इसकी कटु आलोचना की (ऐ. ब्रा. ३.३०)। प्रमुख हैं:-- सूर्यपूजाअर्ध्य--राक्षसों की उग्र तपस्या से सन्तुष्ट प्रजापति की आस्थि संधियों ढीली हो गयीं थीं, तब देवों होकर, प्रजापति राक्षसों के पास आया, इसने उनसे ने यज्ञ कर उन्हें ठीक किया (श. बा. १. ६.३.३५) वर माँगने को कहा। राक्षसों ने कहा 'हम सूर्य से लड़ना प्रजापति सर्वप्रथम अकेला था । कालान्तर में, प्रजा चाहते हैं। प्रजापति ने उनकी माँग स्वीकार कर, उन्हें उत्पन्न करने की इच्छा से, उसने अपने शरीर के माँस को | वर प्रदान किया। तब से प्रतिदिन सूर्योदय से सूर्यास्त तक निकालाकर उसकी आहुति अग्नि में दी। अग्नि से इसके | राक्षस सूर्य से लड़ते रहते हैं। इस युद्ध में सूर्य की पुत्र के रूप में बिना सींगों का एक बकरा उत्पन्न हुआ सहायता करने के लिये, ब्रह्मनिष्ठ लोग पूर्व की ओर (तै. सं. २. १.१)। भगवान् सूर्य को अर्घ्यदान देते हैं । अयं के जल का एक प्रजापति के द्वारा उत्पन्न की गयी प्रजा इसके अधिकार | एक बूंद वज्र बनकर राक्षसों का प्रहार करता हैं। इससे के अन्दर न रहकर वरुण के अधिकार में चली गयी । जब पराजित होकर राक्षसगण अपने 'अरुणद्वीप' नामक इसने उन्हें वापस बुलाना चाहा, तब वरुण ने उन्हें देश को भाग जाते है (तै. आ. २.२)। अपने कब्जे से छोड़ने के लिए इन्कार कर दिया। फिर इंद्र की उत्पत्ति-प्रजापति ने देव तथा असुर निर्माण । प्रजापति ने एक सफेद खुरवाला कृष्णवर्णीय पशु वरुण को | किये, परन्तु राजा उत्पन्न नहीं किया। बाद में, देवों के भेंट स्वरूप प्रदान करने का आश्वासन दिया। इस पर प्रार्थना करने पर इसने इन्द्र उत्पन्न किया । त्रिष्टुप नामक ' प्रसन्न होकर, वरुण ने प्रजा के उपर का अपना अधिकार देवता ने १५ धाराओं का वज्र इन्द्र को प्रदान किया। उठा लिया, और प्रजापति प्रजा का स्वामी बन बैठा (तै. उस वज्र से इन्द्र ने असुरों को पराजित कर, देवों के लिए सं. २. १.२)। स्वर्ग प्राप्त किया। __ पृथ्वी उत्पन्न होने के बाद, देवों की प्रजा उत्पन्न करने स्वर्ग को भोगभूमि समझकर सभी देवगण आये थे, की इच्छा हुई, और उन्होंने प्रजापति के कथनानुसार पर वहाँ पर खानेपीने की कोई वस्तु न पाकर उन्होंने तपश्चर्या कर, अग्नि के आश्रय से एक गाय उत्पन्न की। 'अयास्य' नामक आंगिरस गोत्र के ऋषि को, यज्ञ उस गाय के लिए सब देवों ने प्रयत्न कर अग्नि को संतुष्ट | अनुष्ठान की कार्यप्रणाली से अवगत कराकर उसे पृथ्वी किया। बाद में, उस गाय से प्रत्येक देव को तीन सौ पर भेजा। भूलोक पर जाकर 'अयास्य' ने यज्ञानप्रान तेंतीस देव प्राप्त हुए। इस प्रकार असंख्य प्रजा उत्पन्न | कर देवों को हविर्भाग देने की कल्पना प्रसारित की (ने. हुई (तै. सं. ७.१.५)। ब्रा. २.२.७)। प्राचीन काल में, प्रजापति ने यज्ञ की ऋचाओं एवं छंदों इन्द्र तथा वृत्र में घोर युद्ध हुआ। युद्ध में वृत्र ने का परस्पर में वितरण किया। उस समय इसने अपना | तीव्र गति से अपनी श्वास को छोड़कर इन्द्र के पक्ष के अनुष्टुप छंद 'अच्छावाकीय' नामक ऋचा को प्रदान किया। सभी योद्धाओं को भयभीत कर भगा दिया, पर मरुतों अनुष्टम नाराज होकर प्रजापति को दोष देने लगा। फिर | ने इन्द्र का साथ न छोड़ा । मरुतों की सहायता से इन्द्र सोमयज्ञ कर प्रजापति ने उस यज्ञ में अनुष्टुप् छंद को | ने वृत्र का वध कर प्रजापति का मान प्राप्त करना चाहा। अग्रस्थान दिया। तब से उस छंद का उपयोग वैदिक | उसकी यह इच्छा तो पूरी न हो सकी, पर प्रजापति ने 'सवनों में सर्वप्रथम होने लगा। उसके इस कार्य से प्रसन्न हो कर उसे 'महेन्द्र' पदवी दी । प्रजापति की प्रजा जब उसे त्याग कर जाने लगी, तब | (ऐ. ब्रा. ३.२०-२२)। प्रजापति के नेतृत्व में, देवों ने इसने अग्नि की सहायता से प्रजा को पुनः प्राप्त किया | इन्द्र का राज्याभिषेक किया, जिससे उसे सभी अभीष्ट (ऐ. ब्रा. ३.१२)। इसने 'अग्निष्टोम' नामक यज्ञ कर, ' वस्तुओं की प्राप्त हुयी। इन समस्त शक्तियों को पाकर ४६२ Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रजापति प्राचीन चरित्रकोश प्रजापति ८.१२:१४ ) । अन्त में, उसने मृत्यु पर भी विजय प्राप्त की ऐ ना. तुम्हें अपना तेज दे दूंगा, तो फिर मुझे कौन पूँछेगा ?' | इस पर इन्द्र ने उत्तर दिया, 'तुम 'क' नाम से प्रसिद्ध होगे । अपना तेज मुझे दे डालने के बाद भी तुम्हारा प्रभापतित्व कायम रहेगा। इतना सुन कर प्रजापति ने अपने तेज को एक ' पदक' का रूप देकर उसे इन्द्र के मस्तक पर बाँध दिया। तब कहीं इन्द्र इस योग्य बना कि, वह देवों का अधिपति धनकर उन पर राज्य कर सके ( तै. बा. २. २.१० ) । कम्याविवाह एक चार प्रजापति ने सोम एवं तीन वेद नामक पुत्र, तथा सीतासावित्री नामक कन्या उत्पन्न की। उन में से तीन वेदों को सोम ने अपनी मुट्ठी में बन्द कर रखा था । पश्चात्, सीतासावित्री के मन में सोम से विवाह करने की इच्छा उत्पन्न हुयी। पर सोम सीतासावित्री को न चाह कर, प्रजापति की श्रद्धा नामक अन्य कन्या से विवाह करना चाहता था । प्रजापति की सहानुभूति सीतासावित्री के प्रति अधिक थी, और यह चाहता था कि, सोम का विवाह सीतासावित्री से ही हो। इसी कारण, सत्यह लेने के लिए आयी हुयी सीता सावित्री को इसने एक वशीकरण मंत्र से अवगत कराया । ' स्थागर' नामक एक सुगन्धमय वनस्पति को घिसकर इसने उसके मस्तक में चन्दन की भाँति टीका लगाकर उसे आशीष देकर विदा किया। , " यज्ञारम्भ – एक बार प्रजापति ने यज्ञ किया, जिसमें यह स्वयं 'होता' बना। इस समय सभी देवताओं की इच्छा थी कि, मुझे अधिष्ठाता मान कर यह यज्ञ किया जाय ऐसी स्थिति में, प्रजापति ने 'आपो रेवती (ऋ. १०.३०.१२) मन्त्र के द्वारा वशारम्भ किया। 'आप' तथा 'रेवती' इन दो शब्दों से सब देवों का निर्देश होता है, इसलिये प्रत्येक देव को संतोष हुआ कि यश का प्रारंभ मुझे सम्बोधित करके किया गया है ( ऐ. बा. २.१६ ) । एक बार इसके तीनों 'पुत्र -- देव, मनुष्य तथा असुर उपदेश ग्रहण करने की इच्छा से आये प्रशपति ने उन तीनों को 'ढ़' का उपदेश दिया । इस 'द' उपदेश का आशय हर एक पुत्रों के लिए मिन्न भिन्न था। देवों के लिए दमन, मनुष्यों के लिए दान, तथा असुरों के लिए दया का उपदेश देकर, इसने उन्हें अपनी मुक्ति प्राप्त करने का एकमेव साधन बताया (बृ. उ. . ५.१ - ३ ) । सृष्टि निर्माण व व्यवस्था एक बार प्रशपति के मन में सृष्टिसृजन की इच्छा उत्पन्न हुयी । इसने अपने अन्तर्मन से एक धूम्रराशि का निर्माण किया, जिससे अमि, ज्योति, ज्याला एवं प्रभा आदि उत्पन्न हुए पश्चात्, उन सबने मिलकर एक ठोस गोले का रूप धारण किया, जिससे प्रजापति का मूत्राशय बना । इस मूत्राशय को परमेश्वर ने फोड़ा, जिससे समुद्र की उत्पत्ति हुयी . समुद्र, क्योंकि मूत्राशय से उत्पन्न हुआ है, इसी से उसका पानी खारा रहता है तथा वह पीने लायक नहीं होता। । अलमय समुद्र से ही प्रजापति ने क्रमानुसार, पृथ्वी अंतरिक्ष तथा द्यौ उत्पन्न किये। इसके बाद, अपने शरीर से असुरों का निर्माण कर, दिवस रात्रि तथा अहोरात्र के संधिकाल को बनाया। इस प्रकार, प्रजापति ने सारी . प्रजा का निर्माण किया ( तै. बा. २.२.९ ) । देवों को पैदा करने के उपरान्त प्रजापति ने देवों में कनिष्ठ इन्द्र को उत्पन्न कर, उससे कहा, 'मेरी आशा से तुम स्वर्ग में जाकर देखो पर शासन करो।' इन्द्र संवर्ग गया, पर यहाँ किसी ने उसे अपना राजा न माना, क्योंकि वह सबसे आयु में छोटा तथा शक्ति में अधिक न था । इन्द्र वापस आया, और प्रजापति से देशों के कथन को दुहरा कर उसने अपने विशेष तेज को देने की याचना की। प्रजापति ने इन्द्र से कहा ' यदि मे तब सीता सावित्री सोम के यहाँ गयी वशीकरण के प्रभाव से सोम उस पर मोहित हो कर प्रेमभरा व्यवहार करने लगा, और शादी के लिए तैयार हो गया । किन्तु, शादी के पूर्व सीतासाबित्री ने सोम की प्रेमपरीक्षा लेने के लिए उसके सामने शर्त रखी 'यह उसके सिवा किसी अन्य नारी से भोग न करेगा, तथा मुट्ठी में छिपी हुयी वस्तु का उसे स्पष्ट ज्ञान करायेगा' । सोम को ये शर्ते मंजूर हुयीं और सीतासावित्री का विवाह सोम के साथ सम्पन्न हुआ। इसप्रकार वशीकरण के प्रभाव से दोनों सुखपूर्वक रहने लगे । तैत्तिरीय ब्राह्मण में, प्रजापति का यह वशीकरण प्रयोग विस्तार के साथ बताकर कहा गया है कि, जो इस वशीकरण का प्रयोग करेगा उसे इच्छित वस्तु प्राप्त होगी (ते. ब्रा २.२.१० ) । ऐतरेय ब्राह्मण में प्रजापति की कन्या का नाम 'सूर्यासावित्री' बताया गया है ( ऐ. बा. ४. ७ ) । अपनी इस कन्या का विवाह प्रजापति ने सोम के साथ निश्चित किया। सूर्यासावित्री के विवाहोत्सव में, 6 3 ४६३ Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रजापति प्राचीन चरित्रकोश प्रजापति प्रजापति ने सारे देवों को निमंत्रित किया। उस समय फूलने लगे। उन अंगारों से अंगिरस निर्माण हुए । जो प्रजापति ने सहस्र ऋचाओंवाला एक 'आश्विन स्तोत्र' अंगार जलकर कोयले के समान काले हो गये, उनसे. का निर्माण कर, उसे उन देवों के सम्मुख प्रस्तुत किया। कृष्णवर्णीय पशुओं की उत्पत्ति हुयी। उन अंगारों के उस स्तोत्र को सुन कर सभी देवताओं के मन में उसके | सहयोग से पृथ्वी का जो भाग तप्त होकर लाल हो गया, प्राप्ति की अभिलाषा उत्पन्न हुयी। ऐसी स्थिति में, देवों | उनसे रक्तवर्णीय पशुओं का निर्माण हुआ (ऐ. ब्रा. ३. के बीच उत्पन्न हुयी कलह को मिटाने के लिए प्रजापति | ३४)। ने एक प्रतियोगिता रक्खी, जिसके अनुसार, यह तय शतपथ ब्राह्मण में भी प्रजापति द्वारा प्रजोत्पत्ति की किया गया कि, जो देवता गाहपत्य तक दौड़ में प्रथम यही कथा इसी प्रकार दी गयी है। किन्तु इस ग्रन्थ में आयेगा उसे ही यह स्तोत्र प्रदान किया जायेगा। इस | प्रजापति के हनन के लिए देवों द्वारा उत्पन्न किये दौड़ में अश्विनीकुमार प्रथम आये, और उन्हे स्तोत्र भयंकर पुरुष का नाम 'भूतवान' की जगह 'रुद्र' दिया की प्राप्त हुयी (ऐ. बा ४. ७)। गया है, एवं इसके स्खलित वीर्य से उत्पन्न पुत्र का नाम दुहितृगमन-ऐतरेय ब्राह्मण एवं मैत्रायणी संहिता में, 'अग्नि मारुत उक्थ' दिया गया है (श. बा. १.७. प्रजापति के अपनी कन्या 'उपस्' पर ही आसक्त हो जाने ४)। की कथा प्राप्त है (ऐ. ब्रा. ३. ३३; मै. सं. ४. २)। शतपथ ब्राह्मण के अनुसार, प्रजापति का वध करने. एक बार, अपनी ही कन्या 'यौ' तथा 'उषस्' को के पश्चात् , देवों का क्रोध पुनः शान्त हुआ, और उन्होंने '. देखकर, प्रजापति में काम-वासना उत्पन्न हुयी, एवं यह फिर से इसका अभिषेक किया, एवं इसे 'यज्ञ प्रजापति' उनके पीछे दौड़ने लगा। इससे डरकर इसकी कन्याओं नाम प्रदान किया (श. ब्रा. १. ७.४)। . ने रोहित नामक मृगी का रूप धारण कर लिया। तब प्रजा निर्मित करने के उपरांत, प्रजापति को आपसी.. इसने ऋष्य नामक मृग का रूप धारण कर, उनसे मैथुन | झगड़ों को निपटा कर के, वैधानिक दण्डादि भी देना . किया। सारे देवताओं ने 'दुहितागमन' का यह पड़ता था। तत्त्वज्ञान के संबंध में जब कभी शंकायें उठती निन्दनीय कर्म देखकर, इस पापी पुरुष को नष्ट करने की थीं, तो उनके निवारणार्थ देव, दैत्य अथवा मनुष्यलोग ठान ली। फिर, हर एक देव ने अपने रौद्र अंश को प्रजापति के पास जाया करते थे (छां. उ. ८. ७. १.३; . एकत्र कर 'भूतवान' नामक एक भयंकर पुरुष का ऐ.ब्रा. ५.३; श्वेत.४.२)। निर्माण किया, जिसने प्रजापति का पापी देह नष्ट किया। २. ब्रह्मदेवों के मानस पुत्रों के लिये प्रयुक्त सामूहिक प्रजापति का मृगरूपी मृतदेह, मृगनक्षत्र के रूप में आज नाम। भी आकाश में दिखाई पड़ता है । जिस बाण से प्रजापति वायुपुराण के अनुसार, ब्रह्मा ने सृष्टि की उत्पत्ति की, का हनन किया गया था, उस बाण की नोंक, मध्य तथा जिसको बढ़ाने के लिए, अपने शरीर के विभिन्न अवयवों फाल आज भी हमें आकाश में दिखाई पड़ती हैं । रोहिणी से उसने अनेक मानसपुत्र निर्माण किये । मानसपुत्रों के नक्षत्र ही प्रजापति की कन्या है। निर्माण के पीछे उनका हेतु सृष्टि विस्तार ही था । इस कारण ब्रह्माने अपने मानसपुत्रों को प्रजा उत्पन्न करने की आज्ञा उस समय जो प्रजापति का वीर्य गिरा उससे निन्मलिखित प्राणी इस क्रम से उत्पन्न हुए:- अग्नि, वायु, दी। इसी कारण, ब्रह्मा के मानस पुत्रों को प्रजापति सामूहिक नाम प्राप्त हुआ। आदित्य, तीन वेद, भूः, भूवः, स्वः, अ उ म (ऐ. बा. ३. | पुराणों में 'प्रजापति' शब्द की व्याख्या 'संतति ३३, ५.२)। उत्पन्न करनेवाला' ऐसी की गयी है, जैसा कि वायुपुराण कामी प्रजापति ने अपनी ' द्यौ' एवं 'उघस्' नामक में लिखा हैकन्याओं से भोग करते समय, जो वीर्य असावधानी में लोकस्य संतानकरास्तैरिमा वर्धिताः प्रजाः । नीचे भूमि पर स्खलित किया था, कालान्तर में वही वीर्य चारों और बहने लगा । मरुतों ने उसे एकत्र कर उसका प्रजापतय इत्येवं पठ्यन्ते ब्रह्मणः सुताः ॥ पिंड बनाया। उस पिंड से आदित्य एवं वारुणि भृगुओं (वायु. ६५.४८). की उत्पत्ति हुयी। उन दोनों के निर्माण के पश्चात् , शेष | मत्स्य पुराण में भी यही विचार प्रकट किये गये हैं, जो बचे बचे हुए वीर्यकण दग्ध होकर अंगार के समान | निम्नलिखित श्लोक में द्रष्टव्य है Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन चरित्रकोश प्रजापति 'विश्वे प्रजानां पतयो येभ्यो लोका विनिसृताः ' ( मस्त्य. १७१.२५ ) । प्रजापतियों की संख्या--प्रजापतियों की संख्या के बारे में कहीं भी एकवाक्यता नहीं है। पुराणों में प्रजापतियों की संख्याओं के लिये, सात, तेरह, चौदह, इक्कीस आदि भिन्न भिन्न संख्यायें प्राप्त हैं। बहुत सारे पुराणों में निम्नलिखित व्यक्तियों का निर्देश प्रजापति के नाम से किया गया है—मरीचि, अत्रि, अंगिरस, पुलस्त्य, पुलह, ऋतु, दक्ष, वसिष्ठ, भृगु, नारद । वायु, ब्रह्मांड, गरुड़, मत्स्य एवं महाभारत में ‘अन्य', 'बहवः ' ऐसा निर्देश कर, और भी कई व्यक्तियों की नामावली प्रजापति के नाम से दी गयी है। जिस व्यक्ति के संतति की संख्या अधिक हो, उसे प्रजापति की संज्ञा पुराणों में प्रदान की गयी दिखती है। पुराणों में बहुत सारी जगहों पर प्रजापति को समस्त सृष्टि का सृजन करनेवाले ब्रह्मा से समीकृत किया गया है । कई जगह इसे व्यास भी कहा गया है ( व्यास देखिये) । प्रजापतियों की नामावलि – विभिन्न पुराणों में प्रजा पतियों की नामावलि निम्नप्रकार से दी गयी है- (१) वायु एवं ब्रह्मांडपुराण -- कर्दम, कश्यप, शेष, `विक्रांत, सुश्रवस्, बहुपुत्र, कुमार, विवस्वत्, अरिष्टनेमि, बहुल, कुशोच्चय, वालखिल्य, संभूत, परमर्षय, मनोजव, . सर्वगत, सर्वभोग ( वायु. ६५.४८; ब्रह्मांड. २.९.२१; ३.१) । (२) गरुड़ पुराण -- धर्म, रुद्र, मनु, सनक, सनातन, सनत्कुमार, रुचि, श्रद्धा, पितर, बर्हिषद, अग्निष्वात्त, कव्यादान, दीप्यान, आज्यपान (गरुड़ . १.५ ) । (३) मस्त्य पुराण -- गौतम, हस्तींद्र, सुकृत, मूर्ति, अपू, ज्योति, त्र्यय, स्मय । मस्त्य में निर्दिष्ट ये सारे प्रजापति स्वायंभुव मन्वन्तर में पैदा हुए थे ( मस्त्य. ९. ९-१०; १७१.२७ ) । प्रजापति के पुत्र का नाम प्रजापति अरिष्टनेमि अथवा कश्यप था, जिसका विवाह दक्ष की कन्याओं से हुआ था । उसी कश्यप से सारी सृष्टि का निर्माण हुआ। यादवों के चक्रवर्ति राजा शशबिन्दु को भी महाभारत में एक जगह प्रजापति कहा गया है ( म. शां. २००.११-१३ ) । ब्रह्मांड के अनुसार, हर एक कल्प में, नयी नयी सृष्टि का निर्माण करना प्रजापति का कार्य रहा है। स्वायंभुव फिर ब्रह्मा ने स्वयं कन्या को उत्पन्न कर उसे दक्ष को मन्वन्तर के प्रजापति को कोई संतान न होती थी । दिया । पश्चात्, दक्ष ने अनेक कन्यायें उत्पन्न कर उन्हें उस मन्वन्तर के प्रजापतियों को प्रदान किया । किन्तु दक्षयज्ञ के संहार में शंकर ने सारे प्रजापतियों को दग्ध कर दिया ( ब्रह्मांड. २.९.३१-६७ )। पद्म के अनुसार, रोहिणी नक्षत्र की देवता प्रजापति माना गया है। प्रजापति को जब शनि की पीड़ा होती है, तब सृष्टि का संहार (लोकक्षय) होता है (पद्म. उ. ३३ ) । ३. एक धर्मशास्त्रकार। बौधायन के धर्मसूत्र में, प्रजापति के धर्मशास्त्रविषयक मत ग्राह्य माने गये हैं (बौ. ध. २. ४. १५; २. १०.७१ ) । वसिष्ठ ने भी अपने धर्मशास्त्र में इसके मतों का अनेक बार निर्देश किया है (व. ध. ३. ४७, १४.१६.१९; २४ - २५, ३०-३२ ) । बौधायन तथा वसिष्ठ धर्मसूत्रों में निर्दिशित प्रजापति के सारे इलोक मनुस्मृति में पुनः प्राप्त हैं। इसी के आधार पर कहा जा सकता है कि, बौधायन तथा वसिष्ठ ने प्रजापति को मनु का ही नामांतर माना है । आनंदाश्रम संग्रह में ( ९० - ९८ ), प्रजापति, की श्राद्धविषयक एक स्मृति दी गयी है, जिसमें एक सौ अट्ठान्नवे श्लोक हैं। ये श्लोक अनुष्टुप, इन्द्रवज्रा, उपजाति, वसंततिलका तथा स्रग्धरा वृत्तों में हैं। इस स्मृति में कल्पशास्त्र, स्मृति, धर्मशास्त्र तथा पुराणों पर विचार किया गया है । ' कन्या ' एवं ' वृश्चिक राशियों के बारे में प्रजापति स्मृति में एक श्लोक प्राप्त है, जिसे कार्ष्णाजिनि ने उद्धृत किया है । अशौच एवं प्रायश्चित के बारे में प्रजापति श्लोक मिताक्षरा में दिये गये हैं (याज्ञ. ३. २५.२६० ) । पदार्थशुद्धि, श्राद्ध, गवाह, 'दिव्य' तथा अशौच के सम्बन्ध में इसके श्लोक ‘ अपरार्क' ने उद्धृत किये हैं । किन्तु वे श्लोक मुद्रित प्रजापतिस्मृति में अप्राप्य हैं । ' परिव्राजक' के सम्बन्ध में इसका एक गद्य उद्धरण भी 'अपरार्क' मे दिया गया है ( अपरार्क. ९५२ ) । (४) महाभारत - रुद्र, भृगु, धर्म, तप, यम, मरीचि, अंगिरा, अत्रि, पुलस्त्य, पुलह क्रतु, वसिष्ठ, चन्द्रमा, क्रोध, विक्रीत, बृहस्पति, स्थाणु, मनु, क, परमेष्ठिन्, दक्ष, सप्त पुत्र, कश्यप, कर्दम, प्रल्हाद, सनातन, प्राचीनवर्हि, दक्ष प्राचेतस, सोम, अर्यमन्, शशबिंदुपुत्र, गौतम ( म. स. ११.१४; शां. २०१; भा. ३.१२.२१ ) । महाभारत में मरीचि ऋषि के पुत्र कश्यप को प्रजापति कहा गया है, एवं उसे मनुष्य, देव एवं राक्षसों का आदि पुरुष कहा गया है। महाभारत के अनुसार, मरीचि ऋि प्रा. च. ५९ ] ४६५ Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रजापति प्राचीन चरित्रकोश • प्रतर्दन प्रजापति के अनुसार, श्राद्धविधि के अवसर पर अपनी | प्रज्योति--अमिताभ देवों में से एक । माता को पिण्डदान देते समय अपने मामा के गोत्र का प्रणित-मरीचिगर्भ देवों में से एक । निर्देश करना चाहिये । इसके इस मत का उल्लेख लौगाक्षि प्राणधि-बृहद्रथ वासिष्ठ के अंश से उत्पन्न षांचएवं अपरार्क ने किया है (अपरार्क. ५४२)। जन्य नामक अग्नि का पुत्र (म. व. २१०.४)। प्रजापति के लोकव्यवहार सम्बन्धी विचारधारा का २. एक धनिक वैश्य, जिसकी पत्नी का नाम पद्मावती उल्लेख अपरार्क, स्मृतिचन्द्रिका, पराशर माधवीय तथा | था (पद्मावति २. देखिये)। अन्य ग्रन्थों में किया गया है। इसके अनुसार, गवाहों प्रतंस-(सो.) एक राजा, जो भविष्य के अनुसार, के 'कृत' अथवा 'अकृत' ऐसे दो प्रमुख प्रकार होते | अवतंस राजा का पुत्र था । हैं। इसका यह मत नारदस्मृति से लिया हुआ प्रतीत | प्रतपन-एक रावणपक्षीय राक्षस, जिसका नल द्वारा होता है (ऋणादान इलो. १४९; अपरार्क. ६६६; स्मृतिचं. | वध हुआ था (वा. रा. यु. ४३.२३)। व्य. ८०)। इसने प्रतिवादी के ग्राह्य उत्तरों का विवेचन प्रतर्दन-(सो. काश्य.) काशी जनपद का सुविख्यात कर, उनके चार प्रकार बताये हैं (स्मृतिचं. व्य. ९८; परा. | राजा, एवं एक वैदिक सूक्तद्रष्टा (ऋ. ९.९६; १०.१७ मा. ३. ६९-७३)। 'दिव्य' के सम्बन्ध में लिखे गये | २)। यह ययाति राजा की कन्या माधवी का पुत्र इसके दलोक ' पराशरमाधवीय' में दिये गये हैं। था। प्रजापति के अनुसार, निःसंतान विधवा का अपने पति | वैदिक साहित्य में इसे काशिराज दैवोदासि कहा. गया की सम्पूर्ण संपत्ति पर अधिकार है, एवं उसके मासिक | है । इसके पुत्र का नाम भरद्वाज था (क. सं २१.१०')। तथा वार्षिक श्राद्ध करने का अधिकार भी उसे ही प्राप्त | भरद्वाज ऋषि ने क्षत्रश्री प्रातर्दनि राजा की दानस्तुति की है । उक्त श्राद्ध के समय विधवा को अपने पति के सगे | थी, जिससे पता चलता है कि प्रतर्दन राजा को क्षत्रश्री. संबंधियों का सन्मान करना चाहिये ऐसा इसका अभिमत | नामक एक और पुत्र था (ऋ. ६.२६.८)। था (परा. मा. ३.५३६)। कौषीतकि ब्राह्मण के अनुसार, नैमिषारण्य में ऋषियों ४. महर्षि कश्यप का नामांतर। इसने वालखिल्यों से | द्वारा किये यज्ञ में यह उपस्थित हुआ, और ऋषियों इसने देवराज इन्द्र पर अनुग्रह करने के लिए प्रार्थना की थी | से प्रश्न किया, 'यज्ञ की, त्रुटियों का परिमार्जन किस प्रकार . (म. आ. २७.१६-२१)। किया जा सकता है। उस यज्ञ में उपस्थित अलीकयु नामक' ५. रथंतर कल्प का एक राजा । इसकी पत्नी का नाम | ऋषि इसके इस प्रश्न का उत्तर न दे. सका था (श. ब्रा. चन्द्ररूपा था, जिसने 'त्रिरात्र तुलसीव्रत' नामक उपासना की थी (पद्म. उ. २५)। । कौषीतकि उपनिषद् के अनुसार, युद्ध में मृत्यु हो . प्रजापति परमेष्ठिन्–एक वैदिक सूक्तद्रष्टा (ऋ. जाने पर यह इन्द्रलोक चला गया था (कौ. उ. ३.१ )। १०.१२९)।. वहाँ इसने बड़ी चतुरता के साथ इन्द्र को अपनी बातों में फँसा कर, उससे ब्रह्मविद्या का ज्ञान एवं इन्द्रलोक प्राप्त प्रजापति वाच्य-एक वैदिक सूक्तद्रष्टा (ऋ. ३. किया (कौ. उ. ३.३.१)। ३८,५४-५६, ९.८४)। वैदिक वाङ्मय में, इसे दैवोदासि उपाधि दी गयी है, प्रजापति वैश्वामित्र-एक वैदिक सूक्तद्रष्टा (ऋ. ३. जो इसका वैदिक राजा सुदास के बीच सम्बन्ध स्थापित ३८; ५४-५६)। कराती है । इसका भरद्वाज नामक एक पुरोहित भी था, प्रजावत् प्राजापत्य--एक वैदिक सूक्तद्रष्टा (ऋ. | जो इसके और सुदास राजा के बीच का सम्बन्ध पुष्ट १०.१८३; ऐ. ब्रा. १.२१)। इसकी माता का नाम करता है। सुपर्णा था, जिससे इसे सौपर्णेय नाम प्राप्त हुआ था | भाषा-विज्ञान की दृष्टि से, इसका प्रतर्दन नाम 'तृत्सु' (तै. आ. १०.६३)। ऐसा माना जाता है कि, प्रवर्दी । एवं 'प्रतृद' लोगों के नामों से सम्बन्ध रखता है, क्योंकि नामक अनुष्ठान में यदि कोई व्यक्ति इसके द्वारा रचित | उक्त तीनों शब्दों में 'तर्द' धातु है। सूक्त का पठन करे, तो उसे अवश्य ही पुत्र की प्राप्ति | पौराणिक साहित्य में इसे सर्वत्र काशीनरेश कहा होती है। गया है। किन्तु वैदिक ग्रन्थों में इस प्रकार का निर्देश प्रज्ञ-अमिताभ देवों में हो एक । आप्रप्य है। Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतर्दन प्राचीन चरित्रकोश प्रतर्दन महाभारत में इसे ययाति की कन्या माधवी से स्वर्ग से नीचे गिरा, तब इसने अपना पुण्य देकर उसे उत्पन्न पुत्र कहा गया है (म. स.८; व. परि. १. क्र. पुनः स्वर्ग भेजा था (म. आ. ८७.१४-१५)। २१. ६: पंक्ति ९७; उ. ११५. १५ )। ययाति | एक बार यह नारद के साथ रथ में बैठकर जा रहा था, से जोड़ा गया इसका यह सम्बन्ध कालदृष्टि से असंगत | तब एक ब्राह्मण ने इसके रथ के अश्व माँग लिये। यह है। भीमरथ प्रतर्दन ने शूर-वीरता के कारण ही धुमत् , स्वयं अपना रथ खींचकर ले जाने लगा। बाद में कुछ शत्रुजित् , कुवलयाक्ष, ऋतध्वज, वत्स आदि नाम प्राप्त । ब्राह्मणादि और आये और उन्होंने भी अश्व माँगे । परन्तु किये थे ( विष्णु. ४.५-७)। पास में अश्व न होने के कारण यह ब्राह्मणों की माँग पूरी न कर सका, और त्रस्त होकर इसने उन्हें कुछ अपभीमरथ को काशिराज दिवोदास नामक पुत्र शब्द भी कहे । अतःभाइयों के साथ स्वर्ग जाते जाते आधे भारद्वाज के प्रसाद से हुआ था। दिवोदास के मार्ग से यह नीचे गिर गया (म. व. परि. १ क्र. २१. पितामह हर्यश्व को हैहय राजाओं ने अत्यधिक त्रस्त | ६. पंक्ति. ११०-१२५)। किया, तथा उसका राज्य छीन लिया। हर्यश्व का | ___ इसे अलर्क के सिवाय अन्य पुत्र भी थे, पर अलर्क पुत्र सुदेव तथा पौत्र दिवोदास दोनों हैहयों को पराजित न | ही इसके बाद सिंहासन का अधिकारी हुआ (भा. ९. कर सके । इसलिये दिवोदास ने हैहयों का पराभव करने | १७.६)। वाला प्रतर्दन नामक पुत्र भारद्वाज से माँगा। यह जन्म लेते ही तेरह वर्ष का था, एवं सब विद्याओं में पारंगत प्रतर्दन का तत्त्वज्ञान-कौषीतकी उपनिषद में इंद्रथा (म. अनु. ३०.३०)। प्रतर्दन संवाद से प्रतर्दन के तत्त्वज्ञान का परिचय प्राप्त है । | दिवोदास का पुत्र प्रतर्दन तत्त्वज्ञान की शिक्षा प्राप्त करने प्रतर्दन का पराक्रम-माहिष्मती के हैहयवंश में | के लिए इन्द्र के पास गया । इन्द्र ने इसे बताया- 'ज्ञान पैदा हुये चक्रवर्ती कार्तवीर्य अर्जुन ने नर्मदा से लेकर से परम कल्याण प्राप्त होता हैं । ज्ञाता सर्व दोषों से और हिमालयप्रदेश तक अपना साम्राज्य स्थापित किया पापों से मुक्त होता है। प्राण ही आत्मा है। संसार का • था। काशी के दिवोदास आदि राजा कार्तवीर्य से परास्त | | मूल तत्त्व प्राण है। प्राण से ही सब दुनिया चलती है। . होकर अपने प्रदेश से भाग गये। काशी राज्य जंगल में हस्तपादनेत्रादि विरहितों के सारे व्यवहारों को देखने से 'बदल गया, और उसे नरभक्षक राक्षसों ने अपना अड्डा पता चलता है कि, संसार में प्राण ही मुख्य तत्त्व है।' बना लिया। ___ उपनिर्दिष्ट इन्द्रप्रतर्दन संवाद में इन्द्र काल्पनिक है।प्रस्तुत -पिता के दुःख का कारण ज्ञात होते ही, प्रतर्दन नेवार संवाद में इन्द्र द्वारा प्रतिपादित समस्त तत्वज्ञान प्रतर्दन हैहयवंशीय तालजंघ, वीतहव्य तथा उसके पुत्रों को, द्वारा ही विरचित है। इस संवाद से प्रतर्दन की प्रत्यक्ष - पराक्रम के बल पर युद्ध में परास्त कर, काशीप्रान्त को प्रमाणवादिता स्पष्ट है। पुनः प्राप्त किया। क्षेमकादि राक्षसों का वध कर, एक बार | ___ महाभारत एवं पुराणों में निर्दिष्ट प्रतर्दन दो व्यक्ति न फिर से काशीप्रदेश को बसा कर इसने उसे सुगठित राज्य | होकर, एक ही व्यक्ति का बोध कराते हैं। जिस दिवोदास का रूप दिया। राजा के वंश में यह पैदा हुआ, उसकी वंशावलि महायह शूरवीर होने के साथ साथ परमदयालु एवं भारत तथा पुराणों में कुछ विभिन्न प्रकार से दी गयी है। ब्राह्मणभक्त भी था। इसके द्वारा अपने सब पुत्रो को मरते | | इसीलिए इस प्रकार का भ्रम हो जाता है। पर वास्तव देख कर वीतहव्य घबरा कर भार्गव के आश्रय में गया। में महाभारत तथा पुराणों के दिवोदास दो अलग अलग भार्गव ने उसको उबारने के लिये प्रतर्दन से कहा, 'यह | व्यक्ति हैं। उनमें से महाभारत में निर्दिष्ट दिवोदास का ब्राह्मण है. अतएव इसका वध न होना चाहिये । पश्चात् | वंशज प्रतदेन था। प्रतर्दन ने उसे छोड़ दिया। २. उत्तम मन्वन्तर का एक देवगण, जिसमें निम्नएक बार इसने अपना पुत्र ब्राह्मण को दान दे दिया | लिखित देव अन्तर्निहित हैं:--अवध्य, अवरति, ऋतु, था, यही नहीं इसने ब्राह्मण को अपनी आँखें (म. शां. | केतुमान् , धिष्ण्य, धृतधर्मन् , यशस्विन् , रथोर्मि, वसु, २४०. २०), तथा शरीर (म. अनु. १३७-५)। तक | वित्त, विभावसु, सुधर्मन् (ब्रह्मांड. २.३६. ३०-३१)। ब्राह्मण को दान स्वरूप दी थीं । इसका पितामह ययाति । ३. शिव देवो में से एक । ४६७ Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रताप प्राचीन चरित्रकोश प्रतिविध्य ४८)। प्रताप--सौवीर देश का एक राजकुमार, जो जयद्रथ | प्रतिपक्ष-(सो. क्षत्र.) प्रतिक्षत्र राजा का नामांतर । के रथ के पीछे ध्वजा लेकर चलता था। सम्भवतः यह | वायु में इसे धर्मवृद्ध राजा का पुत्र कहा गया है (प्रतिक्षत्र जयद्रथ का भाई रहा होगा (म. व. २४९.१०)।। २. देखिये)। अर्जुन ने इसका वध किया था (म. व. २५५.१२१४*)। प्रतिप्रभ आत्रेय-एक वैदिक सूक्तद्रष्टा (ऋ. ५.४९)। इसके नाम के लिये 'पराकु' पाठभेद प्राप्त है। प्रतिबंधक-(सू. निमि.) प्रतित्वक राजा का नामांतर प्रतापाग्य-एक योद्धा, जो रामचन्द्र के अश्वमेध | (प्रतित्वक देखिये)। विष्णु में इसे मरु राजा का पुत्र यज्ञ के समय शत्रुघ्न के साथ अश्वरक्षणार्थे गया था | कहा गया है। (पन. पा. ११.२२)। दमन नामक राक्षस से इसका युद्ध | | प्रतिवाहु-(सो. वृष्णि.) एक यादव राजा, जो हआ था, जिसमें यह मूञ्छित हुआ था (पन. पा. २३)। | भागवत के अनुसार, श्वफल्क राजा का पुत्र था। इसकी प्रतापिन्–एक राजकुमार, जो कुण्डलपुर के सुरथ । माता का नाम नंदिनी है । इसे 'प्रतिवाह' नामांतर भी राजा के दस पुत्रों में से एक था (पन. पा. ४९)। प्राप्त था। प्रति-(सो. क्षत्र.) प्रतिक्षत्र राजा का नामांतर | २. एक राजा, जो कृष्ण का प्रपौत्र, एवं वज्र राजा का ( प्रतिक्षत्र २. देखिये)। भारत में इसे कुश राजा का | पुत्र था। इसके पुत्र का नाम सुबाहु था। पुत्र कहा गया है। प्रतिभानु-श्रीकृष्ण एवं सत्यभामा के पुत्रों में से __ प्रतिक्षत्र-(सो. क्रोष्टु.) एक क्रोष्टुवंशीय राजा, एक जो विष्णु एवं मत्स्य के अनुसार शमीक राजा का पुत्र था।। | प्रतिभानु आत्रेय--एक वैदिक सूक्तद्रष्टा (ऋ. ५. २. (सो. क्षत्र.) एक राजा, जो विष्णु के अनुसार, क्षत्रवृद्ध राजा का पुत्र था । वायु में इसका नाम 'प्रतिपक्ष' प्रतिमेधस्-सुमेधस् देवों में से एक । एवं भागवत में 'प्रति' दिया गया है। यह किस देश | में राज्य करता था, कहना कठिन है । हरिवंश में इसे प्रतिरथ-(सो. पूरु.) एक पूरुवंशीय राजा, जो . पुरूरवस्वंशीय अनेनस् राजा का पुत्र कहा गया है, एवं मतिनार राजा का पुत्र था। इसके पुत्र का नाम कण्व (अग्नि. २७७.५, गरुड, १४०.४)। इसका वंश भी वहाँ दिया गया है (ह. वं. १.२९; प्रतिरथ आत्रेय--एक वैदिक सूक्तद्रष्टा (ऋ. ५. अनेनस् देखिये)। इसके वंश की जानकारी अन्य पुराणों में भी दी गयी प्रतिरूप-एक दैत्य, जो एक समय समस्त पृथ्वी का है (भा. ९.१७.१६-१८; ब्रह्म. ११.२७.३१; वायु. ९७. शासक था। किंतु अंत में कालवश हो कर, इसे अपना ७-११। समस्त राज्य छोडना पड़ा (म. शां २२०. ५२-५५)। प्रतिक्षत्र आत्रेय-एक वैदिक सूक्तद्रष्टा (ऋ. ५.४. प्रतिरूपा-- स्वायंभुव मन्वंतर के अग्नीध्र राजा की स्नुषा, एवं अग्नीध्रपुत्र किंपुरुष की पत्नी । यह मेरु की प्रतिक्षिप्त-(सो. क्रोष्टु.) क्रोष्टुवंशीय प्रतिक्षत्र राजा कन्या थी (भा. ५.२. २३)।. का नामांतर (प्रतिक्षत्र २. देखिये)। प्रतिवाह--(सो. वृष्णि.) प्रतिबाहु नामक यादव प्रतिक्षेत्र (सो. क्रोष्टु.) एक क्रोष्टुवंशीय राजा, जो राजा का नामांतर (प्रतिबाह १. देखिये)।। शोणाश्व राजा का पुत्र था। इसके पुत्र का नाम भोज था प्रतिविंध्य-(सो. कुरु.) युधिष्ठिर राजा का द्रौपदी (पद्म. स. १३)। से उत्पन्न पुत्र (म. आ. ५७. १०२, ९०.८२, भा. प्रतित्वक-(सू. निमि.) एक राजा, जो वायु के | ९.२२.२९)। जन्म के समय यह विन्ध्य पर्वत के अनुसार, मरु राजा का पुत्र था। इसे 'प्रतिबंधक', | सदृश अचल दिखाई पड़ा, अतएव इसे 'प्रतिविन्ध्य' 'प्रतीपक', 'प्रतींधक' एवं 'प्रदीपक' नामांतर भी नाम प्रदान किया गया (म. आ. २१३. ७२)। महाप्राप्त है। भारत में इसे 'यौधिष्ठिर' एवं 'यौधिष्ठिरि' कहा गया है। प्रतिथि देवतरथ-एक आचार्य, जो देवतरस् भारतीय युद्ध में इसके अश्व शुभ्रवर्ण के कहे गये हैं, श्यावसायन ऋषि का शिष्य था। इसके शिष्य का नाम जिनके कंठ नीले थे। इसका चित्र राजा के साथ युद्ध निकोथन था (पं. बा.२)। हुआ था, जिसमें इसने उसका वध किया (म. क. ४६८ Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिविंध्य १०.३१ ) । अलम्बुश एवं दुःशासन के साथ भी इसका युद्ध हुआ था, किन्तु उन दोनों युद्ध में यह पराजित हुआ (म. भी. ९६.३७-४९; द्रो. १४३-३१-४२ ) । अश्वत्थामनू ने रात्रि के समय सोते हुए पाण्डवों के कुटुम्बियों का संहार किया था, जिसमें यह भी मारा गया ( म. द्रो. २२. २०, सौ. ८.५० ) । इसका मृत्युदिन मार्गशीर्ष अमावस्या माना जाता है ( भारतसावित्री ) । २. शाकल देश का एक सुविख्यात राजा, जो एकचक्र नामक दैत्य के अंश से उत्पन्न हुआ था ( म. आ. ६१.२२) । युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ के समय अर्जुन ने इसे पराजित किया था ( म. स. २३. १५ ) । भारतीय युद्ध में, यह पाण्डवों के पक्ष में शामिल था ( म. उ. ४. १३)। प्राचीन चरित्रकोश प्रतिवेश्य -- एक आचार्य, जो बृहद्दिव का शिष्य था (सां. आ. १५. १ )। इसके शिष्य का नाम प्रातिवेश्य था । प्रतिव्यूह -- ( सू. इ. भविष्य. ) एक राजा, जो वायु के अनुसार वत्सव्यूह राजा का पुत्र था । इसे प्रतिव्योम' नामांतर भी प्राप्त है । जो प्रतिव्योमन् - - ( सृइ. भविष्य. ) एक राजा, भागवत के अनुसार वत्सवृद्ध का, विष्णु के अनुसार वत्स व्यूह का और मत्स्य के अनुसार वत्सद्रोह का पुत्र था । इसे प्रतिव्यूह नामांतर भी प्राप्त है । प्रतिश्रवस् -- प्रतीप नामक एक कुरुवंशीय राजा का नामांतर (प्रतीप १. देखिये ) । प्रतीप पुत्र था । इसके पुत्र का नाम ओघवत् था ( भा. ९.२. १८ ) । प्रतीकाश्व -- ( सू इ. भविष्य.) एक राजा, जो भागवत के अनुसार भानुमत् राजा का पुत्र था । इसे 'प्रतीकाश्व' और 'प्रतीपाश्व' नामांतर प्राप्त थे । प्रतीच्या -- महर्षि पुलस्य की पतिव्रता पत्नी ( म. उ. ११५.११* ) । प्रतीच्या के स्थान पर कही कहीं संध्या पाठभेद भी प्राप्त है। प्रतीत--स्वारोचिष मनु के पुत्र प्रथित का नामांतर । २. एक विश्वदेव (म. अनु. ९१.३२ ) । प्रतीताश्व - - (सु. इ. भविष्य . ) एक राजा, जो वायु के अनुसार भानुरथ का पुत्र था । इसे 'प्रतीकाश्व नामांतर प्राप्त है (प्रतीकाश्व देखिये)। प्रतीदर्श वैन - एक वैदिक राजा, जो पांचाल देश के राजा सुप्लन् सहदेव का समकालीन था । यह 'श्विनको ' का राजा था, जिस कारण इसे 'वैन्क' उपाधि प्राप्त हुयी । शतपथ ब्राह्मण में, इसे प्रतीदर्श ऐभावत कहा गया है, जिससे यह किसी इभावत् का वंशज प्रतीत होता है (श. बा. १२. ८. २.३ ) । से शतपथ ब्राह्मण के अनुसार, यह एक बार राजगद्दी पदच्युत किया गया था । किन्तु दाक्षायणयज्ञ अथवा वसिष्ठयज्ञ करने के पश्चात् इसे पुनः राजगद्दी प्राप्त हुयी । आगे चलकर यह पुनः लोकप्रिय राजा हुआ ( श. ब्रा. २. ४. ४. ३-४)। प्रतीन्धक -- निमिवंशीय प्रतित्वक राजी का नामांतर ( प्रतित्वक देखिये ) । प्रतिश्रुत - वसुदेव का शांतिदेवा से उत्पन्न पुत्र ( भा. ९. २४. ५० ) । प्रतिष्ठा - स्कंद की अनुचरी मातृका ( म. श. ४५. ( २८ ) । प्रतिहर्तृ - - ( स्वा. प्रिय. ) एक यज्ञकर्मप्रवीण राजा, जो प्रतीह राजा के तीन पुत्रों में से ज्येष्ठ था । इसकी माता का नाम सुवर्चला था। इसकी स्त्री का नाम स्तुति था, जिससे इसे अज और भूमन् नामक दो पुत्र थे (भा. .५. १५. ५ )। विष्णु में इसे नाभिवंशीय प्रतिहार राजा का पुत्र कहा गया है । २. मरुग्दणो के छठवें गण में से एक । प्रतिहार - ( स्वा. नाभि . ) एक नाभिवंशीय राजा, जो विष्णु के अनुसार परमेष्ठिन् राजा का पुत्र था । प्रतीक - (सू. नृग . ) एक राजा, जो वसु राजा का ४६९ प्रतीप - (सो. कुरु. ) एक विख्यात कुरुवंशीय राजा, जो भागवत, विष्णु, मत्स्य, भविष्य और वायु के अनुसार, भीमसेन का प्रपौत्र और दिलीप का पुत्र था । किन्तु महाभारत में इसे भीमसेन राजा का पुत्र कहा गया है, एवं केकय राजकन्या सुकुमारी को इसकी माता कहा गया । इसे परिश्रवस् ( पर्यश्रवस् ) नामांतर भी प्राप्त है (मं. आ. ९०.४५ ) । यह ब्रह्मदत्त राजा का समकालीन था, एवं भीष्म का पितामह था (ह. वं. १० २०. ११-१२ ) महाभारत में इसका वंशक्रम निम्न प्रकार दिया गया है:- कुरु - विदूरथ अरुग्वत् - परिक्षित्भीमसेन -प्रतिश्रवस् तथा प्रतीप (म. आ. ९०.४१ - ४५) । इसकी पत्नी का नाम शैब्या सुनन्दा था, जिससे इसे देवापि, शन्तनु तथा बाह्रीक नामक पुत्र थे ( म. आ. । ९०.४६ ) । Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतीप प्राचीन चरित्रकोश प्रदोष महाभारत में अन्य एक स्थान पर इसे जनमेजय | प्रतीह -- (स्वा. प्रिय.) एक राजा, जो परमेष्ठिन् राजा पारिक्षित (प्रथम) का पौत्र एवं धृतराष्ट्र राजा का पुत्र | का पुत्र था। इसकी माता तथा स्त्री दोनों का ही नाम कहा गया है। वहाँ इसका वंशक्रम निम्नप्रकार से दिया सुवर्चला है । इसके प्रतिहर्तृ, प्रस्तोतृ और उद्गातृ गया है :--कुरु-अविक्षित् एवं परिक्षित्-जनमेजय- | नामक तीन पुत्र थे (भा. ५.१५.३)। धृतराष्ट्र-प्रतीप (म. आ. ८९.४२-५२)। प्रतृ-तृत्सु नामक जातिसमूह का नामांतर (ऋ. ७ यह काफ़ी वृद्ध हो गया था, फिर भी इसे कोई पुत्र | ३३.१४) तुत्सु राजा दिवोदास के वंश में प्रदिन नामक न था। अतएव सन्तानप्राप्ति की इच्छा से इसने तप | एक राजा उत्पन्न हुआ था, जो तृत्सु एवं 'प्रतृद्' के करना प्रारम्भ किया । तपस्या करते समय, एक दिन | समीकरण की पुष्टि करता है (लुडविग-ऋग्वेद अनुवाद, मनस्विनी गंगा उत्तम गुणों से युक्त होकर एक नवयौवना | ३.१५९) स्त्री का रूप धारण कर उपस्थित हुयीं, और इसके गोद प्रतोष- यज्ञ नामक विष्णु के सातवें अवतार का पुत्र, में जा बैठी। गंगा ने प्रतीप से प्रार्थना की, 'वह उसे | जिसकी माता का नाम दक्षिणा था। पत्नी के रूप में स्वीकार करले' पर इसने उस प्रार्थना को २. स्वारोचिष मन्वंतर का एक देव। इन्कार करते हुए कहा, जब मुझे पुत्र होगा, तब उससे प्रत्यग्र- (सो.ऋक्ष.) एक राजा, जो भागवत और तुम विवाह करना। विष्णु के अनुसार उपरिचर वसु के पुत्रों में से एक था तपश्चर्या के उपरांत यह अपने निवासस्थान वापस (म.आ.६४.४४ वायु एवं मत्स्य में इसके नाम क्रमशः। आया। कालान्तर में, इसे शंतनु, देवापि तथा बाह्रीक | प्रत्यग्रह, तथा प्रत्यश्रवस् दिये गये हैं (वा. रा. बा. ३२. नामक तीन पुत्र हुए । शंतनु को यह अत्यधिक चाहता था। अतएव मृत्यु के समय इसने उससे कहा 'तुम मेरी यह 'चैद्यवंश' का अन्तिम राजा प्रतीत होता है, . आज्ञा मान कर अरण्य में जाओ। वहाँ तुम्हें एक सुन्दर क्यांकि, इसके वंश की चली आई परंपरा का इतिहास स्त्री मिलेगी, जो तुमसे विवाह की इच्छा प्रकट करेगी। इसके उपरांत लुप्तप्राय है । केवल तीन राजाओं के नाम .. तुम विना किसी सोच विचार के उससे विवाह कर लेना। | भारतीय युद्धकाल में मिलते हैं जिसके नाम, दमघोष, पश्चात् , शंतनु जंगल में गया एवं गंगा से उसका विवाह | शिशुपाल, और धृष्टकेतु है ।। हो गया (म. आ. ९०५०)। प्रत्यग्रह--उपरिचर वसु के द्वितीय पुत्र प्रत्यग्र राजा २. बहासावर्णि मन्वन्तर के सप्तर्षियों में से एक ऋषि । | का नामांतर (प्रत्यूह देखिये)। प्रत्यंग--एक प्राचीन नरेश (म. आ. १.१७८)। . . प्रतीप प्रीतिसुत्वन-अथर्ववेद में निर्दिष्ट एक राजा (अ. वे. २०.१२९. २; ऐ. ब्रा. ६. ३३.२)। प्रत्यश्रवस--उपरिचर वसु के द्वितीय पुत्र प्रत्यग्र सांख्यायन श्रौतसूत्र में इसे केवल 'प्रतिसुत्वन' कहा राजा का नामांतर (प्रत्यग्र देखिये)। गया है, जिस शब्द की निरुक्ति बोटलिंग के अनुसार प्रत्यह--भगुकुल के गोत्रकार । प्रत्यूह का नामांतर । यह है-- सत्वनों के विपरीत दिशा में जिसका जन्म प्रत्यूष-अष्टवसुओं में से एक, जो धर्म एवं प्रभाता हुआ था। का पुत्र था (म. आ. ६०.१७-१९; प्रत्यूह देखिये)। प्रतीपक-निमिवंशीय प्रतित्वक राजा का नामांतर प्रत्यूह-- भृगुकुल का एक गोत्रकार । इसके नाम के (प्रतित्वक देखिये)। लिए 'प्रत्यूष-पाठभेद भी प्राप्त है । प्रथ वासिष्ट--एक वैदिक मंत्रद्रष्टा (ऋ. १०.१८१.१)। प्रतीपाश्च (सू. इ. भविष्य.) इक्ष्वाकुवंशीय प्रतीकाश्व प्रथित-- स्वारोचिष मनु के पुत्रों में से एक। राजा का नामांतर (प्रतीकाश्व देखिये)। मत्स्य में इसे प्रदातृ-एक विश्वेदेव (म. अनु. ९१.३२)। ध्रुवाश्व राजा का पुत्र कहा गया है। प्रदीपक--निमिवंशीय प्रतित्वक राजा का नामांतर प्रतीबोध--अथर्ववेद में निर्दिष्ट एक ऋषि, जिसका (प्रतित्वक देखिये)। बोध ऋऽपि के साथ उल्लेख आया है (अ.व. ५.३०. प्रदोष--(स्वा. उत्तान.) एक राजा, जो पुष्पाणे १०८.१.१३) राजा का ज्येष्ठ पुत्र था। इसकी माता का नाम दोषा था प्रतीर-- भौत्य मनु का पुत्र । | (भा. ४.१३.१४)। ४७० Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रद्युम्न प्राचीन चरित्रकोश प्रद्युम्न--एक राजा, जो चक्षुर्मनु के बारह पुत्र में से | मिलने गया (विष्णु. ५.२६, ह. वं. २.१०४-१०७; भा. एक था। इसकी माता का नाम नवला (भा. ४.१३. '| १०.५५)। १६)। इसे 'सुद्युम्न' नामांतर भी प्राप्त है। हरिवंश में, यह कथा कुछ इसी प्रकार दी गयी है, २. (सू. निमि.) एक राजा, जो वायु के अनुसार अन्तर केवल इतना है कि, शंबरासुर ने शिशु प्रद्युम्न को भानुमत् राजा का पुत्र था। समुद्र में न फेंक कर, उसे मायावती को दे दिया, क्योंकि ३. (सो. क्रोष्टु.) एक सुविख्यात यादव राजा, जो सनत्कुमार के अंश से भगवान् कृष्ण को रुक्मिणी से निःसंतान होने के कारण वह दुःखित थी। ब्रह्मवैवर्त पुराण में प्राप्त कथा हरिवंश से मिलती उत्पन्न हुआ था (म. आ.६१.९१)। यह श्रीकृष्ण का तीसरा स्वरूप माना जाता है (म. अनु. १५८.३९)। | जुलती है। अन्तर केवल इतना है कि, प्रद्युम्न के बड़े हो जाने पर एक दिन सरस्वती मायावती के पास आयी पूर्वजन्म-यह मदन का अवतार था, जिसने . और उसने ही शंबरासुर के पूर्व कुकृत्यों का लेखा जोखा शंबरासुर का वध करने के लिए रुक्मिणी की कोख में प्रद्युम्न तथा मायावती के सम्मुख प्रस्तुत किया उस कारण जन्म लिया था। शंबरासुर की पत्नी मायावती, पूर्वजन्म प्रद्युम्न ने शंबरासुर का वध किया (ब्रह्मवै. ४. ११२)। में इसकी पत्नी रति थी। पूर्वजन्म में मदन की मृत्यु के उपरांत, इसकी पत्नी रति को शंबरासुर भगा लाया, इसी प्रद्युम्न-शाल्व युद्ध--प्रद्युम्न यादव सेना का महारथि का बदला लेने के लिए इसे अवतार लेना पड़ा। था (भा. १०. ९०.३३)। कृष्ण ने राजसूय यज्ञ में शिशुपाल का वध किया था। उससे क्रुद्ध होकर अपने बाल्यकाल--शंबरासुर को जैसे ही ज्ञात हुआ कि मित्र शिशपाल का बदला लेने के लिए, शाल्व ने बड़े जोर मदन ने उसका वध करने के हेतु प्रद्युम्न के रूप में रुक्मिणी शोर से कृष्ण की द्वारका पर चढ़ाई कर दी। युद्ध की के उदर में जन्म लिया हैं, वह तत्काल सूतिकागृह में जा विकरालता को देख कर, यादवसेना घबरा गयी। तब इसने कर छः दिन के शिशु प्रद्युम्न को लेकर भागा, तथा इसे यादवसेना का नेतृत्व कर बड़े पराक्रम के साथ शाल्व का ले जाकर समुद्र में फेंक कर निश्चिंत हो गया। दैवयोग मुकाबला किया (म. व. १६. ३०-३२, म. व. १७)। से, इसे एक मछली ने निगल लिया, तथा यह वहाँ युद्ध करते करते यह युद्धभूमि में मूर्छित हो गया (म.व. उसके पेट में भी जीवित रहा। यह मछली एक मछुए | १७. २२)। इसका सारथि सूतपुत्र दारुक इसे रणभूमि को मिली। मछुए ने अच्छी मछली देखकर उसे शंबरा से हटा कर ले गया (म. व. १८.३)। ठीक हो जाने सुर को भेंट की। पर, यह पुनः युद्धभूमि में आ उठा, और घमासान शंबरासुर हँसी-खुशी घर आया तथा उक्त मछली को | युद्ध करके अपने शत्रुनाशक अद्भुत बाण से शाल्व को अपनी स्त्री मायावती को दे दी। जैसे ही मायावती ने | परास्त किया (म.व. १५.१६.२०;भा. १०.७६.१३)। मछली काटी वैसे ही उसमें एक दिव्य बालक को देखकर वह | युधिष्ठिर द्वारा किये गये अश्वमेध यज्ञ में, इसने उसकी आश्चर्यचकित हो गयी, एवं उसके मन में विभिन्न शंकाएँ | काफी सहायता की थी, और यह हस्तिनापुर आया था उठने लगी। उसी क्षण भ्रमण करते हुए नारद वहाँ आ | (म. आश्व. ६५.३)। यही नहीं, अश्वरक्षण के लिए यह पहुँचे तथा उन्होने मायावती की शंका का समाधान करते | ससैन्य अर्जुनादि के साथ देशविदेश गया था (जै. अ. हुए कहा, 'यह दिव्य बालक साधारण न होकर साक्षात् | १२)। मदन है, जिसने इस जन्म में रुक्मिणी के उदर में जन्म | कालान्तर में, यादववंशीय लोग आपस में एक दूसरे से लिया है। पूर्वजन्म में तुम इसकी पत्नी रति, थीं, अतः | लड़ने लगे, जिससे कि उनमें वह शक्ति न रह गयी जो तुम इसकी सेवा करो। यह तुम्हारा पति है।'नारद के | पूर्व थी। मौसल युद्ध में उनका भोजों के साथ युद्ध हुआ, वचनों का विश्वास करके, मायावती अत्यधिक आनन्दित | जिसमें प्रद्युम्न की मृत्यु हो गयी (म. मौ. ४.३३; भा. हुयी। उसने बालक प्रद्यम्न को पाल-पोस कर बड़ा किया, | ११.३०.१६; गणेश. १.४९)। मृत्योपरांत यह सनतथा सारी विद्याओं में उसे पारंगत कराया। कालान्तर में. | कुमार के स्वरूप में प्रविष्ट हो गया (म. स्व. ५.११)। बड़े होने के बाद इसका और शंबरासुर का युद्ध हुआ, | परिवार--इसे- शतद्युम्न नामांतर भी प्राप्त है । जिसमें इसने शंबरासुर का वध किया। पश्चात् अपनी | मायावती के अतिरिक्त, रुक्मिन् की कन्या रुक्मवती अथवा भार्या को पुनः प्राप्त कर, यह उसके साथ रुक्मिणी से | शुभांगी इसकी दूसरी पत्नी थी (भा. १०.६१.१८; ४७१ Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रद्युम्न प्राचीन चरित्रकोश प्रभंजन ९०.१६), जिसने स्वयंवर में इसका वरण किया था। वर्षों तक राज्य किया (भा. १२.१; विष्णु. ४.२२.२४; (ह. वं. २.६१.४)। रुक्मवती (शुभांगी) से इसे | वायु. ९९.३११-३१४)। अनिरुद्ध नामक पुत्र था (म. भी. ६५.७१)। इस वंश का राज्यकाल संभवतः ७४५ ई. पू. से. वज्रनाभ दैत्य की कन्या प्रभावती इसकी तीसरी पत्नी ६९० ई. पू. के बीच माना जाता है। उक्त राजाओं के थी, जिसका इसने हरण किया था (ह. वं. २. ९०. नाम सभी पुराणों में एक से मिलते हैं । जनक तथा नंद४)। इस कारण वज्रनाभ का भाई निकुंभ से इसका युद्ध | वर्धन राजाओं के नामांतर केवल वायु में प्राप्त है। हुआ था। | प्रद्वेषी-अंगिराकुलोत्पन्न दीर्घतमस् ऋषि की पत्नी, प्रद्युम्न से बदला लेने के लिए, निकुंभ ने भानु यादव | जिससे इसे गौतमादि पुत्र उप्तन्न हुए थे। की कन्या भानुमती का हरण किया। इससे क्रुद्ध हो कर दीर्घतमस् ऋषि बूढ़ा एवं अंधा होने के कारण, यह कृष्णार्जुनों ने निकुंभ पर हमला किया, जिसमें यह भी उससे तलाक लेना चाहती थी। किंतु एक धर्मशास्त्रकार . निकुंभ के विपक्ष में था । इस युद्ध में इसने अपने | के नाते से दीर्घतमस् ने इसे धर्मनीति का उपदेश देते मायावी युद्धकौशल का अच्छा परिचय दिया। अन्त हुए कहा, 'पत्नी का कर्तव्य है कि एक व्यक्ति को ही में निकुंभ श्रीकृष्ण द्वारा मारा गया (ह. वं. २. ९०- अपना पति मान कर अपने संपूर्ण जीवन को उसे ९१)। | समर्पित कर दे। दीर्घतमस् के द्वारा इतना समझाये. प्रद्योत--कुबेरसभा का एक यक्ष (म. स. १०. जाने पर भी यह न मानी, तथा अपने गौतमादि पुत्रों १५)। की सहायता से इसने दीर्घतमस् को उठा कर नदी में ' २. (प्रद्योत. भविष्य.) प्रद्योत वंश का प्रथम राजा, | झोंक दिया (दीर्घतमस् देखिये; म. आ. ९८.१०३७*3 जो शुनक का पुत्र था। वायु में इसे सुनीक का पुत्र कहा | परि. १.५६)। गया है। प्रधान--एक प्राचीन राजर्षि, जिसे सुलभा नामक . इसका पिता शुनक सूर्यवंश का अंतिम राजा रिपुंजय | सुविख्यात ब्रह्मनिष्ठ कन्या थी । सुलभा के साथ जिंदेहराज . अथवा अरिंजय राजा का महामात्य था। उसने रिपुंजय जनक का तत्वज्ञान के विषय पर संवाद हुआ, जो सुविराजा का वध कर, राजगद्दी पर अपने पुत्र प्रद्योत को ख्यात है (म. शां. ३०८.१८२, सुलभा देखिये) बिठाया, जिससे आगे चल कर प्रद्योत राजवंश की स्थापना प्रधिमि--एक ऋषि, जो जटीमालिन् नामक शिवाहुयी। वतार का शिष्य था। . भविष्य में इसे क्षेमक का पुत्र कहा गया है, एवं इसे | प्रपोहय--पराशरकुल का एक गोत्रकार ऋषिगण । 'म्लेच्छहंता' उपाधि दी गयी है (भवि. प्रति. १. ४)। प्रबल-कृष्ण का लक्ष्मणा से उत्पन्न पुत्र (भा. १०. इसके पिता क्षेमक अथवा शुनक का म्लेच्छों ने वध | ६१.१५)। किया। अपने पिता की मृत्यु का बदला लेने के लिए, २. विष्णु का एक पार्षद (भा. ८.२१.१६)। नारद के सलाह से इसने ' म्लेच्छयज्ञ' आरभ्म किया। प्रबाहु-कौरवपक्ष का योद्धा । इसने अमिमन्यु पर उस यज्ञ के लिए इसने सोलह मील लम्बा एक यज्ञ-कुण्ड | बाणों की वर्षा की थी (म. द्रो..३६.२५.२६)। तैयार किया। पश्चात् , इसने वेदमंत्रों के साथ निम्न- प्रबुद्ध--(स्वा. प्रिय.) एक भगवद्भक्त राजर्षि, जो लिखित म्लेच्छ जातियों को जला कर भस्म कर दियाः- | ऋषभदेव के नौ सिद्धपुत्रों में से एक था। इसने निमि हारहूण, बर्बर, गुरुंड, शक, खस, यवन, पल्लव, रोमज, | को उपदेश दिया था (भा. ५.४.११, ११.३.१८)। खरसंभव द्वीप के कामस, तथा सागर के मध्यभाग में | प्रभ-रामसेना का एक वानर (वा. रा. उ. ३६.)। स्थित चीन के म्लेच्छ लोग। इसी यज्ञ के कारण इसे | प्रभंकर--जयद्रथ राजा का भाई (म.व. २४९.११)। 'म्लेच्छहंता' उपाधि प्राप्त हुयी। प्रभंजन--एक राजा, जो मणिपुरनरेश चित्रवाहन का प्रद्योतवंश-प्रद्योत के राजवंश में कुल पाँच राजा हुए, पूर्वज था। पाठभेद (भांडारकर संहिता)--'प्रभंकर'। जिनके नाम क्रम से इस प्रकार थे:-प्रद्योत, पालक, विशाख- प्रभंजन राजा ने निःसंतान होने कारण, शिव की उग्र यूप, जनक (अजक), तथा नंदवर्धन (नंदिवर्धन अथवा | तपस्या कर के उनसे वंशवृद्धि के लिए संतान प्राप्ति की . वर्तिवर्धन)। इन सभी राजाओं ने कुल एक सौ अड़तीस | प्रार्थना की। तपस्या से संतुष्ट, होकर शिव ने वरदान ४७२ Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रभंजन प्राचीन चरित्रकोश प्रभावती दिया, 'तुम्हारे वंश में कोई व्यक्ति निःसंतान न होगा। ३. अलकापुरी की एक अप्सरा, जिसने अष्टावक्र के पर हर व्यक्ति के केवल एक एक ही संतान होगी, उससे स्वागतसमारोह में नृत्य किया था (म. अनु. १९.४५)। अधिक नहीं।' ४. (स्वा. उत्तान.) पुष्पार्ण राजाकी दो स्त्रियों में से वरप्राप्ति के उपरांत, इसके कुल में हर एक को एक एक (भा. ४.१३.१३)। एक पुत्र हुआ, और चित्रवाहन तक राज्य चलता रहा। ५. स्वर्भानु नामक दानव की कन्या, जिसका विवाह किन्तु चित्रवाहन के चित्रांगदा नामक कन्या हुयी। आयु राजा से हुआ था। इसे नहुष आदि पुत्र थे (ब्रह्मांड. चित्रवाहन राजा को इसी कन्या के द्वारा बंश आगे ३.६.२६)। चलाना था। इसलिए चित्रवाहन ने 'दौहित्राधिकार के । ६. सगर की सुमति नामक ज्येष्ठ पत्नी का नामांतर । शर्त पर, यह कन्या अर्जन को दी। पश्चात चित्रांगदा को इससे ही सगर को साठ हज़ार पुत्र हुये थे (मत्स्य. १२. अर्जुन से बभ्रुवाहन नामक पुत्र उत्पन्न हुआ, जिसे चित्र- ३९-४२)। वाहन ने मणिपुर का राज्य प्रदान किया (म. आ. | | ७. मद्रदेश का राजा प्रियव्रत की एक पत्नी (प्रियव्रत २०७)। ३. देखिये)। २. गंधवती नगरी का राजा । दस हजार वर्षों तक शिव | प्रभाकर-अत्रिकुल का एक महान् ऋषि, जिसका की आराधना कर के इसने 'दिगपालत्व' प्राप्त किया। विवाह पूरुवशाय राद्राश्व ( भद्राश्व ) का घृताचा अप्सरा इसके पुत्र का नाम पूतात्मन् था (स्कन्द. ४.१.१३)। से उत्पन्न दस कन्याओं से हुआ था। इसकी पत्नियों के नाम इस प्रकार थे-रुद्रा, शूद्रा, भद्रा, मलदा, मलहा, ३. क्षत्रियकुलोत्पन्न एक राजा । बालक को स्तनपान कराती हुई हिरनी को बाण से इसने मारा। उसके द्वारा खलदा, नलदा, सुरसा, गोचपला तथा स्त्रीरत्नकूटा। दिये गये शाप के कारण, १०० वर्षों तक इसे व्याघ्र राहु से ग्रसित सूर्य को देखकर उसे कष्ट से उबारने योनि में रहना पड़ा। व्याघयोनि में जब इसे नंदा नामक के लिए, इसने 'स्वस्ति' कहा, जिससे सूर्य कष्ट से . गाय ने उपदेश दिया, तब यह व्याघ्रदेह को नष्ट कर पुनः मुक्तता पा कर पुनः पूर्व की भाँति प्रकाशित होने लगा। इस पुण्यकृत्य के कारण इसे प्रभाकर नाम प्राप्त हुआ। राजदेह प्राप्त कर सका (पद्म. स. १८)। ज्ञानगरिमा तथा योग्यता के बल पर इसने अत्रिकुल के : प्रभंद्रक-पांचालो का एक क्षत्रियदल, जो भारतीय गौरव को संवर्धित किया। • युद्ध में पांडवो के पक्ष में शामिल था (म. उ. ५६.३३)। ___ एक बार इसने यज्ञ किया, जिसके उपलक्ष में देवों ने ये युद्ध में अजेय थे, एवं प्रायः द्रुपदपुत्र धृष्टद्युम्न तथा विपुल धनराशि के साथ साथ इसे दस पुत्र प्रदान किये। शिलणडी का अनुगमन करते थे (म. भी.१९.२१-२२; उनमें से प्रमुख इस प्रकार थे:--स्वस्ति, आत्रेय, कक्षेय, ५२.१४ )। संस्त्रय, सभानर, चाक्षुष तथा परमन्यु (ह. वं. १.३१. ये अधिकतर शल्य द्वारा मारे गये (म. श. १०. ८-१७)। २१)। जो व्यक्ति शल्य के द्वारा बाकी बचे थे, वे अश्व २. एक कश्यपवंशीय नाग। स्थामा द्वारा रात्रिसंहार में मारे गये (म. सौ. ८.६१)। । ३. सुतप देवों में से एक । प्रभद्रा--अंगराज कर्ण के पुत्र वृषकेतु की पत्नी। प्रभाता--धर्म की पत्नी वसु का नामांतर । प्राचेतस इसे भद्रावती नामांतर भी प्राप्त है (जै. अ. ६३)। दक्ष की कन्या एवं धर्म की पत्नी वसु को कल्यभेदानुसार प्रभव--एक देव, जो भृगु तथा पौलोमी के पुत्रों में प्रभाता, धूम्रा आदि नाम प्राप्त थे (वसु १५. देखिये)। से एक था। प्रत्यूष तथा प्रभास नामक दो वसु इसके पुत्र माने जाते प्रभा-विवस्वान् आदित्य की पत्नी, जिसकी संज्ञा हैं (म. आ. ६०.१९)। तथा राजी नामक दो सौतें थीं। इसके पुत्र का नाम प्रभात प्रभानु--श्रीकृष्ण का सत्यभामा से उत्पन्न पुत्र (भा. था (पद्म. स. ८)। १०.६१.१०)। २. देवमाताओं में से एक, जो ब्रह्मा के सभा में रहकर प्रभावती--मेरुसावर्णि की कन्या स्वयंप्रभा का उनकी उपासना करती थी (म. स. ११.१३२%, पंक्ति नामांतर ( स्वयंप्रभा देखिये; म. व. २६६.४१)। यह १)। इसके नाम के लिए 'प्राधा' पाठभेद उपलब्ध है। एक तपस्विनी थी, जो मय दानव के निवासस्थान पर प्रा. च. ६०] Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रभावती प्राचीन चरित्रकोश प्रमति तपस्या करती थी। यह सीता की खोज में गये वानरों से । | ९. शुक ऋषि का पीवरी से उत्पन्न एक पुत्र, जिसे मिली थी। पृथु नामांतर भी प्राप्त है। २. यौवनाश्व राजा की पत्नी। प्रभुवसु आंगिरस--एक वैदिक सूक्तद्रष्टा (ऋ.५ ३. चंपकनगरी के राजा हंसध्वज के पुत्र सुधन्वन् | ३५-३६; ९. ३५. ३६)। की पत्नी। प्रभुसुत--इक्ष्वाकुवंशीय प्रसश्रत राजा का नामांतर ४. अंगराज चित्ररथ की पत्नी, जो सुविख्यात ऋषि (प्रसुश्रुत देखिये)। देवशर्मन् की पत्नी रुचि की बड़ी बहन थी (म. अनु. प्रभूति-मरीचिगर्भ देवों में से एक । ४२.८)। इसने अपनी बहन रुचि से दिव्य पुष्प मँगवा | प्रभोज्य--एक वानर, जो राम के पक्ष में शामिल . देने के लिए अनुरोध किया था, जो देवशर्मन् ने अपने | था (वा. रा. उ. ३६.४८)। शिष्य विपुल द्वारा पूरा किया (म. अनु. ४२.१०)। प्रमगंद नैचाशाख-ऋग्वेद में निर्दिष्ट कीकट ५. मयासुर के पुत्र बल नामक दैत्य की पत्नी (बल ८. लोगों का राजा, जो सुदास राजा का शत्रु था (ऋ. ३.५३ देखिये)। | १४) । प्रमगंद नाम से यह कोई अनार्य राजा प्रतीत होता ६. वज्रनाभ नामक दानव की कन्या। वज्रनाभ का है। इसकी नैचाशाख' (नीच जाति में उत्पन्न ) उपाधि वध कर कृष्णपुत्र प्रद्युम्न ने इससे विवाह किया था (ह. | भी इसी ओर संकेत करती है। वं. २.९०-९७)। सायण के अनुसार, नैचाशाख से किसी स्थान के ७. स्कंद की अनुचरी मातृका (म. श. ४५.३)। नाम के सम्बन्ध की ओर संकेत मिलता है। यास्क ने नाम क सम्बन्ध का आर सकत मिलता। ८. सूर्य देव की पत्नियों मे से एक (म. उ. ११५.८)। निरुक्त में इसे कुसीदकपुत्र कहा है (नि. ६.३२)। सम्भव है, इसके नाम प्रमगंद से ही मगध शब्द का प्रभास--एक वसु, जो धर्म का पुत्र था । इसकी निर्माण हुआ। माता का नाम प्रभाता था (म. आ. ६०.१९) । विष्णु में, इसके पुत्र निम्नलिखित बताये गये हैं:--विश्वकर्मन् प्रमतक-एक ऋषि, जो जनमेजय के 'सर्पसत्र' कर (प्रजापति), अजैकपात्, अहिर्बुध्न्य, रुद्र, हर, बहुरूप, सदस्य था (म. आ. ४८.७)। पाठभेद (भांडारकर त्र्यम्बक, अपराजित, बृषाकपि, शम्भु, कपर्दिन्, रेवत्, | संहिता)-'शमठक'। मृगव्याध, शर्व एवं कपालिन् (विष्णु. १. १५)। इन | प्रमति-विष्णु का एक अंवतार, जो चाक्षुष मन्वन्तर पुत्रों में से विश्वकर्मन नामक पुत्र इसे बृहस्पति की बहन | के कलियुग नामक अन्तिम युग में चंद्र का पुत्र, हुआ वरस्त्री ( भुवना) से उत्पन्न हुआ था (म. आ. ६०. | था (मत्स्य. १४४.६०)। २६; ब्रह्मांड. ३.३.२१-२९)। २. प्रयाग के शूर नामक ब्राह्मण का पुत्र, जिसे २. स्कंद का एक सैनिक (म. श. ४४.५९)। इसके सेनापति बना कर कृतयुग के अंतिम चरण में ब्राह्मणों ने नाम के लिये 'प्रवाह' पाठभेद उपलब्ध है। क्षत्रियों को परास्त किया था ( विष्णु धर्म १.७४)। ३. सुतप देवों में से एक। ३. विभीषण के चार अमात्यो में से एक (वा. रा. प्रभु-दक्षयज्ञ के ऋत्विज भग नामक ऋषि को सिद्धि यु. ३७.७)। नामक पत्नी से उत्पन्न पुत्र (भा. ६. १८.२)। ४. च्यवन ऋषि का पुत्र, जिसकी माता का नाम २. स्कंद का एक सैनिक (म. श. ४४.५८)। इसके | सुकन्या था (म. आ. ५.७)। महाभारत में अन्य नाम के लिये 'वासुप्रभ' पाठभेद उपलब्ध है। स्थान पर, इसे वीतहव्य के पुत्र गृत्समद के कुल में ३. तुषित देवों में से एक। जन्म लेनेवाले वागीन्द्र का पुत्र बताया गया है (म. ४. साध्य देवों में से एक। अनु. ३०.५८-६४)। इसे प्रमिति नामांतर भी प्राप्त हैं ५. सुमेधस देवों में से एक । (म. आ.८.२ अनु. ३०.६४)। ६. अमिताभ देवों में से एक । घृताची नामक अप्सरा से इसे रुरु नामक पुत्र उत्पन्न ७. ब्रह्मसभा का एक ऋषि । हुआ था (म. आ. ५.६-७)। स्थूलकेश मुनि की कन्या ८. अंगिराकुल का एक गोत्रकार | | प्रमद्वारा से इसने रुरु का विवाह कराया था (म. आ. ४७४ Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमति. प्राचीन चरित्रकोश प्रमुच ८.१२-१३)। आस्तीकपर्व की कथा इसने रुरु को ३. यमराज के द्वारा स्कंन्द को दिये गये पार्षदों में से सुनाई थी (म. आ.५३.४६७ *)। एक । दूसरे पार्षद का नाम उन्माथ था (म.श.४४.२७)। शरशय्या पर पड़े हुए भीष्म के पास आये हुए | प्रमथिन्–एक राक्षस, जो दूषण राक्षस का छोटा ऋषियों में यह भी एक था। भाई था (म. व. २७१.१९-२०)। यह विश्रवस् ५. (सू. दिष्ट.) एक राजा, जो वायु के अनुसार जन- | ऋषि को बलाका राक्षसी से उत्पन्न पुत्रों में से एक था। मेजय का पुत्र था। भागवत के अनुसार, यह 'प्रजानि' यह कुंभकर्ण का अनुयायीं था। लक्ष्मण के साथ युद्ध राजा का ही नामांतर था (प्रजानि देखिये)। विष्णु में, | करते समय, यह वानर सेनापति नील द्वारा मारा गया इसे 'स्वमति' कहा गया है। था (म. व. २७१.२५)। ६. अमिताभ देवों में से एक। २. दूषण के प्रमाथ नामक अमात्य का नामांतर प्रमथ-एक रुद्रगण, जिन्होंने धर्माधर्मसंबंधी रहस्य | (प्रमाथ १. देखिये)। का कथन किया था (म. अनु. १३१)। ३. धृतराष्ट्र के सौ पुत्रों में से एक, जो भीम के द्वारा २. (सो. कुरु.) धृतराष्ट्र के सौ पुत्रों में से एक। मारा गया था (म. द्रो. १३२.११३५ *, पंक्ति २)। प्रमद--एक वसिष्ठपुत्र, जो उत्तम मन्वंतर के ४. घटोत्कच का साथी एक राक्षस, जिसका दुर्योधन सप्तर्षियों में से एक था (भा. ८.१.२४)। द्वारा वध हुआ था (म. भी. ८७.२०)। २. एक दानव, जो कश्यप एवं दनु का पुत्र था। प्रमाथिनी-एक अप्सरा, जो अर्जुन के जन्मोत्सव प्रमद्वरा--एक अप्सरा, जो मेनका को विश्वावसु के समय उपस्थित थी (म. आ. ११४.५२)। गंधर्व द्वारा उत्पन्न हुयी थी। स्थूलकेश नामक ऋषि ने प्रमाद-वसिष्ठ का पुत्र, जो उत्तम सावर्णि मन्वन्तर इसका पालनपोषण कर, इसका विवाह. रुरु ऋषि से कर के सप्तर्षियों में से एक था। दिया (म. आ. ८.२, १३; अनु. ३०.६५)। रुरु से प्रमिति-च्यवन ऋषि पुत्र प्रमति का नामांतर (प्रमति इसे शुनक नामक पुत्र उत्पन्न हुआ। ४. देखिये)। . एक बार साँप ने इसे काटा, जिससे इसकी मृत्यु हो | प्रमिला-हिमालय-प्रदेश में स्थित 'स्त्रीराज्य' की गयी, फिर पति की आयु से यह पुनः जीवित हो गयी | स्वामिनी । (म. आ. ९.१५)। भारतीय युद्ध के उपरांत, पांडवों द्वारा किये गये प्रमंथ--(स्वा. प्रिय.) एक राजा, जो वीरव्रत राज | अश्वमेध का घोडा भ्रमण करता हआ इसके राज्य में के दो पुत्रों में से कनिष्ठ था। इसकी माता का नाम भोजा आया था, जिसे इसने पकड कर अपने अधिकार में कर था (भा. ५.१५.१५)। लिया। घोडे के संरक्षण के लिए अन्य महारथियों के साथ . प्रमंदनी-अथर्ववेद में निर्दिष्ट एक अप्सरा (अ. वे. | वीर अर्जुन भी था। घोडे के पकडे जाने पर इसका तथा ४.३७.३ )। मूलतः यह शब्द किसी मधुर गंधयुक्त लता अर्जुन का घोर युद्ध हुआ, जिसमें यह अत्यधिक वीरता का नाम है (कौ. स. ८.१७)। के साथ लढ़ी तथा अर्जुन के छक्के छुडा दिये । प्रमंधु--एक यक्ष, जो हरिश्चन्द्र राजा के धन का अर्जन की असमर्थता देख कर आकाशवाणी हुयी, संरक्षक था। इसके शरीर की दुर्गध को विश्वामित्र ने | 'अर्जुन, तुम प्रमिला को युद्ध में परास्त कर के घोड़ा वापस तीर्थोदक की सहायता से दूर किया था ( स्कंद. २.८.७)।। नहीं ले सकते । यदि तुम्हें अश्वमेध के घोडे की रक्षा ही _प्रमर-ऋग्वेद में निर्दिष्ट एक व्यक्ति (ऋ. १०.२७. | करनी है, तो इससे सन्धि कर, विवाह कर के सफलता २०)। .. प्राप्त करो। प्रमाथ--एक राक्षस, जो खरदूषण नामक राक्षसों का अर्जुन ने आकाशवाणी की आज्ञानुसार, प्रमिला से अमात्य था (वा. रा. अर, २३.३३)। वाल्मीकि | सन्धि करके उससे विवाह किया, तथा अश्वमेध के घोडे रामायण में अन्यत्र इसे प्रमाथिन् कहा गया है । इसका | को छुड़ा लिया (जै. अ. २१-२२)। 'वध राम ने किया ( वा. रा. अर. २६.२१)। प्रमुच--दक्षिण दिशा में रहनेवाला एक महर्षि (म. २. राम की सेना का एक वानर । शां. २०१.२७)। ४७५ Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमुचि प्राचीन चरित्रकोश प्रवाहण प्रमुचि-एक ऋषि, जो दाशरथि राम से मिलने | बलराम को अपने कंधे पर रखकर, दैत्याकार रूप धारण अयोध्या आया था (वा. रा. उ. १.३)। कर यह भागने के लिए उद्यत हुआ। फिर बलराम ने प्रमोद ब्रह्मा का मानसपुत्र, जो उसके कंट से उत्पन्न | मस्तक पर मुष्ठिप्रहार कर तत्काल इसका बध किया (ह. हुआ था। इसे हर्ष नामांतर भी प्राप्त है (मत्स्य. ३. व. २.१४; भा. १०.१८, विष्णु. ५.९-३७)। ११)। ___बलराम ने जिस स्थान पर प्रलंब का वध किया था, २. (सू. इ.) एक राजा, जो मत्स्य के अनुसार दृढाश्च उस स्थान को हरिवंश में 'भांडीरवन,' तथा भागवत राजा का पुत्र था। इसे हर्यश्व नामक एक पुत्र था। | में, 'भांडीरवट' कहा गया है। ३. ऐरावतकुल में उत्पन्न एक नाग, जो जनमेजय के महाभारत में प्रलंच का वध बलराम के द्वारा न होकर । सर्पसत्र में मारा गया था (म. आ. ५२.१०)। | कृष्ण के द्वारा हुआ है (म. द्रो. १०..)। बलराम को ४. स्कन्द का एक सैनिक। कृष्ण का अभिन्न रूप माना जाता है। इसी अर्थ से यह प्रमोदन--एक ब्रह्मर्षि (वा. रा. उ. ९०.५)। निर्देश महाभारत में किया गया होगा। प्रमोदिनी--संगित नामक गंधर्व की कन्या (पन. प्रलंबक--एक ऋषि, जो तप नामक शिवावतार का उ. १२८)। शिष्य था। प्रम्लोचा--दस प्रमुख अप्सराओं में से एक, जो प्रलंबायन-एक ऋषिगण, जो वसिष्ठकुलोत्पन्न अर्जुन के जन्मोत्सव में उपस्थित थी (भा. १२.११.३७; | गोत्रकारों में से एक था। म. आ. ११४.५४; स. १०.११)। प्रवसु- (सो. पूरु.) एक पूरुवंशीय राजा, जो ईलिन २. एक अप्सरा, जिसे इन्द्र ने कण्ड ऋषि के तपोभंग | राजा का पुत्र था। इसकी माता का नाम रथंतरी था। के लिए भेजा था। इसकी कन्या का नाम मारिषा था, | इसे निम्नलिखित चार भाई थे:--दुष्यंत, शूर, भीम, जिसे सोम तथा वृक्षों ने पालपोस कर बड़ा किया, एवं | तथा वसु (म. सा. ८ | तथा वसु (म. सा. ८९. १४-१५)। . प्रचेतमों को विवाह में प्रदान किया (भा. ४.३०.१३)। । प्रवहण-उत्तम मन्वन्तर के सप्तर्षियों में से एक। प्रयस्वत आत्रेय--एक वैदिक सूक्तद्रष्टा (ऋ. ५. २. तामस मन्वन्तर के योगवर्धनों में से एक। २०)। प्रवालक-कुबेर की सभा का एक यक्ष (म. स. : प्रयुत--एक गन्धर्व, जो कश्यप एवं मुनि का पुत्र था | १०.१७)। . (म. आ. ५९.४२)। प्रवाह-स्कंद का एक सैनिक (म.श. ४४.६५)। प्रयोग भार्गव-एक वैदिक सूक्तद्रष्टा (ऋ.८.१०२ प्रवाहक--एक ऋषि, जो दंडीमुंडी नामक शिवावतार तै. सं. ५.१.१०.२; क. सं. १९.१०)। का शिष्य था। प्ररुज--अमृत की रक्षा करनेवाला एक देव, जिसका प्रवाहण जैवाल-पांचाल देश का एक राजा, जो गरुड़ से युद्ध हुआ था (म. आ. २८.१९)। दार्शनिक शास्त्रार्थों में प्रवीण था (बृ. उ. ६.१.१.७, २. राक्षसों तथा पिशाचों का एक दल, जो रावण के | माध्यः छां. उ. १.८.१: ५.३.१)। यह उद्दालक राजा पक्ष में शामिल था (म. व. २६९.२)। का समकालीन था। सम्भवतः जैमिनीय उपनिषद् ब्राह्मण प्रलंब--एक राक्षस, जो कश्यप तथा दनु के पुत्रों में में निर्दिष्ट 'जैवलि' इसीका नामांतर है । जीवल का वंशज से एक था (म. आ. ५९.२८)। देवासुर संग्राम में जब होने के कारण, इसे 'जैवलि' अथवा 'जैवल' उपाधि पराजित हुआ था, तब यह उसके विरोध में राक्षसपक्ष | प्राप्त हुयी होगी। की ओर का एक सेनापति था (म. स. परि. १; क्र. यह परम विद्वान् एवं ज्ञानी होने के साथ, तत्वज्ञान का २१)। महापंडित भी था । एक बार इसने अपने पांचाल राज्य में २. एक असुर, जिसे कंस ने कृष्णवध के लिए | तत्वज्ञान परिषद् का आयोजन किया । वहाँ तत्वचर्चा में गोकुल भेजा था। गोकुल में गोपवेष धारण कर, यह इसे पराजित करने के उद्देश्य से, श्वेतकेतु आरुणेय कृष्ण बलराम आदि गोपों के साथ खेलने लगा। खेल | उस परिषद में आया। किन्तु राजा के द्वारा पूँछे गये के बीच में, कृष्ण की अजेय शक्ति का अनुमान लगा कर पाँच प्रश्नों में से एक का भी उत्तर वह न दे सका । पराजित । इसकी हिम्मत कृष्ण से बोलने की न हुयी। इसी कारण होकर वह अपने घर गया, तथा ज्ञान शिक्षा देनेवाले अपने ४७६ Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवाहण प्राचीन चरित्रकोश प्रसूति पिता पर अत्यधिक क्रुद्ध हो कर, प्रवाहण द्वारा पूँछे गये | चित्रांगदा था, जिससे इसने 'पुत्रिकाधर्म' के शर्त पर प्रश्नों के उत्तर पूंछने लगा। अर्जुन को प्रदान किया था। श्वेतकेतु का पिता उद्दालक आरुणि भी उन प्रश्नों का | भारतीय युद्ध में अश्वत्थामा के साथ युद्ध करते समय उत्तर न दे सका। फिर वे दोनों प्रवाहण राजा की शरण में | यह मारा गया (म. क. १५.४२)। आकर, इससे 'ब्रह्मविद्या की दीक्षा माँगने लगे। इसने । ६. एक क्षत्रिय-कुल, जिसमें अजबिंदु नामक कुलांगार स्वयं क्षत्रिय हो कर भी उन ब्राह्मणों को दीक्षित किया।। | राजा उत्पन्न हुआ था (म. उ. ७२.१४)। अब तक यह ज्ञान क्षत्रियों के ही पास था। यह पहली | प्रवीरक--(किलकिला. भविष्य.) किलकिला नगरी व्यक्ति है, जिसने यह परमज्ञान ब्राह्मणों को प्रदान किया। का एक राजा, जो मौन राजवंश के नष्ट होने पर राजगद्दी उद्गीथ की उपासना के सम्बन्ध में इसका 'शिलक पर बैठा था (भा. १२.१.१३)।। शालावाय' एवं 'चैकितायन दाल्भ्य ' नामक ऋषियों से प्रवेपन-तक्षक-कुल का एक नाग, जो जनमेजय के शास्त्रार्थ हुआ था (छां. उ. १.८.१; बृ. उ. ६.२.१)। सर्पसत्र में जलकर भस्म हो गया था (म. आ.५२.८)। प्रवाहित--उत्तम मन्वन्तर के सप्तर्षियों में से एक । प्रशगी-अलकापुरी की एक अप्सरा, जिसने अष्टाप्रविल्लसेन--आंध्रवंशीय पुत्रिकषेण राजा का नामांतर वक्र के स्वागत समारोह में नृत्य किया था (म. अनु. (पुत्रिकषेण देखिये)। ५०.४८)। प्रवीण--भौत्य मनु के पुत्रों में से एक । प्रश्रय--स्वायंभुव मन्वंतर के धर्म ऋषि का ही नामक प्रवीर--काशीनगर का एक चाण्डाल, जिसने राजा स्त्री से उत्पन्न पुत्र। हरिश्चन्द्र को खरीदा था। इसे वीरबाह नामातर भी प्राप्त प्रश्रुत--इक्ष्वाकुवंशीय प्रसुश्रुत राजा का नामांतर । प्रसंधि-वैवश्वत मनु के पुत्रों में से एक। इसके पुत्र २. (सो. पूरु.) एक पूवंशीय राजा, जो भागवत, | का नाम क्षुप था। इसके नाम के लिए 'प्रजापति' पाठविष्णु तथा भविष्य के अनुसार, प्राचिन्वत् राजा का पुत्र भेद उपलब्ध हैं (म. आश्व. ४.२)। था। किन्तु महाभारत में इसे पूरु राजा पुत्र माना गया | - प्रसन्न--इक्ष्वाकुवंशीय सेनजित् राजा का नामांतर है। इसके दो भाइयों का नाम ईश्वर एवं रौद्राश्व था। (सेनजित् २ देखिये)। पूरु राजा का ज्येष्ठ पुत्र जनमेजय किसी कारण राज्य प्रसभ--रामसेना का एक वानर । के लिए अयोग्य साबित हुआ, जिससे उसे हटाकर प्रवीर को राजगद्दी पर बिठाया गया। पश्चात् इसीसे पूरुवंश प्रसाद-स्वायंभुव मन्वंतर के धर्म ऋषि का मैत्री नामक स्त्री से उत्पन्न पुत्र । आगे चला । इसी कारण महाभारत में इसे 'वंशकृत। प्रसार-(स्वा. नाभि.) एक राजा, जो विष्णु के (वंश को आगे चलानेवाला ) कहा गया है (म. आ. अनुसार उद्गीथ का पुत्र था। ९०.४)। महाभारत में इसकी पत्नी का नाम शूरसेनी ( श्येनी) प्रसुश्रुत-(स. इ.) एक इक्ष्वाकुवंशीय राजा, जो एवं पुत्र का नाम मनस्यु (नमस्यु) बताया गया है (म. भागवत, विष्णु एवं वायु के अनुसार मरु का पुत्र था। आ. ८९.४)। इसके नाम के लिए 'प्रभुसुत' एवं 'प्रश्रुत' पाठभेद - इसने तीन अश्वमेध यज्ञ एवं एक विश्वजित् यज्ञ किये उपलब्ध हैं। थे। उन यज्ञों को संपन्न करने के उपरांत इसने वानप्रस्थ प्रसूत-रैवत मन्वंतर के अंत में उत्पन्न हुआ एक आश्रम ग्रहण किया (म. आ. ९०.११)। देवतासमूह, जिसमें निम्नलिखित आठ देव शामिल थे: ३. (सो. नील.) एक राजा, जो विष्णु के अनुसार प्रचेतस् , महायशस्, मुनि, वनेन, श्येनभद्र, श्वेतचक्ष, हर्यश्व राजा का पुत्र था। इसे जवीनर नामांतर भी प्राप्त | सुप्रचेतस् तथा सुमनस् (ब्रह्मांड. २.३६.७०)। है (जवीनर देखिये)। २. चाक्षुष मन्वंतर में उत्पन्न एक देवगण । ४. माहिष्मती के नीलध्वज राजा का पुत्र । प्रसूति--स्वायंभुव मनु की तीन कन्याओं में से एक, ५. पांड्य देश का एक राजा, जिसे मलयध्वज एवं | जो दक्ष प्रजापति को ब्याही थी (भा. ३.१२.५४, ४.१. चित्रवाहन नामांतर प्राप्त है। इसकी कन्या का नाम | १)। ४७७ Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रसृत प्राचीन चरित्रकोश प्रसृत - एक दैत्य, जिसका गरुड़ द्वारा वध हुआ था के अनुसार पुष्कल का, एवं वायु के अनुसार राहुल का ( म. उ. १०३.१२ ) । प्रसृति-- स्वारोचिष मनु के पुत्रों में से एक । प्रसेन -- (सो. वृष्णि. ) एक यादववंशीय राजा, जो निम्न नामक राजा का द्वितीय पुत्र था। विष्णु, मत्स्य, पद्म एवं वायु में इसे नि राजा का पुत्र कहा गया है, तथा इसके ज्येष्ठ भ्राता का नाम सत्राजित बताया गया है। ये दोनों भाई जुड़वा पैदा हुए थे एवं कुबेर की भाँति सद्गुणों से संपन्न थे । इसे ' प्रसेनजित् ' नामांतर भी प्राप्त था । इसके पास स्यमंतक मणि था, जिससे प्रतिदिन प्रचुर धनराशि झरती रहती थी। इसे धारण कर एक बार यह जंगल गया, वहाँ सिंह ने इसका वध किया । पश्चात् राज ने यह मणि इसके मृतदेह से निकाल कर प्राप्त की (पद्म स. १२. ९२४.१२ १०.५६.१२३ देमा माहाल्य २) पद्म में प्राप्त कथा में सिंह का । वृत्तांत नहीं है, उसमें जांबवत् द्वारा प्रसेन के वध की कथा वर्णित है। . २. कर्ण का पुत्र, जिसका सात्यकि द्वारा वध हुआ ( म. क. ६०.४ ) । वध के पूर्व केकय सेनापति उग्रकर्मन् से इसका युद्ध हुआ था। पाटमेव भांडारकर संहिता)'सुषेण ' । प्रसेनजित् - एक राजा, जो महाभौम राजा की सुयज्ञा नामक पानी का पिता था। इसने एक व्यख सवत्सा गऊओं का दान कर के उत्तम लोक प्राप्त किया था ( म. शां. २४०.३६ ) । पुत्र था। " पान्थों में इसका निर्देश 'पसेनदि नाम से किया गया है । यह गौतम बुद्ध का समकालीन राजा था । पूरुवंशीय राजा उदयन ( दुर्दमन ) एवं शिशुनागवंशीय राजा अजातशत्रु ये दोनों भी इसके समकालीन थे। प्रस्कण्व - (सो. पुरु. ) एक राजा, जो भागवत के अनुसार मेधातिथि राजा का पुत्र था। प्रत्कण्ववंश के लोग पहले क्षत्रिय थे, किन्तु बाद में वे ब्राह्मण हुए ( भा. ९.२०.७) । | पुत्र २.इ.) एकाकुवंशीय राजा को भागवत, विष्णु एवं वायु के अनुसार कृशाथ राजा का था । इसकी पत्नी का नाम गौरी था, जिससे इसे 'युवनाश्व' नामक पुत्र उत्पन्न हुआ ( युवनाश्व ३. देखिये ) । भविष्य में इसे संकटाश्व राजा का पुत्र कहा गया है। प्रहस्त ३. एक राजा, जो जमदग्नि की पत्नी रेणुका का पिता था। इसे रेणु नामांतर भी प्राप्त है ( म. व. ११६.२ ) । कई विद्वानों के अनुसार, रेणुका के पिता एवं सुयज्ञा के पिता दोनों एक ही व्यक्ति से ( प्रसेनजित् १. देखिये) । ४. (सू. पू.) एक राजा, जो भागवत के अनुसार विश्वसाह का पुत्र था । ५. (सू. इ. भविष्य. ) एक राजा, जो भागवत के अनुसार लांगल का, विष्णु के अनुसार राहुल का, मत्स्य प्रस्कण्व काण्व - एक वैदिक सूक्तद्रष्टा (ऋ. १.४४ ५०६ ८.४९; ९.९५ ) । सांख्यायन श्रौतसूत्र के अनुसार इसे पृषध मेध्य मातरिश्वन् से पारितोषिक प्राप्त हुआ था (सां. ओ. १६.११.२६ ) । प्रस्ताव - ( स्वा. प्रिय.) एक राश, जो भूमन् राम का पुत्र था। इसकी माता का नाम देवकुलया था। इसकी स्त्री का नाम नियुत्सा था, जिससे इसे विभुं नामक पुत्र या (भा. ५.१५.६)। २. (स्वा. प्रिय.) एक राजा, जो भागवत के अनुसार, उद्गीथ राजा का पुत्र था । प्रस्तोक साय - एक वैदिक राजा एवं उदार दाता. (ऋ. ६.४०.२२) । विग के अनुसार, दिवोदास अतिथिग्व और अश्वत्थ (अश्वथ ) इसी के ही नामांतर है (डॉग- अनुवाद २.१५८ ) । सायणाचार्य का भी यही अभिमत है। सांख्यायन श्रौतसूत्र के अनुसार, इसने भरद्वाजपुत्र गार्ग को अतुल धनराशि दानस्वरूप प्रदान की थी (सां. श्र. १६.११.११० बृहदे. ५.१२४) । प्रस्तोतृ ( स्वा. प्रिय.) एक यज्ञकुशल राजा, जो प्रतीह और सुवर्चला का द्वितीय पुत्र था । प्रहरण- श्रीकृष्ण का भद्रा से उत्पन्न एक पुत्र प्रहस्त रावण के परिवार का एक राक्षस, जो सुमाली राक्षस का पुत्र था। इसकी माता का नाम केतुमती था । इसके भाइयों के नाम अकंपन, विकट, कालिकामुख, दंड, धूम्राक्ष, सुपार्श्व, संहृादिन्, प्रत्रस तथा भासक थे, तथा राम्रा, कैकसी, कुंभीनसी तथा पुष्पोत्कटा नामक चार बहने भी थीं ( वा. रा. उ. ५.२८-४० ) । यह रावण का मापा और मंत्री (बा. रा. उ. ११.२ ) होने के साथ साथ, उसकी सेना का अधिपति भी था ( वा. रा. सुं ४९.११ मा. ९.१०.१८ ) । ४७८ Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रहस्त प्राचीन चरित्रकोश प्रह्लाद यह अत्यधिक वीर एवं पराक्रमी था। इसने कैलास | कई विद्वानों के अनुसार, ईरान का पुण्यात्मा शासक पर्वत पर मणिभद्र को पराजित किया था (वा. रा. यु.| 'परधात' अथवा 'पेशदात' और ये दोनों एक ही थे। १९.११) । राम-रावण युद्ध में यह रावण की सुरक्षा | ईरानी राजा 'परधात' का पूरा नाम 'हाओश्यांग तथा उसकी मदद के लिए सदैव उसके साथ रहता था। परधात' था। हाओश्यांग का अर्थ होता है, 'पुण्यात्माओं युद्धभूमि में इसने अपना अभूतपूर्व कौशल भी दिखाया। का राजा' । परधात ने पूजा-पाठ से ईश्वर को प्रसन्न कर युद्ध के पाँचवे दिन रावणपक्षीय नरांतक आदि अधिकांश लिया था (मैथोलोजी ऑफ ऑल रेसेस-ईरान, पृ. योद्धाओं को युद्ध में परास्त होता देख कर, इसने नील | २९९-३००)। नामक वानर पर धावा बोल दिया। किन्तु, नील के द्वारा जन्म--पद्मपुराण के अनुसार, कयाधू के गोद में इसका वध हुआ (वा. रा. यु. ५८. ५४)। प्रह्लाद ने दो बार जन्म लिया था । इसका पहला जन्म महाभारत के अनुसार, इसका विभीषण के साथ हिरण्यकशिपु एवं हिरण्याक्ष दानवों का देवों से जब युद्ध हुआ और यह विभीषण द्वारा ही रणभूमि में मारा युद्ध शुरू था, उस समय हुआ था। उस जन्म में इसे गया (म. व. २७०.५) विश्वरुपदर्शन भी हुआ था। पश्चात् , श्रीविष्णुद्वारा इसका २. विश्रवस् तथा पुष्पोत्कटा का पुत्र । वध हुआ। प्रहास--धृतराष्ट्र कुल में उत्पन्न एक नाग, जो इसके वध का समाचार सुन कर, इसकी माता रोने जनमेजय के सर्पसत्र में दग्ध हुआ था (म.आ. ५२. १४)।। लगी। फिर नारद वहाँ आया एवं उसने कहा, 'तुम शोक इसके नाम के लिए 'प्रहस' पाठभेद भी प्राप्त है।। मत करो। यही प्रह्लाद पुनः तुम्हारे गर्भ में जन्म लेगा, २. वरुण का मंत्री (वा. रा. उ. २३. ४९) | एवं उस जन्म में वह श्रीविष्णु का परमभक्त बनेगा। ३. स्कंद का एक सैनिक (म. श.४५.२६४%)। | अपने पराक्रम एवं पुण्यकर्म के कारण, उसे इंद्रत्व प्राप्त प्रहासक--एक राक्षस, जो कश्यप और खशा का होगा । यह मेरी भविष्यवाणी है, जिसे तुम गुप्त रखना। पुत्र था। पद्मपुराण के इस कथा में प्रह्लाद की माता का नाम कयाधू • प्रहेति-राक्षसों का आदि पुरुष। इसका कनिष्ठ के बदले कमला दिया गया है। (पन. भू. ५.१६.३०।। . भ्राता हेति था (वा. रा. उ. ४.१३)। इसकी पत्नी नारद द्वारा कयाधू को दिया हुआ सारा उपदेश - का नाम भया था, जिससे इसे विद्युत्केश नामक पुत्र था। कयाधू के गर्भ में स्थित प्रह्लाद ने सुना । इसी कारण यह २. एक राक्षस, जो वृत्रासुर का अनुयायी था (भा. जन्मसे ही ज्ञानी पैदा हुआ। ६.१०.२०)। विष्णुभक्ति-जन्म से यह परमविष्णुभक्त था । इसकी ____३. एक राक्षस, जो वैशाख में अर्यमा नामक सूर्य के विष्णुभक्ति इसके असुर पिता हिरण्यकाशिपु को अच्छी नहीं साथ घूमता है। इसे वैश्रवण के सेवक ब्रह्मधाता का लगती थी। इसे विष्णुभक्ति छोड़ने पर विवश करने के लिये, पुत्र कहा गया है (भा. १२.११.३४) | उसने इसे डराया, धमकाया तथा मरवाने का भी प्रयत्न ४. ब्रह्मांड के अनुसार युयुधान का पुत्र, जिसे किया। विष्णुपुराण के अनुसार, हिरण्यकशिपु ने इसका माल्यवत् , सुमालिन् और पुलोमत् नामक पुत्र थे वध करने के लिये, इसे हाथी द्वारा कुचलने का प्रयत्न (ब्रह्मांड, ३.७.९१)। | किया। यही नहीं, इसे सर्पद्वारा डसाने का, पर्वत से प्रह्लाद--एक हरिभक्त असुर, इन्द्र, एवं धर्मज्ञ, जो गिराने का, गड्ढे में गाड़ने का, विष पिलाने का, वारुणीहिरण्यकशिपु नामक असुर राजा का पुत्र था। पालिग्रंथों पाश से बाँधने का, शस्त्रद्वारा मारने का, जलाने का, में इसका निर्देश 'पहाराद' नाम से किया गया है, एवं कृत्या छोड़ने का, माया छोड़ने का, संशोषक वायु छोड़ने इसे 'असुरेंद्र' कहा गया है ( अंगुत्तर ४.१९७)। इसकी का, तथा समुद्रतल में गाडने का आदि बहुत सारे प्रयत्न माता का नाम कयाधू था (म. आ. ५९.१८; भा. ७.४; किये, किन्तु श्रीविष्णु की कृपा से, प्रह्लाद अपने पिता द्वार विष्णु. १.१६)। रचे गये इन सारे षड़यंत्रों से बच गया (विष्णु.१.१७;भा. इसका, इसकी माता कयाधू एवं पुत्र विरोचन का | ७.५)। अन्य पुराणों में हिरण्यकशिपु द्वारा प्रह्लाद को निर्देश तैत्तिरीय ब्राह्मण में प्राप्त है (ते. बा. १.५.९)। दिये गये इन कष्टों का निर्देश अप्राप्य है (नृसिंह यह निर्देश देवासुर संग्राम के उपलक्ष्य में किया गया है। देखिये) । ४७९ Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रह्लाद प्राचीन चरित्रकोश इतने कष्ट सहकर भी प्रह्लाद ने विष्णुभक्ति का त्याग | जिनसे इसके ज्ञान, विवेकशीलता एवं तार्किकता पर काफी न किया। अंत में पिता के बुरे वर्ताव से तंग आ कर, इसने | प्रकाश डाला जाता है। दीनभाव से श्रीविष्णु की प्रार्थना की। फिर, श्रीविष्णु | हंस (सुधन्वन् ) नामक ऋषि से इसका 'सत्यासत्य नृसिंह का रूप धारण कर प्रकट हुए। नृसिंह ने इसके | भाषण' विषय पर संवाद हुआ था। हंस ऋषि का पिता का वध किया, एवं इसे वर माँगने के लिये कहा। प्रह्लादपुत्र विरोचन से झगड़ा हुआ था, एवं उस कलह का किन्तु अत्यन्त विरक्त होने के कारण, इसने विष्णुभक्ति निर्णय देने का काम प्रह्लाद को करना था। इसने अपना को छोड़ कर बाकी कुछ न माँगा (भा. ७.६.१०)। पुत्र असत्य भाषण कर रहा है, यह जानकर उसके इसके भगवद्भक्ति के कारण, नृसिंह इसपर अत्यंत | विरुद्ध निर्णय दिया, एवं सुधन्वन् का पक्ष सत्य ठहराया। प्रसन्न हुआ। हिरण्यकशिपु के वध के कारण, नृसिंह के | इस निर्णय के कारण सुधन्वन् प्रसन्न हुआ एवं उसने मन में उत्पन्न हुआ क्रोध भी इसकी सत्वगुणसंपन्न मूर्ति विरोचन को जीवनदान दिया (म. उ. ३५.३०-३१; देखने के उपरांत शमित हो गया। विरोचन देखिये)। यह अत्यन्त पितृभक्त था। पिता द्वारा अत्यधिक कष्ट इसका तथा इसके नाती बलि का लोकव्यवहार के होने पर भी, इसकी पितृभक्ति.अटल रही, एवं इसने हर | संबंध में संवाद हुआ था। बलि ने इसे पुछा 'हम समय अपने पिता को विष्णुभक्ति का उपदेश दिया। क्षमाशील कब रहे, तथा कठोर कब बने ?' बलि के इस . पिता की मृत्यु के उपरांत भी, इसने नृसिंह से अपने प्रश्न पर प्रह्लाद ने अत्यंत मार्मिक विवेचन किया। . पिता का उद्धार करने की प्रार्थना की । नृसिंह ने कहा, बलि ने वामन की अवहेलना की। उस समय क्रुद्ध हो 'तुम्हारी इक्कीस पीढ़ियों का उद्धार हो चुका है। यह कर इसने बलि को शाप दिया, 'तुम्हारा संपूर्ण राज्य सुन कर इसे शान्ति मिली । पश्चात हिरण्यकशिपु के वध नष्ट हो जायेगा।' पश्चात् वामन ने बलि को पाताललोक ... के कारण दुःखित हुये सारे असुरों को इसने सांत्वना दी। में जाकर रहने के लिये कहा । बलि ने अपने पितामह पश्चात् यह नृसिंहोपासक एवं महाभागवत बन गया । प्रह्लाद को भी अपने साथ वहाँ रखा (वामन. ३१)। . (भा. ६.३.२०)। यह 'हरिवर्ष' में रह कर नृसिंह एकबार प्रह्लाद के ज्ञान की परीक्षा लेने के लिये, इंद्र की उपासना करने लगा (भा. ५.१८.७)। इसके पास ब्राह्मणवेश में शिष्यरूप में आया। उस विष्णुभक्ति के कारण प्रह्लाद के मन में विवेका दि समय प्रह्लाद ने उसे शील का महत्व समझाया। उन गुणोंका प्रादुर्भाव हुआ। विष्णु ने स्वयं इसे ज्ञानोपदेश बातों से इंद्र अत्यधिक प्रभावित हुआ, एवं उसने इसे दिया, जिस कारण यह सद्विचारसंपन्न हो कर समाधि- | ब्रह्मज्ञान प्रदान किया (म. शां. २१५)। मुख में निमग्न हुआ। फिर श्रीविष्णु ने पांचजन्य शंख के अजगर रूप से रहनेवाले एक मुनि से ज्ञानप्राप्ति की निनाद से इसे जागृत किया, एवं इसे राज्याभिषेक किया। इच्छा से इसने कुछ प्रश्न पूछे। उस मुनि ने इसके प्रश्नों राज्याभिषेक के उपरान्त श्रीविष्णु ने इसे आशीर्वाद का शंकासमाधान किया, एवं इसे . भी अजगरवृत्ति से दिया, 'परिपुओं की पीड़ा से तुम सदा ही मुक्त रहोगे रहने के लिये आग्रह किया (म. शां. १७२)। (यो. वा. ५.३०-४२)। यह आशीर्वचन कह कर उशनस् ने भी इसे तत्वज्ञान के संबंध में दो गाथाएँ श्रीविष्णु स्वयं क्षीरसागर को चले गये। सुनाई थी (म. शां. १३७.६६-६८)। इंद्रपदप्राप्ति--इंद्रपदप्राप्ति करनेवाला यह सर्वप्रथम पूर्वजन्मवृत्त--पन के अनुसार, पूर्वजन्म में प्रह्लाद दानव था। इसके पश्चात् आयुपुत्र रजि इंद्र हुआ, जिसने सोनशर्मा नामक ब्राह्मण था, एवं इसके पिता का नाम दानवों को पराजित कर के इंद्रपद प्राप्त किया। शिवशर्मा था (पद्म. भ. ५.१६ )। पद्म में अन्यत्र उस परिवार--इसके पत्नी का नाम देवी था। उससे ब्राह्मण का नाम वसुदेव दिया गया है, एवं उसने किये इसे विरोचन नामक पुत्र एवं रचना नामक कन्या हुई नृसिंह के व्रत के कारण, उसे अगले जन्म में राजकुमार (भा. ६.६; ६.१८.१६; म. आ. ५९.१९; विष्णु. १. प्रह्लाद का जन्म प्राप्त हुआ. ऐसा कहा गया है (पन. २१.१)। उ. १७०) ___ संवाद--विभिन्न व्यक्तिओं से प्रह्लाद ने किये तत्वज्ञान २. कद्र पुत्र एक सर्प, जिसने कश्यपऋषि को उच्चैःपर संवादों के निर्देश महाभारत एवं पुराणों में प्राप्त हैं, श्रवस् नामक घोडा प्रदान किया था (म. शां. २४.१५)। ४८० Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रह्लाद प्राचीन चरित्रकोश प्राचीनयोग्य शौचेय ३. एक बाह्रीकवंशीय राजा. जो शलभ नामक दैत्य के समुद्रकन्या शतद्रति अथवा सवर्णा इसकी पत्नी थी, अंश से उत्पन्न हुआ था (म. आ. ६१.२९)। जिससे इसे प्रचेतस् नामक दस पुत्र उत्पन्न हुए (भा. ४. प्रांशु-चाक्षुष मनु का एक पुत्र । २४.८.१३; ह. वं. १.२.३१; विष्णु. १.१४.३-६; म. २. वैवस्वत मनु का एक पुत्र । अनु. १४७.२४-२५)। ३. (सू. दिष्ट.) एक राजा, जो भागवत के अनुसार कर्मकाण्ड और योगाभ्यास में यह अत्यंत कुशल था। वत्सप्रीति का, विष्णु के अनुसार वत्सप्रि का, तथा वायु के | इसके निम्नलिखित पाँच भाई थे, जिनकी सहायता से अनुसार भलंदन का पुत्र था। इसकी माता का नाम सुनंदा | इसने विभिन्न स्थानों पर अनेक यज्ञ किये-गय, शुक्ल, (मुद्रावती) था (मार्क. ११४.३)। कृष्ण, सत्य और जितव्रत। प्राक्शंगवत्-कुणिगर्ग ऋषि की वृद्धकन्या नामक । इसे योग्य राजर्षि देख कर, नारद ने पुरंजन राजा का मानसकन्या का पति (वृद्धकन्या देखिये)। आख्यान बता कर ब्रह्मज्ञान दिया (भा.४. २५-२९)। प्रागहि--एक आचार्य, जिसके यज्ञविषयक मतों का | ब्रह्मा ने नारायण से श्रवण किया हआ 'सात्वतधर्म' इसे निर्देश सांख्यायन ब्राह्मण में प्राप्त है (सां. ब्रा. २६.४)। सिखाया, यही नहीं, ब्रह्मा ने 'ऋष्यादि क्रम' का ज्ञान यज्ञ करते समय यदि कोई कर्म करने से छूट जाये, तो | भी इसे दिया। उस अंतरित क्रिया को कब तथा कैसे किया जाये, महाभारत में इसे अत्रिकुलोत्पन्न एक नृप, एवं प्रजापति उसका विधान इसने बताया है। कहा गया है (म. शां. २०१.६) । वृद्धावस्था में यह अपने प्रागाथ--अंगिराकुल का एक ब्रह्मर्षि । इसके कुल में उत्पन्न निम्नलिखित आचार्यों का निर्देश ऋग्वेद में सूक्त पुत्रों पर प्रजारक्षण का भार सौंप कर, तपस्या के हेतु कपिलाश्रम चला गया (भा. ४.२९.८१)। आकाश में द्रष्टा के नाते से आया है:-हर्यंत प्रागाथ (ऋ. ८.७२), स्थित, सप्तार्षियों में, पूर्वदिशा की ओर बर्हिषद नाम भर्ग प्रागाथ (ऋ. ८.६०-६१), कलि प्रागाथ (ऋ. ८. से यह निवास करता है। २. स्वायंभुव मन्वन्तर का एक राजा । दक्ष प्रजापति प्रागाथम-- 'प्रागावस' नामक अंगिराकुल के के यज्ञ में सती ने देहत्याग किया था, उस समय यह गोत्राकार का नामांतर। भरतखण्ड का राजा था। प्रागायण--एक ऋषिगण, जो कश्यपकुल का गोत्रकार प्राचीनयोग--एक आचार्य, जो वायु और ब्रह्मांड प्रागावस--अंगिरा कुल का एक गोत्रकार. जिसके। के अनुसार, व्यास की सामशिष्यपरंपरा में शंगीपत्र ऋषि , नाम के लिए 'प्रागाथम' पाठभेद प्राप्त है। का पुत्र था (व्यास देखिये)। .. प्राचिन्वत--पूरुवंशीय 'प्राचीन्वत्' राजा का प्राचीनयोगीपुत्र--एक आचार्य, जो सांजीवीपुत्र नामांतर (प्राचीन्वत् देखिये)। नामक ऋषि का पुत्र था। इसके शिष्य का नाम कार्षकेयीप्राचीनगर्भ---अलम्बुषा नामक अप्सरा के पुत्र पुत्र था (बृ. उ. ६.५.२)। शतपथ ब्राह्मण में इसके सारस्वत ऋषि का नामांतर। शिष्य का नाम भालुकीपुत्र दिया गया है (श. ब्रा. २. सृष्टि तथा छाया का एक पुत्र । १४. ९. ४. ३२)। संभव है, 'प्राचीनयोग' की प्राचीनबर्हि 'प्रजापति'-(स्वा. उत्तान.) एक किसी स्त्री-वंशज का पुत्र होने के कारण, इसे यह नाम प्रजापति, जो मनुवंशीय हविर्धान नामक राजा को हविर्धानी | प्राप्त हुआ हो। नामक पत्नी से उत्पन्न ज्येष्ठ पुत्र था (म. अनु. १४७. | | २. एक आचार्य, जो वायु एवं ब्रह्मांड के अनुसार, २४-२५)।.. व्यास की सामशिष्यपरंपरा में कौथुम पाराशर्य ऋषि का इसका वास्तविक नाम 'बर्हिषद' था। कहते हैं, इसने | शिष्य था। इतने यज्ञ किये कि, यज्ञ करते समय पूर्व दिशा की ओर | प्राचीनयोग्य 'शौचय--तत्त्वज्ञान का एक आचार्य, रक्खे गये 'पूर्वाग्र दर्भो ' से पृथ्वी आच्छादित हो उठी। | जो पाराशर्य का शिष्य था (बृ. उ. २. ६.२)। यह इसीलिये इसे प्राचीनबर्हि (प्राचीन = पूर्व; बर्हि = दर्भ) | उद्दालक का समकालीन था, एवं इसके शिष्य का नाम नाम प्राप्त हुआ। गौतम था (श. ब्रा. ११. ५.३.१;८)। सम्भव है, प्रा. च. ६१] ४८१ . था। Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीनयोग्य शौचेय प्राचीन चरित्रकोश प्रातिकामिन् 'प्राचीनयोग' ऋषि का वंशज होने के कारण, इसे यह (जै. उ. ब्रा. ३.४०.२), प्रजावत् (ऐ. ब्रा. १.२१), नाम प्राप्त हुआ हो। यक्ष्मनाशन (ऋ. १०.१६१), यज्ञ (ऋ. १०. १३०), एक तत्वज्ञानी के नाते से इसका उल्लेख उपनिषदों में | विमद (ऋ. १०.२०), विष्णु (ऋ. १०.१८४), संवरण प्राप्त है (छां. उ. ५.१३.१; तै. उ. १.६.२) । इसके । (ऋ.५.३३)। चंश के निम्नलिखित आचार्यों का निर्देश जैमिनीय उपनिषद् | प्राण-स्वायंभुव मनु के दामाद भगु ऋषि का पौत्र । ब्राह्माण में प्राप्त हैं:--पुलुष, सत्ययज्ञ, सोमशुष्म (जै. उ. | भृगुपुत्र विधाता इसका पिता एवं मेरुकन्या नियति ब्रा. १. ३९. १)। इसकी माता थी। इसे वेदशिरस् नामक एक पुत्र था प्राचीनशाल औपमन्यव--एक आचार्य एवं ईश्वर- (भा. ४.१.४४ ) शास्त्रविद् , जो सत्ययज्ञ एवं इन्द्रद्युम्न का समकालीन था | २. स्वारोचिष मन्वंतर के सप्तर्षियों में से एक । (छां. उ. ५.११.१)। जैमिनीय उपनिषद् ब्राह्मण में इसका । ३. अष्टवसुओं में से दूसरा वसु । इसके पिता का नाम निर्देश 'प्राचीनशालि' नाम से किया गया है, एवं इसे सोम और माता का नाम मनोहरा था। इसके बड़े भाई एक उद्गाता पुरोहित कहा गया है (जै. उ. ब्रा. ३.१०. | का नाम वर्चा, एवं दो छोटे भाइयों का नाम शिशिर और १)। इसकी परंपरा के 'प्राचीनशाल' लोगों का निर्देश | भी उक्त ब्राह्मण ग्रंथ में प्राप्त है। ४. एक देव, जो अंगिरा और सुरूपा मारीची के पुत्रों प्राचीनशालि--प्राचीनशाल औपमन्यव नामक | में से एक था। आचार्य का नामांतर (जै.उ. वा. ३.७.२, ३, ५, ७)।। ५. साध्य देवों में से एक । प्राचीन्वत्--(सो. पूरु.) एक पूरुवंशीय राजा, । ६. तुषित देवों में से एक । जो पूरु राजा का पौत्र एवं जनमेजय (प्रथम) का पुत्र था। ७. एक राजा, जो वसिष्ठ की कन्या पुंडरिका का पति.. इसकी माता का नाम अनंता था। इसे 'अविद्ध' | था ( वसिष्ठ देखिये )। नामांतर भी प्राप्त है। इसने एक रात्रि में, उदयाचल से प्राणक-प्राण नामक अग्नि का पुत्र (म. व. २१०.१)। लेकर सारी प्राची दिशा को जीत लिया, इसीलिए इसका प्रातर-(स्वा. उत्तान.) एक राजा, जो पुष्पार्ण एवं नाम प्राचीन्वत् पड़ा। इसकी स्त्री का नाम आश्मकी | प्रभा का ज्येष्ठ पुत्र था । यादवी था, जिससे इसे शय्याति (संयाति) नामक पुत्र २. धाता नामक सातवें आदित्य का पुत्र, जिसकी था (म. आ. ९०.१२-१३)। माता का नाम राका था (मा. ६.१८.३ )। प्राचेतस--वाल्मीकि ऋषि का नामांतर (भा. ९.११. ३. कौरव्यकुल का एक नाग, जो जनमेजय के सर्प१०)। वाल्मीकि रामायण में वाल्मीकि ने स्वयं को | सत्र में दग्ध हुआ था (म. आ. ५२.१२)। पाठभेदप्राचेतस कहा है (वा. रा. उ. ९६.१८)। यह भृगुकुल | (भांडारकर संहिता)-' पातपातर'। में उत्पन्न हुआ था (वा. रा. उ. ९३.१६-१८; ९४.२५; प्रातरह कौहल-- एक आचार्य, जो केतु वाज्य ऋषि मत्स्य. १२.५१; म. शां. ५८.४३ )। इसने अघमर्षण | का शिष्य था। इसके शिष्य का नाम सुश्रवस् वार्षगण्य तीर्थ पर दीर्घकाल तक तपस्या की थी (भा. ६.४.२१)। था (वं. ब्रा. १)। २. (सो. द्रुह्य.) दस प्रचेताओं द्वारा वार्षी या मारिषा प्रातर्दन-संयमन नामक आचार्य का पैतृक नाम से उत्पन्न सौ पुत्रों का सामूहिक नाम, जिनमें दक्ष प्रजापति प्रमुख था (म. आ. ७०.४)। ये उत्तर दिशा में प्रातर्दनि--क्षत्रश्री राजा का नामांतर (ऋ. ६.२६. रहनेवाले म्लेंच्छों के अधिपति हुए। ८)। प्रतर्दन का वंशज होने के कारण, इसे यह नाम ३. प्राचीनबर्हि के दस पुत्रों का सामूहिक नाम । | प्राप्त हुआ होगा। प्राचेय-कश्यपकुल का एक गोत्रकार । प्रातिकामिन् (प्रातिकामी)--दुर्योधन का सारथि प्राजापत्य--प्रजापति के वंशजों का सामुहिक नाम । (म. स. ६०.२-३)। दुर्योधन की सभा में द्रौपदी को लाने प्रजापति के वंशज होने के नाते, निम्नलिखित वैदिक के लिए सर्वप्रथम यही गया था। द्रौपदी ने जब सभा में सूक्तकारों को 'प्राजापत्य'उपाधि प्राप्त है-आरुणि सौपर्णय आने से इन्कार कर दिया, तब इसने द्रौपदी के द्वारा कहीं . (तै. आ. १०.७९), पतंग (ऋ. १०.१७७), परमेष्ठिन् । हुयी बात सभा में आ कर दुर्योधन से कहीं (म. स. ६०. ४८२ Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रातिकामिन् प्राचीन चरित्रकोश प्रियमेध आंगिरस ५०या। ४-१७)। दुर्योधन ने इसे पुनः द्रौपदी के पास जाने के | २. धर्म के शम नामक पुत्र की पत्नी (म. आ. लिये कहा । लेकिन भीम के डर के कारण, इसने पुनः जाना | ६०. ३०)। अस्वीकार कर दिया (म. स. ६०.२९)। यह भारतीय युद्ध | प्रामति--ब्रह्मसावर्णि मन्वंतर के सप्तर्षियों में से एक । में मारा गया (म. श. ३२.४३) प्रायण-एक दानव, जो कश्यप एवं दनु के पुत्रों में प्रातिथेयी-लोपामुद्रा की बहन गभस्तिनी का | से एक था। नामांतर (वडवा एवं गभस्तिनी देखिये)। इसके नाम | प्रावरेय--गर्गों का पैतृक नाम (क. सं. १३. के लिये 'नातिथेयी' पाठभेद भी प्राप्त हैं। १२)। . प्रातिपीय-कुरु राजा 'बलिक' का पैतृक नाम | प्रावहि--एक आचार्य, जिसके द्वारा यज्ञविधि में (श. ब्रा. १२.९.३.३)। इसे प्रतिवंश राजा का शिष्य | असावधानी से हुए 'कर्मविपर्यास ' के लिये प्रायश्चित्त कहा गया है (सां. आ. १५.१)। बताया गया है (सां. बा. २६.४)। इसके नाम के लिये प्रातिवेश्य-एक आचार्य, जो प्रतिवेश्य ऋषि का | 'प्रागहि' पाठभेद प्राप्त है। शिष्य था (सां. आ. १५.१)। २. अंगिराकुल का एक गोत्रकार । प्रातीबोधीपुत्र-सांख्यायन आरण्यक में निर्दिष्ट एक । प्रावारकर्ण--एक चिरंजीवी उलूक, जो हिमालयआचार्य (सा. आः ७.१३; ऐ. बा. ३.१.५) । संभव है, | पर्वत पर निवास करता था (म. व. १९१.४)। 'प्रतीबोध' के किसी स्त्रीवंशज का पुत्र होने के कारण, प्रावाहाण--बबर नामक साहित्याचार्य का पैतृक नाम इसे यह नाम प्राप्त हुआ हो। (बबर देखिये)। प्रातद--भाल्ल नामक आचार्य का पैतृक नाम (जै. प्रावणि--अंगिराकुल का एक गोत्रकार । उ. ब्रा. ३.३१.४; बृ. उ. ५.१३.१ )। प्राश्नापुत्र--एक आचार्य, जो आसुरायण ऋषि का प्राद्युम्नि-यादव राजा · अनिरुद्ध का नामांतर | शिष्य था। इसके शिष्य का नाम सांजवीपुत्र था (बृ. उ. (म. स. ६०)। ६.५.२) । शतपथ ब्राह्मण में, इसे आसुरिवासिन् का 'प्राधा-प्राचेतस दक्ष प्रजापति की कन्या एवं कश्यप | शिष्य, एवं इसके शिष्य का नाम काशीकेयीपुत्र बताया ऋषि की पत्नी । इसकी माता का नाम असिनी था। इसे | गया है (श. ब्रा. १४.९.४.३३)। अरिष्टा' नामांतर भी प्राप्त है (अरिष्टा देखिये)। प्रास्ति--जरासंध की कन्या 'प्राप्ति' का नामांतर कश्यप ऋषि से इसे तेइस देवगंधर्व पुत्र, एवं इक्कीस | (प्राप्ति १. देखिये)। अप्सरा कन्यायें उत्पन्न हुयीं। इसके पुत्रों में हाहा, हू- प्रास्त्रवण--अवत्सार ऋषि का पैतृक नाम (सां. बा. हू, तुम्बरु एवं असिबाहु, तथा कन्याओं में अलम्बुषा तथा | १३.३)। इसके नाम के लिए 'प्राश्रवण' पाठभेद भी अनवद्या प्रमुख थीं (कश्यप देखिये)। उपलब्ध है। महाभारत में प्राधा के दस पुत्र, एवं आठ कन्यायें प्रियक--स्कंद का एक सैनिक (म. श. ४४.६०)। दी गयीं हैं (म. आ. ५९.१२, ४४-४६)। प्रियभृत्य--एक नृप (म. आ. १.१७६)। प्राध्वंसन--एक आचार्य, जो प्रध्वंसन नामक ऋषि प्रियंवदा-राधिका की सखी। अर्जुनि नामक स्त्री का शिष्य था । बृहदारण्यक उपनिषद् मे मृत्यु नामक | का रूप धारण करनेवाले अर्जुन के जपानुष्ठान के समय, आचार्य का पैतृक नाम 'प्राध्वंसन' बताया गया है (बृ. उ. | इसने उसका संरक्षण किया था ( पन. पा. ७४)। २.६.३, ४.६.३)। अथर्वन् दैव इसका शिष्य था। | प्रियदर्शन-द्रुपद का एक पुत्र । द्रौपदीस्वयंवर के प्राप्ति-जरासन्ध की कन्या एवं जरासन्धपुत्र | उपरांत हुए युद्ध में, कर्ण ने इसका वध किया था (म. सहदेव की छोटी बहन । यह कंस की पत्नी थी। इसकी | आ. परि. १. क्र. १०३; पंक्ति १३१-१३२)। दुसरी बहन अस्ति भी कंस को ब्याही थी (भा. १०. प्रियनिश्चय--भव्य देवों में से एक । ५०.१)। प्रियमाल्यानुलेपन--स्कंद का एक सैनिक (म. श. __महाभारत में, इसका निर्देश प्रास्ति नाम से किया | ४४.५५)। गया है (म. स. १४.३०)। किन्तु यह पाठभेद त्रुटिपूर्ण | प्रियमेध आंगिरस-एक वैदिक सूक्तद्रष्टा (ऋ.८. प्रतीत होता है। | २.१-४०; ६८, ६९; ८७; ९.२८)। ऋग्वेद में इसके Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियमेध आंगिरस परिवार के लोगों का निर्देश ' प्रियमेधाः ' नाम से किया गया है (१.४५.४) प्रियगेच ब्राह्मण अजमीढ़ वंश मैं उत्पन्न माने जाते हैं (भा. ९.२१.२१ ) । इसके वंश में पैदा हुए ‘प्रियमेध ' नामक ऋषियों ने आत्रेय उद्मय राजा के लिए यज्ञ किया था (ए. मा. ८२२ प्रेयमेध देखिये) । इसके द्वारा रचित सूफ्तों में अतिथिन्यपुत्र इंद्रोत, आश्वमेध और ऋक्षपुत्र राजाओं का उल्लेख आश्रयदाता के रूप में किया गया है (ऋ. ८.६८.१५ - १९ ) । इसका संरक्षण अश्विनीयों ने भी किया था ( ८.५ २५) । ओल्डेनबर्ग के अनुसार, जिन सूक्तों के प्रणयन का श्रेय इसे ऋभ्येद में दिया गया है, ये इसके द्वारा रचित नहीं हो सकते (ओस्टेनसी गे ४२.२१७ ) 1 प्रियरथ एक राज जो पत्रों का आश्रयदाता था (ऋ. १.१२२.७ ) । सायणाचार्य के अनुसार, यह किसी व्यक्तिविशेष का नाम न होकर विशेषण के रूप में प्रयुक्त हुआ है। प्रियवर्चा -- कुबेर की एक अप्सरा । यह शाप के कारण मगर बनी थी, जिसका अर्जुन ने बाद में उद्वार किया था (स्कंद. १.२.१ ) । -- प्राचीन चरित्रकोश प्रियव्रत - एक राजा, जो स्वायंभुव मनु के पुत्रों में से एक था। इसकी माता का नाम शतरूपा था । इसके पराक्रम के कारण, पृथ्वी पर सात द्वीप एवं सात समुद्रों का निर्माण हुआ (मा. ३.१२.५५ ४.७.८ . . २ भवि. ब्रह्म ११७ ) । प्रियमत प्रकार प्रियवत के रथ के कारण, मेरु पर्वत के चारों ओर सात समुद्र तथा सप्तदीप बने । प्रिय कोकी मन्या मिती दी गयी थी। उससे इसे इध्मजिह्न, यज्ञबाहु, महावीर, अग्नी, सवन, वीतिहोत्र, मेधातिथि, वृतपृष्ठ कवि तथा हिरण्य रेतस् नामक दस पुत्र तथा ऊर्जश्वती नामक कन्या हुयी । उनमें से महावीर, कवि तथा सकन नामक तीन पुत्र बचपन में ही तपस्या के लिए वन में चले गये। बाकी बचे सात पुत्रों को इसने एक एक द्वीप बाँट दिये (भा. ५. १६ वराह. ७४) । इसके पुत्रों में बाँटे गये सप्तद्वीप इस प्रकार थे : - इमजि-- लक्षद्वीप, यज्ञवाहु- शाल्मलिद्वीप, अग्नीध्र - जंबुद्वीप, वीतिहोत्र - पुष्करद्वीप, मेधातिथिशाकद्वीप, पुतपृष्ठ-कचीप, हिरण्यरेतस्- कुशद्वीप इसकी ऊर्जस्वती नामक कन्या का विवाह कविपुत्र उशनस् ऋषि से हुआ था। ब्रह्माण्ड में इसकी पत्नी का नाम काग्या बताया गया है, एवं उसे पुलहवंशीय कहा गया है। काम्या से उत्पन्न को स्वीकार किया, एवं वे सप्तद्वीपों के स्वामी बन गये हुए प्रियव्रत राजा के दस पुत्रों ने आगे चल कर क्षत्रियत्व (अण्ड २.१२.२०१५) | - । इसे बर्हिष्मती (काम्या ) के अतिरिक्त और भी एक पत्नी थी, जिससे इसे उत्तम, तापस एवं रैवत नामक तीन पुत्र हुए। वे पुत्र स्वायंभुव एवं स्वारोचिष मन्वन्तरों के पश्चात् संपन्न हुए उत्तम तामस तथा रेवत मन्दमा के स्वामी बन गये । इसके द्वारा सात द्वीपों एवं सात समुद्रों के निर्माण की चमत्कारपूर्ण कथा भागवत में निम्न रूप से वर्णित है। प्रिय राजा अत्यंत पराक्रमी था। एकवार अपने एक पहियेवाले रथ में बैठ कर अत्यंत वेग से इसने मेरु के चारों ओर प्रदक्षिणा की। इसका वेग इतना अधिक था कि, सूर्य मेरु के जिस भाग पर प्रकाश डालता था, उसके विपरीत दिशा में हमेशा यह रथ घुमा लेता था । इसलिये मेरु पर्वत की जो दिशा सूर्य के अभाव में अंधकारमय रहनी चाहिये, वह भी इसके प्रकाश के योग से आलोकित रहती थी । इसलिये इसके राज्यकाल में पृथ्वी पर कभी भी अंधकार न रहा। इसके रथ के पहियों के कारण मेरु के चारों ओर जो सात गड़ढ़े हुए, वे ही सात गड़ढ़े हुए, वे ही बाद में सप्तसमुद्र के नाम से प्रसिद्ध हुए, तथा प्रत्येक दो गद्दों के बीच में को जगह बची, वे द्वीप बन गये। इस ૪૪ प्रिय अत्यंत धर्मशील था, एवं देवर्षि नारद इसका गुरु था। इसने ग्यारह अर्बुद ( दशकोटि) तक राज्य किया। बाद में राज्यमार पुत्रों को सौंप कर वह नारद द्वारा उपदेशित योगमार्ग का अनुसरण कर, अपनी पत्नी के साथ साथना में निमन्न हुआ। । " इसेका मेधातिथि नामक पुत्र शाकद्वीप का राजा था। वहाँ इसने सूर्य का एक देवालय बनवाया । किन्तु शाकद्वीप में एक भी ब्राह्मण न होने के कारण अब समस्या यह थी कि, मूर्ति की स्थापना किस प्रकार की जाय। तत्र इसने सूर्य का आवाहन कर उससे सहायता के लिए याचना की । सूर्य ने इसे दर्शन दे कर 'मग' नामक आठ ब्राह्मणों का निर्माण किया तथा उनके सन्मान की इसे रीति बतायी (भविष्य. ब्राह्म. ११७; मग देखिये) । २. आय देवों में से एक । , Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियव्रत प्राचीन चरित्रकोश प्लायोगि ३. मद्र देश का राजा । इसे कीर्ति तथा प्रभा नामक कौशाम्बेय कौसुरविन्द' कहा गया है (गो. ब्रा. १. २. दो स्त्रियाँ थीं। इसके दो प्रधानों का नाम धूर्त तथा कुशल २४)। किसी कुसुरुबिन्द का वंशज होने के कारण, इसे था। इसके पुत्र का नाम क्षिप्रप्रसादन था, जो परम यह नाम प्राप्त हुआ होगा। गणेशभक्त था। इसे गणेशजी द्वारा परशु प्राप्त होने के तैत्तिरीय संहिता में इसे औद्दालकि (उद्दालक का कारण, परशुबाहु भी कहा जाता है (गणेश.)। वंशज) कहा गया है (तै. सं. ७.२.२.१)। इससे प्रियव्रत रोहिणायन-शतपथ ब्राह्मण में निर्दिष्ट प्रतीत होता है कि, इसके पैतृक नाम एवं समकालीनता एक आचार्य (श. ब्रा. १०.३.५.१४)। से सम्बन्धित वक्तव्यों को अधिक महत्त्व न देना चाहिये। प्रियव्रत सोमापि- एक आचार्य, जो सोमप नामक प्रोवा-प्राचेतस दक्ष प्रजापति की कन्या, जो कश्यप ऋषि का पुत्र था (ऐ. ब्रा. ७.३४सां. आ. १५.१)। ऋषि की पत्नी थी। इसकी माता का नाम असिक्नी था। इसके नाम के लिए 'प्रियव्रत सौमापि' पाठभेद भी कश्यप से इसे कोई भी सन्तान न हुयी (कश्यप उपलब्ध है। सांख्यायन आरण्यक में इसे 'सोमप' (सोम | देखिये)। पीनेवाला) उपाधि से उद्देशित किया गया है। प्रोष्ठपाद वारक्य-एक आचार्य, 'जो कंस वारकि __पितरों के 'मृत' और 'अमृत' दो प्रकार होते हैं। नामक ऋषि का शिष्य था (जै. उ. बा. ३.४१.१)। पितरों में से 'ऊम' नामक पितरं 'अमृत' प्रकार में प्रौष्ठपद-कुबेर का कोषाध्यक्ष और मंत्री (वा. रा. आते हैं। किन्तु प्रियव्रतं के अनुसार, जो पितर यज्ञ में | उ. १५.१६)। भाग लेते हैं वे सभी 'अमृत' प्रकार में आते हैं। प्लक्ष--दारुक नामक शिवावतार का शिष्य। प्रीति--दक्ष की कन्या, जो पुलस्त्य ऋषि की पत्नी प्लक्ष दय्यांपति-एक आचार्य, जो अत्यंहस् थी। पुलस्त्य से इसे दानामि, देवबाहु, अत्रि नामक तीन आरुणि नामक ऋषि का समकालिन था। उसने अपने पुत्र, एवं सद्वती नामक एक कन्या थी (पुलस्त्य शिष्यों के द्वारा इससे सावित्राग्नि के बारे में अशोभनीय देखिये)। . . प्रश्न पुछवाये थे (ते. ब्रा. ३.१०.९.३)। २. कामदेव की पत्नी रति का नामांतर । प्लति--गय प्लात नामक आचार्य का पिता। प्रयमेध--आचार्यों का एक सामूहिक नाम, जिन्होंने प्लवंग--राम की सेना का एक वानर (वा. रा. उ. अंगरांज के पुरोहित आत्रेय उद्मय के लिये यज्ञ किया था | ४०.७)। (ऐ. बा. ८.२२)। तैत्तिरीय ब्राह्मण में तीन प्रेयमेधों का | प्लाक्षायण--एक वैयाकरण, जो आचार्य प्लाक्षि का निर्देश प्राप्त है (ते. ब्रा. २.१.९.१)। उनमें से एक समकालीन था। विसर्ग सन्धि के बारे में इसके मत केवल एक समय, सुबह ही 'अग्निहोत्र' होम करता था; | तैत्तिरीय प्रातिशाख्य में निर्देशित है (तै. प्रा. ९.६)। - दूसरा सुबहशाम दो बार, तथा तीसरा सुबह, दोपहर, प्लाक्षि-एक वैयाकरण, जो प्लाक्षायण नामक तथा शाम तीनों समय ‘अग्निहोत्र' होम करता था। आचार्य का समकालीन था। विसर्गसन्धि के बारे में इसके पश्चात् , इन तीनों में यह तय पाया गया कि, उक्त होम | इसके मत तैत्तिरीय प्रातिशाख्य में दिये गये है (ते. प्रा. दिन में केवल दो बार ही किया जाये । तैत्तिरीय ब्राह्मण | ५.३.८, ९.६; तै. आ. १.७.३)। प्लक्ष का वंशज होने में भी यह कथा इसी प्रकार दी गयी है। के कारण, इसे प्लाक्षि नाम प्राप्त हुआ होगा। यजुर्वेद संहिताओं में इन्हें सभी यज्ञगायनों का विज्ञ 'प्लाक्षि' उपाधि पैतृक नाम के रूप में 'सप्तकर्ण' को कहा गया है (का. सं. ६.१; मै. सं. १.८)। गोपथ ब्राह्मण | भी दी गयी है (सप्तकर्ण देखिये) में इन्हें भारद्वाज कहा गया है (गो. ब्रा. १.३.१५)। प्लात--गय प्लात नामक वैदिक सूक्तद्रष्टा का पैतृक - ऋग्वेद के सिंधुक्षित् नामक सूक्तद्रष्टा को प्रियमेधपुत्र नाम (ऐ. ब्रा. ५.२; गय प्लात देखिये)। संभव है, के अर्थ से 'प्रैयमेध' पैतृक नाम प्रदान किया गया है। 'प्लति' का वंशज होने के कारण, इसे यह नाम प्राप्त प्रोति कौशांबेय कौसुरुबिन्दि-एक आचार्य, जो हुआ होगा। उद्दालक ऋषि का शिष्य और उसका समकालीन था (श. प्लायोगि--आसंग नामक दानवीर राजा एवं वैदिक ब्रा. १२.२.२.१३)। गोपथ ब्राह्मण में इसे 'प्रेदि । सूक्तद्रष्टा का पैतृक नाम (आसंग देखिये)। Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ G फलभक्ष प्राचीन चरित्रकोश फलभक्ष-कुवेर की सभा का एक यक्ष (म. स. फाल्गुन--अर्जुन का नामांतर । हिमालय के शिखर १०.१७)। पर, उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र में अर्जुन का जन्म हुआ था। इसीसे उसे यह नाम प्राप्त हुआ (म. वि. ३९.१०)। फलहार--अंगिराकुल का एक गोत्रकार। फेन--(सो. उशी.) उशीनरवंशीय एक राजा, जो फलौदक--कुबेर की सभा का एक यक्ष (म. स. उपद्रथ राजा का पुत्र था। इसके पुत्र का नाम सुतपस् १०.१७)। एवं पौत्र का नाम बलि औशीनर था, जो अपने समय का सुविख्यात शासक था (ह.व. १.३१.३२)। . फल्गतंत्र--अयोध्या का राजा, जो सगर राजा का फेनप-एक ऋषिसमुदाय, जो गोदुग्ध के फेन को पिता था। इसकी वृद्धावस्था में तालबादि हैहयों ने खा कर ही जीवित रहते थे (म. उ. १००.५, अनु. ४५. अयोध्या पर आक्रमण कर, उसे अपने अधिकार में कर लिया, और इसे अपनी पत्नी के साथ राज्य से निकाल २. भृगुकुल का एक गोत्रकार, जिसकी कथा भीष्मदिया। अयोध्या से निकल कर, यह सपत्नीक और्वाश्रम में द्वारा युधिष्ठिर को गोमहात्म्य बताने के लिए निवेदित की आकर रहने लगा, और वहीं इसकी मृत्यु भी हुयी । मृत्यु गयी थी। इसका मूल नाम सुमित्र था। यह त्रिशिखर '' के समय इसकी पत्नी गर्भवती थी, जिसे कालांतर में पर्वत पर, कुलजा नदी के तट पर, गाय के दूध का फेन सगर नामक पुत्र हुआ (ब्रह्मांड, ३.४७)। खा कर जीवित रहता था। इसलिये इसे फेना नाम प्राप्त । __ मत्स्य तथा विष्णु पुराण में इसके नाम के लिए 'बाहु' हुआ (म. अनु. १२०-१२३ कुं.)। पाठभेद प्राप्त है (बाहु देखिये)। । ३. पितरों में से एक। निकाल २ बक-कंस के पक्ष का एक असुर, जिसे कंस ने कृष्ण के सरोवर से कमल तोड़ने के अपराध में, वहाँ के रक्षकों के वध के लिये गोकुल भेजा था। द्वारा यह शिवजी के सम्मुख पेश किया गया । शिवजी __ बगुले का वेश धारण कर यह गोकुल गया। वहाँ ने इसकी निष्ठा को देखकर 'आशीष देते हुए कहा गोप सखाओं के साथ क्रीड़ा में निमग्न कृष्ण को देख कर 'अगले जन्म में तुम्हें कृष्ण के दर्शन होंगे, एवं उन्हीं के इसने उसे निगल लिया। कृष्ण इसके शरीर में पहुँच | हाथों तुम्हें मुक्ति भी प्राप्त होगी' (ब्रह्मवै. ४. १६)। कर इसे पीडा से दग्ध करने लगा । अतएव इसने उसे २. एक नरभक्षी राक्षस, जो एकचक्रा से दो कोस की तत्काल उगल कर, यह अपनी पैनी चोंच से उसे मारने | दूरी पर, यमुना नदी के किनारे वेत्रवन नामक घने जंगल लगा। इसका यह कुकृत्य देखकर, कृष्ण ने इसकी चोंच के की एक गुफा में रहता था। इसका एकचक्रा नगरी तथा दोनों जबड़ों को चीरकर इसका वध किया (भा. १०.११)। वहाँ के जनपद पर शासन चलता था (म. आ. १४८. ब्रह्मवैवर्त पुराण के अनुसार, पूर्वजन्म में यह सहोत्र ३-८)। अलंबुस तथा किर्भीर इसके भाई थे। नामक गंधर्व था। यह कृष्णभक्त था, और दुर्वास ऋषि । एकचक्रा नगरी के व्यक्तियों ने अत्यधिक परेशान के आश्रम में रहकर, कृष्ण की प्राप्ति लिए इसने अत्यधिक हो कर, इसे घर बैठे ही भोजन भेजवा देने के लिए, हर तपस्या भी की। एक बार कृष्ण की पूजा के हेतू पार्वती | एक व्यक्ति की पारी बाँधी दी। . Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन चरित्रकोश बक दाल्भ्य अब हर एक दिन इसके भोजन के लिए, तीस मन कर, इसने उन्हें नैमिषारण्यवासी ऋषियों का प्रदान चावल, दो भैंसे तथा एक व्यक्ति नगर निवासियों की ओर | करते हुए कहा, 'इन गायों को आप लोग ग्रहण करें, मैं से जाने लगी। एक दिन एक गरीब ब्राह्मण की पारी | सार्वभौम कुरुराजा धृतराष्ट्र के पास जाकर पुनः दक्षिणा आयी, जिसके घर लाक्षागृह से निकलने के उपरांत कुंती | प्राप्त करूँगा। के साथ पांडवों ने निवास किया था। ब्राह्मण के उपर धृतराष्ट्र से विरोध-धृतराष्ट्र के पास जाने के बाद इसे आयी हुयी विपत्ति को देख कर, कुंतीद्वारा भीम सब | वहाँ धृतराष्ट्र द्वारा मृतक गायों की दक्षिणा प्राप्त हुयी। खाने-पीने के सामान के साथ राक्षस के निवासस्थान अपने इस अपमान को देखकर, यह कुरुराज पर अत्यधिक भेजा गया। भीम बक के यहाँ जाकर सारे सामान को क्रोधित हुआ एवं उसके विनाश के लिए यज्ञ करने लगा। स्वयं खाने लगा। यह देख कर बक क्रोधित होकर भीम दक्षिणा में प्राप्त मृतक गायों को उसी यज्ञ में हवन कर, पर झपटा, और दोनों में मल्लयुद्ध आरम्भ हो गया। इसने धृतराष्ट्र के वंश, राज्य आदि के विनाश के लिए अन्त में भीम ने बक का वध किया (म. आ. ५५.२० | प्रार्थना की। १४४-१५२)। इस यज्ञ का प्रभाव यह हुआ कि, धृतराष्ट्र का राज्य ३. अंधकासुर के पुत्र आडि नामक असुर का नामांतर दिन पर दिन उजड़ कर नष्टप्राय होने लगा, मानों किसी(आडि देखिये)। ने हरेभरे बन के वृक्षों को कुल्हड़ी से काट कर रख दिया बक दाल्भ्य-एक ऋषि, जो दाल्भ्य ऋषि का भाई हो । राष्ट्र की हालत देखकर, ज्योतिषियों के परामर्श से था (म. स. ४.९; २६.५; परि. १. क्र. २१. पंक्ति १- धृतराष्ट्र बक ऋषि की शरण गया, एवं राष्ट्र को विनाश से ४)। महाभारत में इसके नाम का निर्देश दाल्भ्य के मुक्त करने की याचना करने लगा। धृतराष्ट्र की दयनीय साथ प्रायः हर एक जगह आया है। किन्तु, यह निर्देश स्थिति को देख कर, तथा उसकी प्रार्थना से द्रवीभूत कभी 'बकदाल्भ्यो ' (बक एवं दाल्भ्य) रूप से, एवं कभी होकर, यह राष्ट्रसंहारक मन्त्रों को छोड़कर राष्ट्रकल्याण'बको दाल्भ्यः ' (दल्म का पुत्र बक) रूप में भी प्राप्त कारी मन्त्रों के उच्चारण के साथ पुनः यज्ञ करने लगा, है । इसीकारण यह दाल्भ्य ऋषि का भाई था, अथवा | जिससे राष्ट्र विनाश से बच गया। इससे प्रसन्न होकर दम ऋषि का पुत्र था, यह निश्चित रूप से नहीं कहा जा | धृतराष्ट्र ने बक ऋषि को अनेकानेक सुन्दर गायों को दक्षिणा सकता । उपनिषदों में 'दाल्भ्य' बक ऋषि का पैतृक नाम के रुप में भेंट दी, जिन्हें लेकर यह नैमिषारण्य वापस दिया गया हैं (छां. उ. १.२.१३, क. सं. ३०.२ लौट गया (म. श. ४०)। दाल्भ्य देखिये)। तत्त्वज्ञान-युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में यह ब्रह्मा ...कई विद्वानों के अनुसार, ग्लाव मैत्र एवं यह दोनों | नामक ऋत्विज बना था। पाण्डवों के अश्वमेध यज्ञ के एक ही व्यक्ति थे। 'जैमिनि उपनिषद् ब्राह्मण' में, आजके- समय, अश्व के रक्षणार्थ निकला हुआ अर्जुन इसका दर्शन शिनों के लिए इन्द्र को विवश करनेवाले एक व्यक्ति के | करने के लिए इसके आश्रम आया था। उस समय अर्जुन रूप में, तथा कुरू-पंचाल के रूप में इसका उल्लेख किया के साथ जो इसका संवाद हुआ था, वह इसकी परम गया है ( जै. उ. बा. १.९.२,४.७.२ )। विरक्ति एवं मितभाषणीय स्वभाव पर काफी प्रकाश ___ तीर्थयात्रा करता हुआ बलराम, बक दाल्भ्य के आश्रम | डालता है। आया था। वहाँ बलराम को इसके बारे में निम्नलिखित कथा | इसके आश्रय में कोई झोपडी न थी। यह खुले मैदान ज्ञात हुभी। उस कथा में बक दाल्भ्य के प्रत्यक्ष उपस्थिति में, सर पर एक वटवृक्ष के पत्ते को रक्खे हुए तपस्या कर का उल्लेख नहीं है, जिससे ज्ञात होता है कि, उस समय रहा था। अर्जुन ने इसे इसप्रकार बैठा देखकर प्रश्न यह आश्रम में न था। किया 'यह सर पर वटपत्र क्या अर्थ रखता है ?' इसने एक बार. यह नैमिषारण्य के ऋषियों द्वारा आयोजित | जवाब दिया 'धूप से बचने के लिए'। अर्जुन ने पुछा, द्वादशवर्षीयसत्र एवं विश्व जित् यज्ञ में भाग लेकर, 'इसके लिए आप को झोपडी आदि बनवाना चाहिये। पांचाल देश पहुँचा । वहाँ के राजा ने इसका उचित | इसने जवाब दिया 'उम्र इतनी कम है कि, इन चीज़ों के आदरसत्कार कर, उत्तम जाति की इक्कीस गायों को लिए समय ही कहाँ ?' इस पर अर्जुन ने इसकी आयु दक्षिणा के रूप में इसे भेंट की। इन गायों को स्वीकार | पूछी। तब इसने जवाब दिया 'ब्रह्मा की बीस अहोरात्रि'। ४८७ Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बक दाल्भ्य प्राचीन चरित्रकोश बंधु ब्रह्मा का हर एक दिन और रात एक सहस्त्र वर्षों की | अनाज दे। हे अनाज देनेवाले प्रभो, हमें अनाज दे। होती है, यह मन ही मन जान कर, अर्जुन को इसकी | (छां. उ. १.१२)। आयु हजारों सालों की प्रतीत हुयी। बाद में, अर्जुन इसे | बकनख--विश्वामित्र का ब्रह्मावादी पुत्रों में से एक ।' पालकी में सम्मानपूर्वक बिठा कर युधिष्ठिर के अश्वमेधयज्ञ | (म. अनु. ४.१८ )। में ले गया (जै. अ. ६०)। __बकी-पूतना राक्षसी का नामांतर । बहुत वर्षों तक जीनेवाले व्यक्ति को किन दुःख- बटु-गीता का नित्यपाठ करनेवाला भक्त ब्राह्मण । सुखों के बीच गुजरना पडता है, इस सम्बन्ध में इसका | धर्माचरण करने के कारण, मृत्योपरांत इसे स्वर्ग की तथा इन्द्र का संवाद हुआ था। इस संवाद में इन्द्र ने | प्राप्ति हुयी । पर इसका नश्वर शरीर इसी लोक में रहा। उल्लेख किया है कि, इसकी आयु एक लाख वर्षों से भी | पक्षिया ने इसके मृत शरीर के समस्त मांस को खा डाला, अधिक थी (म. व. परि. १. क्र. २१)। केवल अस्थिपंजर ही शेष बचा। पश्चात् वर्षा के दिनों में इसकी खोपडी बरसाती पानी से भर गयी, जिसके ___ यह अधिक काल तक जीवित रहा, इसके सम्बन्ध में स्पर्श से एक पापी का उद्धार हुआ (पद्म. उ. १७९) एक और कथा 'जैमिनि अश्वमेध' में दी गयी है। एक बध्यश्व-(सो. नील.) एक राजा, जो वायु के बार इसने अभिमान में आ कर ब्रह्मा से कहा, 'मैं तुमसे आयु में ज्येष्ठ हूँ, अतएव मेरा स्थान तुमसे ऊँचा है। अनुसार सुमहायशस् राजा का पुत्र था। मत्स्य के अनुसार, 'बध्यश्व' सुविख्यात 'वघ्यश्व' राजा का ही . ब्रह्मा ने इसके द्वारा इसप्रकार की अपमानभरी वाणी सुन कर, इसके मिथ्याभिमान एवं भ्रम के निवारणार्थ | पाठभेद है (वयश्व देखिये )। प्राचीन ब्रह्मदेवों का साक्षात् दर्शन करा कर सिद्ध कर दिया बंदिन --ऐंद्राग्नि जनक राजा के राजसभा का वाक्पटु . कि, यह उसकी तुलना में कुछ भी नहीं था (जै. अ.६१)। पंडित (म. व. १३२.४ )। राजा जनक को इसने अपना . परिचय 'वरुणपुत्र के रूप में दिया था (म. व. १३४. लंकाविजय के पूर्व, राम बक दाल्भ्य के आश्रम गया | २४)। किन्तु महाभारत में अन्यत्र, इसे सूतपुत्र भी कहा, था, और समुद्र किस प्रकार पार किया जाय, इसके बारे गया है (म. व. १३४.२१)। में राय माँगी थी। तब इसने राम को 'विजया एकादशी' ___इसने अन्य ब्राह्मणों के साथ कहोड़ को शास्त्रार्थ में का व्रत बता कर उसे करने के लिए कहा । इसी व्रत के परास्त कर, शर्त के अनुसार जल में डूबोया था (म. व. कारण ही, राम रावण का वध कर विजय प्राप्त कर सका | १३२.१३) । अन्त में, अष्टावक्र ने अपने पिता कहोड़ (पद्म. उ. ४४)। की मृत्यु का बदला लेने के लिये, इसे वादविवाद में छांदोग्य उपनिषद् में—यक दाल्भ्य की एक कथा दी | हराया था (म. व. १३४.३-२१)। इस समय अष्टागयी है, जिसमें ऐहिक सुखप्राप्ति के लिए मन्त्रोच्चारण | वक्र की आयु दस ग्यारह वर्षों ही की थी (म. व. १३२. का स्वांग रचानेवाले लोगों का लक्षणात्मक रूप से | १६:१३३.१५, अष्टावक्र देखिये)। इस प्रकार पुरानी उपहास किया गया है । यह कथा कुत्तों से सम्बधित है, जो | शर्त के अनुसार, ऐंद्रद्युम्नि जनक ने इसे समुद्र में प्रवेश बक दाल्भ्य द्वारा देखी गयी। इन्होंने देखा कि, एक सफेद | करने के लिए विवश किया (म. व. १३४.३७)। कुत्ते से अन्य कुत्ते अपने खाने की समस्या को रखकर निवेदन महाभारत में दी गयी बंदिन की कथा में, जनक को कर रहे है, 'हम भुखे है, क्या खायें ! कहाँ से हमें कैसे अन्न | ऐन्द्रद्युम्नि (म. व. १३३.४ ), उग्रसेन (म. व. १३४.१ । प्राप्त हो!' सफेद कुत्ते ने कहा, 'ठीक है, कल आओ, हम | तथा पुष्करमालिन् (म. व. १३३.१३). कहा गया है। देंगे तुम्हें भोजन' । यह सुनकर कुत्ते चले गये और दुसरे | विदेह की वंशावलि में जनक के ये नाम अनुपलब्ध हैं। दिन फिर उसी सफेद कुत्ते के पास पहुँचे । बक ऋषि भी | महाभारत में इसके नाम के लिए बंदिन (म. व. जिज्ञासावश दूसरे दिन सफेद कुत्ते की करामत देखने को | १३२.१३:१३३.१८:१३४.२), तथा बंदि (म. व. १३२. हाजिर हुए। ऋषि ने देखा कि, सभी कुत्तों के चुपचाप | ४.१३३.५) दोनों पाठभेद प्राप्त हैं। खडे हो जाने के उपरांत, गर्दन उँची कर सफेद कुत्ता बंधु-(सू . दिष्ट.) एक राजा, जो भागवत के साभिमानपूर्वक मनगटन्त मन्त्र उच्चारीत करने लगा- | अनुसार, वेगवान् राजा का पुत्र था। अन्य पुराणों में . 'हिम् ॐ। हम खायेंगे। ॐ हम पियेंगे । भगवान् हमें | इसे 'बुध' भी कहा गया है। ४८८ Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधु गौपायन बंधु गौपायन (लौपायन) -- एक वैदिक सूक्तद्रष्टा (ऋ. ५.२४.१ १०.५७-६०) । प्राचीन चरित्रकोश बंधुपालित (मौर्य. भविष्य ) - एक राजा, जो वायु के अनुसार कुनाल का, एवं ब्रह्मांड के अनुसार कुशाल का पुत्र था। इसने आठ वर्षों तक राज्य किया । बंधुमत् - ( स् . दिष्ट. ) एक राजा, जो भागवत एवं वायु के अनुसार केवल राजा का पुत्र था । इसके पुत्र का नाम वेगवान् था | इसके नाम के लिए 'धुंधुमत् ' पाठभेद भी उपलब्ध है (धुंधुमत् देखिये) । बबरं प्रावाहणि - एक आचार्य, जो श्रेष्ठ वक्ता बनना चाहता था । इसी इच्छा के वशीभूत होकर इसने पंचविंश यज्ञ किया था, जिससे इसे भाषासौन्दर्यशक्ति, साहित्यज्ञान तथा वक्तृत्वकला प्राप्त हुयी ( तै. सं. ७. १. १०.२) । बभ्रु -- (सो. पुरूरवस् . ) एक राजा, जो ययाति पौत्र एवं का पुत्र था इसके पुत्र का नाम सेतु था । कई ग्रन्थों में इसे बभ्रुसेतु भी कहा गया है, पर वास्त विकता यह है कि, सेतु इसके भाई का नाम था । वायु में इसके पुत्र का नाम रिपु दिया गया है ( वायु. ९९.७.) २. (सो. क्रोष्टु. ) एक राजा, जो रोमपाद का पुत्र था पद्म में इसे लोमपाद का पुत्र कहा गया है, और इसके पुत्र का नाम धृति बताया गया है (पद्म. स. १३) । । । कई ग्रन्थों में इसके पुत्र का नाम कृति भी मिलता है । ३ विश्वामित्र ऋषि के ब्रह्मज्ञानी पुत्रों में से एक ( म. अनु. ४.५० ) । इसके वंश के लोग भी 'बाभ्रव्य' नाम से ही प्रसिद्ध हुए (ब्रह्म. १०६१; वायु. ९१. ९९ ) । बभ्रु दैवावृध बभ्रुआत्रेय--एक वैदिक आचार्य एवं सूक्तद्रष्टा, जिसने ऋणचय राजा से उपहार प्राप्त किये थे (ऋ. ५. ३०.११ - १४) । ऋग्वेद में अन्य जगह इसे अश्वियों का आश्रित भी कहा गया है (ऋ. ८. २२.१०९ बृहद्दे. ५. १३.३३ - ३४) । अथर्ववेद में भी एक स्थान पर बभ्रु का निर्देश प्राप्त है ( अ. वे. ४.२९.२ ) । किन्तु व्हिट इसे व्यक्तिवाचक नाम नहीं मानते । बभ्रु काश्य -- काशी का सुविख्यात राजा, जिसे श्रीकृष्ण की कृपा से राज्यश्री का लाभ हुआ था ( म. ३. २८. १३) । बभ्रु कौम्भ्य -- तांड्य ब्राह्मण में निर्दिष्ट एक सामद्रष्टा ( तां. बा. १५.३.१३ ) । बभ्रु दैवावृध – (सो. क्रोष्टु. ) एक यादववंशीय राजा, जो सात्त्वतपुत्र देवावृध का पुत्र था। इसकी माता का नाम पर्णाशा था । इसके नाम के लिये 'भानु' पाठभेद प्राप्त है। यह राजर्षि यज्ञविद्या में बडा ही निपुण था । सहदेव साञ्जय ने इसे सोम बनाने की विशेष पद्धति प्रदान की थी। ऐतरेय ब्राह्मण में इसे पर्वत एवं नारद का शिष्य कहा गया है ( ऐ.ब्रा. ७. ३४ ) | सायणाचार्य इसे दो अलग व्यक्ति मानते है । यह बड़ा ही दयालु एवं उपकारी राजा था। इसने के कारण ही, इसे दानपति नाम प्राप्त हुआ था । लोगों को दान भी प्रचुर यात्रा में दिये थे । इसकी उदारता इसके पुण्यकर्मों के कारण, इसके वंश का उद्धार हुआ ( भा. ९.२४.१० . ) । इसके वंश के नृप भोज 'मार्तिवतक' नाम से सुविख्यात हैं (ब्रह्म. १५.३५ -४५.) । महाभारत में इसे वृष्णिवंशीय यादव, एवं यदुवंशियों के सात मंत्रिपुंगवों में से एक कहा गया है ( म. स. १३. १५९*)। ४. सात्वतवंशीय अक्रूर राजा का नामांतर ( ब्रह्मांड. १.७१.८१; म. शां. ८२. १७; अक्रूर देखिये) । ५. एक आचार्य, जो भागवत के अनुसार, व्यास के अथर्थवेदशिष्य परंपरा के आंगिरस शुनक का शिष्य था । इसे आंगिरस ने अथर्वसंहिता प्रदान की थी ( भा. १२ ७.३; व्यास देखिये) । सुभद्राहरण के समय रैवतक पर्वत पर हुए महोत्सव में यह उपस्थित था ( म. आ. २११.१० ) । एकबार श्रीकृष्ण से मिलने यह द्वारका गया था, उस समय ६. मत्स्यनरेश विराट का एक पुत्र ( म. उ. ५६. शिशुपाल ने इसके पत्नी का हरण किया था ( म. स. ३३) । ७. कश्यप कुलोत्पन्न संपाति का ज्येष्ठ पुत्र । इसके भाई का नाम शीघ्रग था (पद्म सृ. ६.६८ ) । ८. ऋषभ पर्वत पर रहनेवाला एक गंधर्व । ९. एक स्मृतिकार, जो बभ्रुस्मृति का रचियता कहा जाता है (C.C.) । प्रा. च. ६२] ४२.१० ) । द्वारका में हुए ' यादवी युद्ध' के समय, इसने श्रीकृष्ण के पास ही बने हुए पेयपदार्थों का सेवन किया था (म. मौ. ४.१५ ) । द्वारका में हुए यादवी युद्ध में सारे यादव लोगों का संहार हो गया, एवं द्वारका निवासी यादवस्त्रियों की जान खतरे में आ गयी। उस समय दस्यु आदि ४८९ Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन चरित्रकोश देवावृध चोर धनादि के लोभ से आक्रमण न करें, इसलिये यादव स्त्रियों का रक्षण करने का काम, श्रीकृष्ण ने इसे एवं दारुक को कहा था। किंतु इसके पहले ही मौसलयुद्ध में फेंके गये एक मूसल से इसकी मृत्यु हो गयी ( म. मौ. ५.५-६ ) । बभ्रुमालिन् युधिष्ठिर की सभा का ऋषि ( म. स. ४.१४) । बभ्रुवाहन - मणिपुरनरेश चित्रवाहन की पुत्री चित्रांगदा के गर्भ से अर्जुनद्वारा उत्पन्न एक शरवीर शाक (म. आ. २०७.२१-२३)। चित्रवाहन ने अर्जुन को अपनी कन्या देने से पूर्व वह शर्त रखी थी कि, 'इसके गर्म से जो भी पुत्र होगा, यह यही रह कर इस कुलपरम्परा का प्रवर्तक होगा। इस कन्या के विवाह का यही शुल्क आपको देना होगा।' 'तथास्तु' कह कर अर्जुन ने वैसा ही करने की प्रतिज्ञा की । जन्म--चित्रांगदा के पुत्र हो जाने पर उसका नाम बभ्रुवाहन रख्खा गया। उसे देख कर अर्जुन ने राजा चित्रवाहन से कहा - 'महाराज ! इस अभ्रुवाहन को आप चित्रांगदा के शुल्क के रूप में ग्रहण कीजिये, जिससे मैं आप के से मुक्त हो जाऊँ इस प्रकार बभ्रुवाहन धर्मतः चित्रवाहन का पुत्र माना गया (म. आ. २०६.२४२६ ) | चित्रवाहन राज्य उसी प्रभंजन राजा का वंशज था, जिसने पुत्र न होने पर शंकर की तपस्या कर पुत्रप्राप्ति के लिये वर प्राप्त किया था ( प्रभंजन देखिये) । चित्रवाहन के । उपरांत यह मणिपूर राज्य का अधिकारी बना, जिसकी राजधानी मणलूरपूर थी (म. आ. ३.८१९ परि. १, क्र. ११२) । युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ के समय, इसने सहदेव को करभार दिया था (म. स. परि. १, क्र. १५. पंक्ति ७३ ) । अर्जुनविरोध -- युधिष्ठिर द्वारा किये गये अश्वमेध के अश्व के साथ, घूमता घूमता अर्जुन इसके राज्य में आया था। इसने यज्ञ का अश्व देख कर उसे अपने अधिकार में कर लिया। पर जैसेहि इसे पता चला कि, यह मेरे पिता काही अर्थ है, इसने अश्व को धनधान्य तथा द्रव्यादि के साथ अर्जुन के पास लौटा दिया। अर्जुन ने बभ्रुवाहन के इस कार्य की कटु आलोचना की, तथा इसकी निता तथा असहाय स्थिति पर शोक प्रकट करते हुए इसके द्वारा दिये गये स्यादि को लौटा दिया। बभ्रुवाहन दिया तथा अपने सेनापति सुमति के साथ ससैन्य अर्जुन पर धावा बोल दिया । इस युद्ध में बभ्रुवाहन ने अपने अभूतपूर्व शौर्य का प्रदर्शन किया, तथा अर्जुन को रण में परास्त कर उसका वध किया। इसी युद्ध में पुत्र वृषकेतु का भी इसने व किया है. अ. ३७) । । अर्जुन के व्यंग वचनों को सुन कर इसने अपने मंत्री सुबुद्धि के साथ यज्ञ के अश्व को पकड़ कर नगर भेज विजयोल्लास में निम बभ्रुवाहन राजधानी वापस छोटा, तथा अपनी वीरता की कहानी के साथ अर्जुन की मृत्यु का समाचार इसने चित्रांगदा को कह सुनाया। यह समाचार सुनते ही, इसकी माँ शोक में विलाप करती हुयी पति के शव के साथ सती होने को तत्पर हुयी । इस प्रतिक्रिया को देख कर अपनी माता-पिता का हत्यारा अपने को मान कर, यह स्वयं ही आत्महत्या के लिये प्रस्तुत हुआ। " मृतसंजीवन — उक्त स्थिति को देख कर इसकी सौतेली माँ उलूपी, जो अर्जुन की नागपत्नी थी, वह भी दुःखित हुयी। उसने इसे तथा चित्रांगदा को सांत्वना देते हुए युक्त बतायी कि यदि यह शेषनाग के पास जा कर मृतसंजीवक मणी को ले आये, तो अर्जुन पुनः जीवित हो सकता है। इसपर यह शेषनाग से मणि खाने गया, किंतु अन्य सर्पों के बहकाने पर शेषनाग ने इसे मणि देने से इन्कार कर दिया। अन्त में, शेषनाग को युद्ध में परास्त कर, यह उस मणि को लेकर अपने नगर वापस आया । मणि को लेकर यह अर्जुन के शव के पास गया। किंतु इसने वहाँ देखा कि, अर्जुन का कटा हुआ सर किसी के द्वारा चुरा लिया गया है । यह बड़ा हताश हुआ, किन्तु कृष्ण अपने पुण्यप्रभाव से पुनः उस सर को वापस लाया । इस प्रकार अर्जुन मणि के द्वारा जीवित किया गया। दोनों पिता-पुत्र पुनः मिले, तथा अर्जुन अश्वमेध अश्व के साथ आगे चल पड़ा (जै. अ. २१-४० ) । महाभारत में अर्जुन एवं बभ्रुवाहन के बीच हुए युद्ध की कथा कुछ अलग ढंग से दी गयी है । इस ग्रन्थ में अर्जुन की मृत्यु नहीं दिखायी गई है, बल्कि दिखाया गया है कि, बभ्रुवाहन ने अपनी सौतेली माता उड़पी के द्वारा प्राप्त किये हुए मायावी अस्त्रों के द्वारा अर्जुन को युद्ध में मूर्च्छित किया (उडपी देखिये) । यह घटना सुन कर चित्रांगदा ने पी की निर्भत्सना की, तथा उसे बुरा भला कहा। उलूपी ने अपनी गल्ती स्वीकार कर बभ्रुवाहन को मृतसंजीवक मणि दी, तथा महा ' इसे ले जा कर अर्जुन के वक्षस्थल पर रक्खो । वह पुनः ४९० Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बर्हणाश्व बभ्रुवाहन प्राचीन चरित्रकोश जीवित हो जायेगा' (म. आश्व. ८१.९-१०)। मणि के | इसे 'चंडिल' नामांतर भी प्राप्त हुआ। श्रीकृष्ण ने स्पर्श से अर्जुन पुनः जीवित हो उठा । पितापुत्र दोनों गले | स्नेहवंश इसे 'सुहृदय' नाम दिया था। मिले । पश्चात् , अर्जुन ने बड़े सम्मान के साथ बभ्रुवाहन | पूर्वजन्म-पूर्वजन्म में यह सूर्यवर्चस् नाम यक्ष था। को युधिष्ठिर के होनेवाले अश्वमेध के लिये निमंत्रित एक बार दानवों के अत्याचार से पीड़ित हो कर, समस्त किया, एवं यह अपनी दोनों माताओं के साथ यज्ञ में देव विष्णु के पास गये एवं दानवों का नाश कर पृथ्वी सम्मिलित हुआ (म. आश्व. ९०.१)। के भूभार हरण की प्रार्थना उन्होंने विष्णु से की । उस समय . २. कृतयुग का एक राजा । एक बार यह मृगया के | इसने अहंकार के साथ कहा, 'विष्णु की क्या आवश्यकता हेतु वन को गया था, जहाँ सुदेव की प्रेतात्मा ने अपने | है, मैं अकेला सारे दैत्यों का नाश कर सकता हूँ। पूर्वजन्म की कथा इससे कही थी (गरुड़. २.९)। इसकी यह गर्वोक्ति सुन कर ब्रह्मा ने इसे शाप दिया, बम्ब आजद्विष—एक आचार्य, जो अजद्विष का | 'अगले जन्म में कृष्ण के हाथों तेरा वध होगा। वंशज था (जै. उ. बा. २.७.२-६)। इसके नाम के | देवी उपासना-ब्रह्मा के द्वारा मिले हुए शाप का लिए 'बिम्ब' पाठभेद उपलब्ध है। शमन करने के हेतु, अगले जन्म में कृष्ण ने इससे देवी उपासना करने के लिये उपदेश दिया। अंत में बम्बाविश्वावयंस्-एक ऋषिद्वय, जिन्होंने एक विजय नामक ब्राह्मण की कृपा से देवी को प्रसन्न कर, विशिष्ट देवता को सोमरस अर्पित करने का एक नया इसने महाजिह्वा नामक बलिष्ठ राक्षसी, तथा रेपलेंद्र संप्रदाय स्थापित किया था। इन्होंने किसी अन्य संस्कारों का भी प्रणयन किया था (तै. सं. ६. ६. ८. राक्षस का वध किया । दुहद्रु नामक गर्दभी एवं एक जैन श्रमण का भी मुष्टिप्रहार द्वारा वध किया । विजय ने इसे ४; क. सं. २९.७)। काठक संहिता में, इनके नाम के शत्र के मर्मस्थान को वेधने के लिये विभूति प्रदान की, लिये 'बम्भार, एवं मैत्रायणी सेहिता में 'बम्ब' पाठभेद एवं भारतीय युद्ध में कौरवों के विपक्ष में उसे प्रयोग करने दिया गया है (मै. सं. ४. ७. ३)। के लिये कहा। बरु-एक वैदिक सूक्तद्रष्टा (ऋ. १०. ९६; ऐ. | ___ एक बार अपने पितामह भीम को न पहचान कर, इसने वा. ६. २५; सां. ब्रा. २५. ८)। | उसके साथ मल्लयुद्ध कर पराजित किया। बाद में पता बर्क वार्ण--शतपथ ब्राह्मण में निर्दिष्ट एक तत्त्वज्ञ | चलने पर, आत्मग्लानि अनुभव कर यह आत्महत्त्या के आचार्य, जिसने 'अन्तिम तत्व नेत्र' का प्रतिपादन | लिए प्रस्तुत हआ। तत्काल, देवी ने प्रकट हो कर कहा, किया था (श. बा. १. १. १. १०; बृ. उ. ४. १. ४; 'तुम्हें कृष्ण के हाथों मर कर मुक्ति प्राप्त करनी है, ५.१.८)। | अतएव यह कुकृत्य न करो। बर्बर-बर्बर देश के निवासी। इनकी गणना उन | भारतीय युद्ध में यह पांडवों के पक्ष में शामिल था, म्लेच्छ जातियों में की जाती है, जिनकी उत्पत्ति नन्दिनी के | तथा कौरवपक्ष को परास्त करने के लिए इसने अपनी विभूति पार्श्वभाग से हुयी थी (म. आ. १६५.३६) । अन्य म्लेच्छ | का प्रयोग किया था। वह विभूति पाण्डव, कृपाचार्य, एवं वंशियों के साथ, राजा सगर ने इन्हें भी पराजित किया | अश्वत्थामा को छोड कर बाकी सारे मित्रों तथा शत्रुओं था, किन्तु अपने गुरु विश्वामित्र के आग्रह पर, इन्हे | के मर्मस्थान पर लगी, जिससे रणभूमि में कोलाहल मच विकृतरूप बना कर छोड़ दिया (सगर देखिये)। गया । यह विभूति कृष्ण के पैर के तलवे पर भी लगी, । महाभारत के अनुसार, भीमसेन ने अपने पूर्व दिग्विजय जिससे क्रोधित हो कर कृष्ण ने सुदर्शन चक्र से इसका सर के समय, तथा नकुल ने अपने पश्चिमदिग्विजय के समय काट दिया । पश्चात् देवी ने इसे पुनः जीवित किया ।भारइन्हें जीतकर भेट वसूल की थी (म. स. २९.१५)। ये तीय युद्ध के पश्चात् , श्रीकृष्ण के कहने पर यह 'गुप्तक्षेत्र' युधिष्ठिर राजसूय यज्ञ में भी भेंट लेकर आये थे (म. | में जा कर निवास करने लगा (स्कंद. १.२.६०-६६)। आ. ४७.१९)। बर्हकेतु-दक्ष सावर्णि मनु का एक पुत्र । बर्बरिक--भीमपुत्र घटोत्कच का पुत्र, जो प्रग्ज्योतिष- बहणाश्व--(सू. इ.) एक राजा, जो भागवत के पुर के गुरु दैत्य की कन्या मौर्वी से उत्पन्न हुआ था। अनुसार निकुंभ राजा का पुत्र था । विष्णु, वायु तथा 'चंडिका कृत्य' में अतिशय पराक्रम दिखाने के कारण, | मत्स्य में, इसे 'संहताश्व' कहा गया है। ४९१ Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बर्हिन प्राचीन चरित्रकोश बल बर्हिन्-एक देवगंधर्व, जो कश्यप एवं प्राधा के दस | ८. एक दैत्य, जो कश्यप एवं दिति के पुत्रों में से एक देवगंधर्व पुत्रों में से एक था (म. आ. ५९.४५) था। दिति द्वारा सौ वर्षोंतक तप करने पर यह उत्पन्न बर्हिषद-- दैवी जाति के पितरों का एक गण, जो हुआ था। बड़ा होने पर कश्यप ने इसका व्रतबंध किया, दक्षिण दिशा में सोमप ( सोमपदा) नामक स्थान में रहता एवं इसे ब्रह्मचर्य का उपदेश दिया। पश्चात् इसने सौ था। इसकी मानसकन्या का नाम पीवरी था (पितर | वर्षों तक ब्रह्मचर्यव्रत का पालन कर घोर तपस्या की। देखिये)। इसका तप समाप्त होने पर, दिति ने इसे स्वर्ग पर २.(स्वा. उत्तान.) प्राचीनबर्हि प्रजापति का | आक्रमण करने के लिये कहा। किन्तु कश्यप की दूसरी नामान्तर (प्राचीनबर्हि प्रजापति देखिये)। पत्नी अदिति को यह वृत्तांत ज्ञात होते ही उसने इंद्र को ३. त्रिलोकी को उत्पन्न करने में समर्थ पूर्व दिशा- चेतावनी दी । अनंतर समुद्रकिनारे जाप करते हुए इसे निवासी सप्तर्षियों में से एक (म. शां. २०८. २७-२८)। | देख कर, इंद्र ने वज्रप्रहार कर इसका वध किया (पद्म. ब्रह्माजी ने इसे सात्वतधर्म का उपदेश दिया था | भू. २३)। (म. शां. ३३८. ४५-४६)। ९. विष्णु का एक पार्षद । वामनावतार के समय, बहिष्मती-स्वायंभव मन्वंतर के प्रजापति की कन्या. | वामनरूपधारी श्रीविष्णु ने बलि को पाताल में ढकेल . जो स्वायंभूव मनु के ज्येष्ठपुत्र प्रियव्रत को विवाह में दी| दिया। तत्पश्चात् बलि के यज्ञमंडप में उसके अनुगामियों ... गयी थी (भा. ५.१. २४)। ने काफी हलचल मचा दी। उससमय उन राक्षसों का .. बर्हिसादि--अंगिराकुलोत्पन्न एक गोत्रकार । जिन विष्णुपार्षदों ने निवारण किया, उनमें यह एक था बल-एक असुर, जो कश्यप एवं दनायु के पुत्रों में | (भा. ८.२१.१६) । से एक था (म. आ. ६५, स्कंद १.४.१४)। इसे निम्न- १०.कुशिककुल का एक मंत्रकार, जिसे उद्गल नामांतर लिखित तीन भाई थे:--विक्षर, वीर एवं वृत्र (म. आ. | भी प्राप्त था। ५९.३२)। यही पौंड्र देश के राजा के रूप में उत्पन्न | ११. वायु के अनुसार भृगुकन्या श्री का पुत्र । हुआ था (म. आ. ६१.४१)। १२. गरुड एवं कश्यपकन्या शुकी के छः पुत्रों में से हिरण्याक्ष की ओर से यह इंद्र के साथ युद्ध करने | एक (ब्रह्मांड. ३.७.४५.०)। गया था, जिस समय इसने इंद्र को ऐरावत के साथ नीचे १३. अनायुषा नामक राक्षसी के पाँच.पुत्रों में से एक गिरा कर मूञ्छित किया था। अन्त में इंद्र ने इसका वध (ब्रह्मांड. ३.६.३१-३७)। किया (पा. स. ६७)। १४. श्रीकृष्ण एवं लक्ष्मणा के पुत्रों में से एक । २. वरुण एवं उसकी ज्येष्ठ पत्नी देवी का एक पुत्र । १५. बलराम का नामांतर। (म. आ. ६०.५१)। १६. एक मायावी दैत्य, जो मयासुर का पुत्र था। ___३. (सू. इ.) एक इक्ष्वाकुवंशीय राजा, जो परिक्षित् | यह अतल नामक पाताल में रहता था। इसने छियान्नवे एवं मंडुकराज की कन्या सुशोभना का पुत्र था। इसके प्रकार की 'माया' का निर्माण कर, उसे मायावी दैत्यों शल एवं दल नामक दो भाई थे (म. व. १९०)। को दिया था, जिसका प्रयोग कर वे लोगों को त्रस्त किया भागवत में दल एवं बल ये दोनो एक ही व्यक्ति माने गये | करते थे। है (दल १. देखिये)। __ एक बार इसने जमुहाई ली, जिससे स्वैरिणी, कामिनी ४. रामसेना का एक वानर, जो कुंभकर्ण के साथ | तथा पुंश्चली नामक तीन प्रकार की दुश्चरित्र स्त्रियों के युद्ध में उसका ग्रास बन गया था (म. व २७१.४)। | गण उत्पन्न हुए । उन स्त्रियों पास हाटक नामक एक ५. वायुद्वारा स्कंद को दिये गये दो पार्षदों में से एक। ऐसा पेयपदार्थ था, जिसे पुरुषों को पिला कर एवं उन्हें दुसरे पार्षद का नाम अतिबल था (म. श. ४४.४०)। । | कामवासना की भावना में उन्मत्त बना कर, वे संभोग ६. एक प्राचीन ऋषि, जो अंगिरा का पुत्र था एवं | करवाती थी (भा. ५.२४.१६)। पूर्व दिशा में निवास करता था (म. शां. २०१.२५)। इंद्र एवं जालंधर दैत्य के बीच हुए युद्ध में, इसने इसके नाम के लिये 'नल' पाठभेद प्राप्त है। जालंधर की ओर से लड़कर, युद्ध में इन्द्र के छक्के छुड़ा ७. एक सनातन विश्वेदेव (म. अनु९१.३०)। दिये, तथा अन्त में इन्द्र परास्त होकर इसकी शरण में ४९२ Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . बल प्राचीन चरित्रकोश आया । इन्द्र ने बल की स्तुति की, जिससे प्रसन्न होकर इसने उससे वर माँगने को कहा । इन्द्र ने कहा 'तुम मुझे अपने शरीर का दान दो, उसे ही मैं चाहता हूँ। बल ने कहा, 'तुम मेरे शरीर को ही चाहते हो, तो उसके टुकडे कर उसे प्राप्त करो' । फिर इन्द्र ने इसके शरीर के अनेक टुकडे कर उन्हें इधरउधर फेंक दिये। ये टुकडें जहाँ जहाँ गिरें, वही रत्नों की खाने खडी हो गयी। इसकी मृत्यु के बाद, इसकी पत्नी प्रभावती शोक में विलाप करती हुयी असुरों के गुरु शुक्राचार्य के पास गयी, तथा उनसे सारी कथा बता कर, अपने पति के जिलाने की प्रार्थना की। शुक्राचार्य ने कहा, 'बल को जिलाना असम्भव है । मैं माया के प्रभाव से उसकी बाशी को तुम्हे आवश्य सुनवा सकता हूँ। गुरुकृपा से प्रभावती ने बल की वाणी सुनी - ' तुम मेरे शरीर में अपने शरीर को त्याग कर मुझे प्राप्त करो। ऐसा सुन कर बल की देह में अपने शरीर को त्याग कर, प्रभावती उसी में मिल कर नदी बन गयी (पद्म. उ. ६) बलक - - तामस मन्वन्तर के सप्तर्षियों में से एक । २. एक दानव, जो कश्यप एवं दनु के पुत्रों में से एक था। ३. मणिवर एवं देवजनी के 'गुह्यक' पुत्रों में से एक । बलद -- एक अग्नि, जो भानु नामक अग्नि का जेष्ठ . पुत्र था। यह प्राणियों को प्राण एवं बल प्रदान करता है। बलन्धरा -- का शिराज की कन्या, जो पांडुपुत्र भीमसेन की भार्या थी। इसके विवाह के लिये काशिराज ने यह . शर्त रखी थी कि, जो अधिक बलवान् हो, वही इसके साथ विवाह कर सकता है । भीमसेन ने यह शर्त जीत ली एवं उसका इसके साथ विवाह संपन्न हो गया। भीमसेन से इसे सर्वग नामक पुत्र उत्पन्न हुआ था ( म. आ. ९०.८४ ) । , बलराम । चलबन्धु-- रैवत मनु का एक पुत्र । २. एक प्राचीन नरेश (म. आ. १.१७७) । ३. त्रिधामन् नामक शिवावतार का शिष्य । बलमित्र - एक राज, जो वीरमणिपुत्र रुक्मांगद का मौसेरा भाई था । राम के अश्वमेध यज्ञ का अश्व वीरमणि ने पकड़ लिया था। उस समय हुए शत्रुघ्न एवं वीरमणि के युद्ध में, यह वीरमणि के पक्ष में शामिल था (पद्म. पा. ४० ) । बलमोदक -- कुंडल नगरी का राजा सुरथ का पुत्र । राम के अश्वमेध यज्ञ का अश्व सुरथ ने पकड़ लिया था। उस समय हुए शत्रुघ्न एवं सुरथ के युद्ध में, यह सुरथ के पक्ष में शामिल था ( पद्म. पा. ४९ ) । बलराम - - (सो. वृष्णि. ) वसुदेव तथा रोहिणी का पुत्र, जो भगवान् श्रीकृष्ण का अग्रज, एवं शेष का अवतार था ( म. आ. ६१.९१ ) । भगवान् नारायण के श्वेत केश से इसका अविर्भाव हुआ था (म. आ. १८९.३१) । वसुदेव देवकी कंस के द्वारा कारागार में बन्दी थे । उसी समय देवकी गर्भवती हुयी, तथा बलराम उसके गर्भ में सात महीने रहा। इसके उपरांत योगमाया से यह वसुदेव की द्वितीय पत्नी रोहिणी के गर्भ में चला गया, जो उस समय गोकुल में थी । वहीं इसका जन्म हुआ ( भा. ९. २४.४६; १०. २. ८ पद्म. उ. २४५ ) । एक गर्म से दूसरे गर्भ में जाने के कारण, इसे संकर्षण नाम प्राप्त हुआ । 6 यह देखने में अत्यंत सुन्दर था, अतएव इसे 'राम', तथा अलपौरूष के कारण 'बलराम' कहा गया। यह शत्रुओं के दमन के लिये सदैव हल तथा मूसल धारण करता था । अतएव इसे 'हली', हलायुध ', 'सीरपाणी', 'मूसली' तथा 'मुसलायुध' भी कहते है । बलराम कृष्ण से तीन माह बड़ा था तथा सदैव कृष्ण के साथ रहता था ( म. आ. २३४ ) । यह बाल्यावस्था से ही परमपराक्रमी, युद्धवीर एवं साहसी था, तथा इसने धेनुक तथा प्रलंब नामक असुरों का वध किया था ( म. स. परि. १. क्र. २१, पंक्ति. ८९९-८२०; विष्णु. ५. ८-९ मा १०० १८ . . २. १४.६२ ) । यह सदैव नीलवस्त्र धारण करता था, तथा इसके शरीर में सदैव कमलों की माला रहती थी । ये सारी बीजे इसे यमुना नदी से प्राप्त हुयी थी, जिसकी कथा निम्न प्रकार से विष्णुपुराण में दी गयी है । एक बार इसने भावातिरेक में आ कर यमुना से भोग करने की इच्छा प्रकट की। यमुना तैयार न हुयी, तब क्रोध में आकर इसने मथुरा के पास उसका प्रवाह मोड़ दिया, जिसे विष्णु में 'यमुनाकर्ष' कहा गया है। तब यमुना ने बलराम को शरीर में धारण करने के लिए नील परिधान, तथा कमलों की माला दे कर इसे प्रसन्न किया (विष्णु. ५.२५ ) । बाल्यकाल -- सांदीपनि ऋषि के यहाँ कृष्ण के साथ इसने वेविया ब्रह्मविया तथा अस्त्रशस्त्रादि का ज्ञान प्राप्त किया । यह गदायुद्ध में अत्यधिक प्रवीण था । इसकी शक्तिसाहस के ही कारण, कृष्ण जरासंध को सत्रह बार युद्ध में ४९३ Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बलराम प्राचीन चरित्रकोश बलराम पराजित कर सका । जरासंध का वध करने के लिये, एवं इसने दुर्योधन को गदायुद्ध की शिक्षा भी दी (विष्णु. इसने तपस्या कर 'संवर्तक' नामक हल, एवं 'सौनंद' ४. १३; भा. १०. ५७; सत्राजित् देखिये)। बलराम नामक मुसल प्राप्त किया था (ह. वं. २.३५.५९-६५; के नाराज होने की यह कथा भागवत में नहीं दी गयी है । विष्णु. ५.२२.६-७)। दुर्योधन एवं भीम उसके शिष्य थे। अतएव यह विद्याध्ययन के उपरांत, ककुमीकन्या रेवती से इसका नहीं चाहता था कि, इसके दोनो शिष्य आपस में लड़कर विवाह हुआ, तथा अधिकाधिक यह आनर्त देश में मृत्यु को प्राप्त हो। इसी कारण भारतीय युद्ध के प्रारंभ अपने श्वसुर के यहाँ ही रहता था। जरासंध इतनी में, जब दुर्योधन कृष्ण की मदद माँगने के लिये आया बार कृष्ण से हार चुका था, फिर भी चिन्ता का कारण था, तब इसने कृष्ण से कहा था, 'कौरव एवं पांडव बना हुआ था; अतएव कृष्ण ने मथुरा से हटकर अपनी हमारे लिये एकसरीखे है। इसी कारण सहाय्यता करनी राजधानी द्वारका बनायी। ही हो, तो वह हमने दुर्योधन की करनी चाहिए। एक बार यह नंद तथा यशोदा से मिलने के लिए | किन्तु कृष्ण ने इसकी बात न सुनी । इस कारण, भारतीय गोकुल गया था, तथा वहाँ दो माह रहा भी था। यह युद्ध के पूर्व ही, यह कृष्ण से क्रुद्ध हो कर, तीर्थयात्रा के आसवपान का बड़ा शौकीन था, अतएव इसके लिये | लिये चला गया । उसकी भी व्यवस्था की गयी थी। ___ बलराम की तीर्थयात्रा--बलराम की तीर्थयात्रा का . जल्दबाज स्वभाव--यह वीरपराक्रमी एवं अजेय था. विस्तृत वर्णन भागवत तथा महाभारत शल्यपर्व में दिया , उसी तरह यह इतना भावुक एवं जल्दबाज़ भी था कि, | गया है। भागवत की तीर्थयात्रावर्णन में विभिन्न प्रकार उतावलेपन में ऐसा कार्य कर बैठता कि, जिससे परिवार के तीर्थस्थानों का विवरण प्राप्त है। के लोक तंग आ जाते। इसमें किसी चीज़ के सोचने | बलराम का प्रथम संकल्प 'प्रतिलोम सरस्वती यात्रा'. समझने की विवेकपूर्ण समझदारी न थी। करने का था। इस निश्चय के अनुसार यह प्रभास, हस्तिनापुर में दुर्योधन की पुत्री लक्ष्मणा के विवाह के | पृथूदक, बिंदुसर, त्रितकूप, सुदर्शन, विशाल, ब्रह्मतीर्थ, संबंध में स्वयंवर था। बलराम के भतीजे कृष्णपुत्र सांब | चक्रताथ, सरस्वता, यमुना चक्रतीर्थ, सरस्वती, यमुना एवं गंगा नदी के तट पर । ने स्वयंवर में जा कर, लक्ष्मणा का हरण किया। किन्तु | स्थित तीर्थो की यात्रा कर के; नैमिषारण पहुँच गया। दुर्योधन द्वारा हस्तिनापुर में दोनों पकड़ कर लाये गये। नैमिषारण्य में ऋषिमुनियों की पुराणचर्चा चल रही थी। दुर्योधन कौरववंशीय होने के कारण, कभी न चाहता था | सारे मुनियों ने उत्थापन दे कर, इसके प्रति आदरभाव प्रकट कि उसकी कन्या यादववंशीय कृष्णपुत्र सांब को ब्याही | किया। किन्तु पुराणचर्चा में मुख्य सूत का काम करनेवाला जाये। उक्त घटना को सुनते ही बलराम हस्तिनापुर गया। रोमर्हषण नामक ऋषि धर्मकार्य में व्यस्त होने के कारण, क्रोधाग्नि में सारे कौरवपक्षीय राजाओं को इसने पराजित | इसे उत्थापन न दे सका। इस कारण क्रोधित हो कर, शराब किया, एवं इसने हस्तिनापुर को अपने हल से खीच उसकी के नशे में इसने उसका वध किया (भा. १०.७८, २८; रचना ही धुमायी, एवं उसको तेढामेढ़ा बना दिया (विष्णु./ रोमहर्षण देखिये) । पुराणचर्चा समारोह मे एक ही ५.३५: भा. १०.६८; लक्ष्मणा २. देखिये)। यही कारण | कोलाहल मच गया, एवं सारे ऋषियों ने इसे ब्रह्महत्त्या है कि, हस्तिनापुर का धरातल आज भी ऊँचानीचा के पातक से दोषी ठहराया। इस पातक से छुटकारा पाने अजीब तरह का है। के लिये, यह ग्यारह वर्षों की यात्रा करने के लिये यादववंशीय राजा सत्राजित् के पास स्यमंतक मणि | पुनः निकला। था, जिसे कृष्ण चाहता था । पर सत्राजित् ने उसे देने से | मार्कंडेय के अनुसार, सूत का वध इसके द्वारा द्वारका इन्कार कर दिया। उस मणि के संबंध में सत्राजित् एवं के समीप स्थित रैवतोद्यान में हुआ (मार्क. ६. ७ कृष्ण के दरम्यान हुए झगड़े में, बलराम ने सत्राजित् का पक्ष | ३५-३६)। किन्तु महाभारत एवं भागवत में यह स्वीकार लिया, एवं लोगों के सामने कृष्ण को दोषी ठहराते | वधस्थान नैमिषारण्य ही बताया गया है । यह वध बलराम हुए आरोप लगाया, 'तुम मणि के इच्छुक थे, तुमने ही के यात्रा के मध्य में हुआ, ऐसा भागवत का कथन है; स्यमंतक चुराया है। इस घटना के कारण बलराम कृष्ण से | किन्तु मार्कडेय के अनुसार, यह वध बलराम के यात्रारंभ इतना नाराज हुआ कि, बिना कुछ कहे मिथिला चला गया, | में ही हुआ था। ४९४ Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बलराम प्राचीन चरित्रकोश बलानीक विशालकाय श्वेतसर्प बाहर निकला, जिसका श्रीकृष्ण को दर्शन हुआ (म. मौ. ५.१२-१६ ) । इसके मृत देह पर इसकी पत्नी रेवती सती हो गयी ( पद्म. उ. २५२ ) । अपने द्वितीय यात्रा के लिये यह निकलनेवाला ही था कि, शल्य ने इसके सम्मुख आकर भीम एवं दुर्योधन के गदायुद्ध की वार्ता इसे सुनाई । अपने दो प्रिय शिष्यों के युद्ध की वार्ता सुन कर, यह शीघ्र ही द्वैपायन हृद नामक युद्धस्थान में चला आया । इसने उस युद्ध को टालने का काफी प्रयत्न किया, किन्तु दोनो प्रतिपक्षियों ने इसकी एक न सुनी। इस पर क्रुद्ध हो कर, यह द्वारका चला गया ( .मा. १०.७८-७९ ) । महाभारत के अनुसार, दुर्योधन एवं भीम के दरम्यान हुए गदायुद्ध में भीम ने कपट से दुर्योधन का वध किया | इस कारण बलराम भीम पर अत्यधिक क्रुद्ध हुआ, एवं भीम को मारने दौड़ा। किन्तु कृष्ण ने इसे दुर्योधन के सारे कुकृत्यों की याद दिला कर, इसका क्रोध शान्त किया ( म. श. ५९. १४-१५ ) । तीर्थयात्रा का द्वितीय पर्व—भागवत में इससे की गयी यात्रा के द्वितीय पर्व का सविस्तृत वर्णन प्राप्त है। उस यात्रा में इसने निम्नलिखित पवित्र स्थानों के दर्शन कियें:– सरयु, हरिद्वार, गोमती, गंडकी, विपाशा, शोणभद्र, गया, परशुराम क्षेत्र, सप्तगोदावरी, वैणा, पंपा, भीमरथी, शैलपर्वत, वेंकटगिरी, कामोष्णी, कांची, कावेरी, श्रीरंग, मदुरा, सेतुबंध, कृतमाला, ताम्रपर्णी, अगस्त्याश्रम, . दुर्गादेवी, अनंतपुर, पंचाप्सरा, केरल, त्रिगर्त, गोकर्ण, · भार्यादेवी, शूर्पारक, तापी, पयोष्णी, निर्विध्या, दंडकारण्य, नर्मदा, एवं मनु । इन सारे स्थानों की यात्रा समाप्त कर, यह कुरुक्षेत्र वापस आया । २. एक महाबली नाग ( म. अनु. १३२.८ ) । बलवर्धन - (सो. पूरु.) धृतराष्ट्र के शतपुत्रों में से एक । बलवाक - युधिष्ठिर की मयसभा मे उपस्थित एक ऋषि (म. स. ४.१२) । बला -- अत्रि की पत्नी । बलाक - (सो. अमा. ) एक राजा, जो भागवत के अनुसार पूरु राजा का, एवं वायु तथा विष्णु के अनुसार, अज राजा का पुत्र था। इसे बलाकाश्व नामांतर भी प्राप्त था ( बलाकाश्व देखिये) । २. एक आचार्य, जो विष्णु के अनुसार व्यास की ऋशिष्यपरंपरा में से शातपूर्ण का शिष्य था । भागवत में इसे जातुकर्ण का शिष्य कहा गया हैं । ३. एक व्याध, जो जानवरों की शिकार कर अपने मातापिता एवं आश्रितों की जीविका चलाता था । एक बार इसने एक हिंसक श्वापद को मार डाला । उस श्वापद ने समस्त प्राणियों का अंत कर देने के लिये वर प्राप्त किया था, एवं इसी कारण ब्रह्मा ने उसे अंधा कर दिया था । उस श्वापद को मार देने के कारण, इस व्याध के उपर पुष्पों की वृष्टि हुई, तथा यह विमान पर बैठ कर स्वर्गलोक को चला गया ( म. क. ४९.३४-४१ ) । बलाकाश्व - (सो. अमा. ) एक राजा, जो न्हु का पौत्र एवं अज (सिंहद्वीप) का पुत्र था । इसके पुत्र का नाम कुशिक था ( म. अनु. ७.४ ) । इसे बलाक नामांतर भी प्राप्त था ( बलाक १. देखिये) । श्रीकृष्ण का पौत्र अनिरुद्ध का विवाह विदर्भराजा - रुक्मिन् की पौत्री रोचना से संपन्न हुआ । उस समय, रूक्मिन् ने बल्लराम के साथ कपट से द्यूत खेलना चाहा, एवं उसने इसकी काफी निंदा भी की । क्रोधाविष्ट हो कर, बलराम ने द्यूत का सुवर्णमय पट रुक्मिन् को मार कर, उसका वध किया (ह. वं. २. ६१; रुक्मिन् देखिये ) । नरकासुर का मित्र द्विविद नामक वानर का भी इसने वध किया था ( विष्णु. ५. ३६ ) । भारतीय युद्ध के पश्चात् इसने द्वारकापुरी में मद्यपाननिषेध की आज्ञा जारी की था ( म. मौ. १.२९ ) । किंतु इसके अनुयायी यादवों ने इसकी एक न सुनी, एवं वे आपस में लड़कर मर गये । इस तरह सारे यादवों का संपूर्ण विनाश होने पर, इसने प्रभास क्षेत्र में यौगिकमार्ग से देहत्याग किया (म. मौ. ५.१२ - १५; भा. ११. ३०) । इसकी मृत्यु के पश्चात् इसके मुख से एक | ४९५ बलाकिन् – ( सो. कुरु. ) धृतराष्ट्र के सौ पुत्रों में से एक ( म. आ. ६१. परि. १. क्र. ४१ ) । २. एक ऋषि, जो अंगिराकुल का गोत्रकार था । बलाक्ष - एक प्राचीन नरेश, जो विराट के गोग्राहण के समय अर्जुन एवं कृपाचार्य का युद्ध देखने के लिये, इंद्र के विमान पर बैठ कर आया था ( म. वि. ५९.९ ) । बलाढ्य --एक दानव, जो कश्यप एवं दनु के पुत्रों में से एक था । बलानीक - - द्रुपद राजा का एक पुत्र, जो अश्वत्थामा द्वारा मारा गया ( म. द्रो. १३१.१२७ ) । २. मत्स्यराज विराट का भाई, जो भारतीय युद्ध में पांडवों के पक्ष में शामिल था ( म. द्रो. १३३.३५ ) । Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बलायु प्राचीन चरित्रकोश बलि आनव बलायु-पुरूरवस् को ऊर्वशी से उत्पन्न आठ पुत्रों में | । ८. अत्रिकुल का एक गोत्रकार । से एक (पद्म. स. १२)। ९. आंगिरसकुल का एक गोत्रकार । बलारक-अत्रिकुल के मंत्रकार वलातक का नामांतर । १०. रैवत मनु के पुत्रों में से एक । (वल्गूतक देखिये)। बलि आनव--(सो. अनु.) पूर्व आनव प्रदेश का बलाश्व-(सू . दिष्ट.) खनिनेत्रपुत्र करंधम राजा | सुविख्यात राजा, जो सुतपस् राजा का पुत्र था । यह का मूल नाम (मार्क. ११८. ७)। इसके पुत्र का नाम | इक्ष्वाकुवंशीय सगर राजा का समकालीन था। आनव अविक्षित् था। प्रदेश शुरु में आधुनिक मोंधीर तथा भागलपुर प्रान्तों में बलाहक-एक नाग, जो कश्यप एवं कद्र के पुत्रों में | सीमित था। किन्तु अपने पराक्रम के कारण, इसने से एक था। अपना साम्राज्य काफी बढ़ा कर, पूर्व हिंदुस्थान का सारा २. एक राजा, जो जयद्रथ का भाई था। इसके पिता प्रदेश उसमें समाविष्ट कराया। का नाम वृद्धक्षत्र था (म. व. २४९. १२)। ___ हरिवंश के अनुसार, पूर्वजन्म में वह बलि वैरोचन ३. एक राजा, जिसे शिव ने गोवत्स के रूप में दर्शन नामक सुविख्यात दैत्य था। अपनी प्रजा में यह अत्यंत दिया था । पश्चात् गोवत्स के दर्शन के स्थान पर एक लोकप्रिय था, एवं उन्हीं के अनुरोध पर इसने अगले दिव्य शिवलिंग उत्पन्न हुआ, एवं वह अणुप्रमाण में | जन्म में बलि आनव नाम से पुनः जन्म लिया। दिन बदिन परिवर्धित होने लगा । किन्तु एक कर्मचांडाल | ___ इसने ब्रह्मा की कठोर तपस्या की थी, जिस कारण. उसके दर्शन के लिये आते ही, उसका वर्धन स्थगित हुआ | ब्रह्मा ने इसे वर दिये, 'तुम महायोगी बन कर कल्पान्त ' (कंद. ३. २. २७)। तक जीवित रहोगे। तुम्हारी शक्ति अतुल होगी, एवं युद्ध ४. श्रीकृष्ण के रथ का एक अश्व, जो दाहिने पार्श्व में में तुम सदा ही अजेय रहोगे। अपनी प्रजा में तुम जोता जाता था (म. वि. ४०.२१)।' लोकप्रिय रहोगे, एवं लोग सदैव तुम्हारी आज्ञा का बलि—एक सुविख्यात असुर, जो वामनावतार में पालन करेंगे । धर्म के सारे रहस्य तुम्हे ज्ञात होंगे, एवं श्रीविष्णु द्वारा पाताल में ढकेल दिया गया था (बलि तुम्हारे धर्मसंबंधी विचार धर्मविज्ञों में मान्य होंगे। धर्म वैरोचन देखिये)। को सुसंगठित रूप दे कर, तुम अपने राज्य में चातुर्वर्ण्य २. अनु देश का सुविख्यात राजा (बलि आनव | देखिये)। की स्थापना करोगे' (ह.वं. १. ३१. ३५-३९)। ३. युधिष्ठिर के सभा का एक ऋषि, जो जितेंद्रिय तथा । इसकी पत्नी का नाम सुदेष्णा था। काफी वर्षों तक वेदवेदाङ्गों में पारंगत था। इसने युधिष्ठिर को अनेक पुण्य- इसे पुत्र की प्राप्ति न हुयी थी। फिर दीर्घतमस औचथ्य कारक गाथएँ सुनाई थी (म. स. ४. ८)। हस्तिनापुर | मामतेय नामक ऋषि के द्वारा इसने सुदेष्णा से पाँच पुत्र जाते समय, मार्ग में इसकी श्रीकृष्ण से भेंट हुयी थी | उत्पन्न कराये ( दीर्घतमस् देखिये)। दीर्घतमस् ऋषि से (म. उ. ८१.३८८%)। उत्पन्न इसके पुत्रो के नाम निम्न थे:-अंग, वंग, कलिंगा, ४. एक शिवावतार, जो वाराहकल्प में से वैवस्वत | पुंड्र एवं सुझ (ब्रह्मांड, ३.७)। भागवत में इसके आंध्र मन्वन्तर की तेरहवी चौखट में उत्पन्न हुआ था। इसका | नामक और एक पुत्र का निर्देश किया गया है (भा. १. अवतार गंधमादन पर्वत पर स्थित वालखिल्याश्रम में | २३)। हरिवंश में सुझ के बदले सुस नामान्तर प्राप्त हुआ था। इसके सुधामन् , काश्यप, वसिष्ठ तथा विरजस् | है (ह. वं. १.३१)। इसके बंशजों को 'बालेय क्षत्र' नामक चार पुत्र थे (शिव. शत. ५)। अथवा 'बालेय ब्राह्मण' सामूहिक नाम प्राप्त था (मत्स्य. ५. (आंध्र. भविष्य.) एक राजा, जो भागवत के ४८.२५, विष्णु. ४.१८.१; ब्रह्म. १३.३१, ह. . १.३१ अनुसार आंध्र वंश का पहला राजा था। इसे शिप्रक, | ३४-३५)। इसके द्वारा स्थापित किये हुए वंश को शिशुक एवं सिंधुक नामान्तर भी प्राप्त थे। आनव वंश कहते है। ६. सावर्णि मन्वन्तर का इंद्र। __अपने कल्प के अन्त में, देहत्याग कर यह स्वर्गलोक ७. (सो. यदु.) एक यादव राजा, जो कृतवर्मन् का | चला गया । इसकी मृत्यु के पश्चात् इसका साम्राज्य इसके पुत्र था। रुक्मिणी की कन्या चारुमती इसकी पत्नी थी पुत्रों में बाँट दिया गया। जिस पुत्र को जो राज्य मिला, (भा. १०.६१. ४)। उसीके नाम पर उस राज्य का नामरण हुआ (भा. ९. Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बलि आनव प्राचीन चरित्रकोश बलि वैरोचन २३; म. आ. ९२,१०४२%)। इसके पुत्रों को प्राप्त डॉ. राजेंद्रलाल मित्र, डॉ. बेणिमाधव बारुआ आदि • राज्यों की जानकारी निम्न प्रकार है: | आधुनिक विद्वानों ने पुराणों में निर्दिष्ट इन असुरकथाओं (१) अंग-अंगदेश (आधु. भागलपुर एवं मोंधीर | के इस विसंगति पर काफि प्रकाश डाला है । संभव यही इलाका)। | है कि, देव एवं दैत्यों का प्राचीन विरोध सत् एवं असत् (२) वंग--वंगदेश (आधु. ढाका एवं चितगाँव का विरोध न होकर, दो विभिन्न ज्ञाति के लोगों का विरोध इलाका)। था, एवं बलि, बाण एवं गयासुर केवल देवों के विपक्ष में (३) कलिंग--कलिंग देश (आधु. उडीसा राज्य में होने के कारण देवों ने उनका नाश किया हो। से समुद्र तटपर स्थित प्रदेश)। ___ स्वर्गप्राप्ति--एक बार श्रीविष्णु ने किंचित्काल के (४) पुंड-पुंड्र देश (आधु. उत्तर बंगाल प्रदेश)। लिये देवों के पक्ष का त्याग किया। यह सुसंधी जान (५) सुझ-सुझदेश (आधु. बर्दवान इलाका)। | कर, दैत्यगुरु शुक्राचार्य ने बलि को देवों पर आक्रमण यह एवं असुर राजा बलि वैरोचन सरासर अलग थे। करने की प्रेरणा दी । तदनुसार बलि ने स्वर्गपर आक्रमण किन्तु कई पुराणों में असावधानी से इन्हे एक व्यक्ति मान किया, एवं देवों के छवके छुड़ा दिये । बलि से बचने के कर, बलि आनव को 'दानव' एवं ' वैरोचन' कहा गया | लिये, देवों अपने मूल रूप बदल कर स्वर्ग से इतस्ततः है (ब्रह्मांड. ३.७४.६६, मत्स्य. ४८.५८)। किन्तु | भाग गये। किन्तु वहाँ भी बलि ने उनका पीछा किया, पुराणों में प्राप्त वंशावलियों में इसे स्पष्ट रूप से आनव एवं उनको संपूर्णतः हराया। कहा गया है, एवं इसकी वंशावलि भी आनव नाम से ही । पश्चात् बलि ने अपने पितामह प्रह्लाद को बड़े सम्मान दी गयी है। . | के साथ स्वर्ग में आमंत्रित किया, एवं उसे स्वर्ग में बलि वैरोचन-एक सुविख्यात विष्णुभक्त दैत्य, जो | अत्यधिक श्रेष्ठता का दिव्य पद स्वीकारने की प्रार्थना की। प्रह्लाद का पौत्र एवं विरोचन का पुत्र था। इसकी माता प्रह्लाद ने बलि के इस आमंत्रण का स्वीकार किया, एवं का नाम देवी था (म. आ. ५९.२०; स. ९.१२, शां. बलि को स्वर्ग के राज्यपद का अभिषेक भी कराया। २१८.१, अनु. ९८; भा.६.१८.१६, ८.१३. वामन, अभिषेक के पश्चात् , बलि ने प्रह्लाद की आशिश माँगी २३.७७)। स्कंद में इसकी माता का नाम सुरुचि दिया | एवं स्वर्ग का राज्य किस तरह चलाया जाय इस बारे गया है (स्कंद. १.१.१८)। विरोचन का पुत्र होने से, | में उपदेश देने की प्रार्थना की । प्रह्लाद ने इस उपदेश इसे 'वैरोचन' अथवा 'वैरोचनि' नामान्तर प्राप्त थे।| देते हुए कहा, 'हमेशा धर्म की ही जीत होती है. इस इसे महाबलि नामांतर भी प्राप्त था, एवं इसकी राजधानी | कारण तुम धर्म से ही राज्य करो' (वामन. ७४)। 'महाबलिपुर में थी। ___ प्रह्लाद के उपदेश के अनुसार, राज्य कर, बलि ने . 'आचाररत्न' में दिये गये सप्तचिरंजीव पुण्यात्माओं| एक आदर्श एवं प्रजाहितदक्ष राजा ऐसी कीर्ति त्रिखंड में बलि का निर्देश प्राप्त है (आचार. पृ. १०)। बाकी | में संपादित की (वामन, ७५)। छः चिरंजीव व्यक्तिओं के नाम इस प्रकार है:-अश्वत्थामन् , | समुद्रमंथन--एकबार बलि ने इंद्र की सारी संपत्ती व्यास, हनुमान् , विभीषण, कृप, परशुराम, (माकैडेय)। | हरण की, एवं उसे यह अपने स्वर्ग में ले जाने लगा। बलिकथा का अन्वयार्थ बलि दैत्यों का राजा था | किन्तु रास्ते में वह समुद्र में गिर गयी। उसे समुद्र से (वामन. २३)। दैत्यराज होते हुए भी, यह अत्यंत | बाहर निकलाने के लिये श्रीविष्णु ने समुद्रमंथन की सूचना आदर्श, सत्त्वशील एवं परम विष्णुभक्त सम्राट था (ब्रह्म. | देवों के सम्मुख प्रस्तुत की। समुद्रमंथन के लिए बलि ७३; कूर्म. १.१७; वामन. ७७-९२)। का सहयोग पाने के लिये सारे देव इसकी शरण में आ दैत्यलोग एवं उनके राजा पुराण एवं महाभारत में | गये । बलि के द्वारा इस प्रार्थना का स्वीकार किये जाने बहुशः असंस्कृत, वन्य एवं क्रूर चित्रित किये जाते है । बाण, | पर, देव एवं दैत्यों ने मिल कर समुद्रमंथनसमारोह का गयासुर एवं बलि ये तीन राजा पुराणों में ऐसे निर्दिष्ट | प्रारंभ किया (भा. ८. ६, स्कंद. १. १. ९)। है कि, जो परमविष्णुभक्त एवं शिवभक्त होते हुए भी, बलि के विगत संपत्ति को पुनः प्राप्त करना, यह देवों देवों ने उनके साथ अत्यंत क्रूरता का व्यवहार किया, | की दृष्टि से समुद्रमंथन का केवल दिखावे का कारण एवं अंत में अत्यंत निघृणता के साथ उनका नाश किया। | था। उनका वास्तव उद्देश तो यह था कि, उस मंथन से प्रा. च. ६३] ४९७ Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बलि वैरोचन प्राचीन चरित्रकोश बाल वैरोचन अमृत प्राप्त हो एवं उसकी सहाय्यता से देवदैत्यसंग्राम महाभारत एवं मत्स्य में निम्नलिखित केवळ सात में देवपक्ष विजय प्राप्त कर सके । दैत्यपक्ष के पास 'मृत- | रत्नों का निर्देश प्राप्त है:-सोम, श्री (लक्ष्मी), सुरा, संजीवनी विद्या' थी, जिसकी सहाय्यता से युद्ध में मृत | तुरग, कौस्तुभ, धन्वन्तरि, एवं अमृत (म. आ. १६. हुए सारे असुर पुनः जीवित हो सकते थे। देवों के | ३३-३७; मत्स्य. २५०-२५१)। पास ऐसी कौनसी भी विद्या न होने के कारण, युद्ध में वे पराजित होते थे। इसी कारण देवों ने समुद्रमंथन का | | इंद्र-बलि संग्राम-समुद्रमंथन हुआ, किंतु राक्षसों को आयोजन किया, एवं उसके लिए दैत्यों का सहयोग प्राप्त कुछ भी प्राप्त न हुआ । अतएव राक्षसों ने संघठित हो किया। समुद्रमंथन का यह समारोह चाक्षुषमन्वन्तर में | कर देवों पर चढ़ाई कर दी। देवों-दैत्यों के इस भीषण युद्ध में बलि ने अपनी राक्षसी माया से इंद्र के विरोध में हुआ, जिस समय मंत्रद्रुम नामक इंद्र राज्य कर रहा था ऐसा युद्ध किया कि, उसके हारने की नौबत आ गयी। (भा. ८.८; विष्णु. १. ९; मत्स्य, २५०-२५१)। इस युद्ध में इसने मयासुर द्वारा निर्मित 'वैहानस' विमान समुद्रमंथन का समारोह एकादशी के दिन प्रारंभ हो | का प्रयोग किया। इंद्र की शोचनीय स्थिति देख कर कर द्वादशी के दिन समाप्त हुआ। एकादशी के दिन, । दिन, | विष्णु प्रकट हुए, तथा उन्होंने बलि के मायावी जाल को उस मंथन से सर्व प्रथम 'कालकूट' नामक विष उत्पन्न काट फेंका। पश्चात् बलि इंद्र के वज्रद्वारा मारा गया। हुआ, जिसका शंकर ने प्राशन किया। पश्चात् अलक्ष्मी बलि के मर जाने पर, नारद की आज्ञानुसार, इसका मूत' नामक भयानक स्त्री उत्पन्न हुई, जिसका विवाह श्रीविष्णु | शरीर अस्ताचल ले जाया गया, जहाँ पर शुक्राचार्य के द्वारा उद्दालक नामक ऋषि के साथ किया गया। तत्पश्चात् स्पर्श तथा मंत्र से यह पुनः जीवित हो उठा (भा. ११. ऐरावत नामक हाथी, उच्चैःश्रवस् नामक अश्व एवं ४६-४८)। धन्वन्तरि, पारिजातक, कामधेनु, तथा अप्सरा इन रत्नों का उद्भव हुआ। द्वादशी के दिन लक्ष्मी उत्पन्न हुई, ___ इंद्रपदप्राप्ति-बलि के जीवित हो जाने पर शुक्राचार्य जिसका श्रीविष्णु ने स्वीकार किया। तत्पश्चात् चंद्र एवं ने विधिपूर्वक इसका ऐन्द्रमहाभिषेक किया, एवं इससे अमृत उत्पन्न हुए। अमृत से ही तुलसी का निर्माण हुआ विश्वजित् यज्ञ भी करवाया । पूर्णरूपेण राज्यव्यवस्था को अपने हाथ ले कर इसने सौ अश्वमेध यज्ञ भी किये (पद्म. ब्र. ९. १०)। (भा. ८.१५.३४)। .. . समुद्रमंथन से प्राप्त रत्न-समुद्रमंथन से निमोण हुए विश्वजित यज्ञ के उपरांत यज्ञदेव ने प्रसन्न हो कर, रत्नों के नाम, संख्या एवं उनका क्रम के बारे में पुराणों में इसे इंद्ररथ के समान दिव्य रथ, सुवर्णमय धनुष, दो अक्षय एकवाक्यता नहीं है। एक स्कंदपुराण में ही इन रत्नों के तूणीर तथा दिव्य कवच दिये। इसके पितामह नाम एवं क्रम निम्नलिखित दो प्रकारों में दिये गये हैं: प्रह्लाद ने कभी न सूखनेवाली माला दी। शुक्राचार्य १. लक्ष्मी, २. कौस्तुभ, ३. पारिजातक, ४. धन्वन्तरि, ने एक दिव्य शंख, तथा ब्रह्मदेव ने भी एक माला इसे ५. चंद्रमा, ६. कामधेनु, ७. ऐरावत, ८. अश्व अर्पित की (म. शां. २१६.२३)। (सप्तमुख), ९. अमृत, १०. रम्भा, ११. शाङ्ग धनुष्य, प्रह्लाद के द्वारा शाप--इसप्रकार सारी स्वर्गभूमि बलि १२. पांचजन्य शंख, १३. महापद्मनिधि तथा, १४. के अधिकार में आ गयी। देवतागण भी निराश हो कर हालाहलविष (स्कंद. ५..१. ४४)। । देवभूमि छोड़ कर अन्यत्र चले गये। १. हालाहलविष, २. चंद्र, ३. सुरभि धेनु, ४. इसके राज्य में सुख सभी को प्राप्त हुआ, किन्तु कल्पवृक्ष, ५. पारिजातक, ६. आम्र, ७. संतानक, ८. ब्राह्मण एवं देव उससे वंचित रहे । उन्हें विभिन्न प्रकार कौस्तुभ रत्न (चिंतामणि), ९. उच्चैःश्रवस् , १०. चौसष्ट के कष्ट दिये जाने लगे, जिससे ऊब कर वे सभी विष्णु से हाथियों के समूह के साथ ऐरावत, ११. मदिरा, १२. फरियाद करने के लिए गये। सब ने विष्णु से अपनी विजया, १३. भंग, १४. लहसुन, १५. गाजर, १६. दुःखभरी व्यथा कह सुनाई । विष्णु ने कहा, 'बलि तो धतूरा, १७. पुष्कर, १८. ब्रह्मविद्या, १९. सिद्धि, २०. हमारा भक्त है, पर तुम्हारे असहनीय कष्टों को देख कर, ऋद्धि, २१. माया, २२. लक्ष्मी, २३. धन्वन्तरि, २४. | उनके निवारणार्थ में शीघ्र ही वामनावतार लूँगा' (ब्रह्म. अमृत (स्कंद. १. १. ९-१२)। ७३)। Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बलि वैरोचन प्राचीन चरित्रकोश बलि वैरोचन धीरे धीरे बलि के राज्य की व्यवस्था क्षीण होने लगी। किया कि, तीसरा पैर किधर रखू (म. स. परि. १ क्र. राक्षसों का बल घटने लगा। एकाएक इस गिरावट | २१. पंक्ति. ३३४-३३५)। को देख कर, बलि अत्यधिक चिंतत हुआ, तथा इस विचित्र | बलि को वामन द्वारा इस प्रकार ठगा जाना देख कर परिवर्तन का कारण जानने के हेतु प्रह्लाद के पास गया। इसके सैनिकों ने उद्यत हो कर उस पर आक्रमण करने कारण पूछने पर प्रह्लाद ने बताया 'भगवान विष्णु वामना- | लगे। किन्तु इसने उन्हें समझाते हुए कहा, 'हमारा वतार लेने के लिए आदिति के गर्भ में वासी हो गये हैं, अन्तिम समय आ गया है, जो हो रहा है उसे होने दो'। यही कारण है कि तुम्हारा आसुरी राज्य दिन पर दिन | पश्चात् वरुण ने विष्णु की इच्छा जान कर, इसे रसातल को जा रहा है। प्रह्लाद के बचनों को सुन कर | वरुणपाश में बाँध लिया (वामन.९२)। इसने तत्काल उत्तर दिया, 'उस हरि से हमारे राक्षस | वामन द्वारा तीसरे पग के लिए भूमि माँगे जाने पर, अधिक बली है'। बलि की इस अहंकारभरी वाणी | गुरु शुक्राचार्य ने एक बार फिर बलि को दान के लिए को सुन कर प्रह्लाद ने क्रोधित हो कर शाप दिया 'तुम्हारा | रोका, पर बलि न माना। यह देख कर अर्घ्यदान देनेवाले राज्य नष्ट-भ्रष्ट हो जायेगा । प्रह्लाद की वाणी सुन कर यह | पात्र के अन्दर शुक्र ऐसा बैठ गया कि, जिससे दा आतंकित हो उठा. तथा, तुरंत क्षमा माँगते हुए उसकी | देते समय उस पात्र से जल न निकल सके । बलि को शुक्र शरण में आया। किंतु प्रह्लाद ने इससे कहा, 'मेरी की यह बात बालूम न थी। जैसे ही पात्र की टोंटी से शरण में नही, तुम विष्णु की ही शरण जाओ, वही | जल न गिरा, यह कुश के अग्रभाग से उसे साफ करने तुम्हारा कल्याण निहित है' (वामन. ७७)। लगा जिससे शुक्राचार्य की एक आँख फूट गयी और तब वामन को दान-नर्मदा के उत्तरी तट पर स्थित से शुक्राचार्य को 'एकाक्ष' नाम प्राप्त हुआ (नारद. भृगुकच्छ नामक प्रदेश में जब इसका अन्तिम अश्वमेध | १.११)। यज्ञ चल रहा था, तब एक ब्राह्मणवेषधारी बालक के रूप | बलिबंधन-पश्चात् वामन ने कहा, 'तुमने तीसरे पग में वामन भगवान् ने प्रवेश किया। बलि ने वामन का | की जमीन दे कर अपने बचनों का पालन नहीं किया है। आदरसत्कार कर उनकी पूजा की, तथा कुछ माँगने के | यह सुन कर बलि ने उत्तर दिया 'तुमने कपट के साथ लिए प्रार्थना की (भा. ८.. १८. २०-२१)। वामन ने मेरे साथ व्यवहार किया है, पर मैं अपना वचन इससे तीन पग भूमि माँगी । शुक्राचार्य ने यह देख कर | निभाऊंगा । भूमि तो बाकी नहीं बची; मैं अपना मस्तक बलि को तुरन्त समझाया, 'यह ब्राह्मण बालक और कोई नहीं, | बढाता हूँ, उसमें अपना तीसरा पग रख कर, इच्छित स्वयं वामनावतारधारी विष्णु हैं। तुम इन्हें कुछ भी | वस्तु प्राप्त करो' (पद्म. पा. ५३)। 'न दो'1 किन्तु बलि ने गुरु की वाणी की उपेक्षा करते | बलि की यह स्थिति देख कर इसकी स्त्री विंध्यावली 'हुए कहा, 'नहीं ! मैं अवश्य दूंगा! जब प्रत्यक्ष ही परमेश्वर ने वामन भगवान् से बलि के उद्धार के लिए प्रार्थना मेरे द्वार पर अतिथि रूप से आया है, तो मैं उसे | की। विध्यावली की भक्तिपूर्ण मर्मवाणी को सुन कर विष्णु अवश्य ही इच्छित वस्तु प्रदान करूँगा (वामन. ९१)। प्रसन्न हो कर वर देते हुए कहा 'तुम अभी पाताल लोक में निवास करो, वहाँ मैं तुम्हारा द्वारपाल बनूँगा, बलि की इस प्रकार की वाणी सुन कर, शुक्र ने क्रोधित | भेरा सुदर्शन चक्र सदैव तुम्हारी रक्षा करेगा। आगे हो कर शाप दिया, 'बलि! तुमने मेरी उपेक्षा की है, | चल कर सावर्णि मन्वन्तर में तुम इन्द्र बनोगे। मेरे आज्ञा की अवहेलना की है। तुम अपने को । उक्त घटना कृतयुग के पूर्व काल की है। वह दिन अत्यधिक बुद्धिमान् समझते हो। तुम्हारा यह ऐश्वर्य, | कार्तिक शुद्ध प्रतिपदा का था, जब बलि ने वामन को दान यह राजपाट नष्ट भ्रष्ट हो जाये। दिया था। इस लिए उस दिन को चिरस्मरणीय रखने के वामन भगवान् ने इसकी तथा इसके पूर्वजों की यशगाथा | लिये वामन ने बलि को वर दिया, 'यह पुण्यदिन 'बलि का गान किया, और बलि ने उसे तीन पग भूमि दान देने प्रतिपदा' के नाम से विख्यात होगा, और इस दिन लोग के लिए मंत्र पढ़ते हुए अर्घ्य दिया। हाथों पर जल छोड़ते | तुम्हारी पूजा करेंगे' (स्कंद. २४.१०)। ही वामनरूपधारी विष्णु ने विशाल रूप धारण कर प्रथम | इसके पश्चात् , वामन ने इसे वरुण पाश से मुक्त पर में पृथ्वी, द्वितीय में स्वर्गलोक नापते हुए, इससे प्रश्न | किया, और बलि ब्रह्मा, विष्णु, महेश को नमस्कार कर, Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बलि वैरोचन प्राचीन चरित्रकोश बलि वैरोचन पाताललोक चला गया। बलि के जाने के उपरांत विष्णु महाभारत के अनुसार राज्य से च्युत किये जाने पर ने शुक्राचार्य को आदेश दिया कि वह यज्ञ के कार्य को बलि को गर्दभयोनि प्राप्त हुयी, एवं यह इधर उधर विधिपूर्वक समाप्त करें (भा. ८.१५-२३; म. स. परि. भटकने लगा । ब्रह्मदेव ने बलि को ढूँढ़ने के लिए इन्द्र से . १. क्र. २१; वामन ३१; ब्रह्म. ७३)। वामन ने बलि कहा, तथा आदेश दिया की इसका वध न किया जाये। का राज्य मन पुत्रो को देख कर, पृथ्वी एवं स्वर्ग को दैत्यों महाभारत में यह भी कहा गया है कि, इसने ब्राह्मणों से से मुक्त कराया (स्कंद. ७.२.१९)। मदपूर्ण अनुचित व्यवहार किया, इसी लिए लक्ष्मी ने विष्णुद्वारा, बलि के 'पातालबंधन' की पुराणों में | इसका परित्याग किया (म. शां. २१६. २१८)। योगदी गयी कथा ऐतिहासिक, एवं काफी प्राचीन प्रतीत होती | वसिष्ठ जैसे वेदान्त ग्रन्थों में भी अनासक्ति का प्रतिपादन है । पतंजलि के व्याकरण महाभाष्य में इस कथा का करने के लिए, इसकी कथा दृष्टान्तरूप में दी गयी है निर्देश प्राप्त हैं (पा.सू.३.१.२६ )। पतंजलि के अनुसार (यो. वा. ५.२२.२९)। बलि का पातालबंधन काफी प्राचीन काल में हुआ थाः। महाभारत के अनुसार, अपनी मृत्यु के पश्चात् बलि फिर भी उसका निर्देश महाभाष्यकाल में 'बलिम | वरुणसभा में अधिष्ठित हो गया (म. स. ९. १२) । स्कंद बन्धयति' इस वर्तमानकालीन रूप में किया जाता था। | पुराण में बाष्कलि नामक एक दैत्य की एक कथा दी गयी रावण का गर्वहरण--वाल्मीकि रामायण में बलि के है, जो बलि के जीवनी से बिलकुल मिलती जुलती है पाताल निवास की एक रोचक कथा दी गयी है, जो द्रष्टय है। (स्कंद. १.१.१८, बाष्कलि देखिये)। उसी पुराण में एक बार रावण ने इसके पास आ कर कहा, 'मैं तुम्हारी इसके पूर्वजन्म की कहानी दी गयी है, जिसके अनुसारमुक्ति के लिये आया हूँ, तुम हमारी, सहायता प्राप्त कर. पूर्वजन्म में इसे कितव बताया गया हैं। भागवत में एक विष्णु के बन्धनों से मुक्त हो सकते हो। यह सुन कर बलि स्थान पर इसे 'इंद्रसेन उपाधि से विभूषित किया गया है ने अग्नि के समान चमकनेवाले दूर पर रक्खे हुए (भा. ८. २२. ३३)। हिरण्यकशिपु के कुंडल उठा कर लाने के लिये रावण संवाद-यह बड़ा तत्त्वज्ञानी था। तत्त्वज्ञान के संबंध से कहा । रावण ने उस कुण्डल को उठाना चाहा, पर में इसके अनेक संवाद महाभारत तथा पुराण में प्राप्त हैं। बेहोश हो कर गिर पडा, तथा मुँह से खून की उल्टियाँ राजा अपनी राजलक्ष्मी किस प्रकार खो बैठता है, उसके करने लगा । बलि ने उसे होश में ला कर समझाते हुए संबंध में बलि तथा इंद्रं का संवाद हुआ (म. शां. कहा, 'यह एक कुण्डल है, जिसे मेरा प्रपितामह हिरण्य- २१६)। इसके पितामह प्रह्लाद से 'क्षमा श्रेष्ठ अथवा कशिपु धारण करता था। उसे तुम उठा न सके । महान् तेज श्रेष्ठ ' पर इसका संवाद हुआ (म. व. २९)। पराक्रमी भगवान् विष्णु द्वारा ही हिरण्यकशिपु मारा गया, । दैत्यगुरु शुक्र से इसका 'उपासना में पुष्प तथा धूपतथा उसी विष्णु को किस बल से चुनौती दे कर तुम मुझे | दीप' के बारे में संवाद हुआ (म. अनु.९८)। मुक्त कराने आये हो। वह विष्णु परमशक्तिमान् एवं सब परिवार--बलि की कुल दो पत्नियाँ थी :-- (१) का मालिक है । ऐसा कह कर इसने उसे विष्णुलीला विंध्यावलि (भा. ८.२०.१७; मत्स्य १८७.४०); (२) का वर्णन सुनाया (वा. रा. उ. प्रक्षिप्त सर्ग १)। अशना, जिससे इसे बाण प्रभृति सौ पुत्र उत्पन्न हुये थे ___ आनंद रामायण में इसी प्रकार की एक और कथा (भा.६.१८.१७, विष्णु. १.२१.२)। भागवत में इसकी दी गयी है । एक बार रावण बलि को अपने वश में करने | कोटरा नामक और एक पत्नी का निर्देश प्राप्त है, जिसे के लिए पाताललोक गया। वहाँ बलि अपनी स्त्रियों के बाणासुर की माता कहा गया है (भा. १०.६३.२०)। साथ पाँसा खेल रहा था । किसी ने रावण की ओर गौर बलि के सौ पुत्रों में निम्नलिखित प्रमुख थे:--. किया । एकाएक एक फाँसा उछल कर दूर गिरा, तब ! बाण (सहस्रबाहु), कुंभगते (कुंभनाभ), कुष्मांड, मुर, दय, इसने उस फाँसे को उठाने के लिये रावण से कहा। भोज, कुंचि (कुशि), गर्दभाक्ष (वायु. ६७.८२-८३)। रावण ने फाँसा उठा कर देना चाहा, पर उसे हिला तक महाभारत में केवल बलिपुत्र बाण का निर्देश प्राप्त है सका। तब वहाँ पर फाँसा खेलती हुयी स्त्रियों ने रावण (म. आ. ५९.२०)। का ऐसा उपहास किया कि. यह वहाँ से चम्पत हो गया बलि की कन्याओं में निम्नलिखित प्रमुख थीः--शकुनी, (आ. रा. सार. १३)। | पूतना (वायु. ६७.८२-८३; ब्रह्मांड. ३.५.४२-४४)। ५०० Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बैरोचन बलि के वंशज इस अर्थ से 'बालेय' नाम का प्रयोग पुराणों में प्राप्त है। किंतु वहाँ बलि वैश्वानर एवं बलि आनव इन दोनों में से किस के वंशज निश्चित अभिप्रेत है, यह कहना मुष्किल है ( बलि भानव देखिये) । बलि की उपसना -- श्रद्धारहित हो कर एवं दोषदृष्टि रखते हुए जो दान किया जाता है, उस निकृष्ट जाति के दान में से कई भागों का स्वामी बलि माना जाता है (म. अनु. ९०.२० ) । देवीभागवत के अनुसार फौनसा भी धर्मकर्म दक्षिणा के सिवा किया जाये, तो वह देवों तक न पहुँच कर बलि उसका स्वामी बन जाता है । उसी तरह निम्नलिखित हीनजाति के धर्मकृत्यों को पुण्य उपासकों के बदले बलि को प्राप्त होता है:- अद्धारहित दान, अधम ब्राह्मण के द्वारा किया गया यज्ञ, अपवित्र पुरुष का पूजन, अर्थोत्रिय के द्वारा किया गया आद्धकर्म, शूद्र स्त्री से संबंध रखनेवाले ब्राह्मण को किया हुआ द्रव्यदान, अश्रद्ध शिष्य के द्वारा की गयी गुरुसेवा (दे. भा. ९.४५ ) । प्राचीन चरित्रकोश बलिप्रतिपदा के दिन बलि की उपासना जाती है । यह उपासना बहुशः राजाओं द्वारा की जाती है एवं वहाँ बलि, उसकी पत्नी विध्यावधि एवं उसके परिवार के कुष्मांड, बाण, मुर आदि असुरों के प्रतिमाओं की पूजा बड़े ही भक्तिभाव से की जाती है। उस समय निम्नलिखित खिस्तुति का पाठ ही भक्तिभाव से किया जाता हैः-यतिराज नमस्तुभ्यं विरोचनसुत प्रभो। भविष्य सुराराते पूजेयं प्रतिगुह्यताम् । (भविष्योत्तर १४० ५४१ पद्म उ. १३४.५३ ) बलिभद्र रुद्र गणों में से एक । - बलिवाक - युधिष्ठिर के मयसभा का एक ऋषि ( म. स. ४.१२ ) । पाठभेद ( भांडारकर संहिता ) " बलवाक । बलिविंध्य -- एक राजा, जो रैवत मनु का पुत्र था । बलीह-- एक क्षत्रियकुल, जिसमें अर्कज नामक कुलांगार राजा उत्पन्न हुआ था ( म. उ. ७२.२० ) । उस राजा के कारण, इस कुल का नाश हुआ । बलेक्षु--एक गोत्रकार ऋषिगण, जो वसिष्ठ कुल में उत्पन्न हुआ था । इसके नाम के लिये ' दलेशु ' पाठभेद मास है। बहुगविद बल्गुतक--भत्रिकुल के मंत्रकार 'क' का पाठभेद ( बस्नूतक देखिये) । बल्बूथ - ऋग्वेद में निर्दिष्ट एक दानशूर पुरुष, जिसने तरुक्ष एवं पृथुश्रवस् के साथ अनेक गायकों को उपहार प्रदान किये थे (ऋ. ८.४६.३२ ) । वश अश्व्य नामक ऋषि ने इसके द्वारा दिये दिवे दानों का गौरवपूर्ण उल्लेख किया है। बलोत्कटा-लंद की अनुचरी मातृका (म. श. ४५.२२ ) । बलोन्मत्त रुद्रगणों में से एक। ऋग्वेद में इसे एक दास कहा गया है, किन्तु रोथ के अनुसार, यह स्वयं दास न हो कर इसके द्वारा किये गये एक सौ दासों के दान का उल्लेख वहाँ अभिप्रेत है। सिमर के अनुसार यह स्वयं एक आदिवासी अथवा आदिवासी माता का पुत्र था (आल्टिन्डिशे लेवेन ११७) | बल्लव - अज्ञातवास के समय पाण्डुपुत्र भीमसेन का सांकेतिक नाम, जिसका व्यवसाय स्पान ( पाककर्ता ). बताया गया है ( म. वि. २.१ ) । बल्लाल -- गणेश का परमभक्त, जो कल्याण नामक वैश्य का पुत्र था। अपने बाल्यकाल से श्रीगणेश की पूजा यह करता था । छोटे छोटे पत्थरों को एकत्र कर एवं उन्हे गणेश मान कर यह उनकी पूजा करता था। इसके मातापिता ने इसे गणेश की पूजा से परावृत्त करने के काफी प्रयत्न किये। किंतु वे सारे असफल हुए । एक बार उन्हों ने इसे पेड़ पर उल्टा टाँग कर काफी पीटा। फिर भी इसने अपनी गणेशभक्ति न छोड़ी। अंत में, जिस स्थान पर वह गणेश की पूजा करता था, वहाँ बालेश्वर अथवा गायविनायक नामक गणेश का स्वयंभु स्थान का निर्माण हुआ ( गणेश. १.२२ ) । बल्वल -- एक दानव, जो विप्रचित्ति दानव का पौत्र एवं इल्वल दानव का पुत्र था । नैमिषारण्य के ऋषियों को यह अत्यधिक पीड़ा देता था। इस कारण बलराम ने इसका वध किया ( भा. १०.७८.११; स्कंद. ३.१.१९ ) । बस्त रामकायन - मैत्रायणि संहिता में निर्दिष्ट एक आचार्य (मै. सं. ४. २. १० ) । इसके नाम के लिये 'बस्त समकायन' पाठभेद प्राप्त है। बहुगव - (सो. पूरु.) एक पूरुवंशीय राजा, जो भागवत के अनुसार सुद्यु का, एवं विष्णु के अनुसार का पुत्र था । इसके नाम के लिये 'बहुगविन् ' तथा बहुविध ' पाठभेद प्राप्त है । C बहुगविन - धुंधु दैत्य के पुत्रों में से एक। २. (सो. पूर. ) पूरुवंशीय बहुवराज का नामान्तर, जिसे वायु में धुंधु का पुत्र कहा गया है । (बहुगव देखिये) । ५०१ Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुदन्ती प्राचीन चरित्रकोश बाण बहुदन्ती-वैवस्वत मन्वन्तर के पुरन्दर नामक इंद्र की बहुविध--(सो. पूरु.) पूरुवंशीय बहुगव राजा का माता। पुरन्दर द्वारा वास्तुशास्त्र पर एक ग्रंथ लिखा गया | नामान्तर (बहुगव देखिये)। मत्स्य में इसे धुंधु राजा है, जिसमें उसने स्वयं को बाहुदन्तक नाम से अपना | का पुत्र कहा गया है। निर्देश किया है (पुरन्दर देखिये)। बहुवीति-अंगिराकुलोत्पन्न एक गोत्रकार। बहुदंष्ट्र-रावण के पक्ष का एक राक्षस (वा. रा. सु.६)। बहिक--अथर्ववेद में निर्दिष्ट किसी जाति के लोगों बहुदामा-स्कंद की अनुचरी मातृका (म. श. | का सामूहिक नाम, जो मूजवन्त एवं महावृष लोगों के ४५. १०)। तरह उत्तरी प्रदेश में रहते थे। अथर्ववेद में ज्वर (तक्मन्) बहपुत्र-एक प्रजापति, जो ब्रह्मा के मानसपुत्रों में | को इन तीन लोगों के प्रदेश में स्थानांतरित होने का से एक था ( वायु. ६५.५३ )। आवाहन किया गया है (अ. वे. ५.२२)। इस निर्देश २. (सो. कुकुर.) एक राजा, जो तित्तिर राजा का | से प्रतीत होता है कि, ये सारे लोग वैदिक आर्यों के विपक्ष पुत्र था। इसके पुत्र का नाम नरि था। में थे। बहुपुत्रिका-स्कंद की अनुचरी मातृका (म. श. ब्लूमफिल्ड के अनुसार, बलिक शब्द से 'बहिस' | याने किसी बाहर से आये गये लोगों का संकेत किया ' बहुमूलक--एक नाग, जो कश्यप एवं कद के पुत्रों जाता है। में से एक था (म. आ. ३१.३७६%)। . बहिक प्रातिपीय-एक कुरुवंशी राजा, जो संजय । बहुयोजना-स्कंद की अनुचरी मातृका (म. श. | राजा दुष्टरीतु पौस्यायन का विरोधक था (श. ब्रा. १२. ९.३.३)। दुष्टरीतु अपना वंशानुगत राज्यपद प्राप्त न कर सके, इसलिये इसने काफी प्रयत्न किये। किन्तु .. बहुरथ-- (सो. द्विमीढ.) एक राजा, जो भागवत रेवोत्तरस् पाटव चाक्र स्थपति इन मित्र की सहाय्यता , के अनुसार रिपुञ्जय राजा का पुत्र था। यह द्विमीढ वंश से दुष्टरीतु ने राज्यपद प्राप्त कर ही लिया। का अन्तिम राजा माना जाता है । विष्णु में इसे बृहद्रथ, | महाभारत में इसका निर्देश बाहीक नाम से किया गया । मत्स्य में विरथ, एवं वायु में वीररथ कहा गया है। है, एवं इसे प्रतीप राजा का पुत्र, तथा शंतनु एवं देवापि बहुरूप-एकादश रुद्रों में से एक (म. शां. २०१.१९)। राजा का भ्राता कहा गया है (म. आ. ९०. ४६; २. (स्वा. प्रिय.) एक राजा, जो प्रियव्रत राजा का बाह्रीक देखिये)। पौत्र, एवं मेधातिथि राजा का पुत्र था। बाल--एक नाग, जो कश्यप एवं कद्दू के पुत्रों में से बह्वाशिन--(सो. कुरु.) धृतराष्ट्र के सौ पुत्रों में से एक। यह भीम के द्वारा मारा गया (म. भी. ८४.२८)। एक था। वायु में इसे प्रजापति कहा गया है (वायु. बहीच--एक राक्षस, जो कश्यप एवं क्रोधा के पुत्रों में से एक था। २. तालजंघ वंश का एक कुलांगार राजा, जिसके | बाडभीकार (वाडवीकार)-एक वैयाकरण, • दुर्वर्तन के कारण तालजंघ वंश का नाश हुआ (म. उ. | जिसके द्वारा वर्णविकार के सम्बंध में मत प्रतिपादित है ७२.१३)। (तै. प्रा. १४. १३)। बहुलध्वज-- रत्ननगरी के ताम्रध्वज राजा का प्रधान।। बाडेयीपुत्र--एक आचार्य, जो बृहदारण्यक उप बहला-विदुर नामक वेश्यागामी ब्राह्मण की पत्नी। निषद् के अनुसार, मौषिकीपुत्र का शिष्य था (बृ. उ. अपने पति की मृत्यु के पश्चात्, इसने गोकर्ण क्षेत्र में | ६.४.३० माध्य.)। इसके शिष्य का नाम गर्गीपुत्र था । पुराणश्रवण का पुण्यकर्म किया, जिसके कारण पापी विदुर | (श. ब्रा. १४. ९.४. ३०)। मुक्त हुआ (स्कंद. ३. ३. २२)। बाण--एक दानव, जो कश्यप एवं दनु के पुत्रों में बहुलाश्व-(सू. निमि.) एक निमिवंशीय राजा, | से एक था। जो धृति जनक राजा का पुत्र था । श्रीकृष्ण इससे मिलने | २. एक सुविख्यात असुर, जो असुर राजा बलि वैरोचन आया था। इसके पुत्र का नाम कृति जनक था (भा. | का पुत्र था । शिव का पार्षद होने के कारण, इसे महाकाल १०.८६. १६)। नामान्तर भी प्राप्त था (म. आ ५९.२०-२१)। पन में ५०२ Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाण प्राचीन चरित्रकोश बाण इसे 'भूतों' का राजा कहा गया है ( पद्म. २५.११)। शोणितपुर नगरी बचा दी, तथा अन्य दो को जलने दिया । यह सहस्रबाहु होने के कारण, अत्यधिक पराक्रमी एवं | वे दोनों जलकर क्रमशः 'शैल' तथा 'अमरकंटक' पर्वत पर युद्ध में अजेय था। | गिरी। इसी कारण उन दो स्थानों पर दो तीर्थ बन गये __बलिपत्नी अशना से उत्पन्न हुए शतपुत्रों में यह ज्येष्ठ | (मत्स्य १८७-१८८; पद्म. स्व. १४-१५)। था। मत्स्य में इसकी माता का नाम विंध्यावलि दिया। एक बार खेल में निमग्न शिवपुत्र कार्तिकेय को देख कर गया है (मत्स्य. १८७.४०)। इसकी राजधानी दैत्यों के | यह प्रसन्नता से विभोर हो उठा। तथा इसके मन में यह सुविख्यात त्रिपुरो में से शोणितपुर में थी। कई ग्रंथों में, उस | इच्छा जागृत हुयी कि मैं शंकर-पुत्र बनूं। यह सोच कर नगरी का निर्देश 'लोहितपुर' नाम से भी किया गया है। इसने कड़ी तपस्या की, जिससे प्रसन्न हो कर शंकर ने इसे हरिवंश में बाण की जीवनकथा विस्तृत रूप में दी गयी है | वर माँगने के लिए कहा। इसने शंकर से प्रार्थना की, 'मेरी (ह. वं. २.११६-१२८)। . उत्कट अभिलाषा है कि, कार्तिकेय की भाँति माता पार्वती दैत्यों की ये त्रिपुर नगरियों आकाश में सदैव संचरण | मुझे पुत्र के रूप में ग्रहण करे। शंकर ने वरप्रदान किया करती थीं। ये निर्भेद्य थी, जिन्हें कोई जीत न सकता करते हुए, कार्तिकेय के जन्मस्थान का नित्य के लिए था। इसके रहस्य का कारण थीं दैत्य स्त्रियाँ, जिनके पति इसे अधिपति बनाया (ह. बं. २.११६.२२)। कार्तिकेय सेवा के प्रभाव से ये नगरियाँ पृथ्वी पर न आती थी तथा ने प्रसन्न हो कर इसे अपना तेजस्वी ध्वज एवं मयूर वाहन आकाश में ही तैरती थी। दैत्य लोग इन नगरियों में प्रदान किया। शिवपुत्र द्वारा दिये गये ध्वज में मयूर की रहते तथा देवों एवं ऋषियों के आश्रमों में जाकर उत्पात | छाप थी, जिसका सर मयूर का न हो कर मनुष्य का था मचाते। इससे अब कर देव ऋषि आदि भगवान् शंकर के | (ह. वं. १.११६.२२; शिव. रुद्र. यु. ५३)। पास गये, तथा अपने कष्टों का निवेदन कर उबारने के शंकर द्वारा प्राप्त वरों का निर्देश शिव पुराण में भी लिए प्रार्थना की। प्राप्त है, लेकिन उसमें कुछ भिन्नता हैं। शिवपुराण में शंकर भगवान ने भक्तों की मर्मान्तक वाणी को सुनकर लिखा है कि, इसने भगवान शंकर के साथ ताण्डव में नारद को स्मरण किया। याद करते ही, स्मरणगामी | भाग लेकर अत्यधिक सुन्दर नृत्य किया था, जिससे प्रसन्न नारदं तत्काल प्रकट हुए। शंकर ने देवर्षि नारद से हो कर इसे ये वर प्राप्त हुए थे। इसके सिवाय इसने निवेदन किया कि, वह राक्षसों की नगरियों में जाकर वहाँ शंकर से यह भी वर माँगा कि, वह भविष्य में उसके की पत्नियों का ध्यान पतिसेवा से हटाकर दूसरी ओर परिवार का रक्षण करता हुआ इसे चिरन्तन आनंद लगा दें, जिससे ये नगर पृथ्ची पर आ सकें, तथा इन प्रदान करता रहेगा। शंकर ने इसे यह वरदान दे कर, वह अजेय राक्षसों का नाश हो सके। स्वयं अपने पुत्र कार्तिकेय एवं गणेश के साथ इसकी रक्षार्थ ___शंकर के वचनों को स्वीकार कर, नारद वहाँ गया, इसके नगर में रहने लगा (शिव. रुद्र. यु. ५१)। तथा वहाँ की स्त्रियों को विभिन्न प्रकार के अन्य धार्मिक | भागवत के अनुसार, तांडवनृत्य के समय इसने शिव पूजा-पाठों की ओर उनका ध्यान आकर्षित कर पति- के साथ वाद्यवादन किया था, जिससे प्रसन्न हो कर उसने सेवा व्रत से हटा दिया। जिसके कारण, नगरों की शक्ति | इसे उक्त वरप्रदान किये थे (भा. १०.६२)। कम होने लगी। ऐसी स्थिति देखकर, शंकर ने तीन | बाण ने शंकर द्वारा प्राप्त किये हुए इन वरों के बल नोकों वाले बाण से तीनों नगरों को वेध दिया। शंकर ने | पर, अनेकानेक बार इन्द्रादि देवों को जीत कर, जब जैसा भग्नि को भी आज्ञा दी कि, ये त्रिपुर नगरियों जला दी | चाहा किया। किसी में इतनी शक्ति न थी, जो इसके तेज जाय । अग्नि ने आज्ञा पाते ही उन्हें भस्मीभूत करना | के सामने ठहर सके। एक बार महाबली बाण ने शंकर शुरू किया। से कहा, 'मेरी अनंत शक्ति मेरे अंदर लड़ने के लिए शिति -नगरों को जलता देख कर, बाण अपनी | मुझे मजबूर कर रही है; पर कोई भी मेरी टवकर का नजर नगरी से अपने उपात्यदेव का शिवलिंग साथ ले कर नहीं आ रहा। हज़ार बाहुओं को तृप्ति करने के लिए मैं बाहर निकला । यह शिवभक्त था, अतएव अपने को कष्ट | दिग्गजों से भी लड़ने गया, पर वे भी मेरी शक्ति के में पाकर इसने 'तोटक छन्द' के द्वारा, शंकर की पूजा कर सामने ठहर न सके । अब मै युद्ध करना चाहता हूँ। मुझे के उसे प्रसन्न किया। प्रसन्न हो कर शंकर ने इसकी । उसमें ही शान्ति है। यह युद्ध कब होगा ?' उत्तर देते हुए ५०३ Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाण प्राचीन चरित्रकोश बाण शंकर ने कहा 'जिस दिन कार्तिकेय द्वारा दिया गया ध्वज | पुत्र कार्तिकेय की रक्षा के लिये आई थी, तथा उन्हें अब ध्वस्त होगा, उसी के बाद तुम्हारी यह इच्छा पूर्ण होगी। | दुबारा इसकी रक्षा के लिए आना पड़ा, क्योंकि वह . तुम्हे युद्ध का अवसर प्राप्त होगा। पश्चात इसके ध्वज | वचनबद्ध थीं। कृष्ण ने पार्वती से अलग रहने के लिए पर इन्द्र का वज्र गिरा, तथा वह ध्वस्त हो गया। कहा, किन्तु वह न मानी तथा कृष्ण से निवेदन किया, उषा-अनिरुद्ध-प्रणय-इसके उषा नामक एक कन्या । याद तुम चाहते हो कि में पुत्रवती रहू, मेरा पुत्र जीवित थी, जो अत्यधिक नियंत्रण में रख्खी जाती थी। एक बार रहे, तो बाण को जीवनदान दो। मैं इसकी रक्षा के ही एक पहरेदार द्वारा इसे यह सूचना प्राप्त हुई कि, उषा | लिये तुम्हारे सम्मुख हूँ' । कृष्ण ने प्रत्युत्तर देते हुए कहा किसी पर पुरुष से अपने सम्पर्क बढ़ा रही हैं । इससे 'मैं तुम्हारी उपेक्षा नहीं कर सकता, किन्तु यह अहंकारी संतप्त होकर, सत्यता जानने की इच्छा से यह उसके | हैं, इसे अपने हज़ार बाहुओं पर गर्व है; अतएव इसके महल गया। वहाँ इसने देखा कि. उषा एक पुरुष के साथ | दो हाथों को छोड़कर समस्त हाथों को नष्ट कर दंगा'। द्यूत खेल रही है। दोनों को इस प्रकार निमग्न देखकर | इतना कह कर कृष्ण ने इसको दो हाथों को छोड़कर शेष यह क्रोध से लाल हो उठा, तथा अपने शस्त्रास्त्र तथा | हाथ काट दिये (पभ. ३. २.५०)। भागवत तथा गणों के साथ उस पर आक्रमण बोल दिया । पर उस | शिवपुराण के अनुसार विष्णु ने इसके चार हाथ रहने पुरुष का बाल बाँका न हुआ। उसने बाण के हर वार का | दिये, तथा शेष काट डाले (भा. १०.६३.४९)। कस कर मुकाबला किया। वह पुरुष कोई साधारण नहीं, शिवपुराण में कृष्ण द्वारा इसका वध न होने कारण .' वरन् कृष्ण का पौत्र अनिरुद्ध ही था। अन्त में बाण ने दिया गया है । जब कृष्ण ने इसका वध करना चाहा, तब अपने को गुप्त रखकर अनिरुद्ध पर नागपाश छोड़े। उन शिव ने उनसे कहा 'दधीचि, रावण एवं तारकासुर नागों ने उषा तथा अनिरुद्ध को चारों ओर से जकड़ । जैसे लोगों का वध करने के पूर्व तुमने मेरो संमति ली । लिया, तथा दोनों कारागार में बन्दी बनाकर डाल दिये | थी। बाण मेरे लिये पुत्रवत् है, उसको मैने अमरत्व : गये। प्रदान किया है; अतः मेरी यही इच्छा है कि, तुम इसका कृष्ण से युद्ध-अनिरूद्ध के कारावास हो जाने की | वध न करा। सूचना जैसे ही कृष्ण को प्राप्त हुयी, वह अपनी यादव | वरप्राप्ति--भागवत के अनुसार कृष्ण ने इसे इस. सेना के साथ शोणितपुर पहुँचा, तथा समस्त नगरी को | लिये जीवित छोडा, क्यों कि, उसने इसके प्रपितामह सैनिकों से घेर लिया। दोनों पक्षों में घनघोर युद्ध हुआ। ' प्रह्लाद को वर प्रदान किया था कि, वह उसके किसी वंशज वाण की रक्षा के लिए उसकी ओर से शंकर भगवान् , का वध न करेगा। इसी कारण इसका वध नहीं किया, कार्तिकेय एवं गणेश भी थे । इस युद्ध में गणेश का एक केवल गर्व को चूर करने के लिये हाथ तोड़ दिये । इसके दाँत भी टूटा, जिससे उसे 'एकदंत' नाम प्राप्त हुआ। साथ ही कृष्ण ने वर दिया, 'तुम्हारे ये, बचे हुए हाथ इस युद्ध में, पन के अनुसार, बाण का युद्ध सबसे जरामरण रहित होंगे, एवं तुम स्वयं भगवान् शिव के प्रमुख पहले बलराम से हुआ, तथा भागवत एवं शिवपुराण के | सेवक बनोंगे (भा. १०.६३)। अनुसार, इसका सर्वप्रथम युद्ध सात्यकि से हुआ। कृष्ण के साथ इसका युद्ध बाद में हुआ, जिसमें कृष्ण के अपार | युद्ध समाप्त होने पर भगवान शिव ने भी इसे अन्य बलपौरुष के समक्ष इसके सभी प्रयत्न असफल हो | वर भी दिये, जिनके कारण इसे अक्षय गाणपत्य, बाहुगये । इन समस्त युद्धों में, पहले बाण की ही जीत | युद्ध में अग्रणित्व, निर्विकार शंभुभक्ति, शंमुभक्तों के नज़र आती थी; किन्तु अन्त में इसको हर एक युद्ध में प्रति प्रेम, देवों से तथा विष्णु से निर्वैरत्व, देवसाम्यत्व पराजय का ही मुँह देखना पड़ा। | (अजरत्व एवं अमरत्व) इसे प्राप्त हुए (शिरुद्र. अन्त में जैसे ही कृष्ण ने सुदर्शन चक्र के द्वारा इसका यु. ५९)। हरिवंश तथा विष्णु पुराण के अनुसार शिव वध करना चाहा, वैसे ही अष्टावतार लम्बा के रूप में | ने इसे निम्न वर और प्रदान किये:--बाहुओं टूटने के पार्वती इसके संरक्षण के लिए नग्नावस्था में ही दौड़ी | वेदना का शमन होना, बाहुओं के टूटने के कारण मिली आई । भागवत में पार्वती के इस रूप को 'कोटरा' कहा विद्रुपता का नष्ट होना, शिव की भक्ति करने पर पुत्र की गया है। इसके पूर्व भी, इसी युद्ध में पार्वतीजी अपने । प्राप्ति होना आदि (ह. व. २.१२६; विष्णु. ५.३०)। , ५०४ Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाण प्राचीन चरित्रकोश बादरायण ___ उषा-अनिरुद्ध विवाह-तत्पश्चात् कृष्ण ने इसे बड़े ३. स्कंद का एक सैनिक (म. श. ४४.६२)। सम्मान के साथ द्वारका बुलाया, एवं उषा तथा अनिरुद्ध बादरायण-एक आचार्य, जिसने ब्रह्मसूत्रों की रचना का विवाह संपन्न कराया । विवाहोरान्त कृष्ण ने इसे बड़े | की थी (जै. सू. १.१.५, २.१९, १०.८.४४; ११.१. स्नेह से बिदा किया। इसने उषा के अनिरुद्ध से उत्पन्न | ६४)। बदर का वंशज होने से इसे यह नाम प्राप्त हुआ पुत्र को अपने राज्य का उत्तराधिकारी बनाया, जिससे | होगा। प्रतीत होता है कि इसको कोई पुत्र न था (शिव. रुद्र. यु. वैष्णव भागवत' में, कृष्णद्वैपायन व्यास एवं बादरायण ५९)। किन्तु ब्रह्मांड में इसकी पत्नी लोहिनी से उत्पन्न | एक ही व्यक्ति माने गये है (भा. ३.५.१९)। स्वयं शंकराइसके 'इंद्रधन्वन्' नामक पुत्र का निर्देश प्राप्त हैं | चार्य भी ब्रह्मसूत्रों के रचना का श्रेय बादरायण को प्रदान (ब्रह्मांड. ३.५.४५)। करते है (ब्र. सू. ४.४.२२)। किन्तु संभवतः ब्रह्मसूत्रों इसे "अनौपम्या' नामक और भी अनेक पत्नियाँ थीं, | की मूल रचना जैमिनि के द्वारा हो कर, उन्हे नया जिनका निर्देश पद्म एवं मत्स्य में प्राप्त है (पद्म. १४ | संस्कारित रूप देने का काम बादरायण ने किया होगा। मत्स्य. १८७. २५)। सुरेश्वराचार्य ने अपने 'नैष्कर्म्यसिद्धि' नामक ग्रंथ में वैसा 'नित्याचार पद्धति' नामक ग्रंथ के अनुसार, बाण के | स्पष्ट निर्देश किया है (नैष्कर्म्य, १.९०)। द्रमिडाचार्य द्वारा चौदह करोड शिवलिंगों की स्थापना देश के विभिन्न | ने भी अपने 'श्रीभाष्यश्रुतप्रका शिका' नामक ग्रंथ में भागों में की गयी थी। ये लिंग 'बाणलिंग' नाम से | सर्वप्रथम वंदन जैमिनि को किया है, एवं उसके पश्चात् सुविख्यात थे। नर्मदा गंगा आदि पवित्र नदियों में प्राप्त | बादरायण का निर्देश किया है। शिवलिंगाकार पत्थरों को भी, बाणासुर के नाम से | कई विद्वानों के अनुसार, बादरायण एवं पाराशर्य व्यास 'बाणलिंग' कहा जाता है (नित्याचार. पृ. ५५६)। दोनो एक ही व्यक्ति थे। किन्तु सामविधान ब्राह्मण में बाणकथा का अन्वयार्थ-सदाचारसंपन्न एवं परम दिये गये आचार्यों के तालिका में इन दोनों का स्वतंत्र ईश्वरभक्त हो कर भी. जिन असुरों का देवों के द्वारा निर्देश किया गया है, एवं इन दोनों में चार पीढीयों का अत्यंत निघृणता के साथ संहार किया गया, उन असुरों अंतर भी बताया है। बादरायण स्वयं अंगिरसकुल का •में बाण प्रमुख था । इसके वंश में से इसका पिता बलि, था (आप. श्री. २४.८-१०), एवं इसके शिष्यों में इसका प्रपितामह प्रह्लाद, एवं इसका पितुःप्रपितामह | तांडि एवं शाट्यायनि ये दोनो प्रमुख थे। पाराशर्य व्यास 'हिरण्यकशिपु इन सारे राजाओं को देवों के साथ लड़ना अंगिरसकुल का न हो कर वसिष्ठकुल का था । पड़ा। इससे प्रतीत होता है कि, देव एवं दैय जातिओं | बादरि-बादरायण-भिन्नता-जैमिनिसूत्रों में निर्दिष्ट • के पुरातन शत्रुत्व के कारण ये सारे युद्ध उत्पन्न हुए थे। बादरि नामक आचार्य एवं बादरायण दो स्वतंत्र व्यक्ति *पिढियों से चलता आ रहा यह शत्रुत्व किसी व्यक्ति का | थे। क्यों कि, बादरायण के मतों से विपरीत बादरि के व्यक्तिगत शत्रुत्व न हो कर, दो जातिओं का संघर्ष था | अनेक मतों का निर्देश 'बादरि सूत्रों' में प्राप्त है। (बलि वैरोचन देखिये)। बाण की जीवनकथा में शैव | बादरायण देह का भाव तथा अभाव इन दोनों को मान्य एवं वैष्णवों के परंपरागत संघर्षो की परछाइयाँ भी अस्पष्ट करता है । इसके विपरीत, बादरि देह की अभावयुक्त रूप से दिखाई देती है। अवस्था को ही मानता है। इस मतभिन्नता से दोनों | आकाश में तैरती हुयी बाण की शोणितपुर राजधानी | आचार्य अलग व्यक्ति होने की संभावना स्पष्ट होती है किसी पर्वतीय प्रदेश में स्थित नगरी के ओर संकेत | (ब. सू. ४. ४.१०-१२)। करती है । शोणितपुर को लोहितपुर एवं बाणपुर नामान्तर | सत्याषाढ के गृह्यसूत्र में इसके गर्भाधान विषयक मतों भी प्राप्त थे. (त्रिकाण्ड, ३२. १७; अभि. १३३. का निर्देश प्राप्त है, जिसमें यह विधि स्त्री को प्रथम ऋतु ९७७)। आसाम में स्थित ब्रह्मपुत्रा नदी का प्राचीन | प्राप्त होते ही करने के लिये कहा गया है (स. गृ. १९. नाम भी लोहित ही था। इससे प्रतीत होता है कि, बाण | ७.२५)। का राज्य सद्यःकालीन आसाम राज्य के किसी पहाडी | ब्रह्मसूत्र-बादरायण के द्वारा रचित 'ब्रह्मसूत्र' के में बसा होगा। यह पहाडी अत्यंत दुर्गम होने के कारण, कुल चार अध्याय, सोलह पाद, एक सौ बयानबे अधिदेवों के लिये बाण अजेय बना होगा। | करण एवं पाँच सौ पछपन सूत्र हैं। इस ग्रंथ को उत्तर प्रा. च. ६४] ५०५ रिसाइदता है। Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बादरायण प्राचीन चरित्रकोश बाभ्रव्य पांचाल मीमांसा, बादरायण सूत्र, ब्रह्ममीमांसा, वेदान्तसूत्र, व्यास- बाध्यश्व-भार्गवकुल का एक मंत्रकार । सूत्र एवं शारीरक सूत्र आदि नामान्तर भी प्राप्त है। बाध्योग-जिह्वावत् नामक आचार्य का पैतृक नाम , - इस ग्रंथ में बृहदारण्यक, छांदोग्य, कौषीतकी, ऐतरेय, (बृ. उ. माध्यं ६.४.३३; जिह्वावत् देखिये)। बध्योग मुंडक, प्रश्न, श्वेताश्वतर, जाबाल एवं आथर्वणिक (अप्राप्य) का वंशज होने के कारण उसे यह पैतृक नाम प्राप्त हुआ आदि उपनिषद ग्रंथों में प्राप्त वाक्यों का विचार किया । होगा। गया है। बाध्व--एक आचार्य, जो वेद, छंद, शरीर एवं महाइस ग्रंथ में निम्नलिखित पूर्वाचार्यों के मत उनके पुरुष आदि को अध्ययन के विषय मानता था (ऐ. आ. नामोल्लेख के साथ ग्रथित किये गये हैं:-- आत्रेय, | ३.२.२ )। सांख्यायन आरण्यक में इसके नाम के लिए आश्मरथ्य, औडुलोमि, काशकृत्स्न, कार्णाजिनि, जैमिनि | 'वात्स्य' पाठभेद प्राप्त है (सां. आ. ८.३)। एवं बादरि । इन पूर्वाचार्यों में से बादरि का निर्देश चार | २. एक तत्वज्ञ, जिसका बाष्कलि नामक आचार्य से सूत्रों में, औडुलोमि का तीन सूत्रों में, आश्मरथ्य का दो | 'ब्रह्म की अनिर्वचनीयता' के बारे में संवाद हुआ था सूत्रों में, एवं बाकी सारे आचार्यों का निर्देश एक एक सूत्र | (४ बाष्कलि देखिये)। में किया गया हैं । स्वयं बादारायण के मत आठ सूत्रों में | बाभ्रव-- वत्सनपात् नामक आचार्य का पैतृक नाम दिये गये है। | (बृ. उ. माध्य. २. ५. २२, ४. ५. २८)। इन सूत्रों का मुख्य उद्देश उपनिषदों के तत्त्वज्ञान का ऐतरेय ब्राह्मण में प्राप्त शुनःशेप की कथा में कापिलेय ... समन्वय करना, एवं उसे समन्वित रूप में प्रस्तुत करना | एवं बाभ्रव लोगों को शनःशेप के वंशज बताये गये हैं है। महाभारत, मनुस्मृति एवं भगवद्गीता के तत्त्वज्ञान को | (ऐ. ब्रा. ७.१७)। बभ्रु का वंशज होने से इसे 'बाभ्रव' उद्देश कर भी कई सूत्रों की रचना की गयी है। ये सारे | नाम प्राप्त हुआ होगा। बभ्रु के द्वारा रचित एक सामन् सूत्र काफी महत्त्वपूर्ण है, किन्तु भाष्यग्रन्थों के सहाय्य का निर्देश पंचविंशब्राह्मण में प्राप्त है (पं. ना. १५.. के सिवाय उनका अर्थ लगाना मुष्किल है। उन में से कई | ३.१२)। सूत्रों के शंकराचार्य के द्वारा दो दो अर्थ लगाये गये हैं (ब्र. बाभ्रव्य--गिरिज एवं शंख नामक आचार्यों का पैतृक सू. १.१.१२-१९; ३१, ३.२७, ४.३; २.२.३९-४० नाम (ऐ. ब्रा. ७.१; जै..उ. बा. ३.४१.१, ४.१७.१)। आदि)। कई जगह पाठभेद भी दिखाई देते हैं (ब्र.सू. आश्वलायन गृह्यसूत्र के ब्रह्मयज्ञांग तर्पण में, क्रम के १.२.२६, ४.२६)। पाठन की परंपरा शुरु करनेवाले आचार्य के रूप में इसका इस ग्रन्थ की रचनापद्धति प्रथम पूर्वपक्ष, एवं पश्चात् | निर्देश प्राप्त है (ऋ. प्रा. ११. ३३)। . सिद्धान्त इस पद्धति से की गयी है। किंतु कई जगह प्रथम २. विश्वामित्रकुल का एक गोत्रकार । सिद्धान्त दे कर, बाद में उसका पूर्वपक्ष देने की प्रति- ३. एक गोत्र का नाम । गालवमुनि इसी गोत्र में उत्पन्न लोम' पद्धति का भी अवलंब किया गया है (ब. सू. ४. हुए थे। ३.७-११)। बाभ्रव्य पांचाल—एक आचार्य, जो दक्षिण पांचाल अपना विशिष्ट तत्त्वज्ञान स्पष्ट रूप से ग्रथित करने का प्रयत्न बादरायण ने इस ग्रन्थ के द्वारा किया है। इसका देश के ब्रह्मदत्त राजा के दो मंत्रियों में से एक था (ह. वं. १.२०.१३)। इसका संपूर्ण नाम 'सुबालक (गालव) यह प्रयत्न श्री व्यासरचित भगवद्गीता से साम्य रखता बाभ्रव्य पांचाल' था। इसे 'बहवृच' एवं 'आचार्य' ये उपाधियाँ प्राप्त थी (ह. बं. १.२३.२१)। यह सर्वबादरायणि-शुक ऋषि का नामांतर। | शास्त्रविद् एवं योगशास्त्र का परम अभ्यासक था (मत्स्य. बादरि-जैमिनि सूत्रों में निर्दिष्ट एक आचार्य (जै. २०.२४, २१.३०)। सू. ३.१.३; ६.१.२७, ८.३.६; का. श्री. ४.३.१८; ब्र. ___ इसने ऋग्वेद की शिक्षा तयार कर उसका प्रचार किया। सू. ४.४.११; बादरायण देखिये)। इसने वेदमंत्रों का क्रम निश्चित किया, एवं उसका प्रचार भी २. श्याम पराशर कुलोत्पन्न एक गोत्रकार । किया (पझ. पा. १०; ह. वं. १.२४.३२, म. शां.३३०. __बादुलि--विश्वामित्र के ब्रह्मवादी पुत्रों में से एक ३७-३८ पांचाल ३. देखिये)। ऋक् संहिता के क्रमपाठ (म. अनु. ४.५३)। | के रचना का श्रेय वैदिक ग्रंथों में भी बाभ्रव्य पांचाल को ५०६ Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाभ्रव्य पांचाल प्राचीन चरित्रकोश बालाकि दिया गया है। पाणिनि ने भी बाभ्रव्य एवं इसके बालखिल्य--ब्रह्माजी के वालखिल्य नामक शक्ति द्वारा रचित क्रम का निर्देश किया है (पा. सू.४.१.१०६, | शाली पुत्रों का नामांतर (वालखिल्य देखिये)। बालडि--अंगिराकुलोत्पन्न एक गोत्रकार । ब्रह्मदत्त राजा के कंडरिक (पुंडरिक) एवं बाभ्रव्य नामक दो मंत्रियों ने समस्त वैदिक ऋचाओं को एकत्र बालधि-एक शक्तिशाली ऋषि, जिसने पुत्रप्राप्ति के लिए घोर तपस्या की थी। इसकी तपस्या से प्रसन्न हो कर कर उनको ऋग्वेद, सामवेद एवं यजुर्वेद इन संहिताओं में देवों ने इसे वर माँगने के लिए कहा। किंतु इसके द्वारा विभाजित किया। उन संहिताओं का अंतीम एकत्रीकरण अमरपुत्र की माँग की जाने पर देवों ने इसे कहा, 'इस एवं संस्करण व्यास ने किया। २. एक कामशास्त्रकार एवं वात्स्यायन के कामसूत्र का सृष्टि की हर एक वस्तु नश्वर है, इसी कारण अमर पुत्र की अपेक्षा करना भी व्यर्थ है । फिर सामने दिखाई पूर्वाचार्य । वात्स्यायन के अनुसार, कामशास्त्र की सर्वप्रथम रचना श्वेतकेतु ने की, एवं श्वतकेतुप्रणीत कामशास्त्र देनेवाले पर्वत की ओर निर्देश करते हुए इसने देवताओं से कहा, 'यह पर्वत जितने वर्ष रह सकेगा उतनी आयु के संक्षेपीकरण का कार्य बाभ्राव्य पांचाल ने किया। मत्स्य में 'क्रमपाठ रचयिता' बाभ्रव्य एवं 'काम का पुत्र आप मुझे प्रदान करे। सूत्रकार' बाभ्रव्य को अनवधानी से एक माना गया इसकी प्रार्थना के अनुसार, देवों ने इसे एक पुत्र प्रदान किया जिसका नाम मेधावी था। उसे यह बड़े है। किन्तु कामसूत्रकार बाभ्रव्य का पूर्वाचार्य श्वेतकेतु | क्रमपाठरचयिता बाभ्रव्य से काफी उत्तरकालीन था। इससे लाड़प्यार से 'पर्वतायु' कहता था। बड़ा होने पर पर्वतायु देवों के वर का आश्रय ले कर अत्यंत उद्दण्ड प्रतीत होता है कि, ये दो बाभ्रव्य अलग व्यक्ति थे। बन गया। एक बार उसने धनुषाक्ष नामक महर्षि का . बाभ्रव्यायणि-विश्वामित्र के पुत्रों में से एक। बिना किसी कारण अपमान किया । उस समय महर्षि ने बाईसामा अथर्ववेद में निर्दिष्ट एक स्त्री, जो | पर्वताय को शाप दिया, 'तुम भस्म हो जाओगे। बत्सामन् की कन्या थी। गर्भाधान सरल बनानेवाले एक | महर्षि के इस शाप का पर्वतायु पर कोई भी असर न -सूक्त में इसका निर्देश प्राप्त है (अ. वे. ५. २५. ९)। हुआ, एवं वह जीवित ही रहा। अपना शाप विफल हुआ . बाहेदिषु--अजमीढवंशीय राजाओं के लिये प्रयुक्त | यह देख कर धनुषाक्ष ऋषि को अत्यंत आश्चर्य हुआ। • सामुहिक नाम । अजमीढपुत्र बृह दिषु राजा से ले कर, पश्चात् दिव्यदृष्टि से उसने पर्वतायु के वर का रहस्य उसी वंश के भल्लाट तक के राजा 'बाह दिषवः' नाम से जान लिया, एवं अपने तपोबल से एक भैंसा निर्माण कर विख्यात थे (भा. ९.२१.२६)। उसके द्वारा वह पर्वत खुदवा डाला, जिसके उपर पर्वतायु ___बाहेद्रथ-मगध देश के बृहद्रथ राजा के वंशजों के | की आयु निर्भर थी। उसी क्षण पर्वतायु की मृत्यु हो गयी लिये प्रयुक्त सामुहिक नाम। इनकी राजधानी गिरिव्रज | (म. व. १३४)। अपने प्रिय पुत्र की मृत्यु पर बालधि नगर में थी। पुराणों में इस वंश के कुल बाइस या बत्तीस | ऋषि ने काफी विलाप किया। राजाओं का निर्देश प्राप्त है (बृहद्रथ देखिये)। बालन्दन-वत्सप्री ऋषि का पैतृक नाम, जो संभवतः बार्हस्पत्य-शंयु, विदथिन् एवं भारद्वाज आदि | भालन्दन (भलंदन का वंशज) का विभेदात्मक रूप है आचार्यों का पैतृक नाम । बृहस्पति का वंशज होने से (बेबर-इंडिशे स्टूडियन ३.४५९.४७८)। उन्हे यह नाम प्राप्त हुआ होगा। बालपि--भृगु कुलोत्पन्न एक गोत्रकार। - बाल--एक ब्राह्मण, जो अत्यंत पापी एवं पाखंड मतप्रवर्तक था । अपनी मृत्यु के पश्चात् , इसे पुनः एक बार बालवय--वसिष्ठकुल का एक गोत्रकार। मनुष्यजन्म प्राप्त हुआ। अपने इस नये जन्म में इसने | बालस्वामी--स्कंद का एक सैनिक (म. श. ४४. गतपापों का क्षालन करने के लिये सरस्वती मंत्र का जप | ६०)। किया, जिस कारण इसके सारे पापों का नाश हो कर, | बालाकि--भृगुकुल का एक गोत्रकार। अगले जन्म में यह मैत्रेय नामक सद्वर्तनी ऋषि बन गया २. गार्ग्य बालाकि नामक ऋषि का नामांतर (गार्ग्य (स्कंद २.४६)। बालाकि देखिये.)। इसे दृप्त बालाकि नामांतर भी प्राप्त २. वसिष्ठकुल का एक गोत्रकार | है (श. ब्रा. १४.५.१)। इसके नाम के लिए 'बालाक्या' ५०७ Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बालाकि प्राचीन चरित्रकोश - बाष्किह पाठभेद भी उपलब्ध है (काश्यपीबालाक्या माठरीपुत्र | बाष्कालि--प्रह्लाद का पुत्र (पद्म. सृ. ६)। देखिये)।. २. अंगिराकुलोत्पन्न एक गोत्रकार एवं मंत्रकार ऋषि । . बालानामयिक--स्कन्द का एक सैनिक (म. श. | यह वालखिल्य संहिता का रचयिता था, जो इसने अपने ४४.६९)। वालाय नि, भज्य, एवं कासार नामक शिष्यों को सिखायी बालायनि--एक आचार्य, जिसे बाष्कलि ने वालखिल्य | थी (भा. १२.६.५९)। संहिता सिखायी थी (भा. १२.६.६०)। ३. एक ऋग्वेदी शृतर्षि एवं ब्रह्मचारी। बालावती--कण्व ऋषि की कन्या, जिसने उत्तम पति | ४. एक तत्त्वज्ञ, जिसका निर्देश शंकराचार्य के ब्रह्मसूत्रके प्राप्त्यर्थ कठोर तपस्या की थी। एक बार भगवान् सूर्य- | भाष्य में प्राप्त हैं । उक्त ग्रन्थ में इसका एवं बाध्व ऋषि नारायण अतिथि रूप में इसके यहाँ आया, एवं कुछ बेर | के बीच हुए शास्त्रार्थ एक आख्यायिका के रूप में वर्णित इसे प्रदान कर उन्हे पकाने के लिए कहा। है। बाष्कलि ने बाध्व से पूँछा 'ब्रह्म कैसा है ?' वह सूर्यनारायण की आज्ञानुसार यह बेर पकाने लगी। मौन रहा। उसकी मौनता को देख कर, इसने दो तीन बार किन्तु चुल्हे की सारी लकड़ियाँ समाप्त होने पर भी बेर को बार बार रमवा। तब बाध्य ने कहा. न पके; फिर इसने अपने पाँव चुरहे में लगा दिये । यह अपने मौन सम्भाषण से ही, मै व्यक्त कर चुका हूँ कि, . देख कर सूर्य इसपर प्रसन्न हुआ, एवं इसे वर देते हुए ब्रह्म अनिर्वचनीय है (यतो वाचो निवर्तन्ते.)। अब.. कहा, 'तुम्हारी सारी कामनाएँ पूरी होंगी'। उसी दिन तुम समझ न सको तो दोष किसका है ? ' (ब्र. सू. ३. .. से उस स्थान को 'बालाप' नाम प्राप्त हुआ (पद्म. उ. २.१७)। १५२)। बाध्व द्वारा बाष्कलि को ब्रह्म की स्वरूपता का कराया. ' इसकी उपरिनिर्दिष्ट कथा में, एवं अरुंधती की कथा में हुआ यह ज्ञान, बड़ा नाटकीय एवं तार्किक है। काफी साम्य है (अरुन्धती ३. देखिये)। ५. एक दैत्य, जिसने तपस्या के बल पर सारा त्रैलोक्य : बालिशय--वसिष्ठकुल का गोत्रकार ऋषिगण। जीत कर इन्द्रपद प्राप्त किया। विष्णुधर्म एवं पद्म में . बालिशायनि-अंगिराकुलोत्पन्न एक गोत्रकार। इसकी कथा दी गयी है, जो सम्पूर्णतः बलि वैरोचन की । बालेय-गंधर्वायण नामक आचार्य का पैतृक नाम । वामनावतार की कथा से मिलती जुलती है। इसे 'त्रिविक्रम' २. पराशर गोत्रोत्पन्न एक ऋषिगण । का अवतार कहा गया है। सम्भव है, यह एवं 'बलि ३. बलि आनव राजा से उत्पन्न ब्राह्मण एवं क्षत्रिय | वैरोचन' दोनों एक ही हों। लोगों का सामुहिक नाम। इसके द्वारा इंद्रपद प्राप्त कर लेने के बाद, वामनाबाकल--हिरण्यकशिपु का एक पुत्र (म. आ. ५९. | वतारी विष्णु ने बाह्मणकुमार के रूप में आ कर, इससे १८) । इसे कुल चार भाई थे:- प्रह्लाद, संह्राद, | यज्ञ के लिए तीन पग भूमि दान माँगी । जैसे ही बाष्कलि अनुह्लाद, एवं शिबि (म. आ. ५९.१८)। भगदत्त असुर ने दानसंकल्प के लिए अर्घ्य दिया, कि 'वामन ने विशाल के रूप में, यह पृथ्वी पर पुनः उत्पन्न हुआ था (म. | रूप धारण कर, एक पग से ब्रह्माण्ड, द्वितीय से सूर्यआ. ६१.९)। मण्डल, तथा तृतीय से ध्रुवमण्डल नाप कर, इसके सम्पूर्ण २. हिरण्यकशिपु का पौत्र एवं अनुह्लाद का पुत्र । | श्वर्य का हरण कर लिया। इसकी माता का नाम सूमि था। वामन ने जैसे ही ब्रह्मांड पर पैर रक्खा , वैसे ही उसके ३. प्रह्लाद का पुत्र । इसके नाम के लिये बाष्कलि पगस्पर्श से वह फूट गया, तथा उससे गंगा की धारा फूट पाठभेद भी प्राप्त है। | चली (विष्णुधर्म. २१.१; पद्म. स. ३०)। ४. महिषासुर का एक पुत्र ( मार्क. ७९. ४२)। ५. संह्राद नामक असुर का पुत्र । इसे चंड, दक्ष एवं बाष्कलि भारद्वाज--एक आचार्य, जो वायु एवं सुर नामक तीन पुत्र थे। भागवत के अनुसार व्यास की ऋशिष्यपरंपरा के सत्यश्री ६. एक आचार्य, जो व्यास की ऋशिष्यपरंपरा ऋषि का शिष्य था। में से पैल ऋषि का पुत्र था। इसके नाम के लिये | बाष्किह--शुनस्कर्ण राजा का पैतृक नाम (पं. ब्रा. . 'बाष्कलि' पाठभेद प्राप्त है (व्यास देखिये)। । १७.१२.६)। 'बष्किह' का वंशज होने से उसे यह नाम ५०८ Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाष्किह प्राचीन चरित्रकोश बालीक प्राप्त हुआ होगा। बौधायन श्रौतसूत्र में इसे शिवि राजा ३. कौरव्य कुल का एक नाग, जो जनमेजय के सर्पसत्र का वंशज कहा गया है (बौ. श्री. २१.१७)। में दग्ध हुआ था (म. आ. ५२.१२)। बाहीक-उत्तरी पश्चिम पंजाब में रहनेवाले लोगों के ४. एक वृष्णिवंशीय वीर, जिसके पराक्रम के बारे में लिए प्रयुक्त सामुहिक नाम (श. ब्रा. १.७.३.८)। ये सात्यकि ने श्रीकृष्ण से चर्चा की थी (म. व. १२०.१८)। अग्नि को 'भव' नाम से संबोधित करते थे। बाहुगर--(सो.) एक राजा, जो भविष्य के अनुसार बाहु--(सू. इ.) एक इक्ष्वाकुवंशीय राजा, जो सगर सुद्युम्न राजा का पुत्र था। राजा का पिता था (म. शां. ५७.८)। मत्स्य एवं विष्णु बाहुदा सुयशा--परिक्षित् द्वितीय राजा की कुरु में इसे वृक राजा का, एवं वायु में इसे धृतक राजा का पुत्र वंशीय पत्नी (सुयशा देखिये)। इसके पुत्र का नाम कहा गया है। ब्रह्मांड में इसे 'फल्गुतंत्र' नामान्तर दिया | भीमसेन था। गया है, एवं भागवत में इसके नाम के लिये 'बाहुक' बाहुरि-वसिष्ठ कुल के वाग्ग्रंथि नामक गोत्रकार के पाठभेद प्राप्त है। इसे 'असित' नामान्तर भी प्राप्त है | लिये उपलब्ध पाठभेद (वाग्ग्रंथि देखिये)। (वा. रा. बा. ७०.३०; अयो. ११०.१८)। बाहवृक्त-- ऋग्वेद में निर्दिष्ट एक ऋषि, जिसने युद्ध ब्रह्मांड के अनुसार यह कृतयुग में पैदा हुआ, एवं | में शत्रुओं पर विजय प्राप्त की थी (ऋ. ५.४४. १२)। इसने पृथ्वी के सप्तद्वीपों में सात अश्वमेध यज्ञ किये। बाहुवृक्त आत्रेय--एक वैदिक सूक्तद्रष्टा (ऋ.५. (ब्रह्मांड, ३.६३.१२१; वायु. ८९.१२३; ह. वं. १.१४; | ७१-७२)। ब्रह्म. ८.३०% शिव. वा. ६१.२३; नारद. १.७१.५)। बाहुशालिन्--धृतराष्ट्र के शतपुत्रों में से एक । इसे कुल दो पत्नियाँ थी। उनमें से केशिनी अथवा | बाह्य--अंगिराकुलोत्पन्न एक ऋषि । कालिंदी नामक पत्नी से इसे सगर नामक पुत्र उत्पन्न हुआ | २. (सो. क्रोष्टु.) एक यादववंशीय राजा, जो वायु के (सगर देखिये)। . अनुसार भजमान राजा का पुत्र । हैहय राजा तालजंघ ने शक, कंबोज आदि राजाओं के | बाह्यकर्ण-एक नाग, जो कश्यप एवं कद्दू के पुत्रों में सहाय्यता से इसपर आक्रमण कर इसका पराजय किया। से एक था (म. आ. ३१.९)। इस पराजय के पश्चात् , यह और्व ऋषि के आश्रम में रहने के लिए गया, एवं उसी आश्रम में इसकी मृत्यु हो बाह्यका--यादवराजा सात्वत भजमान की पत्नी जो गयी (मत्स्य. १२.४०; पद्म. सृ. ८; लिंग. १.६६.१५, संजय राजा की कन्या थी। इसे शताजित् , सहस्राजित् एवं विष्णुधर्म. १.१६)। आयुताजित् नामक तीन पुत्र थे। २. एक शक्तिशाली राजा, जिसे भारतीय युद्ध के | बाह्यकुंड--कश्यप वंश में उत्पन्न एक नाग, जिसे समय पाण्डवों की ओर से रणनिमंत्रण भेजा गया था | नारद ने इंद्रसारथि मातलि को वरस्वरूप में दिखाया था (म. उ. ४.२९)। (म. स. १०१. १०)। ३. सुंदरवेग वंश का एक 'कुलपांसन' राजा, जिसने बालीक--(सो. पूरु.) कुरुवंशीय प्रतीप राजा का अपने दुर्वर्तन के कारण अपने कुल का विनाश कराया पुत्र, जो देवापि एवं शन्तनु का ज्येष्ठ भाई था (भा. ९. (म. उ. ७२.१३)। २२)। इसकी माता का नाम सुनंदा था, जो शिबि देश ४. (स्वा. उत्तान.)एक राजा, जो पृथु राजा का पुत्र था। की राजकन्या थी (म. आ. ८९.५२)। शिबि राजा को ५. इंद्रसावर्णि मन्वन्तर के सप्तर्षियों में से एक । पुत्र न था, जिस कारण यह उस राज्य का उत्तराधिकारी ६. स्वारोचिष मनु का एक पुत्र । बन गया । प्रतीप का पुत्र होने से इसे 'प्रातिपीय' उपाधि बाहुक-(सू. इ.) इक्ष्वाकुवंशीय बाहु राजा का | प्राप्त थी। भागवत के अनुसार, इसके पुत्र का नाम सोमदत्त नामान्तर (बाहु १. देखिये)। भागवत में इसे वृक राजा | था ( भा. ९. २२. १८)। का पुत्र कहा गया है। | भारतीय युद्ध में, यह कौरवों के पक्ष में शामिल था। २. निषधराज नल राजा का नामान्तर, जब की वह दुर्योधन की ग्यारह अक्षौहिणी सेनाओं के जो सेनापति सूतअवस्था में अयोध्यानरेश ऋतुपर्ण के यहाँ रहता चुने गये थे, उनमें यह भी एक था । यह स्वयं था (म. व. ६४.२; नल १. देखिये)। | अतिरथि था (म. उ. १६४. २८)। धृष्टकेतु, द्रुपद, ५०९ Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाह्लीक प्राचीन चरित्रकोश बिल्व शिखण्डिन् आदि के साथ इसका युद्ध हुआ था । अन्त में करवाया, जिससे उसे भी मुक्ति प्राप्त हुयी ( शिवपुराण भीम ने इसका वध किया ( म. द्रो. १३२:१५ ) । महाभारत में इसका नाम बाह्रीक, बाहिलक, तथा बाह्निक इन तीन प्रकारों में उपलब्ध है । २. बाह्वीक देश में रहनेवाले लोगों के लिये प्रयुक्त सामुहिक नाम ( बाहीक देखिये; म. भी. १०.४५ ) । ३. (सो. पूरु. ) एक राजा, जो भरतवंशीय कुरु राजा का पौत्र, एवं जनमेजय का तृतीय पुत्र था । ४. एक राजा, जो शत्रुपक्षविनाशक महातेजस्वी 'अहर' के अंश से उत्पन्न हुआ था (म. आ. ६१.२५) । ५. कौरव पक्ष का एक योद्धा, जो क्रोधवश नामक दैत्य के अंश से उत्पन्न हुआ था ( म. आ. ६१.५५ ) । महाभारत में इसे 'बाह्लीकराज ' कहा गया है । द्रौपदीपुत्रों के साथ इसका युद्ध हुआ था ( म. द्रो. ७१.१२) । ६. युधिष्ठिर के सारथि का नाम ( म. स. ५२.२० ) । ७. (किलकिला. भविष्य.) किलकिलावंशीय एक राजा । बिडाल – दैत्यराज महिषासुर का एक प्रधान । बिड़ालज -- अंगिराकुल के गोत्रकार 'विराडप' के नाम के लिए उपलब्ध पाठभेद ( विराडप देखिये) । बिडौजस्--देवी आदिति का पुत्र, जो उसे विष्णु के प्रसाद से प्राप्त हुआ था ( पद्म. भू. ३.५ ) । महात्म्य अ. ४ ) । बिन्दुमत् - ( स्वा. प्रिय. ) एक राजा, जो भागवत के अनुसार मरीचि एवं बिंदुमती का पुत्र है। इसकी पत्नी का नाम सरधा था, जिससे इसे मधुर नामक पुत्र उत्पन्न हुआ था । बिन्दुमती - ( स्वा. प्रिय.) ऋषभदेव के वंश में उत्पन्न मरीचि राजा की पत्नी । इसके पुत्र का नाम बिन्दुमत् था । २. सोमवंशीय शशबिन्दु राजा की ज्येष्ठ कन्या, जो युवनाश्वपुत्र मांधाता की पत्नी थी। इसे 'चैत्ररथी' नामान्तर भी प्राप्त है। मांधाता राजा से इसे अंबरीष, पुरुकुत्स एवं मुचकुंद नामक तीन पुत्र उत्पन्न हुए ( वायु. ८८.७२ ब्रह्मांड ३.६३.७० ) । ३. मदनपत्नी रति के अश्रुबिंदुओं से उत्पन्न एक कन्या, जिसे ' अश्रुबिन्दुमती' नामान्तर भी प्राप्त है । मदन का पुनर्जन्म होने के पश्चात् रति के आँखों में आनंदाश्रु झरने लगे । उनमें से दाये आँख से टपके हुए अश्रुओं से इसका जन्म हुआ । से बड़ी होने पर इसका विवाह पूरुवंशीय ययाति राजा हुआ। गर्भवती होने पर, पृथ्वी के सारे लोकों में प्रवास करने की इसे इच्छा हुयी । फिर ययाति ने सारा राज्यभार अपना पुत्र पूरु पर सौंप कर, वह इसे पृथ्वीप्रदक्षिणार्थ ले गया ( पद्म भू. ७७-८२ ) । किन्तु बिद -- भृगुकुल का एक गोत्रकार एवं मंत्रकार । बिन्दु--एक दानव, जो कश्यप एवं दनु के पुत्रों में से ययाति से उत्पन्न इसके पुत्र का नाम क्या था, इसका निर्देश अप्राप्य है । एक था । २. अंगिरसकुलोत्पन्न एक गोत्रकार । बिन्दुग- बाष्कलग्राम में रहनेवाला एक ब्राह्मण, जिसकी पत्नी का नाम चंचला था। यह वेश्यागामी एवं निकृष्ट विचारोंवाला था, अतएव इसकी सदाचरणी पत्नी चंचला भी इसके प्रभाव में आकर, कर्मों की ओर अग्रेसर हो, उसीमें लिप्त हो गयी । बिन्दुग को जब यह पता चला तो इसने उसके सामने यह शर्त रखी, 'तुम वेश्यावृत्ति का कर्म खुशी से अपना सकती हो, किंतु तुम्हे सारे पैसे मुझे देने होंगे'। इस शर्त को मान कर चंचुला पूर्ण रूप से वेश्या बन गयी। मृत्यु के उपरांत, दोनो विंध्य पर्वत पर पिशाच बने । बिन्दुसार - ( शिशु. भविष्य . ) एक शिशुनागवंशीय राजा, जो विष्णु के अनुसार क्षत्रौजस् का पुत्र था । जैन एवं बौद्ध वाङ्मय में निर्दिष्ट ' श्रेणिक बिंबिसार ' यही है । इसे विधिसार, विविसार एवं विंध्यसेन आदि नामान्तर प्राप्त थे । २. (मौर्य. भविष्य. ) एक मौर्यवंशीय राजा, जो विष्णु एवं भविष्य के अनुसार, पट्टण के चंद्रगुप्त राजा का पुत्र था । इसे वारिसार एवं भद्रसार नामान्तर भी प्राप्त थे । यह स्वयं बौद्धधर्मीय था, एवं पौरसाधिपति सुलून ( सेल्युकस निकेटर ) राजा की कन्या से इसने विवाह किया था (भवि. प्रति. २.७ ) 1 बिम्ब - (सो. वृष्णि. ) एक राजा, जो वसुदेव एवं भद्रा के पुत्रों में से एक था। बिल्व - एक विष्णु भक्त, जो आगे चल कर शिवभक्त बन गया । बाद को शिवपुराण के श्रवण तथा शिवभजन के कारण, चंचला पिशाचयोनि से मुक्त हुयी । उसके प्रार्थना करने पर, पार्वतीजी ने अपने पार्षद तुंबरू द्वारा विंध्य पर्वत पर पिशाची बिन्दुग को शिवकथा का श्रवण ५१० Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बिल्व प्राचीन चरित्रकोश बुध आदिकल्प में ब्रह्मा ने बिल्व वृक्ष (बेलपत्र वृक्ष)| बीजवाप (बीजवापिन् )-- अत्रिकुलोत्पन्न एक का निर्माण किया, जिसे 'श्रीवृक्ष' भी कहते है। इस | गोत्रकार । वृक्ष के नीचे एक व्यक्ति रहने लगी, जिसे ब्रह्मा ने 'बिल्व' बीभत्सु--अर्जुन का नामान्तर (म. वि. ३९.१०)। नाम दिया। बाद में, इसकी भक्तिभावना तथा व्यवहार बुडिल आश्वतराश्वि वैयाघ्रपद्य--एक गायत्रीसे प्रसन्न हो कर, इन्द्र ने इसे पृथ्वी का राज्य करने के वेत्ता एवं मूलतत्त्वप्रतिपादक आचार्य, जो विदेह जनक लिये कहा । इस महान् उत्तरदायित्य को सभालने के एवं केकयराज अश्वपति का समकालीन था (ब. उ. ५. लिये इसने इन्द्र से वज्र माँगा, जिसके बलपर सुलभता १४.८; श. बा. १०.६.१.१)। संभव है, 'बुलिल के साथ राज्य किया जा सके । इन्द्र ने इससे कहा, 'तुम | आश्वतर अश्वि' तथा यह दोनो एक ही व्यक्ति हो। वज्र ले कर क्या करोगे? जब कभी भी आवश्यकता पड़े, __ अनेक ज्ञाताओं की विद्वत्सभा में इसने आत्मा की तुम मुझे याद कर उसे प्राप्त कर सकते हो। मंबंध में अपने विचार प्रकट किये, एवं 'शर्य' स्वयं ही एक बार कपिल नामक एक शिवभक्त ब्राह्मण घूमता | आत्मा है, ऐसा अभिमत इसने व्यक्त किया (छां. उ. ५. घामता इसके यहाँ आ पहुँचा। शीघ्र ही दोनों में ११.१)। इसका एवं विदेह जनक का विवाद हुआ था, मित्रता हो गयी । एक दिन इसमें तथा कपिल में शास्त्रार्थ | जिसमें जनक ने इस पर 'प्रतिग्रह' लेने का दोषारोप हुआ, जिसका विषय था, 'तप श्रेष्ठ है अथवा कर्म'। किया था। यह चीज यहाँ तक जोर पकड़ गयी, कि इसने वज्र का संभव है, व्याघ्रपद का वंशज होने के कारण, इसे | 'वैयाघ्रपद्य' पैतृक नाम प्राप्त हुआ हो।। स्मरण कर उसके द्वारा कपिल के दो टुकडे कर दिये। कपिल में भी शिव की भक्ति तथा अपने तप का बल था बुद्धि-दक्षप्रजापति की कन्या, जो धर्म की पत्नी अतएव उसने शिव के द्वारा पुनः अमरत्व प्राप्त किया। थी। इसे कुल नौ बहने थी, जो सारी धर्म ऋषि की इधर बिल्व ने विष्णु के पास जा कर उन्हें प्रसन्न कर. पत्नियां थी। इसने एवं इसके बहनों ने ब्रह्माजी द्वारा वर प्राप्त किया कि, संसार के समस्त प्राणी इससे डरते णी इससे डरते | धर्म का द्वार निश्चित किया था (धर्म देखिये; म. आ. रहें । किन्तु इस वर द्वारा इसे कुछ लाभ न हुआ। ६०.१४)। अन्त में, विष्णुभक्ति से इसका मन शिवभक्ति की ओर। २. एक राजा, जो सावर्णि मनु का पुत्र था। झुका, तथा यह महाकालबन में शिवलिंग की आराधना । ३. तुषित देवों में से एक। करने लगा। एक बार घुमता हुआ कपिल उधर आ | बुद्धिकामा--स्कंद की अनुचरी मातृका (म. श. पहुँचा । वहाँ इसे इस रूप में देख कर वह अति प्रसन्न | ४५.१२)। इसके नाम के लिए 'वृद्धिकामा' पाठभेद हुआ, तथा दोनो मित्र हो गये (स्कंद. ५.२.८३)। प्राप्त है। बिल्वक--एक नाग, जो कश्यप एवं कद्र के पुत्रों में | बुदबुदा-एक अप्सरा, जो वर्गा नामक अप्सरा की से एक था। सखी थी (म. आ. २०८.१९; स. १०.११) ब्राह्मण के बिल्वतेजस्-तक्षककुल का एक नाग, जो जनमेजय | शाप के कारण, यह ग्राह हो कर जल में रहने लगी। के सर्पसत्र में दग्ध हुआ था (म. आ. ५२.८)। पश्चात् अर्जुन द्वारा इसका ग्राहयोनि से उद्धार हुआ। पाठभेद (भांडारकर संहिता)-'बलहेड'। (म. आ. २०८.१९)। बिल्वपत्र-कश्यपवंशीय एक नाग, जो नारदद्वारा बुध--एक ग्रह, जो बृहसति की पत्नी तारा का मातलि को वरस्वरूप में दिखाया गया था (म. उ. चन्द्रमा से उत्पन्न पुत्र था (पान. सृ.८२)। यह बृहस्पति१०१. १४)। पत्नी का पुत्र था, इस कारण इसे 'बृहस्पतिपुत्र' नामांतर प्राप्त है। क्यों कि, यह चन्द्रमा से उत्पन्न हुआ, इसलिये बिल्वपांडर--एक नाग, जो कश्यप एवं कद्दू के पुत्रों इसे चन्द्र (सोम) वंश का उत्पादक कहा जाता है (पन. में से एक था। उ. २१५)। बिल्वि--भृगकुलोत्पन्न एक गोत्रकार । इसके नाम के इसकी पत्नी का नाम इला था, जो मनु की कन्या लिये 'भल्लि' पाठभेद प्राप्त है। थी। इला से इसे पुरूरवस् नामक पुत्र उत्पन्न हुआ बीज--विश्वेदेवों में से एक। . | (म. अनु. १४७.२६-२७)। यही पुरुरवस् सोमवंश Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन चरित्रकोश बुध का आदि पुरुष माना जाता है ( पद्म. सृ. ८; १२; दे. भा. १.१२ ) । 'भविष्य' में इसे चन्द्र एवं रोहिणी का पुत्र कहा गया है। जन्म - बृहस्पति की दो पत्नियाँ थीं, जिनमें से दूसरी का नाम तारा था । सोम ने तारा का हरण किया था, एवं उससे ही उसे बुध नामक पुत्र हुआ (ऋ. १०.१०९) । पुराणों में भी यह कथा अनेक बार आयी है ( वायु. ९०.२८ - ४३९ ब्रह्मा ९१९३२ मत्स्य २३.१२.२३-५८ ) । उक्त ग्रन्थों में निर्दिए बुध के जन्म की कथा स्वात्मक प्रतीत होती है, एवं आकाश में स्थित गुरु ( बृहस्पति), चन्द्र, बुध आदि ग्रहनक्षत्रों को व्यक्ति मान कर इस कथा की रचना की गयी है। विष्णुधर्म में इसके जन्म की कथा कुछ दूसरी भाँति दी गयी है। कश्यप की च नामक स्त्री थी, जिससे उसे रज नामक उत्पन्न हुआ पुत्र था। रज का विवाह वरण की कन्या वारुणी से हुआ एक बार समुद्र में स्नान करते समय, वारुणी उसी में डूब गयी। उसे हुआ हुआ देख कर उसे ढूँढने के लिए चन्द्रमा ने जल में प्रवेश किया। उसके प्रवेश करते ही समुद्र में हिलोरें उठने लगी, और उससे एक बालक बाहर निकला । वही बालक बुध था। बृहस्पतिपत्नी तारा ने इस बालक बुध के संरक्षण का भार लिया, किन्तु बाद को असुविधा के कारण इसे चन्द्रपत्नी दाक्षायणी को दे दिया (विष्णुधर्म. १. १०६ ) । बृहस्पति ने इसका जातिकर्मादि संस्कार किये थे । यह परम विद्वान् हो कर 'हस्तिशास्त्र' में विशेष पारंगत था (पद्म. सृ. १२. ) । भास्कर संहिता के अन्तर्गत ' सर्वसारतंत्र का यह रचयिता माना जाता है ( . २. १६) । , बुध है; किन्तु जब सूर्य का उल्लंघन कर जाता है, तत्र अनावृष्टि द्वारों संसार को अस्त करता है (मा. ५. २२) | २. एक वानप्रस्थ ऋषि, जिसने वानप्रस्थधर्म का पान एवं प्रसार कर स्वर्गलोक प्राप्त किया था ( म. शां. २३९. १७ ) । के ३. (सू. दिष्ट. ) एक राजा, जो विष्णु एवं वायु अनुसार वेगवत् राजा का पुत्र था। इसे 'बंधु' नामांतर भी प्राप्त है। ४. एक स्मृतिकार एवं धर्मशास्त्रज्ञ, जिसका निर्देश अपरार्क, कल्पतरु, जीमूतवाहनकृत 'कालविवेक' आदि ग्रन्थों में प्राप्त है। इसके द्वारा रचित धर्मशास्त्र का ग्रन्थ काफी छोटा है, जिसमें निम्नलिखित विषयों का विवेचन करते हुए, इसने उन पर अपने विचार प्रकट किये हैं:गर्भाधान से लेकर उपनयन तक के समस्त संस्कार, विवाह तथा आके प्रकार, पंचमहायज्ञ श्राद्ध, पाकवंश हविर्यश सोमयाग एवं ब्राह्मण, क्षत्रिय एवं संन्यासियों के कर्तव्य आदि । बुध के द्वारा रचित उक्त ग्रन्थ प्राचीन नहीं प्रतीत होता. उसके अनुशीलन से यह पता चलता है कि, इसने पूर्ववर्ती धर्मशास्त्रवेत्ताओं द्वारा कथित सामग्री को संग्रहीत मात्र किया है। इस ग्रन्थ के सिवाय ' कल्पयुक्ति' नामक इसका एक अन्य ग्रन्थ भी प्राप्त है ( C. C. ) ५. मगध देश का एक राजा, जो हेमसदन राजा का पुत्र था। इसकी माता का नाम अंजनी था ( स्कंद. १. २.४० ) । ६. एक राक्षस, जो पुलह एवं श्वेता के पुत्रों में से एक था। ७. सुतप देवों में से एक। ८. गौड देश में रहनेवाला एक ब्राह्मण, जो दुर्व एवं शाकिनी का पुत्र था। यह अत्यंत दुराचारी, दुव्यसनी एवं पाशविक वृत्तियों का था। एक बार शरात्र पी कर वेश्यागमन के हेतु यह एक वेश्या के यहाँ आ कर रातभर वहीं पढ़ा रहा। इसके घर वापस न लौटने पर इसका पिता ढूंढ़ता हुआ इसके पास पहुँचा, एवं इसकी निर्भत्सना की उसके इस प्रकार कहने पर इसने तत्काल अपने । पिता को खात से मार कर उसका वध किया। । बाद को अब यह पर आया, तब इसको माता ने अपनी बुरी आदतों को छोड़ने केलिये इसे समझाया । इसने उस बेचारी का भी वध किया। कालांतर में इस हत्यारे ने अपनी पत्नी को भी न छोड़ा, तथा उसे भी मार कर खतम कर दिया । अदिति को शाप एक बार इसने व्रत किया एवं उसकी समाप्ति होने पर यह कश्यप ऋषि की पत्नी अदिति के पास भिक्षा के लिए गया और भिक्षा की याचना की । भिक्षा न मिलने पर इसने अदिति को शाप दिया, जिस कारण उसे एक मृत अण्ड पैदा हुआ। उस अण्ड से कालोन्त श्राद्धदेव की उत्पत्ति हुयी। मृत अण्ड से पैदा होने के कारण, उसे 'मार्तंड' नामांतर प्राप्त हुआ (म. शां. ३२९.४४ ) । भागवत में इसका विवरण एक ग्रह के रूप में दिया गया है। बुध ग्रह सौरमण्डल में शुभग्रह से दो लाख योजन की दूरी पर स्थित माना जाता है । यह शुभग्रह अवश्य ५१२ Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन चरित्रकोश बृहत् एक दिन इसने कालभी ऋषि की सुलभा नामक पत्नी | बुबु तक्षन् एवं प्रस्तोक सार्जय राजाओं से भरद्वाज ऋषि को देखा, तथा तुरंत ही उसका हरण कर उसके, साथ को विपुल उपहार प्राप्त होने का निर्देश ऋग्वेद एवं बलात्कार किया। इससे क्रुद्ध हो कर ऋषिपत्नी ने शाप सांख्यायन श्रौतसूत्र में प्राप्त है (सां. श्री. १६.११. दिया, 'तुम कोढ़ी हो जाओ'। फिर यह कोढ़ी हो कर | ११)। इधर उधर घूमने लगा। __यह स्वयं पणि अतएव हीन जाति का होने के कारण, घूमते घूमते यह शूरसेन राजा के नगर आ पहुँचा, इसके द्वारा कोई ऋषि दान न लेता था। किंतु भरद्वाज जहाँ वह अपनी संपूर्ण नगरी के साथ विमान में बैठकर ऋषि अपने परिवार के साथ निर्जन अरण्य में रहता था, स्वर्ग जाने की तैयारी में था। विमान चालक ने लाख | एवं उसे जीविका का कोई भी साधन उपलब्ध नहीं था। प्रयत्न किया,लेकिन वह उड़ न सका । तब देवदूतों ने कोढ़ी। इस कारण बुबु से गायों का दान (प्रतिग्रह) लेते हुए बुध को दूर भगा देने के लिए शूरसेन से प्रार्थना की, भी, उसे भरद्वाज को कोई दोष न लगा (मनु. १०.१०७) क्यों कि, इस हत्यारे की पापछाया के ही कारण | संभवतः मनुस्मृति में निर्दिष्ट बृधु तक्षन् एवं बृबु तक्षन् विमान पृथ्वी से खिसक न सका।। एक ही व्यक्ति होंगे। शूरसेन दयालु प्रकृति का धर्मज्ञ शासक था । अतएव | बुबु स्वयं एक पणि था। किंतु 'पाणियों का उन्मूलन उसने बुध को देखा, एवं गजानन नामक चतुरक्षरी मंत्र से | करनेवाला' ऐसा भी आशय ऋग्वेद के निर्देश से ग्रहण इसके कोढ को समाप्त कर, इसे भी स्वानंदपुर ले जाने | किया जा सकता है। यदि ऐसा ही है, तो 'पणि' का की व्यवस्था की.(गणेश. १.७६)। अर्थ 'व्यापारी लोग' हो कर, बृबु उनका राजा होना . १०. द्रविण देश में रहनेवाला एक ब्राह्मण | इसकी | संभवनीय है। पत्नी अत्यंत दुराचारिणी थी, किंतु दीपदान के पुण्य- बृसय--ऋग्वेद में निर्दिष्ट एक दानव जाति, जो पणि कर्म के कारण, उसके समस्त पाप नष्ट हो गयें (स्कंद. | एवं पारावत् लोगों के साथ संबंधित थी (ऋ. १.९३.४; २४.७)। ६.३१.१)। ये लोक पणि एवं पारावतों के साथ ११. एक अग्निहोत्र करनेवाला ब्राह्मण, जो मधुवन | 'अर्कोसिया' अथवा 'ड्रैन्जियाना' प्रदेश निवास करते थे। में रहनेवाले शाकुनि नामक ऋषि का पुत्र था (पद्म. सायण के अनुसार, ऋग्वेद के भारद्वाज रचित सूक्त स्व. ३१)। में इसे 'त्वष्टावृत्रपिता' कहा गया है, एवं इसके पुत्र बुध आत्रेय--एक वैदिक सूक्तद्रष्टा (ऋ. ५.१)। । वृत्र का वध करने की प्रार्थना सरस्वती से की गयी है बुध सौमायन--पंचविंश ब्राहाण में निर्दिष्ट एक | (ऋ. ६.३१.३)। आचार्य, जिसके द्वारा यज्ञदीक्षा ली गयी थी (पं. ब्रा. ऋग्वेद में अन्यस्थान पर, अग्नि एवं सोम के द्वारा .२४.१८.६)। सोम का वंशज होने से, इसे 'सौमायन' | बृसय के वंशजों का वध होने के कारण, उन देवताओं की पैतृक नाम प्राप्त हुआ होगा। स्तुति की गयी है (ऋ. १.९३.४)। बुध सौम्य--एक वैदिक सूक्तद्रष्टा (ऋ. १०.१०१)। | - बृहच्छुक्ल-अंगिराकुलोत्पन्न एक गोत्रकार । बुधकौशिक-एक ब्रह्मर्षि, जो रामरक्षा नामक | बृहच्छलोक--एक आदित्य, जो उरुक्रम आदित्य सुविख्यात स्तोत्र का रचयिता है। का पुत्र था। इसकी माता का नाम कीर्ति था । सौभाग्यादि बुध्न--एक राक्षस, जो कश्यप एवं खशा के पुत्रों में आदित्य इसके पुत्र थे। एक था। बृहजिह्व-एक राक्षस, जो कश्यप एवं खशा के पुत्रों बलिल आश्वतर आश्वि--बुडिल आश्वतराश्वि | में से एक था। नामक आचार्य का नामान्तर (बुडिल आश्वतराश्वि | बृहजोति-- एक ऋषि, जो महर्षि अंगिरा को सुभा देखिये)। विश्वजित् याग में पठन करने योग्य शस्त्रमंत्रों | से उत्पन्न सात पुत्रों में से एक (म. व. २०८.२)। के संबंध में, इसका गौश्ल नामक आचार्य से वादविवाद | बृहत्--एक राजा, जो कालेय नामक दैत्य गणों में हुआ था (ऐ. बा. ६.३०; गौश्ल देखिये)। से आठवे दैत्य के अंश से उत्पन्न हुआ था (म. आ. ब तक्षन्--ऋग्वेद में निर्दिष्ट एक उदार दाता, जो | ६७.५५)।। पणि लोगों का अधिपति था (ऋ. ६.४५.३१-३३)।। २. स्वायंभूव मन्वन्तर के जिताजित् देवों में से एक । प्रा. च. ६५] Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन चरित्रकोश वृददश्य ३. अंगिराकुलोत्पन्न एक गोत्रकार । ४. निषध देश का राजा, जो भारतीययुद्ध में कौरव पक्ष ४. सो. पूर. ) पूरुवंशीय हस्तिन् राजा का नामा में शामिल था। द्रुपदपुत्र पृष्ठयुम्न द्वारा इसका वध तर (ब्रह्म. १३.८० ) । ( हुआ (म. द्रो. ३१.६३ ) ५. (सू. इ. भविष्य.) इक्ष्वाकुवंशीय बृहद्राज राजा का नामान्तर ( बृहद्राज देखिये ) | ६. दक्षसावर्णि मनु का एक पुत्र । वृहती देवसावर्णि मन्यन्तर के विष्णु की माता, जो देवहोत्र की पत्नी थी (मा. ८. १२.३२.) । बृहत्कर्मन् -- एक अनुवंशीय राजा, जो भागवत के अनुसार पृथुलाक्ष राजा का, एवं विष्णु, मत्स्य एवं वायु के अनुसार भद्ररथ राजा का पुत्र था। २. (सो. पूरु. ) एक पूरुवंशीय राजा, जो विष्णु के अनुसार बृहद्वसु का, एवं वायु के अनुसार महाबल का पुत्र था । इसे बृहत्काय नामान्तर भी प्राप्त है । बृहत् बृहत् केतु - महाभारत में निर्दिष्ट एक प्राचीन मरेश ( म. आ. १.७७ ) । वृहत्क्षण इक्ष्वाकु वंशीय बृहत्क्षय राजा का नामांतर | बृहत्क्षत्र---(सो. पू.) एक पूरुवंशीय राजा, जो भागवत के अनुसार मन्यु का, एवं विष्णु तथा वायु के अनुसार भुवन्मन्यु का पुत्र था । इसे बृहत्क्षेत्र नामांतर भी प्राप्त है। बृहत्क्षय - - (सू. इ. भविष्य. ) एक इक्ष्वाकुवंशीय राजा, जो वायु के अनुसार बृहद्बल राजा का पुत्र था। संभवतः यह भारतीययुद्धकालीन रहा होंगा। ३. (मगध. भविष्य.) एक राजा, जो ब्रह्मांड एवं विष्णु के अनुसार सुक्षत्र का, वायु के अनुसार सुकृत का, एवं मत्स्य के अनुसार सुरक्ष का पुत्र था। भागवत में इसे बृहत्सेन कहा गया है। मत्स्य, वायु एवं ब्रह्मांड के अनुसार इसने २३ वर्षों तक राज्य किया। बृहत्सेन -- एक राजा, जो क्रोधवश नामक दैत्य के अंश से उत्पन्न हुआ था। इसकी कन्या का नाम लक्ष्मणा था, जो कृष्ण की पत्नी थी । भारतीय युद्ध में यह दुर्योधन के पक्ष में शामिल था। २. मगधवंशीय बृहतकर्मन् राजा का नामांतर (बृह कर्मन् २. देखिये) । बृहत्काय-- (सो. पूरु.) एक राजा, जो भागवत के अनुसार, बृहद्भानु का पुत्र । ३. श्रीकृष्ण को भद्रा नामक पत्नी से उत्पन्न पुत्र | ४. एक आचार्य, जिसे नारद ने ब्राविया की परंपरा बृहत्कीर्ति एक ऋषि जो अंगिरा ऋषि को सुमा कथन की थी। आगे चल कर यही परंपरा इसने इंद्र को नामक पत्नी से उत्पन्न हुआ था । निवेदित की थी (गरुड. २.१ ) । . बृहत्क्षेत्र - पूवंशीय बृहत्क्षत्र राजा का नामांतर बृहत्क्षत्र १. देखिये) । २. केकय देश का नरेश, जो भारतीय युद्ध में पांडवों के पक्ष में शामिल था (म. आ. १०७.१९) । महाभारत में इसके रथ के अश्वों का वर्णन प्राप्त है ( म. द्रो. २२. १७) । भारतीययुद्ध में कृपाचार्य एवं क्षेमधूर्ति से इसका द्वंद्व युद्ध हुआ था, जिसमें इसने उन दोनों को परास्त किया था ( म. द्रो. ४५.५२ ) । अंत में द्रोणाचार्य के द्वारा यह मारा गया ( म. द्रो. १०१.२१ ) । बृहत्सामन आंगिरस -- एक अंगिरसकुलोत्पन्न आचार्य, बिसे क्षत्रियों ने अत्यधिक प्रस्त किया था। उन कष्टों के फलस्वरूप, अंत में स्वयं क्षत्रिय लोग भी विनष्ट हो गये ( अ. वे. ५.१९.२ ) । बृहदनु -- (सो. पूरु. ) एक राजा, जो मत्स्य के अनुसार २. भगीरथवंशीय एक राजा, जो द्रौपदी के स्वयंवर अजमीढ राजा के प्रपौत्र का पुत्र था । इसके पुत्र का नाम बृहदिषु था (बृहदिषु १. देखिये) । में उपस्थित था (म. आ. १७७.१९) । बहत्सेना - नलपत्नी दमयंती की धाय एवं परिचारिका, जो परिचर्या के काम में निपुण, एवं मधुरभाषिणी थी। राजा नल को हुये में हरते जान कर, दमयन्ती ने इसे अपने मंत्रियों को बुलाने के लिए भेजा था (म. . ५.०० ४) । तदनुसार इसने विश्वसनीय पुरुषों के द्वारा वार्ष्णेय नामक मुत को खाया था। वृहदंबालिका - स्कंद की अनुचरी मातृका ( म.श. ४५.४ ) । बृहदश्व - - (सू. इ. ) एक इक्ष्वाकुवंशीय राजा, जो आवस्त का पुत्र था। इसकी राजधानी श्रावस्ती नगरी में थी, एवं इसके पुत्र का नाम कुवलाश्व था। यह एक आदर्श एवं प्रजाहितदक्ष राजा था। वृद्धापकाल में, इसने अपने पुत्र कुवलाश्व को राजगद्दी पर बिठा ५१४ Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन चरित्रकोश बृहदश्व कर, वानप्रस्थाश्रम के लिये अरण्य में जाना चाहा । किन्तु उत्तक ऋषि ने इसे रोक दिया, एवं वन में जाने के पहले धुंधु नामक दैत्य का विनाश करने की प्रार्थना इसे की। फिर इसने अपने पुत्र कुवलाश्व को धुंधु दैत्य को नष्ट करने की आज्ञा दी, एवं यह स्वयं वन चला गया ( म. व. १९३-१९४; वायु. ६८; विष्णुधर्म १.१६ ) । २. एक महर्षि, जो काम्यकवन में युधिष्ठिर से मिलने आये थे । युधिष्ठिर ने इसका उचित आदर सत्कार किया, एवं इसके प्रति अपने दुःखदैन्य का निवेदन किया । इसने युधिष्ठिर को समझाते हुए निषधराज नल के दुःखदैन्य की कथा उसे सुनाई । पश्चात् युधिष्ठिर को 'अक्षहृदय' एवं 'अश्वशिर' नामक विद्याओं का उपदेश दे कर, यह बिदा गया (म.व. ७८ ) । शरशय्या पर पडे हुए भीष्म से मिलने आये ऋषियों मैं, यह भी शामिल था ( भा. १.९.६ ) । बृहदिषु - (सो. अज.) एक अजमीढवंशीय राजा, जो भागवत, विष्णु एवं वायु के अनुसार अजमीढ राजा का पुत्र था। मत्स्य में इसे अजमीढ के प्रपौत्र का पुत्र बृहदनु का पुत्र कहा गया है। मत्स्य के अतिरिक्त बाकी सारे पुराणों में अजमीढ से बृहदनु तक के राजाओं का निर्देश अप्राप्य है। बृहदूद्युम्न ९. ३७.३८)। किन्तु हॉपकिन्स के अनुसार, यहाँ वामदेव्य पाठ ही स्वीकरणीय है । २. (सो. नील.) एक नीलवंशीय राजा, जो भागवत के अनुसार भर्म्याश्वका, विष्णु के अनुसार हर्यश्व का, मत्स्य के अनुसार भद्राश्व का एवं वायु के अनुसार रिक्ष राजा का पुत्र था। बृहदुक्थ - - अंगिरा कुलोत्पन्न एक मंत्रकार एवं ऋषिक। इसे 'बृहदुत्थ' एवं 'बृहद्वक्षस् ' नामान्तर भी प्राप्त है । २. निमिवंशीय देवराज जनक राजा का नामान्तर ( बृहद्रथ ३. देखिये) । इसके द्वारा किये गये स्तुतिपाठों का निर्देश वत्रि के सूक्त में प्राप्त है ( क्र. ५. १९.३ ) । इसने पांचाल देश के दुर्मुख नामक राजा को राज्याभिषेक किया था ( ऐ. बा. ८. २३ ) । इसके पुत्र का नाम वाजिन् था, जिसकी मृत्योपरान्त उसके मृत शरीर के भाग उठा कर ले जाने के लिये, इसने देवों से प्रार्थना की थी (ऋ. १०.५६ ) । बृहदुच्छ-- निमिवंशीय देवराज जनक का नामान्तर ( बृहद्रथ ३. देखिये) । ३. अंगिराकुलोत्पन्न एक गोत्रकार । ४. शिव के श्वत नामक दो अवतारों में से श्वेत एक बार शिबिराजा के पास एक अतिथि आया, एवं उसने (द्वितीय). का शिष्य । कहा, 'मेरी यही इच्छा है, तुम्हारे पुत्र बृहद्गर्भ का माँस पक कर मुझे खाने के लिए मिले ' । ५. (सू.. इ. भविष्य . ) एक इक्ष्वाकुवंशीय राजा, जो सहदेव राजा का पुत्र था । मत्स्य में इसे 'ध्रुवाश्व' कहा गया है । शिबि राज नें अपनी इसके प्रति की सारी वात्सल्याभावना दूर रख कर इसका वध किया, एवं अतिथि की माँग पूरी की ( म. शां. २२६. १९; शिबि देखिये) । बृहद्विरि-यति नामक यज्ञविरोधी लोगों में से एक । यति लोग यज्ञविरोधी होने के कारण, इंद्र की आज्ञा से लकडबग्घे के द्वारा मरवा डाले गये । इस वधसत्र में से यह, रयोवाज एवं पृथुरश्मि ही बच सके। इंद्र ने इन तिनों का संरक्षण किया, एवं उन्हें क्रमशः ब्रह्मविद्या, वैश्यविद्या एवं क्षत्रियविद्या सिखायी (पं. बा. ८. १. ४. पृथुरश्मि देखिये ) । पंचविंश ब्राह्मण में इसके द्वारा रचित एक सामन् का निर्देश प्राप्त है ( पं. बा. १३.४.१५ - १७ ) । बृहदुत्थ--वृहदुक्थ नामक अंगिराकुलोत्पन्न गोत्रकार का नामान्तर (बृहदुक्थ १. देखिये) । बृहदैशान - (सू. इ. ) एक इक्ष्वाकुवंशीय राजा, जो भविष्य के अनुसार बृहद्बल राजा का पुत्र था । बृहद्दर्भ -- (सो. उशी.) शिबि औशीनर राजा का पुत्र । बृहद्गुरु -- एक प्राचीन राजा (म. आ. १.१७३) । बृहद्दिव आथर्वण - एक वैदिक सूक्तद्रष्ट्रा (ऋ. १०. १२०.८ - २० ) । इससे रचित सूक्त में इसने स्वयं को ' अथर्वन् ' कहा है । यह सुम्नयु नामक आचार्य का शिष्य था (सां. आ. १५.१ ) । ऐतरेय ब्राह्मण में भी इसका नामोल्लेख प्राप्त है ( ऐ. बा. ४.१४ ) । बृहदुक्थ वामदेव - एक वैदिक सूक्तद्रष्टा एवं पुरोहित (ऋ. १०.५४-५६ ) । शतपथब्राह्मण में इसे वामदेव का पुत्र इस अर्थ से 'वामदेव्य' कहा गया है। (श. ब्रा. १३.२.२.१४) । पंचविश ब्राह्मण में इसे वामनेय (वाम्नी का वंशज ) कहा गया है (पं. बा. १४. ५१५ बृहदुद्युम्न -- एक महाप्रतापी नरेश, जिसने अपने यज्ञ में रैभ्यपुत्र अर्वावसु और परावसु को सहयोगी बनाया था ( म. व १३९.१; रैभ्य एवं पुनर्वसु देखिये ) । Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन चरित्रकोश बृहद्धनु बृहद्धनु-- (सो. पू.) एक पूर्वशीय राजा, जो बृहन्मन का पुत्र था। बृहद्बल--(सू. इ. ) कोसल देश का एक सम्राट, जो भागवत के अनुसार तक्षक राजा का, एवं अन्य पुराणों के अनुसार विश्रुतवत् राजा का पुत्र था । युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ के समय, भीमसेन ने किये पूर्व दिग्विजय में उसने इसे परास्त किया था ( म. स. २७.१)। राजसूय यज्ञ में इसने युधिष्ठिर को चौदह हजार उत्तम अथ भेंट में प्रदान किये थे। । 6 भारतीय युद्ध में यह कौरवों के पक्ष में शामिल था दुर्योधन ने अपने सैन्यसमुद्र में इनकी उपमा समुचाख ( ज्वार ) से की थी ( म. उ. १५८.३८ ) । अन्त में अभिमन्यु से हुए घनघोर युद्ध में, यह उसीके द्वारा मारा गया था ( म. द्रो. ४६.२४; भा. ९.१२.८ ) । २. (सो. क्रोष्टु.) एक यादव राजा, जो वसुदेवभ्राता देवभाग एवं कंसा का पुत्र था ( भा. ९.२४.४० ) । ३. गांधारराज सुबल राजा का एक पुत्र, जो शकुनि का भाई था। अपने भाई शकुनि एवं वृषक के साथ यह द्रौपदी के स्वयंवर में उपस्थित था। ४. (सो. अनु. ) एक अनुवंशीय राजा, जो विष्णु के अनुसार बृहत्कर्मन् का पुत्र था । बृहद्बलध्वज—एक कुष्ठरोगी ऋषि, जो सूर्य की आराधना कर कुछरोग से मुक्त हुआ (भवि ब्राह्म. २१० ) ) गृहद्ब्रह्मन् एक ऋषि जो अंगिरस ऋषिको सुभा नामक पत्नी से उत्पन्न सात पुत्रों में से एक था (म. ब. २०८.२)। बृहद्रथ बृहद्भास -- एक ऋषि, जो अंगिरस ऋषि को सुभा नामक पत्नी से उत्पन्न सात पुत्रों में से एक था। वृहद्भासा सूर्य की एक कन्या, जो भानु (मनु) -- नामक अभि की भार्या थी (म.व. २११.९) । बृहद्भानु--एक देव पु का पुत्र था (म. आ. जो द्यु १.४० ) । २. (सो. अनु. ) एक अनुबंशीय राजा जो भागवत के अनुसार पृथुलाक्ष का, एवं विष्णु एवं मस्त्य के अनुसार बृहत्कर्मन् का पुत्र था | २. (सो. पू.) एक बंशीय राजा, जो भागवत के अनुसार बृहदिषु का पुत्र था । विष्णु के अनुसार, इसे बृहदसु तथा वायु के अनुसार बृहद्विष्णु नामान्तर प्राप्त है । बृहद्रण -- इक्ष्वाकुवंशीय बृहत्क्षय राजा का नामान्तर । बृहद्रथ - - एक राजा, जिसका निर्देश ऋग्वेद में 'नवावास्त्व' राजा के साथ प्राप्त है (ऋ. १.३६.१८ ) । वैकुंठ नामक इंद्र ने इसका वध किया (ऋ. १०.४९, (६) । संभव है कि, बृहद्रथ स्वतंत्र राजा का नाम न हो फर, 'नवावास्त' राजा की ही उपाधि हो । २. (सो. ऋ.) मगध देश का राजा, जो चेदिराज सम्राट उपरिचर वसु का पुत्र, एवं जरासंध का पिता था (म. आ. ५७.२९) । वह मगध देश का मवान् राजा योद्धा था ( म. स. १६.१२ ) । तीन अक्षौहिणी सेना का स्वामी, एवं अत्यंत पराक्रमी काशिराज की दो जुडी कन्याए इसकी पनियाँ थी। इसने एकांत में अपनी दोनो पत्नियों के साथ प्रतिज्ञा की थी, 'मैं तुम दोनों के साथ कभी विषम व्यवहार नकरूँगा ।' इसे दुनिया के सारे सुख एवं भोग इसे प्राप्त थे, किंतु पुत्र न था । पुत्रप्राप्ति के लिये इसने पुत्रकामेष्टि यज्ञ भी किया, किंतु कुछ लाभ न हुआ। अंत में यह अपनी दोनों पत्नियों के साथ चंडकौशिक नामक मुनि के पास गया, एवं अनेक प्रकार के रत्नों से इसने उसे संतुष्ट किया । पचात् ऋषि ने इसे वन में आने का कारण पूछने पर, इसने अपनी निपुत्रिक अवस्था उसे कथन की। , पुत्रप्राप्ति के लिये चंडकौशिक मुनि ने इसे आम का एक फल दिया, एवं उसे अपने दो पत्नियों को समविभाग में देने के लिये कहा। ऋषि के आदेशानुसार राजा ने वह फल दो भागों में विभक्त कर के एक एक भाग पत्नियों को खिलाया । पश्चात् दोनों को गर्भ रहा । प्रसवकाल आने पर दोनों के गर्भ से शरीर का आधाआधा भाग उत्पन्न हुआ। उन दो टुकडो को रानियों ने बाहर फेंक दिया । जरा नामक राक्षसी ने उन दोनों टुकड़ों को जोड़ दिया, जिससे एक बलवान् कुमार सजीव हो उठा । ४. श्रीकृष्ण एवं सत्यभामा के पुत्रों में से एक। राक्षसी ने वह बालक राजा को अर्पित कर दिया । ५. इंद्रसावर्णि मन्वन्तर में उत्पन्न एक अवतार, जो राजा उस बालक को ले कर महल में आया । इसने बालक सत्राण एवं विताना का पुत्र था । का जातकर्म आदि किया, एवं उसका नाम जरासंध रखा गया। पश्चात् इसने मगध देश में राक्षसीपूजन का ६. भानु नामक अग्नि का नामान्तर । ५१६ Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहद्रथ प्राचीन चरित्रकोश बृहद्राज महान् उत्सव मनाने की आज्ञा दी (म. स. १६- महामारत में निर्दिष्ट सोलह श्रेष्ठ राजाओं में इसका निर्देश प्राप्त है, जहाँ इसे 'अंग बृहद्रथ' कहा गया हैं जरासंध बड़ा होने पर, इसने उसे अपने राज्य पर (म. शां. २९.२८-३४)। अभिषिक्त किया, एवं अपनी दोनों पत्नियों के साथ यह परशुराम के द्वारा किये गये क्षत्रिय संहार से इसे तपोवन चला गया (स. १७.२५)। | गोलांगूल नामक वानर ने बचाया, एवं गृध्रकूट नामक इसने ऋषभ नामक राक्षस का वध कर के उसकी खाल पर्वत पर इसे छिपा कर रख दिया । पश्चात् परशुराम के से तीन नगाड़े बनवाये थे, जिनपर चोट करने से महिने द्वारा सारी पृथ्वी कश्यप को दान दिये जाने पर, यह भर आवाज होती रहती थी। ये नगाड़े इसने अपनी | अपने राज्य में लौट आया, एवं पहले की तरह राज्य गिरिव्रज नामक राजधानी के महाद्वार पर रखे थे | करने लगा (म. शां. ४९.७३)। (म. स. १९.१५-१६)। १०. एक राजा, जो सूक्ष्म नामक दैत्य के अंश से बृहद्रथ राजा को 'बार्हद्रथ' राजवंश का आद्य पुरुष | उत्पन्न हुआ था (म. आ. ६१.१९)। यह द्रौपदी के माना जाता है। इससे आगे चल कर उस वंश का | स्वयंवर में उपस्थित था (म. आ. १७७.१९)। पाठभेद विस्तार हुआ (बार्हद्रथ देखिये)। (भांडारकर संहिता)-बृहन्त ।। ३. (सू. निमि.) विदेह देश का एक राजा, जो ११. एक अग्नि, जो वसिष्ठपुत्र होने के कारण, 'वासिष्ठ' देवरात जनक का पुत्र था। विष्णु के अनुसार इसे | भी कहलाता है । इसके पुत्र का नाम प्रणिधि था (म. व. बृहदुक्थ, एवं वायु के अनुसार बृहदुच्छ तथा दैवराति | २११.८)। .. नामान्तर भी प्राप्त है। १२. दुर्योधनपक्षीय एक राजा (म. उ. १९६.१०)। अध्यात्मज्ञान के प्राप्ति के लिये इसने शाकल्य, | पाठभेद (भांडारकर संहिता)-बृहद्बल। याज्ञवल्क्य आदि ऋषियों को अपने राज्य में निमंत्रित १३. (सो. पूरु. भविष्य.) एक राजा, जो भविष्य के किया था । उपस्थित सारे ऋषियों में से याज्ञवल्क्य ही | अनुसार तिग्मज्योति का, मत्स्य एवं विष्णु के अनुसार • अत्यंत ब्रह्मनिष्ठ है, यह जान कर इसने उससे अध्यात्मज्ञान | तिग्म का, तथा भागवत के अनुसार तिमि राजा का पुत्र • का उपदेश प्राप्त किया (म. शां. २९८; भा. ९.१३; | था। याज्ञवल्क्य देखिये)। १४. (मौर्य. भविष्य.) एक राजा, जो भागवत, विष्णु - इसे महावीर्य नामक पुत्र था, जो इसके पश्चात् विदेह | एवं मत्स्य के अनुसार शतधन्वन् का, एवं ब्रह्मांड के अनुसार देश का राजा बन गया। शतधनु का पुत्र था। मत्स्य के अनुसार इसने ७० वर्षों ४. (सो. अनु.) एक अनुवंशीय राजा, जो भागवत | तक, एवं ब्रह्मांड के अनुसार इसने ७ वर्षों तक राज्य . के अनुसार पृथुलाक्ष का, वायु के अनुसार बृहत्कर्मन् | किया । मत्स्य के अतिरिक्त बाकी सारे पुराणों में इसे का, एवं विष्णु के अनुसार भद्ररथ राजा का पुत्र था। मौर्यवंश का अंतीम राजा माना गया है। इसे बृहत्कर्मन् एवं बहभानु नामक दो भाई थे। १५. दक्षसावणि मनु के पुत्रों में से एक । ५. (सो. अनु.) एक राजा, जो मत्स्य के अनुसार | बृहद्रथ ऐक्ष्वाक--एक राजा, जो शाकायन्य ऋषि जयद्रथ का पुत्र था। के पास आत्मज्ञान की प्राप्ति के लिए गया था। शाकायन्य स्वयं मैत्री ऋषि का शिष्य था। ६. एक तत्वज्ञानी, जिसका नामोल्लेख मैत्रायणी उपनिषद में प्राप्त है (मै. उ. १.२, २.१)। शाकायन्य को इसने कहा, 'अत्यंत गहरे कुएँ में गिरे हुए जानवर के समान मनुष्यप्राणि की स्थिति है । अतएव । ७. (सो. द्विमीढ.) द्विमीढवंशीय बहुरथ राजा का | आप ही मुझे मुक्ति का रास्ता बताने की कृपा करें। नामान्तर ('बहुरथ देखिये)। फिर शाकायन्य ने ब्रह्मज्ञान एवं पुनर्जन्म का विवेचन कर ८. एक राजा, जिसकी पत्नी का नाम इंदमती था | इसे मुक्ति का मार्ग बता दिया (मैत्रा. उ. १.१-७)। (इंदुमती ३. देखिये)। बृहद्राज-(सू. इ. भविष्य.) एक इक्ष्वाकुवंशीय । ९. अंगदेश का एक दानशूर राजा, जिसके द्वारा किये | राजा, जो भागवत एवं भविष्य के अनुसार अमित्रजित् गये दान का वर्णन स्वयं श्रीकृष्ण ने किया था। | राजा का, विष्णु के अनुसार मित्रजित् का, एवं मत्स्य के Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन चरित्रकोश बृहद्राज बृहस्पति अनुसार सुमित्र का पुत्र था। इसे बृहत् एवं भरद्वाज नामान्तर भी प्राप्त है। २. कौरव पक्ष का एक योद्धा, जो क्षेमधूर्ति का भाई था। भारतीय युद्ध में सात्यकि के साथ इसका युद्ध हुआ था ( म. द्रो. २४.४५ ) । अन्त में इसी युद्ध में यह मारा गया (म. क. ४. ४१ ) । वृहद्वक्षस्— अंगिराकुलोत्पन्न मंत्रकार बृहदुक्थ का नामांतर बृहद्वन -- एक गंधर्व, जो अर्जुन के जन्मोत्सव में उपस्थित था (म. आ. ११४.४६ ) । २. (सो. पूरु. ) एक राजा, जो मत्स्य के अनुसार बृहदनु राजा का पुत्र था । बृहद्वपु - सत्यदेवों में से एक । वृहन्नडा अर्जुन का नामान्तर, जो उसने विराटनगर बृहद्वसु -- वंश ब्राह्मण में निर्दिष्ट एक आचार्य (वं. में अज्ञातवास के समय स्वीकृत किया था ( म. वि. बा. ३) । २२- अर्जुन देखिये) । २. शवर्तिन् देवों में से एक। बृहन्मति आंगिरस - एक वैदिक सूक्तद्रष्टा (ऋ. ९. ३. पूरुवंशीय बृहद्भानु राजा का नामांतर ( बृहद्भानु ३९-४० ) । ३. देखिये) । गृहन्मनस्- (सो. अनु. ) एक अनुवंशीय राजा, बृहद्विष्णु-- पूरुवंशीय बृहद्भानु राजा का नामांतर जो भागवत एवं वायु के अनुसार, बृहद्रथ राजा का पुत्र (बृहद्भानु ३. देखिये) । था। इसे यशोदेवी एवं सत्या नामक दो पत्नियाँ थी । उनमें से यशोदेवी से इसे जयद्रथ एवं सत्या से विजय नामक पुत्र उत्पन्न हुए। २. एक ऋषि, जो महर्षि अंगिरा को सुमना ( सुभा ) नामक पानी से उत्पन्न सात पुत्रों में से एक था (म.. २०८२ ) । ३. (सो. पूरु. ) एक राजा, मस्य के अनुसार बृहन्त राजा का पुत्र था । बृहन्मित्र - - एक ऋषि, जो महर्षि अंगिरा को सुमना सुभा ) से उत्पन्न सात पुत्रों में से एक था (म. व. २०८.२ ) । ( बृहदूध्वज -- एक राक्षस, जो दूसरे लोगों के धनधान्य एवं स्त्रियों का अपहार करता था । एक बार भीमकेश नामक राजा की केशिनी नामक स्त्री को इसने देखा । यह उसका अपहार करनेवाला ही था, कि केशिनी ने इसे कहा, 'मैं अपने पति का अत्य धिक द्वेष करती हूँ। इसी कारण मैं स्वयं तुम्हारे साथ आने के लिए तैयार हूँ' | कोशिनी के अपने रथ में बिठा कर यह उसे गंगासागरसंगम पर ले गया । किंतु उस प्रदेश में कोशिनी का पति भीमकेश का राज्य होने के कारण, वह डर के मारे मर गयी। फिर उसकी मृत्यु के दुख से यह भी मर गया। किंतु इन दोनों की मृत्यु गंगासागरसंगम जैसे पवित्र स्थल पर होने के कारण, इन्हे विष्णुलोक की प्राप्ती हुयी (पद्म. क्र. ४) । " बृहन्त—कुलूत देश का राजा । युधिष्ठिर के राजसूय यश के समय, अर्जुन ने दिये उत्तर दिग्विजय में इसका अर्जुन के साथ युद्ध हुआ था। उस युद्ध में इसका पराजय हुआ, एवं अनेक प्रकार के रत्नों की भेंट लेकर वह अर्जुन की सेवा में उपस्थित हुआ था ( म. स. २४.४ - ११ ) | द्रौपदी के स्वयंवर में भी यह उपस्थित था ( म. आ. १७७.७)। युधिष्ठिर के प्रति इसके मन में अत्यधिक आदरभाव था । इस कारण, भारतीय युद्ध में यह पांडवों के पक्ष में शामिल था (म. उ. ४.१३ ) । इसके रथ को जोते गये अश्व अत्यधिक सुंदर थे (म. द्रो. २२.४४) । अन्त में दुःशासन के द्वारा यह मारा गया (म.क. ४.६५ ) । -- जो वनुष्मत् राजा का पुत्र था। इसके पुत्र का नाम श्रीदेव वृहन्मेदस ( सो कोष्ट. ) एक यादववंशीय राजा, था ( कूर्म. १.२४.६–१०)। बृहस्पति एक वैदिक देव ओ. बुद्धि, युद्ध एवं यश का अधिष्ठाता माना जाता है। इसे 'सदसस्पति', ज्येष्ठराव' तथा 'गणपति' नाम भी दिये गये हैं (ऋ. १.१८. ६-७ २.२३.१ ) । बृहदारण्यक उपनिषद में बृहस्पति को वाणी का पति ( बृहती+पति बाणी + पति) माना गया है (बृ. उ. १.३.२० - २१) | मैत्रायणी संहिता एवं शपथ ब्राह्मण में इसे 'वाचस्पति' ( वाच का स्वामी) कहा गया है (मै. सं. २०६. श. बा. १४.४.१) । वैदि कोचर साहित्य में इसे बुद्धि एवं वाक्पटुता का देवता के रूप में व्यक्त किया गया है । इस देवता 4 ऋग्वेद में प्रमुख स्थान है एवं उसमें ग्यारह सम्पूर्ण सूक्तों द्वारा इसकी स्तुति की गयी है। दो सूक्तो में इन्द्र के साथ युगुलरूप में भी इसकी ५१८ Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • बृहस्पति गुणावली गायी गई है (ऋ. ४.४९, ७.९७ ) । इस ग्रन्थ में बृहस्पति नाम प्रायः एक सौ बीस बार, एवं 'ब्रह्मणस्पति' के रूप में इसका नाम लगभग पचास बार भाया है। ऋग्वेद के लोकपुत्र नामक सूक्त के प्रणयन का भी श्रेय इसे प्राप्त है (ऋ. १०.७१ - ७२ ) । प्राचीन चरित्रकोश जन्म--उच्चतम आकाश के महान् प्रकाश से बृह स्पति का जन्म हुआ था | जन्म होते ही इसने अपनी महान तेजस्वी शक्ति एवं गर्जन द्वारा अन्धकार को जीत कर उसका हरण किया (ऋ. ४.५०; १०.६८ ) इसे दोनों लोगों की सन्तान, तथा त्वष्ट्र द्वारा उत्पन्न हुआ भी कहा जाता है (ऋ. ७.९७ २.२३ ) । जन्म की कथा के साथ साथ यह भी निर्देश प्राप्त होता है की यह देवों का पिता है, तथा इसने लुहार की भाँति देवों को धमन द्वारा उत्पन्न किया है (ऋ. १०.७२) । रूप-वर्णन ऋग्वेद के सूक्तों में इसके दैहिक गुणों का सांगोपांग वर्णन तो नहीं मिलता, फिर भी उसकी एक स्पष्ट झलक अवश्य प्राप्त है । यह सप्त-मुख एवं सप्तरश्मि, सुन्दर जिह्वावाला, तीक्ष्ण सीघोंवाला, नील पृष्ठवाला तथा शतपंखोंवालां वर्णित किया गया है (ऋ ४.५०; १.१९०; १०.१५५ ५. ४३, ७.९७ ) । इसका वर्ण-स्वर्ण के समान अरुणिम आभायुक्त है, तथा यह उज्वल, विशुद्ध तथा स्पष्ट वाणी बोलनेवाला कहा गया है (ऋ. ३.६२; ५.४३; ७.९७) । इसके पास एक धनुष्य है, जिसकी प्रत्यंचा ही 'ऋत ' है; एवं अनेक श्रेष्ठ बाण हैं, जिन्हें शस्त्र के रूप में प्रयोग करता है ( २.२४; अ. वे. ५.१८ ) । यह स्वर्ण कुठार एवं लौह कुठार धारण करता है, जिसे त्वष्टा तीक्ष्ण रखता हैं (ऋ. ७.९७ १०.५३ ) । इसके पास एक सुन्दर रथ है । यह ऐसे ऋत रूपी रथ पर खड़ा होता है, जो राक्षसों का वध करनेवाला, गाय के गोष्टों को तोड़नेवाला, एवं प्रकाश पर विजय प्राप्त करनेवाला है । इसके रथ को अरुणिम अश्व खींचते हैं (ऋ. १०.१०३; २.२३)। बृहस्पति (ऋ. १.१०९ १.४० ) । यह मानवीय पुरोहितों को स्तुतियों प्रदान करनेवाला देव है (ऋ. १०.९८.२७) । बृहस्पति एक पारिवारिक पुरोहित है ( ऋ. २.२४ ) । शतपथ बाह्राण में इसे सोम का पुरोहित कहा गया है। (श. बा. ४.१.२ ), एवं ऋग्वेद में इसे प्राचीन ऋषियों ने पुरोहितों में श्रेष्ठपद (पुरो - धा) पर प्रतिष्ठित किया है । वाद के वैदिक ग्रन्थों में इसे ब्रह्मन् अथवा पुरोहित कहा गया है। बृहस्पति युद्धोपम प्रवृत्तियों को अर्जित करनेवाला है । इसने सम्पत्ति से भरे पर्वत का भेद कर, शम्बर के गढ़ों को मुक्त किया था (ऋ. २.२४ ) । इसे दोनों लोकों में गर्जन करनेवाला, प्रथमजन्मा, पवित्र, पर्वतों में बुद्धिमान्, वृत्रों (वृत्राणि) का वध करनेवाला, दुर्गों को छिन्न-भिन्न करनेवाला, तथा शत्रुविजेता कहा गया (ऋ. ६.७३ ) । यह शत्रुओं को रण में पछाड़नेवाला, उनका दमन करनेवाला, युद्धभूमि में असाधारण योद्धा है, जिसे कोई जीत नहीं सकता (ऋ. १०.१०३, २.२३; १.४० ) । इसीलिए युद्ध के पूर्व आह्वान करनेवाले देवता के रूप में इसका स्मरण किया जाता है (ऋ. २.२३ ) । इन्द्रपुराकथा में, गायों को मुक्त करनेवालों में, अग्नि की भाँति बृहस्पति का भी नाम आता है । बृहस्पति जब गोष्ठों को खोला तथा इन्द्र को साथ लेकर अन्धकार द्वारा आवृत्त जलस्रोतों को मुक्त किया, तब पर्वत इनके वैभव के आधीन हो गया (ऋ. २.२३) । अपने गायकदल के साथ, इसने गर्जन करते हुए 'बल' को विदीर्ण किया; तथा अपने सिंहनाद द्वारा रेंभती गायों को बाहर कर दिया (ऋ. ४.५० ) । पर्वतों से गायों को ऐसा मुक्त किया गया, जिस प्रकार एक निष्प्राण अण्डे को फोड़ कर जीवित पक्षी उन्मुक्त किया जाता है (ऋ. १०.६८) । बृहस्पति त्रिताओं का हरणकर्ता एवं समृद्धि प्रदाता देव के रूप में, अपने भक्तों द्वारा स्मरण किया जाता है (ऋ. २.२५ ) । यह एक ओर भक्तों को दीर्घव्याधियाँ से मुक्त करता है, उनके समस्त संकटो, विपत्तियों, शापों तथा यंत्रणाओं का शमन करता है (ऋ. १.१८ २.२३ ); तथा दूसरी ओर उन्हें बांछित फल, सम्पत्ति, बुद्धि तथा समृद्धि से सम्पन्न करता है (ऋ. ७.१०.९७)। गुणवर्णन--बृहस्पति को ‘ब्रह्मणस्पति ' ( स्तुतियों का स्वामी) कहा गया है, क्यों कि, यह अपने श्रेष्ठ रथ पर आरूढ़ हो कर देवों तथा स्तुतियों के शत्रुओं को जीतता है (ऋ. २. २३) । इसी कारण यह द्रष्टाओं में सर्वश्रेष्ठ एवं स्तुतियो का श्रेष्ठतम अधिराज कहा गया है (ऋ. २.२३) । यह समस्त स्तुतियों को उत्पन्न एवं उच्चारण करनेवाला है बृहस्पति मूलतः यज्ञ को सस्पन्न करनेवाला पुरोहित है, अतएव इसका एवं अग्नि का सम्बन्ध अविछिन्न है । मैक्स मूलर इसे अग्नि का एक प्रकार मानता है । रौथ कहता है, । ५१९ Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहस्पति प्राचीन चरित्रकोश बृहस्पति 'यह पौरोहित्य-प्रधान देवता स्तुति की शक्ति का प्रत्यक्ष | वहाँ जा कर, जयन्ती ने उसे अपने सेवाभाव तथा मोहपाश प्रतिरूप है। | में बाँध लिया। इस अवसर का लाभ उठाकर बृहस्पति चतुर्विंश तथा अन्य याग इसके नाम पर उल्लिखित ने तेजबल से शुक्र का रूप धारण कर एवं दानवों में है (ते. सं. ७.४.१)। इसके नाम पर कुछ साम भी है, नास्तिक धर्म प्रचार से उन्हें धर्मभ्रष्ट करने लगा। तब जिनके स्वरों के गायन की तुलना क्रौंच पक्षी के शब्दों से दैत्यों का पराभव हुआ (पद्म. स. १३; उशनस् देखिये)। की गयी है (छां. उ. १.२.११)। इन्द्रपद प्राप्त कर नहुष. तामसी प्रवृत्तियों में इतना इसके पत्नी का नाम धेना था (गो.बा.२-९)। धेना का लिप्त हो गया कि, उसने धार्मिक विधियों को त्याग कर अर्थ 'वाणी' है। इसकी जुहू नामक एक अन्य पत्नी का भी उल्लेख प्राप्त है। स्त्रीभोग में ही अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ ली, तथा उत्पात मचाने लगा। एक बार उसने इन्द्राणी को देखा, ___ कई अभ्यासकों के अनुसार, आकाश के सौरमंडल में तथा उसके रूपयौवन पर मोहित हो कर उसे पकड़ मंगाया। स्थित बृहस्पति नामक नक्षत्र यही था। इसकी पत्नी का तब वह भागती हुई वृहस्पति के पास आयी, तथा इसने नाम तारा था, जिसे सोम के द्वारा अपहार किया गया था। बृहस्पति की पत्नी तारा से सोम को बुध नामक इसे आश्वासन दिया, 'इन्द्र तेरी रक्षा करेगा, तेरा सतीत्व रक्षित है। तुम्हें चिन्ता की आवश्यकता नहीं।' इसने ही पुत्र भी उत्पन्न हुआ था (वायु. ९०.२८-४३; ब्रह्म. ९.१९-३२; म. उ. ११५.१३)। ज्योतिर्विदों के इन्द्राणी को सलाह दी कि, नहुष से वह कुछ अवधि माँये तथा इस प्रकार उसे धीरज दिला कर तरकीब से अपनी अनुसार बृहस्पति के इस कथा में निर्दिष्ट सोम, तारा. बुध एवं बृहस्पति ये सारे सौरमंडल में स्थित विभिन्न नक्षत्रों रक्षा करे (म. उ. १२.२५)। बाद को इन्द्र के द्वारा बताये के नाम हैं (बुध देखिये)। हुए मार्ग पर चल कर, इन्द्राणी ने नहुष पर विजय प्राप्त की (म. उ. ११, नहुष देखिये)। २. एक ऋषि; जो देवों का गुरु एवं आचार्य था। (ऐ. ब्रा. ८.२६ )। महाभारत में इसे एवं सोम को उपरिचर वसु के द्वारा निमंत्रण दिया जाने पर ब्राह्मणों का राजा कहा गया है (म. आश्व. ३)। यह | बृहस्पति ने उसके द्वारा किये यज्ञ में होता होना स्वीकार दैत्य एवं असुरों का गुरु 'भार्गव उशनस् शुक्र' का समवर्ती | किया । उपरिचर वसु विष्णु का परम भक्त था । इसीलिये था । देवदैत्यों का सुविख्यात संग्राम, जिसमें बृहस्पति एवं | विष्णु ने इस यज्ञ में स्वयं भाग ले कर यज्ञ के प्रसाद शुक्र इन दोनों ने बड़ा ही महत्वपूर्ण भाग लिया था, (पुरोड़ाश) को प्राप्त किया। बृहस्पति को विष्णु की इक्ष्वाकुवंशीय ययाति राजा के राज्यकाल में हुआ था। उपस्थिति का विश्वास न हुआ। उसने समझा कि, उपरिचर दैत्यगुरु शुक्र की कन्या देवयानी से ययाति ने विवाह किया झूट बोल रहा है, तथा स्वयं की महत्ता बढ़ाने के लिए था। इस कारण, शुक्र एवं देवगुरु वृहस्पति ययाति के खुद पुरोड़ाश खाकर विष्णु की उपस्थिति का बहाना कर समकालीन प्रतीत होते है। रहा है। यह समझ कर इसने उसे शाप देना चाहा। किन्तु एक बार, देवगुरु बृहस्पति का इंद्र ने अपमान किया, एकत, द्वित तथा त्रित ने बृहस्पति के क्रोध को शांत जिसके कारण, इसने इंद्र तथा देवों को त्याग दिया। कराया, एवं विश्वास दिलाया कि, 'उपरिचर सत्य कहता लेकिन जब बिना बहस्पति के, तरह तरह की अड़चने | है। हम लोगों ने स्वयं विष्णु के दर्शन किये है'(म. शां. पड़ने लगी, तब देवों ने मिलकर इससे माफी माँगी, और | ३२३)। इसने उपरिचर वसु राजा को 'चित्रशिखण्डिपुनः इसे देवगुरु के स्थान पर सुशोभित किया (भा.६.७)। शास्त्र' का ज्ञान विधिवत् प्रदान किया था (म. शां. दैत्यों का पराजय--देवदानवों के बीच घोर संग्राम | ३२३.१-३)। हुआ, जिसमें देवों को हार का मुँह देखना पड़ा। असुर एवं गंधवों के समान देवों ने भी पृथ्वी का दानवों ने शक्ति, शासन और संजीवनी आदि के बल पर | दोहन किया । उस समय देवों ने बृहस्पति को वत्स देवों को हर प्रकार के कष्ट देना आरम्भ किया । यही बनाया था (भा. ४.१८.१४)। अथर्ववेद के अनुसार, नहीं, शुक्राचार्य देवों को समूल नष्ट करने के लिए घोर | ऋषियों के द्वारा किये पृथ्वीदोहन में बृहस्पति दोग्धा तपस्या में लग गया। तब इन्द्र ने अपनी कन्या जयन्ती (दोहन करनेवाला) बनाया था, सोम को वत्स, तथा छंदस' को शुक्र के पास उसके तप को भंग करने के लिये भेजा। को पात्र बनाया गया था। उस दोहन से तप तथा वेदों ५२० Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहस्पति प्राचीन चरित्रकोश बृहस्पति का निर्माण दुग्ध रूप में हुआ ( अ. वे. ८. २८; पृथु वैन्य राजा का पुरोहित अंगिरा नामक महर्षि का पुत्र था । यह देखिये) । स्वायंभुव मन्वंतर में पैदा हुआ था। इसकी माता का नाम स्वरूपा था ( मा. ४. १ म. आ. ६०.५, आ. ५०४९ २.२.१)। कई ग्रंथों में इसकी माता का नाम श्रद्धा दिया गया है। यह निर्देश सही हों, तो यह स्वायंभुव मन्वंतर का न हो कर, वैवस्वत मन्वंतर में उत्पन्न हुआ होगा। महाभारत में अन्यत्र इसकी उत्पत्ति अनि से बताई गई है ( म. व. २०७.१८ ) । प्रभासक्षेत्र में स्थित सोमेश्वर के शिवमंदिर में बृहस्पति ने एक हजार वर्षों तक शिव की आराधना कर उसे प्रसन्न किया। शिव ने इसे आशीर्वाद दिया 'आकाश में स्थित सौरमण्डल में तुम बृहस्पति नामक ग्रह रूप में प्रतिष्ठित होगे (स्कंद २.४.१ - १७) । शिवकृपा से इसने प्रभासक्षेत्र में बृहस्पतीश्वर नामक शिवलिंग की स्थापना की ( स्कन्द ७.१.४८ ) । " संवाद- देवों के गुरु बृहस्पति का तत्वज्ञानी के नाते कई विद्वानों से शास्त्रार्थं हुआ, जो इसके ज्ञान, तर्क एवं त्वरितबुद्धि को प्रत्यक्ष प्रमाणित करते है । 4 युधिरि तथा इसके बीच कममरण के संबंध में संवाद हुआ था, जिस में इसने उनके प्रकारों का वर्णन था । इसने युधिष्ठिर को बताया था कि, किस प्रकार प्राणी विभिन्न प्रकार के पाप कर के उसके अनुसार ही भिन्न भिन्न योनियों में जन्म से कर जन्ममरण के बन्धनों के बीच विचरण किया करता है ( म. अनु. १११) । इसने उसे दान के स्वरूप की व्याख्या करते हुए, अन्नदान की महिमा का गान किया था (म. अनु. ११२) । युधिष्ठिर को जीवन में धर्मकर्म की आवश्यकता पर बल देते हुए, इसने उसे धर्म एवं अहिंसा का उपदेश .. दिया था (म. अनु. ११३ ) । । "देवराज इंद्र को भी इसने अपनी ज्ञानगरिमा से कई उपदेश दिये। उसको वाणी की महत्ता बनाते हुए इसने उसे • मधुर वचन बोलने का उपदेश दिया ( म. शां. ८५.३ - १० ) । . उसे धर्मोपदेश दिया, तथा धर्माचरण की आज्ञा दी ( म. - अनु. १२५ ) । भूमि का मूल्य तथा भूमिदान की महत्ता का ज्ञान भी इसने इंद्र को कराया था ( म. अनु. ६२.५५(९२) । इसके समय में मनुष्यों का पशु की तरह यज्ञ में हवन किया जाता था । अतएव इंद्र ने प्रार्थना की कि, यह मनुष्यों को बलि के रूप में समर्पित करना बंद करे ( म. आश्व. ५.२५ - २७ ) । इसे संवर्त, तथा उतथ्य नामक दो भाई थे, जिनके से, उतथ्य इसका ज्येष्ठ भाई था, जिसके नाम के लिये, साथ आजीवन इसका संघर्ष चलता रहा। इन भाइयों में वेदार्थदीपिका में, 'उचथ्य, ' ब्रह्मांड एवं मत्स्य में 'उशिज,' एवं वायु में' अशिज' पाठभेद प्राप्त हैं। इन पाठभेदों में से, 'उचच्य' पाठभेद ही सही प्रतीत होता है। कोसलाधिपति वसुमनस् से इसने राजसंस्था की आवश्यकता एवं राजा के कर्तव्य के चारे में उपदेश दिया था (म. शां. ६८ ) । इक्ष्वाकुवंशीय मांधाता राजा के पूँछने पर इसने उसे गोदान के संबंध में अपने विचार प्रकट किये थे (म. अनु. ७६.५-२३ ) । , ३. आंगिरस कुलोत्पन्न एक ऋषि जो वैशाली के मरुत्त आविक्षित राजा का पुरोहित था। यह वैशाली के करंचम | प्रा. च. ६६ ] ५२१ एक बार इसने उतथ्य की गर्भवती पत्नी ममता के साथ संभोग किया। संभोग करते समय ममता के उदर में स्थित बालक ने बृहस्पति से बार बार उक्त क्रिया करने पर प्रतिबन्ध लगाया। इस पर क्रोधित हो कर इसने उस चालक को शाप दिया कि, वह जन्मांध पैदा हो। यही बालक बाद को अन्धे दीर्घतमस् के रूप में पैदा हुआ । इसके तथा ममता के संभोग द्वारा भरद्वाज नामक पुत्र हुआ, जो बाद को इक्ष्वाकुवंशीय नरेश दुष्यन्तपुत्र भरत द्वारा गोद लिया गया (म. आ. ९८ मत्स्य ४९ वेदार्थदीपिका ६.५२ ) । संवर्त से इसका झगड़ा ईर्ष्या के कारण हुआ । यह आरम्भ से ही देवों का एवं पृथ्वी के पाँच सम्राटों में से मदत्त नामक सम्राट का भी पुरोहित था। एक बार अपना यज्ञ कराने के लिए इन्द्र ने इसे आमंत्रित किया। यह वहाँ गया, तथा वहाँ की सुखसामग्री एवं विलास देख कर वहीं रहा गया। इधर पृथ्वी पर मरुत्त को भी यश करना था। अतएव उसने इसे उपस्थित न जानकर, इसके भाई संवर्त द्वारा यज्ञ कार्य कराना आरम्भ किया । जैसे ही इसे यह ज्ञात हुआ, इसने इसमें अपना अपमान समझा, तथा इंद्र को आदेश दिया कि, वह संवर्त द्वारा किया गया मरुत्त का यश विध्वंस कर दे। इन्द्र अपनी समस्त सेना को ले कर यज्ञ विध्वंस हेतु गया, किंतु संवर्त के ब्रह्मतेजोबल के सम्मुख उसे परास्त होना पड़ा । पश्चात् मरुत्त का यश निर्विघ्न समाप्त हुआ (म. आश्व ५६९ ) । Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहस्पति प्राचीन चरित्रकोश बृहस्पति हुयी। परिवार--बृहस्पति की पत्नियाँ, एवं पुत्रों के बारे में नामक वसु की पत्नी थी, तथा उससे उसे विश्वकर्मन् अनेक निर्देश महाभारत एवं पुराणों में प्राप्त है। किंतु, नामक पुत्र पैदा हुआ था। वहाँ देवता बृहस्पति, देवगुरु बृहसति एवं बृहस्पति ४. एक तत्वज्ञ आचार्य, जिसने धर्मशास्त्र, नीतिशास्त्र, अंगिरस इन तीन स्वतंत्र व्यक्तियों के बारे में पृथगात्मता | अर्थशास्त्र, एवं व्याकरणशास्त्र पर अनेक ग्रंथों की रचना नही है, एवं इन तीनों को बहुत बूरी तरह संमिश्रित की थी। किया गया है। उदाहरणार्थ, तारा की कथा में, बृहस्पति | इसके द्वारा लिखित 'बृहस्पतिस्मृति' नामक एक ही को देवगुरु एवं आंगिरस कहा गया है (मत्स्य. ८३.३०; ग्रंथ मुद्रित रूप में प्राप्त है। किंतु कौटिलीय अर्थशास्त्र, विष्णु. ४.६.७)। देवगुरु बृहस्पति को भी, अनेक स्थानों कामंदकीय नीतिसार, याज्ञवल्क्यस्मृति, अपरार्क, स्मृति.. पर, आंगिरस कहा गया है, एवं बृहस्पति आंगिरस को चंद्रिका आदि विभिन्न विषयक ग्रंथों में, इसके मत एवं अनेक स्थानों पर देवगुरु कहा गया है । वस्तुतः इन तीनों इसके ग्रंथों के उद्धरण प्राप्त है, जिनसे प्रतीत होता है कि, व्यक्तियाँ संपूर्णतः विभिन्न थी, जैसे कि ऊपर बताया गया। इसके द्वारा धर्मशास्त्र, अर्थशास्त्र, व्याकरणशास्त्र, वास्तुशास्त्र, अदि विषयों पर काफी ग्रंथरचना की गई इस कारण, बृहस्पति की पत्नियाँ एवं पुत्रों के जो नाम होगा। पुराणों में प्राप्त हैं, वे निश्चित कौन से बहस्पति से संबधित बृहस्पति के द्वारा लिखित 'बृहस्पतिस्मृति' नामक जो है, यह कहना असंभव है। ग्रंथ सांप्रत उपलब्ध है, वह अत्यधिक छोटा है, उसमें केवळ अस्सी श्लोक हैं, एवं उसे आनंदाश्रम पूना ने बृहस्पति को तारा (चांद्रमसी) एवं शुभा नामक दो प्रकाशित किया है । जीवानंद के संग्रह में भी इसके नाम पत्नियाँ थी। कई ग्रंथों में, प्रजापति की कन्या उषा को भी पर एक छोटी स्मृति है, किन्तु उसमें दानप्रशंसा आदि बहस्पति की पत्नी बताया गया है। उनमें से शुभा से इसे साधारण विषयों की चर्चा की गयी है। . सात कन्याँ, एवं तारा से सात पुत्र एवं एक कन्या उत्पन्न ___ अपरार्क आदि स्मृतियों में बृहस्पतिस्मृति के काफी उद्धरण लिये गये हैं, जिनसे इसकी मूल स्मृति की महत्ता शुभा की कन्याओं के नाम इस प्रकार थे:-भानुमती, | का अनुमान किया जा सकता है । मुकदमों के दो प्रकारों रागा, अर्चिष्मती, महामती, महिष्मती, सिनिवाली एवं | (फौजदारी तथा दीवानी) का प्रचलन सर्वप्रथम इसके द्वारा हविष्मती । तारा को अग्नि के नाम धारण करनेवाले सात ही किया गया है। इसने ही सर्वप्रथम यह विधान रक्खा पुत्र उत्पन्न हुए, जिनक नाम इस प्रकार याशयु, निश्ववन, कि, जिन विधवाओं का पुत्र न हों, उन्हे पति के मृत्यु के विश्वभुज, विश्वजित् , वडवाग्नि, एवं स्विष्टकृत । उतथ्य नामक बाद समस्त संपत्ति की अधिकारणी समझा जाय । वात्स्यायन अपने भाई की पत्नी ममता से इसे भरद्वाज नामक एक कामसूत्र में इसके मतों का निर्देश प्राप्त है । राजा के सोलह पुत्र उत्पन्न हुआ था, जिसे इसने 'आग्नेयास्त्र' प्रदान प्रधान होने चाहिये, ऐसा इसका ,अभिमत था, जो कौटिल्य किया था। अर्थशास्त्र में निर्दिष्ट है । इसकी 'स्मृति' में नाणक, __ तारा की कन्या का नाम स्वाहा था, जो वैश्वानर अग्नि | दीनार आदि सिक्कों की जानकारी प्राप्त है। बृहस्पति, की पत्नी थी (स्वाहा २. देखिये)। आंगिरस, नारद एवं भृगु इन चार ऋषियों ने मनुस्मृति कुशध्वज (कच) नामक इसके और एक पुत्र का को चार विभागो में विभक्त करने का निर्देश प्राप्त है। निर्देश महाभारत में अनेक बार आता है (म. अनु. इन चार आचार्यों में बृहस्पति के मत संपूर्णतः मनु के २६; कच २. देखिये)। किन्तु बृहस्पतिपत्नियों में | अनुकूल हैं। से कौनसी पत्नी से वह उत्पन्न हुआ था, यह - कहना | अपरार्क एवं कात्यायन द्वारा लिये गये इसके उद्धरणों मुष्किल है, क्यों कि, शुभा एवं तारा के पुत्रों में कही भी एवं नाणक एवं दीनार सिक्कों के आधार पर अनुमान कच का नाम प्राप्त नहीं होता है। किया गया है कि, धर्मशास्त्रकार बृहस्पति का समय दूसरी द्रोणाचार्य की उत्पत्ति भी बृहस्पति के अंश से ही शताब्दी ईसा उपरांत होगा। हुई थी, ऐसा माना जाता है। बृहस्पति की भुवना नामक | वायु में बृहस्पति द्वारा किये गये इतिहास पुराण एक ब्रह्मवादिनी एवं योगपरायण बहन थी, जो प्रभास विषयक प्रवचन का निर्देश प्राप्त है, एवं 'अष्टांगहृदय' में ५२२ Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहस्पति इसके द्वारा रचे गए ‘अंगदतंत्र' नामक वैद्यकीय ग्रंथ का निर्देश प्राप्त है ( वायु. १०३ - ५९; अष्टांग. पृ. १८ ) । ग्रन्थ-- १. बृहस्पतिस्मृति; २. बार्हस्पत्यशास्त्रः-ब्रह्मदेव द्वारा रचित ' बाहुदन्तक' नामक ग्रंथ को बृहस्पति ने तीन हज़ार अध्यायों में संक्षिप्त किया जिसे ‘बार्हस्पत्यशास्त्र ' कहते हैं; ३. दानबृहस्पति - बृहस्पति के इस ग्रंथ का निर्देश अपरार्क एवं दानरत्नाकार में प्राप्त हैं; ४. स्वप्नाध्याय ५. चार्वाक दर्शन:बृहस्पति द्वारा रचित इस ग्रंथ का निर्देश प्राप्त है । ६. वास्तुशास्त्रः- बृहस्पति द्वारा वास्तुशास्त्र पर लिखित एक ग्रंथ का निर्देश मत्स्य में प्राप्त है ( मत्स्य. २५२; व्यास देखिये) । प्राचीन चरित्रकोश ५. जनमेजय के सर्पसत्र में उपस्थित एक ऋषि । बृहस्पति शास्ति -- एक आचार्य, जो भवत्रात शायस्थि नामक ऋषि का शिष्य ( इंडिशे स्टूडियेन ४. ३७२)। बैजभृत- भृगुकुल का एक गोत्रकार । बैजवाप -- वृहदारण्यक उपनिषद में निर्दिष्ट एक आचार्य (बृ. उ. माध्यं. २.५.२०१ ४.५.२६, श. ब्रा. १४.५.५.२० ) । बीजवाप का वंशज होने से इसे यह नाम प्राप्त हुआ होगा । बैजवापायन - बृहदारण्यक उपनिषद में निर्दिष्ट एक आचार्य (बृ. उ. माध्यं २.५.२०१ ४.५.२० श. ब्रा. १४.५.२०)। बैजवाप का वंशज होने से इसे यह नाम प्राप्त हुआ होगा । इसके नाम के लिए ' वैजवापायन पाठभेद भी प्राप्त है । बौधायन २. एक आचार्य, जिसका नहुष राजा के साथ तत्त्वज्ञान विषय में संवाद हुआ था, जो 'बोध्यगीता' नाम से प्रसिद्ध है ( म. शां. १७१.५८ ) । बोने नहुष से कहा, 'मैं दूसरों को जो उपदेश करता हूँ, उसी अनुसार सर्वप्रथम मेरा आचरण रहता है । मै स्वयं किसी का गुरु न हो कर, सारे विश्व को मैं गुरु मानता हूँ। मैं ने पक्षियों से अद्रोह का पाठ सीखा है । उसी तरह पिंगला वेश्या से नैराश्य, मृग से त्याग, इषुकार से एकाग्रता, एवं कुमारी कन्या से एकाकित्व का पाठ मुझे प्राप्त हुआ है ' ( म. शां. १७१.५७-६१ । 'बोध्य गीता' में प्राप्त उपर्युक्त तत्त्वज्ञान, एवं मंकि ऋषि प्रणीत ' मंकिगीता' का प्रतिपादन दोनो एक ही है । • बैजवापि - एक आचार्य, जो संभवतः बीजवाप अथवा बीजवापिन् का वंशज होगा ( मै. सं. १.४.७ ) । बैद — धौम्य ऋषि का एक शिष्य ( म. आ. ६. ७९)। २. हिरण्यदत्त नामक आचार्य का पैतृक नाम । बोध--यास की ऋक् शिष्य परंपरा में से बौध्य नामक आचार्य के लिये उपलब्ध पाठभेद ( बौध्य देखिये) । २. एक ऋषि, जो अथर्ववेद में प्रतिबोध नामक ऋषि के साथ निर्दिष्ट है (अ. वे. ५.३०.१०९ ८.१.१३) । बोध-- वसिष्ठकुलोत्पन्न एक गोत्रकार ऋषिगण । बोध्य -- व्यास की ऋक् शिष्यपरंपरा में से बौध्य नामक आचार्य का नामांतर ( बौध्य देखिये) । बौधक - एक आचार्य, जो ब्रह्मांड के अनुसार व्यास की यजुः शिष्यपरंपरा में से याज्ञवल्क्य ऋषि का वाजसनेय शिष्य था । बौधायन धर्मसूत्र में इसके नाम के लिए ' बोधायन ' एवं 'बौधायन' दोनो भी पाठ प्राप्त है । कई स्थानों में इसे 'भगवान्' बोधायन कहा गया है। बौधायन शाखा - यह संभवतः दक्षिण भारत में स्थित कृष्णा नदी के मुहाने में स्थित प्रदेश में रहता होगा । बौधायन शाखा के ब्राह्मण आज भी उसी प्रदेश में अधिकतर दिखाई देते हैं । वेदों का सुविख्यात भाष्यकार सायणाचार्य स्वयं बौधायन शाखा का था । बौधायन शाखा के ब्राह्मणों को 'प्रवचनकार शाखीय ' नामान्तर भी प्राप्त है । गृह्यसूत्रों में स्वयं बौधायन को भी 'प्रवचनकर्ता ' कहा गया है । पल्लव राजा नंदिवर्मन् के ९ वी शताब्दी के अनेक शिलालेखों में ' प्रवचनकार लोगों को दान देने का निर्देश प्राप्त है ( इन्डि, ऑन्टि ८,२७३ - २७४ ) । बौधायन के धर्मसूत्रों में भी दाक्षिणात्य लोगों के रीतिरिवाजों का निर्देश प्राप्त है । बौधायन सूत्र --बौधायन के द्वारा रचित बौधायन सूत्रों का संग्रह संपूर्ण अवस्था में अभी तक अप्राप्य है जैसे ५२३ बौधायन - कल्पसूत्रों का प्रवर्तक एक आचार्य, जो संभवत. कृष्ण यजुर्वेदशाखा का ऋषि था । इसके द्वारा विरचित 'बौधायन धर्मसूत्र' में कण्व बोधायन नामक पूर्वाचार्य का निर्देश प्राप्त है (बौ. ध. २.५.२७ ) । संभव है, यह उसी कण्व बोधायन का पुत्र अथवा वंशज होगा । धर्मसूत्र का भाष्यकार गोविंदस्वामिन् के अनुसार, बौधायन को ' काण्वायन' नामान्तर प्राप्त है ( बौ. ध. १.३.१३.) । Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बौधायन प्राचीन चरित्रकोश बौधायन कि, आपस्तंब एवं हिरण्यकेशिन् आचार्यों का संग्रह किया | सूत्र' एक सर्वमान्य एवं सन्मान्य धर्मग्रंथ माना जाता गया है। डॉ. बर्नेल के द्वारा बौधायन के बहुत सारे सूत्र छः था। इससे प्रतीत होता है कि, बौधायन धर्मशास्त्र का विभागों में एकत्रित किये गये है, जो इस प्रकार है:-- रचना काल ईसा पूर्व ५००-२०० के बीच कही होगा। (१) श्रौतसूत्र (१९ प्रश्न ); (२) कर्मान्तसूत्र (२० बौधायन के धर्मसूत्र में वसंत सम्पात की स्थिति प्रश्न); (३) द्वैधसूत्र (४ प्रश्न); (४) गृह्यसूत्र | वेदांगज्योतिष के अनुसार दी गयी है। उससे प्रतीत (४ प्रश्न); (५) धर्मसूत्र (४ प्रश्न); (६) शूल्बसूत्र होता है कि, इसका काल ईसा शताब्दी के पूर्व लगभग (३ प्रश्न)। | १२०० होगा ( कविचरित्र) बौधायन सूत्रों के विभाग--डॉ. कालेन्ड के अनुसार बौधायन धर्मसूत्र का जो संस्करण सांप्रत प्राप्त है, बौधायन के सूत्र निम्नलिखित उन्चास प्रश्नों में विभाजित | उसमें बहुत सारा भाग प्रक्षिप्त है, एवं कई भाग है:-प्रश्नक्रमांक १-२१ श्रौतसूत्र; २२-२५ द्वैधसूत्र; २६- गौतम धर्मसूत्र एवं विष्णु धर्मसूत्र में से लिया गया है। २८ कर्मान्तसूत्र; २९-३१ प्रायश्चित्त सूत्र; ३२ शूल्बसूत्र; उसमें पुनरुक्ति भी काफी प्राप्त है। ३३-३५ गृह्यसूत्र; ३६ गृह्यप्रायश्चित्त; ३७ गृह्यपरिभाषा| बौधायन धर्मसूत्र के प्रश्न चार विभागों में सूत्र; ३८-४१ गृह्य परिशिष्ट सूत्र; ४२-४४ पितृमेध सूत्र; मध सूत्रः विभाजित है, एवं उसमें मुख्यतः निम्नलिखित विषयों का ४५ प्रवरसूत्र; ४६-४९ धर्मसूत्र । विवेचन किया गया है:-चातुवर्ण्य में आवश्यक नित्याचार बौधायन श्रौतसूत्र-कालेन्ड के अनुसार, बौधायन के नियम, पंचमहायज्ञ एवं अन्य यज्ञ यथासांग करने के का श्रौतसूत्र उपलब्ध श्रौतसूत्रों में प्राचीनतम है। उस लिए आवश्यक वस्तु, विवाह के नानाविध प्रकार, प्रायश्चित्त, सूत्रग्रंथ में 'वैध' एवं 'कर्मान्त' नामक दो स्वतंत्र नियोग संतति उत्पन्न करने के लिए आवश्यक नियम, . . अध्याय सम्मीलित है, जिनमें द्वैध अध्याय में श्राद्धविधि, प्राणायाम, अघमर्षण एवं जप आदि। . तैत्तिरीय शाखा के बहुत सारे पूर्वाचार्यों के मत उद्धृत बौधायन धर्मसूत्र में वेद, तैत्तिरीय संहिता, तैत्तिदीय . किये गये है। इस सूत्रग्रंथ का अंग्रेजी अनुवाद वैदिक ब्राह्मण, तैत्तिरीय आरण्यक, शतपथ ब्राह्मण, उपनिषदों, संशोधक मंडल (पूना) के द्वारा प्रकाशित किये गये 'श्रौतकोश' नामक ग्रंथ में प्राप्त है। निदान आदि ग्रंथों से उद्धरण लिये गये हैं। ऋग्वेद के अघमर्षण एवं पुरुषसूक्त ये दोनो ही सूक्त बौधायन ने । बौधायनधर्मसूत्र-कृष्ण यजुर्वेद के तीन प्रमुख लिये हैं। उसी तरह बौधायन ने औपंजाधनि, कात्य, आचार्यो में काण्व बोधायन, आपस्तंब, एवं हिरण्यकेशिन् काश्यप प्रजापति आदि धर्मशास्त्रकारों का उल्लेख अपने ये तीन प्रमुख माने जाते हैं। उनमें से भी कण्व बोधायन | ग्रंथों में किया है। प्राचीनतम था, एवं कृष्ण यजुर्वेदियों के ब्रह्मयज्ञांगतर्पण में उसका निर्देश बाकी दो आचार्यो के पहले किया जाता | ___ शबर, कुमारिल, मेधातिथि आदि टीकाकारों ने है। किन्तु जो 'बौधायनधर्मसूत्र' वर्तमान काल में उपलब्ध बौधायन धर्मसूत्र का उल्लेख अपने ग्रंथों में किया है। है, वह निश्चित रूप में आपस्तंब धर्मसूत्र के उत्तरकालीन उसी तरह विश्वरूप में, एवं मिताक्षरा में बौधायन है । यह प्रायः उपनिषदों से भी उत्तरकालीन है, क्यों कि, के चौथे प्रश्न के अनेक सूत्र उद्धृत किये गये हैं। इसके धर्मसूत्र में छांदोग्य उपनिषद से मिलताजुलता | बौधायन धर्मसूत्र में गणेश की पूजा का निर्देश प्राप्त एक उद्धरण प्राप्त है। है, एवं उसमें गणेश के निम्नलिखित नामान्तर दिये गये आपस्तंब की तुलना में बौधायन, गौतम एवं वसिष्ठ है:- विघ्न, विनायक, स्थूल, वरद, हस्तिमुख, वक्रतुंड, ये उत्तरकालीन धर्मसूत्रकार अधिक प्रगतिशील विचारों लंबोदर (बौ. ध. २.५.२१)। उस ग्रंथ में रवि, चंद्र, के प्रतीत होते है । नियोगजनित संतति आपस्तंब मंगल, बुध, बृहस्पति, शुक्र, शनि आदि राशियों के ग्रहों तिरस्करणीय मानता है (आप. २.६.१३.१-९)। किन्तु का, तथा राहु एवं केतु ग्रहों का निर्देश प्राप्त है (बौ. ध. गौतम, बौधायन एवं वसिष्ठ के द्वारा विशेष प्रसंगों में | २.५.२३)। विष्णु के बारह नाम भी उस ग्रंथ में दिये नियोग स्वीकार किया गया है। गये है (बौ. ध. २.५.२४)। रंगभूमि पर अभिनय शबर के द्वारा लिखित धर्मशास्त्र का काल ५०० ई. के करना, एवं अभिनय सिखाना इन दोनो कार्यों की गणना पूर्व का माना जाता है। शबर के काल में 'बौधायनधर्म- | बौधायन के द्वारा ' उपपातको' में की गयी है (बौ. ध. Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बौधायन (२.१.४४ ) । ' दत्तकमीमांसा' नामक ग्रंथ में बौधायन के ' दत्तक ' संबंधी जो सारे उद्धरण लिये गये है, वे बौधायन धर्मसूत्र के न हो कर, बौधायन गृह्यशेषसूत्र में से लिये गये है (बौ. गृ. २.६) । प्राचीन चरित्रकोश | टीकाकार--बर्नेल के अनुसार, बौधायन श्रौतसूत्र का सर्वाधिक प्राचीन टीकाकार भवस्वामिन् था, जो ८ वीं शताब्दी में पैदा हुआ था। बौधायन धर्मसूत्र की अत्यधिक ख्यातिप्राप्त टीका गोविंदस्वामिन् के द्वारा विरचित है, किन्तु वह टीकाकार काफी उत्तरकालीन प्रतीत होता है । बौधायनस्मृति—आनंदाश्रम (पूना) के द्वारा प्रकाशित ‘स्मृतिसमुच्चय ' नामक ग्रंथ में, बौधायन के द्वारा विरचित एक स्मृति दी गयी है, जो आठ अध्यायों की है। उस स्मृति के हर एक अध्याय में तीन चार प्रश्न पूछे गये हैं, एवं उन प्रश्नों के उत्तरं वहाँ दिये गये है । २. एक आचार्य, जो ब्रह्मसूत्र का सुविख्यात 'वृत्तिकार ' . माना जाता है। रामानुजाचार्य के द्वारा लिखित 'श्रीभाष्य' बौधायन के 'ब्रह्मसूत्रवृत्ति' पर आधारित है। इससे प्रतीत होता है कि, वृत्तिकार बौधायन स्वयं शंकराचार्य के काफी पहले का होगा । अनेक विद्वानों के अनुसार, यह द्रविड देश में पैदा हुआ था । बौधीपुत्र -- एक आचार्य, जो शालंकायनीपुत्र का शिष्य था (बृ. उ. माध्यं. ६.४.३१ ) । इसके शिष्य का नाम कौत्सीपुत्र था ( श. बा. १४.९.४.३१ ) । बोध के किसी स्त्रीवंशज का पुत्र होने के कारण इसे यह नाम प्राप्त हुआ होगा । बौधेय -- एक आचार्य, जो ब्रह्मांड के अनुसार, व्यास की यजुः शिष्य परंपरा में से याज्ञवल्क्य का वाजसनेय शिष्य था । बौध्य-य-- एक आचार्य, जो विष्णु के अनुसार, व्यास की ऋशिष्यपरंपरा में से बाष्कलि ऋषि का शिष्य था । इसके नाम के लिये ‘ बोध ' एवं ' बोध्य ' पाठभेद प्राप्त है ( व्यास देखिये ) | ब्रध्न -- एक राजा, जो भौत्य मनु के पुत्रों में से एक था। ब्रध्नश्व -- एक राजा । एक बार श्रुतर्वन् नामक राजा को साथ ले कर अगस्त्य ऋषि इसके पास आया, एवं इससे धन की याचना करने लगा । ब्रह्मदत्त दिया; एवं इसे साथ ले कर, वह किसी अन्य जगह धन की याचना के लिए चला गया (म. व. ९६ ) । ब्रह्मकृतेजन -- वसिष्ठकुलोत्पन्न एक गोत्रकार 'ब्राह्मपुरेयक' के नाम के लिए उपलब्ध पाठभेद ( ब्राह्मपुरेयक देखिये) । ब्रह्मगार्ग्य - एक ब्राह्मण, जो श्रीकृष्ण का पुरोहित था (पद्म. स. २३) । ब्रह्मचारिन् -- एक देवगंधर्व, जो कश्यप एवं प्रावा का पुत्र था (म. आ. ५९.४५ ) | महाभारत में अन्यत्र इसे क्रोधा का पुत्र कहा गया है। अर्जुन के जन्मोत्सव में यह उपस्थित था ( म. आ. ११४.३७ ) । २. स्कंद का नामान्तर । ब्रह्मजित् - - संह्रादपुत्र कालनेमि नामक राक्षस का पुत्र (ब्रह्मांड. ३.५.३८)। ब्रह्मतन्वि -- अंगिरा कुलोत्पन्न एक गोत्रकार । ब्रह्मदत्त -- (सो. पूरु. ) पांचालदेशीय कांपिल्य नगर का एक राजा, जो भागवत के अनुसार नीप राजा का पुत्र था ( म. शां. १३७ ) । विष्णु, मत्स्य एवं वायु में इसे अणुह राजा का पुत्र कहा गया है। इसकी माता का नाम कीर्तिमती अथवा कृत्वी था, जो शुकाचार्य की कन्या थी । देवल ऋषि की कन्या न्न इस कीपत्नी थी ( ह. वं. १.२३-२५ ) । किन्तु भागवत में इसकी पत्नी का नाम गो दिया गया है ( भा. ९.२२. २५) । भागवत एवं विष्णु में इसके पुत्र का नाम विश्वक्सेन दिया गया है । किन्तु मत्स्य एवं वायु में इसके पुत्र का नाम क्रमशः युगदत्त, एवं युगसूनु दे कर, इसके पौत्र का नाम विष्वक्सेन बताया गया है। महाभारत में इसके पुत्र का नाम सर्वसेन बताया गया है। इसके भवन में निवास करनेवाली पूजनी नामक चिड़िया के बच्चों को इसका पुत्र सर्वसेन ने मारा, अतएव पूजनी ने भी सर्वसेन की आँखे फोड डाली ( म. शां. १३७. १७) । पश्चात् पूजनी ने इसका राजभवन छोड़ना चाहा । राजा ब्रह्मदत्त ने उसे रहने के लिये काफ़ी आग्रह किया । किन्तु अपने शत्रु के घर रहने से उसने इन्कार कर दिया। राजभवन छोड़ते समय पूजनी का एवं इसका तत्वज्ञान संबंधी संवाद हुआ था ( म. शां. १३७.२१-१०९; पूजनी देखिये ) । इसने अगस्त्य ऋषि के सामने अपने आय-व्यय का संपूर्ण विवरण रख दिया, जिसमें इसकी आय एवं व्यय दोनों एक बराबर थे, एवं बचा हुआ पैसा एक भी न था । फिर अगस्त्य ने इससे कोई भी धन लेने के लिए इन्कार कर ५२५ इसने जैगीषव्य ऋषि से योगविद्या प्राप्त कर, योगतंत्र नामक ग्रंथ का निर्माण किया था ( भा. ९.२२.२६ ) । Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ब्रह्मदत्त प्राचीन चरित्रकोश महाभारत के अनुसार, सुविख्यात वैदिक आचार्य कण्डरीक के वंश में इसका जन्म हुआ था, एवं उसीके वंश में उत्पन्न हुआ कण्डरीक नामक अन्य एक पुरुष इसका मंत्री था। मस्त्य में बाभ्रव्य पांचाल सुचालक एवं कण्डरीक को क्रमशः इसका मंत्री एवं मंत्रीपुत्र कहा गया है ( मत्स्य. २०.२४; २१.३० ) । यह स्वयं वेदशास्त्रविद् था, एवं इसने अथर्ववेद के एवं कण्डरीक ने सामवेद के क्रमपाठ की रचना की थी ( म. शां. ३३०.३८-३९ ) । अथर्ववेद संहिता का पदपाठ एवं शिक्षा की भी इसने रचना की थी। योगाचार्य गालव इसका मित्र था, एवं इसने सात जन्मों के जन्ममृत्युसंबंधी दुःखों का बारबार स्मरण कर के योगजनित ऐश्वर्य प्राप्त किया था । इसने ब्राह्मणों को ' शखनिधि' दे कर ब्रह्मलोक भी प्राप्त किया था ( म. अनु. १३७.१७; शां. २२६.२९ ) । समस्त प्राणियों एवं पक्षियो की बोली इसे अवगत थी ( ह. वं. १.२० - २४ ) । भीष्म का पितामह प्रतीप राजा का यह समकालीन था (ह. वं. १.२०.११-१२ ) । २. कांपिल्य नगरी का राजा, जो सोमदा नामक गंधर्वी का पुत्र था । सोमदा गंधर्वी ने चूलि नामक महर्षि की अनन्यभाव से सेवा की, जिससे प्रसन्न हो कर उस ऋषि ने सोमदा को इसे पुत्ररूप में प्रदान किया । कुशनाभ नामक दैत्य ने वायु ( वात) के कारण वक्र हुयी अपनी सौ कन्याएँ इसे प्रदान की । इसने उन कन्याओं की वक्रता दूर कर उनका स्वीकार किया ( वा. रा. बा. ३३) । ३. सूर्यवंशीय एक राजा, जिसने साबरमती नदी के तट पर शंकर की उग्र तपस्या कर, वहाँ अपने नाम से प्रसिद्ध एक शिवलिंग की स्थापना की (पद्म. उ. १३५ ) । ४. शाल्व देश का एक राजा, जिसके पुत्र का नाम हंस था (हंस ७. देखिये) । ब्रह्मदत्त चैकितानेय -- एक आचार्य, जो कुरुवंशीय राजा अभिप्रतारिन् का आश्रित था (जै. उ. बा. १.३८. १; ५९.१) । चेकितान का वंशज होने से इसे 'चैकितानेय' उपाधि प्राप्त हुयी होगी (चेकितानेय देखिये ) । इसके द्वारा प्राणविद्या कथन किये जाने का निर्देश बृहदारण्यक उपनिषद में प्राप्त है (बृ. उ. १.३.२४ ) । ब्रह्मदेव -- पांडवपक्षीय एक योद्धा, जो पांडवों की सेना की रक्षा के लिए शिखण्डी के क्षत्रदेव नामक पुत्र के साथ उपस्थित था (म. उ. १९६.२५) । ब्रह्मन् ब्रह्मना - कश्यप ऋषि के रक्षस नामक असुरपुत्र की पत्नी । इसे निम्नलिखित नौ पुत्र थे : -- अम्बुक, केलि, क्षम, ध्वति, ब्रहापेत, यज्ञहा, यज्ञापेत, श्वात एवं सर्प । इसे निम्नलिखित चार कन्याएँ भी थी : -- अपहारिणी, क्षमा, महाजिह्वा एवं रक्तकर्णी (ब्रह्मांड, ३.७.९८ ) । ब्रह्मधातु -- कुबेर का एक सेवक, जो प्रहेति राक्षस का पुत्र था । ब्रह्मन - एक पौराणिक देवता, जो सम्पूर्ण प्रजाओं का स्रष्टा माना जाता है। इसने सर्वप्रथम प्रजापति बनाये, चिन्होंने आगे चल कर प्रजा का निर्माण किया । वैदिक ग्रन्थों में निर्दिष्ट प्रजापति देवता से इस पौराणिक देवता का काफी साम्य है एवं प्रजापति की बहुत सारी कथायें इससे मिलती जुलती ( प्रजापति देखिये) । सृष्टि के आदिकर्त्ता एवं जनक चतुर्मुख ब्रह्मन् का निर्देश, जो पुराणों में अनेक बार आता है, वह वैदिक ग्रन्थों में अप्राप्य है। किंतु वेदों में 'धाता', 'विधाता', आदि ब्रह्मा के नामांतर कई स्थानों पर आये है । उपनिषद् ग्रन्थों में ब्रह्मन् का निर्देश प्राप्त है, किन्तु वहाँ इसके सम्बन्ध में सारे निर्देश एक तत्त्वज्ञ एवं आचार्य के नाते से किये गये है । वहाँ उसे सृष्टि का सृजनकर्ता नहीं माना है । उपनिषदों के अनुसार यह परमेष्ठिन् ब्रह्म नामक आचार्य का शिष्य था (बृ. उ. २.६.३; ४.६. ३) । सारी सृष्टि में यह सर्वप्रथम उत्पन्न हुआ ( मुं. उ. १.१.२ ) । इसने अथर्वन् को ब्रह्मविद्या प्रदान की थी ( मुं. उ. १.१.२ ) । इसी प्रकार इसने नारद को भी ब्रह्म विद्या का ज्ञान कराया था (गरुड. उ. १ - ३ ) । छांदोग्य उपनिषद में ब्रह्मोपनिषद् नामक एक छोटा उपनिषद् प्राप्त है, जो सुविख्यात ब्रह्मोपनिषद् से अलग है। इस उपनिषद् का ज्ञान ब्रह्मा ने प्रजापति को कराया, एवं प्रजापति ने 'मनु' को कराया था ( छां. उ. ३.११.३ - ४ ) । ब्रह्मन् नामक एक ऋत्विज का निर्देश भी उपनिषद् ग्रन्थों में प्राप्त है। जन्म -- पुराणों के अनुसार भगवान् विष्णु ने कमल रूपधारी पृथ्वी का निर्माण किया, जिससे आगे चल कर ब्रह्मन् उत्पन्न हुआ ( मत्स्य. १६९.२; म. व. परि. १ क्र. २७; पंक्ति . २८.२९; भा. ३.८.१५ ) । महाभारत के अनुसार, भगवान विष्णु जब सृष्टि के निर्माण के सम्बन्ध में विचार निमग्न थे, उसी समय उनके मन में जो सृजन की भावना जागृत हुयी, उसी से ब्रह्मा का सृजन हुआ (म. शां. ३३५.१८ ) । ५२६ " Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ब्रह्मन् प्राचीन चरित्रकोश ब्रह्मन् महाभारत में अन्यत्र कहा है कि, सृष्टि के प्रारम्भ में शतरूपा एक बार आकाशमार्ग से ऊपर जा रही थी। सर्वत्र अन्धकार ही था। उस समय एक विशाल अण्ड अतएव इसने जटाओं के उपर एक पाँचवाँ मुख भी प्रकट हुआ, जो सम्पूर्ण प्रजाओं का अविनाशी बीज था। धारण किया था, किन्तु वह बाद को शंकर द्वारा तोड़ डाला उस दिव्य एवं महान् अण्ड में से सत्यस्वरूप ज्योर्तिमय गया । इसे स्त्री के रूप सौन्दर्य में लिप्त होने कारण, अपने सनातन ब्रह्म अन्तर्यामी रूप से प्रविष्ट हुआ । उस अण्ड से उस समस्त तप को जड़मूल से खों देना पड़ा, जो इसने ही प्रथमदेहधारी प्रजापालक देवगुरु पितामह ब्रह्मा का अपने पुत्र प्राप्ति के लिए किया था (मत्स्य. ३.३०-४०)। अविर्भाव हुआ। एक तेजोमय अण्ड से सृष्टि का निर्माण जैमिनिअश्वमेध' में ब्रह्मा की एक कथा प्राप्त है, जिससे होने की यह कल्पना, वैदिक प्रजापति से, चिनी 'कु' प्रतीत होता है कि, अति प्राचीन काल में ब्रह्मा को चार से देवता से, एवं मिस्र 'रा' देवता से मिलती जुलती है भी अधिक मुख प्राप्त थे। बक दाल्भ्य नामक ऋषि को (प्रजापति देखिये, म. आ. १.३०; स्कंद. ५.१,३)। यह अहंकार हो गया था कि, मैं ब्रह्मा से भी आयू में विष्णु के अनुसार, विश्व के उत्पत्ति आदि के पीछे ज्येष्ठ हूँ। उसका यह अहंकार चूर करने के लिए, ब्रह्मा ने अनेक अज्ञात एवं अगम्य शक्तियों का बल सन्निहित है, जो पूर्वकल्प में उत्पन्न हुए ब्रह्माओं का दर्शन उसे कराया। उन स्वयं ब्रह्मन् है । यह स्वयं उत्पत्ति आदि की अवस्था से ब्रह्माओं को चार से भी अधिक मुख थे, ऐसा स्पष्ट निर्देश अतीत है। इसी कारण इसकी उत्पत्ति की सारो कथाएँ प्राप्त है (जै. अ.६०-६१)। औपचारिक हैं (विष्णु. १.३ )। ___ शंकर से विरोध-शंकर ने इसका पाँचवा मुख महाभारत में ब्रह्मन् के अनेक अवतारों का वर्णन प्राप्त | क्या ताड़ा इसका विभिन्न कथाय पुराणों में प्राप्त है। है, जहाँ इसके निम्नलिखित अवतारों का विवरण दिया | मत्स्य के अनुसार, एक बार शंकर की स्तुति कर ब्रह्मा गया है:-- मानस, कायिक, चाक्षुष, वाचिक, श्रवणज, ने उसे प्रसन्न किया एवं यह वर माँगा कि वह उसका नासिकाज, अंडज, पद्मज ( पान') । इनमें से ब्रह्मन् का | पुत्र बने। शंकर को इसका यह अशिष्ट व्यवहार सहन न पद्मज अवतार अत्यधिक उत्तरकालीन माना जाता है | हुआ, और उसने क्रोधित होकर शाप दिया. 'पुत्र तो (म. शां. ३५७.३६-३९)। तुम्हारा मैं बनूँगा, किन्तु तेरा यह पाँचवा मुख मेरे द्वारा सृष्टि के सृजन के समय, इसने सृष्टि के सृजनकर्ता ही तोड़ा जायेगा। ब्रह्मा, सिंचनकर्ता विष्णु, एवं संहारकर्ता रुद्र ये तीनों रूप सृष्टिनिर्माण के समय इसने 'नीललोहित' नामक शिवास्वयं धारण किये थे। यही नहीं, सृष्टि के पूर्व मत्स्य, तथा वदार का निर्माण किया। शेष सृष्टि का निर्माण करते सृष्टि के सृजनोपरांत वाराह अवतार भी लेकर इसने समय, इसने उस शिवावतार का स्मरण न किया, जिसपृथ्वी का उद्धार भी किया था। | कारण क्रुद्ध होकर उसने इसे शाप दिया, 'तुम्हारा पाँचवाँ चतुर्मुख--यह मूलतः एक मुख का रहा होगा, किन्तु | मस्तक शीघ्र ही कटा जायेगा। पुराणों में सर्वत्र इसे चतुर्मुख कहा गया है, एवं उसकी मत्स्य में अन्यत्र लिखा है कि, इसके पाँचवें मुख के कथा भी बताई गयी है। इसने अपने शरीर के अर्धभाग कारण बाकी सारे देवों का तेज हरण किया गया। एक से शतरूपा नामक एक स्त्री का निर्माण किया, जो इसकी दिन यह अभिमान में आकर शंकर से कहने लगा, 'इस पत्नी बनी । शतरूपा अत्यधिक रूपवती थी। यह उसके पृथ्वी पर तुम्हारे अस्तित्त्व होने के पूर्व से मैं यहाँ निवास रूप के सौन्दर्य में इतना अधिक डूब गया कि, सदैव ही करता हूँ, मैं तुमसे हर प्रकार ज्येष्ठ हूँ। यह सुनकर उसे देखते रहना ही पसन्द करता था। क्रोधित हो कर शंकर ने सहजभाव से ही इसके मस्तके एक बार अनिंद्य-सुंदरी शतरूपा इसके चारों ओर | को अपने अंगूठे से मसल कर पृथ्वी पर ऐसा फेंक दिया, परिक्रमा कर रही थी। वहीं पास में इसके मानसपुत्र भी | मानों किसी ने फूल को क्रूरता के साथ डाली से नोच कर बैठे थे। अब यह समस्या थी कि, शतरूपा को किस | जुदा कर दिया हो (मत्स्य १८३. ८४-८६)। इसका प्रकार देखा जाये कि, वह कभी आँखो से ओझल न | मस्तक तोड़ने के कारण, शंकर को बाहत्या का पाप हो । बार बार मुड़ मुड़कर देखना पुत्रों के सामने अभद्रता | लगा । उस पाप से छुटकारा पाने के लिये, ब्रह्मा के कपाल थी। अतएव इसने एक मुख के स्थान पर चार मुख | को लेकर उसने कपालीतीर्थ में उसका विसर्जन किया धारण किये, जो चारों दिशाओं की ओर देख सकते थे। । ( पद्म. सृ. १५)। ५२७ - Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ब्रह्मन् प्राचीन चरित्रकोश पाँचवे मस्तक के कट जाने के उपरांत, इसके अन्य मस्तक स्तम्भित हो गये। उनमें से स्वेदकण निकल कर मस्तक पर छा गये । जिसे देखकर इसने उन स्वेदकणों को हाथ से निचोड़ कर जमीन में फेंका। फेंकते ही उससे एक रौद्रे पुरुष उत्पन्न हुआ, जिसको इसने शंकर के पीछे पीछे छोड़ दिया । अंत में शंकर ने उसे पकड़ कर विष्णु के हवाले किया (स्कंद ५.१.२.४ ) । ब्रह्मा एवं शंकर के आपसी विरोध की और अन्य कथाएँ भी पुराणों में प्राप्त है। एक बार शिवपत्नी सती के रूपयौवन पर यह आकृष्ट हुआ, जिस कारण क्रुद्ध हो कर शंकर इसे मारने दौड़ा | किन्तु विष्णु ने शंकर को रोकने का प्रयत्न किया । फिर भी शंकर ने इसे 'ऐंद्रशिर' एवं ' विरूप' बनाया । इसकी विरूपता के कारण सारे संसार में यह अपूज्य ठहराया गया ( शिव रुद्र, स. २०) । । एक बार शंकर ने अपनी संख्या नामक कन्या का दर्शन इसे कराया। उसे देखते ही ब्रह्मा मोहित हो गया। शंकर ने इसका यह अशोभनीय एवं अनुचित कार्य इसके पुत्रों को दिखा कर उनके द्वारा इसका उपहास कराया अपने इस अपमान का बदला लेने के लिए, ब्रह्मा ने दक्षकन्या सती का निर्माण कर, दश द्वारा शंकर का अत्यधिक अपमान कराया (स्कंद २.२.२३) । इसे दाहिने अंगूठे से दक्ष का, एवं बायें से दक्षपत्नी का निर्माण हुआ था (म. आ. ६०.९)। ब्रह्मन् उपरांत शंकर ने नारायण को ज्येष्ठ एवं इसे कनिष्ठ एवं अपूज्य ठहराया । पश्चात्, शंकर के कथनानुसार, इसने गंधमादन पर्वत पर एक यज्ञ किया, जिस कारण श्रौत एवं स्मार्त धर्मविधियों में इसे पूज्यत्व प्रदान किया गया ( स्कन्द. १.१.६; १.३.२, ९-१५; ३.१.१४ ) । सृष्टि निर्माण इसने अनेकानेक प्राणियों का सृजन किस प्रकार किया, इसकी कथा विभिन्न पुराणों में तरह तरह से दी गयी है। " स्कन्द के अनुसार, सृष्टि का निर्माण करने के लिए ब्रह्मा एवं नारायण सर्वप्रथम उत्पन्न हुए थे। सृष्टि निर्माण करने के पश्चात् ब्रह्मा तथा नारायण में यह विवाद हुआ कि, उन दोनों में कौन श्रेष्ठ है ? यह झगड़ा जब तय न हो सका, तो दोनों शंकर के पास गये। वहाँ शंकर ने दोनों के सामने एक प्रस्ताव रखा कि, जो व्यक्ति शिवलिंग के आदि एवं अन्त को शोध पर सर्वप्रथम उसकी सूचना उसे देगा, वही ज्येष्ठ बनने का अधिकारी होगा । ब्रह्मा ने उर्ध्वमार्ग से शोध करना आरम्भ किया, किन्तु इसे सफलता न मिली तब इसने 'गौ' एवं 'केतकी' को अपना झूठा गवाह बना कर, शंकर के सामने पेश करते हुए कहा, 'मैं ने शिवलिंग के आदि एवं अन्त शोध किया है, जिसके प्रत्यक्ष गवाह देनेवाले गौ एवं 'केतकी' सम्मुख है ' । यह सुन कर ब्रह्मा को ज्येष्ठपद दिया गया। किन्तु बाद में असलियत माइम होने के ५२८ महाभारत के अनुसार, वरुणरूपधारी शंकर ने एक चार यज्ञ किया, जिसमें ब्रह्मा ने अपने वीर्य की आहुति दी । उसी यज्ञ से प्रजापतियों का जन्म हुआ (म. अनु. ८५.९९-१०२ ) । पद्म के अनुसार, इसने सर्वप्रथम तमोगुणी प्रजा उत्पन्न की, एवं उसके उपरांत क्रमशः रजोगुणी, तथा सतोगुणी प्रजा का निर्माण किया। इसके द्वारा निर्माण की गयी तमोगुणी सृष्टि पाँच प्रकार की थी, जो निम्नलिखित हैं:तम, मोह, महामोह, तामिस एवं अन्धतामिस्र यह पाँचों प्रकार की सृष्टि अन्धकारमय थी, एवं उसमें केवल नागों की उत्पत्ति ब्रह्मा ने की थी । तत्पश्चात् इसने विभिन्न प्रकारों की कुल आठ सृष्टियों का निर्माण किया, जिनके नाम एवं उनमें उत्पन्न प्राणियों के नाम इस प्रकार हैं:- तिर्थकसोत (पद्म), ऊ सोत (देव), अर्वाक्स्रोतस् (मनुष्य), अनुग्रह, भूत, प्राकृत, वैकृत एवं कौमार । पद्म में वह भी लिखा है कि, देव, राक्षस, पितर, मनुष्य, यक्ष एवं पिशाच गणों की उत्पत्ति ब्रह्मा ने अपने मनसामर्थ्य से की ब्रह्मा का पहला शरीर तमोगुणी था, जिसके 'जघन' से असुरों का निर्माण हुआ। पश्चात, इसने अपने तमोगुणी शरीर का त्याग कर, नये सतोगुणी शरीर को धारण किया। इसके द्वारा परित्याग किये गये तमोगुणी शरीर से रात्रि का निर्माण हुआ, एवं इसके द्वारा धारण किये गये सतोगणी शरीर से देवों की उत्पत्ति हुई। पश्चात् इसने अपने द्वितीय शरीर का भी त्याग किया, जिससे दिन की उत्पत्ति हुयी। इसके तृतीय शरीर से ' पितर ' उत्पन्न हुए, एवं उसके त्यक्त भाग से संध्याकाळ की उत्पत्ति हुयी। इसके चतुर्थ शरीर से मनुष्य उत्पन्न हुए, एवं उसके त्यक्त भाग से उषःकाल का निर्माण हुआ । इसके पाँचवे शरीर से यक्ष एवं राक्षस उत्पन्न हुए। M Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ब्रह्मन् प्राचीन चरित्रकोश ब्रह्मन् अपने शरीर के द्वारा देवता, ऋषि, नाग एवं असुर | शतरूपा अथवा सावित्री इसके द्वारा ही पैदा की गयी थी। निर्माण करने के पश्चात् , इसने उन चारों प्राणिगणों को अतएव उसका एवं ब्रह्मा का सम्बन्ध पिता एवं पुत्री का एकाक्षर 'ॐ' का उपदेश किया था (म. आश्व. २६. | हुआ। किन्तु इसने उसे अपनी धर्मपत्नी मानकर उसके ८; देव देखिये)। साथ भोग किया । पुराणों में प्राप्त यह कथा, वैदिक ब्रह्मा के शरीर के विभिन्न भागों से किन किन प्राणियों | ग्रन्थों में निर्दिष्ट प्रजापति के द्वारा अपनी कन्या उषा से की उत्पत्ति हुयी है, इसकी जानकारी विभिन्न पुराणों में | किये 'दुहितृगमन' से मिलती जुलती है (प्रजापति तरह तरह से दी गयी है। पद्म के अनुसार, ब्रह्मा के हृदय | देखिये)। मत्स्य के अनुसार, ब्रह्मा स्वयं वेदों का उद्गाता से बंकरी, उदर से गाय, भैस आदि ग्राम्य पशु, पैरों से | एवं 'वेदराशि' होने के कारण, यह दुहितृगमन के पाप अश्व, गधे, उँट आदि वन्य पशु उत्पन्न हुए। मत्स्य के | से परे है (मत्स्य. ३)। अनुसार, इसके दाहिने अंगूठे से दक्ष, हृदय से मदन, अपने द्वारा किये गये दुहितृगमन से लज्जित होकर, अधरों से लोभ, अहंभाव से मद, आँखो से मृत्यु, स्तनाग्र एवं कामदेव को इसका जिम्मेदार मानकर, इसने मदन को से धर्म, भ्रमध्य से क्रोध, बुद्धि से मोह, कंठ से प्रमोद, शाप दिया कि, वह रुद्र के द्वारा जलकर भस्म होगा। इसके हथेली से भरत, एवं शरीर से शतरूपा नामक पत्नी उत्पन्न | शाप को सुनकर मदन ने जवाब दिया, 'मैने तो अपना हुयीं। उक्त वस्तुओं एवं व्यक्तियों की कोई माता नहीं थी, कर्तव्य निर्वाह किया है। उसमें मेरी त्रुटि क्या है ? ' यह कारण ये सभी ब्रह्मा के शरीर से ही पैदा हुए थे । मत्स्य सुनकर ब्रह्मा ने उसे उःशाप दिया, 'रुद्र के द्वारा दग्ध होने एवं महाभारत के अनुसार, इसके शरीर से मृत्यु नामक के बाद भी तुम निम्नलिखित बारह स्थान पर निवास स्त्री की उत्पत्ति हो गयी थी (म. द्रो. परि. १.८. करोंगेः-स्त्रियों के नेत्रकटाक्ष, जंघा, स्तन, स्कंध, अधरोष्ठ | आदि शरीर के भाग, तथा वसंतऋतु, कोकिलकंठ, चंद्रिका, वेदों का निर्माण-पुराणों के अनुसार, ब्रह्म के चार | वषां ऋतु, चैत्रमास और वैशाखमास आदि ' (मत्स्य. . मुखों से समस्त वैदिक साहित्य एवं ग्रथों का निर्माण हुआ | ४. ३-२० स्कंद ५.२.१२)। . है। विभिन्न प्रकार के वेद निर्माण करने के पूर्व, इसने ___ प्रभासक्षेत्र में यज्ञ--रकंद में, ब्रह्मा की पत्नी सावित्री पुराणों का स्मरण किया था। पश्चात् , अपने विभिन्न मुखों एवं गायत्री को एक न मान कर अलग अलग माना गया . से इसने निम्नलिखित वैदिक साहित्य का निर्माण कियाः- | है, एवं सावित्री के द्वारा इसे तथा अन्य देवताओं को जो (1) पूर्वमुख से-गायत्री छंद, ऋग्वेद, त्रिवृत, रथंतर शाप दिया गया था उसकी कथा निम्न प्रकार से दी गयी एवं अग्निष्टोमः (२) दक्षिणमुख से-यजुर्वेद, पंचदश है :- एक बार ब्रह्मा ने प्रभासक्षेत्र में एक यज्ञ किया. ऋक्रसमूह, बहत्साम एवं उक्थयज्ञ; (३) पश्चिममुख से- जिसमें यज्ञ की मुख्य व्यवस्था विष्णु को, ब्राह्मणसेवा इन्द्र सामवेद, सप्तदश ऋक्समूह, वैरुपसाम एवं अतिरात्रयज्ञः | को, एवं दक्षिणादान कुबेर को सौंपी गयी थी। (५) उत्तरमुख से-अथर्ववेद, एकविंश ऋक्समूह, ब्रह्मा के इस यज्ञ में निम्रलिखित ऋषि ब्रह्मन् , उद्गातृ, आप्तोर्याम, अनुष्टुप छंद एवं वैराजसाम। होतृ एवं अध्वर्यु बने थेः___ वेदादि को निर्माण करने के पश्चात् , इसने ब्रह्मा नाम से | (1) ब्रह्मन्गण-नारद (ब्रह्मा ), गौतम अथवा गर्ग ही सुविख्यात हुए अपने निम्नलिखित मानसपुत्रों का निर्माण (ब्राह्मणाच्छंसी), देवगर्भ व्यास (होता), देवल भरद्वाज कियाः--मरीचि, अत्रि, अंगिरस् , पुलस्त्य, पुलह, ऋतु, | (आग्नीध्र)। दक्ष, भृगु एवं वसिष्ठ (ब्रह्मांड, २. ९) महाभारत में | (२) उद्गातृगण-अंगिरस् मरीचि गोभिल (उद्गाता), इसके धाता एवं विधाता नामक दो मानसपुत्र और दिये पुलह कौथुम (उद्गाता अथवा प्रस्तोता), नारायण गये हैं (म. आ. ६०.४९)। शांडिल्य (प्रतिहर्ता), अत्रि अंगिरस् (सुब्रह्मण्य )। ___ मदन को शाप-ब्रह्मा की पत्नी शतरूपा के लिए मत्स्य (३) होतृगण-भृगु (होता), वसिष्ठ मैत्रावरुण में सावित्री, सरस्वती, गायत्री, ब्रह्माणी आदि नामांतर | | (मैत्रावरुण ऋत्विज्), ऋतु मरीचि (अच्छावाच्), च्यवन दिये गये है। अपने द्वारा उत्पन्न पुत्रों को प्रजोत्पत्ति करने | गालव (ग्रावा अथवा ग्रावस्तुद्)।। की आज्ञा देकर, यह स्वयं अपनी पत्नी सावित्री के साथ | (४) अध्वर्युगण–पुलस्त्य (अध्वर्यु), शिबि अत्रि रत हुआ, जिससे स्वायंभुव मनु की उत्पत्ति हुयी । । (प्रतिष्ठाता अथवा प्रस्थाता), बृहस्पति रैभ्य (नेष्टा), प्रा. च.६७] Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ब्रह्मन् प्राचीन चरित्रकोश ब्रह्मन् अंशपायन सनातन (उन्नेता)। बाकी सारे ऋषि इसके | विभिन्न वरप्रदान करते हुए कहा, 'ब्रह्मा की पूजा करनेयज्ञ के सदस्य बने थे। वाले व्यक्ति को सुख एवं मोक्ष प्राप्त होगा। इन्द्र शत्रुद्वारा ___ सावित्री से शाप--यज्ञ की दीक्षा लेकर यह यज्ञ प्रारम्भ पराजित होकर भी, ब्रह्मा की सहायता प्राप्त कर पुनः करने ही वाला था कि, इसे ध्यान आया कि, यज्ञकुण्ड के अपना पद प्राप्त करेगा। विष्णु को मनुष्यजन्म में पास सावित्री उपस्थित नहीं है, और बिना पत्नी के यज्ञ पत्नी विरह सहन करना पडेगा, किन्तु अन्त में वह शत्रुओं आरम्भ नहीं किया जा सकता । अतएव इसने सावित्री को को परास्त कर लोगों का पूज्य बनेगा। शंकर के पूजक पाप बुलावा भेजा, पर सावित्री के आने में देर हुयी। पता से मुक्त होकर अपना उद्धार करेंगे। अग्नि की तृप्ति पर नहीं उसे वहाँ आने में हिचकिचाहट थी, अथवा वह ही देवों को सुख और शान्ति मिलेगी। लक्ष्मी सब को प्रिय अकेले न आकर लक्ष्मी के साथ आने के लिए उसे होगी, तथा वह हरएक जगह पूजी जायेगी; उसके कारण ढूँढ रही थी, बहरहाल उसे देरी हुयी। इस देरी से ही लोग तेजस्वी होंगे । देवस्त्रियाँ संततिविहीन होने पर ब्रह्मा चिड़ गया, तथा उसने इन्द्र को आज्ञा दी कि, भी उन्हे निःसंतान होने का दुःख न होगा' (पद्म. सृ. १७)। शीघ्र ही किसी स्त्री को इस कार्य की पूर्ति के लिए यज्ञ में उपस्थित तीन अतिथि--ब्रह्मा का यह यज्ञ लाया जाय । इन्द्र एक ग्वाले की कन्या ले आया। ब्रह्मा सहस्त्र युगों तक चलता रहा, अर्थात् यह ब्रह्मा की वर्षने उसे 'गायत्री' नाम देकर वरण किया, एवं यज्ञ पर गणना से करीब अर्ध वर्ष तक चला (स्कंद. ६.१९४)। उसे बिठा कर कार्य आरम्भ किया। स्कंद के अनुसार, ब्रह्मा के इस यज्ञ में तीन विभिन्न व्यक्ति कुछ समय के बाद सावित्री आयी, तथा उसने देखा कि विचित्र रूप से यज्ञ में आये, जिनकी कथा अत्यधिक रोचक यज्ञ करीब करीब हो चुका है। यह देखकर वह ब्रह्मा एवं है। उपस्थित देवों पर अत्यधिक क्रुद्ध हुयी कि, मेरे बिना यज्ञ । यज्ञ चल रहा था कि, शंकर अपनी विचित्र वेशभूषण किस प्रकार आरम्भ हुआ। कुपित होकर उसने ब्रह्मा में आया, और अपना कपाल मंडप में रख दिया। उसे को शाप दिया कि, वह अपूज्य बनकर रहेगा, उसकी कोई कोई पहचान न सका । ऋत्विजों में से एक ने उस कपाल पूजा न करेगा (स्कंद ७.१.१६५)। को बाहर फेंकने का प्रयत्न किया, किन्तु उसके फेंकते ही सावित्री ने अन्य देवताओं को भी शाप दिये जो इस उस स्थान पर लाखों कपाल उत्पन्न हो गये। यह कृत्य प्रकार थे:-इन्द्र को-हमेशा पराभव होने का एवं कारावास | देख कर सबको आभास हुआ कि, यह भगवान् शंकर की भोगने का विष्णु को-भृगु ऋषि के द्वारा शाप मिलने ही लीला हो सकती है। अतएव समस्त देवताओं ने तुरंत का, स्त्री का राक्षसद्वारा हरण होने का, तथा पशुओं की | उसकी स्तुति कर, उससे क्षमा माँगी । शंकर प्रसन्न हुए और दास्यता में रहने काः रुद्र को-ब्राह्मणों के शाप से पौरुष के ब्रह्मा से वर मांगने को कहा। किन्तु ब्रह्मा ने यज्ञ की दीक्षा नष्ट होने का; अग्नि को-अपवित्र पदार्थों की ज्वाला से अधिक लेने के कारण शंकर से वर माँगने की मजबूरी प्रकट की, भड़कने का; ब्राह्मणों को-लोभी बनने का, दूसरे के अन्न और स्वयं शंकर को वर प्रदान किया। इसके उपरांत पर जीवित रहने का, पापियों के घर भी यज्ञहेतु जाने का, ब्रह्मा ने यज्ञकुण्ड की उत्तर दिशा की ओर शंकर को उचित तथा द्रव्यसंचय में अधिक प्रयत्नशील रहने का आदि । आसन देकर, उसके प्रति अपना सम्मान प्रकट किया। इस प्रकार प्रमुख देवताओं को शाप देकर सावित्री वापस दूसरे दिन एक बटु ने यज्ञमंडप में प्रवेश कर सहजआयी। देवस्त्रियों ने उसका साथ न दिया अतएव भाव से एक सर्प छोड़ दिया, जिसने उपस्थित होतागणों सावित्री ने उन्हें शाप दिया कि 'तुम सभी बंध्या रहोगी | को अपने पाश में बाँध लिया । इस कृत्य से क्रोधित लक्ष्मी को शाप दिया 'तुम चंचल रहकर, मूर्ख, म्लेंच्छ, | होकर उपस्थित सदस्यों ने शाप दिया कि, वह स्वयं सर्प आग्रही तथा अभिमानी लोगों की संगति करोगी'। हो जाये । किन्तु उस बटु 'शंकर भगवान्' की स्तुति कर इन्द्राणी को शाप दिया, 'तुम्हारी इज्जत लेने के लिए | शाप से मुक्त हुआ। नहुष तुम्हारा पीछा करेगा, तथा तुम्हें अपनी रक्षा के तीसरे दिन एक विद्वान् अतिथि आया और उसने लिए बृहस्पति के घर पर छिपकर बैठना पडेगा। कहा, 'आप सभा लोगों से मैने केवल गुण प्राप्त किये हैं, गायत्री से वरदान-सावित्री के चले जाने के उपरान्त, अतएव मैं विद्वान् बनने का अधिकारी हूँ। ब्रह्मा ने गायत्री ने समस्त देवताओं एवं उनकी धर्मपत्नियों को उसका सत्कार किया एवं उसे उचित आसन दिया। ५३० Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ब्रहान प्राचीन चरित्रकोश उपर्युक्त यज्ञ के अतिरिक्त, ब्रह्मा के द्वारा निम्नलिखित स्थानों पर यज्ञ करने के निर्देश प्राप्त हैं:- हिरण्यग पर्वत पर बिंदुसर के समीप, धर्मारण्य में ब्रह्मसर के समीप, एवं कुरुक्षेत्र में (म. स. ३.८९ प. व. ८२.७४; १२९.१) । अन्य कथाएँ — एक बार अभिमान में आ कर तारकासुर नामक दैत्य देवों को अत्यधिक त्रस्त करने लगा। फिर उसके विनाश के लिए ब्रह्मा ने अपनी एक मानसकन्या निशा अथवा विभावरी को पत्नी पार्वती करने के लिए मेजा। आगे चलकर उसी पार्वती के गर्भ से उत्पन्न हुए सफेद ने तारकासुर का नाश किया ( मत्स्य १५४. ४७-७२) । शिवप्रसाद से इसने पुलोमा नामक दैत्य का वध किया (स्कंद. ५.२.६६ ) । जिस समय शंकर ने त्रिपुरासुर का वध किया था, उस समय ब्रह्मा उसका सारथी था (म. क. २४.१०८) । इसकी मानसकन्याओं में सरस्वती नामक कन्या इसे विशेष प्रिय थी। इस कारण इसके दर्शनार्थं वह प्रतिदिन आया करती थी। एक बार इसके दर्शन के लिए सहजबश आया हुआ पुरूरवस् राजा सरस्वती को देखकर उसपर मोहित हुआ। फिर अपनी पत्नी उर्वशी के द्वारा सरस्वती को बुलवा कर, उसके साथ रत हुआ । यह जान कर कुद्ध हुए ब्रह्मा ने अपनी पुत्री सरस्वती को नदी बन जाने का शाप दिया । उर्वशी के द्वारा प्रार्थना की जाने पर ब्रह्मा ने सरस्वती को शाप दिया, नदी हो जाने के उपरांत तुम नदियों में पवित्र समझी जाओगी ' ( ब्रह्म. १०१ ) । विष्णु रुद्र आदि अन्य देवताओं के समान ब्रह्मा के द्वारा भी अनेक तीर्थस्थान, एवं पवित्र क्षेत्रों का निर्माण किया गया था। इन्द्रद्युम्न नामक राजा के द्वारा अनुरोध करने 'पर, ब्रह्मा ने सुविख्यात 'जगन्नाथ' क्षेत्र की स्थापना की थी ( स्कंद. २.२.२३ ) । ब्रह्मा की कालगणना ब्रह्मा की आयु सौ वर्षों की मानी जाती है। किन्तु ये सौ वर्ष सामान्य लोगों की वर्ष गणना से भिन्न हैं। अतएब उस हिसाब से इसकी कुल आयु लाखों वर्षों की ठहरती है । ब्रह्मा की कालगणना में एक वर्ष में तीन सौ साठ दिन रहते है। किन्तु इसका एक दिन एक हजार 'पर्यायों का बनता है, एवं एक पर्याय में कृतयुग (१७२८००० वर्ष), त्रेतायुग (१२९६००० वर्ष ), द्वापरयुग ( ८६४००१ वर्ष), तथा कलियुग (४३२००० वर्ष) समाविष्ट होते । ब्रह्मा के कालगणना की तालिका इस प्रकार है : ब्रह्मन् ब्रह्मा का एक दिन अथवा एक कल्प १००० पर्याय, १ पर्याय = कृत, त्रेता, द्वापर एवं कलियुग ( कृतयुग = १,७२८००० वर्ष त्रेतायुग = १२,९६००० वर्ष द्वापरयुग = ८,६४००१ वर्ष कलियुग ४,२२००० वर्ष ) ४,२२०००१ वर्ष .. ब्रह्मा का एक दिन = ४३, २००००१००० = ४३,२००००००० वर्ष ( विष्णु. ३.२.४८ ) । = विष्णु के एक दिन के बराबर होता है, एवं विष्णु का पौराणिक कालगणना के अनुसार, ब्रह्मा का एक वर्ष एक वर्ष शंकर के एक दिन के बराबर होता है ( स्कंद. ६.१.९४) । ५३१ पद्म के अनुसार, ब्रह्मा के आयु के ५० वर्ष अर्थात् एक परार्ध समाप्त हो चुका है, एवं दूसरा चल रहा है (पा. सु. २ स्कंद ७.१.१०४) । इसकी रात्रि का फाल बड़ी है, जिसे नैमित्तिक प्रलय का काल कहा जाता है (भा. ३.११.२२-३५; १२.४.२ विष्णु. १.२.११-२७९ मत्स्य. १४२.५.३६ ) । हर एक कल्प के आरम्भ में, जो अवतार ब्रह्मा द्वारा लिए गये हैं, उस कल्प को वही नाम दिया जाता है। ग्रन्थ-- ब्रह्मा द्वारा 'वास्तुशास्त्र' पर लिखित एक ग्रन्थ उपलब्ध है (मत्स्य २५२.२ ) । ' दण्डनीति' नामक एक लक्ष अध्यायों का एक अन्य ग्रन्थ भी इसके द्वारा लिखा गया था। आगे चलकर शंकर ने उस अन्थ को बस हजार अध्यायों में संक्षिप्त किया, जिसे 'देशालाक्ष' कहते है। बाद में, इन्द्र ने उसे पाँच हजार अध्यायों में संक्षिप्त किया, एवं उसे 'बाहुदंतक' नाम दिया। आगे चलकर ने उसे संक्षिप्त कर तीन हजार अध्यायों का एवं उसके अन्य ऋषियों के द्वारा यह और संक्षिप्त किया गया। बृहस्पति अध्यायों का बना दिया। बाद में यह अन्य प्रजापति के बाद शुक्राचार्य ने उसे और भी संक्षिप्त कर एक हजार द्वारा अति संक्षिप्त कर दिया गया ( म. शां. ५९.८७; प्रजापति देखिये) । स्थान - पद्म में ब्रह्म के एक सौ आठ स्थानों का निर्देश प्राप्त है ( पद्म. सृ. २९.१३२ - १५९ ) । ब्रह्मबल - व्यास की अथर्वन् शिष्यपरंपरा में से ब्रह्मवलि नामक आचार्य का नामान्तर । Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ब्रह्मन् प्राचीन चरित्रकोश २. बसिलोपन एक गोत्रकार । २. ऋग्वेदी ब्रह्मचारी । ब्रह्मबलि - एक आचार्य, जो व्यास की अथर्वन् शिष्यपरंपरा में से देवदर्श ऋषि के चार शिष्यों में से एक था। ब्रह्मबलिन् - वसिष्ठ कुलोत्पन्न एक ऋषि । ब्रह्ममालिन् - - वसिष्ठकुलोत्पन्न एक गोत्रकार गण । ब्रह्मरात -- याज्ञवल्क्य ऋषि का पिता ( विष्णु. ३. ५.२ ) । भागवत में इसके नाम के लिए 'देवरात' पाठभेद प्राप्त है ( देवरात ३. देखिये ) । वायु में इसे 'ब्रह्मवाह' कहा गया है। २. शुकाचार्य का नामान्तर ( भा. १.९.८ ) । ब्रह्मराति - याज्ञवल्क्य ऋषि का पैतृक नाम । ब्रह्मवत् भृगुकुलोत्पन्न एक ऋषि एवं मंत्रकार ब्रह्मवादिनी - प्रभास नामक वसु की पत्नी । ब्रह्मवाह - याज्ञवल्क्य का पिता 'ब्रह्मरात' के नाम के लिये उपलब्ध पाठभेद ( वायु. १.६०.४१ ; ब्रह्मरात देखिये) । ब्रह्मवृद्धि छंदोगमाहकि - एक आचार्य, जो मित्र वर्चस् ऋषि का शिष्य था (वं. बा. १) । ब्रह्मशत्रु - रावणपक्षीय एक राक्षस ( वा. रा. सुं. ५.५४ ) । ब्रह्मसावर्णि दसवे मन्वन्तर का अधिपति मनु, जो ब्रह्मा एवं दक्षकन्या सुव्रता का पुत्र था ( ब्रह्मांड. ४.१. ३९-५१ मार्क. ९१.१० ) | यह चाक्षुष मन्वन्तर में पैदा हुआ था वायु, १००.४२ : मनु देखिये) । भागवत में इसे उपश्लोक का पुत्र कहा गया है ( भा. ८. १३.२१) । देवीभागवत में दसवें मन्वन्तर का नाम भ भक्षक- एक शूद्र, जो अत्यंत पापी था। एक बार प्यास से अत्यधिक व्याकुल होकर, इसने तुलसी चौरे के पास आकर, उसके पवित्र जल को ग्रहण किया, जिससे इसके समस्त पाप धुल गये । पश्चात्, एक व्याध द्वारा मारे जाने के उपरांत इसे स्वर्ग प्राप्त हुआ । भग 'मेरुसावर्णि' बताया गया है, एवं उसके अधिपति के नाते ब्रह्मसावर्णि का नाम न दे कर, वैवस्वतपुत्र प्रपत्र का नाम दिया गया है ( दे. भा. १०.१३ ) । ब्रह्मसूनु - ग्यारहवें मन्वन्तर का अधिपति मनु ( मत्स्य. ९.३६ ) । ब्रह्महत्या - शंकर के द्वारा निर्माण की गयी एक देवी, जो उसने भैरव नामक राक्षस का वध करने के लिये ' उत्पन्न की थी। " भैरव नामक राक्षस ने ब्रह्मा का सर काट लिया । फिर शंकर ने इसे निर्माण किया, एवं इसे भैरव के पीछे छोड़ दिया। भारत के सारे शिवस्थानों में इसका उत्सव मनाया जाता है केवल काशी में इसका उत्सव नहीं होता। शिवपुराण में वर्णन किया इसका माहात्म्य अतिशयोक्त प्रतीत होता है। - ब्रह्मन् एक राक्षस, जो अनायुषा नामक राक्षसीका पौत्र, एवं नृप राक्षस का पुत्र था। ब्रह्मतिथि काण्य एक वैदिक सूट (८५) । ब्रह्मापेत -- एक राक्षस, जो ब्रह्मधान राक्षस का पुत्र था ( ब्रह्मांड ३.७.९८ ) । यह अश्विन माह में सूर्य के साथ भ्रमण करता हैं ( भा. १२.११.४३ ) । . ब्रह्मावर्त (खा प्रिय) एक राजा जो पभाएवं जयंती का पुत्र था ( भा. ५.४.१० ) । ब्रह्मिष्ठ -- (सो. नील. ) एक राजा, जो मस्त्य एवं वायु के अनुसार मुद्गल राजा का पुत्र था। इसकी स्त्री का नाम इंद्रसेना था। ब्राह्मण--एक नाग, जो कश्यप एवं कद्रू का पुत्र था । ब्राह्मपुरेयक -- वसिष्ठकुलोत्पन्न एक गोत्रकार ऋषिगण । इसके नाम के लिए 'ब्रह्मकृवेजन' पाठभेद प्राप्त है । यह पूर्व जन्म में एक विलासी राजा था, जिसने एक सुन्दर स्त्री का अपहरण कर उसका सतीत्व नष्ट किया था । इसी पापकर्म के कारण इस शूद्रयोनि में अनेकानेक यातनाए भोगनी पड़ी (पद्म. ब्र. २२) । भग - एक वैदिक देवता जो सम्पत्ति, वैभव एवं सौभाग्य ५३२ Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भग प्राचीन चरित्रकोश भगदत्त की देवता मानी जाती है। यह बारह आदित्यों में से एक महाभारत में इसे बारह आदित्यों में से एक कहा गया माना जाता है। ऋग्वेद में आदित्यों की संख्या छः दी | है,एवं इसकी माता का नाम अदिति, एवं पिता का नाम गयी है, एवं निम्नलिखित देवताओं को आदित्य कहा गया | कश्यप बताया गया है । यह अर्जुन के जन्मोत्सव में तथा है:-भग, मित्र, अर्यमन् , वरुण, दक्ष एवं अंश (ऋ. | स्कंद के अभिषेक में उपस्थित था (म. आ. ११४.५५%; २.२७)। श. ४४.५)। खाण्डववनदाह के समय घटित हुए युद्ध में ऋग्वेद का एक सूक्त प्रमुखतःभग की स्तुति में अर्पित | यह इन्द्र के पक्ष में था, एवं तलवार तथा धनुष्य लेकर किया गया है (ऋ. ७.४१)। ऋग्वेद में कुल साठ स्थानों | इसने शत्रु पर आक्रमण किया था (म. आ. २१८.३५)। में इस देवता का नाम आता है। भग का शाब्दिक अर्थ ३. सौरमण्डल का एक आदित्य (म. आ. ५९.१५)। 'प्रदान करनेवाला है। यही कारण है कि, वैदिक सूक्तों में | यह माघ माह में प्रकाशित होता है, एवं इसकी ११०० सम्पत्ति के वितरक के रूप में इसका निर्देश कई | किरणें होती है (भावि. ब्राह्म. १.७८)। भागवत के बार हआ है। अपने उपासकों को यह सम्पत्ति से परिपूर्ण | अनुसार, यह पौष माह में प्रकट होता है, और इसके साथ (भगवान् ) बनाता है (ऋ. ५.४६ )। इसकी बहन का स्फूर्ज, राक्षस, अरिष्टनेमि गंधर्व, ऊर्ण, यक्ष, आयु ऋषि नाम उषा था (ऋ. १.१२३.५)। कर्कोटक नाग तथा पूर्वचित्ति अप्सरा रहती हैं (भा. १२. भग के नेत्रों को रश्मियों से विभूषित कहा गया है ११.४२)। (ऋ. १. १३६)। यास्क ने इसे पूर्वाह्न का अधिपति | ४. एकादश रुद्रों में से एक, जो अर्जुन के जन्मोत्सव कहा है (नि. १२.१३)। ऋग्वेद में आदित्य, सूर्य, में सम्मिलित था (म. आ. ११४.५८)। विवस्वत् , पूषन् , अर्यमन् , वरुण, मित्र तथा भग को अलग | ___भगदत्त-प्राग्ज्योतिषपुर का अधिपति, जो नरक अलग देवता माना गया है । पर वास्तव में ये सारे सूर्य के (भौमासुर ) तथा भूमि का पुत्र था (म. द्रो. २८.१)। ही अनेक रूप हैं (ऋ. ८.३५.१३-१५)। भग नाम का इसे 'भौमासुर' मातृकनाम भी था, परन्तु कई ग्रंथों में ईरानी रूप 'बघ ' (देव) है, जो ' अहुर मज्द' की एक | इसे 'भीमासुरपुत्र' भी कहा गया हैं (भा. १०.५९)। उपाधि के रूप में प्राप्त है। ___ एक बार इसके पिता भौम ने इन्द्र के कवच एवं २. बारह आदित्यों मे से एक । शतपथ ब्राह्मण में, | कुण्डल का हरण किया, जिसके कारण क्रुद्ध होकर कृष्ण प्रजापति के यज्ञ मे इसने अपनी आँखे किस प्रकार खोई ने युद्ध में उसे परास्त कर उसका एवं उसके सात पुत्रों इसका वर्णन प्राप्त है । प्रजापति के यज्ञ में यह दक्षिण को मौत के घाट उतार दिया । भूमि ने कृष्ण से विलाप दिशा में बैठा था। रुद्र के द्वारा प्रजापति का 'वेध' किये कर अपने पुत्र का जीवनदान माँगा । इस प्रकार कृष्ण ने जाने पर, उसके यज्ञ का हर्विभाग इसके पास लाया गया प्रसन्न होकर भगदत्त को पुनः जीवित कर दिया। जिसे देखने से इसकी आँखे जाती रही (श. ब्रा. १.७.४)। पिता के पश्चात् यह प्राज्योतिषपुर देश का अधिपति - रुद्र के द्वारा इसकी आँखे नष्ट होने की यही कथा हुआ, जिसकी राजधानी प्रागज्योतिष थी। यह देश भागवत में अन्य प्रकार से दी गयी है। दक्ष के यज्ञ में यह | आधुनिक काल का आसाम प्रांत ही है। इसका किरात, ऋत्विज था । दक्षद्वारा शिव की निंदा किये जाने पर,आँखो चीन एवं समुद्रतटवर्ती सैनिकों के साथ युद्ध भी हुआ के संकेत से इसने दक्ष को इशारा करते हुए उसे और था । यह युद्ध शिक्षा में पारंगत था । इसे यवनाधिप भी प्रोत्साहित किया था। इस कारण शिव के पार्षद वीरभद्र कहा गया है (म. स. १३.१३-१४)। आसाम प्रांत ने इसकी आँखे बाहर निकाल ली (भा. ४.५.१७-२०)। में हाथी उस समय भी होते थे, अतएव यह गजयुद्ध में महाभारत के अनुसार, स्वयं रुद्र ने इसकी आँखे फोड़ | बड़ा प्रवीण था। डाली थीं (म. अनु. २६५. १८ कुं)। पश्चात् यह शंकर यह पण्डु राजा का मित्र था (म. स. १३.१४)। यह की शरण में गया, जिस कारण शंकर ने इसे उःशाप दिया | द्रौपदी के स्वयंवर गया था (म. आ. १७७.१२)। 'तुम मित्रों की आँखों से देख सकोगे (भा. ४.७.३)। जरासंध का मित्र होने पर भी यह युधिष्ठिर के प्रति पिता ___ इसकी पत्नी का नाम सिद्धि था, जिससे इसे महिमा, | की भाँति स्नेह रखता था। यह इन्द्र का मित्र एवं इन्द्र विभु तथा प्रभु नामक पुत्र, तथा आशि नामक कन्या थी के समान ही पराक्रमी था। राजसूय दिग्विजय के समय (भा. ६.१८.२, ६.६.३९)। अर्जुन के साथ इसका घोर युद्ध हुआ था । अर्जुन की Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगदत्त प्राचीन चरित्रकोश भगीरथ वीरता से प्रसन्न हो कर, इसने उसकी इच्छा के अनुसार भगदत्त के कृतप्रज्ञ तथा वज्रदत्त नामक पुत्र थे । कृतप्रज्ञ कार्य करने की प्रतिज्ञा की थी, तथा अतुल धनराशि भेंट | भारतीय नकुल के द्वारा मारा गया अतएव वज्रदत्त देकर उसे बिदा किया था (म. स. २३.२७४) राजगद्दी का अधिकारी बनाया गया (म. अ.४.२९)। युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में यह यवनों के साथ उप- | अर्जुन का वज्रदत्त से भी युद्ध हुआ था, जिसमें अर्जुन स्थित था, तथा अच्छी जाति के वेगशाली अश्व एवं बहत | ने उसे जीता था (म. आश्व. ७५.१-२०)। सी भेंटसामग्री इसने युधिष्ठिर को दी थी। इसने युधिष्ठिर भगदा-स्कंद की अनुचरी मातृका (म. श. ४५.२६) को बड़ी शान शौकत के साथ हीरे तथा पद्मरागमणि के | भगधर -(सो. ऋक्ष.) एक राजा, जो वायु के अनुसार आभूषण एवं विशुद्ध हाथीदाँत की बनी मूठवाली तलवार विद्योपरिचर का पुत्र था (वायु. ९९.२२१)। कई पुराणों भेंट दे कर अपनी आदर भावना प्रकट की थी (म. स. | में इसके पिता के नाम के लिए 'चैद्योपरिचर' पाठभेद ४७. १४)। भारतीय युद्ध में, चीन तथा किरात सैनिकों | प्राप्त है। के साथ भगदत्त कौरवों के पक्ष में शामील हुआ था | भगनंदा-स्कंद की अनुचरी मातृका (म. श. ४५. (म. उ. १९.१४-१५) ११)। इसके नाम के लिए, 'भगदा' पाठभेद प्राप्त है। __ यह युद्धभूमि में बड़ा बलवान् एवं साहसी राजा था। भगपाद--अत्रिकुलोत्पन्न एक गोत्रकार। बड़े बड़े योद्धाओं से इसकी लड़ाइयाँ हुयी थी। भारतीय | भगवत्-तुषित देवों में से एक। युद्ध में यह कौरवपक्ष में था । यह सेनासहित दुर्योधन की ___ भगवत् औपमन्यव काराडि:--एक सामवेदी सहायता के लिए आया था (म. उ. १९.१२) । प्रथम दिन | आचार्य, जिसका निर्देश जैमिनिगृह्यसूत्र के अन्तर्गत उपाके संग्राम में ही इसका एवं विराट का युद्ध हुआ था | कर्मांग तर्पण में प्राप्त है (जै. गू. १.१४)। (म. भीष्म. ४३.४६-४८) । इसने अपने बाहुबल से | भगीरथ-(सू. इ.) सुविख्यात इक्ष्वाकुवंशीय . भीम को भी रणभूमी में मूर्छित कर, घटोत्कच को पराजित | राजा, जो सम्राट दिलीप का पुत्र था। अपने पितरों के.. किया था (म. भी. ६०.४७)। उद्धार करने के लिए इसने अनेकानेक प्रयत्न कर गंगा __ इसने दशार्णराज को युद्धभूमि में पराजित किया था. | नदी को पृथ्वी पर लाया, एवं इस तरह अपने प्रपितामह । एवं वह इसके द्वारा ही मारा गया (म. भी.; असमंजस् , पितामह अंशुमत् एवं पिता दिलीप से चलता ९१. ४२-४४)। इसने भीमसेन के सारथि विशोक को आ रहा प्रयत्न सफल किया। इसी कारण आगे चलकर युद्धभूमि में लडते लडते मूच्छित कर दिया था। इसके | लोगों ने अत्यधिक प्रयत्न के लिए 'भगीरथ' नाम को द्वारा क्षत्रदेव की दाहिनी भुजा का विदारण हुआ था लाक्षणिक रूप में प्रयुक्त करना आरम्भ किया। इसके सिवाय सात्यकि एवं द्रुपद के साथ भी इसका घोर इसके प्रपितामह असमंजस् के पिता सगर के कुल संग्राम हुआ, जिसमें गजयुद्ध का कौशल दिखाते हुए, | साठ हजार पुत्र थे, जो कपिल ऋषि के शाप के कारण दग्ध इसने अपने बाणों से सेना को त्रस्त कर दिया था (म. हो गये। बाद को कपिल ऋषि ने अंशुमन् तथा दिलीप से भी. १०७.७-१३) उनके मुक्ति का मार्ग बताते हुए कहा 'यदि तुम लोग __एकबार कर्ण ने अपने दिग्विजय के समय इसे पराजित अपने पितरों का उद्धार ही करना चाहते हो, तो गंगा नदी किया था (म. व. परि. १.२४.३६)। इसका अर्जुन के | की आराधना कर उसे पृथ्वी पर आने के लिए प्रार्थना साथ कई बार युद्ध हुआ (म. भी.११२.५६-६०)। करो, तभी तुम्हारे पूर्वजों का निस्तार सम्भव है। ___ इसका अन्तिम युद्ध भी अर्जुन के साथ हुआ। उस अंशुमत् तथा दिलीप ने तप किया, लेकिन वे सफल समय यह काफी वृद्ध हो चुका था। बुढापे के कारण | न हो सके; उनका प्रयत्न अधूरा ही रहा । तब इसने बढी हुई श्वत पलकों को पट्टे से बाँध कर, यह युद्धभूमि | हिमालय पर जा कर गंगा लाने के लिए घोर तप किया। में अर्जुन के साथ डटा रहा। इसने उसके ऊपर गंगा इससे प्रसन्न हुयी, तथा पृथ्वी पर उतरने के लिए वैष्णवास फेंका, तब अर्जुन ने उस अस्र का नाश कर, | उसने अपनी अनुमति दे दी । अब समस्या थी कि, गंगा के इसके पलकों के पट्टे को तोड कर इसका वध किया। तीव्र प्रवाह को पृथ्वी पर किस प्रकार उतारा जाय; कारण यह घटना मार्गशीर्ष वद्य दशमी को हुयी थी (भारत सम्भव था, पृथ्वी उसके वेग गति से बह जाये । इस कार्य के सावित्री) | लिए गंगा ने इसे शंकर की सहायता लेने के लिए कहा। Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगीरथ प्राचीन चरित्रकोश भङ्ग गंगा के कथनानुसार इसने शंकर की आराधना आरम्भ | इसकी दानशीलता की सराहना की है (म. शां. २९.६३कर दी। पश्चात् शंकर इसकी तपस्या से प्रसन्न हो, गंगा ७०)। महाभारत में दिये गये गोदानमहात्म्य में भी के वेग प्रवाह को जटाओं के द्वारा रोकने के लिए तैयार इसका निर्देश प्राप्त है (म. अनु. ७६.२५)। हो गये। वैदिक वाङमय में निर्दिष्ट 'भगीरथ ऐक्ष्वाक' एवं यह ___ गंगावतरण-बाद में शंकर ने अपनी जटा के एक सम्भवतः एक ही व्यक्ति रहे होंगे। भगीरथ के नाभाग बाल को तोड़ कर गंगा को पृथ्वी पर उतारा। गंगा का जो (नम), तथा श्रुत नामक दो पुत्र थे। इसके उपरांत श्रुत क्षीण प्रवाह सर्वप्रथम पृथ्वी पर आया, उसे ही 'अलक- | गद्दी पर बैठा। नंदा' कहते हैं । बाद को, गंगा ने वेगरूप धारण कर महाभारत में सोलह श्रेष्ठ राजाओं का जो आख्यान भगीरथ के कथनानुसार, उसी मार्ग का अनुसरण किया, नारद ने संजय राजा को सुनाया था, उसमें भगीरथ की जिस जिस मार्ग से होता हुआ यह गया । अंत में यह | कथा सम्मिलित है (म. शां. ५३-६३)। कपिलआश्रम के उस स्थान पर गंगा को ले गया, जहाँ भगीरथकथा का अन्वयार्थ-आधुनिक विद्वानों के इसके पितर शाप से दग्ध हुए थे। वहाँ गंगा के स्पर्श अनुसार, भगीरथ की यह कथा रूपात्मक है। गंगा पहले मात्र से सभी पितर शाप से मुक्ति पाकर हमेशा के लिए तिब्बत में पूर्व से उत्तर की ओर बहती थी, जिससे कि, उद्धरित हो गये (म. व. १०७; वा. रा. बा. १.४२ उत्तरी भारत अक्सर आकालग्रस्त हो जाता था। इसके ४४; भा. ९.९. २-१० वायु. ४७.३७; ८८.१६८; लिये भगीरथ के सभी पूर्वजों ने प्रयत्न किया कि, किसी ब्रह्म. ७८; विष्णु. ४.४.१७)। प्रकार गंगा के प्रवाह को घुमाकर दक्षिणीवाहिनी बनाया गंगा को पृथ्वी पर उतारने का श्रेय इसे ही है । इसी जाये। किन्तु वह न सफल हो सके। लेकिन भगीरथ अपने लिये गंगा को इसकी कन्या कहा गया है, तथा इसके नाम प्रयत्नों में सफल रहा, तथा उसने गंगा की धार मोड़ कर पर ही उसे 'भागीरथी.' नाम दिया गया है (ह. | उत्तर भारत को हराभरा प्रदेश बना दिया। सगर के वं. १.१५-१६; नारद. १.१५; ब्रह्मवै. १.१०)। साठ हजार पुत्र सम्भवतः उसकी प्रजा थी, जिसे यह पुत्र . पद्म के अनुसार, गंगा आकाश से उतर कर शंकर की | के समान ही समझाता था। जटाओं में ही उलझ कर रह गयी। तब सगर ने शंकर से । २. द्रौपदी के स्वयंवर में उपस्थित एक राजा (म. प्रार्थना कर, उसे पृथ्वी पर छोड़ने के लिए निवेदन किया | आ. १७७.१९)। (पश्न. उ. २१)। भगीरथ से सम्बन्धित गंगावतरण की भगीवसु-वसिष्ठकुलोत्पन्न एक प्रवर । इसके नाम के कथा में; सगर का नाम जो पद्म पुराण में सम्मिलित किया | लिए 'भार्गिवसु' पाठभेद प्राप्त है। गया है, वह उचित नहीं प्रतीत होता है। | भगरथ ऐक्ष्वाक-इक्ष्वाकुवंशीय एक राजा (जै. गंगा को पृथ्वी पर लाने के उपरांत यह पूर्ववत् फिर | उ. ब्रा. ४.६.१.२)। एकबार इसने यज्ञसमारोह का राज्य करने लगा। यह धर्मप्रवृत्तिवाला दानशील राजा आयोजन किया, एवं उपस्थित ऋषिमुनियों से पृच्छा की, था। इसने दान में अपनी हंसी नामक कन्या कौत्स | 'वह ज्ञान कौनसा है, जो जान लेने पर संसार की सारी ब्राह्मण को दी थी (म. अनु. १२६.२६-२७) इसने | जानकारी प्राप्त होती है । इसके इस प्रश्न का उत्तर देते भागीरथी के तट पर अनेकानेक घाट बनवाये थे । न जाने हुए कुरुपांचालों में से बक दाल्भ्य नामक ऋषि ने कहा, कितने यज्ञ कर ब्राह्मणों को हजारों सालंकृत कन्याएँ, एवं 'गायत्रीमंत्र यह एक ही मंत्र ऐसा है, जिसमें सृष्टि की अपार धनराशि दक्षिणा के रूप में देकर उन्हें सन्तुष्ट | सारी जानकारी छिपी हुयी है। किया था। इसके यज्ञ की महानता इसी में प्रकट है कि, इस निर्देश से प्रतीत होता है कि, इक्ष्वाकुगण के लोग उसमें देवगण भी उपस्थित होते थे (म. द्रो. परि. १. कुरुपांचालों से संबंधित थे। बौद्ध ग्रंथों में उन्हे पूर्वी भारत क्र.८)। ब्राह्मणों को अनेकानेक गायों का दान देकर में रहनेवाले बताया गया है, वह असंभवनीय दिखाई इसने अपनी दानशीलता का परिचय दिया था। अकेले | देता है। कोहल नामक ब्राह्मण को ही इसने एक लाख गायें दान भङ्ग--तक्षक कुल का एक नाग, जो जनमेजय के सर्प में दी थी, जिसके कारण इसे उत्तमलोक की प्राप्ति हुयी | सत्र में मारा गया (म. आ.५२.८)। पाठभेद (भांडार - (म. अनु. १३७.२६-२७; २००.२७)। श्रीकृष्ण ने भी | कर संहिता)---'डङ्ग'। ५३५ Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भङ्गकार प्राचीन चरित्रकोश भजमान भगकार-एक राजा, जो सोमवंशीय कुरु राजा का | वर्तन को देखा, तब दुःखी होकर अपने राज्य वापस आया, पौत्र, एवं अविक्षित् राजा का पुत्र था (म. आ.८९.४६)। तथा अपना समस्त राज्यभार पुत्रों को देकर वन चला २. (सो. वृष्णि.) यादववंशीय एक राजा, जो मत्स्य गया। के अनुसार शक्तिसेन राजा का, एवं वायु के अनुसार वन में जाकर स्त्रीरूपधारणी भङ्गास्वन ने एक तपस्वी शक्रजित राजा का पुत्र था। इसकी पत्नी का नाम द्वारवती | से विवाह किया, तथा उससे इसे सौ पुत्रों हुए । कालोपरांत था (म. आ. २११.११; वायु. ९६.५३-५५)। मत्स्य इसने अपने इन पुत्रों को पहलेवाले पुत्रों के पास भेजकर, में इसकी पत्नी का नाम वीरवती दिया गया है (मत्स्य.| उन्हें भी राज्य से उचित भाग दिलवाया। इस प्रकार यह ४५.१९, ब्रह्मांड. ३.७१.५४-५६)। इसकी निम्नलिखित इस स्त्रीरूप में भी आनंदपूर्वक जीवन बिताता रहा। तीन कन्याएँ थी :- सत्यभामा, बतिनी एवं पद्मावती | इसके इस सुखी जीवन को देखकर इन्द्र को बड़ा क्रोध (प्रस्वापिनी, तपस्विनी)(ह. वं. १.३८.४५-४६; मत्स्य आया, क्योंकि उसने इसे यह स्त्रीरूप कष्टमय जीवन ४५.१९-२१)। इसे सभाक्ष एवं नावेय (तारेय ) नामक बिताने के लिए दिया था, सुख भोगने के लिए नहीं। इन्द्र दो पुत्र थे (ह. वं. १.३८.४८; ब्रह्म. १६.४८)। यह को एक तरकीब सूझी। वह ब्राह्मणवेष धारण कर इसके रैवतक पर्वत के महोत्सव में उपस्थित था। पाठभेद पुत्रों के राज्य में गया, जहाँ इसके दो सौ पुत्र भलीप्रकार (भांडारकर संहिता)--' भद्रकाल'। रहते थे। वहाँ जाकर उसने उनमें ऐसी फुट डाल दी कि, भङ्गश्रवस्--वैदिक ग्रंथों में निर्दिष्ट एक आचार्य सब आपस में लड़भिड़ कर कट मरे। (क. सं. ३८.१२)। इसके नाम के लिए 'भङ्गयश्रवस्' यह अपने राज्य गया, तथा पुत्रों की यह दशा देखकर पाठभेद प्राप्त हैं। फूट फूट रोने लगा। इन्द्र जो ब्राह्मणवेश में वहीं उपस्थित . भङ्गश्विन--एक राजा, जो शफाल का राजा ऋतुपर्ण था, वह भी इसके दुःख को देखकर पसीज उठा। का पिता था (बौ. श्री. २०.१२)। आपस्तंब श्रौतसूत्र फिर इन्द्र ने अपने साक्षात् स्वरूप को प्रकट कर इसे में ऋतुपर्णकयोवधि का 'भग्याश्विनौ' के रूप में उल्लेख दर्शन दिया । इसने उसकी प्रार्थना की, तथा फिर इन्द्र है ( आ. श्री. २१.२०)। महाभारत में इसे 'भांगासुरी' ने प्रसन्न हो कर इसके सभी पुत्री को पुनः जीवित कर (भागास्वरि, भांगस्वरि, भांग) कहा गया है (म. स. दिया । इन्द्र ने इससे पूँछा, 'यदि तुम पुनः पुरुषयोनि ८.१५; व. ६८.२; ६९.१०)। में आना चाहते हो, तो मै तुम्हे पुरुषरूप प्रदान कर भङ्गास्वन--एक प्राचीन राजर्षि, जो आजन्म इन्द्र सकता हूँ'। किन्तु इसने कहा, 'पुरुष की अपेक्षा स्त्री का विरोधी रहा (म. अनु. १२.१०)। इसके नाम के अधिक मोहक एवं कोमल है, अतएव में स्त्री ही रहना लिए 'भाङ्गस्वन' पाठभेद प्राप्त है। चाहती हूँ।' इस प्रकार मृत्यु तक भगवत स्त्री ही रहा इसे कोई सन्तान न थी, अतएव यह अत्यधिक (म. अनु. १२)। चिन्तित रहता था। पुत्रप्राप्ति के लिए इसने अग्नि भङ्गयश्रवस्-एक आचार्य (ले. आ. ६.५.२)। देवता को प्रसन्न करने के लिए 'अग्निष्टोम यज्ञ' किया। यह एवं भङ्गाश्रवस् संभवतः एक ही होंगे। उस यज्ञ को देखकर इन्द्र इस पर नाराज हुआ कि, 'यह भज-एक आचार्य, जो ब्रह्मांड के अनुसार, व्यास यज्ञ मेरे अपमान के लिए किया जा रहा हैं, क्योंकि सारे की ऋकूशिष्य परंपरा में से शाकवैण रथीतर ऋषि का हविर्भाग के प्राप्त करने का अधिकार अग्नि को ही होगा, | शिष्य था (व्यास देखिये)। मुझे नहीं । अतएव वह इससे बदला लेने का मार्ग ढूंढने भजमान-(सो. क्रोष्टु.) एक यादववंशीय राजा, लगा। कालान्तर में अग्नि की कृपा से इसे सौ पुत्र हुए। जो सत्वत राजा का पुत्र था। इसकी माता का नाम कौसल्या एक बार यह अपने कुछ सैनिकों के सहित शिकार खेलने था। इसे सात्वत अथवा अन्धक नामक एक भाई था । गया। वहाँ यह जंगल में भटकता हुआ एक सुन्दर सरोवर | इसे बाह्यका एवं संजया ( उपबाह्यका ) नामक दो पत्नियाँ के पास आ खड़ा हुआ, तथा फिर उसमें नहाने की इच्छा थी, जो दोनों ही संजय राजा की कन्याएँ थी। उनमें से से उतर पडा । इंद्र ने सुअवसर देख कर बदला लेने की | बाह्यका से इसे शताजित् ,सहस्राजित् एवं अयुताजित् ; एवं भावना से, इसे एक स्त्री बना दिया (म. अनु. १२. | सृजया से निम्लोचि, वृष्णि एवं किंकिणे नामक पुत्र उत्पन्न । १०)। बाद को जब इसने अपने विचित्र शरीर के परि हुए थे (भा. ९.२४.६-८)। ब्रह्म में बाह्यका से उत्पन्न ५३६ Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भजमान प्राचीन चरित्रकोश भद्रकाली इसके पुत्रों का नाम क्रिमि, क्रमण, धृष्ट, शूर, एवं पुरंजय । ८. (सो. अनु.) एक अनुवंशीय राजा, जो भागवत दिये गये हैं, एवं शताजित् आदि पुत्रों को पुत्र सृजया | के अनुसार शिबि राजा के पांच पुत्रों में से एक था। के पुत्र कहा गया है (ब्रह्म. १५.३२.३४).। इसके नाम के लिए 'भद्रक, एवं 'मद्रक' पाठभेद . २. (सो. क्रोष्टु.) एक यादव राजा, जो सात्वत प्राप्त है। (अंधक) राजा का पुत्र था। ९. (सो. वसु.) एक राजा, जो भागवत के अनुसार ३. (सो. क्रोष्टु.) एक यादव राजा, जो भागवत के | वसुदेव एवं पौरवी के पुत्रों में से एक था। अनुसार विदूरथ राजा का पुत्र था। १०. (सो. वसु.) एक राजा, जो वसुदेव एवं देवकी भजिन्-(सो. क्रोष्ट.) एक यादव राजा, जो भागवत | के पुत्रों में से एक था। के अनुसार सात्वत राजा का पुत्र था। ११. श्रीकृष्ण का कालिंदी से उत्पन्न एक पुत्र (भा. . भजेरथ--ऋग्वेद में निर्दिष्ट एक व्यक्तिनाम. जिसका | १०.६१.१४)। निर्देश अगस्त्य, असमाति एवं इक्ष्वाकु ऋषियों के साथ १२. (शुग. भविष्य.) एक राजा, जो ब्रह्मांड के प्राप्त है । सायण के अनुसार, यह असमाति ऋषि का | अनुसार वसुमित्र राजा का पुत्र था । इसने दो वर्षों तक शत्रु, अथवा वैकल्पिक अर्थ में उसका पूर्वज था । लुडविग | राज्य किया। एवं ग्रिफिथ के अनुसार, यह किसी व्यक्तिनाम न हो कर भद्रक--अनुवंशीय भद्र राजा के लिए उपलब्ध इससे किसी स्थाननाम का आशय है। पाठभेद (भद्र. ८. देखिये)। भज्य--एक आचार्य, जो व्यास की ऋकशिष्य परंपरा २. (शंग. भविष्य.) एक राजा, जो भागवत के में से बाष्कलि का शिष्य था। बाष्कलि ऋषि ने इसे | अनुसार वसुमित्र राजा का पुत्र था। 'वालखिल्य संहिता' सिखाई थी (भा. १२.६.६०)। ३. एक आचारभ्रष्ट ब्राह्मण । अपनी सारी आयु भट्टादित्य-सूर्य देवता का नामान्तर। उस देवता | इसने पापकर्मों में व्यतीत की। किन्तु संयोगवश इसने को नारदभट्ट ने पृथ्वी पर लाया, इस कारण उसे यह | प्रयाग मर प्रयाग में तीन दिन माघस्नान पुण्य संपादन किया । नामान्तर प्राप्त हुआ था (स्कंद. २.४३)। . आगे चल कर, इसकी एवं अवंती के पुण्यश्लोक राजा भद्र-एक दानव, जो कश्यप एवं दन के पुत्रों में से की मृत्यु एक ही दिन हुयी । वीरसेन राजा ने सोलह एक था। अश्वमेधयज्ञ कर काफ़ी पुण्य संपादन किया था। फिर २. एक यक्ष, जो कुबेर का मंत्री था । गौतम ऋषि के भी इसने किये माघस्नान के पुण्य के कारण, यह एवं शाप के कारण, इसे पशुयोनि प्राप्त होकर यह सिंह बन वीरसेन दोनों एक ही विमान में बैठकर स्वर्ग चले गये (पद्म. उ. १२८)। - ३. भद्र गणराज्य में रहनेवाले लोगों का सामहिक भद्रकल्प-(सो. वसु.) एक राजा, जो वसुदेव एवं नाम । इन लोगों के क्षत्रिय राजकुमारों में युधिष्ठिर के रोहिणी का पुत्र था। राजसूय यज्ञ के समय बहुतसा धन उसे अर्पित किया था भद्रकार-एक राजा, जो जरासंध के भय से अपने (म. स. ४८.१३)। इनके नाम के लिए 'मद्र' पाठभेद | भाई एवं सेवकों के सहित दक्षिण दिशा में भाग गया था प्राप्त है। कर्ण ने अपने दिग्विजय के समय इन्हे जीता | (म. स. १३.२५)। था (म. व. परि. १.२४.६७)। २. अविक्षितपुत्र भङ्गकार के लिए उपलब्ध पाठभेद ४. चेदि देश का एक राजा, जो भारतीय युद्ध में (भङ्गकार देखिये)। पांडवों के पक्ष में शामिल था । अन्त में कर्ण ने इसका । भद्रकाली-स्कंद की अनुचरी एक मातृका (म. श. वध किया (म. क. ४०.५०)। ४५.११)। ५. तुषित देवों में से एक। २. देवी दुर्गा का एक नामांतर । दक्षयज्ञ के विध्वंस के ६. उत्तम मन्वन्तर का एक देव | समय यह पार्वती के कोप से प्रकट हुयी थी (म. शां. ____७. वसिष्ठकुलोत्पन्न एक ऋषि, जो इंद्रप्रमति ऋषि का | २८४.५३ )। अर्जुन ने इस नाम से देवी दुर्गा का स्तवन पुत्र था। इसके पुत्र का नाम उपमन्यु था। | किया था (म. भी. २३. परि. १ क्र. १)। प्रा. च. ६८] ५३७ गया। Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रगुप्ति प्राचीन चरित्रकोश भद्रसेन भद्रगुप्ति--(सो. वसु.) एक राजा, जो वसुदेव एवं | भद्रशर्मन् कौशिक--एक आचार्य, जो पुष्पयशस् रोहिणी का पुत्र था। | औदवजि का शिष्य था। इसके शिष्य का नाम अयमभद्रचारु--श्रीकृष्ण एवं रुक्मिणी का एक पुत्र । | | भूति था (वं. ब्रा. ३)। भद्रज--(सो. वसु.) एक राजा, जो वसुदेव एवं भद्रशाख-स्कंददेव का एक नामान्तर, जो इसे बकरे रोहिणी के पुत्रों में से एक था। के समान मुख धारण करने के कारण प्राप्त हुआ था भद्रतनु--एक दुराचारी ब्राहाण, जो दान्त की कृपा | (म. व. २१७.४)। से विष्णुभक्त बन कर मुक्त हुआ (पा. क्रि. १७)। | भद्रश्रवस्--एक ऋषि, जो भद्राश्वखंड में रहनेवाले भद्रदेह--(सो. वसु.) एक राजा, जो विष्णु के | धर्म ऋषि का पुत्र था । यह हयग्रीव की प्रतिमा की उपासना अनुसार वसुदेव एवं देवकी के पुत्रों में से एक था। | करता था (भा. ५.१८.१) भद्रबाहु--एक दैत्य, जो हिरण्याक्ष के पक्ष में शामिल | भद्रश्रेण्य-(सो. सह.) काशी देश का एक हैहय था। हिरण्याक्ष ने देवों से किये युद्ध में यह अग्नि के | राजा, जो विष्णु एवं वायु के अनुसार, महिष्मत् राजा द्वारा दग्ध हो गया (पद्म. सु. ७५)। का पुत्र था। इसे भद्रसेनक एवं रुद्रश्रेण्य नामान्तर भी २. (सो. वसु.) एक राजा, जो वसुदेव एवं रोहिणी प्राप्त थे। दिवोदास राजा ने इसे पराजित कर काशी देश के पुत्रों में से एक था। | का राज्य इससे जीत लिया। पश्चात् इसने दिवोदास को . भद्रमति-एक दरिद्री ब्राह्मण । इसे छः पत्नियाँ, एवं | पराजित किया; किन्तु दिवोदास ने पुनः एक बार इसपरं . . दो सौ चवालिस पुत्र थे (नारद. १.११)। हमला कर, इसका एवं इसके सौ पुत्रों का वध किया। इस एकबार इसने 'भूमिदान महात्म्य' सुना, जिससे इसे आक्रमण में से इसका दुर्दम नामक पुत्र अकेला ही बच . . स्वयं भूमिदान करने की इच्छा उत्पन्न हुयी। किन्तु इसके | सका, जिसन | सका, जिसने आगे चलकर दिवोदास को पराजित किया. ... पास भूमि न होने के कारण, इसने कौशांबी नगरी में जाकर | (दिवोदास २. देखिये; ह. वं. १.२९.६९-७२,३२.२७वहाँ के राजा से ब्राह्मणों दान देने के लिए भूमि माँगी। | २८)। इस तरह प्राप्त भूमि इसने ब्राह्मणों को दान में दी । पश्चात् भद्रसार-(मौर्य. भविष्य.) एक मौर्यवंशीय राजा, इसने व्यंकटाचल में स्थित पापनाशनतीर्थ में स्नान भी | जो वायु एवं ब्रह्मांड के अनुसार, चंद्रगुप्त राजा का पुत्र किया। इन पुण्यकों के कारण इसे मुक्ति प्राप्त हो गयी | था (बिंदुसार २. देखिये)। (रकंद. २.१.२०)। २. (सो. वसु.) एक राजा, जो वसुदेव के रोहिणी भद्मनस्--पुलह की पत्नी, जो कश्यप एवं क्रोधा | से उत्पन्न पुत्रों में से एक था। की नौ कन्याओं में से एक थी। इसके नाम के लिए ३. काश्मीर देश का राजा । इसे सुधर्मन् नामक एक 'भद्रमना' पाठभेद भी प्राप्त है। देवताओं का हाथी पुत्र था, जो तारक नामक प्रधानपुत्र के साथ हमेशा शिव ऐरावत इसका पुत्र था (म. आ.६९.६८)। की उपासना करता रहता था। इसने अपने पुत्र को शिव भद्ररथ--(सो. वसु.) एक राजा, जो वायु के अनुसार भक्ति से परावृत्त करने का काफी प्रयत्न किया। किन्तु वसुदेव एवं रोहिणी के पुत्रों में से एक था। उसका कुछ फायदा न होकर, सुधर्मन् की शिवोपासना २. (सो. अनु.) एक राजा,जो हयंग राजा का पुत्र था। बढ़ती ही रही । भगवती--परिक्षित (प्रथम) राजा की भार्या, जिसके एक बार पराशर ऋषि इसके यहाँ अतिथी बनकर पुत्र का नाम जनमेजय था (म. आ. ९०.९३)। पाठभेद आया था। उस समय इसने अपने पुत्र की शिवोपासना (भांडारकर संहिता)--'माद्रवती। एवं विरक्ति की समस्या उसके सामने रख दी। पराशर भद्रवाह--एक राजा, जो भागवत के अनुसार ने इसकी एवं इसके पुत्र के पूर्व जन्म की कहानी इसे वसुदेव एवं पौरवी के पुत्रों में से एक था। सुनाकर इसे सांत्वना दी, एवं इससे रुद्राभिषेक करवाया। भद्रविन-(सो. वसु.) एक राजा, जो वसुदेव एवं तदोपरान्त अपने पुत्र सुधर्मन् को राजगद्दी पर बिठाकर रोहिणी के पुत्रों में से एक था। | यह वन में चला गया (स्कंद. ३.३.२०-२१)। भद्रविद्-कंस के द्वारा मारे गये वसुदेव एवं देवकी भद्रसेन--(स्वा. प्रिय.) एक राजा, जो ऋषभदेवं के पुत्रों में से एक। | एवं जयन्ती के पुत्रों में से एक था। ५३८ Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रसेन प्राचीन चरित्रकोश भद्राश्व भद्रसेन आजातशत्रव-एक राजा, जिसके नाश | भद्रा काक्षीवती-पूरुवंशीय व्युषिताश्व राजा की के लिए उद्दालक आरुणि नामक ऋषि ने अभिचाररूप | पत्नी, जो कक्षीवान् राजा की कन्या थी। यह अत्यंत ( वशीकरण) याग किया था ( श. ब्रा. ५.५.१४)। | रुपवती थी। पति के मृत्यु के बाद, उसके शव से इसे भद्रसेनक-हैहय राजा भद्रश्रेण्य का नामान्तर | सात पुत्र पैदा हुए (म. आ. १२०.३३-३६)। (भद्रश्रेण्य देखिये)। भद्राय--एक राजा, जो शिव का परम भक्त था । इसे सद्रा--कुबेर की प्रियपत्नी । कुन्ती ने द्रौपदी को दृष्टान्त | कोढ़ था, जिस कारण इसे जीवित अवस्था में ही मृत्यु रूप में इसका वर्णन बताया था (म. आ. १९१.६)। । की यातना सहनी पडती थी। इसकी पत्नी का नाम २. विशालक नामक नरेश की कन्या, जिसका विवाह कीर्तिमालिनी था। करुषाधिपति वसुदेव से हुआ था। चेदिराज शिशुपाल ने करुषराजा का वेष धारण कर, माया से इसका अपहरण ___ यह सोलह वर्ष का होने पर, इसके घर ऋषभ नामक कर लिया (म. स. ४२.११)। शिवावतार अवतीर्ण हुआ। उसने इसे 'राजधर्म' का ३. श्रीकृष्ण की भगिनी सुभद्रा का नामांतर (म. आ. उपदेश दिया, एवं प्रसाद के रूप में इसके मस्तक में विभूति लगाया। शस्त्र के रूप में, उसने इसे खङ्ग एवं २११.१४)। . . शंख दे कर, बारह सहस्र हाथियों का बल इसे प्रदान ४. सोम की कन्या, जो अपने समय की सर्वश्रेष्ठ सुंदरी किया । उस शस्त्रास्त्रों के बल से, यह युद्ध में अजेय बन मानी जाती थी। इसने उचथ्य ऋषि को पतिरूप में प्राप्त गया (शिवं. शत. ४.२७)। करने के लिये तीव्र तपस्या की थी। इसकी यह इच्छा जान कर, सोम के पिता अत्रि ऋषि ने उचथ्य को बला शिव के ऋषभ अवतार के शिवपुराण में प्राप्त वर्णन कर, उसके साथ इसका विवाह संपन्न कराया (म. अनु. | से, वह अवतार प्रवृत्तिमार्गीय प्रतीत होता है । १५४.१०-१२)। . एक बार इसके राज्य में, शिव ने एक व्याघ्र का रूप पश्चात् वरुण ने इसका अपहरण किया, जिस कारण | धारण कर, एक ब्राह्मण के पत्नी का अपहरण किया। क्रोधित हो कर, इसके पति उचथ्य ने पृथ्वी का सारा . फिर इस प्रजाहितदक्ष राजा ने अपनी पत्नी उस ब्राह्मण जल प्राशन किया। फिर वरुण उसकी शरण में आया, को दान में दी, एवं यह स्वयं अभिप्रवेश के लिए सिद्ध एवं उसने भद्रा को अपने पति के पास लौटा दिया (म. हुआ। इसकी इस त्यागवृत्ति से संतुष्ट हो कर, शिव ने अनु. १५४.२८)। इसे अनेकानेक वर प्रदान किये, एवं ब्राह्मण की पत्नी उसे . ५. वसुदेव की चार पत्नियों में से एक ( भा. ९.२४. लौटा दी (स्कंद. ३.३.१४)। २५)। वसुदेव की मृत्योपरांत, यह उसके साथ सती हो अपने पूर्वजन्म में, यह मंदर नामक राजा था, एवं गयी (म. मौ. ७.१८, २४)। इसकी पत्नी कीर्तिमालिनी उसकी पिंगला नामक पत्नी थी ६. मेरु की कन्या, जो प्रियव्रत राजा के भद्राश्व नामक (स्कंद. ३.३.१२, ९.१४)। पौत्र की पत्नी थी (भा. ५.२.२३)। भद्रावती--व्युषिताश्व की पत्नी भद्रा का नामांतर । ७. अत्रि ऋषि की पत्नी (ब्रह्मांड. ३.८.७४-८७)। भद्राश्व-(स्वा. प्रिय.) एक राजा, जो सुविख्यात ८. श्रीकृष्ण की एक पत्नी, जो केकयाधिपति धृष्टकेतु | सम्राट प्रियवत् का पौत्र, एवं अग्नीध्र का पुत्र था (म. शां. की कन्या थी। इसकी माता का नाम श्रुतकीर्ति था। १४.२४) । इसकी माता का नाम उपचित्ति था। मेरु भागवत में इसे वसुदेव की बहन, एवं श्रीकृष्ण की फफेरी की कन्या भद्रा इसकी पत्नी थी (भा. ५.२.१९)। बहन कहा गया है (भा. १०.५८.५६)। इसका पिता अग्नीध्र जंबुद्वीप का सम्राट था । जंबुद्वीप का इसे एक कन्या एवं निम्नलिखित दस पुत्र थे:-संग्राम- जो भाग इसे प्राप्त हुआ, वह इसीके नामसे 'भद्राश्ववर्ष' जित् , बृहत्सेन, शूर, प्रहरण, अरिजित, जय, सुभद्र, वाम, नाम से प्रसिद्ध हुआ (म. भी. ७.११)। आयु एवं सत्यक (भा. १०.६१.१)। २. (सू. इ.) एक इक्ष्वाकुवंशीय राजा, जो भागवत ___९. पूरुवंशीय परिक्षित् (प्रथम) राजा की पत्नी भद्रवती एवं महाभारत के अनुसार, कुवलाश्व राजा का पुत्र था। के लिये उपलब्ध पाठभेद (भद्रवती देखिये)। पाठभेद (भांडारकर संहिता)-'दृढाश्व'। Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन चरित्रकोश भद्राश्व २. (सो. नी. ) एक राजा, जो मत्स्य के अनुसार, पृथु राजा का पुत्र था । इसे हर्यश्व एवं भर्म्याश्व नामांतर भी प्राप्त थे । ४. (सो. वसु. ) एक राजा, जो विष्णु एवं वायु के अनुसार, वसुदेव एवं रोहिणी के पुत्रों में से एक था। ५. (सो. पूरु. ) एक राजा, जो मत्स्य के अनुसार अहंवर्च राजा का पुत्र था । इसे रौद्राश्व नामांतर भी प्राप्त था । इसे कुल दस कन्याएं थी, जो प्रभाकर ( आत्रेय ) ऋषिको विवाह में दी गयी थी । भद्रेश्वर - मध्यदेश का एक सूर्योपासक राजा इसके दाहिने हाथ पर यकायक कोढ़ उत्पन्न हुआ, जिससे छुटकारा पाने के लिए, इसने एवं इसके प्रश ने कठोर सूर्योपासना की । सूर्यप्रसाद से इसका कोढ़ नष्ट हुआ, एवं इसे मुक्ति मिल गयी (पद्म सू. ७९ ) । भनस्य--(सो.) एक राजा, जो भविष्य के अनुसार प्रवीर राजा का पुत्र था। भय -- एक राक्षस, जो अधर्म के द्वारा उत्पन्न तीन भयंकर राक्षसों में से एक था। इसकी माता का नाम निर्ऋति था । इसके अन्य दो भाइयों का नाम महाभय एवं मृत्यु था । ये तीनों राक्षस सदा पापकर्म में लगे रहते थे (म. आ. ६६.५५) । २. एक बसु, जो द्रोग एवं अभिमति का पुत्र था (मा. ६.१.११) । भयंकर -- सौवीर देश का राजकुमार, जो जयद्रथ के रथ के पीछे हाथ में ध्वजा ले कर चलता था। यह द्रौपदीहरण के समय जयद्रथ के साथ गया था। भारतीय युद्ध में अर्जुन ने इसका वध किया ( म. व. २४९.११ - १२; २५५.२७ ) । २. एक सनातन विश्वेदेव ( म. अनु. ९१.३१ ) । भयंकरी -- स्कंद की अनुचरी मातृका ( म. श. ४५.४)। भयद आसमात्य- एक राजा, जो संभवतः असमाति राजा का वंशज था (जै. उ. बा. ४. ८. ७) । भयद राजा का निर्देश पुराणों में भी प्राप्त है । भयमान वार्षागिर एक राजा, जो सायणाचार्य के अनुसार, एक वैदिक मंत्रद्रष्टा भी था (ऋ. १.१००० १७) । भया -- एक राक्षसी, जो हेति नामक राक्षस की पत्नी थी। इसके पुत्र का नाम विकेश था ( वा. रा. उ. ४.१६) । भरत भयानक - - जालंधर के पक्ष का एक दैत्य (पद्म. उ. ९ ) । भर - एक राजा, जो आर्ष्टिषेण नामक राजर्षि का पुत्र था । इसकी माता का नाम जया, एवं पत्नी का नाम सुप्रभा था। भरणी-- प्राचेतस दक्ष की सत्ताईस कन्याओं में से एक, जो सोम को विवाह में दी गयी थी। आकाश में स्थित भरणी नक्षत्र यही है । ' चंद्रव्रत' में, भरणी नक्षत्र को चंद्रमा का सिर मान कर पूजा करने का विधान प्राप्त है ( म. अनु. ११०.९) । भरणी नक्षत्र में जो ब्राह्मणों के धेनु का दान करता है, वह इस लोक में बहुतसी गौओं को, तथा परलोक में महान् यश को प्राप्त करता है (म. अनु. ६४.३५ ) । भरत - (सो. पूरु.) एक सुविख्यात पूरुवंशीय सम्राट, जो दुष्यन्त राजा का शकुंतला से उत्पन्न पुत्र था ( भरत. दौःषन्ति देखिये )। २. (सो. इ. ) अयोध्या के दशरथ राजा का पुत्र ( भरत ' दाशरथि ' देखिये ) । ३. (स्वा. नाभि. ) एक महायोगी राजर्षि, जो ऋषभ राजा का पुत्र था ( भरत 'जड' देखिये) । ४. एक सुविख्यात मानवसमूह । ऋग्वेद के तीसरे एवं सातवें मण्डल में सुदास एवं तुत्सुओं के सम्बन्ध में इनका निर्देश प्राप्त है (ऋ. ३.३३.११-१२,७.३३.६) । वेद में विश्वामित्र को 'भरतों का ऋषभ अर्थात भरतों में श्रेष्ठ कहा गया है। विपाशू एवं शतुद्री नदियों के संगम के उस पार जाने के लिए विश्वामित्र ने भरतों को मार्ग बताया था (ऋ. ३.३३.११ ) । ऋग्वेद में अन्यत्र, भरतों की एक पराजय एवं वसिष्ठ की सहायता से उनकी रक्षा होने का स्पष्ट निर्देश प्राप्त है ( ऋ. ७. ८.४ ) । ऋग्वेद के छठवें मण्डल में इन्हें दिवोदास राजा का सम्बन्धी बताया गया है (ऋ. ६.१६.४-५) । सम्भव है, सुदास एवं दिवोदास यह दोनों राजा स्वयं भरतगण के ये (ऋ. ६.१६. १९ ) । ऋग्वेद में दूसरे स्थान पर भरतगण एवं तृत्सुओं को पूरुओं के शत्रु के रूप में वर्णित किया गया है। इस । प्रकार तृत्सुओं तथा भरतों का घनिष्ट सम्बन्ध अवश्य था, चाहे उसका कारण कुछ भी रहा हो। गेल्डनर तृत्सुओं को इनके परिवार का कहता है, तथा ओल्डेनबर्ग भरतों के पारिवारिक गायक वसिष्ठ को ही सुगण कहता है (बेविशे, स्टूडियन २.१३६ ) | हिलेबाट तुत्सुओं तथा ५४० Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .भरत प्राचीन चरित्रकोश भरत भरतों के सम्बन्ध में दो जातियों के मिश्रण का आभास | में 'गंधर्ववेद' नामक संगीतशास्त्रीय ग्रंथ का भी इसे देखता है (वेदिशे माइथोलोजी १.१११)। कर्ता कहा गया है (विष्णु. ३.६.२७)। पिशेल ने अपने भरतगण का उल्लेख यज्ञकर्ता राजाओं के रूप में कई नाट्यशास्त्र के जर्मन अनुवाद में 'भरत' शब्द का अर्थ ग्रन्थों में आया है । शतपथ ब्राह्मण में, अश्वमेध यज्ञ करने- 'अभिनेता' ऐसा किया है, एवं इसे देवों द्वारा अभिनीत वाले राजा के रूप में 'भरत दौःषन्ति' तथा 'शतानीक | नाट्यप्रयोगों का निर्देशक कहा है। सात्रजित' नामक अन्य भरतों का उल्लेख प्राप्त है (श. नाट्यप्रयोग में अभिनय करनेवाले अभिनेताओं को ब्रा. १३.५.४ )। ऐतरेय ब्राह्मण में, दीर्घतमस् मामतेय मार्गदर्शन करनेवाले 'नटसूत्र' पाणिनिकाल में अस्तित्व द्वारा अपना राज्याभिषेक करानेवाले 'भरत दौःषन्ति', में थे (पा. ४.३.११०)। भरत ने इन्ही नटसूत्रों का तथा सोमशुष्मन् वाजरत्नायन नामक पुरोहित के द्वारा विस्तार कर, अपने नाट्यशास्त्र की रचना की । इसके ग्रंथ अभिषिक्त हुए 'शतानीक' का विवरण प्राप्त है (ऐ. बा. में नाट्याभिनय, नृत्य, संगीत, नाट्यगीत एवं काव्यशास्त्र ८.२३)। इन भरत राजाओं ने काशी के राजाओं को का विस्तारशः परामर्श लिया गया है। जीत कर, गंगा तथा यमुना के पवित्र तटों पर यज्ञ किये दुर्भाग्यवश भरत के द्वारा रचित मूल 'नाट्यशास्त्र' थे (श. बा..१३.५.४; ११.२१)। आज उपलब्ध नही है। सांप्रत उपलब्ध नाट्यशास्त्र का महाभारत में कुरु राजवंश के राजाओं को भरत- बहुतसारा भाग प्रक्षिप्त है; एवं वह एक ग्रंथकार की नही, वंशीय ही माना गया है। इससे प्रतीत होता है कि, बल्की अनेक ग्रंथकारों की रचना प्रतीत होती है । उसमे से ब्राह्मण ग्रन्थों के काल तक भरतगण कुरु पांचालजाति में | कई श्लोक अनुष्टुभ वृत्त में, एवं कई आर्या वृत्त में रचे विलीन हो चुके थे (श. बा. १३.५.४)। गये है; एवं कई भाग गद्यमय है। ऋग्वेद में एक जगह सुदास एवं दिवोदास, तथा पुरु- नाट्यशास्त्र की उत्पत्ति-भरत के नाट्यशास्त्र के कुल कुत्स एवं त्रसदस्यु इन दोनों की मित्रता का निर्देश मिलता | ३८ अध्याय है, जिसमे से पहिले एक एवं आखिरी तीन है । ओल्डेनबर्ग के अनुसार, ये निर्देश भरत, पूरु तथा कुरु | अध्यायों में नाट्यशास्त्र की उत्पत्ति की कथा दी गयी है । राजवंशों के सम्मीलन की निशानी माननी चाहिये (ऋ. उस कथा के अनुसार, एक बार इंद्रादि सारे देव ब्रह्मा के १.११२.१४; ७.१९.८)। पास गये, एवं उन्होने प्रार्थना की, 'नेत्र एवं कान इन दोनों ऋग्वेद में 'अग्नि भारत' को भरतों की अग्नि के को तृप्त करे ऐसे कोई कलामाध्यम का निर्माण करने की अर्थ में, तथा 'भारती' का प्रयोग भरतों की देवी के रूप आप कृपा करे'। देवों की इस प्रार्थना के अनुसार, ब्रह्म में हुआ है (ऋ. २.७.१; १.२२.१०)। ने 'नाट्यवेद ' नामक पाँचवे वेद का निर्माण किया। - इस मानववंश में उत्पन्न हुए राजा ( जैसे. सुदास एवं 'नाट्यवेद' में निर्दिष्ट तत्त्वों के अनुसार निर्माण किये गये दिवोदास) सूर्यवंशी थे अथवा नहीं, यह कहना कठिन है। प्रथम नाट्यप्रयोग का आयोजन इंद्र ने असुरों पर प्राप्त किये वायुपुराण में मनु राजा को ' लोगों का पोषण करनेवाला' | विजय के सम्मानार्थ, भरत मुनि द्वारा इंद्र के राजप्रासाद में अर्थ से 'भरत' कहा गया है, एवं उसीके नाम से इस देश किया गया । इस नाट्यप्रयोग का कथाविषय 'देवासुर संग्राम' तथा यहाँ के निवासियों को 'भारत' नाम प्राप्त होने का | ही था, जिसे देख कर उपस्थित असुरगण संतप्त हो उठा। निर्देश है (वायु. ४५.७६ )। उन्होनें अपने राक्षसी माया से नाट्यप्रयोगों में भाग लेनेवाले ५. नाट्यशास्त्र का प्रणयन करनेवाला सुविख्यात अभिनेताओं की वाणी, स्मृति एवं अभिनयसामर्थ्य पर भाचार्य, जिसका 'भारतीयनाट्यशास्त्र' नामक ग्रंथ | पाश डालना शुरु किया, जिससे नाट्यप्रयोग, में बाधा नाट्यलेखन एवं नाट्यप्रयोगशास्त्र का सर्वप्रथम एवं प्रमाण | ग्रंथ माना जाता है। राक्षसों के इस असंमजस व्यवहार का कारण इसके द्वारा लिखित नाट्यशास्त्र में, 'नंदिभरत संगीत | ब्रह्मा के द्वारा पूछा जाने पर राक्षस कहने लगे, पुस्तकम्' ऐसा निर्देश प्राप्त है, जिससे प्रतीत होता है की, | 'भारतमुनि निर्मित नाट्यकृति में राक्षस का इसका नाम नंदिभरत होगा । नंदिभरत के नाम पर | चित्रण देवों की अपेक्षा गिरे हुए खलनायक के 'अभिनयदर्पण' नामक अभिनयशास्त्र का एक ग्रन्थ, एवं | रूप में किया गया है। यह हमे पसंद नहीं है। संगीतशास्त्र पर अन्य एक भी उपलब्ध है । विष्णु पुराण | फिर ब्रह्मा ने जवाब दिया, 'देव एवं असुरों की सुष्टता एवं ५४१ Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरत प्राचीन चरित्रकोश भरत दुष्टता दर्शाने के लिये नाट्यवेद का निर्माण मैने किया की रचना, एवं उसके उद्घाटन के लिये आवश्यक धार्मिक है। मानवी जीवन की साकार प्रतिमा दर्शकों के सामने | विधि (अ. २-३): नृत्य एवं अभिनय में शारीरीक प्रगट करना, इस कला का मुख्य ध्येय है। जीवन के सारे . चलनवलन से वसंत, ग्रीष्मादि ऋतु, एवं त्वेष, दुःख पहलू, यथातथ्य रूप में प्रगट कर, एवं दुनिया के उत्तम, | हर्षादि भावना कैसी सूचित करे (अ. ४-५); नानाविध मध्यम एवं नीच व्यक्तियों को दिखा कर, दर्शको को ज्ञान रस, भावना, एवं अलंकार आदि का नाटयकृति में एवं मनरंजन एकसाथ ही प्रदान करना नाट्यमाध्यम का आविष्कार (अ. ६-८, १६); पात्रों की भाषा उनका मुख्य उद्देश्य है । इसी कारण दुनिया का सारा कला- | देश एवं व्यवसाय के अनुसार कैसी बदल देना चाहिये ज्ञान, शास्त्र, धार्मिक विचार एवं यौगिक सामर्थ्य का (अ. १७); नाट्यकृतिओं के दस प्रकार, एवं उनके दर्शन इस कला में तुम्हे प्राप्त होगा। वैशिष्टय (अ. १८); नाटयकृति की गतिमानता बढ़ाना नाव्यकला का पथ्वी पर अगमन-स्वर्ग में स्थित इंद्र | (अ. १९); नाटयशैली के विभिन्न प्रकार (अ.२०): प्रासाद में सर्वप्रथम निर्मित भरत की नाट्यकृति पृथ्वी | देव, दानव, मनुष्यों के पात्रचित्रण के लिये नानाविध पर कैसी अवतीर्ण हयी, इसकी कथा भी 'भरत | वेषभूषा, रंगभूषा आदि (अ. २१); नाट्यकृति के नाट्यशास्त्र में दी गयी है। इस कथा के अनुसार, इस | नायक, नायिका, खलनायक आदि पात्रों के विभिन्न नाटयकृति में भाग लेनेवाले अभिनेताओं ने उप- | प्रकार (अ. २२-२४); अभिनेताओं की नियुक्ति स्थित ऋषिओं का व्यंजनापूर्ण हावभावों से उपहास | एवं शिक्षा (अ. २६, ३५), नाटय-प्रयोग का समय, .. किया, जिस कारण ऋषिओं ने कृद्ध होकर नाटयव्यवसायी | स्थल एवं प्रसंग की नियुक्ती (अ. २७); नाटयसंगीत एवं लोगो को शाप दिया, 'उच्च श्रेणी के कलाकार हो कर | नृत्य (अ. २८-३४)। भी समाज की दृष्टि से तुम नीच एवं गिरे हुए होकर | भरत के नाट्यशास्त्र में, नाट्यकृतिओं के निम्न- . . रहोगे । अपनी स्त्रिया एवं पुत्रों के सहारे तुम्हे जीना | लिखित दस प्रकार माने गये है:- नाटक, प्रकरण, पडेगा'। भाण, प्रहसन, डीम, व्यायोग, समवकार, वीथी, उश्रुटठांक ऋषिओं के इस शाप के कारण नाट्यकला नष्ट न | एवं इहामृग । अग्निपुराण में भरत नाट्यशास्त्र के काफ़ी हो, इस हेतु से भरत ने यह कला अपने पत्र एवं स्वर्ग उद्धरण लिये गये है (अग्नि, ३३७-३४१)। किंतु वहाँ की अप्सराओं को सिखायी, एवं उन्हे पृथ्वी पर जा कर | नाट्यकृतिओं के सत्ताईस प्रकार दिये गये है। उसका प्रसार करने के लिए कहा। पृथ्वी पर जाने से | भरत के नाट्यशास्त्र में, निम्नलिखित आठ रसों का पहले ब्रह्मा ने उन्हे वर प्रदान किया, 'तुम्हारी कला | विवरण प्राप्त है :-शंगार, हास्य, करुण, रौद्र, वीर, सदैव लोगों को प्रिय, अतएव अमर रहेगी। भयानक, बीभत्स, एवं अद्भुत । इस नामावलि में शांतरस मस्त्य के अनुसार, भरतमुनि रचित 'लक्ष्मी स्वयंवर' का अंतर्भाव नहीं किया गया है, क्यो कि, वह विदग्ध नामक नाट्यकृति में लक्ष्मी की भूमिका करनेवाली उर्वशी काव्य का रस माना जाता है। अप्सरा से कुछ त्रुटि हो गयी, जिस कारण भरत ने उसे नाटयकृति का संविधानक (वस्तु, इतिवृत्त), नायक एवं पृथ्वी पर जाने का, एवं पुरूरवस् राजा की पत्नी बनने का नायिकाओं के विभिन्न प्रकार भी भरत नाट्यशास्त्र में दिये शाप दिया (मस्त्य. २४.१-३२)। गये है। भारतीय नाट्यशास्त्र एवं मत्स्य में प्राप्त इन कथाओं विंटरनिट्स के अनुसार, भरत की नाट्यकृति में रस, से ज्ञात होता है कि, उस समय नाटयकाल आज की नायक आदि की वर्गीकरणपद्धति अधिकतर ग्रांथिक पद्धति भाँति लोकप्रिय थी, एवं जनमानस में उसके प्रति अतीव की है, व्यवहारिक उपयोगिता एवं नये विचारों का दिगआकर्षण था। दर्शन उसमें कम है। __ भारतीय नाट्यशास्त्र--भरतरचि नाट्यशास्त्र में काल-हरप्रसाद शास्त्री के अनुसार, उपलब्ध नाट्यनाटयकृति का केवल साहित्यिक दृष्टि से नही, बल्की शास्त्र का काल ई. स. दुसरी शताब्दी माना लेना चाहिये । कला, संगीत, नृत्य, अभिनय आदि सर्वांगीण दृष्टि से संभव है, नाट्यशास्त्र में अंतर्गत अभिनयसंबंधी कारिका विचार किया गया है । उस ग्रन्थ में नाट्यप्रयोग संबंधी इससे पुरानी हो । देवदत्त भांडारकर के अनुसार, इस ग्रंथ निम्नलिखित विषयों का परामर्श लिया गया है:-रंगमंच में प्राप्त संगीतसंबंधी अध्याय काफी उत्तरकालीन, अतएव Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन चरित्रकोश भरत चौथी शताब्दी का प्रतीत होता है। महाकवि भास के काल में भरत का नाट्यशास्त्र सुविख्यात् ग्रन्थ था। कालि दास को भी भरत एवं उसके नाट्यशास्त्र से काफी परिचय था । 'विक्रमोर्शीयम्' में भरत नाट्यनिर्देशक के नाते इंद्र के राजप्रासाद में प्रवेश करता हुआ दिखाया गया है, एवं उक्त नाट्यकृति में भरत के ' अष्टरस ' संबधी सिद्धांत का विवरण प्राप्त है। । ६. मगधाधिपति इंद्रयुम्न राजा के दरबार एक धर्मेश ऋषि । इंद्रयुरंग राजा के पत्नी ने इंद्र नामक ब्राह्मण से व्यमिचार किया। पश्चात् राजा के द्वारा प्रार्थना करने पर इसने इंद्र ब्राह्मण को शाप दे कर उसका नाश किया ( यो. वा. ३.९० ) 1. ७. एक अग्नि, जो शंभु नामक अग्नि का द्वितीय पुत्र था। इसे कर्ज नामांतर भी प्राप्त था। पौर्णमास याग के समय इसे सर्व प्रथमं हविष्य एवं घी अर्पण किया जाता है ( म.व. २०९.५ ) । ८. एक अग्नि, जो अद्भुत नामक अग्नि का पुत्र था । यह मरे हुए प्राणियों के शव का दाह करता है। इसका अग्निष्टोम में नित्य वास रहता है; अतः इसे 'नियत' भी कहते है (म. व. २१२.७ ) । भरत 'जड' ५.४.९९ वायु. ३२.५२९ ब्रह्मांड. २.१४.६२ लिंग १. ४७.२४; विष्णु. २.१.२२) । वायु के अनुसार, इसके पूर्व इस देश का नाम 'हिमवर्ष था। ' , बहुत दिनों तक राज्य करने के उपरांत, इसका पिता राजय ऋपम इसका राज्याभिषेक कर वन चला गया। पिता के द्वारा राज्यभार सीप देने के उपरांत इसने विश्वरूप की कन्या पंचजनी का वरण किया। यह अपने पिता की ही भाँति प्रजापालक, दयालु एवं धार्मिक प्रवृत्ति का राजा था। इसकी प्रजा भी निश्धर्म का पालन करती हुयी सुख के साथ जीवन निर्वाह करती थी। इसने यजकमों के 'प्रकृति विकृतियों का पूर्ण ज्ञान संपादित कर, बडे बडे यज्ञों को कर यज्ञपुरुष की आराधना की थी। इस प्रकार भक्तिमार्ग का अवरोधन करता हुआ इसने एक कोटि वर्षों तक राज्य किया। तदोपरांत राज्य को छोड़कर यह तर के लिए पुलहाश्रम चा गया (मा. ५.७.८) । ' द्वितीय जन्म -- पुलह का आश्रम गंडकी नदी के किनारे बडे सुन्दर स्थान पर बना था। वहीं जाकर यह सूर्यमंत्र का जाप कर तपस्या करने लगा। एक दिन इसने एक गर्भवती हरिणी देखी, जो तृषित होकर शरीर श्लथ बड़ी जल्दी जल्दी पानी पी रही थी। इतने में सिंहना से भयत्रस्त होकर वह एकदम भगी। वैसे ही उसके गर्भ में स्थित शावक गिर कर पानी के प्रवाह में वह गया, तथा वह अस्तनयनों से देखती कुंज में विलीन हो गयी। भरत ने शावक को पानी से निकाला, तथा इसे आश्रम ले आया। इस हरीणशावक के प्रति इसकी स्नेह भावना इतनी बढ़ गयी कि उसी मोह में नित्य होने वाली दिनचर्या चौबीस घन्टे गायक ही याद रहता तथा उसी की ही तथा अपनी तपस्या से भी वह उदासीन हो गया । उन्हें चिन्ता। यहां तक कि, मृत्यु के समय भी इसे यही चिन्ता थी कि मेरे बाद इस शावक का क्या होगा ? इसी कारण मृत्योपरांत इसे मृगजन्म ही प्राप्त हुआ । ९. एक अमि, जो शंभुपुत्र भरत नामक अभि का पुत्र था (म.व. २०९.६-७ ) । इसे पुतमति नामांतर भी प्राप्त था (म. व. २११.१; पुष्टीमति देखिये) । । १०. वाराणसी क्षेत्र में रहनेवाला एक योगी, जिसने गीता के चौथे अध्याय का पाठ कर बदरी (बेर) बनी हुई दो अप्सराओं का उद्धार किया था (पद्म उ. १७८)। ११. वृत्ति से रहनेवाला एक दुराचारी ब्राह्मण इसके माई का नाम पुंडरीक था। एक मृत मनुष्य के शव को अभि देने का पुण्यकर्म करने के कारण, यह मुक्त हो गया (पद्म, उ. २१८-२१९) । | १२. एक राजा, जो भौत्य मनु के पुत्रों में से एक था । १३. (सो. तुर्वसु. ) करंधमपुत्र मरुत्त राजा का नामांतर ( मरुत्त १. देखिये ) । भरत 'जड' ( स्वा. नामि) एक महायोगी एवं गुणवान् राजर्षि, जो ' जडभरत' नाम से सुविख्यात हैं। अनभवर्ष का राजा नाम के पुत्र ऋषभदेव को इन्द्र की की कन्या जयन्ती से सी पुत्र हुए, जिनमें यह ये था। पहले इस देश का नाम अजनाभ वर्ष था। बाद को इसी के नाम से इस देश का नाम भारतवर्ष हुआ (भा. मृगयोनि में इसे अपने पूर्वजन्म का पूर्णज्ञान था । अतएव अपने मातापिता के मोह का परित्याग कर, यह उसी पुलह आश्रम में आकर, शाल वृक्षों की पवित्र छाया में एकाग्रचित्त होकर तपस्या करने लगा। जब इसे पता चला कि इसकी मृत्यु निकट आ गयी है, तब गंडकी नदी के पवित्र जल में गले तक डूबकर इसने अपने मृग शरीर का त्याग किया। ५४३ Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरत 'जड प्राचीन चरित्रकोश भरत 'दाशरथिः तृतीय जन्म--मृगयोनि के उपरांत, इसने अंगिराकुल | गया। पालकी ले जानेवाले सभी कहार तेज चलते थे। के एक सद्गुणसम्पन्न ब्राह्मण की दूसरी पत्नी के गर्भ | किंतु यह राह में धीरे धीरे इस प्रकार कदम रखता, से जन्म लिया। इस जन्म में इसे 'जड़ भरत' नाम | कि कहीं कोई कीड़ामकोडा इसके पैर से कुचल कर मर प्राप्त हुआ। इस जन्म में भी इसे अपने पूर्वजन्मों का | न जाये । इस प्रकार, इसके धीरे चलने से राजा को ज्ञान था, तथा यह भी पता था कि मेरा यह अन्तिम | पालकी के अंदर झटके लगने लगे। उसने जब इसका जन्म है । अतः कही फिर जन्म न लेना पडे इस कारण, | कारन पूछा, तब उसे पता चला की, इसमें जडभरत का ही यह मोहमाया को छोडकर सब से अलग रहने लगा। | दोष है, अन्य का नहीं। इसका विचार था, 'यदि मैं किस से, किसी प्रकार का | रहूगण राजा से संवाद-राजा ने पालकी से झाँक सम्पर्क सम्बन्ध तथा प्रेमभाव रखूगा तो लोग भी । कर इसको देखते ही कहा, 'तुम दिखते तो हृष्टपुष्ट हो, मुझसे सम्बन्ध बढायेंगे, तथा इसप्रकार मायामोह के | किंतु पालकी ले जाने में इतने सुस्त क्यों' ? तब जड बन्धनों में उलझ कर मुझे जन्म मरण के बन्धनों में बार | भरत ने उत्तर दिया, 'मजबूती शरीर की नहीं, आत्मा की बार बन्धना पड़ेगा। इसीलिए यह इस प्रकार का होती है, तथा मेरी आत्मा अभी इतनी पुष्ट कहाँ ? आचरण दिखाने लगा कि, लोक इसे मुर्ख, मंदबुद्धि, अंधा | पश्चात् , इसे तत्त्वज्ञानी समझ कर, राजा पालकी से तथा बहरा समझे । इसप्रकार कर्म बन्धनों से अलग | उतर लिया, एवं उसने इससे आत्मबोध के संबंध में . रहकर, दत्तचित्त होकर यह ब्रह्मचिन्तन मैं सदैव निमग्न उपदेश ग्रहण कर मुक्ति प्राप्त की । इसने राजा को अपने , रहने लगा। पूर्वजन्म की घटनाओं के साथ साथ उसे अन्य बातें भी इसको इस प्रकार उदासीन देखकर भी, इसके पिता बतायी थी। इस प्रकार उसे ज्ञान प्रदान कर यह बन को ने गृहस्थाश्रम के उपनयनादि सभी संस्कारों को कर के चला गया ( भा. ५.११-१४; नारद १.४८-४९; विष्णु. . इसे वेदशास्त्रों की शिक्षा आदि का भी ज्ञान कराया। २.१३-१६)। किन्तु यह तो अपने राग में ही मस्त रहा। इसकी यह भागवत के अनुसार, इसका इतना महान् चरित्र था. उदासीनता तथा उपेक्षित भाव देखकर इसके पिता पुत्र कि अनुकरण करना तो दूर रहा, किसी में इतना सामर्थ्य दुःख में ही मर गये । इसकी माता भी उसीके साथ | नहीं कि, वह इस प्रकार के त्यागमय जीवन को अपना ने सती हो गयी; किन्तु इसमें कोई अन्तर न आया। आगे की बात सोचे, तथा यदि वह सोचे भी, तो यह उसीके चलकर, इसके भाइयों ने भी इसे जड़ समझ कर, इसकी प्रकार की बात होगी कि, कोई नीच मक्खी गरुड़ की पढाई लिखायी बन्द कर, इससे सम्बन्ध तोड़ लिए। यह बराबरी के लिए प्रयत्नशील हो (भा. ५.१४.४२)। भी भक्तिभावना में निमग्न कभी बेगारी करता, कभी परिवार---ऋषभपुत्र के जन्म में, इसे अपने पंचजनी भिक्षा माँगता, तथा कभी मज़दूरी कर के अपना पेट | नामक पत्नी से निम्नलिखित पाँच पुत्र हुए:- सुमति, पालता । एक बार यह वीरासन में बैठा खेत की रक्षा कर राष्ट्रभृत्, सुदर्शन, आवरण, एवं धूम्रकेतु । पुलह ऋषि के रहा था, की राजदूतों ने इसे देखा, तथा पकड़ कर बलि आश्रम में जाने के पूर्व, इसने अपना संपूर्ण राज्य अपने देने के लिए भद्रकाली के मन्दिर ले गये। किन्तु पुत्रों में बाँट दिया था (भा. ५.७.१-१३)। देवी ने इसकी परम प्रतिभा को पहचान कर, इसका भरत 'दाशरथि'--(सू. इ.) अयोध्या के राजा संरक्षण कर लिया, एवं उन राजदूतों का नाश किया (भा. दशरथ का पुत्र । इसकी माता का नाम कैकयी था। ५.९-१०; विष्णु. २.१३-१६ )। कुशध्वज जनक की कन्या मांडवी इसकी पत्नी थी। एक बार सिंधु-सौवीर देश का राजा रहगण कपिलाश्रम | जिस समय राम को राज्याभिषेक होनेवाला था, यह में ब्रह्मज्ञान का उपदेश सुनने के लिए जा रहा था। जाते | शत्रुघ्न के साथ अपने मामा के घर गया था। अयोध्या का जाते वह इक्षुमती के तट पर आ पहुँचा । उसने वहाँ के राज्य इसे दिलाने के लिए इसकी माँ कैकेयी ने दशरथ से अधिपति से पालकी ले जाने के लिए कहारों को मँगाने के | वरदान प्राप्त किया कि, राम को वनवास, तथा भरत को लिए कहा। पालकी ले जाने के लिए जब कोई दीख न अयोध्या का राज्य दिया जाय । दशरथ कैकेयी के पूर्व वचनपड़ा, तो बेगार रूप में राजा की पालकी उठाने के लिए बद्ध थे। वह जब चाहे वरदान प्राप्त कर सकती थी। इससे कहा गया। यह बिना हिचकिचाहट के तैयार हो | इसी आधार पर उसने उक्त वरदान ऐसे विचित्र अवसर ५४४ Page #567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरत 'दाशरथि प्राचीन चरित्रकोश भरत 'दाशरथि पर माँमे कि, दशरथ ने अपनी प्रतिज्ञा तो पूरी की; किन्तु उनका राज्याभिषेक करें। भरत के इस आवेशपूर्ण राम के वनगमनोपरांत पुत्रशोक में प्राण त्याग दिया। उत्तर को सुनकर वसिष्ठ आदि लोगों ने बहुविध भावों से राम वन चले गये थे, दशरथ भी इस संसार में न रहे, भरत को समझाया, किन्तु यह अपनी वाणी पर अटल अतएव राज्य की व्यवस्था संभालने के लिए सिद्धार्थ रहा । यहीं नहीं, भरत ने यहाँ तक कह डाला, 'अगर राम नामक मंत्री से भरत को बुला लाने के लिए भेजा गया। वापस नहीं आयेंगे, तो मैने भी निश्चय कर रखा है ___ इधर भरत अपने ननिहाल में नित्यप्रति अनिष्टकारी कि, मै राज्य को स्वीकार न करके लक्ष्मण के समान स्वप्नों को देखने के कारण, अत्यंत दुःखी व चिंतित था। स्वयं वनवासी हो कर, राम की सेवा करते हुए अपने सिद्धार्थ इसे लेने के लिए आया, और बिना कुछ बताये | धर्म का निर्वाह करूँगा'। यह कह कर भरत ने राज्याअयोध्या वापस बुला लाया। अयोध्या आकर इसे अपनी धिकारियों को आज्ञा दी कि, राजपथों को ठीक किया जाये. माँ के द्वारा सभी समाचार ज्ञात हुए। तथा शीघ्रातिशीघ्र जाने की सभी तैयारियां शुरू की जाये। कैकयी का षड्यंत्र--राज्यप्राप्ति के लिए, माँ केकैयी | राम की खोज-राम से मिलने के लिए भरत अपने द्वारा रचे गये इस षड्यंत्र को देख कर भरत क्रोधाग्नि में परिवार, प्रजा, गुरुजनों के साथ अयोध्या से यात्रा के पागल हो उठा, और अपनी माँ की कटु आलोचना करते लिए निकल पड़ा । सब से पहला विश्राम, भरत ने गंगा के हुए उसकी घोर निर्भर्त्सना की । भरत को अपनी माँ की किनारे शृंगवेरपुर के पास किया। वहाँ इसने गुह से भेंट इस राज्यलिप्सा तथा अधिकार प्राप्ति की भावना से इतना की, तथा राम के संबंध में अनेकानेक सूचनाओं को प्राप्त अधिक दुःख हुआ कि, यह वहाँ ठहर न सका, और सीधे कर, उसकी ही सहायता से अपने परिवार सहित गंगा कौसल्या से मिलने के लिए उसके महल की ओर चल पड़ा। को पार कर 'भरद्वाज आश्रम' की ओर चल पड़ा। मार्ग में कौसल्या भी इससे मिलने के लिए विह्वल थी, क्योंकि संपूर्ण परिवार के साथ चैत्रमुहूर्त में यह प्रयाग वन पहुँचा। उसकी धारणा थी कि. शायद यह समस्त जाल भरत की | वहाँ कुछ देर विश्राम करने के उपरांत, कुछ चुने हुए - सम्मति से ही बिछाया गया है। भरत के आते ही कौसल्या व्यक्तियों को लेकर यह भरद्वाज आश्रम की ओर चल पड़ा, तथा शेष व्यक्तियों से वहीं ठहरने की आज्ञा दी। को विदीर्ण कर दिया। अन्त में शोक विह्वल भरत को | · भरत जब गुह से मिला था, तो उसे भी इसे देख कर हाथ जोड़ कर शपथ खाकर कहना पड़ा कि, इस जाल फरेब | पहले शंका हुयी थी। यही हाल भरद्वाज का भी हुआ। से उसका कोई सम्बन्ध नहीं है, उसका नाम व्यर्थ में जोड़ भरत को देखते ही उसके हृदय में यह बात दौड़ गयी कर उसे पापी ठहराया गया है। कि, कहीं राम का कंटक हमेशा के लिए मार्ग से दूर इसके आने के दूसरे दिन गुरु वसिष्ठ ने राजा दशरथ | करने के लिए भरत तो नहीं आया! भरत के मिलते ही को क्रियाकर्म करने के लिए कहा। तब भरत ने भी गुरु की भरद्वाज ने स्पष्ट शब्दों में अपनी धारणा प्रकट की। किन्तु आज्ञा मान कर, तेल की कढ़ाई में रक्खे गये दशरथ के भरत के बार बार कहने तथा वसिष्ठ द्वारा विश्वास दिलाये सुरक्षित शव को निकाल कर, विधिपूर्वक अग्निहोत्राग्नि | जाने पर, भरद्वाज मुनि को इस पर विश्वास हुआ। उन्होंने देकर, पिता की अन्तिम क्रिया पूरी की (वा. रा. अयो. | इसका तथा इसकी सेना का उत्कृष्ट भोजनादि दे कर आदर ७०-७७)। सत्कार करते हुए बताया, 'राम इस समय चित्रकूट में चौदह दिनोपरांत, जब यह अपने मृत पिता के निवास कर रहे हैं, और तुम उनसे भेंट कर सकते हो। अंतिम संस्कारों से निवृत्त हुआ, तब राज्याधिकारियों एवं भरत ने भरद्वाज मुनि से कौसल्या तथा के कैकयी का जो मंत्रियों ने इसे सिंहासन स्वीकार कर के राज्य संचालन की | परिचय दिया है, वह एक ओर करुणा से ओतप्रोत है तथा प्रार्थना की। इसने सब को समझाते हुए कहा, 'राज्य का | दूसरी ओर घृणा, क्रोध एवं आत्मग्लानि से परिपूर्ण है। अधिकारी मृत पिता का ज्येष्ठ पुत्र ही हो सकता है, मैं | कौसल्या का परिचय देते हुए भरत ने कहा, 'शोक तथा उपनहीं । राजा होने का अधिकार केवल राम को ही है, वास से कृश तथा दीनहीन बनी हुयी, मेरे पिता की पटकारण वह हमारे सभी भाइयों में ज्येष्ठ एवं योग्य हैं। रानी कौसल्या को आप देख रहे हैं । इसीने सिंह के समान हमें चाहिये कि, राम जहाँ कहीं हो हम अपने सम्पूर्ण पराक्रमी राम को जन्म दिया है' । अपनी माँ को घृणापूर्ण माज-बाज के साथ वहाँ जाकर राज्यभार उन्हें सौंप कर | दृष्टि से देखते हुए भरत ने कहा, 'यह क्रोधी, अविचारिणी, प्रा. च. ६९] Page #568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरत 'दाशरथि प्राचीन चरित्रकोश भरत 'दाशरथि अभिमानिनी, स्वयं को भाग्यशालिनी समझनेवाली, में प्रवेश कर, अपना शरीर त्याग दूंगा'। इतना कहकर ऐश्वर्यलुब्ध सज्जन के समान दिखनेवाली, परन्तु दुर्जन, राम की पादुकाओं को लेकर यह वापस आया। दुष्ट, तथा दुर्बुद्धि, मेरी माता कैकेयी है'। भरत ने भरद्वाज । नन्दिग्राम में-अयोध्या आ कर पादुकाओं को लेकर, आश्रम में एक दिन निवास किया। उसके उपरांत भरद्वाज यह नन्दिग्राम में वनवासी की भाँति रह कर राज्य करने ने राम की पर्णकुटी की ओर जानेवाले यमुना तट का मार्ग लगा। इस प्रकार राज्यसंचालन करते समय छत्रसमझाकर आदरपूर्वक इसे बिदा किया (वा. रा. अयो. ९२)। चामर, उपहार सभी चीजें पादुकाओं को ही अर्पित की भरद्वाज के द्वारा निर्देशित मार्ग पर चल कर यह जाती थी, तथा यह निमित्तमात्र बन कर राम की अमानत चित्रकूट पहुँचा । भरत के आने की सूचना मिलते ही समझ कर अयोध्या के राज्य का संचालन करता रहा। लक्ष्मण आग बबूला हो उठा; उसे पूर्ण विश्वास हुआ कि राम के वनवास के चौदह वर्षो तक नन्दिग्राम में रह कर भरत ससैन्य राम से युद्ध करने आ रहा है। किन्तु राम के यह राजकाज देखता रहा । अन्त में राम ने हनुमान् । अत्यधिक समझाने पर उसका वह संदेह दूर हुआ। के द्वारा अपने आने की सूचना भरत के पास भिजवायी। राम से भेंट-भरत आ कर, अतिविह्वलता के साथ जिस समय हनुमान् आया, उसने देखा कि वल्कल राम से लिपट गया एवं अपने हृदय की समस्त आत्मग्लानि तथा कृष्णा जिन धारण करनेवाला, आश्रमवासी, कृश, को प्रकट करते हुए बार बार उससे माफी माँगने लगा। दान, जटाधारा, शरार का पवार इसने राम को घर की सारी परिस्थिति बतलाते हए आग्रह | पर जीनेवाला तपस्वी भरत भावनिमग्न बैठा है। .. किया कि वह अयोध्या चल गया इसे देखते ही हनुमान् ने सश्रद्ध भरत के पास आकर इसके साथ जाबालि तथा वसिष्ण आदिने भी बाबा राम के आगमन की सूचना इसे दी। हनुमान् द्वारा रामानिवेदन किया। किन्तु राम न माने । राम ने पिता के वचनों | गमन की सूचना सुनकर भरत अत्यंत प्रसन्न हुआ, एवं को सत्य प्रमाणित करने के लिए कहा, 'मुझे पिता की अनेकानेक पारितोषिक प्रदान कर इसने उसका आदरसत्कार । आन प्यारी है। मेरा कर्तव्य है कि मैं पिता की आज्ञा को । किया। दिये गये पारितोषिकों में सोलह सुन्दर स्त्रियों के . स्वीकार कर उनके पण की रक्षा करूं। इसलिए मैं न | देने का भी उल्लेख प्राप्त है। . अयोध्या जाउँगा, और न राज्य सिंहासन ही स्वीकार बाद में, भरत तथा शत्रुघ्न ने उत्तम प्रकार से नगर का .. करूँगा'। शंगार कर राम का स्वागत किया, तथा बडे समारोह से, राम की यह वाणी सुन कर इसने उनके आश्रम के राम का राज्याभिषेक कर, अपने पास अमानत के रूप में सामने सत्याग्रह करने की योजना बनायी । किन्तु राम ने | रक्खे हए अयोध्या के राज्य को राम को वापस दिया। कहा कि, यह क्षत्रियों का मार्ग न होकर ब्राह्मणों का मार्ग | राम ने राज्यभार की स्वीकार कर अपना युवराज लक्ष्मण है; यह तुम्हारे लिये अशोभनीय है। अन्त में भरत को को बनाने की इच्छा प्रकट की, क्यों कि, राम के उपरांत समझाते हुए राम ने कहा ज्येष्ठ होने के कारण उसका ही नाम आता है। लेकिन " लक्ष्मीश्चन्द्रादपेयाद्वा हिमवान् वा हिमं त्यजेत् । लक्ष्मण के स्वीकार न करने पर, भरत का यौवराज्याभिषेक अतीयात् सागरो वेलां न प्रतिज्ञामहं पितुः॥ किया गया (वा. रा. यु. १२५-१२८; पद्म. पा. १-२)। कामादा तात लोभादा मात्रा तुभ्यमिदं कृतम् । ___ युद्धप्रसंग--भरत के सम्पूर्ण जीवन में सम्भवतः एक न तन्मनसि कर्तव्यं वर्तितव्यं च मातृवत् ॥" बार ही युद्ध में भाग लेने का अवसर प्राप्त हुआ। राम (वा. रा. अयो. ११२.१८-१९) के राज्यकाल में, भरत के कैकयाधिपति मामा के पास से अन्त में राम के अत्यधिक समझाये जाने पर इसने | राम को संदेश मिला, 'मैं गन्धवों से घिर गया हूँ तथा उनकी पादुकाओं को ले कर कहा, 'मैं इन पादुकाओं आपकी सहायता चाहता हूँ'। अतएव उसको गन्धवों से के नाम से चौदह वर्ष तक राज्य चलाऊँगा, तथा जिस | मुक्त करने के लिए राम ने इसके नेतृत्व में अपनी सेना प्रकार तुम वन में रह कर जटायें एवं वस्त्र धारण करते हो. भेजी थी। इस सेना में भरत के दो पुत्र तक्ष तथा पुष्कल उसी प्रकार मैं भी जीवन व्यतीत करूँगा, तथा फलफूलों | भी थे। को खा कर ही अपना जीवन निर्वाह करूँगा। यदि | भरत ने अपनी सेना के साथ जा कर सिन्धु के दोनों तुम चौदह वर्षों के उपरांत वापस न आये, तो मैं अग्नि | तटों पर स्थित उपजाउ प्रदेश में रहनेवाले गंधवा को Page #569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरत 'दाशरथि' प्राचीन चरित्रकोश भरत 'दाशरथि पराजित किया, तथा दो नगरो की स्थापना की । एक का | बचपन में बड़े बड़े दानवों, राक्षसों तथा सिंहों का दमन नाम 'तक्षशिला' रख कर वहाँ का राज्याधिकारी तक्ष को | करने के कारण, कण्वाश्रम के ऋषियों ने इसका नाम नियुक्त किया, तथा दूसरी नगरी का नाम 'पुष्कलावत' । सर्वदमन रक्खा था (म. आ. ६८.८)। इसे 'दमन' रख कर वहाँ का राज्य पुष्कल को सौंपा। इस युद्ध को | नामांतर भी प्राप्त था । शतपथ ब्राह्मण में इसे 'सौद्युम्नि' जीतने तथा राज्यादि की स्थापना में भरत को पाँच वर्ष कहा गया है (श. ब्रा. १३.५.४.१०)। कण्व ऋषि के लगे। बाद को यह अयोध्या वापस आया (वा. रा. उ. आश्रम में शकुन्तला रहती थी, उस समय सुविख्यात १०१)। पूरुवंशीय राजा दुष्यन्त ने उससे गान्धर्व विवाह किया - अन्त में इस महापुरुष ने, राम के उपरांत अयोध्या से था, एवं उसी विवाह से भरत का जन्म हुआ। जब भरत डेढ कोस की दूरी पर स्थित 'गोप्रतारतीर्थ' में देहत्याग | तीन साल का हो गया, तब इसके युवराजाभिषेक के लिए किया (वा. रा. १०९.११; ११०.२३)। कण्व ऋषि ने शकुन्तला को पुत्र तथा अपने कुछ शिष्यों तुलसीरामायण में-रामचरित-मानस में तुलसीदास के साथ प्रतिष्ठान के लिए बिदा किया। जी ने भरत का समस्त रूप ___ दुष्यन्त ने इसे तथा शकुन्तला को न पहचान कर पुलह गात हिय सिय रघुबीरू, इसका तिरस्कार किया, एवं शकुन्तला को पत्नीरूप में जीह नामु जप लोचन नीरू, स्वीकार करने के लिए राजी न हुआ । शकुन्तला ने बहुत में प्रकट कर दिया है। 'मानस' में भरत का चरित्र कुछ कहा, किन्तु कुछ फायदा न हुआ। ऐसी स्थिति देखकर सभी से उज्ज्वल कहा गया है। आकाशवाणी हुयी, 'शकुन्तला तुम्हारी स्त्री एवं भरत 'लखन राम सिय कानन बसहीं, तुम्हारा पुत्र है, इन्हें स्वीकार करो'। आकाशवाणी की भरत भवन बसि तपि तनु कसहीं आज्ञा के अनुसार, दुष्यन्त ने भरत को पुत्र रूप में स्वीकार कोउ दिसि समुझि करत सब लोगू, कर, उसका युवराज्याभिषेक किया। सब बिधि भरत सराहन जोगू। राज्यपद प्राप्त होने पर भरत ने दीर्घतमस् मामतेय - तुलसी ने अपनी भक्तिभावना भरत के रूप में ही | ऋषि को अपना पुरोहित बनाकर गंगा नदी के तट पर प्रकट की है। भरत त्याग, तपस्या, कर्तव्य तथा प्रेम के | चौदह, एवं यमुना नदी के तीर पर तीन सौ अश्वमेध यज्ञ साक्षात् स्वरूप हैं। इसकी चारित्रिक एकनिष्ठा एवं | सम्पन्न कराये । इसी के साथ 'मष्णार' नामक यज्ञ नैतिकता के साथ कवि इतना अधिक एकात्म्य स्थापित कर्म कर सौ करोड सौ, कृष्णवर्णीय अलंकारो से विभूषित कर लेता है, कि स्वयं भरत की प्रेम निष्ठा कवि की हाथियों को दान में दिया (म. शां. २९.४०-४५)। आत्मकथा बन जाती है। ऐतरेय ब्राह्मण में, सौ करोड सौ गायें इसके द्वारा दान भरत का यह साधु चरित 'पउम चरिउ' (स्वयंभुव) देने का निर्देश है, एवं इसके अश्वमेधों की संख्या भी 'भरत-मिलाप' (ईश्वरदास), गीतावली (तुलसीदास), विभिन्न रूप में दी गयी है (ऐ. बा. ८.२३)। महाभारत 'साकेत' (मैथिलीशरण गुप्त), एवं 'साकेत-सन्त' में, इसके द्वारा सरस्वती नदी के तट पर तीन सौ अश्वमेध (बलदेवप्रसाद मिश्र) आदि प्रसिद्ध हिन्दी काव्यों में | यज्ञ करने का निर्देश प्राप्त है (म. द्रो. परि. १. क्र. ८. भी भारतीय संस्कृति के आदर्श प्रतीक के रूप में चित्रित | पंक्ति. १४४; शां. २९.४१)। किया गया है। पश्चात् अपने रथ को तैतीस सौ अश्व जोतकर इसने भरत दौःषन्ति--(सो. पूरु.) एक सुविख्यात पूरु- दिग्विजयसत्र का प्रारंभ किया । दिग्विजय कर, शक, म्लेच्छों वंशीय सम्राट, जो दुष्यन्त राजा का शकुन्तला से उत्पन्न | तथा दानवों आदि का नाश कर अनेकानेक देवस्त्रियों को पुत्र था (म. आ. ९०. ३३, ८९; १६; वायु. ४५ | कारागृह से मुक्ति दिलाई। इसने अपने राज्य का विस्तार ८६) । महाभारत में निर्दिष्ट सोलह श्रेष्ठ राजाओं में इसका उत्तर दिशा की ओर किया। सरस्वती नदी से लेकर निर्देश प्राप्त है (म. शां. २९.४०-४५) । इससे भरत | गंगा नदी के बीच का प्रदेश इसने अपने अधिकार में राजवंश की उत्पत्ति हुयी, एवं इसीसे शासित होने के कर लिया था। इसके पिता दुष्यन्त के समय इसके कारण इस देश का नाम भारतवर्ष पड़ा (म. आ. | राज्य की राजधानी प्रतिष्ठान थी, किन्तु आगे चल कर २.९६*)। | इसके राज्य की राजधानी का गौरव हस्तिनापुर को दिया ५४७ Page #570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरत 'दाशरथि प्राचीन चरित्रकोश भरद्वाज गया, तथा प्रतिष्ठान नगरी वत्स राज्य में विलीन हो गयी।। भरतवंश-इसके वंश में उत्पन्न सारे पुरुष 'भरत' यही नही, हस्तिनापुर नगर इसके द्वारा बसाया भी गया। अथवा 'भारतवंशी' कहलाते है (ब्रह्म. १३.५७; वायु. ९९ बाद को इसके वंश के पाँचवे पुरुष हस्तिन् ने उसे और १३४)। इसके वंश में पैदा हुए पाँचवे पुरुष हस्तिन् को उन्नतिशील बना कर उसे अपने नाम से प्रसिद्ध किया अजमीढ एवं द्विमीढ नामक दो पुत्र थे। उनमें से अजमीढ़ (वायु. ९९.१६५; मत्स्य. ४९.४२)। | ने हस्तिनापुर का पूरुवंश आगे चलाया, एवं द्विमीढ ने । शतपथ ब्राह्मण में श्रेष्ठ सम्राट भरत द्वारा सात्वत राजा । आधुनिक बरेली इलाके में अपने स्वतंत्र द्विमीढ वंश का अश्वमेधीय अश्व पकड लेने का निर्देश है (श. ब्रा. | की स्थापना की। ३.५.४.९; २१)। शतपथ ब्राह्मण के इस निर्देश में अजमीढ की मृत्यु के बाद, उसका पुत्र ऋक्ष हस्तिनादुष्यन्तपुत्र भरत एवं दशरथपुत्र भरत के बीच में | पुर का सम्राट बना एवं उसके बाकी दो पुत्र नील एवं भ्रान्ति हो गयी है, क्योंकि, सात्वत राजा राम दाशरथि बृह दिषु ने उत्तर पांचाल एवं दक्षिण पांचाल के स्वतंत्र का समकालीन था। राजवंशों की स्थापना की। इस तरह भरतवंश ने शाखाओं परिवार--इसे कुल चार पत्नियाँ थीं, जिनमें काशिराज में फैलकर, उत्तर भारत के शासन की बागडोर अपने हाथों सर्वसेन की कन्या सुनन्दा पटरानी थी। इसकी शेष में ले ली। पत्नीयाँ विदर्भ देश की राजकन्याएँ थीं। शादी के उपरांत भरद्वाज ब्राह्मण था। भरतपुत्र होकर वह क्षत्रिय. विदर्भ कुमारियों से भरत को एक एक पुत्र हुए। पर इन हुआ, इस प्रकार भरतवंश की एक शाखा क्षत्रियब्राह्मण ... तीन रानियों के तीनों पुत्र, पिता की भाँति बल तथा नाम से प्रसिद्ध हुयी। उस शाखा में उरुक्षय वंश के महर्षि योग्यता में ऐश्वर्यपूर्ण न थे, अतएव उनकी माताओं ने । एवं काप्य, सांकृति, शैन्य गार्य आदि क्षत्रियब्राह्मण , उन्हें मार डाला (ब्रह्म. १३.५८; ह. वं. १.३२; भा. ९. प्रमुख थे (भरद्वाज देखिये)। २०.३४ )। आगे चल कर एक गहन समस्या आ पड़ी, | भरती-भरत नामक अग्नि की कन्या। की भरत का उत्तराधिकारी कोन हो? । भरद्वसु--एक ऋषि, जो वसिष्ठकुल का मंत्रकार था । पुत्रप्राप्ति के लिए भरत ने अनेकानेक यज्ञ किए, | भरद्वाज-एक सुविख्यात वैदिक सूक्तद्रष्टा, जिसे अन्त में मरूतों को प्रसन्न करने के लिए 'मरुत्स्तोम' यज्ञ | ऋग्वेद के छठवे मण्डल के अनेक, सूक्तों के प्रणयन का भी किया। मरुतों ने प्रसन्न होकर बृहस्पति के पुत्र भरद्वाज | श्रेय दिया गया है (ऋ. ६. १५. ३,१६.५ १७.४; ३१ को इसे पुत्र के रूप में प्रदान किया। संभव है, यहाँ । ४)। भरद्वाज तथा भरद्वाजों का स्तोतारूप में मी, उक्त मरुत् देवता का संकेत न होकर, वैशालिनरेश मरुत्त मण्डल में निर्देश कई बार आया है । अथर्ववेद एवं ब्राह्मण अभिप्रेत हो (मरुत्त देखिये)। ग्रन्थों में भी इसे वैदिक सूक्तद्रष्टा कहा गया है (अ. वे. भरद्वाज पहले ब्राह्मण था, किन्तु इसके पुत्र होने के | २.१२.२, ४.२९.५; क. स. १६.९; मै. सं २.७.१९; वा. उपरांत क्षत्रिय कहलाया। दो पिताओं का पुत्र होने के सं. १३.५५, ऐ. बा. ६.१८.८.३; तै. ब्रा. ३.१०.११. कारण ही भरद्वाज को 'द्वयामुष्यायण ' नाम प्राप्त हुआ | १३. कौ. ब्रा. १५.१,२९.३ )। (भरद्वाज देखिये)। भरत के मृत्योपरान्त भरद्वाज ने भरद्वाज ने अपने सूक्तों में बृबु, बृसय एवं पारावतों अपने पुत्र वितथ को राज्याधिकारी बना कर, वह स्वयं वन का निर्देश किया है (ऋ.८.१०.८)।पायु, रजि, सुमिहळ में चला गया (मत्स्य. ४९.२७-३४; भा. ९. २०; साय्य, पेरुक एवं पुरुणीथ शातवनेय इसके निकटवर्ती थे। वायु. ९९.१५२-१५८)। पुरुपंथ राजा का भरद्वाज के आश्रयदाता के रूप में निर्देश महाभारत में इसकी पत्नी सुनन्दा से इसे भूमन्यु प्राप्त है (ऋ. ९. ६७. १-३; १०.१३७. १; सर्वानुनामक पुत्र होने का निर्देश प्राप्त है (म. आ. ९०. | क्रमणी; बृहदे. ५.१०२)। ३४)। पर वास्तव में भूमन्यु इसका पुत्र न होकर पौत्र हिलेब्रान्ट के अनुसार, भरद्वाज लोग संजयो के साथ भी (वितथ का पुत्र) था। | संबद्ध थे (वेदिशे माइथालोजी- १.१०४)। सांख्यायन भविष्य के अनुसार, इसने पृथ्वी को नानाविध देश- श्रौतसूक्त के अनुसार, भरद्वाज ने प्रस्तोक सार्जय से विभागों में बाँट दिया, एवं इसीके कारण इस देश को पारितोषिक प्राप्त किया था (सां. श्री. १६.११)। कई 'भारतवर्ष' नाम प्राप्त हुआ (भवि. प्रति. १.३)। । विद्वानों के अनुसार, ये सारे लोग मध्य एशिया में स्थित ५४८ Page #571 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरद्वाज प्राचीन चरित्रकोश भरद्वाज अर्कोसिया एवं ड्रेजियाना में रहनेवाले थे। किंतु | भरद्वाज के नामकरण के सम्बन्ध में अनेकानेक कथाएँ इसके बारे में प्रमाणित रूप से कहना कठिन है। । पुराणों में प्राप्त है, इसका नाम भरद्वाज क्यों पडा ? वेदों का अथांगत्व--तैत्तरीय ब्राह्मण में, भरद्वाज के (वायु. ९९.१४०-१५०; मत्स्य ४९.१७-२५, विष्णु. वेदाध्ययन के बारे में एक कथा दी गयी है । एक बार ४.१९.५-७)। किन्तु वे बहुत सी कथाएँ कपोलकल्पित भरद्वाज ऋषि ने समस्त वेदों का अध्ययन करना आरम्भ प्रतीत होती है। महाभारत के अनुसार, इसके जन्मो उपरांत बृहस्पति तथा ममता में यह विवाद हुआ कि, किया। किन्तु समय की न्यूनता के कारण यह कार्य पूरा न इसके संरक्षण का भार कौन ले । दोनों ने एक दूसरे से कर सका, अतएव इसने इन्द्र की तपस्या करना आरंभ कहा, 'तुम इसे संभालों ( भरद्वाजमिमम् ) '। इसी किया । इन्द्र को प्रसन्न कर इसने यह वरदान प्राप्त किया कारण इसका नाम भरद्वाज पड़ा (म. अनु. १४२.३१ कुं.)। कि, यह सौ सौ वर्ष के तीन जन्म प्राप्त करेगा, जिनमें वेदों का सम्पूर्ण ज्ञानग्रहण कर सके। इस प्रकार ममता तथा बृहस्पति का इसके संभालने के सम्बन्ध में विवाद चलता रहा। यह देखकर वैशालीयह तीन जन्म ले कर वेदों का अध्ययन करता रहा, | नरेश मरुत्त ने भरद्वाज का पालनपोषण किया । बृहदेवता किन्तु सम्पूर्ण ज्ञान प्राप्त न कर सका । इससे दुःखी होकर | में कहा गया है कि, इसका पालन पोषण मरुत् देवता ने यह रुग्णावस्था में चिन्तित पड़ा था कि, इन्द्र ने इसे दर्शन किया (बृहद्दे. ५.१०२.१०३)। किन्तु यह ठीक नही दिया। इसने इन्द्र से वेदों के ज्ञान की पूर्णता प्राप्त के जान पडता। इसका पालनापोषण वैशाली नरेश मरुत्त लिए पुनः एक जन्म प्राप्त करने के लिए प्रार्थना की।। ने ही किया होगा, क्योंकि बृहस्पति वैशाली देश का इन्द्र ने इसे समझाने के लिए समस्त वेदों को तीन भागों राजगुरु था । पुराणों में भी बृहद्देवता की बात दुहरायी में विभाजित कर दिये, जो पर्वताकार रूप में विशाल थे । गयी है कि, भरद्वाज के मातापिता ने जब इसको त्याग फिर उनमें से एक ढेर से मुठी भर वेदज्ञान को उठा कर | का उठा कर | दिया, तब मरुत् देवता ने इसका पालन पोषण किया उसके एक कण को दिखाते हुए इंद्र ने इसे कहा, ' तीन | (भा. ९,२०, विष्णु. ४. १९; मस्त्य. ४९; वायु. ९९. जन्मों में तुमने इतना ज्ञान इतने परिश्रम से प्राप्त किया है, १४०-१५७; ब्रह्मांड. २. ३८)। • और क्या, तुम इन पर्वताकार रूपी वेदाध्ययन को एक जन्म वैशाली के पश्चिम में स्थित काशी देश का राजा में प्राप्त वर लोगे ? यह असम्भव है । तुम अपनी इस हठ | सुदेवपुत्र दिवोदास था, आगे चल कर यह उसका को छोड़कर मेरी शरण में आकर मेरा कहना मानो । सम्पूर्ण | पुरोहित बना । यह दिवोदास राजा वही है, जिसने वेद ज्ञान प्राप्त करने के लिए तुम ' सावित्राग्निचयन' यज्ञ | वाराणसी नगरी की स्थापना की थी। एक बार हैहयराजा करो । इसीसे तुम्हारी जिज्ञासा पूर्ण होगी तथा तुम्हे स्वर्ग | वीतहत्य ने काशी देश पर आक्रमण कर दिवोदास को • की प्राप्ति होगी।' इस प्रकार इन्द्र के आदेशानुसार ऐसा परास्त किया कि, उसे भगा कर भरद्वाज के घर में इसने उक्त यज्ञ सम्पन्न करके यह स्वर्ग का अधिकारी बना शरण लेनी पड़ी। बाद में भरद्वाज ने दिवोदास राजा के (तै. ब्रा. ३.१०.९-११)। 'सावित्राग्निचयन' की यही पुत्रप्राप्ति के लिए एक यज्ञ किया, जिससे प्रतर्दन नामक विद्या आगे चलकर अहोरात्राभिमानी देवताओं ने पुत्र उत्पन्न हुआ (म. अनु. ३०.३०.)। महाभारत विदेहपति जनक को दी थी। के अनुसार, केवल भरद्वाज ऋषि के ही कारण, आगे२. अंगिरसवंशीय सुविख्यात ऋषि, जो बृहस्पति | चल कर, प्रतर्दन राजा वीतहव्य तथा ऐलों को पराजित कर, अंगिरसू ऋषि का पुत्र था। यह एवं इसके पिता बृहस्पति | अपने पिता की गद्दी को प्राप्त कर काशीनरेश हो सका दोनों वैशाली देश के रहने वाले थे, जहाँ मरुत्त राजाओं (म. अनु. ३४.१७) । पंचविंश ब्राह्मण में भी इसी कथा का राज्य था। बृहस्पति का पुत्र होने के कारण इसे 'भर- का निर्देश प्राप्त है (पं. ब्रा. १५.३.७; क. सं. २१.१०)। द्वज बार्हस्पत्य,' एवं उशिज का वंशज होने के कारण इसे | पुराणों के अनुसार, मरुत्त राजाओं ने भरद्वाज ऋषि को 'भरद्वाज औशिज' भी कहा जाता है । यह त्रेतायुग के | सुविख्यात पूरुवंशीय राजा भरत को पुत्र रूप में प्रदान प्रारम्भ काल में हुआ था । बृहस्पति का एक भाई उचथ्य | किया था (वायु. ९९.१५१, मस्त्य. ४९.२६)। वायु था, जिसकी पत्नी का नाम ममता था । ममता से बृहस्पति । एवं मस्त्य के इन कथनों को मान्यता देने के पूर्व हमें द्वारा उत्पन्न पुत्र ही भरद्वाज है । | यह भी समझना चाहिए कि, यह राजा भरत के एक दो ५४९ Page #572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरद्वाज प्राचीन चरित्रकोश भरद्वाज पीढ़ी पूर्व था। अतएव यह सम्भव है कि, यह स्वयं हुआ, तब रैभ्य ऋषि के पुत्र अर्वावसु ने यवक्रीत को पुनः उसका दत्तक पुत्र न हुआ हो । सम्भव है, इसका पुत्र था | जीवित किया (म. व. १३५-१३८) । पुत्र को पुनः पौत्र भरद्वाज विदाथिन् राजा भरत को दत्तक रूप में प्राप्त कर यह प्रसन्न हुआ एवं स्वर्ग चला गया । दिया गया हो ( भरद्वाज ३. देखिये)। ५. पूर्व मन्वंतर का एक ब्रह्मर्षि । यह किसी समय ऐतरेय ब्राह्मण के अनुसार, यह लम्बा, क्षीणशरीर | गंगाद्वार में रहकर कठोर व्रत का पालन कर रहा था। एवं गेहुए रंग का था (ऐ. ब्रा. ३४९) यह अत्यंत | एक दिन इसे एक विशेष प्रकार के यज्ञ का अनुष्ठान दीर्घायु तपस्वी एवं विद्वान था (ऐ. आ. १.२.६)। करना था। अतएव अन्य महर्षियों के साथ यह गंगाइसका याज्ञवल्क्य ऋषि से तत्त्वज्ञान के सम्बन्ध में संवाद | स्नान करने गया। वहाँ पहले से नहा कर वस्त्र बदलती हुआ था। 'जगत्सृष्टिप्रकार के सम्बन्ध में इसका एवं हुयी घृताची अप्सरा को देखकर इसका वीर्य स्खलित भृगु ऋषि से संवाद हुआ था (म. शां. १७५)। इसने हो गया, जिससे इसको श्रुतावती नामक कन्या हुयी धन्वन्तरि को आयुर्वेद सिखाया था (ब्रह्मांड. ३.६७) । (म. श. ४७)। श्रुतावती के लिए भांडारकर संहिता में __ यह ब्रह्मा द्वारा किये गये पुष्कर क्षेत्र के यज्ञ उपस्थित | 'स्त्रचावती' पाठभेद भी प्राप्त है। था (पद्म. सृ. ३४)। सर्पविष से मृत्यु हुए प्रमद्वरा को ६. अंगिराकुलोत्पन्न एक ऋषि, जिसका आश्रम गंगा- . देख कर रोनेवाले स्थूलकेश ऋषि के परिवार में यह भी द्वार में था (म. आ. १२१)। उत्तर पांचाल का राजा.. एक था (म. आ. ८.२१)। पृषत इसका मित्र था। गंगाद्वार से चल कर हविर्धान ' ३. एक सुविख्यात ऋषि, जो पूरुसम्राट भरत को पुत्र होता हुआ, यह गंगास्नान को जा रहा था। उस समय के रूप में प्रदान किया गया था। सम्भवतः यह बृहस्पति | स्नान कर के निकली हुयी घृताची नामक अप्सरा को ऋषि के पुत्र भरद्वाज बार्हस्पत्य का पुत्र या पौत्र था उभरती हुई युवावस्था को देखकर इसका अमोघ वीर्य । (भरद्वाज २. देखिये )। इसका नाम विदथिन् था, जिसके | पर्वत की कंदरा में स्खलित हुआ। इसने उस वीर्य को. कारण यह 'भरद्वाज विदथिन्' नाम से सुविख्यात हुआ। दोनें (द्रोण) में सुरक्षित कर रखा, जिससे इसे द्रोण पूरुवंशीय सम्राट भरत के कोई पुत्र न था, इस कारण नामक पुत्र हुआ (म. आ. ५७.८९; १५४.६)। मरुत्त राजा ने भरत को इसे पत्र रूप में प्रदान किया। इसके पुत्र द्रोण एवं पृषत राजा के पुत्र द्रुपद में भरद्वाज स्वयं ब्राह्मण था, किन्तु भरत का पुत्र होने के | बाल्यावस्था में बड़ी घनिष्ठता थी, किन्तु आगे चलकर उन कारण यह क्षत्रिय कहलाया। दो वंशों के पिताओं के पत्र दोनों में इतनी कटुता उत्पन्न हो गयी कि, पीढ़ियों तक होने के कारण इसे 'यामप्यायण' एवं इसके कुल में | आपस की दुश्मनी खत्म न हो सकी (द्रुपद एवं द्रोण उत्पन्न लोगों को 'या मुष्यायणकौलीन' कहा जाता है। देखिये)। भरत के मृत्योपरांत भरद्वाज ने अपने पत्र वितथ को बृहस्पति ने इस ऋषि को आग्नेय अस्त्र प्रदान किया। राज्याधिकारी ना कर, यह स्वयं वन में चला गया | था, जो इसने अग्नि के पुत्र आनिवेश को दिया था (म. (मत्स्य. ४९.२७-३४; वायु. ९९.१५२-१५८)। आ. १२१.६; १५८.२७)। . क्योंकि इसका नाम विदाथिन् था, अतएव इसके पुत्र ७. बाल्मीकि ऋषि का शिष्य, जो प्रयाग में रहता एवं वंश के लोग 'वैदथिन' नाम से सुविख्यात हुए। था। जब क्रौंच पक्षियों के जोडे को देखकर वाल्मिकि के सुख इसे निम्नलिखित पाँच पुत्र थे:- ऋजिश्वन् , सुहोत्र, से करुण वाणी काव्य के रूप में प्रस्फुटित हुयी थी, तब शुनहोत्र, नर, गर्ग (सर्वानुक्रमणी ६.५२)। सम्भव है, यह | यह उपस्थित था (वा. रा. बा. २.७-२१)। ब्रह्मपुराण इसके पुत्र न होकर वंशज हो। के अनुसार ऐसा प्रतीत होता है कि, भरद्वाज की पत्नी ४. अंगिराकुलोत्पन्न एक ऋषि, जो विश्वामित्र के पुत्र का नाम सम्भवतः 'पैठिनसी' था। वाल्मीकि ने सर्वरम्य ऋषि का मित्र था। इसके पुत्र का नाम यवक्रीत | प्रथम इसे ही रामायण की कथा बतायी थी ( यो. वा. था। १.२)। रैभ्य ऋषि ने एक कृत्या का निर्माण किया था, जिसने दंडकारण्य जाते समय दाशरथि राम ने इसके इसके पुत्र यवक्रीत को मार डाला। पुत्रशोक से विद्दल | दर्शन किये थे, और इसका आतिथ्य स्वीकार किया था। हो कर, यह आग में जल कर मृत होने के लिये तत्पर | राम के द्वारा रहने के लिए स्थान माँगने पर इसने अपना ५५० Page #573 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरद्वाज प्राचीन चरित्रकोश भरद्वाज आश्रम ही ले लेने के लिए उससे कहा । किन्तु राम ने सम्भवतः भरद्वाज वर्तमान मन्वंतर के सप्तर्षियों में से कहा, 'यहाँ से अयोध्या निकट है,अतएव अयोध्यावासियों एक होगा। प्रतिवर्ष फाल्गुन माह में सूर्य के साथ भ्रमण से मुझे सदैव अडचने प्राप्त होती रहेंगी। यह सुनकर, | करनेवाला नक्षत्र भी यही होगा। इसने राम के रहने के लिए दस मील दूर पर स्थित ९. एक ऋषि, जो शरशय्या पर पड़े हुए भीष्म से चित्रकूट में रहने के लिए व्यवस्था कर दी, तथा उसका मिलने गया था (भा. १.९.६)। मार्ग बता कर बिदा किया (वा. रा. अयो. ५४-५५)। १०. एक ऋषि जो, बारहवें या उन्नीसवें युग का राम को वापस लाने के लिए जब भरत वन को गया | व्यास था। था, तब वह अपने सेना को दूर रखकर, इसके आश्रम ११. एक धर्मशास्त्रकार, जिसके द्वारा श्रौतसूत्र और आया था। भरत को देखकर भरद्वाज के मन में शंका उठी धर्मसूत्र की रचना की गयी है । इसके द्वारा लिखित थी कि, राम को अकेला समझ कर उन्हे मार कर श्रौतसूत्र की हस्तलिखित पाण्डुलिपि बम्बई विश्वविद्यालय भरत निष्कंटक राज्य तो नहीं करना चाहता। इस के ग्रंथालय में उपलब्ध है, जिसमें कुल दस अध्याय (प्रश्न) सम्बन्ध में इसमें भरत से प्रश्न भी किया था, जिसे सुन | है, एवं उसमे 'आलेखन' और 'आश्मरथ्य' धर्मशास्त्रकारों कर भरत की आँखों में आसू आ गये थे। भरत के द्वारा का उल्लेख कई बार आया है। इस ग्रंथ में इसका निर्देश दिये गये विश्वास पर इसने उसका ससैन्य आदरसत्कार | 'भरद्वाज' एवं 'भारद्वाज' इन रूपों से आया है। किया था। उसके खाने पीने तथा ठहरने की इसने सुन्दर विश्वरूप एवं अन्य भाष्यकारों के भाष्यों में भरद्वाज व्यवस्था की थी। भरत एक रात इसके यहाँ ठहरा भी | के धर्मशास्त्र विषयक सूत्रग्रन्थ का उल्लेख आया है। • था, तथा बडे भावुक भावों में भर कर अपनी माताओं याज्ञवल्क्य स्मृति पर विश्वरूपद्वारा लिखित भाष्य में का परिचय इसे दिया था । भरत के द्वारा पूछे जाने पर, | भरद्वाज के मतों का उल्लेख किया गया है। उसमें लिखा इसने उसे राम के रहने का मार्ग बताते हुए कहा था | है कि, गुरुओं को अपने शिष्यों को संध्यावंदन, यज्ञकर्म एवं कि, वह यहाँ से ढाई योजनं दूर पर है (वा. रा. अयो | शुद्ध भाषा सिखानी चाहिये, तथा उन्हें म्लेच्छ भाषा से ९०.९२)। दूर रहने की शिक्षा देनी चाहिए (याज्ञ. १.१५)। दूसरों को रावण का वध कर राम इसके आश्रम आया था, और कष्ट देने की बात को सोचना भी पाप है, ऐसा इसका मत उसने इससे मुलाकात की थी। इसने राम का स्वागत कर, था, एवं इस पाप के लिए इसने प्रायश्चित्त भी बताया है उसका आदरसत्कार करते हुए वरप्रदान किया था, 'तुम (याज्ञ. १.३२)। श्राद्ध के समय किस अनाज का प्रयोग न जिस मार्ग से होकर जाओगे उस मार्ग के वृक्षफल वसंत करना चाहिए, तथा शूद्रस्पर्श के उपरांत स्नान द्वारा अपने ऋतु के समान होकर फलफूलमय हो जायेंगे' (वा. रा. को किस तरह शुद्ध करना चाहिए, इसके बारे में भी इसने यु. १२४)। अपना अभिमत दिया है (याज्ञ. १.१८५, २३६)। घर अश्वमेध यज्ञ के बाद राम पुनः भरद्वाज से मिलने के में जब गृह्याग्नि का संस्कार बन्द हो, तो क्या प्रायश्चित्त लिए गौतमी नदी के तट पर स्थित आश्रम में आया था। लेना चाहिए, इसके विषय में भरद्वाज के मत का उल्लेख राम को सारे ऋषियों के साथ आश्रम में अतिथरूप में | अपराक ने किया है (अपराक. ११५५)। आया हुआ देखकर, इसने उन सब का स्वागत कर श्रौतसूत्र एवं धर्मसूत्र के अतिरिक्त, इसके द्वारा लिखित भोजनादि के लिए प्रार्थना की थी। इसके आश्रम में एक स्मृति पद्य में लिखी हुई मानी गयी है, जिसके उद्शंभु ने राम के पूछने पर, श्राद्ध निर्णय, शिवपूजाविधि | धरण स्मृतिचंद्रिका एवं हरदत्त में प्राप्त है । और भस्ममाहात्म्य की कथा बतायी थी (पम्न. पा. | अर्थशास्त्रकार- एक अर्थशास्त्रकार के नाते भरद्वाज का १०५)। निर्देश कौटिल्यअर्थशास्त्र में सात बार आया है । कौटिल्य ८. एक अग्नि, जो शंयु नामक अग्नि का ज्येष्ठ पुत्र था। | अर्थशास्त्र में कणिक भारद्वाज नामक आचार्य का उल्लेख धर्म की कन्या सत्या इसकी माता थी। इसकी पत्नी का प्राप्त है, जो सम्भवतः यही होगा (कौटिल्य.५.५)। कौटिल्य नाम वीरा था, जिससे इसे वीर नामक पुत्र उत्पन्न हुआ | ने इसके जिन मतों का उल्लेख किया है, वह निम्न प्रकार था (म. व. २०९. ९)। यज्ञ में प्रथम आज्यभाग के | से हैं:-राजा को अपने सहपाठियों में से मंत्रियो का चुनाव द्वारा इस भरद्वाज नामक अमि की पूजा की जाती है। | करना चाहिए; राजा को राजनैतिक निर्णयों को अपने आप ५५१ Page #574 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरद्वाज प्राचीन चरित्रकोश भर्तृहरि एकान्त में सोचकर देना चाहिए; जो राजकुमार अपने | पुत्र था। इसके नाम के लिये 'रुचक' एवं 'रुरुक' पिता के प्रति प्रेम एवं मर्यादा का उल्लंघन करता हुआ | पाठभेद प्राप्त हैं। अवहेलना करता हो, उसको भेदनीति के द्वारा दण्ड देना भर्ग--एक रुद्र, जो एकादश रुद्रों में से अंतिम था। चाहिए; राजा जिस समय मरणासन्न स्थिति में हो, उस | यह शिव नामांतर भी है। समय मंत्री को चाहिए कि राजकुमारों के बीच कोई न २. (सो. तुर्वसु.) एक राजा, जो भागवत के कोई कलह पैदा कर दे; राजसंकट के काल में राजा एवं अनुसार, वह्नि राजा का पुत्र था। इसके पुत्र का नाम मंत्री में सर्व लोगों ने राजा की सहायता करनी चाहिये, | भानुमत् था। किन्तु व्यवहार में देखा जाता है कि, लोग बलवान का ही | ३. (सो. काश्य.) काशी देश का एक राजा, जो पक्ष लेते है। इसका यह अन्तिम अभिमत महाभारत में भागवत के अनुसार, वीतिहोत्र राजा का पुत्र था। इसके इन्ही शब्दों में वर्णित है (म. शां. ६७.११)। नाम के लिये 'भार्ग' एवं 'गार्ग्य' पाठभेद प्राप्त है। " महाभारत में इसके एवं राजा शत्रुजय के बीच हुआ | इसके पुत्र का नाम भर्गभूमि था। संवाद प्राप्त है, जिसमें साम, दाम, दण्ड, भेद आदि | भर्ग प्रागाथ--एक वैदिक सूक्तद्रष्टा (ऋ ८.६०नीतियों में दण्डनीति को श्रेष्ठता दी गयी है (म. शां. | ६१)। १४०)। इसी पर्व में प्राप्त राज्यशास्त्रकारों की नामावली भर्गभूमि-(सो. काश्य.) काशी देश का एक में इसका नाम भी सन्निहित है (म. शां. ५८.३)। | राजा, जो भागवत के अनुसार भर्ग राजा का पुत्र था । .. 'यशस्तिलक' नामक राज्यशास्त्रविषयक ग्रन्थ में, अर्तहरि--एक सविख्यात संस्कृत व्याकरणकार, जो भरद्वाज के राजनैतिक अभिमत से सम्बन्धित दो पद्य उद्- | पतंजलि के 'व्याकरणमहाभाष्य' का सर्वाधिक प्राचीन एवं , - धरण प्राप्त है, जिससे प्रतीत होता है कि, इसका राज्य- प्रामाणिक टीकाकार माना जाता है। महाभाष्य पर लिखी. विषयक ग्रन्थ पद्यरूप में १० वी शताब्दी में प्राप्त था। ही इसकी टीका का नाम 'महाभाष्यप्रदीप' है। ... भरद्वाज के व्यवहारविषयक मतों का उल्लेख कई पुण्यराज के अनुसार, भर्तृहरि के गुरु का नाम वसुरांत ग्रन्थों में प्राप्त है । मुकदमे गवाही देने के पूर्व व्यक्तियों था। चिनी प्रवासी इत्सिंग के अनुसार, यह बौद्धधर्मीय द्वारा लिए गये शपथ के इसने चार प्रकार बताये हैं | था, एवं इसने सात बार प्रव्रज्या ग्रहण की थी (इत्सिंग (पराशर माधवीय २.२३१)। किन्ही दो व्यक्तियों के पृ. २७४)। किंतु मीमांसकजी के अनुसार, यह वैदिकधर्मीय बीच हुए समझौता, विनिमय एवं बँटवारे को खारिज | ही था (संस्कृत व्याकरण का इतिहास-पृ. २५७)। करना हो, तो उसकी अवधि नौ दिन की बताई गयी है, वाक्यपदीय--संस्कृत भाषा में अंतर्गत शब्दों का किन्तु यदि उसमें किसी प्रकार के कानूनी झगडे हो, तो | संपूर्ण विवेचन पाणिनि एवं पतंजलि ने अपने व्याकरण उसकी अवधि नौ साल तक हो सकती है ( सरस्वती- | ग्रंथो के द्वारा किया। किंतु उन्ही शब्दों को ब्रह्मस्वरूप विलास. पृ. ३१४; ३२०)। इन उद्धरणों से यह सिद्ध मान कर, तत्वज्ञान की दृष्टि से , व्याकरणशास्त्र का है, कि इसका व्यवहारविषयक ग्रन्थ राजशास्त्रविषयक | अध्ययन करने का महनीय कार्य भर्तृहरि ने अपने ग्रन्थ से अलग है। 'वाक्यपदीय' नामक ग्रंथ के द्वारा किया। इस ग्रंथ के ____ अन्य ग्रंथ--१भरद्वाजसंहिता--पंचरात्र सांप्रदाय के | निम्नलिखित तीन कांड है:-ब्रह्मकांड, वाक्यकांड, इस ग्रंथ में कुल चार अध्याय हैं; २. भरद्वाजस्मृति, | प्रकीर्णकांड । जिसका निर्देश पद्म में प्राप्त है, एवं जिसके उद्धरण मीमांसा, सांख्य, योग आदि दर्शनों का निर्माण होने हेमाद्रि, विज्ञानेश्वर, बालभट्ट आदि ग्रंथकारों के द्वारा | के पश्चात् , व्याकरणशास्त्र एक अनुपयुक्त शास्त्र कहलाने लिये गये है; ३. वास्तुतत्त्व; ४. वेदपादस्तोत्र (C.C.)। | लगे। किंतु शब्दों के अर्थ का ज्ञान प्राप्त होने पर, शब्द. १२. (सू. इ. भविष्य.) एक राजा, जो वायु के ब्रह्म की प्राप्ति होती हैं, ऐसा नया सिद्धान्त भर्तृहरि ने अनुसार, अमित्रजित् राजा का पुत्र था। प्रस्थापित किया, एवं इस प्रकार व्याकरणशास्त्र का भरद्वाजि--अंगिराकुलोत्पन्न एक गोत्रकार । पुनरुत्थान किया। भरुक--(सू . इ.) एक इक्ष्वाकुवंशीय राजा, जो व्याडि का संग्रहग्रंथ नष्ट होने पर, पाणिनीय व्याकरण: भागवत, विष्णु एवं वायु के अनुसार, विजय राजा का | शास्त्र विनष्ट होने का संकट निर्माण हुआ; उसी संकट से Page #575 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भर्तृहरि प्राचीन चरित्रकोश भव्य व्याकरणशास्त्र को बचाने के लिये 'वाक्यपदीय' ग्रंथ सिमर के अनुसार, इनमें एवं आधुनिक बोलन दर्रे में की रचना की गयी है, ऐसा निर्देश उस ग्रंथ के द्वितीय काफी नामसादृश्य है, जिससे प्रतीत होता है कि, इनका "कांड में प्राप्त है। मूल निवासस्थान पूर्वी बलुचिस्तान था (सिमर-अल्टिन्डिशे ग्रंथ--१. महाभाष्यदीपिका; २. वाक्यपदीय; ३. | लेबेन, १२६ )। वाक्यपदीय के पहले दो कांडो पर 'स्वोपज्ञटीका'; ४. भल्लविन्--लांगली भीम नामक शिवावतार का वेदान्तसूत्रवृत्ति; ५. मीमांसासूत्रवृत्ति । शिष्य। २. एक व्याकरणकार, जो संस्कृत व्याकरणशास्त्र को भल्लाट--(सो. पूरु.) एक पुरुवंशीय राजा, जो काव्य के रूप में प्रस्तुत करनेवाले 'भट्टिकाव्य' का | मत्स्य के अनुसार विश्वक्सेन का, एवं वायु के अनुसार, रचयिता था। इसने 'भागवृत्ति' नामक अन्य एक ग्रंथ उदक्सेन राजा का पुत्र था। भागवत में इसके लिये भी लिखा था। 'भल्लाद' पाठभेद प्राप्त है। ३. एक राजा, जो शृंगार, नीति एवं वैराग्य नामक | भल्लि-बिल्वि नामक भृगुकुल के गोत्रकार के लिये 'शतकत्रयी' ग्रंथ का रचयिता था। उपलब्ध पाठभेद (बिल्वि देखिये)। भयं--कश्यपकुलोत्पन्न गोत्रकार ऋषिगण । २. (सो. कुकुर.) यादव राजा नल का नामांतर भयश्चि--(सो. नील.) पांचाल देश का सुविख्यात | (नल ४. देखिये)। यह विलोमन् राजा का पुत्र था, राजा, जो अर्क राजा का पुत्र था । इसे मुद्गल आदि पाँच एवं इसके पुत्र का नाम अभिजित् था। इसे 'नंदनोदरअत्यंत पराक्रमी पुत्र थे, जिन्हे देखकर यह हमेशा कहा| दुंदुभि' अथवा 'चंदनोदकदुंदुभि' नामांतर भी प्राप्त है करता था, 'मेरे राज्य के संरक्षण के लिये मेरे पाँच पुत्र | ३. एक यादव, जो वसुदेव एवं रथराजी का पुत्र है। ही केवल काफी - 'पंच अलम्') है।' ४. रौच्य मनु के पुत्रों में से एक । इस कारण इसके इन पुत्रों को 'पंचाल' सामुहिक नाम भव-कश्यप एवं सुरभि के पुत्रों में से एक। इसके प्राप्त हुआ, जिससे आगे चलकर इसका देश ही 'पंचाल' | नाम के लिये 'भल' पाठभेद प्राप्त है। नाम से प्रसिद्ध हुआ (पंवाल देखिये; भा. ९.३१. २. ग्यारह रुद्रों में से एक, जो ब्रह्मा का पौत्र एवं स्थाणु ३१-३२)। | का पुत्र था (म. आ. ६०.१-३)। भलंदक--(सू. दिष्ट.) मलंदन राजा के लिये उपलब्ध ३. एक सनातन विश्वेदेव (म. अनु. ९१.३५)। पाठभेद ( भलंदन २. देखिये)। भवत्रात शायस्थि--एक आचार्य, जो कुस्तुक भलंदन--अत्रिकुलोत्पन्न एक गोत्रकार । शार्कराक्ष्य नामक आचार्य का शिष्य था। इसके शिष्य . २. (सू. दिष्ट.) एक राजा, जो जन्म से तो ब्राह्मण | का नाम बृहस्पतिगुप्त शायस्थि था (वं. बा. १)। .. था, किंतु नीच वाणिज्यकर्म करने के कारण वैश्य बन गया भवद-(सो.) एक राजा, जो भविष्य के अनुसार, • था (मार्क. ११३. ३; ब्रह्म. ७.२६; विष्णु. ४.१.१५, भा. मनस्यु राजा का पुत्र था। ९.२.२३)। भवदा-स्कंद की अनुचरी एक मातृका (म. श.. ___ भागवत, विष्णु एवं वायु के अनुसार, यह नाभाग | ४५.१३)। राजा का पुत्र था, एवं इसके पुत्र का नाम वत्सप्रीति था। भवनन्दि--कश्यपकुलोत्पन्न एक गोत्रकार। मत्स्य में इसके नाम के लिये 'भलंदक' पाठभेद प्राप्त है। भवन्मन्यु-(सो. पूरु.) एक पूरुवंशीय राजा, जो मत्स्य एवं ब्रह्मांड में, इसे वैश्य जाति का मंत्रद्रष्टा ऋषि | विष्णु के अनुसार, वितथ राजा का पुत्र था। इसके नाम कहा गया है (मत्स्य. १४५.११६, ब्रह्मांड. २. ३२. | के लिये 'मन्यु' पाठभेद भी प्राप्त है (भा. ९.२१.१)। १२१); किंतु प्रतीत होता है कि, यह पुनः ब्राह्मण हुआ | इसे निम्नलिखित पाँच पुत्र थेः-बृहत्क्षत्र, नर, गर्ग, था (ब्रह्म.७.४२)। महावीर्य एवं जय (विष्णु. ४.१९.९)। भलानस्--ऋग्वेद में निर्दिष्ट एक जातिसंघ, जो | भव्य-रैवतमन्वतर का एक देवगण, जिसमें निम्नदाशराज्ञ युद्ध में सुदास के शत्रुपक्ष में शामिल था । पक्थ, | लिखित आठ देव शामिल थे:-परिमति, प्रिय निश्चय, अलिन, विषाणिन एवं शिव जातियों के समवेत इनका | मति, मन, विचेतस् , विजय, सुजय एवं स्योद (ब्रह्मांड, निर्देश ऋग्वेद में आता है (ऋ. ७. १८.७)। । २.३६.७१-७२)। प्रा. च.७०] Page #576 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन चरित्रकोश भागुरि २. चाक्षुष मन्वंतर का एक देव । भागवित्रासन--भागवित्तायन नामक ऋषिगण के ३. (स्वा. उत्तान.) उत्तानपादवंशीय एक राजा, जो | नाम के लिए उपलब्ध पाठभेद (भागवित्तायन देखिये)। ध्रुव राजा का पुत्र था। इसकी माता का नाम भूमि था। भागस्वरि--दशार्ण देश के राजा ऋतुपर्ण का ४. दक्षसावर्णि मन्वंतर के सप्तर्षियों मे से एक। नामांतर (भांगासुरि देखिये)। भस्मासुर--एक असुर, जो शिव के विभूति में स्थित | भागान्य--एक क्षत्रिय, जो तप के फलस्वरूप ब्राह्मण एक कंकड़ से उत्पन्न हुआ था। मराठी भाषा मे लिखित | एवं ऋषि बना था (वायु. ९१.११६)। 'शिवलीलामृत' में केवल इसकी कथा प्राप्त है। संस्कृत भागिल-भृगुकुलोत्पन्न एक गोत्रकार । पुराणों में कही भी इसकी कथा नही दी गयी है। किंतु | भागुरि-सुविख्यात व्याकरणकार, कोशकार, ज्योतिउन पुराणों में प्राप्त कालपृष्ठ एवं वृक नामक असुरों के | षशास्त्रज्ञ एवं स्मृतिकार । उन विभिन्न विषयों पर इसके कथा से इसकी कथा काफी मिलती जुलती है (कालपृष्ठ, | नाम पर अनेकानेक ग्रंथ उपलब्ध हैं, किंतु इन सब ग्रंथो एवं वृक देखिये)। का प्रवक्ता एक ही भागुरि है या भिन्न भिन्न, यह अज्ञात है। यह शिव का परमभक्त था, जिस कारण उसने इसे बर दिया था कि, जिसके सर पर यह हाथ रखेंगा, वह ___ संभवतः 'भागुरि' इसका पैतृक नाम था, एवं इसके तत्काल दग्ध हो कर भस्म हो जायेगा। शिव के इस वर पिता का नाम 'भगुर ' था। पतंजलि के व्याकरण महाके कारण, यह सारे लोगों को अत्यधिक त्रस्त करने लगा। भाष्य में, लोकायतशास्त्र पर व्याख्या लिखनेवाली भानुरी:.' फिर इसे विनष्ट करने के लिए, श्रीविष्णु ने मोहिनी का नामक किसी स्त्री का निर्देश प्राप्त है (महा. ७.३.४५)। संभव हैं, वह स्त्री आचार्य भागुरि की बहन हो। इसके अवतार लिया । 'मुक्तनृत्य' की एफ मुद्रा में, अपना हाथ अपने ही सर पर रखने के लिए इसे विवश कर, मोहिनी गुरु का नाम बृहद्गर्ग था। मेरु पर्वत का आकार ने इसका वध किया (शिवलीला. १२)। चतुष्कोनयुक्त है, ऐसा इसका मत वायु में उद्धृत किया गया हैं (वायु. ३४.६२)। भागालि-एक गृह्यसूत्रकार, जिसके मतों के उद्धरण ___व्याकरणशास्त्रकार--यद्यपि पाणिनि के 'अष्टाध्यायी' कौषीतकी गृहयसूत्र में प्राप्त है। शान्त्युदक करते समय | में भागुरि का.निर्देष अप्राप्य है, तथापि अन्य व्याकरण : कौनसे मंत्र का उच्चारण करना चाहिये, इस विषय में ग्रंथों में भागुरि के काफी उद्धरण लिये गये है। इन इसके मत प्राप्त है (को. ग. ९.१०)। इसका यह भी | उद्धरणों से प्रतीत होता हैं कि, इसका व्याकरण भलीअभिमत था कि, मधुपर्क करते समय गाय का उपयोग प्रकार परिष्कृत एवं श्लोकबद्ध था, एवं वह पाणिनीय नहीं करना चाहिये (को. ग. १७.२७)। व्याकरण से कुछ विस्तृत था। भागवत--(शंग. भविष्य.) एक शुंगवंशीय राजा, भागुरि का यह अभिमत था कि, जिन शब्दों का जो वायु के अनुसार विक्रमित्र राजी का, एवं अन्य | प्रारंभ 'अपि' अथवा 'अव' उपसर्ग से होता है; वहाँ पुराणों के अनुसार, वज्रमित्र का पुत्र था। मत्स्य में 'अ' का लोप होता हूँ (जैसे कि, अवगाह :इसके नाम के लिए 'समाभाग' पाठभेद प्राप्त है। वगाह, अपिधान = पिधान )। इसका यह भी सिद्धान्त था भागवित्तायन--वसिष्टकुलोत्पन्न गोत्रकार ऋषिगण । | कि, हलन्त शब्दों की प्रक्रिया में हलन्त का लोप हो कर इसके नाम के लिए भागवित्रासन' पाठभेद प्राप्त है। | 'आ' प्रत्यय लगाया जाता है (जैसे कि, वाक् = वाचा भागवित्ति--एक आचार्य, जो वायु के अनुसार, व्यास | दिश् = दिशा)। की सामशिष्यपरंपरा में से कुथुमि ऋषि का शिष्य था। भागुरि के व्याकरणविषयक कुछ और उद्धरण जगदीश ब्रह्मांड में इसके नाम के लिए 'नामवित्ति' पाठभेद तकालंकार ने अपने 'शब्दशक्तिप्रका शिका' में उद्धृत प्राप्त है। किये है। २. बृहदारण्यक उपनिषद में निर्दिष्ट 'चूड' अथवा | कोशकार---पुरुषोत्तमदेव की 'भाषावृत्ति, ' एवं सृष्टि'चूल' नामक आचार्य का पैतृक नाम (बृ. उ. ६.३; धरकृत 'भाषावृत्ति टीका' से प्रतीत होता है कि, भागुरि १७.८. माध्यं; ६.३.९-१० काण्व.)। के द्वारा 'त्रिकाण्डकोश' नामक एक शब्दकोश की रचना ३. भृगुकुलोत्पन्न एक गोत्रकार । | की गयी थी । इसका यह कोश आज भी उपलब्ध हैं ५५४ Page #577 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मागुरि प्राचीन चरित्रकोश भानुदत्त एवं क्षीरस्वामिन् , हलायुध, महेश्वर, हेमचंद्र, केशव, भाण्डायनि--एक ऋषि, जो इंद्र की सभा में उपस्थित महीप, मेदिनीकार, राममुक्त एवं मल्लीनाथ आदि शब्द- | हो कर इंद्र की उपासना करता था (म. स. ७.१०)। कोशकारो ने इसके वचन उदधृत किये है। 'माधवीयधातु | पाठभेद (भांडारकर संहिता)--'शाट्यायन'। वृत्ति,' एवं 'अमरकोश' की अनेकानेक टीकाग्रंथों में भात--(आंध्र, भविष्य.) एक आंध्रवंशीय राजा, इसके मतों के उद्धरण प्राप्त हैं। जो वायु के अनुसार सिंधुक राजा का पुत्र था। संभवतः ज्योतिषशास्त्रकार-भागुरि के ज्योतिषशास्त्रविषयक | यह आंध्रवंशीय कृष्ण राजा के नाम के लिए पाठभेद रहा मतों का निर्देश वराहमिहिर कृत 'बृहत्संहिता', भोज | होगा (कृष्ण ६. देखिये )। कृत 'राजमार्तड', एवं 'गर्गसंहिता' आदि ग्रंथों में प्राप्त | भानु-विवस्वत् अथवा सूर्यदेवता का नामांतर हैं (बृहत्सं. ४८.२)। (म. आ. १.४०)। स्मृतिकार--भागुरि के स्मृतिविषयक मतों का निर्देश २. एक देवगंधर्व, जो कश्यप एवं प्राधा (क्रोधा) 'विवादरत्नाकर' नामक ग्रंथ में कमलाकर नामक एक | का पुत्र था (म. आ. ५९.४६)। स्मृतिकार ने किया प्राप्त है। इसकी स्मृति को 'वागरि- ३. श्रीकृष्ण को सत्यभामा से उत्पन्न एक महारथी स्मृति' नामांतर भी प्राप्त है। . . पुत्र । मृत्यु के पश्चात् , यह विश्वेदेवो में प्रविष्ट हो गया साम एवं यजुःशाखाओं का आचार्य--'प्रपंचहृदय' | (म. स्व. ५.१३)। 'जैमिनीय गृह्यसूत्र टीका' आदि ग्रंथों में भागुरि को | ४. एक अग्नि, जो च्यवन आंगिरस ऋषि के अंश से सामशाखा का, एवं लौगाक्षिगृहयसूत्र की टीका में इसे | उत्पन्न हुआ था। इसके पिता का नाम पांचजन्य था यजुःशाखा का आचार्य कहा गया है। इससे प्रतीत होता | (म. व. २१०.९) । इसे 'मनु' एवं 'बृहद्भानु' नामांतर है कि, इन दोनों शाखाओं के संबंध में कुछ ग्रंथरचना इसने | भी प्राप्त है (म. व. २११.८-९)। की थी। . इसे सोमकन्या बृहद्भासा एवं सुप्रजा नामक दो पत्नियाँ अलंकारशास्त्रज्ञ--सोमेश्वर कवि के 'साहित्यकल्पद्रुम' | | थी। इसे निम्नलिखित छः पुत्र थे:--बृहद्भासापुत्र-बल, में, एवं अभिनवगुप्त के 'ध्वन्यालोक' में भागुरि के द्वारा। मन्युमत् एवं विष्णु (धृतिमत्); सुप्रजापुत्र-आग्रयण, लिखित 'अलंकारशास्त्र' ग्रंथ के कुछ उद्धरण प्राप्त है। | वैश्वदेव एवं स्तुभ (म. व. २११.८)। सांख्यदर्शनकार-दयानंद सरस्वती कृत 'सत्यार्थ- | ५. एक राजा, जो कौरव एवं अर्जुन के दरम्यान हुए प्रकाश' में, एवं संस्कारविधि' नामक ग्रंथ में, भागुरि के | 'गोग्रहण युद्ध ' देखने के लिए इंद्र के विमान में बैठ द्वारा विरचित 'सांख्यदर्शनभाष्य' का निर्देश प्राप्त है। | कर उपस्थित हुआ था (म. वि. ५१.१०)। देवतज्ञारूज्ञ--शौनक कृत 'बृहद्देवता' में भागुरि के | ६. दक्ष की एक कन्या, जो धर्म से ब्याही गयी थी। देवताविषयक मतों के अनेक उद्धरण प्राप्त है, जिनसे | इसके पुत्र का नाम देवऋषभ था। प्रतीत होता है कि, इसने दैवतशास्त्रविषयक कोई ७. एक यादव, जिसने प्रद्युम्न राजा से शस्त्रास्त्रविद्या 'अनुक्रमणिका ' ग्रंथ अवश्य लिखा होगा।. प्राप्त की थी (म. व. १८०.२७)। इसकी कन्या का नाम २. एक ऋषि, जो युधिष्ठिर के अश्वमेध यज्ञ का सदस्य भानुमती था, जिसका विवाह पांडु राजा के पुत्र सहदेव से था (जै. अ. ६३; जै. गृ. १.१४) हुआ था (म. स. २.परि. १.१३, ह. व. २.२०.७६ )। 'भागास्वन--भङ्गस्वन नामक राजर्षि का नामांतर ८. (सू. इ. भविष्य.) एक राजा, जो भागवत के (भङ्गास्वन देखिये)। अनुसार, प्रतिव्योम राजा का पुत्र था। इसके पुत्र का . भागसुारि--दशार्ण देश के ऋतुपर्ण राजा का नाम दिवाक अथवा दिवाकर था (भा. ९. १२)। नामांतर | इसके नाम के लिए 'भागस्वरि · पाठभेद भी ९. स्वारोचिष मनु के पुत्रों में से एक । प्राप्त है (म. स. ८))। १०. उत्तम मन्वंतर का एक देवगण । भाजिर--भौत्य मन्वंतर का एक देव । इसके नाम के ११. सुतय देवों में से एक। लिए 'भ्राजिर' पाठभेद प्राप्त है । भानुदत्त-शकुनि का भाई, जो सुबल राजा के पुत्रों भाडितायन--शाकदास नामक आचार्य का पैतृक | में से एक था। भारतीय युद्ध में भीम ने इसका वध नाम। | किया (म. द्रो. १३२.११३६*)। Page #578 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भानुदेव प्राचीन चरित्रकोश भारद्वाज भानुदेव-एक पांचाल योद्धा, जो भारतीय युद्ध में | ६. बृहस्पति आंगिरस् ऋषि की कन्या, जो उसे शुभा कर्ण के द्वारा मारा गया था (म. क. ३२.३७)। नामक पत्नी से उत्पन्न हुयी थी। भानुमत्--(सू. निमि.) एक राजा, जो भागवत के । ७. धृतराष्ट्रपुत्र दुर्योधन राजा की एक पत्नी। स्कंद अनुसार, केशिध्वज राजा का, एवं वायु के अनुसार | के अनुसार, इसने हाटकेश्वर नामक शिवलिंग की स्थापना सीरध्वज का पुत्र था। की थी (स्कंद. ६.७३-७४)। २. कलिंग देश का राजा, जो भारतीय युद्ध में कौरव भानुरथ-इक्ष्वाकुवंशीय भानुमत् राजा का नामांतर पक्ष में शामिल था। भीम ने इसका वध किया (म. भी. | (भानुमत् ६. देखिये)। भानुर्विद-एक यादव (भा. १०.६.१४ )। ३. (सो. तुर्वसु.) एक तुर्वसुवंशीय राजा, जो भागवत | भानुश्चंद्र--(सू. इ.) एक इक्ष्वाकुवंशीय, राजा, जो के अनुसार भर्ग राजा का पुत्र था। इसके पुत्र का नाम मत्स्य के अनुसार चंद्रगिरि राजा का पुत्र था। त्रिभानु था। भानुसेन--अंगराज कर्ण का एक पुत्र, जो भारतीय ४. कोसल देश का सुविख्यात राजा। इसकी कन्या युद्ध में भीम के द्वारा मारा गया था (म.क. ३२.४९)। का नाम कौसल्या था, जो सुविख्यात इक्ष्वाकुवंशीय सम्राट | पाठभेद (भांडारकर, संहिता)-सत्यसेन। . दशरथ को विवाह में दी गयी थी (वा. रा. बा. १३. भामिनी-वैशाली के अविक्षित राजा की पत्नी । २६)। दशरथ के द्वारा किये गये पुत्रकामेष्टि यज्ञ के इसके पुत्र का नाम मरुत्त था, जो आगे चल कर वैशाली समय इसे बड़े सम्मान के साथ निमंत्रित किया गया था। का सुविख्यात सम्राट बना (मार्क. १२४)। एक बार ५. कृष्ण को सत्यभामा से उत्पन्न पुत्रों में से एक। | यह नागलोक में गयी थी, जहाँ इसने सों को अभय . ६. (सू. इ. भविष्य.) एक इक्ष्वाकुवंशीय राजा, जो | दिया कि, इसका होनेवाला पुत्र मरुत्त उनकी रक्षा करेंगा. भागवत के अनुसार बृहदश्व राजा का पुत्र था। विष्णु (मार्के. १२६)। एवं वायु में इसके नाम के लिये 'भानुरथ' पाठभेद २. स्कंद की अनुचरी मातृका 'भाविनी' के लिए प्राप्त है। उपलब्ध पाठभेद (भाविनी देखिये)। भानुमत् औपमन्यव--एक आचार्य, जो आनन्दज भायजात्य-निकोथक नामक आचार्य का पैतृक नाम । चान्धनायन नामक आचार्य का शिष्य था । संभवतः यह | (वं. ब्रा. ४.३७३)। उपमन्यु का वंशज था, जिस कारण इसे 'औपमन्यव' भारत--ऋग्वेद में निर्दिष्ट एक पैतृक जाम, जो भारत पैतृक नाम प्राप्त हुआ था। इसके शिष्य का नाम ऊर्जयत् का पुत्र अथवा वंशज इस अर्थ से प्रयुक्त हुआ है। औपमन्यव था (वं. बा.१)। | ऋग्वेद में निम्नलिखित सूक्तद्रष्टाओं का पैतृक नाम 'भारत' भानुमती--पूरुवंशीय राजा अहंयाति की पत्नी, जो | बताया गया है:-अश्वमेध (ऋ. ५.२७); देववात एवं कृतवीर्य राजा की कन्या थी । भांडारकर संहिता में इसके | देवश्रवस (ऋ. ३.२३)। ' नाम के लिए 'अहंपाति' पाठभेद प्राप्त है। इसके पुत्र का भारद्वाज-उपनिषदों में निर्दिष्ट कई आचार्यों का नाम सार्वभौम था (म. आ. ९०.१५)। सामुहिक नाम । बृहदारण्यक उपनिषद में इन्हे निम्न२. अंगिरस् ऋषि की ज्येष्ठ कन्या, जो अत्यंत रूपवती लिखित आचार्यों के शिष्य के रूप में निर्दिष्ट किया है:-- थी (म. व. २०८.३)। भारद्वाज, पाराशर्य, बलाका कौशिक, ऐतरेय, असुरायण ३. भानु यादव की कन्या, जो सहदेव 'पांडव' की | एवं बैजवापायन (बृ. उ. २.५.२१ माध्य; २.६.२ काण्व; पत्नी थी। निकुंभ नामक दानव ने इसका हरण किया | ४.५.२७ माध्य.)। था । पश्चात् अर्जुन, कृष्ण एवं प्रद्युम्न ने निकुंभ का वध । २. ऋग्वेद में निर्दिष्ट एक पैतृक नाम, जो भरत का कर, इसे विमुक्त किया (ह. वं. २.९०)। | पुत्र अथवा वंशज इस अर्थ से प्रयुक्त हुआ है। ऋग्वेद ४. बृहत्कल्प के धर्ममूर्ति राजा की पत्नी (धर्ममूर्ति: निम्नलिखित सूक्तद्रष्टाओं का पैतृक नाम 'भारद्वाज' बताया देखिये)। | गया है:-ऋजिश्वन् (ऋ. ६.४९); गर्ग (ऋ. ६.४७); ५. सगर राजा की पत्नी शैब्यकन्या केशिनी का नामा- | गईभीविपीत, नर (ऋ. ६.३५); पायु (ऋ. ६.७५); न्तर (भा. ९.८.९)। इसके पुत्र का नाम असमंजस् था । वसु (ऋ. ९.८०); वाढेय; शाश; शिरिं बिठ (ऋ. १०. Page #579 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन चरित्रकोश भारद्वाज १५५); शुनहोत्र (ऋ. ६.३३); शूष बाह्नेय (वं. ब्रा. २); सत्यवाह; सप्रत; सुकेशिन् (प्र. उ. १. १ ); सुहोत्र (ऋ. ६.३१) । ३. एक सामवेदी श्रुतर्षि । ४. अंगिरस गोत्र का एक मंत्रकार एवं गोत्रकार । ५. एक ऋषिक । वायु के अनुसार, 'ऋषिक' शब्द का अर्थ ऋषि का पुत्र, अथवा सत्यमार्ग से चलनेवाला "आदर्श पुरुष, ऐसा दिया गया है ( वायु. ५९.९२ - ९४ ) । मत्स्य एवं ब्रह्मांड में, इसके नाम के लिए ' भरद्वाज ' पाठभेद प्राप्त है (मत्स्य. १४५.९५ - ९७; ब्रह्मांड. २. ३२.१०१-१०३) । ६. वैवस्वत मन्वन्तर के सप्तर्षियों में से एक । ७. एक श्रौतसूत्रकार, जिसके नाम पर निम्नलिखित ग्रंथ उपलब्ध है: - १. भारद्वाज प्रयोग, २. भारद्वाज शिक्षा (कृष्णयजुर्वेद तैत्तिरीय शाखा); ३. भारद्वाज संहिता; ४. भारद्वाज श्रौतसूत्र (कृष्ण यजुर्वेद ); ५. वृत्तिसार (c. c.)। ८. एक ऋषि, जिसने द्युमत्सेन राजा को आश्वासन दिया था, 'तुम्हारा पुत्र एवं सावित्री का पति सत्यवान् पुनः जीवित होगा ' ( म.व. २८२.१६ ) । ९. एक व्याकरणकार । सामवेद के 'ऋक्तंत्रप्रातिशाख्य' के अनुसार व्याकरणशास्त्र का निर्माण सर्वप्रथम ब्रह्मा ने किया एवं उस शास्त्र की शिक्षा ब्रह्मा ने बृहस्पति को, बृहस्पति ने इंद्र को, एवं इंद्र ने भारद्वाज को दी । आगे चल कर व्याकरण का यही ज्ञान भारद्वाज ने अपने शिष्यों को प्रदान किया । पाणिनि ने आचार्य भारद्वाज के व्याकरणविषयक मतों का उल्लेख किया है (पा. सू. ७.२.६३ ) । पतञ्जलि ने भी ' भारद्वाजीय व्याकरण' से संबंधित कई वार्तिकों का निर्देश किया है (महा. १.७३; १३६; २०१ ) । ऋक्प्रातिशाख्य एवं तैत्तिरीय प्रातिशाख्य में भी, भारद्वाज के व्याकरण विषयक मतों का उल्लेख प्राप्त है, जिससे प्रतीत होता है कि, आचार्य भारद्वाज ने 'ऐंद्र व्याकरण' की परंपरा को आगे चलाया । आगे चल कर यही व्याकरण पाणिनीय व्याकरण में अंतर्भूत हुआ । भारद्वाजायन - - पंचविंश ब्राह्मण में निर्दिष्ट एक आचार्य । भरद्वाज का वंशज होने से इसे यह नाम प्राप्त हुआ होगा। एक बार इसने एक सत्र का प्रारंभ किया, जिसमें हर एक दिन के अनुष्ठान का फल इसे पूछा गया था (पं. बा. १०.१२.१) । भार्गव भारद्वाज -- भारद्वाज ऋषि का पुत्र । भारद्वाजी - - रात्रि नामक एक वैदिक सूक्तद्रष्ट्री का पैतृक नाम (रात्रि देखिये ) । भारद्वाजी पुत्र -- एक आचार्य, जो पाराशरीपुत्र नामक आचार्य का शिष्य था (बृ. उ. ६.५.१ माध्यं . ) बृहदारण्यक उपनिषद में अन्यत्र इसे 'वात्सीमांडवीपुत्र ' कहा गया है ( ब्र. उ. ६.४.३० माध्यं; श. ब्रा. १४.९. ४.३० ) । २. एक आचार्य, जो पैङ्गीपुत्र नामक आचार्य का शिष्य था ( श. बा. १४.९.४.३० ) । इसके शिष्य का नाम हारिर्णीपुत्र था । ३. एक आचार्य, जो पाराशरीपुत्र नामक आचार्य का शिष्य था । इसके शिष्य का नाम वात्सीपुत्र था ( श. बा. १४.९.४.३१ ) । भारुकच्छ - एक क्षत्रिय ( म. स. ४७.८ ) । पाठभेद ( भांडाकर संहिता ) -- ' भरुकच्छ ' । भारुण्ड - उत्तर कुरुवर्ष में रहनेवाले महाबली पक्षियों का एक सामुहिक नाम । ये उत्तर वर्ष में हुए लोगों की लाशों को उठा कर, कंदराओं में फेंक देते थे ( म. भी. ८.२१ ) । आर्ग - (सो. काश्य.) काशीदेश का एक राजा, जो विष्णु के अनुसार वैनहोत्र राजा का पुत्र था । इसके नाम के लिए 'भर्ग' पाठभेद भी प्राप्त है ( भर्ग ३. देखिये ) । भार्गभू - (सो. काश्य.) काशीदेश का एक राजा, जो विष्णु के अनुसार भार्ग राजा का पुत्र था । भागवत, एवं वायु में इसके नाम के लिए 'भार्गभूमि' एवं 'गर्गभूमि' पाठभेद प्राप्त है। भार्गभूमि - काशीदेश के 'भार्गभू' राजा के लिए उपलब्ध पाठभेद । २. (सो. पूरु. ) एक पूरुवंशीय राजा, जो विष्णु एवं वायु के अनुसार, अमावसु राजा का पुत्र था । भार्गव - एक कुलनाम, जो प्रायः भृगु वारुणि ऋषि के कुल में उत्पन्न लोगों के लिए प्रयुक्त किया जाता है। इस कुल में उत्पन्न प्रमुख व्यक्तियों के नाम निम्नलिखित हैं:च्यवन, उशीनस् शुक्र, गृत्समद, कवि, कृत्नु, जमदग्नि, परशुराम जामदग्न्य, नेम, प्रयोग, प्राचेतस, भृगु, वाल्मीकि, वेन, सोमाहुति एवं स्यूमरश्मि ( भृगु वारुणि देखिये) । परशुराम जामदग्न्य के द्वारा पृथ्वी निःक्षत्रिय किये जाने पर, उसे भार्गव कुल में उत्पन्न ब्राह्मणों ने ' अवभृथ ५५७ Page #580 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भार्गव प्राचीन चरित्रकाश भास्वर स्नान' का संकल्प बताया था। वर्तमान काल में इस कुल | माल्लवेय-इंद्रद्युम्न नामक आचार्य का पैतृक नाम के ब्राह्मण प्रायः गुजराथ प्रदेश में भडोच में दिखाई देते | (श. ब्रा. १०.६.१.१; छां. उ. ५.११.१, १४.१)। 'भाल्लवि' का पुत्र होने से इसे यह नाम प्राप्त हुआ होगा। २. वैवस्वत मन्वन्तर का तीसरा एवं छब्बीसवाँ व्यास। शतपथ ब्राह्मण में एक अधिकारी आचार्य के रूप में ३. ऋषभ नामक शिवावतार का शिष्य ।। इसका निर्देश कई बार प्राप्त है ( श. ब्रा. १.७.३.१९; ४. भौत्य मनु का एक पुत्र, जो सप्तर्षियों में से एक था। २.१.४.६; १३.४.२.३)। ५. एक देवसमूह, जिसमें बारह देव समाविष्ट थे भावन--उत्तम मन्वन्तर का एक देवगण । (मत्स्य. १९५.१२-१३)। २. भृगु वारुणि ऋषि को दिव्या नामक पत्नी से उत्पन्न भार्गवत--अंगिराकुलोत्पन्न एक गोत्रकार। बारह देवों में से एक। भायण--सुत्वन् नामक राजा का गोत्रनाम (सुत्वन् | भावयव्य--स्वनय नामक राजा का पैतृक नाम कैरिशीय भाईयण देखिये)। | (स्वनय देखिये; सां. श्री. १५.११.५.)। आर्गेय--भृगुकुल के 'मार्गेय' नामक गोत्रकार के नाम भावास्यायनि--अंगिराकुलोत्पन्न एक गोत्रकार । के लिए उपलब्ध पाठभेद (मार्गेय देखिये)। भाविनि--स्कंद की अनुचरी एक मातृका (म. श. ' भार्ग्यश्व-मुद्गल नामक ऋषि का पैतृक नाम । ४५.११)। इसके नाम के लिए 'भामिनि पाठभेद प्राप्त है। - भालंदन--वत्सप्रि नामक ऋषि का पैतृक नाम । भाव्य---स्वनय नामक राजा का पैतृक नाम (ऋ. १..' भालुकि--एक ऋषि, जो पांडवों के साथ द्वैतवन में | १२६. १; नि. ९.१०)। गया था (म. स. ४.१३; व. २७.२२)। आस--एक तपस्वी, जो सह्याद्रि में स्थित अत्रि ऋषि . २. एक आचार्य, जो वायु के अनुसार व्यास की के आश्रम में रहनेवाले एक ऋषि का पुत्र था। यह विलास .. सामशिष्यपरंपरा में से लांगलि ऋषि का शिष्य था। नामक राजा का परम मित्र था। इसने योगशास्त्र पर एक ग्रंथ लिखा था, जिसका आधार| भासकर्ण-रावण का एक सेनापति, जो हनुमान् । 'हटप्रदीपिका' नामक ग्रंथ में लिया गया है (C.C.)। | के द्वारा मारा गया (वा. रा. सु. ४६.३७)। भालुकीपुत्र--एक आचार्थ, जो क्रौंचिकीपुत्र नामक | आसा-पूरुवंशीय राजा अयुतायिन् की पत्नी, ऋषि का शिष्य था। इसके शिष्य का नाम राथीतरीपुत्र | जो पृथुश्रवस् राजा की कन्या थी। इसके पुत्र का नाम था (बृ. उ. ६.५.२ काण्व.)। | अक्रोधन था। २. एक आचार्य, जो प्राचीनयोगीपुत्र नामक ऋषि का भासी-कश्यप ऋषि की कन्या, जो उसे ताम्रा शिष्य था । इसके शिष्य का नाम वैदभृतीपुत्र था नामक पत्नी से उत्पन्न हुयी थी। आगे चल कर, इससे (श. ब्रा. १४. ९.४.३२, बृ. उ. ६.४.३२ माध्य.)। भास, उलूक आदि पक्षी उत्पन्न हुए। माल्ल प्रातृद--एक आचार्य (जै. उ.बा.३०.३१.४)।। २. एक अप्सरा, जो कश्यप एवं प्राधा (अरिष्टा ) से भाल्लवि-एक आचार्य, जिसके द्वारा प्रणीत एक | उत्पन्न आठ कन्याओं में से एक थी। आचारविशेष का निर्देश पंचविंश ब्राह्मण में प्राप्त है। भासुर-तुषितं देवों में से एक। (पं. बा. २.२.४ )। सायण के अनुसार, यह व्यक्ति- भास्कर--एक आदित्य, जो कश्यप एवं अदिति से वाचक नाम न हो कर किसी शाखा के नाम का द्योतक है। उत्पन्न बारह आदित्यों में से एक था। माल्लविन्-एक शाखाप्रवर्तक आचार्य, जिसके २. स्कंद के भास्वर नामक पार्षद के नाम के लिए द्वारा निर्मित एक ब्राह्मण ग्रंथ प्राप्त है। इसके ग्रंथ का उपलब्ध पाठभेद (भास्वर देखिये)। उद्धरण बौधायन धर्मसूत्र में उपलब्ध है (बौ. ध. १.२. भास्करि--एक ऋषि, जो शरशय्या पर पडे हुए ११)। कई ग्रंथों में इसका निर्देश बहुव वन में प्राप्त है, भीष्म से मिलने आया था (म. शां. ४७.६६%; पंक्ति. जिससे प्रतीत होता है कि, यह किसी एक व्यक्ति का नाम | ११)। न हो कर, किसी गुरुपरंपरा का नाम होगा (जै. उ. बा. भास्वर--सूर्य के द्वारा स्कंद को दिये गये दो पार्षदों २.४.७)। | में से एक । दूसरे पार्षद का नाम सुभ्राज था (म. श. Page #581 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भास्वर प्राचीन चरित्रकोश • भीम ४४.२८) । इसके नाम के लिए 'भास्कर' पाठभेद | १४. (सो. पूरु.) एक पूरुवंशीय राजा, जो वायु के प्राप्त है। अनुसार, महावीर्य राजा का पुत्र था। भिक्षु आंगिरस--एक वैदिक सूक्तद्रष्टा (ऋ. १०. १५. एक राक्षस, जो लंकानरेश रावण का मित्र था। ११७)। लंका में आने के बाद, हनुमान सर्वप्रथम इसके घर के भिक्षुवर्य--शंकर का एक अवतार, जिसने सत्यरथ | छपरे पर अवतीर्ण हुआ था (वा. रा. सु. ६)। नामक राजा को काफ़ी त्रस्त किया था (सत्यरथ देखिये)।। १६. (सो. कुरु.) एक कुरुवंशीय राजा, जो मत्स्य के भिषज् आथर्वण--एक वैदिक सूक्तद्रष्टा (ऋ. १०. | अनुसार, रुचिर राजा का पुत्र था। .९७)। १७. (सो. कुरु.) धृतराष्ट्र के सौ पुत्रों में से एक । २. काठक संहिता में निर्दिष्ट एक प्राचीन चिकित्सक | भीम ने इसका वध किया (म. भी. ६०.३१)। (का. सं. १६.३)। । १८. पाँच विनायकों में से एक । देवताओं के यज्ञ का भीम--(सो. कुरु.) कुरुवंशीय पांडु राजा को कुन्ती | विनाश करनेवाले पांचजन्य के द्वारा इन पाँच विनायकों से उत्पन्न पाँच पुत्रों में से तीसरा पुत्र (भीमसेन पांडव | का निर्माण हुआ था। देखिये)। १९. अंश के द्वारा स्कंद को दिये गये पाँच पार्षदों में २. एक देवगंधर्व, जो कश्यप एवं मुनि का पुत्र था | से एक । अन्य पार्षदों के नाम निम्नलिखित थे:३. तीसरे मरुद्गणों में से एक। परिघ, वट, दहति, एवं दहन । ४. विकुंठ देवों में से एक । २०. यमसभा में रह कर यम की उपासना करनेवाले ५. एकादश रुद्रों में से एक। राजाओं का एक समूह, जिसमें कुल सौ राजा समाविष्ट थे। ६. एक अग्नि, जो पांचजन्य अथवा तप नामक अग्नि | प्राचीन काल में ये राजा पृथ्वी के शासक थे; किन्तु काल का पुत्र था। . . . से पीड़ित हो कर ये पृथ्वीलोक छोड़ कर यमसभा में ७. एक राक्षस, जो हिरण्याक्ष एवं देवताओं के बीच | उपस्थित हुए (म. शां. २२७.४९)। हुए युद्ध में अग्नि के हाथों मारा गया (पा. स. ७५)। | २१. गौड देश में रहनेवाले दुर्व नामक ब्राह्मण का १. एक राक्षस, जो कश्यप एवं खशा के पुत्रों में से | मित्र । गणेशपुराण में वर्णित बुध नामक दुराचारी ब्राह्मण एक था। की कथा में इसका निर्देश प्राप्त है (गणेश. १.७६; बुध. ९. (सो. अमा.) एक राजा, जो भागवत के अनुसार, | ८. देखिये)। विजय राजा का पुत्र था । विष्णु एवं वायु में, इसे अमावसु २२. द्वापर युग में उत्पन्न हुआ एक शूद्र । यह अत्यंत राजा का पुत्र कहा गया है। दुराचरणी एवं चौर्यकर्म में निपुण था। एक बार यह १०.(सो. क्रोष्टु.) एक यादव राजा, जो हरिवंश | एक ब्राह्मण के घर चोरी के हेतु गया, एवं उसकी सेवा एवं ब्रह्म के अनुसार, ज्यामध राजा का पुत्र था। महा- | करने के बहाने वहीं रह गया। भारत में इसे 'निमि' कहा गया है। संभवतः यह ऋथ । पश्चात् ब्राह्मण के घर चोरी के हेतु आये हुए कई अन्य राजा का नामांतर रहा होगा । चोरों के हाथों यह मारा गया। मृत्यु के पश्चात्, किंचित्११. (सो. क्रोष्ट.) एक यादव राजा, जो दाशाह काल तक की गयी ब्राह्मणसेवा के कारण इसका उद्धार (विदुरथ ) राजा का पुत्र था (पन. सृ. १३)। हुआ (पद्म. ब्रह्म. १४)। १२. (सो. क्रोष्टु.) आनर्त (गुजराथ देश) का एक | २३. एक खाटिक, जिसकी कथा गणेश पुराण में यादव राजा, जो सत्वत राजा का पुत्र था। इसके पुत्र का | शमीवृक्ष का महात्म्य बताने के लिए कथन की गयी है। नाम अंधक था। यह राम दाशराथी राजा का समकालीन | २४. एक कुम्हार, जो तोण्डमान नामक राजा के राज्य था। शत्रुघ्न ने मधु दैत्य का वध कर मथुरा नगरी की में रहता था। यह रोज श्रीनिवास की पूजा करता था, जिस स्थापना की, उस नगरी को इसने जीत लिया था। कारण इसका उद्धार हुआ (स्कंद. २.१.१०) १३. (सो. पुरु.) एक पूरुवंशीय राजा, जो इलिन २५. विदर्भ देश के कौण्डिन्य नगरी का राजा, जो एवं रथन्तरी का पुत्र था (म. आ. ८९.१५)। इसे | चित्रसेन राजा का पुत्र था। इसे कोई पुत्र न था, जिस निम्नलिखित चार भाई थेः-दुष्यंत, शूर, प्रवसु, एवं वसु । कारण विरक्त हो कर, इसने अपना राज्य मनोरंजन एवं ५५९ Page #582 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भीम . प्राचीन चरित्रकोश भीमशंकर सुमन्तु नामक प्रधानों के हाथों सौंप दिया, एवं यह वन | भीमकेश--एक राजा, जिसकी पत्नी का नाम केशिनी में चला गया। था। बृहद्ध्वज नामक राक्षस ने उसका हरण किया था ___ वन में इस विश्वामित्र ऋषि आ मिले, जिन्होंने इसे | (बृहद्ध्वज देखिये)। गणेश उपासना का व्रत करने के लिए कहा। यह व्रत भीमजानु--एक प्राचीन नरेश, जो यमसभा में करने पर इसे एक पुत्र उत्पन्न हुआ, जिसका नाम | उपस्थित था (म. स. ८.१९)। रुक्मांगद था (गणेश. १.१९-२७)। भीमपायन--कश्यपकुल के भौजपायस नामक गोत्रकार २६. विदर्भ देश का एक राजा, जो दमयंती का पिता के लिए उपलब्ध पाठभेद (भौजपायन देखिये)। था ( भीम वैदर्भ देखिये)। भीमबल--धृतराष्ट्र के शतपुत्रों में से एक । इसके नाम भीम वैदर्भ--विदर्भ देश का सुविख्यात राजा, जो के लिए भूरिबल पाठभेद भी प्राप्त है (म. आ. परि. १.४१. निषधराज नल की पत्नी दमयंती का पिता था। यह एवं | १५)। भारतीय युद्ध में भीमसेन के द्वारा इसका वध हुआ। चेदि देश का राजा वीरबाहु समवर्ती थे। २. एक देवता, जो पांचजन्य के द्वारा उत्पन्न पाँच ___ दशार्ण नरेश सुदामन् की कन्या इसकी पत्नी थी (म. विनायकों में से एक थी। व. ६६.१२-१३)। काफ़ी वर्षों तक अनपत्य रहने के बाद, भीमरथ--(सो. कुरु.) धृतराष्ट्र के शतपुत्रों में से दमन ऋषि की कृपाप्रसाद से इसे तीन उत्तम पुत्र एवं | एक। भीमसेन ने इसका वध किया । एक कन्या प्राप्त हुयी। इसके पुत्रों के नाम दम, दान्त एवं २. कौरवपक्षीय एक योद्धा, जो द्रोणनिर्मितं गरुडव्यूह .. दमन थे, एवं कन्या का नाम दमयंती था (म. व. ५०.९)। के हृदयस्थान में खड़ा हुआ था (म. द्रो. १९.३३)। इसके द्वारा किये गये दमयंती के स्वयंवर में निषध पांडवपक्षीय म्लेंच्छराज शाल्व राजा का इसने वध किया देश का राजा नल का दमयंती ने वरण किया (म. व. | था (म. द्रो. २४.२६ )। ५४.२५)। कलि केशाप से नल एवं दमयंती को अत्यधिक ३. युधिष्ठिर की सभा एक राजा (म. स. ४.२२)। कष्ट सहने पडे; उस समय इसने उन दोनों को एवं उनके ४. (सो. क्रोष्टु.) एक राजा, जो भागवत, विष्णु एवं पुत्रों को काफी सहाय्यता की थी (दमयंती एवं नल वायु के अनुसार विकृति राजा का पुत्र था। मत्स्य में इसे. देखिये)। विमल राजा का पुत्र कहा गया है। २. विदर्भ देश का सुविख्यात राजर्षि, जिसका निर्देश ५.( सो. क्षत्र.) एक राजा, जो भागवत एवं वायु के ऐतरेय ब्राहाण में निर्दिष्ट 'सोम परंपरा' में प्राप्त है। अनुसार केतुमत् राजा का पुत्र था। विष्णु में इसके नाम के ऐतरेय ब्राह्मण के अनुसार, शापर्ण नामक पुरोहितगण लिए 'अभिरथ' पाठभेद प्राप्त है। महाभारत में इसका के द्वारा यज्ञवेदी की स्थापना की जाने पर, सोमविद्या की निर्देश 'भीमसेन' नाम से किया गया है (भीमसेन ३. विशिष्ट परंपरा दैवावृध ने भीम राजा को सिखायी. एवं | देखिये)। उसी परंपरा भीम ने वैदर्भ राजा को सिखायी (ऐ. ब्रा. भीमविक्रम--(सो. कुरु.) धृतराष्ट्र के शतपुत्रों में ७.३४ )। उस ग्रंथ में, भीम एवं वैदर्भ को अलग व्यक्ति | से एक । माना गया है। किंतु सायणाचार्य के अनुसार, ये दोनों भीमवेग-(सो. कुरु.) धृतराष्ट्र के शतपुत्रों में से एक ही व्यक्ति थे। एक। इसकी कथा में नारद एवं पर्वत इन दो ऋषियों का| २. अंगिराकुलोत्पन्न एक गोत्रकार । संबंध निर्दिष्ट है, किंतु उसके बारे में निश्चित रूप से कहना | भीमवेगरव--(सो. कुरु.)धृतराष्ट्र के शतपुत्रों में से असंभव है। एक। भीमक--विदर्भ देश के भीष्मक राजा का नामांतर भीमशंकर--एक शिवलिंग, जो सह्याद्रि में स्थित (भीष्मक देखिये)। डाकिनी क्षेत्र में है । इसने भीम का वध कर कामरूपेश्वर भीमकाय--त्रिपुरासुर का एक सेवक । त्रिपुर ने इसे । सुदक्षिण राजा का रक्षण किया (शिव. शत. ४२)। कुछ काल तक पृथ्वी का राज्य प्रदान किया था (गणेश. महाराष्ट्र में पूना जिले में स्थित भीमाशंकर नामक १.३९.१३)। शिवस्थान यही है । इसके उपलिंग का नाम भीमेश्वर है . भीमकी--कृष्ण की पत्नी रुक्मिणी का नामांतर। ।(शिव. कोटि. १)। ५६० Page #583 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भीमशर प्राचीन चरित्रकोश भीमसेन • भीमशर-धृतराष्ट्र के शतपुत्रों में से एक। नारीतेज का प्रतीक माने जा सकती हैं। ये तीनो अपने भीमसेन-एक देवगंधर्व, जो कश्यप एवं मुनि का | अपने क्षेत्र में सर्वोपरि थे, किंतु पांडवपरिवार के बीच पुत्र था। यह अर्जुन के जन्मोत्सव में उपस्थित था। हुए कौटुंबिक संघर्ष में, इन तीनो को उस युधिष्ठिर के २. (सो. ऋक्ष.) एक राजा, जो विष्णु एवं वायु के सामने हार खानी पडती थी, जो स्वयं आत्मिक शक्ति अनुसार, ऋक्ष राजा का पुत्र था। मत्स्य के अनुसार, यह | का प्रतीक था। संभव है, इन चार ज्वलंत चरित्रचित्रणों दक्ष राजा का पुत्र था। के द्वारा श्रीव्यास को यही सूचित करना हो कि, दुनिया ३. (सो. क्षत्र.) एक राजा, जिसका निर्देश पुराणों | की सारी शक्तियों में से आत्मिक शक्ति सर्वश्रेष्ठ है। में 'भीमरथ' नाम से प्राप्त है (भीमरथ २. देखिये)।। स्वरुपवर्णन--भीम का स्वरूपवर्णन भागवत में इसके पुत्र दिवोदास को गालव ऋषि ने अपनी कन्या प्राप्त है, जिससे प्रतीत होता है कि, यह अत्यंत भव्य माधवी विवाह में दी थी। इसका पुत्र होने के कारण, | शरीरवाला स्वर्ण कान्तियुक्त था। इसके ध्वज पर सिंह दिवोदास को 'भैमसेनि' पैतृकाम प्राप्त था (म. उ. | का राजचिन्ह था, एवं इसके अश्व रीछ के समान कृष्णवणे ११७.१; क. सं. ७,२)। थे। इसके धनुष का नाम 'वायव्य', एवं शंख का भीमसेन 'पांडव'-(सो. कुरु.) पाण्डु राजा के | नाम 'पौंडू' था। इसका मुख्य अस्त्र गदा था। पाँच 'क्षेत्रज ''पुत्रों में से एक, जो वायु के द्वारा कुन्ती कौरवों का. विशेष कर दुर्योधन तथा धृतराष्ट्र का, के गर्भ से उत्पन्न हुआ था। इसके जन्मकाल में आकाशवाणी हुयी थी, 'यह बालक दुनिया के समस्त बलवानों यह आजन्म विरोधी रहा। दुर्योधन इससे अत्यधिक में श्रेष्ठ बनेंगा (म. आ. ११४.१०)। विद्वेष रखता था, एवं धृतराष्ट्र इससे काफी डरता था। भागवत के अनुसार, इसने दुर्योधन एवं दुशाःसन के पाण्डवों में भीम का स्थान सर्वोपरि न कहें, तो भी | सहित, सभी धृतराष्ट्रपुत्रों का वध किया था (भा. वह किसी से भी कुछ कम नं था । बाल्यकाल से ही यह | १.१५. १५)। सबका अगुआ था। भीम के बारे में कहा जा सकता है कि, यह वज्र से भी कठोर, एवं कुसुम से भी कोमल | बाल्यकाल--जन्म से ही यह अत्यन्त बलवान् था। था। एक ओर, यह अत्यंत शक्तिशाली, महान् क्रोधी- जन्म के दसवें दिन, यह माता की गोद से एक तथा रणभूमि में शत्रुओं का संहार करनेवाला विजेता शिलाखण्ड पर गिर पड़ा । किंतु इसके शरीर पर जरा सी था। दूसरी ओर, यह परमप्रेमी, अत्यधिक कोमल भी चोट न लगी, एवं चट्टान अवश्य चूर चूर हो गयी स्वभाववाला दयालु धर्मात्मा भी था। न जाने कितनी (म. आ. ११४.११-१३)। इसके जन्म लेने के बार, किन किन व्यक्तियों के लिए अपने प्राणों पर खेल | उपरांत इसका नामकरण संस्कार शतश्रृंग ऋषियों के द्वारा कर, इसने उनकी रक्षा कर, अपने धर्म का निर्वाह किया गया। बाद को वसुदेव के पुरोहित काश्यप के किया । इस प्रकार इसका चरित्र दो दिशाओं की ओर द्वारा इसका उपनयन संस्कार भी हुआ। विकसित हुआ है, तथा दोनों में कुछ शक्तियों पृष्ठभूमि के भीम बाल्यकाल से ही अत्यंत उदंड था। कौरवपांडव रूप में इसे प्रभावित करती रहीं। वे हैं, इसका अविवेकी, बाल्यावस्था में जब एकसाथ खेला करते, तब किसी में इतनी उद्दण्ड एवं भावुक स्वभाव । ताकत न थी कि, इसके द्वारा की गयी शरारत का जवाब भीम निश्चल प्रकृति का, भोलाभाला, सीधा साफ दे। दुर्योधन अपने को सब बालकों में श्रेष्ठ, एवं सर्वगुणआदमी था; यह राजनीति के उल्टे सीधे दाँव-पेंच न संपन्न राजकुमार समझता था । किन्तु इसकी ताकत एवं जानता था। सबके साथ इसका सम्बन्ध एवं बर्ताव स्पष्ट शैतानी के आगे उसको हमेशा मुँह की खानी पड़ती थी था, चाहे वह मित्र हो, या शत्रु । यह स्पष्टवक्ता एवं (म.आ.१२७.५-७)। भीम भी सदैव दुर्योधन की झूटी निर्भीक प्राणी था। शान को चूर करने में चूकता न था। इस प्रकार शुरू से परम शारीरिक शक्ति का प्रतीक मान कर, श्री ही पाण्डवों का अगुआ बन कर, यह दुर्योधादि के नाके व्यास के द्वारा, भीमसेन का चरित्रचित्रण किया गया चने चबवाये रहता। इस प्रकार, इसके कारण आरम्भ से है। पांडवों में से अर्जुन शस्त्रास्त्रविद्या का, भीम ही, पाण्डवों तथा कौरवों के बीच एक बडी खाई का निर्माण शारीरिक शक्ति का, एवं पांडवपत्नी द्रौपदी भारतीय | हो चुका था। प्रा. च.७१] ५६१ Page #584 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भीमसेन प्राचीन चरित्रकोश भीमसेन दुर्योधन के षड्यंत्र--दुर्योधन कौरवपुत्रों में बड़ा | जगने के उपरांत, नागों के द्वारा इसका मंगलाचरण गाया होशियार, चालबाज एवं धूर्त था। उसने इसे खत्म करने गया, एवं उनके द्वारा इसे दस हज़ार हाथियों के समान के अनेकानेक कई षड्यंत्र रचे । आजीवन वह भीम की | बलशाली होने का वरदान दिया गया। बाद को यह जान के पीछे पड़ा ही रहा, कारण वह नहीं चाहता था | नागों के द्वारा नागलोक से पृथ्वी पर पहुँचा कर, सकुशल कि, यह काँटा उसे जीवन भर चुभता रहे । एक बार जब | बिदा किया गया। यह सोया हुआ था, तब दुर्योधन ने इसे ऊपर से नीचे नागलोक से लौट कर यह खुशी खुशी हस्तिनापुर आ फेंकवा दिया, किन्तु इसका बाल बांका न हुआ। दूसरी | पहुँचा, एवं इसने अपनी सारी कथा माँ कुंती को प्रणाम बार उसने इसे सो द्वारा कटवाया, तथा तीसरी बार | कर कह सुनायी । कुंती ने सब कुछ सुन कर, इस कथा भोजन में विष मिलवा कर भी इसे खिलवाया, पर भीम को किसीसे न कहने का आदेश दिया। जैसा का तैसा ही बना रहा (म. आ. ११९)। | शिक्षा-इसने राजर्षि शुक से गदायुद्ध की शिक्षा प्राप्त जब दुर्योधन के ये षड्यंत्र सफल न हुए, तब उसने | की थी (म. आ. परि. १. क्र. ६७)। अन्य पाण्डवों इसका वध करने के लिए एक दूसरी युक्ति सोची । उसने | की भाँति, इसे भी कृपाचार्य ने अरशस्त्रों की शिक्षा दी गंगा नदी से जल काट कर, एक जलगृह का निर्माण किया, | थी (म.आ.१२०.२१)। पश्चात् द्रोणाचार्य ने इसे एवं एवं उसमें जलक्रीड़ा करने के लिए पाण्डुपुत्रों को आमंत्रित | अन्य पाण्डवों को नानाप्रकार के मानव एवं दिव्य अस्त्रकिया। जब सब लोग जलक्रीड़ा कर रहे थे, तब सभी ने शस्त्रों की शिक्षा दी थी। एक दूसरे को फल देकर जलविहार किया। दुर्योधन ने गदायुद्ध की परीक्षा लेते समय, इसके तथा दुर्योधन अपने हाथों से भीम को विषयुक्त फल खिलाये, जिसके के बीच लड़ाई छिड़नेवाली ही थी कि, गुरु द्रोण ने कारण जलक्रीड़ा करता हुआ भीम थक कर नदी के किनारे आ कर लेट गया, तथा नींद में सो गया । यह सुअवसर अपने पुत्र अश्वत्थामा के द्वारा उन्हे शांत कराया (म. . देख कर, दुर्योधन ने इसे लता एवं पलवादि से बाँध कर आ. १२७)। युधिष्ठिर के युवराज्यभिषेक होने के उपरांत, . बहती धारा में फेंकवा दिया (म. आ. ११९. परि. १. बलराम ने इसे खड्ग, गदा एवं रथ के बारे में शिक्षा दे ७३)। इस प्रकार जल के प्रवाह में बहता हुआ भीम कर अत्यधिक पारंगत कर दिया (म. आ. परि. १ क्र. . पाताल में स्थित नागलोक जा पहुँचा। ८०. पंक्ति . १-८)। ' नागलोक में--नागलोग पहुँचते ही, इसके शरीरभार भीम तथा अर्जुन की शिक्षा समाप्त होने के उपरांत, से अनेकानेक शिशुनाग कुचल कर मर गये, जिससे क्रोधित द्रोण ने गुरुदक्षिणा के रूप में इनसे कहा कि, ये ससैन्य हो कर सपों ने इसके ऊपर हमला बोल दिया, एवं इसको राजा द्रुपद को परास्त करें। इस युद्ध में भीम ने अपने खूब काटा, जिससे इसके शरीर का विष उतर गया, एवं | शौर्यबल से द्रुपद राजा की राजसेना को परास्त किया, मूर्छा जाती रही । जागृत अवस्था में आकर, यह नागों को एवं उसकी राजधानी कुचल कर ध्वस्त कर देनी चाही, मारने लगा, जिससे घबरा कर वे सभी भागते हुए नागराज किंतु अर्जुन ने इसे रोंक कर, राज्य को विनष्ट होने से वासुकि के पास अपनी आपबीती सुनाने गये। वासुकि | बचा लिया (म. आ. परि. १. क्र. ७८. पंक्ति. ५१पहचान गया कि, सिवाय भीम के और कोई नहीं हो | १५५)। सकता। लाक्षागृहदाह-वारणावत में, धृतराष्ट्र के आदेशावासुकि इसके पास तुरन्त आया, एवं इसे आदर-पूर्वक | नुसार बनाये गये लाक्षागृह में अन्य पाण्डवों तथा कुन्ती अपने घर ले जा कर इसकी बड़ी आवभगत की (आर्यक | के साथ, यह भी जल कर मरनेवाला था, किन्तु विदुर के देखिये)। हज़ारो नागों के बल को देनेवाले अमृत | सहयोग से सारे पाण्डव बच गये । लाक्षागृह से निकलने कुंभ को दिखा कर उसने भीम से कहा कि, जितना चाहो के उपरांत, इसने अपने हाथ से ही लाक्षागृह को जला मनमानी पी कर आराम करो। तब इसने आठ कुभो को | दिया, जिसमें शराब पिये अपने पाँच पुत्रों के सहित आठ घूठ में ही पी डाला, एवं पी कर ऐसा सोया कि, ठहरी हुई एक औरत जल मरी। उसीमें शराब के नशे आठ दिन बाद ही उठा । इन आठ कुंभों के दिव्य रसपान में चूर दुर्योधन का एक सेवक भी जल गया था (म. से इसे एक हज़ार हाथियों का बल प्राप्त हुआ। इसके आ. १३२-१३६)। ५६२ Page #585 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भीमसेन प्राचीन चरित्रकोश भीमसेन लाक्षागृह से निकल कर, अपने भाइयों के साथ विदुर | युद्ध में इसका एवं शल्य का भीषण युद्ध हुआ था । द्रौपदी के सेवक की मदद से, इन्होंने गंगा नदी पार की। को जीत कर, अर्जुन और भीम वापस लौटे, एवं माँ से तदोपरांत शीघ्रातिशीघ्र दूर भाग चलने के हेतु से, अपने | विनोद में कहा कि, हम लोग भिक्षा लाये हैं । मज़ाक को न माँ को कन्धे पर, नकुल-सहदेव को कमर पर, तथा | समझ सकने के कारण, माँ ने उस 'भिक्षा को आपस में धर्मार्जुन को हाथ में लेकर दौड़ते हुए, भीम ने एक जंगल | बाँट लेने को कहा। इस प्रकार द्रौपदी अर्जुन के साथ में आ कर शरण ली । कुन्ती तथा अन्य पांडव थक कर | भीमादि की भी पत्नी हुयी (म. आ. १८०-१८१)। इतने प्यासे हो गये थे कि, उन्हे पेड़ की छाया में लिटा जरासंधवध--धर्मराज ने राजसूय यज्ञ किया, जिसमें कर, यह पानी लाने गया । पानी ला कर इसने देखा | कृष्ण की सलाह से युधिष्ठिर ने अर्जुन तथा भीम को कि, सब थक कर सो गये हैं । अतएव यह उनके रक्षार्थ | जरासंध पर आक्रमण करने को कहा। वहाँ भीम एवं जगता हुआ, उनके उठने की प्रतीक्षा में बैठा रहा। जरासंध में दस दिन युद्ध चलता रहा, और जब जरासंध हिडिंबाविवाह--इसी वन में, एक नरभक्षक राक्षस | लड़ते लड़ते थक सा गया, तब कृष्ण के संकेत पर. इसने हिडिंब रहता था, जिसने मनुष्यसुगन्धि का अनुमान उसे खड़ा चीर कर फेंक दिया। किन्तु वह फिर जुड़ गया। लगा कर, अपनी बहन हिडिंबा को इन्हें लाने के लिए | तब कृष्ण के द्वारा पुनः संकेत पा कर, इसने उसे फिर चीर कहा। हिडिंबा आई, तथा भीम को देखकर, इसके | डाला, तथा दाहिने भाग को अपनी दाहिनी ओर, तथा व्यक्तित्व पर मोहित होकर, इसे वरण में प्राप्त कर लेनेके बायें भाग को अपने बायों ओर फेंक दिया, जिससे दोनों लिए निवेदन करने लगी। किन्तु भीम ने हिडिंबा की इस | शरीर के भाग जुड़ न सकें (म. स. १८)। प्रार्थना को अस्वीकार कर दिया। उधर अधिक देर हो | पूर्वदिग्विजय--फिर भीम को धर्मराज ने पूर्व दिशा की लाने पर, वस्तुस्थिति की जाँच करता हुआ हिडिंब राक्षस | ओर विजय प्राप्त करने के लिए भेजा, जिसमें राजा भद्रक भी आ पहुँचा। पहले भीम एवं उसमें वादविवाद हुआ, | इसके साथ था (भा. १०.७२.४४ )। इसने क्रमशः फिर दोनों युद्ध में जूझने लगे। पांचाल, विदेह गण्डक, दशार्ण तथा अश्वमेध इत्यादि इस ढूंन्द्वयुद्ध की आवाज़ से सभी पांडव जग पडे, पूर्ववर्ती देशों को जीत कर, दक्षिण के पुलिन्द नगर पर धावा एवं उन्हें सारी बातें भीम के द्वारा पता चलीं । पश्चात् भीम | बोल दिया। वहाँ के राजा को जीत कर. यह चेदिराज शिशुने हिडिंब राक्षस का वध किया, एवं कुन्ती तथा अपने | पाल के पास गया, तथा वहाँ एक माह रह कर, इसने कुमार भाइयों के साथ इसने आगे चलने के लिए प्रस्थान किया। देश का श्रेणिमन्त राजा को जीता । फिर 'गोपालकच्छदेश'. किन्तु हिडिंबा ने इसका साथ न छोड़ा. वह | उत्तरकोसल, मल्लाधिप, हिमालय के समीपवर्ती जलोदइसका पीछा करती हुई साथ लगी ही रही । अन्त में भव देश, भल्लाट, शुक्तिमान्पर्वत, काशिराज सुबाहु, कुन्ती ने इन दोनों में मध्यस्थता कर के भीम को आदेश सुपार्श्व, राजपति क्रथ, मत्स्यदेश, मलद, अभयदेश,पशुभूमि, दिया कि. वह हिडिंबा का वरण करे। भीम ने हिडिंबा | मदधार पर्वत तथा सोमधेयों को जीत कर, यह उत्तर के सामने एक शर्त रखी कि, उसके एक पुत्र होने तक की ओर मुड़ा। बाद में भीम ने वत्सभूमि, भर्गाधिप, ही यह उसके साथ भोगसम्बन्ध रक्खेगा। हिडिंबा ने | निषादाधिपति, मणिमत् आदि प्रमुख राजाओं के साथ इसे अपनी स्वीकृति दे दी, तथा दोनों का विवाह हो | साथ, दक्षिणमल्ल, भोगवान्पर्वत, शर्मक, वर्मक, वैदेहक गया। विवाह के उपरांत भीम एवं हिडिंबा रम्य स्थानों जनक आदि को सुलभता के साथ जीत लिया। में घूमते हुए वैवाहिक जीवन के आनंदो में निमग्न रहे। शक तथा बर्बरों को जीतने के लिये, इसने उन्हें कालान्तर में, इसे हिडिंबा से घटोत्कच नामक पुत्र हुआ। कूटनीति से जीता । इनके अतिरिक्त इंद्रपर्वत के समीप बकासुरवध--महर्षि व्यास के कथनानुसार, यह अन्य | के किराताधिपति, सुझ, प्रसुझ, मागध, राजा दण्ड, पाण्डवों एवं अपनी माँ के साथ एकचक्रा नगरी में गया, | राजा दण्डधार, तथा जरासंध के गिरिव्रज नगर आदि को जहाँ अपनी माता के आदेश पर, इसने बकासुर का वध | अपने पौरुष के बल जीत लिया। फिर इन्ही लोगों की कर, एकचक्रानगरी को कष्टों से उबारा था (बक देखिये)। सहायता ले कर, कर्ण तथा पर्वतवासी राजाओं को द्रौपदीस्वयंवर--द्रुपद राजा की कन्या द्रौपदी (कृष्णा), जीत कर, मोदागिरी के राजा का वध कर, इसने पुंड्राधिप जब स्वयंवर में अर्जुन द्वारा जीती गयी, तब वहाँ पर हुए | वासुदेव पर आक्रमण बोल दिया। पश्चात् कौशिकी कच्छ Page #586 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भीमसेन के महोक्स राजा को जीत कर इराने बंगराज पर आक्रमण कर दिया। ', प्राचीन चरित्रकोश इसकी विजय यही समाप्त न हुयी। इसके उपरांत समुद्रसेन, चन्द्र सेन, ताम्रलिप्त, कर्वटाधिपति, सुह्माधिपति सागरवासी मलेच्छों खोहित्यों आदि को जीत कर यह इंद्रप्रस्थ को वापस आया ( म. स. २६-२७ ) । राजसूययज्ञ——चारों भाई जब चारों दिशाओं से दिग्विजय कर के, अतुल धनाराशि के साथ वापस लौटे, तत्र धर्मराज ने राजस्वयज्ञ आरंभ किया। इस यज्ञ में हर भाई को भिन्न भिन्न कार्य सौंपे गये, जिसमें भीम को पाकशाला का अधिपति बनाया गया ( भा. १०.७५. ४) । यह राजसूययज्ञ मयसभा में हुआ, जिसकी रचना बड़ी चतुरता के साथ की गयी थी । जो कोई उसे देखता, यह उसकी विचित्रता देख कर चकित रहा जाता। इस सभा में पाण्डवों ने अपने वलरेश्वर्य की ऐसी शाँकी प्रस्तुत की, कि दुर्योधन ईर्ष्या से जला जा रहा था । इसके सिवाय उसे कई जगह मूर्ख बनना पड़ा, तथा जहाँ कहीं दुर्योधन को नीचा देखना पड़ता, वहीं मीम अट्टाहास करता हुआ उसकी हँसी उड़ाता। इसका यह परिणाम हुआ कि, दुर्योधन ने पाण्डवों के समस्त ऐश्वयं को कुचल कर मिटा देने के लिए, एक योजना बनाई । भीमसेन "6 'अस्या: कृते मन्युस्त्वयि राजन्निपात्यते । बाहू ते संप्रवक्ष्यामि, सहदेवाग्निमानय || " ( म. स. ६१.६ ) द्रौपदी वस्त्रहरण -- दुर्योधन ने धर्मराज को द्यूतक्रीड़ा के लिए बुलाया | दुर्योधन ने अपने स्थान पर शकुनि को आसन दे कर, कपटतापूर्ण ढंग से धर्मराज की समस्त धनसंपत्ति का ही हरण न किया बल्कि द्रौपदी को भी जीत कर, उसे भरी सभा में बुला कर उसका अपमान किया । दुःशासन उसका वस्त्र खींचने लगा, एवं दुर्योधन अपने बायें अंग को नम कर के द्रौपदी के सामने खड़ा हो गया । दुःशासन की इस धृष्टता को देख कर, भीम उबल पड़ा, एवं इसने उसकी बॉबी जॉत्र तोड देने की एवं उसकी छाती फाड कर उसका रक्त पीने की भीषण प्रतिज्ञा की ( म. स. ५३.६३ ) । अपने भाई युधिष्ठिर के ही कारण नूतक्रीडा का भयानक संकट आ गया, यह सोचकर भीम युधिष्ठिर से अत्यधिक क्रोधित हुआ। इसने उससे कहा, 'जो कुछ । हुआ है, उसके जिम्मेदार तुम ही हो तुम्हारे ही हाथों का दोष है, जिन्होंने द्यूत खेल कर धनलक्ष्मी, ऐश्वर्य सब कुछ मिट्टी में मिला दिया '। इतना कहा कर इसने अपने भाई सहदेव से कहा: (तुम मुझे अनि खा कर दो, मेरी इच्छा है कि, युधिष्ठिर के त खेलनेवाले हाथों को जला हूँ) | दुःशासन के द्वारा किये गये उपहास पर क्रोधित होकर, इसने प्रण किया कि, यह दुर्योधन के साथ धृतराष्ट्र के सभी पुत्रों का वध करेगा ( म. स. ६८.२०-२२) । वनवास - वनवासगमन का निश्चय हो जाने के उपरांत, भीम समस्त भाईयों के साथ वन की और चल पड़ा। वहाँ बक के भाई किर्मीर के साथ युधिष्ठिर की ऐसी बातें हुई कि स्थिति युद्ध तक आ पहुँची । तब भीम ने उसे परास्त कर उसका वध किया (म.व. १२.२२-६७) । गण एक बार जब यह द्रौपदी से प्रेमालाप करता हुआ बातों में विभोर था, तब हवा में उड़ता हुआ एक हज़ार पंखुडियोंवाला (सहस्रदल) कमल इनके सामने आ गिरा। तब द्रौपदी ने उस प्रकार के कई कम इससे लाने को कहे अपनी प्रियतमा की इच्छा पूर्ण करने के लिए भीम वैसे ही पुण्य खाने के लिए गंधमादन पर्वत पर आ पहुँचा (म. व. १४६.१९)। इसके चलते समय होनेवाली गर्जना से हनुमान् ने इसे पहचान लिया तथा आगे जाने पर कोई इसे शाप न दे, इस भय से वह मार्ग में अपनी पूँछ फैला कर बैठ गया। । , 2 वहाँ आकर इसने हनुमान को मार्ग से हटने लिए कहा, तथा उसके न हटने पर इसने उसकी पूँछ पकड़ कर फेंक देने का प्रयत्न किया। किन्तु जब यह पूंछ तक न उठा सका, तब यह उसकी शरण में गया। हनुमान ने इस प्रकार इसके अभिमान को नीचा दिखा कर इसे सदु पदेश दिए। समुद्रोल्लंघन काल में धारण किये गये अपने विराटरूप को दिखा कर, हनुमान् ने भीम को आशीष दे कर वर दिया, 'जिस समय तुम रण में सिंहनाद करोगे, उस समय मै अपनी आवाज़ से तुम्हारी आवाज़ ५६४ वनवास काल में जब द्रौपदी ने युधिष्ठिर से सन्यास -- वृति को त्याग कर, राज्यप्राप्ति के लिए प्रयत्न करने को कहा, तब भीम ने भी धर्मराज के पुरुषार्थ की प्रशंसा करते हुए, उसे युद्ध के लिए उत्साहित किया था । इसने युधिष्ठिर से कहा, 'तुम्हे धर्माचरण ही करना हो तो तुम संन्यास ले कर तपस्या करने वन में चले जाना (म. व. २४) किन्तु धर्मराज के युक्तिपूर्ण वचनों के आगे यह चुप हो गया (म. व. २४-२५ ) । -- " Page #587 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भीमसेन प्राचीन चरित्रकोश भीमसेन दीर्घकाल तक निनादित करूँगा, तथा अर्जुन के रथ पर | युधिष्ठिर ने भीम के उसके चंगुल से बचाया, तथा नहुष बैठ कर तुम्हारी रक्षा करूँगा' (म. व. १५०.१३-१५)। राजा भी अजगरयोनि से मुक्त हुआ (म. व. १७३; इतना कह कर परिस्थिति समझाते हुए हनुमान ने इसे | १७८; नहुष २. देखिये)। आगे जाने के लिए कहा। उसने इसे सोगंधिक सरोवर | दुर्योधन-चित्रसेन युद्ध-एक बार पाण्डवों को अपने का मार्ग बता कर कमलों के प्राप्त करने की विधि भी वैभव का प्रदर्शन करने के लिए, कौरव अपनी पत्नियों को बताई (म. व. १४६-१५०)। | लेकर द्वैतवन में आ पहुँचे । वहाँ इन्द्र की आज्ञा से, __ कुबेर से विरोध--यह सरोवरों से कमल प्राप्त चित्रसेन गन्धर्व ने उनको बन्दी बनाकर इन्द्र के पास ले करने के लिए सौगन्धिकवन पहुँचा । वहीं कैलास | जाने लगा। तब युधिष्ठर ने भीम से कहा कि, यह अपने की तलहटी में स्थित कुबेर का सौगन्धिक सरोवर था, भाइयों को कष्ट से मुक्त कराये। भीम ने दुर्योधन के जिसकी रक्षा के लिए उसने क्रोधवश नामक राक्षस रख ! पकड़े जाने पर प्रसन्नता प्रकट करते हुए, उसकी कटु छोडे थे। इसका क्रोधवश नामक राक्षसों के साथ युद्ध आलोचना की । किन्तु युधिष्ठिर के समझाये जाने पर यह हुआ, तथा इसने उन्हे परास्त कर भगा दिया, तथा कमल कौरवों को चित्रसेन से मुक्त करा कर वापस लाया, एवं तोड़ने लगा (म. व. १५२.१६-२३)। राक्षस भग कर युधिष्ठिर के सामने पेश किया । युधिष्ठिर ने सब को मुक्त कुवेर के पास गए, तथा कुबेर ने इसे यथेच्छा विहार | किया (म. व. २३४-२३५)। करने, एवं कमलों के तोड़ने की अनुमति प्रदान की (म. | | जयद्रथ से युद्ध-एक बार पाण्डव मृगया को गये थे, व. १५२.२४)। | इसी बीच अवसर को देखकर, राजा जयद्रथ ने द्रौपदी एवं - उधर धर्मराज को कुछ अपशकुन दृष्टिगोचर होने लगे, | कुलोपाध्याय धौम्य ऋषि का हरण किया। परिस्थिति का जिससे शंकित होकर घटोत्कच के साथ वह भीम के पास | ज्ञान होते ही. पाण्डवों ने जयद्रथ पर धावा बोल दिया। आ पहुँचा । कुवेर ने उसका स्वागत किया, तथा धर्मराज | भीम ने बड़ी वीरता के साथ जयद्रथ से युद्ध किया, एवं एवं भीम को अतिथि के रूप में ठहरा कर उनका खूब | उसे नीचे गिराकर अपने पैरों के ठोकर से उसके मस्तक आदरसत्कार किया। इस प्रकार भीम एवं कुबेर में मित्रता को चर कर, उसके बाल को काट कर घसीटता हआ युधिष्ठिर : स्थापित हो गयी। के सामने हाजिर किया। किन्तु धर्मराज ने उसे छोड़ दिया ___एक बार द्रौपदी ने भीम से क्रोधवश राक्षसों को मारकर | (म. व. २५४-२५५ )। सम्पूर्ण प्रदेश को भयरहित करने के लिए प्रार्थना की। यक्षप्रभ-एक बार धर्मादि के लिए पानी लाने के भीम तत्काल राक्षसों के उत्पात को दमन करने के लिए निकला पड़ा, एवं अनेकानेक क्रोधवश राक्षसों को मार लिए नकुल गया । वहाँ पर यक्षरूप यमधर्म ने उसे पानी लेने के पूर्व अपने प्रश्नों के उत्तर माँगे, किन्तु वह न कर यमपुरी पहुंचा दिया। उनमें कुबेर का मित्र मणिमान् माना, तथा पानी पिया, जिस कारण वह मृत हो कर गिर भी मारा गया (म. व. १५८)। जो बचे, वे फरियाद पड़ा। धर्म की आज्ञानुसार गये हुए सहदेव, अर्जुन, लेकर कुबेर के पास जा पहुँचे । पहले तो कुबेर क्रोध से तथा भीम की यही स्थिति हुयी। अन्त में युधिष्ठिर ने लाल हो उठा, किन्तु बाद को उसे स्मरण हो आया कि, | यक्ष के प्रश्नों का तर्कपूर्ण उचित उत्तर देकर वर प्राप्त 'यह भीम की गल्ती नहीं, बल्कि अगस्त्य मुनि के द्वारा दिये कर, सभी भाइयों को पुनः जीवित कराया (मं. व. २९७, गये शाप का परिणाम है, जीसे मुझे भुगतना पड़ रहा है।। ऐसा समझकर वह भीम के पास आया, तथा इससे सन्धि युधिष्ठिर देखिये)। कर, कुछ दिनों तक अपने यहाँ रखकर, खूब आदरसत्कार | अज्ञातवास--वनवास की अवधि समाप्त होने के किया (म. व. १५७-१५८)। पश्चात् धर्म के साथ इसने | बाद, अज्ञातवास का समय आ पहुँचा। द्रौपदी के साथ मेरु पर्वत के दर्शन किए, तथा पूर्ववत् गंधमादन पर्वत | सारे पाण्डवों ने अपने वेश बदल कर, विराट राजा पर रहकर वनवास की अवधि पूरी करने लगा। यहाँ गुप्तरूप से रहने का निश्चय किया। उस समय नहुषमुक्ति--एक बार अरण्य में प्रवेश करते समय भीम ने वहाँ पर बल्लव नाम धारण कर, रसोइये एवं अजगररूपधारी राजा नहुष ने भीम को निगल लिया। पहलवान की जिम्मेदारी संभाली। महाभारत की कई पश्चात् उसके द्वारा पूँछे गये प्रश्नों के उचित उत्तर देकर प्रतियों मे, इसका नाम 'पौरोगव बल्लव' दिया गया है ५६५ Page #588 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भीमसेन प्राचीन चरित्रकोश भीमसेन (बल्लव देखिये)। पाण्डवों के बीच इसका सांकेतिक | इस पर कृष्ण ने इससे कहा था, 'यह स्वभाव के विरुद्ध नाम 'जयेश' था (म. वि. ५.३०; २२.१२)। | तुम क्या कह रहे हो' ? तब इसने कृष्ण को तर्कपूर्ण उत्तर ___ बल्लव का रूप धारण कर यह, विराट के दरबार में | देते हुए कहा था, 'आपने मुझे सही नहीं पहचाना । मै प्रविष्ट हुआ,एवं इसने यह सूचित किया कि,यह इससे पूर्व पराक्रमी एवं बलशाली जरूर हूँ; किन्तु मैंने यही देखा है युधिष्ठिर के यहाँ का रसोइया था। जिस कारण विराट ने | कि, युद्ध लिप्सा से राजकुल नष्ट हो जाते है। इतिहास इसे अपनी पाकशाला का अधिपति बनाया (म. वि. साक्षी है कि, अभी तक भारत में अठारह कुलघातक ७)। (कुलपांसक) राजा ऐसे हुए, है जिन्होंने अपनी युद्धलिप्सा एकबार विराट की सभा में शंकरोत्सव में मल्लयुद्ध का | के कारण, अपने समस्त कुलों को जड़मूल से समाप्त कर आयोजन किया गया, उसमें जीमूत नामक मल्ल के द्वारा दी | दिया। इसी कारण मैं यही चाहता हूँ कि, जहाँ तक हो गयी चुनौती किसीने स्वीकार न की। यह डरता था कि युद्ध से अलग रहकर कुरुकुल को नष्ट होने से बचायें कहीं लोग इसे पहचान न लें, फिर भी इसे मलयुद्ध में ('मा स्य नो भरता नशन्') भीम के चरित्र की यह उतरना ही पड़ा, जिसमें भीम ने जीमूत को कुश्ती में हरा उदात्त प्रवृत्ति, एवं समझदारी को देख कर कृष्ण चकित कर उसका वध किया (म. व. १२)। हो गया (म. उ. ७२-७४)। कीचकवध-राजा विराट का साला कीचक, द्रौपदी भारतीय युद्ध-जिस युद्ध को टालने के लिए लाखों पर मोहित होकर उस पर बलात्कार का प्रयत्न करने लगा। प्रयत्न किये गये वह भारतीय युद्ध शुरू हुआ, जिसमें । दौपदी ने उसी रात को पाकशाला में जा कर भीम को | कौरवों एवं पाण्डवों के साथ अनेकानेक वीर योद्धाओं ने जगाया. तथा कीचक के वध की प्रार्थना की। भीम के | भाग लिया। द्वारा बताये हुए तरीके के अनुसार, द्रौपदी ने कीचक को __प्रथम दिन-प्रथम दिन के युद्धारम्भ में दुर्योधन के । नृत्यागार में बुलाया। वहाँ उसका एवं भीम का | साथ इसका द्वन्द्वयुद्ध हुआ (म. भी. ४३.१७-१८)1 भयंकर युद्ध हुआ, जिसमें इसने उसका वध किया युद्ध प्रारम्भ होते ही, कलिंग देश के राजा भानुमान् , (म. वि. २१.६२)। सुबह कीचक के अनेकानेक निषध देश के राजा केतुमान् तथा श्रुतायु ने भीम पर बन्धुओं ने | आ कर सैरन्ध्री (द्रौपदी) पर यह आरोप लगा | आक्रमण बोल दिया। भीम ने भी चेदि, मत्स्य तथा या कि, उसके कारण ही यह सब कुछ हुआ। अतएव करुष को साथ ले कर उनपर आक्रमण किया। किन्तु उन सब के विरुद्ध कोई ठहर न सका,केवल भीम ही मैदान में उसे पकड़ कर मृत कीचक के साथ जलाने की नियोजना की । वे उसे जलाने ही जा रहे थे, कि भीम डटा रहा। इसने कलिंगों के साथ युद्ध करते हुए भानुविरूप वेशभूषा धारण कर, एक वृक्ष उखाड़ कर उनको कुल के शक्रदेव का वध किया.(म. भी. ५०.२१-२२)। मारने की ओर दौड़ा। उपकीचकों ने इसे इसप्रकार | पश्चात् इसन कालग राजा मानुमान् एव उसक बाद अपनी ओर आता हुआ देखकर समझ गये कि, यह चक्ररक्षक सत्य एवं सत्यदेव का वध किया। इसके बाद सैरन्ध्री का गंधर्वपति आ टपका, अतएव वे अपनी जान इसने निषध देश के राजा केंतुमान् का भी वध किया। छोड़ कर भागने लगे। किन्तु भीम से भग कर कहाँ जाते ? | कालग कलिंग देश की गजसेना को ध्वस्त कर के खून की नदियों इसने एक सौ पाँच उपकीचकों का वध कर द्रौपदी को | बहा दी (म. भी. ५०.७७-८३)। .. बन्धनमुक्त किया। पश्चात् यह एवं द्रौपदी भिन्नभिन्न इतने कुचले जाने पर भी कलिंग ने पुनः तैयारी मार्गों से नगर में वापस आये (म. वि. २२-२७)। कर के, इस पर फिर चढाई कर दी। उस समय शिखंडी, भीम-कृष्ण संवाद-भारतीय युद्ध के पूर्व, पाण्डवों की | धृष्टद्युम्न तथा सात्यकि इसकी सहायता के लिए आगे ओर से कृष्ण कौरवों के दरबार में गया था, एवं निवेदन आये। ऐसी स्थिति देख कर, भीष्म ने कौरवसेना को किया था कि,पांडवों की उचित माँगों को ध्यान में रख कर | व्यवस्थित कर के भीम पर धावा बोल दिया। उस समय उनके प्रति न्याय किया जाये। जाते समय भीम ने कृष्ण | भीम की ओर से सात्यकि ने भीष्म के सारथि को मार से कहा था, सामनीति के द्वारा यदि आपसी सम्बन्ध न डाला, जिस कारण भीष्म के रथ के अश्व इधरउधर टूटे, तो अच्छा है। भगने लगे (म. भी. ५०, ५१.१)। ५६६ Page #589 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भीमसेन प्राचीन चरित्रकोश भीमसेन - चौथा दिन--भारतीय युद्ध के चौथे दिन, शल्य एवं कुंडलिन् , दीर्घलोचन, विराज, दीप्तलोचन, दीर्घबाहु, धृष्टद्युम्न का घमासान युद्ध हुआ, जिसमें उन दोनों की सुबाहु, एवं कनकध्वज (मकरध्वज) (म. भी. ९२.२६)। सहायता करने के लिए उनके दस दस सहायक थे। नौवाँ दिन--युद्ध के नौवें दिन कौरवपक्षीय भगदत्त उन सहायकों में शल्य के पक्ष में दुर्योधन, एवं द्रुपदपुत्र | एवं श्रुतायु राजा ने अपने गजदल की सहायता से भीम धृष्टद्यम्न के पक्ष में भीम प्रमुख था। युद्ध के प्रारम्भ होते | को घेर कर वध करने का प्रयत्न किया। किन्तु भीम ने सारे ही, भीम ने दुर्योधन पर आक्रमण किया, एवं दुर्योधन गजदल के साथ उन्हें परास्त किया (म. भी. ९८)। की समस्त गजसेना का संहार किया। ____ दसवाँ दिन--युद्ध के दसवें दिन, भीम को एक साथ दुर्योधन की आज्ञा से उसकी सारी सेना ने पुनः भीम | ही दस राजाओं के साथ युद्ध करना पड़ा, जिनके नाम इस पर धावा बोल दिया, किन्तु भीम ने उस सारी सेना का प्रकार थे:--भगदत्त, कृप, शल्य, कृतवर्मा, आवंत्य बंधु, संहार किया। कौरवसेना की यह दुरवस्था देखकर जयद्रथ, चित्रसेन, विकर्ण एवं दुर्मर्षण । किन्तु यह इस उनके सेनापति भीष्म ने स्वयं भीम पर आक्रमण किया | युद्ध में अजेय रहा। (म. भी. ५९.२१)। उसी समय सात्यकि ने भीष्म पर उसी समय शिखण्डी को आगे कर, अर्जन भीष्म पर हमला किया, एवं यह सुअवसर देखकर भीम पुनः एक आक्रमण कर रहा था कि, यह दूसरी ओर से हट कर बार दुर्योधन से भिड़ गया। इस युद्ध में दुर्योधन ने एक अर्जुन की सहायता के लिए आ पहुँचा। दोनो ने बाण भीम की छाती में मारकर इसे घायल कर दिया। मिल कर भीष्म पर जोर-शोर के साथ युद्ध करना आरम्भ मूर्छा से उठते ही, भीम ने अद्भुत पराक्रम दिखाकर किया। इस युद्ध में अर्जुन ने अपने भीषण बाणों से भीष्म निम्नलिखित धृतराष्ट्रपुत्रों का वध किया :-- सेनापति, के सारे शरीर को बिंधा दिया (म. भी. १०९.७)। जलसंध, सुषेण, उग्र, वीरबाहु, भीम, भीमरथ एव ग्यारहवाँ दिन--युद्ध के ग्यारहवें दिन, अभिमन्यु ने सुलोचन (म. भी. ५८-६०)।. शल्य के सारथि का वध किया, जिससे क्रोधित हो कर . छठवा दिन-भारतीय युद्ध के छठवे दिन, भीम ने शल्य ने उसे गदायुद्ध के लिए चुनौती दी। किन्तु 'अत्यधिक पराक्रम दिखा कर शत्रुओं का अपने गदा अभिमन्यु को हटा कर भीम स्वयं उससे गदायुद्ध करने • से इस प्रकार विनाश किया, जैसे कोई हसिये से घास लगा। इस युद्ध में भीम ने शल्य को युद्ध में मूञ्छित • काटता है, अथवा कोई डंडे से मिट्टी के ढेले फोड़ता है। किया (म. द्रो. १३)। किन्तु इस युद्ध में यह असंख्य बाणों से घायल होकर | चौदहवाँ दिन-युद्ध के चौदहवें दिन, अर्जुन जयद्रथ इतना बिंध गया, कि द्रुपदपुत्र ने इसे अपने रथ में | का वध करने के लिए गया। किन्तु उसे काफी समय लग उठाकर शिबिर में वापस लाया (म. भी. ७३.३६- जाने के कारण, युधिष्ठिर ने अर्जुन की रक्षा के लिए भीम - ३७)। को भेजा। अर्जुन की सहायता के लिए जब यह आगे माठवा दिन-युद्ध के आठवे दिन, भीष्म अत्यधिक | बढा, तब इसे सत्रह राजाओं ने उस तक पहुँचने में संतप्त हो कर युद्धभूमि में आया, किन्तु रणांगण में प्रवेश | बाधा डाली । इसने उन सभी को परास्त किया, करते ही भीम ने उसके सारथी को मार डाला, जिस जिनके नाम निम्नलिखित थे:-दुःशल, चित्रसेन, कारण भीष्म का रथ इधर उधर भागने लगा। कुंडभेदिन् , विविंशति, दुर्मुख, दुःसह, विकर्ण, शल, विंद, पश्चात्, धृतराष्ट्रपुत्र सुनाम का भीष्म ने वध किया, | अनुविंद, सुमुख, दीर्घबाहु, सुदर्शन, वृंदारक, सुहस्त, जिस कारण संतप्त होकर धृतराष्ट्र के सात पुत्रों ने भीम पर सुषेण, दीर्घलोचन, अभय, रौद्रकर्मन् , सुवर्मन् एवं आक्रमण किया, जिनके नाम इस प्रकार थे:-आदित्यकेतु, बह्वाशी, कुंडधार, महोदर, अपराजित् , पंडितक, आगे चल कर. कौरवसेनापति द्रोण स्वयं इसके मार्ग में एवं विशालाक्ष । किंतु भीम ने इन धृतराष्ट्रपुत्रों का वध | बाधक बन कर उपस्थित हुआ। इसका एवं द्रोण का उग्र किया (म. भी. ८४.१४-२८)। | वादविवाद हुआ, एवं बाद को द्रोण से चिढ़ कर इसने इसी दिन संध्या के समय भीम ने निम्नलिखित धृतराष्ट्र- | उनका रथ भग्न किया। आगे चल कर, इसने दुःशासन पुत्रों का वध किया:-अनाधृष्टि, कुंडभेदिन, वैराट, | को पराजित किया, एवं कुंडभेदी, अभय एवं रौद्रकर्मन् ५६७ Page #590 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भीमसेन प्राचीन चरित्रकोश भीमसेन आदि राजाओं को पुनः एक बार परास्त कर, यह आगे | रौद्र पराक्रम-उसी दिन हुए रात्रि युद्ध के समय, बढ़ा। अपने पिता की मौत का बदला लेने के लिए, भानुपश्चात्, द्रोण फिर एक बार इसके मार्ग का बाधक मान् कलिंग के पुत्र ने भीम पर आक्रमण किया, जिसका हुआ। फिर भीम ने उसके एक के पीछे एक कर के आठ | इसने एक घूसे का प्रहार मार कर वध किया। बाद रथों को ध्वस्त कर, द्रोण को युद्ध में परास्त किया। | को इसने कौरवपक्षीय ध्रुव राजा एवं जयरात के रथों पर इस प्रकार, यह अर्जुन तक पहुँच गया, एवं शंखनाद के कूद कर, उन्हें अपने घूसे एवं थप्पड़ों से मार कर, काम द्वारा अर्जुन तक कुशलपूर्वक पहुँचने की सूचना इसने तमाम किया। इसी प्रकार दुष्कर्षण को भी रौंद कर उसका युधिष्ठिर को दी। वध किया (म. द्रो. १३०)। पश्चात् इसका बाह्रीक राजा से युद्ध हुआ, जिस ___ कर्ण से युद्ध-इसे अर्जुन के समीप आता हुआ देख में इसने उसके पुत्र को मूछित किया । बालीक ने स्वयं कर, कर्ण ने इस पर आक्रमण किया। फिर भीम ने कर्ण भीम को भी मूञ्छित किया । मूर्छा हटते ही, इसने फिर के रथ के अश्वों को मार कर, उसे रथविहीन कर दिया, | कौरवसेना का संहार शुरू कर दिया, तथा दृढरथ, नागदत्त, जिस कारण कर्ण वृषसेन के रथ में बैठ कर वापस चला विरजा एवं सुहस्त नामक योद्धाओं का वध किया (म. द्रो. गया । इसी युद्ध में भीम ने दुःशल का वध किया (म. १३२)। इसी संहार में इसने दुर्योवन एवं कर्ण को पुनः द्रो. १०४)। एक बार पराजित किया, जिसमें कर्ण के रथ, धनुषादि . अपने नये रथ में बैठ कर कर्ण युद्धभूमि में प्रविष्ट हुआ, | को कुचल दिया । कर्ण ने भी इसका रथ भग्न कर दिया, एवं भीम को पुनः युद्ध के लिए आवाहन किया । भीम ने | जिसके कारण इसे नकुल के रथ का सहारा लेना पड़ा आवाहन स्वीकार कर, उसे दो बार मूच्छित एवं रथविहीन (म. द्रो. १६१)। कर के, युद्धभूमि से भग जाने के लिए विवश किया । इस इसी दिन कौरव सेनापति द्रोण ने द्रुपद एवं विराट युद्ध में भीम ने दुर्मुख का वध किया (म. द्रो. १०९. राजा का वध किया, जिसका बदला लेने के लिए द्रुपद२०)। पुत्र धृष्टद्युम्न को साथ ले कर भीम ने द्रोण पर हमला ___ कर्ण को परास्त होता देख कर, दुर्मर्षण, दुःसह, दुर्मद, कर दिया। किन्तु उसका कुछ फायदा न हुआ। द्रोण के .. दुर्धर तथा जय नामक योद्धाओं ने भीम पर आक्रमण | द्वारा दिखाई गई वीरता, एवं उसके परिणाम से सभी किया। किन्तु भीम ने उन सबका वध किया। फिर पाण्डवों के पक्ष के लोग भयभीत एवं त्रस्त हो उठे। दुर्योधन ने अपने भाइयों में से शत्रुजय, शत्रुसह, चित्र, पंद्रहवाँ दिन--पंद्रहवें दिन, कृष्ण ने.पाण्डवों के बीच चित्रायुध. दृष्ट, चित्रसेन एवं विकर्ण को कर्ण की सहायता बैठ कर, द्रोणाचार्य के मारने की योजना को समझाते हुए के लिए भेजा। किन्तु भीम के द्वारा ये सभी लोग मारे गये। कहा, 'द्रोणाचार्य को खुले मैदान में जीतना असम्भव इन सभी दुर्योधन के भाइयों में भीम विकर्ण को अत्यधिक है, उसे किसी चालाकी के साथ ही, जीता जा सकता है। चाहता था। इसलिए उसकी मृत्यु पर भीम को काफ़ी दुःख मेरा यह प्रस्ताव है कि, उसे विश्वास दिला दिया जाये कि, हुआ। इसी युद्ध में भीम ने चित्रवर्मा, चित्राक्ष एवं उसका पुत्र अश्वत्थामा मर गया है। इसका परिणाम यह शरासन का भी वध किया (म. द्रो. ११०-११२)। होगा कि, वह पुत्रशोक में विद्धल हो कर अस्त्र नीचे रख इसके उपरांत भीम एवं कर्ण का पुनः एकबार युद्ध देगा। फिर उसे मारना कठिन नहीं ।' कृष्ण की सलाह के हुआ, जिसमें कर्ण को फिर एकबार हारना पड़ा। इस अनुसार, भीम ने अपनी सेना में से किसी इंद्रवर्मा नामक प्रकार कई बार भीम से हार खाने के उपरांत, कर्ण ने योद्धा के अश्वत्थामा नामक हाथी को गदाप्रहार से मार भीम से युद्ध करने का हठ छोड़ दिया (म. द्रो. दिया । पश्चात् यह द्रोण के रथ के पास जा कर चिल्लाने ११४) । इसी युद्ध में कर्ण ने एक बार इसे, 'अत्यधिक | लगा, 'अश्वत्थामा मर गया। भोजन भक्षण करनेवाला रसोइया' कह कर चिढ़ाया, द्रोणवध यह बात सुनते ही, पुत्रशोक से विह्वल द्रोण जिससे चिढ़ कर इसने अर्जुन से अनुरोध किया कि, कर्ण को ने अपने शस्त्रादि नीचे रख दिये, एवं इस प्रकार असहाय शीघ्रातिशीघ्र मार कर वह कर्णवध की अपनी प्रतिज्ञा स्थित में द्रोण को देख कर, द्रुपदपुत्र धृष्टद्युम्न ने क्रूरता के पूरी करें (म. द्रो. ११४)। | साथ उसका वध किया (म. द्रो.१६४)। अपने गुरु की इस ५६८ Page #591 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भीमसेन प्राचीन चरित्रकोश भीमसेन प्रकार धुणित हत्या को देख कर, अर्जुन शोकाकुल हो उठा, से विमुख हो कर भाग जाने ही वाला था, कि दुर्योधन ने एवं उसे युद्ध के प्रति ऐसी विरक्ति उत्पन्न हो गयी, जैसे | अपने भाइयों को युद्ध के लिए उत्तेजित करते हुए, भीम उसे युद्ध के प्रारम्भ में हुयी थी। अर्जुन ने कहा, 'जिस | के विरुद्ध लड़ने के लिए प्रोत्साहित किया । उन सब के युद्ध में इस प्रकार की अधार्मिक कार्यप्रणालियों का प्रयोग | साथ भीम का घोर युद्ध हुआ, जिसमें इसने विवित्सु, विकट, करना पड़ता है, वह युद्ध मैं नहीं करूँगा'। इस पर भीम | सह, क्रोथ, नंद तथा उपनंद आदि धृतराष्ट्रपुत्रों का वध ने अर्जुन की बड़ी कटु आलोचना करते हुए कहा, 'गुरु | कर, श्रुता, दुर्धर, सम निषंगी, कवची, पाशी, दुष्प, द्रोणाचार्य ब्राह्मण थे, और फिर भी क्षत्रियों की भाँति युद्ध- | धर्ष, सुबाहु, वातवेग, सुवर्चस्, धनुग्रह, तथा शल आदि भूमि में उतरे। इससे बड़ा अधर्म क्या हो सकता है ? | को युद्ध में परास्त किया। रही बात कि, तुम युद्धभूमि को छोड़ कर जा रहे हो, तो | ___ तब तक कर्ण पुनः तैयार हो कर युद्धभूमि में आ पहुँचा। जा सकते हो । तुम्हे घमण्ड है अपने शस्त्रशक्ति की, पर लेकिन भीम ने उसे एक ही बार में वेध दिया। इससे कर्ण तुम.नहीं जानते कि, अकेला भीम कौरवसेना के संहार क्रोध में पागल हो उठा, और उसने भीम का ध्वज अपने करने में समर्थ है ' (म. द्रो. १६८)। बाण से उखाड़ कर, इसके सारथी को काट कर इसे रथ__अपने पिता के शोक में संतप्त अश्वत्थामा ने क्रोधामि | विहीन कर दिया (म.क. ३५)। कर्ण के बाणों से बिंध में उबल कर भीम के ऊपर 'नारायण अस्त्र' का प्रयोग किया, कर युधिष्ठिर बिल्कुल त्रस्त हो गया। भीम को, जैसे ही यह जिससे त्रस्त हो कर भीम तथा इसकी सेना शस्त्रादि पता चला, वैसे ही इसने अर्जुन को उसके समाचार जानने छोड़ कर हतबुद्धि हो कर भगने लगी। अश्वत्थामा के | के लिए भेज दिया ( म.क. ४५ )। नारायण अस्त्र को समेट लेने के लिए, अर्जुन ने वारुणि अस्त्र का प्रयोग कर, अश्वत्थामा को रथ के नीचे खींच कर कुछ समय के उपरांत, भीम दत्तचित्त हो कर दुर्योधन की उसे शस्त्रविहीन कर दिया। नारायण अस्त्र के शमन के सेना के संहार करने में जुट गया। दुर्योधन की आज्ञा से उपरांत, भीम पुनः ससैन्य आया । किन्तु अश्वत्थामा के शकुनि ने भीम पर आक्रमण किया, किन्तु इसने उसे द्वारा इसका सारथी घायल हुआ, जिससे इसे युद्धभूमि से | भूमि पर गिरा दिया, और वह बाद में दुर्योधन के रथ हटना पड़ा (म. द्रो. १७०-१७१)। के द्वारा बाहर लाया गया (म. क. ४५)। सोलहवाँ दिन--युद्ध के सोलहवें दिन कर्णार्जनों के | दुःशासनवध-शकुनि को परास्त हुआ देख कर द्वारा व्यूहरचना होने के उपरांत भीम तथा क्षेमधर्ति का | दुःशासन आगे आया, एवं भीम पर आक्रमण बोल दिया। हाथी पर से युद्ध हुआ। भीम ने क्षेमधर्ति को पराजित | उसे देखते ही भीम ने उसके सारथी एवं घोड़े मार डाले. कर. हाथी मार कर उसे नीचे उतरने के लिए मजबूर | एवं उसे जमीन पर गिरा कर, स्वयं रथ से उतर कर, उसके किया, एवं बाद में उसका वध किया (म. क. ८)। कुछ | हाथ को तोड़ डाला । पश्चात् उसकी छाती फोड़ कर, देर के उपरांत, अश्वत्थामा एवं भीम के बीच में घोर संग्राम इसने उसके रक्त का प्राशन किया, तथा उसके रक्त के हुआ, जिसमें दोनों एक दूसरे के शरों से घायल हो कर | सने हाथों से द्रौपदी की वह वेणी गूंथी, जो दुःशासन मूञ्छित हुए, तथा अपने अपने सारथियों के द्वारा युद्ध द्वारा मुक्त की गयी थी (पद्म. उ. १४९)। इस प्रकार भूमि से हटाये गये (म. क. ११)। भीम ने दुःशासन को मार कर अपना प्रण पूरा किया। सत्रहवाँ दिन-सत्रहवें दिन दुर्योधन ने जब देखा कि, | इसी समय इसने अलंबु, कवची, खड्गिन् , दण्डधार, उसकी समस्त सेना बुरी तरह ध्वस्त होती जा रही है. निषंधी, वातवेग, सुवर्चस् पाशी, धनुग्रह अलोलुप, शल, तब उसने अपना सेना का सुसंगठन कर के, भीम को | संध (सत्यसंध) आदि धृतराष्ट्रपुत्रों का वध किया (म. समाप्त करने के लिए, स्वयं युद्धभूमि में उतर कर उस पर क. ६१-६२)। धावा बोल दिया। किन्तु भीम ने उसको पराजित कर | अठारहवाँ दिन--अठारहवें दिन के युद्ध में कृतवर्मा ने उसकी समस्त गजसेना को पराजित किया (म. क. परि. | भीम के घोड़े को मार डाला, तथा भीम द्वारा नये घोड़ो के १. क्र. १४-१५)। प्रयोग किये जाने पर, अश्वत्थामा ने उन्हें भी मार डाला। ___ कर्ण से युद्ध-कुछ देर के बाद कर्ण तथा भीम का | भीम ने यह देख कर कृतवर्मा का रथ विध्वंस कर, शल्य युद्ध हुआ। कर्ण भीम से लड़ाई में परास्त हो कर युद्धभूमि से युद्ध कर, उसके सारथी को मार डाला। यह देखकर, प्रा. च. ७२] Page #592 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भीमसेन प्राचीन चरित्रकोश भीमसेन वह इससे गदायुद्ध करने लगा, जिसमें इसने उसे मूछित ले आओ, तभी मुझे शांति मिलेगी। यह अश्वत्थामा कर पराजित किया (म. श. १२)। से युद्ध करने के लिए चल पड़ा, तथा साथ में अर्जुन भी - इसने इक्कीस हज़ार पैदल सेना एवं न जाने कितना इसकी रक्षार्थ गया। भीम ने अश्वत्थामा के साथ घोर गजसेना का विनाश किया। इससे लड़ने के लिए निम्न- | युद्ध किया, जिसमें वह इसकी शरण में आया तथा अपनी लिखित धृतराष्ट्रपुत्र आये । किन्तु इसने सब का वध कियाः- मणि निकाल कर दे दी (म. सौ. ११-१६)। दुर्मर्षण, श्रुतान्त (चित्राङ्ग) जैत्र, भूरिबल ( भीमबल), धृतराष्ट्रविद्वेष--भारतीय युद्ध के उपरांत, सभी लोग रवि, जयत्सेन, सुजात, दुर्विषह (दुर्विषाह), दुर्विमोचन, | हस्तिनापुर पहुंचे। वहाँ आपस के वैमनस्य को भूल कर दुष्प्रधर्ष (दुष्पधर्षण), श्रुतवान् (म. श. २५.४-१९)। एकता के साथ रहने की बात धृतराष्ट्र ने रक्खी, तथा इसके बाद धृतराष्ट्रपुत्र सुदर्शन का भी इसने वध किया | पाण्डवों के साथ आलिंगन कर गले मिलने की अभिलाषा (म. श. २६)। प्रकट की । युधिष्ठिर से गले मिलने के बाद, जैसे उसने भीम दुर्योधनवध--दुर्योधन को 'जलस्तंभन विद्या' आती | को बुलाया, वैसे ही उसकी मुखमुद्रा भाप कर, कृष्ण ने भीम थी, अतएव वह जलाशय के अन्दर, पानी में छिपकर बैठ को हटा कर अन्धे धृतराष्ट्र के आगे भीम के कद की गया। पाण्डवों को इसका पता चला, एवं वे जलाशय के लाहप्रतिमाला खड़ी की । धृतराष्ट्र भीम का नाम सुनते ही निकट आकर उसे युद्ध के लिए आह्वान करने लगे। खौल उठता था । अतएव उस लौहप्रतिमा को भीम समझ . युधिष्ठिर ने सहजभाव से कहा, 'हम सब से एक साथ तुम कर इतनी जोर से आलिंगन किया कि, मुर्ति चूर चूर .. युद्ध न करो। हम पाँचो में जिससे चाहो युद्ध कर सकते होकर ध्वस्त हो गयी। बाद को जब उसे पता चला कि, हो, और उस युद्ध में यदि तुम उसे हरा दोगे, तो हम पूरा | वह मूति थी, तो मन में बड़ा लज्जित हुआ। यह देख . राज्य तुम्हे दे देंगे'। यह सुन कर कृष्ण आगे आया, और कर कृष्ण ने धृतराष्ट्र को बहुत बुराभला कहा (म. स्त्री .. भीम को आगे करते हए कहा, 'किसी और को नहीं. १२-१३)। भीम को ही जीत लो। समस्त राज्य तुम्हारा है। इस भीम गांधारी से भी मिलने गया, एवं उसे अपनी प्रकार दुर्योधन को भीम से भिड़ा दिया गया । कारण, | सफाई देते हुए क्षमा माँगी, जिससे सुन कर गांधारी शान्त. कृष्ण जानता था कि, दुर्योधन गदायुद्ध में प्रवीण है। उसका | हुई (म. स्त्री. १४)। जवाब केवल भीम ही है, और कोई नहीं। ___ युवराजपद--धर्मराज युधिष्ठिर को संबोधित करते हुए इस प्रकार दुर्योधन एवं भीम की लढाई टक्कर के | भीम ने संन्यास का विरोध किया, एवं कर्तव्यपालन पर साथ होने लगी। अर्जुन ने कृष्ण की सलाह से अपनी जोर देते हुए कहा कि, वह दुःखों की स्मृति एवं मोह को बायी जाँघ टोंक कर भीम को संकेत दिया कि, इसने क्या | त्याग कर, मन को काबू में रख कर राज्यशासन करे.एवं पण किया था। अपनी प्रतिज्ञा का ध्यान आते ही. भीम | पाप के नाश के लिए अश्वमेध यज्ञ कर धर्म की स्थापना ने भीषण गदाप्रहार से दुर्योधन की जाँघ तोड़ दी एवं उसे करे । धर्मराज ने भीम की सलाह मान कर इसे युवराज नीचे गिरा दिया। इसने दुर्योधन का तिरस्कार करते हुए | के रूप में अभिषेक किया (म. शां. ४१.८)। एक लात कस कर उसके मस्तक पर ऐसी मारी कि, बाद में सारे पाण्डवो धृतराष्ट्र से प्रेम व्यवहार रखने तत्काल उसकी मृत्यु हो गयी (म. श. ५८.१२)। लगे, किन्तु भीमं धृतराष्ट्र को फूटी आँखो न देख सकता बलराम क्रोधित हो कर भीम पर आक्रमण करने के लिए था। जब धृतराष्ट्र ने वन जाने के लिए इच्छा प्रकट की. दौड़ा, तथा कहा 'यह अधर्म युद्ध है। किन्तु, कृष्ण ने | एवं राजकोष से धन की माँग की, तब भीम ने उसका उसे तत्काल समझा कर रोक लिया (म. श. ५९.२०- | विरोध किया। तब युधिष्ठिर तथा अर्जुनादि ने अपने २१)। कोषों से उसे द्रव्य दिया (म. आश्र. १७)। अश्वत्थामावध-द्रौपदी शोक में संतप्त युधिष्ठिर से | भीमजलाकी एकादशी-एक बार व्यास ने इसे कहने लगी कि, वह अश्वत्थामा की मृत्यु का समाचार | निर्जला एकादशी के माहात्म्य को बताया । उसे सुनाना चाहती हैं, जिसने उसके पुत्रों का वध किया है । | करने को यह तैयार तो हुआ, किन्तु भोजनभक्त युधिष्ठिर उसको समझाने लगा। तब वह भीम के पास | होने के कारण, यह सोच में पड़ा गया कि, मुझे आयी तथा कहा 'अश्वत्थामा को मार कर उसका गणि | इस व्रत को हर माह पड़ेगा। किन्तु जब इसे ५७० वह अश्वत्थामा की मृत्यु काला करने को यह तयार में पड़ा गया कि, मुझे Page #593 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भीमसेन पता चला कि बिना किसी भोजन तथा जलग्रहण किये हुए केवल एक बार इस व्रत को कर लेने से, सब एका दशियों का फल प्राप्त होता है, तो यह तत्काल तैयार हो गया । तत्र से ज्येष्ठ माह की शुद्ध एकादशी व्रत को ' भी नजला की एकादशी', एवं उसके दुसरे दिन को 'पाण्डव द्वादशी' कहते हैं (पद्म. उ. ५१ ) । प्राचीन चरित्रकोश - गर्वपरिहार – स्कंदपुराण में भीम के अहंकारनाश की एक कथा दी गई है। एकबार युद्ध समाप्ति के उपरांत, सभी पाण्डवों के साथ कृष्ण उपस्थित था। बातचीत के बीच सब ने युद्धविजय का श्रेय कृष्ण को देना आरम्भ किया, जिसे सुनकर भीम अहंकार के साथ कहने लगा, 'यह मैं हूँ, जिसने अपने बल से कौरवों का नाश किया है 1 श्रेया अधिकारी मै हुँ' । तब गरूड़ पर बैठकर कृष्ण भीम को अपने साथ लेकर आकाशमार्ग से दक्षिण दिशा की ओर उड़ा समुद्र तथा सुवेल पर्वत लाँघकर लंका के पास बारह योजन व्यास के सरोवर को दिखाकर, कृष्ण ने भीम से कहा कि, यह . उसके तल का पता लगा कर आये । चार कोस जाने पर भी भीम को उसके तल का पता न चला। वहाँ के तमाम योद्धाओं उसके ऊपर आक्रमण करने लगे तब वह हाँफता हुआ ऊपर भाया एवं अपनी असमर्थता बताते 'हुए सारा वृत्तांत कह सुनाया । कृष्ण ने अपने अँगूठे के झटके से उस सरोवर को फेंक दिया, एवं इससे कहा, 'यह राम द्वारा मारे गये कुंभकर्ण की खोपडी है, तथा तुम पर आक्रमण करने वाले योद्धा, सरोगेव नामक असुर है। यह चमकार देखकर नीम का अहंकार शमित हुआ, एवं समित होकर इसने कृष्ण से माफी माँगी ( स्कंद. १.२.६६ ) । भीषण मृत्यु के समय इसकी आयु एक सौ सात साल की थी ( युधिष्ठिर देखिये) । परिवार - भीम की कुल तीन पत्नियाँ थी हिडिया, द्रौपदी एवं काशिराज की कन्या बलधरा । उनमें से द्रौपदी से इसे सुतसोम नामक पुत्र हुआ (म. आ. ५७.९१ ) । हिडिंबा से इसे घटोत्कच नामक पुत्र हुआ। भागवत में द्रौपदी से उत्पन्न इसके पुत्र का नाम श्रुतसेन दिया गया है । - मृत्यु काफी वर्षों तक राज्यभोग करने के उपरांत, अनि के कथनानुसार पाण्डवों ने शस्त्रसंन्यास एवं राज्यसंन्यास लिया, एवं वे उत्तर दिशा की ओर मेरु पर्वत पर की ओर अग्रसर हुए। मेरु पर्वत पर जाते समय युधिष्ठिर को छोड़ कर द्रौपदी सहित सारे पाण्डव इस क्रम से गल गये द्रीपट्टी, सहदेव, नकुल अर्जुन एवं भीम स्वर्गारोहण के पूर्व ही अपना पतन देखते हुए, । इसने युधिष्ठिर से उसका कारण पूछा। युधिष्ठिर ने कारण बताते हुए कहा, 'तुम अपने को बाली तथा दूसरे के तुच्छ मानते थे, तथा अत्यधिक भोजनप्रिय थे । इसी लिए तुम्हारा पतन हो रहा है ' ( म. महा. २ ) । काशिराज कन्या बलधरा को स्वयंवर में जीत कर प्राप्त किया था । उससे इसे शर्वत्रात नामक पुत्र उत्पन्न हुआ था ( म. आ. ९०.८४ ) । भागवत में इसकी तीसरी पत्नी का नाम 'काली' दिया गया है, एवं उससे उत्पन्न पुत्र का नाम ' सर्वगत ' बताया गया है ( काली देखिये; भा. ९.२२.२७-३१) | महाभारत के अनुसार, इसकी पत्नी काळी वेदि देश के सुविख्यात राजा शिशुपाल की बहन थी, जो भीम का कट्टर शत्रु था (म. आश्र. २२.११ ) । भीमसेन पारिक्षित - सुविख्यात पूरुवंशीय सम्राट परिक्षित का पुत्र, जो जनमेजय पारिक्षित का बन्धु था (श. बा. १३.५.४.३ ) । शौनक नामक आचार्य ने इससे एक यश करवाया था (सो. श्री. १६.९.२ विष्णु. ४.२०१६ म. आ. २.१) । कुरुक्षेत्र में किये यज्ञ में इसने देवताओं की कुत्तियाँ सरमा के बेटे को पीटा था। २. (सो. पूरु. ) एक पूरुवंशीय राजा, जो परिक्षित् (द्वितीय) का पुत्र था। इसकी माता का नाम अरुग्वत् पुत्र सुयशा था । इसकी पत्नी का नाम सुकुमारी था, जो केकय देश की राजकुमारी थी। मुकुमारी से इसे पर्याय नामक । पर्यश्रवस् पुत्र उत्पन्न हुआ (म. आ. ९०-४५ ) । भीरु -- मणिभद्र नामक दक्ष के पुत्रों में से एक । इसकी माता का नाम पुण्यजनी था । भीषण - एकचक्रा नगरी में रहनेवाले बक नामक असुर का पुत्र । इसके पिता का वध भीससेन के द्वारा हुआ ( क देखिये) । अपने पितृबंध के कारण, यह । मन ही मन जलता रहा, जिसके कारण आगे चल कर, इसने पांडवों का अश्रमेधीय अश्व एकचका नगरी के समीप पकड़ लिया। पश्चात् अर्जुन ने इसके साथ घोर युद्ध कर इसका वध किया ( अ. २२) | । २. एक असुर, जिसे हनुमान् ने परास्त किया था (पद्म उ. २०६ ) । २. (सो. विदूरथ. ) एक राजा, हृदिक राजा का पुत्र था । ५७१ जो मत्स्य के अनुसार Page #594 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भीष्म प्राचीन चरित्रकोश भीष्म भीष्म-(सो. कुरु.) सुविख्यात राजनीति एवं रणनीति हो कर ही मुझे मृत्यु प्राप्त करनी है । अतएव, मुझे युद्ध शास्त्रज्ञ जो कुरु राजा शन्तनु के द्वारा गंगा नदी के गर्भ से | में हरा कर, तुम विजय प्राप्त करो'। उत्पन्न हुआ था । अष्टवसुओं में से आठवें वसु के अंश से योग्यता-भीष्म सर्वशास्त्रवेत्ता, परम ज्ञानी एवं यह उत्पन्न हुआ था (म. आ. ९०.५०)। इसका मूल नाम तत्त्वज्ञान का महापंडित था। यह किसी की समस्या'देवव्रत' था। गंगा का पुत्र होने के कारण, इसे 'गांगेय' | ओं की तत्काल सुलझा देनेवाला, संशय का शमन 'जाह्नवीपुत्र, ''भागीरथीपुत्र' आदि नामांतर भी प्राप्त करनेवाला, तथा जिज्ञासुओं की शंकासमाधान करनेवाला थे। 'भीष्म' का शाब्दिक अर्थ 'भयंकर' है। इसने अपने सात्विक विचारधारा का उदार महापुरुष था। यह पिता शन्तनु के सुख के लिए आजन्म अविवाहित रहने | रणविद्या, राजनीति, अर्थशास्त्र, एवं अध्यात्मज्ञान के एवं राज्यत्याग करने की भयंकर प्रतिज्ञा की थी। इसीसे | साथ धर्म, नीति, एवं दर्शन का परमवेत्ता था। इसे 'भीष्म ' कहा गया। गंगा ने वसिष्ठद्वारा, इसे समस्त वेदों में पारंगत ध्येयवादी व्यक्तित्त्व-एक अत्यधिक पराक्रमी एवं कराया था। बृहस्पति तथा शुक्राचार्य के द्वारा इसने ध्येयनिष्ठ राजर्षि के रूप में भीष्म का चरित्रचित्रण श्री अस्त्रशस्त्र का ज्ञान प्राप्त किया था। परशुराम से अन्य व्यास के द्वारा महाभारत में किया गया है। परशुराम आस्त्र शास्त्रो के साथ धनुर्वेद, राजधर्म तथा अर्थशास्त्र जामदग्न्य के समान युद्धविशारदों को युद्ध में परास्त करने मी सीखा था (म. आ. ९४.३१-३६)। इसके । वाला भीष्म महाभारतकालीन सर्वश्रेष्ठ पराक्रमी क्षत्रिय | अतिरिक्त च्यवन भार्गव से साङ्गवेद, वसिष्ठ से महाबुद्धि... माना जा सकता है। पितामहसुत से अध्यात्म, एवं मार्कण्डेय से यतिधर्म का अपने इस पराक्रम के बल पर कुरुकुल का संरक्षण | ज्ञान प्राप्त किया था। शुक्र तथा बृहापति का तो यह ' करना, एवं उस कुल की प्रतिष्ठा को बढाना, यही ध्येय साक्षात् शिष्य ही था। यह किसी के मारने से न मरने. . भीष्म के सामने आमरण रहा। कुरुवंशीय राजा शंतनु वाला 'इच्छामरणी' था, अर्थात जब यह चाहे तभी . से ले कर चित्रांगद, विचित्रवीर्य, पाण्डु, धृतराष्ट्र तथा | इसकी मृत्यु सम्भव थी (म. शां. ३८.५-१६, ४६. दुर्योधन तक कौरववंश की 'संरक्षक देवता के रूप में | १५-२३)। यह प्रयत्नशील रहा। | जन्म-ब्रह्मा के शाप के कारण, गंगा नदी को पूरुअपने इस ध्येय की पूर्ति के लिये, अपनी तरुणाई वंशीय राजा शंतनु की पत्नी बनना पड़ा। वसिष्ठ के में सभी विलासादि से यह दूर रहा, एवं वृद्धावस्था में मोक्ष- शाप तथा इंद्र की आज्ञा से अष्टवसुओं ने गंगा के उदर में प्राप्ति के प्रति कभी उत्सुक न रहा। यह चाहता था | जन्म लिया। उनमें से सात पुत्रों को गंगा ने नदी में डबो केवल कुरुवंश का कल्याण एवं प्रतिष्ठा, जिसके लिए यह दिया । आठवाँ पुत्र 'द्यु' नामक वसु का अंश था, जिसको सदैव प्रयत्नशील रहा। | डुबाते समय शंतनु ने गंगा से विरोध किया। यही पुत्र भीष्म का दैवदुर्विलास यही था कि, जिस कुरुवंश की | भीष्म है, जिसे साथ ले कर गंगा अन्तर्धान हो गयी । इस महत्ता के लिए यह आमरण तरसता रहा, उसी कुरुकुल आठवें पुत्र को वसुओं द्वारा यह शाप दिया गया था कि, का संपूर्ण विनाश इसके आँखों के सामने हुआ, एवं | यह निःसंतान ही होगा।' इसके सारे प्रयत्न विफल साबित हुए। चित्रांगद, विचित्र- अपने पुत्र भीष्म को गंगा को दे देने के उपरांत, वीर्य, पाण्डु, धृतराष्ट्र जैसे अल्पायु, कमजोर एवं शारिरीक करीब छत्तीस वर्षों के उपरांत शंतनु मृगया खेलने गया । व्याधीउपाधियों से पीडित राजाओं के राज्य को अपने हिरन के पीछे दौड़ता हुआ गंगा नदी के पास आ कर मजबूत कंधों पर सँभलनेवाला भीष्म, भारतीययुद्ध के काल उसने देखा कि, यकायक उसका पानी कम हो गया। शंतनु में कुरुवंश को आपसी दुही से न बचाया सका। को आश्चर्य की सीमा न रही। जब उन्होंने देखा कि, इसी कारण, भारतीय युद्ध के दसवें दिन, इसने | एक सुन्दर बालक ने अपने अचूक शरसंधान के द्वारा अत्यंत शोकाकुल हो कर अर्जुन से कहा, 'मुझे युद्ध में | गंगा का प्रवाह रोक रक्खा है। इस प्रकार बालक की परास्त कर मेरा पराजय करने की ताकद दुनिया में किसी | अस्त्रविद्या को देख कर, वह चकित हो गया (म. आ.. को भी नही है । किंतु मेरा दुर्भाग्य यही है कि, पराजित | ९४.२२-२५)। ५७२ Page #595 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भीष्म प्राचीन चरित्रकोश भीष्म यह बालक और न हो कर, शंतनुपुत्र भीष्म ही था। सत्यवती की मोहकता ने शंतनु के हृदय में इतना किन्तु इतने दिनों के बाद देखने के कारण, वह उसे पहचान | घर कर लिया कि, वह दिन पर दिन चिन्ता में जलने लगा। न सका । जैसे ही शंतनु ने इसे देखा, वह तत्काल ही दृष्टि | भीष्म ने पिता की उदासीनता का कारण कई बार पूँछा, से ओझिंल हो गया । उसके मन में शंका हुयी, कहीं यह | किन्तु उसने इसे लज्जावश न बताया। आखिर एक दिन मेरा तो पुत्र नहीं ? यह बात मन में आते ही उसने गंगा | भीष्म को पता चल ही गया । पितृसुख के लिए स्वार्थत्याग को सम्बोधित कर पुत्र को पुनः दिखाने के लिए आग्रह | करने का निश्चय कर, यह उस धीवर के पास जा पहुँचा । किया। तब स्त्रीरूपधारणी गंगा, शुभ्र परिधानों तथा | वहाँ इसने धीवर से अपने पिता के लिए सत्यवती को बहुमूल्य अलंकारों को धारण किए हुए उपस्थित हुयीं। माँगा, किंतु उसने अबकी बार भी वही शर्त सामने रखी। अन्त में गंगा ने सपूंर्ण पूर्वकथन कहते हुए, अपने पुत्र | तब भीष्म ने आजन्म ब्रह्मचारी रह कर राज्यलोभ छोड़ कर, भीष्म को अपनी गोद से उतार कर, राजा शंतनु को दिया | सदैव सत्यवती के पुत्रों की रक्षा करते हुए, उसके द्वारा (.म. आ. ९४.३१)। हुए ज्येष्ठ पुत्र को ही राज्याधिकारी बनाने की प्रतिज्ञा की जिस समय गंगा ने भीष्म को दिया, उस समय उसका (म.आ. ९४.७९)। इसकी इस भयंकर प्रतिज्ञा सुन कर देवताओ ने पुष्पवर्षा करना आरम्भ किया, एवं इसे मातृहृदय शोक से विह्वल था, क्योंकि, जिस पुत्र का पालन पोषण किया, शिक्षादि दी, वही पुत्र आज उससे 'भीष्म' नाम दिया (म. आ. ९४.९३)। दूर जा रहा था। अंत में गंगा उस पुत्र को दे कर | शंतनु की मृत्यु-भीष्म सत्यवती को ले आया, जिसे अंतर्धान हो गयीं। | देखते ही पिता ने इसे आनंदित हो कर आशीर्वाद दिया, 'तुम 'इच्छामरणी' होगे' (म. आ. ९४.९४)। दृस्तिनापुर में-शंतनु ने गांगेय (भीष्म) को अपनी बाद में सत्यवती के चित्रांगद तथा विचित्रवीर्य नाम राजधानी हस्तिनापुर लाया, तथा शुभ मुहूर्त पर उसका युव- | के दो पुत्र हुए । उनमें से चित्रांगद को गद्दी पर बैठा कर राज्याभिषेक किया (म. आ. ९४.३८)। इस प्रकार भीष्म स्वयं राज्यभार ले कर राजकाज चलाता रहा। 'राज्यसूत्र को अपने हाथों में ले कर, यह अपने पिता की उग्रायुधवध-शन्तनु की मृत्यु के उपरांत, उसकी राज्यव्यवस्था की देखरेख करने लगा। इसकी योग्यता । मान्यता नवयौवना पत्नी सलवती को प्राप्त करने के लिए पड़ोस के एवं व्यवहार से समस्त प्रजा एवं अन्यजन प्रसन्न थे। राजा उग्रायुध ने भीष्म के पास सन्देश भेजा कि, यह भीष्मप्रतिज्ञा--गंगा के विरह में पीड़ित शंतनु को अपनी सौतीली माँ सत्यवती को उसके यहाँ भेज दे। कुछ भी न सूझता था। एक दिन जब वह मृगया के लिए किन्तु अपने पिता के शोक में विह्वल भीष्म ने इसका गया था, तो उसे पास ही कहीं किसी सुगन्ध का ज्ञान कोई उत्तर न दिया। इस पर क्रोधित होकर उग्रायुध ने हुआ। उस सुगन्ध को ढूंढ़ते ढूंढते, वह एक धीवरकन्या भीष्म पर चढाई करने के लिए सेनापति को आज्ञा दी। सत्यवती के पास आ खड़ा हुआ, जिसके शरीर से वह लोगों ने समझाया भी कि, भीष्म इस समय अशौच में है। मादक सुगन्ध चारों ओर फैल कर, वातावरण को भर रही अतएव इस समय उसे छेड़ना उचित नहीं । किन्तु थी। शंतनु उसकी उठती युवावस्था एवं कौमार्य को उग्रायुध ने भीष्म पर हमला कर दिया। युद्ध तीन दिन देख कर लुब्ध हो उठा, एवं धीवर से उसे प्राप्त करने की | तक चलता रहा, तथा उसके उपरांत, भीष्म ने उग्रायुध का इच्छा प्रकट की। किन्तु धीवर ने सत्यवती को देने से | वध किया (ह. वं.१.२०.४९-७१; म. शां. २७.१)। इन्कार करते हुए कहा, 'भीष्म के रहते हुए, सत्यवती का विचित्रवीर्य का राज्यारोहण-एक बार गंधर्वो से युद्ध भावी पुत्र राज्य नहीं प्राप्त कर सकता। आप उसके करता हुआ चित्रांगद उनके द्वारा मारा गया, तब सत्यवती भावी पुत्र को अपने उपरांत राज्याधिकारी घोषित करें, तो | की अनुमति से इसने विचित्रवीर्य को गद्दी पर बैठाया। मैं आप को सत्यवती को इसी क्षण दे सकता हूँ।' धीवर | किन्तु विचित्रवीर्य अभी छोटा ही था, अतएव राज्य की की यह बात सुनते ही शंतनु खिन्न हो उठा, एवं निराश पूरी देखदेख भीष्म ही करता था। विवाहयोग्य आयु हृदय वापस लौट आया, वयोंकि वह नहीं चाहता था होने के उपरांत, भीष्म ने उसके विवाह का निश्चय कि, भीष्म सा योग्य नेता राज्याधिकार से पदच्युत किया किया। इतने में इसे पता चला कि, काशिराज की तीन जाय। [ कन्याओं अंबा, अंबिका एवं अंबालिका की शादी के लिए ५७३ Page #596 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भीष्म स्वयंवर होने वाला है । अतएव यह वहाँ गया, एवं वहाँ एकत्र हुए सभी राजाओं को चुनौती देकर उसकी तीनों कन्याओं का हरण कर आया । विचित्रवीर्य का उन कन्याओं से विवाह करने लिए इसने मुहुर्तादि भी ठीक कराई। किन्तु बड़ी बहन अंत्रा को छोड़कर अन्य दो बहनों से ही विचित्रवीर्य का विवाह हुआ, जिनका नाम अंबिका एवं अंबालिका था। प्राचीन चरित्रकोश अंबाविरोध काशिराज की बड़ी कन्या अंधा ने कहा कि, ‘मैं विचित्रवीर्य से शादी न करूँगी, कारण कि मने मन में शाल्व का वरण किया है ' । भीष्म इस पर राजी हो गया। अंबा शास्त्र के पास गयी, लेकिन वह अंबा की वरण करने को राजी न हुआ । तब उसने आकर भीष्म से कहा, 'मैं शाल्व से विवाह करना चाहती थी. तथा तुम उसमें बाधक बन कर आये। तुमने मेरा हरण । किया है, अतएव शास्त्रोक्त के अनुसार, तुम्हें मुझसे शादी करनी चाहिए। मैं कदापि विचित्रविर्य से विवाह न करूगी, मेरा उससे सम्बन्ध ही क्या ?' किन्तु भीष्म तैयार न हुआ। इस कारण अंबा भीष्म से अत्यधिक क्रुद्ध हुयी, एवं इसके प्राप्ति के लिए तप करने लगी। तपस्याकाल में, एक दिन अंबा की भेंट अपने नांना हो वाहन संजय से हुयी । उससे अंबा ने अपना सारा रोना कह सुनाया कि, किस तरह वह शाल्य का वरण करना चाहती थी, तथा किसी प्रकार शाल्य एवं भीष्म उसका वरणरूप में स्वीकार करने लिए राजी नहीं है। यह कह कर, अंबा ने सृजय से कुछ मदद चाही । लेकिन उसने कहा, 'यदि तुम मदद ही चाहती हो, तो परशुराम के पास जाओ । वह तुम्हारी मदद करेंगे । ' परशुराम से युद्ध फिर अंबा परशुराम के पास गयी, एवं उससे प्रार्थना की कि वह भीष्म का वध करे, जिसने उसका हरण कर उसका जीवन बर्बाद किया है, तथा वरण करने के लिए भी तैयार नहीं है परशुराम ने कहा 'मैंने किसी ब्राह्मण के कार्य हेतु ही अस्त्रग्रहण करने की, प्रतिज्ञा की है, अतएव मैं असमर्थ हूँ' । अन्त में अंबा द्वारा घर बार प्रार्थना किये जाने पर, परशुराम ने भीष्म को समझा कर मामले को सुलझाने की बात सोची । -- भीष्म द्वन्द्वयुद्ध के लिए चुनौती दी । दोनों युद्ध के लिए तत्पर ही थे कि पुत्रचिन्ता से युक्त गंगा ने आकर भीष्म से कहा, 'परशुराम तुम्हारे गुरु हैं, तुम्हें उनसे युद्ध करना शोभा नहीं देता ' । भीष्म ने कहा, 'युद्ध मै नहीं कर रहा, किन्तु अपने सत्य की रक्षा हमें करनी ही है। इस प्रकार यदि तुम्हें समझाना ही है, तो परशुराम से कहो कि वह अपने हठ को छोड़कर मेरी स्थिति पर ध्यान दें । अपने पुत्र भीष्म को परशुराम के फोध से उबारने के लिए, गंगा परशुराम के पास गयी, तथा उसे बहुविध समझाने का प्रयत्न किया । किन्तु परशुराम अपने हठ पर अटल रहे। परशुराम एवं भीष्म में चार दिन तक घोर युद्ध हुआ ( म.उ. १७६ १८६ ) | अंत में अपने 'प्रस्वाय अस्त्र के बल से भीष्म ने परशुराम को युद्ध में परास्त किया ( म. उ. १८७.४ ) । 1 शिखंडिजन्म - भीष्म को समूल नष्ट करने के लिए अंत्रा पीछे पड़ गयी। पहले उसने घोर तप किया, फिर परशुराम के द्वारा इसे नष्ट करना चाहा। इसे देख कर गंगा नदी ने अंबा को शाप दिया कि, वह टेढी मेड़ी. क्षुद्र नदी बनेगी अंगा अपने अपमान का बदस्य लेने' के लिए जी जान से जुटी ही रही। उसने शिव की . उपासना कर के उससे वरदान प्राप्त किया, 'इस जन्म में न सही, अगले जन्म में शिखण्डी बन कर तुम भीष्म के मृत्यु का कारण बन कर उससे अपना बदला ले सकोगी' । शिवप्रसाद के बल से अगले जन्म में शिखण्डी का जन्म ले कर, अंत्रा ने भीष्म का वध कराया (म. उ. १७०१९३ ) । विचित्रवीर्य की मृत्यु -- सात वर्षों तक राज्यभोग के साथ-साथ अत्यधिक भोगविलास में निमन हुआ विचित्रवीर्य राजा राजयक्ष्मा से पीड़ित मृत्यु को प्राप्त हुआ । अपनी पत्नी अंबिका एवं अंबालिका से उसे कोई संतान न थी। अतएव सत्यवती ने भीष्म को आज्ञा दी कि, वह विचित्रवीर्य की पत्नियों से संभोग कर के नियोग द्वारा पुत्र उत्पन्न करे। किंतु इसने अपनी सौतेली माता की आशा की अवहेलना कर, अपने ब्रह्मचर्य की प्रतिज्ञा पर यह दृढ़ रहा । हार कर सत्यवती ने व्यास के द्वारा संतान उत्पन्न करा कर विचित्रवीर्य के राज्य के उत्तराधिकारी के रूप में दो पुत्र रत्न प्राप्त किये। आगे चल कर परशुराम ने गुरु के नाते भीष्म को बहुविध उपदेश दिया, एवं इस बात पर जोर दिया कि, यह अंगा को स्वीकार करे। किन्तु भीष्म अपनी बात पर अटल रहे। इससे क्रोधित होकर परशुराम ने भीष्म को धृतराष्ट्र एवं पाण्डु का जन्म -- विचित्रवीर्थ के पुत्रों में से प्रथम पुत्र धृतराष्ट्र जन्मान्ध था, अतएव भीष्म ने विचित्रवीर्य ५७४ Page #597 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भीष्म प्राचीन चरित्रकोश भीष्म के उपरांत पाण्डु को राजगद्दी पर बैठाया। किन्तु पाण्डु की | एवं अभृत लोगों से कार्य चलाना, सैन्यसंचलन एवं शीघ्र ही मृत्यु हो गयी, अतएव राज्य की सारी व्यवस्था | आक्रमण कर्मों में प्रवीण हूँ। युद्धशास्त्र में मेरा ज्ञान धृतराष्ट्र ही देखने लगा। धृतराष्ट्र का व्यवहार अपने तथा देवगुरु बृहस्पति के समान है। मैं तुम्हे विश्वास दिलाना पाण्डु के पुत्रों में भिन्न था, जिसका परिणाम यह हुआ चाहता हूँ कि, मैं तुम्हारा सैनापत्ये का कार्य अच्छी तरह कि, कौरवों एवं पाण्डु के पुत्रो (पाण्डवों) के बीच एक | से निभाऊंगा, एवं एक महिने से पहले पांडवसेना को खाई पैदा हो गयी, जो कालांतर में चौडी ही होती गयी। ध्वस्त कर दूंगा' (म. उ. १९४)। अपने पिता शंतनु एवं उसके बाद विचित्रवीर्य के काल से कौरव एवं पांडव सेना का बलाबल-भारतीय युद्ध लेकर, उसकी मृत्यु तक भीष्म हस्तिनापुर राज्य के सर्वांगीण आरम्भ होने के पूर्व सेनापति भीष्म ने कौरव एवं पांडवों विकासपथ की ओर ले जाने के लिए सदैव प्रयत्नशील | के चतुरंगिणी सेना की विस्तृत जानकारी एवं बलाबल रहा । यह राज्य का सब से बड़ा कर्ताधर्ता सलाहकार | दुर्योधन को बताया था (म. उ. १६४)। महाभारत के एवं हर प्रकार की व्यवस्था का निर्देशक था। 'रथसंख्यान' पर्व (१६१-१६९) में प्राप्त इस जानकारी धृतराष्ट्र के व्यवहार में पक्षपात देखकर, द्रुपद राजा से प्रतीत होता है कि, जिस प्रकार पदाति-दल, अश्वके पुरोहित ने. आकर भीष्म से शिकायत की, कि | दल आदि में सैनिकों की विभिन्न श्रेणियाँ थी, उसी प्रकार धृतराष्ट्र अपने पुत्रों की ओर सजग, एवं पाण्डवों की ओर | कुशलता की मात्रा से रथसेना में भी अनेक पद थे। उपेक्षित व्यवहार करता है। भीम ने परोडित का योग्य भीष्म के द्वारा बतायी गयी श्रेणियाँ इस प्रकार थी:स्वागत कर पाण्डवों की ओर पूरी तरह से ध्यान देने | रथयूथपयूथप, महारथ, अतिरथ, अर्धरथ एवं रथोदार । का उन्हे वचन दिया (म. उ. २१)। उनमें से रथयूथपयूथप सबसे बड़ा पद था, एवं रथीदार सबसे छोटा पद था। भीष्म के द्वारा निर्देश किये गये - युधिष्ठिर द्वारा किये गये राजसूययज्ञ में पाण्डवों | कौरवसेना के विभिन्न रथयोद्धा निम्न प्रकार थे:ने चतुर्दिशाओं में दिग्विजय प्राप्त कर यशःकीर्ति प्राप्त किया। पाण्डवों के इस दिग्विजय को देखकर कौरवपक्ष भीष्म ने कर्ण से कहा, 'अर्जुन तुमसे अधिक पराक्रमी है । (१) अतिरथ-भीष्म, कृतवर्मन् भोज, बाह्रीक, शल्य । 'जिसका उदाहरण सम्मुख है। पाण्डवों के ये दिग्विजय का | (२) अर्धरथ--कर्ण । कारण अर्जुन ही है। भीष्म की इस कठोर वाणी को सुनकर (३) एकरथ--शकुनि, सुदक्षिण कांबोज, दंडधार । कर्ण तिलमिला गया, तथा कहने लगा कि, वह अर्जुन से (४) महारथ--अश्वत्थामन् , जो रथ योद्धाओं में कहीं अधिक श्रेष्ठ है। इतना कहकर वह दिग्विजय के | अतुल्य माना जाता था, और पौरव । लिए निकल पड़ा (म. व. परि १. क्र. २४)। (५) रथ--अचल, वृषक गांधार | भारतीय युद्ध--पाण्डवों से बन्धत्व भाव रखने के लिए (६) रथयूथपयूथप--उग्रायुध, कृप शारद्वत, द्रोण, भीष्म ने अनेक बार दुर्योधन को समझाया, किन्तु उसका | भूरिश्रवस् । कुछ भी फायदा न हुआ। आखिर बात युद्ध तक आ गयी, (७) रथवर--जलसंध मागध । एवं इसे दुर्योधन की मनमानी के बीच अपनी विचार- | (८) रथसत्तम--बृहद्वल कौसल्य, वृषसेन. दुर्योधनधारा की हत्या करनी पड़ी। इसे कौरवपक्ष के सेना- पुत्र लक्ष्मण, विंद एवं अनुविंद, शल्य, जयद्रथ, अलायुध । पतित्व का भार भी ग्रहण करना पड़ा । इस भार वहन (९) रथोदार--दुर्योधन, सुशर्मन् , एवं उसके चार करने के पूर्व उसने दुर्योधन से दो शर्ते रखी थी। पहली | भाई। शर्त यह थी कि, यह पाण्डवो से युद्ध कर उन्हें पराजित पांडवपक्ष अवश्य करेगा, किन्तु युद्ध में किसी पाण्डव की हत्त्या अपने (१) अतिस्थ--धृष्टद्युम्न (सेनापति), कुंतिभोज हाथों न करेगा । दूसरी शर्त थी कि, जिस समय यह युद्ध पुरुजित्, वसुदान, श्रेणिमत् , सत्यजित् (द्रपदपुत्र)। करेगा उस समय कर्ण इसके साथ युद्ध न करेगा, उसे (२) अधरथ--क्षत्रधर्मन् (धृष्टद्युम्नपुत्र)। इसके पीछे रहना पडेगा (म. उ. १५३.२१-२४)। (३) महारथ-अज, अमितौजस् चेकितान, जयन्त, कौरवसेना का अधिपत्य स्वीकारते समय भीष्म ने द्रुपद, द्रौपदेय, धृष्टकेतु (शिशुपालसुत), भोज, रोचमान, दुर्योधन से विश्वास दिलाया, 'मैं सेनाकर्म, व्यूहरचना, भृत विराट, शंख, श्वेत, सत्यजित्, सत्यधृति । Page #598 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भीष्म प्राचीन चरित्रकोश भीष्म (४) रथ-अर्जुन, उत्तमौजस् उत्तर वैराटि, काश्य का चिह्न था (म. वि. १४८.५)। इन दस दिनों में (अष्टरथ), भीम (अष्टरथ), वार्धक्षेमि। । अत्यधिक वीरता के साथ लड़कर, एवं सैन्यसंचालन कर, (५) स्थमुख्य-शिखंडिन् । इसने पांडवों की सेना को ध्वस्त कर जर्जर ही नहीं बनाया; (६) रथयूथपयूथप-अभिमन्यु, घटोत्कच, माधव, बल्कि उनकी जीत की आशा को भी मिट्टी में मिला सात्यकि। दिया। इसकी युद्धवीरता का प्रमाण इससे अधिक क्या . (७) रथसत्तम-क्रोधहन्त, चित्रायुध, सेनाबिन्दु । हो सकता है कि, युद्धभूमि में कभी अस्त्रग्रहण न करने (८) रथिन्-नकुल, सहदेव। की प्रतिज्ञा करनेवाले भगवान कृष्ण को भी अस्त्रग्रहण (९) रथोत्तम–क्षत्रदेव, पांड्यराज । करना पड़ा । भारतीय युद्ध के तीसरे एवं नवें दिन (१०) रथोदार----काशिक, केकयबन्धु (पंचक), चंद्रसेन, अर्जुन की रक्षा के लिए कृष्ण को हाथ में सुदर्शन चक्र ले नील, मदिराश्व, युधामन्यु, युधिष्ठिर, व्याघ्रदत्त, शंख, कर युद्धभूमि में उतरना पड़ा (म. भी. ५५; १०२ )। सुकुमार, सूर्यदत्त। भारतीययुद्ध के तीसरे दिन इसका तथा अर्जुन का कर्ण-भीष्म विरोध-भीष्म के द्वारा किये गये घनघोर युद्ध हुआ, जिसमें अर्जुन आहत हो कर मूच्छित उपर्युक्त रथि महारथियों के वर्णन में कर्ण को रथी हो गया। यह देख कर कृष्ण अत्यधिक क्रुद्ध हुआ, एवं . अथवा महारथी न कहकर केवल अधेरथों में उसकी | अर्जन की रक्षा के लिए हाथ में सुदर्शन चक्र ले कर . गणना की। द्रोणाचार्य ने भी उसे अपनी संमति दी। स्वयं युद्धभूमि में प्रविष्ट हुआ। कृष्ण का यह रौद्ररूप .. यह अपना अपमान समझकर कर्ण क्रोध से उछल पडा। देख कर भीष्म ने अपने अस्त्र-शस्त्र नीचे रख दिये, एवं उसने दुर्योधन से कहा, 'बुढ़ापे के कारण, भीष्म मतिभ्रष्ठ | श्रद्धावनत हो कर कृष्ण से कहा, 'स्वयं कृष्ण भगवान से । हो चुका है। ऐसे मतिभ्रष्ट लोगों की सलाह लेना | मेरी हत्या हो रही है, यह मेरा सौभाग्य है। ऐसा कह . मुझे सरासर मूर्खता प्रतीत होती है। दुष्टबुद्धि भीष्म | कर इसने कृष्ण का स्तवन किया । इतने में अर्जन ने होश कौरवों में फूट पाडना चाहता है। मेरी राय यही है | में आकर कृष्ण से प्रार्थना की, 'युद्धभमि में आप न कि, इस मतिभ्रष्ट एवं दुष्टबुद्धि बूढे का पल्ला तुम छोड | उत्तरे, अभी मै यद्ध के लिए काफी हूँ। दो। जबतक यह भीष्म कौरवसेना का सेनापति है तबतक मैं युद्ध में भाग नही लूंगा' (म. उ. १६५.१० दुर्योधनआक्षेप---भारतीययुद्ध के दसवें दिन, २७)। दुर्योधन ने भीष्म पर आक्षेप लगाते हुए कहा, 'आप का मन तो पाण्डवों के पक्ष की ओर है । अतएव इस पर भीष्म ने भी अत्यंत ऋद्ध हो कर दुर्योधन से कहा, 'कवचकुंडल आदि के त्याग से निर्बल, एवं परशुराम युद्ध में हमारी जीत संभव कहाँ ?' भीष्म ने चिन्तित हो कर गंभीरतापूर्वक कहा, 'मैं बूढ़ा हूँ, फिर भी जो होता तथा ब्राह्मणों के शाप से इंद्रियदुर्बल हुए पापी कर्ण के लिए, अर्धरथ यह नीच श्रेणि ही योग्य है'। आगे चल है करता हूँ, तथा किसी प्रकार- कर्तव्य से च्युत नहीं। कर इसने कर्ण से कहा, 'मुझे बूढ़ा कहने की हिंमत तू पाण्डव बल पौरुष में श्रेष्ठ तथा रणभूमि में अजेय हैं। फिर यदि तुम मेरे रणकौशल को ही देखना चाहते हो तो ने की है। किन्तु मै चूनौति देता हूँ कि, युद्ध में तुम्हारा कल देख सकते हो । देखना, या तो कल पाण्डवों की हार पराजय करने की ताकद आज भी मेरे जर्जर बाहुओं में है। परशुराम जामदग्न्य आदि यों को मैने रणभूमि में होगी, या मेरी मृत्यु' (म. भी. १०५.२६)। पराजित किया है। फिर तेरे जैसे पापी मनुष्य का पराजय | पाण्डवविहीन पृथ्वी को बनाने की भीष्मप्रतिज्ञा को सुन करना मेरे बाये हाथ का खेल है। कर सभी पाण्डव भयभीत हो उठे। क्यों कि, वे समस्त अपने गुरु भीष्म एवं परममित्र कर्ण के दरम्यान हुए कौरवसेना में भीष्म की ही शक्ति का सिक्का मानते थे। इस वाक्युद्ध के कारण, दुर्योधन अत्यधिक कष्टी हुआ, | कृष्ण ने पाण्डवों के बचाने के लिए अर्जुनादि के सामने एवं उसने इन दोनों को शान्त होने के लिए प्रार्थना की अपने विचार प्रकट करते हुए कहा, 'तुम लोग यदि (म. उ. १६६.१-१०)। अपना जीवन चाहते हो, तो भीष्म की मृत्य का उपाय सेनापत्य--भारतीय युद्ध में प्रथम दस दिन यह कौरव । करो, अन्यथा तुम को पराजित हो कर, अपने प्राणों की सेना का सेनापति रहा । इसके रथ की पताका पर ताइवृक्ष | आहुति देनी पड़ेगी। ५७६ Page #599 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भीष्म प्राचीन चरित्रकोश भीष्म कृष्ण से भेंट-नवें दिन की रात्रि को कृष्ण धर्मादि आया, तब सारे भेदभावों को भूल कर इसने उसका दृढ़ पाण्डवों को साथ ले कर भीष्म से मिलने उसके शिबिर आलिंगन करते हुए सदुपदेश दिया, 'या तो तुम कौरव गया। कृष्ण ने भीष्म से कहा, 'आपकी प्रतिज्ञा सुन | पाण्डवों के बीच मित्रता स्थापित कराओ, अथवा कौरवों कर सभी पाण्डव आतंकित हो उठे हैं। अब आपकी | के पक्ष को छोड़कर पाण्डवों के पक्ष में सम्मिलित हो मृत्यु किस प्रकार सम्भव हो कि, जिससे पाण्डव की रक्षा | जाओ'। दुर्योधन को तनमनधन से मित्रता का व्रत लेने की जा सके? ।' भीष्म ने कृष्ण के प्रश्न का उत्तर देते हुए वाले कर्ण ने भीष्म से कहा, 'दुर्योधन मेरा मित्र है, अतः कहा, 'जिसके रथ का ध्वज अभद्र हो, जो हीन जाति का | आप मुझे यह अनुज्ञा दें कि, उसी के पक्ष में लड़ता हुआ हो, अथवा जो स्त्री हो उससे मैं युद्ध कदापि न करूँगा। मैं पाण्डवों का पराभव करूँ'। भीष्म ने उसके व्रत को द्रुपद राजा का पुत्र शिखण्डी पूर्वकाल में स्त्री था, बाद में | सुनकर उसे अनुज्ञा प्रदान की (म. भी. ११६-११७)। पुरुष बना। अतएव उसे सामने कर के, यदि अर्जुन | भारतीय युद्ध में अपने कुरुवंशी बन्धुओं का क्षय देख युद्ध करेगा, तो मै कुछ न कर सकूँगा, तथा मुझे अर्जुन कर युधिष्ठिर अत्यधिक शोकमग्न हुआ था। उसे इस प्रकार सहज ही युद्ध में जीत सकेगा। इस प्रकार पाण्डव | उदास देखकर, अपने धर्मोपदेश के द्वारा भीष्म ने उसे सुलभता के साथ रणभूमि में कौरव को जीतकर राज्य प्राप्त | शान्ति प्रदान की। युधिष्ठिर को धर्मोपदेश देते समय कर सकते हैं' (म. भी. १०३)। भीष्म इतना शक्तिहीन हो चला था कि, कृष्ण ने उसे शक्ति । दूसरे दिन भीष्म के बताये हुए मार्ग को अपना प्रदान कर, उपदेश देने के योग्य बनाया (म. शां. ५२, कर शिखण्डी को सामने रखकर अर्जुन ने भीष्म को | भा. १.९; ९.२२.१९)। पितामह भीष्म एवं युधिष्ठिर के पराजित किया (म. भी. ११३-११४)। भीष्म पतन | बीच हुयी ज्ञानचर्चा महाभारत के 'शान्ति' एवं ' अनुका यह दिन पौष के कृष्णपक्ष की सप्तमी थी, एवं शासन' पर्व में प्राप्त है, जो आज भी अपनी अपार उससमय फल्गुनी नक्षत्र था ( भारतसावित्री)। ज्ञानराशि के कारण, जीवन के परम सत्य की ओर शरशय्या-इसके वध के समय सर्वांग बाणों से बिद्ध पथनिर्देश कराने में सर्वश्रेष्ठ मानी जाती है। था। रथ से गिरकर बाणों पर ही टिका हुआ भूमि पर प्राणत्याग--अर्जुन के द्वारा आहत होकर जब यह यह इस प्रकार आ गिरा, मानों शरशय्या में लेटा शरशय्या पर बड़ा हुआ था, उस समय सूर्य दक्षिणायन हो। इसका सर केवल बाणों से बचा था, जो शरशय्या था । अतएव इच्छाबल पर इसने अपने प्राणों को रोक से लटक रहा था । उसे देखकर अर्जुन ने तीन बाणों को | रखा था। जैसे ही सूर्य उत्तरायण आया, इसने अपने मार कर, इसके सर के लिए तकिया बना दिया । शरशय्या | प्राण विसर्जित किये (म. अनु. १६८.७)। यह दिन में पड़ा हुआ यह अधिक प्यासा हो उठा था, जिसे | माघ सुदी अष्टमी थी (निर्णयसिंधु पृ. १६३)। जिस देखकर अर्जुन ने अपने एक बाण द्वारा गंगा नदी के प्रवाह | समय यह अपने प्राणों को त्याग कर निजधाम जाने की को अपनी ओर खींचकर, उस धारा के द्वारा भीष्म की तैयारी में था, उस समय अनेकानेक शत्रुमित्र पक्ष के तृषा का हरण किया। अर्जुन की इस सेवा से भीष्म | लोगों के अतिरिक्त, न जाने कितने ऋषिमुनि आदि इसके अत्यधिक प्रसन्न हुआ (म. भी. ११५)। दर्शन कर, उपदेश ग्रहण करने की लालसा से आये थे। जिस समय भीष्म पितामह शरशय्या में आहत था, | इसकी मृत्यु विनशन क्षेत्र में हुयी (भा. १.९.१)। उस समय अनेकानेक ऋषि, मुनि, देवी देवतादि इसके | मृत्यु के समय इसकी आयु सम्भवतः १८६ वर्षों की दर्शन करने आये थे। इन सारे ऋषिमुनियों को एवं थी। यह उम्र में करीब अपनी सौतेली माँ सत्यवती का अपने कौरवपांडव बांधवो को इसने नानाविध रूप से | समवयस्क था, तथा सत्यवती का पुत्र व्यास, जो उसे उपदेश दिया। इसने दुर्योधन से कहा, 'मेरी मृत्यु कौरव | कौमार्य अवस्था में हुआ था, वह तो इससे कहीं अधिक पाण्डवों के बीच हए वैरभाव की अन्तिम आहति हो. तो | छोटा था। अच्छा है। इससे तुम सभी विनष्ट होने से बच जाओगे'। भीष्मचरित्र का एक कलंकित क्षण--भीष्म कौरव- यह आजीवन कर्ण को हेय दृष्टि से देखता रहा, कारण | वंश का वह प्रकाशस्तम्भ था, जिसने आजीवन लोगों कि वह जन्म से हीन था । कर्ण भी हृदय से इसका आदर | को अपने चरित्र, कार्य, एवं रीतिनीति से आलोकित न करता था। किन्तु अन्तिम समय, जब कण इससे मिलने | कर, उसे सन्मार्ग दिखाया। फिर भी इसके जीवन में एक प्रा. च. ७३] ५७७ Page #600 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भीष्म प्राचीन चरित्रकोश भीष्म अवसर यह भी आता है कि, कौरव पाण्डवों की भरी सभा | अपने आदर्शों के विरुद्ध दुर्योधन को अपना राजा में निर्वस्त्र की जानेवाली द्रौपदी विलाप कर के भीष्म से | मानकर, पग पग पर उसका साथ दिया। दूसरी ओर न्याय की माँग करती है, तथा भीष्म उसकी दीनहीन | युद्धनीति के विरुद्ध, इसने अपने मरने का रहस्य कृष्ण दशा न देखकर, उसे पत्नीधर्म का पाठ पढ़ाते हैं। एवं युधिष्ठिर को बताया, जो इसके विपक्षी थे । महाभारत द्यूत खेलते समय धर्म ने अपने को, समस्त पाण्डवों को | के कई पाण्डुलिपियों में प्राप्त श्लोकों से पता चलता है तथा अन्त में द्रौपदी को भी हार लिया । कौरव द्रौपदी | कि, इन कमजोरियों को दृष्टि में रखकर कृष्ण ने भी इसकी की लोकलज्जा का हरण कर, उसका उपहास करने लगे, | कटु आलोचना की थी। तथा सभी बड़े बूहों के साथ भीष्म भी चूपचाप बैठ गया। 'अर्थस्य पुरुषो दास:-कौरवों का पक्ष अन्यायी हो द्रौपदी ने इसी से न्याय की माँग की, क्यों कि, यह | कर भी इसने उनका साथ क्यों दिया, इसका स्पष्टीकरण पाण्डवों तथा कौरव दोनों का हितैषी था, यही नहीं, यह भीष्म ने महाभारत में निम्न प्रकार किया हैपरम धर्मात्मा, न्यायी एवं उचित अनुचित का समझने | 'अर्थस्य पुरुषो दासः' दासस्त्वर्थो न कस्यचित् । वाला, सभी से उम्र में बड़ा, तथा कौरववंश का कर्ताधर्ता | इति सत्यं महाराज, बद्धोऽस्म्यर्थेन कौरवैः॥ प्रमुख व्यक्ति था। द्रौपदी ने इससे प्रश्न किया, 'धर्मराज (पुरुष अर्थ का दास है, पर अर्थ किसी का दास जब कौरवों द्वारा स्वयं अपने को हार गये हैं, तब क्या उन्हें नही है। हे महाराज, यह सत्य है, कौरवों ने मुझे अर्थ. अधिकार है कि, मुझे वह दाँव पर लगायें'? भीष्म ने | से बाँध लिया हैं। उत्तर दिया. 'वस्तुतः अधिकार तो नहीं, क्योंकि तुम्हें | उपर्युक्त भीष्म के कथन से साधारण रूप में यही दाँव पर लगाना अनुचित है। अतएव तुम्हें कोई जीत | अर्थ निकलता है कि, यह अर्थ (धन, संपत्ति) को प्रधानता . नहीं सकता । लेकिन तुम्हें न भूलना चाहिए कि, स्त्री देता है। यदि हम इसे इस प्रकार ले, तो भीष्म के ये. सदैव पति के आधीन रही है, तथा उसे अपनी पत्नी पर | शब्द इसके आदर्शात्मक जीवन का धब्बा प्रतीत होता है सदैव अधिकार रहा है। आज तुम्हारा पति युधिष्ठिर जो उसके सम्पूर्ण व्यक्तित्व को ढक देता है। कौरवों का दास है, अतएव आर्यपत्नी होने के कारण, किन्तु कई अभ्यासकों के अनुसार, 'अर्थस्य पुरुषो दासः' तुम दास की दासी हो (म. स. ६०.४०-४२)। शब्दों से भीष्म के द्वारा प्रकट की गयी विवशता सिर्फ ___ भीष्म के द्वारा दिये गये इस उपदेश ने द्रौपदी | संपत्ति के विषय में न हो कर अधिक तर राजनैतिक ढंग के हृदय को सन्तोष एवं शान्ति तो प्रदान न की थी। 'कौटिलीय अर्थशास्त्र' में अर्थ की व्याख्या किया, किन्तु उसके मन को अधिक उद्विग्न बना दिया। 'राजनैतिक कर्तव्य ' इस अर्थ से की गयी हैं। इस द्रौपदी चाहती थी कि, भीष्म उस आर्तनाद करने | प्रकार, राजनैतिक कर्तव्यों से बँधा हुआ भीष्म यदि अपने वाली कुलवधू की लुटती हुयी लज्जा को देखकर, | व्रत के अनुसार, आजीवन कौरव पक्ष के दुःखसुखों में दुर्योधन के द्वारा दिये गये आदेशों का खण्डन करते हुए सदैव एक क्रियाशील कर्ताधर्ता रहा तो, इसमें कुछ भी उसकी नारीत्व की रक्षा करेगा । किन्तु भीष्म तो पति की अनौचित्य प्रतीत नही होता.। आज्ञाओं का अन्धा पालन करने पर प्रवचन दे कर भीष्म की तरह द्रोण, कृप एवं शल्य आदि ने भी ही, अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ बैठे (म. वि. परि. | 'अर्थेन बद्ध; ' कह कर दुर्योधन के पक्ष का स्वीकार १.६०.२५-४५)। किया था। उन में से द्रोण दक्षिणपांचाल देश का राजा __ कुछ धूमिल स्थल-भीष्म के चरित्र में यदाकदा कुछ था, एवं शल्य युधिष्ठिर का मातुल एवं मद्र का राजा था। धूमिल स्थल और दीख पड़ते हैं । कौरवों ने चूत में इन सारें राजा महाराजाओं के 'अर्थेन बद्ध' कथन से पाण्डवों को बुलाकर कपटपूर्ण व्यवहार के द्वारा उन्हें | | यही तात्पर्य प्रतीत होता है कि, वे सारे दुर्योधन से जीतने की योजना बनाई, जिसकी पूर्ण सूचना इसे प्राप्त वचनबद्ध थे, एवं उसी के कारण, दुर्योधन के पक्ष में थी। फिर भी इसने एक बार भी दुर्योधनादि को रोकने | शामिल हो गये थे (म. भी. ४१.३६-३७; ५१-५२; का प्रयत्न न किया। दुर्योधन को एक बार नहीं, हज़ार | ६६-६७, ७७-७८)। बार इसने कहा की, उसका पक्ष न्याय का नहीं, वह अन्य धूमिल स्थल-आधुनिक दृष्टि से हम देखे तो अन्यायी है। फिर भी भारतीय युद्ध के समय, इसने | हमें कुछ उचित नहीं लगता कि, अपने पिता की भोगपिपासा ५७८ Page #601 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भीष्म प्राचीन चरित्रकोश भुमन्यु की तृप्ति के लिए भीष्म इतना बड़ा ब्रह्मचर्य का व्रत लेकर | में थी। भीष्मक के पुत्र रुकिनन् ने भोजकट नगरी में आगे बढे। उस व्रत के कारण, आगे आनेवाली कर्तव्य- | अपनी नयी राजधानी बसा ली। शंखालाओं को भी इसे बार बार उपेक्षा करनी पड़ी। लेकिन भुजकेतु--एक राजा, जो भारतीय युद्ध में दुर्योधन के यह लकीर का फकीर बना, एवं अपनी पुरानी प्रतिज्ञा-पर | पक्ष में शामिल था। जमा रहा। इसने आजन्म ब्रह्मचर्य का व्रत'न लिया होता. भुजंगम-एक नाग, जो कश्यप एवं कद्र के पुत्रों में तो कुरुवंश दो भागों में विभक्त होकर, आपस में टकरा | से एक था। कर खत्म न हो जाता। चित्रांगद तथा विचित्रतीर्य ऐसी सन्तान न हाती, जो अल्पायु म ही मर गयी । पांडु तथा । भुज्यु तौग्य-एक राजा, जो अश्वियों का आश्रित धृतराष्ट्र ऐसे पुत्र न होते कि, एक क्षय से मरा, तो दूसरा | था । तुम राजा का पुत्र होने के कारण, इसे 'तौग्य' जन्मान्ध पैदा हुआ। इसका कारण था कि यह सभी | 'तुग्र्य' उपाधियाँ प्राप्त थी। नियोग द्वारा जन्मे थे किसी में तेज, बल तथा शक्ति न थी एकबार इसका पिता तुम इसपर क्रुद्ध हुआ, जिस जिस भीष्म में वह थी, वह कर्मपथ से हठ कर निष्क्रिय | कारण उसने इसे परदीपस्थ शत्रप धर्मपथ अपना बैठा था। लिए भेज दिया (ऋ. १.११६.३-५, ११७.१४-१५; भीष्मक-एक भोजवंशीय नरेश, जो विदर्भ देश | ११९.४)। समुद्र में प्रवास करते समय, इसकी नौका का अधिपति था । महाभारत के अनुसार, यह पृथ्वी के | अचानक टूट पडी, जिस कारण यह बड़े संकट में फँस चौथाई भाग का स्वामी, इन्द्रसखा एवं अत्यंत बलवान | गया। उस समय सौ पतवार वाले नाव में प्रविष्ट हो राजा था । इसे हिरण्यरोमन् एवं भीमक नामान्तर भी कर अश्वियों ने इसका रक्षण किया, एवं इसे सुरक्षित रूप । प्राप्त थे (म. उ. १५५.१)। भांडारकर संहिता में इसके | में किनारे पहूँचा दिया। नाम के लिए 'हिरण्यलोमन्' पाठभेद प्राप्त है। इसकी | अश्वियों के पराक्रम का वर्णन करने के लिए उपयुक्त राजधानी कुंडिनपुर नगरी में थी। कथा का निर्देश ऋग्वेद में अनेक बार प्राप्त है (ऋ. १. ___अपनी अस्त्रविद्या के बल से इसने पांड्य, ऋथ, कैशिक ११२.६, ६.६२.६-७; ६८.७; १०.४०.७; ६५.१२; : जैसे दाक्षिणात्य देशों पर विजय पायी थी (म.उ.१५५. | १४३.५)। १-२)। भुज्यु लाह्यायानि--एक आचार्य, जो याज्ञवल्क्य इसके भाई का नाम आकृति था, जो परशुराम जामदग्न्य | ऋषि का समकालीन था। 'लह्यायन' का वंशज होने के के समान शौर्यसंपन्न था। इसे रुक्मिणीनामक एक कन्या, | कारण, इसे 'लाह्यायन ' पैतृक नाम प्राप्त हुआ था। एवं निम्नलिखित पाँच पुत्र थे:-- रुक्मिन, रुक्मरथ, पतंचल काप्य नामक आचार्य के कन्या के शरीर में रुक्मबाहु, रुक्मकेश एवं रुक्ममालिन् (भा. ३.३.३ प्रविष्ट होनेवाले सुधन्वन् आंगिरस नामक ऋषि से इसे १०.५२.२२)। यह शुरु से ही मगध देश का राजा | विशेष ज्ञान की प्राप्त हो गयी थी। उसी ज्ञान के बल से जरासंध के प्रति भक्ति रखता था, एवं भगवान् कृष्ण के | इसने याज्ञवल्क्य ऋषि को वादविवाद में परास्त करना विपक्ष म था ( म. स. १३.२१) । इसी कारण कृष्ण ने | चाहा । किन्तु अन्त में उस वादविवाद में इसका ही इसकी कन्या रुक्मिणी का हरण कर, उससे 'राक्षसविधि' | पराजय हुआ (बृ. उ. ३.३.१)। से विवाह किया। भुमन्यु--(सो. कुरु.) एक कुरुवंशीय राजा, जो पांडवों के राजसूय यज्ञ के समय, दक्षिण दिग्विजय | जनमेजय (प्रथम) का पौत्र, एवं धृतराष्ट्र राजा का पुत्र था करता हुआ सहदेव विदर्भ देश में आ पहुँचा। उस | (म. आ. ८९.५१)। पाठभेद (भांडारकर संहिता)समय भोजकट नगरी में भीष्मक एवं रुक्मिन् का उससे | 'सुमन्यु । दो दिनों तक घनघोर संग्राम हुआ, जिसमें इन्हे हार | २. (सो. पूरु.) एक महर्षि, जो दुष्यंत राजा का माननी पडी । अन्त में इसने सहदेव के शासन का स्वीकार | पौत्र, एवं भरत दौष्यान्ति राजा का पुत्र था। भरद्वाज किया। महाभारत में रुक्मिन् का निर्देश 'महामात्र | ऋषि के कृपाप्रसाद से यह उत्पन्न हुआ था। इसकी भीष्मक' नाम से किया गया है (म.स. २८. ४१)। माता का नाम सुनंदा था, जो काशीनरेश सर्वसेन की भीष्मक के राज्यकाल में विदर्भ की राजधानी कुंडिनपुर | कन्या थी (म. आ. ९०.३४)। ५७९ Page #602 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भुमन्यु प्राचीन चरित्रकोश भूत इसके पिता भरत ने इसे यौवराज्याभिषेक किया। सती के उदर से अपने ही समान पिंगल, सनिषंग, किन्तु आरम्भ से ही विरक्त प्रकृति का होने के कारण, | कपर्दी तथा नीललोहित वर्णवाले लाखों भूत उत्पन्न इसने राज्यपद का स्वीकार न किया, एवं भरत के पश्चात् किये, जो पिशित खानेवाले तथा आज्य तथा सोम इसका पुत्र सुहोत्र राजगद्दी पर बिठाया गया। प्राशन करनेवाले थे (ब्रह्माण्ड. २.९.६८-७८)। इसे ऋचीककन्या पुष्करिणी एवं दशाहकन्या विजया | स्वरूपवर्णन-ये छोटे अवयववाले (कृशाक्ष), लम्बे नामक दो पलिया थी। पुष्करिणी से इसे निम्नलिखित | कानवाले ( लंबकर्ण), बड़े तथा लटकते हुए ओठवाले छः पुत्र उत्पन्न हुए:-वितथ, सुहोतृ, सुहोत्र, सुहवि, सुयजु (लम्भस्फिक, प्रलंबोष्ठ ), लम्वे दाँतवाले (दंष्टिन ), लम्बे एवं ऋचीक (म. आ. ८९.१८-२१.)। नखवाले (नखिन् ), स्थूल शरीरवाले (स्थूलपिंडक.), लम्बी ३. एक देवगंधर्व, जो अर्जुन के जन्मोत्सव में उपस्थित भौंहोंवाले (बभ्रुव), धुंघराले खुरदरे केशवाले (हरिकेश, था (म. आ. १२२.५८)। मुञ्जकेश), नीललोहित एवं पिंगल वर्णवाले, एवं टिगने भुव-(स्वा. नाभि.) एक राजा, जो विष्णु के शरीरवाले होते थे। ये सबल, संगीतविरोधी, सर्प का अनुसार, प्रतिहवं राजा का पुत्र था। यज्ञोपवीत धारण करनेवाले, तथा विभिन्न रंगबिरंगे लेपों भुवत-मगध देश के सुव्रत राजा के नाम के लिए से अपने शरीर को रंगानेवाले होते थे। ये शिव की सभा उपलब्ध पाठभेद (सुव्रत ४. देखिये)। | में उपस्थित रहनेवाले, हाथों में खोपड़ी धारण करनेवाले भवन-एक देव, जो कश्यप एवं सुरभि का पुत्र था। लोग थे, जो केशों को मुकुट की भाँति बना कर बाँधते थे.. २. एक महर्षि, जो शरशय्यापर सोये हुए भीष्म से | ये नग्नावस्था में रहते थे, तथा कभी कभी विचित्र प्रकार मिलने आया था (म. अनु. २६.८)। के वस्त्रों के साथ हाथी के चर्म को भी धारण करते थे। , ३. एक सनातन विश्वेदेव (म. अनु. ९१.३५)। इनके हथियार शल, धनु, निषंग, वरुथ तथा असि थे। ४. एक देव, जो भृगु एवं पौलोमि का पुत्र था। ये 'उर्ध्वरेतस्' अर्थात ब्रह्मचर्यपालन करनेवाले थे। . भुवन आप्त्य--एक वैदिक सूक्तद्रष्टा (ऋ. १०. | इनमें विवाह पद्धति न होने के कारण, इनकी पत्नियों न १५०)। होती थी। इनके सर्वसाधारण गुणों से ही इनके कुछ गण भुवना--बृहस्पति की भगिनी, जो अष्टवसुओं में हुए थे, जिनके नाम इस प्रकार थे-शूलधर, कृत्तिवास, . से प्रभास नामक वसु की पत्नी थी। इसके पुत्र का नाम | कपिर्दिन्., कपर्दिन् , कालिन् , मुंजकेश, नीललोहित विश्वकर्मन् था (ब्रह्मांड. ३.३.२१-२९)। आदि। भुवन्मन्यु (भुवमन्यु )--( सो. पूरु.) पूरुवंशीय ये पूर्वकाल में अत्यंत जंगली थे. किन्तु असुर एवं देवों . भवन्मन्यु राजा के लिए उपलब्ध पाठभेद ।। के साथ सम्बन्ध आने पर, ये पूर्व से काफ़ी सुधर गये। भूत--एक प्राचीन भारतीय मानवजाति का सामूहिक | असुरों के सम्पर्क में आ कर, इन्होंने युद्धकला एवं राजनाम । पुराणों में मानवजाति समूह के चार प्रकार कहे नीति सीखी, तथा अपने प्रकार की एक समाजव्यवस्था गये हैं, जो निम्न हैं-(१) धर्मप्रजा, जो धर्मऋषि स्थापित की। . से उत्पन्न हुयी थी। (२) ईश्वरप्रजा, जो ईश्वर से पुराण के निर्देशों से प्रतीत होता है कि, स्वायंभुव उत्पन्न हुयी थी। (३) काश्यपीयप्रजा, जो कश्यप ऋषि मन्वन्तर के पूर्वकालीन युग में ये भारतवर्ष में निवास से हुयी थी । (४) पुलहप्रजा, जो पुलह ऋषि से उत्पन्न | करते थे। उस समय इनका निवासस्थान हिमालय पर्वत हुयी थी। उनमें से भूतयोनि के लोग पुलह प्रजा में से के उत्तर भाग में तथा उसके निकटवर्ती प्रदेशों में था। माने जाते हैं (ब्रह्माण्ड. १.३२.८८-९८२.३.२-३४; ये भारत के सर्व प्राचीन आदिवासी माने जाते हैं। | असुरों एवं भूत गणों के बीच काफी लड़ाई चलती रही। जन्म-ब्रह्माण्ड के अनुसार, इन लोगों की उत्पत्ति भूत- अन्त में ये उनके हमलों से अपने को बचाने के लिए, तत्त्व से हुयी थी, एवं ये कपिशवीय थे। इनका खाद्यपदार्थ विन्ध्यपर्वत की ढालों तथा घाटियों में रहने आये। 'पिशित' था (ब्रह्माण्ड २.८.३९-४०)। इनके जन्म की भूतनायक-पुराणों में रुद्र को भूतों का राजा माना कथा ब्रह्माण्ड में निम्न प्रकार दी गयी है । ब्रह्मा ने नील है। उस रूप में रुद्र को 'भूतनायक' एवं ' गणनायक,' लोहित रुद्र को प्रजा उत्पन्न करने के लिए कहा, तब उसने तथा भूतों को 'रुदानुचर' एवं : भवपरिषद्' कहा गया ५८० Page #603 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूत प्राचीन चरित्रकोश भूतवीर है। किन्तु रुद्र एक व्यक्ति न हो कर, इनके राजा का | पक्ष को बहुत बूरी तरह से हार खानी पडी (वायु. १. सामान्य नाम था। कई जगह, इनके राजा को 'गणपति' | ३०.८९-१०१)। कहा गया है। इन लोगों में जो व्यक्ति सबसे अधिक | देव एवं असुरों के साथ किये युद्ध में यद्यपि भूतगणों का बलवान् होता था, उसे राजा बना कर ये लोग उसे 'रुद्र' विजय हुआ, फिर भी अन्त में इन्हे उत्तरी भारत का नाम से विभूषित करते थे । पुराणों में, इस प्रकार के दो प्रदेश छोड़ कर, दक्षिण भारत में स्थलांतर करना पड़ा। रुद्रों का निर्देश मिलता है। उनमें से वीरभद्र नामक रुद्र | भूतगणों का यह स्थलांतर वैवस्वत मन्वन्तर के काल तक 'सिंहमुख' नामक भूतगणों का प्रमुख था (वामन. | पूर्ण हो कर उस समय ये लोग संपूर्णतः दक्षिण भारत ४.१७)। दूसरा नंदिकेश्वर नामक रुद्र शैलादि नामक | के रहिवासी बन चुके थे। भूत गणों का मुखिया था (मत्स्य. १८१.२)। २. एक हैहयवंशीय राजा। स्कंद के अनुसार, इसके वामन के अनुसार, भतगणों की कुल संख्या ग्यारह | पुत्र का नाम शंख था (शंख ४. देखिये)। करोड़ मानी जाती है। इन भनगणों में स्कंद, शाख एवं ३. (सो. यदु. वसु.) एक यादव राजा, जो भागवत भैरव आदि प्रमुख व्यक्ति थे, तथा इनके अधिकार में | के अनुसार वसुदेव एवं पौरवी का पुत्र था। अनेकानेक गण थे । वामन में भूतों के रूप एवं अस्त्रों की | ४. एक ब्रह्मर्षि, जो भृगु ऋषि का पुत्र था। विस्तृत जानकारी दी गयी है। वहाँ पर इनके मुख की | भूतकर्मन्-कौरव पक्ष का एक योद्धा, जो नकुलआकृति का वर्णन 'वानरास्य' एवं 'मृगेन्द्रवदन' नाम | पुत्र शतानीक के द्वारा मारा गया (म. द्रो. २४. से किया गया है। भस्म, खट्वांग आदि इनके प्रमुख | २३)। । आयुध थे (वामन. ६७.१-२३)। इनके ध्वज पर प्रायः भूतकेतु-एक राजा, जो दक्षसावर्णि मनु के पुत्रों में किसी पशु अथवा पक्षी का चिन्ह रहता था, एवं उसी पशु | से एक था। अथवा पक्षी के नाम से 'मयूरध्वज' अथवा 'मयूर- भूतज्योति--(सू, नृग.) एक राजा, जो सुमति वाहन' ऐसे नाम गणनायक को प्राप्त होते थे। राजा का पुत्र था। इसके पुत्र का नाम वसु था। . असुरों से युद्ध--भगवान् शंकर एवं अंधकासुर के | भूतधामन्--एक इंद्र, जिसे ऋतुधामन् नामान्तर बीच हुए युद्ध में, भतगण शंकर के पक्ष में शामिल था। भी प्राप्त है। जिन इंद्रों के अंश से पांडवों की उत्पत्ति इस युद्ध में, सर्वप्रथम 'विनायक' नामक भूतों के | हुी थी, उन में से दूसरा इंद्र यह था (म. आ. १८९. गणपति ने अंधक पर आक्रमण किया, जिस में अंधक | १९१६* पाठ.)। के द्वारा वह परास्त हुआ। तत्पश्चात् नंदी नामक अन्य भूतनंद--(किलकिला. भविष्य.) एक किलकिलाएक गणपति ने अंधक पर आक्रमण किया, एवं विनायक वंशीय राजा, जिसने पचास वर्षों तक राज्य किया। की सहाय्यता से अंधक से घमासान युद्ध कर उसे परास्त भूतनय--रैवत मन्वन्तर का एक देव । किया। अंधक शंकर की शरण में आने पर, उसे भी भूतमथन--स्कंद का एक सैनिक । इसके नाम के शिव ने अपने एक भूतगण का गणपति बनाया, एवं वह | लिए 'भूतलोन्मथन' पाठभेद प्राप्त है (म. श. भृगी नाम से प्रसिद्ध हुआ। | ४४. ६४)। ___ भगवान् शंकर ने महिषासुर एवं शुभ निशुंभ के साथ | भूतरजस्--रैवत मन्वन्तर का एक देवगण । इसके किये युद्ध में, उसके भूतगणों का अधिपति रुद्र न हो कर | नाम के लिए 'भूतरय' एवं 'भूतरज' पाठभेद 'रुद्राणी' नामक कई भूतस्त्रियाँ थी । इन दोनों युद्ध में | प्राप्त हैं। . भूतगणों का विजय हुआ। पुराणों में इन सारे युद्धों का भूतवर्मन्--दुर्योधन पक्ष के 'भूतशर्मन्' नामक राजा निर्देश देवीमहात्म्य बताने के लिए किया गया है। यही | के नाम के लिए उपलब्ध पाठभेद। कारण है कि, इन युद्धों का निर्देश वामन तथा मार्कंडेय भूतवीर--पुरोहितों के परिवार का एक सामुहिक पुराणों में एवं 'देवीमहात्म्य' में ही केवल उपलब्ध है। नाम। ऐतरेय ब्राह्मण के अनुसार, जनमेजय पारिक्षित राजा भूतगणों के बहुत सारे युद्ध असुरगणों से ही हुए थे। ने अपने कुलपरंपरागत कश्यप नामक पुरोहितों की उपेक्षा किन्तु दक्षयज्ञ के समय, इन्हे देवपक्ष से संग्राम करना | कर, इन्हे अपने पुरोहित बनाये, एवं इन्हीं के हाथों एक पड़ा । उस युद्ध में भी भूतगणों का विजय हुआ, एवं देव- | यज्ञसमारोह का आयोजन किया । किन्तु कश्यपों में से ५८१ पति रुद्र न हो कर प्राप्त हैं । --दुर्योधन प Page #604 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूतवीर प्राचीन चरित्रकोश भूमिंजय असितमृग नामक आचार्य ने इन्हे यज्ञमंडप से बाहर भूपति--एक सनातन विश्वेदेव (म. अनु. ९१. निकाल दिया, एवं स्वयं पौरोहित्यपद धारण किया। | ३२)। __ आगे चल कर विश्वंतर नामक राजा ने अपने श्यापर्ण भूमन--(स्वा. प्रिय.) एक राजा, जो प्रतिहर्तृ एवं नामक पुरोहितगण की इसी तरह उपेक्षा की। उस समय स्तुति का पुत्र था। इसे ऋषिकुल्या एवं देवकुल्या नामक श्यापर्ण पुरोहितों ने अपने अनुगामियों को असितमृग दो पत्नियाँ थी, जिनसे इसे क्रमशः उद्गीथ एवं प्रस्ताव कश्यप की उपर्युक्त कथा निवेदित की, एवं विश्वतर राजा | नामक पुत्र उत्पन्न हुए थे (भा. ५.१५.१५)। से जबरदस्ती से पौरोहित्य प्राप्त करने की सूचना दी। भूमि--एक भूदेवी, जो ब्रह्मा की पुत्री, एवं भगवान् उसपर राम भार्गवेय नामक ऋषि ने विश्वंतर से पौरोहित्य | नारायण की पत्नी थी। प्राप्त किया (ऐ. ब्रा. ७.२७)। __भगवान् नारायण के वाराह अवतार में उससे इसे । भूतशर्मन्--कौरव पक्ष का एक राजा, जो द्रोणाचार्य | एक पुत्र हुआ, जिसका नाम भौम अथवा नरकासुर था। के द्वारा निर्मित गरुडन्यूह के ग्रीवास्थान में खड़ा था भगवान् श्रीकृष्ण के द्वारा भौमासुर का वध होने पर, इसने (म. द्रो. १९.६)। इसके नाम के लिए 'भतवर्मन् । स्वयं प्रकट हो कर, अदिति के दोनो कुंडल लौटा दिये, एवं पाठभेद प्राप्त है। भौमासुर के संतान की रक्षा के लिए श्रीकृष्ण से प्रार्थना भूतसंतापन--एक राक्षस, जो हिरण्याक्ष के पुत्रों में से | की (भा. १०.५९.३१)। एक था (भा. ७.२.१८)। एकबार दैत्यों के कारण यह अत्यंत त्रस्त हुयी । फिर .. ___ भूता-पुलह ऋषि की पत्नी, जो कश्यप एवं क्रोधा | अपना भार उतारने के लिए इसने भगवान् विष्णु से की कन्याओं में से एक थी। प्रार्थना की, जो वाराह अवतार ले कर विष्णु ने पूर्ण की ... भूतांश काश्यप-एक वैदिक सूक्तद्रष्टा, जो कश्यप | (म. व. १४२. परि. १. क्र. १६. पंक्तिं. ८२-१०८)। .. ऋषि का वंशज था (ऋ. १०.१०६ )। परशुराम के द्वारा क्षात्रेय-संहार हो जाने के बाद, इसने इसे पुत्र न होने के कारण, इसने अश्वियों की स्तुति कश्यप ऋषि से सर्वसमर्थ 'भूपाल' निर्माण करने के करनेवाले एक सूक्त की रचना की। इसके द्वारा रचित लिए प्रार्थना की, एवं परशुराम के हत्याकांड से बचे हुए। यह सूक्त अत्यंत दुर्बोध है, एवं उसका अर्थ अत्यंत धूमिल | क्षत्रिय राजकुमारों का पता भी उसे बताया था (म. शां... है (बृहद्दे. ८.१८.२१)। ४९.६३-७९)। भूति--विश्वमित्र का एक पुत्र । सुविख्यात सम्राट पृथु वैन्य ने इसका दोहन किया था, २. अंगिरस् ऋषि का एक शिष्य, जो अत्यंत क्रूर एवं | जिस समय इसने उसे अपनी कन्या मानने के लिए प्रार्थना क्रोधी था (मार्क. ९६.२)। | की थी (म. द्रो. परि. १. क्र. ८. पंक्ति ७९१*)। ३. (सो. वृष्णि.) एक यादव राजा, जो वायु के महाभारत के अनुसार, अंग राजा से स्पर्धा करने के अनुसार सात्यकि के पुत्रों में से एक था। कारण, यह अदृश्य हो गयी थी। पश्चात् कश्यप ऋषि ने ४. मार्कंडेय पुराण में निर्दिष्ट पितरों का एक गण | इसे पुनः स्थिर किया, जिस कारण, इसे कश्यप ऋषि की (मार्क. ९२.९२)। कन्या इस अर्थ से 'काश्यपी' नाम प्राप्त हुआ (म. अनु. भूतिकृत एवं भतिद--मार्कंडेय पुराण में निर्दिष्ट, १५३.२)। . पितरों का एक गण (मार्क. ९२.९२)। श्रीकृष्ण को इसने ऋषि, पितर, देव एवं अतिथियों भाततीर्था--स्कंद की अनुचरी एक मातृका (म. के सत्कार का महत्व कथन किया था (म. अनु. ९७. श. ४५.२७)। ५-२३)। इसका महिमा संजय ने धृतराष्ट्र से कथन किया भूतिनंद-(नाग. भविष्य.) एक राजा, जो ब्रह्मांड | था। एवं वायु के अनुसार, मथुरा देश का राजा था। २. भूमिपति नामक प्राचीन नरेश की पत्नी (म. उ. भूतिमित्र--(कण्व. भविष्य.) एक राजा, जो वायु के | ११५.१४)। संभव है, यह व्यक्तिवाचक नाम न हो कर, अनुसार वसुदेव राजा का पुत्र था । ब्रह्मांड एवं मत्स्य में, एक उपाधि के रूप में इसका प्रयोग किया गया होगा। इसके नाम के लिए 'भूमिमित्र,' एवं भागवत एवं विष्णु | भूमिजय-विराटपुत्र उत्तर का नामान्तर (म. वि. में 'भूमित्र' पाठभेद प्राप्त है। | ३३.९)। Page #605 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिंजय प्राचीन चरित्रकोश भूरिश्रवस् २. एक कौरवपक्षीय योद्धा, जो द्रोणाचार्य के द्वारा भूरिद्युम्न--एक प्राचीन राजा, जो यमसभा में निर्मित गरुडव्यूह के हृदयस्थान पर खड़ा था (म. द्रो. | उपस्थित था (म. स. ८.१८, २०, २५, शां. १२६. १९.१३-१४)। १४)। इसके पिता का नाम वीरद्युम्न था। भूमित्र--कण्ववंशीय भतिमित्र राजा के नाम के लिए यह दुर्भाग्य के कारण विनष्ट हुआ था। किन्तु कृशतनु उपलब्ध पाठभेद (भूतिमित्र देखिये )। नामक ऋषि ने अपने तपोबल से इसे पुनः जीवित किया भूमिनी--पूरुवंशीय अजमीढ राजा की पत्नी।। (कृशतनु देखिये )। गोदान करने के कारण, इसे स्वर्ग प्राप्ति हो कर यह यमसभा में उपस्थित हुआ (म. अनु. भूमिपति--एक प्राचीन राजा (म.उ. ११५.१४ )। ७६.२५)। 'संभव है, यह किसी व्यक्ति का नाम न होकर, उपाधि के २. कृष्णभक्त एक ऋषि, जिसने शान्तिदूत बन कर रूप में प्रयुक्त किया होगा। हस्तिनापुर जाते समय मार्ग में श्रीकृष्ण की दक्षिणावर्त भूमिपाल-एक प्राचीन नरेश, जो क्रोधवश नामक परिक्रमा की थी (म. उ. ८१. २७)। दैत्यं के अंश से उत्पन्न हुआ था (म. आ.६१.५६-६१)। । ३. दक्षसावणि मनु के पुत्रों में से एक। भारतीय युद्ध में यह पांडवों के पक्ष में शामिल था ४. ब्रह्मसावर्णि मनु के पुत्रों में से एक । (म. उ. ४.२.१ )। भूरिबल-(सो. कुरु.) धृतराष्ट्र के शतपुत्रों में से - भूमिशय--एक . प्राचीन नरेश, जिसे अमूर्तरयस् एक । यह भीम के द्वारा मारा गया (म. श. २५.१२)। राजा से खङ्ग की प्राप्ति हुी थी। आगे चल कर, उस इसके नाम के लिए भीमबल पाठभेद प्राप्त है। खड्ग को इसने भरत दौष्यांति राजा को प्रदान किया था भूरियशस्--पांचालदेशीय एक राजा, जिसके पुत्र (म. शां. १६०.७३)। का नाम पुरुयशस् था ( पुरुयशस् देखिये)। भूयसि--अंगिराकुलोत्पन्न एक गोत्रकार । __भूरिश्रवस्--एक कुरुवंशीय राजा, जो सोमदत्त राजा भूयोमेधस्--सुमेधस् देवों में से एक । का पुत्र था (म. आ. १७७.१४)। इसे यूपकेतु एवं - भूरि-(सो. कुरु.) एक कुरुवंशीय सम्राट, जो | | यूपध्वज नामान्तर भी प्राप्त थे (म. द्रो. २४.५३; स्त्री. सोमदत्त राजा का पुत्र था। इसे भूरिश्रवस् एवं शल | २४.५)। नामक दो भाई थे। | इसे भूरि एवं शल नामक और दो बंधु थे। अपने भारतीय युद्ध के समय, यह कौरव पक्ष में शामिल | पिता एवं बन्धुओं के साथ, यह द्रौपदीस्वयंवर में उपस्थित था । उस युद्ध में हुए रात्रियुद्ध में, यह सात्यकि के | था (म. स. ३१.८)। युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में भी द्वारा मारा गया (भा. ९.२२.१८; म. द्रो. १४१.१२)। | यह उपस्थित था। अपनी मृत्यु के पश्चात् , यह एवं इसके भाई विश्वेदेवों भारतीय युद्ध में यह कौरवपक्ष में शामिल था। अपनी में सम्मिलित हो गये (म. स्व. ५.१४)। एक अक्षौहिणी सेना के सहित, यह दुर्योधन की २. (सो. कुरु. भविष्य.) एक कुरुवंशीय राजा, जो | सहाय्यता के लिए युद्ध में प्रविष्ट हुआ (म. उ. १९. मत्स्य के अनुसार विविक्षु राजा का पुत्र था । विष्णु एवं | १२)। यह रथयुद्ध में अत्यंत प्रवीण था, एवं इसकी वायु में इसे 'उष्ण', तथा भागवत में इसे 'उक्त' कहा | श्रेणि 'रथयूथपयूथप ' थी (म. उ. १६५. २९)। गया है भारतीय युद्ध में शंख, धृष्टकेतु, भीम, शिखण्डिन् भूरिकीर्ति--एक राजा, जो कुश एवं लव का श्वशुर | आदि के साथ इसका युद्ध हुआ था। मणिमत् नामक था । इसे चंपिका एवं सुमति नामक दो नातनें थी जो | राजा का इसने वध किया था (म. द्रो. २४.५१)। क्रमशः कुश एवं लव को विवाह में दी गयी थी, (आ. भूरिश्रवस्-सात्यकि-युद्ध-भारतीय युद्ध में यादव रा. विवाह. १)। | राजा सात्यकि के साथ इसका अत्यंत रौद्र युद्ध हुआ। भरितेजस्-एक प्राचीन नरेश, जो क्रोधवश नामक | कुरुवंशीय भरिश्रवस् एव यादववंशीय सात्यकि का शत्रुत्व दैत्य के अंश से उत्पन्न हुआ था (म. आ. ६१.५८- वंशपरंपरागत था । भूरिश्रवस् के पिता सोमदत्त एवं सात्याकि ६१)। भारतीय युद्ध में यह पांडवों के पक्ष में शामिल | के पिता शिनि दोनो देवकी के स्वयंवर में उपस्थित थे, था (म. उ. ४. २३)। एवं उस समय से इन दो कुलों में वैर का अग्नि सुलग ५८३ Page #606 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूरिश्रवस् प्राचीन चरित्रकोश रह था। उस स्वयंवर में देवकी ने शिनि का वरण किया।। भृगवाण--एक वैदिक सूक्तद्रष्टा (ऋ. १.१२०. उससे क्रुद्ध हो कर सोमदत्त ने शिनि से युद्ध प्रारंभ | ५)। ऋग्वेद में एक स्थान पर यह उस व्यक्ति का नाम किया, जिसमें शिनि ने सोमदत्त को जमीन पर घसीट | है, जिसे 'शोभ' कहा गया है। किन्तु लुड्विग के दिया, एवं उसके केश पकड़ कर उसे लत्ताप्रहार किया | अनुसार, इसका सही नाम 'घोष' था। कक्षिवत् नामक (शिनि एवं सोमदत्त देखिये)। | आचार्य से यह संबंधित था, किन्तु उस संबंध का स्वरूप भरिश्रवस् ने भी इस वैर की परंपरा अखंडित रखी | अत्यंत संदिग्ध है। थी। भारतीय युद्ध के प्रारंभ में ही इसने सात्यकि के दस ऋग्वेद में अन्यत्र यह शब्द अग्नि की उपाधि के रूप पुत्रों का वध किया था (म. भी. ७०.२५)। में आता है, जिससे भृगुओं के द्वारा की जानेवाली .... __भूरिश्रवस् एवं सात्यकि के दरम्यान हुए युद्ध में, यह अग्निपूजा का आशय प्रतीत है (ऋ. १.७१.४, ४. सात्यकि का वध करनेवाला ही था, कि इतने में सात्यकि | ७.४)। को बचाने के लिए अर्जन ने पीछे से आ कर इसका। भृगु-एक वैदिक पुरोहित गण । ऋग्वेद में इसका दाहिना हाथ तोड़ दिया (म. द्रो. ११७.६२)। क्षत्रिय | निर्देश अग्निपूजकों के रूप में कई बार किया गया है के लिए अशोभनीय इस कृत्य से यह अत्यधिक क्रुद्ध हुआ, | (ऋ. १.५८.६; १२७.७)। इन्हे सर्व प्रथम अमि की एवं अपना टूटा हुआ दाहिना हाथ अर्जुन के सम्मुख फेक | प्राप्ति हुयी, जिसकी कथा ऋग्वेद में अनेक बार दी गयी है। कर, इसने उसकी काफी निर्भर्त्सना की (म. द्रो. ११८)। (ऋ. २.४.२; १०.४६.२: तै. सं. ४.६.५.२) । मात.. पश्चात् इस कृत्य का निषेध करने के लिए इसने आमरण रिश्वन् के द्वारा इनकी अग्नि लाने की कथा ऋग्वेद में ' अनशन शुरु किया। उसी निःशस्त्र अवस्था में सात्यकि | प्राप्त है (ऋ. ३.५.१०)। ने इसका सर काट कर इसका वध किया (म. द्रो. ११८. ___ दाशराज्ञ युद्ध के समय भृगुगण के पुरोहित लोगों का ३५-३६)। | निर्देश द्रुह्यओं के साथ अनेक बार आता है (ऋ. ८.३.. इस क्रूरकर्म के कारण, अर्जुन एवं सात्यकि की सभी | ९; ६.१८; १०२.४)। द्रुह्य तथा तुर्वश के साथ साथ लोगों ने काफी निर्भर्त्सना की। किन्तु अर्जुन ने अपने भृगुओं का भी राजा सुदास के शत्रुओं के रूप में उल्लेख आत्मसमर्थन करते हुए कहा, 'संकुल युद्ध में शत्रु का | प्राप्त है (क्र. ७.१८)। पीछे से हाथ तोड़ने में कोई भी दोष नही है' । सात्यकि यह एक प्राचीन जाति के लोग थे; क्यों कि, स्तोतागण ने भी कौरवों के द्वारा निःशस्त्र अभिमन्यु का किया गया अंगिरसों तथा अथर्वनों के साथ साथ इनकी अपने सोमवध का दृष्टान्त दे कर, अपने कृय का समर्थन किया प्रेमी पितरों के रूप में चर्चा करते हैं । समस्त तैंतीस देवों, (म. द्रो. ११८.४२-४५, ४७)। मरुतों, जलों, अश्विनों, उषस् तथा सूर्य के साथ शगुओं का __ मृत्यु के पश्चात् यह विश्वेदेवों में सम्मिलित हुआ (म. भी सोमपान करने के लिए आवाहन किया गया है (ऋ. स्व. )। | १०.१४; ८.३)। इनकी सूर्य से तुलना की गई है, तथा २. एक ऋषि, जो शुक तथा पीवरी के पुत्रों में से एक यह कहा है कि, इनकी सभी कामनाएँ तृप्त हो गयीं था। थीं (ऋ. ८.३)। ३. एक राजा, जो मेरुसावर्णि मनु के पुत्रों में एक था। अग्नि को समर्पित सूक्तों में बार बार भृगुओं ४. एक आचार्य, जो मध्यमाध्वर्युओं में से एक था। को प्रमुखतः मनुष्यों के पास अग्नि पहुँचाने के कार्य भूरिश्रुत--शुकपुत्र भूरिश्रवस् नामक आचार्य का | से संबंध दर्शित किया गया है। अग्नि को भृगुओं का नामांतर। उपहार कहा गया है (ऋ. ३.२)। मंथन करते हुये इन भूरिषेण--एक राजा, जो ब्रह्मसावर्णि मनु के पुत्रों में लोगों ने स्तुति के द्वारा अमि का आवाहन किया था से एक था। (ऋ. १.१२७)। अपने प्रशस्तिगीतों से इन लोगों ने अग्नि २. (सु. शर्याति.) एक राजा, जो भागवत के अनुसार को लकड़ी में प्रकाशित किया था (ऋ. १०.१२२)। ये शर्याति राजा को पुत्रों में से एक था। लोग अग्नि को पृथ्वी का नाभि तक लाये (ऋ. १.१४३)। भूरिहन्--एक राक्षस, जो प्राचीन काल में पृथ्वी का | जहाँ अथर्वन् ने संस्कारों तथा यज्ञों की स्थापना की, शासक था (म. शां. २२०.५०; ५४-५५)। वहीं भृगुओं ने अपनी योग्यता से अपने को देवों के रूप ૬૮૪ Page #607 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भृगु प्राचीन चरित्रकोश भृगु प्रजापति में प्रकट किया (ऋ. १०.९२)। इस प्रकार हम कह दक्षयज्ञ-शंकर का अपमान कर के जिस समय दक्ष ने सकते हैं कि, इनकी योग्यता प्रमुखतः अग्नि उत्पन्न करने | यज्ञ किया था, उस समय यह उपस्थित था, एवं दक्ष के द्वारा बाले व्यक्तियों के रूप में व्यक्त की गयी है । अग्नि के | की गई शंकर की निन्दा में इसने भी भागा लिया था। अवतरण तथा मनुष्यों तक उसके पहुँचाने की पुराकथा | शंकर को जब यह ज्ञात हुआ तब उसने सबसे पहले नंदी प्रमुखतः मातरिश्वन तथा भृगुओं से संबंधित हैं । किंतु जहाँ को यज्ञविध्वंस करने के लिए भेजा, किंतु भृगु ने उसे शाप मातरिश्वन् उसे विद्युत् के रूप में आकाश से लाते हैं, वहीं भृगु दे कर भगा दिया । तब शिव ने अपने पार्षद वीरभद्र को उसे लाते नहीं, बल्कि केवल यही माना गया है कि यह | भेजा । वीरभद्र ने दक्षयज्ञ का विध्वंस किया, तथा यज्ञ में लोग पृथ्वी पर यज्ञ की प्रतिष्ठा तथा संपादन के लिए उसे | भाग लेनेवाले सभी ऋषियों को विद्रप बना डाला। उसने प्रदीप्त करते हैं। | क्रोध में आकर इसकी दाढ़ी भी जला डाली । यह विध्वंसव्युत्पत्ति की दृष्टि से भी 'भृगु' शब्द का अर्थ | कारी लीला से भयातुर हो कर, सभी ऋषियों एवं देवों ने 'प्रकाशमान' है, जैसा कि भ्राज (प्रकाशित होना) धातु शंकर की स्तुति की, जिससे प्रसन्न हो कर शंकर ने इसे से निष्पन्न होता है । बर्गेन के विचार इस बात पर कदाचित | बकरे के दाढ़ी प्रदान की (भा. ४.५.१७-१९)। ब्रह्मांड . ही सन्देह किया जा सकते है कि, मूलतः 'भृगु' अग्नि का | के अनुसार, दक्ष द्वारा अपमानित होने के कारण शिव ने ही मूल नाम था; जब कि कुन तथा बार्थ इस मत पर | इसे जला डाला था (ब्रह्मांड. २.११.१-१०)। सहमत है कि, अग्नि के जिस रूप का यह प्रतिनिधित्व देवदैत्य संग्राम--देवों तथा असुरों के बीच होनेवाले करता है, वह विद्युत् है । कुन तथा वेबर ने अग्नि पुरोहितों युद्ध में दैत्यो को पराजय का मुख देखना पड़ा। यह के रूप में भृगुओं को यूनानी देवों के साथ समीकृत किया | देख कर, असुरों के गुरु शुक्र 'संजीवनी' मंत्र लाने के लिए गया । दूसरी ओर भृगु, जो असुरों का बड़ा पक्षपाती था, बाद के साहित्य में भृग-गण, एक वास्तविक परिवार है | वह भी तपस्या के लिये चला गया। तब इसकी पत्नी देवों तथा कौषीतकि ब्राह्मण के अनुसार, ऐतशायन भी इनके | से संग्राम करती रही। विष्णु ने उसे यद्धभूमि में डट कर एक अंग है। परोहितों के रूप में भृगओं का 'अग्नि- देवों को मारते हुए देखा । पहले तो वह शान्त रहे, फिर स्थापन' तथा 'दशपेयऋतु' जैसे अनेक संस्कारों के सम्बन्ध | बिना विचार किये हुए कि वह स्त्री है, उन्होंने अपने में उल्लेख है। अनेक स्थलों पर ये लोग अंगिरसों के सुदर्शन चक्रद्वारा उसका वध किया। साथ भी संयुक्त है (ते. सं. १.१.७.२, मै. सं. १.१.८; ते. ब्रा. १.१.४.८; ३.२.७.६; श. ब्रा. १.२.१.१३)।। __ भृगु को जैसे ही यह पता चला, इसने संजीवनीमंत्र इन दो परिवारों का घनिष्ठ सम्बन्ध इस तथ्य से प्रकट होता से अपनी पत्नी को जिला लिया, तथा विष्णु को शाप है कि, शतपथ ब्राह्यण में 'च्यवन' को ' भार्गव' या | दिया, 'तुम्हे गर्भ में रह कर उसकी पीड़ा को सहन कर, 'आंगिरस' दोनो ही कहा गया है (श, ब्रा. ४.१.५.१)। पृथ्वी पर अवतार लेना पड़ेगा' (दे.भा. ४.११-१२)। अथर्ववेद में, ब्राह्मणों को त्रस्त करनेवाले लोगों पर पड़ने स्त्रीवध उचित है अथवा अनुचित इसके बारे में यह वाली विपत्तियों का दृष्टान्त देने के लिए 'भृगु' नाम का निर्देश रामायण में प्राप्त है। 'ताडकावध' के समय उपयोग किया गया है। विश्वामित्र ने राम को समझाते हुए कहा था कि, विशेष ऋग्वेद में एक स्थान पर, भृगुगण का निर्देश एक प्रसंग में 'स्त्रीवध ' अनुचित नहीं, उचित है (वा. रा. योद्धाओं के समूह के रूप भी किया हुआ प्रतीत होता है | बा. २५.२१ ) । (ऋ. ७.१८.६)। विष्णु को भगु से शाप मिलने की एक दूसरी कथा २. कश्यपकुल का गोत्रकार ऋषिगण । पद्मपुराण में प्राप्त है। विष्णु ने पहले भृगु को यह वचन भृगु प्रजापति--पुराणों में निर्दिष्ट प्रजापतियों में | दिया था कि, वह इसके यज्ञ की रक्षा करेगा। किन्तु यज्ञ से एक, जो स्वायंभुव तथा चाक्षुष मन्वन्तर के सप्तर्षियों के समय वह इन्द्र के निमंत्रण पर उसके यहाँ चला गया। में से एक था । स्वायंभुव मन्वन्तर में इसकी उत्पत्ति यज्ञ के समय विष्णु को न देख कर दैत्यों ने इसके यज्ञ का ब्रह्मा के हृदय से हुयी। यह स्वायंभुव मनु का दामाद नाश किया। इससे क्रोधित हो कर भृगु ने विष्णु को मृत्युलोक एवं शंकर का साढू था। में दस बार जन्म लेने का शाप दिया (पन. भू. १२१)। प्रा. च.७४] Page #608 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भृगु प्रजापति प्राचीन चरित्रकोश भृगु वारुणि देवों की परीक्षा--एक बार स्वायंभुव मनु ने एक यज्ञ | भागवत, विष्णुपुराण तथा महाभारत में भी इसके किया, जिसमें यह विवाद खड़ा हुआ कि, ब्रह्मा विष्णु | परिवार के बारे में सूचना प्राप्त होती है (भा. ४.१. तथा महेश में कौन श्रेष्ठा है ? भृगु उस में था, अतएव । | ४५, विष्णु. १.१०.१-५; म. आ.६०.४८; कवि तथा इस बात का पता लगाने का काम इसे सौंपा गया। भृगु | उशनस् देखिये) सर्वप्रथम कैलाश पर्वत पर शंकरजी के यहाँ गया । वहाँ भृगु 'वारुणि'--ब्रह्मा के आठ मानस पुत्रों में से पर नंदी ने इसे अन्दर जाने के लिए रोका, कारण कि वहाँ | एक, जिससे आगे चल कर ब्राह्मण कुलों का निर्माण हुआ। शंकर-पार्वती क्रीड़ा में निमग्न थे। इसप्रकार के अपमान एवं ब्रह्मा के आठ मानस पुत्र इस प्रकार हैं:--भृग, अंगिरस् , उपेक्षा को यह सहन न कर सका, और क्रोधावेश में मरीचि, अत्रि, वसिष्ठ, पुलस्त्य, पुलह एवं ऋतु (वायु. शंकर को शाप दिया, 'तुम्हारे शरीर का आकार लिंग रूप | ९.६८-६९)। 'पितामह' ब्रह्मा से उत्पन्न होने के में माना जायेगा, तथा तुम्हारे उपर चढ़ाये हुये जल को कारण, इन सभी ऋषियों को 'पैतामहर्षि' सामुहिक नाम ले कर कोई भी व्यक्ति तीर्थ रूप में पान न करेगा। प्राप्त हैं। यह अग्नि की ज्वाला से उत्पन्न हुआ, अतः इसके उपरांत यह ब्रह्मा के पास गया, वहाँ ब्रह्मा ने | इसका नाम 'भृगु' पड़ा (म. अनु. ८५.१०६)। न इसको नमस्कार ही किया, और न इसका उचित सम्मान ___ जन्म-महाभारत एवं पुराणों के अनुसार, ब्रह्मा के कर उत्थापन ही दिया। इससे क्रोधित होकर इसने शाप द्वारा किये गये यज्ञ से भृगु सर्वप्रथम उत्पन्न हुआ, एवं शिव दिया, 'तुम्हारा पूजन कोई न करेगा। ने वरुण का रूप धारण कर इसे पुत्र रूप में धारण किया। अंत में यह विष्णु के पास गया। विष्णु उस समय इसलिए इसे 'वारुणि' उपाधि प्राप्त हुयी (म. आ. ५. सो रहे थे। यह दो देवताओं से रुष्ट ही था। क्रोध में २१६%; अनु. १३२.३६, ब्रह्मांड. ३.२.३८)। कई . आकर भृगु ने विष्णुके सीने पर कस कर एक लात मारी। पुराणों के अनुसार, ब्राममानस पुत्रों में से कवि नामक विष्णु की नींद टूटी तथा उन्होंने इसे नमस्कार कर पूछा, एक और पुत्र का निर्देश प्राप्त है, उसे भी वरुणरूपधारी शिव ने पुत्र रूप में स्वीकार किया, जिसके कारण कवि 'आप के घरों को तो चोट नहीं लगी?'| विष्णु की यह को भी भृगु का भाई कहा जाता है। शालीनता देखकर भृगु प्रसन्न हुआ, तथा इसने विष्णु को | ब्राह्मण ग्रन्थों में भी इसे 'वारुणि भृग' कहा गया है। सर्वश्रेष्ठ देवता की पदवी प्रदान की ( पध्न. उ. २५५)। भृगु के द्वारा किये गये लात के प्रहार को श्रीविष्णु ने किन्तु वहाँ इसे प्रजापति का पुत्र कहा गया है, एवं इसकी जन्मकथा कुछ अलग ढंग से दी गयी है। इन ग्रन्थों के 'श्रीवत्स'चिह्न मानकर धारण किया(भा.१०.८९.१-१२)। अनुसार, प्रजापति ने एक बार अपना वीर्य स्खलित किया, परिवार-ब्रह्माण्ड के अनुसार, इसकी पत्नी दक्षकन्या जिसके तीन भाग हो गये, एवं इन भागों से आदित्य, भृगु एवं अंगिरस् की उत्पत्ति हुयी (ऐ. बा. ३.३४ )। सन्ताने हुयीं । लक्ष्मी ने नारायण का वरण किया, तथा | पंचविंश ब्राह्मण में इसे वरुण के वीर्यस्खलन से उत्पन्न उससे बल तथा उन्माद नामक पुत्र हुए। कालान्तर में बल हुआ कहा गया है (पं. बा. १८.९.१)। शतपथ ब्राह्मण को तेज, तथा उन्माद को संशय नामक पुत्र हुए। भृगु ने के अनुसार, यह वरुण द्वारा उत्पन्न किया गया, एवं उसी मन से कई पुत्र उत्पन्न किये, जो आकाशगामी होकर देवों के द्वारा इसे ब्रह्मज्ञान की प्राप्ति हुयी, जिस कारण इसे के विमानों के चालक बने। 'भृगु वारुणि' नाम प्राप्त हुआ (श. ब्रा. ११.६.१.१; ख्यातिपुत्र धातु की पत्नी का नाम नियति, तथा ते. आ. ९.१; तै. उ. १.३.१.१)। विधातृ की पत्नी का नाम आयति था। नियति को मृकंड, गोपथ ब्राहाण के अनुसार, सष्टि की उत्पत्ति के लिए एवं आयति को प्राण नामक पुत्र हुए। मृकंड को मनस्विनी | जिस समय ब्रह्म- तपस्या में लीन था, उस समय उसके से मार्कडेय हुआ। मार्केडेय को धूम्रा से वेदशिरस् हुआ। शरीर से स्वेदकण पृथ्वी पर गिरे। उन स्वेदकणों में अपनी वेदशिरस को पीवरी से मार्कडेय नाम से प्रसिद्ध ऋषि हुए। परछाई देखने के कारण ही, ब्रह्मा का वीर्य स्खलन हुआ। प्राण को पुंडरिका से द्युतिमान् नामक पुत्र हुआ, जिसे उन्नत | उस वीर्य के दो भाग हुए-उनमें से जो भाग शान्त, पेय तथा स्वनवत् नामक पुत्र हुए। ये सभी लोग भार्गव एवं स्वादिष्ट था, उससे भृगु की उत्पत्ति हुयी; एवं जो माग नाम से प्रसिद्ध हुए (ब्रह्मांड. २.११.१-१०, १३.६२)। खारा, अपेय एवं अस्वादिष्ट था, उससे अंगिरस् ऋषि की ५८६ Page #609 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भृशु वारुणि उत्पत्ति हुयी। जन्म लेते ही इसने अपने मुँह से जो नाद निस्सृत किया, उसी कारण इसका नाम 'अथर्वन्' हुआ । आगे चलकर अथर्वन् एवं अंगिरस् से दस दस मिल कर बीस रूपे उत्पन्न हुए, जिन्हे ' अथर्वन् आंगिरस' नाम ऋषि प्राप्त हुआ। वेदोत्पत्ति अथर्वन् ऋषि के द्वारा ब्रह्मा को जो वेदमंत्र - दृष्टिगत हुए, उन्हीं के द्वारा 'अथर्ववेद' की रचना हुयी, एवं अंगिरस ऋषि के द्वारा दृष्टिगत हुए मंत्रों से 'आंगिरसवेद' का निर्माण हुआ । . ब्रह्मा के द्वारा पुष्कर क्षेत्र में किये गये यज्ञ में यह 'होता' था, एवं देवों के द्वारा तुंगक आरण्य में किये गये यज्ञ में यह आचार्य था। इन्हीं दोनों यज्ञों के समय इसने भीष्म पंचकत्रत किया था (पद्म. सू. ३४ स्व. २९ उ. १२४ ) । इसे संजीवनी विद्या अवगत थी, जिसके बाल से इसने जमदग्नि को पुनः जीवित किया था ( ब्रह्मांड. १.३० ) । ' प्राचीन चरित्रकोश . नहुष को शाप नहुष के अविवेकी व्यवहारों से - देवतागण एवं सारी प्रजा प्रस्त थी। उसे देख कर अगस्त्य ऋषि भृगु ऋषि से मंत्रणा लेने के लिए आया। इसने उसे राय दी कि तुम सभी सप्तऋषि हुष के रथ के वाहन बनो इस प्रकार सभी सप्तऋषियों ने नहुष के रथ को खींचा। रथ धीमा चल रहा था, अतएव नहुष ने क्रोध में आकर तेज चलने के लिए सर्प सर्प कहा, तथा एक छात अगस्य के मारी। इस समय अगस्त्य की जटाओं में भृगु विराजमान था, अतएव बात इसे लगी, तथा इसने नहुष को सर्प (नाग) बन जाने के लिए शाप दिया, तथा उसे इन्द्रपद से च्युत किया (म. अनु. ९९ देखिये) । 6 , नहुष एक बार हिमालय तथा विंध्य पर्वतों में अकाल पड़ा। उस समय यह हिमालय पर गया। यहाँ पर इसने एक विद्याधर दम्पति को देखा, जिसमें पति का मुख किसी शाप के कारण व्यान का था। उस दमति के द्वारा प्रार्थना किये जाने पर, इसने उस पुरुष को पौष शुद्ध एकादशी का व्रत करने के लिए कहा, जिसके द्वारा यह शाप से मुक्त हो संका (पद्म, उ. १२५ ) । भृगु वारुणि वीतहव्य को शरण देकर उसे ब्राह्मणत्व प्रदान कर उपदेश दिया था ( म. अनु. ३०.५७-५८ ) । इसी प्रकार निम्नलिखित विषयों पर इसके द्वारा व्यक्त किए गये विचारों में इसका दार्शनिक पक्ष देखने योग्य हैः- :शरीर के भीतर जठरानल तथा प्राण, अपान आदि बायुओं की स्थिति ( म. शां. १७८), सत्य की महिमा, असत्य फे दोष तथा लोग परलोक के दुःखसुख का विवेचन ( म. शां. १८३), परलोक तथा वानप्रस्थ एवं संन्यास का वर्णन आदि (म. शां. १८५ ) । इसने सोमकान्त राजा को गणेश पुराण भी बताया था ( गणेश १.९) । - • संवाद - महाभारत एवं पुराणों में, इसके अन्य राजाभ एवं ऋषियों के बीच तत्त्वज्ञान सम्बधी जो वार्ताएँ हुई, उनका स्थान स्थान पर निर्देश मिलता है। इसका एवं भरद्वाज का जगत की उत्पत्ति तथा विभिन्न तत्वों के वर्णन के संबन्ध में संवाद हुआ था (म. शां. १७५,४८३०) । इसने 6 । आश्रममृगलुंग नामक पर्वत पर भृगु ऋषि का आश्रम था, जहाँ इसने तपस्या की थी। इसी के ही कारण, इस पर्वत को भृगुतुंग' नाम प्राप्त हुआ था। तत्वज्ञान - तैत्तिरीय उपनिषद में एक तत्व के नाते भृगु वारुणि का निर्देश प्राप्त है। इसके द्वारा पंचकोशात्मक ब्रह्म का कथन प्राप्त है, जिसके अनुसार अन्न, प्राण, मन, विज्ञान एवं आनंद इस क्रम से ब्रा का वर्णन किया गया है ( तै. उ. ३.१.१ - ६ ) । किन्तु ब्रह्म की प्राप्ति केवल विचार से ही हो सकती है, ऐसा इसका अन्तिम सिद्धान्त था । । परिवार - भृगु को दिव्या तथा पुलोमा नामक दो पत्तियाँ थी। उन में से दिव्या हिरण्याकशिपु नामक असुर की कन्या थी ( ब्रह्मांड. ३.१.७४; वायु. ६५. ७३) । महाभारत में पुलोमा को भी हिरण्यकशिपु की कन्या कहा गया है। पुलोमा से इसे कुछ उन्नीस पुत्र हुए, जिनमें से बारह देवयोनि के एवं बाकी सात ऋषि थे। इससे उत्पन्न बारह देव निम्नलिखित :- भुवन, भावन, अंत्य, अंत्यायन, ऋतु, शुचि, स्वमूर्धन्, व्याज वसुद्र, प्रभव, अव्यय एवं अधिपति । पुलोमा से उत्पन्न सात ऋषि निम्नलिखित :- यवन, उशनस् शुक्र, बज्रशीर्ष, शुचि, औवं वरेण्य एवं सवन । ब्रह्मांड में उपर्युक्त सारे देव एवं ऋषि दिव्या के पुत्र कहे गये है, एवं फेवल च्यवन को पुलोमा का पुत्र बताया गया है ( ब्रह्मांड. ३.१.८९ - ९०,९२ ) । इसके पुत्रों में उशनस् शुक्र एवं च्यवन ये दो पुत्र अत्यधिक महत्वपूर्ण थे, क्यों कि, उन्हीसे आगे चल कर भृगु (भार्गव) वंश का विस्तार हुआ। इनमें से शुक्र का वंश दैत्यपक्ष में शामिल हो कर विनष्ट हो गया। इस तरह च्यवन ऋषि के परिवार से ही आगे चल कर ५८७ Page #610 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भृगु वारुणि प्राचीन चरित्रकोश भृगु वारुण सुविख्यात भार्गव वंश निर्माण हुआ। भृगुवंश के इन हुी। भृगु के इस क्षत्रियब्राह्मण वंश में, निम्नलिखित दो प्रमुख वंशकार ऋषियों का वंशविस्तार निम्नलिखित ऋषि भी समाविष्ट थे:--मत्स्य, मौद्गलायन, सांकृत्य, गाायन, गार्गिय, कपि, मैत्रेय, वध्रयश्व एवं दिवोदास (१) शुक्र का परिवार-शुक्र को अपनी गो नामक (मत्स्य, १९५.२२-२३)। ब्रह्मांड में भार्गव वंश के पत्नी से वरुत्रिन् , त्वष्ट, शंड एवं मर्क ऐसे चार पुत्र हुए। | उन्नीस सूक्तकारों का निर्देश प्राप्त है (ब्रह्मांड, २.३२. उनमें से वरुत्रिन् को रजत् , पृथुरश्मि एवं बृहदंगिरस् १०४-१०६)। वहाँ इन भार्गव वंश के बहुत सारे क्षत्रिय नामक तीन ब्रह्मिष्ठ एवं असुरयाजक पुत्र उत्पन्न हुए (वायु. ब्राह्मण ऋषियों का अंतरभाव किया है। ६५.७८) । वरुत्रिन के ये तीनो पुत्र दैत्यों के धर्मगुरु थे, भृगु-आंगिरस परिवार--भृगु वारुणि, उसका भाई कपि एवं वे देवासुर संग्राम में अन्य दैत्यों के साथ नष्ट हो एवं अंगिरस् आग्नेय, ये तीनो प्राचीन ब्राह्मण कुलों के गये । त्वष्ट्र को त्रिशिरस् विश्वरूप एवं विश्वकर्मन् नामक | आद्य निर्माता ऋषि माने जाते है। प्रारंभ में ये तीनों । ब्राह्मण वंश स्वतंत्र थे । किन्तु आगे चल कर भृगु, कवि दो पुत्र थे। एवं अंगिरस् ये तीनो वंश एकत्रित हुए, जिन्हे 'भृगुशुक्र के अन्य दो पुत्र शंड एवं मर्क शुरु में दैत्यों के आंगिरस' अथवा 'आंगिरस' नाम प्राप्त हुआ (म.अनु. धर्मगुरु थे। किन्तु पश्चात् वे देवों के पक्ष में शामिल ८५.१९-३८)। इस भगु-आंगिरस वंश में भृगु के सात हो गये, जिस कारण शुक्र ने उन्हे विनष्ट होने का शाप पुत्र, एवं अंगिरस् तथा कवि के प्रत्येकी आठ पुत्रों के... दिया। इनमें मर्क से मार्कडेय नामक वंश की उत्पत्ति | के वंशज सम्निलित थे। इस वंश में सम्मिलित हुए हुयी। अंगिरस् एवं कवि के पुत्रों के नाम निम्नलिखित थे:-- भौगोलिक दृष्टि से शुक्र एवं उसका परिवार उत्तरी भारत के मध्यप्रदेश से संबंधित प्रतीत होता है (शुक्र (1) अंगिरस्पुत्र--बृहस्पति, उतथ्य, पयश्य, शांति, . | घोर, विरूप, सुधन्वन् एवं संवर्त । देखिये)। (२) कविपुत्र-कवि, काव्य, धृष्णु, बुद्धिमत् , (२) च्यवन का परिवार-च्यवन ऋषि को शर्याति राजा उशनस् भृगु, विरज, काशिन् एवं उग्र। । की कन्या सुकन्या से आप्नवान् एवं दधीच नामक दो पुत्र भृगु एवं आंगिरस वंश एक होने के बाद उनके ग्रंथ :उत्पन्न हुए। उनमें से आप्नवान् के वंश में ऋचीक, जमदग्नि ही 'भृग्वंगिरस्' अथवा 'अथर्वागिरस्' नाम से एकत्र हो एवं परशुराम जामदग्न्य इस क्रम से एक से एक अधिक | गये। आधुनिक काल में उपलब्ध अथर्वसंहिता भृगु एवं पराक्रमी एवं विद्यासंपन्न पुत्र उत्पन्न हुए । आमवान् के आंगिरस ग्रंथों के सम्मीलन से ही बनी हुयी है। इन पराक्रमी वंशजों ने हैहयवंशीय राजाओं के साथ किया विवाहसंबंध-आधुनिक काल में, विवाह करते समय शत्रुत्व सुविख्यात है (परशुराम जामदग्न्य देखिये)।। जिन दो गोत्रों के प्रवर एक है, उन में विवाह तय नहीं भार्गव वंश के इस शाखा का विस्तार पश्चिम हिंदुस्थान | किया जाता । भृगु एवं अंगिरस् ये दो गोत्र ही केवल में आनर्त प्रदेश में हुआ था। ऐसे है कि, जहाँ प्रवर एक होने पर भी विवाह तय दधीच ऋषि को सरस्वती नामक पत्नी से सारस्वत करने में बाधा नहीं आती है। संभव है, ये दोनों मूल नामक पुत्र उत्पन्न हुआ। किन्तु भार्गव वंश के इस शाखा गोत्रकार अलग वंश के होने के कारण, यह धार्मिक के बारे में अधिक जानकारी प्राप्त नहीं है। परंपरा प्रस्थापित की गयी हो। ___ भार्गवगण--ब्रह्मांड के अनुसार, भार्गव वंश में ___ भृगु गोत्रियों में भृगु, जामदग्न्य भृगु ऐसे अनेक उपयुक्त भृगुवंशीयों के अतिरिक्त निम्नलिखित सात गण | भेद हैं । आंगिरस वंशियों में भी भरद्वाज-आंगिरस, गौतम प्रमुख थः-१. वत्स, २. विद, ३. आष्टषण, ४. यस्क | आंगिरस ऐसे अनेक भेद प्राप्त हैं। इन सारे गोत्रों में ५. वैन्य, ६. शौनक, ७. मित्रेयु (ब्रह्मांड. ३.१. ७४ काफी नामसादृश्य दिखाई देता हैं। किन्तु इन सारे १००)। गोत्रों के मूल गोत्रकार विभिन्न वंशों में उत्पन्न हये थे। क्षत्रियब्राह्मण--च्यवन ऋषि के परिवार ने ब्राह्मण | यही कारण है कि, इन गोत्रों के प्रवर एक हो कर भी हो कर भी क्षत्रियकर्म स्वीकार लिया, जिस कारण, | उन में विवाह होता है। भार्गव वंशियों को 'क्षत्रियब्राह्मण' उपाधि प्राप्त | वैदिक वाङ्मय में भृगु प्रजापति एवं भृगु वारुणि स्वतंत्र Page #611 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भृगु वारुणि प्राचीन चरित्रकोश भृगु वारुण व्यक्ति दिये गये है। किन्तु पौराणिक वाङ्मय में उन्हे बहुत भृगुकुल के निम्नलिखित गोत्रकार भी पंचप्रवरात्मक बूरी तरह संमिश्रित किया गया है। अंगिरसों के संबंध | ही है। किंतु उनके आप्नवान् , आर्टिषेण, च्यवन, भगु में भी यही स्थिति प्रतीत होती है (अंगिरस् देखिये)। एवं रूपि ये पाँच प्रवर होते हैं :-आपस्तंबि, आर्टिषेण, ग्रंथ-भगुस्मृति; २. भगुगीता, जिसमें वेदान्त विषयक | अश्वायनि, कटायनि, कपि, कार्दमायनि, गार्दभि, ग्राम्यायणि, प्रश्नों की चर्चा की गयी है; ३. भगुसंहिता, जिसमें ज्योतिष नैकशि, बिल्वि (भल्ली), भगुदास, मार्गपथ एवं रूपि । शास्त्रविषयक प्रश्नों की चर्चा की गयी है; ४. भगुसिद्धान्त; (२) चतुःप्रवरात्मक गोत्रकार-भगुकुल के निम्नलिखित ५. भृगुसूत्र (C.C.)। गोत्रकार चतुःप्रवरात्मक है, जिनके भगु, रैवस, वीतिहव्य मत्स्य के अनुसार, इसने वास्तुशास्त्र विषयक एक ग्रंथ एवं वैवस ये चार प्रवर होते हैं:-काश्यपि, कौशापि की रचना भी की थी। | गार्गीय, चलि, जाबालि, जैवन्त्यायनि, तिथि, दम (मोदम, सदमोदम), पिलि, पौष्णायन, बालपि, भागवित्ति, भागिल, मनुस्मृति से प्रतीत होता है, कि धर्मशास्त्र से संबंधित मथित (माधव), मौज, यस्क, रामोद, वीतिहव्य, श्रमदाविषयों पर भी इसके द्वारा कई ग्रंथों की रचना हुयी थी | गेपि और सौर। (मनु देखिये)। (३) त्रिप्रवरात्मक गोत्रकार-भृगुकुल के निम्नलिखित भृगुकुल के गोत्रकार--भगकुलोत्पन्न गोत्रकारों में पंच- | | गोत्रकार त्रिप्रवरात्मक हैं, जिनके आमवान् , च्यवन, एवं प्रवरात्मक (पाँच प्रवरोंवाले), चतुःप्रवरात्मक (चार | | भृगु ये तीन प्रवर होते हैं:-उभयजात, और्वेय (ग), प्रवरोंवाले), त्रिप्रवरात्मक (तीन प्रवरोंवाले ), एवं कायनि, जमदग्नि, पौलस्त्य, बिद, बैजभृत, मारुत (ग), द्विप्रवरात्मक (दो प्रवरोंवाले) ऐसे चार प्रमुख प्रकार है। और शाकटायन । (१) पंचप्रवरात्मक गोत्रकार--भगुकुल के निम्नलिखित भृगुकुल के निम्नलिखित गोत्रकार भी त्रिप्रवरात्मक गोत्रकार पंचप्रवरात्मक है, जिनके आप्नवान् , औवे, च्यवन, | है, किन्तु उनके दिवोदास, भगु एवं वध्यश्व ये तीन प्रवर जमदग्नि, एवं भृगु, ये पाँच प्रवर होते है:-अनंतभागिन् , होते हैं :--अपिकायनि, अपिशि (अपिशली), खांडव, अनुमति, आप्नवान, आलुकि (जलाभित), आवेद | द्रौणायन, मैत्रेय, रौक्मायणि (रौक्मायण), शाकटाक्ष, (आबाज), उपारमडल, पालक, आव, काषाण (पावाण), | शालायनि, और हंसजिह्व। कत्स. कौचहास्तिक, कोटिल, कौत्स, कौसि, क्षुभ्य, गायन, (४) द्विप्रवरात्मक गोत्रकार--भगुकल के निम्नलिखित गाायण, गार्हायण, गोष्ठायन, चलकुंडल, चातकि, गोत्रकार द्विप्रवरात्मक हैं, जिनके गृत्समद एवं भगु ये दो चांद्रमसि, च्यवन, जमदग्नि, जविन् (ग), जालधि, प्रवर होते हैं:--एकायन, कार्दमायनि, गृत्समद, चौक्षि, जिह्वक ( जिह्मक, नदाकि), दंडिन् (दर्भि), देवपति, नडायन प्रत्यह (प्रत्यूह), मत्स्यगंध, यज्ञपति, शाकायन, सनक (नवप्रभ), नाकुलि, नीतिन् (ग), नील, नेतिष्य, नैकजिह्व और सौरि (मत्स्य. १९५)। पांडुरोचि, पूर्णिमागतिक (पौर्णिमागतिक), पैंगलायनि, ___ भृगुकुल के मंत्रकारः--भगुकुल के मंत्रकारों की पैल, पौर, फेनप, बालाकि, भृगु, भ्राष्टकायणि, मंड (मुंड), नामावलि मत्स्य, वायु, एवं ब्रह्मांड में प्राप्त है (मत्स्य. मांकायन (कार्मायन), मार्कड, मार्गेय (भागेय), मांडव्य, । १४५.९८-१००, वायु. ५९.९५-९७; ब्रह्मांड. २.३२. मांडूक, मालयनि मृग (भृत), मौद्गलायन, यज्ञपिंडायन, १०४-१०६)। उनमें से ब्रह्मांड में प्राप्त नामावलि निम्न( यद्रामिलायन एवं याज्ञ), योशेयि, रौहित्यायनि, लालाटि लिखित है, जिसमें वायु एवं ब्रह्मांड में उपलब्ध पाठ कोष्ठक (ललाटि), लिंबुकि, लुब्ध, लोलाक्षि, लौक्षिण्य, लौहवैरिण, | में क्रमशः दिये गये है:-आत्मवत् , आर्टिषेण (अद्विषेण ), वांगायनि, वात्स्य (वत्स्य), वाह्ययन (महाभाग), विरूपाक्ष ऊर्व (और्व), गृत्स (गृत्समत्), च्यवन, जमदग्नि, विष्णु, वीतिहव्य वैकणिनि (वैकर्णेय), वैगायन, वैशंपायन, दधीच (ऋचीक), दिवोदास, प्रचेतस् , ब्रह्मवत् (वाध्यश्व) वैश्वानरि, वैहीनरि, व्याधाज्य, शारद्वतिक, शार्कराक्षि, | भृगु, युधाजित् , वीतहव्य, वेद (विद), वैन्य (पृथु ) शाङ्गरव, शिखावर्ण, शौनक, शौनकायन-जीवन्ति (शौन शौनक, सारस्वत, सुवेधस् (सुवर्चस् , सुमेधस् )। कायन जीवंतिक), सकौवाक्षि (सकौगाक्षि), सगालव, सांकृत्य, सात्यायनि, सार्पि, सावर्णिक, सोक्रि, सौचाक, इनके अतिरिक्त, अपर, नम, प्रश्वार नामक मंत्रकारों सौधिक, सौह, स्तनित एवं स्थलपिंड । का निर्देश केवल वायु में कवि नामक मंत्रकार का निर्देश Page #612 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भृगुदास प्राचीन चरित्रकोश वायु एवं ब्रह्मांड में; एवं च्यवन और युधिजित् का निर्देश हर्यश्व (विष्णु. ४. १९.१५); भद्राश्च ( मत्स्य. केवल मत्स्य में प्राप्त है। ५०.४)। भृगुदास-भृगुकुलोत्पन्न एक गोत्रकार। __इसे निन्मलिखित पाँच पुत्र थे:- मुद्गल, संजय । भृग्वंगिरस्-अथर्ववेद जाननेवाले ऋषिसमुदाय के (सृजय), बृहदिशु, यवीनर, का पिल्य (कपिल अथवा लिए प्रयुक्त सामूहिक नाम (गो. बा. १.३.१, श. ब्रा. कामलाव) । पच्छाल २. आर मम्याश्व दाख कृमिलाश्व)। पंच्छाल २. और भाश्व देखिये । १.२.१.१३)। यह ऋषिसमुदाय प्रायः भृग एवं भृशाश्व-एक ऋषि, जिसके पुत्र का नाम देवअंगिरस्वंशीय ऋषियों से बना हुआ था। ऋग्वेद में कई प्रहरण था। प्रहरण था। स्थानों पर इनका निर्देश अथर्वन् लोगों के साथ किया भृशंडिन्--एक मछुआ, जो दंडकारण्य में चौयकर्म गया है (ऋ. ८.३५.३; १०.१४.६)। किंतु भृगु, कर अपनी जीविका चलाता था। अथर्वन् एवं अंगिरस् ये विभिन्न वंश के लोग थे, ऐसा एक बार मुद्गल ऋषि दंडकारण्य में से जा रहे थे, जब भी निर्देश ऋग्वेद में प्राप्त है (ऋ. १.१३.६)। इसने उनकी राह रोंक दी । किन्तु मुद्गल ऋषि के ब्राह्मतेज गोपथ ब्राह्मण के अनुसार, अथर्वन् एवं अंगिरस् ये के सामने यह निष्प्रभ हुआ। पश्चात् मुद्गल ने इसे भृगु के नेत्र माने गये है। यही कारण है कि, भृग्वंगिरस् उपदेश दिया, एवं श्रीगणेश की उपासना करने के अथर्ववेद का ही नामांतर माना जाता है (गो. ब्रा. १.२. | लिए कहा। २२)। अथर्वन् सांस्कारिक ग्रंथों में भी 'भग्वंगिरसः' यह मुद्गल के उपदेश के अनुसार, इसने एकाग्रचित्त शब्द अथर्ववेद के लिए प्रयुक्त हुआ है (ब्लूमफिल्ड- कर श्रीगणेश की उपासना की। इस उपासना के कारण, अथर्ववेद ९.१०.१०७)। याज्ञवल्क्य स्मृति में भग्वं- इसके दो भृकुटियों के बीच एक शुंड उत्पन्न हुयी, एवं गिरस् एवं अथर्वागिरस् ये शब्द 'अथर्ववेद' अर्थ से यह स्वयं श्रीगणेश जैसा दिखाई देने लगा (गणेश. १: प्रयुक्त हुये है, एवं हरएक राजपुरोहित इस वेदविद्या में ५७)। इसे गणेश स्वरूप मान कर स्वयं इंद्र इसके दर्शन. प्रवीण होना चाहिए, ऐसा कहा गया है । मनु के अनुसार, के लिए उपस्थित हुआ था (गणेश. १.६७)।' . अथर्ववेद में मंत्रविद्या को अधिकतर प्राधान्य दिये जाने मेडी--स्कंद की अनुचरी एक मातृका (म. श.. के कारण, उस वेद को एवं उसे जाननेवाले लोगों को | ४५.१३)। समाज गिरी हुयी नजर से देखा करता था (मनु. ११. भेतृ--विकंठ देवों में से एक। . ३३)। भेद-एक राजा, जो सुदास एवं तृत्सुभरतों के दस शतपथ ब्राह्मण में वसिष्ठ को 'अथर्व निधि' कहा गया शत्रुओं में से एक था। यमुना के तट पर हुए दाशराज्ञ है. एवं अथर्ववेद का निर्देश 'क्षत्र' नाम से किया गया युद्ध में, सुदास के द्वारा यह पराजित हुआ था (ऋ. ७. है (श. ब्रा. १४.८.१४.४) । १८.१८; ३३.३)। संभव है, यह अज, शिग्रु एवं यक्षु भंग-त्रिधामन् नामक शिवावतार का शिष्य । आदि लोगों का राजा था, जिनका भी,दाशराज्ञ युद्ध में ,गिन्-शिवगणों में से एक। पराभव हुआ था ।रोथ के अनुसार, भेद एक जाति का नाम था, जिसके राजा का नाम भी भेद था । किन्तु भुंगारीटी-एक शिवगण । अंधकासुर को शिवगणत्व ऋग्वेद में भेद शब्द सदैव एकवचन में ही प्रयुक्त प्राप्त होने के बाद उसने यह नाम स्वीकार लिया था हुआ है। (अंधक देखिये)। ___ अथर्ववेद के अनुसार, इन्द्र ने भेद राजा से एक भृत-भृगुकुल के मृग नामक गोत्रकार के लिए गाय (वशा) माँगी थी, जिसे देने में इसने इन्कार कर उपलब्ध पाठभेद (मृग देखिये)। दिया था। इस पाप के कारण, इसका नाश हुआ (अ. भृतकील-कुशिककुलोत्पन्न एक गोत्रकार। वे. १३.७.४९-५०)। संभव है, ऋग्वेद में निर्दिष्ट अज भृम्यश्व-(सो. नील.) एक राजा, जो मुद्गल नामक एवं शिग्रु जातियाँ अनार्य रही हो, एवं उनका नेतृत्व राजा का पिता था (नि. ९.२४) । इसके नाम के लिए | करनेवाला यह राजा भी अनार्य हो । इसी कारण, इसे निम्नलिखित पाठभेद प्राप्त हैं:-वाह्याश्व (ह. वं. १.३२, एक दुष्ट मान कर इसके दुःखद अंत का वर्णन वैदिव ब्रह्म. १३.९५-९६); भाश्व (भा. ९.२१.३२-३३); | ग्रंथों में किया गया हो। ५९० Page #613 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भेरीस्वना प्राचीन चरित्रकोश भोज भेरीस्वना--स्कंद की अनुचरी एक मातृका (म.श. नामक सुविख्यात तीर्थ का निर्माण हुआ (शिव. शत. ४५.२५)। ८-९; स्कंद. ३.१.२४)। भेरुंड-एक पक्षी, जो जटायु का पुत्र था। _वंश-कालिका पुराण में, भैरवस्तोस्त्र नामक मंत्र की भेल-एक सुविख्यात आयुर्वेदाचार्य, जो पुनर्वस | विस्तृत जानकारी उपलब्ध है । वहाँ इसका वंश ही विस्तृत आत्रेय का शिष्य था। यह आग्निवेश का समकालीन था। रूप में दिया गया है। उस पुराण के अनुसार, वाराणसी इसके द्वारा 'भेल संहिता' नामक सुविख्यात ग्रंथ की रचना | का सुविख्यात राजा विजय इसीके वंश में उत्पन्न हुआ की गयी थी। था। उस राजा ने खाण्डवी नगर को उध्वस्त कर खाण्डव वन का निर्माण किया था ( कालिका. ९२)। भैमसेन-मैत्रायणी संहिता में निर्दिष्ट एक व्यक्तिनाम कालिका पुराण के अनुसार, भैरव एवं वेताल ये शिव(मै. सं. ४.६.६)। पार्षद अपने पूर्वजन्म में महाकाल एवं भंगी नामक भैमसेनि--दिवोदास राजा का पैतृक नाम (क. सं. | | शिवदूत थे। पार्वती के शाप के कारण, उन्हे अगले जन्म ७.८)। में मनुष्ययोनि प्राप्त हुी (कालिका. ५३; वेताल' २. घटोत्कच राक्षस का पैतृक नाम (म. भी. ७९.३२)। देखिये )। भैरव---एक रुद्रगण, जो वाराणसी नगरी का क्षेत्रपाल ____ पुराणों में अष्टभैरवों की नामावली प्राप्त है, जिसमें माना जाता है। निम्नलिखित भैरव निर्दिष्ट है:- असितांग, रुरु, चण्ड, एकबार विष्णु एवं ब्रह्मा अत्यंत गर्वोद्धत हो गये, एवं | क्रोध, उन्मत्त, कुपति ( कपालिन् ), भीषण एवं संहार । भगवान् शंकर का अपमान करने लगे। इस अपमान के २. धृतराष्ट्र वंश का एक नाग, जो जनमेजय के सर्पसत्र कारण शंकर अत्यधिक क्रुद्ध हुआ, जिससे एक अति- में दग्ध हुआ था (म. आ. ५२. १५)। भयानक शिवगण की उत्पत्ति हुई। वही भैरव है। इसे भोगवती--निबंधन नामक ऋषि की माता (निबंधन निम्नलिखित नामान्तर प्राप्त थे:--कालभैरव, आमर्दक, | देखिये)। पापभक्षण एवं कालराज । लिंग के अनुसार, वीरभद्र नामक . भोगिन--(भविष्य.) एक राजा, जो वायु तथा शिवपार्षद को भैरव का ही अन्य रूप माना गया है ब्रह्मांड के अनुसार, मथुरा के शेष नामक राजा का (लिंग. १.९६; वीरभद्र देखिये)। पुत्र था। ब्रह्महत्त्या-उत्पन्न होते ही, इसने अपने बाये हात की उँगली के नख से ब्रह्मा का पाँचवा सिर तोड़ डाला, भोज--ऐतरेय ब्राह्मण में प्रयुक्त नृपों की उपाधि क्यों कि, ब्रह्मा के उस मुख से शिव की निंदा की गयी थी। (ऐ. ब्रा. ८.१२, १४.१७)। इन्हें 'भौज्य' नामांतर भी ब्रह्मा के पाँचवे मुख का इस प्रकार नाश करने के कारण, | प्राप्त है (ए.बा. ७.३२, ८.६, १२, १४, १६)। इसे ब्रह्महत्या का पातक लगा। उस पाप से छुटकारा पाने ऋग्वेद में भोज शब्द का प्रयोग दाता अर्थ में भी किया के लिए, शंकर ने ब्रह्मा के कपाल को हाथ में ले कर इसे | गया है (ऋ. १०. १०७.८-९)। भिक्षा मांगने के लिए कहा। उसी समय शिव ने ब्रह्महत्या । २. एक लोकसमूह, जो सुदास राजा का अनुचर था। नामक एक स्त्री का निर्माण किया, एवं उसे इसके पिछे | ऋग्वेद के अनुसार, इन लोगों ने विश्वामित्र ऋषि के जाने के लिए कहा। अश्वमेध यज्ञ में उसकी सहायता की थी (ऋ.३. यह अनेक तीर्थस्थानों में घूमता रहा, किन्तु इसका ५३.७ )। . ब्रह्महत्या का दोष नष्ट न हुआ। अन्त में शिव ने इसे | ३. पुराणों में निर्दिष्ट महाभोज राजा के वंशजों के वाराणसी क्षेत्र में जाने के लिए कहा। शिव के आदेशा- | लिये प्रयुक्त सामूहिक नाम। इन लोगों की एक शाखा नुसार, यह वाराणसी क्षेत्र में गया, जिस में प्रवेश करते | मृत्तिकावत् नगर में रहती थी, जो बभ्र देवावृध नाम ही इसका ब्रह्महत्या का पातक धुल गया। पश्चात् इसके | राजा से उत्पन्न थी हुई (ब्रह्म. १५.४५) । हाथ में स्थित ब्रह्मा का कपाल भी नीचे गिर पडा, एवं | ४. एक राजवंश, जो सुविख्यात यादवकुल में उसे भी मुक्ति प्राप्त हुयी। जिस स्थान पर ब्रह्मा के कपाल | अंतर्गत था (म. आ. २१०.१८)। इन्हे वृष्णि, अंधक, को मुक्ति मिली, उस स्थान पर 'कपालमोचनतीर्थ' | आदि नामांतर भी प्राप्त थे। इस वंश में उत्पन्न एक ५९१ Page #614 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भीमाश्वी पश्चात् इसने इस स्त्री के मुख का खोज किया, एवं उसे तीर्थ में डुबों दिया, जिस कारण उस स्त्री को सुंदर संभव है, इस वंश में निम्नलिखित राजा समाविष्ट मनुष्याकृति मुख की प्राप्ति हो गई। पश्चात् इस राजा ने उस स्त्री के साथ विवाह किया (स्कंद ७.२.२ ) । भोजक - एक सूर्यपूजक राजा (भवि. ब्राह्म. १. ११७ ) । : भोजपायन - कश्यपकुलोत्पन्न एक गोत्रकार । भोज राजा को उशीनर से एक खङ्ग की प्राप्ति हुई थी ( म. शा. १६६.८९ ) । प्राचीन चरित्रकोश (१) विदर्भाधिरति भीष्म -- इसे महाभारत में भोज कहा गया है ( म.उ. १५५.२ ) । ( २ ) कुकुरवंशीय आहुक - इसे हरिवंश में भोज कहा गया है (ह. . १.३७.२२ ) । " ( ३ ) विदर्भाधिपति रुक्मिन् -- इसने 'भोजकट (भोजों का नगर ) नामक नयी राजधानी की स्थापना की थी ( रुक्मिन् देखिये ) । ( ४ ) महाभोज -- यह यादववंशीय सात्वत राजा का पुत्र था । भागवत के अनुसार इसके वंशज भोज कहलाते थे (मा. ९.२४.७-११) । ५. मार्तिकावत् ( मृत्तिकावती ) नगरी का एक राजा, जो द्रौपदी के स्वयंवर में उपस्थित था (म. आ. १७७. ६) । फलिंगराज चित्रांगद राजा की कन्या के स्वयंवर में भी यह उपस्थित था (म. शां. ४.७ ) | महाभारत में कई जगह, इसे 'मार्तिबतक भोज' कहा गया है, एवं युधिष्ठिर की राजसभा का एक राजर्षि नाम से इसका वर्णन किया गया है। भारतीय युद्ध में वह कौरव पक्ष में शामील था, एवं अभिमन्यु के द्वारा इसकी मृत्यु हो गयी थी (म. द्रो. ४७.८ ) । ६. एक राजवंश, जो हैहयवंशीय तालजंघ राजवंश में समाविष्ट था । ७. (सो.वि.) एक राजा, जो मत्स्य के अनुसार, प्रतिक्षत्र राजा का पुत्र था अन्य पुराणों में इसका 'स्वयंमोज' नामांतर दिया गया है, एवं इसे फोटुवंशीय कहा गया है। ८. कश्यपकुलोत्पन्नगोत्रकार। ९. कान्यकुन देश का एक राजा एक बार इसे एक सुंदर स्त्री का दर्शन हुआ, जिसका सारा शरीर मनुष्याकृति होने पर भी केवल मुख हिरणी का था । इस विचित्र देहाकृति स्त्री को देखने पर इसे अत्यधिक आर्य हुआ, एवं इसने उसकी पूर्वकहानी पूछी। फिर इसे पता चला की, वह स्त्री पूर्वजन्म में हिरनी थी। उस हिरनी के शरीर का जो भाग तीर्थ में गिरा, उसे मनुष्याकृति प्राप्त हुई एवं केवल मुल तीर्थस्पर्श न होने से हिरणी का ही रह गया भोज्या सौवीरराज की सर्वांगसुंदर कन्या, जिसका सात्यकि ने अपनी रानी बनाने के लिये हरण किया था (म. द्रो. ९.२९ ) । पाठभेद ( भांडारकर संहिता) - * मोठा । 6 -- २. वीरव्रत नामक राजा की पत्नी ( वीरव्रत देखिये) । २. आर्यक नामक नाग की कन्या, जिसे मारिषा नामान्तर भी प्राप्त है। इसका विवाह शूर राजा से हुआ था, जिससे इसे वसुदेवादि पुत्र उत्पन्न हुयें । ४. मोज देश की राजकन्या, जिसका यादववंशीय ज्यामघ राजा ने रानी बनाने के लिये हरण किया था। किंतु पश्चात् ज्यामघ ने अपने पुत्र विदर्भ से इसका विवाह संपन्न कराया ( ज्यामत्र देखिये) । । भौजपायन- - कश्यपकुलोत्पन्न गोत्रकार ऋषिगण । इसके नाम के लिये 'भीमपायन' पाउमेद प्राप्त है। भौत्य- एक राजा, जो चौदहा मनु माना जाता है। इसे 'इंद्रसावर्णि एवं 'चंद्रसावणि नामांतर भी प्राप्त थे (मनु देखिये) । " यह भूति नामक ऋषि का पुत्र था, जिस कारण इसे भौत्य नाम प्राप्त हुआ था भूति ऋषि को बहुत दिनों तक पुत्र न था। पश्चात् उसके शान्ति नामक शिष्य ने अपने गुरु को पुत्र प्राप्ति हो, इस हेतु से आगे की उपासना की, जिस कारण अनि के प्रसाद से इसकी उत्पत्ति हो गयी । भौम-नरकासुर का नामांतर ( नरकासुर देखिये) । २. शिवपुत्र मंगल का नामान्तर ( मंगल २. देखिये ) | ३. एक राक्षस, विप्रचित्ति एवं सिंहिका पुत्र था। जो इसे ' नल' एवं 'नभ' नामान्तर भी प्राप्त है ( विप्रचित्ति २. देखिये) । परशुराम ने इसका वध किया (ब्रह्मांड. २.६.१८-२२ ) । भौमतापायन - गौरपराशरकुलोत्पन्न एक गोत्रकार । भौमाश्वी शैव्या औशीनरी उशीनर देश की - राजकन्या, जिसे द्रौपदी के सदृश पाँच पति थे। नितं राजा के पाँच पुत्रों से इसका एकसाथ विवाह हुआ था, ५९२ Page #615 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भौमाश्वी प्राचीन चरित्रकोश मक्षु जिनके नाम निम्नलिखित थे:--साल्वेय, शूरसेन, श्रृंतसेन, २; मै. सं. १.४; वा. सं. १३.५४ )। इसने 'अतिरात्र' तिन्दुसार, एवं अतिसार। नामक यज्ञ किया था, जिसके कारण इसे विपुल धन प्राप्त इसके पति बडे धार्मिक एवं आपस में मिलजुल कर हुआ था। रहनेवाले थे। इसी कारण इसने स्वयंवर में उनका वरण भ्रमर--सौवीर देश का एक राजकुमार, जो सौवीर किया था। इन पाँच पतियों से इसे पाँच पुत्र उत्पन्न हुए, | नरेश जयद्रथ का भाई था। यह जयद्रथ के रथ के पीछे जिन्होंने आगे चल कर मत्स्य देश में पाँच स्वतंत्र | हाथ में ध्वज ले कर चलता था। जयद्रथ के द्वारा किये राजवंशों की स्थापना की (म. आ. परि. १०१)। गये द्रौपदीहरण के समय यह उपस्थित था। उस समय • भौरिक--एक दैत्य, जो अग्नि के द्वारा दग्ध किया हुए युद्ध में अर्जुन ने इसका वध किया (म. व. २५५. गया था। हिरण्याक्ष एवं देवों के दरम्यान हुए युद्ध में,२७)। अग्नि के द्वारा हिरण्याक्ष के पक्ष के सात असुर दग्ध हुये।। भ्रमि--उत्तानपादपुत्र ध्रुव राजा की पत्नी, जो उनमें से यह एक था (पद्म. सु. ७५)। शिशुमार प्रजापति की कन्या थी (भा. ४.१०.१)। भौवन--वैदिक राजा विश्वकर्मन् का पैतृक नाम (श. ब्रा. १३.७.१.१५, ऐ. बा. ८.२१.८.१०; नि. १०.२६; भ्राजिष्ठ-(स्वा. प्रिय.) एक राजा, जो धृतपृष्ठ विश्वकर्मन् देखिये)। राजा का पुत्र था। २. (स्वा. प्रिय.) एक राजा, जो मथु एवं सत्त्या का भ्रामरि--एक राक्षसी, जो जंभासुर की अनुगामिनी पुत्र था। थी। उस राक्षस के कथनानुसार, यह अदिति का रूप ३. एक भगुवंशीय गोत्रकार, जो भग एवं पौलोमी का धारण कर, श्रीगणेश का वध करने के लिए कश्यपगृह पुत्र था। .. में अवतीर्ण हुयीं । इसने श्रीगणेश को विषमिश्रित मोदक खिलाकर उसका वध करना चाहा। किन्तु श्रीगणेश ने भौवन नामक नगरी का राजा था (ब्रह्म. १७०.१-२)।। उन माद उन मोदकों को हजम कर अपने मुष्टिप्रहार से इसका भौवायन--कपिवन नामक आचार्य का पैतृक नाम वध किया (गणेश. २.२१)। • (पं. बा. २०.१३.४) । यजुर्वेद संहिताओं में कपिवन का भ्राष्टकाणि--भृगुकुलोत्पन्न एक गोत्रकार । निर्देश प्रायः 'भौवायन' नाम से ही प्राप्त है (का.सं.३२. भ्राटकृत--अंगिराकुलोत्पन्न एक गोत्रकार । मकरकेत-श्रीकृष्णपुत्र प्रद्युम्न राजा का नामान्तर। | पाठभेद (भांडारकर संहिता)-'कनकध्वज' (कनकांगद)। मकरध्वज--हनुमान का पुत्र, जो उसके स्वेदबिन्दु ३. केरल देशाधिपति चंद्रहास राजा का पुत्र । इसके से उत्पन्न हुआ था। एकबार हनुमान् का एक स्वेदबिन्दु नाम के लिए 'मकराक्ष' पाठमेद भी प्राप्त है। दक्षिणसागर में रहनेवाली एक मगर पर गिर पड़ा, जिससे इसकी उत्पत्ति हुयी (आ. रा. सार. ११)। अहिरावण मकराक्ष--एक राक्षस, जो जनस्थान में रहनेवाले खर नामक राक्षस का पुत्र था । राम ने इसका वध महिरावण युद्ध के समय, इसकी एवं हनुमान् की भेंट किया। हुयी थी (अहिरावण-महिरावण देखिये)। २. (सो. कुरु.) धृतराष्ट्र के शतपुत्रों में से एक। मक्षु-एक महर्षि, जो माशव्य नामक सुविख्यात भीम ने इसका वध किया था (म. भी. ९२.२६)। आचार्य का पिता था (माक्षव्य देखिये)। प्रा. च. ७५] Page #616 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मखोपेत प्राचीन चरित्रकोश मंकणक लाया। नामकबार लिए सांक मखोपेत--एक दैत्य, जो कार्तिक माह के विष्णु नामक | लोगों के साथ इनका निर्देश आता है ( अ. वे. १५.२. सूर्य के साथ भ्रमण करता है (भा. १२.११.४४)। १.४)। संभव है, ये एवं कीकट दोनों एक ही थे। मग--शाकद्वीप में रहनेवाले वेदवेत्ता ब्राह्मणों का कौषीतकि आरण्यक में मध्यम प्रातिबोधीपुत्र आदि एक समूह । महाभारत में इनके नाम के लिए 'मङ्ग' | सुविख्यात आचार्यों को 'मगधवासिन्' कहा गया है। पाठभेद प्राप्त है (म. भी. १२.३४)। इससे प्रतीत होता है कि, कभी कभी मगध में प्रतिष्ठित कृष्णपुत्र सांब ने अपनी उत्तर आयु में सूर्य की कठोर ब्राह्मण भी निवास करते थे। किंतु ओल्डेनवर्ग इसे अपतपस्या की, जिस कारण प्रसन्न हो कर भगवान् सूर्य- वादात्मक घटना मानते है (७.१४)। नारायण ने अपनी तेजोमयी प्रतिमा उसे पूजा के लिए | बौधायन तथा अन्य सूत्रों में मगधगणों का निर्देश एक .. प्रदान की । उस मूर्ति की प्रतिष्ठापना के लिए, सांब ने | जाति के रूप में प्राप्त है (बौ. ध. १.२.१३; आ. श्री.. चन्द्रभागा नदी के तट पर एक अत्यधिक सुंदर मंदिर | २२.६.१८)। उत्तरकालीन साहित्य में, मगध देश को . बनवाया। भ्रमणशील चारण लोगों का मूलस्थान माना गया है। भगवान सूर्यनारायण के पूजापाठ के लिए सांब ने शतपथ ब्राह्मण के अनुसार, इन लोगों में ब्राह्मणधर्म शाकद्वीप में रहनेवाले मग नामक ब्राह्मणों को बडे ही का प्रसार अत्यधिक कम था, एवं इनमें अनार्य लोगों की सम्मान के साथ बुलाया। सांब के इस आमंत्रण के कारण, संख्या अत्यधिक थी। संभव यही है, कि भारत के पूर्व मग ब्राह्मणों के अठारह कुल चंद्रभागा नदी के तट पर कोने में रहनेवाले इन लोगों पर आर्यगण अपना प्रभाव. उपस्थित हुये, एवं वहीं रहने लगे (भवि. ब्राह्म. ११७ | नहीं प्रस्थापित कर सके थे। सांब. २६)। मघवत्-एक दानव, जो कश्यप एवं दनु के पुत्रों में भविष्य में इनके नाम के लिए 'भ्रग' पाठभेद प्राप्त | मे था । है। किन्तु वह सुयोग्य प्रतीत नही होता है। २. इन्द्र का नामांतर (पद्म. भू. ६)। .. 'मग' जाति के ब्राह्मण भारत में आज भी विद्यमान है। मघा--सोम की पत्नी, जो दक्ष प्रजापति की सत्ताीस मगध--मगध देश में रहने वाले लोगों के लिए | कन्याओं में से एक थी। प्रयुक्त सामुहिक नाम । किसी समय बृहद्रथ राजा एवं मकण-एक दरिद्री ब्राह्मण, जो आकथ नामक उसका बार्हद्रथ वंश इन लोगों का राजा था। शिवभक्त का पिता था (आकथ देखिये)। __ इन लोगों के राजाओं में निम्नलिखित प्रमुख थे:- मंकणक-एक प्राचीन ऋषि, जो मातरिश्वन् तथा जयत्सेन, जरासंध, बृहद्रथ, दीर्घ, एवं सहदेव । सुकन्या का पुत्र था। कश्यप के मानसपुत्र के रूप में __पाण्डु राजा ने इन लोगों के दीर्घ नामक राजा का वध इसका वर्णन प्राप्त है (वामन. ३८.२)। किया था (म. आ. १०५.१०)। महाभारत काल मे बालब्रह्मचारी की अवस्था में सरस्वती नदी के इन लोगों का राजा जरासंध था, जिसका भीम ने वध | किनारे 'सप्त सारस्वत तीर्थ' में जाकर, यह हजारों वर्ष किया था । जरासंध के पश्चात् सहदेव इन लोगों का | स्वाध्याय करते हुए तपस्या में लीन रहा। एकबार इसके हाथ राजा बना । युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ के समय, सहदेव में कुश गड जाने से घाव हो गया, जिससे शाकरस बहने उपस्थित था (म. स. ४८.१५)। भारतीय युद्ध में लगा। उसे देखकर हर्ष के मारे यह नृत्य करने लगा। मगध देश के लोग पाण्डवों के पक्ष में शामिल थे (म. इसके साथ समस्त संसार नृत्य में निमग्न हो गया । ऐसा उ. ५२.२, सहदेव देखिये)। | देखकर देवों ने शंकर से प्रार्थना की, कि इसे नृत्य करने __ वैदिक निर्देश--यद्यपि यह नाम ऋग्वेद में अप्राप्य से रोकें; अन्यथा इसके नृत्य के प्रभाव से सभी विश्व है, अथर्व वेद में इनका निर्देश प्राप्त है । वहाँ ज्वर-व्याधि | रसातल को चला जायेगा। को पूर्व में अंग एवं मगध लोगों पर स्थानांतरित होने यह सुनकर ब्राह्मण रूप धारण कर शंकर ने इससे की प्रार्थना की गई है (अ. वे. ५.२२.१४)। यजुर्वेद नृत्य करने का कारण पूछा । तब इसने कहा, 'मेरे हाथ में प्राप्त पुरुषमेध के बलिप्राणियों की नामावली में से जो रस बह रहा है, इससे यह प्रकट है कि, मुझे सिद्धि 'मागध' लोगों का निर्देश प्राप्त है (वा. सं ३०.५.२२; | प्राप्त हो गयी है। यही कारण है कि, आज मै आनंद तै. बा. ३.४.१.१)। अथर्ववेद के व्रात्यसूक्त में व्रात्य | में पागल हो खुशी से नाच रहा हूँ। यह सुनकर ब्राहाण ५९४ Page #617 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मंकणक प्राचीन चरित्रकोश मांक वेषधारी शंकर ने अपने अंगूठे में एक चोट मारकर मंकि-एक प्राचीन आचार्य, जिसकी कथा भीष्म ने उससे बर्फ की तरह श्वेत झरती हुयी भस्म निकाली, युधिष्ठिर से कही थी। इस कथा का यही सार था कि, जिसे देखकर यह चकित हो उठा। यह तत्काल समझ जो भाग्य में होगा उसे कोई टाल नहीं सकता । 'चाहे गया कि, वह कोई अवतारी महापुरुष है । इसके नमस्कार जितना बल पौरुष का प्रयोग करो, किन्तु यदि भाग्य में करते ही शंकर ने अपने दर्शन दिये, तथा प्रसन्न होकर बदा नहीं है, तो कुछ भी न होगा। संसार में हर एक वर माँगने के लिए कहा। मंकणक ने शंकरजी के पैरों व्यक्ति की सामान्य कामनाएँ भी अपूर्ण रहती है। इसी में गिरकर स्तुति की, तथा वर माँगा कि, वह इसे इस कारण कामना का त्याग करना ही सुखप्राप्ति का सर्वश्रेष्ठ अपार प्रसन्नता से मुक्त करें, जिसके प्रसन्नता के उन्माद मार्ग है', यही महान् तत्त्व मंकि के जीवनकथा से दर्शाया में यह अपनी तपस्या से भी विलग हो गया था। शंकर ने | गया है। कहा, 'ऐसा ही होगा, मेरे प्रसाद से.तुम्हारा तप सहस्र | मंकि नामक एक लोभी किसान था, जो हर क्षण धन गुना अधिक हो जायेगा' (म. व. ८१.९८-११४; श.३७. | प्राप्त की लिप्सा में सदैव अन्धा रहता था। एक बार २९-४८; पद्म. स. १८; ख. २७; स्कन्द. ७.१-३६; इसने दो बैल लिए, तथा उन्हे जुएँ में जोत कर यह खेत पर २७०)। . . काम कर रहा था। जिस समय बैल तेजी के साथ चल रहे थे, एक बार तपस्याकाल में यह स्नान हेतु सरस्वती नदी में उसी समय उनके मार्ग में एक ऊँट बैठा था। इसने ऊँट उतरा । वहाँ समीप ही स्नान करनेवाली एक सुन्दरी को न देखा, और बैलों के साथ उसकी पीठ पर जा पहुँचा । देखकर इसका वीर्य स्खलित हुआ। यह देख कर इसने इसका परिणाम यह हुआ कि, दौड़ते हुए दोनों बैलों को उस वीर्य को कमण्डलु में एकत्र कर उसके सात भाग अपनी पीठ पर तराजू की भाँति लटका कर ऊँट भी इतनी किये, जिससे निम्नलिखित सात पुत्र उत्पन्न हुए:-वायुवेग, | जोर से भगा कि, दोनों बैल तत्काल ही मर गये। वायुबल, वायुहा, वायुमण्डल, वायुज्वाल, वायुरेतम् और | यह देख कर मंकि को बड़ा दुःख हुआ, एवं इस वायुचक्र (म. श. ३७.२९-३२; मरुत् देखिये) महाभारत अवसर पर इसने भाग्य के सम्बन्ध में बड़े उच्च कोटि के में इन सातों पुत्रों को सप्तर्षि कहा गया है। यही सात विचार प्रकट किये, जिसमें तृष्णा तथा कामना की गहरी पुत्र मरुतों के जनक हैं। आलोचना प्रस्तुत की गयी है। इसके यह सभी विचार मंकन--वाराणसी में निवास करनेवाला एक नामी, 'मंकि गीता' में संग्रहित हैं। उक्त घटना से इसे वैराग्य जो श्रीगणेशजी का परम भक्त था। दिवोदास (द्वितीय) उत्पन्न हुआ, एवं अन्त में यह धनलिप्सा से विरक्त हो के राज्यकाल में, शिवजी ने काशी नगर को निर्जन बनाना | | कर परमानंद स्वरूप परब्रह्म को प्राप्त हुआ (म. शां. चाहा । इस काम के लिये, उसने अपने पुत्र श्रीगणेश १७१.१-५६)। (निकुंभ) को नियुक्त किया। तत्त्वज्ञान-'मंकि गीता' का सार भीष्म के द्वारा तदोपरांत, श्रीगणेश ने मंकन को दृष्टांत दे कर काशी इस प्रकार वर्णित है:नगरी के सीमापर अपना एक मंदिर बँधवाने के लिए सर्वसाम्यम् अनायासः, सत्यवाक्यं च भारत । कहा, जिस आज्ञा का इसने तुरंत पालन किया। काशी निर्वेदश्चाविवित्सा च, यस्य स्यात्स सुखी नरः ॥ का यह 'निकुंभ मंदिर' अत्यधिक सुविख्यात हुआ, एवं (म. शां १७१.२)। अपना ईप्सित प्राप्त करने के लिये देश देश के लोग उसके मंकि का यह तत्त्वज्ञान बौद्धपूर्वकालीन आजीवक दर्शन के लिये आने लगे। निकंभ ने अपने सारे भक्तों | सम्प्रदाय के आचार्य मंखलि गोसाल के तत्त्वज्ञान से काफी की कामनाएँ पूरी की, किंतु दिवोदास राजा की पुत्रप्राप्ति साम्य रखता है। यह दैववाद की विचारधारा को की इच्छा अपूर्ण ही रख दी, जिस कारण क्रुद्ध हो कर मान्यता देनेवाला आचार्य था। केवल दैव ही बलवान् है, उसने निकुंभ मंदिर को उद्ध्वस्त किया। इस पाप के क्तिना ही परिश्रम एवं पुरुषार्थ करो, किन्तु सिद्धि प्राप्त कारण, निकुंभ ने समस्त काशी नगर निर्जन होने का शाप नहीं होती, यही 'मंकि गीता' का उपदेश है, तथा दिवोदास राजा को दे दिया, एवं इस तरह काशी नगर ऐसा ही प्रतिपादन मंखलि गोसाल का था। को विरान बनाने की शिवाजी की कामना पूरी हो गई। सम्भव है, मंकी तथा मंखलि गोसाल दोनों एक ही (वायु. ९२.३८; ब्रह्मांड ३.६७.४३)। व्यक्ति हों। आजीवक सम्प्रदाय भोग-प्रधान दैववाद का ५९५ Page #618 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मंकि प्राचीन चरित्रकोश मंजुघोषा अनुसरण करनेवाला था। सम्राट अशोक के समय आजीवक स्कन्द के अनुसार, शिव के अश्रुबिंदुओं से इसकी संप्रदाय का काफी प्रचार था, एवं समाज उसका काफी | उत्पत्ति हुयी थी (स्कन्द. ७.१.४५)। स्कंद में इसके आदर करता था। अशोक के शिलालेखों में आजीवक | उत्पत्ति की कथा इस प्रकार दी गयी है:-- शंकर ने लोगों का बड़े सम्मान के साथ निर्देशन किया गया है। हिरण्याक्ष की विकेशी नामक कन्या से विवाह किया था। नागार्जुन पहाडियों में उपलब्ध शिलालेखों में आजीवकों | एक दिन शंकर विकेशी से संभोग करने ही वाला था कि, को गुहा प्रदान करने का निर्देश प्राप्त है। | वहाँ अग्नि आ पहुँचा । उसे देख कर शंकर क्रोध से लाल ___ आगे चलकर बौद्ध एवं जैन धर्म के प्रचार के कारण हो उठा, तथा उसकी आँखों से अश्रुबिंदु टपकने लगे। आजीतकों की लोकप्रियता धीरे धीरे विनष्ट हो गयी, उन अश्रुबिंदुओं में से एक तेजोमय अश्र विकेशी के मुख में तथा आजीवकों के द्वारा प्रतिष्ठापित भोगप्रधान देववाद | जा गिरा, जिससे वह गर्भवती हो गयी। किंतु आगे चल के स्थान पर तप के द्वारा ब्रह्मप्राप्ति की प्रधानता का कर शंकर के तेजोमय गर्भ को वह सहन न कर सकी, तथा बोलबाला हुआ। उसने उसे बाहर गल दिया । बाद को उस गर्भ से एक २. त्रेतायुग का ऋषि, जो कौषीतक नामक ब्राह्मण का | पुत्र उत्पन्न हुआ, जिसे पृथ्वी ने स्तनपान करा कर बड़ा पुत्र था। यह वैदिकधर्म का पालन करनेवाला, अग्निहोत्र | किया । यही पुत्र मंगल कहलाया। करनेवाला, एवं वैष्णवधर्म पर विश्वास करनेवाला परम भविष्यपुराण में मंगल की उत्पत्ति कुछ दूसरे प्रकार सदाचारी ब्राह्मण था। से दी गयी है। उसमें इसकी उत्पत्ति शिव के रक्तबिन्दु इसे स्वरूपा एवं विश्वरूपा नामक दो पत्नियाँ थी, किन्तु | से कही गयी है (भवि. ब्राह्म. ३१)। गणेशपुराण में कोई पुत्र न था। इसी कारण इसने अपने गुरु की आज्ञा | इसे भारद्वाज का पुत्र कहा गया है, एवं गणेश की कृपा से साबरमती नदी के तट पर चार वर्षों तक तपस्या की, | के द्वारा किस प्रकार यह ग्रह बना, उसकी भी कथा दी. जिससे इसे अनेक पुत्र उत्पन्न हुये। गयी है। साबरमती के तट पर जिस स्थान पर इसने तप किया | ३. एक देव, जो स्वायंभुव मन्वंतर के जित देवों में से उसे 'मंकितीर्थ' नाम प्राप्त हुआ। इस तीर्थ को | एक था। 'सप्तसारस्वत नामांतर भी प्राप्त था। मंगला--एक देवी, जिसने त्रिपुरवध के समय भगवान् द्वापर यग में पाण्डव इस तीर्थ के दर्शनों के लिए | शंकर को वरप्रदान किया था (ब्रहावे..३.४४ )। आये थे। उस समय उन्होंने इस तीर्थ को 'सप्तधार' मचक्नुक-एक यक्ष, जो समन्तपंचक एवं कुरुक्षेत्र नाम प्रदान किया था ( पद्म. उ. १३६)। के सीमा पर स्थित 'मचक्नुक तीर्थ' में रहता था। उस मंगल--बौधायन श्रौतसूत्र में निर्दिष्ट एक आचार्य स्थान में यह द्वारपाल के रूप में निवास करता था। (बौ. श्री. २६.२)। | इसको प्रणाम करने पर सहस्र गोदान का पुण्य प्राप्त होता २. एक शिवपुत्र, जो शिव के धर्मबिन्दु से पैदा हुआ था (म. व. ८९.१७१)। इसके नाम के लिए 'मचक्रुक' था । दक्षयज्ञ में सती की मृत्यु हो जाने के कारण, उसके पाठभेद भी प्राप्त है। पाठभेद (भांडारकर संहिता)विरहताप से पीड़ित हो कर, शंकर उसकी प्राप्ति के | अान्तक। लिये तप करने लगा। तप करते समय शंकर के मस्तक से मच्छिल्ल-(सो. ऋक्ष.) एक राजा, जो सम्राट उपरिएक धर्मबिंदु पृथ्वी पर गिरा । उससे एक पुत्र उत्पन्न हुआ, चर वसु का चतुर्थ पुत्र था। इसकी माता का नाम गिरिका जिसे मंगल नाम प्राप्त हुआ। आगे चल कर शंकर ने था (म. आ. ५७.२९)। युधिष्ठिर केराजसूय यज्ञ के समय नवग्रहों में उसकी स्थापना की। यह समस्त पृथ्वी यह उपस्थित था (म. स. ३१.१३)। का पालनकर्ता माना जाता है। ज्योतिषशास्त्र की दृष्टि से, | महाभारत (बम्बई संस्करण) एवं विष्णु में इसे मंगल भूमि एवं भार्या का संरक्षणकर्ता माना जाता है । 'मावेल्ल', एवं वायु में इसे 'माथैल्य' कहा गया है। इसीसे इसे 'भौम' भी कहते है (शिव, रुद्र. २.१०; स्कन्द. ४.१.१७) । अग्नि के संपर्क से उत्पन्न होने के | मज्जान-रकंद का एक सैनिक (म. श. ४४.६५)। कारण, इसे 'अंगारक' नाम भी प्राप्त हुआ था मंजुघोषा--एक अप्सरा, जिसे मेधाविन् ऋषि ने (विष्णुधर्म. १.१.६; पन. स. ८१)। पिशाच बनने का शाप दिया था (मेधाविन, ४. देखिये)। Page #619 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मणि प्राचीन चरित्रकोश मणि वर मणि-एक नाग, जो कश्यप एवं कद्र का पुत्र था। २. कुबेर का एक सेनापति । रावण के सेनापति ग्रहस्त गिरिव्रज नगरी के निकट इसका निवासस्थान था (म. आ. ने कैलास पर्वत पर इसे परास्त किया था (वा. रा. यु. ३१.६) । इसने शिव की तपस्या कर गरुड से अभयदान | १९.११) का वर प्राप्त किया था (ब्रह्म. ९०)। ३. शिवगणों में से एक (पद्म. उ. १७)। . २. ब्रह्मा की सभा का एक ऋषि (म. स. ११.१२५%3; | मणिभूष-कुबेर का एक सेनापति । पंक्ति.६)। मणिमत्-एक यक्ष, जो मणिभद्र एवं पुण्यजनी के ३. स्कंद का एक पार्षद, जो उसे चंद्रमा के द्वारा दिये | पुत्रों में से एक। गये दो पार्षदों में से एक था। दूसरे पार्षद का नाम सुमालिन् | २. वरुणसभा का एक नाग (म. स. ९.९)। था (म. श. ४५.२९)। ३. एक यक्ष, जो कुबेर का सेनापति एवं सखा था। माणिकंधर-कुवेर का एक सेनापति । एकबार यह विमान में बैठकर आकाशमार्ग से जा रहा मणिकार्मुकधर-कुबेर का एक सेनापति । था। उस समय यमुना नदी के तटपर तपस्या करनेवाले मणिकुंडल-एक राजा, जिसकी कथा ब्रह्म में गोदावरी अगस्त्य ऋषि का इसने अपमान किया, जिस कारण उसने नदी के तट पर स्थित 'चक्षुस्तीर्थ' (मृतसंजीवन तीर्थ) इसे शाप दिया, ' शीघ्र ही मनुष्य के द्वारा तुम्हारा का माहात्म्य वर्णन करने के लिए कथन की गयी है। वध होगा। ____एक बार. यह एवं इसका मिंत्र वृद्धगौतम व्यापार के पाण्डवों के वनवासकाल में वे घूमते-घूमते हिमवान् लिए विदेश चले गये। वहाँ इन्होने आपसमें होंड़ | पर्वत पर स्थित कुबेरवन में आये। उस समय कुबेरवन लगायी, जिस कारण वृद्धगौतम ने इसका सब कुछ जीत के कुछ कमल लाने के लिए भीम ने उस वन में प्रवेश लिया, एवं इसे अंधा एवं लूला बना कर छोड़ दिया।| किया, कि मणिमत् के साथ उसका युद्ध हुआ। उसी युद्ध पश्चात् चक्षस्तीर्थ में स्नान करने के कारण, इसकी सारी | में भीम ने इसका वध किया (म. व. १५७.४९-५७)। शारीरिक व्याधियाँ नष्ट हो गयी, एवं इसका राज्य इसे । ४. एक राजा, जो दनायुपुत्र वृत्रासुर नामक असुर - पुनः प्राप्त हुआ (ब्रह्म. १७०)। के अंश से उत्पन्न हुआ था (म. आ. ६१.४२)। यह मणिकुंडला--स्कंद की अनुचरी एक मातृका (म. द्रौपदी के स्वयंवर में उपस्थित था (म. आ. १७७.७)। श. ४५.२०)। इसके नाम के लिए 'मणिकट्टिका' भीमसेन ने अपने पूर्वदिग्विजय में इसे जीता था (म. पाठभेद प्राप्त है। स. २७.१०)। भारतीय युद्ध में भूरिश्रवस् ( सौमदत्ति यूपकेतु ) राजा मणिग्रीव--एक यक्ष, जो कुबेर का पुत्र था। इसके ने इसका वध किया (म. द्रो. २४.५१)। छोटे भाई का नाम नलकुबर था (नलकुबर देखिये)। | । मणिमंत्र-एक यक्ष, मणिवर एव देवजनी के मणिधर--एक यक्ष, जो लोहित पर्वत पर रहता था। | 'गुह्यक' पुत्रों में से एक। मणिभद्र--कुबेर सभा का एक यक्ष (म. स. १०.१४)। मणिवक्र--एक वसु, जो आप नामक वसु के पुत्रों यह यात्रियों एवं व्यापारियों का उपास्य देव माना जाता | म है। मरुत्त का धन लाने के लिए जाते समय, युधिष्ठिर ने मणिवर--एक यक्ष, जो रजतनाथ एवं मणिवरा के इसकी पूजा की थी (म. आ. ६४.६)। | दो पुत्रों में से एक था। ऋतुस्थलाकन्या देवजनी इसकी इसके पिता का नाम रजतनाभ एवं माता का नाम | पत्नी थी, जिससे उत्पन्न इसके पुत्र ‘गुह्यक' सामुहिक मणिवरा था । क्रतुस्थ की कन्या पुण्यजनी इसकी पत्नी | नाम से सुविख्यात थे। थी, जिससे इसे निम्नलिखित पुत्र उत्पन्न हुए थे:-असोम, 'गुह्यक' पुत्र--मणिवर को देवजनी से उत्पन्न ऋतुमत् , रुद्रप्रथ, दर्शनीय, दुरसोम, द्युतिमत् , नंदन, | गुह्यक पुत्रों के नाम निम्नलिखित थे:-अहित, कुमुदाक्ष, पन, पिंगाक्ष, भीरु, मणिमत्, मंडक, महाद्युति, मेघवर्ण, कुसु, कृत, चर, जयावह, पक्ष, पद्मनाथ, पद्मवर्ण, पिंशंग, रुचक, वसु, शंख, सर्वानुभूत, सिद्धार्थ, सुदर्शन, सुभद्र, पुष्पदन्त, पूर्णभद्र, पूर्णमास, बलक, मणिमंत्र, महामुद, सुमक एवं सूर्यतेजस् (ब्रह्मांड. ३,७.१२२-१२५)। मानस, वर्धमान, विजय, विमल, विवर्धन, श्वेत, सवीर, ५९७ Page #620 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मणिवर प्राचीन चरित्रकोश मतंग सारण, सुक्रमल, सुगंध, सुचंद्र, स्थूलकर्ण, हिरण्याक्ष एवं| २. एक महर्षि, जिसके मतंगाश्रम का निर्देश महाभारत हैमवंत (ब्रह्मांड. ३.७.१२७-१३१)। में प्राप्त है (म. व. ८२.४२३ पंक्ति ३)। सम्भव है, मणिवरा--रजतनाभ नामक यक्ष की पत्नी। मतंगकेदार नामक तीर्थस्थान का नामकरण इसीके नाम मणिवाहन--(सो. ऋक्ष.) एक राजा. जो महाभारत | पर किया गया हो (म. व. ८३.१७ )। के अनुसार कुशांब का, एवं वायु के अनुसार कुश ३. एक तपस्वी, जिसकी व्यभिचरिणी ब्राह्मणी माँ ने राजा का नामान्तर था। मत्स्य में इसे 'हरिवाहन' कहा | एक नाई के साथ संभोग करके इसे जन्म दिया था। गया है, एवं इसे कुश राजा से अलग व्यक्ति माना गया | अपने इस दूषित जन्म के कलंक को धोने के लिए, इसने आजीवन तपस्या की, किन्तु यह इस दोष से मुक्त न हो __मणिस्थक--एक नाग, जो कश्यप एवं कद्रु के पुत्रों | सका । 'वंशानुक्रम से प्राप्त कलंक किसी प्रकार मिटाया में से एक था। नहीं जा सकता, इसी सत्य को प्रमाणित करने के लिए मणिस्कंध-धृतराष्ट्र कुलोत्पन्न एक नाग, जो जनमे- | महाभारत में इसकी निम्न कथा दी गयी है (म. अन, जय के सर्पसत्र में दग्ध हुआ था (म. आ. ५२.१७)।। २७-२९)। माणसाग्वन्–एक यक्ष, जो कुबेर का सेनापति था।| गर्दभी से संवाद-एक बार इसके ब्राह्मण पिता ने मंड--भृगुकुलोत्पन्न एक गोत्रकार | इसके नाम के इसे यज्ञ करने के लिए जंगल से समिधा तथा दर्भ लाने । लिए 'मुण्ड' पाठभेद प्राप्त है। को कहा। पिता की आज्ञा को मानकर, गाडी में एक मंडक--एक यक्ष, जो मणिभद्र एवं पुण्यजनी के पुत्रों गर्दभी एवं उसके बच्चे को जोतकर यह जंगल की में से एक था। ओर चल पड़ा। राह में गर्दभी का बच्चा छोटा । मंडलक--तक्षक कुल का एक नाग, जो जनमेजय के | होने के कारण माँ के बराबर न चल पा रहा. था, सर्पसत्र में दग्ध हुआ (म. आ. ५०.६०)। जिससे क्रोधित हो कर इसने उस बच्चे के नाक पर • मंडूक--एक आचार्य, जिसने अथर्ववेद की 'शिक्षा' लगातार चाबुक से कई चोटें की। गर्दभी का बच्चा लिखी थी। उस शिक्षाग्रंथ में कुल १८९ श्लोक हैं। चोटों से जख्मी हो गया, एवं दर्दपीड़ा में विह्वल होकर २. एक जनसंघ, जिनके राजा का नाम आयु था। माँ की ओर देखने लगा। तब गर्दभी ने उसे सान्त्वना आयु राजा की सुशोभना नामक कन्या थी, जिसका विवाह | देते हए कहा, 'ब्राह्मण दयालु होते है, तथा- चाण्डाल क्रूर । इक्ष्वाकुवंशीय परिक्षित् राजा से हुआ था। सुशोभना को यह अपना जाति के अनुसार, तुमसे व्यवहार कर रहा परिक्षित् राजा से शल, दल एवं बल नामक तीन पुत्र है, इस लिए तुम्हें सहना ही पड़ेगा। उत्पन्न हुए थे (म. व. १९०; शल देखिये)। ____३. एक महर्षि, जो मांडुकेय नामक सुविख्यात आचार्य ___ गर्दभी की इस बात को सुनकर इसने तत्काल पूछा, 'मैं ब्राह्मण हूँ, मेरे माता-पिता ब्राह्मण है, तब मै चाण्डाल का पुत्र था। कैसे हुआ ? मैने किस प्रकार अपना ब्राह्मणत्व नष्ट कर मतंग--एक प्राचीन राजा, जो शाप के कारण व्याध बना । व्याध होने के कारण ही इसे 'मतंग' नाम प्राप्त दिया है, और मैं आज चाण्डाल हँ ?'। तब गर्दभी ने बताया, तुम्हें 'जन्म देनेवाला पिता एक नाई था, जो जिस समय यह व्याध की अवस्था में जीवन यापन तुम्हारा माता का पति न था। अतएव तुम ब्राह्मण कहा । से हुए, और तुममें ब्राह्मणत्व कहाँ ?। . करता था, उस समय इसने महर्षि, विश्वामित्र की पत्नी का दुर्भिक्ष काल में भरणपोषण किया था (म. आ. ६५. तपस्या-इस कथा को सुन कर यह तत्काल घर ३१)। आया, और अपने पिता को अपने जन्म की कहानी आगे चलकर यह पुनः राजा हुआ, और इसने एक | बताकर, ब्राह्मणत्वप्राप्त करने के लिए तपस्या के लिए यज्ञ किया, जिसमें इसके उपकार का बदला चुकाने के चल पडा । इसकी तपस्या से प्रसन्न होकर इन्द्र ने इसे लिये स्वयं महर्षि विश्वामित्र पुरोहित बना। इस यज्ञ में | दर्शन दिया, किन्तु इसके द्वारा ब्राह्मणत्व मांगे जाने पर इन्द्र भी सोमपान के लिए उपस्थित हुआ था (म. आ. इन्द्र ने कहा, 'चांडालयोनि में उत्पन्न व्यक्ति को ब्राह्मणत्व ६५.३३)। मिलना असम्भव है। तब इसने एक पैर पर खड़े होकर हुआ। Page #621 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन चरित्रकोश मतंग atri तक और तपस्या की । किन्तु इन्द्र ने फिर प्रकट होकर यही कहा, 'अप्राप्य वस्तु की कामना करना व्यर्थ है । ब्राह्मणत्व सरलता से नहीं प्राप्त होता, उसके प्राप्त करने के लिए अनेक जन्म लेने पडते है ' । किन्तु यह इन्द्र के उत्तर से सन्तुष्ट न हुआ, और गया में जा कर अंगूठे के बल खड़े होकर इसने पुनः सौ वर्षों तक ऐसी तपस्या की, कि केवल अस्थिपंजर ही शेष बच्चा " " अन्त में इन्द्र ने इसे पुन दर्शन दिया और वहा, 'ब्राह्मणत्व छोडकर तुम कुछ भी माँग सकते हो ' । तब इसने इन्द्र से निम्नलिखित वर प्राप्त किये:-मनचाही महों पर बिहार करना, जो चाहे यह रूप लेना, आकाशगामी होना, ब्राह्मणों तथा क्षत्रियों के लिए पूज्य होना, एवं अक्षय कीर्ति की प्राप्ति करना इन्द्र ने इसे यह भी वर दिया, 'स्त्रियाँ ऐश्वर्य प्राप्ति के लिए तुम्हारी पूजा करेंगी, एवं छन्दोदेव नाम से तुम उन्हे पूज्य होगे ।' आगे चलकर मतंग ने देहत्याग किया, एवं इन्द्र से प्राप्त वरों के बल पर यह समस्त मानवजाति के लिए पूज्य बना । शबरी का गुरु था ( वा. रा. अर. ७४) । ५. इक्ष्वाकुवंशीय राजा त्रिशंकु का नामांतर (म. आ. ६५: २१-२४) । वसि ऋषि के पुत्रों के शाप के कारण, त्रिशंकु को मतंग-अवस्था प्राप्त हुयी, जिस कारण उसे यह नाम प्राप्त हुआ (त्रिशंकु देखिये ) | St मति दक्ष प्रजापति की एक कन्या, जो धर्म की पत्नी (म. आ. ६०.१४) । २. एक देव, जो स्वायंभुव मन्वन्तर के जित नामक देवों में से एक था। २. आभूतरजस् देवों में एक ४. भव्य देवों में से एक । मतिनार-- (सो. पूरु. ) पूरुवंशीय ' अंतिनार ' राजा का नामान्तर । इसे ' रंतिनार' एवं 'रंतिभार' नामान्तर भी प्राप्त थे ( म. आ. ८९.१० - १२ ) । महाभारत में इसे पूरु राजा के पौत्र अनाधृष्टि ( रुचेयु) का पुत्र कहा गया है, एवं इसके तंसु महान् अतिरथ द्रुह्यु नामक चार पुत्र दिये गये है । मत्स्यावतार - पृथ्वी पर मत्स्यावतार किस प्रकार हुआ, इसकी सब से प्राचीनतम प्रमाणित कथा शतपथ ब्राह्मण में प्राप्त है। एक बार, आदिपुरुष वैवस्वत मनु प्रातः काल ४. एक आचार्य, जो दाशरथि राम को फल देनेवाले के समय तर्पण कर रहा था, कि अयं देते समय उसकी अंजलि में एक 'मत्स्य' आ गया । 'मत्स्य' ने राजा मनु से सृष्टिसंहार के आगमन की सूचना से अवगत कराते हुए आश्वासन दिया कि आपत्ति के पूर्व ही यह मनु को सुरक्षित रूप से उत्तरगिरि पर्वत पर पहुँचा देगा, जहाँ प्रलय के प्रभाव की कोई सम्भावना नहीं। इसके साथ ही इसने यह भी प्रार्थना की कि जबतक यह बड़ा न हो तब तक मनु इसकी रक्षा करें । , मत्कुणिका—रकंद की अनुचरी एक मातृका ( म. श. ४५.१९) । मांडारकर संहिता में 'मन्यनिका पाठ प्राप्त है। " मत्स्य मत्त - रावण का भाई एवं लंका का एक बलाढ्य राक्षस, जिसका ऋपभ नामक वानर ने वध किया। २. रावण के महापार्थ नामक अमात्य का नामान्तर । अपने पश्चिमदिग्विजय के समय जीता था ( म. स. मत्तमयूर - एक क्षत्रियसमुदाय, जिसे कुछ ने २९.५)। मत्स्य - - विष्णु के दशावतारों में से प्रथम । भगवान् विष्णु ने अखिल मानवजाति के कल्याण के लिए एवं वेदों का उद्धार करने के लिए जो दस अवतार पृथ्वी पर लिए, उनमें से यह प्रथम है पद्म के अनुसार, शंखासुर द्वारा वेदों के हरण किये जाने पर उनकी रक्षा के लिए विष्णु ने यह अवतार लिया (पद्म. उ. ९०-९१ . १) । भागवत के अनुसार, विष्णु का यह वान अवतार चाक्षुष मन्वन्तर काल में उत्पन्न हुआ (भा. १.३.१५ ) । यह ' मत्स्य' जब बड़ा हुआ, तब मनु ने उसे महासागर में छोड़ दिया। पृथ्वी पर अमल होने पर समस्त प्राणिमात्र बह गये । एकाएक मनु के द्वारा बचाया हुआ मत्स्य प्रकट हुआ, एवं इसने मनु को नौका में बैठाकर उसे हिमालय पर्वत की उत्तरगिरि शिखर पर सुरक्षित पहुँचा दिया। आगे चलकर मनु ने अपनी पत्नी इड़ा के द्वारा नयी मानव जाति का निर्माण किया (श. बा. १०८.१.१ मनु वैवस्वत देखिये) पुराणों में- पद्म में मत्स्यावतार की यह कथा कुछ अलग ढंग से दी गयी है। कश्यप ऋषि को दिति नामक पत्नी से उत्पन्न मकर नामक दैत्य ने ब्रह्मा को धोखा देकर वेदों का हरण किया, एवं इन वेदों को लेकर वह पाताल में भाग गया। वेदों के हरण हो जाने के कारण, सारे विश्व में अनाचार फैलने लगा, जिससे पीड़ित होकर ब्रह्मा में विष्णु ५९९ Page #622 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मत्स्य प्राचीन चरित्रकोश मत्स्य की शरण में आकर उसे वेदों की रक्षा की प्रार्थना की। तब गया है। उस ग्रन्थ के अनुसार, प्रलय के पश्चात् मत्स्याविष्णु ने मत्स्य का अवतार लेकर मकरासुर का वध किया | वतारी विष्णु ने सत्यव्रत राजा को मन्वन्तराधिपति प्रजापति एवं उससे वेद लेकर ब्रह्मा को दिये। बनने का आशीर्वाद दिया, एवं उसे मत्स्यपुराण संहिता का ' आगे चलकर एक बार फिर मकर दैत्य ने वेदों का हरण उपदेश भी दिया (भा. १.३.१५, ८.२४; मत्स्य. १. किया, जिससे विष्णु को मत्स्य का अवतार लेकर पुनः ३३-३४) । उस आशीर्वाद के अनुसार, सत्यवत राजा वेदों का संरक्षण करना पड़ा (पद्म. उ. २३०)। वैवस्वत मन्वंतर में से कृतयुग का मनु बन गया। मत्स्यपुराण में मत्स्यावतार की कथा निम्न प्रकार से विष्णुधर्म के अनुसार, प्रलय के पश्चात् केवल सप्तर्षि दी गयी है :- पच्चीसवें कल्प के अन्त में ब्रह्मदेव की जीवित रहे, जिन्हे मत्स्यरूपधारी विष्णु ने शृंगी बनकर रात्रि का आरम्भ हुआ। जिस समय वह नींद में था, उसी हिमालय के शिखर पर पहँचा दिया, एवं उनकी जान TARATI समय प्रलय हुआ, जिससे स्वर्ग, पृथ्वी आदि लोग डूब | बचायी (विष्णुधर्म. १.७७; म. व. १८५)। . गये। निद्रावस्था में ब्रह्मदेव के मुख से वेद नीचे गिरे, तथा हयग्रीव नामक दैत्य ने उनका हरण किया। इसीसे मत्स्यकथा का अन्वयार्थ--मनु का निवासस्थान हयग्रीव नामक दैत्य का नाश करने के लिए भगवान् समुद्र के किनारे था। आधुनिक वैज्ञानिक दृष्टि से, समुद्र विष्णु ने सूक्ष्म मत्स्य का रूप धारण किया, तथा वह में बाढ़ आने के पूर्व समुद्र की सारी मछलियों तट की . कृतमाला नदी में उचित समय की प्रतीक्षा करने लगा। | ओर भाग कर किनारे आ लगती है, क्योंकि बाढ़ के समय इसी नदी के किनारे वैवस्वत मनु तप कर रहा था। उन्हे गन्दे जल में स्वच्छ प्राण वायु नहीं प्राप्त हो पाती। | सम्भव यही है कि, पृथ्वी में जलप्लावन के पूर्व समुद्र से एक दिन तर्पण करते समय उसकी अंजलि में एक छोटासा सारी मछलियों तट की ओर भगने लगी हों, तथा उनमें । मत्स्य आया । वह इसे पानी मे छोड़ने लगा कि, से एक मछली मन के सन्ध्या करते समय अंजलि में आ . मत्स्य ने उससे अपनी रक्षा के लिए प्रार्थना की। तब गयी हो । इससे ही मनु ने समझ लिया होगा किं, बहुत . दयालु मनु ने इसे कलश में रक्खा । यह मत्स्य उत्तरोत्तर बड़ी बाढ़ आनेवाली है, क्यों कि सारी मछलियाँ किनारे बढ़ता रहा, अन्त में मनु ने इसे सरोवर में छोड़ दिया। | आ लगी है । इस संकेत से ही पूर्वतैयारी करके तथापि इसका बढ़ना बन्द न हुआ। त्रस्त होकर मनु उसने अपने को जलप्लावन से बचाया हो। इसी कारण इसे समुद्र में छोड़ने लगा, तब इसने उससे प्रार्थना की, प्रलयोपरांत मनु को वह मछली साक्षात् विष्णु प्रतीत हुयी 'मुझे वहाँ अन्य जलचर प्राणी खा डालेंगे, अतएव हो। बहुत सम्भव है कि, मत्स्यावतार की कल्पना इसी र तुम मुझे वहाँ न छोड़ कर मेरी रक्षा करो'। तब मनु ने से की गयी हो। आश्चर्यचकित होकर इससे कहा, 'तुम्हारे समान सामर्थ्यवान् जलचर मैंने आजतक न देखा है, तथा न २. मत्स्यदेश में रहनेवाले लोगों के लिये प्रयुक्त सामुहिक सुना है। तुम एक दिन में सौ योजन लंबेचौड़े हो गये नाम । ऋग्वेद में इनका निर्देश सुदास राजा के शत्रुओं के हो, अवश्य ही तुम कोई अपूर्व प्राणी हो । तुम परमेश्वर रूप में किया गया है (ऋ. ७.१८.६ )। शतपथ ब्राह्मण हो, तथा तुमने जनकल्याण हेतु ही जन्म लिया होगा। में ध्वसन् द्वैतवन राजा को मत्स्य लोगों का राजा ___ यह सुनकर मत्स्य ने कहा, 'आज से सातवें दिन सर्वत्र (मात्स्य ) कहा गया है (श. ब्रा. १३.५.४.९)। ब्राह्मण प्रलय होगी, तथा सारा संसार जलमग्न हो जायेगा। ग्रंथों में वश एवं शाल्व लोगों के साथ इनका निर्देश प्राप्त इसलिए नौका में सप्तर्षि, दवाइयाँ, बीज इत्यादि लेकर ह ( का. बा. ४.१; श. बा. १.२.९)। मनु के अनुसार, बैठ जाओ। अगर नौका हिलने लगे तो वासुकि की रस्सी | मत्स्य, कुरुक्षेत्र, पंचाल, शूरसेनक आदि देशों को 'ब्रह्मर्षि बनाकर मेरे सींग में बाँध दो'। देश' सामुहिक नाम प्राप्त था (मनु. २.१९; ७.१९३)। प्रलय आने पर मनु ने वैसा ही किया, एवं मत्स्य की महाभारत में इन लोगों का एवं इनके देश का निर्देश सहायता के द्वारा वह प्रलय से बचाया गया (मत्स्य. अनेक बार आता है, जहाँ इन्हे धर्मशील एवं सत्यवादी १-२, २९०)। कहा गया है (म. क. ५.१८)। पाण्डवों के वनवासकाल भागवत में मत्स्यद्वारा बचाये गये राजा का नाम में, वारणावत से एकचक्रा नगरी को जाते समय पाण्डव वैवस्वत मनु न देकर दक्षिण देशाधिपति सत्यत्रत दिया। इस देश में कुछ काल तक ठहरे थे (म. आ. १४४.२)। ६०० Page #623 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मत्स्य प्राचीन चरित्रकोश मदनिका थी। इसे सत्यवती नामान्तर भी प्राप्त था ( सत्यवती देखिये) । पूर्वजन्म में यह पितरों की कन्या अच्छोदा थी। इसके पुत्र का नाम कृष्ण द्वैपायन था। मत्स्यदग्ध - अंगिराकुलोत्पन्न एक प्रवर । मत्स्याच्छाद्य -- अंगिराकुलोत्पन्न एक गोत्रकार | मथन -- तारकासुर के पक्ष का एक असुर, जो विष्णु के द्वारा मारा गया था (मत्स्य १५१) | मथित-भृगुकुलोपन एक गोत्रकार इसके नाम के लिए 'माधव' पाठभेद प्राप्त है। माथित यामायन-एक वैदिक (१०. १९ ) । मद--एक दानव, जो कश्यप एवं नु का पुत्र था। २. ब्रह्मा का एक मानसपुत्र, जो उसके अहंकार से उत्पन्न हुआ था ( मास्या ३.११ ) | ३. रुद्र गणों में से एक । इस देश के निवासी जरासंध के भय से अपना देश छोड़ कर दक्षिण भारत की ओर गये थे ( म. स. १३.२७) | भीमसेन ने अपनी पूर्वदिग्विजय के समय इन लोगों को जीता था ( म. स. २७.८ ) । सहदेव ने भी अपनी दक्षिण दिग्विजय के समय मत्स्य एवं अपरमत्स्य लोगों को जीता था (म. स. २८.२-४ ) अपने अशतवास के समय पाण्डवों ने इस देश में निवास किया था। उस समय इनलोगों का राजा विराट था ( म. वि. १.१२-१६)। भारतीय युद्ध में एक अक्षौहिणी सेना लेकर मत्स्यराज विराट युधिष्ठिर की सहाय्यता के लिए आया था ( म.उ. १९.१२ ) । इन लोगों के अनेक वीरों का भीष्म एवं द्रोण ने यक्ष कीया या (म.मी. ४५.५४) द्रो. १६४.८५ ) । पंचे हुए वीरों का संहार अश्वत्थामा ने भारतीय युद्ध के अंतिम दिन किया था (म. सी. ८. १५० ) । ラ भौगोलिक मर्यादा - संभव है कि, आधुनिक भरतपूर धौलपुर एवं प्रदेश मिलकर प्राचीन मत्स्य भरवार, देश बना होगा। १९४८ इ. स. में भारत सरकार ने मास्ययुनियन नामक राज्य की स्थापना की थी. जिसमें यही प्रवेश शामिल थे। आगे चलकर मत्स्य युनियन का सारा प्रदेश राजस्थान में शामिल किया गया। मंस्य देश की राजधानी विराटनगरी में थी, जो जयपूर के पास बैराट नाम से आज भी प्रसिद्ध है । ३. (सो. ऋक्ष. ) एक राजा, जो उपरिचर वसु को एक मत्स्यी के द्वारा उत्पन्न जुड़वे संतानों में से एक था । इसे मत्स्यगंधा नामक जुड़वी बहन भी थी (म. आ. ५७.५१) । ४. एक आचार्य, जो बाबु के अनुसार न्यास की ऋक्शिष्यपरंपरा में से देवमित्र नामक आचार्य का शिष्य था। इसके नाम के लिए 'वास्य' पाठभेद प्राप्त है। ४. राम दाशरथि राजा के सुज्ञ नामक मंत्री का पुत्र । ५. एक राक्षस, जो च्यवन ऋषि के द्वारा उत्पन्न हुआ था। इसके उत्पत्ति की कथा महाभारत में इस प्रकार दी गयी है। एक बार सोमपान करनेवाले देवतागणों ने अश्वियों को सोमपान करने से इन्कार किया। फिर अश्रियो ने च्यवन ऋषि की मदद माँगी । च्यवन ऋषि ने अपने मंत्रों के बल से देवतागणों का परामय किया। पश्चात् इंद्र ने क्रुद्ध हो कर च्यवन ऋषि पर आक्रमण करना चाहा, जिसका प्रतिकार करने के लिए च्यवन ने अग्नि में से एक महाभयंकर राक्षस का निर्माण किया। उसी का ही नाम मद था । उत्पन्न होते ही मद ने अपना प्रचंड मुख खोल दिया, जिसमें समस्त देवतागण समा गये एवं इसकी जिव्हा पर तैरने लगे। फिर समस्त देवताओं के साथ, इंद्र व्ययन ऋषि की शरण में गया, एवं उसने अश्वियों को सोमपान में सहभागी करना स्वीकार कर दिया (म.व. १२४.१८१९ अनु. १५०.२७-३२ ) । मत्स्यकाल--(सो.क्ष. ) एक राजा, जो वायु के अनुसार, उपरिचर वसु ( इंद्रसत्र ) राजा का पुत्र था । संभव यही है, कि इसका सही नाम मत्स्य था, एवं यह एवं इसकी काली (मत्स्यगंधा) नामक गुड़ी पहनन दोनो के नाम के लिए 'मत्स्यकाल' नाम प्रयुक्त किया गया हो (मत्स्य ३. देखिये ) | मत्स्यगंध - भृगुकुलोत्पन्न एक गोत्रकार । मत्स्यगंधा कुरुवंशीय शंतनु राजा की पत्नी, जो उपरिचर व राजश को एक मत्स्वी से उत्पन्न पुत्री | प्रा. च. ७६ ] ६०१ मद्गल -- एक ऋग्वेदी ब्रह्मचारी । मदनमा के पुत्र कामदेव का नामान्तर (कामदेव देखिये ) | २. केरल देश के धृष्टबुद्धि नामक राजमंत्री का पुत्र | मदनमंजरी - नीलपुत्र प्रवीर राजा की पत्नी । मदनसुंदरी — एक गोपी, जो कृष्ण को अत्यधिक प्रिय थी । मदनिका - एक अप्सरा, जो मेनका की कन्या थी । इसका विवाह विद्रूप नामक राक्षस से हुआ था। पचिराज Page #624 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मदनिका प्राचीन चरित्रकोश मद्रक गरुड के वंशज कंधर ने विद्यद्रप राक्षस का वध किया। मदोत्कट-एक शिवगण। तदोपरान्त यह कंधर की पत्नी बनी, जिससे इसे ताी मद्र-मद्र देश में रहनेवाले लोगों के लिए प्रयुक्त नामक कन्या उत्पन्न हुई (मार्क.२)। | सामुहिक नाम । बृहदारण्यक उपनिषद में इन लोगों का मदयन्ती-मित्रसह कल्माषपाद राजा की पत्नी । निर्देश प्राप्त है (बृ. उ. ३.३.१, ७.१) । उपनिषदों में इसे वसिष्ठ ऋषि से अश्मक नामक पुत्र उत्पन्न हुआ था | वर्णित मद्रगण कुरुओं भाँति मध्यदेश के कुरुक्षेत्र नामक (म. आ. १६८.२५, १७३.२२; शां. २२६.३०)। | स्थान में बसे हुए थे। उस समय पतंचल काप्य नामक उत्तंक नामक सुविख्यात ऋषि अपने गुरु वेद ऋषि की | आचार्य इन्ही के बीच रहता था। आज्ञा के अनुसार, इसके कुण्डल माँगने के लिए इसके ऐतरेय ब्राह्मण में उत्तर मद्र लोगों का निर्देश प्राप्त है, यहाँ आये थे। इसने उन्हे कुण्डल दे कर संतुष्ट किया | जिन्हे हिमालय पर्वत के उस पार ('परेण हिमवन्तम् ') था (म. आश्व. ५७.५८; उत्तंक देखिये)। उत्तर कुरुओं के पड़ोस के रहिवासी बताया गया है (ऐ. २. कृष्ण की एक सखी (पन. पा. ७४)। ब्रा. ८.१४.३)। सिमर के अनुसार, ये लोग काश्मीर मदालसा--काशी देश के ऋतुध्वज राजा की पत्नी, के रावी एवं चिनाब के मध्यवर्ति भूभाग में रहते थे जिसके पुत्र का नाम अलर्क था । यह अत्यंत ब्रह्मनिष्ठ | (आल्टिन्डिशे. लेबेन. १०२)। थी। एक बार पातालकेतु नामक राक्षस ने इसका हरण महाभारतकाल में इन लोगों का राजा शल्य था,. किया । पश्चात् ऋतुध्वज राजा ने पातालकेतु को परास्त जिसकी बहन माद्री कुरुवंशीय राजा पाण्डु को विवाह में, . कर इसकी मुक्तता की। दी गयी थी। उस समय भीष्म अपने मंत्री, ब्राह्मण, एवं मदिरा-एक स्त्री, जो देवदैत्यों ने किये समुद्रमंथन | सेना को साथ ले कर इस देश में आये थे, एवं उसने.. से निकले हुए चौदह रत्नों में से एक थी । इसे 'सुरा' पाण्डु के लिए माद्री का वरण किया (म. आ. १०५. नामान्तर भी प्राप्त था। ४-५)। २. श्रीकृष्ण पिता वसुदेव की अनेक पत्नियों में से ___ युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ के समय, पाण्डुपुत्र नकुल ने एक । वसुदेव की मृत्यु के पश्चात् देवकी, भद्रा एवं रोहिणी इन लोगों पर प्रेम से विजय प्राप्त किया था, एवं ये लोग नामक अन्य वसुदेवपत्नियों के साथ यह सती हो गयी युधिष्ठिर के लिए भेंट ले कर आये थे (म. स. २९. . (म. मौ. ८.१८)। १३, ४८.१३)। . . मदिराश्व--(सू. इ.) एक इश्वकुवंशीय राजा, जो दशाश्व राजा का पुत्र था। यह परमधर्मात्मा, सत्यवादी, __ महाभारत के पूर्वकाल में, सती सावित्री का पिता तपस्वी, दानी एवं वेद तथा धनुर्वेद में पारंगत था (म. अश्वपति म्द्र देश का नरेश था (म. व. २९३.१३)। कर्ण ने मद्र एवं वाहीक देशों को आचारभ्रष्ट बता कर अनु. २.७-८)। उनकी निंदा की थी (म. क. ३०.९, ५५, ६२, ६८इसे द्युतिमत् नामक पुत्र, तथा सुमध्यमा नामक कन्या थी (म. अनु. २.८)। अपनी कन्या को हिरण्यहस्त ७१)। नामक भाषि को विवाह में प्रदान कर, यह स्वर्गलोक चला २: अनुवंशीय 'मद्रक' राजा के लिए उपलब्ध गया (म. शां. २२६.३४; अनु. १३७.२४)। पाठभेद । २. मत्स्यनरेश विराट का भाई। इसके नाम के लिए | ३. स्वारोचिष मन्वन्तर का एक देव । 'मदिराक्ष' पाठभेद भी प्राप्त है (म. उ. १६८.१४)। मद्रक--(सो. अनु.) एक राजा, जो विष्णु एवं त्रिगों के द्वारा गोहरण के समय इसने कवचधारण वायु के अनुसार शिबि राजा का पुत्र था। इसके नाम कर उनसे युद्ध किया था। के लिए 'मद्र' पाठभेद प्राप्त है। ___ भारतीय युद्ध में राजा विराट के चक्ररक्षक के रूप २. एक मद्रदेशीय योद्धा, जो भारतीय युद्ध में कौरव में यह पाण्डवों के पक्ष में शामिल था (म. वि. ३२. | पक्ष में शामिल था (म. भी. ७.७)। ३०)। यह एक उदाररथी, सम्पूर्ण अस्त्रों का ज्ञाता, एवं ३. एक राजा. जो क्रोधवश नामक दैत्य के अंश से मनस्वी वीर था (म. उ. १६८.१५)। भारतीय युद्ध में | उत्पन्न हुआ था। इसके नाम के लिए 'नंदिक' पाठभेद द्रोण ने इसका वध किया। | प्राप्त है (म, आ. ६१.५५)। ६.२ Page #625 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मद्रगार मगार शौगायन - एक आचार्य, जो साति औाक्षि नामक ऋषि का शिष्य था । इसके शिष्य का नाम काम्बोज औपमन्यव था (व. बा. १.) । प्राचीन चरित्रकोश , शुङ्ग का वंशज होने से इसे 'शौङ्गायनि' उपाधि प्राप्त हुई। सिमर के अनुसार, इन नामों से 'कम्बोजों एवं ‘मद्रों ' के संबंध का संकेत मिलता है (आल्टिन्डिशे लेबेन १०२) मुद्रा - अत्रि ऋषि की दस स्त्रियों में से एक। इसके पुत्र का नाम सोम था (ब्रह्मांड २.८.८४-८७ ) । मधु - उत्तम मनु के पुत्रों में से एक। २. चाक्षुष मन्वन्तर के सप्तर्षियों में से एक । एक था। ४. मधुकैटभ नामक सुविख्यात असुरद्ववों में से एक (मधुकैटभ देखिये) । मधुकैटभ - एक सुविख्यात अमुरद्वय । ये मधु तथा ३. एक राक्षस, जो कश्यप एवं खशा के पुत्रों में से कैटभ नामक दो असुर बह्मदेव के स्वेद से उत्पन्न हुए थे (विष्णुधर्म. १. १५) । जन्म - पद्म के अनुसार इनकी उत्पत्ति ब्रह्मा के तमोगुण से हुयी थी (पद्म. सु. ४० ) । देवी भागवत में कहा गया है कि, इनकी उत्पत्ति विष्णु के कान के मैल से हुयी थी (दे. भा. १.४ ) । ५. (स्वा. प्रिय. ) एक राजा, जो भागवत के अनुसार बिन्दुमत् एवं सरघा का पुत्र था । इसके पुत्र का नाम वीरजन था। 9 ६. (सो. क्रोष्टु. ) एक यादव राजा, जो भागवत एवं भविष्य के अनुसार देवक्षत्र का विष्णु के अनुसार क्षेत्र का, मत्स्य के अनुसार दैवक्षत्र का, एवं वायु के अनुसार देवन राजा का पुत्र था। ७. (सो. यदु. सह. ) एक यादव राजा, जो विष्णु के अनुसार कृप का एवं भागवत के अनुसार सहस्रार्जुन का पुत्र था।. मधुकैटभ नामक यादव राजा ने जीत ली एवं वह वहाँ का राजा बना ( ह. वं २.३८ ) । ९. कृष्ण के पत्रों में से एक। महाभारत के अनुसार इन दोनों की उत्पत्ति भगवान् विष्णु के कान के मैल से हुयी थी। भगवान् ने मिट्टी से इनकी आकृति बनायी थी। इनकी मूर्ति में वायु के प्रविष्ट हो जाने से ये सप्राण हो गये थे । इन दोनों में मधु की त्वचा कोमल थी, अतएव इसे 'मधु' नाम प्राप्त हुआ था । मधु सहित कैटभ की उत्पत्ति का वर्णन महाभारत में प्राप्त है। भगवान् विष्णु के नाभिकमल पर भगवत्प्रेरणा से जल की दो बूँदें पड़ी थीं, जो रजोगुण तथा तमोगुण की प्रतीक थी। भगवान् ने उन दोनों बूँदों की ओर देखा, तथा उनमें से एक बूँद मधु तथा दूसरी टम हो गयी ( म. शां. ३५५.२२-२३) । मृत्यु - इन्होंने तप कर के अजेयत्व प्राप्त किया था । बाद में अपने स्वभाव के अनुसार, जब ये सब लोगों को त्रस्त करने लगे, तब विष्णु ने इनका वध किया (दे. मा. १.४ ) । ये पैदा होने के उपरांत ही ब्राह्मणों का वध करने लगे थे, तथा ब्रह्मा को भी मारने के लिए उद्यत हुए थे (म.व. १३.५० ) । ब्रह्मदेव ने विष्णु की स्तुति की, तब विष्णु ने इनसे पचास हज़ार वर्षों तक युद्ध किया। लेकिन यह मरते ही न थे। अन्त में इन्हें मोहित कर विष्णु ने इनसे इनकी मृत्यु का वर माँगा, तथा बाद में गोद में लेकर इनका वध किया (पद्म. क्रि. २; मार्के. ७८; ह. वं. ३.१३ ) । इनकी मेद से पृथ्वी बनने के ही कारण पृथ्वी को 'मेदिनी' नाम ६०३ ८. एक यादव राजा, जिसकी माता का नाम लोला था। यह अत्यंत सदाचरणी एवं शिव का परमभक था । इसके तप एवं सदाचरण से प्रसन्न हो कर शिव ने इसे एक त्रिशूल प्रदान किया था। यह त्रिशूल जब तक इसके पास रहेगा, तब तक यह युद्ध में अवध्य एवं अजेय रहेगा, ऐसा इसे शिव का वर था ( लोला देखिये) । मधुक पैग्य - एक आचार्य, जो याश्वस्य ऋषि का शिष्य था (श. ब्रा. ११.७.२.८९ सां. बा. १६.९) । इसके शिष्य का नाम चूड भागवित्ति था (बृ. उ. ६.३. ८-९ काव्य.)। पिंग का वंशज होने से इसे 'पै उपाधि प्राप्त हुयी होगी । मधुकुंभा- स्कंद की अनुचरी एक मातृक ( म. श. ४५.१८) । इसकी पत्नी का नाम कुम्भीनसी था, जिससे इसे लवण नामक पुत्र उत्पन्न हुआ था । लवण अत्यंत दुराचारी था, इसलिए शत्रुघ्न ने उसका वध किया था। रामायण के अनुसार, शत्रुघ्न ने उसका बाण से, एवं हरिवंश के अनुसार खड्ग से उसका शिरच्छेद किया ( वा. रा. उ. ६९.३६ . . १.५४.५२ ) । मधु स्वयं यादवों का राजा था, किन्तु रामायण में इसे दैत्य भी कहा गया है । इसका पुत्र लवण निपुत्रिक अवस्था में मृत होने के पश्चात् इसकी राजधानी मधुपुरी भीम Page #626 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मधुकैटभ प्राप्त हुआ ( म. स. परि. १. क्र. २१. पंक्ति १३३-१३५; शां. ३३५ ) । भगवान् विष्णु ने ब्रह्मा के कहने पर मारा था, अत एव उसे 'मधुसूदन' नाम प्राप्त हुआ ( म. शां. २००.१४ - १६ ) । पद्म के अनुसार, देवासुर संग्राम में ये हिरण्याक्ष के पक्ष में शामिल थे, एवं देवों से मायायुद्ध करते थे । इसी कारण विष्णु ने इनका वध किया (पद्म. सृ. ७० ) 1 ये असुरों के पूर्वज माने जाते हैं, जो तमोगुणी प्रवृत्ति के उग्र स्वभाववाले थे, तथा सदा भयानक कार्य किया करते थे। प्राचीन चरित्रकोश मधुच्छन्दस् वैश्वामित्र - एक ऋषि, जो ऋग्वेद के प्रथम मंडल में से पहले दस सूक्तों का रचयिता माना जाता है (कौ. ब्रा. २८.२ ) । ऐतरेय ब्राह्मण के अनुसार, यह विश्वामित्र का इक्यावनवाँ पुत्र श्री ( ऐ. ब्रा. ७.१८ ) । शतपथ ब्राह्मण में सुविख्यात् 'प्रउग' (प्रातःकालिन स्तुतिस्तोत्र ) सूक्त का कर्ता इसे कहा गया है (श. बा. १३.५. १.८ ) । यह सूक्त प्रायः प्रातःकाल के समय गाया जाता है । इसके द्वारा रचित यह सूक्त गायत्री छंद में है ( ऐ. आ. १.१.३) । विश्वामित्र के कुल सौ पुत्र थे । उनमें से शुनःशेप नामक पुत्र का ज्येष्ठ भ्रातृत्व विश्वामित्र के पहले पचास पुत्रों ने मान्य न किया । किंतु अगले पचास पुत्रों ने उसे मान्यता दी, जिसमें मधुच्छंद्रस् प्रमुख था । इस कारण विश्वामित्र इस पर अत्यंत प्रसन्न हुआ, एवं उसने इसे शुभाशीर्वाद दिये । वैवस्वत मनु का पुत्र शर्यात राजा का यह पुरोहित था (शर्यांत देखिये )। यह विश्वामित्र गोत्र का गोत्रकार एवं प्रवर तथा कुशिक गोत्र का मंत्रकार था ( म. अनु. ४. ४९–५०)। महाभारत में एक वानप्रस्थी ऋषि के नाते से इसका निर्देश प्राप्त है । मनसा मधुर -- एक असुर, जो वृत्रासुर का पुत्र था। २. स्कंद का एक सैनिक ( म. श. ४४.६६ ) । ३. ( स्वा. प्रिय. ) एक राजा, जो बिन्दुमत् राजा का पुत्र था । मधुरस्वरा - स्वर्गलोक की एक अप्सरा, जो अर्जुन के जन्मोत्सव में उपस्थित थी ( म. आ. ४४.३० ) । मधुरावह -- अंगिराकुलोत्पन्न एक गोत्रकार । मधुरुह - ( स्वा. प्रिय. ) एक राजा, जो धृतपृष्ठ राजा का पुत्र था । मधुष्पंद -- विश्वामित्र के पुत्रों में से एक । मधुलिका -- स्कंद की अनुचरी एक मातृका (म. श. ४६.१८ ) । इसके नाम के लिए 'मधुरिका ' पाठभेद प्राप्त है । मधुवर्ण - स्कंद का एक सैनिक ( म. श. ४४.६७ ) । मध्य-- कश्यप एवं अरिष्टा के पुत्रों में से एक । मध्यंदिन -- ( स्वा. उत्तान . ) एक राजा, जो भागवत के अनुसार पुष्पार्ण एवं प्रभा का पुत्र था । मध्यम प्रातीबोधीपुत्र माण्डुकेय - एक आचार्य. (सां. आ. ७.१३ ) । प्रतीबोध के किसी स्त्रीवंशज का पुत्र होने से इसे 'प्रातीबोधीपुत्र' नाम प्राप्त हुआ होगा । मन - भव्य, तुषित एवं साध्य देवों में से एक । मनस् -- सायण के अनुसार, एक ऋषि (ऋ. ५. ४४.१० ) । मनसा - एक देवी, जिसमें विषबाधा दूर करने का अलौकिक सामर्थ्य था । यह सामर्थ्य इसे शिवकृपा से प्राप्त हुआ था। इन्द्र एवं सर्पादि विषैलि जातियाँ इसकी उपासना करती थी, एवं वासुकि जैसे सर्प इसके उपासकों में थे। पृथ्वी पर के समस्त सर्पों पर इसका वरदहस्त था । २. प्रमतिपुत्र सुमति राजा का पुरोहित, जो योगमार्ग से मुक्त हुआ था (पद्म. स. १५ ) । यह सर्पों के विष को लीलया उतार देती थी, जिसे साक्षात् धन्वन्तरि भी नहीं उतार सकते थे। अतः इसे मधुप -- स्वायंभुव मन्वन्तर के अजित देवों में से धन्वंतरि से भी बढ़कर मानते है, एवं सर्पविद्यासंपन्न एक । लोग इसे अपनी देवता मानते है । ग्रामों में आज भी इसकी पूजा की जाती है ( ब्रह्मवै. ३.५१ ) । २. एक राजा, जो कृष्णांश राजा का शत्रु था। इसके पुत्र का नाम वीरसेन था (भवि. प्रति ३.२२ ) । मधुपर्क--- गरुड की प्रमुख संतानों में से एक ( म.उ. ९९.१४ ) । जनमेजय ने किये सर्पसत्र से इन्द्र तक्षक आदि नाग बचे थे, उन्होंने इस देवी की पूजा की थी ( दे. भा. ९.४८ ) । यह कश्यप ऋषि की कन्या, एवं वासुकि सर्प की भगिनी मधुपिंग - - लांगली भीम नामक शिवावतार का मानी जाती है। इसका विवाह जरत्कारु नामक ऋषि से हुआ था, जिससे इसे आस्तिक नामक पुत्र उत्पन्न हुआ शिष्य । ६०४ Page #627 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनसा प्राचीन चरित्रकोश था। इसके इस सारे परिवार का निर्देश इसके संबंधित । ७. एक ऋषि, जो कृशाश्व ऋषि का पुत्र था। इसकी निम्नलिखित मंत्र में प्राप्त है : माता का नाम धिषणा था (भा. ६.६.२०)। आस्तिकस्य मुनेर्माता, भगिनी वासुकेस्तथा । ८. (सो. क्रोष्टु.) एक यादव राजा, जो वायु के जरत्कारुमुनेः पत्नी, मनसा देवी नमोस्तु ते ॥ अनुसार मधु राजा का पुत्र था। इसके पुत्र का नाम २. सिंधु दैत्य की कन्या। मनुवश था। मनस्यु-(सो. पूरु.) एक पूरुवंशीय सम्राट, जो पूरु ९. (सो. क्रोष्टु.) एक यादव राजा, जो मत्स्य के राजा का पौत्र एवं प्रवीर राजा का पुत्र था। वायु में इसे अनुसार, लोमपाद राजा का पुत्र था। इसके पुत्र का नाम अविद्ध का, एवं मत्स्य में इसे प्राचीन्वत् राजा का पुत्र ज्ञाति था। कहा गया है। इसकी माता का नाम शौरसेनी था. जो १० (सू. इ.) एक इक्ष्वाकुवंशीय राजा, जो शीघ्र शूरसेन राजा की कन्या थी (म. आ. ८९.६-७)। । राजा का पुत्र था। इसके पुत्र का नाम प्रसुश्रुत था। इसकी पत्नी का नाम सौवीरी था, जिससे इसे शक्त, ११. धर्मसावर्णि मनु के पुत्रों में से एक । संहनन एवं वाग्मिन् नामक तीन पुत्र उत्पन्न हुए थे। १२. अंगिराकुलोत्पन्न एक गोत्रकार। २. (स्वा. नाभि..) एक राजा, जो महत् राजा का | | मनु 'आदिपुरुष'-मानवसृष्टि का प्रवर्तक आदि मनु' आदपुरु पुत्र था। विष्णु में इसके नाम के लिये 'नमस्यु' पाठभेद पुरुष, जो समस्त मानवजाति का पिता माना जाता है (ऋ. १.८०.१६; ११४.२, २.३३.१३, ८.६३.१; अ. वे. १४.२.४१; तै. सं. २.१.५.६)। __ मनस्विनी-दक्षप्रजापति की कन्या, जो धर्म की पत्नी कई अभ्यासकों के अनुसार, मनु वैवस्वत तथा यह थी। धर्म से इसे चंद्रमा नामक पुत्र उत्पन्न हुआ था। | दोनों एक ही व्यक्ति थे (मनु वैवस्वत देखिये)। २. पूरुवंशीय सम्राट अन्तिनार राजा की पत्नी (मत्स्य. ऋग्वेद में प्रायः बीस बार मनु का निर्देश व्यक्तिवाचक ४९.७)। नाम से किया गया है। वहाँ सर्वत्र इसे 'आदिपुरुष' ३. उत्तानपाद राजा की सुनृता नामक पत्नी से उत्पन्न एवं मानव जाति का पिता, तथा यज्ञ एवं तत्संबंधित • कन्या । विषयों का मार्गदर्शक माना गया है । मनु के द्वारा बताये मनावी-'मनु की पत्नी' इस अर्थ से प्रयुक्त शब्द गये मार्ग से ले जाने की प्रार्थना वेदों में प्राप्त है (ऋ. (क. सं. ३०.१; श. ब्रा. १.१.४.१६)। ८.३०.१)। मनु--मानवसृष्टि का आदि पुरुष (मनु 'आदिपुरुष' __ मानवजाति का पिता-ऋग्वेद में पांच बार इसे पिता दखिये)। एवं दो बार निश्चित रूप से 'हमारे पिता' कहा गया है २. एक राजा, जिसके राज्यकाल में जलप्रलय हो कर, (ऋ. २.३३ )। तैत्तिरीय संहिता में मानवजाति को 'मनु श्रीविष्णु ने मत्स्यावतार लिया था (मनु वैवस्वत देखिये)। की प्रजा' (मानव्यः प्रजाः) कहा गया है (१.५.१.३)। ३. 'मनुस्मृति' नाम सुविख्यात धर्मशास्त्रविषयक | | वैदिक साहित्य में मनु को विवस्वत् का पुत्र माना गया है, ग्रंथ का कर्ता (मनु स्वायंभुव देखिये)। एवं इसे 'वैवस्वत' पैतृक नाम दिया गया है (अ. वे. ८. ४. एक अर्थशास्त्रकार (मनु प्राचेतस देखिये)। १०; श. ब्रा. १३.४.३)। यास्क के अनुसार, विवस्वत् . ५. एक अग्निविशेष, जो तप नाम धारण करनेवाले | का अर्थ सूर्य होता है, इस प्रकार यह आदिपुरुष सूर्य का पांचजन्य नामक अग्नि का पुत्र था। इसकी सुप्रजा, | पुत्र था (नि. १२.१०)। यास्क इसे सामान्य व्यक्ति न महत्भासा एवं निशा नामक तीन पत्नियाँ थी। उनमें से | मानकर दिव्यक्षेत्र का दिव्य प्राणी मानते है (नि.१२. प्रथम दो से इसे छः पुत्र एवं तीसरी से इसे एक कन्या | ३४)। तथा सात पुत्र उत्पन्न हुए थे। इसके पुत्रों में निम्नलिखित | वैदिक साहित्य में यम को भी विवस्वत् का पुत्र माना चार पुत्र प्रमुख थे:-वैश्वानर, विश्वपति, स्विष्टकृत् एवं | गया है, एवं कई स्थानों पर उसे भी मरणशील मनुष्यों कर्मन (म. व. २२३)। | में प्रथम माना गया है। इससे प्रतीत होता है कि, ६. एक अप्सरा, जो कश्यप एवं प्राधा की कन्या थी | वैदिक काल के प्रारम्भ में मनु एवं यम का अस्तित्त्व (म.आ. ५९.४४)। अभिन्न था, किन्तु उत्तरकालीन वैदिक साहित्य में मनु को ६०५ Page #628 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनु प्राचीन चरित्रकोश मनु जीवित मनुष्यों का एवं यम को दूसरे लोक में मृत | है। यज्ञकर्ता भी अग्नि को उसी प्रकार यज्ञ का साधन मनुष्यों का आदिपुरुष माना गया। इसीलिए शतपथ बनाते हैं, जिस प्रकार मनओं ने बनाया था (ऋ. १.४४) ब्राह्मण में मनु वैवस्वत को मनुष्यों के शासक के रूप में, वे मनुओं की ही भाँति अग्नि को प्रज्वलित करते हैं, तथा यम वैवस्वत को मृत पितरों के शासक के रूप में तथा उसीकी भाँति सोम अर्पित करते हैं (ऋ. ७.२, ४. वर्णन किया गया है (ऋ. ८.५२.१; श. बा. १३.४.३) ३७)। सोम से उसी प्रकार प्रवाहित होने की स्तुति की यह मनु सम्भवतः केवल आर्यों के ही पूर्वज के रूप में | गयी है, जैसे वह किसी समय मनु के लिए प्रवाहित होता माना गया है, क्योंकि अनेक स्थलों पर इसका अनायों | था (ऋ. ९.९६ )। के पूर्वज द्यौः से विभेद किया है। . __समकालीन ऋषि--मनु का अनेक प्राचीन यज्ञ___ यज्ञसंस्था का आरंभकतों-मनु ही यज्ञप्रथा का कर्ताओं के साथ उल्लेख मिलता है, जिनमें निम्नलिखित आरंभकर्ता था, इसीसे इसे विश्व का प्रथम यज्ञकर्ता माना प्रमुख है:-अंगिरस् और ययाति (ऋ. १.३१), भृगु और जाता है (ऋ. १०.६३.७; तै. सं. १.५.१.३; २.५.९.१; | अंगिरस (ऋ. ८.४३), अथर्वन् और दध्यञ्च (ऋ. १. ६.७.१, ३.३.२.१, ५.४.१०.५, ६.६.६.१, ७.५.१५. ८०), दध्यञ्च, अंगिरस्, अत्रि और कण्व (ऋ. १.१३९)। ३)। ऋग्वेद के अनुसार, विश्व में अग्नि प्रज्वलित करने ऐसा कहा गया है कि, कुछ व्यक्तियों ने समय समय पर के बाद सात पुरोहितों के साथ इसने ही सर्वप्रथम देवों | मनु को अग्नि प्रदान कर उसे यज्ञ के लिए प्रतिष्ठित किया . को हवि समर्पित की थी (ऋ. १०.६३)। था, जिनके नाम इस प्रकार है--देव (ऋ. १.३६ ), यज्ञ से ऐश्वर्यप्राप्ति--तैत्तिरीय संहिता में मनु के द्वारा मातरिश्वन् (ऋ. १.१२८), मातरिश्वन्. और देव किये गये यज्ञ के उपरांत उसके ऐश्वर्य के प्राप्त होने की (ऋ. १९.४६), काव्य उशना (ऋ. ८.२३)। कथा प्राप्त है । देव-दैत्यों के बीच चल रहे युद्ध की विभीषिका से अपने धन की सुरक्षा करने के लिए देवों | ऋग्वेद के अनुसार, मनु विवस्वत् ने इन्द्र के साथ बैठ । कर सोमपान किया था (वाल. ३)। तैत्तिरीय संहिता. ने उसे अग्नि को दे दिया । बाद को अग्नि के हृदय में लोभ । उत्पन्न हुआ, एवं वह देवों के समस्त धनसम्पत्ति को और शतपथ ब्राह्मण में मनु का अक्सर धार्मिक संस्कारादि लेकर भागने लगा । देवों ने उसका पीछा किया, एवं उसे करनेवाले के रूप में भी निर्देश किया गया है। कष्ट देकर विवश किया कि, वह उनकी अमानत को | मन्वंतरों का निर्माण--आदिपुरुष मनु के पश्चात् , वापस कर । देवों द्वारा मिले हए कष्टों से पीडित होकर | पृथ्वी पर मनु नामक अनेक राजा निर्माण हए, जिन्होने अग्नि रुदन करने लगा, इसी से उसे 'रुद्र' नाम प्राप्त | अपने नाम से नये-नये मन्वंतरों का निर्माण किया । हुआ। उस समय उसके नेत्रों से जो आर् गिरे उसीसे | ब्रह्मा के एक दिन तथा रात को कल्प कहते हैं। इनमें चाँदी निर्माण हुयी, इसी लिए चाँदी दानकर्म में | से ब्रह्मा के एक दिन के चौदह भाग माने गये हैं, जिनमें वर्जित है। अन्त में अग्नि ने देखा कि, देव अपनी धन- | से हर एक को मन्वन्तर कहते हैं। पुराणों के अनुसार, सम्पत्ति को वापस लिए जा रहे हैं, तब उसने उनसे कुछ इनमें से हर एक मन्वन्तर के काल में सृष्टि का नियंत्रण भाग देने की प्रार्थना की । तब देवों ने अग्नि को | करनेवाला मनु अलग होता है, एवं उसीके नाम से उस 'पुनराधान' (यज्ञकों में स्थान ) दिया। आगे चलकर मन्वन्तर का नामकरण किया गया है। इस प्रकार जब मनु, पूषन् , त्वष्ष्ट्र एव धातृ इत्यादि ने यज्ञकर्म कर के | तक वह मनु उस सृष्टि का अधिकारी रहता है, तब तक ऐश्वर्य प्राप्त किया (तै. सं. १.५.१)। | वह काल उसके नाम से विख्यात रहता है। __ मनु ने सभी लोगों के प्रकाशहेतु अग्नि की स्थापना चौदह मन्वंतर-इस तरह पुराणों में चौदह मन्वन्तर की थी (ऋ. १.३६ )। मनु का यज्ञ वर्तमान यज्ञ का ही माने गये हैं, जो निम्नलिखित चौदह मनुओं के नाम से प्रारंभक है, क्यों कि, इसके बाद जो भी यज्ञ किये गये, उन | सुविख्यात हैं :--१. स्वायंभुव, २. स्वारोचिप, ३. उत्तम में इसके द्वारा दिये गये विधानों को ही आधार मान कर (औत्तम,), ४. तामस, ५. रैवत, ६. चाक्षुष, देवों को हवि समर्पित की गयी (ऋ. १.७६.)। इस | ७. वैवस्वत, ८. सावर्णि (अर्कसावर्णि) ९. दक्षसावर्णि, प्रकार की तुलनाओं को अक्सर क्रियाविशेषण शब्द | १०. ब्रह्मसावर्णि ११. धर्मसावर्णि १२. रुद्रसावर्णि, . 'मनुष्वत्' (मनुओं की भाँति) द्वारा व्यक्त किया गया | १३.रौच्य, १४. भौत्य । इनमें से स्वायंभुव से चाक्षुष Page #629 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन चरित्रकोश मनु वि ब्रह्म, रोच्य मत्स्य रोच्य | एवं तक के मन्वंतर हो चुके है, एवं वैवस्वत मन्वंतर सांप्रत | करना रहता है, एवं इन प्रजाओं का पालन मनु एवं उसके चालू है । बाकी मन्वंतर भविष्यकाल में होनेवाले हैं। पुत्र भूपाल बन कर करते हैं। इन भूपालों को देवतागण पाठभेद-चौदह मन्वन्तर के अधिपतियों मनु के सलाह देने का कार्य करते हैं, एवं भूपालों को प्राप्त होनेनाम विभिन्न पुराणों में प्राप्त है। इनमें से स्वायंभुव से वाली अड़चनों का निवारण इन्द्र करता है। जिस समय ले कर सावर्णि तक के पहले आठ मनु के नाम के बारे इन्द्र हतबल होता है, उस समय स्वयं विष्णु अवतार में सभी पुराणों में प्रायः एकवाक्यता है, किंतु नौ से लेकर भूपालों का कष्ट निवारण करता है। चौदह तक के मनु के नाम के बारे में विभिन्न पाठभेद | मनु एवं उसके उपर्युक्त सारे सहायकगण विष्णु के प्राप्त है, जो निम्नलिखित तालिका में दिये गये हैं: अंशरूप माने गये है, तथा मन्वन्तर के अन्त में वे सारे विष्णु में ही विलीन हो जाते हैं। किसी भी मन्वन्तर के आरम्भ में वे विष्णु के ही अंश से उत्पन्न होते हैं (विष्णु. १.३)। स्वायंभुव मन्वन्तर १. मनु--स्वायंभुव । २. सप्तर्षि--अंगिरस् (भृगु), अत्रि, ऋतु, पुलस्त्य, पुलह, मरीचि, वसिष्ठ । ___३. देवगण-याम या शुक्र के जित, अजित् व जिताजित् ये तीन भेद थे। प्रत्येक गण में बारह देव थे (वायु. ३१.३-९)। उन गणों में निम्न देव थे-ऋचीक, गृणान, जनिमत् , जर, जविष्ठ, दुह, बृहच्छुक्र, मितवत् , विभाव, विभु, विश्वदेव, श्रुति, सोमपायिन् (ब्रह्माण्ड. २. १३)। इन देवों में तुषित नामक बारह देवों का एक और गण था (भा. ४.१.८)। ___४. इन्द्र--विश्वभुज् (भागवत मतानुसार यज्ञ)। इन्द्राणी 'दक्षिणा' थी (भा. ८.१.६ )। ५. अवतार-यज्ञ तथा कपिल (विष्णु एवं भागवत मतानुसार)। ६. पुत्र-अग्निबाहु (अग्निमित्र, अतिबाहु), अग्नीध्र (आनीध्र), ज्योतिष्मत् , द्युतिमत् , पुत्र (वपुष्मत् , सत्र, सह), मेधस् (मेध, मेध्य), मेधातिथि, वसु (बाहु), सवन (सवल), हव्य (भव्य)। ___ मार्कंडेय के अनुसार, इसके पुत्रों में से पहले सात भूपाल थे। भागवत तथा वायु के अनुसार, इसे प्रियव्रत उपर्युक्त हर एक मन्वन्तर की कालमर्यादा चतुर्युगों | एवं उत्तानपाद नामक दो पुत्र थे। प्रियव्रत के दस पुत्र थे । की इकत्तर भ्रमण माने गये हैं | चतुयुगों की कालमर्यादा तेतालीस लाख वीस हज़ार मानुषी वर्ष माने गये हैं। इस स्वारोचिष मन्वंतर प्रकार हर एक मन्वन्तर की कालमर्यादा तेतालीस लाख १. मनु-स्वारोचिष । कई ग्रन्थों में इस मन्वन्तर के वीस हजार ४ इकत्तर होती है। मनु का नाम 'द्युतिमत्' एवं 'स्वारोचिस्' बताया गया है। हर एक मन्वन्तर का राजा मनु होता है, एवं उसकी | २. सप्तर्षि--अर्ववीर (उर्वरीवान् , ऊर्ज, और्व), सहायता के लिए सप्तर्षि, देवतागण, इन्द्र, अवतार एवं | ऋषभ (कश्यप, काश्यप), दत्त (अत्रि), निश्च्यवन मनुपुत्र रहते हैं। इनमें सप्तर्षियों का कार्य प्रजा उत्पन्न | (निश्चर, ल), प्राण, बृहस्पति (अग्नि, अलि), स्तम्ब । ब्रह्मवैवर्त RELATE | दक्षसावर्णि ब्रह्मसावार्ण रुद्रसावर्णि रोच्य मौल्य ब्रह्मसावर्णि मेरुसावर्णि धर्मसावर्णि भौत्य | मेरुसावर्णि ऋतसावर्णि ऋतधामन् विश्वक्सेन ब्रह्मसावर्णि देवसावर्णि इंद्रसावर्णि (चंद्रसावर्णि) सूर्यसावाणे दक्षसावर्णि | रुद्रसावर्णि रुद्रसावर्णि | ब्रह्मसावणि सावर्ण । मेरुसावर्णि धर्मसावर्णि धर्मसावर्णि *नुधामन् रोच्य विष्वक्सेन भौत्य रोच्य भौत्य सावर्ण सावर्ण सावर्ण रोच्य माक. पद्म Rsk | वायु ६०७ Page #630 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनु प्राचीन चरित्रकोश (ऊर्जस्तंब, ऊर्जस्वल)। ब्रह्माण्ड में स्वारोषित मन्वन्तर जल्प ), ज्योतिधर्मन् (ज्योतिर्धामन् , धनद), धातृ के कई ऋषियों के कुलनाम देकर उन्हें सप्तर्षियों का | (धीमत् , पीवर ), पृथु । पूर्वज कहा गया है। | ३. देवगग-वीर, वैधृति, सत्य (सत्यक, साध्य),' ३. देवगण--तुषित, इडस्पति, इध्म, कवि, तोष, प्रतोष, | सुधी, सुरूप, हरि । मार्कण्डेय के अनुसार, इनकी कुल भद्र, रोचन, विभु, शांति, सुदेव (स्वह्न), पारावत । | संख्या सत्ताइस है। अन्य ग्रंथों में उल्लेख आता है कि, ये ४. इन्द्र--विपश्चित् । भागवत के अनुसार, यज्ञपुत्र | पुत्र एक एक न होकर सत्ताइस सत्ताइस देवों के गण थे। रोचन। ४. इन्द्र--शिखि (त्रिशिख, शिबि)। ५. अवतार-तुषितपुत्र अजित (विभु)। ५. अवतार-हरि, जो हरिमेध तथा हरिणी का पुत्र . ६. पुत्र--अयस्मय अपोमूर्ति (आपमूर्ति), ऊर्ज, था। इसे एक स्थान हां का पुत्र कहा गया है। किंपुरुष, कृतान्त, चैत्र, ज्योति (रोचिष्मत, रवि), नभ, ६. पुत्र--अकल्मष ( अकल्माष ), कृतबंधु, कृशाश्व, . (नव, नभस्य), प्रतीत (प्रथित, प्रसृति, बृहदुक्थ), केतु, क्षांति, खाति ( ख्याति), जानुजंघ, तन्वीन् , तपस्य, भानु, विभृत, श्रुत, सुकृति (सुषेण), सेतु, हविघ्न तपाद्युति (युति ), तपोधन, तपोभागिन् , तपोमूल, तपो(हविध्र)। इसके पुत्रों के ऐसे कुछ नाम मिलते हैं, किन्तु योगिन् , तपोरति, दृढेषुधि, दान्त, धन्विन् , नर, परंतप, उनमें से कुल नौ या दस की संख्या प्राप्त है। मत्स्य के पराक्षित, पृथु, प्रस्थल, प्रियभृत्य, शतहय, शांत (शांति), अनुसार, इस मन्वन्तर में ऋषियों की सहायता के लिए शुभ, सनातन, सुतपस् । वसिष्ठषुत्र सात प्रजापति बने थे। किन्तु उन सब के नाम ७. योगवर्धन-कौकुरुण्डि, दाल्भ्य, प्रवहण, शग,' मनु पुत्रों के नामों से मिलते हैं, जैसे--आप, ज्योति, शिव, सस्मित, सित । ये योगवर्धन केवल इसी मन्वंतर में मिलते हैं। मूर्ति, रय, सृकृत, स्मय तथा हस्तीन्द्र । . रैवत मन्वन्तर उत्तम मन्वन्तर १. मनु-रैवत । १. मनु-उत्तम । २. सप्तर्षि--ऊर्ध्वबाहु (सोमप), देवबाहु ( वेदबाहु), २. सप्तर्षि--अनघ, ऊर्ध्वबाहु, गात्र, रज, शुक्र (शुक्ल), पजन्य, महामुनि (मुनि, वसिष्ठ, सत्यनेत्र ), यदुध्र, वेदसवन, सुतपस् । ये सब वसिष्ठपुत्र थे, एवं वासिष्ठ इनका | शिरस् ( वेदश्री, सप्ताश्रु, सुधामन् , सुबाहु, स्वधामन् ), सामान्य नाम था । पूर्वजन्म में ये सभी हिरण्यगर्भ के | हिरण्यरोमन् (हिरण्यलोमन्)। . . . ऊर्ज नामक पुत्र थे। ३. देवगण--आभूतरजस् (भूतनय, 'भूतरजय )। ३. देवगण--प्रतर्दन (भद्र, भानु, भावन, मानव), इसके रैभ्य तथा पारिप्लव ( वारिप्लव) ये दो भेद हैं। वशवर्तिन ( वेदश्रुति ), शिव, सत्य, सुधामन् । इन सबके इसके अतिरिक्त अमिताभ, प्रकृति, वैकुंठ, शुभ आदि बारह बारह के गण थे। देवगणों में प्रत्येक में १४ व्यक्ति हैं। ४. इन्द्र--सुशांति (सुकीर्ति, सत्यजित्)। ४. इन्द्र--विभु ५. अवतार--सत्या का पुत्र सत्य, अथवा धर्म तथा ५. अवतार--विष्णु के अनुसार संभूतिपुत्र मानस, सुन्ता का पुत्र सत्यसेन। तथा भागवत के अनुसार शुभ्र तथा विकुंठा का पुत्र ६. पुत्र--अज, अप्रतिम, (इष, ईष), ऊर्ज, तनूज 'वैकुंठ'। (तर्ज, तर्ज), दिव्य (दिव्यौषधि, देवांबुज), नभ ६. पुत्र-अव्यय ( हव्यप ), अरण्य (आरण्य), (नय), नभस्य (पवन, परश्रु, परशुचि), मधु, माधव, अरुण, अर्जुन, कवि ( कपि ), कंबु, कृतिन् , तत्त्वदर्शिन् शुक्र, शुचि (शुति, सुकेतु)। धृतिकृत् , धृतिमत् , निरामित्र, निरुत्सुक, निर्मोह, प्रकाश (प्रकाशक), बलबंधु, बाल, महावीर्य, युक्त, वित्तवत् , तामस मन्वन्तर विंध्य, शुचि, शृंग, सत्यक, सत्यवाच् , सुयष्टव्य (सुसंभाव्य), १. मनु-तामस । हरहन्। २. सप्तर्षि--अकपि (अकपीवत् ), अग्नि, कपि चाक्षुष मन्वन्तर (कपीवत्), काव्य ( कवि, चरक), चैत्र (जन्यु, जल, १. मनु--चाक्षुष । ६०८ . Page #631 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनु प्राचीन चरित्रकोश मनु २. सप्तर्षि--अतिनामन् , उत्तम (उन्नत, भृगु), नभ अवतार होगा, तथा बलि के बाद वह सब व्यवस्था (नाभ, मधु ), विरजस् (वीरक), विवस्वत् (हविष्मत् ), देखेगा। सहिष्णु, सुधामन् , सुमेधस् । ६. पुन-अधृष्ट ( अधृष्णु), अध्वरीवत् (अवरीयस् , ३. देवगण---आद्य (आय), ऋभ, ऋभु, पृथग्भाव अर्ववीर, उर्वरीयस् , (वीरवत्), अपि, अरिष्ट (चरिष्णु, (प्रथुक-ग, यूथग), प्रसूत, भव्य (भाव्य), वारि विष्णु), आज्य, ईडथ, कृति, (धृति, धृतिमत् ), निर्मोह, (वारिमूल), लेख। यवसर , वसु, वरीयस् , वाच ( वाजवा जिन् , विरज, ४. इन्द्र--भवानुभव या मनोजव अथवा मंत्रद्रुम।। विरजस्क), वैरिशमन, शुक्र, सत्यवाच, सुमति । ५. अवतार-विष्णु मतानुसार विकुंटापुत्र वैकुंठ, दक्षसावर्णि मन्वन्तर तथा भागवत मतानुसार वैराज तथा संभूति का पुत्र अजित् ।। १. मनु-दक्षसावर्णि । ६. पुत्र--अभिष्टत, अतिरात्र, अभिमन्यु, ऊरु (रुरु) २. सप्तर्षि--ज्योतिष्मत् , द्युतिमत् , मेधातिथि कृति, तपस्विन् , पुरु (पुरुष, पूरु), शतद्युम्न, सत्यवाच, (मेधामृति, माधातिथि), वसु, सत्य (सुतपस्, पौलह), सुद्युम्न । सबल (सवन, वसित, वसिन ), हव्यवाहन (हव्य, . वैवस्वत मन्वन्तर भव्य)। ३. देव-दक्षपुत्र हरित के पुत्र निमोह, पार (पर, 1. मनु--वैवस्वत । २. सप्तर्षि-अत्रि, कश्यप (काश्यप, वत्सर), गौतम | संभूत ), मरिचिगर्भ, सुधर्म, सुधर्मन् , सुशर्माण । इनमें से (शरद्वत् ), जमदग्नि, भरद्वाज (भारद्वाज), वसिष्ठ हर एक के साथ बारह व्यक्ति हैं। । ४. इन्द्र-कार्तिकेय ही आगे चलकर अद्भुत नाम ( वसुमत् ), विश्वामित्र । से इन्द्र होगा। ३. देवगण--आंगिरस (दस), अश्विनी (दो), | आदित्य (बारह ), भृगुदेव (दस), मरुत् ( उन्चास), ५. अवतार-आयुष्मत् एवं अंबुधारा का पुत्र ऋषभ अवतार होगा। रुद्र ( ग्यारह ), वसुं (आठ), विश्वेदेव (दस), साध्य (बारह)। ६. पुत्र-अनीक (ऋचीक, अर्चिष्मत् , नाक ), ४. इन्द्र--ऊर्जखिन् या पुरंदर या महाबल। खड्गहस्त (पंचहस्त, पंचहोत्र, शापहस्त ), गय, ५. अवतार–वामन। दीप्तिकेतु ( दासकेतु, बर्हकेतु), धृष्टकेतु (धृतिकेतु, ६. पुत्र--अरिष्ट (दिष्ट, नाभागारिष्ट, नाभानेदिष्ट, : भूतकेतु ), निराकृति (निरामय), पृथुश्रवस् (पृथश्रवस् ), रिष्ट, नेदिष्ट, उद्विष्ट), इक्ष्वाकु, इल (सुद्युम्न ), करुष, बृहत् (बृहद्रथ, बृहद्यश,), भूरिद्युम्न । ब्रह्मसावर्णि मन्वन्तर कुशनाभ, धृष्ट (धृष्णु), नभ (नभग, नाभ, नाभाग), नृग, पृषध्र, प्रांशु, वसुमत् , शयति । १. मनु--ब्रह्मसावर्णि। सावणि मन्वंतर २. सप्तर्षि--आपांमूर्ति (आपोमूर्ति), अप्रतिम (अप्रतिमाजस, प्रतिम, प्रामति), अभिमन्यु (नभस, . १. मनु-सावर्णि। | सप्तकेतु ), अष्टम ( वसिष्ठ, वशिष्ठ, सत्य, सद्य), नभोग २. सप्तर्षि-अश्वत्थामन् (द्रौणि ), और्व ( काश्यप, | (नाभाग), सुकृति (सुकीर्ति), हविष्मति । रुरु, श्रृंग), कृप (शरद्वत् , शारद्वत्), गालव (कौशिक), देव--अर्चि (सुखामन, सुखासीन, सुधाम, सुधामान, दीप्तिमत् , राम (परशुराम जामदग्न्य), व्यास (शतानंद, | सुवासन, धूम, निरुद्ध, विरुद्ध)। पाराशर्य)। ४. इन्द्र-शान्ति नामक इन्द्र होगा। ३. देवगण--अमिताभ (अमृतप्रभ), मुख्य (सुख, ५. अवतार–विश्वसृष्टय के गृह में विधूचि के गर्भ से विरज), सुतप (सुतपस् , तप)। विष्वक्सेन नामक अवतार होगा। ४. इन्द्र--बलि (वैरोचन)। बलि वैरोचन की ६. पुत्र--अनमित्र (निरामित्र), उत्तमौजस, जयद्रथ, आसक्ति इन्द्रपद पर नहीं रहती है । अतएव कालान्तर में | निकुषंज, भूरिद्युम्न, भूरिषेण, भूरिसेन, वीरवत् (वीर्यवत् ), इन्द्रपद छोड़कर वह सिद्धगति को प्राप्त करेगा। | वृषभ, बृपसेन, शतानीक, सुक्षेत्र, सुपर्वन् , सुवर्चस् , ५. अवतार--देवगुह्य तथा सरस्वती का पुत्र सार्वभौम । हरिषेण । प्रा. च, ७७] ६०९ Page #632 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनु प्राचीन चरित्रकोश मनु प्राचेतस धर्मसावर्णि मन्वन्तर ४. इन्द्र --दिवस्पति ( दिवस्वामिन् )। 1. मनु--धर्मसावर्णि। ५. अवतार--देवहोत्र तथा बृहती का पुत्र अवतार २. सप्तर्षि--अग्नितेजस्, अनघ (तनय, नग, | होगा। भग), अरुण (आरुणि, तरुण, वारुणि), उदधिष्णन् ६. पुत्र--अनेक क्षत्रबद्ध (अत्रविद्ध, क्षत्रविद्धि, (उरुधिष्ण्य, पुष्टि, विष्टि, विष्णु), निश्चर, वपुष्मत् क्षत्रवृद्धि), चित्रसेन, तप (नय, नियति), धर्मधृत, (ऋष्टि), हविष्मत् । (धर्मभृत, सुव्रत), धृत (भव ), निर्भय, पृथ ( दृढ ), ३. देव-तीस कामग (काम-गम, कामज), तीस विचित्र, सुतपस् (सुरस ), सुनेत्र । निर्माणरत (निर्वाणरति, निर्वाणरुचि); तीस मनोजव भौत्य मन्वन्तर (विहंगम)। १. मनु--भौत्य । ४. इन्द्र-वृष (वृषन् , वैधृत) इन्द्र होगा। २. सप्तर्षि--अग्निबाहु (अतिबाहु), अग्निध्र (आनीध्र), ५. अवतार--इस मन्वन्तर के अवतार का नाम अजित, भार्गव (मागध, माधव, वाजित), मुक्त (युक्त), धर्मसेतु है, जो धर्म (आर्यक) एवं वैधृति के पुत्र के शुक्र, शुचि । रूम में जन्म लेनेवाला है। ३. देव--कनिष्ठ, चाक्षुष, पवित्र, भाजित (भाजिर, ६. पुत्र-आदर्श, क्षेमधन्वन् (क्षेमधर्मन्; हेम भ्राजिर), वाचावृद्ध (धारावृक)। प्रत्येक के साथ पाँच धन्वन् ), गृहेषु (दृढायु), देवानीक, पुरुद्वह (पुरोवह)| पाँच देव होगे।। पौण्ड्रक (पंडक), मत (मनु, मरु), संवर्तक (सर्वग, | ४. इन्द्र--शुचि ही इस समय इन्द्र होगा। सर्वत्रग, सर्ववेग, सत्यधर्म), सर्वधर्मन् (सुधर्मन् , ५. अवतार--सत्रायण एवं विताना का पुत्र बृहद्भानु : सुशर्मन्)। अवतार होगा। रुद्रसावर्णि मन्वन्तर ६. पुत्र--अभिमानिन् (श्रीमानिन् ), उग्र (ऊरु; १. मनु--रुद्रसावर्णि। अनुग्रह ), कृतिन् (जिष्णु, विष्णु), गभीर (तरंगभीरू),. २. सप्तर्षि--तपस्विन् , तपोधन, (तपोनिधि, तमोशन, गुरु, तरस्वान् (बुद्ध, बुद्धि, ब्रन), तेजस्विन् (ऊर्जस्विन् तपोधृति, तपोमति), तपोमूर्ति, तपोरति (तपोरवि), ओजस्विन् ), प्रतीर (प्रवीण), शुचि, शुद्ध, सबल, युति (अग्निध्रक, कृति), सुतपस् । सुबल)। ३. देव--रोहित (लोहित ), सुकर्मन् (सुवर्ण), सुतार ___ इसके उपरांत प्रलय होगा तथा ब्रह्मा विष्णु के नाभि(तार, सुधर्मन् , सुपार), सुमनस् । कमल में योगनिद्रित होंगे (ह. वं. १.७; मार्क. ५०,९७; ४. इन्द्र--उतधामन् नामक इन्द्र होनेवाला है। विष्णु. ३.१-२, ब्रह्मवै. २.५४, ५७-६५, स्कन्द. ७. ५. अवतार-सत्यसहस् तथा सूनृता का पुत्र स्वधामन् १.१०५; भवि. ब्राह्म. २;मध्य. २; मत्स्य. ९; भा. ८.१; अवतार होगा। ५,१३; वायु. ३१-३३; १००.९-११८; ब्रह्मांड. २.३६; ६. पुत्र--उपदेव (अहूर), देववत् (देववायु), ३.१; ब्रह्म, ५, पद्म. स.७)। देवश्रेष्ठ, मित्रकृत् (अमित्रहा, मित्रहा), मित्रदेव ( चित्रसेन, मनु आप्स्व--एक वैदिक सूक्तद्रष्टा (ऋ. ९.१०१ मित्रबिंदु, मित्रविंद), मित्रबाहु, मित्रवत् , विदूरथ, १०-१२)। सुवर्चस् । मनु चाक्षुष-चाक्षुष नामक मन्वन्तर का अधिपति रोच्य मन्वन्तर मनु, जिसके पुत्र का नाम वरिष्ठ था (म. अनु. १८.२०; १. मनु-रोच्य । चाक्षुष ६. एवं मनु 'आदिपुरुष' देखिये)। २. सप्तर्षि-अव्यय (पथ्यवत् , हव्याप), तत्व- मनु प्राचेतस-एक राजनीतिशास्त्रज्ञ, जो प्राचेतस दर्शिन् , धृतिमत् , निरुत्सुक, निर्मोक, निष्कंप, निष्प्रकंप, नामक मन्वन्तर का अधिपति मनु था। महाभारत के सुतपस् । अनसार, इसने राजधर्म एवं राजशास्त्र पर एक ग्रंथ की ___३. देव--सुकर्मन् , सुत्रामन् ( सूशर्मन् ), सूधर्मन् । रचना की थी (म. शां. ५७.४३: ५८.२)। कौटिल्य के ' प्रत्येक देवगण तीस देवों का होगा। | अर्थशास्त्र में, एवं राजशेखर के ग्रंथों में इसके राजनीति६१० Page #633 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनु प्राचेतस प्राचीन चरित्रकोश मनु वैवस्वत विषयक मतों का निर्देश प्राप्त हैं (मनु स्वायंभुव | प्लावन सम्बन्धी कथाएँ मिलती हैं। 'अत्रहसिस' महाकाव्य देखिये)। में वर्णित एक कथा के अनुसार, अडेंटस के पुत्र जिसस मनु वैवस्वत -वैवस्वत नामक पाँचवे मन्वन्तर जलप्लावन के उपरांत देवों को बलि देकर बेबीलोनिया का अधिपति मनु, जो विवरवत् नामक राजा का पुत्र था। नगर का पुनः निर्माण करता है (दि फ्लड लिजेन्ड इन इसके नाभागारिष्ट नामक पुत्र का निर्देश वैदिक ग्रंथों में संस्कृत लिटरेचर पृ. १४८-१४९)। बेबीलोनिया में गिलप्राप्त है (तै. सं. ३.१.९.४)। गमेश महाकाव्य में इसी प्रकार के जलप्लावन की एक इसे निम्नलिखित दस पुत्र थे:--प्रांशु, धृष्ट, नरिष्यन्त, कथा प्राप्त है। ईसाई धर्मग्रन्थ बाइबिल में यह कथा नाभाग, इक्ष्वाकु, करूष, शर्याति, इल, पृषध्र, एवं विस्तार से दी गयी है, जिसमें नूह का वर्णन मनु की नाभानेदिष्ट । इसे इला नामक एक कन्या थी, जिसे भाँति किया गया है । कुरानशरीफ में यह कथा बाइबिल से पुरुरवस् नामक पुत्र उत्पन्न हुआ था (म. अनु. १४७. मिलती जुलती है । अन्तर केवल इतना है कि, बाई बिल २७)। में हज़रत नूह की नाव अएएट पर्वत पर आकर रुकती ताया के पास में सनसनकोसने अपने है, जब कि कुरान में उस पर्वत का नाम जूदी दिया गया पुत्र को सात्वत धर्म का उपदेश किया था। है (दि होली कुरान पृष्ठ ११.३.२५-४९)। इसके सृष्टिप्रलय--सृष्टि प्रलय के समय एक मत्स्य द्वारा मनु अतिरिक्त चैल्डिया के साहित्य में भी हासीसद्रा परमेश्वर वैवस्वत के बचाने की कथा सम्पूर्ण वैदिक एवं उत्तर वैदिक | 'ई' के आदेशानुसार अपने को जलप्लावन से बचाता है। ग्रन्थों में किसी न किसी रूप में प्राप्त है। शतपथ ब्राह्मण इसके अतिरिक्त पारसी धार्मिक ग्रन्थ वेंदीदाद तथा के अनुसार, जब सारी सृष्टि जलप्रवाह से बह जाती थी, | पहलवी, सुमेरिन, आइसलैण्ड, वेल्स, लिथुआनिया तब मनु एक नाव में बैठा कर एक मत्स्य के द्वारा बचा एवं असीरिया के साहित्य में यह जलप्लावन की कथा गया था (श. ब्रा. १.८.१) । प्रलय के उपरांत | मिलती है। इसके साथ ही चीन, ब्रह्मा, इंडोचीन, मलाया. अपनी उस इला नामक पुत्री के माध्यम से ही मनु मानव आस्ट्रेलिया, न्यूगिनी, मैलेवेशिया, पालीमेशिया, उत्तर जाति की प्रथम सन्तान के जनक हुए, जो उन्हींके हवि दक्षिणी अमरीका आदि देशों में जलप्लावन सम्बन्धी से उत्पन्न हुयी थी। यह कथा अथर्ववेद तक के समय में कथायें प्राप्त हैं। भी ज्ञात थी, ऐसा इसी संहिता के एक स्थल द्वारा व्यक्त होता है (अ. वे. १९.३९.८)। संसार की समस्त जलप्लावन सम्बन्धी कथाओं की महाभारत में पृथ्वी के जलप्रलय की एवं मत्स्यावतार तुलना करने पर यही ज्ञात होता है कि, दक्षिण एशिया की की कथा प्राप्त है (म. व. १८५)। उस कथा के अनुसार समस्त कथायें समान हैं, क्योंकि उनमें सर्वत्र सम्पूर्ण पृथ्वी 'प्रलयकाल में इसकी नौका नौबंधन नामक हिमालय के के डूबने एवं अधिकांश पदार्थों के नष्ट होने का विवरण शिखर पर आकर रुकी थी। कई ग्रन्थों में हिमालय के प्राप्त है। उत्तरी एशिया की कथाओं में से चीन जापान इस शिखर का नाम नावप्रभंशन दिया गया है। की कथाओं में पूर्ण विनाश का वर्णन हैं । योरप में ऐसे मत्स्यपुराण के अनुसार, इसकी नौका हिमालय पर्वत विनाश के वर्णन कम है, तथा अफ्रीका की कथाओं में पर नहीं, बल्कि मलय पर्वत पर रुकी थी। भागवत जलप्लावन का वर्णन बिल्कुल नहीं है। में मनु को द्रविंड देश का राजा कहा गया है, एवं इसका प्रलयोत्तर मानवी समाज का आदिपरुष--मनु वैवस्वत नाम सत्यव्रत बताया गया है (भा. १.३.१५)। प्रलयोत्तरकालीन मानवी समाज का आदिपुरुष माना विभिन्न साहित्यों में प्राप्त जलप्लावन-कथा--जल जाता है, एवं पुराणों में निर्दिष्ट सारे राजवंश उसीसे ही प्लावन की यह कथा संसार के विभिन्न साहित्यिक, धार्मिक | प्रारंभ होते है। राज्यशासन के नानाविध यमनियम ग्रन्थों एवं लोककथाओं आदि में प्राप्त है। के प्रणयनों का श्रेय इसको ही दिया जाता है। खेती में यूनानी-साहित्य में ड्यालियन तथा उसकी पत्नी से जो उत्पादन होता है, उसमें से छटवाँ भाग राज्यपीरिया की कथा में मनु जैसा ही वर्णन मिलता है (मिथ शासन का खर्चा निभाने के लिए राजा को मिलना चाहिए, आफ ऐनशियन्ट ग्रीस एण्ड रोम, पृष्ठ. २२-२३)। इस सिद्धान्त के प्रणयन का श्रेय भी इसको दिया जाता यूनान के अतिरिक्त वेबीलोनिया के साहित्य में भी जल-है। ६११ Page #634 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनु वैवस्वत प्राचीन चरित्रकोश मनु वैवस्वत पार की। कालनिर्णय--पुराणों में प्राप्त वंशावलियों के अनुसार, । ८, पृषध्र-इसने अपने गुरु के गाय का वध किया, मनु वैवस्वत का राज्यकाल भारतीययुद्ध से पहले ९५ जिस कारण इसे राज्य का हिस्सा नहीं मिला। पिढ़ियाँ माना गया है। भारतीययुद्ध का काल ईसा. पू. ९. प्रांशु-इसके वंशजों के बारे में कोई जानकारी १४०० माना जाये, तो मनु वैवस्वत का काल ईसा. पू. नही है। ३११० साबित होता है । ज्योतिर्गणितीय हिसाब से भी ३१०२ यह वर्ष कलियुग के प्रारंभ का वर्ष माना जाता इलापुत्र--इला का विवाह बुध से हुआ, जिससे उसे हैं । हिब्रु एवं बाबिलोन साहित्य में निर्दिष्ट मेसापोटेमिया के पुरूरवस् नामक पुत्र उत्पन्न हुआ । पुरुरवस् ने सुविख्यात जलप्रलय का काल भी ईसा. पू. ३१०० माना जाता है। ऐल (चंद्र) राजवंश की स्थापना की जिससे आगे चल इससे प्रतीत होता है कि, शतपथ ब्राह्मण में निर्दिष्ट मनु कर कान्यकुञ्ज, यादव ( हैहय, अन्धक, वृष्णि ), तुर्वसु वैवस्वत का जलप्रलय भी इसी समय हुआ था। द्रुह्यु, आनव, पंचाल, बार्हद्रथ, चेदि आदि राजवंशों का . निर्माण हुआ। परिवार--मनु के कुल दस पुत्र थे, जिसमें से इलाका इला के पुरुष अंश का रुपान्तर आगे चलकर सुयुम्न . निर्देश पुराणों में इल नामक पुरुष, एवं इला नामक स्त्री नामक किंपुरुष में हुआ, जिससे सौद्युम्न नामक राजवंश ऐसे द्विरूप पद्धति से प्राप्त है। का निर्माण हुआ। इस राजवंश की उत्कल, गया एवं इसके नौ पुत्रों की एवं उनके द्वारा स्थापित राजवंशों | | विनताश्व नामक तीन शाखाएँ थी, जो क्रमशः उत्कल, की जानकारी निम्न प्रकार है :-- गया एवं उत्तरकुरु प्रदेश पर राज्य करती थी। आगे चल १. इक्ष्वाकु--इसका राज्य अयोध्या में था, एवं इसके कर आनव एवं कान्यकुब्ज राजाओं ने सौद्युम्न राज्यों को पुत्र विकुक्षि ने सुविख्यात ऐक्ष्वाक राजवंश की स्थापना | जीत लिया। करुष, नाभाग, धृष्ट, नरिष्यंत, प्रांशु एवं पृषध लोगों के २. शर्याति--इसने आनर्त-देश में राज्य करनेवाले राज्य ऐलवंशीय पुरूवरस् , नहष एवं ययाति ने जीत सुविख्यात 'शार्यात' राजवंश की स्थापना की। इसके पुत्र | लिया, जिस कारण ये सारे राजवंश शीघ्र ही विनष्ट . का नाम आनत था, जिससे प्राचीन गुजरात को आनर्त | नाम प्राप्त हुआ था। इसके वंश में उत्पन्न उत्तरकालीन राजाओं का काल ३. नाभानेदिष्ट-इसने उत्तर बिहार प्रदेश में संभवतः निम्नलिखित माना जाता है :-' सुविख्यात वैशाल राजवंश की स्थापना की । इसके राज्य | ययाति--ई. पू. ३०१०। की राजधानी वैशाली नगर में थी, जो आधुनिक मुजफरपुर मांधातृ-ई. पू. २७४०। जिले में स्थित बसाढ गाँव माना जाता हैं। अर्जुन कार्तवीर्य-ई पू. २५५० । ४. नाभाग-इसके द्वारा स्थापित नाभाग राजवंश सगर, दुष्यन्त एवं भरत-ई. पू. २३५०-२३००। का राज्य गंगा नदी के दुआब में स्थित मध्यदेश में था। राम दाशराथि--ई. पू. १९५० (हिस्टरी अॅन्ड इस राजवंश में रथीतर लोग भी समाविष्ट थे, जो क्षत्रिय | कल्चर ऑफ इंडियन पीपल-१.२७०)। ब्राह्मण कहलाते थे। हिन्दी साहित्य में-आधुनिक हिन्दी साहित्य में मनु ५. धृष्ट--इससे 'धार्टक' क्षत्रिय नामक जाति का निर्माण के जीवन से सम्बन्धित जयशंकर प्रसाद' द्वारा लिखित हुआ, जो पंजाब के वाहीक प्रदेश में राज्य करते थे । इन 'कामायनी' हिन्दी काव्याकाश का गौरव ग्रन्थ है। इसके लोगों का निर्देश क्षत्रिय, ब्राह्मण एवं वैश्य इन तीनों तरह कथानक का आधार प्राचीन ग्रन्थ ही है, जिसमें मानव से किया हुआ प्राप्त है। मन, बुद्धि तथा हृदय के उचित सन्तुलन को स्थापित ६. नरिप्यंत-कई अभ्यासकों के अनुसार, शक लोग कर चिरदग्ध दुःखी वसुधा को आशा बँधाती हुयी इसी राजा के वंशज थे। समन्वयवाद, समरसता एवं आनंदवाद के द्वारा मंगलमय ७. करूष--इसके वंशज करूष लोग थे, जो आधुनिक | महान संदेश देने का प्रयत्न किया गया है। रेवा प्रदेश में स्थित करूष देश में रहते थे, एवं कुशल कामायनी पन्द्रह सगों में विभक्त है, तथा हर एक ' योद्धा माने जाते थे। | सर्ग का नामकरण वयं विषय के आधार पर हुआ है। ६१२ Page #635 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनु वैवस्वत प्राचीन चरित्रकोश मनु स्वायंभुव इसमें “आनन्द' की चरम सिद्धि तथा अन्तिम ढाई | यह ब्रह्मा के मानसपुत्रों में से एक था। वायु में इसे सों में शान्ति की बहती मन्दाकिनी देखने योग्य है। आनंद नामक ब्रह्मा से उत्पन्न हुआ कहा गया है। आनंद प्रस्तुत ग्रन्थ में मनु का चरित्र एक मानवीय चरित्र | ने पृथ्वी पर वर्णव्यवस्था स्थापित की, एवं विवाहसंस्था के रूप में ही प्रकट हुआ है। 'प्रसाद' जी ने मनु का का भी निर्माण किया । किन्तु आगे चलकर यह व्यवस्था चरित्र अस्वाभाविक तथा दैवी नहीं, बल्कि इसी जगत के मृतवत् हो गयी, जिसका पुरुद्धार स्वायंभुव मनु ने किया मानवीय रूप का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण प्रस्तुत किया है।। (वायु. २१.२८८०१४६-१६६; २१.२८)। मनु एक सच्चे मानव की भाँति गिरे भी हैं, तथा उठे| इसकी राजधानी सरस्वती नदी के तट पर स्थित थी। भी हैं। मन का यह पतन एवं उत्थान विश्वमानव के अपने सभी शत्रु को पराजित कर यह पृथ्वी का पहला लिए एक आशाप्रद संदेश देता है, तथा प्रवृत्ति-निवृत्ति का | राजा बना था। समन्वय कर के एक संतुलित जीवन व्यतीत करने की ब्रह्मा के शरीर के दाये भाग से उत्पन्न शतरूपा नामक शिक्षा देता है। | स्त्री इसकी पत्नी थी, जिससे इसे प्रियव्रत एवं उत्तानपाद ___ कामायनी के प्रधान चरित्र नायक मन का कई रूपों | नामक दो पुत्र, एवं तीन कन्याएँ उत्पन्न हयी। उत्तानपाद में चित्रण प्राप्त है। उनका पहला रूप नीतिव्यवस्थापक राजा के वंश में ही ध्रुव, मनु चाक्षुष, पृथु वैन्य, दक्ष, का है, जो 'इला, 'स्वप्न' तथा 'संघर्ष' आदि सगों में | एवं मनु वैवस्वत नामक सुविख्यात राजा उत्पन्न हुए। हुआ है। इसका सीधा सम्बध 'इला' से है। दूसरा,वैदिक मन स्वायंभुव का ज्येष्ठ पुत्र प्रियव्रत पृथ्वी का पहला कर्मकाण्डी ऋषि के रूप में हुआ है, जिसके दो पहलू हैं- क्षत्रिय माना जाता है। उसे उत्तम, तामस एवं रैवत नामक पहला तपस्वी मनु का, जो 'किलाताकुली' के आने के तीन पुत्र थे, जो बचपन में ही राज्य त्याग कर तपस्या के पूर्व में मिलता है, दूसरा 'हिंसक यजमान' मनु का, लिए वन में चले गये। आगे चल कर प्रियव्रत के ये तीन जो असुर पुरोहितों के आगमन के पश्चात् पाया जाता पुत्र क्रमशः तीसरे, चौथे, एवं पाँचवें मन्वन्तर के है। इनका तीसरा रूप 'मनु-इला युग' के अन्त में | अधिपति बने थे। देखा जा सकता है, जब वे आनंद पथ में चल कर मनु स्वायंभुव की एक कन्या का नाम आकूति था, • शिवत्व प्राप्त करने में सफल होते हैं। इस प्रकार जिससे आगे चलकर मनु स्वारोचिष नामक दूसरे मनु का 'कामायनी' में मनु पात्र का विकास देवता मनु, ऋषि | जन्म हुआ। मनु , प्रजापति मनु तथा आनंद के अधिकारी मनु के भविष्य पुराण में मनु के द्वारा प्रणीत धर्मशास्त्र का रूप में हुआ है। निर्देश 'स्वायंभुवशास्त्र' नाम से किया गया है। बाद को मनु सावर्णि-सावर्णि नामक आठवे मन्वन्तर का | इस शास्त्र का चतुर्विध संस्करण भृगु, नारद, बृहस्पति एवं अधिपति मनु । एक वैदिक सूक्तद्रष्टा के नाम से इसका अंगिरस् द्वारा किया गया था (संस्कारमयूख पृष्ठ. २)। निर्देश वैदिक ग्रंथों में प्राप्त है (अ. वे. ८.१०.२४; श. विश्वरूप के ग्रन्थ में भी मनु का निर्देश 'स्वायंभुव' नाम ब्रा. १३.४.३.३; आ. श्री. १०.७; नि. १२.१०)। से किया गया है, एवं इसके काफी उद्धरण भी लिये गये 'सवर्णा' का वंशज होने से इसे यह नाम प्राप्त हुआ होगा। । हैं (याज्ञ. २.७३-७४, ८३:८५)। किन्तु विश्वरूप द्वारा ऋग्वेद में इसका निर्देश मनु 'सांवरणि' नाम से किया | दिये गये मनु एवं भृगु के श्लोक 'मनुस्मृति' में आजकल गया है (ऋ. ८.५१.१)। संभव है, 'संवरण' का | अप्राप्य है (याज्ञ १.१८७-२५२) । अपरार्क ने भृगुस्मृति वंशज होने से इसे यह नाम प्राप्त हुआ होगा । लुडविग | का एक श्लोक दिया है, जो मनु का कहा गया है (याज्ञ. के अनुसार, यह तुर्वशों का राजा था (लुडविग-ऋग्वेद २.९६ )।किन्तु वह इलोक भी मनुस्मृति में अप्राप्य है। अनुवाद. ३.१६६)। ___ स्मृतिकार--निरुक्त में जहाँ पुत्र एवं पुत्री के अधिकारों ___ महाभारत में इसे मनु सौवर्ण कहा गया है, एवं का वर्णन किया गया है, वहीं स्वायंभुव मनु का स्मृतिकार बताया गया है कि, इसके मन्वन्तर में वेदव्यास सप्तर्षि | के रूप में उल्लेख किया गया है। निरुक्त से यह पता पद पर प्रतिष्ठित होंगे (म. अनु. १८.४३)। | चलता है कि, इसका मत था कि, पुत्र एवं पुत्री को पिता मनु स्वायंभुव--एक धर्मशास्त्रकार, जो स्वायंभुव की संपत्ति में समान अधिकार है। उन्हीं श्लोकों को मनु नामक पहले मन्वन्तर का मनु माना जाता है । | की स्मृति कहा गया है (नि. ३.४)। इससे स्पष्ट है ६१३ Page #636 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनु स्वायंभुव प्राचीन चरित्रकोश मनु स्वायंभुव कि, स्वायंभुव मनु की स्मृति यास्क के पूर्व में वर्तमान | नही जा सकता। महाभारत के अनुसार, स्वायंभुव मनु थी। गौतम तथा वसिष्ठ आदि स्मृतिकारों ने मनु के | धर्मशास्त्र का, एवं प्राचेतस मन अर्थशास्त्र के आचार्य माने । मतों को दिया है । आपस्तंब ने भी लिखा है कि, मनु गये हैं (म. शां ११.१२,५७.४३)। इस प्रकार प्राचीनश्राद्धकर्म का प्रणेता था (आप. ध. २.७.१६.१)। काल में धर्मशास्त्र एवं अर्थशास्त्र पर लिखे हुए दो स्वतंत्र धर्मशास्त्र की निर्मिति---महाभारत के अनुसार, ब्रह्मा ग्रन्थ उपलब्ध थे, जो उक्त मनुओं द्वारा लिखित थे। ने मनु के द्वारा धर्मविषयक एक लाख श्लोकों की रचना इस प्रकार सम्भव है कि, किसी अज्ञात व्यक्ति ने इन दोनों करवायी। आगे चलकर, उन्हीं श्लोकों का आधार लेकर ग्रन्थों की सामग्री के साथ साथ प्राचीन धर्मशास्त्रमर्मज्ञों उशनस् एवं बृहस्पति ने धर्मशास्त्रों का निर्माण किया (म. की विचारधारा को और जोड़कर, आधुनिक मनुस्मृति के स्वरूप का निर्माण किया हो। शां. ३३२.३६ )। उपलब्ध मनुस्मृति महाभारत से उत्तरकालीन मानी । नारद गद्यस्मृति के अनुसार, मनु ने एक लाख | जाती है। सम्भव है, इस ग्रन्थ की रचना के पूर्व 'बृहदश्लोकों के धर्मशास्त्र की रचना कर नारद को प्रदान किया, मनुस्मृति' एवं 'वृद्धमनुस्मृति' नामक दो बड़े स्मृतिजिसमें एक हज़ार अस्सी अध्याय, एवं चौवीस प्रकरण | ग्रन्थ उपलब्ध थे। इन्हीं ग्रन्थों को संक्षिप्त कर दो हजार थे। उसी धर्मशास्त्र ग्रन्थ को नारद ने बारह हज़ार श्लोकों | सात सौ इलोकोंवाली मनुस्मृति की रचना भृगु ने की हो। में संक्षिप्त कर के मार्कडेय ऋषि को दिया। उसी ग्रन्थ मनुस्मृति ग्रंथ में इस रचना का जनक वायंभुव मनु ... को आठ हज़ार श्लोकों में संक्षिप्त कर मार्कंडेय ने सुमति | कहा गया है, एवं उसके साथ अन्य छः मनुओं के भार्गव को प्रदान किया, जिसने आगे चलकर इसी ग्रन्थ को | नाम दिये गये हैं (मन १.६२)। चार हज़ार श्लोकों में संक्षिप्त किया। मेधातिथि ने नारद | मनुस्मृति में बारह अध्याय हैं, एवं दो हजार छः सौ. स्मृति के इस उद्धरण को दुहराया है। चौरान्नवे श्लोक हैं । उस ग्रन्थ में प्राप्त अनेक श्लोक वसिष्ठ । मनुस्मृति का प्रणयन-मनुस्मृति का जो संस्करण | एवं विष्णु धर्मसूत्रों से मिलते जुलते हैं। इस ग्रन्थ में प्राप्त आज उपलब्ध है, उस ग्रन्थ के अनुसार, ब्रह्मा से विराज | धर्मविषयक विचार गौतम,बौधायन एवं आपस्तंब से मिलते नामक ऋषि की उत्पत्ति हुयी, जिससे आगे चल कर मन | जुलते हैं । उक्त ग्रंथ की,शैली अत्यधिक सरल है, जिसमें उत्पन्न हुआ। पश्चात् मनु से भृगु, नारद आदि दस | पाणिनि के व्याकरण का अनुगमन किया गया है। इस ऋषि पैदा हुए। धर्मशास्त्र का शिक्षण सर्वप्रथम ब्रह्मा ग्रंथ का तत्त्वज्ञान एवं शब्दप्रयोग कौटिल्य अर्थशास्त्र की ने मनु को प्रदान किया, जिसे आगे चलकर इसने अपने | शैली से काफी साम्य रखता है। इन पुत्रों को दिया ( मनु. १.५८)। मनुस्मृति के प्रणयन विषायनु क्रमणिका-मनु-मृति में कुल बारह अध्याय की कथा इस प्रकार है:-एक बार कई ऋषिगण चारो वर्णों | हैं, जिनमें निम्नलिखित प्रमुख विषयों पर विचारविवेचन से सम्बन्धित धर्मशास्त्रविषयक जानकारी प्राप्त करने के | किया गया हैं :-. लिए आचार्य मनु के पास आये। मनु ने कहा, 'यह सारी| अ. १.-धर्मशास्त्र की निर्मिति, एवं मनुस्मृति की जानकारी तुम लोगों को हमारे शिष्य भृगु द्वारा प्राप्त | परम्परा। होगी' (मनु. १. ५९-६०)। पश्चात् , भृगु ने मनु की ___भ. २.--धर्म क्या है ?-धर्म की उत्पत्ति किससे हुयी धर्मविषयक सारी विचारधारा उन सबके सामने रख्खी।। है ?-धर्मशास्त्र का अधिकार किन किन को प्राप्त है-संस्कारों वही मनुस्मृति है । उस ग्रन्थ में मनु को 'सर्वज्ञ' कहा | की आवश्यकता क्या है ? गया है (मनु. २.७)। ____ अ. ३.--ब्रह्मचर्यव्रत का पालन कैसे किया जाये? मानवधर्मशास्त्र का पुनसंस्करण--मैक्समूलर के ब्राहाण किस वर्ण की कन्या से शादी करे?- विवाहों के अनुसार, प्राचीनकाल के मानवधर्मसूत्र का पुनः संस्करण आठ प्रकार-पतिपत्नी के कर्तव्य ।। कर के मनुस्मृति का निर्माण किया गया है (सैक्रिड बक्स अ. ४.-गृहस्थधर्मियों का कर्तव्य । आफ ईस्ट, खण्ड. २५ पृष्ठ. १८)। आधुनिक काल में ___ अ. ५.--घर में किसी की मृत्यु अथवा जन्म के प्राप्त 'मनुस्मृति' मनु के द्वारा लिखित है, अथवा मनु | समय अशौच का कालनिर्णय । के नाम को जोड़कर किसी अन्य द्वारा लिखी गयी है, कहा| अ. ६.--वानप्रस्थधर्म का पालन । ६१४ Page #637 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनु स्वायंभुव प्राचीन चरित्रकोश मनु स्वायंभुव में प्राप्त ब्राह्मण पर देश से नि ___ अ. ७.-राजधर्म का पालन-राजा के लिए आवश्यक | धर्म को आगे बढ़ने में योगदान देना प्रारम्भ किया हो। चार विद्याएँ-राजा में उत्पन्न होनेवाले कामजनित दस, 'मनुस्मृति' के भाष्य--मनुस्मृति के भाष्यों में से एवं क्रोधजनित आठ दोषों का विवरण । सब से प्राचीन भाष्य मेधातिथी का माना जाता है, जिसकी अ. 4.-न्यायपालन से संबंधित राजा के कर्तव्य-मनु- | रचना ९०० ई० में हुयी थी। विश्वरूप ने अपने यजुर्वेद प्रणीत अठराह विधियों का विवरण । के भाष्य में मनुस्मृति के दो सौ श्लोकों का उद्धरण किया अ. ९.-पतिपत्नी के वैधानिक कर्तव्य-नारियों के है। इन दोनों ग्रन्थकारों के सामने जो मनुस्मृति प्राप्त दोषों का वर्णन । थी, वह आज की मनुस्मृति से पूर्ण साम्य रखती है। अ. १०.-चारों वर्गों के कर्तव्य । शंकराचार्य के वेदान्त सूत्रभाष्य में भी मनुस्मृति के अ. ११.---दानों के विविध प्रकार एवं उनका महत्त्व काफी उद्धरण प्राप्त है (वे. सू. १.३.२८,२.१.११; पाँच महापातक एवं उनके लिए प्रायश्चित ।। ४.२.६, ३.१.१४; ३.४.३८)। शंकराचार्य के द्वारा __ अ. १२.--कर्मों के विविध प्रकार एवं ब्रह्म की प्राप्ति निर्देशित इन उद्धरणों से पता चलता है कि, वे इन मानवशास्त्र के अध्यापन से होनेवाले लाभ। सूत्रों को गौतम धर्मसूत्रों से अधिक प्रमाणित मानते थे। 'मनुस्मृति में निर्दिष्ट ग्रंथ-मनस्मति में प्राप्त 'मनुस्मृति' का रचनाकाल--मनु का मत था कि. विभिन्न ग्रन्थों के निर्देश से पता चलता है कि, इस ग्रन्थ के ब्राह्मण यदि अपराधी है, तो उसे फाँसी न देनी चाहिए, मन को कितने लिखित पयों की सनना | बल्कि उसे देश से निकाल देना चाहिए (मनु.८. प्राप्त थी। मनुस्मृति में ऋक, यजु एवं सामवेदों का निर्देश ३८०)। इसके इस मत का निर्देश 'मृच्छकटिक' में मिलता प्राप्त हैं, एवं अथर्ववेद का निर्देश 'अथर्वागिरस्' श्रुति नाम | है । वलभी के राजा धरसेन के ५७१ ई. के शिलालेख से किया गया है (मन. ११.३३ )। उसके ग्रन्थ में | में उस राजा को मनु के धर्म नियमों का पालनकर्ता कहा आरण्यकों का भी निर्देश प्राप्त है (मनु. ४.१२३)। इसे | गया है । जैमिनि सूत्रों के सुविख्यात भाष्यकार शबर• छ: वेदांग ज्ञात थे (मनु. २.१४१, ३.१८५, ४.९८)। स्वमिन् द्वारा ५०० ई० में रचित भाष्य में मनु के मतों .. इसे अनेक धर्मशास्त्र के ग्रन्थ ज्ञात थे, एवं इसने धर्मशास्त्र के विद्वानों को 'धर्मपाठक' कहा है (मनु. ३.२३२:१२. | इन सारे निर्देशों से प्रतीत होता है कि, दूसरी शताब्दी ...१११)। इसके ग्रन्थ में निम्नलिखित धर्मशास्त्रकारों के उपरांत मनुस्मृति को प्रमाणित धार्मिक ग्रन्थ माना जाने का निर्देश प्राप्त है :-अत्रि, गौतम, भगु, शौनक, वसिष्ठ लगा था। किन्तु कालान्तर में इसकी लोकप्रियता को एवं वैखानस (मनु. ३.१६, ६.२१, ८.१४०)। देखकर लोगों ने अपनी विचारधारा को भी इस ग्रन्थ . प्राचीन साहित्य में से आख्यान, इतिहास, पुराण में संनिविष्ट कर दिया, जिससे इसमें प्रक्षिप्त अंश एवं खिल आदि का निर्देश मनुस्मृति में प्राप्त है (मनु. जुड़ गये। उन तमाम विचार एक दूसरे से मेल न खाकर ३.२३२) । वेदान्त में निर्दिष्ट ब्रह्म के स्वरूप का विवेचन कहीं कहीं एक दूसरे से विरोधी जान पड़ते है (मनु. ३. मनु द्वारा किया गया है, जिससे प्रतीत होता है कि, मनु | १२-१३, २३-२६; ९. ५९-६३, ६४-६९)। को उपनिषदों का भी काफी ज्ञान था (मन.६.८३:९४)। बृहस्पति के निर्देशों से पता चलता है कि, मनुस्मृति में इसके ग्रन्थ में कई 'वेदबाह्य स्मृतियों' का भी निर्देश | ये प्रक्षिप्त अंश तीसरी शताब्दी में जोड़े गये । प्राप्त है। इसे बौद्ध जैन आदि इतर धर्मों का भी ज्ञान था मनुस्मृति याज्ञवल्क्यस्मृति से पूर्वकालीन मानी जाती (मनु. १२.९५)। इसने अपने ग्रन्थ में वेदनिन्दक तथा | है। उपलब्ध मनुस्मृति में यवन, कांबोज, शक, पलव, चीन, पाखण्डियों का भी वर्णन किया है (मनु. ४.३०, ६१, ओड़, द्रविड़, मेद, आंध्र आदि देशों का उल्लेख प्राप्त है। १६३)। इन सभी प्राप्त सूचनाओं के आधार पर कहा जा सकता इसने अस्पृश्य एवं शूद्र लोगों की कटु आलोचना की है कि, उपलब्ध मनुस्मृति की रचना तीसरी शताब्दी के पूर्व है, एवं उन्हें कड़े नियमों में बाँधने का प्रयत्न किया है हुयी थी। सभवतः इसकी रचना २०० ई० पूर्व से लेकर (मनु. १०.५०-५६; १२९)। इसका कारण यह हो | २०० ई० के बीच में किसी समय हुयी थी। सकता है कि, इन दलित जातियों ने वैदिक धर्म से | अन्य ग्रन्थ-मनु के नाम से 'मनुसंहिता' नामक एक इतर धर्मों की स्थापना करने के प्रयत्नों में, जैन तथा बौद्ध | तन्त्रविषयक ग्रन्थ भी प्राप्त है (C.C.)। Page #638 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनु स्वारोचिष प्राचीन चरित्रकोश मंथरा मनु स्वारोचिष--स्वारोचिष नामक द्वितीय मन्वंतर मनोहरा--सोम नामक वसु की पत्नी, जिसे निम्नका अधिपति मनु । इसकी माता का नाम आकूति था, जो लिखित चार पुत्र थे :--वर्च, शिशिर, प्राण एवं रमण मनु स्वायंभुव की कन्या थी। इसे ब्रह्मा ने सात्वत धर्म | (म. आ. ६०.२१)। का उपदेश दिया था, जो कालान्तर में इसने अपने पुत्र | २. अलकापुरी की एक अप्सरा, जिसने अष्टावक्र के शंखपद को प्रदान किया था ( म. शां. ३३६.३४-३५; | स्वागत के लिए इन्द्रसभा में नृत्य किया था (म. अनु. स्वारोचिष देखिये)। १९.४५)। मनुज--दस विश्वेदेवों में से एक । मंथरा--कैकयी की एक कुबडी दासी, जो दुन्दुभी मनवश--(सो. क्रोष्णु.) एक यादव-राजा, जो वायु नामक गंधर्वी के अंश से उत्पन्न हुयी थी (म. व. २६०. के अनुसार मनु राजा का पुत्र था। १०)। महाभारत में रामोपाख्यान में, जब राम की मनुष्यधर्मन्--कुवेर का नामान्तर । सहायता करने के लिए देवताओं द्वारा ऋक्षों तथा वानरों मनप्यराजन्-एक सन्मान्य उपाधि, जो राजसूय यज्ञ | की स्त्रियों से पत्र उत्पन्न करने का उल्लेख किया गया है. करनेवाले मनुष्य राजाओं के लिए प्रयुक्त की जाती थी। तब गंधर्वी दुन्दुभी को मंथरा के रूप में प्रकट होने की राजसूय यज्ञ करनेवाले देवों के लिए 'देवराजन्' उपाधि चर्चा मिलती है (म. व. २६०.१०)। इसी मंथरा कैकयी प्रयुक्त की जाती थी (देवराजन् देखिये)। के मन में भेद उत्पन्न कर राम के वनगमन का कारण मनसुत-ब्रह्मसावर्णि मनु के पुत्रों में से एक। बनी थी। मनोजव--अनिल नामक वसु का ज्येष्ठ पुत्र। इसकी माता का नाम शिवा था (म. आ. ६०.२४)। पाठभेद वाल्मीकि रामायण की मंथरा कैकयी की चिरकाल (भांडारकर संहिता)-'पुरोजव'। से पतिता दासी है, जो राम का राज्याभिषेक सुनकर क्रोध ' २. (स्वा. प्रिय.) एक राजा, जो मेधातिथि राजा का से प्रज्वलित हो उठती है। यह कैकयी को भावी अरिष्टों . पुत्र था। की ओर ध्यान दिलाकर अपने वश में ऐसा कर लेती है ३. चाक्षुष मन्वन्तर का इन्द्र। कि, वह इसकी प्रशंसा करने लगती है (वा. रा. अयो.९. ४. लेख देवों में से एक । ४१-५०)। कैकेयी इसके द्वारा ही समझाये जानेपर राम ५. धर्मसावर्णि मन्वन्तर का एक देव । को वन में भेजने के लिए प्रवृत्त हुयी । कैकेयी राम के राज्य६. सोमवंशीय एक राजा, जिसका मंगलतीर्थ नामक भिषेक से अत्यधिक प्रसन्न थी, किन्तु इसके द्वारा दी गयी तीर्थस्थान में स्नान करने के कारण उद्धार हुआ था ( स्कंद. दलीलों को सुनकर वह हतबुद्ध हो गयी, और दशरथ ३.१.१२)। से वर माँग कर राम को वन भेजा (वा. रा. अयो. ७.९) मनोजवा--स्कंद की अनुचरी एक मातृका (म. श. शत्रुघ्न इसके इस दुष्कार्य से इतने क्रुद्ध हो उठते है कि, ४५.१६)। वह मंथरा को पीटते भी है (वा. रा. अयो.७८) अग्नि मनोभद्र--एक राजा, जिसका गंगामाहात्म्य श्रवण में, मंथरा के इस उत्पीडन को राम के वनवास का कारण करने के कारण उद्धार हुआ (पद्म. क्रि.३)। बताया है (अग्नि. ५.८)।. मनोभवा---एक अप्सरा, जो कश्यप एवं मुनि की आनन्द रामायण में लिखा है कि, मंथरा कृष्णावतार कन्याओं में से एक थी। के समय जन्म लेगी, तथा पूतना के रूप में कृष्ण के द्वारा मनोभुव-चाक्षुष मन्वन्तर का एक इन्द्र। मारो जायेगी (आ. रा. ९.५.३५)। अन्य स्थल पर कंस मनोरमा--एक अप्सरा, जो कश्यप एवं प्राधा की | के यहाँ कुब्जा के रूप में अवतार लेने की बात भी कही कन्याओं में से एक थी। अर्जुन के जन्मोत्सव में यह गयी है (आ. रा. १.२.३)। उपस्थित थी। इसी प्रकार पद्मपुराण के पाताल खण्ड के गौडीय पाठ २. ध्रुवसंधि राजा की पत्नी, जिसके पुत्र का नाम | (अध्याय १५), आनन्द रामायण (आ. रा. १.२.२) सुदर्शन था। कृत्तिवास रामायण (२.४ ) में इसकी कथा प्राप्त है। ३. विद्याधराधिप इंदीवराक्ष नामक गंधर्व की कन्या | बाद के अनेक वृत्तान्तों में थरा को मोहित करने के लिए, (इंदीवराक्ष देखिये)। सरस्वती के भेजे जाने का भी वर्णन मिलता है (अ. रा. ६१६ Page #639 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मंथरा प्राचीन चरित्रकोश मंदार २.२.४४; आ. रा. १.६.४१)। तोरवो रामायण में | है । इस ऋण को उतारने के लिए तुम्हें सन्तान उत्पन्न मंथरा को विष्णु की माया का अवतार माना गया है। करके अपनी वंशपरम्परा को अविच्छन्न बनाने का प्रयत्न 'रामचरित मानस' में--इस प्रकार प्राचीन एवं करना चाहिए। अर्वाचीन राम साहित्य में इसका नाम सर्वत्र प्राप्त है। ___यह सुनकर शीघ्र संतान उत्पन्न करने के लिए, इसने तुलसीदास के द्वारा रचित 'रामचरित मानस' में कवि ने | शार्ङ्गक पक्षी होकर जरितृ नामवाली शागिका से अधिदैविक तत्व का योग कर इसे निर्दोष साबित किया है।। संबंध स्थापित किया। उसके गर्भ से चार ब्रह्मवादी तुलसी मंथरा का कटु चित्रण करने के पूर्व कह देते है-- पुत्रों को जन्म देकर, यह लपिता नामवाली यक्षिणी के 'गई गिरा मति फेरि'। राम के अवतार कारण का लक्ष्य पास चला गया। बच्चे अपनी माँ के साथ ही खाण्डवदेवों की दुःखनिवृत्ति बतलाया गया है, अतएव देवताओं | वन में रहे । जब अग्निदेव ने उस वन को जलाना आरम्भ को रामवनवास की प्रेरणा सरस्वती के द्वारा देना संगतपूर्ण | किया, उस समय इसने अग्नि की स्तुति की, तथा अपने जान पड़ता है। तुलसीद्वारा चित्रित मंथरा बड़ी वाक्पटु | पुत्रों की जीवनरक्षा के लिए वर माँगा। तब अग्निदेव ने अनुभवी, कुशल दती की भाँति है, जो बड़े मनोवैज्ञानिक | 'तथास्तु' कह कर इसकी प्रार्थना स्वीकार की (म. ढंग से केकयी के हृदय के भावों को परिवर्तित कर, राम | आ. २२०)। को वन भेजने के लिए उसे विवश कर देती है। । इसने अपने बच्चों की रक्षा करने की बात २. विरोचन दैत्य की कन्या। यह दैत्यकन्या सम्पूर्ण | अपनी दूसरी पत्नी लपिता से कहीं, किन्तु उसने इससे पृथ्वी को विनाश करने के लिए तत्पर हुयी, तब इन्द्र ने | ईष्योयुक्त वचन कहे, एवं इसे अपने पुत्रों के पास जाने इसका वध किया। से रोक लिया। तब इसने स्त्रियों के सौतिया डाह रूपी इसकी कथा रामायण में राम के द्वारा तारकावध के | दोष का वर्णन करते हुए बताया कि, वह चाहे जितना समय कही गयी है। इसी की कथा बता कर राम ने लक्ष्मण | सत्य कहे, यह उस पर विश्वास नहीं कर सकता। से कहा था कि, स्त्री का वध करना अवश्य उचित नहीं है, पश्चात् यह अपनी पूर्वपत्नी जरितु, तथा पुत्रों के किन्तु जब आवश्यकता ही आ पड़े, तो स्त्रीवध किसी प्रकार पास गया। किन्तु वे इसे पहचान न सके । बाद को इसने हेय कार्य नहीं है (वा. रा. बा. २५.२०)। | जरितृ तथा अपने पुत्रों के साथ देशान्तर में प्रस्थान मंथिनी--स्कंद की अनुचरी एक मातृका (म. श. किया (म. आ. २२२; जरितृ देखिये)। ४८.२५ )। इसके नाम के लिए 'स्थेरिका' पाठभेद मंदर--एक दुराचारी ब्राह्मण, जो पिंगला नामक वेश्या प्राप्त है। पर आसक्त था। आगे चलकर इसने ऋषभ नामक योगी - मंथु-(स्वा. प्रिय.) एक राजा, जो वीरव्रत राजा की सेवा की। इस पुण्यकर्म के कारण अगले जन्म में यह का पुत्र था। भद्रायु नामक राजकुमार हुआ (भद्रायु देखिये)। मंद--रावण के पक्ष का एक राक्षस । मंदाकिनी--पुलस्त्यपुत्र विश्रवस् नामक ऋषि की दो मन्दपाल--एक विद्वान् महर्षि, जिसे मृत्यु के बाद | पत्नियों में से एक । भगवान् शंकर के प्रसाद से इसे पितृऋण को न उतारने के कारण स्वर्ग की प्राप्ति न | कुबेर नामक पुत्र उत्पन्न हुआ (पन. पा. ६)। . हुयी थी। मंदाकिन्य--कश्यपकुलोत्पन्न एक गोत्रकार। पितृऋण--मन्दपाल धर्मज्ञों में श्रेष्ठ तथा कठोरव्रत | मंदार--एक असुर, जो हिरण्यकशिपु का ज्येष्ठ पुत्र का पालन करनेवाला था । यह ऊर्ध्वरेता मुनियों के मार्ग | था । भगवान् शंकर ने इसे एक वर प्रदान किया था, का आश्रय लेकर सदा वेदों के स्वाध्याय, धर्मपालन तथा | जिसके बल से यह एक अर्बुद वर्षों तक इन्द्र से युद्ध करता तपस्या में संलग्न रहता था। अपनी तपस्या पूर्ण कर | रहा । युद्ध में यह अजेय था, जिस कारण भगवान् देहत्याग कर, जब यह पितृलोक पहुँचा, तब इसे सत्कर्मों | विष्णु का सुदर्शन चक्र, एवं इन्द्र का वज्र इसके शरीर पर के फलानुसार स्वर्ग की प्राप्ति न हुयी । तब इसने देवताओं | | टकरा कर तिनके के समान जीर्ण-शीर्ण हो गये (म. से इसका कारण पूछा । देवताओं ने बताया, 'आपके | अनु. १४.७४-८२)। उपर पितृऋण है। जब तक वह पितृऋण तुम्हारे द्वारा २. धौम्य ऋषि का पुत्र, जिसका विवाह मालव देश न उतारा जायेगा, तब तक स्वर्ग की प्राप्ति असम्भव | में रहनेवाले और्व नामक ब्राह्मण की शमिका नामक प्रा. च. ७८] Page #640 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन चरित्रकोश मंदार कन्या से हुआ था ( गणेश. २.३४.१३; और्व ३. देखिये) । मंदीर -- कात्यायन श्रौतसूत्र में निर्दिष्ट एक व्यक्ति, जिसके पशुओं ने गंगा नदी के जल का पान करना अस्वीकार कर दिया था (का.श्रौ. १३.३.२१ ) । मंदुलक - (आंध्र. भविष्य. ) एक आंध्रवंशीय राजा, जो मत्स्य के अनुसार हाल राजा का पुत्र था । मंदोदरी - रावण की धर्मपरायण पत्नी, जो मयासुर की कन्या थी। यह हेमा अथवा रम्भा नामक अप्सरा से उत्पन्न हुयी थी ( वा. रा. उ. १२.१९, स्कंद ५.२.२५ ब्रह्मांड २.६.२८-३० ) । अध्यात्मरामायण के अनुसार, राम दाशरथि की पत्नी सीता इसकी ही कन्या थी ( सीता देखिये) । २. सिंहलद्वीप के चंद्रसेन राजा की कन्या, जिसकी माता का नाम गुणवती था । यह विवाहयोग्य होने पर, चंद्रसेन राजा ने इसके विवाह की तैयारी की, एवं इंद्र देश के सुधन्वन् नामक राजा से इसका विवाह निश्चित किया । किन्तु इसने इस विवाह से इन्कार कर दिया, एवं पिता से कहा, 'पुरुष दगाबाज होते है, इसलिये मैं विवाह करना नही चाहती हूँ' । इसके कहने पर चंद्रसेन राजा ने इसका विवाह स्थगित किया । मय इस देवता का आवाहन किया गया है (ऋ. १०.८३८४) । यह युद्ध में अजेय, एवं अभि के भाँति जाज्वल्यमान् देवता है । मरुतों के साथ यह अपने भक्तों को विजय तथा संपत्ति प्रदान करता है । तपस् नामक अन्य देवता के साथ यह अपने भक्तों की रक्षा करता है, एवं उनके शत्रुओं को परास्त करता है। ब्रह्म में इस देवता के उत्पत्ति की कथा इस प्रकार दी गयी है। एकबार देवदानव युद्ध में देवताओं की हार हो रही थी। उस समय विजयप्रति के लिए उन्होनें गौतमी नदी के तट पर तपस्या की। इस तपस्या से संतुष्ट हो कर, भगवान् शंकर ने देवों को अभयदान दिया, एवं दैत्यों के संहार के लिए अपने तृतीय नेत्र से मन्यु नामक देवता का निर्माण किया। आगे चल कर इसने देयों को. पराजित किया (ब्रह्म. १६२ ) । २. (सो. पूरु. ) एक पूरुवंशीय राजा, जो भरद्वाज का पुत्र था । इसे बृहत्क्षय आदि पाँच पुत्र थे ( भा. ९.. २१.१ ) | भविष्य में इसके नाम के लिए 'मन्युमद' पाठभेद प्राप्त है। । मन्यु तापस-एक वैदिक सूक्तद्रष्टा (ऋ. १०.. ८३-८४) । मन्यु वासिष्ठ्य -- एक वैदिक सूक्तद्रष्टा (ऋ. ९.९७. १०-१२ ) । आगे चलकर मंदोदरी के कनिष्ठ बहन के विवाह की तैयारी हुयी। उस महोत्सव में उपस्थित हुए चारुदेष्ण नामक राजपुत्र पर मोहित हो कर इसने उसका वरण किया । किन्तु पश्चात् चारुदेष्ण ने इसे धोखा दिया, जिस कारण पुरुषजाति के संबंध में इसकी प्रकट हुयी आशंका सच साबित हुयी । । २. स्कंद की अनुचरी एक मातृका (म.श. ४५.१७) । मन्मथकर - स्कंद का एक सैनिक (म. श. ४४.६७ ) मंधातु- एक राजा, जिसपर आधियों ने कृपा की थी (ऋ. १.११२.१३) । २. एक ऋषि, जो अंगिरस् ऋषि के समान महान् तपखी था (८,४०.१२ ) । ऋग्वेद में अन्यत्र प्राप्त भरद्वाज के एक सूक्त में मरद्वाज ऋषि का निर्देश 'ममतेब' नाम से किया गया है (ऋ. ६.५०.१५ ) । भरद्वाज के द्वारा रंचित इस सूक्त में ममता के द्वारा रचित स्तोत्रों का निर्देश किया गया है, जिससे प्रतीत होता है कि, ममता भरद्वाज के लिए अत्यंत आदरणीय व्यक्ति थी । धातु यौवनाश्व-- एक सम्राट, जिसे कबंध आथर्वण के पुत्र विचारिन् ने शिक्षित किया था ( गो. बा. १.२. १०) । युवनाश्व का वंशज होने के कारण, इसे यौवनाश्व पैतृक नाम प्राप्त हुआ होगा ( मांधातृ देखिये) । मन्यु -- एक वैदिक देवता, जिसे क्रोध की मूर्तिमन्त प्रतीक रूप देवता माना जाता है । ऋग्वेद के दो सूक्तों में मय--एक दानव, जो दानवों में सर्वश्रेष्ठ शिल्पी एवं दानव नरेश नमुचि का भाई था (म. आ. २१८.३९ ) । कश्यप ऋषि को दनु नामक पत्नी से उत्पन्न पुत्रों में यह एवं नमुचि प्रमुख थे । रामायण में इसे दिति का पुत्र कहा ६१८ मन्दुमत् भानु नामक अभि का द्वितीय पुत्र (म. व. २११.११ ) । ममता उचध्य आंगिरस नामक ऋषि की पत्नी एवं दीर्घतमस् मामतेय नाम ऋषि की माता (१.१४७.२ उच्चभ्य, दीर्घतमस् मामतेय, बृहस्पति आंगिरस एवं भरद्वाज देखिये ) | ," Page #641 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मय प्राचीन चरित्रकोश मय गया है. (वा. रा. उ. १२.३)। किन्तु रामायण का | लपटों में समेटना चाहा। यह देखकर श्रीकृष्ण ने इसे कथन ऐतिहासिक प्रतीत नहीं होता। मारने के लिए सुदर्शन उठाया। यह भाग कर तत्काल पुराणों में नमुचि नाम के दो व्यक्तियों का वर्णन मिलता अर्जुन की शरण में आया, और अर्जुन ने इसे अभयदान है। उनमें से एक दानव था, एवं दुसरा तेरह सौंहिकेयों | देकर अग्नि एवं कृष्ण से बचाया (म. आ. २१९.३९)। में से एक था। मय दानव नमुचि का भाई था। हिरण्याक्ष अर्जुन के इस उपकार का बदला चुकाने के लिए मय ने एवं हिरण्यकशिपु के समय जो दैत्य तथा दानवों का | उसकी कुछ सेवा करने की इच्छा प्रकट की, किन्तु अर्जन संग्राम हआ था, उसमें यह दैत्यों के पक्ष में शामिल था | ने इसकी सेवा स्वीकार न की। फिर इसने अपने को (म. स. ५१.७)। दानवों का विश्वकर्मा बताते हुए अर्जन के लिए किसी वस्तु दक्षिण समुद्र के निकट सह्य, मलय और दर्दुर नामक | का निर्माण करने की इच्छा प्रकट की (म. स. १.६-९)। पर्वतों के आसपास एक विशाल गुफा के भीतर बने हुए पश्चात् श्रीकृष्ण ने इसे युधिष्ठिर के लिए एक दिव्य भवन में त्रेतायुग में यह निवास करता था। वहाँ प्रभावती | सभाभवन निर्मान करने को कहा। नामवाली एक तपस्विनी तपस्या करती थी, जिसने हनमान् मयसभा--कृष्ण के कहने पर इसने वृषपर्वन् के आदि वानरों को नाना प्रकार के भोज्य पदार्थ और भाँति कोषागार से समस्त सामग्री ला कर मयसभा नामक दिव्य भाँति के पीने योग्य रस दिये थे (म. व. २६६.४०-४३)। सभागृह का निर्माण किया (म. स. १.१२)। युधिष्ठिर शिल्पशास्त्रज्ञ-दैत्यराज वृषपर्वन् द्वारा किये गये होम | ने अपने राजसूय यज्ञ का समारोह इसी मयसभा में के समय इसने एक अति चमत्कृतिपूर्ण सभा का निर्माण आयोजित किया था। उक्त सभा के वैभवविलास को देख किया था। यह सभा कैलास पर्वत के उत्तर में मैनाक | कर दुर्योधन ईर्ष्या से पागल हो उठा था। इस सभा की नामक पर्वत में.स्थित बिन्दुसरोवर के पास निर्मित की यह विचित्रता थी कि, स्थलभाग जल की भाँति, एवं जल गयी थी। वृषपर्वन् राजा ने इस सभा में यज्ञ पूरा किया, | के स्थान स्थल की भाँति प्रतीत होते थे। दुर्योधन इस एवं उसके उपरांत सभा की सारी सामग्री अपने कोषागार विचित्र रचना से अनभिज्ञ था, अतएव उसे कई बार भ्रम · में रख दी (म. स. १,३)। में पड़ कर भीम की हँसी का कारण बनना पड़ा। इस इसके मित्रों में ताराक्ष, कमलाक्ष एवं विद्युन्माली नामक प्रकार सभा का यह अत्यधिक वैभव दुर्योधन के लिए तीन असुर प्रमुख थे। उनके कथनानुसार ही इसने दैत्यों के चिन्ता का कारण बन गया, तथा यहींसे उसके हृदय में . संरक्षण के लिए त्रिपुर नामक तीन नगरों का निर्माण किया, | ईर्ष्या की भावना दुश्मनी में बदल गयी, जिसने आगे जो आकाश में बादलों की भाँति घूमा करते थे। उनमें से | चल कर भारतीय युद्ध को जन्म दिया। एक स्वर्ण का, दूसरा चाँदी का तथा तीसरा लोहे का बना राजसूय यज्ञ के समय इसने भीम को एक गदा एवं • था (म. क. २४.१४; लिंग. १७१)। अर्जुन को देवदत्त नामक शंख प्रदान किया था। इसमें से . आगे चल कर दैत्यों को विनाश करने के लिए भगवान् गंदा को यह वृषपर्वन् से, तथा 'देवदत्त' शंख वरुण से शंकार ने इन त्रिपुरों को जला दिया, एवं सारे दैत्यों का लाया था (म. स. ३.७)। इसी यज्ञ के समय इसने संहार किया। तब मय ने अमृत कुण्ड का निर्माण कर अर्जुन को एक मायामय ध्वज भी दिया था। दैत्यों को पुनः जीवित किया। यह देख कर, विष्णु एवं इसके ज्येष्ठ बन्धु नमुचि का इन्द्र ने वध किया, ब्रह्मा ने गो एवं गोवत्स का रूप धारण कर, उस कुण्ड के जिसके कारण क्रोधित हो कर, देवों को नाश करने के लिए समस्त अमृत को पी डाला, जिससे सभी असुर पुनः मर इसने घोर तपस्या प्रारम्भ की, तथा विभिन्न प्रकार की गये (भा. ७.१०)। माया-विद्याओं को प्राप्त किया। इससे अत्यधिक भयातुर खांडववन में-कृष्ण एवं अर्जुन ने जब अग्नि को | होकर इन्द्र ने ब्राहाण वेष धारण कर इससे वर माँगने खाण्डववन भक्षण करने को दिया, उस समय मय इसी | आया। ब्राह्मणवेषधारी इन्द्र को बिना माँगे ही मय ने वन में नागराज तक्षक के घर में निवास करता था। जब कहा, 'तुम जो चाहते हो वह तुम्हे मिलेगा। यह वन को अग्नि ने जलाना आरम्भ किया, तब इसे कृष्ण ने | सुनकर इन्द्र ने कहा कि, वह मैत्री चाहता है । तब इसने तक्षक के घर से भागते देखा । भगते हुए मय को देखकर | उससे कहा, 'मेरी तुमसे कोई शत्रुता नहीं, तब मैत्री मांगने अग्नि ने मूर्तिमान होकर गर्जेन किया, एवं इसे अपनी की क्या आवश्यकता ? हम तुम दोनों मित्र ही है। यह ६१९ Page #642 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मय प्राचीन चरित्रकोश मयूरध्वज सुनकर इन्द्र अपने असली रूप में प्रकट हुआ, तथा कहा, मयूर--एक सुविख्यात असुर, जो इस पृथ्वी में विश्व 'मै तुम्हारे भाई नमुचि का वध करनेवाला इन्द्र हूँ, जो | नामक राजा के रूप में उत्पन्न हुआ था (म. आ. अपनी त्रुटी स्वीकार करते हुए तुमसे मित्रता करना चाहता हूँ'। यह सुन कर मय ने इन्द्र की शत्रुता को भुला कर मयूरध्वज--रत्ननगर का एक राजा । इसने सात उससे मित्रता की, एवं दोनों ने एक दूसरे को मायावी | अश्वमेध यज्ञ करने के उपरांत, नर्मदा तट पर अपना अठवाँ विद्याओं का ज्ञान कराया (ब्रह्म. १२४)। अश्वमेध यज्ञ प्रारम्भ किया। इसके अश्वमेधीय अश्व के मत्स्य के अनुसार, इसने वास्तुशास्त्र से संबधित एक संरक्षण का भार इसके पुत्र सुचित्र 'अथवा ताम्रध्वज पर ग्रन्थ की रचना की थी (मस्त्य. २५२)। इसके नाम था, जो अपने बहुलध्वज नामक प्रधान के साथ दिग्विजय पर शिल्प एवं ज्योतिषशास्त्र विषयक कई ग्रन्थ भी प्राप्त के लिए निकला था। लौटते समय सुचित्र को युधिष्ठिर हैं (C.C.)। द्वारा किये गये अश्वमेध का अश्व मिला, जो मणिपुर नगर से होता हुआ इसके नगर आया था। सुचित्र ने उसे परिवार-इसे कुल दो पत्नियाँ थी। उनमें से पहली पकड़ कर कृष्णार्जुन से युद्ध किया, तथा युद्ध में उन्हे पत्नी का नाम हेमा था, जो इसे देवताओं ने अर्पण की मुछित कर के अश्व के साथ नगर में प्रवेश किया। थी। हेमा से इसे मायाविन् एवं दुंदुभि नामक पुत्र एवं उधर मूर्छा से सावधान होने के उपरांत, कृष्ण ने ब्राह्मण मंदोदरी नामक कन्या उत्पन्न हुश्री थी (वा. रा. उ. १२ का तथा अर्जुन ने ब्राह्मणबालक का रूप धारण कर मयूरध्वज १९)। की राजधानी रत्नपुर में प्रवेश किया। इसके पास आकर'' ब्रह्मांड के अनुसार, इसकी दूसरी पत्नी का नाम ब्राह्मण वेषधारी कृष्ण ने कहा, 'अपने पुत्र का विवाह कराने रम्भा था, जिससे इसे निम्नलिखित पुत्र प्राप्त हुए थे:- के लिए तुम्हारे पुरोहित कृष्णशर्म के पास धर्मपुर नामक ' अजकर्ण, कालिक, दुंदुभि, महिष एवं मायाविन् । उस | स्थान से हम आ रहे थे कि, आते समय जंगल में मेरे बेटे . ग्रंथ में मंदोदरी को रम्भा की कन्या कहा गया है (ब्रह्मांड. को एक सिंह ने पकड़ लिया। मैने तत्काल नृसिंह भगवान् ३.६.२८-३०)। का स्मरण किया, किन्तु वह प्रकट न हुए। फिर मुझे देख मस्त्य में इसकी मन्दोदरी, कुहू एवं उपदानवी नामक कर उस सिंह ने कहा कि, तुम अगर मयूरध्वज राजा का तीन कन्याएँ दी गयी है। किन्तु वे किससे उत्पन्न हुश्री आधा शरीर मुझे लाकर दोगे, तो मै तुम्हारे पुत्र को वैसे । यह उपलब्ध नहीं हैं। उनमें से कुहू धाता की पत्नी थी ही वापस कर दूंगा।' (भा. ६.१८.३)। भागवत में उपदानवी को वैश्वनर बाहाण द्वारा यह मांग की जाने पर, मयुरध्वज राजा नामक दानव की कन्या कहा गया है (भा. ६.६.३३)। बढ़ई के द्वारा अपना शरीर कटवाने के लिए तैयार हो गया। वैसे ही इसकी पत्नी कुमुदती ने आकर कहा, २. एक असुर, जो त्वष्टा का पुत्र था। इसकी माता 'राजा का वामांग मैं हूँ, इसलिए आप मुझे ले सकते हैं।' का नाम प्रह्लादी-विरोचना था (वायु. ८४.२०)। ब्राह्मण ने कहा, 'सिंह ने दाहिना अंग लाने के लिए ज्ञातिनाम--त्वष्ट्र एवं मय ये पहले तो व्यक्तिनाम थे। कहा है। किन्तु आगे चलकर ये शिल्पियों का ज्ञातिवाचक एवं गुण | इसका शरीर जब आरे द्वारा काटा जाने लगा, तब वाचक नाम बन । ये लोग स्वय का मय ज्ञाति क, एवमय- | इसकी बायीं आँख से पानी टपका । इसे देखकर ब्राह्मण ने वंशीय कहलाने लगे। पश्चात् शिल्पशास्त्र पर जिन ग्रंथों का तत्काल कहा कि, दुःखपूर्व दिया गया दान मै नहीं चाहता। निर्माण हुआ, उन्हे भी 'मयसंहिता' आदि नाम प्राप्त हुये। तब मयूरध्वज ने कहा, 'आँख के अश्रु शारीरिक कष्ट के कारण ___ यही कारण है कि, प्राचीन भारतीय इतिहास के नहीं निकल रहे, इसका कारण कोई दूसरा है। बाई विभिन्न कालों में विभिन्न त्वष्ट्र एवं मय व्यक्तियों का निर्देश | आँख इसलिए रोती है कि, काश दाहिने अंग की भाँति प्राप्त है। इस वंश के मूल पुरुष त्वष्ट्र एवं मय, असुर | वामांग भी सार्थक हो गया होता, तो कितना अच्छा था। अथवा दानव प्रतीत होते है । क्यों कि, उनका जो वर्णन | इतना सुनते ही ब्राह्मणवेषधारी कृष्ण ने अपने साक्षात् महाभारत एवं पुराणो में प्राप्त है, वह आर्य लोगों से विभिन्न | दर्शन देकर इसके शरीर को पूर्ववत् किया, एवं दृढ प्रतीत होता है (प्रभावती १ तथा ५. देखिये)। आलिंगन कर आशीष दिया। बाद में अपना यज्ञ ६२० Page #643 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मयूरध्वज प्राचीन चरित्रकोश मरीचि पूर्ण कर, मयूरध्वज राजा कृष्णार्जुन के साथ अश्व के संरक्षण | पर पड़े हुए भीष्म के पास मिलने गया था, एवं अर्जुन के लिए उनके साथ चला गया (जै. अ. ४१-४६)। के जन्मोत्सवमें भी उपस्थित था। मयूरेश्वर--श्रीगणेश का एक अवतार, जो महाराष्ट्र में | २. एक धर्मशास्त्रकार, जिसके मतों के उद्धरण मितास्थित मोरगाँव स्थान में स्थित है। क्षरा, अपरार्क, स्मृतिचन्द्रिका आदि ग्रंथों में प्राप्त हैं। मयोभुव--अगस्त्य कुलोत्पन्न एक गोत्रकार एवं प्रवर । | उन ग्रंथों में निम्नलिखित विषयों पर, मरीचि के मतों को मरण--अंगिराकुलोत्पन्न एक गोत्रकार । इसके नाम | उद्धृत किया गया है:-आह्निक, अशौच, श्राद्ध, प्रायश्चित्त के लिए 'मरणाशन' पाठभेद प्राप्त है। एवं व्यवहार। मरीचि--इक्कीस प्रजापतियों में से एक. जो ___ अपरार्क ने मरीचि के द्वारा लिखित तर्पण के संबंधित स्वायंभुव मन्वन्तर में ब्रह्माजी के नेत्र से उत्पन्न हुआ एक श्लोक उद्धृत किया है, जिसमें रविवार के दिन तर्पण करने का माहात्म्य बताया गया है (अपरार्क. था (म. आ. ३२१.३३)। यह ब्रह्माजी की सभा में रहा कर उनकी उपासना करता था (म. स. ११.१४ )। १३२, २३५, स्मृतिच. आन्हिक. पृ. १२३)। यह ब्रह्माजी का प्रथम पुत्र था । इसे विष्णु ने खङ्ग ___ मरीचि ने विधान प्रस्तुत करते हुए कहा है कि, श्रावण दिया था, जिसे इसने अन्य महर्षियों को दिया था भाद्रपद में नदी में स्नान न करना चाहिए (अपरार्क. पृ. (म. शां. १६०.६५)। २३५)। अपरार्क ने अशौच के सम्बन्ध में मरीचि का एक उद्धरण दिया है, जो गद्य में है (अपराक. ९०८) यह दक्ष का जामाद तथा शंकर का साढू था। इसने व्यवहारशास्त्र-मरीचि अचल संपत्ति के बारे में अपना शंकर का अपमान किया था, तब शंकर ने इसे भस्म कर | डाला । दक्ष की कन्या संभूति इसकी पत्नी थी। इसे संभूति मत देते हुए कहता है, 'अचल सम्पत्ति यदि दूसरे के हाथ बेचना है, खरीदना है, दान में देना है अथवा उसका से पूर्णमास नामक पुत्र, तथा कृष्टि, वृष्टि, त्विषा तथा उपचिति नामक कन्याएँ हुई । पूर्णमास को सरस्वती से बटवाँरा करना है, तो यह आवश्यक है कि, किये गए विरुज, पर्वश, यजुर्धान आदि पुत्र उत्पन्न हुए (ब्रह्मांड सारे वैधानिक कार्य मौखिक न होकर लिखित होने चाहिए। २. ११)। तभी वे नियमानुकूल है, अन्यथा नही (परा. मा. ३. १२८; स्मृति. चं.६०)। अगर किसी व्यक्ति ने अधि.. भागवत के अनुसार इसकी दो पत्नियाँ थीं ( भा. कारियों की सम्मति से किसी व्यापारी की कोई सम्पत्ति ३. २४ २२)। उसमें से एक का नाम कर्दमकन्या खरीदी, तथा बाद को पता चला कि, व्यापारी द्वारा बैंची कला, तथा दूसरी का नाम ऊर्णा था। इसे कला से दो पुत्र गयी संपत्ति किसी अन्य की थी, तब उसे उस व्यापारी से हुए, एक कश्यप तथा दूसरा पूर्णिमा । ऊर्णा से इसे स्मर, उसका पैसा कानून से वापस मिल जायेगा। अगर वह उद्गीथ, परिष्वंग, क्षुद्रभृत तथा घृणी सन्ताने हुयीं (भा. व्यापारी रुपये ले कर लापता हो गया है, तब संपत्ति के १०.८५, ४७-५१, दे. भा. ४. २२)। अग्निष्वात्त खरीददार एवं असली मालीक के बीच में ले देकर नामक पितर भी इसका पुत्र था। समझौता कर देना चाहिए' (अपरार्क. ७७५)। वैवस्वत मन्वन्तर में ब्रह्मदेव ने इसे अग्नि से पैदा मरीचि के द्वारा मानसिक व्याधियों (आधि) के चार किया था। उस समय इसे कश्यप नामक पुत्र एवं सुरूपा । प्रकार बताये हैं-भोग्य, गोप्य, प्रत्यय, एवं अज्ञात । नामक कन्या हुयी थी। यह,इसका पुत्र कश्यप,एवं अवत्सार, असित, नैध्रुव, नित्य तथा देवल ये कश्यप कुलके सात ३. एक ज्योतिषशास्त्रज्ञ, जिसका निर्देश नारदसंहिता मंत्रद्रष्टा थे (मत्स्य. १४४, कश्यप देखिये )। यह | में प्राप्त है। प्रजापति भी था (वायु. ६५.६७)। ४. (स्वा. प्रिय.) एक राजा, जो वृषभदेव के वंश में - इन्द्रप्रस्थ में सात तीर्थों में स्नान करने के कारण, इसे | उत्पन्न सम्राज नामक राजा का पुत्र था। इसकी माता का सात पुत्र हुए थे ( पद्म. उ. २. २२)। नाम उत्कला था। इसके पत्नी का नाम बिन्दुमती था, महाभारत के अनुसार, 'चित्रशिखण्डी' कहे जाने | जिससे इसे बिन्दुमत् नामक पुत्र उत्पन्न हुआ। वाले ऋषियों में से यह भी एक था । यह आठ प्रकृतियों ५. एक अप्सरा, जो अर्जुन के जन्मोत्सव में उपस्थित में भी गिना जाता है (म. शां.३२२.२७)। यह शरशय्या | थी (म. आ. ११४.४२)। Page #644 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन चरित्रकोश मरीचि ६. एक दानव, जो कश्यप एवं दनु के पुत्रों में से एक था । मरीचिगर्भ -- दक्षसावर्णि मन्वन्तर का एक देव । मरीचिप--एक ऋषियों का संघ ( म. अनु. १४. ५७ ) । ' मरीचिप' का शाब्दिक अर्थ ' 'सूर्यकिरणों पर जीवित रहनेवाला ' होता है । वालखिल्य ऋषियों को भी 'मरीचिप ' कहा गया है। मरु - (सू. इ. ) एक इक्ष्वाकुवंशीय राजा, जो शीघ्र राजा का पुत्र था। इसके पुत्र का नाम प्रभुश्रुत था । ३. एक दै.य, जो नरकासुर का प्रमुख सहाय्यक था । श्रीकृष्ण ने इसका वध किया ( नरकासुर देखिये ) | ४. मुर नामक दैत्य के लिए उपलब्ध पाठभेद ( मुर देखिये) । इस राजा ने योगसिद्धि के द्वारा चिरजीवन की प्राप्ति की थी। भागवत के अनुसार, कलियुग में समस्त क्षत्रिय वंशों का विनाश होनेवाला है, जिस समय पौरव एवं देवापि के साथ यह क्षत्रिय वंश का पुनरुज्जीवन करनेवाले है (भा. ९.१२.६; १२.२.३७) । उस समय, उन्नीसवें युगपर्याय के प्रारंभ में मरु राजा को सुवर्चस् नामक पुत्र उत्पन्न होनेवाला है (ब्रह्मांड. ३.७४. २७१; सुवर्चस् देखिये) । | ऋग्वेद में अन्यत्र कहा गया है कि, अग्नि ने इन्हें में अवस्थित किया (ऋ. १.१३४) । इस प्रकार ये आकाश उत्पन्न किया (ऋ. ७.३ ); वायु ने इन्हे आकाश के गर्भ में उत्पन्न हुए, जिस कारण इन्हें 'आकाशपुत्र' (ऋ. १०. ७७), 'आकाश के वीर' (ऋ. १.६४.१२२ ) कहा गया २. (सु. निमि.) विदेह देश का एक निमिवंशीय राजा, जो हर्यश्व जनक नामक राजा का पुत्र था । इसके पुत्र का नाम प्रतींधक था (भा. ९.१३.१५ ) । मरुक--महाभारत में निर्दिष्ट एक लोकसमूह ( म. स. ४८.४७५* पंक्ति २)। मरुत् -- ऋग्वेद में निर्दिष्ट एक सुविख्यात देवतागण, जो पं. सातवलेकरजी के अनुसार, वैदिक सैनिक संघटन एवं सैनिक संचलन का प्रतीक था। ऋग्वेद के तैतीस सूक्त इन्हे समर्पित किये गये हैं । अन्य सात सूक्त इन्द्र के साथ, एवं एक एक सूक्त अग्नि तथा पूषन् के साथ इन्हें समर्पित किया गया है। मरुत् जन्म - ऋग्वेद में इनके जन्म की कथा दी गयी है, जहाँ रुद्र का पुत्र कहा गया है ( . ५.५७) । वेदार्थदीपिका में इन्हें रुद्रपुत्र नाम क्यों प्राप्त हुआ इसकी दो कथायें प्राप्त हैं । इनके जन्म होने पर इनक सैकडो खण्ड हो गये, जिन्हे रुद्र ने जोड़ कर जीवित किया। इसी प्रकार यह भी कहा गया है कि, रुद्र ने वृषभरूप धारण कर पृथ्वी से इन्हें उत्पन्न किया ( वेदार्थदीपिका. २.३३ ) । ये लोग देवों का एक समूह अथवा 'गण' अथवा ' शर्धस् ' हैं, जिनका निर्देश बहुवचन में ही प्राप्त है (ऋ. १. ३७)। इनकी संख्या साठ की तीन गुनी अर्थात् एक सौ अस्सी, अथवा सात की तीन गुनी अर्थात् एक्कीस है (ऋ. ८.८५; ऋ. १.१३३; अ. वे. १३.१ ) 1 ऋग्वेद में इन्हें कई स्थानों पर सात व्यक्तियों का समूह कहा गया है (ऋ ५.६२.१७)। इनकी माता का नाम पृश्नि था ( ऋ. २.३४, ५.५२ ) । रुद्र का पुत्र होने के कारण, इन्हें 'रुद्रियगण ' एवं 'पृश्नि का पुत्र होने के कारण इन्हे 'पृश्निमातरः ' कहा गया हैं (ऋ. १.३८.२३ ) । सम्भव है, पृश्नि का प्रयोग गाय के रूप मे हुआ हो, क्योंकि, अन्यत्र इन्हें 'गोमातरः ' कहा गया हैं (ऋ. १.८५ ) । । अन्य स्थान पर इन्हें समुद्र का पुत्र भी कहा गया है, जिस कारण इन्हें 'सिन्धुमातरः' उपाधि दी गयी है (ऋ. १०.७८ ) । अन्यत्र इन्हे 'स्वोद्भूत' कहा गया है (ऋ. १.१६८ ) । उनमें कोई बड़ा है, तथा न कोई छोटा है ( . ५.५९; इनमें से सभी मरुत्गण एक दूसरे के भ्राता हैं, न १. १६५ ) । इन सबका जन्मस्थान एवं आवास एक है (ऋ. ५.५३ ) । इन्हे पृथ्वी पर वायु में एवं आकाश में रहनेवाले कहा गया है (ऋ. ५.६०)। पत्नी - इनका सर्वाधिक सम्बन्ध देवी 'रोदसी ' से है, जो सम्भवतः इनकी पत्नी थी । देवी रोदसी को इनके साथ सदैव रथ पर खड़ी होनेवाली कहा गया है (ऋ. ५.५६) । इनका स्वरूप के समान प्रदीप्त, अग्नि के समान प्रज्वलित एवं अरुण आभायुक्त है ( . ६.६६ ) इन्हे अक्सर विद्युत् से सम्बन्धित किया गया है। ऋग्वेद में प्राप्त विद्युत् के सभी निर्देश इनके साथ प्राप्त हैं। वस्त्र एवं अलंकार - मरुत्गण मालाओं एवं अलंकारों से सुसज्जित कहे गये हैं (ऋ. ५.५३)। ये स्वर्णिम प्रावारवस्त्र धारण करते हैं (ऋ. ५.५५) । इनके शरीर स्वर्ण के अलंकारों से सजे हैं, जिनमें बाजूबन्द तथा 'खादि ' प्रमुख हैं (ऋ. ५.६० ) । इनके कन्धों पर तोमर, पैरों में ‘खादि', वक्ष पर स्वर्णिम अलंकार, हाथों ६२२ Page #645 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'मरुत् प्राचीन चरित्रकोश मरुत् में अग्निमय विद्युत् , तथा सर पर स्वर्ण शिरस्त्राण बतलाया में इनके नाम की व्युत्पक्ति कुछ अलग ढंग से जरूर गया है (ऋ. ५.५४ )। इनके हाथ में धनुषबाण तथा | दी गयी है। उसमें कहा गया है कि, जन्म लेते ही इन्हें भाले रहते हैं। बज्र तथा एक सोने की कुल्हाडी से भी ज्ञात हुआ कि इन्हे मृत्युयोग है, जिस कारण ये रोने लगे। ये युक्त हैं (इ. ५.५२.१३, ८.८.३२)। इन्हें रोता देखकर इनके पिता रुद्र ने इन्हें 'मा रोदीः' - रथ--इनके स्वर्णिम रथ विद्युत् के समान प्रतीत होते | ( रुदन मत करो) कहा। इस कारण इन्हें मरुत् नाम प्राप्त हैं, जिनके चक्रधार एवं पहिये स्वर्ण के बने हैं (ऋ. १. | हआ ( वेदार्थदीपिका २.३३)। ६४.८८)। जो जवाश्व इनके रथों को खींचते हैं, वे चित- ऋग्वेद में इन्हें सम्बोधित करके लिखे गये सूक्त में एक कबरे हैं (ऋ. ५.५३.१)। सभी प्राणी इनसे भयभीत | संवाद प्राप्त है, जिसमें इन्हें कुशल तत्त्वज्ञानी कहा गया रहते हैं। इनके चलने से आकाश भय से गर्जन करने | है, जो तत्त्वज्ञान के सम्बन्ध में अगस्त्य एवं इन्द्र से विचारलगता है। इनके रथों से पृथ्वी तथा चट्टाने विदीर्ण हो| विमर्श करते हैं (ऋ. १.१६५)। जाती है (ऋ. १. ६४; ५.५२)। इस लिए इन्हें प्रचण्ड | दिति के पुत्र--महाभारत तथा पुराणों में इन्हें दिति वायु के समान वेगवान् कहा गया है (ऋ. १०.७८)। । एवं कश्यप के पुत्र कहा गया है, एवं इनकी कुल संख्या ____ कार्य-मरुतों का प्रमुख कार्य वर्षा कराना है। ये| उन्चास बतायी गयी है। वहाँ इनकी जन्मकथा निम्न समुद्र से उठते हैं, एवं वर्षा करते हैं (ऋ. १.३८)। ये प्रकार से दी गयी है--दिति के कश्यप ऋषि से सारे जल लाते हैं, एवं वर्षा को प्रेरित करते हैं (ऋ. ५.५८)। जब | उत्पन्न पुत्र विष्णु द्वारा मारे गये । तत्पश्चात् दिति ने कश्यप ये वर्षा करते हैं, तब मेघों से अंधकार उत्पन्न कर देते हैं से वर माँगा, ' इन्द्र को मारनेवाला एक अमर पुत्र मुझे (ऋ. १.३८)। ये आकाशीय पात्र एवं पर्वतों से जल- प्राप्त हो । दिति द्वारा माँगा हुआ वरदान कश्यप ने धारायें गिराते हैं, जिस कारण पृथ्वी की एक नदी को प्रदान किया, एवं उसे गर्भकाल में व्रतावस्था में रहने के 'मरुवृद्धा' (मरुतों द्वारा वृद्धि की हुयीं) कहा गया | लिए कहा। है (ऋ. १०.७५)। कश्यप के कथनानुसार, दिति व्रतानुष्ठान करते हुए रहने ..गायन-वायु के द्वारा निसृत ध्वनि ही मरुतो का गायन | लगी। इन्द्र को जब यह पता चला कि, दिति अपने गर्भ में है, जिसके कारण इन्हें कई स्थानों पर गायक कहा गया है | उसका शत्रु उत्पन्न कर रही है, तब वह तत्काल उसके पास (ऋ. ५.५२.६०७.३५)। झंझावात के साथ समीकृत आकर उस पुत्र को समाप्त करने के इरादे से साधुवेष में करके इन्हे स्वभावतः कई स्थानों पर इन्द्र की साथी एवं रहने लगा। एकबार दिति से अपने व्रत में कुछ गल्ती मित्र कहा गया है। ये लोग अपनी स्तुतियों तथा गीतों से हुयी कि, इंद्रने योगबल से उसके गर्भ में प्रवेश कर उसके इन्द्र की शक्ति एवं सामर्थ्य को बढ़ाते है (ऋ. १.१६५)। गर्भ के सात टुकड़े कर दिये। किन्तु जब वे न मरे तब उसने ये लोग इन्द्र के पुत्रों के समान है, जिन्हें इन्द्र का भ्राता | उन सातों टुकडो के पुनः सात टुकडे कर के उन्हें उन्पचास भी कहा गया है (ऋ. १.१००; १.१७०)। भागों में काट डाला। इसके द्वारा काटे गये टुकडे रोने झंझावात की देवता-विद्यत् , आकाशीय गर्जन, वायु | | लगे, तब इन्द्र ने 'मा रोदीः' कहकर उन्हें शान्त किया, एवं वर्षा के साथ इनका जो विवरण प्राप्त है, इससे स्पष्ट | जिसके कारण इन्हे मरुत् नाम प्राप्त हुआ। है कि मरुत्गण झंझावात का देवता है । वैदिकोत्तर इन्हे टुकड़े टुकड़े कर दिया गया, एवं फिर भी जब ये न ग्रन्थों में इन्हें 'वायु'मात्र कहा गया है। किन्तु वैदिक | मरे, तब इन्द्र समझ गया कि ये अवश्य देवता के अंश हैं। साहित्य में ये कदाचित् ही वायुओं का प्रतिनिधित्व करते गर्भ के अंशों ने भी इंद्र स्तुति की कि, उन्हे मारा न . हैं, क्योंकि इनके गुण मेघों एवं विद्युत् से गृहीत हैं। जाये । तब इन्द्र ने कहा, 'आज से तुम सब हमारे भाई हो, व्युत्पत्ति-मरुत् शब्द की व्युत्पत्ति पर विचार करने से तथा तुम सब को हम स्वर्ग ले जायेंगे।' पता चलता है कि मरुत् 'मर' धातु से निसृत हैं, जिसके कालान्तर में दिति के उन्पचास पुत्र हुए, जिन्हे देखकर अर्थ ' मरना,' 'कुचलना' अथवा 'प्रकाशित होता' तथा वह आश्चर्यचकित हो गयी एवं साधुवेषधारी इन्द्र से 'शब्द' होते हैं। इसमें से 'प्रकाशित' तथा 'शब्द' मरुत् | उसका कारण पूछने लगी। तब इन्द्र ने एक के स्थान पर के व्यक्तित्व एवं वर्णन से मेल खाते हैं एवं इसके अन्य कई पुत्र होने के रहस्य का उद्घाटन करते हुए सारी कथा अर्थ लेना अनुचित सा प्रतीत होता हैं। वेदार्थदीपिका | बता कर कहा, ' ये सारे पुत्र तुम्हारे तपःसामर्थ्य पर ही ६२३ Page #646 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरुत् प्राचीन चरित्रकोश मरुत् जीवित बचे हैं, जिन्हे में स्वर्ग में ले जाकर यज्ञ के | षष्ठ गण--१. ईदृशु, २. नान्यादृश् ३. पुरुष, हविर्भाग का अधिकारी बनाकर भाई की भाँति रक्खंगा | ४. प्रतिहत, ५. समचेतन, ६. समवृत्ति, ७. संमित ।। (म. आ. १३२. ५३; शां. २०७.२; भा. ६.१८; मत्स्य. सप्तम गण--इस गणों के मरुतों का नाम अप्राप्य है। ७. १४६)। किन्तु ब्रह्मांड के अनुसार, देव दैत्य एवं मनुष्ययोनियों इंद्र-दिति संवाद--रामायण में यही कथा कुछ अलग से मिलकर इस गण के मरुत् बने हुए थे। ढंग से दी गयी है । दिति की गर्भावस्था में साधुवेषधारी ___ उपरनिर्दिष्ट मरुद्गणों में से प्रत्येक गण में वास्तव में इंद्र उसकी सेवा में रहा। इन्द्र की सेवा से संतुष्ट सात सात मरुत होने चाहिये, किन्तु कई मरुतों के नाम रहकर दिति ने उससे कहा, ' जिस गंर्भ को तुम्हें अप्राप्य होने के कारण, यह नामावली अपूर्ण सी प्रतीत मारने के लिए पाल रही हूँ वह तुम्हें न मारकर सदैव होती है। महाभारत में मंकणकपुत्रों को मरुद्गण के उत्पादक तुम्हारी सहायता करे यही मेरी इच्छा है' । किन्तु इन्द्र को कहा गया है (म. श. ३७.३२)। सन्तोष न हुआ, एवं उसने दिति के गर्भ में प्रवेश कर के | गर्भ में प्रवेशका मरुद्गणों के स्थान-उपर्युक्त मरुद्गणों के निवास गर्भ को नाश करने के लिए उसके सात टकडे किये। के बारे में विस्तृत जानकारी ब्रह्मांड एवं वायु में प्राप्त है, इस पापकर्म करने के उपरांत इन्द्र बाहर आया, एवं सारी | जो निम्न प्रकार कथा बता कर दिति से क्षमा माँगने लगा । फिर दिति ने | उससे कहा, ' तुम्हें मारने की तामसी इच्छा मैने की, | अनुक्रम निवासस्थान भ्रमण कक्षा अतः यह सर्वप्रथम मेरी ही गल्ती है। अब मेरी यही इच्छा है कि, तुम्हारे द्वारा किये गये गर्भ के वे सात टुकड़े वायु के सप्तप्रवाह में प्रविष्ट होकर देवस्थान प्राप्त करें। प्रथम गण | पृथ्वी पृथ्वी से मेघ तक इन्द्र ने दिति को वर प्रदान किया, जिस कारण मरुत्गणों द्वितीय गण सूर्य सूर्य से मेघ तक के साथ दिति ने स्वर्ग प्राप्त किया (वा रा. बा. ४७)।। | तृतीय गण | सोम सोम से सूर्य तक चतुर्थ गण | ज्योतिर्गण ज्योतिर्गणों से सोम तक इन्द्र ने दिति के साथ इतना पापकर्म किया, फिर पंचम गण ग्रह ग्रहोंसे नक्षत्रों तक भी वह सत्य से अलग न रहा, एवं दिति से सदैव सत्य | षष्ठ गण | सप्तर्षि मंडल सप्तर्षि मंडल से ग्रहों तक | भाषण ही किया । इसपर सन्तुष्ट होकर दिति ने इन्द्र को सप्तम गण ध्रुव ध्रुव से साप्तर्षियों तक (ब्रह्मांड. ३.५.७९-८८; वर दिया । मेरे होनेवाले पुत्र हमेशा तुम्हारे मित्र वायु. ६७.८८-१३५)। एवं सहयोगी रहेंगे (स्कन्द ६. २४; विष्णु १.२१; ३.४०; पम सृ. ७; भू. २६)। २. एक पौराणिक मानवजातिसंघ, जो वैशालि नगरी सात मरुद्गण--ब्रह्मांड में मरुतों के सात गणों की | के उत्तरीपर्व प्रदेश में स्थित पर्वतों में निवास करता था नामावली प्राप्त है, जिनमें से हरेक गण में प्रत्येकी सात | ये लोग प्रायः पर्वतीय प्रदेश में निवास करते थे, एवं मरुत् अंतर्भूत हैं । ब्रह्मांड में प्राप्त मरुद्गणों की नामावली अन्य मानवजातियों से इनका विवाहसंबंध भी होता इस प्रकार है: था। प्रथम गण--१. चित्रज्योतिस् ,२. चैत्य, ३. ज्योतिष्मत्, सम्भव है, राम दाशरथि का परम भक्त हनुमान इस ४. शक्रज्योति, ५. सत्य, ६. सत्यज्योतिस् , ७. सुतपस् । मरुत् जाति में उत्पन्न हुआ था। इस जाति का और एक द्वितीय गण--१. अमित्र, २. ऋतजित, ३. सत्यजित, | सुविख्यात सम्राट मरुत्त आविक्षित था, जो इक्ष्वाकुवंशीय. ४. सुतमित्र, ५. सुरमित्र, ६. सुषेण, ७. सेनजित् । दिष्ट कुल का राजा था। मरुत्त आविक्षित भी वैशालि देश ___ तृतीय गण--१. उग्र, २. धनद, ३. धातु, ४. भीम, | काही राजा था। वैदिक पूजाविधि में अंतर्गत 'मंत्रपुष्प' ५. वरुण के मंत्रों से प्रतीत होता है कि, मरुत्त आविक्षित राजा के चतुर्थ गण--१. अभियुक्ताक्षिक, २. साहूय यज्ञों में मरुत् लोगों ने 'परिवेष्ट' का काम किया था। पंचम गण-१. अन्यदृश, २. ईदृश्, ३. द्रुम, इन जाति के लोग पहले तो मानव थे, किन्तु कालो४. मित, ५. वृक्ष, ६. समित् ७. सरित् । | परान्त इन्हे देवत्व प्राप्त हुआ। यही कारण है कि, पहले Page #647 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरुत् प्राचीन चरित्रकोश मरुत इन्हे यज्ञ का हविर्भाग नही मिलता था, जो कालोपरान्त | कालान्तर में मरुत्त ने यज्ञ करना चाहा, तथा उसके इन्हे मिलने लगा। लिए बृहस्पति के पास जाकर इसने उनसे प्रार्थना मरुत-एक महर्षि, जिसने शान्तिदूत बनकर हस्तिनापुर | की कि, वह पुरोहित का पद संभालें। किन्तु इन्द्र के • जानेवाले श्रीकृष्ण की परिक्रमा की थी (म. उ.८१.२७)। द्वारा दिये गये मंत्र के अनुसार, बृहस्पति ने इसे कोरा मरुत्त-(सू. दिष्ट.) वैशालि देश का सुविख्यात सम्राट, | जवाब दे दिया। बृहस्पति से निराश होकर यह वापस जो अविक्षित राजा का पुत्र था ( मरुत्त आविक्षित कामप्रि लौटा रहा था कि, इसे रास्ते में नारद मिला, जिसने इससे देखिये )। कहा, 'इसमें घबराने की बात क्या है ? बृहस्पति न सही, २. (सो. तुर्वसु.) एक तुर्वसुवंशीय राजा, जो करंधम | उसके भाई संवर्त को वाराणसी से लाकर अपना यज्ञकार्य . राजा का पुत्र था। यह निःसंतान होने के कारण, इसने | पूर्ण कर सकते हो'। मरुत्त को यह बात अँच गयी. तथा -रेभ्यपुत्र दुष्यन्त को अपना पुत्र मान लिया था (भा. ९. | यह वाराणसी जाकर संवर्त को बड़े आग्रह के साथ यज्ञ २३.१७)। दुष्यन्त स्वयं पूरुवंशीय था। उसे मरुत्त | में ऋत्विज बनाने के लिए ले आया। के द्वारा गोद में लिये जाने के कारण, आगे चलकर, | जब इन्द्र ने देखा कि बिना बृहस्पति के भी मरुत्त का तुर्वसु वंश का स्वतंत्र अस्तित्व नष्ट हुआ, एवं वह | यज्ञ आरम्भ हो रहा है, तथा संवर्त उसका ऋत्विज बनाया पूरुवंश में शामिल हुआ। मत्स्य के अनुसार, इसे गया है, तब उसने इस यज्ञ में विभिन्न प्रकार से कई 'भरत' नामान्तर भी प्राप्त था। बाधाएँ डालने का प्रयत्न किया । इन्द्र ने पहले अग्नि के साथ ३. ( सो. क्रोष्टु.) एक यादव राजा, जो मत्स्य के | मरुत्त के पास यह संदेश भेजा कि, बृहस्पति यज्ञकार्य अनुसार तितिक्षु राजा का, एवं वायु के अनुसार उशनस् | करने के लिए तैयार है, अतएव संवर्त की कोई आवश्यकता राजा का पुत्र था। . नहीं है। अग्नि मरुत्त के पास आया, किन्तु वह संवर्त को मरुत्त माविक्षित कामप्रि-(सू . दिष्ट.) वैशालि | वहाँ देखकर इतना डर गया कि, कहीं वह उसे शाप न देश का एक सुविख्यात सम्राट, जो अविक्षित राजा का | दे दे। इसलिए वह मरुत्त से इन्द्र के संदेश को कहे पुत्र, एवं करन्धम राजा का पौत्र था। महाभारत में इसे बिना ही वापस लौट आया। चक्रवर्ति एवं पाँच श्रेष्ठ सम्राटों में से एक कहा गया है। इसकी माता का नाम भामिनी था (मार्क. १२७.१०)। ___इसके बाद इंद्र ने धृतराष्ट्र नामक गंधर्व से मरुत्त को ऐतरेय बाह्मण में इसे कामप्र का वंशज, एवं बृहस्पति | संदेश मेजा, 'यदि तुम यज्ञ करोंगे, तो मैं तुम्हे वज्र से आंगिरस का भाई बताया गया है। संवर्त के द्वारा इसके मार डालूँगा। किन्तु संवर्त के द्वारा आश्वासन दिलाये राज्याभिषेक किये जाने की कथा भी वहाँ दी गयी है जाने पर, मरुत्त अपने निश्चय पर कायम रहा । यज्ञ का प्रारंभ करते ही, इसे इन्द्र के वज्र का शब्द सुनायी पड़ा। ( ऐ. बा. ८.२१.१२; मार्क. १२६.११-१२)। शतपथ ब्राह्मण में इसे 'अयोगव' जाति में उत्पन्न कहा गया यह वज्रशब्द को सुन कर भयभीत हो उठा, परन्तु संवर्त ने इसे धैर्य बंधाया। है ( श. ब्रा. १३.५.४.६)। इंद्र-मरुत्त विरोध-बृहस्पति आंगिरस ऋषि इसका मरुत्त का यज्ञ-इस प्रकार संवर्त की सहायता से पुरोहित था, एवं संवर्त आंगिरस इसका ऋत्विज था।। मरुत्त ने अपना यज्ञ यमुना नदी के तट पर 'प्लक्षावरण बृहस्पति एवं संवर्त दोनों भाई तो अवश्य थे, किन्तु दोनों | तीर्थ' मैं प्रारंभ किया (म. व. १२९.१६ )। वाल्मीकि में बड़ा वैमनस्य था। रामायण के अनुसार, यह यज्ञ' उशीरबीज' नामक देश सम्राट मरुत्त एवं इन्द्र में सदैव युद्ध चलता ही रहता में हुआ था (वा. रा. उ. १८)। था, किन्तु इन्द्र इसे कभी भी पराजित न कर पाया। मरुत्त की इच्छा थी कि, इन्द्र, बृहस्पति एवं समस्त देवता अन्त में इन्द्र को एक तरकीब सूझी, जिसके द्वारा इस यज्ञ में भाग ले कर हवन किये गये सोम को स्वीकार मरुत्त को तंग करके उसे नीचा दिखाया जा सके। इन्द्र करें एवं उसे सफल बनायें। अतएव अपने मंत्रप्रभाव से बृहस्पति के यहाँ गया, एवं बातों ही बातों में उसे राजी संवर्त इन सभी देवताओं को बाँध कर यज्ञस्थान पर ले कर लिया कि, वह भविष्य में मरुत्त के यज्ञकार्य में | आया । मरुत्त ने सभी देवताओं का सन्मान किया, एवं पुरोहित का कार्य न करेगा। उनकी विधिवत् पूजा की। प्रा. च. ७९] ६२५ Page #648 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरुत्त प्राचीन चरित्रकोश मलदा उस यज्ञ में भगवान शंकर ने प्रचुर धनराशि के सिंधुवीर्य की कन्या केकयी; ५. केकयनरेश की कन्या रूप में इसे हिमालय का एक स्वर्णमय शिखर प्रदान | सैरंध्री; ६. सिन्धुराज की कन्या वपुष्मती; ७. चेदिराज किया था । प्रतिदिन यज्ञकार्य के अन्त में, इसकी | की कन्या सुशोभना । यज्ञसभा में इन्द्र आदि देवता, तथा बृहस्पति आदि | मरुत्त को इन पत्नीयों से कुल अठारह पुत्र हुए, जिनमें प्रजापतिगण सभासद के रुप में बैठा करते थे। से नरिष्यंत ज्येष्ठ था (मार्क. १२८.४५-४८)। महाभारत इसके यज्ञमण्डप की सारी सामग्रियाँ सोने की बनी हुयी | के अनुसार, इसे दम नामक एकलौता पुत्र, एवं एक कन्या थी। इसके घर में मरुद्गण रसोई परोसने का कार्य किया थी। इसकी मृत्यु के उपरांत दम इसके राज्य का अधिकारी करते थे। विश्वेदेव इसकी यज्ञसभा के सभासद थे। हुआ। इसकी कन्या का विवाह अंगिरस् ऋषि से हुआ इसने यज्ञवेदी पर बैठ कर, मंत्रपुरस्सर हविर्द्रव्य का हवन | था (म. शां. २२६.२८, अनु. १३७.१६)। कर, देवताओं, ऋषियों, तथा पितरों को संतुष्ट किया था। मरुत्वत्-प्राचेतस दक्ष की कन्या मरुत्वती का ज्येष्ठ ब्राह्मणों को शय्या, आसन, सवारी, तथा स्वर्णराशि | पुत्र । प्रदान की थी। इस प्रकार इसके व्यवहार से इन्द्र बड़ा | मरुत्वती-प्राचेतस दक्ष की एक कन्या, जो धर्मऋषि प्रसन्न हुआ, एवं दोनों में मित्रता स्थापित हो गयी। बाद | की पत्नी थी। इसे मरुत्वत् एवं जयन्त नामक दो पुत्र थे को मरुत्गणो द्वारा यथेष्ट सोमपान कर के सभी लोग यज्ञ | (भा. ६.६.४-८; पद्म. सु. ४०)। से संतुष्ट होकर वापस लौटे। मरुदेव-(सू. इ. भविष्य.) एक इक्ष्वाकुवंशीय रावण से विरोध- बाद में मरुत्त के इस यज्ञ में विघ्न राजा, जो भविष्य के अनुसार सुप्रतीक राजा का, एवं डालने के हेतु से रावण आया । रावण को देख कर यह मस्त्य के अनुसार सुप्रतीप का पुत्र था। इसके पुत्र का उससे युद्ध करने के लिए तत्पर हुआ। किन्तु इसने यज्ञ- | नाम सुनक्षत्र था। दीक्षा ली थी, अतएव यज्ञ से उठना इसके लिए असम्भव मरुद्गण-देवताओं का एक गण (म..श. ४४.६ )। था। गवण ने इसके यज्ञ के वैभव को देखा, तथा बिना। २. एक दैत्य, जो कश्यप एवं दिति का पुत्र था। भवि. किसी प्रकार की हानि पहुँचाये वापस लौट गया (वा. रा. प्रति. ४.१७) उ.८)। | मर्क-असुरों के सुविख्यात पुरोहितद्वय शंडामर्क राज्यवैभव-यज्ञ के उपरांत यह अपनी राजधानी (शंड एवं मर्क) में से एकं (शंडामर्क देखिये)। कई वापस आया, एवं समुद्र से घिरी हुयी पृथ्वी पर राज्य ग्रंथों में मर्क का स्वतंत्र निर्देश भी प्राप्त है (वा. सं. करना प्रारम्भ किया। इस प्रकार प्रजा, मन्त्री, धर्मपत्नी, ७.१३,१७)। हिलेब्रान्ट के अनुसार, शंड एवं मर्क दोनों पुत्र तथा भाइयों के साथ, इसने एक हजार वर्षों तक ही ईरानी नाम हैं, एवं ऋग्वेद में अन्यत्र निर्दिष्ट गृध्र' राज्य किया था। नाम मर्क का ही प्रतिरूप है (वेदिशे माइथोलोजी. मार्कंडेय के अनुसार, एक बार यह पृथ्वी के समस्त सो ३.४४२)। , का विनाश करने को उद्यत हुआ था, किन्तु अपनी माता मर्कटय--अंगिराकुलोत्पन्न एक गोत्रकार। इसके भामिनी के द्वारा अनुरोध करने पर, इसने सों के मारने | नाम के लिए 'कटक' पाठभेद प्राप्त है। का इरादा छोड़ दिया (मार्क. १२६.३-१५, १२७.१०)। मर्यादा--एक विदर्भराजकुमारी, 'जो पुरुवंशीय महाभारत में-महाभारत के अनुसार, यह पराक्रमी राजा अपराचिन की पत्नी थी । इसके पुत्र का नाम अरिह एवं धर्मनिष्ठ राजा था, जिसने सौ यज्ञ किये थे ( म. द्रो. | था (म. आ. ९०.१८)। . परि. १. क्र. ८ पंक्ति ३३६-३५०, शां. २९.१६-२१, २. विदेहराज की कन्या, जो पूरुवंशीय राजा देवातिथि आश्व. ४. १०; भा. ९.२)। महाराज मुचुकन्द से इसे | की पत्नी थी। इसके पुत्र का नाम ऋच था। एक खग प्राप्त हुआ था, जिसे इसने रैवत राजा को मलद-- पूर्व भारत में रहनेवाला एक लोकसमूह, प्रदान किया था (म. शां. १६०.७६)। | जिसे भीमसेन में जीता था (म. स. २७.८)। भारतीय परिवार-मरुत्त की निम्नलिखित कुल सात पत्नियाँ युद्ध में ये लोग कौरवपक्ष में शामिल थे (म.द्रो.६.६)। थीः-१. विदर्भकन्या प्रभावती; २. सुवीरकन्या सौवीरी; मलदा-अत्रि ऋषि की पत्नी (ब्रह्मांड. ३.८.७४३. मगधनरेश केतुवीर्य की कन्या सुकेशी; ४. मद्रराज | ८७)। ६२६ Page #649 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मलय प्राचीन चरित्रकोश महाकाल मलयं--एक राजा, जो प्रियव्रतवंशीय ऋषभदेव राजा महत्--कश्यपकुलोत्पन्न एक गोत्रकार। का पुत्र था। वृषभदेव ने अपने अजनाभवर्ष के राज्य २. (स्वा. नाभि.) एक राजा, जो विष्णु के अनुसार के नौ विभाग कर, उनमें से एक भाग इसे प्रदान किया | विराट राजा का पुत्र था। था (भा. ५.४.१०; ऋषभदेव १०. देखिये)। ३. अमिताभ देवों में से एक । ...२. गरुड का एक पुत्र (म. स. ९९.१४)। इसके | ४. पितरों में से एक। नाम के लिए 'मालय' पाठभेद प्राप्त है। ५. (सो. पूरु.) एक पूरुवंशीय राजा, जो अन्तिनार मलयध्वज-मणलूर नगरी के चित्रवाहन नामक | राजा का पुत्र था (म. आ. ८९.११)। पाण्ड्य राजा का नामान्तर (चित्रवाहन देखिये)। ६. एक अमि, जो प्रजापति भरत नामक अग्नि का पुत्र २. एक पाण्ड्य राजा, जिसे वैदर्भी नामक पत्नी से था (म. व. २०९.८)। कृष्णेक्षणा (लोपामुद्रा) नामक कन्या उत्पन्न हुयी थी महत्तर--एक अग्नि, जो 'पांचजन्य' नामक अग्नि (मा. ४.२८.३० लोपामुद्रा देखिये)। ! के पाँच पुत्रों में से एक था (म. व. २१०.९)। मलिन--एक पुरुवंशीय राजा, जो वायु के अनुसार महत्पौरव--(सो. द्विमीढ.) एक राजा, जो वायु के वसु राजा का पुत्र था। इसे 'इलिल' नामान्तर भी प्राप्त | अनुसार सार्वभौम राजा का पुत्र था। मत्स्य में इसके था (इलिल देखिये)। नाम के लिए 'महापौरव' पाठभेद प्राप्त है। मल्ल-राम दाशरथि राजा के सूज्ञ नामक मंत्रि का पुत्र। महस्वत्--(सू. इ.) एक इक्ष्वाकुवंशीय राजा, जो २. धर्म के सात पुत्रों में से एक । 'मल्लारि माहात्म्य' भागवत के अनुसार अमर्षण राजा का, एवं विष्णु के के अनुसार, मार्तड नामक भैरव ने इसका वध किया। अनुसार अमर्ष राजा का पुत्र था। वायु में इसके नाम ३. मल्ल देश में रहनेवाले लोगों के लिए प्रयुक्त के लिए 'सहस्वत् ' पाठभेद प्राप्त है। सामूहिक नाम। महाभारतकाल में, इन लोगों के राजा महाकपाल--दूषण राक्षस का अमात्य (वा. रा. .का नाम पार्थिव था, जिसे भीमसेन ने परास्त किया अर. २३.३३)। था (म. स. २७.३)। इन लोगों में गणतंत्रपद्धति का महाकपि--अंगिराकुलोत्पन्न एक गोत्रकार । राज्य थी, एवं इनकी राजधानी कुशीनगर (कुशीनारा) महाकर्ण--एक नाग, जो कश्यप एवं कद्रू के पुत्रों में • नगर में थी। | से एक था । मल्लिकार्जुन (ज्योतिर्लिंग)-एक शिवावतार, जो २. वसिष्ठकुलोत्पन्न एक गोत्रकार। श्रीशैल पर निघास करता था। इसके एक भक्त ने अपने महाकाग--मगधराज अंबुवीच का दुष्ट मंत्री (म. पुत्र के दर्शन के लिए इसकी प्रार्थना की थी, जिसकी आ. १९६.१९)। ' पूर्तता करने के लिए यह स्वर्गिरि पर निवास करने के | महाकर्णी--स्कंद की अनुचरी एक मातृका (म. लिए गया (शिव. शत. ४२)। इसके उपलिंग का नाम श. ४५.२५)। 'रुद्रेश्वर' था (शिव. कोटि. १)। महाकाय--एकादश रुद्रों में से एक। मशक गार्ग्य-एक आचार्य, जो स्थिरक गार्ग्य नामक | २. रावण के पक्ष का एक राक्षस । ऋषि का पुत्र एवं शिष्य था। सामवेदान्तर्गत 'मशक महाकाया-कंद की अनुचरी एक मातृका (म.श. कल्पसूत्र' अथवा 'आर्षेय कल्पसूत्र' नामक ग्रंथ का यह | ४५.२३)। रचयिता था (ला. श्री. ७.९.१४; अनुपदसूत्र. ९९)। महाकाल (ज्योतिर्लिंग)-एक शिवावतार, जो इसके शिष्य का नाम अतिधन्वन् था (वं. बा. २)। उज्ययिनी में क्षिप्रा नदी के तट पर स्थित महाकाल नामक मशार-ऋग्वेद में निर्दिष्ट नहुष लोगों का एक तीर्थस्थान में निवास करता है। यह द्वादश ज्योतिर्लिंगों राजा (ऋ. २.१२२.१५)। इसे कुल चार पुत्र थे, 4 में से एक माना जाता है ( ज्योतिर्लिंग देखिये)। इसके ..जिन्होने दीर्घतमस् पुत्र पक्षीवत् को काफी त्रस्त किया था। उपलिंग का नाम 'दुग्धेश' था (शिव. कोटि. १)। मषपाल--एक राजा, जो भविष्य के अनुसार सुनीथ इसने केवळ अपनी हुंकार से ही दूषण नामक असुर राजा का पुत्र था। को भस्मसात् किया था (शिव. शत. ४२)। इसने मसृण--कश्यपकुलोत्पन्न एक गोत्रकार । | ब्रह्माजी का पाँचवाँ सिर नष्ट किया था (स्कंद. ५.१.३)। ६२७ Page #650 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकाल प्राचीन चरित्रकोश महानंदिन २. बाणासुर का नामान्तर । महानंद--मद्रदेश का एक राजा, जिसका नरिप्यन्त महाकाली-एक देवी, जो महादेव की आदिशक्ति पुत्र दम ने सुमना के स्वयंवर के समय वध किया था मानी जाती है (दे. भा. ६.६)। (मार्क. १३०.५२)। इसके नाम के लिए 'महानाद' सहागिरि-एक दानव, जो कश्यप एवं दनु का पुत्र | पाठभेद भी प्राप्त है। था। महानंदा--एक वेश्या, जो परम शिवभक्त थी। महाचकि-कश्यपकुलोत्पन्न एक गोत्रकार । इसके पास एक बन्दर तथा एक मुर्गा था, जिन्हें यह महाचूडा-स्कंद की अनुचरी एक मातृका (म. श. | रुद्राक्षों से सजाये रहती थी। जब यह शिव की भक्ति भावना में भजन करती हुयी उसीमें तल्लीन रहती, तब महाजय--नागराज वासुकि के द्वारा स्कंद को दिये बंदर तथा मुर्गा इसके साथ नृत्य किया करते थे। . गये दो पार्षदों में से एक । दूसरे पार्षद का नाम जय था शिव से भेंट--एक बार भगवान् शंकर एक वैश्य का (म. श. ४४.४८)। रूप धारण कर, इसकी परीक्षा लेने के लिए स्वयं आये। महाजवा--स्कंद की अनुचरी एक मातृका (म. श. वैश्यरूपधारी शंकर के पास एक रत्नकंकण था, जिसे देख ४५.२१)। कर महानंदा की इच्छा उसे प्राप्त करने की हुयी । वैश्य ने महाजानु--कश्यपकुलोत्पन्न एक गोत्रकार। इससे कहा कि, वह रलकंकण तो दे सकता है, पर २. एक श्रेष्ठ द्विज, जो प्रमद्वरा के सर्पदंशन के समय | उसकी मूल्य यह क्या देगी ? तब महानंदा ने कहा, 'इस उसे देखने के लिए आया था (म. आ. ८.२०)। । कंकण को प्राप्त करने के लिए, मैं आपके पास तीन महाजिह्वा-ब्रह्मधना नामक राक्षसी की कन्या। दिन पत्नीरूप में रह सकती हूँ। २. एक राक्षसी, जिसका बर्बरिक ने वध किया था (बबंरिक देखिये)। - वैश्यने कंकण और रत्नमय लिंग इसको रखने को दिया, महातपस-एक ऋषि, जिसने सुप्रभ राजा को विष्णु और उसके बदले इसे तीन दिन तक पत्नीरूप में स्वीकार की उपासना करने का उपदेश दिया था (वराह. किया। एक रात को आग लगने के कारण, वह रत्नमय १७)। लिंग जल गया, जिससे दुखित होकर वैश्य प्राण देने को. महातेजस्--एकादश रुद्रों में से एक। उद्यत हुआ। महानंदा ने जब देखा कि, वह देहत्यागं २. अंगिराकुलोत्पन्न एक गोत्रकार ऋषिगण । के लिए उद्यत है, तो यह भी उसके साथ सती होने को ३. एक राजा, जो जनमेजय पारिक्षित (प्रथम) का पुत्र तैयार हुई । क्योंकि, इन तीन दिनों में, शर्त के अनुसार था (म. आ.८९.५०)। यह उसकी पत्नी थी, तथा पत्नी होने के कारण इसे ४. स्कंद का एक सैनिक (म. श. ४४.२०)। पत्नीधर्म निबाहना जरुरी था। महात्मन्--(सो. अनु.) एक राजा, जो मस्य के | महानंदा की कर्तव्यभावना देखकर शंकर प्रसन्न हुए, अनुसार महद्भानु का पुत्र था। एवं दर्शन देकर इसके समस्त पापों का हरण किया (शिव. महादंष्ट-रावण के पक्ष का एक राक्षस । शत. २६)। महानंदा के सम्मुख प्रगट हुए शिव के इस महादेव-भविष्यपुराण नामक ग्रंथ का कर्ता । अवतार को 'वैश्येश्वर' कहते हैं। महादेवा-यादव राजा देवक की कन्या । ___ महानंदिन-(शिशु. भविष्य.) एक राजा, जो महाद्यति--एक प्राचीन नरेश (म. आ. १.१७२ | भागवत, विष्णु एवं वायु के अनुसार नंदिवर्धन का पुत्र पाठ.)। था। शिशुनाग वंश का यह अंतीम राजा था, जिसके २. ग्यारह रुद्रों में से एक। पश्चात् शूद्र वंश में उत्पन्न महापद्म नंद राजा मगध देश ३. एक यक्ष, जो मणिभद्र एवं पुण्यजनी के पुत्रों में | का राजा बन गया । यह नंद राजा इसीका ही एक शूद्रा से एक था। से उत्पन्न पुत्र था ( महापद्म देखिये)। मत्स्य, वायु एवं महाधृति--(स. निमि.) एक निमिवंशीय राजा, जो ब्रह्मांड के अनुसार इसने ४३ वर्षों तक राज्य किया। भागवत के अनुसार विसृत का, एवं विष्णु तथा वायु के २. एक धर्मनिष्ठ राजा, जो पूर्व जन्म में भीमवर्मन् अनुसार विबुध का पुत्र था। | नामक दुराचारी क्षत्रिय था । ६२८ Page #651 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महानाद प्राचीन चरित्रकोश महाभिष महानाद-रावण के मामा प्रहस्त नामक राक्षस का ४. शिव का एक पार्षद। अमात्य (वा.रा. यु.५८.१९)। ५. स्कंद का एक सैनिक (म. श. ४४.१०६)। २. शिशुनागवंशीय महानं दिन् राजा का नामांतर। ६. वैवस्वत मन्वन्तर का इंद्र । महानाभ-एक दानव, जो कश्यप एवं दनु के पुत्रों ७. गुहावासिन् नामक शिवावतार का शिष्य । में से एक था। ८. पितरों में से एक। २. एक राक्षस, जो हिरण्याक्ष एवं रुषाभानु के पुत्रों में । महाबला-- स्कंद की अनुचरी मातृकाद्वय (म. श. से एक था। ४४.१०६)। - महानील-एक नाग, जो कश्यप एवं कद्र के पुत्रों में | महाबाहु-एक दानव, जो कश्यप एवं दनु के पुत्रों में से एक था। से एक था। पाठभेद (भांडारकर संहिता)-'वीरबाहु' महानुभाव--चाक्षुष मन्वन्तर के देवों में से एक। २. (सो. कुरु.) धृतराष्ट्र के शतपुत्रों में से एक । महापा--(नंद, भविष्य.) नंदवंश का प्रथम राजा, भीम ने इसका वध किया (म. द्रो. १३२.११३५७. जो वायु, एवं मत्स्य के अनुसार शिशुनाग वंश के अंतिम पंक्ति. १)। राजा महानं दिन का पुत्र था। यह उसे एक शूद्र स्त्री से ३. (सो. मगध. भविष्य.) मगध देश का एक राजा, उत्पन्न हुआ था। इसने अपने पिता का वध कर, अपने | जो वायु के अनुसार श्रुतंजय राजा का पुत्र था। भागवत स्वतंत्र नंदवंश की स्थापना की । इसे नंद नामांतर भी | एवं विष्णु के अनुसार इसे : विप्र', मत्स्य के अनुसार पास था। इसे · विम', एवं ब्रह्मांड के अनुसार 'रिपुञ्जय' नामांतर मत्स्य एवं ब्रह्मांड के अनुसार इसने ८८ वर्षों तक. प्राप्त थे ।इसने पैतीस वर्षों तक राज्य किया। गवं वायु के अनुसार २८ वर्षों तक राज्य किया था। महाभय--एक राक्षस, जो अधर्म एवं निऋति का २. एक दिग्गज, जो भारतीययुद्ध में घटोत्कच के पुत्र था। निति का पुत्र होने से, इसे एवं इसके भय गजसेना में शामिल था (म. भी. ६०.५१)। एवं मृत्यु नामक दो भाईयों को 'नैऋत' राक्षस कहते थे । महापप्र-एक नाग, जो कश्यप एवं कद के पुत्रों में महाभाग-भृगुकुलोत्पन्न गोत्रकार 'वाह्ययन' के से एक था। नाम के लिए उपलब्ध पाठभेद । महापरिषदेश्वर-स्कंद का एक सैनिक (म. श. महाभागा-एक अप्सरा, जो कश्यप एवं खषा की ४४.६१)। कन्याओं में से एक थी। महापाच---एक राक्षस, जो रावण का अमात्य था। महाभिष-(सू. इ.) इक्ष्वाकुवंश में उत्पन्न एक इसे 'मत्त' नामांतर भी प्राप्त था। विश्रवस् ऋषि को प्राचीन राजा, जो सत्यवादी तथा पराक्रमी था। कुंभ. पुष्पोत्कटा नामक पत्नी से उत्पन्न पुत्रों में से यह एक था । | कोणम् प्रति में 'महाभिष' के स्थान पर 'महाभिषज' राम-रावण युद्ध में यह अंगद के हाथों इसका वध हुआ नाम प्राप्त है। (वा. रा. यु. ९८.२२)। । पूर्वजन्म में इसने एक सहस्र अश्वमेध, एवं सौ राजसूय महापुरुवश-(सो. क्रोष्टु.) एक यादव राजा, जो वायु के अनुसार नंदन राजा का पुत्र था। | यज्ञों के द्वारा इन्द्र को संतुष्ट कर के स्वर्गलोक प्राप्त किया महापौरव--(सो. द्विमीढ.) एक राजा, जो मत्स्य था (म. आ. ९१.१-२)। के अनुसार सार्वभौम राजा का पुत्र था । वायु एवं हरिवंश | ब्रह्मा से शाप--एक बार जब यह ब्रह्मलोग गया, तब में इसे क्रमशः 'महत्पौरव' एवं 'महत् ' कहा गया वहाँ इसने अन्य देवताओं ऋषियों तथा समस्त नदियों के साथ महानदी गंगा को भी देखा । जब इसने उसे देखा, महाबल--एक दानव, जो कश्यप एवं दनु के पुत्रों में तब गंगा के शरीर का वस्त्र हवा में उड़ रहा था, जिसे से एक था। देख कर सब ने अपनी नज़रें शीघ्र झुका ली। किन्तु २. (सो. पूरु.) एक पूरुवंशीय राजा, जो वायु के महाभिष एकटक उसे देखता ही रहा। गंगा ने भी इसे अनुसार बृहदिष्णु राजा का पुत्र था। प्रेमभरी दृष्टि से देखा, तथा दोनों एक दूसरे से स्नेह३. विष्णु का एक पार्षद। बन्धन में एकाएक बँध गये। दोनों के इस प्रेमभरे खिंचाव ६२९ Page #652 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाभिष प्राचीन चरित्रकोश महालक्ष्मी को देख कर, ब्रह्मा ने दोनों को मृत्युलोक में जन्म लेने के | महामुख--जयद्रथ की सेना का एक योद्धा, जो लिए शाप दिया। द्रौपदीहरण के समय हुए युद्ध में, नकुल के द्वारा मारा यह सुन कर दोनों ने ब्रह्मदेव की क्षमा माँगते हुए अत्य- | गया (म..व. २५५.१६-१७)।। धिक अनुनय विनय किया । तब ब्रह्मा ने कहा, 'तुम लोग महामुद--एक यक्ष, जो मणिवर एवं देवजनी के स्वर्गलोक वापस आओगे, किन्तु इसके लिए तुम दोनो को पुत्रों में से एक था। न जाने कितना पुण्य करना पड़ेगा। महामुनि-रैवत मन्वन्तर के सप्तर्षियों में से एक । इस शाप के अनुसार, महाभिष सोमवंश में उत्पन्न | महामूर्ति--विभीषण की पत्नी। राम दाशरथि के होकर शंतनु नाम से प्रसिद्ध हुआ, तथा गंगा इसकी पत्नी अश्वमेध यज्ञ के समय, इसने अपने पति विभीषण के बनी (म. आ. ९१.१; दे. भा. २.३; भा. ९.२२;शंतनु साथ सरयु नदी के तट पर जा कर, उस नदी का पवित्र देखिये)। जल अश्वमेधीय अश्व के स्नान के लिये लाया। आगे चल महाभोज-(सो. क्रोष्टु.) एक यादव राजा, जो | कर, उसी जल से राम ने अपने अश्वमेधीय अश्व को सात्वत राजा का पुत्र था। आगे चल कर, इसके नाम से स्नान कराया (पन्न. पा. ६७)। इसके वंशज 'भोजवंशीय' कहलाने लगे (भा. ९.२४. महायशस्--(सो. पूरु.) एक पूरुवंशीय राजा, जो ७-११)। मत्स्य के अनुसार संकृति राजा का पुत्र था। महाभौम-(सो. पूरु.) एक पूरुवंशीय राजा, जो २. प्रसूतदेवों में से एक। अरिह राजा का पुत्र था। इसकी माता का नाम आंगी ३. लेखदेवों में से एक। था। इसकी पत्नी का नाम सुयज्ञा था, जिससे इसे महायशा--स्कंद की अनुचरी एक मातृका (म. श. अयुतानायिन् नामक पुत्र उत्पन्न हुआ (म. आ. ९०.४५.२७)। ८९९% ९०.१९)। महायोग--गुहवा सिन् नामक शिवावतार का एक महामख---एक आदित्य, जो सवितृ नामक आदित्य | शिष्य । का पुत्र था । इसकी माता का नाम पृष्णि था (भा. ६. महारथ--विश्वामित्र के पुत्रों में से एक। १८.१)। २. (सो. ऋक्षः) उपरिचर वसु राजा के बृहद्रथ महामणि--(सो. अनु.) एक अनुवंशीय राजा, जो नामक पुत्र का नामान्तर। , विष्णु के अनुसार जनमेजय राजा का पुत्र था। इसके पुत्र महारव-एक यादव राजा, जो रैवतक पर्वत पर हुए का नाम महामनस् था। | उत्सव में शामिल था (म. आ. २११.११)। इसके नाम महामती-अंगिरस् ऋषि की सात कन्याओं में से | के लिए सदाचा एक (म. व.२०८.७)। महाराज--एक इक्ष्वाकुवशीय राजा, जो भागवत के महामनस्-(सो. अनु.) एक चक्रवर्ती राजा, जो मत्स्य | अनुसार अज राजा का पुत्र था। एवं वायु के अनुसार महाशाल नामक राजा का पुत्र २. ब्रह्म में निर्दिष्ट एक राजा, जिसकी कन्या का विवाह था (वायु. ९९.१७)। विष्णु में इसे महामणि राजा का मणिकुण्डल नामक राजा से हुआ था (मणिकुण्डल पुत्र कहा गया है । इसे उशीनर एवं तितिक्षु नामक दो | देखिये)। पुत्र उत्पन्न हुए थे। महारोमन्-(सू. निमि.) विदेह देश का राजा, जो महामर-एक राजा, जो प्रमर नामक राजा का पुत्र कृतिरात जनक का पुत्र था । इसके पुत्र का नाम स्वर्णरोमन् था। इसने तीन वर्षों तक राज्य किया था (भवि. प्रति. | था। ४.१)। महारौद्र--एक राक्षस, जो घटो कच का साथी था। महामान--पारावत देवों में से एक । भारतीययुद्ध में यह दुर्योधन के द्वारा मारा गया (म. महामालिन्-एक राक्षस, जो खर राक्षस का अमात्य | भी. ९१.२०-२१)। था (वा. रा. अर. २३.३२)। महालक्ष्मी--देवी लक्ष्मी का एक नामान्तर (देवी २. रावण के पक्ष का एक असुर । एवं लक्ष्मी देखिये)। ६३० Page #653 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावाशिन् प्राचीन चरित्रकोश महिदास महावशिन--(सू. निमि.) विदेह देश का राजा, जो | महाशाल जाबाल--शतपथ ब्राह्मण में निर्दिष्ट एक भागवत के अनुसार कृति राजा का पुत्र था। आचार्य । इसने धीर शातपर्णेय को शिक्षा प्रदान की थी महावीर--एक राजा, जो क्रोधवशसंज्ञक दैत्य के अंश (श. ब्रा. १०.३.१.१)। शतपथ ब्राह्मण में अन्यत्र इसे से उत्पन्न हुआ था (म. आ. ६१.५५)। अश्वपति राजा से शिक्षा प्राप्त करनेवाले ब्राहाणों में से २. एक आचार्य, जो स्वायंभुव मनु के सुविख्यात पुत्र | एक कहा गया है (श. ब्रा. १०.६.१.१)। छांदोग्य प्रियव्रत राजा के तीन विरक्त पुत्रों में से एक था। इसकी | उपनिषद में इसके नाम का निर्देश 'प्राचीलशाल औपममाता का नाम बाहिष्मती था। इसे 'घृतोद' नामान्तर | न्यव' नाम से किया गया है, एवं 'महाशाल' शब्द भी प्राप्त था । अपने बाल्यकाल में ही तपस्या के लिए एक महान् गृहवाला' इस अर्थ से एक विशेषण के रूप में यह वन में चला गया, एवं पश्चात् इसने संन्यासआश्रम प्रयुक्त किया गया है (छां. उ. ५.११.१, ३, ६.४.५)। का खीकार किया । यह श्रीकृष्ण का परमभक्त था, | मुण्डक उपनिषद में भी 'महाशाल' शब्द एक उपाधि के जिस कारण ज्ञानसंपन्न हो कर, इसने ब्रहात्व प्राप्त किया। रूप में शौनक के लिए प्रयुक्त किया गया है (मुं. उ. १. (भा. ५.१)। १.३; ब्रह्म. उ. १)। ३. एक पराक्रमी राजा,जो राम के अश्वमेधीय अश्व की | महाशिरस--युधिष्ठिर के सभा का एक ब्रह्मर्षि (म. रक्षा करने के लिए शत्रुघ्न के साथ उपस्थित था ( पद्म पा. | स. ४.८)। । २. एक नाग, जो वरुण की सभा में उपस्थित था (म. ___ महावीर्य--(स. निमि.) विदेह देश का राजा, जो स. ९.१४)। दवराति बृहद्रथ राजा का पुत्र था। इसके पुत्र का नाम । ३. एक दानव, जो कश्यप एवं दन के पत्रों में से एक सुधृति था। था। २. (सो. पूरु.) एक पूरुवंशीय राजा, जो भागवत के | महाश्व--एक राजा, जो यमसभा में उपस्थित था अनुसार मन्यु राजा का पुत्र था । मत्य में इसे कृमि राजा (म. स. ८.१८)। का पुत्र कहा गया है । इसके पुत्र का नाम दुरितक्षय था। महासत्त्व-(सो. कुरु.) एक कुरुवंशीय राजा, जो ३. वसिष्ठकुलोत्पन्न एक गोत्रकार ऋषिगण । | वायु के अनुसार आराधिन् राजा का पुत्र था। महावेगा--स्कंद की अनुचरी एक मातृका (म. श. | महासुर--एक दानव, जो कश्यप एवं दनु के पुत्रों में ४५.१५)। से एक था। महावत-विश्वामित्र के ब्रह्मवादी पत्रों में से एक। महासेन--स्कंद का नामान्तर (म.व. २१४.२६ महाश--श्रीकृष्ण एवं मित्रविंदा के दस पुत्रों में से | स्कद दाखय)। महास्वना--स्कंद की अनुचरी एक मातृका (म. श. महाशाक्ति--श्रीकृष्ण एवं लक्ष्मणा के दस पुत्रों में | ४५.२५)। से एक। महाहनु--(सो. वसु.) एक राजा, जो मत्स्य के महाशंख-एक नाग, जो कश्यप एवं कद्र के पत्रों में | अनुसार वसुदेव एवं रोहिणी के पुत्रों में से एक था। से एक था (मत्स्य.६)। भागवत के अनुसार, यह २. तक्षक कुलोत्पन्न एक नाग, जो जनमेजय के सर्पसत्र पाताल में रहता था (भा. ५.२४.३१)। यह मार्गशीर्ष | में दग्ध हुआ था (म. आ. ५२.१६ )। माह के सूर्य के साथ भ्रमण करनेवाले प्राणियों में से एक महाहय--(सो. क्रोष्टु.) एक यादव राजा, जो शतजित् था (भा. १२.११.४१)। राजा का पुत्र था। महाशाल-(सो. अनु.) एक अनुवंशीय राजा, जो महित--पितरां में से एक। मत्स्य एवं वायु के अनुसार जनमेजय राजा का पुत्र था। महिदास ऐतरेय-एक आचार्य, जो 'ऐतरेय २. एक ब्राह्मणसमूह, जिसने अश्वपति कैकेय राजा से ब्राह्मण' एवं 'ऐतरेय आरण्यक' नामक ग्रंथों का रचियता शिक्षा प्राप्त की थी (श. बा. १०.६.१.१)। संभव है, | माना जाता है । इसीके ही नाम से उन ग्रंथों को 'ऐतरेय' इन ब्राह्मणों का महत्व बढ़ाने के लिए इनका इस प्रकार | उपाधि प्रदान की गयी होगी। संभव है, यह स्वयं 'इतर' वर्णन किया गया है। | अथवा 'इतरा' नामक किसी स्त्री का वंशज होगा, ६३१ Page #654 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महिदास प्राचीन चरित्रकोश मही जिस कारण इसे 'ऐतरेय' मातृक नाम प्राप्त हुआ एक बार शिकार करते-करते यह अरुणाचल पर्वत पर होगा। गया, जहाँ पार्वती तपस्या कर रही थी। वहाँ उसकी ऐतरेय भारण्यक में इसका अनेक बार निर्देश प्राप्त | सौन्दर्यसुषमा को देखकर यह उस पर मोहित हो गया, है । किंतु वहाँ कहीं भी इसे उस ग्रंथ का रचयिता नही तथा एक वृद्ध अतिथि का रूप धारण कर, उससे तपस्या कहा गया है (ऐ. आ. २.१.८, ३.७)। करने का कारण पूछाँ। तब पार्वती ने कहा, 'मै परम छंदोग्य उपनिषद एवं जैमिनीय उपनिषद ब्राह्मण में | बलवान् भगवान् शंकर का वरण करना चाहती हूँ, इसीसे के अनुसार, यह एक सौ सोलह वर्षों तक जीवित रहा।। तपस्या कर रही हूँ'। तब इसने कहा, 'मैं भी बलवान् हूँ ,एवं इसे रोग ने अनेक तरह के कष्ट दिये। किंतु इसने रोग चाहता हूँ कि तुम मेरा वरण करो। तब पार्वती ने को चुनौति दी, 'तुम मुझे चाहे कितने भी सताओं, मैं इसे युद्ध के लिए ललकारते हुए अपना बल प्रदर्शन करने तुम्हारे कष्टों से नहीं मरूँगा' (छां. उ. ३.१६.७; जै. | के लिए कहा । महिषासुर ने पार्वती के साथ घोर युद्ध - उ. बा. ४.२.११)। किया, किन्तु अन्त में उसके द्वारा यह मारा गया (स्कन्द. महिनेत्र-(सो. मगध.) एक राजा, जो मत्स्य के १.३; १०. ११; शिव. उ. ४६)। अनुसार घुमत्सेन राजा का पुत्र था। जिस स्थान पर देवी ने इसका वध किया था, वही महिमत्--एक आदित्य, जो भग एवं सिद्धि का पुत्र स्थान सम्भवतः 'देवीपुर तीर्थ' है (स्कन्द. ३.१.६-७)। था (भा. ६.१८.२)। महाभारत में, इसे महेश्वर द्वारा वर प्राप्त होने की. महिमावत--पितरों में से एक । चर्चा है (म. अनु. १४.२१४)। एक बार इसने देवताओं महिष--ब्रह्मांड के अनुसार, महिषासुर का नामांतर | को परास्त कर के रुद्र के रथ पर भी आक्रमण किया था (ब्रह्मांड. ३.६.२८-३३)। (म. व. २२१.५७)। महाभारत के अनुसार, स्कन्द ने महिषदा-स्कंद की अनुचरी एक मातृका (म. श. | इसका वध किया था (म. व. २२१.६६)। ४५.२७) । इसके नाम के लिए 'गोमहिषदा' पाठभेद महिष्मत-(सो. सह.) एक राजा, जो भागवत के प्राप्त है। अनुसार सोहंजी राजा का, एवं विष्णु के अनुसार साहजि महिषानना--रकंद की अनुचरी एक मातृका (म. का पुत्र था । मत्स्य एवं वायु में इसके पिता का नाम: श. ४५.२५)। क्रमशः 'संहत' एवं 'संज्ञेय' दिया गया है। महिषासुर--एक असुर, जो मयासुर एवं रंभा का इसके पुत्र का नाम रुद्रश्रेण्य था। हरिवंश के अनुपुत्र था। सार, इसने माहिष्मती नगरी बसायी थी (ह. वं. १. जन्म-इसका पिता रंभासुर बड़ा शंकरभक्त था, जिसने अपनी तपस्या से उसे प्रसन्न कर वरदान माँगा, 'हे महिष्मती--महर्षि अंगिरस् की छठी कन्या । इसे प्रभो, मैं निःसंतान हूँ, मुझे एक भी पुत्र नहीं है । अतएव 'अनुमती' नामांतर भी प्राप्त था (म. व. २०८.६ )। मेरी इच्छा है कि, तुम मेरे पुत्र बनों' । शंकर ने 'तथास्तु' | भांडारकर संहिता में इसके नाम का 'हविष्मती' पाठ कहा। एक दिन मार्ग से जाते समय, रंभासुर को चित्रवर्ण स्वीकार लिया है। की एक सुन्दर महिषी दिखी। तब उसने उसमें अपना वीर्य स्थापित किया, जिससे कालांतर में शंकरांश का बल । । २. बृहस्पति की कन्याओं में से एक । इसकी माता लेकर महिषासुर उत्पन्न हुआ। महिषासुर ने देवी की | का नाम शुभा था। आराधना कर के उसके भक्तों में शाश्वत स्थान किया । प्राप्त मही--एक दुराचारी ब्राह्मण स्त्री, जो धृतवत नामक __ वध--इसने तप से बह्मदेव को प्रसन्न किया, तथा । ब्राह्मण की पत्नी थी। इसके पुत्र का नाम सनाजात वरदान प्राप्त किया कि, यह मनुष्य के हाथों से न मारा | था । जाये। बाद को ब्रह्मदेव के वरदान की प्राप्त कर इसने अपने पति के मृत्यु के पश्चात् यह निराधार हो गयी, तीने लोकों का कष्ट देना आरंभ किया । तब देवी ने अष्टादश- जिस कारण इसे वेश्यावृत्ति का स्वीकार करना पड़ा। भुज रूप धारण कर इसका वध किया (दे. भा. ५,१६; आगे चल कर, इसका इतना अधःपात हुआ कि, इसने मार्क ·८०%; पार्वती देखिये)। अपना पुत्र सनाजात से भी समागम किया। किंतु इतनी Page #655 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन चरित्रकोश महोदर दुराचारी होने पर भी, गंगा स्नान के कारण इसका महादर--एक नाग, जो कश्यप एवं कटू के पुत्रों में उद्धार हुआ (ब्रह्म. ९२)। से एक था। महाजित्--माहिष्मती नगरी का एक राजा, जो २. धृतराष्ट्र के शतपुत्रों में से एक । भीमसेन ने नाराच द्वापर युग में उत्पन्न हुआ था। इसने पुत्रप्राप्ति के लिए, नामक बाण इसकी छाती में मार कर इसका वध किया श्रावण शुक्ल एकादशी के दिन 'पुत्रदा एकादशी का व्रत किया, जिस कारण इसे एक सुपुत्र की प्राप्ति हुई (पद्म. ३. एक राक्षस, जो घटोत्कच का मित्र था। कामकटंकटा उ.५५)। को जीतने के लिए घटोत्कच जब प्राक्ज्योतिषपुर जाने महीरथ--एक राजा, जिसने वैशाख माह में लान निकला, उस समय यइ उसका एक अनुचर था (स्कंद. १. का वा कर, अपना एवं अपने परिवार के लोगों का २.५९-६०)। उद्धार किया (पन. पा. ९९-१०१; स्कंद. २.७.४)। ४. एक ऋषि । श्रीराम के द्वारा मारे गये एक राक्षस महीषक--एक जातिसमूह, जो पहले क्षत्रिय था, का मस्तक इसकी जाँच में आ कर चिपक गया था। किंतु आगे चल कर, अपने दुराचरण के कारण शूद्र बन पश्चात् सरस्वती नदी के तट पर स्थित 'औषनस' नामक गया (म. अनुः ३३.२२-२३)। इनके नाम के लिए तीर्थ में स्नान करने के कारण, वह चिपका हुआ सिर 'महिषक' एवं 'माहिषक' पाठभेद भी प्राप्त है। छूट गया। इसी कारण, औषनस तीर्थ को 'कपालमोचन' संभवतः आधुनिक मैसूर प्रदेश में ये लोग रहते होंगे। नाम प्राप्त हुआ (म. श. ३८.१०-२३)। अर्जुन ने अपने दक्षिण दिग्विजय के समय इन्हे जीता ५. रावण के पुत्रों में से एक । राम-रावण युद्ध में इसने था (म. आश्व. ८४.४१)। महाभारत के अनुसार, ये सर्व प्रथम अंगद से, एवं तत्पश्चात् नील नामक वानर से लोग आचार विचार से अधिक दूषित थे (म. क. ३७. युद्ध किया, जिसने इसका वध किया (वा. रा. यु. ७०. ३१)। . महेंद्र--अगस्त्यकुलोत्पन्न एक ऋषि । बाव वेताळ ६. रावण का एक दुष्टबुद्धि प्रधान (वा. रा. उ. नामक द्वारपाल ने पृथ्वी पर जन्म लिया जिस समय १४.१)। रावण सीता को वश में लाने के लिए चाहता . उसकी रक्षा के लिए शिव एवं पार्वती ने क्रमशः महेश था। उस समय इसने रावण को सलाह दी थी कि, रामएवं शारदा के नाम से पृथ्वी पर अवतार लिये थे (शिव. वध की झूटी वार्ता फैलाने से ही सीता वश में आ सकती शत. १४; वेताल देखिये)। है। इसने रावण से कहा, 'मैं स्वयं द्विजिह्व, कुंभकर्ण, महतरेय--एक आचार्य, जिसका ऋग्वेदी ब्रह्मयज्ञांग- | सहादिन् तथा वितदन नामक राक्षसा को साथ ले कर, तर्पण में निर्देश प्राप्त है। राम से युद्ध करने के लिए जाता हूँ। उस युद्ध से लौट महोदक-एक नाग, जो कश्यप एवं कद्र के पुत्रों में आते समय, हम 'राम मर गया' इस प्रकार चिल्लाते से एक था। हुए अशोकवन में प्रवेश करेंगे। इस वृत्त को सनते ही महोदय--वसिष्ठ ऋषि के पुत्रों में से एक । अयोध्या | भयभीत हो कर सीता तुम्हारे वंश में आयेगी' (वा. के राजा सत्यव्रत त्रिशंकु ने विश्वामित्र ऋषि को ऋत्विज रा. यु. ६४.२२-३३)। बना कर, एक यज्ञसमारोह का आयोजन किया । उस समय | महोदर प्रधान की यह सलाह रावण एवं कुंभकर्ण ने इसके पिता वसिष्ठ के साथ इसे भी त्रिशंकु राजा ने बड़े अस्वीकार कर दी, एवं रावण ने अकेले कुंभकर्ण को ही सम्मान के साथ निमंत्रित किया था। उस निमंत्रण को रणभूमि में भेज दिया । पश्चात् इसका सुग्रीव के साथ इसने अस्वीकार कर दिया, एवं संदेश भेजा, 'चाण्डाल युद्ध हो र, यह उसीके हाथों मारा गया (वा. रा. त्रिशंकु जहाँ यजमान है एवं चाण्डाल विश्वामित्र जहाँ | यु. ९७.३६)। ऋत्विंज है, ऐसे यज्ञ में मैं नहीं आ सकता'। इसका यह । ७. रावण के मातामह सुमालि नामक राक्षस का अपमानजनक संदेश सुन कर, विश्वामित्र अत्यधिक क्रुद्ध | सचिव । राम रावण युद्ध के समय, रावण की सहाय्यता हुआ, एवं उसने इसे निषाद बनने का शाप दिया | के लिए यह सुमालि राक्षस के साथ बाहर आया था (वा. (वा. रा. बा. ५९.२० -२१)। रा. उ. ११.२)। प्रा. च.८०] Page #656 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन चरित्रकोश महोदर ८. रावण का एक भाई, जो विश्रवस् एवं पुष्पोत्कटा के पुत्रों में से एक था ( वा. रा. यु. ७०.६६ ) । हनुमत् ने इसका वध किया था । ९. एक प्रातःस्मरणीय नृप ( म. अनु. १६५.५२ ) । महौजस् - एक राजा, जो कालेय ( पाँचवाँ ) के अंश से उत्पन्न हुआ था। भारतीय युद्ध में यह पाण्डवों के पक्ष में शामिल था (म. उ. ४.१९ ) । २. एक राजा, जो भारतीय युद्ध में कौरवों के पक्ष में शामिल था (म. आ. ६१.५० ) । ३. एक क्षत्रिय कुल, जिसमें 'वरयु' ( वरप्र ) नामक कुलांगार राजा उत्पन्न हुआ था ( म. उ. ७२.१५ ) । ४. वसुदेव एवं भद्रा के पुत्रों में से एक । ५. तुषित देवों में से एक । महौदवाहि-- एक आचार्य, जिसका ऋग्वेदी ब्रहा - यज्ञांग तर्पण में निर्देश प्राप्त है (आश्व. गृ. ३.४.४ ) । माणिचर ( म. स. ३१.१३ ) । इसके नाम के लिए 'मालक' पाठभेद भी प्राप्त है । माक्षति - वसिष्ठकुलोत्पन्न एक गोत्रकार ऋषिगण । माक्षन्य -- एक आचार्य, जो मक्षु नामक महर्षि का पुत्र था। इसने संहिता शब्द का तात्विक अर्थ लगाने का प्रयत्न किया है, जिसके अनुसार द्यौ एवं पृथ्वी स्वयं एक आचार्य है, जिन्होने आकाश नामक एक संहिता का निर्माण किया है ( ऐ. आ. ३.१.१ ) । मालक-मालक देश के रहिवासी लोगों के लिए प्रयुक्त सामुहिक नाम । भारतीय युद्ध में ये लोक कौरवों के पक्ष में शामिल थे । इनके नाम के लिए 'मावेल्लक ' पाठभेद भी प्राप्त है। इन्होंने एवं त्रिगर्तराज सुशर्मन् ने अर्जुन को युद्ध में विनष्ट करने की प्रतिज्ञा की थी ( म. द्रो. १६.२० ) । किंतु उस समय हुए युद्ध में अर्जुन ने इनका संहार किया ( म. द्रो. १८. १६ ) । द्रोणाचार्य कौरवसेना का सेनापति होने पर, उसे आगे कर के इन्होने फिर एक बार अर्जुन पर आक्रमण किया (म. द्रो. ६६.३८ ) । किंतु अर्जुन ने पुनः एक बार इनका संहार किया (म. क. ४.४७ - ४९ ) । माटर - सूर्य की एक पार्श्ववर्ती देवता, जो हमेशा सूर्य के दक्षिण में रहता है। सूर्य की सेवा करने के लिए इसकी नियुक्ति इन्द्र के द्वारा की गयी थी ( भवि. ब्राह्म. २३) । महाभारत के अनुसार, दक्षिण भारत में 'माठरवन' नामक एक तीर्थस्थान था, जहाँ इसका विजयस्तंभ सुशोभित होता था (म. व. ८६.७)। २. अष्टादश विनायकों में से एक ( साम्ब. १६ ) । ३. एक आचार्य, जो 'सांख्यकारिकावृत्ति' नामक ग्रंथ का रचयिता माना जाता है। 'अष्टकाकर्म' में तंत्र करना चाहिए ऐसा इसका अभिमत था, जौ कौषित की ब्राह्मण में उद्धृत किया गया है ( कौ. ब्रा. १३८. मागध - एक राजा, जो भारतीय युद्ध में कौरवों के पक्ष में शामिल था । महाभारत में इसे ' मगध देशाधि - पति' कहा गया है। अभिमन्यु ने इसका वध किया था ( म. भी. ५८.४४ ) । २. मगधराज जरासंघ का नामान्तर ( भा. ३.३.१० ) । १६ ) । ३. भौत्य मन्वन्तर का एक देवतागण । ४. भौत्य मन्वन्तर के सप्तर्षियों में से एक। ४. कश्यप एवं भृगुकुलोन एक गोत्रकार । माठरीपुत्र - काश्यपि बालाक्य नामक आचार्य का मांकायन -- भृगुकुलोत्पन्न एक गोत्रकार | इसके नाम नाम (बृ. उ. ६.४.३१ माध्यं; श. बा. १४.९.४.३१के लिए 'कायन' पाठभेद प्राप्त है। ३२) । संभव है, किसी 'मठर' का स्त्रीवंशज होने के कारण, इसे यह नाम प्राप्त हुआ होगा । मांगलिन -- एक आचार्य, जो भागवत के अनुसार, व्यास की सामशिष्य परंपरा में से पौष्यंजिन ऋषि का शिष्य था ( व्यास देखिये) । माणिचर - एक यक्ष, जो कुबेर का अत्यंत प्रिय सचिव था । इसके नाम के लिए 'माणिचार ' ( वा. रा. उ. १५ ), एवं ' माणिभद्र ' ( म. आ. ५७.५०७* पंक्ति. १; स. १०.१६ ) पाठभेद प्राप्त हैं। संभव है, यह एवं मणिभद्र दोनों एक ही थे ( मणिभद्र. २. देखिये ) । माचाकीय-- तैत्तिरीय प्रातिशाख्य में निर्दिष्ट एक व्याकरणाचार्य । 'य' कार तथा ' व ' कार का लोप कहाँ होता है, इसके बारे में इसका अभिमत प्राप्त है ( तै. प्रा. १०.२२ ) । यह मंदार पर्वत के शिखर पर रहता था ( म.. व. माचेल्ल -- पाण्डवों के पक्ष का एक महारथि, जो १४००४) । रावण एवं कुबेर के दरम्यान हुए युद्ध में, युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में भेंट ले कर उपस्थित हुआ था | इसने रावणपक्षीय धूम्राक्ष नामक राक्षस को गढ़ा ६३४ Page #657 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माणिचर प्राचीन चरित्रकोश मांडव्य प्रहार से मूञ्छित किया था। यह देख कर रावण अत्यधिक | इसका निर्देश प्राप्त है (आश्व. ग. ३.४.४; सां. गृ. ४. क्रुद्ध हुआ, एवं उसने इसपर आक्रमण कर इसे पराजित | १०, ६.१)। कर दिया (वा. रा. उ. १५)। २. एक आचार्य, जो विदेह देश के जनक राजा का मांटि-एक आचार्य, जो गौतम ऋषि का शिष्य था। मित्र था (वेबर, इंडिशे स्टूडियेन. १.४८२)। इसके शिष्य का नाम आत्रेय था (बृ. उ. २.६.३,४.६. ३. एक प्रसिद्ध ब्रह्मर्षि, जो धैर्यवान् , सब धर्मों का ३ काण्व.)। । ज्ञाता, सत्यनिष्ठ और तपस्वी था। २. एक शिवभक्त, जो कालभीति नामक सुविख्यात | इसके नाम के लिये 'अणिमांडव्य' एवं 'आणिशिवपार्षद का पिता था (कालभीति देखिये)। मांडव्य ' पाठभेद भी प्राप्त है। मांडकर्णि-दण्डकारण्य में रहनेवाला एक ऋषि, चोरी का इल्ज़ाम-चोरी के कारण इसको सजा जिसकी कथा धर्मभृत ऋषि ने श्रीराम को सुनाई थी मिलने की विभिन्न कथाएँ अनेक ग्रन्थों में प्राप्त है। (वा.रा. अर. ११.८-२०)। यह अत्यन्त धर्मनिष्ठ ऋषि | मार्कंडेय तथा गरुडपुराण में दिया गया है कि, राजा ने था, जिसने जलाशय में खड़े रहकर, एवं केवल वायु भक्षण इस पर चोरी का इल्जाम लगाया; एवं चोरी के संशय कर दस हजार वर्षों तक कठोर तपस्या की थी। इसकी इस पर ही इसे सूली पर चढ़ाया (गरुड़. १.१४२)। तपस्या से अग्नि आदि सारे देव घबरा गये, एवं इसकी | पद्म के अनुसार, सुलक्षण राजा एक बार मृगयाके तपस्या में बाधा डालने के लिए, उन्होंने पाँच अप्सराएँ | हेतु अरण्य में गया, तथा अपना घोड़ा एक पेड़ में इसके पास भेज़ दी। बाँध दिया। जब वह लौट आया, तब वहाँ घोड़ा न उन अप्सराओं को देख कर यह मोहित हुआ, एवं | था। अतएव राजा ने वहाँ पर तपस्या करते हुए मांडव्य से इसने अपनी तपस्या का त्याग. किया । पश्चात् इसने अपने घोड़े के बारे में पूछा, किन्तु यह मौन रहा। तब अपने तपःसामर्थ्य से पंचाप्सर नामक सरोवर में एक राजाज्ञा से राजदूतों ने समाधिस्थ मांडव्य को बन्दी बनाकर विलासगृह का निर्माण किया, जहाँ यह उन अप्सराओं के इसे सूली पर चढ़ा दिया । आगे चल कर असली चोर साथ क्रीडा करने लगा। इसकी इस क्रीडा के कारण, उस पकड़ा गया, तब राजा ने इसे छोड़ दिया। किन्तु इसके सरोवर से गायनवादन की आवाज दिनरात आती रहती शरीर में किंचित शूलाग्र रह गया, जिसके कारण इसे थी। उसी आवाज को सुनकर, उसका रहस्य श्रीराम ने 'आणिमांडव्य' नाम प्राप्त हुआ (पन. उ. १४१)। धर्मभृत ऋषि को पूछा था। इसी पुराण में अन्यत्र यह भी लिखा है कि, राजा की कुछ चीजे चोरी चली गयी थी, और उसीके शक में मांडवी--विदेह देश के कुशध्वज राजा की कन्या, इसे सजा मिली थी (पद्म. उ. ५१)। जो अयोध्या के दशरथ राजा के पुत्र भरत की पत्नी थी प्रमोदिनी से विवाह-वंद के अनुसार, देवपन्न (वा. रा. बा. ७३.३१-३२)। राजा की कन्या कामप्रमोदिनी का हरण कर, शंबर ने २. एक स्त्री, जो सम्भवतः वात्सी मांडवीपुत्र नामक | उसके गहने मांडव्याश्रम के पास डाल दिये। प्रमोदिनी आचार्य की माता थी (बृ. उ. ६.४.३० माध्यं.)। को पता लगानेवाले दूतों को इसके आश्रम के पास गहने सम्भवतः मण्डु का स्त्री वंशज होने से इसे यह नाम प्राप्त | मिले। इससे राजा को यह शक हुआ कि,इसने ही उसकी हुआ होगा। कन्या का हरण किया है। अतः उसने इसे सूली पर मांडव्य-एक आचार्य, जो कौत्स ऋषि का शिष्य था | चढ़ाने की आज्ञा प्रदान की। किन्तु अन्त में ज़ब उसे (श. वा. १०.६.५.९; सां. आ. ७.२; बृ. उ. ६.५.४ | अपनी कन्या शंबरासुर से पुनः प्राप्त हुयी, तब राजा ने काण्व.)। इसके शिष्य का नाम मांडूकाय नि था। प्रमोदिनी का विवाह मांडव्य से कर दिया (स्कन्द. ५.३. ऐतरेय आरण्यक के अनुसार, इसने ऋग्वेद संहिता का | १६९-१७२)। तात्विक अर्थ प्रतिपादन किया था (ऐ. आ. ३.१.१; ऋ. स्कंद में अन्यत्र कहा गया है कि, यात्रा करते करते प्रा. प्रस्तावना)। इसने शुक्ल यजुर्वेद की शिक्षा की रचना | मांडव्य ऋषि विश्वामित्र तीर्थ' के पास आया। वहाँ इसने की थी, जिसका निर्देश 'पाराशरी संहिता' में प्राप्त है | देखा कि, कुछ राजद्रव्य पड़ा हुआ है, जिसे छोड़कर (पा. सं. श्लो. ७७-७८)। ब्रह्मयज्ञांतर्गत पितृतर्पण में | चोर लोग भाग गये थे। राजद्रव्य के पास खड़े हुए ६३५ Page #658 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मांडव्य प्राचीन चरित्रकोश मांडूकेय मांडव्य को देख कर, दूतों ने इसे चोर समझकर पकड़ा, | ५.३.१६९-१७२, ६.१३५, पद्म. सु. ५१; कौशिक १४. तथा राजाज्ञा से सूली पर चढ़ा दिया (स्कंद. ६. देखिये)। १३७)। संवाद--महाभारत के अनुसार, यह बड़ा ज्ञानी था, यम से संवाद-महाभारत के अनुसार, निरपराध | तथा इसने विदेहराज जनक से तृष्णा का त्याग करने के होने पर भी इसको सूली पर चढाया गया था (म. आ. | विषय में प्रश्न किया था (म. शां. २६८)। इसने शिव५७.७७-७९)। इसने शूल के अग्रभाग पर तपस्या महिमा के विषय में युधिष्ठिर को अपना अनुभव बताया की थी। इसकी दयनीय दशा से संतप्त, एवं तपस्या था (म. अनु. १८.४६-५२)। जब श्रीकृष्ण हस्तिनापुर से प्रभावित हो कर, पक्षीरूपधारी महिर्षिगण इसके पास | जा रहे थे, तब उनसे अनेक ऋषिगण मिलने आये थे, आये थे। जिसमें यह भी एक था (म. उ. ८१.३८८)। - इसके सम्बन्ध में यह भी प्राप्त है कि, यह भृगु- ' पश्चात् यह लिंगदेह धारण कर यमधर्म के पास गया कुलोत्पन्न गोत्रकार था, एवं ज्योतिषशास्त्र का पंडित था। था, एवं उससे प्रश्न किया, 'मैने शुद्धभाव से सदैव | इसके नाम पर 'मांडव्यसंहिता' नामक ग्रन्थ भी उपलब्ध तपस्या की, किंतु मुझे भयंकर सजा क्यों दी गयी' ? तब है (.C.)। यमधर्म ने कहा, 'तुम बचपन में पतिंगो के पुच्छभाग मांडूक-भृगुकुलोत्पन्न एक गोत्रकार । में सींक घुसेड़ते रहे हो, इसी कारण तुम्हें सूली पर मांडकायनि-एक आचार्य, जो मांडन्य नामक ऋषिः... चढ़ाये जाने का दण्ड मिला है (म. आ. १०१)। यह | का शिष्य था। इसके शिष्य का नाम सांजीवीपुत्र था (श. सुनते ही मांडव्य ने नियम बनाया कि, बारह तथा चौदहवर्षीय बालकों द्वारा नादानी में किये गये अशुभ कमों का ब्रा. १०.६.५.९; बृ. उ. ६.५.४ काण्व.) पाप उन्हे न भुगतना पड़ेगा। मांडूकायनीपुत्र--एक आचार्य, जो मांडूकीपुत्र नामक | ऋषि का पुत्र था। इसके शिष्य का नाम जायन्तीपुत्र था इसके साथ ही इसने यम को शाप दिया कि, वह शूद्रकुल में जन्म लेगा । मांडव्य के शाप के ही कारण, (बृ. उ. ६.५.२ काण्व.)। सम्भव है, मांडूकं के किसी यमधर्म को अगले जन्म में विदुर का जन्म लेना पड़ा स्त्रीवंशज का पुत्र होने से इसे यह नाम प्राप्त हुआ होगा । मांडूकि-एक ऋग्वेदी श्रुतर्षि । (म. आ. १०१.२५-२७)। , मांडूकीपुत्र-एक आचार्य, जो शांडिलीपुत्र नामक यमधर्म की उपर्युक्त कथा में मांडव्य के द्वारा पीड़ित | आचार्य का शिष्य था। इसके शिष्य का नाम मांडूकायनीकिटाणु का नाम पतिंगा कहा गया है (म. आ. | पुत्र था (बृ. उ.६.५.२ काण्व.)। सम्भव है, मंडूक के किसी १०१.२४) । किंतु अन्य स्थानों में उसके नाम बगुला | स्त्रीवंशज का पुत्र होने से इसे यह नाम प्राप्त हुआ होगा । (स्कंद. ६.१३६), टिड्डी (पन. उ. १४१) एवं भौरा | मांडकेय--एक आचार्यसमूह, जो ऋग्वेदपाठ के एक (पद्म. स. ५२) इत्यादि दिया गया है। विशेष शाखा का प्रणयिता माना जाता है । ऐतरेय आरण्यक ब्राह्मण का शाप--जब यह सूली पर था, तब एक | के 'मांडूकेयीय' नामक अध्याय की रचना इन्हीके द्वारा दिन आधी रात के समय कौशिक के कुल में उत्पन्न | की गयी है (ऐ. आ. ३.२.६; सां. आ. ८.११)। हुआ एक सर्वांगकुष्टी ब्राह्मण अपनी पत्नी के कंधे पर ऐतरेय आरण्यक में इस समूह के आचार्यों के अनेक बैठा वेश्या के घर जा रहा था। अंधकार में जाते | मत प्राप्त हैं, जिनमें संहिता की व्याख्या दी गयी है। समय गलती से उसका पैर इसे लग गया, तब इसने क्रोध | उस व्याख्या के अनुसार, पृथ्वी को पूर्वरूप संहिता, द्यौ में आकर तत्काल शाप दिया, 'सूर्योदय होते ही तुम मर को उत्तररूप संहिता, एवं वायु को द्यौ एवं पृथ्वी का जाओगे' (स्कंद. ६.१३५)। ऐसा सुनकर ब्राह्मण की उस | संम्मीलन करनेवाली संहिता कहा गया है (ऐ.आ.३.१. पतिव्रता पत्नी ने अपने पातिव्रत्य के बल पर सूर्योदय ही | १; ऋ. प्रा. १.२)। रोंक दिया। बाद में अनुसूया द्वारा समझाये जाने पर उसने ऋग्वेद के आरण्यकों में निम्नलिखित आचार्यों का सूर्योदय होने दिया, तथा देवों की कृपा से मृत पति को | पैतृक नाम मांडूकेय दिया गया है :- शूरवीर, ह्रस्व, जीवित अवस्था में प्राप्त किया, जिसका शरीर कामदेव | दीर्घ, मध्यमप्रातिबोधीपुत्र (ऐ. आ. ३.१.१; सां. आ. के समान सुंदर था (गरुड. १.१४२, मार्क. १६; स्कंद. | ७.१२, ७.२, ७.१३)। Page #659 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मांडूकेय प्राचीन चरित्रकोश मातलि (ऋ. २. एक आचार्य, ओम नामक महर्षि का पुत्र लिए मातरिश्वन् का आवाहन किया गया है जो मंडूक था। ब्रह्मयज्ञशंगतपंग में इसका निर्देश प्राप्त है (आश्र, गृ. ३.४.४) । ऋक्प्रातिशाख्य के अनुसार, स्वरों के बारे में इसने अनेक महमत प्रतिपादन किये थे (ऋ. प्रा. २०० ) । विष्णु, ब्रह्मांड एवं भागवत में इसे व्यास की ऋशिष्य परंपरा में से इंद्रप्रमति ऋपि का शिष्य कहा गया है। इसके पुत्र का नाम सत्यअवस् था, जो इसका शिष्य भी था । मातंग एक मुनि, जिसके राजनीति विषयक अनेक मत महाभारत में दुर्योधन के द्वारा उद्धृत किये गये हैं। इसके ये मत निम्नप्रकार थे, वीर पुरुष को चाहिये कि, यह सदा उद्योग ही करे किसीके सामने नतमस्तक न हो; क्योंकि, उद्योग करना ही पुरुष का कर्तव्य एवं पुरुषार्थ है । वीर पुरुष असमय में नष्ट भले ही हो जाये, परंतु कभी शत्रु के सामने सिर न झुकाये ' (म.उ. १२५. १९-२० ) । मातंगिनन एक गोत्रकार ऋषिगण | मातंगी——कश्यप एवं क्रोधवशा की नौ कन्याओं में से एक । इसने हाथियों को जन्म दिया था (म. आ. ६०.६४)। २. एक राक्षस, जो कश्यप एवं खशा का एक पुत्र साथ प्राप्त है ( था । मातरिश्वन् — ऋग्वेद में निर्दिष्ट एक देवता, जो प्रायः अग्नि तथा अग्नि को उत्पन्न करनेवाले देवता से समीकृत की गयी है। इस देवता का निर्देश ऋग्वेद के तृतीय मंडल में पाँच बार, एवं षष्ठ मंडल में एक बार प्राप्त है । उनमें से तीन स्थलों पर इसे अग्नि का ही नामांतर बताया गया है (ऋ. ३.५.९; २६.२ ) । ऋग्वेद में अन्यत्र तनूनपात्, नराशंस, यम एवं मातरिश्वन् को अग्नि के ही नामांतर । १०.८५.४०) 1 अथर्ववेद, ब्राह्मण ग्रंथ एवं उनके उत्तरकालीन साहित्य में मातरिश्वन् नाम वायु की उपाधि के रूप में प्रयुक्त किया गया है। इसे बायु के समान वेगवान् एवं सर्व की भाँति फूँफकार मारता हुआ बताया गया है (ऋ. १.६.६०९३. २९.११ जे. उ. बा.४.२०.८ ) । व्युत्पत्ति -- भाषाशास्त्रीय दृष्टि से मातरिश्वन् शब्द का अर्थ, 'जिसका अपनी माता में निर्माण हुआ हो किया जाता है। यहाँ माता शब्द से गर्जन करनेवाले मेघ का आशय हो सकता है, क्यों कि, मातरिश्वन् आकाश से आ सकते है । यास्क के अनुसार, मातरिश्वन् की व्युत्पत्ति, ' से अंतरिक्ष में (मातरि) साँस लेता है (न्) ऐसी की गयी है। वहाँ इसे वायु में साँस लेनेवाला पवन माना गया है (नि. ७.२६ ) । ये गये हैं . १.१६४९ २.२९ ) । मझिका दिव्यरूपवेद के प्रथम मंडल के अनुसार, मातरिश्वन् अनि के एक दिव्य रूप का मूर्तीकरण प्रतीत होता है । वहाँ इसे आकाश से पृथ्वीपर आनेवाला विवस्वत् का दूत बताया गया है, एवं इसके द्वारा गुप्त अग्नि को पृथ्वी पर लाने का संकेत भी किया गया है (ऋ. १.२८.२; ३.५.९; ६.८.४ ) । मातरिश्वन् को विद्युत् से समीकृत किया गया प्रतीत होता है। ऋग्वेद के विवाहसूक्त में दो प्रेमियों के हृदय को संयुत करने के २. एक सुविख्यात यज्ञकर्ता, जिसका निर्देश ऋग्वेद के बालखिल्य सूक्त में मेध्य एवं पृषन नामक आचार्यों के ८.५२.२ ) । सांख्यायन औतसूत्र में इसका निर्देश पृषत्र, मेध्य मातरिश्वन्, एवं मातरिश्व नाम से किया गया है (सां. श्रौ. १६.११.२६ ) । किन्तु वे दोनों पाठ योग्य नहीं प्रतीत होते हैं, क्योंकि, पृष एवं मेध्य ये दोनो मातरिश्वन् से अलग व्यक्ति थे । ऋग्वेद में अन्यस्थान पर इनको मातरिश्रपुत्र कहा गया है। (ऋ. १०.४८.२ ) । २. गरुड की प्रमुख सन्तानों में से एक (म. उ. ९९. १४) । मातलि -- इंद्र का सारथि । इसकी पत्नी का नाम सुधर्मा था, जिससे इसे गोमुख नामक पुत्र, गुणकेशी नामक कन्या उत्पन्न हुयी थी ( म.उ. ९५.१९-२० ) । अपनी कन्या गुणकेशी के लिए सुयोग्य वर खोजने के लिए, यह नारद को साथ लेकर पाताल लोक गया था (म. उ. ९६.८ ) । वहाँ नागकुमार सुमुख के साथ इसने अपनी कन्या का विवाह तय किया एवं नागराज आर्यक को अपने साथ ले कर, यह स्वर्गलोक में इंद्र के पास गया। वहाँ इंद्र के संमति से गुणकेशी एवं सुमुख का विवाह हुआ गुणकेशी एवं सुमुख देखिये) । ( रामरावण युद्ध के समय, इन्द्र का रथ ले कर यह श्रीराम की सेवा में उपस्थित हुआ था । इसीके रथ में बैठ कर श्रीराम ने रावण वध किया था (म.व. २७४० १२ - २७ ) । ६३७ Page #660 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन चरित्रकोश मातृका माताल पाण्डवों के वनवास के समय, यह इंद्र की आज्ञा से | पुराणों एवं महाभारत में प्राप्त मातृकाओं की नामाअर्जुन को स्वर्ग में ले जाने के लिए उपस्थित हुआ था | वलियाँ इस प्रकार है :-- (म. व. ४३)। (१) सप्तमातृका-ब्राह्मी, माहेश्वरी, कौमारी, वाराही मातृका-देवी के सुविख्यात अवतारों में से एक । | नारसिंही, वैष्णवी, ऐन्द्री (मार्क. ८८.११-२०:३८)। महाभारत में इनका स्वरूपवर्णन प्राप्त है, जिनमें इन्हे | (२) अष्टमातृका--ब्राह्मी, माहेश्वरी, चंडी, वाराही, दीर्घनखी, दीर्घदन्त, दीर्घतुण्ड, निर्मीसगात्री, कृष्णमेघनिभ, | वैष्णवी, कौमारी, चामुण्डा एवं चचिका । दीर्घकेश, लंबकर्ण, लंबपयोधर एवं पिंगाक्ष कहा गया है । (३) शिशुमातृका--काकी, हलिमा, रुद्रा, बृहली, ये जी चाहे रुप धारण करनेवाली (कामरूपधर ), जो | आर्या, पलाला एवं मित्रा (म. व. २१७.९)। चाहे वहाँ भ्रमण करनेवाली (कामरूपचारी), एवं वायु (४) अष्टादश मातृका--विनता, पूतना, कष्टा, पिशाची, . के समान वेगवान् ( वायुसमजव) थी। इनका निवास अदिति (रेवती), मुखमण्डिका, दिति, सुरभि, शकुनि, स्थान वृक्ष, चत्वर, गुफा, स्मशान, शैल एवं प्रस्रवण में सरमा, कद्रू , विलीनगी, करंजनीलया, धात्री, लोहितारहता था (म. श. ४५.३०-४०)। यनि, आर्या (म. आर. २१९.२६-४१) । महाभारत के जन्मकथा-मत्स्य में मातृकाओं के जन्म की कथा | इस नामाव तृकाओं के जन्म की कथा | इस नामावली में बाकी दो नाम अप्राप्य है। विस्तृत रुप में दी गयी है। हिरण्याक्ष राक्षस का पुत्र (५) चौदह मातृका--गौरी, पद्मा, शची, मेधा, . अंधक शिव का परमभक्त था। शिव ने उसे वर प्रदान | सावित्री, विजया, जया, देवसेना, स्वधा, स्वाहा, धृति, किया था, ' रणभूमि में तुम्हारे लहू के हर एक बूंद से | पुष्टि, तुष्टि एवं 'कुलदेवता', जो हरेक व्यक्ति के लिए अलगनया अंधकासुर उत्पन्न होगा, जिस कारण तुम युद्ध में अलग होती है (गोभिल. स्मृ. १.११-१२)। अजेय होंगे। शिव के इस आशीर्वाद के कारण, सारी मातृकाओं की प्राचीनता--वैदिक ग्रंथों में एवं पृथ्वी अंधकासुरों से त्रस्त हुयी। फिर इन अंधकासुरों का गृह्यसूत्रों में मातृकाओं का निर्देश अप्राप्य है। 'ऋग्वेद मैं लह चुसने के लिए शिव ने ब्राह्मी, माहेश्वरी आदि सात सप्तमाताओं का निर्देश प्राप्त है, किन्तु वहाँ सात नदियों मातृकाओं का निर्माण किया। इन्होने अंधकासुर का सारा एवं सात स्वरों को माता कहा गया है (ऋ. ९.१०२.४)। लहू चूस लिया, एवं तत्पश्चात् शिव ने अंधकासुर का वध ईसा की पहली शताब्दि से मातृकापूजन का स्पष्ट निर्देश किया। प्राप्त होता है। वराहमिहिर के बृहत्संहिता में, एवं अंधकासुर का वध होने के पश्चात् , शिव के द्वारा | शूद्रक के मृच्छकटिक में मातृकापूजन का स्पष्ट निर्देश प्राप्त उत्पन्न सात मातृका पृथ्वी पर के समस्त. प्राणिजात का लहू है (बहत्सं. ५८.५६)। स्कंदगुप्त के बिहार स्तंभलेख चूसने लगी। फिर उनका नियंत्रण करने के लिए, शिव | में मातृकापूजन का निर्देश प्राप्त है (गुप्त शिलालेख. पृ. ने नृसिंह का निर्माण किया, जिसने अपने जिह्वादि | ४७; ४९)। चालुक्य एवं कदंब . राजवंश मातृकाओं के अवयवों से घंटाकर्णी, त्रैलोक्यमोहिनी, आदि बैतीस | उपासक थे (इन्डि, अन्टि. ६.७३; ६.२५)। मालवा के मातृकाओं का निर्माण किया । अपना नियुक्त कार्य समाप्त | विश्वकर्मन् राजा के अमात्य मयूराक्ष ने ४२३ ई. में करने पर, शिव ने उन पर लोकसंरक्षण का काम सौंपा, मातृकाओं का एक मंदिर बनवाया था (गुप्त शिलालेख. एवं इस तरह रुद्र के साथ मातृका पृथ्वी पर चिरकाल | पृ. ७४)। तक रहने लगी (मत्स्य. १७९)। । पश्चिमी एशिया के 'द्रो' नामक प्राचीन संस्कृति में, मातृकाओं की संख्या--महाभारत एवं पुराणों में | तथा मोहेंजोदड़ो एवं हड़प्पा में स्थित सिन्धु संस्कृति में मातृकाओं की कई नामावलियाँ प्राप्त है, जिनमें इनकी | मातृकाओं की पूजा की जाती थी। उस संस्कृति के जो संख्या सात, अठारह, एवं बैतीस बतायी है। महाभारत | सिक्के प्राप्त हुए हैं, वहाँ मातृका के सामने नर अथवा के शल्यपर्व में कार्तिकेय (स्कंद) की अनुचरी मातृकाओं | पशुबलि के दृश्य चित्रित किये गये है। की नामावली प्राप्त है, जहाँ इनकी संख्या बैतीस बतायी | इससे प्रतीत होता है कि, मातृकाओं की उपासना गयी है, एवं उसमें प्रभावती, विशालाक्षी आदि नाम के | वैदिकेतर संस्कृति में प्राचीनतम काल से अस्तित्व में थी। . निर्देश प्राप्त है। | आगे चल कर, वैदिक संस्कृति के उपासकों ने इस देवता ६३८ Page #661 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मातृका प्राचीन चरित्रकोश माद्री को अपनाया, एवं उसे दुर्गा अथवा देवीपूजा में संम्मीलित प्राचीन काल में रावी तथा व्यास नदी के बीच के कराया। दोआब का भाग 'मद्र' कहलाता था, जो आजकल पंजाब मातृकाओं की प्रतिमा--मातृका के प्रतिमाओं की प्रान्त में स्थित है । उन दिनों शाकल मद्रदेश की राजधानी पूजा सारे भारतभर की जाती है, जहाँ इनका रूप अर्धनग्न, थी, तथा इस देश की राजकन्याओं को सामान्यतः एवं शिरोभूषण, कण्ठहार, तथा मेखलायुक्त दिखाई देता 'माद्री' कहते थे (म. स. २९.१३) है । जनश्रुति के अनुसार, मातृकाओं की सर्वाधिक पीड़ा विवाह-यह परम रूपवती थी, कारण एक तो यह दो वर्षों तक के बालकों को होती है। इसी कारण, बालक | देवी से उत्पन्न हुयी थी, दूसरे पंजाब प्रान्त के लोग सुन्दर का जन्म होते ही पहले दस दिन मे मातृकाओं की होते ही है। अतएव इसकी सुन्दरता की प्रशंसा सन कर, पूजा की जाती है। भीष्म ने शल्य के यहाँ जा कर इसे पाण्डु के लिए माँगा २. अर्यमा नामक आदित्य की पत्नी (भा. ६.६. | था। शल्य के यहाँ यह नियम था कि, वरपक्ष से ४२)। अत्यधिक धनसम्पति लेकर लड़की दी जाति थी, अतएव मातेय--वसिष्ठकुलोत्पन्न एक गोत्रकार ऋषिगण। भीष्म को उनकी प्रथा के अनुसार, कन्या के शुल्क के मात्स्य--एक ऋषि, जो यज्ञ में अत्यधिक प्रवीण था रूप में बहुतसा धन देना पड़ा था। तब उस देश की रीतिरिवाज के अनुसार, शल्य ने भी आभूषणों आदि से (अ. वे. १९.३९.९)। तैत्तिरीय ब्राह्मण में इसका निर्देश अलंकृत कर के माद्री को भीष्म के हाथों सौंप दिया। मत्स्य नाम से किया गया है (ते. बा. १.५.२.१)। बाद में भीष्म ने हस्तिनापुर में आ कर शुभ दिन तथा वहाँ इसे यज्ञेषु एवं शतद्युम्न राजा का पुरोहित कहा गया शुभ मुहुर्त में पाण्डु से इसका विवाह किया (म. है । कौनसा भी यज्ञसमारोह शुरू करना हो, तो वह सुअवसर या शुभमूहूर्त देख कर करना चाहिए, ऐसी आ. १०५.५-६)। प्रथा इसने शुरू की। पुत्रप्राप्ति-किंदम मुनि के द्वारा पाण्डु को शाप दिया २. सरस्वती नदी के तट पर यज्ञ करनेवाला एक जाने पर, पाण्डु के साथ माद्री भी वन मे रहने के लिए ब्राह्मणसमूह, जिसका अध्वर्यु ध्वसन् द्वैतवन था (श. गयी थी (म. आ. ११०)। वहाँ ऋषियों के कथनाबा. १३.५.४.९; ध्वसन् द्वैतवन देखिये)। नुसार, पाण्डु ने कुन्ती को पुत्र उत्पन्न करने की आज्ञा दी। उसने दुर्वासस् के 'आकर्षण मंत्र' के प्रभाव से माथव--विदेश नामक राजा का पैतृकनाम ( विदेघ तीन पुत्र उत्पन्न किये। बाद में कुंती ने अधिक पुत्र देखिये)। उत्पन्न करने के लिए मनाही कर दी। तब माद्री की माथैल्य-(सो. ऋक्ष.) एक राजा, जो वायु के प्रार्थनानुसार, पाण्डु ने वह मंत्र कुंती से इसे दिलाया। अनुसार उपरिचर वसु राजा का पुत्र था । महाभारत में उस मंत्र के स्मरण से, इसे अश्विनीकुमार जैसे सुन्दर नकुल इसके नाम के लिए 'मसिल्ल' पाठभेद प्राप्त है (मसिल तथा सहदेव नामक पुत्र हुए (भा. ९.२२.२८; म. देखिये)। आ. ११५.२१)। मादी--अंगिराकुलोत्पन्न एक गोत्रकार । ___पाण्डु की मृत्यु--एक दिन यह मृगया खेलनेवाले माद्रवती--अभिमन्युपुत्र परिक्षित् राजा की कन्या, पाण्डु के साथ वन में अकेली ही थी। उस समय वसंत जो जनमेजय द्वितीय की माता थी। इसके नाम के लिए ऋतु था, तथा मौसम भी बड़ा सुहावना एवं चित्ताकर्षक 'मद्रवती 'भद्रा' एवं 'भद्रावती' पाठभेद प्राप्त है। था। इसके द्वारा पहने हुए बारीक वस्त्र इसकी सुंदरता (म. आ. ९०.९२)। में और चार चाँद लगा रहे थे । ऐसे सुंदर मौसम में, इसे २. पाण्डु राजा की द्वितीय पत्नी माद्री का नामांतर इस तरह सुंदर देख कर पाण्डु के मन में कामेच्छा उत्पन्न (म. आश्व. ५२.५४; माद्री देखिये)। हुयी, तथा इसके हज़ार बार मना करने पर भी, पाण्डु ने माद्री-मद्रदेश के राजा ऋतायन की पुत्री, जो इसे बाहुपाश में भर लिया । पाण्डु का ऐसा करना ही था पाण्डु की द्वितीय पत्नी, तथा नकुल-सहदेव की माता कि, शाप के अनुसार, उसकी मृत्यु हो गयी। अपने थी। मद्रराज शल्य इसका भाई था। यह 'धृति' नामक पति पाण्डु के निधन पर, इसने न जाने कितना पश्चात्ताप देवी के अंश से उत्पन्न हुई थी (म. आ. ६१.९८ )। किया, एवं खूब रोयी (म. आ. ११६.२५-३०)। ६३९ Page #662 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माद्रा प्राचीन चरित्रकोश माधव पाण्डु के साथ सती होने के लिए, इसने कुन्ती से दूसरे दिन पाणिग्रहण के समय विवाहमण्डप में इसे बार बार प्रार्थना की । किन्तु शतशृङ्गनिवासी ऋषियों ने इसे | नींद आ गयी। यह देखकर इसके प्रचेष्ट नामक सेवक ने आश्वासन देते हुए सती न होने के लिए बारबार अनुरोध | सुलोचना का हरण किया, तथा यह सोता ही रहा। किया । अन्त में कुन्ती की आज्ञा लेकर, इसने पाण्डु की सुलोचना ने माधव से शादी करने का प्रण किया था। मृतदेह के साथ चितारोहण किया (म. आ. ११६)। | अतएव वह प्रचेष्ट के यहाँ से भाग कर, सुषेण नामक राजा सती होने के पूर्व इसने जो पाण्डवों को शिक्षा दी थी, | के यहाँ वीरवर नामक पुरुष का वेष धारण कर के नौकरी वह भ्रातृत्व एवं एकता के लिए एक आदर्श शिक्षा है। करने लगी। एक दिन वहाँ उसने एक गेंडा मारा, जो इसकी मृत्यु के उपरान्त, धृतराष्ट्र की आज्ञा से, विदुर | पूर्वजन्म में धर्मबुद्धि नामक राजा था (धर्मबुद्धि देखिये)। आदि द्वारा पाण्डु तथा माद्री की अन्त्येष्टिकर्म राजोचित | सुलोचना से विवाह-सुलोचना के वियोग में पीड़ित ढंग से किया गया, एवं भाई-बन्धुओं द्वारा इन दोनों को होकर, एक दिन विद्याधर एवं प्रचेष्ट गंगा में प्राण देने जलांजलि दी गयी। के लिए जा रहे थे। किंतु वे दोनो सुलोचना के द्वारा मृत्योपरांत माद्री ने अपने पति के साथ महेन्द्रभवन | | बचा लिये गये। बाद में सुलोचना को ढूँढते ढूँढते में निवास किया (म. स्व. ४.१६, ५.१२)। एकाएक वहाँ माधव भी आ पहुँचा, जो सुलोचना से २. मद्र कन्या एवं श्रीकृष्णपत्नी लक्ष्मणा का नामान्तर | निराश होकर गंगा के तट पर आत्महत्या के लिए आया. (लक्ष्मणा २. देखिये)। था। सुलोचना को देखकर, इसने अपनी सारी कथा उसे. ३. सोमवंश के क्रोष्टु राजा की पत्नी, जिसे निम्नलिखित | कह सुनायी, एवं उसके साथ विवाह किया। आगे चल कर चार पुत्र थे:--युधाजित् , देवमीढुष, वृष्णि एवं अंधक यही माधव प्रख्यात विष्णु-भक्त बना (पद्म. क्रि. ५.६)। . (ब्रह्म. १४.१.३) ५.(सो. यदु.) एक यादव राजा, जो यदु राजा का ४. यादवराजा सात्वतपुत्र वृष्णि की पत्नी। . | पुत्र था। धूम्रवणे नामक नाग की कन्या इसकी माता माधव--उत्तम मन्वन्तर के मनु का पुत्र । थी। २. भौत्य मनु का एक पुत्र । ___ इसके पुत्र का नाम सत्लत, एवं पौत्र का नाम भीम ३. भृगुकुल का एक गोत्रकार, जिसके लिए 'मथित' | था । उनमें से भीम राजा राम दाशरथि राजा का समपाठभेद प्राप्त है। कालीन था। ४. एक राजा, जो तालध्वज नगर के विक्रम राजा का सुविख्यात यादव वंश की स्थापना यदु एवं उसका पुत्र पुत्र था। इसकी चमत्कृतिपूर्ण जीवनकथा पद्म में प्राप्त है। माधव राजा ने की थी। यादव-वंश का वंशक्रम निम्न यह चन्द्रकला नामक क्षत्रिय स्त्री को अत्यधिक चाहता | प्रकार है:था, किंतु वह इससे विवाह न करना चाहती थी। माधव-सत्वत-भीम-कुश-लव-भीम-अंधक-रैवतअतएव उसने माधव से कहा, 'सुलोचना नामक एक सुंदर | ऋक्ष-रैवत-विश्वगर्भ-वसु-बन-सुषेण-सभाक्ष-( ह. वं. राजकन्या की जानकारी मै तुम्हे बताती हूँ, जो मुझसे | २.३८)। कही अधिक सुंदर, तथा तुम्हारी जीवनसंगिनी बनने | इनमें से सात्वतराज भीम राजा के राज्यकाल में योग्य है। मधुवन में स्थित लवणाक्ष का वध शत्रुघ्न ने किया, एवं प्लक्षद्वीप में चंद्रकला के कथनानुसार, माधव अपने | मधुवन में मथुरा नगरी की स्थापना भीमराजा के द्वारा दिव्य अश्व की सहायता से समुद्र को लाँघ कर प्लक्ष की गयी। द्वीप गया, जहाँ सुलोचना रहती था। वहाँ जाकर इसे | ६. एक धार्मिक ब्राह्मण । एक दिन होम में बलि देने पता चला कि, उसकी शादी एक 'विद्याधर' से होने के लिए यह एक बकरा लाया। यह उसका वध करने जा वाली है। अतएव इसने तुरन्त ही सुलोचना को एक | रहा था कि, उस बकरे ने मानव-वाणी में अपने पूर्वप्रेमपत्र भेजा, एवं अपनी जानकारी बताते हुए उससे | जन्म की कथा बतायी, एवं इससे प्रार्थना की कि, यदि शादी की इच्छा व्यक्त की। सुलोचना ने पत्रोत्तर देकर | यह उसे गीता के नौवें अध्याय को सुना कर उसका वध इसे आश्वासन दिया कि, विवाह मण्डप में विद्याधर का | करे, तो वह भी अपने दुःख से मुक्त हो जाये। माधव वरण न कर के, वह इसका ही वरण करेगी। | ने बकरे की प्रार्थना को मान कर उसे गीता के नौवें ६४० Page #663 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माधव प्राचीन चरित्रकोश माधवी अध्याय को सुनाया, जिससे उसका उद्धार हुआ (पन्न. काल अवधि समाप्त होते ही, गालव अपि इसे राजा उ. १८३)। हर्यश्व से ले गया, एवं यह भी राजवैभव के मोह से माधवी नहुपकुलोत्पन्न राजा ययाति की कन्या । ऊब कर सहर्ष उसके साथ चलने को तैयार हो गयी। (म. उ. ११३.४५५४)। यह अल्पायु थी। एक ब्रहानिष्ठ प्राप्त हुए वर के अनुसार, यह पुनः कुमारी बन गयी। ने इसे वरदान दिया था कि, यह चाहे जितनी बार पुत्र दिवोदाल से विवाह--बाद में गालव माधवी को लेकर उत्पन्न करे, लेकिन इसका यौवन सदैव एक सा रहेगा, | का शिराज दिवोदास राजा के पास गया। दिवोदास ने एवं पुत्र उत्पन्न कर के भी यह चिरकुमारी रहेगी। गाल्व को उसी प्रकार के दो सौ अश्व दिये, तथा हर्यश्व गालव ऋषि को दान--एक बार गुरुदक्षिणा में राजा के समान करार कर के, पुत्रोत्पन्न करने के लिए माधवी को अपने पास रख दिया। कालान्तर में माधवी सहायता प्राप्त करने के लिए गालव ऋपि ययाति के पास से दिवोदास को 'प्रतर्दन' नामक पुत्र हुआ (म. उ. आया। उस समय गालव ऋषि का सारा पैसा पुण्यकार्य में खर्च हो गया था, किंतु उसे अपने गुर विश्वामित्र ११५.१५) । करार की अवधि समाप्त होते ही, गालव ऋषि को दक्षिणा कही न कही से देनी ही थी । ययाति के पास | दिवोदास के पास आया, तथा माधवी को वापस ले गया। धन की कमी न थी, किंतु गालव ऋषि को देने के लिए उशीनर से विवाह-अन्त में गुरुदक्षिणा की पूर्ति के उनके पास वैसे आठ सौ अश्वन थे, जैसे कि गालव लिए, गालव इसे भोज नगरी के उशीनर राजा के पास ले ऋप ने विश्वामित्र के लिये ययाति से माँगे थे। अतएव | गया । उपरलिखित प्रकार से करार कर के, गालव ने उशीनर उसने अपनी पुत्री गालय को दे कर कहा, 'तुम मेरी पुत्री से भी दो सौ अश्व प्राप्त किये, एवं पुत्र होने की अवधि को ले सकते हो, दूसरे राजा को इसे दे कर तुम उससे तक के लिए माधवी को राज के पास छोड़ दिया। धन ही नहीं, बल्कि राज्य भी प्राप्त कर सकते हो (म.. कालान्तर में उशीनर राजा को माधवी से 'शिबि' नामक उ. ११४)। पुत्र हुआ (म. उ. ११६.२०)। . हर्यश्व से विवाह-यह कन्या अत्यन्त सुंदर तथा | करार की अवधि समाप्त होने के बाद, जब गालय सुलक्षणी थी, अतएव इसे ले कर गालव ऋषि इक्ष्वाकु माधवी को उशीनर से ले कर जा रहा था, तब मार्ग में कुलोत्पन्न राजा हर्यश्व के पास गया । हर्यश्व ने पुत्र उसे गरुड़ मिला । उसने इसे बताया, 'इसके बाद आपको प्राप्ति के लिए अनेकानेक प्रयत्न किये थे, फिर भी वह और ऐसे अश्व मिलना असम्भव है। इसलिए जो छ: सौ आर एस निःसंतान था। वह माधवी को देखते ही उस पर मोहित | अश्व मिले है, उन्हें लेकर आप अपने गुरु विश्वामित्र को . हो गया, किंतु गालव ऋपि की माँग के अनुसार, उसके दे दें, तथा शेष दो सौ अश्वों के स्थान पर, माधवी को पास आठ सौ अश्व न थे, जो एक कान से कृष्ण तथा ही उसे प्रदान करे। चन्द्रप्रभायुक्त हों। इसलिए उसने गालव ऋषि के विश्वामित्र से विवाह-गालव को यह चीज़ पसन्द सामने शर्त रक्खी, 'इस समय मुझसे केवल दो सौ आयी, और उन्होंने ऐसा ही किया। विश्वामित्र ने भी अश्व ले ले, जो मेरे पास है, तथा मुझे माधवी दे दो। गालव की यह प्रार्थना मान ली । कालान्तर में विश्वामित्र जब मुझे माधवी से पुत्र प्राप्त हो जायेगा, तो मैं उसे को माधवी से अष्टक नामक पुत्र हुआ(म. उ. ११७.१८)। तुम्हे वापस कर दूंगा'। ऐसा कह कर, गालव ऋषि की अष्टक के जन्मोपरान्त, माधवी को गालव के हाथ सौंप कर आज्ञा से राजा हर्यश्व ने माधवी को अपने पास रख विश्वामित्र तप के लिए चले गया । लिया। विश्वामित्र को गुरुदक्षिणा देने में गालव सफल रहा, गालव ऋषि का कार्य पूर्ण करने के उद्देश्य से माधवी ने अतएव वह बड़ा प्रसन्न था। जिस कन्या के कारण, हर्यश्व से सारी वस्तुस्थिति बताकर कहा, 'मुझे अभी चार उसका यह संकट दूर हुआ, उस माधवी को ययाति राजा राजाओं को और दिया जायेगा। कालान्तर में इसने के यहाँ पहुँचाकर, गालव भी तपश्चर्या के लिए वन में अपने गर्भ से सुमत् (वसुमनस् ) नामक पुत्र को जन्म | चला गया। दिया, जो आगे चलकर अयोध्या का राजा हुआ (म. उ. स्वयंवर--राजा ययाति ने माधवी का स्वयंवर निश्चित ११४.१७)। | करके, इसे रथ पर बैठा कर सारे देश में घुमाया। किन्तु Page #664 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माधवी प्राचीन चरित्रकाश माध्यम इसने किसी राजपुत्र को पसन्द न करके, वन में रहकर | कालविपर्यास-उत्तम कन्या अपने कुल का, एवं पितरों तपस्या करना ही स्वीकार किया। का उद्धार करनेवाली होती है, इस तत्व का प्रतिपादन पुत्र- इस तरह माधवी को कुल चार पुत्र उत्पन्न हुए, करने के लिए माधवी की कथा महाभारत में दी गयी है । इस जिनके नाम निम्नप्रकार थे:- १. वसुमनस् (वसुमत् ), कथा का प्रमुख उद्देश्य तत्त्वप्रतिपादन होने के कारण, उस जो इसे हर्यश्व राजा से उत्पन्न हुआ था (म. उ. ११४. में ऐतिहासिक दृष्टि से कालविपर्यास के अनेक दोष आये १७); २. प्रतर्दन, जो इसे दिवोदास राजा से उत्पन्न | हैं । उस कथा में हर्यश्व, दिवोदास, उशीनर एवं विश्वामित्र हुआ था ( म. उ. ११५. १५); ३. शिबि, जो इसे | समकालिन बताये गये है, जो ऐतिहासिक दृष्टि से वास्तव उशीनर राजा से उत्पन्न हुआ था (म. उ. ११६.२०); नही है। ४. अष्टक, जो इसे विश्वामित्र ऋषि से उत्पन्न हुआ था। । २. रथध्वज राजा क पुत्र । २. रथध्वज राजा के पुत्र धर्मध्वज की पत्नी, जिसकी (म. उ. ११७. १८)। कन्या का नाम तुलसी था। ३. पूरुपुत्र जनमेजय 'प्रथम' की पत्नी । ययाति का उद्धार-आगे चल कर, इसका पिता ४. स्कंद की अनुचरी एक मातृका (म. श. ४५.७)। ययाति अपने इहलोक के पुण्यकर्मों के कारण स्वर्ग को माधुकि-एक आचार्य का पैतृक नाम, जिसे मान्यता प्राप्त हुआ। किन्तु वहाँ ययाति ने देव, ऋषि एवं ब्राह्मणों नही प्रदान की गयी थी (श. ब्रा. २.१.४.२७)। . का अवमान किया, जिस पाप के कारण, देवों ने उसे स्वर्ग से भ्रष्ट कराया । फिर उसने देवों की प्रार्थना की, | माधुच्छंदस-विश्वामित्रकुलोत्पन्न एक गोत्रकार । 'मेरे पापनाशनार्थ मुझे सुजनसंगति का लाभ मिले, जिस | अघमर्षण एवं जेतृ नामक आचार्यों का पैतृक नाम 'माधुकारण मैं स्वर्ग को पुनः प्राप्त कर सकूँ। | च्छंदस' बताया गया है। माध्यंदिन--वसिष्ठकुलोत्पन्न एक गोत्रकार। . देवों ने ययाति की इस प्रार्थना सुन ली, एवं उसके पौत्र एवं माधवी के पुत्र वसुमनस्, प्रतर्दन, शिबि एवं २. एक शाखाप्रवर्तक आचार्य, जो वायु के अनुसार अष्टक जहाँ यज्ञ कर रहे थे, उसी नैमिषारण्य में उन्हों ने व्यास की यजुःशिष्य परंपरा में से याज्ञवल्क्य के पंद्रह ययाति को ढकेल दिया। माधवी के चारो पुत्रों ने स्वर्ग शिष्यों में से एक था। शुक्लयजुर्वेदसंहिता एवं शतपथ . से भ्रष्ट हुए अपने मातामह का अत्यंत आदरभाव से ब्राह्मण के काण्व एवं माध्यंदिन शाखाओं के स्वतंत्र ग्रंथ स्वागत किया, एवं अपने यज्ञों का एवं धर्माचरण का सारा उपलब्ध है। उनमें से माध्यंदिन शाखा का, एवं उस शाखा पुण्य स्वीकारने की प्रार्थना उसे की। | के ग्रंथों का यह प्रवर्तक आचार्य था। . ___ ययाति को पुण्यदान--इतने में माधवी वहाँ प्रविष्ट ___ शुक्लयजुर्वेद की एक शिक्षा की रचना भी इसने की हुयी, एवं पुत्र एवं पौत्रों के पुण्य का स्वीकार करने का | थी, जिसमें कुल चालीस श्लोक हैं। शुक्लयजुर्वेद की सर्वप्रथम अधिकार पिता एवं पितामह को ही है, ऐसी | 'लघुमाध्यंदिन' नामक एक अन्य शिक्षा भी इसने लिखी धर्माज्ञा इसने ययाति के बतायी। फिर अपने चारों पुत्रों थी, जिसमें कुल अट्ठाईस श्लोक हैं । के यज्ञकर्म का पुण्य स्वीकारने की, एवं उसके बल से | माध्यंदिनायन-एक आचार्य, जो सौकरायण नामक स्वर्ग में पुनः प्रविष्ट होने की इसने उसे प्रार्थना की। ऋषि का शिष्य था । माध्यंदिन का वंशज होने के कारण, इस प्रकार माधवी ने गालव ऋषि को संकटमुक्त कराया, इसे यह नाम प्राप्त हुआ था। इसके शिष्य का नाम एवं अपने पुत्रों के पुण्य का दान स्वर्ग से च्युत अपने जाबालायन था (बृ. उ. ४.६.२ काण्व.)। पिता को कर उसे स्वर्गप्राप्ति कराया (म. आ. ८७; म. माध्यम-वैदिक ऋषिसमुदाय का एक सांकेतिक नाम, उ. १०४-११८)। जो ऋग्वेद के दूसरे मण्डल से ले कर सातवे मण्डल तक अपनी कन्या के द्वारा ययाति का उद्धार होने की | के रचयिता ऋषियों के लिए प्रयुक्त किया जाता है (को. कथा मत्स्य में भी प्राप्त है । वहाँ वसुमनस् , प्रतर्दन, शिबि | बा. १२.३; ऐ. आ. २.२.२)। 'ऋग्वेद के मध्य से एवं अष्टक इन चारों का मातामह ययाति था, ऐसा | संबधित' अर्थ से इन्हे 'माध्यम' नाम प्राप्त हुआ निर्देश भी प्राप्त है। किन्तु मत्स्य में ययाति राजा के कथा | होगा। आश्वलायन गृह्यसूत्र के ब्रह्मयज्ञांगतर्पण में इनका में माधवी का निर्देश प्राप्त नहीं हैं (मत्स्य. ३५-४२)। निर्देश प्राप्त है (आश्व. गृ. ३.४.२)। . ६४२ Page #665 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मान प्राचीन चरित्रकोश मान्धात - मान-अगस्य ऋषि का नामान्तर (ऋ. ७.३३.१३)। मानुतंतव्य--ऐकादशाक्ष नामक राजा का पैतृक नाम इसके वंशजों का निर्देश ऋग्वेद में 'मानाः 'नाम से किया | (ऐ. ब्रा. ५.३०)। मनुतंतु का वंशज होने से इसे यह है, जो ऋग्वेद के सुविख्यात सूक्तद्रष्टे माने जाते हैं (ऋ. नाम प्राप्त हुआ होगा। शतपथ ब्राह्मण में सौमाप नामक १.१६९.८) । अग्वेद में मान्य नामक एक ऋषि का भी | दो आचार्यों का पैतृक नाम 'मानुतंतव्य' बताया गया निर्देश प्राप्त है. जो संभवतः इसका ही पुत्र होगा। 'मान' | है (श. बा. १३.५.३.२)। 'मान्य', एवं 'मानाः, इन सारे ऋषियों का पैतृक | मान्दार्य मान्य--एक ऋषि का नाम, जो संभवतः नाम ऋग्वेद में 'मैत्रावरुणि' बताया गया है। अगस्त्य ऋषि का ही नामांतर है । मान का वंशज होने से मानदन्तव्य--एक आचार्य (खा. ग. २.१.५; गो. | इसे यह नाम प्राप्त हुआ होगा। ऋग्वेद के अगस्त्य ऋषि गृ. १.६.१ )। संभवतः यह एवं 'मानुतन्तव्य' दोनो | के द्वारा रचित सारे सूक्तों के अंत में सूक्तकार के लिए एक ही रहे होंग। यह उपाधि प्रयुक्त की गयी है (क्र. १.१६५.१५,१६६. मानव--नाभानेदिष्ठ एवं शायर्यात नामक आचार्यों का १५,१६७.११, १६८.१०)। पैतृक नाम (प. बा. ५.१४.२, ४.३१.७; श. बा. ४.१. मान्धात यौवनाश्व-(स. इ.) ऋग्वेद में निर्दिष्ट ५.२) । मनु का वंशज इस अर्थ से यह नाम प्रयुक्त | अयोध्या का एक सुविख्यात राजा, जो अश्विनों का आश्रित हुआ होगा। प्रग्वेद में चक्षुस् एवं नाहुष नामक सूक्त- | था (ऋ. १. ११२.१३) वग्वेद में इसका निर्देश अनेक द्रष्टाओं का पैतृक नाम 'मानव' बताया गया है (ऋ| बार प्राप्त है, किंतु वहाँ प्रायः सर्वत्र इसे 'मंधातृ' कहा ९.१०६.४-६, ९.१०१.७-९)। गया है। 'मान्धातृ' का शब्दशः अर्थ 'पवित्र व्यक्ति' २. एक पराणवेत्ता एवं धर्मशास्त्रकार, जिसके नाम है, जिस आशय में इसका निर्देश ऋग्वेद में प्राप्त है पर निम्नलिखित ग्रंथ प्राप्त है :--मानव उपपुराण (दे. | (ऋ. १.११२.१३; ८.३९.८; १०.२.२ )। अन्य एक भा. ३.३); मानव श्रौतसूत्र (मैत्रायणी शाखा); मानव स्थान पर इसे अंगिरस् की भाँति पवित्र कहा गया है वास्तुलक्षण। (ऋ. ८. ४०.१२)। लुडविग के अनुसार, यह एक राजर्षि था, एवं यह एवं नाभाक दोनों एक ही व्यक्ति थे २. अंगिराकुलोत्पन्न एक गोत्रकार । (ऋ. ८. ३९-४२, लुडविग-ऋग्वेद अनुवाद ३. ४. उत्तम मन्वंतर का एक देवविशेष । १०७)। मानवी-परशु एवं इडा नामक वैदिक वाङ्मय में __यह इक्ष्वाकुवंशीय युवनाश्व (द्वितीय) अथवा सौद्युम्नि निर्दिष्ट स्त्रियों का पैतृक नाम (श. बा. १.८.१.२६; ते. राजा का पुत्र था, एवं इसकी माता का का नाम गौरी सं. २.६.७.३; ऋ. १०.८६.३३)। मनु का स्त्रीवंशज था, जो पौरव राजा मतिनार राजा की कन्या थी। इसी इस अर्थ से यह नाम प्रयुक्त हुआ होगा। कारण इसे 'यौवनाश्व' पैतृकनाम, एवं गौरिक' मानस--ज्योतिर्भास नामक लोक में रहनेवाले पितरों | मातृक नाम प्राप्त हुआ था (वायु. ८८.६६-६७)। का सामुहिक नाम । पुराणों में इसे विष्णु का पाँचवाँ अवतार, 'चक्रवर्तिन् ' २. एक यक्ष, जो मणिवर एवं देवजनी के पुत्रों में से | 'सम्राट'' दानशूर धर्मात्मा' एवं सौ अश्वमेध एवं एक था। राजसूय करनेवाला बताया गया है । यह मनु वैवस्वत ३. वशवर्तिन देवों में से एक। के वंश में बीसवी पिढ़ी में उत्पन्न हुआ था, जिस कारण ४. वासुकीकुलोत्पन्न एक नाग, जो जनमेजय के | इसका राज्यकाल २७४० ई. पृ. माना जाता है (मनु सर्पसत्र में दग्ध हुआ था (म. आ. ५२.५)। वैवस्वत देखिये)। यह यादव राजा शशबिन्दु का सम ५. धृतराष्ट्र कलोत्पन्न एक नाग, जो जनमेजय के | कालीन था, जिससे इसका आजन्म शत्रुत्व रहा था। सर्पसत्र में दग्ध हुआ था (म. आ. ५२.१५)। इसके | इसने इन्द्र का आधा सिंहासन जीत लिया था। नाम के लिए 'मानव' पाठभेद प्राप्त है। इसने अपने राज्य के सीमावर्ती पौरव एवं कान्यकुब्ज मानारि--अंगिराकुलोत्पन्न एक गोत्रकार। राज्यों को जीता था, एवं उत्तरीपश्चिम में स्थित द्रुह्य एवं मानिनी--विदूरथ राजा की कन्या, जो सूर्यवंशीय आनव राजाओं को परास्त किया था। यादव राजा इसके राजा की पत्नी थी (राज्यवर्धन् देखिये)। रिश्तेदार थे, जिस कारण इसने उनपर आक्रमण नही ६४३ Page #666 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मान्धात प्राचीन चरित्रकोश मान्धात किया था। किन्तु पश्चिमी भारत में स्थित हैहय राजाओं यह इतना बहादुर था कि, एक दिन में ही इसने सारी को इसने जीता था। पृथ्वी जीत ली थी (म. शां. १२४.१६ ), तथा जयसूचक __ जन्म-इसके पिता युवनाश्व राजा को सौ पत्नियाँ थी, सौ राजसूय तथा अश्वमेध यज्ञ किये थे । इसके पराक्रम परन्तु उनमें से किसी को भी कोई संतान न थी। अतएव | का वर्णन विष्णु पुराण में निम्नलिखित रूप से किया वह हमेशा दुःखी रहता था। एक बार वह जंगल में घूमते | गया है-- घूमते एक आश्रम में आ पहुँचा। वहाँ के ऋषियों ने उसके यावत्सूर्य उदेति स्म, यावच्च प्रतितिष्ठति ।। द्वारा पुत्रप्राप्ति के लिए एक यज्ञ करवाया। यज्ञ समाप्त सर्व तद्यौवनाश्वस्य, मांधातुः क्षेत्रमुच्यते॥ होने के बाद, जब सारे लोग भोजन कर रात्रि को सो रहे (विष्णु. ४.२.१९) थे, तब युवनाश्व राजा की नींद टूटी, तथा वह अत्यधिक प्यासा हआ। प्यास बुझाने के लिए यज्ञमंडप में रक्खे शूरवीर होने के साथ साथ यह दानवीर भी था । इसने हुए हविर्भागयुक्त पेय पदार्थ ( पृषदाज्य ) उसने भूल से बृहस्पति से गोदान के विषय में प्रश्न किया था (म. प्राशन किया, जो ऋषियों ने उसकी राजपत्नियों को गर्भवती अनु, ७६.४)। यही नहीं, यह सदा लाखों गोदान भी। होने के लिए रक्खा था। कालान्तर में उसके द्वारा पिया करता था (म. अनु. ८१.५-६)। दस्युओं से इसने गया 'पृषदाज्य जल' इसके उदर में गर्भ का रूप धारण अपने प्रजा की रक्षा की थी, जिससे इसे 'त्रसदस्यु' कर बढ़ने लगा, तब ऋषियों ने युवनाश्व राजा की कुक्षि नाम प्राप्त हुआ था। इसने एक बार दानस्वरूप अपना का भेद कर उसके उदर से बालक को बाहर निकाला। रक्तदान भी दिया था। यही मांधातृ है। व्रतवैकल्य--प्रजापालन के प्रति इसकी कर्तव्यभावना संगोपन एवं नामकरण--अब यह समस्या थी कि, तथा दयालुता का परिचय पद्मपुराण से मिलता है। इसका पालनपोषण कौन करे। उसी समय भगवान् इन्द्र एक बार इसके राज्य में वर्षी न हुयी, जिसके कारण' प्रत्यक्ष प्रकट हुए, तथा उन्होंने कहा, 'यह मुझे पान | सारे देश में अकाल पड़ गया। सारे देश में करेगा (मां धाता), अर्थात इसका पोषण मैं करूँगा। हाहाकार मच गया, लोग अपने नित्यकर्मों को भूल ऐसा कह कर इंद्र ने अपनी अमृतपूर्ण करांगुली इसे पीने गये । वेदों का पठनपाठन बन्द हो गया। प्रजा की इस :. के लिए दे दी । इसीलिए इस बालक का नाम 'मांधातृ दशा को देखकर यह बड़ा दुःखी हुआ, एवं इसका (मुझे चूसनेवाला) रक्खा गया (म. व. १२६; द्रो. कारण जानने के लिए इसने आमिरस ऋषि से पृच्छा परि. १. क्र. ८ पंक्ति. ५२८-५४१; शां. २९.७४-८६ की। तब उसने बताया, 'तुम्हारे राज्य में एक वृषल दे. भा. ७.९-१०)। तप कर रहा है, इसीलिए यह अकाल फैला है। जब पराक्रम---इन्द्रहस्त के पान करने के कारण, यह तक उसका वध न किया जायेगा, तब तक जलवर्षा न अत्यन्त बलवान् हुआ, एवं शीघ्रता के साथ बढ़ने होगी। किन्तु इसने तपस्वी का वध करना उचित न लगा। बारह दिन की ही आयु में यह बारह वर्ष के समझा, तथा दुर्भिक्ष को समाप्त करने के लिए, पद्मा नामक लड़के के समान दिखाई देने लगा। शीघ्र ही यह सब | एकादशी का व्रत करना प्रारंभ किया। उस व्रत के कारण, विद्याओं का परमपंडित हो कर तप करने में तत्पर | सारे राज्य में खूब वर्षा हुयी, एवं लोगों को भी हुआ। अपने तप के सामर्थ्य पर ही इसने 'अजगव' अकाल से छुटकारा मिला (प. उ.५७)। पम्मपुराण नामक धनुष, तथा अन्य दिव्यास्त्रों को प्राप्त किया। यह में अन्यत्र कहा है कि, इसने 'वरुथिनी एकादशी' का बड़ा वीर एवं पराक्रमी राजा था, जिसने अंगार, मरुत्त, | व्रत भी किया था (पन. उ. ४८)। गय तथा बहद्रथ आदि को युद्ध में परास्त किया था। संवाद-इसका विभिन्न ऋषिमुनियों के अतिरिक्त गुह्य राजवंश के बभ्रु राजा के पुत्र रिपु के साथ इसका | अन्य देवीदेवताओं के साथ भी संबंध था। इंद्र इसका चौदह माह तक घोर संग्राम चलता रहा । किन्तु अन्त में | परम मित्र था। सृञ्जय को समझाते हुए नारदजी ने इसकी इसने उसे पराजित कर उसका वध किया (वायु. ९९. महत्ता का वर्णन किया था (म. द्रो. ५०)। श्रीकृष्ण ने ८)। यही नहीं, इसने अपने बलपौरुष से रावण को भी | स्वयं अपने मुख से इसके गुणों का गान करते हुए. इसके यज्ञों पराजित किया था (भा. ९.६.२६-३८)। | के प्रभाव का वर्णन किया था (म. शां. २९.७४-८६)। ६४४ Page #667 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन चरित्रकोश मान्धातु राजधर्म के विषय में इंद्र-रूपधारी विष्णु के साथ इसका संवाद हुआ था (म. शां. ६४-६५ ) | अंगिरापुत्र उतथ्य ने इसे राजधर्म के विषय में उपदेश दिया था, 'उतथ्य गीता' नाम से सुविख्यात है ( म. शां. ९१९२) । इसके राज्य में मांसभक्षण का निषेध था (म. अनु. ११५.६१) । इसने वसुहोम (वसुदम) से दंडनीति के विषय में ६७ ) । . जानकारी पूछी थी ( म. शां. १२२ ) । मृत्यु में योग से इसके मन में अपने पराक्रम के प्रति गर्व की भावना उत्पन्न हो गयी, एवं इंद्र के आधे राज्य को प्राप्त करने की इच्छा से, इसने उसे युद्ध के लिए चुनौती थी। इंद्र ने रखयं युद्ध न कर के इसे लवणासुर से युद्ध करने के लिए कहा। पश्रात् लवण ने इसे युद्ध में परास्त कर इसका किया था. रा. ६७.२१) आगे चल कर यही लवण दशरथ के पुत्र शत्रुघ्न के द्वारा मारा गया था। -- परिवार-मांचा क्षत्रिय था, किंतु अपनी तरस्या के बल पर ब्राह्मण बन गया था ( वायु. ९१.११४ ) । मधा का विवाह यादरा शशविन्दु की कन्या विन्दुमती से हुआ था, जिसकी माता का नाम चैत्ररथी था। उससे इसे मुचुकुंद, अम्बरीप तथा पुरुकुत्स नामक पुत्र हुए थे (वायु. ८८.७० - ७२ ) । पद्मपुराण में इसके धर्म मुचुकुं शक्रमित्र नामक चार पुत्र दिये गये हैं (प. स. ८) इसे पचास कन्याएँ भी थीं, जिनका विवाह सौभरि ऋषि के साथ हुआ था। इसे शायरी नामक एक बहन भी थी, जिसका विवाह देशका राजाह से हुआ था। कई ग्रंथों में कावेरी को इसकी कन्या अथवा पौत्री कहा गया है। इसके पश्चात् इसका ज्येष्ठ पुत्र पुरुकुत्स अयोध्या देश का राजा बन गया, जिसने अपने पिता का राज्य और भी विस्तृत किया । उसने नर्मदा नदी के तट पर रहनेबाले नाग लोगों की कन्या नर्मश से विवाह सर, मोनेय गंधर्व नामक उनके शत्रुओं को परास्त किया था । इन सारे निधों से प्रतीत होता है कि, पुस्कुस के राज्य का विस्तार नर्मदा नदी के किनारे तक हुआ था ( पुरुकुत्स देखिये) । माया चलकर 'माहियाती' नाम से सुविख्यात हुयी (मुचुकुंद एवं महिष्मत् देखिये ) | मान्य - अगस्त्य ऋषि का नामान्तर ( मान्दार्य मान्य देखिये ) । मान का वंशज होने के कारण, अगस्त्य ऋषि को यह पैतृक नाम प्राप्त हुआ होगा। मान्य मित्रावरुण क.. मान्यमान - देवकनामक राजा का पैतृक नाम (ऋ. ८. १८.२० ) । मन्यमान पुत्र होने के कारण देवक को यह पैतृक नाम प्राप्त हुआ होगा । मान्यमाना शब्दशः अर्थ ' अभिमानी व्यक्ति ' होता है । मान्यवती - करंधमपुत्र अविक्षित् राजा की पत्नी, जो भीम राजा की कन्या थी । इसके स्वयंवर के समय, अछि राजा ने इसका हरण किया था (म. ११९ १७ ) । मामतेय -- दीर्घतमस् ऋषि का मातृक नाम (ऋ. १. ऐ. | ममता वंशज १४४.३८८२२.१ ) का होने कारण, इसे यह मातृक नाक प्राप्त हुआ होगा । मांधिक एक कार के मायववेद में निर्दिए एक राग (ऋ. १०. ९३.१५ ) के अनुसार, यह राम का पैतृक । डविग नाम था ( लुडविग ऋग्वेद अनुवाद २.१६६ ) । मयु अपामायु का शव होने से, उसे यह पैतृक नाम प्राप्त हुआ होगा। माया अधर्म नामक धर्मविरोधी पुरुष की कन्या, जिसकी माता का नाम मृषा था। ब्रह्म नामक अपने भाई से इसे लोभ एवं निकृति नामक पुत्र उत्पन्न हुए थे (अधर्म देखिये ) । सृष्टि का निर्माांग करते समय प्रदा ने इसकी मदद ली थी । उस समय निम्न सात वस्तुओं का निर्माण इसके द्वारा किया गया था : (3) गायत्री-जिससे आगे चलकर समस्त वेदों का निर्माण हुआ। तदोपरान्त वेदों से समस्त संसार का निर्माण हुआ । (२) यी जिससे आप समस्त ओप एवं जीवपोषक वनस्पतियों का निर्माण हुआ । दससे आकर सारे शा (३) शाम का निर्माण हुआ। (४) लक्ष्मी जिससे आगे कर एवं आभूषण उत्पन्न हुये । धातु का तीय पुत्र मुकुंद एक पराक्रमी राजा था, नर्मदा नदी के तट पर ऋक्ष एवं पारियात्र प के बीच एक नगरी की स्थापना की थी। वही नगरी आगे ६४५ Page #668 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माया प्राचीन चरित्रकोश मारीच (५) उमा--जिसने शिव की सहाय्यता ले कर | राक्षस का पुत्र, एवं हिरण्यकशिपु का नाती बताया गया समस्त शास्त्रों का भलोक में प्रसार किया। इसी कारण | है (ब्रह्मांड. ३.५.३६)। ब्रह्मा के वर के कारण, इसे उमा को ज्ञानमाता नाम प्राप्त हुआ। देवताओं से भी अजेयत्व प्राप्त हुआ था (वा. रा. अर. (६) वर्णिका--जिसने समस्त सृष्टि के संरक्षण का | ३८)। भार अपने कंधे पर लिया, एवं दुष्टों का संहार किया। पूर्वजन्म--पूर्वजन्म में यह एक यक्ष था, जिसके पिता इसीने ही आगे चलकर मधु, कैटभ एवं रुरु नामक दैत्यों का अगस्त्य ऋषि ने वध किया था। बड़ा होने पर, इसे का वध किया था। अगस्त्य ऋषि के इस कृत्य का ज्ञान हुआ, जिस कारण (७) धर्मद्रवा--एक नदी, जो आगे चल कर गंगा| इसने उस पर आक्रमण किया । पश्चात् अगस्त्य ऋषि ने नाम से प्रसिद्ध हुयी (पद्म. सृ. ६२)। इसे अगले जन्म में राक्षस प्राप्त होने का शाप दिया मायामोह--विष्णु का अवतार, जो उसने दैत्यों की | (वा. रा. बा. २५)। वंचना करने के लिए धारण किया था। राम से युद्ध-इसमें दस हज़ार हाथियों का बल था। मायावती--मदन की पत्नी रति का नामांतर, जो | यह समालि राक्षस के चार अमात्यों में से एक था। अपनी उसने शंबरासुर के घर रहते समय धारण किया था। माता के साथ यह मलद तथा करुष देशों में रहता था, शिव के द्वारा मदन का दाह होने पर, रति शंबरासुर तथा पास ही होनेवाले विश्वामित्र के यज्ञ का विध्वंस करता के यहाँ रहने के लिए गयी। आगे चल कर, मदन ने था। इसलिये विश्वामित्र अपने यज्ञ के संरक्षण के लिए, . श्रीकृष्ण के पुत्र प्रद्युम्न के रूप में पुनः जन्म लिया । उस | राम को दशरथ से ले आये। राम के बाण से इसके समय इसने प्रद्युम्न के द्वारा शंबरासुर का वध किया, एवं भाई सुबाहु का वध हुआ, एवं उसी बाण के पुच्छभाग से प्रद्युम्न के साथ विवाह किया (भा. १०.५५.१६; विष्णु. आहत हो कर, यह समुद्र में जा गिरा (म. स. परि..१. ५.२७; प्रद्युम्न देखिये)। क्र. २१. पंक्ति ५०१)। बाद में यह लंका में रावण का । मानित-- अमा जो प्रयासर का पत्र था। आश्रित बना कर रहने लगा। इसकी माता का हेमा था । ब्रह्मांड में इसकी माता का जिस समय राम, लक्ष्मण तथा सीता पंचवटी में आकर नाम 'रंभा' दिया गया है (ब्रह्मांड. ३.६.२८-३०)। रहे थे, तब यह दो राक्षसों के साथ हिरन का रूप वालि ने इसका वध किया। धारण कर, राम से अपनी शत्रुता का बदला लेने के लिए, मायु--एक आचार्य, जिसका निर्देश तान्व एवं पार्थ | वहाँ गया। इन्हे देख कर राम ने बापा छोडे, जिसमें इनके नामक ऋषियों के साथ प्राप्त है। दोनों साथियों का वध हुआ, एवं यह वहाँ से भाग निकला मारिषा--दस प्रचेताओं की पत्नी, जो प्राचेतस दक्ष (वा. रा. अर. ३८.३९)। की माता थी (म. आ. ७०.५)। वध-बाद में जब रावण ने सीताहरण का विचार किया, इसके पिता का नाम कण्ड ऋषि था, जिसे प्रग्लोचा | तब उसने इसकी सहायता माँगी। परन्तु यह राम से नामक अप्सरा से यह उत्पन्न हुयी थी (विष्णु. १.१५: - इतना अत्यधिक घबराता था कि, '' शब्द से आरम्भ भा. ४.३०)। इसका जन्म होते ही, प्रम्लोचा अप्सरा ने होनेवाले राजीव, रत्न तथा रमणी शब्द सुनकर ही धैर्य इसे एक पेड़ के नीचे रख दिया, एवं वह स्वयं स्वर्ग खो बैठता। इसने रावण से बारबार अनुनय विनय किया, चली गयी । इस समय यह भूख के मारे रोने लगी, किन्तु उसके डरवाने धमकाने में आ कर, इसे मजबूरन तब सोम ने अपनी तर्जनी से अमृत पिला कर इसे | उसका साथ देना पड़ा (वा. रा. अर. ४०-४१)। पालपोस कर बड़ा किया (विष्णु. १.१५, ब्रह्म. १७८ ह. पंचवटी में आने के उपरांत, यह सुंदर मृग का रूप धारण वं. १.२)। जिस वृक्ष के नीचे यह थी, उसी वृक्ष के कर घूमने लगा। इसे देखकर सीता ने राम से इसे सहारे यह बड़ी हुयी । इसलिए इसे 'वाी' नामांतर मारने के लिये कहा, जिससे वह इसके मृगचर्म की संदर प्राप्त हुआ (भा. ४.३०.४७, म. आ. १८८.१०*)। कंचुकी बना सके । सीता की इच्छा पूर्ण करने के हेतु, मारीच--एक राक्षस, जो रावण का आश्रित था। राम ने इसका पीछा किया, एवं इसका वध किया (वा. यह सुंद राक्षस का पुत्र था, एवं इसकी माता का नाम ! रा. अर. ४३-४५, म. व. २६२.१७-२१)। मरते समयताटका था (वा. रा. बा. २५)। ब्रह्मांट में इसे हाद इसने राम की भाँति पुकारा, 'लक्ष्मण दौडो'। इसे Page #669 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मारीच प्राचीन चरित्रकोश मार्कंडेय सुन कर, सीता ने राम को आपत्ति में जान कर, तुरन्त अपने मार्कंडेय नामक वंशजों के कारण इसकी परंपरा लक्ष्मण को उसकी सहायतार्थ भेजा। इधर रावण ने अबाधित रही हो, एवं उसीका संकेत इसे अमर कह कर सीता का हरण किया। किया गया हो। २. कश्यपकुलोत्पन्न एक गोत्रकार ऋषिगण । ___ मार्कंडेय दसवें त्रेतायुग में उत्पन्न हुआ था। इसकी पत्नी मारीचि--एक दानव, जो कश्यप एवं दनु के पुत्रों में का नाम धूमोणी था (म. अनु. १४६.४)। प्रारम्भ में से एक था। इसकी आयु कम थी, किन्तु बाद में यह दीर्घायु हुआ। मारुत--भृगुकुलोत्पन्न एक गोत्रकार ऋषिगण ।। पहले इसे केवल छः महीने की आयु प्राप्त हुयी थी। २. अंगिराकुलोत्पन्न एक गोत्रकार । किन्तु पाँच महीने तथा चौबीस दिन बीतने के बाद, ३. नितान एवं द्युतान नामक वैदिक सूक्तद्रष्टाओं का सप्तर्षियों ने इसे दर्शन देकर दीर्घायु प्राप्त करने का सामूहिक नाम। आशीर्वाद दिया। ब्रह्मा ने इसे ऋषिश्रेष्ठत्व तथा कल्पांत तक मारुतंतव्य-विश्वामित्र ऋषि के पुत्रों में से एक (म. आयु प्रदान की, तथा पुराणों के रचने का वर प्रदान अनु, ४.५४)। किया। मारुताशन--स्कंद का एक सैनिक (म. श. ४४. पाँचवे वर्ष में इसका उपनयन संस्कार हुआ था । सप्तर्षियों ५७)। ने इसे दण्ड तथा यज्ञोपवीत दिया था (पद्म. सु. ३३)। मारुताश्व--विदथ नामक राजा का पैतृक नाम (ऋ. इसने अपना एक आश्रम स्थापित किया था, जिसकी पूर्ण ५.३३.९)। मरुताश्व का वंशज होने के कारण, उसे यह जानकारी पुलस्त्य ने राम को बतायी थी (नारद, १.५)। नाम प्राप्त हुआ होगा। ___ तपस्या--मार्कंडेय ऋषि ने अत्यधिक घोर तप किया मार्कट--मार्कड नामक अंगिराकुलोत्पन्न गोत्रकार के | था। यह तप छः मन्वन्तरों तक चलता रहा। इसकी लिए उपलब्ध पाठभेद (माकड. २. देखिये)। तपस्या से घबरा कर, पुरंदर नामक इन्द्र ने इसकी तपस्या मार्कटि---अंगिराकुलोत्पन्न एक गोत्रकार । में विघ्न उत्पन्न करने के लिए अनेकानेक प्रयत्न किये। माकड--भृगुकुलोत्पन्न एक गोत्रकार । पुरंदर ने सर्वप्रथम वसंत का निर्माण किया। बाद में २. अंगिराकुलोत्पन्न एक गोत्रकार । इसके नाम के अप्सराओं एवं गंधर्वो आदि के साथ कामदेव को इसकी लिए 'माट' पाठभेद प्राप्त है। तपस्या भंग करने के लिए भेजा, किंतु यह अपनी तपस्या मार्कंडेय-भृगुवंश में उत्पन्न एक महामुनि, जो में निमग्न रहा। इसकी तपस्या से प्रसन्न हो कर नरमकंड अथवा मृकंडु ऋषि का पुत्र था (अग्नि. २०.१०; नारायण, बालमुकुंदरूपी ब्रह्म, तथा स्वयं शंकर भगवान् विष्णु. १.१०.३, नारद. १.४; भा. ४.१-४५)। मृकंड | ने इसे दर्शन दिया। शंकर ने इसे वर प्रदान करते हुए का पुत्र होने से इसे 'मार्कडेय' अथवा 'मार्कड' पैतृक कहा, 'तुम्हारी सारी इच्छायें पूर्ण होंगी । तुम्हें अविनाम प्राप्त हुआ था (मत्स्य. १०३.१३-१५)। च्छिन्न यश प्राप्त होगा । तुम त्रिकालदर्शी होगे, तुम्हें जन्म--पार्गिटर के अनुसार, उपनस् शुक्र का पुत्र | आत्मनात्मावचार का सम्यक ज्ञान होगा, तथा तुम श्रेष्ठ मर्क इसका पिता था । उपनस् शुक्र के सारे बंशज दानव पुराण के कर्ता हो कर, कल्पसमाप्ति तक अजर एवं अमर एवं अनार्य लोगों के साथ संबंध प्रस्थापित करने के | होंगे (भा. १२.८-१०)। इस प्रकार शंकर ने इसे कारण विनष्ट हुए । उनमें से केवल मर्क एवं शंट इन दो चौदह कल्पों तक की आयु प्रदान की (भा. ४.१.४५: पुत्रों ने आर्य लोगों से संबंध प्रस्थापित किया, जिस कारण | म. व. १३०.३२)। उनकी परंपरा अबाधित रही। मर्क का पुत्र मार्कंडेय श्रेष्ठता-यह ब्रह्माजी की सभा में रह कर उसकी तो भृगुकुल का सुविख्यात गोत्रकार बना (मत्स्य. १९५. उपासना करता था (म. स. ११.१२)। ब्रह्माजी के २०)। पुष्कर क्षेत्र में हुए यज्ञ में भी यह उपस्थित था (पन. ___ अमरत्व--दीर्घायु प्राप्त करनेवाले ऋषि के रूप में सु. ३३) । इसने हजार हज़ार युगों के अंत में होनेवाले मार्कंडेय का निर्देश अनेक ग्रंथों में प्राप्त है (म. व. ८६. अनेक महाप्रलय के दृश्य देखे थे। ब्रह्मा को छोड़ कर ५:१८०.३९)। कहीं कहीं इसके अमर होने का उल्लेख | संसार में इससे बड़ी आयुवाला कोई दूसरा व्यक्ति नहीं भी मिलता है (म. व. १८०.४) । संभव यही है कि, था। प्रलयकाल में जब सारी सृष्टि विनष्ट हो जाती है, ६४७ Page #670 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्कडेय प्राचीन चरित्रकोश मार्कडेय तब यह ब्रह्माजी के पास रह कर उनकी आराधना में | के लिए अन्य ऋषियों के साथ यह भी गया था (म.शां. निमग्न रहता है । प्रलयकाल के उपरांत, पुनः रची गयी | ४७.६६% )। यह भीष्म के प्रयाणकाल के समय भी सारी सृष्टि को सब से पहले यही देखता है। इसने अपनी | उपस्थित था (म. अनु. २६.६)। चित्तवृत्तियों का निरोध कर, लोकगुरु ब्रह्मा की कृपा से इसने नारद से विभिन्न प्रकार के प्रश्न किये थे (म. अनु. मरीचि आदि प्रजापतियों को भी जीत लिया था। | २२.७)। नारद ने इसे चार युग तथा भायीधर्म के बारे यह भगवान् नारायण के समीप रहनेवाले भक्तों में में बताया था (म. अनु. ५४, ५७)। युधिष्ठिर ने महासर्वश्रेष्ठ था। इसने सर्वव्यापक परब्रह्म की उपलब्धि के | प्रस्थान से पूर्व अन्य ऋषियों के साथ इसका भी पूजन लिए, स्थानभूत हृदयकमल की कर्णिका का यौगिक-कला | किया था ( म. महा. १.३%)। से उद्घाटन किया था, एवं वैराग्य तथा अभ्यास से प्राप्त | मार्कंडेय-युधिष्ठिर संवाद-महाभारत वनपर्व में हुयी दिव्यदृष्टि के द्वारा विश्वरचयिता भगवान् का 'मार्कंडेयसमस्यापर्व' नामक एक उपपर्व है, जिसमें अनेक बार दर्शन किया था। इसलिए सब को मारनेवाली मार्कंडेय एवं युधिष्ठिर के बीच में हुए तत्त्वज्ञानसम्बन्धी मृत्य, तथा शरीर को जर्जर बना देनेवाली जरा इसका | जरा इसका अनेकानेक संवादों का वृत्तान्त प्राप्त है (म. व. १७९स्पर्श नहीं कर सकती थी (म. व. १८६.२-११)। । २२१)। उस पर्व में निम्नलिखित विषयों पर माकंडेय ने इसने कल्पांत में वटवृक्ष तथा प्रलय का भी दर्शन किया अपने विचार एवं कथासूत्रों का विवेचन किया है :था (ब्रह्म. ५२.५३)। इसने बालमुकुन्द के उदर में प्रवेश ब्राहाणमहात्म्य एवं हैहयवृत्तान्तकथन; पृथु वैन्य के यज्ञ कर वहाँ ब्रह्माण्ड का दर्शन किया था । (म.व. १८८.८८ में हुआ अत्रि-गौतम संवाद; स्वाध्याय दानवृत्तिमहात्म्य, १२५)। उदर से बाहर निकलने पर, इसने बालमुकुन्द | (१८४); वैवस्वत मनु का चरित्र एवं मत्स्योपाख्यान का स्तवन कर उससे वार्तालाप किया था (ब्रह्म. ५४.५६; | (१८५); प्रलयकालीन भगवत्महात्म्य (१८६-१८७); म. व. १८६.८१-१२९)। वायुप्रोक्त कलिभविष्यकथन (१८८-१८९); द्वितीय मयसभा में जब पाण्डवों ने प्रवेश किया था, तब यह | बार ब्राह्मणमहात्म्य (१९०); वृद्धतम इन्द्रद्युम्न कथा वहाँ उपस्थित था (म. स. ४.१३)। ब्रह्मसभा में भी जब | (१९१); धुंधमारआख्यान (१९२-१९५); पतिव्रतापाण्डव गये थे, तब यह वहाँ उपस्थित था (म. स. ११. | ख्यान (१९६-१९७); ब्राह्मणव्याधसंवाद (१९८१२५* पंक्ति. १)। युधिष्ठिर जब माकडेय के आश्रम में | २०६); आंगिरसोत्पत्ति (२०७-२२१)। गया था, तब लोमश ऋषि ने उसे मार्कंडेय का चरित्र | इन सारे संवादों से प्रतीत होता है कि, महाभारतकाल सुनाया था (म. व.१३०)। युधिष्ठिर के वनवास के में इसका अत्यधिक सम्मान था, एवं इसके तत्त्वज्ञानसमय जब यह उससे मिलने गय था, तब वहाँ श्रीकृष्ण सम्बन्धी विचारधारा से युधिष्ठिर आदि ज्ञानी भी भी उपस्थित थे। | प्रभावित थे। उपदेश-इसने पाण्डवों को धर्म का आदेश दिया | ग्रन्थ--इसके नाम पर निम्नलिखित ग्रंथ प्राप्त है :था। युधिष्ठिर के द्वारा प्रश्न किये जाने पर, इसने उससे | १. मार्कडेयस्मृति, २.. मार्कंडेयसंहिता। उसी प्रकार महर्षियों तथा राजर्षियों के जीवनसम्बन्धी विविध उपदेश- | इसने 'मार्कंडेयस्तोत्र' नामक शिव का स्तोत्र भी किया पूर्ण कथायें सुनायी थीं। इसने युधिष्ठिर को विस्तार से था (C.C.)। इसने तामस पुराणों में से 'मार्कडेय' बहुविधरूप से धर्मोपदेश दिया था, एवं प्रयागक्षेत्र का | तथा 'वाराह' नामक पुराणों की रचना की थी (भवि. माहात्म्य बताया था (म. व. १७९-२२१; मत्स्य.१०३- | प्रति. ३.२८.१३)। ११२)। इसने युधिष्ठिर आदि को श्रीराम का उपाख्यान, परिवार--इसकी धर्मपत्नी का नाम धूमोणी था (म. तथा सती सावित्री का चरित्र सुनाया था (म. व. २५७-- | अनु. १४६.४)। इसके पुत्र का नाम वेदशिरस् था २८३)। इसने भद्रतनु नामक ब्राह्मण को दान्त से उपदेश (विष्णु १.१०.४)। प्राप्त करने के लिए कहा था, एवं हेममाली को शाप से। । आश्रम--मार्कंडेय ऋषि का आश्रम हिमालय के उत्तर विमुक्त किया था (पद्म. क्रि. १७; पा. ५२)। भाग में पुष्पभद्रा नदी के तट पर चित्रा नामक शिला के इसने धृतराष्ट्र को त्रिपुरवध की कथा सुनायी थी | पास था। वहाँ इसने अत्यंत उग्र तपस्या की, जिससे (म. क. २४)। शरशय्या पर पडे हुए भीष्म को देखने | भयभीत हो कर इंद्र ने इसकी तपस्या में बाधा डालने का ६४८ . Page #671 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्कंडेय प्राचीन चरित्रकोश मालव इस पर अनुर उप- है, उसी स्थान प्रयत्न किया। किंतु इसकी तपस्या अटूट रही । अंत में 'मातोंड' का शब्दशः अर्थमृत होता है। कई अभ्यासकों नरनारायणों ने प्रसन्न हो कर, इस पर अनुग्रह किया। के अनुसार, पृथ्वी के जिस स्थान पर सूर्य सात महिनों • २. एक ऋषि, जो अयोध्या के दशरथ राजा के उप- तक क्षितिज में रहता है, एवं आठवें माह में अस्तंगत ऋत्विजों में से एक था (बा. रा. बा. ७.५)। राम | होता है, उसी स्थान में इस आदित्य का निवास होता है । दाशरथि राजा के आठ धर्मशास्त्रियों में से यह एक था मार्तिकावत-एक लोकसमूह, जो समुद्र के किनारे (वा. रा. उ. ७४.४)। सीतास्वयंवर के समय यह राम अबु पहाडी के प्रदेश में निवास करता था। परशुराम ने के साथ मिथिला गया था (वा. रा. बा. ६९.४)। पन इस देश के क्षत्रियों का संहार किया था (म. द्रो. परि. के अनुसार, इसने राम को 'अवियोगद कूप' नामक | १.८.८४७)। इस देश का सुविख्यात राजा शाल्व था, पवित्र कुआँ दिखाया था (पश्न. सृ. ३३)। जिसका श्रीकृष्ण ने वध किया था (म. व. १५-१६; वाल्मीकि रामायण में प्रायः सर्वत्र इसका निर्देश- | शाल्व देखिये)। भारतीय युद्ध के समय, इस देश का 'दीघायु ' नाम से प्राप्त है, जिससे प्रतीत होता है कि. | राजा भोज मार्तिकावत था। भोज मार्तिकावत के साथ माकंडेय इसका पैतक नाम था, एवं मृकंड का पुत्र होने | अभिमन्यु का युद्ध हुआ था (म. द्रो. ४७.८)। से इसे यह नाम प्राप्त हुआ था। मार्तिकावतक-मार्तिकावत के राजा शाल्व का ३. एक आचार्य, जो वाय के अनसार व्याप की | नामान्तर (म. द्रा. ४७.८)। ऋशिष्यपरंपरा में से इंद्रप्रमति ऋषि का शिष्य था। | २. चित्ररथ गंधर्व का नामान्तर। H D मार्दमर्षि-विश्वामित्र ऋषि के ब्रह्मवादी पुत्रों में से एक प्राप्त है (व्यास देखिये)। (म. अनु. ४.५७)। मार्गणप्रिया-कश्यप एवं प्राधा की कन्याओं में से। माष्टपिंगलि--अंगिराकुलोत्पन्न एक गोत्रकार | मार्टि--(सो. वसु.) एक राजा, जो विष्णु के अनुसार मार्गपथ-भृगुकुलोत्पन्न एक गोत्रकार । सारण राजा का पुत्र था। मार्टिबत्--(सो. वसु.) एक राजा, जो विष्णु के मार्गवेय--मृगवुपुत्र राम नामक आचार्य का मातृक | अनुसार सारण राजा का पुत्र था। नाम (राम मार्गवेय देखिये)। मालतिका--स्कंद की अनुचरी एक मातृका (म. श. मार्गय--भृगुकुलोत्पन्न एक गोत्रकार । इसके नाम के ४५.४)। लिए 'भार्गेय ' पाठभेद प्राप्त है। मालती--इक्ष्वाकुवंशीय शत्रुधातिन् राजा की पत्नी । मार्जार--एक राजा, जो प्रजापतिपुत्र जांबवत् का २. मद्र देश के अश्वपति राजा की पत्नी । इस के नाम .. पुत्र था । ब्रह्मांड के अनुसार, आगे चल कर, इसीसे | के लिए 'मालवी' पाठभेद प्राप्त है (मालवी देखिये)। मार्जार जाति उत्पन्न हुयी (ब्रह्मांड ३.७.३०६)। सत्यवान् राजा की पत्नी सावित्री इसीकी ही कन्या थी - मार्जारास्या--केसरी वानर की पत्नी । आनंद (सावित्री देखिये)। रामायण के अनुसार, इसे निति धर्धरस्वन नामक पुत्र मालय-गरुड की प्रमुख सन्तानों में से एक (म. उ. उत्पन्न हुआ (आ. रा. सार. १३)। ९९.१४)। पाठभेद-'मलय'। मार्जारि--(सो. मगध. भविष्य.) मगध देश का मालयनि--भृगुकुलोत्पन्न एक गोत्रकार । एक राजा, जो भागवत के अनुसार जरासंध का पौत्र, एवं मालव-पश्चिम भारत में रहनेवाला एक लोकसमूह । सहदेव राजा का पुत्र था। अन्य पुराणों के अनुसार, नकुल ने अपने पश्चिम दिग्विजय में इनका पराजय किया इसे 'सोमाधि' अथवा 'सोमापि' नामांतर भी प्राप्त थे। था (म. स. २९.६)। युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ के समय इसके पुत्र का नाम श्रुतश्रवस् था। ये लोग उपस्थित थे, एवं इन्होने विपुल धनराशि युधिष्ठिर माताड--एक आदित्य, जो द्वादशादित्यों में से | को अर्पण की थी (म. स. ३१.११, ५२.१४ )। आठवाँ माना जाता है (म. आ. ७०.१०; भा. ५.२०. भारतीय युद्ध में ये लोग कौरव पक्ष में शामिल थे। ४४, ब्रह्मांड. ३.७.२७८-३८८)। महाभारत में इसे | भीष्म की आज्ञा के अनुसार, इन लोगों ने अर्जुन से कामधेनु का पति कहा गया है (म. अनु. ११७.११)। मुकाबिला किया था (म. भी. ५५.७४)। किंतु अन्त में प्रा. च. ८२] ६४९ Page #672 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मालव प्राचीन चरित्रकोश माल्यवत् अर्जुन ने मालव योद्धाओं को गहरी चोट लगायी थी (म. । ३. अज्ञातवास के समय द्रौपदी से धारण किया गया द्रो. १८.१६ )। युधिष्ठिर ने भी इन लोगों का संहार | नाम (म. वि. ८.१९)। किया था (म. द्रो. १३२.२३-२५)। परशुराम ने इस | ४. एक अप्सरा, जो पुष्कर एवं प्रम्लोचा नामक देश के क्षत्रियों का संहार किया था (म. द्रो. परि. १.८. | अप्सरा की कन्या थी (म. वि. ८.१४ )। इसका विवाह ८४५)। रुचि राजा से हुआ था, जिससे इसे रोच्य नामक पुत्र सिकंदर के समय ये लोग पंजाब में रहते थे। इन्होंने उत्पन्न हुआ। रोच्य नामक मन्वन्तर का अधिपति रौच्य एवं क्षुद्रक लोगों ने सिकंदर का काफ़ी प्रतिकार किया। किंतु | वही है (मार्क. ९५.५)। अन्त में इन्हे हार खानी पडी, एवं पंजाब देश को छोड़ | ५. एक दुर्वर्तनी ब्राह्मण स्त्री।अपने दुर्वर्तन के कारण, कर, एवं सिंधु नदी को पार कर, ये लोग राजस्थान के अगले जन्म में इसे श्वानयोनि प्राप्त हुयी। आगे चल कर, मार्ग से उज्जयिनि के पास आ कर रहने लगे। इन्हीके वैशाख शुक्ल द्वादशी के दिन द्वादशी व्रत करने के कारण, कारण, उस प्रदेश को 'मालव' नाम प्राप्त हुआ। इसे मुक्ति प्राप्त हो गयी, एवं अगले जन्म में यह उर्वशी २. सौ क्षत्रियपुत्रों का एक समूह, जो मद्रदेश के | नामक अप्सरा हुयी (स्कंद. २.७.२४)। अश्वपति राजा को मालवी नामक पत्नी से उत्पन्न हुआ मालेय-चार राक्षसों का एक समूह, जो विभीषण के था (मालवी देखिये)। अमात्य का काम करता था। इनके नाम इस प्रकार थे:३. विदर्भ नगरी में रहनेवाला एक विष्णुभक्त ब्राह्मण | अनल, अनिल, हर एवं संपाति (वा. रा. उ. ५.४३)। (पद्म. उ. २१८)। माल्य-आर्य नामक आचार्य का पैतृक नाम मालवी--नरेश अश्वपति राजा की बड़ी रानी, एवं (पं. ब्रा. १३.१०.८)। सावित्री की माता । इसे मालव नामक सौ पुत्र उत्पन्न | माल्यापिंडक-एक सर्प, जो नारद ने मालती को'वर । होने का वरदान प्राप्त हुआ था (म. व. २८१.५८)। के रूप में प्रदान किया था (म. उ. १०१.१३)। . इसके नाम के लिए 'मालती' पाठभेद भी प्राप्त है। - माल्यवत्--एक राक्षस, जो सुकेश राक्षस का ज्येष्ठ २. केकय राजा की पत्नी सुदेष्णा का नामांतर (म' | पुत्र था। इसकी माता का नाम देववती था। इसके दो वि. १.१९-३२)। छोटे भाईयों के नाम सुमालि एवं मालि थे। यह रावण का मालाधर--सिद्धेश्वर नामक राजा का पुत्र, जिराकी | मातामह था। ' पत्नी का नाम श्यामबाला था (पन. . ११)। आगे चल कर सुकेश के तीनों पुत्रों की शादियाँ नर्मदा मालावती--कुशध्वज जनक राजा की पत्नी, जिसकी नामक गंधर्वी की तीन कन्याओं से हयीं। उनमें से सुन्दरी कन्या का नाम वेदवती था ( वेदवती देखिये)। नामक कन्या की शादी माल्यवत् से हुयी थी। मालि--एक राक्षस, जो सुकेश नामक राक्षस एवं ___तपस्या-अपने पिता के तपःसामर्थ्य एवं ऐश्वर्य को देववती का पुत्र था । वसुदा नामक गंधर्वी इसकी पत्नी | प्राप्त कर, यह अपने भाइयों के साथ घोर तपस्या करने थी, जिससे इसे अनल, अनिल, हर एवं संपाति नामक | लगा। शीघ्र ही इसने अपनी तपस्या से ब्रह्मदेव को प्रसन्न चार पुत्र उत्पन्न हुए थे। उन पुत्रों को 'मालेय' कर उससे वर प्राप्त किया, एवं त्रिकूट पर्वत के शिखर सामूहिक नाम प्राप्त था। पर, सौ योजन लम्बी एवं वीस योजन चौड़ी सुवर्णमंडित __ इसने अनेक वर्षों तक तप कर अमरत्व एवं अजेयत्व | लंका नामक नगरी प्राप्त की। पश्चात् यह सपरिवार वहाँ प्राप्त किया था। विश्वकर्मा ने इसे रहने के लिए लंका जा कर रहने लगा। नगरी प्रदान की थी। अन्त में श्रीविष्णु के द्वारा इसका विष्णु से युद्ध-कालोपरांत यह तथा इसके भाई गर्व वध हुआ (वा. रा. उ. ५)। में उन्मत्त हो कर देवादि को विभिन्न प्रकार से कष्ट देने लगे। मालिनी-सप्त शिशुमातृकाओं में से एक (म. व. | उन कष्टों से ऊब कर सारे देव शंकर के निर्देश पर विष्णु के २१७.९) । पाठभेद (भांडारकर संहिता)-'बृहली। पास गये । तब इन राक्षसों के वध की प्रतिज्ञा कर के विष्णु २. एक राक्षसकन्या, जो कुबेर की आज्ञा से विश्रवस् | ने देवों को भय से मुक्त किया। जैसे ही माल्यवत् को ऋषि के परिचर्या के लिए रही थी । विश्रवस् ऋषि से इसे | विष्णु की यह प्रतिज्ञा ज्ञात हुयी, यह बहुत घबराया, एवं विभीषण नामक पुत्र उत्पन्न हुआ (म. व. २५९.१-८)। विष्णु के द्वारा की गयी प्रतिज्ञा इसने अपने भाइयों से कह Page #673 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माल्यवत् प्राचीन चरित्रकोश मिजिका सुनायी । भाइयों ने इसको धीरज धराया, एवं देवों से युद्ध | फलस्वरूप इन्हे ' जया एकादशी' का पुण्य प्राप्त हुआ। करने का निश्चय किया। इस युद्ध में, विष्णु ने अन्य देवों इस पुण्य के बल पर ही ये शाप से मुक्त हो सके । बाद के साथ इससे घोर संग्राम करते हुए, इसके भाई मालिका में इन्द्र की आज्ञा से, ये दोनों पतिपत्नी बन कर सुख से वध किया। तब विष्णु के पराक्रम से डर कर, यह अपने रहने लगे (पझ. उ. ४३)। भाई सुमाली के साथ पाताल लोक में जाकर रहने लगा। मावेल्ल--उपरिचर वसु राजा के 'मच्छिल्ल' नाम लंकाप्रवेश-इधर लंका में वैश्रवण नामक कुबेर निवास | पुत्र के लिए उपलब्ध पाठभेद (मच्छिल देखिये)। करता रहा। कुछ समयोपरांत एक दिन यह अपने पाताल- | मावेल्लक--एक लोकसमूह, जो त्रिगर्तराज सुशर्मन् के पुरी से निकल कर मृत्युलोक जा रहा था कि, इसने वैश्रवण | साथ अर्जुन से लड़ने के लिए उपस्थित हुआ था। एवं उसके पिता विश्रवस् को पुष्पक विमान में बैठ कर जाते संभवतः 'मच्छिल' लोगों का यह नामान्तर होगा। हुए देखा। उसके वैभव को देख कर यह आश्चर्यचकित हो माषशरावय-वसिष्ठकुलोत्पन्न एक गोत्रकार ऋषि उठा, एवं उस प्रकार के ऐश्वर्य के भोगलालसा की कामना | गण । संभवतः 'माषशरावीय ब्राह्मण' नामक ग्रंथ की से इसने अपनी कन्या कैकसी वैश्रवण को दी । कालोपरांत | रचना इन्हींके द्वारा की गयी होंगी। वह ब्राह्मण ग्रंथ इसी कैकसी से रावण इत्यादि पुत्र हुए. (सुमालि देखिये)। के उद्धरण मात्र आज उपलब्ध है, मूल ग्रंथ नष्ट हो बाद में जब रावण लंका का राजा हुआ,तब माल्यवत् अपने चुका है। भाई सुमालि तथा अपने परिवार के अन्य राक्षसों के मासकृत-सुतप देवों में से एक । साथ, लंकापुरी में आ कर रहने लगा (वा.रा. उ. ११)। माहकि--वंश ब्राह्मण में निर्दिष्ट एक गुरु का पैतृक बाद में रावण के द्वारा सीता का हरण किया जाने पर, | नाम (वं. बा. २)। महक का वंशज होने के कारण, उसे इसने उसे सीता को तुरन्त राम के पास लौटा देने के | यह पैतृक नाम प्राप्त हुआ होगा। लिए कहा था (वा. रा. यु. ३५.९-१०)। उस समय माहाचमस्य-एक गुरु, जिसे 'भूर् , भुवस् , स्वर' की इसने व्याकुलता से परिपूरित हो कर भावनापूर्ण उपदेश | त्रयी में 'महस्' संयुक्त कराने का श्रेय दिया गया है रावण को दिया था। (ते. आ. १.५.१)। महाचमस् का वंशज होने से इसे 'परिवार--इसे अपनी पत्नी सुन्दरी से वज्रमुष्टि, विरूपाक्ष, | यह नाम प्राप्त हुआ होगा। दुर्मुख, सुप्तघ्न, यज्ञकोप, मत्त, तथा उन्मत्त नामक पुत्र, माहित्थि--एक आचार्य, जो वामकक्षायण नामक तथा अनला नामक पुत्री उत्पन्न हुयी थी (वा. रा. उ.५. | ऋषि का शिष्य था। इसके शिष्य का नाम कौत्स था .३५-३६)। (बृ. उ. ६.५.४ काण्व. श. ब्रा. १०.६.५.९) । यज्ञकर्म . २. पुष्पदंत नामक गंधर्व का पुत्र । एक बार इन्द्रसभा संबंधित विधियों में यह अत्यधिक तज्ज्ञ था, जिस कारण में जब अनेक गंधर्व नृत्यगायन के लिए एकत्र हुए थे, | इसके तत्संबंधि मतों का उद्धरण शतपथ ब्राह्मण में प्राप्त तब उनमें माल्यवत् तथा चित्रसेन की नातिन पुष्पदंती | है (श. बा. ६.२.२.१०, ८.६.१.१६, ९.५.१.५७)। उपस्थित थी। ये दोनों अत्यंत सुंदर थे, अतएव आपसी | माहिष्मत--चंपावती नगरी का एक राजा, जिसे कुल प्रेमभावना में अनुरक्त हो गये । इससे ये तालस्वर से अलग | पाँच पुत्र थे। उनमें से ज्येष्ठ पुत्र अत्यंत दुराचारी था, गाने लगे। इन्द्र ने इन्हें बेसुरा गाते हुए देख कर, राक्षस जिस कारण उसे 'लुपक' नाम प्राप्त हुआ था। आगे होने का शाप दिया। फिर ये दोनों पिशाच हो गये। चल कर, इसने उस पुत्र को नगर से बाहर निकाल दिया काफी समय बीत जाने के उपरांत, एक बार माघ | (पद्म. उ. ४)। माह की दशमी के दिन इनका आपस में झगड़ा हो। माहेश्वरावतार--शिव का एक अवतार (शिव गया, तथा पिशाचयोनि प्राप्त होने के कारण, ये दोनों | देखिये)। आपस में एक दूसरे को सताने लगे। बाद को इन्होंने मिचकृत--रुद्रसावर्णि मनु के पुत्रों में से एक। निश्चय किया कि, इस योनि से मुक्ति प्राप्त करने के | मिंजिका एवं मिंजिक--रुद्र के दो अपत्य, जो श्वेत लिए, कोई भी पापाचरण से ये दर रहेंगे। पर्वत पर उत्पन्न हुए थे (म. व. २२०.१०-१६)। अपनी दूसरे दिन उपवास कर के, इन लोगों ने एक पीपल के संतानों के आरोग्य चाहनेवाले मातापिता इनकी उपासना वृक्ष के नीचे बैठ कर 'रात्रिजागरण' किया, जिसके | करते है। Page #674 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मित प्राचीन चरित्रकोश मित्रयु मित--(सो. पूरु.) एक राजा, जो जय राजा का | अनुसार यह ज्येष्ठ माह में प्रकाशित होता हैं (भा. १२. पुत्र था। ११.३५, वरुण देखिये)। २. एक मरुत् देव, जो मरुतों के पाँचवे गण में ३. लकुलिन् नामक शिवावतार का शिष्य। सम्मिलित था। ४. वसिष्ठ तथा ऊर्जा के पुत्रों में से एक। मितध्वज--(सू. निमि.) विदेह देश का एक राजा, मित्रघ्न--रावणपक्षीय एक असुर, जो राम के द्वारा जो भागवत के अनुसार धर्मध्वज जनक का पुत्र था । इसके | मारा गया (वा. रा. यु. ४३.२७)। पुत्र का नाम खांडिक्य जनक था। __मित्रजित्-(सू. इ. भविष्य.) एक राजा, जो , मिति-उत्तम मन्वन्तर के सप्तर्षियों में से एक। विष्णु के अनुसार सुवर्ण राजा का पुत्र था। भागवत, मित्र-एक वैदिक देवता, जिसका निर्देश ऋग्वेद में | वायु एवं ब्रह्मांड में इसे 'अमित्रजित् ,' तथा मत्स्य में इसे प्रायः सभी जगह वरुण के साथ प्राप्त है। ऋग्वेद में इस | 'सुमित्र' कहा गया है। देवता को महान् आदित्य कहा गया है, एवं इसके द्वारा मित्रज्ञ-पांचजन्य नामक अमि का पुत्र, जो पाँच देव, मनुष्यों में एकता लाने का निर्देश प्राप्त है (ऋ.५.८२)। विनायकों में से माना जाता है (म. व. २१०.१२)। इससे प्रतीत होता है कि, मित्र एक सूर्य देवता,एवं विशेषतः मित्रदेव--त्रिगर्तराज सुशर्मन राजा का भाई, जो सर्य से संबंधित प्रकाश की देवता है । वैदिक ग्रंथों में सभी | भारतीय युद्ध में अर्जुन के द्वारा मारा गया (मः क स्थानों पर मित्र को दिन के साथ, एवं वरुण को रात्रि के | १८.८)। साथ संबंधित किया है। २. रुद्रसावर्णि मनु का एक पुत्र । अथर्ववेद के अनुसार, मित्र प्रातःकाल के समय उन | मित्रधर्मन्-पांचजन्य अग्नि का एक पुत्र, जो पाँच . सभी वस्तुओं को अनावृत कर देता है, जिन्हे वरुण | देव विनायकों में से एक माना जाता है। . . . ने अच्छा दित किया था (अ. वे. ९.३)। यज्ञवेदी | मित्रबाहु-रुद्रसावर्णि मनु का एक पुत्रं। . पर मित्र को एक श्वत, तथा वरुण को एक कृष्णवर्णीय प्राणि बलि अर्पित करने का निर्देश तैत्तिरीय मित्रभू काश्यप--एक आचार्य, जो विभांडक काश्यप संहिता में प्राप्त है (तै. सं. २.१.७.९.; मै. सं. २.५)। नामक आचार्य का शिष्य था। इसके शिष्य का नाम इंद्रभू । वैदिक ग्रंथों के समान अवेस्ता में भी मित्र को सौर काश्यप था (वं. बा.२)। . देवता माना गया है, जहाँ इसका निर्देश 'मिथ' नाम से मित्रभूति लौहित्य--एक आचार्य, जो कृष्णदत्त किया गया है । वैदिक ग्रंथों के भाँति अवेस्ता में भी, इसे | लौहित्य नामक आचार्य का शिष्य था (जै. उ. ब्रा. ३. समस्त प्राणिजाति का मित्र, एवं प्रकृति की एक हितकर | ४२.१)। शक्ति माना गया है। २. एक आचार्य, जो विष्णु, वायु एवं ब्रह्मांड के २. बारह आदित्यों में से एक । इसकी माता का नाम अनुसार, व्यास की पुराणशिष्यपरंपरा मे से रोमहर्षण ऋषि का शिष्य था। . आदिति, एवं पिता का नाम कश्यप था (म. आ. ५९. १५)। अन्य आदित्यों के साथ यह अर्जुन के जन्मोत्सव मित्रयु-(सो. नील.) एक नीलवंशीय राजा, जो में उपस्थित था। खाण्डववनदाह के समय हुए युद्ध में, इसने | दिवोदास राजा का पुत्र था। मत्स्य एवं वायु में इसे इन्द्र की ओर से हाथ में चक्र ले कर, अर्जुन एवं श्रीकृष्ण | 'मित्रायु,' एवं भागवत एवं विष्णु में से इसे 'मित्रेयु' पर आक्रमण किया था। इसने स्कंद को सुव्रत एवं सत्यसन्ध | कहा गया है। नामक दो पार्षद प्रदान किये थे (म. श. ४४.३७)। । इसके पुत्र का नाम च्यवन था (गरुड. १.१४.२२)। इसकी पत्नी का नाम रेवती था, जिससे इसे उत्सर्ग, | किन्तु वायु एवं मत्स्य में इसके पुत्र का नाम 'मैत्रेय' अरिष्ट एवं पिप्पल नामक तीन पुत्र उत्पन्न हुए थे (भा.६. | कहा गया है। हरिवंश के अनुसार, यह एक शाखा१८.६)। प्रवर्तक आचार्य था, जिससे 'मैत्रेय ब्राह्मण' एवं 'मैत्रायणी __ भविष्य के अनुसार, मार्गशीर्ष माह में प्रकाशित | शाखा' उत्पन्न हुयी (ह. वं. १.३२)। होनेवाले सूर्य को मित्र कहते है, एवं इसके ग्यारहसौ। २. भृगुकुलोत्पन्न एक ऋषि, जिसकी कन्या का नाम किरण रहते है (भवि. ब्राह्म. ७८.५७)। भागवत के | मैत्रेयी था। ६५२ Page #675 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मित्रवत् प्राचीन चरित्रकोश मिथु मित्रवत्-एक तपस्वी, जो सौपुर नामक नगर में मित्रसेन-दुर्योधन के पक्ष का एक राजा, जो अर्जुन रहता था। एक बार इसने शिव के मंदिर में गीता के के द्वारा मारा गया (म. क. १९.२०)। पाटभेद दूसरे अध्याय का पाठ किया, जिस कारण इसके मन को (भांडारकर संहिता)-'मित्रदेव'। पूर्णशान्ति प्राप्त हुयी। २. रुद्रसावणि मनु का एक पुत्र । ___ आगे चल कर, देवशर्मा नामक एक ब्राह्मण को मनः मित्रहन्--रुद्रसावर्णि मनु का एक पुत्र । शान्ति की इच्छा उत्पन्न हुयी । फिर मुक्तकर्मा नामक मित्रा--मैत्रेय कोषारव नामक आचार्य की माता तपस्वी के कहने पर वह इसके पास आया । पश्चात् इसने | (मैत्रेय कोषारव देखिये)। देवशर्मा को भी गीता के दूसरे अध्याय का पठन करने २. देवी उमा की अनुगामिनी सखी (म. व. २२१. के लिए कहा (पन. उ. १७६ )। २०)। . २. पांचजन्य अग्नि का एक पुत्र, जो पाँच देव विनायकों | मित्रातिथि--एक राजा, जो कुरुश्रवण राजा का में से एक माना जाता है (म. व. २१०.११)। पिता, एवं उमश्रवस् राजा का पितामह था (ऋ. १०.३३. ३. रुद्रसावर्णि मनु के पुत्रों में से एक। ७)। इसकी मृत्यु के पश्चात् , कवष ऐलुष नामक ऋषि ने मित्रवर्चस् स्थैरकायण--एक आचार्य, जो सुप्रतीत इसके पौत्र उमश्रवस् की सांत्वना की थी। औलुण्डय नामक आचार्य का शिष्य था। इसके शिष्य का मित्रावरुण-मित्र एवं वरुण' देवताओं के लिए नाम ब्रह्मवृद्धि छांदोग्यमाहकि था (वं. ब्रा. १)। प्रयुक्त संयुक्त नामांतर (म. श. ५३.१२; मित्र एवं वरुण 'स्थिरक' का वंशज होने के कारण, इसे 'स्थैरकायण' | देखिये)। इनका आश्रम 'कारपवनतीर्थ' के समीप था। पैतृक नाम प्राप्त हुआ होगा। २. वसिष्ठकुलोत्पन्न एक प्रवर, जिनके पुत्रों का नाम मित्रवर्धन--पांचजन्य अग्नि का पुत्र, जो पाँच देव अगस्त्य एवं वसिष्ठ था (भा. ६.१८.५)। विनायकों में से एक माना जाता है (न. व. २१०.११)। मित्रेयु--नीलवंशीय राजा मित्रयु के लिए उपलब्ध मित्रवर्मन्--त्रिगर्तराज सुशर्मन् का भाई, जो भारतीय | पाठभेद (मित्रयु १. देखिये )। . युद्ध में अर्जुन के द्वारा मारा गया (म. क. १९.९)। मिथि--(सू . निमि.) विदेह देश का एक राजा, मित्रविंद -रुद्रसावर्णि मनु का एक पुत्र। जो निमिराजा के मृत देह का मंथन करने पर उत्पन्न हुआ २. एक देवता । रथन्तर नामक अग्नि को दी हुयी हवि था । मंथन से उत्पन्न होने के कारण, इसे 'मिथि' अथवा इसे प्राप्त होती है (म. व. २१०.१९)। 'मिथिल' नाम प्राप्त हुआ था (भा. ९.१३. १३)। मित्रविंद काश्यप-एक आचार्य, जो सुनीथ कापटव विदेह देश की राजधानी मिथिला की स्थापना इसीनामक आचार्य का शिष्य था। इसके शिष्य का नाम ने की थी। इसके पुत्र का नाम उदावपु था (वायु. ८९. केतु वाज्य था (वं. बा.१)। ४-६; ब्रह्मांड. ३.६४.१-६)। मित्रविंदा-अवंतीनरेश जयसेन राजा की कन्या, मिथिल-(सो. अज.) एक राजा, जो भरत का जो श्रीकृष्ण की आठ पटरानियों में से एक थी। इसकी | वंशज था। इसके पुत्र का नाम जह्न था (म. अनु. ७. माता का नाम राजाधिदेवी था, जो श्रीकृष्ण की फूफा २)। महाभारत के बम्बई संस्करण में प्राप्त वंशावली में, थी। इसे दिन्द एवं अनुविंद नामक दो भाई थे। इसके स्थान पर अजमीढ़ राजा का नाम प्राप्त है। इसके स्वयंवर के समय, श्रीकृष्ण ने इसका हरण २.(सू. निमि.) निमिपुत्र मिथि राजा का नामान्तर। किया। श्रीकृष्ण से इसे निम्नलिखित दस पुत्र उत्पन्न हुयें थे:-वृक, हर्ष, अनिल, गृध्र, वर्धन, उन्नाद, महाश, पावन, मिथु-एक शूर दानव । एक समय सरस्वती नदी के वह्नि एवं क्षुधि (भा. १०.५८. ३०-३१, ६१.१६)। | किनारे, आर्टिषेणपुत्र भर राजा अपने उपमन्यु नामक द्वारका में इसका महल वैदूर्य मणि के समान कान्ति- पुरोहित के साथ अश्वमेध यज्ञसमारोह कर रहा था। मान, एवं हरे रंग का था। देवगण भी उसकी सराहना | इसने भर एवं उपमन्यु इन दोनों को उठा कर पाताल में करते थे (म. स. परि. १.२१.१२६०)। भगाया। पश्चात् उपमन्यु के देवापि नामक पुत्र ने शिव मित्रसह-इक्ष्वाकुवंशीय कल्माषपाद राजा का की उपासना कर उन दोनो की मुक्तता की (ब्रह्म. १२७. नामांतर। | ५६-५७)। ६५३ Page #676 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मिश्रकशी प्राचीन चरित्रकोश मुचुकुंद मिश्रकेशी--एक अप्सरा, जो कश्यप एवं प्राधा की | मुचि--एक राक्षस, जो नमुचि का छोटा भाई था। कन्या थी (म. आ. ५९.४८)। पूरु राजा के पुत्र रौद्राश्व | इन्द्र ने नमुचि का वध करने पर, इसने क्रुद्ध हो कर इंद्र पर के साथ इसका विवाह हुआ था, जिससे इसे निम्नलिखित | आक्रमण किया। पश्चात् इंद्र ने इसका भी वध किया दस महाधनुर्धर पुत्र उत्पन्न हुए थे:--अन्वग्भानु, रुचेयु, (पद्म. सृ. ६८)। कक्षेयु (कृकणेयु), स्थंडिलेयु, बनेयु, स्थलेयु, तेजेयु, मुचुकुंद--(सू. इ.) एक सुविख्यात इक्ष्वाकुवंशीय सत्येयु, धर्मयु (घर्मयु), एवं संतनेयु (संततेयु) (म. | राजा, जो मांधातृ राजा का तृतीय पुत्र था। राम दाशरथि आ. ८९.८७३४% ८९.९-१० पाठ.)। के पूर्वजों में से यह इकतालिसवाँ पुरुष था। इसके नाम २. वसुदेव के भाई वत्सक राजा की पत्नी, जिससे इसे | के लिए 'मुचकुंद' पाठभेद भी प्राप्त है (म. शां. वृक आदि पुत्र उत्पन्न हुए थे (भा. ९.२४.४३; म. आ. | ७५.४)। ५९.४८)। मिश्री--एक नाग, जो बलराम के स्वर्गारोहण के समय, इसकी माता का नाम बिन्दुमती था (ब्रह्मांड. ३.६३. उसके स्वागतार्थ प्रभासक्षेत्र में उपस्थित था। ७२, मत्स्य. १२.३५, ब्रह्म. ७.९५)। इसने नर्मदा नदी के तट पर पारिपात्र एवं ऋक्ष.पर्वतों के बीच में अपनी एक मीदष-शक नामक आदित्य का एक पुत्र । इसकी नयी राजधानी स्थापन की थी। आगे चल कर, हैहय. माता का नाम पौलोमी था (पौलोमी १. देखिये)। राजा महिष्मंत ने उस नगरी को जीत लिया, एवं उसे.. मीदवस्--(सू . नरि.) एक राजा, जो भागवत के 'माहिष्मती' नाम प्रदान किया। इससे प्रतीत होता है अनुसार दक्ष राजा का पुत्र था। इसके पुत्र का नाम कूर्च कि, मुचुकुंद राजा की उत्तर - आयु में इक्ष्वाकु वंश की . था। राजसत्ता काफी कम हो चुकी थी। इसने 'पुरिका' नामक मीनरथ--(सू. निमि.) विदेह देश का एक राजा, और एक नगरी की भी स्थापना की थी, जो विध्य एवं जो अनेनस् राजा का पुत्र था । भागवत में इसके नाम के | ऋक्ष पर्वतों के बीच में बसी हुयी थी ( ह. वं. २.३८.२, लिए 'समरथ' पाठभेद प्राप्त है। १४-२३)। मुकुट--एक क्षत्रिय वंश, जिसमें 'विगाहन' नामक कुलांगार राजा उत्पन्न हुआ था। मुचुकुंद-वैश्रवण संवाद-मुचुकुंद ने अपने बाहुबल मुकुटा--स्कंद की अनुचरी एक मातृका (म. श. ४५. से पृथ्वी को अपने अधिकार में ला कर, उस पर राज्य स्थापित किया था। इसकी जीवनकथा एवं वैश्रवण नामक २३)। . मकुंद--एक राजा, जिसकी अस्थियाँ सहजवश इंद्र के साथ हुआ इसके संवाद का निर्देश महाभारत में यमुना नदी में गिरने के कारण यह मुक्त हुआ था। प्राप्त है, जो कुन्ती ने युधिष्ठिर को बताया था (म. उ. (पद्म. उ. २०९-२१०)। १३०.८-१०; शां. ७५)। .. मुक्त--भौत्य मन्वन्तर के सप्तर्षियों में से एक। एक बार स्वबल की परीक्षा देखने के लिए इसने कुबेर मुक्तकर्मन्-एक मुमुक्षु साधक, जो गीता के दूसरे | पर आक्रमण कर दिया। तब कुबेर ने राक्षसों का निर्माण अध्याय के पठन से मुक्त हुआ था ( मित्रवत् देखिये)। | कर, इसकी समस्त सेना का विनाश किया। अपनी बुरी मुखकर्णी-स्कंद की अनुचरी एक मातृका (म. श. | स्थिति देख कर, इसने अपना सारा दोष पुरोहितों के सर ४५.२८)। इसके नाम के लिए 'सुकर्णी' पाठभेद प्राप्त | पर लादना शुरू किया । तब धर्मज्ञ वसिष्ठ ने उग्र तपश्चर्या कर राक्षसों का वध किया। उस समय कुबेर ने इससे मुखमंडिका-शिशुग्रहस्वरूपा दिति का नामान्तर | कहा, 'तुम अपने शौर्य से मुझे युद्ध में परास्त करो। (म. व. २१९.२९)। | तुम ब्राह्मणों की सहायता क्यों लेते हो ?' तब इसने कुबेर मुखर--एक कश्यपवंशीय नाग (म.उ.१०१.१६)। को तर्कपूर्ण उत्तर देते हुए कहा, 'तप तथा मंत्र का बल मुखसेचक--धृतराष्ट्रकुल में उत्पन्न एक नाग, जो | ब्राह्मणों के पास होता है, तथा शस्त्रविद्या क्षत्रियों के पास जनमेजय के सर्पसत्र में दग्ध हुआ था (म.आ.५२.१४)। होती है। इस प्रकार राजा का कर्तव्य है कि, इन दोनों इसके नाम के लिए ' मुखमेचक' पाठभेद प्राप्त है। शक्तियों का उपयोग कर राष्ट्र का कल्याण करे। इसके मुख्य सावर्णि मन्वन्तर का एक देवविशेष। | इस विवेकपूर्ण वचनों को सुन कर कुबेर ने इसे पृथ्वी का Page #677 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुचुकुंद राज्य देना चाहा, किन्तु इसने कहा, 'मैं अपने बाहुबल से पृथ्वी को जीत कर उस पर राज्य करूंगा । प्राचीन चरित्रकोश कालयवन का वध - कालयवन नामक राक्षस एवं श्रीकृष्ण से संबंधित मुचुकुंद राजा की एक कथा पद्म, मा विष्णु, वायु आदि पुराणों में, एवं हरिवंश में प्राप्त है । उस कथा में इसके द्वारा कालयवन राक्षस का वध करने का निर्देश प्राप्त है। किन्तु ऐतिहासिक दृष्टि से यह कथा कालविपर्यस्त प्रतीत होती है ? • एक बार देवासुर संग्राम में, देस्यों के विरुद्ध लड़ने के लिए देवों ने मुचुकुंद की सहाय्यता की थी। उस युद्ध में देवों की ओर से लड़ कर इसने दैत्यों को पराजित किया, एवं इस तरह देवों की रक्षा की । इसकी वीरता से प्रसन्न हो कर, देवों ने इसे वर माँगने के लिए कहा । 'किन्तु उस समय अत्यधिक थका होने के कारण, यह निद्रित अवस्था में था। अतएव इसने वरदान माँगा, 'मैं सुख की नींद सोऊ, तथा यदि कोई मुझे उस नींद में जगा दे, तो वह मेरी दृष्टि से जल कर खाक हो जाये। इसके सिवाय इसने श्रीविष्णु के दर्शन की भी इच्छा प्रकट की। इस प्रकार पर्वत की गुफा में यह काफी वर्षों तक निद्रा का मुख लेता रहा। इसी बीच एक घटना घटी । कालयवन ने कृष्ण को मारने के लिए उसका पीछा किया । कृष्ण भागता हुआ उसी गुफा में आया, जहाँ पर यह सोया हुआ था। इसके ऊपर अपना उत्तरीय डाल कर, कृष्ण स्वयं छिप गया । पीछा करता हुआ कालयवन गुफा में आया, तथा इसे कृष्ण समझ कर, खात के प्रहार से उसने इसे जगाया । मुचुकुंद बड़े क्रोध से उठा, तथा जैसे ही इसने कालयवन को देखा, वह उठकर वही भस्म हो गया। - कृष्णदर्शन- बाद में कृष्ण ने इसे दर्शन दे कर, राज्य की ओर जाने को कहा, तथा वर प्रदान किया, 'तुम समस्त प्राणियों के मित्र, तथा श्रेष्ठ ब्राह्मण बनोगे, तथा उसके उपरांत मुक्ति प्राप्त कर मेरी शरण मे आओगे'। श्रीकृष्ण के द्वारा पाये अशीर्वचनों से तुष्ट हो कर यह अपनी नगरी आया। यहाँ इसने देखा कि इसके राज्य को किसी दूसरे ने ले लिया है, एवं सभी मानव निन्न विचारधारा एवं प्रवृत्ति के हो गये है । यह देखते ही यह समझ गया कि, कलियुग का प्रारंभ हो गया है । । यह अपने नगर को छोड़ कर हिमालय के बदरिकाश्रम में जा कर तप करने लगा। वहाँ कुछ दिनों तक तपश्चर्यां मुंड करने के उपरांत, राजर्षि मुचुकुंद को विष्णुपद की प्राप्ति हुयी ( भा. १०.५१ विष्णु, ५.२३; ब्रहा. १९६: ह. वं. १.१२.९; २.५७ ) । संवाद --- यह उन राजाओं में था, जो सायंप्रातःस्मरणीय हैं ( म. अनु. १६५.५४ ) । इसने परशुराम से शरणागत की रक्षा के विषय में प्रश्न किया था, और उन्होंने इसे उचित उत्तर दे कर, कोत की कथा बता कर इसकी जिज्ञासा शान्त की थी ( म. शां. १४१-१४५) । राजा काम्बोज से इसे खड्ग की प्राप्ति हुयी थी, जिसे बाद को इसने मस्त को प्रदान किया ( म. शां १६०.७५) गोदानमहिमा के विषय में इसका निर्देश आदरपूर्वक आता है (म. अनु. ७६.२५)। यही नहीं, अपने जीवनकाल में इसने मांस भक्षण का भी निषेध कर रक्खा था। । परिवार -- इसके पुरुकुत्स और अंबरीष नामक दो भाई थे (भा. ९.६.३८६ वायु. ८८.७२ विष्णु . ४.२.२० ) । इसकी बहनों की संख्या ५० थीं, जिनका वरण समिरि ऋषि ने किया था (गरुड. १.१३८.२५ ) | । २. एक राजा, जिसकी कन्या का नाम चन्द्रभागा, तथा दामाद का नाम शोभन था ( पद्म. उ. ६० ) । मुंज-- एक ऋषि जो द्वैतवन में पाण्डयों के साथ उपस्थित था। मुंज सामश्रवस एक राजा, जो समभवस् का - वंशज था (जै. उ. बा. ३.५.२; प. बा. ४.१ ) । केतु -- युधिष्ठिर की सभा का एक राजा (म. स. ४.१८ ) । मुंजकेश - एक आचार्य, जो वायु के अनुसार, व्यास की अथर्वनशिष्यपरंपरा में से सैंधवायन नामक ऋषि का शिष्य था । अन्य पुराणों में इसे 'बभ्रु' का ही नामांतर बताया गया है। इसके नाम पर पाँच ग्रंथ उपलब्ध हैं। २. एक क्षत्रिय राजा, जो निचंद्र नामक असुर के अंश से उत्पन्न हुआ था (म. आ. ६१.२६)। भारतीय युद्ध में पाण्डवों की ओर से इसे रणनिमंत्रण भेजा गया था (म. उ. ४.१४ ) । मुंड -- एक असुर, जो शुंभ एवं निशुंभ का सेनापति था । इसका निर्देश चण्ड नामक असुर के साथ प्रायः सर्वत्र प्राप्त हैं (डमुंड देखिये) । २. भृगुकुलोत्पन्न गोत्रकार 'मंड' के नाम के लिए उपलब्ध पाठभेद । ६५५. Page #678 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन चरित्रकोश मुद्गल ३. कौरव दल का एक मुंडदेशीय योद्धा (म. भी. | है । षड्गुरुशिष्य के अनुसार, एक समय चोरों ने इसकी ५२.९ पाठ.)। सारी गायें एवं बैल चुरा लिए, केवल एक बूढा बैल मुंडवेदांग--धृतराष्ट्रकुलोत्पन्न एक नाग, जो जन- | बच गया। पश्चात् उसे ही केवल गाड़ी को जोत कर मेजय के सर्पसत्र में दग्ध हुआ था (म. आ. ५२. | इसने चोरों का पीछा किया, एवं एक लकड़ी का 'मुगल' १५)। (द्रुघण) को फेंक कर, भागनेवाले चोरों को पकड़ लिया मुंडी-कंद की अनुचरी एक मातृका (म.श. ४५. | (ऋग्वेद सर्वानुक्रमणी पृष्ठ १५८)। यास्क के अनुसार, १७)। इसके नाम के लिए 'मंडोदरी' पाठभेद प्राप्त है। इसने दो बैलों की अपेक्षा बैल एवं द्रुघण गाडी को जोत मंडिभ औदन्य (औदन्यव)-एक आचार्य (श. बा. कर, चोरों का पीछा किया था (नि. ९.२३-२४)। १३.३.५.४ )। उदन्य का पुत्र अथवा वंशज होने से इसे | पिशेल के अनुसार, रथ की एक दौड़ में अपनी पत्नी 'औरन्य' पैतृक नाम प्राप्त हुआ था (ते. ब्रा. ३.९.१५. की सहायता से मुद्गल विजयी हुआ था, जिसका निर्देश ३)। सेंट पीटर्सबर्ग कोश के अनुसार, ओदन का पुत्र | ऋग्वेद के इस सूक्त किया गया है (वेदिशे स्टूडियेन १. होने से इसे यह नाम प्राप्त हुआ था। १२४)। अश्वमेध यज्ञ के समय, यज्ञकर्ता पुरुष के हाथों भ्रूण- २.( सो. अज.) एक राजा, जो भाश्व या भद्राश्व हत्त्या आदि के जो पातक होते है, उनसे मुक्तता मिलने | राजा का पुत्र था। यह एवं इसके वंशज पहले क्षत्रिय के लिए इसने प्रायश्चित्तविधि बताया है, जो अवभृत थे, किन्तु बाद को ब्राह्मण बन गये थे। इसका वंश इसी स्नान के पहले किया जाता है। के नाम से 'मुद्गल वंश' कहलाया जाता है, एवं इसके . ' मुद--एक ऋषि, जो स्वायंभुव मन्वन्तर के धर्म ऋषि | वंश में उत्पन्न क्षत्रिय ब्राह्मण 'मुद्गल' अथवा 'मौद्गल' का पुत्र था। इसकी माता का नाम तुष्टि था। ब्राह्मण कहलाते है (भा. ९.२१; वायु. ९९.१९८; . मुदावती-विदूरथ राजा की कन्या, जिसका हरण | ब्रह्मवैः ३.४३.९७; मत्स्य. ५०.३-६; ह. वं. १.३२.. कुजंभ नामक राक्षस ने किया था । भलंदन राजा के | ६८; मैत्रेय सोम देखिये)। पत्र वत्सप्रिने कजंभ का वध किया, एवं इसे छुड़ा कर | ३. एक आचार्य, जिसका निर्देश वैदिक ग्रंथों में प्राप्त इससे विवाह किया। इसे 'सुनंदा' नामान्तर भी प्राप्त | है (अ. वे. ४.२९,६; आश्व. श्री. १२.१२; बृहहे. ६: था (मार्क. ११३.६४)। ४६)। इसी के वंश में निम्नलिखित आचार्य उत्पन्न मुदावर्त--हैहयवंश का एक कुलांगार राजा (म. उ. हुये, जो 'मौद्गल्य' कहलाते है :-नाक, शतबलाक्ष, एवं ७२.१३)। लांगलायन। मुदित--राम की सेना का एक वानर । ४. वेदविद्या में पारंगत एक आचार्य, जो जनमेजय के मदिता-सह नामक अग्नि की भार्या (म. व. २१२. | सर्पसत्र में सदस्य था। इसे 'मौद्गल्य' नामांतर भी प्राप्त था १)। | (म. व. २४६.२७)। मदर--तक्षककुलोत्पन्न एक नाग, जो जनमेजय के | यह कुरुक्षेत्र में शिलोञ्छवृत्ति से जीवन-निर्वाह करता सर्पसत्र में दग्ध हुआ था (म. आ. ५२.९)। था। एक समय दुर्वास ऋषि इसके आश्रम में आये, एवं मुद्रपर्णक--एक कश्यपवंशीय नाग, जिसका विवाह | उसने इसकी सत्वपरीक्षा लेनी चाही । किन्तु यह अपने मातलि की कन्या गुणकेशी के साथ करने का प्रस्ताव | सत्व से अटल रहा, जिस कारण प्रसन्न हो कर, दुर्वास ने नारद ने किया था (म. उ. १०१.१३)। इसे स्वर्गप्राप्ति का आशीर्वचन दिया। किन्तु स्वर्ग अशामुद्रपिंडक-एक नाग, जो कश्यप एवं कद्रू का पुत्र | श्वत होने के कारण, इसने स्वर्ग में जाने से इन्कार कर था। दिया (म. व. २४६-२४७)। मुद्गल-एक वैदिक राजा, जिसकी पत्नी का नाम शतद्युम्न नामक राजा ने इसे एक सुवर्णमय भवन मुद्गलानी था (ऋ. १०.१०२)। ऋग्वेद में अन्यत्र इसकी प्रदान किया था (म. शां. २२६.३२, अनु. १३७. पत्नी का नाम इंद्रसेना दिया गया है। २१)। चोरों का पीछा-यह एवं इसकी पत्नी के संबंध में | ५. अत्रिकुलोत्पन्न एक गोत्रकार, जो दत्त आत्रेय का जो सूक्त ऋग्वेद में प्राप्त है, उसका अर्थ अत्यंत अस्पष्ट | पुत्र था। Page #679 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुगल प्राचीन चरित्रकोश ६. अंगिराकुलोत्पन्न एक गोत्रकार, मंत्रकार एवं प्रवर । ५. दस विश्वेदेवों में से एक । ७. एक आचार्य, जो व्यास की ऋशिष्यपरंपरा में ६. वैवस्वत मन्वन्तर के सप्तर्षियों में से एक । से देवमित्र ऋषि का शिष्य था। इसके नाम के लिए ७. प्रसूत देतों में से एक। 'मौद्गल' पाठभेद प्राप्त है। ८. अमिताभ देवों में से एक । मुक्तिकोपनिषद में इसका निर्देश उपलब्ध है (मु. ९. (स. निमि.) विदेह देश का एक राजा, जो वायु .. उ. १.३५ )। इसके नाम पर एक स्मृति भी प्राप्त है | के अनुसार प्रद्युम्न राजा का पुत्र था। विष्णु एवं भागवत (C.C.)। में इसे 'शुचि' कहा गया है। ८. चोल देश के राजा का पुरोहित, जिसने अपने १०. एक राजा, जो द्युतिमत् राजा के सात पुत्रों में से राजा के लिए विष्णुयाग नामक यज्ञ किया था। इसके | एक था। इसका देश (वर्ष) इसी के नाम से सुविख्यात द्वारा किया गया यह याग निष्फल शाबित हुआ, जिस | था (मार्क. ५.२४)। कारण चोल राजा ने आत्महत्त्या की, एवं इसने अपनी | ११. एक ऋषिविशेष । महाभारत एवं पुराणों में ऋषि शिखा उखाड डाली । तब से मुद्गल वंश के ब्राह्मण शिखा एवं मुनियों का निर्देष अनेक बार आता है, उनमें से नही रखते है (पन. उ. १११; स्कंद. २.४.२७)। 'मुनि' शब्द की व्याख्या महाभारत में इसप्रकार दी इसकी स्त्री का नाम भागिरथी था, जिससे इसे मौद्गल्य | गयी है :नामक पुत्र उत्पन्न हुआ (मौद्गल्य २. देखिये)। मौनाद्धि स मुनिर्भवति, नारण्यवसनान्मुनिः । पद्म में 'द्वादशीव्रत महात्म्य कथन करने के लिए, मुद्गल (म. उ. ४३.३५)। नामक एक ब्राह्मण की कथा दी गयी है (पन. उ.६६)। (कोई भी साधक मौनव्रत का पालन करने से मुनि बनता स्कंद में क्षीरकुंड का माहात्म्य कथन करने के लिए, मुद्गल | है. केवल वन में रहने से नही)। की एक कथा दी गयी है (स्कंद. १.३.३७)। संभवतः | उपनिषदों के अनुसार, अध्ययन, यज्ञ, व्रत एवं श्रद्धा इन सारी कथाओं में निर्दिष्ट मुद्गल एक ही व्यक्ति होगा। | से जो ब्रह्म का ज्ञान प्राप्त करता है, उसे मुनि कहा गया ९. एक गणेशभक्त ब्राह्मण, जिसने संभवतः गणेश है (बृ. उ. ३.४.१, ४.४.२५; तै. आ. २.२०)। जीवन पर आधारित 'मुद्गल पुराण' की रचना की थी। | सन्तान एवं दक्षिणा की प्राप्ति आदि पार्थिव विचारों मुद्गला--एक ब्रह्मवादिनी स्त्री। का आचरण करनेवाले व्यक्तियों को प्राचीन ग्रंथों में मुद्गलानी--मुद्गल नामक राजा की पत्नी, जिसे | पुरोहित कहा गया है। इंद्रसेना नालायनी नामान्तर भी प्राप्त था (म. व. ११४. | __ मुनिवीर्य-एक सनातन विश्वेदेव (म. अनु. ९१. २४; मुद्गल देखिये)। भांडारकर संहिता में इसके नाम । के लिए 'नाडायनी' पाठभेद प्राप्त है। मुनिशर्मन्--एक विष्णुभक्त ब्राह्मण । इसने पिशाचमुद्गलायन--भृगुकुलोत्पन्न एक गोत्रकार। | योनि में प्रविष्ट हुए निम्नलिखित व्यक्तियों का उद्धार किया मुनि--कश्यप ऋषि की पत्नी, जो प्राचेतस दक्ष | था:-वारिवाहन, चन्द्रशर्मा, वेदशर्मा, विदुर, एवं नंद प्रजापति की कन्या थी। इसकी माता का नाम असिनी । (पन. पा.९४)। था। इसे कश्यप ऋषि से भीमसेन आदि सोलह देवगंधर्व | ममचु--दक्षिण दिशा में रहनेवाला एक ऋषि पुत्र उत्पन्न हुए थे (म. आ. ५९.४१-४३; कश्यप | (म. अनु.१६५.३९)। देखिये)। __मुर--एक दैत्य, जो ब्रह्मा के अंश से उत्पन्न हुए २. अहन् नामक वसु का एक पुत्र (म. आ. ६७. | तालजंघ नामक दैत्य का पुत्र था। इसकी राजधानी चंद्रवती २३)। नगरी में थी। इसके नाम के लिए मुरु 'पाठभेद प्राप्त है। . ३. (सो. पूरु.) कुरु राजा के पाँच पुत्रों में से एक, वध-ब्रह्मा के अंश से उत्पन्न होने के कारण, इसने जिसकी माता का नाम वाहिनी था। इसे निम्नलिखित | समस्त देवों का ही नहीं, बल्कि साक्षात् श्रीविष्णु का भी चार भाई थे:--अश्ववान् , अभिष्यन्त, चैत्ररथ एवं । पराजय किया। इससे घबरा कर, श्रीविष्णु ने रणभूमि से जनमेजय (म. आ.८८.५०)। पलायन किया, एवं वह बद्रिकाश्रम की सिंहावती नामक ४. रैवत मन्वन्तर के सप्तर्षियों में से एक । | गुंफा में योगमाया का आश्रय ले कर सो गया । किन्तु मुर प्रा. च. ८३] Page #680 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुर प्राचीन चरित्रकोश मूजवंत उसका पीछा करता हुआ वहाँ भी पहुँच गया। पश्चात् । मुसल--विश्वामित्र के ब्रह्मवादी पुत्रों में से एक (म. श्रीविष्णु ने अपनी योगमाया से एक देवी का निर्माण | अनु. ४.५३)। किया, जिसके द्वारा मुर का वध हुआ। महर्त--एक देवसमूह, जो धर्मऋषि एवं मुहूर्ता के __मुर का वध करनेवाले देवी पर श्रीविष्णु अत्यधिक | पुत्र थे। प्रसन्न हुए, एवं उन्होंने उसे वर प्रदान किया, 'आज से | महर्ता--धर्मऋषि की पत्नी, जो प्राचेतस दक्ष की तुम्हारा नाम 'एकादशी' रहेगा, एवं समस्त पापों का | कन्याओं में से एक थी । मुहूर्त नामक देवसमूह इसी के नाश करने का सामर्थ्य तुम्हे प्राप्त होगा' (पन. उ. ३६. | ही पुत्र थे (भा. ६.६.४-९)। . . ५०-८०)। मूक-हिरण्यकशिपु के वंश का एक राक्षस, जो सुंद २. एक पंचमुखी राक्षस, जो नरकासुर का सेनापति था। एवं ताटका का पुत्र था। इसे निम्नलिखित सात पुत्र थे:--ताम्र, अन्तरिक्ष, श्रवण, २. तक्षक वंश का एक नाग, जो जनमेजय के सर्पसत्र विभावसु, वसु, नभस्वत् एवं अरुण (भा. १०.५९.३-१०)। | में दग्ध हुआ था (म. आ. ५२.८)। इसने नरकासुर के प्रागज्योतिषपुर के राज्य के सीमा | ३. एक चाण्डाल, जो अत्यंत मातृभक्त एवं पितृभक्त । पर छः हजार पाश लगाये थे, जिनके किनारों पर छूरे | था। नरोत्तम नामक एक ब्राह्मण इसके पास उपदेशप्राप्ति लगाये थे । उन पाशों को इसके नाम से 'मौरव' पाश | के लिए आया था ( पम. सु. ५०, नरोत्तम देखिये)। कहते थे। श्रीकृष्ण ने उन पाशों को अपने सुदर्शन चक्र से ४. एक दानव, जो इंद्रकील पर्वत पर रहता था। उस तोड़ कर, इसका एवं इसके सात पुत्रों का वध किया | पर्वत पर तपस्या करने के लिए आये अर्जुन को, इसने (म. स. परि. १.२१.१००६)) वराहरूप धारण कर काफ़ी त्रस्त किया था, जिस कारण ३. एक यवन राजा, जो जरासंध का मांडलिक था | अर्जुन ने इसका वध किया था (म. व. ४०.७-३३)। (म. स. १३.१३)। इसकी कन्या का नाम मौर्वी का- - शिवपुराण के अनुसार, इसीके ही कारण किरात-. मकटंकटा था, जो घटोत्कच को विवाह में दी गयी थी | रूपधारी शंकर एवं अर्जुन का युद्ध हुआ था। एक समय, . (घटोत्कच देखिये)। यह वराह रूप धारण कर घुमता था, जब किरात एवं ४. एक राक्षस, जो कश्यप एवं दनु के पुत्रों में से एक | अर्जुन दोनों ने ही इसे बाण मार कर विद्ध किया। तदोथा। शिव की तपस्या कर, इसने उससे वर प्राप्त किया | परान्त इस वराह का वध किसने किया, इस संबंध में : था कि, अपना हाथ यह जिसके हृदय पर रखेगा वह किरात एवं अर्जुन के बीच वाद-विवाद हुआ, जिस कारण तत्काल मृत होगा। | सुविख्यात 'किरातार्जुननीय' युद्ध हुआ (शिव. शत. श्वेतद्वीप में इसका एवं श्रीकृष्ण का युद्ध हुआ, जिसमें | ४१)। इसका हाथ इसीके हृदय पर रखने के लिए कृष्ण ने इसे | मचीप (मूवीप)--एक बर्बर जाति, जो संभवतः विवश किया, एवं इसका वध किया (वामन. ६०- | 'मूतिब' का पाठभेद है (सां. श्री. १२.२६-६)। ६१)। इसका वध करने के कारण, कृष्णरूपधारी श्रीविष्णु | मुजवंत--एक जाति, जिसका निर्देश महावृष, गंधार. को 'मुरारि' नाम प्राप्त हुआ। एवं बलिक लोगों के साथ प्राप्त है (अ. वे. ५.२२. मुरु-मुर राक्षस के नाम के लिए उपलब्ध पाठभेद ५)। संभवतः ये सारी जातियाँ समाज से बहिष्कृत थी. (मुर. १.२. ३. देखिये)। जिस कारण ज्वर को इन लोगों के प्रदेश मे जाने की प्रार्थना की गयी है । एक दूरस्थ लोगों के रूप में इनका मुष्कवत्--इंद्र नामक वैदिक सूक्तद्रष्टा का विशेषण । निर्देश यजुर्वेद संहिताओं में भी प्राप्त है (तै. सं. १.८% मष्टिक--वसिष्ठपुत्र 'महोदय' का नामांतर । का. सं. ९.७)। विश्वामित्र के शाप के कारण, महोदय को एवं उसके | काश्मीर की दक्षिणपश्चिमी निचली पहडीयों को मूजवंत भाईयों को निषाद बनना पड़ा, जिस समय उन्हे यह नाम | पर्वत कहा जाता था। संभव है, उसी पर्वत के नाम से प्राप्त हुआ था (वा. रा. बा. ५९.२०-२१, ६०.१)। इन लोगों को ' मूजवंत' नाम प्राप्त हुआ होगा। बाद २. कंससभा का एक मल्ल, जो बलराम के द्वारा मारा | के महाकाव्य में मूजवंत पर्वत को हिमालय के अंतर्गत गया था (भा. १०.४४.२४)। | एक पर्वत बताया गया है। Page #681 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'मूजवंत प्राचीन चरित्रकोश मृगमंदा २)। ऋग्वेद में सोम को 'मौजवंत' (मूजवंत पर्वत से प्राप्त) संवर्धन काफ़ी गुप्तता से किया गया होगा, जिसका संकेत कहा गया है (ऋ. १०.३४.१)। इसके 'नारीकवच' नाम के जनश्रुति में प्राप्त है। मूढ--एक राक्षस, जिसका ऋषिका नामक उपासिका [. इसके पुत्र का नाम दशरथ था, जिससे आगे चल कर के लिए शिव ने वध किया था (शिव. कोटि. ७)। इक्ष्वाकुवंश का विस्तार हुआ! मूतिब--एक बर्बर जाति, जो विश्वमित्र की जाति २. एक राक्षस, जो कुंभकर्ण का पुत्र था । इसका बहिष्कृत संतानों में से एक थी (ऐ. ब्रा. ७.१८.२)। | जन्म मूल नक्षत्र में होने के कारण, कुंभकर्ण ने इसे इनके नाम के लिए 'मूचीप' अथवा ' मूवीप' पाठभेद अशुभ मान कर फेंक दिया था। किन्तु मधुमक्खियों ने भी प्राप्त है (सां. श्री. १५.२६.६)। इसे शहद पिला कर बड़ा किया। . मूर्तरय-(सो. अमा.) कान्यकुब्ज देश का एक बड़ा होने पर यह अत्यंत बलवान् हुआ, एवं समस्त राजा, जो कुश राजा का पुत्र था (भा. ९.१५.४)। ब्रह्म | पृथ्वी को त्रस्त करने लगा। इसी कारण सीता ने राम के में इसे 'मूर्तिमत्', एवं विष्णु में इसे 'अमूर्तरयस्' | द्वारा इसका वध करवाया (आ. रा. राज्य. ५-६)। कहा गया है, (ब्रहा. १०.३३; अमूर्तरयस् देखिये)। मूलचारिन्-एक आचार्य, जो वायु के अनुसार इसने धर्मारण्य नामक नगर बसाया था (वा. रा. बा. ३२. | व्यास की सामशिष्यपरंपरा में से लौगाक्षि नामक ऋषि का शिष्य था। मूर्ति-प्राचेतस दक्ष की सोलह कन्याओं में से एक, मूलमित्र गोभिल-एक आचार्य, जो वत्समित्र जो धर्मऋषि की पत्नी थी। यह नर एवं नारायण की माता गोभिल का शिष्य था। इसके शिष्य का नाम वरुणमित्र थी (भा. ४.१.५२)। गोभिल था (वं. ब्रा. ३)। २. स्वारोचिष मन्वन्तर का एक प्रजापति, जो वसिष्ठ मूलहर--अंगिराकुलोत्पन्न एक गोत्रकार। ऋषि के पुत्रों में से एक था। मूषकाद (मूषिकाद)-एक नाग, जो कश्यप एवं कद्र ३. स्वारोचिष मनु के पुत्रों में से एक । के पुत्रों में से एक था । इंद्रसारथी मातलि को नारद ने .४. ब्रह्मसावर्णि मन्वन्तर के सप्तर्षियों में से एक। | इसका परिचय कराया था (म. उ. १०१.१४)। मूर्तिमत्--मूर्तरय नामक राजा के नाम के लिए | मृकंड (मृकंडु)-स्वायंभुव मन्वन्तर का एक ऋषि, उपलब्ध पाठभेद (मूर्तरय देखिये)। जो धाता ऋषि का पुत्र था। इसकी माता का नाम २. (सो. पूरु.) एक पूरुवंशीय राजा, जो मत्स्य के | | आयति था। इसकी पत्नी का नाम मनस्विनी था, जिससे अनुसार अन्तिनार राजा का पुत्र था। इसे मार्कडेय नामक सुविख्यात पुत्र उत्पन्न हुआ (भा. मूर्धन्एक देव, जो भृगु एवं पौलोमी के पुत्रों में से | ४.१.४३-४४; ब्रह्मांड. २.१-६; मार्क. ४९.२०)।। एक था। विष्णु, नारद, वायु एवं मार्कंडेय में इसके नाम के मूर्धन्वत् आंगिरस (वामदेव्य)--एक वैदिक लिए 'मृकंडु' पाठभेद प्राप्त है (विष्णु. १.१०; वायु. सूक्तद्रष्टा (ऋ. १०.८८)। २८.५, नारद. १.४)। इसने एक 'अयुत युग' तक मूल--सोम की पत्नियों में से एक । शालिग्रामतीर्थ पर तपस्या की थी। मृक्तवाह द्वित आत्रेय--एक वैदिक सूक्तद्रष्टा मूलक-(सू. इ.) एक इक्ष्वाकुवंशीय राजा, जो (ऋ.५.१८; द्वित देखिये)। नारीकवच नाम से सुविख्यात था। भागवत, विष्णु एवं वायु के अनुसार, यह अश्मक राजा का पुत्र था। परशुराम मृग-सोम की पत्नियों में से एक । के डर सें, यह स्त्रियों में छिपा रहने के लिए विवश २. भृगुकुलोत्पन्न एक गोत्रकार । इसके नाम के लिए हुआ । इस कारण इसे 'नारीकवच' नाम प्राप्त हुआ। 'भृत' पाठभेद प्राप्त है। ऐतिहासिक दृष्टि से, अश्मक एवं मूलक राजाओं मृगकेतु-कश्यपकुलोत्पन्न एक गोत्रकार । से परशुराम काफ़ी पूर्वकालीन माना जाता है। इक्ष्वाकु- मृगमंदा--पुलह ऋषि की पत्नी, जो कश्यप एवं क्रोधा वंशीय कल्माषपाद राजा के पश्चात् अयोध्या का राज्य | की कन्याओं में से एक थी। इससे रीछ आदि प्राणी काफी कमजोर हुआ। इसी के कारण, मूलक राजा का । उत्पन्न हुए (म. आ. ६०.६०)। ६५९ Page #682 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मृगय प्राचीन चरित्रकोश मृलिक मृगय--एक दानव, जिसे इंद्र ने श्रुतर्वन् आक्ष राजा | पर विजय पा सकते है, इस प्रकार तुम्हारा कहना है। की रक्षा के लिए परास्त किया था (ऋ. १०.४९.५)। फिर भी मृत्यु समस्त प्राणिजातियों के लिए अटल दिखाई. २. कश्यपकुलोत्पन्न एक गोत्रकार ऋषिगण । | देता है । इस मृत्यु पर विजय पानी हो, तो क्या करना मृगवती-कृतवर्मा राजा की कन्या, जो पूर्वजन्म में चाहिये'? इस प्रश्न पर सनत्सुजात जवाब देते है :अलंबुसा नामक देवस्त्री थी (अलंबुसा देखिये)। धीरास्तु धैर्येण तरन्ति मृत्युम् । मृगव्याध--ग्यारह रुद्रों में से एक, जो ब्रह्माजी के । (धैर्यशील लोग अपने धैर्य से मृत्यु पर विजय पाते है). आत्मज स्थाणु का पुत्र था। यह आकाश में मृग नामक (म. उ. ४२.१२)। नक्षत्र के रूप में दिखाई देता है (ऐ: ब्रा. ३.३३)। ___ मृत्यु से बचने एवं दीर्घायु प्राप्त करने के लिए, अथर्वमृगी-पुलह ऋषि की एक पत्नी, जो कश्यप एवं | वेद में अनेक प्रकार के अभिचार | वेद में अनेक प्रकार के अभिचार दिये गये है (अ. वे.. क्रोधा की कन्याओं में से एक थी। संसार के समस्त मृग का इसीके ही संतान माने जाते हैं। ___ महाभारत में, मृत्यु एवं इक्ष्वाकु के बीच हुआ संवाद मृगेद्रस्वातिकणे--(आंध्र. भविष्य.) एक आंध्र- | प्राप्त है (म. शां. १९२)। उसी ग्रंथ में अन्यत्र इसे वंशीय राजा, जो मत्स्य के अनुसार स्कंदस्वाति राजा का | कर्माधीन एवं परतंत्र कहा गया है (म. अन, १.७४)। पुत्र था। इसने तीन वर्षों तक राज्य किया था। २. समस्त प्राणियोंका नाश करनेवाला एक पुरुषदेवता, .. मृतपस-दानवों के सुविख्यात दस कुलों में से एक | मोन लिकेतीन पचों में से IST (म. आ. ५९.२८)। | समस्त लोगों का अंतक है, इसी कारण इसे कोई पत्नी, मृत्यु--एक स्त्रीदेवता, जो ब्रह्मा के द्वारा जगत्- | या पुत्र न थे (म. आ. ६०.५३, ५४९*)। . संहार के लिए उत्पन्न की गयी थी। ऋग्वेद एवं महा- अजुनक नामक व्याध एवं सर्प से इसका संवाद हुआ। भारतादि ग्रंथों में निर्दिष्ट यमदेवता से इसका काफी | था (म. अनु. १.५०-६७)। इसने नचिकेतस् कोसाम्य है । ऋग्वेद में कई स्थानों पर इसे यम से समीकृत | ब्रह्मविद्या सिखायी थी (क. उ. ३.१६, ६.१८)। किया गया है (ऋ. १.१६५)। अथर्ववेद में मृत्यु को ३. एक आचार्य, जो प्रजापति नामक आचार्य का शिष्य .. यम का दूत कहा गया है (अ. वे. ५.३०)। उसी ग्रंथ | था। इसके शिष्य का नाम वायु था (वं. बा.२)। में अन्यत्र मृत्यु को मनुष्यों का, एवं यम को पितरों का ४. कलि एवं दुरुक्ति की कन्याओं में से एक। अधिपति कहा गया है (अ. वे. ५.२४)। यम के भाँति, ५. एक व्यास (व्यास देखिये)। इसे भी समस्त प्राणियों का नाशक माना गया है ( यम ६. वेन नामक सुविख्यात राजा का मातामह, जिसकी देखिये)। मानसकन्या का नाम सुनीथा था (वेन. २ देखिये)। ब्रह्मा से संवाद-इसकी उत्पत्ति के पश्चात् ब्रह्मा ने । | मृद-(सो. वृष्णि.) एक यादव राजा, जो विष्णु के इसे जगत्क्षय करने के लिए कहा । ब्रह्मा के इस आज्ञा | अनुसार श्वफल्क राजा का पुत्र था। को सुन कर, यह रोदन करने लगी, एवं इसने उसकी मृदु-(सो. कुरु. भविष्य.) एक राजा, जो विष्णु के प्रार्थना की, 'मृत्यु से प्राणिमात्र को अत्यंत दुःख होता | अनुसार नृपंजय राजा का पुत्र था। है । अतः यह कार्य मैं करना नही चाहती हूँ। उस पर | मृदुर-(सो. वृष्णि.) एक यादव राजा, जो वायु ब्रह्मा ने इसे कहा, 'जगत्संहार का प्रत्यक्ष काम रोग | एवं भागवत के अनुसार श्वफल्क राजा का पुत्र था। करेंगे। उस संहार का तुम्हे केवल निमित्त बनना है। मृदवित्--एक यादव राजा, जो भागवत के अनुसार उत्पत्ति की तरह मृत्यु भी हर एक प्राणिमात्र के लिए | श्वफल्क राजा का पुत्र था। आवश्यक है, एवं वही कार्य तुम्हे करना है' (म. द्रो. मृध्रवाच--दस्यु लोगों का नामान्तर । मृध्रवाच का परि. १. क्र. ८. पंक्ति ६७-२१५, शां. २४९-२५०)। | शब्दशः अर्थ 'शत्रु की भाषा बोलनेवाला' होता है, एवं सनत्सुजातआख्यान-महाभारत के 'सनत्सुजातीय' ! इसी अर्थ से दस्युओं के लिए इस शब्द का प्रयोग किया नामक आख्यान में, मृत्यु के संबंध में तात्विक विवेचन | गया है ( दस्यु देखिये)। प्राप्त है । उस आख्यान में धृतराष्ट्र सनत्सुजात नामक मृलिक-एक देव, जो स्वायंभुव मन्वन्तर के जिदाजित् ऋषि से प्रश्न करता है, 'देव एवं असुर ब्रह्मचर्य से मृत्यु | देवों में से एक था। ६६० Page #683 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मृळिक वसिष्ठ प्राचीन चरित्रकोश मेघहास मृळिक वसिष्ठ--एक वैदिक सूक्तद्रष्ठा (ऋ. ९.९७. | मेघवर्ण--घटोत्कच का पुत्र, जिसे 'मेघनाद' एवं २५-२७; १०.१५०)। 'मेघनिनाद' नामांतर प्राप्त थे। पाण्डवों के अश्वमेध यज्ञ मृषा--अधर्म की पत्नी, जिसे दम्भ एवं माया नामक | के समय, यह अश्वरक्षणार्थ अर्जुन के साथ उपस्थित था। दो सन्तानें थी (भा. ४.८.२)। | २. एक यक्ष, जो मणिवर एवं देवजनी के पुत्रों में से 'मेकल-एक लोकसमूह, जो पहले क्षत्रिय था, किन्तु | एक था। ब्राह्मणों के साथ ईर्ष्या करने से नीच हुआ (म. अनु. | मेघवर्णा--स्कंद की अनुचरी एक मातृका (म. श. ३५.१७-१८)। भारतीय युद्ध में ये लोग कोसलनरेश | ४५.२८)। पाठभेद -'एकचक्रा'। बृहद्बल के साथ उपस्थित थे, एवं भीष्म की रक्षा करते | मेघवासस्-वरुण की सभा का एक असुर (म. स. थे (म. भी. ४७.१३)। ९.१४)। ...२. (भविष्य.) एक राजवंश, जो वायु के अनुसार | मेघवाह-जैगीषव्य नामक शिवावतार का एक शिष्य। पट्टमित्र राजा के पश्चात् उत्पन्न हुआ था। मेघवाहन--जरासंध का अनुयायी एक नृप (म. स. मेघ-तारकासुर के पक्ष का एक असुर । १३.१२)। २. स्वायंभुव मनु के पुत्रों में से एक। | २. एक दैत्य, जो विष्णु के पदप्रहार से मृत हुआ ३. (भविष्य.) एक राजवंश, जो कोमल नामक नगरी | (कंद. ७.१.२४)। में राज्य करता था । ब्रह्मांड के अनुसार इस वंश में नौ | मेघवाहिनी-स्कंद की अनुचरी एक मातृका (म, राजा, एवं वायु के अनुसार सात राजा थे (नल देखिये)। | श. ४५.१७)। पाठभेद-'मेघवासिनी'। मेघकर्णा-कंद की अनुचरी एक मातृका (म. श. | मेघवेग-कौरव पक्ष का एक वीर, जो अभिमन्यु के ४५.२६)। द्वारा मारा गया (म. द्रो. ४८.१६)। मेघजाति-(सो. पुरुरवस्.) एक राजा, जो वायु के | | मेघशर्मन्–एक सूर्यभक्त ब्राह्मण, जिसने सूर्य का अनुसार पुरूरवस् राजा का पुत्र था। जाप कर शन्तनु के राज्य में पर्जन्यवृष्टि करायी (भवि. 'मेघनाद-रावणपुत्र 'इंद्रजित्' का नामांतर प्रति. ४.८)। (इंद्रजित् १. देखिये)। - मेघसंघि--(सो. मगध. भविष्य.) मगध देश का २. घटोत्कचपुत्र मेघवर्ण' का नामांतर (मेघवर्ण १. | एक राजकुमार, जो जरासंध का पौत्र, एवं सहदेव राजा देखिये)। का पुत्र था। पुराणों में इसके 'मार्जारि', 'सोमाधि' ____३. स्कंद का एक सैनिक (म. श. ४४.५७)। एवं 'सोमापि' आदि नामांतर प्राप्त हैं। अपने पिता सहदेव के साथ यह द्रौपदीस्वयंवर में मेघनिनाद-घटोत्कच का पुत्र ‘मेघवर्ण' का नामां उपस्थित था (म. आ. १७७.७) । पाण्डवों के अश्वमेध तर (मेघवर्ण १. देखिये)। यज्ञ का अश्व इसने रोंका था, एवं अर्जुन से युद्ध भी २. रावणपुत्र 'इंद्रजित् ' का नामांतर (इंद्रजित् १. | किया था । किंतु इस युद्ध में अर्जुन ने इसे पराजित देखिये)। किया (म. आश्व. ८३)। मेघपृष्ठ-(स्वा. प्रिय.) एक राजा, जो घृतपृष्ठ राजा | मेघस्वना--स्कंद की अनुचरी एक मातृका (म. श. का पुत्र था। ४५.८)। मेघमाला-कंद की अनुचरी एक मातृका (म. श. | मेघस्वाति-(आंध्र. भविष्य.) एक आंध्रवंशीय ४५.२८)। राजा, जो भागवत के अनुसार चिबीलक राजा का, विष्णु - मेघमालिन्-खर राक्षस का एक अमात्य । के अनुसार दिवीलक राजा का, एवं मत्स्य के अनुसार २. स्कंद का एक पार्षद, जो उसे मेरु के द्वारा प्रदान | अपीतक राजा का पुत्र था। किया गया था। दूसरे पार्षद का नाम 'कांचन' था (म. मेघहन्तृ--सुमेधस् देवों में से एक। श. ४४.४३)। मेघहास-राहू का एक पुत्र। अपने पिता का मेघवत्-एक दानव, जो कश्यप एवं दनु के पुत्रों में | श्रीविष्णु के द्वारा शिरच्छेद हुआ, यह सुन कर इसने से एक था। गौतमी नदी के तट पर घोर तपस्या की। इस तपस्या से, ६६१ Page #684 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेघहास प्राचीन चरित्रकोश मेधातिथि काण्व इसने अपने पिता को आकाश की ग्रहमाला में स्थान, | ४. एक प्राचीन महर्षि, जिसका पिता कण्व पूरब के एवं स्वयं के लिए 'नैर्ऋताधिपत्व' प्राप्त किया (ब्रह्म. | सप्तर्षियों में से एक था (म. शां. २०१.२६)। १४२)। - महाभारत के अनुसार, यह एक दिव्य महर्षि था, एवं मेवक-धृतराष्ट्रकुलोत्पन्न 'सेचक' नामक सर्प का इसने वानप्रस्थाश्रम का स्वीकार कर, स्वर्ग-प्राति की थी नामान्तर (सेचक देखिये)। (म. शां. २३६.१५)। उपरिचर वसु राजा के यज्ञ का मेद-ऐरावतकुल में उत्पन्न एक नाग, जो जनमेजय | यह एक सदस्य था (म. शां. ३२३.७)। यह इंद्रसभा के सर्पसत्र में दग्ध हुआ। का भी सदस्य था (म. स. ७.१५)। शरशय्या पर पड़े मेदिनी-पृथ्वी का एक नाम । भगवान् विष्णु के | हुए भीष्म से यह मिलने के लिये आया था, एवं द्वारा मधु एवं कैटभ नामक दो दैत्यों का वध होने पर, | युधिष्ठिर के द्वारा यह पूजित हुआ था (म. अनु. २६. . उनकी लाशें जल में डूब कर एक हो गयी, एवं उन्हीके | ३-९)। मेद से सारी पृथ्वी आच्छादित हों गयी । इसी कारण पृथ्वी । ५. सुमेधस् देवों में से एक। को 'मेदिनी' नाम प्राप्त हुआ (मधुकैटभ देखिये)। । ६. एक ऋषि, जो परिक्षित राजा की मृत्यु के समय मेदोहन-भीषण नामक राक्षस का पुरोहित। | उपस्थित था (भा. १.१९.१०)। मेध--एक यज्ञकर्ता आचार्य, जिसका निर्देश कण्व । ७. दक्षसावणि मनन्तर के सप्तर्षियों में से एक। .. एवं दीर्घनीथ लोगों के साथ प्राप्त है (ऋ. ८.५०.१०)। मेधातिथि काण्व-एक वैदिक सूक्तद्रष्टा (ऋ.१.' २. (स्वा. प्रिय.) एक राजा, जो प्रियव्रत राजा का | १२.२३, ८.१.३-२९; २.४१-४२, ९२)। ऋग्वेद पुत्र था (मार्क. ५०.१६)। में अन्यत्र इसका निर्देश 'मेध्यातिथि काव' नाम से ' मेधज--सुमेधस् देवों में से एक । प्राप्त है (ऋ. १.३६.१०)। इसने स्वयं को ' काण्व । मेधस्--स्वायंभुव मनु के पुत्रों में से एक। मेधातिथि' कहलाया है (ऋ. ८.२०.४०)। . . २. सुमेधस् देवों में से एक। वैदिकऋषि--यह कण्व का वंशज, एवं प्रसिद्ध वैदिक मेधा--दक्ष प्रजापति की कन्या एवं धर्म ऋषि की ऋषि था। ऋग्वेद के अनुसार, इंद्र इसके पास एक मेष पत्नी । इसके पुत्र का नाम स्मृति था। के रूप में आया था. (ऋ. ८.२.४०)। यही पुराकथा मेधातिथि-(स्वा. प्रिय.) शाकद्वीप का एक | सुविख्यात 'सुब्रह्मण्य मंत्र' में भी निहित है, जिसमें इन्द्र सुविख्यात राजा, जो प्रियवत एवं बर्हिष्मती के पुत्रों में | को · मेधातिथि का मेष' कहा गया है, एवं जिसका से एक था। इसे निम्नलिखित सात पुत्र थे:-पुरोजव, | पाठन यज्ञमंडप में सोम को ले आते समय पुरोहित करते मनोजव, पवमान, धूम्रानीक, चित्ररेफ, बहुरूप, एवं है (जै. ब्रा. २.७९; श. ब्रा. ३.३.४.१८)। विश्वाधार। अपने दधिसमुद्र से वेष्टित शाकद्वीप के पंचविंश ब्राह्मणं में, इसके एवं वत्स ऋषि के दरम्यान राज्य के सात विभाग कर, इसने अपने उपर निर्दिष्ट पुत्रों | हुए वादसंवाद का निर्देश प्राप्त है, जहाँ इसने उसे हीनमें बाँट दिये (भा. ५.१.२०-२५)। कुलत्व का लांच्छन लगाया था। किन्तु वत्स ने अग्निपरीक्षा मार्कंडेय के अनुसार, यह प्लक्षद्वीप का राजा था, एवं | के द्वारा, अपने कुल की श्रेष्ठता साबित की थी (पं.बा. इसने उस द्वीप के सात भाग कर, अपने निम्नलिखित | १४.६.६)। भाईयों में बाँट दिये थे:-शानभव, शिशिर, सुखोदय. | यह विभिन्दुकियों के यज्ञ का बृहस्पति था, जिन्होने आनंद, शिव, क्षेमक एवं ध्रुव । आगे चल कर प्लक्षद्वीप | इसे विपुल गायें प्रदान की थी (जै. ब्रा. ३.२३३)। के ये सात भाग इसके भाईयों के सात नाम से सुविख्यात | आसंग राजा ने भी इसे विपुल धन प्रदान किया था। हुयें (मार्क. २९-३१)। अतः इसने उसकी स्तुति की थी (ऋ.८.२.४१-४२)। २. एक ऋषि, जो वसिष्ठ की अरुन्धती नामक पत्नी अथर्ववेद में इसका उल्लेख अनेक ऋषियों के साथ प्राप्त का पिता था। इसका आश्रम चन्द्रभागा नदी के तट पर | हैं (अ. वे. ४.२९.६)। था। इसने ज्योतिष्टोम नामक यज्ञ किया था (कालि. | काण्वशाखा-आंगिरस गोत्र के लोगों में से 'काव' २२)। अथवा 'काण्वायन' गोत्र के आदिपुरुप मेधातिथि, एवं इसके ३. वैवस्वत मन्वन्तर का सत्रहवाँ व्यास । पिता कण्व माने जाते है। वायु, मत्स्य, विष्णु एवं गरुड Page #685 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेधातिथि काण्व प्राचीन चरित्रकोश मेनका के अनुसार, सुविख्यात पौरव राजा अजमीढ को कण्व- रूप-यौवन से यह मोहित हुआ, एवं अपनी तपस्या छोड़ नामक एक पुत्र था, जिसका पुत्र मेधातिथि था। आगे चल | कर, यह उसीके साथ रहने लगा। कर, इसी मेधातिथि से काण्वायन ब्राह्मण उत्पन्न हुए इस तरह अनेक साल बीत जाने पर मंजुघोषा ने इसे (मत्स्य. ४९.४६-४७; वायु. ९९.१६९-१७०)। समय की कल्पना दी । फिर अपने तपःक्षय के विचार इसी काण्वायन' गोत्र में निम्नलिखित वैदिक सूक्तद्रष्टा । से यह विव्हल हो उठा, एवं इसने मंजुघोषा को पिशाच आचार्य उत्पन्न हुए थे:-प्रगाथ काण्व (ऋ. ८.६५.१२ | बनने का शाप दिया । उसके द्वारा दया की याचना की बृहदे. ६.३५-३९); पृषध्र काण्व, जो दस्यवेवृक का जाने पर, इसने उःशाप दिया, 'चैत्र माह के कृष्णपक्ष समकालीन था (ऋ. ८.५६.१-२); देवातिथि काण्व | की पापमोचनी एकादशी का व्रत करने पर तुम्हे मुक्ति (ऋ.८.४.१७); वत्स काण्व (ऋ. ८.६.४७); सध्वंस काण्व (ऋ. ८.८.४)। आगे चल कर, अपने पिता के कहने पर इसने भी उसी एकादशी का व्रत किया, जिस कारण इसे मुक्ति .मेधातिथि गौतम-एक ऋषि, जिसकी पत्नी का प्राप्त हुयी (प. उ. ४६)। नाम अहल्या, एवं पुत्र का नाम चिरकारिन् था (चिरकारिन् देखिये)। । मेधाविनी-कुलिंद राजा की पत्नी, जिसके पुत्र का नाम चंद्रहास था। मेधाविन्-एक उद्दण्ड ऋषिपुत्र, जो बालधि ऋषि | मध्य-एक वैदिक सूक्तद्रष्टा (ऋ. ८.५३-५४ का पुत्र था । इसकी आयु पर्वतों पर निर्भर थी, इसलिए | ५७-५८) । ऋग्वेद के वालखिल्य सूक्त में इसका मेध्य इसे 'पर्वतायु' भी कहते थे। धनुषाक्ष नामक मुनि ने | एवं मातरिश्वन के साथ निर्देश प्राप्त है (ऋ.८. इसकी आयु के निमित्तभूत पर्वतों को भैंसों से विदीर्ण | ५२.२)। करा दिया, जिस कारण इसकी मृत्यु हुयी (म. व.१३४; २. वायंभुव मनु के पुत्रों में से एक। बालधि देखिये)। मेध्यातिथि काण्व-मेधातिथि काण्व नामक वैदिक . २. एक ब्राह्मण बालक, जिसने अपने पिता को संसार | | ऋषि का नामान्तर (मेधातिथि काण्व देखिये )। ऋग्वेद की क्षणभंगुरता बता कर मोक्ष एवं धर्म की ओर प्रेरित | में इसे वैदिक सूक्तद्रष्टा बताया गया है (ऋ.८.३; ३३; किया था (म. शां. १६९)। यही कथा मार्कंडेय में | | ९.४१-४३)। भधिक विस्तृत रूप में प्राप्त है (मार्क. १०)। मेनका-स्वर्गलोक की एक श्रेष्ठ अप्सरा, जो कश्यप बौद्धधर्मीय 'धम्मपद' में, एव जैनधर्मीय 'उत्तरा- एवं प्राधा की कन्याओं में से एक थी। इसकी गणना ध्यायन सूत्र' में यही कथा कुछ अलग ढंग से प्राप्त है, छः प्रधान अप्सराओं में की जाती थी (म. आ. ६८. जहाँ इसे राजकुमार मृगपुत्र कहा गया है (धम्म. ४. ६७) । अर्जुन के जन्मोत्सव में, एवं उसके स्वागत४७-४८; उत्तराध्यायन. १४.२१-२३)। इससे प्रतीत समारोह में इसने नृत्य किया था (म. आ. ११४.५३; होता है कि, तत्कालीन समाज में प्रचलित एक ही लोक व. ४४.२९)। कथा के आधार पर, इन तीनों कथाओं की रचना की ___ ऋग्वेद एवं ब्राह्मण ग्रंथों में इसे वृषणश्व की पुत्री गयी हैं। इनमें से महाभारत में प्राप्त कथा सर्वाधिक अथवा कन्या कहा गया है (ऋ. १.५१.१३; श. ब्रा. सुयोग्य प्रतीत होती है। ३.३.४.१८)। उन्ही ग्रंथों में वृषणश्व की एक उपाधि ३.( सो. कुरु. भविष्य.) एक कुरुवंशीय राजा, जो | 'मेन' दी गयी है, जिस कारण इसे मेनका नाम प्राप्त विष्णु, वायु एवं भागवत के अनुसार सुनय राजा का, | हुआ होगा (प. बा. १.१)। एवं मत्स्य के अनुसार सुतपस् राजा का पुत्र था। | विवाह-इसे ऊर्णायु गंधर्व की पत्नी कहा गया है। . ४. च्यवन ऋषि का एक पुत्र, जिसकी कथा ‘पापमोचनी | गंधर्वराज विश्वावसु से इसे प्रमद्वरा नामक कन्या उत्पन्न एकादशी' का माहात्म्य बताने के लिए पद्म में दी हयी थी । स्थूलकेश ऋषि के आश्रम में प्रमद्वरा को जन्म गयी है। दे कर, इसने उसे वहीं त्याग दिया (म. आ.८.६-८)। पापमोचनी एकादशी- एक बार चैत्ररथ नामक वन| इसके लावण्य से पृषत् राजा मोहित हुआ था, जिससे में इसकी मंजुघोषा नामक अप्सरा से भेंट हुयी। उसके | इसे द्रुपद नामक पुत्र उत्पन्न हुआ था। ६६३ Page #686 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेनका प्राचीन चरित्रकोश मैत्रेय विश्वामित्र की तपस्या में बाधा डालने के लिए, इंद्र ने ४. पद्म के अनुसार, ग्यारहवें मन्वन्तर का अधिपति इसे उसके पास भेज़ा दिया था। इसने विश्वामित्र को | मनुः। मोहित कर, उसका तपोभंग किया। उससे इसे शकुन्तला | मेष - स्कंद का एक सैनिक (म. श. ४४.५९)। नामक कन्या उत्पन्न हुयी। इसके अतिरिक्त, इसके मेषकिरीटकायन-कश्यपकुलोत्पन्न एक गोत्रकार वयश्व नामक एक पति का भी निर्देश प्राप्त है। ऋषिगण । २. पितृकन्या मेना का नामान्तर । मेषप-कश्यपकुलोत्पन्न एक गोत्रकार ऋषिगण । ३. पितृकन्या मेना की एक कन्या । मेषहृत्-गरुड के पुत्रों में से एक। मेना-एक पितृकन्या, जो आप्य नामक पितरों की मैत्रावरुण अथवा मैत्रावरुण-वसिष्ठ एवं अगस्य कन्या, एवं हिमवत् की पत्नी थी। कई ग्रंथों में इसे वैराज | ऋषियों का नामांतर (वसिष्ठ देखिये)। नामक पितरों की मानसकन्या कहा गया है। मैत्रि--एक ऋषि, जो 'मैत्रि उपनिषद' का प्रवर्तक इसे मैनाक तथा क्रौंच नामक दो पुत्र, एवं अपर्णा, | माना जाता है। इसकी माता का नाम मित्रा था (मै. उ. एकपर्णा, एकपाताला एवं मेनका नामक चार कन्याएँ थी २.२.२)। (भा. ४७; ह. वं. १.१८.११-१५, मार्क, ५०.१६, | ___ मैत्रि उपनिषद-'मैत्रि उपनिषद' नामक सुविख्यात मत्स्य. १३; पितर देखिये)। ग्रंथ का कर्ता इसे मानते है। विचार एवं शब्दसंपत्ति इन मेरु-एक पर्वत, जिसे निम्नलिखित नौ कन्याएँ | दोनों दृष्टि से, यह उपनिषद अत्यंत महत्त्वपूर्ण माना जाता ' थी :-मेरुदेवी, प्रतिरूपा, उग्रदंष्ट्री, लता, रम्या, श्यामा, | है। इस ग्रंथ में सात अध्याय हैं, जिसमें से पहले चार ' नारी, भद्रा, एवं देववीति । मेरू की इन नौ कन्याओं के काफ़ी पूर्वकालीन हैं। विवाह सुविख्यात सम्राट आनीध्र के नौ पुत्रों के साथ हुए | ___ इस ग्रंथ के प्रारंभ में बताया गया है कि, एक बार थे (भा. ५.२.२३, आग्नीध्र देखिये)। बृहद्रथ राजा शाकायन्य ऋषि के पास आत्मज्ञान के हेतु । गया । उस समय शाकायन्य ऋषि ने अपने गुरु-मैत्रि ऋमि भागवत में इसके आयति एवं नियति नामक और दो । का तत्त्व उसे समझाया । वही ' मैत्रि उपनिषद' है। कन्याओं का निर्देश प्राप्त है, जिनके विवाह क्रमशः धान इस उपनिषद में अंतरात्मा को मानवी शरीर का एवं विधातृ से हुए थे (भा. ४.१.४४)।। | चालक कहा गया है, एवं उसीकी प्रेरणा से मानवी शरीर मेरुदेवी-मेरुपर्वत की एक कन्या, जिसका विवाह कुम्हार के चक्र की भाँति घूमता है, ऐसा कहा गया है। आग्नीध्र राजा का पुत्र नाभि राजा से हुआ था। इसके आत्मा के सचेतनत्व का 'मैत्रि उपनिषद' का यह सिद्धांत पुत्र का नाम ऋषभदेव था (भा. १.३.१३; ५.४.२)। प्लेटो के सिद्धान्त से मिलता जुलता है। मेरुसावर्णि अथवा मेरुसावर्ण-एक ऋषि, जिसने ___ इस ग्रंथ में मानवी शरीर का वर्णन करते समय, उसे युधिष्ठिर को हिमालय पर्वत पर धर्म एवं ज्ञान का उपदेश एक रथ कहा गया है, जिसके अश्व कमेंद्रियों से बने है, दिया था (म. स. ६९.१२)। यह अत्यंत तपस्वी, एवं ज्ञानेंद्रिय को उसकी बागडोर, मानवी मन को उसका जितेंद्रिय एवं त्रैलोक्य में विख्यात था (म. अनु. १५०. सारथी, एवं देहस्वभाव को उसका चाबुक (सचेतक) ४४-४५)। कहा गया है (मै. उ. २.९)। २. दक्षकन्या सुव्रता के चार पुत्रों का सामूहिक नाम | इस उपनिषद में सात्विक, राजस एवं तामस गुणों का (वायु. १००.४२)। इस समूह में निम्नलिखित चार पुत्र | जो वर्णन प्राप्त है, वह भगवद्गीता से साम्य रखता है। शामिल थे, जो नौवें, दसवें, ग्यारहवें एवं बारहवें मन्वन्तर | मैत्री-दक्ष की तेरह कन्याओं में से एक, जो के अधिपति 'मनु' कहलाते है:-दक्षसावर्णि, ब्रह्मसावर्णि, स्वायंभुव मन्वन्तर के धर्मऋषि की पत्नी थी। इसके पुत्र धर्मसावर्णि एवं रुद्रसावर्णि (मार्के. ५०)। का नाम प्रसाद था। इन्होंने मेरुपर्वत पर तपस्या की थी, जिस कारण इन्हें | मैत्रेय--अत्रिकुलोत्पन्न एक गोत्रकार ऋषिगण । मन्वन्तरों का अधिपतित्व प्राप्त हो गया (ब्रह्मांड. १.२४)।। २, ग्लाव एवं बक दाल्भ्य नामक आचार्यों का पैतृक ___३. मत्स्य के अनुसार, दसवें मन्वन्तर का अधिपति | नाभ (छां. उ. १.१२.१; गो. बा. १.१.३१; अ. वे.. | ११०)। मनु। ६६४ Page #687 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मैत्रेय प्राचीन चरित्रकोश मैत्रेय सोम - मैत्रेय कौशारव-एक सुविख्यात आचार्य एवं कराया। विद्या, ज्ञान, एवं तप का ज्ञान करानेवाला यह तत्वज्ञानी । ऐतरेय ब्राह्मण में इसे 'कौशारव' नामक | 'व्यास-भैत्रेय संवाद' महाभारत में प्राप्त है (म. अनु. आचार्य का पैतृक अथवा मातृक नाम बताया गया है, | १२०-१२२) एवं इसके द्वारा सुत्वन् कैरिशय राजा को 'ब्राह्मण विदुर-मैत्रेय-संवाद-श्रीकृष्ण ने जिस समय उद्धव परिमर' विद्या प्रदान की जाने की कथा दी गयी है (ऐ. | को उपदेश दिया था, उस समय मैत्रेय भी वहाँ उपस्थित ब्रा. ८.२८.१८)। | था। श्रीकृष्ण की इच्छा थी कि, इस उपदेश के समय नाम--पाणिनि के अनुसार, यह मित्रेयु नामक आचार्य तत्वज्ञानी विदुर भी उपस्थित होता तो अच्छा था। किंतु का पुत्र था, जिस कारण इसे 'मैत्रेय' पैतृक नाम प्राप्त विदुर उन दिनों तीर्थयात्रा के लिए बाहर गया था। ''हुआ (पा. सू. ६.४.१७४; ७.३.२) छांदोग्य उपनिषद तीर्थयात्रा के उपरांत विदुर ने कृष्ण के उस उपदेश को के अनुसार, यह किसी मित्रा नामक स्त्री का पुत्र था, जिस सुनना चाहा, जिसे उसने उद्धव को दिया था। किन्तु कारण इसे 'मैत्रेय' यह मातृक नाम प्राप्त हुआ था विदुर के लौटने तक कृष्ण का निर्वाण हो चुका था। (छां. उ. १.१२.१)। . उस उपदेश को सुनने तथा जानने की इच्छा से, भागवत में इसे कषाव एवं मित्रा का पुत्र कहा गया | विदुर ऊद्धव के पास गया, लेकिन उद्धव ने उसे मैत्रेय हैं, जिस कारण इसे 'कोषारव' अथवा 'कौषारवि' के पास भेज कर कहा, 'मैत्रेय परम ज्ञानी है । कृष्ण की पैतृक उपाधि प्राप्त हुयी होगी (भा. ३.४.२६, ३६, ५. वाणी का कथन वही कर सकता है। तब विदुर मैत्रेय के पास आया। मैत्रेय ने विदुर को कृष्ण का उपदेश युधिष्ठिर की मयसभा में भी यह उपस्थित था | सुनाया। इस उपदेश के अन्तर्गत 'कर्दमदेवहुति(म. स. ४.८)। संवाद, ' 'ध्रुवचरित्र' तथा 'दक्षयज्ञ' आदि की कथाओं दुर्योधन को शाप-जिस समय पांडव वनवास में थे, | कावा का वर्णन तत्त्वज्ञान के दृष्टि से किया गया था। उस समय व्यास के आदेशानुसार, यह धृतराष्ट्र एवं | मैत्रेय के द्वारा कृष्ण का यह उपदेश जो विदुर से दुर्योधन के पास उन्हें पाण्डवों के बल-पौरुष का ज्ञान कहा गया, वह भागवत के तृतीय तथा चतुर्थ स्कंदों में कराने के लिए गया था। इसने दुर्योधन को बार प्राप्त है, जिसे 'विदुर-मैत्रेय संवाद' कहा गया है। बार समझाया, एवं अनुरोध किया, 'तुम पाण्डवों से अध्यात्म के क्षेत्र में यह अपने किस्म का अनूठा द्रोह मत करो। किन्तु दुर्योधन ने हँसते हए इसकी | संवाद है। खिल्ली उड़ाई, एवं जाँघ ठोकते हुए इसके द्वारा दिये गये कृष्ण के द्वारा उद्धव को दिया गया संवाद भागवत • उपदेश का अनादर किया। तब इसने क्रोधावेश में के एकादश स्कंद में प्राप्त है। महाभारत में जिस प्रकार दुर्योधन को शाप दिया, 'तुम्हारी यह जंघा भीम की गदा | गीता एवं अनुगीता है, उसी प्रकार भागवत में 'उद्धवके द्वारा भग्न होगी। यदि अब भी तुम पाण्डवों से मित्रता | कृष्ण संवाद' एवं 'विदुर मैत्रेयसंवाद' भी महत्त्वपूर्ण माने स्थापित करने को तैयार हो, तो मेरी यह शापवाणी व्यर्थ | जाते हैं। हो सकती है, अन्यथा नहीं' (म. व. ११.३२)। | भीष्म के देहत्याग के समय, तमाम ऋषियों के साथ ___ व्यास-मैत्रेय संवाद--मैत्रेय धार्मिय प्रवृत्ति का ऋषि | यह भी वहाँ उपस्थित था (म. शां. ४७.६५)। यह था, एवं ऋषि मुनियों के सत्संग के कारण, यह ज्ञानी, दानी व्यास की भाँति चिरंजीव माना जाता है। लोगों का ऐसा एवं वेदमार्ग का अनुसरण करनेवाला हुआ था। यह विश्वास है कि, आज भी यह अपने भक्तों को दर्शन एकान्त में रहना विशेष पसंद करता था। एक बार वाराणसी | देता है। में यह गुप्तरूप से एग स्वैरिणी के घर में रहता था। मैत्रेय सोम--(सो. नील.) उत्तर पंचाल देश का यकायक श्री व्यास ने वहाँ आ कर इसे दर्शन दिया। सुविख्यात ब्रह्मक्षत्रिय राजा, जो 'मैत्रेय ब्राह्मणशाखा' का मैत्रेय व्यास को देख कर अति प्रसन्न हुआ, एवं इसने उत्पादक माना जाता है। अपने पितामह दिवोदास, एवं उसकी विधिवत् पूजा की । पश्चात् इसने व्यास से विज्ञान, | पिता मित्रेयु के समान, यह भी भृगुवंशीयों में संमिलित हो ज्ञान एवं तप के संबंध नानाविध प्रश्न किये, एवं व्यास ने गया था, जिस कारण इसे 'मैत्रेय भार्गव' भी कहा जाता उन प्रश्नों के यथोचित जवाब दे कर इसे आत्मज्ञान | है (मत्स्य. ५०.१३; वायु.९९. २०६; ब्रह्म. १३; ह. वं. प्रा. च. ८४] Page #688 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मैत्रेय सोम प्राचीन चरित्रकोश १.३२.७५-७७)। इसके बाद इसका पुत्र संजय उत्तर | आत्मा का अध्ययन एवं मनन करने से ही संसार के पंचाल देश के राजगद्दी पर बैठा । हर एक वस्तु का ज्ञान प्राप्त होता है। इसी कारण, मैत्रेय ब्राह्मण-मैत्रेय राजा से 'मैत्रेय ब्राह्मण' नामक | इस सर्वश्रेष्ठ ज्ञान का साक्षात्कार मैं तुम्हे करना चाहता ब्राह्मण जाति का निर्माण हुआ। मैत्रेय एवं इसके पूर्वज | हूँ'। 'क्षत्रिय ब्राह्मण' कहलाते थे । उत्तर पंचाल देश के मुद्गल | इस संवाद में आत्मा शब्द का अर्थ · विश्व का राजा का ज्येष्ठ पुत्र ब्रह्मिष्ठ सर्वप्रथम ब्राह्मण बन गया, | अन्तीम सत्य ' लिया गया है। जिससे 'मुद्गल' अथवा 'मौद्गल्य' नामक क्षत्रिय ब्राह्मण बृहदारण्यक उपनिषद में अन्यत्र याज्ञवल्क्य एवं उत्पन्न हो गये । ये ब्राह्मण स्वयं को 'आंगिरस' कहलाते | मैत्रेयी के बीच हुए अन्य एक संवाद का निर्देश प्राप्त . थे (मत्स्य. ५-७; वायु. ९०.१९८-२०१)। है (बृ. उ. ४.५.११-१५)। मैत्रेयी याज्ञवल्क्य से ब्रह्मिष्ठ का पुत्र वयश्व, एवं पौत्र दिवोदास ये दोनो | पूछती है, 'मनुष्य जब वेहोश होता है, तब उसकी वैदिक सूक्तद्रष्टा थे, एवं भार्गव कुल में शामिल हो गये थे आत्मा का क्या हाल होता है ? वह परमात्मा से विला (ऋ. १०.५९.२, ८.१०३.२)। स्वयं मैत्रेय, एवं इसका | होता है, या वैसा ही रहता है? उसपर याज्ञवल्क्य पिता मित्रयु 'भार्गव' कहलाते थे । पराशर ऋषि ने मैत्रैय | ने जवाब दिया, 'बेहोश अवस्था में भी आत्मा एवं को 'विष्णु पुराण' का ज्ञान कराया था (विष्णु. १.१. परमात्मा एक ही रहते है, क्यों कि, आत्मा 'अंगृह्य' ४-५)। 'अशीय' एवं 'असंग' रहता है। .... मैत्रेय एवं मौद्गल्य ब्राह्मण कुलों में कोई भी विख्यात याज्ञवल्क्य के द्वारा आत्मज्ञान की प्राप्ति होने पर, ऋषि उत्पन्न न हुआ था, किन्तु मैत्रेय कौशारव नामक एक | अपनी सारी जायदाद अपनी सौत कात्यायनी को दे कर, ऋषि का निर्देश वैदिक ग्रंथों में प्राप्त है ( मैत्रेय कौशारव | यह याज्ञवल्क्य के साथ वन में चली गयी। देखिये)। मैनाक--एक सुविख्यात पर्वत, जो हिमालय एवं मैत्रेयी--एक सुविख्यात ब्रह्मवादिनी स्त्री, जो याज्ञ- मेनका ( मेना) का पुत्र था (ह. वं. ११८.१३)। वल्क्य महर्षि की दो पत्नियों में से एक थी (बृ. उ. ४. वाल्मीकिरामायण में इसका चरित्र एक व्यक्ति मान ५.१)। बृहदारण्यक उपनिषद में इसका अनेक बार उल्लेख | कर दिया गया है। प्राप्त है, जहाँ इसके एवं य ज्ञवल्क्य ऋषि के संवाद । इन्द्र ने पृथ्वी के सारे सारे पर्वतों के पंख तोड़ डाले। उद्धृत किये गये हैं (बृ. उ. २.४.१-२, ४.५.१५)। उस समय, यह भय के मारे समुद्र में जा कर छिप यह संभवतः ब्रह्मवाह के पुत्र याज्ञवल्क्य की पत्नी गया । हनुमत् लंका दहन के लिए जा रहा था, उस होगी। समय यह समुद्र के कहने पर बाहर आया, एवं अपने __ मैत्रेयी-याज्ञवल्क्यसंवाद-याज्ञवल्क्य महर्षि ने शिखर पर सवार होने की प्रार्थना इसने हनुमत् से का। संन्यास लेने पर, उसकी जायदाद में से उसके अध्यात्मिक मात्मक इसके पुत्र का नाम क्रौंच था (वा. रा. सु. १.१०५)। ज्ञान का हिस्सा मैत्रेयी ने माँगा । उस समय मैत्रेयी एवं या एव मैंद--राम के पक्ष का एक वानर, जो सुषेण वानर के याज्ञवल्क्य के बीच हुए संवाद का निर्देश 'बृहदारण्यक दो पत्रों में से ज्येष्ठ था। इसके कनिष्ठ बन्धु का नाम उपनिषद' में प्राप्त है (बृ. उ. ४.५.१-६)। मैत्रेयी ने दिवि था। ये दोनों भाई अंगद वानर के मामा थे (भा. कहा, 'मुझे अध्यात्मिक ज्ञान की आकांक्षा इसलिए है १०.६.२)। किं, साक्षात् सुवर्णमय पृथ्वी प्राप्त होने पर भी मुझे अमरत्व प्राप्त नहीं होगा, जो केवल अध्यात्मज्ञान से | वालिवध के पश्चात् , सुग्रीव ने सीता के शोधार्थ जो प्राप्त हो सकता है । जिस संपत्ति से मुझे अमरत्व प्राप्त | वानर गधम वानर गंधमादन पर्वत पर भेजे थे, उनमें यह भी शामिल नहीं होगा, उसे ले कर मैं क्या करूं' (येनाहं नामृता | था (वा. रा. कि. ४१.७)। था ( स्याम् , किमहं तेन कुर्याम् )। राम-रावण युद्ध में इसने अत्यधिक पराक्रम दिखाया __ फिर याज्ञवल्क्य ने इसे जवाब दिया, 'जो तुम कह था । इसने एक घुसा मार कर, वज्रमुष्टि नामक असुर का रही हो वह ठीक है । तुम्हारे इन विचारों से मैं प्रसन्न | वध किया (वा. रा. यु. ४३.२७)। इसने यूपाक्ष नामक हूँ। इसी कारण, मैं तुम्हे आत्मज्ञान सिखाना चाहता हूँ।। असुर का भी वध किया था (वा. रा. यु. ७६.३४)। Page #689 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन चरित्रकोश मौद्गल्यं इन्दाजेत् से युद्ध-इन्द्रजित् के साथ हुए मायावी दानवों ने अपने अधिकार में अमृतकलश रक्खा था। युद्ध में राम एवं लक्ष्मण मूर्छित हुए । उस समय, विभी- | देवों को अमृत पी कर अमर होने की इच्छा थी, किन्तु षण ने कुवेर से प्राप्त दैवी उदक सारे रामपक्षीय वानरों| वे यह नही चाहते थे कि, दानव अमृतपान कर अमर को आँखों में लगाने के लिए दिया, जिसका उपयोग हो जाये । इस अवसर पर, श्रीविष्णु ने मोहिनी नामक करते ही गुप्त रूप से लड़ाई करनेवाले इन्द्रजित् के सैन्य सुंदर अप्सरा का रूप धारण कर दानवों को मोहित किया। के सारे असुर वानरसैन्य को साफ दिखाई देने लगे। यह सुअवसर देखकर, देवों ने यथेष्ट अमृतपान किया, इस उदक को अपनी आँखों को लगा कर, इसने भी काफ़ी | एवं वे अमर हुयें (भा. १.३; ८.८-१२; म. आ. १७. पराक्रम दिखाया था (म. व. २७३.१-१३)। ३९-४०; भस्मासुर देखिये)। यह एवं इसका भाई द्विविद ने किष्किंधा नामक गुफा | २. एक वेश्या, जो मृत्यु के समय गंगाजल पीने के के समीप सहदेव से युद्ध किया था, जो दक्षिण दिग्विजय | कारण, अगले जन्म में द्रविड देश के वीरवर्मा राजा की के लिए उस नगरी में आया था। आगे चल कर, इन्होंने | पटरानी हुयी (पद्म. उ. २२०)। सहदेव को रत्न आदि करभार प्रदान किया, एवं उसे मौजवत--अक्ष नामक वैदिक सूक्तद्रष्टा का पैतृक बिदा किया (म. स. परि. १. क्र. १३ पंक्ति. १५-२०)। नाम। मैरावण-महिरावण नामक राक्षस का नामान्तर । २. मूजवन्त लोगों का नामान्तर ( मूजवन्त देखिये)। अहिरावण एवं महिरावण राक्षसों की कथा 'आनंद | मौंज-भृगुकुलोत्पन्न एक गोत्रकार । रामायण' में प्राप्त है, जहाँ उन्हे 'मैरावण' एवं 'ऐरावण' मोजकेश--अत्रिकलोत्पन्न एक गोत्रकार। कहा गया हैं (अहिरावण-महिरावण देखिये)। मौजवृष्टि-अंगिराकुलोत्पन्न एक गोत्रकार । मोद-हिरण्याक्ष के पक्ष का एक असुर, जिसका | मौजायन--युधिष्ठिर की सभा का एक ऋषि (म. स. देवासुरसंग्राम के समय वायु ने वध किया था। | ४.११) । हस्तिनापुर जाते समय, मार्ग में श्रीकृष्ण से २.ऐरावतकुलोत्पन्न एक सर्प, जो जनमेजय के सर्पसत्र इसकी भेंट हुयी थी (म. उ. ८१.३८८५)। में दग्ध हुआ था (म. आ. ५२.१०) मौजायनि-विश्वामित्रकुलोत्पन्न एक गोत्रकार । ३. मौद्ग नामक आचार्य का नामान्तर । पाठभेद-'कौब्जायनि'। मोदोष-एक आचार्य, जो विष्णु के अनुसार व्यास मौद्ग--एक आचार्य, जो भागवत के अनुसार व्यास की अथर्वन् शिष्यपरंपरा में से वेददर्श नामक आचार्य की अथर्वशिष्य परंपर। में से देवदर्श नामक आचार्य का का शिष्य था (व्यास देखिये)। शिष्य थे । पाठभेद-'मोद' एवं 'मोदोष'। - मोह-ब्रह्मा का एक पुत्र, जो उसकी छाया से उत्पन्न | मौदल-एक आचार्य, जो वेदमित्र नामक आचार्य हुआ था (मा. ३.२०)। मत्स्य के अनुसार, यह ब्रह्मा | का शिष्य था। पाठभेद-' मुद्गल ' (व्यास देखिये) की बुद्धि से उत्पन्न हुआ था (मत्स्य. ३.११)। मौद्गलायन-भृगुकुलोत्पन्न एक गोत्रकार। . मोहक-एक राजकुमार, जो राम के परमभक्त सुरथ मौदल्य--एक पैतृक नाम, जो नाक, शतबलाक्ष एवं नामक राजा का पुत्र था। सुरथ राजा ने राम का अश्व लांगलायन आदि आचार्यों के लिए प्रयुक्त हुआ है (श. मेधीय अश्व रोंक दिया था, जिस समय यह सुरथ की ब्रा. १२.५.२.१; नि. ११.६; ऐ. ब्रा. ५.३.८)। मुद्गल' ओर से युद्ध में शामिल था (पन. पा. ४९)। का वंशज होने के कारण, उन्हे यह पैतृक नाम प्राप्त हुआ मोहना--सुग्रीव की पत्नी | राम के अश्वमेधीय अश्व | | होगा। को स्नान कराने के लिए, इसने अपने पति के साथ सरयू का जल लाया था (पद्म. पा. ६७)। २. एक ब्रह्मचारी पुरुष, जिसने ग्लाव मैत्रेय नामक आचार्य ले साथ वाद-विवाद किया था (गो. ब्रा. १.१. मोहिनी-विष्णु का एक अवतार, जो चाक्षुष मन्वन्तर में हुआ था। समुद्रमंथन से चौदह रत्न निकले, जिसमें अमृत भी था। देव एवं दानवों ने मिल कर समुद्रमंथन | ३. एक ब्राह्मण, जो मुद्गल एवं भागीरथी का पुत्र किया, जिस कारण दोनों को अमृतप्राशन करने का था। इसकी पत्नी का नाम जाबाला था । विष्णु की अधिकार था। इसलिए वे अमृतप्राशनार्थ एकत्रित हुयें। आज्ञानुसार गरुड के द्वारा दिया हुआ भुट्टा इसने ६६७ ३१)। Page #690 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मौद्गल्य प्राचीन चरित्रकोश गौतमी नदी के तट पर दान में दिया, जिस कारण इसे ___ आगे चल कर, यह प्राग्ज्योतिषपुर में रहने लगी, ऐश्वर्य एवं समृद्धि प्राप्त हुयी। जहाँ इसका विवाह घटोत्कच के साथ हुआ ( स्कंद. १. ४. एक वृद्ध एवं कोढ़ी ब्रामण, जिसकी पत्नी का नाम | २. ५९-६०)। नालायनी इन्द्रसेना था। इसकी पत्नी ने इसकी सेवा कर मौलि-अंगिराकुलोत्पन्न एक गोत्रकार । इसे प्रसन्न रखा था। २. एक आचार्य, जो बाभ्रव्य नामक आचार्य का पिता एक बार नालायनी की इच्छा होने पर, इसने पाँच | | था। बाभ्रव्य ने पृषध्र राजा को शूद्र बनने का शाप दिया प्रकार के रूप धारण कर, उसके साथ क्रीडा की। फिर था ( पृषध्र देखिये)। उस समय इसने उन दोनों में .. भी वह अतृप्त रही । इस पर क्रुद्ध हो कर, इसने उसे मध्यस्थता की थी। अगले जन्म में पाँच पाण्डवों की पत्नी द्रौपदी बनने का शाप दिया (म. आ. परि. १. क्र. १००. पंक्ति. ६०- मौषिकीपुत्र--एक आचार्य, जो हारिकीपुत्र नामक आचार्य का शिष्य था। इसके शिष्य का नाम बाडेमहाभारत में अन्यत्र इसका, एवं इसकी पत्नी का नाम यीपुत्र था (श. ब्रा. १४.९.४.३०; बृ. उ. ६.४.३० क्रमशः 'मुद्गल' एवं 'चन्द्रसेना' दिया गया है (म. व. माध्य.)। मूषिका के किसी स्त्री वंशज का पुत्र होने के ११४.२४; उ. ४५९४)। कारण, इसे 'मौषिकीपुत्र' नाम प्राप्त हुआ होगा। ५. अंगिराकुलोत्पन्न एक प्रवर । मौहूर्तिक--एक देव, जो धर्म ऋषि एवं मूहूर्ता के ६. राम की सभा का एक मंत्री (वा. रा. उ. पुत्रों में से एक था। ७४.४)। ७. जनमेजय के सर्पसत्र का एक सदस्य (म. आ. . म्लेच्छ-एक जातिविशेष, जो नन्दिनी गौ के फेन ४८.९)। से उत्पन्न हुयी थी। महाभारत में इनका वर्णन 'मुण्ड', ८. एक आचार्य, जो शतद्युम्न नामक राजा का गुरु 'अर्धमुण्ड', 'जटिल', एवं 'जटिलानन' शब्दों में था। पाठभेद - 'मुद्गल' (मुद्गल ४. देखिये)। किया गया है (म. द्रो. ६८.४४)। सर्वप्रथम ये लोग ९. एक ऋषि, जो शरशय्या पर पड़े हुए भीष्म से भारत के उत्तर-पश्चिमी सीमा प्रदेश में रहते थे। किन्तु । मिलने के लिए उपस्थित था (म. शां. ४७.६६*)। धर्म से भ्रष्ट हुये सारी जातियों को 'म्लेच्छ' सामान्य पाठभेद - ' मुद्गल'। नाम मनुस्मृति के काल में दिये जाने लगा। मौन--अणी चिन् नामक आचार्य का पैतृक नाम (को. भाषा-शतपथ ब्राह्मण में म्लेच्छ भाषा का निर्देश ब्रा. २३.५)। 'मुनि' वंशज होने से, उसे यह पैतृक | प्राप्त है, जहाँ उसे अनार्य लोगों की बर्बर भाषा कहा नाम प्राप्त हुआ होगा। | गया है (शा. ब्रा. ३.२.१.२४)। मौर्य-(ऐति.) एक सुविख्यात राजवंश, जिसमें | महाभारत में-युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में, म्लेच्छों चंद्रगुप्त आदि दस राजा हुए थे। पुराणों के अनुसार, | का राजा भगदत्त समुद्रतटवर्ति म्लेच्छ लोगों के साथ इस वंश के राजाओं ने १३७ वर्षों तक राज्य किया।। इस वंश में निम्नलिखित राजा प्रमुख थे:-- चन्द्रगुप्त, उपस्थित हुआ था (म. स. ३१.१०)। बिन्दुसार, अशोक, सुयशस् (कुनाल ) एवं दशरथ । महाभारत में सर्वत्र इन्हें नीच एवं धर्मभ्रष्ट माना व्हिन्सेन्ट स्मिथ के अनुसार, इस राजवंश का राज्यकाल गया है। प्रलय के पहले पृथ्वी पर म्लेच्छों का राज्य इ. पू. ३२२-१८५ माना गया है। होने की, एवं विष्णुयशस् कल्कि के द्वारा इनका संहार मोर्वी कामकटंकटा--मुरु नामक यवन राजा की | होने की भविष्यवाणी वहाँ दी गयी है (म.व. १८८. कन्या, जो घटोत्कच की पत्नी थी। इसे 'काम' नामक | २९-८९)। युधिष्ठिर के अश्वमेध यज्ञ में, ब्राह्मणों को देवी से युद्ध में अजेयत्व प्राप्त हुआ था। देने के बाद जो धन बचा हुआ था, वह शूद्र एवं म्लेच्छ कृष्ण के द्वारा मुरु राजा का वध होने पर, इसने | लागा न | लोगों ने उठा लिया था (म. आश्व. ९१.२५)। . श्रीकृष्ण के साथ तीन दिनों तक युद्ध किया । अन्त में | युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ के समय, भीमसेन ने अपने कामदेवी ने इस युद्ध में मध्यस्थता की । | पूर्व-दिग्विजय में समुद्रतट पर रहनेवाले म्लेच्छ लोगों Page #691 -------------------------------------------------------------------------- ________________ म्लेच्छ प्राचीन चरित्रकोश यक्ष को जीता था, एवं उन से मणि, रत्न, सुवर्ण, रजत, भारतीय युद्ध में ये लोग कौरवपक्ष में शामिल थे। चंदन आदि भेटवस्तुएँ प्राप्त की थी (म. स. २७. इस युद्ध में, इन्होंने पाण्डवसेना पर क्रोधी गजराज २५-२६)। छोड़ दिये थे (म. क. १७.९) । किन्तु अर्जुन ने समस्त सहदेव ने अपनी दक्षिण दिग्विजय में, एवं नकुल ने 'जटिलानन' म्लेच्छों का संहार किया (म. द्रो. ६८.४२)। अपनी पश्चिम दिग्विजय में, इन लोगों पर विजय प्राप्त यादवराजा सात्यकि ने भी इनका संहार किया था (म. की थी (म. स. २८.४४; २९.१५ ) । युधिष्ठिर के द्रो. ९५.३६ )। इनके अंग नामक राजा का वध नकुल के अश्वमेध यज्ञ के समय भी, अर्जुन ने इन्हे जीता था। द्वारा हुआ था (म. क. १४.१४-१७)। इससे प्रतीत होता है कि, महाभारतकाल में इन लोगों के उपनिवेश पश्चिम, पूर्व एवं दक्षिण भारत में समुद्र के | म्लेच्छहन्तु--म्लेच्छयज्ञ करनेवाले प्रद्योत राजा का तट पर भी थे। | नामान्तर (प्रद्योत २. देखिये)। यक्ष-देवयोनि की एक जातिविशेष, जो पुलह एवं । २. कुबेरसभा में उपस्थित यक्ष-मणिमंत्र, मणिवर, पुलस्त्य ऋषिओं की संतान मानी जाती है (म. आ. जिसके पुत्र 'गुह्यक' सामूहिक नाम से प्रसिद्ध थे। इन्ही ६०.५४२) । महाभारत में इन लोगों को 'शूद्रदेवता' कहा | पुत्रों के कारण कुबेर को 'गुहयकाधिपति' उपाधि प्राप्त गया है, एवं कुवेर को इनका राजा कहा गया है (म. हुयी थी। आ. १. ३३; व. ११९.१०-११)। ये लोग कुबेर की भीमसेन ने मणिमत् , कुबेर आदि यक्षों को परास्त सभा में लाखों की संख्या में उपस्थित रह कर, उसकी | किया था (म. व. १५७; भीमसेन देखिये)। सुंद एवं उपासना करते थे (म. स. १०.१८)। उपसुंद नामक राक्षसों ने भी इन्हे पराजित किया था (म. पन के अनुसार, ब्रह्मा के पाँचवें शरीर से यक्ष एवं | आ. २०२.७)। राक्षस उत्पन्न हुये । इन्हे कोई माता न थी, क्यों कि, कुबेर यक्ष लोगों का राजा था, किन्तु उसके रावण ब्रह्मा ने अपने मनःसामर्थ्य से इन्हे उत्पन्न किया था। विभीषणादि चार पुत्र राक्षस थे। इन राक्षसपुत्रों की (ब्रह्मन् देखिये)। सन्तति भी राक्षस ही थी। इसी कारण कुबेर को यक्ष एवं राक्षसों का राजा कहा गया है। ... उत्पन्न होते ही इन्होंने ब्रह्मा से पूछा, 'हमारा | १ कर्तव्य क्या है ?' (किं कुर्मः) । फिर ब्रह्मा ने इन्हे | २. एक यक्ष, जिसने पाण्डवों के वनवासकाल में कहा, 'तुम यज्ञ करो' (यक्षध्वम्)। इसीकारण इन्हे युधिष्ठिरादि पाण्डवों को तत्त्वज्ञानविषयक प्रश्न पूछे थे 'यक्ष' नाम प्राप्त हुआ (वा. रा. उ. ४.१३) । यक्ष नाम (म. व. २९८.६-२५)। ये सारे प्रश्न धर्म ने यक्ष की यह उपपत्ति कल्पनारम्य प्रतीत होती है। केन उप- का वेष धारण कर पूछे थे (धर्म १. देखिये)। निषद में 'यक्ष' शब्द का अर्थ 'आदि कारण ब्रह्म' दिया "| ३. एक राक्षस, जो कश्यप एवं खशा का पुत्र था । इसका जन्म संध्यासमय में हुआ था। अपने बाल्यकाल ये लोग विद्याधरों के निवासस्थान के नीचे मेरु | में यह अपनी माता को खाने के लिए दौडा। किन्तु पर्वत के समीप रहते थे। महाभारत एवं पुराणों में इसके छोटे भाई रक्षस् ने इसका निवारण किया। निम्नलिखित यक्षों का निर्देश प्राप्त है: स्वरूपवर्णन-ब्रह्मांड में इसका स्वरूपवर्णन प्राप्त १. कुबेर के सेनापति-मणिकंधर, मणिकार्मुकधर, है, जहाँ इसे विलोहित, एककर्ण, मुंजकेश, हस्वास्य, मणिभूष, मणिमत्, मणिभद्र, पूर्णभद्र, मणिस्रग्विन् (दे. दीर्घजिह्व, बहुदंष्ट्र, महाहनु, रक्तपिंगाक्षपाद, चतुष्पाद, भा. १२.१०)। | दो गतियों का, सारे शरीर पर बालवाला, चतुर्भुज, सुंदर Page #692 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यक्ष प्राचीन चरित्रकोश नाकवाला, एवं बड़े मुँहवाला कहा गया है (ब्रह्मांड. ३.७. ४२) । - परिवार इसकी पत्नी का नाम बंधना था, जो शंड नामक असुर की पत्नी थी ( ब्रह्मांड. ३. ७.८६ ) | अपनी इस पत्नी से इसे ' यातुधान' सामूहिक नाम धारण करनेवाले राक्षत्र पुत्ररूप में उत्पन्न हुयें ( यातुधान देखिये) । 3 एक बार इसने वसुरुचि नामक गंधर्व का रूप ले कर, ऋतुस्थय अप्सरा से संभोग किया, जिससे इसे रक्त नाम नामक पुत्र उत्पन्न हुआ (ब्रह्मांड. २.७.१ - १२) | पुत्रजन्म के पश्चात् इसने तुला को अप्सरागणों में लौटा दिया। ४. एक व्यास (व्यास देखिये ) | यक्षिणी - एक देवी, जिसके प्रसादरूप नैवेद्य के भक्षण से ब्रह्महत्या के पातक से मुक्ति प्राप्त होती है । यक्षु-एक राजा, जो दाशराज युद्ध में सुदास राजा विपक्ष में था ( ७१८.६) संभवतः यह 'यदु' राजा का ही नामान्तर होगा । २. एक लोकसमूह, जिन्होंने दाशराज्ञ युद्ध में भेद के नेतृत्व में सुदास राजा के विपक्ष में हिस्सा लिया था (ऋ. ७. १८.१९) । एवं शिशु लोगों के साथ, इन्होंने परुष्णी एवं यमुना नदी के तट पर हुये संग्रामों में भाग लिया था। इंद्र के द्वारा भेद का वध होने पर, ये लोग भेंट ले कर इंद्र की शरण में गये । ऋग्वेद में प्राप्त निर्देशों से ये लोग अनार्य जाति के प्रतीत होते हैं। अज एवं शिग्रु लोगों के साथ, ये संभवतः पूर्व भारत में निवास करते होंगे। यक्षेश्वर - एक शिवावतार जो देवों के गर्वहरण के लिए अवतीर्ण हुआ था । समुद्रमंथन के बाद देवताओं को अमृत प्राप्त हुआ, जिस कारण वे अत्यधिक गर्वोद्धत हुये उस समय उनका गर्वहरण करने के लिए, शिव ने यक्षेश्वर नाम से अवतार लिया । इसने देवताओं की परीक्षा लेने के लिए, उनके सामने घाँस का एक तिनका रख दिया, एवं उसे हिलाने को कहा । देवतागण उस कार्य में असफल होने पर, उन्हे अपने वास्तव सामर्थ्य का ज्ञान हुआ ( शिक. शत. २६)। इसी प्रकार की कथा 'केन उपनिषद' में भी प्राप्त है। यक्ष्मनाशन प्राजापत्य - एक वैदिक सूक्तद्रष्टा (ऋ. १०.१.६१ ) । यंकणारेण नामक ब्राह्मण की स्त्री । यज्ञदत्त यजत - एक यशकर्ता, जिसका अन्य ऋषियों के साथ निर्देश प्राप्त है ( ऋ. ५.४४.१० - ११ ) । ऋग्वेद मं अन्यत्र निर्दिष्ट ' यजत आत्रेय ' नामक वैदिक सूक्तद्वारा, एवं यह दोनो एक ही होंगे (ऋ. ५.६७-६८) । यजत आत्रेय एक वैदिक मुक्तद्रश (यज देखिये) । यजु -- (सो. ऋक्ष. ) एक राजा, जो मत्स्य के अनुसार उपरिचर व राज का पुत्र था। यजुदाय -- (सो. वसु ) एक राजा, जो वायु के अनुसार वमुदेव एवं देवकी का पुत्र था। -- यज्ञ विष्णु का सातवाँ अवतार जो स्वायंभुव मन्वन्तर में रुचि नामक ऋषि एवं आकृति के पुत्र के रूप में उत्पन्न हुआ था। इसकी पत्नी का नाम दक्षिणा था, जिससे इसे तृषित नामक बारह देव पुत्ररूप में उत्पन्न हुयें। इसे ' सुयज्ञ ' नामान्तर भी प्राप्त था ( भा. २. ७.२)। f स्वायंभुव मनु राजा ने पुत्रिकापुत्रधर्म से इसका स्वीकार कर इसे अपना पुत्र मान लिया था, एवं इसे अपने मन्वन्तर का इंद्र बनाया था ( भा. १.३.१२९४.१. ८८.१.१८; विष्णु. ३.१.३६ ) । सुश्रुत संहिता के अनुसार, प्राचीन काल में रुद्र के द्वारा इसका शिरच्छेद किया गया था उस समय, अश्विनीकुमारों ने इन्द्र की सहाय्यता से, इसके सर पर शल्य कर्म किया, एवं इसका सिर पूर्ववत् किया (सु. सं. १.१४ ) । २. (आंध्र. भविष्य . ) एक राजा, जो ब्रह्मांड के अनुसार गौतमी का पुत्र था । यज्ञ प्राजापत्य - एक वैदिक सूक्तद्रष्टा (ऋ. १०. १३० ) । यज्ञकृत् - (सो. क्षत्र. ) एक राजा, जो विष्णु के अनुसार विजय का राजा पुत्र था । यज्ञकोप - रावण के पक्ष का एक राक्षस, जो राम के द्वारा मारा गया ( वा. रा. सु. ९.४३ ) । यज्ञदत्त कांपिल्य नगर का एक अग्रिहोत्री ब्राह्मण, जिसके पुत्र का नाम गुणनिधि था (शिव. स्व. १८) । २. भगदत्त राजा के पुत्र ' वज्रदत्त' का नामांतर (पद देखिये) । (वज्रदत्त २. वसोत्पन्न एक ब्राह्मण, जो यज्ञकर्म में निपुण था। यह यामुन पर्वत की तलहटी में निवास करता था (पद्म. पा. ९६ ) । ६७० Page #693 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यज्ञदत्त • ४. (सो. कुरु. भविष्य . ) एक राजा, जो भविष्य के अनुसार शतानीक राजा का पुत्र था। यज्ञपति -- भृगुकुलोत्पन्न एक गोत्रकार । प्राचीन चरित्रकोश यज्ञबाहु - ( स्वा. प्रिय. ) शाल्मलिद्वीप का एक सुविख्यात राजा, जो भागवत के अनुसार प्रियव्रत राजा का पुत्र था। इसकी माता का नान बार्हिष्मती था । इसे निम्नलिखित सात पुत्र थे: -- सुरोचन, सौमनस्य, रमणक, देववर्ष, पारिभद्र, आप्यायन एवं अविज्ञात ( भा. ५. २०.९ ) । इसने शाल्मलिद्वीप के अपने राज्य के सात भाग कर, उन्हें अपने उपनिर्दिष्ट पुत्रों में बाँट दिये । आगे चल कर, उस द्विप के सात भाग इसके सात पुत्रों के नाम से सुविख्यात हुयें (भा. ५.१.२५ ) । यज्ञवचस् राजस्तंबायन — एक आचार्य, जो तुर कावषेय नामक आचार्य का शिष्य था (श. ब्रा. १०.४. २.१; मै. सं. ३.१०.३; ४.८.२ ) । इसके शिष्य का नाम कुश्रि-था ( उ. ६.५.४ काण्व)। राजस्तंत्र का वंशज होने कारण इसे 'राजस्तंत्रायन' नाम प्राप्त हुआ होगा । यति भागवत एवं विष्णु में इसे शिवत्कंद राजा का, एवं वायु गौतम राजा का पुत्र कहा गया है । यज्ञपिंडायन -- भृगुकुलोत्पन्न एक गोत्रकार । पाठभेद - ( म. आ. १२२.२६; द्रुपद देखिये) । ' यद्रा मिलायन' । यज्ञवराह-- वराहरूपधारी श्रीविष्णु का नामान्तर . ( म. स. परि. १. क्र. २१. पंक्ति. १२८ ) । यज्ञवाह -- अगस्त्यकुलोत्पन्न एक गोत्रकार । २. स्कंद का एक सैनिक (म. श. ४४.६५ ) । यज्ञशत्रु -- एक राक्षस, जो लंका में रहनेवाले खर नामक राक्षस का अनुगामी था ( वा. रा. अर. ३१) । २३. यज्ञशर्मन- -- द्वारका में रहनेवाला एक ब्राह्मण, जो शिवशर्मन् नामक एक तपस्वी ब्राह्मण का पुत्र था । यज्ञसेन -- पांचालनरेश द्रुपद राजा का नामान्तर यज्ञसेन चैत्र -- एक आचार्य, जिसका पैतृक नाम 'चैत्र' अथवा 'चैत्रियायण ' था (का. सं. २१.४; तै. सं. ५.३.८.१ ) । यज्ञहन -- एक राक्षस, जो रक्षस् एवं ब्रह्मधना का पुत्र था । २. कृष्णपुत्र वृष का पुत्र । यज्ञहोत्र -- उत्तम मनु के पुत्रों में से एक । यज्ञापेत - एक राक्षस, जो रक्षस् एवं ब्रह्मधना का पुत्र था । यज्ञेषु - एक यज्ञकर्ता, जिसके पुरोहित का नाम मात्स्य था । यज्ञ प्रारंभ करने के लिए उत्तम मुहूर्त जाननेवाले मास्त्य ने एक सुमुहूर्त पर इसका यज्ञ प्रारंभ किया, एवं संपन्न बनने में इसे सहाय्यता की (तै. सं. १. ५. २. १ ) । यज्वन् - पारावत देवों में से एक । यति - यज्ञविरोधी एक जातिसमूह, जिनका निर्देश ऋग्वेद में अनेक बार प्राप्त है (ऋ. ८.३.९; ६.१८ ) । ये लोग यज्ञविरोधी होने के कारण, इन्द्र ने एक अशुभ मुहूर्त में इन्हे कड़वे ( सालानुक ) को दे दिया था । इनमें से पृथुरश्मि, बृहत् गिरि एवं रायोवाज ही अपने को बचा सके। उनकी दया आ कर इंद्र ने उनकी रक्षा की, एवं उन्हे क्रमशः क्षात्रविद्या, ब्रह्मविद्या, एवं वैश्यविद्या सिखायी (तै. सं. २.४.९.२१ का. सं. ८.५; पं. ब्रा. १३.४.१६ ) । मनुस्मृति में इस कथा का निर्देश प्राप्त है, एवं जानबूझ कर ब्रह्महत्त्या करने पर प्रायश्चित्त लेनेवाले लोगों में मनु ने इन्द्र का निर्देश किया है (मनु. ११.४५. कुल्लूकभाष्य ) | एकबार इसकी पितृभक्ति की परीक्षा लेने के लिए, इसके पिता शिवशर्मन् ने माया से इसकी पत्नी का वध किया । पश्चात् उसने इसे पत्नी की शरीर टुकड़े टुकड़े कर, उन्हें फेंक देने के लिए कहा । अपने पिता की आज्ञानुसार, इसने यह पाशवी कृत्य किया । इस पर इसका पिता प्रसन्न हुआ, एवं उसने इसे अपनी पत्नी पुनः जीवित करने के लिए कहा (पद्म. भू. १. ) । यज्ञश्री -- (आंध्र. भविष्य . ) एक सुविख्यात आंध्रवंशीय राजा, जो ब्रह्मांड के अनुसार गौतमीपुत्र राजा का पुत्र था । मत्स्य में इसका 'शिवश्री' नामान्तर दिया गया है | इसके पितामह का नाम शिवस्वाति था । को नहुष राजा का ज्येष्ठ पुत्र होने के कारण, उसके पश्चात् प्रतिष्ठान के राजगद्दी पर इसका ही अधिकार था। किंतु यह प्रारंभ से ही विरक्त था, जिस कारण अपने छोटे भाई ययाति को राज्य दे कर, यह स्वयं वन में चला । ६७१ २. एक आचार्य, जिसका निर्देश सामवेद में भृगु ऋषि के साथ किया गया है (सा. वे. २.३०४ ) । ३. (सो. पुरुरवस्.) नहुष के छः पुत्रों में से ज्येष्ठ पुत्र । कुकुत्स्थ राजा की कन्या गो इसकी पत्नी थी (ब्रह्म. १२.३; वायु. ९३.१४ ) । Page #694 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यति प्राचीन चरित्रकोश यदु गया (म. आ. ७०.२८%; ६९२, भा. ९.१८.१-२; ___ अपने पिता ययाति को युवावस्था देने से इसने पन. सृ. १२; मत्स्य. २.४.५१; ह. वं. १.३०.३)। अस्वीकार कर दिया । इस कारण, ज्येष्ठ पुत्र होते हुये ४. ब्रह्मदेव का एक मानसपुत्र (भा. ४.८.१)। भी ययाति ने प्रतिष्ठान देश के अपने राज्य से इसे ५. विश्वामित्र का एक पुत्र । वंचित कर, अपने कनिष्ठ पुत्र पूरु को राज्य प्रदान किया। ६. शिवदेवों में से एक। ययाति के मृत्यु के पश्चात् , उसके राज्य का थोडा हिस्सा यतिनाथ-एक शिवावतार । अबु के पहाड पर इसे प्राप्त हुआ, जिसमें मध्य भारत के चर्मण्वती आहुका नामक एक भिल्लदम्पती रहते थे । इसने उन पर (चंबल), वेत्रवती (बेटवा), शुक्तिमती (केन) कृपा की, जिसके कारण अगले जन्म में उन्हे राजवंश में नदियों से वेष्टित प्रदेश शामिल था। हरिवंश के अनुसार, नल एवं दमयंती के रूप में जन्म प्राप्त हुआ (शिव. ययाति के राज्य में से पूर्वी उत्तर प्रदेश का राज्य इसे शत. २८)। | प्राप्त हुआ था (ह. वं. १.३०.१८)। यतीश्वर-शिखण्डिन् नामक शिवावतार का शिष्य। इसी प्रदेश में इसने अपना सुविख्यात राजवंश यदु--एक जातिसमूह, जो दाशराज्ञ युद्ध में भरत एवं स्थापित किया । इस राजवंश ने मथुरा, गुजराथ, राजा सुदास के विपक्ष में था (ऋ. ७.१९.१८) सीमर काठेवाड प्रदेश में स्थित राक्षस लोगों का नाश किया। के अनुसार, यदु, अनु, द्रुह्य एवं तुर्वश लोग मिल कर पश्चात् इन दोनों प्रदेश में यादव एवं उन्हीके ही वंश के. प्राचीन 'पंचजन' लोग बने थे, जिनका निर्देश ऋग्वेद में हैहय लोगों का राज्य स्थापित हुआ। प्राप्त है (त्सीमर- आल्टिन्डिशे लेबेन. १२२; १२४)। शाप-शुक्राचार्य के शाप के कारण, इसके पिता दाशराज्ञ युद्ध में अर्ण एवं चित्ररथ राजा पानी में डूब कर | ययाति का तारुण्य नष्ट हुआ। फिर ययाति ने अपने . मर गये, जिनके साथ ये लोग भी मरनेवाले थे। किन्तु | ज्येष्ठ पुत्र यदु को अपनी जरा ले कर उसके बदले इसका.. इन्द्र ने इन्हें बचाया। यदु एवं तुर्वश लोगों को सुदास | तारुण्य देने की प्रार्थना की । यदु ने अपने पिता की यह राजा के हाथ में देने की प्रार्थना, ऋग्वेद में वसिष्ठ के | प्रार्थना अस्वीकार कर दी। इस पर क्रद्ध हो कर ययाति द्वारा इन्द्र से की गयी है (ऋ.७.१९.८)। इन्द्र के द्वारा | ने इसे शाप दिया, 'आज से तुम एवं तुम्हारे वंशज इन्हे सदास राजा के हाथ सौंप देने का निर्देश भी ऋग्वेद | राज्यधिकार से वंचित रहोगे' (म. आ. ७९.१-७)। में प्राप्त है। यदु के जिस भाईयों ने इसका अंनुकरण किया, उन्हें भी ___ इससे प्रतीत होता है कि, ये लोग शुरु में सुदास राजा ययाति का यही शाप प्राप्त हुआ। के शत्र थे, किन्तु आगे चल कर उसके मित्र बने (ऋ. ४. पौराणिक ग्रंथों में ययाति ने इसे निम्नलिखित अन्य ३०.१७;६.२०.१२; ४५.१)। शाप देने का निर्देश प्राप्त है:-१. 'तुम मातुलकन्या२. यदु लोगों का राजा, जिसका निर्देश ऋग्वेद में परिणय करोंगे'। २. 'तुम मातृद्रव्य का हरण करोगे' अनेक बार प्राप्त है। यह सुदास राजा का शत्रु था, किन्तु | (पन. भू. ८०)। ३. 'तुम सोमवंश में न रहोंगे। इंद्र का उपासक था (ऋ. १.१०८.८; १७४. ९,५.३१.७; | ४. तुम यातुधान नामक राक्षस उत्पन्न करोंगे' (वा. रा. ७.१९.८.)। दाशराज्ञ युद्ध में यह एवं तुर्वश राजा | उ. ५९.५; १४-१६, २०)। अपनी जान बचा कर भाग गये थे, जब की इसके मित्र ययाति का अत्यंत प्रिय पुत्र होते हुये भी, यदु ने अनु एवं द्रा मारे गये थे। इसके साथ उग्रदेव, नर्य, | अपने पिता की जरा लेना अस्वीकार क्यों कर दिया, तुर्वीति, एवं वैय्य आदि व्यक्तियों के निर्देश प्राप्त है | इसका स्पष्टीकरण वायु एवं भागवत में प्राप्त है। इन (ऋ. १.३६.१८, ५४.६ )। ऋग्वेद में इसके वंशजों का | ग्रंथों के अनुसार, अपना यौवन ले कर अपने पिता निर्देश 'याद' नाम से किया गया है (ऋ. ७.१९.८.)। अपनी ही माता से भोगविलास करे, यह कल्पना इसे किन्तु इनमें से किसी का भी निर्देश पुराणों में प्राप्त नहीं है। अपवित्र एवं अवैध प्रतीत हुयी । इसी कारण, यद्यपि ३. (सो. आयु.) ययाति राजा के पाँच पुत्रों में से पिता की प्रार्थना मान्य करने से पित्राज्ञा का पालन करने ज्येष्ठ पुत्र । ययाति राजा को देवयानी से दो पुत्र उत्पन्न | का पुण्य प्राप्त होगा, फिर भी उससे मात्रागमन का हुये थे, जिनके नाम यदु एवं तुर्वसु थे (ह. वं. १.३०. | महान् दोष भी लगेगा, ऐसे सोच कर, इसने ययाति की . ५ म. आ. ७८.९; मत्स्य. ३२.९)। प्रार्थना अमान्य कर दी (वायु. ९३; भा. ९.१९.२३)। ६७२ Page #695 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन चरित्रकोश यदु हरिवंश एवं ब्रह्म के अनुसार, यदु ने किसी ब्राह्मण २८)। हरिवंश के अनुसार, यदु के पाँच पुत्रों ने यादव को कई वस्तु दान में देने का अभिवचन दिया था, जिस | वंश की पाँच शाखाएँ प्रस्थापित की। उनमें से माधव ने कारण इसने ययाति की जरा स्वीकार ने में असमर्थता | मथुरा नगरी में राज्य स्थापित किया, एवं मुचकुंद, सारस, प्रकट की (ह. वं. १.३०.२३-२४: ब्रह्म. १२)। हरित एवं पद्मवर्ण राजाओं ने दक्षिण हिंदुस्थान में — इसे एवं इसके भाई अनु को यद्यपि राज्य प्राप्त हुआ महाराष्ट्र में आ कर स्वतंत्र राज्य स्थापित किये, जो आगे था, फिर भी सार्वभौम राज्याधिकार से ये सदा के लिए चल कर करवीर (कोल्हापूर) आदि नामों से प्रसिद्ध वंचित रहे (विष्णु. ५.३)। इसी कारण 'यादव वंश' हुये । हरिवंश में प्राप्त माधव की वंशावली निम्न प्रकार में उत्पन्न हुये कृष्ण आदि राजा को, एवं 'अनुवंश' में है:-माधव-सत्वत्-भीम सात्वत-अंधक-रैवत-ऋक्ष उत्पन्न हुये कर्ण आदि को अन्य सार्वभौम राजाओं से | एवं विश्वगर्भ-वसुदेव, दमघोष, वसु, बभ्रु, सुषेण एवं उपेक्षा सहनी पडी । श्रीकृष्ण को 'ग्वाला', एवं कर्ण को | सभाक्ष-श्रीकृष्ण (ह. वं. २.३८.३६-५१)। 'सूतपुत्र' व्यंजनात्मक उपाधियाँ उनके विपक्ष के लोगों के | __सास्वत शाखा-इनमें से भीम सात्वत राम दाशरथि द्वारा प्रदान की जाती थी। राजा का समकालीन था। उसने इक्ष्वाकुवंशीय शत्रुपरिवार-हरिवंश के अनुसार, यदु को कुल पाँच | घातिन् राजा से मथुरा नगरी को जीत कर, वहाँ अपना पत्नियाँ थी. जो धम्रवर्ण नामक नाग की कन्याएँ थी। इन राज्य स्थापित किया। सात्वत राजा को भजमान, देवावृध, पाँच पत्नियों से इसे निम्नलिखित पाँच पुत्र उत्पन्न हुयेः- | अंधक एवं वृष्णि नामक चार पुत्र थे, जिनके कारण, १. पनवर्ण, २. माधव, ३. मुचुकुंद, ४. सारस, ५.यादव वंश की चार शाखाएँ उत्पन्न हयी। उनमें से देवावृध एवं उसके पुत्र बभ्र ने अबु पहाड़ी के प्रदेश में 'सहस्त्रद ' एवं 'पयोद' नामक दो पुत्रों का निर्देश प्राप्त स्थित मार्तिकावत देश में अपना राज्य स्थापित किया। है (ह. वं. १.३३.१.)। . ___ अंधक एवं उसके दो पुत्र कुकुर एवं भजमान, मथुरा में इनके अतिरिक्त, निम्नलिखित ग्रंथों में यदु के पुत्र | राज्य करते रहे । कंस राजा उन्ही के वंश में उत्पन्न हुआ इस प्रकार बताये गये है: था। भजमान के पुत्र 'अंधक' नाम से ही सुविख्यात हुये, १, भागवत में--क्रोष्टु, सहस्रजित् , नल, एवं रिपु एवं उनका राज्य मथुरा के पास ही कहीं था। भारतीय (भा. ९.२३)। युद्ध के समय कृतवर्मन् उनका राजा था। वृष्णि का राज्य २. मत्स्य में--नील, अंतिक, एवं लघु (मत्स्य. ४३. गुजराथ में द्वारका प्रदेश में था ( वृष्णि देखिये)। अन्य शाखाएँ-इनके सिवा यादव वंशों के अन्य कई ३. वायु में--जित एवं लघु (वायु. ९४.२)। उपशाखाओं का राज्य विदर्भ, अवंती, दशार्ण प्रदेश में ४. विष्णु में--क्रोष्टु (विष्णु. ४.११)। भी था। ५. पद्म में--भोज, भीमक, अंधक, कुंजर, वृष्णि, | हैहकों का मुख्य राज्य नर्मदा नदी के किनारे, माहिष्मती श्रुतसेन, श्रुताधार, कालदंष्ट्र एवं कालजित (पन. भू. | में था, एवं उनकी वीतहोत्र, शर्यात, भोज, अवन्ती एवं पार्गिटर के अनुसार, भागवत में प्राप्त युदुपुत्रों की तुंडिकेर नामक पाँच शाखाएँ प्रमुख थी। नामावली प्रक्षिप्त है। यदु के पुत्रों में केवल दो पुत्र ही । यद्यपि हैहयों के उपशाखाओं में से 'भोज' एक था, फिर महत्त्वपूर्ण थे :-१. कोष्ट, जिसने मथुरा में यादव वंश भी गुजरात के वृष्णियों को छोड़ कर बाकी सारे यादव की स्थापना की.२ जित लिने यश की वंश 'भोज' सामुहिक नाम से प्रसिद्ध थे। इसी कारण, स्थापना की (पार्गि.८७)। निम्नलिखित यादव राजाओं को 'भोज' कहा गया है:यादववंश--पुराणों में यादववंश की जानकारी विस्तृत | उग्रसेन, कंस, कृतवर्मन् , विदर्भराज भीष्मक, एवं रुक्मिन् । रूप में उपलब्ध है, किंतु वहाँ प्राप्त बहुत सारे निर्देश एक । भीम सात्वत से ले कर श्रीकृष्ण तक के यादव राजाओं दूसरे से मेल नहीं खाते है । वायु के अनुसार, यादव वंश | का मुख्य राज्य मथुरा में ही था। जरासंध की भय से, की ग्यारह शाखाएँ थी (वायु. ९६.२५५)। मत्स्य के श्रीकृष्ण ने एक स्वतंत्र यादव राज्य पश्चिम समुद्र के तट अनुसार, इनकी एकसौ शाखाएँ थी (मत्स्य. ४७.२५- | पर सुराष्ट्र में स्थित द्वारका नगरी में स्थापित किया। प्रा. च. ८५] ६७३ Page #696 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन चरित्रकोश यदु श्रीकृष्ण के समय, यादवों की संख्या कुल तीन कोटि थी, जिनमें से साठ लाख लोग शूर योद्धा थे । अठारह महारथ - - भागवत में यादववंश में उत्पन्न अठारह शूर योद्धाओं की नामावलि दी गयी है, जो निम्नप्रकार है: - प्रद्युम्न, अनिरुद्ध, दीप्तिमत्, भानु, साम्ब, मधु, बृहद्भानु, चित्रभानु, वृक, अरुण, पुष्कर, वरबाहु, श्रुतदेव सुनंदन, चित्रबाहु विरूप, कवि एवं न्यग्रोध (मा. १०.९०.३३-३४ ) । इनमें से प्रद्युम्न, अनिरुद्ध, एवं वज्र भारतीय युद्ध के पश्चात् हुये मौसल युद्ध में मारे गये इसी युद्ध में समस्त यादव वंश का भी जड़मूल से संहार हुआ। इस महाभयानक संहार का वर्णन भागवत, एवं महाभारत में प्राप्त है ( मा. ३.४.१२ म. मी. ४) । इस संहार से केवल चार पाँच यादव ही बच सके ( भा. १.१५.२३ ) । भार्यसंस्कृति का प्रसार -- प्राचीन आर्यसंस्कृति का प्रसार राजपूताना गुजरात, मालवा एवं दक्षिण के प्रदेशों में करने का महान कार्य यादव लोगों ने किया । पूर्वकाल में ये सारे प्रदेश अनार्य थे, जिन्हे आर्य धर्म एवं संस्कृति की दीक्षा यादवों ने दी। यह कार्य करते समय ये लोग अनार्य लोगों के साथ सम्मिलित हुये कर्मठ आर्यधर्म का पालन न कर सके। इसी कारण महाभारत एवं पुराणों इन्हे 'असुर' कहा गया है, एवं उत्तरी पश्चिमी भारत के ‘नीच्य’ एवं ‘अपाच्य ’जातियों में इनकी गणना की गयी है। फिर भी आर्यधर्म के प्रसार में इन्होंने जो कार्य किया वह प्रशंसनीय है । यादवों का सर्वश्रेष्ठ नेता श्रीकृष्ण था, जो धर्मनीति एवं युद्धनीति में प्रवीण होने के कारण, समस्त भारतवर्ष का नेता बन गया एवं साक्षात् विष्णु का अवतार कहलाने लगा। आर्यसंस्कृति के प्रसार में यादवों के द्वारा किये गये कार्य में श्रीकृष्ण का बड़ा हाथ रहा है। यादव निंदा -- महाभारत में भूरिश्रवस् राजा के द्वारा यादवों की अत्यधिक कटुशब्दों में आलोचना की गयी है, जहाँ उन्हें आचारहीन (आय), निद्यकर्म करनेवाले, एवं गर्हणीय योनि के कहा गया है ( म. द्रो. ११८.१५) । कौटिलीय अर्थशास्त्र में भी इन्हे 'छलकपट करनेवाले' कहा गया है, एवं द्वैपायन के साथ कपट करने से इनका नाश होने का निर्देश प्राप्त है ( कौ. अ. पृ. २२ ) । ४. विदर्भदेश का एक राजा, जिसने अपनी प्रभा अपवा सुमति नामक कन्या सगर राजा को विवाह में दी थी। ६७४ यम ५. ( सो. ऋक्ष. ) एक राजकुमार, जो उपरिचर वसु राजा का पुत्र था। युद्ध में यह किसी से पराजित नही होता था ( म. आ. ५७.२९ ) । ६. स्वायंभुव मन्वन्तर के जिस देवों में से एक। यदुध - रेवत मन्वन्तर के सप्तर्पियों में से एक। यद्रा मिलायन -- भृगुकुलोत्पन्न गोत्रकार 'यज्ञपिंडायन' का नामान्तर । 6 यम - एक पार्षद, जो वरुण के द्वारा स्कंद को प्रदान किया गया था। दूसरे पार्षद का नाम अतियम' था (म. श. ४.४.४९ ) । पाठभेद ( भांडारकर संहिता ) - 'एस' एवं ' अतिघस । यम वैवस्वत समस्त प्राणियों का नियमन करनेवाला एक देवता, जो मृत्युलोक का अधिष्ठाता माना जाता है। वैदिक ग्रंथों में इसे मृत व्यक्तियों को एकत्र करनेवा मृतकों को विश्रामस्थान प्रदान करनेवाला, एवं उनके लिए आवास निर्माण करनेवाला कहा गया है (ऋ. १०.१४१ १८; अ. वे. १८. २ ) । ऋग्वेद में इसे मृतकों पर शासन कग्नेवाला राजा कहा गया है (ऋ. १०.१६ ) । इसके अब स्वर्ण नेत्रों तथा सौह रोवाले है। का नाम सरयु था (ऋ. १०.१४ १०) । इसी कारण इसके पिता का नाम विवस्वत् था, एवं इसकी माता । इसे 'वैवस्वत' पैतृक नाम प्राप्त हुआ था (ऋ. १०. १४.१९ ५८.१९ ६०.१०; १६४.२)। अथर्ववेद में इसे उपनिषदों में इसे देवता माना गया है (बृ. उ. १.४. 'विवस्वत्' से भी श्रेष्ठ बताया गया है ( १८.२) । ४.११ १.१.६२१) । पहला राजा - इसे पहला मनुष्य कहा गया है (अ. वे. ८३.१२ ) । इसे राजा भी कहा गया है ( कौ. ॐ. ४८ । उ. १५. ९.११३१०.१४) । शतपथ में इसे दक्षिण का राजा माना गया है (श. ब्रा. २.२.४.२ ) । ऋग्वेद के तीन सूक्तों में इसका निर्देश हुआ है (ऋ. १०. १४. १३५; १५४ ) । निवासस्थान यम का निवासस्थान आकाश के दूरस्थ स्थानों में था (ऋ. ९.११३) । वाजसनेय संहिता में यम एवं उसकी बहन यमी को उच्चतम आकाश में रहनेवाले कहा गया है, जहाँ ये दोनों संगीत एवं बीणा के स्वरों से घिरे रहते हैं (बा. सं. १२.६२) । ऋग्वेद में अन्यत्र इसका वासस्थान तीन लोकों में सब से उँचा कहा गया है (ऋ. १.१.५-६ ) । Page #697 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • यम प्राचीन चरित्रकोश यम दूत-यम के दूतों में दो श्वान प्रमुख थे, जो चार | घनिष्ठ रूप से संबद्ध होने के कारण, यम मृत्यु के देवता नेत्रोंवाले, चौड़ी नासिकावाले, शबल, उदुंबल (भूरे ), एवं बन गया। बाद की संहिताओं में 'अंतक' 'मृत्यु सरमा के पुत्र थे (ऋ. १०.१४.१०)। ऋग्वेद में अन्यत्र | 'निर्ऋति' के साथ यम का उल्लेख कर, 'मृ यु' को 'उलूक' एवं 'कपोत' को भी यम के दूत कहा गया है | इसका दूत कहा गया है (अ. वे. ५.३०; १८.२)। (ऋ. १०.१६५.४)। | अथर्ववेद में मृत्यु को मनुष्यों का, तथा यम को पितरों का मित्रपरिवार-यम के मित्रों में अग्नि प्रमुख है, जिसे | अधिपति कहा गया है, तथा 'निद्रा' को कहा गया है यम का मित्र एवं पुरोहित कहा गया है (ऋ. १०.२१; | कि, वह यम के क्षेत्र से आती है। ५२)। मृत लोगों को द्युलोक में ले जानेवाला अग्नि यम का | व्युत्पत्ति—यम शब्द का भाषाशास्त्रीय आशय 'यमज' मित्र होना स्वाभाविक ही प्रतीत होता है । इसके अन्य मित्रों | (जुड़वां पैदा होनेवाला) है, जिस अर्थ में इसका निर्देश में वरुण एवं बृहस्पति प्रमुख थे, जिनके साथ यह आनंद- | ऋग्वेद में अनेक बार प्राप्त है (ऋ. १०.१०) । अवेस्ता पूर्वक निवास करता था। वैदिक साहित्य में अन्यत्र निम्न- में निर्दिष्ट 'यिम' का अर्थ भी यही है । इसके अतिलिखित देवताओं को यम से समीकृत किया गया है:- | रिक्त, 'निर्देशक ' अर्थ से 'यम' का प्रयोग भी ऋग्वेद अग्नि (तै. सं. ३.३.८.३); वायु (नि.१०.२०.२); एवं | में कई बार हुआ है। उत्तरकालीन साहित्य में, यम को सूर्य (ऋ. १०.१०; १३५.१)। दुष्टों का यमन (नियंत्रित ) करनेवाला देवता माना गया यम-यमी संवाद--यम एवं उसकी जुड़वा बहन यमी | है । का संवाद ऋग्वेद में प्राप्त है, जहाँ यमी इससे संभोग के | वेदकालोपरांत यम--महाभारत तथा पुराणों में इसे लिए प्रार्थना करती है । उस समय यम ने भगिनीसंभोग विवस्वत् तथा संज्ञा का पुत्र कहा गया है (ह. वं. १.९. अधर्म कह कर उसे निराश . किया। फिर यमी ने | ८;माके. ७४.७; भा. ६.६.४०; मत्स्य. ११.४; विष्णु. इससे कहा, 'यहाँ कौन देख रहा है' ? तब इसने कहा, | ३.२.४; पद्म. सू. ८; वराह. २०.८; भवि. प्रति. ४. 'देवदूत देखते है, जिनका निवास-संचार हर एक स्थान | १८)। संज्ञा को सूर्य का तेज सहन न होता था, इसलिए पर है । (न निमिषन्त्येते देवानां स्पर्श इह ये चरन्ति) वह उसके सामने आते ही नेत्र बन्द कर लेती थी । इसी (ऋ. १०.८)। यह कथा उस समय की है, जब मानव- लिए सूर्य ने उसे शाप दिया, 'तुम्हारे उदर से प्रजासमाज में नीतिशास्त्र अप्रगल्भ अवस्था में था। संहारक यम जन्म लेगा' (मार्क. ७४.४)। यम यमी - आत्मसमर्पण-ऋग्वेद के एक सूक्त में यम के द्वारा | जुड़वा संतान थे (पन. स.८)। मृत्यु की स्वीकार किये जाने का, एवं यज्ञकुंड में आत्माहुति यम को शाप--इसने छाया नामक अपनी सौतेली देने का निर्देश प्राप्त है (ऋ. १०.१३.४)। उस सूक्त के माता की निर्भर्त्सना कर के उसे लातों से मारा था (ब्रहा.६); अनुसार, देवों के कल्याण के लिए यम ने मृत्यु की स्वीकार एवं दाहिना पैर उठा कर उसकी निर्भर्त्सना की थी (मत्त्य. की (अवृणीत मृत्युम् ), एवं अपना प्रिय शरीर यज्ञकुंड | ११.११, पन. स. ८)। इसलिए छाया ने एकदम क्रोध से में झोंक दिया (प्रियां यमस्तन्वं प्रारिरेचीत्)। इसे शाप दिया, 'तुम्हारा यह पैर गल जायेगा । उसमें ऋग्वेद के इस महत्वपूर्ण सूक्त से प्रतीत होता है कि, पीप, रक्त तथा कीडे होंगे' (मत्स्य. ११.१२)। उसके वैदिक आर्यों के यज्ञसंस्था के प्रारम्भ में यज्ञकर्ता स्वयं बाद यम अपने पिता के पास गया, तथा सारी स्थिति की आहुति देता था। आत्मबलिदान की इसी कल्पना से कह सुनाई । तब पिता ने इसे उःशाप दिया, जिसके संबंध यज्ञसंस्था का प्रारंभ हुआ। प्रजा तथा देवों के कल्याण के से काफी मत मतान्तर है:-'पैर हड्डी सहित न गलेगा, लिए, आत्मसमर्पण करनेवाला यम एक आद्य यज्ञकर्ता केवळ पैर का मांस कीड़े खा लेंगे' (ह. वं १.९.३१ माना जाता है। आगे चल कर, यज्ञ में आत्मबलिदान की | वायु. ८४. ५५ )! 'पीप रक्त इत्यादि कीड़े खा जगह यज्ञीय पशु का हवन करने की प्रथा प्रचलित हुयी । | लेंगे, तथा बाद में पैर पूर्ववत् हो जायेगा' (मत्स्य. ११. मृत्यु का देवता-यम मरणशील मनुष्यों में प्रथम था, | १७)। 'एक लाल पैर का पक्षी पैर खा लेगा, तथा बाद अतएव उसे मृत होनेवालों में प्रधान माना गया, तथा में पैर छोटा परन्तु सुन्दर बन जायेगा। इसे मृत्यु के साथ समीकृत किया गया । अथर्ववेद तथा पितरों का प्रमुख--बाद में इसे वैराग्य उत्पन्न हुआ, बाद के पुराकथाशास्त्र में, मृत्यु का भय के साथ | और इसने तप करना प्रारंभ किया । तब ब्रह्मदेव ने इसे ६७५ Page #698 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यम प्राचीन चरित्रकोश पितरों का स्वामित्त्व, तथा संसार के पापपुण्यों पर नज़र (भा. १.१३.१५, म. आ. ५७.८०,१००.२८; १०१. रखने का काम दिया (पद्म. सु. ८)। इसे 'धर्म' २७)। नामांतर भी प्राप्त था ( ब्रह्म. ९४. १६-३२)। पूर्वकाल में नैमिषारण्य में यम वैवस्वत ने शामित्र __ यम-नचिकेत संवाद-कठोपनिषद् में 'यम-नचिकेत (कर्म) नामक यज्ञ किया था। वहाँ इसने यज्ञदीक्षा ली, संवाद' नामक एक तत्त्वज्ञानविषयक संवाद प्राप्त है, जिससे संसार मृत्यु के द्वारा नष्ट होने से बच गया। सभी जिसके अनुसार एक बार नचिकेतस् यम से मिलने यम- व्यक्ति अमर हो गए, तथा इस प्रकार संसार में जनसंख्या लोक में गया। वहाँ यम ने उसे 'पितृक्रोधशमन' एवं बढने लगी। तब इसने युद्धादि को जन्म दिया, जिससे 'अग्निज्ञान' ये दो वर प्रदान किये। उसके पश्चात् नचि- प्राणियों की संख्या मृत्यु के द्वारा कम हो गयी (म. आ. केतस् ने यम से पूछा 'मृत्यु के बाद प्राण कहाँ जाता है ? | १८९.१-८)। खाण्डवदाह के समय, श्रीकृष्ण तथा . यम ने कहा, 'मृत्य के उपरांत प्राणगमन की स्थिति तुम अर्जुन से युद्ध करने के लिए इंद्र की ओर से, यह भी मत पूछो' (मरणं मानु प्राक्षीः)। किन्तु नचिकेतस् के कालदण्ड ले कर आया था (म. आ. २१८.३१)। अत्यधिक आग्रह पर यम ने कहा, 'मृत्यु के उपरांत एक बार इसको उद्देशित कर कन्ती ने मंत्र का प्राण नष्ट नहीं होता। कर्म के अनुसार, उसे गति प्राप्त | उच्चारण किया, जिसके कारण इसे उसके पास जाना पड़ा। होती है। वहाँ उसके उदर से इसने एक पुत्र उत्पन्न किया। वही... इसके पश्चात् नचिकेतस् ने यम से ब्रह्म के स्वरूप के | 'युधिष्ठिर' है (म. आ. ११४.३)। इसने अर्जुन को बारे में प्रश्न किया । तब यम ने उत्तर दिया, 'देवताओं एक अस्त्र प्रदान किया था (म. व. ४२.२३)। इसने को भी ब्रह्म के सत्यस्वरूप का ज्ञान नहीं है। क्यों कि, | दमयन्तीस्वयंवर के समय राजा नल को भी वर प्रदान ब्रह्मज्ञान जटिल एवं गहन है। इस.प्रकार कठोपनिषद में किया था। धर्मराज के द्वारा इसके प्रश्नों के योग्य उत्तर । वर्णित यम, देवता न हो कर एक आचार्य है, जिसने | देने के कारण, एक सरोवर में मृत पड़े उसके चारों । धार्मिक मनोवृत्तियों के वशीभूत हो कर, तात्विक रूप से | भाइयों को इसने जीवित किया था, तथा अज्ञातवास में धर्म की व्याख्या कर के लोगों को उपदेश दिया है (क. | सफल होने का उसे वरदान भी दिया था (म. व. २९७उ. १.१६)। यही यम-नचिकेत संवाद अग्निपुराण में | २९८)। सावित्री को अनेक वर देने के उपरांत, इसने भी प्राप्त है (अग्नि. ३८५)। उसे सत्यवान् का पुनः जीवित होने का वर प्रदान किया यम को नारायण से 'शिवसहस्त्रनाम' का उपदेश | था (म. व. २८१.२५-५३)। मिला था, जिसे भी इसने नचिकेत को प्रदान किया था | इंद्र ने इसे पितरों का राजा बनाया था। पितरों के (म. अनु. १७.१७८-१७९)। द्वारा पृथ्वीदोहन के समय यह बछड़ा बना था (अ. यमगीता-यम एवं यमदूतों के बीच हुआ अनेकानेक | वे. २.८.२८)। त्रिपुरदाह के समय, यह शिव के संवाद 'यमगीता' नाम से प्रसिद्ध है। यमगीता निम्न- बाण के पूछभाग में प्रतिष्ठित था । इसका महर्षि गौतम के . लिखित पुराणों में ग्रथित की गयी है:- विष्णुपुराण | साथ धर्मसंवाद हुआ था (म. शां. १२७)। इसने उसे (३.७); नृसिंहपुराण (८); अग्निपुराण (३८२): | मातृ-पितृत्रण से मुक्त होने का मार्ग बताया था। स्कंदपुराण । । यम मुंज पर्वत पर शिव की उपासना करता था (म. ___ महाभारत में वर्णित यम--महाभारत में इसे प्राणियों | आश्व. ८.१-६)। इसकी पत्नी का नाम धूमोर्णा था (म. का नियमन करनेवाला यमराज कहा गया है, जो भगवान | अनु. १६५.११)। सूर्य का पुत्र, एवं सब के शुभाशुभ कर्मों का साक्षी बताया | अन्य पुराणों के अनुसार, इसकी नगरी का नाम गया है (म. आ. ६७.३०)। इसे मारीच कश्यप एवं | संयमिनी था, जो मानसोत्तर पर्वत पर स्थित थी (भवि. ब्राह्म. दाक्षायणी का पुत्र कहा गया है (म. आ. ७०.१०)। | ५३)। रामभक्त सुरथ की परीक्षा ले कर, इसने उसे वर अणीमाण्डव्य ने इसे शूद्रयोनि में जन्म लेने के लिए | दिया था, 'तुम्हें मृत्यु तभी प्राप्त होगी, जब तुम राम के शाप दिया था (म. आ. १०१.२५), क्यों कि, यम | दर्शन कर लोगे (पद्म. पा. ३९)। ने उसे निरपराधी होते हुए भी फाँसी की सजा दी | यम की उपासना--यम को उसकी बहन यमी ने थी। बाद को इसने विदुर के रूप में जन्म लिया था | कार्तिक शुक्ल द्वितीया को भोजन दिया था। इसी लिए ६७६ Page #699 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यम प्राचीन चरित्रकोश ययाति इसने उसे वर दिया था कि, जो भी इस दिन बहन के | पर यम के विचार प्राप्त हैं :- श्राद्ध (याज्ञ. १.२२५); हाथों बना भोजन ग्रहण करेंगे, उन्हे सदैव सौख्य प्राप्त | गोवध का प्रायश्चित्त (याज्ञ. ३.२६२); कन्या का विवाहहोगा (स्कंद. २.४.११)। योग्य वय (स्मृतिचं. पृ. ७९); अपवित्र अन्न शुद्ध कैसे हर्षण राजा के विश्वरूप नामक पिता को तथा विष्टि | किया जा सकता है (अपरार्क. पृ. २६७); ब्रह्मचारी नामक माता को भीषण स्वरूप प्राप्त हुआ था। हर्षण ने | का वेश कैसा चाहिए (अपरार्क. पृ. ५८); ब्राह्मण को यम की उपासना कर इससे प्रार्थना की कि, उन्हे सौम्य | देहान्त शासन न देना चाहिए (स्मृतिचं. पृ. ३१६); स्वरूप प्राप्त हो । तब इसने उन्हे गंगास्नान का व्रत | असुर पत्नी का स्त्रीधन (याज्ञ. २.१४५); व्यभिचार बताया (ब्रह्म. १६५)। (अपरार्क. पृ. ८६०)। आयुष्यक्षय के संबंध में इसने एक बार इसके तप को देख कर इंद्र को भय हुआ, नचिकेत को बतायी हुयी गाथाएँ महाभारत में प्राप्त हैं एवं उसने एक अप्सरा को भेज कर, इसका तप भंग (म. अनु. १०४.७२-७६)। करना चाहा । तब इसने इंद्र को सूचित किया कि, यह यम के अनुसार, स्त्रियों के लिए संन्यास-आश्रम उसका इंद्रासन नहीं चाहता। बाद को इसने 'धर्मारण्य' अप्राप्य है। उन्हें चाहिये कि, वे अपनी एवं अपनी जाति नामक प्रदेश प्राप्त किया, जो शंकर का वासस्थान था | के संतानों की सेवा करे (स्मृतिचं. पृ. २५४)। ___ यम के द्वारा रचित 'लघुयम' एवं 'स्वल्पयम' ग्रन्य--यम के नाम पर तीन ग्रन्थ उपलब्ध हैं:-१. स्मृतिग्रंथों के उद्धरण भी हरदत्त, अपरार्क एवं स्मृतियमसंहिता; २. यमस्मृति, ३. यमगीता। रत्नाकर में प्राप्त हैं। धर्मशास्त्रकार-याज्ञवल्क्य के द्वारा दी गयी धर्मशास्त्र- यमक-एक लोकसमूह, जो युधिष्ठिर के राजसूय कारों की सूची में यम का भी उल्लेख आता हैं (१.५)। यज्ञ के समय भेंट ले कर उपस्थित थे (म. स. ४८. वसिष्ठ धर्मसूत्र में यम के श्लोक आये हैं। अपरार्क ने | १२) । पाठभेद (भांडारकर संहिता)-'वैयमक' । शंखस्मृति में यम के धर्मविषयक विचारों को व्यक्त किया | यमदूत-विश्वामित्र ऋषि का एक पुत्र । है, जिसके अनुसार कुछ पक्षियों का ही माँस खाना उचित | यमराज--एक ग्रंथकार, जिसने 'भास्करसंहिता' के कहा गया है (अपरार्क पृ. ११६७)। हर एक रूप में अंतर्गत 'ज्ञानार्णवतंत्र' की रचना की थी (ब्रह्मवै. दुसरे जीवों के प्राणों की रक्षा के लिए भी वहाँ गया | २.१६)। है । जीवानंद संग्रह में इसके श्लोकों की संख्या अठत्तर दी| यमिन--स्वायंभुव मन्वन्तर के जिताजित् देवों में से गयी हैं, जो आत्मशुद्धि एवं प्रायश्चित्त से सम्बन्धित हैं। एक । आनंदाश्रम के 'स्मृतिसमुच्चय' में इसकी निन्नानवे यमी वैवस्वती--यम वैवस्वत की बहन, जो विवस्वत् श्लोकों की स्मृति प्राप्त है, जिसमें प्रायश्चित्त, श्राद्ध आदि | आदित्य एवं संज्ञा की कन्या थी (भा. ६.६.४०; ८. के बारे में विचार प्राप्त है। इसकी स्मृति में इसका निर्देश १३.९)। कई ग्रंथों में इसकी माता का नाम सरण्यू 'भास्वति ' ( सूर्यपुत्र ) नाम से किया गया है। दिया गया है। इसे 'यमना' नामान्तर भी प्राप्त था। यम के अनुसार, विवाह के पश्चात् पत्नी का स्वतंत्र | ऋग्वेद के एक सूक्त का प्रणयन भी इसने किया था ( ऋतु, गोत्र नष्ट हो कर, उसका एवं उसके पति का गोत्र एक ही | १०.१०)। होता है (याज्ञ. १.२५४ )। 'बृहद् यम स्मृति' नामक | ऋग्वेद में इसने अपने भाई यम के साथ किया हुआ एक अन्य स्मृतिग्रंथ भी प्राप्त हैं, जिसमें पाँच अध्याय, 'यम-यमी संवाद' प्राप्त है, जहाँ इसने यम से संभोग एवं १८२ श्लोक प्राप्त है। उस स्मृति में शुद्धि आदि की याचना की थी (ऋ. १०.८; यम वैवस्वत देखिये)। विषयों का विचार किया गया है। इस स्मृति में 'यम' 'भय्यादूज' का व्रत कर, इसने अपने भाई यम को एवं 'शातातप' आचार्यों के निर्देश प्राप्त हैं (बृहद्- प्रसन्न किया था ( स्कंद. २.४.११)। यम. ३.४२, ५.२०)। यमुना--यमी वैवस्वती का नामान्तर । विश्वरूप, विज्ञानेश्वर, अपरार्क, स्मृतिचंद्रिका आदि ययाति--(सो. आयु.) प्रतिष्ठान देश का एक उत्तरकालीन ग्रंथों में 'यमस्मृति' में से तीन सौ के उपर | सुविख्यात राजा, जो नहुष राजा का पुत्र, एव देवयानी श्लोक उदधृत किये गये है, जिनमें निम्नलिखित विषयों | तथा शर्मिष्ठा का पति था। महाभारत एवं पुराणों में इसे Page #700 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ययाति प्राचीन चरित्रकोश ययाति 'सम्राट' एवं 'श्रेष्ठ विजेता' कहा गया है। इसका राज्य चाहा कि इसे उसमें एक नम्र सुन्दर दिख पड़ी। ययाति ने काल ३००० - २७५० ई. पू. माना जाता है। तत्काल उसे अपना उत्तरीय देकर एवं उसका दाहिना हाथ पकड़ कर बाहर निकाला । बाद में उस स्त्री से इसे पता चव्य कि, वह दैत्यराज शुक्र की कन्या देवयानी है। अन्त में यह अपने नगर वापस आया (म. आ. ७३.२२-२३; मा. ९.१८) । इसने अपने पितामह आयु एवं पिता नहुष के कान्यकुब्ज देश के राज्य का विस्तार कर, अयोध्या के पश्चिम में स्थित मध्यदेश का सारा प्रदेश अपने राज्य में समाविष्ट किया। उत्तरी पश्चिम में सरस्वती नदी तक का सारा प्रदेश इसके राज्य में समाविष्ट था। इसके अतिरिक्त कान्यकुब्ज देश के दक्षिण, दक्षिणीपूर्व एवं पश्चिम में स्थित बहुत सारा प्रदेश इसने अपने बाहुबल से जीता था। ऋग्वेद में इसे एक प्राचीन यशकर्ता माना गया है, जो वेद की कुछ ऋचाओं का द्रश था (ऋ. १.३१.१७ १०. द्रष्टा ६२.१ ९.१०१.४-६ ) सग्वेद में एक बार इसका निर्देश नहुष राजा के वंशज 'नहुष्य ' के रूप में किया गया है। पूरु के साथ इसके सम्बन्ध का निर्देश वैदिक ग्रंथो में अप्राप्य है । इसलिए महाकाव्य की परम्परा को निश्चित रूप से त्रुटिपूर्ण मानना चाहिए। जन्म ययाति का वंश अनि चन्द्र तथा सूर्य से उत्पन्न हुआ था (म. आ. १.४४) । प्रजापतिओं में यह दसवाँ था (म. आ. ७१.१ ) | यह नहुष को, सुधन्वन् संज्ञक पितृसन्या विरजा से उत्पन्न पुत्रों में से दूसरा था (म. आ. ७०.२९; ८४.१; ९०.७; उ. ११२.७; द्रो. ११९.५; अनु. १४७.२७; वा. रा. उ. ५८; भा. ९.१८; विष्णु ४.१०; गरुड़. १.१३९.१८; पद्म. सु. १२; अग्नि. २७४; वायु. ९३ . . १३०९ ब्रह्म १२ कूर्म १.२२. १.६६ ) । मत्स्य में, इसकी माता का नाम 'सुधन्वन्' की जगह 'सुस्वधा' दिया गया है ( मत्स्य. १५.२० -२३) । पद्म के अनुसार, यह नहुष को अशोक-सुन्दरी नामक स्त्री से हुआ था (पद्म. भू. १०९ ) । इसके भाइयों की संख्या तथा नाम पुराणों में भिन्न भिन्न दिये गये हैं (नहुष देखिये)। इसका ज्येष्ठ भ्राता यति योग का आश्रय लेकर मुनि हो गया, तथा नहुष अजगर बन गया, जिससे यह भूमण्डल का सम्राट बना । एक बार इसने देवयानी के साथ एक अन्य कन्या को देख कर उन दोनों का परिचय करना चाहा । तत्र देवयानी ने बताया, 'मैं शुक्राचार्य की कन्या हूँ, तथा यह वृषपर्वा की कन्या शर्मिष्ठा है, जो मेरी दासी है। यह सुन कर राजा ने अपना परिचय दिया एवं विदा होने के लिए देवयानी से आशा माँगी तब देवयानी ने राजा को रोक कर उससे प्रार्थना करते हुए कहा, 'मैंनें दो सहस्र दासी तथा शर्मिश के सहित आपको तन मन धन से वरण किया है। अतएव आप मुझे अपनी पत्नी बना कर गौरवान्वित करे' | ययाति - देवयानीसंवाद - प्रतिलोम विवाह उस समय सर्वत्र प्रचलित न थे, अतएव इसने साफ इन्कार कर दिया । तत्र इसका तथा देवयानी का परस्परसंवाद हुआ, जिसमें देवयानी ने कहा, 'हे राजा, तुम न भूतो कि, जब क्षत्रियकुल का संहार हुआ है, तब ब्राह्मणों से ही क्षत्रियों की उत्पत्ति हुयीं है । लोपामुद्रादि क्षत्रिय कुमारिकाओं का भी ब्राह्मणों से विवाह हुआ है। मेरे पिता आपके न माँगने पर भी यदि मुझे आपको देते हैं, तो आपको कुछ भी आपत्ति न होनी चाहिए। मैं कहती हूँ, इसमें आपको कुछ भी दोष एवं पाप न लगेगा । C भागवत के अनुसार, देवयानी ने ययाति से कहा, 'कच के द्वारा मुझे यह शाप मिल चुका है कि, मुझसे कोई भी ब्राह्मणपुत्र शादी न करेंगा । इसीलिए मैं तुमसे बार बार विवाह का निवेदन कर रही हूँ ' (भा. ९.१८) । किन्तु महाभारत के अनुसार, देवयानी ने कच के शाप की बात ययाति से न बतायीं, तथा तर्क के द्वारा उसे समझाने की कोशिश की कि, ययाति उससे विवाह कर ले। विवाहबाद में शुक्राचार्य ने देवयानी की इच्छा के अनुसार, उसकी शादी ययाति से कर दी। शुक्र ने विवाद में धनसंपत्ति के साथ दो हजार दासियाँ के साथ शर्मिष्ठा को भी ययाति को दिया, तथा कहा, 'शर्मिष्ठा कुलीन घराने की कन्या है, उसे कभी अपनी धय्या पर न बुलाना ' । चलते समय शुक्राचार्य ने ययाति से कहा, 'देवयानी मेरी प्रिय कन्या है। तुम इसे अपनी पटरानी महाभारत में इसका जीवनचरित्र दो विभागों में दिया गया है : - ( १ ) पूर्वयायात, जिसमें इसके स्वर्गगमन तक का चरित्र प्राप्त है (२) उत्तरयावात, जहाँ इसके स्वर्गपतन के बाद का जीवन ग्रथित किया गया है ( म. आ. ७०–८०; ८१-८८; मत्स्य. २४-८८ ) । - देवयानी से भेंट एक घर मृगया के निमित्त जंगल में विचरण करता हुआ, तृषा से व्याकुल होकर यह एक कुएँ के निकट आया। जैसे ही इसने कुँए में पानी देखना ६७८ Page #701 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ययाति प्राचीन चरित्रकोश ययात बनाओ; तुम्हें प्रतिलोमविवाह का कुछ भी दोष न यह सुन कर ययाति ने उसे शाप दिया, तुम एवं तुम्हारे लगेगा'। अंत में यह देवयानी को उनकी दासियों के | पुत्रों राज्य के अधिकार से वंचित होगे' (यदु देखिये)। सहित के अपने नगर वापस लाया। | आगे चल कर, यही प्रश्न इसने तुर्वसु से किया, किन्तु पुत्रप्राप्ति--बाद में इसने अशोकवनिका के पास ही वह भी तैयार न हुआ। तब इसने उसे शाप दिया, शर्मिष्ठा तथा उसकी दासियों की योग्य व्यवस्था कर | 'तुम्हारी संतति नष्ट हो जावेगी, तथा जिन म्लेच्छों के दी । वहाँ देवयानी के साथ यह प्रसन्नपूर्वक विलासमय | यहाँ धर्म, आचार, विचार को स्थान न दिया जाता हो, जीवन बिताता रहा । कालांतर में देवयांनी से इसे दो पुत्र | एवं जहाँ की कुलीन स्त्रियाँ नीच वर्गों के साथ रमण भी हुए। करती हो, उसी पापी जाति के तुम राजा बनोगे। एक बार ययाति को एकान्त में देख कर शर्मिष्ठा इसके पश्चात् यह शर्मिष्ठा के ज्येष्ठ पुत्र द्रुह्य के पास गया। पास आयी, तथा इससे अपने ऋतुकाल को सफल बनाने | वह भी जरावस्था को लेने के लिए तैयार न हुआ। फिर पर इसने उसे शाप दिया, 'तुम्हारा कल्याण कभी न होगा! संवाद हुआ, किन्तु अंत में इसे शर्मिष्ठा की यथार्थता को | तुम्हे ऐसे दुर्गम स्थान पर रहना पड़ेगा, जहाँ का व्यापार स्वीकार कर, उसे अपनी भार्या बना कर सहवास करना पड़ा। नावों के माध्यम से होता है। वहाँ भी तुम्हें अथवा कालान्तर में उससे इसे तीन तेजस्वी पुत्र हुए। तुम्हारे वंशजों को राज्यपढ़ की प्राप्ति न होगी, तथा तुम राज्याधिकार से वंचित होकर 'भोज' कहलाओगे' । . ___ शुक्र से शाप--एक दिन देवयानी ने शार्मिष्ठा के तीन इसके उपरांत यह अपने पुत्र अनु के पास गया । पुत्र देखे। पूछने पर जैसे ही उसे पता चला कि, वह भी राजी न होने पर, इसने उसे शाप दिया, 'तुम शुक्र के द्वारा रोके जाने पर भी, ययाति ने शर्मिष्ठा को इसी समय जराग्रस्त हो जाओंगे। तुम्हारे द्वारा 'श्रीत' भार्या के रूप में स्वीकार कर उसे तीन पुत्र दिये हैं, वह अथवा 'स्मार्त' अग्नि की सेवा न होगी, एवं तुम नास्तिक क्रोध में जल उठी, एवं तत्काल पिता के घर को चली बन जाओगे' (म. आ. ७९.२३)। गयी । उसके पीछे पीछे यह भी जा पहुँचा । वहाँ जैसे ही शुक्राचार्य को सारी बातें पता चलीं, उन्हों ने ययाति को __यौवनप्राप्ति-सबसे अन्त में यह अपने कनिष्ठ पुत्र पूरु के पास गया, एवं उसकी युवावस्था माँगी । पूरु तैयार जराग्रस्त होने का शाप दिया। हो गया। तब इसने उसके शरीर में अपनी जरा को दे कर तब ययाति ने शुक्राचार्य से प्रार्थना की कि, वह उसे उसका यौवन स्वयं ले लिया। पश्चात् इसने उसे वर प्रदान इस शाप से बचाये । तब शुक्राचार्य ने प्रसन्न हो कर कहा, किया, 'आज से मेरा सारा राज्य तुम्हारा एवं तुम्हारे नसने मेरा स्मरण किया है, अतएव मैं तुम्हें वरदान देता | पुत्रों का होगा' (म. आ. ७९.२४-३०)। हूँ कि, तुम अपनी यह जरावस्था किसी को भी दे कर, पूरु का यौवन प्राप्त कर ययाति अपनी विषयवासनाओं उसका तारुण्य ले सकते हो । जो पुत्र तुम्हें अपनी तरुणता को पूर्ण करने में निमग्न हआ। इसने देवयानी तथा दे, तथा तुम्हारी वृद्धावस्था स्वीकार करे, उसे ही तुम | शर्मिष्ठा से खूब विषयसुख लिया। बाद में इसने विश्वाची अपने राज्य का अधिकारी बनाओं; चाहे वह कनिष्ठ ही नामक अप्सरा के सहित नंदनवन में, तथा उत्तरस्थ मेरु क्यों न हो। तुम्हे तरुणता देनेवाला तुम्हारा पुत्र दीर्घ- | पर्वत के अलका नामक नगरी में अनेक प्रकार की जीवी, कीर्तिवान् तथा अनेक पुत्रों का पिता बनेगा' (भा. | विलासात्मक लिप्साओं का भोग किया। गौ नामक अप्सरा ९.१८; ब्रह्म. १४६ )। इस प्रकार वृद्धावस्था को धारण के साथ चैत्ररथवन वन में विलास किया। इतना सुख कर ययाति अपने नगर वापस आया (म. आ. ७८. | लूटने के बाद भी, जब इसका जीन भरा, तब इसने अनेक - ४०-४१)। यज्ञ किये, दान दिये, तथा राजनीति का अनुसरण कर पुत्रों को शाप--राजधानी में आकर, इसने अपने | के प्रजा को सुखी बनाया। अब यह विषयवासनाओं से ज्येष्ठ पुत्र यदु से कहा, 'तुम अपनी युवावस्थादे कर, मेरी | अत्यधिक ऊब चुका था। वृद्धता एवं चित्तदुर्बलता हज़ार वर्षों के लिए स्वीकार करो'। विरक्तावस्था- इसी विरक्त अवस्था में इसने अपनी यदु ने इन्कार करते हुए कहा, 'मेरे समान आपके अन्य | जीवन गाथा रुपक में बाँध कर देवयानी को कह सुनाई । इस भी पुत्र हैं। आप उनसे यही माँग करे, तो अच्छा होगा। | कथा में एक बकरा एवं बकरी की कथा कथन कि थी, ६७९ Page #702 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ययाति जो सदैव भोगलिप्सा में ही विश्वास करते थे ( भा. ९. १९ ) । अत्यधिक भोग लिप्सा से आत्मा किस प्रकार विरक्त बनती है, इसकी कथा इसने पुत्र पूरु को सुनाई, एवं कहा: प्राचीन चरित्रकोश न जातु कामः कामानामुपभोगेन शाम्यति । हविषा कृष्णवमेव भूय एवाभिवर्धते ॥ (म. आ. ८०, ८४०*; विष्णु. ४. १०. ९-१५ ) । ( कामोपभोग से काम की तृष्णा कम नहीं होती, बल्कि बढ़ती है, जैसे कि अभि में हविर्भाग डालने से वह और जोर से भड़क उठती है। ) वानप्रस्थाश्रम - अंत में इसने पूरु को उसकी जवानी लौटा कर, उससे अपनी वृद्धावस्था ले ली। इसके उपरांत, इसने बड़े शौक से पूरु को राज्याभिषेक किया। जनता ने इसका विरोध किया कि, राज्य उयेष्ठ पुत्र को ही मिलना चाहिए। किन्तु इसने जनता को तर्कपूर्ण उत्तर दे कर शान्त किया तथा वानप्रस्थाश्रम की दीक्षा ले कर ब्राह्मणों के साथ यह वन चला गया (म. आ. ८१. १-२) । " पुत्र पुराणों के अनुसार, वनगमन के पूर्व ययाति ने अपने प्रत्येक को भिन्न भिन्न प्रदेश दिये । तुर्वसु को आग्नेय, यदु को नैत्य त्यु को पश्चिम, अनु को उत्तर तथा पूरु को गंगा-जमुना के बीच में स्थित मध्य प्रदेश दिया ( वायु. ९३; कूर्म. १. २२ ) । कई पुराणों में यही जानकारी कुछ अन्य प्रकार से दी गयी है, जो निम्नलिखित है:- यदु को ईशान्य (ह. वं. १.३०.१७ - १९ ) पूर्व (ब्रह्म. १२), दक्षिण (विष्णु. ४.३० लिंग १. ६६ ); द्रुहा को आग्नेय; यदु को दक्षिण; तुर्वसु को पश्चिम, तथा अनु को उत्तर प्रदेश का राज्य दिया गया (भा. ९.१९)। ययाति ने अपने पुण्य का अठवाँ अंश इसे प्रदान किया, जिस कारण यह पुनः स्वर्ग का अधिकारी बन गया (म. आ. ८१-८८ मत्स्य २५-४२ माधवी देखिये) । बाद में नैमिषारण्य में पाँच स्वर्णरथ आये, जिनमें चढ़ कर यह अपने चार नातियों के साथ पुनः स्वर्गलोक ३ अधिकारी हुआ। स्वर्गलोक में जाने के उपरांत, ब्रह्मदेव ने इसे बताया, 'तुम्हारे पतन का कारण तुम्ह अभिमान ही था। अब तुम यहाँ आ गये हो, तो अभिमान छोड़ कर स्वस्थ मन से यहाँ वास करो (4 आ. ८१-८८: उ. ११८-१२१ २४-४२ ) । मत्स्य. वाक्ष्मीकि रामायण में ययाति की यह कथा वाल्मीकि रामायण में भी प्राप्त है, किंतु वह कथा पुराणों से कुछ भिन्न है । उसमें लिखा हैं कि, जब यदु ने इसकी जरावस्था को स्वीकार न किया, तब इसने शाप दिया, 'तुम यातुधान तथा राक्षस उत्पन्न करोगे। सोमकुल में तुम्हारी संतति न रहेगी, तथा वह उदण्ड होगी' । इसी के शाप के कारण, यदु राजा से क्रौंचयन नामक वन में हजारो यातुधान उत्पन्न हुए ( वा. रा. उ. ५९ ) । पद्म में - पद्म के अनुसार, पहले यह बड़ी धार्मिक प्रवृत्ति का राजा था, तथा धर्मभावना से ही राज्य करता था। किंतु इन्द्र के द्वारा भड़काने पर, इसका मस्तिष्क कुमार्गों की ओर संग गया। उत्तरयायात आख्यान अपने पुत्रों को राज्य प्रदान करने के पश्चात्, इसने 啊 पर्वत पर आ कर तप किया, एवं अपनी भार्याओं के साथ यह स्वर्गलोक गया । स्वर्ग में जाने के उपरांत, इसके घमण्डी स्वभाव, एवं दूसरों को अपमानित करने की भावना ने इसे निस्तेज कर दिया, एवं इंद्र ने इसे स्वर्ग से भौमनर्क में ढकेल दिया। किन्तु यह अपनी इच्छा के अनुसार, नैमिषारण्य में इसकी कन्या माधवी के पुत्र प्रतर्दन, बतुमनस शिवि तथा अष्टक जहाँ यज्ञ कर रहे थे, वहाँ जा कर गिरा । तत्र इसकी कन्या माधवी ने अपना आधा पुण्य, तथा गालव , ६८० इसकी धर्मपरायणता को देख कर इंद्र को शंका होने लगी कि, कहीं यह मेरे इंद्रासन को न ले ले | अतएव उसने अपने सारथी मातलि को भेजा कि, वह इसे ले आये। मातलि तथा इसके बीच परमार्थ के संबंध में संवाद हुआ, परंतु यह स्वर्ग न गया । त इन्द्र ने गंधर्वों के द्वारा ययाति के सामने 'वामनावतार' नाटक करवाया। उसमें रति की भूमिका देख कर यह विमुग्ध हो उठा। अमित से वह एक बार मलमूत्रोत्सर्ग करने के बाद इससे पैर न धोया। यह देख कर बरा तथा मन में इसके शरीर में प्रवेश किया। कालांतर में एक बार जब यह शिकार के लिए अरण्य में गया था, तब इसे ' अश्रुविन्दुमती' नामक एक सुंदर स्त्री दिखाई दी । तब इसने उसका परिचय प्राप्त करना चाहा। तब उसकी सखी विशाला ने उसका परिचय देते हुए इसे बताया, 6 मदन दहन के उपरांत रति ने अति विख्यप किया, तब देवों ने उस पर दया कर के अनंग मदन का निर्माण किया। इस प्रकार अपने पति को पुनः पा कर रति प्रसन्नता से रोने लगी । रोते समय उसकी बाँयी आँख से -- Page #703 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ययाति प्राचीन चरित्रकोश ययाति जो अश्रुबिन्दु टपका, उसीसे इस सुंदरी का जन्म हुआ तथा समस्त देव, दानवों एचं मनुष्यों में यह अजेय है। अब यह बड़ी हो गयी है, तथा स्वयंवर करना साबित हुआ (ह. वं. १.३०.६-७)। लिंग में यह भी चाहती है। यह सुन कर ययाति ने अश्रुबिन्दुमती से दिया गया है कि, यह रथ ययाति को शुक्र के द्वारा दिया कहा, 'मैं तुमसे शादी करने को तैयार हूँ' अश्रबि- गया था, तथा उसके साथ अक्षय तूणीर भी इसे दिये दुमती ने कहा, 'यदि तुम दूसरे को जरा दे कर यौवन | गये थे (लिंग. १.६६)। ब्रह्म के अनुसार, इसने पृथ्वी प्राप्त कर लो, तब मैं तुम्हारे साथ विवाह कर सकती | को छः दिनों में, तथा लिंग के अनुसार छः महीने में | जीता था (ब्रह्म. १२, लिंग. १.६६)। ब्रह्मदेव द्वारा यह सुन कर, यौवन माँगने के लिए यह अपने 'तुरु', निर्मित दिव्य खड्ग नहुष ने इसे दिये, तथा इसने वह 'यदु', 'कुरु', एवं 'पूरु' इन चार पुत्रों के पास | पूरु को दे दिया था (म. शां. १६०.७३ )। गया। उनमें से तुरु एवं यदु ने इसे यौवन देने से इन्कार | यह अपने समय का बड़ा प्रसिद्ध राजा था, जिसके किया, जिस कारण इसने उन्हे नानाविध तरह के शाप | नाम के सामने स्थान स्थान पर 'सम्राट' 'सार्वभौम' दिये। तीसरा पुत्र कुरु अल्पवय का था, अतएव यह उसके इत्यादि उपाधियों लगाई जाती थीं। जब यह यज्ञ करता पास न गया। चौथे पुत्र पूरु ने अपना यौवन इसे प्रदान | था, तब सरस्वती तथा अन्य नदियाँ, सप्तसागर तथा पर्वत किया । तत्पश्चात् इसने अश्रुबिंदुमती से विवाह किया, | इसे दुग्ध तथा घी देते थे (म. श.४०.३०)। देवासुरजिसने इसे अपनी अन्य दो पत्नियों से सबंध न रखने की | युद्ध में इसने देवताओं की सहायता की थी (म. द्रो. शर्त विवाह के समय लगा दी। परि. १. क्र.८. पंक्ति. ५७३; शां. २९.९०)। अज्ञात- इसे एवं अश्रुबिन्दुमती को इस प्रकार रहते देख कर. | वास के अन्त में पांडवों के द्वारा किया गया युद्ध देखने देवयानी तथा शर्मिष्ठा को अत्यधिक सौतिया दाह हआ। के लिये, यह देवों के विमान में बैठ कर आया था (म. यह देख कर इसने यदु को आज्ञा दी, 'इन दोनों का | वि. ५१.९)। वध करो। किन्तु उसने इसकी आज्ञा का उल्लंघन | धार्मिकता-जहाँ राजाओं में यह सम्राट था, वही . किया। इससे क्रोधित हो कर ययाति ने यदु को शाप | इसमें दानवीरता की भी कमी न भी (म. व. परि. १. दिया, 'तुम्हारे वंश के पुरुष मामा की पुत्री के साथ वरण | क्र. २)। यह बड़ा प्रजापालक राजा था (म. आ. ८४. करेंगे, तथा मातृद्रव्य में हिस्सा लेंगे ( पद्म. भू. ८०.१३) ८५७*; शां. २९.८८-८९; अनु. ८१.५)। इसने । बाद में, मेनका के सुझाये जाने पर अश्रुबिन्दुमती ने | गुरुदक्षिणा देने के लिए, एक ब्राह्मण को हजार गौओं इससे अनुरोध किया कि, यह स्वर्ग देखने चले । तब इसने | का दान किया था (म. व. १९०. परि. १.२०. ३) अपना सम्पूर्ण राज्य पूरु को दे कर, उसे राजनीति का सरस्वती नदी के किनारे जो 'यायत' नामक प्रसिद्ध उपदेश दिया, एवं यह वैकुंठ चला गया (पद्म. भृ. ६४. | तीर्थ है, वह इसीके कारण प्रचलित हुआ (म. श. ८३; ७७.७७)। ४०.२९)। यह शंकर का बड़ा भक्त था (लिंग १. श्रेष्ठ सम्राट-इसका जीवन विभिन्न प्रकार के मोडों से | ६६)। इसे 'काशीपति' भी कहा गया है (म.उ. ११३. गुज़रा। एक ओर जहाँ यह धर्मात्मा, दानी महापुरुष था. ३)। यह यमसभा में रह कर सूर्यपुत्र यम की उपासना वही कालचक्र में फंस कर भोग-लिप्सा में ऐसा चिपका करता था (म. स. ८.८)। अपने को ही भूल बैठा। किन्तु विभिन्न प्रभावों के परिवार-ययाति को दो पत्नियाँ थीः--१. देवयानी. द्वारा किये गये इसके कार्यों को छोड़ कर, इसका निष्पक्ष रूप जो सुविख्यात भार्गव ऋषि उशनस् शुक्र की कन्या थी, से अवलोकन करने पर पता चलता है कि, ययाति मन तथा | २. शर्मिष्ठा, जो असुर राजा वृषपर्वन् की कन्या थी। पन इन्द्रियों को संयम में रखनेवाला भूमण्डल का श्रेष्ठ सम्राट | में इसकी अश्रुबिंदुमती नामक तृतीय पत्नी का निर्देश था। इसके भक्तिभाव से देवताओं तथा पितरों का पूजन प्राप्त है (पद्म. भू. ६४.१०८)। किन्तु अन्य कहीं भी कर, यज्ञों के अनुष्ठानों को करते हुए, समस्त पृथ्वी का | उसका निर्देश अप्राप्य है। पालन किया था (म. आ. ८०)। - ययाति राजा को कुल पाँच पुत्र थे। उनमें से यदु इन्द्र ने इसे एक स्वर्ण का रथ दिया था। इस रथ को एवं तर्वसु इसे देवयानी से, एवं अनु, द्रुह्यु एवं पूरु नामक ले कर इसने छः रात्रियों में सम्पूर्ण पृथ्वी को जीत लिया, | तीन पुत्र शर्मिष्ठा से उत्पन्न हुए थे (म. आ. ८०.१३प्रा. च. ८६] ६८१ Page #704 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ययाति प्राचीन चरित्रकोश यवक्रीत १४; ९०.८-९)। इन पुत्रों के अतिरिक्त इसे माधवी | यवक्रीत एवं इसके पिता दोनों तपोनिष्ठ व्यक्ति थे, एवं सुकन्या नामक दो कन्याएँ भी थी (विष्णुधर्म. १. | किंतु इन दोनों को ब्राह्मणलोग आदर की दृष्टि से न देखते ३२)। किंतु अन्य ग्रंथों में सुकन्या को वैवस्वत मनु के | थे, क्यों कि, इनमें वेदों की ऋचाओं के निर्माण करने की पुत्र शर्याति की कन्या कहा गया है। शक्ति न थी। ययातिपुत्रों के राज्य--ययाति ने अपना साम्राज्य | तपस्या-यवक्रीत ने वेदज्ञान प्राप्त करने के लिए अपने पाँच पुत्रों में बाँट दिया, जहाँ उन्होंने पाँच स्वतंत्र | कठोर तप किया, जिससे घबरा कर इंद्र ने इसे सूचना की राजवंशों की स्थापना की। उनकी जानकारी निम्न - कि, यह अपने इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए व्यर्थ प्रयत्न प्रकार है: न करे । किंतु यह प्रचंड अग्नि को प्रज्वलित कर के १. यदु-इसे मध्य देश के चर्मण्वती (चंबल), | वेदप्राप्ति की लिप्सा में कठोर तप करता ही रहा । इंद्र वेत्रवती ( बेटवा) एवं शुक्तिमती (केन) नदियों से के बार बार मना करने पर इसने उसे उत्तर दिया, 'अगर वेष्टित प्रदेश का राज्य प्राप्त हुआ, जहाँ उसने यादववंश | तुम मेरी मनःकामना पूरी न करोगे, तो मैं इससे भी . की स्थापना की। | कठिन तप कर के, अपने प्रत्येक अंग को छिन्नभिन्न कर, २. तुर्वसु--इसे मध्य देश के आग्नेय भाग में स्थित | जलती हुई अग्नि में होम कर दूंगा।' वाहरे प्रदेश का राज्य प्राप्त हुआ, जहाँ उसने तुर्वसु | | इंद्र से भेंट--यवक्रीत के न मानने पर, इंद्र ने. वृद्ध (यवन ) वंश का राज्य स्थापित किया। ब्राह्मण का वेष धारण किया, एवं वह संध्या के समय ३. अनु--इसे मध्यदेश के उत्तर भाग में स्थित गंगा घाट पर जाकर, भागीरथी में मुट्ठी भर भर कर बालू डालने यमुना नदियों के दोआब का राज्य प्राप्त हुआ, जहाँ लगा। उसे ऐसा करते देख कर, इसने उसका कारण पूछा। उसने अनु (म्लेच्छ ) राज्य स्थापित किया। तब इंद्ररूपधारी ब्राह्मण ने कहा, 'भागीरथी में बालू डाल ४. द्रुह्य--उसे मध्यप्रदेश के यमुना नदी के पश्चिम में, डाल कर, लोगों के लिए मै एक पूल निर्माण करना चाहता एवं चंबल नदी के उत्तर में स्थित प्रदेश का राज्य प्राप्त हूँ'। इसने उस ब्राह्मण की खिल्ली उड़ायी, एवं उसको हुआ, जहाँ उसने द्रुह्यु (भोज) वंश का राज्य स्थापित इस निरर्थक कार्य को न करने की सलाह देते हुए कहा, .. किया। 'यह भागीरथी की धारा का प्रवाह मुट्ठी भर ५. पूरु--इसने ययाति की जरा स्वीकारने के कारण, मिट्टी से तुम नहीं रुका सकते । सेतु बाँधने की कोरी ययातिपुत्रों में सबसे छोटा होने पर भी, पूरुं प्रतिष्ठान | कल्पना में तुम अपने श्रम को व्यर्थ न गवाँओं'। तब देश का राजा बनाया गया। इसे राज्य का सब से | ब्राहाण ने कहा, 'जिस प्रकार तुम वेदज्ञान की प्राप्ति के बड़ा हिस्सा मिल गया, जिस में सारा मध्यदेश एवं गंगा- | लिए तप कर रहे हो, उसी प्रकार में भी लगा हूँ। तब यमुना के दो आब का प्रदेश समाविष्ट था। सोमवंश की | हँसने की बात ही क्या ?' मुख्य शाखा पूरु राजा से 'पूरुवंश' अथवा 'पौरव' कहलाने लगी। यह सुन कर यवक्रीत ने इंद्र को पहचान लिया, तथा २. स्वायंभुव मन्वन्तर के जित देवों में से एक। | उससे क्षमा माँगते हुए वरदान माँगा, 'मेरी योग्यता अन्य सारे ऋषिओं से श्रेष्ठ हो। तब इंद्र ने इसके यवक्री-.' यवक्रीत' ऋषि का नामांतर । यवक्रीत--भरद्वाज ऋषि का एकलौता पुत्र, जिसने द्वारा माँगे गये सभी वर देते हुए कहा, 'तुम्हें एवं तुम्हारे । वेदों की विद्या को प्राप्त करने के लिए घोर तप किया पिता में वेदों के सृजन करने की शक्ति जागृत होगी । तुम था (म. व. १३५.१३)। 'यवक्रीत' का शाब्दिक अर्थ अन्य लोगों से श्रेष्ठ होंगे, तथा तुम्हारे सभी मनोरथ पूर्ण 'यव दे कर खरीदा गया' होता है। इसे 'यवक्री' होगे' (म. व. १३५)। नामांतर भी प्राप्त था। इसका आश्रम स्थूल शिरस् ऋषि इन्द्र के द्वारा वर प्राप्त कर यह अपने पिता भरद्वाज के आश्रम के पास था (म. व. १३५.१३८)। ज्ञान | के पास आया, एवं उसे वरप्राप्ति की कथा सविस्तार केवल अध्ययन से ही प्राप्त हो सकता है, तप से नही, | बतायी। भरद्वाज ने इसकी गर्वपूर्ण वाणी को सुन कर, इसकी इस तत्त्व के प्रतिपादन के लिए इसकी कथा महाभारत में अभिमानभावना को नाश करने के लिए, इसे बालधि दी गयी है। ऋषि तथा उसके पुत्र मेधाविन् की कथा सुनायी, एवं ૬૮૨ Page #705 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यवक्रांत प्राचीन चरित्रकोश यवन - इसे उपदेश दिया की, गर्व करने के क्या दुष्परिणाम | रैभ्य भी अपने पुत्र के द्वारा ही मारा जायेगा। इस होते हैं। प्रकार विलाप करते हुए भरद्वाज मुनि ने रैभ्य को शाप रैभ्य से विरोध-जिस स्थान पर यह तथा इसके | दिया, एवं मृत पुत्र के साथ ही अग्नि में प्रविष्ट हो कर, पिता रहते थे, वहीं पास में ही विश्वामित्र ऋषि का पुत्र | उसने अपनी जान दे दी (म. व. १३७)। रैभ्य भी आश्रम बना कर, अर्वावसु तथा परावसु नामक मुक्ति--कालांतर में भरद्वाज के द्वारा दिये गये शाप अपने पुत्रों के साथ रहता था। रैभ्य के साथ उसकी स्नुषा, के कारण, रेभ्य अपने पुत्र परावसु के द्वारा मारा गया । परावसु की परम सुंदरी पत्नी भी रहती थी। एक बार यह देख कर, रैभ्य के परमसुशील पुत्र अर्वावसु ने उग्र घूमते घूमते यह रैभ्य आश्रम के पास आया, तथा स्नुषा | तप कर के सूर्य तथा देवों को प्रसन्न किया । उसने उनके के रूप को देख कर इतना अधिक पागल हो उठा कि, द्वारा वर प्राप्त कर, भरद्वाज, यवक्रीत तथा रेभ्य को जीवित उसके बार बार मना करने पर भी, इसने उसके साथ कर पितृहत्या के दोष से अपने बंधु पराबसु को मुक्त किया बलात्कार किया। बाद को स्नुषा ने सारी कथा रो रोकर एवं दो अन्य वर भी प्राप्त किये । पहला वर माँगा कि. अपने श्वशुर रैभ्य ऋषि को बतायी। 'मेरे पिता भरद्वाज के द्वारा किये गये वध का स्मरण उसे यवक्रीत की. यह आवारगी एवं निर्लज्ज कामातुरता न रहे,' तथा दूसरा माँगा कि, 'मुझे जो वेद को प्रकाशित की कहानी सुन कर, रैभ्य क्रोध में तमतमाने लगा। उसने करनेवाला सूर्यमंत्र प्राप्त हुआ है, वह हमारे परिवार एवं अपनी दो जटांयें उखाड कर, उन्हे अग्नि में होम कर, परम्परा में सदैवबना रहे। एक राक्षस तथा एक सुंदर स्त्री का निर्माण किया, एवं ___ बाद में इंद्रादि देवों ने यवक्रीत से बताया, 'रैभ्य ने उन्हे यवक्रीत का नाश करने की आज्ञा की। उस गुरु से वेदों का अध्ययन किया है, इसलिए सामर्थ्य में कृत्यारूपी सुन्दर स्त्री ने तप करते हुए यवक्रीत को मोहित वह तुमसे श्रेष्ठ है । भरद्वाज ने अर्वावसु का अभिनंदन किया, एवं इसका समस्त तेज ले लिया । तब राक्षस अपने किया, तथा उसके इस उपकार के लिए बार बार प्रशंसा शूल को ले कर इस पर दौड़ा । यह राक्षस को भस्म करने की। अंत में यह अपने पिता के साथ उसके आश्रम के लिए पानी धुंडने लगा। उसे न देख कर भागता भागता रहने गया (म. व. १३८)। यह नदियों के पास गया, किंतु वहाँ नदीयाँ में भी पानी न यवन--कृष्ण के द्वारा मारे गये 'कालयवन' राजा था । तब इसने पिता की होमशाला में आ कर, उसमें घुस का नामान्तर (म. व. १३.२९; कालयवन देखिये)। कर, प्राण बचाना चाहा। किंतु आश्रम के अंधे शूद्र के द्वारा २. हैहयराज का एक साथी, जिसे सगर ने पराजित यह बाहर ही रोक लिया गया । उसी समय अवसर देख किया था। पश्चात् यह वसिष्ठ ऋषि की शरण में गया, कर, राक्षस ने अपने शूल से प्रहार कर इसके वक्षःस्थल को जिसने इसे जीवितदान तो दिया; किन्तु इसके सर के बाल विदीर्ण किया, एवं इसका वध किया। इस प्रकार रैभ्य निकालने की, एवं दाढ़ी रखने की सजा इसे थी (पद्म. उ. ऋषि की श्रमपूर्वक संपादित की हुयी विद्या के आगे | २०)। यवक्रीत की वरप्राप्ति की विद्या ठहर न सकी। ३. एक लोकसमूह, जो गांधार देश के सीमाभाग में बाद में ब्रह्मयज्ञ कर के भरद्वाज मुनि आश्रम आये, तथा स्थित 'अरिआ' एवं 'अर्कोशिया' प्रदेश में रहते थे। यह देख कर कि, आज होमशाला की अग्नि प्रज्वलित नहीं प्राचीन वाङ्मय में 'अयोनियन' ग्रीक लोगों के लिए है, उन्होंने इसका कारण अपने गृहरक्षक शूद्र से पूछा। 'यवन' शब्द प्रायः प्रयुक्त किया जाता है। इन युनानी उस शूद्र ने सारी कथा कह सुनायी, तथा भरद्वाज तुरंत | लोगों को फारसी भाषा में 'यौन' कहते थे, जिसका ही ही समझ गये कि, मना करने पर भी यह अवश्य ही रूपान्तर प्राकृत भाषा में 'यौन', एवं संस्कृत में 'यवन' रैभ्य के आश्रम गया होगा । पुत्र को धरती पर पड़ा | नाम से किया गया प्रतीत होता है। हुआ देख कर भरद्वाज ने कहा, 'हे मेरे एकलौते पुत्र, उपनिवेश--सिकंदर के हमले के पूर्वकाल में योन तुम्हें बार बार मना किया, किंतु तुम न माने । वेदों के लोगों का एक उपनिवेश, अफगाणिस्तान में बल्ख एवं ज्ञान को पा कर, तुम घमण्डी, तथा कठोर बन कर पाप- | समरकंद के बीच के प्रदेश में बसा हुआ था, जिन लोगों कर्म में रत हुए हो । आज मैं पुत्रशोक में कितना विह्वल का राजा 'सेसस' था। पाणिनि के व्याकरण में 'यवन हूँ। तुम्हारी मृत्यु तो हुई, किंतु तुमको मरवानेवाला | लिपि' का निर्देश है, जो संभवतःप्रागमौर्य थी, एवं इन्ही ६८३ Page #706 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यवन प्राचीन चरित्रकोश यशोदा लोगों के द्वारा प्रस्थापित की गयी थी (पा. सू. ४.१.४९; | यवस--सावर्णि मनु के पुत्रों में से एक । पद्म में इसे कात्यायन वार्तिक. ३)। 'यवसु' कहा गया है (पम. सु. ७)। सिकंदर के हमले के पश्चात् , यवन लोगों का एक | २. इध्मजिह्व राजा के सात पुत्रों में से एक । उपनिवेश भारत के उत्तरीपश्चिम प्रदेश में बसा हुआ था। यविष्ठ-स्वायंभुव मन्वन्तर के जिदाजित् देवों में से चंद्रगुप्त मौर्य के दरबार में आये हुये मेगॅस्थिनिस, | एक । दिओन्सिअस आदि परदेशीय वकील यवन ही थे। २. अग्नि का एक नामान्तर । यविनर--(सो. द्विमीढ.) द्राकुलोत्पन्न एक सुविख्यात अशोक के बारहवे स्तंभलेख में, 'योन' लोगों के राजा, जो मत्स्य के अनुसार अजमीढ राजा का, एवं देश में महारक्षित नामक बौद्ध भिक्षु धर्मप्रचारार्थ भेजने का भागवत, विष्णु एवं वायु के अनुसार द्विमीढ राजा का निर्देश प्राप्त है। 'योन धर्मरक्षित' नामक अन्य एक पुत्र था। इसके पुत्र का नाम धृतिमंत (कृतिमत् ) था। बौद्ध धर्मगुरु अशोक के द्वारा 'अपरान्त ' प्रदेश में भेजा २. (सो. नील.) उत्तर पंचाल देश का एक राजा, गया था। रुद्रदामन् के जुनागड स्तंभलेख में, अपरान्त जो भागवत के अनुसार भय॑श्व राजा का पुत्र था। इसे प्रदेश का राज्य योनराज तुषाष्प के द्वारा नियंत्रित किये मुद्गल, संजय, बृह दिश, एवं कांपिल्य नामक चार भाई जाने का, एवं वह सम्राट अशोक का राजप्रतिनिधि होने थे। भHश्व राजा के ये पाँच पुत्र 'पंचाल' नाम से का निर्देश प्राप्त है। इससे प्रतीत होता है कि, अशोक के सुविख्यात थे। . ... राज्यकाल में यवन लोगों की एक वसाहत पश्चिमी भारत यावियस्-(सो. नील.) एक राजा, जो वायु के में गुजरात प्रदेश में भी बसी हुयी थी। अनुसार ऋक्ष राजा का पुत्र था। पतंजलि के महाभाष्य में, मिनेन्डर नामक यवन २. एक आचार्य, जो वायु के एवं ब्रह्मांड के अनुसार, राजपुत्र ने 'साकेत' (अयोध्या) एवं 'मध्यमिका' व्यास की सामशिष्यपरंपरा में से हिरण्यनाम ऋषि का. नगरी को युद्ध में घिरा लेने का निर्देश प्राप्त है शिष्य था। (महा. २.११९)। आगे चल कर शुगराजा पुष्यमित्र यश--सुतभ देवों में से एक । एवं वसुमित्र ने यवनों को पराजित किया। आंध्र राजा २. विकुंठ देवों में से एक। गौतमीपुत्र शातकर्णी ने इनका संपूर्ण नाश किया। यशस्कर--शिवदेवों में से एक। महाभारत में-महाभारत के अनुसार, यवन लोग | यशस्विन्-प्रतर्दन देवों में से एक। ययातिपुत्र तुर्वसु के वंशज थे (म. आ. ८०.२६)। यशस्विन् जयन्त्य लौहित्य-एक आचार्य, जो ये लोग पहले क्षत्रिय थे; किंतु ब्राह्मणों से द्वेष रखने के कृष्णरात त्रिवेद लौहित्य नामक आचार्य का शिष्य था कारण, बाद में शूद्र बन गये थे (म. अनु. ३५.१८)। (वं. ब्रा. ३: जै. उ, ब्रा. ३.४२.१)। लोहित का वंशज उसी ग्रंथ में अन्यत्र इन्हे नंदिनी के योनि (मूत्र) प्रदेश होने से इसे 'लौहित्य' पैतृक नाम प्राप्त हुआ होगा। से उत्पन्न कहा गया है (म. आ. १६५.३५)। । यशस्विनी-स्कंद की अनुचरी एक मातृका (म.श. सहदेव ने अपनी दक्षिणदिग्विजय में इनके नगरों को | ४५.१०)। जीता था (म. स. २८.४९)। नकुल ने भी अपनी पश्चिम | यशोदा-हविष्मत् नामक पितरों की मानसकन्या दिग्विजय में इन्हे परास्त किया था (म. स. २९.१५ | (ह. वं. १.१८.६१)। कई ग्रंथों में इसे 'सुस्वधा' पाठ.)। कर्ण ने अपनी पश्चिम दिग्विजय में इन्हे जीता था | ( उपहत ) पितरों की कन्या कहा गया है। इसका विवाह (म. व. परि. १.२४.६६)। इक्ष्वाकुवंशीय विश्वमहत् (विश्वसह) राजा से हुआ था, भारतीय युद्ध में, ये लोग कौरवों के पक्ष में शामिल थे। जिससे इसे दिलीप खट्वांग नामक पुत्र उत्पन्न हुआ था कांबोजराज सुदक्षिण यवनों के साथ एक अक्षौहिणी सेना ले | (ब्रह्मांड. ३.१०.९०)। कर भारतीय युद्ध में उपस्थित हुआ था (म. उ. १९.२१- मत्स्य में इसे इक्ष्वाकुवंशीय अंशुमत् राजा की पत्नी २२)। भारतीय युद्ध में यवनों के साथ अर्जुन का (म. | कहा गया है. (मत्स्य. १५.१८)। किन्तु यह अयोग्य द्रो. ६८.४१,९६.१), एवं सात्यकि का (म. द्रो. | प्रतीत होता है। अंशुमत् राजा के पुत्र का नाम भी ९५.४५-४६) घनघोर युद्ध हुआ था। दिलीप (प्रथम) ही था। संभव है, इसी नामसादृश्य से Page #707 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यशोदा . प्राचीन चरित्रकोश याज्ञवल्क्य मत्स्य में, इसे अंशुमत् की पत्नी होने का अयोग्य निर्देश | याज-कश्यपकुलोत्पन्न एक ऋषि, जो यमुना नदी के किया गया होगा। तट पर निवास करता था। द्रोण का विनाश करनेवाला २. नंद गोप की पत्नी, जिसने श्रीकृष्ण को पालपोस | पुत्र उत्पन्न करने के लिए द्रुपद राजा ने इससे, एवं इसके कर बडा किया था ( भा. १०.२.९)। यह देवक नामक | भाई उपयाज से एक यज्ञ कराया था। गोप की कन्या थी । भागवत में, इसे द्रोण नामक वसु | यह वेदाभ्यासक एवं सूर्यभक्त ऋषि था। किन्तु प्रारंभ की पत्नी धरा का अवतार कहा गया है ( भा. १०.८. से ही, यह अत्यंत हीन मनोवृत्ति का एवं लोभी था ५०%; रापण देखिये)। (म. आ. १५५.१४-२१)। पंचाल देश का द्रुपद राजा • यशोदेवी--अनुवंशीय सम्राट बृहन्मनस् की पत्नी। एक ऐसे पुत्र की कामना मन में रखता था,जो उसके शत्र यशोधन-पाण्डवपक्षीय दुर्मुख पांचाल नामक राजा द्रोणाचार्य का वध करे। इसने एवं इसके भाई उपयाज का पुत्र । इसे 'दौर्मुखी' पैतृक नाम भी प्राप्त था | ने एक अबंद धेनुओं के बदले में, द्रपद राजा के पुत्रकामेष्टी (म. द्रो. १५९. ४)। पाठभेद ( भांडारकर संहिता)- यज्ञ का काम स्वीकार लिया (म. आ. १६७.२१)। यज्ञ 'यशोधर'। समाप्त होने पर, यज्ञ में सिद्ध किया गया 'चरु' भक्षण यशोधर-श्रीकृष्ण एवं रुक्मिणी का एक पुत्र | करने के लिए, इसने द्रुपदपत्नी सौत्रामणि को बुलाया। (म. अनु. १४.३३)। उसे आने में विलंब होते ही, इस तामसी ऋषि ने वह यशोधरा--विरोचन दैत्य की कन्या, जो त्वष्ट्ट की चरु अग्नि में झोंक दिया, जिससे द्रुपदपुत्र धृष्टद्युम्न उत्पन्न पत्नी थी। इसे 'वैरोचनी यशोधरा' एवं 'रचना' हुआ (द्रुपद देखिये)। नामान्तर भी प्राप्त थे । इसे त्वाट्ट से निम्नलिखित दो ___पंचाल देश में राज्य करनेवाला पुरुयशस् राजा भी पुत्र उत्पन्न हुये थे:-त्रिशिरस् विश्वरूप, एवं विश्वकर्मन् याज एवं उपयाज ऋषियों का ही शिष्य था ( स्कंद. २.७. (संनिवेश) (ब्रह्मांड, ३.१.८६-८७)। १५-१६; पुरुयशम् देखिये)। २. त्रिगर्तराज की कन्या, जो पूरुवंशीय सम्राट हस्तिन् । याज्ञ--भृगुकुलोत्पन्न एक गोत्रकार । ' की पत्नी थी । इसके पुत्र का नाम विकुंठन था। याज्ञतुर--ऋषभ नामक अश्वमेध करनेवाले राजा का , पाठभेद-- 'यशोदा'। पैतृक नाम (श. ब्रा. १२.८.३.७; सां. श्री. १६.९.८. । यशोभद्र-एक राजा, जो मनोभद्र राजा का पुत्र १०)। 'यज्ञतुर' का वंशज होने से, इसे यह पैतृक नाम • था। इसके भाई का नाम वीरभद्र था । पूर्वजन्म में प्राप्त हुआ होगा। गंगास्नान का पुण्य करने के कारण, इसे राजकुल में जन्म प्राप्त हुआ था ( पद्म. क्रि. ३)। • याज्ञदत्त--वसिष्ठकुलोत्पन्न याज्ञवल्क्य नामक गोत्रकार । यशोमेधस्-सुमेधस् देवों में से एक । का नामान्तर (याज्ञवल्क्य २. देखिये )। यशोवती-हैहय राजा एकवीर की पत्नी। याज्ञवल्क्य--विश्वामित्रकुलोत्पन्न एक गोत्रकार । यशोवसु-(सो. अमा.) एक राजा, जो वायु के २. वसिष्ठकुलोत्पन्न एक गोत्रकार। इसे याज्ञदत्त नामान्तर अनुसार कुश राजा का पुत्र था । विष्णु में इसे भी प्राप्त था (मत्स्य. २००.६)। 'अमावसु' एवं भागवत में 'वसु' कहा गया है। ३. एक आचार्य, जो व्यास की कशिष्यपरंपरा में से यस्क-एक व्यक्ति, जो गिरिक्षित का वंशज था | बाष्कल नामक ऋषि का शिष्य था। इसीके नाम से व्यास (का. सं. १३.१२)। इसी कारण इसे 'गैरिक्षित ' कहा की उस ऋक् शिष्यपरंपरा को 'याज्ञवल्क्य' नाम प्राप्त हुआ गया है। (वायु. ६०.१२-१५)। २. भृगुकुलोत्पन्न एक गोत्रकार, जिसके नाम के लिए ४. एक आचार्य, जिसके आश्रय में विष्णुयशस् नामक 'यस्कावर' पाठभेद प्राप्त है। पाणिनि ने यस्क नामक | ब्राह्मण के घर, कल्कि नामक विष्णु का ग्यारहवाँ अवतार एक आचार्य का निर्देश किया है (पा. सू. २.४.६३, ४. उत्पन्न होनेवाला है (भा. १.२.३५)। वास्तव में, कल्कि १.११२) । आश्वलायन श्रौतसूत्र के गोत्रप्रवरों की अवतार इसके पहले ही हो चुका है। किन्तु उस अवतार तालिका में 'यस्क' का निर्देश प्राप्त है (आ. श्री. ६. | के जीवन-चरित्र में किसी याज्ञवल्क्य नामक आचार्य का १०.१०)। संभवतः ये सारे व्यक्ति एक ही होगे। | | निर्देश अप्राप्य है। ६८५ Page #708 -------------------------------------------------------------------------- ________________ याज्ञवल्क्य ५. विश्वामित्र के ब्रह्मवादी पुत्रों में से एक (म. अनु. ४. ५१ )। | याज्ञवल्क्य वाजसनेय- एक सर्वश्रेष्ठ विद्वान्, वाद पटु, एवं आत्मज्ञ ऋषि, जो 'शुक्लयजुर्वेद संहिता' का प्रणयिता माना जाता है । यह उद्दालक आरुणि नामक आचार्य का शिष्य था (बृ. उ. ६. ४. २. माध्य.)। यह सांस्का रिक एवं दार्शनिक समस्या का सर्वश्रेष्ठ अधिकारी विद्वान् था, जिसके निर्देश शतपथ ब्राह्मण, एवं बृहदारण्यक उप निषद में अनेक बार प्राप्त हैं ( श. बा. १. १. १. ९; २. ३. १. २१; ४. २. १.७१ बृ. उ. २.१.२ माध्य.) ओल्डेनबर्ग के अनुसार, यह विदेह देश में रहनेवाला था। जनक राजा के द्वारा इसे संरक्षण मिलने की जो कथा वृहदारण्यक उपनिषद में प्राप्त है, उससे भी यही प्रस्थापित होता है । किन्तु इसका गुरु उद्दालक आरुणि कुरुपंचाल देश में रहनेवाला था, जिस कारण इसको भी उसी देश के निवासी होने की संभावना है । प्राचीन चरित्रकोश नाम — यज्ञवल्क्य का वंशज होने के कारण, इसे याज्ञवल्क्य ' पैतृक नाम प्राप्त हुआ होगा । बृहदारण्यक उपनिषद में इसे ' वाजसनेय' कहा गया है (बृ. उ. ६. ३. ७–८, ६.५.२ः श. बा. १४.९.४.३३) । महीघर के अनुसार, वाजसनि का पुत्र होने के कारण, इसे वाजसनेय नाम प्राप्त हुआ होगा। इसके ' मध्यंदिन नामक शिष्य के द्वारा इसके यजुर्वेद संहिता का प्रचार होने के कारण, इसे ' माध्यंदिन ' भी कहते है । 6 6 विष्णु में इसे ब्रह्मरात का पुत्र, एवं वैशंपायन का शिष्य कहा गया है (विष्णु. ३.५.२ ) । वायु, भागवत, एवं ब्रह्मांड में इसके पिता का नाम क्रमशः ब्रह्मवाह', ‘देवरात’ एवं ‘ब्रह्मराति’ प्राप्त है ( वायु. ६०.४१ भा. १२.६.६४; ब्रह्मांड. ३.३५.२४ ) । ब्रह्मा के शरीर से उत्पन्न होने के कारण, इसे 'ब्रह्मवाह' नाम प्राप्त हुआ था (बायु-६०.४२) । महाभारत में इसे वैशंपायन ऋषि का भतिजा एवं शिष्य कहा गया है (म. शां. ३०६ ७७६०)। उद्दालक शिष्य याश्वस्य एवं वैशंपायन शिष्य वाश्वस्य दोनों संभवतः एक ही होंगे। उनमें से उद्दालक इसका दार्शनिक शास्त्रों का, एवं वैशंपायन वैदिक सांस्कारिक शास्त्रों का गुरु था। याज्ञवल्क्य इनके अतिरिक्त, हिरण्यनाभ कौशल्य नामक इसका और एक गुरु था, जिससे इसने योगशास्त्र की शिक्षा प्राप्त की थी (२.६२.२०८९ वायु ८८,२०७१ दिष्णु. ४. ४.४७; भा. ९.१२.४ )। योग्यता-याज्ञवल्य के दो प्रमुख पहलू माने जाते हैं। यह वैदिक संस्कारों का एक श्रेष्ठ ऋषि था, जिसे 'शुक्ल यजुर्वेद ' एवं ' शतपथ ब्राह्मण' के प्रणयन का श्रेय दिया जाता है। इसके साथ ही साथ यह दार्शनिक समस्याओं का सर्वश्रेष्ठ आचार्य भी था, जिसका विवरण 'बृहदारण्यक उपनिषद में विस्तारशः प्राप्त है वहाँ इसने अत्यंत प्रगतिशील दार्शनिक विचार सरलतम भाषा में व्यक्त किये है, जो विश्व के दार्शनिक साहित्य में अद्वितीय माने जाते हैं। , , यजुः शिष्य परंपरा -- याज्ञवल्क्य यजुः शिष्यपरंपरा में से वैशंपायन ऋषि का शिष्य था। वैशंपायन ऋषि के कुल ८६ शिष्य थे, जिनमें श्यामायनि, आसुरि, आलंबि, एवं याज्ञवल्क्य प्रमुख थे ( वैशंपायन देखिये) । वैशंपायन ने 'कृष्णयदुर्वेद की कुल ८६ संहिताएँ बना कर, याज्ञवल्क्य के अतिरिक्त अपने बाकी सारे शिष्यों को प्रदान की थीं। वैशंपायन के शिष्यों में से केवल याज्ञवल्क्य को ' कृष्णयजुर्वेद संहिता प्राप्त नहुषी, जिस कारण इसने 'शुक्लयजुर्वेद ' नामक स्वतंत्र संहिता - .. ग्रंथ का प्रणयन किया । ' " कृष्णयजुर्वेद का शुद्धीकरण - याज्ञवल्क्य ने कृष्णयर्वेद के शुद्धीकरण का महान कार्य सम्पन्न किया एवं उसी वेद के संहिता में से चालीस अध्यायों से युक्त नये. ब्रा. क्रययुर्वेद का निर्माण किया (श. बा. १४.१.४.३२ )। याज्ञवल्क्य के पूर्व कृष्णयजुर्वेद संहिता में यविषयक मंत्र एवं यशप्रक्रियाओं की सूचनायें उलझी हुई सन्निहित थीं। उदाहरणार्थ, तैत्तिरीय संहिता में * इति छिनत्ति ' मंत्र प्राप्त है । यहाँ ' इपेत्वेति ' ( इषे त्वा ) वैदिक मंत्र है, जिसके पठन के साथ 'छिनति' ( तोड़ना ) की प्रक्रिया बताई गयी है । " याश्वस्य की महानता यह है कि इसने इसे बाकी भाँति वैदिक मंत्रमागों को अलग कर उन्हें क् संहिता में बाँध दिया, एवं ' इति छिनत्ति जैसे याशिक प्रक्रियात्मक भागों को अलवा कर ब्राह्मण ग्रन्थों में एकत्र किया। , कृष्णर्वेद के इस शुद्धीकरण के विषय में, याशवल्क्य को अपने समकालीन आचायों से ही नहीं, परिक, अपने गुरु वैशंपायन से भी झगड़ा करना पड़ा। आगे चल कर संहिताविषयक धर्मत्रयसम्बन्धी यह बादविवाद, एक देशव्यापी आन्दोलन के रूप में उठ खड़ा हुआ अन्त में यह विवाद हस्तिनापुर के सम्राट जनमेजय (तृतीय) के ૬૬ Page #709 -------------------------------------------------------------------------- ________________ याज्ञवल्क्य प्राचीन चरित्रकोश याज्ञवल्क्य पास तक जा पहुँचा, और उसने याज्ञवल्क्य की विचार- ईश उपनिषद--शुक्लयजुर्वेद संहिता का चालीसवाँ धारा को सही कह कर उसका अनुमोदन किया। अंतिम अध्याय 'ईश उपनिषद' अथवा 'ईशावास्य जनमेजय की राजसभा में जनमेजय का राजपुरोहित | उपनिषद' से बना हुआ है। इस उपनिषद में केवल उस समय वैशंपायन था, जिसे छोड कर यज्ञों के अध्वर्यु- अठारह मंत्र है, फिर भी, वह प्रमुख दस उपनिषदों में से कर्म के लिए उसने याज्ञवल्क्य को अपनाया । किन्तु इसके एक माना जाता है । शंकराचार्य से ले कर विनोबाजी तक परिणामस्वरूप, जनमेजय के विरुद्ध उसकी प्रजा में के सारे प्राचीन एवं आधुनिक आचार्य, उसे अपना नित्यअत्यधिक क्षोभ की भावना फैलने लगी, जिस कारण उसे पाठन का ग्रंथ मानते है । इस उपनिषद में, 'सारा संसार राजसिंहासन को परित्याग कर वनवास की शरण लेनी ईश्वर से भरा हुआ है' (ईशावास्यमिदं सर्वम् ), यह पड़ी। इतना हो जाने पर भी, जनमेजय ने अपनी जिद्द सिद्धान्त बहुत ही सुंदर तरीके से कथन किया गया है । न छोड़ी, और याज्ञवल्क्य के द्वारा ही अश्वमेधादि यज्ञ इसी उपनिषद के अन्य एक मंत्र में, धनलोभ का निषेध करा कर, 'महावाजसनेय' उपाधि उसने प्राप्त की। इसके | किया गया है। परिणाम स्वरूप वैशंपायन और उसके अनुयायियों को शतपथ ब्राह्मण-शुक्लयजुर्वेद का ब्राह्मण ग्रंथ 'शतपथ मध्यदेश छोड़ कर पश्चिम में समुद्रतट, एवं उत्तर में हिमालय | ब्राह्मण है। इस ग्रंथ में चौदह काण्ड, एवं सौ अध्याय हैं। की शरण लेनी पड़ी। उनमें से १-४ एवं १०-१४ काण्डों में याज्ञवल्क्य के इस प्रकार, धार्मिक आधार पर खड़ी हुई याज्ञ- 'यज्ञप्रक्रिया' 'देवताविज्ञान' आदि विषयक सिद्धान्त वल्क्य और वैशंपायन के बीच के विवाद ने राज- ग्रथित किये गये हैं । इस ग्रंथ के ५-९ काण्डों में तुर नैतिक जीवन के आदी का आमूल परिवर्तन किया, कावषेय एवं शांडिल्य के सिद्धान्तों का संग्रह याज्ञवल्क्य जो भारतीय इतिहास में एक अनूठी घटना साबित हुयी। के द्वारा किया गया है । इस ग्रंथ का प्रचंड विस्तार, एवं इस प्रकार सर्वसाधारण से लेकर राजाओं तक को भी अपने उसमें प्रकट किये गये प्रगतिशील विचारों के कारण, प्रभाव से बदल देनेवाला याज्ञवल्क्य एक युगप्रवर्तक आचार्य | 'शतपथब्राह्मण' वैदिक साकरिक सिद्धान्तों का एक बन गया। अद्वितीय ग्रंथ माना जाता है। : शुक्ल यजुर्वेद का प्रणयन-अन्य वैदिक आचार्यों इसी ग्रंथ के अंतिम भाग में 'बृहदारण्यक उपनिषद' के समान याज्ञवल्क्य भी कर्म एवं ज्ञान के सम्मिलन को का समावेश किया गया हैं । ब्रह्मज्ञान एवं आत्मज्ञान के महत्त्व प्रदान करता था। इसी कारण, 'शुक्लयजुर्वेद' विषय में याज्ञवल्क्य का तत्वज्ञान इस उपनिषद में समाविष्ट का प्रणयन करते समय, इसने उस ग्रंथ के अन्त में 'ईश | किया गया है। उपनिषद' का भी साम्मिलन किया है । शुक्लयजुर्वेद वैदिक कात्यायन के वार्तिक में 'शतपथ ब्राह्मण' को पुराणकर्मकाण्ड का ग्रंथ हैं । उसे ज्ञान विषयक 'ईश उपनिषद' | कल्प में विरचित अन्य ब्राह्मण ग्रंथों से उत्तरकालीन कहा के अठारह मंत्र जोड़ने के कारण, उस ग्रंथ की महत्ता गया है (पुराणप्रोक्तेषु ब्राह्मणकल्पेषु) (पा. सू. ३.३. कतिपय बढ़ गयी है । वैदिक कर्मकाण्ड का अंतिम साध्य | १०५)। आत्मज्ञान की प्राप्ति है। इसी तत्त्व का साक्षात्कार'ईश वैशंपायन से विरोध--अपने गुरु वैशंपायन से उपनिषद' से होता है। याज्ञवरक्य का विरोध किस कारण से हुआ, इसके संबंध अपने समय के सर्वश्रेष्ठ उपनिषदकार माने गये | में अनेकानेक कथाएँ पुराणों में प्राप्त है, जिनमें ऐतिहासिकता याज्ञवल्क्य ने कर्म एवं ज्ञान का सम्मिलन करने के बदले काल्पनिकता अधिक प्रतीत होती है। वाले ' शुक्लयजुर्वेद ' की रचना की, इस घटना को एक बार सब ऋषियों ने नियत समय पर मेरु पर्वत पर वैदिक साहित्य के इतिहास में महत्वपूर्ण स्थान दिया | एकत्र होने का निश्चय किया। उस समय यह भी तय जाता है। वैदिक परंपरा मंत्रों के अर्थ से संगठित है। वह हुआ कि, जो भी ऋषि समय पर न आयेगा, उसे ब्रह्महत्या अर्थ मूलस्वरूप में रखने के लिए, प्रसंगवश मंत्रों के | का पाप लगेगा। दैवयोग से, वैशंपायन समय पर न पहुँच शब्दों में बदला किया जा सकता है, इसी क्रांतिकारी | सका, तथा उसे ब्रह्महत्या का पाप सहना पड़ा। तब उसने विचारधारा का प्रणयन याज्ञवल्क्य ने किया, एवं यह | ब्रह्महत्या के अपने पाप को समाप्त करने के लिए, अपने वैदिक सूक्तकारों में एक श्रेष्ठ आचार्य बन गया। | सभी शिष्यों से प्रायश्चित्त लेने के लिए कहा। उस समय, Page #710 -------------------------------------------------------------------------- ________________ याज्ञवल्क्य प्राचीन चरित्रकोश याज्ञवल्क्य याज्ञवल्क्य ने आत्मप्रशंसा से वशीभूत हो कर कहा, चौबीस प्रश्नों के उत्तर दिये हैं (म. शां. ३०६.२६'सब शिष्यों की क्या आवश्यकता है ? मैं अकेला ही ८०)। काफ़ी हूँ। इसकी ऐसी गर्वोक्ति सुन कर वैशंपायन दार्शनिक समस्याओं का आचार्य–'बृहदारण्यक उपक्रोधित हो उठा, तथा उसने इससे कहा, 'तुमने मुझसे निषद' के दूसरे, तीसरे एवं चौथे अध्यायों में याज्ञवल्क्य जो वेद सीख लिये हैं, वे मुझे वापस करो । की दार्शनिक महत्ता, एवं सिद्धान्तों का परिचय प्राप्त होता गुरु के शाप के कारण, सीखे हये सारे वेद इसे निगलने | है। उनमें से दूसरे अध्याय में, याज्ञवल्क्य का अपनी पडे, जिसे वैशंपायन के बाकी शिष्यों ने उठा लिये। वेद- ब्रह्मवादिनी पत्नी मैत्रेयी से तत्वज्ञान पर संवाद प्राप्त है। विहीन होने के कारण, यह विद्याहीन, स्मृतिहीन एवं | तीसरे अध्याय में विदेह देश के जनक राजा के दरबार कष्टरोगी बन गया। किन्तु पश्चात . सरस्वती की कृपा से | में इसके द्वारा अनेकानेक तत्वज्ञानियों से हए वाद-विवादों इसने नया वेद प्राप्त कर लिया, एवं यह पूर्व की भाँति की जानकारी दी गयी है; एवं चौथे अध्याय में स्वयं तेजस्वी बन गया (म-शां.३०६; वायु.६१.१८-२२)। जनक राजा से हुए इसके तत्वज्ञान पर संवाद प्राप्त है। ___ सूर्य से वेदप्राप्ति--सूर्य से वेद स्वीकार करते समय, इन सारे संवादों से याज्ञवल्क्य के प्रागतिक व्यक्तित्व, याज्ञवल्क्य ने अश्व का रूप धारण किया था, जिस कारण एवं दार्शनिक तत्वज्ञान पर काफ़ी प्रकाश पडता है। इसके वेदों तथा शिष्यों को 'वाजिन् ' नाम प्राप्त हुआ ___ जनक राजा के दरबार में - जनक राजा के यज्ञ(वायु. ६१.२२)। अन्य पुराणों के अनुसार, वेद लेते मंडप में कुरुपंचाल देश के अनेकानेक तत्वज्ञ उपस्थित समय इसने नहीं, बल्कि सूर्य ने अश्व का रूप धारण किया हुये थे। याज्ञवल्क्य ने उन सारे तत्वज्ञों को वाद-विवाद था (भा. १२.६.७३, ब्रह्मांड. २.३५.२६-७४)। में परास्त किया। बृहदारण्यक उपनिषद के अनुसार, याज्ञवल्क्य ने जिन आचार्यों के साथ वाद-विवाद किये स्कंद में इसके गुरु का नाम वैशंपायन न देकर, शाकल्य थे, उन के नाम, एवं वाद-विवाद के विषय निम्न दिया है एवं अपने आथर्वण मंत्र के बल से शाकल्य ने प्रकार हैं:इसकी समस्त वेदविद्या वापस लेने की कथा वहाँ बतायी १. अश्वल–'मृत्यु से मुक्ति कैसे प्राप्त हो सकती है (स्कंद. ६.१२९)। है(बृ. उ. ३.१)। . . कालनिर्णय-सूर्य से वेदविद्या सीखने के बाद, इसने | २. जारत्कारद आतंभाग--आठ ग्रह एवं आठ वह विद्या जनक, कात्यायन, शतानीक, जनमजय (तृताय) उपग्रह कौनसे हैं' (बृ. उ. ३.२)। आदि राजाओं को सिखायी थी (विष्णु. ४.२१.२)।। ३. भुज्यु लाह्यायनि--'मृत्यु के उपरांत परलोक में इससे याज्ञवल्क्य ऋषि शतानीक एवं जनमेजय (तृतीय) क्या होता है; यज्ञ करनेवाले परिक्षित् राजा को कौन सी राजाओं का समकालीन प्रतीत होता है। गति मिली (बृ. उ. ३.३)। महाभारत में, याज्ञवल्क्य के द्वारा देवराति जनक के ४. उषस्त चाक्रायण-'सर्वअन्तर्यामी आत्मा' (बृ. सभा में वाद-विवाद करने का निर्देश प्राप्त है । किन्तु | उ. ३.४)। उस समय देवराति जनक का होना असंभव प्रतीत होता ५. कहोल कौषीतकेय- 'सर्वअन्तर्यामी आत्मा'(बृ. है। उस समय जो जनक था, उसका स्पष्ट उल्लेख यद्यपि | उ. ३.५)। अप्राप्य है, तथापि शतानीक, जनमेजय इत्यादि याज्ञवल्क्य ६. गागी वाचक्नवी-जगत का मूल कारण क्या है। के समकालीन राजाओं से प्रतीत होता है कि, उस समय | (बृ. उ. ३.६)। का जनक उग्रसेन होगा (पुष्करमालिन् देखिये)। एक ७. वाचक्नवी--'ब्रह्म' (बृ. उ. ३.८)। तर्क यह भी दिया गया है कि, 'दैवराति ' जनक का ८. उद्दालक आरुणि—'अन्तर्यामी आत्मा'; 'परलोक' विशेषण न होकर, याज्ञवल्क्य का विशेषण है (पं. | (बृ. उ. ३.७)। भगवत्दत्त- वैदिक वाङमय का इतिहास, पृ. २६४)। ९. विदग्ध शाकल्य-- 'देव कितने है' (बृ. उ. महाभारत में, जनक एवं विश्वावसु गंधर्व के साथ | ३.९)। याज्ञवल्क्य के द्वारा किये तत्त्वज्ञानविषयक संवाद का निर्देश उपरिनिर्दिष्ट आचार्यों के सिवा, याज्ञवल्क्य में निम्नप्राप्त है (म. शा २९८-३०६)। वहाँ इसने विश्वावसू के | लिखित आचार्यों से भी तत्वज्ञानसंबंधी वाद-विवाद किये ६८८ Page #711 -------------------------------------------------------------------------- ________________ याज्ञवल्क्य प्राचीन चरित्रकोश याज्ञवल्क्य थे, जिनका निर्देश बृहदारण्यक उपनिषद के चौथे अध्याय | पुराणों में--देवमित्र शाकल्य के साथ याज्ञवल्क्य ने में प्राप्त हैं :-- किये वादविवाद की कथा, पुराणों एवं महाभारत में भी १. उदक शौल्वायन-प्राणब्रह्म' (बृ. उ. ४.१.२.३)। विस्तृत रूप से दी गयी है। .. २. बर्कु वार्ण-चक्षुब्रह्म' (बृ. उ. ४.१.४)। विदेह देश के देवराति ( दैवराति ) जनक ने अश्वमेध ३. गर्दभीविपीत भारद्वाज--'श्रोत्रब्रह्म' (बृ. उ. यज्ञ प्रारंभ किया, तथा उस सम्बन्ध में सैकड़ो ऋषियों को ४.५)। निमंत्रित भी किया (म. शां. ३०६)। उस यज्ञ में, हज़ार - ४. सत्यकाम जाबाल--'मनोब्रह्म' (बृ. उ. ४.१.६)। गायों के अतिरिक्त न जाने कितने स्वर्ण, रत्नादि सामने ५. विदग्व शाकल्य--'हृदयब्रह्म' (बृ. उ. ४.१.७)। रक्ख कर उसने कहा, 'यह सारी सुखसामग्री,तथा प्रामादि वादविवाद के विषय-जनक के दरबार में हुये | और सेवक आदि सारी संपत्ति वह ऋषि ले सकता है, जो वाद-विवाद में, अश्वल एवं विदग्ध शाकल्य ने याज्ञवल्क्य उपस्थित सभा में सर्वश्रेष्ठ हो'। यह सुन कर कोई न उठा। से ईश्वर एवं कर्मकाण्ड के विषय में प्रश्न पूछे थे, जो तब याज्ञवल्क्य सामने आया, तथा अपने शिष्य सामविशेष कठिन नहीं थे । शाकल्य ने इससे पूछा. 'देव | श्रवस् से इसने कहा, 'मेरे समान वेदवत्ता यहाँ कोई कितने है ' ( कति देवाः )। इस पर याज्ञवल्क्य ने देवों नहीं है। इसलिए यह समस्त संपत्ती हमारी है। उसे तुम की संख्या तीन हजार तेंतीस, तेंतीस, तीन, ऐसी विभिन्न | उठा लो। प्रकार से बताकर, अंत में ये सारे एक ही परमेश्वर के - इतना कह कर फिर समस्त उपस्थितजनों को सम्बोधित विविध रूप है, ऐसा कह कर बहुत ही सुंदर जवाब दिया | कर याज्ञवल्क्य ने कहा, 'यदि कोई भी व्यक्ति मुझे सर्वश्रेष्ठ था (बृ. उ. ३.९.१-३)। नहीं समझता, तो उसे मेरी ओर से चुनौती है किं, वह - अपने इस जबाब से याज्ञवल्क्य ने शाकल्य को मौन | मेरे सामने आये। इतना सुनते ही सारी सभा में कर दिया। यही नहीं, वादविवाद के शर्त के अनुसार, खलभली मच गई, और कई ब्राह्मण इससे वादविवाद शाकल्य को मृत्यु स्वीकार करनी पड़ी, एवं उसकी अस्थियाँ | करने आये। लेकिन सभी इसमें परास्त हुए। भी उसके शिष्यों को प्राप्त न हुई (बृ. उ. ३.९.४-२६) उपस्थित पंडितों से इसका कई विषयों पर वादविवाद शाकल्य की तुलना में, याज्ञवल्क्य से वाद विवाद करने- हुआ। सब को जीतने के बाद, इसने देवमित्र शाकल्य वाले जनकसभा के अन्य ऋषिगण अधिकतर अधिकारी | को ललकारते हुए कहा, 'भरी हुई धौंकनी के समान चप व्यक्ति थे, एवं उनके द्वारा पूछे गये प्रश्न भी अधिक कठिन क्यों बैठे हो ? कुछ बोलो तो'। इस प्रकार इसकी वाणी सुन थे। मृत्यु के पश्चात् आत्मा की क्या गति होती है, यह कर शाकल्य ने अकेले ही समस्त धन ले जाने के संबंध में पूछनेवालां जारत्कारव; अंतिम सत्य का स्वरूप क्या होता है, इससे शिकायत की। तब याज्ञवल्क्य ने कहा, 'ब्राह्मण का यह पूछनेवाला उषस्त; आत्मानुभव किस मार्ग से मिलता बल है विद्या, एवं तत्वज्ञान में निपुणता । क्यों कि, मैं किसी है, यह पूछनेवाला कहोल; एवं परमात्मा सर्वांतर्गत हो कर प्रकार के प्रश्न का उत्तर देने के लिए अपने को समर्थ भी अचेतन अथवा चेतनायुक्त कैसे रह सकता है, यह समझता हूँ, इसलिए इस समस्त धन पर मेरा अपना पूछनेवाले उद्दालक एवं गार्गी, ये उस समय के सर्वश्रेष्ठ अधिकार है। तत्त्वज्ञ थे । उनके प्रश्नों को तर्कशुद्ध जबाब दे कर,याज्ञवल्क्य याज्ञवल्क्य की ऐसी वाणी सुन कर देवमित्र शाकल्य ने विद्वत्सभा में अपना श्रेष्ठत्व प्रस्थापित किया। क्रोध से पागल हो गया, और उसने इससे एक हज़ार निष्प्रपंच सिद्धान्त-इसी वाद-विवाद में याज्ञवल्क्य प्रश्न पूछे, जिनके सभी उत्तर इसने बड़ी निपुणता एवं ने आत्मा के विषयक अपने 'निष्प्रपंच सिद्धान्त' का विद्वत्ता के साथ दिये। फिर याज्ञवल्क्य की प्रश्न पूछने पुनरुच्चार किया । इसने कहा, 'आत्मा बड़ा नहीं, उसी की बारी आई। याज्ञवल्क्य ने एक ही प्रश्न उससे किया । तरह छोटा भी नहीं। वहा ऊँचा नहीं, उसी तरह नीचा किन्तु शाकल्य उसका भी उत्तर न दे सका, जिसके भी नहीं। वह रुचि, दृष्टि एवं गंध के विरहित है (बृ. उ. परिणामस्वरूप उसे अपनी जान से हाथ धोना पड़ा। ३.८.८)। वह सृष्टि के समस्त वस्तुमात्रों का अंतर्निया- देवमित्र शाकल्य की मृत्यु से सब ब्राह्मणों को ब्रह्महत्या का मक है, जिसके कारण सारी सृष्टि कठपुतलियों के जैसी | को पाप लगा । इसलिए सभी उपस्थित जनों ने पवनपुर में नाचती है। | जाकर द्वादशार्क, वालुकेश्वर, एकादश रुद्र इत्यादि के दर्शन प्रा. च, ८७] ६८९ Page #712 -------------------------------------------------------------------------- ________________ याज्ञवल्क्य प्राचीन चरित्रकोश याज्ञवल्क्य किये, और चारों कुण्डों में स्नान किया। उसके उपरांत | से अमरत्त्व प्राप्त हो सकता है (एतावद् खलु अमृतत्वम् )। इन्होंने उत्तरेश्वर में जा कर वाडवों का दर्शन किया, जिससे | आत्मतत्व का यह साक्षात्कार केवल मन से ही हो सकता सभी व्यक्ति ह-यादोष से मुक्त हुए (वायु.६०.६९-७१)। । है (मनसैवानुद्रष्टव्यम् । प्रस्तुत कथा पुरातन इतिहास के रूप में भीष्म के द्वारा | जनक-याज्ञवल्क्यसंवाद-बृहदारण्यक उपनिषद् के युधिष्ठिर से कही गयी है (म. शां २९८.४, ३०६.९२ )। चौथे अध्याय में आत्मज्ञानसम्बधी 'जनक याज्ञवल्क्यवंशावलि के अनुसार, देवराति जनक दाशरथि राम से संवाद प्राप्त है। उस संवाद के प्रारम्भ में याज्ञवल्क्य काफ़ी पूर्वकालीन माना जाता है।' ने जनक से पूछा, 'अन्तिम सत्य के बारे में किन किन याज्ञवल्क्य-मैत्रेयी-संवाद--याज्ञवल्क्य ऋषि के द्वारा | ऋषियों के उपदेश आज तक आपने सुना है। उस पर संन्यास लिये जाने पर, उसने अपनी संपत्ति कात्यायनी | जनक ने कहा, 'वाणी को परमसत्य कहनेवाले जित्वन् शैलिनि एवं मैत्रेयी नामक अपनी दो पत्नियों में विभाजित करनी | का, प्राण को ब्रह्म कहनेवाले उदंक शौल्बायन का, चक्षु को चाही। उस समय इसकी ब्रह्मवादिनी पत्नी मैत्रेयी ने परमसत्य कहनेवाले बकु वार्ण का, कर्ण को ब्रह्म कहनेवाले इससे अध्यात्मिक ज्ञान का हिस्सा माँगा, एवं इसे अमरत्व गर्दभीविपीत भारद्वाज का, मन को ब्रह्म कहनेवाले सत्यकाम प्राप्त करने का मार्ग पूछा। उस समय इसने मैत्रेयी से कहा, जाबाल का, एवं हृदय को अन्तिम सत्य कहनेवाले विदग्ध 'पति, पत्नी, संतान, संपत्ति ये सारे आत्मा के ही शाकल्य का उपदेश आज तक मैने श्रवण किया है । उस अनेकविध रूप है । इस आत्मा का निरीक्षण, अध्ययन एवं पर याज्ञवल्क्य ने कहा, 'तुम्हारे द्वारा सुने गये ये उपदेश मनन( निदिध्यास) करने से ही समस्त वस्तुजातों का ज्ञान अंशतः सत्य है, पूर्णरूपेण नही' (बृ. उ. ४.१.२-७)। प्राप्त होता है ' (बृ. उ. २. ४.२-५; मैत्रेयी देखिये)। अपने इस कथन से याज्ञवल्क्य यह कहना चाहता था कि, __ आत्मा का स्वरूप बताते हुये याज्ञवल्क्य ने. मैत्रेयी से | इन्द्रियों अथवा मन से परमसत्य प्राप्त होना असम्भव है। कहा, 'जिस तरह समस्त स्पर्श त्वचा में केंद्रीभूत होते हैं, | वह तो केवल आत्मज्ञान से ही प्राप्त हो सकता है। अथवा सारे विचार मन में समा जाते हैं, उसी प्रकार | क्यों कि, आत्मा ही केवल सत्य है, मन एवं इन्द्रियाँ संसार की सारी चीज़े आत्मा में केंद्रीभूत होती हैं (बृ. उ. | सीमापाडीभत होती हैं (ब.उ. केवल साधनमात्र है। २.८.११) । इसी कारण, आत्मप्राप्ति ही मानवी प्रयत्नों मृत्यु का वर्णन-मृत्यु के समय मानवी देहात्मा की का सब से बडा साध्य है। बाकी सारे ध्येय भुलावे के स्थिति क्या होती है, उसका अत्यंत सुंदर वर्णन याज्ञवल्क्य (आर्तम् ) हैं । | ने जनक राजा को बताया था । इसने कहा, 'मृत्यु के समय ध्येयात्मक अद्वैतवाद-केवल आत्मा के ज्ञान से ही | मनुष्य की प्रज्ञात्मा उसके देहात्मा पर आरूढ होती है । बाह्यसृष्टि का ज्ञान हो सकता है, इस सिद्धान्त का विवरण | इसी कारण, बोझ से लदे हुए गाडी जैसा आतै चित्कार मृत्यु करते समय, याज्ञवल्क्य ने आत्मा एवं मानवी मन का की समय मानवी देहात्मा से निकलती है (बृ. उ. ४.३.३५)! ध्येयात्मक अद्वैत प्रतिपादित किया। इस प्रतिपादन के मृत्यु के पूर्व आँखो में से प्राणरूपी पुरुष सर्व प्रथम निकल समय, इसने आत्मा को दुंदुभी बजानेवाला वादक कह जाता है। पश्चात् हृदय का नोंक प्रकाशित होता है, जिसकी कर, मानवी मन को दुंदुभी वाद्य की उपमा दे दी। सहाय्यता से नेत्र, मस्तक अथवा अन्य कौनसी भी इंद्रियाँ याज्ञवल्क्य ने कहा, 'दुंदुभी बजानेवाले को हाथ में पकड़ | के द्वारा आत्मा निकल जाती है । उस समय, मनुष्य का लेने से, दुंदुभी का आवाज सहजवश हाथ में आता है। कर्म ही केवल उसके साथ रहता है, जो आत्मा के अगले उसी प्रकार आत्मा की ज्ञान होने से, संसार की सारी जन्म का मार्गदर्शक बनता है (बृ. उ. ४.४.१-५)। वस्तुमात्रों का ज्ञान विना किसी कष्टों से प्राप्त हो सकता है। तत्त्वज्ञान-(8) सुखैकपुरुषार्थवाद--'नैतिक कल्याण (बृ. उ. २.४.६-९)। मानवीय जीवन का अन्तिम साध्य जरूर है; फिर भी ऐहिक अनरत्व की प्राप्ति--अमरत्व की प्राप्ति कैसे हो सकती | सुख का महत्त्व नैतिक कल्याण से कम नहीं है, ' ऐसा है, इसका विवरण करते हुये याज्ञवल्क्य ने कहा, 'आत्मा याज्ञवल्क्य का मत था। राजा जनक के सभा में जब यह के श्रवण, मनन एवं चिंतन कर आत्मतत्त्व के | गया तब उसने इसे उद्दशित कर कहा, 'आप धनलक्ष्मी व्यापकत्व का अनुभव हर एक साधक ने करना चाहिये | तथा गायों को प्राप्त करने के लिए आयें है, अथवा (आत्मा वा अरे द्रष्टव्यः)। आत्मतत्त्व के इसी अनुभव विद्वानों के बीच चल रही चर्चा में भाग ले कर विजय प्राप्त Page #713 -------------------------------------------------------------------------- ________________ याज्ञवल्क्य प्राचीन चरित्रकोश याज्ञवल्क्य करने आये हैं ? ' उस समय विश्वास के साथ इसने जवाब व्यवस्था हुये वगैर आत्मा अपनी पुरानी बदन को नही दिया, 'दोनों के लिए ( उभयमेव सम्राट् ); जिनकी छोड़ता है । इस प्रकार, मृत्यु ही स्वयं एक माया होने के सींगों में स्वर्ण मुद्रिकाओं की थैलियाँ लगी हुई हैं. ऐसी | कारण, उसमें दुःख नहीं मानना चाहिये। जिस प्रकार गायों की प्राप्ति मैं उतनी ही आवश्यक समझता हूँ, सुवर्णकार पुराने अलंकारों से नया, एवं पहले से भी जितना कि आवश्यक, विद्वानों के बीच अपनी विजय'। अधिक सुंदर अलंकार बना सकता है, उसी प्रकार आत्मा अपने द्वारा कही उक्त बात का स्पष्टीकरण करते हुए को पहले से भी अधिक सुंदर जन्म प्राप्त होना संभवनीय इसने स्वयं कहा है, 'मेरा पिता का कथन था कि, बिना है (बृ. उ. ४.४.४)। धन प्राप्त किये किसी को भी आत्मज्ञान न देना चाहिए। याज्ञवल्क्य के यह विचार सुन कर इसकी पत्नी मैत्रेयी ''किन्तु आत्मज्ञान का उपदेश किये बगैर किसी से दक्षिणा भीतिग्रस्त हुयी। इसी कारण अपने मतों का अधिक न लेनी चाहिये, ' ऐसा भी इसका अभिमत था (अननुच्य विवरण न करते हुए याज्ञवल्क्य ने कहा, 'जो मैने कहा है हरेत-दक्षिणां न गृहीयात् )। वह संसार के अज्ञ लोगों के लिए काफी है' (बृ. उ. जनक राजा के पुरोहित अश्वल के द्वारा पूछने पर भी | २.४.१३)। याज्ञवल्क्य ने स्पष्ट शब्दों में कहा था, 'मैं ब्रह्मज्ञ जरुर हूँ, चरित्रचित्रण-याज्ञवल्क्य अपने युग का एक अद्वितीय किन्तु मैं धन को कांक्षा भी मन में रखता हूँ (गोकामा | विद्वान् , वादपटु, एवं आत्मज्ञानी था । यह बड़ा उग्र एव वयं स्मः) । | स्वभाव का था। जनक की विद्वत्सभा में विवाद करते इस प्रकार आध्यात्मिक एवं आधिभौतिक इन दोनों को समय, इसने शाकल्य से आक्रोशपूर्ण शब्दों में कहा था, मान्यता देनेवाला याज्ञवल्क्य पाश्चात्य 'साफिस्ट' लोगों 'आगे तुम इस प्रकार के प्रश्न करोगे, तो तुम्हारा सर जैसा प्रतीत होता है। 'साफिस्ट' वह लोग है, जो काट कर पृथ्वी पर लोटने लगेगा' (मूर्धा ते निपतिष्यति)। तत्त्वज्ञान के उपलक्ष में धनग्रहण करना कोई खराबी नहीं | यह क्रोधी था, उसी प्रकार परमदयालु तथा कोमल मानते हैं। प्रवृत्तियों का भी था, जो इसके द्वारा अपनी पत्नी मैत्रेयी (२) आत्मज्ञान--'जीवन में आत्मज्ञान प्राप्त करना | के संवाद से प्रकट है। सम्भव है, और वही अन्तिम सत्य है', ऐसा इसका अभिमत यह जरुर है कि, वादविवाद के बीच स्त्रीजाति हो, था। जनक ने इससे प्रश्न किया था. 'मनुष्य की ज्योति कौन | अथवा कोई भी हो, किसी के प्रति यह कृपाभावना नही है, जो उसे प्रकाश देती है ? ' इस प्रश्न का यथाविध उत्तर | दिखाता था। गार्गी से चल रही चर्चा के बीच, इसने देते हुए इसने सूर्य, चन्द्र तथा अग्नि को मनुष्य की ज्योति | उसे 'तुम बहुत प्रश्न कर रही हो' (अतिप्रश्नं पृच्छसि) बता कर कहा, 'आत्मज्ञान मनुष्य की अन्तिम ज्योति है, | कह कर, उद्दामता न दिखाने के लिए डाँटा था। जो सूर्य, चन्द्र तथा अग्नि की अनुपस्थिति में भी उसे प्रकाश यह बड़ा होशियार भी था। जब जनक की सभा में देती है' (बृ. उ. ४.३.२-६)। जारत्कारव ने ज्ञान एवं कर्म के संबंध में कुछ ऐसे प्रश्न किये जब कि आत्मा ही केवल ज्ञेय एवं ज्ञाता रहता है, उस थे, जो केवल अधिकारी व्यक्तियों ही जान सकते है । उसके अवस्था का वर्णन याज्ञवल्क्य ने उक्त कथन में व्यक्त | जवाब इसने उसे सभा से अलग ले जा कर, एकान्त में किया है। अरस्तू (अॅरिस्टॉटल) उसे 'थिओरिया' बताये थे। अथवा 'उन्मन' अवस्था कहता है। ___ यह अपने समय का सब से बड़ा वादपटु था। अश्वल (३) शुद्धाद्वैतवाद अथवा कर्ममीमांसा-याज्ञवल्क्य | ने इससे 'आचार्य-सम्प्रदाय' के सम्बन्ध में बहुत शुद्धाद्वैतवाद का पुरस्कर्ता था, जिसके अनुसार आत्मा | कठिन प्रश्न पूछे, जिनके तत्काल उचित उत्तर दे कर इसने अजर, अमर एवं कालातीत अवस्था में सर्वत्र उपस्थित | उसे निरुत्तर किया। रहता है । इस कारण, मृत्यु के साथ होनेवाले आत्मा | आत्मगत भाषण--अधिकारी विद्वान् के द्वारा तत्वज्ञानके स्थलांतर अथवा जन्मान्तर में शोक अथवा दुःख करने सम्बन्धी प्रश्न पूछे जाने पर ही, उसका जवाब देने की की आवश्यकता नहीं है। जिस तरह घाँस का नया | इसकी पद्धति थी। किंतु कभी कभी ऐसा भी होता था तिनका प्राप्त किये बगैर भँवरा अपना पहला तिनका | कि, भावतिरेक में यह प्रश्न की परिघ से अलग बातों नहीं छोड़ता है, उसी प्रकार अपने वास्तव्य की नयी | विषयों की विवेचना कर, उनका भी कथन करने लगता Page #714 -------------------------------------------------------------------------- ________________ याज्ञवल्क्य प्राचीन चरित्रकोश याज्ञवल्क्य था। उदाहरणार्थ, जनक की सभा में उद्दालक के प्रश्न का | शाखाप्रवर्तक शिष्य--वायु में याज्ञवल्क्य के निम्नउत्तर देते समय यह एकाएक ध्यानमग्न हुआ, तथा ईश्वर | लिखित पंद्रह शाखाप्रवर्तक शिष्य बताये गये हैं-१. कण्व; की व्यापकता बताते हुए इसने कहा, 'ईश्वर तो जगत्व्यापी | २. वैधेय; ३. शालिन् ; ४. मध्यंदिन५. शापेयिन; है। याज्ञवल्क्य के उक्त विचार 'अत यामी ब्राह्मण' | ६. विदिग्ध; ७. उद्दल; ८. ताम्रायण; ९. वात्स्य; नामक ग्रन्थ में सम्मिलित है (बृ. उ. ३.७.१)। १०. गालव; ११. शैषिरिन् ; १२. आटविन्; १३. पर्णिन् ; जनक राजा के साथ हुए संवाद में, आत्मा के 'अव्यय | १४. वीरणिन् १५. परायण (वायु. ६१.२४-२५)। रूप' के सम्बन्ध में अपने विचार भी इसने बिना पूछे इन शिष्यों को ‘वा जिन् ' सामुहिक नाम प्राप्त था। ही प्रकट किये थे । इस प्रकार, जब यह भावमग्न हो कर ब्रह्मांड में ये नाम कई पाठभेदों के साथ प्राप्त है (ब्रह्मांड. आत्मज्ञानसम्बन्धी विचारों को प्रकट करता था, तो प्रकट | २.५.८-३०)। अन्य पुराणों में भी इन शाखा-प्रवर्तक ही करता जाता था,जैसे कि आकाश के बादल बरसते नहीं, | आचार्यों के नाम अनेकानेक रूप से दिये गये हैं। तथा जब ऋतु पा कर बरसते हैं, तो बरसते ही जाते हैं। इन शाखाप्रवर्तक आचायों में से किण्व एवं ___ परिवार--याज्ञवल्क्य को मैत्रेयी एवं कात्यायनी नामक | 'माध्यंदिन' शाखाओं के ग्रंथ आज प्राप्त हैं। बाकी दो पत्नियाँ थी। उनमें से मैत्रेयी आध्यात्मिक ज्ञान की शाखाओं के ग्रंथ नष्ट हो चुके हैं। पिपासु थी। इस कारण, इसने उसे आत्मज्ञान कराया, ग्रंथ--याज्ञवल्क्य के नाम पर निम्नलिखित ग्रंथ प्राप्त एवं संन्यास लेने के पश्चात् भी यह उसे अपने साथ अरण्य है:-१. शुक्लयजुर्वेद संहिता (श. बा. १४.९.४.३३); में ले गया (मैत्रेयी देखिये )। स्कंद में मैत्रेयी के लिए | २. ईशावास्योपनिषदः ३. सांग शतपथ ब्राह्मण (म.शा. 'कल्याणी' नामान्तर प्राप्त है (स्कंद. ६.१३०-१३१)। ३०६.१-२५); ४. बृहदारण्यक उपनिषद (याज्ञ. ३. वैदिक ग्रंथों में से 'जाबालोपनिषद्' एवं 'शतपथ ब्राह्मण' ११०);५. याज्ञवल्क्य शिक्षा, जिसमें २३२ श्लोक हैं; . में भी उसका उल्लेख प्राप्त है (श. ब्रा. १.४.१०-१४)। |६. मनःस्वार शिक्षा, जिसमें हस्तस्वर की अपेक्षा भिन्न प्रकार. इसकी दूसरी पत्नी कात्यायनी एक सामान्य गृहिणी के विचारों को प्रतिपादित किया गया है; ७. बृहद्थी, जिससे इसे कात्यायन एवं पिप्पलाद नामक दो पुत्र | याज्ञवल्क्य; ८. बृहद्योगीयाज्ञवल्क्य; ९. योगशास्त्र। उत्पन्न हुये थे (स्कंद. ५.३; ४२.१; पिप्पलाद देखिये)। इनके सिवा इस के नाम पर 'याज्ञवल्क्यस्मृति' नामक शिष्यपरंपरा-काण्व एवं माध्यदिन परंपरा में एक स्मृतिग्रंथ भी प्राप्त है । . इसके निम्नलिखित शिष्यों का निर्देश प्राप्त है :-- ___ शुक्लयजुर्वेद-शुक्लयजुर्वेद संहिता के कुल चालीस १. आसुरि-यह याज्ञवल्क्य का प्रमुख शिष्य था, जिससे अध्याय हैं, एवं उनमें निम्नलिखित विषयों का विवरण 'आसुरि' नामक शिष्यशाखा का निर्माण हुआ (श.वा. प्राप्त हैं :-अ. १-२, दशपूर्णमासमंत्र एवं पिंडपितृयज्ञ; १४.९.४.३३)। आसुरि के शिष्य का नाम 'पंचशिख' | अ. ३, नित्याग्निकर्म, अग्निप्रतिष्ठा, हवन एवं चातुर्मास्यअथवा 'कापिलेय' अथवा 'कपिल' था (मत्स्य. ३. यज्ञ; अ. ४-८, सोमयज्ञ, पशुयज्ञ एवं राजसूय यज्ञ के मंत्र २९)। पंचशिख के शिष्यों में विदेह के राजा 'जनक | अ. ९-१०,-सोमयज्ञ के मंत्र; अ. ११-१८, अग्निचयनजानदेव' एवं 'जनक धर्मध्वज' प्रमुख थे। पंचशिख के विधि एवं मंत्र; अ. १९-२१, सौत्रामणियज्ञ के मंत्र; अ. शिष्यों में आसुरायण प्रमुख था, जो याक का समकालीन २२-२५, अश्वमेधयज्ञ के मंत्र; अ. २६-३०, पुरुषमेध था। | (यज्ञरहस्य ); अ. ३१, पुरुषसूक्त; अ. ३२, तत्त्वज्ञान २. मधुक पेंग्य--इसके शिष्यों में चूड भागवित्ति | (उपनिषद् );अ.३३-३४, शिवसंकल्पोपनिषद्; अ.३५, प्रमुख था। चूड भागवित्ति से लेकर जानकि आयस्थूण, | अंत्येष्टिमंत्र, अ. ३६-३९, प्रवर्य मंत्र; अ. ४०, सत्यकाम जाबाल ऐसी इसकी शिष्यपरंपरा थी (बृ. उ.. ईशावास्य उपनिषद् । इनमें से अध्याय २६-३५ को ६.३.७-११)। 'खिल' (परिशिष्ट ) कहते है। ३. सामश्रवस्--इसे जनक के विद्वत्सभा में अपनी | यह संहिता गद्य एवं पद्य भागों से बनी है। उनमें से ओर से संपत्ति उठाने के लिए याज्ञवल्क्य ने कहा था। पद्य भाग ऋग्वेद से लिया गया है, एवं गद्य भाग नया ___ इनके सिवा महाभारत में इसके सौ शिष्य बताये गये | है। उस गद्य भाग को ही 'यजुः' कहते है, जिस कारण हैं (म. शां. ३०६.१७; व्यास देखिये )। इस वेद को यजुर्वेद नाम प्राप्त हुआ है। ६९२ Page #715 -------------------------------------------------------------------------- ________________ याज्ञवल्क्य प्राचीन चरित्रकोश यामिनी इस वेद के श्रौतसूत्र की रचना कात्यायन ने की है। | यातुधान--एक राक्षस, जो कश्यप एवं सुरसा के उसमें "श्रौत' एवं 'गृह्य' ये दोनों सूत्र समाविष्ट किये | के पुत्रों में से एक था। इसके कुल में उत्पन्न राक्षसों को गये है, जिसमें से 'गृह्य' सूत्र 'पारस्कर गृह्यसूत्र' नाम | 'यातुधान' वांशिक नाम प्राप्त था। से सुविख्यात है। इन सूत्रों का प्रतिशाख्य भी कात्यायन २. एक राक्षससमूह, जो रक्षस् एवं जंतुधना की संतान के द्वारा ही विरचित है। मानी जाती है । इस समूह में निम्नलिखित राक्षस शामिल शुक्लयजुर्वेद का शिक्षाग्रंथ ' याज्ञवल्क्य शिक्षा' है, जो थे:-- हेति, प्रहेति, उग्र, पौरुषेय, वध, विद्युत्, स्फूर्ज, इस वेद के उच्चारण की दृष्टी से अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। वात, आय, व्याघ्र, सूर्य (ब्रह्मांड, ३.७.९०; रक्षस् स्वर एवं उच्चारण की दृष्टी से यह वेद अन्य वेदों से काफी देखिये)। अलग है । प्रायः इस वेद में 'य' एवं 'ष' का उच्चारण __ यातुधानी--एक कृत्या, जो राजा वृषादर्भि के द्वारा क्रमशः 'ज' एवं 'ख' जैसे किया जाता है । अनुस्वारों किये गये यज्ञ में से उत्पन्न हुयी थी (म. अनु. ९३. का उच्चारण भी सानुनासिक किया जाता है। इस वेदों ५३)। वृषादर्भि ने इसे सप्तर्षियों का वध करने के लिए के स्वर भी उच्चारण से व्यक्त करने के बदले, हाथों के उत्पन्न किया था। 'मनसा' नाम धारण कर यह द्वारा अधिकतर व्यक्त किये जाते हैं। सप्तिर्षियों के पास उनके नाशार्थ गयी । किन्तु वहाँ उपस्थित शुनःसखरूपधारी इन्द्र ने इसका वध किया याज्ञवल्क्यस्मृति--इस ग्रंथ में एक हजार श्लोक हैं,।। (बृषादर्भि देखिये)। जो तीन काण्डों में विभाजित किये गये हैं। यद्यपि इस याद्व-एक लोकसमूह, जो संभवतः यदु लोगों का ग्रंथ के आरंभ में इसकी रचना का श्रेय 'शतपथ ब्राह्मण" ही नामांतर होगा। यदु राजा के वंशज होने से इन्हे यह 'योगशास्त्र' आदि ग्रंथों के रचयिता योगीराज याज्ञवल्क्य नाम प्राप्त हुआ होगा । ऋग्वेद मे इनके संपत्ति का एवं को दिया गया है, फिर भी 'मिताक्षरा' के अनुसार, इस दानशूरता का उल्लेख प्राप्त है (ऋ. ७.१९.८)। ग्रंथ का रचयिता याज्ञवल्क्य न हो कर, इसका कोई शिष्य उसी ग्रंथ में अन्यत्र आसंग प्लायोगि नामक आचार्य के था। फिर भी इस ग्रंथ की विचारधारा शुक्लयजुर्वेद द्वारा इनके पशुसंपत्ति का निर्देश किया गया है (ऋ. एवं तत्संबंधित अन्य ग्रंथों से काफ़ी साम्य रखती है। ८.१.३१)। इस ग्रंथ में प्राप्त व्यवहारविषयक विवरण अग्निपुराण | . पर्श राजा एवं उसका पुत्र तिरिंदर से इन लोगों का में प्राप्त 'व्यवहारकाण्ड' से मिलता जुलता है । इस स्मृति शत्रत्व था। तिरिंदर ने इन्हे दास बना कर इनका दान में प्राप्त वेदान्तविषयक विवरण शंकराचार्य के 'ब्रह्मसूत्र' | किया था (ऋ. ८.६.४८)। सायणाचार्य के अनुसार, से काफी मिलता जुलता है (याज्ञ. ३.६४; ६७; ६९; | इनकी सारी संपत्ति तिरिंदर ने वत्स काण्व नामक आचार्य १०९, ११९; १२५; १४०; २०५)। को प्रदान की थी। हर एक सप्ताह में अंतर्भूत किये गये 'इतवार', यान-वसिष्ठ के पुत्रों में से एक । 'सोमवार' आदि वारों का संबंध आकाश में स्थित 'रवि,' | याम--स्वायंभुव मन्वन्तर का एक देवतासमूह (म. 'सोम' आदि ग्रहों से है, ऐसा स्पष्ट निर्देश याज्ञवल्क्यस्मृति | भी. ८.१.१८)। इस समूह में निम्नलिखित बारह देव में, प्राप्त है। इस स्मृति में नाणक आदि सिक्कों का, शामिल थे:- यदु, ययाति, विवध, स्त्रासत, मति, विभास, एवं ताम्रपट, शिलालेख आदि उत्कीर्ण शिलालेखों का भी ऋतु, प्रयाति, विश्रुत, द्युति, वायव्य एवं संयम (ब्रह्मांड, निर्देश प्राप्त हैं (याज्ञ. १.२९६, ३१५)। इन निर्देशों २.१३.९३)। से प्रतीत होता है कि, इस ग्रंथ का रचनाकाल ई. स. पह | यामायन-एक पैतृक नाम, जो निम्नलिखित वैदिक ली शताब्दी के लगभग होगा। सूक्तद्रष्टाओं के लिए प्रयुक्त है:-ऊर्ध्वकृषन (ऋ. १०. याज्ञसेन--शिखंडिन् नामक आचार्य का पैतृक नाम | १४४ ); कुमार (ऋ. १०.१३५); देवश्रवस् (ऋ. १०. ( सा. बा. ७-४)। १७); मथित (ऋ. १०.१९): शंख (ऋ. १०.१५) यानसेनी--द्रपदपुत्र शिखंडिन् का नामान्तर (म. | एवं संकुसुक (ऋ. १०.१८)। भी. १०८.१९)। ___ यामिनी-प्राचेतस दक्ष प्रजापति की कन्या, जो कश्यप याज्ञयि-भृगुकुलोत्पन्न एक गोत्रकार । | ऋषि की पत्नियों में से एक थी। इसकी संतान शलभ ६९३ Page #716 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यामिनी प्राचीन चरित्रकोश यास्क गया। मानी जाती है । इसकी माता का नाम असिक्नी था (भा. | उसी ग्रंथ में अन्यत्र इसके शिष्य का नाम जातूकर्ण्य दिया ६.६.२१)। | गया है (बृ. उ. २.६.३; ४.६.३)। ___ यामी-दक्ष राजा की कन्या, जो धर्मऋषि की पत्नियों निरुक्त के अंत में यारक को 'पारस्कर' कहा गया है, में से एक थी। इसे 'जामि' नामान्तर भी प्राप्त था। जिससे प्रतीत होता है कि यह पारस्कर देश में रहनेइसके पुत्र का नाम स्वर्ग एवं कन्या का नाम नागवीथी था। | वाला था। यामुनि-कश्यपकुलोत्पन्न एक गोत्रकार | पाठभेद- पाणिनि के व्याकरणग्रंथ में यास्क शब्द की व्युत्पत्ति प्राप्त 'सामुकि'। है, जिससे प्रतीत होता है कि, यह पाणिनि के पूर्वकालीन याम्य-स्वायंभुव मन्वन्तर का एक देव । | था (पा. स. २.४.६३)। पिंगल के छंदःसूत्र में एवं यायावर--एक व्यक्ति, जिसका कोई निश्चित आवास शौनक ऋकप्रातिशाख्य में इसका निर्देश प्राप्त है (छं. न था (तै. सं. ५.२.१.७; का. सं. १९.१२)। 'यायावर' | सू. ३.३०; शौनक देखिये)। इसका काल लगभग ई. का शब्दश: अर्थ 'इधर उधर घूमनेवाला' होता है। पू. ७७० माना जाता है। २. संन्यासियों का एक समूह, जो मुनिवृत्ति से कठोर निरुक्त-वेदों में प्राप्त मंत्रों का शब्दव्युत्पत्ति, शब्दव्रत पालन करते हुये इधर उधर घूमते रहते थे । जरत्कारु | रचना आदि के दृष्टी से अध्ययन करनेवाले शास्त्र को नामक सुविख्यात ऋषि इनमें से ही एक था (म. आ. 'निरुक्त' कहते है। यद्यपि आग्रायण, औदुंबरायण, १३.१०-१३)। इस ऋषि के धार्मिकता का निर्देश महा- | औपमन्यव, शाकपूणि आदि प्राचीन भाषाशास्त्रज्ञों ने भारत में प्राप्त है (म. अनु. १४२)। निरुक्तों की रचना की थी, तथापि उनके ग्रंथ आज महाभारत में अन्यत्र जरत्कारु ऋषि के पितृगण का नाम उपलब्ध नहीं है। प्राचीन निरुक्त ग्रंथों में से यास्क का 'यायावर' बताया गया हैं। उन्हें कोई संतान न होने के निरुक्त ही आज उपलब्ध है, जिसमें ऋग्वेद के कई मंत्रों कारण, वे स्वर्ग से च्युत हो गये थे। अतएव पुनः स्वर्गप्राप्ति के अर्थ का स्पष्टीकरण, एवं देवताओं के स्वरूप का निरूपण. होने के लिए, इन्होंने जरत्कारु ऋषि से, विवाह कर किया गया है। इस ग्रंथ में गाये, औदुंबरायण, एवं पुत्रप्राप्ति करने की प्रार्थना की थी (म. आ.१३.१४-१६; शाकपूणि नामक पूर्वाचार्यों का निर्देश प्राप्त है। ४१.१६-१७)। निरुक्त तथा व्याकरण ये दोनों शास्त्र शब्दज्ञान एवं .. यास्क--निरुक्त नामक सुविख्यात ग्रंथ का कर्ता, जो शब्दव्युत्पत्ति से ही संबंधित है। बेदमंत्रों का अर्थ जानने के 'शब्दार्थतत्त्व' का परमज्ञाता माना जाता है। यस्क | लिए पहले उनकी 'निरुक्ति' जानना आवश्यक होता ऋषि का शिष्य होने से इसे संभवतः यास्क' नाम प्राप्त है। इसी कारण, जो कठिण शब्द व्याकरणशास्त्र से नही हुआ होगा। इसने प्रजापति कश्यप के द्वारा लिखित | सुलझते थे, उनके अर्थज्ञान के लिए निरुक्त की रचना की निघंटु नामक ग्रंथ पर विस्तृत भाष्य लिखा था,जो 'निरुक्त' गयी है। नाम से प्रसिद्ध है। इसके द्वारा लिखित यह ग्रंथ वेदार्थ यारक के पहले 'निघंटु' नामक एक वैदिक शब्दकोश था, का प्रतिपादन करनेवाला सर्वाधिक प्राचीन ग्रंथ माना जाता जिस पर इसने निरुक्त नामक अपने भाष्य की रचना है । महाभारत के अनुसार, दैवी आपत्ति से विनष्ट हुआ की । वेदों में प्राप्त विशिष्ट शब्द विशिष्ट अर्थ में क्यों रूट निरुक्त ग्रंथ इसे विष्णुप्रसाद के कारण पुनःप्राप्त हुआ है, इसकी निरुक्ति इस ग्रंथ में की गयी है। इसी (म. शां. ३३०.८-९)। इसी कारण इसने अनेक यज्ञों | कारण वर्णागम, वर्णविपर्यय, वर्णविकार, वर्णनाश, आदि में श्रीविष्णु का शिपिविष्ट नाम से गान किया है (म. | विषयों का प्रतिपादन निरुक्त में किया गया है । यास्क ने शां. ३३०.६-७)। | वैदिक शब्दों को धातुज मान कर उनकी निरुक्ति की है, बृहदारण्यक उपनिषद में यास्क को आसरायण नामक जिस कारण वह एक असाधारण ग्रंथ बन गया है । इस आचार्य का समकालीन, एवं भारद्वाज ऋषि का गुरु ग्रंथ में वैदिक शब्दों की व्याख्या के साथ व्याकरण, भाषाकहा गया है (बृ. उ. २.५.२१, ४.५.२७ माध्य; श. विज्ञान, साहित्य आदि विषयों की जानकारी भी प्राप्त है। ब्रा. १४.५.५.२१)। संभवतः निरुक्तकार याक एवं निरुक्त में नैघंटुक, नैगम एवं दैवत नामक तीन काण्ड उपनिषदों में निर्दिष्ट यास्क दोनो एक ही व्यक्ति होंगे। है, जो बारह अध्यायों में विभक्त किये गये है। . Page #717 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यास्क प्राचीन चरित्रकोश युधाजित पूर्वाचार्य--यास्क ने अपने 'निरुक्त' में इस विषय युगप--एक देवगंधर्व, जो अर्जुन के जन्मोत्सव में के बारह निम्नलिखित पूर्वाचार्यों का निर्देश किया है:- उपस्थित था (म. आ. ११४.४५ )। औदुम्बरायण, औपमन्यव, वार्ष्यायणि, गार्ग्य, आग्रहा- युगादिदेव--एक राजा, जिसका गया नदी में स्नान यण, शाकपूणि, और्णवाभ, तैटीकि, गालव, स्थौलाष्ठीवि, | करने के कारण उद्धार हुआ ( स्कंद. ५.१.५७)। क्रौष्टु एवं कात्थक्य । | युद्धतुष्ट--(सो. कुकुर.) एक राजा, जो वायु के भाषाशास्रज्ञ--एक प्राचीन भाषाशास्त्रज्ञ के नाते, | अनुसार उग्रसेन राजा का पुत्र था। वायु तथा विष्णु में योस्क भाषाशास्त्रीय विचारप्रणालियों का आद्य आचार्य | इसे 'युद्धमुष्टि', एवं भागवत में इसे ' सृष्टि' कहा माना जाता है । इसका मत था, कि जो शब्द भाषा के | गया है। प्रचलित (लौकिक ) शब्दों के समान रहते है. वे ही युद्धमुष्टि--युद्धतुष्ट नामक यादव राजा का नामान्तर । अर्थवान बनते है ( अर्थवन्तः शब्दसाम्यात् । (नि. १. युद्धोन्मत्त--रावण के पक्ष का एक राक्षस ( वा. रा. अपने ग्रंथ में बैदिक मंत्रों का अशद्ध उच्चारण करने- युधांश्रौष्टि औग्रसैन्य--एक राजा, जिसे पर्वत एवं वाले व्यक्तियों की यास्क ने कट आलोचना की है। इराने | नारद ऋषि ने ऐन्द्र ' महाभिषेक' किया था (ऐ. ब्रा. कहा है, स्वर एवं वर्ण से भ्रष्ट हये मंत्र इंद्रशत्र की भाँति ८. २१.७)। पौराणिक वाङ्मय में निर्दिष्ट 'युद्धमुष्टि' वागवज्र हो कर यजमान को विनष्ट कर देते है। अथवा 'युद्धतुष्ट' राजा यही है (युद्धतुष्ट देखिये )। वैदिक मंत्रों का प्रथम दर्शन करनेवाले प्रतिभावान व्यक्ति | उग्रसेन राजा का पुत्र होने से इसे 'औग्रसैन्य ' पैतक को इसने मंत्रद्रष्टा अथवा ऋषि कहा है (ऋषिदर्शनात् , नाम प्राप्त हुआ होगा। ऋषयः मंत्रद्रष्टारः) (नि. २.११)। युधाजित्--केकय देश के अश्वपति राजा का पुत्र, युक्त--रैवत मनु के पुत्रों में से एक। जो दशरथ की पत्नी कैकेयी का भाई था । एक समय २. स्वायंभुव मन्वन्तर के अजित देवों में से एक । अपने भतिजे भरत एवं शत्रुघ्न को केकय देश को ले गया - ३. भौत्य मन्वन्तर के सप्तर्षियों में से एक। था, जो अवसर देख कर दशरथ ने राम को यौवराज्यायुक्ताश्व आंगिरस--एक सामद्रष्टा ऋषि (पं. बा.| भिषेक किया (वा. रा. बा. ७७; दशरथ देखिये)। १२.८.८) अपनी पर्वायष्य में यह वेदवेत्ता ऋषि था। २. अवन्ति देश का एक राजा, जो इक्ष्वाकुवंशीय किन्तु एक बार इसने दो नवजात शिशुओं का हरण कर सुदर्शन राजा के लीलावती नामक पत्नी का पिता था। उनका वध किया। इस पाप के कारण, इसका वेदों का | अपने जामात सुदर्शन से इसका शत्रुत्व था, जिस कारण सारा ज्ञान नष्ट हुआ। इसने उसे राजगद्दी से निकाल कर उसके भाई शत्रुजित् वेदों के पुनःप्राप्ति के लिए इसने कठोर तपस्या की, को अयोध्या का राज्य प्रदान किया था (सुदर्शन ९. जिस कारण इसके प्रतिभा जागृत हो कर इसने एक साम | देखिये)। की रचना की। आगे चल कर इसे पुनः वेदज्ञान प्राप्त ___ ३. (सो. क्रोष्ट.) एक यादव राजा, जो क्रोष्टु एवं हुआ। माद्री का पुत्र था (ब्रह्म. १४, ह. वं. १.३८.११)। युगदत्त -(सो. पूरु.) एक राजा, जो मत्स्य के अन्य पुराणों में इसे वृष्णि का पुत्र कहा गया है (पद्म. अनुसार ब्रह्मदत्त का, एवं वायु के अनुसार योग राजा का | सृ. १३; वायु..९६; मत्स्य. ४५; विष्णु. ४.१३; भा. पुत्र था (मत्स्य. ४९.५८; वायु. ९९.१८०)। ९. २४)। इसे शिनि एवं अनमित्र नामक दो पुत्र थे। युगंधर--(सो. वृष्णि.) एक यादव राजा, जो इसीके वंश में उपन्न हुये श्वफल्क एवं चित्ररथ नामक भागवत के अनुसार कुणि राजा का, मत्स्य के अनुसार धुम्नि | राजाओं ने स्वतंत्र राजवंश की स्थापना की थी (भा. ९. का, एवं वायु के अनुसार भूति राजा का पुत्र था। २४, यदु. ३. देखिये)। २. (सो. वृष्णि.) एक यादव राजा, जो सात्यकि । ४. भृगुकुलोत्पन्न एक मंत्रकार । राजा का पुत्र था। भारतीय युद्ध में यह कौरवों के पक्ष में युधाजित-(सो. वृष्णि.) एक यादव राजा, जो शामिल था। द्रोण से युद्ध करते समय, द्रोण के द्वारा अनमित्र एवं पृथ्वी का पुत्र था (मत्स्य. ४५.२५, पद्म इसका वध हुआ (म. द्रो. १५.३१; साल्व देखिये)। सू. १३)। ६९५ Page #718 -------------------------------------------------------------------------- ________________ युधामन्यु प्राचीन चरित्रकोश युधिष्टिर युधामन्यु-पंचाल देश का एक राजकुमार, जो यह पूर्णतावादी था, इसलिए इसे जीवन की त्रुटियाँ तथा भारतीय युद्ध में पाण्डवों के पक्ष में शामिल था । यह महारथि, | अपूर्णता का ज्ञान एवं विवेक अधिक था। इसकी चिंतनमहाधनुर्धर,तथा गदा एवं धनुष्य के युद्ध में अत्यंत प्रवीण शीलता एवं अन्य पाण्डवों की क्रियाशीलता का जो था (म. उ. १६७.५, १९७.३)। भारतीय युद्ध में यह आंतरिक विरोध इसकी आयु में चलता रहा, वहीं पांडवों अजुन का चक्ररक्षक था (म. भी. १६.१९)। का संघर्ष एवं परस्परसौहार्द का अधिष्ठान था। इसके रथ के अश्व 'सारंग.' वर्णके थे (म. द्रो. २२. स्वभाव से अत्यंत चिंतनशील एवं अजातशत्रु हो कर १६०*)। इसका निम्नलिखित योद्धाओं के साथ युद्ध भी, इसे सारी आयुःकाल में अपने कौरव भाईयों के हुआ था:-कृतवर्मन् एवं कूप (म. द्रो. ६७.२९); द्रोण साथ झगड़ना पडा, एवं उत्तरकालीन आयु में उनके साथ एवं दर्योधन (म. द्रो. १०५.८१९०); कर्ण का भाई | महायुद्ध भी करना पड़ा। फिर भी धर्म, नीति, सत्य, चित्रसेन (म. क. ८३.३९)। क्षमा, आत्मौपम्य आदि जिन धारणाओं को इसने जीवन द्रोणपुत्र अश्वत्थामा ने शिबिर में निद्रिस्त पांडव का मूलाधार मानने का व्रत स्वीकृत किया था, उससे यह योद्धाओं का संहार किया, जिस समय उसके द्वारा यह आजन्म अटल रहा। धर्म का लाद्य मूलतत्त्व उच्चतम भी मारा गया (म. सौ. ८.३४-३५)। नीतिमत्ता है, ऐसी इसकी धारणा थी। उसी नीतिमत्ता युधिष्टिर-(सो. कुरु.) पाण्डुराजा की पत्नी कुन्ती का पालन वैयक्तिक, कौटुंबिक एवं राजनैतिक जीवन में का ज्येष्ठ पुत्र (भा.९.२२.२७ म. आ. ९०.६९)। होना चाहिये, इस ध्येयपूर्ति के लिए यह आजन्म __तत्त्वदर्शी राजाः-एक धीरोदात्त, ज्ञानी, धर्मनिष्ठ | झगड़ता रहा। एवं तात्विक प्रवृत्तियों का महात्मा मान कर, युधि- धर्म का अधिष्ठान अध्यात्म में नही, बल्कि दया, क्षमा, ष्ठिर का चरित्रचित्रण श्रीव्यास के द्वारा महाभारत शांति जैसे आचरण में है, ऐसी इसकी भावना थी। इसी . में किया गया है । एक महाधनुर्धर एवं पराक्रमी | कारण, धर्माचरण मोक्षप्राप्ति के लिए नही, बल्कि अपने व्यक्ति के नाते से अर्जुन महाभारत का नायक | बांधवों के सुखसमाधान के लिए करना चाहिये, ऐसी प्रतीत होता है। किन्तु अर्जुन की एवं समस्त पाण्डवों की | इसकी विचारधारा थी। सर्वोच्च प्रेरकशक्ति एवं अधिष्ठाता पुरुष, वास्तव में युधिष्ठिर | अपने इन अभिमतों के सिध्यर्थ, इसे आजन्म कष्ट ही है। सहने पड़े, शत्रुमित्रों की एवं पाण्डव बांधवों की नानाविध अपने समय का सर्वश्रेष्ठ क्षत्रिय होते हये भी. व्यंजना सुननी पड़ी। फिर भी यह अपने तत्त्वों से अटल सर्वश्रेष्ठ ब्राह्मण के सारे गुण इसमें सम्मिलित थे। इस रहा। अपनी इसी विचारों के कारण, यह आजन्म एकाकी तरह इसका व्यक्तिमत्त्व तत्कालीन क्षत्रिय नृपों से नही, | रहा, एवं एकाकी अवस्था में ही इसकी मृत्यु हुयी। बल्कि विदेह देश के तत्त्वचिंतक एवं तत्वज्ञ राजाओं से | जन्म-तूल राशि में जब सूर्य, तथा ज्येष्ठा नक्षत्र में जब अधिक मिलता जुलता था। 'विदेह' जनक से ले कर | चन्द्र था, तब दिन के आठवें अभिजित् मुहुर्त पर आश्विन गौतम बुद्ध तक के जो तत्त्वदर्शी राजा प्राचीन भारत में सुदी पंचमी के दिन दूसरे प्रहर में इसका जन्म हुआ (म. उत्पन्न हुये, उसी परंपरा का युधिष्ठिर भी एक तत्त्वदर्शी | आ. ११४.४; नीलकंठ टीका-१२३.६)। युधिष्ठिर आदि राजा था। महाभारत में प्राप्त युधिष्ठिर के अनेक नीति- | सभी पाण्डव इन्द्रांश थे (मार्क ५.२०-२६)। इसके वचन एवं विचार गौतमबुद्ध के वचनों से मिलते जुलते है। जन्मकाल में आकाशवाणी हुयी थी- 'पाण्डु का यह चिंतनशील व्यक्तित्त्व-युधिष्ठिर पाण्डवों का ज्येष्ठ | प्रथम पुत्र युधिष्ठिर नाम से विख्यात होगा, इसकी तीनों भ्राता था, जिस कारण यह आजन्म उनका नेता रहा। | लोकों में प्रसिद्धी होगी। यह यशस्वी, तेजस्वी तथा फिर भी इसका व्यक्तित्त्व क्रियाशील क्षत्रिय के बदले, | सदाचारी होगा। यह श्रेष्ठ पुरुष धर्मात्माओं में अग्रगण्य, एक तत्त्वदर्शी एवं पूर्णतावादी तत्त्वज्ञ होने के कारण, स्वयं | पराक्रमी एवं सत्यावादी राजा होगा' (म. आ. ११४. पराक्रम न करते हुये भी इसे अपने भाईयों को कार्यप्रवण | ५-७)। करने का मार्ग अधिक पसंद था। इसी कारण अपने पराक्रमी स्वरूपवर्णन-यह शरीर से कृश तथा स्वर्ण के समान भाईयों को कार्यप्रवण करने का, एवं उनके कर्तृत्व को | गौरवर्ण का था। इसकी नाक बड़ी तथा नेत्र आरक्त एवं पूर्णत्व प्राप्त कराने का कार्य यह करता रहा। स्वभाव से | विशाल थे। यह लम्बे कद का था, एवं इसका वक्षःस्थल Page #719 -------------------------------------------------------------------------- ________________ युधिष्ठिर प्राचीन चरित्रकोश युधिष्ठिर विशाल था। इसके स्नायु प्रमाणबद्ध थे (म. आश्र. यौवराज्याभिषेक-- यह क्षात्रविद्यासंपन्न होने पर, ३२.६)। धृतराष्ट्र ने भीष्म की आज्ञा से इसे यौवराज्याभिषेक ध्वज एवं आयुध-इसके धनुष्य का नाम 'माहेन्द्र किया, एवं अर्जुन इसका सेनापति बनाया गया (म. आ. एवं शंख का नाम 'अनंतविजय' था। इसके रथ के परि. १. क्र. ७९. पंक्ति. १९१-१९३)। इसने अपने अश्व हस्तिदंत के समान शुभ्र थे, एवं उनकी पूँछ कृष्ण- | शील, सदाचार एवं प्रजागलन की प्रवृत्तियों के द्वारा अपने वर्णीय थी। इसके रथ पर नक्षत्रयुक्त चंद्रवाला स्वर्णध्वज पिता पाण्डु राजा की कीर्ति को भी ढक दिया। इसकी था। उस पर यंत्र के द्वारा बजनेवाले 'नंद' तथा | उदारता एवं न्यायी स्वभाव के कारण, प्रजा इसे ही 'उपनंद' नामक दो मृदंग थे ( म. द्रो. २२.१६२. परि. | हस्तिनापुर के राज्य को पाने के योग्य बताने लगी। १. क्र. ५. पंक्ति ४-७)। पाण्डवों की बढ़ती हुयी शक्ति एवं ऐश्वर्य को देख कर दुर्योधन मन ही मन इसके विरुद्ध जलने लगा, एक शिक्षा-इसके संस्कारों के विषय में मतभेद है । किसी पाण्डवों को विनष्ट करने के षड्यंत्र रचाने लगा, जिनमें प्रति में लिखा है कि सभी संस्कार शतशंग पर हुए, और धृतराष्ट्र की भी संमति थी (म. आ. परि. १. क्र. ८२. किसी में हस्तिनापुर के बारे में उल्लेख मिलता है। कहते है पंक्ति. १३१-१३२)। कि, शतशंगनिवासी ऋषियों द्वारा इसका नामसंस्कार हुआ __ लाक्षागृहदाह-धार्तराष्ट्र एवं पाण्डवों के बढ़ते हुऐ (म. आ. ११५.१९-२०), तथा वसुदेव के पुरोहित शत्रुत्व को देख कर, इन्हे कौरवों से अलग वारणावत काश्यप के द्वारा इसके उपनयनादि संस्कार हुए (म.आ नामक नगरी में स्थित राजगृह में रहने की आज्ञा धृतराष्ट्र ने परि १-६७) दी। इसी राजगृह को आग लगा कर इन्हे मारने का शर्यातिपुत्र शुक्र से इसने धनुर्वेद सीखा, तथा षड्यंत्र दुर्योधन ने रचा। किन्तु विदुर की चेतावनी के तोमर चलाने की कला में, यह बड़ा पारंगत था कारण, पाण्डव इस लाक्षागृह-दाह से बच गये । विदुर के (म. आ. परि. १.६७.२८-३४)। प्रथम कृप ने, तथा | द्वारा भेजे गये नौका से ये गंगानदी के पार हुये। पश्चात बाद में द्रोणाचार्य ने इसे शस्त्रास्त्र विद्या सिखायी थी | सभी पाण्डवों के साथ इसका भी द्रौपदी के साथ विवाह (मः आ. १२०.२१:१२२)। कौरव पाण्डवों की द्रोण हुआ। द्वारा ली गयी परीक्षा में इसने अपना कौशल दिखा कर | अर्ध राज्यप्राप्ति-द्रौपदी-विवाह के पश्चात्, धृतराष्ट्र ने सब को आनंदित किया था (म. आ. १२४-१२५)। हस्तिनापुर के अपने राज्य के दो भाग किये. एवं उसमें सटक्षिणा देने के लिए इसने भीमार्जुन की सहाय्यता से एक भाग इसे प्रदान किया। अपने राज्य में स्थित ली थी (म. आ. परि. ७८. पंक्ति. ४२) | खाण्डवप्रस्थ नामक स्थान में इन्द्रप्रस्थ नामक नयी पाण्डवों के पिता पाण्डु का देहावसान उनके बाल्यकाल राजधानी बसा कर, यह राज्य करने लगा (म. आ. में ही हुआ था। कौरव बांधवों की दुष्टता के कारण, इसे | १९९)। अपने अन्य भाइयों के माँति नानाविध कष्ट सहने पडे। राजसूययज्ञ-इसकी राजधानी इंद्रप्रस्थ में मयासुर किन्तु इसी कष्टों के कारण इसकी चिंतनशीलता एवं नीति- ने मयसभा का निर्माण किया, जो स्वर्ग में स्थित परायणता बढती ही रही। कौरवों की जिस दुष्टता के | इन्द्रसभा, वरुणसभा, ब्रह्मसभा के समान वैभवसंपन्न कारण, अर्जुन ने ईर्ष्यायुक्त बन कर नवनवीन अस्त्र संपादन | थी। एक बार युधिष्ठिर से मिलने आये हुये नारद ने मयकिये, एवं भीम में अत्यधिक कटुता उत्पन्न कर वह कौरवो | सभा को देख कर अत्यधिक प्रसन्नता व्यक्त की, एवं कहा, के द्वेष में ही अपनी आयु की सार्थक्यता मानने लगा, 'हरिश्चंद्र राजा ने राजसूय यज्ञ करने के कारण, जो स्थान उन्ही के कारण युधिष्ठिर अधिकाधिक नीतिप्रवण एवं | इंद्रसभा में प्राप्त किया है, वही स्थान तुम्हारे पिता चिंतनशील बनता गया। भारतीययुद्ध जैसे संहारक | पाण्डु प्राप्त करना चाहते है। यदि तुम राजसूय यज्ञ काण्ड के समय, भीष्मद्रोणादि नीतिपंडितों की सूक्तासूक्त- करोगे तो तुम्हारे पिता कि यह कामना पूर्ण होगी' (म. विषयक धारणाएँ जड़मूल से नष्ट हो गयी, उस प्रलय- | स.५.१२)। काल में भी युधिष्ठिर की नीतिप्रवणता वैसी हि अबाधित | नारद की इस सूचना का स्वीकार कर, युधिष्ठिर ने एवं निष्कलंक रही। श्रीकृष्ण की सहाय्यता से राजसूययज्ञ का आयोजन किया। प्रा. च. ८८] ६९७ Page #720 -------------------------------------------------------------------------- ________________ युधिष्ठिर इस यज्ञ के सिध्यर्थं इसने अर्जुन, भीम, सहदेव एवं नकुल इन भाईयों को क्रमशः उत्तर पूर्व, दक्षिण एवं पश्चिम दिशाओं में भेज दिया। इन दिग्विजयों से अपार संपत्ति प्राप्त कर, पाण्डवों ने अपने राजसूय यज्ञ का प्रारंभ किया (भा. १०.७२.७४) । प्राचीन चरित्रकोश श्रीकृष्ण की आज्ञा से, इसने स्वयं राजसूय यज्ञ की दीक्षा ली थी। इसके यश के प्रमुख पुरोहितगण निम्न लिखित :- ब्रह्माद्वैपायन व्यासः सामग मुसामन् अध्वर्यु-सियाशयस्य होता यमुपुत्र पैल एवं भौग्य ( म. स. ३०.३४-३५ ) । इस यज्ञ में कौरव, यादव एवं भारतवर्ष के अन्य सभी राजा उपस्थित थे । इस यज्ञ की व्यवस्था युधिष्ठिर के द्वारा निम्नलिखित व्यक्तियों पर सौंपी गयी थी :- भोजनशाला-दुःशासन; ब्राह्मणों का स्वागत - अश्वत्थामा, दक्षिणा प्रदान - कृपाचार्य: आयव्यय निरीक्षण विदुरः ब्राह्मणों का चरणक्षालन-श्रीकृष्ण; सामान्य प्रशासन - भीष्म एवं द्रोण । इस यश में प्रतिदिन दस हजार ब्राह्मणों को स्वर्ण की स्थालियों में भोजन कराया जाता था। एक लाख ब्राह्मणों को इस तरह भोजन दिया जाने पर, 'लक्षभोजन' सूचक शंखध्वनि की जाती थी ( म. स. ४५.२० ) । इस प्रकार इसका राजसूय यज्ञ सर्वतोपरि सफल रहा। दुर्योधनविद्वेष - - युधिष्ठिर के द्वारा किये गये इस यज्ञ की सफलता को देख कर दुर्योधन ईर्ष्या से जल-भून गया। बुधिष्ठिर के द्वारा खर्च की गयी अगणित संपत्ति एवं लोगों के द्वारा की गयी बुधिष्ठिर की प्रशंसा उसे असा प्रतीत हुयी ( म. स. ३२.२७, भा. १०.७४) । इसी कारण इसे जड़मूल से उखाड़ फेंकने की योजनाएँ वह बनाने लगा। इसे युद्ध में जीतना तो असंभव था । इसी कारण द्यूत के द्वारा इसकी समस्त धन-संपत्ति हरण करने की शकुनि मामा की सूचना उसने मान्य की पश्चात् इसी सूचना को स्वीकार कर, धृतराष्ट्र ने विदुर के द्वारा युधिष्ठिर को व्रत खेलने का निमंत्रण दिया । । युधिष्ठिर पाण्डव पहचाने गये, तो इन्हे बारह वर्षों का वनवास और सहना पड़ेगा ( म. स. ७१) 1 द्यूत - पराजय - हस्तिनापुर में संपन्न हुए द्यूतक्रीडा में, दुर्योधन के स्थान पर शकुनि ने बैठ कर युधिष्ठिर को पूरी तरह से हरा दिया, एवं इसका सबकुछ जीत लिया। यह धन, राज्य, भाई तथा द्रौपदी सहित अपने को भी हार गया । द्यूत खेल कर पराजित होने के बाद, इसने बारहवर्ष का वनवास एवं वर्ष एक का अज्ञातवास स्वीकार लिया, एवं यह भी शर्त मान्य की कि, यदि अशातवास के समय वनवास - कार्तिक शुक्ल पंचमी के दिन यह अपने अन्य भाई एवं द्रौपदी के साथ बनवास के लिए निकला। यह जब अरण्य की ओर चला, उस समय हस्तिनापुर के अनेक नगरवासी इसके साथ जाने के लिए तत्पर हुये । इसने इन सभी लोगों को लौट जाने के लिए कहा, एवं ऋषिनों में से केवल इसके उपाध्याय घोग्य इसके साथ रहे वनवास के प्रारंभ में ही इसने सूर्य की प्रार्थना कर अक्षय्य अन्न प्रदान करनेवाली एक स्थाली प्राप्त की । इस तरह अपनी एवं अपने बांधवों की उपजीविका का प्रश्न हल किया (म. व. १-४ ) । युधिष्ठिर के द्यूत खेलने के समय एवं द्रौपदी वस्त्रहरण के समय श्रीकृष्ण हस्तिनापुर में नही था, क्यों कि, उसी समय शाल्व ने द्वारका पर आक्रमण किया था। पाण्डवों के वनवास की वार्ता ज्ञात होते ही वह इनसे मिलने वन में आया। उस समय धार्तराष्ट्रों पर आक्रमण कर, उनका राज्य पाण्डवों को वापस दिलाने का आश्वासन कृष्ण ने इसे दिया। किन्तु इसने दृढता से कहा, 'मैंने कौरवों से शब्द दिया है कि, बारह साल वनवास एवं एक साल अतवास हम भुगतते यह मेरी आन है एवं उसे किसी तरह भी निमाना यह हमारा कर्तव्य है। इसी कारण वनवास की समाप्ति के पश्चात् ही हमे राज्य के पुनःप्राप्ति का विचार करना चाहिए। , द्रौपदी - युधिष्ठिर संवाद -- पाण्डवों के वनवास के प्रारंभ में ही देत वन में द्रौपदी ने युधिष्ठिर के पास अत्यधिक विलाप किया। उसने कहा, 'द्रुपद राजा की कन्या, पाण्डुराजा की स्नुषा एवं तुम्हारी पटरानी, जो मैं आज तुम्हारे कारण वनवासी बन गयी हूँ । भीम जैसे राजकुमार 1 एवं अर्जुन जैसे योद्धा आज भूख एवं प्यास से व्याकुल होकर इधर उधर घूम रहे है। अपने बांधयों की यह हालत देख कर भी तुम चुपचाप क्यों बैठते हो ? । दुर्योधन अत्यंत पापी एवं लोभी है, एवं उसका नाश करना ही उचित है'। इस पर बुधिष्ठिर ने कश्यपगीता का निर्देश करते हुए कहा, 'क्षमा पर ही सारा संसार निर्भर है। राज्य के खोम से अपने मन में स्थित क्षमाभावना का त्याग करना उचित नही है । लोभ से बुद्धि मलीन हो जाती है। ' केवल पाण्डवों का ही नहीं, बल्कि सारे भरत वंश का नाश होने का समय आज समीप आया है। फिर भी अपनी मन की शान्ति हमें नहीं छोड़नी चाहिये। । ६९८ Page #721 -------------------------------------------------------------------------- ________________ युधिष्ठिर प्राचीन चरित्रकोश युधिष्ठिर । युधिष्ठिर का यह वचन सुन कर द्रौपदी और भी ऋद्ध | प्रदान की, जिस कारण यह यतविद्या में अजिंक्य बन हुयी। समस्त सृष्टि के संचालक विधातृ की दोष देते हुये | गया। उसने कहा, 'तुम्हारे आत्यंतिक धर्मभाव से मैं तंग आयी तीर्थयात्रा-एक बार लोमश ऋषि इसे वनवास में हूँ। कहते है कि, धर्म का रक्षण करने पर वह मनुष्यजाति मिलने आये, एवं उन्होंने इसे कहा, 'अर्जुन को अपनी का रक्षण करता है। किन्तु धर्माचरण का कुछ भी फायदा | तपस्या से लौट आने में काफी समय लगनेवाला है। तुम्हे नही हुआ है । अपनी समस्त आयु में तुमने यज्ञ | इसी कारण तुम्हारी मनःशांति के लिए तुम भारतवर्ष किये, दान दिये, सत्याचरण किया। एक साया जैसे | की यात्रा करोंगे, तो अच्छा होगा। इसी समय पुलस्त्य तुम धर्म का पीछा करते रहे । फिर भी उसके बदले हमे | एवं धौम्य ऋषि ने भी इसे तीर्थयात्रा करने का महत्त्व दुःख के सिवा कुछ भी न मिला। कथन किया था (म. व. ८०-८३-८४-८८)। द्रौपदी के इस कटुवचन को सुन कर युधिष्ठिर पश्चात् यह लोमश ऋषि के साथ तीर्थयात्रा के लिए ने अत्यंत शान्ति से कहा, फलों की कामना निकल पड़ा। लोमश ऋषि ने इसे तीर्थयात्रा करते समय मन में रखकर धर्म का आचरण करना उचित अनेकविध तीर्थस्थान, नदियाँ, पर्वत आदि का माहात्म्य नहीं है । जो नीचे एवं कमीने होते है, वे ही धर्म कथन किया, एवं उस माहात्म्य के आधारभूत प्राचीन का सौदा करते है। अपने दर्भाग्य के लिए देवताओं को | ऋषि, मुनि एवं राजाओं की कथा इसे सुनाई (म. व. दोष देना श्रद्धाहीनता का द्योतक है। धर्म असफल होने ८९-१५३)। महाभारत के जिस 'तीर्थयात्रा पर्व' में पर तप, ज्ञान एवं दान निष्कल हो जायेंगे, एवं समस्त युधिष्ठिर की इस यात्रा का वर्णन प्राप्त है, वहाँ पुष्करमनुष्य जाति पशु.बन जायेंगी। परमात्मा की कर्तृत्वशक्ति | तीर्थ एवं कुरुक्षेत्र को भारतवर्ष के सर्वश्रेष्ठ तीर्थ कहा गया अगाध है। उसकी निंदा करने का पापाचरण तुमने न | है, एवं समुद्रस्नान का माहात्म्य भी वहाँ कथन किया करना चाहिये। युधिष्ठिर ने आगे कहा, 'दुर्योधन की | गया हा राजसभा में मैंने वनवास की प्रतिज्ञा की है, जो मुझे नहुषमुक्ति--तीर्थयात्रा समाप्त करने के पश्चात् , अपने प्राणों से भी अधिक प्रिय है । हमे सत्य कभी भी | पाण्डव गंधमादन पर्वत पर गये । वहाँ अर्जुन भी पाशुन छोडना चाहिये (म. व. २८-३१)। पतास्त्र संपादन कर स्वर्ग से वापस आया था (म. व. . इसी संभाषण के अन्त में इसने अपने भाईयों से कहा १६२-१७१)। गंधमादन पर्वत के नीचे पाण्डव जिस 'कौरवों के साथ द्यूत खेलते समय मैं हारा गया, इस समय अरण्य में संचार कर रहे थे, उस समय अजगर कारण आप मुझे जुआँरी एवं मूरख कह कर दोष देते है, रूपधारी नहुष ने भीम को निगल लिया। नहुष के द्वारा यह ठीक नहीं । जब मैं यत के लिए उद्यत हुआ था, उस पूछे गये धर्मविषयक अनेकानेक प्रश्नों के युधिष्ठिर ने सुयोग्य समय आप चुपचाप क्यों बैठे ? उत्तर दिये, एवं इस तरह भीम को अजगर से मुक्तता की (म. व. १७७-१७८; नहुष देखिये )। तत्पश्चात् नहुष की इसी समय व्यास ने युधिष्ठिर से कहा, 'बांधवों के | अजगरयोनि से मुक्तता हो कर वह भी स्वर्ग चला गया । लिए यही अच्छा है कि, वे सदैव एकत्र न रहे । ऐसे | भीम के शारीरिक बल से युधिष्ठिर का आत्मिक सामर्थ्य रहने से प्रेम बढता नहीं, बल्कि घटता है। इसी कारण, | अधिक श्रेष्ठ था, यह बताने के लिए यह कथा दी गयी है। व्यास ने इसे एक ही स्थान पर न रहने की सूचना दी| घोषयात्रा-पाण्डव जिस समय द्वैतवन में निवास (म. व. ३७.२७-३२)। व्यास के इस वचन को प्रमाण | करते थे. उस समय उन्हे अपना वैभव दिखाने के लिये मान कर इसने अर्जुन को 'पाशुपतास्त्र' प्राप्त करने के | दुर्योधन वहाँ ससैन्य उपस्थित हआ। चित्रसेन गंधर्व लिए भेज दिया एवं द्रौपदी का भार भीम पर सौंप कर | ने उसे पकड़ लिया। तत्पश्चात दुर्योधन के सेवक युधिष्ठिर यह निश्चित हुआ। के पास मदद की याचना करने के लिए आ पहुँचे । इसके पश्चात् यह कुछ काल तक काम्यकवन में रहा, | उस समय भीम ने कहा 'दुर्योधन हमारा शत्रु है । उसकी जहाँ इसके दुःख का परिहार करने के लिए, बृदहश्व ऋषि | जितनी बेइज्जती हो, उतना हमारे लिए अच्छा ही है। ने नल राजा का चरित्र इसे कथन किया (म. व. ७८. | किन्तु युधिष्ठिर कहा, 'दुर्योधन हमारा कितना ही बड़ा १७)। इसी समय उसने इसे 'अक्षहृदय' एवं 'अक्षविद्या' | शत्रु हो, उसकी किसी दूसरे के द्वारा बेइज्जती होना Page #722 -------------------------------------------------------------------------- ________________ युधिष्ठिर प्राचीन चरित्रकोश युधिष्ठिर युधिष्ठिर के उत्तर जहाँ अराजकता है। देवता, अतिथि, नौकर-चाकर, पितर एवं आत्मा को तृप्त करनेवाला। देवता। ब्रह्म। धैर्य से। सत्य। धनहीन । शस्त्रादि से। विद्या से। . हमारे कुरुकुल के लिए लांछन है । कौरवों के साथ संघर्ष करते समय, सौ कौरव एवं पाँच पाण्डव अलग अलग रहेंगे, किन्तु किसी परकीय शत्रु से युद्ध करते समय, हम दोनो एक सौ पाँच बन कर उसका प्रतिकार करे, यही उचित है परस्पराणां संघर्षे, वयं पञ्च च ते शतम् । अन्यैः सह विरोधे तु, वयं पञ्चाधिकं शतम् । जयद्रथ की मुक्तता-इसीके ही पश्चात् थोडे दिन में जयद्रथ ने द्रौपदी का हरण करने का प्रयत्न किया (म. व. २५५.४३)। उसी समय भी इसने जयद्रथ धृतराष्ट्र की कन्या दुःशीला का पति है,यह जान कर उसकी मुक्तता की (म. व. २५६.२१-२३)। जयद्रथ के द्वारा किये गये द्रौपदीहरण से खिन्न हुये युधिष्ठिर को, मार्कंडेय ऋषि ने रावण के द्वारा किये गये सीताहरण की, एवं अश्वपति राजा की कन्या सावित्री की कथा सुनाई, एवं मनःशांति प्राप्त करा दी। ___ यक्षप्रश्न-कालान्तर में यह काम्यकवन छोड़ कर फिर द्वैतवन में रहने लगा। एक बार सभी लोग प्यासे थे । इसने नकुल से पानी लाने के लिए कहा किन्तु नकुल वापस न लौटा । तब इसने बारी बारी से सहदेव, अर्जुन तथा भीम को भेजा । किन्तु कोई वापस न लौटा । हार कर यह जलाशय के तट पर आया तब अपने सभी भाइयों को मूछित देखकर अत्यधिक क्षुब्ध हुआ, एवं दुःख से पीड़ित हो कर विलाप करने लगा । तत्काल, इसे शंका हुयी कि दुर्योधन ने इस जलाशय में विष घुलवा दिया हो। इतने में एक ध्वनि आयी, 'तुम मेरे प्रश्नों का उत्तर दो, फिर पानी ले सकते हो । यदि मेरी बात न मानोंगे, तो तुम्हारी भी यही हालत होगी, जो तुम्हारे भाइयों की हुयी है। तब बक रूप धारण कर, उस यक्ष ने इसे अस्सी प्रश्न किये, जो साधारण बुद्धि, तत्वज्ञान, दर्शन, धर्म तथा तथा वर दिया, 'अज्ञातवास के समय तुम्हें कोई पहचान राजनीति सम्बन्धी थे। इसने उन सभी का उत्तर संतोष- न सकेगा। वह यक्ष कोई दूसरा न था, बल्कि साक्षात जनक दिया । उनमें से प्रमुख प्रश्न तथा उनके उत्तर निम्न- यमधर्म ही था। उसने इसे विराटनगरी में रहने के लिए लिखित थे ( यक्ष प्रश्न की तालिका देखिये)। कहा, तथा ब्राह्मण की अरणी देते हुए वर प्रदान किया, इस प्रकार अपने सभी प्रश्नों का तर्कपूर्ण उत्तर पा कर, 'लोभ, क्रोध तथा मोह को जीत कर दान, तप तथा सत्य बकरूपधारी यक्ष ने सन्तुष्ट होकर युधिष्ठिर से कहा, 'तुम | मैं तुम्हारी आसक्ति हो (म. व. २९५-२९८)। अपने भाइयों में किसी एक को पुनः प्राप्त कर सकते हो। अज्ञातवास-पाण्डवों के अज्ञातवास में इसने गुप्त तब इसने माद्रीपुत्र नकुल का जीवनदान माँगा। तब इसके | रूप से जय, तथा प्रकट रूप से कंक नामक ब्राह्मण का रूप पक्षपातरहित समत्वबुद्धि को देख कर यक्ष प्रसन्न हो | धारण किया था (म. वि. १.२०, ५.३०)। अज्ञातउठा । उसने इसके सभी भाइयों को जीवित कर दिया, / वास शुरु होने के पूर्व धौम्य ऋषि ने इसे अज्ञात वास में सूर्य का आधार क्या है ? . धर्म का अधिष्ठान क्या है ? . सूर्य के साथ कौन है ? आदमी को बल कैसे प्राप्त होता है ? क्षत्रिय देवत्व किस प्रकार प्राप्त कर सकता है ? ब्राह्मण देवत्व किस प्रकार पा सकता है ? कौन आदमी मृत है ? कौन राष्ट्र मृत है ? जीवित कौन है ? यक्ष के प्रश्न 500 Page #723 -------------------------------------------------------------------------- ________________ युधिष्टिर प्राचीन चरित्रकोश युधिष्ठिर किस तरह आचरण करना चाहिये, इस विषय में उपदेश | सकती है ? शत्रुत्व युद्ध से घटता नही, बल्कि बढ़ता है। किया था । पश्चात् अपने बन्धु एवं द्रौपदी के साथ, इसी कारण शांति में जो सुख है, वह युद्ध में कहाँ ? मत्स्य राज विराट के यहाँ इसने अज्ञातवास का एक वर्ष इसी दौत्यकर्म के समय धृतराष्ट्र के राजगृह में रहनेबिताया (म. वि. ६. ११)। | वाली अपनी माता कुन्ती से मिलने के लिए, इसने श्रीकृष्ण ___ यह द्यूतक्रीडा का बड़ा शौकिन एवं ब्रडा प्रवीण | को बार बार प्रार्थना की थी। इसने कहा, 'हमारी खिलाडी था । यह द्यूत में विराट के धन को जीतता था, माता कुन्ती को जीवन में दुख के सिवा अन्य कुछ भी एवं गुप्त रूप से वह अपने भाईयों से देता था ( म. वि. नही प्राप्त हुआ। फिर भी बाल्यकाल में उसने दुर्योधन १२.५ )। एक बार मृत खेलते समय इसने बृहन्नला से हमारा संरक्षण किया। (अर्जुन ) की काफी तारीफ की, जिस कारण क्रुद्ध होकर कृष्णदौत्य-युधिष्ठिर के कहने पर श्रीकृष्ण दुर्योधन विराट ने इसकी नाक पर एक पासा फेंक कर मारा। के दरबार में गया, एवं उसने कहा, 'अविस्थल, वृकस्थल उससे इसकी नाक से खून बहने लगा, जिसे द्रौपदी ने माकंदी (आसंदी), वारणावत आदि पाँच गाँव अपने पल्ले से पोंछ लिया था (म. वि. ६३)।। पाण्डवों के भरणपोषण के लिए आप युधिष्ठिर को दे दे । संधि का प्रयत्न--ज्येष्ठ कृष्ण अष्टमी के दिन पाण्डव इतना छोटा हिस्सा प्राप्त होने पर भी, युधिष्ठिर धार्तराष्ट्रों अपने वनवास एवं अज्ञात वास से प्रकट हुये। तत्पश्चात् से संधि करने के लिए तैय्यार है (म. उ. ७०-७५)। इसने द्रुपद राजा के पुरोहित को राज्य का आधा हिस्सा किन्तु दुर्योधन ने सूई का नोंक के बराबर भी भूमि माँगने के लिए भेज दिया (म. उ. ६.१८)। पुरोहित | पाण्डवों को देना अमान्य कर दिया (म. उ. १२६.२६)। ने धृतराष्ट्र से युधिष्ठिर का संदेश कह सुनाया, एवं भीष्म अन्त में कुरुक्षेत्र में हिरण्यवती नदी के किनारे खाई खोद द्रोणादि ने भी उसका समर्थन किया। धृतराष्ट्र ने युधिष्ठिर कर युधिष्ठिर ने अपनी सेना एकत्र की (म. उ. १४९.७की माँग का सीधा जवाब नहीं दिया, किन्तु संजय के ७४)। युद्ध टालने का अखीर का प्रयत्न करने के लिए, हाथों इतना ही संदेश भेद दिया, 'मैं आप से सख्य | इसने फिर एकबार उलूक राजा को मध्यस्थता के लिए भाव रखना चाहता हूँ। जो लोग मूढ एवं अधर्मज्ञ दुर्योधन के पास भेज दिया, एवं कहा 'भाईयों का यह होते है, वे ही केवल युद्ध की इच्छा रखते है। तुम स्वयं रिश्ता न टूटे तो अच्छा'। किन्तु मामला उलझता ही ज्ञाता हो । इसी कारण अपने बांधवों को युद्ध से परावृत्त | गया, सुलझा नही, एवं भारतीय युद्ध का प्रारंभ हुआ करो, यही उचित है । | (म. उ. १५७). इस पर युधिष्ठिर ने जवाब दिया, 'वनवास के आपत्काल | भारतीय युद्ध-पाण्डवपक्ष के योद्धा--भारतीय युद्ध में पाण्डवों ने भिक्षा माँग कर अपना गुजारा किया है। प्राचीन भारतीय इतिहास का पहला महायुद्ध माना जाता अभी आपत्काल समाप्त होने पर भिक्षावृत्ति से जीना है। इस कारण इस युद्ध में तत्कालीन भारतवर्ष का हर हमारे लिए असंभव है। फिर भी शान्ति का आखिरी एक राजा, कौरव अथवा पाण्डव किसी न किसी पक्ष में प्रयत्न करने के लिए मैं श्रीकृष्ण को धृतराष्ट्र के दरबार में शामिल था। भारतीय युद्ध में पाण्डवों के पक्ष में निम्नभेज देता हूँ। लिखित देश शामिल थे:__युधिष्ठिर-कृष्ण संवाद-युधिष्टिर पहले से ही युद्ध १. मध्यदेश के देश-वत्स, काशी, चेदि, करूष, करने के विरुद्ध था। इसी कारण,इसने कृष्ण से हर प्रयत्न दशार्ण एवं पांचाल । पार्गिटर के अनुसार, मध्यदेश में से से युद्ध टालने की प्रार्थना की। इसने कहा, 'युद्ध में मत्स्य, पूर्व कोसल; एवं विंध्य एवं आडावला पर्वत में सर्वनाश के सिवा कुछ संपन्न नही होता है। जिस तरह रहनेबाली वन्य जातियाँ भी पाण्डवों के पक्ष में शामिल थी। पानी में मछलिया एक दूसरी के साथ झगडती हैं, एवं २. पूर्व भारत के देश--पूर्व भारत में से केवल पश्चिम एक दूसरी को खा जाती है, उसी तरह युद्ध में क्षत्रिय, मगध देश एवं उसका राजा जरासंधपुत्र सहदेव पाण्डवों क्षत्रिय के साथ झगड़ते है, एवं एक दूसरे का संहार करते | के पक्ष में थे। है । क्षत्रिय लोग युद्ध में पराजय की अपेक्षा मृत्यु को | ३. पश्चिम भारत--गुजरात में एवं गुजरात के पूर्व अधिक पसंत करते है। किन्तु जिस युद्ध में अपने सारे | भाग में रहनेवाले. यादव राजा, जैसे कि, वृष्णि राजा बान्धवों का संहार होता हैं, उससे सुख की प्राप्ति कैसे हो युयुधान एवं यादव राजा सात्यकि । ७०१ Page #724 -------------------------------------------------------------------------- ________________ युधिष्ठिर प्राचीन चरित्रकोश युधिष्टिर ४. उत्तरी पश्चिम भाग के देश--अभिसार देश, जो । २. मध्यदेश के देश--कोसल, वत्स एवं शूरसेन । इस काश्मीर के दक्षिणी पश्चिम दिशा में स्थित था। पार्गिटर के | समय कोसल देश का राजा बृहद्वल था। अनुसार, इसी प्रदेश में स्थित केकय देश भी पांण्डवों के ३. उत्तरीपश्चिम भारत के देश--सिन्धुसौवीर, गांधार पक्ष में शामिल था। त्रिगर्त, केकय, शिबि, मद्र, वाह्निक, क्षुद्रक, मालव, अंबष्ठ, ५. दक्षिण भारत के देश-पाण्डय देश एवं कर्नाटक | एवं कंबोज । इनमें से सिन्धुसौवीर, गांधार, त्रिगर्त, में रहनेवाली कई द्रविड जातियाँ। मद्र, अंबष्ठ एवं कंबोज देशों के राजा क्रमशः जयद्रथ, उपर्युक्त नामावली से प्रतीत होता है कि, पाण्डवों के शकुनि, सुशर्मन् , शल्य, श्रुतायु एवं सुदक्षिण थे । पार्गिटर पक्ष में दक्षिण मध्यदेश के सारे देश, जैसे कि, मत्स्य, | के अनुसार, इन देशों में रहनेवाली वन्य जातियाँ भी चेदि. करुष, काशी एवं पांचाल, पूर्व भारत के पश्चिम | कौरवों के पक्ष शामिल थी। मगध आदि देश; गुजराथ के सारे यादव; एवं दक्षिणी | ४. मध्यभारत के देश-माहिष्मती, भोज-अंधकभारत के पाण्डय राजा शामिल थे। वृष्णि, विदर्भ, निषाद, शाल्व एवं अवंती देशों के यादव ___ पाण्डवों के पक्ष में पांचाल देश का राजा द्रुपद,चेदिराज राजा। इन देशों में से माहिष्मती, भोज-अंधकवृष्णि एवं धृष्टकेतु, मगधदेशाधिपति जयत्सेन, यमुना-तीर अवंती देशों के राजा क्रमश नील, कृतवर्मन् एवं विंदनिवासी पाण्ड्य एवं याइव राजा सात्यकि प्रमुख थे। अनुविंद थे । पार्गिटर के अनुसार, आधुनिक बड़ौदा नगर इनमें से द्रुपद पाण्डवों का, श्वशुर था एवं सात्यकि श्रीकृष्ण के दक्षिण एवं दक्षिणीपूर्व प्रदेश में रहनेवाले सारे यादव का रिश्तेदार था। नकुलसहदेव का मामा मद्रराज शल्य राजा, दखन प्रदेश में रहनेवाली वन्य जातियाँ, एवं मध्य एक अक्षौहिणी सैन्य ले कर पाण्डवों के सहाय्यार्थ निकला भारत में स्थित कुन्तल देश भी कौरवों के पक्ष में शामिल था। किन्तु रास्ते में उसका विपुल आदरातिथ्य कर दुर्योधन था। ने उसे अपने पक्ष में शामिल करा लिया। ___ उपर्युक्त नामावलि से प्रतीत होता है कि, कौरवों के विदर्भ देश का राजा रुक्मिन् ससैन्य पाण्डवों | पक्ष में उत्तर, उत्तरीपश्चिम, मध्य एवं पूर्व भारत के प्रायः की सहाय्यार्थ आया था । किन्तु उसका कहना | सारे देश शामिल थे। उन देशों में उत्तर एवं दक्षिणी पूर्व था, 'यदि पाण्डव मेरी सहाय्य की याचना | भारत के सारे देश; बंगाल एवं पश्चिमी आसाम के सारे करेंगे, तो ही मैं उनकी सहाय्यता करूंगा । इस | देश; बंगाल के दक्षिण में गोदावरी तक का फैला हुआ पर अर्जन ने उसे कहा, 'यह युद्ध एक रणयज्ञ है। जिसकी | सारा प्रदेश; मध्यदेश के शूरसेन, वत्स एवं कोसल जैसी इच्छा हो, उस पक्ष में हर एक राजा शामिल | देश; उत्तरी भारत के शाल्व, मालव आदि सारे देश, एवं हो सकता है । किसी की हम याचना करने के लिए मध्य-भारत के अवन्ति आदि सारे देश समाविष्ट थे। तैय्यार नहीं है । बलराम पाण्डवों का रिश्तेदार था,किन्तु कौरवों के पक्ष में शकयवनादि देशों का राजा, माहिष्मती उसकी सारी सहानुभूति दुर्योधन की ओर थी। इस | का राजा नील, केकया धिपति केकय, प्राग्ज्योतिषपुर उलझन से झुटकारा पाने के लिए, वह किसी के पक्ष में | का राजा भगदत्त, सौवीर देश का राजा जयद्रथ, त्रिगर्तशामिल न हो कर तीर्थयात्रा के लिए चला गया। राज सुशर्मन् , गांधारराज बृहद्बल, कौरव राजा भूरिश्रवस्, कौरवपक्ष के देश---भारतीय युद्ध में कौरवों के पक्ष अंगराज कर्ण आदि राजा प्रमुख थे। इनमें से जयद्रथ, में निम्नलिखित देश शामिल थे: | सुशर्मन् एवं कर्ण का पाण्डवों से पुरातन शत्रुत्व था, जिस १. पूर्व भारत के देश-प्राचीन मगध साम्राज्य के कारण वे कौरवों के पक्ष में शामिल हो गये थे। पश्चिम मगध छोड़ कर बाकी सारे देश,जैसे कि, पूर्व मगध, इस प्रकार, कौरव एवं पाण्डवों के बीच हुआ भारतीय विदेह, अंग, वंग, कलिंग, जिन सारे देशों पर अंगराज | युद्ध वास्तव में एक ओर दक्षिण मध्य देश एवं पांचाल देश कर्ण का स्वामित्व था; प्राग्ज्योतिष (चीन एवं किरात | एवं दूसरी ओर बाकी सारा भारत देश इन के बीच हुआ जातियों के साथ)। इस समय प्राग्ज्योतिष का राजा था। इस तरह सेनाबल के दृष्टि से कौरवों का पक्ष भगदत्त था । पार्गिटर के अनुसार, उत्कल, मेकल, आंध्र | उकल मेक्ल. आंध्र पाण्डवों से कतिपय बलवान् था। एवं उन सारे प्रदेशों में रहनेवाली वन्य जातियाँ भी कई अभ्यासकों ने वांशिक दृष्टि से इस युद्ध को उभ्य कौरवों के पक्ष में शामिल थी। | पक्षीयों का अध्ययन करने का प्रयत्न किया है। किन्तु ७०२ Page #725 -------------------------------------------------------------------------- ________________ युधिष्ठिर प्राचीन चरित्रकोश युधिष्ठिर =१० आनीकिनी) २१८७० आनीकिनी अक्षौहिणी २१८७२१८७० २१८७ १०९३५० ३६४५ । १०९३५ (म. आ. २.१५-२३) ७२९ ७२९ २१८७ २४३ २४३ ७२९ १२१५ चमू पृतना सेनागणनापद्धति की तालिका " (= ३ गुल्म) (= ३ गण)= ३ वाहिनी)= ३ पृतना) (= ३ चमू ) | वाहिनी गण | गुल्म (= ३ सेनासेनामुख (%3D३ पत्ती) २४३ ४०५ २७ २७ ८१ उसमें कुछ तथ्य नहीं प्रतीत होता है, क्यों कि, पाण्डव एवं कौरव इन दोनो पक्ष में शामिल हुए राजाओं में कौनसा भी वांशिक साधर्म्य नही था । इन दोनों पक्षों में शामिल होनेवाले देश प्रायः सर्वत्र अपने राना के कारण विशिष्ट पक्ष में आये थे, एवं बहुत सारे स्थानों पर राजा एवं प्रजा अलग अलग वंशों के थे। युद्धशिबिर-पाण्डवों के पक्ष का युद्ध शिबिर मत्स्य देश की राजधानी उपप्लव्य नगरी में था, एवं समस्त मत्स्य देश में उनकी सेना एकत्रित की गयी थी। कौरवपक्ष का युद्धशिबिर कुरु देश की राजधानी हस्तिनापुर में था। किन्तु उनका सैन्यविस्तार इतना प्रचंड था कि, दक्षिण पंजाब से ले कर उत्तर कुरुक्षेत्र से होता हुआ वह उत्तर पंचाल देश तक अर्धचंद्राकृति वह फैला हुआ था। उस शिबिर का विस्तार ५ योजन (४० मील) था । एक प्रचंड नगर के समान उसकी शान थी, एवं वहाँ नौकर, शिल्पी, सूतमागध, गणिका आदि सारा परिवार उपस्थित था (म. उ. १. १९६,१५)। - सांख्यिक बलाबल-भारतीय युद्ध में पाण्डवों की सेना. संख्या सात अक्षौहिणी एवं कौरवों की सेनासंख्या ग्यारह • अक्षौहिणी थी। कौरव पक्ष की ग्यारह अक्षौहिणी सेना | में से एक एक अक्षौहिणी सेना निम्नलिखित दस राजाओं के द्वारा लायी गयी थी-भगदत्त, भूरिश्रवस् ,कृतवर्मन् , -विंद, जयद्रथ, अनुविंद, सुशर्मन, नील, केकय, एवं कांबोज । महाभारत में निर्दिष्ट 'अक्षौहिणी,' सैन्यसंख्या दर्शाने- वाली एक सामान्य गणनापद्धति न हो कर,वह रथ, हाथी, अश्व, पैदल आदि विभिन्न प्रकार के सैनिकों से बना हुआ एक 'सैनिकी विभाग' था। इस तरह एक अक्षौहिणी सेना में १०९३५० पैदल, ६५६१० अश्वदल, २१८७० गजदल, एवं २१८७० रथों का समावेश होता था। यह सेनाविभाग पत्ती, सेनामुख, गुल्म आदि उपविभागों में विभाजित किया जाता था, जिनमें से हर एक की गणसंख्या निम्नप्रकार रहती थी (सेनागणना पद्धति की तालिका दखिये)। सेनाप्रमुख एवं सेनापति--पाण्डवों की सात अक्षौहिणी | पाण्डवों के सेना में से रथी महारथी आदी विभिन्न श्रेणियों सेना के निन्मलिखित सात सेनाप्रमुख (अधिपति) चुने गये | के योद्धाओं की विस्तृत जानकारी महाभारत में प्राप्त है थेः-द्रुपद, विराट, धृष्टद्युन्म, भीम, शिखंडिन्, चेकितान | ( भीष्म देखिये)। एवं सात्यकि । पाण्डवों का मुख्य सेनापति धृष्टद्युम्न था, जो कौरव पक्ष के ग्यारह अक्षौहिणी सेना के निम्नलिखित युद्ध के मठरह दिन सैनापत्य का काम निभाता रहा। सेनाप्रमुख चुने गये थे:-कृप, द्रोण, शल्य, कांबोज, कृतपाण्डव सेना का सर्वश्रेष्ठ मार्गदर्शक श्रीकृष्ण ही था।। वर्मन्, कर्ण, अश्वत्थामन् ,भूरिश्रवस् , जयद्रथ, सुदक्षिण एवं ७०३ १३५ __ २७ .१५ ५ पत्ती हाथी अश्व रथ पैदल पैदल Page #726 -------------------------------------------------------------------------- ________________ युधिष्ठिर प्राचीन चरित्रकोश युधिष्ठिर शकुनि (म. उ. १५२.१२८-१२९)। भारतीय युद्ध के खेलने के लिए मजबूर करे, और समस्त पाण्डवों को फिर अठरह दिनों में कौरवपक्ष के निम्नलिखित सेनापति हुये थे:- वनवास भेज कर चैन की बन्सी बजाओं। पहले १० दिन-भीष्म ११-१५ दिन-द्रोण; १६-१७ __ युधिष्ठिर ने जब द्रोण की प्रतिज्ञा सुनी, इसने तब अर्जुन दिन-कर्ण; १८ वें दिन का प्रथमाध-शल्य; द्वितायाधं- | को अपने पास ही रहने के लिए कहा (म. द्रो १३. दुर्योधन । ७४२)। द्रोणाचार्य द्वारा निर्मित 'गरुडव्यूह' को देख युद्ध का प्रारंभ-मार्गशीर्ष शुद्ध त्रयोदशी के दिन | कर यह अत्यधिक भयभीत हुआ था ( म. द्रो १९.२१भारतीय युद्ध का प्रारंभ हुआ एवं पौष अमावस्या | २४)। अभिमन्यु के मृत्यु के बाद इसने बहुत करुण विलाप के दिन वह समाप्त हुआ। इस तरह यह युद्ध अठारह | किया था, तथा व्यासजी से मृत्यु की उत्पत्ति आदि के दिन अविरत चलता रहा। युद्ध के पहले दिन पाण्डवों | विषय में प्रश्न किया था। व्यास के द्वारा अत्यधिक समझाये का सैन्य उत्तर की ओर आगे बढा, एवं कुरुक्षेत्र की प्रश्चिम | जाने पर यह शोकरहित हुआ था (म. द्रो. परि. १.८)। में आ कर युद्ध के लिए सिद्ध हुआ। इस पर कौरव सैन्य __इसने युद्ध में दुर्योधन एवं द्रोणाचार्य को मूर्छित कर कुरुक्षेत्र की पश्चिम में प्रविष्ट हुआ, एवं उसी मैदान परास्त किया था (म. द्रो. १३७.४२)। किन्तु इसी युद्ध में भारतीय युद्ध शुरू हुआ। में कृतवर्मन् ने इसे परास्त किया था, एवं कर्ण से यह ___ युद्ध के प्रारंभ में युधिष्ठिर अपना कवच एवं शस्त्र उतार घबरा उठा था। अभिमन्यु की भाँति भीमपुत्र घटोत्कच कर पैदल ही कौरव सेना की ओर निकला। इसका अनु- | की मृत्यु से भी यह अत्यधिक शोकविव्हल हो उठा था। करण करते हुए इसके चारो भाई भी चल पड़े। अपने | पश्चात द्रोण ने अपने अत्यधिक पराक्रम के बल से गुरु भीष्म, द्रोण एवं कृपाचार्य से वंदन कर इसने युद्ध इसे विरथ कर दिया, एवं डर कर यह युद्धभूमि से भाग. करने की अनुज्ञा माँगी, एवं कहा, 'इस युद्ध में हमें गया (म. द्रो. ८२.४६) । अन्त मेंजय प्राप्त हो, ऐसा आशीर्वाद आप दे दिजिए'। गुरुजनों का आशीर्वाद मिलने के बाद, इसने अपने सेनापति ___ 'अश्वत्थामा हतो ब्रह्मन्निवर्तस्वाहवादितिः । को युद्ध प्रारंभ करने की आज्ञा दी (म. भी. ४१.३२- कह कर यह द्रोण की मृत्यु का कारण बन गया (द्रोण ३४)। देखिये; म. द्रो. १६४.१०२-१०६)। द्रोणवध के समय प्रारंभ में प्रथम दिन के युद्ध में इसका शल्य के | इसने 'नरो वा कुञ्जरो वा' कह कर द्रोणाचार्य से मिथ्या साथ युद्ध हुआ था। भीष्म के पराक्रम को देखकर इसे | भाषण किया, जिस कारण पृथ्वी पर निराधार अवस्था में बड़ी चिन्ता हुई थी, एवं उसके युद्ध से भयभीत हो कर चलनेवाला इसका रथ भूमि पर चलने लगा (म. द्रो इसने धनुष्य बाण तक फेंक दिया था (म. भी. ८१. १६४.१०७)। २९)। इसने भीष्म के साथ युद्ध भी किया, किन्तु पराजित | द्रोणाचार्य के सैनापत्य के काल में कौरव एवं पाण्डवों रहा। भीष्म का विध्वंसकारी युद्ध देखकर इसने बड़े | के सैन्य का अत्यधिक संहार हुआ, जिस कारण उन दोनों करुणपूर्ण शब्दों में भीष्मवध के लिए पाण्डवों की सलाह | का केवल दो दो अक्षौहिणी सैन्य बाकी रहा। ली थी, तथा कृष्ण से कहा था, 'आप ही भीष्म से कर्णवध-द्रोण के उपरांत कर्ण सेनापति बना, जिसने पूछे कि, उनकी मृत्यु किस प्रकार हो सकती है (म. भी. | इसका पराभव कर इसकी काफी निर्भर्त्सना की ( म. क. १०३.७०-८२)। ४९. ३४-४०)। पराजित अवस्था में, इसका वध न कर भीष्म के बाद द्रोण-दुर्योधन ने भीष्म के बाद द्रोणाचार्य | कर्ण ने इसे जीवित छोड़ दिया। इस अपमानित एवं को सेनापति बनाया। द्रोण द्वारा वर माँगने के लिए कहा। घायल अवस्था में लज्जित हो कर यह शिबिर में लौट जाने पर, दुर्योधन ने उससे यह इच्छा प्रकट की थी | आया । इतने में इसे ढूँढने के लिए गये कृष्ण एवं अर्जुन कि, वह उसके सम्मुख युधिष्ठिर को जिंदा पकड़ लाये। भी वापस आये। उन्हे देख कर यह समझा कि, वे कर्ण तब द्रोण ने कहा था, 'अर्जुन की अनुपस्थिति में ही | का वध कर के लौट आ रहे है । अतएव इसने उनका यह हो सकता है। दुर्योधन युधिष्ठिर को जीवित | बड़ा स्वागत किया, किन्तु अर्जुन के द्वारा सत्यस्थिति • पकड़कर इस लिए लाना चाहता था कि, उसे फिर द्यूत | जानने पर, यह अत्यंत शांत प्रकृति का धर्मात्मा क्रोध से ७०४ Page #727 -------------------------------------------------------------------------- ________________ युधिष्ठिर प्राचीन चरित्रकोश युधिष्टिर पागल हो उठा, एवं इसने अर्जुन की अत्यंत कटु आलोचना उठा । कर्ण एवं कुंती के चेहरे में साम्य है, यह पहले से की। ही यह जानता था। इस साम्य का रहस्यभेद न करने से युधिष्ठिर-अर्जुन संवाद--इस समय युधिष्ठिर एवं अर्जुन बन्धुवध का पातक अपने सर पर आ गया इस विचार से के दरम्यान जो संवाद हुआ, वह उन दोनों के व्यक्तित्व यह अत्यधिक खिन्न हुआ। यही नहीं, कर्णजन्म का पर काफी प्रकाश डालता है। रहस्य छिपानेवाली अपनी प्रिय माता कुन्ती को इसने शाप इसने अर्जुन से कहा, 'बारह साल से कर्ण मेरे जीवन दिया। कां एक काँटा बन कर रह गया है । एक पिशाच के कर्णवध के पश्चात् , शिविर में सोये हुए पाण्डवपरिवार समान वह दिनरात मेरा पीछा करता है । उसका वध करने का अश्वत्थामन् ने अत्यंत क्रूरता के साथ वध किया, की प्रतिज्ञा तुमने द्वैतवन में भी की थी, किन्तु वह अधुरी जिसमें सभी पाण्डवपुत्र मर गये। । इस समाचार ही रही । तुम कर्ण का वध करने में यद्यपि असमर्थ हो, को सुन कर यह अत्यंत दुःखी हुआ था। तो यहीं अच्छा है कि, तुम्हारा गांडीव धनुष, बाण, एवं रथ बाद में द्रौपदी ने विलाप करते हुए इससे अश्वत्थामा यहीं उतार दो। | तथा उसके सहकारियों के वध करने की प्रार्थना की। अर्जुन ने प्रतिज्ञा की थी कि, जो उसे गांडीव धनुष युधिष्ठिर ने कहा कि, वह अरण्य चला गया है। बाद उतार देने को कहेगा, उसका वह वध करेगा । इसी कारण को द्रौपदी द्वारा यह प्रतिज्ञा की गयी कि, अश्वत्थामा उसने युधिष्ठिर से कहा, 'युद्ध से एक योजन तक दूर के मस्तक की मणि युधिष्ठिर के मस्तक पर वह देखेगी, तभी भागनेवाले तुम्हे पराक्रम की बातें छेड़ने का अधिकार जीवित रह सकती है। तब, भीम, कृष्ण अर्जुन तथा नहीं है। यज्ञकर्म एवं स्वाध्याय जैसे ब्राह्मणाम में तुम युधिष्ठिर के द्वारा द्रौपदी का प्रण पूरा किया गया (म. सौ. प्रवीण हो । ब्राह्मण का सारा सामर्थ्य मुँह में रहता हैं। ९. १६)। ठीक यही तुम्हारी ही स्थिति है। तुम स्वयं पापी हो । तुम्हारे गत खेलने के कारण ही हमारा राज्य चला गया. दुर्योधनवध--दुर्योधन एवं भीम के दरम्यान हृये एवं हम संकट में आ गये। ऐसी स्थिति में मुझे द्वंद्वयुद्ध में भीम ने दुर्योधन की वायी जाँघ फाड़ कर उसे गांडीव धनुष उतार देने को कहनेवाले तुम्हारा मैं यही नीचे गिरा दिया, एवं उसी घायल अवस्था में लत्ताप्रहार शिरच्छेद करता हूँ। भी किया। उस समय युधिष्ठिर ने भीम की अत्यंत कटु अर्जुन जैसे अपने प्रिय बन्धु से ऐसा अपमानजनक आलोचना की । इसने कहा, 'यह तुम क्या कर रहे हो ? (प्राकृत ) भाषण सुन कर, पश्चाताप भरे स्वर में इसने दुर्योधन हमारा रिश्तेदार ही नहीं, बल्कि एक राजा भी है। उसे कहा, 'तुम ठीक कह रहे हो। मेरी मूढता, उसे घायल अवस्था में लत्ताप्रहार करना अधर्म है। कायरता, पाप एवं व्यसनासक्तता के कारण ही सारे पश्चात् इसने दुर्योधन के समीप जा कर कहा, 'तुम दुःख पाण्डव आज संकट में आ गये है। तुम्हारे कटु वचन मत करना । रणभूमि में मृत्यु आने के कारण, तुम धन्य मुझसे अभी नहीं सहे जाते हैं। इसी कारण तुम मेरा हो । सारे रिश्तेदार एवं बांधव मृत होने के कारण, हमारा शिरच्छेद करो, यही अच्छा है । नहीं तो, मैं इसी समय जीवन हीनदीन हो गया है। तुम्हे स्वगंगति तो जरूर वन में चला जाता हूँ। प्राप्त होंगी । किन्तु बांधवों के विरह की नरकयातना सहते युधिष्ठिर की यह विकल मनस्थिति देख कर सारे पाण्डव | सहते हमें यहाँ ही जीना पडेगा। भयभीत हो गये । अर्जुन भी आत्महत्त्या करने के लिए | बचे हुए वीर-दुर्योधनवध के पश्चात् भारतीय युद्ध प्रवृत्त हुआ। अन्त में श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर से आश्वासन दिया, | की समाप्ति हयी। कौरव एवं पाण्डवों के अठारह 'आज ही कर्ण का वध किया जाएगा। इस आश्वासन | अक्षौहिणी सैन्य में से केवल दस लोग बच सके। उनमें के अनुसार, अर्जन ने कर्ण का वध किया (म. क. परि. | पाण्डवपक्ष में से पाँच पाण्डव, कृष्ण एवं सात्यकि, तथा १.क्र. १८.पंक्ति ४५-५०)। कौरवपक्ष में से कृप, कृत एवं अश्वत्थामन् थे (म. सौ. जिस कर्ण के वध के लिए यह तरस रहा था, वह पाण्डवों ९.४७-४८)। युद्धभूमि से बचे हुए इन लोगो में धृतराष्ट्र का ही एक भाई एवं कुंती का एक पुत्र है, यह कर्ण-वध पुत्र युयुत्सु का निर्देश भी प्राप्त है, जो युद्ध के प्रारंभ में के पश्चात् ज्ञात होने पर, युधिष्ठिर आत्मग्लानि से तिलमिला | ही पाण्डवपक्ष में मिला था। प्रा. च. ८९] ७०५ Page #728 -------------------------------------------------------------------------- ________________ युधिष्टिर प्राचीन चरित्रकोश युधिष्ठिर भारतीययुद्ध के मृतकों की संख्या युधिष्ठिर ने धृतराष्ट्र शास्त्रों का उचित अर्थ तुम्हे समझना असंभव है। मैंने को तीन करोड़ बतायी थी, जो सैनिक एवं उनके अन्य वेद, धर्म एवं शास्त्रों का अध्ययन किया है। इसी कारण सहाय्यक मिला कर बतायी होगी। युद्धभूमि में लड़नेवाले धर्म का सूक्ष्म स्वरूप केवल मैं ही जानता हूँ। धन एवं एक सैनिक के लिए दस सहाय्यक रहते थे (म. स्त्री. राज्य से तप अधिक श्रेष्ठ है, जिससे मनुष्यप्राणि को २६.९-१०)। सद्गति प्राप्त होती है। विरक्ति-युद्ध में मृत हुए अपने बांधवों का अशौच | अंत में युधिष्ठिर एवं अर्जन के बीच श्रीव्यास ने तीस दिनों तक मानने के बाद युधिष्ठिर हस्तिनापुर में लौट | मध्यस्थता की। उसने कहा, 'राज्य से सुख प्राप्त आया (म. शां. १.२)। युद्ध की विभीषिका को देख कर होता हो या न हो, उसका स्वीकार करना ही उचित है। यह इतना दुःखी था कि, किसी से कुछ भी न कह पाता आप्तजनों के सहवास की परिणति वियोग में ही होती था, तथा मन ही मन आन्तरिक पीड़ा में सुलग रहा था। है। इस कारण उनकी मृत्यु का दुःख करना व्यर्थ है। रही अपने मन की पीड़ा को अग्रजों से ही कह कर यह कुछ बात धन की, यज्ञ करने में ही धन की सार्थकता है। शान्ति का अनुभव कर सकता था, किन्तु कहे तो किससे? राज्याभिषेक--धृतराष्ट्र के सौ पुत्रों की मृत्य से हस्तिनाकृष्ण ने इसे यद्ध के लिए प्रेरित ही किया था, तथा उसका पुर के कुरुवंश का राज्य नष्ट हुआ। बाद में कृष्ण ने इसका ढाँचा भी उसीके द्वारा बनाया गया था। धृतराष्ट्र स्वयं राज्याभिषेक किया, एवं मार्कंडेय ऋषि के कथनानुसार इससे अपने सौ पुत्रों एवं साथियों की पीड़ा से पीडित था। प्रयागयात्रा करवायी (पद्म. स्व. ४०.४९)। तत्पश्चात् व्यास व्यास भी दुखी था, कारण उसका भी तो कुल नाश हुआ की आज्ञानुसार इसने तीन अश्वमेध यज्ञों का आयोजन था। इस प्रकार इसके मन में राज्यग्रहण के संबंध में | किया (म. आश्व. ९०.१५, भा. १.१२.३४)। विरक्ति की भावना उठी, एवं इसने राज्य छोड़ कर वान- इस यज्ञ में व्यास प्रमुख ऋत्विज था, एवं बक दाल्भ्य, प्रस्थाश्रम स्वीकारने का निश्चय किया। इस समय, अर्जुन, पैल, ब्रह्मा, वामदेव आदि सोलह ऋत्विज थे (म. आश्व, भीम, नकुल, सहदेव, द्रौपदी आदि ने इसे गृहस्थाश्रम | ७१.३)। जैमिनि अश्वमेध में इन सोलह ऋत्विजों के एवं राज्यसंचालन का महत्त्व समझाते हुए इसकी कटु | नाम दिये हैं (जै. अ. ६३.) । इस यज्ञ के लिए द्रव्य न आलोचना की। होने के कारण, इसने वह हिमवत् पर्वत से मरुत्तों से । युधिष्ठिर-अर्जुन-संवाद--इस समय हुआ युधिष्ठिर लाया (म. आश्व. ९.१९-२०)। इस यज्ञ की व्यवस्था अर्जुनसंवाद अत्यधिक महत्वपूर्ण है। अर्जुन ने इसे ऋद्ध इसने अपने भाईयों पर निम्न प्रकार से सौंपी थी:हो कर कहा, 'राज्य प्राप्त करने के पश्चात्, तुम भिक्षापात्र | अश्वरक्षण-अर्जुन, राज्यपालन- भीम एवं नकुल, कौटुंबिक लेकर वानप्रस्थाश्रम का स्वीकार करोंगे तो लोग तुम्हे व्यवस्था-सहदेव (म. आश्व. ७१.१४-२०)। हँसेंगे। तुम युद्ध की सारी बाते भूल कर आनेवाले राज्य- इस यज्ञ के समय, इसने पृथ्वी का अपना सारा राज्य वैभव का विचार करो, जिससे तुम जीवन के सारे दुःखों व्यास को दान में दिया, जो व्यास ने इसे लौटा कर उसके को भूल जाओंगे। किन्तु मैं जानता हूँ कि, तुम्हारे लिए यह | मूल्य का धन ब्राह्मणों को दान में देने के लिए कहा असंभव हैं, क्यों कि, सुख के समय भी, जीवन की | (म. आश्व. ९१.७-१८१ )। दुःखी यादगारे तुम्हें आती ही रहती हैं। गर्वहरण-अश्वमेध यज्ञ में एक नेवला के द्वारा किये इस पर युधिष्ठिर ने कहा, 'जिसे तुम सुख तथा दुःख | गये युधिष्ठिर के गर्वहरण की चमत्कृतिपूर्ण कथा महाकहते हो वह सापेक्ष है। विदेह देश का जनक राजा | भारत में दी गयी है । अश्वमेध यज्ञ के पश्चात् , एक विचित्र अपनी राजधानी मिथिला जलने पर भी शान्त रहा, क्यों नेवला इसके पास आया, जिसका आधा शरीर किसी कि, उसकी आध्यात्मिक संपत्ति अपार थी। इस पर अर्जुन ब्राह्मण द्वारा अन्नदान किया जाने पर छोडे गये पानी में ने कहा, 'अपना राज्य जला कर वानप्रस्थाश्रम लेनेवाले | लोट लगाने के कारण, स्वर्णमय हो गया था। उसने आ कर जनक जैसे मूढ राजा का दृष्टान्त देना यहाँ उचित नही | युधिष्ठिर से कहा, 'आपके अश्वमेध यज्ञ की प्रशंसा सुन है। प्रजापालन एवं देवता, अतिथि एवं पंचमहाभूतों का | कर अपने आधे बचे अंग को स्वर्णमय बनाने आया पूजन यही राजा का प्रथम कर्तव्य है। इस पर युधिष्ठिर | था। किन्तु, यहाँ यह शरीर स्वर्णमय न हो सका। इससे ने कहा 'तुम केवल अस्त्रविद्या ही जानते हो, धर्म एवं | यज्ञकर्ता युधिष्ठिर के मन में उत्पन्न हुआ अभिमान नष्ट ७०६ Page #729 -------------------------------------------------------------------------- ________________ युधिष्ठिर .. प्राचीन चरित्रकोश युधिष्टिर हो गया. तथा नेवले का अर्धाग भी स्वर्णमय हो गया | हुआ एक कुत्ता भारत प्रदक्षिणा के लिए निकले, एवं पूरब (म. आश्व. ९२-९५; जै. अ. ६६; उच्छंवृत्ति देखिये)। | की ओर चल पड़े। धृतराष्ट्र का वनगमन-अश्वमेध यज्ञ के पश्चात् धृतराष्ट्र 'लौहित्य' नामक सलिलार्णव में अपने धनुष्य बाण की अनुमति से युधिष्ठिर ने राज्यसंचालन आरंभ किया। विसर्जित कर ये निःशस्त्र हुयें। पश्चात् दक्षिणीपश्चिम पश्चात् धृतराष्ट्र ने अन्न-सत्याग्रह कर के, वन में जाने दिशा में मुड़ कर ये द्वारका नगरी के पास आयें । अन्त में के लिए इससे अनुमति माँगी। यह अत्यधिक दुःखी । पुनः उत्तर की ओर मुड़ कर हिमालय में प्रविष्ट हुयें । वहाँ हुआ, एवं उसे ही राज्य अर्पित कर इसने स्वयं वन में | इन्होंने वालुकार्णव एवं मेरुपर्वत के दर्शन लिये । पश्चात् जाने की इच्छा प्रकट की (म. आश्र. ६.७-९)। पश्चात् | इन्होंने स्वर्गारोहण प्रारंभ किया (म. महा. १-२)। व्यास के समझाने पर युधिष्ठिर ने धृतराष्ट्र को वन जाने स्वर्गारोहण-स्वर्गारोहण के समय, मार्ग में द्रौपदी, की अनुमति दे दी (म. आश्र. ८.१)। चलते समय | सहदेव, नकुल, अर्जुन एवं भीमसेन ये एक एक कर क्रमशः धृतराष्ट्र ने इसे राजनीति का उपदेश दिया (म. आश्र. गिर पड़े । अन्त में युधिष्ठिर एवं श्वानरूपधारी यमधर्म ही बाकी रहे। ये दोनों स्वर्गद्वार पहूँचते ही, स्वयं इंद्र वन में जाते समय धृतराष्ट्र ने अपने पूर्वजों का श्राद्ध रथ ले कर इसे सदेह स्वर्ग में ले जाने के लिए उपस्थित करने के लिए हस्तिनापुर राज्य के कोशाध्यक्ष भीम के हुआ। यह रथ में बैठनेवाला ही था कि, कुत्ते ने भी इसके पास कुछ द्रव्य की याचना की। किन्तु भीम ने उसे देने साथ रथ में बैठना चाहा, जिसे इंद्र ने इन्कार कर दिया। से साफ इन्कार कर दिया। फिर युधिष्ठिर एवं अर्जुन ने | इसने कुत्ते के सिवा स्वर्ग में प्रवेश करना अमान्य कर अपने खानगी द्रव्य दे कर उसे बिदा किया (म. आश्र. दिया। फिर यमधर्म अपने सही रूप में प्रकट हुआ, एवं १७)। बाद को यह धृतराष्ट्र से मिलने के लिए 'शत- इन्द्र इन दोनों को सदेह अवस्था में स्वर्ग ले गया। यूपाश्रम' में भी गया था (म. आश्र. ३१-३२)। मृत्यु-महाभारत के भीष्म, द्रोण, कर्ण, दुर्योधन आदि विदुर का निर्याण हिमालय में हुआ, जिस समय यह व्यक्तियों की मृत्यु में जो नाट्य प्रतीत होता है, वह उसके पास था। विदुर की मृत्यु के पश्चात् उसकी युधिष्ठिर की मृत्यु में नहीं है। इसकी मृत्यु में उदात्तता - प्राणज्योति युधिष्ठिर के शरीर में प्रविष्ट हुयी, जिस कारण | जरुर है, किन्तु आजन्म सत्य एवं नीतितत्त्व के पालन में यह अधिक सतेज बना (म. आश्र. ३३.२६)।. एकाकी अस्तित्व बितानेवाला युधिष्ठिर अपनी मृत्यु में भी ___ महाप्रस्थान द्वारका में वृष्णि एवं यादव लोग आपस एकाकी रहा। सारे तत्त्वदर्शी एवं ध्येयवादी व्यक्ति अपनी में झगड़ा कर के विनष्ट हुये । तत्पश्चात् हुए कृष्ण- आयु में तथा मृत्यु में एकाकी रहे, यही विधिघटना -निर्याण की वार्ता सुन कर यह अत्यधिक खिन्न हुआ। युधिष्ठिर की मृत्यु में पुनः एकबार प्रतीत होती है। अभिमन्यु के ३६ साल के पुत्र परिक्षित् को राज्याभिषेक | स्वर्गप्रवेश-स्वर्ग में पहुँचते ही नारद ने इसकी स्तुति कर, एवं धृतराष्ट्र को वैश्य स्त्री से उत्पन्न मृयुत्सु नामक की, एवं इन्द्र ने इसकी उत्तम लोक में रहने की व्यवस्था पुत्र को प्रधानमंत्री बना कर, यह महाप्रस्थान के लिए की। किन्तु इसने स्वर्ग में प्रवेश करते ही अपने भाइयों निकल पड़ा। इस समय इसके पाण्डव बन्धु एवं द्रौपदी के संबंध में पूछा । फिर यमधर्म ने इसकी सत्वपरीक्षा लेने भी राज्य छोड़ कर इसके साथ निकल पड़े (भा. १.१५. के लिए, इसके सारे पाण्डव बांधव नर्कलोक में वास कर ३७-४०)। रहे हैं, ऐसा मायावी दृश्य दिखाया। यह दृश्य देख कर महाभारत के अनुसार, परिक्षित् का भार उसके गुरु | इसने यमधर्म से कहा, 'मैं अकेला स्वर्गसुख का उपभोग कृपाचार्य पर सौंप कर युधिष्ठिर ने महाप्रस्थान की तैयारी लेना नहीं चाहता हूँ। मेरे समस्त बांधव जिस नर्कलोक में की। परिक्षित् राजा की गृहव्यवस्था इसने उसकी दादी वास कर रहे हैं, वही मैं उनके साथ रहना चाहता हूँ सुभद्रा के उपर सौंप दी, एवं इंद्रप्रस्थ का राज्य श्रीकृष्ण | (म. स्व. २. १४)। का प्रपौत्र वज्र को दिया, जो यादवसंहार के कारण यमधर्म से भेंट- इस पर यमधर्म ने अपने अंशावतार निराश्रित बन गया था। इसके पूर्व,इसने राजवैभव छोड़ कर से उत्पन्न युधिष्ठिर को साक्षात् दर्शन दिया एवं कहा, वल्कल धारण कियें एवं अग्निहोत्र का विसर्जन किया। इस | 'आज तक तीन बार मैंने तुम्हारी सत्त्वपरीक्षा लेनी चाही। तरह पाँच पांडव, द्रौपदी एवं इसके साथ सहजवश आया। किन्तु उन तीनो समय तुमने खुद को एक सत्त्वनिष्ठ क्षत्रिय ७०७ Page #730 -------------------------------------------------------------------------- ________________ युधिष्ठिर प्राचीन चरित्रकोश युधिष्ठिर साबित किया है। इसी कारण मैं तुमसे अत्यधिक प्रसन्न हूँ| इस जानकारी के अनुसार, सोलहवें वर्ष में यह सर्व: (म. स्व. ५.१९)। प्रथम हस्तिनापुर आया। वहाँ तेरह वर्ष बिताने के बाद छः यमधर्म के द्वारा निर्दिष्ट युधिष्ठिर की सत्वपरीक्षा के महीने तक जतुगृह में, छः महीने एकचक्रा में, एक तीन प्रसंग निम्न है:-(१) यक्षप्रश्र, जिस समय यम- वर्षे द्रुपद के घर में, पाँच वर्ष दुर्योधनादि के साथ तथा धर्म ने यक्ष का रूप ले कर युधिष्ठिर के पाण्डव बांधवों में तेइस वर्ष इन्द्रप्रस्थ में बितायें। बाद में कौरवों द्वारा से किसी एक को जीवित करने का आश्वासन दिया था। द्यूतक्रीड़ा में हार जाने के कारण बारह वर्ष बनवास इस समय युधिष्ठिर ने माद्री से उत्पन्न अपना सौतेला भाई तथा एक वर्ष अज्ञातवास में रहा। अज्ञातवास के सहदेव को जीवित करने को कहा था। उपरांत युद्ध हुआ, तथा युद्ध के बाद इसने छत्तीस वर्षों (२) स्वर्गारोहण के समय, यमधर्म ने कुत्ते का रूप | तक राज्य किया। इस प्रकार इसने अपने जीवन के एक धारण कर युधिष्ठिर की परीक्षा लेनी चाहीं । उस अवसर सौ आठ वर्ष बितायें। इसके छोटे भाई इससे क्रमशः एक पर कुत्ते को साथ ले कर ही स्वर्ग में प्रवेश करने का निर्धार एक वर्ष से छोटे थे। कई ग्रंथों के अनुसार इसने नौ वर्षों युधिष्ठिर ने प्रकट किया, एवं कुत्ते के बगैर स्वर्ग में प्रवेश तक राज्य किया था (गर्ग. सं. १०.६०.९)। किन्तु करने से इन्कार कर दिया। यह जानकारी गलत प्रतीत होती है। (३) स्वर्ग में प्रवेश करने के पश्चात्, इसने अपने ___ कालनिर्णय-पुराणों में प्राप्त परंपरा के अनुसार, भाईयों के साथ नर्क में रहना पसंद किया । भारतीय युद्ध का काल ई. पू. ३१०२ माना गया है । पश्चात् युधिष्ठिर ने स्वर्ग में स्थित मन्दाकिनी नदी में युधिष्ठिर के नाम से 'युधिष्ठिर शक ' अथवा 'कलि अब्द' स्नान कर अपने मानवी शरीर का त्याग किया, एवं यह नामक एक शक भी अस्तित्व में था, जिसका प्रारंभकाल दिव्य लोक में गया (म. स्व. ३.१९)। वहाँ इसकी पुराणों में ई. पू. ३१०२ बताया गया है। किन्तु शिलालेख ताम्रपटादि कौनसे भी ऐतिहासिक साहित्य में श्रीकृष्ण, अर्जुन आदि की भेंट हुयी । अन्त में यह यमधर्म 'युधिष्ठिर शक' का निर्देश प्राप्त नहीं है। इस कारण के स्वरूप में विलीन हुआ (म. स्व. ३.१९)। | आधुनिक योरिपियन विद्वान् । युधिष्ठिर शक ' की धारणा परिवार-युधिष्ठिर को द्रौपदी एवं पौरवी नामक दो निर्मूल एवं निराधार बताते हैं। पन्नियाँ थी। उन में से द्रौपदी से इसे प्रतिविंध्य आधुनिक विद्वानों के अनुसार भारतीय युद्ध का काल एवं पौरवी से देवक नामक पुत्र उत्पन्न हुआ (भा. ९.२२. इ. पू. १४०० माना जाता है (हिस्ट्री अॅन्ड कल्चर ऑफ २७-३०)। महाभारत में इसकी दूसरी पत्नी का नाम | इंडियन पीपल १. ३०४)। यद्यपि वेद एवं ब्राह्मण देविका, एवं उससे उत्पन्न इसके पुत्र का नाम यौधेय दिया ग्रंथों में भारतीय युद्ध का निर्देश प्राप्त नहीं है, फिर भी गया है (म. आ. ९०.८३)। सूत्र ग्रंथों में इस युद्ध का निर्देश प्राप्त है ( आश्व. गृ. ३. ___ भारतीय युद्ध में इसके दोनों पुत्र मारे गये, जिस कारण | ४.४; सां. श्री. १५.१६)। पाणिनि के काल में भारतीय इसके पश्चात् अभिमन्यु का उत्तरा से उत्पन्न पुत्र परिक्षित् युद्ध में भाग लेनेवाले कृष्ण-अर्जुनादि व्यक्तियों की हस्तिनापुर का राजा बन गया (भा. १.१५-३२)। देवता मान कर पूजा होने लगी थी। . परिक्षित् राजा के राज्यारोहण से द्वापर युग समाप्त हो तिथिनिर्णय--महाभारत में प्राप्त तिथिवर्णनों से प्रतीत कर, कलियुग प्रारंभ हुआ ऐसा माना जाता है। पुराणों में होता है कि, उस समय चान्द्रमास का उपयोग किया जाता प्राप्त प्राचीनकालीन राजवंश का इतिहास भी इसी घटना के | था। पाण्डवों ने अपना वनवास भी चान्द्रवर्ष के अनुसार साथ समाप्त होता है। परिक्षित् राजा के उत्तरकालीन | ही बिताया था (म. वि. ४२.३-६; ४७)। राजवंशों की पुराणों में प्राप्त जानकारी वहाँ भविष्यकालीन युधिष्ठिर के जीवन में से कई घटनाओं का तिथिवर्णन कह कर बतायी गयी है (परिक्षित देखिये)। महाभारत में प्राप्त है, जो निम्न प्रकार है : आयु-युधिष्ठिर की आयु के संबंध में सविस्तृत जानकारी युधिष्ठिर का जन्म-अश्विन शुक्ल । महाभारत कुंभकोणम् संस्करण में प्राप्त है। किन्तु भांडार-। कौरवों से द्यूत-अश्विन कृष्ण ८ । कर संहिता में उस जानकारी को प्रक्षिप्त माना गया है वनवास का प्रारंभ-कार्तिक शुक्ल ५। (म. आ. परि. १. क्र. ६७. पंक्ति ४५-६५)। कौरवों की घोषयात्रा--ज्येष्ठ कृष्ण.८ । ७०८ Page #731 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन चरित्रकोश - युधिष्ठिर अशरावास की समाप्तिज्ये कृष्ण ८ | अभिमन्यु एवं उत्तरा का विवाह -- ज्येष्ठ कृष्ण ११ । भारतीय युद्ध का प्रारंभ - मार्गशीर्ष शुक्र १३ । अभिमन्यु की मृत्यु -- पौष कृष्ण ११ । भारतीय युद्ध की समाप्ति - पौष अमावस्या | युधिष्ठिर का हस्तिनापुर प्रवेश - माघ शुक्ल १ । अश्वमेध यज्ञ का प्रारंभ -- चैत्र शुक्ल १५ । युध्यामधि-- एक राजा को दाशराश युद्ध में मुदास के द्वारा मारा गया था (ऋ. ७.१८.२० ) । युयुत्सु - (सो. कुरु. ) धृतराष्ट्र का वैदय स्त्री से उत्पन्न पुत्र (म. आ. ५७.९९. ५२८ पंक्ति. ४; १७७. २ ) | क्षत्रिय पिता को वैश्य स्त्री से उत्पन्न होने के कारण इसे 'करण' भी कहते थे । महाभारत में 'करण' एक मिश्र जाति का नाम बताया गया है। धृतराष्ट्र का पुत्र हो कर भी, कौरवों का पाण्डवों के साथ का दुर्व्यवहार इसे पसंद न था, जिस कारण इसकी सदभावना हमेशा पाण्डवों के ओर ही थी। दुर्योधन की प्रेरणा से भीमसेनको विषयुक्त अन्न खिलाया जाने की सूचना, इसने पहले ही उसे गी थी (म. आ. ११९.४०) । । भारतीय युद्ध में यह प्रथम कौरवों के पक्ष में शामिल हुआ था (म. भी. ४१. ९५ ) | किन्तु बाद में यह पाण्डवों के पक्ष में शामिल हुआ (म. द्रो. २२.२७ ) । यह योद्धाओं में श्रेष्ठ, उत्तम धनुर्धर शुर एवं था। इसके रथ के अश्व शक्तिशाली एवं पृथुल थे ( म. द्रो. २२.२० ) । भारतीय युद्ध में इसका निम्नलिखित योद्धा ओं से युद्ध हुआ था: सुबाहु ( म. द्रो. २४.१४), भगदत्त (म. प्र. २५.४८-५१), (म.क. १८०१-१०) उलूक भारतीय युद्ध से बचे हुये लोगों में से यह एक था। युद्ध के पश्चात्, युधिष्ठिर के द्वारा धृतराष्ट्र की सेवा में इसे नियुक्त किया गया था (म. शां. १४१.१६ ) अश्वमेघ यश के पूर्व पाण्डव जय धृतराष्ट्र से मिलने वन गये थे एवं मरुन्त का धन खाने हिमालय गये थे, उन दोनों समय हस्तिनापुर की रक्षा का भार इसी पर सौंपा गया था (म. आज २०.१५ आ. ६२.२३) । । युवनाश्व युयुध - (रा. निमि.) विदेह देश का एक राजा, जो वस्वनन्त राजा का पुत्र था ( मा. ९.१३.२५ ) । युयुधान- (सो. वृष्णि) सुविख्यात यादव राजा ' सात्यकि ' का नामान्तर ( सात्यकि देखिये ) | युवन कौशिक-एक भाचार्य, जिसके शरखुदक यज्ञ के संबंधित मतों के उद्धरण प्राप्त है ( कौ. स. ९.११) । युवनस्— लेख देवों में से एक । G पाण्डवों के महाप्रस्थान के समय, परिक्षित् राजा की एवं कुरु राज्य की रक्षा का भार भी युधिडिर ने इसी पर निर्भर किया था (म. महा १.६ - ७ ) । इससे प्रतीत होता है कि, धृतराष्ट्र का पुत्र हो कर भी युधिडिर इससे काफी प्रेम एवं विश्वास करता था। | २. धृतराष्ट्र के शतपुत्रों में से एक । युवनाश्व - ( सू. इ. ) एक इक्ष्वाकुवंशीय राजा, जो युवनाश्व ( प्रथम ) नाम से सुविख्यात है । भागवत के अनुसार यह चंद्रराजा का, विष्णु के अनुसार आर्द्र का, मत्स्य के अनुसार इन्दु का, एवं वायु के अनुसार आंध्र राजा का पुत्र था । इसके पुत्र का नाम श्रावस्त था । जो २ (सू. इ.) इक्ष्वाकुवंश में उत्पन्न एक सुविख्यात नरेश, युवनाश्व (द्वितीय) नाम से सुविख्यात हैं | महाभारत में इसे सुद्युम्न राजा का पुत्र कहा गया है, जिस कारण इसे सीद्युम्नि नामान्तर भी प्राप्त था। विष्णु एवं वायु । के अनुसार यह प्रसेनजित् राजा का मत्स्य के अनुसार रणाश्व का एवं भागवत के अनुसार सेनजित् का पुत्र था। इसकी सौ पत्नियाँ थी, जिनमें से गौरी इसकी पटरानी थी बहुत वर्षों तक इसे पुत्र न था । इसलिए पुत्रप्राप्ति के लिए भृगु ऋषको अध्यर्य बना कर इसने एक यश का आयोजन किया। यज्ञ समारोह की रात्रि में अत्यधिक प्यासा होने के कारण, इसने भृगुऋषि के द्वारा इसकी पत्नियों के लिए सिद्ध किया गया ज गलती से प्राशन जल किया। इसी जल के कारण इसमें गर्भस्थापना हो कर इसकी चायी कुक्षी से 'मांधातृ' नामक सुविख्यात पुत्र का जन्म हुआ (म. ब. १९१.२ मा. ९.६.२५-१२ मांधातृ देखिये) । । । । इसकी गौरी नामक पानी पौरवराजा मतिनार की मन्या थी। वायु में इसके द्वारा गौरी को शाप दिये जाने की एक कथा प्राप्त है, जिस कारण वह बहुदा नामक नदी बन गयी ( वायु, ८८.६६ ब्रह्म २.६२.६७ अस ७. ९१; ह. वं १. १२. ५ ) । इसकी एक कन्या का नाम कावेरी था, जो गंगा नदी का ही मानवी रूप थी ( ह. वं. १.२७.९) । अपनी इस कन्या को इसने नदी बनने का शाप दिया, जो आज ही नर्मदा नदी की सहाय्यक नदी के नातें विद्यमान है ( मत्स्य. १८९० २–६ ) । अपने पूर्ववर्ती रैवत नामक राजा से इसे एक दिव्य खड्ग की प्राप्ति हुयी थी, जो इसने अपने वंशज रघु ७०९ Page #732 -------------------------------------------------------------------------- ________________ युवनाश्व प्राचीन चरित्रकोश यौयुधान राजा को प्रदान किया था (म. शां. १६०.७६ )। यह | कल्पान्तर्गत वैवस्वत मन्वन्तर में, द्वापर युग शुरू होने के एक सुविख्यात दानी राजा था, जिसने अपनी सारी | पहले अवतीर्ण हुआ था। पत्नियाँ एवं राज्य ब्राह्मणों को दान में दिया था (म. शां. | २. विष्णु का एक अवतार, जो देवसावर्णि मन्वन्तर में २१६. २५)। बृहतीपुत्र देवहोत्र के रूप में अवतीर्ण हुआ था ( भा. ८. ३. (सू. इ.) एक इक्ष्वाकुवंशीय राजा, जो युवनाश्व १३.३२)। (तृतीय) नाम से सुविख्यात था। यह मांधातृपुत्र अंबरीष | ३. रोच्य मन्वन्तर का एक देवावतार । राजा का पुत्र था। मांधातृ एवं इसके वंशज क्षत्रिय ब्राह्मण | ४. एक देवता का समूह,जो कलियुग के श्वतकली नामक कहलाते थे, जिस कारण इसे भी यही उपाधि प्राप्त थी। प्रथम खण्ड में उत्पन्न हुआ था। इसमें निम्नलिखित देवता यह एवं इसका पुत्र हरित, अंगिरस ब्राह्मण कुल में प्रविष्ट | सम्मिलित थे:-१. रुद्र, २. सुतार, ३. तारण, ४. सुहोत्र, हुये थे । एक वैदिक सूक्तद्रष्टा के नाते से इसका उल्लेख | ". कंकण, ६. लोक, ७. जैगीषव्य, ८. दधिवाहन, ९. ऋषभ, प्राप्त है (ऋ. १०.१३४)। इसे अंगिरस कुल का एक | १०. उग्र, ११. अत्रि, १२. गौतम, १३. वेदशीर्ण, मंत्रकार भी कहा गया है । इसके पितामह मांधातृ ने एक | १४. गोकर्ण आदि (स्कंद. १.२.४०)। प्रवर के नाते इसका स्वीकार किया था (भा. ९.७.१)।। ५. एक सुविख्यात योगीसमूह, जो भागवत धर्म के ४. (स्वा. प्रिय.) एक राजा, जो भागवत के अनुसार सर्वश्रेष्ठ ज्ञाता माने जाते हैं । ये ऋषभ ऋषि के पुत्र थे, पृथु राजा का पुत्र था। एवं नग्न अवस्था में सर्वत्र घूमते थे। इस समूह में निम्न लिखित योगी शामिल थे :- कवि, हरि, अंतरिक्ष, प्रबुद्ध, ५. शूलिन् नामक शिवावतार का एक शिष्य । पिप्पलायन, अविर्होत्र, द्रुमिल, चमस एवं करभाजन। . यूथग-चाक्षुष मन्वन्तर का देवगण । इस योगीसमूह में मिथिलानरेश निमि के यज्ञ में. यूथप-धूम्रपराशरकुलोत्पन्न एक ऋषि । - भाग ले कर, उसे भागवतधर्म का उपदेश किया था . यूपकेतु-इक्ष्वाकुवंशीय शत्रुघातिन् राजा का | (भा. ११.२-५)। नामान्तर (शत्रुघातिन् देखिये)। योजनगंधा--व्यासमाता सत्यवती का नामान्तर २. कुरुवंशीय भूरिश्रवस् राजा का नामान्तर (म. द्रो. | (सत्यवती देखिये)। २४.५३)। यौगंधरि-साल्व लोगों का एक नामान्तर (मंत्रपाठ यूपध्वज--भूरिश्रवस् राजा का नामान्तर (म. स्त्री. २.११-१२)। युगंधर के वंशज होने से इन्हे यह नाम २४.५) | प्राप्त हुआ होगा। यूपाक्ष--रावण का एक सेनापति, जो हनुमत् के ___ यौधयान-कश्यपकुलोत्पन्न एक गोत्रकार । द्वारा मारा गया था (वा. रा. सुं, ४६.३२)।। | यौधेय--(सो. कुरु.) युधिष्ठिर का एक पुत्र, जो २. एक राक्षस, जो रामरावण युद्ध में मैंद नामक उसे शैब्य गोवासन राजा की कन्या देविका से उत्पन्न हुआ वानर के द्वारा मारा गया (वा. रा. यु. ७६.३४) था (म. आ. ९०.८३)। योग-एक ऋषि, जो धर्म एवं क्रिया के पुत्रों में से २. (सो. कुरु.) एक राजा, जो मत्स्य के अनुसार एक था (भा. ४.१.५१)। यह तपस्वी, जितेंद्रिय एवं प्रतिविंध्य रांजा का पुत्र था। त्रैलोक्य में सुविख्यात था (म. अनु. १५०.४५)। । ३. एक जातिविशेष, जो युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में योगदायन-कश्यपकुलोत्पन्न एक गोत्रकार। भेंट ले कर उपस्थित हुयी थी ( म. स. ५२. १४)। योगवती-मेना की तृतीय कन्या, जो जैगीषव्य ऋषि यौन-यवन जाति का नामान्तर ( यवन देखिये)। की पत्नी थी (पद्म. सृ. ९)। यौयुधान अथवा यौयुधानि-यादव राजा सात्यकि योगसू नु-(सो. पूरु.) पूरुवंशीय युगदत्त राजा का का एक पुत्र, जो यादवों के हत्याकांड से बचे हुये वीरों नामान्तर (युगदत्त देखिये। में से एक था। युधिष्ठिर ने इसे सरस्वती नदी के तट पर योगीश--जैगीषव्य नामक शिवावतार का एक शिष्य। स्थित इन्द्रप्रस्थ का राज्य प्रदान किया था (म.मौ. ८. योगेश्वर--शिव का प्रथम अवतार, जो वैवस्वत मनु ६९)। महाभारत के कई संस्करणों में इसकी माता को के रूप में इस पृथ्वी पर अवतीर्ण हुआ था। यह वराह नाम सरस्वती बताया गया है,जो अयोग्य प्रतीत होता है। ७१० - याग Page #733 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यौवनाश्व प्राचीन चरित्रकोश रक्षस् यौवनाश्व--युवनाश्व राजा के पुत्र मांधातृ का पैतृक | ३. इक्ष्वाकुवंशीय युवनाश्व (तृतीय) राजा का नाम (मांधातृ देखिये)। नामान्तर (युवनाश्व ३. देखिये)। २. भद्रावती नगरी के श्वेतपर्ण राजा का पैतृक नाम यौवनाश्चि--मांधातृ राजा का नामान्तर। (श्वेतपर्ण यौवनाश्व देखिये)। रक्त--एक असुर, जो महिषासुर का पुत्र था। यह पत्नी का नाम ब्रह्मधना था, जिससे इसे नौ पुत्र एवं चार स्वायंभुव मन्वन्तर का सुविख्यात असुर हिरण्याक्ष के समान कन्याएँ उत्पन्न हुयीं थी (ब्रह्मधना देखिये)। पराक्रमी था। इसे बल.एवं अतिबल नामक दो पुत्र थे। इसका सविस्तृत स्वरूपवर्णन ब्रह्मांड में निम्न प्रकार प्राप्त इसकी सेना अत्यंत प्रचंड थी, जिसके बल से इसने है :-यह तीन पैरोंवाला, तीन हाथोंवाला, तीन सिरवाला, इन्द्र को भी परास्त किया था। इसके धूम्राक्ष आदि काली आँखेवाला, खड़े बालवाला, एवं पीली मूंछेवाला तैतीस सेनापति थे, जो प्रत्येकी एक हजार अक्षौहिणी सेना था। इसका शरीर शक्तिशाली किंतु कद में छोटा था। के अधिपति थे (स्कंद. ७.१.११९)। इसके स्कंध विशाल थे, किन्तु उदर अत्यंत कृश था। यह रक्तकर्णी--एक राक्षसी, जो रक्षस् एवं ब्रह्मधना की प्रबाह, जिहास्य, शंकुकर्ण, पिंगलोवृत्तनयन, जटिल, कन्या थी। महोरस्क, पृथुघोण, अस्थूल एवं लंबमेदाण्डपिंडक था । यह रक्तबीज--एक असुर, जो शुभ एवं निशुंभ के पक्ष में अत्यंत विरूप था, जिसका मुँह कानों तक फटा हुआ था, शामिल था। इसे रुद्र का वरदान था कि, जब भी यह एवं नाक फैली हुयी थी। इसे केवल आठ ही दाँत थे। घायल हो कर इसके खून की बूंदें भूमि पर गिरेंगी, कौनसी भी शीला का यह मुष्टिप्रहार से चकनाचूर कर उनसे इसके सादृश उतने ही राक्षस निर्माण होंगे। रुद्र देता था, जिस कारण इसे 'शीलासंहनन' उपाधि प्राप्त के इस वर के कारण, यह अत्यंत उन्मत्त बन गया था। हुयी थी (ब्रह्मांड. ३.७.४७)। एक बार यह शंभ-निशुंभ के पक्ष में चामुंडा देवी से | . २. एक मानव जातिविशेष, जो वैदिक साहित्य में प्रायः युद्ध करने गया। इस युद्ध म मध्यस्थता करते समय, सर्वत्र मनष्यजाति के शत्रओं. पार्थिव दैत्यों एवं राक्षसों इसने बडी उद्दण्डता से देवी से कहा, 'तुम शुभ-निशुभ के लिए प्रयुक्त किया गया है। की पत्नी हो जाओ, नही तो इस युद्ध में तुम्हारा पराजय अटल है। फिर देवी ने अत्यंत भयंकर रूप धारण कर वैदिक साहित्य में असुरों, राक्षसों एवं पिशाचों को इसका सारा खून भूमि पर एक ही बूंद छिड़कने का मौका क्रमशः देवों, मनुष्यों एवं पितरों का विरोधी कहा गया है न देते हुये प्राशन किया। इस तरह देवी ने इसका एवं (तै. सं. २.४.१)। इस कारण, जहाँ वृत्र, पिण, शंबर इससे उत्पन्न राक्षसों का संपूर्ण विनाश किया (दे. भा. आदि इंद्र के शत्रुओं को असुर कहा गया है, वहाँ मनुष्य५.२७-२९; मार्कं. ८५शिव. उमा. ४७; देवी-चामुंडा जाति के यज्ञों का विनाश करनेवाले यातु एवं यातुधान देखिये)। राक्षसों को रक्षस् कहा गया है । वैदिक साहित्य में दैत्य, रक्तांग-धृतराष्ट्रकुलोत्पन्न एक नाग, जो जनमेजय दानव एवं असुर शब्द समानार्थी रूप में प्रयुक्त किये के सर्पसत्र में दग्ध हुआ था (म. आ. ५२.१६)। गये है। रक्ष--एक व्यास (व्यास देखिये)। पाणिनि के अष्टाध्यायी में असुर, रक्षस् एवं पिशाच रक्षस्-एक राक्षस, जो कश्यप एवं खशा का पुत्र तीन स्वतंत्र मानव जातियाँ मानी गयी है, जिनके 'आयुधथा। इसका जन्म प्रातःकाल के समय हुआ था। इसकी । जीवीसंघों' का निर्देश वहाँ स्वतंत्र रूप से किया गया है । ७११ Page #734 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रक्षस् प्राचीन चरित्रकोश पौराणिक साहित्य एवं महाभारत, रामायण में रक्षस्, (अ. वे. ५.२९)। ये मनुष्यों की वाचाशक्ति नष्ट कर असुर, दैत्य दानव ये सारे शब्द समानार्थी मान कर देते थे, एवं उनमें अनेक विकृतियाँ निर्माण कर देते थे । प्रयुक्त किये गये है। जिससे प्रतीत होता है कि, उस समय विचरण-संध्यासमय अथवा रात्रि के समय ये लोग मनुष्य एवं देवों के शत्रुओं के लिए ये सारे नाम उलझे विचरण करते थे। उस समय, ये लोग नर्तन करते हुए, हए रूप में प्रयुक्त हो जाने लगे थे। उपनिषदों में भी गद्धों की भाँति चिल्लाते हुए, अथवा खोपड़ी की अस्थि से मानवी देह को आत्मा माननेवाले दुष्टात्माओं को असुर जलपान करते हुए नज़र आते थे (अ.वे. ८.६)। इनके अथवा रक्षस् कहा गया है। विचरण का समय अमावास्या की रात्रि में रहता था। ऋग्वेद में पचास से अधिक बार रक्षसों का निर्देश | पूर्व दिशा में प्रकाशित होनेवाले सूर्य से ये डरते थे। प्राप्त है, जहाँ प्रायः सर्वत्र किसी देवता को इनका विनाश | (अ. वे. १.१६:२.६)। करने के लिए आवाहन किया गया है, अथवा रक्षसों ये लोग दिव्य यज्ञों में विघ्न उत्पन्न कर देते थे, एवं हवि के संहारक के रूप में देवताओं की स्तुति की गयी है। को इधर उधर फेंक देते थे (ऋ. ७.१०४)। ये पूर्वजों रक्षसों का वर्णन करनेवाले ऋग्वेद के दो सूक्तों में, की आत्माओं का रूप धारण कर पितृयज्ञ में भी बाधा इन्हें यातु ( ऐन्द्रजालिक) नामान्तर प्रदान किया गया | उत्पन्न करते थे (अ. वे. १८.२)। है। (ऋ.७.१०४.१०८७)। यजुवद म यतः' शब्द का अग्नि से विरोध-अंधःकार को भगानेवाला एवं यज्ञ प्रयोग एक दुष्ट जाति के रूप में किया गया है, एवं इन्हें का अधिपति अग्नि रक्षसों का सर्वश्रेष्ठ संहारक माना गया रक्षसों की उपजाति कहा गया है। है। वह इन्हें भस्म करने का, भगाने का एवं नष्ट करने का स्वरूपवर्णन--अथर्ववेद में रक्षसों का अत्यंत विस्तृत काम करता है (ऋ. १०.८७)। इसी कारण अग्नि को . स्वरूपवर्णन प्राप्त है, जहाँ उन्हे प्रायः मानवीय रूप हो कर 'रक्षोहन्' (रक्षसों का नाश करनेवाला) कहा गया है। . भी, उनमें कोई न कोई दानवी विरूपता होने का वर्णन | ये केवल अपनी इच्छा से नही, किन्तु अभिचारियों के . प्राप्त है। इन्हें तीन सर, दो मुख, रीछों जैसी ग्रीवा, चार | द्वारा बहकाने से मनुष्यजाति को दुःख पहुँचाते है। इसी नेत्र, पाँच पैर रहते थे, इनके पैर पीछे की ओर मुड़े कारण रक्षसों को बहकानेवाले अभिचारियों को ऋग्वेद में हये एवं उँगलीविहीन रहते थे। इनके हाथों पर सिंगरहते | 'रक्षोयुज् (रक्षसों को कार्यप्रवण करनेवाला ) कहा गया :थे (अ. वे. ८.६)। इनका वर्ण नीला, पीला अथवा हरा है (ऋ. ६.६२)। अथर्ववेद में अन्यत्र रक्षसों की प्रार्थना रहता था (अ. वे. १९.२२)। इन्हें मनुष्यों जैसी पनि, की गयी है कि, वे उन्हीं को भक्षणं करे जिन्हों ने इन्हे पुत्र आदि परिवार भी रहता था (अ. वे. ५.२२)। भेजा है (अ. वे. २.२४)। नानाविध रूप--ये लोग कुत्ता, गृध्र, उलूक, बंदर व्युत्पत्ति-भाषाशास्त्रीय दृष्टि से रक्षस् शब्द 'रक्ष' आदि पशुपक्षियों के वेशान्तर में (ऐंद्रजालिक विद्या में) (क्षति पहुँचाना) धातु से उत्पन्न माना जाता है। किन्तु अत्यंत प्रवीण थे (अ. वे.७.१०४).भाई, पति अथवा कई अभ्यासकों के अनुसार, यहाँ रक्ष धातु का अर्थ रक्षित प्रेमी का वेश ले कर ये लोग स्त्रियों के पास जाते थे, एवं करना लेना चाहिये, एवं रक्षस्' शब्द की व्युत्पत्ति 'वह, उनकी संतानों को नष्ट कर देते थे (अ.वे. १०.१६२)। जिससे रक्षा करना चाहिये' माननी चाहिये। बर्गेन के आहार--ये लोग मनुष्यों एवं अश्वों का मांस भक्षण | अनुसार, ये लोग किसी दिव्य संपत्ति के 'रक्षक (लोभी) करते थे एवं गायों का दूध पिते थे (ऋ. १०.८७)। थे, जिस कारण इन्हें रक्षस् नाम प्राप्त हुआ था। माँस एवं रक्त की अपनी क्षुधा तृप्त करने के लिए, ये| रक्षस कल्पना का विकास-दैनिक जीवन में मनुष्यलोग प्रायः मनुष्य के शरीर में प्रवेश कर उन पर आक्रमण | जाति पर उपकार करनेवाले आधिभौतिक शक्ति को प्राचीन करते थे। मनुष्यों के शरीर में इनका प्रवेश (आ विश) | साहित्य में देव नाम दिया गया। उसी तरह मनुष्यजाति रोकने के लिए ऋग्वेद में अग्नि का आवाहन किया गया | को घिरा कर उन्हें क्षति पहूँचानेवाले दुष्टात्माओं की कल्पना विकसित हो गयी, जिसका ही विभिन्न रूप असुर, मनुष्यों को पीडा--ये लोग प्रायः भोजन के समय रक्षस् , पिशाच आदि में प्रतीत होता है। इस तरह इन मुख से मनुष्यों के शरीर में प्रवेश करते थे, एवं तत्पश्चात् | सारी जातियों को मनुष्यों को त्रस्त करनेवाले दुष्टात्माओं उनके माँस को विदीर्ण कर उन्हे व्याधी-ग्रस्त कर देते थे। | का वैयक्तीकृत रूप कहा जा सकता है। Page #735 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रक्षस् प्राचीन चरित्रकोश रक्षस् इस कल्पना का प्रारंभिक रूप इंद्र एवं वृत्रासुर के | वैदिक साहित्य में किया गया। भारतीय वैदिक आर्यों युद्ध में प्रतीत होता है। बाद में वही कल्पना क्रमशः में सुर देवों की पूजा प्रस्थापित होने के पूर्वकाल में प्रायः देवों एवं असुरों के दो परस्परविरोधी एवं संघर्षरत सभी वैदिक देवताओं को 'असुर' कहा गया है, जिनके दलों के रूप में विकसित हुयी। नाम निम्नलिखित है :-अग्नि (ऋ. ३.३.४ ); इन्द्र असुरों का वैयक्तीकरण--वैदिक साहित्य में रक्षस् एवं (ऋ. १.१७४.१); त्वष्ट्र (ऋ. १.११०.३); पर्जन्य (ऋ. पिशाचों की अपेक्षा, असुरों का वैयक्तीकरण अधिक प्रभाव- ५.८३.६); पूषन् (ऋ. ५.५१.११); मरुत् (ऋ. १. शाली रूप में आविष्कृत किया गया है, जहाँ देवों से | ६४.२)। विरोध करने वाले निम्नलिखित असुरों का निर्देश स्पष्ट उपनिषदों में--छांदोग्य उपनिषद में विरोचन दैत्य की रूप से प्राप्त है:-अनर्शनि (ऋ. ८.३२); अर्बद (ऋ. कथा प्राप्त है, जिसमें देव एवं असुरों के जीवन एवं आत्म१०.६७); इलीबिश (ऋ. १.१.३३); उरण (ऋ. २. ज्ञानविषयक तत्त्वज्ञान का विभेद अत्यंत सुंदर ढंग से दिया १४) चुमुरि (ऋ. ६.२६); त्वष्ट (ऋ. १०.७६); गया है। उस कथा के अनुसार, प्रजापति के मिथ्याकथन दभीक (ऋ.२.१४); धुनि (२.१५); नमुचि (ऋ. २. को सही मान कर, विरोचन दैव्य आँखों में, आइने में, एवं १४.५); पिघु(ऋ.१०.१३८); रुधिका (ऋ.२.१४.५); पानी में दिखनेवाले स्वयं के परछाई को ही आत्मा समझ बल (ऋ. १०.६७); वर्चिन् (ऋ. ७.९९); विश्वरूप बैठा। इस तरह छांदोग्य उपनिषद के अनुसार, मानवी (ऋ. १०.८); वृत्र (ऋ5 ८.७८); शुष्ण (ऋ. ४.१६); देह का अथवा उसकी परछाई को आत्मा समझनेवाले श्रबिंद (ऋ.८.३२); स्वर्भान (ऋ. ५.४०)। मैत्रायणि तामस लोग असुर कहलाते हैं। आगे चल कर, इन्ही असुर संहिता में कुसितायी नामक एक राक्षसी का निर्देश प्राप्त लोगों की परंपरा देहबुद्धि को आत्मा मानने की भूल है, जिसे कुसित की पत्नी कहा गया है (मै. सं. ३.२. | करनेवाले चार्वाक आदि तत्वज्ञों ने चलायीं (छां. उ. ८.७, विरोचन देखिये)। ऋग्वेद में--स्वयं देवता हो कर भी. जिनमें मायावी अष्टाध्यायी में-पाणिनि के अष्टाध्यायी में रक्षस , असुर अथवा गुह्यशक्ति हो, ऐसे देवों को भी ऋग्वेद में 'असर' आदि लोगों का अलग अलग निर्देश प्राप्त है । वहाँ निम्नकहा गया है। इससे प्रतीत होता है कि, अमरों की लिखित असुरों का निर्देश देवों के शत्रु के नाते से किया गया दृष्टता की कलना उत्तर ऋग्वेदकालीन है। ऋग्वेदरचना के है :--दिति, जो दैत्यों की माता थी (पा. सू. ४.१.८५ ): प्रारंभिक काल में गुह्य शक्ति धारण करनेवाले सभी देवों कद्रू, जो सपों की माता थी (पा. सू. ४.१.७१)। इनके को 'असुर' उपाधि प्रदान की जाती थी। जेंद अवेस्ता | अतिरिक्त निम्नलिखित असुर जातियों का भी निर्देश में भी असरों का निर्देश, 'अहर' नाम से किया गया अष्टाध्यायी में प्राप्त है :-असुर (पा. सू. ४.४.१२३); है। ऋग्वेद एवं अवेस्ता में असुर (अहुर) शब्द, कई रक्षस् (पा. सू. ४.४.१२१); यातु (पा. सू. ४.४.१२१)। जगह एसी सर्वोच्च देवताओं के लिए प्रयुक्त किया गया इसी ग्रंथ में 'आसुरी माया' का निर्देश भी प्राप्त है, जिसका है, जो पामप्रतापी माने गये हैं। झरतुष्ट धर्म का आद्य प्रयोग असुर विद्या के लिए होता था (पा. सू. ४.४. संस्थापक अहुर मझ्द स्वयं एक असुर ही था। १२३)। इरान में असुरपूजा--कई अभ्यासकों के अनुसार, अष्टाध्यायी में असुर, पिशाच एवं रक्षस् इन तीनों वैदिक आर्य प्राचीन पंजाब देश में आये, उस समय उन जातियों का निर्देश 'आयुधजीवी' संघों में किया गया है, में 'सुर' एवं 'असुर' दोनों देवों की पूजा पद्धति शुरु थी। जिनकी जानकारी निम्नप्रकार है :-- कालोपरान्त वैदिक आयों की दो शाखाएँ उत्पन्न हुयी, (१) असुर-पशुसंघ की भाँति असुर लोग भी मध्य जिनमें से असुर देवों की उपासना करनेवाले वैदिक आर्य | एशिया में रहते थे, जिनका निवासस्थान आधुनिक मध्य एशिया में स्थित इरान में चले गये। दूसरी शाखा | असिरिया में था। ये लोग वैदिक आर्यों के पूर्वकाल में भारत में रह गयी, जिसमें सुर देवों की पूजा जारी रही। भारतवर्ष में आये.थे, एवं सिंधु-घाटी में स्थित सिंधु सभ्यता इसी कारण उत्तरकालीन भारतीय वैदिक साहित्य में | के जनक संभवतः यही थे । बहिस्तून के शिलालेख में 'असुर' देव निंद्य एवं गर्हणीय माने जाने लगे, एवं उन्हें । इनका निर्देश 'अथुरा' एवं 'अश्शुर' नाम से किया देवताविरोधी मान कर उनका चरित्रचित्रण उत्तरकालीन | गया है। अष्टाध्यायी में पशु आदि आयुधजीवी गण में प्रा. च. ९०] ७१३ Page #736 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रक्षस् प्राचीन चरित्रकोश रघु इन्हें समाविष्ट किया गया हैं (पा. सू. ५.३.११७; पा- | अपने पुत्र यदु को 'यातुधान' नामक राक्षस संतति निर्माण दिगण)। भांडारकरजी के अनुसार, शतपथ ब्राह्मण में | करने का शाप देने की कथा प्राप्त है ( यदु देखिये)। असुरों के मगध ( दक्षिण बिहार) में स्थित उपनिवेशों का सामान्य उपाधि-आगे चल कर, राक्षस एवं दैत्य निर्देश प्राप्त है। एक वांशिक उपाधि न रह कर, किसी भी दुष्ट, धर्मविहीन एवं खलप्रवृत्त राजा को ये उपाधियाँ लगायी जाने लगी, (२) रक्षस--उत्तरी बलूचिस्थान के चगाई प्रदेश में जिसके उदाहरण निम्नप्रकार है:-१. यादवराजा मधु, रहनेवाले आधुनिक रक्षानी लोग संभवतः यही होंगे। जो वास्तव में पूरुवंशीय ययाति एवं यदु राजाओं का इन्हे राक्षस भी कहते थे। वंशज था; २. कंस, जो वास्तव में मथुरा देश का यादव (३) पिशाच-प्राचीन वाङ्मय में कच्चा माँस खानेवाले | राजा था; ३. लवण माधव, जो मधु राजा का ही वंशज लोगों को 'पिशाच' सामुहिक नाम प्रदान किया गया है। | था; ४. जरासंध, जो वास्तव में मगध देश का भरतवंशीय ग्रीअरसन के अनुसार, उत्तर-पश्चिम सीमान्त प्रदेश में | राजा था। इसी तरह बौद्ध तथा जैन लोगों को, एवं दक्षिण दरदिस्थान एवं चितराल प्रदेश के लोगों में कच्चा माँस खाने | भारत के द्रविड लोगों को पुराणों में असुर एवं दैत्य कहा का रिवाज था, जिस कारण, इस प्रदेश के लोग ही प्राचीन गया है (ब्रह्म. १६०.१३; विष्णु. ३.१७.८-९)। पिशाच लोग होने की संभावना है। बर्नेल के अनुसार, रक्षा--ऋक्ष ऋषि की बहन, जो प्रजापति की पत्नी आधुनिक लमगान प्रदेश में रहनेवाले पशाई काफि | थी। इसके पुत्र का नाम जांबवत् था (ब्रह्मांड.३.७.२९९लोग ही प्राचीन पिशाच लोग थे (पिशाच देखिये)। ३००)। पुराणों में--पुराणों में असुर, दानव, दैत्य एवं राक्षस रक्षिता--एक अप्सरा, जो कश्यप एवं प्राधा की जातियों का स्वतंत्र निर्देश प्राप्त है (मत्स्य. २५.८; १७ | कन्याआ म स एक था । ३०; ३७; २६.१७)। किन्तु इन ग्रंथों में इन सारी | रक्षोहन् ब्राह्म--एक वैदिक सूक्तद्रष्टा (ऋ.१०. जातियों का स्वतंत्र अस्तित्व नष्ट हो कर, अनार्य एवं दुष्ट लोगों | १६२)। के लिए ये सारे नाम उपाधि की तरह प्रयुक्त किये गये प्रतीत रघु-(सू. इ.) एक सुविख्यात इक्ष्वाकुवंशीय राजा, होते हैं । महाभारत एवं पुराणों में निर्दिष्ट रक्षस् ( राक्षस), जिसका निर्देश महाभारत में प्राप्त प्राचीन राजाओं की असुर, दैत्य एवं दानव निम्न हैं:-१. वृषपर्वन् , जो दैत्य नामावलि में प्राप्त है (म.आ.१.१७२)। भागवत, विष्णु एवं दानवों का राजा था, एवं जिसकी कन्या शर्मिष्ठा का एवं वायु के अनुसार, यह दीर्घबाहु राजा का पुत्र, एवं विवाह पूरुवंशीय ययाति राजा से हुआ था; २. शाल्वलोग, | दिलीप खट्वांग राजा का पौत्र था। मत्स्य एवं पद्म में इसे जिन्हे दानव एवं दैत्य कहा गया है, एवं जिनका राज्य अबु निन नामक राजा का पुत्र कहा गया है (पन. सृ.८)। किन्तु पहाड़ी के प्रदेश में था; ३. हिडिंब, जो राक्षसों का राजा निघ्न राजा के पुत्र का नाम रघूत्तम था, जो संभवतः इक्ष्वाकुथा, एवं जिसकी बहन हिडिंबा का विवाह भीमसेन पाण्डव वंशीय होते हुये भी रघु राजा से अलग था (निम्न देखिये )। के साथ हुआ था; ४. घटोत्कच, जो राक्षसों का राजा था, कालिदास के रघुवंश में इसे दिलीप राजा का पुत्र एवं जो भारतीय-युद्ध में पाण्डवों के पक्ष में शामिल था; | कहा गया है, जो उसे नंदिनी नामक धेनु के प्रसाद ५. भगदत्त, जो प्राग्ज्योतिषपुर के म्लेंच्छ लोगों का राजा से प्राप्त हुआ था (र. व. २)। रघुवंश में प्राप्त यह था, एवं जिसके राज्य पर पूर्वकाल में सदियों तक दानव, कथा पन में भी पुनरुक्त है (पन. उ. २०३)। दैत्य एवं दस्युओं का राज्य था; ६. हिरण्यकशिपु, हिरण्याक्ष यह इक्ष्वाकुवंश का एक श्रेष्ठ राजा होने के कारण इसे प्रह्लाद एवं बलि, जो सर्वश्रेष्ठ असुरसम्राट माने जाते थे; अयोध्या का पहला राजा कहा गया है ( ह. वं. १.१५. ७. रावण, जो लंका में स्थित राक्षसों के राज्य का अधिपति २५)। इसकी महत्ता के कारण, आगे चल कर, इक्ष्वाकुथा; ८. बाण, जो दैत्यों का राजा था, एवं जिसकी कन्या वंश 'रघुवंश' नाम से सुविख्यात हुआ। उषा का विवाह श्रीकृष्ण के पौत्र अनिरुद्ध से हुआ था। पराक्रम-इसके पराक्रम एवं दानशूरता की कथा रघु___पुराणों में प्राप्त पुलस्त्य, पुलह एवं अगस्त्य ऋषि की वंश एवं स्कंद में प्राप्त है । एक बार दशदिशाओं में विजय सतान राक्षस कही गयी हैं (वायु. ७०.५१-६५)। कर, इसने विपुल संपत्ति प्राप्त की, एवं अपने गुरु वसिष्ठ ययाति राजा के सुविख्यात आख्यान में, उसके द्वारा की आज्ञानुसार विश्वजित् यज्ञ किया। उस यज्ञ के कारण, ७१४ Page #737 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन चरित्रकोश राज इसकी स्मरी संपत्ति व्यतीत हुयी, एवं यह निष्कांचन बन रजन कोणेय अथवा कोणेय--एक आचार्य, जो गया। अंधा था (तै. सं. २.३.८.१; क. सं. २७.२)। क्रतुजित् इसी अवस्था में विश्वामित्र ऋषि का शिष्य कौत्स इसके | जानकि नामक आचार्य ने इसके लिए सफलतापूर्वक यज्ञ पास द्रव्य की याचना करने आया, जो उसे अपनी गुरु- संपन्न कर, इसे पुनः दृष्टि प्रदान की थी (क. सं. ११.१)। दक्षिणा की पूर्ति करने के लिए आवश्यक था । यह स्वयं इसके पुत्र का नाम उग्रदेव राजनि था (पं. ब्रा. १३.४. द्रव्यहीन होने के कारण, कौत्स की माँग पूरी करने के | ११)। लिए इसने कुबेर पर आक्रमण किया, एवं उसे इसके अथर्ववेद में इसे कुष्टरोगी बताया गया है, एवं रजनी राज्य पर स्वर्ण की वर्षा करने के लिए मजबूर किया । इस नामक पौधे के द्वारा यह पुनः निरोगी होने का निर्देश स्वर्ण में से कौत्स ने चौदह करोड़ सुवर्णमुद्रा दक्षिणा के | प्राप्त है (ब्लूमफिल्ड, अ. वे. २६६.२६७)। रूप में स्वीकार ली, एवं उन्हें अपने गुरु विश्वामित्र को रजि-(सो. पुरूरवस् .) पुरूरवस्वंशीय एक राजा, दक्षिणा के रूप में दी (स्कंद. २.८.५)। रघुवंश में यही जो प्रतिष्ठान देश के आयु राजा के पाँच पुत्रों में से एक था। कथा प्राप्त है, किन्तु वहाँ कौत्स के गुरु का नाम विश्वा इसकी माता का नाम प्रभा था, जो दानव राजा स्वर्भानु मित्र की जगह वरतंतु बताया गया है (र, वं. ५)। की कन्या थी (म. आ. ७०.२३)। इसके अन्य चार महाभारत के अनुसार, इसे अपने पूर्वज युवनाश्व राजा | भाईयों के नाम क्रमशः नहुष, क्षत्रवृद्ध, (वृद्धशर्मन् ), रंभ, के द्वारा दिव्य खड्ग की प्राप्ति हुयी थी, जो आगे चल | एवं अनेनस् (विपाप्मन्) थे। कर इसने अपने वंशज हरिणाश्व को प्रदान किया था यह एवं इसके 'राजेय क्षत्रिय' नामक वंशज इन्द्र के (म. शां. १६०.७६)। साथ स्पर्धा करने से विनष्ट होने की कथा कई पुराणों में रघु के पश्चात् इसका पुत्र अज अयोध्या का राजा | प्राप्त है। यह स्वयं अत्यंत पराक्रमी था, एवं युद्ध में जिस हुआ, जिसका पुत्र दशरथ एवं पौत्र राम दाशरथि इक्ष्वाकु | पक्ष में रहता था, उसे विजय प्राप्त कराता था। एक बार वंश के सर्वश्रेष्ठ राजा साबित हुयें। देवासुर संग्राम में इंद्रपद प्राप्ति की शर्त पर यह देवों . रंगदास-एक शद्र, जो वेंकटाचल पर्वत पर स्थित के पक्ष में शामिल हुआ। उस समय इन्द्र भी स्वयं दुर्बल श्रीनिवास का परमभक्त था । इसने वेंकटाचल में अनेक | बन गया था, एवं स्वग का राज्य सम्हालने की ताकद उसमें मंदिर बँधवाये थे (स्कंद. २.१.९)। नही थी। इस कारण इंद्र ने खुशी से अपना राज्य इसे रंगवेणी--सारंग नामक गोप की कन्या. जो पूर्वजन्म प्रदान किया । इस तरह यह स्वयं इंद्र बन गया। में हरिधामन् नामक ऋषि थी (हरिधामन् देखिये)। आगे चल कर इससे सैंकडो पुत्र उत्पन्न हये, जो 'राजेय . रचना--विरोचन दैत्य की यशोधरा नामक कन्या का | क्षत्रिय' सामूहिक नाम से सुविख्यात थे। वे सारे पुत्र नामान्तर (यशोधरा देखिये)। नादान थे, एवं इंद्रपद सम्हालने की ताकद उनमें से रज-एक सप्तर्षि, जो वसिष्ठ एवं ऊर्जा के पुत्रों में | किसी एक में भी न थी। इस कारण, इन्द्र ने देवगुरु से एक था। बृहस्पति की सलाह से उन पुत्रों को भ्रष्टबुद्धि बना कर २. धर नामक वसु के पुत्रों में से एक । उनका नाश किया, एवं उनसे इंद्रपद ले लिया (भा. ९. ३. (स्वा. नाभि.) एक राजा, जो विष्णु के अनुसार | १७; वायु . ९२. ७६-१००; ब्रह्म ११, ह. वं. १.२८; विरज राजा का पुत्र था। मत्स्य. २४. ३४-४९)। ४. स्कंद का एक सैनिक (म. श. ४४.६८)। | वायु में इसे विष्णु का अवतार बताया गया है, एवं रजत-शक्राचार्यपुत्र के वरत्रिन् के तीन यज्ञविरोधी | इसके द्वारा कोलाहल पर्वत पर दानवों के साथ किये गये पुत्रों में से एक (वरत्रिन् देखिये)। युद्ध का निर्देश किया गया है । इस युद्ध में देवताओं की रजतनाभ--एक यक्ष, जो यक्ष एवं ऋतुस्थला के | सहाय्यता से इसने दानवों पर विजय प्राप्त की थी ( वाय. पुत्रों में से एक था। इसकी पत्नी का नाम मणिवरा था, | ९९.८६)। जो अनुहाद नामक राक्षस की कन्या थी। उससे इसे | २. एक दानव राजा, जिसका इंद्र ने पिठीनस् नामक मणिवर एवं मणिभद्र नामक दो पुत्र उत्पन्न हुये थे। राजा के संरक्षण के लिए वध किया था (ऋ.६.२६.६)। Page #738 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रजि प्राचीन चरित्रकोश रत्नावलि सायणाचार्य के अनुसार, रजि एक स्त्री का नाम है, जिसे | यह ब्रह्मा की सभा में रह कर उसकी उपासना करने इंद्र ने पिठीनस् राजा को प्रदान किया था। लगी (म. स. ११.१३२%)। रजेयु-(सो. पूरु.) एक राजा, जो वायु के अनुसार अगले जन्म में इसे शंबरासुर की पत्नी मायावती का रौद्राश्व राजा का पुत्र था। भागवत एवं विष्णु में इसे | जन्म प्राप्त हुआ, जिस समय इसने श्रीकृष्णपुत्र प्रद्युम्न 'ऋतेयु,' एवं मत्स्य में इसे 'औचेयु' कहा गया है। के रूप में अपने पति कामदेव को पुनः प्राप्त किया रज्जुकंठ-एक व्याकरणकार, जिसका उल्लेख | ( पझ. पा. ७०, प्रद्युम्न देखिये )। अपने इस जन्म में पाणिनि के अष्टाध्यायी में एक वैदिक शाखाप्रवर्तक ऋषि | इसकी उम्र अपने पति प्रद्युम्न से अधिक थी ( पद्मा. भू. के नाते किया गया है (पाणिनि देखिये )। १०३)। रज्जुबाल-जटायु के पुत्रों में से एक। २. अलकापुरी की एक अप्सरा, जिसने अष्टावक्र के रज्जुभार-एक व्याकरणकार, जिसका उल्लेख पाणिनि | स्वागतसमारोह में कुवेर भवन में नृत्य किया था (म.. के अष्टाध्यायी में एक वैदिक शाखाप्रवर्तक ऋषि के नाते अनु. १९.४५)। किया गया है ( पाणिनि देखिये) ३. अजनाभ वर्ष के राजा ऋषभदेव के वंशज विभु रण-एक राक्षस, जिसका हिरण्याक्ष एवं देवताओं के | के राजा की पत्नी (भा.५. १५. १६)। इसके पुत्र का दरम्यान हुए युद्ध में वायु के द्वारा वध हुआ था (पद्म. नाम पृथुषेण था। सू. ७०५)। रतिकला--श्रीकृष्ण की एक प्राणसखी। ... रणक--(सू. इ. भविष्य.) अयोध्या का एक राजा, | रतिगुण--एक देवगंधर्व, जो कश्यप एवं प्राधा के जो भागवत के अनुसार क्षुद्रक राजा का पुत्र था। इसे | पुत्रा पत्र था। इसे पुत्रों में से एक था। 'कुलक' नामान्तर भी प्राप्त था। रतिनार--पुरुवंशीय रंतिभार राजा का नामान्तर । रणंजय-(सू. इ. भविष्य.) अयोध्या का एक राजा, | __रतिविदग्धा-हस्तिनापुर की एक वेश्या, जिसे जो कृतंजय राजा का पौत्र, एवं बात राजा का पुत्र था। ब्राह्मणों को अन्नदान करने के पुण्य के कारण, मृत्य की भागवत, विष्णु एवं भविष्य में इसे कृतंजय राजा का ही | पश्चात् वैकुंठ की प्राप्ति हुयी ( पन. क्रि. २०)। पत्र कहा गया है। मत्स्य के अनुसार, इसे 'रणेजय' रातिसवेस्वा--श्रीकृष्ण की एक प्राणसी (पन.. नामान्तर प्राप्त था। पा. ७४)। . SO-वैवस्वत मनपन पत्र के तीन पत्रों में से रत्नकुटा--अत्रि ऋषि की पत्नियों में से एक (ब्रह्मांड. एक (धृष्ट देखिये)। ३. ७४-८७)। रणाश्व-(सू. इ.) अयोध्या का एक राजा, जो | रत्नग्रीव-कांचन नगरी का एक राजा, जो विष्णु का मत्स्य एवं पद्म के अनुसार संहताश्व राजा का पुत्र था। परम भक्त था । नील पर्वत पर श्रीविष्णु की उपासना करने के कारण, इसे सरूप मुक्ति प्राप्त हो कर, यह रणेजय-अयोध्या के रणंजय राजा का नामान्तर। विष्णुलोकवासी बन गया ( पद्म. पा. १७-२२)। रणोत्कट--स्कंद का एक सैनिक (म. श. ४४. रत्नचूड--पाताललोक का एक राजा (रत्नावलि २६४%)। देखिये)। रता-दक्षप्रजापति की एक कन्या, जो धर्मऋषि । रत्ना-यादवराजा अक्रूर की पत्नियों में से एक । की पत्नी थी । अहन् नामक वसु इसका पुत्र था (म. रत्नाकर--एक वैश्य, जो एक बैल के द्वारा मारा आ. ६०.१९)। | गया था। इसकी मृत्यु के समय धर्मस्व नामक एक ब्राहाण रति-धर्म ऋषि के पुत्र कामदेव की पत्नी (म. आ. | ने इस पर गंगोदक का संमार्जन किया, जिस कारण इसे ६०.३२; भा १०. ५५.७)। यह दक्षप्रजापति के धर्म- | विष्णुलोक की प्राप्ति हो गयी (पद्म. क्रि. ७)। बिन्दुओं से उत्पन्न हुयी थी (कालि.३; शिव, रुद्र. स. रत्नांगद-पाण्ड्य देश के वज्रांगद राजा का नामान्तर ४)। शिव के तृतीय नेत्र से कामदेव का भस्म होने पर, | (वज्रांगद देखिये)। यह अत्यधिक शोक करने लगी, जब शिव ने स्वयं प्रकट | रत्नावलि--एक राजकन्या, जिसे रत्नेश्वर नामक हो कर इसे सांत्वना दी ( पद्म. सु. ४३)। पश्चात्, शिवमंदिर में शिव की नृत्योपासना करने के कारण, पाताल ७१६ Page #739 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रत्नावलि प्राचीन चरित्रकोश रथीतर लोक का रत्नचूड नामक राजा पति के रूप में प्राप्त रथराजी--वसुदेव की पत्नियों में से एक । हुआ (कंद. ४.२.६७)। रथवर--(सो. क्रोष्टु.) एक यादव राजा, जो वायु रथकार--एक जातिविशेष, जो वैश्यों से हीन, किन्तु के अनुसार भीमरथ राजा का पुत्र था। शूद्रों से श्रेष्ठ मानी जाती थी (क. सं. १७.१३; श. बा. रथवाहन--मत्स्यनरेश विराट के भाईयों में से एक। १३.४.२.१७)। याज्ञवल्क्य के अनुसार, 'माहिष्य' भारतीय युद्ध में यह पाण्डवों के पक्ष में शामिल था (क्षत्रिय पति एवं वैश्य पत्नी का पुत्र), एवं 'करणी' (म. द्रो. १३३.३९)। विश्य पति एवं शूद्र पत्नी की कन्या) इन दोनों की संतान रथवीति दार्य-एक ऋषि, जो हिमालय के दूरस्थ रथकार नाम से कहलायी जाती थी (याज्ञ. १.९५)। पर्वतों में गायों से परिपूर्ण (गोमतीर अनु ) प्रदेश में किन्त ऐतिहासिक दृष्टि से, इन्हे रथ का निर्माण करने | रहता था (क. ५.६१.१७-१९)। एक बार आधगु वाली एक जातिविशेष मानना ही अधिक सयुक्तिक प्रतीत श्यावाश्व नामक आचार्य ने, तरंत नामक राजा के यज्ञ में होता है । हिलेब्रान्ट के अनुसार, ये लोग अनु जाति से ही होमकर्म करने के लिए इसे आमंत्रित किया । उस समय उत्पन्न हुये थे। अनु एवं रथकार ये दोनो जातियाँ उन यह अपनी कन्या को साथ ले कर यज्ञ करने गया । वहाँ ऋभुओं की उपासक थी, जो स्वयं अत्यंत उत्कृष्ट रथ श्यावाश्व के पिता अर्चनानस् आत्रेय ने अपने वेदवेत्ता पुत्र बनाती थी (वेदिशे माइथोलोजी, ३.१५२-१५३)। के लिए इसके कन्या की माँग की । किन्तु इसने साफ़ रथकृत--एक यक्ष, जो धातृ नामक आदित्य के साथ | इन्कार कर दिया, एवं श्यावाश्व को अपने यज्ञ से बाहर चैत्रमाह में भ्रमण करता है (भा. १२.११.३३)। निकाल दिया। किन्तु अंत में तरन्त राजा के कहने पर ' रथजूति---अथर्ववेद में निर्दिष्टं एक व्यक्तिनाम | इसने अपनी कन्या श्यावाश्व को दे दी (ऋ. सायणभाष्य (अ. वे. १९.४४.३)। ५.६१)। रथध्वज-विदेह देश के कुशध्वज जनक राजा का | बृहद्देवता के अनुसार, तरन्त राजा को शशीयसी पिता। इसकी पौत्री का नाम, वेदवती था ( वेदवती नामक पत्नी से एक पुत्र उत्पन्न हुआ था, जिसके लिए देखिये)। उसने रथवीति के कन्या की माँग की थी (बृहद्दे. ५. रथध्वान-वीर नामक अग्नि का नामान्तर (वीर १०. ५०-८१)। देखिये)। | आधुनिक विद्वानों के अनुसार, रथवीति दार्म्य एक रथन्तर--एक. अग्नि, जो पांचजन्य नामक अग्नि का आचार्य न हो कर एक राजा था, एवं श्यावाश्व इसका पुत्र पुत्र था (म. व. २१०.७)। इसे 'तरसाहस' नामक था। श्यावाश्व ने अपने पिता एवं मरुतों की सहाय्यता से दो भाई थे। यह पांचजन्य के मुख से प्रकट हुआ था। अपने लिए एक पत्नी प्राप्त की थी, जिसका निर्देश २. एक साम, जो मूर्तिमान स्वरूप में ब्रह्मा की सभा में ऋग्वेद के उपर्युक्त सूक्त में प्राप्त है (ओल्डेनवर्गः ऋग्वेद उपस्थित रहता था (म. स. ११.२१)। इसीके द्वारा | नोटेन. १.३५३-३५४)। वसिष्ठ ऋषि ने इन्द्र का मोह दूर कर उसे प्रबुद्ध बनाया था। रथसेन--पाण्डव पक्ष का एक योद्धा, जिसके रथ के रथन्तरी अथवा रथन्तर्या--पूरुवंशीय दृष्यन्त राजा अश्व मटर के फूल के समान रंगवाले थे, एवं उनकी की माता, जो ईलिन (इलिल) राजा की पत्नी थी रोमराजी श्वेतलोहित वर्ण की थी (म. द्रो. २२.५८)। (म. आ. ९०.२९) । दृष्यन्त के अतिरिक्त इसे निम्न- रथस्वन--एक यक्ष, जो मित्र नामक सूर्य के साथ लिखित चार पुत्र थे:-शूर, भीम, प्रवसु एवं वसु ज्येष्ठ माह में भ्रमण करता है (भा. १२.११.३५)। (म. आ. ८९.१५)। रथाक्ष--स्कंद एक का सैनिक (म. श. ४४.५८)। रथप्रभु--वीर नामक अग्नि का नामान्तर (वीर १०. पाठभेद-' झषाक्ष' देखिये)। रथाग्रणी--एक योद्धा, जो रामचन्द्र के अश्वमेधीय रथप्रोत दार्य-मैत्रायणि संहिता में निर्दिष्ट एक | अश्व के संरक्षण के लिए शत्रन के साथ उपस्थित था आचार्य ( मै. सं. २.१.३)। कई अभ्यासकों के अनुसार, (पन. पा. ११)। यह एक पुरोहित न हो कर एक राजा था । दर्भ का वंशज | रथीतर--(सू. इ.) एक राजा, जो मनु वैवस्वतहोने से इसे 'दार्थ्य' पैतृक नाम प्राप्त हुआ होगा। । कुलोत्पन्न नाभागवंशीय पृषदश्व राजा का पुत्र था। ७१७ Page #740 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रथीतर प्राचीन चरित्रकोश रंतिदेव सांकृत्य नाभाग से ले कर रथीतर तक का वंशक्रम वायु में निम्न- | श्रेष्ठ राजाओं की नामावली में प्राप्त है । एक श्रेष्ठ दानी प्रकार प्राप्त है:-नाभाग–अंबरीष-विरूप--पृषदश्व | राजा के नाते इसका निर्देश महाभारत में पुनः पुनः प्राप्त --रथीतर ( वायु. ८८.५-७)। है (म. शां. २९. ११३-१२१)। स्थीतर ब्राह्मण-इसे कुल दो पुत्र थे, जो जन्म से ___मत्स्य, भागवत एवं विष्णु में इसे संकृति राजा का पुत्र क्षत्रिय हो कर भी आंगिरसवंशीय ब्राह्मणों में शामिल हो कहा गया है, जिस कारण इसे 'सांकृत्य' पैतृक नाम गयें। इसी कारण रथीतर वंश के लोग रथीतर गोत्र के प्राप्त हुआ था (म. अनु. १३७.६)। वायु के अनुसार क्षत्रिय ब्राह्मण बन गये (ब्रह्मांड. ३.६३.५-७), एवं इसे त्रिवेद नामान्तर प्राप्त था। इसकी माता का नाम उनका निर्देश आंगिरस कह कर किये जाने लगा | सत्कृति था। सुविख्यात पौरव राजा रंतिनार (मतिनार, (मत्स्य. १९६.३८)। रथीतर ब्राह्मण कौनसे समय रंतिभार) से यह काफी उत्तरकालीन था। भरत से लेकर आंगिरस वंश में शामिल हुये यह कहना मुष्किल है, रंतिदेव तक का वंशक्रम इस प्रकार है:--भरत-वितथकिन्तु बाद के पौराणिक साहित्य में उनका निर्देश प्रायः | भुवमन्यु-नर-संकृति-रंतिदेव । इस वंशक्रम से प्रतीत अप्राप्य है। रथीतर का निर्देश अंगिरस कुल का गोत्रकार। होता है कि, हस्तिनापुर का सुविख्यात सम्राट हस्तिन् एवं प्रवर नाम से किया गया है। इसका चाचा था। __ रथीतरों की ब्रह्मक्षत्रिय बनने की यही कथा भागवत में विपरीत रूप में दी गयी है, जिसके अनुसार, रथीतर | यज्ञपरायणता-इसका राज्य चर्मण्वती (आधुनिक राजा को पुत्र न होने के कारण, इसने अंगिरस् ऋषि से | चबल. चंबल) नदी के किनारे था, एवं इसकी राजधानी दशार संतति उत्पन्न करायी। रथीतर राजा की यही संतान नगरी में थी (मेघ. ४६-४८)। महाभारत में इसकी आगे चल कर रथीतर ब्राह्मण नाम से प्रसिद्ध हुयीं (भा. दानशूरता का, एवं इसके द्वारा किये गये यज्ञयागों का ९.६.३)। सविस्तर वर्णन प्राप्त है । अतिथियों की व्यवस्था के लिए २. बौधायन श्रौतसूत्र में निर्दिष्ट एक आचार्य (बौ.श्री. अपने राजगृह में इसने दो लाख पाकशास्त्रियों की नियक्ति २२.११; बृहद्दे. १.२६, ३.४० )। की थी। इसके यज्ञ में बलिप्राणि बन स्वर्ग प्राप्ति हो, इस उद्देश्य से यज्ञीय पशु स्वयं ही इसके यज्ञ में प्रवेश करते थे। रथीतर शाकपूर्ण-एक आचार्य, जो विष्णु के | अनुसार व्यास की ऋशिष्यपरंपरा में से सोमति एक बार एक गोयज्ञ करने के लिए इसके राज्य नामक आचार्य का शिष्य था। वायु एवं ब्रह्मांड में इसे | की गायों ने इसे विवश किया, किन्तु इनमें से एक सत्यश्री का शिष्य कहा गया है। विष्णु में इसे 'शाकपूर्ण माय आहुति देने के लिए नाराज़ दिखाई देने पर एवं ब्रह्मांड में 'शाकवैण' कहा गया है । वेबर के अनुसार, इसने अपना गोयज्ञ उसी क्षण बन्द कर दिया। यज्ञ में इन पाठभेदों में से 'शाकपूणि' पाठ ही सर्वाधिक स्वीकर- पशुओं की आहुति देने के बाद, उनकी बची हुयी चमडी णीय है। यह ऋग्वेद के तीन प्रमुख शाखाप्रवर्तक | यह नजीक ही स्थित नदी में फेंक देता था, जिस कारण आचार्यों में से एक माना जाता है। ऋग्वेद के अन्य दो | उस नदी को चर्मण्वती (चमड़ी को धारण करनेवाली) शाखाप्रवर्तक आचार्यों के नाम देवमित्र शाकल्य एवं | नाम प्राप्त हुआ था (म. अनु. १२३.१३)। बाष्कलि भारद्वाज थे। दानशूरता-इसने अपनी सारी संपत्ति दान में दी थी इसने ऋग्वेद की तीन संहिताओं की एवं निरुक्त। एव निरुक्त (म. द्रो. परि. १. क्र. ८. पंक्ति. ६९५)। इसका नियम की रचना की। इसके निम्नलिखित चार शिष्य थे:-- | था कि, इसके यहाँ आया हुआ अतिथि विन्मुख न लौटे। केतन, दालकि, शतबलाक, एवं नैगम । विष्णु के अनुसार, इसके इस नियम के कारण, इसके परिवार को काफी कष्ट निरुक्त ग्रंथ की रचना रथीतर के द्वारा न हो कर इसके सहने पडते थे। एक बार तो ४८ दिनों तक इसके परिवार शिष्य नैगम ने की थी। के सदस्यों को भूखा रहना पड़ा। अगले दिन यह अन्नरथोर्मि-प्रतर्दन देवों में से एक । ग्रहण करनेवाला ही था कि, कई शूद्र एवं चाण्डाल अतिथि रति-रन्तिनार राजा का नामान्तर (रन्तिनार देखिये)। इसके यहाँ आ पहूँचे । फिर उस दिन भी भूखा रह कर रंतिदेव सांकृत्य--(सो. पूरु.) सुविख्यात भरत- | इसने अपने अपना सारा अन्न उन्हें दे दिया ( भा. ९. वंशीय सम्राट, जिसका निर्देश महाभारत में प्राप्त सोलह २१)। अपने गुरु वसिष्ठ को विधिवत् अर्घ्यदान करने के ७१८ Page #741 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रंतिदेव सांकृत्य प्राचीन चरित्रकोश - रंभा कारण इसे स्वर्गप्राप्ति हो गयी (म. शां. २६.१७ | कन्या प्रभा इसकी माता थी। हरिवंश के अनुसार, इसे अनु. २००.६)। कोई पुत्र न था (ह. वं. १.२९) । किन्तु भागवत में इसका सांकृत्य ब्राह्मण-रंतिदेव राजा के एवं इसके भाई | वंशक्रम निम्नप्रकार दिया गया है:-रंभ-रभस-गंभीरगुरुधि के वंशज जन्म से क्षत्रिय हो कर भी ब्राह्मण बन | अक्रिय । रंभ के ये सारे वंशज जन्म से क्षत्रिय हो कर गये। इस कारण वे 'सांकृत्य ब्राह्मण' कहलाते थे।भी आगे चल कर ब्राह्मण बन गये ( भा. ९.१७.१०)। कालोपरान्त ये आंगिरस कुल में शामिल हो गये, जिसके | २. (सू. दिष्ट.) एक राजा, जो भागवत के अनुसार, एक गोत्रकार के नाते उनका निर्देश प्राप्त है ( वायु. विविंशति राजा का पुत्र था। इसके पुत्र का नाम खनिनेत्र ९९. १६०)। था। रतिनार--(सो. पूरु. ) सुविख्यात पूरुवंशीय सम्राट, ३. रामसेना का एक वानर (वा. रा. यु. २६)। जो ऋतेयु नामक राजा का पुत्र था। मत्स्य में इसे अंतिनार, ४. रंभ-करंम नामक दो दानवों में से एक। भागवत में इसे रंतिभार, एवं वायु में इसे रंति कहा गया | __ रंभ-करंभ--दानवद्वय, जो कश्यप एवं दनु के है। मत्स्य एवं वायु में इसके पिता का नाम क्रमशः | पुत्र थे । एक बार ये दोनों भाई पानी में तप कर रहे थे, औचेयु एवं रजेयु दिया. गया है। . जब इन्द्र ने मगर का रूप धारण कर इनमें से करंभ का इसकी पत्नी का नाम सरस्वती था (वायु. ९९. ध किया। १२९), जिसका नाम मत्स्य में मनस्विनी दिया गया है। अपने भाई की मृत्यु से रंभ अत्यधिक दुःखी हुआ, 'अपनी इस पत्नी से इसे निम्नलिखित चार पुत्र उत्पन्न एवं आत्महत्या करने के लिए उद्यत हुआ। उस समय हुये थे:--तंसु, महान् , अतिरथ एवं द्रुह्यु । कई पुराणों के अग्नि ने प्रकट हो कर इसे सान्त्वना दी, एवं वरप्रदान अनुसार, इसे अप्रतिरथ (प्रतिरथ ) नामक और एक किया. 'तुम्हारे वंश की परंपरा आगे चलानेवाला विजयी पुत्र भी था, जिसके पुत्र काण्व ने आंगिरसांतर्गत काण्व पुत्र तुम्हे प्राप्त होगा। अग्नि के इस वर के अनुसार, शाखा का प्रारंभ किया ( पार्गि. २२५)। इसे महिषासुर नामक एक पुत्र उत्पन्न हुआ। आगे चल . रभस--रामसेना का एक वानर (वा.रा. यु. ४. कर एक महिष के द्वारा रंभ का वध हुआ (दे. भा. . ३६ )। ५.२; शिव. उ. ४६)। . २. रावण पक्ष का एक राक्षस ( वा. रा. यु. ९.१)। रंभा--एक सुविख्यात अप्सरा, जो कश्यप एवं प्राधा ३. (सो. पुरूरवस् .) एक राजा, जो आयुपुत्र रंभ का की कन्याओं में से एक थी (म. आ. ५९.४८)। यह पुत्र था । महाभारत में इसे सोम एवं मनोहरा का पुत्र कहा | कुबेरसभा में रहती थी। अर्जुन के जन्मोत्सव में, एवं . गया है (म. आ. ६०.२१)। अष्टावक्र के स्वागतसमारोह में इसने नृत्य किया था रमेणक--तक्षक कुलोत्पन्न एक नाग, जो जनमेजय (म. आ. ११४.५१; अनु. १९.४४)। इसने इंद्रसभा के सर्पसत्र में मारा गया था (म. आ. ५२.७)। में भी अर्जुन के स्वागतार्थ नृत्य किया था (म. व. ४४. रमठ-एक म्लेंच्छ जाति, जो मांधातृ के राज्यकाल | २९)। में उसके राज्य में निवास करती थी (म. शां. ६५.१४)। कुबेरपुत्र नलकूबर के साथ यह पत्नी के नाते से रमण-एक वसु, जो धर नामक वसु के पुत्रों में से | रहती थी। एक बार रावण ने इस संबंध में इसकी खिल्ली एक था। उड़ायी, जिस कारण क्रुद्ध हो कर नलकूबर ने रावण को रमणक--एक राजा, जो प्रियव्रत पुत्र यज्ञबाहु के | शाप दिया, 'तुझे न चाहनेवाली किसी स्त्री से अगर तुं सात पुत्रों में से तीसरा था। इसका राज्य ( वर्ष ) इसीके बलात्कार करेगा, तो तुझे प्राणों से हाथ धोना पडेगा'। ही नाम से प्रसिद्ध था (मा.५.२०.९)। नलकूबर के इसी शाप के कारण राम के द्वारा रावण का २. एक राजा, जो प्रियव्रतपुत्र वीतिहोत्र के दो पुत्रों | वध हुआ (म. व. २६४.६८-६९)। से ज्येष्ठ था (भा. ५. २०.३१)। विश्वामित्र के तपोभंग के लिए इन्द्र ने इसे उसके पास रंभ-(सो. पूरूरवस् .) एक राजा, जो भागवत एवं भेजा था। किन्तु विश्वामित्र ने इन्द्र के षड्यंत्र को पहचान विष्णु के अनुसार, पुरूरवस् राजा का पौत्र, एवं आयु लिया, एवं क्रुद्ध हो कर इसे शाप दिया, 'तुम हजारों राजा के पुत्रों में से चौथा पुत्र था । स्वर्भानु असुर की | वर्षों तक शिला बन कर रहोगी (म. अनु. ३.११)। हा कर नलकूबर ने शाप दिया, का राज्य (वर्ष ७१९ Page #742 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रंभा वाल्मीकि रामायण के अनुसार, विश्वामित्र ने इसे ब्राह्मण के द्वारा उद्धार होने का उःशाप भी प्रदान किया था। स्कंद में श्वेतमुनि के द्वारा इसका उद्धार होने की कथा प्राप्त है । एकबार श्वेतमुनि का एक राक्षसी से युद्ध हुआ । उस समय तमुनि के द्वारा छोडे गये' वायु अस्त्र' के कारण वह राक्षसी एवं शिलाखंड बनी हुयी रंभा, दोनों भी आँधी में फँसकर 'कपितीर्थ में जा गिरी। इस कारण रंभा एवं राक्षसी का रूप प्राप्त हुयी वारांगना दोनों भी मुक्त हो गयीं (स्कंद्र. ३.१.३९ ) । महाभारत में अन्यत्र इसे तुंबरू नामक गंधर्व की पत्नी कहा गया है (म. उ. १०.११.११२ ) । किन्तु वाल्मीकि रामायण में इससे संबंध रखने के कारण, तुंबरू को विराध नामक राक्षस का रूप प्राप्त होने की कथा प्राप्त है ( वा. रा. अर. ४.१६-१९ ) । इससे प्रतीत होता है कि, सुंब इसका वास्तव पति नहीं था। प्राचीन चरित्रकोश २. मयासुर की पत्नी, जिससे इसे निम्नलिखित छः संतान उत्पन्न हुयी थी :-- मायाविन्, दुंदुभि, महिष, कालिका, अजकर्ण एवं मंदोदरी ( ब्रह्मांड. ३.६.२८ - २९) । रम्यक - - ( स्वा. प्रिय. ) ' रम्यककर्ष' नामक देश का राजा, जो भागवत के अनुसार, आशीघ्र राजा का पुत्र था । इसकी माता का नाम ' पूर्णवित्ति ' एवं पत्नी का नाम " रम्या' था। रहूगण " रशाद -- (सो. क्रोष्टु. ) एक यादव राजा, जो विष्णु एवं वायु के अनुसार 'स्वाहि राजा का भागवत के अनुसार 'श्राहि राज्य का एवं मास्य के अनुसार 'स्वाह' राजा का पुत्र था। भागवत में इसे कोकु, एवं विष्णु तथा मत्स्य में इसे 'रुपद्गु ' कहा गया है। 6 रश्मि -- सुतप देवों में से एक । के द्वारा मारा गया था (बा. रा. ६ . ९४०) । रश्मिकेतु-- रावण के पक्ष का एक राक्षस, जो राम यु. रश्मिवत् एक सनातन विश्वेदेव रस- तुषित देवों में से एक। रसद्वीचि -- अत्रिकुलोत्पन्न गोत्रकार हरप्रीति का नामांतर | - रसपासर एक आचार्य, जो वायु के अनुसार, व्यास की सामशिष्य परंपरा में से कुथुमि नामक आचार्य का शिष्य था । ब्रह्मांड में इसे पराशर कहा गया है। रसमंथरा, रसवल्लरी, रसालया -- श्रीकृष्ण की प्राणसखियाँ (पद्म. पा. ७४) । रसिप - एक दानव, जो कश्यप एवं दनु के पुत्रों में से एक था। रहस्युदेव मलिम्लुच -- एक व्यक्ति, जिसने 'मुनिमरण' नामक स्थान पर संततुल्य वैखानसों का वध किया (पं. बा. १४.४.७ ) । रहगण - एक परिवार, जिसमें गोतम राहूगण नामक ऋषि का जन्म हुआ था। शतपथ ब्राह्माण में इनका निर्देश 'राहूगण' नाम से प्राप्त है । इस पैतृक नाम को धारण. करनेवाले अनेक 'आचायों का निर्देश यहाँ प्राप्त है रम्यामेरु की नौ कन्याओं में से पांचवी कन्या, जो (श. ब्रा. १.४.१०-१९ ) । रम्यक राजा की पत्नी थी ( भा. ५.२.६३ ) वेद में गोतमऋषि का पैतृक नाम 'राग' बताया रय - - (सो. पुरूरवस् ) एक राजा, जो भागवत के गया है । गोतम के द्वारा रचित एक सूक्त में वह कहता अनुसार, पुरूरव राजा का पुत्र था। है, 'हम राहूगण अनि के इन मधुस्तोत्रों की रचना २. एक प्रजापति, जो स्वायंभुव मन्वन्तर के वसिष्ठ करते हैं' (ऋ. १.७८.५ गोतम ३. देखिये ) । गोतम ऋषि का पुत्र था । राहूगण विदेघ देश के माधव राजा का उपाध्याय था । २. सिंधुसौवीर देश का एक राजा, जिसका भरत (जड) नामक तत्वज्ञ के साथ संवाद हुआ था । " रवि-सौवीर देश का एक राजकुमार, जो जयद्रथ राजा का भाई था। यह जयद्रथ के पीछे हाथ में ध्वजा लेकर चलता था (म.व. २४९.१० ) । जयद्रथ के द्वारा दौपदी का हरण किये जाने पर हुये युद्ध में अर्जुन के द्वारा इसका वध हुआ था। एक बार यह पालकी में बैठकर कपिलाश्रम में प्रदाशान का उपदेश सुनने जा रहा था। जब यह इक्षुमती नदी के तट पर जा पहुँचा, उस समय वहाँ के अधिपति ने वह २. धृतराष्ट्र के शतपुत्रों में से एक, जो भीमसेन के भरत को पालकी उठाने के लिए पकड़ लाया। भरत स्वयं द्वारा मारा गया था ( म. श. २५.१२ ) । एक महान् तत्त्वज्ञ एवं सिद्ध पुरुष है, इसका पता चलते ही यह उसकी शरण में गया, एवं उससे शरीर तथा आत्मा की मिनाता के संबंध में इसने ज्ञान संपादन किया (मा. ५.१०-१४ भरत जड देखिये) । भागवत में प्राप्त 'भरत- रहूगण संवाद' में इक्षुमती नदी, चक्र नदी, शालग्राम तीर्थ, पुलख्य एवं पुलह ७२० Page #743 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रहूगण प्राचीन चरित्रकोश राज्ञी ऋषियों के आश्रम, कालंजर तीर्थ आदि तीर्थस्थानों का | गौतम ने कृतघ्नता से इसका वध किया । किन्तु राक्षसराज निर्देश प्राप्त है (भा. ५.८.३०; १०.१)। | विरूपाक्ष ने सुरभि गौ के दूध के झाग से इसे जीवित रहूगण आंगिरस-आंगिरसकुलोत्पन्न एक आचार्य, किया, एवं गौतम का वध किया। जीवित होने के पश्चात्, जिसके द्वारा रचित दो सूक्त ऋग्वेद में प्राप्त है (ऋ. ९. | इसने इन्द्र से गौतम को पुनः जीवित करने के लिए ३७-३८)। ऋग्वेद में एक कुलनाम के नाते रहूगण का | अनुरोध किया, जिस पर इन्द्र ने अमृत छिड़क कर निर्देश प्रायः प्राप्त है। किन्तु 'रहूगण आंगिरस' के गौतम को प्राणदान दिया। तत्पश्चात् इसने गौतम को निर्देश से प्रतीत होता है कि, रहूगण एक व्यक्तिनाम भी विपुल धन आदि दे कर बिदा किया (म. शां १६३था। १६७; गौतम ५. देखिये)। राका--अंगिरस् ऋषि की कन्या, जो भागवत के राजन्-सूर्य के दो द्वारपालों में से एक (भवि. ब्राह्म. अनुसार, उसे श्रद्धा नामक पत्नी से उत्पन्न हुई थी। ७६)। २. एक वैदिक देवता, जो समृद्धि एवं उदारता की राजनि--उग्रदेव नामक राजा का पैतृक नाम (पं. ब्रा. देवी मानी गयी है (ऋ. २.३२, ५.४२)। | १४.३.१७; ते. आ. ५.४.१२)। 'रजन' का वंशज होने से ३. एक राक्षसकन्या,. जो सुमाली राक्षस एवं केतुमती | उसे यह पैतृक नाम प्राप्त हुआ होगा। की कन्या थी । कुबेर की आज्ञा के अनुसार, यह विश्रवस् । राजन्यर्षि--सिंधुक्षितू राजा के लिए प्रयुक्त एक उपाधि ऋषि की परिचयां में रहती थी। आगे चल कर, उस ऋषि (पं. बा. १२.१२.६ )। क्षत्रिय ब्राह्मण राजाओं के लिए से इसे खर नामक राक्षस एवं शूर्पणखा नामक राक्षसी | यह उपाधि प्रयुक्त की जाति होगी। उपन्न हुयी (म. व. २५९.३-८)। यह रावण-कुंभकर्ण | राजवर्तप--कश्यपकुलोत्पन्न एक गोत्रकार। इसे एवं विभीषण की सौतेली माँ थी, जो सारे पुत्र विश्रवस | 'राजवल्लभ' नामान्तर भी प्राप्त था। ऋषि को पुष्पोत्कटा नामक पत्नी से उत्पन्न हुये थे। राजवल्लभ-राजवर्तप नामक कश्यपकुलोत्पन्न गोत्रकार ४. द्वादश आदित्यों में से धाता नामक आदित्य की | का नामान्तर | पत्नी। राजस्तंबायन--यज्ञवचस् नामक आचार्य का पैतृक रामकर्णि--राहकर्णि नामक अंगिराकलोत्पन्न गोत्रकार | नाम (श. बा. १०.४.२.१)। राजस्तंब का वंशज होने का नामान्तर। से उसे यह पैतृक नाम प्राप्त हुआ होगा। रागा--बृहस्पति आंगिरस ऋषि की सात कन्याओं | राचश्रवस वेन-देवी भागवत में निर्दिष्ट एक व्यारा । में से एक, जिसकी माता का नाम शुभा था। इसपर राजाज-शंभु राजा का एक पुत्र (ब्रह्मांड. ३.५.४० )। समस्त प्राणिसृष्टि अनुराग करती थी, जिस कारण इसका राजाधिदेव--(सो. विदू.) एक राजा, जो मत्स्य नाम रागा हुआ (म. व. २०८.४)। एवं पद्म के अनुसार, विदूरथ राजा पुत्र था । वायु में इसे राजक--(प्रद्योत. भविष्य.) एक राजा, जो भागवत | राज्याधिदेव कहा गया है। इसके पुत्र का नाम 'शोणाश्व' के अनुसार विशाखयूप राजा का पुत्र था। वायु एवं | था (पन. स. १३)। ब्रह्मांड में इसे 'अजक', विष्णु में 'जनक' एवं मत्स्य | राजाधिदेवी--सोमवंशीय शूर राजा की पाँच में 'सूर्यक' कहा गया है। वायु के अनुसार इसने ३१ | कन्याओं में से कनिष्ठ कन्या, जिसकी माता का नाम मारिषा वर्षों तक,एवं मस्त्य तथा ब्रह्म के अनुसार इसने २१ वर्षों था। इसका विवाह अवंती देश का राजा जयसेन से हुआ तक राज्य किया था। इसके पुत्र का नाम नंदिवर्धन था। था (भा. ९.२४.३१; १०.५८.३१)। राजकेशिन-अंगिराकुलोत्पन्न एक ऋषि। राजिक--एक आचार्य, जो वायु एवं ब्रह्मांड के राजधर्मन्-एक धर्मप्रवृत्त बकराज, जो कश्यपऋषि अनुसार, व्यास की सामशिष्यपरंपरा में से हिरण्यनाभ का पुत्र एवं ब्रह्मा का मित्र था (म. शां. १६३. १८-१९)। ऋषि का शिष्य था। इसे नाडिजंब नामान्तर भी प्राप्त था। एक बार गौतम राज्ञ--सूर्य का द्वारपाल (भवि. ब्राहा. १२४)। नामक एक कृतघ्न ब्राह्मण इससे मिलने आया, जिसका | राज्ञी--रैवत मनु की एक कन्या, जो विवस्वान् उचित आदर सत्कार कर, इसने अपने विरुपाक्ष नामक | आदित्य के तीन पत्नियों में से द्वितीय थी। इसके पुत्र राक्षस मित्र से उससे विपुल धन दिलाया। आगे चल कर | का नाम रेवत था। प्रा. च. ९१] ७२१ Page #744 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राज्यवर्धन प्राचीन चरित्रकोश राधा राज्यवर्धन--(सू. दिष्ट.) वैशाली देश का एक राजा, ऋग्वेद में इसे उषस् की छोटी बहन कहा गया है जो दम राजा का पुत्र था। दक्षिणनरेश विदूरथ राजा की | (ऋ. १.१२४ ) एवं उपस् के साथ इसका अनेक बार कन्या इसकी पत्नी थी। एक युगल रूप मे निर्देश किया गया है ('उषासानक्ता' यह बड़ा तपस्वी एवं त्रिकालदर्शी राजा था । अपनी | अथवा 'नक्तोषासा')। मृत्यु निकट आयी है यह बात ज्ञात होने पर, यह वार्ता अपनी बहन उषस् की भाँति इसे भी आकाश की इसने अपनी प्रजा को सुनायी, एवं तपस्या के लिए यह वन पुत्री कहा गया है। ऋग्वेद में रात्रि का एक सूक्त प्राप्त चला गया। है, जहाँ तारों से प्रकाशमान रात्रि का बड़ा ही काव्यमय पश्चात् इसकी प्रजा एवं अमात्यों ने सूर्य की आराधना | वर्णन प्राप्त है (ऋ. १०.१२७)। यह अपने तारकामय की, एवं उससे वर प्राप्त किया, 'तुम्हारा राज्यवर्धन राजा नेत्रों से प्रकाशित होती है, एवं अपने प्रकाश के द्वारा दस हजार वर्षों तक रोगरहित, जितशत्रु, धनधान्यसंपन्न अंधकार को भगाती है । इसके आने पर, अपने घोंसलों में एवं स्थिरयौवन अवस्था में जीवित रहेगा। लौट आनेवाले पक्षियों की माँति, मनुष्य अपने अपने घर तदोपरान्त इसकी प्रजा ने वन में जा कर इसे सूर्य के लौट आते हैं । चोरों को एवं भेड़ियों को दूर रखने के द्वारा प्राप्त वर की सुवार्ता कह सुनाई । किन्तु यह वार्ता लिए, तथा पथिकों को सुरक्षित स्थान पर पहुँचाने के लिये इसकी प्रार्थना की गयी है। सुन कर इसे सुख के बदले दुख ही अधिक हुआ। यह कहने लगा, 'इतने वर्षों तक जीवित रहने पर, मुझे पुत्र-पौत्रादि यह अपने मूर्तिमान् स्वरूप धारण कर स्कंद के अभिषेक तथा प्रजा की मृत्यु देखनी पड़ेगी, एवं मेरा सारा जीवित समारोह में उपस्थित हुई थी (म. श. ४४.१३)। दुःखमय हो जाएगा। इस दुःख से छुटकारा पाने के लिये | शची ने अपनी मनोकामना की पूर्ति के लिए इसकी इसने स्वयं अपनी प्रजा पौत्र एवं भृत्य आदि के लिए भी आराधना की थी (म. उ. १३.२१-२३)। दस हजार वर्षों की आयु का वरदान प्राप्त किया (मार्क. रात्रि भारद्वाजी-एक वैदिक सूक्तद्रष्ट्री (ऋ. १०. १०६-१०७)। १२७)। . राज्याधिदेव--विदूरथवंशीय राजाधिदेव राजा का राथीतर-सत्यवचस् नामक आचार्य का पैतृक नाम (तै. उ. १.९.१)। रथीतर का वंशज होने से उसे यह नामान्तर। पैतृक नाम प्राप्त हुआ होगा। इसके धर्मविषयक अनेक राड--एक आचार्य, जो वायु एवं ब्रह्मांड के अनुसार | मतों का निर्देश बौधायन श्रौतसूत्र में प्राप्त है (बौ. श्री. न्यास की सामशिष्य परंपरा में से कृति नामक ऋषि का ७.४)। शिष्य था। . राथीतरीपुत्र-एक आचार्य, जो भालुकिपुत्र नामक राडवीय--एक आचार्य, जो ब्रह्मांड के अनुसार | आचार्य का शिष्य था (बृ. उ.६.५.१ काण्व.)। अन्यत्र व्यास की सामशिष्यपरंपरा में से हिरण्यनाभ नामक इसे क्रौंचिकीपुत्र नामक आचार्य का शिष्य कहा गया है आचार्य का शिष्य था। (बृ. उ. ६.४.३२ माध्यं.)। इसके शिष्य का नाम राणायनि--एक आचार्य, जो व्यास की सामशिष्य- | शांडिलीपुत्र था। रथीतर के किसी स्त्री वंशज का पुत्र परंपरा में से लोकाक्षि नामक आचार्य का शिष्य था । इसी होने से, इसे 'राथीतरीपुत्र' नाम प्राप्त हुआ था। से ही आगे चल कर सामवेदीय ब्राह्मणों की 'राणाय राधगौतम-वंश ब्राह्मण में निर्दिष्ट एक आचार्यद्वय नीय' शाखा का निर्माण हुआ। सामवेदी लोगों के ब्रह्मा । (वं. बा. २)। ये गातुःनामक आचार्य के पुत्र, एवं गौतम यज्ञांगतर्पण में इसका निर्देश प्राप्त है (जै. गु. १.१४; | नामक आचार्य के शिष्य थे। गोभिल एवं द्राह्यायण देखिये)। राधा-कृष्ण की सुविख्यात प्राणसखी एवं उपासिका, राणायनीपुत्र--एक आचार्य (ला. श्री. ६.९.१६)। जिसका निर्देश गोपालकृष्ण की बाललिलाओं में पुनः पुनः रातहव्य आत्रेय-एक वैदिक सूक्तद्रष्टा (इ. ५. प्राप्त है। गोकुल में रहनेवाले एवं राधा के साथ नानाविध ६५-६६)। क्रीडा करनेवाले 'गोपालकृष्ण' का निर्देश पतंजलि के रात्रि--रात्रि की एक अधिष्ठात्री देवी, जिसका | व्याकरण महाभाष्य, महाभारत एवं नारायणीय आदि निर्देश ऋग्वेद में 'नक्ता' नाम से किया गया है। ग्रंथों में अप्राप्य है। इसके नाम का सर्वप्रथम निर्देश ७२२ Page #745 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन चरित्रकोश हरिवंश, वायु एवं भागवत में प्राप्त है, जिनका रचना- मानवयोनि में जन्म प्राप्त होगा, जिस समय तुम्हे कृष्ण बाल ई. स. तीसरी शताब्दी माना जाता है। से काफी विरह सहना पड़ेगा (नारः २.८१ ब्रह्मवै. २.४९ ) । , राधा सृष्टिउपकारक पाँच विष्णुशक्तियों में से राधा एक मानी गयी है (दे. भा. ९.९९ नारव २.८१ ) | यह संपत्ति का अधिष्ठात्री है, तथा इसे कान्ता, अतिदान्ता, शास्ता, सुशील, सर्वमंगला, आदि नाम प्राप्त है। लक्ष्मी के दो रूप माने गये हैं-- एक राधा एवं दूसरा 'लक्ष्मी । इसी प्रकार कृष्ण के भी द्विभुज एवं चतुर्भुज ऐसे दो रूप माने गये है। इनमें से द्विभुज कृष्ण गोलोक में निवास करता है, जहाँ राधा उसकी पत्नी है । चतर्भुज कृष्ण वैकुंठ में निवास करता है, एवं यहाँ उसकी पत्नी लक्ष्मी है (ब्रा २.४९.५६-५७९ दे. भा. ९.१; आदि. ११ ) | यह गो लोक में नही, बल्कि वैकुंठ में ही रह कर श्रीकृष्ण की सेवा करती है, ऐसा निर्देश भी कई पुराणों में प्राप्त है (दे. भा. (१९१८) । जन्म- यह गोकुल में वे नृपभानु नामक गोप को कलावती से उत्पन्न नापी हुई थी (ब्रह्म २.४९. ३९-४९१ र २,८१.) । पद्म में इसे नृपभानु राजा की कन्या कहा गया है । यह राजा यज्ञ के लिए पृथ्वी साफ़ कर रहा था, उस समय, उसे भूमिकन्या के रूप में थाम हुई पश्चात् उसने इसे अपनी कन्या मान कर इसका भरणपोषण किया (पद्म ७) कृष्ण के वामांग से यह उत्पन्न हुई ऐसी कथा भी कई पुराणों में प्राप्त है (ब्रह्मपै. २.१२.१६ ) । राधा नारद के अनुसार, एक बार श्रीविष्णु विरजा नामक गोपी को अपने साथ रासमंडल में ले गये। यह सुनते ही राधा बुद्ध दुबी एवं विष्णु के पास गयी। किन्तु वहाँ पहुँचने के पहले ही ये दोनों तुम हो गये। बाद में इसने विश्वा को पुनः एक बार कृष्ण एवं सुदामा के साथ बैठते हुए देखा । इस कारण इसने श्री विष्णु की काफ़ी निंदा की। जब सुदामा ने इसे खूब डाँटा एवं इसे शाप दिया, 'तुम्हे पश्चात् इसने भी सुदामा को शाप दिया, 'तुमने मुझे बूरा भला कहा है, अतः तुम्हे दानव - योनि में जन्म प्राप्त होगा (वे. मा. ९.१९) । राधा के इस शाप के कारण, सुदामा शंखचूड नामक असुर बन गया (ब्रह्मवै. २.४९. ३४ ) ! पश्चात् कृष्ण ने सुदामा को उःशाप दिया, 'गोलोक का आधा क्षण अर्थात् एक मन्वन्तर तक ही तुम असुर रहोगे । पश्चात् तुम्हे मुक्ति प्राप्त होगी ' । नारद में सुदामा की असुर अवस्था की काम सौ साल दी गयी है ( नारद. २. ८१ ) । कृष्ण से विवाह मानव योनि में जन्म लेने के पश्चात् राधा का कृष्ण से विवाह, वैशाख शुक्ल तृतीया के दिन रोहिणी नक्षत्र पर हुआ था ( आदि. ११) | किन्तु अन्य पुराणों में गोकुलनिवासी राधा को कृष्ण की सखी अताया गया है, एवं इसके पति का नाम 'रापाण दिया गया है (ब्रह्म. २.४९.२७ ) । ब्रह्मवैवर्त के माप्य शाखा में राधा का आख्यान प्राप्त है, जहाँ राधा एवं कृष्ण को एक दूसरे का उपासक कहा गया है ( ब्रह्मवै. २. ४८.१२-१३ ) | राधा एवं कृष्ण के उपासक 'राधाकृष्ण' नाम का जाप कर के इनकी उपासना करते हैं।' राधाकृष्ण के स्थान पर कृष्णराधा इस क्रम से नामोच्चारण करने पर नरक की प्राप्ती होती है, ऐसी भक्तों की धारणा है ( ब्रह्मवै. २.४९-५९ ) । 2 6 | पृथ्वी पर अवतार - राधा का अवतार पृथ्वी पर किस कारण से हुआ, यह बतानेवाली अनेक कथाएँ पुराणों में प्राप्त है, जो काफी कल्पनारम्य प्रतीत होती है। कृ कतार लेते समय विष्णु ने अपने परिवार के समय देवताओं को पृथ्वी पर अवतार लेने के लिए आज्ञा दी । इस आशा के अनुसार, विष्णु की प्रियसखी राधा ने पृथ्वी पर जाना सीकार किया एवं भद्रपद शुक्ल अगी के दिन, ज्येष्ठा नक्षत्र के चतुर्थ चरण में प्रातःकाल के समय जन्म लिया (आदि. ११ ) । राधा के नामस्मरण का माहात्म्य बतानेवाल एक मंत्र का पाठ राधाकृष्ण के उपासक प्रतिदिन करते है, जो निम्नप्रकार है :-- शब्दोच्चारणाद्भक्तो राति मुक्ति सुदुर्लभाम् । यादोच्चारणाद दुर्गे धावत्येव हरेः परम् ॥ रा इत्यादावचनो धा च निर्वाणवाचकः । ततोऽवाप्नोति मुक्तिं च येन राधा प्रकीर्तिता ॥ ( ब्रह्मवै. २.४८. ४०; ४२ ) 6 का राधा की उपासना--राधा एवं कृष्ण की उपासना प्राचीनतम ग्रंथ 'ज्ञानामृतसार' है, जो 'नारद पंचरात्र नामक संहिता में समाविष्ट है। इस ग्रंथ के अनुसार, कृष्ण गोलोक नामक दिव्य येक में निवास करते हैं, जहाँ राधा भी उनकी प्रियतम सखी बन कर रहती है ( ज्ञानामृत. २.३.२४ ) । इस ग्रंथ में राधा को | ७२३ Page #746 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राधा. प्राचीन चरित्रकोश राम कृष्ण के बराबर ही श्रेष्ठ माना गया है, एवं इन दोनो की (पुंडलीकपुर) में आया, तथा श्रीविठ्ठल नाम से प्रसिद्ध उपासना करने से भक्त को भी गोलोक की प्राप्ति होती हुआ। है, ऐसा कहा गया है । इस ग्रंथ का रचना काल ई. स. २. (सो. अनु.) अधिरथ सूत की पत्नी, जिले राधिका ४ थी शताब्दी माना गया है। नामांतर भी प्राप्त था। कुन्ती के द्वारा नदी में छोड़ा गया (B) निंबार्क सांप्रदाय—राधाकृष्ण संप्रदाय का | कर्ण इसे मिला था। इसने उसका नाम वसुषेण रखा अन्य एक उपासक निंबार्क माना जाता है, जो ई. स. | था । कर्ण को मिलने के बाद इसे अन्य औरस पुत्र भी ११ वी शताब्दी में उत्पन्न हुआ था। निंबार्क स्वयं रामानुज | हुए थे (म. आ. १०४.१४-१५, व. २९३.१२)। । संप्रदाय का था। किंतु जहाँ रामानुज नारायण, एवं उसकी राधिक-(सो. कुरु.) एक कुरुवंशीय राजा, जो पत्नी लक्ष्मी (भू अथवा लीला) की उपासना पर जोर देते भागवत के अनुसार जयसेन राजा का पुत्र था। विष्णु, है, यहाँ निंबार्क गोपालकृष्ण एवं राधा के उपासना को वायु एवं मत्स्य में इसे क्रमशः 'आराविन्', 'आराधि' प्राधान्य देते हैं। निंबार्क का यह तत्त्वज्ञान 'सनक एवं 'रुचिर' कहा गया है। सांप्रदाय' नाम से सुविख्यात है। निंबार्क स्वयं दक्षिण देश में राधेय-सांख्यायन आरण्यक में निर्दिष्ट एक आचार्य रहनेवाला तैलंगी ब्राह्मण था, फिर भी वह स्वयं उत्तर भारत | (सां. आ. ७.६)। राधा का वंशज होने से इसे यह नाम में मथुरा एवं वृन्दावन के पास रहता था। इस कारण प्राप्त हुआ होगा। इसके सांप्रदाय के बहुत सारे लोग उत्तर प्रदेश एवं बंगला २. अंगराज कर्ण का मातृक नाम । अधिरथ सूत की. में दिखाई देते हैं। ये लोग अपने भालप्रदेश पर पत्नी राधा ने कर्ण को पाल-पोस कर बड़ा किया था, जिस गोपीचंदन का टीका लगाते हैं एवं तुलसीमाला पहनते हैं। कारण, उसे यह मातृक नाम प्राप्त हुआ था (कर्ण १. देखिये)। (२) वल्लभ सांप्रदाय--राधाकृष्ण सांप्रदाय का अन्य ३. अधिरथ सूत एवं राधा के चार पुत्रों का सामुहिक एक महान् प्रचारक 'वल्लभ' माना जाता है, जो १५ वीं शताब्दी में उत्पन्न हुआ था। गोकुल में नानाविध बाल नाम । भारतीय युद्ध में ये चार ही पुत्र कौरवों के पक्ष में लीला करनेवाला गोपालकृष्ण एवं उसकी प्रियसखी राधा शामिल थे, जिनमें से एक अभिमन्यु के द्वारा, एवं अकी तीन अर्जुन के द्वारा मारे गये (म.द्रो. ३१.७)। . 'वल्लभ संप्रदाय' के अधिष्ठात्री देवता हैं। इस संप्रदाय के अनुसार, गोलोक, जहाँ कृष्ण एवं राधा निवास करते राम-ऋग्वेद में निर्दिष्ट एक राजा, जहाँ दुःशीम हैं, वह श्रीविष्णु के वैकुंठ से भी श्रेष्ठ है, एवं उस लोक में पृथवान् एवं वेन नामक राजाओं के साथ इसके दानशूरता की प्रशंसा की गयी है (ऋ. १०.९३.१४ ) । लुडविग के प्रवेश प्राप्त करना यहीं प्रत्येक साधक का अंतीम ध्येय है। अनुसार, इसका पैतृक नाम 'मायव' था (लुडविग, (३) सखीभाव सांप्रदाय-राधाकृष्ण की उपासना ऋग्वेद का अनुवाद. ३.१६६)। का और एक आविष्कार 'सखीभाव' संप्रदाय है, जहाँ २. (सो. पुरूरवस् .) एक राजा, जो वायु के अनुसार साधक स्वयं स्त्रीवेष धारण कर राधा-कृष्ण की उपासना सेनजित् राजा का पुत्र था । अन्य पुराणों में इसका निर्देश करते हैं। राधा के समान स्त्रीवेष धारण करने से श्रीकृष्ण अप्राप्य है। का साहचर्य अधिक सुलभता से प्राप्त हो सकता है, ऐसी ३. सावर्णि मन्वन्तर का एक ऋषि । इन लोगों की धारणा है। उन्हें राधाकृष्ण की उपासना का ४. श्रीकृष्ण के ज्येष्ठ भ्राता बलराम का नामान्तर । एक काफी विकृत रूप माना जा सकता है (भांडारकर, ५. परशुराम जामदग्न्य का नामान्तर वैष्णविजम् , पृ. ९३, ११७,१२३, १२६ । राम औपतास्वनि--एक यज्ञवेत्ता आचार्य, जो (४) श्री विठ्ठल-उपासना-महाराष्ट्र में कृष्ण-उपासना | उपतस्विन् का पुत्र एवं याज्ञवल्क्य का समकालीन था। का आद्य प्रवर्तक पुंडलीक माना जाता है, जिसकी परंपरा 'अंसुग्रह' नामक यज्ञ के संबंधी इसके मतों का निर्देश आगे चल कर नामदेव एवं तुकाराम आदि संतों ने चलायी। | शतपथ ब्राह्मण में प्राप्त है (श. ब्रा. ४. ६. १. ७)। किन्तु महाराष्ट्र में प्राप्त श्रीविठ्ठल की उपासना में राधा राम कातुजातेय वैयाघ्रपद्य -एक आचार्य, जो शंग का स्थान श्रीकृष्ण की पत्नी रुक्मिणी के द्वारा लिया गया शात्यायनि आत्रेय नामक आचार्य का शिष्य, एवं प्रतीत होता है। रुक्मिणी के कारण श्रीकृष्ण पंढरपुर शंख बाभ्रव्य नामक आचार्य का गुरु था (जै. उ. ब्रा. ३. ७२४ Page #747 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राम प्राचीन चरित्रकोश राम हतप्रभ एवं आदशपुत्र, इन तीनो आम ४०.१ ४.१६.१)। 'ऋतुजात' एवं व्याघ्रपद्' नामक कौनसी कठिनाईयाँ उठानी पडती है, एवं मनस्ताप सहना आचार्यों का वंशज होने के कारण, इसे 'कातुजातेय' पड़ता है, इसका चित्रण व्यास-प्रणीत महाभारत में किया एवं 'वैयाघ्रपद्य' पैतृक नाम प्राप्त हुए होगे। गया है। वहाँ व्यक्तिधर्म को गौणत्व दे कर, समाजधर्म राम जामदग्न्य-एक वैदिवः सूक्तद्रष्टा (ऋ. १०. एवं राष्ट्रधर्म का चित्रण प्रमुख उद्देश्य माना गया है। ११०, कात्यायन सर्वानुक्रमणी)। परशुराम जामदग्न्य एवं उसके विपरीत, व्यक्तिगत सद्गुण एवं वैयक्तिक धर्माचरण यह दोनों एक ही व्यक्ति थे (परशुराम देखिये)। का आदर्श राम दाशरथि को मान कर, उसका चरित्रचित्रण राम दाशरथि-अयोध्या का एक सुविख्यात सम्राट, वाल्मीकि के द्वारा किया गया है। इस कारण श्रीकृष्ण जो भारतीयों की प्रातःस्मरणीय विभूति मानी जाती है। जैसा राजनीतिज्ञ, अथवा युधिष्ठिर जैसा धर्मज्ञ न होते हुए यह अयोध्या के सुविख्यात राजा दशरथ के चार पुत्रों में | भी, राम प्राचीन भारतीय इतिहास का एक अद्वितीय पूर्णसे ज्येष्ठ पुत्र था। ई. पू. २३५०-१९५० यह काल | पुरुष प्रतीत होता है। भारतीय इतिहास में अयोध्या के रघुवंशीय राजाओं का प्राचीन क्षत्रिय समाज में, जब बहुपत्नीकत्व रूढ काल माना जाता है, जिसके वैभव की परमोच्च सीमा राम था, उस समय एक पत्नीकत्व का आदर्श इसने दाशरथि के राज्यकाल में हुई। प्रस्थापित किया था। परशुराम जामदग्न्य के पृथ्वी आदर्श पुरुषश्रेष्ठ--एक आदर्श पुरुषश्रेष्ठ मान कर, | निःक्षत्रिय करने की प्रतिज्ञा के कारण, साग क्षत्रिय समाज वाल्मीकि रामायण में राम का चरित्रचित्रण किया गया जब हतप्रभ एवं निर्वीर्य बन गया था, उस समय आदर्श है। प्राचीन भारतीय परंपरा के अनुसार, आदर्शपुत्र, क्षत्रिय व्यक्ति एवं राजा का आचरण कैसा हो, इसका आदर्श पति, आदर्श राजा इन तीनो आदर्शों का अद्वितीय वस्तुपाठ राम ने क्षत्रियों के सम्मुख रख दिया। रावण संगम राम के जीवनचरित्र में हुआ है । एकवचन, एक-| जैसे राक्षसों के आक्रमण के कारण, जब सारा दक्षिण भारत पत्नी, एकबाण इन व्रतों का निष्ठापूर्वक आचरण करनेवाला | ही नहीं, बल्कि गंगा घाटी का प्रदेश ही भयभीत हो चुका राम सर्वतोपरी एक आदर्श व्याक्ति है, जिसका सारा | था, उस समय राम ने अपने पराक्रम के कारण, इस जीवन-चरित्र आदश जीवन का एक वस्तुपाठ है ।अहिंसा, | सारे प्रदेश को भीतिमुक्त किया, एवं इस तरह केवल दया, अध्ययन, सुस्वभाव, इंद्रियदमन एवं मनोनिग्रह इन | | उत्तर भारत में ही नहीं बल्कि दक्षिण भारत में भी आर्य मा छः गुणों से युक्त एक आदर्श व्याक्ति का जीवनचरित्र संस्कृति की पुनःस्थापना की । इस तरह एक व्यक्ति लोगों के सम्मुख रखना, यही वाल्मीकि रामायण का प्रमुख एवं एक राजा के नाते राम के द्वारा किया गया कार्य अद्वितीय ऐतिहासिक महत्त्व रखता है। इस दृष्टि से वाल्मीकि रामायण के प्रारंभ के श्लोक दर्शनीय है, जहाँ वाल्मीकि ऋषि नारद से पृथ्वी के एक | नाम--यद्यपि उत्तरकालीन साहित्य में 'रामचंद्र' आदर्श व्यक्ति का जीवनचरित्र सुनाने की प्रार्थना करते नाम से राम दाशरथि का निर्देश अनेक बार प्राप्त है, फिर भी वाल्मीकि रामायण में सर्वत्र इसे राम ही कहा को न्वस्मिन् सांप्रतं लोके, गुणवान् कश्च वीर्यवान्। | गया है । क्वचित एक स्थल में इसे चंद्र की उपमा दी (इस पृथ्वी में जो गुणसंपन्न, पराक्रमी, धर्मज्ञ, सत्यवक्ता, गयी है ( वा. रा. यु. १०२.३२ )। संभव है, चंद्र से इस सादृश्य के कारण, इसे उत्तरकालीन साहित्य में 'रामचंद्र' दृवत, चारित्र्यवान् , ज्ञाता, लोकप्रिय, संयमी, तेजस्वी ऐसे व्यक्ति का जीवनचरित्र मैं सुनना चहाता है। नाम प्राप्त हुआ होगा। वैयक्तिक सद्गुणों का आदर्श-इस तरह वैयक्तिक | जन्म--जैसे पहले ही कहा गया है, ई. पू. २०००सद्गुणों का उच्चतम आदर्श, समाज के सम्मुख रखना | १९५० लगभग यह राम दाशरथि का काल माना गया यह वाल्मीकि-प्रणीत रामकथा का प्रमुख उदेश है। है । भारतीय परंपरा के अनुसार, वैवस्वत मन्वन्तर के इसकी तुलना महाभारत में वर्णित युधिष्ठिर राजा से ही | चौबीसवे त्रेतायुग में यह उत्पन्न हुआ था (ह. व १.४१%, केवल हो सकती है। किन्तु युधिष्ठिर का चरित्रचित्रण | वायु. ७०.४८%; ब्रह्मांड. ३.८.५४; ब्रह्म. २१३.१२४; करते समय एक तत्त्वदर्शी एवं धर्मनिष्ठ राजा को | मत्स्य. ४७.२४७; भा. ९.१०.५२; पन. पा. ३६ )। कौटुंबिक एवं सामाजिक घटक के नाते कदम कदम पर | महाभारत के अनुसार, यह अट्ठाईसवें त्रेतायुग में उत्पन्न ७२५ Page #748 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राम प्राचीन चरित्रकोश राम हुआ था (म. स. परि. १. क्र. २१. पक्ति ४९४- आजानुबाहुः सुशिराः, सुललाटः सुविक्रम । ४९५)। समः समविभक्ताङ्गः, स्निग्धवर्णःप्रतापवान् ॥ दशरथ राजा को कौसल्या, सुमित्रा एवं कैकेयी नामक पीनवक्षा विशालाक्षो, लक्ष्मीवान् शुभलक्षण । तीन पत्नियाँ होते हुए भी कोई भी पुत्र न था। इसी धर्मज्ञः सत्यसंधश्च, प्रजानां च हिते रतः॥ अवस्था में पुत्रप्राप्ति के हेतु उसने ऋष्यशंग ऋषि से एक विष्णुना सदृशो वीर्य, सोमवत् प्रियदर्शनः । 'पुत्रकामेष्टी यज्ञ' कराया। उस यज्ञ में सिद्ध किये गये कालाग्निसदृशः क्रोधे, क्षमया पृथिवीसमः ॥ 'चरु' का आधा भाग दशरथ की पटरानी कौसल्या ने (वा. रा. बा. १.१०-१८)। भक्षण किया, जिस कारण यज्ञ के पश्चात् एक साल नामकरण एवं शिक्षा-राम का नामकरण दशरथ राजा बाद उसके गर्भ से राम दाशरथि का जन्म हुआ। के कुलगुरु वसिष्ठ के द्वारा हुआ, जिसने 'रामत्य लोकराम का जन्म चैत्र शुक्ल नवमी के दिन दोपहर के रामस्य' कह कर इसका नाम 'राम' रख दिया (वा. रा. बारह बजें, जब पाँच ग्रह उच्चस्थिति में थे उस समय | बा. १८. २९)। नामकरण एवं उपनयन के पश्चात् हुआ था। उस समय पुनर्वसु नक्षत्र, कर्क लग्न एवं लग्न में वसिष्ठ से इसे शस्त्र एवं शास्त्रों की शिक्षा प्राप्त हुई (वा. गुरुचंद्र योग था (वा. रा. बा. १८.८-९; अ. रा. १. रा. बा. १८.३६-३७) । इसे यजुर्वेद का भी ज्ञान प्राप्त ३; पद्म. उ. २४२)। था ( वा. रा. सु.३५.१४) . अवतार--पौराणिक साहित्य में इसे श्री विष्णु का वसिष्ठ से उपदेशप्राप्ति--शिक्षा समाप्त होने पर सातवा अवतार कहा गया है। वाल्मीकि रामायण में | सोलह वर्ष का राम ती र्थयात्रा करने के लिए निकला। इस इसे अनेक बार श्रीविष्ण के सदृश पराक्रमी कहा गया | तीर्थयात्रा को समाप्त करने पर, राम के मन में यकायक है ( वा. रा. बा. १.३८), किन्तु श्रीविष्णु का अवतार | विरक्ति की भावना उत्पन्न हुई, एवं धन, राज्य, माता कहीं भी नहीं कहा गया है । क्वचित् एक स्थान पर जहाँ आदि का त्याग कर प्राणत्याग करने के विचार इसके . इसे श्रीविष्णु का अवतार कहा गया है ( वा. रा. यु. | मन में आने लगे :-- १.१७), वह भाग प्रक्षिप्त प्रतीत होता है। किं धनेन किमम्बाभि कि राज्येन किमीहया। उत्तरकालीन साहित्य में रामभक्ति की कल्पना का जो इति निश्चयमापन्नः प्राणत्यागपरः स्थितः ॥ जो विकास होने लगा, तब उसके साथ साथ राम के (यो. वा. १.१०.४६ )। अवतारवाद की कल्पना भी दृढ़ होती गयी। रामतापनीय राम की यह विलक्षण वैराग्यवृत्ति देख कर वसिष्ठ ने उपनिषद् से ले कर अध्यात्मरामायण तक के समस्त राम उसे ज्ञानकर्मसमुच्चयात्मक उपदेश प्रदान किया, जो भक्तिविषयक रचनाओं में राम को केवल विष्णु का ही 'योगवासिष्ठ' नामक ग्रंथ में समाविष्ट है। नहीं, बल्कि साक्षात् परब्रह्म का ही अवतार माना गया है। वसिष्ठ ने राम से कहा, 'आत्मज्ञान एवं मोक्षप्राप्ति के (अ. रा. बा. १)। इन ग्रंथों के अनुसार, जन्म लेते ही | लिए अपना दैनंदिन व्यवहार एवं कर्तव्य छोड़ने की अपनी माता कौसल्या को इसने श्रीविष्णु के रूप में दर्शन | आवश्यकता नही है। जीवन सफल बनाने के लिए कर्तव्य दिया था (अ. रा. बा. १.३.१३-१५, पद्म. उ. २६९. निभाने की उतनी ही ज़रूरत है, जितनी आत्मज्ञान की है:८०; आ. रा. १.२.४)। महाभारत के अनुसार, यह उभाभ्यामेव पक्षाभ्यां यथा खे पक्षिणां गतिः । मार्कंडेय के अंश से, एवं हरीवंश के अनुसार विश्वामित्र तथैव ज्ञानकर्मभ्यां जायते परमं पदम् ॥ के अंश से उत्पन्न हुआ था। देवी भागवत में राम एवं केवलात्कर्मणो ज्ञानान्नहि मोक्षोऽभिजायते । लक्ष्मण को नरनारायण का अवतार कहा गया है। किन्तूभाभ्यां भवेन्मोक्षः साधनं तूभयं विदुः।। स्वरूपवर्णन- राम का स्वरूपवर्णन 'वाल्मीकि (यो. वा. १.१.७-८)। रामायण' में प्राप्त है, जिसका पाठन रामभक्त लोग आज भी नित्यपाठ के स्तोत्र की भाँति करते है : (आकाश में घूमनेवाला पंछी जिस तरह अपने दो पंखों पर तैरता है, उसी तरह ज्ञान एवं कमों का समुच्चय विपुलांसो महाबाहुः कम्बुग्रीवो महाहनु । करने से ही मनुष्य को जीवन में परमपद की प्राप्ति हो महोरस्को महेष्वासो, गूढजवररिंदम ॥ सकती है। केवल ज्ञान अथवा केवल कर्म की उपासना करने ७२६ Page #749 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन चरित्रकोश राम से मोक्ष की प्राप्ति होना असंभव है । इसी कारण इन दोनों | किये गये मलद एवं करुषक देशों को पुनः आबाद बनाया का समन्वय कर के ही, ज्ञानी लोग मोक्ष की प्राप्ति कर | (वा. रा. बा. २४)। लेते हैं। | मारीच एवं सुबाहु से युद्ध-ताटकावध के पश्चात् विश्वामित्रसहवास-राम युवावस्था में प्रविष्ट होने पर, विश्वामित्र रामलक्ष्मणों को साथ ले कर सिद्धाश्रम में गये, एक बार विश्वामित्र महर्षि दशरथ राजा से मिलने आयें। | जहाँ उनका यज्ञसमारोह चल रहा था । वहाँ पहुँचने पर उन्होंने कहा, 'मैंने दण्डकारण्य में आजकल एक यज्ञ विश्वामित्र ने इससे कहा, 'यह वहीं स्थान है, जहाँ बलि का प्रारंभ किया है, जिसमें मारीच एवं सुबाहु नामक | वैरोचन के वध के लिए भगवान् विष्णु ने वामनावतार 'राक्षसों की दुष्टता के कारण, काफी रुकावटें पैदा हो रही | धारण किया था। इस स्थान पर मेरा आश्रम बसा हुआ है। ये दोनो राक्षस यज्ञस्थल में आ कर सड़ा हुआ रत्त । है, एवं यहाँ मैंने यज्ञ समारोह भी प्रारंभ किया है। किन्तु एवं माँस की वर्षा करते हैं, एवं यज्ञ में बाधा उत्पन्न करते | मारीच एवं सुबाहु राक्षसों के कारण, यज्ञकार्य आज हैं। उन राक्षसों का वध तुम्हारे नवयुवा पुत्र राम एवं असम्भव हो रहा है। इस कारण मेरी यही इच्छा है कि, लक्ष्मण ही केवल कर सकते हैं। उन्हें मेरी सहाय्यता के तुम उनसे युद्ध कर उन्हें परास्त करो। लिए दण्डकारण्य में भेजने की आप कृपा करे। विश्वामित्र की आज्ञा के अनुसार, राम एवं लक्ष्मण ने वसिष्ठ की सूचना के अनुसार, दशरथ राजा ने विश्वामित्र छः दिन अहोरात्र यज्ञमंडप में कड़ा पहारा किया । छठे की यह प्रार्थना मान्य कर दी, एवं राम लक्ष्मण को विश्वामित्र | दिन प्रातःकाल के समय, मारीच एवं सुबाहु ने यज्ञभूमि के साथ जाने की आज्ञा दी | कमर को विजयशाली तलवार पर आक्रमण किया। राम ने मानवास्त्र का प्रयोग कर, एवं कंधे पर धनुष्य एवं बाण लगाये हुए राम एवं लक्ष्मण | मारीच को शतयोजन की दूरी पर समुद्र में फेंक दिया, एवं विश्वामित्र के साथ दण्डकारण्य की ओर चल पड़े। 'अग्नि अस्त्र' से सुबाहु का वध किया। दण्डकारण्य जाते समय इन्होंने सर्व प्रथम सरयू नदी अहल्योद्धार--इस प्रकार विश्वामित्र का कार्य समाप्त पार की। उसी नदी के तट पर विश्वामित्र ने रामलक्ष्मण को | कर, राम एवं लक्ष्मण ने अयोध्या नगरी के लिए पुनः 'बल' एवं 'अतिबल' नामक मंत्रों का ज्ञान कराया, प्रस्थान किया। मार्ग में विश्वामित्र ने इन्हें गंगा नदी को जिनके कारण भूख एवं प्यास को सहन करने की ताकद | कथा सुनाई । कान्यकुब्ज देश, शोण नदी, भागीरथी नदी, इन्होंमें उत्पन्न हुई। तत्पश्चात् अंगदेश में स्थित कामाश्रम | विशाला नगरी आदि तीर्थस्थानों का दर्शन लेते हुए ये में ये पहुँचे, जहाँ विश्वामित्र ने इन्हें मदनदाह की कथा | मिथिला नगरी के समीप ही स्थित गौतमाश्रम में आ सुनाई (वा. रा. बा. ३२-४८)। | पहुँचे। वहाँ विश्वामित्र ने राम को अहल्या की कथा - ताटकावध--तदोपरान्त गंगा नदी पार कर ये दण्ड सुनाई, एवं तत्पश्चात् राम ने अपने पदस्पर्श से उस कारण्य में आ पहुँचे, जहाँ विश्वामित्र ने इन्हें दण्डकारण्य शापित स्त्री का उद्धार किया (वा. रा. बा. २७)। का पूर्व इतिहास बताया, एवं कहा, 'आज जहाँ तुम घना कई अभ्यासकों के अनुसार, राम के द्वारा किये गये जंगल देख रहे हो, वहाँ पूर्वकाल में अगस्त्य ऋषि का | ताटकावध एवं अहिल्योद्धार, ये दोनो कथाएँ रूपकात्मक संपन्न देश था । सुंद राक्षस की पत्नी ताटका एवं उसका पुत्र | हैं । दण्डकारण्य प्रदेश प्राचीन काल में गंगा नदी तक मारीच के कारण, यहाँ की सारी वस्ती आज उजड़ गयी | फैला हुआ था। उसे राक्षसों की पीड़ा से मुक्त कर वहाँ है। ताटका में बीस हाथियों का बल है, जिसकारण उसे की बंजर भूमि को राम ने पुनः सुजला एवं सुफला बना समस्त पौरजन डरते है। ऋषिमुनियों को पीड़ा देनेवाली | दिया, यही इन दोनो कथाओं का वास्तव अर्थ प्रतीत होता उस राक्षसी का वध करने के लिए ही मैं आज तुम्हें | है ( अहल्या देखिये)। यहाँ लाया हूँ। | सीतास्वयंवर-पश्चात् विश्वामित्र की सूचना के ताटका स्त्री होने के कारण, उसके हाथ एवं पैर ही अनुसार, ईशान्य की ओर मुड़ कर राम एवं लक्ष्मण तोड़ कर उसे हतबल बनाने का पहले इसका विचार था। सीरध्वज जनक राजा की मिथिला नगरी में सीतास्वयंवर किन्तु ताटका के द्वारा आकाश में से पत्थरों का मारा के लिए पधारे । वहाँ राम ने जनक राजा के द्वारा लगायी किये जाने पर, इसने अपना एक बाण छोड़ कर उस महाकाय | गयी सीतास्वयंवर की शर्त के अनुसार, शिवधनुष एवं विरूप राक्षसी का वध किया, एवं उसके द्वारा विजन को लीलया उठा कर उसे बाण लगाया, जिस समय शिव ७२७ Page #750 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राम प्राचीन चरित्रकोश धनुष मंग हो कर उसके दो टुकड़े हुये पश्चात् राजा ने राम को सीता विवाह में दे दी एवं कहा:-- " इयं सीता मम सुता सहधर्मचरी तव ॥ प्रतीच्छ चैनभई ते पाणिग्रीव पाणिना । पतिता महाभागा छायेवानुगता सदा ॥ ( वा. रा. बा. ७३.२६ - २७ ) । (मेरी कन्या सीता आज से धर्म मार्ग पर चलते समय तुम्हें साथ देगी | साया के समान वह तुम्हारे साथ रहेगी। उसका तुम स्वीकार करो) उत्तर भारत में विवाहान्तर्गत कन्यादान के समय इन कोकों का आज भी बड़ी श्रद्धा भाव से पठन किया जाता हैं। राम के विवाह के समय उनक राजा ने राम के भाई लक्ष्मण, भरत एवं शत्रुघ्न के विवाह क्रमशः ऊर्मिला, मांडवी एवं श्रुतकीर्ति से करायें । उनमें से उर्मिला स्वयं जनक की, एवं माण्डवी एवं श्रुतकीर्ति जनक के छोटे भाई कुशध्वज की कन्याएँ थी ( वा. रा. बा. ७३ ) । वाल्मीकि रामायण में अन्यत्र लक्ष्मण अविवाहित होने का, एवं भरत का विवाह सीतास्यंवर के पहले ही होने का निर्देश प्राप्त है ( वा. रा. अर. १८.३; बा. ७३.४ ) । इन निर्देशों को सही मान कर, कई अभ्यासक राम के साथ साथ उसके अन्य भाईयों का विवाह होने का वाल्मीकि रामायण में प्राप्त निर्देश प्रक्षिप्त मानते हैं । परशुराम से संघर्ष - विवाह के पश्चात् अयोध्या आते समय, यकायक परशुराम ने राम के मार्ग का अवरोध किया। उसने राम से कहा, 'मेरे गुरु शिव के धनुष का भंग कर तुमने उनका अवमान किया है। मैं यही चाहता हूँ कि, मेरे हाथ में जो विष्णु का धनुष्य है उसका भी भंग कर तुम्हारें ताकद की प्रचीति मुझे दो' । इस पर राम ने परशुराम से कहा, 'अपने पिता के बध का बल लेने के लिए पृथ्वी के समस्त क्षत्रियों की नाश करने के लिए आप उगत हुए है, किन्तु अन्य क्षत्रियों की भाँति मैं आपकी शरण में न आऊँगा' । इतना कह कर राम ने परशुराम के विष्णुधनुष का भी भंग किया, जिस पर परशुराम इसकी शरण में आया। | यौवराज्याभिषेक -- विवाह के समय, राम एवं सीता की आयु पंद्रह एवं छः वर्षों की थी। अयोध्या में आने के पश्चात् बारह वर्षों तक राम तथा सीता का जीवन परस्परों के सहवास में अत्यंत आनंद से व्यतीत हुआ । अपने सद्गुण एवं धर्मपरायणता के कारण यह अपने पौरजनों में भी काफी लोकप्रिय बना था। इसकी आयु सताओस वर्षों की होने पर, दशरथ राजा ने इसे यौवराज्याभिषेक करने का निर्धय किया। इस समय उसने अपने सभाजनों से कहा, 'राम राजकारण मे कुशल है, एवं शौर्य में इसकी बराबरी करनेवाला क्षत्रिय आज पृथ्वी पर नहीं है। इसी कारण मैं अपने सारे पुत्रों में से राम को ही यौवराज्याभिषेक करना चाहता हूँ'। इस तरह राम के यौवराज्याभिषेक का दिन चैत्र माह में पुष्यनक्षत्र में निश्चित किया गया। वीवराज्याभिषेक के अगले दिन रात्रि में राम तथा सीता ने उपोषण किया एवं दर्भासन पर निद्रा की । तत्पश्चात् होमहवनादि धार्मिक' विधि भी किये दूसरे दिन प्रातःकाल में यह यौवराज्या भिषेक के लिए निकल ही रहा था, इतने में उशरथ राजा की ओर से सुमंत्र की हाथों इसे बुलावा आया । के कैकेयी से संभाषण -- उस बुलावे के अनुसार, कैकेयी महल में बैठे हुए अपने पिता से मिलने जाने पर, दशरथ ने इससे कोई भी भाषण न किया। फिर कैकेयी ने राम से कहा, 'दशरथ राजा तुमसे कुछ कहना चाहते है, किन्तु तुम्हारे प्रेम के कारण कह नहीं पाते। इस अवस्था में तुम्हारा वही कर्तव्य है कि उनकी इच्छा का तुम पालन करो ' । , राम इसपर दशरथ राजा की हर एक इच्छा का पालन करने का अपना दृढनिश्चय व्यक्त करते हुए राम ने कहा : इस तरह बड़ी उद्दण्डता से क्षत्रियसंहार के लिए तुले हुए परशुराम को राम ने परास्त किया, एवं पृथ्वी पर बचे हुए क्षत्रियों का रक्षण किया था. रा. मा. ७६-७७) । ७२८ 'अहं हि वचनाद्राज्ञः पतेयमपि पावके ॥ भक्षयेयं विषं तीक्ष्णं, पतेयमपि चार्णवे । नियुक्तो गुरुणा पित्रा; नृपेण च हितेन च ॥ हि वचनं देवि राज्ञो पक्षम्। करिष्ये प्रतिजाने च रामो मापते ॥ " ( वा. रा. अयो. १८.२८-३० ) । ( दशरथ के द्वारा आज्ञा किये जाने पर, मैं अग्निप्रवेश, विषभक्षण आदि के लिए भी सिद्ध हूँ। क्यों कि, दशरथ राजा मेरा पिता, गुरु, एवं हितदर्शी है। अतः राजा का मनोगत बताने की कृपा आप करें । उसका तुरंत ही पालन किया जाएगा, यही मेरी आन है । मैं सत्यप्रतिज्ञ हूँ, एवं प्रतिज्ञा का पालन करना अपना धर्म समझता हूँ । ) Page #751 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन चरित्रकोश - राम के इस कहने पर कैकेयी ने देवासुरयुद्ध के समय, पश्चात् शंगवेरपुर नगरी के समीप भागीरथी नदी को पार दशरथ राजा के द्वारा दिये गये दो वरों की कथा कह सुनाई, | कर, निषादराज गुह ने इसे दक्षिण की ओर पहुँचा दिया । एवं कहा, 'ये वर मैंने राजा से आज माँग लिये है, वहाँ पहुँचते ही राम ने पुनः एकबार लक्ष्मण को अयोध्या जिसके अनुसार अयोध्या का राज्य मेरे पुत्र भरत को | लौट जाने के लिए कहा, किन्तु लक्ष्मण अपने निश्चय पर प्राप्त होगा, एवं तुम्हें चौदह वर्षों के लिए वनवास जाना | अटल रहा (वा. रा. अयो. ५३ )। पडेगा। बाद में प्रयाग आ कर राम ने भरद्वाज से मुलाकात इस पर राम ने जीवनमुक्त सिद्ध की भाँति 'शभ छत्र' | की, एवं वनवास के चौदह साल शान्तता से कहाँ बिताये . एवं अन्य राजभूषणों का त्याग किया, एवं स्वजन एवं | जा सकेंगे, इसके संबंध में उस मुनि की सलाह ली। पौरजनों से विदा ले कर वन की ओर प्रस्यान किया | भरद्वाज ने इन्हें चित्रकूट पर्वत पर पर्णकुटी बना कर रहने (वा. रा. अयो. २०.३२-३४)। की सलाह दी। इस सलाह के अनुसार, कालिंदी नदी को राम का वनगमन का यह निश्चय सुन कर इसकी माता पार कर यह चित्रकूट पर्वत पर पहुँच गया, जहाँ पर्णकुटी कौसल्या, एवं बन्धु लक्ष्मण ने इसे इस निश्चय से परावृत्त बना कर रहने लगा। करने का काफी प्रयत्न किया। लक्ष्मण ने इसे कहा, । तत्पश्चात् भरद्वाज ऋषि को साथ ले कर, भरत इससे 'बुढापे के कारण, दशरथ राजा की बुद्धि विनष्ट हो चुकी | मिलने चित्रकूट आया। वहाँ दशरथ राजा की मृत्यु की है। इस कारण, उसकी आज्ञा का पालन करने की कोई भी | वार्ता उसने इसे सुनाई, एवं अयोध्या नगरी को लौट आने जरत नही है। की इसकी बार बार प्रार्थना की। इसने उसे कहा, 'जो इन आक्षेपों को उत्तर देते समय, एवं अपनी तात्त्विक | कुछ हुआ है, उसके संबंध में अपने आप को दोष दे भूमिका का विवरण करते हुए राम ने कहा कर, तुम दुःखी न होना । जो कुछ हुआ है उसमें किसी मानव का दोष नहीं, वह ईश्वर की इच्छा है। इस कारण धर्मोहि परमो लोके धर्म सत्यं प्रतिष्ठितम्।। तुम वृथा शोक मत करो, बल्कि अयोध्या जा कर, राज्य . धर्मसंश्रितमप्येतत्पिर्तुवचनमुत्तमम् ॥ का सम्हाल करो । यही तुम्हारा कर्तव्य है'। (वा. रा. अयो. २१.४१)। दण्डकारण्यप्रवेश-भरत के अयोध्यागमन के पश्चात् ( इस संसार में धर्म सर्वश्रेष्ठ है, एवं धर्म ही सत्य का | राम को चित्रकूट पर्वत पर रहने में उदासीनता प्रतीत होने अधिष्ठान है। मेरे पिता ने जो आज्ञा मुझे दी है, वह भी | लगी। इस कारण, इसने चित्रकूट पर्वत को छोड़ कर दक्षिण इसी धर्म का अनुसरण करनेवाली है)।। में स्थित दण्डकारण्य में प्रवेश किया। वहाँ सर्वप्रथम यह राम ने आगे कहा, 'राजा का यही कर्तव्य है कि वह | अत्रि ऋषि के आश्रम में गया, एवं उसका एवं उसकी - सत्यमार्ग से चले । राजा के द्वारा असत्याचरण किये जाने | पत्नी अनसूया का दर्शन लिया। पर उसकी प्रजा भी असत्यमार्ग की ओर जाने की संभावना | आगे चल कर घोर अरण्य प्रारंभ हुआ, जहाँ इसने विराध नामक राक्षस का वध किया। तत्पश्चात् यह शरभंग वनवास-राम के साथ इसका भाई लक्ष्मण, एवं इसकी | ऋषि के आश्रम में गया, जहाँ उस ऋषि ने अपनी सारी पत्नी सीता इसके साथ वनवास में गये । ये तीनों अयोध्या | तपस्या का दान कर, इसे पुनः राज्य प्राप्त करा देने छोड़ कर सायंकाल के समय पैदल ही तमसा नदी पर आयें, का आश्वासन दिया। किन्तु इसने अत्यंत नम्रता से उसका जहाँ अयोध्या के समस्त पौरजन वनवासगमन की इच्छा | इन्कार किया, एवं यह सुतीक्ष्ण ऋषि के आश्रम में गया। से इनके साथ आये । प्रातः काल के समय वनवासगमन के | वहाँ जाते समय इसे राक्षसों के द्वारा मारे गये तपस्वियों लिए उत्सुक पौरजनों को भुलावा दे कर राम, सीता तथा | की हड्डियों का ढेर दिखाई दिया, तब इसने वहाँ स्थित लक्ष्मण के साथ आगे बढ़े। तत्पश्चात् वेदश्रुति, स्पंदिका, ऋषियों को आश्वासन दिया, 'मैं अब इसी वन में रह गोमती आदि नदियों को पार कर, ये दक्षिण दिशा की ओर | कर राक्षसों की पीड़ा से तुम्हारी रक्षा करूँगा' (वा. रा. जाने लगे (वा. रा. अयो. ४९)। अर. ७)। अयोध्या राज्य के सीमा पर पहुँचते ही इसने अयोध्या | राक्षस-विरोध--राक्षस संहार की राम की इस प्रतिज्ञा एवं वहाँ की देवताओं को पुनः एकबार वंदन किया। | को सुन कर सीता ने इसे इस प्रतिज्ञा से परावृत्त करने प्रा. च. ९२] ७२९ Page #752 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राम प्राचीन चरित्रकोश राम का प्रयत्न किया। उसने कहा, 'राक्षसों का संहार कर, पंचवटी में हुयें राक्षससंहार से अकंपन नामक एक ऋषिकुलों का रक्षण करना चतुरंगसेनाधारी राजा का | राक्षस ही केवळ बच सका, जिसने एवं शूर्पणखा ने कर्तव्य है; हमारे जैसे एकाकी एवं शस्त्र-विहीन वन- | लंकाधिपति रावण को जनस्थान प्रदेश में पंचवटी ग्राम में वासियों का नहीं। इसी कारण, स्वसंरक्षण के अतिरिक्त | राम के द्वारा किए गये राक्षससंहार की वार्ता कह सुनाई। अन्य किसी कारण से भी राक्षसों का वध करना हमारे सीताहरण-इस पर रावण ने मारीच नामक अपने वनवासधर्म के लिए योग्य नहीं है। 'कामरूपधर' (मन चाहे रूप धारण करनेवाले) मित्र __इस पर राम ने कहा, 'ब्राह्मणों को अभयदान देना, | से कांचनमृग का रूप धारण करने के लिए कहा, एवं यह हर एक क्षत्रिय का कर्तव्य है, चाहे वह राज्य पर | उसकी सहाय्यता से रामलक्ष्मण को आश्रम से बाहर हो या न हो। मैंने ऋषियों को अभयदान दिया है। अब निकाल कर, ऋषिवेश में सीता का हरण किया। चाहे आकाश भी गिर पड़े; मैं अपनी प्रतिज्ञा से हरने । उसी समय सीता के द्वारा पुकारे जाने पर जटायु ने वाला नहीं हूँ । रावण से युद्ध किया। किंतु रावण ने उसके दोनों पंख राम के इसी प्रतिज्ञा के कारण, दण्डकारण्य निवासी काट लिये, जिस कारण वह आहत हो कर मच्छित गिर राक्षसों से इसका शत्रुत्व उत्पन्न हुआ, एवं सीताहरण, | पड़ा। रावण से युद्ध आदि अनेकानेक आपत्तियाँ इसके वनवास बाद में जब रामलक्ष्मण सीता को ढूंढने के लिए काल में उत्पन्न हुयीं। निकले, तब जटायु ने इन्हें रावण के द्वारा सीता के हरण __ इस तरह दण्डकारण्य के, ऋषियों के सहवास में राम किये जाने की, एवं दक्षिण की ओर प्रस्थान करने की ने अपने वनवास के दस साल बितायें। कई आश्रम में वार्ता कह सुनाई । इतना कह कर जटायु ने देहत्याग यह तीन महिनें रहा, तथा कहींकहीं यह एक साल तक किया । जटायु की मृत्यु देख कर राम अत्यधिक विह्वल भी रहा । जहाँ जहाँ यह गया, वहाँ इसका हार्दिक स्वागत | हुआ, एवं इसने उसे साक्षात् अपना पिता मान कर ही हुआ। उसका दाहसंस्कार किया (वा. रा. अर.७२)। . इस प्रकार दस साल बड़े ही आनंद से बिताने के कबंधवध-जटायु के दाहकर्म के पश्चात, सीता की बाद, यह अगस्त्य एवं लोपामुद्रा के दर्शन के लिए | खोज करते हए राम एवं लक्ष्मण अगस्त्याश्रम की और अगत्य आश्रम में गया। वहाँ अगस्त्य ने इसे विश्वकर्मा | मुड़े । मार्ग में इन्हें कबंध नामक एक राक्षस मिला, के द्वारा भगवान् विष्णु के लिए बनाया गया दिव्य धनुष्य, | जिसका राम ने वध किया। मरते समय, कबंध ने सीता एवं अक्षय्य तुणीर प्रदान किये, एवं पंचवटी में रह | की मक्ति के लिए. ऋष्यमूक पर्वत पर पंपा सरोवर के कर वहाँ के राक्षसों का संपूर्ण नाश करने का आदेश इसे किनारे वनवासी अवस्था में रहनेवाले सग्रीव वानर की दिया (वा. रा. अर. १२.२४-३०)। सहाय्यता लेने की राम को सलाह दी । तदनुसार राम __पंचवटी में तत्पश्चात् राम पंचवटी में पर्णकुटी बाँध | ऋष्यमूक पर्वत की ओर मुड़ा, जहाँ जाते समय, इसने कर रहने लगा। वहाँ गरुड के भाई अरुण का पुत्र जटायु | मतंगाश्रम में मतंग ऋषि की शिष्या शबरी के आतिथ्य इनसे मिला, एवं उसने रामलक्ष्मण का आश्रम में न होने | का स्वीकार किया। . के काल में, सीता के संरक्षण का भार स्वीकार लिया | वालिवध-बाद में यह सप्तसागर तीर्थ पर जा कर, (वा. रा. अर. १४)। पंपा सरोवर की ओर चल पड़ा, जहाँसे यह ऋष्यमूक शूर्पणखावध--पंचवटी में वास करते समय, एक | पर्वत पर पहुँच गया। अपने भाई वालि के द्वारा बार लंकाधिपति रावण की बहन शूर्पणखा राम से मिलने विजनवासी किया गया सुग्रीव, राम को देख कर शंकित आई । इसे देख कर उसकी कामवासना जागृत हुई, हुआ, जिस कारण उसने अपने मंत्री हनुमत् को राम के एवं उसने इससे विवाह करने की इच्छा प्रकट की। फिर पास भेज दिया। इसकी आज्ञा के अनुसार, लक्ष्मण ने उस राक्षसी के हनुमत् ने बड़ी कुशाग्र बुद्धि से इसका परिचय पूछा, नाक एवं कान काट दियें तथा उसके भाई खर एवं उसके | एवं अंत में अपनी पीठ पर बिठा कर सुग्रीव के पास ले दूषण, त्रिशिरस् आदि चौदह सेनापतियों का भी वध आया । सुग्रीव एवं राम ने आपस में मिल कर बात की, किया। | एवं पश्चात् अग्नि की सौगंध खा कर, परस्परों को सहायता ७३० Page #753 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राम करने की प्रतिज्ञा की। सीताहरण के समय गिरें हुए आभूषण सुग्रीव सुझव ने इसे बतायें। इसी समय, राम ने वालि के वध की प्रतिशा की। पश्चात् बालि एवं सुग्रीव का घमासान युद्ध होते समय वही सुअवसर मान कर वृक्ष के पीछे से इसने एक बाल वालि पर छोड़ दिया एवं उसका वध किया था. रा. कि. २६.१४ ) । बालिका आक्षेप राम ने बालिबध करते समय ये काटाचरण किया, वह क्षत्रिययुद्धनीति के विरुद्ध माना गया है। इस बुद्ध के पूर्व बालि ने अपनी पत्नी तारा से राम के संबंध में कहा था- 'धर्म प्राचीन चरित्रकोश و पाप करिष्यति । ( वा. रा. किं. १६ ) । (राम धर्मश एवं कृतश होने के कारण, उसके हाथों कौनसा भी पापकर्म होना असंभव है ) । कपटाचरण इसी कारण, मृत्यु के समय, बालि ने राम को उसके कारण के लिए काफी दोष दिया, जिसका कोई भी उत्तर राम न दे सका। राम ने उसे इतना ही कहा 'अपने भाई के राज्य एवं पत्नी का अरहरण वरनेवाले तुम अत्यंत पापी हो, जिस कारण मैंने तुम्हारा वध किया है (बा. रा. कि. १७-१८) । रे बुल्के के अनु सार, राम-वालि संवाद के ये दोनों सर्ग प्रक्षिप्त है ( राम कृपा पृ. ४७९) । । सीता की फोड़ बालिब के पश्चात् राम ने -- किष्किंधा के राज्य पर मुझीव को राज्याभिषेक किया अनन्तर वर्षाऋतु अर्थात श्रावण से कार्तिक मास तक के चार महिने राम ने प्रस्त्रवणगिरी के एक गुफा में बितायें ( वा. रा. कि. २७-२८ ) । वर्षाकाल वा समाप्त होने पर भी जब सुग्रीव ने सीताशोध के संबंध में कोई प्रयत्न नहीं शुरु किया, तब राम ने लक्ष्मण के द्वारा उसकी काफी निर्भत्सना की। फिर सुग्रीव ने सीता की खोड़ के लिए नाना दिशाओं में अपने निम्नलिखित वानर सेनापति भेज दियेः- उत्तर दिशा में तब पूर्व दिशा में विनयः पश्चिम दिशा में सुषेण दक्षिण दिशा में-- हनुमत्, तार एवं वालिपुत्र अंगद ( वा. रा. कि. २९-४७ ) । हनुमत् के साथ गयें वानरसैन्य में निम्नलिखित बानर भी शामिल थे: अनंग, नील, सुहोत्र, शरारि, शरगुल्म, नज, गवाक्ष, गवय, वृप, सुग, मैद, द्विविद, गंधमादन, उल्कामुख एवं सुषेण, जांबवत् (वा. रा. कि. ४१ ) । राम उपर्युक्त सेनापतियों में से हनुमत् की योग्यता जान कर राम ने उसे 'अमिशन' के रूप में 'वनामांकोपशोभित' अंगुठी सौंप दी थी ( वा. रा. क. ४४.१२) । रे. बुल्के के अनुसार, बाल्माकि रामायण में प्राप्त वानरों के प्रेषण की अधिकांश सामग्री प्रक्षिप्त है (रामकथा १.४८६ ) | हनुमत् एवं उसके साथियों ने विंध्य पर्वत की गुफाओं में, एवं ऋबिल गुफा में, सीता का शोध किया। वह न लगने पर लगने पर, सभी वानर निरुत्साहित हो कर प्रायोपवेशन करने लगे। इतने में जटायु के माई संपाति ने एक सौ योजना की दूरी पर समुद्र में निवास करनेवाले रावण का पता वानरों को बताया। फिर हनुमत ने समुद्र लांघ कर सीता का शोध लगाया। इस कालावधी में सारे वानर एक पैर पर खड़े हो कर तपस्या करते रहे ( वा. रा. कि. ६७.२४ ) । - लंका पर आक्रमण मसीता को ढूँढ निकालने के उपलक्ष्य में राम ने हनुमत् की बड़ी प्रशंसा की, एवं सेवा के बारे में सारी जानकारी भी प्राप्त की पश्चात् नील को सेनापति बना कर उत्तर फाल्गुनी नक्षत्र के सुमुहूर्त पर इसने लंका की ओर प्रयाण किया। इस तरह यह महेन्द्रपर्वत के शिखर पर आ पहुँचा (बा. रा. सु. १-५) 5. . जब हनुमत् सीता से मिल कर वापस आया, तब उसके पर फम के कारण रावण के मंत्रिमंडल में काफी कोलाहल मच गया। रावण के छोटे भाई विभीषण ने उसे सलाह दी कि सीता को जल्द वापस किया जाए। रावण के द्वारा उसे इन्कार किये जाने पर, अपने अनल, पनस, संपाति एवं प्रमति नामक चार प्रधानों के साथ, विभीषण राम के पक्ष में शामिल होने के लिए उपस्थित हुआ। | विभीषण से मित्रता -- विभीषण को अपने पक्ष में शामिल करने के संबंध में सुग्रीवादि वानर शुरु में अत्यंत नाराज थे किन्तु उस समय राम ने कहा- । बद्धांजलिपुटं दीनं याचन्तं शरणागतम् । न हन्यादानृशंस्यार्थमपि शत्रु परंतप ॥ ( वा. रा. यु. १८.२७) ( शरण में आये हुए किसी भी व्यक्ति को, उसके सारे प्रमादों की माफी कर उसे अभयदान देना, यह मैं अपना कर्तव्य समझता हूँ । ) राम ने आगे कहा, 'इस समय साक्षात् रावण भी मेरी शरण में आएगा, तो उसे भी मैं अभयदान दूँगा । ' विभीषण के द्वारा किया गया रावण पक्ष का त्याग एवं ७३१ Page #754 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राम प्राचीन चरित्रकोश राम राम के द्वारा उसे दिया गया अभयदान, ये दोनों प्रसंग | लिए नियुक्त किया गया । लंका के उत्तर द्वार पर, लक्ष्मण वैष्णव धर्म की परंपरा में 'भगवद्गीता' के समान ही की सहाय्यता से राम ने रावण से स्वयं ही सामना देने महत्त्वपूर्ण एवं पवित्र माने जाते हैं। का निश्चय किया (वा. रा. यु. ३७)। पश्चात् इसने विभीषण को रावण का वध कर, उसे दूतप्रेषण-रावण से युद्ध शुरू करने के पूर्व, राम ने लंका का राजा बनाने का आश्वासन दिया। विभीषण ने भी | सुवेल पर्वत पर चढ़ कर लंका का निरीक्षण किया। उसी इसे वचन दिया कि, वह रावणवध में इसकी सहाय्यता समय, सुग्रीव सहसा पर्वत पर चढ़ कर लंका का के गोपुर करेगा (वा. रा. यु. १७-१९)। पर कूद पड़ा, एवं वहाँ अकेले ही उसने रावण को द्वंद्वयुद्ध राम के द्वारा लंका पर आक्रमण होने के पूर्व, रावण | में परास्त किया (वा. रा. यु. ४०)। ने अपने शुक नामक गुप्तचर के द्वारा, सुग्रीव को अपने तत्पश्चात् विभीषण के परामर्श पर, राम ने अंगद के पक्ष में लाने का प्रयत्न किया, किन्तु सुग्रीव ने उसकी द्वारा रावण को संदेश भेजा, 'यदि तुम सीता को नहीं उपेक्षा की। लौटाओंगे, तो मैं सारे राक्षसों के साथ तुम्हारा संहार सेतुबंध-लंका में पहुँचने के लिए समुद्र पार करना करूँगा'। अंगद के मुँह से राम का यह संदेश सुन कर, आवश्यक था। समुद्र में मार्ग प्राप्त करने के लिए, इसने रावण ने उसका वध करने का आदेश दिया। चार राक्षसों कुशासन पर आधिष्ठित हो कर, एवं तीन दिनों तक प्रायो- ने अंगद को पकड़ना चाहा, किंतु अंगद उन चारों को उठा पवेशन कर, समुद्र की आराधना की। किन्तु समुद्र ने इसे | कर इतने वेग से एक भवन पर कूद पड़ा कि, वे - राक्षस मार्ग न दिया, जिस कारण इसने क्रुद्ध हो कर समुद्र पर | निःसहाय्य भूमि पर गिर पड़े। पश्चात् अंगद उस भवन ब्रह्मास्त्र का प्रयोग किया (वा. रा. यु. २१)। तत्पश्चात् | ढहा कर, सुरक्षितता से राम के पास आ पहुँचा । राम समुद्र इसकी शरण में आया, एवं विश्वकर्मापुत्र नल के ने जब समझ लिया कि, किसी प्रकार मित्रता के साथ युद्ध द्वारा समुद्र पर वृक्षों तथा पत्थरों से एक सेतु बाँधने की टालना असंभव है, तब इसने अपने सेनापति नील की उसने इसे सलाह दी। युद्ध शुरु करने की आज्ञा दे दी (वा. रा. यु.: ४१नील के द्वारा निर्माण किया गया यह सेतु सौ योजन | ४२) । लंबा था, जो उसने पाँच दिनों में, प्रतिदिन चौदह, बीस. प्रथम दिन-लंका को वानरसेना से अवरुद्ध जान • इक्कीस, बाइस, तेइस योजन इस क्रम से तैयार किया था। कर, रावण ने उसका सामना करने के लिए अपनी सेना इस सेतु के द्वारा, ससैन्य, समुद्र को लाँघ कर यह लंका को भेज़ दिया । इस समय राम एवं इसके सहयोगियों पहुँच गया (वा. रा. यु. २२.४१-७७)। वहाँ 'सुवेल | के द्वारा निम्नलिखित गक्षस योद्धा मारे गये :-राम के पर्वत' के समीप इसने पड़ाव डाले (वा. रा. यु. २३- | द्वारा-अग्निकेतु, रश्मिकेतु, मित्रघ्न एवं यज्ञकेतुः प्रबंध २४)। के द्वारा--संपाति; सुग्रीव-प्रघस; लक्ष्मण-विरूपाक्ष; मैंदलंका का अवरोध--वानर सेना के समुद्र पार करने वज्रमुष्टि; नील-निकुंभ; द्विविद-अशनिप्रभः सुषेणके बाद, रावण ने शुक, सारण एवं शार्दुल नामक अपने | विद्युन्मालिन् ; गजवर-तपन; हनुमत्-जबुमालिन् ; नलगुप्तचरों को वानरवेश से राम सेना की ओर भेज़ दिया, तथा प्रतपन (वा. रा. यु. ४३)। रामसेना की गणना करने के लिए कहा। किंतु विभीषण | सायंकाल के समय, प्रथम दिन का युद्धं समाप्त हुआ, ने उनको पहचान लिया, एवं राम के संमुख पेश किया। किंतु राक्षसों के द्वारा पुनः युद्ध प्रारंभ किये जाने पर पश्चात् वे शरण आने के कारण, राम ने उन्हें जीवनदान राम ने यज्ञशत्रु, महापार्श्व, महोदर, शुक एवं सारण दिया (वा. रा. यु. २५-२७)। रे. बुल्के के अनुसार, | आदि राक्षसों का पराजय किया। वाल्मीकि रामायण में प्राप्त गुप्तचरों का यह वृत्तांत, एवं नागपाश--तत्पश्चात् अंगद ने रावण के पुत्र इंद्रजित तत्पश्चात् दिया गया राम के कटे हुए मायाशीष का वृत्तांत से युद्ध प्रारंभ कर उसे परास्त किया । फिर इंद्रजित् ने प्रक्षिप्त है (रामकथा पृ. ५५५-५५६)। ब्रह्मा के वरदान से अदृश्य हो कर, राम एवं लक्ष्मण को युद्ध के पूर्व, राम ने अपनी सेना को सुसंघटित बनाया, नागमय शरों से आहत किया, जिस कारण ये दोनों जिसमें अंगद को लंका के दक्षिण द्वार पर, हनुमत् को | निश्चेष्ट पड़े रहे । तब इंद्र जित् ने इन दोनों को मृत समझ पश्चिम द्वार पर, एवं नील को पूर्व द्वार पर आक्रमण के | कर वैसी सूचना रावण को दी (वा. रा. यु. ४२-४६ )। ७३२ Page #755 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राम प्राचीन चरित्रकोश राम यह सुन कर रावण ने सीता एवं त्रिजटा को पुष्पक | मृत्यु की पश्चात् , कुंभकर्ण का सिर सूर्योदयकालीन चंद्रमा विमान में बैठा कर, रणभूमि मे मूछित पड़े हुए राम- के समान आकाश में दिखाई पड़ा, एवं वह स्वयं पृथ्वी पर लक्ष्मण को दिखलाया। सीता इन दोनों को मृत समझ | गिर कर, उसके प्रचंड देह के कारण अनेक भवन गिर पड़े। कर विलाप करने लगी, किन्तु त्रिजटा ने उसको वास्तव | युद्ध के सातवें दिन रामपक्षीय वानरों ने देवान्तक, परिस्थिति का ज्ञान दिला कर सांत्वना दी ( वा. रा. यु: नरांतक, त्रिशिरस् एवं अतिकाय नामक चार रावणपुत्रों ४७-४८)। का वध किया। महोदर एवं महापार्श्व नामक रावण के बाद में राम को जैसे ही होश आया, यह. लक्ष्मण | भाईयों का भी वध किया गया। उनमें से नरान्तक का को मटित देख कर विलाप करने लगा (वा. रा. | वध अंगद के द्वारा,देवान्तक एवं त्रिशिरस् का वध हनुमत् यु. ४९) । पश्चात् सुषेण ने राम को कहा कि, ओषधि | के द्वारा, महोदर का वध नील के द्वारा, एवं अतिकाय लाने के लिए हनुमत् को द्रोणाचल भेज दिया जाये। | का वध लक्ष्मण के द्वारा हुआ किन्तुं इसी समय, गरुड का युद्धभूमि में आगमन हुआ, इंद्रजेत् का वध- युद्ध के आठवें दिन रावण का जिसको देखते ही नागपाश के सारे नाग भाग गयें, एवं उसके स्पर्शमात्र से ही राम एवं लक्ष्मण स्वस्थ हो गये पुत्र इंद्रजित् अदृश्य रूप से रणभूमि में आया, एवं उसने वानरसेना पर ऐसा जोरदार हमला किया कि, उसमें ६८ (वा. रा. यु. ५०)। रे. बुल्के के अनुसार, गरुड़ के करोड़ वानर मारे गयें। इंद्रजित् के द्वारा छोड़े गये ब्रह्मास्त्र आगमन का यह कथाभाग प्रक्षिप्त है (रामकथा. ५६२)। के कारण, राम एवं लक्ष्मण मूर्छित हुयें (वा. रा. यु. - राक्षससंहार-युद्ध के दूसरे दिन हनुमत् ने रावणपक्षीय योद्धा धूम्राक्ष का वध किया ( वा. रा. यु. ५१-५२)। तीसरे दिन अंगद ने वज्रदंष्ट्र आदि राक्षसों का वध किया | | रात्री के समय विभीषण एवं हनुमत् मशाल ले कर रात्री के सम (वा. रा. यु.५३-५४)।.चौथे दिन हनुमत् ने अकं- युद्धभूाम म आय, एव उन्हान देखना शुरू किया कि, पनादि राक्षसों का वध किया ( वा. रा. यु. ५५-५६)। कौन मरा एवं कौन बचा। उस समय उन्हें सर्वप्रथम पाँचवे दिन रावण का प्रमुख सेनापति प्रहस्त, अग्निपुत्र जांबवत् मिला, जिसने हनुमत् से आज्ञा दी, 'इसी नील वानर के द्वारा मारा गया, एवं उसके सैन्य में से समय, हिमालय के ऋषभ शिखर पर जा कर, वहाँसे नरान्तक, महानंद, कुंभहनु आदि राक्षसों का भी संहार संजीवनी, विशल्यकरिणी, सुवर्णकरिणी एवं संधानी हुआ (वा. रा. यु.५७-५८)। नामक चार ओषधियाँ ले आना'। हनुमत् के द्वारा ___ युद्ध के छठवें दिन, रावण स्वयं अपना पुत्र इंद्र जित् | उपयुक्त वनस्पा । उपर्युक्त वनस्पतियाँ लाने के उपरान्त, जांबवत् ने राम एवं आतिकाय आदि राक्षसों के साथ स्वयं युद्धभूमि में एवं लक्ष्मण को होश में लाया, एवं संपूर्ण वानरसेना को प्रविष्ट हुआ। उसने सुग्रीव, गवाक्ष आदि वानरों को | पुनः जीवित किया (वा. रा. यु. ७४)। परास्त किया, एवं 'अग्नि-अस्त्र के द्वारा नील वानर | युद्ध के नौवें दिन वानरों ने लंका में घुस कर, उसे का पराजय किया। आग लगा दी, एवं कुंभ, निकुंभ, यूपाक्ष आदि राक्षसों का तत्पश्चात् रावण एवं लक्ष्मण का युद्ध हुआ, जिसमें | वध किया (वा. रा. यु. ७५-७७)। इसी दिन राम के 'ब्रह्मास्त्र' के द्वारा उसने लक्ष्मण को मूछित किया । द्वारा मकराक्ष राक्षस मारा गया (वा. रा. यु. ७८-७९)। रावण उसे उठा कर ले जाने लगा, किंतु हनुमत् लक्ष्मण बाद में इंद्रजित ने अपने मायावी युद्ध के कारण, को रणभूमि से उठा कर राम के पास ले आया। तत्पश्चात् । वानरसेना में हाहाकार मचा दिया, एवं उन्हे घबराने के राम ने हनुमत् के स्कंध पर आरूढ हो कर, रावण को | लिए, उनकी आँखों के सामने सीतावध का मायावी आहत किया, एवं उसके मुकुट को बाण मार कर नीचे | दृश्य निर्माण किया। तत्पश्चात् वह निकुंभिला नामक गिरा दिया । पश्चात् राम ने रावण को रणभूमि से भाग | स्थान में जा कर, वानरसंहार के लिए आसुरी-यज्ञ करने जाने पर मजबूर कर दिया ( वा. रा.यु. ५९)। लगा। विभीषण की सलाह के अनुसार, लक्ष्मण ने वहाँ __ उसी दिन शाम को राम ने कुंभकर्ण का भी वध किया, | | जा कर इंद्रास्त्र छोड़ कर उसका वध किया। पश्चात् इस जिस समय इसने सर्वप्रथम उसकी भुजाएँ, तत्पश्चात् उसके | युद्ध में मूञ्छित एवं मृत हुयें वानरों को सुषेण ने पुनः पैर, एवं अंत में उसका सिर अपने बाणों से काट दिया। | जीवित किया (वा. रा. यु. ९१ )। ७३३ Page #756 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राम प्राचीन चरित्रकोश अपने पुत्र इंद्रजित् के वध की वार्ता सुन कर रावण अत्यधिक कुद्ध हुआ, एवं अपने खड्ग से सीता का वध करने के लिए प्रवृत्त हुआ किन्तु सुपार्थ नामक उसके आमात्य ने इस पापकर्म से उसे रोक लिया, एवं चैत्र कृष्ण १४ का दिन युद्ध की तैयारी में व्यतीत कर, अमावास्या के दिन राम पर आखिरी हमला करने की सलाह उसने उसे दी ( वा. रा. यु. ९२.६२ ) । रावणवध—–चैत्र अमावास्या के दिन रावण ने राक्षसों के अब के लिए हवन शुरु किया, किन्तु वानरों ने उसके यसकार्य में बाधा उत्पन्न की फिर में तमतमाता हुआ रावण, महापार्थ, महोदर एवं विरुपाक्ष नामक तीन सेनापतियों के साथ युद्धभूमि में प्रविष्ट हुआ । राम ने उसके साथ घमासान युद्ध किया । उस समय राम की सहाय्यार्थ आये हुए विभीषण एवं लक्ष्मण को रावण ने मूर्च्छित किया। सुपेण ने हिमालय से प्राप्त वनस्पतियों से उन दोनों को पुनः होश में लाया ( वा. रा. यु. १०२ ) तत्पश्चात् राम इंद्र के द्वारा दिये गये दिव्य रथ पर आरुढ हुआ, एवं अगस्त्य के द्वारा दिये गये ब्रह्मास्त्र से रावण का हृदय विदीर्ण कर इसने उसका वध क्रिया ( वा. रा. यु. ११०;म.व. २७४.२८ ) । वाल्मीकि रामायण के दक्षिणात्य पाठ के अनुसार अगस्त्य ऋषि ने राम को 'आदित्य हृदय' नामक स्तोत्र सिखाया था, जिसके पाठन से रावण का वध करने में यह यशस्वी हुआ । । राम-रावण के इस अंतीम युद्ध में रावण के सिर पुनः पुनः उत्पन्न होने की कथा काल्मीकि रामायण में प्राप्त है। इस कथा के अनुसार, राम ने रावण के कुछ एक सिर काट दियें (एकमेव शतं छिन्नं शिरसा तुल्यवर्चसः) ( वा. रा. यु. १०७.५० ) । अध्यात्म रामायण के अनुसार, रावण के नाभिप्रदेश में अमृत रखा था। विभीषण की सलाह के अनुसार, राम ने ‘आग्नेय अस्त्र' छोड़ कर उस अमृत को सुखा दिया, एवं रावण का वध किया ( अध्या. रा. युद्ध. ११.५३, आ. रा. १. ११.२७८९ ) महाभारत के अनुसार, रावण ने अंतीम युद्ध के समय राम एवं लक्ष्मण का रूप धारण करनेवाले बहुत से मायामय योद्धाओं का निर्माण किया था। किन्तु राम ने अपने ब्रह्मास्त्र से इन सारे योद्धाओं को रावण के साथ ही जला दिया, जिस कारण उनकी राख भी शेष न रही (म. ६.२७४.८ ३१ ) | राम रावणवध से राम-रावण युद्ध समाप्त हुआ। तत्पश्चात् राम के अनुरोध पर विभीषण ने अपने भाई रावण का विधिवत् अभिसंस्कार किया ( वा. रा. यु. १११ ) | मंदोदरी आदि रानियों को सांत्वना दे कर इसने उन्हें लंका के लिए रवाना किया। रावण की अंतीम क्रिया होने के उपरान्त, राम ने लक्ष्मण के द्वारा विभीषण को लंका का राजा बना कर उसका राज्याभिषेक किया। बाद में, राम ने समुद्र में बनाया हुआ सेतु भी तोड़ा, जिससे आगे चराको परकीय आक्रमण का भय न रहे (पद्म. सु. ३८ ) । अनि परीक्षा तत्पश्चात् विभीषण के द्वारा सीता को शिबिका में बैठा कर राम के पास लाया गया। इस समय राम ने सीता से कहा, रावण से युद्ध कर मैंने तुझे आज विमुक्त किया है। मैंने आज तक किया हुआ तुम्हारे आसक्ति के कारण नहीं, बल्कि एक क्षत्रिय के नाते मेरा कर्तव्य निभाने के लिए किया है । तुझे पुनः प्राप्त करने में मुझे आनंद जरूर हुआ है किन्तु इतने दिनों तक एक अन्य पुरुष के घर तुम्हारे रहने के कारण, तुम्हारा पुनः स्वीकार करना असंभव है। -- राम का यह कथन सुन कर, सीता ने अपने सतीत्व की सौगंध खायी एवं लक्ष्मण के द्वारा चिता तैयार कर, वह अभिपरीक्षा के लिए सिद्ध हुई ( वा. रा. यु. ११६ ) । इतने में अनेक देवता के सम्मुख अभि देवता नें सीता के सतीत्वका साथ दिया, एवं उसका स्वीकार करने के लिए राम से कहा । तत्र राम ने सीता के अग्निपरीक्षा के संबंध में अपनी भूमिका विशद करते हुए कहा, 'मुझे सीता पर संदेह नहीं है, एवं कभी नहीं था। मैंने यह सब कुछ इसलिये कहा कि, कोई भी सीता के चरित्र पर आक्षेप न करें ( वा.रा.यु. ११८ ) । दक्षिण की विजययात्रा - इस तरह रावण से युद्ध कर, उसका वध करने के कारण, राम का वनवास पाण्डवों के वनवास की भाँति केवल एक वनवास ही न रह कर, दक्षिण भारत की विजययात्रा में परिणत हुआ । अपने चौदह वर्षों के वनवास में से १२|| वर्ष इसने पंचवटी में वनवासी तपस्वी की भाँति व्यतीत किये। बनवाल के बाकी बचे हुए || वर्ष इसने राक्षसों के संग्राम में व्यतीत किया, जो कार्तिक कृष्ण १० के दिन शूर्पणखा वध से प्रारंभ हुआ, एवं अगले साल के वैशाख शुक्ल १२ के दिन रावणवध से समाप्त हुआ । इस राक्षससंग्राम के कारण, रावण के द्वारा लंका में ७३४ Page #757 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राम प्राचीन चरित्रकोश स्थापितला राक्षस साम्राज्य विनष्ट हुआ। दक्षिण भारत का सारा प्रदेश राक्षसों के भय से विमुक्त हो कर, वहाँ दाक्षिणात्य वानरों का राज्य प्रस्थापित हुआ, एवं अगस्त्य के द्वारा दक्षिण भारत में प्रस्थापित किये गये आर्य संस्कृति का दृढ रूप से पुनरुस्थान हुआ । इस तरह राम का दक्षिण दिग्विजय अनेकानेक दृष्टि से महत्वपूर्ण प्रतीत होता है। इस दृष्टि से सीता के अशि परीक्षा की कथा भी रूपकात्मक प्रतीत होती है, जो संभवतः राम के द्वारा शुरू किये गये दक्षिण भारत की आबादी एवं पुनर्वसन के कार्य की यशस्विता प्रतीवरूप से दर्शाती है । सीता शब्द का शब्दशः अर्थ भी भूमि ही है (सीता देखिये) । । राक्षससंग्राम का तिथिनिर्णय राम एवं रावण का युद्ध कुल ८७ दिनों तक चलता रहा, उनमें से पंद्रह दिन कोई युद्ध न हुआ था, जिस कारण राम-रावण का प्रत्यक्ष युद्ध ७२ दिनों तक हुआ प्रतीत होता है। यह युद्ध माघ शुद्ध द्वितीया को शुरु हुआ, एवं वैशाख कृष्ण द्वादशी के दिन रावण वध से समाप्त हुआ । । लंका का स्थनिर्णय रावणसंग्राम के संबंध में लंका बा के स्थलनिर्णय की समस्या महत्त्वपूर्ण प्रतीत होती है। रायचौधरी आदि अभ्यासकों के अनुसार, आधुनिक । सिलेन ही का है, एवं आधुनिक महाराष्ट्र प्रदेश ही प्राचीन दण्डकारण्य है । किबे आदि अन्य अभ्यासक लंका का स्थान आधुनिक मध्य हिंदुस्थान में अमरकंटक पर्वत के पास मानते हैं। बजेर आदि कई अन्य अभ्यासक । आधुनिक मालदिव अंतरीप को राक्षसद्वीप मानते हैं। अन्य कई अभ्यासकों के अनुसार, प्राचीन का देश आधुनिक आंध्र प्रदेश के उत्तर में बंगाल उपसागर के बीच कहीं बसा हुआ था । डॅनिएल जॉन के अनुसार, प्राचीन वा आधुनिक सीलोन के दक्षिण में अथवा लंका दक्षिणीपूर्व में कहीं बसी हुई थी ( डॉ. पुसालकर स्टडीज इन दि एपिक्स ॲन्ड पुराणाज पृ. १९१ ) । वानर कौन थे— किबे एवं हिरालाल के अनुसार अमरकंटक पर्वत के प्रदेश में रहनेवाले वन्य खोग प्राचीन का में वानर एवं आधुनिक गोड खोग राक्षस महाते थे। अन्य कई अभ्यासक राक्षसों को असुरवंशीय मानते है। चक्रवर्ती राजगोलाचारी के अनुसार, आधुनिक । द्रवित प्रदेश में रहनेवाले द्रविडवंशीय लोग रामायण बलवान कहलाते थे (डॉ. पुसाळकर, ४ १९२ वानर देखिये) । राम उत्तरकाण्ड का विश्लेषण कई अभ्यासकों के अनुसार, रावणवध के साथ ही साथ राम का देवी अवतार समाप्त होता है । अपने इस अवतारकार्य के समाप्ति के पश्चात्, इक्ष्वाकुवंश का एक राजा यही मर्यादित स्वरूप रामचरित्र धारण करता है। इसी कारण, वाल्मीकि रामायण के उत्तर काण्ड में चित्रित किया गया राम, पहले काण्डों में चित्रित राम से अलग व्यक्ति प्रतीत होता है रे, के भी संपूर्ण उत्तर काण्ड को प्रक्षिप्त मानते है, जिसकी रचना बातमी के द्वारा नहीं, बल्कि भिन्न मित्र उत्तरकालीन कवियों के द्वारा हुयीं है ( रामकथा, पृ. ६०५६०६) । वाल्मीकिद्वारा रचित 'आदिरामायण' एवं अन्य प्राचीन ग्रंथों में भी राम के द्वारा रावण की पराजय, एवं सीता की पुनःप्राप्ति के साथ ही ' रामकथा समाप्त की गयी है । अयोध्यागमन - युद्ध के पश्चात् राम, सीता एवं लक्ष्मण को साथ ले कर पुष्पक विमान में बैठकर अयोध्या की ओर चल पड़े। उस समय राक्षससंग्राम में भाग लेनेवाले समस्त वानरों ने इच्छा प्रकट की, कि वे अयोध्या में रामराज्याभिषेक देखना चाहते हैं। इस कारण, उन्हे एवं सुग्रीवादि अपने मित्रों को साथ ले कर यह अयोध्या में आया। अयोध्या जाते समय, राम ने सीता को युद्धभूमि, नल के द्वारा बाँधा गया सेतु किष्किंधा आदि ऐतिहासिक स्थान बतायें। । राम के चौदह वर्षों के वनवास में से एक दिन बाकी था, इसलिए वैशाख शुद्ध पंचमी के दिन, इसने भरद्वाज ऋषि के आश्रम में बास किया, एवं हनुमत् के द्वारा अपने आने का संदेश भेजा। दूसरे दिन पुष्य नक्षत्र के अवसर पर, नंदिग्राम में राम एवं भरत की भेंट हुयी, एवं उसके साथ अयोध्या जाकर अपनी माताओं एवं वसिष्ठ आदि गुरुजनों के इसने दर्शन किये ( वा. रा.यु. १२६)। । रामराज्याभिषेक - वैशाख शुक्ल सप्तमी के दिन, राम एवं भरत ने मंगल स्नान किये, एवं इसका राज्याभिषेक तथा भरत का यौवराज्याभिषेक वसिष्ठ के द्वारा किया गया। अनंतर राम ने पहले ब्राह्मणों को तथा बाद में सुप्रीवादि वानरों को विपुल दान दिया। राम ने लक्ष्मण को युवराज बनाना चाहा, किन्तु लक्ष्मण के द्वारा उस पड़ को अस्वीकार किये जाने पर, भरत को युवराज बनाया गया। גי वाल्मीकि रामायण में रामाभिषेक के लिए आमंत्रित राजाओं की जानकारी सविस्तृत रूप में प्राप्त है, जहाँ इसके ७३५ Page #758 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन चरित्रकोश सीरध्वजादि आप्त, प्रतर्दनादि मित्र, एवं तीन सौ मांडलिक | कि, एक गेबी अपनी स्त्री को अपने घर से निकाल रहा राजाओं के उपस्थिति का निर्देश प्राप्त है (वा. रा. उ. | है। उस समय धोबी ने अपनी पत्नी से कहा, 'मै राम ३७-४०)। इस समारोह के समय, सुग्रीव आदि को छः की तरह नहीं हूँ, जिन्होंने दीर्घकाल तक दूसरे के घर में महिने तक अतिथि के रूप में रख कर आदरपूर्वक बिदा किया | रहनेवाली सीता का पुनः स्वीकार किया' (कथा. ९.१. गया। विभीषण के द्वारा राम को दिया गया पुष्पक | ६६; भागवत. ९.११.९)। विमान कुबेर को वापस भेज दिया गया (वा. रा. उ. कुश-जवजन्म-वाल्मीकि के आश्रम में, सीता ने ४१)। तत्पश्चात् राम ने अत्यधिक कुशलता के साथ राज्य | दो पुत्रों को जन्म दिया, जिनका नाम वाल्मीकि ने कुश किया, जिस कारण आज भी आदर्श राज्य को लोग | एवं लव रख दिया (वा. रा. उ. ६६)। बाद में कुश 'रामराज्य' कहते है (वा. रा. यु. १२८)। एवं लव वाल्मीकि के शिष्य बन गये, जिसने उन्हें समग्र सीतात्याग--कुछ समयोपरांत सीता गर्भवती हुई, रामायण सिखा दिया। बाद में वे दोनों सभाओं में जा तथा उसने अरण्य में घूमने की इच्छा प्रकट की। उसको कर रामायण का गान करने लगे। किसी दिन राम ने उन अगले दिन तपोवन में भेज देने का आश्वासन दे कर, | दोनों को अयोध्या के राजमार्ग में रामायण का गान करते राम अपने मित्रों के साथ परिहास की कहानियाँ सुनने हुए देखा, जब उन्हें महल में ले जा कर इसने भरत आदि बैठा । उस समय, राम ने भद्र नामक अपने मित्र से | भाईयों के साथ रामायण का गान सुना (बा. रा. बा. पूछौं, 'मेरे, सीता, एवं भरत आदि के विषय में लोग क्या कहते है ' ? तब भद्र ने सीता के कारण हो रहे ___अश्वमेधयज्ञ-रावण स्वयं ब्राह्मण था, जिस कारण लोकापवाद, एवं जनता की आचरण पर पड़ने वाले उसके | । जसका वध करने से राम को ब्रह्महत्या का पाप लग गया। कुप्रभाव निर्देश करते हुआ कहा उस पाप से बचने के लिए, राम ने अगस्य ऋषि के भस्माकमपि दारेषु सहनीयं भविष्यति । कथनानुसार अश्वमेधयज्ञ का आयोजन किया (पा. पा. ८-१०; शत्रुघ्न देखिये)। इसके पूर्व, सम ने राजसूय यथा हि कुरुते राजा प्रजास्तमनुवर्तते ॥ यज्ञ करने की इच्छा प्रगट की थी। किंतु भरत के द्वारा, (वा. रा. उ. ४३.१९) उस यज्ञ के कारण राजवंश के विनाश का भय व्यक्त, (राम के द्वारा सीता का स्वीकार किये जाने के कारण | करने पर, राम ने दस अश्वमेध यज्ञ करने का निश्चय हमको भी अपनी स्त्रियों का वैसा ही आचरण अब सहना किया। लक्ष्मण ने भी उसी सूचना को अनुमोदन दिया पड़ेगा । क्यों कि, जैसा आचरण राजा करता है, वैसा ही (वा. रा. उ. ८३-८४)। आचरण प्रजा करती है)। . ___ अश्वमेध यज्ञ करते समय पत्नी की उपस्थिति आवश्यक लोकापवाद की यह कथा सुन कर, राम अत्यधिक रहती है, अतएव इसने सीता की स्वर्णमूर्ति बनवा कर व्याकुल हुआ। दूसरे दिन इसने लक्ष्मण को बुला कर एवं उसे अपने पास रख कर यज्ञानुष्ठान किया (बा. सीता को गंगा नदी के उस पार छोड़ आने का आदेश रा. उ. ९९.७)। इसी अश्वमेध यज्ञ के समय, कुशलय दिया। तदनुसार, तपोवन दिखलाने के बहाने लक्ष्मण के साथ ले कर वाल्मीकि ऋषि उपस्थित हुए, एवं उन्होंने सीता को रथ पर ले गया, एवं उसने सीता को वाल्मीकि उनके द्वारा रामायण का गान करा, राम से कुशलव का ऋषि के आश्रम के समीप छोड़ दिया। उस समय, परिचय करवाया (कुश-लब देखिये)। लक्ष्मण ने बडे दुःख के साथ सीता को बताया कि, उपर्युक्त यज्ञ के अतिरिक्त, राम के द्वारा वाजपेय, लोकापवाद के कारण राम ने उसका त्याग किया है (वा. | अग्निष्टोम, अतिरात्र आदि यज्ञ करने का निर्देश भी प्राप्त रा. उ. ६९)। है (वा रा. उ. ९९.९-१०)। कालिदास के रघुवंश में प्राप्त सीतात्याग की कथा में सीता का भूमिप्रवेश-अश्वमेध यज्ञ के अवसर पर, भद्र को राम का मित्र नही, किंतु गुप्तचर बताया गया है | अपने पुत्रों को देख कर, राम ने बाल्मीकि के द्वारा सीता (रघु. १४) । कथासरित्सागर एवं भागवत में एक धोबी को भी बुलावा भेज दिया । इस पर सीता को साथ ले का उदाहरण दे वर लोकापवाद की यह कथा प्रस्तुत की कर वाल्मीकि रामसभा में उपस्थित हुए, एवं उसने सीता गयी है। एक बार गुप्तवेश में घुमते हुए राम ने देखा के सतीत्व की साक्ष दी। तदनंतर राम के द्वारा सीता ७३६ Page #759 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन चरित्रकोश राम को अपने सतीत्व का प्रमाण देने के लिए अनुरोध किये मार्गशीर्ष शुक्ल १४-रावण के द्वारा हनुमत्-बंधन, 'जाने पर, सीता ने स्वयं को निष्पाप बताते हुए पृथ्वी में एवं हनुमत् के द्वारा लंकादहन । प्रवेश किया (वा. रा. उ. ९७; सीता देखिये)। मार्गशीर्ष शुक्ल १५-हनुमत् का महेंद्रपर्वत पर देहत्याग-कुछ समय के उपरांत, कौसल्या, सुमित्रा, | पुनरागमन । कैकेयी आदि राम के माताओं का क्रमशः देहान्त हुआ| पौष कृष्ण १-५-हनुमत् का महेंद्र से किष्किंधा (वा. रा. उ. ९९) । लक्ष्मण भी सरयू नदी के तट पर | तक प्रवास । जा कर, एवं कृतांजलि हो कर सशरीर स्वर्ग चला गया | पौष कृष्ण ६-हनुमत् की वानरों से भेंट, एवं मधुवन (वा. रा. उ. १०३-१०६)। फिर लक्ष्मण के वियोग | का विध्वंस । के कारण दुःखी हो कर, राम ने भरत, शत्रुघ्न एवं सुग्रीव पौष कृष्ण ७-हनुमत् की राम से भेंट | के साथ सरयू नदी के तट पर देहत्याग किया। पश्चात् पौष कृष्ण ८--राम के द्वारा रावणवध की प्रतिज्ञा, यह विष्णु के रूप में प्रविष्ट हुआ, एवं इसके साथ आयें एवं उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र तथा विजय योग पर, दक्षिण की हुए बाकी सारे लोग 'संतानक' लोग में प्रविष्ट हुयें | ओर प्रयाण । (वा. रा. उ. १९७-११०)। पौष कृष्ण ९-३०--राम का किष्किंधा से समुद्र तक रामकथा का तिथिनिर्णय-जैसे पहले ही कह गया | का प्रवास । है कि, वनवास जाते समय राम एवं सीता की पौष शुक्ल १-३-राम का समुद्र तट पर आगमन । आयु क्रमशः सताईस एवं अठारह वर्षों की थी। पौष शुक्ल ४-विभीषण का राम के पास आना। चौदह वर्षों का वनवास भुगतने के पश्चात् राम को पौष शुक्ल ५--राम के द्वारा समुद्र पार करने का राज्याभिषेक हुआ, जिस समय राम एवं सीता की | विचार । आयु क्रमशः बयालिस एवं तैतीस वर्षों की थी। रावण पौष शुक्ल ६-९--समुद्र के तुष्टयर्थ राम का प्रायोके बंदिवास में सीता कुल ग्यारह मास एवं चौदह दिनों | पवेशन । तक थी (स्कंद. ३.३.३०; पद्म. पा. ३६)। पौष शुक्ल १०-१३-सेतुबंधन। राम के वनवास के प्रथम दिन से ले कर, राज्याभिषेक | पौष शुक्ल १४-राम का सुवेल पर्वत पर आगमन । तक की महत्त्वपूर्ण घटनाओं का तिथिनिर्णय उपर्युक्त पौष शुक्ल १५–माघ कृष्ण २-राम सेना का सुवेल पुराणों में निम्न प्रकार दिया गया है: | पर्वत पर आगमन। वैशाख शुक्ल --वनवास का प्रथम दिन । माघ कृष्ण ३-10-रामसेना के द्वारा लंका का वैशाख शुक्ल २-चित्रकूट की ओर गमन । अवरोध। वैशाख शुक्ल ६-चित्रकूट में भरत से भेंट । माघ कृष्ण 11--शुक एवं सारण नामक रावण के दूतों (बारह वर्ष, छः महिनों तक पंचवटी में निवास) । का राम के पास आगमन । कार्तिक कृष्ण १०--शूर्पणखा के नाक एवं कान माघ कृष्ण १२-राम की सेनागणना। काटना। माघ कृष्ण १३-३०-रावण की सेनागणना। फाल्गुन कृष्ण ८-रावण के द्वारा सीता का हरण। । माघ शुक्ल १--रावण के पास अंगद का दूत के रूप (दस महिनों के बाद) में जाना। मार्गशीर्ष शुक्ल ९-सीताशोध के लिए गये हनुमत् ___माघ शुक्ल.२-८--युद्धारंभ । की संपाति से भेंट। माघ शुक्ल ९--इंद्रजित् के द्वारा रामलक्ष्मण का मार्गशीर्ष शुक्ल ११-महेंद्रपर्वत पर से हनुमत का | नागपाश में बंधन। लंका के लिए उड़ान। __ माघ शुक्ल १०-गरुडमंत्र की सहाय्यता से हनुमत् । मार्गशीर्ष शुक्ल १२-अशोकवन में हनुमत् एवं | के द्वारा राम-लक्ष्मण की मुक्ति। सीता की भेंट। __माघ शुक्ल ११-१२-हनुमत् के द्वारा धूम्राक्ष का मार्गशीर्ष शुक्ल १३-हनुमत् के द्वारा अक्ष आदि | वध । राक्षसों का वध, एवं अशोकवन का विध्वंस । माघ शुक्ल १३--हनुमत् के द्वारा अकंपन का वध । प्रा. च. ९३] ७३७ Page #760 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राम प्राचीन चरित्रकोश राम माघ शुक्ल १४--फाल्गुन कृष्ण १-नील के द्वारा वैशाख शुक्ल ६-नंदिग्राम में राम एवं भरत की प्रहस्त का वध। पुनर्भेट। फाल्गुन कृष्ण २-४-राम-रावण का युद्ध एवं रावण | वैशाख शुक्ल ७-राम का राज्याभिषेक । का युद्धभूमि से पलायन। सर्वमान्य तिथियाँ-वाल्मीकि रामायण के 'तिलक फाल्गुन कृष्ण ५-८-कुंभकर्ण को जगाना । . टीका' में एवं कालिकापुराण में राम के वनवास का तिथि फाल्गुन कृष्ण ९-१४--राम के द्वारा कुंभकर्ण से युद्ध | निर्णय कुछ अलग ढंग से प्राप्त है, जो निम्न प्रकार है:एवं वध। चैत्र शुक्ल १०-वनवास का प्रथम दिन; भाद्रपद शुक्ल १फाल्गुन कृष्ण ३०-युद्धविराम। युद्धारंभ; आश्विन शुक्ल १- राम-रावणयुद्ध; आश्विन फाल्गुन शुक्ल १-४-राम लक्ष्मणों वाइंद्रजित् से युद्ध ।। शुक्ल ९-रावण वध; कार्तिक कृष्ण ६-राम का अयोध्या फाल्गुन शुक्ल ५-७-लक्ष्मण के द्वारा अतिकाय | में आगमन । उत्तर भारत में रामलीला आदि भी इन्हीं का वध। तिथियों के अनुसार होते है। फाल्गुन शुक्ल ८-इंद्रजित् से द्वितीय युद्ध । चांद्रमास के अनुसार, अधिक मास छोड़ कर काल फाल्गुन शुक्ल ९-१२-कुंभ एवं निकुंभ का वध । गणना की जाएँ, तो यह कालगणना वाल्मीकि रामायण फाल्गुन शुक्ल १३-चैत्र कृष्ण १-मकराक्ष का वध । से भी बिलकुल मिलती जुलती है (वा. रा. यु. १११ चैत्र कृष्ण २--इंद्रजित् से तृतीय युद्ध, एवं लक्ष्मण तिलक टीका; कालिका ६२.२३-३९)। की मूर्छा। ताम्रपटों का निर्देश-जब वनवास के बाद राम चैत्र कृष्ण ३-७--युद्धविराम, एवं हनुमत् के द्वारा अयोध्या में आया, तब इसने ताम्रपट पर अपने पराक्रम लक्ष्मण के लिए ओषधी लाना। चैत्र कृष्ण ८-१३-इंद्रजित् से चतुर्थ युद्ध एवं वध । | का वर्णन, एवं राज्यशासन के कुछ नियम लिखेवाये। इसने उन ताम्रपटों की स्थापना श्रीमातास्थान, अकुलार्क, चैत्र कृष्ण १४-रावण का आसुरि यज्ञ । एवं धर्मस्थान आदि स्थानों में की, एवं इस समारोह के चैत्र कृष्ण ३०-रावण का युद्धभूमि में प्रवेश। उपलक्ष्य में पचास गाँव ब्राह्मणों को दान में दिये ( स्कंद. चैत्र शुक्ल १-५--राम-रावणयुद्ध, एवं रावण का | ३.२.२४)। ' युद्धभूमि से पलायन । चैत्र शुक्ल ६-८--महापार्श्व आदि राक्षसों का वध । __'कालनिर्णयरामायण' ग्रन्थ---कई रामायणों में राम चैत्र शुक्ल ९--राम-रावणयुद्ध एवं रावण का युद्ध कथा की प्रधान घटनाओं की तिथियाँ दी हैं, जिनमें निम्न भूमि से पलायन। रामायणग्रंथ प्रमुख है:-१. अग्निवेश रामायण-श्लोक चैत्र शुक्ल १०--युद्धविराम । संख्या १०५, २. अब्दरामायग-(कल्याण 'रामायणांक' चैत्र शुक्ल ११-इंद्र के द्वारा राम के लिए रथ का पृ. ३०४) ३. लोमश रामायण-जो पद्मपुराण के प्रेषण। पातालखंड में प्राप्त है (पा. पा. ३६)। चैत्र शुक्ल १२--वैशाख कृष्ण ४-राम-रावणयुद्ध, ___ इनके अतिरिक्त व्यासकृत 'रामायणतात्पर्यदीपिका,' एवं रावण का वध। श्रीनिवासराघवकृत 'रामायण संग्रह' एवं 'रामावतारकालवैशाख कृष्ण १५--युद्धसमाप्ति एवं रावण बा निर्णय सूचिका' आदि ग्रन्थों में भी रामचरित्र की तिथियों अंतिम संस्कार। का वर्णन प्राप्त हैं। वैशाख शुक्ल २-विभीषण का राज्याभिषेक। चरित्रचित्रण--एक सत्यपराक्रमी क्षत्रिय, आज्ञाधारक वैशाख शुक्ल ३--राम एवं सीता की भेंट । पुत्र एवं स्वदारनिरत पति के रूप में राम का चरित्र वैशाख शुक्ल ४--राम का विमान में बैठ कर अयोध्या | वाल्मीकि रामायण में किया गया है। तिब्बती, खोतानी, के लिए प्रस्थान। सिंहली एवं मलय आदि विदेशी रामकथाओं में भी राम वैशाख शुक्ल ५--राम के चौदह वर्षों के वनवास की | प्रायः एक पत्नीव्रती राजा के रूप में चित्रित किया गया समाप्ति, एवं उसी दिन प्रयाग में भारद्वाज-आश्रम में | है। यह वाल्मीकीय आदर्श का ही स्वाभाविक विकास आगमन। | प्रतीत होता है। ७३८ Page #761 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राम प्राचीन चरित्रकोश सीता के प्रति राम का विशद्ध एवं निरतिशय प्रेम का | राम के तृतीय बन्धु भरत को अपनी माता कैकेयी चित्रण वाल्मीकि रामायण में प्राप्त है ( वा.रा. अर.३.६० | का केकय राज्य प्राप्त हुआ, जिसमें सिन्धु ( आधुनिक -६६, ७५; सुं. २७-२८; ३०; यु. ६६; उ. ५)। अत्रि | उत्तर सिंध ) प्रदेश भी शामिल था। भरत के तक्ष एवं ऋषि के आश्रम में सीता ने अत्रिपत्नी अनसूया से कहा | पुष्कल नामक दो पुत्र थे, जिन्होंने आगे चल कर गंधर्व था, 'राम मुझसे इतना ही प्रेम करते है, जितना मैं लोगों से गांधार देश को जीत लिया, एवं वहाँ क्रमशः उनसे करती हैं। इसी कारण, मैं अपने आप को अत्यंत | तक्षशिला एवं पुष्कलावती नामक राजधानियों की स्थापना माग्यवान् समझती हूँ। की ( वा. रा.उ. १०१)। इनमें से तक्षशिला नगरी के रामचरित्र के दोष-राम स्वयं एक अत्यंत सच्चरित्र | खण्डहर आधुनिक रावलपिंडी के उत्तरीपश्चिम में २० एवं क्षत्रियधर्म का पालन करनेवाला आदर्श राजा होते | मील पर स्थित भीर में प्राप्त हैं, एवं पुष्कलावती के खण्डहर हुए भी, इसके चरित्र के कुछ दोष वाल्मीकि रामायण एवं | आधुनिक पेशावर के उत्तरीपश्चिम में १७ मील पर कुभा उत्तररामचरित में दिखाये गये है, जो निम्न प्रकार है:- एवं सुवास्तु नदियों के संगम पर स्थित चारसद्दा ग्राम १. स्त्री होते हुए भी इसने ताटका का वध किया: २. खर | में प्राप्त है। से युद्ध करते समय यह तीन पग पीछे हटा (वा. रा. राम के चतुर्थ बन्धु शत्रुघ्न ने यमुना नदी के पश्चिम में भर. ३०.२३); ३. वृक्ष के पीछे छिप कर इसने वालि | सात्वत यादवों को पराजित कर, उनका राजा मधु राक्षस का का वध किया (उत्तरराम. ५); ४. लोकापवाद के भय से पुत्र माधव लवण का वध किया, एवं मधुपुरी अथवा मधुरा निर्दोष सीता का त्याग किया; ५. अहिरावण के पत्नी के (मथुरा) में अपनी राजधानी स्थापित की। महल प्रवेश किया। __शत्रुघ्न को सुबाहु एवं शत्रुघातिन् नामक दो पुत्र थे। इसमें से अंतिम आक्षेप अनैतिहासिक मान कर छोड़ा | शत्रुघ्न के पश्चात् उनमें से सुबाहु मधुरा नगरी में राज्य जा सकता है । ताटका का वध विश्वामित्र के संमति से किये करने लगा, एवं शत्रुघातिन् को वैदिश नगरी का राज्य प्राप्त जाने के कारण, एवं खर के वध के समय शरसंधान के हुआ ( वा. रा. उ. १०७-१०८)। लिए पीछे हटने के कारण, इन दोनों प्रसंग में राम निर्दोष | | राम के परिवार के इन लोगों के राज्य काफी दिनों : प्रतीत होता है। सीतात्याग के संबंध में व्यक्तिधर्म | तक न रह सकें । गांधार देश में स्थित तक्ष एवं पुष्कल एवं राजधर्म का संघर्ष प्रतीत होता है । रही बात वालि- | को उसी प्रदेश में रहनेवाले दृह्य लोगों ने जीत लिया। वध की, जिस समय राम का आचरण असमर्थनीय शत्रुघ्नपुत्र, सुबाहु एवं शत्रुघातिन् को यादव राजा भीम प्रतीत होता है। सात्वत ने मधुराराज्य से पदभ्रष्ट किया, जहाँ पुनः एक बार परिवार-राम को अपनी पत्नी सीता से कुश एवं यादववंशीयों का राज्य शुरु हुआ । लक्ष्मणपुत्र अंगद एवं लव नामक दो पुत्र उत्पन्न हुये थे, जिनका जन्म राम के चंद्रकेतु के राज्य भी नष्ट हो गये, एवं लव के उत्तर कोसल द्वारा सीता का त्याग किये जाने पर वाल्मीकि ऋषि के देश के राज्य की भी वही हालत हुई। आगे चल कर आश्रम में हुआ था। राम के पश्चात् कुश दक्षिण कोसल | अयोध्या का सूर्यवंशीय राज्य भी नष्टप्राय हुआ, एवं का राजा बन गया । लव को उत्तर कोसल देश का राज्य | उत्तरी भारत का सारा राज्य पौरव एवं यादव राजाओं प्राप्त हुआ, जिसकी राजधानी श्रावस्ती नगरी में थी। | के हाथ में चला गया। राम के पश्चात् अयोध्या नगरी उजड़ गयी, जिस कारण वाल्मीकि रामायण---रामचरित्र का प्राचीनतम विस्तृत कुश ने विंध्य पर्वत के दक्षिण तट पर कुशावती नामक ग्रन्थ 'वाल्मीकि रामायण' है, जो आदिकवि वाल्मीकि नयी राजधानी की स्थापना की। की रचना मानी जाती है। रे. बुल्के के अनुसार, इस ग्रंथ राम के छोटे भाई लक्ष्मण को अंगद एवं चंद्रकेतु का रचनाकाल ई. पू. ३०० माना गया है। इस ग्रन्थ नामक दो पुत्र थे । उन्हें राम ने क्रमशः हिमालय पर्वत की कुल श्लोकसंख्या २४००० हैं, जो बाल, अयोध्या, के समीप स्थित कारुपथ एवं मल्ल देशों का राज्य प्रदान अरण्य, किष्किधा, सुंदर, युद्ध एवं उत्तर आदि सात कांडों किया। उन प्रदेशों में 'अंगदिया' एवं 'चंद्रचक्रा' में विभाजित है। नामक राजधानियाँ बसा कर वे दोनों राज्य करने लगे। महाभारत में रामकथा- महाभारत के वनपर्व में ( वा. रा. उ, १०२)। । 'रामोपाख्यान' नामक एक उपपर्व है, जिसमें उन्नीस ७३९ Page #762 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राम प्राचीन चरित्रकोश रामायण (पद्म. पा. ११२ ); रामचरित्र ( पद्म. उ. २६९ - २७१ ) । | अध्याय है । जयद्रथ के द्वारा द्रौपदी का हरण किये जाने पर युधिष्ठिर की मनःशांति के लिए मार्केडेय ऋषि ने उसे प्राचीन राम कथा सुनाई, जो 'रामोपाख्यान ' में समाविष्ट की गयी है (म.व. २५८-२७६ ) । (१४) नृसिंहपुराण - जिसमें वाल्मीकि रामायण के प्रथम छः काण्डों की कथा संक्षेप में दी गयी है (नृसिंह इसके अतिरिक्त महाभारत वनपर्व में संक्षेप रामायण ४७ - ५२ ) । प्राप्त है, जो हनुमत ने भीमसेन को सधन किया था रामभक्ति- सांप्रदाय भागयतादि पुराण में राम ग्रंथों ( म. व. १४७. २३ - ३८ ) । महाभारत में प्राप्त षोडश एवं कृष्ण को विष्णु का अवतार माना गया है। किन्तु राजकीय उपाख्यान' में भी राम दाशरथि का निर्देश फिर भी रामोपासना कृष्णोपासना की अपेक्षा काफी प्राप्त है। उत्तरकालीन प्रतीत होती है । यद्यपि राम को विष्णु का पुराणों में रामकथा — निम्नलिखित पुराण-ग्रन्थों में अवतार मानने की कल्पना ईसा की पहली शताब्दी में रामकथा प्राप्त है:प्रस्थापित हो चुकी थी, फिर भी इस सांप्रदाय की प्रतिष्ठा (1) ब्रह्मांडपुराण राम, विष्णु का अवतार (ब्रह्मांड. ग्यारहवीं शताब्दी के बाद ही प्रस्थापित होती सी प्रतीत ३.७३ ); सीताजन्म (ब्रह्मांड. ३.६४ ) । होती है (डॉ. भांडारकर, वैष्णविजम १४० ) । राम(२) विष्णुपुराण-संक्षिप्त रामकथा ( विष्णु. ४.४) पंचायतन की प्रतिमा, जिसमें राम, लक्ष्मण, भरत, सीता सीताजन्म (विष्णु. ४.५) । एवं हनुमत् समाविष्ट किये जाते हैं, वह भी इसी काल में उत्पन्न प्रतीत होती है। (३) वायुपुराणसंक्षिप्त रामकथा (वायु. ८८. १८३ - १९६ ); सीताजन्म ( वायु. ८९.२२ ) । (४) भागवतपुराण - - रामकथा ( भा. ९.१०११) । (५) कूर्मपुराण - - राक्षसवंशवर्णन ( कूर्म. पूर्व. १९), सूर्यवंश के अंतर्गत रामकथा ( कूर्म. पूर्व. २१ ); पतिव्रतोपाख्यान में सीताचरित्र ( कूर्म. उत्तर. ३४ ) । ( ६ ) वराहपुराण - - रामजन्म ( वराह. ४५ ) । (७) अग्निपुराण - रामकथा, जो बाल्मीकि रामायण केसात खण्डों का संक्षेप है ( अनि ५-११) । (८) ६६.२५-२६) । (९) नारदपुराण - संक्षिस रामकथा ( नारद, १. ७५)। राम (१०) ब्रह्मपुराण - - रामचरित्र, जो संपूर्णतः हरिवंश से उद्धृत किया गया है ( ब्रह्म. २१२ ) रावणचरित्र ( ब्रह्म. १७६ ); रामतीर्थ माहात्म्य (ब्रह्म. ७० - १७५ ) । रामभकिप्रभावित उपनिषद ग्रन्थ निम्नलिखित तीन उपनिषद ग्रंथ रामभक्ति सांप्रदाय से प्रभावित माने जाते हैं: - १. रामपूर्वतापनीय; २. रामोत्तरतापनीय; ३. रामरहस्य । इन तीनो ग्रंथों में रामयंत्र, राममंत्र एवं सीतामंत्र का निर्देश प्राप्त है, एवं इन ग्रंथों में राम एवं सीता को क्रमशः परमपुरुष एवं मूल प्रकृति माना गया है। निम्नलिखित वैष्णवोपदनिषदों में भी रामकथा का निर्देश प्राप्त है :- १. कल्लिसंतरण २. गोपाखोत्तरराप्ति रामकथा (लिंग. पूर्व, तापनीयः २. तारसार ४. त्रिपाद विभूति महानारायण ५. मुकिर इनके अतिरिक्त शाक्तोपनिषदों में भी 'सीतोपनिषद् का निर्देश प्राप्त है। -- संक्षिप्त रामभक्ति का विकास -- रामभक्ति के विकास के साथ साथ रामकथा को भक्ति सांप्रद्राय के ढाँचे में बिठाने की आवश्यकता निर्माण हुई, जिसके फलस्वरूप अनेकानेक सांप्रदायिक रामायणों का निर्माण हुआ । इन सांप्र दायिक रामायणों में अध्यात्म, आनंद एवं अद्भुत ये तीन रामायण ग्रंथ प्रमुख माने जाते हैं । (११) गरुडपुराण - - रामकथा ( गरुड. १४३ ) | ( १२ ) स्कंदपुराण - - रावणवध (स्कंद. माहेश्वर - ); दशरथ का जन्म (स्कंद २०-२५ ) वाल्मीकि की जन्मकथा (स्कंद वैष्णव, २०-२५ ) सेतुबंधन की कथा (स्कंद, ब्राह्म. २-४७ ); कालनिर्णय रामायण (स्कंद, धर्मारण्य. ३०-३१) | (१३) पद्मपुराण - राम का अवमेघ यश (पद्म पा, १-६८ ); लोमश रामायण (पद्म. पा. ३६ ); जांबुवत् । ग्रंथ प्रमुख माने जाते हैं: -- ७४० आधुनिक भारतीय भाषाओं में लिखित रामायण ग्रंथों में तुलसी द्वारा विरचित 'रामचरितमानस एक अद्वितीय ग्रंथ है, जिसमें रामचरित्र की सर्वांगीण शौकि आदर्शात्मक रूप में प्रस्तुत की गयी है। सांप्रदायिक रामायण ग्रन्थ-इन ग्रंथों में निम्नलिखित Page #763 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन चरित्रकोश राम (i) अध्यात्मरामायणः-ग्रंथकर्ता--अनिश्चित, किन्तु । (६) पुरातनरामायण (जांबवत् रामायण)--जो पमकई अभ्यासकों के अनुसार रामानंद इस ग्रंथ के | पुराण पातालखंड में प्राप्त है। यह प्रायः गद्य में है, एवं रचयिता थे; रचनाकाल--इ. स. १४ वीं अथवा १५ वीं | जांबवत् के द्वारा राम को कथन किया गया है। शताब्दी; लोकसंख्या-४३९९, जो ७ काण्डों में, एवं ६५ (७) संक्षेपरामायण--जो महाभारत वन पर्व में प्राप्त सर्गों में विभाजित है; महत्त्व-यह ग्रंथ सांप्रदायिक | है (म. व. १४७.२३-३८), एवं हनुमत् के द्वारा भीम रामायणों में सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण माना जाता है । इस को कहा गया है। ग्रंथ में रामानुज के द्वारा प्रतिपादित समुच्चयवाद का स्पष्ट | (८) मंत्ररामायण-जिसमें रामायण के वेदमूलत्व का शब्दों में विरोध किया गया है, विशिष्टाद्वैत का कहीं | प्रतिपादन किया गया है । इस ग्रंथ में, ग्रंथा नीलकंठ ने भी समर्थन नहीं हुआ। आनंद रामायण, तुलसीदासजी- | वैदिक मंत्रों का एक संग्रह प्रस्तुत किया है, जिसका परोक्षार्थ कृत रामचरितमानस एवं एकनाथ के मराठी भावार्थ रामकथा से संबंध रखता है। रामायण पर इसका काफी प्रभाव है। रामभक्ति के विकास (९) भुशुंडीरामायण (= मूलरामायण = आदिमें इस ग्रंथ का महत्त्व अधिक माना जाता है । रामायण)-जो पूर्व, पश्चिम, दक्षिण, उत्तर नामक पों इस ग्रंथ में राम एवं सीता को क्रमशः परम पुरुष एवं में विभाजित है। माया माना गया है, एवं इसी रूपक के द्वारा शंकराचार्य (१०) वेदान्तरामायण--जिसमें वाल्मीकि के द्वारा प्रणीत अद्वैत वेदांत का प्रतिपादन किया गया है। सरल परशुराम का जीवन चरित्र राम को सुनाया गया । प्रतिपादन, भक्तिप्राधान्य, अद्वैत तत्त्वज्ञान का प्राधान्य, एवं इनके अतिरिक्त निम्नलिखित रामायण-ग्रंथों का निर्देश अल्पविस्तार, इन गुणों के कारण यह ग्रंथ भारतीय श्रीरामदास गौड के 'हिन्दुत्व' में प्राप्त है, जिनमें से रामभक्तों में विशेष आदरणीय माना जाता है। अधिकांश ग्रंथ १७ वीं शताब्दी अथवा उसके बाद की रचनाएँ (२) आनंदरामायण--चनाकाल-१५ वीं शताब्दी, प्रतीत होती हैं :--महारामायण, संवृत्तरामायण, लोमशअर्थात् अध्यात्म रामायण के पश्चात् , एवं एकनाथ के पूर्व | रामायण, अगस्त्यरामायण, मंजुलरामायण,सौपद्यरामायण, श्लोकसंख्या--१२२५२, जो निम्नलिखित ९ काण्डों में | सौहार्दरामायण, सौयरामायण, चांद्ररामायण, मैदरामायण, विभाजित है :--सार,यात्रा, याग, विलास, जन्म, विवाह, सुब्रह्मरामायण, सुवर्चसरामायण, देवरामायण, श्रवणराज्य, मनोहर एवं पूर्ण । इस ग्रंथ में अध्यात्म रामायण रामायण, एवं दुरंतरामायण । के कई उद्धरण प्राप्त है। बौद्ध एवं जैन वाङ्मय में रामकथा--ई. पू. चौथी (३) अद्भुतरामायण--रचनाकाल--ई.स.१३०० शताब्दी से ई. स. सोलहवी शताब्दी तक के बौद्ध १४०० श्लोकसंख्या--१३५३, जो २७ सर्गों में विभाजित एवं जैन साहित्य में, रामकथाविषयक अनेकानेक ग्रंथ प्राप्त है; महत्त्व--इस ग्रंथ की रचना 'वाल्मीकिभारद्वाजसंवाद' हैं, जिनमें निम्नलिखित ग्रन्थ प्रमुख है :--दशरथजातक के रूप में प्राप्त है, एवं उसके अधिकांश सर्ग में (११-१५)। की गाथाएँ (ई. पू. ४ थी शताब्दी); अनामकजातक राम एवं हनुमत् का भक्ति के विषय में एक संवाद प्राप्त है। | (ई. १ ली शताब्दी); पउमचरियम्, दशरथकथानकम् (४) महारामायण (=योगवासिष्ठ वसिष्ठ रामायण) | (ई. ४ थी शताब्दी); पद्मचरित (ई.७ वीं शताब्दी); ग्रंथकर्ता-वसिष्ठ; रचनाकाल-ई. स. ८ वीं शताब्दी | पउमचरिउ (ई. ८ वीं शताब्दी); रामलक्खणचरियम् (विंटरनित्स ), अथवा ११ वीं शताब्दी (डॉ. राघवन् ); (ई. ९ वीं शताब्दी); अंजनापवनांजय (ई. १३ वीं श्लोकसंख्या--३२ हजार; महत्त्व--यह ग्रंथ वसिष्ठ एवं शताब्दी); रामदेवपुराण; बलभद्रपुराण (ई. १५ वीं राम के संवाद के रूप में लिखा गया है, जिसमें | शताब्दी); सौमसेन विराचित रामचरित (ई. १६ वीं अध्यात्म का विस्तृत एवं प्रासादिक विवेचन प्राप्त है। | शताब्दी)। (५) तत्त्वसंग्रहरामायण--ग्रंथकर्ता--राम ब्रह्मानंद; आधुनिक भारतीय भाषाओं में रामकथा--आधुनिक रचनाकाल-ई. स. १७ वी शताब्दी; महत्व-इस ग्रंथ में | भारतीय भाषाओं में रामकथा पर आधारित अनेकानेक रामकथा के तत्त्व (अर्थात् राम के परब्रह्मत्व) पर प्रकाश | ग्रन्थों की निर्मिति ११ वी शताब्दी के उत्तरकाल में हो डाला गया है। | चुकी है, जिनकी संक्षिप्त जानकारी निम्नप्रकार है:-- ७४१ Page #764 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राम प्राचीन चरित्रकोश ( १ ) असमीया -- शंकरदेव द्वारा विरचित माधव-कंदलीरामायण ( १४वीं शताब्दी ); गीतिरामायण, रामविजय, श्रीरामकीर्तन (१६ वीं शताब्दी ), गणक - चरित, कथा रामायण ( १७ वीं शताब्दी) । (२) उड़ीया -- ' उत्कलवाल्मीकि' बलरामदासकृत जगमोहनरामायण, रामविभा ( १६ वीं शताब्दी ); रघुनाथविलास, अध्यात्मरामायण ( १७ वीं शताब्दी ) । (३) उर्दू - मुन्शी जगन्नाथ कृत रामायण खुश्तर ( १९ वीं शताब्दी) । ); ( ४ ) कन्नड--पंपरामायण ( ११ वीं शताब्दी नरहरिकृत तोरवेरामायण, एवं मैरावण काला ( १६ वीं (शताब्दी) । (५) काश्मीरी -- काश्मीरी रामायण, अर्थात् रामावतारचरित । ( ६ ) गुजराती -- रामलीला ना पदों ( १४ वीं शताब्दी ); रामविवाह, रामबालचरित, सीताहरण ( १५ वीं शताब्दी ); रावणमंदोदरीसंवाद, सीता - हनुमानसंवाद, लवकुशाख्यान ( १६ वीं शताब्दी ); रण - यज्ञ, सीताविरह (१७ वीं शताब्दी ) । (७) गुरुमुखी पंजाबी -- गुरुगोविंदसिंह कृत रामावतार अर्थात् गोविंद रामायण ( १७ वीं शताब्दी ) । ( ८ ) तमिल - कंबरामायण ( १२ वीं शताब्दी ) । ( ९ ) तेलुगु -- रंगनाथकृत द्विपदरामायण, निर्व चनोत्तर रामायण, विठ्ठलराजुकृत उत्तररामायण ( १३ वीं शताब्दी ); भास्कररामायण ( १४ वीं शताब्दी ); मोल्लरामायण ( १६ वीं शताब्दी ); कट्टवरदकृत द्विपद रामायण | (१०) बंगाली - कृत्तिवासरामायण ( १५ वीं शताब्दी ); अद्भुताश्चर्य रामायण, रामायणगाथा अद्भुतरामायण, अध्यात्मरामायण ( १७ वीं शताब्दी ) । (११) मराठी - - भावार्थ रामायण (१६ वीं शताब्दी); श्रीधर द्वारा विरचित रामविजय ( १८ वीं शताब्दी ) | (१२) मलयालम - - रामचरितम् (१४ वीं शताब्दी ); कण्णश्शरामायण ( १५ वीं शताब्दी ); अध्यात्मरामायण ( १६ शताब्दी ) । (१३) सिंहली - - रामकथा ( १५ वीं शताब्दी )। ( १४ ) हिन्दी -- भरतमिलाप, रामचरितमानस ( १६ वीं शताब्दी ); रामचंद्रिका, अवधविलास, गोविंदरामायण ( १७वीं शताब्दी ) | ७४२ रायाण इनके अतिरिक्त तिब्बती, खोतानी, मलायी, श्यामी, कांबोदिया, एवं जावा की भाषाओं में भी, राम कथा -विषयक साहित्य प्राप्त है, जिसकी रचना नौवीं शताब्दी से लेकर सोलहवीं शताब्दी तक हो चुकी है। राम मार्गय श्यापर्णेय - एक आचार्य, जो श्यापर्णो के पुरोहित परिवार में से एक था ( ऐ. बा. ७.२७.३ ) । यह मृग का पुत्र था, जिस कारण इसे मार्गवेय पैतृक नाम प्राप्त हुआ था । इसका मत था कि, क्षत्रियों के द्वारा किये गये यज्ञ में, सोम के स्थानपर औदुंबर के फूलों का उपयोग चाहिए, जो मत इसने विश्वंतर राजा को कथन किया था । ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शुद्ध लोगों के लिये अलग अलग वस्तुओं का सोमरस इसके द्वारा बताया गया है, जिसके अनुसार इन चार जातियों को क्रमशः सोमवली, औदुंबर (पीपल एवं पक्ष ), दधि, एवं जल का सोम के लिये उपयोग करने को कहा गया है । यह विश्वंतर राजाओं का पुरोहित था । विश्यापर्ण नामक पुरोहितों ने विश्वंतर राजाओं के पुरोहित बनने की कोशिश की । किन्तु इसने विश्यापर्णो को दूर हटा कर अपना पौरोहित्य पुनः प्राप्त किया । रामकायन-बस्त नामक आचार्य का पैतृक नाम । रामकृष्ण -- एक व्याकरणाचार्य, जिसके द्वारा रचित षोडशश्लोकी शिक्षाग्रंथ प्राप्त है । उस ग्रंथ में वर्णोच्चार का ही केवल विचार किया गया है। स्वयं शंकर के मुख से इस शिक्षाग्रंथ का प्रणयन हुआ ऐसा निर्देश उक्त ग्रंथ के प्रारंभ में है । २. एक मुनि, जिसके तप के कारण वेंकटाचल पर 'रामकृष्णतीर्थ' का निर्माण हुआ (स्कंद. २.१.१५ ) । रामचंद्र - - ( पौर. भविष्य.) एक राजा, जो पुरंजय राजा का पुत्र था । रामट - एक म्लेंछ जाति, जिसे नकुल ने अपने पश्चिम दिग्विजय के समय जीता था युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ के समय ये लोग उपस्थित थे । पाठभेद - ' रमठ ' । रामेश्वर ज्योतिर्लिंग - - शंकर का एक अवतार, जो रामेश्वर में प्रगट हुआ था। शिव का यह अवतार रामचंद्र के लिए लिया गया था ( शिव शत. ४२. ) । इसके उपलिंग का नाम गुप्तेश्वर था ( शिव कोटि १० ) । रामोद - भृगुकुलोत्पन्न एक गोत्रकार । रायाण -- गोकुल का एक ग्वाला, जो कृष्ण की मातायशोदा का भाई था ( ब्रह्मवै २.४९.३७ - ३९ ) । Page #765 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रायाण प्राचीन चरित्रकोश इसकी पत्नी का नाम राधा था । इसे 'रापाण ' नामान्तर के अनुसार, दशग्रीव शब्द किसी द्राविड़ नाम का संस्कृत भी प्राप्त था (ब्रह्मवै. ४.३ ) रूप होगा। वाल्मीकि रामायण में कई जगह इसे एक सुख एवं दो हाथ होने का स्पष्ट निर्देश प्राप्त है (वा. रा. सुं. २२.२८१ यु. ४०.१३ ९५.४६ १०७.५४-५७९ १०९.३ ११०. ९-१० १११.२४- २७ ) । रायोवाज एक सामद्रष्टा आचार्य (पं. बा. ८.१.४९ १४.४.१७ ) । वह यति लोगों में से एक था, एवं इन्द्र ने इसे वैश्य विद्या प्रदान की थी ( यति १. देखिये) । रावण 'दशग्रीव' - - लंका का सुविख्यात राक्षस सम्राट जो पुलस्यपुत्र विश्रवस् नामक राक्षस का पुत्र 'था। राम दाशरथि की पत्नी सीता का हरण करने के कारण, रावण प्राचीन भारतीय इतिहास में पाशवी वासना एवं दुष्टता का प्रतीक बन गया है। नाम इसे रावण नाम क्यों प्राप्त हुआ, इस संबंधी कथा वाल्मीकि रामायण में प्राप्त है। शिव के द्वारा इसकी भुजाएँ कैलास पर्वत के नीचे दबायी गयीं । उस समय इसने मोघं एवं पीड़ा से भीषण चीत्कार ( रावः सुदारुणः ) किया, जिस कारण इसे रावण नाम प्राप्त हुआ ( वा. रा. २.१६.२९) । इसी ग्रंथ में अन्यत्र शत्रु को भीषण चीत्कार करने पर विवश करनेवाला इस अर्थ से इसे ' शत्रु रावण ' कहा गया है ( वा. रा. २३.८ ) । 6 हनुमत् की तरह रावण का नाम भी एक अनार्य नाम का संस्कृत रुपान्तर प्रतीत होता है । पाटिर के अनुसार, रावण शब्द तामिल 'इरेवण' (राजा) का संस्कृत रूप है (पार्गि. २७७ ) | रायपुर जिलें में रहनेवाले गोंड लोग अपने को आज भी रावण के वंशज मानते है। राँची जिले के कटकयाँ गाँव में 'रावना' नामक परिवार आज भी विद्यमान है। इससे स्पष्ट है कि, रामकथा में निर्दिष्ट लंकाधिपति रावण एवं उसकी राक्षस प्रजा विंध्य प्रदेश एवं मध्य भारत में निवास करनेवाली अनार्य जातियों से कुछ ना कुछ संबंध ज़रूर रखती थी। इस तरह रावण एवं राक्षस वास्तव में यही नाम धारण करने बाले इसी प्रदेश के आदिवासी थे (बुल्के, रामकथा g १२३ ) । रावण का उपनाम 'दशग्रीव (दशशीपं दशानन) था, जिस कारण इसे दस सिर एवं बीस हाथ थे, ऐसा कल्पनारम्य वर्णन अनेकानेक रामायण ग्रंथों में एवं पुराणों मैं किया गया है। किन्तु संभव है, 'दशग्रीव' नाम पहले इसे रूपक के रूप में प्रयुक्त किया होगा (दशग्रीव, अर्थात् जिसकी ग्रीवा दश अन्य साधारण ग्रीवों के समान बलवान् हो), एवं बाद में यह रूपकात्मक अर्थ नष्ट हो कर इसे दस मुख होने की कल्पना प्रसृत हो गयी हो। पार्गेिटर | रावण , अथर्ववेद में एक 'दशास्य' वाले (देशमुख) ब्राह्मण का निर्देश प्राप्त है ( अ. वे. ४.६.१ ) । इस निर्देश का प्रभाव भी रावण के स्वरूप की कल्पना पर पड़ा होगा । स्वरूपवर्णन राम का शरीर प्रचंड बलिष्ठ एवं नीलांजनचयोपम अर्थात् कृष्णवर्णीय था। इसकी आँखे र विकृत एवं कृष्णपिंगल वर्ण की थी (बा. रा. सुं. २२.१८ ) । इसकी दोनों भुजाएँ इंद्रध्वज के समान बलिष्ठ थी, एवं उन पर स्वर्ण के बाहुभूषण रहते थे । इसके स्कंध अत्यंत विशाल थे, जिन पर इंद्रवज्र के आघात से उत्पन्न हुयें अनेक घाव स्पष्ट रूप से दिखाई देते थे । क्रोधित होने पर इसकी आँखे लाल महाभयंकर एवं देदीप्यमान बनती थी ( वा. रा. सु. १०.१५-२० ) । इसे केवल दों ही हाथ थे, किन्तु युद्ध के समय अपनी इच्छा के अनुसार, दश ( अथवा विंश) हस्तधारी बनने की शक्ति इसमें थी । --- वाल्मीकि रामायण में कचित् इसे वाघ, उँट, हाथी अश्व आदि की नानाविध शीर्ष धारण करनेवाना, फैली हुयीं ( विवृत्त) आँखोवाला, एवं भूतगणों से परिवेष्टित कहा गया है ( वा. रा. यु. ५९.२३ ) । किन्तु इस प्रकार का वर्णन वाल्मीकि रामायण में बहुत ही कम है । जन्म - पुलस्त्य ऋपिका पुत्र विश्रवस् रावण का पिता था। उसकी माता का नाम केशिनी था, जो सुमालि राक्षस की कन्या थी । वाल्मीकि रामायण में इसकी जन्मकथा निम्न प्रकार दी गयी है ब्रह्मा ने अष्टि का निर्माण करने के : जलसृष्टि " पश्चात् प्राणिसृष्टि का निर्माण किया, जिनमें से यक्ष एवं राक्षस उत्पन्न हुयें | इन राक्षसों का एक प्रमुख नेता हेति था, जिसके पुत्र का नाम विद्युत् सेवा एवं पौत्र का नाम मुकेश था। मुकेश को माल्यवान् सुमालि एवं मालि । नामक तीन पुत्र थे, जिन्होंने ब्रह्मा से अमरत्व का वरदान प्राप्त किया था। उन राक्षसों के लिए विश्वकर्मा ने त्रिकूट पर्वत पर लंका का निर्माण किया। ये तीनों भाई देवताओं तथा तपस्वियों को त्रस्त करने लगे, जिस कारण विष्णु मालि का वध किया, एवं सुमालि को छेका छोड़ कर, रसाताल जाने पर विवश किया। ने Page #766 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रावण प्राचीन चरित्रकोश रावण विश्रवस् ऋषि को अपनी देववर्णिनी नामक पत्नी से | एक बार, कुबेर पुष्पक विमान में बैठ कर अपने पिता कुवेर (वैश्रवण ) नामक पुत्र उत्पन्न हुआ था। एक बार | विश्ववस् ऋषि से मिलने आया । रावण की माता कैकसी सुमालि ने कुबेर को पुष्पक विमान पर विराजमान हो कर | ने इसका ध्यान कुवेर की ओर आकर्षित कर के कहा, बड़े ही वैभव से भ्रमण करते हुए देखा, जिस कारण | 'तुम भी अपने भाई के समान वैभवसंपन्न बन जाओ। उसने अपनी कन्या कैकसी विश्रवस् ऋषि को विवाह में | अतः यह अपने भाईयों के साथ गोकर्ण में तपस्या करने देने का निश्चय किया । विश्रवस् ऋषि ने कैकसी का | लगा (वा. रा. उ. ९.४०-४८)। स्वीकार करते हुए कहा, 'तुम इस दारुण समय पर आई इस तरह यह दस हजार वर्षों तक तपस्या करता हो, इस कारण तुम्हारे पुत्र क्रूरकर्मा राक्षस होंगे; किन्तु | रहा, जिसमें प्रति सहस्त्र वर्ष के अंत में, यह अपना एक सिर अंतीम पुत्र धर्मात्मा होगा। इसी शाप के अनुसार, अग्नि में हवन करता था। दस हजार वर्षों के अन्त में यह कैकसी को रावण, कुंभकर्ण, एवं शूर्पणखा नामक लोकोद्वेग- अपना दसवाँ सिर भी हवन करनेवाला ही था कि, करी संतान, एवं विभीषण नामक धर्मात्मा पुत्र उत्पन्न इतने में प्रसन्न हो कर ब्रह्माने इसे कर दिया, 'तुम हुआ। सुपर्ण, नाग, यक्ष, दैत्य, दानव, राक्षस तथा देवताओं के महाभारत में रावण को विश्रवस् एवं पुष्पोत्कटा का | लिए अवध्य रहोगे'। पश्चात् ब्रह्मा ने इसके नौ सिर पुत्र कहा गया है । विश्रवस् का अन्य पुत्र कुवेर था, जिसने | लौटा कर, इसे इच्छारूपी बनने का भी वर प्रदान किया अपने पिता की सेवा के लिए पुष्पोत्कटा, राका एवं | (वा. रा. उ. १०-१८-२६; पन. पा. ६; म. व. २६९. मालिनी नामक तीन सुंदर राक्षसकन्याएँ नियुक्त की। इन | २६)। राक्षसकन्याओं में से पुष्पोत्कटा से रावण एवं कुंभकर्ण ब्रह्मा से वर प्राप्त करने के पश्चात् , रावण ने अपने का, राका से खर एवं शूर्पनखा का, एवं मालिनी से पितामह सुमालि के अनुरोध पर अपने मंत्री प्रहस्त. को विभीषण का जन्म हुआ (म. व. २५९.७)। कुबेर के पास भेज़ दिया, एवं लंका का राज्य राक्षसवंश वाल्मीकि रामायण एवं महामारत में प्राप्त उपर्युक्त के लिए माँग लिया। तत्पश्चात् अपने पिता विश्रवसे ऋषि कथाओं में रावण को ब्रह्मा का वंशज एवं कुबेर का भाई की आज्ञा मान कर कुवेर कैलास चला गया, एवं रावण कहा गया है, जो कल्पनारम्य प्रतीत होता है। रावण का | ने अपने राक्षसबांधनों के साथ लंका को अपने अधिकार स्वतंत्र निर्देश प्राचीन साहित्य में रामकथा के अतिरिक्त | में ले लिया (वा. रा. उ. ११.३२)। अन्य कहीं भी प्राप्त नहीं है, जैसा कि ब्रह्मा अथवा ___ अत्याचार--ब्रह्मा से वर प्राप्त करने के पश्चात् , लंकाकुबेर का प्राप्त है । इससे प्रतीत होता है कि, प्राचीन ऐति- धिपति रावण पृथ्वी पर अनेकानेक अत्याचार करने हासिक राक्षस कुल से रावण का कोई भी संबंध वास्तव | लगा। इसने अनेक देव, ऋषि, यक्ष, गंधवों का वध किया, में नहीं था। किन्तु रामकथा के विकास के साथ साथ रावण | एवं उनके उद्यानों को नष्ट किया। यह देख कर इसके सौतेले का भी महत्त्व बढ़ने पर, राक्षस वंश के साथ इसका संबंध | भाई कुवेर ने दूत भेजकर इसे सावधान करना चाहा । प्रस्थापित किया गया। किन्तु रावण ने अपनी तलवार से उस दूत का वध किया, भागवत में इसका संबंध हिरण्याकशिपु एवं हिरण्याक्ष | एवं अपने मंत्रियों के साथ कैलासपर्वत पर रहनेवाले के साथ प्रस्थापित किया गया है, जहाँ विष्णु के | कुवेर पर आक्रमण किया। वहाँ इसने यक्ष सेना को द्वारपाल जय एवं विजय शापवश अपने अगले तीन | पराजित किया, एवं कुबेर को द्वंद्व युद्ध में परास्त कर उसका जन्मों में, क्रमशः हिरण्यकशिपु एवं हिरण्याक्ष, रावण एवं पुष्पक विमान छीन लिया (वा. रा. उ. ९) कुंभकर्ण, शिशुपाल एवं दंतवक के रूप में पृथ्वी पर प्रगट | गर्वहरण-कुबेर को पराजित करने के बाद, पुष्पक होने का निर्देश प्राप्त हैं (भा.७.१.३५-३६)। विमान में बैठकर यह कैलासपर्वत के उपर से जा रहा तपश्चर्या--रावण के सौतेला भाई वैश्रवण कुबेर ने था, तब पुष्पक अचानक रुक गया। फिर रावण पुष्पक से तपस्या कर के चतुर्थ लोकपाल (धनेश) का पद एवं पृथ्वी पर उतरा, एवं शिवपार्षद नंदी का वानरमुख देख पुष्पक विमान प्राप्त किया। विश्रवस् ने भी अपने पुत्र कर इसने उसका उपहास किया। इस कारण नंदी ने इसे कुबेर को लंका का राज्य प्रदान किया था, जो राक्षसों के | शाप दिया, 'मेरे जैसे वानरों के द्वारा तुम पराजित होंग' द्वारा विष्णु के भय से छोड़ा गया था (वा. रा. उ. ३)।। (वा. रा. उ. १६)। ७४४ Page #767 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रावण प्राचीन चरित्रकोश पश्चात् वह कैलास पर्वत को जड़मूल से उखाड़ देने की चेष्टा करने लगा | कैलास पर्वत को उठा कर यह लंका में ले जाना चाहता था। रावण के बल से पर्वत हिलने गा, किन्तु शिव ने अपने पादांगुष्ठ से कैलास पर्वत को नीचे दवाया, जिससे रावण की भुजाएँ उस पर्वत के नीचे गयीं। फिर रायण विविध स्तोत्रों के द्वारा शिव का गुणगान करने लगा, एवं एक सहस्त्र वर्षों तक विलाप करता रहा। उत्पधात् शिव इस पर प्रसन्न हुवें एवं उन्होंने रायण की भुजाएँ मुक्त कर उसे चंद्रहास नामक खड्ग प्रदान किया एवं अपने भक्तों में शामिल करा दिया। तदोपरान्त रावण परमशिवभक्त बन गया एवं एक सुवर्णलिंग सदा ही साथ रखने लगा ( वा. रा. उ. ३१) । रावण की शिवभक्ति की कथाएँ आनंद रामायण, एवं स्कंद तथा पद्म पुराणों में भी प्राप्त है ( . . १.१३.२६-४४ पद्म २४२ ) । विवाह एक बार रावण ने मृगया के समय दिति के पुत्र मय को देखा, जो अपनी पुत्री मंदोदरी के साथ वन में टहल रहा था। रावण का परिचय प्राप्त करने के पश्चात् मय ने मंदोदरी का विवाह इससे करना चाहा रावण ने इस प्रस्ताव को स्वीकार लिया। विवाह के समय मय ने रायण को एक अमोघ शक्ति प्रदान की, जिससे राम-रावण युद्ध में इसने लक्ष्मण को भारत किया था ( वा. रा. उ. १२) । बेदवती से शाप एक बार कुशध्वज ऋषि की कन्या वेदवती, नारायण को पतिरूप में प्राप्त करने के लिए प करती थी। इस समय रावण उसके रुपयोधन पर मोहित हो कर, उस पर अत्याचार करने पर प्रवृत्त हुआ । इस पर वेदवती ने इसे शाप दिया, 'मैं तुम्हारे नाश के लिए अयोनिजा सीता के रूप में पुनः जन्म ग्रहण करुँगी' ( वा. रा.उ. १७) । विजययात्रा रावण की विजययात्रा का सविस्तृत वर्णन वाल्मीकि रामायण में प्राप्त है, जिसके अनुसार इसने निम्नलिखित राजाओ का पराभव किया : मस्त दुष्यन्त, सुरथ, गाधि, मय, पुरूरवस एवं अनरण्य तत्पश्चात् रावण ने नारद की सलाह से यमलोक पर आक्रमण किया, जिसमें इसने यम की सेवकों परास्त किया । अनंतर इसने वरुणालय में नागों का राजा वासुकि को परास्त किया, अछनगर में अपने बहनोई विद्युज्जिह्व का वध किया, एवं वरुणसेना को परास्त कर वह वापस आया (बा. रा. उ. १८-२३) । प्रा. च. ९४ ] -- रावण अपनी विजययात्रा के उपलक्ष्य में रावण जब लंका में अनुपस्थित था, तब मधु नामक दैत्य ने इसकी बहन कुंभीनसी का हरण किया। यह सुन कर रावण ने अपने सैन्य के साथ, मधुपुर पर आक्रमण किया। किन्तु अपनी बहन के द्वारा प्रार्थना किये जाने पर इसने मधु देय को अभय दिया ( वा. रा. उ. २५.४६ ) । मधुदैत्य के यहाँ से यह कैलासपर्वत की ओर गया, जहाँ इसने अपने भाई कुबेर की स्नुषा रंभा पर अत्त्याचार करना चाहा। रंभा ने इसे खूप समझाया कि, यह इसकी पुत्रवधू, अर्थात् कुबेरपुत्र नलकूचर की पानी है। किंतु इसने उत्तर दिया, 'अप्सराओं को कोई पति होता ही नहीं ( पतिरप्सरसां नास्ति ), एवं इसने रंभा के साथ ' बलात्कार किया पश्चात् यह वार्ता सुन कर नलकूबर ने इसे शाप दिया, न चाहनेवाली किसी स्त्री की इच्छा करने से तुम्हारे मस्तक के सात टुकड़े हो जाएँगे ( वा. रा. उ. २६.५५) । । " तदोपरांत रावण ने कैलास पर्वत पार कर इंद्रलोक पर आक्रमण किया, जहाँ हुए युद्ध में इसके पितामह सुमालि का वध हुआ । पश्चात् इसके पुत्र मेघनाद ने इंद्र को परास्त किया, एवं उसे लंका में ले आया, जिस कारण उसे इंद्रजित् नाम प्राप्त हुआ ( वा. रा. उ. ३० ) । पराजय - इसकी विजययात्राओं के साथ इसके कई पराजयों का निर्देश भी वाल्मीकिरामायण में प्राप्त है । एक बार यह माहिष्मती नगरी के समीप नर्मदा नदी में स्नान कर शिवपूजा करने के लिए गया। वहाँ माहिष्मती का हैहय राजा कार्तवीर्य अर्जुन अपनी पत्नियों के साथ आया था। उसने अपनी सहस्त्र भुजाओं से नर्मदा की धारा रोक दी, जिस कारण नदी विपरीत दिशा से बहने लगी, एवं रावण के द्वारा चढ़ाई गयी शिवपूजा के फूल ले गयी। इस पर रावण अर्जुन से द्वंद्वयुद्ध करने गया किंतु इस युद्ध में कार्तवीर्य ने इसे परास्त कर माहिष्मती के कारावास में रख दिया। बाद में पुलस्त्य ऋषि ने मध्यस्तता कर रावण की मुक्ता की एवं कार्त वीर्य के साथ मित्रता प्रस्थापित की ( वा. रा. ३. ३१३३ ) । । पार्गेिटर के अनुसार, कार्तवीर्य अर्जुन पुलस्त्य से काफी पूर्वकालीन था, जिससे प्रतीत होता है कि, इस कथा में निर्दिष्ट रावण किसी अन्य द्रविड राजा था (पार्टि २४२) । कार्तवीर्य के कारागृह से मुक्त होने के पश्चात्, रावण फिर योग्य प्रतिद्वंद्वियों का शोध करने लगा। पश्चात् यह ७४५ Page #768 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रावण प्राचीन चरित्रकोश रावण किष्किंधा में वालि के पास युद्ध करने के लिए गया, जब | परिव्राजक के रूप में रावण ने सीता की पर्णकुटी में प्रवेश वालि ने इसे बगल में दबा कर क्रमशः पश्चिम, उत्तर | किया । उससे आतिथ्यसत्कार ग्रहण करने के पश्चात् , एवं पूर्व सागरों में घुमाया। तब यह वालि के सामर्थ्य को | इसने अपना परिचय देते हुए कहा-- देख कर अत्यधिक आश्चर्यचकित हुआ, एवं अग्नि के भ्राता वैश्रवणस्याऽहं सापत्नो वरवर्णिनि । साक्षी में यह उसका मित्र बना (वा. रा. उ. ३४)। रावणो नाम भद्रं ते दशग्रीवः प्रतापवान् ॥ पराजय की अन्य कथाएँ–यह पाताललोक में बलि (वा. रा. अर. ४८.२)। राजा को भी जीतने गया था। किन्तु वहाँ भी इसे नीचे देखना पड़ा (वा. रा. उ. प्रक्षिप्त १-५; बलि वैरोचन ( मेरा नाम रावण है, एवं मैं कुबेर का सापत्न भाई देखिये)। हूँ। सुविख्यात पराक्रमी राजा दशग्रीव तो मैं ही हूँ)। एक बार नारद के कथनानुसार, यह श्वेतद्वीप में युद्ध पश्चात् इसने सीता को अपने साथ आ कर लंका की करने गया। तब वहाँ की स्त्रियों ने इसे लीलापूर्वक एक महारानी बनने की प्रार्थना की । इसने उसके सामने राक्षसदूसरी की ओर फेंक दिया। इस कारण अत्यंत भयभीत विवाह का प्रस्ताव रखते हुए कहा-- हो कर, यह समुद्र के मध्य में जा गिरा (वा. रा.उ.प्र. अलं वीडेन वैदेहि धर्मलोपकृतेन ते। ३७)। मार्षोऽयं देवि निष्पन्दो यस्त्वामभिभविष्यति ॥ यह सीता स्वयंवर के लिए जनक राजा की मिथिला (वा. ग. अर. ५५.३४-३५.)। नगरी में गया था। जनक राजा के प्रण के अनुसार, इसने (अपने पति का त्याग करने के कारण, धर्मविरुद्ध शिवधनुष्य उठाने की कोशिश की। किन्तु उसे सम्हाल न सकने आचरण करने का भय तुम मन में नहीं रखना, क्यों कि, के कारण वह इसकी छाती पर गिरा; तब राम ने इसकी जिस विवाह का मैं प्रस्ताव रखता हूँ, वह वेदप्रतिमुक्तता की (आ. रा.७.३)। यह कथा वाल्मीकि रामायण | पादित ही है)। में अप्राप्य है। सीताहरण-एक बार राम के द्वारा विरूपित की गई रावण के इस प्रस्ताव का सीता के द्वारा अस्वीकार रावण की बहन शूर्पणखा इसके पास आयी, एवं उसने | | किये जाने पर, इसने अपना प्रचंड राक्षस-रूप धारण खरवध का समाचार, एवं सीता के सौंदर्य की प्रशंसा इसे किया, एवं सीता को ज़बरदस्ती से रथ में बिठा कर यह सुनाई। फिर इसने सीता का हरण करने का मन में लंका की ओर चला गया। मार्ग में बाधा डालनेवाले निश्चय किया। इस कार्य में सहाय्यता प्राप्त करने के लिए | जटायु के पंख तोड़ कर इसने उसका वध किया । पश्चात् यह मारीच नामक इच्छारूपधारी राक्षस के पास गया, इसने सीता को लंका में स्थित अशोकवन में रख दिया एवं कांचनमृग का रूप धारण कर सीताहरण में सहाय्यक (वा. रा. अर. ४३-५४; पद्म. उ. २४२; भा. ९.१०. बनने की इसने उसे प्रार्थना की। मारीच ने इस प्रार्थना ३०; म. व. २६३)। का इन्कार कर दिया, एवं स्पष्ट शब्दों में कहा, 'यदि तुम ___ श्री. चिं. वि. वैद्य के अनुसार, वाल्मीकि रामायण के सीताहरण की ज़िद चलाओगे तो लंका का सत्यानाश सीताहरण के वृत्तांत में प्राप्त कांचनमृग का आख्यान होगा। | प्रक्षिप्त है, एवं अद्भुत रस की उत्पत्ति के लिए यह आख्यान किन्तु रावण ने मारीच की यह सलाह न मानी, एवं बाद में रामायण में रखा गया है (वैद्य, दि रिडल ऑफ दि उसे इस कार्य में सहाय्यता करने के पुरस्कारस्वरूप. | रामायण पृ. १४४)। आधा राज्य प्रदान करने का आश्वासन दिया। रावण ने रावण-सीता संवाद-हनुमत् ने अशोकवन में प्रवेश उसे यह भी कहा, 'यदि यह प्रस्ताव तुम स्वीकार नहीं | पा कर सीता की भेंट ले ली। उसी रात्री के अन्त में करोंगे, तो मैं तुम्हारा वध करूँगा। रावण अपनी पत्नियों के साथ सीता का दर्शन करने आया, मारीच की संमति प्राप्त करने के बाद, रावण ने उसे | एवं इसने दीनतापूर्वक सीता से प्रार्थना की, 'पति अपने रथ में बिठा कर, जनस्थान की ओर प्रस्थान किया। के रूप में तुम मेरा स्वीकार करो'। सीता के द्वारा इस वहाँ राम कांचनमृगरूपधारी मारीच के पीछे चले जाने | प्रार्थना का इन्कार किये जाने पर, इसने क्रुद्ध हो पर, एवं लक्ष्मण उसकी खोज के लिए जाने पर, एक | कर कहा ७४६ Page #769 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रावण प्राचीन चरित्रकोश रावण द्वाभ्यामूर्ध्वं तु मासाभ्यां भर्तारं मामनिच्छतीम् । सेनावर्णन-रावण की सेना बहुत बड़ी थी, जिसके मम त्वां प्रातराशार्थे सूदाश्छेत्स्यन्ति खण्डशः ॥ छः सेनापति प्रमुख थे:-महोदर, प्रहस्त, मारीच, शुक, (वा. रा. सु. २२.९) सारण एवं धूम्राक्ष (वा. रा. उ. १४.१)। युद्ध के प्रारंभ (दो महिने में अगर तुम स्वेच्छा से मेरी पत्नी न | में इसने प्रहस्त, महापार्श्व, महोदर एवं अपने पुत्र इंद्रजित बनोगी. तो रसोयें तुम्हारे शरीर के टुकड़े कर, मेरे को लंका के चारों द्वार के संरक्षण के लिए नियुक्त किया प्रातःकाल के भोजन के लिए पकायेंगे।) | था। लंका के मध्यभाग के संरक्षण का भार विरुपाक्ष पर सौंपा गया था, एवं यह स्वयं शुक, सारण एवं अन्य सेना • इतना कह कर रावण ने पहारा देनेवाली राक्षसियों को के साथ उत्तरद्वार पर खड़ा हुआ था (वा. रा. यु. ३६)। आदेश दिया कि, वे सीता को इसके वश में लाने का युद्ध के प्रारंभ में, राम एवं लक्ष्मण को नागपाश में प्रयत्न करती रहें। किन्तु सीता को वश में लाने के उनके बँधा जाने का प्रसंग इसने सीता त्रिजटा से विदित कराया, हर प्रयत्न असफल रहे, एवं सीता अपने वचनीं पर दृढ | एवं सीता को वश में लाने का आखिरी प्रयत्न किया । रही (वा. रा. यु. ३१-३२; म. व. २८१)। किन्तु उस प्रयत्न में यह असफल रहा। रावण-विभीषण संवाद-रावण के छोटे भाई विभीषण बाद में राम के साथ किये गये युद्ध में एक एक कर के ने, धर्म एवं नीति का अनुसरण कर, सीता को राम के प्रहस्त, धुम्राक्ष, वज्रदंष्ट्र, अकंपन आदि इसके सारे सेनापति, पास लौटाने के लिए इससे पुनः अनुरोध किया, एवं ऐसे एवं इसका भाई कुंभकर्ण एवं पुत्र इंद्रजित् मारे गये। न करने पर इसका एवं इसके लंका के राज्य का नाश तत्पश्चात् क्रोध में आकर यह सीता के वध के लिए उद्यत होने की आशंका भी व्यक्त की। हुआ। किन्तु सुपार्श्व नामक इसके अमात्य ने स्त्रीवध से इसने विभीषण की एक न सुनी, एवं कहा - इसे रोक दिया (वा. रा. यु. ९२.५८)। • घोराः स्वार्थप्रयुक्तास्तु ज्ञातयो नो भयावहा : रामरावणयुद्ध--राम एवं रावण का युद्ध कुल दो बार (वा. रा. यु. १६.७)। हुआ था। इसमें से पहले युद्ध में विभीषण ने इसके रथ के घोड़ों का वध किया था। तत्पश्चात् इसने रथ से उतर (अप्रामाणिक, संशयात्मा एवं स्वयं की जबाबदारी कर, शक्ति नामक एक बरछी विभीषण की ओर फेंक दी, टालनेवाले स्वजातीय लोग ही राज्य के सबसे बड़े शत्रु किन्तु लक्ष्मण ने उस शक्ति को छिन्नभिन्न कर फेंक होते है।) दिया । पश्चात् मय के द्वारा दी गयी 'अमोघा' शक्ति 'आगे चल कर विभीषण को राक्षसकुल का कलंक | लक्ष्मण पर छोड़ कर इसने उसे मूञ्छित किया। तत्पश्चात् (कलपांसन ) बता कर इसने कहा, 'वीर पुरुष के सबसे | राम ने लक्ष्मण को हनुमान आदि वानरों की रक्षा में छोड़ बड़े शत्र उसके भाई ही होते है, जैसे कि रानहाथी का | कर, रावण पर ऐसा हमला किया कि, यह रणभूमि छोड़ सबसे बड़ा शत्रु व्याध के पक्ष में मिलनेवाला उसका भाई | कर भाग गया । वा. ग य ही होता है । इस कठोर निर्भर्त्सना से घबरा कर विभीषण | इंद्रजित् के वध के पश्चात् यह 'जयप्रापक' नामक ने चार राक्षसों के साथ लंका छोड़ दी, एवं वह राम के | मंत्र का जाप करने बैठा । इस वार्ता को सुन कर, विभीषण पक्ष में जा मिला । रावण के मातामह माल्यवत् ने मी | ने राम से किसी तरह भी इस जाप में बाधा डालने की इसे बहुत समझाया। किन्तु उसके उपदेशों का इसके | सूचना दी, क्यों कि, इस जाप का पूरा होते ही यह शिव उपर कुछ प्रभाव न पड़ा (वा. रा. यु. ३५)। की प्रसाद से अजेय होने की संभावना थी। युद्धारंभ-राम से युद्ध शुरू होने के पूर्व रावण ने शुक | विभीषण की सूचना के अनुसार, अंगद मंदोदरी के को रामसेना की जानकारी प्राप्त करने के लिए भेजा था, | केशों को खींच कर रावण के पास ले आया, जिस कारण एवं सुग्रीव के पास संदेश भी भेजा था कि, वह युद्ध में | क्रुद्ध हो कर रावण ने अपना जाप यज्ञ अधुरा ही छोड़ राम की सहाय्यता न करे (वा. रा. यु. २०)। किन्तु | दिया, एवं यह युद्धभूमि में आ डटा (वा. रा. यु. ८२ उसका कुछ भी परिणाम न हुआ, एवं शान्ति के सारे | प. उ. पाठ)। प्रयत्न अयशस्वी हो कर इसका राम के साथ युद्ध शुरू | वध-इसके उपरान्त राम-रावण का विकराल युद्ध हुआ। | हुआ। इस युद्ध के समय इन्द्र ने अपना रथ, एवं मातलि ७४७ Page #770 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रावण प्राचीन चरित्रकोश रावण नामक सारथी राम के सहाय्यार्थ भेजा । अगस्त्य ने भी | राजा को देख कर, पृथ्वी के चर प्राणी ही क्या, वायु, राम को आदित्य नामक स्तोत्र प्रदान किया । राम-रावण | वृक्ष, आदि अचर वस्तु भी कंपित होती थी (वा. रा. का यह युद्ध सात दिनों तक चलता रहा। इस युद्ध में | अर. ४६.६-८)। रावण एक बार मूर्छित हुआ, एवं अपने सारथि के द्वारा यह कुशल राजनीतिज्ञ एवं दिग्विजयी सम्राट् था। युद्धभूमि से दूर लाया गया (वा. रा. यु. १०२- | इसकी प्रजा ऐश्वर्यसंपन्न एवं धनधान्य से पूरित थी (वा. रा. सु. ४.२१-२७, ९.२-१७)। इसके राज्य होश में आते ही रावण पुनः एक बार युद्धभमि में | में अनेकानेक वस्तुओं निर्माण करने की कला चरम सीमा आ उतरा। अंत में अगस्त्य के द्वारा दिये गये ब्रह्मास्त्र इसकी छाती पर मार कर, राम ने इसका वध किया। यह अपने मंत्रिगणों में अत्यधिक आदरणीय था, एवं (वा.रा. यु.१०८; म. स. परि. १. क्र. २१ पंक्ति. ५३६; | यह स्वयं मंत्रियों के विचारविमर्श पूछ कर ही राज्य का व. २९१.२९; द्रो. परि. १. क्र. ८. पंक्ति. ४४७)। कारोबार चलाता था (वा. रा. अर, ३८.२३-३३)। राम-रावण के इस अंतीम युद्ध में रावण के सिर पुनः परमपराक्रमी होने के साथ, यह उच्चश्रेणी का रसिक पुनः उत्पन्न होते थे, यहाँ तक कि, राम ने रावण के | एवं संगीतज्ञ भी था (वा. रा. सु. ४४. ३२)। अपने एकसौ सिर काट दिये (वा. रा. यु. १०७.५७)। । परिवार के लोगों के प्रति यह अत्यन्त स्नेहशील था। परिवार--मंदोदरी के अतिरिक्त रावण के धान्य- अपनी बहन शूर्पणखा विधवा होने पर, यह बड़ा दुःखी मालिनी नामक अन्य एक पत्नी का निर्देश प्राप्त है, जो हुआ था (वा. रा. उ. २४)। अतिकाय की माता थी (वा. रा. सु. २२.३९; यु. ७१. महापंडित रावण--रावण वेदों का महापंडित, एवं ३०)। समस्त शास्त्रो का माना हुआ विद्वान् था । वाल्मीकि इन दो पत्नियों के अतिरिक्त रावण को हज़ार पत्नियाँ रामायण में इसे 'वेदविद्या निष्णात' (वेदविद्याव्रतस्नातः) थी, जिनमें देव, गंधर्व, नाग आदि स्त्रियों का समावेश | एवं 'आचारसंपन्न ' (स्वकर्म निरतः ) कहा गया है (वा. था (वा. रा. अयो. १२३.१४; सु. १०-११, १८, २२ | रा. यु.९२.६०)। शाखाओं के क्रम के अनुसार वेदों यु. ११०; उ. २२)। का विभाजन करने का काम इसके द्वारा किया गया था। रावण के पुत्रों में इंद्रजित् सर्वाधिक प्रसिद्ध है । उसके | इसके नाम पर ऋग्वेद का एक भाष्य एवं वेदों का एक पदअतिरिक्त इसे निम्नलिखित अन्य पुत्र भी थे:- अक्ष, पाठ भी प्राप्त है। बलराम रामायण के अनुसार, इसने (वा. रा. सुं. ४७); अतिकाय (वा. रा. यु. ७१. | वैदिक मंत्रों का संपादन कर, वेदों की एक नयी शाखा ३०); त्रिशीर्ष (वा. रा. यु. ७०); नरान्तक ( वा. रा. | का निर्माण भी किया था। यु. ६९); देवान्तक (वा. रा. यु.७०)। | रावण के नाम पर निम्नलिखित ग्रंथ भी प्राप्त है:-- रावण को कुंभकर्ण एवं विभीषण नामक दो भाई, अर्कप्रकाश, कुमारतंत्र, इंद्रजाल, प्राकृत कामधेनु, प्राकृतएवं शूर्पणखा नामक बहन थी। उनके अतिरिक्त मत्त एवं | लंकेश्वर, ऋग्वेदभाष्य, रावणभेट आदि । युद्धोंमत्त नामक इसके अन्य दो भाईयों का, एवं कुंभिनसी | कई अभ्यासकों के अनुसार, उपर्युक्त ग्रंथ लिखनेवाला नामक एक बहन का भी निर्देश प्राप्त है (वा. रा. यु. रावण, लंकाधिपति रावण से कोई अलग व्यक्ति था। ७१.२)। 'तुलसी रामायणा' में-'मानस' में चित्रित किया चरित्रचित्रण-राम जैसे परमवीर राजा को युद्ध में | गया रावण इंद्रियलोलुप, कुटिल राजनीतिज्ञ, क्रोधी ललकारने की हिंमत करनेवाला रावण, स्वयं एक एवं परम शक्तिशाली खलपुरुष है। यह एक वस्तुवादी, परमऐश्वर्युक्त, शोभासंपन्न एवं पराक्रमी राजा था। रावण अधार्मिक, अभिमानी एवं हठी व्यक्ती है, जो मारीच, स्वयं एक साधारण सम्राट न था, किन्तु समस्त पृथ्वी को | विभीषण, माल्यवत् , प्रहस्त, कुंभकर्ण एवं मंदोदरी के द्वारा जीतनेवाला एक लोकव्यापी आतंक भी था। स्वर्णा- | किये गये सदुपदेश पर किंचित भी ध्यान नहीं देता है। सन पर बैठ कर अग्नि जैसे तेजस्वी दिखनेवाले रावण को मानस' में रावण के अनाचारों, अत्याचारों एवं देख कर, स्वयं राम भी प्रभावित हो चुका था ( वा. रा. | निरंकुशता की ओर विशेष संकेत किया गया है; एवं अर. ३२.५, यु. ५९.२६)। इस उग्र तथा पाप करनेवाले | इसे नीच, खल, अधम आदि विशेषणों से भूषित किया Ge૮ Page #771 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रावण प्राचीन चरित्रकोश राहूगण रा.१७)। गया हैं (मानस. ३.२३.८; ३.२८.८)। इससे प्रतीत | निर्दिष्ट स्वभानु का स्थान ही वैदिकोत्तर पुराकथाशास्त्र होता है कि, राम के चरित्रचित्रण में तुलसी का मन जितना | में राहु के द्वारा लिया गया है, जिस कारण इसे 'चंद्रार्करमा है, उतना उसके प्रतिपक्षी रावण के चित्रण में नही । | प्रमर्दन' (चंद्र एवं सूर्य को जीतनेवाला) कहा गया है रावण शतमुख-मायापुरी का राक्षस नृप, जो (भा. ५.२३.७)। कई पुराणों में इसका नामान्तर कुंभकर्ण का पौत्र पौंडक राजा का मित्र था । विभीषण के | स्वभीनु बताया गया है (ब्रह्मांड. ३.६.२३) । शिशुमार विरोधी पक्ष में होने के कारण राम ने इसका वध किया | चक्र के गले में इसका निवासस्थान था। (आ. रा. राज्य. ५)। | शिरच्छेद–समुद्रमंथन के उपरान्त देव-गण अमृतरावण सहस्रमुख-पुष्करद्वीप का एक सहस्रमुखी | पान करने लगा, जब यह दानव भी प्रच्छन्न रूप धारण राक्षस, जिसका सीता के द्वारा वध हुआ था (अद्भुत | कर अमृतपान में शामिल हुआ। अमृत इसके गले तक ही पहुँच पाया था कि, सूर्यचंद्र ने यह दैत्य होने की सूचना राष्ट्र-(सो. क्षत्र ) एक राजा, जो वायु के अनुसार | विष्णु को दी । विष्णु ने तत्काल इसका शिरच्छेद किया, काशि राजा का पुत्र था। जिससे इसका सिर बदन से अलग हो कर धरती पर जा राष्ट्रपाल--(सो. वृष्णि.) एक यादव राजकुमार, जो | गिरा (म. आ. १७.४.६ )। कंस राजा का भाई, एवं उग्रसेन के नौ पुत्रों में से एक था। पश्चात् इसके सिर से केतु का निर्माण हुआ, एवं यह राष्ट्रपाला अथवा राष्ट्रपालिका-मथुरा के उग्रसेन | सिरविरहित अवस्था में घूमने लगा। तदोपरान्त विष्णु राजा की कन्या, जो वसुदेव के भाई संजय राजा की पत्नी | की डर से ये दोनों भाग गये। किन्तु सूर्य एवं चंद्रमा के थी। इसे वृक एवं दुर्मषण नामक दो पुत्र थे (भा. ९. | प्रति राहु-केतुका द्वेष कम न हुआ। इसी कारण, ये २४-२५, ४२)। आज भी उन्हे ग्रासते रहते हैं, जिसे क्रमशः सूर्यग्रहण एवं राष्ट्रपिंड-अंगिराकुलोत्पन्न एक गोत्रकार। चंद्रग्रहण कहते हैं ( पन. ब्र. १०)। राष्ट्रभृत--अथर्ववेद में निर्दिष्ट तीन अप्सराओं में राहु ग्रह का आकार वृत्ताकार माना जाता है। इसका से एक (अ. वे. १६.११८; वा. सं. १५.१५-१९)। व्यास बारह हज़ार योजन, तथा दायरा बयालिस हज़ार अन्य दो अप्सराओं के नाम उग्रजित एवं उग्रपश्या थे। | योजन है । २. (स्वा. प्रिय.) एक राजा, जो भागवत के अनुसार जिस समय शंकर एवं जालंधर का युद्ध हुआ था, उस भरत एवं पंचजनी के पुत्रों में से एक था। समय यह जालंधर की ओर से राजदूत बन कर शंकर राष्ट्रवर्धन---दशरथ राजा के अष्टप्रधानों में से एक | के पास गया था (पद्म. उ. १०)। किन्तु वहाँ शंकर की (वा. रा. बा. ७.३)। क्रोधानी से डर कर यह भाग गया (प. उ. १९)। २. राज्यवर्धन राजा का नामान्तर (राज्यवर्धन देखिये)। इस पापग्रह के प्रभाव की जानकारी संजय ने धृतराष्ट्र को राह--एक दानव, जो अष्टग्रहों में से एक पापग्रह | बताई थी (म. स. १३.३९-४१)। ब्रह्मा की सभा में माना जाता है । सूर्य को ग्रसित करनेवाले दानव के रूप | उपस्थित ग्रहों में भी इसका नाम प्राप्त है। में इसका निर्देश अथर्ववेद में प्राप्त है (अ. वे. १९.९- इसकी कन्या का नाम सुप्रभा था (पन.स. ६), जिसे १०)। भागवत में स्वर्भानुपुत्री कहा गया है। कई अन्य पुराणों में पुराणों में इसे कश्यप एवं दनु का पुत्र बताया गया है। इसकी कन्या का नाम प्रभा दिया गया है (ब्रह्मांड. ३.६. अन्य ग्रंथों में से इसे कश्यप एवं सिंहिका का पुत्र कहा | २३; विष्णु. १.२१)। गया है (म. आ. ५९.३०; विष्णुधर्म. १.१०६; पद्म. सु. राहुकर्णि-अंगिराकुलोत्पन्न एक गोत्रकार । पाठभेद४०)। भागवत एवं ब्रह्मांड में इसे विप्रचित्ति एवं | 'रागकर्णि'। सिहिका का पुत्र कहा गया है (भा. ६.६.३७; १८.१३; राहुल-(सू. इ. भविष्य.) शुद्धोदन राजा के पुत्र ब्रह्मांड. ३.६.१८-२०)। पुष्कल राजा का नामान्तर (पुष्कल. २. देखिये)। स्वर्भानु नामक एक आसुर प्राणि का निर्देश ऋग्वेद में राहगण-गोतम नामक आचार्य का पैतृक नाम प्राप्त है, जिसे सूर्य के प्रकाश को रोकनेवाला माना गया | (श. ब्रा. १.४.१.१०)। रहुगण का वंशज होने से, इसे है (ऋ. ५.४०%; स्वर्भानु देखिये)। वैदिक साहित्य में | यह पैतृक नाम प्राप्त हुआ होगा (रहूगण देखिये)। ७४९ Page #772 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रिक्ष रिक्ष - ( सो. नील) नीवंशीय चक्षु राजा का नामान्तर (चक्षु २. देखिये ) । रिपु - (सो. ह्यु.) एक राजा, बभ्रु राजा का पुत्र था । रुपम (सो. फोट) एक यादवराजा, जो भागवत २. (सो. पुरूरवस् ) एक राजा, जो भागवत के अनुसार के अनुसार रुचक राजा का पुत्र था। इसके भाई का यदु राजा का पुत्र था। नाम पृथु था, जिस कारण इन दोनों का एकत्र निर्देश रिपुंजय -- (सो. द्विमी. ) एक राजा, जो भागवत अनेक ग्रंथों में प्राप्त है । के अनुसार सुवीर राजा का पुत्र था । इसे नृपंजय नामान्तर भी प्राप्त था । प्राचीन चरित्रकोश जो बाबु | के अनुसार २. (स्वा. उत्तान. ) एक राजा, जो ध्रुवपुत्र शिष्ठ राजा के चार पुत्रों में से एक था। इसकी माता का नाम सुच्छाया था। २. (सो. मगध भविष्य.) मगधवंशीय महाबाहु राजा का नामान्तर । ब्रह्मांड में इसे संजय का पुत्र कहा गया श्रुतंजय है ( महाबाहु ३. देखिये) । ४. (सो. मगध भविष्य) मगधदेश का एक राश, जो विष्णु के अनुसार विश्वजित का, एवं मत्स्य के अनुसार अचल राजा का पुत्र था। वायु एवं ब्रह्मांड में इसे अरिंजय, तथा भागवत में इसे पुरंजय कहा गया है । इसने पचास वर्षों तक राज्य किया। इसके शुनक नामक प्रधान ने इसका वध कर अपने प्रयोत नामक स्वतंत्र राजवंश की स्थापना की। ७. एक ब्राह्मण, जो अपने अगले जन्म में काशी देश के दिवोदास नामक राजा बना। एक बार काशीदेश में से अग्नि लुप्त हुआ, जिस समय इसने स्वयं अग्नि का काम निभाया (स्कंद ४.२.१९५८ ) । रिपुताप - एक शूर योद्धा, जो शत्रुघ्न के साथ राम के अधमेषीय अथ के संरक्षण के लिए उपस्थित था (पद्म. पा. ११ ) । रिपुवार -- वीरमणि राजा का सेनापति । वीरमणि के द्वारा राम का अश्वमेधीय अश्व पकड़ लिये जाने पर इसने शत्रु के साथ युद्ध किया था। रिष्ट-- वैवस्वत मनु के पुत्रों में से एक । २. यम सभा में उपस्थित एक राजा (म. स. ८. १४ ) | । रुक्मरथ रुक्मकवच - एक यादवराजा, जो मत्स्य एवं वायु के अनुसार कंबल बर्हिष राजा का पुत्र था । विष्णु एवं पद्म में इसे शिने राजा का एवं भागवत में इसे चक राजा का पुत्र कहा गया है । " रुक्मकेश एक राजकुमार जो विदर्भदेशाधिपति भीष्मक राजा के पाँच पुत्रों में से चौथा पुत्र था (भा. १०.५२.२२ ) । -- रुक्मबाहु एक राजकुमार जो विदर्भदेशाधिपतिं भीष्मक राजा के पाँच पुत्रों में से तीसरा पुत्र था ( मा. १०.५२.२२) । ५. एक ब्राह्मण, जो उदारधी एवं भद्रा के दो पुत्रों में भीष्मक राजा के पाँच पुत्रों में से पाँचवा ( भा. १०.५२.२२ ) । से एक था । ६. कुण्डल नगरी के सुरथ राजा का पुत्र । सुरथ ने राम का अश्वमेधीय अश्व पकड़ लिया था । उस समय शत्रु के साथ हुए युद्ध में, वह सुरथ के साथ युद्धभूमि में प्रविष्ट हुआ था (पद्म. पा. ४९ ) । रुक्मभूषण - - विदिशा नगरी का एक राजा, जो ऋतु ध्वज राजा का पुत्र था । इसके पुत्र का नाम धर्मोगद था ( धर्माद देखिये) । रुक्ममालिन एक राजकुमार जो विदर्भदेशाधिपति रुक्मरथ-- एक राजकुमार, जो विदर्भदेशाधिपति भीष्मक राजा के पाँच पुत्रों में से दूसरा पुत्र था ( भा. १०.५२.२२) । द्रौपदी स्वयंवर के समय यह उपस्थित था (म. आ. १७७.१२ ) । २. मद्र देशाधिपति शल्य राजा का ज्येष्ठ पुत्र, जो अपने पिता एवं भाई रुक्मांगद के साथ द्रौपदीस्वयंवर उपस्थित था ( म. आ. १७७.१३) । में भारतीययुद्ध में यह कौरवों के पक्ष में शामिल था। युद्ध के प्रारंभ में इसका श्वत से युद्ध हुआ था, जिसके बाणों से यह आहत हुआ था (म. भी. परि. १. क्र. ४. पंक्ति १० ) । इसका अभिमन्यु से युद्ध हुआ था, जिसमें यह एवं इसके अन्य भाई मारे जाने का निर्देश प्राप्त है ( म. द्रो. ४४.१२ ) । किन्तु सहदेव के द्वारा इसका वध होने का निर्देश भी महाभारत में अन्यत्र प्राप्त है (म.क. ४.२७) । रिषा -- कश्यप एवं क्रोधा की एक कन्या, जो धर्म इनमें से अभिमन्यु के द्वारा इसका वध होने की ऋषि की पत्नी थी। संभावना अधिक प्रतीत होती है। सहदेव के द्वारा मारा ७५० Page #773 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रुक्मरथ प्राचीन चरित्रकोश रुक्मिणी गया योद्धा शल्यपुत्र रुक्मरथ न हो कर, शल्य का अन्य । ४. एक कुष्ठरोगी राजा, जो कौडिन्यपूर के भीम राजा पुत्र रुक्मांगद होगा। का पुत्र था। इसकी माता का नाम चारुहासिनी था। ३. (सो. द्विमीढ.) एक राजा, जो मत्स्य के अनुसार श्रीगणेश के चिंतामणि-क्षेत्र में स्नान करने के कारण, महापौरव राजा का पुत्र था। यह कुष्ठ रोग से मुक्त हुआ (गणेश १.२७-३५)। ४. द्रोणाचार्य का नामांतर, जो उसे उसके सुवर्णरथ | रुक्मिणी-विदर्भाधिपति भीष्मक (हिरण्यरोमन् ) के कारण प्राप्त हुआ था (म. द्रो. १२.२२)। राजा की लक्ष्मी के अंश से उत्पन्न कन्या, जो श्रीकृष्ण की ५. त्रिगर्त देशीय राजकुमारों के एक दल का सामूहिक | पटरानी थी (ह. वं. २.५९.१६)। भीष्मक राजा की नाम । इसने कर्ण की आज्ञा से अर्जुन पर आक्रमण किया | कन्या होने के कारण इसे 'भैष्मी., एवं विदर्भराजकन्या था (म. द्रो. ८७.१९-२५)। होने के कारण इसे 'वैदर्भी' नामान्तर भी प्राप्त थे रुक्मवती-विदर्भदेशाधिपति भीष्मक राजा की (भा. १०.५३.१; ६०.१)। इसके पिता भीष्मक को पौत्री, एवं रुक्मि की कन्या । अपनी बहन रुक्मिणी के | हिरण्यरोमन् नामान्तर होने के कारण, इसे एवं इसके कहने पर रुक्मि ने अपनी इस कन्या का विवाह रुक्मिणी | पाँच बन्धुओं को रुक्मि' (सुवर्ण) उपपद से शुरु होनेका पुत्र प्रद्युम्न के साथ किया था (भा. १०.६१.२३)। | वाले नाम प्राप्त हुये थे ( भीष्मक देखिये)।। रुक्मांगद-मद्रराज शल्य का द्वितीय पुत्र, जो श्रीकृष्ण से प्रेम--विवाहयोग्य होने के उपरांत, एक अपने पिता एवं ज्येष्ठ बंधु रुक्मरथ के साथ द्रौपदी- बार, नारद के द्वारा कृष्ण के गुण, रूप तथा सामर्थ्य स्वयंवर में उपस्थित था (म. आ. १७७.१३)। भारतीय- | का वर्णन इसने सुना, जिस कारण कृष्ण के ही साथ युद्ध में यह सहदेव के द्वारा मारा गया ( रुक्मरथ २. | विवाह करने का निश्चय इसने किया (भा. १०.५२.३९)। देखिये)। इसके रूप एवं गुणों को सुन कर कृष्ण के मन में भी २. (सू. इ.) एक इक्ष्वाकुवंशीय राजा, जो ऋतुध्वज इसके प्रति प्रेम की भावना उत्पन्न हुई, तथा उन्होंने इसके राजा का पुत्र था (नारद. २.१२.२०)। इसकी पत्नी का | साथ विवाह करने की अपनी इच्छा इसके पिता भीष्मक से नाम विंध्यावली, एवं पुत्र का नाम धर्मांगद था। प्रकट की। परन्तु इसका ज्येष्ठ भ्राता रुक्मि जरासंध का ___ रुक्मांगद राजा की एकादशीव्रत पर विशेष श्रद्धा थी। अनुयायी था, एवं कंसवध के समय से कृष्ण से क्रोधित ब्रह्मा के मन में इसे उस व्रत से भ्रष्ट करने की इच्छा था। अतएव उसने भीष्मक से कहा, 'रुक्मिणी की शादी उत्पन्न हुई, जिस काम के लिए उसने मोहिनी नामक | कृष्ण से न कर के शिशुपाल के साथ कर दो, जो कन्या अप्सरा की नियुक्ति की। एक बार यह मंदर पर्वत पर | के लिए अधिक योग्य वर है'। भीष्मक ने अपने पुत्र की शिकार करने गया था, जहाँ मोहिनी भी उपस्थित हुई। इस सूचना का स्वीकार किया,एवं इसका विवाह शिशुपाल मोहिनी ने अपने नृत्यगायन से इसका मन आकर्षित | से निश्चित किया। किया, एवं इसने उससे विवाह की माँग की। यह वार्ता सुन कर यह अत्यधिक दुःखित हुई, एवं एक बार मोहिनी ने इसे अपने प्रेम की आन दे | इसने मौका देख कर श्रीकृष्ण को एक पत्र लिखा, जो कर, एकादशीव्रत से इसे परावृत्त करने का प्रयत्न किया। सुशील नामक एक ब्राह्मण के द्वारा इसने द्वारका भेज किन्तु इसने मोहिनी की माँग अमान्य कर दी। फिर | दिया। इस पत्र में इसने श्रीकृष्ण के प्रति अपनी प्रणयउसने इसे अपने पुत्र धर्मांगद का सिर तलवार से | भावना स्पष्ट रूप से प्रगट कर, आगे लिखा था, 'हमारे काटने को कहा । मोहिनी की इस मांग को यह पूरी करने- घर ऐसी प्रथा है कि, विवाह के एक दिन पूर्व कन्या नगर वाला ही था कि, इतने में श्रीविष्णु ने साक्षात प्रकट हो के बाहर स्थित अंबिका के दर्शन के लिए जाती है। उस कर, इस कृत्य से इसे परावृत्त किया, एवं प्रसन्न हो कर | समय गुप्त रूप में आ कर, आप मेरा हरण करें। इसे अनेकानेक वर प्रदान कियें (नारद. २.३६)। । श्रीकृष्ण का आगमन-रुक्मिणी का यह पत्र मिलते ३. वीरमणि राजा का पुत्र, जिसने राम का अश्व- | ही, कृष्ण सुशील ब्राह्मण के सहित रथ में बैठ कर एक मेधीय अश्व पकड़ लिया था। तत्पश्चात हुए युद्ध में | रात्रि में आनर्त देश से कुंडिनपुर पहुँच गये। यह शत्रुघ्नपुत्र पुष्कल ने इसे परास्त कर आहत कर दिया | देख कर, एवं परिस्थिति गंभीर जान कर, बलराम भी (पन. पा. ३९-४१)। यादवसेना को ले कर कृष्ण के पीछे निकल पड़ा। बलराम ७५१ Page #774 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रुक्मिणी प्राचीन चरित्रकोश रुक्मिन् एवं कृष्ण विदर्भ देश से क्रथ तथा कौशिक देश में गये, अन्त में बड़ी धूमधाम के साथ इसका एवं कृष्ण का जहाँ के राजाओं ने उनका काफी सत्कार किया (ह. वं. विवाह द्वारका में संपन्न हुआ (भा. १०.५४, ८३; ह. २.५९)। वं. २.६०, विष्णु. ५.२६; पद्म. उ. २४७-२४९)। भागवत एवं विष्णु के अनुसार, कृष्ण एवं बलराम प्रासादवर्णन--विश्वकर्मा ने इन्द्र की प्रेरणा से कृष्ण शिशुपाल एवं रुक्मिणी के विवाहसमारोह में शामिल एवं रुक्मिणी के लिए एक मनोहर प्रासाद का निर्माण होने के बहाने कुंडिनपुर आये थे (भा. १०.५३; विष्णु. किया था, जिसका विस्तार एक योजन था। उसके शिखर ५.२६)। पर सुवर्ण चढाया था, जिस कारण वह मेरु पर्वत के चेदिराज शिशुपाल एवं रुक्मिणी का विवाह भली उत्तुंगशंग की शोभा धारण करता था (म. स. परि. १. प्रकार निर्विघ्न सम्पन्न हो, इसके लिए निम्नलिखित राजा । २१.१२४०) अपनी सेनाओं सहित विद्यमान थे--दंतवक्त्रपुत्र सुवक्त्र, भाग्यश्री किस तरह प्राप्त हो सकती है, इस संबंध में पौंडाधिपति वासुदेव, वासुदेवपुत्र सुदेव, एकलव्यपुत्र, पांड्य- इसका स्वयं भाग्यश्री देवी से संवाद हुआ था, जिस राजपुत्र, कलिंगराज, वेणुदारि, अंशुमान्, काथ, श्रुतधर्मा, समय श्रीकृष्ण भी उपस्थित था (म. अनु. ३२)। कालिंग, गांधाराधिपति, कौशांबीराज आदि । इसके अपने स्वयंवर की कहानी इसने द्रौपदी को सुनाई थी अतिरिक्त भगदत्त, शल, शाल्व, भूरिश्रवा तथा कुंतिवीर्य | (भा १०.८३)। आदि राजा भी आयें हुए थे। भागवत में इसके द्वारा श्रीकृष्ण से किये गये प्रणथरुक्मिणीहरण-विवाह के एक दिन पूर्व, कलपरंपरा कलह का सुंदर वर्णन प्राप्त है (भा. १०.६०)। के अनुसार रुक्मिणी शहर के बाहर भवानी के दर्शन पुत्रप्राप्ति--विवाह के पश्चात् इसे प्रद्युम्न नामक पुत्र करने के लिए गई. तथा वहाँ जाकर कृष्ण को ही पति उत्पन्न हुआ। उसके बचपन में ही शंबरासुर ने उसका के रूप में प्राप्त करने की प्रार्थना इसने की। हरिवंश हरण किया, जिस कारण इसने अत्यधिक शोक किया के अनुसार, यह इन्द्र एवं इन्द्राणी के दर्शन के लिए | था । प्रद्युम्न साक्षात् मदन का ही अवतार था, जिसे इसके गई थी। भाई रुक्मिन् ने अपनी कन्या रुक्मवती विवाह में प्रदान की थी। ___ दर्शन करने के उपरांत, रुक्मिणी बाहर आकर कृष्ण ___ अग्निप्रवेश--श्रीकृष्ण की मृत्यु के पश्चात् इसने एवं को इधर उधर देखने लगी। तब शत्रुओं को देखते देखते | श्रीकृष्ण की अन्य चार पत्निओं ने चितारोहण किया। कृष्ण ने इसे अपने रथ में बैठा दिया, एवं शत्रुओं की ब्रह्मा के अनुसार, श्रीकृष्ण की मृत्यु के पश्चात् उसकी सेना को पराजित करने का भार अपनी यादवसेना को आठ पत्नीयों ने अग्निप्रवेश किया, जिसमें यह प्रमुख थी। सौंप कर कृष्ण ने इसका हरण किया । तब बलराम तथा महाभारत में रुक्मिणी के एक आश्रम का निर्देश प्राप्त अन्य यादवों ने विपक्षियों को पराजित किया। | है, जो उज्जानक प्रदेश की सीमा में स्थित था । इस स्थान रुक्मी का पराजय-बाद में रुक्मिणी के ज्येष्ठ भ्राता पर इसने क्रोध पर विजय पाने के लिए घोर तपस्या की रुक्मी, कृष्ण को भली प्रकार दण्डित करने के लिए, नर्मदा | थी (म. व. १३०.१५)। तट से पीछा करता हुआ कृष्ण के पास आ पहुँचा ।। परिवार--रुक्मिणी को श्रीकृष्ण से चारुमती नामक जैसे ही उसने रुक्मिणी तथा कृष्ण को एक दूसरे से निकट | एक कन्या, एवं निम्नलिखित दस पुत्र उत्पन्न हुये थे:-- बैठा हुआ देखा, वह क्रोध से पागल हो उठा, एवं उसने | प्रद्युम्न, चारुदेष्ण, सुदेष्ण, चारुदेह, सुचारु, चारुगुप्त, कृष्ण से युद्ध करना प्रारम्भ कर दिया । भीषण संग्राम के | भद्रचारु, चारुचंद्र, विचार, एवं चारु (भा. १०.६१; उपरांत कृष्ण ने रुक्मी को पराजित किया। कृष्ण उसका | ह. वं. २.६०)। वध करनेवाला ही था, कि इसने अपने भाई का जीवन- महाभारत में इसके पुत्रों के नाम निम्न प्रकार प्राप्त दान उससे माँगा । तब कृष्ण ने रुक्मी को विद्रूप कर | हैं:--चारुदेष्ण, सुचारु, चारवेश, यशोधर, चारुश्रवस् , क छोड़ दिया। भाई को विद्रूप देखकर यह रोने लगी, चारुयशस् , प्रद्युम्न एवं शंभु (म. अनु. १४.३३-३४)। तब बलराम ने इसे सान्त्वना दी, एवं कृष्ण को उसके | रुक्मिन्--विदर्भदेश का एक श्रेष्ठ राजा, जो विदर्भाधिइस कृत्य के लिए काफी डाटा । पति भीष्मक (हिरण्यरोमन् ) के पाँच पुत्रों में से ज्येष्ठ ७५२ Page #775 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रुक्मिन् प्राचीन चरित्रकोश रुचि पुत्र था। यह एवं इसके पिता यादववंशीय विदर्भ राजा | देखिये)। किन्तु अभिमानी दुर्योधन ने भी इसकी के वंश में उत्पन्न हुयें थे, एवं स्वयं को भोजवंशीय कहलाते सहाय्यता ठुकरा दी । तब अपमानित हो कर यह अपने थे। महाभारत में इसे दन्तवत्र एवं क्रोधवश नामक नगर में लौट आया (म. व. ११५)। असुरों के वंश से उत्पन्न हुआ कहा गया है (म. आ. परिवार-इसे रुक्मवती अथवा शुभांगी नामक एक कन्या थी, जिसका विवाह रुक्मिणीपुत्र प्रद्युम्न से हुआ यह अत्यंत पराक्रमी था। इसने गंधमादन निवासी | था। इसकी रोचना नामक पौत्री का विवाह कृष्ण के पौत्र द्रम ऋषि का शिष्य हो कर, चारों पादों से युक्त संपूर्ण | अनिरुद्ध से हुआ था। रोचना के विवाह के समय इसने धनुर्वेद की विद्या प्राप्त की थी । द्रुम ऋषि ने इसे इंद्र का | बलराम के साथ कपटता के साथ द्यूत खेला था, एवं उसकी विजय नामक एक धनुष भी प्रदान किया था, जो गांडीव, निंदा की थी, तब क्रोधित हो कर बलराम ने स्वर्ण के शार्ग आदि धनुष्यों के समान तेजस्वी था (म. उ. १५५. | पाँसों से इसका वध किया (ह. व. २.६१.५, २७-४६ ३-१०)। परशुराम ने इसे ब्रह्मास्त्र प्रदान किया था। भा. १०.६१)। श्रीकृष्ण से पराजय-इसके मन के विरुद्ध, इसकी रुक्मेषु--(सो. कोष्ट.) एक यादव राजा, जो मत्स्य बहन रुक्मिणी का श्रीकृष्ण ने हरण किया। उस समय, | एवं वायु के अनुसार रुक्मकवच राजा का पुत्र था। क्रुद्ध हो कर अपने पिता के सामने इसने प्रतिज्ञा की, 'मैं भागवत में इसे रुचक राजा का, तथा विष्णु एवं पन में कृष्ण का वध कर रुक्मिणी को वापस लाऊँगा, अन्यथा | इसे परावृत् राजा का पुत्र कहा गया है। लौट कर कुण्डिनपुर कभी न आऊँगा'। ___अपने भाई पृथुरुक्म की सहाय्यता से, इसने यादव तत्पश्चात् अपनी एक अक्षौहिणी सेना के साथ, इसने | राजा ज्यामघ को अपने राज्य से भगा दिया। तत्पश्चात् श्रीकृष्ण पर हमला किया। इस युद्ध में श्रीकृष्ण ने इसे | ज्यामघ ने शुक्तिमती नामक नगरी में नया राज्य स्थापित परास्त कर इसे विरूप कर दिया (भा. १०.५२-५४; / किया (ब्रह्म. १४.१०-१६; ज्यामघ देखिये)। रुक्मिणी देखिये)। तत्पश्चात् अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार, रुक्ष--पूरुवंशीय उरुक्षय राजा का नामान्तर । यह कुण्डिनपुर वापस न गया, एवं जिस स्थान पर कृष्ण रुच--(सो. कुरु. भविष्य.) एक राजा, जो वायु के ने इसे परास्त किया था, वहीं भोजकट नामक नई नगरी अनुसार सुनीथ राजा का पुत्र था। इसे ऋच नामान्तर बसा कर यह रहने लगा। इसी कारण उत्तरकालीन साहित्य भी प्राप्त था। इसके पुत्र का नाम नृचक्षु (त्रिचक्षु)था। में इसे भोजकट नगर का राजा कहा गया है (म. उ. रुचक--(सो. क्रोष्ट.) एक यादव राजा, जो भागवत १५५.२; व. २५५.११)। - सहदेव के दक्षिण दिग्विजय के समय, इसने एवं के अनुसार उशनस् राजा का पुत्र था। इसके पिता भीष्मक ने उसके साथ दो दिनों तक युद्ध | २.(सू. इ.) इक्ष्वाकुवंशीय भरुक राजा का नामान्तर । किया था, एवं तत्पश्चात् उसके साथ संधि किया था (म. ३. एक यक्ष, जो मणिभद्र एवं पुण्यजनी के पुत्रों में से स. २८.४०-४१)। दुर्योधन की ओर से दक्षिणदिग्विजय | एक था। के लिए निकले हुए कर्ण के यद्धकौशल्य से प्रसन्न रुचि--एक प्रजापति, जो ब्रह्मा के मन से उत्पन्न हो कर, इसने उसे भेंट एवं कर प्रदान किये थे (म. व. हुआ था। इसकी पत्नी का नाम आकृति था, जो स्वायंभुव परि. १. क्र. २४. पंक्ति.५१-५४)। मनु की कन्या थी। आकूति से इसे यज्ञ एवं दक्षिणा भारतीय युद्ध में--भारतीय युद्ध के प्रारंभ में, बड़े नामक जुड़वे संतान (मिथुन) उत्पन्न हुयें। पुत्रिकाधर्म अभिमान से एक अक्षौहिणी सेना ले कर यह भोजकट से | की शर्त के अनुसार, इसने उन दोनों पुत्रों को मन को निकला, एवं कृष्ण को प्रसन्न करने के हेतु से पाण्डवों के | वापस दे दिया (भा. ३.१२.५६, ४.१.२; पद्म. सृ. ३; पास गया । वहाँ इसने अर्जुन से बड़ी उद्दण्डता से कहा, | ब्रह्मांड. १. १.५८)। 'यदि पाण्डव मेरी सहाय्यता की याचना करेंगे, तो मैं | २. एक प्रजापति । यह पहले ब्रह्मचारी था, किन्तु उनकी सहाय्यता करने के लिए तैयार हूँ' । अर्जुन के | पितरों के कहने पर इसने मालिनी नामक अप्सरा से विवाह द्वारा इन्कार किये जाने पर, यह दुर्योधन के पास गया, | किया, जो वरुणपुत्र पुष्कर एवं प्रम्लोचा नामक अप्सरा की जहाँ इसने अपना उपर्युक्त कहना दोहराया ( युधिष्ठिर | कन्या थी (गरुड. १.८९-९०; मार्क. ९२)। प्रा. च. ९५] ७५३ Page #776 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रुचि प्राचीन चरित्रकोश ३. एक अप्सरा, जिसने अलकापुरी में अष्टावक्र के निर्देशित त्रिमूर्ति की कल्पना के अनुसार, ब्रह्मा को सृष्टि स्वागतसमारोह में नृत्य किया था (म. अनु. १९.४४)। उत्पत्ति का, विष्णु को सृष्टिसंचालन (स्थिति) का, एवं ४. देवशर्मन् नामक ऋषि की पत्नी, जिस पर इन्द्र | शिव को सृष्टिसंहार का देवता माना गया है । मोहित हुआ था (म. अनु. ४०.१७-१८)। एक बार भयभीत करनेवाले अनेक नैसर्गिक प्रकोप एवं रोगइसकी रक्षा का भार अपने शिष्य विपुल पर सौंप कर, | व्याधि आदि के साथ मनुष्य जाति को दैनंदिन जीवन में देवशर्मन् यज्ञ के लिए बाहर गया। तत्पश्चात् कामासक्त | सामना करना पड़ता है। वृक्षों को उखाड़ देनेवाले झंझाइंद्र इसके पास आया, एवं भोग की याचना करने लगा। वात, मनुष्यों एवं पशुओं को विद्युत् एवं उल्कापात से नष्ट फिर विपुल ने इन्द्र का प्रतिकार किया एवं इसके सतीत्व | कर देनेवाले निसर्गप्रकोप, एवं समस्त पृथ्वी में संहारसत्र की रक्षा की। शुरू करनेवाले रोग एवं व्याधियाँ आदि की, मनुष्य जाति __ इसकी बहन का नाम प्रभावती था, जो अंगराज चित्ररथ | प्रागैतिहासिक काल से ही शिकार बन चुकी है। इसी की पत्नी थी। प्रभावती के द्वारा प्रार्थना किये जाने पर, नैसर्गिक एवं व्याधिजनित प्रकोपों का प्रतीकरूप मान कर इसने उसे एक दिव्य पुष्प प्रदान किया था (म. अनु. | रुद्रदेवता की उत्पत्ति वैदिक आर्यों के मन में हुई, जिस ४२; प्रभावती ४. देखिये )। अंत में अपने पति के साथ | तरह उन्हें प्रातःकाल में 'उपस्' देवता का. एवं उदित यह स्वर्गलोक गयी (म. अनु. ४३.१७)। होनेवाले सूर्य में 'मित्र' देवता का साक्षात्कार हुआ था। ५. नहप राजा की कन्या, जो आप्नवान् ऋषि की पत्नी वैदिक साहित्य में नैसर्गिक एवं व्याधिजनित उगत थी। निर्माण करनेवाले देवता को रुद्र कहा गया है, एवं उसी रुचिपर्वन-दर्योधनपक्षीय एक राजा, जो कृति राजा | उत्सातों का शमन करनेवाले देवता को शिव कहा गया , का पुत्र था। भारतीय युद्ध में सुपर्वन राजा ने इसका वध है। इस प्रकार रुद्र एवं शिव एक ही देवता के रौद्र एवं किया (म. द्रो. २५.४५)। शांत रूप है। रुचिप्रभ--एक राक्षस, जो प्राचीन काल में पृथ्वी का शासक था (म. शां. २२०.५२)। पाठभेद- 'रुचि । सृष्टि का प्रचंड विस्तार एवं सुविधाएँ निर्माण करनेवाले परमेश्वर के प्रति मनुष्य जाति को जो आदर, कृतज्ञता एवं . रुचिर--(सो. कुरु.) कुरुवंशीय राधिक राजा का प्रेम प्रतीत हुआ, उसीका ही मूर्तिमान् रूप भगवान् विष्णु है, एवं उसी सृष्टि का विनाश करनेवाले प्रलयंकारी नामान्तर । मत्स्य में इसे जयत्सेन राजा का पुत्र कहा देवता के प्रति जो भीति प्रतीत होती है, उसीका मूर्तिमान गया है। रूप रुद्र है । पाश्चात्य देवताविज्ञान में सृष्टिसंचालक रुचिरधि--पुरूरवस्वंशीय गुरु राजा का नामान्तर एवं सृष्टिसंहारक देवता प्रायः एक ही मान कर, (गुरु. २. देखिये)। विष्णु में इसे संकृति राजा का पुत्र इन द्विविध रूपों में उसकी पूजा की जाती है । किन्तु कहा गया है। रुचिराश्व--(सो. अज.) एक राजा, जो सेनजित् भारतीय देवताविज्ञान में सृष्टि की इन दो आदि शक्तियों को विभिन्न माना गया है, जिसमें से सृष्टि राजा का पुत्र था। संचालक शक्ति को विष्णु-नारायण-वासुदेव-कृष्ण कहा रुचिरोमा--स्कंद की अनुचरी एक मातृका (म.श. गया है, एवं सृष्टिसंहारक शक्ति को रुद्र कहा गया है। ४५.७) । पाठभेद- कद्रुला। रुचीक--गुहवासिन् नामक शिवावतार का एक इस तरह ऋग्वेद से ले कर गृह्यसूत्रों तक के ग्रंथों में शिष्य। रुद्र देवताविषयक कल्पनाओं की उत्क्रांति जब हम रुतिमत्--(सो. कुरु. भविष्य.) कुरवंशीय वृष्णिमत् देखते है, तब ऐसा प्रतीत होता है कि, ऋग्वेद आदि राजा का नामान्तर । वायु में इसे शुचिद्रथ राजा का पुत्र ग्रन्थों में रुद्र निसर्गप्रकोष का एक सामान्य देवता था। वही कहा गया है। | रुद्र उत्तरकालीन ग्रंथों में पशु, जंगल, पर्वत, नदी, स्मशान रुद्र-वैवस्वत मन्वंतर का एक देवगण । आदि सारी सृष्टि को व्यापनेवाला एक महाबलशाली रुद्र-शिव--एक देवता, जो सृष्टिसंहार का मूर्तिमान् देवता मानने जाने लगा, एवं यह विष्णु के समान ही प्रतीक माना जाता है। प्राचीन भारतीय साहित्य में | सृष्टि का एक श्रेष्ठ देवता बन गया। ७५४ प्रभु। Page #777 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन चरित्रकोश स्वरूप-वर्णन-ऋग्वेद में इसका स्वरूप वर्णन प्राप्त | इसी कारण शिव के भक्तों में काशी अत्यंत पवित्र एवं है, जहाँ इसका वर्ण भूरा (बभ्र), एवं रूप अतितेजस्वी | मुमुक्षुओं का वसतिस्थान माना गया है (मैत्रेय देखिये) बताया गया है (ऋ. २.३३)। यह सूर्य के समान संवर्त को शवरूप में शिवदर्शन का लाभ काशीक्षेत्र में ही जाज्वल्य, एवं सुवर्ण की भाँति प्रदीप्त है (ऋ. १.४३)। हुआ था। पूषन् देवता की भाँति यह जटाधारी है। बाद की संहिताओं तपस्यास्थान-हिमवत् पर्वत के मुंजवत् शिखर पर में इसे सहस्रनेत्र, एवं नीलवर्णीय ग्रीवा एवं केशवाला | शिव का तपस्यास्थान है। वहां वृक्षों के नीचे, पर्वतों के बताया गया है (वा. सं. १६.७; अ. वे. २.२७)। शिखरों पर, एवं गुफाओं में यह अदृश्यरूप से उमा के इसका पेट कृष्णवर्णीय एवं पीठ रक्तवर्णीय है (अ. वे. | साथ तपस्या करता है। इसकी उपासना करनेवाले, देव१५.१) । यह चर्मधारी है (वा. सं. १६.२-४; | गंधर्व, अप्सरा, देवर्षि, यातुधान, राक्षस एवं कुबेरादि ५१)। अनुचर विकृत रूप में वहीं रहते हैं, जो रुद्रगण नाम से 'महाभारत एवं पुराणो में प्राप्त रुद्र का स्वरूपवर्णन | प्रसिद्ध हैं । शिव एवं इसके उपासक अदृश्य रूप में रहते कल्पनारम्य प्रतीत होता है। इस वर्णन के अनुसार, | हैं, जिस कारण वे चर्मचक्षु से दिखाई नहीं देते (म. इसके कुल पाँच मुख थे, जिनमें से पूर्व, उत्तर, पश्चिम | आश्व. ८.१-१२)। एवं उर्ध्व दिशाओं की ओर देखनेवाले मुख सौम्य, एवं वाहन एवं ध्वज-दक्षप्रजापति ने शिव को नंदिकेश्वर केवल दक्षिण दिशा की ओर देखनेवाला मुख रौद्र था नामक वृषभ प्रदान किया, जिसे इसने अपना ध्वज एवं (म. अनु. १४०.४६)। इन्द्र के वज्र का प्रहार इसकी वाहन बनाया। इसी कारण शिव को 'वृषभध्वज' नाम ग्रीवा पर होने के कारण, इसका कंठ नीला हो गया था प्राप्त हुआ (म. अनु. ७७.२७-२८; शैलाद देखिये)। (म. अनु. १४१.८)। महाभारत में अन्यत्र, समुद्र ___ आयुध-इसका प्रमुख अस्त्र विद्युत्-शर (विद्यत् ) मंथन से निकला हुआ हलाहल विष प्राशन करने के है, जो इसके द्वारा आकाश से फेंके जाने पर, पृथ्वी को कारण, इसके नीलकंठ बनने का निर्देश प्राप्त है, जहां इसे विदीर्ण करता है (ऋ. ७.४६ )। इसके धनुषवाण एवं 'श्रीकंठ' भी कहा गया है (म. शां. ३४२.१३)। वज्र आदि शस्त्रों का भी निर्देश प्राप्त है (ऋ. २.३३.३; • पुराणों में भी इसका स्वरूपवर्णन प्राप्त है, जहाँ इसे । १०५.४२.११, १०.१२६.६)। चतुर्मुख (विष्णुधर्म. ३.४४-४८; ५५.१); अर्धनारी ऋग्वेद में प्राप्त रुद्र के इस स्वरूप एवं अस्त्रवर्णन में नटेश्वर (मत्स्य. २६०); एवं तीन नेत्रोंवाला कहा गया आकाश से पृथ्वी पर आनेवाली प्रलयंकर विद्युत् अभिप्रेत होती है। . निवासस्थान--वैदिक ग्रंथों में इसे पर्वतों में एवं पराक्रम-ऋग्वेद में इसे भयंकर एवं हिंसक पशु की मूजवत् नामक पर्वत में रहनेवाला बताया गया है (वा. भाँति विनाशक कहा गया है (ऋ. २.३३)। अपने सं. १६.२-४, ३.६१)। इसका आद्य निवासस्थान मेरुपर्वत था, जिस कारण प्रभावी शस्त्रों से यह गायों एवं मनुष्यों का वध करता है इसे 'मेरुधामा' नामान्तर प्राप्त था (म. अनु. १७. (ऋ. १.११४.१०)। यह अत्यंत क्रोधी है, एवं क्रुद्ध होने पर समस्त मानवजाति को विनष्ट कर देता है। इसी ९१)। विष्णु के अनुसार, हिमालय पर्वत एवं मेरु एक कारण, इसकी प्रार्थना की गयी है कि, यह क्रोध में आ ही हैं (विष्णु. २.२)। कृष्ण द्वैपायन व्यास ने एवं कुबेर ने मेरुपर्वत पर ही इस की उपासना की थी। कर अपने स्तोताओं एवं उनके पितरों, संतानों, संबंधियों, | एवं अश्वों का वध न करे (ऋ. १.११४)। महाभारत में अन्यत्र, इसका निवासस्थान मुंजवान् | अथवा मूजवत् पर्वत बताया गया है, जो कैलास के उस- अपने पुत्र एवं परिवार के लोगों को रोगविमुक्त पार था (म. आश्व. ८.१; सौ. १७.२६, वायु. ४७. | करने के लिए भी इसकी प्रार्थना की गयी है (ऋ. ७. १९)। कैलास एवं हिमालय पर्वत भी इसका निवासस्थान | ४६.२)। ऋग्वेद में अन्यत्र इसे 'जलाष' (व्याधियों का बताया गया है (म. भी. ७.३१; ब्रह्म. २९.२२)। | उपशमन करनेवाला) एवं 'जलाषभेषज' (उपशामक इसका अत्यंत प्रिय निवासस्थान काशी में स्थित | औषधियों से युक्त) कहा गया है (ऋ. १.४.३-४)। स्मशान था (म. अनु. १४१.१७-१९, नीलकंठ टीका) यह चिकित्सकों में भी श्रेष्ठ चिकित्सक है (ऋ. २.३३ ७५५ Page #778 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन चरित्रकोश ४), एवं इसके पास हज़ारों औषधियाँ है (ऋ. ७.४६. जमातियों का राजा अथवा प्रमुख होने का निर्देश सर्वप्रथम यजुर्वेद संहिता में ही प्राप्त होता है। यह दानवों की भाँति केवल करकर्मा ही नही, बल्कि इस तरह जंगलों का देवता माना गया रुद्र, जंगलों में प्रसन्न होने पर मानवजाति का कल्याण करनेवाला, एवं रहनेवाले लोगों का भी देव बन गया, जो संभवतः वैदिक पशुओं का रक्षण करनेवाला होता है। इसी कारण, | रुद्र देवता का एवं अनार्य लोगों के रुद्रसदृश देवता के ऋग्वेद में इसे शिव (ऋ. १०.९२.९), एवं पशुप (ऋ | सम्मीलन की ओर संकेत करता है। १.११४.९)। कहा गया है। अथर्ववेद में इस वेद में रुद्र के कुल सात नाम प्राप्त तैत्तिरीय संहिता में--यजुर्वेद के शतरुद्रीय नामक है, किन्तु उन्हें एक नहीं, बल्कि सात स्वतंत्र देवता गना अध्याय में रुद्र का स्वभावचित्रण अधिक स्पष्ट रूप से | | गया है। जिस तरह सूर्य के सवितृ, सूर्य, मित्र, पूषन् प्राप्त है (तै. सं. ४.५.१; वा. सं. १६)। वहाँ इसका आदि नामान्तर प्राप्त है, उसी प्रकार अथर्ववेद में प्राप्त 'रुद्र स्वरूप' (रुद्रतनुः), एवं 'शिव स्वरूप' (शिवतनुः) रुद्रसदृश देवता, एक ही रुद्र के विविध रुप प्रतीत होते का विभेद स्पष्ट रूप से बताते हुए कहा गया है : है, जिनके नाम निम्न प्रकार है:-- १. ईशान,--जो समस्त मध्यमलोक का सर्वश्रेष्ठ या ते रुद्र शिवा तनू शिवा विश्वस्य भेषजी । अधिपति है। शिवा रुद्रस्य भेषजी तया नो मृड जीवसे ॥ २. भव,-जो मध्यमलोक के पूर्व विभाग का राजा, (तै. सं. रुद्राध्याय २)। व्रात्य लोगों का संरक्षक एवं उत्तम धनुर्धर है । यह एवं (रुद्र के घोरा एवं शिव नामक दो रूप हैं, जिनमें से | शर्व पृथ्वी के दृष्ट लोगों पर विद्युत्पी बाण छोड़ते । पहला रूप दुःख निवृत्ति एवं मृत्युपरिहार करनेवाला, | हैं | इसे सहस्र नेत्र हैं, जिनकी सहायता से यह पृथ्वी . एवं धन, पुत्र, स्वगे आदि प्रदान करनेवाला है; एवं दूसरा | की हरेक वस्तु देख सकता है (अ. वे. ११.२.२५)। रूप आत्मज्ञान एवं मोक्ष प्रदान करनेवाला है)। यह आकाश, पृथ्वी एवं अंतरिक्ष का स्वामी है (अ.वे. यजुर्वेद संहिता में मेघ से समीकृत कर के रुद्र का ११.२.२७) । भव, शर्व एवं रुद्र के बाण कल्याणप्रद वर्णन किया गया है। इसे गिरीश एवं गिरित्र ( पर्वतों में | (सदाशिव) होने के लिए, इनकी प्रार्थना की गयी है : रहनेवाला ) कहा गया है, एवं इसे जंगलों का, एवं वहाँ | (अ. वे. ११.६.९)। रहनेवाले पशुओं, चोर, डाकू एवं अन्त्यजों का अभि ____३. शर्व,-जो उत्तम धनुर्धर एवं मध्यमलोक के | दक्षिण विभाग का अधिपति है । इसे एवं भव को 'भूतपति' नियन्ता कहा गया है । यजुर्वेद में अग्नि को रुद्र कहा गया | है, एवं उसे मखन्न विशेषण भी प्रयुक्त किया गया है (ते. एवं 'पशुपति' कहा गया है (अ. वे. ११.२.१)। सं. ३.२.४; ते. ब्रा. ३.२.८.३)। रुद्र के द्वारा दक्षयज्ञ ४. पशुपति,-जो मध्यमलोक के पश्चिम विभाग का के विध्वंस की जो कथा पुराणों में प्राप्त है, उसीका संकेत अधिपति है । इसे अश्व, मनुष्य, बकरी, मेंढक एवं गायों यहाँ किया होगा। का स्वामी कहा गया है (अ. वे. ११.२.९)। ५. उग्र,-यह एक अत्यंत भयंकर देवता है, जो यजुर्वेद में इसे कपर्दिन (जटा धारण करनेवाला), शर्व मध्यमलोक के उत्तर विभाग का अधिपति कहा गया (धनुषबाण धारण करनेवाला), भव (चर एवं अचर है। यह आकाश, पृथ्वी एवं अंतरिक्ष के सारे जीवित सृष्टि को व्यापनेवाला), शंभु (सृष्टिकल्याण करनेवाला), | लोगों का स्वामी है (अ. वे. ११.२.१०)। शिव (पवित्र), एवं कृत्तिवसनः (पशुचर्म धारण करने- | ६. रुद्र.--जो कनिष्ठ लोक का स्वामी है; एवं रोगवाला) कहा गया है (वा. सं. ३.६१, १६.५१)। व्याधि, विषप्रयोग एवं आग फैलाने की अप्रतिहत - इसके द्वारा असुरों के तीन नगरों के विनाश का शक्ति इसमें है। अग्नि, जल, एवं वनस्पतियों में इसका, निर्देश भी प्राप्त है (तै. सं. ६.४.३)। वास है, एवं पृथ्वी के साथ चंद्र एवं ग्रहमंडल का यजुर्वेद में रुद्र-गणों का निर्देश प्राप्त है, एवं इस गण | नियमन भी यह करता है (अ. वे. १३.४.२८)। इसी के लोग जंगल में रहनेवाले निषाद आदि वन्य जमातियों कारण, इसे 'ईशान' (राजा) कहा गया है। के 'गणपति' होने का निर्देश भी प्राप्त है। रुद्र वन्य ७. महादेव,--जो उच्चलोक का अधिपति है । ७५६ Page #779 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन चरित्रकोश रुद्र ब्राह्मण ग्रंथों में--इन ग्रंथों में रुद्र को उषस् का पुत्र श्वेताश्वतर उपनिषद शैवपंथीय नहीं, बल्कि आत्मज्ञान कहा गया है, एवं जन्म के पश्चात् इसे प्रजापति के द्वारा का एवं ईश्वरप्राप्ति का पंथनिरपेक्ष मार्ग बतानेवाला एक आठ विभिन्न नाम प्राप्त होने का निर्देश प्राप्त है (श. सर्वश्रेष्ठ प्राचीन उपनिषद माना जाता है, एवं इसी कारण जा. ६.१.३.७; कौ. वा. ६.१.९)। इनमें से सात नाम शंकराचार्य, रामानुज आदि विभिन्न पंथ के आचार्यों ने यजुर्वेद की नामावलि से मिलते जुलते है, एवं आठवाँ | इसके उद्धरण लिये हैं। नाम 'अशनि' ( उल्कापात ) बताया गया है। किन्तु इन | यह उपनिषद ग्रंथ भक्तिसांप्रदाय एवं रुद्र-शिव ग्रंथों में ये आठ ही नाम एक रुद्र देवता के ही विभिन्न की उपासना का आद्य ग्रंथ माना जाता है, एवं इसका रूप दिये गये हैं। इनमें से, रुद्र, शर्व, उग्र एवं अशनि | काल भगवद्गीता के पूर्वकालीन है, जिसे वासुदेव रुद्र के जगत्संहारक रूप के प्रतीक हैं, एवं भव, पशुपति, | कृष्ण की उपासना का आद्य ग्रंथ माना जाता है । महादेव एवं ईशान आदि बाकी चार नाम इसके शान्त इससे प्रतीत होता है कि, भगवद्गीता तक के काल में एवं जगत्प्रतिपालक रूप के द्योतक हैं । इस तरह ऋग्वेद | भारतवर्ष में रुद्र-शिव ही एकमेव उपास्य देवता थी, काल में पृथ्वी को भयभीत करनेवाले जगत्संहारक- | जिसके स्थान पर भवद्गीता के पश्चात्, रुद्र एवं वासुदेव रुद्रदेवता को, ब्राह्मण ग्रंथों के काल में जगसंहारक एवं कृष्ण इन दोनों देवताओं की उपासना प्रारंभ हुयीं। जगत्प्रतिपालक ऐसे द्विविध रूप प्राप्त हुयें । केन उपनिषद में-रुद्र-शिव की पत्नी उमा (हैमवती) ब्राह्मण ग्रंथों में रुद्र के उत्पत्ति की एक कथा भी दी गई | का सर्वप्रथम निर्देश इस उपनिषद में प्राप्त है, जहाँ है। प्रजापति के द्वारा दुहितृगमन किये जाने पर उसे सजा उसे स्पष्ट रूप से शिव की पत्नी नही, बल्कि साथी कहा देने के लिए रुद्र की उत्पत्ति हुई । पश्चात् रुद्र ने पशुपति गया है। इंद्र, वायु, अग्नि आदि वैदिक देवताओं की का रूप धारण कर मृगरूप से भागनेवाले प्रजापति का शक्ति, जिस समय काफी कम हो चुकी थी एवं रुद्र-शिव वध किया । प्रजापति एवं उसका वध करनेवाला रुद्र ही एक देवता पृथ्वी पर रहा था, उस समय की एक आज भी आकाश में मृग एवं मृगव्याध नक्षत्र के रूप कथा इस उपनिषद में दी गयी है:-एक बार में दिखाई देते हैं (ऐ. ब्रा. ३.३३; श. ब्रा. १.७.४.१- | देवों के सारे शत्रु को ब्रह्मन् ने पराजित किया, किन्तु ब्रह्म. १०२)। इस विजयप्राप्ति का सारा श्रेय इंद्र, अग्नि आदि देवता . उपनिषदों में--रुद्र-शिव से संबंधित सर्वाधिक महत्त्व लेने लगे। उस समय रुद्र-शिव देवों के पास आया। . पूर्ण उपनिषद 'श्वेताश्वतर उपनिषद' है, जिसमें रुद्र-शिव देवों का गर्वपरिहार करने के लिए इसने अग्नि, वायु एवं को सृष्टि का सर्वश्रेष्ठ देवता कहा गया है। इंद्र के सम्मुख एक घाँस का तिनका रखा, एवं उन्हें क्रमशः .'अनादि अनंत परमेश्वर का स्वरूप क्या है, एवं आत्म- | उसे जलाने, भगाने एवं उठाने के लिए कहा। इस कार्य ज्ञान से उसकी प्राप्ति कैसे हो सकती है, इसकी चर्चा अन्य | में तीनों वैदिक देव असफल होने के पश्चात्, हैमवती उमा उपनिषदों के भाँति इस उपनिषद में भी की गयी है। किन्तु ने ब्रह्मस्वरूप रुद्र-शिव का माहात्म्य उन्हें समझाया। यहाँ प्रथम ही जगत्संचालक ब्रह्मन् का स्थान जीवित व्यक्ति ___ 'शिव अथर्वशिरस् उपनिषद' में भी रुद्र की महत्ता का का रंग एवं रूप धारण करनेवाले रुद्र-शिव के द्वारा लिया गया है। इस उपनिषद में रुद्र, शिव, ईशान एवं महेश्वर | १ वर्णन प्राप्त है। किन्तु वहाँ रुद्र-शिव के संबंधी तात्त्विक जानकारी कम है, एवं शिवोपासना के संबंधी जानकारी को सृष्टि का अधिष्ठात्री देवता (देव) कहा गया है, एवं इसकी उपासना से एवं ज्ञान से ब्रह्मज्ञान प्राप्त होता हैं, अधिक है, जिस कारण यह उपनिषद् काफ़ी उरत्तकालीन ऐसा कहा गया है । इस उपनिषद के अनुसार, सृष्टि का प्रतीत होता है। नियामक एवं संहारक देवता केवल रुद्र ही है (श्वे. उ. गृह्मसूत्रों में--इन ग्रंथों में गायों का रोग टालने के ३.२), जो गूढ, सर्वव्यापी एवं सर्वशासक है (श्वे. | लिए शूलगव नामक यज्ञ की जानकारी दी गयी है, जहाँ उ.५.३), एवं केवल उसीके ज्ञान से ही मोक्षप्राप्ति हो | बैल के 'वपा' की आहुति रुद्र के निम्नलिखित बारह सकती है (श्वे. उ. ४.१६ )। इस ग्रंथ में विश्वमाया का नामों का उच्चारण के साथ करने को कहा गया है:नाम प्रकृति दिया गया है, एवं उस माया का शास्ता रुद्र | रुद्र; शर्व; उग्र; भव; पशुपति; महादेव, ईशान; हर; बताया गया है (श्वे. उ. ४.१०)। | मृड; शिव; भीम एवं शंकर । इनमें से पहले तीन ७५७ Page #780 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन चरित्रकोश रुद्र " जगत्संहारक रुद्र के दूसरे चार नाम प्रतिपालक रुद्र के, एवं अंतिम पाँच नाम नये प्रतीत होते हैं। पारस्करगृह्य एवं हिरण्यकेशी गृह्यसूत्रों में शूलगव यज्ञ की प्रक्रिया दी गयी है। किन्तु वहाँ रुद्र के बदले इंद्राणी, रुद्राणी, शर्वाणी, भवानी आदि रुद्रपनियों के लिए आहुति देने को कहा है, एवं भवस्य देवस्य पन् स्वाहा' इस तरह के मंत्र भी दिये गये हैं (पा. ८ हि. २.२.८ ) । " गृ. ३. इन्हीं ग्रंथों में पर्वत, नदी, जंगल, स्मशान आदि से प्रवास करते समय, रुद्र की उपासना किस तरह करनी चाहिये, इसका भी दिग्दर्शन किया गया है (पा. १५, हि. रा. ५.१६ ) । महाभारत में - इस ग्रंथ में रुद्र का निर्देश शिव एवं महादेव नाम से किया गया है । वहाँ इसकी पत्नी के नाम उमा, पार्वती, दुर्गा, काली, कराखी आदि बताये गये हैं, एवं इसके पार्षदों को 'शिवगण' कहा गया है । झुंजवत् पर्वत पर तपस्या करनेवाले शिव को योगी अवस्था कैसी प्राप्त हुई इसकी कथा महाभारत में प्राप्त है। सृष्टि के प्रारंभ के काल में, ब्रह्मा की आज्ञा से शिव प्रज़ा उत्पत्ति का कार्य करता था। आगे चल कर, ब्रह्मा के द्वारा इस कार्य समाप्त करने की आज्ञा प्राप्त होने पर, शिव पानी में जाकर छिप गया । पश्चात् ब्रह्मा ने दूसरे एक प्रजापति का निर्माण किया, जो सृष्टि उत्पत्ति का कार्य आगे चलाता रहा । कालोपरान्त शिव पानी से बाहर आया, एवं अपने अनुपस्थिति में भी प्रश्थ उत्पत्ति का कार्य अच्छी तरह से चल रहा है, यह देख कर इसने अपना लिंग काट दिया, एवं यह स्वयं मुजवत् पर्वत पर तपस्या करने के लिये चला गया । इसी प्रकार की कथा वायुपुराण में भी प्राप्त है । ब्रह्मन् के द्वारा नील लोहित ( महादेव ) को प्रजा उत्पत्ति की आशा दिये जाने पर, उसने मन ही मन अपनी पत्नी सती का स्मरण किया एवं हजारो विरूप एवं भयानक प्राणियों ( रुद्रसृष्टि) का निर्माण किया, जो रंगरूप में इसी के ही समान में इस कारण ब्रह्मा ने इसे इस कार्य से रोक दिया। तदोपरान्त यह प्रमा उत्पत्ति का कार्य समाप्त कर पाशुपत योग का आचरण करता हुआ मुंज पर्वत पर रहने लगा ( वायु. १०; विष्णु. १.७-८; २.९७९) । 6 , ७५८ रुद्र उपासक - गण - महाभारत में निम्मलिखित लोगों के दारा शिव की उपासना करने का निर्देश प्राप्त है :१. अर्जुन, जिसने पाशुपतास्त्र की प्राप्ति के लिए शिव की दोचार उपासना की थी ( म. भी ३८-४० द्रो. ८०८१ ) २. अश्वत्थामन, जिसके शरीर में प्रविष्ट हो कर शिव ने पाण्डयों के रात्रिसंहार में मदद की थी (म. सौ. ७) जांबवती ३० श्रीकृष्ण जिसने अपनी पानी जवती को तेजस्वी पुत्र प्राप्त होने के लिए तपस्या की थी, एवं जिसे शिव एवं उमा ने कुल चौबीस वर प्रदान किये थे ( म. अनु. १४ ); ४. उपमन्यु, जिसने कड़ी तपस्या कर शिव से इच्छित वर प्राप्त किये थे; ५. शाकल्य, जिसने शिवप्रसाद से ऋग्वेद संहिता एवं पपाठ की रचना में हिस्सा लिया था (म. अनु. १४) । इनके अतिरिक्त, शिव के उपासकों में अनेकानेक ऋषि, राजा, दैत्य, अप्सरा, राजकन्या, सर्प आदि शामिलं थे, जिनकी नामावलि निम्नप्रकार है:- १. ऋषिदुर्वासस्, परशुराम, मंकणक २. राजा - राम दाशरथि, श्वेतकि; जयद्रथ, द्रुपद, मणिपुर नरेश प्रभंजन, २. दैन्य- अंधक, अंधकपुत्र आडि, जालंधर, त्रिपुर बाण, भस्मासुर, रावण, रक्तबीज, वृक, हिरण्याक्ष ४. अप्सरा - तिलोत्तमा; ५. राजकन्या - अंबा, गांधारी; ६. सर्प-मणि । इनमें से देय एवं असुरों के द्वारा शिव की उदारता एवं भोलापन का अनेकवार गैर फायदा लिया गया, जो त्रिपुर, भस्मासुर, रक्तबीज, रावण आदि के चरित्र से विदित है। अष्ट-द-पुराणों में अष्टरूटों की नामावलि दी गयी है, जो शतपथ ब्राह्मण की नामावलि से मिलती जुलती है । इन ग्रंथों के अनुसार, ब्रह्मा से जन्म प्राप्त होने पर यह रोदन करते हुए इधर उधर भटकने लगा । पश्चात् इसके द्वारा प्रार्थना किये जाने पर, ब्रह्मा ने इसे आठ विभिन्न नाम, पत्नियों एवं निवासस्थान आदि प्रदान किये। प्रमुख पुराणों में से, विष्णु, मार्कंडेय, वायु एवं खंद में अष्टमूर्ति महादेव की नामावलि प्राप्त है (विष्णु. १. ८ मार्क ४९ पद्म. स. २ बायु २७ कंद ७०१. ८७ ) । इन पुराणों में प्राप्त रुद्र की पत्नियों, संतान, निवासस्थान आदि की तालिका निम्नप्रकार है: Page #781 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन चरित्रकोश रुद्र का नाम पनी संतान . निवासस्थान बन गये हैं, जिनमें से दस वायु के नाम निम्न हैं:-- | प्राण, अपान, व्यान, उदान, समान, नाग, कूर्म, कृकल, देवदत्त एवं धनंजय। ३. भागवत में--इस ग्रंथ में ग्यारह रुद्रों के नाम, उनकी पत्नियाँ, एवं निवासस्थान दिये गये हैं, जो निम्न प्रकार है:-- सुवर्चला अथवा सती शनैश्चर सूर्य | भव उमा (उषा) शुक्र रुद्र का नाम पत्नी निवास्थान अर्व (शिव) विकेशी मंगल मही मन्यु पशुपति शिवा मनोजव । हृदय मनु वृत्ति भीम वाहा (स्वधा) इंद्रिय स्कंद . अग्नि सहिनस (सोम) उशना असु महत् . उमा व्योम ईशान दिशा .. स्वर्ग आकाश शिव नियुता वायु ऋत्तध्वज सर्पि अग्नि । उग्र दीक्षा संतान यज्ञीय ब्राह्मण उग्ररेतस् इला भव अंबिका मही महादेव रोहिणी बुध चंद्र काल इरावती वामदेव सुधा कालिदास के शाकुन्तल की नांदी में, अष्टमूर्ति सृतध्वज दीक्षा तप शिव का निर्देश है, जहाँ उपर्युक्त तालिका में दिये गये रुद्र के निवासस्थानों को ही 'अष्टमूर्ति' कहा गया हैं :-- (भा. २.१२.७-१८)। जल, वह्नि, सूर्य, चंद्र, आकाश, वायु, पृथ्वी (अवनी) विभिन्न पुराणों में-उपर्युक्त ग्रंथों के अतिरिक्त अन्य एवं यज्ञकर्ता (शा. १.१)। पुराणों में प्राप्त एकादश रुद्र के नाम एवं उनके संभव- एकादश रुद्र-महाभारत एवं पुराणों में प्रायः सर्वत्र | नीय पाठभेद निम्न प्रकार है :-- १. अजैकपात् (अज. रुद्रों की संख्या एकादश बतायी गयी हैं, एवं उनकी | एकपात, अपात् ); २. अहिर्बुध्न्य; ३. ईश्वर (सुरेश्वर, उत्पत्ति ब्रह्मा के शरीर से उत्पन्न एक ही आद्य रुद्र से विश्वेश्वर, अपराजित, शास्तृ, त्वष्ट); ४. कपालिन् ; होने का कथा बताई गयी है। किन्तु इन ग्रंथों में प्राप्त । ५. कपर्दिन् । ६. त्र्यंबक (दहन, दमन, उग्र, चण्ड, महाएकादश रुद्रों की नामावलि एक दूसरी से मेल नहीं तेजस् , विलोहित, हवन), ७. बहुरूप (निंदित, निऋति खाती है। इनमें से प्रमुख ग्रंथों में प्राप्त नामावलियाँ निम्न महेश्वर), ८. पिनाकिन् (भीम); ९. मृगव्याध ( रैवत, प्रकार है : परंतप); १०. वृषाकपि (विरूपाक्ष, भग); ११. स्थाणु १. महाभारत-मृगव्याध, शर्व, निक्रति, अजैकपात्, (शंभु, रुद्र, जयंत, महत् , अयोनिज, हर, भव, शर्व, अहिर्बुध्न्य, पिनाकिन् , दहन, ईश्वर, कपालिन्, स्थाणु, | ऋत, सर्वसंज्ञ, संध्य एवं सर्प)। एवं भव (म. आ. ५०.१-३)। | जन्म की कथाएँ--रुद्र के जन्म के संबंधी विभिन्न २. स्कन्द पुराण में--- भूतेश, नीलरुद्र, कालिन्, | कथाएँ पुराणों में प्राप्त है। सृष्टि के विस्तार का कार्य वृषवाहन, त्र्यंबक, महाकाल, भैरव, मृत्युंजय, कामेश, | ब्रह्मा के सनंदन आदि प्रजापतिपुत्रों पर सौंपा गया एवं योगेश (स्कंद. ७.१.८७ ) । इस पुराण के अनुसार, | था। किंतु वह काम उनके द्वारा यथावत् न किये जाने कृतयुग में अष्ट रुद्र उत्पन्न हुयें, एवं कलियुग में ग्यारह | पर ब्रह्मा क्रुद्ध हुआ, एवं अपनी भ्रुकुटि उसने वक्र की। रुद्रों का अवतार हुआ, जिनकी नामावलि यहाँ दी गयी ब्रह्मा के उस वक्र किये भृकुटि से ही रुद्र का जन्म हुआ है । ये ग्यारह रुद्र, दस वायु एवं एक आत्मा मिल कर | (विष्णु. १.७.१०-११)। पम एवं भागवत में भी इसे ७५९ Page #782 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रुद्र प्राचीन चरित्रकोश ब्रह्मा के क्रोध से उत्पन्न कहा गया है (पद्म. सु. ३, दाह का उपशम करने के लिए, इसने अपने जटासंभार में भा. ३.१२.१०) । अन्य पुराणों में, इसे ब्रह्मा के उसी समुद्रमंथन से निकला हुआ चंद्र धारण किया, जिस अभिमान से (ब्रह्मांड. २.९.४७); ललाट से (भवि. कारण इसे 'नीलकंठ,' एवं 'चंद्रशेखर' नाम प्राप्त ब्राझ ५७); मन से (मत्स्य. ४.२७); मस्तक से (स्कंद. | हुयें। ५.१.२) उत्पन्न कहा गया है। ब्राह्मणों का नाश करने के हेतु, एक दैत्य हाथी का रूप विष्णु के अनुसार, प्रजोत्पादनार्थ चिंतन करने के | धारण कर काशीनगरी में प्रविष्ट हुआ था, जिसका इसने लिए बैठे हए ब्रा को एक पुत्र उत्पन्न हुआ, जो शुरु में | वध किया. एवं उसका चर्म का वस्त्र बनाया। इसी कारण रक्तवर्णीय था, किन्तु पश्चात् नीलवर्णीय बन गया । ब्रह्मा इसे 'कृत्तिवासस' (हाथी का चर्म धारण करनेवाला ) नाम का यही पुत्र रुद्र है। स्कंद में शंकर के आशीर्वाद से ही | प्राप्त हुआ (पा. स्व. ३४)। ब्रह्मा के रुद्र नामक पुत्र होने की कथा प्राप्त है। देव असुरों के युद्ध में यह प्रायः देवों के पक्ष में ही अन्य पुराणों में रुद्रगणों को कश्यप एवं सुरभि के शामिल रहता था, एवं देवसेना के सेनापति के नाते (ह. वं. १.३, ब्रह्म ३.४७-४८; शिव. रुद्र. १७); इसने अपने पुत्र कार्तिकेय को अभिषेक भी किया था भूतकन्या सुरूपा के ( भा. ६.६. १७); तथा प्रभास एवं (विष्णुधर्म. १.२३३)। फिर भी अपना श्रेष्ठत्व बृहस्पतिभगिनी के (विष्णु १. १५. २३) पुत्र कहा प्रस्थापित करने के लिए इसने देवों से तीन बार, एवं गया है। महाभारत में कई स्थानों पर, रुद्र देवता के नारायण तथा कृष्ण से एक एक बार युद्ध किया था स्थान पर एकादश रुद्रों का निर्देश किया गया है (म. (म. शां. ३३०)। नारायण के साथ कियें युद्ध में, इसने आ. ६०.३; ११४. ५७--५८; शां. २०१.५४८; अनु. उसके छाति पर शूल से प्रहार किया था, जो व्रण २५५.१३; स्कंद. ६.२७७; पन सृ. ४०)। 'श्रीवत्स-चिह्न' नाम से प्रसिद्ध है (न. शां ३३०. पराक्रम-इसके पराक्रम की विभिन्न कथाएँ पुराणों में | प्राप्त हैं । गंधमादन पर्वत पर अवतीर्ण होनेवाली गंगा महाभारत में वर्णन किये गये शिव के पराक्रम में इसने अपने जटाओं में धारण की (पद्म. स्व. ३)। अपने श्वसुर दक्ष के द्वारा अपमान किये जाने पर, इसने उसके दक्ष-यज्ञ का विध्वंस, एवं त्रिपुरासुर का वध (म. क. २४). यज्ञ का विध्वंस अपने वीरभद्र नामक पार्षद के द्वारा इन दोनों को प्राधान्य दिया गया है (दक्ष प्रजापति एवं त्रिपुर देखिये)। त्रिपुरासुर के वध के पहले इसने उसके कराया। ब्रह्मा के द्वारा अपमान होने पर, इसने उसका | पाँचवाँ सिर अपने दाहिने पाँव के अंगूठे के नाखुन से | आकाश में तैरनेवाले त्रिपुर नामक तीन नगरों को जला काट डाला । ब्रह्मा का सिर काटने से इसे ब्रह्महत्त्या | दिया। शिव के द्वारा किये गये त्रिपुरदाह का तात्त्विक का पातक लगा, जो इसने काशी क्षेत्र में निवास कर अर्थ महाभारत में दिया गया है, जिसके अनुसार स्थूल, नष्ट किया (पद्म. सु. १४)। कई अन्य पुराणों में | सूक्ष्म, एवं कारण नामक तीन देहरूप नगरों का शिव के ब्रह्मा का पाँचवा सिर इसने अपने भैरव नामक पार्षद | द्वारा दाह किया गया। हर एक साधक को चाहिए की, के द्वारा कटवाने का निर्देश प्राप्त है (शिल. विद्या. | वह भी शिव के समान इन तीन नगरों का नाश करे, जो दुष्कर कार्य शिव की उपासना करने से ही सफल हो १.८)। सकता है। ब्रह्मा के यज्ञ में यह हाथ में कपाल धारण कर गया, जिस कारण इसे यज्ञ के प्रवेशद्वार के पास ही रोका तामस-रूप-यह भूत पिशाचों का अधिपति था, एवं दिया गया। किन्तु आगे चलकर इसके तपःप्रभाव के | अमंगल वस्तु धारण कर इसने कंकाल, शैव, पाषंड, कारण, इसे यज्ञ में प्रवेश प्राप्त हुआ, एवं ब्रह्मा के उत्तर महादेव आदि अनेक तामस पंथों का निर्माण किया था। दिशा में बहुमान की जगह इसे प्रदान की गई (पद्म | विष्णु की आज्ञानुसार, इसने निम्नलिखित ऋषियों को सू. १७)। | तामसी बनाया था :--कणाद, गौतम, शक्ति, उपमन्यु, समुद्रमंथन से निकला हलाहल-विष इसने | जैमिनि, कपिल, दुर्वास, मृकंडु, बृहस्पति, भार्गव एवं प्राशन किया जिस कारण, इसकी ग्रीवा नीली हो | जामदग्न्य । देवों के यज्ञ में हविर्भान प्राप्त न होने के गई, एवं इसके शरीर का अत्यधिक दाह होने लगा। उस | कारण, इसने क्रुद्ध हो कर भग एवं पूषन को क्रमशः ७६० Page #783 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन चरित्रकोश रुद्र एकाक्ष एवं दंतविहीन बनाया था, एवं यज्ञ देवता को परिवार-रुद्र-शिव को निम्नलिखित दो पत्नियाँ थी:मृग का रूप ले कर भागने पर विवश किया था। । १. दक्षकन्या सती; २. हिमाद्रिकन्या पार्वती (उमा) भूतपिशाचों के गणों के वीरभद्र आदि अधिपति इसके | (दक्ष, सती एवं पार्वती देखिये)। ही पुत्र माने जाते हैं । इसी कारण इसको एवं इसकी रुद्र को सती से कोई भी पुत्र नही था। पार्वती से पत्नी को क्रमशः 'महाकाल' एवं 'काली' कहा गया है । | इसे निम्नलिखित दो पुत्र उत्पन्न हुये थे:--१. गजानन स्कंद में इसे सात सिरोंवाला कहा गया है, जिनमें से हर | (गणपति), जो पार्वती के शरीर के मल से उत्पन्न हुआ एक सिर अज, अश्व, बैल आदि विभिन्न प्राणियों से बना | था; २. कार्तिकेय स्कंद, जो शिव का सेनापति था (गणपति हुआ था। इन सिरों में से अपना अज एवं अश्व का सिर, | एवं स्कंद देखिये)। इसने क्रमशः ब्रह्मा एवं विष्णु को प्रदान किया था। । उपर्युक्त पुत्रों के अतिरिक्त, पार्वती ने भूतपिशाचाधि वामन आदि पुराणों में रुद्र के तामस स्वरूप का | पति वीरभद्र को, एवं बाणासुर को अपने पुत्र मान लिया अधिकांश वर्णन प्राप्त है। भतपतित्व, शीघ्रकोपित्व, एवं | था. जिस कारण ये दोनों भी शिव के पुत्र ही कहलाते हैं आहारादि में मद्यमांस की आधिक्यता, ये रुद्र के तामस (वीरभद्र एवं बाण देखिये)। इसने शैलादपुत्र नंदिन् स्वरूप की तीन प्रमुख विशेषताएँ है। | को भी अपना पुत्र माना था (नंदिन देखिये)। शिवदेवता की उत्क्रांति-इस तरह हम देखते है | रुद्रोपासना-रुद्र शिव की उपासना प्राचीन भारतीय कि. रुद्र-शिव के उपासकों के मन में इस देवता | इतिहास में अन्य कौनसे भी देवता की अपेक्षा प्राचीन की दो प्रतिमाएँ प्रस्तुत की गयी हैं। इन ग्रंथों में है। ऐतिहासिक दृष्टि से रुद्र-शिव की इस उपासना के निर्दिष्ट तामस रुद्र का वर्णन ज्ञानप्रधान एवं योग- दो कालखंड माने जाते हैं:- १. जिस काल में शिव की साधना में मग्न हुए शिव से अलग है। वेदों के पूर्व- | प्रतिकृति की उपासना की जाती थी; २. जिस काल में कालीन अनार्य रुद्र का उत्क्रान्त आध्यात्मिक रूप शिव शिव की प्रतिकृति के उपासना का लोप हो कर, उसका माना जाता है । ऋग्वेद एवं ब्राह्मण ग्रन्थों में जो रुद्र | स्थान शिवलिंगोपासना ने ले लिया। था, वहीं आगे चल कर, उपनिषद ग्रन्थों में शिव बन यद्यपि ऋग्वेद में शिश्न देवता की उपासना करनेवाले गया, एवं उसे परमशुद्ध आध्यात्मिक रूप प्राप्त हो गया। अनार्य लोगों का निर्देश दो बार प्राप्त है (ऋ. ७. २१. उसकी पूजा मद्यमांस से नहीं, बल्कि फलपुष्पादि पदार्थों ५,१०.९९.३), फिर भी रुद्र की उपासना में लिंगोंसे की जाने लगी । कोई न कोई कामना मन में रख कर, |पासना का निर्देश प्राचीन वैदिक वाङ्मय में कहीं भी परमेश्वर की उपासना करनेवाले सामान्य जनों के अति | प्राप्त नहीं होता है। यही नही, पतंजलि के व्याकरण रिक्त, परब्रह्मप्राप्ति की आध्यात्मिक इच्छा मन में | महाभाष्य में शिव, स्कंद एवं विशाख की स्वर्ण आदि रखनेवाले तत्त्वज्ञ भी उसे 'महादेव' मानने लगे। मौल्यवान् धातु के प्रतिकृतियों की पूजा करने का स्पष्ट किंतु सामान्य भक्तों में उनके आध्यात्मिक अधिकार | निर्देश प्राप्त है (महा. ३.९९)। वेम कफिसस् के के अनुसार, शिव के तामस रूप की पूजा चलती ही रही, | सिक्कों पर भी शिव की त्रिशूलधारी मूर्ति पाई जाती जिसका आविष्कार रुद्र के भैरव, कालभैरव आदि अवतारों है, एवं वहाँ शिव के प्रतीक के रूप में शिवलिंग नहीं, की उपासना में आज भी प्रतीत होता है। बल्कि नन्दिन् दिखाया गया है। रुद्र-शिव के इसी दो रूपों का विशदीकरण महा | शिवलिंगोपासना का सर्वप्रथम निर्देश श्वेताश्वतर उपभारत में प्राप्त है, जहाँ रुद्र की 'शिवा' एवं 'घोरा' नामक | * | निषद में पाया जाता है, जहाँ 'ईशान रुद्र' को सृष्टि के दो मूर्तियाँ बतायी गयीं है : समस्त योनियों अधिपति कहा गया है (श्वे. उ. ४.११; द्वे तनू तस्य देवस्य वेदज्ञा ब्राह्मणा विदुः। ५.२)। किन्तु यहाँ भी शिवलिंग शिव का प्रतीक होने घोरामन्यां शिवामन्यां ते तनू बहुधा पुनः॥ का स्पष्ट निर्देश अप्राप्य है, एवं सृष्टि के समस्त प्राणि (म. अनु. १६१.३) | जातियों का सृजन रुद्र के द्वारा किये जाने का तात्त्विक (शिव की घोरा एवं शिवा नामक दो मूर्तियाँ है, जिनमें | अर्थ अभिप्रेत है | महाभारत में दिये गये उपमन्यु के से घोरा अग्निरूप, एवं शिवा परमगुह्म अध्यात्मस्वरूप आख्यान में शिवलिंगोपासना का स्पष्ट रूप से निर्देश महेश्वर है)। प्रथम ही पाया जाता है। Page #784 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन चरित्रकोश डॉ. भांडारकरजी के अनुसार, रुद्र-शिव सर्वप्रथम | स्वरूप से मिलता जुलता है (म. अनु. १४.१६२, वैदिक देवता था, किन्तु आगे चल कर, वह व्रात्य, | १६५, ३२८; १७.४६; ७७; ९९)। इन सिक्कों के निषाद आदि वन्य एवं अनार्य लोगों का भी देक्ता बन | आधार पर, सर जॉन मार्शल के द्वारा यह अनुमान व्यक्त गया। उन लोगों के कारण रुद्र-शिव के संबंधी | किया गया है कि, ई. पू. ३००० कालीन सिन्धुघाटी प्राचीन वैदिक आर्यों के द्वारा प्रस्थापित की गयी सभ्यता में शिव के सदृश कई देवताओं की पूजा अस्तित्व कल्पनाओं में पर्याप्त फर्क किये गये, एवं भूतपति, सर्प- में थी। धारण करनेवाला, स्मशान में रहनेवाला एक नया देवता मुँहेंजोदड़ो में प्राप्त देवता के बाये बाजू में व्याघ्र एवं का निर्माण हुआ। रुद्र के इस नये रूपान्तर के साथ हाथी है, एवं दाये बाजू में बैल एवं गण्डक हैं । यह चित्र ही साथ उसके प्रतिकृति की उपासना करने की पुरातन | महाभारत में प्राप्त शिव के वर्णन से मिलता जुलता है, परंपरा नष्ट हो गयी, एवं उसका स्थान शिवलिंग की जहाँ इसे 'पशुपति', 'शार्दूलरूप', 'व्यालरूप', उपासना करनेवाली नयी परंपरा ने ले लिया। 'मृगबाणरूप', 'नागचर्मोत्तरच्छद', 'व्याघ्राजीन', __ अन्य कई अभ्यासकों के अनुसार, अनार्य लोगों से | 'महिषघ्न', 'गजहा' एवं 'मण्डलिन्', तथा इसकी पूजित रुद्रदेवता, वैदिक रुद्र देवता से काफी पूर्व पत्नी दुर्गा को 'गण्डिनी' कहा गया है (म. अनु. १४. कालीन है, एवं इन्हीं रुद्रपूजक लोगों का निर्देश ऋग्वेद में | ३१३; १७.४८; ६१, ८५, ९१)। यज्ञविरोधी, शिश्नपूजक अनार्य लोगों के रूप में किया गया पश्चिम एशिया में- इस प्रकार महाभारत में प्राप्त है। अनार्य लोगों के इस मद्यमांसभक्षक, भूतों से शिववर्णन में एवं मुँहेंजोदडो में प्राप्त त्रिशिर देवता में वेष्टित, एवं अत्यंत क्रूरकर्मा तामस देवता को वैदिक रुद्र काफ़ी साम्य दिखाई देता है। किन्तु शिव का प्रमुख देवता से सम्मीलित कर, उसके उदात्तीकरण का एक महान् | विशिष्टता जो वृषभ, वह मुँहेंजोदड़ो में प्राप्त सिक्कों में प्रयोग वैदिक आर्यों के द्वारा किया गया। इस प्रयोग नही दिखाई देता है । महाभारत में शिव को सर्वत्र 'वृषभके कारण, रुद्र देवता अपने नये रूप में जनमानस की वाह' एवं 'वृषभवाहन' कहा गया है (म. अनु. १४.२९९; एक अत्यंत लोकप्रिय देवता बन गई, एवं उसके अनार्य ३९०)। इस विशिष्ट दृष्टि से ई. पू. २००० में वन्य एवं अंत्यज भक्तों के भक्ति का भी एक नया उदात्ती- पश्चिम एशिया में हिटाइट लोगों के द्वारा पूजित तेशत्र करण हो गया। अनार्यों के इस देवता के तामस स्वरूप देवता से शिव का काफ़ी साम्य दिखाई देता है। बाबिको उदारता का, शक्ति का एवं तपश्चरण का एक नया | लोनिया में प्राप्त अनेक शिल्पों में एवं अवशेषों में तेशब पहलु वैदिक आर्यों के द्वारा प्रदान किया गया। श्वेताश्वतर | देवता की प्रतिमा दिखाई देती है, जहाँ उसे वृषभवाहन जैसे उपनिषदों ने तो रुद्र-शिव को समस्त सृष्टि का नियंता एवं त्रिशुलधारी बताया गया है। उसकी पत्नी का नाम माँ एवं परब्रह्म प्राप्ति करानेवाला परमेश्वर बना दिया। यह था, जिसकी जगन्माता मान कर पूजा की जाती थी। उदात्तीकरण का कार्य करते समय, अनार्य रुद्र देवता के कुछ | वैदिक एवं पौराणिक वामय में निर्दिष्ट रुद्र में एवं तामस पहलु वैदिक रुद्र देवता में आ ही गये, जिनमें से | तेशब देवता में काफी साम्य है। तेशब से समान रुद्रशिवलिंगगोपासना एवं लिंगपूजा एक है। शिव हाथ में विद्युत्, धनुष (धन्वी, पिनाकिन् ), त्रिशूल मुंहेंजोदड़ो में-शिव की अत्यधिक प्राचीन प्रतिकृति | (शूल), दंण्ड, परशु, पट्टीश आदि अस्त्र धारण करता है मुँहेंजोदड़ो एवं हड़प्पा के उत्खनन में प्राप्त हुए सिन्धु । (ऋ.२.३३.३; म. अनु. १४.२८८ २८९; १७,४३; सभ्यता के खंडहरों में दिखाई देती हैं। इस उल्खनन में | ४४, ९९)। तेशत्र के समान रुद्रशिव भी अंबिका का शिवस्वरूप से मिलते जुलते देवता के कई सिक्के | पति है, जिसे पार्वती, देवी एवं उमा कहा गया है (म. प्राप्त है, जहाँ तीन मुखवाले एक देवता की प्रतिमा | व. ७८.५७; अनु. १४.३८४, ४२७)। तेशब देवता की चित्रांकित की गई है। यह देवता योगासन में बैठी है, एवं | पत्नी सिंहारूढ वर्णित है, जो सिंहवाहिनी देवी दुर्गा से उसके शरीर के निचला भाग विवस्त्र है। मुँहेंजोदड़ो के | साम्य रखती है (मार्क. ४.२)। सुसा में प्राप्त तेशव इस देवता का स्वरूप महाभारत में वर्णित किये गए शिव | देवता के पत्नी का चित्रण-प्रायः मधुमक्षिका के साथ किया के 'त्रिशीर्ष' (चतुर्मुख), 'विवस्त्र' (दिग्वासस् ), | गया है, जो मार्कंडेय में निर्दिष्ट 'भ्रामरीदेवी' से 'ऊर्ध्वलिंग' (ऊर्ध्वरेतस् ), 'योगाध्यक्ष' (योगेश्वर), | साम्य रखता है (मार्क, ८८,५०; दे. भा. १०.१३)। ७६२ Page #785 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन चरित्रकोश मार्कंडेय के अनुसार, भ्रामरीदेवी ने अरुण नामक असुर | अवतार, उनका अवतीर्ण होने का स्थान, एवं शिष्यों के का वध किया था, जिससे प्रायः असीरिया एवं इराण | नाम निम्न प्रकार है:में रहनेवाले कई विपक्षीय जाति का बोध होता है। । (१) श्वेत--( छागल पर्वत )-श्वेत, श्वेतशिख, सुमेर में-शुक्लयजुर्वेद मे प्राप्त 'शत्रुजय-सूक्त' रुद्र-शिव | श्वेताश्व, श्वेतलोहित । को उद्देश्य कर लिखा गया है, जिसकी सारी विचारधारा (२)सुतार--दुंदुभि, शतरूप, हृषीक, केतुमत् । सुमेरियन देवता नेयल को उद्देश्य कर लिखे गये सूक्त से | (३) दमन-विशोक, विशेष, विपाप, पापनाशन । काफी मिलतीजुलती है। (४) सुहोत्र--सुमुख, दुर्मुख, दुदर्भ, दुरतिक्रम । • इन सारे निर्देशों से प्रतीत होता है की, अनातोलिया, (५) कंक--सनक, सनत्कुमार, सनंदन, सनातन । मेसोपोटॅमिया एवं सिन्धुघाटी सभ्यता में प्राप्त नानाविध (६) लोकाक्षि-सुधामन् , विरजस् , संजय, अंडज । देवताओं से भारतीय रुद्रशिव कोई ना कोई साम्य जरूर | (७) जैगीषव्य--(काशी)-सारस्वत, योगीश, रखता. है (रॉय चौधरी--स्टडीज इन इंडियन अॅन्टि- | मेघवाह मवाद किटीज, पृष्ठ २००-२०४)। (८) दधिवाहन-कपिल, आसुरि, पंचशिख, शिव के अवतार-अपने भक्तो के रक्षण के लिए एवं शाल्वल | शत्रु के संहार के लिए शिव ने नानाविध अवतार (९) ऋषभ-पराशर, गर्ग, भार्गव, गिरीश। नानाविध कल्पों में लिये, जिनकी जानकारी विभिन्न पुराणों (१०) भृगु-(भृगुतुंग)-भृग, बलबंधु, नरामित्र, में प्राप्त है। इन अवतारों की संख्या विभिन्न पुराणों केतशंग। में पाँच, दस, अठाईस एवं शत बताई गई है। शिव (११) तप- (गंगाद्वार)-लंबोदर, लंबाक्ष, केशलंब, के इन सारे अवतारों में निम्नलिखित अवतार अधिक | प्रलंबका प्रसिद्ध है:-- -. (१२) अत्रि--(हेमकंचुक)- सर्वज्ञ, समबुद्धि, (१) चार अवतार--१. शरभ, जो अवतार इसने | साध्य, शर्व। नसिंह का पराजय करने के लिए धारण किया था, (१३) बलि-- (वालखिल्याश्रम)-- सुधामन् , २. मल्लारि, जो अवतार इसने मणिमल्ल का वध करने के काश्यप, वसिष्ठ, विरजस् । लिए धारण किया था, ३. दुर्वासस् , जो अवतार त्रिमूर्ति | (१४) गौतम--अत्रि, उग्रतपस् , श्रावण, श्रविष्ट । में स्थित माना जाता है; ४. पंचशिख, जो अवतार त्रिपुर (१५) वेदशिरस्-(सरस्वती के तट पर)--कुणि, दाह के पश्चात् अवतीर्ण हुआ था। कुणिबाहु, कुशरीर, कुनेत्रक। (२) पंच अवतार--शिव पुराण में शिव के निम्न- | (१६) गोकर्ण-(गोकर्णवन)-काश्यप, उशनस् , लिखित पाँच अवतार दिये गये हैं:-सद्योजात, अघोर, | तत्पुरुष, ईशान, वामदेव (शिव. शत. १)। च्यवन, बृहस्पति । (३) दश अवतार--विष्णु के समान शिव के द्वारा (१७) गुहावासिन्-(हिमालय)--उतथ्य, वामदेव, भी दश अवतार लिये गये थे, जो निम्मप्रकार हैं: महायोग, महाबल। महाकाल, तार, भुवनेश, श्रीविद्येश, भैरव, छिन्नमस्तक, (१८) शिखंडिन्--(सिद्धक्षेत्र या शिखंडिवन)-- भूमवत् , बगलामुख, मातंग, कमल (शिव शतरुद्र. १७)। वाचःश्रवस् , रुचीक, स्यवास्य, यतीश्वर । (४) अठ्ठाईस अवतार--वाराह कल्प के वर्तमान | (१९) जटामालिन्--हिरण्यनामन् , कौशल्य, लोकाकल्प में शिव के द्वारा कुल अट्ठाईस अवतार लिये गये थे, | क्षिन् , प्रधिमि । जो तत्कालीन द्वापर युग के व्यास को सहाय्यता करने के (२०) अट्टहास--(अट्टहासगिरि)--सुमंतु, वर्वरि, लिए उत्पन्न हुये थे। पुराणों मे प्राप्त अवतारों की इस | कबंध, कुशिकंधर। नामावलि में हर एक अवतार के चार चार शिष्य बतायें (२१) दारुक--(दारुवन)--प्लक्ष, दार्भायणि, गये हैं, एवं कहीं कहीं इन अवतारों का अवतीर्ण होने का | केतुमत् , गौतम । स्थान भी बताया गया है। वायु में इन्हीं अवतारों | (२२) लांगली भीम-(वाराणसी)- भल्लविन् , को 'माहेश्वरावतार' कहा गया. है । शिव के अठाईस | मधु. पिंग, श्वेतकेतु । ७६३ Page #786 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 貔 प्राचीन चरित्रकोश (२३) श्वेत - - ( कालंजर) - उशिक, बृहदश्व, तीन प्रमुख सांप्रदायों का निर्माण हुआ :- १. कापालिक; देवल, नवि २. पाशुपत शैव (२४) - (नैमिषारण्य ) --शालिहोत्र, अभि वेश, युवनाश्व, शरद्वसु । (1) कापालिक सांप्रदाय - रामानुज के अनुसार, शरीर के छः मुद्रिका का ज्ञान पा कर, एवं स्त्री के जननेंद्रिय में (२५) इंडीकुंडीश्वर उगल कुंडकर्ण कुमांड स्थित आत्मा का मनन कर जो लोग शिव की उपासना करते -- प्रवाहक है, उन्हें काल सांप्रदायी कहते है ( रामानुज २.२. (२६) सहिष्णु ( रुद्रेक्ट) उड़क, विद्युत् ३५ ) । अपने इस हेतु के सिध्यर्थ्य इस संप्रदाय के लोग | शंबुक, आश्वलायन । निम्नलिखित आचारों को प्राधान्य देते हैं :- १. 3 उलूक, वत्स । ( २७ ) सोम -- ( प्रभासतीर्थ ) -- अक्षपाद, कुमार, खोंपडी में भोजन लेना; २. चिताभस्म सारे शरीर को लगाना; ३. चिताभस्म भक्षण करना; ४. हाथ में डण्डा धारण करना; ५. मद्य का चपक साथ में रखना; ६. मय में स्थित सहदेवता की उपासना करना । ये लोग गले में रुद्राक्ष की माला पहनते है, एवं वा धारण करते हैं। गले में मुंडमाला धारण करनेवाले भैरव एवं चण्डिका की ये लोग उपासना करते है, जिन्हें शिव एवं पार्वती का अवतार मानते है। इसी सांप्रदाय की एक शाखा को 'कालामुख' अथवा कर्मठ मानी जाती है। 'महानतर' कहते है, जो अन्य सांप्रदायिकों से अधिक ( २८ ) लकुलिन् - - कुशिक, गर्ग, मित्र, तौरुण्य (वायु. २३ शिवरात ४-५ शिव वायु ८-९ . ७) । लिंग. ( ४ ) शत - अवतार -- भिन्न कल्पों में उत्पन्न हुयें शिव के शत अवतारों की नामावलि भी शिवपुराण में प्राप्त है, जहाँ इन अवतारों के वस्त्रों के विभिन्न रंग, एवं पुत्रों के विभिन्न नाम विस्तृत रूप से प्राप्त हैं ( शिव. शत. ५ ) । शिव उपासना के सांप्रदाय शिव की उपासाना भारतवर्ष के सारे विभागों में प्राचीन काल से ही अत्यंत श्रद्धा से की जाती थी । रुद्र के इन उपासकों के दो विभाग दिखाई देते हैं:-१. एक सामान्य उपासक जो शिव उपासना के कौनसे भी सांप्रदाय में शामिल न होते हुए भी शिव की उपासना करते हैं; २. शिव के अन्य उ राखक, जो शिव उपासना के किसी न किसी सांप्रदाय में शामिल हो कर इसकी उपासना करते है । - - - सुबंधु, कालिदास, सु, बाण, श्रीहर्ष भट्टनारायण, भव भूति आदि अनेक प्राचीन साहित्यिकों के ग्रंथ में श्रीविष्णु के साथ रूद्र शिव का भी नमन किया गया है। प्राचीन चालुक्य एवं राष्ट्रकूट राजाओं के द्वारा शिव के अनेकानेक मंदिर बनायें गयें है, जिनमें वेरूल में स्थित कैलास मंदिर विशेष उल्लेखनीय है। ये सारी कृतियाँ सामान्य शिवभक्तों के द्वारा किये गये सांप्रदाय निरपेक्ष शिवोपासना के उदाहरण माने जा सकते हैं । रुद्र शिव उपासना का आच सांप्रदाय-ई. स. १ ली शताब्दी में श्रीविष्णु-उपासना के 'पांचरात्र' नामक सांप्रदाय की उत्पत्ति हुई । उसका अनुसरण कर ई. स. २ री शताब्दी में लकुलिन नामक आचार्य ने 'पाशुपत' नामक शिव - उपासना के आद्य सांप्रदाय की स्थापना की, एवं इस हेतु 'पंचा' नामक एक ग्रंथ भी लिखा। आगे चल कर इसी पाशुपत सांप्रदाय से शिव उपासना के निम्नलिखित (२) पाशुपत सांप्रदाय इस सांप्रदाय के लोग सारे शरीर को चिताभस्म लगाते है, एवं चिताभस्म में ही सोते । है भीषण हास्य, नृत्य, गायन, हुहुक्कार एवं अस्पष्ट शब्दों में ॐ कार का जाप, आदि छ भागों से ये शिव की उपासना करते हैं। छः इस सांप्रदाय की सारी उपासनापद्धति, अनार्य लोगों के उपासनापद्धति से आयी हुई प्रतीत होती है। (३) शैव सांप्रदाय -- यह सांप्रदाय कापालिक एवं पाशुपत जैसे 'अतिमार्गिक सांप्रदायोंसे तुलना में अधिक बुद्धिवादी है, जिस कारण इन्हें 'सिद्धान्तवादी' पदा जाता है। इस सांप्रदाय में मानवी आत्मा को पशु कहा गया है, जो इंद्रियों से बँधा हुआ है। पशुपति अथवा शिव की मंत्रोपासना से आत्मा इन पाशों से मुक्त होता है, ऐसी इस सांप्रदाय के लोगों की कल्पना है । काश्मीरशैव सांप्रदाय इस सांप्रदाय की निम्नलिखित दो प्रमुख शाखाएँ मानी जाती हैं : -- १. स्पंदशास्त्र, जिसका जनक वसुगुप्त एवं उसका शिष्य कल्लाट माने जाते हैं। इस सांप्रदाय के दो प्रमुख ग्रंथ 'शिवसूत्रम् ' एवं ' संदकारिका' हैं, एवं इसका प्रारंभ काल ई. स. ९ वीं शताब्दी माना जाता है: २. प्रत्यभिज्ञानशास्त्र, जिसका उनक सोमानंद एवं उसका शिष्य उदयाकर माने जाते है। WEB - Page #787 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन चरित्रकोश रुद्र इस सांप्रदाय का प्रमुख ग्रंथ 'शिवदृष्टि' है, जिसकी विस्तृत टीका अभिनवगुप्त के द्वारा लिखी गयी है । इस सांप्रदाय का उदयकाल ई. स. १० वीं शताब्दी का प्रारंभ माना जाता है । इन दोनों सांप्रदायों में कापालिक एवं पाशुपत जैसे प्राणायाम एवं अघोरी आचरण पर जोर नहीं दिया गया है, बल्कि चित्तशुद्धि के द्वारा 'आनव, ' ' मायिय' एवं 'काय' आदि मलों (मालिन्य ) को दूर करने को कहा गया है । इस प्रकार ये दोनों सिद्धान्त अघोरी रुद्र उपासकों से कतिपय श्रेष्ठ प्रतीत होते हैं । राजतरंगिणी के काश्मीर का शैव सांप्रदाय अत्यधिक प्राचीन है, एवं सम्राट अशोक के द्वारा काश्मीर मैं शिव के दो देवालय बनवायें गये थे । काश्मीर का सुविख्यात राजा दामोदर (द्वितीय) शिव का अनन्य उपासक था । इस प्रकार प्राचीन काल से प्रचलित रहे शिव-उपासना के पुनरुत्थान का महत्वपूर्ण कार्य 'स्पंद शास्त्र' एवं ' प्रत्यभिज्ञान शास्त्र' वादी आचार्यों के द्वारा ई. स. १० वीं शताब्दी में किया गया । अनुसार, वीरशैव ( लिंगायत) सांप्रदाय - इस सांप्रदाय का आद्य प्रसारक आचार्य 'बसव ' माना जाता है, जिसकी जीवनगाथा 'बसवपुराण' में दी गयी है। इस सांप्रदाय के मत शैवदर्शन अथवा सिद्धान्तदर्शन से काफी मिलते जुलते है । इस पुराण से प्रतीत होता है की, प्राचीन काल में विश्वेश्वराध्य, पण्डिताराध्य, एकोराम आदि आचार्यों के द्वारा प्रसृत किये गये सांप्रदाय को बसव ने ई. स. १२ वीं शताब्दी में आगे चलाया । इस सांप्रदाय के अनुसार, ब्रह्मन् का स्वरूप 'सत्, ' 'चित्' एवं 'आनंद' मय है, एवं वही शिवतत्त्व है। इस आद्य शिवतत्त्व के लिंग (शिवलिंग), एवं अंग (मानवी (आत्मा) ऐसे दो प्रकार माने गये हैं, एवं इन दोनों का संयोग शिव की भक्ति से ही होता है ऐसा कहा गया है। इस तत्त्वज्ञान में लिंग के महालिंग, प्रसादलिंग, चरलिंग, शिवलिंग, गुरुलिंग एवं आचारलिंग ऐसे प्रकार कहे गये हैं, जो शिव के ही विभिन्न रूप हैं । इसी प्रकार अंग की भी 'योगांग,' 'भोगांग' एवं 'त्यागांग ' ऐसी तीन अवस्थाएँ, बतायी गयी है, जो शिव की भक्ति की तीन अवस्थाएँ मानी गयी हैं । रुद्र द्रविड देश में शिवपूजा - ई. स. ७ वीं शताब्दी से द्रविड देश में शिवपूजा प्रचलित थी । इस प्रदेश के शैवसांप्रदाय का आद्य प्रचारक तिरुनानसंबंध था, जिसके द्वारा लिखित ३८४ पदिगम् (स्तोत्र ) द्रविड देश में वेदों जैसे पवित्र माने जाते हैं। तंजोर के राजराजेश्वर मंदिर में प्राप्त राजराजदेव के ई. स. १० वीं शताब्दी के शिलालेख में तिरुनानसंबंध का अत्यंत आदर से उल्लेख किया गया है । कांची के शिव मंदिर में, एवं पल्लव राजा राजसिंह के द्वारा ई. स. ६ वीं शताब्दी बनवायें गयें राजसिंहेश्वर मंदिर में शिवपूजा का अत्यंत श्रद्धाभाव से निर्देश प्राप्त है । पेरियापुराण नामक तमिल ग्रंथ में इस प्रदेश में हुयें ६३ शिवभक्तों के जीवनचरित्र दिये गये हैं । लिंगायतों के आचार्य स्वयं को लिंगी ब्राह्मण (पंचम) कहलाते है, एवं इस सांप्रदाय के उपासक गले में शिवलिंग की प्रतिमा धारण करते हैं । शक्तिपूजा -- शिवपूजा का एका उपविभाग शक्ति अथवा देवी की उपासना है, जहाँ देवी की त्रिपुरसुंदरी नाम से पूजा की जाती है ( देवी देखिये) । शिवपूजा के अन्य कई प्रकार गणपति (विनायक) एवं स्कंद की उपासना हैं ( विनायक एवं स्कंद देखिये ) । शिवरात्रि - हर एक माह के कृष्ण एवं शुक्ल चतुर्दशी को शिवरात्रि कहते है, एवं फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी को महाशिवरात्रि कहते है । ये दिन शिव उपासना की दृष्टि से विशेष महत्त्वपूर्ण माने जाते हैं। शिव-उपासना के ग्रन्थ - इस संबंध में अनेक स्वतंत्र ग्रंथ, एवं आख्यान एवं उपाख्यान महाभारत एवं पुराणों में प्राप्त है, जो निम्नप्रकार है: (१) शिवसहस्रनाम, जो महाभारत में प्राप्त यह तण्डि ने उपमन्यु को, एवं उपमन्यु ने कृष्ण को कथन किया था ( म. अनु. १७.३१-१५३ )। इसके अतिरिक्त दक्षवर्णित शिवसहस्रनाम महाभारत में प्राप्त है ( म. शां. परि. १.२८ ) । शिवसहस्रनाम की स्वतंत्र रचनाएँ भी लिंगपुराण ( लिंग. ६५.९८ ), एवं शिवपुराण ( शिव. कोटि ३५ ) में प्राप्त है । (२) शिवपुराण - शैवसांप्रदाय के निम्नलिखित पुराण ग्रंथ प्राप्त है: - कूर्म, ब्रह्मांड, भविष्य, मत्स्य, मार्केडेय, लिंग, वराह, वामन, शिव एवं स्कंद (स्कंद. शिवरहस्य खंड संभवकांड २.३० - ३३; व्यास देखिये ) | (३) शिवगीता, जो पद्म पुराण के गौडीय संस्करण में प्राप्त हैं, किन्तु आनंदाश्रम संस्करण में अप्राप्य है । ७६५ Page #788 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रुद्र (४) शिवस्तुति, महाभारत में शिवस्तुति के निम्नलिखित आख्यान प्राप्त हैं : १. अश्वत्थामन् कृत (म. मो. ७) २. कृष्णकृत (म. अनु. १४.६ २.७४.२२-२४ ); ३. कृष्णार्जुनकृत ( म. द्रो. ५७ ); ४. तण्डिन्कृत ( म. अनु. ४७ ); ५. दक्षकृत ( म. शां. परि. १.२८ ); मरुचकृत (म. आय. ८.१४.) । प्राचीन चरित्रकोश (५) शिवमहिमा, जो महाभारत के एक स्वतंत्र आख्यान में वर्णित है। (५) सिंगान महिमा, जो महाभारत के एक स्वतंत्र आख्यान में प्राप्त है ( म. अनु. २४७ ) । (७) शिवना, दक्ष के द्वारा की गई शिवनिंदा भागवत में प्राप्त है (मा. ४.२.९-१६) । रुद्र- शिव के तीर्थस्थान रूद्र शिव के नाम से एवं इनके प्रासादिक विभूतिमत्त्व से प्रभावित हुए अनेक तीर्थ स्थानों का निर्देश महाभारत एवं पुराणों में प्राप्त है, जिन में निम्नलिखित तीर्थस्थान प्रमुख हैं: ( १ ) ज्योर्तिलिंग--जिनकी संख्या कुल बारह बतायी गयी है (ज्योर्तिलिंग देखिये) । (५) मुंजपृष्ठ - एक मद्रसेवित स्थान, जो हिमालय के शिखर पर स्थित था ( म. शां. १२२.२-४ ) ! (३) मुंजवट - - गंगा के तट पर स्थित एक तीर्थस्थान, जहाँ शिव की परिक्रमा करने से गणपति पद की प्राप्ति होती है (म. व. ८३.४४६ ) । (४) मुंजवत् - - हिमालय में स्थित एक पर्वत, जहाँ भगवान् शंकर तपस्या करते है । -- रुमण्वत् आगे चल कर इसके पुत्र देवान्तक एवं नरान्तक का भगवान् विनायक ने वध किया ( गणेश. क्री. २) | रुद्रभूति द्राह्यायण -- एक आचार्य, जो त्रात ऐकमत नामक आचार्य का शिष्य था । इसके शिष्य का नाम शर्वदत्त गार्ग्य था ( वं. बा. १.) । रुद्रश्रेण्य - - (सो. सह . ) एक राजा, जो मत्स्य के अनुसार महिष्मत राजा का पुत्र था । रुद्र सावर्णि - बारहवें मन्वन्तर का अधिपति मनु, को भय राजा का पुत्र था। इसकी माता का नाम मुता था, जो प्राचेतस् दक्ष की कन्या थी (मार्क. ९१ विष्णु २.२.१२) । देवी भागवत में इसे तेरहवें मन्वन्तर का अधिपति कहा गया है, एवं वैवस्वत मनु के पुत्र शर्याति को बारहवें मन्वन्तर का अधिपति कहा गया है (दे. भा. १०.१३ ) वायु के अनुसार, यह चाक्षुष मन्वन्तर में हुआ था भी कहा गया है ( वायु. १००.५८ ) । कई ग्रंथों में इसे चतुर्थ मेरुसावर्णि । पक्ष में शामिल था ( म. द्रो. १३३.३० ) । पाउमेद-रुद्रसेन -- एक राजा, जो भारतीययुद्ध में पाण्डवों के 'भद्रसेन ' । " ( ५ ) रुद्रकोटि - एक तीर्थस्थान, जहाँ शिवदर्शन की अभिलाषा से करोड़ो मुनि एकत्रित हुये थे एवं उन पर प्रसन्न हो कर शिव ने करोड़ो शिवलिंगों के रूप में उन्हें दर्शन दिया था (म. व. ८०.१२४ - १२९ ) । (६) पद एक तीर्थ, जहाँ शिव की करने पूजा से अश्वमेध यज्ञ का फल प्राप्त होता है (म. व. ८०. १०८ पाठभेद वस्त्रापथ ' 1 ) (७) हिमवत् - - एक पवित्र पर्वत, जो त्रिपुरदाह के समय भगवान् रुद्र के रथ में आधारकाष्ठ बना था ! इस पर्वत में स्थित आदि-यगिरि नामक स्थान में शिव का आश्रम स्थित था ( म. शां. ३१९ - ३२० ) । था, रुद्रकेतु एक असुर इसकी पत्नी का नाम शारदा जिससे इसे देवान्तक एवं नरान्तक नामक पुत्र उत्पन्न थे। इसके पुत्रों के पराक्रम से संतुष्ट हो कर नारद ने इसे 'पंचाक्षरी महाविद्या का उपदेश दिया था । हुए ७६६ रुधिका -- एक असुर, जिसका पिप्रु नामक असुर के साथ निर्देश प्राप्त है | इन्द्र ने इन दोनों का वध किया (ऋ. २.१४.५ ) । रुधिराक्ष -- एक असुर, जो लवणासुर का मामा था। रुधिराशन -- एक राक्षस, जो खर राक्षस के बारह अमात्यों में से एक था ( वा. रा. अर २३.३२) । रुन्द -- एक राजा, जो पहले क्षत्रिय था, किन्तु पश्चात् ब्राह्मण हुआ (बा. ९२.११४ ) । रुम - एक वैदिक जातिसमूह । रुशम, श्यावक, कृप राजाओं के साथ रुम लोगों के राजा का निर्देश भी इंद्र के कृपापात्र लोगों के नाते प्राप्त हैं (ऋ. ८.४.२ ) । रुमण -- राम की सेना का एक सुविख्यात वानर । रुमण्वत्-परशुराम का भ्राता, जो जमदमि एवं रेणुका के पाँच पुत्रों में से ज्येष्ठ था। इसके अन्य भाइयों के नाम सुषेण, वसु, विश्वावसु एवं परराम थे। इसे इसकी माता रेणुका का वध करने की आशा जमदग्नि ने दी । किन्तु इसने उसका पालन नहीं किया, जिससे कुपित हो कर जमदग्नि ने इसे मृगपक्षियों की माँति जडबुद्धि होने का शाप दिया ( म. व. ११६.१० ) Page #789 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रुमण्वत् प्राचीन चरित्रकोश रुशमा पश्चात् परशुराम ने पिता को प्रसन्न कर के इसे शापमुक्त | गया, एवं वे आत्मरक्षा के लिए शंकर के जटा से निकली कराया। हुई एक शक्ति की शरण में आये, जो नीलपर्वत पर रुमा--सुग्रीव की पत्नी, जो पनस वानर की कन्या थी | तपस्या कर रही थी। (ब्रह्मांड. ३-७.२२१)। ___ इतने में देवताओं का पीछा करता हुआ रुरु दैत्य सुग्रीव को विजनवासी बना कर उसके भाई वालि ने | भी ससैन्य वहाँ आ पहँचा । इस पर शक्ति देवी ने रुमा का हरण किया। वालिवध के पश्चात् रुमा पुनः एक | विकट हास्य किया, जिससे डाकिनी की एक सेना उत्पन्न बार सुग्रीव के पास आ गई, एवं वालि की पत्नी तारा भी हुई। उस सेना ने इसके सैन्य के सारे दैत्यों का नाश सुग्रीव की पत्नी बन गई ( वा. रा. कि. २०-२१; पद्म. | किया। देवी ने अपने पाँव के अंगूठे के नाखून से ४.११२.१६१)। वध किया । पश्चात् भगवान् शिव ने स्वयं प्रकट इससे प्रतीत होता है कि, राज्य के साथ अपने बान्धवों | हो कर, डाकिनियों को अनेक वर प्रदान करते हुए की पत्नियाँ भी अपनाने की रुढि वानरों में थी। फिर भी | कहा, 'आज से लोग तुम्हे जगन्माता मानेंगे' (पन. वाल्मीकि रामायण में वालि को भार्यापहार का दोष लगाया | सृ. ३१)। गया है। स्कंद में इसे रथंतर कल्प में उत्पन्न हुआ दैत्य कहा गया विभीषण से मिलने के लिए जाते समय राम किष्किंधा | है, एवं एक ऋषि के द्वारा उत्पन्न की गयीं कुमारिकाओं में ठहरा था। उस समय अन्य राजस्त्रियों के साथ राम से इसका वध होने की कथा वहाँ प्राप्त है (स्कंद. ७.१. के दर्शनार्थ यह उपस्थित हुई थी ( पद्म, सू. ३८)। । २४२-२४७)। रुरु-एक ऋषिकुमार, जो च्यवन ऋषि का पौत्र एवं ५. चाक्षुष मनु के पुत्रों में से एक। प्रमति ऋषि का पुत्र था। घताची नामक अप्सरा इसकी माता । ६. कश्यपकुलोत्पन्न एक ऋषि, जो सावर्णि मन्वन्तर थी (म. अनु. ३०.६४)। इसके पुत्र का नाम शनक था । | में उत्पन्न हुआ था। . इसकी पत्नी का नाम प्रमद्वरा था, जो सर्पदंश के कारण ७.(सू. इ.) एक राजा, जो विष्णु के अनुसार . मृत होने पर इसने अत्यधिक विलाप किया था। पश्चात् | अहीनगु राजा का पुत्र था। . अपनी आधी आयु दे कर, इसने उसे पुनः जीवित किया। रुरुक-(सू. इ.) एक इक्ष्वाकुवंशीय राजा, जो विष्णु ___ इस प्रसंग के कारण, इसके मन में सर्पजाति के प्रति एवं वायु के अनुसार विजय राजा का पुत्र था। यह विद्वेष उत्पन्न हुआ, एवं सर्प को देखते ही उसे मारने का- राजनीति एवं अर्थशास्त्र में अत्यंत प्रवीण था (ह. वं. इसने प्रारंभ किया। एक बार यह डुण्डुभ नामक साप को | १.१३.२९)। मारनेवाला ही था, कि उस सर्प ने इसे कहा, 'साँप को रुशती--एक कन्या, जिसका विवाह अश्वियों के द्वारा मारने के पहले वह विषैला है या नहीं, यह सोंच कर तुम श्याव राजा से संपन्न कराया था (ऋ. ११७.८)। रुशती उसे मारा करो'। पश्चात् डुण्डुभ ने इसे अहिंसा एवं का शब्दशः अर्थ 'श्वेतवर्णीय होता है। वर्णधर्म का उपदेश प्रदान किया। रुशदश्व-इक्ष्वाकुवंशीय वसुमनस् राजा का पिता। डुण्डुभ पूर्वजन्म में सहस्रपात नामक एक ऋषि था, रुशद्रथ-(सो. अनु.) एक राजा, जो भागवत के जिसे शाप के कारण सर्पयोनि प्राप्त हुई थी। रुरु ऋषि के | अनुसार तितिक्षु राजा का पुत्र था। मत्स्य में इसे वृषद्रथ, दर्शन से उसे भी मुक्ति प्राप्त हुई (म. आ. ८-१२; एवं विष्णु एवं वायु में उपद्रथ कहा गया हैं। दे. भा. २.९)। रुशम--एक वैदिक ज्ञातिसमूह, जो इन्द्र का आश्रित २. एक भैरव, जो अष्टभैरवों में से द्वितीय माना जाता था (ऋ. ८.३.१३, ४.२, ५१.९)। इनके राजा का नाम 'रुणंचय' था (ऋ. ५.३०.१२-१५)। अथर्ववेद में ३. एक असुर, जो हिरण्याक्ष के वंश में पैदा हुआ था। इनके राजा का नाम 'कौरम' दिया गया है (अ. वे, इसके पुत्र का नाम दुर्गमासुर था। २०.१२७.१)। ४. एक दैत्य, जो ब्रह्मा के द्वारा प्राप्त वर से अत्यंत | रुशमा---एक ब्रह्मवेत्ता आचार्य, जिसकी कथा पंचविंश उन्मत्त हुआ था। इसी उन्मत्तता के कारण, इसने ब्राह्मण में कुरुक्षेत्र का माहात्म्य कथन करने के लिए दी देवताओं पर हमला किया। इस पर सारा देवगण भाग | गई है। ७६७ Page #790 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रुशमा प्राचीन चरित्रकोश रेणुका एकबार इंद्र एवं रुशमा में पृथ्वी प्रदक्षिणा के लिए | एक सूक्त का प्रणयन इसने किया है (ऋ. ९. ७०)। शर्त लगी। तदोपरान्त इंद्र ने पृथ्वीप्रदक्षिणा की, एवं | इसे कुशिकगोत्र का मंत्रकार भी कहा गया है। रुशमा ने कुरुक्षेत्र की प्रदक्षिणा की। बाद में विजय | २. (सू. इ.)एक इक्ष्वाकुवंशीय राजा, जिसे प्रसेनजित् , किसका हुआ इस संबंध में निर्णय देते हुए देवों ने कहा, प्रसेन, एवं सुवेणु नामान्तर प्राप्त थे। इसकी कन्या का नाम 'कुरुक्षेत्र ब्रह्मा की वेदि है, जिस कारण समस्त पृथ्वी रेणुका था, जो जमदग्नि ऋषि की पत्नी एवं परशुराम की उंसमें समाविष्ट होती है। अतः विजय दोनों की ही हुई | माता थी (भा. ९.१५.१२; म. व. ११६.२)। है' (पं. ब्रा. २५.१३.३)। रेणुक-एक सत्वगुणसंपन्न नाग, जो रसातल में कई अभ्यासकों के अनुसार, इस कथा का संकेत | रहता था। इसने देवताओं के कहने पर दिग्गजों के पास रुशम ज्ञाति के लोगों की ओर है, एवं उनका कुरुओं के | जा कर धर्म के संबंधी प्रश्न पूछे थे (म.अनु. १३२.२६) साथ संबंध होने का संकेत इस कथा में प्राप्त है। | रेणुका-इक्ष्वाकुवंशीय रेणु (प्रसेनजित् ) राजा की रुशेकु-(सो. क्रोष्टु.) यादववंशीय रशादु राजा का | कन्या, जो जमदमि महर्षि की पत्नी थी (भा. ९.१५.२; नामान्तर । ह. वं. १.२७.३८; म. व. ११६.२)। कई अन्य ग्रंथों में रुशंगु--उशंगु ऋषि का नामान्तर ( उशंगु देखिये)। इसे अनावसु की, एवं विकल्प में सुवेणु की कन्या कहा रुषद्गु--(सो. क्रोष्टु.) यादववंशीय रशादु राजा | गया है (रेणु. ५)। कालिका पुराण में इसे विदर्भ राजा का नामान्तर । की कन्या कहा गया है (कालि. ८६)। इसे कामली रुशद्--यमसभा में उपस्थित एक राजा (म. स. | नामान्तर भी प्राप्त था। ८.१२)। __ जन्म--महाभारत के अनुसार, इसकी उत्पत्ति कमल रुषर्दिक-सुराष्ट्रवंशीय एक कुलांगार राजा, जिसने में हुई थी, एवं इसके पिता एवं भ्राता का नाम अपने दुर्व्यवहार के कारण अपने स्वजन एवं ज्ञाति- क्रमशः सोमप एवं रेणु था (म. अनु. ५३.२७)। सोमप बांधवों का नाश किया (म. उ. ७२.११) । पाठभेद | राजा के द्वारा इसका पालन होने कारण, संभवतः उसे (भांडारकर संहिता)- 'कुशर्द्धिक'। इसका पिता कहा होगा। रेणुकापुराण के अनुसार, रेणु रुषाभानु-हिरण्याक्ष असुर की पत्नी (भा. ७. | राजा ने कन्याकामेष्टियज्ञ किया। उस यज्ञकुण्ड से २.१९)। | इसकी उत्पत्ति हुई (रेणु. ३)। रूपक--एक शिवभक्त राक्षस, जिसके पुत्र का नाम अपने पूर्वजन्म में यह अदिति थी। इसका स्वयंवर संपति था। ये दोनों अन्याय्य मार्ग से संपत्ति प्राप्त कर, भागीरथी क्षेत्र में हुआ, जिस समय इसने स्वयंवर में वह शिव-उपासना के लिए व्यतीत करते थे। इस जमदमि का वरण किया (रेणु. ११)। इसके स्वयंवर के कारण मृत्यु की पश्चात् , शिव के मानसपुत्र वीरभद्र | समय इंद्र ने इसे कामधेनु, कल्पतरु, चिंतामणि एवं पारस ने इन्हें कहा, 'अगले जन्म में तुम चोर बनोगे, किन्तु | आदि विभिन्न मौल्यवान् चीजे भेट में दे दी ( रेणु.१३)। शिवभक्ति के कारण तुम्हारा उद्धार होगा' (पन. पा. | | एक बार जमदग्नि ऋषि बाणक्षेपण का खेल खेल रहे ११५)। थे, जिस समय बाण वापस लाने का काम इस पर सौंपा रूपवती--त्रेतायुग की एक वेश्या, जो देवदास | गया था। एकबार बाण लाने में इसे कुछ देरी हो गयी, नामक एक स्वर्णकार से प्रेम करती थी। वैशाखस्नान | जिस कारण क्रुद्ध हो कर जमदग्नि ने अपने पुत्र परशुराम के कारण, इन दोनों को मुक्ति मिल गयी (पद्म, पा. | से इसका शिरच्छेद करने के लिए कहा (म. अनु, ९५. ९७)। ७-१७)। अपने पिता की आज्ञानुसार, परशुराम ने रूपि-भृगुकुलोत्पन्न एक गोत्रकार । | इसका वध किया, एवं पश्चात् जमदग्नि से अनुरोध कर रूपिन्-अजमीढ नामक सोमवंशीय राजा का पुत्र, | इसे पुनर्जीवित कराया (म. व. ११६.५-१८)। जिसकी माता का नाम केशिनी था। इसके जह्न एवं जन | परिवार-इसे निम्नलिखित पाँच पुत्र थे:-रुमण्वत् , सुषेण, वसु, विश्वावसु एवं परशुराम (म. व. ११६. रेणु-एक आचार्य, जो विश्वामित्र ऋषि का पुत्र था | १०-११)। रेणुकापुराण में ' रुमण्वत् ' एवं 'सुषेण' (ऐ. ब्रा. ७.१७.७; सां. श्री. १५.२६.१)। ऋग्वेद के | के बदले पुत्रों के नाम 'बृहत्भानु' एवं 'बृहत्कर्मन् ' | इसे पुनर्जीवित व नाया। इसके जह्न एवं मिक दो भाई थे ( म ७६८ Page #791 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रेणुका प्राचीन चरित्रकोश दिये गये हैं ( रेणू. १३)। कलिका पुराण में 'रुमण्वत्' २. भरद्वाज ऋषि की बहन, जो उसने अपने कठ नामक के ददले 'मरुत्वत् ' नाम प्राप्त है (कालि. ८६ )। शिष्य को विवाह में दी थी (ब्रह्म. १२१)। रेणुमती--नकुलपत्नी करेणुमती का नामान्तर । ३. मित्र नामक आदित्य की पत्नी (भा. ६.१८. रेपलेद्र-एक राक्षस, जिसका घटोत्कचपुत्र बर्बरिक | ६)। के द्वारा वध हुआ था। ___४. रैवत नामक पाँचवे मन्वन्तर के अधिपति रैवत | राजा की माता । इसकी जन्मकथा मार्कंडेय पुराण में प्राप्त रेभ--एक वैदिक सूक्तद्रष्टा, जो अवत्सार काश्यप | | है, जो निम्नप्रकार है:नामक आचार्य के पुत्रों में से एक था (ऋ. ८.९७)। ऋतवाच् नामक एक सच्छील मुनि था, जिसे रेवती ' यह अश्वियों के कृपापात्र व्यक्तियों में से एक था। नक्षत्र के अवसर पर एक दुःशील पुत्र उत्पन्न हुआ। यह एक बार असुरों के इसे बाँध कर कुए में डाल दिया, जहाँ दुर्घटना रेवती नक्षत्र के प्रभाव से हो हुई है, यह गर्ग ऋषि इसे नौ दिन एवं दस रात्रियों तक भूखा एवं प्यासा रहना से ज्ञान होते ही, ऋतवाच ऋषि ने रेवती नक्षत्र को शाप पड़ा (ऋ. १.११२.५)। तदोपरान्त अश्वियों ने इसकी दिया, एवं उसे नीचे गिरा दिया। मुक्तता की (ऋ. १.११६.२४; ११७.४)। रेवती नक्षत्र के पतन के स्थान पर एक सरोवर निर्माण एक गुफा की बंदिशाला में एकबार यह रखा गया था, हआ, जिस में से कालोपरांत एक कन्या उत्पन्न हुई । वही जिस समय भी अश्वियों ने इसकी मुक्तता की (ऋ. १०. रेवती है। ३९.९)। इस कन्या को प्रमुच मुनि ने पाल-पोस कर बड़ा किया, रेव--(स. शर्याति.) एक शर्यातिवंशीय राजा, जो | एवं विक्रमशीले राजा के पुत्र दुर्गम से इसका विवाह कर हरिवंश, भागवत विष्णु एवं वायु के अनुसार आनर्त | दिया। राजा का पुत्र था। पद्म में इसे, आनर्त का पौत्र, एवं ___ इसके द्वारा प्रार्थना की जाने पर, प्रमुच ऋषि ने रोचमान राजा का पुत्र कहा गया हैं। भागवत एवं विष्णु इसका विवाह रेवती नक्षत्र के मुहूर्त पर ही किया, एवं के अनुसार, इसे 'रेवत' नामान्तर प्राप्त था। ब्रह्म में | इसे मन्वन्तराधिप पुत्र होने का आशीर्वाद भी दिया । इसे रैव कहा गया है। इस आशीर्वाद के अनुसार, रैवत नामक पराक्रमी पुत्र इसने पश्चिम समुद्र में कुशस्थली नामक नगरी की | उत्पन्न हुआ (मार्क. ७२)। स्थापना कर उसे अपनी राजधानी बनाई (भा. ९.३. ५. सत्ताईस नक्षत्रों में से एक (म. भी. १२.१६ )। २८)। आगे चल कर यही नगरी द्वारका नाम से प्रसिद्ध रेवन्त-एक सूर्यपुत्र, जो अश्व के रूप में उत्पन्न हुआ हुई (मत्स्य. ६९.९)। था। इसकी माता का नाम संज्ञा था। बड़ा होने पर इसे द्वारका नगरी पर शर्याति राजवंशीय लोगों का राज्य | गुह्यकों का आधिपत्य दिया गया (मार्क. १०३) । भविष्य अधिककाल न रहा सका, जिसे पुण्यजन राक्षसों ने नष्ट | के अनुसार, इसे अश्वों का अधिपत्य दिया गया था किया. एवं यह राजवंश हैहय वंश में विलीन हुआ। (भवि. ब्राह्म. ८९.१२४ )। इसे रैवत ककुमिन् आदि सौ पुत्र थे। शर्याति राजा से | रेवाग्नि--अंगिराकुलोत्पन्न एक गोत्रकार। ले कर रैवत तक का वंशक्रम इसप्रकार है:--शर्याति- रेवोत्तरस्-पाटव चाक स्थपती नामक आचार्य का आनते--रोचमान--रेव--रैवत ककुमिन् । उपनाम (श. ब्रा. १२.९.३.१; चाक देखिये)। रेवत--(सो. कुकुर.) एक राजा, जो वायु के | रैक्व 'सयुग्वा'--एक तत्त्वज्ञानी आचार्य, जिसका अनुसार कपोतरोमन् राजा का पुत्र था। जीवनचरित्र एवं तत्त्वज्ञान छांदोग्योपनिषद में प्राप्त हैं। २. शातिवंशीय रेव राजा का नामांतर । यह सदैव बैलों के गाडी के नीचे ही निवास करता था,. ३. एकादश रुद्रों में से एक। जिस कारण इसे 'सयुग्वा'(गाडी के नीचे रहनेवाला) रेवती-शर्यातिवंशीय रैवत ककुमिन् राजा की कन्या, उपाधि प्राप्त हुई थी। जो बलराम की पत्नी थी। यह उम्र में बलराम से बड़ी थी जानश्रुति राजा से भेंट-एक बार जानश्रुति नामक (पद्म. भू. १०३)। बलराम की मृत्यु होने पर, इसने | राजा जंगल में शिकार के लिये घूमता था, जिस समय उसके चिता में अग्निप्रवेश किया (ब्रह्म. २१२.३)। उसने दो हंसी के बीच हुआ संवाद सहजवश सुन लिया। प्रा. च. ९७]] ७६९ Page #792 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन चरित्रकोश - रैवत इस संवाद में एक हंस दूसरे से कहता था, 'जिस प्रकार | २. एक ऋषि, जो विश्वामित्र ऋषि का पुत्र, एवं पाँसों का अंतिम डाव जीतनेवाले को उस खेल के सारे | भरद्वाज मुनि का मित्र था (म. शां. ४९.४९) । महादान प्राप्त होते है, उसी प्रकार सृष्टि के हरएक पुण्य- | भारत में अन्यत्र इसे अंगिरस् ऋषि का पुत्र कहा गया है। वान् व्यक्ति के द्वारा किया गया पुण्यसंचय, गाडी के नीचे इसे अर्वावसु एवं परावसु नामक दो पुत्र थे (म. व. निवाप्त करनेवाले रैक्व ऋषि तक पहुँचता है । । १३५.१२-१३) । भरद्वाज ऋषि के पुत्र यवक्रीत के दुरा हंसों का यह संवाद सन कर, जानश्रति को अत्यंत | चरण से क्रुद्ध हो कर इसने उसका वध किया, जिस पर आश्चर्य हुआ, एवं वह इसे ढूँढते ढूँढते वहाँ तक पहुँच | भरद्वाज ऋषि ने इसे अपने ज्येष्ठ पुत्र के द्वारा वध होने गया, जहाँ खुजली को खुजलाते यह गाड़ी के नीचे बैठा | का शाप दिया। था, राजा ने इसे अनेक गायें, सुवर्ण का रत्नहार, आदि | पश्चात् अपने पुत्र परावसु के द्वारा हिंस्र पशु के धोखे अनेक उपहार देना चाहा, किंतु इसने उनका स्वीकार न | में इसका वध हुआ। किन्तु इसके द्वितीय पुत्र अर्वावसु. कर, अपनी गाडी ही राजा को दान में दे दी। ने अध्ययन से प्राप्त वेदमंत्रो से इसे पुनः जीवित किया पश्चात् जानश्नति ने अपनी कन्या इसे विवाह में दे (म. व. १३९.५-२३; स्कंद ३.१.३३; यवक्रीत देखिये )। दी, एवं इसको प्रसन्न कर इससे तत्त्वज्ञान की शिक्षा ३. (सो. पुरूरवस्.) एक राजा, जो भागवत के पा ली । जानश्रुति ने इसे एक गाँव भी प्रदान किया था, अनुसार, सुमति राजा का पुत्र था। जो महावृष देश में रैक्वपर्ण नाम से सुविख्यात हुआ ४. ब्रह्मा के पुत्रों में से एक। एक बार यह वसु एवं (छां. उ. ४.३.१--२, स्कंद. ३.१.२६)। अंगिरस् ऋषियों के साथ बृहस्पति के पास गया, एवं तत्त्वज्ञान-रैक्व का कहना था कि, इंद्रद्यम्न के | इसने मोक्षप्राप्ति के बारे में अनेकानेक प्रश्न किये। मोक्ष समान समस्त सृष्टि का आदि कारण एवं अदिदैवत वायु | कर्म से नहीं, बल्कि ज्ञान से प्राप्त होता है, यह ज्ञान प्राप्त ही है, जिसमें सृष्टि की सारी वस्तुएँ विलीन होती है। | होने पर यह गया में तपश्चर्या करने लगा, जहाँ सन' इस प्रकार, अग्नि को बुझाने पर वह वायु में विलीन होता | त्कुमारों से इसकी भेंट हुई थी (वराह. ७)। . है; सूर्य एवं चंद्र अस्तंगत होने पर वे भी वायु में अंतर्धान | एक बार इसकी तपस्या में बाधा डालने के लिये उर्वशी होते हैं। उपस्थित हुई, जिसे इसने विरूप होने का शाप दिया। . रक्व का यह तत्त्वजान ग्रीक तत्त्वज्ञ अनॉक्झेमिनीज | पश्चात् उर्वशी के द्वारा प्रार्थना किये जाने पर, इसने उसे के तत्त्वज्ञान से काफी मिलता जुलता है. जिसके | यागिनी-कुंड में स्नान कर पूर्ववत् बनने का उ:शाप दिया. अनुसार वायु को समस्त सृष्टि का आदि एवं अन्त माना | जब से योगिनी-कुंड को 'उर्वशीकुंड' नाम प्राप्त हुआ गया है। वायु के कारण सृष्टि की सारी वस्तुएँ विनष्ट (स्कंद २.८.७)। कैसी हो जाती है, इसका स्पष्टीकरण रैक्व के द्वारा नहीं । ५. एक मुनि, जो वीरण ऋषि का शिष्य था। वीरण दिया गया है। किन्तु जिस प्राचीन काल में, अप एवं से इसे सात्वत धर्म का उपदेश प्राप्त हुआ था, जो इसने अग्नि को सृष्टि का आदि कारण माना जाता था. उस | अपने दिक्पाल कुक्षि नामक पुत्र को प्रदान किया था समय सृष्टि के अन्य वस्तुओं के समान, अप एवं अग्नि | (म. शां. ३३६.१७)। पाठभेद-रौच्य'। स्वयं वायु में ही विलीन होते हैं, यह क्रान्तिदर्शी तत्त्वज्ञान | ६. रैवत मन्वन्तर के भूतरजस् देवगणों में से एक। रैक्व के द्वारा प्रस्थापित किया गया । रैवत-एक राजा, जो पंचम मन्वंतराधिप मनु माना पद्म में भी रैक्व का निर्देश प्राप्त है, जहाँ इसने | जाता है । भागवत के अनुसार, यह प्रियव्रत राजा का जानश्रुति को गीता के छठवे अध्याय के पठन से | पुत्र, एवं तामस राजा का भाई था । विष्णु में इसे प्रियव्रत मनःशान्ति प्राप्त करने का उपदेश प्रदान करने की | राजा का वंशज कह कर, इसके माता एवं पिता के नाम कथा प्राप्त है ( पद्म. उ. १७६ )। क्रमशः रेवती एवं प्रमुच दिये गये हैं (विष्णु ३.१.२४; रैभ्य-एक आचार्य, जो पौतिमाष्यायण एवं कौण्डि- रेवती ४. देखिये)। न्यायन नामक आचार्यों का शिष्य था (बृ. उ. २.५. यह श्रेष्ठ धर्मवेत्ता था, एवं इसने बीजमंत्र का जप कर २०, ४.५.२६)। रेभ का वंशज होने से इसे यह नाम | प्रजा की वर्णाश्रमधर्म के अनुसार पुनर्रचना की थी। प्राप्त हुआ होगा। | मृत्यु के पश्चात् यह इंद्रलोक गया (दे, भा, १०-८) ७७० Page #793 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रैवत' २. एकादश रुद्रों में से एक ( म. शां. २०२.१८-१९ ) रैवत ककुद्मिन्—( सू. शर्याति. ) एक राजा, जो शर्यातिवंशीय रेव राजा का पुत्र था (रेव देखिये ) | प्राचीन चरित्रकोश २. (सू. इ. ) एक सुविख्यात धर्मप्रवृत्त इक्ष्वाकुवंशीय राजा । एक बार दक्षिण दिशा में स्थित मंदराचल में इसने गंध से सामगान सुना, जिस कारण इसके मन में विरक्ति कर, यह राज्य छोड़ कर वन में चला गया ( म. उ. १०७.९-१० ) । अपने पूर्ववर्ती मरुत्त राजा से इसे दिव्य खड्ग की प्राप्ति हुई थी, जो इसने अपने वंशज युवनाश्व राजा को प्रदान किया था ( म. शां. १६०.७६) । उत्पन्न रोचना -- वसुदेव की एक पत्नी, जो देवक राजा की कन्या थी । इसके हेम एवं हेमांगद नामक दो पुत्र थे ( भा. ९.२४.४५ ) । २. विदर्भराज रुक्मिन् की पौत्री, जो कृष्ण के पौत्र अनिरुद्ध की पत्नी थी। इसका विवाह भोजकटपुर में संपन्न हुआ था ( भा. १०.६५) । रोचनामुल - ए - एक दैत्य, जो गरुड़ के द्वारा मारा गया था ( म.उ. १०३.१२ ) । रैवस – भृगुकुलोत्पन्न एक प्रवर । रोचिष्मत् -- स्वारोचिष मनु के पुत्रों में से एक । रोधक - पिशाचयोनि में प्रविष्ट हुयें पापी लोगों का एक रोचन - स्वारोचिष मन्वंतर का इंद्र, जो भागवत के समूह, जिसमें निम्नलिखित लोग शामिल थे : - पर्युषित, अनुसार यज्ञ एवं दक्षिणा का पुत्र था । २. तुषित देवों में से एक । के रोचमान - एक राजा, जो अश्वग्रीव नामक असुर . अंश से उत्पन्न हुआ था ( म. आ. ६१.१८ ) । महा. भारत में प्राप्त निर्देशों से यह पांचाल देशीय, अथवा - चेदिदेशीय प्रतीत होता है । इसके पुत्र का नाम हेमवर्ण था ( म. द्रो, २२.५७ ) । यह द्रौपदी के स्वयंवर में उपस्थित था ( म. आ. १७७.१०) । युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ के समय, भीम ने अपने पश्चिम दिग्विजय में इसे जीता था ( म. स. २६. <)1 रोमशा ३. (सो. वसु. ) एक राजा, जो मत्स्य के अनुसार वसुदेव एवं उपदेवी का पुत्र था । ४. (सू. शर्याति.) एक शर्यातिवंशीय राजा, जो आनर्त राजा का पुत्र था । भारतीय युद्ध में यह पांडवों के पक्ष में शामिल था ( म. उ. १६९ ) । इसके अश्व तारकाओं से अंकित अंतरिक्ष के समान चितकबरे वर्ण के थे ( म. द्रो. २२. ४० ) । यह अत्यंत पराक्रमी महारथी था, जिसका कर्ण के द्वारा हुआ था (म. क. ४०.५१ ) । ५. एक राजद्वय, जो भारतीय युद्ध में द्रोण के द्वारा मारा गया ( म. द्रो. ४. ७१ ) । ६. विश्वेदेवों में से एक । २. उरगा देश का एक राजा, जिसे अर्जुन ने अपने उत्तरदिग्विजय में जीता था ( म. स. २४.१८ ) । रोचमाना -- स्कंद की अनुचरी एक मातृका (म.श. ४५.२८ ) । सूचक ( सूचिमुख), शीघ्रग, ( शीघ्रक ), रोधक (रोहक ), वाग्दुष्ट, विदैवत, एवं नित्यवाचक | इनमें से प्रथम पाँच लोगों का पृथु नामक वेदवेत्ता ब्राह्मण के नीतिपर उपदेश से उद्धार हुआ (पद्म. सृ. ३२) । पद्म में अन्यत्र मुनिशर्मा नामक ब्राह्मण के द्वारा वैशाख स्नान का उपदेश दिये जाने से, इन लोगों का उद्धार होने की कथा प्राप्त है ( पद्म. पा. ९४ ) । रोमक-- एक लोकसमूह, जो युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में उपहार ले कर उपस्थित हुआ था ( म. स. ४७. १५ पाठ.) । रोमपाद - - (सो. अनु. ) अंगदेश का एक सुविख्यात राजा, जो धर्मरथ (बृहद्रथ) राजा का पुत्र था । इसे लोमपाद, चित्ररथ, एवं दशरथ आदि नामांतर प्राप्त थे ( ह. वं. १.३१.४६ ) । यह अयोध्या के दशरथ राजा का परम स्नेही था (म. ११३.१७) । इसे चतुरंग नामक पुत्र था । इसकी शान्ता नामक कन्या का विवाह ऋश्यांग ऋषि से इसने कराया था ( म. व. ११३, ११; शां. २२६.३५, अनु. १३८. २५) । २. (सो. क्रोष्टु. ) एक राजा, जो विदर्भराज के तीन पुत्रों में से कनिष्ठ था । रोमशा -- एक वैदिक सुक्तद्रष्ट्री, जो भावयव्य राजा की पत्नी थी (ऋ. १.१२६.७९ बृहद्दे. ३.१५६ ) । ऋग्वेद के इसी सूक्त में 'रोमशा - भावयन्य संवाद' प्राप्त है, जिससे प्रतीत होता है कि, रोमशा इसका वास्तव नाम न हो कर, केवल 'बालवाली' इस अर्थ से विशेषण के रूप में इसके लिये प्रयुक्त किया गया है। ७७१ Page #794 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रोमहर्षण प्राचीन चरित्रकोश रोमहर्षण रोमहर्षण 'सूत'-एक सूतकुलोत्पन्न मुनि, जो | काम प्रारंभ किया (भा. १.४.२२, विष्णु. ३.४.१०, समस्त पुराणग्रंथों का आद्य कथनकर्ता माना जाता है। वायु. ६०.१६; पद्म. स. १; अग्नि. २७१; ब्रह्मांड २. पुराणों में प्राप्त परंपरा के अनुसार, यह कृष्ण द्वैपायन | ३४; कूमे. १.५२)। व्यास के पाँच शिष्यों में से एक था। समस्त वेदों की शिष्यपरंपरा--व्यास के द्वारा प्राप्त आद्य पुराण चार शाखाओं में पुनर्रचना करने के पश्चात् , व्यास ने | ग्रंथों की इसने छः पुराणसंहिताएँ बनायीं, एवं उन्हें अपने तत्कालीन समाज में प्राप्त, कथा, आख्यायिका, एवं गीत | निम्नलिखित शिष्यों में बाँट दी:-१. आत्रेय सुमति; (गाथा) एकत्रित कर, आद्य पुराणग्रंथों की रचना की, | २. काश्यप अकृतवर्ण; भारद्वाज अग्निवर्चस् ४. वासिष्ठ जो उसने सूतकुल में उत्पन्न हुए रोमहर्षण को सिखाई। मित्रयु; ५. सावर्णि सोमदत्ति; ६. शांशापायन सुशर्मन् रोमहर्षण ने इसी पुराणग्रन्थ के आधार पर आद्य पुराण- (ब्रह्मांड. २.३५.६३-७०, वायु. ६१.५५-६२)। इनमें संहिता की रचना की, एवं यह पुराणों का आद्य कथन- से काश्यप, सावर्णि एवं शांशापायन ने आद्य पुराणसंहिता कर्ता बन गया। भांडरकर संहिता में इसके नाम के लिए से तीन स्वतंत्र संहिताएँ बनायी जो, उन्हीं के नाम से 'लोमहर्षण' पाठभेद प्राप्त है (म. आ. १.१)। प्रसिद्ध हुयीं। इस प्रकार रोमहर्षण की स्वयं की एक पुराण ग्रन्थों में इसका निर्देश कई बार केवल 'सूत' संहिता, एवं इसके उपर्युक्त तीन शिष्यों की तीन संहिताएँ नाम से ही प्राप्त है, जो वास्तव में इसका व्यक्तिगत नाम न इन चार संहिताओं को 'मूलसंहिता' सामूहिक नाम हो कर, जातिवाचक नाम था। प्राप्त हुआ। इन संहिताओं में से प्रत्येक संहिता निम्नकुलवृत्तान्त--पुराणों में प्राप्त जानकारी के अनुसार, लिखित चार पादों (भागों) में विभाजित थी:-प्रक्रिया, सूतकुल में उत्पन्न लोग प्राचीनकाल से ही देव, ऋषि, अनुषंग, उपोद्घात एवं उपसंहार । इन सारी संहिताओं राजा आदि के चरित्र एवं वंशावलि का कथन एवं गायन | का पाठ एक ही था, जिनमें विभेद केवल उच्चारा का ही का काम करते थे, जो कथा, आख्यायिका, गीत आदि में था। शांशापायन की संहिता के अतिरिक्त बाकी सारे समाविष्ट थी। इसी प्राचीन लोकसाहित्य को एकत्रित कर, संहिताओं की श्लोकसंख्या प्रत्येकी चार हजार थी। व्यास ने अपने आद्य पुराण ग्रंथ की रचना की। पुराणों का निर्माण-इन संहिताओं का मूल संस्करण आजरोमहर्षण स्वयं सूतकुल में ही उत्पन्न हुआ था, एवं | उपलब्ध नही है । फिर भी आज उपलब्ध वायु, ब्रह्मांड इसका पिता क्षत्रिय तथा माता ब्राह्मणकन्या थी। इसे जैसे प्राचीन पुराणों में रोमहर्षण, सावर्णि, काश्यपेय, रोमहर्षण अथवा लोमहर्षण नाम प्राप्त होने का कारण भी शांशापायन आदि का निर्देश इन पुराणों के निवेदक के इसकी अमोघ वक्तृत्वशक्ति ही थी नाते प्राप्त है । इन आचार्यों का निर्देश पुराणों में जहाँ लोमानि हर्षयांचक्रे, श्रोतृणां यत् सुभाषितैः। आता है, वह भाग आद्य पुराणसंहिताओं के उपलब्ध कर्मणा प्रथितस्तेन लोकेऽस्मिन् लोमहर्षणः ॥ अवशेष कहे जा सकते हैं। (वायु. १.१६)। उपलब्ध पुराणों में से चार पादों में विभाजित ब्रह्मांड एवं (अपने अमोघ वक्तृत्वशैली के बल पर, यह लोंगों को | लोगों को वायु ये दो ही पुराण आज उपलब्ध हैं। उदाहरणार्थ इतना मंत्रमुग्ध कर लेता था कि, लोग रोमांचित हो उठते वायु पुराण का विभाजन इस प्रकार है:-प्रथम पाद,-अ. १ थे, इसीलिए इसे लोमहर्षण वा रोमहर्षण नाम प्राप्त -६; द्वितीय पाद,-अ. ७-६४; तृतीय पाद,-अ. ६५ ९९; चतुर्थ पाद,-अ. १००-११२। अन्य पुराणों में हुआ) आद्य पुराण संहिता का यह विभाजन अप्राप्य है। पुराणों की निर्मिती--व्यास के द्वारा संपूर्ण इतिहास, एवं पुराणों का ज्ञान इसे प्राप्त हुआ, एवं यह समाज रोमहर्षण के छः शिष्यों में से पाँच आचार्य ब्राह्मण में 'पुराणिक' (म. आ. १.१); 'पौराणिकोत्तम' थे, जिस कारण पुराणकथन की सूत जाति में चलती (वायु. १.१५, लिंग. १.७१, ९९); 'पुराणज्ञ' आदि | आयी परंपरा नष्ट हो गई, एवं यह सारी विद्या ब्राहाणों उपाधियों से विभूषित किया गया था। व्यास के द्वारा के हाथों में चली गई। इसी कारण उत्तरकालीन इतिहास प्राप्त हुआ पुराणों का ज्ञान इसने अच्छी प्रकार संवर्धित | में उत्पन्न हुए बहुत सारे पुराणज्ञ एवं पौराणिक ब्राह्मण किया, एवं इन्हीं ग्रन्थों का प्रसार समाज में करने का | जाति के प्रतीत होते हैं। इस प्रकार वैदिक साहित्यज्ञ ७७२ Page #795 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रोमहर्षण प्राचीन चरित्रकोश रोमहर्षण ब्राह्मण, एवं पुराणज्ञ ब्राह्मण ऐसी दो शाखाएँ ब्राह्मणों में पुराणों का कथन किया था, बाकी बचे हुए साडेसात निर्माण हुयीं गयीं। पुराणों के कथन का कार्य इसके पुत्र उग्रश्रवस् ने पूरी इसके पुत्र का नाम उग्रश्रवस् था, जिसे इसने व्यास | किया। के द्वारा विरचित 'आदि पुराण' की शिक्षा प्रदान की थी | मृत्युतिथि-पान में इसका वध किये जाने की तिथि (व्यास, एवं सौति देखिये)। कई अभ्यासकों के | आषाढ शुक्ल १२ बताई गई है ( पद्म. उ. १९८ )। इस अनुसार, आदि पुराण का केवल आरंभ ही व्यास के दिन के इसी दुःखद स्मृति के कारण, हरएक द्वादशी द्वारा किया गया था, जो ग्रंथ बाद में रोमहर्षण तथा के दिन आज भी पुराणकथन का कार्यक्रम बंद रक्खा इसके शिष्यों के द्वारा पूरा किया गया । जाता है। युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ के समय, यह अपने पुत्र महाभारत में प्राप्त कालनिर्देश से बलराम भारतीय उग्रश्रवस् के साथ उपस्थित था, एवं इसने उसे पुराणों का युद्ध के समय तीर्थयात्रा करने निकल पड़ा था, उसी कथन किया था (म. स. ४.१०)। समय सूत का द्वादशवर्षीय सत्र चल रहा था। इससे प्रतीत उत्तरकालीन पुराण ग्रंथों में इसका एवं इसके पुत्र उग्र- | होता है कि, भारतीय युद्ध, नैमिषारण्य का द्वादशवर्षीय श्रवस् का नामनिर्देश क्रमशः 'महामुनि' एवं 'जगद्गुरु' सत्र, एवं रोमहर्षण का पुराणकथन एक ही वर्ष में संपन्न नाम से प्राप्त है (विष्णु. ३.४.१०; पद्म. उ. २१९.१४- | हुये थे । यह जानकारी विभिन्न पुराणों में प्राप्त उनके २१)। रचनाकाल से काफी विभिन्न प्रतीत होती है। पुराणों में पुराण-कथन--एक बार नैमिषारण्य में दृषद्वती नदी प्राप्त जानकारी के अनुसार, प्रमुख पुराणों की रचना के तट पर एक-द्वादशवर्षीय सत्र का आयोजन किया गया। निम्नलिखित राजाओं के राज्यकाल में हुयीं थी:-१. शौनक आदि ऋषि. इस सत्र के नियंता थे, एवं वायुपुराण-पूरुराजा असीमकृष्ण; २. ब्रह्मांड पुराणनैमिषारण्य के साठ हज़ार ऋषि इस सत्र में उपस्थित थे। इक्ष्वाकुवंशीय राजा दिवाकर; ३. मत्स्यपुराण-मगधदेश एवं शौनक आदि ऋषियों ने व्यास के प्रमुख शिष्य का राजा सेनजित् (व्यास देखिये)। . के नाते रोमहर्षण को इस सत्र के लिए अत्यंत आदर से निमंत्रण दिया, एवं इसका काफ़ी गौरव किया ( वायु. - ग्रंथ--इसके नाम पर निम्नलिखित ग्रंथ उपलब्ध हैं:. ८.२. ब्रह्मांड १.३३. नारद. १.१)। 1. सूतसंहिता--रोमहर्षण के द्वा! लिखित सूत संहिता स्कंद पुराण का ही एक भाग मानी जाती हैं। स्कंद इस सत्र में शौनक आदि ऋषियों के द्वारा प्रार्थना पुराण की कुल छः संहिताओं की रचना की गई थी, किये जाने पर रोमहर्षण ने साठ हज़ार ऋषियों के | जिनके नाम निम्न थेः-१. सनत्कुमार; २. सूत; ३. शांकरी; उपस्थिति में निम्नलिखित पुराणों का कथन कियाः--१. ४. वैष्णवी; ५. ब्राह्मी; ६. सौरी। इन छः संहिताओं में ब्रह्मपुराण (ब्रह्म. १); २. वायुपुराण (वायु. १. १५). मिल कर कुल पचास खण्ड थे। ३. ब्रह्मांडपुराण (ब्रह्मांड. १.१.१७); ४. ब्रह्मवैवर्तपुराण (ब्रह्मवे. १.१.३८); ५. गरुडपुराण (गरुड. | इनमें से सूत के द्वारा लिखित ' सूतसंहिता', आनंदा.१.१), ६. नारदपुराण (नारद. १. १-२), ७. | श्रम पूना के द्वारा प्रकाशित हो चुकी है, जो निम्नभागवतपुराण (भा. १.३-११) इत्यादि । लिखित खण्डों में विभाजित है:--१. शिवमाहात्म्यखण्ड; मृत्यु--इस प्रकार दस पुराणों का कथन समाप्त कर, | २. ज्ञानयोगखण्ड; ३. मुक्तिखण्ड; ४. यज्ञवैभवखण्ड; यह ग्यारहवें पुराण का कथन कर ही रहा था कि, इतने (अधोभाग एवं उपरिभाग)। में सत्रमंडप में बलराम का आगमन हुआ । उसे आता इस ग्रंथ में शैवसांप्रदायान्तर्गत अद्वैत तत्वज्ञान का हुआ देख कर, सत्र में भाग लेने बाकी सारे ऋषियों ने प्रतिपादन किया गया है। इस ग्रंथ पर माधवाचार्य के उसे उत्थापन दिया। किन्तु व्रतस्थ होने के कारण, यह द्वारा लिखित एक टीका प्राप्त है । सूत के द्वारा लिखित उत्थापन न दे सका। फिर क्रोध में आ कर बलराम ने | 'ब्रह्मगीता' एवं 'सूतगीता' नामक दो ग्रंथ भी सूत इसका वध किया (बलराम देखिये )। इसकी मृत्यु के | संहिता समाविष्ट हैं। पश्चात्, पुराणकथन का इसका कार्य इसके पुत्र उग्रश्रवस् । २. ब्रह्मगीता--उपनिषदों के अर्थ का विवरण करनेवाला ने आगे चलाया। अपने मृत्यु के पूर्व, इसने साढ़ेदस | यह ग्रंथ सतसंहिता के यज्ञवैभवकाण्ड में समाविष्ट है। इस ७७३ Page #796 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रोमहर्षण प्राचीन चरित्रकोश रोहक ग्रंथ के कुल बारह अध्याय है, एवं उसमें शैवसांप्रदाय के | उग्रश्रवस् उच्चश्रेणि के सूत प्रतीत होते हैं । कीचक, कर्ण तत्त्वों का प्रतिपादन किया गया है। आदि राजाओं को भी महाभारत में सूतपुत्र कहा गया ३. सूतगीता--सूत-व्याससंवादात्मक यह ग्रंथ सूत | है । किन्तु वहाँ उनके सूत जाति पर नहीं, बल्कि उनके संहिता के यज्ञवैभवकाण्ड में अंतर्भूत है। इस ग्रंथ के हीन जन्म की ओर संकेत प्रतीत होता है। कुल आठ अध्याय हैं, एवं उसमें शैवसांप्रदाय के मतों का वैदिक साहित्य में राजकर्मचारी के नाते सूतों (रथपालों) प्रतिपादन किया गया है। इस ग्रंथ पर भी माधवाचार्य का निर्देश प्राप्त है (पं. बा. १९.१.४, का. सं. १५.४)। की टीका उपलब्ध है। भाष्यकार इसमें राजा के सारथि एवं अश्वपालक का आशय सूतजाति की उत्पत्ति-जैसे पहले ही कहा गया है, देखते हैं । एग्लिंग के अनुसार, ये लोग चारण एवं राजकवि रोमहर्षण का निर्देश अनेकानेक प्राचीन ग्रंथों में थे। महाभारत में भी सूतों का निर्देश राजकीय अग्रदूत 'सूत' नाम से प्राप्त है, जो वास्तव में इसके जाति | एवं चारण के रूप में आता है। का नाम था । इस जाति के उत्पत्ति के संबंध में एक कथा | यजुर्वेद संहिता में इनके लिए 'अहन्ति' (वा. सं. वाय में प्राप्त है । पृथु वैन्य राजा के द्वारा किये गये १६.१८) अथवा 'अहन्त्य' (तै. सं. ४.५.२.१) यज्ञ में, यज्ञीय ऋत्विजों के हाथों एक दोषाहं कृति हो गई। शब्द प्रयुक्त किया गया है, जो एक साथ ही चारण एवं सोम निकालने के लिए नियुक्त किये गये दिन (सुत्या), | अग्रदूत के इनके कर्तव्य की ओर संकेत करता है। ऐन्द्र हविर्भाव में बृहस्पति का हविभाग गलती से एकत्र | राजसेवकों में इनकी श्रेणि महिषी एवं ग्रामणी इन किया गया. एवं उसे इंद्र को अर्पण किया गया। इस दोने के बीच मानी जाती थी (श. बा.५.३.१.५)। . प्रकार, शिष्य इंद्र के हविर्भाग में गुरु बृहस्पति का हविर्भाग | जैमिनि अश्वमेध में सूत जाति का निर्देश सेवक जातियों संमिश्र करने के दोषार्ह कर्म के कारण, मिश्रजाति के सूत में किया गया है, एवं सत, मागध एवं बन्दिन् लोग लोगों की उत्पत्ति हो गई। | क्रमशः प्राचीन, मृत, एवं वर्तमान राजाओं के इतिहास क्षत्रिय पिता एवं ब्राह्मण माता से उत्पन्न संतान को एवं वंशावलि सम्हालने का काम करते थे, ऐसा निर्देश प्रायः 'सूत' कहते थे । किन्तु कौटिलीय अर्थशास्त्र में | प्राप्त है (जै. अ. ५५.४४.१)। मिश्रजाति के सूत लोग सूतवंशीय लोगों से अलग बताये इससे प्रतीत होता है कि, मुगल बादशहाओं गये हैं। पुराणों में इन लोगों के कर्तव्य निम्नप्रकार | के बखरनवीस जिस के बखरनवीस जिस प्रकार का काम करते थे, . बताये गये है वही काम प्राचीन काल में सूत लोगों पर निर्भर स्वधर्म एवं सूतस्य सद्भिदृष्टः पुरातनैः । था। इनके समवर्ती मागध एवं बन्दिन् लोग राजा के देवतानामृषीणां च राज्ञां चामिततेजसाम् ॥ स्तुतिपाठक का काम ही केवल करते थे, जिस कारण वे वंशानां धारण कार्य श्रुतानां च महात्मनाम् । सूत लोंगों से काफी कनिष्ठ माने जाते थे। सूत एवं मागध लोगों का देश पुराणों में क्रमशः अनूप एवं मगध बताया इतिहासपुराणेषु दिष्टा ये ब्रह्मवादिभिः ॥ गया है। पद्म में पृथु बैन्य राजा के द्वारा सूत, मागध, (वायु. १.२६-२८; पद्म. सु. २८)। बन्दिन् एवं चारण लोगों को कलिंग देश दान में देने का ( देवता, ऋषि एवं राजाओं में से श्रेष्ठ व्यक्तियों के निर्देश प्राप्त है( पद्म. भू. २९.)। वंशावलि को इतिहास, एवं पुराण में ग्रथित एवं संरक्षित | पन के अनुसार.सूत लोगों को वेदों का अधिकार प्राप्त करना, यह सूत लोगों का प्रमुख कर्तव्य है)। था, एवं इनके आचारविचार भी ब्राह्मण जाति जैसे थे । किन्तु सूतों का यह कर्तव्य उच्च श्रेणि के सूतों के लिए मागध लोगों को वेदों का अधिकार प्राप्त न था, जो उनकी ही कहा गया है। इनमें से मध्यम श्रेणि के लोग क्षात्रकर्म | कनिष्ठता दर्शाता है। करते थे, एवं नीच श्रेणि के लोग रथ, हाथी एवं अश्व का परिवार-इसके पुत्र का नाम उग्रश्रवस् था, जिसे सारथ्यकर्म करते थे। इसी कारण इन लोगों को रथकार | रोमहर्षणपुत्र, रोमहर्षणि, एवं सौति आदि नामांतर भी नामान्तर भी प्राप्त था। प्राप्त थे (म. आ. १.१-५, सौति देखिये)। . इन तीनो श्रेणियों के सूतवंशीय लोग प्राचीन इतिहास | रोहक--रोधक नामक पिशाचयोनि समूह में रहनेमें दिखाई देते है। उनमें से रोमहर्षण एवं इसका पुत्र | वाला एक पिशाच (रोधक देखिये)। ७७४ Page #797 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रोहिणी प्राचीन चरित्रकोश रोहीतक । रोहिणी--चन्द्रमा की पत्नी, जो दक्ष प्रजापति की लिए, इस बलि के रूप में प्रदान करने का आश्वासन सत्ताईस कन्याओं में से एक थी । यह रूपयौवन में अपनी | हरिश्चन्द्र ने वरुण देवता को दिया था। अपत्यवात्सल्य • अन्य बहनों की अपेक्षा अधिक श्रेष्ठ थी, जिस कारण | के कारण, हरिश्चन्द्र अपना यह आश्वासन बाईस वर्षों तक यह अपने पति की हृदयवल्लभा थी। इस कारण, | पूरा न कर सका। इसकी बहने इससे नाराज हुयीं, एवं इसके पिता दक्ष ने अपने पिता के आश्वासन का रहस्य ज्ञान होते ही, भी चन्द्रमा को क्षयरोगी बनने का शाप दिया (म. श. | उससे छुटकारा पाने के लिये यह अरण्य में भाग गया। ३४.५५) । इसी प्रकार की कथा शिवपुराण में भी किन्तु वरुण को यह ज्ञात होते ही, उसने इसके पिता प्राप्त है ( शिव. कोटि. १४)। हरिश्चन्द्र के उदर में रोग उत्पन्न किया, जिसकी वार्ता ___ एक नक्षत्र के रूप में इसे आकाश में अक्षय्यस्थान | सुनते ही यह अयोध्या लौट आया। किन्तु इसके पुरोहित प्राप्त हुआ था, जो इसके द्वारा किये गये गौरीव्रत का फल देवराज वसिष्ठ ने इसे पुनः एकबार विजनवासी होने की , था (भवि. ब्राहा. २१)। सलाह दी। ___ परिवार--इसे बुध नामक एक पुत्र, एवं सुरूपा, हंस ___ इस प्रकार बाईस वर्ष बीत जाने के बाद, इसे भार्गव काली, भद्रा एवं कामदुधा नामक चार कन्याएँ थीं। वंश के अजीगत ऋषि का मँझला पुत्र शुनःशेप आ मिला, जो सौ गायों के मोल में इसके बदले वरुण को बलि जाने २. वसुदेव की एकं पत्नी, जो बलराम की माता थी | लिये तैयार हुआ। तत्पश्चात् हुए यज्ञ में विश्वामित्र ने (म. मौ. ८.१८; भा. २४.४५, पन. सृ. १३)। बलराम शुनःशेप की यज्ञस्तंभ से मुक्तता की, एवं उसे अपना पुत्र का गर्भ पहले देवकी के उदर में था, जो योगमाया के | मान लिया (शुनःशेप देखिये; भा. ९.७.७-२५, ब्रह्म कारण इसके उदर में प्रविष्ट हुआ ! उस समय यह गोकुल | १०४)। में रहती थी (भा. १०.५-७; वसुदेव देखिये)। कृष्णनिर्याण के पश्चात् इसने अग्निप्रवेश कर देहत्याग | विश्वामित्र की दक्षिणा की पूर्ति करने के लिए, हरिश्चन्द्र किया (ब्रह्म. २१२.४)। बलराम के अतिरिक्त, इसे ने इसे काशी नगरी के वृद्ध ब्राह्मण को बेचा था। विश्वामित्र ' एकानंगा नामक एक कन्या एवं रोहिताश्व नामक पुत्र |' के द्वारा ली गई सत्वपरीक्षा में, इसे सर्पदंश हो कर यह मृत भी हुआ था, किन्तु पश्चात् देवताओं की कृपा से यह • उत्पन्न हुए थे। ३. कृष्ण की पत्नियों में से एक। पुनः जीवित हुआ। . ४. एल गाय जो कश्यप एवं सुरभि की कन्याओं में हरिश्चन्द्र के पश्चात् यह अयोध्या का राजा हआ. से एक थी । इसकी विमला एवं अनला नामक दो कन्याएँ | जहाँ इसने रोहितपुर नामक दुर्गयुक्त नगरी की स्थापना थी, जिनसे आगे चल कर सृष्टि के गाय एवं वृषभों का की । वहाँ इसने काफ़ी वर्षों तक राज्य किया। अंत में '- -वंश उत्पन्न हुआ (म. आ. ६०.६५)। विरक्ति प्राप्त होने पर इसने रोहितपुर नगरी एक ब्राह्मण ५. हिरण्यकशिपु की पत्नी, जो भानु नामक अग्नि की को दान में दी, एवं यह खर्लोक चला गया। ___कन्या थी। इसकी माता का नाम निशा था, जो भानु | परिवार-इसकी पत्नी का नाम चंद्रवती था, जिससे अग्नि की तृतीय पत्नी थी। यह 'स्विष्टकृत' मानी गयी| इसे हरित नामक पुत्र उत्पन्न हुआ था (ह. वं. १.१३)। है, जिस अशुभ कर्म के कारण यह हिरण्यकशिपु की। २. लोहित ऋषि का नामांतर ( विश्वामित्र देखिये)। पत्नी हो गई। | रोहितक--लोहितक देश का यवन राजा, जिसे कर्ण रोहित-(सू.इ.) एक सुविख्यात इक्ष्वाकुवंशीय राजा, ने अपने दक्षिण दिग्विजय में जीता था (म. व. परि.१. जो हरिश्चन्द्र राजा का पुत्र था। विष्णु एवं मार्कंडेय | क्र. २४. पंक्ति ६७) में इसे रोहिताश्व, एवं रोहितास्य कहा गया है (मार्क | रोहिताश्व--(सो. वसु.) वसुदेव का रोहिणी से २.७-९)। इसकी माता का नाम तारामती था। उत्पन्न पुत्र। शुनःशेपाख्यान--ऐतरेय ब्राह्मण में प्राप्त शुनःशेप संबंधी २. हरिश्चन्द्रपुत्र रोहित राजा का नामान्तर। सुविख्यात कथा में इसका निर्देश प्राप्त है (ऐ. ब्रा.७.१४; रोहितास्य--हरिश्चन्द्र पुत्र रोहित राजा का नामान्तर। सां.श्री. १५.१८.८)। हरिश्चन्द्र का यह पुत्र वरुण देवता रोहीतक-एक लोकसमूह, जिसे नकुल ने अपने की कृपा से उत्पन्न हुआ था। इस कृपा का बदला चुकाने के राजसूययज्ञीय पश्चिम दिग्विजय के समय जीता था (म. ७७५ Page #798 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रोहीतक प्राचीन चरित्रकोश लकुलिन् स. २९.४ ) । इसको आजकल 'रोहतक' (पंजाब), २. ( सो. पुरूरवस्.) एक राजा, जो वायु के अनुसार कहते है। संजाति राजा का, एवं भागवत एवं विष्णु के अनुसार रोक्मायण (णि)--एक ब्रह्मर्षि, जो भृगुकुल का अहंयाति राजा का पुत्र था। गोत्रकार था (भृगु. ३. देखिये)। ३. एक ऋषि, जो कात्यायन ऋषि का शिष्य था । एक रोक्मिणेय--एक राजा, जो द्रौपदी के स्वयंवर में | सुंदर स्त्री का रूप धारण कर, महिषासुर इसके तप में बाधा उपस्थित था (म. आ. १७७.१६)। डालने के लिये उपस्थित हुआ, जब इसने उसे नारी के रोक्षक--विश्वामित्रकुलोत्पन्न एक ऋषि । ही द्वारा ही वध होनेका शाप दिया (कालि. ६२)। रौच्य--एक राजा, जो रोच्य नामक मन्वंतर का रौपसेवकि--कश्यपकुलोत्पन्न एक गोत्रकार | अधिपति था। यह रुचि राजा का पुत्र था, एवं इसकी | रौम्य--शिवगणों का एक दल, जिसे शिव के मानमाता का नाम मालिनी था (मार्क. ९५.७ ) इसे देवसा- | सुपुत्र वीरभद्र ने अपने रोमकूपों से उत्पन्न किया था वर्णि नामांतर भी प्राप्त था (ब्रह्मवै. २.५४. ६४; मा. (म. शां. परि. १.२८.८१-८२)। ८.१३)। रौरालय--शैलालय नामक वसिष्ठकुलोत्पन्न गोत्रकार रौद्र-शुक्राचार्य के चार पुत्रों में से एक का नामांतर। २. कैलास एवं मंदर पर रहनेवाला एक राक्षससमूह। रोरुकि-एक आचार्य, जो 'रौरुकि ब्राह्मण' नामक उत्तरखंड की यात्रा के समय, इससे सावधान रहने के | ग्रंथ का रचयिता माना जाता है। .. लिए लोमश ऋषि ने युधिष्ठिर को कहा था। रोहिम-विश्वामित्रकुलोत्पन्न एक ऋषि । ' रौद्रकर्मन्--(सो. कुरु.) धृतराष्ट्र के सौ पुत्रों में से २. एक दानव, जो इंद्र का शत्रु था (ऋ. १.१०३.२२ एक । भीम ने इसका वध किया था (म. द्रो. १०२.९६)। २.१२.१२; अ. वे. २०.१२८.१३)। रौद्रकेतु--अंगदेश का एक ब्राह्मण, जिसकी पत्नी रौहिण वासिष्ठ---एक ऋषि, जो वसिष्ठ का वंशज का नाम शारदा, एवं पुत्रों का नाम नरांतक एवं देवांतक था (ते. आ. १.१२.५)। रोहिणी नक्षत्र में उत्पन्न होने । के कारण, इसे 'रौहिण' उपाधि प्राप्त हुई होगी। रौद्राश्व--(सो. पुरूरवस् .) एक राजा, जो पूरु रौहिणायन -एक आचार्य, जो शौनक ऋषि का .. राजा का पुत्र था। इसकी माता का नाम पौष्टी था। इसके शिष्य था (श. ब्रा. १४.७.३.२६)। प्रवीर एवं ईश्वर नामक दो भाई थे। २. प्रियव्रत नामक आचार्य का पैतृक नाम ( श. बा. इसे मिश्नकेशी नामक अप्सरा से ऋचेयु, अन्वरभानु, । १०.३.५.१४)। रौहिण' का वंशज होने से, उसे यह आदि दस महाधनुर्धर पुत्र उत्पन्न हुए थे (म. आ. | पैतृकनाम प्राप्त हुआ होगा। ८९.९-१०,८७३)। वायु आदि पुराणों में घृताची नामक रौहिण्यायनि-अंगिराकुलोत्पन्न एक गोत्रकार। अप्सरा इसकी पत्नी बताई गयी है (वायु ९९.११९; रोहित्यायनि--भृगुकुलोत्पन्न एक गोत्रकार। है. वं. १.३१; मत्स्य ४९.४; भा. ९.२०५)। रौहिदश्व-वसुमनस् नामक आचार्य का पैतृक नाम । लकुलिन्-एक शिवावतार, जो वाराहकल्प के था (वायु २३.)। यह अवतार हाथ में डंडा (लकुट, वैवस्वत मन्वंतर के अठाईस वें युगचक्र में उत्पन्न हुआ लगुड, अथवा लकुल) धारण कर अवतीर्ण हुआ, जिस था। वायु के अनुसार शिव (महेश्वर) का यह अवतार, कारण इसे लकुलिन् नाम प्राप्त हुआ। कृष्ण द्वैपायन व्यास, एवं वासुदेव कृष्ण का समकालीन स्मशान में डाले गए एक प्रेत के शरीर में योगमाया ७७६ Page #799 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लकुलिन् प्राचीन चरित्रकोश लक्ष्मण से प्रविष्ट हो कर, यह कायावतार अथवा कायावरोहण २. अंगिरस्कुलोत्पन्न एक मंत्रकार। नामक तीर्थ में अवतीर्ण हुआ। इसके कुशिक, गर्ग, लक्ष्मण दाशरथि--राम दाशरथि राजा का कनिष्ठ मित्र, एवं कौरुष्य नामक चार शिष्य थे, जो जाति से | बन्धु, जो अयोध्या के दशरथ राजा को सुमित्रा से उत्पन्न ब्राह्मण, वेदवेत्ता, एवं ऊर्ध्वरेतस् थे ( शिव. शत. ५)। दो पुत्रों में से ज्येष्ठ पुत्र था। इसके कनिष्ठ बन्धु का नाम इसके इन शिष्यों ने पाशुपत नामक शिवोपासना की | शत्रुघ्न था। किन्तु इसकी विशेष आत्मीयता अपने ज्येष्ठ प्रतिष्ठापना की। सापत्न बन्धु राम दाशरथि की ओर ही थी, जैसे इसके उदयपुर के उत्तर में १४ मैल पर स्थित नाथ-द्वार मंदीर | छोटे बन्धु शत्रुघ्न की सारी आत्मीयता भरत की ओर में ई. स. ९७१ एक शिलालेख प्राप्त है, जहाँ भृगु ऋषि के थी। इसी कारण राम एवं लक्ष्मण, तथा भरत एवं शत्रुघ्न द्वारा प्रार्थना किये जाने पर लकुलिन् नामक शिवावतार का स्नेहभाव प्राचीन भारतीय इतिहास में बन्धुप्रेम एवं भृगुकच्छ गांव में अवतीर्ण होने का निर्देश प्राप्त है। ई. बन्धुनिष्ठा का एक उच्चतम प्रतीक बन गया है। स. १२९६ के 'चिंत्रप्रशस्ति' नामक शिलालेख में अपने ज्येष्ठ भाई राम के सुख एवं रक्षा के लिए 'भट्टारक श्रीलकुलीश' नामक शिवावतार लाट देश में तत्पर रहनेवाले एक आदर्श कनिष्ठ बन्धु के रूप में, लक्ष्मण कारोहण नामक ग्राम में निवास करने का निर्देश प्राप्त का चरित्रचित्रण वाल्मीकिरामायण में किया गया है। है। मैसूर राज्य में हेमावती ग्राम में प्राप्त ई. स. ९४३ इस ग्रंथ में वर्णित लक्ष्मण वृद्धों की सेवा करनेवाला, के अन्य एक शिलालेख में लकुलिन् के द्वारा मुनिनाथ समर्थ, एवं मितभाषी है। अपने सौम्य स्वभाव, पवित्र चिल्लुक नाम से पुनः अवतार लेने का निर्देश प्राप्त है आचरण, एवं सत्कार्यदक्षता के कारण, यह राम को (डॉ. भांडारकर, वैष्णविजम, पृ. १६६)। अत्यंत प्रिय था (वा. रा. सु. ३८.५९-६१)। डॉ. भांडारकरजी के अनुसार, लकुलिन् एक जीवित नाम-इसके लक्ष्मण नाम की निरुक्ति वाल्मीकि व्यक्ति था, जिसने पाशुपत नामक आद्य शैव सांप्रदाय | रामायण में प्राप्त है। यह लक्ष्मी का वर्धन करनेवाला की स्थापना की। इसके वासुदेव कृष्ण का समकालीन | (लक्ष्मीवर्धन), अथवा लक्ष्मी से युक्त (लक्ष्मीसंपन्न) होने के पुराणों में प्राप्त निर्देशों से प्रतीत होता है कि, | होने के कारण, वसिष्ठ के द्वारा इसका नाम लक्ष्मण पाशुपत सांप्रदाय स्थापन करने की प्रेरणा इसे पांचरात्र | रक्खा गया (वा.रा.बा. १८.२८, ३०)। यह शुभलक्षणी नामक वैष्णव संप्रदाय से प्राप्त हुई थी। इसी कारण, | होने के कारण, इसे लक्ष्मण नाम प्राप्त होने की कथा इसका काल ई. पू. २ री शताब्दी माना जाता है (रुद्र- | भी कई पुराणों में प्राप्त है (पन्न. उ. २६९) । किन्तु शिव देखिये)। इसके नाम की ये सारी निरुक्तियाँ कल्पनारम्य प्रतीत लक्षणा--लक्ष्मणा नामक अप्सरा का नामान्तर होती है। २. दुष्यन्त राजा की पत्नी लक्ष्मणा का नामान्तर | बाल्यकाल-दशरथ राजा के पुत्रकामेष्टि यज्ञ से जो (म. आ. ८९.८७७ %; लक्ष्मणा देखिये)। पायस कौसल्या को प्राप्त हुआ था, उसी पायस के अंश ३. कृष्ण की पत्नी लक्ष्मणा का नामान्तर (लक्ष्मणा से लक्ष्मण का जन्म हुआ था (अ. रा. बा. ३.४२)। इस माद्री देखिये)। कारण, लक्ष्मण बाल्यकाल से ही राम पर अत्यधिक प्रेम लक्ष्मण-(सो. कुरु.) दुर्योधन का एक पुत्र (म. करता था । बाल्यकाल में राम जब मृगया खेलने जाता था, उ. १६३.१४)। यह महारथि था, एवं कौरवसेना में | तब लक्ष्मण धनुष ले कर इसके साथ जाता था, एवं इसकी श्रेणी 'रथसत्तम' थी। उसकी रक्षा करता था। सुबाहु एवं मारीच राक्षसों को भारतीय युद्ध में अभिमन्यु के साथ हुए युद्ध में यह परास्त कर, विश्वामित्र के यज्ञ की रक्षा करने के लिए परास्त हुआ था (म. भी. ५१.८-११,६९.३०-३६)। यह भी राम के साथ गया था। इस कार्य मे यशस्विता अन्त में अभिमन्यु के द्वारा ही इसका वध हुआ था (म. | प्राप्त करने के पश्चात् , यह भी राम के साथ मिथिला द्रो. ४५. १७)। वध के पूर्व, निम्नलिखित योद्धाओं | नगरी में सीता स्वयंवर के लिये उपस्थित हुआ था। के साथ युद्ध कर इसने काफी पराक्रम दिखाया थाः- वहाँ राम एवं सीता के विवाहमंडप में, इसका विवाह क्षत्रदेव (म. द्रो. १३.४४); अंबष्ठ (म.क. ४.२६); | सीरध्वज जनक की कन्या उर्मिला से संपन्न हुआ (वा. शिखंडिपु नक्षत्रदेव (म. क. ४,७७)। | रा. बा. ६७-७३; राम दाशरथि देखिये)। प्रा. च. ९८] ७७७ Page #800 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लक्ष्मण प्राचीन चरित्रकोश वनगमन के पूर्व -- अपने पिता की वचनपूर्ति के लिए राम ने चौदह वर्षों का वनवास स्वीकार लिया। अपने पिता के द्वारा ही राम को वनगमन का आदेश दिया गया है, यह सुन कर लक्ष्मण दशरथ से अत्यंत क्रुद्ध हुआ, एवं इसने उसकी अत्यंत कटु आलोचना की। यहीं नहीं, राम को अयोध्या के सिंहासन पर बिठाने के लिए, यह अपने पिता, भाई आदि लोगों का वध करने के लिए भी सिद्ध हुआ। किंतु राम वनवास जाने के अपने निश्चय पर अटल रहा। फिर राम के साथ वनवास जाने का अपना निश्चय प्रकट करते हुए, इसने अपनी माता सुमित्रा से इसने अपनी माता सुमित्रा से कहा अनुरक्तोऽस्मि भावेन भ्रातरं देवि तत्त्वतः । सत्येन धनुषा चैव दत्तेनेष्टेन ते शपे || दोसमझिमरण्यं वा यदि राम प्रवेक्ष्यति । प्रविष्टं तत्र मां देवि त्वं पूर्वमवधारय ॥ " ( वा. रा. भयो. २१.१६-१७ ) । (राम में मेरी भक्तिपूर्ण सच्ची प्रीति है सत्य से । धनुष से, दान से, तथा इष्ट से तेरी शपथ खाता हूँ कि, जलती हुई अग्नि में वा वन में यदि राम जायेंगे, तो तुम मुझे उनके पहले गया समझना ) | राम को पिता की आज्ञा में तत्पर देख, लक्ष्मण ने राम के साथ वनवास में जाना अपना कर्तव्य मान लिया, एवं यह वनगमन के लिए सिद्ध हुआ । राम के साथ वन जाने का दृढ करते हुए इसने कहा- धनुरादाय सारं खनित्रपिटकाधरः। अग्रतस्ते गमिष्यामि पन्थानमनुदर्शयन् ॥ ( वा. रा. अयो. ३१.२५ ) । ( धनुष धारण कर, एवं हाथ में कुदाली तथा फावडा लिए, मैं आप लोगों का मार्ग प्रशस्त करने के लिए आगे रहूँगा ) | इसने राम से आगे कहा, 'बन में, तुम्हारे लिए कंद, मूल, फल, एवं तपस्वियों को देने के लिए होम के आवश्यक पदार्थ मैं तुम्हे ला कर दूँगा । जागृत तथा निद्रित अवस्था में मैं सदैव तुम्हारी ही सेवा करता रहूँगा' ( वा. रा. अयो. २१.२६-२७) । वनवास वनवास के पहले दिन के अन्त में, राम ने इसे पुनः एकधार बनवास न आने की प्रार्थना की किन्तु इसने कहा, 'तुम्हारे वियोग में मुझे एक दिन भी रहना असंभव है; पानी के बिना मछली एक पल भर भी नहीं रह सकती है, वैसी ही मेरी अवस्था होगी ( वा. रा. अयो. ५३.३१ ) । वन में विचरते समय, सीता के आगे राम, एवं पीछे लक्ष्मण इस क्रम से ये चहते थे ( वा. रा. अयो. ५२. ९४ - ९६ ) । यह हर प्रकार राम की सेवा करता था । यह नदियों पर लड़ी के सेतु बाँध कर दूर स्थित नदी से पानी लाता था राम की चित्रकूट एवं पंचवटी में स्थित पर्णशाला इसने ही बाँधी थी (बा. रा. अयो ९९.१० ) । राम जब बाहर जाता था, तब यह सीता - संरक्षण के लिए उसके साथ रहता था। लक्ष्मण सीताहरण - जनस्थान में स्थित पंचवटी प्रदेश में राक्षसों का प्राबल्य देख कर, इसने राक्षससंग्राम करने से राम को पुनः पुनः मना किया था। आगे चल कर, राम की. आज्ञा से इसने शूर्पणखा राक्षसी के नाक काट कर उसे विरूप कर दिया ( वा. रा. अर. १८ ) । इसी कारण क्रुद्ध हो कर रावण ने मायामृग की सहाय्यता से सीता हरण करने के लिए जनस्थान में प्रवेश किया। मायामृग के संबंध में लक्ष्मण ने राम को पुनः पुनः चेतावनी दी, किन्तु राम ने इसकी एक न सुनी। संरक्षण के लिए पर्णकुटी में ही बैठा रहा । किन्तु मायामृग के पीछे राम के चले जाने पर, यह सीता के ने इसे राम के पीछे न जाने के कारण इसकी कड़ आलोचना की, जिस कारण विवश हो कर सीता को छोड़ कर इसे राम के पीछे जाना पड़ा। वही अवसर पाकर रावण ने सीता का हरण किया ( राम दाशरथि देखिये) । राम से सोचना सीताहरण का वृत्त सुन कर राम क्रुद्ध हो कर त्रैलोक्य को दग्ध करने के लिए तैयार हुआ। उस समय इसने राम को सबिना दी एवं कहा -- ७७८ सुमहान्त्यपि भूतानि देवाश्च पुरुषर्षभ । न देवस्य प्रमुञ्चन्ति सर्वभूतानि देहिनः ॥ ( वा. रा. अर. ६६.१.१ ) । ( इस सृष्टि के सारे श्रेष्ठ लोग एवं साक्षात् देव भी दैवजात दुःखों से छुटकारा नहीं पा सकते । इसी कारण इन दुःखों से कष्टी नहीं होना चाहिए ) । सीता की खोज - सीता की खोज में क्रमशः जटायु, अयोमुखी, पबंध एवं शबरी आदि से मिल कर यह, राम Page #801 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लक्ष्मण प्राचीन चरित्रकोश लक्ष्मण के साथ पंपासरोवर के किनारे पहुँच गया । वहाँ पहुँचते | कर इंद्रजित् के सेना का संहार किया। उस समय अपना ही सीता के विरह में शोक करनेवाले राम को इसने अति | यज्ञ अधुरा छोड़ कर, वह लक्ष्मण के साथ द्वंद्वयुद्ध करने स्नेह के दुष्परिणाम समझाते हुए कहा, 'इस सृष्टि में | के लिए युद्धभूमि में प्रविष्ट हुआ। इंद्रजित् के इस पंचम प्रिय व्यक्तियों का विरह अटल है, यह जान कर तुम्हें | युद्ध में, लक्ष्मण ने उसके सारथि का वध किया, एवं उसे अपने मन को काबू में रखना आवश्यक है (वा. रा.कि. | पैदल ही लंका को भाग जाने पर विवश किया। इन्द्रजित् के साथ हुए अंतिम छठे युद्ध में, लक्ष्मण ने ऋष्यमूक पर्वत पर रहनेवाले सुग्रीव आदि वानरों ने, | एक वटवृक्ष के नीचे ऐंद्र अस्त्र से उस का वध किया, 'सीता के द्वारा अपने उत्तरीय में बाँध कर फेंके गये जिस समय वह निकुंभिला के मंदिर से होम समाप्त अलंकार इन्हें दिखायें। इस समय इसने सीता के समस्त कर बाहर निकल रहा था (वा. रा. यु. ८५-८७; म.व. अलंकारों से केवल उसके नूपुर ही पहचान लिये, एवं | २७३.१६-२६)। इंद्रजित् का वध करना अत्यधिक कठिन कहा था। किन्तु विभीषण की सहायता से, इंद्रजित्का अनु. नाहं जानामि केयूरे, नाहं जानामि कुण्डले। ष्ठान पूर्ण होने के पूर्व ही उसका वध करने में यह यशस्वी नूपुरे त्वमिज़ानामि, नित्यं पादाभिवन्दनात् ॥ हुआ। इंद्रजित् की मृत्यु से राम-रावण युद्ध का सारा रंग (वा. रा. कि. ६.२२) ही बदल गया। (मैं सीता के बाहुभषण या कुण्डल नहीं पहचान | इंद्रजित् को ब्रह्मा से यह वरदान प्राप्त था कि, वह सकता । किन्तु उसके नित्यपादवंदन के कारण,उसके केवल उसी व्यक्ति के द्वारा ही मर सकता है, जो बारह वर्ष तक नू पुर ही पहचान सकता हूँ।) आहार निद्रा लिये बगैर रहा हो। अयोध्यात्याग के राम-रावण-युद्ध-राम-रावण युद्ध में राम का युद्ध- | उपरान्त वनवास के बारह वर्षों में, लक्ष्मण आहारनिपुण सलाहगार एवं मंत्री का कार्य यह निभाता रहा। निद्रारहित अवस्था में रहा था, जिस कारण यह युद्ध के शुरू में ही रावणपुत्र इंद्रजित् ने राम एवं | इंद्रजित् का वध कर सका (आ. रा. सार. ११)। लक्ष्मण को नागपाश में बाँध लिया, एवं इन्हें मूछित | इंद्रजित् के वध के पश्चात्, लक्ष्मण ने उसका अवस्था में युद्धभूमि में छोड़ कर वह चला गया (वा.रा. | दाहिना हाथ काट कर उसके घर की ओर फेंक यु. ४२-४६)। बाद में होश में आने पर, राम ने | दिया. एवं बाया हाथ रावण की ओर फेंक दिया। पश्चात् लक्ष्मण को मूछित देख कर, एवं इसे मृत समझ कर | इसके द्वारा काटा गया इंद्रजित् का सर इसने राम को अत्यधिक विलाप करते हुए कहा, दिखाया (आ. रा. १.११.१९०-१९८)। शक्या सीतासमा नारी मर्त्यलोके विचिन्वता । राक्षससंहार-इंद्रजित् के अतिरिक्त लक्ष्मण ने निम्नन लक्ष्मणसमो भ्राता सचिवः सांपरायिकः॥ लिखित राक्षसों का भी वध किया था:-विरूपाक्ष (वा. रा. यु. ४९.६) | (वा. रा. यु. ४३); अतिकाय (वा. रा. यु. ६९-७१)। (इस मृत्युलोक में सीता के समान स्त्री दैववशात् | महाभारत के अनुसार कुंभकर्ण का वध भी लक्ष्मण के मिलना संभव है। किन्तु मंत्री के समान कार्य करनेवाला, | द्वारा हुआ था (म. व. २७१.१७; स्कंद, सेतुमहात्म्य. एवं युद्ध में निपुण लक्ष्मण जैसा भाई मिलना असंभव है)। ४४) । किन्तु काल्मीकिरामायण के अनुसार, कुंभकर्ण का पश्चात् गरुड के आने पर राम एवं लक्ष्मण नागपाश वध राम के द्वारा ही हुआ था। से विमुक्त हो कर, युद्ध के लिए पुनः सिद्ध हुयें । रावण से युद्ध--इंद्रजित् के पश्चात् , रावण स्वयं युद्धभूमि . इंद्वाजत्वध--रावण के पुत्र इंद्रजित् के साथ राम | में उतरा, जिस समय लक्ष्मण ने विभीषण के साथ उसका एवं लक्ष्मण ने छः बार युद्ध किया। इनमें से पहले तीन | सामना किया। इस युद्ध में रावण ने विभीषण की ओर बार इंद्रजित् के द्वारा अदृश्य युद्ध किये गयें। चौथे युद्ध | एक शक्ति फेंकी, जिसे लक्ष्मण ने छिन्नविच्छिन्न कर दिया। के पूर्व इंद्रजित् ने इस युद्ध में अजेय बनने के लिए | पश्चात् रावण के द्वारा फेंकी गयी अमोघा शक्ति इसके यज्ञ प्रारंभ किया। किन्तु उस यज्ञ में बाधा डालने के | छाती में लगी, जिससे यह मूछित हुआ। राम ने लक्ष्मण लिए लक्ष्मण ने हनुमत् , अंगद आदि वानरों को साथ लें | के छाती में घुसी हुई उस शक्ति को निकाल दिया, एवं ७७९ Page #802 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन चरित्रकोश लक्ष्मण सुषेण तथा हनुमत् के साहाय्य से यह पुनः स्वस्थ हुआ के संबंध में एक कल्पनारम्य कथा प्राप्त है । लक्ष्मण स्वयं शेषनाग का अवतार था, एवं रावणपुत्र इंद्रजित् की पत्नी सुलोचना शेषनाग की ही कन्या थी। इस कारण एक दृष्टि से इंद्रजित् इसका दामात होता था । रामरावण - युद्ध में अपने दामात इंद्रजित् का वध करने का जो पाप इसे लगा, उसके निष्कृति के लिए इसने हृषिकेश में एक हज़ार वर्षों तक वायुभक्षण कर के तप किया । लक्ष्मण के इस तपश्चर्या के स्थान में ही इसका यह मंदिर बनवाए जाने की लोकश्रुति प्राप्त है । परिवार अपनी उर्मिला नामक पत्नी से इसे अंगद एवं चंद्रकेतु नामक दो पुत्र उत्पन्न हुए ( वा. रा. उ. १०२; राम दाशरथि देखिये ) | चरित्र-चित्रण -- लक्ष्मण परमक्रोधी, शूरवीर था, एवं राम के प्रति अटूट भक्तिभावना रखता था । इसका क्रोधी स्वभाव दर्शानेवाले अनेक प्रसंग वाल्मीकिरामायण में प्राप्त है, जिनमें निम्नलिखित तीन प्रमुख है:-- ( १ ) दशरथ की आलोचना- राम के वनगमन के संबंध में अपने पिता दशरथ की आज्ञा सुन कर इसने दशरथ राजा की अत्यंत कटु आलोचना की । ( २ ) भरत से भेंट - - राम के वनवासकाल में, भरतं जब उससे मिलने आया, तब उसे शत्रु समझ कर, यह उससे युद्ध करने के लिए प्रवृत्त हुआ। ( ३ ) सुग्रीव की आलोचना - वालिवध के पश्चात्, राम को दी गयी अपनी आन भूल कर सुग्रीव विलास आदि में निमग्न हुआ। उस समय लक्ष्मण ने राम का संदेश सुना कर उसकी अत्यन्त कटु आलोचना की, एवं यह सुग्रीव का वध करने के लिए प्रवृत्त हुआ । किन्तु सुग्रीवपत्नी तारा ने इसका - राग, शान्त किया । इन सारे प्रसंगों से लक्ष्मण के क्रोधीस्वभाव पर काफी प्रकाश पड़ता है। किन्तु इसकी फोधभावना अन्याय के प्रतिकार के लिए अथवा राम की रक्षा के लिए ही प्रकट होती थी। लक्ष्मण (वा.रा.यु. १०२ ) । सीतात्याग — राम को अयोध्या का राज्य पुनः प्राप्त होने पर, उसने लोकनिंदा के कारण, सीता का त्याग करने का निश्चय किया। उस समय राजा के नाते उसका कर्तव्य बताते समय लक्ष्मण ने कहा, 'सृष्टि का यही नियम है कि, यहाँ संयोग का अन्त वियोग में, एवं जीवन का अन्त मृत्यु में होता है पत्नी, पुत्र, मित्र एवं संपत्ति में अधिक आसक्ति रखने से दुःख ही दुःख उत्पन्न होता है। इसी कारण वियोग से अपन्न होनेवाले दुःख से भी कर्तव्य अधिक श्रेष्ठ है। मृत्युक्ष्मण के बेहत्याग के संबंध में अनेक कथा वाल्मीकि रामायण में प्राप्त हैं। एक बार कालपुरुष एक तपस्वी के रूप में राम के पास आया, एवं उसने राम से यह प्रतिज्ञा करा ली कि, वह उससे एकान्त में बात-चित करेगा, वहाँ अन्य कोई व्यक्ति न हो। राय राम ने लक्ष्मण को द्वार पर खड़ा किया, एवं आज्ञा दी कि जो व्यक्ति अंदर आयेगा उसका वध किया जायेगा ( वा. रा. उ. १०३.१३ ) । एकान्त में कालपुरुष ने राम को ब्रह्मा का संदेश बिदित किया कि, रामावतार की समाप्ति समीप आ रही है। इतने में दुर्वास ऋषि लक्ष्मण के पास आयें उन्होंने राम से उसी समय मिलने की इच्छा की, एवं कहा, 'अगर मेरी यह इच्छा पूर्ण न होगी, तो राम, उसके तीन बन्धु एवं उनकी संतति को मैं शाप से नष्ट कर दूंगा'। क्ष्मण ने वंशनाश की अपेक्षा अपना ही नाश स्वीकरणीय समझा, एवं दुर्वासस् को राम के पास जाने के लिए अनुज्ञा दी। पश्चात् राम ने अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार, लक्ष्मण को देहत्याग करने की भाशा दी (बा. रा. उ. १०६.१३ ) | एवं इस पर लक्ष्मण ने सरयू नदी के तट पर जा कर योगमार्ग से श्वास का निरोध पर देहत्याग किया (बा. रा. उ. १०६ ) । इसकी मृत्यु के पश्चात् स्वयं इंद्र ने इसका शरीर स्वर्ग में ले लिया, एवं वहाँ उपस्थित देवताओ ने इसे विष्णु का चतुर्थी मान कर इसकी पूजा की (वा. रा. उ. १०३-१०६) । इसने जहाँ देहत्याग किया, वहाँ 'सहस्रधारा' नामक तीर्थ का निर्माण हुआ ( स्कंद. २.८.२ ) । हिमालय की तराई में हृषिकेश नामक स्थान में एक मंदिर है, जहाँ लक्ष्मण झूला नामक एक पूल है। इस स्थान ૭૯૦ मानस में-- तुलसी के 'रामचरित मानस' में लक्ष्मण राम का अभिन्न संगी है। इस कारण लक्ष्मण का चरित्र राम से किसी प्रकार भिन्न नहीं है। इसके हृदय में भक्ति, ज्ञान एवं कर्मयोग की त्रिवेणी प्रवाहित होती हुई होती है बंदउँ लछिमन मन पद जल जाता सीतल सुभग सुखदाता | रघुपति कीरति विमल पताका, दंड समान भय उस राका ( मानस. बा. १६.५ - ६ )। Page #803 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लक्ष्मण प्राचीन चरित्रकोश लक्ष्मी तुलसीद्वारा चित्रित लक्ष्मण एक तेजःपुंज वीर है । वह पुत्रपौत्रादि परिवार, धनधान्यविपुलता आदि की प्राप्ति स्वभाव से उग्र एवं असहिष्णु ज़रूर है, किन्तु इसका क्रोध के लिए लक्ष्मी एवं श्री की उपासना की जाती है। इसी राम के प्रति इसके अनन्य सेवाव्रत एवं उत्कट अनुराग | कारण श्रीसूक्त में प्रार्थना की गयी हैसे प्रेरित है। इसी कारण इसका असहिष्णु स्वभाव मोहक यस्यां हिरण्यं विन्देयं गामश्वं पुरुषानहम् ॥ २॥ लगता है। लक्ष्मणा-एक अप्सरा, जो कश्यप एवं मुनि की (सुवर्ण, गायें, अश्व एवं चाकरनौकर आदि परिवार कन्या थी । अर्जुन के जन्मोत्सव में इसने नृत्य किया | से युक्त लक्ष्मी मुझे प्राप्त हो)। था (म. आ. ११४.५१)। पाठभेद- लक्षणा'। धनधान्यादि भौतिक संपत्ति (धनलक्ष्मी) ही नही, के स्वयंवर में श्रीकष्ण | बल्कि सैन्यसंपत्ति (सैन्यलक्ष्मी) का भी लक्ष्मी में ही पुत्र सांब ने इसका हरण किया था (भा. १०.६८.१: | समावेश किया जाता थाबलराम एवं सांब देखिये)। अश्वपूर्वी रथमध्यां हस्तिनादप्रबोधिनीम् । ३. दुष्यन्त राजा की प्रथम पत्नी (म. आ. ८९. श्रियं देवीमुपह्वये श्रीर्मा देवी जुषताम् ॥ ३॥ ८७७* ) । इसे लाक्षी नामान्तर भी प्राप्त था। इसके (अश्व, रथ, हाथी आदि से सुसज्जित सैन्य का रूप पुत्र का नाम जनमेजय था.। धारण करनेवाली लक्ष्मी मुझे प्राप्त हो, एवं उसका निवास लक्ष्मणा-माद्री-मद्र देश के बृहत्सेन राजा की चिरंतन मेरे घर में ही हो)। कन्या, जो कृष्ण के पटरानियों में से एक थी (पद्म. सू. १३) । इसे लक्षणा नामान्तर भी प्राप्त था (म. स | लक्ष्मीदेवता की उत्क्रांति-ऐश्वर्य प्रदान करनेवाले परि. १. क्र.२१. पंक्ति. १२५५-१२५६)। 'लक्ष्मी' देवता की कल्पना अथर्ववेदकालीन है। उस स्वयंवर--द्रौपदीस्वयंवर के भाँति इसके स्वयंवर की ग्रंथ में अनेक 'भावानात्मक' देवताओं का निर्देश प्राप्त ग्रंथ म . भी रचना की गई थी। इसके स्वयंवर की शर्त थी कि, है, जिनकी उपासना से प्रेम, विद्या, बुद्धि, वाक्चातुर्य उपर टंगी मछली की छाया नीचे रखे जलपात्र में देख आदि इच्छित सिद्धिओं का लाभ प्राप्त होता है । अथर्वकर जो शरसंधान करेगा, उसीके साथ इसका विवाह वेद में निर्दिष्ट ऐसी देवताओं में काम (प्रेमदेवता), सरस्वती होगा। (विद्या), मेधा (बुद्धि), वाक् (वाणी) आदि देवता लक्ष्मणा के स्वयंवर में श्रीकृष्ण के अतिरिक्त जरासंध, । प्रमुख हैं, जिनमें ऐश्वर्य प्रदान करनेवाली लक्ष्मी देवता का प्रमुखता से निर्देश किया गया है। अंबष्ठ, शिशुपाल, भीम, दुर्योधन, कर्ण, अर्जुन आदि | महाधनुर्धर उपस्थित थे। किन्तु उनमें से कोई भी वीर | स्वरूपवर्णन--श्रीसूक्त में लक्ष्मी का स्वरूपवर्णन प्राप्त मत्स्यभेद में सफल न हुए । अर्जुन का बाण भी मत्स्य- है, जहाँ इसे हिरण्यवर्णा, पद्मस्थिता, पनवर्णा, पमसंधान न कर सका, एवं मत्स्य को स्पर्श करता हुआ उपर | मालिनी, पुष्करिणी, आदि स्वरूपवर्णनात्मक विशेषण से निकल गया । अन्त में मत्स्य का भेद कर, कृष्ण ने | प्रयुक्त किये गये हैं। वाल्मीकि रामायण में प्राप्त इसके इसका हरण किया, एवं इसे अपनी आठ पटरानियों में | स्वरूपवर्णन में, इसे शुभ्रवस्त्रधारिणी, तरुणी, मुकुटधारिणी, एक स्थान दिया। कुंचितकेशा, चतुर्हस्ता, सुवर्णकान्ति, मणिमुक्तादिभूषिता परिवार-इसे निम्नलिखित दस पुत्र थे:-प्रघोष, | कहा गया है (वा. रा. बा. ४५)। पुराणों में वर्णित लक्ष्मी गात्रवत् , सिंह, बल, प्रबल, ऊर्ध्वग, महाशक्ति, सह, | कमलासना, कमलहस्ता, एवं कमलमालाधरिणी है। एरावतों ओज एवं अपराजित (भा. १०.५८.५७; ६१.१५)। के द्वारा सुवर्णपात्र में लाये हुए तीर्थजल से यह स्नान लक्ष्मण्य--ध्वन्य नामक आचार्य का पैतृक नाम | (सुस्नात) करती है, एवं सदेव विष्णु के वक्षःस्थल में (ऋ. ५.३३.१०)। | रहती है (विष्णु. १.९.९८-१०५)। लक्ष्मी--समुद्र से प्रकट हुई एक देवी, जो भगवान् | निवासस्थान--लक्ष्मी क्षीरसागर में अपने पति विष्णु की पत्नी मानी जाती है। श्रीविष्णु के साथ रहती है, एवं अपने अन्य एक एश्वर्य का प्रतीकरूप देवता मान कर, ऋग्वेदिक श्रीसूक्त | अवतार राधा के रूप में कृष्ण के साथ गोलोक में रहती में इसका वर्णन किया गया है। समृद्धि,संपत्ति,आयुरारोग्य | है (राधा देखिये)। ७८१ Page #804 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लक्ष्मी प्राचीन चरित्रकोश लक्ष्मी महाभारत में लक्ष्मी के 'विष्णुपत्नी लक्ष्मी' एवं 'राज्य- | के दरम्यान हुए एक संवाद की जानकारी युधिष्ठिर को दी लक्ष्मी' ऐसे दो प्रकार बताये गये हैं। इनमें से लक्ष्मी | (म. अनु. ११)। हमेशा विष्णु के पास रहती है, एवं राज्यलक्ष्मी राजा इस जानकारी के अनुसार, लक्ष्मी ने रुक्मिणी से कहा एवं पराक्रमी लोगों के साथ घूमती है, ऐसा निर्देश प्राप्त | था, 'सृष्टि के सारे लोगों में प्रगल्भ, भाषणकुशल, दक्ष, निरलस, आस्तिक, अक्रोधन, कृतज्ञ, जितेंद्रिय, वृद्धजनों लक्ष्मी का निवासस्थान कहाँ रहता है, इसका रूप- | की सेवा करनेवाले (वृद्धसेवक ), सत्यनिष्ठ, शांत कात्मक दिग्दर्शन करनेवाली अनेकानेक कथाएँ महा- | स्वभाववाले (शांत ), एवं सदाचारी लोग मुझे सब से भारत एवं पुराणों में प्राप्त है, जिनमें निम्नलिखित कथाएँ अधिक प्रिय हैं, जिनके यहाँ रहना मैं विशेष पसंद करती प्रमुख हैं: (१) लक्ष्मी-प्रल्हादसंवाद--असुरराज प्रल्हाद ने 'निर्लज्ज, कलहप्रिय, निंद्राप्रिय, मलीन, अशांत, एवं एक ब्राह्मण को अपना शील प्रदान किया, जिस कारण असमाधानी लोगों का मैं अतीव तिरस्कार करती हूँ, क्रमानुसार उसका तेज, धर्म सत्य, वृत्त, बल एवं अंत जिस कारण ऐसे लोगों का मैं त्याग करती हूँ। में उसकी लक्ष्मी उसे छोड़ कर चले गये । तत्पश्चात् लक्ष्मी | महाभारत में अन्यत्र प्राप्त जानकारी के अनुसार, ने प्रल्हाद को साक्षात् दर्शन दे कर उपदेश दिया, 'तेज़, | गायें एवं गोबर में भी लक्ष्मी का निवास रहता है (म. धर्म, सत्य, वृत्त, बल एवं शील आदि मानवी गुणों में | अनु. ८२)। मेरा निवास रहता है, जिन में से शील अथवा चारित्र्य | जन्म--देवासुरों के द्वारा किये गये समुद्रमंथन से, मुझे सबसे अधिक प्रिय है। इसी कारण सच्छील आदमी. | चंद्र के पश्चात् लक्ष्मी का अवतार हुआ (म.आ. १६.३४; के यहाँ रहना मैं सबसे अधिक पसंद करती हूँ। 'शीलं विष्णु. १.८.५; भा. ८.८.८; पद्म. सु. ४)। इस परं भूषणम् , इस उक्ति का भी यही अर्थ है ' (म. शां. 'अयोनिज' देवता को ब्रह्मा ने श्रीविष्णु को प्रदान १२४.४५-६०)। किया, एवं विष्णु ने इसे पत्नी के रूप में स्वीकार (२) लक्ष्मी-इंद्रसंवाद--असुरराज प्रह्लाद के समान, किया। पश्चात् यह उसके सन्निध क्षीरसागर में निवास उसका पौत्र बलि का भी लक्ष्मी ने त्याग किया। बलि का करने लगी। . त्याग करने की कारणपरंपरा इंद्र से बताते समय लक्ष्मी | ब्रह्मन के पत्र भग ऋषि की कन्या के रूप में लक्ष्मी ने कहा, 'पृथ्वी के सारे निवासस्थानों में से भूमि, (वित्त) पृथ्वीलोक में पुनः अवतीर्ण हुई। इस समय, दक्षकन्या जल (तीर्थादि), अग्नि ( यज्ञादि) एवं विद्या (ज्ञान) ख्याति इसकी माता थी (विष्णु. १.८) । कालोपरान्त ये चार स्थान मुझे अत्यधिक प्रिय हैं । सत्य, दान, व्रत, | इसका विवाह विष्णु के एक अवतार नारायण से हुआ, तपस्या, पराक्रम, एवं धर्म जहाँ वास करते हैं, वहाँ जिससे इसे बल एवं उन्माद नामक दो पुत्र उत्पन्न हुए। मेरा भी निवास रहता है। देवब्राह्मणों से नम्रता के साथ ब्रह्मवैवर्त के अनुसार, विष्णु के दक्षिणांग से लक्ष्मी व्यवहार करनेवाला मनुष्य मुझे अत्यधिक प्रिय है। । का, एवं वामांग से लक्ष्मी के ही अन्य एक अवतार राधा लक्ष्मी ने आगे कहा, 'चोरी, वासना, अपवित्रता, | का जन्म हुआ (ब्रह्मवै. २.४७.४४)। एवं अशांति से मैं अत्यधिक घृणा करती हूँ, जिनके | भृगु से वरदान-विष्णु के वक्षस्थल में लक्ष्मी का आधिक्य के कारण क्रमशः भूमि, जल, अग्नि, एवं विद्या निवासस्थान कैसे हुआ, इस संबंध में एक रूपकात्मक में स्थित मेरे प्रिय निवासस्थानों का मैं त्याग कर देती हूँ। | कथा पुराणों में प्राप्त है। 'बलि दैन्य ने उच्छिष्टभक्षण किया, एवं देवब्राह्मणों | स्वायंभुव मनु के यज्ञ के समय, ब्रह्मा, विष्णु, महेश का विरोध किया, जिस कारण वह मेरा अत्यंत प्रिय इन तीन देवों में से श्रेष्ठ कौन, इसका निर्णय करने का व्यक्ति हो कर भी, आज मैं उसका त्याग कर रही हूँ। कार्य भृगु ऋषि पर सौंपा गया। इस संबंध में जाँच (म. शां. २१)। लेने के लिए तीनों देवों के पास भगु स्वयं गया। उस (३) लक्ष्मी-रुक्मिणीसंवाद-लक्ष्मी के निवासस्थान | समय, ब्रह्मा एवं शिव ने भृगु का बरी प्रकार से अपमान से संबंधित एक प्रश्न युधिष्ठिर ने भीष्म से पूछा था, किया । केवल विष्णु ने ही भृगु का उचित आदरसत्कार जिसका जवाब देते समय भीष्म ने लक्ष्मी एवं रुक्मिणी | किया, एवं भृगु के द्वारा छाती पर किया गया लत्ताप्रहार ७८२ Page #805 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लक्ष्मी प्राचीन चरित्रकोश लक्ष्मी ७१)। भी शांति से स्वीकार कर, उसे 'श्रीवत्सलांछन' के पद्म में गोकुल की भानु ग्वाले की कन्या राधा को भी रूप में अपने वक्षःस्थल पर धारण किया (भा. १०.८९. लक्ष्मी का ही अवतार कहा गया है। राधा जन्म से ही १-१२)। इस कारण, भृगु अत्यधिक प्रसन्न हुआ, एवं अंधी, गुंगी एवं लूली थी, किंतु उसे लक्ष्मी का अवतार उसके द्वारा दिये गये 'श्रीवत्सलांछन' के रूप में लक्ष्मी जान कर, नारद ने उसका दर्शन लिया था (पन्न. पा. हमेशा के लिए श्रीविष्णु के वक्षःस्थल पर निवास करने लगी। ___ लक्ष्मी के दोष--ब्रह्म में लक्ष्मी एवं दारिद्रता (अलक्ष्मी) ब्रह्मा, विष्णु, महेशादि देवों से भी भृगु जैसे ब्राह्मण के दरम्यान हुआ एक कल्पनारम्य संवाद प्राप्त है, जो अधिक श्रेष्ठ हैं, एवं पृथ्वी के लक्ष्मी के जनक भी वे ही है, गोदावरी नदी के तट पर स्थित लक्ष्मीतीर्थ का माहात्म्य ऐसा उपर्युक्त रूपकात्मक कथा का अर्थ प्रतीत होता है।। बताने के लिए दिया गया है (ब्रह्म. १३७)। इस संवाद साक्षात् श्रीविष्णु को लक्ष्मी प्रदान करनेवाले भृगु ऋषि की में लक्ष्मी की अत्यंत कठोर शब्दों में निर्भर्त्सना की गई है। इस कथा से ही, ब्राह्मणों की सेवा पूजन आदि से लक्ष्मी एक बार लक्ष्मी एवं अलक्ष्मी के दरम्यान श्रेष्ठ कौन प्राप्त होती है, यह जनश्रुति का जन्म हुआ होगा। इस संबंध में संवाद हुआ था। इस समय लक्ष्मी ने अपना भृगु का शाप--एक बार लक्ष्मी ने लक्ष्मीनगर नामक | श्रेष्ठत्व बताते हुए कहा, 'मैं जिसके साथ रहूँ, उसका नगर का निर्माण कर, जो इसने अपने पिता भृगु ऋषि को | इस संसार में सर्वत्र सत्कार होता है, एवं मेरे अनुपस्थिति. | में निर्धन एवं याचक लोगों की सर्वत्र अवहेलना होती है। प्रदान किया। कालोपरांत इसने भृगु से वह नगर लौट इस दुर्गति से शिव जैसा देवाधिदेव भी न बच सका, लेना चाहा, किंतु उसने एक बार प्राप्त हुआ नगर लौट | देने से इन्कार कर दिया। इसी संबंध में मध्यस्थता करने जिस कारण उसकी सर्वत्र उपेक्षा एवं अवहेलना हुई। | इस पर लक्ष्मी के दोष बताते हुए अलक्ष्मी ने कहा, के लिए आये हुए श्रीविष्णु की भी भृगु ने एक न सुनी, | एवं क्रुद्ध हो कर उसे शाप दिया, 'पृथ्वी पर दस |, 'तुम सदैव पापी, विश्वासघाती, एवं दुराचारी लोगों में रहती हो, तथा मद्य से भी अधिक अनर्थ पैदा करती . मानवी अवतार लेने पर तुम विवश होंगे' ( पद्म.स. ४)। हो । राजाश्रित, पापी, खल, निष्ठर, लोभी एवं कायर . . भृगु ऋषि के उपर्युक्त शाप के अनुसार, विष्णु ने लोगों के घर तुम्हारा निवास रहता है, एवं अनार्य, , पृथ्वी पर दस अवतार लिये, जिन समय लक्ष्मी ने पत्नी कृतघ्न, धर्मघातकी, मित्रद्रोही एवं अविचारी लोगों से • धर्म के अनुसार दस अवतार ले कर श्रीविष्णु को साथ तुम्हारी उपासना की जाती है। दिया। __ अलक्ष्मी ने आगे कहा, 'मेरा निवास धर्मशील, लक्ष्मी के अवतार--लक्ष्मी के इन दस अवतारों में पापभीरू, कृतज्ञ, विद्वान् एवं साधु लोगों में रहता है, एवं निम्नलिखित अवतार प्रमुख है :--१. कमलोद्भव लक्ष्मी पवित्र ब्राह्मण, संन्यासी एवं ध्येयनिष्ठ लोगों से मेरी (वामनावतार); २. भूमि (परशुरामवातार); सीता उपासना की जाती है । इसी कारण काम, क्रोध, औद्धत्य (रामावतार ); ४. रुक्मिणी (कृष्णावतार )(विष्णु. १.९. | आदि तामसी विकारों को मैं दूर रखती हूँ, एवं अपने १४०-१४१; भा. ५.१८.१५, ८.८.८)। भक्तों को मुक्ति प्रदान करती हूँ' (ब्रह्म. १३७) ब्रह्मवैवर्त में लक्ष्मी के अवतार विभिन्न प्रकार से दिये। भर्तृहरि के अनुसार, उपर्युक्त संवाद में लक्ष्मी एवं गये हैं। वहाँ निर्दिष्ट लक्ष्मी के अवतार, एवं उनके प्रकट | अलक्ष्मी का संकेत संपन्नता एवं दरिद्रता से नही, किन्तु होने के स्थान निम्नप्रकार हैं :--१. महालक्ष्मी (वैकुंठ) लक्ष्मी की तामस उपासना करनेवाले बुभुक्षित लोग एवं २. स्वगलक्ष्मी (स्वर्ग); ३.राधा (गोलोक); ४. राजलक्ष्मी | दरिद्रता में ही तृप्त रहनेवाले सात्विक लोगों की ओर (पाताल, भूलोक ); ५. गृहलक्ष्मी (गृह);६. सुरभि | अभिप्रेत है। .. (गोलोक ); ७. दक्षिणा ( यज्ञ); ८. शोभा (वस्तुमात्र) परिवार विष्णु से इसे बल एवं उन्माद नामक दो (ब्रह्मवे. २. ३५)। महालक्ष्मी के अवतार में, भृगुऋषि के | पुत्र उत्पन्न हुए थे । श्रीसूक्त में इसके निम्नलिखित पत्रों शाप के कारण, इसे हाथी का शीर्ष प्राप्त हुआ था, जिसे | का निर्देश प्राप्त है:- आनंद, कर्दम, श्रीद और चिक्लित । काट कर ब्रह्मा ने इसे महालक्ष्मी नाम प्रदान किया था। इसके धातृ एवं विधातृ नामक दो भाई भी थे, जो (स्कंद. ६.८५)। | इसी के तरह भृगु ऋषि एवं ख्याति के पुत्र थे । ७८३ Page #806 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लक्ष्मी लक्ष्मीप्रद सूक्त -- इन सूक्तों में निम्नलिखित दो ग्रंथ प्रमुख माने जाते है:- १. श्रीसूक्त (ऋ. परि. ११)। २. इंद्रकृत लक्ष्मीस्तोत्र, जो विष्णु पुराण में प्राप्त है ( विष्णु. १.९.११५ - १३७ ) । २. दक्ष प्रजापति की एक कन्या, जो धर्मप्रजापति की पत्नी थी (म. आ. ६०-१३) | ३. वीर नामक ब्राह्मण की पत्नी, जो अपने पूर्वजन्म में तोण्डमान नामक राज्य की पद्मा नामक पत्नी थी (भीम. २४. देखिये) । लक्ष्मीनिधि - सीता का बंधु ( पद्म. पा. ११ ) । लगध एक ग्रंथकार, जो 'ऋग्वेद वेदांग ज्योतिष का कर्ता माना जाता है। इसके नाम के लिए कई ग्रंथों में 'लाड' पाउमेद भी प्राप्त हैं। किन्तु के. शं. वा विक्षित के अनुसार, 'डगध' पाठभेद ही स्वीकरणीय है (दिक्षित, भारतीय ज्योतिष पृ. ७२ ) । प्राचीन चरित्रकोश वेदांग ज्योतिष - वेदांग ज्योतिष का समावेश छः वेदांगों में सर्वतोपरि माना जाता है, जिस प्रकार मसुरों की शिखाएँ एवं नागों की मणियों सर्वोपरि रहती है यथा शिक्षा मयूराणां नागानां मणयो यथा। सोगशास्त्राणां ज्योतिष मूर्धनि स्थितम् ॥ (वे. ज्यो. श्लोक ४ ) भारतीय ज्योतिषशास्त्र का मूल ग्रंथ 'वेदांगज्योतिष' माना जाता है, जिससे आगे चल कर ज्योतिषशास्त्र ने संहिता, गणित एवं जातक इन तीन भागों में अपना विकास किया। आर्यभट्ट, वराहमिहिर, ब्रह्मगुप्त एवं भास्कराचार्य जैसे ज्योतिबिंदो ने इस शास्त्र को अभिनव रूप प्रदान किया। लंगाक निर्देशित है, जिससे प्रतीत होता है कि, यह उत्तर काश्मीर अथवा अफगाणिस्थान का निवासी था । । ऐसे महान् शास्त्रों को जन्म देनेवाले 'ऋग्वेदी वेदांग ज्योतिष ' ग्रन्थ में केवल ३६ श्लोक हैं । इसी ग्रंथ का 'यजुर्वेद वेदांगज्योतिष' नामक एक अन्य संस्करण प्राप्त है, जिसमें ४३ लोक प्राप्त है उनमें से ३६ ठोक ऋग्वेदवेदांगज्योतिष के, एवं ७ श्लोक नये है । मॅक्स म्यूलर के अनुसार, इस छोटे ग्रन्थ का उद्देश्य ज्योतिष की शिक्षा देना नहीं है, बल्कि आकाशीय ग्रह आदि के बारे में वह ज्ञान प्रदान करना है, जो वैदिक यज्ञों के दिन एवं मुहूर्त के निश्वयार्थ आवश्यक है। कालनिर्णय इस ग्रन्थ में बतायी गई विपुवास्थिति के आधार पर कै. शं. बा. दिक्षित ने इस ग्रन्थ का काल पाणिनि एवं यास्क के पूर्व अर्थात् ई. पू. १४०० निश्चित किया है (दिक्षित, भारतीय ज्योतिष ८८ पाणिनि देखिये ) । किन्तु कई अन्य अभ्यासकों के अनुसार, तारों के सापेक्ष सूर्य की स्थिति के आधार पर इस ग्रन्थ का रचनाकाल का अनुमान लगाना योग्य नहीं है। इसी कारण कई अन्य अभ्यासकों ने इसका कालनिर्णय निम्न प्रकार दिया है : १. मॅक्सम्यूलर ई. पू. ३ रीं शताब्दी २. वेबर - ई. पू. ५ वीं शताब्दी ; ३. लोकमान्य तिलक— ई. पू. १२६९-११८१ (ओरायन. १ ३७-१८ )४८ विल्यम जोन्स ई. पू. ११८११५ को ई. पू. १३८१६. वि. वि. ई. पू. १२०० । के द्वारा ई. स. १८८९ में प्रकाशित किया गया है। ऋग्वेदऋग्वेद वेदांगज्योतिष का अंग्रेजी अनुवाद प्रो. थिबो `एवं यजुर्वेद वेदांगज्योतिष का मराठी अनुवाद ई. स. १८८५ में प्रसिद्ध हो चुका है, जो के. ज. वा. मोडल के द्वारा किया गया है। लघु - (सो. यदु ) एक राजा, जो वायु के अनुसार यदु राजश का पुत्र था | लध्विन -- अंगिराकुलोत्पन्न, एक गोत्रकार । - लज्जा दक्षप्रजापति की एक कन्या, जो धर्मप्रजापति की पत्नी थी। ( म. आ. ६०.१४) । लता - एक अप्सरा, जो वर्गा नामक अप्सरा की सखी थी । ब्रह्मा के शाप के कारण, इसे ग्राहयोनि में जन्म प्राप्त हुआ था । किन्तु अर्जुन ने इसे ग्राहयोनि से विमुक्त कराया (म. आं. २०८.१९) । २. मेरु की एक कन्या, जो आनीत्रपुत्र इलावृत्त राजा की पत्नी थी ( भा. ५.२.२३ ) । लपिता - एक शार्ङ्ग, जो मंदपाल ऋषि की द्वितीय पानी थी। इसकी सौत का नाम जरितृ था (म. आ. २२०.१७; मंदपाल देखिये) । जन्मस्थान -- वेदांग ज्योतिषशास्त्र का प्रणयन करनेवाला गध एक भारतीय व्यक्ति था, या विदेशी, इसके बारे मैं निश्रित जानकारी अप्राप्य है। इस ग्रन्थ में लगध का जन्मस्थान ३४ | ४६ अथवा ३४ । ५५ अक्षांश पर लब ऐंद्र - एक वैदिक सूक्तद्रष्टा (ऋ. १०.१२१ ) । पाक- एक लोकसमूह जो भारतीय युद्ध में कौरवों के पक्ष में शामिल था। इन्होंने यादव राजा सात्यकि पर आक्रमण किया, जिसने इन्हे परास्त किया ( म. द्रो. ९७. ४८ पाठ - अम्बष्ठ ) । | ७८४ Page #807 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन चरित्रकोश लांगलि लंब--एक असुर, जो खर नामक दैत्य का भाई था ३. एक लोकसमूह, जो भारतीय युद्ध में त्रिगर्तराज (मत्स्य. १७३.२२)। | सुशमन के साथ उपस्थित था, एवं कौरवों के पक्ष में शामिल लंबन--एक राजा, जो ज्योतिष्मत् राजा के सात था। इन्होंने अर्जुन का वध करने की प्रतिज्ञा की थी (म. पुत्रों में से एक था। इसका राज्य 'लंबनवर्ष' पर था, | द्रो. १६.२०)। किंतु अंत में अर्जुन ने इनका संहार जो कुशद्वीप का उपविभाग माना जाता था ( माकै.५०)। | किया (म. क. ४.४६ )। लंबपयोधरा--स्कंद की अनुचरी एक मातृका अपने उत्तर दिग्विजय के समय, कर्ण ने इन्हें जीता (म. श. ४५.१७)। पाठभेद-लंबा'। था (म. द्रो. ६६.३८)। - लंबा-प्राचेतस दक्ष की एक कन्या, जो धर्म ऋषि की | लव-राम दाशरथि राजा के दो पुत्रों में से कनिष्ठ पत्नी थी। इसके विद्योत एवं घोष नामक दो पुत्र थे | पुत्र (कुशलव, एवं राम दाशरथि देखिये)। (भा. ६.३.४)। लवंगा--एक गोपी, जो पूर्वजन्म में पुण्यश्रवस् नामक २: लंबपयोधरा का नामांतर। कृष्णभक्त ऋषि थी। लंबनी--स्कंद की अनुचरी एक मातृका (म. श. | लवण-मधुवन निवासी एक राक्षस, जो मधु नामक राक्षस का पुत्र था। इसकी माता का नाम कुंभीनसी था। लंबाक्ष--तप नामक शिवावतार का शिष्य । ___ रुद्र की कृपा से इसे एक शूल प्राप्त हुआ था, जो लंबायन-वसिष्ठकुलोत्पन्न एक गोत्रकार । हाथ में रहते यह अमर एवं युद्ध में अजेय रहता था। लंबोदर (आंध्र. भविष्य.) एक आंध्रवंशीय राजा, | इसी शूल से इसने मांधात राजा का उसके सैन्य के जो भागवत के अनुसार पौणिमास राजा का, एवं विष्णु सहित संहार किया था ( वा. रा. उ. ६७.२१; म. अनु. एवं मत्स्य के अनुसार शातकर्णि राजा का पुत्र था। १४.२६७-२६८)। २. तप नामक शिवावतार का शिष्य। राम दाशरथि की आज्ञा से शत्रुघ्न ने इसपर आक्रमण लय--यमसभा में उपस्थित एक प्राचीन नरेश (म. | किया, एवं इसे शूलरहित स्थिति में पकड़ कर इसका वध स. ८.१९ पाठ.)। किया (शत्रुघ्न देखिये)। ललाटाक्ष--एक लोकसमूह, जो युधिष्ठिर के राजसूय २. रामणीयक द्वीप में रहनेवाला एक असुर, जिसे यज्ञ के समय भेंट ले कर उपस्थित हुआ था (म. स. नागों ने इस द्वीप में प्रवेश करते समय देखा था (म. ४७.२)। आ. २३.३०७%)। ललाटाक्षी--एक राक्षसी, जो अशोकवन में सीता ३. (सू. इ.) हरिश्चंद्र के वंश का एक राजा । इसने के संरक्षण के लिए नियुक्त की गयी थी। ललाटि-लालाटि नामक भृगुकुलोत्पन्न गोत्रकार का कई राजसूय यज्ञ किये थे, जिनके करने के अभिमान के कारण इसका नाश हुआ (यो. वा. ३.१०४-११५)। ललित--एक गंधर्व, जो शाप के कारण राक्षस हुआ लवणाश्च-एक ऋषि, जो पाण्डवों के साथ वन में था। 'कामदा एकादशी का व्रत करने के कारण यह | रहता था ( म. व. २७.२३)। शापमुक्त हो गया (पद्म. उ. ४७)। ला-एक ऋषि, जो भुज्यु ऋषि का पिता था। ललिता-दक्षकन्या सती का एक नामांतर (पम. स. लाक्षी–कृष्णपत्नी लक्ष्मणा माद्री का नामान्तर । २९)। लांगलायन मौद्गल्य-ब्रह्मन् मौद्गल्य नामक आचार्य २. कृष्ण की पत्नियों में से एक (पद्म. पा. ७४)। का पैतृक नाम (ऐ.बा.५.३)। लांगल का वंशज होने ललित्थ--(सो. अज.) एक राजा, जो वायु के | के कारण, उसे यह पैतृक नाम प्राप्त हुआ होगा। अनुसार इंद्रसख अथवा विद्योपरिचरवसु राजा का पुत्र लांगलि--एक शतशाखाध्यायी आचार्य, जो विष्णु, था। वायु एवं ब्रह्मांड के अनुसार, व्यास की सामशिष्यपरंपरा २. एक राजा, जो भारतीय युद्ध में कौरवों के पक्ष में | में से पौध्य जि नामक आचार्य का शिष्य था। भागवत में शामिल था (म. द्रो. ३३.२५)। इसने अभिमन्यु पर | इसे 'मांगलि' कहा गया है। इसे 'शालिहोत्र' एवं बाणों की वर्षा की थी (म. द्रो, ३६.२५)। | 'सामवेदी श्रुतर्षि' आदि उपाधियाँ भी प्राप्त थी। प्रा. च. ९९] नामांतर। Page #808 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लांगलिन् प्राचीन चरित्रकोश लिखित लांगलिन्-इक्ष्वाकुवंशीय पुष्कल राजा का नामान्तर। लातव्य-कुशांब स्वायव नामक आचार्य का पैतृक भागवत में इसे शुद्धोद राजा का पुत्र कहा गया है (पुष्कल | नाम (पं. बा. ८.६.८)। लतु का वंशज होने से उसे २. देखिये)। यह पैतृक नाम प्राप्त हुआ होगा। लांगलिन् भीम---एक शिवावतार, जो वाराह २. एक गोत्रनाम । इंद्र के द्वारा ओंकार के संबंधी कल्पान्तर्गत वैवस्वत मन्वन्तर के बाईसवें युगचक्र में उत्पन्न | जानकारी पूछी जाने पर, प्रजापति ने ओंकार का गोत्र हुआ था। कई पुराणों में इसका नाम 'लांगुलिन् ' प्राप्त 'लातव्य' बताया था (गो. ब्रा. १.१.३५)। है, किन्तु अढाइसवें युगचक्र में उत्पन्न हुए लकुलिन् | लामकायन-एक आचार्य, जो यज्ञकर्म से संबंधित नामक शिवावतार से यह विभिन्न है । समस्याओं का ज्येष्ठ अधिकारी व्यक्ति माना जाता था 'यह शिवावतार हाथ में हल ले कर उत्पन्न हुआ था, (ला. श्री. ४.९.२२; द्रा. श्री. ४.३८.४; नि. सू. एवं इसके भल्लविन , मधु, पिंग एवं श्वेतकेतु नामक चार ३.१२.१३)। वंश ब्राह्मण में संवर्गजित् नामक आचार्य शिष्य थे (शिव. शत. ५)। का पैतृक नाम 'लामकायन' बताया गया है (वं. बा. २, संवर्गजित् देखिये) । लमक का वंशज होने से इसे यह लाट--एक क्षत्रिय जाति, जो ब्राह्मणों के साथ ईर्ष्या नाम प्राप्त हुआ होगा। रखने से नीच बन गई। लालवि-एक राक्षस, जो कश्यप एवं खशा का एक अशोक के शिलालेखो में इन लोगों का निर्देश 'लाटिक' पुत्र था। नाम से प्राप्त है। ये लोग पश्चिम भारत में सुराष्ट्र के दक्षिण | लालाटि-भृगुकुलोत्पन्न एक गोत्रकार। में रहते थे। लालावि-एक राक्षस, जो कश्यप एवं खशा का . लाट्यायन--एक आचार्य, जो सामवेद के पंचविंश | पत्र था। ब्राह्मण पर आधारित 'लाट्यायन श्रौतसूत्र' नामक ग्रंथ का लावकि-विश्वामित्रकुलोत्पन्न एक गोत्रकार। कर्ता माना जाता है । यह ग्रंथ सामवेदान्तर्गत कौथुमीय लावकृत-अंगिराकुलोत्पन्न एक गोत्रकार । शाखा का श्रौतसूत्र माना जाता है । वेबर के अनुसार, | लावण्यवती-रथन्तर कल्प के पुष्पवाहन राजा की लाट्यायन, शाट्यायन एवं शालंकायन ये सारे आचार्य कन्या (पन. सृ. २०)। . पश्चिम भारत के निवासी थे (वेबर, हिस्टरी ऑफ इंडियन लाह्यायन अथवा लाह्यायनि--भुज्यु नामक आचार्य लिटरेचर, पृ. ७७)। का पैतृक नाम (बृ. उ. ३.३.१.२.)। लह्य का वंशज लाट्यायन श्रौतसूत्र-इस ग्रंथ के कुल दस प्रपाठक | होने से उसे यह पैतृक नाम प्राप्त हुआ होगा। (अध्याय) हैं। उनमें से पहले सात प्रपाठकों में | लिखित-एक मुनि, जो जैगीष्यव्य के दो पुत्रों में सोमयज्ञों की; आठवे एवं नववे प्रपाठक के पूर्वार्ध में से एक था। इसकी माता का नाम एकपर्णा, एवं भाई का विभिन्न 'एकाह' यज्ञों की; नववे प्रपाठक के उत्तरार्ध | नाम शंख था (ब्रह्मांड. ३.१०.२१)। में 'अहीन' यज्ञों की; एवं दसवे प्रपाठक में 'सत्र'। यह बाहुदा नदी के तट पर आश्रम बना कर रहता यज्ञों की जानकारी प्राप्त हैं । वेबर के अनुसार, इस ग्रंथ | था, जहाँ निकट ही इसके भाई शंख का भी आश्रम था। का रचनाकाल अन्य वेदों के श्रौतसूत्रों से काफ़ी पूर्व- | एक बार शंख के अनुपस्थिति में यह उसके आश्रम में कालीन था । इस ग्रंथ पर उपलब्ध भाष्यों मे अग्निस्वामिन् | गया, एवं बिना पूछे ही आश्रम में से कुछ फल खाने का भाष्य विशेष सुविख्यात है। | लगा । इतने में शंख वहाँ उपस्थित हुआ, एवं इस पर पूर्वाचार्य-' लाट्यायन श्रौतसूत्र' में निम्नलिखित | चोरी का आरोप लगा कर, उसने इसे राजा के पास से पूर्वाचार्यों का निर्देश प्राप्त हैं :- स्थविर गौतम, | इस अपराध की सज़ा लेने के लिए कहा। शौचिवृक्षि, क्षैरकलंभि, कौत्स, वार्षगण्य, भाण्डिता- तदोपरांत, यह सुद्युम्न राजा के पास गया, एवं यन, लामकायन, राणायनीपुत्र, तथा शाट्याय नि एवं अपना अपराध उसे बता कर उसकी सजा पूछने लगा। शालंकाय नि परंपरा के विविध आचार्य । इनमें से फिर राजा ने इससे कहा, 'तुमने स्वयं अपना अपराध शौचिवृक्षि आचार्य का निर्देश पाणिनि के अष्टाध्यायी में । | कबूल किया है। इसलिए तुम्हे सज़ा देने की कोई भी प्राप्त है (पा. सू. ४.१.८१)। ज़रूरत नहीं है। ७८६ Page #809 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लिखित प्राचीन चरित्रकोश लुशाकपि इस प्रकार राजा के द्वारा बेगुनाह साबित होने पर | २. रत्न नगरी के मयूरध्वज राजा की पत्नी । इसे भी, इसने आत्मग्लानि को वशीभूत हो कर, खुद के दोनों | कुमुद्वती नामांतर भी प्राप्त था । इसके पुत्र का नाम हाथ कटवाये । पश्चात् यह नदी पर स्नान करने के लिए | ताम्रध्वज था। गया, जहाँ शंख ऋषि के तपोबल से इसके दोनों हाथ इसे | ३. साधु वैश्य की पत्नी, जिसका जीवनचरित्र 'सत्यपुनः प्राप्त हुए (म. शां. २४; अनु. १३७.१९)। । नारायण माहात्म्य' की कथा में प्राप्त है (सत्यनारायण यह एवं इसके भाई शंख के द्वारा लिखित 'शंख | ३)। सत्यनारायण व्रत की पूर्ति न करने के कारण, स्मृति' नामक एक स्मृतिग्रंथ उपलब्ध है (शंख ६. | इसे अनेकानेक कष्ट सहने पड़े। देखिये)। ४. वीर राजा की कन्या, जिसका अविक्षित् राजा ने २. चंपकापुरी के हंसध्वज राजा का एक दुष्टकर्मा म हरण किया था (मार्क. ११९.१७)। पुरोहित । इसे शंख नामक एक भाई था, जो इसीके ही ५. एक वेश्या, जिसका राधाष्टमी का व्रत करने के समान हंसध्वज राजा का पुरोहित था, एवं इसीके ही | कारण उद्धार हुआ था (पा. ब्र. ७)। समान दुष्टबुद्धि था। ६. एक वेश्या, जिसने पुष्करक्षेत्र में चतुर्दशी के दिन पाण्डवों का अश्वमेधीय अश्व हंसध्वज राजा के द्वारा । लवणाचल एवं सुवर्णवृक्ष की पूजा कर, उन्हें ब्राह्मणों को रोक गया, जिस कारण उसका अर्जुन के साथ युद्ध हुआ। दान में दिया था। इस पुण्यकर्म के कारण, मृत्यु की पश्चात् इसे शिवलोक की प्राप्ति हुई (पद्म. स. २१)। उस समय हंसध्वज राजा ने अपने सैन्य को ऐसी आज्ञा दी कि, हरएक सैनिक सूर्योदय पूर्व सैन्यसंचलन के लिए लुब्ध--भृगुकुलोत्पन्न एक गोत्रकार । उपस्थित हो, एवं जो इस आज्ञा का भंग करेगा उसे उबलते लंपक--चंपावती नगरी के माहिष्मत राजा के पाँच तेल में डाला दिया जाए। पुत्रों में से एक । 'सफला एकादशी का व्रत करने के कारण इसे मुक्ति प्राप्त हुई (पद्म. उ. ४०)। दूसरे दिन हंसध्वज राजा के पुत्र सुधन्वन् को ही | संचलन के लिए आने में देर हुई, एवं राजा के आज्ञा- | लुश धानाक--एक वैदिक सूक्तद्रष्टा (ऋ. १०.३५ - नुसार सजा भुगतने की आपत्ति आई। अपने पुत्र को ३६; ३८)। इंद्र की कृपा प्राप्त करने में इसका एवं इतनी कडी सजा देने में राजा का मन हिचकिचाने लगा। कुत्स ऋषि का हमेशा द्वंद्व चलता था, जिसके अनेकानेक किन्तु इस दुष्टबुद्धि पुरोहित ने राजा को इस कार्य करने | निदश ऋग्वेद एवं ब्राह्मण ग्रंथों में प्राप्त है। पर विवश किया। एक बार इसने एवं कुत्स ने एक ही समय पर इंद्र फिर राजा की आज्ञानुसार, सुधन्वन् को उबलते तेल में | को निमंत्रण दिया। पूर्वस्नेह के कारण. इंटर डाला गया, किन्तु वह सुरक्षित ही रहा । फिर तेल बराबर | पास गया। उस समय अपना आदरातिथ्य छोड़ कर. उबला नहीं है, इस आशंका से इसने एक नारियल तेल | इंद्र लुश के पास जाएगा इस आशंका से कुत्स ने उसे में छोड़ दिया। तत्काल उस नारियल के दो ट्रकडे हो कर, चमडी के सो रस्सियों से बाँध रखा। किन्तु उसी अवस्था उनके द्वारा यह एवं उसके भाई शंख का कालमोक्ष | में अपने पास आने के लिए लुश के द्वारा इंद्र की प्रार्थना हुआ (जै. अ. १७) की गई । (ऋ. १०.३८.५. मं. बा. ९.२.२२, जै. ब्रा. लिंबुकि--नाकुलि नामक भृगुकुलोत्पन्न गोत्रकार का | १.१२८)।। नामान्तर। लुशाकपि खार्गलि--एक आचार्य, जो केशिन् दाल्भ्य लील-सारस्वत नगरी के वीरवर्मन् राजा का पुत्र । | नामक आचार्य का समकालीन था (क. सं. ३०.२)। लीला--पद्मराज की पत्नी, जिसने अपने पति की | खगल का वंशज होने के कारण, इसे 'खार्गलि' पैतक नाम मृत्यु के पश्चात् सरस्वती की कृपा से उसे पुनः प्राप्त किया | प्राप्त हुआ था। (यो. वा. ३.१५-४९)। कुषीतक सामश्रवस नामक आचार्य ने शमनीचमेद लीलाढ्य--विश्वामित्र ऋषि के ब्रह्मवादी पुत्रों में से | नामक व्रात्य लोगों का आचार्यत्व का स्वीकार किया, जिस एक (म. अनु. ४.५३)। कारण इसने उसे एवं उसके कौषीतकी नामक अनुलीलावती--कोसल देश के ध्रुवसंधि राजा के दो | गामियों को भ्रष्ट होने का शाप दिया (पं. बा. १७.४.३; पत्नियों में से एक । इसके पुत्र का नाम शत्रुजित् था। कुषीतक सामश्रवस देखिये)। ७८७ Page #810 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेख प्राचीन चरित्रकोश लोपामुद्रा लेख--रैवत मन्वन्तर का एक देवगण, जिसमें निम्न- इच्छा उत्पन्न हुई । किन्तु उसके योग्यता की कोई भी कन्या लिखित आठ देव शामिल थेः-ध्रुव, ध्रुवक्षिति, प्रघास, | उसे इस संसार में नज़र न आई । फिर अपनी पत्नी बनाने प्रचेतस्, बृहस्पति, मनोजव, महायशस् एवं युवनस् (ब्रह्मांड. | के लिए, उसने अपने तपोबल से एक सुंदर कन्या का २.३६.७६)। निर्माण किया, एवं पुत्र के लिए तपस्या करनेवाले विदर्भराज २. चाक्षुष मन्वन्तर का एक देवगण । के हाथ में उसे दे दिया । यहीं कन्या लोपामुद्रा नाम से लेखक--सूर्य का एक प्रिय अनुचर (भवि. ब्राह्म. प्रसिद्ध हुई। ५६)। ___ अगस्त्य से विवाह-धीरे धीरे यह युवावस्था में लेश--(सो. क्षत्र.) एक राजा, जो विष्णु के अनुसार प्रविष्ट हुई । सौ दासियाँ एवं सौ कन्याएँ इसकी सेवा में सुनहोत्र राजा का पुत्र था। वायु में इसे 'शल' कहा | रहने लगी। अपने शील एवं सदाचार से यह अपने पिता गया है। एवं स्वजनों को संतुष्ट रखती थी। लैद्राणि-अत्रिकुलोत्पन्न एक गोत्रकार | एक दिन महर्षि अगस्त्य विदर्भराज के पास आये, लैंद्राणि-अंगिरमकुलोत्पन्न एक गोत्रकार। एवं उसने लोपामुद्रा से विवाह करने का अपना निश्चय लोकाक्षि-एक शिवावतार, जो वाराहकल्पान्तर्गत | प्रकट किया। राजा इसका विवाह अगस्त्य जैसे तपस्वी के वैवस्वत मन्वन्तर में लोकाक्षि नामक वेदविभाग निर्माण | साथ नहीं करना चाहता था, किंतु महर्षि के शाप. के. करनेवाले मृत्यु नामक व्यास के साहय्यार्थ अवतीर्ण डर से वह उसे इन्कार भी नहीं कर सकता था। अपने हुआ था । यह स्वयं निवृत्तिमार्गी था। इसके निम्न- | माता पिता को संकट में पड़ा देख, लोपामद्रा ने अपने लिखित चार शिष्य थे:-सुधामन, विरजस् , संजय, एवं पिता से कहा, 'आप मुझे महर्षि के सेवा में दे कर अंडज (शिव. शत. ४-५)। अपनी रक्षा करे । तब इसके पिता ने इसका विवाह - २. व्यास की सामशिष्य परंपरा में से लौगाक्षि नामक अगस्त्य ऋषि के साथ करा दिया। आचार्य का नामान्तर । विवाह के पश्चात् इसने अगस्त्य ऋषि की आज्ञा से ३. जटामालिन् नामक शिवावतार का एक शिष्य। | अपने राजवस्त्र एवं आभूषण उतार दिये, एवं वल्कल एवं . लोपामुद्रा--अगस्त्य ऋषि की पत्नी, जो विदर्भ राजा मृगचर्म धारण किये । पश्चात् अगस्त्य इसे ले कर गंगाकी कन्या थी। द्वार गया, एवं घोर तपस्या में संलग्न हुआ। यह पति एक वैदिक मंत्रद्रष्टी के नाते लोपामुद्रा का निर्देश के समान ही व्रत एवं आचार का पालन करने लगी. ऋग्वेद में प्राप्त है (ऋ. १.१७९.१-२)। उसी ग्रंथ में एवं तप करनेवाले अगस्त्य की सेवा कर इसने उसे प्रसन्न अन्यत्र अगस्त्य ऋषि की पत्नी के नाते इसका निर्देश | किया । प्राप्त है, जहाँ यह उसके आलिंगन की इच्छा प्रकट करती | पुत्रप्राप्ति-पश्चात् इसका रूपयौवन,पवित्रता एवं इंद्रियहै (ऋ. १.१७९.४; बृहद्दे. ४.५७)। निग्रह से प्रसन्न हो कर, अगत्स्य ऋषि ने इससे संभोग करने ___ जन्म--महाभारत में इसे वैदर्भ राजा की कन्या कहा । की इच्छा प्रकट की। तब इसने अगत्स्य से कहा, 'इस गया है, एवं दो स्थान पर इसके पिता का नाम विदर्भ- | तापसी वेष में एवं तपस्वी के पर्णशाला में नहीं, बल्कि मेरे राज निमि दिया गया है। पार्गिटर के अनुसार, पिता जैसे राजमहल में मैं आपसे समागम करना चाहती विदर्भराजवंश में निमि नामक कोई भी राजा न था, हूँ। फिर अगत्स्य ने अपने तपःसामर्थ्य से इल्वल से एवं लोपामद्रा के पिता का नाम निमि न हो कर भीम | विपुल संपत्ति ला कर इसे प्रदान की, एवं इसकी इच्छा के था, जो विदर्भदेश के क्रथ राजा का पुत्र था (पार्गि. | अनुसार, हजारों को जीतनेवाला एक महान् पराक्रमी १६८) । विदर्भराज की कन्या होने के कारण, इसे | पुत्र इसे प्रदान किया। वैदी नामान्तर प्राप्त था। | इस पुत्र का गर्भ सात वर्षों तक इसके पेट में पलता इसके जन्म के संबंध में एक कल्पनारम्य कथा महा- रहा, एवं सात वर्ष बिताने पर वह अपनी माता के उदर भारत में प्राप्त है। अपने पितरों को मुक्ति प्रदान करने के | से बाहर निकला। अगत्त्य से उत्पन्न इसके पुत्र का लिए. अगस्त्य ऋषि के मन में एक बार विवाह करने की नाम दृढस्यु अथवा इध्मवाह था (म. व. ९४-९७)। ७८८ Page #811 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोपामुद्रा काशी के सुविख्यात राजा प्रतर्दन का पौत्र अलर्क को खोपामुद्रा के द्वारा विपुल धनसंपत्ति एवं राज्यश्री प्राप्त होने की कथा पुराणों में प्राप्त है ( वायु ९२,६७: ब्रह्म. ११.५३ ) | आनंद रामायण के अनुसार इसके पास एक ' अक्षय खाली थी, जिससे अपरिमित अन्न की प्राप्ति होती थी ( आ. रा. विवाह. ५ ) । प्राचीन चरित्रकोश लोमश " यहाँ आया है। काम्यकवन में रहनेवाला युधिष्ठिर अर्जुन के कारण चिंताग्रस्त हो चुका है मैं यही चाहता हूँ कि तुम युधिष्ठिर के पास जा कर अर्जुन का कुशल वृत्तांत उसे बता देना एवं उसके मनवहाब के लिए भारत के अन्यान्य तीर्थों का दर्शन उसे कराना (म. व. ४५.२९३३)। दक्षिण भारत में-- अगस्त्य ऋषि का सर्वाधिक संबंध दक्षिण भारत से था, जिसको पुष्टि देनेवाली लोपामुद्रा की एक जन्मकथा भागवत में प्राप्त है। इस कथा में इसका निर्देश कृष्णा नाम से किया गया है, एवं इसे मध्य पाण्ड्य राजा की कन्या कहा गया है। यहाँ इसकी माता का नाम वैदर्भी दिया गया है, एवं इसके सात माईयों को द्रविड देश के राजा कहा गया है। अगस्य ऋषि श्री से इसे हटत नामक पुत्र उत्पन्न हुआ, जिसके पुत्र का नाम इवाहन था (भा. ४.२८ ) । । तीर्थयात्रा - इंद्र की आज्ञानुसार, यह काम्यकवन में आया इसने अर्जुन का कुशलवृत्त युधिडिर को सुनाया, एवं तीर्थयात्रा प्रस्ताव उसके सम्मुख रखा । पश्चात् यह युधिष्ठिर के साथ तीर्थयात्रा करने के लिए निकला। पहले ये महेंद्र पर्वत पर गयें एवं चतुर्दशी के दिन परशुराम का दर्शन कर प्रभासक्षेत्र में गये । वहाँसे यमुना नदी के किनारे ये कैलास पर्वत के पास आ पहुँचे ( म. ब. ८९ - १४० ) । | पश्चात् गंधमादन पर्वत की तराई में सुबाहु नामक किराताधिपति का सत्कार स्वीकार कर, इन्होंने गंधमादन पर्वत का आरोहण करना प्रारंभ किया। किन्तु ये दोनों थकने के कारण, भीम ने घटोत्कच की सहाय्यता से इन्हें गं मादन पर्वत पर स्थित नरनारायण आश्रम में पहुँचा दिया ( म.. १४१-१४६ ) । लोभ -- ब्रह्मा का एक मानस पुत्र, जो उसके अधरोष्ठ सेपन्न हुआ था (मरस्य २.१०) १ भागवत में इसे अधर्मपुत्र दंभ एवं माया का पुत्र कहा गया है। लोभालोभ -- एक ऋग्वेदी ब्रह्मचारी । लोमगायनि अथवा लोमगायिन एक आचार्य, जो वायु एवं ब्रह्मांड के अनुसार, व्यास की सामशिष्य परंसा में से लांगलि नामक आचार्य का शिष्य था। - लोमपाद - - अंगदेश के रोमपाद राजा का नामान्तर (रोमपाद १. देखिये) । 6 बाद में सत्रह दिनों तक प्रवास कर ये नृपपर्वन् के आश्रम में पहुँच गयें, एवं चार दिनों के उपरान्त आर्ष्टिषेण ऋषि के आश्रम में आयें (म.व. १५५ ) । वहाँ धौम्य ऋषि ने युधिष्ठिर को सूर्य चंद्र की गति के संबंध में जानकारी बतायी ( म. व. १६०) । 3 लोमश -- एक दीर्घजीवी महर्षि, जिसका हृदय धर्म'पालन से विशुद्ध हो चुका था. ( म. व. ३२.११ ) । इसके शरीर पर अत्यधिक लोम (केश ) थे, जिस कारण इसे लोमश नाम प्राप्त हुआ था। इसकी आयु इतनी अधिक थी कि प्रत्येक कान्त के समय इसका केवल एक ही बाल झडता था । एक बार इसने सौ वर्षों तक कमल के फूलों से शिव की उपासना की थी, जिस कारण इसे प्रत्येक कल्प के अन्त में एक एक बाल झडने का, एवं प्रलयकाल के समय मुक्ति प्राप्त होने का आशीर्वाद प्राप्त हुआ था (स्कंद १.२.१३) । इंद्र से भेंट -- एकबार घूमते घूमते ह इंद्र के पास पहूँचा। वहाँ इंद्र के पास अस्त्रविद्या के प्रप्ति के लिए इंद्रलोक में आया हुआ अर्जुन इसे दिखाई पड़ा, जो इंद्र के अर्धासन पर विराजमान हुआ था। इंद्र ने लोमश से कहा, 'अर्जुन साक्षात नरनारायण का ही अवतार है, जो कौरवों पर विजय पानेवाले अस्त्रों की प्राप्ति करने के लिए ७८९ इतने में इंद्र की सहाय्यता से अर्जुन गंधमादन पर्वत पर आ पहुँचा ( म. व. १६१.१९ ) । पश्चात् यह युधिष्ठिर एवं अर्जुन के साथ चार वर्षों तक गंधमादन पर्वत पर ही रहा (म.प. १७२.८ ) । पाण्डवों के वनवास के दस साल पूर्ण होने के पश्चात्, लोमश उन्हें पुनः एक बार नरनारायण आश्रम में ले आया । किराताधिपति सुबाहु के घर एक महिने तक रहने के पश्चात्, ये यामुनगिरि पर स्थित विशाखपूप में गयें, एवं बहाँसे द्वैतवन में गयें। वहाँ सरस्वती नदी के किनारे बरसात के चार महिने व्यतीत करने के पश्चात्, पौर्णिमा होते ही, इसने पाण्डवों को काम्यकवन में पहूँचाया, एवं यह स्वयं तपस्या लिए चला गया (म.व. १०८ - १७९ ) । आख्यानकथन - - तीर्थयात्रा के समय, लोमश ऋषि ने युधिष्ठिर को अनेक देवता एवं धर्मात्मा राजाओं के आख्यान सुनायें, जिनमें निम्न भाख्यान प्रमुख थे: Page #812 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोमश प्राचीन चरित्रकोश लोहगंध अगस्त्यचरित्र (म. व. ९६-९९); भगीरथचरित्र | उत्तर में सत्रह मील पर स्थित तिमाणाग्राम में उपर्या नामक (म. व. १०६-१०९); ऋश्यशंगचरित्र (म. व. ११० शिवमंदिर एवं लोमश ऋषि का आश्रम प्राप्त है; २. पंजाब -११३ ); च्यवनकन्या सुकन्या का चरित्र (म. व. | में स्थित ज्वालामुखी ग्राम से पचपन मील पर स्थित १२१-१२५); मांधातृचरित्र (म. व. १२६-१२७)। रिवालसर (रेवासर ) ग्राम में लोमश आश्रम सुविख्यात है। वरप्रदान-लोमश ने दुर्दम राजा को देवी भागवत | इसके अतिरिक्त गया जिले में स्थित बराबर पहाड़ी का पाठ पाँच बार पढ़ कर सुनाया था, जिस कारण उसे | मैं दशरथ राजा के द्वारा खोदी गई एक गुफा 'लोमश पाँचवे मन्वन्तर के अधिपति रैवत नामक पुत्र की प्राप्ति | गुफा' नाम से प्रसिद्ध है। हुई थी ( दे. भा. महात्म्य. ५) पिशाचयोनि में प्रविष्ट | २. रावणपक्षीय एक राक्षस (वा. रा. सु. ६)। हुए सुशाला, सुस्वरा, सुतारा एवं चंद्रिका आदि गंधर्व- लोमहर्षण--पुराणों का आद्य कथनकर्ता रोमहर्षण कन्याओं का, एवं वेद निधि नामक ऋषिपुत्र का इसने | 'सूत' का नामांतर (रोमहर्षण देखिये)। नर्मदास्तान का उपदेश का उद्धार किया था (पद्म. सु. लोमायन--वसिष्ठकुलोत्पन्न एक गोत्रकार । ब्रह्मांड २३)। | में निर्दिष्ट व्यास के शिष्यपरंपरा में इसका निर्देश प्राप्त है। ग्रंथ---इसके नाम पर 'लोमशसंहिता' एवं 'लोमश- | लोल--सिद्धवीर्य ऋषि का पुत्र । अपने अगले जन्म शिक्षा' नामक दो ग्रंथ उपलब्ध है (C.C.)। उनमें से | में, इसने उत्पलावती नामक रानी के उदर में तामस मनु लोमशशिक्षा सामवेद का शिक्षा ग्रंथ है, जो आठ खण्डों के रूप में जन्म लिया (मार्क. ७१, तामस देखिये)। में विभाजित है। इस ग्रंथ के पहले ही श्लोक में इसका लोलजि--एक राक्षस, जो धर्मारण्य जलाने के लिए गर्गाचार्य के साथ निर्देश प्राप्त है, जिसका संदर्भ ठीक | प्रवृत्त हुआ था। इस कारण विष्णु ने इसका वध किया प्रकार से ध्यान में नहीं आता है। (स्कंद ३.२.११)। कश्यपसंहिता में प्राप्त ज्योतिषशास्त्र के प्रवर्तक लोला--मधु नामक राक्षस की माता (वा. रा. उ. अठारह महर्षियों में, लोमश ऋषि का निर्देश प्राप्त है।। ६१.३)। उन आचार्यों के द्वारा सिद्धान्त, होरा एवं संहिता इन | लोलाक्षि-भृगुकुलोत्पन्न एक गोत्रकार। तीन स्कंदों में विभाजित ज्योतिषशास्त्र की रचना किये लोह-एक.असुर, जिसके नाम से लोहतीर्थ नामक जाने का निर्देश वहाँ प्राप्त है। एक तीर्थ प्रचलित हुआ (स्कंद. ३.२.२९)। लोमशकथित रामकथा--पद्म में प्राप्त रामकथा का २. एक असुर । अज्ञातवास के समय पाण्डवों ने अपने वक्ता लोमश ऋपि बताया गया है (पन. पा. ३६)।| शस्त्र नीचे रख दिये । यही सुअवसर पा का इसने उन महाभारत में प्राप्त परशुराम के तेजोभंग के आख्यान | पर आक्रमण किया, किन्तु देवताओं ने इसे अंधा बन का वक्ता लोमश ही है (म. अनु, ३५१)। कर पाण्डवों की रक्षा की। उस स्थान को लोहणपुर कहते __लोमश के नाम पर लोमशरामायण' नामक एक ग्रंथ है। ( स्कंद. १.२.६५)। भी उपलब्ध है, जिसमें बैतीस हज़ार श्लोक हैं । उस ग्रंथ ३. एक लोकसमूह, जिसे अर्जुन ने उत्तर दिग्विजय में राजा कुमुद एवं वीरमती के द्वारा दशरथ एवं कौसल्या के समय जीता था (म. स. २४.२४)। . के रूप में जन्म लेने की कथा प्राप्त है, एवं जालंधर के लोहगंध--गार्ग्यकुलोत्पन्न एक ऋषि, जिसका जनमेशाप के कारण रामावतार होने का आख्यान भी वहाँ | जय पारिक्षित (प्रथम) राजा ने वध किया था । इस दिया गया है। ब्रह्महत्या के कारण, लोगों ने जनमेजय पारिक्षित को तुलसी के द्वारा विरचित 'रामचरितमानस' में भी राज्यभ्रष्ट कर, उसे हद्दपार किया (वायु. ९३.२०भशाण्डि ऋषि को लोमश के द्वारा रामकथा प्राप्त होने का | २६)। इस पाप से छुटकारा पाने के लिए जनमेय राजा निर्देश है ( मानस. उ. ११३)। रसिक सांप्रदाय में भी | ने 'इंद्रोत शौनक' नामक आचार्य के द्वारा एक अश्वमेध एक 'लोमशसंहिता' प्रचलित है, जिसमें इसका एवं पिप्प- | यज्ञ किया (जनमेजय पारिक्षित १. देखिये)। लाद ऋषि का एक संवाद प्राप्त है। कई अभ्यासकों के अनुसार, 'गार्ग्य' लोहगंध की भाश्रम-लोमश ऋषि के आश्रम निम्नलिखित दो स्थानों | उपाधि न हो कर जनमेजय (प्रथम) की उपाधि में दिखायें जाते हैं:-- १. राजस्थान में बुंदी शहर के | थी, जो उसके शरीर से आनेवाली दुर्गंधी के कारण उसे ७९० Page #813 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोहगंध प्राप्त हुई थी । जनमेजय को ब्रह्महत्त्या के पातक से मुक्त करानेवाले इंद्रोत शौनक ने उसके शरीर की यह दुर्गंधी भी दूर करायी (ब्रह्मांड. ३.६८.२३ - २६; ह. वं. १.३० १०- १४; म. शां १४१.११ ) । प्राचीन चरित्रकोश . लोहलय - - वसिष्ठकुलोत्पन्न एक गोत्रकार । लोहवैरिवसिष्ठकुलोत्पन्न एक गोत्रकार । लोहिशवक्त्र-स्कंद का एक सैनिक ( म. श ४४.७० ) । लोहित--विश्वामित्र ऋषि के ब्रह्मवादी पुत्रों में से एक २. रुद्रसावर्णि मन्वन्तर का एक देवगण । ३. एकं स्मृतिकार ( C. C.)। ४. एक राजा, जिसे अर्जुन ने उत्तरदिग्विजय के समय जीता था ( म. स. २४.१७ ) । ५. वरुणसभा का एक नाग ( म. स. ९.८; ११ ) । लोहिताक्ष -- एक ऋषि, जो जनमेजय के सर्पसत्र में स्थपति (वास्तुविद्याविशारद) नामक ऋत्विज था । यज्ञ के लिए भूमि शुद्धि करते समय ही इसने भविष्यवाणी की थी, ‘यह सत्र एक ब्राह्मण के द्वारा जल्द ही बन्द हो जायेगा ('म. आ. ४७.१५; ५१.६, ५३.१२ ) । २. ब्रह्मा को द्वारा स्कंद को दिये गये चार पार्षदों में • से एक । अन्य तीन पार्षदों के नाम नन्दिषेण, घण्टाकर्ण, एवं कुमुदमलिन् थे ( म. श. ४४.२१ - २२ ) । लोहितायन -- स्कंद की धाय, जो लालसागर की कन्या थी। इसकी कदंब के वृक्षों पर पूजा होती है (म. . व. २१९.३९) । लोहितारण--( स्वा. प्रिय.) एक राजा, जो घृतपृष्ठ राजा के सात पुत्रों में से एक था । इसका वर्ष इसीके ही नाम से प्रसिद्ध था । लोहिताश्व -- वसुदेवपुत्र रोहिताश्व का नामान्तर । लौक्य -- बृहस्पति का नामान्तर । 'लोकपुत्र' होने के कारण बृहस्पति को यह नाम प्राप्त हुआ था ( बृहस्पति १. देखिये ) । लौहित्य जो व्यास की सामशिष्य परंपरा में से पौप्यंजि नामक आचार्य का शिष्य था । एक स्मृतिकार के नाते से इसका निर्देश मिताक्षरा में प्राप्त है, जहाँ इसके अशौच एवं प्रायश्चित के संबंधी श्लोक उद्धृत किये गये हैं (याज्ञ. ३.१.२ ; २६०; २८९ ) । अपरार्क के द्वारा भी इसके निम्नलिखित विषयों के संबंधी गद्यापद्यात्मक उद्धरण दिये गये हैं: -- संस्कार, वैश्वदेव, चातुर्मास्य, द्रव्यशुद्धि, श्राद्ध, अशौच एवं प्रायश्चित | योग एवं क्षेम शब्दों की व्याख्या करनेवाला, एवं उन दोनों का अभिन्नत्व प्रस्थापित करनेवाला लौगाक्षि का एक श्लोक प्रसिद्ध है, जो मिताक्षरा आदि धर्मशास्त्र ग्रंथों में प्राप्त है । लौक्षि-- अंगिराकुलोत्पन्न एक गोत्रकार | लक्षिण्य -- भृगुकुलोत्पन्न एक गोत्रकार । पाठभेद-' लौगाक्षि ' । लौगाक्षि -- एक शतशाखाध्यायी सामवेदी आचार्य, ग्रंथ - - १, आर्षाध्याय; २. उपनयनतंत्र ३ काटक गृह्यसूत्र; ४. प्रवराध्याय ५. श्लोकदर्पण | २. लौक्षिण्य नामक भृगुकुलोत्पन्न गोत्रकार का नामान्तर । लौपायन -- एक पैतृक नाम, जो निम्नलिखित आचार्यों लिए व्यवहृत है : - बन्धु (ऋ. ५.२४.१ ); विप्रबन्धु ( ऋ. ५.२४.४ ); श्रुतबन्धु (ऋ. ५.२४.३ ); सुबन्धु (ऋ. ५.२४.२ ) । इस पैतृक नाम का 'गौपायन' पाठभेद भी प्राप्त है। के लोमहर्षणि -- रोमहर्षण सूत के सौति नामक पुत्र का नामान्तर (सौति देखिये) । लौहवैरिण -- भृगुकुलोत्पन्न एक गोत्रकार । लौहि--अष्टक ऋषि का पुत्र, जो विश्वामित्र ऋषि का पौत्र था । २. (शिशु. भविष्य.) एक राजा, जो अजातशत्रु राजा का पुत्र था । लौहित्य -- य-- एक पैतृक नाम, जो जैमिनीय उपनिषद ब्राह्मण में निम्नलिखित गुरु के लिए प्रयुक्त किया गया है:कृष्णदत्त, कृष्णरात, जयक, त्रिवेद कृष्णशत, दक्ष जयन्त, पल्लिगुप्त, मित्रभूति, यशस्विन् जयन्त विपश्चित् दृढजयन्त, वैपश्चित् दार्दजयन्ति, वैपश्चित दाईजयन्ति, दृढजयन्त, श्यामजयन्त, श्यामसुजयन्त, सत्यश्रवस् (जै. उ. ब्रा. ३.४२.१)। लोहित का वंशज होने से इन आचार्यों को यह पैतृक नाम प्राप्त हुआ होगा । २. एक आचार्य (सां. आ. ७.२२) । ७९१ Page #814 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वंशक प्राचीन चरित्रकोश वज्रनाभ वंशक--इक्ष्वाकुवंशीय वत्सक राजा का नामान्तर। था (म. स. २७.२१; आश्व. ८३.२९)। परशुराम ने वंशा--एक अप्सरा, जो कश्यप एवं प्राधा की | इस देश के क्षत्रियों का संहार किया था। कन्याओं में से एक। | वंगिरी-(किलकिला. भविष्य.) एक राजा, जिसका वक दाल्भ्य--बक दाल्भ्य नामक आचार्य का नामान्तर | निर्देश भागवत में प्राप्त है। (बक दाल्भ्य देखिये)। कई अभ्यासकों के अनुसार, वंगृद-एक दानव, जो अतिथिग्व (दिवोदास ) राजा जैमिनीय उपनिषद ब्राह्मण में मिर्दिष्ट 'बक दाल्भ्य' एवं का शत्रु था। इंद्र ने अतिथिग्व के संरक्षण के लिए इसका छांदोग्य उपनिषद एवं काठकसंहिता में निर्दिष्ट 'वक दाल्भ्य' | शिरच्छेद किया था (ऋ. १.५३.८)। दो अलग व्यक्ति थे। किंतु इस संबंध में निश्चित रूप से ववक्नु-एक ऋषि, जो गार्गी वाचकवी नामक कहना कठिन है। विदुषी का पिता था। वकनख-विश्वामित्र के बकनख नामक पुत्र का वज्र-विश्वामित्र के वज्रनाभ नामक पुत्र का . नामान्तर (म. अनु. ४.५८)। नामान्तर। वक्र--करुष राजकुमार वक्रदंत (दंतवक्र) का नाम- २. श्रीकृष्ण के पौत्र अनिरुद्ध का पुत्र, जो वज्र यादव तर । यह द्रौपदी के स्वयंवर में उपस्थित था (म. आ. | नाम से सविख्यात था। इसकी माता का नाम रोचना था। १८.२४*)। | मौसल युद्ध में यादवों का संहार होने पर, अर्जुन इसे वक्रदन्त--करुष राजकुमार दंतवक्र का नामान्तर | इंद्रप्रस्थ ले गया, एवं उसने इसे यादवी युद्ध से बचे हुए (दंतवक्र देखिये)। यादवों का राजा बनाया। इसके पुत्र का नाम प्रतिबाहु वक्राक्ष--एक राक्षस, जो कश्यप एवं खशा के पुत्रों [क पुत्रा था (म. मौ. ८.७०% भा. १.१५.३९)। महाप्रस्थान के में से एक था। समय, युधिष्ठिर ने सुभद्रा से इसकी रक्षा के लिए कहा वक्षेय--(सो. पूरु.) एक राजा, जो वायु के अनुसार | था (म. महा. १.८-९)। रौद्राश्व राजा का पुत्र था। वज्रकाय-लंका का एक राक्षस (वा. रा. सु.६)। वक्षोग्रीव-विश्वामित्र के ब्रह्मवादी पुत्रों में से एक | वज्रज्वाला-कुंभकर्ण की पत्नी, जो विरोचन दैत्य (म. अनु. ४.५३)। | की प्रपौत्री थी (वा. रा. उ. १२.२४ )। वंग-(सो. अनु.) वंश देश का एक राजा, जो बलि | आनव राजा के पाँच पुत्रों में से एक था। इसीके ही | | वज्रदंष्ट-त्रिपुरासुर का सेनापति । इसने पाताललोक कारण इसके देश को 'वंग' नाम प्राप्त हुआ (बलि जीत लिया, जिस कारण त्रिपुर ने गाँव, वस्त्र आदि दे आनव देखिये)। कर इसका सन्मान किया (गणेश. १.४ )। २. एक लोकसमूह, जिसका निर्देश मगध एवं मत्स्य २. रावणपक्ष का एक राक्षस, जो अंधक के द्वारा मारा लोगों के साथ अथर्ववेद परिशिष्ट में प्राप्त है (अ. वे. गया (वा. रा. यु. ९.३, ५३-५४)। . परि. १.७.७)। वंग एवं मगध लोगों का संयुक्त निर्देश वज्रदत्त--प्राग्ज्योतिषपुर का एक राजा, जो भगदत्त ऐतरेय आरण्यक में भी प्राप्त है (ऐ. आ. २.१.१)। राजा का पुत्र था। इसे यज्ञदत्त नामान्तर भी प्राप्त था। आधनिक बंगाल देश में स्थित लोगों के लिए 'वंग' शब्द | पाण्डवों के द्वारा छोड़ा गया अश्वमेधीय अश्व इसने का निर्देश सर्वप्रथम बौधायन धर्मसूत्र में प्राप्त है (बौ. पकड़ लिया, एवं तीन दिनों तक अर्जुन के साथ अत्यंत ध. १.१.१४)। शूरता से लड़ता रहा। अंत में अर्जुन ने इसका पराजय पूर्व भारत के एक लोकसमूह के नाते वंग का | किया (म. आश्व. ७४.७५)। निर्देश महाभारत में प्राप्त हैं। महाभारतकाल में इस देश वज्रनाभ--(सू. इ.) अयोध्या देश का एक राजा, में म्लेंच्छ लोग रहते थे, जिन्हें राजसूययज्ञ के समय जो भागवत के अनुसार स्थल का, विष्णु के अनुसार भीमसेन ने, एवं अश्वमेधयज्ञ के समय अर्जुन ने जीता डक्थ का, एवं वायु के अनुसार औक राजा का पुत्र था। ७९२ मानता Page #815 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन चरित्रकोश वज्रनाभ २. एक राक्षस, जो निकुंभ राक्षस का भाई, एवं वज्रपुर नगरी का राजा था। कृष्णपुत्र प्रद्युम्न ने इसका वध किया, एवं नाटक का खेल ले कर वह इसके नगरी में पहुँच गया। वहाँ उसने इसकी प्रभावती नामक कन्या से बलात्कार किया। इस कारण, निकुंभ ने द्वारका नगरी पर हमला किया, जहाँ हुए युद्ध में कृष्ण ने निकुंभ का वध किया ( ह. . २.९० ) । २. एक दुष्ट राक्षस, जो ब्रह्मदेव के हाथ में स्थित कमल के प्रहार के द्वारा मारा गया । ४. मथुरा नगरी का एक राजा, जो परीक्षित राजा का मित्र था। शांडिल्य ऋषि की आशा के अनुसार, उद्धव ने इसे भागवत महात्म्य सुनाया था ( स्कंद. २.६.१ - ६ ) । इसे वज्र नामान्तर भी प्राप्त था । ५. स्कंद का एक सैनिक (म. श. ४४.५८ ) । वज्रबाहु—रामसेना का एक वानर, जिसका कुंभकर्ण ने भक्षण किया (म. व. २७१.४ ) । • वज्रमित्र - ( शुंग. भविष्य ) एक राजा, जो भागवत एवं ब्रह्मांड के अनुसार घोष का, विष्णु के अनुसार घोषवसु फा एवं मत्स्य के अनुसार पुलिंद बाबा का पुत्र था। वायु में. इसे 'विक्रमित्र' कहा गया है । वज्रमुष्टि- एक राक्षस, जो मैंद वानर के द्वारा मारा गया ( वा. रा. यु. ४३.२८ ) । वज्रविष्कंभ -- गरुड की प्रमुख संतानों में से एक ( म. उ. ९९.१० ) । वज्रवेग — एक राक्षस, जो दूषण का छोटा भाई एवं कुंभकर्ण का अनुगामी था। इसके भाई का नाम प्रमाथी था। हनुमत् के द्वारा यह मारा गया (म. व. २७१.१९२४) । वज्रशीर्ष - भृगु प्रजापति के सात पुत्रों में से एक, जिसे निम्नलिखित छः भाई येभ्ययन, शुचि, और्य, शुक्र, वरेण्य एवं सवन (म. अनु. ८५.१२७-१२९ ) । वज्राक्ष--एक दानव, जो कश्यप एवं दनु का पुत्र था। वज्रांग - एक दैत्य, जो कश्यप एवं दिति के पुत्रों में से एक था। एक बार इसकी माता दिति ने इसे इंद्र पर आक्रमण करने के लिए कहा। किंतु ब्रह्मा के विरोध के कारण, इस आक्रमण में यह यशस्विता प्राप्त न कर सका। फिर इसकी पत्नी यरांगी ने इससे इंद्र का पराजय करनेवाला महापराक्रमी पुत्र माँग लिया, जो तारकासुर नाम से प्रसिद्ध हुआ (मत्स्य. १४५ - १९४६ पद्म. सृ. ४२; शिव. रुद्र. पार्वती. १४ ) । प्रा. च. १०० ] वज्रांगद -- पांड्य देश का एक राजा, जिसे ' अरुणाचलेश्वर' की पूजा करने के कारण सद्गति प्राप्त हुई (स्कंद १.१.२-२४) । पाठभेद - ' रत्नांगद । वज्रिन् -- एक सनातन विश्वेदेव (म. अनु. ९१. |१३ ) । वंचुलि -- विश्वामित्रकुलोत्पन्न एक गोत्रकार। यत्स बंजुल - एक वैश्य, जिसका कालिंजर पर्वत पर स्थित वाराणसी तीर्थ में सोमवती अमावस्या के दिन स्नान करने के कारण उद्धार हुआ (पद्म. भू. ९१-९२ ) । , वंजुलि विश्वामित्रकुलोत्पन्न एक गोत्रकार । वट - स्कंद का एक पार्षद, जो अंश के द्वारा दिये गये पाँच पार्षदों में से एक था । अन्य चार पार्षदों के नाम पि, मीम, दहति एवं दहन से ( म. श. ४४.३१ ) । घटिका - व्यास की पत्नी, जिसके पुत्र का नाम शुक था ( व्यास देखिये) । वडवा - सूर्य की पत्नी संज्ञा का नामांतर, जो उसे अश्विनी ( वडवा ) का रूप धारण करने के कारण प्राप्त हुआ था । सूर्य ने अश्व का रूप धारण कर इससे संभोग किया, जिससे इसे अश्विनी कुमार नामक जुड़वे पुत्र उत्पन्न हुए ( भा. ६.६.४० ) । २. एक अग्नि, जो समुद्र के भीतर वास्तव्य करती है और्व नामक अनि जन्म लेते ही समस्त पृथ्वी को जलाने लगी । तब उसके पितरों ने आ कर उसे समझाया, एवं उसे अपनी कोचाभि को समुद्र मे डाल देने के लिए कहा पितरों के आदेश से और्य ने अपने क्रोधात्रि को समुद्र में डाल दिया । यहाँ आज भी अब की मुख जैसी आकृति बना कर, यह समुद्र का जल पीती रहती है (म. आ. १७१.२१२२ ) । वायु के अनुसार, यह एवं और्व अग्नि दोनों एक ही हैं (वायु, १.४७ भौर्व २. देखिये) । वडवा प्रातिथेयी - एक ब्रह्मवादिनी, जो ब्रह्मचर्य - व्रत से रहती थी। कई अभ्यासकों के अनुसार, लोपामुदा की बहन गभस्तिनी एवं यह दोनों एक ही हैं (गमस्तिनी देखिये ) । ब्रह्मयज्ञांगतर्पण में इसका निर्देश प्राप्त है ( आश्व. गृ. ३.३.) । यत्स (सो. पूरु.) एक राजा, जो सेनाजित राजा का पुत्र था । २. (स्वा. उत्तान . ) एक राजा, जो भागवत के अनुसार चक्षु राजा का पुत्र था। इसकी माता का नाम नवला था। ७९३ -- Page #816 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वत्स २. (सो. क्षत्र.) काशी देश का एक राजा, जो वायु के अनुसार प्रतर्दन राजा का पुत्र था । परशुराम के भय से, यह गोशाला में गावों के बछड़ो (वत्सों) के बीच पालपोस कर बड़ा हुआ, जिस कारण इसे 'वत्स' नाम प्राप्त हुआ (म. शां. ४९.७१ ) । ४. ( इ. भविष्य ) एक राजा, जो विष्णु के अनुसार गुरुक्षेप राजा का पुत्र था। इसे 'वत्सद्रोह', 'वत्सवृद्ध' एवं ' बत्सव्यूह' आदि नामांतर प्राप्त थे। ५. कोसल देश का एक राजा, जो द्रौपदीस्वयंवर में उपस्थित था (म. आ. १७७.२० ) । वत्सप्रि कर इसने अपनी जातिविषयक शुद्धता प्रस्थापित की (पं. बा. ८.६.१ ) । हेमाद्रि के 'परिशेष खंड' में इसका निर्देश प्राप्त है। प्राचीन चरित्रकोश वत्सक - - (सु. इ. ) एक इक्ष्वाकुवंशीय राजा, जो मत्स्य के अनुसार आवस्त राजा का पुत्र एवं बृह राजा का भाई था। पुराणों में इसे ' वंशक' कहा गया है। २. (सो. क्र. ) एकादशीय राजा, जो यमुदेव का भाई, एवं शूर राजा के दस पुत्रों में से एक था। इसकी माता का नाम मारिया था। मिश्रकेशी नामक अप्सरा से इसे वृक आदि पुत्र उन हुए ( मा. ६२४. २९-४३) । ६. सोम नामक शिवावतार का एक शिष्य । ७. कंस के पक्ष का एक दैत्य, जो 'गोवत्स ' का रूप धारण कर कृष्ण का नाश करने गोकुल में उपस्थित हुआ था। इसे 'वत्सक ' नामांतर भी प्राप्त था ( भा. १०. ४३.३० ) । कपित्थ के वृक्ष पर पटक कर, कृष्ण ने इसका वध किया (मा. १०.११.४२ ) । ८. एक वैश्य, जो मंत्रविद्या में प्रवीण था (ब्रह्मांड, २.३२.१२१ ) । ९. एक आचार्य, जो ब्रह्मांड के अनुसार, व्यास की यजुःशिष्यपरंपरा में से याज्ञवल्क्य का वाजसनेय शिष्य था ( व्यास देखिये) । १०. एक आचार्य, जो ग्यास की ऋशिष्यपरंपरा में से देवमित्र नामक आचार्य का शिष्य था पाउमेद "वास्य । ११. पूर्व भारत में रहनेवाला एक लोकसमूह, जो भारतीय युद्ध में पांडवों के पक्ष में शामिल था ( म. उ. ५२.२ ) । इस देश के योद्धा धृष्टद्युम्न के द्वारा निर्मित न्यूह के वाम पक्ष में खड़े थे ( म. भी. ४६.५१ ) । काशिराज की कन्या अंबा इन्ही लोगों के देश में तपश्चर्या करने आयी थी (म. उ. १८७.२३ ) । वत्स आय एक वैदिक सूक्त (ऋ. १०. १८७ ) | यह एवं अन्य एक सुस्तद्रष्टा कुमार आत्रेय, एक ही वंश में उत्पन्न हुए होंगे। वत्स काण्व - एक वैदिक सूक्तद्रष्टा, एवं 'चरका ध्वर्यु । कण्व ऋषिका सूत्रका रचयिता ( ८८६.११) पुत्र होने से, इसे 'काय' पैतृक नाम प्राप्त हुआ था (ऋ. ८.८.८ ) । काण्व तिरिंदर पारशव्य राजा से इसे विपुल धन प्राप्त हुआ था (ऋ. ८.६.४६; सां. श्र. १६.११.२० ) । मेधातिथि नामक इसके प्रतिद्वंद्वी ने इसे शुद्रपुत्र कहा, किंतु अग्निदिव्य | ७९४ ३. वत्स नाम कंसपक्षीय राक्षस का नामांतर ( वत्स. ७. देखिये) । वत्सद्रोह (सू. इ. भविष्य ) इयाय वत्स राजा का नामान्तर ( वत्स. ४. देखिये ) । मत्स्य में इसे उरुक्षय राजा का पुत्र कहा गया है । वत्सनपात् वाभ्रव्य - एक आचार्य, जे पथिन् सौमर नामक आचार्य का शिष्य था . . १०५.२२० ४.५.२८. माध्यं.) । बभ्रुमा होने से इसे 'वाय' पैतृक नाम प्राप्त हुआ होगा । वत्सनाभ -- एक महर्षि । एक बार यह वर्षा में फँस गया, जब इंद्र ने भैंस का रूप धारण कर इसकी रक्षा की आगे चल कर इसने कृतता से उसी भैंस को भग करने चाहा, किंतु योग्य समय पर इसे अपने विचारों से लज्जा उत्पन्न हुई, एवं यह प्राणत्याग करने निकला ( म. अनु. १२ ) । किंतु धर्म ऋषि ने इसे रोक लिया, एवं मनःशांति के लिए 'शंखतीर्थ' में इसे स्नान करने के लिए कहा ( स्कंद. ३.१.२५ ) । वा वत्सपाल -- (सू. इ. भविष्य.) एक राजा, जो भविष्य के अनुसार उरुक्षेप राजा का पुत्र था । वत्सनि भालंदन - एक वैदिक जो सामन्' नामक साम का द्रष्टा था . ९.६८।१० ४५-४६ से.सं. ७.२.१.६. सं. १९१२. सं. २० २.२, पं. बा. १२.११.२५५ श. बा. ६.४.४.१ ) । प्रज के दीर्घायुष्य के लिए, इस साम का पठन किया जाता है। २. (सु. दिष्ट. ) एक राजा, जो विष्णु के अनुसार मलंदन राजा का पुत्र था। भागवत में इसे 'वत्सप्रीति' कहा गया है, एवं इसके पुत्र का नाम प्रांशु बताया गया है। इसने कुजृंभ राक्षस का वध कर, विदूरथ राजा की कन्या Page #817 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वत्सति प्राचीन चरित्रकोश वध्यश्व सौनंदा अथवा मुद्रावती से विवाह किया था ( मार्क. | करने के लिए कहा। वह यात्रा पूरी होने पर इसने सुप्रभा का विवाह अष्टावक्र से कराया (म. अनु. ५०.११; वत्सप्रीति--दिष्टवंशीय वत्सपि राजा का नामांतर | अष्टावक्र देखिये)। (वत्सप्रि भालंदन २. देखिये)। वध--एक राक्षस, जो यातुधान नामक राक्षस का क्समित्र गोभिल--एक आचार्य, जो गौल्गुलवी- पुत्र था। इसके पुत्रों के नाम विघ्न एवं शमन थे (ब्रह्मांड. पुत्र गोभिल नामक आचार्य का शिष्य था। इसके शिष्य ३.७.९४ ) का नाम मूलमित्र गोभिल था (वं. ब्रा.३)। वाध्रिमती-पुरंधि नामक स्त्री का नामान्तर (ऋ. । वत्सर--(खा. उत्तान.) एक राजा, जो ध्रव राजा के | ११६.१२)। अश्वियों की कृपा से इसके पति को पुनः दो पुत्रों में से कनिष्ठ था। इसकी माता का नाम भ्रमी था।। पुरुषत्व प्राप्त हुआ था। आगे चल कर इसे हिरण्य हस्त इसका ज्येष्ठ भाई उत्कल प्रारंभ से ही विरक्त था, जिस | नामक पुत्र भी उत्पन्न हुआ था (ऋ.१. ११६.१३; ११७. कारण कनिष्ठ होते हुए भी यह राजगद्दी पर बैठा। २४, ६.६२.७; १०.३९.७; ६५.१२)। | इसकी पत्नी का नाम स्वर्वीथी था, जिससे इसे निम्न- लो. तिलक के द्वारा वध्रिमती के इस कथा का अन्वयार्थ लिखित छः पुत्र उत्पन्न हुए थे:--पुष्पार्ण, तिग्मकेतु, अन्य प्रकार से लगाया गया है, जिसमें उन्होंने आर्यों ईश, ऊज, वसु एवं जय (भा. ४.१०.१, १३.११)। का मूलस्थान उत्तरध्रुव में होने के अपने सिद्धान्त का २. कश्यपकुलोत्पन्न एक प्रवर। संकेत पाया है (आर्यों का मूलस्थान, पृ. २२८)। वत्सराज--कोसल नरेश वत्स राजा का नामान्तर | वयश्व-(सो. नील.) एक राजा, जो मुद्गल राजा (वत्स ५. देखिये)। का पुत्र था। | वत्सल--वसन नामक स्कंद के एक सैनिक का ___ऋग्वेद में अग्निपूजा के समर्थक राजा के रूप में इसका नामान्तर। निर्देश प्राप्त है, एवं सरस्वती के द्वारा इसे दिवोदास वत्सला-अभिमन्यु की पत्नी, जिसकी जीवनकथा नामक पुत्र प्रदान किये जाने का निर्देश प्राप्त है (ऋ. ६. मराठी 'वत्सलाहरण' नामक लोकप्रिय काव्य में प्राप्त है। ३१.१; १०.६९.१; अ. वे. २.२९.४)। इसका पुत्र २. श्रीकृष्ण की एक गोपी (पद्म. भू. ७७)। दिवोदास भी इसीके तरह श्रेष्ठ यज्ञकर्ता था । वध्यश्व का वत्सवालक--(सो, क्रोष्ट.) एक यादव राजा, जो | शब्दशः अर्थ 'बधिया अश्वोंवाला' होता है । कई अभ्यासकों विष्णु के अनुसार शूर राजा का पुत्र था। के अनुसार, इसे सुमित्र नामान्तर भी प्राप्त था । वत्सवृद्ध--(सू. इ. भविष्य.) इक्ष्वाकुवंशीय वत्स | पुराणों में इसके 'बध्यश्व, ' ' वध्रश्व, ' 'वल्याश्व' राजा का नामान्तर (वत्स. ४. देखिये)। भागवत में इसे | एवं 'विंध्याश्व' नामान्तर प्राप्त है। मत्स्य में इसे उरुक्रिय राजा का पुत्र कहा गया है। इंद्रसेन राजा का, एवं वायु में 'ब्रह्मिष्ठ' राजा का पुत्र वत्सव्यूह--(सू. इ. भविष्य.) इक्ष्वाकुवंशीय वत्स | कहा गया है । मत्स्य में इसका वंशक्रम ब्रह्मिष्ठ-इंद्रसेनराजा का नामान्तर (वत्स ४. देखिये )। वायु में इसे क्षय विन्ध्याश्व-दिवोदास इस क्रम से दिया गया है। कई राजा का पुत्र कहा गया है। अभ्यासकों के अनुसार, यह ब्रह्मिष्ठ एवं इंद्रसेना का पुत्र वत्सार--कश्यप ऋषि के अवत्सार काश्यप नामक | था। किन्तु मत्स्य में 'इंद्रसेना' के बदले 'इंद्रसेन' पाठ का पुत्र का नामान्तर (अवत्सार काश्यप देखिये) काश्यप | स्वीकार कर, इसे इंद्रसेन राजा का पुत्र कहा गया है, जो कुलोत्पन्न एक मंत्रकार के नाते इसका निर्देश प्राप्त है, गलत प्रतीत होता है। किन्तु ऋग्वेद में इसके नाम पर एक भी मंत्र उपलब्ध इसकी पत्नी का नाम मेनका था, जिससे इसे दिवोदास नहीं है। इसे निध्रुव एवं रेभ्य नामक दो पुत्र थे । । एवं अहल्या नामक संतान उत्पन्न हुई (मत्स्य. ५०.७; वत्स्य--वात्स्य नामक भृगुकुलोत्पन्न गोत्रकार का | वायु. ९९.१९५; ह. वं. १.३२.७०)। नामान्तर (वात्स्य ७. देखिये)। २. भृगुकुलोत्पन्न एक गोत्रकार। वदान्य--एक ऋषि, जिसकी कन्या का नाम सुप्रभा | वध्यश्व अनूप--एक सामद्रष्टा आचार्य (पं. ब्रा. था । अष्टावक्र राजा ने सुप्रभा से विवाह करने की इच्छा | १३.३.१७) । अनूप का वंशज होने के कारण, इसे प्रकट की, जिस पर इसने उसे उत्तर दिशा की यात्रा | 'अनूप' पैतृक नाम प्राप्त हुआ था। ७९५ Page #818 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन चरित्रकोश वयस्य वन-(सो. अनु.) एक राजा, जो भागवत के | एवं शंकुकर्ण नामक दो पुत्र थे (म. आ. ४०.८, ९०. अनुसार उशीनर राजा का पुत्र था । इसे 'नववत् ' एवं | ९४)। 'नर' नामान्तर प्राप्त थे। | वपुष्मत्--स्वायंभुव मनु के पुत्रों में से एक । वनजात-(सो. विदू.) एक राजा, जो मत्स्य के २. धर्मसावर्णि मन्वन्तर के सप्तर्षियों में से एक। अनुसार हृदीक राजा का पुत्र था। ३. एक राजा, जो विदर्भराज संक्रंदन राजा का पुत्र था। वनस्पति--घृतपृष्ठ राजा के सात पुत्रों में से एक | सुविख्यात दिष्टवंशीय राजा दम के साथ इसका शत्रत्व (भा. ५.२०.२१)। था। दशार्ण देश के राजा चारुवर्मन् की कन्या सुमना का वनायु--एक दानव, जो कश्यप एवं दनु के दस | के दम दम ने हरण किया, जिस कारण दप से इसका शत्रुत्व प्रधान पुत्रों में से एक था। बढता ही गया। २. पुरूरवस् राजा को उर्वशी से उत्पन्न छः पुत्रों में | ___ कालोपरान्त दम से बदला लेने के लिए, इसने उसके से एक पुत्र । अन्य पाँच पुत्रों के नाम निम्न प्रकार थे:- | पिता नरिष्यन्त का वध किया । पश्चात् दम की माता आयु, धीमत् , अमावसु, दृढायु एवं शतायु (म. आ. इंद्रसेना ने अपने पति नरिष्यन्त के मृत्यु की बात उसे ७०.२२)। कह दी, एवं स्वयं पति के साथ सती हो गई। वनाह-एक यादव राजा, जो वायु के अनुसार हृदीक माँ एवं पिता की मृत्यु की बात सुन कर दम अत्यधिक क्रुद्ध हुआ, एवं उसने इस पर आक्रमण कर के इसका वध राजा का पुत्र था। किया। पश्चात् उसने इसके रक्त से पितृतर्पण किया, एवं वनेन--प्रसूत देवों में से एक । | इसके ही मांस से पिंडदान कर, राक्षसकुलोत्पन्न ब्राह्मणों वनेयु--(सो. पुरूरवस्) एक राजा, जो भागवत, | को खाने के लिए दिया (मा. १३३: सुमना देखिये)। वायु एवं विष्णु के अनुसार रौद्राश्व राजा का पुत्र था। | वपुष्मती--सिंधुराज की कन्या, जो मरुत्त राजा की इसकी माता का नाम मिश्रकेशी था। मत्स्य में इसे २० पत्नी थी (मार्क. १२०.४७)। विनेयु कहा गया है। २. स्कंद की अनुचरी एक मातृका। । इसके निम्नलिखित नौ भाई थे:- ऋचेयु, कक्षेयु वप्रिन--द्वापरयुगों में उत्पन्न अट्ठाईस व्यासों में से कृकणेयु, स्थण्डिलेयु, वनेयु, तेजेयु, स्थलेयु, धर्मयु एवं एक (व्यास देखिये)। संतनेयु (म. आ. ८९.९-१०)। वमक--तामस मन्वन्तर के सप्तर्षियों में से एक । वंदन-एक ऋषि, जिस पर अश्वियों की कृपा थी। सोमयज करनेवाला जति नियों यह जब कुएँ में गिरा था, तब अश्वियों ने इसे बाहर की कृपा थी (ऋ. १.५१.९, ११२.१५, १०.९९.५)। निकाला (ऋ. १.११६.११,११७.५:१०.३९.८)। पुराना वम्र वैखानस--एक वैदिक सूक्तद्रष्टा (ऋ. १०.९९. 4 जिस प्रकार नया बनाया जाता है, उसा प्रकार आश्वया १२)। ऋग्वेद के इसी सूक्त में अन्यत्र इसका निर्देश बम्र ने इसे तरुण बनाया (ऋ.१. ११९.७); इसकी आयु एवं वनक नाम से किया है, एवं इसे इंद्र की उपासना बटाई: एवं इसका उद्धार किया (रु. १.११६)। सायण | करनेवाला धनाढ्य ऋषि कहा गया है (ऋ. १०.९९. के अनुसार, कुएँ में गिरने के कारण इसे अपने पत्नी का विरह हुआ था, जिसे भी अश्वियों ने दूर किया। | वम्रक-वम्र वैखानस नामक आचार्य का नामान्तर । वंदिन--बंदिन नामक पंडित का नामान्तर (बंदिन् । वम्री-एक व्यक्ति (ऋ. ४.११.९) । वम्र का देखिये)। शब्दशः अर्थ 'चीटी' होता है। पिशेल के अनुसार, यह वपू-एक अप्सरा, जिसने दुर्वासस् के तपोभंग का | एक ऐसा व्यक्ति था कि, जो अविवाहित माता से उत्पन्न असफल प्रयत्न किया था। दुर्वासस् ने इसे शाप दिया, होने के कारण वन में छोड़ा गया था । वहाँ यह चींटियों जिस कारण अगले जन्म में यह कंधर एवं मेनका की ताी के द्वारा भक्षण किये जानेवाला था, जितने में इसकी मुक्तता नामक कन्या बन गई (माके. १.४९-५६:२.४१)। | की गई । वपुटमा-काशिराज सुवर्णवर्मन् की कन्या, जो | वय-वसिष्ठकुलोत्पन्न एक गोत्रकार। जनमेजय पारिक्षित राजा की पत्नी थी। इसके शतानीक वयस्य--पयस्य नामक अंगिरस्पुत्र का नामान्तर । ७९६ Page #819 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वयुन प्राचीन चरित्रकोश वररुचि वयुन--एक ऋषि, जो कृशाश्व ऋषि का पुत्र था। (सदुक्तिकरणामृत पृ. २९७ )। इसने पाणिनि के इसकी माता का नाम धिषणा था (भा. ६.६.२०)। अष्टाध्यायी पर एक वृत्ति लिखी थी, जिसका निर्देश वयुना--एक पितृकन्या, जो भागवत के अनुसार हस्तलेखों के सूचि में प्राप्त है ( C. C.)। पितर एवं वधा की कन्या थी। कातंत्र व्याकरण के वृत्तिकार दुर्गसिंह के अनुसार, उस वय--एक राजा. जिसका निर्देश ऋग्वेद में प्रायः सर्वत्र व्याकरण का कदंत नामक उत्तराधे इसके द्वारा विरचित तुर्वीति राजा के साथ प्राप्त है (ऋ. १.५४.६; २.१३. | था। १२, ४.१९.६)।'अश्वियों ने इसका रक्षण किया था वररुचि के द्वारा यास्क के निरुक्त पर 'निरुक्त (ऋ. १.११२.६)। समुच्चय' नामक टीका का निर्माण किया गया था। स्कंदसायण के अनुसार, तुर्वीति राजा का पैतृक नाम वय्य स्वामिन् के द्वारा विरचित निरुक्त टीका में 'वाररुच था, किन्तु रौथ इसे तुर्वीति राजा का एक मित्र मानते है । निरुक्त समुच्चय' की पर्याप्त सहाय्यता ली गयी हैं, एवं वर--पितरों में से एक । इसके अनेकानेक उद्धरण भी लिये गये हैं। वरंवरा---एक अप्सरा, जो कश्यप एवं मुनि की। प्राकृतप्रकाश--वररुचि का 'प्राकृतप्रकाश' उपलब्ध कन्याओं में से एक थी। प्राकृत व्याकरणों में सब से अधिक प्राचीन माना जाता है। वरतंतु--एक व्याकरणाचार्य, जिसका निर्देश एक इस ग्रंथ में बारह परिच्छेद हैं, जिनमें से पहले नौ परिच्छेदों शाखाप्रवर्तक आचार्य के नाते पाणिनि के अष्टाध्यायी में में 'महाराष्टी' प्राकृत के नक्षणों का वर्णन है। दसवें प्राप्त है (पाणिनि देखिये)। | परिच्छेद में 'पैशाची', एवं ग्यारहवें परिच्छेद में वरत्रिन--शुक्र के चार पुत्रों में से एक। इसके 'मागधी ' के लक्षण बताये गये हैं। बारहवें परिच्छेद में पृथुरश्मि, बृहदांगिरस एवं रजत नामक तीन पुत्र थे, जो 'शौरसेनी' का विवेचन प्राप्त है। यज्ञकर्मविरोधी होने के कारण इंद्र के द्वारा मारे गयें। इस ग्रंथ में से आखिरी तीन परिच्छेद उत्तरकालीन कालोपरान्त उनके कटे हुए सर से खजूर के पेड़ निर्माण माने जाते हैं, जो स्वयं वररुचि के द्वारा नहीं, बल्कि भामह हुए (ब्रह्मांड. ३१.८३-८४)। अथवा अन्य कोई टीकाकार के द्वारा लिखे गये होंगे। पंचविंश ब्राह्मण में पृथुरश्मि के संबंध में विभिन्न कथा इस ग्रंथ की प्राचीनतम टीका कात्यायन द्वारा विरचित दी गयीं हैं, जहाँ उसे यज्ञविरोधी कहते हुए भी, वह इंद्र 'प्राकृतमंजरी' है, जिसका रचनाकाल लगभग ई.स.६ वीके द्वारा बचाया जाने का निर्देश प्राप्त है (पृथुरश्मि | ७ वीं शताब्दी माना जाता है । इस ग्रंथ की अन्य सुविख्यात देखिये)। टीकाएँ निम्न है :--भामहकृत 'मनोरमा'; वसंतराजकृत वरद-पितरों में से एक। 'प्राकृत संजीवनी' तथा सदानंद कृत 'सदानंदा'। २. स्कंद का एक सैनिक (म. स ४४. ५९)। वरण--महौजस वंश का एक कुलांगार राजा, जिसने प्राकृत व्याकरण का सर्वमान्य संस्करण कॉवेल द्वारा दुर्व्यवहार के कारण अपने ज्ञातिबांधवों का एवं स्वजनों संपादित, एवं ई. स. १८६८ में लंदन में प्रकाशित किया का नाश किया (म. उ. ७२.१५)। पाठभेद-'वरयु'। गया है, जिसमें भामह की टीका के साथ अंग्रेजी अनुवाद एवं टिप्पणियाँ भी प्राप्त है :वररुचि--एक सुविख्यात प्राकृत व्याकरणकार, जिसके द्वारा रचित 'प्राकृतप्रकाश' नामक ग्रंथ प्राकृत व्याकरण ग्रंथ--वररुचि क नाम पर निम्नलिखित ग्रंथ प्राप्त का आद्य ग्रंथ माना जाता है। है -१. तैत्तिरीयप्रातिशाख्यव्याख्या (त्रिभाष्यरत्न. यह पाणिनीय व्याकरण के सुविख्यात वार्तिककार | १.१८.२.१४); २. निरुक्तसमुच्चय; ३. लिंगविशेषविधि कात्यायन वररुचि से भिन्न, एवं उससे काफी उत्तरकालीन | (लिंगानुशासन); ४. प्रयोगविधि; ५. कातंत्रउत्तरार्ध; था। विक्रम संवत् के प्रवर्तक सम्राट विक्रमादित्य के | ६. प्राकृतप्रकाश; ७. उपसर्गसूत्रः ८. पत्रकौमुदी; विद्वत्सभा का यह एक सभासद, एवं उसका धर्माधिकारी | ९. विद्यासुंदर काव्य; १०. यंत्रकौमुदी। था (वाररुच निरुक्त सम्मुच्चय पृ. ४२)। २. एक सुविख्यात व्याकरणकार, जो पाणिनीय व्याकरण वार्तिककार वररुचि के समान इसका गोत्र भी कात्यायन | के वार्तिकों का कर्ता माना जाता है। इसका संपूर्ण नाम ही था, एवं इसे श्रुतिधर नामान्तर भी प्राप्त था | कात्यायन वररुचि था (कात्यायन देखिये)। ७९७ Page #820 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वररुचि प्राचीन चरित्रकोश वराह ३. एक सुविख्यात नाट्यशास्त्रप्रणेता (मत्स्य. १०. ऋग्वेद में इंद्र के द्वारा वराह का वध होने की कथा २५)। | दी गई है (ऋ. १०.९९.६)। प्रजापति के द्वारा वराह, वरशिख-एक ज्ञातिप्रमुख, जिसके ज्ञाति का अभ्या-का रूप लेने की कथा तैत्तिरीय-संहिता में प्राप्त है। पृथ्वी वर्तिन् चायमान एवं वृचिवत् राजाओं ने पराजय किया था। के उत्पत्ति के पूर्वकाल में प्रजापति वायु का रूप धारण कर (ऋ. ६.२७.४-५)। झिमर के अनुसार, बरशिख तुर्वश अंतरिक्ष में घूम रहा था। उस समय समुद्र के पानी में एवं रुचीवन्त लोंगों का नेता था (अल्टिन्डिशे लेबेन. डूबी हुई पृथ्वी उसने सहजवश देखी । फिर प्रजापति ने १३३) । किन्तु यह विधान केवल अनुमानात्मक ही प्रतीत वराह का रूप धारण कर पानी में प्रवेश किया. एवं पानी होता है। ऋग्वेद के इसी सूक्त में अभ्यावर्तिन् चायमान में डूबी हुई पृथ्वी को उपर उठाया। तत्पश्चात् उसने के भय से इसका पुत्र मृत होने का निर्देश प्राप्त है। पृथ्वी को पांछ कर स्वच्छ किया, एवं वहाँ देव, मनुष्य | आदि का निर्माण किया (तै. सं. ७.१.५.१)। संभवतः इसके ही वंशज होंगे (बृहद्दे. ५.१२४ )। तैत्तिरीय ब्राह्मण में यही कथा कुछ अलग ढंग से दी वरस्त्री-बृहसति की एक बहन, जो प्रभास नामक गई है, जिसके अनुसार ब्रह्मा के नाभिकमल के निचले वसु की पत्नी थी (म. आ. ६०.२६; वायु. ८४.१५)। भाग में स्थित कीचड़ प्रजापति ने वराह का रूप धारण कर यह ब्रह्मवादिनी थी, एवं योगसामर्थ्य के कारण समस्त क्षीरसागर से उपर लाया, एवं उसे ब्रह्मा के नाभिकमल के सृष्टि में संचार करती थी। पन्नों पर फैला दिया। आगे चल कर उसी कीचड़ ने पृथ्वी वरा-हेमधर्म राजा की कन्या, जिसने अविक्षित् का रूप धारण किया (ते. बा. १.१.३)। राजा का स्वयंवर में वरण किया था (मार्क. ११९. 'पुराणों में--इन ग्रंथों में निर्दिष्ट विष्णु के अवतार प्रायः ‘वराह अवतार' से ही प्रारंभ होता हैं। वरांग--(पौर. भविष्य.) एक राजा, जो विष्णु के | हिराण्याक्ष नामक असुर पृथ्वी का हरण कर उसे पाताल में ले गया । उस समय विष्णु ने वराह का रूप धारण अनुसार धर्म राजा का पुत्र था। कर, अपने एक ही दाँत से पृथ्वी को उपर उठा कर समुद्र वरांगना--मथुरा के उग्रसेन राजा की कन्या। के बाहर लाया, एवं उसकी स्थापना शेष नाग के मस्तक वरागिन्--दिवंजय राजा का एक पुत्र (ब्रह्मांड. २. । पर की । तत्पश्चात् उसने हिराण्याक्ष का भी वध किया ३६.१०१)। (म. व. परि. १. क्र. १६. पंक्ति ५६-५८; क्र. २७. वरांगी-वज्रांग नामक असुर की पत्नी (मत्स्य. पंक्ति. ४७-५०%; शां. २६०; मत्स्य. ४७.४७.२४७१४५)। ब्रह्मा ने इसे वज्रांग दैत्य की पत्नी बनने के | २४८; भा. १.३.७, २.७.१; ३.१३.३१; लिंग. १.९४; लिए ही उत्पन्न किया था ( पन. सृ. ४२)। वज्रांग से | स वायु. ९७.७; ह. वं. १.४१; पद्म. उ. १६९; २३७)। इसे तारकासुर नामक पुत्र उत्पन्न हुआ था (वज्रांग विष्णु का यह अवतार वारसह-कल्प के प्रारंभ में देखिये)। इसे वरांगा नामान्तर भी प्राप्त था। हुआ (वायुः २३.१००-१०९)। कई पुराणों में इसका २. सोमवंशीय संयाति राजा की पत्नी, जो दृशद्वत् | स्वरूपवर्णन प्राप्त है, जहाँ इसे चतुबाहु, चतुष्पाद, राजा की कन्या थी। इसके पुत्र का नाम अहंयाति था | चतर्नेत्र एवं चतुर्मुख कहा गया है । हिरण्याक्ष के वध के (म. आ. ९०.१४)। पश्चात् इसने यथाविधि श्राद्ध किया था (म. शां. ३३३. वराह--विष्णु का तृतीय अवतार, जो हिरण्याक्ष | १२-१७)। नामक असुर के वध के लिए उत्पन्न हुआ था। इसे 'यज्ञ- __वराहस्थान-जिस स्थानपर इसने पृथ्वी का उद्धार वराह' नामांतर भी प्राप्त था (म. स. परि. १ क्र. २१ किया, उस स्थान को ' वराहतीर्थ' कहते हैं (म. व. पंक्ति. १४०)। ८१.१५, पद्म. उ. १६९)। वराह पुराण के अनुसार, वैदिक साहित्य में--वराह अवतार का अस्पष्ट निर्देश यह 'वराहक्षेत्र' अथवा 'कोकामुखक्षेत्र' बंगाल में वैदिक साहित्य में प्राप्त है। किन्तु वहाँ कौनसी भी जगह | त्रिवेणी नदी के तट पर नाथपूर ग्राम के पास स्थित है वराह-अवतार को विष्णु का अवतार नहीं बताया गया (वराह. १४०.)। गंगानदी के तट पर सोरोन ग्राम में वराह-लक्ष्मी का मंदीर है (वराह. १३७)। ७९८ Page #821 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वराह प्राचीन चरित्रकोश वरुण माह-अवतार का अन्वयार्थ--विष्णु के दस अवतारों में के कारण शाप दिया था (न. अनु. १८.२३-२५: से मत्स्य, कूर्म एवं वराह ये 'दिव्य, अर्थात मनुष्यजाति , गृत्समद १. देखिये )। के उत्पत्ति के पूर्व के अवतार माने जाते हैं। विष्णु वरिन्-एक सनातन विश्वदेव (म. अनु. ९१. के मानुषी अवतार अर्धमनुष्याकृति नृसिंह से, एवं | ३३)। वामन अवतार से प्रारंभ होते है। इससे प्रतीत वरीताक्ष-- एक असुर, जो पूर्वकाल में पृथ्वी का होता है कि, मत्स्य, वराह एवं कूर्म अवतार पृथ्वी के उस शासक था (म. शां. २२०.५६)। पाठभेद-'वीरताम्र' । अवस्था में उत्पन्न हुए थे, जिस समय पृथ्वी पर कोई भी , वरीयस्--(वा.) एक राजा, जो भागवत के अनुमनुष्य प्राणि का अस्तित्व नहीं था। प्राणिजाति की सार पुलह राजा का पुत्र था। इसकी माता का नाम उत्क्रान्ति के दृष्टि से भी मत्स्य, कर्म, वराह यह क्रम गति था। सुयोग्य प्रतीत होता है । क्यों कि, प्राणिशास्त्र के अनुसार २. सावर्णि मनु के पुत्रों में से एक । सधि में सर्वप्रथम जलचर प्राणि (मत्स्य) उत्पन्न हुए, वरु--एक व्यक्तिनाम (ऋ. ८.२३.२८; २४.२८; एवं तत्पश्चात् क्रमशः जमीन पर घसीट कर चलनेवाले २६.२)। इसका निर्देश प्रायः सर्वत्र सुषामन् के साथ (कर्म), स्तनोंवाले ( वराह), एवं अन्त में मनुष्यजाति प्राप्त है ( सुपामन देखिये)। का निर्माण हुआ। इस प्रकार पुराणों में निर्दिष्ट विष्णु के वरु आंगिरस-एक वैदिक सूक्तद्रष्टा (ऋ. १०. दैवी अवतार प्राणिजाति के उत्क्रान्ति के क्रमशः विकसित | ९६)। होनेवाले रूप प्रतीत होते हैं। वरुण-एक सर्वश्रेष्ठ वैदिक देवता, जो वैदिक साहित्य प्राणिशास्त्र की दृष्टि से. प्राणीजाति के उत्पत्ति के पूर्व | में आकाश का, एवं वैदिकोत्तर साहित्य में समुद्र का प्रतीक समस्त सृष्टि जलमय थी, जहाँ के कीचड़ में सर्वप्रथम | माना गया है। प्राणिजाति की उत्पत्ति हुई। इस दृष्टि से देखा जाये तो, वैदिक साहित्य में-- इंद्र के साथ वरुण भी प्रजापति ने वराह का रूप धारण कर समुद्र का सारा | एक महत्तम देवता माना गया है। नियमित रूप से कीचड़ पानी के बाहर लाया, एवं उसी कीचड़ से सर्व- प्रकाशित होनेवाले मित्र (सूर्य) देवता से संबंधित प्रथम पृथ्वी का, एवं तत्पश्चात् पृथ्वी के प्राणिसृष्टि का होने के कारण, वैदिक साहित्य में वरुण सृष्टि के नैतिक निर्माण किया, यह तैत्तिरीय ब्राह्मण में निर्दिष्ट कल्पना एवं भौतिक नियमों का सर्वोच्च प्रतिपालक माना गया है। उत्क्रान्तिवाद की दृष्टि से सुयोग्य प्रतीत होती है। वैदिकोत्तर साहित्य में, सृष्टि के सर्वोच्च देवता के रूप में वैदिक वाङ्मय में सर्वत्र ब्रह्मा को सृष्टि का निर्माण प्रजापति का विकास होने पर, वरुण का श्रेष्ठत्त्व धीरे धीरे करनेवाला देवता माना गया है, जिसका स्थान ब्राह्मण कम होता गया, एवं इसके भूतपूर्व अधिराज्य में से केवल एवं पौराणिक ग्रंथों में क्रमशः प्रजापति एवं विष्णु के द्वारा जल पर ही इसका प्रभुत्व रह गया। इसी कारण उत्तरलिया गया है (ब्रह्मन् , विष्णु एवं प्रजापति देखिये)। कालीन साहित्य में यह केवल समुद्र की देवता बन यही कारण है कि, ब्राह्मण एवं पौराणिक ग्रंथों में बराह गया। को क्रमशः प्रजापति एवं विष्णु का अवतार कहा गया है। वतार कहा गया है। स्वरूपवर्णन--वरुण का मुख (अनीकम् ) अग्नि के समान तेजस्वी है, एवं सूर्य के सहस्र नेत्रों से यह मानव२. युधिष्ठिर की सभा का एक ऋषि (म. स. जाति का अवलोकन करता है (ऋ. ७.३४; ८८)। इसी ४.१५)। कारण इसे 'सूर्यनेत्री' कहा गया है (ऋ. ७.६६)। मित्र वराहक--धृतराष्ट्रकुलोत्पन्न एक नाग, जो जनमेजय एवं त्वष्ट के भाँति यह सुंदर हाथोंवाला (सुपाणि) है, के सर्पसत्र में दग्ध हुआ था (म. आ. ५२. १८)। एवं एक स्वर्णद्रापि एवं द्युतिमत् वस्त्र यह परिधान करता वराहक--कुवेरसभा में उपस्थित एक यक्ष (म. स. है (ऋ. १०.२५)। इसका रथ सूर्य के समान् द्युतिमान् १०.१६)। है, जिसमें स्तंभों के स्थान पर नध्रियाँ लगी है (ऋ. १. वराहाश्व-एक दानव (म. शां. २२०.५२)। १२२)। वरिष्ठ-चाक्षुष मनु के पुत्रों में से एक (म. अनु. शतपथ ब्राहाण में इसे श्वेतवर्ण, गंजा एवं पीले नेत्रोंवाला १८.२०)। इसने गृत्समद ऋषि को साम के अशुद्ध पाठन | वृद्ध पुरुष कहा गया है (श. ब्रा. १३.३.६)। ७९९ Page #822 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वरुण प्राचीन चरित्रकोश वरुण निवासस्थान--मित्र एवं वरुण का गृह स्वर्ण निर्मित है, असुर वरुण--ऋग्वेद में मित्र एवं वरुण को अनेक एवं वह द्युलोक में स्थित है (ऋ. ५.६७)। इसके गृह में बार असुर (रहस्यमय व्यक्ति) कहा गया है (ऋ. १. सहस्त्रद्वार है, जहाँ यह सहस्त्र स्तंभोवाले आसन (सदस)| ३५.७, २.७.१०, ७.६५.२, ८.४२.१)। इसे एवं मित्र पर बैठता है (ऋ. ५.६८)। अपने इस भवन में को.रहस्यमय एवं उदात्त ( असुरा आर्या) भी कहा गया (परत्यासु) बैठ कर यह समस्त सृष्टि को अवलोकन है (ऋ. ७.६५)। ऋग्वेद में अन्यत्र इसके माया (गुह्यकरता है (ऋ. १.२५)। शक्ति) का निर्देश प्राप्त है, एवं अपनी इस माया के सर्वदर्शी सूर्य अपने गृह से उदित हो कर, मनुष्यों के द्वारा सूर्यरूपी परिमापनयंत्र के द्वारा यह पृथ्वी को कृत्यों की सूचना मित्र एवं वरुणों को देता है (ऋ. ७. नापता है, ऐसा भी कहा गया है (ऋ. ५.८५)। यहाँ ६०)। 'असुर' एवं गुह्यशक्ति' ये दोनों शब्द गौरव के आशय गुप्तचर--वरुण के गुप्तचर (पशः) द्युलोक से उतर | में प्रयुक्त किये गये हैं। कर संसार में भ्रमण करते हैं, एवं सहस्त्र नेत्रों से युक्त | वरुण-देवता का अन्वयार्थ--डॉ. रा. ना. दांडेकर जी होने के कारण, संपूर्ण संसार का निरीक्षण करते है (अ. के अनुसार, समस्त सृष्टि का संचालन करने की वे. ४.१६ ) । संभवतः आकाश में स्थित तारों को ही | 'यात्त्वामक' अथवा आसुरी शक्ति वरुण के पास थी, वरुण के दूत कहा गया है । ऋग्वेद में सूर्य को ही वरुण | जिस कारण इसे वैदिक साहित्य में असुर (असु नामक का स्वर्ण पंखोंवाला दूत कहा गया है (ऋ. १०.१२३)। शक्ति से युक्त) कहा गया है। इसी आसुरी माया के ईरान के 'मिथ' देवता के गुप्तचर भी 'स्पश्' नाम से | कारण, वरुण निसर्ग, देव एवं मनुष्यों का सम्राट् बन गया प्रसिद्ध हैं, जो वैदिक साहित्य में निर्दिष्ट मित्र एवं वरुणों था, एवं इसी अपूर्व शक्ति के कारण, वैदिक साहित्य में के गुप्तचरों से काफी मिलते जुलते हैं । वरुण को यक्षिन् (जादुगर) कहा गया है (ऋ. ७. सृष्टि का राजा--अकेले एवं मित्र के साथ वरुण को ८८.६)। देवों का, मनुष्यों का तथा समस्त संसार का राजा वरुण की इस आसुरी शक्ति का उद्गम निम्नप्रकार बता(सम्राट् ) कहा गया है (ऋ. १.१३२, ५.८५)। ऋग्वेद में या जा सकता है । वैदिक आर्यों ने जब देखा कि, इस सृष्टि यह उपाधि प्रायः इंद्र को प्रदान की जाती है, किन्तु वह का जीवनक्रम प्रचंड हो कर भी अत्यंत नियमबद्ध एवं वरुण को इंद्र से भी अधिक बार प्रदान की गयी है। व्यवस्थापूर्ण है, तब इस नियमबद्ध सृष्टि का संचालन ऋग्वेद में अन्यत्र इसके सार्वभौम सत्ता (क्षत्र) का, एवं करनेवाले देवता की कल्पना उनके मन में उत्स्फूर्त एक शासक के नाते (क्षत्रिय) इसका अनेक बार निर्देश हो गयी। प्राप्त है। वरुण को प्रकृति के नियमों का महान् अधिपति कहा- आकाश में प्रति दिन प्रकाशित हो कर अस्तंगत गया है । इसने द्युलोक एवं पृथ्वी की स्थापना की, एवं | होनेवाले सूर्य चंद्र एवं तारका; अपने नियत मार्ग से बहने. इसके विधान के कारण ही लोक एवं पृथ्वी अलग अलग । वाली नदियाँ; एवं अपने नियत क्रम से बदलनेवाली हैं (ऋ. ६.७०, ८.४२)। इसने ही अग्नि की जल में, ऋतु को देख कर, इस सारे विश्वचक्र का संचालन करनेसूर्य की आकाश में, एवं सोम की पर्वतों पर स्थापना की | वाली कोई न कोई अदृश्य देवता होनी ही चाहिए, ऐसी (ऋ. ५.८५)। वायुमंडळ में भ्रमण करनेवाला वायु धारणा उनके मन में उत्पन्न हुई। इसी अदृश्य शक्ति वरुण का ही श्वास है (ऋ. ७.८७)। अथवा देवता को वैदिक आर्यों के द्वारा वरुण कहा गया, पृथ्वी पर रात्रि एवं दिनों की स्थापना वरुण के द्वारा | एवं यह अपने दैवी शक्ति (माया) के द्वारा सृष्टि का ही की गई है, एवं उनका नियमन भी यही करता है। संचालन करता है, यह कल्पना प्रसृत हो गई। रात्रि में दिखाई देनेवाले चंद्र एवं तारका इसके कारण ही वैदिक साहित्य के अनुसार, वरुण अपने सृष्टिसंचालन प्रकाशित होते है (ऋ. १.२४)। इस प्रकार जहाँ मित्र | का यह कार्य सृष्टि के सारे चर एवं अचर वस्तुमात्रों केवल दिन के दिव्य प्रकाश का अधिपति है, वहाँ वरुण | को बंधन में रख कर करता है। अपनी 'माया' के को रात एवं दिन दोनों के ही प्रकाश का अधिपति माना | कारण वरुण ने अनेक पाश निर्माण किये हैं, जिनकी गया है। सहाय्यता से पृथ्वी के समस्त नैसर्गिक शक्तियों को यह ८०० Page #823 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वरुण प्राचीन चरित्रकोश वरुण बाँध देता है, एवं इसी प्रकार सारे सृष्टि का नियमन वैदिकोत्तर साहित्य में वरुण का सारा सामर्थ्य लुप्त हो करता है। कर, यह केवल समुद्र के जल का अधिपति बन गया। • इतना ही नहीं, यह धैर्यशाली (धृतवत् ) देवता अपने । व्युत्पत्ति--वरुण शब्द संभवतः वर ( ढकना) धातु नियमनों के द्वारा वैश्विक धर्म (ऋत) का संरक्षण करने के से उत्पन्न हुआ है, एवं इस प्रकार इसका अर्थ 'परिवृत लिए पापी लोगों का शासन भी करता है। इस तरह करनेवाला' माना जा सकता है। सायण के अनुसार, वैदिक साहित्य में वरुण देवता के दो रूप दिखाई देते 'वरुण' की व्युत्पत्ति 'पापियों को बंधनो से परिवेष्टित करनेवाला' (ऋ. १.८९) अथवा 'पापियों को अंधकार हैं:- १. बंधक वरुण, जो सृष्टि के सारे नैसर्गिक शक्तियों को बाँध कर योजनाबद्ध बनाता है, २. शासक की भाँति अच्छादित करनेवाला' (तै. सं. २.१.७) वरुण, जो अपने पाशों के द्वारा आज्ञा पालन न करने बतायी गयी है। किंतु डॉ. दांडेकरजी के अनुसार, वैदिक वाले लोगों को शासन करता है। साहित्य में वरुण शब्द का अर्थ 'बन्धन में रखना' अभिप्रेत है, एवं इस शब्द का मूल किसी युरोभारतीय आगे चल कर वैदिक आयों को अनेकानेक मानवी | भाषा में ढूंढना चाहिए। शत्रुओं के साथ सामना करना पड़ा, जिस कारण युद्ध सेमेटिक साहित्य में--ओल्डेनबर्ग के अनुसार, वैदिक में शत्रु पर विजय प्राप्त करनेवाले विजिगिषु एवं जेतृ साहित्य में निर्दिष्ट मित्र एवं वरुण भारोपीय देवता नहीं स्वरूपी नये देवता की आवश्यकता उन्हें प्राप्त होने लगी। है, बल्कि इनका उद्गम ज्योतिषशास्त्र में प्रवीण सेमेटिक इसीसे ही इंद्र नामक नये देवता का निर्माण वैदिक लोगों में हुआ था, जहाँसे वैदिक आर्यों ने इनका स्वीकार साहित्य में निर्माण हुआ, एवं आर्यों के द्वारा अपने नये | किया । इस प्रकार वरुण एवं मित्र क्रमशः चंद्र एवं सूर्य युयुत्सु ध्येय-धारणा के अनुसार, उसे राष्ट्रीय देवता के | थे, तथा लघु आदित्यगण पाँच ग्रहों का प्रतिनिधित्व करते रूप में स्वीकार किया गया। इंद्र के प्रतिष्ठापना के | थे (ओल्डेनबर्ग, वैदिक रिलिजन २८५.९८)। पश्चात , वरुण देवता की 'विश्वव्यापी सम्राट' उपाधि धीरे धीरे विलीन हो गई, एवं सृष्टि के अनेक विभागोंमें ___ महाभारत में--इस ग्रंथ में इसे चौथा लोकपाल, आदिति से, केवल समुद्र के ही स्वामी के रूप में उसका महत्व का पुत्र, जल का स्वामी एवं जल में ही निवास करनेवाला मादित किया गया। देवता बताया गया है। कश्यप के द्वारा अदिति से उत्पन्न द्वादश आदित्यों में से यह एक था (म. आ. ५९.१५)। . जल का स्वामी--अथर्ववेद में वरुण एक सार्वभौम १५)। इसे पश्चिम दिशा का, जल का एवं नागलोक का शासक नहीं, बल्कि केवल जल का नियंत्रक बताया गया का अधिपति कहा गया है (म. स. ९.७; उ. ८६. है (अ. वे. ३.३ ) । ब्राह्मण ग्रंथों में भी मित्र एवं वरुण | | २०)। को वर्षा के देवता माने गयें हैं । जलोदर से पीडित - इसने अन्य देवताओं के साथ 'विशाखयूप' में व्यक्ति का निर्देश वैदिक साहित्य में वरणगृहीत' नाम तपस्या की थी, जिस कारण वह स्थान पवित्र माना गया से किया गया है (तै. सं. २.१.२.१; श. ब्रा. ४.४. | है (म. व. ८८.१२)। इसे देवताओं के द्वारा 'जलेश्वर५.११, ऐ, ब्रा. ७. १५)। पद' पर अभिषेक किया गया था (म. श. ४६.११)। अथर्ववेद में निर्दिष्ट यह कल्पना ऋग्वेद में निर्दिष्ट | सोम की कन्या भद्रा से इसका विवाह होनेवाला था। वरुणविषयक कल्पना से सर्वथा भिन्न है । ऋग्वेद में वरुण | किंतु उसका विवाह सोम ने उचथ्य ऋषि से करा दिया । को नदियों का अधिपति एवं जल का नियामक जरूर | तत्पश्चात् ऋद्ध हो कर इसने भद्रा का हरण किया, किन्तु बताया गया है । किन्तु वहाँ इसे सर्वत्र सामान्य जल से | उचर्थ्य के द्वारा सारा जल पिये जाने पर इसने उसकी नहीं, बल्कि अंतरिक्षीय जल से संबधित किया गया है। यह पत्नी लौटा दी (म. अनु. १५४.१३-२८)। मेघमंडळ के जल में विचरण करता है, एवं वर्षा कराता है। वरप्रदान-अग्नि ने इसकी उपासना करने पर, ऋग्वेद का एक संपूर्ण सूक्त इसकी वर्षा करने की शक्ति को | इसने उसे दिव्य धनुष, अक्षय तरकस एवं कपिध्वज-रथ अर्पित किया गया है (ऋ. ५.६३)। किन्तु वहाँ सर्वत्र | प्रदान किये थे (म. आ. २१६.१-२७) । इसने अर्जुन वरुण का निर्देश नैसर्गिक शक्तियों का संचालन करनेवाले | को पाश नामक अस्त्र प्रदान किया था (म. व. ४२. देवता के रूप में है, जहाँ जल का महत्व प्रासंगिक है। | २७)। ऋचीक मुनि को इसने एक हज़ार श्यामकर्ण अश्व प्रा. च. १०१] ८०१ Page #824 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वरुण प्राचीन चरित्रकोश व!धामन् प्रदान किये थे (म. व. ११५.१५-१६)। इसने स्कंद | प्रकार दिये गये हैं:-- रंजन, पृथुरश्मि, विद्वस् एवं बृहको यम एवं अतियम नामक दो पार्षद प्रदान किये थे | निरस् (वायु. ६५.७८; वरत्रिन् देखिये)। (म. श. ४४.४१ पाठ.)। इसने अपने पुत्र श्रुतायुध | वरुथ--एक गंधर्व, जो कश्यप एवं अरिष्टा के पुत्रों को एक गदा प्रदान की थी, एवं उसके प्रयोग के नियम | में से एक था। उसे बताये थे (म. द्रो. ६७.४९)। रावण के बंदिशाला से | २. एक ब्राह्मण, जिसने अपनी कदंबा नामक कन्या सीता की मुक्ति होने के पश्चात्, वह निष्कलंक होने के | दुर्गम नामक असुर को विवाह में दी थी (मार्क. ७२. संबंध में इसने राम को विश्वास दिलाया था (म. व. | ४२)। २७५.२८)। वरुथप-एक ग्वाला, जो कृष्ण का समवर्ती था परिवार-इसकी ज्येष्ठ पत्नी का नाम देवी (ज्येष्ठा) | (भा. १०.२२.३१)। था, जो शुक्राचार्य की कन्या थीं। उससे इसे बल, अधर्म एवं वरुथिनी--एक अप्सरा, जो अर्जुन के स्वागतपुष्कर नामक एक पुत्र, एवं सुरा नामक एक कन्या उत्पन्न | समारोह में उपस्थित थी (म. व. ४४.२९)। हुई थी (म. आ. ६०.५१-५२; उ. ९६.१२)। वरेण्य-भृगु वारुणि के सात पुत्रों में से एक, जिसे इसकी अन्य पत्नी का नाम वारुणी अर्थात् गौरी था, विभु नामान्तर प्राप्त था। इसके अन्य छः भाइयों जिससे इसे गो नामक पुत्र उत्पन्न हुआ था (म. स. ९. के नाम निम्न थे :--च्यवन, शुचि, और्व, शुक्र, वज्रशीर्ष ६.९७*; ९.१०८*)) एवं सवन (म. अनु. ८५.१२६-१२९)।। इसकी तृतीय पत्नी का नाम शीततोया था, जिससे इसे २. पितरों में से एक। श्रुतायुध नामक पुत्र उत्पन्न हुआ था (श्रुतायुध देखिये। ३. एक देवगंधर्व, जो कश्यप एवं अरिष्टा के पुत्रों में इनके अतिरिक्त, जनक की सभा का सुविख्यात ऋषि से एक था। __४. माहिष्मति देश का एक राजा (गणेश. २.१३१बन्दिन् इसीका ही पुत्र था (म. व. १३४.२४)। रुद्र के यज्ञ से उत्पन्न हुए भृगु, अंगिरस् एवं कवि नामक तीन पुत्रों में से, इसने भृगु का पुत्र के रूप में स्वीकार वर्धा वार्णि--एक राजा, जो वृष्णि राजा का पुत्र था। इसे 'वाणि' पैतृक नाम प्राप्त था। किया था। इसके कारण यही पुत्र 'भृगु वारुणि' नाम से | सुविख्यात हुआ (म. अनु. १३२.३६; भृगु वारुणि वर्गा---एक अप्सरा, जो कुबेर की प्रेयसी थी । इसकी देखिये)। अगस्त्य एवं वसिष्ठ ऋषियों को भी मित्रावरुणों सौरभेयी, समीची, बुदबुदा एवं लता नामक चार सखियाँ के पुत्र कहा गया है (विवस्वत् देखिये)। थी। २. एक आदित्य, जो बारह आदित्यों में से नौवाँ | किसी ब्राहाण के शाप के कारण, यह एवं इसकी चार ही सखियाँ ग्राह बन गयी थी (म. आ. २०८. आदित्य माना जाता है । यह श्रावण माह में प्रकाशित होता है (भवि. बाह्म. ७८)। भागवत के अनुसार, यह १९)। अर्जुन ने इनका ग्राहयोनि से उद्धार किया, जहाँ . 'पंचाप्सरतीर्थ' नामक तीर्थ का निर्माण हुआ। शुचि (आषाढ ) माह में प्रकाशित होता है, एवं इसकी चौदह सौ किरणें रहती हैं (भा. १२.११)। इसकी पत्नी वर्चस--सोम नामक वसु का पुत्र, जो अगले जन्म का नाम चर्षणी था, जिससे इसे भगु नामक पुत्र उत्पन्न में अभिमन्यु बन गया (म. आ. ६०.२१)। हुआ था (भा. ६.१८.४)। २. एक राक्षस (भा. १२. ११.४०)। ३. सुचेतस् ऋषि का एक पुत्र, जिसके पुत्र का नाम ३. एक मरुत् , जो मरुतों के तीसरे गण में शामिल था।। | विहव्य था (म. अनु. ३०.६१)। ४. एक देवगंधर्व, जो कश्यप एवं मुनि के पुत्रों में से | वर्चिन्-एक असुर, जो शंबर नामक दम्यु (असुर) का एक था (म. आ. ५९.४१)। सहकारी था। इंद्र के द्वारा इसका वध हुआ (ऋ७. वरुणमित्र गोभिल-एक आचार्य, जो मूलमित्र | ९९.५)। ऋग्वेद में अन्यत्र इसे दास भी कहा गया है, नामक आचार्य का शिष्य था (पं. ब्रा. ३)। | एवं इसे वृचीवन्त लोगों से संबंधित किया गया है (ऋ. वरुत्रिन्–शुक्राचार्य के पुत्र वरत्रिन् का नामान्तर ।। ४.३०.१५, ६.२७.५-७)। वायु में इसके बहिष्ठ एवं सुरयाजक पुत्रों के नाम निम्न- | वक़धामन्--सत्यदेवों में से एक । ' आगिरस् एवं कवि नामक १४८)। ८०२ Page #825 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णिका प्राचीन चरित्रकोश वसाति वर्णिका--अधर्मकन्या माया के सात रूपों में से | वल्लभ--कांचनपुर का एक ब्राह्मण, जिसकी पत्नी का एक (माया देखिये)। नाम हेमप्रभा था ( हेमप्रभा देखिये)। वर्तिवर्धन–(प्रद्योत. भविष्य.) प्रद्योत वंश में २. बलाकाश्व नामक राजा का पुत्र, जो साक्षात् धर्म के उत्पन्न हुआ एक राजा (प्रद्योत २. देखिये)। वायु में | समान था। इसके पुत्र का नाम कुशिक था (म. अनु. इसे अजक राजा का पुत्र कहा गया है। ४.४-५)। वर्धन--कृष्ण एवं मित्रविंदा के पुत्रों में से एक | वल्लिक--एक राक्षस, जो देवासुरसंग्राम में अग्नि (भा. १०.६१.१६)। | के द्वारा दग्ध किया गया था (पद्म. स. ७५)। २. एक स्कंदपार्षद, जो अश्वियों के द्वारा स्कंद को ववल्गु--वल्गूतक नामक अत्रिकुलोत्पन्न गोत्रकार का प्रदान किये गये दो पार्षदों में से एक था। दूसरे पार्षद नामान्त नामान्तर। का नाम नंदन था (म. स. ४४.३४)। ववि आत्रेय-एक वैदिक सूक्तद्रष्टा (ऋ. ५.१९)। वश-मध्यदेश में रहनेवाला एक जातिसमूह, वर्धमान--(सो. वसु.) एक राजा, जो मत्स्य के जिसका निर्देश ऐतरेय ब्राह्मण में कुरुपांचाल एवं उशीनर अनुसार वसुदेव एवं उपदेवी का पुत्र था। लोगों के साथ प्राप्त है (ऐ. ब्रा. ८.१४.३)। कौषीतकि वर्मक-पूर्व भारत में स्थित एक लोकसमूह, जिसका उपनिषद में इन लोगों का निर्देश मत्स्य लोगों के साथ प्राप्त भीमसेन ने अपने पूर्व दिग्विजय के समय पराजय किया | है (कौ. उ. ४.१ )। अन्य कई ग्रंथों में इनका निर्देश था। इस देश के राजा का नाम भी वर्मक ही था (म. | केवल उशीनर लोगों के साथ प्राप्त है (गो. ब्रा. १.२.९)। स. २७.१२)। ओल्डेनबर्ग के अनुसार, वश एवं उशीनर ये दोनों वर्वरि--अट्टहास नामक शिवावतार का एक शिष्य ।। । एक शिष्य । | शब्द 'वश्' धातु से व्यवहृत हुए थे, जिस कारण इन वर्ष-वसुदेव एवं उपदेवी के पुत्रों में से एक । दोनों का काफी घनिष्ठ संबंध प्रतीत होता है (ओल्डेनबर्ग. २. (सो. सह.) एक राजा, जो वायु के अनुसार बुद्ध. ३९३)। सहस्त्रार्जुन राजा का पुत्र था। वश अश्वय-एक वैदिक सूक्तद्रष्टा, जो अश्वियों .. ३. एक व्याकरणाचार्य, जो पाणिनि का गुरु था। | का आश्रित था (ऋ. ८.४६)। इसे हज़ारो प्रकारों • वल-एक असुर, जिसका इंद्र ने अंगिरस् की | से धनप्राप्ति कराने की व्यवस्था अश्वियों ने की थी भाज्ञा के अनुसार वर्ष के अन्त में (परिववत्सरे) वध (ऋ. १.११६.२१)। पृथुश्रवस् कानीत नामक राजा ने भी किया था (ऋ. १०.६२.२) । पुराणों में भी इसका | इसे काफी धन दान में दिया था (ऋ.८.४६) । सायण निर्देश प्राप्त है ( पद्म. भू. २२-२३)। के अनुसार, यह एक ऋषि न हो कर वश नामक लोगों वलया-मगधनिवासी देवदास नामक ब्राह्मण की | का राजा था (ऋ. १०.४०.७; सां. श्री. १६.११.१३)। कन्या (पद्म.उ.२१२)। वशवर्तिन् --उत्तम मन्वन्तर का एक देवगण, जिस वलल-भीमसेन का गुप्तनाम, जो उसने अज्ञातवास में निम्नलिखित दस देव शामिल थे:--ज्योति, बृहद्वसु, के समय धारण किया था (म. वि. २.२)। महाभारत मानस, विभास, विरजस् , विश्वकर्मन् , विश्वधा, विश्वायु, के कई अन्य संस्करणों में, भीमसेन का अज्ञातवासकाल | समितार, सहस्रधार (ब्रह्मांड. २.३६. २९-३०)। का नाम 'पौरोगव बल्लव' दिया गया है (भीमसेन पांडव वश्यायु-पुरूरवस् का उर्वशी से उत्पन्न एक पुत्र देखिये)। (पद्म. सु. १२) वलीमुख--रामसेना का एक प्रमुख वानर (वा. रा. वश्याश्व---एक ऋषिक (ब्रह्मांड.२.३२.१०१-१०२)। गु. ४.३६)। वसन-स्कंद का एक सैनिक (म. श. ४४.६७)। बल्गजंघ--विश्वामित्र ऋषि के ब्रह्मवादी पुत्रों में से | पाठभेद-'वत्सल'। एक (म. अनु. ४.५२)। वसाति-दुर्योधन के पक्ष का एक राजा । अभिमन्यु • बल्गूतक-अत्रिकुलोत्पन्न एक मंत्रकार। इसे | के द्वारा चक्रव्यूह में प्रवेश करने पर इसने प्रतिज्ञा की 'बवल्गु,''बलास्क', एवं 'बल्गुतक 'नामांतर भी प्राप्त | थी कि, यह अभिमन्यु का वध करेगा, अथवा प्राणत्याग करेगा । जब यह अभिमन्यु का वध करने के लिए आगे ८०३ Page #826 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन चरित्रकोश वसाति बढ़ा, तत्र अभिमन्यु ने इसका वध किया ( म. द्रो. ४३. ८-१०) । : २. (सो, कुरु.) एक राजा, जो जनमेजय पारीक्षित उत्पन्न हुए वे कारवाँ पुत्र था (म. आ. ८९.५० ) । ३. एक लोकसमूह, जो भारतीय युद्ध में भीष्म की रक्षा करता था (म. भी. ४७.१४ ) । अर्जुन ने इन लोगों का संहार किया। वसातीय - अभिमन्यु के द्वारा मारे गये 'वसाति' राजा का नामान्तर (म. प्र. ४१.८ ) । इसे 'बसात्य' नानान्तर भी प्राप्त था ( म. द्रो. ४३.११; वसाति १. देखिये) । वसित - दक्षसावर्णि मन्वन्तर का एक ऋषि । वसिष्ठ - एक ऋषि, जो स्वायंभुव मन्वंतर में उत्पन्न हुए ब्रह्मा के दस मानसपुत्रों में से एक माना जाता है। वसिष्ठ नामक सुविख्यात ब्राह्मणवंश का मूलपुरुष भी यही कहलाता है । यह ब्राह्मणवंश सदियों तक अयोध्या के इक्ष्वाकु राजवंश का पौराहित्य करता रहा। जन्म- यह ब्रह्मा के प्राणवायु (समान) से उत्पन्न हुआ था ( मा. २.१२.२२) । दक्ष प्रजापति की कन्या ऊर्जा इसकी पत्नी थी। इस प्रकार यह दक्ष प्रजापति का जमाई एवं शिव का साढ़ था । दक्षयज्ञ के समय दक्ष के द्वारा A शिव का अपमान हुआ, जिस कारण क्रुद्ध हो कर शिव ने दक्ष के साथ इसका भी वध किया ! विधामित्र से वसिष्ठवंश के सारे इतिहास में एक उल्लेखनीय घटना के नाते, इन लोगों का विश्वामित्र वंश के लोगों के साथ निर्माण हुए शत्रुत्व की अखंड परंपरा का निर्देश किया जा सकता है। देवराज वसिष्ठ से ले कर मैत्रावरुण वसिष्ठ के काल तक प्राचीन भारत के इन दो श्रेष्ठ ब्राह्मण वंशों में वैर एवं प्रतिशोध का अनि सदियों तक मुलगता रहा। प्राचीन भारतीय राजवंशों में भार्गव वंश ( परशुराम जामदग्न्य) एवं हैहयों का, तथा द्रुपद एवं द्रोण का शत्रुत्य इतिहासप्रसिद्ध माना जाता है। उन्ही के समान पिढीयों तक चलनेवाला र बसि एवं विश्वामित्र इन दो ब्राह्मणवंशों में प्रतीत होता है । वसिष्ट 6 ( १ ) ऊर्जा की संतति - ऊर्जा से इसे पुंडरिका नामक एक कन्या एवं सप्तर्षि संशक निम्नलिखित सात पुत्र दक्ष ( रत्न), गर्त ऊर्ध्वबाहु सवन, पवन, सुतपस्, एवं शंकु । भागवत में ऊर्जा के पुत्रों के नाम चित्रकेतु आदि बताये गये हैं (भा. ४.१.४१ ) । इसकी कन्या पुंडरिका का विवाह प्राण से हुआ था, जिसकी वह पटरानी थी। प्राण से उसे सुतिमत् नामक पुत्र उत्पन्न हुआ था । इसके पुत्र 'रत्न' का विवाह मार्कडेयी से हुआ था, जिससे उसे पश्चिम दिशा का अधिपति केतुमत् 'प्रजापति' -- परिवार इसकी कुल दो पत्नियाँ थी :-१. ऊर्जा जो दक्ष प्रजापति की कन्या थी; २. अरुन्धती, जो कर्दम प्रजापति के नौ कन्याओं में से आठवीं कन्या थी इनके अतिरिक्त इसकी शतरूपा नामक अन्य एक पत्नी भी थी, जो स्वयं इसकी ही ' अयो निसंभवा ' कन्या थी । नामक पुत्र उत्पन्न हुआ था (ब्रह्मांड. २.१२.३९-४३) । इनके अतिरिक्त इसे हवींद्र आदि सात पुत्र उत्पन्न हुए थे। सुकात आदि पितर भी इसी के ही पुत्र कहलाते हैं । ( २ ) शतरूपा की संतति - - इसकी ' अयोनिसंभवा' कन्या शतरूपा से इसे वीर नामक पुत्र उत्पन्न हुआ था । वीर का विवाह कर्दम प्रजापति की कन्या काम्या से हुआ था, जिससे उसे प्रिय एवं उत्तानपाद नामक दो पुत्र उत्पन्न हुए थे। इनमें से प्रिय को अपनी माता कांया से ही सम्राट, कुक्षि, विराट एवं प्रभु नामक चार पुत्र उत्पन्न हुए। उत्तानपाद को अत्रि ऋषि ने गोद में लिया थ। (ह. वं.. १.२ ) । वसिष्ठकुल में उत्पन्न प्रमुख व्यक्ति - पार्गिटर के अनुसार, कालानुक्रम से देखा जाये तो, वसिष्ठ के वंश में उत्पन्न निम्नलिखित व्यक्ति प्राचीन भारतीय इतिहास में विशेष महत्त्वपूर्ण प्रतीत होते हैं: ( १ ) वसिष्ट देवराज, जो अयोध्या के अय्यरुण, त्रिशंकु एवं हरिश्चंद्र राजाओं का समकालीन था ( वसिष्ठे देवराज देखिये) । ( २ ) वसिष्ट आपव, जो हैहय राजा कार्तवीर्य अर्जुन का समकालीन था ( वसिष्ठ आप देखिये) । ( ३ ) वसिष्ट अथर्वनिधि ( प्रथम ), जो अयोध्या के बहु राजा का समकालीन था ( तिष्ठ अथर्वनिषि १ देखिये) । ( ४ ) वसिष्ठ श्रेष्ठभाज, जो अयोध्या के मित्रसह कल्माषपाद सौदास राजा का समकालीन था ( वसिष्ठ श्रेष्ठभाज देखिये) । ( ५ ) वसिष्ट अथर्व निधि (द्वितीय), जो अयोध्या के दिलीप खद्योग राजा का समकालीन था ( ब अथर्व निधि २. देखिये) । ८०४ Page #827 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन चरित्रकोश वसिष्ठ ( ६ ) वसिष्ठ, जो अयोध्या के दथस्थ एवं राम दाशरथि राजाओं का समकालीन था ( वसिष्ठ २. देखिये) । (७) वसिष्ट मैत्रावरुण, जो उत्तर पांचाल देश के पैजवन सुदास राजा का समकालीन था, एवं जिसका निर्देश ऋग्वेद आदि वैदिक ग्रंथों में प्राप्त है ( वसिष्ठ मैत्रावरुण देखिये) । (८) वसिष्ठ शक्ति, जो वसिष्ठ मैत्रावरुण का पुत्र था ( वसिष्ठ शक्ति देखिये ) । ( ९ ) वसिष्ठ सुवर्चस्, जो हस्तिनापुर के संवरण राजा का समकालीन था. ( वसिष्ठ सुवर्चस् देखिये ) | ( १० ) वसिष्ठ, जो अयोध्या के मुचकुंद राजा का समकालीन था. ( वसिष्ठ ३. देखिये ) । ( ११ ) वसिष्ठ, जो हस्तिनापुर के हस्तिन् राजा का समकालीन था ( वसिष्ट ४. देखिये) । (१२) वसिष्ठ 'धर्मशास्त्रकार, ' जो ' वसिष्ठस्मृति' नामक धर्मशास्त्रविषयक ग्रंथ का कर्ता माना जाता है ( वसिष्ठ धर्मशास्त्रकार देखिये) । वसिष्ट की वंशावलि -महाभारत एवं पुराणों में वसिष्ठ ऋषि की तीन विभिन्न वंशावलियाँ प्राप्त है: -१, अरुंधती शाखा; २. घृताचीशाखा; ३. व्याघ्रीशाखा । इनमें से अरुंधती एवं घृताची क्रमशः ब्रह्ममानसपुत्र वसिष्ठ एवं वसिष्ठ मैत्रावरुण ऋषियों की पत्नियाँ थी । व्याघ्री कौनसे वसिष्ठ की पत्नी थी, यह निश्चित रूप से नही कहा जा सकता । शक्ति (१) अरुंधती शाखा -- वसिष्ठ ( अरुंधती ) - ( स्वागज अथवा सागर ) - - पराशर ( काली ) - कृष्णद्वैपायन (अरणी ) – शुक्र ( पीवरी) -- भूरिश्रवस्, प्रभु, शंभु, कृष्ण, गौर, एवं कीर्तिमती ( ब्रह्मदत्त की पत्नी ) । (२) घृताची शाखा -- वसिष्ठ मैत्रावरुण ( घृताची )इंद्रप्रमति अथवा कुणीति अथवा कुशीति - वसु (पृथुसुता ) - उपमन्यु (ब्रह्मांड. २.८०.९०-१०० वायु. ७१.८३ - ९०; लिंग. १.६३.७८-९२; कूर्म. १.१९ मत्स्य. २०० ) । (३) व्याघ्री शाखा -- वसिष्ठ को व्याधी से व्याघ्रपाद मन्ध, बादलोम, जाबालि, मन्यु, उपमन्यु, सेतुकर्ण आदि कुल १९ गोत्रकार पुत्र उत्पन्न हुए ( म. अनु. ५३. ३०-३२ कुं. ) । वसिष्ठ ( १ ) एकप्रवरात्मक गोत्रकार - - वसिष्ठकुल के निम्नलिखित गोत्र एकप्रवरात्मक हैं, जिनका वसिष्ठ यह एक ही प्रवर होता है :- अलब्ध, आपस्थूण ( ग ), उपावृद्धि, औपगव ( अंपगवन, ग), औपलोम ( अपष्टोम, ग ), कट ( ग ), कपिष्ठल ( ग ), गौपायन ( गोपायन, ग ) गौडिfi ( जौडिलि), चौलि, दाकव्य ( ग ), पालिशय ग ), पौडव (खांडव ), पौलि, बालिशय ( ग ), बाहु (ग), बोधप (ग), ब्रह्मबल, ब्राह्मपुरेयक (ब्रह्मकृतेजन, ग ), बाडोहलि, वाह्यक ( ग ), वैक्लव ( ग ), बौलि, व्याघ्रपाद याज्ञवल्क्य ( याज्ञदत्त ), लोमायन ( ग ), वाग्रंथि, (ग), शट ( ग ) ( घटाकुर, शठकठ), शांडिल, शाद्वलायन ( ग ), शीतवृत्त ( ग ), श्रवस् ( श्रवण ), सुमन ( ग ), स्तस्तिकर ( ग ) । ( सिष्ठकुल के गोत्रकार - वसिष्ठकुलोत्पन्न गोत्रकारों में एक प्रवरात्मक ( एक प्रवरवाले), एवं त्रिप्रवरात्मक (तीन प्रवरोंवाले) ऐसे दों प्रमुख प्रकार हैं। (२) त्रिश्वरात्मक गोत्रकार - वसिडकुल के निम्नलिखित गोत्रकार त्रिप्रवरात्मक हैं, जिनके इंद्रप्रमदि (चंद्रसंमति ), भगीवसु (भर्गिर्वमु ) एवं वसिउ ये तीन प्रवर होते हैं: - उद्ग्राह ( उद्घाट, ग), उपलप (ग), उहाक (ग), औपमन्यव, कपिंजल (ग), काण्व ( ग ), कालशिख, कोर कृषा ( कौरकृष्ण, ग ), कौरव्य, कौलायन ( कौमानरायण ), क्रोडोदरायण, क्रोधिन, गोरथ ( ग ), तर्पय, डाकायन, पन्नागारि ( पर्णागारि ), पालंकायन, ( पादपायन ), प्रलंबायन ( ग ), बलेक्षु (दलेषु, ग ), बालवय, ब्रह्ममालिन् ( ग ), भागवित्तायन ( ग ) ( भागवित्रासन ), महाकर्ण, मातेय ( ग ), मापशरावय ( ग ), लंबायन ( ग ), वाक्य ( ग ), वालखिल्य ( ग ), वेदशेरक (ग), शाकधिय, शाकायन ( ग ), शाकाहार्य ( ग ), शैलालय (रौरालय, शैवलेय), श्यामवय, सांख्यायन, सुरायण । वसिष्टकुल के निम्नलिखित गोत्रकार भी त्रिप्रवरात्मक ही हैं, किन्तु उनके कुंडिन, मित्रावरुण एवं वसिष्ठ ये तीन प्रवर होते हैं: - औपस्थल (जपस्वस्थ, ग), कुंडिब, चैांगायण ( त्रैांग, ग ), पैप्पलादि, बाल ( घब ), माक्षति ( ग ), माध्यंदिन, लोहलय (हाल - हल का पाठभेद ), विचक्षुष (विवर्धक), सैबल्क ( सर्व सैलाब ), स्वस्थलि ( ग ) । वसिष्ठकुल के निम्नलिखित गोत्रकार अत्रि, जातुकर्ण एवं वसिष्ठ इन तीन प्रवरों के होते हैं :-- आलंब ( ग ), क्रोडोदय, दानकाय ( ग ), नागेय ( ग ), परम ( ग ), पादप, महावीर्य (ग), वय, वायन, शिवकर्ण (शवकर्ण) । जातुकर्ण्य लोग -- वसिष्ठ गोत्रीय लोगों में 'जातुकर्ण्य' पैतृक नाम धारण करनेवाले लोग प्रमुख थे। इसी नाम के एक ऋषि ने व्यास को वेद एवं पुराणों की शिक्षा प्रदान ८०५ Page #828 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसिष्ठ प्राचीन चरित्रकोश वसिष्ठ की थी। इसी कारण जातुकर्ण्य को अट्ठाईस द्वापारों में से श्राद्धदेव की पत्नी श्रद्धा की इच्छा थी कि, उसे एक युग का व्यास कहा गया है (वायु. २३.११५- कन्यारत्न की प्राप्ती हो । इस इच्छा के अनुसार, इसके २१९)। यज्ञ से उसे इला नामक कन्या प्राप्त हुई। किन्तु वसिष्ठकुल के मंत्रकार-वसिष्ठकुल के मंत्रकारों की | श्राद्ध देव पुत्र का कांक्षी था, जिस कारण इसने उस कन्या नामावलि वायु, मत्स्य एवं ब्रह्मांड पुराणों में प्राप्त है | का सुद्युम्न नामक पुत्र में रूपांतर किया ( भा. ९.१.१३(वायु. ५९.१०५-१०६, मत्स्य. १४५.१०९-११० | २२)। अंबरीष राजा के अश्वमेध यज्ञ में भी यह उपस्थित ब्रह्मांड. २.३२.११५-११६)। था (मत्स्य. २४५. ८६)। . इनमें से वायु में प्राप्त नामावलि, मत्स्य एवं ब्रह्मांड १०. आठवा वेदव्यास, जिस इंद्र ने ब्रह्मांड पुराण में प्राप्त पाठान्तरों के सहित नीचे दी गयी है :--इंद्रप्रमति सिखाया था । आगे चल कर, यही पुराण इसने सारस्वत ऋषि को सिखाया (ब्रह्मांड, २.३५.११८)। इसका (इंद्रप्रतिम,), कुंडिन, पराशर, बृहस्पति, भरद्वसु, आश्रम उर्जन्त पर्वत पर था ( ब्रह्मांड, ३.१३.५३)। भरद्वाज, मैत्रावरुण (मैत्रावरुणि),वसिष्ठ, शक्ति, सुद्युम्न । ११. एक ऋषि, जो वारुणि यज्ञ के 'वसुमध्य' से २. एक आचार्य, जो अयोध्या के दशरथ एवं राम उत्पन्न हुआ था। इसी कारण इसे 'वसुमत् ' कहते थे । दाशरथि राजाओं का पुरोहित था। एक नीतिविशारद आगे चल कर, इसीसे ही सुकात नामक पितर उत्पन्न हुए प्रमुख मंत्री, एवं पुरोधा के रूप में इसका चरित्रचित्रण | (ब्रह्मांड. ३.१.२१; मत्स्य. १९५. ११)। वाल्मीकि रामायण में प्राप्त है। १२. बृहत्कल्प के धर्ममूर्ति राजा का पुरोहित ( मत्स्य. यह सर्वश्रेष्ठ ब्रह्मज्ञानी, एवं तपस्वियों में श्रेष्ठ था | | ९२.२१)। इसने त्रिपुरदहन के हेतु शिव की स्तुति की (वा. रा. बा. ५२.१, २०)। अपनी तपस्या के बल थी (मत्स्य. १३३.६७)। पर इसने ब्रह्मर्षिपद प्राप्त किया था। यह अत्यधिक शांति १३. एक शिल्पशास्त्रज्ञ (मत्स्य, २५२.२.)। । संपन्न, क्षमाशील एवं सहिष्णु था (वा. रा. बा. ५५- . । १४. एक ऋषि, जो शरशय्या पर पड़े हुए भीष्म से मिलने के लिए उपस्थित हुआ था (भा. १.९.७)। . दशरथ राजा के पुरोहित के नाते, उसके पुत्र युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ के समय भी यह उपस्थित था । कामेष्टि यज्ञ में यह प्रमुख ऋत्विज बना था। राम एवं (भा. १०.७४.७)। लक्ष्मण का नामकरण भी इसने ही किया था। राम | १५. अगस्त्य ऋषि का छोटा भाई, जो विदेह देश के दाशरथि को यौवराज्याभिषेक की दीक्षा भी इसी के ही निमि राजा का पुरोहित था ( वसिष्ठ मैत्रावरुणि देखिये; हाथों प्रदान की गयी थी (राम दाशरथि देखिये)। मत्स्य. ६१.१९)। ३. एक ऋषि, जो अयोध्या के मांधातृ राजा के पुत्र महाभारत के अनुसार, यह ब्रह्माजी के मानसपुत्रों में मुचकुंद राजा का पुरोहित था (म. शां. ७५.७)। से एक था । भागवान् शंकर के शाप से ब्रह्माजी के सारे ४. एक ऋषि. जो भरतवंशीय सम्राट रंतिदेव सांकृत्य पत्र दग्ध हो कर नष्ट हो गये । वर्तमान मन्वन्तर के प्रारंभ का परोहित था । रंतिदेव राजा हस्तिनापुर के हस्तिन् | में ब्रह्माजी ने उन्हें पुनः उत्पन्न किया। उनमें से वसिष्ठ राजा का समकालीन था। उसने इसे ब्रह्मर्षि मान कर | एक था । यह अग्नि के मध्यम-भाग से उत्पन्न हुआ था। अर्ध्यप्रदान किया था (म. शां. २६.१७; अनु. २००. | इसकी पत्नी का नाम अक्षमाला था (म. उ. ११५. ११)। ५. रैवत मन्वंतर का एक ऋषि । एक बार निमि राजा से इसका झगड़ा हो गया, ६. सावर्णि मन्वंतर का एक ऋषि । जिसमें दोनों ने एक दूसरे को विदेह (देहरहित) बनने ७. ब्रह्मसावर्णि मन्वंतर का एक ऋषि । का शाप दिया । उन शापों के कारण इन दोनों की मृत्यु ८. धर्मनारायण नामक शिवावतार का एक शिष्य। । हुयी (निमि देखिये)। ९. एक ऋषि, जो श्राद्धदेव का पुरोहित था। श्राद्धदेव वसिष्ठ अथवेनिधि--एक ऋषि, जो अयोध्या के को कोई भी पुत्र न था, जिस कारण इसने मित्रवरुणों को | हरिश्चंद्र राजा के आठवें पिढी में उत्पन्न हुए बाहु राजा उद्देश्य कर एक यज्ञ का आयोजन किया । | का राजपुरोहित था । हैहय तालजंघ राजाओं ने Page #829 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसिष्ठ प्राचीन चरित्रकोश वसिष्ठ कांबोज. यवन, पारद, पहब आदि उत्तरीपश्चिम प्रदेश में | चैकितानेय वासिष्ठ एवं यह दोनों संभवतः एक ही होगे रहनेवाले लोगों की सहाय्यता से बाह राजा को राज्यभ्रष्ट | (जै. उ.बा. १.४.२.१)। किया। आगे चल कर बाहु राजा के पुत्र सगर ने इन वसिष्ठ देवराज-एक ऋषि, जो अयोध्या के सारे शत्रुओं का पराज्य कर पुनः राज्य प्राप्त किया। त्रय्यारुण, सत्यव्रत त्रिशंकु एवं हरिश्चंद्र राजाओं का पुरोहित सगर राजा इन सारे लोगों का संहार ही करनेवाला था | था। हरिश्चंद्र के यज्ञ में यह 'ब्रहा।' था (ऐ. ब्रा. ७.१६, किन्तु वसिष्ठ ने इसे इस पापकर्म से रोक दिया। सां.श्री. १५.२२.४; श. बा.१२.६.१. ४१; ४.६.६.५)। इसने सगर को परशुराम की कथा कथन की थी। | इसका त्रिशंकु राजा से हुआ विरोध एवं उसीके ही कारण इसने सगर के पत्र अंशमत को यौवराज्याभिषेक किया | इसका विश्वामित्र ऋषि से हुआ भयानक संघर्ष, प्राचीन (ब्रह्म. ३.३१.१; ४७.९९)। भारतीय इतिहास में सुविख्यात है (त्रिशंकु देखिये)। ब्रह्मांड एवं बृहन्नारदीय पुराणों में इसे क्रमशः | सत्यव्रत त्रिशंकु के राज्यकाल में शुरू हुआ इसका आपव.एवं अथर्व निधि कहा गया है । ब्रह्मांड. ३.४९. एवं विश्वामित्र ऋषि का संघर्ष सत्यव्रत के पुत्र हरिश्चंद्र, ४३; बृहन्नारदीय. ८.६३) । महाभारत में, इसके नंदिनी | एव पौत्र रोहित के राज्यकाल में चालू ही रहा। नामक गाय के द्वारा शक, कांबोज, पारद आदि म्लेंच्छ सत्यव्रत के सदेह स्वर्गारोहण के पश्चात् उसके पुत्र जाति के निर्माण होने का, एवं उनकी सहाय्यता से इसके हरिश्चंद्र ने विश्वामित्र को अपना पुरोहित नियुक्त किया । के द्वारा विश्वामित्र का पराजय होने का निर्देश प्राप्त है। किंतु उसके राजसूय-यज्ञ में बाधा उत्पन्न कर, वसिष्ठ ने (म. आ. १६५७ वा. रा. बा.५४.१८-५५)। किन्तु वहाँ | अपना पौरोहित्यपद पुनः प्राप्त किया ( हरिश्चंद्र देखिये) वसिष्ठ अथर्वनिधि को वसिष्ठ देवरात समझने की भूल हरिश्चंद्र के ही राज्यकाल में, उसके पुत्र रोहित के बदले की गई सी प्रतीत होती है, क्यों कि, विश्वामित्र ऋषि का विश्वामित्र के रिश्तेदार शुनःशेप को यज्ञ में बलि देने का समकालीन वसिष्ठ देवरात था, वसिष्ठ अथर्वनिधि उससे षड्यंत्र देवराज वसिष्ठ के द्वारा रचाया गया, किंतु विश्वामित्र काफी पूर्वकालीन था। ने शुनःशेप की रक्षा कर, उसे अपना पुत्र मान लिया २. एक ऋषि, जो अयोध्या के दिलीप खट्वांग राजा (रोहित देखिये)। .. का पुरोहित था। इसी के ही सलाह से दिलीप राजा ने वसिष्ट 'धर्मशास्त्रकार'--एक स्मृतिकार, जिसका नंदिनी नामक कामधेनु की उपासना की, जिसकी कृपा | तीस अध्यायों का 'वसिष्ठस्मृति' नामक स्मृतिग्रंथ आनंदसे उसे रघु नामक सुविख्यात पुत्र उत्पन्न हुआ (रघु. | श्रम के 'स्मतिसमुच्चय ' में प्राप्त है। उसमें आचार. १-३; पद्म उ. २०२-२०३; दिलीप खट्वांग देखिये)। प्रायश्चित्त, संस्कार, रजस्वला, संन्यासी, आततायि आदि वसिष्ठ आपव-एक ऋषि, जिसका आश्रम हिमालय के लिए नियम दिये हैं। उसी प्रकार दत्तकप्रकरण, - पर्वत में था। हैहय राजा कार्तवीर्य अर्जुन ने इसका आश्रम साक्षिप्रकरण, प्रायश्चित्त आदि विषयों का भी विवेचन जला दिया, जिस कारण इसने उसे शाप दिया (वायु. किया है। व्यंकटेश्वर प्रेस के सस्करण में भी उपर्युक्त विषयों ९४.३९-४७; ह. वं. ३३.१८८४)। ब्रह्मांड पुराण में | का विवेचन करनेवाली इसकी स्मृति उपलब्ध है, परन्तु इसके 'मध्यमा भक्ति' का निर्देश प्राप्त है ब्रह्मांड. वह केवल २१ अध्यायों की है। वह तथा जीवानन्द ३.३०.७०, ३४. ४०-४१)। मत्स्य में इसे ब्रह्मवादिन् संग्रह की प्रति एक ही है । दोनों प्रतियों में प्रायः एक सौ कहा गया है (मत्स्य. १४५. ९०)। ही श्लोक हैं। वायु में इसे वारुणि कहा गया है ( वायु. ९४. इसकी ९-१० अध्यायोंवाली भी एक स्मृति है, ४२-४३)। इसका पैतृक नाम आपव था, जिससे यह जिसमें वैष्णवों के दैनिक कर्तव्यों का विवेचन किया गया अस् (जल) का पुत्र होने का संकेत मिलता है । इस प्रकार है (C.C.)। 'वसिष्ठधर्मसूत्र' गौतमधर्मसूत्र के सूत्रों इसके वारुणि एवं आपव ये दोनों पैतृक नाम समानार्थी | से बहुत से विषयों में मिलते जुलते हैं। उसी तरह . प्रतीत होते है। बौधायनधर्मसूत्रों के बहुत से सूत्रों से वसिष्ठधर्मवसिष्ठ चैकितानेय-एक आचार्य, जो स्थिरक सूत्र के सूत्रों का साम्य है । वसिष्ठधर्मसूत्र ऋग्वेद का गार्ग्य नामक आचार्य का शिष्य था (वं. ब्रा. २)। है। तन्त्रवार्तिक में भी पुरातन गृह्यसूत्रकार के रूप में गौतमी आरुणि नामक आचार्य से वादसंवाद करनेवाला | वसिष्ठ का उल्लेख है (१.३.२४) । ८०७ Page #830 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसिष्ठ प्राचीन चरित्रकोश वसिष्ठ मिताक्षरादि ग्रन्थों में वसिष्ठ के धर्मशास्त्र से उद्धरण | पराशर के द्वारा नही, बल्कि शंतनु राजा के समकालीन लिये गये हैं । उसी तरह बृहदारण्यकोपनिषद के शंकरा- किसी अन्य पराशर के द्वारा हुई होगी (पार्गि. पृ. २१३)। चार्यभाष्य में भी वसिष्ठ के धर्मसूत्र के बहुत से सूत्र जन्म--ऋग्वेद में वसिष्ठ ऋषि को वरुण एवं उर्वशी लिये गये हैं। वसिष्ठ ने अपने ग्रन्थों में वेद तथा संहिता | अप्सरा का पुत्र कहा गया है (ऋ.७.३३.११)। ऋग्वंद के से उद्धरण लिए हैं । निदानसूत्रों की मालविन द्वारा- इसी सूक्त में इसे मित्र एवं वरुण के पुत्र अर्थ से 'मैत्राविरचित एक गाथा भी वसिष्ठ ने अपने स्मृति में दी है । | वरुण' अथवा 'मैत्रावरुणि' कहा गया है। एक बार मित्र इसके अतिरिक्त मनु, हरीत, यम एवं गौतम आदि एवं वरुण ने उर्वशी अप्सरा को देखा, जिसे देखते ही धर्मशास्त्रप्रकारों के मत भी कई बार दिये गये हैं। उनका रेत स्खलित हुआ। उन्होंने उसे एक कुंभ में रख मनुस्मति तथा याज्ञवल्क्यस्मृति में वसिष्ठस्मृति का | दिया, जिससे आगे चल कर वसिष्ठ एवं अगस्त्य ऋषिओं उल्लेख प्राप्त है। का जन्म हुआ (ऋ. ७.३३.१३)। इसी कारण, इन दोनों _ 'वृद्धवसिष्ठ' नामक अन्य एक ग्रंथ की रचना इसने | का कुभयानि' उपाधि प्राप्त हुइ, एवं उनक को 'कुंभयोनि' उपाधि प्राप्त हुई, एवं उनके वंशजों को की थी, जिसका निर्देश विश्वरूप (१.१९.) एवं मिताक्षरा 'कुण्डिन्', 'कुण्डिनेय' एवं 'कौण्डिन्य' नाम प्राप्त (२.९१) में प्राप्त हैं। इसके 'ज्योतिर्वसिष्ठ' नामक | हुए (ऋ. सर्वानुक्रमणी. १,१६६; नि. ५.१३ )। ऋग्वेद ग्रंथ के कुछ उद्धरण 'स्मृतिचंद्रिका' में लिये गये हैं। । में अन्यत्र वसिष्ठ का जन्म कुंभ में नहीं, बल्कि उर्वशी के __ ग्रन्थ--उपनिर्दिष्ट ग्रंथों के अतिरिक्त, इसके नाम पर गर्भ से होने का निर्देश प्राप्त है (ऋ. ७.३३..१२)। निम्नलिखित ग्रंथ प्राप्त है:-१. वसिष्ठ-कल्प; २.वसिष्ठ | पार्गिटर के अनुसार, 'मैत्रावरुण' वसिष्ट का पैतृक नाम तंत्र, ३. वसिष्ठपुराण, ४. वसिष्ठ लिंगपुराण, ५. वसिष्ठ- | न हो कर, उसका व्यक्तिनाम था, जो मित्रावरुण का ही शिक्षा, ६. वसिष्ठश्राद्धकल्प, ७. वसिष्ठसंहिता, ८. वसिष्ठ- अपभ्रष्ट रूप था (पार्गि. पृ. २१६; बृहद्दे. ४.८२.)। इसी होमप्रकार (C.C.) कारण, वसिष्ठ के 'मैत्रावरुण'पैतृक नाम का स्पष्टीकरण देने के लिए, इसकी जो जन्मकथा ऋग्वेद में प्राप्त है, वह कल्पनावसिष्ठ मैत्रावरुणि--एक ऋषि, जो उत्तरपांचाल के | रम्य प्रतीत होती है । वसिष्ठ मित्रावरुण का पुत्र कैसे हुआ सुविख्यात सम्राट् पैजवन सुदास राजा का पुरोहित था। इसके संबंध में, अपनी पूर्वजन्म में इसने विदेह के निमि वैदिक परंपरा के सर्वाधिक प्रसिद्ध पुरोहित में से यह राजा के साथ किये संघर्ष की जो कथा बृहद्देवता एवं एक माना जाता है। ऋग्वेद के सातघे मंडल के प्रणयन | पुराणों मे प्राप्त है,वह भी कल्पनारम्य है (बृहदे.५.१५६; का श्रेय इसे दिया गया है (ऋ. ७.१८.३३)। | मत्स्य. २०१.१७-२२; निमि विदेह देखिये)। ऋग्वेद सर्वानुक्रमणी में, ऋग्वेद के नवम मंडलांगत विश्वामित्र से विरोध-वसिष्ठ ऋषि का विश्वामित्र के सत्तानवे सूक्त के प्रणयन का श्रेय भी वसिष्ठ एवं उसके प्रति विरोध का स्पष्ट निर्देश ऋग्वेद में प्राप्त है । वसिष्ठ वंशजों को दिया गया है । इस ग्रंथ के अनुसार, इस सूक्त ऋषि के पूर्व सुदास का पुरोहित विश्वामित्र था (ऋ. ३. की पहली तीन ऋचाओं का प्रणयन स्वयं वसिष्ठ ने किया, ३३.५३) । किन्तु उसके इस पदं से भ्रष्ट होने के पश्चात् , एव इस सूक्त के चार स तास तक का ऋचाओं का वसिष्ठ भरत राजवंश का एवं सुदास राजा का पुरोहित बन प्रणयन, वसिष्ठ ऋषि के कुल में उत्पन्न निम्नलिखित नौ गया। तदोपरान्त विश्वामित्र ऋषि सुदास के शत्रपक्ष में वसिष्ठों के द्वारा किया गया थाः-इंद्रप्रमति-ऋचा ४-६; शामिल हुआ, एवं उसने सुदास के विरुद्ध दाशराज्ञ युद्ध वृषगण-ऋचा ७-९; मन्यु-ऋचा १०-१२, उपमन्यु- में भाग लिया था। ऋचा १३-१५, व्याघ्रपाद--ऋचा १६-१८; शक्ति-- गेल्डनर के अनुसार, ऋग्वेद में वसिष्ठ एवं विश्वामित्र ऋचा १९-२१; कर्णश्रुत-ऋचा २२-२३; मृलीक-- के शत्रत्व का नहीं, बल्कि वसिष्ठपुत्र शक्ति के साथ हुए . ऋचा २५--२७; वसुक्र--ऋचा २८-३०। विश्वामित्र के संघर्ष का निर्देश प्राप्त है । ऋग्वेद के तृतीय इस सूक्त में से ३१-४४ ऋचाओं की रचना | मंडल में 'वसिष्ठ द्वेषिण्यः' नामक वसिष्ठविरोधी मंत्र पराशर शाक्य (शक्ति पुत्र) के द्वारा की गई थी, जो | प्राप्त है, जो वसिष्ठपुत्र शक्ति को ही संकेत कर रचायें वयं वसिष्ठपुत्र शक्ति का ही पुत्र था । किन्तु पार्गिटर के | गये थे (ऋ. ३.५३.२१-२४)। कालोपरांत शक्ति से अनुसार, इन अंतिम ऋचाओं की रचना वसिष्ठकुलोत्पन्न | प्रतिशोध लेने के लिए, विश्वामित्र ने सुदास राजा के Page #831 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसिष्ठ प्राचीन चरित्रकोश वसिष्ठ सेवकों के द्वारा उसका वध किया (तै. सं. ७.४.७.१; मित्रावरुणों से उत्पन्न होने के कारण, इसे स्वयं का गोत्र • पं. वा. ४.७.३; ऋ. सर्वानुक्रमणी ७.३२)। नहीं था। इस कारण इसने पैजवन सुदास राजा के 'तृत्सु' किंतु उपर्युक्त सारी कथाओं में, वसिष का सुदास राजा गोत्र को ही अपना लिया । इसी कारण, ऋग्वेद में इसे के साथ विरोध होने का निर्देश यहाँ भी प्राप्त नही अनेकबार 'तृसु' कहा है (ऋ. ७.६३.८)। यह एवं है । ऐतरेय ब्राह्मण में, वसिष्ठ को सुदास राजा का| इसके वंश के लोग दाहिनी ओर शिखा रखते थे। पुरोहित एवं अभिषेकका कहा गया है (ऐ. ब्रा. ७. ऋग्वेद में 'राक्षोघ्न' सूक्त नामक सूक्त के प्रणयन का श्रेय ३४.९)। भी वसिष्ठ को दिया गया है (ऋ. ७.१०४)। इस सूक्त फिर भी सुदास राजा की मृत्यु के पश्चात् , विश्वामित्र में वसिष्ठ अपने पर गंदे आक्षेप करनेवाले लोगों को गालीपुनः एक बार सदास के वंशजों ( सौदासों ) का पुरोहित | गलौज दे रहा है, ऐसी इस सूक्त की कल्पना है। बृहबन गया (नि. २.२४; सां. श्री. २६.१२.१३)। देवता के अनुसार, इस सूक्त का संदर्भ वसिष्ठ-विश्वामित्र तत्पश्चात् अपने पुत्र के वध का प्रतिशोध लेने के लिए, के विरोध से जोड़ा गया है ( बृहहे. ६.२८-३४)। वसिष्ठ ने सौदासों को परास्त कर पुनः एक बार अपना तैत्तिरीय संहिता में प्राप्त ' एकोनपंचाशद्रात्रयाग' श्रेष्ठत्त्व स्थापित किया। . का जनक वसिष्ठ माना गया है (तै. सं. ७.४.७.)। किंतु सौदासों के साथ वसिष्ठ का यह शत्रुत्त्व स्थायी उसी संहिता में प्राप्त 'स्तोमभाग' नामक मंत्रों का भी स्वरूप में न रहा । भरत राजकुल एवं राज्य का कुलपरंपग- | प्रवर्तक यही है ( तै. सं. ३.५.२)। गत पुरोहित पद वसिष्ठवंश में ही रहा, जिसके अनेकानेक आश्रम-विपाश नदी के किनारे वसिष्ठ का ' वसिष्ठनिर्देश ब्राह्मणग्रंथों में प्राप्त है (पं. बा. १५.४.२४; ते. शिला' नामक आश्रम था। इसका 'कृष्णशिला' नामक अन्य एक आश्रम भी था, जहाँ इसने तपस्या की यज्ञकर्ता आचार्य--शतपथ ब्राह्मण में एक यज्ञकर्ता थी ( गो. ब्रा. १.२.८.) । इसी तपस्या के कारण, यह 'आचार्य के नाते वसिष्ठ का निर्देश अनेकबार प्राप्त है। पृथ्वी के समस्त लोगों का पुरोहित बन गया (गो. बा. यज्ञ के समय, यज्ञकर्ता पुरोहित ने 'ब्रह्मन् के रूप | १.२.१३)। में कार्य करना चाहिए,' यह सिद्धान्त वसिष्ठ के वैदिकोत्तर साहित्य में-वसिष्ठ एवं विश्वामित्र के द्वारा ही सर्वप्रथम प्रस्थापित किया गया। शुनःशेप विरोध की कथा वैदिकोत्तर साहित्य में भी प्राप्त है। के यज्ञ में वसिष्ठ ब्रह्मन् बना था (ऐ. ब्रा. ७.१६; सां. बृहद्देवता के अनुसार, वसिष्ठ वारुणि के सौ पुत्रों का श्री. १५.२१.४) । एक समय, केवल वसिष्ठगण ही सौदासस् ( सुदास) राजा ने वध किया, जिस कारण : ब्रह्मन् ' के रूप में कार्य करनेवाले पुरोहित थे, किन्तु क्रुद्ध हो कर, इसने उसे राक्षस बनने का शाप दिया बाद में अन्य सारे पुरोहितगण भी इस रूप में कार्य (बृहद्दे. ५.२८, ३३-३४) । लिंग के अनुसार, करने लगे (श. ब्रा. १२.६.१.४१)। विश्वामित्र के द्वारा निर्माण किये गयें राक्षसों ने कल्माषकर्तत्व-बसिष्ट ने सुदास पैजवन राजा को सोम के | पाद सौदास राजा को घिरा लिया, एवं उसके द्वारा शक्ति विशेष सांप्रदाय की दीक्षा दी, जिस कारण सुदास को | आदि वसिष्ठ के सौ पुत्रों का वध किया । शक्ति की मृत्यु समस्त राजर्षियों में उँचा पद प्राप्त हुआ। के पश्चात् उसकी पत्नी अदृश्यन्ती को पराशर नामक पुत्र एक बार यह तीन दिनों तक भूखा रहा । चौथे दिन उत्पन्न हुआ (लिंग. १.६३.८३)। किंतु पार्गिटर के अपनी क्षधा को शांत करने के लिए, इसने वरुण अनुसार, अयोध्या के कल्माषपाद सौदास के द्वारा मारे के भोजनगृह में घुसने का प्रयत्न किया । किन्तु रसोई गये कसिष्टपुत्रों का पिता वसिष्ठ मैत्रावरुणि न हो कर, घर के द्वार पर कुत्ते थे, जिन्होंने इसे अंदर जाने इससे काफी उत्तरकालीन वसिष्ठ श्रेष्ठभाज् नामक वसिष्ठको मना किया। उन रक्षक कुत्तों को सुलाने के लिए। कुलोत्पन्न अन्य ऋषि था, एवं अयोध्या के सुदास राजा के इसने कुछ ऋचाएँ कही। ऋग्वेद की यही ऋचाएँ | द्वारा वसिष्ठ मैत्रावरुणि के शक्ति नामक केवल एक ही 'निद्रासूक्त ' नाम से प्रसिद्ध है (ऋ. ७.५५) । ऋग्वेद पुत्र का वध हुआ था (पार्गि. २०९)। में प्राप्त सुविख्यात 'महामृत्युंजय' मंत्रों की रचना भी। पुराणों में-इन ग्रंथों के अनुसार, निमि राजा के द्वारा वसिष्ठ के द्वारा ही की गयी है (ऋ. ७.५९.१२)। शाप दिया जाने पर वायुरूप मे वसिष्ठ ब्रह्मा के पास गया, प्रा. च. १०२] Page #832 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसिष्ट प्राचीन चरित्रकोश वसिष्ठ तथा ब्रह्मा की इच्छा से, उर्वशी को देख कर स्खलित हुए भीष्मपंचक व्रत किया था (पा. उ. १२४)। यह एक मित्रावरुणों के वीर्य से यह कुंभ में उत्पन्न हुआ (वा. रा. व्यास भी था (व्यास देखिये)। उ. ५७; मत्स्य. ६०.२०-४०; २००)। __ परिवार--ऋग्वेद के अनुसार, इसे शक्ति नामक एक पुत्र था (ऋ. ३.५३.१५-१६)। उसी ग्रंथ में विश्वामित्र से शत्रुत्व—एक बार विश्वामित्र ऋषि इसके अन्यत्र शतयातु एवं पराशर को क्रमशः इसका पुत्र एवं आश्रम में इसे मिलने आया । कामधेनु की सहायता से | A | पौत्र कहा गया है (ऋ. ७.१८. २१)। विश्वामित्र का उत्कृष्ट आतिथ्य वसिष्ठ ने किया । तब ___पुराणों में प्राप्त जानकारी के अनुसार, वसिष्ठ के पुत्र उसने कामधेनु माँगी। किन्तु इसने अनाकानी की, तब का नाम शक्ति, एवं पौत्र का नाम पराशर शाक्त्य था, उसने कामधेनु को जबरदस्ती ले जाने का प्रयत्न किया। | जो कृष्ण द्वैपायन व्यास का पिता था। परंतु धेनु के शरीर से शक, पल्लव इत्यादि म्लेंच्छ उत्पन्न इन्हीं ग्रंथों में वसिष्ठ की पत्नी का नाम कपिजली हुए, जिन्होंने विश्वामित्र को पराजित किया। पराजित हो जाने के उपरांत, विश्वामित्र ने यह अनुभव किया कि, घृताची दिया गया है, जिससे इसे इंद्रप्रमति ( कुणि अथवा कुणीति ) नामक पुत्र उत्पन्न हुआ था। इंद्रप्रमति क्षत्रियबल की अपेक्षा ब्राह्मणबल श्रेष्ठ है, तथा तपश्चर्या | को पृथु राजा की कन्या से वसु नामक पुत्र उत्पन्न हुआ, करना आरंभ किया। विश्वामित्र ने वसिष्ठ से ब्रह्मर्षि जिसके पुत्र का नाम उपमन्यु था। इस प्रकार वसिष्ठ, कहलाने का काफी प्रयत्न किया था। उक्त कथा संभवतः शक्ति, वसु, उपमन्यु एवं अन्य छ: वसिष्ठ के वंशजों से वसिष्ठ देवराज की होगी। 'वसिष्ठवंश' का प्रारंभ हुआ। .. बाद में क्रोध से विश्वामित्र ने वसिष्ठ के सौ पुत्र वसिष्ठ वैडव-एक आचार्य, जिसने 'वासिष्ठ साम' राक्षसों के द्वारा भक्षण करवाये। इससे यह जीवन नामक साम की रचना कर, सुखसमृद्धि एवं ऐश्वर्य प्राप्त से विरक्त हो कर नदी में प्राण देने गया, किन्तु बच किया (पं. बा. ११.८.१४)। वीड का पुत्र होने के गया। इसीलिए उस नदी को विपाशा नाम दिया | कारण, इसे 'वैडव' पैतृक नाम प्राप्त हुआ था। गया (म. व. १३०.८-९)। क्यों कि, उस नदी ने वसिष्ठ श्रेष्ठभाज-एक ऋषि, जो अयोध्या के. बसिष्ठ को पाशमुक्त कर के उसे बचाया था, उसे शतद्रु मित्रसह कल्माषपाद राजा का पुरोहित था (म. आ. १६७. नाम प्राप्त हुआ। उसे यह नाम क्यों प्राप्त हुआ १५,१६८.१०)। महाभारत में अन्यत्र इसे 'ब्रह्मकोश' उसका कारण यही है कि, जब यह शतद्रु (आधुनिक उपाधि प्रदान की गई है। सतलज नदी ) में व्याकुल होकर कूद पड़ा, तब वह नदी ___कल्माषपाद राजा ने एक दुष्टबुदि राक्षस के वशीभूत इसे अग्नि के समान तेजस्वी समझ कर सैकडों धाराओं हो कर इसे नरमांसयुक्त भोजन खिलाया, जिस कारण में फूट कर इधर उधर भाग चली । शतधा विद्रुत होने से : न इसने उसे नरमांसभक्षक होने का शाप दिया । बारह उसका नाम 'शतद्र' हुआ (म. आ. १६७.९)। | वर्षों के पश्चात् कल्माषपाद राजा शापयुक्त हुआ। तत्पश्चात् वसिष्ठ ने जब विश्वामित्र पर सौ पुत्रों के समाप्त करने इसने उसकी पत्नी मदयन्ती को अश्मक नामक पुत्र का आरोप लगाया, तब पैजवन के समक्ष शपथपूर्वक उत्पन्न होने का वर दिया (ब्रह्मांड. ३.६३.१५ वा. रा. उसने यह बात अमान्य की (मनु. ८.१०)। किन्तु सु. २४.१२)। कालदृष्टि में यह कथा असंगत प्रतीत होती है (शक्ति वसिष्ठ सुवर्चस्--एक ऋषि, जो हस्तिनापुर के देखिये)। संवरण राजा का पुरोहित था (म. आ. ८९.३६-४०)। व्रतवैकल्य--कक्षसेन ने इसे अपनी संपत्ति दी थी यह सुदास राजा के पुरोहित वसिष्ठ ऋषि का पुत्र था, (म. अनु. २००.१५. कुं.)। इसने पक्षवर्धिनी एकादशी एवं इसके भाई का नाम शक्ति था। का व्रत किया था (पन. उ. ३६)। इसने बकुला-संगम पांचाल देश के राजा सुदास ने संवरण राजा को राज्यपर परमेश्वर की सेवा की थी (पद्म. उ. १३९)। इन्द्र- भ्रष्ट किया। तदुपरान्त वसिष्ठ की सहाय्यता से ऋक्षपुत्र प्रस्थ के सप्ततीर्थ के प्रभाव से इसे महापवित्र पुत्र हुए। संवरण ने पुनः राज्य प्राप्त किया, एवं इसीकी सहाय्यता थे (पद्म. उ. २२२)। ब्रह्मदेव के पुष्करक्षेत्र के यज्ञ में से विवस्वत् की कन्या तपती से उसका विवाह हुआ (म. यह होतृगणों का ऋत्विज था (पद्म. स. ३४)। इसने आ. १८०)। कालोपरान्त संवरण के.राज्य में अकाल Page #833 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसिष्ठ 'छा गया, जिस समय उसके न होते हुए भी इसने बारह वर्षों तक हस्तिनापुर के राज्य का कारोबार योग्य प्रकार से चलाया (म. आ. १६० - १६४ ) । तारकामय युद्ध के बाद, सृष्टि में महान अकाल आ गया, जिस समय इतने फल - मूल - औषधि आदि का निर्माण कर देव, मनुष्य एवं पशुओं के प्राणों की रक्षा की ( ब्रह्मांड. ३.८. ८९.९०; म. शां. २२६.२७; अनु. १३७.१३ ) । वसिष्ठ हिरण्यनाभ कौशल्य-- एक आचार्य, जो जैमिनि नामक आचार्य का शिष्य था । जैमिनि ने इसे वेदों की पाँच सी संहिताएँ सिखायी थी, जो आगे चल कर इसने अपने वाशवल्क्य नामक शिष्य को प्रदान की (बावु ८८.२०७ ) । प्राचीन चरित्रकोश बलिष्ठपुत्र ऋषि के कर्ज नामक पुत्र का का नामान्तर, जो सप्तर्षियों में से एक था ( वायु. ६२.१६) । यसु प्राचेतस दक्ष की कन्या, जे धर्म ऋषि की पानी थी । विभिन्न कल्पों में इसने अनेकानेक अवतार लिये, जिस कारण इसे विभिन्न नाम प्राप्त हुए । महाभारत में प्राप्त इसके विभिन्न नाम निम्नप्रकार हैं:-१. शांडिल्या २२. रा ४ धूम्रा ५. प्रभाता ६. मनखिनी । इन मुओं को अनेकानेक पुत्र हुए, जो बसु नामक उत्पन्न देवता समूह कहलाते है (भा. ६.६.४; ब्रह्मांड. २.९.५०; वसु. २.. देखिये )। २. एक देवतासमूह जिसकी संख्या आठ होने के 'कारण ये ' अष्टवसु ' नाम से प्रसिद्ध हैं ( ऐ. बा. २.१८; श. ब्रा. ४.५,७ ) । तैत्तिरीय संहिता में इनकी संख्या ३३३ दी गयी हैं (रा.सं.५०५२) । वेद में देवताओं का त्रिपदीय विभाजन निर्देशित है, जहाँ वसु, रूद्र एवं आदित्यों को क्रमशः पृथ्वी, अंतरिक्ष एवं स्वर्ग में निवास करनेवाले देव कहा गया है (७.२६.१४ ) | ब्राह्मणांथों में बसु, रुद्र एवं आदित्यों की संख्या क्रमशः आठ, ग्यारह एवं बारह बतायी गयी है। इन्हीं देवों में यो एवं पृथ्वी मिल्दा कर देवों की कुल संख्या तैतीस बतायी गयी है । धनु वैवस्वत मन्वन्तर के सात देवतासमूह में इनका निर्देश प्राप्त है ( मत्स्य. ५. २०-२१; ९.२९ ) । वैदिक ग्रंथों में तथा पुराणों में, अग्नि को वसुओं का नायक बताया गया है ( ब्रह्मांड. २. २७ २४ मत्स्य. ८.४) । देवासुर संग्राम में इन्होंने कालेय नामक दैत्यों से युद्ध किया था ( भा. ८. १०.३४ ) । इन्हें साध्य देवों के बन्धु कहा गया है, एवं वसिष्ठ ऋषि से इन्हें लैंगिक समागम से पुनः जन्म प्राप्त होने का शाप प्राप्त हुआ था । अष्टवसु-पुराणों में अष्ट नाम निम्नप्रकार दिये गये हैं:-१. अनल २. अनिल २. अप् ४. घर: ५. लव ६ प्रत्यूष प्रभासः ८. सोम - परिवार अश्वमुओं की माता, पनियाँ एवं पुत्र आदि के बारे में विस्तृत जानकारी महाभारत एवं पुराणों में प्राप्त है (४. ८१२ पर दी गयी 'अनुवसुओं का परिवार की तालिका देखिये) । " भागवत में इस ग्रंथ में अतुओं के नाम एवं परिवार के संबंध में अन्य सारे पुराण एवं महाभारत से विभिन्न जानकारी प्राप्त है, जो निम्नप्रकार है: बस ( १ ) द्रोण ( २ ) प्राण ( ४ ) अर्क (५) अग्नि (६) दोष (७) वसु पत्नी अभिमति ऊर्जस्वती धरणि वासना बसोरा कृतिका शर्वरी आंगिरसी ८) विभावसु उपा पुत्र हर्ष, शोक, भय । सह आयु पुरोजव पुरस्थ देवता । वर्ष । द्रविणक, कंद, विशाख । शिशुमार विश्वकर्मन् न्युट, रोचिए, आठप पंचयाम | भा. ६.६.११-१६ ) । ३. वैवस्वत मन्वन्तर का देवगण | ४. प्रतर्दन देवों में से एक । ५. आय देवों में से एक। पौराणिक साहित्य में इन ग्रंथों में बतओं को धर्म एवं वसु के पुत्र माने गये हैं । किन्तु वहाँ वसु एक स्त्री न हो कर कल्पभेदानुसार अनेकानेक स्त्रियाँ मानी गयी हैं ( भा. ६.६.१०; ब्रह्मांड. २.३८.२; वसु १. देखिये ) ऐश्वर्यप्राति के लिए वसुओं की उपासना की जाती है ( भा. २.३.३ ) । ये वासुदेव के अंश माने जाते हैं, एवं । का ६. दस विश्वेदेवों में से तीसरा देव । यह भृगु ऋषि पुत्र था ( मत्स्य. १९५.१३) । | ७. ब्रह्मभ्यो अनि का नामान्तर पाठभेद' वमुधाम' ( ब्रह्मांड. २.१२.४३ ) । ८११ Page #834 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बस वसु का नाम ( १ ) अनल (२) अनिल (३) अप् (अहं) (४) पर (५) ध्रुव (६) प्रत्यूष ( ७ ) प्रभास ( ८ ) सोम (चंद्र) माता शांडिल्या श्वासा रता धूम्रा धूम्रा प्रभाता प्रभाता मनखिनी प्राचीन चरित्रकोश अष्टवसुओं का परिवार पत्नी शिवा (कृत्तिका ) कल्यागिनी मनोहरा ८. सोम की अनुचरी देवताओं में से एक। ९. दक्षसावर्णि मन्यन्तर का एक ऋषि वरस्त्री आंगिरसी (बृहस्पतिभगिनी) पुत्र कंड शाख, विशाल, नैशमेय । स्कंद, मनोजव, जीव, अविज्ञातगति । रमण, शिशिर । वैतण्ड्य (दंड); श्रम (शांत्र, शम), श्रांत (शांत ); मुनि ( ध्वनि, मणिवक ), ज्योति । शिशिर, रमण ( द्रविण ), प्राण, हव्यवाह | काल । देव | विश्वकर्मन् । (ब्रह्मांड. ३,३.२१ - २९; वायु. ६६.२० - २८; विष्णु. १.१५.१११-१२०, मत्स्य. ५.१७-२७; अझ ३.३६-४४९ ६. सं. १.३. म. आ. ६० १०-२६ ) । १५. (सो. ऋक्ष ) चेदि देश के उपरिचर वसु राजा का नामांतर (उपरिचर देखिये ) । भागवत एवं विष्णुमें वर्चस्, बुध, धर (धार), ऊर्मि, कालिछ । इसे क्रमश: ' कृति एवं 'कृतक' राजा का पुत्र कहा गया है । १०. सावर्णि मनु का एक पुत्र ( मत्स्य. ९.३३; मनु आदिपुरुष देखिये) । १२. एक राजा, जो मत्स्य के अनुसार पुरूरवस् एवं उर्वशी का पुत्र था ( मत्स्य. २४.३३ ) । पाठभेद - 'अमाय'। १६. (स्वा. उतान. ) एक राजा, जो उत्तानपाद राजा का पुत्र था। इसकी माता का नाम सुनता था। एक बार ११. स्वायंभुव मनु का एक पुत्र ( मत्स्य ९.५; मनु पशुयज्ञ के संबंध में वादविवाद का निर्णय देने के लिए आदिपुरुष देखिये) । कई ऋषि इसके पास आये उस समय इसने पशुयश हिंसक, अतएव त्याज्य होने का अपना मत प्रकट किया, जिस कारण ऋषियों ने इसे रसातल में जाने का शाप दिया। आगे चल कर तपस्या के कारण, इसे स्वर्गलोक की प्राप्ति हो गयी ( मत्स्य. १४३.१८ - २५ ) । १३. (स्वा. उत्तान. ) एक राजा, जो भागवत के अनुसार वत्सर राजा का पुत्र था। इसकी माता का नाम स्वथि था। ' १४. (सो. अमा.) एक राजा, जो भागवत के अनुसार कुरा राजा के चार पुत्रों में से एक था। विष्णु एवं वायु में इसे क्रमशः 'अमावसु' एवं 'यशोवसु कहा गया है। इसने गिरिज नामक नगरी की स्थापना की, जो रामायणकाल में 'वसुमती' नाम से सुविख्यात थी ( वा. रा. बा. ३२.७ ) । इसकी कन्या का नाम अग्छ मास्यगंधा सत्यवती था, जिसे पराशर ऋषि से व्यास नामक पुत्र उत्पन्न हुआ (मःस्व. १४.१४) । स्कंद के अनुसार, इसके पीछे से एक मत्स्थी के गर्भ से सत्यवती अथवा मत्स्यगंधा नामक कन्या का जन्म हुआ था (५.१.९७ ) । १७. ( इ.) एक राजा, जो नृग राजा का पुत्र था। १८. (सू. नृग.) एक राजा, जो सुमति राजा का पुत्र था। १९. (सो. वसु. ) एक राजा, जो वसुदेव एवं देवराक्षिता के पुत्रों में से एक था। कंस ने इसका वध किया । ८१२ Page #835 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन चरित्रकोश वसुक्र ऐंद्र १८)। २०. (सो. वसु.) एक राजा, जो कृष्ण एवं सत्या के | ३२. मारीच कश्यप नामक ऋषि की पत्नी, जिसने पुत्रों में से एक था। भागवत में इसकी माता का नाम | सोम के लिए अपने पति का त्याग किया (मत्स्य. २३. नामजिति दिया गया है (भा. १०.६१.१३)। २५)। .२१. (सो.) एक राजा, जो ईलिन एवं रथंतरी के ३३. एक ऋषि, जो भृगु वारुणि एवं पौलोमी के सात पाँच पुत्रों में से एक था। इसके अन्य चार भाईयों के | ऋषिपुत्रों में से एक था। नाम दुष्यंत, शूर, भीम एवं प्रवसु थे (म. आ. ८९.१५)। ३४. एक ऋषि, जो कुणीति एवं पृथुकन्या के पुत्रों में २२. कृमिकुल का एक कुलांगार राजा, जिसने दुर्व्य- से एक था। इसके पुत्र का नाम उपमन्यु था। वहार के कारण अपने ज्ञातिबांधव एवं स्वजनों का नाश ३५. काश्मीर देश का एक राजा, जिसने पुष्करतीर्थ किया (म. उ. ७२.१३)। पुराणों में इसे चेदि देश का | पर तपस्या की थी। इसने पंडरिकाक्ष के स्तोत्र का पटन राजा एवं पृथु राजा का प्रपौत्र कहा गया है। इसके पुत्र किया, जिस कारण इसे मोक्ष की प्राप्ति हुई (वराह.५-६)। का नाम. उपमन्यु था, जिससे औपमन्यव कुल का | ___ अपने पूर्वजन्म में, चाक्षुष मनु के राज्यकाल में यह निर्माण हुआ (मत्स्य. ५०.२५-२६)। ब्रह्मा का पुत्र था। एक बार इसने रैभ्य ऋषि के द्वारा २३. एक राजा, जो भूतज्योति नामक राजा का पुत्र | बृहस्पति को प्रश्न किया, 'कर्म से मोक्ष प्राप्त होता है, था। इसके पुत्र का नाम प्रतीक था (भा. १.२.१७- या ज्ञान से ?' उस समय बृहस्पति ने इसे जवाब दिया. 'ज्ञानपूर्वक किये कर्म से मनुष्य को मोक्षप्राप्ति होती है। २४. एक ऋषि, जो इंद्रप्रमति वसिष्ठ नामक ऋषि का | उस जन्म में इसके पुत्र का नाम विवस्वत् था। पौत्र, एवं भद्र नाम ऋषि का पुत्र था। इसके पुत्र का नाम | अपने इस पूर्वजन्म का स्मरण एक व्याध के उपमन्यु था। . . द्वारा इसे हुआ, जिस कारण इसने उस व्याध को अगले २५. एक ऋषि, जो जमदग्नि एवं रेणुका के पाँच पुत्रों | जन्म में 'धर्मव्याध' होने का वर प्रदान किया। में से एक था। इसके अन्य भाइयों के नाम रुमण्वत ३६. केरल देश में रहनेवाला एक ब्राहाण (पन. उ. सुषेण, विश्वावसु एवं परशुराम थे। पिता की मातृवध ११९) । पापकर्म के कारण इसे पिशाचयो नि प्राप्त हो •संबंधी आज्ञा न मानने के कारण, इसे पिता के द्वारा शाप | गयी। पश्चात् गंगोदक से यह मुक्त हुआ। प्राप्त हुआ था। परशुराम के द्वारा उस शाप से इसका ३७. वेंकटाचल पर रहनेवाला एक निषाद । इसकी उद्धार हुआ। पत्नी का नाम चित्रवती था, जिससे इसे वीर नामक पुत्र २६. एक आंगिरसवंशीय ऋपि, जो पैल ऋषि का उत्पन्न हुआ था । विष्णु की उपासना करने से यह मुक्त - पिता था (म. स. ३०.३५)। युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ | में यह होता था। वसु काश्यप-रोहित मन्वन्तर का एक ऋषि (ब्रह्मांड २७. (वा. प्रिय.) एक राजा, जो कुशद्वीप के । ४.१.६२)। हिरण्यरेतस राजा के सात पुत्रों में से एक था (भा. ५. वसु भारद्वाज-एक वैदिक सूक्तद्रष्टा (उ. ९.८०२०.१४; हिरण्यरेतस् देखिये)। कुशद्वीप का इसका । ८२)। राज्यविभाग इसीके ही नाम से सुविख्यात हुआ। | वसुकणे वासुक्र-एक वैदिक सूक्तद्रष्टा (ऋ.१०. २८. एक यक्ष, मणिभद्र एवं पुण्यजनी के पुत्रों में से | ६५.६६)। एक था (ब्रह्मांड. ३.७.१२३)।। वसुकृत् वासुक्र-एक वैदिक सूक्तदृष्टा (ऋ. १०. २९. एक दैत्य, जो मुर दैत्य के पुत्रों में से एक था। २०-२६)। कृष्ण ने इसका वध किया (भा. १०.५९.१२।। | वसुक ऐद्र-एक वैदिक सूक्तद्रष्टा (ऋ. १०.२७ ३०. एक वसु, जिसकी पत्नी का नाम आंगिरसी, एवं २९) । किन्तु ऐतरेय अरण्यक में इन सूक्तों के प्रणयन पुत्र नाम विश्वकर्मन् था (भा. ६.६.११; वसु २. का श्रेय इसे नहीं, बल्कि इसकी पत्नी को दिया गया है देखिये)। (ऐ. आ. १.२.२, सां. आ. १.३)। ___३१. कर्दम ऋषि के दस पुत्रों में से एक (ब्रह्मांड. २. एक बार इसके द्वारा किये गये यज्ञ में, इंद्र गुप्तरूप १४.९)। में उपस्थित हुआ। किन्तु इसकी पत्नी के द्वारा अनुरोध इस यज्ञ हुआ। Page #836 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसुक्र ऐंद्र प्राचीन चरित्रकोश किये जाने पर, अपने वास्तव रूप में इंद्र ने इसे दर्शन दिया । उस समय इंद्र ने इसके साथ किया हुआ संवाद ऋग्वेद में प्राप्त है (ऋ. १०.२८ ) । वसुक वासिष्ठ -- एक वैदिक सूक्तद्रष्टा (ऋ. ९.९७ २८-३० ) । वसुपत्नी -- एक वैदिक सूक्तद्रष्ट्री (ऋ. १०.२८. १) । वसुदानपुत्र कौरवपक्ष का एक राजा, जिसने वसुचंद्र एक राजा, जो भारतीय युद्ध में पांडवों के भारतीय युद्ध में काशिराज का पुत्र अमि का बंध किया पक्ष में शामिल था (म. प्रो. १३२.२७ ) । _था ( म.क४.७४) । -- वसुदामन् - - बृहद्रथपुत्र वसुदान राजा का नामान्तर । वसुदामा-स्कंद की अनुचरी एक मातृका (म. श ४५.५)। वसुदेव (सो. वृष्णि) एक यादव राजा, जो श्रीकृष्ण का पिता था। यह मथुरा के उग्रसेन राजा का मंत्री, एवं (पांडुपत्नी) कुंती का बन्धु था । इसके पिता का नाम शूर ( देवमीढ ) एवं माता का नाम मारिषा था। इसके जन्म के समय देवताओं ने आनक एवं दुंदुभियों का घोष किया, जिस कारण इसे ' आनकदुंदुभि' नामान्तर भी प्राप्त था ( भा. ९.२४.२८; वायु. ९६. १४४; ब्रह्म. १४ ) 1 कृष्णजन्म उग्रसेन के भाई देवर के सात कन्याओं के साथ इसका विवाह हुआ था, जिसमें देवकी प्रमुख थी। इस विवाह के समय देवकी का चचेरा भाई एवं उग्रसेन राजा का पुत्र•कंस, स्वयं रथ का सारथ्य करने बैठा - था। बारात के समय, देवकी के आठवें पुत्र के द्वारा कंस का वध होने की आकाशवाणी उसने सुनी, जिस कारण कंस ने इसे एवं देवकी को कारागृह में रख दिया । किन्तु इसके आठवें पुत्र श्रीकृष्ण का जन्म होते ही, यह रात्री में ही व्रज में नंद गोप के घर गया, एवं वहाँ श्रीकृष्ण को छोड़ पर उसके बदले नंद गोप एवं यशोदा की नयत कन्या ले आया । यशोदा एवं देवकी सहेलियाँ थी, जिन्होंने यह संकेत पहले से ही निश्चित किया था (दे. भा. ४.२३ ) । वसुज्येष्ठ ( शुंग भविष्य. ) एक राजा, जो मत्स्य के अनुसार पुष्यमित्र राजा का पुत्र था (मत्स्य. २७२. २८ ) । भागवत, विष्णु एवं ब्रह्मांड में इसे ' सुज्येष्ठ ' कहा गया है । इसने सात वर्षों तक राज्य किया । वसुद---एक देव, जो भृगु एवं पौलोमी के पुत्रों से एक था (ब्रह्मांड. ३.१.२९ ) । में २. (सू. इ. ) एक राजा, जो मत्स्य के अनुसार पुरुकुत्स एवं नर्मदा के पुत्रों में से एक था ( मत्स्य. १२. ३६) । इसे 'असद' नामांतर भी प्राप्त था। वसुदत्त - एक राजा, जो अपने पूर्वजन्म में सुव्रत नामक राजा था । विष्णु के आशीर्वाद से इसे इंद्रपद की प्राप्ति हुई (पद्म. सृ. २२; भू. ५) । वसुदा - मालि नामक राक्षस की पत्नी । २. अंगिरस ऋषि के सुभा नामक पत्नी का नामान्तर (म. व. २०८.१; शिवा देखिये) । वसुदान -- शिवदेवों में से एक (ब्रह्मांड, २.३६. ३२) । २. एक राज, जो कुशद्वीप के हिरण्यरेतस् राजा के पुत्रों में से एक था ( भा. ५.२०.१४ ) । में ३. पांशुराष्ट्र का अतिरथि सम्राट्, जो भारतीय युद्ध पाण्डवों के पक्ष में शामिल था ( म. उ. १६८.२५ ) । इसे 'वसुमत् ' नामान्तर भी प्राप्त था ( म. स. ४.५१* ) । युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ के समय, इसने २६ हाथी, २००० घोडे आदि स्तुएँ उसे अर्पित की थी ( म.स. ४८. २६-२७)। देव ४. पाण्डवों के पक्ष का अन्य एक राजा, जो द्रोण के ही द्वारा मारा गया ( म. द्रो. २०.४३ ) । ५. ( सो. कुरु. भविष्य, ) एक राजा, जो विष्णु के अनुसार बृहद्रथ राजा का पुत्र था । मत्स्य एवं भागवत में इसे क्रमश: 'वसुदामन् ' एवं 'सुदास ' कहा गया है। ( मत्स्य. ५०.८५ ) । - भारतीय युद्ध में, इसने युधिष्ठिर के साथ युद्धभूमि में प्रवेश किया था (म. उ. १४९.५८ ), जहाँ इसने काफ़ी पराक्रम दिखाया ( म. क. ४.८६ ) । इस युद्ध में यह एवं इसका पुत्र क्रमशः द्रोण एवं कर्ण के द्वारा मरे गयें ( म. द्रो. १६४.८४; क. ४.७४) । पश्चात् कंस ने इसे मुक्त किया, एवं इसने गर्ग ऋषि के द्वारा नंद गोप के घर में रहनेवाले अपने बलराम एवं कृष्ण इन दो पुत्रों के जातकर्मादि संस्कार किये (मा. १०.५.२० - २१ ) | भागवत के अनुसार स्वयं श्रीकृष्ण ने इसकी कंस के कारागृह से मुक्तता की थी ( भा. १०. ३६.१७-२४)। पराक्रम पौण्ड्रक वासुदेव राजा के साथ यादवों का युद्ध हुआ था, जिस समय यह भी उपस्थित था । नारद ने इसे भागवतधर्म का उपदेश किया था, जिसमें उसने o Page #837 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चालुदेव प्राचीन चरित्रकोश वसुदेव इसे निमि जनक एवं नौ योगेश्वरों के बीच हुआ तत्त्वज्ञान- | (३) भोगांगना---१. सुगंधा (सुतनु-ह. वं.); २. पर उपदेश कथन किया था (भा. ११.२-५)। वनराजी (रथराजी-मस्य.; वडवा-ह. वं.)। भागवत अश्वमेधयज्ञ--इसने स्यमन्तपंचकक्षेत्र में अश्वमेध एवं विष्णु में इनके निर्देश अप्राप्य हैं। यज्ञ किया था, जिस समय इसके अश्वमेधीय अश्व का (४) अन्य पत्नियाँ--१. वैश्या; २. कौसल्या । जरासंध ने हरण किया था (म. स. ४२.९)। किन्तु पुत्र-(१) रोहिणीपुत्र-१. राम; २. सारण; ३. श्रीकृष्ण ने वह अश्व लौट लाया, एवं इसका यज्ञ भलीभाँति दुर्दम (दुर्मद); ४. शठ (गद-भा., निशव-बायु.); समाप्त हुआ। इस यज्ञ के समय इसने नंद गोप का विपुल | ५. दमन (विपुल-भा., भद्राश्व-विष्णु); ६.शुभ्र (सुभ्रभेटवस्तुएँ दे कर सत्कार किया था (भा. १०.६६)। मत्स्य., श्वभ्र-ह. वं., कृत-भा., भद्रबाहु-विष्णु.); ७. मृत्यु-कृष्ण की मृत्यु की वार्ता सुन कर, यह अत्यंत | पिंडारक (कृत-भा., दुर्गमभूत-विष्णु.); ८. कुशीतक उद्विग्न हुआ (म. मो.५)। इसने अपने पुत्रो में से (उशीगर-ह. वं., महाहनू-मत्स्य., सुभद्र-भा.)। सौमी एवं कौशिक को अपने भाई वृक के गोद में दिया, सारे पुराणों में रोहिणी की पुत्रसंख्या आठ बतायी एवं प्रभासक्षेत्र में देहत्याग किया। पश्चात् अर्जुन की गयी हैं। केवल भागवत में उसके बारह पुत्र दिये गये है, नेतृत्व में, एक अत्यंत मौल्यवान मनुष्यवाहक यान से जिनमें से उर्वरीत चार निम्नप्रकार हैं:-१. भद्रवाह; इसका शव स्मशान में ले जाया गया। इसकी स्मशान- २. दुर्मद, ३. भद्र, ४. भूत । यात्रा के अग्रभाग में इसका आश्वमधिक छत्र था, एवं पीछे | इनके अतिरिक्त रोहिणी को दो निम्नलिखित कन्याएँ इसके स्त्रियों का परिवार था । इसके अत्यंत प्रिय स्थान भी थी. जिनका उल्लेख हरिवंश में प्राप्त हैं:- १. चित्रा पर इसका दाहकर्म किया गया (म. मौ. ८.१९-२३)। (चित्राक्षी-मत्स्य.), २. सुभद्रा (चित्राक्षी- मत्स्य.)। इसकी पत्नियों में से देव की, भद्रा, रोहिणी एवं मदिरा (२) मदिरापुत्र-१. नंद, २. उपनंद; ३. कृतक आदि स्त्रिया इसके शव के साथ संती हो गयीं। (स्थित-वायु.); ४. कुक्षिमित्र; ५. मित्र, ६. पुष्टि; ७. परिवार-इसकी पत्नियाँ एवं परिवार की जानकारी चित्र; ८. उपचित्र; ९. वेल; १०. तुष्टि। विभिन्न पुराणों में प्राप्त है, किंतु वह एक दूसरे से मेल । इनमें से पहले तीन पुत्रों का निर्देश हरिवंश एवं नही खाती। | मत्स्य के अतिरिक्त बाकी सारे पुराणों में प्राप्त हैं । ४___पत्नियाँ--इसकी पत्नियों की संख्या वायु एवं हरिवंश ८ पुत्रों के नाम केवल वायु एवं विष्णु में प्राप्त है । ९-- में क्रमशः १३ एवं १४ दी गयी हैं (वायु. ९६.१५०- १० पुत्रों के नाम केवल विष्णु में प्राप्त हैं । वायु में इन १६१: ह. वं. १.३५.१) । मत्स्य एवं भागवत में पत्नियों दो पुत्रों के स्थान पर 'चित्रा' एवं 'उपचित्रा' नामक दो की कुल संख्या अप्राप्य हैं, किंतु भागवत में इसके कन्याओं का निर्देश प्राप्त हैं । भागवत में ४-१० पुत्रों १३ पत्नियों का अपत्यपरिवार दिया गया है। के नाम अप्राप्य है, किंतु वहाँ 'शूर' आदि बिल्कुल नये इसकी पत्नियों में निम्नलिखित स्त्रिया प्रमुख थी:- नाम दिये गये हैं। (१) देवककन्याएँ--१. देवकी; २. सहदेवाः ३. (३) भद्रापुत्र--(अ) वायु एवं ब्रह्मांड में--१. शांतिदेवा, जिसे वायु एवं मत्स्य में क्रमशः 'शाङ्ग देवा' बिंब; २. उपविच; ३. सत्वदंत; ४. महौजस् । (ब) विष्णु एवं 'श्राद्धदेवा' कहा गया है; ४. श्रीदेवाः .. देव- में--१. उपनिधि, २. गद। रक्षिता; ६. वृकदेवा (धृतदेवा); ७. उपदेवा । (४) वैशाखी (वैश्या) पुत्र कौशिक, जिसे (२) पूरुकुलोत्पन्न स्त्रियाँ--१. रोहिणी, जिसे भागवत में कौसल्यापुत्र कहा गया है। हरिवंश एवं ब्रह्मांड में बाह्रीक राजा की, एवं वायु में (५) सुनाम्नीपुत्र-१. वृक; २. गद (ह. वं.)। वाल्मीक राजा की कन्या कहा गया है; २. मदिरा (इंदिरा- । (६) सहदेवापुत्र--(अ) ब्रह्मांड में--१. पूर्व । है. वं.); ३. भद्रा; ४. वैशाखी (वैशाली-विष्णु.); (ब) भागवत में--१. पुरु; २. विश्रुत आदि (क) वायु ५. सुनाम्नी। | में--१. भयासख। उपर्युक्त पत्नियों में से वैशाखी एवं सुनाम्नी का निर्देश (७) शांतिदेवापुत्र (अ) ब्रह्मांड में- १. जनस्तंभ । भागवत में अप्राप्य हैं, जहाँ उनके स्थान पर 'रोचना' (ब) भागवत में -१. श्रम; २. प्रतिश्रुत आदि । (क) एवं 'इला' नाम प्राप्त हैं। । हरिवंश में--१. भोज; २. विजय । Page #838 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसुदेव प्राचीन चरित्रकोश व नुमनस् (4) श्रीदेवापुत्र--(अ) भागवत में-१. वसु; २. | राज्य किया। इसके पुत्र का नाम भूमित्र था (भा. १२. हंस; ३. सुवंश । (ब )ब्रह्मांड में-१. मंदक । १.१९-२०; मत्स्य. २७२.३२; ब्रह्मांड. २.७४.१५६)। (९) देवरक्षितापुत्र-(अ) भागवत में-१. उपा- | वसुदेवा-गदिनी की कन्या (वायु. ९६.१११)। संगः २. वसु । इन दोनों पुत्रों का कंस ने वध किया (ब)| वसुंधर-शाल्मलिद्वीप में रहनेवाला एक लोकसमूह हरिवंश में--१. उपासंगधर । (क) भागवत में--१. | (भा. ५.२०.११)। गद । (ड) मत्स्य में--एक कन्या, जिसका कंस ने वध | वसुप्रभ--स्कंद का एक सैनिक (म. श. ४४.५८)। किया। वसुभृद्यान--(स्वा.) स्वायंभुव मन्वन्तर के वसिष्ठ (१०) वृकदेवापुत्र-(अ) हरिवंश एवं ब्रह्मांड में-१. ऋषि के सात पुत्रों में से एक । इसकी माता का नाम अगावह । (ब) वायु में-१. स्वगाहप; २. अगाहिन् । ऊर्जा था (भा. ४.१.४१)। कई अभ्यासकों के अनुसार (क) मत्स्य में--१. अवागह; २. नंदक । (ड)भागवत | 'वसुभृद्यान' एक व्यक्ति न हो कर, यहाँ ' वसुभृत् ' एवं में--विपुष्ठ। 'यान' ऐसे दो व्यक्तियों के नाम की ओर संकेत किया (११) उपदेवापुत्र--(अ) वायु एवं मत्स्य में-- | गया है। १. विजय ; २. रोचन (रोचमत् ); ३. वर्धमत् ; ४. वमत्--वैवस्वत मनु के पुत्रों में से एक । देवल । (ब) भागवत में--१. कल्प; २. वृक्ष । २. (सो. पुरूरवस् .) एक राजा, जो भागवत के (१२) देवकीपुत्र ( अ ) मत्स्य में--१. सुषेण; २. | अनुसार श्रुतायु राजा का पुत्र था। कीर्तिमत् ; ३. भद्रसेन; ४. भद्रविदेह (भद्र देव-ब्रह्मांड; ३. जमदग्नि एवं रेणुका के वसु नामक पुत्र का नामान्तर भद्रविदेक-वायु; भद्र-भागवत.); ५. ऋषिदास (ऋजुकाय (वसु २५. देखिये) -ब्रह्मांड.; यजुदाय-वायु; ऋजु-भागवत);६. दमन ४. कृष्ण एवं जांबवती के पुत्रों में से एक। (उदर्षि-ब्रह्मांड.; तदय-वायु; संमर्दन-भागवत.); ७. ५. युधिष्ठिर की सभा का एक राजा (म. स. ४.३८)। गवेषण । ये सारे पुत्र कंस के द्वारा मारे गये। भारतीय युद्ध में यह पाण्डवों के पक्ष में शामिल था इनके अतिरिक्त देवकी के कृष्ण एवं सुभद्रा नामक (म. उ. ४.१८)। संतानों का निर्देश वायु एवं मत्स्य में, तथा संकर्षण नामक ६. (सू. निमिः') एक जनकवंशीय राजकुमार, जिसे पुत्र का निर्देश भागवत एवं विष्णु में प्राप्त है। एक ऋषि के द्वारा धर्मज्ञान प्राप्त हुआ था (म. शां. २९७. (३) ताम्रापुत्र--सहदेव ।। २)। (१४) सुगंध पुत्र-१. पुंड, जो राजा बन गया; २ ७. (स. इ.) इक्ष्वाकुवंशीय वसुमनस् कौसल्य राजा कपिल, जो वन में गया। का नामान्तर। (१५) वनराजीपुत्र--१. जरस् , जो धनुर्विद्याप्रवीण वसुमती--वालेय गंधा की एक कन्या, जिससे आगे था, किन्तु कालोपरांत निषाद बन गया (ब्रह्मांड. ३.७१; चल कर 'वसुमती सूतगण' की उत्पत्ति हुई (वायु. ६९. वायु. ९६.१५९-२१४; मत्स्य. ४६; भा. ९.२४.२७- २१-२३)। २८; विष्णु. ४.१५, ह. वं. १.३५.१-१०)। २. पृथ्वी का नामान्तर (वायु. ९७.१६)। २. (सू. इ.) एक इक्ष्वाकुवंशीय राजा, जो विष्णु वमनस-वैवस्वत मनु के वसुमत् नामक पुत्र का के अनुसार चंचु राजा का पुत्र था। वायु एवं भागवत में नामान्तर (भा. ८.१३.३)। इसे 'सुदेव' कहा गया है। । २. जमदग्नि के वसु नामक पुत्र का नामान्तर (भा. ९. ३. एक दुराचारी ब्राह्मण, जो अपने ईश्वरभक्ति के | १५.१३)। कारण, अगले जन्म में असुरराज प्रल्हाद बना (पद्म. उ. ३. श्रीकृष्णपुत्र वसुमत् का नामांतर(भा.१०.६१.१२)। १७४)। ४. एक सप्तर्षि, जो वैवस्वत् मन्वन्तर में उत्पन्न वसिष्ठ वसुदेव काण्व-(कण्व. भविष्य.) काण्वायन के सात पुत्रों में से एक था (ब्रह्मांड. २.३८.२९)। राजवंश का आद्य राजा, जो शुंग राजा देवभूति भागवत में इसे वसुमत् कहा गया है। ( देवभूमि) का अमात्य था। देवभूति का वध कर ५. (सो. पुरूरवस् .) श्रुतायु राजा के वसुमत् नामक यह शंगराज्य का अधिपति बना । इसने पाँच वर्षों तक पुत्र का नामान्तर। Page #839 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसुमनसू प्राचीन चरित्रकोश ६. युधिष्ठिर की सभा का एक राजा, जो भारतीय युद्ध | वसुरुचि-एक यक्ष, जो कश्यप एवं अरिष्टा के में पाण्डवों के पक्ष में शामिल था (म. स. ४.५१४, | पुत्रों में से एक था । इसीके ही वेष में यक्ष ने ऋतुस्थला उ. ४.२१)। उपभोग लिया था (वायु. ६९.१४०)। वसमनस कौसल्य–(स. इ.) कोसल देश का | २. एक अप्सरा (ब्रह्मांड. ३.७.११ )। एक इक्ष्वाकुवंशीय राजा, जो वायु के अनुसार हर्यश्व राजा - वसुरोचिस् आंगिरस-एक वैदिक मंत्रद्रष्टा (ऋ.८. का पुत्र था। ययाति राजा की कन्या माधवी इसकी माता ३४.१६)। लुडविग इन्हें हज़ार गायकों का एक परिवार थी। वायु में इसे वसुमत् कहा गया है (वायु. ८८. मानते है, जिन्होंने इंद्र से विपुल संपत्ति प्राप्त की थी ७६ )। इसके भाइयों के नाम अष्टक वैश्वामित्रि, प्रतदन, (लुडविग, ऋग्वेद अनुवादं. ३.१६२)। किन्तु ग्रिफिथ एवं शिबि औशीनर थे (म. व. परि. १. क्र. २१. पंक्ति | इस शब्द का एकवचनी रूप ग्राह्य मानते है, एवं इसे एक ६)। | राजा समझत है ( ग्रिाफथ, ऋग्वेद के सूक्त. २.१७५)। ययाति को पुण्यदान--एक बार यह अपने भाइयों वसुश्री-स्कंद की अनुचरी एक मातृका (म. श. के साथ यज्ञ कर रहा था, जहाँ स्वर्ग से भ्रष्ट हुआ | ४५.१२)। पाठभेद- केतकी'। इसका मातामह ययाति आ गिरा। पश्चात् अपनी माता वसुश्रुत आत्रेय--एक वैदिक सूक्तद्रष्टा (ऋ. ५. माधवी की आज्ञा से, इन्होंने अपना पुण्य ययाति को 3-6 प्रदान किया, जिस कारण उसे पुनः एक बार स्वर्ग की वसुषेण--अंगराज कर्ण का मूल नाम, जो अधिरथ प्राप्ति हुई (मत्स्य. ३५.५; माधवी देखिये)। ययाति सूत एवं राधा के द्वारा उसकी बाल्यावस्था में रखा राजा को पुण्यफल प्रदान करने के कारण, यह 'दानपति' गया था। नाम से सुविख्यात हुआ। वसुहोम-अंगदेश का एक प्राचीन राजा, जिसे संवाद-इसने बृहस्पति ऋषि से राजधर्म का ज्ञान | 'वसुहम ' नामान्तर प्राप्त था। मुंजपृष्ठ पर्वत पर तप प्राप्त किया था (म. शां. ६८)। वामदेव ऋषि ने इसे | करते समय, मांधातृ राजा ने इसे दण्डनीति के संबंध में राजनीति कथन की थी (म. शां. ९२-९४)। तीर्थयात्रा | उपदेश प्रदान किया था (म. शां. १२२)। एवं विद्वत्सहवास के कारण, इसने काफी पुण्यसंचय किया वसूयव आत्रेय-एक वैदिक सूक्तद्रष्टा (ऋ. ५. था, जिस कारण इसे स्वर्गप्राप्ति हुई (मत्स्य. ४२.१४)। २५-२६)। - यह यमसभा का सभासद था (म. स. ८.१३)। वसोर्धारा-अग्नि नामक वसु की पत्नी (भा.६.६.१३)। घोषयात्रा युद्ध में अर्जुन एवं कृप का संग्राम देखने के वस्तु-(सो. क्रोष्टु.) यादव राजा बभ्र का नामांतर लिए, यह इंद्र के रथ पर आरूढ हो कर उपस्थित हुआ | ( बभ्र २. देखिये)। वायु में इसे लोमपाद राजा का पुत्र था (म. वि. ५१.९-१०)। कहा गया है (वायु. ९५.३७)। वसमनस् रौहिदश्व--एक वैदिक मंत्रद्रष्टा (ऋ. १०. वस्वनंत--(सू. निमि.) विदेह देश का एक १७९.३)। राजा, जो भागवत के अनुसार उपगुप्त राजा का पुत्र था। वसुमित्र-एक क्षत्रिय राजा, जो दनायुपुत्र विक्षर | इसके पुत्र का नाम युयुध था ( भा. ९.१३.२५)। नामक असुर के अंश से उत्पन्न हुआ था। भारतीय | वहीनर--(सो. कुरु. भविष्य.) एक राजा, जो युद्ध में यह कौरवों के पक्ष में शामिल था (म. आ. भागवत के अनुसार दुर्दमन राजा का, एवं मत्स्य के ६८.४१)। अनुसार उदयन राजा का पुत्र था। विष्णु में इसे अहीन २. (शुंग. भविष्य.) एक शुंगवंशीय राजा, जो भागवत, कहा गया है । इसके पुत्र का नाम दंडपाणि था ( भा. विष्णु एवं ब्रह्मांड के अनुसार सुज्येष्ठ राजा का, वायु के | ९.२२.४३)। अनसार पप्पमित्र का, एवं मत्स्य के अनुसार वसुज्येष्ठ । २. यमसभा का एक क्षत्रिय (म. स. ८. १५)। राजा का पुत्र था। इसने दस वर्षों तक राज्य किया। इसके | पाठभेद-' इषीरथ' । यह 'वह+नर'(= नरवाहन ) शब्द पुत्र का नाम भद्रक (उदंक) था (भा. १२.१.१७)। | का फारसी रूपान्तर होगा। वसुरुच-एक आचार्य (ऋ. ९.११०.६)। | वह्नि--शिवदेवों में से एक। प्रा. च. १०३] ८१७ Page #840 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वह्नि प्राचीन चरित्रकोश वाजश्रवस २. (सो. तुर्वसु.) एक राजा, जो भागवत, विष्णु एवं का सामर्थ्य निम्नलिखित शब्दों में बताया है, 'जो ज्ञान वायु के अनुसार तुर्वसु राजा का पुत्र था। इसके पुत्र | देव एवं मानवों के लिए अप्राप्य है, वह मैं बता का नाम भर्ग (गोभानु) था (भा. ९.२३.२६, ब्रह्मांड. | सकती हूँ। इस ज्ञान के कारण, किसी भी व्यक्ति को मै ३.७४.१)। श्रेष्ठ बना सकती हूँ, ब्राह्मण बना सकती हूँ, ऋषि बना __३. (सो. कुकुर.) एक राजा, जो कुकुर राजा का पुत्र सकती हूँ, बुद्धिमान् बना सकती हूँ। मेरे पास रुद्र था । इसके पुत्र का नाम विलोमन् था । विष्णु में इसे धृष्ट | का धनुष सदैव सज्ज है, जिसकी सहाय्यता से मैं कहा गया है (धृष्ट ५. देखिये )। समस्त ब्रह्मद्वेष्टा शत्रुओं का नाश कर सकती हूँ' (ऋ. १०. ४. कृष्ण एवं मित्राविंदा के पुत्रों में से एक (भा. | १२५.५-७)। १०.६१.१६ )। वाचःश्रवस्--शिखंडिन् नामक शिवावतार का ५. रामसेना एक वानर । | शिष्य, जो अठारहवें द्वापारयुग में उत्पन्न हुआ था ६. अग्नि का नामांतर (अग्नि ५. देखिये)। | (वायु. २३. १८३)। वाकय--वसिष्ठकुलोत्पन्न एक गोत्रकार । वाचकवी- गार्गी नामक ब्रह्मवादिनी स्त्री का पैतृक वाका--माल्यवत् राक्षस की कन्या, जो विश्रवस् | नाम (बृ. उ. ३.६.१; ८.१)। 'वचन्नु' का वंशज होने ऋषि की चार पत्नियों में से एक थी । महाभारत में | से इसे यह पैतृक नाम प्राप्त हुआ होगा। विश्रवस् ऋषि के पत्नियों के पुष्पोत्कटा, राका एवं मालिनी | वाचस्पत--अलीकयु नामक आचार्य का पैतृक नाम ये तीन ही नाम प्राप्त है। किन्तु ब्रह्मांड एवं वायु में | (सां. बा. २६.५, २८.४)। . विश्रवस् ऋषि की चतुर्थ पत्नी वाका बतायी गयी है | वाचावृद्ध-भौत्य मन्वन्तर का एक देवगण (ब्रह्मांड. (ब्रह्मांड. ३.८.३९-५६; वायु. ७०.३४-५०)। इसके ४.१.१०७)। त्रिशिरस् ,दूषण एवं विद्युजिह्व नामक तीन पुत्र, एवं अनु वाच्य--प्रजापति नामक वैदिक सूक्तद्रष्टा का पैतृक पालिका नामक कन्या थी। नाम। वापति--सत्यदेवों में से एक (ब्रह्मांड. २.३६.३४)।। ___ वाच अथवा वाजिन्--सावर्णि मनु के नौ पुत्रों में से वागायनि--भृगुकुलोत्पन्न एक गोत्रकार । वागिंद्र--एक ऋषि, जो गृत्समदवंशीय प्रकाश ऋषि | वाजभर'-सप्ति नामक वैदिक सूक्तद्रष्टा का पैतृक का पुत्र था। इसके पुत्र का नाम प्रमति था। यह वीत- | नाम । हव्य नामक ब्रह्मक्षत्रिय के वंश में उत्पन्न हुआ था (म. वाजरत्नायन--सोमशुष्मन् नामक आचार्य का पैतृक अनु. ३०.६३; वीतहव्य देखिये)। नाम (ऐ. ब्रा. ८.२१.५)। वाग्ग्रंथि--वसिष्ठकुलोत्पन्न एक गोत्रकार । पाठभेद | वाजश्रव-अंगिरस् कुल में उत्पन्न हुआ एक ऋषि । --'बाहुरि। इसे वायुपुराण की संहिता निर्यन्तर नामक आचार्य से वाग्दुष्ट--कौशिक ऋषि के सात पुत्रों में से एक | प्राप्त हुई, जो आगे चल कर इसने सोमशुष्म नामक शिष्य (मत्स्य. २०.३)। इसके कनिष्ठ भाई का नाम पितृवर्तिन् । को प्रदान की (ब्रह्मांड. २.३५.१२२, वायु. १०३.६४)। था (पितृवर्तिन् देखिये)। इसके नाम के लिए 'वाजिश्रव' पाठभेद भी प्राप्त है। वाग्मिन्-(सो. पूरु.) एक राजा, जो पूरुराजा के | वाजश्रवस्-- एक आचार्य, जो जिह्वावत् बाध्योग पौत्र मनस्यु के तीन पुत्रों में से एक था। इसकी माता | नामक आचार्य का शिष्य था (बृ. उ. ६.४.३३ माध्य.) का नाम सौवीरी था। इसके अन्य दो भाइयों के नाम | इसके शिष्य का नाम कुश्रि था । नचिकेतस् इसका सुभ्र एवं संहनन थे (म. आ. ८९.७)। पुत्र था। पुराणों में इसे ऋषिक एवं चौबीसवाँ वेद व्यास वाच-सावर्णि मनु के नौ पुत्रों में से एक (वायु. | कहा गया है। १००.२२)। २. एक व्यास, जो बाईसवें द्वापारयुग में उत्पन्न वाच आम्भृणी--एक वैदिक सूक्तद्रष्टी (ऋ. १०. | हुआ था । १२५)। इसके द्वारा रचित ऋग्वेद का सूक्त तेजस्वी वाजश्रवस--कुश्रि नामक आचार्य का पैतृक विचारों से ओतप्रोत भरा हुआ है, जहाँ इसने वाणी । नाम (श. ब्रा. १०.५.५.१)। नचिकेतस् का पैतृक ८१८ Page #841 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाजश्रवस प्राचीन चरित्रकोश वातवेग नाम भी यहीं बताया गया है (ते. ब्रा. ३.११.८.१)। २९.७ )। भारतीययुद्ध में, ये लोग कौरवों के पक्ष में वाजश्रवस के वंशज होने से उन्हे वाजश्रवस पैतृक नाम शामिल थे, एवं भीष्म के द्वारा निर्मित गरुड़-व्यूह के प्राप्त हुआ होगा। शिरोभाग में खड़े हुए थे (म. भी. ५२.४)। अर्जुन २. एक ऋषिकुल, जो गोतम कुल में उत्पन्न हुआ था | ने इन लोगों का संहार किया था (म. क. ५१.१६)। (ते. ब्रा. ३.११.८)। इस कुल के लोग अत्यंत पूज्य वाटिक--पराशरकुलोत्पन्न एक गोत्रकार । माने जाते थे (ते. ब्रा.१.३.१०३ )। वाडव-एक व्याकरणकार, जो पतंजलि के व्याकरण वाजसनेयि अथवा वाजसनेय-याज्ञवल्क्य नामक | महाभाष्य में निर्दिष्ट सात वार्तिककारों में से एक था सुविख्यात आचाय का पैतृक नाम (बृ. उ. ६.३.७; ५.. (महा. ८.२.१०६) । उस ग्रंथ में अन्यत्र इसका निर्देश दो ३ काण्य; जै. बा. २.७६)। इसकी शिष्यपंरपरा | बार किया गया है, जहाँ इसे सौर्यनगर का रहिवासी कहा 'वाजसनेयिन' नाम से सुविख्यात है (अनुपद. सूत्र. गया है (महा.३.२.१४:७.३.१) । कैयट के अनुसार, ७.१२.८.१), जिसम याज्ञवल्क्य क पद्रह शिष्य प्रमुख सौर्य एक नगर का ही नाम था। थे। एक शाखाप्रवर्तक आचार्य के नाते, याज्ञवल्क्य का वाडोहवि--वसिष्ठकुलोत्पन्न एक गोत्रकार । निर्देश पाणिनि के अष्टाध्यायी में प्राप्त है (पाणिनि वात--(सो. क्रोष्टु) एक राजा, जो वायु के अनुसार देखिये)। शूर राजा का पुत्र था। २. एक आचार्यसमूह, जो व्यास की यजुःशिष्य २. एक क्रूरकर्मा राक्षस,जो यातुधान राक्षस का पुत्र था। परंपरा में से याज्ञवल्क्य नामक आचार्य के पंद्रह शिष्यों इसके पुत्र का नाम विरोध था (ब्रह्मांड ३.७.९६)। से बना हुआ था। ३. स्वारोचिष मन्वंतर के सप्तषियों में से एक । याज्ञवल्क्य ने सूर्य से यजुःसंहिता को प्राप्त किया था। आगे चल कर उसने उस संहिता के पंद्रह भाग किये, वातघ्न-विश्वामित्र ऋषि के ब्रह्मवादी पुत्रो में से एक । एवं वे अपने काण्व, माध्यंदिन आदि शिष्यों में बाँट . वातजूति (वातरशन)--एक वैदिक मंत्रद्रष्टा (ऋ. दिये। इसी कारण याज्ञवल्क्य के ये पंद्रह शिष्य 'वाज १०.१३६.२ )। सनेय' नाम से सुविख्यात हुए । याज्ञवल्क्य के ही कारण, । वातपति-द्रौपदीस्वयंवर में उपस्थित एक राजा शुकयजुर्वेदसंहिता 'वाजसनेयि संहिता' नाम से प्रसिद्ध | (म. आ. २०१.२०)। वातरशन-नग्न मुनियों का एक समुदाय (ऋ. वाजिजि-मरीचिगर्भ देवों में से एक( ब्रह्मांड. ४.१. १०.१३६.१०२, तै. आ. १.२३.२, २४.४, २. ७.१)। इससे प्रतीत होता है कि, भारत में आज वाजिन-सावर्णि मनु के वाज नामक पुत्र का नामांतर । दिखाई देनेवाले नग्न गोसाइयों की परंपरा काफी २. याज्ञवल्क्य के पंद्रह शिष्यों का सामूहिक नाम पुरातन है। ऋग्वेद में निम्नलिखित ऋषियों को 'वातरशन' उपाधि (वायु. ६१.२४-२६; वाजसनेयि २. देखिये। वाजिश्रवस्-अंगिराकुलोत्पन्न एक गोत्रकार। प्रदान की गई है:-ऋष्यशृंग, एतश, करिकत, जूति, वाज्य-केतु नामक आचार्य का पैतृक नाम (वं. बा. | वातजाति, विप्रजात ( *. १०. १२६ )। वातवत्--एक ऋषि, जो दृति नामक आचार्य का वाटधान--एक राजा, जो क्रोधवश नामक दैत्य के | मित्र था (पं. बा. २५.३.६)। एक बार इसने एवं अंश से उत्पन्न हुआ था (म. आ. ६१.५८)। इसका | दृति ने एक यज्ञ का आयोजन किया। किन्तु इसने उस राज्य उत्तर भारत में बसा था, एवं भारतीययुद्ध के | यज्ञ का कार्य बीच में ही छोड़ दिया। इस कारण, इसे समय वह कौरवों की सेना से घिरा गया था (म. उ. अनेकानेक कष्टों का सामना करना पड़ा, एवं इसके. १९.३०)। भारतीय युद्ध में यह कौरवों के पक्ष में | वंशज 'वातवत्-गण' दृति के वंशजों ( दार्तयों) की अपेक्षा शामिल था। | कम संपन्न हो सके। २. एक लोकसमूह, जिसे नकुल ने अपने पश्चिम- वातवेग--(सो. कुरु.) धृतराष्ट्र के शतपुत्रों में से दिग्विजय के समय जीता था (ब्रह्मांड २.१६.४६; म. स. | एक । भीम ने इसका वध किया। Page #842 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वातवेग प्राचीन चरित्रकोश २. गरुड़ की प्रमुख संतानों में से एक ( म. उ. ९९ दुर्योधन- भीम द्वंद्वयुद्ध ( म. श. ५४ ); ४. दुर्योधन की मृत्यु (म.श. ५७ ५९ ) । १० ) । आगे चल कर वातिकों के द्वारा ही, दुर्योधनवच की यात अश्वत्थामन्, कृप एवं कृतवर्मन् को प्राप्त हुई ( म.रा. ६४.१ ) | संभव है, संजय भी वातिकों में से एक था। २. स्कंद का एक सैनिक (म, श. ४४.६२ ) । वात्सि - सर्पि नामक आचार्य का पैतृक नाम । वत्स का वंशज होने से इसे यह नाम प्राप्त हुआ होगा ( ऐ.ब्रा. ६.२४.१६ ) । वातस्कंध पुराणों में निर्दिष्ट एक देवता समूह, जिस में सात मरुत् गणों के देवता समविष्ट हैं ( ब्रह्मांड. २.५. ७८-८०, मस्त देखिये) । २. इन्द्रसभा का एक महर्षि ( म. स. ७.१२ ) । वातापि - एक असुर, जो हाद नामक असुर का पुत्र, एवं इल्वल नामक असुर का छोटा भाई था । अगस्त्य ऋषि के द्वारा इसका एवं इल का गर्वहरण होने की कथा महाभारत में प्राप्त है ( म. व. ९०.४९३० ) । पुराणों में इसे विप्रचित्ति राक्षस का पुत्र कहा गया है ( मत्स्य. ६.२६, विष्णु. १.२१.११ ) । ब्रह्मांड में इसे तेरह सैंहिकेय असुरों में से एक कहा गया है, एवं परशुराम के द्वारा इसका वध होने की कथा वहाँ प्राप्त है (ब्रह्मांड. २.१.१८-२२ ) । २. एक राक्षस, जो विप्रचित्ति एवं सिंहिका के पुत्रों में से एक था । परशुराम ने इसका वध किया ( ब्रह्मांड. ३. ६.१८-२२ ) । ३. एक दानव, जो कश्यप एवं दनु के पुत्रों में से एक था। वातायन - उल नामक वैदिक सूक्तद्रष्टा का पैतृक नाम । वातावत नृपशमन नामक आचार्य का पैतृक नाम । वात्सतरायण अंगिरा कुलोत्पन्न एक गोत्रकार । वात्सप्र - एक व्याकरणकार, जिसके 'व' कार एवं ' व ' कार के सूक्ष्म उच्चारण के संबंधित मतों का निर्देश ‘तैत्तिरीय-प्रातिशाख्य' में प्राप्त है ( तै. प्रा. १०.२३) २. एक आचार्य, जो कुश्रि नामक आचार्य का शिष्य था। इसके शिष्य का नाम शांडिल्य था (बृ. उ. ६.५ ४ काण्व.)। ३. एक आचार्य, शांडिल्य नामक आचार्य का शिष्य था। इसके शिष्य का नाम गौतम था (बृ. उ. २ ६.३, ४.६ काण्व . ) । शतपथब्राह्मण में भी इसका निर्देश प्राप्त है ( रा. बा. ९.५.१.६२; १०.६.५.९) । ४. एक ऋषि जो वास्य नामक ऋषि का शिष्य था। यह जनमेजयसर्पसत्र के समय उपस्थित था ( म. आ. ४८.९) । शरशय्या पर पड़े हुए भीष्म से भी यह मिलने आया था। इसके नाम पर कई ज्योतिषशास्त्रविषयक ग्रंथ उपलब्ध हैं ( C. c.)। दुर्योधन एवं युधिष्ठिर ने क्रमशः 'वैष्णवयज्ञ' एवं राजसूय यज्ञ किये। इन दोनों यज्ञसमारोह में वातिक लोग उपस्थित थे, जिन्होंने सारे कुरुराज्य में वृत्त फैलाया कि, युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ के हिसाब में दुर्योधन का वैष्णव यज्ञ बिलकुल फीका, अतएव अयशस्वी था (म. व. २४३.३-४ ) । ५. एक आचार्य, जो वायु के अनुसार व्यास की यजुः शिष्यपरंपरा में से याज्ञकल्क्य का वाजसनेय शिष्य था । ६. एक आचार्य, जो भागवत के अनुसार व्यास की ऋशिष्य परंपरा में शाकल्य नामक आचार्य का शिष्य था ( व्यास देखिये) । 'भारतीय युद्ध के निम्नलिखित महत्वपूर्ण प्रसंगों में भी वातिकों के उपस्थित होने का निर्देश प्राप्त है :- १. जयद्रथवध के समय हुआ संकुलयुद्ध ( म. द्रो. १२०.७२ ); २. अश्वत्थामापद ( म. द्रो. १३५.२९) २. ७. भृगुकुत्पन्न एक गोत्रकार पाठभेद-'वत्स'। वात्स्यायन -- एक आचार्य, जो 'वात्स्यायन कामसूत्र'' नामक सुविख्यात कामशास्त्रविषयक ग्रंथ का रचयिता था । ८२० ➖➖➖ वात्स्यायन वातिक- एक लोकसमूह, जो भारतीय युद्ध के काल में वृत्तनिवेदन एवं वृत्तप्रसारण का काम करता था । - . वात्सीपुत्र एक आचार्य, जो पाराशरीपुत्र नामक आचार्य का शिष्य था (१.६.५.२ काव्य ) | अन्य इसे भारद्वाजी पुत्र का शिष्य कहा गया है (बृ. उ. ६.४. ३१ माध्यं . ) । इसके शिष्य का नाम पाराशरीपुत्र ही था। वत्स के किसी स्त्री वंशज का पुत्र होने के कारण, इसे 'वात्सीपुत्र' नाम प्राप्त हुआ होगा । वात्सीमांडवीपुत्र एक आचार्य, जो पाराशरीपुत्र नामक आचार्य का शिष्य था । इसके शिष्य का नाम भारद्वाजी पुत्र था .. ६.४.३० माध्य.) । वात्स्य -- एक आचार्य (सां. आ. ८.३; बाध्व देखिये) । ऐतरेय आरण्यक में इसे बाध्य कहा गया है। Page #843 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वात्स्यायन प्राचीन चरित्रकोश वात्स्यायन विष्णुशर्मन्कृत पंचतंत्र में वात्स्यायन एवं अश्वशास्त्रज्ञकार उपर्युक्त ग्रंथकारों के अतिरिक्त, वात्स्यायन के कामसूत्र शालिहोत्र को वैद्यकशास्त्रज्ञ कहा गया हैं । मधुसुदन | में निम्नलिखित पूर्वाचार्यों का, एवं उनके विभिन्न ग्रंथों का सरस्वतीकृत 'प्रस्थानभेद' में भी वात्स्यायनप्रणीत | निर्देश प्राप्त है:-इत्तकाचार्य-वैशिक; चारायणाचार्य कामसूत्र को आयुर्वेदशास्त्रान्तर्गत ग्रंथ कहा गया हैं। । -साधारण अधिकरण; सुवर्णनाभ-सांप्रयोगिक; घोटकमुख -कन्यासंप्रयुक्त; गोनीय-भार्याधिकारिक; गोणिकापुत्र व्यक्तिपरिचय--वात्स्यायन यह इसका व्यक्तिनाम न हो कर गोत्रनाम था। सुबन्धु के अनुसार, इसका सही - पारदारिक; कुचुमार-औपनिषदिक । नाम मल्लनाग था । यशोधर के द्वारा लिखित 'काम- | ____ इस ग्रंथ की निम्नलिखित टीकाएँ विशेष सुविख्यात सूत्र' के टीका में भी इसे आचार्य मल्लनाग कहा गया है:-१. वीरभद्रकृत 'कंदर्पचूडामणि, '२. भास्कर नृसिंहै। वात्स्यायन स्वयं ब्रह्मचारी एवं योगी था, ऐसा काम हकृत 'कामसूत्रटीका,' ३. यशोधरकृत ' कंदर्पचूडामणि'। सूत्र के अंतिम श्लोक से प्रतीत होता है। कामसूत्र में वेबर के अनुसार, सुबंधु एवं शंकराचार्य के द्वारा भी अवंति, मालव, अपरान्त, सौराष्ट्र, महाराष्ट्र एवं आंध्र 'कामसूत्र' पर भाष्य लिखे गये थे। आदि देशों के आचारविचारों के काफी निर्देश प्राप्त | कामसूत्र-वात्स्यायन का 'कामसूत्र' सात 'अधिकहैं, जिनसे प्रतीत होता है कि, यह पश्चिम या दक्षिण । रणों' (विभागों) में विभाजित है, एवं उसमें कामशास्त्र भारत में रहनेवाला था। से संबंधित तीन मुप्रख उपांगों का विचार किया गया कामसूत्र के 'नागरक वृत्त' नामक अध्याय में नागर है:--१. कामपुरुषार्थ का आचारशास्त्र, जिसमें धर्म, नामक एक नगर का निर्देश प्राप्त है । यशोधर के अनुसार, अर्थ एवं मोक्ष इन तीन पुरुषार्थों से अविरोध करते हुए कामसूत्र में निर्दिष्ट 'नागर' पाटलिपुत्र है। अन्य कई भी कामपुरुषार्थ का आचार एवं उपभोग किस प्रकार किया जा सकता है, इसका दिग्दर्शन किया गया है। अभ्यासक उसे जयपूर संस्थान में स्थित नागर ग्राम २. शृंगाररसशास्त्र, जिसमें स्त्रीपुरुषों को उत्तम रतिसुख मानते हैं। किस प्रकार प्राप्त किया जा सकता है इसका वर्णन प्राप्त कालनिर्णय--वात्स्यायन का काल ३०० ई. स. माना है। ३. तत्कालीन भारत में प्राप्त कामशास्त्रविषयक जाता है । वेबर के अनुसार, इसका 'वात्स्यायन' नाम आचारविचारों का वर्णन, जिसमें विभिन्न देशाचार, लाट्यायन, बौधायन जैसे सूत्रकालीन आचार्यों से मिलता 'वैशिक' (वेश्याव्यवसाय) एवं 'पारदारिक' (स्त्री पुरुषों जुलता प्रतीत होता है (वेबर पृ. १६४)। कौटिल्य अर्थ के विवाहबाह्यसंबंध ) आदि विषयों की चर्चा की गयी है। शास्त्र एवं कामसूत्र की निवेदनपद्धति में काफी साम्य कामसूत्र का तत्त्वज्ञान-प्राचीन भारतीय तत्वज्ञान है। कामसूत्र में प्राप्त 'ईश्वरकामितम् ' (राजाओं की के अनुसार, धर्म एवं अर्थ के समान 'काम' भी एक भोगतृष्णा) नामक अध्याय में प्रायः आंध्र राजाओं का पुरुषार्थ माना गया है, जिसकी परिणति वैवाहिक सुखप्राप्ति ही वर्णन किया गया है । आयुर्वेदीय 'वाग्भट' ग्रंथ में में होती है। काम मनुष्य की सहजप्रवृत्ति है, जो कामसूत्र के वाजीकरण संबंधी उपचार उधृत किये मानवी शरीर की स्थिति एवं धारणा के लिए अत्यंत गये हैं। इन सारे निर्देशों से कामसूत्र का रचनाकाल ई. आवश्यक है। इसी कारण धर्म, अर्थ एवं काम पुरुषार्थों स. ३ री शताब्दी निश्चित होता है। का रक्षण कर मनुष्य को जितेंद्रिय बनाना, यह वात्स्यायन पूर्वाचार्य--कामसूत्र में प्राप्त निर्देश के अनुसार, इस | कामसूत्र का प्रमुख उद्देश्य है-- शास्त्र का निर्मिति शिवानुचर नंदी के द्वारा हुई, रक्षन् धर्मार्थकामानां स्थिति स्वां लोकवर्तिनीम् । जिसने सहस्त्र अध्यायों के 'कामशास्त्र' की रचना की। अस्य शास्त्ररय तत्त्वज्ञः भवत्येव जितेंद्रियः ॥ नंदी के इस विस्तृत ग्रंथ का संक्षेप औद्दालकि श्वेतकेतु (का. सू. ७.२.५६)। नामक आचार्य ने किया, जिसका पुनःसंक्षेप आगे चल कर बाभ्रव्य पांचाल ने किया। बाभ्रव्य का कामशास्त्र- वात्स्यायन कामसूत्र में कामसेवन की तुलना मानवी विषयक ग्रंथ सात 'अधिकरणों' में विभाजित था। आहार से की गयी है । उस ग्रंथ में कहा गया है कि, बाभ्रव्य के इसी ग्रंथ का संक्षेप कर वात्स्यायन ने अपने आहार एवं काम का योग्य सेवन करने से मनुष्य को कामसूत्र की रचना की। | आरोग्यप्राप्ति होती है। किन्तु उसीका ही आधिक्य होने Page #844 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वात्स्यायन प्राचीन चरित्रकोश वानर से हानी पहुँचती है। इसी कारण, मनुष्य जाति को काम | २. वाधूलवृत्तिरहस्य; ३. वाधूलगृह्यागमवृत्तिरहस्य; का सुयोग्य एवं प्रमाणित सेवन करने को सिखाना, यह | ४. वाधूलस्मृति । कामशास्त्र का प्रधान हेतु है । जनावरों के भय से कोई | वाध्यश्व-सुमित्र नामक वैदिक सूक्तद्रष्टा का खेती करना नहीं छोड़ते है, उसी प्रकार कामविकार के नामान्तर (ऋ. १०.६९.१)। वयश्व का पुत्र होने से डर से कामसेवन का त्याग करना उचित नहीं है ( का. उसे यह पैतृक नाम प्राप्त हुआ होगा। सू. १.२.३८)। २. अग्नि की एक उपाधि (ऋ. १०. ६९.)। श्रेष्ठत्व-स्त्री-पुरुषों का रतिसुख मानवी जीवन का ३. यमसभा का एक राजा (म. स. ८.१२)। साध्य नहीं, बल्कि यशस्वी विवाह का केवल साधनमात्र वानर--दक्षिण भारत में निवास करनेवाला एक ही है, यह तत्त्वज्ञान आचार्य वात्स्यायन ने सर्वप्रथम प्राचीन मानवजातिसमूह, जिसका अत्यंत गौरवपूर्ण उल्लेख प्रस्थापित किया । स्त्री-पुरुषों के रतिसुख पर ही केवल वाल्मीकि रामायण में प्राप्त है । जोर देनेवाले पाश्चात्य कामशास्त्रज्ञों की तुलना में, वात्स्या ___इन लोगों का राज्य किष्किंधा में था एवं वालिन् , यन का यह तत्त्वज्ञान कतिपय श्रेष्ठ प्रतीत होता है। सुग्रीव एवं अंगद उनके राजा थे। वानरराज सुग्रीव का __किन्तु अपना यह तत्त्वज्ञान प्रसृत करते समय, विवाह प्रमुख अमात्य हनुमत् था, जो आगे चल कर भारतीयों के यशस्वितता के लिए, स्त्री-पुरुषों का रतिसुख अत्यधिक की प्रमुख देवता बन गया । सुग्रीव, हनुमत् आदि. वानरों आवश्यक है, यह तत्त्व वात्स्यायन के द्वारा दोहराया गया की सहाय्यता से ही राम दाशरथि ने लंका के बलाढ्य है, जो आधुनिक शारीरशास्त्र की दृष्टि से सुयोग्य प्रतीत राक्षस राजा रावण को परास्त किया ( राम दाशरथि होता है। इसी कारण, वात्स्यायन कामसूत्र के अंतर्गत देखिये)। . रतिशास्त्रविषयक चर्चा भी क्रांतिदर्शी मानी जाती है । राज्य एवं समाजव्यवस्था--रामायण में निर्दिष्ट ____२. एक न्यायदर्शनकार, जो अक्षपाद गौतम नामक | वानर, मनुष्यों की तरह बुद्धिसंपन्न हैं, मानवभाषा आचार्य के द्वारा लिखित 'न्यायसूत्र' का प्राचीनतम । बोलते हैं, कपड़े पहनते हैं, घरों में निवास करते हैं, भाष्यकार माना जाता है। इसके ग्रंथ पर उद्योतकर ने विवाह संस्कार को मान्यता देते हैं, एवं राजा के शासन . 'न्यायवार्तिक' नामक सुविख्यात भाष्यग्रंथ की रचना | के अधीन रहते है। इससे स्पष्ट है कि, रामायणकालं की है। में ये लोग आज की तरह गिरे हुए जानवर नहीं, बल्कि दक्षिण भारत के सुविख्यात विद्याकेंद्र कांची में यह वास्तव में एक मानवजाति के लोग थे। निवास करता था। इसका काल ई. स. ४७० लगभग | पुराणों में--इन ग्रंथों में वानरों को हरि नामांतर माना जाता है। दिया गया है, एवं उन्हे पुलह एवं हरिभद्रा की संतान ३. पंचपर्ण नामक आचार्य का पैतृक नाम ( तै. आ. बताया गया हैं। १.७.२)। 'वात्स्य' का वंशज होने से उसे यह पैतृक ब्रह्मांड के अनुसार, पुलह ऋषि की कुल बारह पत्नियाँ नाम प्राप्त हुआ होगा। ४. एक ज्योतिषशास्त्रज्ञ (C.C.)। थी, जो क्रोधा की कन्याएँ थी। उनके नाम निम्न थे:-- वात्स्यायनि-अंगिराकुलोत्पन्न एक गोत्रकार। १. हरिभद्रा; २. मृगी; ३. मृगमंदा; ४. इरावती; वाद--अमिताभदेवों में से एक (ब्रह्मांड. २.३६. | ५. भूता; ६. कपिशा; ७. दंष्ट्रा; ८. ऋषा, ९. तिया; १०. श्वेता; ११. सरमा; १२. सुरसा (ब्रांड. ३.७. ५४)। वादुलि-विश्वामित्र के ब्रह्मवादी पुत्रों में से एक। । १७१-१७३)। वाधल--एक कृष्णयजुर्वेदी आचार्य, जो श्रौतसूत्र | अपनी उपर्युक्त पत्नियों से पुलह को अनेकानेक आदि अनेकानेक ग्रंथों का रचयिता था। कल्पसूत्रों के | प्राणि पुत्र के रूप में प्राप्त हुए, जिनमें से हरिभद्रा की सुविख्यात भाष्यकार महादेव ने यजुर्वेदीय कल्पसूत्रों | संतति निम्नप्रकार थी:--वानर, गोलांगुल, नील, द्वीपिन . के आचायों में, इसका निर्देश बौधायन, हिरण्यकेशी, नील, मार्जार, तरक्षु, किन्नर । हरिभद्रा नामक माता से वैखानस आदि ग्रन्थकारों के साथ किया है। इसके नाम | उत्पन्न होने के कारण, वानरों को 'हरि' नामांतर पर निम्नलिखित ग्रन्थ प्राप्त हैं:-१. वाधूलश्रौतसूत्र; | प्राप्त हुआ। ८२२ Page #845 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वानर प्राचीन चरित्रकोश वानरसमूह ब्रह्मांड में वानरों के ग्यारह प्रमुख कुछ दिये हैं, जिनके नाम निम्नप्रकार हैं: - द्वीपिन्, शरभ, सिंह, व्याय, नील, शल्यक, ऋ, मार्जार, डोहास, बानर मायाय वे सारे वानर निष्किंधा में रहते थे, एवं उनका राथ बालिन् था (ब्रह्मांड २.७.१७६९ २२० ) । " वानरवंश ब्रह्मांड में सुग्रीव केसरी एवं अभि इन चार प्रमुख वानरों के वंश निम्नप्रकार दिये गये हैं :(१) शास्त्र (पत्नी विरजात्या चारु- ऋक्ष हासिनी ) - महेंद्र - सुग्रीव एवं वालिन् ( पत्नी सुषेणकन्या तारा) - अंगद (कन्या)- ध्रुव (ब्रह्मोद. ३.७.२४६ २७५) । (२) सुग्रीवशात्राः ऋ४ सुप्रीव ( पानी पनसकन्या रुमा ) - तीन पुत्र । (३) केसरीशाखा : - केसरिन् ( पत्नी कुंजरकन्या अंजना ) - हनुमत्, श्रुतिमत्, केतुमत्, मतिमत्, धृति - मत् । (४) अग्निशाखा: -- अग्नि-नल-तार, कुसुम, पनस, गंधमादन, रूपक्षी, विभव, गवय, विकट, सर, सुपेण, सधनु, सुबंधु, शतदुंदुभि आदि (ब्रह्मांड. ३.७.२४५ । यामदेव " सिंघभूम की भुईयाँ जाति के लोक अपना वंश 'पवन अथवा 'हनुमत् ' बताते हैं (बुल्के, रामकथा पृ. १२११२२ ) । चान हुए पृथक देवों में से एक। वान्दव दुवस्यु -- एक वैदिक सूक्तद्रष्टा (ऋ. १०. १०० ) । बाम श्रीकृष्ण एवं मद्रा के पुत्रों में से एक (भा. १०.६१.१७) । जैन ग्रन्थों में- इन ग्रंथों में राक्षस एवं वानर इन दोनों को एक ही विद्याधरवंश की विभिन्न शाखाएँ मानी नयी हैं। वे दोनों जातियाँ मानववंशीय ही थी, किंतु उन्हे आकाशगमित्व, कामरूपित्त्व आदि ऐंद्रजालिक दिवाएँ अवगत थी। बागरवंशीय विद्याधरों की ध्वजाओं तथा महलों तथा के शिखरों पर वानर की प्रतिमा रहती थी। २. एकादश रुद्रों में से एक, जो भूत एवं सरूपा का पुत्र था ( मा.६.६.१७) । वामकक्षायण एक आचार्य, जो बात्स्य एवं शांडिल्य का शिष्य था (श. बा. १०.५.६.९; बृ. उ. ६.५.४. काव्य ) । वामदेव -- एक सुविख्यात वैदिक सूक्तद्रष्टा (वामदेव गोतम देखिये) । २. एक ऋषि जो अंगिरम् एवं मुरु के पुत्रों में से एक था ( ब्रह्मांड. ३.१ ) । मत्स्य में इसकी माता का नाम स्वराज दिया गया है। यह अंगिराकुल का गोत्रकार मंत्रकार एवं ऋषि था। युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में यह उपस्थित था । स्यमंतपंचक्र क्षेत्र में यह श्रीकृष्ण से मिलने आया था ( भा. १०.८४. ५) | इसके द्वारा दिये गये भस्म से एक ब्रह्मराक्षस का उद्धार हुआ था ( स्कंद. ३.३.१५-१६ ) । रथन्तरकल्प में, मेरु पर्वत के कुमारशिखर पर इसका स्कंद से संवाद हुआ था ( शिव के. २२) । इसने बकुलासंगमतीर्थ पर तपस्या की थी (पद्म. उ. १२८) | मनुस्मृति में इसकी एक कथा प्राप्त है, जिसके अनुसार एक बार इसने क्षुधार्त होने के कारण, कुत्ते का माँस खाने की इच्छा प्रकट की थी। किन्तु यह पापकर्म आपद्धर्म में किये जाने के कारण इसे कुछ दोष न लगा (मनु. १०.१०६ ) । अनुसार, ये सच वानर कौन थे - चिं. वि. वैद्य के मुच ही वानर के समान दिखते थे, अतः इन्हे वानर नाम प्राप्त हुआ था। कई अन्य अभ्यासकों के अनुसार, आजकल के आदिवासियों के समान ये लोग वानर, ऋक्ष, गीध आदि की पूजा करते थे। इसी कारण इन विभिन्न प्राणियों की पूजा करनेवाले आदिवधियों को क्रमशः वानर, ऋक्ष ( जांचबत् ), एवं गीध ( जटायु, संपाति ) नाम प्राप्त हुए। रे. बुल्के के अनुसार, रामकथा में निर्दिष्ट वानर विंध्यप्रदेश एवं मध्यभारत में रहनेवाली अनार्थ जातियाँ थी छोटा नागपूर में रहनेवाली उराओं तथा मुण्डा जातियों में, आज भी तिग्गा, हलमान, बजरंग, गड़ी नामक गोत्र प्राप्त है, जिन सब का अर्थ 'बंदर' ही है। ૮૩ ३. एक ऋषि, जो अथर्वन् अंगिरस् का पुत्र था । इसके पुत्रों के नाम असिज एवं बृहदुक्थ थे (वायु. ६५. १०० ) | यह तपस्यान परशुराम से मिलने गया था ( ब्रह्मांड. ३.१.१०५ ) । ४. ( स्वा. प्रिय. ) एक राजा, जो कुशद्वीप के हिरण्यरेतस् राजा का पुत्र था ( मा. ५.१०.१४) । ५. मोदापूर देश का एक राजा, जिसे अर्जुन ने अपने उत्तरदिग्विजय के समय जीता था ( म. स. २४. Page #846 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वामदव प्राचीन चरित्रकोश वामदेव १०)। इसका शल राजा से झगड़ा हुआ था (शल. से ही इसने इंद्र के साथ तत्त्वज्ञान के संबंधी चर्चा की ३. देखिये)। (ऋ. ४.१८; वेदार्थदीपिका)। ६. एकादश रुद्रों में से एक । ऋग्वेद में अन्यत्र वर्णन है कि, योगसामर्थ्य से. श्येन ७. गुवाहासिन् नामक शिवावतार का एक शिष्य । | पक्षी का रूप धारण कर, यह अपनी माता के उदर से ८. एक त्रिशूलधारी शिवावतार, जो मनु एवं शतरूपा बाहर आया (ऋ. ४.२७.१)। ऐतरेय उपनिषद के के सात पुत्रों में से एक था। इसके मुख, हाथ, जंघा अनुसार,इस के जन्म के पूर्व इसे अनेकानेक लोह के काराएवं पावों से क्रमशः ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्रों की गार में बंद करने का प्रयत्न किया गया, जिन्हे तोड कर उत्पत्ति हुई (मस्य. ४.२७.३०)। आगे चल कर यह श्येन पक्षी की भाँति पृथ्वी पर अवतीर्ण हआ (ऐ इसका सृष्टि के उत्पत्ति का कार्य ब्रह्मा के द्वारा स्थगित उ. ४.५)। वामदेव के जन्म के संबंधी सारी कथाएँ किया गया, जिस कारण इसे 'स्थाणु ' नाम प्राप्त हुआ रुपकात्मक प्रतीत होती है, जहाँ गर्भवास को काराग्रह (मत्स्य. ४.३१)। कहा गया है। शिव के इस अवतार को पाँच मुख थे । बृहस्पति-पत्नी संबंधित व्यक्ति --ऋग्वेद के चतुर्थ मंडल के अधिकांश तारा का हरण सोम के द्वारा किये जाने पर, इसने सोम सूक्तों में सुदास, दिवोदास, संजय, अतिथिग्व, कुत्स आदि से युद्ध किया था (मत्स्य २३.३६ )। इसने पार्वती को राजाओं का निर्देश प्राप्त है, जिससे प्रतीत होता है कि. 'शिवसहस्त्र' नाम का पाठ सिखाया था (पद्म. भू.| इसका इन राजाओं से घनिष्ठ संबंध था। २५४)। बृहद्देवता में इंद्र एवं वामदेव के संबंध में कई ९. राम दाशरथि के सभा का एक ऋषि । असंगत कथाओं का निर्देश प्राप्त हैं, जिनका सही अर्थ वामदेव गोतम--एक आचार्य एवं वैदिक सूक्तद्रष्टा, समझ में नहीं आता है। एक बार जब यह कुत्ते की जिसे अपनी माता के गर्भ में ही आत्मानुभूति प्राप्त अंतडियाँ पका रहा था, तो इंद्र एक श्येनपक्षी के रूप में हुई थी। ऋग्वेद के प्रायः समग्र चौथे मंडल का यह इसके सम्मुख प्रकट हुआ था (बृहद्दे. ४.१२६)। इसी प्रणयिता कहा जाता है | इस मंडल के केवल ४२-४४ ग्रंथ में प्राप्त अन्य कथा के अनुसार, इसने इंद्र को परास्त कर अन्य ऋषियों को उसका विक्रय किया था सूक्तों का प्रणयन सदस्यु, पुरुमीहळ एवं अजमीहळ के (बृहद्दे. ४.१३१)। सीग ने बृहद्देवता में प्राप्त इन द्वारा किया गया है। बाकी सारे सूक्त वामदेव के द्वारा कथाओं को ऋग्वेद में प्राप्त इसकी जन्मकथाओं से मिलाने प्रणीत ही है। किन्तु इस मण्डल में केवल एक ही स्थान पर का प्रयत्न किया है (सीग, सा. ऋ. ७६)। इसका प्रत्यक्ष निर्देश प्राप्त है (ऋ. ४.१६.१८)। अन्य वैदिक ग्रंथों में भी इसे ऋग्वेद के चतुर्थ मंडल का प्रणयिता | तत्त्वज्ञान--पुनर्जन्म के संबंध में विचार करनेवाले कहा गया है (का. सं. १०.५; मै सं. २.१.१३; ऐ. आ. तत्वज्ञों में वामदेव सर्वश्रेष्ठ माना जाता है। मनु एवं सूर्य २.२.१)। नामक अपने दो पूर्वजन्म इसे ज्ञात हुए थे, एवं माता के गर्भ जन्म-वैदिक ग्रंथ में इसे सर्वत्र गोतम ऋषि का पुत्र में स्थित अवस्था में ही इसे सारे देवों के भी पूर्वजन्म कहा गया है (ऋ. ४.४.११)। इसी कारण यह स्वयं | ज्ञात हुए थे। को 'गोतम' कहलाता था। | पुनर्जन्म के संबंधी वामदेव का तत्त्वज्ञ न 'जन्मत्रयी' इसके जन्म के संबंधी अस्पष्ट विवरण वैदिक साहित्य | नाम से सुविख्यात है, जिसके अनुसार हर एक मनुष्य में प्राप्त है (ऋ. ४.१८:२६.१, ऐ. आ. २.५)। अपने | के तीन जन्म होते है:--पहला जन्म, जब पिता के शुक्रजन्म के संबंधी ज्ञान इसे माता के गर्भ में ही प्राप्त हुआ। जंतु का माता के शोणित द्रव्य से संगम होता है; दूसरा था। तब इसने सोचा कि, अन्य लोगों के समान मेरा जन्म | जन्म, जब माता की योनि से बालक का जन्म होता है। न हो। इसी कारण इसने अपनी माता का उदर विदीर्ण | तीसरा जन्म जब मृत्यु के बाद मनुष्य को नया जन्म प्राप्त कर बाहर आने का निश्चय किया। इसकी माता को यह । होता है। अमरत्व प्राप्त करने की इच्छा करनेवाले बात ज्ञात होते ही, उसने अदिति का ध्यान किया । उस | साधक कों के लिए, वामदेव का यह तत्वज्ञान प्रमाणभूत समय इंद्र के साथ अदिति वहाँ उपस्थित हुई, जहाँ गर्भ | माना जाता है। ८२४ Page #847 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वामदेव प्राचीन चरित्रकोश वामन ८८)। आत्मानुभूति--आत्मानुभूति प्राप्त होने पर इसने तैत्तिरीय संहिता में विष्णु एवं सूर्य की एकात्मता स्पष्ट कहा था, 'मैंने ही सूर्य को प्रकाश प्रदान किया था, मनु | रूप से निर्दिष्ट है, एवं अपने मित्र इंद्र का विगत राज्य मेरा ही रूप था ' ( अहं मनुरभवं सूर्यश्चाहम् ) (ऋ. ४. | उसे पुनः प्राप्त कराने के लिए श्रीविष्णु ने पृथ्वी पर २६.१; बृ. उ. १.४.१०)। वामदेव का यह आत्मकथन अवतार लेने की कथा वहाँ प्राप्त है (ते. सं. २.४. मराठी संत तुकाराम के आत्मकथन से मिलता-जुलता १२.२)। प्रतीत होता है, जहाँ उन्होंने अपना पूर्वजन्म शुकमुनि | वामन-अवतार की उत्क्रान्ति--वैदिक साहित्य में के रूप में बताया था (डॉ. रानडे, उपनिषद्रहस्य प्राप्त इन निर्देशों से प्रतीत होता है कि, वामन अवतार की कल्पना का उद्गम प्रथम सूर्य देवता के आकाश संचरण वामदेवी-ऋचि ऋषि की पत्नी (म. आ. ९०. के रूप में हुआ, एवं श्रीविष्णु सूर्य का ही एक प्रतिरूप होने २३)। पाठभेद-'सुदेवी'। के कारण,आकाश संचरण का यह पराक्रम श्रीविष्णु का ही वामदेव्य--ऋग्वेद में प्राप्त एक पैतृक नाम,जो निम्न मानने जाने लगा। आगे चल कर, श्रीविष्णु के दशावतार लिखित वैदिक सूक्तद्रष्टाओं के लिए प्रयुक्त किया गया की कल्पना जब प्रसृत हुई, तब तीन पगों में समस्त पृथ्वी है:-अंहोमुच (ऋ. १०.१२७); बृहदुक्थ (ऋ. सर्वानु का व्यापन करनेवाले श्रीविष्णु का वैदिक रूप, उत्तरकालीन क्रमणी; श. ब्रा. ८.२.२.१४); मूर्धन्वत् (ऋ. १०. वैदिक ग्रन्थों में एवं पुराणों में वामनावतार के रूप में | निर्धारित हुआ। . वामन--श्री विष्णु का पाँचवाँ अवतार, जो इंद्र के | __ वामन-अवतार का सर्वप्रथम निर्देश तैत्तिरीय संहिता संरक्षण के लिए, एवं बलि वैरोचन नामक दैत्य के बंधन में अस्पष्ट रूप में प्राप्त है। एक बार तीनों लोगों के के लिए अवतीर्ण हुआ था। भागवत में इसे विष्णु का स्वामित्व के लिए देव एवं असुरों में संग्राम हुआ। उस " पंद्रहवाँ अवतार कहा गया है (भा. १.३.१९)। समय श्रीविष्णु ने अपने 'वामन-स्वरूप' की आहुति दे कर तीनों लोगों को जीत लिया (ते. सं. २.१.३)। वैदिक साहित्य में वामन अवतार के कल्पना का अस्पष्ट उद्गम ऋग्वेद में पाया जाता है, जहाँ श्रीविष्णु के शतपथ ब्राह्मण में-इस ग्रंथ में श्रीविष्णु के वामन द्वारा तीन पगों में समस्त पृथ्वी, यलोक एवं अंतरिक्ष का अवतार की कथा प्राप्त है, जो पुराणों में निर्दिष्ट कथा से व्यापन होने का निर्देश प्राप्त है सर्वथैव विभिन्न है। एक बार देवासुरों के संग्राम में, देवों का पराजय हो कर वे भाग गये। तदुपरान्त असुर समस्त इदं विष्णुर्विचक्रमे त्रेधा निदधे पदम्। पृथ्वी का बटवारा करने के लिए बैठे। उस समय समळहमस्य पांसुरे ॥ (ऋ. १.२२.१७-१८)। विष्णु के नेतृत्व में देवगण असुरों के पास गये, एवं पृथ्वी (श्रीविष्णु ने तीन पगों में समस्त सृष्टि का व्यापन | का कुछ हिस्सा प्राप्त होने के लिए असुरों की प्रार्थना किया)। करने लगे। उस समय असुर विष्णु के तीन पगों ऋग्वेद में श्रीविष्णु का स्वतंत्रदेवता के रूप में निर्देश इतनी ही छोटी भूमि देवों को देने के लिए तैयार हुए। नहीं है, बल्कि उसे सूर्य देवता का ही एक रूप माना गया | फिर वामनरूपधारी विष्णु ने विराट रूप धारण कर है। इसी विष्णरूपी सूर्य देवता का वर्णन करते समय. समस्त तीनों लोगों का व्यापन किया, एवं इस तरह उसके द्वारा तीन पगों में पृथ्वी का व्यापन करने का निर्देश देवताओं को त्रैलोक्य का राज्य प्राप्त हुआ (श. ब्रा. १, ऋग्वेद में किया गया है। २.२.१-५)। निरुक्त में विष्णु के तीन पगों की निरुक्ति प्राप्त है. पुराणों में-इन ग्रंथों में इसे कश्यप एवं अदिति का जहाँ शाकपूणि एवं आर्णवाभ नामक दो आचार्यों के | पुत्र कहा गया है । इसकी पत्नी का नाम कीर्ति एवं पुत्र अभिमत उद्धृत किये गये हैं (नि. १२.१९)। शाक- | का नाम बृहत्श्लोक था। पूणि के अनुसार, पृथ्वी, अंतरिक्ष एवं आकाश को; तथा | इसका जन्म भाद्रपद शुक्ल द्वादशी के दिन श्रवण नक्षत्र और्णवाभ के अनुसार, समारोहण (उदयगिरि), विष्णु- | में एवं अभिजित् मुहूर्त में हुआ था (भा. ८.१८. पद (खस्वस्तिक) एवं गया शिरस् (अस्तगिरि) को ५-६)। अपना विष्णुरूपी वास्तवदर्शन ब्रह्मा एवं श्रीविष्णु ने अपने पगों के द्वारा व्याप लिया। अदिति को प्रकट करने के बाद, इसने ब्राह्मण ब्रह्मचारिन् प्रा. च. १०४] ८२५ Page #848 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वामन प्राचीन चरित्रकोश वायु का रूप धारण किया। महाभारत में इसका विस्तृत स्वरूप- था, जहाँ आगे चल कर विश्वामित्र ने अपना आश्रम वर्णन प्राप्त है, जहाँ इसे मुण्डी, यज्ञोपवीती, कृष्णजिन- | प्रस्थापित किया। धारी, शिखी, पलाशदण्डधारी कहा गया है। इसी वामन पुराण में वामन के एक सौ इकतीस वामनस्थानों ब्राह्मण बटु के रूप में यह बलि वैरोचन के यज्ञमण्डप में का निर्देश प्राप्त है, जहाँ विभिन्न नामों से वामन की पूजा प्रविष्ट हुआ। | की जाती थी (वामन. ९०)। इससे प्रतीत होता है कि, __वामन ने बलि वैरोचन से त्रिपाद भूमि की याचना | एक समय भारत के सारे प्रदेशों में वामन को देवता की, जिसे बलि ने 'तथास्तु' कहा । तत्पश्चात् वामन ने | मान कर उसकी पूजा की जाती थी। विराट रूप धारण कर पहले दो पगों में पृथ्वी एवं स्वर्ग २. एक नाग, जो कश्यप एवं कद्रू के पुत्रों में से का व्यापन किया, एवं तीसरा पग बलि के मस्तक पर | एक था। रखने के लिए उद्यत हुआ (भा. ८.१८.२१)। उस | ३. एक दानव, जो कश्यप एवं दनु के पुत्रों में से समय वीरभद्रादि असुर युद्ध करने के लिए उद्यत | एक था। हुए, जिन्हें वामन ने परास्त किया। उस समय बलि, ४. एक पक्षिराज, जो गरुड के पुत्रों में से एक था । प्रहाद एवं बलिपत्नी विंध्यावालि ने वामन की स्तुति | ५. एक दिग्गज, जो इरावती के चार पुत्रों में से एक की । फिर वामन ने प्रसन्न हो कर बलि को नमुचि, शंबर, था। इसके अन्य तीन भाईयों के नाम ऐरावत, सुप्रतीक प्रह्लाद आदि असुरों के साथ 'सुतल' नामक पाताल | एवं अंजन थे (ब्रह्मांड. ३.७.२९२)। घटोत्कच के लोक में स्थापित किया, एवं इंद्र को त्रिभुवन का राज्य | सैन्य में से एक राक्षस का यह वाहन था (म. भी. समर्पित किया (म. स. परि. १. क्र. २१. पंक्ति ३११- ६०.५१)। ३७४: वामन. ३१; स्कंद. १.१.१८-१९; मत्स्य. २४४- वामनिका-स्कंद की अनुचरी एक मातृका (म. श. २४६)। | ४५.२३)। वामन-अवतार का अन्वयार्थ-प्राचीन भारत के | वामरथ्य--अत्रिवंश का एक गोत्रकार एवं प्रवर । बिहार प्रदेश में वामन का अवतार हुआ, ऐसा माना | वामा-स्कंद की अनुचरी एक मातृका (म.श.४५. जाता है। बलि वैरोचन का बंधन कर वामन ने उसे | १२)। पाठभेद -भ्रमा'। उसके परिवार के साथ समुद्र में ढकेल दिया। वायत--पाशद्युम्न नामकं आचार्य का पैतृक नाम (ऋ.२. बंगाल की खाड़ी में 'बलिद्वीप' नामक प्रदेश आज भी ३३.२)। वयत् का वंशज होने से उसे यह पैतृक नाम दिखाई देता है, जो आधुनिक काल में आग्नेय एशिया में | प्राप्त हुआ होगा। स्थित 'बाली' देश नाम से प्रसिद्ध है । इन सारे निर्देशों से | वाम्नेय-- बृहदुक्थ वामदेव नामक आचार्य का प्रतीत होता है कि, प्रागैतिहासिक काल में पूर्व-भारत | नामान्तर (बृहदुक्थ वामदेव देखिये)। में लंबे कद एवं मोटे शरीर के कई लोग रहते थे, वायु--एक वैदिक अंतरिक्षदेवता, जिसका एक जिन्हे उत्तरीपूर्व दिशा से भारत में प्रवेश करनेवाले | संपूर्ण सूक्त ऋग्वेद में प्राप्त है (ऋ. ४.४६) । एक देवता छोटे कद के कई कृश लोगों ने परास्त किया। यही के रूप में इसका निर्देश प्रायः सर्वत्र इंद्र के साथ प्राप्त है, कारण है कि, पर्व भारत में आज भी मंगोलवंशीय लोग | तथा इंद्र एवं वायु में से कौनसा भी एक देव वैदिक अंतअधिक रूप में पाये जाते हैं। रिक्ष-देवताओं का प्रतिनिधित्व कर सकता है, ऐसा निर्देश उपाप्तना--कुरुक्षेत्र में वामन का एक मंदिर बनवाया | निरुक्त में प्राप्त है (नि. ७.५)। गया था, जो आज भी विद्यमान है (मस्त्य. २४४. जन्म एवं स्वरूपवर्णन-विश्वपुरुष की श्वास से इसकी २-३)। भाद्रपद शुक्ल द्वादशी के जिस दिन वामन उत्पत्ति हुई (ऋ. १०.९०)। त्वष्ट इसका जामात था, अवतीर्ण हआ, वह दिन आज भी 'वामन द्वादशी' नाम | एवं इसने आकाश के गर्भ में से मरुतों को उत्पन्न किया से सुविखात है। | था (ऋ. ८.२६; १.१३४ )। बिहार प्रदेश में शहाबाद जिले में बक्सार ग्राम में | यह सुंदर, मनोजब एवं सहस्रनेत्रोंवाला बताया गया वामन का आश्रम दिखाया जाता है, जो सिद्धाश्रम नाम | है (ऋ. १.२३)। इसके पास एक प्रकाशमान रथ था, से प्रसिद्ध है। इस स्थान पर सर्वप्रथम वामन का आश्रम जिसे हज़ार अश्वों का एक दल खींचता था (ऋ. १. ८२६ Page #849 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वायु प्राचीन चरित्रकोश वारुणि २३)। इसी कारण, इसे 'नियुत्वत्' (एक दल के द्वारा। ३. एक राजा, जो क्रोधवश नामक दैत्य के अंश से खींचा जानेवाला) कहा गया है। उत्पन्न हुआ था (म. आ. ६१.५८)। भारतीययुद्ध में अन्य देवों की भाँति यह भी सोमप्रेमी था, एवं सभी यह पाण्डवों के पक्ष में शामिल था। देवों में क्षिप्र' होने के कारण, यह सर्वप्रथम अपना वायुहन--मंकणक ऋषि का एक पुत्र । पेयभाग प्राप्त करता था (श. ब्रा. १३.१.२)। वाय्य सत्यश्रवन--एक वैदिक आचार्य (ऋ. ५. एक बार सोम प्राप्त कराने के लिए देवताओं में होड़ ७९.१०२)। वय्य का वंशज होने से इसे 'वाय्य लगी, जिस समय यह एवं इंद्र क्रमशः प्रथम एवं द्वितीय पैतृक नाम प्राप्त था। पहुँच गये (ऐ. बा. २.२५)। इस पर अनुग्रह करने के लिए, आत्रेय सत्यश्रवस इसकी उपासना करने से यश,संतान एवं संपत्ति प्राप्त नामक ऋषि के द्वारा उषस् की प्रार्थना की गयी थी। होती है (ऋ. ७.९०)। यह शत्रुओं को भगाता है एवं वारकि-कंस नामक आचार्य का पैतृक नाम (जै. निर्बलों की रक्षा करता है (ऋ. १.१३४)। उ. ब्रा. ३.४१.१)। पुराणों में--इन ग्रन्थों में इसे वायुतत्त्व की देवता वारक्य-जैमिनीय उपनिषद् ब्राह्मण में निर्दिष्ट एक कहा गया है, एवं इसका जन्म आकाश से होने का निर्देश | पैतृक नाम, जो निम्नलिखित आचार्यों के लिए प्रयुक्त प्राप्त है । यह भूवर्लोक का अधिपति था, इस कारण इसे है:- कंस, कुवेर, जनश्रुत, जयंत एवं प्रोष्ठपद (जै. उ. 'भुवस्पति' एवं 'मातरिश्वन्' नामान्तर प्राप्त थे। शाकद्वीप ब्रा. ३. ४१.१) । 'वरक' का वंशज होने के कारण, में प्राणायाम के द्वारा इसकी उपासना की जाती थी। इन आचार्यों को यह पैतृक नाम प्राप्त हुआ होगा। (भा.५.१५.१५) मत्स्य में कृष्णमृग पर सवार हुए वारण--(सो.अन.) एक राजा, जो मत्स्य के इसकी प्रतिमा के पूजन का निर्देश प्राप्त है (मत्स्य, | अनुसार चंप राजा का, एवं वायु के अनुसार चित्ररथ २६१.१९)। राजा का पुत्र था। परिवार--पुराणों में इसके अंश से उत्पन्न हुए, निम्न वाराह--श्रीविष्णु के वराह नामक तृतीय अवतार लिखित संतानों का निर्देश प्राप्त है :-१. इला (भा. का नामान्तर (भा. ११.४.१८; वराह देखिये)। ४.१०.२); २. मुदा नामक अप्सरासमूह; ३. भीमसेन २. एक असुर (मत्स्य. १७२)। पाण्डव; ४. 'मनोजव' हनुमत् (विष्णु. १.८.११)। वाराहि-अंगिराकुलोत्पन्न गोत्रकारद्वय । २. एक आचार्य, जो मृत्यु नामक आचार्य का शिष्य वाराही--सात मातृकाओं में से एक, जिसका वाहन था। इसके शिष्य का नाम इंद्र था (द. बा. २)। बैल था (ब्रह्मांड. ४.१९.७)। ३. एक राक्षस, जो वायु के अनुसार अनुहाद नामक | वारिप्लव-स्वत मन्वन्तर के 'पारिप्लव' नामक • राक्षस का पुत्र था (वायु. ६३.१२)।। वायुवक-मंकणक ऋषि के सात पुत्रों में से एक देवगण का नामान्तर । वारिषेण--यमसभा में उपस्थित एक राजा (म. स. (मंकणक देखिये)। २. युधिष्ठिर की सभा का एक ऋषि (म.स.४.११ ।। ८.१८) । पाठभेद-वारिसेन'। वायुज्वाल एवं वायबल-मंकणक ऋषि के त्र। | वारिसार--(मौर्य. भविष्य.) एक राजा, जो भागवत वायभक्ष--एक ब्रह्मर्षि, जो युधिष्ठिर की सभा में | के अनुसार चंद्रगुप्त मौर्य राजा का पुत्र, एवं अशोकवर्धन उपस्थित था (म. स. ४.११; शां. ४७.६६%)। हस्ति- | राजा का पिता था. (भा. १२.१.१३)। नापुर जानेवाले श्रीकृष्ण से इसकी भेंट हुई थी (म.उ. वारुणि--धमेसावर्णि मन्वन्तर का एक ऋषि। ३८८.८%)। . २. एक पक्षिराज, जो कश्यप एवं विनता के पुत्रों में वायुमंडल एवं वायरतस्--मंकणक ऋषि के पुत्र। | से एक था। वायुवेग--मंकणक ऋषि के सात पुत्रों में से एक।। ३. एक पैतृक नाम, जो अगस्त्य, भृगु एवं वसिष्ठ आदि इसके नाम के लिए 'वातवेग' पाठभेद भी प्राप्त है। | ऋषियों के लिए प्रयुक्त किया जाता है (ऐ.बा. ३.३४. २. (सो. कुरु.) धृतराष्ट्र के शतपुत्रों में से एक, जो | १; श. ब्रा. ११.६.१.१)। ब्रह्मा के यज्ञ में से ये सारे द्रौपदीस्वयंवर में उपस्थित था (म. आ. १७७.२)। ऋषि उत्पन्न होने पर, वरुण ने इनका पुत्र के रूप में ८२७ Page #850 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वारुणि स्वीकार किया, जिस कारण इन्हें ' वारुणि ' पैतृक नाम प्राप्त हुआ । ४. वानरों का एक राजा ( ब्रह्मांड. ३.७.२३४ ) । वारुणी -- स्वायंभुव मन्वन्तर के वरुण की पत्नी । २. अरण्य प्रजापति की कन्या, जो चक्षुष राजा की पत्नी, एवं चक्षुष मनु की माता थी ( ब्रह्मांड, २३६. १०२-१०४)। वार्कल अथवा वार्कलिन -- एक आचार्य (श. ब्रा. १२.३.२.६ ) । वृकला का वंशज होने से इसे यह मातृक नाम प्राप्त हुआ था । ऐतरेय आरण्यक में इसे 'वार्कलिन्' कहा गया है, किन्तु वह अशुद्ध रूप प्रतीत होता है ( ऐ. आ. ३. २.२ ) । प्राचीन चरित्रकोश वारुणीपुत्र एक आचार्य, जो आर्तभागीपुत्र नामक आचार्य का शिष्य था । इसके शिष्य का नाम वारुणीपुत्र (द्वितीय) था (बृ. उ. ६.४.३१ माध्यं. ) । वारुणीपुत्र (द्वितीय) - - एक आचार्य, जो वारुणीपुत्र ( प्रथम ) का शिष्य था । इसके शिष्य का. नाम पाराशरीपुत्र था (बृ. उ. ६.५.२ काण्व . ) । वाक्ष -- प्रचेतस् पत्नी मारिषा का पैतृक नाम । वाजिनीवत --वाहि नामक यादव राजा का पैतृक नाम । वृजिनवत् नामक राजा का पुत्र होने से उसे यह पैतृक नाम प्राप्त हुआ था । वार्धक्षत्र -- सौवीर देश के जयद्रथ राजा का नामांतर (म. व. २४८.६ ) । वार्धक्षेमि-- पांचाल देश के सुशर्मन् राजा का पैतृक नाम (सुशर्मन् ३. देखिये) । वृद्धक्षेम राजा का पुत्र होने कारण, उसे यह पैतृक नाम प्राप्त हुआ था । २. त्रिगर्त देश के सुशर्मन् राजा का पैतृक नाम (म. उ. १६८.१६; सुशर्मन् १. देखिये) । वार्षगण - असित नामक आचार्य का पैतृक नाम (बृ. उ. ६.४.३३ माध्यं . ) । वृषगण का वंशज होने के कारण, उसे यह पैतृक नाम प्राप्त हुआ होगा । वार्षगणीपुत्र एक आचार्य, जो गौतमीपुत्र नानक आचार्य का शिष्य था । इसके शिष्य का नाम शालंका - यनीपुत्र था । वृषगण के किसी स्त्रीवंशज का पुत्र होने से, इसे यह नाम प्राप्त हुआ होगा। वालखिल्य २. सुश्रवस् नामक राजा का पैतृक नाम ( सुश्रवस् वार्षगण्य देखिये) । वार्षागिर -- एक पैतृक नाम, जो ऋग्वेद में निम्नलिखित राजाओं के लिए प्रयुक्त किया गया है :- अंबरीप, ऋज्राश्व, भयमान, सहदेव एवं सुराधस् (ऋ. १.१००.. १७) । वृषागिर के वंशज होने के कारण, उन्हें यह पैतृक नाम प्राप्त हुआ होगा । वार्ष्टिहव्य--उपस्तुत नामक वैदिक सूक्तद्रष्टा का पैतृक नाम (ऋ. १०.११५ ) । वार्ष्ण-- एक पैतृक नाम, जो निम्नलिखित आचायों के लिए प्रयुक्त किया गया है :- १. गोयल ( तै. ब्रा. ३. ११.९.३; जै. उ. बा. १.६.१ ); २. बर्कु (श. बा. १.१.१. १०; बृ. उ. ४.१.८ माध्यं . ); ३. ऐश्वाक (जै. उ. बा. १.५.४ ) । ' वृषन्', 'वृष्णि' अथवा 'वृष्ण के वंशज होने से, उन्हे यह पैतृकनाम प्राप्त हुआ होगा। वार्ष्णायन --- धूम्रपराशरकुलोत्पन्न एक गोत्रकार । वाणिबुद्ध-- उल नामक आचार्य का पैतृक नाम ( कौ. ब्रा. ७.४ ) । वृष्णिवृद्ध का पुत्र होने से, इसे यह नाम प्राप्त हुआ होगा । वार्ष्णेय शूप नानक आचार्य का पैतृक नाम ( तै. ब्रा. ३.१०) । वृष्णि का वंशज होने से, उसे यह पैतृक नाम प्राप्त हुआ होगा । २. निषधराज नल राजा का सारथी । नल के वनवास के समय, यह ऋतुपर्ण राजा का सारथी बना था । वार्षगण्य - एक आचार्य, जिसका एक सांख्ययोगाचार्य के नाते निर्देश प्राप्त है ( व्यासकृत योगशास्त्रमाप्य ४. ५३) । जैमिनिकृत उपकर्मागतर्पण में इसका निर्देश प्राप्त है (जै.. १.१४ ) । वार्ण्य - एक आचार्य, जिसका याज्ञवल्क्य के साथ 'देवयजन' के संबंध में संवाद हुआ था (श. ब्रा. ३.१. १.४ ) । इसे 'वा' नामान्तर भी प्राप्त था । वायणि -- एक वैय्याकरण, जिसका निर्देश एक पूर्वाचार्य के नात यास्क के ' निरुक्त' में प्राप्त है (नि. १.२)। वालखिल्य - एक ऋषिसमुदाय, जो अंगुष्ठ के आकार के साठ हज़ार ऋषियों से बना हुआ था । प्रजा उत्पन्न करने के लिए तपस्या करनेवाले प्रजापति के केशों से ये उत्पन्न हुए थे ( तै. आ. १.२३.३ ) । वैदिक साहित्य में ऋग्वेद में वालखिल्य नामक ग्यारह सूक्त हैं (ऋ. ८.४९ -- ५९ ), जिनका निर्देश ब्राह्मण ग्रंथों में ऋग्वेद के परिशिष्टात्मक सूक्तों के नाते से किया गया है ( ऐ. बा. ५.१५.११ ३; कौ. व्रा. ३०.४.८९ पं. बा. १३.११.२, ऐ. आ. ५.२.४ ) । तैत्तिरीय आरण्यक में इन सूक्तों के प्रणयन का श्रेय इन्हीं ऋषियों ८२८ Page #851 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बालखिल्य को दिया गया है (तै. आ. १.२३ ) । एक ब्रह्मचारी ऋषिगण के नाते इनका निर्देश मैत्र्युपनिषद में प्राप्त है ( मैन्यु. २.३ ) । प्राचीन चरित्रकोश 6 9 १ , पौराणिक [आहित्य में इन ग्रंथों में इन्हें ब्रह्मपुत्र ऋतु के पुत्र कहा गया है एवं इनकी माता का नाम सन्नति अथवा क्रिया बताया गया है ( विष्णु. १.१० भा. ४.१.९) । वायु के अनुसार, इनका जन्म कुशःभों से हुआ था, एवं वारणियज्ञ के कारण इन्हें अप्रतिहत तप:सामर्थ्य प्राप्त हुआ था ( वायु. ६५.५५९ १०१. २१३) । इसी कारण इन्हें मनोज संगत एवं ‘सार्वभौम ' कहा गया है। स्वरूपवर्णन -- इस समुद्राय में से हर एक ऋपद से बहुत ही छोटा, याने फि अंगुल के मध्यभाग के बराबर शरीराला था । सूर्य के अनन्य भक्त होने के कारण, ये सूर्यलोक में रहते थे, एवं वहाँ पक्षियों की भाँति एक एक दाना वीन कर उसीसे ही अपना जीवननिर्वाह करते थे सूर्यकिरणों का पान करते हुए, वे तपस्या में व्यय रहते थे ( म. स. ११. १२२.) । ब्रह्मांड के अनुसार, ये ब्रह्मलोक में रहते थे, एवं केवल वायु' भक्षण करते थे ( ब्रह्मांड. २.२५.४) । । अपने पिता ऋतु के समान ये भी पवित्र, सत्यवादी एवं व्रतपरायण थे ( म. आ. ६०.८ ) । प्रातःकाल से सायंकाल तक ये सूर्य के ' गौरवस्तोत्र ' गाते गाते उसीके ही सम्मुख बहते थे। मृगछाला, चीर एवं वल ये इनके वस्त्र रहते थे ये वृक्ष की शाखा पर उल्टे लटक कर तपस्या करते थे। वालिन फिर कश्यप ऋषि के अनुरोध पर, देवेंद्र का निर्माण करने का अपना निश्चय इन्होंने छोड़ दिया, एवं अपने यज्ञ का फल कश्यप को प्रदान किया। वही फल आगे चल निर्माण हुआ (म.आ. २६-२७ देखिये ) 1 कर कदवान ने विनता को दिया, जिससे खगेन्द्र गरुड का तपसामध्ये – अपनी तपस्या के बल पर वे सिद्धमुनि एवं ऋषि बन गये थे ( मस्य. १२६.४५ ) । ये सर्व धर्मों के ज्ञाता थे, एवं अपनी तपस्या से सृष्टि के समस्त पापों को दग्ध कर, अपने तेज़ से समस्त दिशाओं को प्रकाशित करते थे। इनके पर ही सारा जग निर्भर था, एवं इन्हीं की तपस्या, सत्य एवं क्षमा के प्रभाव से संपूर्ण भूतों की स्थिति बनी रहती थी (म. अनु. १४१-१४२) । इन्होंने सरस्वती नदी के तट पर यज्ञ किया था ( म. व. ८८.९ ) । ये पृथु राजा के मंत्री बने थे ( म. शां. ५९.११७ ) । दिवाली के समय प्रकाशित किये जाने वाले आकाशदीप का महत्त्व सर्वप्रथम इन्होंने ही क किया था ( स्कंद. २.४.७) । इन्होंने चित्ररथ को कौशिक ऋषि की अस्थियों सरस्वती नदी में विसर्जित कर मुक्ति प्राप्त कराने की सलाह दी थी (भा. ६.८. ४०) । परिवार - इनकी पुण्या एवं आत्म सुमति नामक दो कनिष्ठ बहनों का निर्देश वायु में प्राप्त है (वायु. २८.३३) । वालायन वाकलि नामक अंगिरा ऋ के तीन शिष्यों में से एक । बाष्कलि ने 'वालखिल्य संहिता का प्रणयन कर उसे दो अन्य शिष्यों के साथ इसे सिखायी थी ( बाप्कलि २, देखिये) । , ' इन्द्र का निर्माण एक घरऋषि ने पुत्र प्राप्ति के लिए एक यज्ञ का आयोजन किया । उस समय वज में सहाय्यता करने के लिए एक छोटी सी पलाश की टहनी पर लटक कर ये उपस्थित हुए। इनकी अंगुष्ठमात्र शरीरयष्टि देख कर बद्र ने इनका उपहास किया । तदुपरान्त अत्यधिक क्रुद्ध हो कर इन्होंने एक नया इंद्र निर्माण करने का निश्चय किया, एवं इस हेतु एक यज्ञ का आयोजन किया। उस समय कश्यप ऋषि ने इन्हें बार बार समझाया एवं कहा, 'देवराव रेह के इंद्र स्थान पर अन्य इन्द्र को उत्पन्न करना उचित नहीं है। अब वही अच्छा है कि, आप देवों के नहीं, बल्कि पक्षियों के इन्द्र का निर्माण करे । इसी समय, इंद्र भी इनकी शरण में आया । " वालिन् -- किष्किंधा देश का सुविख्यात वानरराजा, को महेंद्र एवं ऋक्षकन्या विरमा का पुत्र था (ब्रह्मांड २. ७.२१४-२४८; भा. ९.१०.१२ ) । वाल्मीकि रामायण के प्रक्षिप्त काण्ड में इसे ऋक्षरज नामक वानर का पुत्र कहा गया है ( वा. रा. उ. प्रक्षिप्त ६ ) । इसके छोटे भाई का नाम सुग्रीव था, जिसे इसने यौवराज्याभिषेक किया था ( वा. रा. उ. ३४ ) । इसकी पत्नी का नाम तारा था, जो इसके तार नामक अमात्य की कन्या थी ( वा. रा. उ. ३४ म. व. २६४.१६ ) । बाल्मीकि रामायण में अन्यत्र तारा को सुपेण वानर की कन्या कहा गया है ( वा. रा. क्र. २२ ब्रह्म २.७. २१८ ) । वालिन स्वयं आयेत पराक्रमी वानरराज था, जो राम दाशरथि के द्वारा किये गये इसके वध के कारण रामकथा में अमर हुआ है । ८२९ Page #852 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वालिन् प्राचीन चरित्रकोश वालिन् जन्म--वाल्मीकि रामायण के दाक्षिणात्य पाठ में, | शाप दिया, 'मेरे आश्रम के निकट एक योजन की कक्षा वालिन् एवं सुग्रीव को ब्रह्मा के अश्रुबिंदुओं से उत्पन्न हुए में तुम आओंगे, तो तुम मृत्यु की शिकार बनोंगे' (वा. ऋक्षरजस् वानर के पुत्र कहा गया है। एक बार ब्रह्मा के | रा. कि. ११)। यही कारण है कि, ऋष्यमूक पर्वत तपस्या में मम हुआ ऋक्षरजस् पानी में कूद पड़ा। पानी | वालि के लिए अगम्य था। के बाहर निकलते ही उसे एक लावण्यवती नारी का रूप सुग्रीव से शत्रुत्व--दुंदुभि के वध के पश्चात् , उसका पुत्र प्राप्त हुआ, जिसे देख कर इंद्र एवं सूर्य कामासक्त मायाविन् ने वालि से युद्ध शुरु किया, जिसके ही कारण हुए। उनका वीर्य क्रमशः स्त्रीरूपधारिणी ऋक्षरजा के आगे चल कर, यह एवं इसका भाई सुग्रीव में प्राणांतिक बाल एवं ग्रीवा पर पड़ गया। इस प्रकार इंद्र एवं सूर्य के | शत्रुता उत्पन्न हुई। एक बार वालि एवं सुग्रीव मायाविन् अंश से क्रमशः वालिन् एवं सुग्रीव का जन्म हुआ (वा. का वध करने निकल पड़े। इन्हें आते देख कर मायारा. कि. १६.२७-३९)। विन् ने एक बिल में प्रवेश किया। तदुपरांत इसने सुग्रीव जन्म होने के पश्चात , इंद्र ने अपने पुत्र वालिन् को को बिल के द्वार पर खड़ा किया, एवं यह स्वयं मायाविन् एक अक्षय्य सुवर्णमाला दे दी, एवं सूर्य ने अपने पुत्र का पीछा करता बिल के अंदर चला गया। सुग्रीव को हनुमत् नामक वानर सेवा में दे दिया । पश्चात् इसी अवस्था में एक वर्ष बीत जाने पर, एक दिन ऋक्षरजस् को ब्रह्मा की कृपा से पुनः पुरुषदेह प्राप्त सुग्रीव ने बिल में से फेन के साथ रक्त निकलते देखा, हुआ, एवं वह किष्किंधा का राजा बन गया (वा. रा. एवं उसी समय असुर का गर्जन भी सुना । इन दुश्चिन्हों बा. दाक्षिणात्य. १७.१०; ऋक्षरजस् देखिये)। से सुग्रीव ने समझ लिया कि, वालि मारा गया है। पराक्रम--वालिन् के पराक्रम की अनेकानेक कथाएँ अतः उसने पत्थर से बिल का द्वार बंद किया, एवं वह वाल्मीकि रामायण एवं पुराणों में प्राप्त हैं। एक बार अपने भाई की उदकक्रिया कर के किष्किंधा नगरी लौटा। लंकाधिपति रावण अपना बलपौरुष का प्रदर्शन करने वालिवध की वार्ता सुन कर, मंत्रियों ने सुग्रीव की इच्छा इससे युद्ध करने आया, किंतु इसने उसे पुष्करक्षेत्र के विरुद्ध उसका राज्याभिषेक किया । अपनी पत्नी रुमा में परास्त किया था ( वा. रा. उ. ३४: रावण देखिये)।। एवं वालि की पत्नी तारा को साथ ले कर. सुग्रीव. राज्य गोलभ नामक गंधर्व के साथ भी इसने लगातार पंद्रह वर्षों करने लगा। , तक युद्ध किया, एवं अंत में उसका वध किया था | तदुपरांत मायाविन् का वध कर वालि किष्किंधा (वा. रा. कि. २२.२९)। इसके बाणों में इतना सामर्थ्य लौटा । वहाँ सुग्रीव को राजसिंहासन पर देख कर यह था कि, एक ही बाण से यह सात साल वृक्षों को पर्णरहीत अत्यधिक क्रुद्ध हुआ, एवं इसने. उसकी अत्यंत कटु करता था (वा. रा. कि. ११.६७)। पंचमेदू नामक आलोचना की । सुग्रीव ने इसे समझाने का काफी प्रयत्न राक्षस से भी इसने युद्ध किया था, जिस समय उस राक्षस | किया, किंतु यह यही समझ बैठा कि, सुग्रीव ने यह ने इसे निगल लिया था। तदुपरांत शिवपार्षद वीरभद्र ने सारा षड्यंत्र राज्यलिप्सा के कारण ही किया है। उस राक्षस को खड़ा चीर कर, इसकी मुक्तता की थी। अतएव इसने उसे भगा दिया, एवं उसकी रुमा नामक (पद्म. पा. १०७)। पत्नी का भी हरण किया । सुग्रीव सारी पृथ्वी पर भटक दुंदुभिवध--दुंदुभि नामक महाबलाढ्य राक्षस का कर, अंत में वालि के लिए अगम्य ऋष्यमूक पर्वत पर भी वालि ने वध किया था । उस राक्षस के द्वारा समुद्र एवं रहने लगा (वा. रा. कि. ९-१०)। हिमालय को युद्ध के लिए ललकारने पर, उन्होंने उसे राम-सुग्रीव की मित्रता---ऋष्यमूक पर्वत पर राम एवं वालि से युद्ध करने के लिए कहा। अतः दुंदुभि ने सुग्रीव की मित्रता प्रस्थापित होने पर, राम ने अपना महिष का रूप धारण कर इसे युद्ध के लिए ललकारा। बलपौरुष दिखाने के लिए अपने एक ही बाण से वहाँ इसने अपने पिता इंद्र के द्वारा प्राप्त सुवर्णमाला पहन स्थित सात ताड़ तरुओं का भेदन किया । आनंद रामायण कर दुंदुभि को द्वंद्वयुद्ध में मार डाला, एवं उसकी लाश । में, इन सात ताड़ वृक्षों के संदर्भ में एक कथा प्राप्त है । एक योजन दूरी पर फेंक दी। उस समय दुंदुभि के कुछ | एक बार ताड़ के सात फल वालि ने ऋष्यमूक पर्वत की रक्तकण ऋष्यमूक पर्वत पर स्थित मातंग ऋषि के आश्रम गुफा में रखे थे । पश्चात् एक सर्प उस गुफा में आया, में गिर पड़े। इससे ऋद्ध हो कर मातंग ऋषि ने वालि को | एवं सहजवश उन ताड़फलों पर बैठ गया । वालि ने ८३० Page #853 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वालिन शुद्ध हो कर सर्प से शाप दिया, 'इन फलों से तुम्हारे शरीर पर ताड़ के सात वृक्ष उगंगे तब साँप ने भी बालि से शाप दिया, 'इन सातों ताड़ के वृक्ष जो अपने बाण से तोड़ेगा, उसी के द्वारा तुम्हारी मृत्यु होगी राम के द्वारा इन वृक्षों का भेदन होने के कारण, उसीके हाथों वालिबध हुआ (आ. रा. ८ ) । वालिबध राम के कहने पर सुग्रीव ने वालि को द्वंद्वयुद्ध के लिए ललकारा (वा. रा. कि. १४ ) । पहले दिन हुए वालि एवं सुग्रीव के द्वंद्वयुद्ध के समय, ये दोनों भाई एक सरीखे ही दिखने के कारण, राम अपने मित्र सुग्रीव को कोई सहायता न कर सका । इस कारण सुग्रीव को पराजित हो कर ऋष्यमूक पर्वत पर लौटना पड़ा । दूसरे दिन राम ने 'अभिज्ञान' के लिए सुग्रीव के गले में एक की माला पहनायी एवं उसे पुनः एक र वालि से युद्ध करने भेज दिया। सुग्रीव का आह्वान सुन कर, यह अपनी पत्नी तारा का अनुरोध टुकरा कर पुनः अपने महल से निकला। इंद्र के द्वारा दी गयी सुवर्णमाला पहन कर यह युद्ध के लिए चल पड़ा | आनंद रामायण के अनुसार, गले में सुवर्णमात्य धारण करनेवाला वालि युद्ध में अजेय था, जिस कारण बुद्ध के पूर्व राम ने एक सर्प के द्वारा इसकी माला को चुरा लिया था (आ. रा. ८ ) । तलात् हुए इंद्रयुद्ध । के समय राम ने वृक्ष के पीछे से शण छोड़ कर इसका , 3 • वध किया ( वा. रा. कि. १६३.१६ ) । पड़ा । • प्राचीन चरित्रकोश राम की आलोचना - मृत्यु के पूर्व इसने वृक्ष के . पीछे से बाण छोड़ कर अपना वध करनेवाले राम का क्षत्रिय वर्तन ताते समय राम की अत्यंत कठ मोचना की अयुक्तं धर्मेण ययाऽहं निहतो रणे। (बा.रा. कि. १७.५२) | । वाल्मीकि तो एक ही दिन में मैं सीता की मुक्ति कर देता। दशमुखी रावण का वध कर उसकी लाश की गले में रस्सी बाँध कर एक ही दिन में मै तुम्हारे चरणों में रख देता। मैं मृत्यु से नहीं डरता हूँ किन्तु तुम जैसे स्वयं को क्षत्रिय कहलानेवाले एक पापी पुरुष ने विश्वासघात से मेरा वध किया है, यह शल्य मैं कभी भी भूल नहीं सकता ' । अंत्यविधि-वालि के इस आक्षेप का राम ठीक प्रकार से जवाब न दे सका ( राम दाशरथि देखिये ) । मृत्यु के पूर्व वालि ने अपनी पत्नी तारा एवं पुत्र अंगद को सुग्रीव के हाथों सौंप दिया । स्वभावचित्रण राम का शत्रु होने के कारण, उत्तरकालीन बहुत सारे रामायण ग्रन्थों में एक क्रूरकर्मन् राजा के रुप में वालि का चरित्र चित्रण किया गया है। राम के द्वारा किये गये इसके वध का समर्थन देने का प्रयत्न भी अनेक प्रकार से किया गया है। इसने राम से कहा, 'मैंने तुम्हारे साथ कोई अन्याय नहीं किया था। फिर भी जब मैं सुप्रीय के साथ युद्ध करने में यथा, उस समय तुमने वृक्ष के पीछे से बाण छोड़ कर मुझे आहत किया । तुम्हारा यह बर्तन संपूर्णतः अक्षत्रिय है। । तुम नहीं कि खुनी हो तुम्हें मुझसे युद्ध ही करना क्षत्रिय बल्कि था, तो क्षत्रिय की भाँति चुनौति दे कर युद्धभूमि में चले आते। मैं तुम्हारा आवश्य ही पराजय कर लेता ' । बालि ने आगे कहा, 'ये सब पापकर्म तुमने सीता की मुक्ति के लिए ही किये। अगर यह बात तुम मुझसे कहते, ८३१ - किन्तु ये सारे वर्णन अयोग्य प्रतीत होते हैं। वालि स्वयं एक अत्यंत पराक्रमी एवं धर्मनिष्ठ राजा था। इसने चार ही वेदों का अध्ययन किया था, एवं अनेकानेक यज्ञ किये थे। इसकी धर्मपरायणता के कारण स्वयं नारद ने भी इसकी स्तुति की थी (ब्रह्मांड २.७.२१४ - २४८ ) । मृत्यु के मृत्यु के पूर्व राम के साथ इसने किया हुआ संवाद भी इसकी शूरता, तार्किकता एवं धर्म नेता पर काफी प्रकाश डालता है। २. वरुणलोक का एक असुर ( म. स. ९.१४ ) । वालिशय - वसिष्ठकुलोत्पन्न एक गोत्रकार । वालिशिख -- एक नाग, जो कश्यप एवं कद्रू के पुत्रों में से एक था। वालिशिखायनि - एक आचार्य (सां. आ. ७.२१) । वाल्मीकि एक व्याकरणकार, जिसके विसर्गसंधी के संबंधित अभिमतों का निर्देश तैत्तिरीय प्रातिशाख्य में प्राप्त है ( . . ५०२६९२४१८८६)। (तै. प्रा. , २. एक पक्ष को वंशीय सुपर्णपक्षियों के वंश में उत्पन्न हुआ था। दास के अनुसार, वे पक्षी न हो कर, सप्तसिंधु की यायावर आर्य जाति थी ( सम्वेदिक इंडिया, पृ. ६५, १४८ ) । ये कर्म से क्षत्रिय थे, एवं बड़े ही विष्णुभक्त थे (म. उ. ९९.६८ ) । २. एक व्यास (व्यास देखिये) । ४. एक शिवभक्त, जिसने शिवभक्ति के संबंध में अपना अनुभव युधिष्ठिर को कथन किया था (म. अनु. १८.८ - १० ) । Page #854 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाल्मीकि प्राचीन चरित्रकोश . वाल्मीकि वाल्मीकि 'आदिकवि'--एक सुविख्यात महर्षि, | प्रदान करता था। इससे प्रतीत होता है कि, वाल्मीकि जो 'वाल्मीकि रामायण' नामक संस्कृत भाषा के आद्य का आश्रम काफी बड़ा था। आर्ष महाकाव्य का रचयिता माना जाता है। ___ आख्यायिकाएँ--वाल्मीकि के पूर्वायुष्य से संबंधित ___ नाम--वाल्मीकि रामायण के युद्धकाण्ड के फलश्रुति- अनेकानेक अख्यायिकाएँ महाभारत एवं पुराणों में प्राप्त अध्याय में आदिकवि वाल्मीकि का निर्देश प्राप्त है हैं । किंतु वे काफ़ी उत्तरकालीन होने के कारण अविश्व( वा. रा. यु. १२८.१०५)। वहाँ वाल्मीकि के द्वारा सनीय प्रतीत होती हैं। प्राचीन काल में विरचित 'रामायण' नामक आदिकाव्य के महाभारत एवं पुराणों में वाल्मीकि को 'भार्गव'(भृगुवंश पठन से पाठकों को धर्म, यश एवं आयुष्य प्राप्त होने की | में उत्पन्न ) कहा गया है। महाभारत के 'रामोफलश्रुति दी गयी है । समस्त प्राचीन वाङ्मय में आदि- पाख्यान' का रचयिता भी भार्गव बताया गया है (म. कवि वाल्मीकि के संबंध में यह एकमेव निर्देश माना शां. ५७.४०)। भार्गव च्यवन नामक ऋषि के संबंध में जाता है। यह कथा प्रसिद्ध है कि, वह तपस्या करता हुआ इतने रामायण के बाल एवं उत्तर काण्डों में--आधुनिक समय तक निश्चल रहा की, उसका शरीर 'वत्मीक' से अभ्यासकों के अनुसार, वाल्मीकि रामायण के दो से छ: आच्छादित हुआ (भा.९.३; च्यवन भार्गव देखिये )। तक काण्डों की रचना करनेवाला आदिकवि वाल्मीकि, एवं यह कथा 'वाल्मीकि ' ( जिसका शरीर बल्मीक से वाल्मीकि रामायण के बाल एवं उत्तर काण्डों में निर्दिष्ट आच्छादित हो) नाम से मिलती-जुलती होने के कारण, राम दशरथि राजा के समकालीन वाल्मीकि दो विभिन्न वाल्मीकि एवं च्यवन इन दोनों के कथाओं में संमिश्रण व्यक्ति थे। किन्तु ई. पू. १ ली शताब्दी में, इस ग्रंथ के किया गया, एवं इस कारण वाल्मीकि को भार्गव उपाधि बाल एवं उत्तर काण्ड की रचना जब समाप्त हो चुकी | प्रदान की गयी। थी, उस समय आदिकवि वाल्मीकि एवं महर्षि वाल्मीकि ये | अध्यात्म रामायण में--वाल्मीकि के द्वारा वल्मीक से - दोनों एक ही मानने जाने की परंपरा प्रस्थापित हुई थी। आच्छादित होने का इसी कथा का विकास, उत्तरकालीन वाल्मीकि रामायण के उत्तर-काण्ड में निर्देशित महर्षि | साहित्य में वाल्मीकि को दस्यु, ब्रह्मन्न एवं डाकु मानने में वाल्मीकि प्रचेतस् ऋषि का दसवाँ पुत्र था, एवं यह जाति हो गया, जिसका सविस्तृत वर्णन स्कंद पुराण (स्कंद. वै.. से ब्राह्माण तथा अयोध्या के दशरंथ राजा का मित्र था | २१), एवं अध्यात्म रामायण में प्राप्त है । (वा. रा. उ. ९६.१८, ४७.१६ )। | इस कथा के अनुसार, यह जन्म से तो ब्राह्मण था, आश्रम--वाल्मीकि रामायण के बालकाण्ड में इसे किंतु निरंतर किरातों के साथ रहने से, एवं चोरी करने तपस्वी, महर्षि एवं मुनि कहा गया है (वा. रा. वा. से इसका ब्राह्मणत्त्व नष्ट हुआ। एक शूद्रा के गर्भ से इसे १.१; २.४; ४.४ )। इसका आश्रम तमसा एवं गंगा के | अनेक शूद्रपुत्र भी उत्पन्न हुए । समीप ही था (वा. रा. बा. २.३ )। यह आश्रम गंगा| एक बार इसने सात मुनियों को देखा, जिनका वस्त्रादि नदी के दक्षिण में ही था, क्यों कि, सीता त्याग के समय, छीनने के उद्देश्य से इसने उन्हें रोक लिया। फिर उन लक्ष्मण एवं सीता अयोध्या से निकलने के पश्चात् गंगा ऋषियों ने इससे कहा, 'जिन कुटुंबियों के लिए तुम नदी पार कर इस आश्रम में पहुँचे ( वा. रा. उ. ४७)। नित्य पापसंचय करते हो, उनसे जा कर पूछ लो की, बाद में प्रस्थापित हुए एक अन्य परंपरा के अनुसार, | वे तुम्हारे इस पाप के सहभागी बनने के लिए तैयार हैं, वाल्मीकि का आश्रम गंगा के उत्तर में यमुनानदी के किनारे, या नहीं। इसके द्वारा कुटुंबियों को पूछने पर उन्होंने चित्रकूट के पास मानने जाने लगा ( वा. रा. अयो. इसे कोरा जवाब दिया, 'तुम्हारा पाप तुम सम्हाल लो, ५६.१६ दाक्षिणात्य; अ. रा. २.६. रामचरित. २. | हम तो केवल धन के ही भोगनेवाले हैं। १२४)। आजकल भी वह बाँदा जिले में स्थित है। । यह सन कर इसे वैराग्य उत्पन्न हुआ, एवं इसने उन वाल्मीकि रामायण में इसे अपने आश्रम का कुलपति | ऋषियों की सलाह की अनुसार, निरंतर 'मरा' ('राम' कहा गया है। प्राचीन भारतीय परंपरा के अनुसार, | शब्द का उल्टा रूप) शब्द का जप करना प्रारंभ किया । 'कुलपति' उस ऋषि को कहते थे, जो दस हज़ार | एक सहस्त्र वर्षों तक निश्चल रहने के फलस्वरूप, इसके विद्यार्थियों का पालनपोषण करता हुआ उन्हें शिक्षा | शरीर पर 'वल्मीक' बन गया। ८३२ Page #855 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन चरित्रकोश वाल्मीकि कालोपतऋषियों ने इसे बाहर निकलने का आदेश दिया, एवं कहा, ‘वल्मीक में तपस्या करने कारण तुम्हारा दूसरा कम हुआ है। अतएव आज से तुम वाल्मीकि नाम से ही सुविख्यात होंगे (अ. रा. अयो. ६. ४२-८८) । स्कंद पुराण में भी यही कथा प्राप्त है, किंतु यहाँ ऋषि बनने के पूर्व का इसका नाम अग्निशर्मन् दिया गया है । मास्याधिकाओं का अन्वयार्थ कई अभ्यासकों के अनुसार, पुराणों में प्राप्त इन सारे कथाओं में वाल्मीकि की नीच जाति प्रतिध्वनित होती है । किंतु इस संबंध में निथित रूप से कहना कठिन है जो कुछ भी हो, इन मगाओं के मूल रूप में 'रामनाम' का निर्देश अप्राप्य है। इससे प्रतीत होता है की, रामभत्तिसांप्रदाय का विकास होने के पश्चात्, यह सारा वृत्तांत रामनाम के गुणगान में परिणत कर दिया गया है (बुल्के, रामकथा g. ४० ) । पुराणों में इसे छब्बीसवाँ वेदव्यास एवं श्रीविष्णु का अवतार कहा गया है ( विष्णु. ३.३.१८ ) । यह निर्देश भी इसका महात्म्य बढ़ाने के लिए ही किया गया होगा । 3 क्रौंचवध — इसकी शिष्य शाखा काफी बड़ी थी किन्तु उसमें भरद्वाज ऋपि प्रमुख था एक बार यह भरद्वाज के साथ नदी से स्नान कर के वापस आ रहा था । मार्ग में इसने एक व्याच मैथुनासक्त च पक्षियों में एक पर शरसंधान करते हुए देखा। उस समय उस पक्षी के प्रति इसके मन में दया उत्पन्न हुई, एवं इसके मुख से छंदोबद्ध आर्तवाणी निश्यत हुई , मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वतीः समाः । यत्क्रौंच मिथुनादेकमवधीः काममोहितम् ॥ ( वा. रा. बा. २.१५ ) । अकस्मात् मुख से निकले हुए शब्दों को एक वृत्तबद्ध अनुष्टुभ् श्लोक का रूप प्राप्त होने का चमत्कार देख कर, इसे मन ही मन अत्यंत आश्चर्य हुआ। इसके साथ ही साथ, क्रोध में एक निषाद को इतना कड़ा शाप देने के कारण, इसे अत्यंत दुःख भी हुआ । वाल्मीकि ब्रह्मा के इस आदेशानुसार इसने चौबीससहस्त्र श्लोकों से युक्त रामायण ग्रन्थ की रचना की ( वा. रा. बा. २ ) । इसी दुःखित अवस्था में यह बैठा था कि, ब्रह्मा वहाँ प्रकट हुए एवं उन्होंने कहा, 'पछताने का कोई कारण नहीं है । यह श्लोक तुम्हारी कीर्ति का कारण बनेगा । इसी छंद में तुम राम के चरित्र की रचना करो' । प्रा. च १०५ ] रामायण की जन्मकथा - - रामकथा की रचना करने की प्रेरणा वाल्मीकि को कैसी प्राप्त हुई, इस संबंध में इसने नारद के साथ किये एक संवाद का निर्देश वास्मीकि रामायण में प्राप्त है। एक बार तप एवं स्वाध्याय में मन, एवं भाषणकुशल नारद से इसने प्रश्न किया, 'इस संसार में ऐसा कौन महापुरुष है, जो आचार विचार एवं पराक्रम में आदर्श माना जा सकता है'। उस समय नारद ने इसे रामकथा का सार सुनाया, जिसे ही श्लोकबद्ध कर, इसने अपने 'रामायण' महाकाव्य की रचना की था. रा. बा.१)। इस आख्यायिका से प्रतीत होता है कि तत्कालीन समाज में रामकथा से संबंधित जो कथाएँ लोककथा के रूप में वर्तमान थी, उन्हींको वाल्मीकि ने छंदोबद्ध रूप दे कर रामायण की रचना की । सीता संरक्षण राम के द्वारा सीता का त्याग होने पर इसने उसे सँभाला एवं उसकी रक्षा की। उस समय सीता गर्भवती थी। बाद में यथावकाश उसे दो जुड़वे पुत्र उत्पन्न हुए। उनका 'कुश' एवं 'लव' नामकरण इसी ने ही किया एवं उन्हें पालपोस कर विवादान भी किया। वे कुमार बड़े होने पर, इसने उन्हें स्वयं के द्वारा विरचित रामायण काव्य सिखाया। पश्चात् कुश रूप ने वाल्मीकि के द्वारा विरचित रामायण का गायन सर्वत्र करना शुरू किया। इस प्रकार वे अयोध्या नगरी में भी पहुँच गये, जहाँ राम दाशरथि के अश्वमेध यज्ञ के स्थान पर उन्होंने रामायण का गान किया ( वा. रा. उ. ९३९४) । रामसभा में — कुशलव के द्वारा किये गये रामायण के साभिनय गायन से राम मंत्रमुग्ध हुआ, एवं जब उसे पता चला कि, ये ऋषिकुमार सामान्य भाट नही, बल्कि उसीके ही पुत्र है, तन्न वह बहुत ही प्रसन्न हुआ। सीता को अपने पास बुलवा लिया । उस समय वाल्मीकि स्वयं सीता के साथ रामसभा में उपस्थित हुआ, एवं इसने सीता के सतीत्व की साक्ष दी। उस समय इसने अपने सहस्र वर्षों के तप का एवं सत्यप्रतिज्ञता का निर्देश कर सीता का स्वीकार करने की प्रार्थना राम से की. ( वा. रा. उ. ९६.२० ) । पश्चात् इसीके कहने पर सीता ने पातिव्रत्य की कसम खा कर भूमि में प्रवेश किया। ८३३ Page #856 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाल्मीकि प्राचीन चरित्रकोश. . वाल्मीकि पौराणिक वाङ्मय की प्रस्थानत्रयी-पौराणिक साहित्य | इस प्रकार, जहाँ महाभारत में वर्णित व्याक्तितत्त्वज्ञानमें रामायण, महाभारत एवं भागवत ये तीन प्रमुख विषयक चर्चाओं के विषय बन चुकी है, वहाँ वाल्मीकिग्रंथ माने जाते है, एवं इस साहित्य में प्राप्त तत्त्वज्ञान रामायण में वर्णित राम, लक्ष्मण एवं सीता देवतास्वरूप की 'प्रस्थानत्रयी' भी इन्हीं ग्रंथो से बनी हुई मानी जाती पा कर सारे भरतखंड में उनकी पूजा की जा रही है। है । वेदात ग्रंथों की प्रस्थानत्रयी में अंतर्भूत किये जानेवाले | महाभारत से तुलना-संस्कृत साहित्य के इतिहास भगवद्गीता, उपनिषद् एवं ब्रह्मसूत्र की तरह, पौराणिक में रामायण एवं महाभारत इन दोनों ग्रंथों को महाकाव्य साहित्य की प्रस्थानत्रयी बनानेवाले ये तीन ग्रंथ भी | कहा जाता है। किंतु प्रतिपाद्य विषय एवं निवेदनशैली भारतीय तत्त्वज्ञान का विकास एवं प्रसार की दृष्टि से इन दोनों दृष्टि से वे एक दूसरे से बिल्कुल विभिन्न हैं । महत्त्वपूर्ण माने जाते हैं। जहाँ महाभारत एक इतिहासप्रधान काव्य है, वहाँ उपर्युक्त ग्रंथों में से रामायण एवं भागवत क्रमशः रामायण एक काव्यप्रधान चरित्र है। महाभारत के कर्मयोग, और भक्तितत्त्वज्ञान के प्रतिपादक ग्रंथ हैं । इसी अनुक्रमणीपर्व में उस ग्रंथ को सर्वत्र 'भारत का इतिहास' कारण दैनंदिन व्यवहार की दृष्टि से, रामायण ग्रंथ भागवत | (भारतस्येतिहास), भारत की ऐतिहासिक कथाएँ से अधिक हृदयस्पर्शी एवं आदर्शभूत प्रतीत होता | (भारतसंज्ञिताः कथाः) कहा गया है ( म. आ. १.१४. है। इस ग्रंथ में आदर्श पुत्र, भ्राता, पिता, माता आदि | १७)। इसके विरुद्ध रामायण में, 'राम एवं सीता के के जो कर्तव्य बताये गये हैं, वे एक आदर्श बन कर चरित्र का, एवं रावणवध का काव्य मैं कथन करता हूँ' व्यक्तिमात्र को आदर्श जीवन की स्फूर्ति प्रदान | ऐसे वाल्मीकि के द्वारा कथन किया गया हैकरते हैं। काव्यं रामायणं कृत्स्नं सीतायाश्चरितम् महत् । ___ व्यक्तिगुणों का आदर्श-इस प्रकार रामायण में भारतीय पौलस्त्यवधमित्येव चकार चरितव्रतः॥ . दृष्टिकोन से आदर्श जीवन का चित्रण प्राप्त है, किन्तु उस (वा. रा. बा..४.७.)। जीवन के संबंधित तत्त्वज्ञान वहाँ ग्रथित नहीं है, जो महाभारत में प्राप्त है। महाभारत मुख्यतः एक तत्त्वज्ञानविषयक इस प्रकार महाभारत की कथावस्तु अनेकानेक ऐतिग्रंथ है, जिसमें आदर्शात्मक व्यक्तिचित्रण के साथ साथ, | हासिक कथाउपकथाओं को एकत्रित कर रचायी गयी है। आदर्श-जीवन के संबंधित भारतीय तत्वज्ञान भी ग्रथित | किन्तु वाल्मीकि रामायण की सारी कथावस्तु राम एवं किया गया है। व्यक्तिविषयक आदर्शों को शास्त्रप्रामाण्य | उसके परिवार के चरित्र से मर्यादित है । राम, लक्ष्मण, एवं तत्त्वज्ञान की चौखट में बिटाने के कारण, महाभारत सीता, दशरथ आदि का 'हसित,' 'भाषित' एवं सारे पुराण ग्रंथों में एक श्रेष्ठ श्रेणि का तत्वज्ञान-ग्रंथ बन | 'चेष्टित' (पराक्रम) का वर्णन करना, यही उसका प्रधान गया है। हेतु है ( वा. रा. बा. ३.४)। किन्तु इसी तत्त्वप्रधानता के कारण, महाभारत में इन दोनों ग्रंथों का प्रतिपाद्य विषय इस तरह सर्वतोपरि वर्णित व्यक्तिगुणों के आदर्श धुंधले से हो गये हैं, जिनका | भिन्न होने के कारण, उनकी निवेदनशैली भी एक दसरे सर्वोच्च श्रेणि का सरल चित्रण रामायण में पाया जाता है। से विभिन्न है। रामायण की निवेदनशैली वर्णनात्मक, इस प्रकार जहाँ महाभारत की सारी कथावस्तु परस्पर- विशेषणात्मक एवं अधिक तर काव्यमय है। उसमें स्पर्धा, मत्सर, कुटिलता एवं विजिगिषु वृत्ति जैसे राजस | प्रसाद होते हुए भी गतिमानता कम है । इसके विरुद्ध एवं तामस वृत्तियों से ओतप्रोत भरी हुई है, वहाँ रामायण | महाभारत की निवेदनशैली साफसुथरी, नाट्यपूर्ण एवं की कथावस्तु में स्वार्थत्याग, पितृपरायणता, बंधुप्रेम जैसे | गतिमान् है।। सात्विक गुण ही प्रकर्ष से चित्रित किये गये है। रामायण की श्रेष्ठता-इसी कारण हिन्दुधर्मग्रंथों में यही कारण है कि, वाल्मीकि रामायण महाभारत से | रामायण की श्रेष्ठता के संबंध में डॉ. विंटरनिट्झ से ले कतिपय अधिक लोकप्रिय है, एवं उससे स्फूर्ति पा कर | कर विनोबाजी भावे तक सभी विद्वानों की एकवाक्यता भारत एवं दक्षिणीपूर्व एशिया की सभी भाषाओं में की | है। श्री. विनोबाजी ने लिखा है, 'चित्तशुद्धि प्रदान गयी रामकथाविषयक समस्त रचनाएँ, सदियों से जनता के | करनेवाले समस्त हिन्दुधर्म ग्रंथों में वाल्मीकिरामायण नित्यपाठ के ग्रंथ बन चुकी हैं ( राम दाशरथि देखिये)। | भगवद्गीता से भी अधिक श्रेष्ठ है। जहाँ भगवद्गीता नवनीत Page #857 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाल्मीकि प्राचीन चरित्रकोश वाल्मीकि है, वहाँ रामायण माता के दूध के समान है। नवनीत | मधुममय-भणतीनां मार्गदर्शी महर्षिः। का उपयोग मर्यादित लोग ही कर सकते है, किन्तु माता आदिकवि वाल्मीकि-वाल्मीकिप्रणीत रामायण संस्कृत का दूध तो सभी के लिए लाभदायक रहता है। भाषा का आदिकाव्य माना जाता है, जिसकी रचना इसीलिए वाल्मीकि रामायण के प्रारंभ में ब्रह्मा ने | अनुष्टुभ् छंद में की गयी है। रामायण के संबंधित जो आशीर्वचन वाल्मीकि को प्रदान । वाल्मीकि रामायण के पूर्वकाल में रचित कई वैदिक किया है, वह सही प्रतीत होता है: ऋचाएँ अनुष्टुभ् छंद में भी थी। किंतु वे लघु गुरु-अक्षरों यावत्स्थास्यन्ति गिरयः सरितश्च महीतले के नियंत्रणरहित होने के कारण, गाने के लिए योग्य • तावद्रामायणकथा लोकेषु प्रचरिष्यति ॥ (गेय) नहीं थी। इस कारण ब्राह्मण, आरण्यक जैसे . (वा. रा. बा. २.३६)। वैदिकोत्तर साहित्य में अनुष्टुभ् छद का लोप हो कर, इन सारे ग्रन्थों की रचना गद्य में ही की जाने लगी। (इस सृष्टि में जब तक पर्वत खडे है, एवं नदियाँ बहती इस अवस्था में, वेदों में प्राप्त अनुष्टुभ् छंद को लघुहै, तब तक रामकथा का गान लोग करते ही रहेंगे)। गुरु अक्षरों के नियंत्रण में बिठा कर वाल्मीकि ने सर्वरामायण की ऐतिहासिकता-डॉ. याकोबी के अनुसार, प्रथम अपने 'मा निषाद' श्लोक की, एवं तत्पश्चात् समग्र वर्ण्य विषय की दृष्टि से 'वाल्मीकि रामायण' दो भागों | रामायण की रचना की । छंदःशास्त्रीय दृष्टि से वाल्मीकि में विभाजित किया जा सकता है:-१. बाल एवं अयोध्या के द्वारा प्रस्थापित नये अनुष्टभ् छंद की विशेषता निम्नकांड में वर्णित अयोध्य की घटनाएं, जिनका केंद्रबिंदु | प्रकार थी:इक्ष्वाकुराजा दशरथ है; २. दंडकारण्य एवं रावणवध से श्लोके षष्ठं गुरु ज्ञेयं सर्वत्र लघु पंचमम् । संबंधित घटनाएं, जिनका केंद्रबिंदू रावण दशग्रीव है। इनमें से अयोध्या की घटनाएँ ऐतिहासिक प्रतीत होती द्विचतुःपादायोह्रस्वं सप्तमं दीर्घमन्ययोः ॥ है, जिनका आधार किसी निर्वासित इक्ष्वाकुवंशीय राज. (वाल्मीकि के द्वारा प्रस्थापित अनुष्टुभ् छंद में, श्लोक क कुमार से है । रावणवध से संबंधित घटनाओं का मूल- | हर एक पाद का पाँचवाँ अक्षर लघु, एवं छठवाँ अक्षर गुरु उद्गम वेदों में वर्णित देवताओं की कथाओं में देखा | था। इसी प्रकार समपादों में से सातवाँ अक्षर हस्व, एवं जा सकता है (याकोबी, रामायण पृ. ८६; १२७)। विषमपाद में सातवाँ अक्षर दीर्घ था)। रामकथा से संबंधित इन सारे आख्यान-काव्यों की इसी अनुष्टुभ् छंद के रचना के कारण वाल्मीकि संस्कृत रचना इक्ष्वाकुवंश के सूतों ने सर्वप्रथम की, जिनमें रावण | भाषा का आदि-कवि कहलाया गया । इतना ही नहीं एवं हनुमत् से संबंधित प्रचलित आख्यानों को मिला कर | 'विश्व' जैसे संस्कृत भाषा के शब्दकोश में 'कवि' वाल्मीकि ने रामायण की रचना की। शब्द का अर्थ भी 'वाल्मीकि' ही दिया गया है। जिस प्रकार वाल्मीकि के पूर्व रामकथा मौखिक रूप में गेय महाकाव्य--वाल्मीकि के द्वारा रामायण की रचना वर्तमान थी, उसी प्रकार दीर्घकाल तक 'वाल्मीकि- | एक पाठ्य काव्य के नाते नहीं, बल्कि एक गेय काव्य रामायण' भी मौखिक रूप में ही जीवित रहा । इस | के नाते की गयी थी। रामायण की रचना समाप्त होने काव्य की रचना के पश्चात् , कुशीलवों ने उसे कंठस्थ | के पश्चात् , इस काव्य को नाट्यरूप में गानेवाले गायकों कि किया, एवं वर्षों तक वे उसे गाते रहे। किंतु अंत में | खोज वाल्मीकि ने की थी:इस काव्य को लिपिबद्ध करने का कार्य भी स्वयं वाल्मीकि चिन्तयामास को न्वेतत् प्रयुञ्जादिति प्रभुः॥ ने ही किया, जो 'वाल्मीकि रामायण' के रूप आज भी पाठ्ये गेये च मधुरं प्रमाणेनिभिरन्वितम् | वर्तमान है। जातिभिः सप्तभिर्युक्तं तंत्रीलय-समन्वितम् ॥ इसीसे ही स्फूर्ति पा कर भारत की सभी भाषाओं में (वा. रा. बा. ४.३, ८)। रामकथा पर आधारित अनेकानेक ग्रन्थों की रचना हुई, जिनके कारण वाल्मीकि एक प्रातःस्मरणीय विभूति बन (रामायण की रचना करने के पश्चात् , इस महाकाव्य गयाः के साभिनय गायन का प्रयोग त्रिताल एवं सप्तजाति में Page #858 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाल्मीकि प्राचीन चरित्रकोश वाल्मीकि तथा वीणा के स्वरों में कौन गायक कर सकेगा, इस संबंध | अनुसार, वाल्मीकि स्वयं उत्तर भारत का निवासी था, में वाल्मीकि खोज करने लगा।) एवं गंगा नदी को मिलने वाली तमसा नदी के किनारे . वाल्मीकि के काल में रामायण का केवल गायन ही अयोध्या नगरी के समीप इसका आश्रम था। वाल्मीकि नही, बल्कि अभिनय भी किया जाता था, ऐसा स्पष्ट | रामायण में निर्दिष्ट प्रमुख भौगोलिक स्थल निम्न निर्देश वाल्मीकि रामायण में प्राप्त है। वहाँ रामायण का | प्रकार है:-- गायन करनेवाले कुशलव को 'स्थानकोविद ' ( कोमल, (१) उत्तर भारत के स्थल:-१.अयोध्या (वा.रा. मध्य एवं उच्च स्वरोच्चारों में प्रवीण), 'मार्गगानतज्ज्ञ' | बा.६.१); २. सरयू नदी (वा. रा. बा. २४.१०); ३. (मार्ग नामक गायनप्रकार में कुशल) ही नहीं, बल्कि तमसा नदी (वा. रा. बा. २.४ ); ४. कोसल देश (वा. 'गांधर्वतत्वज्ञ' (नाट्यशास्त्रज्ञ), एवं 'रूपलक्षण संपन्न' | रा. अयो. ५०.१०); ५. शंगवेरपुर (वा. रा. अयो. (अभिनयसंपन्न) कहा गया है (वा. रा. बा. ४.१०. ५०.२६); ६. नंदिग्राम (वा. रा. अयो. ११५.१२); ११; कुशीलव देखिये)। ७. मिथिला, सिद्धाश्रम, गौतमाश्रम, एवं विशाला नगरी वाल्मीकिप्रणीत रामकथा को आधुनिक काव्य के गेय (वा. रा. बा. ३१.६८); ८. गिरिव्रज अथवा राजगृह छंदों में बाँध कर गीतों के रूप में प्रस्तुत करने का सफल | (वा. रा. अयो. ६८.२१); ९. भरद्वाजाश्रम (वा. रा. प्रयत्न, मराठी के सुविख्यात कवि ग. दि. माडगूलकर के | अयो. ५४.९); १०. बाह्रीक (वा. रा.अयो. ६८.१८); द्वारा 'गीतरामायण' में किया गया है। गेय रूप में | ११. भरत का अयोध्या-केकय-गिरिव्रज प्रवास (वा. रा. रामायणकाव्य अधिक मधुर प्रतीत होता है, इसका | अयो. ६८. १२-२१,७१.१-१८)। अनुभव 'गीतरामायण' के श्रवण से आता है। (२) दक्षिण भारत के स्थल-१. पंचवटी (या. रा. आर्ष महाकाव्य-जिस प्रकार वाल्मीकि संस्कृत भाषा | अर. १३.१२०); २. पंपा नदी, (वा. रा. अर.६.१७); का आदिकवि है, उसी प्रकार इसके द्वारा विरचित ३. दण्डकारण्य (वा. रा. बा. १०.२५); ४. अगस्त्याश्रम रामायण संस्कृत भाषा का पहला 'आर्ष महाकाव्य' (वा. रा. अर. ११, ८३); ५. जनस्थान (वा. रा. उ. माना जाता है। 'आर्ष महाकाव्य' के गुणवैशिष्टय ८१.२०); ६. किष्किंधा (वा. रा. कि. १२.१४ ).७. महाभारत में निम्नप्रकार दिये गये है- . लंका (वा. रा. कि. ५८१९-२०); ८. विध्याद्रि (वा. इतिहासप्रधानार्थ शीलचारित्र्यवर्धनम् । रा. कि. ६०.७)। .. धीरोदात्तं च गहनं श्रव्यवृत्तैरलंकृतम् ।। लोकयात्राक्रमश्चापि पावनः प्रतिपाद्यते। रामायण का रचनाकाल--रामायण के सात कांडों में विचित्रार्थपदाख्यानं सूक्ष्मार्थन्यायबृंहितम् ॥ से, दूसरे से ले कर छटवे तक के कांडों (अर्थात् अयोध्या, अरण्य, किष्किंधा, सुंदर एवं युद्ध) की रचना स्वयं (इतिहास पर आधारित, एवं सदाचारसंपन्न आदशों वाल्मीकि के द्वारा की गयी थी। बाकी बचे हुए दो कांड का प्रतिपादन करनेवाले काव्य को आर्ष महाकाव्य कहते हैं। (अर्थात् पहला बालकांड, एवं सातवा उत्तरकांड) वाल्मीकि वह सदगुण एवं सदाचार को पोषक, धीरोदात्त एवं गहन | के द्वारा विरचित 'आदि रामायण' में अंतभत नही थे। आशय से परिपूर्ण, श्रवणीय छंदों से युक्त रहता है)। उनकी रचना वाल्मीकि के उत्तरकालीन मानी जाती है। वाल्मीकि रामायण में प्राप्त भूगोलवर्णन--इस ग्रंथ इन दोनों कांडों में वाल्मीकि का एक पौराणिक व्यक्ति के में उत्तर भारत, पंजाब एवं दक्षिण भारत के अनेकानेक | रूप में निर्देश प्राप्त है। . भौगोलिक स्थलों का निर्देश एवं जानकारी प्राप्त है । कोसल आधुनिक अभ्यासकों के अनुसार, वाल्मीकि के देश एवं गंगा नदी के पडोस के स्थलों का भौगोलिक स्थान, 'आदिकाव्य ' का रचनाकाल महाभारत के पूर्व में, एवं स्थलवर्णन उस ग्रंथ मे जितने स्पष्ट रूप से प्राप्त है, उतनी | अर्थात् ३०० ई. पू. माना जाता है; एवं वाल्मीकि के स्पष्टता से दक्षिण भारत के स्थलों का वर्णन नही मिलता। प्रचलित रामायण का रचनाकाल दूसरि शताब्दी ई. पू. इससे प्रतीत होता है कि, वाल्मीकि को उत्तर भारत एवं | माना जाता है। पंजाब प्रदेश की जितनी सूक्ष्म जानकारी थी, उतनी दक्षिण | वाल्मीकि के 'आदिकाव्य' के रचनाकाल के संबंध भारत एवं मध्यभारत की नहीं थी। कई अभ्यासकों के | में विभिन्न संशोधकों के अनुमान निम्नप्रकार हैं:-- १. Page #859 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाल्मीकि प्राचीन चरित्रकोश वासिष्ठ डॉ. याकोी-६ वी शताब्दी ई. पू; २. डॉ. मॅक्डोनेल (१) उदिच्य पाठ, जो निर्णयसागर प्रेस एवं ६ वी शताब्दी ई. पू.; ३. डॉ. मोनियर विल्यम्स-५ वी गुजराती प्रिन्टिग प्रेस, बंबई के द्वारा प्रकाशित है। इस शताब्दी ई. पू.; ४. श्री. चिं. वि. वैद्य-५ वी शताब्दी पर नागोजीभट्ट के द्वारा ' तिलक टीका' प्राप्त है, जो ई. पू. ५. डॉ. कीथ-४ शताब्दी ई. पू.; ६. डॉ. रामायण की सब से विस्तृत एवं उत्कृष्ठ टीका मानी विंटरनित्स-३ री शताब्दी ई. पू.। जाती है। उपर्युक्त विद्वानों में से, डॉ. याकोबी, डॉ. विल्यम्स, (२) दाक्षिणात्य पाठ, जो मध्वविलास बुक डेपो, श्री. वैद्य, एवं डॉ. मॅक्डोनेल वाल्मीकि के 'आदिकाव्य' कुंभकोणम् के द्वारा प्रकाशित है । इस संस्करण पर की रचना बौद्ध साहित्य के पूर्वकालीन मानते हैं । किंतु श्रीमध्वाचार्य के तत्वज्ञान का काफी प्रभाव प्रतीत होता बौद्ध साहित्य में जहाँ रामकथा संबंधी स्फुट आख्यान है। फिर भी, यह संस्करण 'उदिच्य पाट' से मिलताआदि का निर्देश प्राप्त है, वहाँ वाल्मीकि रामायण का जुलता है। निर्देश अप्राप्य है। इससे उस ग्रन्थ की रचना बौद्ध (३) गौडीय पाठ, जो डॉ. जी. गोरेसियो के द्वारा साहित्य के उत्तरकालीन ही प्रतीत होती है। संपादित, एवं कलकत्ता संस्कृत सिरीज में १८४३-१८६७ पाणिनि के 'अष्टाध्यायी' में भी वाल्मीकि अथवा ई. के बीच प्रकाशित हो चुका है। वाल्मीकि रामायण का निर्देश अप्राप्य है। किंतु उस (४) पश्चिमोत्तरीय ( काश्मीरी) पाठ, जो लाहोर ग्रंथ में कैकेयी, कौसल्या, शूर्पणखा आदि रामकथा से के डी. ए. व्ही. कॉलेज के द्वारा १९२३ ई. में प्रकाशित संबंधित व्यक्तियों का निर्देश मिलता है (पां. सू. ७.३.२, | किया गया है। ४.१.१५५, ६. २.१२२)। इससे प्रतीत होता है कि, ग्रन्थ--' वाल्मीकि रामायण' के अतिरिक्त इसके पाणिनि के काल में यद्यापि रामकथा प्रचलित थी, फिर भी नाम पर निम्नलिखित ग्रंथ प्राप्त है:--१. वाल्मीकिसूत्रः वाल्मीकि रामायण की रचना उस समय नही हुई थी। २. वाल्मीकि शिक्षा; ३. वाल्मीकिहृदयः ४. गंगाष्टक . महाभारत में प्राप्त रामायण के उद्धरण-महाभारत ( C)। .एवं 'वाल्मीकि रामायण' में से रामायण ही महाभारत से बाल्मीकिमार्गव--एक ऋषि, जो वरुण एवं चर्षणी पूर्वकालीन प्रतीत होता है। कारण कि, महाभारत में के दो पुत्रों में से एक था (भा. ६.१८.४)। इसके भाई वाल्मीकि के कई उद्धरण प्राप्त है, पर रामायण में महा- का नाम भृगु था। केवल भागव नाम से ही इसका निर्देश भारत का निर्देश तक नहीं आता। अन्यत्र प्राप्त है ( म. शां. ५७.४०)। सात्यकि ने भूरिश्रवम् राजा का प्रायोपविष्ट अवस्था महाभारत में इसे एवं च्यवन भार्गव ऋषि को एक ही में शिरच्छेद किया। अपने इस कृत्य का समर्थन देते माना गया है, एवं इसीके द्वारा 'रामायण' की रचना हए, सात्यकि वाल्मीकि का एक श्लोकाध ( हनुमत्- किये जाने का निर्देश वहाँ प्राप्त है । किंतु वह सही नही इंद्रजित् संवाद, वा. रा. यु. ८१.२८) उद्धृत करते प्रतीत होता है ( वाल्मीकि आदिकवि देखिये)। हुए कहता है : वासना-अर्क नामक वसु की पत्नी (भा.६.६.१३)। अपि चायं पुरा गीतः श्लोको वाल्मीकिना भुवि । वासव--इंद्र का नामान्तर (ब्रह्मांड. २.१८.४४ )। वासवी--सत्यवती (मत्स्यगंधा) का पैतृक नाम न हन्तव्या स्त्रियश्चेति यद्रवीषि प्लवंगम ॥ सर्वकालं मनुष्येण व्यवसायवता सदा ॥ (म. आ. ५७.५७ ) । यह उपरिचर वसु की कन्या थी, जिस कारण इसे यह पैतृक नाम प्राप्त हुआ। इसकी पीडाकरममित्राणां यत्स्यात्कर्तव्यमेव तत् ॥ माता का नाम अद्रिका था, जो स्वयं एक मत्स्यी थी। (म. द्रो. ११८.४८.९७५--९७६*)। इसका विवाह पराशर ऋषि से हुआ था, जिससे इसे महाभारत में अन्यत्र रामायण को प्राचीनकाल में रचा | व्यास नामक पुत्र उत्पन्न हुआ (वायु. १.४०)। गया काव्य ( पुरागीतः ) कहा गया है (म. व.२७३.६)। वासाश्व-एक मंत्रद्रष्टा ऋषि, जो वैश्य जाति में वाल्मीकि रामायण के संस्करण-- इस ग्रंथ के संप्रति | उत्पन्न हुआ था (मत्स्य. १४५.११६)। चार प्रामाणिक संस्करण उपलब्ध हैं, जिनमें १०-१५ | वासिष्ट-एक पैतृक नाम, जो ऋग्वेद में एवं उत्तरसगी से बढ़ कर अधिक विभिन्नता नही हैं:- कालीन वैदिक संहिताओं में निम्नलिखित आचार्यों के ८३७ Page #860 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वासिष्ठ प्राचीन चरित्रकोश वाहीक लिए प्रयुक्त किया गया है:- इंद्रप्रमति, उपमन्यु, २. एक वास्तुशास्त्रज्ञ, जिसका वास्तुशास्त्रविषयक ग्रन्थ कर्णश्रुत, चित्रमहस् , चैकितानेय, द्युम्नीक, प्रथ, मन्यु, | उपलब्ध है (मत्स्य. २५२.३)। मृळीक, रोहिण, वसुक्र, वृषगण, व्याघ्रपाद, शक्ति, एवं | ३. पुंड देश के वासुदेव नामक राजा का नामान्तर सात्यहव्य (ऋ. ९. ९७; तै. सं. ६.६.२.१; का. सं. | (पौण्ड्रक वासुदेव देखिये )। ३४.१७; तै. आ. १.१२.७)। वास्तु-विश्वामित्र कुलोत्पन्न एक गोत्रकार। २. एक आचार्यसमूह (जै. उ. ब्रा. ३.१५.२)। वास्तुपश्य-एक ब्राह्मण (जै. ब्रा. ३.१२०)। ३. वसिष्ठपुत्र शक्ति का नामान्तर ( शक्ति देखिये)। | पाठभेद-वास्तुपस्य'। वासिष्ठ मित्रय-एक आचार्य, जो व्यास के छः वास्य--एक आचार्य, जो विष्णु के अनुसार व्यास पुराणप्रवक्ता शिष्यों में से एक था (वायु. ६१.५६: की ऋशिष्यपरंपरा में से वेदमित्र नामक आचार्य ब्रह्मांड. २.३५.६५)। का शिष्य था । इसे वत्स, वात्स्य, एवं मत्स्य नामान्तर वासुकि--नागों का एक राजा, जो कश्यप एवं कद्र प्राप्त थ । ट प्राप्त थे (व्यास देखिये)। के पुत्रों में से एक था। इसकी पत्नी का नाम शतशीर्षा वाहन--एक आचार्य, जो वायु के अनुसार व्यास था (म. उ. ११५.४६०*)। जरत्कारु ऋषि की पत्नी की सामशिष्य परंपरा में से हिरण्यनाभ नामक आचार्य जरत्कारु इसकी बहन थी (म. आ. ३५.३८९%)। का शिष्य था । ब्रह्मांड में इसे कृत का शिष्य कहा गया है देवासुरों के समुद्रमंथन के समय, यह मंथनदण्ड की (ब्रह्मांड. २.३५.५१)। रस्सी बन गया था (म. आ. १६-१२)। इसका वाहनप-गौरपराशरकुलोत्पन्न एक गोत्रकार । इसे निवासस्थान 'नागधन्वातीर्थ' में था, जहाँ देवताओं ने 'वाहयौज' नामान्तर भी प्राप्त था। नागराज के पद पर इसका अभिषेक किया था। धृतराष्ट्र | वाहिक--एक वेदवेत्ता ब्राह्मण, जो दुःस्थिति के कारण नामक नाग ने इसे विष्णुपुराण कथन किया था, जो नमक बेच कर अपनी जीविका चलाता था। इसने जीवन भागे चल कर इसने वत्स को कथन किया (विष्णु. ६. में अनेकानेक पापकर्म किये । अंत में यह एक शेर के ८.४६)। द्वारा मारा गया। किंतु इसका मांस गंगा नदी में गिरने के यह शिव का अनन्य भक्त था, एवं शिव के ही शरीर कारण, इसका उद्धार हुआ (स्कन्द. २.४.१-२८)। पर निवास करता था। त्रिपुरदाह के समय, यह शिव वाहिनी--सोमवंशीय कुरु राजा की पत्नी, जिसे के धनुष की प्रत्यंचा, एवं उसके रथ का कबर बन गया। आभष्वत् आदि पांच पुत्र उत्पन्न हुए थे (म. आ. ८९. था (म. द्रो. परि. १.२५.१२; क. २४.२५८%)। सर्पसत्र-जनमेजय के सर्पसत्र में इसके निम्नलिखित वाहिनीपति--अंगिराकुलोत्पन्न एक गोत्रकार । पंद्रह कुल जल कर भस्म हुए:-१. कोटिश; २. मानस; वाहीक-एक लोकसमूह, जो पंजाब प्रदेश में विपाशा ३. पूर्ण; ४. शल; ५. पाल; ६. हलीमक; ७. पिच्छल | नदी के तटपर स्थित था (म. क. ४४.२०-२६; भी. ८. कौणप; ९. चक्र; १०. कालवेगः ११. प्रकालनः १२. | १०.४५)। महाभारत में इन्हे, 'माद्र,' 'जातिक' हिरण्यबाहुः १३. शरण; १४. कक्षक एवं १५. काल- | 'आरट्ट' एवं 'पंचनद' आदि नामान्तर दिये गये हैं। दन्तक (म. आ. ५२.५-६)। वाहीक का शब्दशः अर्थ 'बाहर के' होता है। आस्तीक नामक ऋषि इसका भतिजा था. जिसने इसके | उत्तर पंजाब प्रदेश में हिमालय की तलटही में दरद लोगों बाकी कुलों को संहार से बचा लिया। के नजदीक रहनेवाले 'वाहलिक' लोग, सरस्वती नदी वासुक-एक पैतृक नाम, जो निम्नलिखित आचार्यों | के कारण, मध्यदेश में रहनेवाले आर्य लोगों से अलग के लिए प्रयुक्त किया गया है:-वसुकरण (ऋ. १०.६५); | हो गये । इसी कारण, इन्हें वाहीक नाम प्राप्त हुआ। वसुकृत् (ऋ. १०.२०)। आगे चल कर पंजाब में रहनेवाले कंबोज, यवन, दरद वासुदेव-श्रीविष्णु के श्रीकृष्ण नामक आठवें अव- | आदि सारे लोगों को वाहीक सामूहिक नाम प्राप्त तार का नामान्तर ( कृष्ण देखिये) भगवान् विष्णु के | हुआ। उपासक वासुदेव कृष्ण के रूप में ही प्रायः उसकी | महाभारत में प्राप्त कर्ण-शल्यसंवाद में इन लोगों उपासना करते है (विष्णु देखिये)। | की कर्ण ने कटु आलोचना की है । शल्य स्वयं मद्र एवं प. यह शिव आदि पाँच पुत्र उत्प ८३८ Page #861 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाहीक वाहीक लोगों का राजा था। इन लोगों की उत्पत्ति के बारे में एक कल्पनारम्य एवं व्यंजनायुक्त कथा यहाँ दी गयी है। विपाशा (व्यास) नदी के किनारे 'वही' 'ही' नामक निशाचर पिशाचों का एक जोड़ा रहता था, जिसकी संतान आगे चलकर 'वाहीक' नाम से प्रसिद्ध हुई ( म. क. ३०.४४ ) । बाहुरिसिलोपन एक गोत्रकार वाह्निक-एक राजकुछ, जिसमें तीन राजा समाविष्ठ बिदुर की तरह इसने भी . १९२७२) । विकुंडल - विकंपन रावण के पक्ष का एक राक्षस, जो रामरावण युद्ध में मारा गया ( मा. ९.१०.१८ ) । २. रुद्रगणों में से एक। वाह्यक- वसिष्ठकुलोत्पन्न एक गोत्रकार । -- राजकन्याद्वय, वायका एक एकाइ जो मय के अनुसार संजय राजा की कन्याएँ, एवं यादव राजा सात्वत भजमान की पत्नियों थी। इनके पुत्रों के नाम निमि, कृमिल पण (मास्य ४४.४९-५०)। । बाह्यमयी कुन एक गोत्रकार बायनमृगुकुलोपन एक गोत्रकार पाठभेदमहाभाग । 6 विंश - (सु. दिष्ट. ) एक राजा, जो विष्णु एवं वायु के अनुसार झुप राजा का पुत्र था। इसके पुत्र का नाम कल्याण था ( वायु. ८६.६ ) । प्राचीन चरित्रकोश गया (बा.रा.यु. १२५ ) । ३. रुद्रमणों में से एक। विकर्ण-- धृतराष्ट्र का एक महारथि पुत्र, जो कौरव पक्ष के व्यारह महारथियों में से एक था। द्रौपदी स्वयंवर में यह उपस्थित था । यह बड़ा न्यायी था, एवं द्रौपदी वस्त्रहरण के समय, इस पापकर्म की ओर पृणा प्रकट की थी ( म. स. ६१.१२ - २४ ) । भारतीय युद्ध मैं इसका निम्नलिखित योद्धाओं के साथ युद्ध हुआ था:सुतसोम (म. भी. ४३५६ ); सहदेव (म. मी. ६७. २० ); घटोत्कच (म. भी. ८८.३२ ); नकुल ( म. द्रो. ८२.३० ) । अंत में भीमसेन ने इसका वध किया, जिस । समय, इसके लिए उसने काफी दुःख प्रकट दिया था ( म. द्रो. ११२.३० ) । विकर्तन कोढ़ से पीड़ित एक सूर्यवंशीय राजा, जो साभ्रमती नामक नदी में स्नान करने के कारण मुक्त हुआ । उस स्थान को 'राजखङ्ग' कहते है (पद्म. उ. १३५) । २. (सु. इ. ) इक्ष्वाकु राजा का पुत्र, जिसके पुत्र का नामांतर ( शशाद देखिये ) । नाम विविंश था (म. आ. ४.५ ) । विकचा विक नामक नेत राक्षस की पत्नी, दिसे भूमिराक्षस नामक पुत्र उत्पन्न हुआ (ब्रह्मांड २. ७.२३२ ) । चिकुक्षिश्वाकु राजा के शशाद नामक पुत्र का विकुंज एक लोकसमूह, जो भारतीय युद्ध में कौरवपक्ष में शामिल था (म. भी. ५२.९ ) । विकट - धृतराष्ट्र के सौ पुत्रों में से एक । यह द्रौपदी स्वयंवर में उपस्थित था (म. आ. १७०.२) । भीमसेन को घायल करनेवाले धृतराष्ट्र के चौदह पुत्रों में से यह एक था। अन्त में भीमसेन ने इसका वध किया (न. क्र. ३५.१४) । विकुंजन अथवा विकुंठन (सो. पूरु.) एक राजा, जो सोमवंशीय हस्तिन् राजा का पुत्र था। त्रिगर्तराज की कन्या यशोधरा इसकी माता थी । दशार्ण राजकन्या सुदेवा इसकी पत्नी थी, जिससे इसे अजमीढ़ नामक पुत्र उत्पन्न हुआ था ( म. आ. ९०.३८ ) । विकंठ अथवा वैकुंठश्वत मन्वन्तर का एक देवतासमूह, जिसमें निम्नलिखित चौदह देव शामिल थे:-- २. राणपक्षीय एक राक्षस, जो अंगद के द्वारा मारा अजेय, कृश, गौर, जय, भीम, दम, ध्रुव, नाथ, यश, विद्वस्, वृष, शुचि, भेतृ, एवं दांत (ब्रह्मांड. २.३६.५७) । -- विकुंठा - एक देवी, जो रैवत मन्वन्तर में उत्पन्न ४. एक राक्षस, जिसे गंगाजल पिने के कारण मुक्ति विकुंठ नामक देवताओं की माता मानी जाती है। चाक्षुष मन्वन्तर में उत्पन्न बैकुंड नामक देवतावतार भी इसीका ही पुत्र था ( ब्रह्मांड. ३.४.३१; विष्णु. ३.१.४१ ) । इसके पति का नाम शुभ्र था। ८३९ प्राप्त हुई ( पद्म. उ. २०४ - २०५)। विकटा -- एक राक्षसी, जो अशोकवन में सीता पर पहरा देनेवाली राक्षसियों में से एक थी (वा. रा. मुं. २३.१४ ) | विकुंडल - निषेध नगर का एक पापी पुरुष, जिसे ' विकटानन - - ( सो. कुरु. ) धृतराष्ट्रपुत्र विकट का यमुना नदी में स्नान करने के कारण मुक्ती प्राप्त हुई नामान्तर । (पद्म. स्व. ३० ) । Page #862 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विकुंभ प्राचीन चरित्रकोश विचित्र - विकुंभ-एक दानव, जो कश्यप एवं दनु के पुत्रों में | विगाहन-मुकुटवंश में उत्पन्न एक कुलांगार राजा, से एक था। जिसने अपने दुर्युवहार के कारण अपने जातिबांधवों विकृत-ब्राह्मण का वेश धारण किया हुआ कामदेव, का एवं स्वजनों का नाश किया (म. उ.७२.१६)। जिसने इसी वेश में इक्ष्वाकु राजा के साथ संवाद किया | विग्रह--एक स्कंदपार्षद, जो समुद्र के द्वारा स्कंद था (म. शां. १९३.८३-११६)। | को दिये गये दो पार्षदों में से एक था। दूसरे पार्षद का विकृति--(सो.क्रोष्ट.) एक यादव राजा. जो भागवत, | नाम संग्रह था (म. श. ४४.४६ )। विष्णु एवं वायु के अनुसार जीमूत राजा का पुत्र था। विघन--रावणपक्ष का एक राक्षस (वा. रा.सु. ६)। इसके पुत्र का नाम भीमरथ था । मत्स्य में इसे 'विमल' विघ्न-वध नामक राक्षस का पुत्र (वायु.६९.१३०)। कहा गया है। २. नरमांसभक्षक एक राक्षस, जो कालि एवं अयोमुखी नामक राक्षस का पुत्र था (ब्रह्मांड, ३,५९.१०)। २. रुद्रगणों में से एक। विक्रम-धृतराष्ट्रपुत्र बलवर्धन का नामांतर ।। विघ्नेश--श्रीगणेश नामक देवता का नामांतर । ब्रह्मांड विक्रमशील--एक राजा, जिसकी पत्नी का नाम | .. में इसके इक्कावन नामान्तर दिये गये हैं (ब्रह्मांड. ४. कालिंदी, एवं पुत्र का नाम दुर्गम था (मार्क. ७२)। ४४.६३-६६)। विचकाक्ष-एक राजा, जिसने मांसभक्षण का त्याग विक्रमित्र--शुंगवशीय वज्रमित्र राजा का नामांतर | किया था (म. अनु. १७७.७१)। ... (वायु. ९९.३४१)। विचक्षण ताण्ड्य--एक आचार्य, जो गर्दभीमुख विक्रांत--(सू. दिष्ट.) एक प्रजाहितदक्ष राजा, जो शांडिल्यायन नामक आचार्य का शिष्य था। इसके शिष्य दम राजा का पुत्र था। इसके पुत्र का नाम सुधृति था का नाम शाकदास भाडितायन था (वं. बा. १.)। (बायु. ८६.१३)। विचक्षुष--वसिष्ठकुलोत्पन्न एक गोत्रकार । पाठभेद२. एक प्रजापति, जो वालेय गंधों का जनक माना | 'विवर्धक। | विवधक। जाता है ( वायु. ६५.५३; ६९.१८)। . विचख्नु--एक राजा, जो 'यज्ञकर्म में अहिंसावत विक्षम-कश्यपकुलोत्पन्न गोत्रकार । का पालन करना चहिए' इस तत्व का प्रतिपादक था। विक्षर--एक असुर, जो कश्यप एवं दनायु के चार अपने इस मत के प्रतिपादन के लिए इसने 'विचख्नु पुत्रों में से एक था । इसके अन्य तीन भाइयों के नाम गीता' की रचना की थी, जो भीष्म ने युधिष्ठिर को बल, वीर एवं वृत्र थे (म. आ. ५९.३२)। आगे चल निवेदित की थी। पाठभेद- 'विचख्यु' (म. शां. कर, यही पृथ्वी पर वसमित्र राजा के रूप में अवतीर्ण २५७.१)। विचारिन् काबन्धि--एक आचार्य, जो मांधातृ हुआ (म. आ. ६१.३९)। राजा के यज्ञ में उपस्थित था ( गो. ब्रा. १.२.९; १८)। विक्षोभण--एक दानव, जो कश्यप एवं दनु के पुत्रों कबन्ध का वंशज होने से इसे 'काबन्धि' पैतृक नाम में से एक था। प्राप्त हुआ होगा। विखनस--एक कृष्णयजुर्वेदी आचार्य, जिसका निर्देश विचारु-कृष्ण एवं रुक्मिणी के पुत्रों में से एक 'वैखानसधर्मप्रश्न' नामक ग्रंथ में एक पूर्वाचार्य के | (भा. १०.६१.९)। नाते किया गया है (वै. ध. २.५.९, ३.१५.१४)। विचित्र--रोच्य मनु के पुत्रों में से एक (वायु, वसिष्ठधर्मसूत्र में भी इसके सूत्र का निर्देश प्राप्त है| १००.१०८)। (व.ध. ९.१०), जहाँ इसने वानप्रस्थाश्रम लेने के २. देवसावर्णि मनु के पुत्रों में से एक (भा. ८. अनेकानेक विधि बताये हैं। अनुलोम एवं प्रतिलोम | १३.३०)। विवाह की संतति के लिए कौनसे व्यवसाय सुयोग्य है, ३. एक राजा, जो क्रोधवश नामक दैत्य के अंश से इस संबंध में भी इसके उद्धरण प्राप्त हैं। उत्पन्न हुआ था (म. आ. ५१.५६)। भारतीय युद्ध में विख्यात–एक राक्षस, जो तेरह सैहिकेयों में से यह कौरवों के पक्ष में शामिल था। पाठभेद-'विचित्य' । एक माना जाता है। । ४. यम का एक लेखक (स्कंद. ७.१.१४३)। Page #863 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विचित्रवीर्य प्राचीन चरित्रकोश विजय विचित्रवीर्य-(सो. पूरु.) एक राजा, जो शंतनु ७. (सू. इ.) एक क्षत्रिय विजेता सम्राट् , जो भागवत एवं सत्यवती से उत्पन्न दो पुत्रों में कनिष्ठ पुत्र था। इसके के अनुसार चंप राजा का, एवं वायु, विष्णु एवं भविष्य ज्येष्ठ भाई का नाम चित्रांगद था। के अनुसार चचु राजा का पुत्र था। इसके पुत्र का नाम गंधर्व युद्ध में इसके ज्येष्ठ बन्धु चित्रांगद की मृत्यु हो | रुरुक था। गयी, जिस कारण कनिष्ठ होते हुए भी भीष्म ने इसे । ८. विष्ण के जय-विजय नामक दो द्वारपालों में से राजगद्दी पर बैठाया (म. आ. ९५.१३)। यह भीष्म | एक (जय-विजय देखिये)। की आज्ञा से ही राज्यशासन करता था। ९. कृष्ण एवं जांबवती के पुत्रों में से एक । विवाह एवं मृत्यु- भीष्म ने काशिराज की कन्याएँ १०. विष्णु का एक पार्षद (भा. ८.२१.१६ )। अंबा, अंबिका एवं अंबालिका को स्वयंवर में जीत लिया, ११. (आंध्र. भविष्य.) एक आंध्रवंशीय राजा, जो एवं उनका विवाह इससे करना चाहा । किन्तु उनमें से | यज्ञश्री ( यज्ञ) राजा का पुत्र था । इसके पुत्र का नाम अंबा ने इससे विवाह करने से इन्कार कर दिया। इसी चंद्रविज्ञ था। इसने छः वर्षों तक राज्य किया था (भा. कारण, भीष्म ने बिका एवं अंबालिका से इसका विवाह करा १२.१.२७)। दिया । असंयमपूर्ण जीवन के कारण, यह राजयक्ष्मा का १२. राम दाशरथि राजा के अष्टप्रधानों में से एक। शिकार बन गया, एवं अल्पवय में ही अनपत्य अवस्था में १३. राम दाशरथि राजा की सभा का एक विदूषक । इसकी मृत्यु हुई (म. आ. ९६.५७-५८)। १४. भव्य देवों में से एक। इसकी मृत्यु के पश्चात् , भीष्म ने इसकी पत्नियाँ अंबिका एवं अंबालिका को नियोग-पद्धति से संतति १५. पृथुक देवों में से एक। उत्पन्न करने की आज्ञा दी। तदनुसार, कृष्णद्वैपायन व्यास १६. एक यक्ष, जो मणिवर एवं देवजनी के पुत्रों में से अंबिका एवं अंबालिका को क्रमशः धृतराष्ट्र एवं पाण्डु से एक था (ब्रह्मांड, ३.७.१३०)। नामक पुत्र उत्पन्न हुए। अंत्रिका की दासी से विदुर उत्पन्न १७. अज्ञातवास के समय अर्जुन के द्वारा धारण — हुआ (म. आ. ९०.६०)। किया गया एक गुप्त सांकेतिक नाम (म. वि. ५.३०)। .. २. एक शिवभक्त, जो शिव की उपासना के कारण अर्जन के सविख्यात नामांतरों में से 'विजय' एक था. ' जीवन्मुक्त हुआ था (स्कंद. १.३३)। | एवं इसी नाम से उसने कालकेयों को परास्त किया था . विचेतस्-भव्य देवों में से एक । | (भा. १.९.३३)। विजय-(सो. अनु.) एक राजा, जो बृहन्मनस् १८. धृतराष्ट्र के शतपुत्रों में से एक । भारतीय युद्ध - राजा का पुत्र था। इसकी माता का नाम सत्या था। | में, इसने जय एवं दुर्जय नामक अपने भाइयों को साथ ले . २. (सू. निमि.) एक राजा, जो भागवत, विष्णु एवं | कर, नील, काश्य एवं जयत्सेन राजाओं से युद्ध किया था वायु के अनुसार जय राजा का पुत्र था। इसके पुत्र का ।। | (म. द्रो. २४.४३ )। इसने सात्यकि एवं अर्जुन से भी नाम ऋा (ऋतु) था (भा. ०.१३.२५)। | युद्ध किया था (म. द्रो. ९२.८)। ३. (सो. क्षत्र.) एक राजा, जो भागवत एवं विष्णु १९. (सू. इ.) एक राजा, जो सुदेव राजा का पुत्र, के अनुसार संजय राजा का पुत्र था । वायु में इसे संजय एवं भरुक राजा का पिता था (भा. ९.८.१)। राजा का पौत्र, एवं जय राजा का पुत्र कहा गया है। २०. मगधदेश का एक ब्राह्मण, जिसने घटोत्कचपुत्र ४. (सो. पुरूरवस् .) एक राजा, जो भागवत के बर्बरिक को देवी की कृपा प्राप्त कराने में सहाय्यता दी थी अनुसार पुरूरवस् एवं उर्वशी का पुत्र था। इसके पुत्र (कंद. १.२.६०-६६)। का नाम भीम था (भा. ९.१५.१-३)। अन्यत्र इसे २१. लोकाक्षि नामक शिवावतार का एक शिष्य । 'अमावसु' कहा गया है। ५. (सो. वसु.) एक यादव राजा, जो वसुदेव एवं २२. भैरववंश में उत्पन्न वाराणसी नगरी का एक राजा, उपदेवी का पुत्र था (मत्स्य. ४६.१७)। जिसने खाण्डवी नगरी नष्ट कर, वहाँ खाण्डववन का निर्माण ६. (सो. अनु.) एक राजा, जो भागवत, विष्णु, वायु किया था। पश्चात् वह वन इसने इंद्र को क्रीडा करने के एवं मत्स्य के अनुसार जयद्रथ राजा का पुत्र था। इसके लिए दिया । इसके कुल तेरह पुत्र थे, जिनमें उपरिचर का नाम धृति था। सर्वाधिक बलवान् एवं धार्मिक था (कालि. ९२)। प्रा. च. १०६] Page #864 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजया प्राचीन चरित्रकोश विति मा विजया-शल्य राजा की कन्या, जो सहदेव पाण्डव में, वै. गोपाल अण्णा क-हाडकर कृत 'विठ्ठलभूषण' ग्रंथ की पत्नी थी। इसके पुत्र का नाम सुहोत्र था (म. आ. सुविख्यात है (विष्णु देखिये)। ९०.८७)। महाभारत के कई संस्कारणों में इसे मद्र देश विडरथ--(सो. पुरु.) एक पुरुवंशीय सम्राट । के द्युतिमत् राजा की कन्या कहा गया है। भागवत में परशुराम जब पृथ्वी निःक्षत्रिय कर रहा था, तब इसकी इसे पर्वत राजा की कन्या कहा गया है (भा. ९.२२. माता ने इसे ऋष्यवत् पर्वत पर एक ऋषि के आश्रम में ३१)। छिपा कर रखा था। वहाँ एक रीछ ने इसकी रक्षा की। २. श्रीकृष्ण की पत्नियों में से एक (मत्स्य. ४७.१४)। अपना क्षत्रियसंहार समाप्त कर परशुराम जब शूपरिक ३.एक योगमाया, जो पार्वती की सखी थी (भा.१०. क्षेत्र में चला गया. तब यह ऋष्यवत् पर्वत से नीच २.११)। पार्वती का मानसपुत्र वीरक को लाने के लिए उतरा, एवं पुनः राज्य करने लगा (म. शां. ४९.६७)। इसे भेजा गया था (मत्त्य. १५४.५४९)। इसने पार्वती पाटभेद-'विदूरथ'। के साथ तप किया था। २. (सो. कुरु.) एक राजा, जो कुरु राजा एवं दाशाही ४. दशाह राजा की कन्या, जो सम्राट् भुमन्यु की पत्नी शुभांगी का पुत्र था । मधुकुल में उत्पन्न संप्रिया इसकी थी। इसके पुत्र का नाम सुहोत्र था (म. आ. ९०.३५)। पत्नी थी, जिससे इसे अनश्वन् नामक पुत्र उत्पन्न पाठभेद-'जया'। हुआ था (म. आ. ९०.४१-४२) पाठभेद-'विदूर। विजर अथवा विज्वर-एक राक्षस, जो अनायुषा वितत्य--एक ऋषि, जो गृत्समदवंशीय विहव्य ऋषि नामक राक्षसी का पुत्र था । इसे खर एवं कालक नामक दो का पुत्र था । इसके पुत्र का नाम सत्य था (म. अनु. पुत्र उत्पन्न हुए थे। ३०.६२)। विजिताश्च 'अंतर्धान '--एक राजा, जो पृथु वैन्य वितथ--(सो. पूरु.) एक राजा, जो दुष्यन्तपुत्रं राजा के पाँच पत्रों में से एक था। इसकी माता का नाम भरत राजा का पुत्र था। भरत राजा ने भरद्वाज ऋषि को अर्चि था। गोद में लिया, एवं उसका नाम 'वितथ' रखा गया । इसी सौ अश्वमेध का निश्चय कर, इसने निन्यानवें अश्वमेध | कारण, इसे 'वितथ भरद्वाज' भी कहते थे। यज्ञ पूर्ण किये । इस पर इंद्र को डर उत्पन्न हुआ कि, यह ट को डा उत्पन्न दृआ कि.यह यह बृहस्पति के वीर्य -से. उत्पन्न हुआ था। इस शायद इंद्रपद ले लेगा। अतएव उसने इसका अश्वमेधीय कारण यह जन्म से ब्राह्मण था, किन्तु आगे चल कर अश्व चुरा लिया। | क्षत्रिय बन गया। इसी लिये इसे 'ब्रह्मक्षत्रिय' भी कहते थे। उस समय इंद्र से किये युद्ध में इसने काफ़ी | पराक्रम दर्शा कर, अपना अश्व पुनः प्राप्त किया, जिस कई पुराणों के अनुसार, भरत राजा ने भरद्वाज ऋषि कारण इसे 'विजिताश्व' नाम प्राप्त हुआ। इसी को नहीं, बल्कि उसके पुत्र को गोद में लिया था, जिसका समय इंद्र ने प्रसन्न हो कर इसे अंतर्धान होने की विद्या नाम वितथ था । इसे भरत राजा के गोद में देका सिखायी, इस लिये इसे 'अंतर्धान' नाम प्राप्त हुआ। भरद्वाज स्वयं वन में चला गया (ब्रह्म. १३.५९-६१: यज्ञकर्म में किये जानेवाले पशुहवन का यह पुरस्कर्ता वाले पशहवन का यह परस्कर्ता | ह. वं. १.३२.१६-१८)। था, जिस कारण इसने अपने आयुष्य में अनेकानेक यज्ञ वितद्रु--एक यादव, जिसकी गणना यादवों के सात किये। प्रधान मंत्रियों में की जाती थी (म. स. १३. १५९* )। परिवार-इसे शिखण्डिनी एवं नभस्वती नामक दो | वितर्क--एक राजा, जो कुरु राजा के वंशज धृतराष्ट्र पत्नियाँ थी। उनमें से शिखण्डिनी से इसे पावक, पवमान | का पुत्र था (म. आ. ८९.५१७)। एवं शुचि नामक तीन पुत्र उत्पन्न हुए । नभस्वती से इसे | वितर्दन--रावणपक्षीय एक राक्षस ( वा. रा. यु. हविर्धान नामक पुत्र उत्पन्न हुआ (भा. ४.१८-१९)।। ६४.२२)। विठ्ठल--विष्णु की एक. सुविख्यात प्रतिकृति, जिसकी | विताना--भौत्य मन्वन्तर के बृहद्भानु नामक अवतार उपासना मुख्यतः आंध्र कर्नाटक एवं महाराष्ट्र में की जाती | की माता (भा. ८.१३.३५ )। है ( पद्म. उ. १७६.५७ )। विठ्ठल की उपासना के संबंध । विति--तुषित अथवा साध्य देवों में से एक । ८४२ Page #865 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वित्त प्राचीन चरित्रकोश बिदुर वित्त - एक आचार्य, जो कुशुभि नामक आचार्य का गयी थी ( ज्यामत्र देखिये ) । उससे इसे रोमपाद शिष्य था (ब्रह्मांड. २.३५.४३ ) । २. प्रतर्दन देवों में से एक ( लोमपाद ), क्रथ एवं कौशिक नामक तीन पुत्र उत्पन्न हुए, जिनमें से रोमपाद अत्यंत सुविख्यात था (ह. वं. १.२६.१८-२० ) । इसके केशिनी एवं सुमति नामक दो कन्याओं का निर्देश भी प्राप्त है, जो सगर राजा को दी गयी थीं। ३. मुख देवों में से एक। वित्तदा - स्कंद की अनुचरी एक मातृका ( म. श. ४५.२७) । - विदग्ध शाकल्य - एक आचार्य, जिसने विदेह जनक के राजसभा में यादस्य के साथ वाद-विवाद किया था । वाद-विवाद में पराजित होने के कारण, इसे पूर्व नियोजित शर्त के अनुसार, मृत्यु की स्वीकार करनी पड़ी (बृ. उ. २.९.१४.१.७ माध्यः जे उ. प्र. २.७६ श. बा. ११.६.२.२ ) । पौराणिक साहित्य में इसका निर्देश 'देवमित्र शाकल्य' नाम से किया गया है ( देवमित्र शाकल्य देखिये) । ३. एक क्षत्रिय राजा, जो कार्तवीर्य था। परशुराम ने इसका वध किया ३९.२ ) । ४. एक लोकसमूह, जिसे सहदेव ने अपने दक्षिणदिग्विजय के समय जीता था ( म. स. २८.४१ ) | इस लोकसमूह में उत्पन्न निम्नलिखित व्यक्तियों का निर्देश महाभारत में प्राप्त है:- भीष्मक, दमयंती ( म.व. ५० - २१ ); भीम, जो दमयन्ती का पिता था; रुक्मिणी, जो भीष्मक राजा की कन्या थी रुक्मिन् जो भीष्मक राजा का पुत्र था । ." २. एक आचार्य, जो वायु के अनुसार, व्यास की यजुः शिष्यपरंपरा में से याज्ञवल्क्य का वाजसनेय शिष्य या (व्यास देखिये) । विदर्भन कौडिन्य- एक आचार्य, जो परसनपात् बाभ्रव्य का शिष्य था । इसके शिष्य का नाम गालव था ( बृ. उ. २.५.२२ ४.५.२८ माध्यं . ) । चिदण्ड- एक राजा, जो अपने पुत्र दण्ड के साथ द्रौपदीस्वयंवर में उपस्थित था ( म. आ. १७७.१ ) | पाठभेद (भांडारकर संहिता) - ' सुदण्ड ' । विदल-- एक राक्षस, जो. पार्वती के द्वारा अपने साथी विदथिन बार्हस्पत्य-- भरद्वाज ऋषि के पुत्र वितथ उत्पल के साथ काशी नगर में गंद के प्रहार से मारा का नामान्तर । गया। इसी कारण, काशी में स्थित शिवलिंग को 'कंदुकेश्वर' कहते हैं ( शिव. रुद्र. यु. ६९ ) । विदन्यत् भार्गव एक सामद्रष्टा आचार्य पं. हा. - १३.११.१० . उ. बा. २.१ ) । भृगु का वंशज होने से इसे 'भार्गव' पैतृक नाम प्राप्त हुआ होगा । विश्व एक राजा, तो तरंत एवं पुरंमीद नामक राजाओं का पिता था (बृहद्दे. ५.५०.८१; ऋ. ५.६१ ) । विदर्भ -- ( स्वा. प्रिय. ) एक राजा, जो ऋषभ देव राजा के नवखंडाधिपति नौ पुत्रों में से एक था। देव के नौ खंडों में से एक खंड का राज्य इसे प्राप्त हुआ, जो आगे चल कर ' विदर्भखंड' नाम से सुविख्यात हुआ । अगस्त्यपत्नी लोपामुद्रा संभवतः इसीकी ही कन्या होगी ( भा. ५.४.१० ) । २. (सो. क्रोष्टु. ) एक राजा, जो ज्यामघ राजा का पुत्र था। -- अर्जुन का मित्र (ब्रह्मांड ३. २. सूर्यवंशीय ध्रुवसंधि राजा का प्रधान । विदारण- सिंधुनरेश जयद्रथ राजा के भाइयों में से एक (म. व. २५०.१२ ) । विदारुण चंपकनगरी का एक दुष्ट राजा । ब्राह्मणों एवं वेदों की निंदा करने के कारण इसके शरीर में कोढ़ उत्पन्न हुआ, जो वेत्रवती नदी में स्नान करने के कारण नष्ट हुआ (पच उ. १२५ ) । विदुर एक नीतिवेत्ता धर्म पुरुष, जो व्यास ऋषि का दासीपुत्र एवं कौरवों का मुख्यमंत्री था (म. स. ५१.२० ) । व्यास ऋषि के द्वारा विचित्रवीर्य राजा की पत्नी अंबिका की दासी के गर्भ से यह उत्पन्न हुआ था ( ब्रह्म. १५४; भा. ९.२२ ) । अथवा नारदपुराण में इसका पैतृक नाम 'कायर' बताया गया है ( नारद. १.८.६३ ) । इसकी माता का नाम 'शैब्या' ' चैत्रा ' औशिनरी था । इसका विवाह भोज राजकन्या उपदानवी से हुआ था, जो इसके जन्म के पूर्व ही, इसके पिता ज्यामघ के द्वारा युद्ध में जीत कर लायी महाभारत में वर्णित जीवन चरित्रों में से विदुर एवं कर्ण ये दोनों शापित प्रतीत होते है, जिनका सारा पराक्रम एवं बुद्धिमत्ता केवल हीन जन्म के दाग़ के कारण चूर मूर हो गया। इसी दाग़ के कारण, इन्हें सारा जीवन अवमानित अवस्था में जीना पड़ा, एवं अनेकानेक प्रकार के कष्ट उठाने ८४३ Page #866 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विदुर पड़े। इसी 'देवाय' शाप की कृष्णछाया वर्ग के समान विदुर के ही सारे जीवन को ग्रस्त करती हुई प्रतीत होती प्राचीन चरित्रकोश महाभारत में वर्णित व्यक्तियों में से कृष्ण, युधिष्ठिर, भीष्म एवं विदुर चार ही व्यक्ति, सत्य के मार्ग से चल कर अपने अपने पद्धति से जीवन का सही अर्थ खोजने का प्रयत्न करते हैं। इनमें से अध्यात्म का एक ब्रह्मज्ञान का अधिक बडिवार न करते हुए भी, सदाचरण, नीति एवं मानवता के परंपरागत पद्धति से, सत्य की खोज करने वाना विदुर सचमुच ही एक धर्मात्मा प्रतीत होता है। विदुर केवल तत्त्वज्ञ ही नहीं, बल्कि श्रेष्ठ राजनीतिज्ञ राजपुरुष भी था । धृतराष्ट्र, दुर्योधन, युधिष्ठिर आदि भिन्न भिन्न लोगों को सलाह देने का कार्य इसने आजन्म किया, परन्तु कभी भी अपने श्रेष्ठ तत्त्वों से एवं सत्यमार्ग से यह युत नही हुआ। धृतराष्ट्र के प्रमुख सलाहगार के नाते, यह उसे सत्य एवं शांति का मार्ग दिखाता रहा, परन्तु यह कार्य इसने इतनी सौम्यता से किया कि, इसके द्वारा कहे गये अप्रिय भाषण सुन कर भी धृतराष्ट्र आजन्म इसका मित्र ही रहा । विदुर का हीनकुडीन एक समस्या - महाभारत में समस्त पात्रों में से केवल विदुर एवं कर्ण ही हीनयोनि के क्यों माने जाते है, यह एक अनाकलनीय समस्या है विदुर के पाण्डु एवं धृतराष्ट्र ये दोनों भाई 'नियोगज ' संतान थे, एवं अपने पिता विचित्रवीर्य की मृत्यु के पश्चात्, अंबालिका एवं अंधिका को व्यास के द्वारा उत्पन्न हुए थे। पांडवों का जन्म भी अपने पिता पांडु के द्वारा नहीं, बल्कि विभिन्न देवताओं के द्वारा हुआ था। ऐसी स्थिति में इन सारे लोगों को हीनं जन्म का दोष न लगा कर, केवल विदुर एवं कर्ण ही इस दोष के शिकार क्यों बने है, यह निश्चित रूप से कहना मुष्किल है। विदुर जन्म - कुरु राजा विचित्रवीर्य की निःसंतान अवस्था में मृत्यु होने के पश्चात्, उसकी माता सत्यवती ने अपनी स्नुषा अंबिका को व्यास से पुत्रप्राप्ति कराने की आज्ञा दी। अंबिका को व्यास से धृतराष्ट्र नामक अंधा पुत्र उत्पन्न हुआ। अतएव सत्यवती ने अंबिका को पुनः एक बार व्यास के पास जाने के लिए कहा । किन्तु उस समय अंबिका ने स्वयं न जा कर, अपनी दासी को व्यास के पास भेज दिया । तदुपरान्त उस दासी को व्यास से एक तेजस्वी एवं बुद्धिमान् पुत्र उत्पन्न हुआ, जिसका नाम विदुर रखा गया (म. आ. १००.२६ - २७ ) । दासी से उत्पन्न होने के कारण, इसे ' क्षत्ता' भी कहते थे । शुद्रा के गर्भ से ब्राह्मण के द्वारा उत्पन्न होने के कारण, इसको राज्य की प्राप्ति न हुई थी । | इस विरोधाभास के केवल दो ही कारण प्रतीत होते है । एक तो क्षत्रिय स्त्रियों के द्वारा की गयी नियोग की विवाहबाह्य संतति महाभारत काल में धर्म्य मानी जाती थी, एवं दूसरा यह कि, व्यक्ति का कुल उसके पिता के कुल से नहीं, बल्कि माता के कुल से मूल्यांकित किया जाता था। संभवतः इसी मातृप्रधान समाजव्यवस्था के कारण, अंबिका, अंचालिका एवं कुंती आदि के पुत्र उच्चकुलीन क्षत्रिय राजपुत्र कहलाये, एवं विदुर एवं कर्ण जैसे दासीपुत्र एवं सूतपुत्र हीनकुलीन माने गये । 3: पूर्वजन्म- महाभारत में इसके पूर्वजन्म की कथा प्राप्त है। एक बार अणिमांडव्य ऋषि का यमधने से शगड़ा हुआ, जिसमे उसने यमधर्म को शूद्रयोनि में जन्म लेने का शाप दिया। उसी शाप के कारण, यमधर्म ने विदुर के रूप में जन्म लिया था (म. आ. १०१. २५-२७; माण्डव्य देखिये ) । पाण्डवों की सहाय्यता विदुर की प्रवृत्ति या से ही धर्म तथा सत्य की ओर थी। भीष्म ने पूरा एवं पाण्डु के साथ इसका भी पालन-पोषण किया था। इसका पाण्डवों पर असीम स्नेह था, तथा यह उन्हें प्राणों से भी अधिक मानता था। इसने समय समय पर पाण्डवों का साथ दिया, उन्हें सांत्वना दी, तथा मृत्यु से बचाया । भीमसेन जब नागलोग में चला गया था, तब इसने कुंती का धीर बधाया था । दुर्योधन के द्वारा पाण्डवों को लाक्षागृह में जलवा देने की योजना इसी के ही कारण असफल हुई। इसने कौरवों के षड़यंत्र से बचने के लिए, सांकेतिक भाषा में युधिष्ठिर को सारे वस्तुस्थिति का ज्ञान कराया । लाक्षागृह में सुरंग बनाने के लिए इसने खनक नामक अपने दूत को पाण्डवों के पास भेजा था। लाक्षागृह से मुक्तता होने के पश्चात्, एक माँझी की सहाय्यता से इसने उन्हें गंगा नदी के पार पहुचाने के लिए सहाय्यता की थी। लाक्षागृहदाह की वार्ता सुन कर दुःखित हुए भीष्म को, वस्तुस्थिति का ज्ञान इसने ही कराया था (म. आ. १३५१३७ ) । धृतराष्ट्र का सलाहगार वह अत्यंत निःसह राजनीतिशास्त्रश था, जिस कारण अंबे धृतराष्ट्र राजा ने ८४४ - Page #867 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विदुर इसे अपना मुख्य मंत्री नियुक्त किया था, एवं यद्यपि यह उससे उम्र में छोटा था, फिर भी वह इसीके ही सलाह से राज्य का कारोबार चलाता था। प्राचीन चरित्रकोश विदुर ́ विधि एक तरह की तपस्या ही मानी जा सकती है, यह ' विदुर नीति' का प्रमुख सूत्रवाक्य है। अपना यह तत्त्वज्ञानविदुर के द्वारा अनेकानेक नीतितत्त्व एवं सुभाषितों की सहायता से कथन किया गया है। जिस प्रकार उपनिषदों के बहुसंख्य विचार श्रीकृष्ण ने भगवङ्गीता में अंतर्भूत किये है, उसी प्रकार तत्कालीन राजनीतिशास्त्रों के । द्यूत - बहुत सारे विचार विदुर के द्वारा विदुर नीति में प्रधित किये हैं। इन विचारों के कारण, महाभारत भारतीययुद्ध का इतिहास कथन करनेवाला एक सामान्य, इतिहास ग्रंथ न हो कर राजनीतिशास्त्र का एक श्रेष्ठ ग्रंथ बन गया है। 6 , । विदुर के द्वारा किये गये इस उपदेश से धृतराष्ट्र अत्यधिक संतुष्ट हुआ किन्तु दुर्योधन के संबंध में अपनी असहाय्यता प्रकट करते हुए उसने कहा, 'तुम्हारे द्वारा कथन की गयी नीति मुझे योग्य प्रतीत होती है। फिर भी दुर्योधन के सामने इन सारे उच्च तत्वों को मैं भूल बैठता हूँ' । दुर्योधन एवं शकुनि के द्वारा दूतक्रीडा का षड्यंत्र क्य रचाया गया, तब इसने संभाव्य दुष्परिणामों की चेतावनी धृतराष्ट्र को दी थी इसने क्रीडा का तीव्र विरोध किया था, तथा जुएँ के अवसर पर दुर्योधन की कटु आलोचना की थी । भवन जिस समय दुर्योधन ने द्रौपदी को पकड़ कर समा मन में लाने का आदेश दिया, उस समय इसने पुनः एक बार दुर्योधन को चेतावनी दी। सभागृह में द्रौपदी ने भीम से अपनी रक्षा करने के लिए कई ताविक प्रश्न पूछे, तब इसने प्राद-सुधन्वन् के आख्यान का स्मरण भीष्म को दे कर, द्रौपदी के प्रश्नों का विचारपूर्वक प्रया देने के लिए उससे प्रार्थना की थी ( म. स. ५२-८० ) ! किन्तु इसके सारे प्रयत्न दुर्योधन की जिद्द एवं धृतराष्ट्र की दुर्बलता के कारण सदैव असफल ही रहे। कलह •पाण्डवों के वनवाससमाप्ति के पश्चात् इसने उनका राज्य वापस देने के लिए धृतराष्ट्र को काफी उपदेश दिया। इस समय इसने अतीय राज्यतृष्णा एवं फौटुंबिक । मह के कारण, राजकुल विनाश की गर्ता में किस तरह जाते हैं, इसका भी विदारक चित्र धृतराष्ट्र को कथन क्रिया था। श्रीकृष्णदौत्य के समय, श्रीकृष्ण को धोखे से कैद कर लेने की योजना दुर्योधन आदि ने बनायी। उस समय भी इसने उसे चेतावनी दी थी, इस प्रकार का . दुःसाहस तुमको मिटा देगा ( म.उ. ९० ) । 6 , विदुरनीति -- कृष्णदौत्य के पूर्वरात्रि में, आनेवाले युद्ध की आशंका से धृतराष्ट्र अत्यधिक व्याकुल हुआ, एवं उसने सारी रात विदुर के साथ सलाह लेने में व्यतीत की । उस समय बिदुर से धृतराष्ट्र के द्वारा दिया गया उपदेश महाभारत के 'प्रजागर पर्व में प्राप्त है, जो 'विदुर नीति' नाम से सुविख्यात है | विदुर नीति का प्रमुख उद्देश्य, संभ्रमित हुए धृतराष्ट्र को सुयोग्य मार्ग दिखलाना है, जो श्रीकृष्ण के द्वारा अर्जुन को कथन किये गये भगवद्गीता से साम्य रखता है । किन्तु जहाँ भगवद्गीता का सारा उद्देश्य अर्जुन को युद्धप्रवण करना है, वहाँ ' विदुरनीति' में सार्वकालिन शांतिमय जीवन का एवं युद्धविरोध का उपदेश किया गया है। अपने द्वारा की गयी गलतियों के परिणाम मनुष्य ने भुगतना चाहिये, एवं इस प्रकार किया गया पश्चात्ताप तत्पश्चात् मनःशान्ती के लिए कुछ धर्मोपदेश प्रदान करने की प्रार्थना धृतराष्ट्र ने विदुर से की। इस पर विदुर ने कहा, 'मैं शूद्र हूँ, इसी कारण तुम्हे धर्मविषयक उपदेश प्रदान करना मेरे लिए अयोग्य है। तत्पश्चात् विदुर के कहने पर धृतराष्ट्र ने सनत्सुजात से अध्यात्मविद्याविषयक उपदेश सुना (म. उ. ३३४१ सनत्सुजात देखिये) । ; विदुर जीर्थयात्रा इस प्रकार भारतीय युद्ध रोकने में असफलता प्राप्त होने के कारण, यह अत्यधिक उद्विग्न हुआ, एवं युद्ध में भाग न ले कर तीर्थयात्रा के लिए चला गया । विदुर के द्वारा किये गये इस तीर्थ यात्रा का निर्देश केवल भागवत में ही प्राप्त है। - - भारतीय युद्ध के समाप्ति की वार्ता इसे प्रभास क्षेत्र में ज्ञात हुयी। वहीं से यमुना नदी के तट पर जाते ही, इसे उद्भव से श्रीकृष्ण के महानिर्वाण की वार्ता विदित हुई । मृत्यु के पूर्व श्रीकृष्ण ने कवन की 'उद्धव गीता' इसने गंगाद्वार में मैत्रेय से पुनः सुन ली। यह मैत्रेय - विदुः संवाद तत्त्वज्ञान की दृष्टि से अत्यंत महत्त्वपूर्ण माना जाता है, जिसमें देवहूति कपिलसंवाद, मनुवंशवर्णन, दक्षयज्ञ, ध्रुवकथा, पृथुकथा, पुरंजनकथा आदि विषय शामिल हैं ( भा. ३-४ ) । - - युधिष्ठिर के राज्यकाल में- हस्तिनापुर के राजगद्दी पर बैठने के उपरांत, युधिष्ठिर ने अपने मंत्रिमंडल की रचना की, जिस समय राज्यव्यवस्था की मंत्रणा एवं निर्णय के मंत्री नाते विदुर की नियुक्ति की गयी थी । युधिष्ठिर के ८४५ Page #868 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विदुर प्राचीन चरित्रकोश विदुर मंत्रिमंडल के अन्य मंत्री निम्न प्रकार थे:-भीम-युवराज युधिष्ठिर इसके आगे खड़े होने पर, यह उसकी ओर एकसंजय-अर्थमंत्री; नकुल-सैन्यमंत्री; अर्जुन-परचक्रनिवा-टक देखने लगा, एवं उसकी दृष्टि में अपनी दृष्टि डाल कर रण मंत्री (म. शां. ४१.८-१४)। एकाग्र हो गया। अपने प्राणों को उसके प्राणों में, तथा युधिष्ठिर के अश्वमेध यज्ञ के लिए धनप्राप्ति के हेतु | अपनी इंद्रियों को उसकी इंद्रियों में स्थापित कर, यह अर्जुनादि पाण्डव हिमालय में धन लाने गये थे। वे उसके भीतर समा गया। इस प्रकार योगबल का आश्रय हस्तिनापुर के समीप आने पर, विदुर ने पुष्पमाला, चित्र- लेकर यह युधिष्ठिर के शरीर में विलीन हो गया (म. आश्र. विचित्र पताका, ध्वज आदि से हस्तिनापुर सुशोभित | ३३.२५)। किया, एवं देवमंदिरों में विविध प्रकारों से पूजा करने की पक्ष के अनुसार, माण्डव्य ऋषि के द्वारा दिये गये आज्ञा दी (म. आश्व. ६९)। धृतराष्ट्र एवं गांधारी से शाप की अवधि समाप्त होते ही, यह साभ्रमती एवं मिलने के पश्चात, पाण्डव विदुर से मिलने आये थे (म. धर्ममती नदियों के संगम पर गया । वहाँ स्नान करते ही आश्व. ७०.७)। शूद्रयोनि से मुक्ति पा कर, यह स्वर्गलोक चला गया अंतिम समय--विदुर के कहने पर धृतराष्ट्र भागीरथी (पन. उ. १४१)। भागवत के अनुसार, इसने प्रभासके पावन तट पर तरत्या करने लगा। इस प्रकार जिस नीति क्षेत्र में देहत्याग किया था (भा. १.१५.४९)। एवं मनःशान्ति का उपदेश इसने धृतराष्ट्र को आजन्म किया, अन्त्यसंस्कार--मृत्यु की पश्चात् विदुर का शरीर वह उसे प्राप्त हुई । अपने जीवित की यह सफल फलश्रुति वृक्ष के सहारे खड़ा था। आँखे अब भी उसी तरह देख कर विदुर को अत्यधिक समाधान हुआ, एवं वल्कल | | निनिमिष थी, किन्तु अब वे चेतनारहित बन गयी थी। परिधान कर यह शतयूपाश्रम एवं व्यासाश्रम में आ कर, | यधिष्ठिर ने विदुर के शरीर का दाहसंस्कार करने का । धृतराष्ट्र एवं गांधारी की सेवा करने लगा। विचार किया, किन्तु उसी समय आकाशवाणी हुयी :--- लालोपरान्त मन वश में कर के इसने घोर तपस्या ज्ञानदग्वस्य देहस्य पुनदोहो न विद्यते।' करना प्रारंभ किया (म. आश्र. २५)। विदुर के . (म. आश्र. ३५.३७*)। यकायक अंतर्धान होने के कारण, युधिष्ठिर अयधिक व्याकुल हुआ। उसने धृतराष्ट्र से विदुर का पता पूछते (ज्ञान से दग्ध हुए शरीर को अंतिम दाहकर्म की हुए कहा, 'मेरे गुरु, माता, पिता, पालक एवं सखा सभी! जरूरी नही होती है)। एक विदुर ही है । उसे मैं मिलना चाहता हूँ। ____ इससे प्रतीत होता है कि, महाभारतकाल में संन्या इस पर धृतराष्ट्र ने अरण्य में घोर तपस्या में संलग्न | सियों का दाहकर्म धर्मविरुद्ध माना जाता था। जहाँ हुए विदुर का पता युधिष्ठिर को बताया। वहाँ जा कर भीष्म जैसे सेनानी की लाश रेशमी वस्त्र एवं मालाएँ युधिष्ठिर ने देखा, तो मुख में पत्थर का टुकडा लिये जटा- पहना कर चंदनादि सुगंधी काष्ठों से जलायी गयी, वहाँ धारी, कृशकाय विदुर उसे दिखाई पडा । यह दिगंबर विदुर जैसे यति का मृतदेह बिना दाहसंस्कार के ही अवस्था में था, एवं वन में उड़ती हुई धूल से इसका शरीर | वन में छोड़ा गया (म. अनु. १६८.१२-१८)। आवेष्टित था (म. आश्र. ३३. १५-२०)। परिवार--देवक राजा की 'पारशवी' कन्या से मृत्यु--शुरु से ही विदुर की यही इच्छा थी कि, विदुर का विवाह हुआ था। अपनी इस पत्नी से मृत्यु के पश्चात् इसके अस्तित्व की कोई भी निशानी बाकी विदुर को कई पुत्र भी उत्पन्न हुए थे, किन्तु विदुर के न रहे । इसने कहा था, 'जिस प्रकार प्रज्ञावान् मुनियों पत्नी एवं पुत्रों के नाम महाभारत में अप्राप्य है (म. के कोई भी पदचिह्न भने पर नही उठते है, ठीक उसी | आ. १०६.१२-१४)। प्रकार के मृत्यु की कामना मैं मन में रखता हूँ। २. एक वेश्यागामी ब्राह्मण, जिसकी पत्नी का नाम मृत्यु के संबंध में विदुर की यह कामना पूरी हो गयी, | बहुला था। अपनी पत्नी के द्वारा किये गये पुण्यों के एवं विदुर को महाभारत के सभी व्यक्तियों से अधिक कारण, इसे मुक्ति प्राप्त हुई (बहुला देखिये)। सुंदर मृत्यु प्राप्त हुई। ____३. पांचाल देश का एक क्षत्रिय, जो सोमवती अमावस्या जब युधिष्ठिर विदुर के पीछे वन में गया, तब किसी के दिन प्रयाग के गंगासंगम में स्नान करने के कारण, वृक्ष का सहारा ले कर यह खड़ा हो गया । पश्चात् | ब्रह्महत्या के पातक से मुक्त हुआ (पद्म. उ. ९१-९२)। ८४६ Page #869 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विदुर पद्म में निर्दि इस कथा का संकेत सभ्यतः महाभारत में निर्दिह धर्मात्मा बिदुर से ही होगा, जिसे पूर्वजन्म में अणीमाण्डव्य ऋप से शार प्राप्त हुआ था ( बिदुर १. देखिये ) । प्राचीन चरित्रकोश विडुला -- एक प्राचीन क्षत्रिय स्त्री, जो महाभारत में निर्देशित 'विदुला पुत्र संवाद' के कारण अमर हो गयी है। यह सौवीर देश के राजा की पत्नी थी, जिसके पुत्र का नाम संजय था । इसका पुत्र जब छोटा था, उस समय इसका पति मृत हुआ। यही अवसर पा कर, सीवीर देश के पास ही बसे हुए सिन्नरेश ने संजय पर आक्रमण किया एवं उसे रणभूमि से मंगा कर उसका राज्य छीन लिया। रणभूमि से भाग कर आये हुए अपने पुत्र की इसने कटु आलोचना की, जिसका पुनर्निषेदन कुंती ने युधिष्ठिर को युद्धप्रवृत्त बनाने के लिए किया था । महाभारत में यही संवाद' विदुला पुत्र संवाद ' नाम से प्रसिद्ध है (म. उ. १३१-१३४ ) | इसके नाम के लिए 'विदुरा' पाठभेद भी प्राप्त है। विदुला पुत्र संवाद -- महाभारत में राजनैतिक दृष्टि से उपदेश देनेवाले भी कुछ संवाद प्राप्त है, उनमें यह संवाद श्रेष्ठ माना जाता है । इस संवाद में महाभारत के नाम से प्रसिद्ध हुए बहुत सारे सुभाषित ग्रथित किये गये है। इसने अपने पुत्र से कहा था, 'पराक्रमी पुरुष के लिए वही योग्य है कि, पौरुषहीन जीवन दीर्घकाल तक जीने की अपेक्षा, यह अस्पकाल तक ही जी कर सारे संसार को अपने पराक्रम से स्तिमित करे (मुहूर्त ज्वलितं श्रेयः न तु धूमायितं चिरम् । आत्मसंतुष्टता के कारण ऐश्वर्य विनष्ट होता है (तो ये हन्ति । इसी कारण पराक्रमी पुरुष ने देवकार्यरत रहना चाहिए, एवं इसी धारणा से काम करना चाहिए कि, जान जायें, मगर मस्तक नीचा न हो जायें (उद्यच्छेदेव न नमेदुद्यमो ह्येव पौरुषम् ) ( म.उ. १३१.१२ ११३ १३२.२८ ) | इसने आगे कहा था, 'उद्योगी पुरुष को यही चाहिये डि विदूरथ विदुला के इसी संवाद का निर्देश युधिष्ठिर ने कुंती के पास पुनः एक बार किया था (म. आ. २२.२० ) । आव. जय' नामक महाभारत की रचना भी इसी संवाद को आधारभूत मान कर की गयी है। 6 , 11 जागृतयोक्तन्यं भूतिकर्मसु । भविष्यतीत्येवमनः कृत्वा सततमव्यथैः ॥ ( म. उ. १३३.२७ ) । (सदैव विजिगिषु एवं जागृत रह कर ऐश्वर्य संपादन करें । जो कार्य अंगीकृत किया है, वह यशस्वी होनेवाला ही है, ऐसी धारणा मन में रख कर सतत प्रयत्न करते रहें) विदुष (सो..) एक राजा, जो मत्स्य के अनुसार घृत राजा का पुत्र था। विदूर - पूरु राजा विरथ का नामान्तर ( विरथ देखिये) । विदूरथ - (सो. ब. क्र. भजमान राजा का पुत्र था ( ब्रह्मांड. यादव राजा ज २.७१.१३६ ) | २. (सो. यदु. वृष्णि. ) एक यादव राजा, जो चित्ररथ राजा का पुत्र था। इसके पुत्र का नाम घर था (मा. ९.२४.१८ ) । ३. ( सो. यदु. वृष्णि. ) एक वृष्णिवंशीय क्षत्रिय, जो वृद्धान् एवं वमुदेवभगिनी श्रुतदेवा का पुत्र था। इसके भाई का नाम दन्तवक था । यह रुक्मिणी तथा द्रौपदी के स्वयंवर में उपस्थित था ( म. आ. १८६ ) । यह शिशुपाल, शाल्व, जरासंध आदि का मित्र था एवं जरासंघ ने मथुरा नगरी के पूर्वद्वार का संरक्षण करने के लिए इसकी नियुक्ति की थी । इसका भाई दन्तवक्र तथा शाल्व, शिशुपाल आदि का श्रीकृष्ण के द्वारा वध होने के पश्चात् उनकी मृत्यु का बदला लेने के लिए इसने कृष्ण पर आक्रमण किया। किन्तु उसने इसका मस्तक काट कर इसका वध किया ( भा. १०.७८.११-१२ ) । ४. (सो. क्रोष्टु. ) एक यादव राजा, जो लोमपादवंशीय विवृति राजा का पुत्र था। इसे 'उदर्क' एवं .3 6 दाशार्ह ' नामान्तर प्राप्त थे ( अभि. २७५.१९-२० ) । पद्म एवं मत्स्य में इसे निर्वृति राजा का पुत्र कहा गया है, एवं दशाई राजा का पिता कहा गया है (पद्म.. १२] मत्स्य ४४.४० ) 1 ५. सावर्णि मनु के पुत्रों में से एक (ब्रह्मांड. ४.१.९४ ) । ६. (सो. पूरु. ) एक राजा, जो सुरथ राजा का पुत्र एवं सार्वभौम राजा का पिता था ( भा. ९.२२.१० ) । ७. चंपक नगरी के हंसध्वज राजा का भाई । ८. दक्षिण भारत का एक राजा, जिसने अपनी कन्या दिष्टवंशीय राज्यवर्धन राजा को विवाह में प्रदान की थी । ९. एक राजा, जो भलंदन ऋषि का मित्र था । इसके सुनीति एवं सुमति नामक दो पुत्र, एवं मुदावती नामक एक कन्या थी। 2219 Page #870 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विदूरथ प्राचीन चरित्रकोश विदेह ___ कुज़ंभ से युद्ध--एक बार यह जंगल में मृगया के हेतु विदेह-विदेह देश के सीरध्वज जनक राजा का गया था, जहाँ इसने बहुत बड़ी दरार देखी, जो कुजंभ नामान्तर (भा. ११.२.१४; जनक देखिये)। राक्षस की जमुहाई से भूमि पर पड़ी हुई दरारों में से एक २. विदेह देश के निमि राजा का नामान्तर (निमि थी। वहाँ पास ही बैठे हुए सुव्रत मुनि ने इसे बताया, | देखिये )। 'कुज़ंभ राक्षस के पास एक दैवी मूसल है, जिसके कारण के कारण ३. एक लोकसमूह, जिस पर विदेहवंशीय राजा वह अजेय बन कर पृथ्वी के सारे लोगों त्रस्त कर रहा है। राज्य करते थे (बौ. श्री. २.५: २१.१३)। इसकी ___ आगे चल कर कुजंभ ने इसकी कन्या मुदावती का | राजधानी मिथिला नगरी में थी। पाण्डराजा ने अपने हरण किया, एवं उसका वध करने गये सुनीति एवं सुमति दिग्विजय के समय मिथिला पर आक्रमण किया था, नामक इसके दोनो पुत्रों को कैद किया। फिर इसके एवं विदेहवंशीय क्षत्रिय राजाओं को परास्त किया था (म. मित्र भलंदन ऋषि के पुत्र वत्सप्रि ने कुजंभ का वध आ. १०५-११)। इसी वंश में हयग्रीव नामक कुलांगार किया, एवं मुदावती की मुक्तता कर उससे विवाह किया | राजा उत्पन्न हुआ था। (मार्क. ११३)। वैदिक साहित्य में इन लोगों का सर्वप्रथम निर्देश विदेघ माथव-एक राजा, जो विदेध लोगों का प्रमुख शतपथ ब्राह्मण में प्राप्त विदेघ माथव की कथा में आता था (श. ब्रा. १.४.१.१०)। ये 'विदेघ' लोग ही आगे | है, जहाँ इस देश के पश्चिम में स्थित कोशल देश की चल कर 'विदेह' नाम से सुविख्यात हुए । मथु का | संस्कृति विदेह से श्रेष्ठतर बतायी गयी है। वंशज होने से, इसे 'माथव' पैतृक नाम हुआ होगा। आगे चल कर इस देश के जनक राजा ने विदेह देश शतपथ ब्राह्मण में-इस राजा के संबंध में एक को नयी प्रतिष्ठा प्रदान की । बृहदारण्यक उपनिषद के काल चमत्कृतिपूर्ण कथा शतपथ ब्राह्मण में प्राप्त है, जिसके | में सांस्कृतिक दृष्टि से यह एक श्रेष्ठ देश मानने जाने लगा अनुसार इसने अपने मुख में अग्नि को बँध कर रखा | (बृ. उ. ३.८.२)। था। मुँह खोलने से अग्नि बाहर आयेगा, इस आशंका | कौषीतकि उपनिषद में विदेह लोगों का निर्देश काशि से यह किसी से भी बात न करता था। इसके पुरोहित | एवं कोसल लोगों के साथ किया गया है, एवं इन तीनों को का नाम रहगण गौतम था, जिसने इसके मुख में बँध रखे | 'प्राच्य ' सामहिक नाम प्रदान किया गया है ( कौ. उ. हए अग्नि को बाहर लाने के लिए अनेकानेक प्रयत्न किये।। ४.१)। इन तीनों देशों का 'जल जातकर्य' नामक एक ही उसनें अग्नि की विविध प्रकार से स्तुति भी की, किन्तु पुरोहित होने का निर्देश प्राप्त है (सां.श्री. १६.२९.५)। उसका कुछ असर न हुआ। इस देश का पर आटणार नामक राजा कोसल देश के ___एक बार गौतम ने सहजवश 'घृत' शब्द का उच्चारण | हिरण्यनाम राजा का रिश्तेदार ही था (सां. औ. १६. किया, जिससे इसके मुख में बंद किया गया अग्नि अपनी | २९.५ )। शतपथ ब्राह्मणं में पर आटणार को हिरण्यनाम सहस्त्र जिद्दाएँ फैला कर बाहर आया। वह अग्नि सारे का वंशज, एवं कोसल देश का राजा कहा गया है। संसार को जलाने लगा, एवं विदेध एवं गौतम को दग्ध | पंचविंश ब्राह्मण में नमी साप्य नामक विदेह देश के अन्य करने लगा। उसने सृष्टि की नदियाँ भी सुखाना | एक राजा का निर्देश प्राप्त है (पं. बा. २५.१०.१७)। प्रारंभ किया। ___ कोसल एवं विदेह देशों की सीमा सदानीरा (आधुनिक अग्नि के इस दाह को शांत कराने के लिए, विदेघ गण्डक ) नदी से बँध गयी थी। यह नदी नेपाल से निकल राजा ने अपने राज्य की सीमा पर बहनेवाली 'सदानीरा' | कर पटना के पास गंगा नदी को मिलती है। नदी में स्वयं को झोंक दिया, जहाँ अग्नि आखिर शान्त | महाभारत में--पूर्वोत्तर भारत का एक जनपद के नाते हुआ। फिर भी सदानीरा नदी का पानी अविरत बहता | विदेह देश का निर्देश महाभारत में प्राप्त है, जिसे ही रहा। इसी कारण, वह नदी सदानीरा नाम से सुविख्यात | परशुराम, कर्ण एवं भीम आदि वीरों ने जीता था (म. द्रो. हुई (श. ब्रा. १.४.१.१०-१७)। परि.१.८.८४६; क. ५.१९; स. २६.४)। इस देश का __ सायणाचार्य के अनुसार, आज भी उपर्युक्त नदी सबसे से सुविख्यात राजा सीरध्वज जनक था, जिसकी कन्या कोसल एवं विदेह देश के सीमा पर ही बहती है। सीता का विवाह राम दाशरथि से हुआ था। Page #871 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन चरित्रकोश विद्युदक्ष , ब्रह्मांड के अनुसार, जरासंध के भय से मथुरा से | नामक दानव था (वा. रा. उ. १२.२) राम ने इसका विजनवासी हुए यादव लोग विदेह देश में रहने के लिए | आये थे ( ब्रह्मांड, २.१६.५४ )। २. रावण का एक प्रधान, जिसने माया-जाल से राम ४. ( सो. वसु.) एक राजा, जो मत्स्य के अनुसार | का टूटा हुआ मस्तक, एवं धनुष्य सीता को दिखाया था। वसुदेव एवं देवकी के पुत्रों में से एक था। इसने सीता को रावण के वश में जाने के लिए पुनः पुनः विदैवत--एक पिशाच, जो पूर्वजन्म में हरिवीर अनुरोध किया, किन्तु सीता अपने सतीत्व पर अटल रही। नामक क्षत्रिय था। नास्तिकता के कारण, इसे पिशाच- ३. एक राक्षस, जो विश्रवस् एवं वाका के पुत्रों में से योनि प्रप्त हुई ( पन. पा. ९५, ९८)। एक था। यह महातल नामक पाताललोक में स्थित विद्य-विश्वामित्रकुलोत्पन्न एक गोत्रकार एवं प्रवर। अक्तिलम् नामक नगर में रहता था (वायु. ५०.३५)। पाठ-'क्षितिमुखाविद्ध। ४. घटोत्कच का साथी एक राक्षस, जिसका दुर्योधन विद्या---एक देवता, जो वैदिक साहित्य में मुख्यतः के द्वारा वध हुआ (म. भी. ८७.२०)। " • तीन वेदों के ज्ञान ( त्रयी विद्या) की देवता मानी गयी ५. अमृत की रक्षा करनेवाले दो सर्प (म. आ. २९. है । सायणाचाय के ऋग्वेद भाष्य की प्रस्तावना में इस ५-६)। विद्युत् के समान जिह्वा होने के कारण, इन्हें यह देवता के संबंधी एक कथा . दी गयी है । एक बार यह नाम प्राप्त हुआ होगा। एक ब्राह्मण के पास गयी, एवं इसने उसे कहा, 'मैं तुम्हारी विद्युज्जिड्डा--स्कंद की अनुचरी एक मातृका (म. भमानत (शेवधि ) हूँ। तुम्हारा यही कर्तव्य है कि, | श. ४५.८)। . तुम्हारे शिष्यों में से जो पवित्र, ब्रह्मचारी, नियमनिष्ठ, विद्युत्--एक राक्षस, जो यातुधान नामक राक्षस का निधिरक्षक एवं अनवधानशून्य होंग, उन्हीकों तुम मुझे पुत्र, एवं रसन नामक राक्षस का पिता था (ब्रह्मांड. ३.७. प्रदान करना । असूया करनेवाले शिष्यों से मैं अत्यधिक | ९५)। घृणा करती हूँ, इसी कारण तुम मुझे उन्हें प्रदान नहीं । २. सहिष्णु नामक शिवावतार का एक शिष्य । करना ( सायणाचार्य, ऋग्वेद प्रस्तावना )। विद्युता--कुबेरसभा की एक अप्सरा, जिसने अष्टा. विद्याचंड-कांपिल्य नगरी के सुदरिद्र नामक ब्राह्मण | वक्र से स्वागतसमारोह में नृत्य किया था (म. अनु. के चार पुत्रों में से एक ( पितृवर्तिन् देखिये)। ५०.४८)। • विद्याधर--एक देवयोनिविशेष । पुराणों में इनके विद्युत्केश-एक राक्षस, जो हेति राक्षस का पुत्र था। राजाक्षों का नाम चित्रकेतु, चित्ररथ अथवा सुदर्शन मयासुर की कन्या इसकी माता थी। संध्या की कन्या दिया गया है ( भा. ६.१७.१, ११, १६, २९)। वायु सालकटंकटरा से इसका विवाह हुआ था। कालोपरांत मैं पुलोमन् को 'विद्याधरपति' कहा गया है (वायु. ३८. उसने इससे उत्पन्न हुआ गर्भ मंदर-पर्वत पर छोड़ दिया, १६)। इन लोगों की स्त्रियाँ 'विद्याधरी' कहलाती थी जिसका भरण-पोषण शिव ने किया। (ब्रह्मांड, ३.५०.४०)। विद्युत्पर्णा-एक अप्सरा, जो कश्यप एवं प्राधा की इन देवताओं के शैवेय, विक्रान्त एवं सौमनस नामक कन्या थी (म. आ. ५९.४८)। तीन प्रमुख गण थे ( वायु. ३०.८८)। इन देवताओं का विद्युत्प्रभ--एक ऋषि, जिसकी इंद्र से 'पापमोचन' विद्याधरपुर नामक नगर ताम्रवर्ण सरोवर एवं पतंग एवं 'सूक्ष्म-धर्म के संबंध में चची हुई थी (म. अनु. पहाड़ियों के बीच बसा हुआ था (मत्स्य. ६६.१८)। । १२५.४५-५७)। विद्याधीश--सुराष्ट्र देश के सोमकांत राजा का प्रधान । | २. एक दानव, जिसे रुद्रदेव की कृपा से एक लाख वर्षों विद्यापति--उज्जैनि के इंद्रद्युम्न राजा का उपाध्याय तक तीनों लोगों का आधिपत्य, शिव का नित्यपार्षदपद एवं (खंद. २.२.८)। कुशद्वीप का राज्य, वरों के रूप में प्राप्त हुए थे (म. विधुच्छत्रु--एक राक्षस, जो मार्गशीर्ष माह में सूर्य अनु. १४.८२-८४)। के साथ भ्रमण करता है ( भा. १२.११.३१)। वित्प्रभा-उत्तर दिशा में रहनेवाली दस अप्सराएँ विद्युजित--एक राक्षस, जो खशा राक्षसी का पुत्र, | (म. उ. १०९.१८)। एवं शूर्पणखा का पति था । पूर्वजन्म में यह कालकेंद्र | विद्युदक्ष--रकंद का एक सैनिक (म. श. ४४.५७) । प्रा. च. १०७] Page #872 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन चरित्रकोश विद्युदं विद्युद्दे रामसेना का एक वानर । विद्युद्रूप -- लंका का एक राक्षस । २. एक यक्ष, जो कुबेर का सेवक था । इसकी पत्नी का नाम मनिका था, जो मेनका की कन्या थी। एक बार यह कैलास पर्वत पर अपनी पत्नी के साथ मद्यपान करते हुए बैठा था, जहाँ कंक नामक गरुड वंश का एक पक्षी आया । इसका कंक से झगडा हुआ, एवं इसने खड्गप्रहार कर उसका वध किया । यह बात सुनकर, संक का भाई कंदर इससे युद्ध करने आया, एवं उसने इसका वध किया । तत्पश्चात् मदनिका ने कंदर से विवाह कर लिया ( मार्के. २.४ - २८ ) । विद्युद्वर्चस् -- एक सनातन विश्वदेव (म. अनु. ९१.१३)। विद्युन्मालिन एक राक्षस, जो तारकासुर के तीन पुत्रों में से एक था। त्रिपुरों में से छोहमयपुर का यह अधिपति था। इसके अन्य दो भाइयों के नाम ताराक्ष एवं कमलाक्ष थे। शिव के अस्त्र के द्वारा अपने सोहमयपुर के साथ यह भी दग्ध हुआ । २. एक असुर, जो तारकामय युद्ध में मयासुर के पक्ष में शामिल था। शिव के पार्षद नन्दिन् के द्वारा इसका वध हुआ (मत्स्य. १२९.५:१२६.१६ ) । ३. एक महापराक्रमी राक्षस, जो रावण का मित्र था, एवं पाताल में रहता था। रावण के वध का बदला लेने के लिए, इसने राम का अश्वमेधीय अश्व चुरा लिया । आगे चल कर शत्रु ने इसका वध कर अश्वमेधीय अव पुनः प्राप्त किया (पद्म. पा. १४) विनता पर्वत पर रहता था । कमलों में निवास करनेवाली लक्ष्मी इसकी बहन थी । मेरकन्या नियति इसकी पत्नी थी, जिससे इसे प्राण नामक पुत्र उत्पन्न हुआ था ( भा. ४.१.४३ - ४४ ) । २. एक आदित्य, जो आषाढ अथवा 'सहस् ' (मार्गशीर्ष ) माह में प्रकाशित होता है ( भवि. ब्राह्म. ७८ ) । इसकी पत्नी का नाम किया था, जिससे इसे पंचचित नामक अनि पुत्ररूप में उत्पन्न हुआ था विवस्वत् देखिये) । ( पुत्रों ३. ब्रह्मन् का नामान्तर । विधान - सुख देवों में से एक । जी विधिसार - ( शिशु. भविष्य . ) एक राजा, भागवत के अनुसार क्षेत्रज्ञ राजा का, एवं ब्रह्मांड के अनुसार क्षत्रीय राजा का पुत्र था। इसे 'बिंदुसार, ' 'विंध्य सेन ' एवं ' बिंबिसार' आदि नामांतर भी प्राप्त थे । इसके पुत्र का नाम अजातशत्रु था । इसने ३८ वर्षों तक राज्य किया था | विधुम अश्वमुओं में से एक, जिसकी पत्नी का नाम अलंबुसा था (अलंबुसा देखिये) । १९.४५) । विद्योपरिचर-कृत नामक वसु का पुत्र ( वायु. ९९.२२० ) । विद्रावण एक दानव, जो कश्यप एवं दनु के में से एक था (मत्स्य. ६.१८ ) । विधातृ -- ब्रह्मा का एक मानसपुत्र, जो भृगु ऋषि एवं ख्याति का पुत्र कहलाता है। इसके धातृ एवं श्री नामक दो भाई थे । अपने इन भाइयों के साथ, यह शिशुमार | ८५० विधृत---एक दुष्ट राजा, जो जीवन भर ''प्रहर ( वध करों ) शब्द का उच्चारण करता रहा। इस प्रकार 'हर' शब्द का सहजवश उच्चारण होने से, इसे मुक्ति प्राप्त हुई (पद्म. पा. ११ ) । 6 विवृति (.) एक राजा, जो भागवत के अनुसार खगण राजा का पुत्र एवं हिरण्यनाभ राजा का पिता था ( मा. ९.१२.३ ) । C २. तामस मन्वंतर के वैधृति' नामक देवता समूह की माता ( भा. ८.१.२९) । ४. रावण के पक्ष का एक राक्षस, जो सुषेण वानर के द्वारा मारा गया (बा. रा. सुं. ६ यु. ४३) । विद्योत एक ऋषि जो धर्मऋषि एवं दक्षकन्या लंबा का पुत्र था । इसके पुत्र का नाम स्तनयित्नु था (मा. ६.६५)। - -- ३. अभूतरजस् देवों में से एक ( ब्रह्मांड. २.३६.५५) । विनत - रामसेना का एक वानर सेनापति, जो विद्योता -- कुबेरसभा की एक अप्सरा (म. अनु. श्वेत नामक वानर का पुत्र था । इसकी सेना में साठ लक्ष वानर थे ( वा. रा.यु. २६ ) । २. वैवस्वत मनुपुत्र इल (सु) का पुत्र, जो उसके पश्चिम साम्राज्य का अधिपति बन गया ( ब्रह्मांड. ३. ६०.१८ ) । ३. एक दिग्गज, जो पुलह एवं श्वेता के पुत्रों में से एक था । विनता - प्राचेतस दक्ष प्रजापति की एक कन्या, जो अरिष्टनेमि कश्यप की भार्या थी । तार्क्ष्य ऋषि के पत्नियों I Page #873 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विनंता प्राचीन चरित्रकोश विध्यावलि में इसका निर्देश प्राप्त है ( भा. ६.६.२१)। इसकी । २. पुलस्त्य एवं प्रीति के तीन पुत्रों में से एक (वायु. माता का नाम असिन्नी था। २८.२२)। एक बार इसके पति कश्यप ने इसे वर माँगने के लिए विंद-(सो. कुरु.) धृतराष्ट्र के सौ पुत्रों में से एक । वहा । उस समय इसने अपनी सौत कढ़ के पुत्रों से भी | भीम ने इसका वध किया (म. द्रो. १०२.९८)। अधिक बलशाली दो पुत्रों की याचना की। तदनुसार, कदू | २. एक केकय-राजकुमार, जो भारतीय युद्ध में कौरवके नागपुत्रों से भी अधिक बलशाली गरुड एवं अरुण नामक पक्ष में शामिल था । सात्यकि ने इसका वध किया (म. दो पुत्र कश्यप ने इसे प्रदान किये । इसके ये दोनों पुत्र | क. ९.६)। अण्डे से उत्पन्न हुए थे। उनमें से एक अण्डा इसके द्वारा ३. अवंती देश का राजकुमार, जो जयसेन एवं वसुदेवफोड़ जाने के कारण, उससे उत्पन्न हुआ अरुण अधूरे | भगिनी राजाधिदेवी के दो पुत्रों में से एक था । इसे शरीर से उत्पन्न हुआ था। अनुविंद नामक कनिष्ठ भाई, एवं मित्रविंदा नामक अपनी इस दुर्गति के कारण, अरुण ने इसे पाँच सौ | एक बहन थी। वर्षों तक अपनी सौत कद्दू की दासी होने का शाप दिया। | आरंभ से ही यह दुर्योधन एवं जरासंध का पक्षपाती इस शापित अवस्था में कद्र ने इसका अनेकानेक प्रकार से | एवं मित्र था। अपनी बहन मित्रविंदा का विवाह भी यह छल किया। अन्त में इसके पुत्र गरुड ने स्वर्ग से अमृत दुर्योधन से ही करना चाहता था, किंतु उसने श्रीकृष्ण ला कर, इसकी शाप से मुक्तता की (म. आ. ३०; से प्रीतिविवाह कर लिया (भा. १०.५८.३०-३१)। गरुड देखिये)। अपने दक्षिण दिग्विजय के समय, सहदेव ने इसे जीता परिवार-गरुड एवं अरुण के अतिरिक्त इसके | था (म. स. २८.१०)। अरिष्टनेमि तार्थ्य एवं आकर्णि नामक दो पुत्र थे ( भवि. भारतीय युद्ध के समय, यह एक अक्षौहिणी सेना ब्राह्म. १५९ )। वायु के अनुसार इसके दो पुत्र, एवं ! के साथ कौरवपक्ष में शामिल हुआ था (म. उ. १९. ३६ कन्याएँ थी, जिनमें गायत्री आदि छंद, एवं सुपर्णा | २४)। कौरवसेना में इसकी श्रेणी 'रथी' थी, एवं आदि पक्षिणियाँ प्रमुख थी (वायु. ६९.६६-६७)। | सेना के दस प्रधान अधिनायकों में से यह एक था (म. यह स्वयं हवा में तैरने की कला में प्रवीण थी, एवं इसकी | भी. १६.३३-३५)। बहुत सारी संतान भी पक्षी ही थे । इससे प्रतीत होता भारतीय युद्ध में पाण्डव पक्ष के निम्नलिखित योद्धाओं है होता है कि, यह स्वयं भी एक पाक्षिणी थी। के साथ इसका युद्ध हुआ थाः--१. कुंतिभोज (म. भी. विनताश्व--एक राजा, जो वैवस्वत मनुपुत्र इल | ४३.६९); २. इरावत् (म. भी. ७९.१२-२०), ३. (सुद्युम्न ) का पुत्र था। इल के पश्चात् , उसके पश्चिम | धृष्टद्युम्न (म. भी. ८२.३२-३६ ) ४. विराट (म. द्रो. साम्राज्य यह का अधिपति बन गया (वायु.८५.१९)। । २४.२०-२१)। अंत में यह अर्जुन के द्वारा मारा गया विनायक--विघ्नेश्वर (गणपति) नामक देवता का | (म. द्रो. ७४.२५)। नामान्तर (गणपति देखिये )। रुद्रगणों के एक अधिपति | विंदु आंगिरस--एक वैदिक सक्तद्रष्टा (ऋ. ८.९४; के नाते भी इसका निर्देश प्राप्त है (भूत देखिये)। । ९.३०)। २. शिवगणों का एक समुदाय, जिसमें कुष्मांड, विंध्य--रैवत मनु के पुत्रों में से एक (भा. ८.५.२)। गजतुंड, जयंत आदि रुद्रगण समाविष्ट थे । इस समूह के विंध्यशक्ति--(पौर. भविष्य.) एक राजा, जो किलशिवगणों के मुख सिंह, शेर आदि के समान थे (मत्स्य. | किल नामक राजा का पुत्र, एवं पुरंजय राजा का पिता था १८३.६३-६४)। | (ब्रह्मांड, ३.७४.१७८)। विनाशन--एक दानव, जो कश्यप एवं काला के विध्यसेन-(शिशु. भविष्य.) एक राजा, जो मत्स्य पुत्रों में से एक था । अपने अन्य भाईयों के समान यह के अनुसार क्षेमजित् राजा का पुत्र था (मत्स्य. २७२. अस्त्रविद्या में कुशल, एवं साक्षात् यम धर्म के समान | ८)। भयंकर था। | विंध्यावलि-बलि दैत्य की पत्नी (बलि वैरोचन विनीत--उत्तम मनु के पुत्रों में से एक (ब्रह्मांड. | देखिये)। इसे बाण नामक पुत्र एवं कुंभीनसी नामक २.३६.४०)। | एक कन्या थी (मत्स्य. १८७,४०)। वामन के द्वारा Page #874 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विंध्यावलि बलि का बंधन किये जाने पर इसने वामन की स्तुति की, एवं बलि के लिए अभयदान माँगा ( भा. ८. २०.१७ ) । विध्याश्व - (सो. अज. ) एक राजा, जो इंद्रसेन राजा का पुत्र था। मेनका नामक अप्सरा से इसे जुड़वी संतान उत्पन्न हुई थी। विपक्व - - मरीचिगर्भ देवों में से एक। विपश्चित् -- स्वारोचिष मन्वन्तर का इंद्र | १२. एक राजा, जो विदर्भराजकन्या पीवरी का पति था। अपनी पत्नी से किये पाकर्म के कारण, इसे नरक की प्राप्ति हुई (मार्के, १३.१३ - १५ ) । उ. विपश्चित् जयंत लौहित्य - एक आचार्य, जो दशत्यन्त चैहित्य नामक आचार्य का शिष्य था (३.३. आ. २.४२१) । लोहित का वंशज होने से, इसे लौहित्य' पैतृक नाम प्राप्त हुआ होगा । प्राचीन चरित्रकोश विपश्चित् शकुनिभित्र पाराशर्य- एक आचार्य, जो आषाढ उत्तर पाराशर्य नामक आचार्य का शिष्य था । पराशर का वंशज होने से, इसे 'पाराशर्य पैतृक नाम प्राप्त हुआ होगा । विपाट - कर्ण का एक भाई, जो अर्जुन के द्वारा मारा गया ( म. द्रो. ३१.५९ ) । विपाठा-- दुर्गम राजा की पत्नियों में से एक (मार्के ७२. ४६ रेवती १. देखिये) । विपाद - एक दानव, जो कश्यप एवं दनु के पुत्रों में से एक था । १ विप्रवित्ति यशस्वी न हो सका। अन्त में अर्जुन ने इसका वध किया ( म. आ. परि १.८०.४० - ४६ ) । विपुलस्वान् -- एक ऋषि, जिसके सुकृष एवं तुंबुरु नामक दो पुत्र थे ( मार्के. ३. १५) । चिपूजन शौराकि ( सौराफि) कृष्ण वें संहिताओं में निर्दिष्ट एक आचार्य (मै. से २.१.२ सं. २.७.५)। एवं वायु के अनुसार चित्रक राजा का पुत्र था ( विपृथु -- (सो. वृष्णि. ) एक यादव राजा, जो विष्णु ११२ ) । जरासंध के संग्राम में श्रीकृष्ण ने इसे किया था। यह द्रौपदीस्वयंवर में उपस्थित था। सुन्द्रा मथुरानगरी के उत्तरद्वार का रक्षण करने के लिए नियुक्त हरण के समय, बलराम की ओर से इसने अर्जुन से युद्ध किया था (म. आ. १७७.१७ २११.१० स. ४.२६) वायु. ९६. , , प्रभासक्षेत्र में हुए 'याली युद्ध' में यह मारा गया ( विष्णु. ५.३७.४६ ) । विपृष्ठ (सो. बसु) एक राजा, जो वसुदेव एवं वृकदेवा के पुत्रों में से एक था । विप्र--(सो. मगध, भविष्य.) एक राजा, जो भागयत के अनुसार सृतंजय राजा का, एवं विष्णु के अनुसार श्रुतंजय राजा का पुत्र था । वायु में इसे 'महाबाहु ' कहां गया है ( महाबाहु ३. देखिये) । इसके पुत्र का नाम गुवि था। २. एक पिशाचगण (ब्रह्मांड २.७.३७७)। विपाप दमन नामक शिवावतार का एक शिष्य । विपाप्मन् निश्श्रवन नामक अनि का पुत्र, जो वास्तुकार्य में अधिष्ठाता देवता माना जाता है। विप्रचित्ति अथवा विप्रजित्ति - एक आचार्य, जो व्यष्टि नामक - आचार्य का शिष्य था (बृ. उ. २.६.३ काण्व. २.५.२२ मायं.) 1 २. एक दानव राजा, जो कश्यप एवं उन केसी पुत्रों २. (सो. पुरूरवस्.) एक राजा, जो मत्स्य के अनुसार में से प्रमुख पुत्र था ( भा. ६.६.३१ ) । महाभारत में आयु राजा का पुत्र था। दनु के पुत्रों की संख्या चौतीस दी गयी है, जिनमें इसे प्रमुख कहां गया है ( म. आ. ५९.२१) । इसके भाइयों में ध्वज नामक असुर प्रमुख था वायु ६७.६० ) । विपुल - - ( सो. वसु. ) एक राजा, जो वसुदेव एवं रोहिणी के पुत्रों में से एक था ( भा. ९.२४.४६ ) । २. एक भृगुवंशीय ऋषि जो देवशर्मन् नामक ऋषि का शिष्य था । इसकी गुरुपत्नी ' रुचि ' पर इंद्र आसक्त हुआ। उस समय इसने इंद्र से उसका संरक्षण किया। इसके इस गुरुनिष्ठा से प्रसन्न हो कर, देवशर्मन् ऋषि ने इसे अनेकानेक वर प्रदान किये (म. अनु. ४०-४५ ) । ३. सौर देश का एक यवन राजा, जिसे 'वित्तल, ' ' सुमित्र,' एक 'दत्तमित्र' आदि नामान्तर भी प्राप्त थे । पाण्डु राजा ने इसे जीतने का प्रयत्न किया था, किन्तु वह पराक्रम - वृत्रासुर एवं हिरण्यकशिपु के द्वारा इंद्र से किये गये युद्ध में, यह असुर पक्ष में शामिल था ( म. स. ५१.७ मा ६.७०) । प्रखि वैरोचन एवं इंद्र के युद्ध में भी यह सहभागी थी । वामन के द्वारा किये गये ' बलिबंधन के समय, यह वामन से युद्ध करने के लिए उद्यत हुआ था ( म. स. परि. २१.३३७ ) । देवासुरों के द्वारा किये गये 'अमृतमंथन' के समय भी, यह उपस्थित था ( मत्स्य. २४५.३१ ) । ८५२ Page #875 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विप्रचित्ति प्राचीन चरित्रकोश विभिंदु । परिवार--अपनी सिंहिका नामक पत्नी से इसे एक सौ नदी पर था । इसने हिमालय पर्वत पर रहनेवाले सनएक पुत्र उत्पन्न हुए थे, जो ' सैहिकेय' सामूहिक नाम से | कुमार से ब्रह्मज्ञान प्राप्त किया था (म. शां. परि. सुविख्यात थे । एक राहु एवं सौ केतु मिल कर, ये १०१ | १.२०)। सैंहिकेय राक्षस बने थे (भा. ६.६.३७)। विभांडक काश्यप--एक आचार्य, जो ऋश्यशंग भागवत के अतिरिक्त, ब्रह्म, मत्स्य आदि बाकी सारे | ऋषि का पुत्र एवं शिष्य था । इसके शिष्य का नाम मित्रभू पुराणों में इसके पुत्रों की संख्या तेरह दी गयी है। काश्यप था (६.बा.२) । हरिवंश, विष्णु एवं ब्रह्मांड में वह बारह बतायी गयी है। विभाव--जिताजित् देवों में से एक । . विप्रचित्ति के पुत्रों की हरिवंश में प्राप्त नामावलि, विभावरी-ब्रह्मा की एक मानसकन्या, जो रात्रि अन्य पुराणों में प्राप्त पाठभेदों के साथ नीचे दी गयी | का प्रतीकरूप देवता मानी जाती है। ब्रह्मा की आज्ञा से है :-१, अंजिक (अजन, अंजक, सुपुंजिक); २. | इसने देवी उमा के शरीर में प्रवेश किया, जिस कारण इल्वल; ३. कालनाभ; ४. खस्त्रुम (शलभ, श्वसृप ); ५. | वह कृष्णवर्णीय बन गयी (मत्स्य. १५४.५७-९६; नभ (नल, भौम); ६. नमुचि; ७. नरक (कनक) ८. ब्रह्मन् देखिये)। रहु (पोतरण, सरमाण, स्वभानु); ९. वज्रनाभ (काल-| विभावल-प्रतर्दन देवों में से एक । वीर्य, चक्रयोधिन् , बल); १०. वातापि; ११. व्यंश | २. विवस्वत् के पुत्रों में से एक (म. आ. १.४०)। (वैश्य, व्यस, सव्य सिन्य ); १२. शुक (विख्यात, केतु, ३. एक दैत्य, जो मुर नामक दैय का पुत्र था । कृष्ण शंभ) (ह. व. १.३; मत्स्य. ६; विष्णु. १.२१; ब्रह्म. | ने इसका वध किया (मुर २. देखिये)। ३; ब्रह्मांड. ६.१८.२२)। ४. एक ऋषि, जो युधिष्ठिर का विशेष आदर करता २. एक असुर, जो हिरण्यकशिपु का सेवक था (विष्णु. | था। पाण्डवों के वनवासकाल में, यह द्वैतवन में उनके १.१९.५२)। साथ रहता था (म. व. २७.२४) । पाठभेद ( भांडारकर विप्रजति वातरशन--एक वैदिक मंत्रद्रष्टा (ऋ. संहिता)-'ऋतावतु। १०.१.३६.३)। ५. एक क्रोधी महर्षि, जो सुप्रतीक नामक ऋषि का विप्रबंधु गौपायन (लौपायन)--एक वैदिक सूक्त- भाई था । अपने भाई के शाप के कारण, यह एक कछुआ द्रष्टा (ऋ. ५.२४.४; १०.५७.६०)। बन गया। इसके इसी अवस्था में गरुड ने इसका भक्षण विबुध--(सू. निमि.) एक राजा, जो विष्णु के किया (म. आ. २५.१२)। अनुसार कृति राजा का, एवं वायु के अनुसार देवमीढ | ६. एक दानव, जो कश्यप एवं दनु के पुत्रों में से एक राजा का पुत्र था । भा वत में इसे 'विसृत', एवं अन्य था। वृत्र-इंद्र युद्ध में यह वृत्र-पक्ष में शामिल था (भा. पुराणों में 'विश्रुत' कहा गया है। ६.६.३०)। विभा--दुर्गम राजा की पत्नियों में से एक । इसकी ७. एक वसु, जिसकी पत्नी का नाम द्युति था। सोम माता का नाम कावेरी था। के प्रीति के कारण, द्युति ने इसका त्याग किया (मत्स्य. विभांड--एक ऋषि, जो शरशय्या पर पड़े हुए भीष्म | २३.२४ )। से मिलने आया था। ८. एक वैश्य, जो अपने पूजापाठ के समय अभद्र विभांडक--कश्यपकुल में उत्पन्न एक ऋषि, जो ऋश्य- घंटा का निनाद करता था । इस पापकर्म के कारण, मृत्यु शृंग ऋषि का पिता था । इसके पुत्र ऋश्यशंग ऋषि के के पश्चात् इसे घंटा के आकार का मुख प्राप्त हुआ । इसी जन्म की, एवं अंग देश के चित्ररथ राजा के शान्ता | कारण, इसे 'घंटामुख' नाम प्राप्त हुआ। नामक कन्या से उसके विवाह की अनेकानेक चमत्कृति- विकास--जित देवों में से एक । पूर्ण कथाएँ महाभारत में प्राप्त है (म. व. ११०.११; २. अमिताभ देवों में से एक । ऋश्यशंग देखिये)। ३. वशवर्तिन् देवों में से एक । इसके नेत्र हरे-पिले रंग के थे,एवं सर से ले कर पैरों विभिंदु--एक राजा, जिसके दानशूरता की प्रशंसा के नाखूनों तक इसके शरीर के सारे भागों पर केश ही मेधातिथि काण्व नामक आचार्य के द्वारा की गयी है। केश थे (म. व. १११.१९)। इसका आश्रम कौशिकी इसने मेधातिथि को ४८ हज़ार गायें दान में दी थी Page #876 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभिंदु प्राचीन चरित्रकोश विभीषण (ऋ. ८.२.४१-४२)। पंचविंश ब्राह्मण में भी इस कथा ___ सीता की खोज में आये हुए हनुमत् का वध करने का निर्देश प्राप्त है, किन्तु वहाँ इसे 'विभिंदुक' कहा | को रावण उद्यत हुआ। उस समय भी, इसने रावण गया है (पं. बा. १५.१०.११)। से प्रार्थना की, 'दूत का वध करना अन्याय्य है । अतः __हॉपकिन्स के अनुसार, विभिंदुक एक स्वतंत्र व्यक्ति | उसका वध न कर, दण्डस्वरूप उसकी पूँछ ही केवल जला न हो कर, वह मेधातिथि का ही पैतृक नाम था, एवं | दी जाये। हनुमत् के द्वारा किये गये लंकादहन के इस शब्द का सही पाठ 'वैभिंदुक' था (हॉपकिन्स, ट्रा. | समय, उसने इसका भवन सुरक्षित रख कर, संपूर्ण लंका सा. १५.६०)। जला दी थी (वा. रा. सु. ५४.१६)। विभिंदुक-'विभिंदु' राजा का नामान्तर ( विभिंदु | रावण की सभा में राम-रावण युद्ध के पूर्व, रावण देखिये)। इसी के वंश में उत्पन्न हुए 'विभिंदुकीय' ने अपने मंत्रिगणों की एक सभा आयोजित की थी, जिस पुरोहितों का निर्देश ब्राह्मण ग्रंथों में प्राप्त है (जै. उ. ब्रा. समय विभीषण भी उपस्थित था । उस सभा में इसने ३.२३३)। सीताहरण के कारण सारी लंकानगरी का विनाश होने - विभीषण-रावण का कनिष्ठ भाई, जो विश्रवस ऋषि | की सूचना स्पष्ट शब्दों में की थी, एवं सीता को लौटाने एवं कैकसी के तीन पुत्रों में से एक था (वा. रा. उ. के लिए रावण से पुनः एक बार अनुरोध किया था (वा. ९.७) । भागवत के अनुसार, इसकी माता का नाम | रा. यु. ९)। उस समय, रावण ने विभीषण की अत्यंत केशिनी अथवा मालिनी था (भा. ४.१.३७ )। वाल्मीकि- | कटु आलोचना की, एवं इसे राक्षसकुल का कलंक बताया रामायण में वर्णित विभीषण धार्मिक, स्वाध्याय निरत, (रावण दशग्रीव देखिये)। इस घोर भर्त्सना से घबरानियताहार, एवं जितेंद्रिय है (वा. रा. उ. ९.३९)। कर, अनल, पनस, संपाति एवं प्रमाति नामक अपने इसी पापभीरुता के कारण, अपने भाई रावण का पक्ष | चार राक्षस-मित्रों के साथ यह लंकानगरी से भाग गया छोड़ कर यह राम के पक्ष में शामिल हुआ, एवं जन्म से असुर होते हुए भी, एक धर्मात्मा के नाते प्राचीन | शरणागत विभीषण-वानरसेना के शिबिर के पास. साहित्य में अमर हुआ। | पहुँच कर अपना परिचय राम से देते हुए इसने कहा, जन्म--कैकसी को विश्रवस् ऋषि से उत्पन्न हुए रावण "मैं रावण का अनुज हूँ। उसने मेरे सलाह को ठुकरा एवं कुंभकर्ण ये दोनों पुत्र दुष्टकर्मा राक्षस थे। किंतु कर मेरा अपमान किया है। अतः मैं अपना परिवार इसी ऋषि के आशीर्वाद के कारण, कैकसी का तृतीय पत्र | छोड़ कर, तुम्हारी शरण में आ गया हूँ (त्यक्त्वा पुत्रांश्च विभीषण, विश्रवस् के समान ब्राह्मणवंशीय एवं धर्मात्मा दारांश्च राघवं शरणं गतः) (वा. रा. यु. १७.६६)। उत्पन्न हुआ (वा. रा. उ. ९.२७)। भागवत के इस अवसर पर विभीषण का वध करने की सलाह नुसार, यह स्वयं धर्म का ही अवतार था (भा. सुग्रीव ने राम से दी, किन्तु राम ने शरणागत को अवध्य ३७.१४)। बता कर इसे अभयदान दिया (वा. रा. यु. १८.२७; तपस्या-इसने ब्रह्मा की घोर तपस्या की थी, एवं राम दाशरथि देखिये)। उससे वरस्वरूप धर्मबुद्धि की ही माँग की थी (वा. रा. अनंतर विभीषण ने रावण की सेना एवं युद्धव्यवस्था उ. १०.३०)। इस वर के अतिरिक्त, ब्रह्मा ने इसे की पूरी जानकारी राम को बता दी, एवं युद्ध में राम की अमरत्व एवं ब्रह्मास्त्र भी प्रदान किया था (वा. रा. उ. सहायता करने की प्रतिज्ञा भी की। तब राम ने विभीषण को लंकानगरी का राजा उद्घोषित कर, इसे राज्याभिषेक रावण से विरोध - यह लंका में अपने भाई रावण के | किया (वा. रा. यु. १९.१९)। साथ रहता था, किंतु स्वभावविरोध के कारण इसका | राम की सहायता--रामरावण युद्ध में राम का प्रमुख उससे बिल्कुल न जमता था। रावण के द्वारा सीता का | परामर्शदाता विभीषण ही था। इसीके ही परामर्श पर, हरण किये जाने पर, सीता को राम के पास लौटाने के राम ने समुद्र की शरण ली, एवं वालिपुत्र अंगद को दूत लिए इसने उसकी बार बार प्रार्थना की थी। किन्तु रावण | के नाते रावण के पास भेज दिया। रामसेना का निरीक्षण . ने इसके परामर्श की अवज्ञा कर के, सीता को लौटाना | करने आये हुए शुक, सारण, शार्दूल आदि रावण के गुप्तचरों अस्वीकार कर दिया (वा. रा. सु. ५.३७)। को पहचान कर पकड़वाने का कार्य भी इसीने ही किया ८५४ Page #877 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभीषण प्राचीन चरित्रकोश विभीषण । रावणसेना का समाचार लाने के लिए इसने अपने राज्याभिषेक-अयोध्या पहुँचने के बाद, श्रीराम ने मंत्रिगण भेज दिये थे। कुंभकर्ण एवं प्रहस्त का परिचय विभीषण को राज्याभिषेक करने के लिए लक्ष्मण को इसीने ही राम को कराया था। मायासीता के वध के | लंका भेज दिया था (वा. रा. यु. ११२) ।बाद में प्रसंग में भी, रावण की माया के रहस्य का उद्घाटन भी अपने परिवार के लोगों के साथ विभीषण अयोध्या इसने ही राम के पास किया था। इंद्रजित् एवं रावण के | गया, एवं वहाँ राम के राज्याभिषेकसमारोह में सम्मिलित द्वारा किये जानेवाले 'आसुरी यज्ञ' का विध्वंस करने की | हुआ (वा. रा.यु. १२१,१२८)। राज्याभिषेक के पश्चात सलाह भी इसने ही राम को दी थी। | राम ने विभीषण को राजकर्तव्य का सुयोग्य उपदेश प्रदान मायावी युद्ध--रामरावण युद्ध में विभीषण ने स्वयं | किया, एवं बड़े दुःख से इसे विदा किया। भाग भी लिया था, एवं प्रहस्त, धूम्राक्ष आदि राक्षसों का अश्वमेधयज्ञ में--राम के द्वारा किये गये अश्वमेध-यज्ञ वध किया था (वा. रा. यु. ४३; म. व. २७०.४)। के समय विभीषण उपस्थित था। उस समय, ऋषियों मायावी युद्ध में प्रवीण होने के कारण, इसने इंद्रजित् से | की सेवा करने की जबाबदारी इस पर सौंपी गयी थी युद्ध करते समय काफी पराक्रम दर्शाया था. एवं उसके । (पूजां चक्रे ऋषीणाम् ) ( वा. रा. उ. ९१.२९)। सेना में से पर्वण, पूतन, जंभ, खर, क्रोधवल, हरि, प्रसज, राम का आशीर्वाद--अपने देहत्याग के समय, राम आसज, प्रवस आदि क्षद्र राक्षसों का वध किया था | ने विभीषण को आशीर्वाद दिया था :--- (वा. रा. यु: ८९.९०३; म. व. २६९.२-३)। यावच्चन्द्रश्च सूर्यश्च यावत्तिष्ठति मेदिनी । इंद्रजित के बहुत सारे सैनिक स्वयं अदृश्य रह कर यावच्च मकथा लोके तावदाज्यं तवास्त्विह ॥ युद्ध करते थे। रामसेना में से केवल विभीषण ही उन (वा. रा. उ. १०८.२५)। अदृश्य सैनिकों को देखने में समर्थ था । अंत में, इसने कुबेर से ऐसा देवी जल प्राप्त किया कि, जो आँखो में (जिस समय तक आकाश में चंद्र एवं सूर्य रहेंगे, एवं लगाने से अदृश्य प्राणी दृष्टिगोचर हो सके। इसने उस जल पृथ्वी का अस्तित्व होगा, एवं जिस समय तक मेरी कथा से प्रथम सुग्रीव एवं रामलक्ष्मण, तथा अनंतर रामसेना से लोग परिचित रहेंगे, उस समय तक लंका में तुम्हारा के प्रमुख वानरों के आँखें धोयीं, जिस कारण वे सारे राज्य चिरस्थायी रहेगा)। इंद्रजित् की अदृश्य सेना से युद्ध करने में सफल हो गये ___ परिवार-शैलूष गंधर्व की कन्या सरमा विभीषण की (म. व. २७३.९-११)। | पत्नी थी (वा. रा. उ. १२.२४-२५)। पुराणों में युद्ध के अंतिम कालखंड में, इसने लक्ष्मण से युद्ध करने में इसकी पत्नी का नाम महामूर्ति दिया गया है ( पन. वाले रावण के रथ के सारे अश्व मार डाले (वा. रा.. | पा.६७)। अशोकवन में बंदिस्त किये गये सीता के देखभाल की जवाबदारी सरमा पर सौंपी गयी थी, जो यु. १००)। इस प्रकार राम को समय-समय पर उचित सीता के 'प्रणयिनी सखी' के नाते उसने निभायी थी सलाह एवं सहायता दे कर, इसने उसे युद्ध में विजय पाने के लिए मदद की। (वा. रा. यु. ३३.३)। रावण का अंत्यसंस्कार--रावणवध के तश्चात . इसने सरमा से इसे कला नामक कन्या उत्पन्न हुई थी रावण के दुष्टकर्मों का स्मरण कर, उसका दाहकर्म करना ( वा. रा. सु. ३७)। अन्यत्र इसकी कन्या का नाम नंदा अस्वीकार कर दिया। किन्तु राम ने इसे समझाया. 'मृत्य | दिया गया है ( वा. रा. सुं. गौडीय. ३५.१२)। के पश्चात् मनुष्यों के वैर समाप्त होते है। इसी कारण २. कानगरी का एक विभीषणवंशीय राजा, जिसे उनका स्मरण रखना उचित नही है (मरणान्तानि वैराणि)' | सहदेव 'पाण्डव' ने अपने दक्षिण दिग्विजय के (वा. रा. यु. १११.१००)। फिर राम की आज्ञा से, समय जीता था। यह गमकालीन विभीषण से काफी इसने रावण का उचित प्रकार से अन्त्यसंस्कार किया। उत्तरकालीन था, एवं इन दोनों में संभवतः ३०-३५ रावण के वध पर विभीषण के द्वारा किये गये विलाप का | पीढियों का अन्तर था। इस कालविसंगति का स्पष्टीकरण एक सर्ग वाल्मीकिरामायण के कई संस्करणों में प्राप्त है। पौराणिक साहित्य में राम-कालीन विभीषण को चिरंजीव (वा. रा. उ. दाक्षिणात्य. १०९)। किन्तु वह सर्ग प्रक्षिप्त मान कर किया गया है। किन्तु संभव यही है कि, यह प्रतीत होता है। विभीषण के वंश में ही उत्पन्न कोई अन्य राजा था। मार डाल चितोता के '' Page #878 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभीषण प्राचीन चरित्रकोश विमद इसके राजप्रासाद एवं नगरी का सविस्तृत वर्णन १३. अमिताभ देवों में से एक। महाभारत में प्राप्त है, जिससे प्रतीत होता है कि, लंका | १४. (सो. मगध.) मगधवंशीय महाबाहु राजा का का वैभव इसके राज्यकाल में चरमसीमा पर पहूँच | नामान्तर (मत्स्य. २७१.२४; महाबाहु ३. देखिये) गया था (म. स. ३१)। १५. (स्वा. प्रिय.) एक राजा, जो पृथु वैन्य एवं ___ सुग्रीव के दूत के नाते घटोत्कच इसके दरबार में | अर्चिष्मती के पुत्रों में से एक था। आया था । उस समय युधिष्ठिर का परिचय सुन कर, १६. स्वायंभुव मनु के पुत्रों में से एक (पन. सृ. ७)। इसने घटोत्कच का उचित आदर-सत्कार किया, एवं उसे इसे स्वयंभुव मनु का पौत्र भी कहा गया है (वायु. युधिष्ठिर के पास पहुँचाने के लिए निम्नलिखित 'उपायन' | ३१.१७)। वस्तुएँ प्रदान की:-हाथी के पीठ पर बिछाने योग्य स्वर्ण | विभति--विश्वामित्र के ब्रह्मवादी पुत्रों में से एक से बने हुए आसन, बहुमूल्य आभूषण, सुंदर मूंगे, स्वर्ण | (म. अनु. ४.५७)। एवं रत्न से बने हुए अनेकानेक कलश, जलपात्र, चौदह | विभूवस-एक ऋषि, जो त्रिन ऋषि का पिता था सुवर्णमय ताड़ वृक्ष, मणिजडित शिबिकाएँ, बहुमूल्य | (ऋ. १०.४६.३)। मुकट, चंद्रमा के समान उज्वल शतावर्त शंख, श्रेष्ठचंदन | विभ्राज-(सो. पूरु.) एक राजा, जो विष्णु एवं से बनी हुयी अनेकानेक वस्तुएँ आदि (म. स. २८. | वायु के अनुसार सुकृति राजा का, एवं मत्स्य के अनुसार ५०-५३; परि. १.१५. पंक्ति २३५-२५३)। सुकृत राजा का पुत्र था। कई अभ्यासकों के अनुसार ३. एक यक्ष (म. स. १०.१३)। भागवत में निर्दिष्ट पार राजा एवं यह दोनों एक ही थे, विभीषणा--स्कंद की अनुचरी एक मातृका (म. किन्तु वह अयोग्य प्रतीत होता है (पार. २. देखिये)। श. ४५.२२)। २. पांचाल देश का एक राजा, जो ब्रह्मदत्त राजा को विभु--एक दानव, जो कश्यप एवं दनु के पुत्रों में से पिता था। इसे 'अनघ' नामान्तर भी प्राप्त था (मत्स्य.. एक था । २१.११-१६)। २. एक देव, जो यज्ञदेव एवं दक्षिणा के पुत्रों में से एक विभ्राज सौर्य--एक वैदिक सूक्तद्रष्टा (ऋ. १०. था (भा. ४.१.७)। १७०)। ३. (स्वा.) एक राजा, जो प्रस्ताव एवं नियुत्सा के पुत्रों विमद ऐद्र प्राजापत्य--एक वैदिक सूक्तद्रष्टा ( ऋ । में से एक था । इसकी पत्नी का नाम रति. एवं पुत्र का १०. २०..२६)। ऋग्वेद के इन सूक्तों में इसका स्पष्ट नाम पृथुषेण था (भा. ५.१५.६)। नामोल्लेख, तथा इसके 'विमल' नामक परिवार का निर्देश ४. (सो. क्षत्र.) एक राजा, जो सत्यकेतु राजा का पुत्र प्राप्त है (ऋ. १०.२०.१०:२३.७)। था। इसके पुत्र का नाम सुविभु था (वायु. ९२.७१) यह इंद्र एवं आश्वियों के कृपापात्र व्यक्तियों में से एक माई को अपने था (ऋ. १.११२.१९, ११६.१११७.२०:१०.३९.७; चार भाइयों के साथ भीमसेन के रात्रियद्ध में मारा गया ६५.१२)। यह इंद्र एवं 'प्रजापति' का मानसपुत्र था, (म. द्रो. १३२.२०-२१)। जिस कारण इसे 'ऐंद्र' एवं 'प्राजापत्य' पैतृक नाम प्राप्त ६. एक ऋषि, जो भृगु वारुणि का पुत्र था। इसे वरेण्य हुए थे। नामान्तर प्राप्त था। पुरुमित्र की कन्या कमा इसकी पत्नी थी, जिसने इसका ७. साध्य देवों में से एक (वायु. ६६.१६ )। स्वयंवर में वरण किया था। इस कारण स्वयंवर के लिए ८. तुषित देवों में से एक। उपस्थित हुए अन्य राजाओं ने इससे युद्ध शुरु किया । ९. रैवत मन्वन्तर का इंद्र (विष्णु. ३.१.२०)। उस समय अश्वियों ने इसे अपने शत्रुओं को परास्त करने १०. स्वायंभुव मन्वन्तर में उत्पन्न श्रीविष्णु का | में साहाय्य किया, एवं कमा को रथ में बैठा कर इसके एक अवतार । पास पहुँचा दिया (अ. वे. ४.२९.४, ऐ. बा. ५. ११. एक भव देव, जो भग एवं सिद्धि के पुत्रों में से | ५.१)। एक था (भा. ६.१८.२)। कई अभ्यासकों के अनुसार, ऋग्वेद का सूक्तद्रष्टा १२. जिताजित् देवों में से एक। | विमद, एवं आश्वियों का कृपापात्र विमददो अलग व्यक्ति Page #879 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विमद प्राचीन चरित्रकोश विरजा थे। लदविंग के अनुसार, वत्स काण्व एवं आश्वियों का | ४. सावर्णि मनु के पुत्रों में से एक। कृपापात्र विमद दोनों एक ही थे (लुडविग, ऋग्वेद अनुवाद | ५.(स्वा.) एक राजा, जो भागवत के अनुसार पूर्णिमत ३.१०५ ) । ऋग्वेद की एक ऋचा में विमद एवं वत्स का | राजा का पुत्र था। एकत्र निर्देश प्राप्त है (ऋ. ८.९.१५)। ६. एक आचार्य, जो व्यास की ऋकशिष्य परंपरा में विमनप्या-एक अप्सरा, जो कश्यप एवं मुनि की | से जातकण्य नामक आचार्य का शिष्य था (भा. १२.६. कन्याओं में से एक थी (ब्रह्मांड. ३.७.५)। विमर्द--एक किरात राजा, जिसका शिवपूजा के | | विरजस्-भगवान् नारायण का एक मानसपुत्र, कारण उद्धार हुआ (कंद. ३.३.४ )। जिसने अपना राज्य छोड़ कर संन्यासव्रत की दीक्षा ली। विमल-दक्षिणापथ का एक राजा, जो इल (सुद्यम्न) इसके पुत्र का नाम कीर्तिमत् था (म. शां. ५९.९४-९६)। राजा का पुत्र था (भा.९.१.४१)। २. (सो. कोष्ट.) एक राजा, जो जीमूत राजा का पुत्र, २. नारायण नामक शिवावतार का एक शिष्य । ३. लोकाक्षि नामक शिवावतार का एक शिष्य । एवं भीमरथ राजा पिता था (मत्स्य, ४४.४१)। पाठ, | 'विकृति'। ४. चाक्षुष मन्वन्तर का एक ऋषि, जो वसिष्ठ एवं ऊर्जा ३. हिमालय की तलहटी में रहनेवाला एक ब्राह्मण, के सात पुत्रों में से एक था (भा. ४.१.४१)। जिसे ब्रह्मा की तपस्या के कारण पुत्रप्राप्ति हुई थी (पन. ५. वशवर्तिन् देवों में से एक । उ.२०७)। ६. एक नाग,जो कश्यप एवं कद्र के पुत्रों में से एक था। ४. रत्नातट नगरी का एक राजा, जिसने राम के ७. (सो. कुरु.) धृतराष्ट्र के शतपुत्रों में से एक । अश्वमेध यज्ञ के समय शत्रुघ्न को सहाय्यता की थी भीम ने इसका वध किया (म. द्रो. ११३.११३५७, पंक्ति. (पन. पा. १७)। २-५)। . एक यक्ष, जो मणिवर एवं पुण्यजनी के पत्रों में से ८. एक प्रजापति, जो वारुणि कवि नामक ऋषि के आठ एक था। पुत्रों में से एक था। इसके अन्य सात भाईयों के नाम - विमलपिंडक--एक नाग, जो कश्यप एवं कद्र के | निम्न प्रकार थे:--कवि, काव्य, धृष्णु, उशनम् , भृगु, पुत्रों में से एक था। विरजस् एवं का शि । इसकी विरजा एवं नड्बला नामक दो ' विभला--एक गाय, जो मुरभित्री रोहणी के दो कन्याएँ, एवं सुधन्वन् नानक एक पत्र था। इनमें से विरजा कन्याओं में से एक थी। दूसरी कन्या का नाम अनला था का विवाह क्ष वानर से, एवं नवला का विवाह चाक्षुष (म. आ.६०.४१*)। मनु से हुआ था । वैराज नामक पितर भी इसीके ही अनला से पिण्डाकार फल देने वाले सात वृक्ष निर्माण पुत्र कहलाते हैं (ब्रह्मांड. ३.७.२१२)। हुए (म. आ. ६०.६६)। विरजस्क--सावर्णि मनु के पुत्रों में से एक । विमुख--दक्षिण भारत में रहनेवाला एक ऋषि (वा. विरजा--विरजस् नामक प्रजापति की कन्या, जों रा.उ.१)। शुकपुत्र ऋक्ष वानर की पत्नी थी । इसे इंद्र एवं सूर्य से विमौद्गल--अंगिराकुलोत्पन्न एक गोत्रकार। क्रमशः वालिन् एवं सुग्रीव नामक पुत्र उत्पन्न हुए (ब्रह्मांड. वियति-एक राजा, जो भागवत एवं विष्णु के ३. ७.२१२-२१५)। वाल्मीकिरामायण के दाक्षिणात्य अनुसार नहुष राजा का पुत्र था (भा. ९.१८.१; विष्णु. पाठ में, वालि एवं सुग्रीव को स्त्रीरूपधारी ऋक्षरजम ४.१०.१)। वानर के पुत्र कहा गया है ( वालिन् देखिये)। विरज--(स्वा. नाभि.) एक राजा, जो त्वष्ट एवं २. सुस्वधा नामक 'आज्यप' पितरों की कन्या, जो विरोचना के पुत्रों में से एक था। इसकी पत्नी का नाम नहुष की पत्नी, एवं ययाति की माता थी (मत्स्य.१५.२३)। विशुचि था, जिससे इसे शत जित् आदि सौ पुत्र एवं एक ३. एक राक्षसी, जिसने अदितिपुत्र महोत्कट का कन्या उत्पन्न हुई। वेष धारण किये हुए श्रीगणेश को भक्षण किया। २. चाक्षुप मन्वन्तर का एक ऋपि। महोत्कटरूपी श्रीगणेश इसका उदर विदीर्ण कर बाहर ३. सावर्णि मन्वन्तर का एक देवगण । आया । अन्त में उसीके ही स्पर्श से इसे मुक्ति प्राप्त हुई। प्रा. च. १०८] ८५७ Page #880 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विरजा प्राचीन चरित्रकोश विराट ४. कृष्ण की एक प्रियपत्नी, जो राधा की सौत थी। शस्त्रसंभार को शमीवृक्ष में छिपा कर, पाण्डव विराटनगरी सवती-मत्सर के कारण राधा ने इसे नदी बनने का शाप | में पहुँच गये । युधिष्ठिर के दुर्भाग्य की कहानी सुन कर, यह दिया, जिस कारण, यह विरजा नामक नदी बन गयी। मत्स्यदेश का अपना सारा राज्य उसे देने के लिए उद्यत क्षार-समुद्रादि अष्टसमुद्र इसीके ही पुत्र माने जाते हैं | हुआ। किन्तु युधिष्ठिर ने उसका इन्कार कर, स्वयं को एवं (ब्रह्मवै. ४.२)। अपने भाइयों को अज्ञात अवस्था में एक वर्ष तक रखने के विरजामित्र-स्वायंभुव मन्वन्तर के 'विरजस्' नामक | लिए इसकी प्रार्थना की । (म. वि. ९)। वसिष्ठपुत्र का नामान्तर । इस शब्द का शुद्ध पाठावरजस्+ | पाण्डवों के अज्ञातवास की जानकारी प्रथम से ही विराट मित्र होने की संभावना है। को थी, यह महाभारत में प्राप्त निर्देश अयोग्य, एवं उसी विरथ--( सो. द्विमीढ.) द्विमीढवंशीय बहुरथ ग्रंथ में अन्यत्र प्राप्त जानकारी से विसंगत प्रतीत होता है। राजा का नामान्तर । मत्स्य में इसे नृपंजय राजा का पुत्र | पश्चात् पाँच पाण्डव एवं द्रौपदी विराट-नगरी में कहा गया है। निम्नलिखित नाम एवं व्यवसाय धारण कर रहने विरस-एक कश्यपवंशीय नाग (म. उ. १०१.१६) | लगे :--१. युधिष्ठिर (कंक)--विराट का द्यतविद्याप्रवीण विराज-(स्वा. नाभि.) एक राजा, जो विष्णु के राजसेवक (म. वि. ६.१६); २. अर्जुन ( बृहन्नला )-- अनुसार नर राजा का पुत्र था। | विराट के अंतःपुर का सेवक, जो विराटकन्या उत्तरा को २. स्वायंभुव मनु का नामान्तर (मत्स्य. ३.४५, गीत, वादन, नृत्य आदि सिखाने के लिए नियुक्त किया ब्रह्मांड. २.९.३९; मनु स्वायंभुव देखिये)। गया था (म. वि. १०.११-१२); ३. भीमसेन (वल्लव) विराज--(सो. कुरु ) एक राजा, जो कुरु राजा का पाकशालाध्यक्ष (म. व. ७.९-१०); ४. नकुल (ग्रंथिक पौत्र, एवं अविक्षित् राजा का पुत्र था (म. आ. ८९. अथवा दामग्रंथी)-अश्वशालाध्यक्ष (म. वि. ११.९-१०);. ४५)। ५. सहदेव (तंतिपाल अथवा अरिष्टनेमि)-गोशाला२. (सो, कुरु.) धृतराष्ट्र के शतपुत्रों में से एक, जो | ध्यक्ष (म. वि. ९.१४);६.द्रौपदी (सैरंध्री)-- विराटभीम के द्वारा मारा गया (म. भी. ९९.२६ )। पत्नी सुदेष्णा की सैरंध्री (म. वि. ३.१७, ८)। । विराट--मत्स्य देश का सुविख्यात राजा, जो मरुद्गणों कीचकवध-इस प्रकार पाण्डव छमा नामों से अपने - के अंश से उत्पन्न हुआ था (म. वि. ३०.६; आ. ६१. | अपने कार्य करते हए रहने लगे। इतने में विराट के ७६)। मत्स्य देश में स्थित विराट-नगरी में इसकी सेनापति कीचक ने द्रौपदी पर पापी नजर डाल दी, जिस राजधानी थी। इसी कारण संभवतः इसे विराट नाम प्राप्त कारण वह भीम के द्वारा मारा गया (म. वि. ६१.६८; हुआ था। परि. १. क्र. १९. पंक्ति ३१-३२)। यह अपने समय का एक श्रेष्ठ एवं आदरणीय राजा सुशर्मन से युद्ध--सेनापति कीचक की मृत्यु से इसकी था। अपने पुत्र उत्तर एवं शंख के साथ यह द्रौपदी- सेना काफी कमजोर हो गयी। यही सुअवसर पा कर, स्वयंवर में उपस्थित था (म. आ. १७७.८)। यह मगध- त्रिगर्तराज सुशर्मन् ने मत्स्य-देश पर आक्रमण किया, राज जरासंध का मांडलिक राजा था। जरासंध के द्वारा | एवं इसकी दक्षिण दिशा में स्थित गोशाला लूट ली। यह उत्तरदिग्विजय के लिए नियुक्त किये गये मांडलिक | देख कर अपनी सारी सेना एकत्रित कर, विराट ने राजाओं में से यह एक था (ह. वं. २.३५, जरासंध | सशर्मन पर हमला बोल दिया। इस सेना में, इसके देखिये )। युधिष्ठिर के राजसूययज्ञ के समय, सहदेव के | शतानीक एवं मदिराक्ष नामक दो महारथी भाई; द्वारा किये दक्षिण दिग्विजय में, उसने इसे जीता था | उत्तर एवं शंख नामक दो पुत्र, एवं अजुन को छोड़ (म. स. २८.२) । उस यज्ञ के समय, इसने युधिष्ठिर | कर बाकी चार ही पाण्डव शामिल थे (म. वि. ३१.५८४)। को सुवर्णमालाओं से विभूषित दो हज़ार हाथी उपहार के | काफी समय तक युद्ध चलने पर, सुशर्मन् ने इसे रूप में दिये थे (म. स. ४८.२५)।। जीवित पकड़ कर बन्दी बना लिया । जैसे ही युधिष्ठिर को का अज्ञातवास-वनवास समाप्ति के पश्चात् | यह पता चला, उसने भीमसेन को एवं उसके चक्ररक्षक अपने अज्ञातवास का एक वर्ष पाण्डकों के द्वारा विराट- | के रूप में नकुल-सहदेव को इसे छड़ाने के लिए भेज नगरी में ही व्यतीत किया गया। उस समय अपने समस्त दिया । शीघ्र ही भीम ने सुशर्मन् को चारों ओर से घिरा Page #881 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विराट प्राचीन चरित्रकोश विराट कर परास्त-किया, एवं इसकी तथा इसगे गायों की मुक्तता नगरी में उत्तरा एवं अभिमन्यु का विवाह संपन्न कराया की । पश्चात् सुशर्मन् को बाँध कर वह उसे युधिष्ठिर के | (म. वि. ६६-६७)। मामने ले आया. किन्नु युधिष्ठिर ने सुशर्मन् की मुक्तता भारतीय युद्ध में--इस यद्ध के समय, यह यद्यपि करने के लिए भीम को आज्ञा दी । पश्चात् सुशर्मन् ने अत्यंत वृद्ध हुआ था, फिर भी अपने बन्धु एवं पुत्रों के विराट की क्षमायाचना की, एवं वह त्रिगत देश चला गया साथ यह पाण्डवों के पक्ष में युद्ध करने के लिए उपस्थित (म. वि. २९.३२ ) । इस प्रकार सुशर्मन् के साथ हुए, हआ था। यधिष्ठिर के सात प्रमुख सेनापतियों में से यह युद्ध में पाण्डवों ने काफी पराक्रम दर्शाने के कारण, विराट एक था (म. उ. १५४.१०-११)। इस युद्ध में इसका ने उनका बहुत ही सम्मान किया (म. वि. ६६)। निम्नलिखित योद्धाओं से युद्ध हुआ था:--१. भगदत्त दुर्योधन से युद्ध--उपर्युक्त युद्ध के समय, सुशर्मन् के (म. भी. ४३.४८); २.अश्वत्थामन् (म. भी. १०६. अनुरोध पर दुर्योधन ने मत्स्य देश की गोशालाओं पर ११:१०७.२१); ३. जयद्रथ (म. भी. ११२.४१-४२); आक्रमण किया, एवं इसकी गायों का हरण किया (म. ४. विंद एवं अनुविंद (म. द्रो. २४.२०); ५. शल्य वि. ३३ )। उस समय स्वयं विराट सुशर्मन् से युद्ध (म. द्रो. १४२.३०)। करने में व्यस्त था, इस कारण इसके पुत्र उत्तर ने | मृत्यु--जयद्रथ वध के उपरान्त हुए रात्रियुद्ध में यह बृहन्नला को अपना सारथी बना कर, कौरवों पर आक्रमण द्रोण के द्वारा मारा गया (म. द्रो. १६१.३४)। इसकी किया ( म. वि. ३५)। मृत्यु पौष कृष्ण एकादशी के दिन प्रातःकाल में हुई थी(भारतसुशमन को जीत कर विराट अपनी नगरी में लौट सावित्री)। इसकी मृत्यु के उपरान्त युधिष्ठिर ने इसका दाहआते ही इसे सूचना प्राप्त हुई कि, उत्तर भी कौरवो को संस्कार किया (म. स्त्री. २६.३३), एवं इसका श्राद्ध भी परास्त कर गायों के साथ आ रहा है । तत्काल इसने किया (म. शां ४२.२)। मृत्यु के उपरान्त यह स्वर्ग में उत्तर के स्वागत के लिए अपनी सेना भेज़ दी, एवं यह जा कर विश्वेदेवों में सम्मिलित हुआ (म. स्व. ५.१३)। स्वयं कंक ( युधिष्ठिर ) के साथ द्युत खेलने बैठ गया। परिवार-इसकी कुल दो पत्नियाँ थी:-१. कोसलराज युधिष्ठिर का अपमान--त खेलते समय विराट ने कुमारी सुरथा, जिससे इसे श्वेत एवं शंख नामक दो पुत्र अपने पुत्र उत्तर की वीरता का गान युधिष्ठिर को सुनाना उत्पन्न हुए थे; २. केकय देश के सूत राजा की कन्या फ्रारंभ किया। युधिष्ठिर इस बात को न सह सका, एवं सुदेष्णा, जो इसकी पटरानी थी (म. वि. ८.६); एवं सह जवश कह बैठा, 'बृहन्नला जिसका सारथी हो जिससे इसे उत्तर (भूमिंजय ), एवं बभ्र नामक दो पुत्र, उसे विजय प्राप्त होनी ही चाहिए। कंक की यह | एवं उत्तरा नामक एक कन्या उत्पन्न हुई थी। . वाणी सुन कर विराट क्रुद्ध हुआ, एवं इसने जोश में इसके कल ग्यारह भाई थे. जिनके नाम निम्तकार आ कर कक के मुख पर जोर से पासा फेंक मारा, जिस थे:-१. शतानीक; २. मदिराक्ष (मदिराश्व, विशालाश्व); कारण उसकी नाक से खून बहने लगा। उसी समय उत्तर | ३. श्रतानीक; ४. श्रतध्वजः ५. बलानीक; ६. जयानीका बहाँ आ पहचा, एवं उसने बृहन्नला के पराक्रम की वाता। ७. जयाश्व; ८. रथवाहन; ९. चंद्रोदय; १०. समरथ; कह सुनायी । पश्चात् उसने इसे युधिष्ठिर की क्षमा माँगने | ११. सूर्यदत्त (म. द्रो. १३३.३९-४०)। इन भाइयों के लिए भी कहा। में से शतानीक इसका सेनापति था, एवं मदिराक्ष उत्ता-अभिमन्यु-विवाह--पाण्डवों का अज्ञातवास | 'महारथी' था। . समाप्त होने पर, उनकी सही जानकारी जब विराट को इसके सारे पुत्र एवं सारे भाई भारतीय युद्ध में ज्ञात हुई, तब इसे बड़ा दुःख हुआ । पाण्डवों के उपकारों शामिल थे। उनमें से शंख, सूर्यदत्त एवं मदिराक्ष द्रोण के का बदला चुकाने, तथा उनका सत्कार करने की दृष्टि से, | द्वारा, श्वेत एवं शतानीक भीष्म के द्वारा, एवं उत्तर शल्य इसने अपनी कन्या उत्तरा का विवाह अर्जुन के साथ करना | के द्वारा मारे गये। चाहा । किन्तु अर्जुन ने इस प्रस्ताव का इन्कार किया, एवं| २. सुतप देवों में से एक (वायु. १००.१५)। अपने पुत्र अभिमन्यु का उत्तरा के साथ विवाह कराने की । ३. आनंद नामक गालव्यकुलोत्पन्न ब्राह्मण का मानसइच्छा प्रकट की। अर्जुन का यह प्रस्ताव सुन कर विराट | पुत्र (आनंद १. देखिये)। को अत्यंत आनंद हुआ, एवं इसने अपने उपप्तव्य नामक | ४. प्रतईन देवों में से एक (वायु. ६२.२६)। ८५९ Page #882 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विराट प्राचीन चरित्रकोश विरोचन ५. स्वायंभुव मनु का नामांतर (मत्स्य. ३.४५)। नाम निम्नप्रकार थे:--बृहस्पति, उतथ्य, पयस्य, शान्ति, विराडप-अंगिराकुलोत्पन्न एक गोत्रकार । पाठभेद- | घोर, संवर्त, एवं सुधन्वन् (म. अनु. ८५.१३०-१३१) । 'बिडालज'। विरूपक-एक राक्षस, जो नैऋत (आलंबेय ) राक्षस विराध-वितल नामक पाताललोक में रहनेवाला गण का अधिपति था। ये सारे राक्षस शिव के उपासक एक दानव, जो कश्यप एवं दनु के पुत्रों में से एक था थे, जिस कारण स्वयं को रुद्र-गण कहलाते थे। (वायु. ५०.२८)। ___ इसकी पत्नी का नाम नीलकन्या विकचा था, जिससे २. दंडकारण्य में रहनेवाला एक राक्षस, जो जव | इसे दंष्ट्राकराल आदि भूमि-राक्षस उत्पन्न हुए (ब्रह्मांड. एवं शतदा का पुत्र था। राम ने इसका वध किया, | ३.७.१४०-१४३; १५३; वायु. ६९.१७४ )। एवं लक्ष्मण ने एक गड्ढा खोद कर इसे गाड़ दिया। । २. एक दानव, जो प्राचीनकाल में पृथ्वी का शासक पूर्वजन्म में यह तुंबुरु नामक गंधर्व था, जिसे रंभा पर | था (म. शां. २२०.५१)। अत्याचार करने के कारण, राक्षसयोनि प्राप्त हुई थी। विरूपाक्ष--एक दानव, जो कश्यप एवं दन के चौतीस (वा. रा. अर. २.१२, ४.१३-१९; म. स. परि.१.क्र. पुत्रों में से एक था। इंद्र-वृत्र युद्ध में यह वृत्र के पक्ष में २१. पंक्ति ५१९)। शामिल था (वायु. ६८.११)। आगे चल कर यह विराव-अमिताभ देवों में से एक। | चित्रवर्मा राजा के रूप में पृथ्वी पर अवतीर्ण हुआ था विराविन्-धृतराष्ट्र के शतपुत्रों में से एक। (म. आ.६१.२३)। विरुद्ध-ब्रह्मसावर्णि मन्वन्तर का एक देवगण | २. रावणपक्षीय एक राक्षस, जो माल्यवत् राक्षस (भा. ८.१३.२२)। का पुत्र था (वा. रा.उ. ५.३५)। यह रावण के सेनाविरूप-एक असुर, जो श्रीकृष्ण के द्वारा मारा गया | पतियों में से एक था, एवं सुग्रीव से इसका युद्ध हुआ था था (म. स. ९.१४)। (म. व. २६९.८; वा. रा. यु. ९.३; ९६.३४, ९९.१)। २. क्रोध के द्वारा लिया गया मानवी रूप, जिस रूप | हनुमत् ने इसका वध किया। में उसने इक्ष्वाकु राजा के साथ तत्त्वज्ञानपर संवाद किया । ३. एक राक्षस, जो घटोत्कच का सारथी था। कर्ण.. था। महाभारत में 'विरूप-इक्ष्वाकु संवाद ' विस्तृत रूप | घटोत्कच युद्ध में यह कर्ण के द्वारा मारा गया (म. द्रो.: में दिया गया है। १५०.९२)। महाभारत में अन्यत्र 'विकृत-विरूप संवाद' भी प्राप्त | | ४. एक राक्षस, जो नरकासुर का सेनापति था । 'औदका' है. जो इसने मानवरूपधारी 'काम' से किया था | के अंतर्गत लोहितगंगा नदी के पास श्रीकृष्ण ने इसका (म. शां. १९२.८८-११६)। वध किया (म.स. ३५. परि. १. क्र. २१ पंक्ति. १०१२)। ३. श्रीकृष्ण के महारथी पुत्रों में से एक (भा. १०. ५. एक राक्षस, जो महिषासुर का अमात्य था ( दे.भा. ९०.३४)। ४. (सू. नाभाग.) एक राजा, जो भागवत के अनुसार ६. एक राक्षस, जो सुमालि राक्षस का अमात्य था। अंबरीष राजा का पुत्र, एवं पृषदश्व राजा का पिता था | सुग्रीव ने इसका वध किया (वा. रा. यु. ९६)। (भा. ९.६.१)। ७. रुद्र-शिव का नामान्तर (ब्रह्मांड. २.२५.६४)। विरूप आंगिरस-अंगिराकुलोत्पन्न एक मंत्रकार एवं ८. एकादश रुद्रों में से एक (मत्स्य. ५.२९)। प्रवर, जिसका निर्देश ऋग्वेद में एक वैदिक सूक्तद्रष्टा के | ९. भृगुकुलोत्पन्न एक गोत्रकार (मत्स्य. १९५. नाते किया गया है (ऋ. १.४५.३, ८.७५.६ )। ऋग्वेद- १९) । इसे अंगिरस्-कुल का मंत्रकार भी कहा गया है। अनुक्रमणी में भी एक सूक्तकार के नाते इसका निर्देश | १०. एक राक्षसराज, जो राजधर्मन् नामक बक का प्राप्त है (ऋ. ८.४३, ४४.७५))। ऋग्वेद में अन्यत्र | मित्र था ( राजधर्मन् देखिये)। भी इसका निर्देश प्राप्त है (ऋ. १.४५.३; ८.७५.६)। विरोचन-एक राक्षससम्राट् , जो प्रह्लाद के तीन महाभारत में इसे अंगिरस् ऋषि के आठ पुत्रों में से पुत्रों में से ज्येष्ठ था। सुविख्यात राक्षससम्राट् बलिएक कहा गया है, एवं इसे 'वारुण' एवं 'अग्नि' पैतृक- | वैरोचन का यह पिता था ! सप्तपातालों में से पाँचवें पाताल नाम प्रदान किये गये हैं। इसके अन्य सात भाइयों के | में इसका अधिराज्य था। दैत्यों के द्वारा किये गये पृथ्वी ८६० Page #883 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विरोचन प्राचीन चरित्रकोश विरोचन दोहन के समय, यह 'वत्स' (बछडा) बना था (म. प्रजापति का यह अनृत-कथन सत्य मान कर, विरोचन दो. परि. १. क्र. ८. पंक्ति. ८०२)। ने उत्तम स्नान किया, एवं उत्कृष्ट वस्त्र एवं अलंकार परिप्रल्हाद की न्यायप्रियता-इसके पिता प्रह्लाद के धान कर, अपनी परछाई का पानी में निरीक्षण किया । न्याय निष्ठरता के संबंध में एक कथा महाभारत में प्राप्त पश्चात् उसी परछाई को आत्मा मान कर, उसी तत्त्व का है। एक बार केशिनी नामक सुंदर राजकन्या से यह एवं | प्रचार यह अपने अनुगामियों में करने लगा। इसीके अंगिरस् ऋषि का पुत्र सुधन्वन् एकसाथ ही प्रेम करने | कारण, देह को ही आत्मा समझने वाले असुरों का लंगे। उस समय केशिनी ने इन दोनों से कहा, 'तुम दोनों 'आसुरी सांप्रदाय' निर्माण हुआ। यह सांप्रदाय देवों से में से जो अपने को श्रेष्ठ साबित करेगा, उससे मैं विवाह संपूर्णतः विभिन्न था, जो शारीरिक एवं मानसिक बंधनों करूँगी। से अतीत, शुद्ध एवं स्वसंवेद्य आत्मतत्त्व को ही आत्मा श्रेष्ठता के संबंध में इसका एवं सुधन्वन् का काफी | मानते थे (छां. उ. ८.७.२, ९.२;रक्षम् एवं देव देखिये)। वादविवाद हुआ। अंत में इस वाद का निर्णय करने के मृत्यु--देवासुरों के बीच संपन्न हुए 'तारकामय युद्ध' लिए, ये दोनों विरोचन के पिता असुरराज प्रह्लाद के पास में असुरों के एक सेनादल का यह सेनापति था (म. स. गये। इनका यह भी तय हुआ कि, इनमें से जो श्रेष्ठ | परि. १ क्र. २१ पंक्ति. ३६७)। इसी यद्ध में यह इंद्र के सावित होगा, उसका दूसरे के प्राणों पर अधिकार होगा। द्वारा मारा गया (म. शां. ९९.४८; ब्रह्मांड. २.२०.३५, __ असुरराज प्रह्लाद इन दोनों की श्रेष्ठता के संबंध में | मत्स्य. १०.२१; पद्म. स. १३)। कुछ भी निणय न दे सका, जिस कारण उसने कश्यप | गणेश पुराण में इसकी मृत्यु की संबंध में एक कल्पनारम्य ऋषि की सलाह ली। उसी के कहने पर, प्रह्लाद ने अपने | कथा दी गयी है। सूर्य के प्रसाद से इसे एक मुकुट प्राप्त पुत्र की अपेक्षा सुधन्वन् को श्रेष्ठ ठहराया, एवं उसे हुआ था । उसके संबंध में शर्त थी कि, यह मुकुट कहा, 'तुम विरोचन के प्राणों के मालिक हो, उसका | किसी दूसरे के हाथों लग जायेगा, तो इसकी मृत्यु होगी। . जीवन तुम्हारी मुट्ठी में है' । प्रह्लाद की यह अपत्य- | कालोपरांत इसके द्वारा देवों को अत्यधिक त्रस्त किये निरपेक्ष न्यायप्रियता देख कर, सुधन्वन् अत्यधिक प्रसन्न | जाने पर,श्रीविष्णु ने स्त्रीरूप धारण कर इसे मोहित किया, हुआ. एवं उसने विरोचन का जीवन उसे वापर दे दिया, | एवं इसका मुकुट हस्तगत कर के इसका विनाश किया • एवं इसे शतायु बनने का आशीर्वाद दिया (म. स.६१. (गणेश. २.२९)। ५८-७९)। नारदपुराण के अनुसार, श्रीविष्णु ने ब्राह्मणवेष इंद्र विरोचनआख्यान--छांदोग्य उपनिषद में इंद्र एवं । धारण कर, इसकी धर्म निष्ठ पत्नी विशालाक्षी का बुद्धि भ्रंश विरोचन की आत्मज्ञान के संबंध में एक कथा प्राप्त है। करवाया, एवं कपट से इसका वध किया (नारद. २. एकबार देव एवं असुरों को ब्रह्मज्ञान प्राप्त करने की इच्छा हुई, एवं इस हेतु वे प्रजापति के पास गये। उनके प्रश्न परिवार-इसकी विशालाक्षी एवं देवी नामक दो का उत्तर देते हुए प्रजापति ने उन्हे कहा, 'पृथ्वी के पत्नियाँ थी ( नारद. २,३२; भा. ६.१८.१६ )। इनमें निष्पाप, अजर, अमर, अकाम एवं संकल्परहित आद्य से देवी से इसे बलि नामक पुत्र उत्पन्न हुआ (म. आ. तत्त्व को आत्मा कहते है । तदुपरांत इसी आत्मा के ५९.१९-२०; पद्म. सु. ६)। इसकी कन्या का नाम सत्य स्वरूप का ज्ञान प्राप्त कराने के हेतु देवों ने इंद्र को, यशोधरा था (ब्रह्मांड. ३.१.८६; यशोधरा देखिये)। एवं असुरों ने विरोचन को प्रजापति के पास शिष्य के नाते भेज दिया। | इसके निम्नलिखित पाँच भाई थे:- कुंभ, निकुंभ, ब्रह्मज्ञान की प्राप्ति के लिए इंद्र एवं विरोचन बत्तीस | आयुष्मत् , शिबि एवं बाष्कलि । इसकी बहन का नाम साल तक प्रजापति के पास रहे। फिर भी प्रजापति ने | विरोचना था (वायु. ८४.१९)। इनको ब्रह्मज्ञान न दिया, एवं इनकी परीक्षा लेने के लिए | २. धृतराष्ट्र के शतपुत्रों में से एक । यह द्रौपदीस्वयंवर में इनसे अनृत (असत्य) बचन कहे, 'आँखों में, पानी | उपस्थित था ( म. आ. १७७.२)। भारतीय-युद्ध में में, आइने में अपनी जो परछाई नज़र आती है, वही | यह भीमसेन के द्वारा मारा गया। इसे 'दुर्विरोचन' आत्मा है। एवं 'दुर्विमोचन' नामांतर भी प्राप्त थे। Page #884 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विरोचना प्राचीन चरित्रकोश विवस्वत विरोचना-असुरराज प्रह्लाद की कन्या, जो विरोचन | ऋग्वेद में--इस ग्रंथ में यद्यपि विवस्वत् का स्वतंत्र दैत्य की बहन थी । इसका विवाह त्वष्ट से हुआ था, | सूक्त अप्राप्य है, फिर भी एक स्वतंत्र देवता के नाते जिससे इसे विरज नामक पुत्र उत्पन्न हुआ था ( भा. ५. इसका निर्देश ऋग्वेद में प्रायः तीस बार आया है। इसे १५.१५ ) । वायु में विश्वरूप त्रिशिरस् नामक मुनि को अश्वियों का एवं यम का पिता कहा गया है (ऋ. १०. भी इसीका ही पुत्र कहा गया है ( वायु. ८४.१९)। १७; १०.१४.१, ५८.१)। ऋग्वेद में अन्यत्र सभी २. स्कंद की अनुचरी एक मातृका (म. श. ४५. | देवताओं को भी विवस्वत् की संतान ( जनिमा ) कहा गया २८)। है (ऋ. १०.६३.१ )। त्वष्ट्र की कन्या सरप्यू इसकी विरोध-एक राक्षस, जो वात नामक राक्षस का पुत्र | पत्नी थी (ऋ. १०.१७.१-२)। था । इसके पुत्र का नाम जनान्तक था ( ब्रह्मांड. ३.७. दूत--ऋग्वेद में एक ही बार मातरिश्वन को विवस्वत् का दूत कहा गया है (ऋ. ६.८.४)। अन्यथा सर्वत्र अग्नि विरोहण--तक्षक कुल में उत्पन्न एक नाग, जो जन- को इसका दूत कहा गया है (ऋ. १.५८.१, ४.७.४; ८. मेजय के सर्वसत्र दग्ध हुआ था। | ३९.३; १०.२१.५)। विलास-पश्चिमी घाट में रहनेवाला एक तपस्वी। निवासस्थान--विवस्वत् के सदन का निर्देश ऋग्वेद में इसके मित्र का नाम भास था। 'विमलज्ञान' की | अनेकबार प्राप्त है । देवगण एवं इंद्र इस सदन में आनंद प्राप्ति हो कर ये दोनों मुक्त हुए (यो. वा. ५.६५-६७)। | मनाते है (ऋ. ३.५१), एवं इसी सदन में गायक-गण विलोमन--(सो. कुकुर.) एक राजा, जो भागवत | इंद्र एवं जल की महानता का गुणगान करते है (ऋ. १. के अनुसार वह्नि राजा का, एवं विष्णु के अनुसार कपोत ५३; १०.७५) रोमन राजा का पुत्र था। भागवत में इसे कपोतरोमन् का 'देवताओं का मित्र-विवस्वत् का सब से बड़ा मित्र इंद्र पिता कहा गया है (भा. ९.२४.१९-२०)। है, जिसकी यह पुनः पुनः स्तुति करता है । इंद्र इसकी विलोहित--एक रुद्र, जो कश्यप एवं सुरभि के पुत्रों स्तुति से प्रसन्न होता है. (ऋ. ८.६), एवं अपना में से एक था। समस्त धनकोश विवस्वत् के बगल में रख देता है (ऋ. २. एक राक्षस, जो कश्यप एवं खशा के पुत्रों में से | २. १३)। विवस्वत् की इस उँगलियों के द्वारा इंद्र एक था। इस के तीन सिर, तीन पैर एवं तीन हाथ थे युलोक से जल नीचे गिराता है (ऋ. ८.६१)। (वायु. ६९.७६)। ___ विवस्वत् का अन्य एक मित्र सोम है । वह विवस्वत् विवक्षु--(सो. कुरु. भविष्य.) कुरुवंशीय निमिचक्र के साथ ही रहता है (ऋ. ९.२६.४ ), एवं विवस्वत् राजा का नामान्तर । मत्स्य में इसे अधिसोमकृष्ण राजा की कन्याएँ ( उँगलियाँ ) सोम को स्वच्छ करती है (ऋ. का पुत्र कहा गया है (मत्स्य. ५०.७८; निमिचक्र देखिये)। विवर्धक-वसिष्ठकुलोत्पन्न गोत्रकार विचक्षुष का ९.१४ )। विवस्वत् की स्तुतियाँ पिशंग नामक सोम को प्रवाहित करती है (ऋ. ९.९९)। इसका आशीवाद नामान्तर। प्राप्त कर लेने पर, सोम की धाराएँ बहने लगती है विवर्धन--युधिष्ठिर का सभा का एक राजा (म. स. | (ऋ. ९.१०)। ४.१८)। २. एक यक्ष, जो मणिवर एवं देवजनी के पुत्रों में से | अश्विनीकुमार भी इसके साथ रहते है ( १.४६. एक था। १३)। अश्वियों के रथ जोतने के समय, विवस्वतू विवस्वत-एक देवता, जो संभवतः उदित होनेवाले | के उज्वल दिनों कों का प्रारंभ होता है ( ऋ. १०.३९: सूर्य का प्रतिनिधित्व करता है। श. बा. १०.५.१)। ___ ऋग्वेद में विवस्वत् , आदित्य, पूषन् , सूर्य, अर्थमन् , एक उपास्य-देवता के नाते, वरुण एवं अन्य देवताओं मित्र, भग आदि सूर्य से संबंधित (सौर्य) देवताओं को | के साथ विवस्वत् का निर्देश प्राप्त है (ऋ. १०.६५) विभिन्न देवता माना गया हैं (ऋ. ५.८१.४; १०.१३९. | अपने उपासकों के द्वारा उपासित् विवस्वत् एक आक्रमक १)। किंतु वे स्वतंत्र देवता न हो कर एक ही सूर्य देवता | देवता है, जो यम से एवं आदित्यों से उनकी रक्षा करती की विभिन्न रूप प्रतीत होते है (सूर्य देखिये)। है (अ. वे. १८. ३; ऋ. ८.५६)। ८६२ Page #885 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विवस्वत् प्राचीन चरित्रकोश विविक्त व्युत्पत्ति--अग्नि एवं उपस् के संदर्भ में विवस्वत् शब्द | इसका निर्देश एक स्वतंत्र आदित्य के नाते नहीं, बल्कि कई बार 'दैदीप्यमान' अर्थ में प्रयुक्त किया गया है ( ऋ. | लोकेश्वर सूर्य के नाते ही किया गया प्रतीत होता है। १.९६: ७.९ ) । विवस्वत् का शब्दशः अर्थ 'प्रवाशित पुराणों में इसे अदिति का नहीं, बल्कि दाक्षायणी का पुत्र होना है, जो उपस् (उदय होना) से काफी मिलता जुलता | कहा गया है। इसे श्रावण माह का आदित्य एवं प्रजापति भी है। शतपथ ब्राह्मण के अनुसार, यह दिन एवं रात्रि को कहा गया है (वायु. ६५.५३)। इन ग्रंथों में भी इसे सूर्य प्रकाशित ( विवस्ते ) करता है, इसी कारण इसे विवस्वत् का ही प्रतिरूप माना गया है, एवं मनु, श्राद्धदेव, यम एवं नाम प्राप्त हुआ ( श. ब्रा. १०.५.२ )। यमी को इसकी संतान मानी गयी हैं (विष्णु. ४.१.६ )। विवस्वत् देवता का अन्वयार्थ-व्युत्पत्तिजन्य अर्थ, महाभारत में इसकी पत्नी का नाम संज्ञा दिया गया अग्नि, अश्विनों एवं सोम के साथ इसका संबंध, एवं यज्ञस्थल | है, एवं नासत्य एवं दस्र नामक दो अश्विनीकुमार इसके में इसका निवास, इन सारी सामग्री की ओर संकेत कर, | पुत्र बताये गये हैं, जो वस्तुतः इसकी नहीं, बल्कि सूर्य की कई अभ्यासकों का कहना है कि, उदित होनेवाला सूर्य ही | ही संतान हैं । इसने वेदोक्त विधि के अनुसार यज्ञ कर वैदिक विवस्वत् है। अन्य कई अभ्यासक इसे सूर्यदेवता | के अपने पिता आचार्य कश्यप को दक्षिणा के रूप में एक ही मानते है ( सूर्य देखिये)। बगेन के अनुसार, विवस्वत् दिशा का दान कर दिया था। इसी कारण, उस दिशा को मुख्यतः एक अग्निदेवता है, जिसका ही एक रूप सूर्य | दक्षिण दिशा कहते है। है (बर्गेन. १..८)। ४. एक वैदिक सूक्तद्रष्टा (ऋ. १०.१३)। एक देवता के नाते विवस्वत का महत्त्व वैदिकोत्तर ५. ज्येष्ठ माह में प्रकाशित होनेवाला सूर्य, जिसकी साहित्य में कम होता गया, एवं अन्त में इसका स्वतंत्र चौदह सौ किरणें रहती है (मत्स्य. १.७८)। भागवत एवं अस्तित्व विनष्ट हो कर यह सूर्य एवं आदित्य देवताओं ब्रह्मांड के अनुसार, यह नभस्य (भाद्रपद) माह में में विलीन हो गया (सूर्य देखिये). . प्रकाशित होता है। . २. मानवजाति का प्रथम यज्ञकर्ता, जो मनु एवं यम ६. चाक्षुष मन्वन्तर के सप्तर्षियों में से एक (मत्स्य. ९. · का पिता माना जाता है (ऋ. ८.५२ १०.१४.१७)। मनु इसका पुत्र होने के कारण, उसे 'विवस्वत् ' एवं । ७. एक असुर, जो गरुड के द्वारा मारा गया था . 'वैवस्वत पैतृक नाम से भूषित किया गया है ( अ. वे. (म. उ. १०३.१२)। ८.१०; श. बा. १६.४.३)। तैत्तिरीय संहिता में मनुष्यों ८. एक सनातन विश्वेदेव (म. अनु. ९१.३१)। को भी विवस्वत् की संतान कहा गया है ( तै. सं. ६.५. विविंश-(सू. इ.) एक सूर्यवंशीय राजा, जो महाभारत में भी यम एवं मनु को विवस्वत् की संतान महाभारत, विष्णु एवं वायु के अनुसार विंश राजा का | पुत्र था (म. आश्व. ४.५; वायु. ८६.६ ) । इसके खनीकहा गया है (म. आ. ७०.१०; ९०.७)। नेत्र आदि पंद्रह पुत्र थे। ईगनी साहित्य में--इस साहित्य में निर्दिष्ट विवन्द्वन्त् (यिम के पिता) से विवन्वत् काफी साम्य रखता है। २. एक राजा, जो क्षुप राजा का पुत्र था। विदर्भ जिस प्रकार विवस्वत् पृथ्वी के अग्नि का आद्यजनक माना कन्या नंदिनी इसकी माता थी (मार्क. ११६ )। जाता है, उसी प्रकार विवन्द्वन्त'को 'हओम' बनाने- विविंशति-(सो. कुरु.) धृतराष्ट्र का एक महारथी वाला पहला व्यक्ति कहा गया है । पुत्र । यह द्रौपदी स्वयंवर में उपस्थित था (म. आ. ३. एक आदित्य, जो बारह आदित्यों में से एक माना १७७.१)। दुर्योधन के द्वारा विराट की गोशाला पर जाता है (वायु. ३.३; ६६.६६; विष्णु. १.१५.१३१)। किये गये आक्रमण में भी यह उपस्थित था (म. भी. यद्यपि ऋग्वेद में विवस्वत् को अदिति का पुत्र नहीं कहा ३३.३)। भारतीय युद्ध में यह भीम के द्वारा मारा गया। गया है. फिर भी यजर्वेद एवं ब्राह्मण ग्रंथों में विवस्वत को २. एक राजा, जो चाक्षुष राजा का पुत्र, एवं रंभ राजा आदित्य कहा गया है (वा. सं. ८.५: मै. सं. १.६ )। | का पिता था (भा. ९.२.२४-२५)। महाभारत में इसे कश्यप एवं अदिति के बारह विविक्त--कुशद्वीप का एक राजा, जो हिरण्यरेतस पुत्रों में से एक कहा गया है (म. आ. ७०.९)। राजा का पुत्र था (भा. ५.२०.२४)। २३)। Page #886 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विवित्सु विवित्सु - (सो. कुरु. ) धृतराष्ट्र के शतपुत्रों में से एक । भीम ने इसका वध किया ( म. क. ३५.११ ) । विविद --एक दानव, जो कश्यप एवं दनु के पुत्रों में से एक था। विविंध्य - एक दानव, जो शाल्व का अनुयायी था । कृष्ण पुत्र चारुदेष्ण ने इसका वध किया (म. ६. १७. २६ ) । विविसार (शि. भविष्य) शिशुपालवंशीय विधि सार' एवं ' बिन्दुसार ' राजा का नामान्तर ( विधिसार एवं बिन्दुसार देखिये )। विवि काश्यप - एक वैदिक सूक्तद्रष्टा (ऋ. १०. १६३)। प्राचीन चरित्रकोश विशठ - बलराम एवं रेवती के पुत्रों में से एक (वायु. ३१.६ ) । विशत-त्रित देवों में से एक। विशद - (सो. पुरूरवस्. ) एक राजा, जो भागवत के अनुसार जयद्रथ राजा का पुत्र एवं सेनजित् राजा का पिता था ( भा. ९.२१.२३ ) । विशाख - इंद्रसभा का एक ऋषि (म. स. ७.१२) । २. (सो. पुरूरवस्. ) एक राजश, जो आयु राजा का पुत्रा (पद्म १२ ) । ३. स्कंद के तीन छोटे भाइयों में से एक। इसके अन्य दो भाइयों के नाम शाख एवं नैगमेय थे। विशाल जो विशाखयूप--(प्रो. भविष्य.) एक राजा, पालक राजा का पुत्र, एवं राजक राजा का पिता था। वायु एवं ब्रह्मांड के अनुसार इसने पचास वर्षों तक, तथा मत्स्य के अनुसार इसने तिरपन वर्षों तक राज्य किया । विशाखा - सोम की पत्नियों में से एक। विशाल -- (सू. दिष्ट. ) एक राजा, जो भागवत, ब्रह्मांड एवं वायु के अनुसार तृणबिंदु राजा का पुत्र था। इसने वैशाली नामक नगरी की स्थापना की (मा. ९.२.१३० ब्रह्मांड. ३.६१.१२; विष्णु. ४.१.१६; वायु. ८६.१५२२) | किन्तु रामायण के अनुसार वैशाली नगरी की स्थापना इसके द्वारा नहीं, बल्कि इक्ष्वाकु के पुत्र के द्वारा हुई थी (बा. रा. या ४७,११-१७ ) । इसके पुत्र का नाम हेमचंद्र था । विशाल एवं हेमचंद्र को वैशालराजवंश के संस्थापक माने जाते हैं ( मा. ९.६ ३३-६६) । वैशाली नगरी - इस नगरी का सविस्तृत वर्णन वाल्मीकि रामायण, चौद्धधर्मीय जातक ग्रंथ एवं एन्संग आदि ह्युएन-त्संग चिनी प्रवासियों के प्रवासवर्णनों में प्राप्त है, जहाँ इस नगरी के वैभव एवं विस्तार की जानकारी दी गयी है। इस नगरी के खण्डहर आधुनिक बिहार राज्य में मुज़फरपुर जिले में बसाड ग्राम में प्राप्त है, जो गण्डकी नदी के बायें तट पर बसा हुआ है। इस नगरी में इक्ष्वाकु - राजाओं के समान, लिच्छवी गंग की एवं वजीराज्यसंघ की राजधानी भी स्थित थी। जैनों का सीधा कर महावीर एवं बौद्ध धर्म का संस्थापक गौतम बुद्ध इस नगरी में धर्मप्रचारार्थ आये थे। इसी कारण, बौद्ध एवं बैन ग्रंथों में इस नगरी का निर्देश पुनः पुनः प्राप्त है। वैशाल राजवंश - वैशाल राजवंश की विभिन -- जानकारी भागवत एवं वाल्मीकि रामायण में प्राप्त है, जो निम्न प्रकार है। (१) भागवत में - इस ग्रंथ में सूर्यवंश के दिष्टशाखा के तृणबिंदुपुत्र विशाल राजा को 'वैशालराजवंश' का संस्थापक कहा गया है, एवं उसकी वंशावलि निम्नसार दी गयी है :- विशाल - हेमचंद्र - धूम्राक्ष-संयम संहदेवपुत्र कुशाल सोमदत्त सुमति जनमेजय ( भा. ९.२.२१३६ ) | । (२) वाल्मीकि रामायण में इस ग्रंथ में कुपुत्र विशाल को विशालापुरी ( वैशाली), एवं वैशाल राजवंश का संस्थापक कहा गया है, एवं उसका राजवंश निम्नप्रकार दिया गया है :- विशाल - हेमचंद्र -मुचंद्र - धूम्राक्ष संजय - ક इसके जन्म के संबंध में एक चमत्कृतिपूर्ण कथा महा भारत में प्रास है। एक बार स्कंद अपने पिता शिव से मिलने जा रहा था। उस समय शिव, पार्वती, अनि एवं गंगा चारों ही एकसाथ मन ही मन सोचने लगे कि कंद उनके पास रहने आये तो अच्छा होगा। उनके मनोभाव को समझ कर, स्कंद ने योग से अपने कंद, विशाल, शाख एवं नैगमेय नामक चार रूप बना दिये, जो क्रमशः शिव, पार्वती, अग्नि एवं गंगा के पास रहने लगे। स्कंद से उत्पन्न होने के कारण, ये परस्पर अभिन्न माने जाते हैं ( म. श. ४४.३४ ) । ४. स्कंद का एक रूप । एक समय इंद्र ने स्कंद पर चत्र का प्रहार किया, जिस कारण उसकी दायी पसली पर गहरी चोट लगी। इस बोट में से स्कंद का एक नया रूप प्रकट हुआ, जिसकी युवावस्था थी। उसने सुवर्णमय कवच धारण किया था, एवं उसके हाथ में एक शक्ति थी । वज्र के घाव से उसकी उत्पत्ति होने के कारण, उसे 'विशाख' नाम प्राप्त हुआ । -: - Page #887 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशाल प्राचीन चरित्रकोश विश्रवस् सहदेव-कुशाश्व-सोमदत्त-का कुत्स्थ-सुमति (वा. रा. बा. विशालाक्षी-स्कंद की अनुचरी एक मातृका (म. ४७.११-१७)। | श. ४५.३ )। वायु में सोमदत्त से सुमति राजाओं तक का वंशक्रम विशिख--एक पक्षिराज, जो गरुड एवं शुकी के सोमदत्त-जनमेजय-सुमति इस क्रम से दिया गया है पुत्रों में से एक था (ब्रह्मांड. ३.७.४५०)। (वायु. ८६.१५-२२)। विष्णु में भी 'वैशालक नृयों' विशिरा-कंद की अनुचरी एक मातृका (म. श. का निर्देश प्राप्त है, एवं इस वंश के हेमचंद्र, सुचंद्र एवं | ४५.२८)।। पुष्कराक्ष के साथ परशुराम का युद्ध होने का निर्देश वहाँ विशिशिप्र--एक आचार्य, जिसका निर्देश सदार्पण किया गया है (विष्णु. ४.१.१६)। नामक ऋषि के सूक्त में प्राप्त है । वहाँ मनु ने इसे वाद२. लंका नगरी का एक राक्षस ( वा. रा. सु.६.२६)। विवाद में जीतने का निर्देश प्राप्त है (भा...४५.६)। ३. कृष्ण का एक बालमित्र ( भा. १०.२२.३१)। विशेष--दमन नामक शिवावतार का एक शिष्य । ४. एक राजा, जो विश्रवस् राजा एवं अलंबुषा अप्सरा | विशोक--एक केकय राजकुमार, जो भारतीय युद्ध का पुत्र था। में पाण्डवों के पक्ष में शामिल था। कण ने इसका वध ५. एक राजा । इसकी कन्या का नाम वैशालिनी था, किया (म. क. ७.३)। जो परिक्षित् राजा की पत्नी थी (वैशालिनी देखिये)। २. भीमसेन का सारथि (म. स. ३०.३०; भी. ७३. विशालक--कुवेर सभा का एक यक्ष ( म. स. १०.. २५)। भारतीय युद्ध के समय इसका एवं भीम का १५)। बाणों के विविध जातियों के संबंध में संवाद हुआ था (म. २. एक राजा, जिसने अपनी भद्रा नामक कन्या वसुदेव क. ५४.१४-१५)। को विवाह में दी थी। किन्तु शिशुपाल ने उसका हरण ३. एक यादव राजकुमार, जो कृष्ण एवं त्रिवत्रा के किया ( म. स. ४२.११)। पुत्रों में से एक था। यह नारद का शिष्य था, एवं इसने विशाला-सोमवंशीय अजमीढ राजा की पत्नी (म. | 'सात्वत तंत्र' नामक ग्रंथ की रचना की थी, जिसमें आ. ९०.३९)। पाठ-' विमला। स्त्रियों, शूद्र एवं गुलाम लोगों के लिए विविध प्रकार का २. महावीर्यपुत्र भीम राजा की पत्नी. जिससे इसे | उपदेश दिया गया है (भा. १०.९०.३४)। त्रय्यारुणि, पुष्करिन् एवं कपि नामक तीन पुत्र उत्पन्न ४. दमन नामक शिवावतार का एक शिष्य । पाटहुए ( वायु. ३७. १५८)। मत्स्य में इसे उरुक्षय राजा 'विशेष'। की पत्नी कहा गया है। विशोका---कृष्ण की एक पत्नी (म. स. परि. १. - ३. वरुण की कन्या, जो ययातिपत्नी अश्रुबिन्दुमती | २२.१४१२)। की सखी थी (पद्म. भू. ७७)। २. स्कंद की अनुचरी एक मातृका (म. श. ४५.५)। ४. कौशिक राजा की पत्नी ( कौशिक ११. देखिये)। विश्पला--खेल नामक राजा की पत्नी । किसी युद्ध विशालाक्ष--गरुड की प्रमुख संतानों में से एक | में इसका पाँव टूट गया। उस समय अश्विनों ने इसे एक (म. उ. ९९.९)। | लोहे का (आयसी) पैर प्रदान किया,एवं एक रात्रि में ही २. (सो. कुरु.) धृतराष्ट्र के शतपुत्रों में से एक। इसे पुनः एक बार युद्ध के लिए योग्य बनाया । पिहोल के भीम ने इसका वध किया था ( म. भी. ८४.२५)। अनुसार, विश्पला एक स्त्री का नाम न हो कर एक अश्व ३. विराट राजा का छोटा भाई, जिसे 'मदिराक्ष' का नाम था (वेदिशे स्टूडियन. १.१७१-१७३)। किन्तु नामान्तर भी प्राप्त था। कीचकवध के पश्चात् यह | यह तक अयोग्य प्रतीत होता है। विराट का सेनापति हुआ (म. वि. ३१.१५, मदिराश्व विश्रवस्--(स्वा.) एक ऋषि, जो वैश्रवण कुबेर का . १. देखिये)। पिता था (वायु. ५९.९०-९१; ब्रह्मांड, २.३३.९८४. मिथिला देश का एक राजा, जो युधिष्ठिर के राजसूय १००)। इसके भाई का नाम अगस्त्य था। यज्ञ में उपस्थित था (भा. १०.८२.२६)। जन्म-भागवत में इसे पुलस्त्य एवं हविर्भू का पुत्र ५. एक वास्तुशास्त्रकार, जो वास्तुशास्त्रविषयक अटारह कहा गया है (भा. ४.१.३६-३७)। ब्रह्मांड में इसकी प्रमुख ग्रंथकारों में से एक माना जाता है । | माता का नाम इलविला दिया गया है, जो तृणबिंदु एवं प्रा.च. १०९] Page #888 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विश्रवस् प्राचीन चरित्रकोश विश्वकर्मन अलंबुषा की कन्या थी (ब्रह्मांड. ३.७.३९-४२)। वायु विश्व--एक राजा, जो मयूर नामक असुर के अंश में इसकी माता का नाम द्रविडा दिया गया है (वायु. | से उत्पन्न हुआ था। भारतीय युद्ध में, यह कौरवों के पक्ष ८६.१६ )। इलविला एवं द्रविडा इसकी माता का नाम में शामिल था (म. आ. ६१.३३)। था, या पत्नी का, इस संबंध में पुराण में एकवाक्यता २. एक गंधर्व, जो तपस्य' (फाल्गुन) माह के सूर्य नहीं है। के साथ भ्रमण करता है (भा. १२.११.४०)। परिवार--इसकी निम्नलिखित पत्नियाँ थी :--१. ३. सत्य देवों में से एक। इडविडा (इलविला, इडविला ); २. केशिनी ( केकसी); विश्वक कार्पिण (कृष्णिय)-एक वैदिक सूक्तद्रष्टा ३. पुष्पोत्कटा: ४.राका (वाका);५. बलाका; ६. चेडविडा; (ऋ.८.२६)। यह अश्विनों के कृपात्र व्यक्तियों में से ७. देववर्णिनी: ८. मंदाकिनी ( पन. पा. ६); ९. मालिनी एक था, जिन्होने विष्णापु नामक इसका खोया हुआ पुत्र (म. व. २५९.६०)। इसे पुनः प्रदान किया था (ऋ. १.११६.२३, ११७.७; अपनी उपर्युक्त पत्नियों से इसे निम्नलिखित पुत्र ८.८६.११०.६५.१२)। कृष्ण आंगिरस नामक वैदिक उत्पन्न हुए :--- | सूक्तद्रष्टा का पुत्र होने के कारण, इसे 'काणि' अथवा (१) इडविडापुत्र--कुबेर वैश्रवण ! 'कृष्णिय ' पैतृक नाम प्राप्त हुआ होगा (कृष्ण ३. (२) केशिनी पुत्र--रावण, कुंभकर्ण, विभीषण नामक देखिये)। पुत्र एवं शूर्पणखा नामक कन्या । विश्वकर्मन्-एक शिल्पशास्त्रज्ञ,जो स्वायंभुव मन्वन्तर (३) पुष्पोत्कटापुत्र-महोदर, प्रहस्त, महापांशु एवं | का 'शिल्पप्रजापति' माना जाता है । महाभारत एवं. खर नामक पुत्र, एवं कुंभीनसी नामक कन्या । पुराणों में निर्दिष्ट देवों का सुविख्यात शिल्पी त्वष्ट इसी (४) राकापुत्र-त्रिशिरस् , दूषण, विद्युज्जिह्व नामक | का ही प्रतिरूप माना जाता है (त्वष्ट देखिये)। .. पुत्र, एवं असलिका नामक कन्या (वायु. ७०.३२-३५, वैदिक साहित्य में एक देवता के रूप में विश्वकर्मन् . ४१, ४९-५०)। का निर्देश ऋग्वेद में अनेक बार प्राप्त है (ऋ. १०.८१महाभारत के अनुसार, इसकी पनियों में से पुष्पो- ८२) वैदिक साहित्य में इसे 'सर्वद्रष्टा' प्रजापति कहा त्कटा, राका एवं मालिनी ये तीनों राक्षसकन्याएँ थी, जो गया है (वा. सं. १२.६१)। कुवेर ने अपने पिता की सेवा के लिए नियुक्त की थी। स्वरूपवर्णन-यह सर्वद्रष्टा है, एवं इसके शरीर के महाभारत में विभीषण को मालिनी का, कुंभकर्ण एवं चार ही ओर नेत्र, मुख, भुजा एवं पैर हैं । इसे पंख भी रावण को पुष्पोत्कटा का, एवं खर एवं शूर्पणखा को राका | हैं । विश्वकर्मन् का यह स्वरूवर्णन पौराणिक साहित्य : की संतान बतायी गयी है (म. व. २५९.७-८)। में निर्दिष्ट चतुर्मुख ब्रह्मा से काफी मिलता जुलता है। आश्रम-विश्रवस् ऋषि का आश्रम आनर्त देश की गुणवर्णन-प्रारंभ में विश्वकर्मन शब्द 'सौर देवता' की सीमा में स्थित था। इसी आश्रम में कुवेर का जन्म हुआ | उपाधि के रूप में प्रयुक्त किया जाया जाता था। किन्तु था। बाद में यह समस्त प्राणिसृष्टि का जनक माना जाने २. (सू. दिष्ट.) एक राजा, जो तृणबिन्दु का पुत्र था। लगा। ब्राह्मण ग्रंथों में विश्वकर्मन् को · विधातृ' प्रजापति ३. एक राजा, जो द्रविड राजा का पौत्र, एवं विशाल के साथ स्पष्टरूप से समीकृत किया गया है ( श. बा. राजा का पुत्र था (वायु. ८६.१६)। ८.२.१.३), एवं वैदिकोत्तर साहित्य में इसे देवों का शिल्पी विश्रुत-एक यादव राजकुमार, जो भागवत के | कहा गया है। अनुसार वसुदेव एवं सहदेवी के पुत्रों में से एक था। ऋग्वेद में इसे द्रष्टा, परोहित एवं समस्त प्राणिसृष्टि का २. अमिताभ देवों में से एक। पिता कहा है। यह 'धातृ ' एवं ' विधातृ ' है। इसने३. पारावत देवों में से एक। पृथ्वी को उत्पन्न किया, एवं आकाश को अनावरण किया। विश्रतवत-एक राजा, जो वायु के अनुसार सरस्वत् इसीने ही सब देवों का नामकरण किया (ऋ. १०.८२. राजा का पुत्र, एवं बृहद्वल राजा का पिता था (वायु | ३)। इसी कारण, एक देवता मान कर इसकी पूजा की ८८.२१२)। जाने लगी (ऋ. १०.८२.४ )। Page #889 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विश्वकर्मन् प्राचीन चरित्रकोश विश्वकर्मन् महाभारत एवं पुराणों में-महाभारत में इसे 'शिल्प- | प्राप्ति एवं नंदी नामक अन्य तीन पत्नियाँ भी थी (म. प्रजापति एवं 'कृतीपति' कहा गया है (भा. ६.६. आ. ६०.२६-३२)। १५)। ब्रह्मांड में इसे त्वष्ट का पुत्र एवं मय का पिता कहा (1) पुत्र--इसके निम्नलिखित पुत्र थे:- १. मनु गया है (ब्रह्मांड. १.२.१९)। किन्तु यह वंशक्रम कल्पना- चाक्षुषः २. शम, काम एवं हर्ष, जो क्रमशः रति, प्राप्ति रग्य प्रतीत होता है ( मय देखिये )। यह प्रभास वसु एवं एवं नंदी के पुत्र थे; ३. नल वानर (म. व. २६७.४१); बृहस्पति भगिनी योगसिद्धा का पुत्र था। भागवत में इसे ४.विश्वरूप, जो इसने इंद्र के प्रति द्रोहबुद्धि होने से वान्तु एवं आंगिरसी का पुत्र कहा गया है । ब्रहा। के दक्षिण उत्पन्न किया था; ५. वृत्रासुर, जो इसने विश्वरूप के वक्षमाग से यह उत्पन्न होने की कथा भी महाभारत में मारे जाने पर इंद्र से बदला लेने के लिए उत्पन्न किया प्राप्त है (म. आ. ६०.२६-३२)। था (म. उ. ९.४२.४९)। शिल्पशास्त्रज्ञ--यह देवों के शिल्पसहस्रों का निर्माता (२) कन्याएँ--इसकी निम्नलिखित कन्याएँ थी:एवं 'वर्धक' बढई था । देवों के सारे अस्त्र-शस्त्र, १. बहिष्मती, जो प्रियव्रत राजा की पत्नी थी;२. संज्ञा एवं आभूषण एवं विमान इसी के द्वारा ही निर्माण किये गये | छाया जो विवस्वत की पत्नियाँ थी; ३. तिलोत्तमा, जिसे थे। इसी कारण, यह देवों के लिए अत्यंत पूज्य बना था। इसने ब्रह्मा की आज्ञा से निर्माण किया था (म. आ. इसके द्वारा निम्नलिखित नगरियों का निर्माण किया । २०३.१४-१७) गया था:- १इंद्रप्रस्थ (धृतराष्ट्र के लिए ) (म. आ. ग्रंथ-इस के नाम पर शिल्पशास्त्रविषयक एक ग्रंथ भी १९९.१९२७* पंक्ति.३-४); २. द्वारका (श्रीकृष्ण के | उपलब्ध है ( मत्स्य. २५२. २१; ब्रह्मांड. ४.३१.६-७)। लिए ) (भा. १०.५० ह. वं. २.९८); ३. वृन्दावन | २. विश्वकर्मन् का एक ब्राह्मण अवतार । अपने (श्रीकृष्ण के लिए) (ब्रह्मवै, ४.१७); ४. लंका (सुकेश- पूर्वजन्म में इसने क्रोध में आ कर घृताची नामक पुत्र राक्षसों के लिए) (वा. रा. उ. .६.२२-२७); ५. प्रिय अप्सरा को शूद्रकुल में जन्म लेने का शाप इन्द्रलोक ( इंद्र के लिए ) (भा. '६.९:५४); ६. सुतल | दिया, जिसके अनुसार वह एक ग्वाले की कन्या बन नामक पाताल लोक--(भा. ७.४.८); ७. हस्तिनापुर गयी । ब्रह्मा की कृपा से इसे भी ब्राह्मणवंश में जन्म (पाण्डवों के लिए.) (भा. १०.५८.२४); ८. गरुड का प्राप्त हुआ। इस प्रकार ब्राह्मण पिता एवं ग्वाले की कन्या भवन (मत्स्य. १६३.६८)। के संयोग से दर्जी, कुम्हार, स्वर्णकार, बढ़ई आदि अस्त्रों का निर्माण-श्रीविष्णु का सुदर्शन, शिव का तंत्रविद्याप्रवीण जातियों का निर्माण हुआ । इसी कारण, त्रिशूल एवं रथ,तथा इंद्र का वज्र एवं विजय नामक धनुष्य ये सारी जातियाँ स्वयं को विश्वकर्मन् के वंशज कहलाते आदि अस्त्रों का निर्माण भी विश्वकर्मन् के ही द्वारा | है (ब्रह्मवै. १. १०)। किया गया था। इनमें से शिव का रथ इसने त्रिपुरदाह, ३. वशवर्तिन देवों में से एक । यह प्रभात वसु एवं के उपलक्ष्य में, एवं इंद्र का वज्र इसने दधीचि ऋषि की | भुवना के पुत्रों में से एक था (ब्रह्मांड. २.३६.२९ )। अस्थियाँ से बनाया था (म. क. २४.६६; भा. ६.१०)। विश्वकर्मन भौवन--एक सुविख्यात वैदिक राजा । इन अस्त्रों के निर्माण के संबंध में एक चमत्कृतिपूर्ण | ऐतरेय ब्राहाण के अनुसार, इसे कश्यप ने एंद्र अभिषेक कथा पन में प्राप्त है। इसकी संज्ञा नामक कन्या का किया था, जिस समय इसने कश्या को दक्षिणा के रूप विवाह विवस्वत् (सूर्य) से हुआ था। विवस्वत का तेज में पृथ्वी का दान दिया था (ऐ. बा. ८. २१.८)। वह न सह सकी, जिस कारण वह अपने पिता के पास | शतपथ ब्राह्मण में इसके द्वारा 'सर्वमेधयज्ञ' में कश्या को वापस आयी । अपनी पत्नी को वापस लेने के लिए समस्त पृथ्वी का दान देने का निर्देश प्राप्त है ( श. ब्रा. विवस्वत् भी वहाँ आ पहुँचा । पश्चात् विवस्वत् का थोड़ा | १३.७.१.१५)। ही तेज बाकी रख कर, उसका उर्वरित सारा तेज़ इसने | किन्तु इन दोनों ही अवसरों पर, पृथ्वी ने अपना इस निकाल लिया, एवं उसी तेज़ से देवताओं के अनेकानेक | प्रकार दान दिया जाना अस्वीकृत कर दिया। इस अत्रों का निर्माण किया। कारण, क्रुद्ध हो कर इसने समस्त प्राणिसृष्टि की, एवं परिवार-इसकी कृति (आकृति ) नामक भार्या का | अंत में स्वयं की यज्ञ में आहुति दे दी (ऋ. १०.८१.१; निर्देश भागवत में प्राप्त है । उसके अतिरिक्त इसकी रति, | ऐ. बा. ८. १०; नि. १०.२६)। ८६७ Page #890 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विश्वकर्मन् प्राचीन चरित्रकोश विश्वमनस् यज्ञसंस्था के प्रारंभिक काल में भूमिदान घृणास्पद माना । ३. विश्वेदेव नामक देवता समूह का नामान्तर (वायु. जाता था, जिसका ही संकेत विश्वकर्मन की उपर्युक्त कथा ६२.२२, विश्वेदेव देखिये)। में किया हुआ प्रतीत होता है। विश्वधा-वशवर्तिन् देवों में से एक । विश्वकाय-हिरण्यकशिपु की सभा का एक राक्षस विश्वन्तर सौषद्मन--एक राजा, जिसके पुरोहित (पन. सृ. ४५)। श्यापर्ण थे। अपने उन पुरोहितों का त्याग कर, इसने कई विश्वकृत्--एक सनातन विश्वेदेव (म. अनु. ९१. अन्य पुरोहितों के द्वारा यज्ञ का आयोजन किया। आगे ३६)। चल कर, श्यापर्ण पुरोहितगणों में से राम मार्गवेय नामक विश्वग--(स्वा.) एक राजा, जो भागवत के अनुसार आचार्य ने इसे समझा कर, पुनः एक बार श्यापों की पूर्णिमत् राजा का पुत्र था। | राजपुरोहित के नाते नियुक्ति करवायी, एवं एक सहस्र विश्वगश्व-(सू. इ.) एक राजा, जो विष्णु एवं गायं उन्हें दिलवायीं (ऐ. बा. ७.२७.३.४; ३४.७.८)। मत्स्य के अनुसार, पृथु वैन्य राजा के पाँच पुत्रों में से सुषमन का वंशज होने से इसे 'सोपान पैतक नाम एक था । इसे 'विश्वरंधि,' 'वृषदश्व,' 'विष्ठराग,' प्राप्त हुआ होगा। एवं 'विश्वग' नामान्तर भी प्राप्त थे। विश्वपति--मनु नामक अग्नि का द्वितीय पुत्र । यह विश्वचर्षणि--एक पैतृक नाम, जो घुम्न विश्वचर्षणि वेदों के संपूर्ण विश्व का पति था, जिस कारण इसे विश्वआत्रेय नामक आचार्य के लिए प्रयुक्त किया गया है। पति नाम प्राप्त हुआ था (म. व. २११.१७)। .... (ऋ. ५.२३)। विश्वपातृ--पितरों में से एक। . विश्वचित्ति-हिरण्यकशिपु के दरबार का एक राक्षस विश्वपाल-एक राजा, जो व्युत्थिताश्व (ध्युषिताश्व) (पन्न. सृ. ४५)। रोजा का पुत्र, एवं हिरण्यनाभ कौसल्य राजा का पिताविश्वजित्-(सो. पुरुरवस् .) एक राजा, जो वायु था। विष्णु एवं वायु में इसे 'विश्वसह' कहा गया है। . के अनुसार बृहद्रथ राजा का, एवं विष्णु के अनुसार जयद्रथ राजा का पुत्र था ( वायु. ९९.१७२)। मत्त्य में विश्वभुज- पाकयज्ञ का एक अग्निदेवता, जो इसे 'अश्वजित्' कहा गया है। इसके पुत्र का नाम बृहस्पति के चार पुत्रों में से चतुर्थ पुत्र था। यह समस्त सेनजित् था। प्राणियों के उदर में रह कर उनके द्वारा खाये हुए पदार्थों २. एक अग्नि, जो बृहस्पति के पुत्रों में से एक था को पचाता हैं । गोमती नदी इतकी पत्नी मानी जाती (म. व. २०९.१६)। यह समस्त विश्व की बुद्धि को है (म. व. २०९.१७)। अपने वश में रखता है। इसलिए अध्यात्मशास्त्र के २. पाण्डवों के रूप में प्रकट होनेवाले पाँच इंद्रों में से विद्वानों के द्वारा इसे 'विश्वजित् नाम दिया गया है। एक । अन्य चार इंद्रों के नाम भृतधामन् , शिवि, शांति, ३. (सो. मगध. भविष्य.) एक राजा, जो भागवत, एवं तेजस्विन् थे (म. आ.१८९.१९१६७)। विष्ण एवं ब्रह्मांड के अनुसार सत्यजित् राजा का पुत्र था। ३. पितरों में से एक। वायु में इसे वीरजित् कहा गया है। विश्वमनस् वैयश्व--एक ऋषि, जो इंद्र का मित्र था ४. एक दानव, जो कश्यप एवं दनु के पुत्रों में से एक | । (ऋ. ८.२३.२, २४.७; पं. वा. १५.५.२०)। 'वरोसुथा। एक समय यह समस्त पृथ्वी का शासक था (म. शां.। पामन् ' को धनप्राप्त कराने के लिए एक सूक्त के द्वारा २२७.५३; वायु. ६८.६)। इसने प्रार्थना की है (ऋ. ८.२३.२८)। सायणाचार्य के विश्वदंष्ट्र-एक दैत्य, जो पूर्वकाल में पृथ्वी का शासक अनुसार, यहाँ 'वरोसुषामन् ' किसी व्यक्ति का नाम था (म. शां. २२७.५३)। नहीं था। विश्वदत्त--सोमवंश का एक राजा, जो बकुलासंगम पर श्रीगणेश की आसना करने के कारण, उस देवता | यह 'व्यश्व' का वंशज था, जिस कारण इसे के गणों का आधिपति बन गया। 'वैयश्व पैतृक नाम प्राप्त हुआ था। ऋग्वेद के कई सूक्तों विश्वदेव--जिताजित् देवों में से एक । के प्रणयन का श्रेय भी इसे दिया गया है (ऋ.८. २. पारावत देवों में से एक (ब्रह्मांड. २.१३.९५)।। २३-२६)। ८६८ Page #891 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विश्वमहत् प्राचीन चरित्रकोश विश्वरूप विश्वमहत्--(स. इ.) एक राजा, जो वायु के अनु- महाभारत एवं पुराणों में--इन ग्रंथों में इसे सार कृतशर्मन् राजा का पुत्र था । विष्णु एवं भागवत में इसे प्रजापति त्वष्ट का द्वितीय पुत्र माना गया है, एवं इसे 'विश्वसह' कहा गया है। वृत्र से समीकृत किया गया है (भा. ६.५ म. उ. ९. विश्वभर--बिराटनगर का एक व्यापारी, जिसे | ४; शां. २०१.१८)। इसकी माता का नाम विरोचना लोमश ऋपि ने तीर्थों का माहाम्य कथन किया था ( गरुड. (वैरोचनी, रचना अथवा यशोधरा) था, जो असुरराज | प्रह्लाद की कन्या, एवं विरोचन दैत्य की छोटी बहन विश्वमानुष--एक व्यक्ति (ऋ. ८. ४५.२२)। | थी (भा. ६.६.४४; वायु. ८४.१९; ब्रह्मांड. ३.१.८१; कई अभ्यासकों के अनुसार, यह व्यक्तिनाम न हो कर | गणेश. १.६६.१२)। इससे अखिल मानव जाति की ओर संकेत किया गया है। स्वरूपवर्णन--इसे तीन सिर थे, जिनमें से एक मुख विश्वरथ-विश्वामित्र ऋषि का नामान्तर (ब्रह्म. से यह अन्न भक्षण करता था (अन्नाद), दूसरे से यह सोमपान करता था ( सोमपीथ), एवं तीसरे से यह सुरापान विश्वरंधि--(सु. इ.) इक्ष्वाकुवंशीय विश्वगश्व राजा करता था (सुरापीथ)। महाभारत के अनुसार, अपने का नामान्तर (विश्वगश्व देखिये)। तीन मुखों में से, एक से यह वेद पढ़ता था, दूसरे से विश्वरूप--वरुणसभा का एक राक्षस (म. स. सुरापान करता था, एवं तीसरे से दुनिया देखा करता था (म. शां. ३२९.२३)। विश्वरूप त्रिशिरसबाट--एक आचार्य, जो देवां देवों का पुरोहित-एक बार इंद्र ने देवगुरु बृहस्पति का पुरोहित था। किन्तु प्रारंभ से ही यह देवों से भी का अपमान किया, जिस कारण वह देवपक्ष का त्याग कर अधिक कामुरां पर मन करता था, जिससे प्रतीत होता है चला गया। इस कारण इंद्र ने विश्वरूप को देवों का पुरोहित कि. यह स्वयं देव न हो कर असुर ही था। बनाया। वैदिक साहित्य में---इस साहित्य में इसे त्रिशिरस् | - (तीन मिरांवाला ) दैत्य कहा गया है (ऋ. १०. ८)। __ वध-शुरु से ही यह असुर पक्ष को देव पक्ष से अधिक चाहता था (म. शां. ३२९.१७)। यह ज्ञात होते ही, इंद्र . यह त्वष्ट्र का पुत्र था, जिस कारण इसे 'त्वाष्ट्र' कहा गया ने इसके पास अनेकानेक अप्सराएँ भेज कर इसे देवगुरुहै (ऋ. १०.७६)। यद्यपि यह असुरों से संबंधित था, पद से भ्रष्ट करना चाहा। किन्तु इसने इंद्र का षड्यंत्र -फिर भी इसे देवों का पुरोहित कहा गया, है (तै. सं. पहचान लिया, एवं यह इंद्रवध के लिए तपस्या करने लगा (म. शां. ३२९.३४)। इंद्र के द्वारा किये गये इसके वध की कथा तैत्तिरीय- संहिता में प्राप्त है। यद्यपि यह देवों का पुरोहित था, - इसका वध करने में इंद्र का वज्र भी विफल हुआ। फिर भी यज्ञ का अधिकार हविभाग यह असुरों को देता फिर इंद्र ने तक्षन् के द्वारा कुटार से इसके तीनों था। इस कारण इंद्र ने अपने वज्र से इसके तीनों सिर मस्तक तोड़ डाले (म. उ. ९.३४)। महाभारत में अन्यत्र, दधीचि ऋषि के अस्थियों से बने हुए अस्त्रों से काट कर इसका वध किया। इसका वध करने के कारण, इंद्र को ब्रह्माहत्या का इंद्र के द्वारा इसका वध होने का निर्देश भी प्राप्त है (म. पातक लग गया। अपने इस पातक के इंद्र ने तीन भाग शां. ३२९.२७)। किये. एवं वे पृथ्वी, वृक्ष एवं स्त्रियों में बाँट दिये। इस इसकी मृत्यु के पश्चात् इसके 'सोमपीथ'. 'सुरापीथ' कारण, पृथ्वी में सड़ने का, वृक्षों में टूटने का, एवं स्त्रियों | 'अन्नाद' मस्तकों से क्रमशः कपिजल, कलविक एवं तित्तिर में रजस्त्राव होने का दोष निर्माण हुआ। इसी कारण | पक्षियों का निर्माण हुआ। रजस्वला स्त्री से संभोग करना त्याज्य माना गया एवं ऐसे अपने पुत्र के वध से त्वष्ट अत्यधिक क्रुद्ध हुआ, एवं संभोग से दोषयुक्त संतति उत्पन्न होने लगी (तै. सं. | उसने इंद्रवध करने के लिए अपने तपःप्रभाव से वृत्र | नामक असुर निर्माण किया। पश्चात् देवों ने जम्भिका के आगे चल कर, त्रित ने इसका वध किया, एवं इंद्र की | द्वारा वृत्र का वध किया (म. उ. ९.४-३४; भा. ६. ब्रह्माहत्या के पातक से मुक्तता की (श. वा. १.२.३.२)।। ६-९)। ८६९ Page #892 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विश्वरूप प्राचीन चरित्रकोश विश्वामित्र परिवार--सूर्यकन्या विष्टि इसकी पत्नी थी, जिससे इसे | विश्वसामन् आत्रेय-एक वैदिक सूक्तद्रष्टा (ऋ. निम्नलिखित भयानक पुत्र उत्पन्न हुए थे:-- गण्ड, ५.२२)। इसके सूक्त में अग्नि के उपासना की प्रेरणा दी रक्ताक्ष, क्रोधन, व्यय, दुर्मुख एवं हर्षण । | गयी है। २. ( स्वा. प्रिय.) एक राजा, जो वृषभदेव पुत्र भरत | विश्वसा--(सू. इ.) एक इक्ष्वाकुवंशीय राजा, राजा के पंचजनी नामक पत्नी का पिता था। जो महत्वत् राजा का पुत्र, एवं प्रसेनजित् राजा का पिता ३. अजित देवों में से एक। था (भा. ९.१२.७)। विश्वरूपा--धर्म ऋषि की पत्नी, जिसकी कन्या का विश्वसृज--एक आचार्यसमूह, जिन्होंने सहस्र नाम धर्मव्रता था (वायु. १०७.२)। संवत्सरों तक चलनेवाले एक यज्ञसत्र का आयोजन किया विश्ववार--एक वैदिक यज्ञकर्ता । यज्ञ एवं मायिन् था। आगे चल कर उसी सत्र से सृष्टि का निर्माण हुआ नामक ' होतो ओं' के साथ इसका निर्देश प्राप्त है (पं. बा. २५.१८)। भाष्य के अनुसार, यहाँ संवत्सर शब्द का अर्थ 'दिन' ही लेना चाहिए (ऋ. ५.४४.१)। २. ब्रह्मसावर्णि मन्वन्तर के एक अवतार का पिता। विश्ववारा आत्रेयी--एक वैदिक सूक्तद्रष्टी (ऋ. ५. | २८)। विश्वफणि अथवा विश्वस्फूर्ति-(मगध,भविष्य.) मगध देश का एक सार्वभौम राजा, जिसे पुरंजय नामांतर विश्ववेदि-एक राजनीतिज्ञ, जो शौरि राजा का मंत्री था। शौरि एवं उसके चार भाई खनित्र, उदावसु, भी प्राप्त था (पुरंजय ६. देखिये)। इसने अपने राज्य के | ज्ञातियों की पुनर्रचना की थी। इसने क्षत्रियों का वर्चस्व सुनय एवं महारथ ये प्रजापति के पुत्र थे । इन भाइयों में से खनित्र मुख्य अधिपति था, एवं शौरि, उदावसु, सुनय विनष्ट कर, उनका स्थान कैवर्त, मद्रक, पुलिंद, ब्राह्मण, एवं महारथ क्रमशः उसके राज्य के पूर्व, दक्षिण, पश्चिम पंचक आदि नवनिर्मित जातियों को दे दिया । इसकी मृत्यु एवं उत्तर भागों का कारोबार देखते थे। इन चार | गंगातीर पर हुई (ब्रह्मांड. ३.७४.१९०-१९३; वायु: राजाओं के चार पुरोहित थे, जिनके नाम निम्न प्रकार थे: ९९.३७०-३८२)। अत्रिकुलोपत्पन्न सुहोत्र, गौतमकुलोत्पन्न कुशावर्त, कश्यप विश्वा--प्राचेतम् दक्ष एवं असिक्नी से उत्पन्न कुलोत्पन्न प्रमति, एवं वसिष्ठ । | एक कन्याद्वय, जिनका विवाह क्रमशः धर्म एवं कश्यप ___ इसने उपर्युक्त चार ही पुरोहितों को खनित्र के विरुद्ध । से हुआ था। इनसे क्रमशः विश्वेदेव,तथा यक्ष एवं राक्षस जारणमारणादि उपाय करने की प्रार्थना की । तदनुसार, उत्पन्न हुए। इन चार पुरोहितों ने चार कृत्याओं का निर्माण किया, विश्वाची--प्राधा अप्सरा की कन्या (म. स . १०. जिन्होंने आगे चल कर खनित्र पर आक्रमण किया। ११)। यह ययाति राजा के साथ रत हुई थी (म. आ. किन्तु खनित्र के शुद्धाचरण के कारण, चार ही कृत्या ८०.८३८. पंक्ति. १-२)। परास्त हो कर लौट आयी, एवं उन्होंने अपने निर्माण विश्वाधार--मेधातिथि का पुत्र । विश्वानर-एक राजा, जिसकी पत्नी का नाम शुचिकर्ता चार पुरोहितों के साथ इसका भी भक्षण किया श्मती था। शिव की कृपा से इसे गृहपति नामक पुत्र (मार्क. ११४)। उत्पन्न हुआ, जिसने तीन वर्षों के अल्पावधि में सांगवेदों विश्वसह-एक राजा, जो भागवत के अनुसार का अध्ययन कर, शिव से दीर्घायुष्य प्राप्त किया (स्कंद, ऐडविड राजा का, एवं विष्णु के अनुसार इलवील राजा ४.१.११)। का पुत्र था। इसके पुत्र का नाम खट्वांग था ( भा. ९.९. विश्वामित्र-(सो. अमा.) एक सुविख्यात ऋषि, ४१; विष्णु. ४.४.७५)। जो अपने युयुत्सु, विजिगिषु एवं युगप्रवर्तक व्यक्तित्व के ___२. ( सू. इ.) इक्ष्वाकुवंशीय विश्वपाल राजा का कारण, वैदिक एवं पौराणिक साहित्य में अमर हो चुका नामांतर | विष्णु में इसे व्युषिताश्व राजा का, एवं वायु में | है। कान्यकुब्ज देश के कुशिक नामक सुविख्यात क्षत्रियध्युषिताश्व राजा का पुत्र कहा गया है। कुल में उत्पन्न हुआ विश्वामित्र,ज्ञानोपासना एवं तपःसामर्थ्य ३. (सो. क्रोष्टु.) लोमपादवंशीय एक राजा, जो श्वेत | के कारण, एक श्रेष्ठतम ऋषि एवं वैदिक सूक्तद्रष्टा आचार्य राजा का पुत्र था। बन गया। इस कार्य में देवराज वसिष्ठ जैसे परंपरागत Mol ८७० Page #893 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विश्वामित्र प्राचीन चरित्रकोश विश्वामित्र ब्राह्मण आचायों से इसे आमरण संघर्ष करना पड़ा। आगे चल कर, इसने क्षत्रियधर्म का त्याग कर अंत में इस संघर्ष में पूरी तरह से यशस्वी हो कर, यह | ब्राह्मण बनने का निश्चय किया, एवं यह सरस्वती नदी के एवं इसके वंश के लोग सर्वश्रेष्ठ ब्राह्मण मानने जाने लगे,जो | किनारे 'रूषंगु-तीर्थ' पर तपस्या करने चला गया इसके जीवन की सबसे बड़ी फलश्रुति कही जा सकती है। (म. श. ३८.२२-३४, ४१.२३०७; वा. रा. बा. ५१ व्यु-पत्ति --उसके विश्वामित्र' नाम की व्युत्पत्ति -५६)। वायु के अनुसार, इसने 'सागरानृप प्रदेश' आरण्यक ग्रंथों में विश्व का मित्र' शब्दों में दी गयी है | में तपस्या की थी ( वायु.९१.९२-९३) । इन निर्देशां से (ऐ. आ. १.२.२)। व्याकरणशास्त्रीय दृष्टि से 'विश्वामित्र' प्रतीत होता है कि, विश्वामित्र का तपस्यास्थान आधुनिक एक अनियमित रूप है। पाणिनि के अनुसार, 'मित्र' राजपुताना के रेगिस्तान में कहीं था, जो प्रदेश प्राचीनशब्द के पहले जब 'विश्व' शब्द का उपयोग होता है, एवं | काल में पश्चिम समुद्र का तटवर्ती प्रदेश माना जाता था। उस शब्द का अर्थ पि होता है,तब उक्त शब्द 'विश्वमित्र' घोर तपस्या के द्वारा विश्वामित्र को ब्राह्मणत्व प्राप्त नही, बल्कि 'विश्वामित्र' बनता है (पा. सू. ६.३.१३०)। होने का निर्देश अनेकानेक वैदिक संहिता एवं ब्राहाण ग्रंथों जन्म---विश्वामित्र का जन्म कान्यकुब्ज देश के सुविख्यात में प्राप्त है (का. सं. १६.१९: मै. सं. २.७.१९; तै. सं. अमावसु बंदा में हुआ था, एवं यह कुशिक राजा का पौत्र, २.२.१.२; ऐ. ब्रा. ६.१८.१; को. बा. १५.१; जै. उ.ब्रा, एवं गाथिन (गाधि) राजा का पुत्र था। इसका जन्मनाम २.३.१३; ए. आ. २.२.३; बृ. उ. २.२.४ )। इससे विश्वरथ था। विश्वामित्र यह नान इसे ब्राह्मण होने के । प्रतीत होता है कि, विश्वामित्र का यह वीतर प्राचीन काल पश्चात् प्राप्त हुआ। में एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण घटना मानी गयी थी। वेदार्थ दीपिका में विश्वामित्र के जन्म के संबंध में निम्न कथा प्राप्त है। इसका पितामह कुशिक स्वयं एक अत्यंत वरिष्ट से विरोव--विश्वामित्र को क्षत्रियधर्म छोड़ बलाढ्य राजा था, एवं अपने पिता इपीरथ के समान कर ब्राह्मण बनने की इच्छा क्यों हुई, इस संबंध में एक प्रजाहितदक्ष था। इंद्र के समान तेजस्वी पुत्र प्राप्त होने कल्पनारम्य कथा महाभारत एवं वाल्मीकि रामायण में प्राप्त के लिए कु.शिक ने तपस्या की । उस समय स्वयं इंद्र हैं। एक बार यह वसिष्ठ ऋषि के आश्रम में अतिथि के ने ही गाथिन नाम धारण कर, कुशिक-पुत्र के रूप में नाते गया, जहाँ वसिष्ठ ने अपनी नंदिनी नामक कामधेनु जन्म लिया, एवं इसी गाथिनरूपधारी इंद्र से विश्वामित्र की सहाय्यता से इसका उत्तम आदरातिथ्य किया। का जन्म हुआ। इस प्रकार विश्वामित्र का वंशक्रम निम्न अनेकानेक दैवी गुणों से युक्त नंदिनी कामधेनु को देख कर, प्रकार कहा जा सकता है :--इधीरथ--कुशिक--गाथिन् | यह अत्यधिक प्रसन्न हुआ, एवं इसने उस धेनु की माँग (इंद्र )--विश्वामित्र (वेदार्थ. ३.१)। वसिष्ठ से की। वसिष्ठ ने उसका इन्कार करने पर, यह उस धेनु . वाल्मीकि रामायण में विश्वामित्र का वंशक्रम निम्न की प्राप्ति के लिए अपना सारा राज्य देने के लिए सिद्ध हुआ। फिर भी वसिष्ठ ने इसे नंदिनी न दी। प्रकार दिया गया है :--प्रजापति---कुश---कुशनाभगाथिन--विश्वामित्र (वा. रा. वा. ५१ ) । पश्चात् इसने अपने सैन्यबल से नंदिनी का हरण करना समवर्ती लोग--विश्वामित्र के पितामह कुशिक की चाहा। किंतु उस धेनु से उत्पन्न हुए शक, यवन, पलव, पत्नी का नाम पौरुकुत्सी था, जो अयोध्या के पुरुकुत्स बर्बर, किरात आदि लोगों ने विश्वामित्र की सेना को परास्त राजा की कन्या थी। इसकी बहन का नाम सत्यवती था, किया, एवं इस प्रकार नंदिनी का हरण करने का इसका जिसका विवाह ऋचीक भार्गव ऋष से हुआ था। सत्यवती प्रयत्न असफल ही रहा। के पुत्र का नाम जमदग्नि था। इस प्रकार जमदग्नि ऋषि तदुपरांत वसिष्ठ का पराजय करने के लिए, इसने एवं उसका पुत्र परशुराम जामदग्न्य ये दोनों विश्वामित्र के अनेकानेक प्रकार के अस्त्र संपादन करने का निश्चय किया, समवर्ती एवं निकट के रिश्तेदार थे। एवं उस हेतु अत्यंत कठोर तपस्या भी की। किंतु राज्यपाति-अपने पिता के पश्चात् विश्वामित्र | अस्त्रप्राप्ति के पश्चात् भी वसिष्ठ अजेय ही रहा, एवं कान्यकुज देश का राजा बन गया। पुराणों में इसका इसे जीवन में सर्वप्रथम ही साक्षात्कार हुआ कि, क्षत्रबल निर्देश कुशिक एवं गाथिन् राजाओं का 'दायाद' (उत्तर से ब्रह्मबल अधिक श्रेष्ठ है। पश्चात् बसिष्ठ के समान कालीन राजा) नाम से किया गया है। ब्रह्मबल प्राप्त करने के हेतु इसने स्वयंब्राह्मण बनने का ८७१ Page #894 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विश्वामित्र प्राचीन चरित्रकोश विश्वामित्र निश्चय किया, एवं तत्प्रीत्यर्थ कौशिकी नदी और 'रुपंगु | राजकुमार को पुनः राजगद्दी पर बिठाने का आश्वासन तीर्थ' पर घोरतपस्या करके यह ब्राह्मण बन गया | इसने दे दिया । (म. व. ८५.९:१२, वा, रा. बा. ५१-५६)। । त्रिशंकु का राजपुरोहित--आगे चल कर विश्वामित्र ने महाभारत में प्राप्त उपर्युक्त कथा कालदृष्टि से विसंगत अयोध्या के राजपुरोहित देवराज वसिष्ठ को परास्त पर, प्रतीत होती है। नंदिनी गाय का पालनकर्ता वसिष्ठ ऋषि । त्रिशंकु को अयोध्या के राजगद्दी पर विठाया। त्रिशंकु ने 'वसिष्ठ देवराज' न हो कर 'वसिष्ठ अथर्व निधि' था, जो भी अपने राजपुरोहित देवराज वसिष्ठ को हटा कर उसके विश्वामित्र से काफी पूर्वकालीन था (वसिष्ठ अर्थवनिधेि स्थान पर विश्वामित्र की नियुक्ति की, एवं इस प्रकार ब्राह्मण दखिये )। फिर भी महाभारत में विश्वामित्र ऋषि के | बन कर वसिष्ठतुल्य राजपुरोहित बनने की विश्वामित्र की समकालीन देवराज बसिष्ठ को नंदिनी का पालनकर्ता | आकांक्षा पूर्ण हो गयी। चित्रित किया गया है । अतएव विश्वामित्र-वसिष्ठ संघर्ष त्रिशंकु का सदेह स्वर्गारोहण--- आगे चल कर की कारणपरंपरा बतानेवाली महाभारत में प्राप्त उपयुक्त | विश्वामित्र ने त्रिशंकु के अनेकानेक यज्ञों का आयोजन सारी कथा अनैतिहासिक प्रतीत होती है। किया। यही नहीं, सदेह स्वर्गारोहण करने की उस राजा आपत्प्रसंग-ब्राह्मणपद प्राप्त होने के पश्चात् , की इच्छा भी अपने तपःसामथ्र्य से पूरी की। इस संबंध विश्वामित्र ने अपनी पत्नी एवं पुत्र कोसल देश में स्थित एक में अपने पुराने शत्रु देवराज वसिष्ठ से इसे अत्यंत कठोर आश्रम में रख दी, एवं यह स्वयं पुनः एक बार सागरानूप | संघर्ष करना पड़ा। देवराज इंद्र के द्वारा त्रिशंकु के तीर्थ पर तपश्चर्या करने चला गया। इसकी अनुपस्थिति में स्वर्गारोहण के लिए विरोध किये जाने पर, इसे उससे कोसल देश में बड़ा भारी अवर्षण आया, एवं विश्वामित्र भी घोर संग्राम करना पड़ा। किन्तु अन्त में यह अपने की पत्नी एवं पुत्र भूख के कारण तड़पने लगे। अन्न प्राप्त कार्य में यशस्वी हो कर ही रहा (त्रिशंकु. देखिये)। । कराने के लिए, अपने एक पुत्र के गले में रस्सी बाँध कर, पार्गिटर के अनुसार, त्रिशंकु के स्वगारोहण की उसे खुले बाजार में बेचने का आपत्प्रसंग विश्वामित्र ऋषि पुराणों में प्राप्त सारी कथा कल्पनारम्य प्रतीत होती है। की पत्नी पर आया, जिस कारण उस पुत्र को 'गालव' आकाश में स्थित ग्रहों में से एक ग्रहसमह को विश्वामित्र, नाम प्राप्त हुआ। ने त्रिशंकु का नाम दिलवाया, यही इस कथा का तादृश त्रिशंकु की सहाय्यता-उस समय कोसल देश के ! अर्थ है । वाल्मीकि रामायण में भी, त्रिशंक का वर्णन त्रैय्यारूण राजा के पुत्र सत्यव्रत (निशंकु) विश्वामित्रपत्नी | चंद्रमार्ग पर स्थित एक ग्रह के नाते गुरु, बुध, मंगल की सहाय्यता की, तथा उसकी एवं विश्वामित्र पुत्रों की आदि अन्य ग्रहों के साथ किया गया है ( वा. रा. अयो. जान बचायी। त्रिशंकु स्वयं जंगल से शिकार कर के लाता | ४१.१०)। था, एवं वह माँस विश्वामित्र के परिवार को खिलाया करता ____ उपर्युक्त कथा में वर्णित इंद्र-विश्वामित्र संघर्ष भी था। इन्हीं दिनों में एक बार त्रिशंकु राजा ने वसिष्ठ ऋषि कल्पनारम्य प्रतीत होता है, एवं देवराज वसिष्ठ से के नंदिनी नामक गाय का वध कर, उसका मांस विश्वामित्र | विश्वामित्र के द्वारा किये गये संघर्ष का वर्णन वहाँ परिवार को खिलाने की कथा पुराणों में प्राप्त है । किन्तु | देवराज इंद्र के संघर्ष में परिवर्धित किया गया है। जैसे पहले ही कहा गया है, नंदिनी का पालनकर्ता वसिष्ठ | विश्वामित्र के कार्य का महाव-विश्वामित्र के द्वारा विश्वामित्र के समकालीन नहीं था। इसी कारण, यह कथा त्रिशंकु को पुनः राज्य प्राप्त होने की घटना, अयोध्या कल्पनारम्य एवं विश्वामित्र वसिष्ठ का शत्रुत्व बढ़ाने के | के इक्ष्वाकु राजवंश के इतिहास में महत्त्वपूर्ण घटना लिए वर्णित की गयी प्रतीत होती है। मानी जाती है। अयोध्या के पुरातन इक्ष्वाकु राजवंश को बारह वर्षों के पश्चात् अपनी तपस्या समाप्त कर दूर हटा कर वहाँ अपना स्वय का राज्य स्थापन करने विश्वामित्र कोसल देश को लौट आय । वहाँ अपने न का प्रयत्न देवराज वसिष्ठ कर रहा था। उसे असफल होने के काल में त्रिशंकु ने अपने परिवार के लोगों की बना कर, इक्ष्वाकु राजवंश का अधिराज्य अबाधित रखने अच्छी तरह से देखभाल की, यह बात जान कर इसे त्रिशंकु का कार्य विश्वामित्र ने किया। इस प्रकार, 'त्रिशंकु-वसिष्ठके प्रति काफ़ी कृतज्ञता प्रतीत हुई। देवराज वसिष्ठ के विश्वामित्र' आख्यान का वास्तव नायक इक्ष्वाकुराज त्रिशंक द्वारा अयोध्या के राजगद्दी से पदभ्रष्ट किये गये उस ही है । उसे गौण स्थान प्रदान कर, विश्वामित्र एवं वसिष्ठः ८७२ Page #895 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विश्वामित्र प्राचीन चरित्रकोश विश्वामित्र अयान परीक्षा का जो संघर्ष रामायण महाभारतादि ग्रन्थों में सविस्तृत | यह ब्राह्मण बना गया। शुनःशेप का संरक्षण करने के . रूप में वर्णित किया गया है, वह अनैतिहासिक प्रतीत पश्चात् , कौशि की नदी के तट पर तपस्या करने के होता है। कारण, इसे ब्रह्मर्षिपद प्राप्त हुआ। इतना होते हुए भी, हरिश्चंद्र के राज्यकाल में-सत्यवत त्रिशंकु के राज्य यह क्रोध, मोह आदि विकार काबू में न रख सकता था। काल में शुरू हुआ इसका एवं देवराज वसिष्ठ का संघर्ष इसी कारण अपने तपस्या का भंग करने के लिए आयी सत्यवत के पुत्र हरिश्चंद्र, एवं पौत्र रोहित के राज्यकाल में हुई रंभा को इसने शिला बनाया था। पश्चात् काम क्रोध चाल ही रहा । सत्यव्रत के सदेह स्वर्गारोहण के पश्चात् , पर विजय पाने के लिए इसने पुनः एक बार तपस्या की, उसके पुत्र हरिश्चंद्र ने विश्वामित्र को अपना पुरोहित जिस कारण इसे जितेंद्रियत्व एवं ब्रह्मर्पिपद प्राप्त हुआ नियुक्त किया । किन्तु उसके राजसूय यज्ञ में बाधा उत्पन्न (वा. रा. बा. ६२-६६, स्कंद. ६.१.१६७-१६८)। कर, वसिष्ठ ने अपना पौरोहित्यपद पुनः प्राप्त किया। ब्रह्मर्षिपद प्राप्त होने के पश्वात् , इसे इंद्र के साथ सोमपान सत्यव्रत के विजनवास में, उसका पुत्र हरिश्चंद्र वसिष्ठ के करने का सन्मान प्राप्त हुआ (म. आ. ६९.५०)। इंद्र ही मागदर्शन में पाल पोस कर बड़ा हुआ था । अयोध्या के | ककृपापात्र व्याक्त क रूप म आर के कृपापात्र व्यक्ति के रूप में आरण्यक ग्रंथों में इसका ब्राह्मण लोग भी पहले से ही विश्वामित्र के विरुद्ध थे। इन निर्देश प्राप्त है (ऐ. आ. २.२.३; सां.आ. १.५)। दोनों घटनाओं की परिणति हरिश्चंद्र के राजसूय यज्ञ के सत्त्वपरीक्षा-विश्वामित्र को ब्रह्मर्षिपद कैसे प्राप्त हुआ, समय हुई, जहाँ हरिश्चंद्र ने विश्वामित्र को दक्षिणा देने से इस संबंध में एक कथा महाभारत में प्राप्त है। एक बार इन्कार कर दिया। इस अपमान के कारण रुष्ट हो कर धर्म ऋषि इसके पास आया एवं इसके पास भोजन माँगने इसने अयोध्या का पुरोहितपद छोड़ दिया, एवं यह लगा। धर्म के लिए यह चावल पकाने लगा, जितने में पुष्करतीर्थ में तपस्या करने के लिए चला गया। वह चला गया। पश्चात् यह सौ वर्षों तक धर्मऋषि की राह मार्कंडेय पुराण में--इस संदर्भ में मार्कंडेय-परण में देखते वैसा ही खड़ा रहा। इतने दीर्घकाल तक खड़े रह कर - वसिष्ठ एवं विश्वामित्र के संघर्ष की, अनेकानेक कल्पनारम्य भी इसने अपनी मनःशांति नही छोड़ी, जिस कारण धर्म कथाएँ प्राप्त है, जहाँ विश्वामित्र के द्वारा हरिश्चंद्र राजा ने इसकी अत्यधिक प्रशंसा की, एवं इसे ब्रह्मर्षि-पद प्रदान को दक्षिणा प्राप्ति के लिए त्रस्त करने की, इसने किया (म. उ. १०४.७-१८)। महाभारत में अन्यत्र • एक पक्षी बन कर वसिष्ठ पर आक्रमण करने का, एवं त्रिशंकु-आख्यान, रंभा को शाप, विश्वामित्र के द्वारा वसिष्ठ के सौ पुत्रों का वध करने का निर्देश प्राप्त है (मा. कुत्ते का मांसभक्षण आदि इसके जीवन से संबंधित कथाएँ ८-९)। इन तीनों कथाओं में से पहली दो कथाएँ एकत्र रूप दी गयी हैं। संपूर्णतः वल्पनारम्य हैं. एवं तीसरी हरिश्चंद्रकालीन भविष्यपुराण के अनुसार, ब्रह्मा को अत्यंत प्रिय विश्वामित्र की न हो कर, सुदासकालीन विश्वामित्र की 'प्रतिपदा' का व्रत करने के कारण, इसे देहान्तर न करते प्रतीत होती है (विश्वामित्र ४. देखिये)। हुए भी ब्राह्मणत्व की प्राप्ति हो गयी (भवि. ब्राह्म. हरिश्चंद्र के ही राज्यकाल में उसके पुत्र रोहित को यज्ञ १६) । मृत्यु के पश्चात् यह शिवलोक गया, जो फल में बलि देने का, एवं इक्ष्वाकु राजवंश को निवेश करने का इसे हिरण्या नदी के संगम पर स्नान करने के कारण प्राप्त षड्यंत्र वसिष्ठ के द्वारा रचाया गया था। किन्तु विश्वामित्र हुआ था (पभ. उ. १४०)। ने रोहित की, एवं तत्पश्चात उसके स्थान पर बलि जानेवाले । आश्रम--विश्वामित्र का आश्रम कुरुक्षेत्र में सरस्वती अपने भतीजे शुनशेप की रक्षा कर, इश्वाकु राजवंश का तीर नदी के पश्चिम तट पर स्थाणु-तीर्थ के सम्मुख था पुनः एक बार रक्षण किया । तदुपरांत विश्वामित्र ने शुनः- | (म. श. ४१.४-३७)। इस आश्रम के समीप, सरस्वती शेप को अपना पुत्र मान कर, उसका नाम देवरात रख । नदी पर स्थित रुषंगु-आश्रम में विश्वामित्र ने ब्राह्मणत्व 'दिया (र. ब्रा. ७.१६; सा. श्री. १५.१७; शुनाशेप | प्राप्त किया था (म. श. ३८.२२-३२)। देखिये)। विश्वामित्र का अन्य एक आश्रम आधुनिक बक्सार ब्रह्म पद की प्राप्ति--क्षत्रिय विधामित्र को ब्रह्मर्षिपद | में 'ताटका-वन' के समीप था। महाभारत के कैसे प्राप्त हुआ, इसकी कथाएँ वाल्मीकि रामायण एवं अनुसार, इसका आश्रम कौशिकी नदी (उत्तर बिहार पुराणों में प्राप्त है। रूपंगु-तीर्थ पर तपस्या करने के कारण | की आधुनिक कोशी नदी) के तट पर स्थित था ८७३ Page #896 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विश्वामित्र एवं उस नदी का 'कौशिकी' नाम भी इसी के 'कौशिक' पैतृक नाम से प्राप्त हुआ था ( म. आ. ६५.३० ) । यह वही पुण्य स्थान था, जहाँ पूर्वकाल में वामन ने बलि वैरोचन से त्रिपाद भूमि की माँग की थी। यही स्थानमाहात्म्य जान कर इसने 'सिद्धाश्रम' में अपना आश्रम बनाया था ( वा. रा. बा. २७ - २९ ) । संभवतः यह आश्रम आद्य विश्वामित्र ऋषि का न हो कर, रामायणकालीन विश्वामित्र महर्षि का होगा । प्राचीन चरित्रकोश इनके अतिरिक्त इसके देवकुण्ड (वेदगर्भपुरी ), एवं विश्वामित्री नदी के तट पर स्थित अन्य दो आश्रमों का निर्देश भी प्राप्त है । 1 परिवार—विश्वामित्र के कुल एक सौ एक पुत्र थे, जिनमें से मँझले (इक्कावनवे ) पुत्र का नाम मधुच्छन्दस् था । अपने भतिजे शुनःशेप को पुत्र मान लेने पर, विश्वामित्र ने उसे ' देवरात ' नाम प्रदान कर, अपना ज्येष्ठ पुत्र नियुक्त किया, एवं अपने बाकी सारे पुत्रों को उसका ' ज्येष्ठपद' मानने की आज्ञा दी । विश्वामित्रपुत्रों में से पहले पचास पुत्रों ने विश्वामित्र की यह आज्ञा अमान्य कर दी, जिस कारण इसने उन्हें ग्लेंच्छ बनने का शाप दिया । ऐतरेय ब्राह्मण के अनुसार, अपने इन पुत्रों को इसने अन्ध्र, पुण्ड्र, शवर, पुलिंद, मूतित्र आदि अन्त्य जाति के लोग बनने का शाप दिया ( ऐ. ब्रा. ७.१८ रैभ्य एवं ऋषभ याज्ञतुर देखिये ) । मधुच्छंदस् एवं अन्य पचास कनिष्ठ पुत्रों ने विश्वामित्र की आज्ञा मान ली, जिस कारण इसने उन्हें अनेकानेक आशीर्वाद प्रदान किये । ; विश्वामित्र के उपर्युक्त शाप के कारण, इसके पुत्रों की एवं वंशजों की निम्नलिखित दो शाखाएँ बन गयी : १. कुशिक शाखा,——जो विश्वामित्र के कृपापात्र पुत्रों से उत्पन्न हुयी, जिनमें देवरात प्रवर आता है ( भा. ९. १६.२८-३७ ); २. विश्वामित्र शाखा, जो विश्वामित्र के शाप के कारण ही कुलीन बन गये । पत्नियाँ -- विश्वामित्र की पत्नियाँ, एवं उनसे उत्पन्न इसके पुत्रों की जानकारी ब्रह्म, हरिवंश, वायु, ब्रह्मांड आदि पुराणों में प्राप्त है, जो संक्षेपरूप में नीचे गयी है:-- दी पत्नी का नाम १. रेणु २. शालावती ३. सांकृति ४. माधवी ५. पती विश्वामित्र पुत्रों के नाम रेणु, सांकृति, गालव, मधुच्छंदस्, जय, देवल, कच्छप, हरित, अष्टक | हिरण्याक्ष, देवश्रवस्, कति । मौद्गल्य, गालव । अष्टक | कृत, ध्रुव, पूरण । वायु में दृषद्वती का पुत्र केवल अष्टक ही बताया गया है। ह..वं. १.३२; ब्रह्म. १०; वायु. ९१.९९ - १०३ ) । पुत्र -- विश्वामित्र के पुत्रों की नामावली महाभारत,. वाल्मीकि रामायण एवं विभिन्न पुराणों में प्राप्त है, जो निम्न दी गयी है : महाभारत में — अक्षीण, अंभोरद, अरालि, आंध्रक, आश्वलायन, आसुरायण, उज्जयन, उदापेक्षिन्, उपगहन, उलूक, ऊर्जयोनि, कपिल, कारीष, कालपथ, कूर्चामुख, गार्ग्य, गार्दभि, गालव, चक्रक, चांपेय, चारुमत्स्य, जंगारि, जाबालि तंतु, ताडकाग्नन, देवरात ( शुनःशेप), नवतंतु, नाचिक, नारद, नारदिन, नैकदृश, पर, पर्णजंघ ( वल्गुजंघ ), पौरव, बकनख, बभ्रु बाभ्रवायणि, भूति, मधुच्छंदस्, मारुतंतत्र्य, मार्दम, मुसल, यति, यमदूत, याज्ञवल्क्य, लीलाढ्य, वक्षोग्रीव, वज्र, वातन्न, वादुलि, विभूति, शकुन्त, शिरी शिन्, शिलायूप, शुचि, श्यामायन संश्रुत्य, सालंकायन, सित, सुरकृत्,, सुश्रुत, सूत, सेयन, सैंधवायन, स्थूण, हिरण्याक्ष (म. अनु. ४.४९-५९ ) । इन पुत्रों में से हिरण्याक्ष को छः पुत्र उत्पन्न हुए थे । हविष्पंद ( वा. रा. बा. ५७ ) । विश्वामित्र के ये सारे पुत्र ( २ ) रामायण में -- दृढनेत्र, मधुष्पंद, महारथि एवं ब्राह्मणदेशविवर्धक एवं गोत्रकार माने जाते हैं । (३) हरिवंश एवं पद्म में कवि, क्रोधन, स्वसृम ( स्वसृप ), पितृवति ( पितृवर्तिन् ), पिशुन, वाग्दुष्ट, हिंस्त्र (ह. वं. १.२१.५; पद्म. सृ. १० ) । (४) अन्य ग्रंथों में -- हिरण्याक्ष, देवश्रवस् (देवरात, शुनःशेप), कति, रेणु ( रेणुक, रेणुमत् ), सांकृति, गालव, मधुच्छन्दस्, जय (नय), देवल (देव), कच्छ, हरित ( द्वारित), अष्टक, कृत, ध्रुव, पूरण। इनमें से ८७४ Page #897 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विश्वामित्र प्राचीन चरित्रकोश विश्वामित्र काति एवं अष्टक को क्रमशः कात्यायन एवं लौहि नामक संश्रुत (ग), संश्रुत्य ( ग ), साधित ( ग ), सैंधवान (ग), हलयम ( ग ) । पुत्र उत्पन्न हुए थे । (५) वायु एवं ब्रह्मांड में - मधुच्छन्दस्, नय एवं देव ( वायु. ९१.९६; ब्रह्मांड. ३.६६ ) । ( ब ) वैश्वामित्र, दैवश्रवस, दैवरात प्रवरों के गोत्रकारकारुकायण (कामुकायन, ग ), कुशिक, देवश्रवस्, वैदेह( ६ ) ब्रह्म मैं -- मौद्गल्य, गालव, कात्यायन ( ब्रह्म. रात, वैदेहजात, वैदेहनात, वैदेवराज ( ग ), सुजातेय, ( १०.१३ ) । सौमुक (तौसुक) । विश्वामित्रकुलोत्पन्न गोत्रनाम - विश्वामित्रकुल में उत्पन्न निम्नलिखित गोत्रों की नामावलि महाभारत एवं पुराणों में दी गयी है: -- १. उदुंबर, २. कारूपक ( करीषय, कारीपव, कारीवि.); ३. कौशिक ( कुशिक ); ४. गालव ५. चांद्रव ( यमभुंन्चत ); ६. जाचाल; ७ तालकायन (तारक) तारकायन ); ८. देवरात; ९. देवल. १०. ध्यानजान्य; ११. पणिन ( पाणिन्, पाणिनि ); १२. पार्थिव १३. बभ्रु; १४. बादर; १५. बाष्कल (वास्कल ); १६. मधुच्छेदस्; १७. यमदूत ( यामदूत, यामभूत ); १८. याज्ञवल्क्यः १९. रेणव; २०. लालाक्य (ददाति ); २१. लौहित ( लोहित, लोहिण्य ); २२. वाताड्य ( उदुम्लान ); २३. शालंकायन; २४. श्यामायन ( शालावत्य ); २५. समर्पण; २६. सांकृत ( स्यैकृत); २७ सैंधवायनः २८. सौश्रव (सोश्रुत, सोश्रुम ); २९. हिरण्याक्ष ( म. अनु. ४.५०-६०; वायु. ९१.९७ - १०२, ब्रह्मांड. ३.६६.६९७४: ह. वं. २७.१४६३-१४६९; ब्रह्म. १०.६१-६३३ १३ ) | उपर्युक्त नामावलि में से १०-२६ नाम ब्रह्म के तेरहवें अध्याय में, एवं १२-२६ नाम ब्रह्म के दसवें अध्याय में अप्राप्य हैं। विश्वामित्रकुलोत्पन्न गोत्रकार - इन गोत्रकारों के त्रिश्वरान्वित (तीन प्रवरांवाले ) एवं द्विप्रवरान्वित ( दो 'प्रवरांवाले) ऐसे दो प्रमुख प्रकार है : ( १ ) प्रवरान्वित गोत्रकार - विश्वामित्रकुल के बहुसंख्य गोत्रकार ‘तीन प्रवरांवाले' ही हैं, किंतु प्रवरभेद के अनुसार उनके अनेक उपविभाग हैं, जिनकी जानकारी नीचे दी गयी हैं :-- (क) वैश्वामित्र, माधुच्छंस, आज (आद्य) प्रवरों के गोत्रकार -- कपर्देय, धनंजय, परिकूट, पाणिनि । (ङ) अधर्षण, मधुच्छंद एवं विश्वामित्र प्रवरों के गोत्रकार - आद्य, माधुच्छंदस, विश्वामित्र । (इ) आइमरथ्य, वंजुलि एवं वैश्वामित्र प्रवरों के गोत्रकार -- अश्मरथ्य ( ग ), कामलायनिज, वंजुलि । (ई) ऋणवत्, गतिन् एवं विश्वामित्र प्रवरों के गोत्रकार -- उदरेणु, विश्वामि, उदाहि, क्रथक ( उ ) खिलिखिलि, आज ( विद्य) एवं वैश्वमित्र प्रवरों के गोत्रकार -- उदुंबर, करीराशिन्, त्राक्षायणि, मैं जाय नि कौजाय नि ), लावकि शाख्यायनि ( कात्यायनि ), शालंकायनि, सैषिरिटि । इन गोत्रकारों के लिए खिलि, क्षितिमुखाविद्ध, एवं विश्वामित्र ये प्रवर भी कई पुराणों में प्राप्त हैं । ( (२) विरान्वित गोत्रकार - विश्वामित्र एवं पूरण दो प्रवरों के गोत्रकार- अधक, पूरण, लोहित (मत्स्य. १९८ ) । २. एक ऋषि, जिसे ऊर्वशी अप्सरा से शकुंतला नामक कन्या उत्पन्न हुई थी ( भा. ९.१६.२८-३७ ) । यह ऋषि पूरुवंशीय दुष्यंत एवं भरत राजाओं का समकालीन था । इस प्रकार, अयोध्या के त्रिशंकु, हरिश्चंद्र आदि राजाओं से यह काफी उत्तरकालीन था । ३. एक ऋषि, जिसने अयोध्या के राम दाशरथि के द्वारा ताटका राक्षसी, एवं मारीच, सुबाहु आदि राक्षसों का वध करवाया था ( वा. रा. बा. २४- २७; राम दाशरथि देखिये) । यह साक्षात् धर्म का अवतार था, एवं इसके समान पराक्रमी एवं विद्यावान् सारे संसार में दूसरा कोई न था ( वा. रा. बा. २१ ) | ( अ ) उद्दल, देवरात एवं विश्वामित्र प्रवरों के गोत्रकार – अभय, आयतायन, उलूप ( ग, उल्लप), औपहाव ( ग ), करीष ( ग ), खरवाच, जनगदप ( ग ), जाबाल (ग), देवरात, पयोद ( ग ), बाभ्रव्य ( ग ), याज्ञवल्क्य (ग), वतंड, वास्तुकौशिक ( ग ), विश्वामित्र, ऋग्वेद में इसने स्वयं को 'कुशिक' का वंशज कहलाया बैकृतिगाव (वैकलिन यन ), शलंक, श्यामायन ( ग ) | है ( ऋ. ३.५३.५ ) | इसी कारण इसका निर्देश ८७५ ४. एक ऋषि, जो उत्तर पंचाल देश के पैजवन सुदास राजा का पुरोहित था (ऋ. ३.५३, ७.१२ ) । ऋग्वेद के तृतीय मंडल के प्रणयन का श्रेय इसे एवं इसके वंश में उत्पन्न ऋपियों को दिया गया है। Page #898 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विश्वामित्र प्राचीन चरित्रकोश विश्वामित्र 'कुशिक' नाम से भी प्राप्त है (ऋ. ३.३३.५)। इसके | भाष्य नही लिखा है (ऋ. ३.५३.२०-२४; नि. १०. परिवार के लोगों को भी 'कुशिकाः' कहा गया है। इसके | १४)। परिवार के लोगों को 'विश्वामित्र' उपाधि भी प्राप्त है (ऋ. शक्ति का वध-वसिष्ठ ऋषि के पुत्र शक्ति से विश्वामित्र ३.५३.१३, १०.८९.१७)। के द्वारा किये गये संघर्ष का निर्देश भी ऋग्वेद में प्राप्त है। गाथिन का वंशज-विश्वामित्र 'गाथिन्' राज का सुदास राजा के यज्ञ के समय हुए वादविवाद में शक्ति ने वंशज था, जिस कारण इसे 'गाथिन' पैतृक नाम प्राप्त | इसे परास्त किया। फिर विश्वामित्र ने जमदग्नि ऋषि से है। विश्वामित्र गाथिन के द्वारा विरचित अनेक सूक्त | 'ससर्परी' विद्या प्राप्त कर, शक्ति को परास्त किया ऋग्वेद में प्राप्त हैं [ऋ. ३.१-१२, २४, २५, २६ (ऋ. ३.५३.१५-१६, वेदार्थदीपिका)। आगे चल कर (१-६,८,९); २७-३२, ३३ (१-३,५,७,९,११- इसने सुदास के सेवकों के द्वारा शक्ति का वध करवाया १३); ३४, ३५, ३६ (१-९, ११); ३७-५३, ५७- (तै. सं. ७.४.७.१; ऋ. सर्वानुक्रमणी ७.३२)। ६२, ९.६७.१३-१५, १०.१३७.५; १६७] । पुराणों ___ शक्ति ऋषि से हुए वादविवाद में इसने कथन की हुई में भी इसे कुशिककुलोत्पन्न कहा गया है (वायु. ऋचाएँ 'मौनी विश्वामित्र' की ऋचाएँ नाम से प्रसिद्ध हैं, ९१.९३)। जिनमें इसने कहा है, 'आप लोग इस 'अन्तक' नदीसूक्त-इसके द्वारा विरचित एक सूक्त में विपाश ( विश्वामित्र ) के पराक्रम को नहीं जानते । इसी कारण मुझे. एवं शुतुद्री (आधुनिक बियास् एवं सतलज नदियाँ)। वादविवाद में स्तब्ध देख कर आप हँस रहे हैं । किंतु आप नदियों की संगम पर राह देने के लिए प्रार्थना की गयी | नहीं जानते, कि विश्वामित्र अपने शत्रु से लड़ना ही जानता है (ऋ.३.३३)। अभ्यासकों का कहना है कि, इस सूक्त | है। वारणानि से है । शत्रु से शरणागति उसे मंजुर नहीं है (क्र. ३.५३. के प्रणयन के समय विश्वामित्र पैजवन सुदास राजा का । | २३-२४)। पुरोहित था, एवं पंजाब के संवरण राजा पर आक्रमण करनेवाली सुदास की विजयी सेना को मार्ग प्राप्त कराने के ब्राह्मण ग्रंथों में निम्नलिखित वैदिक मंत्रों के प्रणयन लिए इसने इस 'नदीसूक्त' की रचना की थी ( गेल्डनर, का श्रेय भी विश्वामित्र को दिया गया है :-१. संपात वेदिशे स्टूडियन. ३.१५२)। ऋचाएँ--जिनका प्रणयन एवं प्रचार क्रमशः विश्वामित्र एवं वामदेव ऋषियों ने किया (ऐ.बा.६.१८); २. रोहितसायण के अनुसार, सुदास राजा से विपुल धनसंपत्ति कूलीय साममंत्र--जिनका प्रणयन सौदन्ति लोगों से मिलने प्राप्त करने के पश्चात् , विश्वामित्र के कई विपक्षियों ने के लिए जानेवाले विश्वामित्र ने नदी को लाँधते समय इसका पीछा करना शुरु किया। उस समय भागते हुए | किया था (पं. ब्रा. १४.३.१३)। विश्वामित्र ने इस नदी मूक्त की रचना थी (ऋ. ३.३३, सायणभाष्य)। किन्तु सायण का यह मत अयोग्य प्रतीत ५. एक धर्मशास्त्रकार, जिसका निर्देश ' वृद्ध याज्ञवल्क्य होता है । स्वयं यास्क भी सायण के इस मत से असहमत स्मृति' में प्राप्त है। 'अपराक', 'स्मृतिचंद्रिका', है (नि. २.२४)। जीमूतवाहनकृत 'कालविवेक' आदि धर्मशास्त्रविषयक वसिष्ट से विरोध--ऋग्वेद में प्राप्त निर्देशों से प्रतीत ग्रंथो में विश्वामित्र के निम्नलिखित विषयों से संबंधित होता है कि, यह शुरु में सुदास राजा का पुरोहित था अभिमत उद्धृत किये है :---व्यवहार, पंचमहापातक (ऋ. ३.५३)। किन्तु इसके इस पदसे भ्रष्ट होने के श्राद्ध, प्रायश्चित्त आदि । पश्चात्, वसिष्ठ सुदास का पुरोहित बन गया। तदुपरांत यह | इसके द्वारा विरचित नौ अध्यायों की 'विश्वामित्रसुदास के शत्रुपक्ष में शामिल हुआ, एवं इसने सुदास के | स्मृति' मद्रास राज्य के द्वारा प्रकाशित की गयी है विरुद्ध दाशराज्ञ-युद्ध में भाग लिया ( वसिष्ठ देखिये)। | (मद्रास राज्य कृत पाण्डुलिपियों की सुचि पृ. १९८५, इसी संदर्भ में इसने 'वसिष्ठ-द्वेषिण्यः' नामक कई क्रमांक २७१७)। ऋचाओं की रचना की, जो शौनक के काल से सुविख्यात | ६. एक ऋषि, जो रैभ्य नामक ऋषि का पिता, एवं हैं। वसिष्ठगोत्र में उत्पन्न लोग आज भी इन ऋचाओं का | अर्वावसु एवं परावसु ऋषियों का पितामह था। यह चेदि पठन नहीं करते । ऋग्वेद का एक भाष्यकार दुर्गाचार्य ने | देश का राजा वसु एवं बृहद्युम्न राजाओं का समकालीन स्वयं वसिष्ठगोत्रीय होने के कारण, इन ऋचाओं पर | था ( यवक्रीत एवं भरद्वाज देखिये)। . ८७६ Page #899 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विश्वामित्र प्राचीन चरित्रकोश विश्वेदेव ७. वैवस्वत मन्वन्तर का एक ऋषि, जो युधिष्ठिर के ३. एक गंधर्व, जो श्रावण माह के सूर्य के साथ भ्रमण राजसूय यज्ञ में उपस्थित था ( भा. ८.१३.५; १०.७४. | करता है (भा. १२.११.३०)। ८)। यह स्यमंतपंचक क्षेत्र में श्रीकृष्ण से मिलने आया | ४. एक ऋषि, जो जमदग्नि ऋषि के पाँच पुत्रों में से था, एवं कृष्ण के द्वारा किये गये यज्ञ का यह पुरोहित था | एक था। जमदग्नि के शाप के कारण, अपने अन्य (भा. १०.८४.३; ११.१.१२)। भाइयों के साथ यह पाषाण बना था। किंतु आगे चल ८. एक ऋषि, जो फाल्गुन माह के सूर्य के साथ घूमता कर, इसके भाई परशुराम ने इसे शापमुक्त कराया (म. है (विष्णु. २.१०.१८)। व. ११६.१७; परशुराम देखिये)। ९. ब्रह्मराक्षसों का एक समूह, जो 'रात्रिराक्षसों' के । ५. एक राक्षस, जो मधु राक्षस की पत्नी कुंभीनसी चार समूहों में से एक माना जाता है (ब्रह्मांड.३.८.५९- | का पिता था। इसकी पत्नी का नाम अनला था, जो ६१)। इन्हें 'कोशिक' नामान्तर भी प्राप्त था। माल्यवत् राक्षस की कन्या थी (वा. रा. उ. ६१)। विश्वायु--(सो. पुरुरवस्.) एक राजा, जो विष्णु एवं | ६. एक गंधर्व, जो पुरूरवस् एवं उर्वशी के पुत्रों में से वायु के अनुसार पुरूरवम् राजा के छः पुत्रों में से एक था | एक था (ब्रह्मांड. ३.६६.२३)। इसने ही उर्वशी को (वायु. ९१.५२)1 . पृथ्वीलोक से स्वर्गलोक वापस लाया था। २. वशवर्तिन् देवों में से एक (ब्रह्मांड. २.३६.२९)। ७.ए ७. एक वसु, जो धर्म एवं सुदेवी के पुत्रो में से एक था ३. एक सनातन विश्वेदेव (म. अनु. ९१.३४)। (मत्स्य. १७१.४६)। विश्वेदेव-एक यज्ञीय देवतासमूह, जिसे ऋग्वेद के विश्वाव उ-एक वैदिक सूक्तद्रष्टा (ऋ. १०. चालीस से भी अधिक सूक्त समर्पित किये गये हैं। १३९)। तैत्तिरीय संहिता में इसे एक गंधर्व कहा गया है ( तै. सं. १.१.११.१)। गायत्री के द्वारा लाये गये वैदेक साहित्य में-विश्वेदेव का शब्दशः अर्थ अनेक सोम की इसने चोरी की थी (श. बा. ३.२.२.२)। देवता है । यह एक काल्पनिक यज्ञीय देवतासमूह है, जिसका मुख्य कार्य सभी देवताओं का प्रतिनिधित्व करना २. एक देवगंधर्व, जो कश्यप एवं प्राधा के पुत्रों में से एक था। इसने सोम से चाक्षुषी विद्या सीखी थी, है, क्यों कि, यज्ञ में की गई स्तुति से कोई देवता छूट न जाय । वेदों के जिन मंत्रों में अनेक देवताओं का संबंध जो आगे चल कर इसने चित्ररथ गंधर्व को प्रदान की आता है, एवं किसी भी एक देवता का निश्चित रूप थी (म. आ. १५८.४० -४२)। से उल्लेख नही होता है, वहाँ 'विश्वेदेव' का प्रयोग गंधर्व एवं अप्सराओं के द्वारा, गंधर्वमधु प्राप्त करने किया जाता है । भाषाशास्त्रीय दृष्टि से यह सामासिक के लिए किये गये पृथ्वीदोहन में इसे वत्स बनाया गया शब्द नहीं है, बल्कि 'विश्वे देवाः' ये दो शब्द मिल था (भा. ४.१८.१७)। इंद्र-नमुचि युद्ध में यह इंद्रपक्ष कर बना हुआ संयुक्त शब्द है । इसी कारण इसे 'सर्वदेव' में शामिल था (भा. ८.११.४१ ) । याज्ञवल्क्य ऋषि के नामांतर भी प्राप्त है। साथ इसने अध्यात्मविषयक चर्चा की थी, जिस समय विश्वेदेवों से संबंधित सूक्तों में सभी श्रेष्ठ देवता एवं इसने उसे चौबीस प्रश्न पूछे थे (म. शां. ३०६. कनिष्ठ देवताओं की क्रमानुसार प्रशस्ति प्राप्त है। यज्ञ २६-८०)। करानेवाले पुरोहितों को जिस समय समस्त देवतासमाज मेनका अप्सरा से इसे प्रमदरा नामक कन्या उत्पन्न को आवाहन करना हो, उस समय वह आवाहन विश्वेदेवों हुई थी (म. आ. ८.६ )। इसका चित्रसेन नामक एक के उद्देश्य कर किया गया प्रतीत होती है। अन्य पत्र भी था । कर्दम प्रजापति की पत्नी देवहूति | नामावलि-कई अभ्यासकों के अनुसार, ऋग्वेद में से इसका प्रथमदर्शन में ही प्रेम हुआ था (भा. ३. | | प्राप्त 'आप्री सूक्त' विश्वेदेवों को उद्देश्य कर ही लिखा गया है, जहाँ बारह निम्नलिखित देवताओं को आवाहन ब्राह्मणों के शाप के कारण, इसे पृथ्वीलोक में कबंध | किया गया है :-- १. सुसमिद्ध, २. तनुनपात् , ३. नराराक्षस के रूप में जन्म प्राप्त हुआ था। आगे चल कर, | शंस, ४. इला, ५. बर्हि, ६. द्वार, ७. उपस् एवं रात्रि, राम दाशरथि के द्वारा यह मारा गया, एवं इसे मुक्ति ८. होतृ नामक दो अग्नि, ९. सरस्वती, इला, एवं भारती प्राप्त हुई (म. व. २६३.३३-३८)। (मही) आदि देवियाँ, १०. त्वष्ट, ११. वनस्पति, ८७७ Page #900 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विश्वेदेव प्राचीन चरित्रकोश विषाणिन् १२. स्वाहा (ऋ. १.१३)। इस सूका में निर्दिष्ट ये | किया था (मत्स्य. १७.१४)। मरुत्त के यज्ञ में भी ये बारह देवता एक ही अग्नि के विभिन्न रूप हैं। सभासद थे (भा. ९.२.२८)। इन्हीं के ही कृपा से ऋग्वेद में प्राप्त विश्वेदेवों के अन्य सूक्तों में इस देवता- ज्यामव को पुत्रप्राप्ति हुई थी ( भा. ९.२.२८)। समूह में त्वष्ट, ऋभु, अग्नि, पर्जन्य, पूषन् , एवं वायु | ब्रह्मा की उपासना-इन्होंने हिमालय पर्वत पर आदि देवता; बृहद्दिवा आदि देवियाँ, एवं अहिर्बुध्न्य पितरों की एवं ब्रह्मा की, उपासना की थी, जिस कारण आदि सर्प समाविष्ट किये गये हैं। उन्होंने प्रसन्न हो कर इन्हें आशीर्वाद दिया, 'आज से ऋग्वेद में निर्दिष्ट 'मरुद्गण' ऋभुगण' आदि | मनुष्यों के द्वारा, किये गये श्राद्धविधियों में तुम्हें अग्रमान देवगणों जैसा 'विश्वेदेव एक देवगण प्रतीत नहीं होता है। प्राप्त होगा । देवों से भी पहले तुम्हारी पूजा की जायेगी। फिर भी कभी-कभी इन्हें एक संकीर्ण समूह भी माना | तुम्हारी पूजा करने से श्राद्ध का संरक्षण होगा, एवं पितर गया प्रतीत होता है, क्यों कि, 'वसु' एवं 'आदित्यों' सर्वाधिक तृप्त होगे' (वायु. ७६.१-१५; ब्रह्मांड. ३.३. जैसे देगणों के साथ इन्हें भी आवाहन किया गया है | १६)। (ऋ. २.३.४)। कौन-कौन से श्राद्धविधियों में कौनसे विश्वदेवों को ऐतरेय ब्राह्मण में-इस ग्रंथ में विश्वेदेवों का एक प्राधान्य दिया जाता है, इसकी जानकारी 'निर्णयसिंधु' में देवतासमूह के नाते निर्देश प्राप्त है, जहाँ आविक्षित प्राप्त है, जो निम्नप्रकार है:-1. पार्वणश्राद्ध-पुरुरव, कामप्रि राजा के यज्ञ में इनके द्वारा यज्ञीय सभासद के आर्द्रव; २. महालय श्राद्ध-धूरि, लोचन; ३. नान्दी श्राद्ध नाते कार्य करने का निर्देश प्राप्त है: -सत्य, वसु, ४. जिवपितृक श्राद्ध-ऋतु, दक्ष ( निर्णय सिंधु पृ. २७९)। मरुतः परिवेटारः मरुत्त यावरूनगृहे। भागवत में इन्हें वर्तमानकालीन वैवस्वत मन्वन्तरं के आविक्षितस्य क मनः विश्वेदेवाः सभासद इति ॥ (ऐ. ब्रा. ३९.८.२१)। देवता कहा गया है (भा. ९.१०.३४) विश्वामित्र के शाप के कारण, इन्हें द्रौपदी के पाँच पुत्रों के रूप में जन्म प्राप्त पुराणों में--विश्वेदेवों का उत्क्रांत रूप पौराणिक हुआ था। आगे चल कर ये पाँच हि पुत्र अश्वत्थामन के भाहित्य में पाया जाता है, जहाँ इन्हें स्पष्ट रूप से देवता द्वारा मारे गये (मार्क. ६२-६९)। समूह कहा गया है। वायु में इन्हें दक्षकन्या विश्वा एवं विश्वेश्वर-शिव का एक अवतार,जो काशी में अवधर्म ऋषि के पुत्र कहा गया है, एवं इनकी संख्या दस तीण हुआ था (शिव. शत. ४२)। इसे अविमुक्तेश्वर बतायी गयी हैं। राज्यप्राप्ति के लिये इनकी उपासना की नामान्तर भी प्राप्त है (शिव. को टि. १)। जाती है। २. एकादश रुद्रों में से एक। नामावलि--पुराणों में प्राप्त इनकी नामावलि निम्न विष--शिव देवों में से एक । प्रकार है:--१. ऋतु, २. दक्ष, ३. श्रव, ४. स.य, २. एक असुर, जो नकुलि देवी के द्वारा मारा गया था ५. काल, ६. काम, ७. मुनि, ८. पुरूरवस् , ९. आद्रवास | (ब्रह्मांड ४. २८.३९)। (आर्द्रव), १०. रोचमान (ब्रह्मांड. ३.१२,४.२.२८)। ३. एक असुर, जो दनायुष नामक असुर का पुत्र था कई अन्य पुराणों में, इनके वसु, कुरज, मनुज, बीज, - धुरि, लोचन, आदि नामांतर भी प्राप्त है ( भा. ६.६. (वायु. ६८.३०)। ६०; मत्स्य. २०२; सांब.१८)। महाभारत में भी इनकी विषया- चन्दनावती नगरी के दुष्टबुद्धि प्रधान की विस्तृत नामावलि दी गयी है, जहाँ इनका निवासस्थान | कन्या (चन्द्रहास देखिये)। 'भुवर्लोक' बताया गया है (म. अनु. ९१.२८)। विषाणिन्--एक ज्ञातिसमूह, जो दाशराज्ञ युद्ध में ये स्वयं अप्रज (संततिहीन) थे, एवं इन्द्र की उपासना | सुदास राजा के पक्ष में शामिल था (ऋ. ७.१८.७)। करते इन्द्रसभा में उपस्थित थे (भा.६.६.६०)। देवासुर रौथ इन्हें सुदास राजा के विपक्षी मानते है. वित बह संग्राम में देवपक्ष में शामिल होकर, इन्होंने पौलोमों के | अयोग्य प्रतीत होता है। साथ युद्ध किया था ( भा. ८.१०.३४) । सोम के द्वारा अलिन, भलानस, शिव, एवं पक्थ लोगों के साथ किये गये राजसूय यज्ञ में इन्होंने 'चमसाध्वर्यु' के नाते काम | इनका निर्देश प्राप्त है, जिससे प्रतीत होता है कि, ८७८ Page #901 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषाणिन प्राचीन चरित्रकोश विष्णु होंगे। ये उन्होंके समान उत्तरपश्चिम भारत में रहनेवाले लोग होती जा रही थी। इस अवस्था में, जिस प्रकार वेदों में निर्दिष्ट रुद्र- शिव का परिवर्धित मानवी स्वरूप व उपासना पद्धति के द्वारा साकार हुआ, उसी प्रकार पेड़ों में निर्दिष्ट विष्णु देवता का परिवर्धित मानवी रूप वैष्णव उपासना सांप्रदायों के द्वारा आविष्कृत हुआ । " विष्णु देवता के इस नये परिवर्धित स्वरूप में, वैदिक साहित्य में निर्दिष्ट विष्णु को नाचत लोगों के द्वारा पूजित वासुदेव से, एवं ब्राह्मणादि ग्रंथों में निर्दिष्ट संचालन के नारायण देवता से सम्मिलित करने का यशस्वी प्रयत्न किया गया। आगे चल कर पौराणिक साहित्य में विष्णु के अनेकानेक अवतारों की कल्पना प्रसृत हुई, जिसके | अनुसार कृष्ण, राम दाशरथि आदि देवतातुल्य पुरुषों को विष्णु के ही अवतार मान कर व उपासना की कक्षा और भी संवर्धित की गयी। इस प्रकार ऋग्वेद में चतुर्थ | श्रेणि का देवता माना गया विष्णु पौराणिक काल में एक सर्वश्रेष्ठ देवता बन गया। ' ' । 'विपाणिन् का शब्दशः अर्थ 'सांगयुक्त है ये लोग संभवतः सींग के आकार का अथवा सींगों से अलंकृत शिरखाण चारण करते होंगे, जिस कारण इन्हें 'विपाणिन्' नाम प्राप्त हुआ था। विश्व-विराम राज की पत्नी, जिससे इसे सौ पुत्र एवं एक कन्या उत्पन्न हुई थी ( भा. ५. १५.१५ ) । इसे विष्वक्सेन की माता भी कहा गया (मा. ८.१३.२३ ) । २. ब्रह्मावर्णि मन्वंतर के श्रीविष्णु की माता । विकर - एक राक्षस, जो पूर्वकाल मे पृथ्वी का शासक था (म.श. २२०.५२ ) । विष्टराश्व-इश्वाकुवंशीय विश्वगश्व राजा का नामान्तर (विश्वगश्व देखिये ) । विष्णु के अनुसार इसके पुत्र का नाम चंद्राथ था। विष्टि-- धर्मसावर्णि मन्वंतर का एक ऋषि । २. विवस्वत् एवं छाया की एक कन्या, जो दिखने में अत्यंत भयंकर थी। इसी कारण नष्टृपुत्र विश्वरूप राक्षस से इसका विवाह हुआ। विष्णा एक ऋषिकुमार विश्वकय नामक अश्रियों के कृपापात्र ऋपि का पुत्र था। एक बार यह -खो गया था, जिस समय अधियों ने इसे इसके पिता के पास पहुँचा दिया था (ऋ. १.११६.२२१ ११७.७९ ८. ८६२: १०.६५.१२ ) 1 , वैदिक साहित्य में -- इस साहित्य में निर्दिष्ट इन्द्र, वरुण, अग्नि आदि देवताओं की तुलना में विष्णु का स्थान काफी कनिष्ठ प्रतीत होता है। ऋग्वेद के केवल पाँच हि सूक्त विष्णु को उद्देश्य कर रचे गये है। इन सूक्तों में इसे स्वतंत्र अस्तित्व अथवा पराक्रम प्रदान नहीं किये गये है, बल्कि सूर्यदेवता का ही एक प्रतिरूप इसे माना गया है, एवं इन्द्र के सहायक के नाते इसका वर्णन किया गया है। 6 , उरुक्रम स्वरूपवर्णन एक वृहदाकार शरीरवाले नवयुवक के रूप में ऋग्वेद में इसका स्वरूपवर्णन प्राप्त है । इसे 'उरुगाय' (विस्तृत पादप्रक्षेत्र करनेवाला ) एवं (चौड़े पग रखनेवाला) कहा गया है, एवं अपने इन गों से यह सारे विश्व को नापता है, ऐसा निर्देश भी यहाँ किया गया है। निवासस्थान -- अपने तीन पगों के द्वारा विष्णु ने पृथ्वी अथवा पार्थिव स्थानों को नाप लिया था, ऐसे निर्देश ऋग्वेद में प्राप्त हैं। इनमें से दो पग अथवा स्थान मनुष्य को दिखाई देते है, किन्तु इसका तीसरा अथवा उचतम पग मनुष्यों के द्रक्षा के बाहर है। यही नहीं, पक्षियों के उड़ान के भी बाहर है (ऋ. १.१५५.५) । विष्णु के इस उच्चतम स्थान (परमं पदम् ) अग्नि के उच्चतम स्थान के समान माना गया है। यहाँ अग्नि, विष्णु के रहस्यात्मक गायों (मेघ) की रक्षा करता है (ऋ. ५.३३ ) । | विष्णु - जगत्संचालक एक आद्य देवता, जिसकी पूजा का संहार का आय देवता माने गये रुद्र- शिव के साथ सारे भरतखंड में भक्तिभाव से की जाती है। वैदिक देवताविज्ञान में निर्दिष्ट देवताओं में से विष्णु एवं रुद्रशिव ये दो देवता ही ऐसे है कि, जिनके प्रति भारतीयों की श्रद्धा एवं भक्ति स्थलकालादि सारे बंधन लाँघ कर सदियों से अबाधित रही है । यही कारण है कि ये देवता भारतीय जनता के फेय देवत ही नहीं, कि भारतीय संस्कृति एक अविभाज्य भाग बन गये है। मानवाकृति दैवतोपासना का प्रतीक भारतीय देवता के इतिहास में, विष्णु एवं रुद्र- शिव मानवाकृतिदेवतोपासना के आय प्रतीक माने जाते है। इन देवताओं का मानवीकरण उत्तर वैदिककाल में हुआ, जब वेदों के द्वारा प्रगीत यज्ञयागात्मक उपासना पद्धति अधिकाधिक तंत्र एवं नित्याचरण के लिए कठिन इस स्थान पर विष्णु का निवास रहता है, एवं पुण्यात्मा लोग आनंद से रहते है। वहाँ मधु का एक रूप है, जहाँ ८७९ Page #902 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विष्णु प्राचीन चरित्रकोश विष्णु देवतागण मुखपूर्वक रहते हैं (ऋ. १.१५४.५, ८.२९)। एक सौरदेवता--ऋग्वेद में प्राप्त उपर्युक्त निर्देशों से इसी तेजस्वी निवासस्थान में इन्द्र एवं विष्णु का निवास | प्रतीत होता है कि, अपने विस्तृत पगों के द्वारा समस्त रहता है, एवं वहाँ पहुँचने की कामना प्रत्येक साधक | विश्व को नियमित रूप से पार करनेवाले सूर्य के रूप करता है । ऋग्वेद में अन्यत्र इसे तीन निवासस्थानोंवाला | में ही विष्णु देवता की धारणा वैदिक साहित्य में विकसित (त्रिषधस्थ ) कहा गया है (ऋ. १.१५६.५)। हुई थी । प्रत्येकी चार नाम (ऋतु ) धारण करनेवाले ऋग्वेद में अन्यत्र विष्णु को पर्वत पर रहनेवाला अपने नब्वें अश्वों (दिनों) को विष्णु एक घूमते पहिये (गिरिक्षित् ), एवं पर्वतानुकल (गिरिष्ठा ) कहा गया है। के भौति गतिमान बनाता है, ऐसा एक रूपकात्मक वर्णन (ऋ. १.१५४)। ऋग्वेद में प्राप्त है (ऋ. १.१५५.६ ) । यहाँ साल के पराक्रम-विष्णु के पराक्रम की अनेकानेक कथाएँ | ३६० दिनों को प्रवर्तित करनेवाले सूर्य देवता का रूपक स्पष्टरूप से प्रतीत होता है। ऋग्वेद में प्राप्त है । इसे साथ लेकर इंद्र ने वृत्र का वध किया था (ऋ. ६.२०)। इन दोनों ने मिल कर दासों को ब्राह्मण ग्रंथों में विष्णु का कटा हुआ मस्तक ही सूर्य पराजित किया, शबर के ९९ दुर्गों को ध्वस्त किया, एवं | बनने का निर्देश प्राप्त है (श. वा. १४.१.१.१०)। इसके वचिन् के दल पर विजय प्राप्त किया (ऋ७.९८)। हाथ में प्रवर्तित होनेवाला चक्र है, जो सूर्य के सदृश ही विष्णु के तीन पग--विष्णु का सब से बड़ा पराक्रम प्रतीत होता है (ऋ. ५. ६३)। विष्णु का वाहन (विक्रम ) इसके 'त्रिपदों' का है, जहाँ इसने तीन पगों गरुड़ है जिसे 'गरुत्मत् ' एवं 'सुपर्ण' ये 'सूर्यपक्षी.'.' में समस्त पृथ्वी, द्युलोक एवं अंतरिक्ष का व्यापन किया अर्थ की उपाधियाँ प्रदान की गयी है (ऋ. १०.१४४, था (ऋ. १.२२.१७-१८)।अधिकांश युरोपीय विद्वान् ४)। विष्णु के द्वारा अपने वक्षःस्थल पर धारण किया । एवं यास्क के पूर्वाचार्य और्णवाभ, विष्णु के इन त्रिपदों का | गया कास्तुभ माण, इसक हाथ म स्थित पद्म, इसका अर्थ सूर्य का उदय, मध्याह्न, एवं सूर्यास्त मानते हैं। । पीतांबर एवं इसके 'केशव' एवं 'हृषीकेश' नामान्तर ये सारे इसके सौरस्वरूप की ओर संकेत करते हैं। किन्तु बर्गेन, मॅक्डोनेल आदि युरोपीय विद्वान एवं शाकपूणि आदि भारतीय आचार्य, उपर्युक्त प्रकृत्यात्मक ____ कई अभ्यासकों के अनुसार, विष्णुदेवता की आविष्कृति व्याख्या को इस कारण अयोग्य मानते है कि. उसमें विष्ण | सर्वप्रथम 'सूर्यपक्षी' के रूप में हुई थी. एवं ऋग्वेद में के अत्युच्च तृतीय पग (परमपदं) का स्पष्टीकरण प्राप्त | निर्दिष्ट 'सुपर्ण' (गरुड पक्षी ) यही विष्णु का आद्य नहीं होता । विष्णु के इस तृतीय पग को सूर्यास्त मानना | स्वरूप था (ऋ. १०.१४९.३ ) । विष्णु के 'श्रीवत्स' अवास्तव प्रतीत होता है । इसी कारण इन अभ्यासकों के | 'कौस्तुभ' 'चर्तु जत्त्व' 'नाभिकमल' आदि सारे गुणअनुसार, यद्यपि विष्णु एक सौर देवता है, फिर भी उसके विशेष एवं उपाधियाँ, इसके इस पक्षीस्वरूप के ही द्योतक तीन पगों का अर्थ, सूर्योदय, मध्याह्न, सूर्यास्त आदि न | हो कर, पृथ्वी, अंतरिक्ष, एवं आकाश इन तीन लोगों का | भक्तवत्सलता--विष्णु के भक्तवत्सलता का निर्देश विष्णु के द्वारा किया गया व्यापन मानना ही अधिक | ऋग्वेद में अनेक बार प्राप्त है। अपने सारे पराक्रम योग्य होगा। ऐसे माने से विष्णु का 'परम पद' वर्लोक | इसने त्रस्त मनष्यों को आवास प्रदान करने के लिए एवं से समीकृत किया जा सकता है, जो समीकरण 'परम पद' | लोकरक्षा के लिए किये थे (ऋ. ६.४९.१३; ७.१००; के अन्य वर्णनों से मिलता जुलता है। १.१५५) । विष्णु की इसी भक्तवत्सलता का विकास नियमबद्ध गतिमानता-पराक्रमी होने के साथ साथ, आगे चल कर विष्णु के अनेकानेक अवतारों की कल्पना विष्णु अत्यंत गतिमान, द्रुतगामी एवं तेजस्वी भी है। में आविष्कृत हुआ, जहाँ नानाविध स्वरूप धारण करने यह अग्नि, सोन, सूर्य, उषस् की भाँति विश्व के विधि की श्रीविष्णु की अद्भुत शक्ति का भी सुयोग्य उपयोग नियमों का पालन करनेवाला, एवं उन नियमों का प्रेरक किया गया (ऋ. ७.१००.१ )। भी है। इसी कारण, इसे 'क्षिप्र' 'एष', 'एवया', विष्णु के अवतारों का सुस्वष्ट निर्देश यद्यपि ऋग्वेद 'स्वदृश, विभूतद्यम्न 'एवयावन् । कहा गया है (ऋ. में अप्राप्य है, फिर भी वामन एवं वराह अवतारों का १.१५५.५ १५६.१)। | धुंधलासा संकेत वहाँ पाया जाता है (ऋ. १.६१.७); ८८० Page #903 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विष्णु प्राचीन चरित्रकोश विष्णु ८.७७.१०)। इन्हीं अवतार-कल्पनाओं का विकास आगे | अथर्ववेद में यज्ञ को उष्णता प्रदान करने के लिए चल कर ब्राह्मण ग्रंथों में किया हुआ प्रतीत होता है। विष्णु का स्तवन किया गया है। ब्राहाणों में विष्णु के तीन अवंध्यता का देवता-डॉ. दांडेकरजी के अनुसार, पगों का प्रारंभ पृथ्वी से होकर वे द्युलोक में समाप्त होते ऋग्वेद में निर्दिष्ट विष्णु अवंध्यता (फर्टिलिटी) का | है, ऐसा माना गया है । विष्णु के परमपद को वहाँ मनुष्यों एक देवता है, एवं 'इंद्र-वृषाकपि-सूक्त' में निर्दिष्ट | | का चरम अभीष्ट, सुरक्षित शरणस्थल माना गया है (श. ब्रा. १.९.३)। 'वृषाकपि ' स्वयं विष्णु ही है (ऋ. १०.८६) । ऋग्वेद विष्णु का श्रेष्ठत्व-ब्राह्मण ग्रन्थों में प्राप्त विष्णु देवता में अन्यत्र विष्णु को 'शिपिविष्ट' (गूढरूप धारण | के वर्णन से प्रतीत होता है कि, उस समय विष्णु एक करनेवाला ) कहा गया है, एवं इसकी प्रार्थना की गयी है | सर्वश्रेष्ठ देवता मानना जाने लगा थी। उसी श्रेष्ठता का 'अपने इस रूप को हमसे गुप्त न रक्खो ' (ऋ. ७. साक्षात्कार कराने के लिए अनेकानेक कथाएँ उन ग्रन्थों में १००.६)। यह भ्रूणों का रक्षक है, एवं गर्भाधान के रचायी गयी है, जिनमें से निम्न दो कथाएँ प्रमुख हैं। लिए अन्य देवताओं के साथ इसका भी आवाहन किया गया है (३७.३६)। एक अत्यंत सुंदर बालक गर्भस्थ एक बार देवों ने ऐश्वर्यप्राप्ति के लिए एक यज्ञ किया, करने के लिए भी इसकी प्रार्थना की गयी है (ऋ. १०. जिस समय यह तय हुआ कि, जो यज्ञ के अंत तक सर्व प्रथम पहुँचेगा वह देव सर्वश्रेष्ठ माना जायेगा । उस समय १८४.१)। यज्ञस्वरूपी विष्णु अन्य सारे देवों से सर्वप्रथम यज्ञ के व्युत्पत्ति-विष्णु शब्द का मूल रूप 'विष' (सतत अंत तक पहुँच गया, जिस कारण यह सर्वश्रेष्ठ देव साबित क्रियाशील रहना) माना जाता है। मॅक्डोनेल, श्रेडर हुआ। आगे चल कर इसका धनुष टूट जाने के कारण, आदि अभ्यासकों ने इसी मत का स्वीकार किया इसका सिर भी टूट गया, जिसने सूर्यबिंब का आकार धारण है, एवं उनके अनुसार सतत क्रियाशील रहनेवाले सौर | किया (श. बा. १४.१.१)। उसी सिर को अश्विनों के स्वरूपी विष्णु को यह उपाधि सुयोग्य है | अन्य कई द्वारा पुनः जोड़ कर, यह द्युलोक का स्वामी बन गया (ते. अभ्यासक विष्णु शब्द का मूल रूप 'विश्' (व्यापन आ. ५.१.१-७)। करना) मानते है, एवं विश्व की उत्पत्ति करने के बाद ____ एक बार देवासुर-संग्राम में देवों की पराजय हुई, विष्णु ने उसका व्यापन किया, यह अर्थ वे 'विष्णु' एवं विजयी असुरों ने पृथ्वी का विभाजन करना प्रारंभ शब्द से ग्रहण करते है। पौराणिक साहित्य में भी इसी किया । वामनाकृति विष्णु के नेतृत्त्व में देवगण असुरों व्युत्पत्ति का स्वीकार किया गया है, जैसा कि विष्णुसहस्र के पास गया, एवं पृथ्वी का कुछ हिस्सा माँगने लगा। नाम की टीका में कहा गया है: फिर विष्णु की तीन पगों इतनी ही भूमि देवों को देने के चराचरेषु भूतेषु वेशनात् विष्णु रुच्यते । लिए असुर तैयार हुएँ । तत्काल विष्णु ने विराट रूप धारण किया, एवं अपने तीन पगों में तीनों लोक, वेद, एवं डॉ. दांडेकरजी के अनुसार, विष्णु का मूल रूप वाच को नाप लिया (श. ब्रा. १.२.५; ऐ. ब्रा. ६.१५)। 'वि+स्नु'था, एवं उससे हवा में तैरनेवाले पक्षी की ओर ___अवतारों का निर्देश-उपर्युक्त वामनावतार की कथा संकेत पाया जाता है (डॉ. दांडेकर, पृ. १३५)। के अतिरिक्त, विष्णु के वाराह अवतार का भी निर्देश ब्राह्मण ग्रन्थों में--ऋग्वेद में कनिष्ठ श्रेणी का देवता ब्राहाण ग्रंथों में प्राप्त है, जहाँ वाराहरूपधारी विष्णु माना गया विष्णु ब्राह्मण ग्रन्थों में सर्वश्रेष्ठ देवता माना पृथ्वी का उद्धार करने के लिए जल से बाहर आने गया प्रतीत होता है (श. बा. १४.१.१.५)। की कथा दी गयी है (श. बा. १४.१.२)। वहाँ इस यज्ञविधि में सर्वश्रेष्ठ देवता विष्णु है, एवं सर्वाधिक वाराह का नाम 'एमूष' बताया गया है। कनिष्ठ देवता अग्नि है, ऐसा स्पष्ट निर्देश ऐतरेय ब्राह्मण में विष्णु के दो अन्य अवतारों के स्रोत भी ब्राह्मण ग्रंथों प्राप्त है: में प्राप्त है, किन्तु उन्हें स्पष्ट रूप से विष्णु के अवतार अग्नि देवानामवमो, विष्णुः परमः । नही कहा गया है । प्रलयजल से मनु को बचानेवाला तदन्तरेण सर्वाः अन्याः देवताः॥ मत्स्य, एवं आद्यजल में भ्रमण करनेवाला कश्यप ये' (ऐ. बा.१.१)। शतपथब्राह्मण में निर्दिष्ट दो अवतार पौराणिक साहित्य शतपथब्राह्मण म नाष्टा Page #904 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विष्णु प्राचीन चरित्रकोश विष्णु में विष्णु के अवतार के नाते सुविख्यात हुए (श. ब्रा. क्रुद्ध हुआ, एवं श्रीकृष्ण को शाप देने के लिए प्रवृत्त हुआ। १.८.१; ७.५१)। इस समय कृष्ण ने उसे 'अनुगीता' के रूप में अध्यात्मउपनिषदों में- मैत्री उपनिषद् में, समस्त सृष्टि तत्त्वज्ञान कथन किया, एवं उत्तंक को अपना वहीं विराट धारण करनेवाले अन्नपरब्रह्म को भगवान् विष्णु कहा गया स्वरूप दिखाया, जो भगवद्गीता कथन के समय उसने है। कठोपनिषद् में साधक के आध्यात्मिक साधना का | अर्जुन को दिखाया था। किन्तु उस विराट स्वरूप को अनुअंतिम 'श्रेयस् ' विष्णु का परम पद बताया गया है। गीता में 'विष्णु का सही स्वरूप' (वैष्णव रूप) कहा गया इन निर्देशों से प्रतीत होता है कि, उपनिषद काल में, | है, जिसे भगवद्गीता में 'वासुदेव का सही स्वरूप' कहा विष्णु इस सृष्टि का सर्वश्रेष्ठ देवता माना जाने लगा था। गया था (म. आश्व, ५३-५५)। डॉ. भांडारकरजी के अनुसार, उपनिषदों में वर्णित | महाभारत में अन्यत्र युधिष्ठिर के द्वारा किये गये कृष्ण परब्रह्मा की कल्पना वैदिक साहित्य में निर्दिष्ट विष्णु | स्तवन में कृष्ण को विष्णु का अवतार कहा गया है (म. के 'परमपद' की कल्पना से काफी मिलतीजुलती है । | शां. ४३)। महाभारत में बहुधा सर्वत्र विष्णु को इसी कल्पनासाधर्म्य के कारण, वैदिकोत्तर काल में विष्णु | 'परमात्मा' माना गया है, फिर भी विष्णुस्वरूपों में तत्त्वज्ञों के द्वारा पूजित एक सर्वमान्य देवता बन गया। से नारायण एवं वासुदेव-कृष्ण के निर्देश वहाँ अधिकरूप गृह्यसूत्रों में--आगे चल कर, विष्णु भारतीयों के | में पाये जाते हैं। नित्यपूजन का देवता बन गया। आपस्तंब, हिरण्यकेशिन् , पारस्कर आदि आचार्यों के द्वारा प्रणीत विवाहविधि में, विष्णु-उपासना के तीन स्त्रोत-जैसे पहले ही कहा सप्तपदी-समारोह के समय निम्नलिखित मंत्र वैदिक मंत्रो गया है, महाभारत में एवं उस ग्रंथ के उत्तरकाल में के साथ अत्यंत श्रद्धाभाव से पठन किया जाता है: प्रचलित विष्णु-उपासना में, वैदिक विष्णु में वासुदेव कृष्ण एवं नारायण ये दो देवता सम्मीलित किये गये विष्णुस्त्वां आनयतु। है । विष्णु-उपासना में प्राप्त, वैदिक विष्णु के अतिरिक्त (पा. गृ. १.७.१)। अन्य दो स्त्रोतों की संक्षिप्त जानकारी निम्न दी गयी है:(इस जीवन में विष्णु सदैव तुम्हारा मार्गदर्शन करता (१वासुदेव कृष्ण उपासना-वासुदेव उपासना का । रहे)। सर्वाधिक प्राचीन निर्देश पतंजलि के व्याकरणमहामहाभारत में--इस प्रकार विष्णु देवता का माहात्म्य भाष्य में प्राप्त है, जहाँ वासुदेव को एक उपासनीय बढ़ते बढ़ते, महाभारतकाल में यह समस्त सृष्टि का नियन्ता देवता कहा गया है (महा. ४.३.९८ ) । इससे प्रतीत एवं शास्ता देवता माना जाने लगा। महाभारत में प्राप्त होता है की, पाणिनि के काल में वासुदेव की उपासना ब्रह्मदेव-परमेश्वर संवाद में, ब्रह्मा के द्वारा 'परमेश्वर' की जाती थी। को नारायण, विष्णु एवं वासुदेव आदि नामों से संबोधित राजपुताना में स्थित घोसुंडि ग्राम में प्राप्त २०० ई. किया गया है। इससे प्रतीत होता है कि, महाभारतकाल पू. के शिलालेख में वासुदेव एवं संकर्षण की उपासना का में ये तीनों देवता एकरूप हो कर, सम्मिलित स्वरूप में निर्देश प्राप्त है। बेसनगर ग्राम में प्राप्त हेलिओदोरस इन तीनों की उपासना प्रारंभ हुई थी (म. भी.६१.६२)। के २०० ई.प्र. के शिलालेख में भी वासुदेव की उपासना महाभारत में प्राप्त 'अनुगीता' में वासुदेव कृष्ण एवं प्रीत्यर्थ एक गरुडध्वज की स्थापना करने का निर्देश प्राप्त श्रीविष्ण का साधर्म्य स्पष्टरूप से प्रतीत होता है। भगवद्- है. जहाँ उसने स्वयं को भागवत कहा है। इससे प्रतीत गीता तक के समस्त वैष्णव साहित्य में एक ही एक 'वासुदेव होता है कि, पूर्व मालव देश में २०० ई. पू. में वासुदेव कृष्ण' की उपासना प्रतिपादन की गयी है, एवं वहाँ कहीं की देवता मान कर पूजा की जाती थी, एवं उसके भी विष्णु का निर्देश प्राप्त नहीं है, जो सर्वप्रथम ही अनुगीता उपासकों को भागवत कहा जाता था। हेलिओदोरस में पाया जाता है। स्वयं तक्षशिला का युनानी राजदूत था, जिससे प्रतीत भारतीय-युद्ध के पश्चात् , द्वारका आते हुए भगवान्। होता है कि, भागवतधर्म का प्रचार उत्तरी-पश्चिम श्रीकृष्ण की भेंट भृगुवंशीय उत्तंक ऋषि से हुई । भारतीय प्रदेश में रहनेवाले युनानी लोगों में भी प्रचलित था। युद्ध के संहारसत्र की वार्ता सुन कर उत्तक ऋषि अत्यंत इसी प्रकार नानाघाट में प्राप्त ई. स. १. ली शताब्दी ८८२ Page #905 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विष्णु प्राचीन चरित्रकोश विष्णु के शिलालेख में भी वासुदेव एवं संकर्षण देवताओं का | इससे प्रतीत होता है कि, यज्ञमार्ग एवं तपस्यामार्ग निर्देश प्राप्त है। छोड़ कर आरण्यकों में निर्दिष्ट मार्गों से निलप भक्ति सिखाने पतंजलि के महाभाष्य में वासुदेव-देवता का स्पष्टी- वाला 'नारायण सांप्रदाय एक श्रेष्ठ आणि का भक्तिसांप्रदाय करण देते समय, यह वृष्णि-वंश में उत्पन्न क्षत्रिय राजा | है। बौद्ध एवं जैन धर्मों को प्रतिक्रिया स्वरूप में इस न हो कर, एक स्वतंत्र देवी देवता है, ऐसा स्पष्टीकरण | सांप्रदाय का प्रथम जन्म हुआ, एवं इसीसे आगे चल कर प्राप्त है। किन्तु फिर भी भागवत-सांप्रदाय में सर्वत्र | वैष्णव सांप्रदाय का विकास हुआ। वासुदेव-कृष्ण को वृष्णि राजकुमार ही माना जाता है, इस सांप्रदाय में कंसवध के लिए मथुरा में उत्पन्न हुए जिस परंपरा का निर्देश पतंजलि के उपर्युक्त स्पष्टीकरण | कृष्ण को 'नारायण' अथवा 'वासुदेव' का अवतार कहा में प्राप्त है। गया है । नारायण के इसी अवतार के द्वारा प्रणयन किये डॉ. भांडारकरजी के अनुसार, वासुदेव, संकर्षण एवं | गये 'भगवद्गीता' के द्वारा वैष्णवधर्म का पुनरुस्थान अनिरुद्ध ये तीनों वृष्णि अथवा सात्वत राजकुमार थे, हुआ, एवं एक देशव्यापी धार्मिक आंदोलन के रूप में यह जिनमें से वासुदेव की पूजा एक परमात्मन् के नाते | सांप्रदाय पुनराविष्कृत हुआ। पतंजलि काल से सात्वत लोगों में की जाती थी । वासुदेव- विष्णु देवता की उत्क्रान्ति --वैदिक साहित्य में एक कृष्ण की इसी पूजा का निर्देश मेगॅस्थिनीस के प्रवास- सौर देवता के नाते वर्णन किया गया विष्णु, ब्राह्मण ग्रंथों - वर्णनों में प्राप्त है, जहाँ यमुना नदी के तट पर स्थित में यज्ञदेवता बन गया। आगे चल कर यज्ञयागादि कर्मशरसेन देश में इस देवता की उपासना प्रचलित होने का काण्डों की लोकप्रियता जब कम होने लगी, तब इन कर्मकाण्डों उल्लेख है। किन्तु इस प्राचीनकाल में केवल वासुदेव से प्राप्त होनेवाला पुण्य केवल विष्णु की उपासना से ही की ही पूजा की जाती थी। . प्राप्त होता है, ऐसी धारणा समाज में दमूल हुई (मै. उ. २. नारायण उपासना-~-महाभारत के शांतिपर्व में ६.१६)। इसी काल में ब्रह्मा, विष्णु एवं महेश इस 'नारायणीय' नामक उपाख्यान में नारायण की उपासना त्रिमूर्ति की कल्पना प्रचलित हुई, एवं इन तीन देवता की सविस्तार जानकारी प्राप्त है | इस जानकारी केअनु- क्रमशः सृष्टि के उत्पत्ति, स्थिति एवं लय की अधिष्ठात्री सार इस सृष्टि का परमात्मन नारायण है, जिसने अपने देवता बन गये (मै. उ. ४.५ शिखा. २)। इसी समय, एकांतिक धर्म का कथन सर्वप्रथम नारद को किया था, विष्णु को ॐ कार उपासना में स्थान प्राप्त हुआ, एवं जो आगे चल कर उसने 'हरिगीता' के द्वारा जनमेजय को ॐ कार में से 'उ' कार के साथ श्रीविष्णु को समीकृत कथन किया था। यही उपदेश कृष्णरूपधारी नारायण किया जाने लगा (नृसिंहोत्तर तापिनी. ३)। उपनिषदों में ने भारतीय युद्ध के प्रारंभ में अर्जुन को किया था। इस अन्यत्र विष्णु के नाम से एक गायत्रीमंत्र दिया गया है, सात्वत धर्म का कथन स्वयं नारायण हर एक मन्वन्तर | एवं गोपीचंदन को 'विष्णुचंदन' कहा गया है ( वास. उ. के प्रारंभ में करते है, एवं मन्वन्तर के अन्त में वह नष्ट | २.१)। हो जाता है। इस मन्वन्तर के प्रारंभ में भी नारायण ने पौराणिक साहित्य में--इस साहित्य में इसे सत्त्वगुण अपने इस धर्म का निवेदन दक्ष, विवस्वत्, मनु एवं प्रधान देवता माना गया है, एवं जगत्संचालन एवं पालन इश्वाकु राजाओं को किया था। का कार्य इसीके ही अधीन माना गया है। इसी कारण इस धर्म में, यज्ञ में की जानेवाली पशुहिंसा एवं ऋषियों विभिन्न युगों में, यह नानाविध अवतार धारण कर पृथ्वी के द्वारा अरण्य में की जानेवाली तपस्या त्याज्य मानी पर अवतीर्ण होता है, तथा दुष्टों के संहार का एवं पृथ्वी गयी है, एवं इन दोनों उपासनाओं के बदले में नारायण के पालन का कार्य निभाता है। की निष्ठापूर्वक भक्ति प्रतिपादन की गयी है। इसी संदर्भ में स्वरूपवर्णन -विष्णु का विस्तृत स्वरूपवर्णन पुराणों में बृहस्पति के द्वारा की गयी यज्ञसाधना, एवं एकत, द्वित, प्राप्त है, जहाँ इसे चतुर्हस्त, एवं शंख, चक्र पद्म, गदाधारी एवं त्रित आदि के द्वारा हज़ारों वर्षों तक की गयी तपः- बताया गया है। इसके आयुधों में शाङ्ग धनुष एवं नंदन साधना निष्फल बतायी गयी है, एवं इन दोनों उपासना- खड्ग प्रमुख थे । इसके आभूषणों में पितांबर, वनमाला, पद्धति को त्याग कर हरि की भक्ति करनेवाला उपरि- किरीटकुंडल एवं श्रीवत्स प्रमुख थे। इसकी पत्नी का नाम चर वसु राजा श्रेष्ठ बताया गया है। लक्ष्मी है, जिसके साथ यह वैकुंठलोक में निवास करता ૮૮૩ Page #906 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विष्णु प्राचीन चरित्रकोश विष्णु विष्णु है। कभी-कभी यह क्षीरसागर में शेषनाग पर शयन करता | संहारार्थ, एवं सज्जनों के रक्षणार्थ लिये गये 'पार्थिव' है। विष्णु के इन्हीं गुणवैशिष्टयों को अंतर्भत कर इसके । रूपों को ही केवल अवतार कहा गया है। वहाँ विष्णु के सहस्र नाम बताये गये हैं, जो 'विष्णुसहस्रनाम' में निम्नलिखित दस अवतार बताये गये है:-- वागह, उपलब्ध हैं। नारसिंह, वामन, परशुराम, राम दाशरथि, वासुदेव कृष्ण ( सात्वत), हंस, कूर्म, मत्स्य, एवं कल्कि (म. शां. विष्णुदेवता का निम्नलिखित वर्णन भागवत में प्राप्त है : ३२६.८३५)। क्षीरोदं मे प्रियं धाम, श्वेतद्वीपं च भास्वरम् ॥ वायु में विष्णु के अवतार दस बताये गये हैं, किन्तु श्रीवत्सं कौस्तुभं मालां, गदा कौमोदकी मम । वहाँ हंस, कर्म एवं मत्स्य के स्थान पर दत्तात्रेय, वेदव्यास सुदर्शनं पाञ्चजन्यं सुपर्णं पतगेश्वरम् ।। एवं एक अनामिक अवतार बताया गया है (वायु. ९८. शेषं मत्कलां सूक्ष्मां श्रियं देवीं मदाश्रयाम् । । २११; वराह. ११३)। उसी पुराण में अन्यत्र इन (भा. ८.४.१८-२०)। अवतारों की संख्या ७७ बतायी गयी हैं ( वायु. ९७. ६४)। विष्णु की उपासना- स्कंद में विष्णु की उपासना सविस्तृत रूप में बतायी गयी है, जहाँ हर एक माह में | भागवत में विष्णु के बाईस अवतार बताये गए है, जहाँ उपासनायोग्य विष्णु के नाम, एवं उसके प्रिय फूल, एवं कपिल, दत्तात्रेय, ऋषभ, एवं धन्वंतरि को विष्णु के अवतार फल बताये गये हैं:-- कहा गया है। इनमें से ऋषभ जैनों का प्रथम तीर्थकर माना जाता है । मत्स्य में प्राप्त दशावतारों में नारायण, विष्णु का नाम मानुष-सप्त, वेदव्यास एवं गौतम बुद्ध ये नये अवतार बताये गये हैं (मत्स्य. ४७.२३७-२५२).। वराह एवं नृसिंह में भी दशावतारों की जानकारी प्राप्त है (वराह. अशोक अनार ११३; नृसिंह ५४.६ )। मधुसूदन मोगरा नारियल ___ हरिवंशादि पुराणों में विष्णु के अवतारों की संख्या । त्रिविक्रम पाटली आम अनन्त बातायी गयी है-. . श्रीधर कलंब कटहल हृषीकेश करवीर खजूर प्रादुर्भावसहस्राणि अतीतानि न संशयः। पद्मनाभ जाई ताड़ फल भूयश्चैव भविष्यन्तीत्येवमाह प्रजापतिः ॥ दामोदर मालती रायआंवला सूर्यकमल (ह. वं. १.४१.११; ब्रहा. २१३.१७)। बेलफल नारायण चंद्रविकासी कमल (विष्णु के अनन्त अवतार पूर्वकाल में हुए हैं, एवं माधव पुगीफल उतने ही अवतार भविष्यकाल में होनेवाले है)। गोविंद उंडली करौंदा ___नामावलि-महाभारत एवं विभिन्न पुराणों में प्राप्त जायफल विष्णु के अवतारों की नामावलि निम्नप्रकार हैं:(स्कंद २.४४)। (१) अजित (विभु )-चाक्षुष एवं स्वारोचिष मन्वंतरों में तुषित के पुत्र के रूप में उत्पन्न (भा. विष्णु के अवतार--वैदिक साहित्य में केवल प्रजापति ८.५. ९)। के ही अवतार दिये गये है। किन्तु पुराणों में विष्णु, रुद्र, | " , (२) अंनिरुद्ध-(चतुर्वृह देखिये)। गणपति, आदि सारे देवताओं के अवतार दिये गये हैं।। । (३) अपान्तरतम सारस्वत व्यास--कृष्ण द्वैपायन पुराणों में निर्दिष्ट इन अवतारों के अतिरिक्त, द्वादश | व्यास का पर्वजन1 /- I | व्यास का पूर्वजन्म (म. शां. ३३७.३८-४०)। देवासुर संग्रामों में विष्णु एवं रुद्र ने स्वतंत्र अवतार लिये। (४) इंद्र--इसने अंधक, प्रह्लाद, विरोचन, वृत्र थे ( देव देखिये )। आदि असुरों का पराजय किया (पद्म. स. १३)। . महाभारत में प्राप्त नारायणीय में विष्णु के अवतारों| (५) उरुक्रम--यह नाभि एवं मेरुदेवी का पुत्र था की जानकारी दी गयी है, जहाँ विष्णु के द्वारा दुष्टों के | (भा. १.३.१३)। केशव नारंगी जुही Page #907 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन चरित्रकोश विष्णु (६) ऋषभ---दक्षसावर्णि मन्वंतर में उत्पन्न एक अव- (१३) जामदग्न्य राम- -(परशुराम देखिये)। तार, जो नाभि एवं सुदेवी का पुत्र था (भा. २.७.९; ५.३; (१४) दत्तात्रेय--(ब्रहा. २१३.१०६;भा. १.३.११, कंद. वैष्णव. १८)। मत्स्य. ४७; वायु. ९८.८९; ब्रह्मांड, ३.७३.८८; ह. वं. (७) कच--बृहस्पतिपुत्र (ह. वं. २.२२.३९)। १.४१.१०४-११०; २.४८.१९-२०)। (८) कपिल--सांख्यशास्त्रप्रवर्तक एक आचार्य, (१५) धन्वंतरि-(भा. १.३.१७; २.७.२१)। जो स्वायंभुव मन्वतर में उत्पन्न हुआ था। इसके शिष्य (१६) धर्मसेतु--धर्मसावर्णि मन्वंतर में उत्पन्न एक का नाम आसुरि था (भा. १.३.१०; २.७.३, ३.२४ अवतार ८.१.६; म. शां. ३२६.६४; स्कंद. वैष्णव. १८)। (१७) नरनारायण-धर्म एवं मूर्ति के पुत्र । हरि (९) कल्कि विष्णुयशसू--यह अवतार गंगा-यमुना एवं कृष्ण इन्हीं की ही मूर्तियाँ हैं (भा. १.३.९; २.७.६: नदियों के बीच में स्थित संभलग्राम में संपन्न होगा (म. ११.४.६-१६; म. शां. ३२६.११; ९९)। शां. ३२६.७२; अग्नि. १६.८-१०; ब्रह्म, २१३.१६४; ब्रह्मवै. प्रकृति. ७.५८; पद्म उ.२५२;भा. १.३.२५, २.७. (१८) नरसिंह-(नृसिंह देखिये)। (१९) नारद--सात्वतधर्मोपदेशक (भा. १.३.८; ३८; ११.४.२२; मत्स्य. ४७; वायु. ९८.१०४-११५; २.७.१९)। ह. वं. १. ४१.१६२-१६६: ब्रह्मांड. ३.७३.१०४)। (१०) कूर्म- म. शां. ३२६. ७२; भा. १.३. (२०) नारायण-हिरण्यकशिपु का वधकती (मत्स्य. ४७;ह. वं. २.७१.२४; वायु. ९८.७१-७३, ब्रह्मांड. ३. १६; २.७.१३, ११.४.१८, ह. वं. २.२२.४२; विष्णु. १.४.८; अग्नेि.३)। ७३.७२)। (११) कृष्ण-(अमि. १२; पम. उ.२४५-२५२; (२१) नृसिंह-(म. स. ३५. परि. १.२१.३१०; ब्रह्म. २१३.१५९-१६२; भा. १.३.२८, २.७.२६-३५, शा. ३२६.७३, ३३७.३६; अग्नि. ४.३-४; ब्रह्म, १०, ११.४.२२; ह. वं.. १.४१.१५६-१६०; २.२२. २१३.४३-१०४; विष्णु. १:२०; भा. १.३.१८, २.७. .. ४८; वायु. ९८.९४-१०३, ब्रह्मांड. ३.७३.९३-९४)। १४, ७.८; ११.४.१९; ह. व. १.४१.३९-७९,२.२२. इसका वर्ण कृत, त्रेता, द्वापर, एवं कलियुगों में ३७; ४८.१७; ७१.३३, ब्रह्मांड. ३.७२.७३, ७३.७४; क्रमशः श्वेत, रक्त, पीत, एवं कृष्ण रहता है (म. व. वायु. ९८.७३; मत्स्य. ४७; पद्म. उ. २३८)। १४८.१६-३३; शां. ३२६.८२-९३)। (२२) पद्मनाभ-(ह. वं. २.७१.२९)। (१२) चतुर्ग्रह-चार अवतारों का एक देवतासमूह, (२३) परशुराम जामदग्न्य-(म. शां. ३२६.७७; अग्नि - जिसमें निम्नलिखित अवतार शामिल थे: ४.२२-१९; पद्म. उ. २४१; ब्रह्म. २१३.११३-१२३; ह. वं. १.१४१.१११-१२१, २.८.२०; भा. १.३.२०; नाम गुणवैशिष्टय कार्य २.७.२२; मत्स्य. ४७; ब्रह्मांड. ३.७३.९०-९१; वायु. ९८.९१)। (२४) पौष्करक--(ब्रह्म. २१३.३१; भा. १.३.१वासुदेव ज्ञान, ऐश्वर्यादि से युक्त मुक्तिप्राप्ति २; ह. वं. १.४१.२७; म. स. परि. १.२१.१४०; शां. । संकर्षण ज्ञान-बलयुक्त शास्त्रप्रवर्तन, संहार | ३२६.६९)। प्रद्युम्न ऐश्वर्य वीर्ययुक्त धर्मन्यन, सृष्टि निर्माण (२५) बलराम--(भा. १.३)। अनिरुद्ध शक्ति तेजोयुक्त तत्त्वगमन एवं (२६) बालमुकुंद--(म. व. १८६.११४-१२२; सृष्टिरक्षण १८७.१-४७)। (म. शां. ३२६.३५-४३; ६८-६९; ब्रह्म. १८०; | (२७) बुद्ध-(म. शां. ३२६.७२; नृसिंह. ३६.९; कर्म. पूर्व. ५१.३७-५०; स्कंद. वैष्णव. वासुदेव. १८ | अमि. १६.१-८; प. उ. २५२; मत्स्य. ४७)। रामानुजदर्शन पृ. ११५)। (२८) बृहद्भानु-भौत्य मन्वंतर का एक अवतार । इनके नाम नर, नारायण, हरि तथा कृष्ण भी प्राप्त है | (२९) मत्स्य--(म. शां. ३२६.७२; अग्नि. २; (म. शां. ३२१.८-१८)। | भा. १.३, २.७.१२, ११.४.१८; विष्णु १.४.८)। Page #908 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विष्णु प्राचीन चरित्रकोश विष्णु (३०) मांधातृ चक्रवर्तिन्-(मत्स्य. ४७.१५, वायु. (४८) सार्वभौम--सावर्णि मन्वन्तर का एक अवतार। ९.८.९०; ब्रह्मांड, ३.७३.९०)। (४९) सुयज्ञ-रुचि एव आकृति का पुत्र (भा. २. (३१) मोहिनी-(म. आ. १६.२९; भा. १.३.१७; | ७.२)। ८.८; ह. वं. २.२२.४१; विष्णु. १.९.१०६-१०९)। (५०) स्वधामन--रुद्रसावर्णि मन्वन्तर का एक (३२) यज्ञ--पद्मनाभ का नामांतर (ह. वं. २.७१. अवतार । ३०, भा. १.३.१२, ८.१.६)। (५१) हंस--(म. शां. ३२६.९४; भा. ११.१३ )। (३३) राम दाशरथि--(अग्नि. ५-११; वायु. ९८. (५२) हयग्रीव--(म. शां. ३२६.५६, ९४; ३३५ ९२; म. व. २५७-२७६; शां. ३२६.७८-८१: व.१४६. | भा. २.७.११, ११.४.१७)। १५७; मा. २.७.२५; ११.४.२१; ह. वं. १.४१.१२१ (५३) हरि--१. गजेन्द्रमोक्ष (भा. ८.२-४,१०); १५५, २.२२.४४; ४८.२२; ७१.३८; मत्स्य. ४७.२४; २. चतुर्वृह अवतारों में से एक (म. शां.६२१.८-१७; ब्रह्मांड. ३.७३.९१-९२; विष्णु. ४.४४०; ब्रह्म. २१३. | नरनारायण देखिये)। - १२४-१५८; पद्म. उ. २४२-२४४)। विष्णु सांप्रदाय के ग्रंथ--इस सांप्रदाय के निम्न(३४) रामकृष्ण-(भा. १.३.२३)। लिखित ग्रन्थ प्रमुख हैं जो, 'पंचरत्न' सामुहिक नाम. से (३५) रुद्र--त्रिपुरदहन (पन, स. १९१)। प्रसिद्ध हैं। 'पंचरत्न' में समाविष्ट पाँच आख्यान (३६) वराह--(म. स. ३५: परि. १.२१.१४० महाभारत एवं भागवत में समाविष्ट है, एवं विष्णु के १६९; शां. २०२.१५-२८, ३२६.७२, ३३७.३६; भा. | उपासक उसका नित्य पठन करते हैं :१.३.७, २.७.१, ३.१३-१९, ११.७.१८: ह. वं. १. ४०, ४१.२८.३९; २.२२.४०, ४८.१२-१३; ७१.३३; - (1) भगवद्गीता-भगवान् कृष्ण ने यह अर्जुन को. कथन की थी। यह वैष्णव सांप्रदायांतर्गत 'एकान्तिक विष्णु. १.४.८; अग्नि. ४.१.२; ब्रह्म. २१३.३२-७३; धर्म' का आद्य ग्रन्थ माना जाता है। ब्रह्मांड. ३.७२.७३; पद्म. सु. १३.१९४; उ. २३७)। | (३७) वामन--(म. स.३५ : परि १.२१.३७०; शां. । (२) विष्णुसहस्रनाम-महाभारत के अनुशासन ३२६.७४-७५, ब्रह्मांड. ३.७३.७७; ३३७.३६, भा. १. पर्व में विष्णुसहस्रनाम प्राप्त है, जिसमें १०७ श्लोकों में - ३.१९; २.७.१७; ११.४.२०; ह. वं. १.४१,७९-१०६; | विष्णु के सहस्रनाम दिये गये है। इस ग्रंथ पर आद्य शंकरा२.२२. ४३, ४८.१८; ७१.३४; मत्स्य. ४७; ब्रह्म. चार्य के द्वारा लिखित भाष्य उपलब्ध है। इसके अंतर्गत २१३.१०५, वायु. ९८.७४-७७. ब्रह्मांड, ३.७२.७३; विष्णु के बहुत सारे नाम वैदिक साहित्य में से (ऋषिभिः पद्म. सु. २३९.२४०; अग्नि. ४.७-११)। परिगीतानि) उद्धृत किये गये हैं। इन्हीं नामां का कथन भीष्म के द्वारा युधिष्ठिर को एक सर्वश्रेष्ठ जपसाधन के (३८) विष्वक्सेन-ब्रह्मसावर्णि मन्वन्तर का एक रूप में किया गया था (म. अनु. १४९.१४-१२०)। अवतार । (३९) वैकुण्ठ--रैवत एवं चाक्षुष मन्वन्तर का एक । (३) अनुगील -यह कृष्ण के द्वारा उत्तंक को कथन की गयी थी (म. आश्व. ५३-५५)। अवतार। (४०) व्यास-(भा. ३.१.२१, २.७.३६; मत्स्या | (४) भीष्मस्तवराज---इसमें भीष्म के द्वारा की गयो ४७; ह. वं. १.४१.१६१-१६२, वायु. ९८.९३; ब्रह्मांड. विष्णु की स्तुति संग्रहित की गयी है। ३.७३.९२-९३; कर्म. पूर्व. ५१.१-११: म. शां. ३३४ (५) गजेंद्रमोक्ष-यह आख्यान शुक के द्वारा परिक्षित् ९; ३३७.३८-४०:५३-५७)। राजा को सुनाया गया था, जहाँ उत्तम मन्वन्तर में हुए (४१) शिव (भव) (ह. वं. २.२२.३९)। 'गजेंद्रमोक्ष' की कथा सुनायी गयी है (भा. ८.२-४) (४२) संकर्षण--(भा. ५.२५.१)। उपर्युक्त आख्यानों के अतिरिक्त निम्नलिखित पुराण(४३) सत्य (सत्यसेन)-उत्तम मन्वन्तर का एक | ग्रन्थ भी विष्णु से संबंधित, अतएव 'वैष्णव' कहलाते अवतार। है :--१. गरुडपुराण; २. नारदपुराण; ३. भागवत(४४) सनक; (४५) सनत्कुमार; (४६) सनंदन, | पुराण; ४. विष्णुपुराण, जिसमें विष्णुधर्मोत्तर पुराण भी (४७) सनातन-(भा. २.७.५, ३.१२.४, ४.८.१)। | समाविष्ट है ( स्कंद. शिवरहत्यखंड. संभवकाण्ड.२.३४)। Page #909 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विष्णु . प्राचीन चरित्रकोश विष्णुगुप्त 'चाणक्य' विष्णु के तीर्थ थान--महाभारत एवं पुराणों में विष्णु नामान्तर भी प्राप्त था (भा. १२.११.४४; उरुक्रम के निम्नलिखित तीर्थस्थानों का निर्देश प्राप्त है:- | देखिये )। (1) विष्णुपदतीर्थ--यह कुरुक्षेत्र में था। यही ६. भृगुकुलोत्पन्न एक गोत्रकार (मत्स्य. १९५.२०)। नाम के अन्य तीर्थ भी भारतवर्ष में अनेक थ इस तीर्थ में। ७. पाण्डवों के पक्ष का एक राजा, जो कण के द्वारा स्नान कर के वामन की पूजा करनेवाला मनुष्य विष्णु | मारा गया था। लोक में जाता है (म. व. ८१.८७)। ८. सावर्णि मनु के पुत्रों में से एक। (२) विष्णुपद-- गया में स्थित एक पवित्र पर्वत, १. धर्मसावर्णि मन्वन्तर के सप्तर्षियों में से एक । जहाँ धर्मरथ ने यज्ञ किया था (म स्य. ४८.९३ )। १०. भौत्य मनु के पुत्रों में से एक । ब्रह्मांड में निषद पर्वतों में स्थित एक सरोवर का नाम भी विष्णु प्रजापति-एक प्रजापति, जिसके मानसपुत्र 'विष्णय दिया गया है (ब्रह्मांड. २.१८.६७) । इसी ग्रन्थ | का नाम विर जस् था। महाभारत में विरजस् राजा का वंश में अन्यत्र गंगानदी के उगमस्थान को 'विष्णपद' कहा गया निम्न प्रकार दिया गया है:-विरजस- कीर्तिमतहै, एवं ध्रुव का तपस्यास्थान भी वही बताया गया है कर्दम--अनंग- अतिबल ( पत्नी-सुनीथा )--वेन-- (ब्रह्मांड. २.२१.१७६ )। पृथु वैन्य (म. शां. ५९.९३-९९)। । कई प्रमुख वणव सांप्रदाय---- श्रीविष्णु एवं वासुदेव- विष्णु प्राजापत्य-एक वैदिक सक्तद्रष्टा (ऋ. १०. . कृष्ण की उपासना के अनेकानेक सांप्रदाय ऐतिहासिक २८४ ) । काल में उत्पन्न हुए थे, जिन्होंने विष्णु-उपासना का विष्णुगुप्त चाणक्य--एक आचार्य, जो कौटिलीय स्त्रोत सदियों तक जागृत रखने वा महनीय कार्य किया। | 'अर्थशास्त्र'नामक सुविख्यात राजनैतिक ग्रंथ का कता माना विष्णु उपासना के निम्नलिखित सांप्रदाय प्रमुख माने | जाता है । जाते है :--१. रामानुज-सांप्रदाय (११ वीं शताब्दी) यह एक ऐसा अद्भुत राजनीतिज्ञ था कि, एक २.माध्य अथवा आनंदतीर्थ सांप्रदाय (११ वीं शताब्दी); ओर इसने मगध देश के नंद राजाओं के द्वारा शासित ३. निंबार्क-सांप्रदाय (१२ वीं शताब्दी); ४. नामदेव राजसत्ता को विनष्ट कर, उसके स्थान पर मौर्य साम्राज्य की एवं तुकाराम-सांप्रदाय (१३ वीं शताब्दी ); ५. कबीर प्रतिष्ठापना की, एवं दूसरी ओर 'कौटिलीय अर्थशास्त्र' जैसे सांप्रदाय (१५ वीं शताब्दी); ६. वल्लभ-सांप्रदाय (१५ | राजनीतिशास्त्रविषयक अपूर्व ग्रंथ की रचना कर, संस्कृत •धी शताब्दी); ७. चैतन्य-सांप्रदाय (१५ वीं शताब्दी); साहित्य के इतिहास में अपना नाम अमर कर दिया। ८. तुलसीदास-सांप्रदाय (१६ वीं शताब्दी)। (विष्णु. ४.२४.६-७;भा.१२.१.१२-१३)। '.२. एक धर्मशास्त्रकार, जिसके द्वारा रचित स्मृतिग्रंथ | इसी कारण कौटिलीय अर्थशास्त्र के अन्त में इसने स्वयं में संस्कार एवं आश्रमधर्म का प्रतिपादन किया गया है। के संबंध में जो कथन किया है वह योग्य प्रतीत होता है:यह स्मृति प्रेतायुग में कलापनगरी में कथन की गयी थी। येन शास्त्रं च शस्त्रं च नंदराजगता च भूः। इस स्मृति के पाँच अध्याय हैं, एवं व्यंकटेश्वर प्रेस के अमर्षणोद्धृतान्याशु तेन शारूमिदं कृतम् ॥ द्वारा मुद्रित 'अष्टादशस्मृतिसमुच्चय' में यह उपलब्ध है। (कौ. अ. १५.१.१८०)। इसके 'वृद्धविष्णुस्मृति' का निर्देश संस्कारकौस्तुभ (नंदराजाओं जैसे दुष्ट राजवंश के हाथ में गये पृथ्वी, ग्रंथ में, एवं विज्ञानेश्वर के द्वारा किया गया है। शत्र एवं शास्त्रों को जिसने विमुक्त किया, उसी आचार्य ३. एक अग्नि, जो भानु (मनु) नामक अग्नि का तृ... के द्वारा इस ग्रंथ की रचना की गयी है)। पुत्र था। यह अंगिरसगात्रीय था, एवं इसे धृतिमत् नामा- राजनीतिशास्त्र जैसे अनूठे विषय की चर्चा करने के न्तर भी प्राप्त था । दर्शपौर्णमास नामक यज्ञ में इसे हविष्य । कारण ही केवल नहीं, बल्कि चंद्रगुप्त मौर्यकालीन भारतीय समर्पण किया जाता है (म. व. २११.१२)। शासनव्यवस्था की प्रामाणिक सामग्री प्रदान करने के ४. आमूतरजम् देवों में से एक। कारण, 'कौटिलीय अर्थशास्त्र' एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण ५. एक सूर्य, जो कार्तिक माह में अश्वतर नाग, रंभा ग्रंथ माना जाता है। उसकी तुलना मेगस्थिनिस के द्वारा अप्सरा, गंधर्व एवं यक्षों के साथ घूमता है। इसे उरुक्रम लिखित 'इंडिका' से ही केवल हो सकती है, जो ग्रंथ ८८७ Page #910 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विष्णुगुप्त 'चाणक्य प्राचीन चरित्रकोश . विष्णुगुप्त 'चाणक्य' अपने संपूर्ण स्वरूप में नहीं, बल्कि टूटेफूटे एवं पुनरुद्धृत | कौटिल्य के अर्थशास्त्र में राज्यशासन से संबंधित रूप में आज उपलब्ध है। | समस्त अंगोपांगों का सविस्तृत परामर्ष लिया गया है। नाम-यद्यपि इसे चाणक्य, कौटिल्य आदि नामान्तर | इस ग्रंथ में चर्चित प्रमुख विषय निम्नप्रकार हैं, जो प्राप्त थे, फिर भी इसका पितृप्रदत्त नाम विष्णुगुप्त था। उसमें प्राप्त अधिकरणों के क्रमानुसार दिये गये है:-- ई. स. ४०० में रचित 'कामंदकीय नीति-सार' में इसका १. विनयाधिकारिक ( राजा के लिए सुयोग्य आचरण); निर्देश विष्णुगुप्त नाम से ही किया गया है : २. अध्यक्षप्रचार (सरकारी अधिकारियों के कर्तव्य ); नीतिशास्त्रामृतं धीमानर्थशास्त्रमहोदधेः । ३. धर्मस्थीय (न्यायविधि); ४. कंटकशोधन (राज्य समुद्दधे नमस्तस्मै विष्णु गुप्ताय वेधसे ।। की अंतर्गत शांति एवं सुव्यवस्था ); ५. योगवृत्त (फितुर लोगों का बंदोबस्त ); ६. मंडलयोनि ( राजा, अमात्य ( अर्थशास्त्ररूपी समुद्र से जिसने नीतिशास्त्ररूपी आदि 'प्रकृतियों के गुणवैशिष्टय ); ७. पाइगुण्य (परनवनीत का दोहन किया, उस विष्णुगुप्त आचार्य को मैं राष्ट्रीय राजकारण ); ८. व्यसनाधिकारिक ( प्रकृतियों क प्रणाम करता हूँ)। • व्यसन एवं उनका प्रतिकार ): ९. अभियास्यत्कर्म चणक नामक किसी आचार्य का पुत्र होने के कारण, (युद्ध की तैयारी); १०. सांग्रमिक ( युद्धशास्त्र ); इसे संभवतः 'चाणक्य' पैतृक नाम प्राप्त हुआ होगा। ११. संघवृत्त ( राज्य के नानाविध संघटनाओं के साथ कौटिलीय अर्थशास्त्र में इसने स्वयं का निर्देश अनेक बार व्यवहार); १२. आवलीयस (बलाढ्य शत्रु से व्यवहार); 'कौटिल्य' नाम से किया है, जो संभवतः इसका गोत्रज | १३. दुर्गलभोपाय ( दुगों पर विजय प्राप्त करना); नाम था। कई अभ्यासकों के अनुसार, यह राजनीति- १४. औपनिषदिक (गुप्तचरविद्या ); १५. तंत्रयुक्ति शास्त्र में कुटिल नीति का पुरस्कर्ता था, जिस कारण इसे (अर्थशास्त्र की युक्तियाँ)। 'कौटिल्य' नाम प्राप्त हुआ था । म. म. गणपतिशास्त्री के इस प्रकार इस ग्रंथ में, राज्यशासन के अंतर्गत परअनुसार, इसके नाम का सही पाठ 'कौटल्य' था, जो राष्ट्रीय, युद्धशास्त्रीय, आर्थिक, वैधानिक, वाणिज्य आदि इसके 'कुटल' नामक गोत्रनाम से व्युत्पन्न हुआ था। समस्त अंगों का सविस्तृत परामर्ष लिया गया है, यहाँ नामांतर--हेमचंद्र के 'अभिधानचिंतामणि' में तक की, राज्य में उपयोग करने योग्य वजन, नाप एवं इसके निम्नलिखित नामांतर प्राप्त है:-वात्स्यायन, काल-मापन के परिमाण भी वहाँ दिये गये हैं। मलनाग, कुटिल, चणकात्मज, द्रामिल, पक्षिलस्वामिन् , भाषाशैली--इस ग्रंथ की भाषाशैली आपस्तंब. बौ वायन विष्णुगुप्त, अंगुल (अभिधान. ८५३-८५४)। आदि सूत्रकारों से मिलती जुलती है । इस ग्रंथ में उपयोग ___जीवनवृत्तांत--इसके जीवन के संबंध में प्रामाणिक | किये गये अनेक शब्द पाणिनीय व्याकरण, एवं प्रचलित सामग्री अनुपलब्ध है, एवं जो भी सामग्री उपलब्ध है वह संस्कृत भाषा में अप्राप्य है। उदाहरणार्थ, इस ग्रंथ में प्रायः सारी आख्यायिकात्मक है। उनमें से बहतसारी प्रयुक्त 'प्रकृति' (सम्राट् ); 'युक्त' (सरकारी अधिकारी): सामग्री विशाखदत्त कृत 'मुद्राराक्षस' नाटक में प्राप्त 'तत्पुरुष' (नोकर); 'अयुक्त' (बिनसरकारी नोकर) ये शब्द है, जहाँ यह 'ब्राह्मण' चित्रित किया गया है, एवं संस्कृत भाषा में अप्राप्य, एवं केवल अशोक शिलालेख महापद्म नंद राजा के द्वारा किये अपमान का बदला लेने में ही निर्दिष्ट हैं। के लिए, इसने चंद्रगुप्त मौर्य को मगध देश के राजगद्दी पूर्वाचार्य--अपने ग्रंथ में इसने अर्थशास्त्रसंबंधी ग्रंथपर प्रतिष्ठापित करने की कथा वहाँ प्राप्त है। रचना करनेवाले अनेकानेक पूर्वाचायों का निर्देश किया कौटिलीय अर्थशास्त्र-यह एक राजनीतिशास्त्रविषयक है, एवं लिखा है, 'पृथिवी की प्राप्ति एवं उसकी रक्षा के ग्रंथ है, जिसमें राज्यसंपादन एवं संचालन के शास्त्र लिए पुरातन आचार्यों ने जितने भी अर्थशास्त्रविषयक को 'अर्थशास्त्र' कहा गया है। इस ग्रंथ में पंद्रह अधि- ग्रंथों का निर्माण किया है, उन सब का सार-संकलन कर करण, एक सौ पचास अध्याय, एक सौ अस्सी प्रकरण प्रस्तुत अर्थशास्त्र की रचना की गयी है। (को. अ. एवं छः हजार श्लोक है । यह ग्रंथ प्रायः गद्यमय है, । १.१.११)। जिस कारण इसकी श्लोकसंख्या अक्षरों की गणना से दी इसके द्वारा निर्देशित पूर्वाचार्यों में मनु, बृहस्पति, गयी है। द्रोण-भरद्वाज, उशनस् , किंचलक, कात्यायन, घोटकमुख, / लिए परा है, 'प्रथि मपंद्रह Page #911 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विष्णुगुप्त 'चाणक्य' , प्राचीन चरित्रकोश था। बहुतीपुत्र, वातव्याधि, विशालाक्ष पाराशर, पिशुन (चार्य, गरदन्त प्रमुख हैं। महाभारत के । अनुसार, प्रारंभ में धर्म, अर्थ एवं काम इन तीन शास्त्रों का एक विचार त्रिवर्गशास्त्र' नाम से किया जाता ' या इस त्रिशास्त्र का आय निर्माता ब्रह्मा था, जिसका संक्षेप सर्वप्रथम शिव ने 'बैशाखाक्ष' नामक ग्रंथ में किया, एवं उसी ग्रंथ का पुनःसंक्षेप इंद्र ने 'बाहुदंतक' नामक ग्रंथ | अंग में किया। आगे चलकर बृहस्पति ने इसी ग्रंथ का पुनः एकवार संक्षेप किया, जिसमें अर्थ को प्रधानता दी गयी थी। ये सारे ग्रंथ 'कौटिलीय अर्थशास्त्र' के रचनाकाल में यद्यपि अनुपलब्ध थे, फिर भी उशनस् का ओशनस ' अर्थशास्त्र,' पिशुन का 'अर्थशास्त्र' एवं द्रोण भारद्वाज का 'अर्थशास्त्र' उस समय उपलब्ध था, जिनके अनेक उद्धरण 'कौटिलीय अर्थशास्त्र' में प्राप्त है (की. अ. १.७१ १५१६६५,६० ८.३ ) | " कौटिलीय अर्थशास्त्र का प्रभाव - प्राचीन भारतीय साहित्य में से वात्स्यायन विशाखदत्त, दण्डिन् ग बाण, विष्णुशर्मन आदि अनेकानेक अर्थकार एवं मलिनाथ, मेधातिथिन आदि टीकाकार 'कौटिलीय अर्थशास्त्र' से प्रभावित प्रतीत होते है, जो उनके ग्रंथों में प्राप्त उदरणों सेरा है। इण्टिन के 'दशकुमारचरित में प्राप्त निर्देशों निग से प्रतीत होता है कि, रामकुल में उत्पन्न राज कुमारों के अध्ययनग्रंथों में भी इस ग्रंथ का समावेश होता था ( दशकुमार. ८ ) । विष्णु कल्कि दिया जाता है, जिन्होंने इस ग्रंथ की प्रामाणिक आवृत्ति सानुवाद रूप में ई. स. १९०९ में प्रथम प्रकाशित की थी। मेगॅस्थिनिय के 'इंडिका' से सुना कौटिलीय अर्थशास्त्र एवं मेस्थिनिस के 'इंडिका' में अनेक साम्यस्थल प्रतीत होते है, जिनमें निम्नलिखित प्रमुख हैं:-१. इन दोनों ग्रंथों में गुलाम लोगों का निर्देश प्राप्त है २. राज्य की सारी जमीन का मालिक स्वयं राजा है, जो उसे अपने प्रभावन को उपयोग करने के लिए देता है २. इन दोनो ग्रंथों में निर्दिष्ट मजदूर एवं व्यापार विषयक विधि-नियम एक सरीखे ही है। आगे चलकर 'कौटिलीय अर्थशास्त्र' में प्रतिपादित व्यापक राजनीतिशास्त्रविषयक सिद्धान्तों को लोग भूल कै, एवं इस ग्रंथ में प्राप्त विषप्रयोगादि कुटिल उपचारों के लिए ही इस ग्रंथ का पठनपाठन होने लगा। इस कारण इस ग्रंथ को कुरापाति प्राप्त हुई, एवं समाज में इसकी प्रतिष्ठा प्रेम होने लगी। इसी कारण बाणभट्ट ने । अपनी ' कादम्बरी में इस ग्रंथ को अतिनृशंस कार्य को उचित माननेवाला एक है न श्रेणी का ग्रंथ कहा है। , वही कारण है कि, मेधातिथिन् के उत्तरकालीन ग्रंथों में 'टिलीय अर्थशास्त्र' के कोई भी उद्धरण प्राप्त नहीं होते है, जो इस ग्रंथ के टोप का प्रत्यंतर माना जा सकता है। याज्ञल्क्य इन साम्यस्थलों से प्रतीत होता है कि, उपर्युक्त दोनों ग्रंथों का रचनाकाल एक ही था, जो मनु, नारद, याशक्य आदि स्मृतियों से काफी पूर्वकालीन था। इस प्रकार इस ग्रंथ का रचनाकाल ३०० ई. पू. माना जाता है । विष्णुदास एक ब्राह्मण, जो विष्णु का परमभक्त था (चोल. २. देखि ) । विष्णुधर्म -- गरुड़ की प्रमुख संतानों में से एक । विष्णुयशस् कल्कि विष्णु का दसवाँ अवतार, जो वर्तमान युग के अंत के समय सम्मल नामक ग्राम में अवतीर्ण होनेवाला है (मा. १.२.२५० १२.२.१८ ) । विष्णु का यह अवतार अश्वारूढ एवं खड्गधारी होगा। विष्णु का यह अवतार याज्ञवल्क्य के पुरस्कार से उत्पन्न होनेवाला है। यह अत्यंत पराक्रमी, महात्मा, सदाचारी । एवं प्रजाहितदक्ष होगा। इच्छा करते ही नाना प्रकार के अब वाहन, कवच इसे प्राप्त होंगे। अवतार - हेतु -- कलियुग का अंत करने के लिए इसका प्रादुर्भाव होगा। यह स्लेच्छों का एवं मौद्ध धर्मियों का संहार करेगा, एवं इस प्रकार नये सत्ययुग का प्रवर्तन करेगा ( म. म. १८८०८९-९१) । | इसके अश्व का नाम देवदत्त होगा। इस अश्व की सहायता से यह अश्वमेध करेगा, एवं सारी पृथ्वी विधिपूर्वक, ब्राह्मणों को दे देगा। यह सदैव स्युबध में तत्पर रह कर, समस्त पृथ्वी पर फिरता रहेगा। अपने द्वारा जीते हुए देशों में यह कृष्ण, मृगचर्म, शक्ति, त्रिशूल आदि अस्त्रशस्त्रों की स्थापना करेंगा | इसके द्वारा दस्युओं का नाश होने पर अधर्म का भी नाश हो जायेगा, एवं धर्म की वृद्धि होने लगेगी। इस प्रकार सत्ययुग का प्रारंभ होग, एवं पृथ्वी के सभी मनुष्य सत्यधर्मपरायण होगे। सत्ययुग के इस प्रारंभकाल में, चंद्र, सूर्य, गुरु एवं शुक्र ये चारों ग्रह एक राशि में आयें 'कीटिलीय अर्थशास्त्र' के आधुनिक कालीन पुनरुद्धार वासुविख्यात दाक्षिणात्य पण्डित डॉ. श्यामशास्त्री को प्रा. च. ११२ ] ८८९ Page #912 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विष्णुयशस् कल्कि गे । इस प्रकार सत्ययुग की स्थापना करनेवाला विष्णुयशस् चक्रवर्ती एवं युगप्रवर्तक सम्राट माना जाएगा । इस प्रकार अपना अवतारकार्य समाप्त करनेपर यह वन में तपस्या के लिए चला जायेगा । किन्तु इस जगत् के निवासी इसके शील स्वभाव का अनुकरण करते ही रहेंगे (कूर्म. १.३१.१२; वायु. ९८.१०४ - ११५ ब्रह्मांड. ३. ७३.१०४ - ११०; ह. वं. १.४१.६४ - ६७ ) । विष्णुरात परिक्षित्रा का नामान्तर (भा. १. १२.१६) । प्राचीन चरित्रकोश वीतहव्य विश्वगंश्व गौरव -- एक पूरुवंशीय सम्राट, जिसे अर्जुन ने उत्तर दिग्विजय के समय जीता था ( म. स. २४.१३ ) । अवतार । ६. एवं चौदहवाँ मनु, जो भविष्यकाल में होनेवाला है (मत्स्य. ९ पद्म. स. ५ ) । विश्वगय (सु, इ. ) एक राजा, जो पृथु राजा का पुत्र था । इसके पुत्र का नाम अद्रि था ( म. आ २-३ ) । १९३. -- विश्रुत - - (सू. निमि.) एक राजा, जो भागवत के अनुसार देवमीढ राजा का पुत्र । विष्णु एवं वायु में इसे विबुध कहा गया है । इसके पुत्र का नाम महाधृति था (मा. ९.१२.१६ ) । विसर्जन -- एक यदु-जाति, जिसका यादवी युद्ध में संहार हुआ (मा. ११.३०.१८ ) । विस्फूर्जन एक राक्षस, जो कश्यप एवं खशा के पुत्रों में से एक था। विहंग- ऐरावतकुल में उत्पन्न एक नाग, जो उनमे जय के सर्पसत्र में दग्ध हुआ था (म. आ ५२.१०) । विहंगम -- धर्मसावर्णि मन्वन्तर का एक देवगण | २. वर राक्षस का एक अमात्य ( वा. रा. अर.. २३. ३१ ) । विष्णुवृद्ध (स. इ. ) एक राजा, जो दस्यु राजा का पुत्र था। यह पहले क्षत्रिय था, किन्तु आगे चल कर तपस्या के कारण ब्राह्मण हुआ ( ब्रह्मांड. ३.६६.८८; बा. ९१.११४) । इसके वंशज अंगिरस् कुलोत्पन्न वायु. | क्षत्रिय ब्राह्मण बन गये (वायु. ६५.१०७ ) । विष्णुशर्मन - एक राश, जो शिवशर्मन् राज का पुत्र था। इसने इंद्र को अपनी शरण में खाया था (पद्म भू. ३) 'निगमोद्बोधक तीर्थ' में स्नान करने के कारण इसे मुक्ति प्राप्त हुई (पद्म. उ. २०० - २०५ ) । विष्णुसावा - भौत्य मनु का नामान्तर । विष्णुसिद्धि-- अंगिराकुलोत्पन्न एक गोत्रकार पाठभेद - ' विष्णुवृद्ध ' । विष्णुहरि - एक विष्णुभक्त ( २.८.१ ) । विष्वक्सेन -- एक आचार्य, जो नारद का शिष्य था। २. इंद्रसभा का एक ऋषि ( म. स. ७.१३) । ३. विष्णु का एक पार्षद ( भा. ८.२१.२६ ) । ४. ( सो. पूरु. ) एक राजा, जो ब्रह्मदत्त का पुत्र था। इसकी माता का नाम गो था। मत्स्य में इसे योगसुनु राजा का पुत्र कहा गया है । इसने जैगीषव्य ऋषि के मार्गदर्शन में योगतंत्र' नामक ग्रंथ की रचना की थी । राजा 6 इसके पुत्र का नाम उदवस्वन था ( मा. १९६२१.२५ ) । ब्रह्मदत्त राजा ने इसे अपना राज्य प्रदान किया, एवं वह वन में चला गया । २. (सो. सह . ) एक राजा, जो हैहयवंशीय तालजंघ राजा का पुत्र था। यह सुविख्यात हैहय सम्राट कार्तवीर्य ५. ब्रह्मसावर्णि मन्वन्तर में उत्पन्न होनेवाला एक अर्जुन का प्रपौत्र एवं जयध्वज राजा का पौत्र था। इसे विव्य - एक ऋषि, जो गृत्समदवंशीय वर्चस् ऋषि का पुत्र था । इसके पुत्र का नाम वितथ्य था ( म. अनु. ३०.६२)। विव्य आंगिरस -- एक वैदिक सुनता (ऋ. १०. १२८ ) । विहुंड - एक राक्षस, जो हुंड राक्षस का पुत्र था। इसके पिता हुंड का नहुष के द्वारा वध हुआ था । इस कारण यह अत्यंत क्रोधित हुआ, एवं नबध के हेतु शिव की तपस्या करने लगा । किन्तु विष्णु ने सुंदर स्त्री का रूप धारण कर, इसकी तपस्या में बाधा उत्पन्न की। अन्त में पार्वती के द्वारा इसका वध हुआ (पद्म. भू. ११८ - १२१ ) | वीतहव्य - (सु. निमि.) एक राजा, जो विष्णु एवं वायु के अनुसार सुनय राजा का पुत्र था । भागवत में इसे शुनक राजा का पुत्र कहा गया है। ', कुछ सौ भाई थे। परशुराम के द्वारा किये गये क्षत्रियसंहार के समय यह अपना राज्य छोड़ कर भाग गया। रास्ते में इसने अपने पिता ताज को देखा, जो परशुराम के बाणों से आहत हुआ था। उसे रथ पर बिठा कर यह हिमालय प्रदेश में में गया, एवं वहीं एक दरें में छिप गया । ८९० Page #913 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीतहव्य प्राचीन चरित्रकोश वीर आगे चल कर क्षत्रियसंहार से परशुराम के निवृत्त होने वहाँ उस गाय का संबंध जमदग्नि एवं असित ऋषियों के पर, यह हिमालय से लौट आया, एवं इसने माहिष्मती साथ निर्दिष्ट है (अ. वे. ५.१७.६-७; १८.१०-१२)। नामक नगरी की स्थापना की । पश्चात् इसने अयोध्या किन्तु इस कथा का सही अर्थ अस्पष्ट है। पर आक्रमण किया, एवं वहाँके इक्ष्वाकुवंशीय फल्गुतंत्र अथर्ववेद में अन्यत्र इसे संजयों का राजा बताया राजा को पराजित किया। आगे चल कर, इसने का शि देश | गया है, एवं इसीके द्वारा भृगुऋषि का वध होने का पर आक्रमण किया , किन्तु यह उस देश पर विजय न निर्देश वहाँ प्राप्त है (अ. वे. ५.१९.१ )। संभवतः पा सका, एवं इसका एवं काशिराजाओं का युद्ध पीढ़ियों इस कथा का संकेत परशुराम के पिता जमदग्नि भार्गव की तक चलता रहा। मृत्यु से होगा, एवं इस कथा में निर्दिष्ट वीतहव्य हैहय महाभारत में इस ग्रंथ में इसे हैहय कहा गया है, वंशीय होगा। यदि यह सच हो, तो हैहयवंशीय वीतहव्य एवं इसकी दस पत्नियों का निर्देश वहाँ प्राप्त है। अपनी | एवं यह दोनों एक ही होंगे (वीतहव्य २. देखिये)। इन पनियों से इसे प्रत्येक से दस पुत्र उत्पन्न हुए, जिन्होंने वीतहव्य श्रायस-एक राजा (ते. सं. ५.६, ५.३; काशि देश के हर्यश्व; सुदेव एवं दिवोदास राजाओं को का. सं. २२.३; पं. ब्रा. २५.१६.३)। यह संभवतः वीतपराजित किया। . हव्य आंगिरस के वंश में ही उत्पन्न हुआ होगा। पंचविंश आगे चल कर, काशि के दिवोदास राजा को भरदाज ब्राह्मण में इसे 'निर्वासित जीवन व्यतीत करनेवाला' मुनि के कृपाप्रसाद से प्रतर्दन नामक पुत्र उत्पन्न हुआ। (निरुद्ध ) राजा बताया गय (निरुद्ध ) राजा बताया गया है (पं. बा. ९.१.९)। प्रतदन ने इसके सारे पुत्रों का वध किया, एवं इस पर | किन्तु भाष्यकार इस एक राजा नहा, बाल्क ए: भी इतना जोरदार आक्रमण किया कि, यह भृगु ऋषि के | मानते है । आश्रम में जा कर छिप गया। संतति प्रदान करनेवाले यज्ञ की प्रशंसा करते समय, इसका पीछा करते हए प्रतन भृगुऋषि के आश्रम | इसका निर्देश उदाहरण के रूप में प्राप्त है, जहाँ ऐसा में पहँच गया, एवं इसे हूँढने लगा। इस पर भृगुऋषि ने | ही एक यज्ञ करने के कारण इसे १००० पुत्र उत्पन्न होने प्रतर्दन से कहा कि, उसके आश्रम में रहनेवाले सारे | की जानकारी दी गयी है। लोग ब्राह्मण ही है, एवं वहाँ क्षत्रिय कोई भी नहीं है। वीति-भृगुकुलोत्पन्न एक गोत्रकार। पश्चात् भृगुऋषि के कहने पर इसने अपने क्षत्रियधर्म । २. एक अनिविशेष। को छोड़ दिया, एवं यह ब्राह्मण बन गया। | वीतिमत् -एक राजा, जो रैवत मनु का पुत्र था तपस्थी-आगे चल कर भृगुऋषि के कृपाप्रसाद से | (पद्म. स. ७)। यह ब्रह्मर्षि बन गया, एवं इसे गृत्समद नामक पुत्र उत्पन्न | वीतिहोत्र-हैहयवंशीय वीतहव्य राजा का नामान्तर हुआ ( म. अनु. ३०.५७-५८)। इसका गोत्र भार्गव | (वीतहव्य २. देखिये )। था एवं यह उस गोत्र का मंत्रकार भी था। वीतहव्य २.(स्वा. प्रिय.) एक राजा, जो भागवत के अनुसार नामक एक जीवन्मुक्त ऋषि की कथा वसिष्ठ ने राम से | प्रियव्रत एवं बर्हिष्मती के पुत्रों में से एक था । इसके पुत्रों कथन की थी, जो संभवतः इसीकी ही होगी। कई | के नाम रमणक एवं धातकि थे (भा. ५.१.२५,२०.३१)। अभ्यासक, वैदिक साहित्य में निर्दिष्ट बीतहव्य आंगिरस | ३. (सु. नरि.) एक राजा, जो इंद्रसेन राजा का पुत्र, नामक ऋषि एवं यह दोनों एक ही मानते है। एवं सत्यश्रवस् राजा का पिता (भा. ९.२.२०)। .वीतहव्य आंगिरस-एक राजा, जो ऋग्वेद के | ४. (सो. क्षत्र.) एक राजा, जो सुकुमार राजा का कई सूक्तों का प्रणयिता माना जाता है (ऋ. ६.१५)।। पुत्र, एवं भर्ग राजा का पिता था (भा. ९.१७.९)। विष्णु ऋग्वेद में सुदास राजा के समकालीन के रूप में, एवं एवं वायु में इसे क्रमशः 'वैनहोत्र' एवं 'वेण्होत्र' भरद्वाज ऋषि के साथ साथ इसका निर्देश प्राप्त है (ऋ. | कहा गया है। ५. एक ऋषि,जो युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में उपस्थित था। अथर्ववेद में, एक गाय (अथवा ब्राह्मण स्त्री) का हरण | वीर-एक असुर, जो कश्यप एवं दनायु के पुत्रों में करने के कारण, इसका एवं इसके 'वैतहव्य' नामक अनु- | से एक था (म. आ. ५९.३२)। गामियों का पराजय होने की एक संदिग्ध कथा प्राप्त है। २. (सो. कुरु.) धृतराष्ट्र के सौ पुत्रों में से एक । Page #914 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीर प्राचीन चरित्रकोश वीरभद्र हुआ ३. एक अग्नि, जो भरद्वाज एवं वीरा के पुत्रों में से | वीरणि-एक आचार्य, जो वायु के अनुसार, व्यास एक था (म. व. २०९.९-१०)। इसे 'रथप्रभु" की यजुःशिष्य परंपरा में से याज्ञवल्क्य का वाजसनेय शिष्य 'रथध्वत् ' एवं 'कुंभरेतस्' नामान्तर भी प्राप्त थे । इसकी | था। पत्नी का नाम सरयु था, जिससे इसे सिद्धि नामक पुत्र | वीरद्युम्न-एक राजा, जिसका तनुविप्र नामक ऋषि उत्पन्न हुआ था (म. व. २०९.११)। सोमदेवता के साथ | के साथ आशा-निराशा के संबंध में तत्त्वज्ञान पर संवाद द्वितीय 'आज्यभाग' इसी को ही प्राप्त होता है। हुआ था (म. शां. १२६.१४)। इसका भूरिद्युम्न नामक ४. एक अग्नि, जो पांचजन्य अग्नि का पुत्र था पुत्र वन में खो गया था, जिसके संबंध में यह संवाद हुआ (म. व. २१०.९)। था (कृशतनु देखिये)। ५. एक राजा, जो कलिंगराज चित्रांगद की कन्या के वीरधन्वन्--त्रिगर्त देश का एक राजा, जो भारतीय स्वयंवर में उपस्थित था (म. शां. ४.७)। | युद्ध में दुर्योधन के पक्ष में शामिल था । धृष्टकेतु के द्वारा ६. (सो. अनु ) अनुवंशीय पुरंजय राजा का नामान्तर। इसका वध हुआ (म. द्रो.८२.१६-१७)। ७. तामस मन्वन्तर का एक देव । वीरधर्मन-एक राजा, जो भारतीय युद्ध में पाण्डवों ८. एक यादव राजकुमार, जो कृष्ण एवं सत्या के पत्रों | के पक्ष में शामिल था। में से एक था। वीरबाहु-धृतराष्ट्र के सौ पुत्रों में से एक । भारतीय ९. एक यादव राजकुमार, जो कृष्ण एवं कालिंदी के | युद्ध में यह भीम के द्वारा मारा गया । पाठभेद (मांडारकर पुत्रों में से एक था। | संहिता)--' भीमबाहु । १०. एक दानव, जो कश्यप एवं दनु के पुत्रों में से २. चेदि देश का एक राजा, जिसका विवाह दशार्ण-. एक था। राज सुदामन् की कन्या के साथ हुआ था। दमयंती को ११. एक राजा, जो अविक्षित्पत्नी लीलावती का वन में अकेली छोड़ कर, नल जब चला गया, उस पिता था ( लीलावती ४. देखिये)। समय, इसने ही दमयन्ती को आश्रय दिया था (म. १२. सोमवंश में उत्पन्न एक राजा, जिसके पुत्र का व. ६६.१३)। नाम तोण्डमान था। इसके पुत्र का नाम सुबाहु एवं कन्या का नाम सुनंदा वीरक--चाक्षुष मन्वन्तर का ऋषि ( भा.८.५.८)। था। किन्तु महाभारत के कुंभकोणम् संस्करण में इसे ही २. शिव के वीरभद्र नामक पार्षद का नामान्तर | सुबाहु कहा गया है। (वीरभद्र देखिये)। । ३. सुग्रीवसेना का एक वानर (बा.रा. किं. ३३.१०)। वीरकेतु--पांचालराज द्रुपद के पुत्रों में से एक। ४. एक गंधर्व, जिसने तक्षक के साथ युद्ध किया था भारतीय युद्ध में यह द्रोण के द्वारा मारा गया था ( म. (विष्णुधर्म. १.२६१.७)। द्रो. ९८.३५ )। ५. कांपिल्य नगरी का एक राजा (स्कंद. २.५.४)। २. हंसध्वज राजा के सुमति नामक प्रधान का पुत्र । वीरभद्र-एक शिवपार्षद, जो शिव के क्रोध से वीरजित्-( सो. मगध. भविष्य ) मगधवंशीय उत्पन्न हुआ था। विश्वजित् राजा का नामान्तर ( विश्वजित् ३. देखिये)। जन्म-स्वायंभुव मन्वंतर में दक्ष प्रजापति के द्वारा वायु में इसे सत्यजित् राजा का पुत्र कहा गया है। किये गये यज्ञ में शिव का अपमान हुआ। इस अपमान वीरण--चाक्षुष मन्वन्तर का एक प्रजापति, जिसे के कारण क्रुद्ध हुए शिव ने अपनी जटाओं को झटक कर, सनत्कुमार के द्वारा सात्वत धर्म का ज्ञान प्राप्त हुआ इसका निर्माण किया (भा. ४.५, स्कंद. १.१- ३; शिव. था । यही ज्ञान इसने आगे चल कर रैभ्यऋषि को प्रदान | रुद्र. ३२)। किया था (म. शां. ३३६.३७ )। | इसके जन्म के संबंध में विभिन्न कथाएँ पन एवं इसकी कन्या का नाम असिक्नी (वीरिणी) था, जो | महाभारत में प्राप्त हैं । क्रुद्ध हुए शिव के मस्तक से दक्ष की पत्नी थी। पसीने का जो बूंद भूमि पर गिरा, उसीसे ही यह निर्माण वीरणक--धृतराष्ट्रकुल में उत्पन्न एक नाग, जो जन- हुआ (पद्म. स. २४) । यह शिव के मुँह से उत्पन्न मेजय के सर्पसत्र में दग्ध हुआ था (म. आ. ५२.१७पाठ.)। हुआ था (म. शां. २७४. परि. १. क्र. २८. पंक्ति Page #915 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीरभद्र प्राचीन चरित्रकोश वीरभद्र ७०-८०; वायु. ३०. १२२)। भविष्य में स्वयं शिव | कर आद्य शंकराचार्य का निर्माण हुआ (भवि. प्रति. ही वीरभद्र बनने की कथा प्राप्त है (भवि. प्रति. | ४.१०)। पराक्रम--यह शिव का प्रमुख पार्षद ही नहीं, बल्कि दक्षयज्ञविध्वंस--उत्पन्न होते ही इसने शिव से उसका प्रमुख सेनापति भी था। शिव एवं शत्रुघ्न के युद्ध प्रार्थना की, 'मेरे लायक कोई सेवा आप बताइये । इस | में, इसने पुष्कल से पाँच दिनों तक युद्ध किया था, एवं पर शिव ने इसे दक्षयज्ञ का विध्वंस करने की आज्ञा अंत में इसने उसका मस्तक विदीर्ण किया था। त्रिपुरदाह दी । इस आज्ञा के अनुसार, यह कालिका एवं अन्य के युद्ध में भी, इसने त्रिपुर का सारा सैन्य निमिषार्ध में रुद्रगणों को साथ ले कर दक्षयज्ञ के स्थान पर पहुँच विनष्ट किया था (पद्म. पा. ४३)। शिव एवं जालंधर के गया, एवं इसने दक्षपक्षीय देवतागणों से घमासान युद्ध युद्ध में भी इसने रौद्र पराक्रम दर्शाया था (पद्म. उ. १७)। प्रारंभ किया। देवों का संरक्षणकर्ता-यह असुरों का आतंक, एवं रुद्र के वरप्रसाद से इसने समस्त देवपक्ष के योद्धाओं देवों का संरक्षणकर्ता था। एक बार शौकट पर्वत पर को परास्त किया । तदुपरांत इसने यज्ञ में उपस्थित कश्यपादि सारे ऋषि, एवं समस्त देवगण दावामि में घिर ऋषियों में से, भृगु ऋषि की दाढी एवं मूंछे उखाड़ दी, कर भस्म हुए। तदुपरात इसन समस्त दावान का प्राशन भग की आँखें निकाल ली, पूषन के दाँत तोड दिये। किया, एवं मंत्रों के साथ सिद्ध किये गये भस्म से सारे ऋषियों को, एवं देवताओं को पुनः जीवित किया। चाहा । किंतु वह न टूटने पर, इसने घुसे मार कर उसे इसी प्रकार एक सर्प के द्वारा निगले गये देवताओं की कटवा दिया, एवं वह उसीके ही यज्ञकुंड में झोंक दिया। भी, उस सर्प के दो टुकड़े कर इसने मुक्तता की थी। तत्पश्चात् यह कैलासपर्वत पर शिव से मिलने चला गया एक बार पंचमेट नामक राक्षस ने समस्त देवता, ऋषि (भा. ४.५ म. शां. परि. १. क्र.२८; पद्म. सू. २४; एवं वालिसग्रीवों को निगल लिया था। उस समय भी स्कंद. १.१.३-५, कालि. १७; शिव. रुद्र. स. इसने पंचमेढ़ से दो वर्षों तक खङ्ग एवं गदायुद्ध कर, ३२.३७)। उसका वध किया। भविष्य के अनुसार, दक्षयज्ञविध्वंस के समय दक्ष एवं इस प्रकार देवता एवं ऋषिओं के तीन बार पुनः जीवित यज्ञ मृग का रूप धारण कर भाग रहे थे । उस समय करने के इसके पराक्रम के कारण, शिव इससे अयधिक वीरभद्र ने व्याध का रूप धारण कर उनका वध किया, एवं प्रसन्न हुए, एवं उसने इसे अनेकानेक वर प्रदान किये। एक ठोकर मार कर दक्ष का सिर अग्निकुंड में झोंक दिया | जिस भस्म की सहायता से इसने देवताओं को पुनः (भवि. प्रति. ४.१०; लिंग. १.९६; वायु. ३०)। इसने | जीवित किया था, उसे 'त्रायुष' नाम प्राप्त हुआ (पद्मा. अपने रोमकुपों से 'रौम्य' नामक गणेश्वर निर्माण किये | पा. १०७)। आगे चल कर, देवताओं ने भी इसकी थे (म. शां. परि. १.२८)। स्तुति की थी (लिंग. १.९६)। वरप्राप्ति-दक्षयज्ञविध्वंस के पश्चात् , यह समस्त वीरक-आख्यान-पान में प्रास 'पार्वती-आख्यान' में सृष्टि का संहार करने के लिए प्रवृत्त हुआ, किन्तु शिव | इसे 'वीरक' कहा गया है, एवं इसे पार्वती का प्रिय पार्षद ने इसे शान्त किया। तदुपरान्त शिव ने आकाश में स्थित | कहा गया है। गौरवर्ण प्राप्त करने के हेतु. पार्वती जब ग्रहमालिका में 'अंगारक' अथवा 'मंगल' नामक ग्रह बनने तपस्या करने गयी थी, उस समय उसने इसे शिव की सेवा का इसे आशीर्वाद दिया, एवं वरप्रदान किया, 'तुम समस्त करने के लिए नियुक्त किया था ( पद्म, सू. ४३-४४) । ग्रहमंडल में श्रेष्ठ ग्रह कहलाओगे । सकल मानवजाति द्वारा नृसिंहदमन--लिंग में वीरभद्र को शिव का । भैरवतुम्हारी पूजा की जायेगी, एवं जो भी मनुष्य तुम्हारी पूजा स्वरूप' कहा गया है, एवं इसके द्वारा किये गये नृसिंह करेगा, उसे आयुष्य भर आरोग्य, एवं ऐश्वर्य प्राप्त होगा' दमन की कथा भी वहाँ प्राप्त है। विष्णु का नृसिंहअव(भा. ७.१७; वायु. १०१.२९९; पन. स. २४)। तार हिरण्यकशिपु के वध के पश्चात् , जब विश्वसंहार के दक्षयज्ञविध्वंस के पश्चात् , शिव की आज्ञा से इसने लिए उद्यत हुआ, तब शिव ने वीरभद्र को उसका दमन भपने तेज का कुछ अंश अलग किया, जिससे आगे चल | करने की आज्ञा दी। ८९३ Page #916 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीरभद्र प्राचीन चरित्रकोश वीरहोत्र सर्वप्रथम इसने नृसिंह की स्तुति कर उसे शांत करने वीरवर्मन्--सारस्वत नगरी का एक राजा, जो यमका प्रयत्न किया। किंतु न मानने पर, इसने उसका | कन्या मालिनी का पति था । पाण्डवों का अश्वमेधीय अश्व दमन किया, एवं उसे अदृश्य होने पर विवश किया | इसने रोंक दिया था, एवं अपने श्वशुर यम की सहायता (लिंग. १.९६)। से कृष्णार्जुनों के साथ घोर संग्राम किया था। आगे चल उपासना--महाराष्ट्र में स्थित घारापुरी एवं वेरूल | कर कृष्ण ने इससे संधि किया, एवं अश्वमेधीय अश्व के गुफा शिल्पों में, शिव के पार्षद के नाते वीरभद्र की | छुड़वा दिया। प्रतिमाएँ पायी जाती है, जहाँ यह अष्टभुजायुक्त एवं इसके सुभाल, सुलभ, लोल, कुवल एवं सरस नामक अत्यंत रौद्रस्वरूपी चित्रांकित किया गया है। महाराष्ट्र में | पाँच पुत्र थे (जै. अ. ४७-४९)। होली के दिनों में, वीरों की पूजा की जाती है, एवं उनका | २. द्रविड देश का एक राजा, जिसकी पत्नी हेमांगी जुलूस भी निकाला जाता है। अपने पूर्वजन्म में मोहिनी नामक अप्सरा थी (पम. उ. ग्रंथ-इसके नाम पर 'वीरभद्रकालिका-कवच' एवं | २२०)। वीरभद्रतंत्र' नामक दो ग्रंथ उपलब्ध हैं। वीरवाहन--एक राजा, जो ब्रह्महत्या के कारण २. सोमवंशीय मनोभद्र राजा के दो पुत्रों में से एक। | अत्यंत दुःखी हुआ था (मुनिशर्मन् देखिये)। एक गृध्रराज के द्वारा इसे पूर्वजन्म का ज्ञान प्राप्त हआ। २. विराधनगरी का एक राजा, जिसने वसिष्ठ ऋषि के था (पद्म. क्रि. ३; गर देखिये)। साथ धर्मसंबंधी चर्चा की थी (गरुड. २.६)। .... ३. एक राजा, जो अविक्षित् राजा की निभा नामक | वीरविक्रम--एक शूद्र, जिसने वचनपूर्ति के लिए पत्नी का पिता था (मार्क. ११९.१७ )। अपनी कन्या का विवाह एक चांडाल से कर दिया। आगे ४. यशोभद्र राजा का भाई (यशोभद्र देखिये)। चल कर, कृष्ण ने उन दोनों का उद्धार कर दिया (पन्न. वीरभद्रक्र--गौड देश का एक राजा, जिसकी पत्नी | ब्र. २६)। का नाम चंपकमंजरी था । अपने बुद्धिसागर नामक प्रधान वीरव्रत--(स्वा. प्रिय.) एक राजा, जो भागवत के के कथनानुसार इसने एक बड़ा तालाव बँधवाया था अनुसार मधु राजा एवं सुमनस् का पुत्र था । इसकी पत्नी (नारद. १.१२)। का नाम भोजा था, जिससे इसे मंथु एवं प्रमंथु नामक पुत्र ... वीरमणि--एक शिवभक्त राजा, जिसकी पत्नी का | उत्पन्न हुए थ (भा. ५.१५.१५) । नाम श्रुतवती था (पन. पा. ६७)। इसके द्वारा प्रार्थना । वीरसिंह-एक राजा, जो वीरमणि राजा का पुत्र किये जाने पर, स्वयं शिव ने योगिनियों से युद्ध किया | एवं रुक्मांगद का बन्धु था। राम के अश्वमेध यज्ञ के था । किंतु अंत में योगिनियों ने इसे परास्त किया ( पद्म. | समय, इसने शत्रुघ्न से युद्ध किया था (पन. पा. ४०)। पा. ३९-४६)। वीरसेन--निषध देश का एक राजा, जो नल राजा २. एक राजा, जिसने अपने पुत्र रुक्मांगद की का पिता था। यह स्वयं धर्मज्ञ एवं तपस्वी था (नल १. सहायता से राम का अश्वमेधीय अश्व रोकने की कोशिश | देखिये)। इसने जीवन में मांसभक्षण नहीं किया था की थी। किंतु इस प्रयत्न में यह असफल रहा ( रुक्मांगद | (म. अनु. ११५.७४)। ३. देखिये ) २. एक ऋषि, जो युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में उपस्थित वीररथ- (सो. द्विमीढ.) द्विमीढवंशीय बहुरथ | था (भा. १०.७४.९)। राजा का नामांतर । वायु में इसे नृपंजय राजा का पुत्र | ३. एक राजा, जो ऋतुपर्ण राजा का पुत्र, एवं सुदास कहा गया है (बहुरथ देखिये)। राजा का पिता था (ब्रह्मांड. ३.६३.१७४)। वीरवत–सावर्णि मनु के पुत्रों में से एक । ४. अवंति नगरी का एक राजा, जिसने तीन राजसूय २. ब्रह्मसावर्णि मनु के पुत्रों में से एक । | एवं सोलह अश्वमेध यज्ञ किये थे (पन. उ. १२८)। ३. साध्य देवों में से एक।। ५. दक्ष राजा का श्वसुर, जिसे स्वप्न में दक्ष को कन्या वीरवर-तालध्वज नगरी के माधव राजा की पत्नी | देने के लिए दृष्टान्त हुआ था (गणेश. १.२६-२७)। सुलोचना के द्वारा पुरुषवेष में धारण किया गया नाम | वीरहोत्र-(सो. सह.) एक सुविख्यात हैहय सम्राट, (माधव ५. देखिये)। जो हैहय-राजवंश का आद्य पुरुष माना जाता है। इसे ८९४ Page #917 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धीरहोत्र प्राचीन चरित्रकोश वृकद्वरस् वीतहव्य नामान्तर भी प्राप्त था (वीतहव्य २. देखिये )। ३. एक सदाचारी राजा, जिसने अपने जीवन में मांसवायु में इसे तालजंघ का पुत्र कहा गया है (वायु. ९४. | भक्षण वज्यं किया था (म. अनु. ११५.७२)। ४. एक राजा, जो पृथु वैन्य एवं अर्चिष्मती के पुत्रों में वीरा--एक राजस्त्री, जो वीर्यचंद्र राजा की कन्या, | से एक था। अपने पिता की मृत्यु के पश्चात , यह उसके करंधम राजा की पत्नी, एवं अविक्षित् राजा की माता थी | पश्चिम साम्राज्य का अधिपति बन गया (भा. ४.२२.५४)। (मार्क. ११९.२)। एक बार सपों ने समस्त सृष्टि को अत्यंत । ५. एक असुर, जो हिरण्यकशिपु का अनुयायी था प्रस्त किया था, जिस कारण इसने अपने पौत्र मरुत्त के | (भा. ७.२.१८)। यह शकुनि नामक राक्षस का पुत्र द्वारा सर्पसंहार प्रारंभ किया । पश्चात् सारे सर्प इसकी था। इसकी जीवनकथा भस्मासुर के जीवन से काफ़ी साम्य स्नुषा अविक्षित्पत्नी वैशालिनी की शरण में गये, जिसने | रखती है। अपने पति अविक्षित् के द्वारा सर्पसत्र बन्द करवाया इसे शिव से आशीर्वाद प्राप्त हुआ था कि, जिसके (मार्क. १२६)। मस्तक पर यह हाथ रखेगा वह जल कर भस्म हो जायेगा। २. शंयुपुत्र भरद्वाज नामक अग्नि की पत्नी। इसके | फिर यह उन्मत्त हो कर स्वयं शिव को ही दग्ध करने के पुत्र का नाम वीर था. (म. व. २०९.१०)। लिए प्रवृत्त हुना। पश्चात् विष्णु ने ब्रह्मचारिन् का रूप वीरिणी-वीरण प्रजापति की कत्या, जो दक्ष प्राचेतस | धारण कर, इसे स्वयं के ही मस्तक पर हाथ रखने के लिए की पत्नी थी। यह ब्रह्मा के बाये पैर के अंगूठे से उत्पन्न | प्रवृत्त किया, जिस कारण यह भस्म हुआ ( भा. १०.८८. हुई थी (म. आ. ७०.५)। १३-१६)। . इसे कुल एक हज़ार पुत्र, एवं पचास कन्याएँ उत्पन्न ६. (सू. इ.) एक राजा, जो भरुक राजा का पुत्र, एवं हुई थी। इसके पुत्रों में सुव्रत प्रमुख था। | बाहुक राजा का पिता था (भा. ९.८.२)। २. शुकपत्नी पीवरी का नामान्तर । ७. एक राजा, जो शूर एवं मारिषा के पुत्रों में से एक ३. वीरसेन राजा की कन्या, जो ब्रह्मा की पौत्री, एवं | था। इसकी पत्नी का नाम दुर्वाक्षी था, जिससे इसे तक्ष चाक्षुष राजा की पत्नी थी (मत्स्य. ४.३९)। एवं पुष्कर नामक पुत्र उत्पन्न हुए थे (मा. ९.२४.२९; वीरुधा-एक नागकन्या, जो नागमाता सुरसा के तीन | ४३)। कन्याओं में से एक थी। इसकी अन्य दो बहनों का नाम ८. एक यादव-राजकुमार, जो कृष्ण एवं मित्रविंदा अनला एवं रहा था। इसकी संतानों में लता, गुल्म, वल्ली के पुत्रों में से एक था (भा. १०.६१.१६)। भादि वनस्पतिविशेष प्रमुख थे (म. आ. ६०.५५२४)। ५. एक यादव राजकमार. जो वत्सक यादव एवं मिश्र वीर्यचंद्र--करंधम-पत्नी वीरा का पिता (वीरा १. केशी नामक अप्सरा के पुत्रों में से एक था (भा. ९.२४. देखिये)। ४३)। वीर्यवत्-एक दानव, जो कश्यप एवं दनु के पुत्रों में १०. (स्वा. उत्तान.) एक राजा, जो शिष्ट एवं से एक था। सुच्छाया के पुत्रों में से एक था (मत्स्य. ४.३९)। २. एक सनातन विश्वदेव (म. अनु. ९१.३१)। ११. (सू. इ.) एक राजा, जो रोहित राजा का पुत्र चुक-एक राजा, जो द्रौपदी-स्वयंवर में उपस्थित था | था (मत्स्य. १२.३८)। (म. आ. १७७.९)। भारतीय-युद्ध में यह कौरवों के १२. पुष्टि ( सृष्टि) एवं छाया के पुत्रों में से एक पक्ष में शामिल था। नकुल के पराजय के पश्चात् , ग्यारह (वायु. ६२.८३)। पाठ-'वृकल' । पाण्डव वीरों के साथ हुए युद्ध में यह शामिल था (म.क. १३. एक यादव-राजकुमार, जो कृष्ण एवं सत्या ६२.४८) । अन्त में किसी पर्वतीय नरेश के द्वारा यह (माद्री) के पुत्रों में से एक था (भा. १०.९०.३३)। मारा गया। १४. हरित राजा का नामान्तर । २. पाण्डवों के पक्ष का एक राजा । भारतीय युद्ध में वृकद्वरस--शण्डिल लोगों का एक राजा, जिसके यह अपने अश्व एवं सारथि के साथ द्रोण के द्वारा मारा विरुद्ध किये गये एक युद्ध का निर्देश ऋग्वेद में प्राप्त है गया (म. द्रो. २०.१६)। (ऋ. २.३०.४)। रौथ एवं ओल्डेनबर्ग के अनुसार, Page #918 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वृकद्वरस् प्राचीन चरित्रकोश इसका सही पाठ 'वृकध्वरस्' था । हिलेब्रांट के अनुसार, । २. अमिताभ देवों में से एक । यह इरान से संबंधित किसी राजा का नाम था। वृत्र--एक अंतरिक्षीय दैत्य, जो इंद्र के प्रमुख शत्रु वृकदेवा अथवा वृकदेवी--देवक राजा की सात था। यास्क ने इसे 'मेघ दैत्य' माना है, जो आकाशस्थ कन्याओं में से एक, जो वसुदेव की पन्नी थी। इसे | जल का अवरोध करता है। प्रभंजनों के स्वामी इंद्र ने अवगाहक एवं नंदक नामक दो पुत्र उत्पन्न हुए थे (वायु. | अपने वज्र (विद्युत् ) से इस असुर का विच्छेद किया, ९६.१३०)। एवं पृथ्वी पर जल वर्षा की । इसीका वध करने के लिए वकल-वृक गजा का नामान्तर (वृक १२. देखिये)। इंद्र ने जन्म लिया था, जिस कारण उसे ऋग्वेद में २. अक्रर के पुत्रों में से एक (मत्स्य. ४५.२९)। वृत्रहन्' उपाधि दी गयी है (ऋ. ८.७८) । वृत्र के वकोदर--भीमसेन पाण्डव का नामान्तर (भा. १. साथ इंद्र ने किये संघर्ष को ऋग्वेद में 'वृत्रहत्त्या' एवं 'वृत्रतूर्य' कहा गया है। वृकोदरी--पूतना राक्षसी की बहन (आदि. १८. जन्म-वृत्र की माता का नाम दानु था,जो शब्द ऋग्वेद १०१)। में जलधारा के अर्थ में प्रयुक्त किया गया है (ऋ. १. वृक्षावासिन्--कुवेरसभा का एक यक्ष । ३२)। इसी शब्द का पुलिंगी रूप 'दानव' एक मातृक वृचया--कक्षीवत् नामक ऋषि की पत्नी, जो उसे नाम के नाते वृत्र अथवा सर्प के लिए, और्णवाम नामक अश्विनों के द्वारा प्रदान की गयी थी (ऋ. १.५१.३; दैत्य के लिए, एवं इंद्रद्वारा वधित सात दै.यों के लिए कक्षीवत् देखिये)। प्रयुक्त किया गया है (ऋ. २.११, १२, १०.१२०.६)। वृचीवत्--एक ज्ञातिसमूह, जिसे संजयराज दैववात ने जीत लिया था (ऋ. ६.२७.५) । ऋग्वेद में इनका ___ स्वरूपवर्णन--वृत्र का रूप सर्पवत् माना गया है, निर्देश तुर्वश लोगों के साथ प्राप्त है । ऋग्वेद के इसी अतः इसके हाथ एवं पैर नहीं है (ऋ. ३.३०.८ )। सूक्त में अभ्यावर्तिन चायमन के द्वारा इन लोगों का। किंतु इसके सर का एवं जबड़ों का निर्देश ऋग्वेद में हरियूपीया नदी के तट पर पराजित होने का निर्देश प्राप्त है (ऋ. १.५२.१०, ८.६.६, ७३.२)। सर्प की प्राप्त है । ओल्डेनबर्ग के अनुसार, ये लोग एवं तुर्वशलोग | भाति यह फूफकारता है (ऋ. ८.८५); एवं गर्जन, संजयों के विपक्ष में थे (ओल्डेनबर्ग, बुद्ध. ४०४)। विद्यत् एवं झंझावात इसके आधीन है (ऋ. १.८०)। त्सीमर के अनुसार, ये एवं तुर्वश लोग दोनों एक ही थे निवासस्थान-वृत्र का एक गुप्त (निणय ) निवासस्थान (सीमर, अल्टिबिडशे लेबेन. १२४) । किन्तु यह तर्क | था, जो एक शिखर ( सानु ) पर स्थित था (ऋ. १.३२; अयोग्य प्रतीत होता है। ८०)। इसी निवासस्थान में इंद्र ने जलधाराएँ छोड़ कर पंचविंश ब्राह्मण के अनुसार, ये एवं जह्न लोगों में वृत्र का वध किया था, एवं बहुत उँचाई से इसे नीचे राजसत्ता प्राप्त करने के लिए संघर्ष हुआ था, जिसमें गिराया था (ऋ. ८.३)। इसके निन्यानब्बे दुर्ग थे, जो जह्न लोगों का राजा विश्वामित्र ने इन्हें परास्त किया था। इन्द्र ने इसकी मृत्यु के समय ध्वस्त किये थे (ऋ. ७.१९: (ता. ब्रा. २१.१२.२)। १०.८९)। वृजिन्वत्-(सो. क्रोष्टु.) एक राजा, जो क्रोष्टु राजा पराक्रम-वृत्र के निम्नलिखित पराक्रमों का निर्देश का पुत्र एवं स्वाही राजा का पिता था (भा. ९.२३. ऋग्वेद में प्राप्त है :-१. जलधाराओं को रोकना (ऋ२. ३१)! महाभारत में इसके पुत्र का नाम उषगु दिया १५.६); २. गायों का हरण करना (ऋ. २.१९.३); गया है (म. अनु. १४७.२८-२९)। ३. सूर्य को ढंकना (ऋ. २.१९.३); ४. सूर्योदय (उपस्) वृत्त--एक सर्प, जो कश्यप एवं कद्र के पुत्रों में से को रोकना (ऋ. ४.१९.८) । ऋग्वेद में अन्यत्र वृत्र के द्वारा मेघो को अपने उदर में छिपाने का निर्देश भी प्राप्त एक था। २. (स्वा. उत्तान.) एक राजा, जो शिष्ट एवं सुन्छाया है (ऋ. १.५७)। शंबर, बल, अहि आदि दानवों के के पुत्रों में से एक था। | लिए भी ऋग्वेद में यही पराक्रम वर्णित है। वृत्ति--मनु नामक रुद्र की पत्नी (भा. ३. वध--इसका वध करने के लिए देवों ने इंद्र का वध १२.१३)। | किया (ऋ. ३.४९.१; ४.१९.१)। इंद्र एवं वृत्र का युद्ध ८९६ Page #919 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन चरित्रकोश वृत्र त्रिककुद् पर्वत पर हुआ। इंद्र ने इसका वध किया, एवं इसके द्वारा बद्ध किये गये मेथों को मुक्त कर (अप) उसी जल से इसे डुबो दिया (वृत्रं अवृणोत, ऋ. ३.४३ ) । इसकी मृत्यु की वार्ता वायु के द्वारा सर्व विश्व को ज्ञात हुई । वृत्र-इंद्रयुद्ध लो. इंद्र की तिथिनिर्णय त्ये तिलकजी के द्वारा किया गया है, जो उनके द्वारा १० अक्टूबर के दिन निश्चित किया गया है (लो. तिलक, आयों का मूलस्थान पृ. २०८ ) । व्युत्पत्तिपत्र' शब्द 'पृ' (आवृत करना, ढँकना) धातु से व्युत्पन्न हुआ माना जाता है। इसने जल को आवृत कर दिया था (अप वारिवांसम् ) । इस कारण इसे 'नाम ग्राम हुआ था (ऋ. १.१४) । यास्क के । अनुसार, इसे 'मेघ दैत्य' कहा गया है, एवं त्वष्ट्ट असुर के पुत्र (असुर) मानने के ऐतिहासिक परंपरा को योग्यताया गया है (नि. २,१६ ) । 6 छत्र । समा लिया किन्तु वहाँ भी इसने भूख का रूप धारण कर सारी सृष्टि को त्रस्त करना पुनः प्रारंभ किया ( तै. सं. २.४.१२ ) । । । इंद्र के द्वारा इसके पथ के संबंधी एक कथा तैत्तिरीय संहिता में प्राप्त है। कुत्र के द्वारा विदेह देश की गायों का निर्माण हुआ, जिनमें कृष्ण श्रीवायुक्त एक भी था। बैल इंद्र ने उस का अभि में हवन किया, जिससे प्रसन्न हो कर अभि ने इंद्र को वृत्र का वध करने के लिए समर्थ किया (तै. सं. २.१.४) । । - ब्राह्मण प्रन्थों में इन ग्रंथों में वृष एवं इंद्र को क्रमशः चंद्र एवं सूर्य की उपमा दी गई है। जिस प्रकार अमावास्या के दिन सूर्य चंद्र को निगल लेता है, उसी प्रकार इंद्र ने पुत्र को डुबो देने का निर्देश यहाँ प्राप्त है। एक बार असुरों ने वेद एवं वेदविद्या हस्तगत की, जिस कारण सारा देव पक्ष हतबल हुआ आगे च । चल कर, इंद्र ने विश्वकर्मन् पुत्र वृत्र नामक ब्राह्मण से तीनों वेद (ऋक्, यजुः । साम ) जीत लिये, एवं वृत्र का वध क्रिया (श. १.१.२.४१ २.१.२.१२० ४.१.२.१० ब्रा ५.६.६१)। -- सामूहिक नाम ऋग्वेद में 'शब्द का बहुवचनी रूप ' वृत्राणि ' अनेक स्थान पर प्राप्त है, जिससे प्रतीत होता है कि, एक सामूहिक नाम के नाते वृत्र के अतिरिक्त कई अन्य असुरों के लिए भी यह शब्द प्रयुक्त किया जाता था। ऐसे कई विभिन्न असुरो के नाथों का ऋग्वेद मैं उल्लेख प्राप्त है (ऋ.७.१९) । दधीचि ऋषि के अस्थियों से बने हुए अस्त्रों की सहायता से, दंद्र ने निन्यानव्ये किया था. १८४) । ऋग्वेद में वहाँ सामान्य विरोधक अथवा शत्रु को 'दास' अथवा 'दस्यु' कहा गया है, वहाँ दैत्य शत्रुओं को 'वृत्र' कहा गया है। इस प्रकार सामूहिक रूप में 'वृत्र' शब्द 'दानवी अवरो धक अर्थ में ही प्रयुक्त किया गया प्रतीत होता है। 'अवेस्ता में वेरन शब्द 'विजय' अर्थ में प्रयुक्त किया गया है, जो अवरोध का ही विकसित रूप प्रतीत होता है। , तैतिरीय संहिता में - इस ग्रंथ में वृत्र को त्वष्टृ का पुत्र कहा गया है, एवं इसकी जन्मकथा निम्नप्रकार दी गयी है । एक बार वट्ट यज्ञ ने यश किया, जहाँ यश में सिद्ध किया गया सोम उसने समस्त देवताओं को दिया, किन्तु अपने पुत्रवरूप का वध करनेवाले इंद्र को नहीं दिया। इंद्र के हिस्से का सोम उसने अग्नि में डाल दिया, जिससे आगे चल कर वृत्र का जन्म हुआ । बड़ा होने पर, इसने समस्त सृष्टि को त्रस्त करना प्रारंभ किया । इसके भय से विष्णु ने स्वयं के तीन भाग किये एवं उन्हें तीनों लोकों में छिपा दिये। इंद्र ने विष्णु की सहायता से इसे ज्यादा बढ़ने न दिया एवं अपने पेट में तपस्या -- अपने पिता की आज्ञा से इसने ब्रह्मा की अत्यंत कठोर तपस्या की, जिस कारण ब्रह्मा ने प्रसन्न हो कर इसे वर प्रदान किया, 'आज से तुम अमर होगे, तथा लोह एवं काठ, आर्द्र एवं शुष्क आदि कौनसे भी अब से दिन में या रात में तुम्हें मृत्यु न आयेगी (हे. भा. ६.१.० ) । आगे चलकर इसी वर के प्रभाव से इसने ११२] ८९७ महाभारत एवं पुराणों में-- महाभारत में इसे कृतयुग का एक असुर कहा गया है, एवं इसके पिता एवं माता के नाम क्रमशः कश्यप एवं दिति ( दनायु) दिये गये हैं । दिति के बल नामक पुत्र का इंद्र ने वध किया, जिस कारण सद्ध हो कर दिति ने इन्द्र का वध करनेक्रुद्ध वाला पुत्र निर्माण करने की प्रार्थना कप से की। इस पर कस्यप ने अपनी जटा शटक कर अग्नि में हवन की। इसी अभि से अवस्काय वृष का निर्माण हुआ (पद्म अग्नि वृत्र उ. ९) । भागवत में इसे त्वष्टृ का पुत्र कहा गया है, जो उसने अपने पुत्र विश्वरूप का वध करनेवाले इंद्र का बदला लेने । ब्रह्मांड के लिए निर्माण किया था ( मा. ६.९-१२) में इसकी माता का नाम अनायुपा दिया गया है (ड २.६.३५ ) । Page #920 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वृत्र प्राचीन चरित्रकोश वृद्धकन्या इंद्र को परास्त कर इंद्रपद प्राप्त किया (वा. रा. उ. | भारत में उशनस् ऋषि के साथ इसका किया 'वृत्र-उशनस् ८४-८६)। संवाद' प्राप्त है, जहाँ ज्ञान से मोक्षप्राप्ति किस तरह हो भागवत में इसे ब्राह्मण एवं श्रीविष्णु का परमभक्त कहा| सकती है, इसकी चर्चा प्राप्त है। उसी ग्रंथ में 'वृत्र-गीता' गया है (भा. ६.९; पन. भू. २५)। इस कारण इंद्र- | का निर्देश भी मिलता है। वत्र युद्ध में श्रीविष्ण ने गुप्त रूप से ही इंद्र की सहायता परिवार--इसके पुत्र का नाम मधुर था (बा. रा. उ. की थी। यह ब्राह्मण होने के कारण, इसका वध करने से | ८४.१०)। ब्रह्मांड में इसे अनायुषा का पुत्र कहा गया इंद्र को ब्रह्महत्त्या का दोष लग गया था। है, एवं इसका वंश विस्तृत रूप में दिया गया है । अनाइंद्र से युद्ध--इंद्र-वृत्र युद्ध की अनेकानेक कथाएँ युषा के कुल पाँच पुत्र थे :- १. अररु; २. बल; ३. पुराणों में प्राप्त है, जहाँ युद्धसामथ्र्य से नहीं बल्कि छल | वृत्र, ४. विज्वर; ५. वृप । ये पाँच ही भाइयों को महेंद्रा. कपट से इंद्र के द्वारा इसका वध होने के निर्देश प्राप्त हैं। नुचर एवं ब्रह्मवेत्ता पुत्र उत्पन्न हुए, जो निम्न प्रकार थे:इंद्र ने रंमा अप्सरा के द्वारा इसे शराब पिलवायी, एवं १. वनपुत्र-बक आदि सहस्त्र पुत्र; २. बलपुत्र-निकुंभ एवं शराब की उसी नशीली एवं व्रतहीन अवस्था में जब यह चक्रवर्मन् ; ३. विज्वरपुत्र-कालक एवं खर; ४. वृषपुत्रसमुद्र किनारे सोया था, उसी समय इससे संधि कर, आधा श्राद्धाह, यज्ञह ब्रह्म एवं पशुहः ५. अररुपुत्र- धुंधु, जो इंद्रपद पुनः प्राप्त किया (पद्म. भू. २५; वा. रा. उ. ८४- कुवलाश्व ऐक्ष्वाक के द्वारा मारा गया (ब्रह्मांड. ३.६.३५८६; स्कंद. १.१.१६)। वध-आगे चल कर जब यह असावधान अवस्था में | २. एक असुर, जो हिरण्याक्ष का सेनापति था। इंद्रथा, तब इंद्र ने इस पर हमला किया, एवं दधीचि ऋषि हिरण्याक्ष युद्ध में, इंद्र ने इसकी शिखा पकड़ कर खङ्ग से - की अस्थियों से बने हुए वज्र पर समुद्र का झाग लपेट इसका वध किया था (पद्म. भू. ७३)। .. कर उससे इसका वध किया ( दे. भा. ६.१.६; पद्म. भू. वृत्रन--एक राजा, जिसने यमुना एवं गंगा नदियों २४; भा. ६.९ म.व. १०० उ.१०)। इंद्र ने इसका के तट पर अश्वों को बाँधा था (ऐ. बा. ८.२३.५)। रौथ वध संध्यासमय किया, एवं इस प्रकार ब्रह्मा के द्वारा इसे के अनुसार, यहाँ वृत्रघ्न इंद्र की ओर संकेत किया प्राप्त हुए वर के शतों की पूर्ति करते हुए ही, इंद्र ने गया है। . इसका वध किया। __वृत्रघातक---विष्णु के बारह अवतारों में से नौवाँ भागवत के अनुसार, वृत्रवध के समय इंद्र ने सर्वप्रथम | अवतार (मत्स्य. ४७.४४ )। इसका एक हाथ काट दिया। इतने में इंद्र का वज्र नीचे वृद्धकन्या--एक बालब्रह्मचारिणी, जो कुणि गर्ग महर्षि गिर गया । इसने इंद्र को अपना वज्र उठाने के लिए कहा, की कन्या थी। इसके पिता ने इसका विवाह करना चाहा, जब उसने इसका दूसरा हाथ काट दिया । पश्चात् यह इंद्र किन्तु यह जन्म से ही अत्यंत विरक्त होने के कारण, के उदर में प्रविष्ट हुआ, जहाँ से बाहर आने पर इंद्र ने इसने विवाह करने से इन्कार कर दिया। इसका शिरच्छेद किया (भा. ६.१२)। __तपस्या-आगे चल कर इसने घोर तपस्या प्रारंभ की। __इंद्र वृत्रयद्ध में निम्नलिखित असुर इसके पक्ष में शामिल | किन्तु नारद इसे आ मिला, एवं उसने इसे कहा कि,विवाहथे:--अनर्वन् , अंबर, अयोमुख, उत्कल, ऋषभ, नमुचि, संस्कार किये बगैर स्त्री के लिए स्वर्गलोक की प्राप्ति पुलोमत् , प्रहेति, विप्रचित्ति, वृषपर्वन् , शंकुशिरस् , शंबर, | असंभव है। हयग्रीव, हेति एवं पाताल में रहनेवाले कालेय अथवा नारद के कथनानुसार, इसने विवाह करने का निश्चय कालकेय राक्षस (भा. ६.१०; स्कंद. १.१.१६; पद्म.. | किया, एवं अपना आधा पुण्य प्रदान करने की शर्त पर पा. १९)। गालव ऋषि के शिष्य शंगवत् ऋषि से विवाह किया। तत्त्वज्ञ-पूर्वजन्म में यह चित्रकेतु नामक विष्णुभक्त विवाह करते समय शंगवत् ने इसे कहा था कि, केवल राजा था (भा. ६.१४ ) । मृत्यु के पूर्व इसने इंद्र | एक रात के लिए ही वह इसके साथ रहेगा । अपने पति को भागवधर्म का उपदेश प्रदान किया था। सनत्कुमारों से | के इस शर्त के अनुसार, इसने एक रात के लिए वैवाहिक इसे योगज्ञान की प्राप्ति हुई थी, जिस कारण इसे मृत्यु जीवन व्यतीत किया, एवं तत्पश्चात् अपनी तपस्या के बल के पश्चात् सद्गति प्राप्त हुई (म. शां. २८१)। महा- से यह स्वर्गलोक गयी (म. श. ५१)। Page #921 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वृद्धकन्या प्राचीन चरित्रकोश वृंदा वृद्धकन्यातीर्थ--अपने कुरुक्षेत्र में स्थित जिस आश्रम वृद्धद्युम्न आभिप्रतारिण--एक कुरुवंशीय राजा में इसने तपस्या की थी, वहाँ आगे चल कर 'वृद्धकन्या- (राजज्ञ), जिसके पुरोहित का नाम शुचिवृक्ष गौपालायन था तीर्थ' नामक तीर्थस्थान का निर्माण हुआ। भारत के (ऐ. ब्रा. ३.४८.९)। अपने इस पुरोहित की सहायता तीर्थस्थानों का यात्रा करता हुआ बलराम इस तीर्थस्थान | से इसे विपुल धनलक्ष्मी प्राप्त हुई। में आया था, जहाँ उसे शल्यवध की वार्ता ज्ञात हुई थी। एक बार इसने तृष्टोम-क्षत्रधृति' नामक यज्ञ किया वृद्धगौतम--एक वैश्य, जो मणिकंडल नामक वैश्य का | था। उस समय यज्ञकर्म में इसके द्वारा एक टि हो गयी. मित्र था (मणिकुंडलः देखिये)। जिस कारण पुरोहित ने इसे शाप दिया, 'जल्द ही कुरुवृद्धक्षत्र-एक राजा, जो सिंधुनरेश जयद्रथ का पिता | राजवंश का कुरुक्षेत्र से लोप होगा'। आगे चल कर पुरोहित था। इसने जयद्रथ को वर प्रदान किया था, 'जो भी की यह शापवाणी सच साबित हुई (सां. श्री. १५.१६. तुम्हारे सिर को पृथ्वी पर गिरायेगा, उसके मस्तक के १०-१३)। सैकड़ो टुकड़े हो जायेंगे। अभिप्रतारिन् का वंशज होने से इसे 'आभिप्रतारिण' भारतीय यद्ध में अर्जुन ने अपने बाणों से जयद्रथ का यह पैतृक नाम प्राप्त हुआ होगा। संभवतः यह अभिशिरच्छेद किया, एवं उसका सिर वृद्धक्षत्र के ही गोद में | प्रतारिन् काक्षसेन राजा के वंश में उत्पन्न हुआ होगा। गिरा दिया, जिस कारण इसकी मृत्यु हुई (म. द्रो. १२१)। | वृद्धशर्मन्--(सो. पुरूरवस्.) एक राजा, जो आयु वृद्धक्षत्र पौरव-एक पूरुवंशीय राजा, जो भारतीय राजा एवं स्वर्भानु का पुत्र था। इसके अन्य चार भाइयों के नाम नहुष, रजि, रम्भ एवं अनेनस् थे (म. आ. ७०. युद्ध में पांडवों केपक्ष में शामिल था। यह अश्वत्थामन् २३)। इसे क्षत्रधर्मन् नामान्तर भी प्राप्त था। . के द्वारा मारा गया (म. द्रो. १७१.५६-६४)। वृद्धक्षेम-एक राजा, जो त्रिगर्तराज सुशर्मन् का पिता | २. करुष-देशीय एक राजा, जो वसुदेव-भगिनी श्रुतदेवा का पति था। इसके पुत्र का नाम दन्तवक्र,था था। इसी कारण सुशर्मन् को 'वार्धक्षेमि' पैतृक नाम प्राप्त (भा. ९.२४.३७)। था (म. आ. १७७.८; वार्धक्षेमि १. देखिये)। वृद्धसेना--एक राजस्त्री, जो सुमति राजा की पत्नी, २. एक कृष्णिवंशीय राजा, जो भारतीय युद्ध में पाण्डवों | एवं देवताजित् राजा की माता थी (भा. ५.१५.१-२)। के पक्ष में शामिल था (म. उ. १६८.१६ )। इसे | वृद्धा--एक राजकन्या, जो आर्टिषेणपुत्र ऋतध्वज 'वार्धक्षेमि' नामान्तर प्राप्त था । राजा एवं सुश्यामा की कन्या थी। इसका विवाह वृद्धभारतीय युद्ध में इसका कृप के साथ युद्ध हुआ था | गौतम ऋषि से हुआ था (ब्रह्म. ११७ )। (म. द्रो. २४.४९)। अन्त में बाव्हिक ने इसका वध वृधु तक्षन्--एक हीनकुलीन अंत्यज, जिसने किया ( म. क. ४.७९)। भरद्वाज ऋषि को गोदान किया था। यह हीन जाति का वृद्धगर्ग-एक आचार्य, जिसने राज्य में उत्पन्न होने होने के कारण, इससे दान लेना अधर्म्य था । किन्तु भरद्वाज वाले दुश्चिन्ह के बारे में अत्रि ऋषि को ज्ञान प्रदान | ऋषि क्षुधार्त एवं आपदग्रस्त थे, जिस कारण उन्हें कोई किया था (मत्स्य. २२९.३८)। दोष न लगा (मनु. १०.१०७)। वृद्धमार्य--एक आचार्य, जिसने पितरों की तृप्ति किस | __ ऋग्वेद में निर्दिष्ट 'बुबु तक्षन् ' नामक दास संभवतः प्रकार होती है इस संबंध में अपने पितरों के साथ संवाद | यही होगा। किया था। उस समय पितरों ने इसे वर्षा ऋतु में दीपदान वृंदा--एक दैत्यकुलोत्पन्न स्त्री, जो कालनेमि एवं करने का, एवं अमावास्या के दिन तर्पण करने का माहात्म्य | स्वर्णा की कन्या, एवं जालंधर दैत्य की पत्नी थी (पद्म. कथन किया था (म. अनु. १२५.७७-८३)। उ. ४; शिव. रुद्र. यु. १४)। २. एक ऋषि, जो मुचुकुंद राजा का समकालीन था जालंधर दैत्य की मृत्यु के पश्चात इसने अग्निप्रवेश (विष्णु. ५.२३.२५८)। किया था। इसकी पतिभक्ति से विष्णु प्रसन्न हुए, एवं वृद्धगौतम--एक ऋषि, जो पूर्वकाल में जड़बुद्धि था। उन्होंने इसके अग्निप्रवेश के स्थान पर गौरी, लक्ष्मी एवं किन्तु वृद्धा नामक स्त्री के तप के कारण यह बुद्धिमान् बन स्वरा के अंश से क्रमशः आमला, तुलसी एवं मालती गया (ब्रह्म. १०७)। | पेड़ों का निर्माण किया ( प. उ.१०५; जालंधर देखिये )। Page #922 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वृंदा प्राचीन चरित्रकोश वृषगण उसी दिन से ये तीनो पेड़ पवित्र नाने जाने लगे, एवं | ५. एक दैत्य, जो अनायुषा के पुत्रों में से एक था । यह स्वयं 'तुलसीवृंदा' नाम से प्रसिद्ध हुई। इसे श्रद्धाद, यज्ञहन् , ब्रह्महन् , एवं पशुहन् नामक पुत्र वृंदारक--कौरवपक्ष का एक योद्धा, जो अभिमन्यु | उत्पन्न हुए थे (ब्रह्मांड. ३.६.३१)। के द्वारा मारा गया था (म. द्रो. ४६.१२)। ६. (सो. अनु.) एक राजा, जो विष्णु के अनुसार २. (सो. कुरु.) धृतराष्ट्र के सौ पुत्रों में से एक || शिबि राजा का पुत्र था। इसे 'वृषादर्भि' नामान्तर भी भारतीय युद्ध में यह भीम के द्वारा मारा गया था (म. प्राप्त था (वृषादर्भि देखिये)। द्रो. १०२.९५)। __७. (सो. सह.) एक राजा, जो भरत राजा का पुत्र, वृश जान अथवा वैजान--एक आचार्य, जो व्यरुण | एवं मधु राजा का पिता था ( विष्णु. ४.११.२५-२६)। राजा का पुरोहित था। 'जन' का वंशज होने से इसे 'जान | ८. एक राजा, जो सुंजय एवं राष्ट्रपाली का पुत्र था अथवा 'वैजान' पैतृक नाम प्राप्त हुआ होगा। (भा. ९.२४.४२)। एक बार यह एवं व्यरुण राजा रथ में बैठ कर जा रहे ९. एक यादव राजकुमार, जो कृष्ण एवं सत्या के पुत्रों थे, जब एक बालक की इनके रथ के नीचे मृत्यु हो गयी। में से एक था (भा. १०.६१.१३)। उस समय, रथ का लगाम इसीके हाथ में होने के कारण | १०. एक यादव राजकुमार, जो कृष्ण एवं कालिंदी के इसे मृत्यु का पातक लगा। पश्चात् 'वार्श' साम का पठन - पुत्रों में से एक था (भा. १०.६१.१४)। . का इसने मृत बालक को पुनः जीवित किया (पं. बा.१३. ११. एक हैहयवंशीय राजकुमार, जो कार्तवीर्य अर्जुन ३.१२)। सांख्यायन, तांड्य एवं भाल्लवि ब्राह्मण, तथा के पुत्रों में से एक था। यह परशुराम के क्षत्रियसंहार से बृहद्दवता में भी इस कथा का संक्षिप्त निर्देश प्राप्त है। बच गया था (ब्रह्मांड. ३.४१.१३)। सीग के अनुसार ऋग्वेद में भी इस कथा का निर्देश १२. अंगराज कर्ण का नामान्तर (म.व.२९३.१३)। प्राप्त है (ऋ. ५.२)। किंतु वह तर्क अयोग्य प्रतीत १३. धर्म सावर्णि मन्वन्तर का इंद्र। . . होता है। वृषक-एक राजकुमार, जो गांधारराज सुबल का वृष--शिव का एक अवतार, जो वृषभ रूप में उत्पन्न या पुत्र था। यह द्रौपदीस्वयंवर में, एवं युधिष्ठिर के राजसूय. हुआ था। समुद्र-मंथन के पश्चात् , उस मंथन से उत्पन्न यज्ञ में उपस्थित था (म. आ. १७७.५; म. स. ३१.७)। हुए सुंदर स्त्रियों से विष्णु कामासक्त हुआ, एवं उसे उन . भारतीय युद्ध में यह कौरवपक्ष में शामिल था, जहाँ स्त्रियों से सैंकड़ो पुत्र उत्पन्न हुए | पाताल में उत्पन्न हुए इसकी श्रेणि 'रथी' थी (म. उ. १६५.६ ) अर्जुनपुत्र विष्णु के इन पुत्रों ने समस्त पृथ्वी कंपित करना प्रारंभ इरावत् का इसने पराजय किया था (म. भी. ८६.२४किया, जिनका परामर्ष लेने के लिए शिव ने वृष का ४३)। अंत में अर्जन ने इसका वध किया (म. द्रो. अवतार धारण किया। २८.११-१२; क. ४.३९.)। __भारतीय-युद्ध के पश्चात् , व्यास के द्वारा आवाहन विष्णपत्रों से शाप--उत्पन्न होते ही इसने विष्णु की | करने पर, यह गंगाजल से प्रकट हुआ था (म. आश्र पराजय कर, उसका सुदर्शन चक्र हरण किया, एवं उसे | ४०.१२)। स्वर्लोक में भाग जाने पर भी विवश किया । जाते समय वषकंड--कश्यपकुलोत्पन्न एक गोत्रकार । विष्णु ने अपने पुत्रों को पाताल में भाग जाने की सलाह | वृषनाथ--कौरवपक्ष का एक योद्धा, जो द्रोणदी, जिस पर इसने उन्हें शाप दिया, 'शांत-वृत्ति के ऋषि निर्मित गरुडव्यूह के हृदयस्थान में खड़ा था (म. द्रो. एवं मेरे अंश से उत्पन्न दानवों के अतिरिक्त, जो भी | १९.३१)। मनुष्य पाताल में जायेगा, उसे मृत्यु प्राप्त होगी'। उस वषकेत-अंगराज कर्ण के पत्रों में से एक । युधिष्ठिर माय से पाताल लोक मनुष्यप्राणियों के लिए निषिद्ध बन | के अश्वमेधीय अश्व की रक्षा के लिए यह गया था। गया ( शिव. शत. २२-२३)। । यही काम करते समय, यह बभ्रुवाहन के द्वारा मारा २. स्कंद का एक सैनिक । गया (जै. अ. ३०)। ३. एक दैय, जो पूर्वकाल में पृथ्वी का शासक था। वृषगण वासिष्ठ-एक वैदिक सूक्तद्रष्टा (ऋ. ९.९७. ४. विकुंठ देवों में से एक । | ७-९)। ९०० Page #923 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वृषजार प्राचीन चरित्रकोश वृषभ वृषजार-एक वैदिक सूक्तद्रष्टा (ऋ. ५.२)। वृषन् पाथ्य-अग्नि का एक उपासक (ऋ. १.३६. वृषण-(सो. सह.) एक राजा, जो विष्णु के अनुसार १०)। ऋग्वेद में अन्यत्र इसका पैतृक नाम 'पाथ्य' सहस्रार्जुन राजा का पुत्र था। भागवत एवं वायु के दिया गया है (ऋ. ६.१६.१५)। अनुसार, इसे क्रमशः 'वृषभ' एवं 'वर्ष' नामांतर भी वृषपर्वन्-एक दानवराज, जो कश्यप एवं दनु के प्राप्त थे। पुत्रों में से एक था (म. आ. ५९.२४)। यह दीर्घप्रज्ञ वषणश्च-एक मनुष्य, जिसकी पत्नी का नाम मेना | राजा के रूप में पृथ्वी पर अवतीर्ण हुआ था (म. आ. था। मेना का रूप धारण कर स्वयं इंद्र इसकी पत्नी बना ६१.१६)। उशनम् शुक्राचार्य इसीका ही राजपुरोहित था (ऋ. १.५१.१३)। ब्राह्मण ग्रंथों में भी इसका था, जिसने 'संजीवनी-विद्या के कारण इसकी राज्य की निर्देश प्राप्त है (जै. बा. २.७९; श, ब्रा. ३.३. एवं असुरों की ताकद काफी बढायी थी। ४.१८, प. बा. १.१.१५, त. आ. १.१२.१२). इंद्रवृत्र युद्ध में इसने इंद्र से युद्ध किया था । देवासुर घषदर्भ-एक राजा, जिसने अपने राज्यकाल में एक युद्ध में इसने अश्विनों से युद्ध किया था (भा. ६.६. गुप्त नियम बनाया था, 'ब्राह्मणों को सुवर्ण एवं चांदी ही ह। ३१-३२,१०.२०)। दान दिया जाय। . इसकी कन्या शर्मिष्ठा ने शुक्रकन्या देवयानी का एक बार इसके मित्र सेन्दुक के पास एक ब्राह्मण आया, अपमान किया, जिस कारण शुक्र इसका राज्य छोड़ एवं उससे १००० अश्वों का दान माँगने लगा। यह जाने के लिए सिद्ध हुआ। इसपर अपने राज्य में रहने दान देने में सेन्दुक ने असमर्थता प्रकट की, एवं उस ब्राहाण के लिए इसने शुक्र से प्रार्थना की, एवं तत्प्रीत्यर्थ अपनी को इसके पास भेज दिया। कन्या शर्मिष्ठा को देवयानी की आजन्म दासी बनाने की इसने अपने गुप्त नियम के अनुसार, ब्राह्मण के द्वारा उसकी शर्त भी मान्य की (भा. ९.१८.४) । शर्मिष्ठा ने अश्वों का दान माँगते ही उसे कोड़ों से फटकारा । ब्राह्मण भी असरवंश के कल्याण के लिए, देवयानी की दासी के द्वारा इस अन्याय का रहस्य पूछने पर, इसने उसे अपना बनने के प्रस्ताव को मान्यता दी (म. आ. ७५)। गुप्तदान ( उपाशु) का संकल्प निवेदित किया, एवं उसकी ___ परिवार-शर्मिष्ठा के अतिरिक्त, इसकी सुंदरी एवं माफी मांगी। पश्चात् इसने उसे अपने राज्य की एक चंद्रा नामक अन्य दो कन्याएँ भी थी। दिन की आय दान के रूप में प्रदान की (म. व. परि २. एक ऋषि, जिसका आश्रम हिमालय प्रदेश में १. क्र. २१. पंक्ति ४.)। भांडारकर संहिता में यह कथा गंधमादन पर्वत के समीप स्थित था। वनवासकाल में अप्राप्य है। इसे 'वृपादर्भि' नामान्तर भी प्राप्त था। तीर्थयात्रा करते समय युधिष्ठिरादि पांडव इसके आश्रम २. उशीनर देश के शिबिराजा का पुत्र । इसी के नाम में आये थे। इसने पांडवों को उचित उपदेश कथन से इसके राज्य को 'वृषादर्भ' जनपद नाम प्राप्त हुआ किया, एवं आगे बदरी- केदार जाने का मार्ग भी (ब्रह्मांड ३.७४.२३)। बताया (म. व. १५५.१६-२५)। बदरी-केदार से लौट वृषदश्व--(सू. इ.) एक राजा, जो वायु के अनुसार आते समय भी, पुनः एक बार पांडव इसके आश्रम में पृथरोमन् अथवा अनेनम् राजा का पुत्र था। आये थे (म. व. १७४.६-८)। वपध्वज-एक जनकवंशीय राजा, जिसके पुत्र का ३. एक असुर, जो वृत्र का अनुयायी था (भा. ६. नाम रथध्वज था । यह सीरध्वज जनक राजा के पूर्वकाल १०.१९)। में उत्पन्न हुआ था। किन्तु वंशावलि में इसका नाम ४. अंगिराकुलोत्पन्न एक गोत्रकार। अप्राप्य है। २. एक असुर, जिसने वृत्र-इंद्र युद्ध में वृत्र के पक्ष वृषभ-(सो. सह.) एक हैहयवंशीय राजा, जो में भाग लिया था (भा. ६.१०)। भागवत के अनुसार कार्तवीर्य सहस्रार्जुन राजा का पुत्र ३. कर्णपुत्र वृषकेतु का नामान्तर । था (भा. ९.२३.२७)। ४. प्रवीर वंश में उत्पन्न एक कुलांगार राजा, जिसने । २. (सो. अज.) एक राजा, जो मत्स्य के अनुसार अपने दुर्वर्तन के कारण अपने स्वजनों का नाश किया कुशाग्र राजा का पुत्र, एवं पुण्यवत् राजा का पिता था (म. उ. ७२. १६ पाठ.)। पाठभेद-'बृहद्बल । (मत्स्य. ५०.२९)। ९०१ Page #924 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३)। वृषभ प्राचीन चरित्रकोश वृषादर्भि ३. एक राजकुमार, जो कलिंग देश के राजा का भाई अर्जुन (म. द्रो. १२०.४० ); ६. द्रुपद (म. द्रो. १४०. था। यह भीम के द्वारा मारा गया (म. क. ४.१६)। १३, १४३.१९) ७. नकुल (म. क. ६२.३२ )। ४. गांधाराज सुबल का पुत्र, जो शकुनि का छोटा भाई | अंत में अर्जुन के द्वारा इसका वध हुआ (म. क. था। इसने अपने अन्य पाँच भाइयों के साथ इरावत् पर ९२.६१)। इसकी मृत्यु पौष कृष्ण त्रयोदशी के दिन हुई हमला किया था, जिसमें इसके अतिरिक्त इसके पाचों | (भारतसावित्री)। इसकी मृत्यु से अंग राजवंश समाप्त भाई मारे गये (म. भी. ८६.२४ पाठ.)। हुआ (भा. ९. २३.१४)। ५. (सो. वृष्णि.) एक यादव राजा, जो अनमित्र राजा | भारतीय युद्ध के पश्चात् , श्रीव्यास के द्वारा आवाहन का पुत्र था। इसकी पत्नी का नाम जयन्ती था, जो | किये जाने पर, इसने उसे दर्शन दिये थे (म. आश्र. काशिराज की कन्या थी (मत्स्य. ४५.२५-२६)। ४०.१०)। ६. एक राजा, जो सृष्टि एवं छाया का पुत्र था (ब्रह्मांड. २. एक राजा, जो यमसभा में उपस्थित था (प. स. २.३६.९८)। | ८.१२)। ७. एक गोष, जो कृष्ण का मित्र था (भा. १०.१८. ३. ब्रह्मसावर्णि मनु के पुत्रों में से एक । ४. एक हैहय राजा, जो कार्तवीर्य अर्जुन के पुत्रों में से ८. रामसेना का एक वानर (वा. रा. कि. १४१)। एक था (विष्णु. ४.११.२१)। ९. एक असुर, जो कृष्ण के द्वारा मारा गया था । वृषाकपि--भगवान् विष्णु का एक नाम (म. शां.. (ब्रह्मांड. ३.३६.३७)। ३४२.८९)। १०. ब्रहासावर्णि मनु के पुत्रों में से एक । २. ग्यारह रुद्रों में से एक (म. अनु. १५०.१२वृषभानु-एक राजा । एक बार यह यज्ञ के लिए। १३)। यह भूत एवं सरूपा का पुत्र था, एवं इसने देवाभमि शुद्ध कर रहा था, जिस समय इसे राधा नामक कन्या | सुर युद्ध में जम्भ से युद्ध किया था (भा. ६.६.१७)। प्राप्त हुई। अपनी कन्या मान कर, इसने उसे पालपोस ३. एक ऋषि, जो अन्य ऋषियों के साथ देवताओं के कर बड़ा किया (पद्म. ब्र. ७.) ब्रह्मवैवर्त में इसे राधा का | यज्ञ में उपस्थित हुआ था (म. अनु. ६६.२३)। । पिता कहा गया है (ब्रह्मवै. २.४९.३२-४२)। वृषाकपि ऐन्द्र-एक वैदिक मंत्रद्रष्टा (ऋ. ७.१३. वृषभेक्षण--श्रीकृष्ण का एक नामांतर (म.उ.६८.७)। २३; १०.८६.३)। इंद्र एवं इंद्राणी के साथ इसके वृषवाहन-एकादश रुद्रों में से एक। द्वारा किये गये संवाद का निर्देश ऋग्वेद में प्राप्त है वृषशुष्म वातावत जातुकर्ण्य--एक आचार्य, जो | (ऋ. १०.८६.५)। निकोथक भाय जात्य नामक आचार्य का शिष्य था। इसके | लो. तिलक के अनुसार, दक्षिणायन बिंदु के समीप स्थित शिष्य का नाम इन्द्रोत शौनक था ( वं. ब्रा. २: कौ, ब्रा. सूर्य को ही ऋग्वेद में 'वृषाकपि' कहा गया है । दक्षिणी ध्रव २.९)। 'वातवत् ' का वंशज होने के कारण, इसे | प्रदेश में छः महीने की अंधेरी रात शुरू होने के पूर्व, 'वातावत' पैतृकनाम प्राप्त हुआ होगा। अन्तरिक्ष में दिखाई देनेवाले सूर्य को ही वैदिक आर्यों 'उदित होम' पक्ष का यह पुरस्कर्ता था, जिस पक्ष | के द्वारा ' वृषाकपि' कहा गया होगा (लो. तिलक, आर्यों का इसने अच्छा समर्थन किया था (सां. बा. २.९; का मूलस्थान पृ. २५१)। ऐ. बा. ५.२९; तै. ब्रा. ५.२९.१)। वृषागक वातरशन--एक वैदिक मंत्रद्रष्टा (ऋ. वृषसेन--अंगराज कर्ण का पुत्र, जिसकी पत्नी का नाम | १०.१३६.४)। भद्रावती था। | वृषादर्भ--(सो. अनु.) अनुवंशीय वृषादर्भि राजा भारतीय युद्ध में यह कौरवों के पक्ष में शामिल था. | का नामान्तर । भागवत में इसे शिाब राजा का पुत्र कहा एवं इसकी श्रेणि 'रथी' थी (म. उ. १६४.२३)। | गया है (भा. ९.२३.३, वृषादर्भि देखिये)। इसका निम्नलिखित योद्धाओं के साथ युद्ध हुआ था :- २. अंगिराकुलोत्पन्न एक गोत्रकार । १. शतानीक आदि द्रौपदीपुत्र (म. द्रो. १५.१.१०); वृषादर्भि शैव्य-(सो. अनु.) शिबि (वृषदर्भ) २. सुषेण (म. द्रो. ५३.९-११); ३. पाण्ड्य (म. द्रो. राजा का पुत्र, जिसे महाभारत में का शि देश का राजा . २४.१८३*पाट.); ४. अभिमन्यु (म.द्रो.४३.५-७); ५. | कहा गया है (म. अनु. ९३.२७-२९, १३७. १०)। ९०२ Page #925 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वृषादर्भि भागवत मस्य एवं वायु में इसे क्रमशः 'वृषादर्भ, ' 'द' एवं 'वृषदर्भ' कहा गया है। विष्णु में इसके नाम की निक्ति वृष + दर्भ दी गयी है । महाभारत में इसके 'वृषदर्भ' (म. अनु. ३२.४ ), एवं वृषादवि ( म. शां. २२६.२५) नामान्तर प्राप्त है। भांडारकर संहिता में 'वृषादर्भ' पाठ स्वीकृत किया गया है। सप्तर्षिों से इसने सप्तर्पियों से किये संपर्क की कथा महाभारत में प्राप्त है। एक बार सप्तर्षि पृथ्वी की प्रदक्षिणा कर रहे थे, जिस समय इसने एक यज्ञ कर अपना पुत्र उन्हें दक्षिणा के रूप में प्रदान किया। आगे चल कर, अल्पायुत्व के कारण इसका पुत्र मृत हुआ, जिसे अकाल के कारण भूखे हुए सप्तर्षियों ने भक्षण करना चाहा । इसने सप्तर्षियों को इस पाशवी कृत्य से रोकना चाहा, किन्तु यों ने इसकी एक न सुनी। अपने पुत्र के मृत देह की पुनःप्राप्ति के लिए, इसने सप्तर्षियों को अनेकानेक प्रकार के दान देने का आश्वासन दिया, किन्तु कुछ फायदा न हुआ। - प्राचीन चरित्रकोश अन्त में अत्यधिक क्रुद्ध हो कर इसने सप्तर्षियों का वध करने के लिए एक कृत्या का निर्माण किया। उस कृल्या ' का सही नाम यद्यपि ' यातुधानी' था, फिर भी इसने उसे 'मरना' नाम धारण कर सप्तर्पियों पर आक्रमण करने के लिए कहा । इसकी आज्ञा से उस कृत्या ने सप्तर्षियों पर आक्रमण किया, किन्तु सप्तर्षियों के साथ रहने वाले शुनःसख (इंद्र ) ने उसका वध किया ( म. अनु. २३ ) । दानशुरता इसकी दानशूरता की विभिन्न कथाएँ महाभारत में प्राप्त है। इसने ब्राह्मणों को अनेकानेक रत्न एवं यह बान में प्रदान किये थे (म. शां. २१६.२५६ अनु. १२७.१०)। अपने पिता शिवि राजा के समान इसने भी एक कपोत पक्षी का रक्षण करने के लिए अपने शरीर के मांसखंड श्येनपक्षी को खिलाये थे (म. अनु. ३२.३९) । वृष्णि वृष्टिनेमि - अक्रूर एवं अश्विनी के पुत्रों में से एक (मत्स्य. ४५.३३ ) । वृष्टिमत्- (सो. कुरु. भविष्य. ) एक राजा, जो नागवत के अनुसार कविरथ राजा का पुत्र, एवं सुषेण राजा का पिता था। वृष्टि - - (सो. कुकुर . ) कुकुरवंशीय धृष्ट राजा का नामांतर । वायु में इसे कुकुर राजा का पुत्र कहा गया है ( देखिये) । २. सावर्णि मनु के पुत्रों में से एक । वृष्टिहव्य - एक आचार्य, जो उपस्तुत वाहिन्य नामक आचार्य का पिता था। वृष्ट्याद्य -- (सो. सह . ) एक हैहयवंशीय राजा, जो कार्तवीर्य एवं महारथा के पुत्रों में से एक था ( वायु. ९४. ४९ ) । वृष्णि - - ( सो. क्रोष्टु. ) कुंति राजा के पुत्र धृष्ट राजा का नामान्तर ( धृष्ट ४. देखिये) । २. (सो. क्रोष्टु. ) एक यादव राजा, जो सात्वत भजमान राजा का पुत्र था। इसे श्रेष्ठु नामान्तर भी प्राप्त था ह. वं. १.३४ ब्रह्म. १४.१९ १५.३१ ) ।.. ( कृष्ण के साथ इसका स्यमंतक मणि के संबंध में संघर्ष हुआ था, जिस समय उस मणि की चोरी कृष्ण के द्वारा किये जाने का शक • इसके मन में पैदा हुआ था । किन्तु श्रीकृष्ण ने अपने को निर्दोष साबित किया (ब्रह्मांड. ३. ७१.१ ) । यह फोटु वंश का सुविख्यात राजा था, एवं सुविख्यात वृष्णि वंश इसी से ही प्रारंभ होता है ( वायु. ९५,१४; म. आ. २११.१-२ ५५ ८ ) | परिवार - इसकी गांधारी एवं माद्री नामक दो पत्नियाँ थी, जिनमें से मात्री से इसे युजाजित आदि पाँच पुत्र उत्पन हुए ये (मास्य ४४, ४८ ) । वृष्णिवंश -- वृष्णि राजा से उत्पन्न यादवों को 'वृष्णिवंशीय यादव' कहा जाता है, जो द्वारवती (द्वारका) में रहते थे। इसी वंश में कृष्ण एवं अराम उत्पन्न हुए थे (भा. १.२.२३ ११.११) । इन लोगों का राजा कृष्ण होते हुए भी, उसका 'परमात्मन् स्वरूप' ये लोग न पहचान स (भा. १.९.१८ ) । महाभारत में इन लोगों के राजा वृषामित्र - एक ऋषि, जो पाण्डवों के वनवासकाल में का नाम उग्रसेन दिया गया है ( म. आ. २११.८ ) । उनके साथ रहता था (म.व. २७.२४ ) । इस वंश में उत्पन्न लोग ' व्रात्य ' ( हीन जाति के ) वृषु-- (सो. पुरूरवस् ) पुरूरवस्वंशीय पृथु राजा थे, ऐसा निर्देश महाभारत में प्राप्त है ( म. द्रो. ११८. का नामान्तर (पृथु. ८. देखिये) । १५ ) । प्रभास क्षेत्र में हुए यादवी युद्ध में इस वंश के लोगों का संपूर्ण संहार हुआ । महाभारत में इन लोगों का निर्देश ' अंधक' एवं 'भोज' राजाओं के साथ मिलता है ये तीनों वंश एक ही यादव वंश की उपशाखाएँ श्रीम. आ. २११.२ २१२.१४) । महाभारत में इस ९०३ Page #926 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वृष्णि प्राचीन चरित्रकोश वेंकटेश वंश में उत्पन्न महारथि, महारथ, रथ एवं मंत्रिपुंगवों की ४. धृतराष्ट्रकुल में उत्पन्न एक नाग, जो जनमेजय के सविस्तृत जानकारी प्राप्त है: | सर्पसत्र में मारा गया था (म. आ. ५२.१६ )। (१) महारथ--कृतवर्मन् , अनाधृष्टि, समीक, समि- ५. एक सुविख्यात दानव, जो कश्यप एवं दनु के पुत्रों तिंजय, कह (कंस), शंकु, निदान्त (म. स. १३. में से एक था (म. आ. ५९.२३)। पृथ्वी पर यह केकय ५७-५८)। | राजकुमार के रूप में अवतीर्ण हुआ था (म. (२) महारथ-प्रद्युम्न, अनिरुद्ध, भानु, अकर, | आ. ६१.१०)। सारण, निशठ, गद (म. स. १३.१५९*)। ६. एक दैत्य, जो शाल्व का अनुयायी था । कृष्ण(३) रथ-आहक, चारुदेष्ण, चक्रदेव, सात्यकि, शाल्व युद्ध में शामिल था, जहाँ कृष्णपुत्र सांब के द्वारा कृष्ण, रौहिणेय (बलराम), सांब, शौरि (म. स. यह मारा गया (म. व. १७.२०)। १३.५६)। | वेगवाहन--तक्षककुलोत्पन्न एक नाग, जो जनमेजय (४) मंत्रिपुंगव -वितद्रु, झल्लि, बभ्रु, उद्धव, विडूरथ, | के सर्पसत्र में दग्ध हुआ था (म. आ. ५२.९)। वसुदेव एवं उग्रसेन (म. स. १३.१५९००)। वेंकटेश- एक भारतीय वैष्णव देवता, जो दक्षिण ३. (सो. वृष्णि.) वृष्णिवंशीय पृष्णि राजा का भारत में श्रीपर्वत अथवा शेषाचल (तामील 'तिरुमलै') नामान्तर (पृष्णि ४. देखिये)। नामक पर्वतीय स्थान पर स्थित है । स्कंद में इस देवता ४. (सो. कुकुर.) कुकुरवंशीय धृष्ट राजा का का निर्देश 'श्रीनिवास' नाम से किया गया है, एवं नामान्तर (धृष्ट. ५. देखिये)। इसके कपोतवर्मन् एवं| इसकी पत्नी का नाम पद्मिनी दिया गया है ( स्कंद. २.१. धृति नामक दो पुत्र थे (मत्स्य. ४४.६२)। ४-८)। उत्तर भारत में यही देवता बालाजी नाम से ५. (सो. सह.) एक राजा, जो मधु राजा के सौ | सुविख्यात है जो मुख्यतः वैश्य एवं व्यापारी लोगों की पुत्रों में से एक था । यह एक अत्यंत सुविख्यात राजा | देवता माना जाता है। था, जिसके कारण इसका वंश सुविख्यात हुआ। दक्षिण भारत में स्थित विठ्ठल एवं वेंकटेश ये विष्णु के वृष्णिमत-(सो. कुरु. भविष्य.) एक राजा, जो ही साक्षात् स्वरूप माने जाते है, एवं विष्ण के अन्य विष्णु के अनुसार शुचिरथ राजा का, एवं मत्स्य के | अवतारों से इनका स्वरूप पूर्णतया विभिन्न हैं। . अनुसार शुचिद्रव राजा का पुत्र था। भागवत एवं वायु वेंकटेश का शब्दशः अर्थ : पापनाशक' (वेंक -पाप; में इसे क्रमशः 'घृष्टिमत्' एवं 'रुतिमत् ' कहा गया है। | कट-नाशक) है। इसी कारण स्वयं वेंकटेश देवता एवं जिस इसके पुत्र का नाम सुषेण था (मत्स्य. ५०.८०; विष्णु. पर्वत पर यह स्थित है, वह वेंकटाद्रि अत्यंत पवित्र माने ४.२१.१२)। जाते हैं। वहंगिरस्-एक राजा, जो मनु एवं वरस्त्री के पुत्रों जिस प्रकार वेंकटेश श्रीविष्णु का रूप माना जाता है; ' में से एक था। उसी प्रकार वेंकटाद्रि शेषनाग का स्वरूप कहलाता है। . वेगदर्शिन--रामसेना का एक वानर । राम के वेंकटाद्रि का तामिल नाम 'तिरुमलै' (तिरु = श्री; मलै राज्याभिषेक के समय इसने जल लाया था (वा. रा. =पर्वत) है, एवं वह 'श्री-पर्वत' एवं 'शेषाचल' इन यु. १२८.५२ )। संस्कृत शब्दों का तामिल रूप प्रतीत होता है। दक्षिण वेगवत्-(सू. दिष्ट.) एक राजा, जो विष्णु के भारत में स्थित वेंकटेश मंदिर सात पर्वतों के एक समूहमें अनुसार धुंधुमत् राजा का, एवं भागवत तथा वायु के स्थित है, जहाँ पहुँचने के लिए सात मील चढ़ान अनुसार बंधुमत् राजा का पुत्र था। इसके पुत्र का नाम | चढ़नी पड़ती है। बंधु था (भा. ९.२.३०)। ___ उपासना-स्कंद में 'वेंकटेश महात्म्य' विस्तृत रूप २. एक यादव राजकुमार, जो कृष्ण एवं सत्या के | में प्राप्त है । बलराम-तीर्थयात्रा वर्णन में भी वेंकटेश का पुत्रों में से एक था। निर्देश प्राप्त है (भा. ५.१९.१६, १०.७९.१३)। ३. एक यादव, जो कृष्ण और नामजिती राजा का वैजयंती कोश में भी 'वेंकटाद्रि' का निर्देश प्राप्त है (वैज पुत्र था (भा. १०.६१.१३)। | ४१.१०)। ९०४ Page #927 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन चरित्रकोश वेंकटेश दक्षिण भारत में प्रचलित वेंकटेश उपासना का आय प्रचारक रामानुजाचार्य माने जाते हैं, जिनके द्वारा प्रणीत रामाय वैष्णव सांप्रदाय की अधिष्ठात्री देवताओं में वेंकटेश एक माना जाता है। दक्षिण भारत में स्थित तिरुपति देवस्थान भारत का एक सर्वाधिक संपन्न देवस्थान माना जाता है, जहाँ विश्वविद्यालय, पाठशाला, धर्मशाला, बँक, बस सर्विस आदि सारी सुविधाएँ देवस्थान के द्वारा संचालित है । सारे भारत में रहनेवाले इस देवता के उपासक लक्षावधि रुपियों की भेंट इसे प्रतिवर्ष स्वयंस्फूर्ति से अर्पित ते है। वेणी एवं वेणीकंद कौरव्येत्पन्न एक नाग, जो बनने का शाप दिया। जनमेजय के सर्पसत्र में दग्ध हुआ था । वेणु--(सो. सह.) एक राजा, जो विष्णु के अनुसार शतजित् राजा का पुत्र था। इसके भाई का नाम हय था, जिसके साथ इसका निर्देश ‘वेणुहय' नाम से अनेक प्राप्त है (विष्णु ४.११.७ ) । कई अन्य पुराणों में इसका नाम चेहय दिया गया है, एवं इसके भाइयों के नाम 'हैहय' एवं ‘हयं ' बतायें गये है (भा. ९.२३.२१; वायु. ९४०४) । गुर्जय युधिशिरसभा में उपस्थित एक ऋषि (म. स. ४.१५) । वेणुदारि - एक यादव, जो दक्षिणी भारत में स्थित अश्मक देश का अधिपति था (ह. २०६१.१९) । इसने ( अकूर) की पत्नी का हरण किया था (म. स. परि. १.११.१५७२) । वर्ण ने अपने दक्षिणदिग्विजय मैं इसके पुत्र का पराजय किया था (म. व परि १. क्र. २४. पंक्ति. ५७-५८ ) | वेणुहय-- वेणु राजा का नामांतर ( वेणु देखिये) । वेणुहोत्र - ( सो. क्षत्र. ) क्षत्रवृद्धवंशीय वीतिहोत्र राजा का नामांतर (वीतिहोत्र ४. देखिये ) । वायु में इसे वृष्टकेतु राजा का पुत्र कहा गया है ( वायु. ९२.७२ ) । वेतसु --एक दानव, जो द्योतन एवं कुत्स नामक आचायों का शत्रु था। इंद्र ने अपने इन दोनो मित्रों की सहायता के लिए इसका वध किया (ऋ. ६.२०.८९ २६. ४) । बेताल - पिशाचों का एक समूह, जो रुद्रगणों में शामिल था । ये लोग युद्धभूमि में उपस्थित रह कर मानवी रक्त एवं मांस भक्षण करते थे (मा. २.१०.३९ ) । देवता मान कर इनकी पूजा की जाती थी, जहाँ सर्वत्र इन्हें शिव के उपासक ही माना जाता था ( मत्स्य. २५९.२४ ) । २.शिव का एक पद को उसके द्वारपाल का काम करता था। एक बार शिव एवं पार्वती क्रीडा कर रहे थे, उस समय क्रीडा के उन्मत्त वेश में पार्वती सहजवंश द्वार पर आयी ! उसे देख कर यह काममोहित हुआ, एवं उनका अनुनय करने लगा । इसका यह धाष्ट देख कर पार्वती अत्यंत क्रुद्ध हुई, एवं उसने इसे पृथ्वी पर मनुष्य २. एक जातिविशेष, जिसके अधिपति का नाम दशद्यु था । इस जाति के लोगों ने तुग्र लोगों को पराजित किया था (ऋ. १०.४९.४) । प्रा. च. ११४ ] पार्वती के शाप के कारण, इसने 'वेताल' के रूप में पृथ्वी पर जन्म लिया । तदुपरांत अपने प भक्तदासता से प्रेरित हो कर शिव एवं पार्वती भी महेश एवं शारदा नाम से पृथ्वी पर अवतीर्ण हुए (शिव. शत. १४) । , कालिका पुराण में -- इस ग्रंथ में इसके भाई का नाम भैरव बताया गया है एवं इन दोनों को चंद्रशेखर राजा एवं तारावती के पुत्र कहा गया है। अपने पूर्वजन्म में ये भृंगी एवं महाकाल नामक शिवदूत थे, जिन्हे पार्वती के शाप के कारण पृथ्वीलोक में जन्म प्राप्त हुआ था। इनके पिता चंद्रशेखर ने इन्हें राज्य न वे कर इनके अन्य तीन भाइयों को वह प्रदान किया। इस कारण ये अरण्य में तपस्या करने गये एवं शिव की उपासना करने लगे। आगे चल कर बसिनु की कृपा से, इन्हें संध्याचल पर्वत पर शिव का दर्शन हुआ, एवं कामाख्या देवी की उपासना से इन्हें शिवगणों का आधिपत्य भी प्राप्त हुआ। इनके वंश में उत्पन्न लोगों का ' वेतालवंश ' भी कालिका पुराण में दिया गया है। वेतालजननी - स्कंद की अनुचरी एक मातृका (म. श. ४५.१३ ) । वेद - भृगुकुलोत्पन्न एक मंत्रकार पाठभेद ( वायुपुराण ) - ' विद' | २. एक ऋषि, जो धौम्य ऋषि का शिष्य, एवं जनमेजय उपाध्याय था ( म. आ. ३.७९-८५ ) । इसे 'बैद ' नामान्तर भी प्राप्त था । का इसके शिष्य का नाम उतंक था। एक बार वह परदेश गया था, जिस समय अपने घर की एवं पत्नी की रक्षा करने के लिए इसने उत्तंक को कहा था। यह कार्य उत्तम २०५ Page #928 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वेद । प्राचीन चरित्रकोश वेदशिरस् प्रकार से निभाने के कारण इसने उत्तंक को अनेकानेक | अग्निप्रवेश--एक बार रावण ने इस पर बलात्कार आशीर्वाद प्रदान किये ।' | करना चाहा, किंतु उससे अपनी मुक्तता कर इसने अग्निअपनी शिक्षा समाप्त होने के पश्चात् , उत्तंक ने इसकी | प्रवेश कर अपनी इज्जत बचायी । मृत्यु के पूर्व इसने पत्नी को पौष्य राजा की पत्नी के कुण्डल गुरुदक्षिणा के | रावण को शाप दिया था। राम दाशरथि के द्वारा रावण रूप में प्रदान किये (उत्तंक देखिये)। का वध होने की विधिघटना का यही प्रारंभ हुआ, जिसका ३. एक शिवभक्त राजा, जो सिंधुद्वीप राजा का भाई था। स्मरण रावण को अपनी मृत्यु के समय हूंआ था (ब्रह्मवै. वेददर्शन--देवदर्श नामक आचार्य का नामान्तर २.१४.५२; वा. रा. उ. १७) ( देवदर्श देखिये)। इसने सुमन्तु से अथर्ववेद संहिता | वेदवृध्द--एक आचार्य, जो वायु एवं ब्रह्मांड के सीखी थी, जो आगे चल कर इसने अपने शौक्लायानि | अनुसार, व्यास की सामशिष्यपरंपरा में से कौथुम पाराशय आदि शिष्यों को प्रदान की (भा. १२.७.१-२)। नामक आचार्य का शिष्य था (व्यास देखिये)। वेदनाथ–एक राजा, जो ब्राह्मण के द्रव्य का अप- वेदव्यास-एक सुविख्यात ऋषिसनुदाय । वैवस्वत हरण करने के कारण वानर बन गया था। अपने मित्र | मन्वन्तर के अट्ठाईस द्वापारों में उत्पन्न होने वाले अट्ठाईस सिंधुद्वीप की सलाह के अनुसार, धनुषकोटी तीर्थ में स्नान | वेद व्यासों की नामावलि पुराणों में प्राप्त है। ये सभी ऋषि कर, यह वानरयोनि से मुक्त हुआ (स्कंद. १.३.१४)। इसे | वेदव्यास नाम से ही अधिक सुविख्यात है ( ब्रह्मांड, 'वेदभृतिपुत्र' एवं 'भालंकिपुत्र' नामान्तर भी प्राप्त थे।। २.३३.३३: ३५.११७-१२५; व्यास देखिये)। वेदवाहु-कृष्ण के पुत्रों में से एक (भा. १०.९०.३४)। २. कृष्ण द्वैपायन व्यास का नामान्तर (व्यास पाराशर्य २. रैवत मन्वन्तर का एक ऋषि । | देखिये)। वेदमित्र-एक आचार्य, जो विष्णु के अनुसार वेदशर्मन्--(सो. विदू.) एक राजा, जो मत्स्य के व्यास की ऋक् शिष्य परंपरा में से मांडकेय नामक अनुसार शोणाश्व राजा का पुत्र था। आचार्य का शिष्य था। यह स्वयं शाकलगोत्रीय था, एवं २. बिदुर का एक मित्र, जो उसके साथ कालिंजर व्याकरणशास्त्र के संबंधित इसके अनेकानेक मतों के पर्वत पर गया.था । वहाँ सिद्धों के द्वारा प्राप्त उपदेश . उद्धरण ऋप्रातिशाख्य में प्राप्त है (ऋ. प्रा. ५२)। के अनुसार, इसने सोमवती अमावास्या के दिन 'अघइसके कुल पाँच शिष्य थे। इसके नाम के लिए | | तीर्थ' पर स्नान किया, जिस कारण इसे मुक्ति प्राप्त हुई 'देवमित्र' पाठभेद प्राप्त है (व्यास देखिये )। (पद्म भू. ९१.-९२)। . वेदवती--एक राजकन्या, जो कुशध्वज जनक की | ३. पिशाचयोनि में प्रविष्ट हुआ एक ब्राह्मण, जो कन्या थी । इसकी माता का नाम मालावती था। इसे | - सीता का पूर्वजन्मकालीन अवतार माना जाता है । जन्म मुनिशर्मन् नामक विष्णुभक्त ब्राह्मण के द्वारा मुक्त हुआ होते ही इसने मुख से वेदध्वनि निकाला, जिस कारण | (पद्म. पा. ९४)। . इसे 'वेदवती' नाम प्राप्त हुआ। ४. शिवशर्मन् नामक विष्णुभक्त ब्राहाण का पुत्र । - इसके पिता की इच्छा थी कि, इसका विवाह विष्ण वेदशिरस्-एक शिवावतार, जो वाराहकल्पान्तर्गत से किया जाय । एक बार शंभु नामक राक्षस ने इससे | वैवस्वत मन्वन्तर में से पंद्रहवें युगचक्र में उत्पन्न हुआ. विवाह करना चाहा, किन्तु अपने पूर्व योजना के अनुसार | था। सरस्वती नदी के उत्तरीतट पर हिमालय पर्वत के कुशध्वज ने उसे ना कह दिया। इस कारण क्रुद्ध हो | अंतर्भाग में स्थित वेदशीर्ष नामक स्थान में यह अवतीर्ण कर, शंभु राक्षस ने कुशध्वज जनक का वध किया। हुआ। इसका प्रमुख अस्त्र महावीय था, एवं इसके शिष्यों तपस्या--अपने पिता के मृत्यु की पश्चात् , यह में निम्नलिखित चार शिष्य प्रमुख थे:- १. कुणि; २. पुष्करतीर्थ पर जा कर तपस्या करने लगी, जिस कारण कुणिबाहु; ३. कुशरीर; ४. कुनेत्रक ( शिव. शत. ५; अगले जन्म में विष्णु की पत्नी बनने का आशीर्वाद इसे | वायु. २३.१६६-१६८)। प्राप्त हुआ । इसी आशीर्वाद के अनुसार, अपने अगले २. एक भृगुवंशीय ऋषि, जो मार्कंडेय ऋषि का पुत्र जन्म में यह श्रीविष्णुस्वरूपी राम दाशरथि राजा की | था। इसकी माता का नाम मूर्धन्या (धूम्रा) था। इसकी पत्नी बनी। पत्नी का नाम पीवरी था, जिससे इसे 'मार्कंडेय ९०६ Page #929 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वेदशिरस् प्राचीन चरित्रकोश वेन सामूहिक नाम धारण करनेवाले अनेकानेक पुत्र उत्पन्न ___ मृत-देह का मंथन---इसकी मृत्यु के पश्चात् , अंगवंश हुए (ब्रह्मांड. २.११.७; वायु. २८.६ )। निवेश न हो इस हेतु इसकी माता सुनीथा ने इसके मृतएक बार इसके तप में बाधा डालने के लिए शुचि शरीर का दोहन करवाया। इसके दाहिनी जाँघ की नाम एक अप्सरा इसके पास आयी, जिससे इसे एक | मंथन से निषाद नामक एक कृष्णवर्णीय नाटा पुरुष कन्या उत्पन्न हुई। इस कन्या का हरण यमधर्म ने | उत्पन्न हुआ, जिससे आगे चल कर निषाद जाति-समूह करना चाहा, जिस कारण इसने उसे नदी बनने का शाप के लोग उत्पन्न हुए। आगे चल कर ऋषियोंने इसके दाहिने दिया । काशी में स्थित 'धर्म' नद वही है (कंद ४.२.५९)। हाथ का मंथन किया, जिससे पृथु वैन्य नामक चक्रवर्ति ३. (खा.) एक राजा, जो प्राण राजा का पुत्र था | राजा उत्पन्न हुआ, जो साक्षात् विष्णु का अवतार था (भा. ४.१.४५)। (म. शां. ५९.१०६)। ऋषियों के द्वारा वेन का वध होने की, एवं इसके ४. स्वारोचिष मन्वन्तर के विभु नामक इंद्र का पिता । दाहिने हाथ के मंथन से पृथु वैन्य का जन्म होने की कथा ५. रैवत मन्वन्तर के सप्तर्षियों में से एक। सभी पुराणों में प्राप्त है (ह. वं. १.५.३-१६; वायु. ६. एक ऋषि, जो कृशाश्व ऋषि एवं धिषणा का पुत्र ६२.१०७-१२५; भा. ४.१४; विष्णुधर्म. १.१०८; था। इसे पाताल में स्थित नौगों से 'विष्णु पुराण' का ज्ञान १.१३, ७.२९; ब्रह्म. ४; मत्स्य. १०.१-१०)। प्राप्त हुआ था, जो इसने आगे चल कर प्रमति नामक अपने शिष्य को प्रदान किया (विष्णु. ६.८.४७)। महाभारत के अनुसार, इसकी दाहिनी जाँघ की मंथन से निषाद, एवं विंध्य गिरिवासी म्लेच्छों का निर्माण हुआ वेदशेरक--वसिष्ठकुलोत्पन्न एक गोत्रकार ऋषि-गण । था (म. शां. ५९.१०१-१०३)। पद्म के अनुसार, यह वेदश्री-रेवत मन्वन्तर का एक ऋषि (ब्रह्मांड. २. ऋषियों के द्वारा मृत नही हुआ, बल्कि एक वल्मीक में ३६.६२)। छिप गया था (पद्म. भू. ३६-३८)। वेदश्रुत--उत्तम मन्वन्तर का एक देव (भा. ८.१. वायु में--इस ग्रंथ में वेन के शरीर के दोहन की कथा २४)। कुछ अलग प्रकार से प्राप्त है । दुष्टप्रकृति वेन ने मरीचि वेदस्पर्श--देवदर्शनामक आचार्य का नामान्तर । वायु आदि ऋषियों का अपमान किया, जिस कारण ऋषियों ने में इसे कबंध ऋषि का शिष्य कहा गया है, एवं इसने इसके हाथ एवं पाव पकड़ कर इसे नीचे गिराया । पश्चात् अथर्ववेद के चार भाग कर उसे अपने चार शिष्यों में | उन्होंने इसके हाथ एवं पाव खूब घुमाये, जिस कारण इसके बाँट देने का निर्देश वहाँ प्राप्त है (वायु. ६१.५०)। | दाहिने एवं बाये हाथ से क्रमशः पृथु वैन्य एवं निषाद का वेधस्-ब्रह्मा का नामान्तर (भा. ८.५.२४)। निर्माण हुआ। इनमें से निषाद का जन्म होते ही ऋषियों २. अंगिराकुलोत्पन्न एक मंत्रकार (मत्स्य. १४५- | ने 'निषीद' कह कर अपना निषेध व्यक्त किया, जिस ९९)। कारण इस कृष्णवर्णीय पुत्र को निषाद नाम प्राप्त हुआ। बेन-(स्वा. उत्तान.) अंग देश का एक दुष्टकर्मा | इस मंथन के बाद वेन मृत हुआ(वायु.६१.१०८-१९३)। राजा. जो अंग एवं मृत्यु की मानसकन्या सुनीथा का पुत्र | इसके दो पुत्रों में से, पृथु इसके पिता अनंग के अंश था। भागवत में इसे तेईसवा वेदव्यास कहा गया है। | से उत्पन्न हआ था, एवं निषाद की उत्पत्ति इसके स्वयं के महाभारत में कदमपुत्र अनंग को इसका पिता कहा गया | पापों से हुई थी। निषाद के रूप में इसका पाप इसके है (म. शा. ५९.९६-९९)।। शरीर से निकल जाते ही यह पापरहित हुआ। पश्चात् अनाचार--यह शुरू से ही दुर्वत्त था। यह अपने | तृणबिंदु ऋषि के आश्रम में इसने विष्णु की उपासना की, मातामह मृत्यु (अधर्म) के घर में पालपोस कर बड़ा जिस कारण इसे स्वर्लोक की प्राप्ति हुई (पन. भू. ३९हुआ था। इसके दुष्ट कर्मों के कारण, त्रस्त हो कर इसका ४०; १२३-१२५)। महाभारत के अनुसार, अपनी मृत्यु पिता अंगदेश छोड़ कर चला गया। राज्यपद प्राप्त होते के पश्चात् यह यमसभा में सूर्यपुत्र यम की उपासना करने ही इसने यज्ञयागादि सारे कर्म बंद करवाये। यह स्वयं लगा (म. स. ८.१८)। को ईश्वर का अवतार कहलाता था। इसके दुश्चरित्र के २. एक राजा, जो वैवस्वत मनु के दस पुत्रों में से एक कारण, ऋषियों ने इसका वध किया (म. शां. ५९.१००)। था (म. आ. ७०.१३)। ९०७ Page #930 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वेन पार्थ प्राचीन चरित्रकोश वैजवापायन जानस धर्मपत्रकार, जिसक न्मूलन किया वेन पार्थ-एक राजा, जिसके औदार्य की प्रशंसा तान्व | वैखानस--एक पविशेष, जो व्यपोहिनी' नामक पृथुपुत्र नामक आचार्य के द्वारा की गयी है (ऋ.१०.९३. | यज्ञसंस्कार की दीक्षा ले कर उत्पन्न हुए थे। पुराणों में १४)। 'पृथा' का वंशज होने से इसे 'पार्थ' मातृक निम्नलिखित ऋषियों का निर्देश 'वैखानस संप्रदायी' नाम प्राप्त हुआ होगा (ऋ. १०.९३.१५)। ऋषि के नाते प्राप्त है :-१. नहुषपुत्र पृथु (मत्स्य. ___ लो. तिलकजी के अनुसार, वेन एक व्यक्ति का नाम | २४.५१), २. अगस्त्य, (मत्स्य.६१.३७ ); ३. ययातिन हो कर, आकाशस्थ ग्रह का नाम था (ऋ. १०.१२३)। भ्राता यति (ब्रह्मांड. ३.६८.१४; ब्रह्म. १२.३, ह. वं. किन्तु इस संबंध में निश्चित प्रमाण उपलब्ध नहीं है। । | १.३०.३; मळ्य. २४.५१)। वेन आर्गव -एक वैदिक सूक्तद्रष्टा (ऋ. ९.८५,१०. २. एक वैदिक ऋषिसमुदाय, जिसमें सौ ऋषि १२३)। समाविष्ट थे (ऋ. ९.६६)। ये ब्रह्मा के नाखून से उत्पन्न वेन वाजश्रवस--एक ऋषि, जो बाईसवाँ व्यास था | हुए थे (ते. आं. १.२३)। पंचविंश ब्राह्मण के अनुसार (व्यास देखिये)। रहस्य देवमलिम्लुच ने मुनिमरण नामक स्थान में इनका वेश--एक दानव, जिसे इंद्र ने आयु राजा की रक्षा वध किया था (पं. बा. १४.४.७; तै. आ १.२३. के लिए पराजित किया था (ऋ, ७.१८.११)। संभ ३)। इस ऋषिसमूह में पुरूहन्मन् नामक ऋषि समाविष्ट वतः 'दास वेश' एवं यह दोनों एक ही व्यक्ति होंगे (ऋ. या (त. आ. १४.९.२९) । २.१३.८)। ३. एक धर्मशास्त्र कार, जिसका धर्मशास्त्रविषयक ग्रंथ 'वैखानस धर्मप्रश्न' नाम से सुविख्यात है । यह ग्रंथ कृष्णवैकर्ण--एक राजद्वय, जिनके इक्कीस जातियों यजुर्वेदान्तर्गत धर्मसूत्र ग्रंथ माना जाता है, एवं अनंतः (जनान् ) का सुदास ने दाशराज्ञ-युद्ध में उन्मूलन किया शयनग्रंथावलि में मुद्रित किया गया है (क्र. २८, इ.स. था (ऋ. ७.१८.२१)। सीमर के अनुसार, वैकर्ण दो १९१३)। राजाओं का नाम न हो कर, कुरु एवं क्रिवि जातियों का वैखानस धर्मप्रश्न--इस ग्रंथ में वानप्रस्थाश्रम ग्रहण सामूहिक नाम था (त्सीमर, अल्टिण्डिशे लेबेन १०३)। करने का धार्मिक विधि विस्तारपूर्वक दिया गया है, एक जाति के रूप में विकर्ण लोगों का निर्देश महा | एवं वानप्रस्थियों के लिए सुयोग्य आचार भी बताये भारत में प्राप्त है (म. भी. ४७.१५), जो काश्मीर गये है। प्रदेश में बसे हुए थे । इससे प्रतीत होता है कि, ऋग्वेद इस ग्रंथ में अनुलोम एवं प्रतिलोम विवाह से उत्पन्न में निर्दिष्ट वैकर्ण लोग इसी प्रदेश के रहनेवाले थे। संतानों के लिए सुयोग्य व्यवसाय भी बताये गये हैं। वैकर्णिक-वैकर्णेय नामक कश्यपकुलोत्पन्न गोत्रकार इसके साथ ही साथ निम्नलिखित विषयों की चर्चा भी गण का नामान्तर । इस ग्रंथ में प्राप्त है:-चार वर्ण एवं चार आश्रम के वैकणिनि-भृगुकुलोत्पन्न एक गोत्रकार । लोगों के कर्तव्यः संध्या, वैश्वदेव, स्नान, आचमन आदि वैकर्णय-कश्यपकुलोत्पन्न एक गोत्रकार ऋषिगण । | के धार्मिक विधि, चार वर्गों के लोगों के लिए सुयोग्य पाठभेद- 'वैकणिक । व्यवसाय, आदि। वैकलिनायन--वैकृति गालव नामक विश्वामित्र 'वैखानस धर्मप्रश्न' के अनेक उद्धरण मनुस्मृति में कुलोत्पन्न गोत्रकार का नामान्तर । प्राप्त है (मनु. ६.२१)। इसके अतिरिक्त इसके नाम वैकंठ---चाक्षुष एवं रैवत मन्वन्तरों में उत्पन्न अवतार। पर 'वैखानस श्रौतसूत्र' नामक ग्रंथ भी उपलब्ध है। २. रैवत मन्वन्तर का एक देवगण। ___४. चंपक नगरी एक राजा, जिसने मार्गशीर्ष शुक्ल ३. इंद्र का अवतार (इंद्र देखिये )। एकादशी के व्रत का पुण्य अपने पितरों को दे कर उनका ४. एक ब्राह्मण, जिसकी कथा 'दीप-महात्म्य' बताने के उद्धार किया (पन. उ.३९)। लिए पद्म में कथन की गयी है ( पद्म. ब्र. ३)। __वैगायन--भृगुकुलोत्पन्न एक गोत्रकार । वैकति गालव-विश्वामित्रकुलोत्पन्न एक गोत्रकार । वैजभृत--भृगुकुलोत्पन्न एक गोत्रकार। पाठभेद-'वैकालिनायन'। वैजवापायन-बैजवापायन नामक आचार्य का वैक्लव--वसिष्ठकुलोत्पन्न एक गोत्रकार । | नामान्तर। ९०८ Page #931 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैजान प्राचीन चरित्रकोश वैजान-श नामक आचार्य का पैतृक नाम (पं.ब्रा. १३.३.१२) । विजान का वंशज होने के कारण, उसे यह पैतृक नाम प्राप्त हुआ होगा । वेबर के अनुसार, इस पैतृक नाम का सही पाठ ' वै+जानः ' था ( वेबर, इन्डिशे स्टूडियेन. १०.३२ ) । वैदभतीपुत्र -- एक आचार्य, जो काकेयीपुत्र नामक आचार्य का शिष्य था (बृ. उ. ६.५.२. काण्व ) । पाठ'वैधृतिपुत्र' । वैडव - वसिष्ठ ऋषि का पैतृक नाम (पं. बा. ११.८. १४) । 'वीड' का वंशज होने से इसे यह पैतृक नाम प्राप्त हुआ होगा। किन्तु सायण भाष्य में वसिष्ठ को वीड का पुत्र कहा गया है (तां. बा. ११.८.१४ ) । वैणव – विश्वामित्रकुलोत्पन्न एक गोत्रकार । वैतंड्य--(तो. आयु. ) एक राजा, जो आयु (आप) राजा का पुत्र था (ब्रह्मांड. ३.३.२४, वायु ६६.२३) । वैतरण — ऋग्वेद में निर्दिष्ट एक पैतृक नाम (ऋ. १०. ६१.१७ ) । भरत एवं वध्यश्व के भाँति, वैतरण के अभि का निर्देश भी ऋग्वेद में प्राप्त है । वैतहव्य - एक परिवार का सामूहिक नाम । एक ब्राह्मण की गाय भक्षण करने के कारण, इस परिवार के लोगों के पतन होने का निर्देश अथर्ववेद में प्राप्त है (अ. वे. ५.१८.१०-११; १९.१ ) । इन्हें संजय कहा गया है, किन्तु त्सीमर के अनुसार, वैतहव्य कोई स्वतंत्र लोग न हो कर, वह संजय लोगों की केबल उपाधि मात्र ही थी । अन्य अभ्यासक लोग इन्हें स्वतंत्र परिवार मानते हैं, एवं ' वीतहव्य का वंशज' इस अर्थ से वैतहव्य की निरुक्ति बताते हैं । वैदिक साहित्य में निम्नलिखित आचायों का पैतृक नाम 'वैतव्य' दिया गया है: - १. अरुण (ऋ. १०.९१); २. वीतहव्य आंगिरस (ऋ. ६.१५ ); संजय ( अ. वे. ५.१९.१ ) । वैतान --एक आचार्य, जो कृष्णयजुर्वेदान्तर्गत 'वैतान श्रौतसूत्र' नामक ग्रंथ का रचियता माना जाता है । वैताल -- एक आचार्य, जो भागवत के अनुसार, व्यास की ऋक शिष्यपरंपरा में से जातुकर्ण्य नामक आचार्य का शिष्य था । पाठभेद - 'वैतालिक ' । वैतालिक - - एक आचार्य, जो विष्णु के अनुसार व्यास की ऋशिष्यपरंपरा में से शाकपूणि नामक आचार्य का शिष्य था । भागवत में इसे 'वैताल' कहा गया है । "वेदह वैताली - स्कंद का एक सैनिक ( म. श. ४४.६२ )। वैद-- हिरण्यदत नामक आचार्य का पैतृक नाम (ऐ. ब्रा. ३.६.४९ ऐ. आ. १०.९ ) । विद का वंशज होने से इसे यह पैतृक नाम प्राप्त हुआ होगा । पाठभेद'बैद' | वैदथिन--ऋजिश्वन् नामक आचार्य का पैतृक नाम ( ऋ. ४.१६.१३, ५.२९.११ ) । विदथिन् का वंशज हो से उसे यह पैतृक नाम प्राप्त हुआ होगा । वैददश्वि-- एक पैतृक नाम, जो वैदिक साहित्य में निम्नलिखित आचार्यों के लिए प्रयुक्त किया गया है :१. तरंत (ऋ. ५.६१.१०); २. पुरुमीह (पं. बा. १३. ७.१२; जै. ब्रा. १.५१; ३. १३९ ) । वैदृभतीपुत्र -- एक आचार्य, जो कार्शके यी पुत्र नामक आचार्य का शिष्य, एवं क्रौं चिकीपुत्र नामक आचार्यद्वय का गुरु था (बृ. उ. ६.४.३२ माध्यं. ) । बृहदारण्यक उपनिषद के काण्व संस्करण में इसे वैद्यभतीपुत्र कहा गया है (बृ. उ. ६.५.२ काण्व.) । शतपथ ब्राह्मण में इसे भालुकपुत्र नामक आचार्य का शिष्य कहा गया है ( श. बा. १४.९.४.३२ ) । वैदर्भ--भीम नामक राजपि का 'देशीय ' नाम (ऐ. प्रा. ७.३४.९ ) । विदर्भ देश का राजा होने के कारण, उसे यह नाम प्राप्त हुआ होगा । वैदर्भि --एक राजा, कन्या अगस्त्य को विवाह में दी थी ( म. अनु. १३७. जिसने अपनी लोपामुद्रा नामक ११ ) । २. भार्गव नामक आचार्य का पैतृक नाम (प्र. उ. १. ।। विदर्भ का वंशज होने के कारण उसे यह पैतृक नाम प्राप्त हुआ होगा। वैदर्भी--एक देशीय नाम, जो निम्नलिखित विदर्भ राजकन्याओं के लिए प्रयुक्त किया गया है:- १. दमयन्ती; २. रुक्मिणी; ३. लोपामुद्रा; ४. सगर पत्नी कोशिनी; ५. मलयध्वजपत्नी । ९०९ वैदेह---(स. निमि.) एक राजा, जो विष्णु के अनुसार निमि राजा का पुत्र था । निमि राजा के वंशजों के लिए भी यह नाम प्रयुक्त है ( भा. ९.१३.३ ) । २. एक देशीय नाम, जो विदेह देश के निम्नलिखित राजाओं के लिए प्रयुक्त किया गया है: - १. जनक ( तै. बा. ३.१०.९.२१); २. नमी साध्य (पं. बा. २५. १०.१७)। Page #932 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैदेहरात प्राचीन चरित्रकोश वैयासकि वैदेहरात--विश्वामित्र कुलोत्पन्न एक ऋषिगण । ४. पृथी (ऋ. ८.९.१०; पं. वा. १३.५.२०; श. बा. पाठभेद-'देवराज'। वैदेही-जनमेजयपुत्र शतानीक की पत्नी । वैपश्चित--ताय नामक आचार्य का पैतृक नाम वैद्य--वरुण एवं सुनादेवी के पुत्रों में से एक। इसके (श. ब्रा, १३.४.३.१३)। पुत्रों के नाम घृणि एवं मुनि थे, जो आपस में लड़ कर वैपश्चित दाढजयन्ति गुप्त लौहित्य--एक आचार्य, मर गये (वायु. ८४.६-८)। जो वैपश्चित दार्ट जयन्ति दृढजयन्त लौहित्य नामक आचार्य २. सुखदेवों में से एक। का शिष्य था (जै. उ. वा. ३.४२.१)। विपश्चित् , दृढ़वैद्यग--अंगिरस्कुलोत्पन्न एक मंत्रकार। जयन्त, एवं लोहित का वंशज होने के कारण इसे 'वैपश्चित'. वैद्यनाथ--शिव का एक अवतार, जो रावण की | 'दाढजयन्ति' एवं 'लौहित्य' ये पैतृक नाम प्राप्त हुए होंगे। प्रार्थना से चिताभूमि में प्रकट हुआ था (शिव. शत. | वैपश्चित दाढजयन्ति दृढजयन्त लौहित्य-एक ४२)। कई विद्वानों के अनुसार, महाराष्ट्र में स्थित 'परली वैजनाथ' का शिवस्थान यही है (ज्योतिलिंग देखिये)। आचार्य, जो विपश्चित दृढजयन्त लौहित्य नामक आचार्य का शिष्य था (जै. उ. ब्रा. ३.४२.१)। वैधस-हरिश्चंद्र नामक आचार्य का पैतृक नाम (ऐ. | ब्रा. ७.१३.१; सां. श्री. १५.१७.१) वेधस् का वंशज | वैभांडक अथवा वैभांडकि--पूर्णभद्र नामक आचार्य होने से उसे यह नाम प्राप्त हुआ होगा। | का पैतृक नाम (पूर्णभद्र देखिये)। वधृत--धमेसावणि मन्वन्तर का इंद्र ( भा. 2. वैभूवस-त्रित नामक आचार्य का पैतक नाम १३.२५)। | (ऋ. १०.४६.३)। वैधृति--विधृति के पुत्रों का सामूहिक नाम, जिन्होंने | वैभीषणि--विभीषण का पुत्र, जिसने मणिकुंडल सारे वेद अपने मन में एकत्रित कर रखे थे (भा. नामक वैश्य को शापमुक्त किया था (मणिकुंडल देखिये)। ८.१.२९)। वैमृग-एक दानव, जो कश्यप एवं दनु के पुत्रों में से २. तामस मन्वन्तर का देवगण । एक था (ब्रह्मांड. ३.६.११)। ३. धर्मसावर्णि मन्वन्तर के धर्मसेतु नामक अवतार वयश्व---विश्वमनस् नामक आचार्य का पैतृक नाम की माता। (ऋ.८. २३.२५, २४.३३)। व्यश्व का वंशज होने से ४. धर्मसावर्णि मन्वन्तर का इंद्र । उसे यह नाम प्राप्त हुआ होगा। ५. तामस मन्वन्तर के देवों की माता। वैयाघ्रपदीपुत्र--एक आचार्य, जो काण्वीपुत्र एवं वैधेय--एक आचार्य, जो वायु एवं ब्रह्मांड के अनुसार, । का पिपुत्र नामक आचार्य का शिष्य था (बृ. उ.६.५.१ व्यास की यजुःशिष्यपरंपरा में से याज्ञवल्क्य का वाजसनेय काण्व.)। इसके शिष्य का नाम कौशिकिपुत्र था । व्याघ्रशिष्य था। पद्य के किसी स्त्री वंशज का पुत्र होने से, इसे यह मातृक वैन--एक आचार्य, जो ब्रह्मांड के अनुसार, व्यास की नाम प्राप्त हुआ होगा। सामशिष्यपरंपरा में से शंगीपुत्र नामक आचार्य का वैयाघ्रपद्य--एक पैतृक नाम, जो वैदिक साहित्य में शिष्य था। | निम्नलिखित आचार्यों के लिए प्रयुक्त किया गया है :वैनतेय--गरुड की प्रमुख संतानों में से एक १. इंद्रद्युम्न भाल्लवेय (श. बा. १०.६.१.८; छां. उ. ५. (म. उ.९९.१०)। १४.१); २. बुडिल आश्वतराश्चि (छां. उ. ५.१६.१); २. गरुड का नामान्तर (मत्स्य. १५०.२१४)। ३. गोश्रति (छां. उ. ५.२.३; सां. आ. ९.७); ४. वैनहोत्र--(सो. क्षत्र.) क्षत्रवृद्धवंशीय वीतिहोत्र राजा | राम कातुजातेय (जै. उ. बा. ३.४०.१; ४.१६.१) ५. का नामान्तर । विष्णु में इसे धृष्टकेतु राजा का पुत्र कहा | उपमन्यु वासिष्ठ (ऋ. ९.९७.१३-१५)। गया है। २. एक आचार्य (ला. श्री. ४.९.१७) । वैन्य-भृगुकुलोत्पन्न एक मंत्रकार। ३. युधिष्ठिर के द्वारा अज्ञातवास में धारण किया गया २. एक पैतृक नाम, जो निम्नलिखित राजर्षियों के लिए | नाम (म. वि. ३२.४४)। प्रयुक्त किया गया है :--१. अत्रि; २. पृथि; ३. पृथु । वैयासकि-शुक का पैतृक नाम । Page #933 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैयास्क प्राचीन चरित्रकोश वैशंपायन वैयास्क- छंदशास्त्र का एक आचार्य (ऋ. प्रा. १७. वैशंपायन--एक महर्षि, जो महर्षि व्यास के चार २५)।रौथ के अनुसार, यहाँ निरुक्तकार यारक की वेदप्रवर्तक शिष्यों में से एक, एवं कृष्ण यजुर्वेदीय ओर संकेत किया गया है, एवं 'वैयास्क' का सही रूप तैत्तिरीय संहिता' का आद्य जनक था। 'विशंप' का वंशज वै+ याक है। होने के कारण, इसे 'वैशंपायन' नाम प्राप्त हुआ होगा। वैरपरायण-अंगिराकुलोत्पन्न एक गोत्रकार। वैदिक साहित्य में इस साहित्य में से केवल तैत्तिरीय वैराज-महाभारत में निर्दिष्ट सात प्रमुख पितरों में आरण्यक एवं गृह्यसूत्रों में वैशंपायन का निर्देश मिलता एक ( पितर देखिये)। बाकी छः पितरों के नाम निम्न है। ऋग्वेद के कई मंत्रों का नया अर्थ लगाने का युगथे:- १. अग्निप्वात्तः २. सोमपः ३. गार्हपत्यः ४. एक- प्रवर्तक कार्य वैशंपायन ने किया । ऋग्वेद में 'सप्त दिशो शृंगः ५. चतुर्वेद एवं ६. कल (म. स. ११.१३३४)। नाना सूर्याः ' नामक एक मंत्र है (ऋ. १.११४.३ ). ब्रह्मांड में इन्हें विरजस् नामक प्रजापति के पुत्र कहा | जिसका अर्थ 'पृथ्वी के सात दिशाओं में सात सूर्य हैं, गया है (ब्रह्मांड. ३.७.२१२)। मत्स्य में इन्हें अमूर्त एवं श्रौतकर्म में सात दिशाओं में अधिष्ठित हए सात पितरों में से एक कहा गया है। प्रारंभ में ये योगी थे। ऋत्विज (होता) ही सूर्यरूप है, 'ऐसा अर्थ वैशंपायन वहाँ से योगभ्रष्ट होने पर, इन्हें सनातन ब्रहालोक में पुनः के काल तक किया जाता था। किंतु वैशंपायन ने ऋग्वेद में जन्म प्राप्त हुआ । वहाँ ब्रह्मा के एक दिन तक उसके साथ अन्यत्र प्राप्त 'यज्ञाव इद्र सहस्त्रं सूर्या अनु' (ऋ. ८. रहने पर, अगले कल्पारंभ में इन्हें ब्रह्मवादिन् के रूप ७०.५), के आधार से सिद्ध किया कि, ऋग्वेद में में पुनः जन्म प्राप्त हुआ। इस जन्म में इन्हें अपने | निर्दिष्ट सूर्यों की संख्या सात नहीं, बल्कि एक सहस्त्र है पूर्वजन्म का स्मरण हुआ, एवं ये पुनः एक बार योगाभ्यास | (ते. आ. १७)। में मग्न हुए। पाणिनीय व्याकरण में-एक वैदिक गुरु के नाते, आगे चल कर इसी योगसाधना से इन्हें मुक्ति प्राप्त वैशंपायन का निर्देश पाणिनि के 'अष्टाध्यायी' में प्राप्त का हुई.। इनकी मानसकन्या का नाम मेना था, जो हिमवत् है (पा. सू. ४.३.१०४)। पतंजलि के 'व्याकरण महाकी पत्नी थी। ये पितर अत्यंत परोपकारी रहते है, एवं | भाष्य' में इसे कठ एवं कला पिन् नामक आचार्यों का योगाभ्यास करनेवाले हर एक व्यक्ति को सहायता तो गुरु कहा गया है। पहुँचाते है (मत्स्य. १३.३-६)। ___ कृष्णयजुर्वेद का प्रवर्तन--वैशंपायन ऋषि 'निगद, · वैरूप--एक पैतृक नाम, जो निम्नलिखित आचार्यों (कृष्णयजुर्वेद) का प्रवर्तक, एवं वेदव्यास के चार प्रमुख के लिए प्रयुक्त किया गया है:-- १. अष्टादंष्ट्र (पं. वा. वेदप्रवर्तक शिष्यों में से एक था। वेद व्यास के पैल. ४.९.२१); २. नभःप्रभेदन (ऋ. १०.११२); ३. शत वैशंपायन, जैमिनि एवं सुमंतु नामक चार प्रमुख शिष्य प्रभेदन (ऋ. १०.११३); ४. सध्रि (ऋ. १०.११४)। थे, जिन्हें उसने क्रमशः ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद एवं वैरोचन--असुरराज बलि का पैतृक नाम, जो उसे | अथर्ववेद का ज्ञान प्रदान किया था (बृ. उ. २.६.३; विरोचन का पुत्र होने के कारण प्राप्त हुआ था। ब्रह्मांड. १.१.११)। वैशंपायन को संपूर्ण यजुर्वेद का ज्ञान वैरोचनी-त्वष्ट्रपत्नी यशोधरा का पैतृक नाम, जो उसे प्राप्त होने का गौरवपूर्ण उल्लेख महाभारत एवं पुराणों में विरोचन असुर की कन्या होने के कारण प्राप्त हुआ था। भी प्रान्त है (म. आ. १.६१-६३% ५७.७४; शां. वैवशप-कश्यपकुलोत्पन्न गोत्रकार ऋषिगण । ३२७. १६-१८; ३२९:३३७.१०-१२, वायु.६०.१२वैवस--भृगुकुलोत्पन्न एक प्रवर । वैवस्वत--एक पैतृक नाम, जो वेदों में निम्नलिखित १५, ब्रह्मांड.२.३४.१२-१५, विष्णु. ३.४.७-९, लिंग. १.३९.५७-६०; कूर्म. १.५२.११-१३)। व्यक्तियों के लिए प्रयुक्त किया गया है:- १. यम (ऋ. ९.११३.८); २. मनु (ऋ. १०.४७.१७; अ. शिष्यशाखा--वेदव्यास से प्राप्त 'कृष्णयजर्वेद' की वे. ८.१०)। वैशंपायन ने ८६ संहिताएँ बनायी, एवं उसे याज्ञवल्क्य वैवस्वत मन-वैवस्वत नामक सातवे मन्वन्तर का | के सहित, ८६ शिष्यों में बाँट दी । विष्णा के अनसार. अधिपति मनु, जिसे पुराणों में विवस्वत एवं संज्ञा का इसने २७ संहिताएँ बनायी, जो अपने २७ शिष्यों बाँट पुत्र कहा गया है (मनु वैवस्वत देखिये)। दी (विष्णु. ३.५.५-१३)। ९११ Page #934 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैशंपायन प्राचीन चरित्रकोश वैशंपायन __ याज्ञवल्क्य का तिरस्कार--विष्णु में वैशंपायन एवं निर्देश अनेक बार प्राप्त है, एवं महाभारत के प्रारंभ में इसके शिष्य याज्ञवल्क्य के बीच हुए संघर्ष का निर्देश उसका निर्देश निम्न शब्दों में किया गया हैप्राप्त है ( याज्ञवल्क्य देखिये)। अपने अन्य शिष्यों के नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम् । समान, वैशंपायन ने याज्ञवल्क्य को भी कृष्णयजुर्वेद | देवी सरस्वतीं चैव ततो जयमुदीरयेत् । संहिता सिखायी थी। किन्तु संघर्ष के कारण यह याज्ञवल्क्य से अत्यंत क्रुद्ध हुआ, एवं इसने उसे कहा, 'मैं | 'भारत' ग्रन्थ का निर्माण--अपने गुरु व्यास के द्वारा ने तुम्हें जो वेद सिखाये है, उन्हें तुम वापस कर दो'। अपने कथन किये गये 'जय' ग्रन्थ के आधार पर वैशंपायन गुरु की आज्ञानुसार, याज्ञवल्क्य ने वैशंपायन से प्राप्त । ने 'भारत' नामक अपने सुविख्यात ग्रंथ की रचना की, वेदविद्या का वमन किया, जिसे वैशंपायन के अन्य | जिसमें कल चौबीस हज़ार श्लोक थे । इस प्रकार यह ग्रंथ . शिष्यों ने तित्तिर पक्षी बन कर पुनः उठा लिया। इसी व्यास के आद्य ग्रन्थ की अपेक्षा काफ़ी विस्तृत था, किन्तु कारण कृष्णयजुर्वेद को तैत्तिरीय' नाम प्राप्त हुआ | फिर मी महाभारत के प्रचलित संस्करण में उपलब्ध (म. शां. ३०६)। विविध आख्यान एवं उपाख्यान उसमें नहीं थे :__कृष्णयजुर्वेद का प्रसार--याज्ञवल्क्य के अतिरिक्त चतुर्विंशति-साहस्री चक्रे भारतसंहिताम् । इसके बाकी ८५ शिष्यों ने आगे चल करः कृष्ण यजुर्वेद उपाख्यानैर्विना तावत् भारतं प्रोच्यते बुधैः॥ . के प्रसारण का कार्य किया । भौगोलिक विभेदानुसार, इस शिष्यपरंपरा के उत्तर भारतीय, मध्य भारतीय एवं पूर्व (म. आ. ६१) भारतीय ऐसे तीन विभाग हुए, जिनका नेतृत्व क्रमशः भारत ग्रन्थ का कथन--स्वयं के द्वारा विरचित भारत श्यामाय नि, आसुरि एवं आलंबि नामक शिष्य करने लगे ग्रंथ का कथन, इसने सर्वप्रथम जनमेजय राजा के द्वारा. (ब्रह्मांड. २.३१.८-३०; वायु. ६१. ५-३०)। आगे | सर्यों की राजधानी तक्षशिला नगरी में किये गये सर्पसत्र . चल कर कृष्ण यजुर्वेद को 'चरक' नाम प्राप्त हुआ, | के समय किया। जिस कारण वैशंपायन के यह शिष्य 'चरकाध्वर्यु'। यह स्वयं जनमेज्य राजा का राजपुरोहित था, इसी अथवा 'तैत्तिरीय ' नाम से सुविख्यात हुए। कारण जनमेजय के द्वारा प्रार्थना किये जाने पर इसने । वैशंपायन के द्वारा प्रणीत कृष्णयजुर्वेद की ८५ शाखाओं | 'भारत' ग्रंथ का कथन किया। अपने इस ग्रंथ का वर्णन में से तैत्तिरीय, मैत्रायणी, कठ एवं कपिष्ठल शाखाएँ | करते समय इसने कहा, 'यह ग्रंथ हिमवत् पर्वत एवं केवल आज विद्यमान हैं, बाकी विनष्ट हो चुकी हैं। | सागर जैसा विशाल, एवं अनेक रत्नों से युक्त है। इसी महाभारत का कथन-वैशंपायन श्रीव्यास के केवल | कारण-- कृष्णयजुर्वेद-परंपरा का ही नहीं, बल्कि महाभारत-परंपरा धर्मे चार्थे च कामे च, मोक्षे च भरतर्षभ । का ही महत्त्वपूर्ण शिष्य था । इसी कारण महाभारत यदिहास्ति तदन्यत्र, यन्नेहास्ति न तत् क्वचित् । परंपरा में भी वैशंपायन एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण आचार्य (म. आ. ५६.३३. स्व. ५.३८)। माना जाता है। महाभारत से प्रतीत होता है कि, श्रीव्यास ने महा- (इस संसार में धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष पुरुषार्थों के भारत का स्वयं के द्वारा विरचित 'जय' नामक आद्य ग्रंथ | संबंध में जो भी ज्ञान उपलब्ध है, वह इस ग्रंथ में समाविष्ट वैशंपायन को ही सर्वप्रथम सुनाया था। व्यास के द्वारा किया गया है । इसी कारण यह कहना ठीक होगा कि, विरचित यह ग्रंथ केवल आठ हजार आठ सौ श्लोकों का | जो कुछ भी ज्ञानधन संसार में है, वह यहाँ उपस्थित है. छोटा ग्रंथ था, एवं उस के कथा का प्रतिपाद्य विषय | किंतु इस ग्रंथ में जो नहीं है, वह संसार में अन्यत्र प्राप्त पाण्डवों की विजय होने के कारण, उसे 'जय' नाम | होना असंभव है)। प्रदान किया गया था। - वैशंपायन कृत आस्तीक-पर्व--वैशंपायन के द्वारा __व्यास के द्वारा 'जय' ग्रंथ उत्तम इतिहास, अर्थशास्त्र, विरचित 'भारत' ग्रंथ में 'आस्तीक-पर्व' महत्त्वपूर्ण माना एवं मोक्षशास्त्र का ग्रंथ था, एवं पौरुष निर्माण की सभी जाता है, जहाँ अपनी ग्रंथरचना की पार्श्वभूमि वैशंपायन शिक्षाएँ उसमें अंतर्भूत थी। महाभारत में 'जय' ग्रंथ का | के द्वारा निवेदित की गयी है। यहाँ जनमेजय के सर्पसत्र Page #935 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैशंपायन की सारी चर्चा विस्तृत रूप में दी गयी है, एवं इसी सत्र में भारत ग्रंथ सर्वप्रथम कथन किये जाने का निर्देश वहाँ स्पष्ट रूप से प्राप्त है ( म. आ. ५३ ) । प्राचीन चरित्रकोश 'मास' ग्रन्थ का प्रचार - वैशंपायन के 'भारत' ग्रंथ को को सौति ने काफी परिवर्धित किया, एवं एक लक्ष श्लोकों का यह महाभारत ग्रंथ, शौनकादि ऋषियों के द्वारा नैमि पारण्य में आयोजित द्वादशवर्षीय रूप में सर्वप्रथम कथन किया | अनेक आख्यान एवं उपाख्यान सम्मिलित किये जाने के कारण सीति के इस महाभारत ग्रन्थ को विस्तार काफी बढ़ गया था। उसी परिवर्धित रूप में महाभारत ग्रंथ आज उपलब्ध है । व्यास, वैशंपायन एवं सौति के द्वारा विरचित 'जय' 'भारत एवं 'महाभारत' का रचनाकाल प्रमशः ग्रंथों ३१०० ई. पू. २५०० ई. पू. एवं २००० ई. पू. लगभग माना जाता है। भविष्य के अनुसार, व्यास के द्वारा प्राप्त 'जय' ग्रंथ इसने सुमन्तुको कथन किया, जो आगे चल कर सुमन्तु ने कामेजय पुत्र शतानीक राजा को कपन किया (भवि. ब्राह्म. १.३०-३८ ) । वैशालेय ग्रंथ - इसके नाम पर निम्नलिखित ग्रंथ उपलब्ध है:१. वैशंपायन - संहिता; २. वैशंपायन - नीतिसंग्रह; ३. वैशपायन स्मृति ४. वैरायन नीतिप्रकाशिका (CC)। २. भृगुकुलोत्पन्न एक गोकार | ३. युधिविर के राजसूय यश में उपस्थित एक ऋि (भा. १०.७४.८ ) 1 याज्ञवल्क्य ज्ञान से विरोध वैशंपायन के उत्तरकालीन आयुष्य से याशय से इसका 'दुर्वेद संहिता' से संविदा बढ़ता ही गया, यहाँ तक कि स्वयं जननेजय राजा ने भी वैशंपायन के 'कृष्णयजुर्वेद' का त्याग करावय के द्वारा प्रणीत 'द' को स्वीकार किया। स्वयं के द्वारा किये गये अश्वमेध यज्ञ में उसने इसे टाल पर यावदय को अपने यश का ब्रह्मा बनाया। ४. एक ऋषि, जिसका शौनक ऋषि के साथ तत्त्वज्ञान पर संबाद हुआ था (वायु. ९९.२५१ ) । वैशाख्य- एक आचार्य, जो वायु एवं ब्रह्मांड के अनुसार, व्यास की सामशिष्यपरंपरा में से कौथुम पाराशर्य नामक ऋषि का शिष्य था । वैशाल एक आचार्य, जो वायु एवं के अनुसार व्यास की सामशिष्यपरंपरा में से हिरण्यनाभ नामक आचार्य का शिष्य था । पाठभेद (ब्रह्मांड पुराण) - 'वैशालिन् '। वैशालि -- अंगिराकुलोत्पन्न एक गोत्रकार । वैशालिनी अविक्षित राम की पानी, मरुत आविक्षित राजा की माता थी। इसके पिता का नाम विशाल था। इसके स्वयंवर के समय अधिक्षित् राजा ने इससे विवाह करना चाहा । किन्तु अन्य राजाओं ने उसे पराजित कर इसका पुनः स्वयंवर करने की आशा विशाल आज्ञा राजा को दी । किन्तु इसी समय, अविक्षित् राजा के पिता करंचम ने उपस्थित राजाओं को परास्त कर इसका हरण किया, एवं अपने पुत्र अविक्षित् से इसका विवाह कराया । अविक्षित् राजा से इसे मरुत्त आविक्षित नामक पुत्र उत्पन्न हुआ था, थे अपने समय का सर्वश्रेष्ठ सम्रा था। इसके पति अविक्षित के द्वारा सर्पयज्ञ किये जाने पर, इसने अपने पुत्र मरुत्त के द्वारा सपों को अभय दिया धा ( मार्क. ११९ - १२६) । आगे चलकर वैशंपायन एवं यायलय का यह बादविवाह इतना वह गया कि उस कारण जनमेजय को राज्यत्याग करना पड़ा (मत्स्य १०.५७-६४१ बा इसके अतिरिक्त अविक्षित् राजा की निम्नलिखित ९९.३५०-३५५: याशास्य वाजसनेय एवं जनमेजय पत्नियाँ थी, जो सभी उसे स्वयंवर में प्राप्त हुई थी याज्ञवल्क्य ८. देखिये) । आययन एवं हिरण्यकेशिन् लोगों के पितृश्रौतसूत्र तर्पण में वैशंपायन का निर्देश प्राप्त है ( आ. श्री. ३.३ स. गृ. २०.८-२० ) । इसके नाम पर 'नीतिप्रकाशिका नामक अन्य एक ग्रंथ भी उपलब्ध है, जिसका अंग्रेजी अनुषा हो ओपर्ट के द्वारा किया गया है। इस ग्रंथ डॉ. नेत्रों के साथ बंदूक के बारूद का उल्लेख भी प्राप्त है १. हेमधर्मकन्या वराः २. सुदेवकन्या गौरी; ३. बलिकन्या सुभद्रा ४. वीरकन्या लीलावती ५ वीर विभा ६. भीमकन्या मान्यवती, एवं ७. दंमकन्या कुमुद्वती ( मार्के. ११९.१६-१७ ) । 3 वैशालेय - तक्षक नामक आचार्य का पैतृक नाम (अ. वे. ८.१०.१९) । विशाल का वंशज होने से, इसे । यह पैतृक नाम प्राप्त हुआ होगा । । | । प्रा. च. ११५ ] ९१३ Page #936 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैशीपुत्र प्राचीन चरित्रकोश व्याघ्रदत्त वैशीपुत्र-एक व्यक्ति (ते. ब्रा. ३.९.७.३; श. वैसूप--एक दानव, जो कश्यप एवं दनु के पुत्रों में से ब्रा. १३.२)। एक वैश्यपत्नी का पुत्र होने के कारण, इसे | एक था । यह नाम प्राप्त हुआ होगा। वैहीनरी-भृगुकुलोत्पन्न एक गोत्रकार । वैश्येश्वर--एक शिव-अवतार, जो महानंदा के वोद-एक आचार्य, जिसका निर्देश शुकयजुर्वेदीय लोगों उद्धार के लिए अवतीर्ण हुआ था ( महानंदा देखिये)। के ब्रह्मयज्ञांगतर्पण में प्राप्त है (पा. ग. परिशिष्ट; मत्स्य. वैश्रवण--कुबेर का पैतृक नाम, जो उसे विश्रवस् १०८,१०२.१८ ) अन्य पुराणों में भी इसे एक सिद्धिप्राप्त ऋषि का पुत्र होने के कारण प्राप्त हुआ था। प्राचीन | ब्रह्मर्षि कहा गया है (वाय. १०१.३३८; ब्रह्मांड. ४.२. साहित्य में सर्वत्र इसे ' यक्षराज' कहा गया है, केवल | २७३; कूर्म. १.५३.१५)। ब्रह्मांड में इसका स्वरूप राक्षसों जैसा बताया गया है। वोहलि--एक आचार्य, जिसका निर्देश ब्रह्मयज्ञांगतर्पण यह महाहनु, शंकुकर्ण एवं ह्रस्वबाहु था । इसका | में प्राप्त है ( दे.भा. ११.२०)। शरीर बड़ा था, एवं सिर मोटा था। इसके केस भूरे थे वौलि--वसिष्टकुलोत्पन्न एक गोत्रकार । एवं इसके शरीर का वर्ण पिंगा था। इस प्रकार इसका वौशडि--अंगिराकुलोत्पन्न एक गोत्रकार। शरीर जन्म से ही अत्यंत विरूप होने के कारण, इसे व्यंस-एक दानव, जो इंद्र का शत्रु था (ऋ. २.१४.)। कुबेर नामान्तर प्राप्त हुआ था ( ब्रह्मांड. ३.८.४०-४४: | सायणाचार्य इसे व्यक्तिवाचक नाम नहीं मानते । कुबेर देखिये)। ___ व्यश्व--एक ऋषि, जो अश्विनों की कृपापात्र व्यक्तियों महाभारत में मुचकुंद राजा से हुआ इसका संवाद में से एक था (ऋ. १.११२.१५ ) । ऋग्वेद के आठवें प्राप्त है, जो 'मुचकुंद-वैश्रवण संवाद' नाम से प्रसिद्ध मंडल के अनेक सूक्तों में इसका निर्देश प्राप्त है, जिनकी मडल क अ है (म. उ. १३०.८-१०; मुचकुंद देखिये)। रचना संभवतः इसके विश्वमनस् वैयश्व नामक वैश्वानर--इंद्रसभा का एक ऋषि । शिष्य के द्वारा की गयी थी (. ८.२३.१६; २३; २. एक अग्नि, जो भानु (मनु) नामक अग्नि का | २४.२२, २६.९)। ऋग्वेद में अन्यत्र एक प्राचीन ऋषि के प्रथम पुत्र था। इसकी उपासना के लिए पाँच वैश्वदेव- | नाते इसका निर्देश प्राप्त है (ऋ. ८.९.१०, ९.६५.७)। विधि बताये गये है (भा. २.२.२४) । | २. एक जातिविशेष, जिसमें वश अश्व्य नामक आचार्य ३. एक दानव, जो कश्यप एवं दनु के पत्रों में से एक उत्पन्न हुआ था (ऋ.८.२४.२८)। था। इसकी उपदानवी, हयशीरा, पुलोमा एवं कालका नाम | व्यश्व आंगिरस-एक साम एवं सूक्तद्रष्टा ऋषि चार कन्याएँ थी, जिनमें से अंतिम दो कन्याओं का | (ऋ८. २६; पं. वा. १४.१०.९)। विवाह कश्यप प्रजापति से हुआ था ( भा. ६.६.६)। । व्यष्टि-एक आचार्य, जो सनारु नामक आचार्य का वैश्वानरि--भृगुकुलोत्पन्न एक गोत्रकार। | शिष्य था। इसके शिष्य का नाम विप्रचित्ति था (बृ. उ. वैश्वामि-एक पैतृक नाम, जो विश्वामित्र के पुत्र | ४.५.२२, ४.५.२८ माध्य.), एवं वंशजों के लिए प्रयुक्त किया जाता है। ऋग्वेद में | व्याघ्र-एक राक्षस, जो यातुधान नामक राक्षस का पुत्र निम्नलिखित सूनद्राओं के लिए 'वैश्वामित्र' पैतृक नाम | था। इसके पुत्र का नाम निरानंद था (ब्रह्मांड. ३.७.७९)। प्रयुक्त किया गया है:-१. अष्टक (ऋ. १०.१०४ ); २. एक यक्ष, जो भाद्रपद माह के सूर्य के साथ भ्रमण २. कत (ऋ. ३.१७ ); ३. पूरण (ऋ. १०.१६०); करता है। प्रजापति (ऋ. ३.३८.४); ५. मधुच्छंदस् (ऋ. १.१ ___ व्या रकेतु-पाण्डव पक्ष का एक पांचाल योद्धा, १०); ६. रेणु (ऋ. ९.७०)। जो भारतीय युद्ध में कर्ण के द्वारा मारा गया (म. क. ऐतरेय ब्राह्मण में, देवरात के लिए भी इस पैतृक नाम | ४०.४६-४८)। का प्रयोग किय गया है (ऐ. ब्रा. ७.१७ )। व्यावदत्त-मगध देश का एक राजकुमार, जो वैष्टपुरय--एक आचार्य, जो रोहिणायन एवं | भारतीय युद्ध में कौरवों के पक्ष में शामिल था। सात्यकि शांडिल्य नामक आचार्यों का शिष्य था (बृ. उ. २.५. ने इसका वध किया (म. द्रो. ८२.३२)। २०; ४. .२५ माध्यं.)। विष्ठपुर का वंशज होने से, २. पाण्डवों के पक्ष का एक पांचाल योद्धा, जो भारइसे यह नाम प्राप्त हुआ होगा। | तीय युद्ध में द्रोण के द्वारा मारा गया । इसक अश्व Page #937 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यात्रदत्त प्राचीन चरित्रकोश व्याडि कृष्ण-रक्त ऐसे संमिश्र रंग के थे (म. द्रो. २२.१६६४, पाणिनि अपने मातृवंश की ओर से रिश्तेदार थे, ऐसा पंक्ति. १-२)। माना जाता है। ६. एक पाण्डवपक्षीय राजा, जो अश्वत्थामन् के द्वारा । व्याडि की बहन का नाम व्याड्या था (पा. सू. ४. मारा गया (म. क. ४.३७*)। १.८०), एवं पाणिनि की माता का नाम दाक्षी था । कई व्याघ्रपद-वसिष्ठ ऋषि का एक पुत्र । यह व्याधयोनि अभ्यासकों के अनुसार, व्याड्या एवं दाक्षी दोनों एक में उत्पन्न होने के कारण इसे 'व्याघ्रपद' नाम प्राप्त हुआ ही थे, एवं इस प्रकार व्याडि आचार्य पाणिनि के मामा या (म. अनु. ५३.३०)। इसके उपमन्यु एवं धौम्य थे। किंतु बेबर के अनुसार, इन दो व्याकरणकारों में दो नामक दो पुत्र थे, जिसमें से उपमन्य को 'वैयाघ्रपद पाहाया का अतर था, एवं 'नमातिशाख्य' में निर्दिष्ट पैतृक नाम प्राप्त हुआ था (म. अनु. १४.४५)। व्याडि पाणिनि से उत्तरकालीन था। २. वसिष्ठकुलोत्पन्न एक गोत्रकार ऋषिगण । संभवतः इसके पिता का नाम व्यड था, जिस कारण व्याघ्रपाद वासिष्ट---- एक वैदिक सूक्तद्रष्टा (ऋ. ९. इसे 'व्याडि' पैतृक नाम हुआ होगा। इसके ' दाक्षायण' ९७.१६-१८)। नाम से इसके वंश के मूळ पुरुष का नाम दक्ष विदित २. एक स्मृतिकार जिसके नाम पर एक स्मृतिग्रंथ होता है। किंतु अन्य कई अभ्यासक, 'दाक्षायण' इसका उपलब्ध है (C.C.)। पैतृक नहीं, बल्कि 'दैशिक' नाम मानते है, एवं इसे व्याघ्रहर--एक राक्षस, जो उर्ध्वष्टी नामक राक्षस का दाक्षायण देश का रहनेवाला बताते है । मत्स्य में दाक्षि पुत्र था। इसके पुत्र का नाम शरभ था (ब्रह्मांड. ३.७. को अंगिराकुलोत्पन्न ब्राह्मण कहा गया है (मत्स्य २०७)। १९५.२५)। व्याघ्राक्ष--रकंट का एक सैनिक (म..श. ४४.५४)। ऋकातिशाख्य में--शौनक के 'ऋक्प्रातिशाख्य' में व्याज-एक देव, जो भृगु ऋषि का पुत्र था( ब्रह्मांड. वैदिक व्याकरण के एक श्रेष्ठ आचार्य के नाते व्याडि का निर्देश अनेक बार मिलता है, जिससे प्रतीत होता है कि, २. नुपित देवों में से एक। यह शौनक के शिष्यों में से एक था। अपने 'विकृतवल्ली' व्याची-वसिष्ठ ऋषि की पत्नी । इसके कुल १९ ग्रंथ के आरंभ में इसने आचार्य शौनक को नमन गोत्रकार पुत्र थे, जिनमें निम्नलिखित प्रमुख थे :-१. किया है। व्याघ्रपाद २. मन्ध; ३. बादलोम; ४. जाबालि; ५. मन्यु; पाणिनीय व्याकरण का व्याख्याता--व्याडि वैदिक ६. उपम यः ७. सेतुकर्ण आदि (म. अनु, ५३.३०-३२ व्याकरण का ही नहीं, बल्कि पाणिनीय व्याकरण का भी श्रेष्ठ भाष्यकार थाव्याडि दाक्षायण--एक सुविख्यात व्याकरण कार रसाचार्यः कविाडिः शब्दब्रह्मैकवाङ्मुनिः। जो संग्रह' नामक वैदिक व्याकरणविषयक ग्रन्थ का दाक्षीपुत्रवचोव्याख्यापटुर्मीमांसाग्रणिः । कर्ता माना जाता है । इसका यही ग्रन्थ लुप्त होने पर, (समुद्रगुप्तकृत 'कृष्णचरित' १६)। पतंजलि ने व्याकरण महाभाष्य नामक ग्रंथ की रचना की थी । अमरकोश के अनेकानेक भाष्यग्रन्थों में, व्या डि एवं । | संग्रहकार व्याडि पाणिनि के अष्टाध्यायी का ('दाक्षीवररुचि को व्याकरणशास्त्र के अंतर्गत लिंगभेदादि के | पुत्रवचन') का श्रेष्ठ व्याख्याता, रसाचार्य, एवं मीमांसक शास्त्र का सर्वश्रेष्ठ आचार्य कहा गया है। था।] व्याकरण महाभाष्य में एवं का शिका में इसका निर्देश इसके 'मीमांसाग्रणि' उपाधि से प्रतीत होता है क्रमशः 'दाक्षायण' एवं 'दाक्षि' नाम से प्राप्त है | कि, इसने मीमांसाशास्त्र पर भी कोई ग्रंथ लिखा होगा। (महा. २.३.६६ काशिका. ६.२.६९) । काशिका के | पतंजलि के व्याकरण-महाभाष्य में इसे 'द्रव्यपदार्थवादी' अनुसार, दाक्षि एवं दाक्षायण समानार्थि शब्द माने जाते | कहा गया है (महा. १.२.६४) । अष्टाध्यायी में भी थे (काशिका. ४.१.१७, तत्रभवान दाक्षायणः दाक्षिा )। 'व्या डिशाला' शब्द का निर्देश प्राप्त है, जिसका संकेत वंश-आचार्य पाणि नि दाक्षीपुत्र नाम से सुविख्यात | संभवतः इसी के ही विस्तृत शिष्यशाखा की ओर किया था। इसी कारण 'दाक्षायण' व्याडि एवं दाक्षीपुत्र' | गया होगा (पा. सू. ६.२.८६ )। ९१५ पापा। Page #938 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याडि प्राचीन चरित्रकोश व्यास संग्रह-व्याडि के द्वारा रचित ग्रन्थों में 'संग्रह' व्यास पाराशर्य-एक सुविख्यात आचार्य, जो वैदिक श्रेष्ठ ग्रन्थ माना जाता है, किन्तु वह वर्तमानकाल में संहिताओं का पृथक्करणकर्ता, वैदिक शाखाप्रवर्तकों का आद्य अप्राप्य है। इस ग्रंथ के जो उद्धरण उत्तरकालीन ग्रंथों आचार्य, ब्रह्मसूत्रों का प्रणयिता, महाभारत पुराणादि ग्रंथों में लिये गये है, उन्हींसे ही उसकी जानकारी आज प्राप्त का रचयिता, एवं वैदिक संस्कृति का पुनरुज्जीवक तत्त्वज्ञ हो सकती है। पतंजलि के व्याकरण-महाभाष्य के अनु- माना जाता है। यह सर्वज्ञ, सत्यवादी, सांख्य, योग, धर्म सार, यह व्याकरण का एक श्रेष्ठ दार्शनिक ग्रंथ था, जिसकी आदि शास्त्रों का ज्ञाता एवं दिव्यदृष्टि था (म. स्व. ५. रचनापद्धति पाणिनीय अष्टाध्यायी के समान सूत्रात्मक ३१-३३)। वैदिक, पौराणिक एवं तत्त्वज्ञान संबंधी विभिन्न थी (महा. ४.२.६०)। इस ग्रंथ में चौदह सहस्र शब्द- क्षेत्रों में व्यास के द्वारा किये गये अपूर्व कर्तृव के कारण, रूपों की जानकारी दी गयी थी (महा. १.१.१)। चांद्र यह सर्व दृष्टि से श्रेष्ठ ऋषि प्रतीत होता है। व्याकरण में प्राप्त परंपरा के अनुसार, इस ग्रंथ के कुल प्राचीन ऋषिविषयक व्याख्या में, असामान्य प्रतिभा, पाँच अध्याय थे, एवं उनमें १ लक्ष श्लोक थे (चांद्र- क्रांतिदर्शी द्रष्टापन, जीवनविषयक विरागी दृष्टिकोण, व्याकरणवृत्ति. ४.१६१)। अगाध विद्वत्ता, एवं अप्रतीम संगठन-कौशल्य इन सारे कालनिर्णय-आधुनिक अभ्यासकों के अनुसार, गुणों वा सम्मिलन आवश्यक माना जाता था। इन सारे यास्क, शौनक, पाणिनि, पिंगल, व्याडि, एवं कौत्स ये गुणों की व्यास जैसी मूर्तिमंत साकार प्रतिमा प्राचीन व्याकरणाचार्य प्रायः समकालीन ही थे। इनमें से भारतीय इतिहास में क्वचित् ही पायी जाती है। इसी शौनक के द्वारा विरचित 'ऋप्रातिशाख्य' का रचनाकाल | कारण, पौराणिक साहित्य में इसे केवल ऋषि ही नहीं, २८०० ई. पू. माना जाता है । व्याडि का काल संभवतः किन्तु साक्षात् देवतास्वरूप माना गया है। इस साहित्य में. यही होगा (युधिष्ठिर मीमांसक, पृ. १३९)। इसे विष्णु का (वायु. १.४२-४३; कूर्म. १.३०.६६; __ ग्रंथ--इसके नाम पर निम्नलिखित ग्रंथ प्राप्त हैं:-- | गरुड. १.८७.५९); शिव का (कूर्म. २.१५.१३६ ); १. संग्रह. २. विकृतवल्ली. ३. व्याडिव्याकरण. ४. बल- ब्रह्मा का (वायु. ७७.७४-७५, ब्रह्मांड. ३.५३.७६); रामचरित ५. व्याडि परिभाषा. ६. व्याडिशिक्षा (C.C.) एवं ब्रह्मा के पुत्र का (लिंग, २.४९.१७) अवतार कहा गरुडपुराण के अनुसार, इसने रत्नविद्या के संबंध में गया है। भी एक ग्रंथ की रचना की थी (गरुड. १.६९.३७)। सनातन हिंदुधर्म का रचयिता-श्रुतिस्मृतिपुराणोक्त व्याधाज्य-भृगुकुलोत्पन्न एक गोत्रकार। | सनातन हिंदु धर्म का व्यास एक प्रधान व्याख्याता कहा जाता व्यास धर्मशास्त्रकार'-एक धर्मशास्त्रकार, जिसके | है। व्यास महाभारत का केवल रचयिता ही नहीं, बल्कि द्वारा रचित एक स्मृति आनंदाश्रम, पूना, व्यंकटेश्वर प्रेस, | भारतीय सांस्कृतिक पुनरुज्जीवन का एक ऐसा आचार्य था बंबई एवं जीवानंद स्मृतिसंग्रह में प्रकाशित की गयी है । | कि, जिसने वैदिक हिंदुधर्म में निर्दिष्ट समस्त धर्मतत्त्वों को इस ‘स्मृति के चार अध्याय, एवं २५० श्लोक हैं। । बदलते हुए देश काल-परिस्थिति के अनुसार, एक बिल्कुल ___ व्यासस्मृति-'व्यासस्मृति में वर्णाश्रमधर्म, नित्यकर्म, नया स्वरूप दिया । भगवद्गीता जैसा अनुपम रत्न भी इसकी स्नानभोजन, दानधर्म आदि व्यवहारविषयक धर्मशास्त्रीय | कृपा से ही संसार को प्राप्त हो सका, जहाँ इसने श्रीकृष्ण विषयों की चर्चा की गयी है। 'अपरार्क,'स्मृतिचंद्रिका' के अमर संदेश को संसार के लिए सुलभ बनाया। आदि ग्रंथों में इसके व्यवहारविषयक उद्धरण प्राप्त है। इसी कारण युधिष्ठिर के द्वारा महाभारत में इसे 'भगवान' ___ अन्य ग्रंथ--' व्यासस्मृति' के अतिरिक्त इसके निम्न- | उपाधि प्रदान की गयी हैलिखित ग्रंथों का निर्देश भी निम्नलिखित स्मृतिग्रंथों में प्राप्त भगवानेव नो मान्यो भगवानेव नो गुरुः। हैं:-१. गद्यव्यास-स्मृतिचंद्रिका; २. वृद्धव्यास-अपरार्क; ३. बृहव्यास-मिताक्षरा; ४. लघुव्यास, महाव्यास, दान भगवानस्य राज्यस्य कुलस्य च परायणम् ।। (म. आश्र. ८.७)। व्यास-दानसागर। पुराण में यह एवं कृष्ण द्वैपायन व्यास एक ही (भगवान् व्यास हमारे लिये अत्यंत पूज्य, एवं हमारे व्यक्ति होने का निर्देश प्राप्त है (भवि, ब्राहा. १)। गुरु है। हमारे राज्य एवं कुल के वे सर्वश्रेष्ठ आचार्य किंतु इस संबंध में निश्चित रूप से कहना कठिन है। हैं)। Page #939 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन चरित्रकोश व्यास वैदिक साहित्य में वैदिक संहिता साहित्य में व्यास का निर्देश अप्राप्य है । ' सामविधान ब्राह्मण' में इसे ' पाराशर्य' पैतृक नाम प्रदान किया गया है, एवं इसे विष्वक्सेन नामक आचार्य का शिष्य कहा गया है (सा. ब्रा. १.४६२७७)। तैत्तिरीय आरण्यक में भी महाभारत के रचयिता के नाते व्यास एवं वैशंपायन ऋषियों का निर्देश प्राप्त है (ते. आ. १.९.२) । वेवर के अनुसार, शुक्ल यजुर्वेद की आचार्य परंपरा में पराशर एवं उसके वंशजों का काफी प्रभुत्व शुरू से ही प्रतीत होता है । साहित्य में बुद्ध के पूर्व जन्मों में से एक जन्म का नाम 'वह दीपायन (कृष्ण द्वैपायन) दिया गया है (वेर. पू. १८४ ) । इससे प्रतीत होता है कि, बौद्ध साहित्य की रचनाकाल में व्यास का कृष्ण द्वैपायन नाम काफी प्रसिद्ध हो चुका था । - " पाणिनीय व्याकरण में पाणिनि के अष्टाध्यायी में व्यास का निर्देश अप्राप्य है, एवं महाभारत शब्द वा निर्देश भी वहाँ एक ग्रंथ के नाते नहीं, बल्कि भरतवंश में उत्पन्न युधिष्ठिर आदि श्रेष्ठ व्यक्तियों को उद्दिश्य कर प्रयुक्त किया गया है (पा. सू. ६:२.३८ ) । इससे प्रतीत होता है कि, महाभारत का निर्माण पाणिमो उत्तर काल में, एवं पतंजलि के पूर्वकाल में उत्पन हुआ होगा। महाभारत एवं पुराणों में इन ग्रंथों में इसे महर्षि परादार का पुत्र कहा गया है, एवं इसकी माता का नाम सत्यवती (काली) बताया गया है, जो कैवर्तराज ( धीवर) की कन्या थी। इसका जन्म यमुनाद्वीप में हुआ था, जिस कारण इसे 'द्वैपायन' नाम प्राप्त हुआ था (म. आ. ५४.२)। इसकी माता का नाम 'काली' होने के कारण इसे 'कृष्ण' अर्थात कृष्ण द्वैपायन नाम प्राप्त हुआ था। भागवत के अनुसार, यह स्वयं कृष्णवर्णीय था, जिस कारण इसे 'कृष्णद्वैपायन नाम प्राप्त हुआ था। पतंजलि के व्याकरण - महाभाष्य में महाभारत कथा 'का निर्देश अनेकवार प्राप्त है, इतना ही नहीं, शुक्र वैयासकि नामक एक आचार्य का निर्देश भी वहाँ प्राप्त है, जिसे व्यास का पुत्र होने के कारण 'देवासहि' पैतृक नाम प्राप्त हुआ था (महा. २.२५३) । ( म. आश्र. ३६.२०-२१ ) | कौरवपाण्डवों का पितामह - यह कौरवपाण्डवों का पितामह था, इसी कारण यह सदैव उनके हित के लिए तत्पर रहता था। इसके द्वारा विरचित महाभारत ग्रंथ में यह केवल निवेशक के नाते नहीं, बल्कि पांडवों के हितचिंतक के नाते कार्य करता हुआ प्रतीत होता है । | व्यास भी मनाया जाता है। आषाढ पौर्णिमा को इसीके ही । नाम से 'व्यास पौर्णिमा' कहा जाता है। विभिन्न नामान्तर- इसने समस्त वेदों की पुनर्रचना की थी, जिस कारण इसे व्यास नाम प्राप्त हुआ था:-- विस्वास वेदान् यस्मात् तस्माद् व्यास इति स्मृतः । (म. आ. ५७००३) । महाभारत में इसके पराशरात्मज, पाराशर्य, सत्यवती सुत नामान्तर बताये गये है। वायु में इसे 'पुराणप्रवक्ता' कहा गया है, जो नाम इसे आख्यान, उपाख्यान, गाथा कुल कर्म आदि से संयुक्त पुराणों की रचना करने के कारण प्राप्त हुआ था (वायु ६०.११-२१ विष्णुधर्म. १.७४) । तपस्या -- अत्यंत कठोर तपस्या कर के इसने अनेकानेक सिद्धियाँ प्राप्त की थी। यह दूरयण दूर-दर्शन आदि अनेक विद्याओं में प्रवीण था (म. आश्र. ३७.१६ ) । अपनी तपस्या के बारे में यह कहता है पश्यन्तु तपसो वीर्यमद्य मे चिरनृतम् । तदुच्यतां महाबाहो के कामं प्रदिशामि ते ॥ प्रवणोऽस्मि वरं पश्य मे तो बह -- जन्मतिथि वैशाख पूर्णिमा यह दिन व्यास की तिथि मानी जाती है। उसी दिन इसका जन्मोत्सव । जनमेजय के यज्ञमण्डप में महाभारत के अनुसार, यह जनमेजय के सर्पसत्र में उपस्थित था। इसे आता हुआ देख कर जनमेजय ने इसका यथोचित स्वागत किया, एवं सुवर्ण सिंहासन पर बैठ कर इसका पूजन किया था। पश्चात कननेजय ने 'महाभारत' का वृत्तांत पृछा, राव इसने अपने पास बैठे हुए शयन नामक शिष्य को स्वरचित 'महाभारत' कथा सुनाने की आशा दी ( म. आ. ५४ ) । उस समय व्यास को नमस्कार कर वैशंपायन ने 'कारणवेद' नाम से सुविख्यात महाभारत की कथा कह सुनाई। पाण्डवों का हितचिंतक - - इसने पाण्डवों को द्रौपदीस्वयंवर की बार्ता सुनाई थी। इसने युधिष्ठिर के राजसूय यश के समय अर्जुन, भीम, सहदेव एवं नकुल को क्रमशः उत्तर पूर्व, दक्षिण तथा पश्चिम दिशाओं की ओर जाने के लिए उपदेश दिया था। ९१७ Page #940 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यास • प्राचीन चरित्रकोश व्यास युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ के समय, यह ब्रह्मा बना शुकदेव को उपदेश--इसने अपने पुत्र शुकदेव को था। उसी यज्ञ में, आनेवाले क्षत्रियसंहार का भविष्य इसने निम्नलिखित विषयों पर आधारित तत्त्वज्ञानपर उपदेश युधिष्ठिर को सुनाया था। कथन किया था :--सृष्टिक्रम एवं युगधर्म; ब्राह्मप्रलय एवं प्रतिस्मृतिविद्या का उपदेश-पांडवों के वनवासकाल | महाप्रलय, मोक्षधर्म एवं क्रियाफल आदि। में भी, समय समय उनका धीरज बँधाने का कार्य | उपदेशक व्यास-नारद के मुख से इसे सात्वतधर्म यह करता रहा। वनवास के प्रारंभकाल में युधिष्ठिर जब | का ज्ञान हुआ था, जो इसने आगे चल कर युधिष्ठिर को अत्यंत निराश हुआ था, तब इसने उसे 'प्रतिस्मृतिविद्या' कथन किया था। इसके अतिरिक्त इसने भीष्म (म. प्रदान की थी। इसी विद्या के कारण, अर्जुन रुद्र एवं इंद्र अनु. २४.५-१२); मैत्रेय (म. अनु. १२०-१२२); से अनेकानेक प्रकार के अस्त्र प्राप्त कर सका (म, व. शुक आदि को भी उपदेश प्रदान किया था। ३७.२७-३०)। | अश्वमेध यज्ञ में--इसने युधिष्ठिर को मनःशांति के लिए अश्वमेध यज्ञ करने का आदेश दिया था। इस यज्ञ पश्चात् यह कुरुक्षेत्र में गया, एवं वहाँ स्थित सभी तीर्थी का इसने एकत्रीकरण किया। वहाँ स्थित 'व्यासवन' में अर्जुन, भीम, नकुल एवं सहदेव को क्रमशः अश्वरक्षा, एवं व्यासस्थली' में इसने तपस्या की। राज्यरक्षा, कुटुंबव्यवस्था का कार्य इसी के द्वारा ही सौंपा ___ भारतीय युद्ध में---भारतीय युद्ध के समय, इसने गया था। धृतराष्ट्र को दृष्टि प्रदान कर, उसे युद्ध देखने के लिए ___ यज्ञ के पश्चात् , युधिष्ठिर ने अपना सारा राज्य इसे समर्थ बनाना चाहा । किंतु धृतराष्ट्र के द्वारा युद्ध का रौद्र दान में दिया। इसने उसे स्वीकार कर के उसे पुनः स्वरूप देखने के लिए इन्कार किये जाने पर, इसने संजय एक बार युधिष्ठिर को लौटा दिया, एवं आज्ञा दी कि, वह को दिव्यदृष्ट प्रदान की, एवं युद्धवार्ता धृतराष्ट्र तक समस्त धनलक्ष्मी ब्राह्मणों को दान में दे। स. पहुँचाने की व्यवस्था की थी (म. भी. २.९)। __ परिवार-घृताची अप्सरा (अरणी) से इसे शुक नामक पुत्र उत्पन्न हुआ था (म. आ. ५७.७४ )। कंद भारतीय युद्ध में, सात्यकि ने संजय को पकड़ने का में शुक को जाबालि ऋषि की कन्या वटिका से उत्पन्न पुत्र . वालि तिकी (म. श. २४.५१), एवं मार डालने का (म. श. २८. कहा गया है। | कहा गया है (कंद. ६८.१४७-१४८)। ३५-३८) प्रयत्न किया। किंतु इन दोनों प्रसंग में शुक्र के अतिरिक्त, इसे विचित्रवीर्य राजाओं की व्यास ने संजय की रक्षा की । युद्ध के पश्चात् , व्यासकृपा अंबिका एवं अंबालिका नामक पत्नियों से क्रमशः धृतराष्ट्र से संजय को प्राप्त हुई दिव्यदृष्टि नष्ट हो गयी (म. सौ. एवं पाण्डु नामक नियोगज पुत्र उत्पन्न हुए थे विदुर भी ९.५८)। इसीका ही पुत्र था, जो अंबालिका के शूद्र जातीय दासी ___पुत्रवध के दुख से गांधारी पांडवों को शाप देने के | से इसे उत्पन्न हुआ था। . लिए उद्यत हुई, किंतु अंतर्ज्ञान से यह जान कर, व्यास ने उसे परावृत्त किया (म. स्त्री. १३.३-५)। धृतराष्ट्र व्यास-वंश-इसके पुत्र शुक ने इसका वंश आगे चलाया । शक का विवाह पीवरी से हुआ था, जिससे एवं गांधारी को दिव्यचक्षु प्रदान कर, इसने उन्हें गंगा उसे भूरिश्रवस् , प्रभु, शंभु, कृष्ण एवं गौर नामक पाँच नदी के प्रवाह में उनके मृत पुत्रों का दर्शन कराया था पुत्र, एवं कीर्तिमती नामक एक कन्या उत्पन्न हुई थी, (म. आश्र. ४०)। जिसका विवाह अणुह राजा से हुआ था। कीर्तिमती के भारतीय युद्ध के पश्चात्--युद्ध के पश्चात् इसने युधिष्ठिर | पुत्र का नाम ब्रह्मदत्त था (वायु. ४०.८४-८६.)। को शंख, लिखित, सुझुम्न, हयग्रीव, सेना जित् आदि | चिरंजीवित्व-कुरुवंशीय राजाओं में से शंतनु, राजाओं के चरित्र सुना कर राजधर्म एवं राजदंड का उप-विचित्रवीय, धृतराष्ट्र, कौरवपांडव, अभिमन्यु, परिक्षित, देश किया। इसने युधिष्ठिर को सेना जित् राजा का उदा- जनमेजय, शतानीक आठ पीढीयों के राजाओं से व्यास हरण दे कर निराशावादी न बनने का, एवं जनक की | का जीवनचरित्र संबंधित प्रतीत होता है। ये सारे कथा सुना कर प्रारब्ध की प्रबलता का उपदेश निवेदित निर्देश इसके दीर्घायुष्य की ओर संकेत करते है। किया । पश्चात् इसने उसे मनःशांति के लिए प्रायश्चित्त- प्राचीन साहित्य में इसे केवल दीवायुषी ही नहीं, बल्कि विधि भी कथन किया। चिरंजीव कहा गया है। Page #941 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यास प्राचीन चरित्रकोश व्यास । ११)। व्यास स्थल-व्यास के जीवन से संबंधित निम्नलिखित ५. अय्यारुण ( आरुणि ); ५१. धनंजय ( देव, कृतंजय, स्थलों का निर्देश महाभारत एवं पुराणों में प्राप्त है :- संजय, ऋतं जय); १७. कृतंजय (मेधातिथि ); (१) व्यासपन--यह कुरुक्षेत्र में है (म. व. ८१. १८. ऋणज्य (बतिन् ); १९. भरद्वाज; २०. गौतम; ७८; नारद. ३.६५.५ ८२, वामन. ३५.५, ३६.५६)। २७. उत्तम (हामन्); २२. वेन (राजःस्रवस् , (२) व्यापस्थली---यह कुरुक्षेत्र में है। यहाँ पुत्रशोक वाजश्रवस ,वाजश्रवस, वाचःश्रवस् ); २३. शुप्मायण सोम के कारण, व्याप्त देहत्याग के लिए प्रवृत्त हुआ था (तृणबिंदु, सौम आमुष्यायण); २४. वाल्मीकि (ऋक्ष(म. व. ८१.८१: नारट. उ. ६५.८५; वामन. ३६.६०)। भार्गव ); २५. शक्ति (शक्ति वासिष्ठ, भार्गव, यक्ष, (३) व्यासाश्रम--यह हिमालय पर्वत में बदरिकाश्रम कृष्ण); २६. पराशर (शाक्तेय): २७. जातूकण; के पास अलकनंदा-सरस्वती नदियों के संगम पर शन्या- २८. कृष्ण द्वैपायन (प्रस्तुत) (विष्णु. ३.३.११-२०; प्रासतीर्थ के समीप बसा हुआ था। दे. भा. १.३, लिंग, १.२४. शिव. शत. ५: शिव. वायु. इसी आश्रम में व्यास के द्वारा सुमंत, वैशंपायन. सं. ८; वायु. २३: कंद. १.२.४० : कूर्म, पूर्व. ५१.१जैमिनि एवं पैल आदि आचायों को वेदों की शिक्षा दी गयी थी । व्यास का वेदप्रसार का कार्य इसी आश्रम में व्यावसहायक शिवावतार-पुराणों में निर्दिष्ट उपयुक्त प्रारंभ हुआ था, एवं चारों वणा में वेदप्रसार करने के अट्ठाईस व्यासों के अतिरिक्त कई पुराणों में व्यास, नियम आदि हमी आश्रम में व्यास के द्वारा निश्चित । सहायक शिवावतार भी दिये गये हैं, जो कलियुग के किये गये थे (म. शां. ३१४)। प्रारंभ में उपन्न हो कर द्वापर युग के व्यासों का काय (४) व्या काशी-यह वाराणसी में रामनगर के आगे चलाते है। व्याससहायक शिवावतार के, एवं समीप बसी हुई थी। उसके चार शिष्यों के नाम विभिन्न पुराणों में दिये गये है अट्राईम व्यास -- यद्यपि महाभारत की रचना करनेवाले (शिव. शत. ४-५: शिव. वायु. ८.९; वायु. २३; व्यास महर्षि एक ही थे, फिर भी पुराणों में अहाईस लिग. ७)। व्यासों की एक नामावलि दी गयी है, जिसके अनुसार कर्तृत्त्व--व्यास के कतत्त्व के तीन प्रमुख पहलू माने वैवस्वत मन्वन्तर के हर एक द्वापर में उत्पन्न हुआ व्यास जाते हैं:--१. वेदरक्षणार्थ वेदविभाजनः २. पौराणिक अलग व्यक्ति बताया गया है। वर्तमान वैवस्वत मन्वन्तर साहित्य का निर्माणः ३. महाभारत का निर्माण। के अढाईस द्वापर आज तक पूरे हो चुके है, इसी कारण व्यास के इन तीनों कार्यों की संक्षिप्त जानकारी नीचे पुराणों में व्यासों की संख्या अट्ठाईस बतायी गयी है, जहाँ दी गयी है। कृष्ण द्वैपायन व्यास को अठ्ठाइसवाँ व्यास कहा गया है। वेदसंरक्षणार्थ वेदविभाग-द्वापर युग के अन्त में वेदों .. पुराणों में दी गयी अहाईस व्यासों की नामावलि कल्पना- का संरक्षण करने वाले द्विज लोग दुर्बल होने लगे, एवं रम्य, अनैतिहासिक एवं आद्य व्यास महर्षि की महत्ता समस्त वैदिक वाङ्मय नष्ट होने की संभावना उत्पन्न हो बढाने के लिए तैयार की गयी प्रतीत होती है। विभिन्न गयी । वेदों का नाश होने से समस्त भारतीय संस्कृति पराणों में प्राप्त अट्ठाईस व्यासों के नाम एक दूसरे से मेल का नाश होगा, यह जान कर व्यास ने समस्त वैदिक नहीं खाते हैं । इन व्यासों का निर्देश एवं जानकारी प्राचीन वाङमय की पुनर्रचना की। इस वाङ्मय का ऋग्वेद, यजुर्वेद, साहित्य में अन्यत्र कहीं भी प्राप्त नहीं है। सामवेद एवं अथर्ववेद इन चार स्वतंत्र संहिताओं में विष्णु पुरण में प्राप्त अट्ठाईस व्यासों को नामावलि विभाजन कर, इन चार वेदों की विभिन्न शाखाएँ निर्माण नीचे दी गयी है, एवं अन्य पुराणों में प्राप्त पाठभेद की। आगे चल कर, इन वैदिक संहिताओं के संरक्षण कोष्टक में दिये गये है:- १. स्वयंभु (प्रभु, ऋभु, ऋतु); एवं प्रचार के लिए इसने विभिन्न शिष्यपरंपराओं का २. प्रजापति (मत्य ): ३. उशनम् ( भार्गव ); ४, बृहस्पति निर्माण किया (वायु. ६०.१-१६) । व्यास के द्वारा (अंगिरस् ); ५. सवितः ६. मृत्यु, ७. इंदः ८. वसिष्ट किये गये वैदिक संहिताओं की पुनर्रचना का यह ९. सारस्वत; १०. त्रिधामन् १६. विवषन (निवृत्त): क्रान्तिदर्शी कार्य इतना सफल साबित हुआ कि, आज १२. भरद्वाज (शततेजस् ): १३. अन्तरिक्ष (धर्म- हज़ारों वर्षों के बाद भी वैदिक संहिता ग्रंथ अपने मूल नारायण ): ११ वप्रिन् (धर्म, रक्ष, स्वरक्षस , सुरक्षण): | स्वरूप में ही आज उपलब्ध हैं। ९१९ Page #942 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यास प्राचीन चरित्रकोश वेदों का विभाजन - पुराणों के अनुसार, व्यास के द्वारा चतुष्पाद वैदिक संहिता ग्रंथ का विभाजन कर, इनकी चार स्वतंत्र संहिताएँ बतायी गयीः ततः स ऋच उद्धृत्य ऋग्वेदसमकल्पयत् । (वायु. ६०.१९; ब्रह्मांड. ३.३४.१९ ) । ( व्यास ने ऋग्वेद की ऋचाएँ अलग कर, उन्हें 'ऋग्वेद संहिता' के रूप में एकत्र कर दिया ) । व्यास के पूर्वकाल में ऋक्, यजु, साम, एवं अथर्व मंत्र यद्यपि अस्तित्व में थे, फिर भी वें सारे एक हो वैदिक संहिता में मिलेजुले रूप में अस्तित्व में थे। इसी एकात्मक वैदिक संहिता को चार स्वतंत्र संहिताओं में विभाजित करने का अत्यंत महत्त्वपूर्ण कार्य व्यास ने किया । इस प्रकार विद्यमानकालीन वैदिक संहिताओं का चतुर्विध विभाजन, एवं उनका रचनात्मक आविष्कार ये दोनों वैदिक साहित्य को व्यास की देन है, जो इस साहित्य के इतिहास में एक सर्वश्रेष्ठ कार्य माना जा सकता है । व्यास के द्वारा रचित वैदिक संहिताओं को तत्कालीन 1 भारतीय ज्ञाताओं ने विना हिचकिचाहट स्वीकार किया, यह एक ही घटना व्यास के कार्य का निर्दोषत्व एवं तत्कालीन समाज में इसका महत्त्वपूर्ण स्थान प्रस्थापित कर देती है ( पार्गि. ३१८ ) । व्यास की वैदिक शिष्यपरंपरा - - व्यास की वैदिक शिष्यपरंपरा की विस्तृत जानकारी पुराणों में दी गयी है । इनमें से सर्वाधिक प्रामाणिक एवं विस्तृत जानकारी वायु एवं ब्रह्मांड में प्राप्त है, जिसकी तुलना में विष्णु एवं भागवत में दी गयी जानकारी त्रुटिपूर्ण एवं संक्षेपित प्रतीत होती है। इस जानकारी के अनुसार, व्यास की वैदिक शिष्यपरंपरा के ऋक्, यजु, साम एवं अथर्व ऐसे चार प्रमुख विभाग थे । व्यास की उपर्युक्त शिष्यपरंपरा में से 'मौखिक' सांप्रदाय के प्रमुख आचार्यों की नामावलि 'वैदिक शिष्यपरंपरा' के तालिका में दी गयी है। ग्रंथिक' सांप्रदाय के आचार्यों की नामावलि 'वैदिक धर्मग्रन्थ ' की तालिका में दी गयी है । व्यास इंद्रप्रमति एवं वाष्कल ( बाष्कलि) नामक दो शिष्यों को प्रदान किया । (अ) बाकल - शाखा -- यही संहिता आगे चलकर बाष्कल ने अपने निम्नलिखित शिष्यों को सिखायी :-- १. बोध्य (बोध, बौध्य ); २. अग्निमाठर ( अग्निमित्र, अग्निमातर ); ३. पराशर ; ४. याज्ञवल्क्यः ५. कालायनि ( वालायनि); ६. गार्ग्य (भज्य ); ७. कथा जव (कासार) | इनमें से पहले चार शिष्यों के नाम सभी पुराणों में प्राप्त हैं, अंतिम नाम केवल भागवत एवं विष्णु ही प्राप्त हैं । (आ) इंद्रप्रमति - शाखा -- इंद्रप्रमति का प्रमुख शिष्य माण्डुकेय (मार्कडेय ) था । आगे चलकर माण्डुके वह संहिता अपने पुत्र सत्यश्रवस् को सिखायी। सत्यश्रवस् ने उसे अपने शिष्य सत्यहित को, एवं उसने अपने पुत्र सत्यश्री को सिखायी। विष्णु में इंद्रप्रमति के द्वितीय शिष्य का नाम शाकपूर्णि ( शाकवैण) रथीतर दिया गया है, किन्तु वायु एवं ब्रह्मांड में सत्यश्री शाकपूणि को सत्यश्री का पुत्र बताया गया है। (इ) सत्यश्री - शाखा -- सत्यश्री के निम्नलिखित तीन सुविख्यात शिष्य थे:-- १. देवमित्र शाकल्य, जिसे भागवत में सत्यश्री का नहीं, बल्कि माण्डुकेय का शिष्य कहा गया है । २. शाकवैण रथीतर ( रथेतर, रथान्तरं ); ३. बाष्कलि भारद्वाज, जिसे भागवत में जातूकर्ण्य कहा गया है। (ई) देवमित्र शाकल्य - शाखा -- देवमित्र के निम्नलिखित शिष्य प्रमुख थे : -- १. मुद्गल; २. गोखल (गोखल्य, गोलख ); २. शालीय ( खालीय, खलियस् ); ४. वत्स ( मत्स्य, वात्स्य, वास्य ); ५. शैशिरेय (शिशिर); ६. जातूकर्ण, जिसका निर्देश केवल भागवत में ही प्राप्त है। ( उ ) शाकवैण स्थीतर - शाखा - - इसके निम्नलिखित चार शिष्य प्रमुख थे :-- १. केतव ( क्रौंच, पैज, पैल); २. दालकि (वैतालिक, वैताल, इक्षलक ); ३. शतचलाक ( बलाक, धर्मशर्मन्); ४. नैगम ( निरुक्तकृत, विरज गज, देवशर्मन् ) । (ऊ) बाष्कलि भारद्वाज - शाखा - - इसके निम्नलिखित तीन शिष्य प्रमुख थे : -- १. नंदायनीय (अपनाप ); २. पन्नगारि, ३. अर्जव ( अर्थव ) ( विष्णु. ३.४.१६ - २६ मा १२.६.५४ - ५९; वायु. ६०.२४–६६; ब्रह्मांड. २.३४-३५) । ( १ ) व्यास की ऋ शिष्यपरंपरा - व्यास की ऋशिष्यपरंपरा का प्रमुख शिष्य पैल था । व्यास से प्राप्त ऋक्संहिता की दो संहिताएँ बना कर पैल ने उन्हें अपने | ९२० Page #943 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यास ऋग्वेद पैल इंद्रप्रमति, वाकल बोध्य, याज्ञवल्क्य, पराशर, माण्डुकेय सत्यश्रवस् सत्यहित सत्यश्री प्राचीन चरित्रकोश व्यास की वैदिक शिष्यपरंपरा यजुर्वेद वैशंपायन याज्ञवल्क्य -ब्रहाराति तित्तिरी माध्यंदिन, काण्व शाकल्य, वाकलि, शाकपूर्ण याज्ञवल्क्य पन्नगारि, शैशिरेय, वत्स, शतबलाक श्यामायनि, आसुरि अलम्बि सामवेद | ऋग्वेद की प्रमुख - शाखाएँ--व्यास के प्रमुख शिष्य प्रशिष्यों को 'शाखाप्रवर्तक आचार्य कहा जाता है, एवं उन्हीं के द्वारा प्रणीत संहितापरंपरा को 'शाखा' कहा जाता है । इन विभिन्न शाखाओं द्वारा पुरस्कृत वैदिक संहिता यद्यपि एक ही थी, फिर भी विभिन्न ' दृष्टि - विभ्रम' एवं ' स्वरवर्ण' ( उच्चारपद्धति) के कारण हरएक शाखा की संहिता विभिन्न बन जाती थी । पौराणिक साहित्य में ऋग्वेद के विभिन्न शाखाओं का यद्यपि निर्देश है, फिर भी इनमें से बहुत ही थोड़ी प्रा. च. ११६ ] जैमिनि सुमन्तु जैमिनि सुत्वन्- जैमिनि सुकर्मन् - जैमिनि पौपिण्ड्य लौगाक्ष, कुथुम, कुशितिन्, लांगलि राणायनीय, तण्डिपुत्र, पराशर, भागवित्ति लोमगायन, पाराशर्य, प्राचीनयोग अथर्ववेद सुमन्त कबंध पथ्य, देवादर्श पिप्पलाद जाजलि - शौनक व्यास सैन्धवायन, बभ्रु मुंजकेश आसुरायण, पतंजलि शाखाएँ व्यासशिष्य परंपरा में निर्दिष्ट आचायों के नामों से मिलती जुलती दिखाई देती हैं । पतंजलि महाभाष्यं एवं महाभारत में ऋग्वेद की इक्कीस शाखाओं का निर्देश प्राप्त है । किंतु उनकी नामावलि वहाँ अप्राप्य है ( महा. १; म. शां. ३३०.३२; कर्म. पूर्व ५२.५९ ) । 'चरणव्यूह' में ऋग्वेद की निम्नलिखित पाँच शाखाओं का निर्देश प्राप्त है: -- १. शाकल ( शैशिरीय ); २. बाष्कल, ३. आश्वलायन; ४. शांखायन; ५. मण्डूका ९२१ Page #944 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपलब्ध वैदिक धर्मग्रंथ व्यास वेद शाखा उपलब्ध संहिता शाकल ऋग्वेद २१ २ बाष्कल ३ शांख्यायन । १ तैत्तिरीय २ मैत्रायणी कृष्णयजुर्वेद ८६ ३ कठ | ४ कापिष्ठल ब्राह्मण गृह्य, धर्म एवं शुल्ब । आरण्यक उपनिषद श्रौतसूत्र व्याकरण सूत्र १ऐतरेय १ऐतरेय । १ऐतरेय १ आश्वलायन १ आश्वलायन (गृह्य) १. ऋक्प्राति२ शांख्यायन २ शांख्यायन २ कौषितकी २ शांख्यायन २ शांख्यायन (गृह्य) शाख्य ३ बाप्कल ३ वसिष्ट (धर्म) १ तैत्तिरीय १ तैत्तिरीय १ तैत्तिरीय १ आपस्तंब १ आपस्तंब (गृह्य, | १. तैत्तिरीय २ कठ २ मैत्रायणी २ महानारायण २ बौधायन शुल्म,धम), २ कंठ प्रातिशाख्य ३ मैत्रायणी ३ भारद्वाज (गृह) वागह (गृह्य), ४ कठ ४ मानव ३ बीधायन (गृह्य, ५ श्वेताश्वेतर | ५ वाधूल शुल्ब, धर्म) ४ मानव ६ मैत्री ६ वाराह (गृह्य), ५ वैखानस ७ वैखानस (धर्म), ६ हिरण्यकेशी ८ हिरण्यकेशी (सत्याषाढ) (गृह्य, धर्म) शतपथ १ बृहदारण्यक १ ईशावास्य (संहिता में से| १ कात्यायन १ पारस्कर गृह्य १. कात्यायन १.काण्व (१७ काण्ड) ४० वा अध्याय) (कात्यायन) प्रातिशाख्य २.माध्यदिन(१४ काण्ड) २ बृहदारण्यक्र २. भाषिकसूत्र १ पंचविंश (प्रौढ, तांड्य) १ जैमिनीय | १.छांदोग्य (तांडय) खादिर १ खादिर (गृह्य) १. पुष्पसूत्र २ षड्विंश, ३ सामवि२ केन (जैमिनीयोपनिषद् २ द्यायन २ गोभिल (गृह) धान, ४ आर्षेय, ५ मंत्र, ब्रा. में से ४.१८.२१) ३ लाट्यायन ३ गौतम (गृह्य ६ देवताध्याय, वंश, ८ और धर्म) संहितोपनिषद्,९जैमिनीय ४ जैमिनि (गृह्य) १० जैमिनीयोपनिषद १ गोपथ १ प्रश्न, २ मांडुक्य | १ वैतान |१. कौशिक | १. पंचपटलिका ३ मुंडक इत्यादि २. अथर्व प्राति शाख्य प्राचीन चरित्रकोश शुक्लयजुर्वेद १५ २ माध्यंदिन सामवेद १ कौथुम १००० २राणायनीय अथर्ववेद २ १ पिप्पलाद २ शौनक व्यास Page #945 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यास प्राचीन चरित्रकोश व्यास यन । इनमें से शाकल, बाप्कल एवं माण्डूकायन इन परंपरा का विद्यावंश निम्नप्रकार थाः--जैमिनि-सुमंतुशाखा प्रवर्तकों का निर्देश व्यास की वैदिक शिष्य- सुत्वत् (सुन्वत् )-सुकर्मन् । परंपरा में प्राप्त है । किन्तु आश्वलायन एवं शांखायन (अ) सुकर्मन्-शाखा--सुकर्मन् ने ' सामवेदसंहिता' शाखाओं के प्रवर्तक आचार्य कौन थे, यह कहना मुष्किल | के एक हजार संस्करण बनायें, एवं उनमें से पाचसा है। इन दोनों शाखाओं का निर्देश अग्नि में प्राप्त है | संहिता पौष्यजि नामक आचार्य को, एवं उर्वरीत पाँचसौ (अग्नि. २७१.२)। हिरण्यनाभ कौशल्य (कौशिक्य) राजा को प्रदान की। उपर्युक्त शाखाओं में से शांखायन के अतिरिक्त बाकी | उनमें से पौष्यं जि एवं हिरण्यनाभ के शिष्य क्रमशः सारी शाखाएँ शाकल्य के शिष्यों के द्वारा शुरू की गयी । 'उदीच्य सामग' एवं 'प्राच्य सामग' नाम से सुविख्यात थीं, जिस कारण वे 'शाकल' सामूहिक नाम से प्रसिद्ध हुए। विष्णु में इन दोनों सामशिष्यों की संख्या प्रत्येक की हैं (वेदार्थदीपिका प्रस्तावना)। पंद्रह बतायी गयी है। वर्तमानकाल में उपलब्ध सायण भाष्य से सहित | हिरण्यनाभ के शिष्यों में कृत (कृति) प्रमुख था, जो ऋक्संहिता आश्वलायन शाखान्तर्गत मानी जाती है। एक प्रमुख शाखाप्रवर्तक आचार्य माना जाता है । 'चरणव्यूह' ग्रंथ के महिधर-भाष्य से यही सिद्ध होता (आ) कृत-शाखा--कृत के कुल चौबीस शिष्य थे, है। सत्यव्रत सामाश्रमी के ऐतरयालोचन म भा यहा जिनकी नामावलि वायु एवं ब्रह्मांड में निम्नप्रकार दी गयी सिद्धान्त प्रस्थापित किया गया है। है:- १. राडि (राड); २. राडवीय (महावीर्य);(२) व्यास की यजुःशिष्यपरंपरा--व्यास की यजुः- ३. पंचम; ४. वाहन; ५. तलक (तालक); ६. मांडुक शिष्यपरंपरा का प्रमुख शिष्य वैशंपायन था। वैशंपायन (पांडक); ७. कालिक, ८. राजिक, ९. गौतम के कुल ८६ शिष्य थे, जिनमें याज्ञवल्क्य वाजसनेय प्रमुख | १०. अजवस्ति, ११. सोमराजायन (सोमराज); था। आगे चल कर, याज्ञवल्क्य ने अपनी स्वतंत्र यजुर्वेद | १२. पुष्टि (पृष्ठन); १३. परिकृष्टः १४. उलूखलक; शाखा प्रस्थापित की, एवं वैशंपायन की ८५ शिष्य बाकी | १५. यवियस; १६. शालि (वैशाल); १७. अंगुलीय; रहे। ये सारे शिष्य 'तैत्तिरीय ' अथवा 'परकाध्वर्य' | १८. कौशिक; १९. शालिमंजरिपाक (सालिजीमंजरिसत्य); सामूहिक से सुविख्यात हैं। | २०. शधीय (कापीय); २१. कानिनि (कानिक), २२. पाराशर्य ( पराशर); २३. धर्मात्मन् ; २४. वाँ नाम (अ) वैशंपायन शाखा--इस शाखा में उदिच्य' प्राम नहीं है। मध्यदेश एवं प्राच्य ऐसी तीन उपशाखाएँ प्रमुख थीं, जिनके प्रमुख आचार्य क्रमशः श्यामाय नि, आसुरी एवं | | (इ) पौष्यंजि-शाखा-पौष्यंजि के निम्नलिखित शिष्य 'आलम्बि थे। प्रमुख थे:- १. लौगाक्षि (लौकाक्षि, लौकाक्षिन् ); २. (आ) याज्ञयल्क्य शाखा--इस शाखा में अंतर्गत | कुशुभिः ३. कुशीदि (कुसीद, कुसीदि); ४. लांगलि याज्ञवल्क्य के शिष्य वाजिन' अथवा 'वाजसनेय' (मांगलि), जिसे ब्रह्मांड एवं वायु में 'शालिहोत्र' उपाधि सामहिक नाम से सविख्यात थे। याज्ञवल्क्य के पंदट प्रदान की गयी है; ५. कुल्य; एवं ६. कुक्ष । शाखाप्रवर्तक शिष्यों का निर्देश वायु एवं ब्रह्मांड में प्राप्त (ई) लांगलि-शाखा-लांगलि के निम्नलिखित छः है, जिनमें से ब्रह्मांड में प्राप्त नामावली नीचे दी गयी शिष्य थे, जो 'लांगल' अथवा 'लांगलि' सामूहिक नाम से है:--१. कण्य; २. बौधेय; ३. मध्यंदिन; ४. सापत्यः प्रसिद्ध थे:-१. हालिनी (भालुकि); २. ज्यामहानि ५. वैधेय; ६. आद्ध; ७. बौद्धक; ८. तापनीय; ९. वास; | (कामहानि); ३. जैमिनि; ४. लोमगायनि (लोमगायिन् ); • १०. जाबाल; ११. केवल; १२. आवटिन् । १३. पुण्ड्र, ५. कण्डु (कण्ड); ६. कोहल (कोलह)। १४. वैण; १५. पराशर (ब्रह्मांड. २.३५.८-३० याज्ञ- (उ) लौगाक्षि-शाखा-लौगाक्षि के निम्नलिखित छ: वल्क्य वाजसनेय देखिये)। शिष्य थे:-१. राणायनीय (नाडायनीय); २. सहतंडि(३) व्यास की सामशिष्यपरंपरा--व्यास की साम- पुत्र ( सहितडिपुत्र); ३. वैन (मूलचारिन् ); ४. सकोतिशिष्यपरंपरा का प्रमुख शिष्य जैमिनि था, जिसके पुत्रपौत्रों । पुत्र (सकतिपुत्र); ५. सुसहस् (सहसात्यपुत्र); ६. ने सामशिष्यपरंपरा आगे चलायी। जैमिनि के सामशिष्य- | सुनामन् । ९२३ Page #946 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यास प्राचीन चरित्रकोश व्यास इनमें से राणायनीय के निम्नलिखित दो शिष्य थे:-- | व्यास के शिष्यपरंपरा में से अनेकानेक आचार्यों का १. शौरिद्यु (शोरिद्यु); २. शृंगीपुत्र । इनमें से शृंगीपुत्र | निर्देश यद्यपि पुराणों में प्राप्त है, फिर भी, इनआचायों के वैन (चैल); प्राचीनयोग एवं सुबाल नामक तीन | के द्वारा निर्माण की गयी बहुत सारी ग्रंथसंपत्ति आज शिष्य थे। अप्राप्य, अतएव अज्ञात है। (3) कुथुमि अथवा कुशुमिशाखा--कुथुमि के निम्न- इसका कारण संभवतः यही है कि, व्यास की उपर्युक्त लिखित तीन शिष्य थे:--१. औरस (पाराशर्य कौथुम); | सारी शिष्यपरंपरा 'ग्रांथिक' न हो कर 'मौखिक' थी, २. नाभिवित्ति (भागवित्ति); ३. पाराशरगोत्री (रस- | जिनका प्रमुख कार्य ग्रंथनिष्पत्ति नहीं, बल्कि वैदिक संहितापासर)। साहित्य की मौखिक परंपरा अटूट रखना था। इनमें से औरस (पाराशर्य कौथुम ) के निम्नलिखित व्यास के कई अन्य शिष्यों के द्वारा रचित वैदिक छः शिष्य थे:-- १. आसुरायण; २. वैशाख्य; ३. वेद- | ग्रंथसंपत्ति में से जो भी कुछ साहित्य उपलब्ध है, उसकी वृद्धः ४. पारायण; ५. प्राचीनयोगपुत्र; ६. पतंजलि। जानकारी पृथु ९२२ पर दी गयी 'वैदिक साहित्य के धर्मइन शिष्यों में से पौष्यंजि एवं कृत ये दो शिष्य प्रमुख होने ग्रंथों की तालिका' में दी गयी है। के कारण, उन्हें 'सामसंहिताविकल्पक' कहा गया है (ब्रह्मांड. वैदिक संहिताओं का विशुद्ध रूप-- व्यास के द्वारा २.३५.३१-५४; वायु ६१.२७-४८)। विभाजन की गयी वैदिक संहिताएँ, विशुद्ध रूप में (४) व्यास की अथर्वशिष्यपरंपरा-व्यास की अथर्व कायम रखने के लिये व्याकरणशास्त्र, उच्चारणशास्त्र, शिष्यपरंपरा का प्रमुख शिष्य सुमन्तु था। सुमन्तु के शिष्य | वैदिक स्वरों का लेखनशास्त्र आदि अनेकानेक विभिन्न का नाम कबंध था, जिसके निम्नलिखित दो शिष्य थेः-- शास्त्रों का निर्माण हुआ, जिनकी संक्षिप्त जानकारी नीचे . १. देवदर्शन (वेददर्श, वेदस्पर्श); २. पथ्य। दी गयी है। (अ) देवदर्श-शाखा-देवदर्श के निम्नलिखित पाँच वैदिक व्याकरण विषयक ग्रंथों में शौनककृत 'ऋचपातिशिष्य थे:- १. शौल्कायनि (शौक्कायनि); २. पिप्पलाद शाख्य, 'तैत्तिरीय प्रातिशाख्य,' कात्यायनकृत 'शुक्लयजुवेंद (पिप्पलायनि); ३. ब्रह्मबल (ब्रह्मबलि); ४. मोद प्रातिशाख्य,' अथर्ववेद का 'पंचपटलिका ग्रंथ', एवं. (मोदोष, मौद्ग); ५. तपन (तपसिस्थित)। सामवेद का 'पुष्पसूत्र,' आदि ग्रंथ विशेष उल्लेखनीय हैं। (आ) पथ्य-शाखा-पथ्य के निम्नलिखित तीन शिष्य वैदिक मंत्रों के उच्चारणशास्त्र के संबंध में अनेकानेक थे:--१. जाजलि; २. कुमुदादि (कुमुद); ३. शौनक शिक्षाग्रंथ प्राप्त हैं, जिनमें वेदों के उच्चारण की संपूर्ण (शुनक)। जानकारी दी गयी है। इन शिक्षा ग्रंथों में अनुस्वार एवं (इ) शौनक-शाखा-शौनक के निम्नलिखित दो शिष्य विसर्गों के नानाविध प्रकार, एवं उनके कारण उत्पन्न थे:--१. बभ्र, जिसे ब्रह्मांड एवं वायु में 'मंजकेश्य,' एवं होनेवाले उच्चारणभेदों की जानकारी भी दी गयी है। 'मुंजकेश' उपाधियाँ प्रदान की गयी हैं। वैदिक साहित्य की परंपरा शुरू में 'मौखिक' पद्धति (ई) सेंधवायन-शाखा--सैंधवायन के दोनों शिष्यों ने से चल रही थी। आगे चल कर, इन मंत्रों का लेखन प्रत्येकी दो दो संहिताओं की रचना की थी। जब शुरु हुआ, तब उच्चारानुसारी लेखन का एक नया अथर्ववेदसंहिता के पाँच कल्प--इस संहिता के निम्न- शास्त्र वैदिक आचार्यों के द्वारा निर्माण हुआ। इस शास्त्र लिखित पाँच कल्प माने गये हैं:-१. नक्षत्रकल्प, २. के अनुसार, उदात्त, अनुदात्त, स्वरित आदि स्वरों के वेदकल्प (वैतान ) ३. संहिताकल्प; ४. आंगिरसकल्प, लेखन के लिए, अनेकानेक प्रकार के रेखाचिन्ह वैदिक ५. शान्तिकल्प (विष्णु. ३.६.९-१४; भा. १२.७.१-४; मंत्रों के अक्षरों के ऊपर एवं नीचे देने का क्रम शुरू. वायु. ६१.४९-५४, ब्रह्मांड २.५.५५-६२)। किया गया। यजुर्वेद संहिता में तो वैदिक मंत्रों के अक्षरों __व्यासोत्तर वैदेक वाङ्मय का विकास--व्यास के द्वारा के मध्य में भी स्वरचिह्नों का उपयोग किया जाता है। किये गये वैदिक संहिताओं के विभाजन को आदर्श मान विनष्ट हुर'ब्राह्मण ग्रन्थ'-ब्राहाण ग्रंथों में से जिन कर, आगे चल कर संहिता, ब्राह्मण, आरण्यक, उपनिषद ग्रन्थों के उद्धरण वैदिक साहित्य में मिलते है, किंतु जिसके तथा श्रोत, गृह्य, धर्म, शुल्बसूत्र आदि वैदिक साहित्य का मूल ग्रंथ आज अप्राप्य है, ऐसे ग्रन्थों की नामावलि निम्नविस्तार हुआ। प्रकार है :-- ९२४ Page #947 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन चरित्रकोश व्यास ध्यास . (१) ऋग्वेदीय ब्राह्मण-ग्रन्थ-१. शैलालि। उपर्युक्त विषयों में से एक ही उपांग पर जो पुराणग्रंथ (२) कृष्णयजुर्वेदीय ब्राह्मण-ग्रन्थ-१. आह्वरक; आधरित रहता है, उसे 'उपपुराण' कहते हैं। उपोप२. कंटिन् ; ३. चरक; ४. छागलेय (तैत्तिरीय); ५. पुराण स्वतंत्र ग्रंथ न हो कर, महापुराण का ही एक भाग पैंग्याय निः ६. मैत्रायणी; ७. श्वेताश्वतर (चरक, चारा- रहता है। यणीय): ८. हारिद्राविक (चरक, चारायणीय)। । पुराणों में चर्चित विषय--पौराणिक साहित्य में चर्चित (३) शुकृयजुर्वेदीय ब्राह्मग-ग्रन्थ--१. जाबालि। | विषयों की जानकारी वायु में प्राप्त है, जिसके अनुसार (४) सामवेदीय ब्राह्मण-ग्रन्थ-१. जैमिनीय २. ब्रह्मचारिन् , गृहस्थ, वानप्रस्थ, संन्यासी, रागी, विरागी, स्त्री, शूद्र एवं संकर जातियों के लिए सुयोग्य धर्माचरण तलवकार (राणायनीय); ३. कालवविन् ; ४. भालविन् ; ५. रोरुकि; ६. शाट्यायन (रामायनीय); ७. माषशरा क्या हो सकता है, इसकी जानकारी पुराणों में प्राप्त होती है । इन ग्रंथों में यज्ञ, व्रत, तप, दान, यम, नियम, योग, विन् (बटकृष्ण घोष, कलेक्शन ऑफ दि फ्रेंग्मेन्टम ऑफ | सांख्य, भागवत, भक्ति, ज्ञान, उपासनाविधि आदि विभिन्न लॉल्ट ब्राहणाज)। धार्मिक विषयों की जानकारी प्राप्त है। पुराण ग्रंथों का प्रणयन--वैदिक ग्रंथों की पुनर्रचना पुराणों में समस्त देवताओं का अविरोध से समावेश के साथ साथ, व्यास ने तत्कालीन समाज में प्राप्त कथा करने का प्रयत्न किया गया है, एवं ब्राह्म, शैव, वैष्णव, सौर, आख्यायिका एवं गीत (गाथा) एकत्रित कर आद्य 'पुराण शाक्त, सिद्ध आदि सांप्रदायों के द्वारा प्रणीत उपासना ग्रंथों की रचना की, एवं इस प्रकार यह प्राचीन पौराणिक वहाँ आत्मौपम्य बुद्धि से दी गयी है। देवताओं का साहित्य का भी आय जनक बन गया। माहात्म्य बढ़ाना, एवं उनके उपासनादि का प्रचार करना, प्राचीन भारत में उत्पन्न हुए राजवंश एवं मन्वन्तरों की यह पुराणग्रंथों का प्रमुख उद्देश्य है। परंपरागत जानकारी एकत्रित करना यह पुराणों का आद्य ___पुरणों के विभिन्न प्रकार-मत्स्य में पुराणों के सात्विक, हेतु है। किन्तु उनका मूल अधिष्ठान' नीतिप्रवण धर्म राजस एवं तामस तीन प्रकार बताये गये हैं। मत्स्य में ग्रंथों का है, जहाँ धर्म एवं नीति की शिक्षा सामान्य मनुष्य प्रतिपादन किया गया पुराणों का यह विभाजन देवतामात्र की बौद्धिक धारणा ध्यान में रखकर दी गयी है। प्रमुखत्व के तत्त्व पर आधारित है, एवं विष्णु, ब्रह्मा एवं पंचमहाभूत, प्राणिसृष्टि एवं मनुष्यसृष्टि की ओर भूतदया अग्नि शिव की उपासना प्रतिपादन करनेवाले पुराणों को बाद का आदश पुराणग्रंथों में रखा गया है, जहाँ व्रत, | वहाँ क्रमशः 'सात्विक,' 'राजस' एवं 'तामस' कहा गया है । उपासना एवं तपस्या को अधिकाधिक प्राधान्य दिया सरस्वती एवं पितरों का माहात्म्य कथन करनेवाले पुराणों गया है। को वहाँ 'संकीर्ण' कहा गया है (मत्स्य. ५३.६८-६९)। 'कुटुम्ब, राज्य, राष्ट्र, शासन आदि की ओर एक पष्म एवं भविष्य में भी पुराणों के सात्विक आदि प्रकार आदर्श नागरिक के नाते हर एक व्यक्ति के क्या कर्तव्य दिये गये है, किन्तु वहाँ इन पुराणों का विभाजन विभिन्न हैं. इनका उच्चतम आदश सामान्य जनों के सम्मुख पुराण प्रकार से किया गया है (पन. उ. २६३.८१-८५, ग्रंथ रखते हैं। इस प्रकार जहाँ राज्यशासन के विधि- आनंदाश्रम संस्करण; भविष्य. प्रति. ३.२८.१०-१५)। नियम अयशस्वी होते हैं, वहाँ पुराणग्रंथों का शासन | श्लोकसंख्या-विभिन्न पुराणों की श्लोकसंख्या बहुत सामान्य जनमानस पर दिखाई देता है। सारे पुराणों में दी गयी है, जिसमें प्रायः एकवाक्यता है । पराणों के प्रकार--पौराणिक साहित्य के 'महापुराण,' पराणों के इसी श्लोकसंख्या से विशिष्ट पुराण पूर्ण है, या 'उपपुराण' एवं 'उपोपपुराण' नामक तीन प्रमुख प्रकार अपर्णावस्था में उपलब्ध है. इसका पता चलता है। माने जाते हैं। जिन पुराणों में वंश, वंशानुचरित, ___पुराणों के वक्ता-पुराणों का कथन करनेवाले आचार्यों मन्वन्तर, सर्ग एवं प्रतिसर्ग आदि सारे विषयों का समावेश | को 'वक्ता' कहा जाता है, जिनकी सविस्तृत नामावलि किया जाता है, उन पुराणों को महापुराण कहते हैं-- भविष्य पुराण में प्राप्त है (भवि. प्रति. ३.२८.१०-१५)। आख्यानैश्चाप्युपाख्यानैर्गाथाभिः कल्पशुद्धिभिः । महापुराण--महापुराणों की संख्या अठारह बतायी पुराणसंहितां चके पुराणार्थविशारदः ॥ गयी है, जिनके नामों के संबंध में प्रायः सर्वत्र एक (विष्णु. ३.६.१६-१६)। वाक्यता है। ९२५ Page #948 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यास इन पुराणों के नाम, उनके अधिष्ठात्री देवता, श्लोकसंख्या एवं निवेदनस्थल आदि की जानकारी 'महापुराणों की तालिका' में दी गयी हैं । इस तालिका में जिन पुराणों के नाम के आगे ‘*’चिन्ह लगाया गया है, उनके महापुराण होने के संबंध में एकवाक्यता नहीं है। महापुराण ४. नारद ५. पद्म 1 ६. ब्रह्म ७. ब्रह्मवैवर्त ८. नृसिंह* ९. ब्रह्मांड १०. भविष्य ११. भागवत १. अग्नि (सर्व - अंगिरस् (अग्नि- अग्नि विद्यायुक्त ) २. कूर्म वसिष्ठ संवाद ) ३. गरुड (अ) विष्णु (ब) देवी * १२ मत्स्य १३. मार्कंडेय १४. लिंग १५. वराह १६. वामन १७. वायु * १८. विष्णु १८-अ विष्णुधर्मोत्तर वक्ता १९. शिव * २०. स्कंद व्यास हरि नारद ब्रह्मन् (रोमहर्षेण पुत्र प्रोक्त) ब्रह्मन - मरीचि संवाद सावर्णि - नारद संवाद व्यास मार्कंडेय तंडिन् मार्कडेय व्यास व्यास पराशर महापुराणों की तालिका देवता गुण व्यास शिव शिव विष्णु विष्णु ब्रहान् PEEEEEEEE ब्रह्मन् राजस सूर्य विष्णु शिव व्यास तंडन् राजस सुमन्तु शतानीक शिव राजस शुक विष्णु | देवी शिव शिव शिव प्राचीन चरित्रकोश शिव शिव शिव विष्णु शिव शिव राजस व्यास उपपुराणों की नामावलि – उपपुराणों की संख्या भी अठारह बतायी गयी है, किन्तु विभिन्न पौराणिक ग्रंथों में से कौन-कौन से ग्रंथों का 'अठारह उपपुराणों' की नामावलि में समाविष्ट करना चाहिये, इस संबंध में मतैक्य नहीं हैं। विभिन्न पुराणों में प्राप्त उपपुराणों के नाम नीचे दिये | तामस १५,४०० अपूर्ण सात्विक १७,००० अपूर्ण सात्विक १९,००० अपूर्ण सात्विक २५,००० अपूर्ण सात्विक ५५,००० अपूर्ण श्लोक सख्या अपूर्ण या पूर्ण १०,००० पूर्ण १८,००० पूर्ण (प्रक्षेपयुक्त) १२,००० पूर्ण १४,५०० अपूर्ण सात्विक १८,००० पूर्ण १६००० विष्णुध. ९२६ तामस राजस राजस १४,००० अपूर्ण ९,००० अपूर्ण ११,००० पूर्ण सात्विक २४,००० अपूर्ण १०,००० अपूर्ण २४,००० पूर्ण सात्विक ७००० वि. राजस पूर्ण प्रसंग एवं स्थल नैमिषारण्य नैमिषारण्य सत्र नैमिषारण्य नैमिषारण्य, सिद्धाश्रम नैमिषारण्यं, नैमिषारण्य, द्वादशवार्षिकसत्र. नैमिषारण्य तामस | २३००० २४,००० तामस | ८१,००० अपूर्ण कुल श्लोकसंख्या ४,२५,०००/ (अग्नि. २७२; ३८३; कूर्म. पूर्व. १.१३ - १५; नारद अनुक्रमणिका; ब्रह्मवै. कृष्ण. २.१३३.११-२१; भा. १२.१३.४-८ संख्यायुक्त; मत्स्य. ५३.११ - ५६; वराह. ११२; वायु. १०४.२- १०, विष्णु. ३.६.१९-२३; स्कंद. प्रभास. २; रोमहर्षण देखिये) । सुत भारद्वाज संवाद, प्रयाग नैमिषारण्य, सहस्रवार्षिकसत्र शतानीकनृपसभा सहस्रवार्षिकसत्र नैमिषारण्य, दीर्घसत्र नैमिषारण्य | पृथ्वी - वराह संवाद दृषद्वती तीर दीर्घसत्र हिमालय राक्षससत्र | प्रयाग महासत्र नैमिषारण्य, दीर्घसत्र Page #949 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यास - प्राचीन चरित्रकोश व्यास गये है:--आखेटक, आंगिरस, आण्ड, आद्य, आदित्य, रोमहर्षण शाखा--रोमहर्षण के शिष्यों में निम्नलिखित उशनस् , एकपाद, एकाम्र, कपिल, कालिका, काली, कौमार, | आचार्य प्रमुख थे:-- १. सुमति आत्रेय (त्रैयारुणि); कौर्म, क्रियायोगसार, गणेश, गरुड, दुर्वास, देवी, दैव, २. अकृतव्रण काश्यप (कश्यप); ३. अग्निवर्चस् भारद्वाज; धर्म, नंदी, नारद, नृसिंह, पराशर, प्रभासक, बार्हस्पत्य, | ४. मित्रयु वासिष्ठः ५. सोमदत्ति सावणि (ब्रह्मांड. २.३५. बृहद्धर्म, बृहन्नंदी, बृहन्नारद, बृहन्नारसिंह, बृहद्वैःणव, | ६३-६६; भा. १२.६ ); ६. सुशर्मन् शांशपायन (शांतब्रह्मांड, भागवत ( देवी अथवा विष्णु), भार्गव. भास्कर, पायन) (वायु. ६१.५५-५७; विष्णु. ३.६.१५-१८); मानव, मारीच, माहेश, वसिष्ठ, मृत्युंजय, लीलावती, | ७. वैशंपायन८. हस्ति; ९. सूत। वामन, वायु, वारुण, विष्णुधर्म, लघुभागवत, शिवधर्म, | महाभारत का निर्माण--पौराणिक साहित्य के साथशो केय, सनत्कुमार, सांब, सौर (ब्रह्म) (एकान. १.२०- साथ संस्कृत साहित्य का आद्य एवं सर्वश्रेष्ठ 'इतिहास २३; कूर्म. पूर्व. १.१५-२०, गरुड, १.२२३, १७-२० | पुराण ग्रंथ' माने गये 'महाभारत' का निर्माण भी व्यास दे. भा. १.३.१३-१६; स्कंद. प्रभास. २.११-१५; सूत- | के द्वारा हुआ। संहिता १.१३-१८; पद्म. पा. ११५, उ. ९४-९८; | शतपथ ब्राह्मण, तैत्तिरीय आरण्यक, एवं छांदोग्य ब्रह्मांड. १.२५.२३-२६; पराशर. १.२८-३१; वारुण.१; | उपनिषद में 'इतिहास पुराण' नामक साहित्य प्रकार का मत्स्य. ५३.६०-६१)। . निर्देश प्राप्त है। किन्तु इन ग्रंथों में निर्दिष्ट 'इतिहास पुराणों का दैवतानुसार पृथक्करण-पुराणों के शैव, पुराण' स्वतंत्र ग्रंथ न हो कर, आख्यान एवं उपाख्यान के वैष्णव, ब्राह्म, अनि आदि विभिन्न प्रकार है, जो उनके रूप में ब्राह्मणादि ग्रंथों में ग्रथित किये गये थे। ये आख्यान द्वारा प्रतिपादित उपासना-सांप्रदायों के अनुसार किये अत्यंत छोटे होने के कारण, उनका विभाजन 'पर्व' गये हैं । उपास्य दैवतों के अनुसार, पुराणों का विभाजन 'उपपर्व' आदि उपविभागों में नहीं किया जाता था, निम्न प्रकार किया जाता है : जैसा कि उन्हीं ग्रंथों में निर्दिष्ट 'सर्पविद्या,' 'देवजन(१) शिव-उपासना के पुराण--१. कूर्म; २. ब्रह्मांड; | विद्या' आदि पौराणिक कथानकों में किया गया है। ३. भविष्य; ४. मत्स्य; ५. मार्कंडेय; ६. लिंग; ७. वराह; ___ इतिहास-पुराण ग्रंथ--व्यास की श्रेष्ठता यह है कि, ८. वामन; ९. शिव; १०. स्कंद। इसने ब्राह्मणादि ग्रंथों में निर्दिष्ट 'इतिहास-पुराण' साहित्य जैसा तत्कालीन राजकीय इतिहास, 'सर्पविद्या' . (२) विष्णु-उपासना के पुराण-१. गरुड, २. नारद जैसे पौराणिक कथानकों के लिए ही उपयोग किये गये ३. भागवत; ४. विष्णु। पर्व, उपपर्वादि से युक्त साहित्यप्रकार में बाँध लिया। (३) ब्रह्मा-उपासना के पुराण--१. पद्मा २. ब्रह्म । इस प्रकार यह एक बिल्कुल नये साहित्यप्रकार का आद्य (४) अग्नि-उपासना के पुराण-१. अग्नि । जनक बन गया, एवं इसके द्वारा विरचित 'महाभारत' (५) सवितृ-उपासना के पुराण--१. ब्रह्मवैवर्त बृहदाकार 'इतिहास पुराण' साहित्य का आद्य ग्रंथ साबित (स्कंद. शिवरहस्य. संभव. २.३०-३८; पंडित ज्वाला हुआ। प्रसाद, अष्टादशपुराणदर्पण. पृ. ४६)। भारतीययुद्ध में विजय प्राप्त करनेवाले पाण्डुपुत्रों की गीताग्रंथ--कर्मपुराण में निम्नलिखित 'गीताग्रंथ' प्राप्त | विजयगाथा चित्रित करना, यह इसके द्वारा रचित 'जय' है, जो महाभारत में प्राप्त 'भगवद्गीता' के ही समान श्रेष्ठ नामक ग्रंथ का मुख्य हेतु था। पाण्डुपुत्रों के पराक्रम का श्रेणि के तत्त्वज्ञानग्रंथ माने जाते है:-१. ईश्वरगीता इतिहास वर्णन करते समय, इसने तत्कालीन धार्मिक, राज(कर्म, उत्तर. १-११), २. व्यासगीता (कूर्म. उत्तर, नैतिक तत्त्वज्ञानों के समस्त स्त्रोतों को अपने ग्रंथ में ग्रथित १२-२९) इत्यादि । किया। इतना ही नहीं, इसी राजनीति को धार्मिक, राजव्यास की पुराणशिष्यपरंपरा-पुराणग्रंथों के निर्माण | नैतिक एवं आध्यात्मिक आधिष्ठान दिलाने का सफल प्रयत्न के पश्चात् , व्यास ने ये सारे ग्रंथ अपने पुराण शिष्यपरं- | व्यास के इस ग्रंथ में किया गया है। परान्तर्गत प्रमुख शिष्य रोमहर्षण 'सूत' को सिखाये, जो अपने इस ग्रंथ में, आदर्श राजनैतिक जीवन के उपलक्ष आगे चल कर व्यास के पुराणशिष्यपरंपरा का प्रमुख | में प्राप्त भारतीय तत्त्वज्ञान व्यास के द्वारा ग्रथित किया आचाय बन गया। | गया है। इस प्रकार व्यक्तिविषयक आदर्शों को शास्त्रप्रमाण्य ९२७ Page #950 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यास प्राचीन चरित्रकोश व्यास एवं तत्त्वज्ञान की चौखट में बिठाने के कारण, महाभारत महाभारत के उपपर्व- उपर्युक्त पर्वो में से बहुशः सभी सारे पुराणग्रंथों में एक श्रेष्ठ श्रेणि का तत्त्वज्ञानग्रंथ बन पर्यों के अंतर्गत कई छोटे-छोटे आख्यान भी हैं, जिन्हें गया है। ' उपपर्व' कहते हैं । महाभारत के पर्चा में प्राप्त उपपों धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष इन चतुर्विध पुरुषार्थी के की संख्या नीचे दी गयी है:--१. वनपर्व-२१; आचरण में ही मानवीय जीवन की इतिकर्तव्यता है, एवं २. आदिपर्व-१९:३. उद्योगपर्व-१०; ४. सभापर्वकर्म, ज्ञान, उपासना आदि से प्राप्त होनेवाला मोक्ष | -८५. द्रोणपर्व-८; ६. भीष्मपर्व--४;७.शल्यपर्वअन्य तीन पुरुषार्थों के आचरण के बिना व्यर्थ है, यही -३, ८. स्त्रीपर्व-२,८. शांतिपर्व--३, ९. आश्वमेधिकसंदेश व्यास के द्वारा महाभारत में दिया गया है। व्यास पर्व-३, १०. आश्रमवासिकपर्व ३, ११. सौप्तिकपर्व-२: के द्वारा विरचित महाभारत के इस राजनैतिक एवं १२. अनुशासनपर्व-२। कर्ण, मौसल, महाप्रस्थानिक एवं तात्त्विक अधिष्ठान के कारण, यह एक सर्वश्रेष्ठ एवं अमर स्वर्गारोहण पों में उपपर्व नहीं हैं। इतिहास-ग्रंथ बना है । इस ग्रंथ की सर्वकपता के कारण, हरिवंश--महाभारतांतर्गत 'हरिवंश' महाभारत का ही मानवी जीवन के एवं समस्याओं के सारे पहलू किसी | एक भाग माना जाता है। इसी कारण उने महाभारत का न किसी रूप में इस ग्रंथ में समाविष्ट हो चुके हैं, जिस 'खिल' एवं 'परिशिष्ट' पर्व कहा जाता है। महा-' कारण 'व्यासोच्छिष्ट जगत्सर्वम्' यह आर्षवाणी सत्य भारत की एक लक्ष श्लोकसंख्या भी हरिवंश' को समाविष्ट प्रतीत होती है (वैशंपायन एवं वाल्मीकि देखिये)। करने के पश्चात् ही पूर्ण होती है। महाभारत की व्याप्ति--इस ग्रंथ की विषयव्याप्ति हरिवंश' के निम्नलिखित तीन पर्व है :--१. हरिवंश बताते समय स्वयं व्यास ने कहा है, 'हस्तिनापुर के करु ! पर्व (५५ अध्याय) २. विष्णुपर्व (१२८ अध्याय); वंश का इतिहास कथन कर पाण्डपुत्रों की कीर्ति संवर्धित ३. भविष्यपर्व (१३५ अध्याय)। करने के लिए इस ग्रंथ की रचना की गयी है । इस वंश हारवश म या हरिवंश में यादववंश की सविस्तृत जानकारी प्राप्त है, में उत्पन्न गांधारी की धर्मशीलता, विदर की बद्धिमत्ता. | जो पूरुवंश एवं भारतीय युद्ध का ही केवल कुंती का धैय, श्रीकृष्ण का माहात्म्य, पाण्डवों की सत्य वर्णन करनेवाले 'महाभारत' में अप्राप्य है । हरिवंश में परायणता एवं धृतराष्ट्र पुत्रों का दुर्व्यवहार चित्रित प्राप्त यादवों के इस इतिहास से, महाभारत में दिये गये करना, इस ग्रंथ का प्रमुख उद्देश्य है (म. आ. १. पूरुवंश के इतिहास की पूर्ति हो जाती है। ___ भागवतादि पुराणों में यादववंश की जानकारी प्राप्त महाभारत की शिष्यपरंपरा--व्यास के द्वारा विरचित है, उससे कतिपय अधिक जानकारी हरिवंश में प्राप्त है। महाभारत ग्रंथ का नाम 'जय था, जिसकी श्लोकसंख्या | हरिवंश माहात्म्य' के छः अध्याय पन में उथत किये लगभग २५०००थी। अपना यह ग्रंथ इसने वैशंपायन नामक गये हैं। किन्तु आनंदाश्रम पूना के द्वारा प्रकाशित पन्न अपने शिष्य को सिखाया, जिसने आगे चल कर उसी उसी के संस्करण में वे अध्याय अप्राप्य है। ग्रंथ का नया परिवर्धित रूप 'भारत' नाम से तैयार ___'भारतसावित्री' नामक सौ लोकों का एक प्रकरण किया, जिसका नया परिवर्धित संस्करण रोमहर्षण सौति | उपलब्ध है, जिसमें भारतीय युद्ध की तिथिवार जानकारी के द्वारा 'महाभारत' नाम से प्रसिद्ध हुआ। इस प्रकार | एवं प्रमुख वीरों की मृत्युतिथिया दी गयी है। महाभारत का प्रचलित संस्करण सौति के द्वारा तैयार व्यास की संशयनिवृत्ति-व्यास के जीवन से संबंधित किया गया है (वैशंपायन एवं रोमहर्पण सूत देखिये)। | एक उद्बोधक आख्यायिका वायु में प्राप्त है। पुराणों की ___ महाभारत के पर्व-महाभारत का विद्यमान संस्करण | रचना करने के पश्चात् एक बार इसे संदेह उत्पन्न हुआ कि, एक लाख श्लोकों का है, जो निम्नलिखित अठारह पों 'यज्ञकर्म,' 'चिंतन (ज्ञान) एवं 'उधाममा परमेश्वरप्राप्ति में विभाजित है :--१. आदि; २. सभा; ३. वन- के जो तीन मार्ग इसने पुराणों में प्रतिपादन किये है, वे सच (आरण्यक); ४, विराट; ५. उद्योग; ६. भीष्मः ७. द्रोण; हैं या नहीं ? इसके इस संदाय का निवास करने के लिए, ८. कर्ण; ९. शल्य; १०. सौप्तिक; ११. स्त्री; १२. शांति; चार ही वेद मानुपीरूप धारण कर इसके पास आये। इन १३. अनुशासन; १४. आश्वमेधिक; १५. आश्रमवासिक वेदपुरुषों के शरीर पर यशकर्म, ज्ञान एवं उपासना ये तीनों १६. मौसल, १७, महाप्रस्थानिक; १८. स्वर्गारोहण ही उपासनापद्धति विराजित थीं, जिन्हें देख कर व्यास ९२८ Page #951 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यास . प्राचीन चरित्रकोश वात को अत्यंत आनंद हुआ, एवं अपने द्वारा प्रणीत परमेश्वर- सुंदर थी, जिसके प्रति अत्यधिक कामासक्त होने के कारण, प्राप्ति के मार्ग सत्य होने का साक्षात्कार इसे प्राप्त हुआ इसकी राजयक्ष्मा से असामयिक मृत्यु हो गयी। (वायु, १०४.५८-९४)। इसकी मृत्यु के पश्चात् , इसके शव से भद्रा को सात व्यास का जीवन-संदेश-चतुर्विधपुरुषार्थों में से केवल | पुत्र उत्पन्न हुए (म. आ. ११२. ७-३३)। इसके इन सात पुत्रों में से, तीन पुत्र शाल्व नाम से, एवं बाकी चार धर्माचरण से ही अर्थकामादि पुरुषार्थ साध्य हो सकते हैं, | क्यो कि, मानवीय जीवन में एक धर्म ही केवल शाश्वत, भद्र नाम से सुविख्यात हुए। चिरंतन एवं नित्य है, बाकी सारे सुखोपभोग एवं पुरुषार्थ व्युष्ट--(स्वा. उत्तान.) एक राजा, जो पुष्पार्ण एवं दोषा के पुत्रों में से एक था। इसकी पत्नी का नाम अनित्य हैं, ऐसा व्यास का मानवजाति के लिए प्रमुख पुष्करिणी था, जिससे इसे सर्वतेजस् नामक पुत्र उत्पन्न संदेश था। महाभारत पुराणादि अपने सारे साहित्य में हुआ था (भा. ४.१३.१४)। इसने यही संदेश पुनः पुनः कथन किया। इतना ही नहीं, २. एक वसु, जो विभावसु एवं उषा के पुत्रों में से एक महाभारत के अंतिम भाग में भी इसने यही संदेश था (भा. ६.६.१६)। दुहराया है, जिसमें एक द्रष्टा के नाते इसकी जीवनव्यथा बहुत ही उत्स्फूर्त रूप से प्रकट हुई है-- व्यूढोरस्--(सो. कुरु.) धृतराष्ट्र के सौ पुत्रों में से एक, जो भीमसेन के द्वारा मारा गया। उर्ध्वबाहुर्विरौस्येष नच कच्छिच्छणोति माम् । व्यूढोरु--(सो. कुरु.) धृतराष्ट्र के सौ पुत्रों में से धर्मादर्थश्च कामश्च स किमर्थं न सेव्यते | एक, जो भीमसेन के द्वारा मारा गया। (म. स्व. ५,४९)। व्योमन्-(सो. क्रोष्टु.) एक राजा, जो भागवत, (हाथ ऊंचा कर सारे संसार से मैं कहता आ रहा हूँ विष्णु, मत्स्य एवं वायु के अनुसार दशाह राजा का पुत्र कि, अर्थ एवं काम से भी अधिक धर्म महत्त्वपूर्ण है। किंतु था। इसके पुत्र का नाम जीमूत था ( दाशार्ह देखिये)। कोई भी मनुष्य मेरे इस कथन की ओर ध्यान नहीं देता | ___व्योमासुर--एक असुर, जो मयासुर का पुत्र एवं कंस का अनुगामी था। कृष्णवध करने के लिए यह गोप वेश धारण कर गोकुल में आया, जहाँ कृष्ण ने इसका · व्यास बादरायण-ब्रह्मसूत्रों का कर्ता माने गये बाद- वध किया (भा. १०.३७.२८-३२.)। रायण नामक आचार्य का नामांतर ( बादरायण देखिये )। । ब्रज-ऊरु एवं षडाग्नेयी के पुत्रों में से एक। भागवत के अनुसार, यह एवं कृष्ण द्वैपायन व्यास दोनों व्रत--(स्वा. उत्तान.) एक राजा, जो चाक्षुष मनु के एक ही व्यक्ति थे (भा. ३.५.१९)। किंतु इस संबंध में पुत्रों में से एक था। इसकी माता का नाम नड्वला था निश्चित रूप से कहना कठिन है। (भा. ४.१३.१६)। व्याहृति-एक कन्यात्रय, जो सवितृ तथा पृश्नी की २. अभूतरजस् देवों में से एक । संतान थी (भा. ६.१८.१)। वतिन्-वर्तमान वैवस्वत मन्वन्तर का अठारहवाँ व्यास। व्युत्थिताश्व-इक्ष्वाकुवंशीय ध्युषिताश्व राजा का वतेयु--(सो. पुरूरवस्.) एक राजा, जो रौद्राश्व नामांतर। राजा का पुत्र था। व्युषिताश्व--(सो. पूरु.) एक राजा, जिसकी पत्नी वात--(सू. इ. भविष्य.) एक राजा, जो वायु का नाम काक्षीवती भद्रा था। इसकी पत्नी अत्यधिक ! के अनुसार कृतंजय राजा का पुत्र था (वायु. ९९.२८७)। प्रा. च. ११७] ९२९ ९२९ Page #952 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंयु प्राचीन चरित्रकोश शंयु--एक आचार्य, जो एक विशिष्ट प्रकार के यज्ञ- महाभारत में इनका निर्देश वाहिक लोगों के साथ प्राप्त पद्धति का ज्ञाता माना जाता था। इसकी मृत्यु के पश्चात् है, एवं युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ के समय, भीम के द्वारा वह यज्ञपद्धति नष्ट होने का धोखा निर्माण हुआ। इसी किये गये पूर्व दिग्विजय में इन्हें जीते जाने का निर्देश कारण इसके अनुगामियों ने वह ज्ञान पुनः प्राप्त करने वहाँ प्राप्त है (म. स. २७.२८९)। नकुल ने भी अपने का प्रयत्न किया था (श. ब्रा: १.९.१.२४)। पश्चिम दिग्विजय में इन्हें जीता था (म. स. २९. १५. यजुर्वेद संहिताओं में इसे अग्नि का ही प्रतिरूप माना पाठ.)। युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में ये लोग भेंट ले कर गया है (तै. सं. २.६.१०.१ ५.२.६.४; ते. ब्रा. ३.३. उपस्थित हुए थे (म. स. ५१.२६) ८.११; तै. आ. १.५.२)। मत्स्यपुराण में इन्हें चक्षु नदी के तट पर निवास शंयु बार्हस्पत्य--एक वैदिक सूक्तद्रष्टा, जो बृहस्पति करनेवाले लोग कहा गया हैं, एवं तुषार, पह्लव, पारद, के पुत्रों में ज्येष्ठ पुत्र था (ऋ. ६.४४-४६, ४८)। ऊर्ज, औरस लोगों के साथ इनका निर्देश प्राप्त है (मत्स्य, शतपथ ब्राहाण में निर्दिष्ट शग्यु बार्हस्पत्य एवं यह दोनों १२१.४५-५१)। माकंडेय में इन्हे सिधुदेशनिवासी एक ही होंगे (श. बा. १.९.१.२५)। कहा गया है (मार्क. ५७.३९)। पौराणिक साहित्य में इसे एक अग्नि कहा गया है, एवं 'अलाहाबाद प्रशस्तिलेख' से प्रतीत होता है कि, समुद्र इसकी माता एवं पत्नी का नाम क्रमशः तारा, एवं धर्मकन्या गुप्त के द्वारा परास्त हुए विजातीय लोगों में शक मुरुंड लोग सत्या दिया गया है। अपनी इस पत्नी से इसे भरत एवं प्रमुख थे । कई लभ्यासकों के अनुसार, यहाँ मुझंड' शब्द भारद्वाज नामक दो पुत्र, एवं अन्य तीन कन्याएँ उत्पन्न हुई का अर्थ 'राजा' अभिप्रेत है, एवं सुराष्ट्र प्रदेश में रहने (म. व. २०९.२-५)। वाले शक लोगों के राजाओं की ओर इस शिलालेख में चातुर्मास्यसंबंधित यज्ञों में एवं अश्वमेध यज्ञ में इसका इसका संकेत किया गया है। पूजन किया जाता है। महाभारत में इन्हें नंदिनी गाय के गोबर से होने का शंसपि--शंखमत् नामक अंगिराकुलोत्पन्न गोत्रकार निर्देश प्राप्त है (म. आ. १६५.३५)। इस निर्देश से का नामांतर (शंखमत् देखिये )। प्रतीत होता है कि, ये लोग महाभारतकाल में निंद्य माने शक-एक विदेशीय जातिसमूह, जो पूर्वकाल में में जाते थे। ये लोग पहले क्षत्रिय थे, किन्तु बाद में ये शुद्ध मध्य एशिया के निवासी थे । आगे चल कर ये लोग बन (म. अनु. २३.२१)। उत्तर पश्चिम भारत में आ कर रहने लगे। । भारतीय युद्ध में--इस युद्ध में, ये लोग कांबोजराज ये लोग ई. पू. २ री शताब्दी में इरान के पूर्व भाग सुदक्षिण के साथ दुर्योधन के पक्ष में शामिल थे (म. उ. में स्थित प्रदेश में रहते थे, जिस कारण उस प्रदेश को १९.२१)। सात्यकि ने इन लोगों का संहार किया था 'शकस्तान' अथवा 'सीस्तान' कहते थे। ई. स. प. (म. द्रो. ९५.३८)। कर्ण ने भी इन्हें परास्त किया था. १७४ में हूण लोगों के आक्रमण के कारण, शक लोग (म. क. ५.१८)। शकस्तान छोड़ने पर विवश हुए, एवं उत्तर पश्चिम भारत । भागवत के अनुसार, शक एवं यवन लोग हैहय राजाओं में आ कर निवास करने लगे। आगे चल कर ये सुराष्ट्र के सहायक थे। इसी कारण परशुराम, सगर एवं भरत (काठियवाड ) में रहने लगे। राजाओं ने इन्हें परास्त किया था, एवं इनकी अर्धस्मश्रु उत्तरपश्चिम भारत में निवास--राजशेखर की काव्य-कर, एवं विरूप कर इन्हें छोड़ दिया था ( भा. ९.)। मीमांसा में उत्तरपश्चिम भारत में निवास करनेवाले लोगों इन लोगों को वेदाधिकार प्राप्त नहीं था, जिस कारण ये में शक लोगों का निर्देश हूण, कांबोज एवं वालिक लोगों | आगे चल कर म्लेच्छ बन गये थे (भा. ४.३.४८)। के साथ प्राप्त है। पतंजली के व्याकरण महाभाष्य में २. (मौय. भविष्य, एक राजा, जो वृहद्रथ मौय राज इनका निर्देश प्राप्त है (पा. स. ३.७५ भाष्य.)। का पुत्र था (मत्स्य. २७२.२४)। ९३० Page #953 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन चरित्रकोश शकुनि ३. अठारह राजाओं का एक समूह, जो शिशुनाग एवं इसने द्रुपदनगर में ही पाण्डवों को जड़मूल से समाप्त राजाओं का समकालीन था (मत्स्य. ५०.७६)। करने की दुर्योधन को सलाह दी थी (म. आ. परि. १. शकट--एक कंसपक्षीय असुर, जो कृष्ण के द्वारा १०३) । युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में भी यह दुर्योधन मारा गया (म. स. परि. १. क्र. २१. पंक्ति. ६५२- के साथ उपस्थित हुआ था, एवं पाण्डवों के प्रति ६५५, भा. १०.७.८; ह. वं. २.६, ५.२०, विष्णु. ५. दुर्योधन की देषाग्नि सुलगाने का प्रयत्न इसने किया था ६.२ पन. व. १३; उ. २४५)। (म. स. ३१.६, ४२.६०)। २. अगस्त्यकुलोत्पन्न एक गोत्रकार ऋषिगण । द्यूतक्रीडा--पाण्डयों पर विजय प्राप्त करने के लिए, शकपूत नामध-एक राजा, जिसे ऋग्वेद के एक एवं युधिष्ठिर का ऐश्वर्य हड़पने के लिए इसने दुर्योधन को सूक्त के प्रणयन का श्रेय दिया गया है (ऋ. १०.१३२)। द्यूतक्रीडा का आयोजन करने की सलाह दी। पश्चात् त अनुक्रमणी में इसे नृमेध राजा का पुत्र कहा गया है। के लिए युधिष्ठिर को निमंत्रित करवा कर, इसने उसे छलइसके द्वारा रचित रक्त में, इराने वरुण से अपनी रक्षा कपट से यत में परास्त किया (म. स. ५३-५४)। मरने के लिए प्रार्थना की है। इसके साथ द्यूत खेल कर कर युधिष्ठिर अपना सब कुछ • शकुन-गृथुक देवों में से एक (ब्रह्मांड. २.३६.७३)। खो बैठा। पश्चात् इसका युधिष्ठिर के साथ यूत का और .. शकुनि--एक असुर, जो वृकासुर का पिता था। इंद्र एक दाँव हुआ, जिसमें शर्त के अनुसार इसने युधिष्ठिर एवं बलि के दरम्यान हुए युद्ध में, इसने बलि राजा के को बन जाने के लिए विवश किया। पक्ष में भाग लिया था ( भा. ८.१०.२०)। घोषयात्रा--द्वैतवन में पाण्डव जन वनवास भुगत रहे २. इक्ष्वाक राजा के सी पुत्रो में से एक। दक्षिणापथ थे, तब दुर्योधन एवं इसने ऐसी योजना बनायी कि, उनके पर राज्य करनेवाले अपने पचास भाइयों का यह अधिपति सम्मुख अपने सामथ्य का प्रदर्शन किया जाये । तदनुसार पक्ष था (वायु. ८८.९)। यह दुर्योधन के साथ घोषयात्रा के लिए गया । किन्तु वहाँ ३. (स. निमि.) एक राजा, जो वायु के अनुसार दुर्योधन चित्रसेन गंधर्व से परास्त हुआ, एवं वह उन्हीं सुतद्वाज राजा का पुत्र, एवं स्वागत राजा का पिता था | पाण्डवों के द्वारा बचाया गया, जिनके सामने अपने (वायु. ८९.२०)। | सामर्थ्य का प्रदर्शन करने वह गया था (म. व. २२७४. (सो. क्रोष्टु.) एक यादव राजा, जो भागवत एवं २३०)। विष्णु के अनुसार दशरथ राजा का, वायुके अनुसार एका- भारतीय युद्ध में--भारतीय युद्ध में इसका निम्नदशरथ राजा का, एवं मत्स्य के अनुसार दृढरथ राजा का लिखित पाण्डव पक्षियों से युद्ध हुआ था, जिनमें बहुत सारे पुत्र था। इसके पुत्र का नाम करंभक था (भा. ९.२४. युद्धों में यह परास्त हुआ था :-१. प्रतिविंध्य (म. भी. ४५), २. युधिष्ठिर, नकुल एवं सहदेव (म. भी. १०१. शकुनि सौवल--गांधार देश के सुबल राजा का पुत्र, ८-२४); ३. अर्जुन (म. द्रो.१४६.२५-४१); ४, भीमसेन जो दुर्योधन का मामा था (म. आ. ५५.३९)। सुबल | (म. क. ५५)। राजा का पुत्र होने के कारण इसे 'सौबल' पैतृक नाम प्राप्त भारतीय युद्ध के अंतिम दिन, पाण्डवों के घुड़सवारों हुआ होगा (म. क. ५५)। ने इस पर आक्रमण किया था। उस समय यह युद्धभूमि यह शुरू से ही अत्यंत दुष्प्रकृति था। देवताओं का से भाग गया (म. श. २२.३९-८७ ) । अन्त में सहदेव कोप होने के कारण यह धर्मविरोधी बन गया, एवं | के द्वारा इसका वध हुआ (म. श. २७.६२) । पौष अनाचारी कार्य करने लगा (म. आ.५७.९३-९४)। अमावास्या के दिन इसकी मृत्यु हुई। यह द्वापर दैत्य के अंश से उत्पन्न हुआ था (म. आ. परिवार--इसके निम्नलिखित ग्यारह भाई थे :६१.७२: आध. ३९.१०)। | १. वृषक; २. बृहद्वल; ३. अचल; ४. सुभगः ५. विभु; पाण्डवों का द्वेष-गांधारी के साथ धृतराष्ट्र का विवाह | ६. भानुदत्त; ७. गज; ८. गवाक्षः ९. चर्मवत्, १०.आर्जव: इसी के ही मध्यस्थता से हुआ था (म. आ.१०३.१४- ११. शुक । इन भाइयों में से छ: भाई इरावत के द्वारा १५)। यह द्रौपदी स्वयंवर में उपस्थित था (म. आ. (म. भी. ८६.२४-३७), एवं पाँच भीमसेन के द्वारा १७७.५ ) । यह शुरू से ही पाण्डवों का द्वेष करता था, | मारे गये (म. द्रो. १३२.२०-२१) । Page #954 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शकुनि प्राचीन चरित्रकोश शकुन्तला इसके पुत्र का नाम उलूक था। शकुन्तला की यह शर्त दुष्यन्त के द्वारा मान्य किये शकुनिका-स्कंद की अनुचरी एक मातृका (म. श. | जाने पर, कण्व ऋषि के अनुपस्थिति में इसका दुष्यन्त से विवाह हुआ। विवाह के पश्चात् , हस्तिनापुर पहुँचते ही शकुनिमित्र--विपश्चित पाराशर्य नामक ऋषि का | इसे दूत के द्वारा बुलाने का आश्वासन दे कर दुष्यन्त नामान्तर (विपश्चित् शकुनिमित्र पाराशर्य देखिये)। चला गया (म. आ. ६७.२०)। भरतजन्म-आश्रम आने पर कण्व ऋषि को सारी शकुन्त--विश्वामित्र ऋषि के ब्रह्मवादी पुत्रों में से एक घटना ज्ञात हुई, एवं उसने प्रसन्न हो कर इसे शुभाशीर्वाद (म. अनु. ४.५०)। दिये । कालांतर में इसे एक परमतेजस्वी बालक उत्पन्न शकुन्तला-महर्षि कण्व की पोषित कन्या,जो दुष्यन्त हुआ, जिसका नाम 'भरत' अथवा 'सर्वदमन' रखा राजा की धर्मपत्नी एवं भरत राजा की माता थी । यह एवं गया। दुष्यन्त राजा कालिदास के 'अभिज्ञानशाकुन्तलम् ' के काफी दिन बीत जाने पर भी, दुष्यंत की ओर से कारण अमर हो चुके हैं। कोई बुलाया नहीं आया। इस कारण भरत के जातकर्मादि । वैदिक साहित्य में-शतपथ ब्राह्मण में इसे एक संस्कार हो जाने पर, कण्व ने इसे पातिव्रत्यधर्म का उपदेश अप्सरा कहा गया है, एवं इसके द्वारा 'नाडपित् ' के तट दिया, एवं पतिगृह के लिए विदा किया। पर भरत को जन्म दिये जाने को निर्देश प्राप्त है (श. | दुष्यंत की राजसभा में--दुष्यंत के राजसभा में पहुंचते ब्रा. १३.५.४.१३)। इसी कारण इसे 'नाडपिती' अथवा ही, इसने उसे अपनी सारी शर्ते उसे याद दिलायीं, एवं 'नाडपित' दी जाती थी। भरत को यौवराज्याभिषेक करने के लिए कहा। किन्तु. महाभारत में इस ग्रंथ में इसे विश्वामित्र एवं मेनका दुष्यंत ने इसका यह प्रस्ताव अमान्य किया, एवं अत्यंत । अप्सरा की कन्या कहा गया है। विश्वामित्र के तपःकाल रोषपूर्ण शब्दों में इसकी आलोचना की। में. उसका तपोभंग करने के लिए इंद्र के द्वारा मेनका भेजी दुष्यंत की यह कटोर वाणी सुन कर इसे बड़ी लब्जी । गयी थी। उसी समय हिमालय पर्वत में मालिनी नदी के | प्रतीत हुई, एवं इसने धर्म की श्रेष्ठता, एवं सूर्यादि किनारे इसका जन्म हुआ था। इसका जन्म होते ही देवताओं को साक्षी बनाकर, अपने प्रति न्याय करने में मेनका इसे पृथ्वी पर छोड़ कर चली गयी। तत्पश्चात् | लिए बार बार अनुरोध किया। इसी समय इसने पत्नी. इसका लालनपालन शकुन्त पक्षियों ने किया, जिस एवं पुत्र के बारे में पति के कर्तव्य दुहाराये, एवं इन कर्तव्यों कारण, इसे 'शकुन्तला' नाम प्राप्त हुआ (म. आ. ६६. | का पालन करने के लिये उसकी बार बार प्रार्थना की। फिर ११-१४)। | भी दुष्यंत ने इसकी एक न सुनी । तब इसने उसे शाप दुष्यन्त से विवाह-तत्पश्चात् कण्व ऋषि ने इसे अपनी दिया, 'अगर तुन भरत को युवराज नहीं बनाओगे, तो कन्या मान कर, अपने आश्रम में इसे पालपोस कर बड़ा भरत तुम्हारे राज्य पर आक्रमण कर के स्वयं राज्याकिया। एक बार मृगया खेलता हुआ हस्तिनापुर का | धिकारी बनेगा। राजा दध्यन्त कण्व ऋषि के दर्शनार्थ आश्रम में आया। इतने में आकाशवाणी के द्वारा दुष्यंत को ज्ञात हा उस समय कण्व ऋषि आश्रम में नही थे, जिस कारण | कि, शकुंतला उसकी धर्मपत्नी है, एवं भरत उसका पुत्र इसकी एवं दुष्यन्त की भेट हुई, एवं कण्व ऋषि के द्वारा है। इस पर दुष्यंत ने इन दोनों को स्वीकार किया, एवं ज्ञात हुई अपनी जन्मकथा इसने उसे कह सुनायी। इसे अपनी पटरानी एवं भरत को अपना युवराज बनाया दुष्यन्त के द्वारा प्रेमदान माँगने पर इसने बताया कि, (वायु. ९०.१३५, म. आ. ६९.४४)। पश्चात् अपने पिता की संनति के बिना यह विवाह करना नहीं दुष्यंत ने इसे समझाया कि, लोकापवाद के भय से शुरु चाहती। उस समय दुष्यन्त ने इसे विवाह के में उसने इसको अस्वीकार किया था (म. आ. ६२, आठ भेद बताये, एवं कहा कि, इन विवाहों में से गांधर्व- | भा .९.२०)। विवाह पिता के संमति के बिना ही हो सकता है। उस अभिज्ञानशाकुंतलम् कालिदास के द्वारा विरचित समय यह इस शर्त पर विवाह के लिए तैयार हुई कि, संस्कृत नाटक 'अभिज्ञानशाकुंतलम्' में, दुर्वास ऋषि के इसका पुत्र हास्तिनापुर का सम्राट् बने । द्वारा इसे दिया शाप, शक्रावतारतीर्थ में 'अभिज्ञान की ९३२ Page #955 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन चरित्रकोश शकुन्तला अँगूठी इसके द्वारा खो जाना, दुष्यंत राजा विस्मृति का शिकार बनना, मत्स्यगर्भ से प्राप्त अभिज्ञान की अँगूठी से उसे पुनः स्मृति प्राप्त होना, आदि अनेकानेक उपकथाविभाग दिये गये हैं। किंतु वे सारे कल्पनारम्य प्रतीत होते है, क्यों कि, उन्हें प्राचीन साहित्य में कोई भी आधार प्राप्त नहीं होता। किंतु पद्मपुराण के बंगला संस्करण में 'अभिज्ञान शाकुंतलम् ' से मिलती जुलती कथा प्राप्त है। शक्त - (सो. पूरु. ) एक पूरुवंशीय राजा, जो पूरु राजा का प्रपौत्र, एवं मनुस्यु राजा का पुत्र था। इसकी माता का नाम सौवीरी, एवं भाइयों के नाम संहनन एवं वाग्मी. थे (म. आ. ८९.७ पाठ.) । शक्ति - देवी पार्वती का एक अवतार। पौराणिक साहित्य में शक्तियों की संख्या इक्कावन बतायी गयी है, जिनके विभिन्न स्थानों को वहाँ 'शक्तिपीठ' कहा गया है। शक्तिदेवता का विकास - रुद्र के द्वारा किये गये दक्षयज्ञ के विध्वंस की कथा ब्राह्मणग्रंथों में एवं महाभारत में प्राप्त है । किन्तु जिस कल्पना के आधार से शक्तिपूजा के पीठों की निर्मिति भारतवर्ष में हुई, उस रुद्रशिव एवं पार्वती के कथा का निर्देशं, इन ग्रंथों में कहीं भी प्राप्त नहीं है, जो सर्वप्रथम उत्तरकालीन 'देवीभागवत' एवं 'कालिकापुराण' में पाया जाता है ( दे. भा. ७.३०; कालिका. १८) । इस कथा के अनुसार, दक्षयज्ञ में अपमानित हो कर सती ने यज्ञकुंड में अपना शरीर झोंक दिया। तत्पश्चात् क्रोध से पागल हुआ रुद्र-शिव सती का प्राणहीन देह कन्धे पर ले कर समस्त त्रैलोक्य में नृत्य करता हुआ उन्मत्त अवस्था में घूमने लगा । यह देख कर विष्णु ने अपने चक्र से सती के शरीर के टुकड़े टुकड़े कर उन्हें विभिन्न स्थानों पर गिरा दिया । सती के शरीर के खंड तथा आभूषण, इक्कावन स्थानों पर गिरे, जहाँ एक-एक शक्ति, एवं एक-एक भैरव विभिन्न रूप धारण कर अवतीर्ण हुए। आगे चल कर, इन्हीं स्थानों पर 'शक्तिपीठों' का निर्माण हुआ । शक्तिपीठ – उत्तरकालीन पौराणिक साहित्य में, एवं शाक्त उपासना के ' शिवविजय', 'दाक्षायणीतंत्र', ‘योगिनीतंत्र ' ‘तंत्रचूड़ामणि' आदि तांत्रिक ग्रंथों में 'शक्तिपीठों' की विस्तृत जानकारी प्राप्त है, जहाँ सर्वत्र इन पीठों की संख्या प्रायः सर्वत्र इक्कावन बतायी गयी है । इनमें से 'तंत्र चूड़ामणि' में प्राप्त ५२ ' शक्तिपीठों ' की, वहाँ स्थित 'शक्ति' की, एवं वहाँ गिरे हुए सती शक्ति के अंग या आभूषणों की नामावलि नीचे इसी क्रम से दी गयी है: १. अट्टहास (फुल्लरा, अधरोष्ठ ); २. उज्जयिनी ( मांगल्यचंडिका, कूर्पर ); ३. करतोयातट ( अपर्णा, वामतल्प ); ४. कन्यकाश्रम ( शर्वाणी, पृष्ठ ); ५. करवीर (महिषमर्दिनी, तीनों नेत्र ); ६. कर्णाट ( जयदुर्गा, दोनों कर्ण ); ७. कश्मीर ( महामाया, कंठ ); ८. कांची ( देवगर्भा, अस्थि ); ९. कालमाधव (काली, वामनितंब ); १०. कामगिरि ( कामाख्या, योनि ); ११. कालीपीठ ( कालिका, पादांगुलि ); १२. कुरुक्षेत्र (सावित्री, दक्षिणगुल्फ ); १३. गण्डकी (गण्डकी, दक्षिण गण्ड ); १४. किरीट ( विमला, किरीट ); १५. गोदावरीतट (विश्वेशी, वामगण्ड ); १६. चहल (भवानी, दक्षिणबाहु ); १७. जनस्थान ( भ्रामरी, चिबुक ); १८. जयन्ती ( जयन्ती, वामजंघ ); १९. जालंधर ( त्रिपुरमालिनी, वामस्तन ); २०. ज्वालामुखी ( सिद्धिदा, जिव्हा ); २१. त्रिपुरी ( त्रिपुरसुंदरी, दक्षिणपाद ); २२. त्रिस्रोता ( भ्रामरी, वामपाद ); २३. नलहारी (कालिका, उदरनलिका ); २४. नन्दिपुर ( नंदिनी, कंठहार ); २५. नैपाल ( महामाया, जानु ); २६. पंचसागर ( वाराही, अधोदंतपंक्ति); २७. प्रभास ( चन्द्रभागा, उदर ); २८. प्रयाग (ललिता, हस्तांगुलि ); २९. भैरवपर्यंत (अवन्ती, ऊर्ध्वओष्ठ ); ३०. मगध (सर्वानंदकरी, दक्षिणजंघ ) : ३१. मणिवेदिका ( गायत्री, मणिबंध ); ३२. मानस ( दाक्षायणी, दक्षिणपाणि ); ३३. मिथिला ( उमा, वामस्कंध ); ३४. युगाद्या ( भूतधात्री, दक्षिणपदांगुष्ठ ); ३५ यशोर ( यशोरेश्वरी, वानपाणि); ३६. रामगिरि ( शिवानी, दक्षिणस्तन ); ३७. रत्नावली ( कुमारी, दक्षिणस्कंध ); ३८. बहुला (बहुला, वामबाहु ); ३९. लंका ( इंद्राक्षी, नूपुर ); ४०. वक्त्रेश्वर ( महिप्रमर्दिनी, मन ); ४१. वाराणसी ( विशालाक्षी, कर्णकुंडल ); ४२. वैद्यनाथ जयदुर्गा, हृदय ); ४३. विभाष (कपालिनी, वामगुल्फ); ४४. विराट ( अंबिका, वामपदांगुष्ठ ); ४५. विरजाक्षेत्र ( विमला, नाभि ); ४६. वृंदावन ( उमा, केशकलाप ); ४७. श्रीपर्वत ( श्रीसुंदरी, दक्षिणतल्प ), ४८. श्रीशैल (महालक्ष्मी, ग्रीवा ); ४९. शुचि (नारायणी, ऊर्ध्वदंतपंक्ति ); ५०. शोण ( शोणाक्षी, दक्षिण नितंब ); ५१. सुगंधा (सुनंदा, नासिका ); ५२. हिंगुला ( कोटरी, ब्रह्मरंध्र ) । ( २. एक आचार्य, जिसने अपने शिष्य दम को ' सामवेद ' सिखाया था (मार्क. १३० ) । ३. ढुंढि नामक शिवावतार का पिता (दुरासद देखिये) । ९३३ Page #956 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शक्ति वासिष्ट 19 शक्ति वासिष्ठ - एक ऋषि जो अरंपती के सौ पुत्रों में ज्येष्ठ पुत्र था ( भा. ४.१.४१; म. आ. १६६.४ ) | मत्स्य में इसे 'शक्तिवर्धन' कहा गया है (मास्य. १४५.९२-९३ ) इसे वर्तमान वैवस्वत मन्वंतर काछबीसों वेदव्यास कहा गया है। वैदिक साहित्य में -- त्रग्वेद एवं ब्राह्मण ग्रंथों में विश्वामित्र ऋषि से हुए इसके संघर्ष की, एवं इस संघर्ष में इसे जलाकर भस्म किये जाने की, अनेकानेक कथाएँ प्राप्त हैं । प्राचीन चरित्रकोश ऋग्वेद के कई मंत्रों का यह द्रष्टा है (ऋ. ७.३२.२६ - २७; ९.९७. १९-२१; १०८.३. १४ - १६ ) । इन मंत्रों में से छब्बीसवें ऋचा का केवल पहला ही चरण इसके द्वारा रचाया गया था। ऋग्वेद में प्राप्त एक ऋचा से प्रतीत होता है, कि एक बार जब यह विश्वामित्र के उद्यान में गया था, तब वहाँ के सेवकों ने इसे जला कर भस्म किया था (ऋ. वेदार्थदीपिका ७.३२.२६ ) । गेल्डर के अनुसार, ऋग्वेद की अन्य एक ऋचा में शक्ति के मृत्यु - संघर्ष का वर्णन प्राप्त है (ऋ. ३.५३. २२) । किंतु यह व्याखा अत्यधिक संदिग्ध प्रतीत होती है । ऋग्वेद के सायणभाष्य में, इसके संबंध में शाट्यायन ब्राह्मण के अंतर्गत एक आख्यायिका उद्धृत की गयी है । एक बार सौदास राजा के घर में एक यज्ञ, हुआ जहाँ इसने विश्वामित्र ऋषि को पराजित किया। तदुपरांत, विश्वामित्र ने जमदग्नि के घर आश्रय लिया, जिसने उसे ' ससर्परी विद्या' सिखायी । इसी विद्या के आधार से विश्वामित्र ने इसे वन में भस्म किया एवं इस प्रकार अपने पराजय का प्रतिशोध लिया (वेद सायणभाग्य २.५३.१५१६ ऋग्वेद सर्वानुक्रमणी ७.२२ ) । जैमिनि ब्राह्मण में, विश्वामित्र ऋषि के अनुयायियों के द्वारा इसे आग में फेंक दिये जाने की कृपा अधिक स्पष्ट रूप से प्राप्त है (जै. बा. २.३९० ) । महाभारत एवं पौराणिक साहित्य में इस साहित्य में यह विश्वामित्र के अनुयायियों के द्वारा नहीं, बल्कि राक्षसरूप प्राप्त हुए कल्माषपाद सौदास राजा के द्वारा भक्षण किये जाने का निर्देश प्राप्त है (म. आ. १६६.२६) महाभारत में प्राप्त यह निर्देप अयोग्य प्रतीत होता है, क्योंकि, यह कल्माषपाद सौदास के द्वारा नहीं, बल्कि सुदास राजा के द्वारा मारा गया था। ज्योति राक्षस के द्वारा इसे भक्षण किये जाने की कथा लिंग में भी प्राप्त है ( लिंग. ६४-६५ ) । इसकी मृत्यु होने पर इसके पुत्र पराशर ने इसका वध का प्रतिशोध लेने के लिए राक्षसत्र प्रारंभ किया। आगे चलकर उसके पितामह बसि ने उसे इस पापकर्म से पराइन किया ( पराशर देखिये ) । अपनी मृत्यु की पश्चात्, यह शिवभक्ति के कारण स्वर्गलोक पहुँच गया (पद्म पा ११० ) । - वायुपुराण का कथन इसे दक्ष से 'वायुपुराण' का ज्ञान प्राप्त हुआ था, जिसे इसने गर्भावस्था में स्थित अपने पराशर नामक पुत्र को निवेदित किया था (ब्रह्मांड. २.३२.९९ ) । - परिवार इसकी पत्नी का नाम अयन्ती था जिससे इसे पराशर नामक सुविख्यात पुत्र उत्पन्न हुआ था ( भा. ४.१.४१ ) । इसका यह पुत्र इसकी मृत्यु के पश्चात् बारह वर्षों के उपरांत उत्पन्न हुआ था ( पराशर देखिये) । शक्तिवर्धन - वसिष्ठपुत्र शक्ति का नामांतर ( मल्य १४५.९३; शक्ति वासिष्ठ देखिये) । शक्तिसेन -- (सो. वृष्णि. ) एक यादव राजा, जो मत्स्य एवं पद्म के अनुसार निम्न राजा का पुत्र था । विष्णु एवं भागवत में इसे 'सश्राजित्', एवं वायु में इसे 'शक्रजित् ' कहा गया है ( मत्स्य. ४५.३, वायु. ९६.२० -२९ ) । 3 यह परम सूर्यभक्त था, जिसने इसे 'स्यमंतक' नामक दिव्य मणि दिया था । इसी 'स्यमंतक मणि के कारण, इसका कृष्ण से संघर्ष हुआ। किंतु अंत में इसे यह मणि पुनः प्राप्त हुआ। | इसकी कुल दस पत्नियाँ थी, जिनसे इसे सौ पुत्र उत्पन्न हुए थे। इसके पुत्रों में भंगकार, व्रतपति, एवं अपस्वान्त प्रमुख थे ( वायु. ९६.५० -५३) । २. (सो.वि.) एक राजा, जो मत्स्य के अनुसार शोणाश्व राजा का पुत्र था । शक्तिहस्त - एक राक्षस, जो जयंत के द्वारा मारा गया (पद्म, स. ७५) । शक्र - बारह आदित्यों में से एक (म. आ. ५९१५ ) | यह इंद्र था, एवं इसे शतक्रतु नामांतर प्राप्त था (इंद्र १. देखिये) । इसके भाई का नाम उपेंद्र था ( भा. ६.६.३९ ) । शक्रज्योति - मरुतों के प्रथम गणों में से एक । ९३४ Page #957 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शक्रदेव प्राचीन चरित्रकोश शंख शक्रदेव-कलिंग देश का एक राजकुमार, जो भानुमत् ३. एक ऋषि, जो वसिष्ठ एवं ऊर्जा के पुत्रों में से एक • राजा का पुत्र था। भारतीय युद्ध में, यह कौरवों के पक्ष | था (ब्रह्मांड. २.११.४२)। में शामिल था। भीमसेन के द्वारा इसका वध हुआ ४. एक महारथी यादव राजा, जो द्रौपदीस्वयंवर में (म. भी. ५०.२२)। उपस्थित था (म. स. १४.५९; आ. १७७.१८१८*)। शक्रमित्र--(सू. इ.) एक राजा, जो मांधातृ राजा का अर्जुन एवं सुभद्रा के विवाहसमारोह में, यह दहेज ले कर कनिष्ठ पुत्र था। उपस्थित हुआ था। शक्रय-कश्यपकुलोत्पन्न गोत्रकार ऋषिगण | शंककर्ण--'अतल' नामक पाताललोक में रहनेशकहोम-एक राजा, जो भविष्य के अनुसार यज्ञहोत्र वाला एक दानव, जो कश्यप एवं दनु के पुत्रों में से एक राजा का पुत्र था। यह इंद्र के कृपापात्र व्यक्तियों में से था (ब्रह्मांड. २.२०.१६)। एक था, जिस कारण इसे अयोध्या का राज्यपद प्राप्त २. दक्ष के अनुचरों का सामूहिक नाम (मत्स्य.४.५२)। हुआ था। आगे चल कर, इंद्र की कृपा से इसे स्वर्गप्राप्ति ३. एक राक्षस, जो अशोकवन में सीता के संरक्षणार्थ भी हो गर्या । नियुक्त किया गया था ( वा. रा. सु. १८.२८)। शंकमान-महिप लोगों का एक नागवंशीय राजा, जो | । ४. (सो. कुरु.) एक राजा, जो जनमेजय एवं वपुष्टमा प्रवीर राजा का पुत्र था (ब्रह्मांड. ३.७४.१८७)। | के पुत्रों में से एक था (म. आ. ९०.९४)। पाठभेद शंकर-एक दानव, जो कश्यप एवं दनु के पुत्रों में से (भा. सं.)-'शंकु । एक था (विष्णु. १.२१.४)। ५. धृतराष्ट्रकुलोत्पन्न एक नाग, जो जनमेजय के सर्प२. रुद्र शिव एक नामांतर । इसे 'शंभु', 'उमापति', सत्र में दग्ध हुआ था (म. आ. ५२.१४)। 'शूलपाणि', 'वृषभध्वज', 'हर' आदि नामांतर भी ६. एक स्कंदपार्षद, जो उसे पार्वती के द्वारा दिये गये प्राप्त थे (विष्णु. ५.३२.८)। . दो पार्षदों में से एक था। दूसरे पार्षद का नाम पुष्पदंत • इसने 'वैशालाक्ष' नामक दस हजार अध्यायों से युक्त था (म. श. ४४.४७)। एक राजनीति विषयक ग्रंथ की रचना की थी, जो ब्रह्मा के द्वारा विरचित एक बृहद्ग्रंथ का संक्षेप कर लिखा गया था । ७. स्कंद का एक सैनिक (म. श. ४४.५२)। (म. शां. ५९.८६-८८ रुद्र-शिष देखिये)। ८. कुवेरसभा में रहनेवाला एक शिवपार्षद (म. स. २. एक चांडाल, जो अपने पत्नी के पुण्यकों के परि. १.३.२०)। कारण मुक्त हुआ (पद्म. ब. २०)। ९. एक पापी ब्राह्मण, जो गीता के सातवें अध्याय के . ४. उन्मत्त प्रकृति का एक शिवभक्त ऋषि, जो गौतम | पठन से मुक्त हुआ था (पद्म. उ. १८१)। ऋषि का शिष्य था। वृषपर्वन् ने इसका वध किया, किंतु १०. एक ब्राह्मणवेषधारी शिवावतार, जिसने एक आगे चल कर शिव ने इसे पुनः जीवित किया (पद्म. पा. पिशाच को मुक्ति प्रदान की थी (पद्म. स्व. ३५)। ११४)। शंकुरथ--एक दानव, जो कश्यप एवं दनु के पुत्रों में ५. एक पापी पुरुष, जिसकी कथा स्कंद में 'रामनाथ- से एक था (ब्रह्मांड. ३.६.४)। तीर्थ' का माहात्म्य कथन करने के लिए दी गयी है। शंकुरोमन्--एक सहस्रशीर्ष नाग, जो कश्यप एवं (स्कंद. ३.१.४८)। | कद्र के पुत्रों में से एक था (मत्स्य. ६.४१)। ६. एक सनातन विश्वेदेव (म. अनु. ९१.३५)। | शंकुशिरस--एक पराक्रमी दानव, जो कश्यप एवं शंकु-(सो. कुकुर.) एक यादव राजा, जो भागवत । दनु के पुत्रों में से एक था। इंद्र-वृत्र युद्ध में यह वृत्र के एवं विष्णु के अनुसार उग्रसेन राजा के नौ पुत्रों में से एक | पक्ष में, एवं देवासुर युद्ध में यह बलि की सेना में शामिल था ( भा. ९.२४.२४) । विष्णु एवं वायु में इसे क्रमशः था (भा. ६.६.३०, १०.१९; विष्णु. १.२१.४)। 'संक' एवं 'कद्वशंक' कहा गया है। मत्स्य के शंकुशिरोधर-एक दानव, जो कश्यप एवं दनु के अनुसार, यह बलि का अनुगामी था ( मस्त्य. २४५.३१)। पुत्रों में से एक था (मत्स्य. ६.१७)। २. कृष्ण एवं सत्या के पुत्रों में से एक (भा. १०. शंख--एक पराक्रमी असुर, जो समुद्र का पुत्र होने । के कारण, समुद्र में ही निवास करता था (म. स. ९. ९३५ Page #958 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंख प्राचीन चरित्रकोश गये। १३)। अपने बल एवं पराक्रम से, इसने समस्त देव एवं प्रवृत्त हुआ। उस समय, व्यास ने उसे राजधर्म का लोकपालों को सुवर्ण-पर्वत की गुफा में भगा दिया था। | उपदेश करते समय कहावेदों पर आक्रमण--आगे चल कर, देवपक्ष के देव ___ दण्ड एवं ही राजेंद्र क्षत्रधर्मो न मुण्डनम् । वेदों के बल से पुनः सामर्थ्यशाली न हो जायें, इस हेतु | से इसने चारों वेदों को नष्ट करना चाहा। एक बार विष्णु (क्षत्रिय का प्रथम कर्तव्य राज्य करना है, संन्यास जब गहरी निद्रा में सो रहे थे, तब इसने वेदों पर आक्रमण | लेना नहीं है)। किया। इसके भय से चारों वेद भाग कर समुद्र में छिप ___ अपने उपर्युक्त कथन के पुष्टयर्थ, व्यास ने शंख एवं लिखित नामक ऋषियों में संघर्ष होने पर, सुद्युम्न राजा ने __ वेदों के लुप्त हो जाने से, पृथ्वी की सारी जनता संत्रस्त | किस प्रकार व्यक्तिनिरपेक्ष न्याय दिया, इस संबंध में हुई। पश्चात् ब्रह्मा ने विष्णु के पास जा कर उन्हें जगाया, एक प्राचीन कथा का निवेदन किया (म. शां. २४; एवं शंख का वध करने की प्रार्थना की। लिखित देखिये)। वध--तदुपरांत विष्णु ने मत्स्य का रूप धारण कर धर्मशास्त्रकार-- इसके नाम पर निम्नलिखित तीन समुद्र में प्रवेश किया, एवं कार्तिक शुक एकादशी के | स्मृतिग्रंथ उपलब्ध है:-१. लघुशंखस्मृति, जिसमें ७१ दिन इसका वध किया। इसके वध के पश्चात् , विष्णु ने | श्लोक हैं, एवं जो आनंदाश्रम, पूना के 'स्मृतिसमुच्चय' चारों वेदों कों विमुक्त किया। इसी कारण कार्तिक माह, में प्रकाशित की गयी है; २. बृहतूशंखस्मृति, जिसमें एवं विशेषतः कार्तिक शुक्ल एकादशी विष्णुभक्तों में अत्यंत अठारह अध्याय हैं, एवं जो वेंकटेश्वर प्रेस, बैबई के पवित्र मानी जाती है ( पद्म. स. १; उ. ९०-९१)। द्वारा प्रकाशित हो चुकी है; ३. शंख-लिखितस्मृति, जो स्कंद के अनुसार, इसका वध कार्तिक एकादशी के दिन इसने अपने भाई लिखित' के सहयोग से लिखी थी। नहीं, बल्कि आषाढ शुक्ल एकादशी के दिन हुआ था (स्कंद. इस स्मृति में कुल ३४ श्लोक हैं, एवं उसमें परान्न । ४.२.३३)। भोजन, अतिथिपूजन आदि विषयों की चर्चा की गयी है। २. पाताल में रहनेवाला एक सहस्रशीर्ष नाग, जो | आनंदाश्रम, पूना के द्वारा वह प्रकाशित की गयी है। • कश्यप एवं कद के पुत्रों में से एक था (म. आ. ३१.८ ७. (सो. पूरू.) एक राजा, जो जनमेजय पारिक्षित ' भा. ५.२४.३१)। नारद ने इंद्रसारथि मातलि से इसका | राजा एवं वपुष्टमा का पुत्र, एवं शतानीक राजा का भाई परिचय कराया था (म. उ. १०१.१२)। बलराम के | था (म. आ. ९०.९४)। निर्वाण के समय, यह उनके स्वागतार्थ उपस्थित हुआ था। ८. एक ऋषि, जिसे ब्रह्मदत्त राजा ने अपना सारा धन (म.मौ. ५.१४)। दान के रूप में प्रदान किया था (म. शां. २२६. ३. उत्तम मन्वंतर के सप्तर्षियों में से एक । | २९; अनु. १३७.१७)। . ४. एक मत्स्यदेशीय महारथ राजकुमार (म. उ. ९. एक केकयराजकुमार, जो भारतीय युद्ध में ५६९%), जो विराट एवं सुरथा का पुत्र, तथा उत्तर एवं | पांडवों के पक्ष में शामिल था, एवं जिसकी श्रेणी 'रथी' उत्तरा का भाई था। भारतीय युद्ध में, यह द्रोण के द्वारा | थी (म. उ. १६८.१४)1 मारा गया (म. भी. ७८. २१)। १०. कुवेरसभा का एक यक्ष (म. स. ९.१३)। ५. एक यक्ष, जो मणिभद्र एवं पुण्यजनी के पुत्रों में | ११. एक जगन्नाथभक्त राजा, जो हैहयवंशीय भूत से एक था (ब्रह्मांड. ३.७.१२३)। राजा का पुत्र था । जगन्नाथ ने दर्शन दे कर, इसे मुक्ति ६. एक ऋषि, जो जैगीषव्य एवं एकपर्णा (एकपाटाला) प्रदान की (स्कंद. २.१.३८)। हैहय राजाओं के वंशाका पुत्र, एवं लिखित ऋषि का भाई था (ब्रह्मांड. २.३०. | वलि में इसका नाम अप्राप्य है। ४०; वायु ७२.१९)। १२. एक राजा, जिसे सत्पुरुषों के पदधूलि से मुक्ति महाभारत में--इसकी एवं इसके भाई लिखित की | प्राप्त हुई (पद्म. क्रि. २१)। कथा महाभारत में विस्तृत रूप में प्राप्त है, जो व्यास के १३. एक ब्राह्मण, जिसने स्वयं की चोरी करने आये. द्वारा युधिष्ठिर को कथन की गयी थी। भारतीय युद्ध के | व्याध को 'वैशाख-माहात्म्य' सुना कर उसका उद्धार पश्चात , युधिष्ठिर विरागी बन कर राज्यत्याग करने के लिए | किया (स्कंद. २.७.१७-३१)। . Page #959 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंख कोप्य प्राचीन चरित्रकोश शंख कोष्य--एक आचार्य, जो यज्ञकर्म से संबंधित ४. एक यक्ष, जो कुवेर का अनुचर था। एक बार इसने अनेकानेक नये मतों का प्रवर्तक था। यह जात शाकायन्य गोकुल में रहनेवाली कई गोपियों का हरण किया, जिस नामक आचार्य का समकालीन था (का. सं. २२.७)। कारण कृष्ण ने इसका वध किया, एवं इसके सिर का मणि शंख बाभ्रव्य--एक आचार्य, जो राम कातुजातेय | बलराम को अर्पण किया (भा. १०.३४.२५-३२)। वैव्याघ्रपद्य नामक आचार्य का शिष्य था (जै. उ. बा. । शंखण एवं शंखनाभ -(सू. इ.) इक्ष्वाकुवंशीय ३.४१.१; ४.१७.१)। खगण राजा का नामांतर । ब्रह्मांड में इसके पुत्र का नाम शंख यामायन-एक वैदिक सूक्तद्रष्टा (ऋ.१०.१५)। व्युषिताश्व दिया गया है (ब्रह्मांड. ३.६३.२०५-२०६)। शंखनख-वरुणसभा का एक नाग (म. स. ९.९९%)। शंखचूड--रामसेना का एक वानर । राम के द्वारा शंखपद-एक राजा, जो स्वारोचिष मनु का पुत्र एवं प्रशस्ति की जाने के कारण, यह सुग्रीव के कृपापात्र वानरों शिष्य था। मनु ने इसे सात्वत धर्म का ज्ञान प्रदान किया में से एक बना था (वा. रा. उ. ४०.७)। . था, जो आगे चल कर इसने सुधर्मन् दिशापाल नामक २. एक विष्णुभक्त राक्षस, जो विप्रचित्ति राक्षस का पौत्र, अपने शिष्य को सिखाया था (म. शां.३३६.३४-३५)। एवं दंभ राक्षस का पुत्र था। इसकी पत्नी का नाम तुलसी २. दक्षिण देश का एक राजा, जो कर्दम प्रजापति, एवं था, जिससे इसने गांधर्व विवाह किया था। देवी भागवत में श्रुति के पुत्रों में से एक था (ब्रह्मांड. ३.८.१९)। अपने इसकी पत्नी का नाम पद्मिनी अथवा विरजा दिया गया है । उत्तर आयुष्य में, यह तपस्वी एवं ऋषिक बन गया अपने पूर्व जन्म में, यह सुदामन नामक विष्णु-पार्षद था (मत्स्य. १४५.९६)। (दे. भा. ९.१८)। शंखपाद--एक राजर्षि, जो लोकाक्षि नामक शिवावतार अनाचार-इसकी पत्नी तुलसी के पातिव्रत्य के का एक शिष्य था (वायु. २३.१३५) । कारण, एवं विष्णु से प्राप्त किये विष्णुकवच के कारण, ___ शंखपाद अथवा शंखपाल-एक सहस्रशीर्ष नाग, यह समस्त पृथ्वी में अजेय बन गया था। इसी कवच के जो कश्यप एवं कद के पुत्रों में से एक था। यह भाद्रपद बल से इसने देवों को त्रस्त करना प्रारंभ किया, एवं उनके माह के सूर्य के साथ भ्रमण करता है (भा. १२.११.३८)। राज्य यह हस्तगत करने लगा। शंखपिंड-एक नाग, जो कश्यप एवं कद्र के पुत्रों में वध-इसके दुष्कायों को देख कर, श्रीविष्णु ने इसका से एक था। वध करने का निश्चय किया। तत्पीयर्थ उसने इसकी पत्नी , शंखमत्--एक ऋषिक (वायु. ५९.९४ ) । पाठभेददलसी का पातिव्रत्यप्रभाव नष्ट किया, एवं तत्पश्चात् खपाद' एवं 'शंशपा। एक ब्राह्मण का रूप धारण कर, इससे विष्णुकवच भी मा न शंखमुख-शंखद्वीप में रहनेवाला नागों का एक राजा, दान के रूप में प्राप्त किया। | जो कश्यप एवं कदू के पुत्रों में से एक था (म. आ. ६५. तदपरांत शिव ने काली के समवंत इस पर आक्रमण ११; वायु. ४८.३३)। किया, एवं विष्णु के द्वारा दिये गये शूल का सहायता स शंखमेखल-एक ब्रह्मर्षि, जो सर्पदंश से मृत हुई प्रमद्वरा इसका वध किया । इस युद्ध में शिव की ओर से काली, को देखने के लिए उपस्थित हुआ था (म. आ.८.२०)। एवं इसकी ओर से तमाम राक्षसियों ने भाग लिया था। यह यमसभा का एक सदस्य भी था (म. स. ९.३४)। माहाम्य--इसकी मृत्यु के पश्चात् , इसके हड्डियों से शंखरोमन्--एक नाग, जो कश्यप एवं कटू के पुत्रों शंख बने, जिन्हें विष्णुपूजा में अग्रमान प्राप्त हुआ। में से एक था। शंकर को छोड़ कर अन्य देवताओं पर डाला गया जल शंख लिखित-एक ऋषिद्वय (शंख एवं लिखित तीर्थजल के समान पवित्र माना जाता है । इसका शब्द भी देखिये)। शुभ माना जाता है, किंतु इसके ऊपर तुलसीदल चढ़ाना शंखशिरस--एक नाग, जो कश्यप एवं कद्र के निषिद्ध एवं अशुभ माना गया है (दे. भा. ९.१७.२५, पुत्रों में से एक था (म. आ. ३१.१२)। पाठब्रह्मवै. २.१६-२०; शिव. रुद्र. यु. २७-४०), 'शंखशीर्ष ३. पाताल में रहनेवाला एक प्रमुख नाग (भा. ५. शंग--तामस मन्वंतर एक का योगवर्धन । २४.३१)। ५. उत्तम मन्वंतर का एक ऋषि (मस्त्य. ९.१४)। प्रा. च. ११८] ९३७ Page #960 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंग शंग शास्त्रायाने आत्रेय -- एक आचार्य, जो नगरिन् जानश्रुतेय नामक आचार्य का शिष्य था (जै. उ. ब्रा. ३. ४०. १ ) । ' शास्त्रायन' का वंशज होने के कारण, इसे 'शास्त्रायनि ' पैतृक नाम प्राप्त हुआ होगा । प्राचीन चरित्रकोश शची पौलोमी -- एक वैदिक सूक्तद्रष्ट्री, जो पुलोमन् राजा की कन्या थी । इसके द्वारा रचित सूक्त में सौत का नाश करने के लिए प्रार्थना की गयी है (ऋ. १०. १५९)। पौराणिक साहित्य में - इस साहित्य में इसे इन्द्र की पत्नी एवं जयन्त की माता कहा गया है ( ब्रह्मांड. ३.६. २३) इन्द्र- नहुष संघर्ष में इसने महत्त्वपूर्ण भाग लिया था (नहुष २. देखिये) । इसका सूर्य के साथ संवाद हुआ था (म. अनु. १४.५-६ कुं.) । एक था (म. आ. ५९.२८ ) । २. (सो. वसु. ) एक यादव, जो वसुदेव एवं रोहिणी के पुत्रों में से एक था। कृष्ण के साथ, यह उपलव्य नगरी में पांडवों से मिलने गया था। शतजित् अपनी ओर आकृष्ट किया, एवं इस प्रकार असुरों को पराजित किया । ये शुक्र के प्रमुख शिष्यों में से दो थे, एवं असुरपक्ष को विजय प्राप्त कराने के हेतु शुक्र ने इन्हें असुरों का प्रमुख गुरु बनाया था। किंतु अंत में देवों ने इन्हें सोम शठ - एक दानव, जो कश्यप एवं दनु के पुत्रों में से की लालच दिखा कर अपने पक्ष में दाखल कराया, एवं समय छलांग मारी थी ( वा. रा. सुं. ६.२४ ) । ४. वसिष्ठकुलोत्पन्न एक गोत्रकार ऋषिगण । शंड -- शंडामर्क नामक ऋषिद्वय में से एक (शेडाम देखिये) । २. एक कुष्मांड पिशाच, जो कपि नामक पिशाच के दो पुत्रों में से एक था। इसके भाई का नाम अज था। इसकी जंतुधना, एवं ब्रह्मधामा नामक दो कन्याएँ थीं, जिनका विवाह क्रमशः यक्ष एवं रक्षस् से हुआ था । शेड की इन दोनों कन्याओं का वंशविस्तार पुराणों में प्राप्त है (ब्रह्मांड. ३.७.७४–९७ ) । आगे चल कर, देवों के द्वारा यज्ञ प्रारंभ करते ही, सोमप्राप्ति की आशा से ये उपस्थित हुए। किंतु देवों ने इन्हें सोम देने से साफ इन्कार किया, एवं फजिहत कर इन्हें यज्ञस्थान से दूर भगा दिया ( तै. सं. ६.४.१० तै. बा. १.१.१ ) । पौराणिक साहित्य में - इस साहित्य में इन्हें शुक्र एवं गो के चार पुत्रों में से दो कहा गया है, एवं इनके अन्य दो भाइयों के नाम त्वष्ट एवं वरत्रिन् बताये गये हैं। प्रल्हाद के गुरु -- असुरराज हिरण्यकशिपु ने इन्हें ३. एक राक्षस, जिसके घर पर हनुमत् ने लंकादहन के अपने पुत्र प्रह्लाद का गुरु नियुक्त किया था, किंतु . यह कार्य भी ये सुयोग्य प्रकार से पूरा न कर सकें (भा. ७.५.१) । इस प्रकार असुरों को पराजित करने के कार्य में देवपक्ष सफल बन गया ( वायु. ९८.६२-६७; मत्स्य. ४७.५४६ २२९.३३, ब्रह्मांड. ३.७२-७३ ) । शंडामर्क -- एक ऋषिद्वय, जो असुरों का पुरोहित था ( तै. सं. ६.४.१०.१९; मै. सं. ४.६.३; तै. बा. १.१.१. ५; श. ब्रा. ४.२.१.४-६ ) । वैदिक साहित्य में इन दोनों का अलग-अलग निर्देश भी प्राप्त है ( वा. सं. ७.२.१२१३, १६.१७ ) । ' शुक्रामंधिग्रह ' ग्रहण करने की पद्धति इन दो पुरोहितों के कारण प्रस्थापित हुई थी ( तै. सं. ६. ४. १०) । असुरों के पुरोहित - बृहस्पति जिस प्रकार देवों का पुरोहित था, उसी प्रकार शेड एवं मर्क असुरों के पुरोहित थे। इन्हींके कारण असुर-पक्ष सदैव अजेय रहता था । अंत में इन्हें सोम की लालच दिखा कर, देवों ने इन्हें ९३८ शंडिल - कश्यप कुलोत्पन्न एक गोत्रकार । २. अट्ठाइस व्यासों में से एक ( व्यास पाराशर देखिये) । शत-- जंभासुर के शतंदुदुभि नामक पुत्र का नामांतर ( वायु. ६७.७८ ) । शतकिलाक -- जैगीषव्य ऋषि का पिता । शतगामि-- जटायु के पुत्रों में से एक (मत्स्य. ६. ३६, पद्म. सृ. ६) । शतगुण -- एक देवगंधर्व, जो कश्यप एवं क्रोधा के पुत्रों में से एक था ( ब्रह्मांड. ३.६.३९ ) । शतग्रीव - एक दानव, जो कश्यप एवं दनु के पुत्रों में से एक था ( ब्रह्मांड. ३.६.११ ) । शतघंटा -- स्कंद की अनुचरी एक मातृका (म. श. ४५.११) । शतचंद्र -- कौरव पक्ष का एक योद्धा, जो गांधारराज सुबल का पुत्र, एवं शकुनि का भाई था । भीमसेन ने इसका वध किया ( म. द्रो. १३२.२० ) । शतजित् - - ( स्वा. प्रिय.) एक राजा, जो विरज एवं विषूची के सौ पुत्रों में से एक था ( भा. ५.५.१५ ) । Page #961 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतजित् . प्राचीन चरित्रकोश शतमायु १२. (सो. सह.) एक राजा, जो सहस्रजित् राजा का | शतधन्वन्-(सो. कोष्ट.) मिथिला देश का एक पुत्र था। इसके महाय, वेणुहय एवं हैहय नामक दुष्टप्रकृति भोजवंशीय यादव राजा, जो हृदीक राजा का तीन सुविख्यात पुत्र थे (भा. ९.२३.२१)। पुत्र, एवं कृतवर्मन् राजा का भाई था। भागवत एवं ३. कृष्ण एवं जांबवती का एक पुत्र, जो प्रभासक्षेत्र विष्णु में उसे शतधनु कहा गया है। में यादवी युद्ध में मारा गया था (भा. ९.६१.११)। कलिंग देश के राजा चित्रांगद की कन्या के स्वयंवर ४. एक यक्ष, जो आश्विन माह के सूर्य के साथ भ्रमण | में यह उपस्थित था (म. शां. ४.७)। अकर एवं कृतकरता है। वर्मन के कथनानुसार, इसने यादवराजा सत्राजित् का ५.(स्वा. नाभि.) एक राजा, जो रजस् राजा का वध किया, एवं उसका स्यमंतक मणि ले कर यह भाग पुत्र, एवं विश्वग्ज्योति आदि सौ पुत्रों का पिता था | गया (भा. १०.५७.५-२०)। (ब्रह्मांड. २.१४.७०-७२) । इस 'शतति' नामांतर पश्चात् कृष्ण ने इस पर आक्रमण किया, एवं यह भी प्राप्त था। विज्ञातहृदया नामक घोड़ी पर सवार होकर भागने लगा। शतज्योति--वैवस्वत मनुपुत्र सुभ्राज के तीन पुत्रों मिथिला नगरी के समीप श्रीकृष्ण ने इसे पकड़ कर इसका में से एक । इसे एक लक्ष. पुत्र उत्पन्न हुए थे (म. आ. शिरच्छेद किया (ह. वं. १. ३९. १९)। किंतु स्यमंतक मणि अकर के पास रखने के कारण, श्रीकृष्ण शततारका--सोम की सत्ताइस पत्नियों में से एक। । को वह प्राप्त न हो सका (भा. १०.५८.९; अकर एवं शतति--(वा. नाभि.) रजस पुत्र शत राजा का सत्राजित् देखिये)। नामांतर (शत '.. देखिये)। २. मौर्यवंशीय शतधनु राजा का नामान्तर । शततेजस--बारहवाँ व्यास ( व्यास पाराशर देखिये)।। ३. एक विष्णुभक्त राजा, जिसके पत्नी का नाम शैब्या शतदंए--एक राक्षस, जो कश्यप एवं खशा के पुत्रों था। एक पाखंडी व्यक्ति से मिलने के कारण, इसे एवं में से एक था (ब्रह्मांड. ३.७.१३५)। इसकी पत्नी को अनेकानेक कष्ट सहने पड़े (विष्णा. ३. शतदुंदुभि--जंभासुर के पुत्रों में से एक (जंभ. ९. | १८.५३-९५)। देखिये)। ४. हंसध्वज राजा का प्रधान, जिसकी माता का नाम शतद्यम्न-- एक राजा, जिस पर मत्स्य देवता ने | सुमात था। कृपा की थी (ते. ब्रा. १.५.२.१)। शतपर्वा--शुक्राचार्य की भार्या (म. उ. ११५.१३)। २. (स, निमि.) एक दानशूर राजा, जो विष्ण एवं शतप्रभेदन वैरूप--एक वैदिक सूक्तद्रष्टा (ऋ.१०. भागवत के अनुसार भानुमत् राजा का पुत्र था (भा. ९. | १३.२१-२२)। वायु में इसे 'प्रद्युम्न' कहा गया है। शतबल-रामसेना का एक वानर सेनापति ( वा. रा. इसने मौद्गल्य ऋषि को एक सोने का गृह प्रदान कि. ४३.१) किया था, जिस कारण इसे स्वर्गप्राप्ति हुई (म. शां. शतबलाक--एक आचार्य, जो ब्रह्मांड के अनुसार, २२६.३२: अनु. १२६.३२)। व्यास की ऋशिष्यपरंपरा में से शाकवैण रथीतर २. चाक्षुष पनु एवं नड्वला के पुत्रों में से एक था | नामक आचार्य का शिष्य था। (ब्रहांड. २.३६.७९)। शतबलाक्ष मौदगल्य–एक वैयाकरण, जिसके द्वारा शतदति-छाया अथवा सवर्णा का नामान्तर। की गयी ‘मृत्यु' शब्द की निरुक्ति का निर्देश यास्क के शतधनु-( सो. क्रोष्ट.) यादववंशीय शतधन्वन् । निरुक्त में प्राप्त है (नि. ११.६)। राजा का नामान्तर। शतबाहु--एक असुर, जो हिरण्यकशिपु का अनुगामी २.(मौर्य. भविष्य.) एक राजा, जो ब्रह्माड के अनु- था। सार देववर्मन् मौर्य राजा का पुत्र था (ब्रह्मांड. ३.७४. शतभेदन वैरूप--एक वैदिक सूक्तद्रष्टा (ऋ. १०. १४८) । विष्णु, भागवत, एवं मत्स्य में इसे 'सोम- ११३)। शर्मन्पुत्र शतधन्वन्' एवं वायु में इसे 'शतधर' कहा शतमायु--एक दानव, जो कश्यप एवं दनु के पुत्रों गया है। | में से एक था (वायु. ६८.११)। ९३९ Page #962 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतमुख प्राचीन चरित्रकोश शतमुख-एक शिवभक्त असुर, जिसने सौ साल तक अपने मांसखंडों की आहुति दे कर शिव की तपस्या की थी, जिस कारण संतुष्ट हो कर शिव ने इसे अनेकानेक वर प्रदान किये थे ( म. अनु. ४५.६८ ) । शतमुखी रावण -- मायापुरी का एक राक्षसराज, जिसने निकुंमपुत्र पौंड्रक राक्षस के साथ संकाधिपति विभीषण को पदच्युत करने का पर्यंत्र रचा था, किन्तु अंत में राम ने इसका वध किया ( आ. रा. राज्य. ५: पौंड्रक देखिये) । शतयातु-- एक ऋषि, जिसका निर्देश ऋग्वेद में पराशर के पश्चात् एवं वसिष्ठ के पहले किया गया है (ऋ. ७.१४.२१ ) | गेल्डनर के अनुसार यह वसिष्ठ ऋषि के पुत्रों में से एक था ( गेल्डनर, वेदिशे स्टूडियन ७,१८.२१ ) । शतयूप- केकय देश का एक तपस्वी राजा, जिसने अपना राज्य अपने पुत्रों को सौंप कर कुरुक्षेत्र के वन में तपस्या प्रारंभ की थी। इसके पितामह का नाम सहस्रचित्य था । अपने आयुष्य के उत्तरकाल में धृतराष्ट्र इसके आश्रम में आया था जिसे इसने वनवास की विधि बतायी थी ( म. आ. २५.९) । शतरथ-- ( .) एक राजा जो मूलक राजा का पौत्र एवं दशरथ राजा का पुत्र था। बायु में इसे मूलक राजा का पुत्र कहा गया है (वायु. ८८.१८० ) । इसे ' इलविल' एवं ' इडविड' नामांतर भी प्राप्त था, जिस कारण इसके पुत्र 'ऐलविल' अथवा 'ऐडविड' नाम से सुविख्यात हुए । शतानीक सोलह १; आश्व. गृ. ३३ ) । इस ऋषिसमुदाय में कुल ऋषि समाविष्ट थे ( आर्पानुक्रमणी १.५ ) । २. एक ऋषि, जोगराजकुमार हेमकांत के द्वारा मारा गया था ( हेमकांत देखिये) । शतलोचन -- स्कंद का एक सैनिक ( म. रा.४४.५६) । शतशब्लाक जैगीषव्य ऋषि का पिता, जिसकी पत्नी का नाम एकरातात्य था पाठभेद (वायु पुराण)'शशि' (ब्रह्मांड २.१०.२०१७२.१८ ) । शतशाद---एक दानव, जो कश्यप एवं दनु के पुत्रों में से एक था। शतशीर्षा -- वासुकि नाग की पत्नी ( म. उ. ११५. ४६० ) । - शतहय - - तामस मनु के पुत्रों में से एक । शतह्रद ---एक दानव, जो कश्यप एवं दनु के पुत्रों में से एक था ( मत्स्य ६.१८ ) । शतह्रदा -- एक राक्षसी, जो जवासुर की पत्नी एवं विराध की माता थी । शताजित् - (सो. क्रोष्टु.) एक यादव राजा, से भजमान एवं बाहयका के पुत्रों में से एक था ! शतानंद -- एक ऋषि, जो गौतम शरद्वत् तथा ब्रह्ममानसकन्या एवं दिवोदासभगिनी अहत्या का पुत्र था। यह विदेह देश के जनक राजा का पुरोहित था, एवं राम दाशरथि के विवाह में यह मुख्य पुरोहित था ( वा. रा. बा. ५०-५१ मा. ९.२१.३४ - ३५ ) । इसके पुत्र का नाम सत्यवृति था । पाठभेद ( मस्त्यपुराण ) - ' शारद्वत' । २. सावर्णि मन्वन्तर के सप्तर्पियों में से एक । शतानीक -- (सो. कुरु. ) एक राजकुमार, जो नकुल एवं द्रौपदी का पुत्र था ( म. आ. ५७.१०२ ९०.८२; मा ९.२२. २९६ मात्य. ५०.५३ ) । शतरूप - सुतार नामक शिवावतार का एक शिष्य । शतरूपा -- ब्रह्मा की एक मानसकन्या, जो उसके यामांग से उत्पन्न हुई थी। इसे सरस्वती नामांतर भी प्राप्त था ( भा. ३.१२.५२ ) । इसने दीर्घकाल तक तपस्या कर स्वायंभुव मनु राजा को पतिरूप में प्राप्त किया था। स्वायंभुव मनु से इसे प्रियव्रत, उत्तानपाद आदि सात पुत्र एवं देवहूति नामक तीन कन्याएँ उत्पन्न हुई थी ( ब्रह्मांड. २.१.५७ ) । मस्स्य में इसे अपने पिता ब्रह्मा से ही स्वायंभुव मनु मारीच आदि सात पुत्र उत्पन्न होने का निर्देश प्राप्त है। आगे चल कर मारीच को वामदेव, सनत्कुमार आदि पुत्र उत्पन्न हुए थे ( मत्स्य. ४,२४ - ३० ) । २. (सो. कुरु. भविष्य.) एक राजा, जो परिक्षित पुत्र शतर्बिन एक ऋपिसमुदाय, जिसे ऋग्वेद के कई जनमेजय का पुत्र था। इसकी माता का नाम वपुष्मा सूक्तों के प्रणयन का श्रेय दिया गया है ( ऐ. आ. २.२. | था, जो काशिराज की कन्या थी ( म. आ. ९०.९४ ) । ९४० भारतीय युद्ध में इसका निम्नलिखित योद्धाओं के साथ युद्ध हुआ था :- १. भृतकर्मन् ( म. द्रो. २४.२२ ); २. चित्रसेन (म. हो. १४३.९) २. मैन (म.प. १८ १२-१६ ); ३. अश्वत्थामन् ( म. क. ३९.१५); ५६ कुणिंदपुत्र (म. क. ६२.५२) । इसके रथ के अश्व शालपुष्प के समान रक्तिम पीले वर्ण के थे ( म. द्रो. २२.२३) । भारतीय युद्ध के अठारहवें दिन हुए रात्रियुद्ध में अश्वत्थामन् ने इसका वध किया ( म. सौ. ८.५४ ) । Page #963 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतानीक प्राचीन चरित्रकोश शत्रुघ्न इसने याज्ञवल्क्य, कृप, एवं शौनक से क्रमशः वेदविद्या, | यज्ञाश्व का हरण किया था (श. बा. १३.५.४.९-१३)। अत्रविद्या, एवं आत्मविद्या प्राप्त की थी । समंतु नामक | यह सत्राजित राजा का पुत्र था, एवं वाजरत्नपुत्र आचार्य ने इसे भारत एवं भविष्य पुराण कथन किया था सोमशुष्म नामक आचार्य ने इसे 'ऐन्द्र महाभिषेक' (भवि. ब्राह्म. १.३०-३६)। किया था (ऐ. बा. ८.२१)। अथर्ववेद के अस्पष्ट अर्थ इसकी पत्नी का नाम वैदेही था, जिससे इसे अश्व के एक सूक्त में, दाक्षायणों के द्वारा इसे बाँधा जाने का मेधदन (सहस्रानीक) नामक पुत्र उत्पन्न हुआ था | निर्देश प्राप्त है (अ. वे. १.३५.१; वा. सं. ३४.५२)। (ना. ९.२२३८-३९)। शतानीक राजा के जीवनात शतायु--(सो. पुरूरवस्.) एक राजा, जो विष्णु, से महाभारत में प्राप्त कुरुवंश का वृत्तान्त समाप्त होता है, मत्स्य एवं वायु के अनुसार, पुरूरवस् एवं उर्वशी के छ: (म. आ. ९०.९४-९६)। किंतु विष्णु में परिक्षित् राजा पुत्रों में से एक था (मत्स्य. २४.३४)। भागवत में इसे से ही कुरुवंश का वर्णन समाप्त होता है, एवं उसके आगे | 'सत्यायु' कहा गया है। 'भविष्य वंश' प्रारंभ होता है (विष्णु. ४.२१.१-२; भा. शत्रि आग्निवेशि--एक उदार राजा, जो अग्निवेश का पुत्र था । सांवरण प्राजापत्य नामक आचाय के द्वारा यह अत्यंत विरक्त प्रकृति का राजा था, जिस कारण | इसके दातृत्त्व की प्रशंसा की गयी है (र. ५.३४.९)। अपनी उत्तर आयुष्य में आत्मज्ञान प्राप्त कर,यह स्वर्गलोक शत्रुघातिन्--(सू. इ.) शत्रुघ्न का ज्येष्ठ पुत्र, प्रविष्ट हुआ। जिसकी माता का नाम श्रुतकीर्ति था (वा. रा. उ. १०८. ३. (सो. कुरु. भविष्य) एक कुरुवंशीय राजा, जो | ११)। इसे निम्नलिखित नामांतर भी प्राप्त थे:महाभारत के अनुसार वसुदान राजा का, मत्स्य के अनु- | यूपकेतु; शूरसेन (वायु. ८८. १८६); श्रुतसेन (भा. सार वसुदामन राजा का, एवं भागवत के अनुसार सुदास ९.११.१३)। लक्ष्मण के पश्चात् , यह वैदिश राज्य के राजा का पुत्र था (मत्स्य ५०.८६)। इसके पुत्र का नाम राजसिंहासन पर अधिष्ठित हुआ था (वा. रा. उ. दुर्दमन (उदयन) था (भा. ९.२२.४३)। इसका सविस्तृत १०८.११)। बंदाक्रम विष्णु में निम्नप्रकार दिया गया है:-वसुदामन- परिवार--इसकी निम्नलिखित पत्नियाँ थी:-- १. शतानीक-उदयन-वहीनर-खंडपाणि-निरमित्र-क्षेमक । मदनसुंदरी एवं २. शिवकांति, जो कंबुकंठ राजा की कन्याएँ क्षेमक राजा के साथ सोमवंश समाप्त होता है (विष्णु. | | थी, एवं जो इसे स्वयंवर में प्राप्त हुई थी (आ. रा. ४.२१.३)। | विवाह. ८); ३. मालती (आ. रा. विवाह. ७)। ४. मत्स्यनरेश विराट के सोमदत्त नामक छोटे भाई शत्रुघ्न--(सू. इ.) एक इक्ष्वाकुवंशीय राजा, जो 'का नामान्तर (म. वि. ३०.१३)। भारतीय युद्ध में यह दशरथ राजा का पुत्र, एवं राम दाशरथि का कनिष्ठ सापत्न द्रोण के द्वारा मारा गया (म. वि. ३.१९; म. द्रो.२०.२२; बंधु था । इसकी माता का नाम सुमित्रा था, एवं लक्ष्मण क. ४.८३)। इसका ज्येष्ठ सगा भाई था। फिर भी अपने सापत्न ५. मत्स्यनरेश विराट का भाई एवं सेनापति । विराट बंधु भरत से ही यह अधिक सहानुभाव रखता था, जिसके द्वारा किये गये घोषयात्रा युद्ध में, इसने त्रैगों के साथ कारण 'राम-लक्ष्मण' के समान 'भरत-शत्रुघ्न' का युद्ध किया था (म. वि. ३१.१६)। जोड़ा भ्रातृभाव की ज्वलंत प्रतिमा बन कर प्राचीन भारतीय युद्ध में यह पांडवों का प्रमुख योद्धा था (म. | इतिहास में अमर हो चुका है। द्रो. १४३.२७) । इसी युद्ध में, शल्य के द्वारा इसका वध राम का यौवराज्याभिषेक--दशरथ के द्वारा राम का हुआ (म. द्रो. १४३.२७)। यौवराज्याभिषेक जब निश्चित हुआ, उस समय यह भरत ६. ब्रह्मसावर्णि मनु के पुत्रों में से एक (ब्रह्मांड. ४. के साथ उसके ननिहाल में था। अयोध्या आने पर १.७२)। इसे राम को वनवास प्राप्त होने के संबंध में वार्ता ज्ञात ७. एक राजा, जो बृहद्रथ राजा का पुत्र था (विष्णु. हुई । पश्चात् इस सारे अनर्थ का कारण मंथरा है, यह | ज्ञात होते ही इसने उसे पकड़ कर घसीटा, एवं खूब हातानीक सात्राजित--एक भरतवंशीय सम्राट् , - पीटा । यह उसका वध भी करना चाहता था, किन्तु भरत जिसने काशिनरेश धृतराष्ट्र को पराजित कर, उसके | ने इसे इस अविचार से परावृत्त किया। ९४१ Page #964 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन चरित्रकोश शत्रुघ्न अपनी सापत्न माता कैकेयी के मोह में फँस कर राम जैसे पुण्यपुरुष 'को वनवास देनेवाले अपने पिता दशरथ को भी इसने बुरा-भला कहा, एवं इस दुःखी घटना का अवरोध न करनेवाले अपने ज्येष्ठ भाई को भी काफ़ी दोष दिया (वा. रा. अयो. ७८.२ - ४ ) । पादुका संरक्षण - राम की पादुका ले कर नन्दिग्राम लैट आनेवाले भरत के शरीररक्षक के नाते यह भी उपस्थित था । राम के वनवासकाल में शत्रुघ्न कहाँ रहता था, इस संबंध में कोई भी जानकारी 'वाल्मीकि रामायण' में उपलब्ध नहीं है। राम के वनवाससमाप्ति के पश्चात् यह उसका धनुष एवं बाण ले कर उसका स्वागत करने गया था। लवणवध — वनवास काल के पश्चात् राम अयोध्या का राजा बन गया, तब उन्हीं के आदेश से इसने लवणासुर पर आक्रमण किया । बासुर यमुनावट के निवासी च्यवन भार्गवादि ऋषियों को त्रस्त करता था । उसके पिता मधु को शिव से एक अजेय शूल प्राप्त हुआ था, एवं शिव ने उसे आशी र्वाद दिया था कि, जब तक वह शूल लवण के हाथ में रहेगा, तब तक यह अवश्य होगा ( वा. रा. उ. ६१. २४) । इसी शूल के बल से लवण अब समस्त पृथ्वी पर अत्याचार करने के लिए प्रवृत्त हुआ था। च्यवन भागर्वादि ऋषियों ने लवण की शिकायत राम से की, जिस पर राम ने शत्रुघ्न को इस प्रदेश का राज्याभिषेक किया, एवं इसे लवण का वध करने की आज्ञा दी । इसने एक विशाल सेना को मधुवन की ओर भेज दिया, एवं स्वयं एक रात्रि बाल्मीकि के आश्रम में व्यतीत कर, यह मधुवन के लिए रवाना हुआ। अयोध्या से निकल ने के पश्चात् चौथे दिन यह मधुपुर पहुँच गया। मधुपुर पहुँचते ही इसने देखा कि, शिव के द्वारा दिया गया शूल अपने राजभवन में रख कर, लवण कहीं बाहर गया था। इसने वह शूल हस्तगत किया, एवं यह उस राक्षस की राह देखते मधुपुर के द्वार में ही खड़ा हुआ पश्चात् इन दोनों में घमासान युद्ध हुआ, इसने लवण का वध किया। 1 जिसमें इसने " मथुरा की स्थापना -- लवणवध के पश्चात् मधुवन में स्थित मधुपुरी अथवा मधुरा नगरी में राजधानी स्थापित कर उसका नाम 'मथुरा रक्खा अपनी ' शत्रुघ्न कर उसे 'शरसन' नाम प्रदान किया। आगे चलकर इसी नाम से यह प्रदेश सुविख्यात हुआ । " राम से भेंट- इस प्रकार, बारह वर्षों तक मधुपुरी में राज्य करने के पश्चात् राम के दर्शन की इच्छा इसके मन में उत्पन्न हुई । तनुसार यह अयोध्या पहुँचा, एवं इसने मधुपुरी छोड़ कर राम के पास ही अयोध्या में रहने की इच्छा प्रदर्शित की। किंतु राम ने इसे इस निश्चय से परावृत कर, क्षात्रधर्म के अनुसार मधुपुरी में प्रजापालन का कार्य करने की आज्ञा दी ( प्रजा हि परिपाल्या क्षत्रधर्मेण वा. . . ७२.१४) । पश्चात् सात दिनों तक अयोध्या में रह कर यह मधुपुरी लौट गया। मधुपुरी वापस शते समय इसे वाल्मीकि के आश्रम में कुशलयों के द्वारा रामायण सुनने का अवसर प्राप्त हुआ । " . राम का अश्वमेधयज्ञ -- राम के अश्वमेध यज्ञ के समय, अश्वमेधीय अश्व के संरक्षण का भार इसे सौंपा गया था ( वा. रा. उ. ९१ ) । अश्वसंरक्षण के हेतु के द्वारा किये गये पराक्रम का कल्पनारम्य वर्णन पद्म में .. प्राप्त है, जहाँ इस कार्य के लिए इसने पाताल में दिख जय करने का ( पद्म. पा. ३८ ), एवं शिव से युद्ध करने का निर्देश प्राप्त है (पद्म. पा. ४२ ) । शत्रुश के अश्वमेधीय दिविजय में निम्नलिखित वीर शामिल थे: प्रतापाय, नीरन, लक्ष्मीनिधि, रिताप उग्रहय, शस्त्रवित्, महावीर, रथाग्रणी, एवं दंडभृत् ( पद्म. पा. ११ ) । - दिग्विजय- अश्वमेधीय अश्व के साथ इसने निम्नलिखित देशों में दिग्विजय कर अपना प्रभुत्व प्रस्थापित किया थायांचाल, कुरु, उत्तरकुरु दशाणं, विशाल, अहिच्छत्र, पयोष्णी, रत्नातटनगर, नीलपर्वत, चक्रांकनगर, तेजःपूर, नर्मशतीर, पाताळलोक, विंध्यपर्वत में स्थित देवपूरनगर, भारतवर्ष की सीमा के बाहर स्थित हेमकूटपर्वत, अंग, बंग, कलिंग, कुंडलनगर, कुंडलनगर, गंगातीर में स्थित वाल्मीकि आश्रम (पद्म. पा. १-६८ ) । मृत्यु --- अपना आयुःकाल समाप्त हो गया है, यह जान कर राम ने भरत एवं शत्रु को अयोध्या में बुला लिया, एवं ये तीनों भाई सरयू नदी के तट पर 'गोप्रतारतीर्थ' में वैष्णव तेज़ में विलीन हुए ( वा. रा. उ. ११० ) । लक्ष्मण की मृत्यु इसके पहले ही हो चुकी थी (राम दाशराथ देखिये) । ( २.६२.१८६ वायु, ८८.१८५- १८६.९. परिवाद इसकी पत्नी का नाम श्रुतकीर्ति था, जो ११.१४ ) | पश्चात् इसने 'मधुवन' राज्य का नाम बदल | कुशध्वज जनकराजा की कन्या थी ( वा. रा. ग. ७३. ९४२ Page #965 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शत्रुघ्न प्राचीन चरित्रकोश शनि ३३) । अपनी इस पत्नी से इसे शत्रुघातिन् एवं सुबाहु | हरण के समय, अर्जुन के द्वारा यह मारा गया (म. व. नामक दो पुत्र उत्पन्न हुए थे। भागवत एवं विष्णु में इसके | २४९.१०)। पुत्र शत्रुघातिन् का नाम क्रमशः 'श्रुतसेन' एवं 'शूरसेन ६. एक त्रैगर्त योद्धा, जो अर्जुन के द्वारा मारा गया दिया गया है (भा. ९.११.१३-१४; विष्णु. १.१२.४ )। (म. क. १९.१०)। वायु में भी इसके प्रथम पुत्र का नाम शूरसेन बताया गया ७. सौवीर देश के कणिक राजा का नामांतर, जिसे है (वायु. ८८.१८६)। भरद्वाज ऋषि ने राजधर्म एवं कूटनीति का उपदेश किया था अपनी मृत्यु के पूर्व इसने सूबाह एवं शत्रघातिन् को (म. शां. १३८.४)। क्रमशः मथुरा एवं शूरसेन देश का राज्य दिया था शत्रुजया--स्कंद की अनुचरी एक मातृका (म. (वा. रा.उ. १०७.१०८) । वायु के अनुसार दोनों ही श. ४५.६)। पुत्रों को इसने मथुरा का ही राज्य प्रदान किया था। शत्रुतपन--एक दानव, जो कश्यप एवं दनु के पुत्रों में से एक था (म. आ. ५९.२८)। २. लंका का एक रावणपक्षीय राक्षस (वा. रा. यु. ४३)। शतप-दुर्योधन की सेना का एक राजा, जो कर्ण ३. (सो. क्रोष्ट.) एक यादव राजकुमार, जो श्वफल्क का भाई था। अर्जुन ने 'उत्तर-गोग्रहण' के समय, यादव के तेरह पुत्रों में से एक था (भा. ९.२४.१७)। इसका वध किया (म. वि. ४९.१३)। ४. अकर यादव के पुत्रों में से एक (मत्स्य, ४५.२९)। शत्रुमर्दन--एक राजा, जो ऋतुध्वज एवं मदालसा ५. एक यादव राजकुमार, जो भङ्गकार एवं नरा के का तृतीय पुत्र था (मार्क. २३.२६)। पुत्रों में से एक था। अक्रूर ने इसका वध किया (वायु. शत्रुसह--(सो. कुरु.) धृतराष्ट्र का एक पुत्र, जो ९६.८५)। भारतीय युद्ध में कर्ण का शरीरसंरक्षक था। भीमसेन के शत्रुजित्-(सो. विदू.), एक राजा, जो शोणाश्व द्वारा यह मारा गया (म. द्रो. ११२.४०)। राजा का पुत्र था (मत्स्य. ४४.७९)।' शत्रुसूदन-दशरथ राजा के सूज्ञ नामक मंत्री का पुत्र । ' २: (सू. इ. ) एक राजा, जो मत्स्य के अनुसार शधीय--एक आचार्य, जो ब्रह्मांड के अनुसार, मांधातू राजा का पुत्र था (मत्स्य १२.३५)। भागवत, | व्यास के सामशिष्य परंपरा में से हिरण्यनाभ नामक विष्णु, एवं वायु में इसे 'अंबरीष' कहा गया है। | आचार्य का शिष्य था। ३.(सू. इ.) एक राजा, जो ध्रुवसंधि राजा एवं शनि--एक पापग्रह, जो नौ ग्रहों में से एक प्रमुख लीलावती का पुत्र था। ग्रह माना जाता है (मत्स्य. ९३.४४) । इसे ' शनैश्चर' ४. प्रतर्दन राजा का नामांतर (विष्णु. ४.८.१२)। | नामांतर भी प्राप्त था । लोहे से बने हुए रथ से यह .५ कुवलयाश्व राजा का नामांतर (भा. ९.१७.६)। | समस्त ग्रहमंडल का परिभ्रमण तीस माह में पूरा करता है शत्रुजय---धृतराष्ट्र का एक पुत्र । भारतीय युद्ध में | (भा. ५.२२.१६)। इस पर भीष्म के रक्षण का भार सौंग गया था (म. पौराणिक साहित्य में--इस साहित्य में इसे महाभी. ४७.८) । भीमसेन ने इसका वध किया (म. द्रो. तेजस्वी एवं तीक्ष्ण स्वभाववाला ग्रह कहा गया है। इसे ११२.३०)। छाया एवं विवस्वत् (मार्तड ) का पुत्र कहा गया है . २. कौरवपक्ष का एक योद्धा, जो कर्ण का छोटा | (भा. ६.६.४१; विष्णु. १.८.११)। इसके भाई का भाई था। अर्जुन ने इसका वध किया था (म. द्रो. नाम सावर्णि था (विष्णुधर्म. १.१०६)। आगे चल ३१.५९)। कर अपने पिता सूर्य की आज्ञा से यह ग्रह बन गया। ३. द्रुपद राजा का एक पुत्र, जो अश्वत्थामन् के द्वारा कालिकापुराण में भी इसे सूर्यपुत्र कहा गया है, मारा गया था । एवं सती की मृत्यु के पश्चात् शिव के आँखों से जो आंसू ४. कौरवपक्ष का एक योद्धा, जो अभिमन्यु के द्वारा | टपके, उसीके कारण इसके कृष्णवर्णीय बनने की कथा मारा गया था (म. द्रो. ४७.१५)। वहाँ प्राप्त है (कालि. १८)। आगे चल कर यह मनुष्यों ५. सौवीर देश का एक राजकुमार, जो जयद्रथ के | को अत्यंत त्रस्त करने लगा, जिस कारण शिव ने मेषादि भाइयों में से एक था। जयद्रथ के द्वारा किये गये द्रौपदी- | राशि इसके अधिकार में दी, एवं पूजा करनेवाले लोगों Page #966 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शनि प्राचीन चरित्रकोश शबरी को सुख एवं समृद्धि प्रदान करने की आज्ञा इसे दी | २. कीकट देश में रहनेवाला एक शिवभक्त अंत्यज, (स्कंद. ५.१.५०)। जो चिताभस्म की प्राप्ति के लिए स्वयं को दग्ध करने के ___ पराक्रम--शिव एवं त्रिपुर के युद्ध में, इसने शिव | लिए प्रवृत्त हुआ था ( स्कंद. ३.३.१७ )। के रथ पर आरूढ हो कर नरकासुर से युद्ध किया था | ३. एक विष्णुभक्त अंत्यज, जो तुलसीपत्र के प्रसाद से (भा. ८.१०.३३) । एक बार अश्वत्थ एवं पिप्पल | यमदूतों के पंजे से मुक्त हुआ (पद्म. पा. २०)। अगत्स्य ऋषि को अत्यधिक त्रस्त करने लगे, जिस कारण ४. अमिताभ देवों में से एक । इसने उनका वध किया था (ब्रह्म. ११८)। शबर काक्षीवत--एक वैदिक सूक्तद्रष्टा (ऋ. १०. दशरथ राजा से युद्ध-ज्योतिषशास्त्र की दृष्टि से | १६९)। शनि जब रोहिणी नक्षत्र को पीड़ित करता है (रोहिणी- शवरी-शबर जाति की एक स्त्री, जो पंपासरोवर शकट का भेदन), तब पृथ्वी के मनुष्यों के लिए वह एक के पश्चिमी तट पर रहनेवाले मातंग ऋषि की परिचारिका अशुभ योग माना जाता है । रोहिणी नक्षत्र का देवता थी। राम के प्रति अनन्य भक्ति के कारण, इसे 'सिद्धा,' प्रजापति होता है, जिस कारण शनि के द्वारा रोहिणी- 'श्रमणा' आदि श्रेष्ठ उपाधियाँ प्राप्त हुई, एवं श्रेष्ठ शकट का भेद होने पर उसका दुष्परिणाम प्रजापति पर | भक्ति की साकार प्रतिमा यह माने जाने लगी। हो कर, सारे पृथ्वी पर लोकक्षय होता है। | राम से भेंट-- कबंध राक्षस के कथनानुसार, राम दशरथ राजा के राज्यकाल में ऐसा ही कुयोग उत्पन्न | लक्ष्मण सीता का शोध करते मतंगवनं आ पहुँचे। वहाँ हुआ था। उस समय दशरथ राजा ने शनि से युद्ध | इसने उनका उचित आदरसत्कार किया, एवं कहा, 'आपके कर, इसे रोहिणीशकट के भेदन से परावृत्त किया । उस आने से पूर्व ही मातंग ऋषि का स्वर्गवास हुआ। अब समय दशरथ के द्वारा शनि का गुणगान किये जाने उन्हीं के आदेश से मैं आपकी प्रतीक्षा कर रही हूँ। पर. इसने उसे आशीर्वाद दिया, 'जो लोग अपनी प्रिय राम का स्वागत -इतना कह कर डायरी ने राम के वस्तुओं का दान कर मेरी आसना करेंगे, उनकी में रक्षा भोजन के लिए वन के विविध कन्दमूल उन्हें अर्पण करूँगा। | किये (वा. रा. अर. ७४.१७) । तत्पश्चात् मतंगवन में शंतनु--कुरुवंशीय 'शांतनु' राजा का नामांतर | स्थित मतंग ऋषि का तपस्या एवं यज्ञ का स्थान, (शांतनु तथा शांतनव देखिये)। | 'प्रत्यक्स्थली' नामक यज्ञवेदी, 'सप्तसागर' नामक तीर्थ शबर--एक म्लेंच्छ जातिविशेष, जो दक्षिणापथ प्रदेश आदि का दर्शन इसने राम को कराया। के निवासी थे। वायु में इन्हें 'दक्षिणापथवासिनः' कहा। स्वर्गप्राप्ति--पश्चात् राम की अनुज्ञा से इसने अग्नि गया है, एवं इनका निर्देश आभीर, आटव्य, पुलिंद, प्रदीप्त किया, एवं उसमें स्वयं की आहुति दे कर यह वैदर्भ, दण्डक आदि लोगों के साथ प्राप्त है ( वायु. ४५. स्वर्गलोक वासी प्रष्ट हुई। १२६)। ___ अध्यात्म रामायण में - इस ग्रंथ में शबरी के हीन ब्राह्मण ग्रंथों में-ऐतरेय ब्राह्मण में, विश्वामित्र ऋषि के जाति पर विशेष जोर दिया है। रामभक्तिसांप्रदाय का ज्येष्ठ पचास पुत्र उसी के ही शाप से आंध्र, पुण्ड, शबर, प्रचार करने के दृष्टि से इसकी जीवनगाथा वहाँ दी गयी पुलिंद एवं मूतिब आदि म्लेंच्छ बनने का निर्देश प्राप्त है । है, जिससे यह सष्ट हो जाये कि, रामभक्ति भेदभाव से (ऐ. ब्रा. ७.१८.२, सां. श्री. १५.२६.६)। ये लोग ऊपर उठ कर सब को मुक्ति प्रदान करती है (भक्तिदक्षिण भारत में पेन्नार नदी के प्रदेश में रहते थे। मुक्तिविधायनी भगवतः रामचन्द्रस्य)। इसी कारण रामायण में प्राप्त शबरी की कथा भी यही संकेत को शबरी की गुरुभक्ति, सेवाभाव, तपस्या एवं अपार रामभक्ति पुष्टि प्रदान करती है। किन्तु इन लोगों की अन्य कई का इस कथा में सविस्तृत वर्णन किया गया है। बस्तियाँ राजपुताना, हिमालय प्रदेश आदि में थी। इस कथा के अनुसार, शबरी ने राम का उचित महाभारत के अनुसार, ये लोग पहले क्षत्रिय थे, किंतु आदरसत्कार कर, उसे प्रश्न किया, 'मैं मूढ़ एवं हीन जाति बाद में हीन आचारों के कारण म्लेंच्छ बन गये । भारतीय में उत्पन्न होने के कारण, आपके दर्शन एवं उपासना की युद्ध में ये लोग कौरवों के पक्ष में शामिल थे, जहाँ सात्यकि योग्यता नही रखती हूँ'। इस पर राम ने इसे उत्तर ने इनका संहार किया था (म. द्रो. ९५.३८)। दिया, 'परमेश्वरप्राप्ति के लिए जाति की उच्चनीचता, Page #967 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शबरी प्राचीन चरित्रकोश शमीक अथवा स्त्रीपुरुष भेदाभेद आदि का कुछ भी महत्त्व नहीं शमि-(सो. उशी.) एक राजा, जो भागवत के है । महत्त्व है केवल भक्ति का, जिससे कोई भी व्यक्ति अनुसार उशीनर राजा का पुत्र था (९.२३.३)। परमपद प्राप्त कर सकता है। (अ. रा. अर.१०.१-४४)। शमिन्-(सो. विदु.) एक राजा, जो मस्य के पौराणिक साहित्य में--मम आदि उत्तरकालीन पौरा- अनुसार शोणाश्च राजा का, एवं ब्रह्मांड के अनुसार शूर णिक साहित्य में 'अध्यात्मरामायण' की ही कथा उद्धृत | राजा का पुत्र था। इसके पुत्र का नाम प्रतिक्षत्र था की गयी है (पन्न. उ. २६९.२६५-२६८), जिस कारण (मत्स्य. ४४.७९-८०; ब्रह्मांड. ३.७१.१३८)। यह कथा भारत के सभी प्रांतिक भाषाओं में रामभक्ति शमीक--अंगिरस् कुलोत्पन्न एक ऋषि, जिसकी पत्नी के प्रचार का एक सर्वश्रेष्ठ माध्यम बन गयी। | का नाम गौ, एवं पुत्र का नाम शंगी था। यह आजन्म शबल--एक नाग, जो कन्या एवं कद्र के पुत्रों में से मौनव्रत का पालन करता था। यह गौओं के रहने के स्थान एक था (म. आ. ३१.७)। में रहता था, एवं गौओं का दूध पीते समय बछड़ों के २. एक चान, जो सरमा का पत्र, एतं यम वैवस्वत मुख से जो फेन निकलता था, उसीको खा-पी कर तपस्या का अनुचर था (ब्रह्मांड. ३.७.११२)। करता था। ३. दक्ष एवं असिनी के एक हज़ार पुत्रों में से एक। परिक्षित् से भेट--एक बार परिक्षित् राजा मृगया पाटभेट-शिवलायभा.६.५.२४)। करता हुआ इसके आश्रम में आ पहुँचा। किन्तु इसका शबलाश्व--(स.दिष्ट.) एक राजा, जो कुरु राजा मौनव्रत होने के कारण, इसने उससे कोई भी भाषण का पौत्र, एवं अतिक्षित राजा के सात पुत्रों में से एक था। नहीं किया। यह इसका औद्धत्य समझ कर, परिक्षित् इससे इसके अन्य भाइयों के नाम परिक्षित् , आदिराज, विराज, अत्यंत क्रुद्ध हुआ, एवं उसने इसकी अवहेलना करने शाल्मलि, उच्चैःश्रवस , भङ्गकार एवं जितारि थे (म. आ. के हेतु, इसके गले में एक मृतसर्प डाल दिया। कृश नामक इसके शिष्य ने यह घटना इसके पुत्र शम-एक राजा, जो धर्म प्रजापति के तीन पुत्रों में गंगी को बतायी । अपने पिता के अपमान की यह से एक था। इसके अन्य दो भाइयों के नाम काम एवं कहानी सुन कर, शृंगी अत्यंत क्रुद्ध हुआ, एवं उसने हर्ष, तथा पत्नी का नाम प्राप्ति था (म. आ.६०.३१)। शापवाणी कह दी, 'सात दिन के अंदर नागराज तक्षक २. (सो. मगध, भविष्य,) एक राजा, जो धर्मसूत्र के दंश से परिक्षित् राजा की मृत्यु हो जायेगी। नामक राजा का पुत्र, एवं घुमत्सेन राजा का पिता था परिक्षित् की मृत्यु-अपने पुत्र के द्वारा, परिक्षित् (भा. ९.२२.४८ ) । विष्णु एवं ब्रह्मांड में इसे 'सुश्रम' राजा को दिये गये शाप का वृत्तांत ज्ञात होते ही, इसने एवं वायु में इसे ' सुव्रत' कहा गया है। अपने पुत्र की अत्यंत कटु आलोचना की। पश्चात् अपने ३. एक वमु, जो अहः नामक वसु के चार पुत्रों में से गौरमुख नामक शिष्य के द्वारा परिक्षित् राजा को शुंगी एक था। इसके अन्य भाइयों के नाम ज्योति, शांत एवं के इस शाप का समाचार, भेजा, एवं उसे सावधान रहने मुनि थे (म. आ. ६०.२२)। पाठभेद-भांडारकर के लिए कहा। किन्तु अंत में यह चेतावती विफल हो संहिता-'श्रम। कर, तक्षकदंश से परिक्षित् राजा की मृत्यु हो ही गयी ४. आयु राजा का पुत्र (ब्रह्मांड. ३.३.२४)। (म. आ. ३६.३८; भा. १:१८)। ५. सुखदेवों में से एक। गरुड़वंशीय पक्षियों की रक्षा--भारतीय युद्ध के समय ६. नंदिवेगकुलोत्पन्न एक कुलांगार राजा, जिसने अपने गरुड़वंश में उत्पन्न पिंगाक्ष, विबोध, सुपुत्र, एवं सुमुख दुर्व्यवहार के कारण, अपने वंश एवं राज्य के लोगों का नामक पक्षी सुप्रतीक नामक हाथी के घंटा के नीचे नाश किया (म. उ. ८२.१७)। छिप कर बच गये। आगे चल कर इसने उन्हें अपने शमठ-एक त्रपि, जो गयाशीर पर्वत पर 'ब्रह्मसर' आश्रम में ला कर,एवं उनका धीरज बँधा कर, उन्हें सुरक्षित सरोवर के पास निवास करता था। इसने वनवासी पांडवों | स्थल पर पहुँचाया (मार्क. २.४४३.८६ )। को अमूर्तरयस्-पुत्र गय राजा की कथा कथन की थी २. (सो. क्रोष्ट.) एक राजा, जो वायु एवं विष्णु के अनुसार शूर राजा का पुत्र था । विष्णु, भागवत एवं शमन--सावर्णि मनु के पुत्रों में से एक । | मत्स्य में, इसे 'सत्यप्रिय' कहा गया है। इसकी माता का प्रा. च. ११९] ९४५ Page #968 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शमीक नाम मारिषा, एवं पत्नी का नाम सुदामिनी था, जिससे इसे प्रतिक्षत्र नामक पुत्र उत्पन्न हुआ था ( वायु. ९६.१३७; विष्णु. ४.१४.२३ ) । ब्रह्मा के द्वारा पुष्कर क्षेत्र में किये गये यज्ञ में यह उपस्थित था (पद्म. सृ. २३) । प्राचीन चरित्रकोश शंपाक - हस्तिनापुर में रहनेवाला एक जीवन्मुक्त एवं त्यागी ब्राह्मण; जो भीष्म का गुरुतुल्य स्नेही था । इसे 'शम्याक ' नामांतर भी प्राप्त था । त्याग की महिमा के विषय में इसने भीष्म को उपदेश प्रदान किया था (म. शां. १७०)। यह शंपाक गीता का प्रणयिता माना जाता है । ८ " शंबर कीलितर एक असुर, जो इंद्र का शत्रु था (ऋ. १.५१.६; ५४.४) । ‘कुलितर ' का पुत्र होने के कारण इसे 'कौन्तिरसैतृक नाम प्राप्त हुआ था (ऋ. ४.३०.१४) । सायण के अनुसार, आकाश में स्थित मेघ को ही वैदिक साहित्य में 'शंवर' कहा गया है । इस संबंध में यह ‘वृत्र' से साम्य रखता है ( वृत्र देखिये) । ऋग्वेद में - इस ग्रंथ में शुष्ण, पिप्रु वर्चिन् आदि असुरों के साथ इसका निर्देश प्राप्त है (ऋ. १.१०१६ १०२ २.१९.६ ) । यह एक दास था, एवं यह पर्वत पर । रहता था ( . २.१२) । शंबुक पूर्व इंद्र को इसने ब्राह्मण - माहात्म्य समझाया था (म. अनु. ३६.४ - ११) । धर्म ने अपने समर्थन के लिये, इसके अनेकानेक उदरणों का उपयोग किया था (म. उ. ७२.२२)। इससे प्रतीत होता है कि, यह स्वयं एक राजनीतिज्ञ, एवं ग्रन्थकार भी था। योगवासिष्ठ में इसकी कथा 'ब्राह्मत्वभाव' के तत्व का प्रतिपादन करने के लिए गयी है (यो. बा. ४.२५)। ऋग्वेद में अन्यत्र बृहस्पति के द्वारा इसके दुर्ग ध्वस्त किये जाने का निर्देश प्राप्त है ( . २.२४) । २. कंस का अनुयायी एक दानव, जो कश्यप एवं दनु का पुत्र था। इसकी पत्नी का नाम मायावती था। कृष्णपुत्र प्रयुम्न के द्वारा अपना वध होने की बातां एक वर इसे आकाशवाणी से ज्ञात हुई जिस कारण, इसने उसका अर्भकावस्था में वध करना चाहा। हिंतु इसकी प मायावती ने प्रद्युम्न की जान बचायी। आगे चल कर प्रयुम्न ने 'महामाया विद्या' की सहायता से इसका पुत्र आमात्य, एवं सेनापतियों के साथ वध किया (म. अनु. १४.२८ विष्णु. २७ मा १०.२६.२६ एवं मायावती देखिये) । इसकी पत्नी मायावती संतानरहित होने का भी निर्देश पुराणों में इसके सौ पुत्रों का निर्देश प्राप्त है, किंतु प्राप्त है। इससे प्रतीत होता है कि इसकी मायावती के अतिरिक्त कई अन्य पनियाँ भी थीं। , वृत्र के समान इसके भी आकाश में अनेकानेक दुर्ग (शंबराणि) थे, जिनकी संख्या ऋग्वेद में नये (ऋ. १.२.४) ); (ऋ. १०) निन्यान्ये (ऋ. २.१९) अथवा एक सी ( २.१४) बतायी गयी है। -- इंद्र से युद्ध - यह स्वयं को देवता समझने लगा, जिस कारण इंद्र ने इसे काट कर पर्वत से नीचे गिरा दिया, एवं इसके सारे दुर्ग ध्वस्त किये (ऋ. ७.१८ १. ५४ १३० ) । इसका प्रमुख शत्रु दिवोदास अतिथिग् था, जिसके कहने पर इंद्र ने इसका वध किया (ऋ. १. ५१) | इसका वध करने के लिए, मरुतों ने एवं अश्विनी ने इंद्र की सहायता की थी (ऋ. १.४७ ११२.१४) । १. दिवैरोचन के साथ, वामन ने इसे भी पाता - ३. एक दानव राजा, जो हिरण्याक्ष का पुत्र था (भा. ७. लोक में दल दिया (ब्रह्मांड. २,४०६ ) । ढकेल । ४. त्रिपुर नगरी का एक असुर, जिसने इंद्रबलि-युद्ध में बलि के पक्ष में भाग लिया था ( मा. ८.६.२१) । ५. कीकट देश का एक अंत्यज, जो शालिग्राम तीर्थ में स्नान करने के कारण मुक्त हुआ (पद्म. पा. २० ) । शंवसादन एक राक्षस, जो केसरी बानर के द्वारा मारा गया। शंक अथवा शंबूक-एक शुद्र को अपना गृह शुद्धधर्म छोड़ कर तपस्वी बना था महाभारत एवं रामायण में इसकी कथा प्राप्त है, जहाँ इसे क्रमशः '' एवं शंबूक' कहा गया है ( म. शां. १४९.६२ वा. रा. उ. ७६.४) । 6 त्रैवर्णिकों की सेवा करने का अपना धर्म त्याग कर यह जनस्थान में तपस्या करने लगा। इसके इस पाक के कारण, एक सोलह वर्ष के ब्राह्मण पुत्र की असामावेल मृत्यु हो गयी। अपने इस पुत्र की मृत्यु की तकरार प्राण ब्राह्मण पौराणिक साहित्य में इन ग्रन्थों में इसे कश्यप एवं दनु का पुत्र कहा गया है ( मा. ६.१०.१९) । यह वृत्रा सुर का अनुयायी था, जिस कारण इंद्र-पुत्र युद्ध में इंद्र ने इसका वध किया (म. सौ. ११.२२ ) । अपनी मृत्यु के 11 । ९४६ Page #969 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंबुक प्राचीन चरित्रकोश शर शौरदेव्य ने राम के सम्मुख पेश की, एवं एक राजा के नाते उसे । ४. एक यादव राजकुमार, जो श्रीकृष्ण एवं रुक्मिणी इस घटना के लिए दोषी ठहराया। के पुत्रों में से एक था (म. अनु. १४.३३)। - इसी समय राम को ज्ञात हुआ कि, शंबूक के वर्णीतर५. एक धर्मप्रवण प्राचीन राजा, जिसने जीवन में के पाप के कारण, ब्राह्मणपुत्र के अपमृत्यु की घटना घटित कभी मांस नहीं खाया था (म. अनु. ११५.६६)। हुई है । यह ज्ञात होते ही, राम विमान में बैठ कर दक्षिणा- | - ६. ग्यारह रुद्रों में से एक (मत्स्य. १५३.१९)। पथ में शैवलक के उत्तर में स्थित जनस्थान में गया, एवं ७. ब्रह्मसावर्णि मन्वन्तर का इंद्र, जो विष्वक्सेन का वहाँ तपस्या करनेवाले इस शूद्रजातीय मुनि का उसने वध मित्र था (भा. ८.१३.२२)। किया। इसका वध होते ही मृत हुआ ब्राह्मणपुत्र पुनः ८. शुक एवं पीवरी का पुत्र (ब्रह्मांड. ३.८.९३)। जीवित हुआ। ९. सत्य देवो में से एक । इसी प्रकार की एक कथा मांधातृ राजा के संबंध में । १०. सुख देवों में से एक। भी प्राप्त है, किंतु वहाँ मांधातृ राजा ने शूद्र मुनि का वध ११. विरोचन दैत्य के छः पुत्रों में से एक (वायु. न कर, अपनी तपस्या के प्रभाव से ब्राह्मणपुत्र को पुनः | ६७.७६-८१)। जीवित करने का निर्देश वहाँ प्राप्त है (पद्म. उ. ५७)। १२. एक राक्षस, जो संवाद राक्षस का पुत्र था। __ शंबककथा का अन्वयार्थ--चातुर्वर्ण्य में हर एक इसके पुत्रों के नाम राजाज एवं गोम थे (ब्रह्मांड. ३. वर्ण को अपना नियत कर्तव्य निभाना चाहिये, एवं | ५.४०)। वर्णान्तर नहीं करना चाहिये, क्योंकि, ऐसे वर्णान्तर से १३. एक ऋषि, जिसने राम को श्राद्ध विधि, भस्मसमाज की रचना बिगड़ जाने की संभावना है, इस तत्त्व | माहात्म्य एवं शिवपूजाविधि आदि बतायी थी (पन. पा. के प्रतिपादन के लिए शंबूक की कथा महाभारत एवं १०६)। रामायण में दी गयी है। १४. एक ब्राह्मण, जो पुराणों से 'शलाका प्रश्न' कथन बौद्ध धर्म जैसे संन्यासधर्म को प्रधानता देनेवाले धर्म | करने के कार्य में प्रवीण था (पन. पा. १०४)। के प्रचार के पश्चात् , समाज के हरएक व्यक्ति का झुकाव शंभुवा-धृतराष्ट्र की एक पत्नी, जो गांधारराज सुबल अपना नियत कर्तव्य छोड़ कर, संन्यासधर्म को स्वीकार | राजा की कन्या, एवं गांधारी की बहन थी (म. आ.१०४, करने की ओर होने लगा। उस समय समाज की संन्यासः | १११३% १क्ति. ५)। प्रवणता कम करने के हेतु उपर्युक्त कथा की रचना की | शंमद् आंगिरस--एक सामद्रष्टा ऋषि (पं. ब्रा. गयी होगी, जिसमें तपश्चर्या के समान अनुत्पादक व्यवहार | १५.५.१०-११)। अपने साम के कारण इसे स्वर्ग की की कटु आलोचना की गयी है । | प्राप्ति हुई। आगे चल कर पौराणिक साहित्य के रचनाकाल में | शम्याक--शंपाक नामक ब्राह्मण का नामांतर । भक्तिमार्ग की प्रबलता समाज में पुनः एक बार बढ़| शम्यु बार्हस्पत्य-एक आचार्य (श. ब्रा. १.९.१. गयी, जिस समय इस कथा को बदल कर उसका परिवर्तन | २५)। तपस्याप्रधान कथा में किया जाने लगा, जिसका यथार्थ | शयु-एक ऋषि, जो अश्विनों का अश्रित था । अश्विनों रूप मांधात की कथा में पाया जाता है। ने इसके वंध्या गाय को दुग्धा बनाया था (ऋ. १.११२. २. सहिष्णु नामक शिवावतार का एक शिष्य। । १६; ११६.२२; ११७.२०)। ३. एक आदित्य, जो कश्यप एवं दिति के पुत्रों में शय्याति-शर्यात राजा का नामांतर। से एक था। शर आर्चत्क-एक ऋषि, जिसे अश्विनों ने गहरे ४. स्कंद का एक सैनिक (म. श. ४४.७१)। कुएँ से पानी निकाल कर दिया था (ऋ. १.११६.२२)। शंभु--कश्यप एवं सुरभि के पुत्रों में से एक। संभवतः 'आर्चत्क' उसका पैतृक नाम (= ऋचत्क का २. (सो. नाभाग.) एक राजा, जो भागवत के अनुसार | पुत्र ) न हो कर, केवल इसकी उपाधि मात्र ही थी। अंबरीष राजा का कनिष्ठ पुत्र था (भा. ९.६.१)। । शर शौरदेव्य-एक राजा, जिसने तीन ऋषियों को . ३. एक अग्नि, जो तप नामक अग्नि का पुत्र था (म. | एक ही बछड़ा दान में दिया था (ऋ. ८.७०.१३-१५)। व. २११.५)। | ऋग्वेद में इसकी यह 'दानस्तुति' व्यंगात्मक प्रतीत ९४७ Page #970 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शर शौरदेव्य प्राचीन चरित्रकोश शरभ होती है (पिशेल, वेदिशे स्टूडियन. १.५-७)। शूरदेव उसे चार प्रकार के धनुर्वेद एवं शस्त्र-शास्त्रों की शिक्षा का पुत्र होने के कारण, इसे 'शौरदेव्य' पैतृक नाम | प्रदान की। प्राप्त हुआ होगा। शरद्वसु--शूलिन् नामक शिवावतार का शिष्य । शरगुल्म--रामसेना का एक वानर (वा. रा. कि. शरभ--एक ऋषि, जिसे इंद्र ने विपुल धन प्रदान ४१.३)। किया था (ऋ. ८.१००.६)। शरण-वासुकिकुलोत्पन्न एक नाग, जो जनमेजय के | २. चेदिराज धृष्टकेतु का भाई, जो शिशुपाल के पुत्रों में सर्पसत्र में दग्ध हुआ था (म. आ. ५२.६)। से एक था। भारतीय युद्ध में यह पांडवों के पक्ष में शरद्वत्--(सो. गुह्यु.) एक राजा, जो मत्स्य के शामिल था (म. उ. ४९.४३ )। अनुसार सेतु राजा का पुत्र था (मत्स्य. ४८.६)। इसे | युधिष्ठिर के अश्वमेध यज्ञ के समय, शुक्तिसा नगरी में 'अंगार' नामांतर भी प्राप्त था (अंगार देखिये)। राज्य करनेवाले शरभ ने सर्वप्रथम अर्जुन से युद्ध २. एक ऋषि, जो प्रायोपवेशन करनेवाले परिक्षित् करना चाहा। किंतु पश्चात् इसने अर्जुन को करभार राजा से मिलने आया था। अर्पण कर, अश्वमेधीय अश्व की विधिपूर्वक पूजा की (म. ३. एक ऋषि, जिसे त्रिधामा ऋषि ने 'वायुपुराण' | आश्व. ८४.३)। कथन किया था, जो इसने आगे चल कर त्रिविष्ट को ___३. गांधारराज सुबल का पुत्र, जो शकुनि के ग्यारह कथन किया था (वायु. १०३.६१)। भाइयों में से एक था। भीमसेन के द्वारा किये गये ४. सावर्णि मन्वंतर के सप्तर्षियों में से एक। रात्रियुद्ध में उसने इसका वध किया (म. द्रो.१३२.२१)। ५. अंगिराकुलोत्पन्न एक गोत्रकार एवं मंत्रकार, जो ४. एक दानव, जो कश्यप एवं दनु के प्रमुख चौंतीस अंगिरस् ऋषि का पुत्र था। पुत्रों में से एक था (म. आ. ५९.२६)। ६. गौतमगोत्रीय एक ऋषि, जो उतथ्य ऋषि का शिष्य | था (वायु. ६४.२६)। ५. तक्षककुल में उत्पन्न एक नाग, जो जनमेजय के ७. गौतम ऋषि का नामान्तर (गौतम देखिये)। सर्पसत्र में दग्ध हुआ था-(म. आ. ५२.९ पाठ.)। | शरद्वत् गौतम--एक महर्षि, जो गौतम ऋषि एवं | ६. ऐरावतकुल में उत्पन्न एक नाग, जो जनमेजय के . अहल्या का पुत्र था। वायु में इसे 'शारद्वत' कहा गया है सर्पसत्र में दग्ध हुआ था (मः आ. ५२.१०)। (वायु. ९९.२०१)। ७. यमसभा का एक ऋषि (म. स. ८.१४)। तपोभंग--यह शुरू से ही अत्यंत बुद्धिमान था. तथा ८. यम के पाँच पुत्रों में से एक। वेदाध्ययन के साथ-साथ धनुर्वेद में भी प्रवीण था। इसकी ९. एक रामपक्षीय वानर, जो साल्वेय पर्वत का तपस्या से डर कर, इंद्र ने तपोभंग करने के लिए | निवासी था (वा. रा. यु. २६.३०)। जालपदी नामक अप्सरा इसके पास भेज दी । उसे देख १०. एक विध्यपर्वतवासी वानरजाति, जो हरि एवं कर इसके धनुष एवं बाण पृथ्वी पर गिर पड़े, एवं इसका | पुलह की संतान थी (ब्रह्मांड. ३.७.१७४ )। वीर्य दर्भासन पर गिर पड़ा। ११. एक वानर, जो जांबवत् वानर का पुत्र था। आगे कृप एवं कृपी का जन्म--पश्चात् यह धनुर्बाण, मृग- चल कर इसीसे ही 'शरभ' नामक वानरजाति का चर्म, आश्रम आदि छोड़ कर वहाँ से चला गया। | निर्माण हुआ (ब्रह्मांड. ३.७.३०४)। . दर्भासन पर पड़े हुए इसके वीर्य के दो भाग हुए, जिनसे | १२. कृष्ण एवं रुक्मिणी के पुत्रों में से एक (वायु. आगे चल कर एक पुत्र एवं एक कन्या उत्पन्न हुई । उन दोनों | ९६.२३७)। का सुविख्यात कुरुवंशीय राजा शांतनु ने कृपापूर्वक पालन १३. शिव की क्रोधमूर्ति वीरभद्र का एक अवतार, किया, जिस कारण उन्हें 'कृष' एवं 'कृपी' नाम प्राप्त | जो उसने नृसिंह को पराजित करने के लिए धारण किया हुए । इसकी इन संतानों में से कृर कौरव पांण्डवों का | था। इसने नृसिंह को परास्त कर, उसका चमड़ा एक आचार्य बन गया, एवं कृपी का विवाह द्रोणाचार्य के साथ | वसन के नाते अपने शरीर पर ओढ लिया, जिस कारण हुआ (म. आ. १२०)। पश्चात् इसने गुप्तरूप से | शिव को 'नृसिंहकृत्तिवसन' उपाधि प्राप्त हुई (शिव. कृपाचार्य को उसके गोत्र आदि का परिचय दिया, एवं | शत. १२)। Page #971 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शरभ प्राचीन चरित्रकोश १४. एक ऋषि, जिसे 'निगमोद्बोधक तीर्थ' में स्नान करने के कारण, शिवकर्मन् नामक पुत्र उत्पन्न हुआ था (पद्म. उ. २०१३ २०४ - २०५ ) । इसीके कारण विकट नामक राक्षस का उद्धार हुआ था ( विकट ४. देखिये) । शरभंग - गौतम कुलोत्पन्न एक ब्रह्मर्षि, जो दंडकारण्य में तप करता था। दंडकारण्य में गोदावरी नदी के तर पर इसका आश्रम था (म. ८२.२९ २६१.४० ) । वाल्मीकि रामायण में इसका आश्रम मंदाकिनी नदी के तट पर स्थित होने का निर्देश प्राप्त है ( वा. रा. अर. ५.३६ ) । किंतु वहाँ 'मंदाकिनी ' का संकेत 'गोदावरी नदी की ओर ही होना संभव अधिक प्रतीत होता है। महाभारत में अन्यत्र इसका आश्रमस्थान उत्तरासंद । में बताया गया है (म. पं. ८८.८ पाउं ) । तपः सामर्थ्य - विराध राक्षस के कथनानुसार, राम दाशरथि अपने वनवास काल में इससे मिलने के लिए इसके आश्रम में आया था उस समय इसके तप:समय से प्रसन्न होकर, इंद्र स्वयं अपना रथ लेकर इसे ब्रह्मलोक में ले जाने के लिए उपस्थित हुआ था । किंतु राम के दर्शन की अभिलाषा मन में रखनेवाले इस ऋ ने इंद्र का यह प्रस्ताव अस्वीकार कर दिया एवं यह राने की प्रतीक्षा करते आश्रम में ही बैठा रहा। राम से भेंट - - राम के इसके आश्रम में आते ही, इसने 'उसका उचित आदर-सत्कार किया एवं भरने तपःसामर्थ्य की सहायता से प्राप्त होनेवाले स्वर्गलोक एवं ब्रह्म छोड़ को स्वीकार करने की प्रार्थना राम से इसने की किंतु राम ने इसका यह प्रस्ताव अस्वीकार कर दिया एवं स्वयं के ही तप:साधन से स्वर्गलोक प्राप्त करने का अपना निर्धार प्रकट किया । तदुतराम ने इससे तपस्या के लिए सुयोग्य स्थान दर्शाने की प्रार्थना की । मंदाकिनी नदी के तट पर सुतीक्ष्ण ऋषि के आश्रम के पास तपस्या करने की सूचना राम को इसने प्रदान की। पश्चात् इसने अभि में अपना शरीर शोक दिया एवं इस प्रकार वह स्वर्गलोक चला गया (बा. रा. अर. ५) । " शरयु वीर नामक अभि की पानी। शरारि एक वानर, को 'हनुमत् के साथ सीताशोध के लिए दक्षिण दिशा की ओर गया था ( वा. रा. कि. ४१) । शर्मिष्ठा " शरासन धृतराष्ट्रपुत्र' चित्रशरासन का नामांतर ( म. द्रो. १११.१९ ) । शरीर -- एक आचार्य, जो वेदमित्र शाकल्य का शिष्य था ( विष्णु. ३.४.२२ ) । शरू -- एक देवगंधर्व, जो अर्जुन के जन्मोत्सव में उपस्थित था ( म. आ. ११४.४७ पाठ. ) । - शरूथ (सो, मु.) एक राजा, जो वायु के अनुसार दुष्कृत ( दुष्यंत) राजा का पुत्र था ( वायु. ९९.५ ) । पाठभेद - ( ब्रह्मांड पुराण ) - ' सरुप्य ' | शर्कर - शिशुमार ऋषि का नामांतर ( शिशुमार १. देखिये) । शर्मिन्गस्य कुलोत्पन्न एक ब्राह्मण, जो गंगायमुना नदियों के बीच यामुन पर्वत के हाटी में स्थित पर्णशाला नामक ग्राम में रहता था तिलांजलि दान का माहात्म्य बताने के लिए, इसकी कथा भीष्म ने युधिडिर को कथन की थी (म. अनु. ६८) । पर्णशाला ग्राम में शर्मिन नाम के ही दो ब्राह्मण रहते थे। एक बार यम ने अपने एक दूत को इसे पकड़ कर लाने के लिए कहा, किंतु उसने गलती से ईसीके नाम के अपने दूत की भूल यम को शत होते ही, उसने उस अन्य ब्राह्मण को पकड़ कर यन के सम्मुख पेश किया। ब्राह्मण को अन्न, जल, तिल के दान का महत्त्व कथन किया, एवं उसे सम्मानपूर्वक बिदा किया। पश्चात् यमदूत इसे पकड़ कर ले आये। किंतु इसके मृत्युयोग की घटिका बीत जाने के कारण, यम ने इसे भी पूर्वोक्त दान का महत्व कथन किया एवं इसे विदा कर दिया। शर्मिन नामक दैत्य की। जो ययाति कन्या, राजा की अत्यंत प्रिय द्वितीय पत्नी थी ( देवयानी एवं ययाति देखिये) । इसने अपने असुर जाति के कल्याण के लिए देवयानी का दास्यत्व स्वीकार लिया था (म. आ. ७३–७५; भा. ९.१८ मय २७-२९) । किंतु आगे चलकर, ययाति राजा ने देवयानी के साथ इसे भी अपनी रानी बनाया। ययाति से इसे अनु दृ एवं पूरु नामक तीन पुत्र उत्पन्न हुए । वाल्मीकि रामायण एवं वायु में इसका पूरु नामक केवल एक ही पुत्र दिया गया है ( वा. रा. उ. ५८.६९; वायु. २.७)। ९४९ Page #972 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शर्यात मानव प्राचीन चरित्रकोश शल शर्यात मानव-एक सुविख्यात यज्ञकर्ता राजा, जो च्यवन ऋषि से भेंट-एक बार यह अपने सुकन्या अश्विनों का कृपापात्र था (ऋ. १.११२.१७)। एक | नामक कन्या के साथ च्यवन ऋषि के आश्रम में गया । वैदिक सूक्तद्रष्टा के नाते इसका निर्देश ऋग्वेद में प्राप्त है | वहाँ इसकी कन्या ने असावधानी से च्यवन ऋषि (ऋ. १०.९२), किंतु वहाँ इसे 'शार्यात' कहा गया है। की दोनों आँखें फोड़ डालीं । आगे चल कर, अनुतापशतपथ ब्राह्मण एवं पुराणों में इसे क्रमशः 'शर्यात', एवं | दग्ध हो कर इसने ऋपि से क्षमा माँगी, एवं अपनी कन्या 'शर्याति' कहा गया है ( श. वा. ४.१.५.२)। मनु का | सुकन्या उसे विवाह में दे दी। अश्विनों की कृपा से वंशज होने के कारण, इसे 'मानव' पैतृक नाम प्राप्त | च्यवन ऋषि की आँखें एवं गततारुण्य उसे पुनः प्राप्त हुआ था (जै. उ. ब्रा. ४.७.१ ८.३.५)। हुआ (भा. ९.३.१८; १२.३.१०; च्यवन देखिये)। __ अश्वमेधयज्ञ-यह इंद्र का मित्र था, एवं इन्द्र इसके परिवार-इसके उत्तानबर्हि, आनर्त एवं भूरिपेण घर सोम पीने के लिए आया करता था (ऋ. १.५१. | नामक तीन पुत्र थे (भा. ९.३)। आगे चल कर, इसी १२, ३.५१.७)। भृगुपुत्र च्यवन ऋषि ने इसे राज्याभिषेक | के ही वंश में हैहय एवं ताल जब नामक दो सुविख्यात किया था। आगे चल कर इसने बड़ा साम्राज्य संपादन | राजा उत्पन्न हुए थे (म. अनु. ३०.६-७)। किया, एवं च्यवन प्रऽपि को ऋत्विज बना कर एक अश्वमेध शर्याति-(सो. पुरू.) एक पुरुवंशीय राजा, जो यज्ञ का भी, आयाजन किया। इसे देवा के यज्ञ में प्राचीन्वत् राजा का पुत्र, एवं अहंयाति राजा का पिता था 'गृहपतित्व' का महत्त्वपूर्ण स्थान भी प्राप्त हो चुका था। (म. आ. ९०.१४) । इसके नाम के लिए 'अहंपति', इसकी कन्या का नाम 'शार्याती सुकन्या' था, 'शय्याति' पाटभेद प्राप्त हैं। इसकी माता का नाम जिसका विवाह इसने च्यवन ऋषि से कराया था। इस अश्मकी था, एवं त्रिशंकु राजा की कन्या इसकी पत्नी थी। विवाह के कारण च्यवन इस पर अत्यंत प्रसन्न हुआ था। २. (सो. आयु.) एक राजा, जो मत्य के अनुसार विवाह के समय, च्यवन अत्यत बूटा था, किंतु पश्चात् नहुष राजा का पुत्र था (मत्स्य. २४.१५)। अश्विनों ने उसे यौवन प्रदान किया था। ३. (सो. वृष्णि.) एक यादव राजकुमार, जो अक्रूर ___ पौराणिक साहित्य में--इन ग्रंथों में इसे वैवस्वत मनु एवं अश्विनी का पुत्र था (मन्स्य. ४५.३३)। .. का पुत्र कहा गया है, एवं इसकी पत्नी का नाम स्थविष्ठा ४. एक सुविख्यात यज्ञकता राजा, जो वैवस्वत मनु कहा गया है। अपनी इस पत्नी से इसे आनर्त एवं राजा का पुत्र था (शर्यात मानव देखिये)। सुकन्या नामक जुड़वीं संतान उत्पन्न हुई थी। पौराणिक | शर्व-शततेजस् नामक शिवावतार का एक शिष्य । साहित्य में इसे 'शार्यात 'शर्याति' 'शय्याति' आदि २. ग्यारह रुद्रों में से एक (भा. ६.१५.२८)। अनेक नामांतर दिये गये हैं। .. शर्वदत्त गार्ग्य-एक आचार्य । शर्वदेव के द्वारा यह अत्यंत शूर, एवं वेदविद्यापारंगत राजा था। प्रदान किये जाने के कारण, इसे 'शर्वदत्त नाम प्राप्त हुआ आंगिरस ऋषि के द्वारा किये सत्र में, द्वितीय दिन के था (वं. बा. १)। . - सारे कर्म एक ऋत्विज के नाते इसने निभायें थे । देवी शर्वरी-दोष नामक बसु की पत्नी । को प्रसन्न करने के लिए भी इसने तपस्या की थी। शल--(सू. इ.) अयोध्या का एक राजा, जो स्त्रियों की परीक्षा--इसका प्रमुख पुरोहित मधुच्छंदस् परिक्षित् एवं सुशोभना के तीन पुत्रों में से एक था । इसके वैश्वामित्र था । एक बार यह अपने पुरोहित के साथ, मृगया अन्य दो भाइयों के नाम दल एवं बल थे। करने जा रहा था। मधुच्छंटस् के द्वारा प्रार्थना किये | वामदेव का शाप--एक बार यह शिकार करने वन में जाने पर इसने मृगयागमन स्थगित किया । किन्तु अपनी गया। वहाँ इस के रथ के अश्व थक गये, जिस कारण वहाँ राजस्त्रियों की परीक्षा लेने के लिए, अपने एवं मधुच्छंदम् के | समीप ही स्थित वामदेव ऋषि के आश्रम में यह गया, वध की झूठी वार्ता अपने नगर में पहुँचा दी । इसके वध एवं उसके अश्व इसने थोडे समय के लिए माँग लिये। की वार्ता सुन कर इसकी दोनों ही पत्नियाँ तत्काल मृत हुई। वामदेव ने इसे यह शर्त बतायी थी कि, अधों का काम आगे चल कर, गोमती नदी के तीर पर तपस्या कर | होते ही वे उसे वापस मिलने चाहिये। इसने अपनी दोनों पत्नियों को पुनः जीवित किया (ब्रह्म. आगे चल कर वचनभंग कर, इसने वामदेव के १३८)। अश्व वापस करने से इन्कार किया। इतना ही नहीं, ९५० Page #973 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन चरित्रकोश शल वे अश्व वामदेव के न हो कर, स्वयं के है, ऐसा मिथ्या वचन यह कहने लगा । इस कारण क्रुद्ध हो कर वामदेव ने चार राक्षस निर्माण किये, एवं उन्हीं के द्वारा इसका यध करवाया। इसके पथ के पश्चात् इसका भाई दस अयोध्या का राजा बन गया (म.ब. १९०६ ९ ) 1 २. (सो. कुरु. ) एक राजा, जो कुरुवंशीय सोमदत्त राजा का पुत्र, एवं भूरिश्रवस् राजा का भाई था । इसे 'सांयमनि ' पैतृक नाम प्राप्त था । द्रौपदी के स्वयंवर में, एवं युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में यह उपस्थित था (म. आ. १७७.१४) । भारतीय युद्ध में यह कौरवों के पक्ष में शामिल था, एवं भीष्म के द्वारा निर्माण किये गये गरुडव्यूह के वामभाग में खड़ा था। इसने निम्नलिखित योद्धाओं के साथ युद्ध किया था:- १. अभिमन्यु ( म. हो. ३६.७ ); २. द्रौपदी के पुत्र (म. द्रो. ८१.१५) । अंत में श्रुतकर्मन् के द्वारा इसका वध हुआ ( म. द्रो. ८३.१० ) । २. धृतराष्ट्र के सौ पुत्रों में से एक, जो भीम के द्वारा मारा गया था (म. क्र. ६२.५) । शल्य ४. एक सैंहिकेय असुर, जो विप्रचित्ति एवं सिंहिका के पुत्रों में से एक । परशुराम ने इसका वध किया | शलभा- अत्रि ऋषि की पत्नी ( ब्रह्मांड. ३.८. ७४-८७ ) | इग्य हुआ था (म. आ. ५२.५ पाठ)। ५. एक असुर, जो विप्रचित्ति एवं सिंहिका के पुत्रों में से एक था (ब्रह्मांड. ३.६.१९ ) । परशुराम ने इसका वध किया । शल्य बाहीक एवं मद्र देश का सुविख्यात राजा, जो नकुल सहदेव की माता माद्री का भाई, एवं पाण्डवों का मामा था । इसके पिता का नाम ऋतायन था (म. भी. ५८.१४ ) । महाभारतकाल में मद्र एवं ग्राहक देश हीन जाति के लोग माने जाते थे, इसका प्रत्यंतर शल्य के चरित्र में अनेक बार प्राप्त है। यद्यपि शस्य अत्यंत पराक्रमी, 'बाह्रीकपुंगव, ' एवं पांडवों का रिश्तेदार था, फिर भी मद्रदेशीय होने के कारण इसे जीवन भर उपहासात्मक , ४. वासुकिकुलोत्पन्न एक नांग, जो जनमेजय के सर्पसत्र वचन एवं अपमान सहने पड़े, जिसकी चरम सीमा भारतीय युद्ध के समय हुए कर्ण शल्य संवाद में पायी जाती है। 'कर्ण-शल्य । मादी का विवाह इसकी बहन माझी अत्यंत स्वरूपसुंदर थी । इसी कारण हस्तिनापुर के राजा पांडु का विवाह उससे करने का प्रस्ताव भीष्म ने इसके सामने रखा । उस समय मद्र देश में प्रचलित रिवाज के अनुसार कन्यादान के शुल्क की मांग इसने भीष्म से की। भीष्म के इस शर्त को मान्यता देने पर इसने मात्री का विवाह ६. सपक्षीय एक पहलवान, जो कृष्ण के द्वारा मारा गया (भा. १.१५.१६ ) । ७. एक असुर, जो वृक एवं दुर्वाक्षी के पुत्रों में से पांडु से कराया । एक था (भा. ९.२४.४३ ) । ८. सुतोत्र राजा का पुत्र (वायु. ९२.३) । शलकर — तक्षककुलोत्पन्न एक सर्प ( म. आ. ५२८ ) । । पाण्डवों का अत्यंत निकट का रिश्तेदार होते हुए भी, भारतीय युद्ध में यह कौरवों के पक्ष में शामिल था। संभवतः इसी कारण, महाभारत में इसे हिरण्यकशिपु के द्वितीय पुत्र 'संहाद' के आसुरी अंश से उत्पन्न एक दुष्ट पुरुष कहा गया है (म. आ. ६१.६ ) । द्रौपदीस्वयंवर में-- अपने रुक्मांगद एवं रुक्मरथ नामक दो पुत्रों के साथ यह द्रौपदी स्वयंवर में उपस्थित था। उस समय यह मल्यमेव के लिए धनुष तक न चढ़ा सका था, जिस कारण स्वयंवर मंडप में इसे लज्जित होना शलंक--विश्वामित्रकुलोत्पन्न एक गोत्रकार ( पाणिनि पड़ा ( म. आ. १७७.१३ ) । इसी मंडप में, इसका देखिये) । भीमसेन से युद्ध भी हुआ था, जिसमें यह उससे पराजित शलभ - एक दानव, जो कश्यप एवं दनु के पुत्रों हुआ ( म. आ. १८१.२४ ) । में से एक था। नकुल के द्वारा किये इसने शाकनगरी में उसका अत्यंत उत्कृष्ट स्वागत किया, एवं उसे अनेकानेक भेंट वस्तुएँ प्रदान की । युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में भी यह उपस्थित था, जहाँ शिशुपाल ने इसे श्रीकृष्ण से भी अधिक श्रेष्ठ ठहराने की कोशिश की थी किंतु अपने इस प्रयत्न ९५१ युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में २. एक राक्षससमूह जो यामिनी एवं साक्ष्य कश्यप गये पश्चिम दिधिज्य के समय की संतान मानी जाती हैं। ३. चेदि देश का एक राजा, जो भारतीय युद्ध में पांडवों के पक्ष में शामिल था। कर्ण ने इसका वध किया ( म. क. ४०.५१ ) । Page #974 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शल्य प्राचीन चरित्रकोश शशबिंदु में वह असफल रहा। इस समारोह में इसने युधिष्ठिर को कर्ण-शल्यसंवाद-दूसरे दिन कर्ण एवं अर्जुन के दरम्यान एक रत्नजडित तलवार, एवं एक सुवर्णकलश प्रदान किया | हुए युद्ध में, इसने कर्ण से नाना प्रकार के उपहासपूर्ण था। युधिष्ठिर एवं शकुनि के दरम्यान हुई द्युतक्रीड़ा में वचन कह कर, उसका तेजोभंग किया। चित्रसेन गंधर्व के भी यह उपस्थित था। युद्ध में कर्ण के द्वाग किया गया पलायन, विराट__ भारतीय युद्ध में इस युद्ध के समय, पांडवों ने | पुत्र उत्तर के द्वारा किया गया उसका पराजय आदि कर्ण अपनी ओर से इसे रणनिमंत्रण भेजा था। नकुल सहदेवों के जीवन के अनेकानेक लांछनास्पद प्रसंगों का स्मरण इसने का मामा होने के कारण, इसका पांडवों के पक्ष में शामिल उसे दिलाया। अर्जुन के तुलना में कर्ण एक 'काक' के होना स्वाभाविक भी था। किंतु पांडव पक्ष में दाखल होने समान क्षुद्र एवं नीच है ऐसा कह कर, 'हंसकाकीय' के लिए एक अक्षौहिणी सेना के साथ निकले हुए शल्य को नामक एक व्यंजनात्मक उपाख्यान भी उसे सुनाया (म. दुर्योधन ने राह में ही बड़ी चतुरता से रोका, एवं इसका क. २६.२७-२९)। इतना भन्य आदरसत्कार किया कि, यह पांडवों का पक्ष इस समय, कर्ण ने भी व्यक्तिशः इसकी एवं बाहिक छोड़ कर कौरवपक्ष में शामिल हुआ। पश्चात् यह युधिष्ठिर | देश में रहनेवाले लोगों की यथेच्छ निंदा की, एवं इन्हें के पास गया, एवं इसने कौरव पक्ष में रह कर ही युद्ध चोर, हीन जाति के, व्यभिचारी आदि अनेकानेक भलेबुरे करने का अपना निश्चय उसे विदित किया (म. उ. ८. | शब्द कहे । पश्चात् दुर्योधन ने मध्यस्थता कर, इन २५-२७)। उस समय युधिष्ठिर ने इसे कौरवपक्षीय दोनों में शांतता प्रस्थापित की (म. क. ३०)। आगे चल योद्धाओं का एवं विशेषतःकर्ण का तेजोभंग करने की प्रार्थना कर, कर्ण एवं भीम के दरम्यान हुए युद्ध में, इसने कण की। इसने युधिष्ठिर की यह प्रार्थना मान्य कर उससे की जान भी बचायी थी (म. क. ६२.८.१४)। . 'इंद्रविजय' नामक उपाख्यान भी सुनाया। इसी कारण सेनापति शल्य---कर्णवध के पश्चात् , यह कौरवसेना महाभारत में शल्य को 'उपहित' (शत्रु की वंचना करने का सेनापति बन गया (म. श. १.८)। यह केवल आधा के लिए नियुक्त ) कहा गया है। दिन के लिए ही कौरवों का सेनापति रहा। अन्त में भारतीय युद्ध में इसकी श्रेणी 'अतिरथी' थी, एवं | माध्याह्न के समय, यह युधिष्ठिर के द्वारा मारा गया (म. श. १.१०; १६.५९-६५)। इसकी मृत्यु पौष कृष्णा हर एक युद्ध में यह कृष्ण के साथ स्पर्धा करने में प्रयत्न- | शील रहता था। अमावस्या के दिन हुई। शवकर्ण-शिवकर्ण नामक वसिष्ठगोत्रोत्पन्न गोत्रकार युद्धप्रसंग--भारतीय युद्ध में इसने निम्नलिखित का नामांतर। योद्धाओं के साथ युद्ध किया था:--१. विराटपुत्र उत्तर शवस- एक आचार्य, जो अग्निभू काश्यप नामक (म. भी. ४५.४१) २. विराटभ्राता शतानीक (म. | आचार्य का शिष्य था। इसके शिष्य का नाम देवतर द्रो. १४२.२७ ); ३. युधिष्ठिर (म. भी. ४३.२६)। शावसायन था (वं. वा. २)। , इसी युद्ध में यह निम्नलिखित योद्धाओं के हाथों शश भारद्वाज--एक वैदिक सूक्तद्रष्टा (ऋ. १७. पराजित हुआ था :-(१) भीमसेन (म. भी. ६०. १५२)। २३); (२) सहदेव (म. भी. ७९.५०); (३) शशक--एक जातिसमूह, जो कर्ण के दिग्विजय में अभिमन्यु (म. द्रो. ४७.१३)। परास्त हुआ था (म. व. परि. २४.७०)। कर्ण का सारथ्य--द्रोण वध के पश्चात् , कर्ण कौरवसेना | शशकर्ण काण्व-एक वैदिक सूक्तद्रष्टा (ऋ.८.९)। का सेनापति बन गया। उस समय इससे अपना सारथी शशबिंदु--(सो. सह.) एक सुविख्यात यादववंशीय बनने की प्रार्थना कर्ण ने की । इसमें अपना अपमान समझ चक्रवर्ती राजा, जो महातपस्वी था (वायु. ९५.१९)। कर इसने इस प्रस्ताव को अमान्य कर दिया। किंतु अंत यह चित्ररथ राजा का पुत्र था। में स्वयं दुर्योधन के द्वारा प्रार्थना किये जाने पर, इसने नारद के द्वारा संजय राजा को सोलह प्रातःस्मरणीय कर्ण का सारथ्य स्वीकार लिया। किंतु यह शर्त रक्खी | राजाओं के जो आख्यान सुनाये गये थे, उनमें यह भी कि, सारथ्यकर्म करते समय जो भी कुछ भलाबुरा यह एक था (म. द्रो. परि १. क्र. ८ पंक्ति. ६२३-६४५ कर्ण से कहेगा, वह उसे सुनना पड़ेगा (म. क. २२.२५)। शां. २९.९८-१०३; २०१.११)। संसार के श्रेष्ठतम ९५२ Page #975 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शशबिंदु प्राचीन चरित्रकोश शाकटायन एवं पुण्यशीलं राजा भी मृत्यु से नहीं बच सकते हैं, करनेवाले इसके पुत्रों में 'ककुत्स्थ ' प्रमुख था (मत्स्य. इस तत्त्व के प्रतिपादन के लिए नारद ने इसका जीवन- | ११.२६.२८)। चरित्र संजय को सुनाया था। रुद्रेश्वर-लिंग की आराधना शशि--(सो. क्रोष्ट.) यादववंशीय शुचि राजा का करने के कारण इसे राजकुल में जन्म प्राप्त हुआ था | नामांतर (शुचि १. देखिये )। मत्स्य में इसे अंधक राजा का पुत्र कहा गया है। परिवार–इसकी कुल दस हज़ार स्त्रियाँ थीं, जिनमें से | शशिकला-काशिराज सुबाहु राजा की कन्या, जो हर एक स्त्री से इसे दस हज़ार पुत्र उत्पन्न हुएं थे (म. शां. सूर्यवंशीय सुदर्शन राजा की पत्नी थी। २९.९८-९९)। इसके पुत्रों में पृथुश्रवस् , पृथुकीर्ति, एवं शशीयसी-तरंत राजा की पत्नी (ऋ. अनुक्रमणी पृथुयशस् प्रमुख थे। इसकी कन्या का नाम बिंदुमती था, | ५.६१.६)। जिसका विवाह मांधातृ राजा से हुआ था (भा. ९.६)। शश्वती आंगिरसी-एक वैदिक मंत्रद्रष्टी, जो आसंग इसकी संतानों की संख्या के संबंध में अतिशयोक्त | नामक ऋषि की पत्नी थी (ऋ. ८.१.३४)। वर्णन भागवतादि पुराणों में प्राप्त है, जहाँ इसकी संतानों शांवत्य-- एक आचार्य, जिसके यज्ञविषयक अनेकाकी कुल संख्या एक अब्ज बतायी गयी है (भा. ९.२३. | नेक मतों का निर्देश आश्वलायन गृह्यसूत्र में प्राप्त है। ३१-३३) । इस प्रकार, इस सृष्टि की सारी प्रजा शशबिदु 'झूलगव याग' में मारे गये पशु का चमड़ा पादत्राण की ही संतान कही गयी है। तैयार करने के लिए उपयोजित किया जा सकता है, ऐसा शशलोमन्--एक राजा, जिसने कुरुक्षेत्र के तपोवन इसका अभिमत था (आश्व. गृ. ९.२४)।। में तप कर के स्वर्ग प्राप्त कर लिया था (म. आश्व. | शांशपायन--एक पुराणप्रवक्ता आचार्य, जो व्यास २६.१४)। .. की पुराणशिष्यपरंपरा का एक शिष्य था। व्यास से इसे . शशाद--(सू. इ.) एक सुविख्यात इक्ष्वाकुवंशीय वायपुराण की संहिता प्राप्त हुई, जो इसने आगे चल कर राजा, जिसे 'विकुक्षि' नामांतर भी प्राप्त था (म. अपने पुत्र एवं शिष्य रोमहर्षण सूत को प्रदान की थी व. १९३.१)। यह इक्ष्वाकु राजा के सौ पुत्रों में से (वायु. १०३.६६-६७)। ज्येष्ठ पुत्र था, एवं उसीके पश्चात् राजगद्दी पर बैठा था शांशपायन सुशर्मन्--एक आचार्य, जो रोमहर्षण - (भा. ९.६.६-११)। | सूत नामक आचार्य के पुराणशिष्यपरंपरा का एक प्रमुख • इक्ष्वाकु का शाप-एक बार इसके पिता ने इसे वन | शिष्य था (ब्रह्मांड. २.३५.६३-७०; वायु. ६१.५५-६२ में जा कर कुछ मांस लाने के लिए कहा, जो उसे 'अष्टका | अमि. २७२.११-१२)। • श्राद्ध' करने के लिए आवश्यक था। अपने पिता की आज्ञा | संभवतः 'शांशपायन' इसका पैतृक नाम था. जो इसे के अनुसार यह वन में गया, एवं इसने दस हज़ार | शंशप का वंश होने के कारण प्राप्त हुआ होगा। प्राणियों का वध किया । पश्चात् अत्यधिक क्षुधा के कारण, पश्चात् अत्याधक क्षुधा के कारण, | शाकराक्ष--भृगुकुलोत्पन्न एक गोत्रकार । यज्ञार्थ इकट्ठा किये गये मांस में से खरगोश का थोड़ासा शाकटायन--एक वैयाकरण, जो पाणिनि एवं मांस इसने भक्षण किया। यह ज्ञात होते ही इसके पिता ने | यास्क आदि आचार्यों का पूर्वाचार्य, एवं 'उणादिसूत्रइसे राज्य से बाहर निकाल दिया, एवं इसे 'शशाद' पाठ' नामक सुविख्यात व्याकरण ग्रंथ का कता माना व्यंजनात्मक नाम रख दिया। जाता है । पाणि नि के अष्टाध्यायी में इसे सारे व्याकरणअपने पिता की मृत्यु के पश्चात् यह अयोध्या के कारों में श्रेष्ठ कहा गया है (अनुशाकटायनं वैयाकरणाः; राजसिंहासन पर आरुढ़ हुआ, एवं शशाद नाम से ही | पा. सू. १.४.८६-८७)। इससे प्रतीत होता है कि, राज्य करने लगा। पाणि नि के काल में भी यह आदरणीय वैय्याकरण परिवार- इसके कुल पाँच सौ पुत्र थे, जिन में पुरंजय | माना जाता था। केशवकृत 'नानार्थाणव' में शाकटायन प्रमुख था (भा. ९.६.६-१२)। मत्स्य के अनुसार, इसे | को 'आदिशाब्दिक ( शब्दशास्त्र का जनक) कहा कुल १६३ पुत्र थे, जिन में से पंद्रह पुत्र मेरु पर्वत के | गया है । उत्तर भाग में, एवं उर्वरित १४८ मेरु के दक्षिण में नाम--पतंजलि के व्याकरण में इसके पिता का नाम स्थित प्रदेश में राज्य करने लगे । मेरु के दक्षिण में राज्य | शकट दिया गया है (महा. ३.३.१) । किंतु पाणिनि के प्रा. च १२०] Page #976 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शाकटायन प्राचीन चरित्रकोश शाकपूणि अनुसार शकट इसके पिता का नाम न हो कर, इसके | के द्वारा प्रकाशित की गयी है, उसमें भी यही अभिमत पितामह का नाम था (पा. सू. ४.१.९६) । पाणिनि के | व्यक्त किया गया है। 'अष्टाध्यायी' में एवं शुक्लयजुर्वेद प्रातिशाख्य में इसे इसी ग्रंथ की श्वेतवनवा सिन् एवं नारायण के द्वारा काण्ववंशीय कहा गया है। | लिखित टीकाएँ मद्रास विश्वविद्यालय के द्वारा प्रकाशित गुरुपरंपरा--व्याकरण साहित्य में इसे काण्व ऋषि का की गयी हैं। शिष्य कहा गया है ( शु. प्रातिशाख्य. ४.१२९)। किन्तु उणादि सूत्रों का रचयिता शाक्टायन न हो कर स्वयं शैशिरि शिक्षा के प्रारंभ में इसे शैशिरि परंपरा का पाणिनि ही था, ऐसा सिद्धान्त स्व. प्रा. का. बा. पाठक आचार्य कहा गया है, एवं इसे स्वयं शैशिरि ऋषि का के द्वारा प्रतिपादित किया गया है । शिष्य कहा गया है (शैशिरस्य तु शिष्यस्य शाकटायन दैवतशास्त्रज्ञ--बृहद्देवता में शाकटायन के अनेकानेक एव च ) दैवतशास्त्रविषयक उद्धरण प्राप्त हैं (बृहद्दे. २.१.६५; उणादि सूत्र-इस सुविख्यात व्याकरणशास्त्रीय ग्रंथ | ३.१५६, ४.१३८; ६.४३, ७.६९; ८.११.९०)। इससे का शाकटायन प्रणयिता माना जाता है। संस्कृत भाषा | प्रतीत होता है कि, शाकटायन के द्वारा 'दैवतशास्त्र' में पाये जानेवाले सर्व शब्द 'धातुसाधित' (धातुओं से विषयक कोई ग्रंथ की रचना की गयी होगी। किंतु इसके उत्पन्न ) हैं, ऐसा इसका अभिमत था। इसी दृष्टि से | इस ग्रंथ का नाम भी आज उपलब्ध नहीं है। लौकिक एवं वैदिक शब्दों का एवं पदों का अन्वाख्यान इसके अतिरिक्त शौनक के 'चतुराध्यायी' में (२. लगाने का सफल प्रयत्न इसने अपने 'उणादिसूत्र' में | २४); 'ऋतंत्र' में (१.१), एवं हेमाद्रि कृत किया है । वैदिक साहित्यान्तर्गत 'प्रातिशाख्य' ग्रंथों में | 'चतुर्वर्गचिंतामणि' में शाकटायन के अभिमतों का निर्देश इसके व्याकरणविषयक मतों का निर्देश अनेक बार प्राप्त प्राप्त है। हैं (ऋ. प्रा. १७.७४७; अ. प्रा. २.२४, शु. प्रा. ३.८; अन्य ग्रंथ--उपर्युक्त ग्रंथों के अतिरिक्त, इसके नाम ९, १२, ४.५, १२७; १८९)। पर निम्नलिखित ग्रंथ भी प्राप्त हैं:- १. शाकटायन पाणिनि के सूत्रपाठ में 'उणादिसूत्रों का निर्देश कई स्मृति; २. शाकटायन-व्याकरण (C.C.)। . बार आता है, जिससे प्रतीत होता है कि, इसका यह ग्रंथ २. एक व्याकरणाचार्य, जिसका निर्देश अनंतभट्ट कृतपाणिनि से भी पूर्वकालीन था। पाणिनि के पूर्वकालीन 'शुक्लयजुर्वेद-प्रातिशाख्य भाष्य' में प्राप्त है । इस भाष्य चाक्रायण चाक्रवर्मण नामक आचार्य का निर्देश भी में इसे काण्व ऋषि का शिष्य कहा गया है । 'उणादिसूत्रों उणादिसूत्रों में प्राप्त है। का रचयिता शाकटायन एवं यह संभवतः एक ही होंगे _ 'प्रकृति प्रत्यय ' कथन करने की पद्धति सर्वप्रथम | (शाकटायन १. देखिये)। इसने ही शुरु की, जिसका अनुकरण आगे चल कर ३. भृगकुलोत्पन्न एक गोत्रकार । पाणिनि ने किया । फिर भी शब्दों की सिद्धि के संबंध में, ४. अंगिराकुलोत्पन्न एक गोत्रकार । पाणिनि अनेक बार अपने स्वयं का स्वतंत्र मत प्रतिपादन | शाकदास भाडितायन--एक आचार्य, जो विचक्षण करता हुआ प्रतीत होता है। तांड्य नामक आचार्य का शिष्य था। इसके शिष्य का गार्ग्य को छोड़ कर समस्त 'नरुक्त आचार्य शाकटायन नाम संवर्गजित् लामकायन था (वं. बा. २)। को अपना आद्य आचार्य मानते हैं, एवं संस्कृत भाषा शाकधि-वसिष्ठकुलोत्पन्न गोत्रकार ऋषिगण । में प्राप्त समस्त नाम 'आख्यातज' समझते हैं। शाकपूणि-एक व्याः रणाचार्य, जिसके व्याकरणइसका उपसर्गविषयक एक मत 'बृहद्देवता' में पुनरुदत | विषयक अनेकानेक मतों का निर्देश यास्क के 'निरक्त' किया गया है (बृहदे. २.९ )। में प्राप्त है (नि. ३.११, ६.१४, ८.५, १२.१९, १३. उणादि सूत्र के उपलब्ध संस्करण में 'मिहिर' | १०-११)। 'दीनार' 'लूप', आदि अनेकानेक बुद्धोत्तरकालीन | ऋग्वेदार्थ का ज्ञान--ऋग्वेद के मंत्रों के अर्थों का ज्ञान असंस्कृत शब्दों का निर्देश प्राप्त है। इससे प्रतीत होता शाकपूणि को किस प्रकार प्राप्त हुआ, इस संबंध में एक है कि, इस ग्रंथ का उपलब्ध संस्करण प्रक्षेपयुक्त है। कथा यास्क के निरुक्त में प्राप्त है। एक बार शाकपूणि को इस ग्रंथ की उज्ज्वलदत्त के द्वारा लिखित टीका ऑफेक्ट | वैदिक देवता के संबंध में ज्ञान प्राप्त करने की इच्छा हुई। ९५४ Page #977 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शाकपूणि प्राचीन चरित्रकोश शाकल इसका यह मनोगत जान कर वैदिक देवता इसके सम्मुख | सार, देवमित्र ( वेदमित्र, विदग्ध ) शाकल्य के निम्नउपस्थित हुए, एवं उन्होंने इसे ऋग्वेद की ऋचा (ऋ. १. लिखित पाँच शाखाप्रवर्तक शिष्य थे:-१. मुद्गल; २. १६४.२९), एवं उसका अर्थ कथन किया। इसीसे आगे गालव ३. शालीय, ४. वात्स्य, ५. शैशिरेय (शैशर, चल कर शाकपूणि ऋग्वेद का मंत्रार्थद्रष्टा आचार्य बन अथवा शैशिरी)। शाकल्य के यही पाँच शिष्य गया (नि. २.८)। ऋग्वेद के शाखाप्रवर्तक आचार्य नाम से सुविख्यात हुए । शाकपूणि रथंतर--एक आचार्य, जो विष्णु के | इन आचार्यों के द्वारा प्रणीत ऋग्वेद की विभिन्न शाखाओं अनुसार, व्यास की ऋक शिष्यपरंपरा में से इंद्रप्रमति | की जानकारी निम्नप्रकार है :नामक आचार्य का शिष्य था। वायु में इसे 'रथीतर' (१) मुद्गल शाखा--इस शाखा की ऋग्वेद संहिता अथवा 'स्थांतर', तथा ब्रह्मांड में इसे 'रथीतर' कहा | ब्राह्मण आदि ग्रंथ अप्राप्य हैं। किंतु उस शाखा का गया है। निर्देश 'प्रपंचहृदय' आदि ग्रंथों में प्राप्त हैं । इस शाखा शाकपूर्ण रथीतर (रथांतर)--एक आचार्य, जो के प्रवर्तक भाश्व मुद्गल नामक आचार्य का निर्देश वायु के अनुसार, व्यास की ऋशिष्यपरंपरा में से सत्यश्री ऋग्वेद एवं बृहद्देवता में प्राप्त है (ऋ.१०.१०२: बृहहे. नामक आचार्थ का शिष्य (व्यास पाराशर्य देखिये)। ६.४६)। शाकंभरी-देवी का एक अवतार (देवी देखिये)। इसका वंशक्रम निम्नप्रकार माना जाता है :--भृम्यश्व शाकल--देवमित्र (वेदमित्र ) शाकल्य नामक -मुद्गल-वध्यश्व-दिवोदास । आचार्य के शिष्यों का सामूहिक नाम । इसी सामूहिक नाम | (२) गालव शाखा--इस शाखा के प्रवर्तक गालव के कारण इस शिष्यपरंपरा के आचार्य एवं उनके द्वाग अथवा बाभ्रव्य पांचाल का निर्देश 'अष्टाध्यायी "ऋक्यासंस्कारित ऋग्वेद संहिता 'शाकल शाखान्तर्गत' मानी तिशाख्य', 'निरुक्त', बृहद्देवता' आदि ग्रंथों में प्राप्त जाती है। पाणिनि के अष्टाध्यायी में भी 'शाकल' शब्द | है। इस शाखा की संहिता,ब्राह्मण आदि ग्रंथ अप्राप्य हैं। का अर्थ भी 'शाकल्य का शिष्य' किया गया है । (३) शालीय शाखा--'काशिका वृत्ति' में शालीय ब्राह्मण ग्रंथों में--ऐतरेय ब्राह्मण में 'शाकल' शब्द का निर्देश एक शाखाप्रवर्तक आचार्य के नाते प्राप्त है। का अर्थ एक प्रकार का साँप ऐसा दिया गया है, जो | किंतु इस शाखा की संहिता आदि अप्राप्य है। शाकल्य के शिष्यों की ही व्यंजना प्रतीत होती है। वहाँ (४) वात्स्य शाखा--पतंजलि के 'व्याकरणमहाअग्निष्टोम यज्ञ, रथचक्र के सदृश आदि एवं अंतविरहित भाष्य' में वात्सी नामक आचार्य का निर्देश प्राप्त है (महा. होता है, इस कथन के लिए चक्राकार बैठे हुए 'शाकल' ४.२.१०४)। किंतु इस शाखा की संहिता आदि अप्राप्य की उपमा दी गयी है (ऐ. ब्रा. ३५)। हैं (भा २ पृ. २९७)। व्याकरण ग्रंथों में--पाणिनि, कायायन, एवं पतंजलि के | (५) शैशिरेय शाखा-इस शाखा के संहिता का ग्रंथों में 'शाकल' का निर्देश प्राप्त है (पा. सू. ४.१.१८; | निर्देश ऋग्वेद अनुवालानुक्रमणी में प्राप्त है । शौनक के ३.१२८, ६.१.१२७), जहाँ सर्वत्र 'शाकल' का निर्देश | 'अनुवाकानुक्रमाणे' के अनुसार इस शाखा के संहिता एक सामूहिक नाम के नाते से प्राप्त है। ऋग्वेद प्रातिशाख्य में ८५ अनुवा क, १०१७ सूक्त, २००६ वर्ग एवं १०४१७ में 'शाकल' का निर्देश अनेक बार प्राप्त है (ऋ. प्रा. | मंत्र थे। ६५, ७६, ३९०, ४०३; ६३१; ६३३)। इस शाखा का एक 'प्रातिशाख्य' भी उपलब्ध है. मॅक्स मूलर आदि पाश्चात्य वैदिक अभ्यासक, शाकल को | जो शौनक के द्वारा विरचित है। इस प्रातिशाख्य में एक आचार्य मानते है, जिसने शाकलशाखान्तर्गत प्रचलित वेदमित्र शाकल्य का निर्देश 'शाकल्यपिता' एवं 'शाकल्यऋकसंहिता का निर्माण किया था। किंतु यह अभिमत स्थविर' नाम से किया गया है (ऋ. प्रा. १.२२३, भारतीय वैदिक परंपरा के दृष्टि से भ्रममूलक प्रतीत होता १८५)। है; क्यों कि, जैसे पहले ही कहा जा चुका है, कि शाकल शौनक स्वयं शैशिरेय. शाखा का ही आचार्य था, नामक कोई भी आचार्य प्राचीन वैदिक परंपरा में नहीं था। जिस कारण उसके द्वारा विरचित प्रातिशाख्य ग्रंथ 'शाकल शाकल शाखा--वर्तमानकाल में प्राप्त ऋग्वेद की प्रातिशाख्य' अथवा 'शैशिरेय प्रातिशाख्य' नाम से संहिता शाकल शाखा की मानी जाती है। वायु के अनु- | सुविख्यात था। ९५५ Page #978 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शाकल प्राचीन चरित्रकोश शाकल शौनक के द्वारा विरचित एक 'अथर्वप्रातिशाख्य' पदपाठ का रचयिता-ऋग्वेद के वर्तमान 'पदपाठ' भी प्राप्त है, जो 'चतुराध्यायिका' नाम से सुविख्यात है। की रचना शाकल्य के द्वारा की गयी है। इस पदपाठ शाकल्यसंहिता-शाकल शाखा की आद्यसंहिता में ऋग्वेद में प्राप्त समानार्थी पदों का संग्रह परिगणना'शाकल्य संहिता' थी, जिसका निर्देश 'व्याकरण- | पद्धति से किया गया है। किंतु कौन से नियम का अनुमहाभाष्य' में प्राप्त है (महा. १.४.८४)। कात्यायन सरण कर इस 'पदपाठ' की रचना की गयी है, इसका की 'ऋक्सर्वानुक्रमणी' एवं शाकल्य का पदपाठ इसी पता पदपाट में प्राप्त नहीं होता। . संहिता को आधार मान कर लिखा गया है। इस पद ___ व्याकरणाचार्य-शौनक के 'ऋक्प्रातिशाख्य' में भी पाठ के अनुसार, शाकल्य के मूल संहिता में १५३८२६ इसका निर्देश प्राप्त है, जहाँ इसे एक 'व्याकरणकार' पद थे। कहा गया है । 'ऋग्वेद संहिता' में संधि किस प्रकार शाकलायनि--अत्रिकुलोत्पन्न एक गोत्रकार । साधित किये जाते हैं, इस संबंध में इसके अनेकानेक उद्धरण 'शौनकीय ऋक्प्रातिशाख्य' में प्राप्त हैं (ऋ. शाकलि--ऋग्वेदी श्रुतर्षि । प्रा. १९९;२०८; २३२, शु. प्रा. ३.१०)। शाकल्य-ऋग्वेद का सुविख्यात शाखा प्रवर्तक पाणिनि के अष्टाध्यायी में--इस ग्रंथ में संधिनियमों आचार्य, जो व्यास के वैदिक शिष्यों में प्रमुख था । इसे के संदर्भ में इसका निर्देश अनेक बार प्राप्त है (पा..सु. शतपथ ब्राह्मण में 'विदग्ध' शाकल्य, ऐतरेय आरण्यक ६.१.१२७, ८.३.१९; ४.५०)। इसी ग्रंथ में 'पदकार' में ' स्थविर ' शाकल्य एवं पौराणिक साहित्य में वेदमित्र नाम से इसका निर्देश प्राप्त है (पा. सू. ३.२.२३)। ( देवमित्र ) शाकल्य कहा गया है ( श. ब्रा. ११.६.३. इसके द्वारा लिखित पदपाठ में जिस 'पद' का निर्देश : ३; बृ. उ. ३.९.१.४; ७; ऐ. आ. ३.२.१.६; सां. आ. | | 'इति' से किया गया है, जो पाणिनि के अनुसार ७. १६; ८.१.११; वायु. ६०; ब्रह्मांड. २.३४)। 'अनार्ष' है (पा. सू. १.१.१६)। शाखाप्रवर्तक आचार्य--व्यास से इसे जो 'ऋग्वेद पाणिनि ने 'उपस्थित' शब्द की व्याख्या करते समय संहिता' प्राप्त हुई, वह 'शाकल संहिता' नाम से पुनः एक बार इसका निर्देश किया है, एवं कहां है, प्रसिद्ध है, जो आगे चल कर इसने अपने पाँच शाखा " शाकल्य के अनुसार, 'इतिकरण' से सहित 'पद'. प्रवर्तक शिष्यों में बाँट दी । इसी के नाम से वे शाखाएँ को 'उपस्थित' कहते थे" (पा. सू. ६.१.१२९)। 'शाकल ' सामूहिक नाम से प्रसिद्ध हैं ( शाकल देखिये )। याज्ञवल्क्य से संवर्ष--याज्ञवल्क्य वाजसनेय से इसने ऋग्वेद की वर्तमानकाल में उपलब्ध संहिता 'शाकल्य किये प्राणांतिक वादविवाद का निर्देश 'बृहदारण्यक के शाखा की' अर्थात् 'शाकल संहिता' मानी जाती है। उपनिषद' में प्राप्त है (याज्ञवल्क्य वाजसनेय, एवं इसी कारण पड्गुरु ने अपने सर्वानुक्रमणी में ' शाकलक' | देवमित्र शाकल्य देखिये)। की व्याख्या करते समय 'शाकल्योच्चारणम् शाकलकम्' पौराणिक सहित्य में महाभारत में इसे एक ब्रह्मर्षि कहा है (ऋ. सर्वानुक्रमणी १.१)। कहा गया है, एवं इसके नौ सौ वर्षों तक शिवोपासना इससे प्रतीत होता है कि, इसने 'ऋग्वेद संहिता' करने का निर्देश वहाँ प्राप्त है। इसकी तपस्या से प्रसन्न का पदघाट' तैयार किया, अनेकानेक प्रवचनों द्वारा हो कर शिव ने इसे वर प्रदान किया, 'तुम बड़े ग्रंथकार उसका प्रचार किया एवं सैकड़ों शिष्यों के द्वारा उसे बनोगे, एवं तुम्हारा पुत्र ख्यातनाम सूत्रकार बनेगा' (म. स्थायी स्वरूप प्राप्त कराया । अनु. १४; शिव. रुद्र. ४३-४७)। महाभारत में प्राप्त पतंजलि के 'महाभाष्य' से, एवं 'महाभारत' से इस कथा में, इसके पुत्र का नाम अप्राप्य है। प्रतीत होता है कि, ऋग्वेद की इक्कीस शाखाएँ थी। ग्रंथ--ऋक्संहितासाहित्य के अतिरिक्त इसके नाम किंत उनमें से केवळ पाँच शाखाओं के नाम आज प्राप्त पर निम्नलिखित ग्रंथ प्राप्त हैं:-१. शाकल्यसंहिता हैं (चरणव्यूह; शाकल देखिये)। ऋग्वेदी ब्रह्मयज्ञांग | २. शाकल्यमत (C. C.)। तर्पण में केवल तीन शाखाप्रवर्तकों का निर्देश पाया जाता २. एक विष्णुभक्त ऋषि, जो भ्रगिरि पर निवास है। देवी भागवत जैसे पौराणिक ग्रंथ में भी शाकल्य की करता था। एक बार परशु नामक राक्षस इसे खाने के तीन ही शाखाएँ बतायी गयी है ( दे. भा. ७)। लिए दौड़ा। उस समय विष्णु की कृपा से यह लोहमति Page #979 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शाकल. प्राचीन चरित्रकोश शांखायन में रूपांतरित हुआ, एवं इस प्रकार इसकी जान बच गयी। शाख--अनल नाम.. वसु का पुत्र, जो कार्तिकेय का आगे चल कर इसने परशु राक्षस का उद्धार किया (ब्रह्म. छोटा भाई था । यह एवं इसके छोटे भाई विशाख एवं १६३)। नैगम स्वयं कार्तिकेय के ही रूप माने जाते है (म. शाकल्यपितृ--एक बैय्याकरण; जिसका संधिनियम | श. ४३.३७)। के संबंध में अभिमत 'ऋक्प्रातिशाख्य' में प्राप्त है (ऋ. शाखेय-पाणिनीय व्याकरण का एक शाखाप्रवर्तक प्रा. २२३)। आचार्य (पाणि नि देखिये)। शाकवक्त्र-कंद का एक सैनिक (म. श. ४४.७१)। शांखायन--ऋग्वेद का एक अद्वितीय शाखाप्रवर्तक शाकवण रथीतर--एक आचार्य, जो ब्रह्मांड के | आचार्य, जो स्वयं के शाखान्तर्गत 'संहिता' 'ब्राह्मण' अनुसार, व्यास की ऋक् शिष्यपरंपरा में से सत्यश्री नामक 'आरण्यक', ' उपनिषद' श्रौत्रसूत्र, गृह्यसूत्र आदि ग्रंथों आचाय का शिष्य था । पाठभेद-' शाकपूणि' का रचयिता माना जाता है। कुषीतक ऋषि का पुत्र होने शाकायन--वसिष्ठकुलोत्पन्न एक गोत्रकार । के कारण, इसके द्वारा विरचित समस्त वैदिक साहित्य २. एकायन नामक भृगुकुलोत्पन्न गोत्रकार का नामांतर । 'कौषीतकि' अथवा 'शांखायन' नाम से सुविख्यात है । शाकायनि--भृगुकुलोत्पन्न एक गोत्रकार । टीकाक्रार आनीय के अनुसार, इसे 'सुयज्ञ' नामांतर भी प्राप्त था (सां. गृ. ४.१०; ६.१०)। 'शांखायन शाकायन्य--एक तत्त्वज्ञ आचार्य, जिसने बृहद्रथ आरण्यक' में भी इसका निर्देश प्राप्त है (शां. आ. ऐक्ष्वाक राजा को आत्मज्ञान कराया था (मै. उ. १.२)। २. जात नामकं आचार्य का पैतृक नाम, जो उसे शांखायन संहिता-व्यास की ऋक्शिष्यपरंपरान्तर्गत 'शाक' का वंशज होने के कारण प्राप्त हुआ था (क. सं. पाँच प्रमुख शाखाएँ मानी जाती थीं, जिनकी नामावलि निम्नप्रकार है :--१. शाकल २. बाष्कल ३. आश्वलायन शाकहार्य--वसिष्ठकुलोत्पन्न एक गोत्रकार । ५. शांखायन ५. माण्डुकेय । इन पाँच शाखाओं में से 'शाकिनी--गौड देश में रहनेवाले दुर्व नामक ब्राह्मण शांखायन शाखा का प्रणयिता यह माना जाजा है, जिसकी की पत्नी । इसके पुत्र का नाम बुध था (बुध ७. देखिये)।। शांखायन, कौषीतकि आदि विभिन्न उपशाखाएँ थीं। . शाकुनि--मधुवन में रहनेवाला एक ऋषि, जिसके __ इस शाखा में प्रचलित 'ऋग्वेद संहिता' प्रायः सर्वत्र कुल नौ पुत्र थे। इनके पुत्नों में से ध्रुव, शील, बुध, तार शाकल शाखांतर्गत ऋक्संहिता से मिलती जुलती थीं । एवं ज्योतिष्मत् ये पुत्र गृहस्थाश्रमी एवं अग्निहोत्री थे। वर्तमानकाल में प्राप्त ऋग्वेदसंहिता शाकल शाखा की मानी इसके चार पुत्र निर्मोह, जितकाम, ध्यानकेश एवं गुणाधीक | जाती है। विरक्त एवं संन्यस्त वृत्ति के थे (पद्म. स्व. ३१)। ___ शांखायन ब्राह्मण---ऋग्वेदसंहिता के दो ब्राह्मण ग्रंथ शाक्त्य--गौरवीति पराशर ऋषि का पैतृक नाम, जो माने जाते है:-१. ऐतरेय; २. शांखायन अथवा कौषीतकि। उसे 'शक्ति' का वंशज होने के कारण प्राप्त हुआ था | 'कौषीतकि ब्राह्मण' में कुल ३० अध्याय है, एवं यज्ञ (ऐ. बा. ३.१९.४; श. ब्रा. १२.८.३.७; पं. बा. ११.५. | की श्रेष्ठता प्रतिपादन करना, एवं उसकी शास्त्रीय व्याख्या १४; १२.१३.१०; आप. श्री. २३.११.१४)। करना इस ग्रंथ का प्रमुख उद्देश्य है । यद्यपि ऐतरेय एवं शाक्य--(सू. इ. भविष्य.) एक राजा, जो भागवत, कौषीतकि ब्राह्मण एक ही ऋग्वेद के हैं, फिर भी,विषय प्रतिमत्स्य, विष्णु, भविष्य एवं वायु के अनुसार संजय राजा पादन के दृष्टि से ये दोनों ग्रन्थ काफी विभिन्न हैं । विषयका पत्र था। भविष्य में इसे 'शाक्यवर्धन' कहा गया है। प्रतिपादन के स्पष्टता के दृष्टि से 'कौषीतकि ब्राह्मण' ऐतरेय इसके पुत्र का नाम शुद्धोद था। ब्राह्मण से कतिपय श्रेष्ठ प्रतीत होता है। इस ब्राह्मण में शाक्रतव--शौकतव नामक अत्रिकलोत्पन्न गोत्रकार | इसका निर्देश 'कौषीतकि' एवं 'कौषीतक' इन दोनों का नामांतर। नाम से प्राप्त हैं। शाकायण--कश्यपकुलोत्पन्न एक गोत्रकार। शांखायन आरण्यक-यद्यपि आरण्यक ग्रंथों की शाकर--ऋषभ नामक वैदिक सूक्तद्रष्टा का पैतृक नाम | संख्या अनेक बतायी गयी है, फिर भी इनमें से केवल (ऋ. १०.१६६)। | आठ ही आरण्यक ग्रन्थ आज उपलब्ध हैं, जिनकी Page #980 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शांखायन प्राचीन चरित्रकोश शाट्यायनि नामावलि निम्न प्रकार है:--१. ऐतरेयः २. आदि आचार्यों का निर्देश प्राप्त है । एक सर्पसत्र का निर्देश शांखायन; ३. तैत्तिरीय. ४, माध्यंदिन; ५. बृहदारण्यक; भी वहाँ किया गया है, जो संभवतः जनमेजय के द्वारा किये ६. जैमिनीयोपनिषदारण्यक ७. छांदोग्यारण्यक। इनमें गये सर्पसत्र का होगा (सां श्री. १३.२३.८)। से 'कौषीतकि आरण्यक' में 'कौषीतक ब्राह्मण' का शांखायन गृह्मसूत्र--शांखायन का एक गृह्यसूत्र भी ही कई भाग पुनरद्रत किया गया है, जिनके पंद्रह | प्राप्त है, जिसमें पितृयज्ञ, आग्रहायणी यज्ञ आदि अध्याय हैं। | सात गृह्य यज्ञों की, एवं देवयज्ञ, भूतयज्ञ, आदि पाँच महासायण के अनुसार अरण्यों में पढ़ाये जाने के कारण | यज्ञों की जानकारी दी गयी है। इन ग्रन्थों को 'आरण्यक' नाम प्राप्त हुआ। वनवासी वान- ___ उपलब्ध गृह्यसूत्रों में 'शांखायन गृह्यसूत्र' प्रमुख माना प्रस्थियों को यज्ञयागादि कमों की दीक्षा देना इन ग्रन्थों का जाता है। उपलब्ध गृह्यसूत्रों की नामावलि निम्न प्रकार प्रमुख उद्देश्य है । जिस प्रकार गृहस्थाश्रम के यज्ञादि है:-१. शांखायन गृह्यसूत्र; २. आश्वल यन गृह्यसूत्र कर्मों का वर्णन 'ब्राह्मण' ग्रन्थों में प्राप्त है, इसी प्रकार | ३. मानव गृह्यसूत्र; ४. बौधायन गृह्यसूत्र; ५. आपस्तंत्र वानप्रस्थाश्रम के यज्ञादि विधियों का वर्णन आरण्यक ग्रंथों गृह्यसूत्रः ६. हिरण्यकेशी गृह्यसूत्र; ७. भारद्वाज गृह्यसूत्र; में प्रतिपादित किया है। उनमें कर्मकांड के साथ, धर्म की ८. पारस्कर गृह्यसूत्र, ९. द्राह्यायण गृह्यसूत्र; १०. गोभिल आध्यात्मिक व्याख्या भी दी गयी है, एवं इस प्रकार, गृह्यसूत्र; ११. खादिर गृह्यसूत्र; १२. कौशिक गृह्यसूत्र । ज्ञानमार्ग एवं कर्ममार्ग का समन्वय किया गया है। ____ आचार्य-परंपरा-ऐतरेय ब्राह्मण का रचयिता मंहिदास __ 'ऐतरेय' एवं 'कौषीतकि' दोनों ग्रंथों के आद्य ऐतरेय, शांखायन का पूर्ववर्ती आचार्य माना जाता है। भाष्यकार सायण एवं शंकराचार्य माने जाते हैं। शांकर- कई अभ्यासकों के अनुसार, ऐतरेय ब्राह्मण ग्रन्थ का कर्तृत्त्व भाष्य के सुप्रसिद्ध टीकाकारों में आनंदगिरि, आनंदतीर्थ भी महीदास ऐतरेय (ऐ ब्रा. १-६ पंचिका), एवं शास्त्रा(आनंदज्ञान), नारायणेन्द्र सरस्वती एवं कृष्णदास प्रमुख यन तथा आश्वलायन (ऐ. ब्रा. ७-८ पंचिक) में विभामाने जाते है। जित किया जाता है । इस दृष्टि से ऋग्वेदीय शाखांप्रवर्तक शांखायन (कौषीतकि) उपनिषद--यह ग्रंथ उपनिषद आचार्यों की परंपरा निम्नप्रकार बतायी जाती है:ग्रंथों में काफी प्राचीन माना जाता है। इस ग्रंथ में | महीदास ऐतरेय-शांखायन-आश्वलायन । 'कौषीतकि आरण्यक' का ही तीसरा एवं छठा अध्याय शांखायन के ग्रंथों में सुमन्तु, जैमिनि, वैशंपायन, पैल एकत्रित किया गया है। | आदि पूर्वाचार्यों का निर्देश प्राप्त है। शांखायन श्रौतसूत्र--वैदिक संहिताओं में वर्णित यज्ञ- शाट्यायनि--एक आचार्य, जो 'शाट्यायन ब्राह्मण यागादि विधियों का सार संकलित करनेवाले ग्रंथों को एवं 'शाट्यायन गृहसूत्र' आदि ग्रंथों का रचियता माना 'श्रौतसूत्र' कहा जाता है, जिनमें वेदों में प्रतिपादित चौदह जाता है । इनमें से 'शाट्यायन ब्राह्मण' आज उपलब्ध यज्ञों की जानकारी प्राप्त है। नहीं है। प्राचीन श्रौतसूत्रों में से बारह प्रमुख श्रौतसूत्र आज प्राप्त आचार्य परंपरा--एक गुरु के नाते इसका निर्देश हैं. जिनकी नामावलि निम्नप्रकार है :-१. शांखायन ब्राह्मण ग्रंथों में अनेक बार प्राप्त है (श. बा. ८.१.८.९; श्रौतसूत्र; २. आश्वलायन श्रौतसूत्र; ३. मानव श्रौतसूत्रः | १०.४.५.२; जै. उ. बा. १.६.२, ३०.१, २.२.८; ४. ४. बौधायन श्रौतसूत्र; ५. आपस्तंब श्रौतसूत्र; ६. हिरण्य-३)। जैमिनीय उपनिषद ब्राह्मण' में इसका सही नाम केशी श्रौतसूत्र; ७. कात्यायन श्रौतसूत्र, ८. लाट्यायन शंग दिया है, एवं शाट्यायन इसका पैतृक नाम बताया श्रौतसूत्रः ९. द्राहथायण श्रौतसूत्र; १० जैमिनीय श्रौतसूत्र; | गया है, जो इसे 'शाट्य ' का वंशज होने के कारण प्राप्त ११ वैतान श्रौतसूत्र; १२ वाराह श्रौतसूत्र । हुआ था। इस ग्रंथ में इसे ज्वालायन का शिष्य कहा शांखायन श्रौतसूत्र के कुल अठारह अध्याय है, एवं | गया है (जै. उ. ब्रा. ४.१६.१)। 'सामविधान ब्राह्मण उसके अनेक उद्धरण शांखायन ब्राह्मण से मिलते जुलते | में इसे बादरायण का शिष्य कहा गया है। हैं । इस ग्रंथ के सत्रहवाँ एवं अठारहवाँ अध्याय 'कौषीतकि शाट्यायन ब्राह्मण-शाट्यायन ब्राह्मण में प्राप्त अनेक आरण्यक' के पहले एवं दूसरे अध्याय से उद्धत किये | कथा सायणभाष्य में पुनरुद्धृत की गयी है। इस ग्रंथ के गये है। उस श्रौतसूत्र में शौनक, जातूकर्ण्य, पैंग्य, आरुणि अनेक उद्धरण जैमिनीय उपनिषद ब्राह्मण में भी प्राप्त हैं ९५८ आजा गया हा Page #981 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शाट्यायनि प्राचीन चरित्रकोश शांडिल्य (जै. उ. बा. ९.१०; ३.१३.६; २८.५)। 'आश्व- रात्रि में सोते सोते गरुड के मन में विचार आया, 'इस लायन श्रौतसूत्र' में इसके अभिमतों का निर्देश 'शाट्या- तपस्विनी को अगर मैं अपने पंखों पर बिठा कर विष्णुलोक यनक' नाम से प्राप्त है (आश्व. श्री. १.४.१३)। ले जाऊं, तो बहुत ही अच्छा होगा'। गरुड के इस औद्धआर्टल के अनुसार, यह ब्राह्मण ग्रन्थ 'जैमिनीय ब्राह्मण' त्यपूर्ण विचारों के कारण, एक ही रात्रि में उसके पंख से काफी मिलता जुलता था। गिर गये, एवं वह पंखविहीन बन गया। जैमिनीय उपनिषद् ब्रह्मण (गाच्युपनिषद--इस ग्रंथ पश्चात् गरुड एवं गालव दोनों इसकी शरण में आये, का प्रमुख प्रणयिता भी शाट्याय नि माना जाता है । इस ग्रन्थ जिस कारण इसने उन्हें अनेकानेक वर प्रदान किये (म. में प्राप्त गुरुपरंपरा के अनुसार, यह ग्रन्थ सर्वप्रथम इंद्र ने उ. १११.१-१७; स्वंद. ६.८१-८२)। ज्वालायन नामक आचार्य को प्रदान किया, जिसने वह केकयदेशीय सुमना नामक राजकन्या से इसने पातिव्रत्य अपने शिष्य शाट्यायन को सिखाया। आगे चल कर के संबंध में उपदेश प्रदान किया था (म. अनु. १२३. यही ग्रंथ शाटयायन ने अपने शिष्य राम कातुजातेय | ८-२३)। वैयाघ्रपद्य को प्रदान किया। इन सारे आचायों में से, शांडिल्य-एक श्रेष्ठ आचार्य, जो अग्निकार्य से शट्याय नि ने इस ग्रन्थ को विशेष प्रतिष्ठा प्राप्त करायी संबंधित समस्त यज्ञप्रक्रिया में अधिकारी व्यक्ति माना (जै. उ. ब्रा. ४.१६-१७)। जाता था। बृहदारण्यक उपनिषद में इसे वात्स्य नामक शिष्यपरंपरा--इसके अनुगामी 'शाट्यायनिक.' | आचार्य का शिप्य कहा गया है (बृ. उ. ६.५.४ काण्व.) 'शाट्यायनक' अथवा 'शाट्याय निन' नाम से प्रसिद्ध 'शंडिल' का वंशज होने के कारण, इसे यह नाम प्राप्त थे, जिनका निर्देश सूत्रग्रंथों में, एवं 'शाट्यायन ब्राह्मण' में हुआ होगा। प्राप्त है (ला. श्री. ४.५.१८; १.२.२४; आ. श्री. ५. यज्ञप्रक्रियों का आचार्य-शतपथ ब्राह्मण के पाँचवे एवं - २३.३; आश्व. श्री. १.४.१३)। , उसके बाद के कांडों में, अग्नि से संबंधित जिन संस्कारों २. विश्वामित्रकुलोत्पन्न एक गोत्रकार । का निर्देश प्राप्त है, वहाँ सर्वत्र इसका निर्देश इन प्रक्रियों शांडिल-शांडिल्य ऋषि के वंशजों के लिए प्रयक्त | का श्रेष्ठ आचार्य के नाते किया गया है (श. वा. ५.२. सामुहिक नाम ( ते. आ. १.२२.१०)। १५; १०.१.४.१०, ४.१.११, ६.३.५; ५.९, ९.४.४. 'शांड--एक उदार दाता, जिसने भरद्वाज ऋषि को १७) । शतपथ ब्राह्मण के इन सारे अध्यायों में विपुल दान प्रदान किया था (ऋ. ६.६३.९)। यज्ञाग्नि को 'शाण्डिल' कहा गया है, (श. ब्रा. १०.६. शांडिलायन-एक पैतृक नाम, जो वैदिक साहित्य ५.९)। में निम्नलिखित आचार्यों के लिए प्रयुक्त किया गया। शतपथ ब्राह्मण के अग्निकांड-शतपथ ब्राह्मण के छः ह: १. सुतमनस् (वं.बा.१ ): २. गंर्दभीमख (वं. | से नौ कांड 'अग्निचयन' से संबधित हैं, जिनमें कल ब्रा.२)। ६० अध्याय हैं । ये चार कांड 'अभि' अथवा 'षष्टिपथ' शांडिलि-वसिष्ठकुलोत्पन्न एक गोत्रकार। सामूहिक नाम से प्रसिद्ध थे, एवं उनका अध्ययन अलग शांडिली--दक्ष प्रजापति की कन्या, जो धर्म ऋषि | किया जाता था। इन कांडो का अध्ययन करनेवाले की पत्नियों में से एक थी (म. आ. ६६.१७-२०)। आचार्यों को 'षष्टिपथक' कहा जाता था । इन सारे कांडों २. कौशिक ऋषि की पत्नी दीपिका का नामांतर | का प्रमुख आचार्य शांडिल्य माना गया है। ( दीर्घिका एवं कौशिक १४. देखिये)। ___शतपथ ब्राह्मण का दसवाँ कांड 'अग्निरहस्य कांड' ३. शांडिल्य ऋषि की तपस्विनी कन्या, जो स्वयंप्रभा | कहलाता है, जिसमें अग्निचयन के रहस्यतत्त्वों का निरुपण नाम से भी सुविख्यात थी। यह ऋषभ पर्वत पर तपस्या किया गया है। यहाँ भी शांडिल्य को इस विद्या का करती थी। प्रमुख आचार्य माना गया है । यज्ञ की वेदि की रचना गरुड का गर्वहरण-एक बार गालव ऋषि एवं करना, आदि विषयों में इसके मत पुनः पुनः उद्धृत किये पक्षिराज गरुड इसके आश्रम में अतिथि के नाते आये। | गये हैं । इसने उनका उत्तम आदरसत्कार किया, एवं रात्रि के 'बृहदारण्यक उपनिषद' में- इस ग्रंथ में इसे निम्नलिए उन्हें अपने आश्रम में ठहराया। | लिखित आचार्यों का शिष्य कहा गया है:- १. कैशोर्य ९५९ Page #982 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शांडिल्य प्राचीन चरित्रकोश शांडिल्य काप्य (बृ. उ. २.५.२२; ४.५.२८ माध्य.); २. वैष्ट- शंकराचार्य विरचित 'ब्रह्मसूत्रभाष्य' में शांडिल्य के पुरेय (बृ. उ. २.५.१०; ४.५.२६ माध्य.) ३. कौशिक (बृ. | उपर्युक्त तत्त्वज्ञान का निर्देश 'शांडिल्यविद्या' नाम से उ. २.६.१, ४.६.१ काण्व.); ४. गौतम (बृ. उ. २. | किया गया है। ५.२०, ४.५.२६ माध्यं ); ५. बैजवाप (बृ. उ. २.५. गोत्रकार आचार्य-आश्वलायन गृहसूत्र में प्राप्त गोत्र २०; ४.५.२६ माध्य.); ६. आनभिम्लात (बृ. उ. २. | कारों के नामावलि में शांडिल्य का निर्देश प्राप्त है, जहाँ ६.२ काण्व.)। इसके गोत्र के प्रवर शांडिल्य, असित, एवं देवल दिये गये हैं। इसके द्वारा लिखित 'गृह्यसूत्र' का निर्देश इसी ग्रंथ में निम्नलिखित आचार्यों को इसकी शिष्य | 'आपस्तंब धर्मसूत्र' में प्राप्त है (आप. य. ९.११. कहा गया है:- कौडिन्य, आमिवेश्य, वात्स्य, वाम २१)। भक्ति के संबंध इसके उद्धरण भी उत्तरकालीन कक्षायण, वैष्ठपूरेय, भारद्वाज (बृ. उ. २.६.१.३; ६.५. सूत्रनंथों में प्राप्त हैं। ४; श. ब्रा. १४.७.३.२६)। । ग्रंथ--इसके नाम पर निम्नलिखित ग्रंथ प्राप्त है :-- किंतु यहाँ संभवतः एक ही 'शांडिल्य' का १. शांडिल्यस्मृति; २. शांडिल्यधर्मसूत्र; ३. शांडित्यतत्त्वसंकेत न हो कर, 'शांडिल्य पैतृक नाम धारण करने दीपिका (C. C.)| वाले अनेकानेक आचार्यों का निर्देश प्रतीत होता है। २. एक पैतृक नाम, जो निम्नलिखित आचार्यों के इनमें से 'शतपथ ब्राहाण' में निर्दिष्ट 'शांडिल्य' कौनसे लिए प्रयुक्त किया गया है :--१. उदर (छां. उ..१. आचार्य का शिष्य था, यह कहना कठिन है। | ९.३); २. सुयज्ञ (जै. उ. ब्रा. ४.१७.१)। ३. एक ऋषि, जो मरीचिपुत्र कश्यप ऋषि के वंश में तत्वज्ञान-'छांदोग्य उपनिषद' में शांडिल्य का उत्पन्न हुआ था। आगे चल कर, इसीके कुल में अग्नि ने तत्त्वज्ञान दिया गया है (छां. उ. ३.१५)। इस तत्त्वज्ञान जन्म लिया था, जिस कारण उसे 'शांडिल्यगोत्रीय' के अनुसार, ब्रह्मा को 'तज्जलान्' कहा गया है; एवं कहा जाता है (वैश्वदेवप्रयोग देखिये)। सारी सृष्टि इसी तत्त्व से प्रारंभ होती है, जीवित रहती है, एवं अंत में इसी तत्त्व में विलीन होती है, ऐसा सुमन्यु राजा ने इसे 'भक्ष्य-भोज्यादि' पक्षों की कहा गया है । शांडिल्य के इस तत्त्वज्ञान का तात्पर्य यही पर्वतप्राय राशि दान में प्रदान की थी (म. अनु. १३७. था कि, सृष्टि के समस्त भूतमात्रों के उत्पत्ति, स्थिति एवं २२)। इसने अन्यत्र बैलगाडी के दान को सुवर्ण-द्रव्य लय का अधिष्ठाता केवल एक ईश्वर ही है। आदि द्रव्यों के दान से श्रेष्ठ बताया है (म. अनु. ६४. १९; ६५.१९)। आत्मा का स्वरूप-शांडिल्य के तत्त्वज्ञान में 'आत्मा' ४. एक ऋषि, जिसने वैदिक मार्ग से विष्णु की पूजा का वर्णन अर्थपूर्ण एवं निश्चयात्मक शब्दों में किया गया न कर, अवैदिक मागों से उसकी उपासना करना चाहा। है, एवं उसके 'महत्तम' एवं 'लघुतम' ऐसे दो स्वरूप एक ग्रंथ की रचना कर इसने अपने इस अवैदिक तस्ववहाँ वर्णन किये गये हैं। इनमें से 'महत्तम' आत्मा प्रणाली का समर्थन भी किया। अनंत एवं सारे विश्व का व्यापन करनेवाला कहा गया इस पापकर्म के कारण, इसे 'नकवास की शिक्षा भुगहै, एवं 'लघुतम ' आत्मा अणुस्वरूपी वर्णन किया गया | तनी पड़ी, एवं आगे चल कर भृगवंश में जमक्षमि के रूप है। आत्मा का नकारात्मक वर्णन करनेवाले याज्ञवल्क्य के में इसे जन्म प्राप्त हुआ ( वृद्धहारितस्मृति. १८०-१९३)। तत्त्वज्ञान से शांडिल्य के इस तत्त्वज्ञान की तुलना अक्सर ५. ब्रह्मदेव का सारथि (कंद. ७.१.१२६ )। की जाती है (याज्ञवल्क्य वाजसनेय देखिये )। इन दोनों ६. एक शिवभक्त राजा । युवावस्था में प्रविष्ट होते तत्त्वज्ञानों की कथनपद्धति विभिन्न होते हुए भी, उन ही, कामासक्त बन कर यह अनेकानेक स्त्रियों पर दोनों में प्रणीत आत्मा के संबंधित तत्त्वज्ञान एक ही प्रतीत अत्याचार करने लगा। शिव की कृपा के कारण, साक्षात् होता है। यमधर्म भी इसे कुछ सज़ा नहीं कर सकता था। - शांडिल्य के अनुसार, मानवीय जीवन का अंतिम । अंत में शिव को इसके अत्याचार ज्ञान होते ही, ध्येय मृत्यु के पश्चात् आत्मन् में विलीन होना बताया उसने इसे एक हज़ार वर्षों तक कछुआ (कुर्म ) बनने का गया है। | शाप दिया (स्कंद. १.२.१२)। Page #983 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शांडिल्य प्राचीन चरित्रकोश शांतनव ७. अग्नि का ज्येष्ठ पुत्र, जो कश्यप का ज्येष्ठ भाई शाताताप स्मृति ' आनंदाश्रम, पूना के द्वारा प्रकाशित की था (म. अनु. ५३.२६ कुं.)। गयी है। शांडिल्यायन-गर्दभीमुख नामक आचार्य का पैतृक 'मिताक्षरा' (३.२९०), एवं विश्वरूप (३.२३६) नाम। ने इसके स्मृति के उद्धरण उद्धत किये है। 'बृहत्शापातप शांडिल्यायन 'चेलक'-एक आचार्य, जिसका स्मृति' का निर्देश 'मिताक्षरा' में प्राप्त है (याज्ञ. ३. निर्देश शतपथ ब्राह्मण में प्राप्त है (श. बा. ९.५.१.६४) २९०)। 'वृद्धशातातप स्मृति' का, एवं उसके भाष्य इसका सही नाम चेलक था, एवं शांडिल्यायन इसका का निर्देश क्रमशः 'व्यवहारमातृका' (३०५) में, एवं पैतृक नाम था, जो इसे शांडिल्य का वंशज होने के कारण | हेमाद्रि ( ३.१.८०१) में प्राप्त है। प्राप्त हुआ था (श. ब्रा. १०.४.५.३) । इसके पुत्र का नाम शुक्ल यजुर्वेदशाखीय ब्राह्मणों में प्रचलित मातृगोत्रचैलकि जीवल था (श. बा.१०.४.५.३)। कई अभ्यासको पालन करने के परंपरा का निर्देश, इसकी स्मृति में पाया के अनुसार, प्रवाहण जैवल इसका ही पौत्र था। किंतु | जाता है। प्रवाहण स्वयं एक ब्राह्मण न हो कर राजा था । इसी कारण | शाद्वलायन--वसिष्ठकुलोत्पन्न एक गोत्रकार । इस संबंध में निश्चित रूप से कहना कठिन है। शांत--अहन् अथवा आप नामक वसु के चार पुत्रों दैव्यांपति नामक आचार्य ने अग्निचयन के संबंध में में से एक । इसके अन्य तीन भाइयों के नाम शम, इससे चर्चा की थी (श. बा. ९.५.१.१४)। ज्योति एवं मुनि थे (म. आ. ६०.२२; मत्स्य. ५. शातकर्णि-(आंध्र. भविष्य.) एक आंध्रवंशीय २२)। राजा, जो विष्णु एवं ब्रह्मांड के अनुसार कृष्ण राजा का २. (स्वा. प्रिय.) एक राजा, जो प्रियव्रतपुत्र इध्मजिह पुत्र था। भागवत में इसे 'शांतकर्ण', वायु में इसे | राजा का पुत्र था । प्लक्षद्वीपान्तर्गत एक 'वर्ष' पर इसका 'सातकर्णि' एवं ब्रह्मांड में 'श्रीमल्लकर्णि' कहा गया है। राज्य था (भा. ५.२०.३)। - इसके पुत्र का नाम पूर्णोत्संग था (विष्णु. ४.२४.४५)। ३. (सो. पुरूरवस्.) एक राजा, जो आयु राजा का २. (आंध्र. भविष्य.) एक राजा, जो मत्स्य एवं विष्ण | पुत्र था (ब्रह्मांड. ३.३.२४)। के अनुसार पूर्णोत्संग राजा का पुत्र था । इसने ५६ वर्षों। ४. तामस मनु के पुत्रों में से एक । तक राज्य किया था (मत्स्य. २७३.४)। ५. एक राजा, जो दुर्दम राजा की पत्नी सुभद्रा का ३. (आंध्र. भविष्य.) एक राजा, जो ब्रह्मांड के पिता था (मार्क. ७२.४५, दुर्दम १. देखिये)। अनुसार पुरीषभीरु राजा का पुत्र था। वायु में इसे शांतकणे--शातकर्णि राजा का नामांतर । 'सातकणि कहा गया है। शांतनव-एक व्याकरणकार, जो वेदों के स्वर के ४. (आंध्र. भविष्य.) एक राजा, जो विष्ण के | संबंध में विचार करनेवाले 'फिट् सूत्रों' का रचयिताअनुसार अहिमान् राजा का पुत्र, एवं शिवश्री राजा का माना जाता है। इसके द्वारा रचित सूत्रों के अंत में पिता था। 'शांतनवाचार्य प्रणीत' ऐसा स्पष्ट निर्देश प्राप्त है । इसका शातपर्णेय--धीर नामक आचार्य का पैतक नाम | सही नाम शंतनु था, किंतु 'तद्धित' प्रत्यय का उपयोग (श. ब्रा. १०.३.३.१)। कर इसका 'शांतनव' नाम प्रचलित हुआ होगा। इसके - शातवनेय-एक राजा, जो भरद्वाज ऋषि का आश्रय- नाम से यह दक्षिण भारतीय प्रतीत होता है। दाता था (ऋ. १.५९.७)। फिट्सूत्र--'फिट' का शब्दशः अर्थ 'प्रातिपदिक' शातातप--एक स्मृतिकार (याज्ञ. १.५)। इसकी | होता है। प्रातिपदिकों के लिए नैसर्गिक क्रम से उपयोजित छः अध्यायोंवाली एक गद्यपद्यात्मक स्मृति है, जो वेंकटेश्वर | 'उदात्त', 'अनुदात्त', एवं 'स्वरित ' स्वरों की जानप्रेस, एवं आनंदाश्रम, पूना के द्वारा प्रकाशित 'स्मृतिसंग्रह' कारी प्रदान करने के लिए इन सूत्रों की रचना की गयी में प्राप्त है। है । इन सूत्रों की कुल संख्या ८७ हैं, जो निम्नलिखित शातातप स्मृति--श्री. मित्रा के द्वारा ८७ अध्याय एवं चार पादों (अध्यायों) में विभाजित की गयी है:-१. २३७६ श्लोकोवाली इसकी एक स्मृति प्रकाशित की गयी | अन्तोदात्तः २. आधुदात्तः ३. द्वितीयोदात्त; ४. है। इसके अतिरिक्त 'लघु-शातातप स्मृति ' एवं 'वृद्ध- | पर्यायोदात्त । प्रा. च. १२१] Page #984 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शांतनव प्राचीन चरित्रकोश शांतनु रचनाकाल-पतंजलि के व्याकरणमहाभाष्य में इन | पूर्ण विभाग माना जाता है। पाणिनीय व्याकरण सूत्रों के उद्धरण प्राप्त हैं (महा. ३.१.३; ६.१.९१; के 'शब्दप्रक्रिया' 'धातुज शब्दों का अध्ययन,' १२३)। इसके अतिरिक्त काशिका, कैय्यट, भट्टोजी | 'लिंगज्ञान ''गणों का अध्ययन,''शब्दों का उच्चारदीक्षित, नागेशभट्ट आदि के मान्यवर व्याकरणविषयक | शास्त्र' आदि प्रमुख विभाग हैं, जिनके अध्ययन ग्रंथों में भी इन सूत्रों का निर्देश प्राप्त है। के लिए क्रमश; 'अष्टाध्यायी,' 'उणादिसूत्र' व्याकरणशास्त्रीय दृष्टि से पाणिनि एवं शांतनव 'लिंगानुशासन' 'गणपाठ''शिक्षा' आदि ग्रंथों की 'अव्युत्पत्ति पक्षवादी' माने जाते हैं, जो शाकटायन के सर्व रचना की गयी है । स्वरों के उच्चारणशास्त्र की चर्चा शब्द 'धातुज' हैं (सर्व धातुजं), इस सिद्धांत को मान्यता करनेवाला शांतनवकृत ' फिटसुत्र' पाणिनीय व्याकरणनहीं देते हैं (शाकटायन देखिये )। इसी कारण हर एक शास्त्र के इसी परंपरा का एक महत्त्वपूर्ण ग्रंथ प्रतीत शब्दप्रकृति के स्वर नमूद करना वे आवश्यक समझते होता है। हैं। हर एक शब्द के 'प्रकृतिस्वर' गृहीत समझ कर शांतनु-(सो. कुरु.) एक सुविख्यात कुरुवंशीय शांतनव ने अपने 'फिटसुत्रों' की रचना की है, एवं | सम्राट् , जो प्रतीप राजा के तीन पुत्रों में से द्वितीय पुत्र शांतनव के द्वारा यह कार्य पूर्व में ही किये जाने के था। इसकी माता का नाम सुनंदा था, एवं अन्य दो । कारण, पाणिनि ने अपने ग्रंथ में वह पुनः नहीं किया है। भाइयों के नाम देवापि एवं बालीक थे । इसका मूल नाम इसी कारण शांतनव आचार्य पाणिनि के पूर्वकालीन महाभिषज' था । किन्तु शान्त त्वभाववाले प्रतीप राजा माना जाता है । इसकी परंपरा भी पाणिनि स स्वतत्र था, का पुत्र होने के कारण इसे 'शांतनु' नाम प्राप्त हुआ जिसका अनुवाद पाणिनि के 'अंगभूत परिशिष्ट' में पाया (म. आ. ९२.१७-१८)। भागवत के अनुसार, इसके जाता है। केवल हस्तस्पर्श से ही अशांत व्यक्ति को शान्ति, एवं परिभाषा-इसके 'फिट्सूत्रों में अनेकानेक पारिभाषिक | वृद्ध व्यक्ति को यौवन प्राप्त होता था, इस कारण इसे शब्द पाये जाते हैं, जो पाणिनीय व्याकरण में अप्राप्य शांतनु नाम प्राप्त हुआ था ( भा. ९.२२.१२, म. आ.. हैं। इनमें से प्रमुख शब्दों की नामावलि एवं उनका शब्दार्थ | ९०.४८)। नीचे दिया गया है :-अनुच्च (अनुदात्त ); अप (अच्); महाभारत की भांडारकर संहिता में इसके नाम का नप् (नपुंसक); फिष् (प्रातिपदिक); यमन्वन् (वृद्ध); | 'शंतनु' पाठ स्वीकृत किया गया है। किंतु अन्य सभी शिट् (सर्वनाम); स्फिग् (लुप्); हय् (हल्)। ग्रंथों में इसे शांतनु ही कहा गया है । ___ 'फिटसूत्रों' का महत्त्व-उदात्त, अनुदात्तादि स्वर केवल वैदिक संहिताओं के उच्चारणशास्त्र के लिए आवश्यक इसका ज्येष्ठ भाई देवापि बाल्यावस्था में ही राज्य हैं, सामान्य संस्कृत भाषा के उच्चारण के लिए इन | छोड़ कर वन में चला गया। इस कारण, कनिष्ठ हो कर स्वरों की कोई आवश्यकता नहीं है, ऐसा माना जाता है। भी इसे राज्य प्राप्त हुआ. ( देवापि देखिये )। यह किंतु इन स्वरों की संस्कृत भाषा के उच्चारण के लिए अत्यंत धर्मशील था, एवं इसने यमुना नदी के तट पर भी नितांत आवश्यकता है, यह सिद्धांत शांतनव के सात बड़े यज्ञ एवं अनुष्ठान किये (म. व. १५९. 'फिटसूत्रों के द्वारा सर्वप्रथम प्रस्थापित किया गया, २२-२५)। एवं आगे चल कर 'पाणिनीय व्याकरण' ने भी इसे गंगा से विवाह-एक बार यह मृगया के हेतु वन में मान्यता दी। | गया, जहाँ इसकी गंगा (नदी) से भेंट हुयी । गंगा के फिटसूत्रों' में प्राप्त ८७ सूत्रों में से केवल पाँच ही अनुपम रूप से आकृष्ट होकर, इसने उससे अपनी पत्नी सूत्रों में वैदिक शब्दों के (छन्दसि ) स्वरों की चर्चा की बनने की प्रार्थना की। गंगा ने वसुओं के द्वारा उससे की गयी है, बाकी सभी सूत्रों में प्रचलित संस्कृत भाषा गया प्रार्थना की कहानी सुना कर, इसे विवाह से परावृत्त एवं वेद इन दोनों में प्राप्त संस्कृत शब्दों के स्वरों की करने का प्रयत्न किया, किन्तु इसके पुनः पुनः प्रार्थना एवं उच्चारण की चर्चा प्राप्त है। करने पर उसने इससे कई शर्ते निवेदित की, एवं उसी - इसी कारण 'फिटसूत्र' केवल वैदिक व्याकरण का ही शतों का पालन करने पर इससे विवाह करने की मान्यता नहीं, बल्कि 'पाणिनीय व्याकरण' का भी एक महत्त्व-दी (गंगा देखिये)। Page #985 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शांतनु . प्राचीन चरित्रकोश शान्ति अपनी इस शर्त के अनुसार, गंगा ने इससे उत्पन्न | शांता-ऋश्यशंग ऋषि की पत्नी, जो वाल्मीकि सात पुत्र नदी में डुबो दिये। इससे उत्पन्न आठवाँ पुत्र रामायण एवं वायु के अनुसार रोमपाद राजा की गोद में ली भीष्म वह नदी में डुबोने चली । उस समय अपनी शर्त | हुई कन्या थी। रोमपाद राजा को 'चित्ररथ ' 'अंगराज' भंग कर, इसने उसे इस कार्य से परावृत्त करना चाहा।। 'लोमपाद' आदि नामांतर भी प्राप्त थे। इसके द्वारा शर्त का भंग होते ही, गंगा नदी अपने पुत्र मत्स्य एवं महाभारत में भी. इसे दशरथ राजा की को लेकर चली गयी। कन्या कहा गया है (मत्स्य, ४८.९५) । रोमपाद राजा पश्चात् छत्तीस वर्षों के बाद, इसके द्वारा पुनः पुनः | दशरथ राजा का परम स्नेही था, एवं निपुत्रिक था, जिस प्रार्थना किये जाने पर गंगा नदी ने इसके पुत्र भीष्म को कारण दशरथ ने अपनी इस कन्या को रोमपाद राजा को इसे वापस दे दिया। गोद में दे दी (भा. ९.२३.७-१०)। हरिवंश में लोमपाद सत्यवती से विवाह-एक बार सत्यवती नामक धीवर - | को दशरथ का ही नामांतर बताया गया है, किंतु वह सही कन्या से इसकी भेंट हुई, एवं उससे विवाह करने प्रतीत नही होता है (ह. बं. १.३१.४६) । आगे चल कर की इच्छा प्रकट की । उस समय, इसके पुत्र. भीष्म को | रोमपाद राजा ने इसका विवाह ऋश्यशंग ऋषि से कराया यौवराज्यपद से हटा कर; अपने होनेवाले. पुत्र को राज्य | (ऋश्यशंग एवं रोमपाद १. देखिये)। प्राप्त होने की शर्त पर सत्यवती ने इससे विवाह करने की २. भारद्वाज ऋषि की माता (वायु. १११.६०)। संमति दी। अपने प्रिय पुत्र को यह यौवराज्यपद से दूर शान्ति- दक्ष प्रजापति की कन्या, जो धर्म ऋषि की करना नहीं चाहता था, किंतु भीष्म ने अपूर्व स्वार्थ याग पत्नी थी। इसके पुत्र का नाम सुख (क्षेम) था (भा. कर, स्वयं ही राज्याधिकार छोड़ दिया। ४.१.४९; वायु. १०.२५)। परिवार—पश्चात् इसका सत्यवती से विवाह हुआ, २. कर्दम प्रजापति की क या, जो अथर्वन् ऋषि की पत्नी जिससे इसे विचित्रवीर्य एवं चित्रांगद नामक दो पुत्र | थी। इसकी माता का नाम देवहूति था। इसने पृथ्वी लोक उत्पन्न हुए। उनमें से चित्रांगद की रणभूमि में अकाल मृत्यु में यज्ञसंस्था का माहात्म्य संवर्धित किया था। इसके पुत्र हुई, जिस कारण उसके पश्चात् विचित्रवीर्य राजगद्दी पर का नाम दध्यच् आथर्वण था (भा. ३.२४.२४)। बट गया । इससे विवाह होने के पूर्व, सत्यवती को व्यास | ३. ( सो. नील.) एक राजा, जो भागवत के अनुसार नामक पुत्र उत्पन्न हुआ था, किंतु यह घटना इसे ज्ञात नील राजा का पुत्र, एवं सुशांति राजा का पिता था (भा. न थी (दे. भा. २.३)। ९.२१.३०-३१)। अपने इन पुत्रों के व्यतिरिक्त इसने शरदत् गौतम । ४. एक तुषित देव, जो यज्ञ एवं दक्षिणा का पुत्र था ऋषि के कृप एवं कृपी नामक संतानों का अपत्यवत् | (भा. ४.१.७-८)। संगोपन किया था (शरदत् देखिये)। ५. एक ऋषि, जो वारुणि आंगिरस ऋषि के आठ पुत्रों . मृत्यु के पश्चात् , भीष्म के द्वारा दिये गये पिंडादन को | में से चतुर्थ पुत्र था। अग्निवंश में उत्पन्न होने के कारण, स्वीकार करने के लिए यह पृथ्वी पर स्वयं अवतीर्ण हुआ इसे 'आग्नेय' उपाधि प्राप्त थी (म. अनु. ८५.३०)। था। उस समय इसने उसे इच्छामरणी होने का वर प्रदान उपरिचर वसु राजा के यज्ञ में यह सदस्य बना था (म. दिया था (म. अनु. ८४.१५)। शां. ३२३.८ पाठ.)। शांतपायन-एक आचार्य, जो विष्णु के अनुसार ६. ब्रह्मसावर्णि मन्वंतर का इंद्र (विष्णु, ३.२.२६)। व्यास की पुराण शिष्यपरंपरा में से रोमहर्षण नामक आचार्य यह सुधामन् एवं विरुद्ध देवों का इंद्र था (ब्रह्मांड. ४. का शिष्य था। पाठभेद-(वायुपुराण)-'शांशपायन'। १.६९)। शांतमय-एक प्राचीन राजा (म. आ. १.१७६) ७. तामस मनु के पुत्रों में से एक (ब्रह्मांड. २.३६. पाठभेद-शांतभय'। ४१)। शांतरय(सो. आयु.) एक राजा, जो भागवत के ८. स्वारोचिष मन्वंतर का एक देव । अनुसार त्रिककुद् (धर्मसारथि ) राजा का पुत्र था (भा. ९. कृष्ण एवं कालिंदी के पुत्रों में से एक (भा. १०. ९.१७.१२)। ६१.१४)। ९६३ Page #986 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शान्ति प्राचीन चरित्रकोश शार्ड १०.(सू. इ. भविष्य.) एक राजा, जो शीघ्र राजा शांबु--एक ऋषिसमुदाय, जो आंगिरस कुल में उत्पन्न का पुत्र था। हुआ था (अ. वे. १९.३९.५)। ११. एक ऋषि, जो भूति नामक ऋषि का शिष्य था । | शांबेय--प्रोति कौशांवेय कासुरुबिन्दि नामक आचार्य एक बार अपने कनिष्ठ भाई सुवर्चस् के द्वारा बुलाये जाने | का पैतृक नाम । पर भूति ऋषि ने अपने आश्रम की व्यवस्था इस पर सौंप शारदंडायनि-एक केकय राजा । इसकी पत्नी का दी, एवं वह सुवर्चस् के यज्ञ के लिये चला गया। नाम श्रुतसेना था, जो कुंती की बहन थी । इसे पुत्र न ___ अग्नि से वरप्राप्ति-इसके गुरु की अनुपस्थिति में था, जिस कारण श्रुतसेना ने इसकी संमति से एक ब्राह्मण आश्रम में स्थित अग्नि लुप्त हुयी, जिस कारण अत्यंत के द्वारा 'पुंसवन' नामक यज्ञसंस्कार कर दुर्जय आदि घबरा कर इसने अग्मि की स्तुति की। पश्चात् इसने अग्नि तीन पुत्र प्राप्त किये (म. आ. १११.३३-३५)। . से अपने आश्रम में पुनः अधिष्ठित होने की, एवं अपने शारदा-अंग देश के रौद्र केतु नामक ब्राह्मण की निपुत्रिक गुरु को पुत्र प्रदान करने की प्रार्थना की । पश्चात् | पत्नी (रौद्र केतु देखिये )। अग्नि के आशीर्वाद से भूति ऋषि को 'भौत्य मनु' नामक । २.एक ब्राह्मण स्त्री, जिसकी कथा स्कंद में 'महेश्वर सुविख्यात पुत्र हुआ। व्रत माहात्म्य' कथन करने के लिए दी गयी है (स्कंद, पश्चात् इसकी गुरुनिष्ठा से संतुष्ट हो कर, भूति ऋषि | ३.३.१८-१९)। ने इसे सांग वेदो का ज्ञान कराया (मार्क. ९७.५-२७)। शारद्वत--गौतम-आंगिरसान्तर्गत एक गोत्रनाम शांतिदेवा अथवा शांतिदेवी-देवक राजा की कन्या, | (अंगिरस् देखिये)। जो वसुदेव की पत्नियों में से एक थी (वायु. ९६.१३०)। शारद्वतिक-भृगुकुलोत्पन्न एक गोत्रकार। शापहस्त-दक्ष सावर्णि मनु के खड्गहस्त नामक पुत्र शारद्वती--द्रोणाचार्य की पत्नी कृपी का नामांतर, का नामांतर। जो उसे शरद्वत् गौतम ऋषि की कन्या होने के कारण शापेय-एक आचार्य, जो पाणिनीय व्याकरण में प्राप्त हुआ था (शरद्वत् देखिये)। शाखाप्रवर्तक आचार्यो में एक था (पाणि नि देखिये) २. एक अप्सरा, जो अर्जुन के जन्मोत्सव में उपस्थित शापेयिन्-एक आचार्य, जो वायु के अनुसार, व्यास | थी (म. आ..११४:५३)। की यजःशिष्यपरंपरा में से याज्ञवल्क्य का 'वाजसनेय' शारायण-अत्रिकुलोत्पन्न एक गोत्रकार ऋषिकार। शिष्य था। शारिमेजय--( सो. वृष्णि.) एक यादव राजा, शाम-यम का अनुचर एक कुत्ता, जो सरमा के दो | जो विष्णु के अनुसार श्वकल्क राजा का पुत्र था । भागवत पुत्रों में से एक था (ब्रह्मांड.३.७.३१२)। स्कंद के अनुसार, में इसे 'सारमेय' कहा गया है। यम के शाम एवं शबल नामक दो कुत्ते इसीके ही पुत्र | शार्कराक्षि--भृगकुलोत्पन्न एक गोत्रकार। थे (स्कंद २.४.९)। शार्कराक्ष्य-एक पैतृक नाम, जो वैदिक साहित्य में शांब-आप नामक वसु के पुत्रों में से एक (मत्स्य. | निम्नलिखित आचार्यों के लिए प्रयुक्त किया गया है:५.२२)! १. शांब (वं. बा. १); २. जन (श. ब्रा. १०.६.१. शांव शार्कराक्ष्य-एक आचार्य, जो मद्रगार | १; छां. उ. ५.११.१, १५.१)। शौगाय नि नामक आचार्य का शिष्य, एवं 'आनंद चांध- शार्कराक्ष्य कुस्तुक--एक आवार्य, जो शार्कराक्षि नायन' नामक आचार्य का गुरु था (वं. बा. १)। इसका | नामक महर्षि का पुत्र था। इसने उदर में ब्रह्मदृष्टि की पैतृक नाम 'शार्कराक्ष्य', शकराख्य (का. सं. २२.८८), प्रतिष्ठापना कर, उपासना की थी (ऐ.बा.२.१.४ )संसार एवं 'शार्कराशि' (आश्व. श्री. १२.१०.१०) आदि का आद्य कारण आकाश ही है ऐसा इसका मत था विभिन्न रूपों में भी प्राप्त है, जो इसे 'शार्कराक्ष' का | (छां. उ. ५.१५.१)। वंशज होने के कारण प्राप्त हुए होंगे। | शाग---एक पैतृक नाम, जो ऋग्वेद में निम्नलिखित शांबव्य--एक आचार्य, जो 'शांबव्य गृह्यसूत्र' का | आचार्यों के लिए प्रयुक्त किया गया है :-१. जरितृ रचयिता माना जाता है (ओल्डेनबर्ग, इंडिशे स्टूडियेन | (ऋ. १०.१४२.१); १. द्रोण (ऋ. १०.१४२.३-४); १५.४.१५४)। ३. सारिसृक्व (ऋ. १०.१४२.५-६); ४. स्तंबमित्र ९६४ Page #987 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन चरित्रकोश शालिहोत्र (ऋ. १०.१४२.७.८)। महाभारत में मंदपाल ऋषि की, शालावती--विश्वामित्र ऋषि की पत्नियों में से एक । . एवं शाङ्ग पक्षी का रूप धारण करनेवाले उसके चार पुत्रों शालावत्य--एक पैतृक नाम, जो निम्नलिखित की कथा प्राप्त है, जो संभवतः इसी सक्त पर आधारित आचार्यों के लिए प्रयुक्त किया गया है:- १. शिलक होगी (मंदपाल देखिये)। | (छां. उ. १.८.१); २. गळूनस आर्भाकायण (जै. उ. शागरव-भगुकुलोत्पन्न एक गोत्रकार। ब्रा. १.३८.४)। . २. पाणिनीय व्याकरण का एक शाखाप्रवर्तक आचार्य शालि--अंगिराकुलोत्पन्न एक गोत्रकार । (पाणिनि देखिये)। शालिक-एक ऋषि, जो हस्तिनापुर जाते समय शायस्थि-एक पैतृक नाम, जो वंश ब्राह्मण में निम्न- श्रीकृष्ण से मिलने आये थे (म. उ. ३८८%)। लिखित आचार्यों के लिए प्रयुक्त किया गया है:- शालिन्--एक आचार्य, जो वायु के अनुसार व्यास १. बृहस्पतिगुप्त; २. भवत्रात (वं. बा. १.)। की यजुःशिष्यपरंपरा में से याज्ञवल्क्य का वाजसनेय शार्दूल-रावण पक्ष का एक राक्षस, जो उसके गुप्त- | शिष्य था। चरदल का प्रमुख था( वा. रा. यु. २९.२२)। शालिपिंड--एक नाग, जो कश्यप एवं कद्र के पुत्रों २. एक शाखाप्रवर्तक आचार्य, जो द्राह्यायण नामक में से एक था (म. आ. ३१.१४) । - सामवेदपरंपरा के आचार्य का शिष्य था। सुविख्यात शालिमंजरीपाक-एक आचार्य, जो ब्रह्मांड के खादिर 'गृह्य' एवं 'श्रीत' सूत्र शार्दूलशाखा के हीमाने अनुसार, व्यास की सामशिष्य परंपरा में से हिरण्यनाभ जाते हैं (द्राह्यायण देखिये)। आचार्य का शिष्य था (व्यास देखिये)। शार्दली--कश्यप एवं क्रोधा की एक कन्या, जिसने शालिय--एक आचार्य, जो शाकल्य का शिष्य था आगे चल कर सिंह, वाघ, एवं चीतों को जन्म दिया (भा. १२.६.५७)। (म. आ. ६०.६३)। शालिशिरस्-एक देवगंधर्व, जो कश्यप एवं मुनि . शार्यात--दार्यात राजा का नामांतर (शर्यात मानव के पुत्रों में से एक था (म. आ. ५९.४३ )। यह अर्जुन देखिये)। के जन्मोत्सव के समय उपस्थित था (म.आ.११४.२५)। २. एक ग्रंथकार एवं वैदिक सक्तद्रष्टा, जिसका पैतृक | शालिशूक--(मौर्य. भविष्य.) एक राजा, जो नाम मानव था (ऋ. १०.९२; मानव देखिये)। भागवत एवं विष्णु के अनुसार संगत राजा का पुत्र, एवं शाल--एक राजा, जो वृक एवं दुर्वाक्षी के पुत्रों में से | सोमशर्मन् राजा का पिता था (भा. १२.१.१४ ) । एक था (भा. ९.२४.४३)। | शालिहोत्र--एक आचार्य, जो प्राचीन भारतीय 'शालकटकट--अलंबुस राक्षस का नामांतर (म.द्रो. वैद्यकीय परंपरा में आद्य पशुवैद्यक-शास्त्रज्ञ माना जाता ८४.५७४; अलंबुस देखिये)। है। पंचतंत्र में, अश्वशास्त्रज्ञ शालिहोत्र का, एवं कामशालंकायन-विश्वामित्रकुलोत्पन्न एक गोत्रकार एवं | सूत्रकार वात्स्यायन का निर्देश दो प्रमुख आयुर्वेदाचार्य के मंत्रकार। नाते किया गया है। २. सुशारद नामक आचार्य का पैतृक नाम (आश्व. शालिहोत्र-तंत्र--महाभारत के अनुसार, यह अश्वविद्या श्री. १२.१०.१०; आप. श्री. २४.९.१)। का आचार्य था, एवं घोडों की जाति एवं अश्वशास्त्रशालंकायनि--अंगिराकुलोत्पत्र एक गोत्रकार। संबंधित अन्य तात्त्विक बातों के संबंध में यह अत्यंत २. विश्वामित्रकुलोत्पन्न एक गोत्रकार। प्रवीण था (म. व. ६९.२७)। इसने सुश्रुत नामक शालंकायनिपुत्र-एक आचार्य, जो वार्षगणीपुत्र | आचार्य को अश्वों का आयुर्वेद सिखाया था (अग्नि. २९२. नामक आचार्य का शिष्य था (बृ. उ. ६.४-३१ माध्य.)। | ४४)। 'अश्वायुर्वेद' के संबंध में इसने 'शालिहोत्र'शलंक' के किसी स्त्रीवंशज का पुत्र होने के कारण, इसे | तंत्र' अथवा 'शाल्यहोत्र' नामक एक ग्रंथ की भी 'शालकायनि नाम प्राप्त हुआ होगा। रचना की थी, जिस ग्रंथ की दो हस्तलिखित पांडु-लिपियाँ शालहलेय-कश्यपकुलोत्पन्न एक गोत्रकार एवं लंदन के इंडिया ऑफिस लायब्ररी में विद्यमान हैं। इसी ऋषिगण । ग्रंथ का एक अनुवाद अरेबिक भाषा में १३६१ ई. स. में शालायनि-भृगुकुलोत्पन्न एक ऋषि । किया गया था। Page #988 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शालिहोत्र प्राचीन चरित्रकोश शाल्व महाभारत में इस ग्रंथ में इसे एक श्रेष्ठ ऋषि कहा | हुए कालयवन के द्वारा कृष्ण का वध कराने की सलाह गया है, जिसके आश्रम में, व्यास एवं पांडव इसकी | जरासंध को दी। भेंट लेने के लिए उपस्थित हुए थे (म. आ. १४३, परि. पश्चात् जरासंध की ओर से यह स्वयं कालयवन के १.८७-८८)। पास गया, एवं इसने उससे कृष्ण का वध करने की इसके आश्रम के समीप एक सरोवर एवं पवित्र वृक्ष प्रार्थना की। इस प्रार्थना के अनुसार, कालयवन ने कृष्ण था, जिनका निर्माण इसने अपनी तपस्या के द्वारा किया | को काफ़ी त्रस्त कर, उसे अपनी मथुरा राजधानी के था (म. आ. १४४.१५७९ *)। इस सरोवर का केवल त्याग करने पर विवश किया। किन्तु अंत में कृष्ण ने जल पी लेने से भूखप्यास दूर हो जाती थी। मुचुकुंद राजा के द्वारा कालयवन का वध कराया (ह. तीर्थ-इसके नाम से 'शालिशूर्प' (शालिशीष वं. २.५२-५४: कालयवन देखिये)। अथवा शालिसूर्य) नाम से एक तीर्थस्थान प्रसिद्ध हुआ | | सौभ विमान की प्राप्ति--रुक्मिणी स्वयंवर के समय, था, जहाँ स्नान करने से सहस्र-गोदान का फल प्राप्त यादवों के द्वारा जरासंध एवं शाल्व पुनः एक बार परास्त होता था (म. व. ८१.९०)। हुए । तत्पश्चात् एक वर्ष के कालावधि में समस्त पृथ्वी को २. शूलिन् नामक शिवावतार का शिष्य । 'निर्यादव' करने की घोर प्रतिज्ञा इसने की, एवं तत्प्री३. पौष्यं जिपुत्र लांगलिन् नामक सामवेत्ता आचार्य गस्त की प्राणा का नामांतर (लांगलिन् देखिये)। इसकी तपस्या से प्रसन्न हो कर, रुद्र ने इसे मयासुर शालीय-एक आचाय, जो भागवत एव विष्णु क के द्वारा निर्मित 'सौभ' विमान प्रदान किया, जो देवाअनुसार, व्यास की ऋक् शिष्यपरंपरा में से क्रमशः | स क्रमशः सुरों के लिए अजेय एवं अदृश्य होने की दैवी शक्ति से 'शाकल्य' एवं 'वेदमित्र का शिष्य था ( विष्णु. ३.४. युक्त था। २२) । शाकल्य एवं वेदमित्र ये दोनों एक ही वेदमित्र ( देवमित्र ) शाकल्य के नाम थे (शाकरय देखिये)। प्रद्युम्न से युद्ध--पश्चात् कृष्ण जब पांडवों के राजसूय वायु एवं ब्रह्मांड में इसे क्रमशः 'खालीय' एवं यज्ञ के लिए हस्तिनापुर गया था, यही सुअवसर समझ 'खलीयस्' कहा गया है। | कर इसने द्वारका नगरी पर आक्रमण किया। उस समय इसने सत्ताइस दिनों तक कृष्ण पुत्र प्रद्युम्न से युद्ध किया, शाल्व--(सो. क्रोटु.) एक दानव अथवा दैत्य, जो एवं इस युद्ध में विजयी हो कर यह अपने नगर को लौट सौम देश का अधिपति था (ह. वं. २.५२; अमि. | | आया। २७६.२२, म. व. २१.५)। किंतु भागवत के अनुसार 'सौभ' इसके विमान का नाम था, जिस कारण इसे | ___ कृष्ण से युद्ध-कृष्ण को यह घटना ज्ञात होते ही, 'सौभपति' नाम प्राप्त हुआ था (भा. १०.७६)। उसने इसके वध का निश्चय कर इस पर आक्रमण महाभारत में इसे मार्तिकावत का राजा कहा गया है, 1 किया। इसन साभ विमा जाटामा किया। इसने सौभ विमान की सहायता से कृष्ण के जो नगर अबू पहाडी के समीप स्थित था (म. व. १५. साथ अनेक प्रकार के मायावी युद्ध के प्रयोग किये. यहाँ १६; २१. १४)। इसे यौगंधरि नामांतर भी प्राप्त था। तक की कृष्णपिता वसुदेव के मृत्यु का मायावी दृश्य भी __ यह चेदिराज शिशुपाल राजा का भाई था (म. व. कृष्ण के सम्मुख प्रस्तुत किया (भा. १०.७७ )। किंतु अंत १५.१३ )। किन्तु भागवत में इसे शिशुपाल राजा का में कृष्ण ने अपने सुदर्शन चक्र से इसके 'सौभ' विमान मित्र कहा गया है (भा. १०.७६)। यह प्रारंभ से ही का विच्छेद किया, एवं इसका वध केया (म. व. १५मगधराज जरासंध का पक्षपाती, एवं कृष्ण का विरोधक | २३; भा. १०.७६-७७)। था। इसी कारण, महाभारत एवं पुराणों में इसे दानव भीष्म से युद्ध--वाराणसी के काशिराज की तीन एवं दैत्य कहा गया होगा (साल्व देखिये)। कन्याओं में से अंबा ने इसका वरण किया था। किंतु जरासंध-दौत्य---प्रथम से ही जरासंध कृष्ण से अंबा के स्वयंवर के समय, भीष्म ने अंबा का एवं अंबिका अत्यधिक डरता था। किस प्रकार कृष्ण का वध किया एवं अंबालिका नामक उसके दो बहनों का भी हरण किया। जा सकता है, इसके षड्यंत्र वह रातदिन रचाया करता | उस समय इसने भीष्म का पीछा कर उससे युद्ध करना' था। एक बार इसने गाये ऋषि को रुद्रप्रसाद से प्राप्त | चाहा। किंतु इस युद्ध में भीष्म ने इसे परास्त किया। Page #989 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शाल्व प्राचीन चरित्रकोश पश्चात् भीष्म की अनुशा प्राप्त कर अंत्रा इसके पस आयी, एवं इससे विवाह करने के लिए उसने इसका बार बार अनुनय-विनय किया किंतु भीम ने इसका हरण करने के कारण, उससे विवाह करने से इसने साफ इन्कार कर दिया। भारतीय युद्ध में इस युद्ध में यह कौरवों के पक्ष में शामिल था इसका हाथी, पति के समान विशाल काय, ऐरावत के समान शक्तिशाली, एवं महाभद्र नामक सुविख्यात गजकुल में उत्पन्न हुआ था ( म. श. १९.२ - ३ ) । इसी हाथी पर आरूढ हो कर, इसने पांडवसेना पर आक्रमण किया, एवं उसमें हाहाःकार मचा दिया। पश्चात् इतने पृष्टद्युम्न पर आक्रमण किया एवं उसके रथ को कुचल , पश्चात् पृष्टा के द्वारा इसके हाथी का एवं सात्यकि के द्वारा इसका वध हुआ (म. श. १९.२५) २. एक म्लेच्छ राजा, जो वृषपर्वन् के छोटे भाई के अंश से उत्पन्न हुआ था (म. आ. ६१.१७ नं. १९१) 1 २.पदका एक योद्धा, जो कौरवपक्षीय भीमरथ राजा के द्वारा मारा गया था यह भीमरथ धृतराष्ट्र पुत्र भीमरथ से भिन्नथा ( म. द्रो. २४.२६ ) । ४. तीन राजाओं का एक समूह, जो व्युषिताश्व राजा की पत्नी भद्रा ने अपने पति की मृत्यु के पश्चात्, उसके मृतदेह से उत्पन्न किये थे ( म. आ. ११२.३३ ) । ५. एक लोकसमूह जो भारतीय युद्ध में पांडवों के पक्ष में शामिल था ( म. द्रो. १२९.७ ) । ये लोग जरासंध के भय से दक्षिण दिशा में भाग गये थे ( म. स. १३. २४ - २६ ) । इन योद्धाओं ने द्रोण पर आक्रमण किया था। " ६. एक असुर, जो सिंहिका का पुत्र होने के कारण 'सिंहिकापुत्र ' अथवा 'संहिकेय' नाम से सुविख्यात था शिव की आज्ञा से परशुराम ने इसका वध किया ( विष्णुधर्म. १.३७.३८-३९ ) । ७. एक दैत्य, जिसने अपने अनाचार के कारण वैदिक धर्म का उच्छेद किया था। इसी कारण श्रीविष्णु ने संग्राम में विष्णुमशस् नामक ब्राह्मण के घर अवतार साकिया (२.१.२.४०)। इस कथा का संकेत संभवतः विष्णु के कल्कि अवतार की ओर प्रतीत होता है (विष्णुयशस् कल्कि देखिये) । ८. शाल्वदेश के द्युतिमत् राजा का नामांतर ( द्युतिमत् देखिये ) | | शिखंडिन् शाल्वल - दधिवाहन नामक शिवावतार का एक शिष्य । शावस्त - - ( सू. इ. ) एक इक्ष्वाकुवंशीय राजा, जो युवनाश्व (द्वितीय) राजा का पुत्र था। मत्स्य, विष्णु एवं वायु में इसे 'श्रावस्त' कहा गया है। शाश्वत - - (सु. निमि.) विदेह देश का एक राजा, जो विष्णु के अनुसार श्रुत राजा का पुत्र था। शापेययाणिनीय व्याकरण के शाखा प्रवर्तक आचार्यों में से एक (पाणिनि देखिये) । शास भारद्वाज एक वैदिक सूक्त (ऋ. १०. १५२ ) । - शास्तु –— कश्यप एवं सुरभि के पुत्रों में से एक । शिक्ष-- एक देवगंधर्व, जो ऋषभ पर्वत पर रहता था । शिख एक आचार्य, जिसने अपने अनुशिख नाम के मित्र के साथ सर्पयज्ञ में क्रमशः 'नेट' एवं 'पोतृ' का काम निभाया था (पं. बा. २५.१५.३ ) । , शिखंडिन् – (सो. अज.) पांचाल देश के द्रुपद राजा का एक पुत्र, जो पहले 'शिखंडिनी' नामक कन्या के रूप में उत्पन्न हुआ था। पश्चात् स्थूणाकर्ण नामक यक्ष की कृपा से यह पुरुष बन गया (म. १९२-१९३ ) । महाभारत में अन्यत्र यह शिव की कृपा से पुरुष बनने का निर्देश प्राप्त है । इसे 'याज्ञसे नि' नामान्तर भी प्राप्त था । बाल्यकाल एवं विवाह- इसके मातापिता इसका स्त्री छिपाना चाहते थे, जिस कारण उन्होंने एक पुत्र जैसा ही इसका पालनपोषण किया। इतना ही नहीं, जवान होने पर दशार्ण राजा हिरण्यवर्मन् की कन्या से उन्होंने इसका विवाह संपन्न कराया । इसके पत्नी को इसके स्त्री का पता चलते ही, उसने अपने पिता के पास यह समाचार पँहुचा दिया | अपना जमाई स्त्री है, यह शत होते ही हिरण्यवर्मन् अत्यंत क्रुद्ध हुआ, एवं इस प्रकार धोखा देनेवाले द्रुपद राजा जड़मूल से उखाड़ फेंकने के लिए उद्यत हुआ। इसी दुरवस्था में यह घर से भाग कर वन में चल गया, जहाँ स्थूणाकर्ण यक्ष की कृपा से, पुनः लौटा - ने की शर्त पर इसे पुरुषत्त्व की प्राप्ति हुई । इसी पुरुषत्व के आधार से इसने अपने श्वसुर हिरण्यवर्मन् राजा की चिंता दूर की पश्चात् स्थूणाकर्ण वक्ष को कुवेर का शाप प्राप्त होने के कारण, शिखंडिन् का पुरुषत्व आमरण इसके पास ही रहा ( म. उ. १९०-१९३ ) : किंतु फिर भी स्त्रीजन्म का इसका कलंक सारे आयुष्य भर इसका पीछा करता रहा। ९६७ को Page #990 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिखंडिन् प्राचीन चरित्रकोश शिजय भारतीय युद्ध में भारतीय युद्ध में यह पांडवपक्ष | चार शिष्य थे:--१. वाचःश्रवस् ; २.रुचीक;३. शावाश्व; का 'महारथ', एवं एक अक्षौहिणी सेना का सेनामुख | ४. यतीश्वर (शिव. शत. ५)। था। यह युद्धनिपुण एवं उच्च श्रेणी का व्यूहरचनातज्ञ | शिखंडिन् याज्ञसेन--एक आचार्य, जो केशिन था, जो विद्या इसने द्रोणाचार्य से प्राप्त की थी। पांचाल | दाल्भ्य राजा का पुरोहित था (कौ. ब्रा. ७.४ )। केशिन् देश के बारह हज़ार वीरों में से, छः हज़ार वीर इसीके | दाल्भ्य के द्वारा किये गये यज्ञ में, इसने कई आचायों के ही सैन्य में समाविष्ट थे (म. द्रो. २२.१६०.*; पंक्ति. | साथ वादविवाद किया था। ७-८)। इसके रथ के अश्व भूरे वर्ण के थे, जो इसे तुंबुरु यज्ञसेन का वंशज होने के कारण, इसे 'याज्ञसेन' ने प्रदान किये थे। इसका ध्वज 'अमंगल' वर्ण का था | पैतृक नाम प्राप्त हुआ होगा। (म. भी. १०८.१९-२०)। | शिखंडिनी--विजिताश्व राजा की पत्नी, जिससे इसे भीष्मवध--भारतीय युद्ध के पहले दस दिनों में, तीन पुत्र उत्पन्न हुए थे (भा. ४.२४.३)। भीष्म ने अपने पराक्रम के कारण पांडवसेना में हाहाः- २.अंतधीन राजा की पत्नी, जो हविर्धान राजा की कार मचा दिया। उस समय भीष्म ने स्वयं ही शिखंडिन् | माता थी। को आगे कर युद्ध करने की सलाह पांडवों को दी (भीष्म ३. द्रपद राजा की कन्या, जो आगे चल कर शिखंडिन् देखिये)। यह जन्म से स्त्री था, जिस कारण धर्मयुद्ध के | नामक पत्र में रूपांतरित हुई (शिखंडिन् देखिये)। नियमानुसार इससे युद्ध करना भीष्म निषिद्ध मानता था।। शिखंडिनी अप्सरा काश्यपी--एक वैदिक सूक्त भारतीय युद्ध के दसवें दिन, यह भीष्म के सम्मुख | द्रष्ट्रीद्वय (ऋ. ९.१०४)। खड़ा होते ही, भीष्म ने अपने शस्त्र नीचे रख दिये, शिखाग्रीविन्--अंगिराकुलोत्पन्न एक गोत्रकार । जिसे सुअवसर समझ कर अर्जुन ने भीष्म का वध किया। शिखावत्--युधिष्ठिरसभा में उपस्थित एक ऋषि (म. भी. ११४.५३-६०)। | (म. स. ४.१२)। वध--भारतीय युद्ध के अठारहवें दिन हुए रात्रियुद्ध | शिखावर्ण--भृगुकुलोत्पन्न एक गोत्रकार। में अश्वत्थामन् ने इसका वध किया (म. सौ. ८.६०)। शिखावर्त--कुवेरसभा में उपस्थित एक यक्षः (म. इसकी मृत्यु का दिन पौष्य अमावस्या माना जाता है | स. १०.१६)। . (भारतसावित्री)। शिखि--तामस मन्वंतर का इंद्र । भीष्मवध का पूर्ववृत्त--महाभारत के कुंभकोणम् | शिखिध्वज--एक राजा, जिसकी पत्नी का नाम संस्करण में, शिखंडिन् भीष्मवध के लिए कारण किस प्रकार | चुडाला था। बन गया, इसकी चमत्कारपूर्ण कथा दी गयी है । काशिराज २. मयूरध्वज राजा का नामांतर । की कन्या अंबा ने भीष्मवध की प्रतिज्ञा की थी, जिस हेतु | शिखिन्--कश्यपकुलोत्पन्न एक नाग (म. उ. १०३. उसने कार्तिकेय के द्वारा एक दिव्य माला प्राप्त की थी। । १२)। वह माला प्रदान करते समय, कार्तिकेय ने उसे वर दिया | शिग्रु--एक जातिविशेष, जो दाशराज्ञ युद्ध में सुदास था कि, जो मनुष्य वह माला परिधान करेंगा, वह भीष्मवध | राजा के शत्रुपक्ष में शामिल थी । अज एवं यक्ष लोगों के के कार्य में सफलता प्राप्त करेंगा। साथ, ये लोग भी सुदास राजा से परास्त हुए थे (ऋ. पश्चात अंबा ने वह माला द्रपद के राजभवन में फेंक | ७.१८.१९)। लुडविग के अनुसार ये लोग भेद राजा के दी, जो आगे चल कर शिखंडिन ने परिधान की। इसी | नेतृत्त्व में थे (लुडविग, ऋग्वेद अनुवाद ३.१७३)। देवी माला के कारण, शिखंडिन् भीष्मवध के कार्य में संभवतः ये लोग उत्तरकाल में प्रसिद्ध हुए 'सहिजनसफल हुआ (म. द्रो. २२.१६०; पंक्ति ७-८)। वृक्ष' से संबंधित थे। इसी कारण ये लोग अनार्य प्रतीत २. एक शिवावतार, जो सातवे वाराह कल्पांतर्गत | होते हैं। वैवस्वत मन्वंतर के अठारहवें युगचक्र में उत्पन्न हुआ। शिजय---एक राजा, जो पहले क्षत्रिय था, किंतु था। हिमालय पर्वत में स्थित 'शिखंडिन् ' नामक शिखर | आगे चल कर तपोबल से ब्राह्मण एवं ऋषि बन गया पर यह शिवावतार अवतीर्ण हुआ। इसके निम्नलिखित | गया ( वायु. ९१.११४)। ९६८ Page #991 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिजार प्राचीन चरित्रकोश शिबि शिंजार-एक ऋषि, जो अश्विनों के कृपापात्र लोगों । शिनिक--एक ऋषि, जिसे मैत्रेय ऋषि से विष्णु में समाविष्ट था । ऋग्वेद में इसका निर्देश काण्व, प्रियमेध, | पुराण प्राप्त हुआ था (विष्णु. ६.८.५१)। पाटभेदउपस्तुत एवं अत्रि ऋषियों के साथ प्राप्त है (ऋ. ८.५. 'समिक' । २०:१०.४०.७ )। गेल्डनर के अनुसार, यह अत्रि शिनेय--(सो. क्रोष्ट.) एक यादव राजा, जो विष्णु ऋषि का नामांतर, अथवा उपाधि थी (गेल्डनर, ऋग्वेद के अनुसार उशनस् राजा का पुत्र था। ग्लॉसरी १७९)। ___शिप्रक--(आंध्र. भविष्य.) एक राजा, जो विष्णु के शित-विश्वामित्र ऋषि के ब्रह्मवादी पुत्रों में से एक। अनसार आंध्रवंश का सर्वप्रथम राजा था। इसे 'बलि,' शितिपष्ट-एक आचार्य, जिसने सर्पसत्र में मंत्रा- 'सिंधुक,' 'शिशुक' आदि नामांतर प्राप्त थे। वरुण' नामक ऋत्विज का काम निभाया था ( पं. वा. शिवि--एक लोकसमूह, जो आधुनिक पंजाब प्रदेश में इरावती, एवं चंद्रभागा (असिक्नी) नदियों के बीच शितिबाह ऐषकृत नैमिशि-एक यज्ञकर्ता, जिसके प्रदेश में स्थित था। यज्ञ के अपूप ' ( हविभाग ) को एक बंदर लेकर भाग | । वैदिक साहित्य में--ऋग्वेद में इन लोगों का निर्देश गया था ( जै. ब्रा. १.३६३)। । 'शिव' नाम से प्राप्त है, जहाँ अलिन, पक्थ, भलानस् , एवं शिनि-सो. पुरूरवस्.) एक राजा, जो विष्णु एवं विषाणिन् लोगों के साथ, इनके सुदास राजा के द्वारा भागवत के अनुसार गर्ग राजा का पुत्र, एवं गान्य राजा पराजित होने का निर्देश प्राप्त है (ऋ. ७.१८.७) । का पिता था। मत्स्य में इसे 'शिबि' कहा गया है। बौधायन के श्रौतसूत्र में, इन लोगों के शिवि औशीनर यह पहले क्षत्रिय था, किन्तु आगे चल कर 'गार्ग्य' राजा का निर्देश प्राप्त है (वौ. औ. ३.५३.२२)। इन नाम से ब्राह्मण, एवं अंगिरस् कुल का मंत्रकार बन गया। लोगों के अमित्रतपन नामक राजा का निर्देश भी ऐतरेय इसी कारण 'गाय' एवं 'शैन्य' लोग आगे चल कर ब्राह्मण में प्राप्त है (ऐ. ब्रा. ८.२३.१०)। 'क्षत्रोपेतद्विज' नाम से सुविख्यात हुए. (भा. ९.२१. पाणिनीय व्याकरण में-पाणिनि के अष्टाध्यायी में, १९. विष्णु, ४.१९.२३)। इन लोगों के शिविपुर, (शिवपूर) नामक नगर का निर्देश २. (सो. यदु. क्रोटु.) एक यादव राजा, जो भजमान | प्राप्त है, जो उत्तर प्रदेश में स्थित था ( महा. २.२८२ राजा का पुत्र, एवं स्वयंभोज राजा का पिता था (भा. ९. | (भा. ९. | २९३-२९४) । आधुनिक पंजाब के झंग प्रदेश में स्थित २४.२६ )। शोरकोट प्रदेश में शिबि लोग रहते थे,ऐसा माना जाता है। ..३. (सो. यदु, कोयु.) एक यादव राजा, जो मत्स्य सिकंदर के आक्रमण के समय भी ये लोग पंजाब प्रदेश के अनुसार शूर राजा का पुत्र, एवं देवमीढ़ राजा का | में रहते थे, एवं 'सिबै' अथवा 'सीबोइ' नाम से वंशज था (मत्स्य, ४६.३)। सुविख्यात थे (अरियन, इंडिका ५.१२; शिव २. देखिये)। देवकी स्वयंवर के समय, इसने विरुद्धपक्षीय सारे महाभारत में-इस ग्रंथ में इन लोगों का निर्देश शक, राजाओं को परास्त कर, देवकी को वसुदेव के लिए जीत | किरात, यवन, एवं वसाति आदि विदेशीय जातियों के लिया था। उस समय सोमदत्त नामक राजा को पटक कर | साथ प्राप्त है । उशीनर लोगों से ये लोग शुरू से ही उसे लतप्रहार किया था, किन्तु आगे चल कर उस पर | संबंधित थे, एवं शिबि औशीनर राजा के वृषदर्भ, सुवीर, दया कर उसे छोड़ दिया था ( म. द्रो. ११९.९-१४)। केकय, एवं मद्रक इन चारों पुत्रों के कारण, समस्त पंजाब ४. (सो. यदु. क्रोष्टु.) एक यादव राजा, जो भागवत, | देश में इन्होंने अपना राज्य स्थापित किया था (शिवि मत्स्य एवं वायु के अनुसार अनमित्र राजा का पुत्र, | औशीनर देखिये)। एवं स.यक राजा का पिता था (भा. ९.२४.१३; मत्स्य. शांतनु राजा की माता सुनंदा, एवं युधिष्ठिर का श्वशुर १०.२२)। विष्णु में इसे सुमित्र राजा का पुत्र कहा गया | गोवासन इसी प्रदेश के रहनेवाले थे (म.आ. ९०.४६; है (विष्णु. ४.१४.१-२)। ९०.९३ )। भारतीय युद्ध में, ये लोग सौवीर देश के राजा ५. (वा. उत्तान.) एक राजा, जो चक्षु एवं नड्वला | जयद्रथ के साथ कौरवपक्ष में शामिल थे (म. उ. १९६. 5 पुत्रों में से एक था। ७-८)) प्रा. च. १२२] ९६९ Page #992 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिबि प्राचीन चरित्रकोश शिबि २. एक दैत्य, जो हिरण्यकशिपु का पुत्र था (म. आ. पक्षी इसकी शरण में आया, एवं उसने इसे इयेन को ५९.११)। किंतु पौराणिक साहित्य में इसे प्रह्लाद का पुत्र | समझाने के लिए कहा। कहा गया है (मत्स्य. ६.९; विष्णु. १.२१.१)। यह | इसके द्वारा प्रार्थना किये जाने पर श्येन ने इससे कहा, दुम राजा के रूप में पृथ्वी पर अवतीर्ण हुआ था (म. आ. 'अगर तुम इस कपोत के वजन के बराबर अपना मांस ६१.८)। | काट कर मुझे दोंगे, तो मैं अपने भक्ष्य, इस कपोत को ३. तामस मन्वंतर का इन्द्र (वायु. ६२.४०)। छोड़ दूंगा'। इसने श्येन पक्षी की यह शर्त मान्य ४. (स्वा. उत्तान.) एक राजा, जो चाक्षुष मनु एवं कर दी, एवं अपने शरीर का मांस काट कर तराजु में नड्वला के पुत्रों में से एक था (भा. ४.१३.१६)। रखना प्रारंभ किया। पश्चात् शरीर के मांसखंड परेन १. (सो. वृष्णि.) एक यादव राजा, जो वृष्णि एवं माद्री पड़ने पर,यह स्वयं ही तराजु के पलडे में जा कर बैठ गया। के पुत्रों में से एक था (मत्स्य. ४५.२)। इसका यह आत्मनिरपेक्ष दातृत्त्व देख कर, इंद्र एवं. ६. पुरूरवस्वंशीय शिनि राजा का नामांतर (शिनि | अग्नि इससे अत्यधिक प्रसन्न हुए, एवं उन्होंने इसे अनेका नेक वर प्रदान किये (म. व. १३०.१९-२०: १३१, १. देखिये) परि, १ क्र. २१ पंक्ति ५)। ____७. एक भाचार्य, जो शुनस्कर्ण बाष्कीह नामक आचार्य महाभारत में अन्यत्र उपर्युक्त कथा इसकी न हो कर, का पिता था (शुनष्कर्ण बाष्कीह देखिये)। इसके पुत्र वृषदर्भ की बतलायी गयी है (म. अनु. ६७) ८. भूतपूर्व पाँच इंद्रों में से एक, जो शिव की आज्ञा | औदार्य की अन्य एक कथा-महाभारत में अन्यत्र से पृथ्वी पर अवतीर्ण हुआ था (म. आ. १९१६*)। इसके औदार्य की एक अन्य कथा दी गयी है. जो उपर्युक्त शिवि औशीनर (औशीनरि)-एक सुविख्यात कथा का ही अन्य रूप प्रतीत होता है । एक बार इसके दानशूर राजा, जो शिबि लोगों का सब से अधिक ख्यातनाम पास एक ब्राह्मण अतिथि आया, जिसने इसके बृहद्गर्भ राजा था ( शिबि १. देखिये)। उशीनर राजा का पुत्र नामक पुत्र का मांस भोजनार्थ माँगा । यह उसे पका कर होने के कारण, इसे 'औशीनर' अथवा 'औशीनरि' सिद्ध कर ही रहा था, कि इतने में उस बाहण में इसके पैतृक नाम प्राप्त हुआ था। इसकी राजधानी शिवपुर में अन्तःपुर, शस्त्रागार, एवं हाथी, एवं अश्वशाला आदि थी (ब्रह्मांड. ३.७४.२०-२३)। को जलाना प्रारंभ किया। यह ज्ञात होते ही, अपने पुत्र वैदिक साहित्य में-एक वैदिक मंत्रद्रष्टा के नाते का पका हुआ मांस अपने सर पर रख कर यह ब्राह्मण इसका निर्देश ऋग्वेद में प्राप्त है (ऋ. १०.१७९.१) के पीछे दौडा । उस समय उस ब्राह्मण ने वह मांस इसे यह इंद्र के कृपापात्र व्यक्तियों में से एक था, जिसने इसके ही भक्षण करने की आज्ञा दी। तदनुसार यह उसे लिए 'वशिष्ठिय' के मैदान में यज्ञ किया था, एवं इसे भक्षण करनेवाला ही था, कि इतने में ब्राह्मण ने संतुष्ट विदेशियों के आक्रमण से बचाया था (बौ. श्री. २१. हो कर इसका पुत्र पुनः जीवित किया, एवं इसे अनेका१८)। | नेक वर प्रदान कर वह चला गया (म. शां. २२६, महाभारत एवं पुराण में--इस ग्रंथ में इसे उशीनर राजा | १९; अनु १३७.४)। एवं माधवी का पुत्र कहा गया है, एवं इसके औदाय की पुण्यशील राजा-महाभारत में इसे यथाति राजा अनेकानेक कथाएँ वहाँ प्राप्त हैं (म. उ. ११७.२०)। का पौत्र, एवं ययाति कन्या माधवी का पुत्र कहा गया पौराणिक साहित्य में इसकी माता का नाम दृषद्वती दिया है। अपनी माता की आज्ञा से इसने अपने वसुमनस्, गया है (वायु. ९९.२१-२३; ब्रह्मांड. ३.७४.२०-२३; अष्टक, एवं प्रतर्दन नामक तीन भाइयों के साथ एक मत्स्य ४८.१८)। यज्ञ किया, जिसका सारा पुण्य इन्होंने स्वर्ग से अधःपतित औदार्य-इसके औदार्य की निम्नलिखित कथा सब से | हए अपने पितामह ययाति को प्रदान किया। इस प्रकार अधिक सुविख्यात है। एक बार इसकी सत्त्वपरीक्षा लेने | इन्होंने ययाति को पुनः एकबार स्वर्गप्राप्ति करायी के लिए अग्नि ने कपोत का, एवं इन्द्र ने बाज (श्येन) (माधवी देखिये )। पक्षी का रूप धारण किया, एवं श्येन पक्षी कपोत का पीछा ययाति के स्वर्गप्राप्ति के लिए इसने अन्तरिक्ष में स्थित करता हुआ इसके संमुख उपस्थित हुआ। उस समय कपोत | अपना सारा राज्य उसे प्रदान किया, ऐसा एक रूपकात्मक ९७० Page #993 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिबि. प्राचीन चरित्रकोश शिव निर्देश महाभारत में प्राप्त है, जिसका संकेत भी इसी २. एक जातिविशेष, जिसका निर्देश दस्यु लोगों के पुण्यदान के आख्यान की ओर प्रतीत होता है (म. आ. | साथ प्राप्त है (ऋ. १.१००.१८)। सीमर के अनुसार, ८८.८) महाभारत में अन्यत्र नारद का, एवं इसका एक ! ये लोग अनार्य थे (अल्टिन्डिशे लेबेन, ११८-११९)। संवाद प्राप्त है, जहाँ उसने इसे अपने से भी अधिक शिरिबिठ भारद्वाज--एक वैदिक सूक्तद्रष्टा (ऋ. पुण्यवान् वर्णन किया है (म. व. परि. १.२१.५.)। | १०.१५५.१)। 'ऋग्वेद अनुक्रमणी' में इसे भरद्वाज यह अत्यंत संपत्तिमान् , उदार, पराक्रमी, राजनीति- | का पुत्र कहा गया है। किंतु यास्क इसे व्यक्ति न मान प्रवण एवं यज्ञकर्ता राजा था (म. द्रो. परि. १.८.४०९- | कर 'मेघ' मानते हैं (नि. ६.३०)। ४३६ )। यह कुछ काल तक इंद्र बना था, एवं ब्रह्मा के | शिरीष--अत्रिकुलोत्पन्न एक गोत्रकार । यज्ञ का 'प्रतिष्ठाता' भी यही था। शिरीषक--कश्यपकुलोत्पन्न एक नाग, जो नारद ने इंद्रसारथि मातलि को वर के रूप में प्रदान किया था दान का. महत्त्व-इसने सुहोत्र राजा को दान का महत्त्व कथन किया था। उस समय उसने इसे कहा, (म. उ. २०१.१४)। | शिरीषिन्--विश्वामित्र ऋषि के ब्रह्मवादी पुत्रों में से 'दान यह एक ही संपत्ति ऐसी है कि, जो देने से अधिक बढती है ' (म. व. पंरि. १.२१.२)। इसका यह उपदेश | | एक (म. अनु. ४.५९)। शिलक शालावत्य--एक आचार्य, जो चैकितायन सुन कर, सुहोत्र ने इसे सम्मानपूर्वक विदा किया। दाल्भ्य, एवं प्रवाहण जैवलि नामक आचार्यों का समकालीन मृत्यु-मृत्यु के पश्चात् यह यमसभा का सदस्य हुआ था (छां. उ. १.८.१)। 'शलावति' का वंशज होने के (म. स. ८.९)। मृत्यु के पश्चात् , उत्तर-गोग्रहणयुद्ध कारण, इसे शालावत्य पैतृक नाम प्राप्त हुआ था। के समय पांडवों के पराक्रम को देखने के लिए अन्य शिलर्दनि-अत्रिकुलोत्पन्न एक गोत्रकार । देवों के साथ यह उपस्थित हुआ था (म. वि. ५१.९१७* शिलवृत्ति-एक ऋषि, जिसने गंगा नदी के माहात्म्य पंक्ति. ३०)। इसके माहात्म्य की अनेकानेक कथाएँ पद्म के संबंध में एक सिद्ध से संवाद किया था (म. अनु. में प्राप्त हैं (पद्म. उ. ८२; १९९)। २६.१९-१०३)। इसे 'शिलोच्छवृत्ति' नामांतर भी प्राप्त परिवार---इसके निम्नलिखित चार पुत्र थे:- १. था (म. अनु. २६.१९)। .वृषादर्भ, २. सुवीर; ३. मद्र; ४. केकय (भा. ९.२३. ३)। इसके इन पुत्रों ने पंजाब प्रदेश में क्रमशः वृषादर्भ, शिलस्थलि--अंगिराकुलोत्पन्न एक गोत्रकार । सौवीर, केकय, एवं मद्र राज्यों की स्थापना की, एवं इस | शिला--धर्म ऋषि की कन्या, जो मरीचि ऋषि की पत्नी थी। अपने पति के शाप के कारण, यह गयाक्षेत्र में प्रकार वे समस्त पंजाब प्रदेश के स्वामी बन गये। शिला बन कर रहने पर विवश हुई (वायु. १०७)। 6. उपर्युक्त पुत्रों के अतिरिक्त, इसके गोपति, एवं | | शिलाद--शिवपार्षद नंदिन का पिता (लिंग. १-४२, बृहद्गर्भ नामक पुत्रों का निर्देश भी महाभारत में प्राप्त है नंदिन् १. देखिये)। (म. शां. ४९.७०)। शिलायूप--विश्वामित्र ऋषि एक पुत्र (म.अनु.४.५४)। . २. उशीनर देश का एक राजा, जो द्रौपदी स्वयंवर में शिलास्थलि--अंगिराकुलोत्पन्न एक गोत्रकार । उपस्थित था (म. आ. ६०.२१)। भारतीय युद्ध में यह शिलीन--जित्वन् शैलिनि ऋषि का पिता (बृ. उ. पांडवों के पक्ष में शामिल था । अन्त में यह द्रोण के द्वारा | ४.१.५ माध्य.)। मारा गया (म. द्रो. १३०.१७)। | शिल्व काश्यप--एक आचार्य, जो काश्यप निध्रुवि शिर्मिदा--एक दानव (अ. वे. ४.२५.४; श. ब्रा. | नामक आचार्य का शिष्य, एवं हरित काश्यप नामक ७.४.१.७)। यह शब्द ' शिमिद् ' से व्युत्पन्न है, जिसका | आचार्य का गुरु था (बृ. उ. ६.४.३३ माध्यं.)। शब्दशः अर्थ 'व्याधि' है (ऋ. ७.५०.४)। शिव--एक देवता, जो सृष्टिसंहार का आद्य देवता शिम्यु-एक राजा, जो दाशराज्ञ युद्ध में सुदास राजा | माना जाता है (रुद्र-शिव देखिये)। के द्वारा नहुष, भरत, वार्षगिर, ऋज्राश्व, अंबरीष, सहदेव, २. एक जातिविशेष, जो दाशराज्ञ युद्ध में सुदास राजा भजमान आदि राजाओं के साथ परास्त हुआ था (ऋ. | के द्वारा अलिन् , पक्थ, भलानस् , विषाणिन् आदि .७.१८.५)। | जातियों के साथ हुआ था (ऋ. ७.१८.७)। ९७१ Page #994 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिव प्राचीन चरित्रकोश शिशुनाग सिकंदर के समय सिंधु एवं असिक्नी नदियों के तट पर | 'मेदशिरस् , 'शातकर्णि' एवं 'शिवश्री' राजा का बसे हए 'सि' अथवा 'सिबोइ' लोग संभवतः यही | पुत्र था ( मत्स्य. २७३.१४ )। होंगे (अरियन, इंडिका ५.१२)। पाणिनीय व्याकरण शिवस्वाति अथवा शिवस्वामिन--( आंध्र. में निर्दिष्ट 'शिवपुर ग्राम संभवतः इन्हीं लोगों का ही था भविष्य.) एक आंध्रवंशीय राजा, जो भागवत के अनुसार (पा. सू. ४.२.१०९; शिबि. १. देखिये)। चकोर राजा का, विष्णु के अनुसार चकोर शातकणि राजा ३. उत्तम मन्वंतर का एक देवगण, जिस में निम्न- का, एवं वायु के अनुसार सातकर्णि राजा का पुत्र था। लिखित बारह देवता समाविष्ट थे:--१.प्रतर्दन: २. यति; शिवा-अंगिरस ऋषि की पत्नी, जो आपव वसिष्ठ ३. यम; ४. यशस्कर; ५. वनि; ६. वसुदान, ७. विष; | ऋषि की कन्या थी । पाठभेद:--' वसुदा' 'शुभा' ८. सुदान; ९. सुचित्र; १०. सुमंजस्; ११. स्वार एवं 'सुमा' (म. व. २०८.१)। १२. हंस (ब्रह्मांड. २.३६.३२-३३)। २. अनिल नामक वसु की पत्नी, जिससे इसे मनोजव ४. अंगिराकुलोत्पन्न एक गोत्रकार। एवं अविज्ञातगति नामक पुत्र उत्पन्न हुए थे (म. आ. ५. उत्तम मन्वन्तर के सप्तर्षियों में से एक (मत्स्य. | ६०२४ )। ९.१४)। ३. एक शैवेय' राक्षसी, जो कश्यप एवं खशा की ६. तामस मन्वंतर का एक योगवर्धन । कन्याओं में से एक थी (ब्रह्मांड. ३.७.१३८)। ७. एक ब्राह्मण, जो वितस्त का पुत्र, एवं श्रवस् का शिशिर-एक वसु, जो धर एवं मनोहरा के चार पुत्रों पिता था (म. अनु. ८.६२)। में से एक था। इसके अन्य तीन भाइयों के नाम वर्च, ८. ( स्वा. प्रिय.) एक राजा, जो इध्मजिह्व राजा | प्राण एवं रमण थे (म. आ.६०.२)। के सात पुत्रों में से एक था। इसका द्वीप इसीके ही २. विश्वामित्रकुलोत्पन्न एक मंत्रकार । नाम से प्रसिद्ध हुआ। ३. एक आचार्य, जो विष्णु एवं भागवत के अनुसार व्यास की ऋकशिष्यपरंपरा में से क्रमशः वेदमित्र एवं ___९. एक ब्राह्मणसमूह, जो दक्षिण दिशा में निवास करता था । गरुड़ ने गालव ऋषि को पृथ्वी का दर्शन कराया, देवमित्र शाकल्य का शिष्य था। वायु एवं ब्रह्मांड में इसे जिस समय इन वेदपारग लोगों का देश भी उसने उसे । | 'शैशिरेय' कहा गया है। दिखाया था (म.-उ. १०७.१८)। शिशु--(सो. वसु.) एक राजा, जो विष्णु के अनुसार शिवकर्ण-वसिष्ठकुलोत्पन्न एक गोत्रकार। पाठभेद | सारण राजा का पुत्र था (विष्णु. ४.१५.२१)। २. सप्तमातृकाओं के पुत्रों का सामूहिक नाम, जो 'शवकर्ण'। 'वीराष्टक' नाम से भी सुविख्यात थे। शिवशर्मन्--एक विष्णभक्त ब्राह्मण, जिसके यज्ञ | शिशु आंगिरस-एक वैदिक सूक्तद्रष्टा एवं सामद्रष्टा शर्मन् एवं सोमशर्मन् नामक पुत्रों के पितृभक्ति के कारण, (ऋ. ९.११२, पं. बा. १३.३.२४)। इसके संपूर्ण कुटुंब का उद्धार हुआ (यज्ञशर्मन् एवं | शिशुक--(आंध्र. भविष्य.) आंध्रवंशीय शिप्रक सोमशर्मन् देखिये)। राजा का नामांतर । मत्स्य में इसे आंध्र वंश का सर्वप्रथम २. एक ब्राह्मण, जिसे तीर्थयात्रा के पुण्य के कारण | राजा कहा गया है (मत्स्य. २७३.२)। इसने काण्व राजा नंदिवर्धन राजा के कुल में जन्म प्राप्त हुआ ( स्कंद. ४.१. सुशर्मन् को परास्त किया था। ८-२४)। २. (किलकिला. भविष्य.) दौहित्रपुरिका नगरी का शिवशातकर्णी अथवा शिवश्री-(आंध्र. भविष्य.) एक राजा, जो ब्रह्मांड एवं विष्णु के अनुसार, नन्दियशस् एक आंध्रवंशीय राजा, जो विष्णु एवं मत्स्य के अनुसार | राजा का पुत्र था। पुलोमत् राजा का पुत्र था ( मत्स्य. २७३.१३)। भागवत | शिशुनन्दिन--(किलकिला. भविष्य.) एक राजा, जो एवं मत्स्य में इसे क्रमशः 'मेदःशिरस्' एवं 'शिवश्री' भागवत एवं भविष्य के अनुसार भूतनंद राजा का पुत्र था। कहा गया है। इसने बीस वर्षों तक राज्य किया। शिवस्कंध-(आंध्र. भविष्य.) एक आंध्रवंशीय | शिशुनाग-(शिशु. भविष्य.) शिशुनाग वंश का सर्वराजा, जो भागवत, विष्णु एवं मत्स्य के अनुसार, क्रमशः | प्रथम राजा, जिसने मगध देश के प्रद्योतवंशीय नन्दिवर्धन ९७२ Page #995 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिशुनाग प्राचीन चरित्रकोश शिशुपाल राजा को परास्त कर, शिशुनाग राजवंश की स्थापना की। कृष्ण का विद्वेष—यह शुरू से ही मगधराज जरासंध यह काशिदेश का रहनेवाला था, किंतु आगे चल कर, का पक्षपाती था, एवं कृष्ण से द्वेष करता था (ह. वं. यह मगध देशनिवासी बन गया । इसके पुत्र का नाम | २३४.१३)। इसके कृष्ण की तुलना में अधिक सामर्थ्य - काकवर्ण था। शाली राजा होते हुए भी, सभी लोग कृष्ण को ही अधिक इसके राजवंश में निम्नलिखित दस राजा उत्पन्न हुए, | मान देते थे, यह इसे बिलकुल अच्छा नहीं लगता था। जिन्होंने ३६० वर्षों तक मगध देश पर राज्य किया :-- शिशुपाल के अनाचार-इसी विद्वेष के कारण यह १. काकवर्णः २. क्षेमधर्म: ३. क्षेमजित; ४. विध्यसेन; | अनेकानेक पापकर्म एवं अनाचार करता रहा। कृष्ण जब ५. भूमिमित्र; ६. अजातशत्रु; ७. वंशक; ८. उदासि; प्राग्ज्योतिष पुर गया था, उस समय उसकी अनुपस्थिति में ९. नन्दिवर्धनः १०. महानन्दिन् (मत्स्य. २७२.६-१७; | इसने द्वारका नगरी जलायी थी। रैवतक पर्वत पर हुए वायु. ९९.३१४-३१५)। यादवों के उत्सव के समय, इसने हमला कर अनेकानेक शिशपाल-चेदि देश का सुविख्यात राजा, जो चेदि यादवों को मारपीट कर उन्हें कैद किया था। कृष्ण पिता राजा दमघोष एवं वसुदेवभगिनी श्रुतश्रवा का पुत्र था। इस वसुदेव के अश्वमेध यज्ञ के समय, इसने उसका अश्वप्रकार यह कृष्ण का फुफेरा भाई, एवं पांडवों का मौसेरा | मेधीय अश्व चुरा कर, यज्ञ में विघ्न उपस्थित किया भाई था (म. स. ४०.२१: भा. ७.१.१७; ९.२४.४०)। । था। बभ्र राजा की पत्नी का इसने हरण किया था, एवं इसे 'चैद्य' एवं 'सुनीथ' नामांतर भी प्राप्त थे(म. स. | अपने मामा विशालक की कन्या भद्रा पर बलात्कार किया ३३.३५२* पंक्ति. ४; परि. १.२१.२, ३६.१३)। था। रुक्मिणीस्वयंवर के समय इसने कृष्ण पर आरोप यह शुरू से ही अत्यंत दुष्टप्रकृति, एवं कृष्ण का प्रखर | लगाया था की, कृष्ण ने रुक्मिणी को बहका कर उससे विद्वेषक था, जिसका संकेत पुराणों में इसे हिरण्यकशिपु | सेरिण्यकशिप | जबर्दस्ती शादी की है। एवं रावण का अंशावतार मान कर किया गया है (मत्स्य. कृष्ण की निंदा-कृष्ण के प्रति इसके विद्वेष का रौद्र ४६.६; विष्णु. ४. १४.१५, ब्रह्म. १४.२०; वायु. ९६. | उद्रेक युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में हुआ, जहाँ इसने कृष्ण १५८: ब्रह्मांड. ३.३१.१५९)। को अग्रपूजा का मान देने के प्रस्ताव को अत्यंत कटोर जन्म-इसके स्वरूप के संबंध में एक चमत्कृतिपूर्ण | शब्दों में विरोध किया। इसने कहा, 'कृष्ण एक कायर कथा महाभारत में प्राप्त है, जिसके द्वारा कृष्ण से इसका एवं अप्रशंसनीय व्यक्ति है, एवं उसकी शूरता एवं पराक्रम जन्मजात शत्रुत्व प्रस्थापित करने का प्रयत्न किया गया की जो गाथाएँ आज समाज में प्रचलित हैं, वे सारी सरासर है। जन्म से यह अत्यंत विष्य था, एवं इसके तीन | झूट एवं अतिशयोक्त हैं। बचपन में कृष्ण ने पूतना का नेत्र, एवं चार भुजाएँ थीं । इसकी आवाज भी गर्दभ के वध किया, जो एक चिड़िया मात्र थी। वल्मीक जैसा समान थी। इसके जन्म के समय आकाशवाणी हुई | छोटा गोवर्धन पर्वत उसने उठाया, इसमें बहादुरी क्या ? थी, 'जिस पुरुष के गोद में यह बालक देते ही, इसकी दो | बछड़े, साँप, गधे को मारनेवाले को क्या तुम शूरवीर भुजाएँ एवं एक नेत्र लुप्त हो कर इसका विरूपत्व नष्ट हो कहाँग ? रुई जैसे झाड़ उखाड़ डाले, अथवा एक आधा जायेगा, उसीके हाथों शस्त्र के द्वारा इसकी मृत्यु होगी। नाग नष्ट ही किया, तो क्या यह वीरता कही जायेगी ? | इस विचित्र बालक को देखने के लिए, अन्य राजाओं। रही बात कंसवध की, उसमें भी कोई शौर्य नहीं था ? गौओं एवं रिश्तेदारों की भाँति कृष्ण एवं बलराम भी उपस्थित को चरानेवाले एक क्षुद्र व्यक्ति की तुम लोग प्रशंसा क्यों हुए थे। उस समय, कृष्ण के इस बालक को गोद में लेते करते हो, यह मेरे समझ में नहीं आता ' (म.स.३८)। ही, इनका विरूपत्त्व नष्ट हुआ, एवं आकाशवाणी के इसी सभा में कृष्ण की स्तुति करनेवाले भीष्म से कथनानुसार कृष्ण इसका शत्रु साबित हुआ (म. स. ४०. इसने कहा, 'तुम सरासर नपुंसक हो, जो अन्य सम्राटों १-१७)। कृष्ण की फूफी श्रुतश्रवा ने अपने बालक को को छोड़ कर आज भरी सभा में कृष्ण की स्तुति कर बचाने के लिए उससे बार-बार प्रार्थना की। उस समय | रहे हो। कृष्ण ने उसे अभिवचन दिया, 'शिशुपाल के सौ शिशुपालवध--शिशुपाल के इन आक्षेपों को सुन अपराधों को मैं क्षमा करूंगा, एवं उसके सौ अपराध पूर्ण | कर, भीम ऋद्ध हो कर इसे मारने के लिए दौड़ा, किन्तु होने पर ही में उसका वध करूंगा। | भीष्म ने उसे रोक दिया (म. स. ३९.९-१४)। ९७३ Page #996 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिशुपाल प्राचीन चरित्रकोश शुक थी। कृष्ण भी इन मिथ्या आरोपों के कारण, इसका वध शिशुरोमन्-तक्षककुलोत्पन्न एक नाग, जो जनमेजय करना चाहता था, किन्तु अपनी फूफी को दिये वचन का | के सर्पसत्र में दग्ध हुआ था (म. आ. ५२.९)। स्मरण कर, वह शांत रहा। किन्तु राजसूय यश्मंडप से शिष्ट-(स्वा. उत्तान.) एक राजा, जो ध्रुव एवं बाहर आते ही शिशुपाल पुनः एक बार कृष्ण के संबंध धन्या का का पुत्र था। अग्नि की कन्या सुच्छाया इसकी में भलाबरा कहने लगा। इसने कहा, 'रुक्मिणी मेरी पत्नी थी, जिससे इसे कृप, रिपुंजय, वृत्त, एवं वृक नामक पत्नी है, एवं उसने मेरा ही वरण किया है। किंन्तु | चार पुत्र उत्पन्न हुये (मत्स्य. ४.३८)। इसे ' सृष्टि' श्रीकृष्ण ने उसका हरण किया है। नामांतर भी प्राप्त था। शिशुपाल का यह वचन सुन कर, एवं इसके सौ शीघ्र--(सू. इ. भविष्य.) एक राजा, जो भागवत, अपराध पूर्ण हुए हैं, यह जान कर श्रीकृष्ण ने अपने विष्णु एवं वायु के अनुसार, अग्निवर्ण राजा का पुत्र, एवं सुदर्शन चक्र से इसका वध किया (म. स. ४२.२१; भा. मरु राजा का पिता था (भा. ९.२.५)। भविष्य पुराण १०.७४) । मृत्यु क पश्चात् इसके शरीर का तेज कृष्ण में इसे 'शीघ्रगन्तृ' कहा गया है, एवं इसके पिता की देह में विलीन हो गया। | का नाम अपवर्मन् दिया गया है । परिवार--इसके धृष्टकेतु, सुकेतु, एवं शरभ नामक शीत्रग-एक पक्षिराज, जो संपाति के पुत्रों में से एक तीन पुत्र, एवं करेणुमती (रेणुमती) नामक एक कन्या | था (मत्स्य. ६.३५)। शीत्रगन्त-इक्ष्वाकुवंशीय शीव राजा का नामांतर । महाभारत में इसका करकर्ष नामक अन्य एक पुत्र भी शीततोया--वरुण की पत्नियों में से एक। दिया गया है। इसकी बहन का नाम काली था, जो भीम शीतवृत्त--वसिष्ठकुलोत्पन्न गोत्रकार ऋषिगण। . की पत्नी थी (म. आश्र. ३२.११)। शुक-एक महर्षि, जो व्यास पाराशर्य ऋषि का पुत्र । शिशुमार-एक ऋषि, जो पानी में ग्राह का रूप था (शुक वैयासकि देखिये)। धारण कर रहता था (पं. वा. १४.५.१५) । 'शिशुमार' २. एक वानर, जो शरभ वानर का पुत्र था। इसकी का शब्दशः अर्थ 'ग्राह' ही है। इसे 'सिशुमार' | पत्नी का नाम व्याधी था, जिससे इसे ऋक्ष नामक पुत्र नामांतर भी प्राप्त था। उत्पन्न हुआ था (ब्रह्मांड ३.७.२०८)। पुराणों में इसका इसका सही नाम शकर था। एक बार सृष्टि के समस्त विस्तृत वंशक्रम प्राप्त है (वानर देखिये)। ऋषियों ने इंद्र की स्तुति की, किंतु यह मौन ही रहा । इंद्र ३. रावण का एक अमात्य, जो अपने सारण नामक के द्वारा स्तुति करने की आज्ञा होने पर, इसने औद्धत्य मित्र के साथ उसके गुप्तचर का काम भी निभाता था। से कहा, 'तुम्हारी स्तुति करने के लिए मेरे पास समय राम-रावण-युद्ध के समय, राम का सैन्यबल, शस्त्रबल नहीं है। फिर भी एक बार पानी उछालने के कार्य में आदि की जानकारी प्राप्त करने के लिए, रावण ने इसे जितना समय व्यतीत होगा, उतने ही समय तुम्हारी एवं सारण को गुप्तचर के नाते राम' के सेना शिविर में स्तुति करूँगा। भेजा था। पश्चात् ये दोनों वानर का रूप धारण कर, राम किंतु इंद्र की स्तुति प्रारंभ करने पर इसे पता चला कि, के शिविर में आ पहुँचे। . इंद्र की जितनी स्तुति की जाये, उतनी ही कम है। फिर विभीषण ने इनका सही रूप पहचाना, एवं उन्हें इसने तपश्चर्या कर सामविद्या प्राप्त की, एवं इंद्र के स्तुति- गिरफ्तार कर, इन्हें राम के सम्मुख पेश किया। रम ने वाचक साम की रचना की, जो आगे चल कर इसीके इनकी निःशस्त्र अवस्था की ओर ध्यान दे कर इन पर नाम के कारण 'शार्कर-साम' नाम से सुविख्यात हुआ। दया की, एवं इन्हें देहदण्ड के बिना ही मुक्त किया। (पं. बा. १४.५.१५)। पश्चात् इसने रावण के पास जा कर राम की सन्य२. स्वायंभुव मन्वंतर का एक प्रजापति, जिसकी भ्रमी | सामर्थ्य एवं उदारता की काफी प्रशंसा की, एवं उससे नामक कन्या का विवाह ध्रुव से हुआ था (भा. ४.१०. संधि करने की प्रार्थना रावण से की। किंतु रावण ने ११)। इसकी एक न सुनी, एवं अन्य गुप्तचर राम की सेना के .. ३. भगवान् विष्णु का एक अवतार, जो दोष वसु एवं | ओर भेज दिये (वा. रा. यु. २५-२९; म. व. २६७. . शर्वरी का पुत्र था (भा. ६.६.१४)। ९७४ Page #997 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुक प्राचीन चरित्रकोश शुक वैयासकि पूर्वजन्मकृत्त--अपने पूर्वजन्म में यह ब्राह्मण था। इसके निम्नलिखित पुत्र थे :- १. भूरिश्रवस् (भूरिकिन्तु अगस्त्य ऋषि को नरमांसयुक्त भोजन खिलाने की | श्रुत, भरि); २. शंभु; ३.प्रभुः ४. कृष्ण;५.गौर (गौरगलती इससे हुई, जिस कारण इसे राक्षसयोनि प्राप्त | प्रभ); ६. देवश्रुत (ब्रह्मांड. ३.८.९३; वायु. ७०.८४हुई । आगे चल कर, राम के पुण्यदर्शन के कारण यह | दे. भा. १.१४, नारद. १.५८)। मुक्त हुआ। इसकी कन्या का नाम कृत्वी (कीर्तिमती, योगमाता, ४. (सू. नरिष्यंत.) एक राजा, जो नरिष्यंत राजा का | योगिनी) था, जो अणुह राजा की पत्नी थी (ह. वं. १. पुत्र था (पन. सृ. ८.१२५)। २३.६: वायु. ७३.२८-३०)। अणुह राजा से उसे . गांधारराज सुबल का पुत्र, जो शकनि का भाई | ब्रह्मदत्त नामक पुत्र उत्पन्न हुआ था (मत्स्य. १५)। था। भारतीय युद्ध में अर्जुनपुत्र इरावत् ने इसका वध | शुक वैयासकि--एक महर्षि, जो व्यास पाराशय किया (म. भी. ८.२४-३१)। नामक सुविख्यात ऋषि का पुत्र एवं शिष्य था। व्यास ने ६. एक ऋषि, जो दीर्घतमस् व्यास ऋषि का पुत्र था। इसे संपूर्ण वेद तथा महाभारत की शिक्षा प्रदान की थी कृष्ण के पुण्यस्पर्श के कारण, अपने अगले जन्म में यह (म. आ. ५७.७४-७५)। अपने ज्ञान एवं नैष्ठिक उपनन्द नामक गोप की कन्या बन गया (पन. पा. ७२)। ब्रह्मचर्य के कारण, यह प्राचीन काल से प्रातःस्मरणीय पुराणों में प्राप्त अट्ठाईस व्यासों की नामावलि में इसका विभूति माना जाता है। इसी कारण, पुराणों में इसे नाम अप्राप्य है। 'महातप, ' 'महायोगी,' एवं 'योगशास्त्र का प्रणयिता' ७. एक राजा, जो शर्यातिवंशीय पृषत् राजा का पुत्र | | कहा गया है (वायु ७३.२८)। था। इसने समस्त पृथ्वी को जीत कर, सौ अश्वमेध जन्म-घृताची अप्सरा (अरणी) को देख कर यज्ञ किये। व्यास महर्षि का वीर्य स्खलित हुआ, जिससे आगे चल कर शुक का जन्म हुआ (म. आ. ५७.७४)। महाभारत अपने उत्तर आयुष्य में इसने वानप्रस्थाश्रम को स्वीकार में अन्यत्र, व्यास के वीर्य के द्वारा अरणीकाष्ठ से इसका किया, एवं शतशंग पर्वत पर पर्णकुटी में रहने लगा। जन्म होने का निर्देश प्राप्त है (म. शां. ३११.९-१०)। अस्मविद्याशास्त्र में यह पांडवों का गुरु था, एवं इसीने ही ___ विद्याध्ययन--इसका लौकिक गुरु बृहस्पति था (म. भीम को गदायुद्ध, युधिष्ठिर को तोमर युद्ध, नकुल-सहदेवों शां. ३११.२३ )। अपने पिता के आदेशानुसार, इसने को खड्गयुद्ध, एवं अर्जुन को धनुर्वेद की शिक्षा प्रदान की अपने गुरु से मोक्षतत्त्व का उपदेश प्राप्त किया था (म. थी (म. आ. परि. ६७. २८-३७)। . शां. ३१२)। शिव के द्वारा इसका उपनयनसंस्कार ... ८. एक ऋषि, जो दक्षिण पांचाल के अणुह एवं ब्रह्म संपन्न हुआ था ( म. शां. ३११.१९)। व्यास ने इसे दत्त राजा का समकालीन था । यह व्यास पाराशर्य ऋषि के भागवत सिखाया था। पुत्र शुक वैयासकि से काफी पूर्वकालीन था। | इसके उपनयन के समय इंद्र ने इसे कमंडलु एवं पौराणिक साहित्य में शुक ऋषि की अनेकानेक पत्नियाँ | कषायवस्त्र प्रदान किये । बृहस्पति ने इसे वेदादि का ज्ञान एवं विस्तृत वंशक्रम प्राप्त है। पार्गिटर के अनुसार, दिया था, एवं उपनिषद, वेदसंग्रह, इतिहास, राजनीति यह सारा परिवार व्यास ऋषि के पुत्र शुक वैयासकि का एवं मोक्षादि धर्म आदि का ज्ञान स्वयं व्यास ने इसे दिया न हो कर अणुह एवं ब्रह्मदत्त राजा के समकालीन शुरू था। आगे चल कर ब्रह्मज्ञान की प्राप्ति के लिए, यह बहुऋषि का था। शुक वैयासकि जन्म से ही अत्यंत विरागी | लाश्व जनक राजा के पास गया। वहाँ जनक राजा ने इसे स्त्रीएवं ब्रह्मचारी था। जाल में फंसाने की कोशिश की, किन्तु उसका यह प्रयत्न परिवार-इसकी निम्नलिखित दो पत्नियाँ थी:- असफल ही रहा । इसने नारद से भी आत्मकल्याण का १. पीवरी, जो विभ्राज अथवा बर्हिषद पितरों की मानस- उपाय पूछा था (म. शां. ३१८)। कन्या थी। हरिवंश में इसे सुकाल पितरों की कन्या कहा| विरक्ति-यह शुरू से ही अत्यंत विरक्त था, एवं गया है (ह. वं. १.१८.५८), २. गो (एकशंगा)। उपनयन के पूर्व ही इसने जीवन के समस्त भोगवस्तुओं का हरिवंश में एकशंगा गो की नहीं, बल्कि पीवरी का | त्याग किया था। अपने पिता की आज्ञा से यह ननावस्था नामांतर बताया गया है। में कुरुजांगल एवं मिथिला नगरी गया था। मिथिला नगरी ९७५ Page #998 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुक वैयासकि प्राचीन चरित्रकोश शुक्र उशनस् में जनक राजा ने इसका यथोचित स्वागत किया, एवं ८. ब्रह्मवेत्ता के लक्षण; ९. मन एवं बुद्धि के गुणों का वर्णन इससे ज्ञान-विज्ञानविषयक अनेकानेक प्रश्न पूछे (म. (म. शां. २२४-२४७)। शां. ३१३.३-२१)। मिथिला नगरी से लौट कर यह शुक-निर्वाण--इसके महानिर्वाण का विस्तृत वर्णन पुनः एक बार अपने पिता व्यास के पास आया (म. शां. महाभारत में प्राप्त है, जो सत्पुरुष को प्राप्त होनेवाले ३१४.२९)। 'योगगति' का अपूर्व शब्दकाव्य माना जाता है। अपने भागवत का कथन-शुक के जीवन से संबंधित घटनाओं पिता वेदव्यास को अभिवादन कर यह कैलास पर्वत पर में एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण घटना, व्यास पाराशर्य से ध्यानस्थ बैट गया । पश्चात् यह वायुरूप बना, एवं उपस्थित इसे हुई भागवतपुराण की प्राप्ति मानी जाती है। लोगों के आँखो के सामने आकाशमार्ग से सूर्य (आदित्य) भागवत ग्रंथ की प्राप्ति होने के पूर्व ही शुक परमज्ञानी लोक में प्रविष्ट हुआ। इसके पिता व्यास ' हे शुक' कह था, किंतु फिर भी यह पुराण इसने अत्यंत भक्तिभावना कर शोक करने लगे,एवं बाकी सभी लोग अनिमिष नेत्रों से से सुना, एवं उसे सुनते ही इसका हृदय भक्तिभावना यह अपूर्व दृश्य देखते ही रहे ( म. शां ३१९-३२० )। से भर आया (भा. १.७.८)। पश्चात् यह पुराण इसने व्यास से तलना--शुक सदैव नग्नस्थिति में रहता था। परिक्षित् राजा को सुनाया था। पुराण सुनाते समय, यह इसके सोलह वर्षों तक नग्नावस्था में रहने का निर्देश प्राप्त है तेजस्वी, तरुण एवं आजानबाहु प्रतीत होता था (भा.१. (भा. १.१९.२६ )। इसी नग्न अवस्था में यह परिक्षित् १९.१६-२८)। राजा से मिलने गया था। इसे नग्न अवस्था में सरोवर, '. भागवत पुराण की रचना अन्य पुराणों से भिन्न है। पर स्नान के लिए जाते समय वहाँ के उपस्थित लोग लज्जित अन्य पुराणो में जहाँ परमेश्वर प्राप्ति के लिए उपासना, नहीं होते थे, बल्कि व्यास को वैसी अवस्था में देखने पर . चिंतन एवं तपस्या पर जोर दिया गया है, वहाँ भागवत उन्हें लज्जा का अनुभव होता था। इसका कारण यही था में भक्ति को प्राधान्य दिया गया है । यही भक्तिप्राधान्यता कि, शुक स्त्री पुरुषों के भेदों के अतीत अवस्था में पहुँच भागवत का प्रमुख वैशिष्टय है । इसी कारण, भागवत को गया था, जिस अतीत अवस्था में व्यास नहीं पहुँचा था 'अखिलश्रुतिसार' एवं 'सर्ववेदान्तसार' कहा गया है (म. शां. ३२०. २८-३०; मा. १.४.४ )। (भा. ३.२.३, १२.१३.१२)। इस ग्रंथ के संबंध में । शुकनाभ--रावण के पक्ष का एक राक्षस ( वा. रा. प्रत्यक्ष भागवत में कहा गया हैराजन्ते तावदन्यानि पुरागानि सतां गणे। शकी--कश्यप एवं ताम्रा की कन्या। इसका विवाह यावन्न दृश्यते साक्षाच्छीमद्भागवतं परम् ॥ गरुत्मत् से हुआ था। सृष्टि के सारे शुक ( तोते ) इसकी संतान माने जाते हैं। इसके पुत्रों में सुख, (भा. १२.१३.१४)। सुनेत्र, विशिख, सुरूप, सुरस, एवं बल प्रमुख माने जाते थे भागवत के अनुसार, इस ग्रंथ के कथन से स्वयं व्यास (ब्रह्मांड. ३.७.४५०)। . को भी अत्यधिक समाधान प्राप्त हुआ। परमेश्वरप्राप्ति - शक्ति आंगिरस-एक. सामद्रष्टा आचार्य (पं. ब्रा. का 'साधनचतुष्टय' इस ग्रंथ से पूर्ण होने के कारण, | १२.५.१६ )। अपने जीवन का सारा कार्य परिपूर्ण होने की धारणा | शक्र उशनस्--भार्गवकुलोत्पन्न एक ऋषि, जो उसके मन में उत्पन्न हुई। दैत्यों का एक सुविख्यात आचार्य था। यह भृगु ऋषि एवं व्यास-शुकसंवाद--महाभारत में 'शुकानुप्रश्न' नामक | हिरण्यकशिपु की कन्या दिव्या का पुत्र था। पौराणिक एक उपाख्यान प्राप्त है, जहाँ शुक के द्वारा अपने पिता | साहित्य में इसे कवि का पुत्र भी कहा गया है, जिस व्यास से पूछे गये अनेकानेक प्रश्नों का, एवं व्यास के द्वारा | कारण इसे 'काव्य' पैतृक नाम प्राप्त था। यह एवं दिये गये शंकासमाधानों का वृत्तांत प्राप्त है । उस उपाख्यान च्यवन भृगुकुल में उत्पन्न ऋषियों में सर्वाधिक प्राचीन में चर्चित प्रमुख विषय निम्नप्रकार है:--१. ज्ञान के | ऋषि माने जाते हैं। साधन एवं उनकी महिमा;२. योग से परम पद की प्राप्ति; दैत्यों का आचार्य-महाभारत एवं पुराणों में इसे ४. कर्म एवं ज्ञान में अंतर; ५. ब्रह्मप्राप्ति के उपाय | दैत्यों का गुरु, आचार्य, उपाध्याय, पुरोहित एवं याजक ' ६. ज्ञानोपदेश में ज्ञान का निर्णय; ७. प्रकृति-पुरुष विवेक; | कहा गया है । ९७६ Page #999 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुक्र उशनस् यह शुरू से ही असुरों का पक्षपाती था। वामन अवतार के समय, चलि वामन को त्रिपादभूमि देने के लिए सिद्ध हुआ। असमय, इस क्रिया में रुकावट पैदा करने के हेतु यह झारी के मुख में जा बैठा। उस समय बलि ने दर्भाय ने शारी का मुख्य साफ करना चाहा, जिस कारण इसकी एक फूट गई। इसी कारण इसे 'एकाक्ष' कहते ( नारद. २.११ ) । प्राचीन चरित्रकोश चियाय एवं अंगिरसपुत्र जीव, अंगिरस् ऋषि के शिष्य थे किन्तु विद्यादान के समय अंगिरस् ऋषि काफी पक्षपात करने लगा, जिस कारण इसने उसका शिष्यत्व छोड़ दिया, एवं यह शिवाराधना करने लगा । पश्चात् शिव से इसे मृत संजीवनी विद्या प्राप्त हुई, जिसके आधार पर देवासुर संग्राम में इसने असुरों को अनेक वार विजय प्राप्त करायी। पश्चात् इसकी यह संजीवनी विद्या बृहस्पतिपुत्र कच ने इससे प्राप्त की ( कच एवं देवयानी देखिये) । कच से वह विद्या उसके पिता देवगुरु बृहस्पति ने, एवं बृहस्पति से समस्त देव - पक्षों ने प्राप्त की। इस प्रकार असुरों का अजेयत्व विनष्ट हुआ। , लिंग पुराण में इसे अघोर ऋषि का पुत्र कहा गया है, एवं इसके द्वारा हिरण्याक्ष को ‘निग्रहविधि बताये जाने निर्देश भी यहाँ प्राप्त है (२.५० ) । स्वशाख— इसने १००० अध्यायोंवाले 'बार्हस्पत्य-शास्त्र' 'यशास्त्र वा निर्माण किया था, जो आगे चल कर अन्य आचाओं के द्वारा संक्षिप्त किया गया (म.शां. ९१-९२) । परिवार - इसकी पितृकन्या गो, एवं इंद्रकन्या जयंती नामक दो गनियाँ थी। (1 ) जयंती की संतान--जयंती से इसे देवयानी उत्पन्न हुई थी, जिसका विवाह ययाति राजा हुआ था ( ययाति देखिये) । के (२) गोकीनो से इसे निम्नलिखित चार पुत्र उत्पन्न हुए थे:- १ त्वष्टृ; २. वरुत्रिन्; ३. शण्ड; ४. मर्क ये चार ही पुत्र एवं उनके संतान असुरों के पक्षपाती होने के कारण विनष्ट हुए, एवं इस प्रकार भार्गव शुक शाखानि हुई। शुक्र जावाल – एक आचार्य (जै. उ. बा. ३.७.७)। यह 'जबाला' का वंशज होने के कारण, इसे ‘जाबाल’ नाम प्राप्त हुआ था। प्रा. च. १२३ ] शि शुक्र पांचाल -- पांचाल देश का क्षत्रिय, जो भारतीय युद्ध में पांडवों के पक्ष में शामिल था। कर्ण ने इसका वध किया था (म.प. ४०,४६-४८ ) । इसके अथ, धनुष, कवच एवं ध्वज सफेद थे ( म. द्रो. २२.४९ ) । पाठभेद ( मांडारकर संहिता) - कृ । शुक्ल (स्वा. उत्तान ) एक राजा, जो हविर्धान एवं हविधांनी का पुत्र था (मा. ४.२४०८)। २. अंगिराकुलोत्पन्न एक गोत्रकार । ३. उत्तम मन्वन्तर के सप्तर्पियों में से एक : ४. पांचाल देशीय शक्र नामक योद्धा का नामांतर (शुक्र पांचाल देखिये) । शुंग एक राजवंश, जिसका आद्य संस्थापक पुष्यमित्र थामबंध का अंतीम राजा बृहदव का पुष्यमित्र सेनापति था, जिसने वृहदश्व वा वध कर अपने स्वतंत्र राजवंश की स्थापना की। इस वंश में उत्पन्न निम्नलिखित दस राजाओं ने ११२ वर्षों तक राज्य किया:पुष्यमित्र, वसुज्येष्ठ, वसुमित्र, अंतक, पुलिंदक, वज्रमित्र, समाभाग, देवभूमि ( मत्स्य. २७२.२६ - ३२ ) । शुवन्ति - अधिनों का एक आश्रित (ऋ. १. ११२.७) । विष्णु के अनुसार अंक राजा का पुत्र था | पाठभेद शुचि -- (सो. क्रोटु. ) एक राजा, जो भागवत एवं ( मत्यपुराण ) - 'शशि' । । २. (स्वा. उत्तान . ) एक ऋषि, जो भरद्वाज एवं अंगिरस कुल में उत्पन्न हुआ था। वसिष्ठ ऋषि के शाप के कारण इसे मनुष्य योनि में कम प्राप्त हुआ, एवं यह विजिताश्व राजा का पुत्र बन गया ( भा. ४.२४.४ ) । ३. (सु. निमि.) एक राजा, जो भागवत एवं विष्णु के अनुसार शतम्न जनक राजा का पुत्र था। पाठभेद ( वायुपुराण ) - ' मुनि ' ( भा. ९.१३.२२ ) । ४. विश्वामित्र ऋषि के ब्रह्मवादी पुत्रों में से एक (म. अनु. ४.५४ ) । ५. उत्तम मनु के पुत्रों में से एक । ५. भीमनु के पुत्रों में से एक। ७. भीत्य मन्वन्तर का इंद्र (मा. ८८१३२.१४) । ८. विकुंट देवों में से एक ( ब्रह्मांड. २.३६.५७ ) । ९. सुधामन् देवों में से एक। १०. (सो. पुरूरवस् . ) एक राजा, जो अनेनस् राजा का पौत्र, एवं शुद्ध राजा का पुत्र था। इसके पुत्र का नाम त्रिककुद् था | ९७७ Page #1000 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुचि प्राचीन चरित्रकोश शुनःशेप ११. (सो. मगध, भविष्य ) एक राजा, जो भागवत इसके पुत्र का नाम लांगल (राहुल, अथवा पुष्कल) एवं विष्णु के अनुसार विप्र राजा का, वायु के अनुसार था ( भा. ९.१२.१४; वायु. ९९. २८८)। महाबाहु राजा का, ब्रह्मांड के अनुसार रिपुंजय राजा का, शुद्धोदन--गौतम बुद्ध का पिता (अनि. १६) एवं मत्स्य के अनुसार विभु राजा का पुत्र था । इसके एक इसे 'शुद्धोद' नामांतर भी प्राप्त था । पुत्र का नाम क्षेम (क्षेम्य) था (भा. ९.२२.४७-४८; शनःपूच्छ--शुनःशेप ऋषि का भाई (ऐ. बा. विष्णु. ४.२३.५-७) ७.१५.७; सां. श्री. ५.२०.१)। १२. एक वणिक्ल का मुख्य, जो वन में दमयन्ती से । शनःशेप आजागर्ति--एक सुविख्यात ऋषि, जो सहजवश मिला था। विश्वामित्र ऋषि का भतीजा एवं आगे चल कर उसका १३. एक भार्गव देव, जो भृगु ऋषि के पुत्रों में से प्रमुख शिष्य था। विश्वामित्र का शिष्य होने के पश्चात्, एक था। यह देवरात नाम से प्रसिद्ध हुआ। शुनःशेष शब्द का १४. भौत्य मन्वंतर के सप्तषियों में से एक । शब्दशः अर्थ 'कुत्ते की पूँछ ' होता है। १५. कश्यप एवं ताम्रा की एक कन्या । ___ भृगुकुल में उत्पन्न ऋचीक अजीगर्त नामक ऋषि का १६. एक अग्नि (म. व.२११.२४)। यह मँझला पुत्र था, एवं इसके अन्य दो भाइयों के १७. एक अप्सरा, जो वेद शिरस् ऋषि की पत्नी थी | नाम शुनःपुच्छ, एवं शुनोलांगूल थे । इसे 'आजीगर्ति, (वेदशिरस् २. देखिये। एवं ' सौयवसि' पैतृक नाम प्राप्त थे। ऋग्वेद के कई शुचिका-एक अप्सरा, जो कश्यप एवं मुनि की सूनों का प्रणयन इसके द्वारा हुआ है (ऋ. १.२४. कन्या थी। अर्जुन के जन्मोत्सव में यह उपस्थित थी| ३०; ९.३) (म. आ. ११४.५१)। ___ हरिश्चन्द्राख्यान-इसके जीवन से संबंधित विस्तृत. शुचिद्रव--पूरुवंशीय कविरथ राजा का नामांतर। कथा ब्राह्मण ग्रंथों में प्राप्त हैं (ऐ. ब्रा. ७.१३-१८; शुचिविद्य--(सो. पुरूरवस्.) एक राजा, जो मत्स्य के | सा. श्री. १५.२०-२१; १६.११.२)। हरिश्चन्द्र राजा अनुसार पुरूरवस् राजा का पुत्र था (मत्स्य. २४.३४)। को पुत्र न होने के कारण, उसने वरुण के पास मनौती. शुचिवृक्ष गोपालायन-एक आचार्य, जो वृद्धाम्न मानी थी कि, अगर उसे पुत्र होगा, तो वह उसे वरुण आभिप्रतारिण नामक राजा का पुरोहित था (ऐ. ब्रा. ३. को बलिस्वरूप में प्रदान करेगा। आगे चल कर, हरिश्चन्द्र ४८.९; मै. सं. ३.१०.४)। को रोहित नामक पुत्र उ पन्न हुआ, किन्तु वह मनौती पूरी करने में देर लगाने लगा । अपने पिता के द्वारा कबूल शुचिश्रवस्--एक प्रजापति, जो ब्रह्मा के मानसपुत्रों की गयी यह मनौती की कथा ज्ञात होते ही, रोहित वन में से एक था ( वायु. ६५.५३)। २. स्वायंभुव मन्वंतर के अजित देवों में से एक । में भाग गया। शचिष्मत--कर्दम प्रजापति का पुत्र, जो उसे समुद्र 'पश्चात् हरिश्चन्द्र को उरदरोग ने ग्रस्त किया। तत्र से प्राप्त हुआ था। शिव ने इसे समुद्र का आधिपत्य एवं रोहित ने वरुण को बलि देने के लिए अपने स्थान पर पश्चिम दिशा का अधिराज्य प्रदान किया था ( स्कंद. २. । अजीगत पुत्र शुनःशेप को नियुक्त किया, एवं इसके ४.१-१२)। पिता को विपुल द्रव्य दे कर, बलिप्राणी के नाते इसे शुचिस्मिता--कुबेरसभा की एक अप्सरा (म. स. खरीद लिया। १०.१०)। पश्चात् इसे बलिस्तंभ में बाँध भी दिया गया। इतने में शुद्ध-(सो. आयु.) एक राजा, जो अनेनस् राजा का विश्वामित्र ऋषि ने इसे देवताओं की प्रार्थना करने के लिए पुत्र, एवं शुचि राजा का पिता था (भा. ९.१७.११)। कहा । शुनःशेप के द्वारा की गयी ये प्रार्थनाएँ ऋग्वेद के २. भौत्य मन्वंतर के सप्तर्षियों में से एक। इसी के द्वारा रचित सूक्त में प्राप्त हैं। शुद्धोद-(सू. इ.. भविष्य.) एक राजा, जो वायु, पश्चात विश्वामित्र ने इसे बलिस्तंभ से मुक्त किया एवं विष्णु, एवं भागवत के अनुसार शाक्य राजा का पुत्र | 'देवरात' नाम से इसे अपना पुत्र एवं प्रमुख शिष्य था । भविष्य एवं मत्स्य में इमे शुद्धोदन कहा गया है। मान कर, इसे 'जल' एवं 'गाधिकुल का उत्तराधिकारी ९७८ Page #1001 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुनःशेप प्राचीन चरित्रकोश शुभ्र था। बनाया । विश्वामित्र का पुत्र बनने के कारण, इसका भृगु- शुनक स्वयं युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में एक ऋषि के नाते गोत्र बदल कर, यह विश्वामित्रगोत्रीय बन गया। उपस्थित था (म. स. ४.१५)। ब्राह्मण ग्रंथों में प्राप्त इस कथा का संबंध, ऋग्वेद में ३. एक राजा, जो चंद्रहन्तृ असुर के अंश से उत्पन्न प्राप्त इसके सूक्तों से दिखाने का सफल प्रयत्न वेदार्थ- हुआ था (म. आ. ६१.३५)।इसे अपने पूर्वज हरिणाश्व दीपिका में किया गया है। ऋग्वेद के अन्य एक सूक्त में राजा से एक खड्ग की प्राप्ति हुई थी, जो इसने आगे भी इसके पाशमुक्त बन जाने का निर्देश प्राप्त है (ऋ. ५. चल कर उशीनर राजा को प्रदान किया था (म. शां. २.७ सायणभाष्य )। १६०.७७)। चंद्रतीर्थ नामक तीर्थस्थान में इसे मुक्ति पौराणिक साहित्य में--इस साहित्य में वैदिक साहित्य | प्रात हुइ था में निर्दिष्ट इसकी उपर्युक्त कथा अनेक बार सविस्तृत रूप ४. (प्रद्योत. भविष्य.) एक राजा, जो प्रद्योत राजवंश में दी गयी है (म. अनु. ३; शां. २९४; दे. भा. ७. का संस्थापक माना जाता है। यह प्रारंभ में रिपुंजय राजा १४-१७; भा. ९.७,१६; वा. रा. बा.६१-६२, ह. वं. का अमात्य था, जिसका इसने वध कर अपने प्रद्योत १.२७, विष्णु. ४.७; ब्रह्म. १०) . नामक पुत्र को राजगद्दी पर बिठाया (रिपुंजय ४. देखिये)। शुनःशेष कथा का अन्यायार्थ--कई अभ्यासकों के ५. एक आचार्य, जो भागवत के अनुसार व्यास की अनुसार, वैदिक साहित्य में वर्णित शनःशेप की कथा अथर्वन् शिष्यपरंपरा में से पथ्य नामक आचार्य का शिष्य रूपकात्मक है, जहाँ दीर्घरात्रि के पश्चात् अस्तमान होनेवाले सूर्य की ओर संकेत किया हुआ प्रतीत होता है। शतस्कर्ण बाकिह--एक राजा, जो शिबि अथवा इसके द्वारा विरचित ऋग्वेद के सुक्त में, इसे उपस् के द्वारा बष्किह राजा का पुत्र था। इसके नाम से 'शुनस्कर्णस्तोम' वरुण के पाशों से मुक्त किये जाने का निर्देश प्राप्त है, नामक एक याग प्रसिद्ध है (पं. ब्रा. १७.१२.६) इसने सर्वस्वार नामक एक यज्ञ किया था, जिस कारण निरोगी जो इस तर्क को पुष्टि देता है (ऋ. १.२४)। अवस्था में इसे मृत्यु प्राप्त हुई (बौ. श्री. २१.१७)। शुनःसख-इंद्र का एक तापसवेशवारी रूपांतर । वृषादर्भि राजा ने एक कृत्या का निर्माण कर, सप्तर्षियों का शुनहोत्र भारद्वाज--एक वैदिक सूक्तद्रष्टा (ऋ.६. वध करना चाहा। उस समय शुनः पख रूपधारी इंद्र ने | ३३-३४)। उस कृ.या का वध किया, एवं इस प्रकार सप्तर्षियों का शुनालांगूल--एक ऋषि, जो अजीगत ऋषि का संरक्षण किया (म. अनु. १४२.४)। | कनिष्ठपुत्र, एवं शनःशेष ऋषि का छोटा भाई था (ऐ. वा. ७.१५; सां. श्री. १५.२०.१)। शुनक-(सू. निमि.) एक राजा, जो भागवत के शुभ--धर्म एवं श्रद्धा के पुत्रों में से एक । अनुसार अनु राजा का, एवं विष्णु तथा वायु के अनुसार | २. रैवत मन्वन्तर का एक देवगण । सुनय राजा का पुत्र था (भा. ९.१३.२६) । इसके पुत्र ३. जालंधर दैय का सेनापति (पद्म. उ.४ )। का नाम वीतव्य था। शुभा-बृहस्पति की दो पत्नियों में से एक। २.(मो. काश्य.) एक राजा, जो भागवत एवं वायु २. अंगिरस् ऋषि की शिवा नामक पत्नी का नामांतर के अनुसार गृत्समद राजा का पुत्र, एवं शौनक राजा का | (म. व. २०८.१)। पिता था (भा. ९.१७.३)। शुभांगद--द्रौपदीस्वयंवर में उपस्थित एक क्षत्रिय महाभारत में इसे एक महर्षि कहा गया है, एवं इसके | (म. आ. १७७.२०)। पिता एवं माता का नाम क्रमशः रुरु, एवं प्रमहरा कहा | भांगी--कुरु राजा की पत्नी, जिसके पुत्र का नाम गया है (म. आ.८)। पुराणो में रुरु राजा का नाम विदूरथ था। गलती से छोड़ दिया गया है, जिस कारण इसे गृत्समद शुभानन--एक नाग, जो कश्यप एवं कद्र के पुत्रों में राजा का पुत्र कहा कया है। से एक था। आगे चल कर यह महर्पि बन गया, एवं इसके वंश | २. पितरों में से एक । के लोग अपने को क्षत्रियब्राह्मण कहने लगे। मुविख्यात | शुभ्र--वसुदेव एवं पौरवी के पुत्रों में एक । शौनक ऋषि इसका ही पुत्र था (म. अनु. ३०.६५)।। २. रैवत मन्वन्तर के अवतार का पिता । ९७९ Page #1002 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुभ प्राचीन चरित्रकोश शंभ-एक असुर, जो तारकासुर का सेनापति था। बताया गया है। पतंजलि के व्याकरण महाभाष्य में इन इसका वाहन मेंढक था। यह दुर्गा के द्वारा मारा गया लोगों का निर्देश आभीर लोगों के साथ प्राप्त है (महा. (मत्स्य. १५१.५)। १.२५२)। २. रामसेना का एक वानर । पौराणिक साहित्य में--महाभारत में इनका निर्देश ३. जालंधर दैत्य का प्रिय दैत्य । स्वर्ग जीतने के पश्चात् आभीर लोगों के साथ प्राप्त है, एवं इनका निवासस्थान जालंधर ने इसे अमरावती का राज्य प्रदान किया था पश्चिम राजपुताना प्रदेश में 'विनशन-तीर्थ' के समीप (पद्म. ३.८)। बताया गया है (म. श. ३७.१)। मार्कंडेय पुराण में शंभ-निशंभ--पाताललोक में रहनेवाले राक्षस- | इन्हें अपरान्त प्रदेश का निवासी बताया गया है, एवं द्वय । इनके आश्रितों में चंड-मुंड, रक्तबीज एवं धूम्र- | इनका निर्देश बाल्हीक, वातधान, आभीर, पल्लव लोगों के लोचन आदि प्रमुख थे। ब्रह्मा ने इन्हें वरप्रदान किया साथ प्राप्त है। था कि, सृष्टि के किसी भी पुरुष के लिए ये अवध्य युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ के समय, नकुल ने अपने रहेंगे। इस वर-प्रसाद के कारण ये अत्यंत उन्मत्त बन, पश्चिम दिग्विजय के समय इन्हें जीता था (म. स. ३२. एवं अपने गुरु भृगु की सलाह के अनुसार पाताललोक में | भारतीय यट में ये लोग औरतो पण शामिल राज्य करने लगे। इनके राज्य में शंभ राजा का, एवं निशुंभ थे एवं कर्ण के सेवादल में समाविष्ट थे (म. द्रो. ६.६अमात्य का काम करने लगे । अन्त में कालिका देवी दे १६)। इनका इनके परिवार के सभी राक्षसों के साथ वध किया शूद्रा--अत्रि ऋषि की दस पत्नियों में से एक, जो (दे. भा. ५.२१-३१; स्कंद. १.३.२-१७; मार्क. ८६)। भद्राश्व एवं घृताची की कन्या थी (ब्रह्मांड. ३.८.७५) शुल्ब--उदंक ऋषि का पिता। शुष्क-गोकर्ण क्षेत्र में रहनेवाला एक मुनि। भगीरथ | शून्यपाल ---एक ऋषि, जो हस्तिनापुर जानेघाले श्रीकृष्ण से मिला था। के द्वारा गंगा भूतल में लायी जाने पर, समुद्र का पानी बढ़ने लगा, एवं पृथ्वी पर स्थित सारे समुद्रवर्ती तीर्थक्षेत्र शून्यबन्धु--(सू. दिष्ट.) एक राजा, जो भागवत के डूबने लगे। उस समय अन्य सभी ऋषियों के साथ | अनुसार तृणबिन्दु राजा का पुत्र था । यह महेंद्र पर्वत पर रहनेवाले परशुराम से मिलने गया। शूर-(सो. यदु. सह.) एक राजा, जो विष्णु, मत्स्य इसने परशुराम से प्रार्थना कि, वह हाथ में शस्त्र धारण | एवं वायु के अनुसार हैहय राजा कार्तवीर्यार्जुन के पाँच कर समुद्र को हटाये, एवं इस प्रकार तीर्थक्षेत्रों का रक्षण | पुत्रों में से एक था (ब्रह्मांड. ३.४१.१३; मत्स्य. ४३. करे। इसकी प्रार्थना के अनुसार परशुराम ने गोकर्ण क्षेत्र | ४६)। परशुराम ने इसका वध किया। का पुनरुद्धार किया (ब्रह्मांड. ३.५७-५८)। २. (सो. द्रुह्यु.) एक राजा, जो मत्स्य के अनुसार शुष्क गार--एक आचार्य (कौ. उ. २.६; सां. द्रुह्य राजा का पुत्र था । .. श्री. १७.७.१३)। । ३. (सो. यदु. क्रोष्टु.) एक यादव राजा, जो वसुदेव का शकरेवती--एक देवी, जिसने अंधकासुर का वध | पिता एवं कृष्ण का पितामह था। भारत के अनुसार यह किया था (अंधक देखिये)। देवमीद राजा का, एवं विष्णु एवं मत्स्य के अनुसार देवशुष्ण--एक असुर, जिसका इंद्र ने कुत्स के संरक्षण | मीढुष राजा का पुत्र था। कई ग्रंथों में इसे चित्ररथ राजा के लिए वध किया था (ऋ. २. १९६)। का पुत्र कहा गया है। संभवतः 'चित्ररथ देवगीढ राजा शुष्मायण सोम-अट्ठाईस व्यासों में से एक। का ही नामान्तर था (म. अनु. १४७.२९-३२)। इसे शष्मिण--शिबियों के राजा अमित्रतपन का पैतृक | राजाधिदेव नामान्तर भी प्राप्त था। नाम। परिवार--आर्यक नाग की कन्या भोजा या मारिषा शद--एक जातिसमूह, जो सिंकदर के आक्रमण के इसकी पत्नी थी, जिससे इसे निम्नलिखित पुत्र उत्पन्न समय उत्तर भारत में निवास करती थी। युनानी साहित्य हुए थे:--१. वसुदेवः २. देवभाग; ३. देवश्रवस्; में इनका निर्देश 'सोद्राय' नाम से किया गया है, एवं मूषक ४. आनकः ५. मुंजय; ६. श्यामक; ७. कंक; ८. शमीक; लोगों के साथ आधुनिक सिंध प्रदेश में इनका निवासस्थान । ९. वत्सक १०. वृक। ९८० Page #1003 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन चरित्रकोश शूपणखा उपयुक्त पुत्रों के अतिरिक्त इसकी निम्नलिखित कन्याएँ | शूरसेन-(सू. इ.) एक इक्ष्वाकुवंशीय राजा, जो भी थी:-१. पृथा, जो इसने अपने मित्र कुंतिभोज राजा की | मत्स्य के अनुसार शत्रुघ्न राजा का पुत्र था। यह मथुरा में गोद में दी थी, एवं इसी कारण जो कुंती नाम से प्रसिद्ध | राज्य करता था, एवं इसी के ही कारण मधुवन में इसके हुई (म. आ. १०४.१-३; म. द्रो. ११९.६-७) २. | राज्य को 'शूरसेन देश' नाम प्राप्त हुआ था। श्रुतदेवा (श्रुतवेदा); ३. श्रुतश्रवा; ४. राजाधिदेवा (ह. | २. वर्णपुत्र वृषसेन का नामान्तर । वं. १.३४.१७-२३; म. आ. परि. १.४३.३; १०४.१; | ३. हैहय राजा शूर का नामान्तर । भा. ९.२४.२८-३१) ४. एक राजा, जो भारतीय युद्ध में कौरव पक्ष में __ अन्य पत्नियाँ-वायु में इसकी आश्मकी, भाषी एवं | शामिल था। भीष्म के द्वारा निर्माण किये गये कौंचव्यह माषी नामक अन्य तीन पत्नियों का निर्देश प्राप्त है। के ग्रीवाभाग में यह दुर्योधन के साथ खड़ा था ( म. भी. इनमें से भाषी, भोजा का ही नामांतर प्रतीत होता है।। ७१.१७) । अपनी इन पत्नियों से इसे निम्नलिखित पुत्र उत्पन्न हुए । ५. प्रतिष्ठानपुर का एक सोमवंशीय राजा । इसे थे:-१. आश्मकीपुत्रः देवमानुषः २. भाषीपुत्रः-वसुदेव, | कोई पुत्र न था, जिसकी प्राप्ति के लिए इसने अनेकादेवभाग, देवश्रवम् , अनादृष्टि, कड, नंदन भंजिन, श्याम, नेक उपाय किये। अंत में इसे पुत्र के रूप में एक सर्प प्राप्त शमीक. गंडुप, ३. मापीपुत्रः-देवमीढुष (वायु. ९६. हुआ । अपने पुत्र का सर्परूप गुप्त रखने के लिए, इसने १४३-१४८)। उसके उपनयन विवाह दि संस्कार किये। अंत में गौतमी४. (सो. पूरु.) एक पूरुवंशीय राजा, जो इलिन् एवं देवी की कृपा से इसके पुत्र को मनुष्यरूप प्राप्त हआ स्थतरी के पाँच पुत्रों में से एक था। इसके अन्य चार (ब्रह्म. १११)। भाइयों के नाम दुष्यन्त, भीम, प्रवसु एवं वसु थे (म. ६. मध्यदेश के सहस्र ग्राम का राजा, जिसकी कथा आ. ८९.१४-१५)। 'चतुर्थी माहात्म्य' कथन करने के लिए गणेश पुराण में दी | गयी है (गणेश. १.५६)। . ५. सौवीर देश का एक राजकुमार, जो जयद्रथ राजा का साथी था । जयद्रथ के द्वारा किये गये द्रौपदी-हरण ७. पाण्डवों के पक्ष का एक पांचालदेशीय योद्धा । कर्ण के समय अर्जुन ने इसका वध किया (म. व. २५५.२७)। | ने इसका वध किया (म. क. ३२.३७)। ६. एक प्राचीन नरेश (म. आ. १.१७२)। शूरसेनी-पूरुवंशीय प्रवीर मनस्यु राजा की पत्नी । - ७.(सो. यदु. वसु.) वसुदेव एवं मदिरा के पुत्रों में | इसे श्येनी नामान्तर भी प्राप्त था। पाठभेद-' सौवीरी' से एक। । (म. आ. ८९.६)। शूर्पणखा अथवा शूर्पनखी-एक राक्षसी, जो '.. ८. (सो. यदु. वसु.) कृष्ण एवं भद्रा के पुत्रों में से एक । विश्रवसू एवं कैकसी की कन्या, तथा रावण, विभीषण एवं ९. मगधदेश का एक राजा, जो दशरथ की पत्नी कुंभकर्ण की बहन थी। खर एवं दूषण राक्षस इसके मौसेरे सुमित्रा का पिता था । दशरथ के द्वारा किये गये पुत्र भाई थे। महाभारत में इसकी माता का नाम राका बताया कामेष्टि यज्ञ का निमंत्रण इसे भेजा गया गया था (वा. गया है, एवं खर एवं दूषण इसके सगे भाई बताये गये हैं रा. बा. १३.२६)। (म. व. २५९.१४)। शरतर-एक राजा, जिसने पटच्चर राक्षस का वध ___कालकेय राक्षसों का अधिपति विद्यज्जिह्व राक्षस से किया था। भारतीय युद्ध में यह कौरवों के पक्ष में शामिल | इसका विवाह हुआ था। आगे चल कर इसका पति रावण था, एवं इसके रथ के अश्व हरे रंग के थे (म. द्रो. २२. के हाथों अश्मनगरी में गलती से मारा गया। इस कारण यह लंका नगरी में रहने लगी। कालोपरांत यह अपने मौसेरे शूरभू अथवा शूरभूमि-कंस की कन्याओं में से एक।। भाई खर के साथ दण्डकारण्य में रहने लगी. (वा. रा. २. उग्रसेन राजा की कन्या, जो वसुदेवभ्राता | उ. २३-२४)। श्यामक की पत्नी थी। दण्डकारण्य में--वनवास के समय राम के दण्डकारण्य शरवीर माण्डूक्य-एक आचार्य (ऐ. आ. ३.१. में आने पर यह उस पर मोहित हुई। किन्तु एकपत्नीव्रती ३-४; सां आ. ७.२.८.९-१०)। पाटभेद-'शौरवीर'। राम ने इसकी प्रणयाराधना की मज़ाक उड़ायी, एवं इसकी Page #1004 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शूर्पणखा प्राचीन चरित्रकोश फजिहत करने के हेतु इसे लक्ष्मण से विवाह करने के शृंग-एक शिवपापट, जो वेताल एवं कामधेनु का लिए कहा। पुत्र था। इसकी शिवभक्ति से प्रसन्न होकर शिव ने इसे लक्ष्मण ने इसकी और भी मजाक उड़ायी, जिस कारण | अपना पार्षद बनाया। ऋद्ध हो कर यह सीता को मारने के लिए दौड़ी। उसी क्षण | यह सृष्टि के समस्त गो-संतति का पिता माना जाता लक्ष्मण ने इसके नाक एवं कान काट कर इसे विरूप है, जो इसे वरुण के घर में रहनेवाली सुरभि-कन्याओं बनाया। से उत्पन्न हुई थी। राम एवं लक्ष्मण की शिकायत ले कर यह अपने भाई । २. ऋश्यशृंग ऋषि का नामान्तर । खर के पास दौड़ी। अपने बहन के अपमान का बदला | शृंगवत्--गालव ऋषि की पुत्र, जिसने एक रात्रि के लेने के लिए, खर ने राम पर आक्रमण किया, जिसमें खर | लिए वृद्धकन्या नामक तपस्विनी को अपनी पत्नी बनाया स्वयं मारा गया (वा. रा. अर. १७-१९; खर १. | था (म. श. ५१.१४; वृद्धकन्या देखिये)। वृद्धकन्या देखिये)। के चले जाने पर उसकी स्मृति से यह अत्यंत दुःखी रावण की राजसभा में-पश्चात् , यह पुनः एक बार हुआ, एवं देहत्याग कर स्वर्गलोक चला गया। लंका में गयी, एवं इसने रामलक्ष्मण के द्वारा दण्डकारण्य शंगवृष-कुंडयिन् ऋषि के कुल में उत्पन्न एक में किये गये सारे अत्याचारों की कहानी रावण से बतायी ऋषिक । इसके उदर से इंद्र ने जन्म लिया था (ऋ. ८.. (वा. रा. अर. ३३-३४; म. व. २६१.४५-५१)। उसी | १७.१३)। लुडविग के अनुसार, यह पृटाकुसानु नामई . समय इसने सीता के सौंदर्य की प्रशंसा रावण को सुनायी, ऋषि का पिता था (लुडविग, ऋग्वेद अनुवाद ३. एवं राम से बदला लेने के लिए सीताहरण की मंत्रणा | १६१)। उसे दी। शृंगवेग--कौरवकुलोत्पन्न एक नाग, जो जनमेज्य - रावण के द्वारा सीत हरण किये जाने पर, इसने उसे के सर्पसत्र में दग्य हुआ था (म. आ.५७. १३)। . रावण की श्रेष्ठता बता कर उसका वरण करने के लिए शंगिन्-एक ऋषि, जो अंगिरस कुलोत्पन्न शमीक बार-बार आग्रह किया था (वा. रा. सु. २४; ४३)। ऋषि का पुत्र था। इसे गवि जात नामान्तर भी प्राप्त था: शलिन--एक शिवावतार, जो वैवस्वत मन्वन्तर के (दे. भा. २.८; मत्स्य.. १४५.९५-९९)। यह महान् चौबीसवें युगचक्र में उत्पन्न हुआ था। यह अवतार तपस्वी, एवं अत्यंत क्रोधी था। कलियुग में नैमिषारण्य में अवतीर्ण हुआ था। इसके एक बार यह अपने गुरु की सेवा करके घर वापस निम्नलिखित चार शिष्य थे:--१. शालिहोत्र; २. आ रहा था, जब कृश नामक इसके मित्र ने परिक्षित अग्निवेश; ३. युवनाश्व; ४. शरद्वसु । राजा के द्वारा की गयी इसके पिता की विटंबना की शुष वार्ष्णेय --एक आचार्य, जिसे आदित्य ने दुर्वार्ता इससे कह सुनायी। इससे क्रोधित होकर इसने 'सवित्राग्नि' का उपदेश दिया था (ते. वा. ३.१०; परिक्षित् राजा को तक्षकवंश से मृत होने का शाप दिया। बाद में इसके पिता ने इसे काफी समझाया, किन्तु शूष वा य भारद्वाज--एक आचार्य, जो अराल इसने अपना शाप वापस नहीं लिया (म. आ. ३६.२१दातेय शौनक नामक आचार्य का शिष्य था (वं. ब्रा. २)। २५, ४६.२ परिक्षित् १. देखिये)। शृगाल--स्त्रीराज्य का अधिपति, जो कलिंगराज शंगीपुत्र-एक आचार्य, जो वायु के अनुसार व्यास चित्रांगद की कन्या के स्वयंवर में उपस्थित था (म. शां. की सामशिष्यपरंपरा में कुथुमि नामक आचार्य का ४.७; पाट-सृगाल)। शिष्य था। शृगाल वासुदेव-करवीरपुर का एक राजा, जो शेणिन--अंगिरस् कुलोत्पन्न एक मंत्रकार। कृष्ण से अत्यधिक द्वेष करता था। इसकी पत्नी का शेरभ एवं शेरभक--अथर्ववेद में निर्दिष्ट एक सपद्वय नाम पद्मावती, एवं पुत्र का नाम शक्रदेव था । परशुराम अथवा राक्षसद्वय (अ. वे. २.२४.१)। की आज्ञा से कृष्ण ने इसका वध किया, एवं करवीरपुर शेष--एक आचार्य, जो यजुर्वेदीय वेदांगज्योतिष का की राजगद्दी पर इसके पुत्र शक्रदेव को बिठाया (ह. वं. कर्ता माना जाता है। इसके द्वाग विरचित 'यजुर्वेदीय- . २. ४४)। | वेदांगज्योतिष' में कुल ४३ श्लोक हैं, जिनमें से ३० ९८२ Page #1005 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शेष . प्राचीन चरित्रकोश दा सन) श्लोक लगध के द्वारा विरचित 'ऋग्वेदीय वेदांगज्योतिष' से शैव्य--अमित्रतपन शुष्मिण नामक राजा की उपाधि • लिये गये हैं, एवं १३ इसके अपने थे। इसके ग्रंथ पर (ऐ. बा. ८.२३.१०)। शिबि जाति में उत्पन्न, इस अर्थ सोमक की टीका उपलब्ध है (लगध देखिये)। से संभवतः यह आधि उसे प्राप्त हुई होगी। २. एक प्रमुख नाग, जो नागराज अनंत का अवतार । २. सत्यकाम नामक आचार्य का पैतृक नाम (प्र.उ. माना जाता है। यह भगवान् नारायण का अंशावतार माना जाता है, एवं उसके लिए शय्यारूप हो कर उसे ३. एक राजा, जो संजय राजा का पिता था (म. द्रो. धारण करता है। परि. १.८.२७४ पाठ)। भागवत में इसे कश्यप एवं कद का पुत्र कहा गया है, ४. शिबि देश का एक राजा, जो युधिष्ठिर का श्वशुर एवं इसका निवासस्थान पाताल लोक बताया गया है। | था। इसका सही नाम गोवासन था। महाभारत में इसे इसके सहस्र शीर्ष थे, एवं यह गले में शुभ्रवर्णीय रत्नमाला उशीनर राजा का पात्र कहा गया है। यह एवं काशिराज परिधान करता था (भा. १०.३.४९)। यह हाथ में युधिष्ठिर के सब से बड़े हितचिंतक थे। उपप्लव्य नगरी में हल एवं कोयती धारण करता था। गंगा ने इसकी संपन्न हुए अभिमन्यु के विवाह के समय, यह अपनी एक उपासना की थी, जिसे इसने ज्योतिषशास्त्र एवं खगोल | अक्षौहिणी सेना के साथ उपस्थित हुआ था। शास्त्र का ज्ञान प्रदान किया था (विष्णु. २.५.१३-२७)। भारतीय युद्ध में यह पाण्डव-पक्ष के प्रमुख धनधरों में अन्य नागों की तरह इसे भी कामरूपधरत्व की विद्या से एक था। इसके रथ के अश्व नीलकमल के समान अवगत थी। इसी कारण इसके अनेकविध अवतार रंगवाले एवं सुवर्णमय आभूषणों से युक्त थे । धृष्टद्यम्न के (कला) उत्पन्न हुए थे। इसकी एक कला क्षीरसागर में द्वारा निर्माण किये गये क्रौंचव्यूह की रक्षा का भार इस पर थी, जिस पर विष्णु शयन करते है । बालकृष्ण को वसुदेव | सौंपा गया था, जो इसने तीस हजार रथियों को साथ ले जब गोकुल ले जा रहे थे, उस समय अपनी फणा फैला | कर उत्कृष्ट प्रकार से सम्हाला था (म. भी. ४६.३९:५४)। 'कर इसने उसकी रक्षा की थी। ५. एक यादव राजा, जो युधिष्ठिर की सभा में उपस्थित .. अपने सर पर यह समस्त पृथ्वी को धारण करता है. था (म. स. ४.५३)। यह अर्जुन का शिष्य था. जिससे जो सिद्धि इसे ब्रह्मा के आशीर्वाद के कारण प्राप्त हुई थी | इसने धनुर्वेद की शिक्षा प्राप्त की थी। (म. आ. ३२.५-१९)। ६. एक क्षत्रिय राजा, जिसे कृष्ण ने पराजित किया था शेषसेवाक-रौपसेवकि नामक कश्यपकुलोत्पन्न | (म. व. १३.२७)। गोत्रकार का नामान्तर । ७. एक कौरवपक्षीय राजा, जो भीष्म के द्वारा निर्माण '. शैखावत्य--एक ऋषि, जो शास्त्र एवं आरण्यक आदि किये गये 'सर्वतोभद्र' नामक व्यूह के प्रवेशद्वार पर खड़ा ग्रंथों का महान् आचार्य था । भीष्म एवं शाल्व के द्वारा हुआ था (म. भी. ९५.२७)। अपमानित हुई अंबा इसके आश्रम में आ कर रही थी, ८. शिबि देश के वृषादर्भि राजा का पैतृक नाम, जो उसे एवं वहीं उसने भीष्मवध के लिए कठोर तपस्या की थी | शिबि राजा का पुत्र होने के कारण प्राप्त हुआ था (म. (म. उ. १७३.११-१८)। | अनु. ९३.२०-२९; वृषादर्भि देखिये)। २. एक राजा, जो भारतीय युद्ध में पाण्डव पक्ष में | ९. शिबि नरेश सुरथ राजा का नामान्तर (म.व.२५०. शामिल था। इसे शैब्य चित्ररथ नामान्तर भी प्राप्त था।| ४; सुरथ शैब्य देखिये)। इसके रथ के अश्व नीलोत्पल वर्ण के थे, एवं वे सुवर्णालंकार १०. (सो. पूरू.) एक पूरुवंशीय राजा, जो मत्स्य तथा अनेक प्रकार की मालाओं से विभूषित किये गये थे। के अनुसार शिबि राजा का पुत्र था। शैत्यायन--एक वैयाकरण, जिसके द्वारा विरचित | ११. सुवीर देश का एक राजा, जो भारतीय-युद्ध में संधिनियमों का निर्देश तैत्तिरीय प्रातिशाख्य में प्राप्त है | पाण्डवपक्ष में शामिल था (भा. १०.७८)। जरासंध (ते. प्रा. ५.४०)। के द्वारा गोमंत पर आक्रमण किये जाने पर, उस नगरी के शैनेय--सुविख्यात यादवराजा सात्यकि युयुधान का पश्चिम द्वार की रक्षा का कार्य इस पर सौंपा गया था (भा. पैतृक नाम । शिनि राजा का पुत्र होने के कारण, उसे यह | १०.५२.११)। इसकी कन्या का नाम रत्ना था, पैतृकनाम प्राप्त हुआ था (म. मी. ४.३२ सात्यकि देखिये) | जिसका विवाह अक्रूर से हुआ था (मत्स्य. ४५.२८)। ९८३ Page #1006 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शैव्या प्राचीन चरित्रकोश शोण शैव्या-शाल्वदेश के गुमत्सेन राजा की पत्नी, जो | हुआ था (बृ. उ. ४.१.५ माध्यः ४.१.२ काण्व.)। कई सावित्रीपति सत्यवत् ( सत्यवान् ) राजा की माता थी अभ्यासकों के अनुसार 'शैलन' इसीका ही पाठभेद है (म. व. २८२.२)। (शैलन देखिये)। २. पूरुवंशीय प्रतीपराजा की पत्नी सुनंदा का नामान्तर । शैलूष--एक व्यक्तिनाम, जिसका निर्देश यजुर्वेद में (म. आ. ९०.४६)। | दिये गये बलिप्राणियों की तालिका में प्राप्त है ( वा. सं. ३. इक्ष्वाकुवंशीय सगर राजा की पत्नी सुमति का ३०.६; तै. ब्रा. ३.४.२.१)। शैलूप का शब्दशः अर्थ नामान्तर, जो असमंजस् राजा की माता थी। | 'अभिनेता' अथवा 'नर्तक' है । सायण के अनुसार, इस ४. कृष्णपत्नी मित्रविंदा का नामान्तर (म. मौ. शब्द का अर्थ 'अपनी पत्नी की वेश्यावृत्ति पर उपजीविका ८.७१)। चलानेवाला' किया गया है। ५. हरिश्चंद्रपत्नी तारामती का नामान्तर । २. विभीपणपत्नी सरमा का पिता, जो अल्पभ पर्वत ६. ज्यामघ राजा की पत्नी चैत्रा का नामान्तर, जो पर निवास करता था। विदर्भ राजा की माता थी। शैलूषि--कुल्मलबर्हिष नामक वैदिक सुक्तद्रष्टा का ७. शतधन्वन् नामक विष्णुभक्त राजा की पत्नी पैतृक नाम (ऋ. १०.१२६)। ( शतधन्वन् ३. देखिये)। शैवलय--शैलालेय नामक वसिष्ठकुलोत्पन्न गोत्रकार शैरालय--शैलालय नामक वसिष्ठकुलोत्पन्न गोत्रकार | का नामान्तर। का नामान्तर । शैशिर--अंगिराकुलोत्पन्न एक गोत्रकार । शैरीषि--सुवेदस् नामक वैदिक सूक्तद्रष्टा का पैतृकनाम। शैशिरिन्--एक आचार्य, जो वायु के अनुसार शैलन--एक आचार्यसमूह (जै. उ. ब्रा. १.२.३, व्यास की यजुः शिष्यारंपरा में से याज्ञवल्क्य का वाजस- . २.४.६ ) । इस समुदाय में निम्नलिखित आचार्य प्रमुख | नेय शिष्य था। थे:---१. पाणं (जै. उ. बा. २.४.८); २. सुचित्त | शैशिरायण गार्य--एक ऋपि, जिसे गोपाली नामक (जै. उ. बा. १.१४.४ )। स्त्री से कालयवन नामक असुर पुत्र उत्पन्न हुआ था (कालशैलालय-वसिष्ठकुलोत्पन्न एक गोत्रकार । पाठ- यवन देखिये )। यह त्रिगर्तराजा का पुरोहित था. जिसने 'शैरालय; 'शैवलेय'। इसके पुरुषत्व की परीक्षा लेने के लिए अपनी पत्नी वृक२. एक राजा, जो भगदत्त राजा का पितामह था। | देवी के साथ संभोग करने की आज्ञा दी थी (ह. बं. कुरुक्षेत्र के तपोवन में तपस्या कर के, यह इंद्रलोक चला | १.३५.१२)। गया (म. आश्व. २६.१०)। शशिरय--एक आचार्य, जो वायु एवं ब्रह्मांड के शैलालि-एक सांस्कारिक आचार्य, जो 'शैलालि | अनुसार व्यास की ऋशिष्यपरंपरा में से देव मित्र शाकल्य ब्राह्मण' नामक ब्राह्मण ग्रंथ का रचयिता माना जाता है। का शिष्य था। यह शाकल्यशाखा का प्रमुख आचार्य था, यद्यपि यह ब्राह्मण ग्रंथ आज अप्राप्य है, फिर भी उस | एवं इसीके द्वारा प्रणीत शैशिरीय-संहिता शाकल शाखा ग्रंथ के उद्धरण सूत्रग्रंथों में पाये जाते हैं (आ.श्री. ६.४. | की प्रमाणभूत संहिता मानी जाती है (शाकल एवं शाकल्य ७; अनुपद. ४.५)। शिलालिन् का वंशज होने के कारण, | देखिये )। शाकल्य का शिष्य होने के कारण इसके द्वारा इसे यह नाम प्राप्त हुआ होगा। प्रणीत संहिता 'शाकल संहिता' नाम से प्रसिद्ध है। शतपथ ब्राह्मण में इसका निर्देश प्राप्त है, जहाँ आहुति | शौनक के द्वारा विरचित 'अनुवाकानुक्रमणी' भी इसीदेने का क्रम किस प्रकार होना चाहिये इस संबंध में इसके | के संहिता को आधार मान कर लिखी जा चुकी है मत उद्धृत किये गये है (श. ब्रा. १३.५.३.३)। (अनुवाकानुक्रमणी ७:३०)। व्याडिकृत 'विकृतिवल्ली' पाणिनि के अष्टाध्यायी में इसे 'नटसूत्रकार' कहा गया है में भी अष्टविकृतियों के कथन के लिए शैशिरीय-संहिता एवं इसके सांप्रदाय का निर्देश 'नटवर्ग' नाम से किया गया | को आधार माना गया है। है (पा. सू. ४.३.११०)। शैशिरोदहि--कश्यपकुलोत्पन्न एक गोत्रकार। . शैलिन अथवा शैलिनि--जित्वन नामक आचार्य | शोकपाणि--ऋग्वेदी श्रुतर्षि । का पैतृक नाम, जो उसे शिलिन का वंशज होने से प्राप्त । शोण-अत्रिकुलोत्पन्न एक गोत्रकार। ९८४ Page #1007 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शोन प्राचीन चरित्रकोश शौनक २. एक व्यक्ति, जिसकी कथा पद्म में 'सोमवारवत' शौण--अत्रिकुलोत्पन्न एक गोत्रकार। का माहात्म्य कथन करने के लिए दी गई है। शौनक--एक शाखाप्रवर्तक आचार्य, जो विष्णु, शोण सात्रासह-एक पांचाल राजा, जो कोक राजा | वायु एवं ब्रह्मांड के अनुसार, व्यास की अथर्वन् शिष्यका पिता था। इसके के द्वारा किये अश्वमेध यज्ञ में तुवंश परंपरा में से पथ्य नामक आचार्य का शिष्य था (व्यास लोग भी उपस्थित थे (श. ब्रा. १३.५.४.१६-१८)। | एवं पाणिनि देखिये)। इसे भृगुकुल का मंत्रकार भी शोणाश्व-(सो. विदु.) एक राजा, जो राजाधिदेव | कहा गया है। राजा का पुत्र था (मत्स्य. ४४.७८)। । २. एक पैतृकनाम, जो निम्नलिखित आचायों के लिए शोणित--(सो. क्रोष्ट.) एक यादवराजा, जो वायु के प्रयुक्त किया गया है:-१. अतिधन्वन् (छां. उ. १. अनुसार शूर राजा का पुत्र (ब्रह्मांड. ३.७१.१३८)। ९.३); २. इंद्रोत देवा पि ( श. ब्रा. १३.५ ३.५.१); शोणिताक्ष--रावणपक्ष का एक राक्षस (वा. रा. | ३. स्वैदायन (श. ब्रा. ११.४.१.२); ४. दृति ऐंद्रोत सुं.६.२६)। | (वं. बा. २)। शोणितोद--कुवेरसभा का एक यक्ष (म. स. १०. ३. एक आचार्य, जो रौहिणायन नामक आचार्य का १७)। | गुरु था (बृ. उ. २.५.२०, ४.५.२६ माध्य.)। शोभन--मुचुकुंद राजा का दामात, जिसकी कथा 'रमा- शौनक कापेय-एक राजा, जो अभिप्रतारिन् एकादशी' का माहात्म्य कथन करने के लिए बतायी गयी | काक्षसे नि राजा का समकालीन था। इसके पुरोहित का है ( पद्म. उ.६०)। नाम शौनक ही था (छा. उ. १.९.३; जै. उ. ब्रा. ३. शोभना--स्कंद की अनुचरी मातृका (म. श.४५)।। १.२१)। शौकतव,शौकत,शोकवत-अत्रिकुलोत्पन्न गोत्रकार। शौनक गृत्समद--(सो. काश्य.) एक सविख्यात शौग--एक ऋषि, जो अंगिरस्कुलोत्पन्न शुंग ऋषि | आचार्य, जो ' ऋग्वेद-अनुक्रमणी,' ' आरण्यक, ' का पुत्र था। आगे चल कर विश्वामित्रकुलोत्पन्न शैशिर | 'ऋक्प्रातिशाख्य ' आदि ग्रंथों का कर्ता माना जाता है । ऋषि ने इसे अपना पुत्र मान लिया। इसी कारण यह | महाभारत में इसे 'योगशास्त्रज्ञ' एवं 'सांख्यशास्त्रद्विगोत्रीय (द्वयामुष्यायण) बन गया। निपुण' कहा गया है। २. अंगिराकुलोत्पन्न एक गोत्रकार । आश्वलायन नामक सुविख्यात आचार्य का गुरु भी • शौगायनि--मद्रगार नामक आचार्य का पैतृक नाम, यही था, एवं कात्यायन, पतंजलि, व्यास, आदि आचार्य जो उसे शौंग का बंशज होने से प्राप्त हुआ होगा ( व. बा. | इसके ही परंपरा में उत्पन्न हुए थे। इसका अपना नाम गृत्समद था, एवं शौनक इसका पैतृक नाम था, जो इसे 'शॉगीपुत्र--एक आचार्य, जो सांकृतिपुत्र नामक शुनक राजा का पुत्र होने के कारण प्राप्त हुआ था। आचार्य का शिष्य, एवं आर्तभागीपुत्र नामक आचार्य का जन्मवृत्त--पड्ग रुशिष्य के द्वारा विरचित 'कात्यायन गुरु था (श. बा. १४.९.४.३०)। सर्वानुक्रमणी' के भाष्य में इसका जन्मवृत्त सविस्तृत रूप में शौच--आतेय नामक आचार्य का पैतृक नाम दिया गया है । शुनहोत्र भारद्वाज ऋषि के पुत्र शौनहोत्र (ते. आ. २.१२)। गृत्समद के द्वारा एक यज्ञ किया गया, उस समय स्वयं शौचद्रथ-सुनीथ नामक आचार्य का पैतृक नाम इन्द्र उपस्थित था । इस यज्ञ के समय असुरों के आक्रमण (ऋ. ५.७९.२ )। शुचद्रथ का पुत्र होने के कारण, उसे से शौनहोत्र ने इन्द्र का रक्षण किया। इस कारण इन्द्र ने यह पैतृक नाम प्राप्त हुआ होगा। प्रसन्न हो कर, शौनहोत्र को आशीर्वाद दिया 'अगले जन्म शौचय सार्वसेनि--एक आचार्य, जिसने पंचरात्र में, तुम भृगुकुल में 'शौनक भार्गव' नाम से पुनः यज्ञ कर के अनेकानेक पशु प्राप्त किये थे (ते. सं. ७.१. जन्म लोंगे'। १०२)। पौराणिक साहित्य में--इन ग्रंथों में, इसे गृत्समदपुत्र शौचिवृक्ष-एक आचार्य (ला. श्री. ६.९.१४)। शुनक का पुत्र कहा गया है, एवं इसे 'क्षत्रोपेत द्विज,' शौचेय प्राचीनयोग्य-एक आचार्य, जो शुचि एवं ! 'मंत्रकृत् , ' 'मध्यमाध्वर्यु,' एवं 'कुलपति' कहा गया प्राचीनयोग का वंशज था (श. बा. ११.५.३.१; ८)। है (वायु ९३.२४)। प्रा. च. १२४] ९८५ Page #1008 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शौनक प्राचीन चरित्रकोश शौनक वायु में इसका भृगुवंशीय वंशक्रम निम्नप्रकार दिया | ३. नैमिषारण्य सहस्रवार्षिक सत्र (भा. १.१.४; पद्म. गया है:-रूरु (प्रमद्वरा)-शुनक-शौनक-उग्रश्रवस् । आदि..१.६ )। इसी ग्रंथ में अन्यत्र इसे नहुषवंशीय कहा गया है; एवं इसके द्वारा आयोजित द्वादशवर्णीय सत्र में रोमहर्षण इसका वंशक्रम निम्न प्रकार दिया गया है:- धर्मवृद्ध- सून ने महाभारत का कथन किया था (म. आ. १.१)। सुतहोत्र-गृत्समद-शुनक-शौनक (वायु. ९२.२६)। इसके द्वारा प्रार्थना किये जाने पर, नैमिपारण्य के सहस्र 'ऋष्यानुक्रमणी' के अनुसार, यह शुनहोत्र ऋषि का | वर्षीय सत्र में रोमहर्षणि सूत ने प्रायोपवेशन करनेवाले पुत्र था, एवं शुनक के इसे अपना पुत्र मानने के कारण, | परिक्षित् राजा को शुक के भागवत पुराण का कथन किया इसे 'शौनक' पैतृक नाम प्राप्त हुआ। यह पहले अंगिरस्- | (भा. १.४.१) । यह पुराण परिक्षित् शुकसंवादात्मक है, गोत्रीय था, किन्तु बाद में भृगु-गोत्रीय बन गया। एवं उसमें कृष्ण का जीवनचरित्र अत्यंत प्रासादिक शैली महाभारत के अनुसार, दशसहस्र विद्यार्थियों के भोजन | से वर्णन किया गया है। एवं निवास की व्यवस्था कर, उन्हें विद्यादान करनेवाले प्रमुख ग्रंथ--इसके नाम पर निम्नलिखित ग्रंथ उपलब्ध गुरूकुलप्रमुख को 'कुलपति' उपाधि दी जाती थी (म.. है :-१. प्रातिशाख्य; २. ऋग्वेद छंदानुक्रमणी; आ. १.१; ह. वं. १.१.४ नीलकंठ)। ३. ऋग्वेद ऋष्यानुक्रमणी; ४, ऋग्वेद अनुवाकानुक्रमणी; भागवत में इसे चातुर्वर्ण्य का प्रवर्तक, एवं 'बढ्च ५. ऋग्वेद सूक्तानुक्रमणी; ६. ऋग्वेद कथानुक्रमणी; प्रवर' कहा गया है (भा. १.४.१; ९.१७३, विष्णु. ४. | ७. ऋग्वेद पाइविधान; ८. बृहदेवता; १. दशौनक-स्मृति ८.१) । वायु में इसमे ही चारों वर्गों की उत्पत्ति होने का | १०. चरणम्यूहः ११. ऋविधान। निर्देश प्राप्त है (वायु. ९२.३-४; ब्रह्म. ११.३४, ह. वं. शौनक के उपर्युक्त ग्रंथों में इसके द्वारा बतायी गयी १.२९.६-७)। ऋग्वेद की विभिन्न अनुक्रमणियाँ प्रमुख हैं । पद्गुरुशिष्य ने कात्यायन सर्वानुक्रमणी के भाष्य में, शौनक के द्वारा कर्तृत्त्व--इसने ऋग्वेद के द्वितीय मंडल की पुनर्रचना विरचित अनुक्रमणियों की संख्या कुल दस बतायी। की, एवं इस मंडल में से 'स जनास इंद्रः' नामक बारहवें है, किंतु उनमें से केवल चार ही अनुक्रमणियाँ आज सूक्त का प्रणयन किया। उपलब्ध हैं। . इसने ऋक्संहिता के बाष्कल एवं शाकल शाखाओं का , अन्य ग्रंथ--उपर्युक्त ग्रंथों के अतिरिक्त, इसके नाम एकत्रीकरण कर, उन दोनों के सहयोग से शाकल अथवा पर शौनक-गृह्यसूत्र. शौनक-गृद्यपरिशिष्ट आदि अन्य शैशिरेय शाखांतर्गत ऋमंहिता का निर्माण किया। छोटे छोटे ग्रंथ हैं (C.C.)। मस्य के अनुसार इसने शौनक के द्वारा निर्मित नये ऋक्संहिता की सूक्तों की एक वास्तुशास्त्रमंबंधी ग्रंथ की भी रचना की थी (मत्स्य. संख्या १०१७ बतायी गयी है। २५२.३)। ऋग्वेद की अनुक्रमगी-ऋग्वेद की उपलब्ध अनु- सायणभाष्य से प्रतीत होता है कि, 'ऐतरेय आरण्यक क्रमणियों में से शौनक की अनुक्रमणी प्राचीनतम मानी का पाँचवाँ आरण्यक इसके ही द्वारा निर्माण किया गया जाती है, जो कात्यायन के द्वारा विरचित ऋग्वेद सर्वा- था (ऐ. आ. १.४.१)। नुक्रमणी से काफी पूर्वकालीन प्रतीत होती है। शौनक के व्याकरणशास्त्रकार--शैनक के द्वारा विरचित 'ऋक्यातिअनुक्रमणी में ऋग्वेद का विभाजन, मंडल, अनुवाक एवं शाख्य' उपलब्ध प्रातिशाख्य ग्रंथों में प्राचीनतम माना सूक्तों में किया गया है, जो अष्टक, अध्याय, वर्ग आदि जाता है। शौनक के इस ग्रंथ में शाकल शाखान्तर्गत में विभाजन करनेवाले कात्यायन से निश्चित ही प्राचीन विभिन्न पूर्वाचार्यों के अभिमत उद्धृत किये गये हैं। प्रतीत होता है। वैदिक ऋचाओं का उच्चारण, एवं विभिन्न शाखाओं में गहपति शौनक--पौराणिक साहित्य में शौनक ऋषि के प्रचलित उच्चारणपद्धति की जानकारी भी शानक के इस द्वारा आयोजित किये गये यज्ञों ( सत्रों) का निर्देश प्राप्त | ग्रंथ में दी गयी है। है, जिनमें निम्नलिखित प्रमुख थे:-१. नैमिषारण्य शौनक के प्रातिशाख्य में व्याकरणकार व्याडि का द्वादशवर्षीय मत्र (म. आ. १.१.१, ब्रह्म. १.११); निर्देश पुनः पुनः आता है, जिससे प्रतीत होता है कि, २. नैमिषारण्य दीर्घसत्र (मत्स्य १.४; अग्नि. १.२); व्याड़ि इसीका ही शिष्य था (ऋ. प्रा. २०९; २१४) ९८६ Page #1009 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शौनक प्राचीन चरित्रकोश श्याम व्याडि ने अपने — विकृतवल्ली' नामक ग्रंथ के प्रारंभ में शौनक स्वेदायन--एक यज्ञशास्त्रनिपुण आचार्य शौनक को गुरु कह कर इसका वंदन किया है (व्याडि | (श. बा. ११.४.१.२-३; गो. वा. १.३.६ )। देखिये)। 'शुकृयजुर्वेद प्रातिशाख्य' में संधिनियमों के | शौनकायन जीवन्ति--भृगकुलोत्पन्न एक गोत्रकार । संबंध में मतभेद व्यक्त करते समय, इसके मतों का शौनाकन्--एक आचार्य, जिसके यज्ञकुण्ड के परिमाण उद्धरण प्राप्त है ( शु. प्रा. ४. १२०)। शब्दों के अंत के संबंधित मतों का उल्लेख कौषीतकि ब्राह्मण में प्राप्त है में कौन से वर्ण आते है, इस संबंध में इसके उद्धरण | (को. बा. ८५.८)। 'अथर्ववेद प्रातिशाख्य ' में प्राप्त हैं (अ. प्रा. १.८)। शौनकीपुत्र--एक आचार्य, जो काश्यपी बालाक्या शिक्षाकार शौनक-- शौनकीय शिक्षा में दिये गये | माटरीपुत्र नामक आचार्य का शिष्य था। इसके शिष्य का एक सूत्र का उद्धरण पाणिनि के अष्टाध्यायी में प्राप्त है | नाम पैगीपुत्र था (श. वा. १४.९.४.३१-३२)। (पा. स. ४.३.१०६ )। इसी शौनकीय शिक्षा में ऋग्वेद | शौनहोत्र--गृत्समद आंगिरस ऋषि का पैतृक नाम के शाखाप्रवर्तक शौनक को 'कल्पकार' कहा गया है, | (गृत्समद १. देखिये)। जिससे प्रतीत होता है कि, 'शाखा' का नामांतर 'कल्प' शौरिद्य-एक आचार्य, जो वायु के अनुसार व्यास था। गंगाधर भट्टाचार्य विरचित 'विकृति कौमुदी' नामक | की सामशिष्यपरंपरा में कथभि नामक आचार्य का ग्रंथ में इन दोनों की समानता सष्ट रूप से वर्णित है शिष्य था। ( शाकलाः शौनकाः सर्वे कल्यं शाखा प्रचक्षते )। शौरि-कृष्ण पिता वसुदेव का नामांतर (म. द्रो. तत्वज्ञानी शौनक-जनमेजय पारिक्षित राजा के पुत्र | ११९.७)। शतानीक को इसने तत्त्वज्ञान की शिक्षा प्रदान की थी शौल्कायनि अथवा शौक्वायनि-एक आचार्य, जो . (विष्णु. ४.२१.२)। महाभारत में इसका निर्देश . असित, देवल, मार्कडेय, गालव, भरद्वाज, वसिष्ठ, | व्यास की अथर्वशिष्यपरंपरा में देवदर्श नामक । आचार्य का शिष्य था। उद्दालक, व्यास आदि ऋषियों के साथ अत्यंत गौरवपूर्ण शब्दों में किया गया है (म. व. ८३. १०२-१०४)। शौल्बायन अथवा शौल्ल्यायन-उदक नामक द्वैतवन में जिन ऋषियों ने धर्म का स्वागत किया था, | आचार्य का पैतृक नाम (बृ. उ. ६.१.३)। - उनमें यह प्रमुख था (म. व. २८. २३)। श्याकार--कश्यपकुलोत्पन्न एक गोत्रकार । . शिष्यपरंपरा--शौनक का प्रमुख शिष्य आश्वलायन श्यापर्ण-एक पुरोहितसमुदाय, जो विश्वंतर राजा का था। अपने गुरु को प्रसन्न करने के लिए आश्वलायन पुरोहित था। एक बार विश्वतर ने सोमयज्ञ किया, जहाँ ने गृहय एवं श्रौतसूत्रों की रचना की। आश्वलायन का यह उसने इन्हें टाल कर अन्य पुरोहितों को बुलाना चाहा। ग्रंथ देख कर शोनक इतना अधिक प्रसन्न हुआ कि, उस समय इनमें से राम मार्गवेय नामक एक पुरोहित ने इसने अपने श्रीतशास्त्र विषयक ग्रंथ विनष्ट किया सोम के संबंध में एक नयी उपपत्ति कथन कर, अपना ( विपाटितम् )। ऋग्वेद से संबंधित शोनक के दस ग्रंथों । पुरोहितपद पुनः प्राप्त किया (ऐ. ब्रा. ७.२७, राम का अध्ययन करने के बाद, आश्वल यन ने अपने गृहय मार्गवेय देखिये)। एवं श्रौतसूत्रों की, एवं ऐतरेय आरण्यक के चतुर्थ श्यापर्ण सायकायन--एक यज्ञवेत्ता आचार्य, जिसके आरण्यक की रचना की। द्वारा यज्ञवेदी पर पाँच पशुओं का वध करने का निर्देश शौनक के दस एवं आश्वलायन के तीन ग्रंथ आश्व- प्राप्त है (श. बा. १०.४.१.१०, ६.२.१.३९)। लायन के शिष्य कात्यायन को प्राप्त हुए। कात्यायन ने श्याम--(सो. क्रोष्टु.) एक यादव राजा, जो विष्णु स्वयं यजुर्वेदकल्पसूत्र, सामवेद उपग्रंथ आदि की रचना | एवं मत्स्य के अनुसार शूर राजा का पुत्र था (मत्स्य. की, जिन्हे उसने अपने शिष्य पतंजलि ( योगशास्त्रकार ) | ४६.३)। को प्रदान किये। भागवत में इसे 'श्यामक' कहा गया है । इसकी पत्नी इस प्रकार शौनक की शिष्यपरंपरा निम्न प्रकार प्रतीत का नाम शूरभू अथवा शूरभूमि था, जिससे इसे हिरण्याक्ष होती है:- शौनक- आश्वलायन- कात्यायन- पतंजलि- एवं हरिकेश नामक दो पुत्र उत्पन्न हुए थे (भा. ९.२४. व्यास । २१)। Page #1010 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्याम प्राचीन चरित्रकोश श्येनजित् २.एक श्वान, जो सरमा के पुत्रों में से एक था (ब्रह्मांड. श्यालायनि--भृगुकुलोत्पन्न एक गोत्रकार | ३.७.११२)। यज्ञ में इसे बलि अर्पण किया जाता है। श्यावक-एक यज्ञकता आचार्य, जो इंद्र का मित्र श्यामपराशर-पराशर कुलोत्पन्न एक ऋषि समुदाय। था (. ८.३.१२, ४.२)। ऋग्वेद में अन्यत्र सुवास्तु इस समुदाय में निम्नलिखित ऋषि समाविष्ट थे:-पाटिक, नदी के तट पर रहनेवाले श्याच नामक एक राजा का बादरिस्तंब, क्रोधनायन, क्षेमि। निर्देश प्राप्त है, जो संभवतः यही होगा (श्याव २. श्यामबाला--सौराष्ट्र में रहनेवाले भद्रश्रवस् नामक | देखिये)। वैश्य की कन्या । लक्ष्मीव्रत का माहात्म्य कथन करने के श्यावयान-देवतरम् नामक आचार्य का पैतृक नाम लिए इसकी कथा पद्म में दी गयी है ( पद्म, ब्र. ११)। (जै. उ. बा. ३.४०.२)। श्यामवय -वसिष्ठकुलोत्पन्न एक गोत्रकार। इयावाश्व आत्रेय--अत्रिकुलोत्पन्न एक ऋपि, जिसे श्यामसुजयन्त लोहित्य- एक आचाय, जो कृष्ण- ऋग्वेद के कई सूक्तों के प्रणयन का श्रेय दिया गया है धृति सात्यकि नामक आचार्य का शिष्य था । इसके शिष्य (रु. ५.५२-६१, ८१-८२, ८.३५-३८; ९.३२)। का नाम कृष्णदत्त लौहित्य था ( जै. उ.बा. ३.४२.१)। इसे श्यामावत् नामांतर भी प्राप्त था (मल्ल्य. १४०, २. एक आचार्य, जो जयंत पारशर्य नामक आचार्य १०७-१०८; श्यामावत् देखिये )। इसके पिता का नाम का शिष्य था। इसके शिष्य का नाम पल्लिगुप्त लोहित्य था अचनानस् आत्रेय था (पं ब्रा. ८.५.९)। ऋग्वेद में (जै. उ.बा. ३.४२.१)। | अनेक स्थानों पर इसका निर्देश प्राप्त है (ऋ. ६.५२.. श्यामा--मेरु की कन्या, जो हिरण्मय ऋषि की पत्नी ६१; ८.३५-३८; ८१-८२, ९.३२)। स्थीति दाय थी (भा. ५.२.२३)। ऋषि की कन्या इसकी पत्नी थी (रथवीति दार्य __श्यामायन--विश्वामित्र ऋषि के ब्रह्मवादी पुत्रों में से देखिये )। एक (म. अनु. ४.५५)। श्यावाश्चि--तरन्त एवं पुरुमहिळ गजाओं के अंधीगु २. अंगिरस् कुल का एक गोत्रकार । नामक पुरोहित का पैतृक नाम (तरन्त देखिये )। श्यामायनि--एक आचार्य, जो व्यास की कृष्णयजुः श्यावास्य-दयामावत् नामक अत्रिकुलोत्पन्न गोत्रकार शिष्यपरंपरा में से वैशंपायन ऋपि का 'उदिच्च' शिष्य का नामान्तर। ' था (वैशंपायन १. एवं व्यास देखिये )। श्येन-इंद्रसभा में उपस्थित एक पि । २. अंगिरसकुलोत्पन्न एक गोत्रकार । २. पक्षियों की एक जाति, जो ताम्रा की कन्या श्येनी श्यामावत्--अत्रिकुलोत्पन्न एक मंत्रकार, जो दत्त की संतान मानी जाती है (म. आ. ६०.५४-.)। आत्रेय के वंश में उत्पन्न हुआ था (वायु. ५९.१०४)। श्येन आग्नेय-एक वैदिक सूक्तद्रष्टा (ऋ. १०. इसे निम्नलिखित नामान्तर भी प्राप्त थे:- शावास्य | १८८)। अथवा शावाश्व (मत्स्य. १४५.१०७-१०८); शाबाश्व | श्येनगामिन-खर राक्षस के बारह अमात्यों में से (ब्रह्मांड. २.३२.११३-११४)। एक (वा. रा. अर, २३.३१)। श्यामोदर--कश्यपकुलोत्पन्न एक गोत्रकार । श्येनचित्र--एक राजा, जिसने जीवन में कभी माँस श्याव-एक राजा, जो वधिमती का पुत्र था (ऋ. भक्षण नहीं किया था। शारद एवं कौमुद्र माह में जिन १०.६५.१२)। किन्तु सायण इसे स्वतंत्र व्यक्ति न मान | राजाओं ने मांस भक्षण वयं किया था, ऐसे पण्यायोग कर, हिरण्यहस्त राजा की उपाधि मानते है। राजाओं की एक नामावलि महाभारत में प्राप्त है, जहाँ यह अश्विनों की कृपापात्र व्यक्तियों में से एक था, इसका निर्देश किया गया है (म. अनु. ११५.४२)। जिन्होंने इसे रुशती नामक स्त्री प्रदान की थी (ऋ. १. श्येनजित्--(सू, इ.) एक इक्ष्वाकुवंशीय राजा, ११७.८)। जो दल राजा का पुत्र या। इसके चाचा शल ने वामदेव २. सुवास्तु नदी के तट पर रहनेवाला एक उदार ऋषि के अच थोडे समय के लिए मांग लिए, एवं दाता (इ. ८.१९.३७) । ऋग्वेद में अन्यत्र श्यावक | पश्चात् उन्हें वापस देने से इन्कार कर दिया। इतना नामक एक राजा का निर्देश आता है, जो संभवतः यही ही नहीं, बल्कि बामदेव का वध करने के लिए एक होगा (ऋ. ५.६१.९।। विषयुक्त बाण का उपयोग करना चाहा। Page #1011 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्येनजित् प्राचीन चरित्रकोश श्रावण तदुपरांत वामदेव ने इसी बाण से दश वर्ष के श्येन- श्रमिष्ट-अकर एवं अश्विनी के पुत्रों में से एक जित राजकुमार का वध किया । पश्चात् इसके पिता दल | (मत्स्य. ४५.३३)। का शरीर भी वामदेव ने अचेतन बनाया। इस दुरवस्था श्रवण--श्रवस् नामक वसिष्ठकुलोत्पन्न गोत्रकार का में इसकी माता ने वामदेव ऋषि से क्षमा माँगी, एवं | नामांतर । अपने पति एवं पुत्र की जान बचायी (म. व. १९०.७३; २. गौतम नामक शिवावतार का एक शिष्य । शल देखिये)। ३. अक्रूर एवं अरुणा के पुत्रों में से एक (मत्स्य. २. सेनजित् राजा का नामान्तर | ३. एक महारथी राजा, जो भीमसेन का मामा था। ४. मुर दैय के सात पुत्रों में से एक (भा. १०.५९. भारतीय युद्ध में यह पाण्डव पक्ष में शामिल था (म. १२)। कृष्ण ने इसका वध किया। उ. १.१३९.२७)। ५. सोम की सत्ताईस स्त्रियों में से एक । श्येनभद्रं--प्रसूत देवों में से एक । ६. श्रावण नामक तपस्वी का पिता (श्रावण देखिये )। श्येनी--कश्यप एवं ताम्रा की कन्या । सृष्टि के समस्त श्रवणदत्त कोहल---एक आचार्य, जो सुशारद शालं. बाज पक्षी इसीकी ही संतान माने जाते हैं । ब्रह्मांड के कायन नामक आचार्य का शिष्य, एवं कुस्तुक शार्कराक्ष्य अनुसार यह पक्षिराज गरुड की पानी थी (ब्रह्मांड, ३.३ | नामक आचाय का गुरु था (व. बा. १)। ४४९)। किन्तु महाभारत में इसे गरुड के भाई अरुण | श्रवस--एक ऋषि, जो गृत्समवंशीय संत ऋषि का की पत्नी बताया गया है, जिससे इसे जटायु एवं संपाति पुत्र, एवं तम ऋपि का पिता था (म. अनु. ३०.६२)। नामक पुत्र उत्पन्न हुए थे (म. आ. ६६.६७; वा. रा. २. दक्षसावणि मनु के पुत्रों में से एक। अर. १४.३३)। ३. अमिताभ देवों में से एक। २. पृरुवंशीय प्रवीर राजा की पत्नी (म. आ. ८९.६)। ४. वसिष्ठकुलोत्पन्न एक गोत्रकार । पाठभेद-'श्रवण'। श्रद्धा (स्वा.)-स्वायंभुव मन्वन्तर के दक्ष प्रजापति ५. भृगु ऋषि के पुत्रों में से एक ( वायु. ६५.८७)। की कन्या, जो धर्म ऋषि की दस पत्नियों में से एक थी। | श्रविष्कट-गौतम नामक शिवावतार का एक शिष्य इसकी माता का नाम प्रसूति था (म. आ. ७.१३)। (वायु. २३.१६४)। इसके पुत्रों के नाम शुभ एवं काम थे (भा. ४.१.४९- श्राद्धदेव--सूर्यपुत्र वैवस्वत मनु राजा का नामान्तर। ५०)। इसकी पत्नी का नाम श्रद्धा था, एवं पुरोहित का नाम २. सायंभुव मन्वन्तर के कर्दम प्रजापति एवं देवहूति वसिष्ठ था, जिसने इसकी इला नामक कन्या का रूपान्तर की कन्या, जो अंगिरस् ऋषि की पत्नी थी। इसके उतथ्य सुयुम्न नामक पुत्र में करने के कार्य में सहायता की थी एवं बृहस्पति नामक दो पुत्र, एवं सिनीवाली, कुहू, राका (दे.भा. महात्म्य ३; वसिष्ठ ९. देखिये)। एवं अनुमति नामक चार कन्याएँ थी (भा. ३. २४. श्राद्धाद-वृष नामक दैत्य का पुत्र (वृष देखिये)। २२)। श्रायस-एक पैतृक नाम, जो वैदिक साहित्य में ३. सूर्य की एक कन्या, जिसे 'सावित्री,' 'प्रसावित्री.' निम्नलिखित आचार्यों के लिए प्रयुक्त किया गया है:'वैवस्वती' आदि नामान्तर प्राप्त थे (म. शां. २५६.२१)। १.कण्व (तै. सं. ५.४.७.५, का.सं. २१.८); २. वीतहव्य ४. वैवस्वत मनु की एक पत्नी । (तै. सं. ५.६.५.३, पं. बा. ९.१.९)। 'श्रद्धा कामायनी-क वैदिक सूक्तद्रष्टी (ऋ. १०. श्राव---(सू. इ.) एक इक्ष्वाकुवंशीय राजा, जो १.१)। महाभारत के अनुसार युवनाश्व श्रावस्त राजा का पुत्र था श्रद्धादेवी-वसुदेव की पत्नियों में से एक, जिसके | (म. व.१९३.४)। पुत्र का नाम गवेषण था (मत्स्य. ४६.१९)। श्रावण--एक तपस्वी, जो वैश्य पिता एवं शूद्र माता श्रद्धालु--हंसध्वज राजा का प्रधान । का पुत्र था (वा. रा. अयो, ६३)। ब्रह्म में इसे श्रभ--वसुदेव एवं शांति देवा के पुत्रों में से एक ब्राह्मण कहा गया है, एवं इसके पिता का नाम श्रवण (भा. ९.२४.०)। दिया गया है (ब्रहा. १२३.३७)। इससे प्रतीत होता श्रमदागोपि--भृगुकुलोत्पन्न एक गोत्रकार । है कि, श्रवण इसका पैतृक नाम था। ९८९ Page #1012 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावण प्राचीन चरित्रकोश श्रीमात अपने अंधे माता पिता को अपने कंधे पर बिटा कर श्रीदामन--कृष्णसखा सुदामन् अथवा कुचैल का यह काशीयात्रा को जा रहा था। एक बार रात के समय, नामान्तर (भा. १०.१५-२० कुचल देखिये)। यह कुएँ में पानी लेने गया था, जिस समय इसके पानी श्रीदेव--(सो. क्रोष्ट. ) एक यादव राजा, जो कर्म के भरने की आवाज से इसे कोई वन्य जानवर समझ कर, अनुसार लोमपाद शाखा के बृहन्मेधम् राजा का पुत्र था। मृगयातुर दशरथ ने इस पर शरसंधान किया। दशरथ श्रीदेवा-देवक राजा की कन्या, जो वसुदेव की के बाण से इसको मृत्यु हो गयी। पत्नियों में से एक थी। इसके कुल छः पुत्र थे, जिनमें शासी असावधानी से हा बहारत्या के कारण दशरथ | नंदक प्रमुख था (भा. ९.२४.२३; विष्णु. ४.१८)। विह्वल हो उठा, किन्तु श्रावण ने उसका समाधान किया। श्रीधर--एक ब्राह्मण, जिसकी कथा 'बालवत' का पश्चात् इसके माता-पिता ने दशरथ राजा को 'पुत्र पुत्र' माहात्म्य कथन करने के लिए पन में दी गयी हैं (पन, करते हुए मृत्यु पाने का शाप दिया, एवं वे स्वयं इसकी | व्र.५)। अकाल मृत्यु से दुःखी हो कर मृत हुए। श्रीनिवास-तिरुपति में स्थित वेंकटेश का नामांतर श्रावस्त अथवा शावस्त--स. इ.) एक सुविख्यात (वेंकटेश देखिये)। स्कंद में इसकी पत्नी का नाम पग्रिनी इक्ष्वाकुवंशीय राजा, जो भागवत, विष्णु, वायु एवं मत्स्य बताया गया है। के अनुसार इंदु राजा का पौत्र, एवं युवनाश्व (द्वितीय) श्रीमानु--कृष्ण एवं सत्यभामा का एक पुत्र (भा. राजा का पुत्र था। महाभारत में इसे युवनाश्व (द्वितीय)| १०.६१.११)। राजा का पौत्र, एवं श्राव राजा का पुत्र कहा गया है, एवं श्रीमत्--एक राजकुमार, जो दत्तात्रेय राजा का पौत्र, इस प्रकार श्रावस्त इसका पैतृक नाम बताया गया है। एवं निमि राजा का पुत्र था। इसकी असामयिक मृत्यु होने इसने श्रावस्ति ( श्रावस्त ) नगरी की स्थापना की. पर एक वर्ष के पश्चात् अमावस्या के दिन, इसके पिता एवं अपने उत्तर कोशल देश की राजधानी वहाँ बसायी निमि ने इसका पहला वर्षश्राद्ध किया। (ह. वं. १११.२२ ब्रह्मांड. ३.६३.२८; वायु, ८८. __ श्राद्धविधि--इस प्रकार निमि इस संसार में प्रचलित २००)। श्राद्धविधि का आद्यजनक बन गया। आगे चल कर, अत्रि ऋषि ने निमि के द्वारा प्रणीत श्राद्धविधि को स्वयंभु इसके पुत्र का नाम बृहदश्व (ब्रह्मदश्व) था (म. व. के द्वारा प्रणीत बता कर उसका पुरस्कार किया, एवं मृत १९३.४)। इसके अन्य पुत्र का नाम वंशक अथवा रिश्तेदारों के लिए श्राद्धविधि करने की प्रथा भारतवर्ष में वत्सक था। सर्वत्र प्रचलिन हुई (म. अनु. ९१:१-२१)। इसका राज्यकाल राम दाशरथि के पूर्वकाल में पचास महाभारत में इसका वंशक्रम निम्न प्रकार दिया गया पीढियाँ माना जाता है । राम दाशरथि के कनिष्ठ पुत्र लव है:-स्वयंभु-अत्रि-दत्तात्रेय-निमि-श्रीमत् । ने उत्तर कोसल देश की राजधानी अयोध्या नगरी से गरा स श्रीमती--संजय राजा की कन्या दमयन्ती का हटा कर, वह पुनः एक बार श्रावस्ति नगरी में बसायी। | नानान्तर (दमयन्ती २. देखिये )। पौराणिक साहित्य में इस कारण अयोध्या नगरी उजड़ गयी, जो आगे चल इसके संबंध में एक चमत्कृतिपूर्ण कथा दी गयी है। एक कर लव के ज्येष्ठ बन्धु कुश ने पुनः एक बार बसायी बार इसके प्रति नारद एवं उसके मित्र पर्वत को धोखा (रघु. १६.९७ )। दे कर विष्णु ने इसका हरण किया, जिस कारण वे दोनों श्राविष्टायन--पराशर कुलोत्पन्न -एक गोत्रकार। विष्णु की उपासना छोड़ कर शिवोपासक बन गये (लिंग, श्री-(स्था.) ऐश्वर्य की अधिष्ठात्री देवता लक्ष्मी २.५.; अ. रा. ४; शिव रुद्र २.४) । का नामान्तर, जिसे पुराणों में भृगु एवं ख्याति की कन्या श्रीमल कार्ण--आंध्रवंशीय शातकर्णि राजा का कहा गया है (लक्ष्मी देखिये)। नामान्तर ( शातकर्णि १. देखिये )। २. धर्म ऋषि की पत्नियों में से एक । श्रीमाता--देवी का एक अवतार, जिसने मातंगी का श्रीकर--एक शिवगण, जो गोप का पुत्र था। इसने रूप धारण कर, कर्नाटक नामक राक्षस का वध किया। काशी में मध्यमेश्वर की आराधना कर 'शिवगणपतित्त्व यह राक्षस ब्राह्मण का वेश धारण कर ऋपियों के स्त्रियों प्राप्त किया (शिव. उ. ४४,८५)। का हरण करता था (स्कंद. ३.२.१७-१८)। ९९० Page #1013 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमानिन् प्राचीन चरित्रकोश श्रुतदेवा श्रीमानि-भोत्य मनु के पुत्रों में से एक । २. (स्त्री) कुशध्वज जनक राजा की कन्या, जो राम श्रीवह--कश्यपकुलोत्पन्न एक नाग (म. आ. | दाशरथि के कनिष्ठ भाई शत्रघ्न की पत्नी थी (वा. रा ३१.१३)। | बा. ७३.३३)। श्रुत-(स. निमि.) एक राजा, जो विष्णु के अनुसार ३. (स्त्री) केव.य देश के धृष्टकेतु शारदण्डाय नि की उपगु राजा का, भागवत के अनुसार सुभाषण राजा का, पत्नी, जो शूर राजा की कन्या, एवं वसुदेव की बहन थी। एवं वायु के अनुसार, सुवर्चस् राजा का पुत्र था। इसकी कन्या का नाम भद्रा था, जो कृष्ण की पत्नी थी । २. ( सू. इ.) एक राजा, जो भागवत, विष्णु एवं वायु | इसके कुल चार पुत्र थे, जिनमें अनबत प्रमुख था (भा. के अनुसार भगीरथ राजा का पुत्र था। इसके पुत्र का नाम | ९.२४.३०)। नाभाग था। ध्रुतंजय--(सो. पुरूरवस् .) एक राजा, जो भागवत ३.(सो. अज.) एक राजकुमार, जो पांचालराज द्रुपद | के अनुसार सत्यायु राजा का पुत्र था (भा. ९.१५.२)। के पुत्रों में से एक था । भारतीय युद्ध के रात्रि युद्ध में | २. एक राजा, जो त्रिगर्तराज सुशर्मन् का भाई था। अश्वत्थामन् ने इसका वध किया। यह भारतीय युद्ध में कौरवपक्ष में शामिल था, अर्जुन ने ४. कृष्ण एवं कालिंदी के पुत्रों में से एक (भा. १०. | इसका वध किया (म. क. २७.१० पाठ.)। ६१.१४)। ३. (मगध. भविष्य.) एक राजा, जो मत्स्य, वायु, ५. वसुदेव एवं शांतिदेवा के पुत्रों में से एक (भा.९. | एवं ब्रह्मांड के अनुसार सेनाजित् राजा का, एवं विष्णु के अनुसार सेनजित राजा का पुत्र था। भागवत में इसे श्रुतकक्ष्य आंगिरस--एक वैदिक सूक्तद्रष्टा; जिसके | 'सृतंजय' कहा गया है । वायु, मत्स्य, एवं ब्रह्माड के द्वारा विरचित सूक्त में विपुल पशुधन देने के लिए इंद्र | अनुसार इसने चालीस वर्षों तक राज्य किया था । की प्रार्थना की गयी है (ऋ. ८. ९२.२५)। एक साम | श्रतदेव-एक विरागी कृष्णभक्त ब्राह्मण, जो के प्रणयन का श्रेय भी इसे दिया गया है (पं. बा. ९. बहुलाश्व जनक के काल में मिथिला नगरी में रहता था। एक बार कृष्ण जब मिथिला नगरी में आया था, उस . श्रुतकर्मन्--(सो. कुरु.) तराष्ट्र के सौ पुत्रों में से | समय बहुलाश्व राजा ने, एवं इस ब्राह्मण ने एक साथ ही एक । इसने शतानीक के साथ युद्ध किया था (म. क. | उसे अपने घर बुला लिया। उस समय इन दोनों की १८.१२-१३)। भक्तिभावना एक समान ही उत्कट देख कर, कृष्ण ने दो ...२. अर्जुनपुत्र श्रुतकीर्ति का नामांतर। रूप धारण किये, एवं एक समय ही वह इन दोनों ३. (सो. कुरु.) एक राजकुमार, जो सहदेव एवं | के घर जा पहुँचे । पश्चात् उसने इन दोनों को उपदेश द्रोपदी के पुत्रों में से एक था। भारतीय युद्ध में यह | प्रदान किया ( भा. १०.८६)। अश्वत्थामन् के द्वारा मारा गया (म. आ. ९०.८४ | २. कृष्ण के महारथी पुत्रों में से एक (भा. १०. ५७.१०३)। श्रुतिकीर्ति--(सो. कुरु.) एक राजकुमार, जो | ३. एक यादव, जो कृष्ण का अनुयायी था (भा. १. अर्जुन एवं द्रौपदी के पुत्रों में से एक था (म. आ. ९०. | १४.३२)। ८२, ५७.१०२, द्रो. २२.२५, भा. ९.२२.२९)। यह ४. विष्णु का एक पार्षद, जिसने बलि वैरोचन के विश्वेदेव के अंश से उत्पन्न हुआ था। असुर अनुगामियों पर हमला किया था (भा. ८. इसे श्रुतकर्मन् नामांतर भी प्राप्त था (म. आ. २१३. | २१.१७)। ७६ )। इसके रथ के अश्व चास पक्षो के पंखों के वर्ण के | श्रुतदेवा अथवा श्रुतदेवी-करूपदेशीय वृद्धशर्मन् ये (म. द्रो. २२.२५)। (वृद्धधर्मन् ) राजा की पत्नी, जो शूर राजा की कन्या • भारतीय युद्ध में शल्य के साथ इसका युद्ध हुआ, | एवं वसुदेव की बहन थी (म. भा. ४.२४.३०) । इसे जिसमें यह पराजित हुआ था । अश्वत्थामन् के द्वारा किये | पृथुकीर्ति नामांतर भी प्राप्त था। सुविख्यात असुर दंतवक्र गये रात्रियुद्ध में यह मारा गया (म. सौ. ८.५८)। | इसका ही पुत्र था (ब्रह्म. १४)। ९९१ Page #1014 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रुतध्वज प्राचीन चरित्रकोश शुलसेन श्रृतध्वज-- मत्स्यराज विराट का भाई, जो भारतीय श्रुतश्रवस-(मगध. भविष्य.) एक राजा, जो मन्त्य यद में पांडवों का रक्षक था (म. द्रो. १३३.३९)। एवं वायु के अनुसार सोमाधि राजा का, भागवत के अनुसार श्रतबंधु गौपायन (लौपायन)--एक वैदिकसूक्त- मार्जारि राजा का, एवं ब्रह्मांड के अनुसार सोमावि राजा द्रष्टा (ऋ. ५.२४; १०.५७-६०)। का पुत्र था। इसके पुत्र का नाम अयुतायु था। शतय---श्रोतन नामक कश्यपकुलोत्पन्न गोत्रकार का २. यमसभा में उपस्थित एक राजा (म.न. ८.८)। नामांतर। । ३. एक ऋषि, जिसने तप से सिद्धी प्राप्त की थी श्रतरथ--एक तरुण गजा, जो कक्षीवत् नामक (म. शां.२८१.१६-१७) । इसके पुत्र का नाम सोमश्रवस आचार्य का, एवं उसके पज्र परिवार का आश्रयदाता था | था, जो इसे एक सर्पिणी से उत्पन्न हुआ था (म. आ. (ऋ. १.१२२.७) । प्रभुवसु अंगिरस ऋषि ने भी इसके | ३.१२)। दातृत्व की प्रशंसा की है (ऋ. ५.३६.६)। जनमेयय के सर्पसत्र में--जनमेजय के द्वारा किये गये श्रतरय--अश्विनों की कृपापात्र एक व्यक्ति, जिसका दीर्घसत्र में उसके पुरोहित देवशुनी ने उसे शाप दिया, उन्होंने संरक्षण किया था (ऋ. १.११२.९)। एवं उसके पौरोहित्य का त्याग किया। पश्चात् जनमेजय इससे मिलने आया, एवं उसने इस के पुत्र सोमश्रवस् को अतर्वा--धृतराष्ट्र के शतपुत्रों में से एक । भारतीय अपना पुरोहित बनने की प्रार्थना की। इसने उसे मान्यता युद्ध में यह भीमसेन के द्वारा मारा गया (म. श. दी, एवं इस प्रकार सोमश्रवस् जनमेजय के सर्पसत्र का २५.२७) । पुरोहित बन गया ( सोमश्रवस् देखिये)। श्रुतर्वन आक्ष--एक उदार राजा, जिसके दातृत्व की यह स्वयं भी जनमेजय के सर्पसत्र का सदस्य था प्रशंसा ऋग्वेद में गोपवन नामक ऋषि के द्वारा की गयी (म. आ. ४८.९)। है (७.७४.४-१३)। इसने मृगय पर विजय प्राप्त की ४. एक असुर, जो गरूड के द्वारा मारा गया था। थी (ऋ. १०.४९.५)। ऋक्ष का वंशज होने के कारण, ५. सूर्यपुत्र शनैश्चर का नामांतर (वायु. ८४.५१)। इसे 'आर्भ ' पैतृक नाम प्राप्त हुआ था। ६. सावर्णि मनु का नामांतर (वायु. ८४.५१)। महाभारत में ---इसके दातृत्व का वर्णन महाभारत में श्रुतधवा--चेदिराज दमघोष की पत्नी, जो शूर राजा. भी प्राप्त है। एक बार अगस्य ऋषि इसके पास धन | की कन्या, वसुदेव की भगिनी, एवं कृष्ण की पितृष्वसा माँगने के लिए आये। इसके दातृत्व के कारण इसके खजाने (फफी ) थी। इसके पत्र का: में कुछ भी द्रव्य बाकी नहीं था। इसने धन देने के संबंध | देखिये )। में अपनी असमर्थता अगस्त्य ऋपि से निवेदित की, एवं । श्रुतश्री--एक असुर, जो गरुड़ के द्वारा मारा गया अपने आयव्यय के सारे हिसाब भी उसे दिखाये। शा (म. उ १० पश्चात यह अगत्य को साथ ले कर बध्नश्व आदि राजाओं तसेन-सहदेवपुत्र श्रुतकर्मन् का नामांतर । के पास गया, एवं उनसे इसने अगत्य ऋषि को विपुल धन | कृत्तिका नक्षत्र के अवसर पर इसका जन्म हुआ था, जिस दिलवाया (म. व. ९६.१-५)। कारण इसे श्रुतसेन नाम प्राप्त हुआ था ( श्रुतकर्मन श्रुतवत्--(सो. मगध.) मगध देश का एक राजा, | देखिये)। . जो भविष्य एवं विष्णु के अनुसार सोमापि राजा का पुत्र २. (सो. कुरु.) एक राजा, जो परिक्षित राजा का था। अन्य पुराणों में इसे श्रुतश्रवस् कहा गया है । (भा. पुत्र था (म. आ. ३.१)। वैदिक साहित्य में इसे जनमे-- ९.२२.९)। इसके पुत्र का नाम अयुतायु था। जय राजा का भाई कहा गया है (श. बा. १३.५.८.३; श्रुतवर्मन्--दुर्योधन के पक्ष का एक राजा (म. क. सां. श्री. १६.९.४)। ४.१०१)। यह संभवतः धृतराष्ट्र के सौ पुत्रों में से एक ३. शत्रुघातिन् राजा का नामांतर । था। पाठभेद ( भांडारकर संहिता)-'श्रुतकर्मन् । ४. एक राजा, जो भारतीय युद्ध में कौरवपक्ष में श्रतविद आत्रेय--एक वैदिक सूक्तद्रष्टा (ऋ. ५. शामिल था । अर्जुन ने इसका वध किया (म. क. १९.१५)। ६२)। उग्वेद में अन्यत्र भी इसका निर्देश प्राप्त हैं. ५. एक असुर, जो गरुड के मारा गया था ( म. उ. (ऋ. ५.४४.१२)। १०३.१२)। Page #1015 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रुतसेना. प्राचीन चरित्रकोश श्रुष श्रुतसेना--कुन्ती की बहन, जो केकय राजा धृष्टकेतु इसके दीर्घायु एवं नियतायु नामक दो पुत्र थे। अपने शारदाण्डाय नि की पत्नी थी (म. आ. १११.११८३४)। पिता की मृत्यु का बदला लेने के लिए, उन्होंने अर्जुन पर विष्णु, वायु, एवं भागवत में इसे श्रुतकीर्ति कहा गया | आक्रमण किया था, किन्तु अर्जुन ने उन दोनों का भी है (श्रुतकीर्ति ३. देखिये)। | वध किया (म. द्रो. ६८. २७.२९)। परिवार-महाभारत के अनुसार, नियोगविधि से इसे ६.(सू. निमि.) विदेह देश का एक राजा, जो दुर्जयादि तीन पुत्र उत्पन्न हुए थे। पौराणिक साहित्य में | भागवत एवं विष्णु के अनुसार अरिष्टनेमि राजा का पुत्र, इसके पुत्रों की नामावलि निम्नप्रकार दी गयी है :-१. एवं सुपार्श्वक राजा का पिता था (भा. ९.१३.२३; मत्स्य में-अनुव्रत, २. वायु में--संतर्दन, चेकितान, विष्णु. ४.५.३१)। बृहत्क्षत्र, विंद, एवं अनुविंद। श्रुतायुध--कलिंग देश का एक राजा, जो वरुण एवं श्रुतानीक--विराट का भाई, जो भारतीय युद्ध में शीततोया (पर्णाशा) का पुत्र था (म. स. ४.२३; भी. पांडवों का सहायक था (म. द्रो. १३३.३९)। १६.३४)। इसके पिता वरुण ने इसे एक गदा अभिमंत्रित श्रुतांत--(सो. कुरु.) धृतराष्ट्र के शतपुत्रों में से कर दी थी, एवं कहा था, 'इस गदा के कारण तुम युद्धएक, जो भारतीय युद्ध में भीमसेन के द्वारा मारा गया | भूमि में सदैव अजेय रहोंगे। किन्तु युद्ध न करनेवाले (म. श. २५.८)। किसी भी व्यक्ति पर इस गदा का प्रहार तुम नहीं करना, श्रुतायु--(सू. इ.) एक इक्ष्वाकुवंशीय राजा, जो अन्यथा तुम मारे जाओंगे। मत्स्य के अनुसार भानुचंद्र राजा का पुत्र था। भारतीय ___ भारतीय युद्ध में यह कौरव पक्ष में शामिल था, एवं युद्ध में यह मारा गया (मत्स्य. १२.५५)। २. (सो. पुरूरवस् ) एक राजा, जो. भागवत एवं एक अक्षौहिणी सेना ले कर यह युद्धभूमि में उपस्थित हुआ था (म. भी. १६.३४-३५) । युद्ध के प्रारंभ में ही, विष्णु के अनुसार पुरूरवस् एवं उर्वशी के पुत्रों में से इसका भीम के साथ युद्ध हुआ, जिसमें इसके सत्य एवं एक था। इसके पुत्र का नाम वसुमत् था। सत्यदेव नामक दो चक्ररक्षक मारे गये (म. भी. ५०. ३. (सो. कुरु.) धृतराष्ट्र के शतपुत्रों में से एक, जो जा ६९)। अन्त में वरुण के द्वारा प्रदान की गयी गदा इसने भारतीय युद्ध में भीमसेन के द्वारा मारा गया था (म. | युद्ध न करनेवाले श्रीकृष्ण पर फेंकी, जिस कारण अपनी कं. ३५.३७.११)। ही गदा से इसकी मृत्यु हो गयी (म. द्रो. ६७.४३-५८)। ४. अंबष्ठ देश का ए. राजा, जो क्रोधवश नामक श्रुतावती--एक तपस्विनी जो भरद्वाज ऋषि एवं दैत्य के अंश से उत्पन्न हुआ था (म. आ. ६१.५९)। घृताची अप्सरा की कन्या थी । इसने घोर तपस्या कर द्रौपदी के स्वयंवर में, एवं युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में यह के, इन्द्र को पतिरूप में प्राप्त किया था (म. श. ४७.२)। उपस्थित था (म. आ. १७७.१९; स. ४.२४)। ' श्रुति--कश्यपकुलोत्पन्न एक गोत्रकार । भारतीय युद्ध में यह कौरव पक्ष में शामिल था एवं | २. एक प्राचीन राजा (म. आ. १.२३८)। इसका निम्नलिखित योद्धाओं से युद्ध हुआ था:-१. अर्जुनपुत्र इरावत् (म. भी. ४३.६८); २. युधिष्ठिर (म. भी श्रुति आत्रेयी--स्वायंभुव मन्वंतर के अत्रि ऋषि की ४३.६६ )। भीष्म के द्वारा निर्माण किये गये कौंचव्यूह के कन्या । पुलहपुत्र कर्दम प्रजापति से इसका विवाह हुआ जघनभाग में खड़ा था (म. भी. ७१.२२)। अन्त में | था (पुलह १. देखिये)। अर्जुन ने इसका वध किया (म. द्रो. ६८.६४)। श्रुतिविद्ध--(सो. कुरु.) एक राजा, जो वायु के ५. कलिंग देश का एक क्षत्रिय राजा, जिसके भाई का अनुसार धर्म राजा का पुत्र था। नाम अयुतायु था (म. क. ५०-५२)। भारतीय युद्ध में श्रुतशृण--स्वायंभुव मन्वंतर के जिताजित् देवों में यह कौरवपक्ष में शामिल था, एवं भीम के साथ इसका से एक। युद्ध हुआ था (म. भी. ५०.६)। अपने भाई अयुतायु श्रुष वाह्नेय काश्यप--एक आचार्य, जो देवतरस् के साथ, यह कौरवसेना के दक्षिण भाग का संरक्षण करता श्यावसायन नामक आचार्य का शिष्य, एवं इंद्रोत दैवाप था (म. भी. ४७.१८)। अन्त में ये दोनों भाई अर्जुन शौनक नामक आचार्य का गुरु था (जै. उ.बा. ३.४०. के द्वारा मारे गये (म. द्रो. ६८.७-२५)। | २)। 'वह्नि' एवं 'कश्यप' का वंशज होने के कारण, इसे प्रा. च १२५] ९९३ Page #1016 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रुष प्राचीन चरित्रकोश श्वेत 'वाय' एवं 'काश्यप' पैतृक नाम प्राप्त हुआ होगा। श्रीमत्य-एक आचार्य (श. बा. १०.४.५.१)। इसके 'श्रुष' नाम का सही पाठ संभवतः 'शूष' ही होगा। 'श्रुमत् ' का वंशज होने के कारण, इसे यह नाम प्राप्त श्रष्टि आंगिरस--एक सामद्रष्टा आचार्य (पं. ब्रा. | हुआ होगा। १३.११.२१-२३)। __श्वफल्क-(सो. यदु. वृष्णि. ) एक पुण्यश्लोक यादव राजा, जो वृष्णि राजा का पुत्र, एवं चित्रक राजा श्रुटिगु काण्व-एक वैदिक सूक्तद्रष्टा (ऋ. ८.५१)। का ज्येष्ठ भाई था। मत्स्य एवं पद्म में इसे 'जयंत' कहा इसके सूक्त में निम्नलिखित आचार्यों के साथ इसका निर्देश गया है। प्राप्त है :--१. सांवरणि मनु; २. नीपातिथि: ३. मेध्या ___ एक बार काशी देश में बारह वर्षों तक वर्षा न होने से तिथि (ऋ. ८.५१.१)। पार्षद्वाण राजा के द्वारा प्रस्कण्व अकाल पड़ गया । उस समय यह सहज ही काशी देश नामक आचार्य को विपुल धन दिये जाने का निर्देश इसके जा पहूँचा । इसके वहाँ जाते ही, वृष्टि हो कर अकाल नष्ट सूक्त में प्राप्त है (ऋ. ८.५१.२)। हुआ। इस कारण इसे पुण्यशील मान कर काशिराज ने श्रेणिमत--गोशृंग पर्वत पर निवास करनेवाला एक इसका सत्कार किया, एवं अपनी गांदिनी नामक कन्या राजा । भीमसेन ने अपने पूर्व दिग्विजय में, तथा सहदेव इसे विवाह में दे दी। ने अपने दक्षिण दिग्विजय में इसे परास्त किया था (म. परिवार-गांदिनी से इसे निम्नलिखित तेरह पुत्र उत्पन्न स. २७.१; २८.५)। हुए :-१. अकर; २. आसंग; ३. सारमेयः ४. मृदुर; भारतीययुद्ध में यह पांडव पक्ष में शामिल था (म. ५. मृदुविद्ः ६. गिरिः ७. धर्मवृद्धः ८.सुवर्मन् ; ९. क्षेत्रोद्रो. २२.३०)। इसके रथ के अश्व पीले रेशमी वस्त्र के पेक्ष; १०. अरिमर्दन ; ११. शत्रुघ्नः १२. गंधमाह; वर्ण के थे, एवं उनका जीन स्वर्ण का था। उनके गलों में १३. प्रतिबाहु । स्वर्ण मालाएँ थी (म. द्रो. २२.३०)। पांडव सैन्य में इसकी उपर्युक्त पुत्रों के अतिरिक्त, इसकी सुचीरा नामक श्रेणी 'अतिरथि' थी। अंत में यह कौरवपक्षीय वीरों एक कन्या भी (भा. ९.२४.१६-१७)। के द्वारा मारा गया (म. द्रो. २२.३०)। श्वसन--धृतराष्ट्रकुलोत्पन्न एक नाग, जो जनमेजय २. कुमार देश का एक राजा, जिसे भीम ने अपने के सर्पसत्र में दग्ध हुआ था (म. आ. ५२.१७)। पूर्व दिग्विजय के समय जीता था (म. स. २७.१)। पाठभेद-'सुपेण'। श्रेष्ठ--सुधामन् देवों में से एक ( ब्रह्मांड. २. श्वसृप-एक सैहिकेय असुर, जो हिरण्यकशिपु का ३६.२८)। भतीजा था (मत्स्य. ६.२७)। श्रेष्ठभाज वासिष्ठ--कल्माषपाद सौदास राजा के श्वाजनि--एक वैश्य ( जै. उ. ब्रा. ३.५.२)। पुरोहित वसिष्ठ ऋषि का नामांतर (म. आ. १६७.१५ श्वात-एक राक्षस, जो कश्यप एवं ब्रह्मधना के पुत्रों १६८. २२; वसिष्ठ श्रेष्ठभाज् देखिये)। में से एक था (ब्रह्मांड. ३.७.१८)। श्रोतन-कश्यपकुलोत्पन्न गोत्रकार ऋषिगण । पाठभेद श्वाहि--(सो. क्रोष्टु.) एक राजा, जो भागवत के -'श्रुतय। अनुसार वृजिनवत् राजा का पुत्र, एवं रुशेकु राजा का पिता था (भा. ९.२३.३१) । मत्स्य एवं वायु में इसे श्रोतृ-श्रावण माह का यक्ष (भा. १२.११.३७)। क्रमशः 'स्वाह' एवं 'खाहि' कहा गया है । २. आद्य देवों में से एक। श्विन--एक जातिविशेष, जिनके राजा का नाम ऋषभ श्रोत्र--तुषित देवों में से एक (वायु. ६६.१८)। याज्ञतुर था (श. ब्रा. १२.८.३.७; १३.५.४.१५)। श्रौतर्षि--देवभाग नामक आचार्य का पैतृक नाम गौरवीति नामक आचार्य इनका पुरोहित था। (ऐ. ब्रा. ७.१.६; श. ब्रा. २.४.४; तै. ब्रा. ३.१०.९. श्वेत--पाताल में रहनेवाला एक नाग, जो कश्यप एवं कद्र के पुत्रों में से एक था (भा. ५.२४.२१) । श्रौतश्रवस--शिशुपाल राजा का मातृक नाम, जो २. एक शिवावतार, जो सातवें वाराह कल्पान्तर्गत वैवउसे उसके 'श्रुतश्रवा' नानक माता के कारण प्राप्त स्वत मन्वन्तर के प्रथन युगचक्र में उत्पन्न हुआ था। हुआ था (श्रुतश्रवा देखिये)। | यह अवतार प्रभु व्यास के समकालीन माना जाता है। Page #1017 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वेत प्राचीन चरित्रकोश श्वेतकेतु ७)। हिमालय के छागल नामक शिखर में यह अवतीर्ण हुआ अन्त में ब्रह्मा ने इसे मुक्ति का मार्ग बताते हुए पुनः था। इसके शिखा धारण करनेवाले निम्नलिखित चार शिष्य | एक बार पृथ्वीलोक पर जाने के लिए कहा, एवं अगस्त्य थे :-१. श्वेत; २. श्वेत शिख; ३. श्वेताश्व; ४.श्वतलोहित | ऋषि के दर्शन से मुक्ति प्राप्त करने की आज्ञा दी । (शिव. शत. ४)। तदनुसार यह पृथ्वीलोक में आया, एवं इसने अगस्त्य ३. एक शिवावतार, जो सातवें वाराह कल्पान्तर्गत | ऋषि के दर्शन से मुक्ति प्राप्त की ( वा.रा. उ. ७८, पन. वैवस्वत मन्वन्तर के तेइसवें युगचक्र में उत्पन्न हुआ था। सू. ३४)। यह कालंजर पर्वत पर अवतीर्ण हुआ था। इसके निम्न- । १६. एक राजा, जो अर्जुन एवं कौरवों के बीच हुआ लिखित चार शिष्य थे:-१. उशिक; २. बृहदश्व; 'उत्तर गोग्रहण' युद्ध देखने के लिए स्वर्ग से पृथ्वी ३. देवल; ४. कवि (शिव. शत. ५.)। | पर अवतीर्ण हुआ था (म. भी. ९१.७*, पंक्ति. २८)।. ४. श्वेत नामक शिवावतार का शिष्य था (श्वेत. २. १७. एक शिवभक्त, जिसने शिवभक्ति कर मृत्यु देखिये)। | पर विजय प्राप्त की थी (स्कंद. १.१.३२, ब्रह्म. ५९. ५. एक दिग्गज, जो क्रोधवशाकन्या श्वेता का पुत्र था। | ७४; लिंग. ३१)। ६. एक असुर, जो विप्रचित्ति असुर का पुत्र था। श्वेतकि--एक राजा, जो सदैव यज्ञकार्य में रत रहता इसने तारकासुर-युद्ध में भाग लिया था (मत्स्य. १७७. | था। इसने यज्ञकार्य में सिद्धि प्राप्त करने के लिए शिव की कठोर तपस्या की थी। इसकी तपस्या से प्रसन्न हो कर, ७. एक यक्ष, जो मणिवर एवं देवजनी के पुत्रों में से | शिव ने नामम बतिको शिव ने दुर्वासस् ऋषि को इसका पुरोहित बनने की आज्ञा एक था ( वायु. ६९.१६९)। दी । आगे चल कर दुर्वासस् की सहायता से इसने शत८. एक राजा, जो वष्मत् राजा के पुत्रों में से एक था। | संवत्सरात्मक सत्र का आयोजन किया, एवं इस प्रकार बारह इसके ही नाम से इसके देश को 'श्वेतदेश' नाम प्राप्त वर्षों तक निरंतर यज्ञकार्य कर अगणित पुण्य संपादन किया। हुआ था (वायु. ३३.२८)। श्वेतकेतु औदालकि आरुणेय-एक सुविख्यात ९. मत्स्यनरेश विराट राजा के पुत्रों में से एक । | तत्त्वज्ञानी आचार्य, जिसका अत्यंत गौरवपूर्ण उल्लेख कोसलराजकन्या सुरथा इसकी माता थी। यह अत्यंत शतपथ ब्राह्मण, छांदोग्य उपनिषद, बृहदारण्यक उपनिषद पराक्रमी था, एवं इसने भारतीय युद्ध में शल्य एवं आदि ग्रंथों में पाया जाता है। यह अरुण एवं उद्दालक - मीष्म से युद्ध किया था । अन्त में यह भीष्म के द्वारा नामक आचार्यों का वंशज था, जिस कारण इसे 'आरुणेय' मारा गया (म. भी. परि. १. क्र. ११८)। एवं 'औद्दालकि ' पैतृक नाम प्राप्त हुए थे (श.बा.११. १०. एक धर्मनिष्ठ राजर्षि, जिसने अपने मृत हुए पुत्र २.७.१२, छां. उ. ५,३.१; बृ. उ. ३.७.१; ६.१.१)। को पुनः जीवित किया था (म. शां १४९.६३)। कौषीतकि उपनिषद में इसे आरुणि का पुत्र, एवं ११. एक राजा, जिस की गणना भारतवर्ष के प्रमुख गोतम ऋषि का वंशज कहा गया है (को. उ. १.१)। वीरों में की जाती थी। छांदोग्य उपनिषद में इसे अरुण ऋषि का पौत्र, एवं उद्दालक . १२. स्कंद का एक सैनिक (म. श. ४४.६३ )। आरुणि का पुत्र कहा गया है (छां उ. ५.११.२)। १३. राम के पक्ष का एक वानर (वा. रा. यु. ३०)। कौसुरुबिंदु औद्दालकि नामक आचार्य इसका ही भाई था । १४. (सो. कोष्ट.) एक राजा, जो कर्म के अनुसार यह गौतमगोत्रीय था। आहृति राजा का पुत्र था। निवासस्थान-अपने पिता आरुणि की भाँति यह १५. एक पापी राजा, जो अगस्त्य ऋषि के दर्शन से | कुरु पंचाल देश का निवासी था। अन्य ब्राहाणों के साथ मुक्त हुआ था। यह सुदेव राजा का ज्येष्ठ पुत्र था। यात्रा करते हुए यह विदेह देश के जनक राजा के दरबार इसने अपनी उत्तर आयु में कठोर तपस्या की, किन्तु | में गया था। किन्तु उस देश में इसने कभी भी निवास अन्नदान का पुण्य कहीं भी संपादन नहीं किया। इस नहीं किया था (श. बा. ११.६.२.१)। कारण यद्यपि इसे स्वर्गप्राप्ति हुई, फिर भी यह सदैव । कालनिर्णय--यह पंचाल राजा प्रवाहण जैवल राजा क्षुधा एवं तृषा से तड़पता रहा । यहाँ तक कि, अपनी का समकालीन था, एवं उसका शिष्य भी था (बृ. उ. ६. ही माँस खाने लगा।. १.१. माध्य; छां. उ. ५.३.१)। यह विदेह देश के जनक ९९५ Page #1018 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वेतकेतु राजा का भी समकालीन था एवं इस राजा के दरबार में इसने वाजसनेय से वादविवाद किया था (नृ. उ. २.७० १ ) । इस वादविवाद में यह याज्ञवल्क्य से पराजित हुआ था। प्राचीन चरित्रकोश बाल्यकाल--इसके बाल्यकाल के संबंध में संक्षिप्त जानकारी छांदोग्य उपनिषद में प्राप्त है। बचपन में यह अत्यंत उद्दण्ड था, जिस कारण बारह वर्ष की आयु तक इसका उपनयन नहीं हुआ था। बाद में इसका उपनयन हुआ, एवं चौबीस वर्ष की आयु तक इसने अध्ययन किया । इसके पिता ने इसे उपदेश दिया था, 'अपने कुछ में कोई विद्याहीन पैदा नहीं हुआ है। इसी कारण तुम्हारा यही कर्तव्य है कि तुम ब्रह्मचर्य का सेवन कर विद्यासंपन्न बनो' । अपने पिता की आशा के अनुसार, अपनी आयु के बारहवें वर्ष से चौबीस वर्ष तक इसने गुरुगृह में रह कर विद्याग्रहण किया। बिद्यार्जन — कौपीतकि उपनिषद् के अनुसार, इसने चित्र गाम्यांयणि के पास जा कर शान संपादन किया ( कौ. उ. १.१ ) । अपने समकालीन प्रवाह जैवल नामक राजा से भी इसके विद्या प्राप्त करने का निर्देश भी वृहदारण्यक उपनिषद में प्राप्त है। एक बार जब यह पांचालों की विद्वत्सभा में गया था, तब उस समय पांचाल राजा प्रवाहण जेल से इसका तत्त्वज्ञानविषयक वादविवाद हुआ। इस वादविवाद में प्रवाहण के द्वारा पई प्रभ पूछे जाने पर, यह उनका योग्य जवाब न दे सका। इतना ही नहीं, इसका पिता उद्दालक आरुणि भी प्रवाहण के इन प्रश्नों का जया नहीं दे सका। इस कारण यह एवं इसके पिता परास्त हो कर प्रवाहण की शरण में गये, एवं उसे अपना गुरु बना कर इन्होंने उससे शन प्राप्त किया (बृ. उ. ६.२ ) । धर्मदीपन - इस प्रकार विद्याग्रहण कर विद्वान होने के कारण वह अपने को बड़ा विद्वान समझने लगा एवं दिन-ब-दिन इसका अहंकार बढ़ता ही गया। उस समय इसके पिता ने किताबी ज्ञान से अनुभवगम्य ज्ञान फिस प्रकार अधिक श्रेष्ठ है, इसका शान इसे दिया एवं इसे आत्मशान का उपदेश किया, जो 'तत्वमसि' नाम से सुविख्यात है । 2 श्वेतकेतु इसने अपने पिता से प्रभ किया, मिट्टी के एक परमाणु का ज्ञान होने से उसके सभी मे नाम एवं रूपों का ज्ञान हमें प्राप्त होता है। उसी प्रकार आप ऐसी सूक्ष्मातिसूक्ष्म वस्तु का जन मुझे बतायें कि जिन कारण सृष्टि के समस्त चराचर वस्तुओं का ज्ञान मुझे प्राप्त हो सके। इस पर इसके पिता ने इसे जवाब दिया, 'तुम (याने तुम्हारी आत्मा), एवं इस सृष्टि की सारी चराचर वस्तुएँ दोनों एक है, एवं ये सारी वस्तुओं का रूप तू ही है. (तत्त्वमसि ) | अगर तू अपने आपको (याने अपनी आत्मा को ) जान सकेगा, तो तुझे इस सृष्टि का ज्ञान। रूप से हो जायेगा। ' 'तत्वमसि' उपदेश इसके पिता उद्दालक अरुण ऋषि के द्वारा इसे दिया हुआ 'तत्त्वमसि' का उपदेश छांदोग्य उपनिनिपद में प्राप्त है ( छ. उ. ६.८-१६)) इसे उपर्युक्त तत्त्व समझाते हुए इसके पिता ने नदी समुद्र, पानी, नमक आदि नौ प्रकार के इसे दिये, एवं हर समय 'तत्त्वमसि' शब्द का पुनरुच्चारण किया । यही 'तत्त्वमसि' शब्दप्रयोग आगे चलकर, अद्वैत वेदान्त के महावाक्यों में से एक बन गया। यज्ञसंस्था का आचार्य कौषीतकि ब्राह्मण में इसे पौषीतकि लोगों के यशसंस्था का प्रमुख आचार्य कहा गया है। यशसंस्था में विविध पुरोहितों के कर्तव्य क्या होना चाहिए, यज्ञपरंपरा में कौनसी त्रुटियाँ है, इस संबंध में अनेकानेक मौलिक विचार इसने प्रकट किये हैं। ब्रह्म चारी एवं तापसी लोगों के लिए विभिन्न आवरण भी इसने प्रतिपादित किये है, एवं उस संबंध में अपने मौलिक विचार प्रकट किये हैं। इसके पूर्व कालीन धर्मशास्त्रविषयक ग्रंथों में ब्रह्मचारियों के द्वारा मधुम करने का निषेध माना गया है। इसने किन्तु मधुभक्षण करने के संबंध में यह आक्षेप करे. ३. ५.४.१८ ) । अन्य ब्राह्मण ग्रंथों में प्राप्त यज्ञवि कथाओं में भी इसके अभिमतों का निर्देश प्राप्त है (शां. बा. २६. ४ गो. मा. १.२२) । भक्षण आचायों के द्वारा किये गये कार्यों में ज्ञान की उपासना प्रमुख एवं अर्थराजन गौण मानना चाहिए इस संबंध में इसका एवं इसके पिता उदाह उद्दालक आरुणि का एक संवाद शांखायन श्रौतसूत्र में प्राप्त है (यां. श्री. १६.२७.६ ) | एक बार नामक आचार्य काशी, कोसल एवं विदेह इन तीनों देश के राजाओं का पुरोहित बन गया। उस समय यह अत्यधिक न हो कर पिता से कटु वचन करने लगा । इस पर पिता ने इसे, कहा: । जल जातुकर्ण्य ९९६ Page #1019 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वेतकेतु प्राचीन चरित्रकोश श्वेतशिख कृत्स्नके ब्रह्मबन्धौ व्याजेज्ञासिपि । ऋषि का औरस पुत्र न हो कर, उसके पत्नी से उसके एक - (पुरोहित के लिए यही चाहिए कि वह ज्ञान से प्रेम शिष्य के द्वारा उत्पन्न हुआ था (म. शां. ३५.२२)। आगे करें, एवं भौतिक सुखों की ज्यादा लालच न करें)। चल कर इसकी माता का एक ब्राह्मण ने हरण किया । उसी धर्मसूत्रों में--आपस्तंब धर्मसूत्र में इसे 'अवर' (श्रेष्ठ कारण, इसने स्त्रियों के लिए पातिव्रत्य का, एवं पुरुषों के आचाय) कहा गया है (आप. ध. १.२.५.४-६)। लिए एकपत्नीव्रत के नियमों का निर्माण किया। अन्य उत्तरकालीन वैदिक साहित्य में इसके अनेकानेक | महाभारत में इसे उद्दालक ऋषि का पुत्र कहा गया निर्देश मिलते हैं। फिर भी इसका सर्वप्रथम निर्देश | है, एवं इसके मामा का नाम अष्टावक्र बताया गया है शतपथ ब्राह्मण में प्राप्त होने के कारण, यह पाणिनि | (म. आ. ११३.२२)। जन्म से ही इस पर सरस्वती का पूर्वकालीन आचार्य माना जाता है। वरद हस्त था (म. व. १३२.१)। कामशास्त्र का प्रणयिता-वात्स्यायन कामसूत्र में प्राप्त ____ जनमेजय के सर्पसत्र का यह सदस्य था, एवं बंदिन निदशों के द्वारा प्रतीत होता है कि, नंदिन के द्वारा नामक आचार्य को इसने वाद-विवाद में परास्त किया विरचित आद्य कामशास्त्र ग्रंथ का इसने संक्षेप कर, उसे था (म. आ. ४८.७; व. १३३ ) । किंतु जनमेजय के ५०० अध्यायों में ग्रथित किया। आगे चल कर श्वतकेतु सर्पसत्र में भाग लेनेवाला श्वेतकेतु कोई उत्तरकालीन आचार्य होगा। के इसी ग्रंथ का बाभ्रव्य पांचाल ने पुनःसंक्षेप किया; एवं उसे सात अधिकरणों में ग्रंथित किया । बाभ्रव्य के इसी परिवार--देवल ऋषि कन्या सुवर्चला इसकी पत्नी ग्रंथ को पुनः एक बार संक्षेप कर, एवं उसमें दत्तकाचार्य | था। इसस उसन पुरुषाथ-साद्ध' पर वादाववाद किया कृत वैशिक,' चारणाचार्य कृत 'साधारण अधिकरण', | था ( म. शां. परि. १.१९.९९-११८)। सुवर्णनाभ कृत 'सांप्रयोगिक,' घोटकमुख कृत 'कन्या- महाभारत में इसका वंशक्रम निम्नप्रकार दिया गया संप्रयुक्त,' गोनर्टिय कृत 'भायाधिकारिक,' गोणिकापुत्र कृत है :--उपवेश--अरुण उद्दालक-श्वतकेतु । उसी ग्रंथ में पारवारिक' एवं कुचमारकृत 'औपनिषदिक' आदि इसे शाकल्य, आसुरि, मधुक, प्राचीनयोग्य एवं सत्यकाम विभिन्न ग्रंथों की सामग्री मिला कर वात्स्यायन ने अपने | ऋषियों का समकालीन कहा गया है । कामसूत्र की रचना की। फिर भी उसके मुख्य आधार- २. लांगलिन् नामक शिवावतार का शिष्य । भूत ग्रंथ श्वेतकेतु एवं बाभ्रव्य पांचाल के द्वारा लिखित श्वेतचक्षु--प्रसूत देवों में से एक । कामशास्त्रविषयक ग्रंथ ही थे। श्वेतपराशर--पराशरकुलोत्पन्न एक उपशाखा। . ब्राह्मण जाति के लिए मद्यपान एवं परस्त्रीगमन वय . श्वेतपर्ण योवनाश्व-एक राजा, जो हस्तिनापुर के ठहराने का महत्त्वपूर्ण सामाजिक सुधार श्वत केतु के पूर्व में स्थित भद्रावती नगरी का राजा था। इसके पास द्वारा ही प्रस्थापित हुई (का. सू. १.१.९)। ब्राह्मणों के एक सुंदर अश्व था, जो युधिष्ठिर के अश्वमेध यज्ञ के लिए, लिए परस्त्रीगमन वय ठहराने में इसका प्रमुख उद्देश्य भीम जीत कर लाया था (जै. अ. १७)। था कि, ब्राहाण लोग अपने स्वभार्या का संरक्षण अधिक श्वेमभद्र--एक गुह्यक यक्ष, जो कुवेर का सेवक था सुयोग्य प्रकार से कर सकें (काः सू. ५.६.४८)। इस प्रकार श्वतकेतु भारतवर्ष का पहला समाजसुधारक | (म. स. १०.१४)। प्रतीत होता है, जिसने समाजकल्याण की दृष्टि रख कर, श्वेतलोहित-श्वेत नामक शिवावतार का एक शिष्य । अनेकानेक नये यम-नियम प्रस्थापित किये । इसीने ही श्वेतवक्त्र-स्कंद का एक सैनिक (म. श ४४.६८)। सर्व प्रथम लैंगिक व्यवहारों में नीतिबंधनों का निर्माण श्वेतवराह--विष्णु के वराह अवतार का नामांतर । किया, एवं सुप्रजा, लैंगिक नीतिमत्ता, परदारागमन निषेध | इसे 'आदिवराह ' नामांतर भी प्राप्त था। आदि के संबंध में नये नये नियम किये, एवं इस प्रकार | श्वेतवाहन-(सो. क्रोष्टु.) एक यादव राजा, जो विवाहसंस्था की नींव मजबूत का। | वायु के अनुसार शूर राजा का पुत्र था (वायु. ९६. महाभारत में--वैवाहिक नीति नियमों का निर्माण करने | १३६ )। मत्स्य में इसे शूर राजा के राजाधिदेव नामक की प्रेरणा इसे किस कारण प्रतीत हुई. इस संबंध में अनेका | भाई का पुत्र कहा गया है (मत्स्य, ४४.७८ )। नेक चमत्कृतिपूर्ण कथा महाभारत में प्राप्त है। यह उद्दालक श्वेतशिख--श्वेत नामक शिवावतार का शिष्य । ९९७ Page #1020 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वेता प्राचीन चरित्रकोश पंडिक श्वेता-कश्यप एवं क्रोधा की कन्या, जिसे श्वेत तीसरे एवं चौथे अध्याय में सांख्य एवं शैव मत का नामक दिग्गज पुत्र के रूप में उत्पन्न हुआ था (म. आ. कथन प्राप्त है । पाँचवें अध्याय के दूसरे मंत्र में कपिल ६०.३४)। यह वानरजाति की भी माता मानी जाती | शब्द की आध्यात्मिक निरुक्ति दी गयी है। छठे अध्याय है, जिनकी वंशावलि विस्तृत रूप में दी गयी है (ब्रह्मांड. में सगुण ईश्वर का वर्णन प्राप्त है, जो सांप्रदाय-निरपेक्ष ३.७.१८०-१८१ वानर देखिये )। होने के कारण अत्यंत महत्त्वपूर्ण माना जाता है। श्वेताश्व--श्वत नामक शिवावतार का एक शिष्य। श्वैक्न--प्रतीदर्श नामक ऋषि की उपाधि, जिसका श्वेताश्वतर-एक आचार्य, जो श्वेताश्वेतर नामक शब्दशः अर्थ 'विक्नों का राजा' माना जाता है। यह सुविख्यात उपनिषद का रचयिता माना जाता है (श्वेता- दाक्षायण यज्ञ की प्रक्रिया में निपुण था, जिस यज्ञ की श्वतर ६.२१)। इसने स्वायंभूव ऋषि से ब्रह्मविद्या प्राप्त | शिक्षा इसने सुप्लन् साञ्जय नामक आचार्य को दी थी । की थी। इसके नाम की एक कृष्णयजुर्वेदी शाखा भी (श. बा. २.४.४.३)। वेबर के अनुसार, श्चिक्न एवं उपलब्ध है। इसके नाम पर श्वताश्वतर नामक एक ब्राह्मण | संजय लोगों का यह एकत्र निर्देश इन दोनों जातियों के ग्रंथ भी निर्दिष्ट है, जो वर्तमानकाल में केवल नाममात्र ही घनिष्ठ संबंध की ओर संकेत करता है ( इन्डिशे स्टूडियन उपलब्ध है। १.२०९-२१०)। श्वेताश्वतर उपनिषद् --समस्त उपनिषद् वाङ्मय में श्वैत्य--शैव्यपुत्र संजय गजा का पैतृक नाम । पाठश्वेताश्वतर उपनिषद एक महत्त्वपूर्ण ग्रंथ माना जाता है (रुद्र- भेद-'शैब्य' (म. द्रो. परि. १.८.२७४)। शिव देखिये )। ईश्वर समस्त सृष्टि का शास्ता एवं नियंता श्वेत्रेय-एक व्यक्ति, जिसे इंद्र ने जीवित किया था है, यही इस उपनिषद का प्रमुख प्रतिपाद्य विषय है। (ऋ, ६.२६.४) । सायण के अनुसार, 'श्वेत्रेय' शब्द की दर्शनशास्त्रों में से सांख्य एवं वेदान्त दर्शन जब एक ही निरुक्ति 'श्चित्रा के वंशज' की गयी है। लुडविग के शास्त्र माने जाते थे, उस समय इस ग्रंथ की रचना की अनुसार, दशद्य एवं श्वैत्रेय एक ही था, एवं यह कल्स का गयी थी। पुत्र था। गेल्डनर के अनुसार यह श्वित्रा नामक गाय का इस उपनिषद के पहले अध्याय में त्रैमूर्यात्मक अद्वैत पुत्र था, जिसका युद्ध के लिए उपयोग किया जाता था। शैवमत की श्रेष्ठता प्रतिपादन की गयी है। दूसरे अध्याय ऋग्वेद में अन्यंत्र · श्वैत्रेय' शब्द का एक बैल के नाते में योग एवं योगपरिणाम का प्रतिपादन किया गया है। उल्लेख किया गया है। .. षट्पुर--निकुंभ राक्षस का नामांतर, जिसका वध कृष्ण के देहों का कृष्ण ने विनाश किया। कृष्ण के इसी पराक्रम के द्वारा हुआ था। को 'षट् पुर-विनाश' कहा गया है (ह. वं. २.८५-९०)। हरिवंश में प्राप्त 'पट पुर' का आख्यान शिवचरित्र में __षटांकुर-शठ एवं कट नामक राक्षसों का सामूहिक नाम । त्रिपुरदाह से मिलता जुलता प्रतीत होता है। जिस प्रकार त्रिपुर किसी व्यक्ति का नाम न हो कर, असुरों के निवास पंड-एक पुरोहित, जो सर्वसत्र में उपस्थित था (पं. वा. २५.२.५३)। शंडामर्क नामक आचायों में से स्थान का नाम था, उसी प्रकार षट्पुर भी निकुंभ राक्षस के निवासस्थान का नाम था । शंड का ही यह संभवतः नामांतर होगा। निकुंभ राक्षस अनेकानेक रूप धारण कर विभिन्न स्थानों पंडिक-केशिन नामक आचार्य के खंडिक नामक में घूमता था । उनमें से दो स्थानों का एवं वहाँ स्थित निकुंभ प्रतिस्पर्धी का नामांतर (मै. सं. १.४.१२ )। Page #1021 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्टी प्राचीन चरित्रकोश पटीस्कंपनी देवसेना का नामांतर इसीके ही कारण स्कंद को 'पठीप्रिय' कहते है (म.व. परि. १. २२.११ ) । यह ब्रह्मा की सभा में उपस्थित रह कर उसकी उपासना करती थी (म. स. ११.१३२, पंक्ति ३ ) । इसके ही कृपा के कारण, प्रियव्रत राजा का 'सुव्रत' नामक पुत्र पुनः जीवित हुआ था । स संयम- विश्वंशीय संजय राजा का नामांतर वायु मैं इसे धूम्राक्ष राजा का पुत्र कहा गया है ( संजय ६. देखिये ) । २. एक राक्षस, जो शतांग राक्षस का पुत्र था । अंबरीष के सेनापति सुदेव के द्वारा यह मारा गया ( म. शां. परि १.११.५.२० ) । संवरण षोडश-राजकीय- सोलह प्राचीन भारतीय राजाओं का एक समूह, जिनके जीवनचरित्र महाभारत के 'पोडश राजकीय' नामक उपाख्यान में प्राप्त है, जो नारद के द्वारा संजय राजा को सुनायें गये थे ( म. द्रो. परि. १.८. ३२५-८७२; नारद देखिये) । येही जीवनचरित्र आगे चल कर कृष्ण ने युधिष्ठिर को सुनाये थे ( म. शां. २९ ) २. (सो. पुरूरवस् . ) एक राजा, जो नहुष राजा का पुत्र था ( भा. ९.१८.१ ) । मुनिधर्म को स्वीकार कर यह वन में चला गया । राज्य से पदच्युति-- एक बार इसके राज्य में महान् संयमन - दुर्योधन के पक्ष के शव राजा का नामांतर अकाल पड़ा, जिस कारण सारे लोग अत्यंत दुर्बल हो 'इसके पुत्र को 'सांयमनि' कहते थे । । गये। इसी दुर्बलता का फायदा उठा कर, पांचाल देश के नृप ने दस अक्षौहिणी सेना के साथ इस पर आक्रमण किया, एवं इसे राज्यभ्रष्ट कर अयोध्या से भाग जाने पर विवश किया । | २. काशिदेश का एक राजा, जो शुरु से ही अत्यंत विरक्त एवं धर्मप्रवण था 'पंचशिख' नामक आचार्य से सांख्ययोग का ज्ञान प्राप्त करने के लिए, यह राज्य छेड़कर वन में चला गया। वहाँ इसकी इच्छा के अनुसार पंचशिव ने इसे सांख्ययोग का शान प्रदान किया (म.श. परि. १.२९ ) ! संयमन प्रातर्दन -- एक आचार्य ( कौ. उ. २.५ ) । संयाति- - कश्यपकुलोत्पन्न एक गोत्रकार । संवरण - ( सो. अज. ) अयोध्या का सुविख्यात राजा, जो अजमीढ राजा का पौत्र, एवं ऋक्ष राजा का पुत्र था महाभारत में इसे 'बंशकर', 'पुण्यश्लोक एवं ' सायंप्रातः स्मरणीय ' राजा कहा गया है (म. अनु. १६५. ५४ ) | 9 । संयुप--(सो. को.) एक यादव राजा, जो मत्स्य के अनुसार घर राजा का पुत्र था। पहुँच गया, जहाँ यह छिर कर रहने लगा। यहाँ बलिष्ठ भागते भागते यह सिंधुनद के किनारे एक दुर्ग तक सुवर्चस से इसकी भेंट हुई, जिसने इसका राज्य पुनः प्राप्त कराया। पश्चात् वसिष्ठ की ही सहायता से इसने सारी पृथ्वी जीत कर, यह चक्रवर्ति राजा बन गया. (म. आ. ८९.२७-४३) । तपती से विवाह - - वसिष्ठ की ही कृपा से, सूर्यकन्या तपती से इसका विवाह हुआ। तपती के सहबाससुख में मग्न रहने के वारण, इसके राज्य में पुनः एक बार भयंकर अकाल पड़ा, जो लगातार बारह संयोधकंटक -- एक यक्ष, जो कुबेर का अनुचर था वर्षों तक चलता रहा। इस अकाल के कारण, इसके ( वा. रा. उ. १४.२१ )। पुनः एक बार राज्यभ्रष्ट होने का धोखा निर्माण हुआ था, किंतु उस समय भी वसिष्ठ ने ही राष्ट्र की रक्षा की संवनन आंगिरस -- एक वैदिक सूक्तद्रष्टा (ऋ. १०. १९१) । ( म. आ. १६०-१६५ )। ९९९ Page #1022 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवरण प्राचीन चरित्रकोश संशती परिवार--अपनी पत्नी तपती से इसे कुरु नामक पुत्र | यहाँ तक कि, बृहस्पति के द्वारा अधुरा छोड़ा गया मरुत्त उत्पन्न हुआ, जो आगे चल कर चक्रवर्ति सम्राट् बना। राजा का यज्ञ भी इसने यमुना नदी के किनारे 'पृक्षाव २. एक ऋषि, जो ध्वन्य लक्ष्मण्य नामक राजा का तरणतीर्थ ' में यशस्वी प्रकार से पूरा किया ( म. शां. पुरोहित था (ऋ. ५.३३.१०)। २९.१७)। मरुत्त के साथ इसका स्नेहसंबंध होने के अन्य संवरण प्राजापत्य--एक वैदिक सूक्तद्रष्टा (ऋ. ५. | निर्देश भी प्राप्त हैं (म. आश्च. ६-७)। ३३-३४)। देवताओं पर प्रभाव--यह महान् तपनी था, संवर्गजित् लामकाबन-एक आचार्य, जो शाकदास | एवं जिस स्थान पर इसने तपस्या की थी, वह आगे चल भाडितायन नामक आचार्य का शिष्य, एवं गातु गौतम | कर ' संवर्तवापी' नाम से सुविख्यात हुआ (म. व. ८३. नामक आचार्य का गुरु था (वं. बा.२)। २८)। इसकी अत्यधिक तपस्या के कारण समस्त देवता संवर्त-एक सुविख्यात स्मृतिकार, जिसका निर्देश भी इसके आधीन रहते थे। याज्ञवल्क्य के द्वारा निर्दिष्ट स्मृतिकारों की नामावलि में मरुत्त के यज्ञ के लिए सुवर्ण की आवश्यकता होने पर, प्राप्त है। इसने हिमालय के सुवर्णमय मुंजवत् पर्वत से विपुल सुवर्ण संवत स्मृति--इसके द्वारा विरचित स्मृति का निर्देश शिवप्रसाद से प्राप्त किया (म. आश्व, ८ मार्क. १२६, आनंदाश्रम के 'स्मृतिसमुच्चय' में, जीवानंद के 'स्मृति- ११-१३)। इसने मरुत्त के यज्ञ के समय, साक्षात् अग्नि संग्रह' में, एवं वेंकटेश्वर प्रेस के 'स्मृतिसंग्रह' में प्राप्त देव को जलाने की धमकी दे दी थी (म. आश्व. २.१९) । है, जहाँ इसकी स्मृति में २३०,२२७, एवं २३२ इंद्र का वज्र इसने स्तंभित किया था, एवं इस प्रकार उसे श्लोक दिये गये हैं। इसकी उपलब्ध स्मृति में आचार मरुत्त के यज्ञ में आने पर विवश किया था(म. आश्व.१०)। एवं प्रायश्चित्त के संबंध में वचन प्राप्त है । इसके व्यवहार कुणप आख्यान--मरुत्त आविक्षित राजा ने इसकी सर्व संबंधी मतों के अनेकानेक उद्धरण विश्वरूपा दि टीकाग्रंथों प्रथम भेंट कैसे हुई, इस संबंध में एक चमत्कृतिपूर्ण कथन में प्राप्त है। इसकी छपी हुई स्मृति के कई श्लोक अपरार्क महाभारत में प्राप्त है । अपने यज्ञकार्य की पूर्ति के लिए में पुनरुद्धृत किये गये हैं। मरुत्त आविशित इससे मिलना चाहता था, लेकिन इसके इसके द्वारा 'बृहत्संवर्त' एवं 'स्वल्पसंवर्त' नामक | उन्मत्त अवस्था में इधर उधर भटकते रहने के कारण, अन्य दो स्मृतिग्रंथों का निर्देश क्रमशः 'मिताक्षरा' में, इसकी भेंट अत्यंत दुष्प्राप्य थी। एवं हरिनाथ के 'स्मृतिसार' में प्राप्त है (याज्ञ. ३. अंत में इसे ढूँढते मरुत्त काशीनगरी में आ पहुँचा । २६५, २८८)। | वहाँ यह नमावस्था में इधर उधर घूमता था, एवं एक संवर्त आंगिरस-एक ऋषि, जो ब्रह्मपुत्र अंगिरस् कुणप (शव) को काशीविश्वेश्वर मान कर उसकी पूजा ऋषि के तीन पुत्रों में से एक था । इसके अन्य दो भाइयों करता था। रास्ते में 'कुणप' को देख कर, जो उसे वंदन के नाम बृहस्पति एवं उतथ्य थे (म. आ. ६०.४-५)। करता हुआ उसके पीछे जायेगा, वही संवर्त ऋषि होगा, ऐसी महाभारत में अन्यत्र इसके भाइयों के नाम बृहस्पति, धारणा इसके संबंध में का शिवासियों में प्रचलित थी। उतथ्य, पयस्य, शान्ति, घोर, विरूप एवं सुधन्वन् दिये इसी धारणा के अनुसार, ममत्त राजा ने एक कुणप ला कर उसे काशी के नगरद्वार में रख दिया, जिसका वंदन गये है (म. अनु. ८५.३०-३१)। इसे 'वीतहव्य' ला नामांतर भी प्राप्त था (यो. वा. ५.८२-९०)। करने के लिए संवर्त वहाँ पहुँच गया (म. आश्व. ५)। वैदिक साहित्य में वैदिक मस्तानी शरशय्या पर पड़े हुए भीष्म से मिलने उपस्थित हुए यज्ञकर्ता के नाते ऋग्वेद में इसका निर्देश प्राप्त है (ऋ.१०. ऋषियों में यह एक था (म. शां. ४७.६६४; अन. १७२,८.५४.२)। ऐतरेय ब्राह्मण इसे मरुत्त आविक्षित राजा का पुरोहित कहा गया है (ऐ. ब्रा. ८.२१; मरुत्त संवर्तक-एक नाग, जो कश्यप एवं कद्र के पुत्रों में आविक्षित ३. देखिये)। एक था। बृहस्पति से ईर्ष्या-अपने भाई बृहस्पति से यह शुरु २. धर्मखावर्णि मन्वन्तर के पुत्रों में से एक । से ही अत्यंत ईर्ष्या रखता था, जिस कारण 'मरुत्त-बृहस्पति संशती--पवमान अग्नि की पत्नी, जिससे इसे सभ्य संघर्ष' में इसने सदा ही मरुत्त की ही सहायता की। एवं आवसथ्य नामक पुत्र उत्पन्न हुए थे (मत्स्य. ५१.१२)। १००० २६.५)। Page #1023 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संश्रवस् प्राचीन चरित्रकोश सगर द्वय! संश्रवस् संवर्चनस्-एक आचार्य, जिसने तुमिंज वंशावलि भी दी गयी है (ब्रह्मांड. ३.५.३८-३९)। ३. नामक आचाय के साथ यज्ञप्रक्रिया के संबंध में वाद- विष्णु में--आयुष्मत् , शिबि एवं बाष्कल (विष्णु. १. विवाद किया था। सत्र में होता के द्वारा किये जानेवाले | २१.१;); ४. भागवत में--पंचजन (भा. ६.१८.१३); इडोपाह्वान के संबंध में यह चर्चा हुई थी (तै. सं. १.७. ५. मत्स्य में--इस ग्रंथ में इसके पुत्रों का सामूहिक नाम २.१)। 'निवातकवच' दिया गया है, एवं उन्हें देव, गंधर्व एवं संश्रुत्य--विश्वामित्र के ब्रह्मवादी पुत्रों में से एक। उरग आदि के लिए अवध्य बताया गया है (मत्स्य, एक गोत्रकार के नाते भी इसका निर्देश प्राप्त है (म. अनु. ६.९.२८-२९)। ४.५५)। २. जालंधरसेना का एक सैनिक । संस्कृति--(सो. क्षत्र.) एक राजा, जो भागवत के सकतिपुत्र--एक आचार्य, जो वायु के अनुसार अनुसार जयसेन राजा का, तथा विष्णु एवं वायु के अनुसार व्यास की सामशिष्यपरंपरा में से लौगाक्षि नामक आचार्य जयत्सन राजा का पुत्र था। विष्णु एवं वायु में इसे संकृति का शिष्य था। ब्रह्मांड में इसे 'सकोतिपत्र' कहा गया है। कहा गया है। सकौगाक्षि एवं सकौवाक्षि–भृगुकुलोत्पन्न गोत्रकारसंहत (सो. सह.)--एक राजा, जो सांची (सांहजनि)। नगरी का संस्थापक माना जाता है। भागवत, विष्णु सक्तुप्रस्थ-उच्छवृत्ति नामक ब्राह्मण का नामान्तर एवं वायु में इसे क्रमशः 'सोहं जि,' 'साहजि' एवं (उच्छवृत्ति देखिये)। 'संजेय' कहा गया है। हरिवंश में इसे 'साहजि' कहा २. एक आचार्य, जो पूषमित्र गोभिल नामक आचार्य गया है (ह. वं. १.३३:४; साहजि देखिये)। मत्स्य में का शिष्य था (वं. ब्रा. ३)। इसे कुंति राजा का पुत्र कहा गया है (मत्स्य. ४३.९)। । संहतागद--ऐरावतकुल का एक नाग, जो जनमेजय सगर-(सू. इ.) एक सुविख्यात इक्ष्वाकुवंशीय के सर्पसत्र में दग्ध हुआ था (म. आ. ५२.१०)। । राजा, जो बाहु अथवा बाहुक राजा का पुत्र था। इसकी संहताश्व-- इक्ष्वाकुवंशीय बर्हणाश्व राजा का माता का नाम कालिंदी अथवा केशिनी था। भागवत नामान्तर। एवं पद्म में इसे क्रमशः 'फल्गुतंत्र,' एवं 'गर' राजा का पुत्र संहिता-धृतराष्ट्र की द्वितीय पत्नी, जो गांधारराज कहा गया है, जो संभवतः बाहुराजा के ही नामान्तर थे। सुबल की कन्या एवं गांधारी की कनिष्ठ भगिनी थी। यह पराक्रमी सत्यधर्मी, सत्यवक्ता, दानशूर एवं विचारज्ञ | था। इसके कई सिक्के मोहेंजोदड़ो के उत्खनन में प्राप्त राजा का प्रपौत्र, एवं मनस्यु राजा का पुत्र था (म. आ. ८९.७)। इसकी माता का नाम सौवीरी था। जन्म-इसका जन्म अपने पिता की मृत्यु के पश्चात् संहति--अंगिराकुलोत्पन्न एक मंत्रकार । हुआ था । बाहुराजा की मृत्यु के समय उसकी पत्नी के शिनी, संडाद--एक अनुर, जो हिरण्यकशिपु का और्व ऋषि के आश्रम में गर्भवती थी। उस समय बाहु राजा द्वितीय पुत्र एवं प्रह्लाद का छोटा भाई था। इसके अन्य की अन्य पत्नियों ने केशिनी को सवतीमत्सर से प्रेरित हो भाइयों के नाम प्रह्लाद, अनुहाद, शिबि एवं बाष्कल थे कर विष दिया । इस विष के कारण, यह सात वर्षों तक (म. आ.८९.१७-१८)। इसकी माता का नाम कयाधु अपनी माता के गर्भ में रहा, एवं जन्म के पश्चात् यह एवं पत्नी का नाम कृति था । मृत्यु के पश्चात् यह वरुण- | दुर्बल ही रहा । अपनी माता की गर्भ में जो विष इसके शरीर सभा में रह कर वरुण की उपासना करने लगा (म. स. | में उतर गया, इसके कारण इसे सगर विषयुक्त नाम प्राप्त ९.१२) । पाठभेद - प्रह्लाद। | हुआ। और्व ऋषि की कृपा के ही कारण, अपनी सापत्न पुत्र-महाभारत एवं पुराणों में इसके पुत्रों के नाम माता के विषप्रयोग से यह बच सका। विभिन्न प्रकार से दिये गये है :-१. महाभारत में-इस शिक्षा-इसके क्षत्रियोचित सारे संस्कार और्व ऋषि ने ग्रंथ में मद्रदेश का सुविख्यात राजा शल्य इसी के अंश किये, एवं इसे भार्गव नामक अग्न्यस्त्र उसीने ही प्रदान से उत्पन्न कहा गया है (म. आ. ६१.६); २. ब्रह्मांड | किया (विष्णु. ४.४)। च्यवन ऋषि ने भी इसे अनेकामें-जंभ, बाष्कल, कालनेमि, शंभु । इस पुराण में इसकी नेक अस्त्रशस्त्रों की जानकारी दी थी। प्रा. च. १२६] १००१ Page #1024 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सगर प्राचीन चरित्रकोश संकृति पराक्रम--उपरोक्त अस्त्रों की सहायता से इसने ब्रह्मांड के अनुसार, इसकी पत्नी प्रभा को पुत्र के रूप हैहय तालजंघ राजा का नाश कर अपना राज्य पुनः प्राप्त | में एक मांसखंड उत्पन्न हुआ था, जिससे आगे चल कर, किया। पश्चात् इसने यवन, शक, हैहय, बर्बर आदि लोगों | और्व ऋषि की कृपा प्रसाद से साठ हजार पुत्र उत्पन्न हुए को परास्त किया । किन्तु अपने गुरु वसिष्ठ की सलाह | थे (ब्रह्मांड. ३.४८)।। से उनका वध न कर, एवं उन्हें केवल विरूप बना कर आधुनिक अभ्यासकों के अनुसार, सगर राजा के साठ छोड़ दिया। ये लोग आगे चल कर म्लेंच्छ एवं ब्रात्य | हज़ार पुत्रों के उपर्युक्त कथाभाग में इसके पुत्रों का नहीं, लोग बन गये (भा. ९.८)। बल्कि अयोध्या राज्य की इसकी प्रजाजनों की ओर संकेत ___ अश्वमेध यज्ञ-एक बार इसने अश्वमेध यज्ञ किया, किया गया है, जो इसके राज्य में उत्पन्न हुए अकाल के जिस समय इसका अश्वमेधीय अश्व इंद्र ने चुरा लिया। | कारण मृत हुए । आगे चल कर इसके पुत्र असमंजसू के आगे चल कर यह अश्व कपिलऋषि के आश्रम के पास प्रपौत्र भगीरथ ने इसके राज्य में गंगा नदी को ला कर, इंद्र ने छोड़ दिया। इसके साठ हजार पुत्रों ने अश्वमेधीय इसका राज्य आबाद बना दिया। इस प्रकार भगीरथ के अश्व के लिए पृथ्वी, स्वर्गलोक, एवं पाताल हूँढ डाले। कारण, इसकी प्रजा को नवजीवन प्राप्त हुआ ( भगीरथ ढूँढते-ढूँढते अपना अश्व कपिलऋषि के आश्रम के पास देखिये)। मिलते ही, उन्होंने इस अश्व के चोरी का इल्जाम कपिल सागरोपद्वीप-इसके पुत्र जब इसका अश्वमेधीय अश्व ऋषि पर लगाया। इस झुठे इल्जाम के कारण, कपिल ऋषि ढूँढ रहे थे, उस समय उन्होंने जंबुद्वीप के समीप के ने क्रुद्ध हो कर उन साठ हज़ार सगरपुत्रों को जला कर कर प्रदेश से आठ उपद्वीप उत्खनन कर के बाहर निकाले । भस्म कर दिया। इस प्रकार इसके पुत्रों में से हृषिकेतु, ये ही द्वीप आगे चल कर 'सागरोपद्वीप ' नाम से प्रसिद्ध सुकेतु, धर्मरथ, पंचजन एवं अंशुमत् नामक केवल पाँच ही | हुए (भा. ५.१९.२९-३०)। पुत्र बच सके। उन्होंने इसका अश्वमेधीय अश्व अयोध्या में लाया, एवं तदुपरांत इसने अपना अश्वमेध यज्ञ पूर्ण किया। समालव--भृगुकुलोत्पन्न एक गोत्रकार । संकट-धर्म एवं ककुम के पुत्रों में एक (भा, परिवार--इसकी निम्नलिखित दो पत्नियाँ थी:१. केशिनी (शैब्या, भानुमती), जो विदर्भकन्या थी, संकर गौतम--एक आचार्य, जो अर्यमराध गौतम, एवं जो इसकी ज्येष्ठ पत्नी थी (वायु. ८८.१५५); एवं पूषमित्र गोभिल नामक आचार्य का शिष्य था। इसके २. प्रभा (सुमति), जो यादवराजा अरिष्टनेमि की कन्या शिष्य का नाम पुष्पयशस् औदवजि था (वं. बा. ३.)। थी (मत्स्य. १२.४२०)। । __संकल्प--धर्म एवं संकल्पा के पुत्रों में से एक। यह __पुत्र-(१) केशिनीपुत्र- उपर्युक्त पत्नियों में से उदात्त जीवनहेतु का मानवीकरण प्रतीत होता है । इसके केशिनी से इसे असमंजस् नामक पुत्र उत्पन्न हुआ, जो पुत्र का नाम काम था (भा. ६.६.१०.)। इसका वंशकर्ता एवं इसके पश्चात् अयोध्या नगरी का ___संकल्पा-दक्ष प्रजापति की एक कन्या, जो धर्म ऋषि राजा बन गया (वायु. ८८.१५७); (२) प्रभापुत्र--प्रभा की दस पत्नियों में से एक थी। इसके पुत्र का नाम को साठ हजार पुत्र उत्पन्न हुए, जो कपिल ऋषि के शाप | संकल्प था ( भा. ६.६.४)। के कारण दग्ध हो गये। ___ संकील-एक मंत्रकार, जो वैश्य जाति में उत्पन्न हुआ इसके साठ हजार पुत्रों के जन्म से संबन्धित एक | था (ब्रह्मांड. २.३२.१२१; मत्स्य. १४५.१३६)। चमत्कृतिपूर्ण कथा महाभारत में प्राप्त है। और्व ऋषि के आश्रम में पुत्रप्राप्ति के लिए तपस्या करने पर, इसकी संकु-कुकुर वंशीय शंकु राजा का नामान्तर ( शक. पत्नी प्रभा को एक तुंबी उत्पन्न हुई। यह उसे फेंक देना | १. देखिये)। चाहता था, किन्तु आकाशवाणी के द्वारा मना किये जाने | संकुसुक यामायन--एक वैदिक सूक्तदृष्टा (ऋ. पर इसने उस तुंबी के एक एक बीज निकाल कर साठ | १०.१८)। हजार घुतपूर्ण कलशों में रख दिये, एवं उनकी रक्षा के संकृति--एक क्षत्रोपेत ब्राह्मण, जो अपने तपस्या के लिए धायें नियुक्त की । तदुपरान्त उन कुंभों से इसके | कारण अंगिरस् कुल का गोत्रकार, एवं मंत्रकार बन गया साठ हजार पुत्र उत्पन्न हुए (म. व. १०४.१७; १०५.२)।। (ब्रह्मांड. २.३२.१०७; गुरु २. देखिये)। १००२ Page #1025 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संकृति प्राचीन चरित्रकोश संजय २. (सो. पूरु.) एक पूरुवंशीय राजा, जो भागवत | युद्ध के समय अर्जुन के द्वारा मारा गया (म. वि. ५९. एवं विष्णु के अनुसार नर राजा का पुत्र था। वायु में | १८)। इसको 'सांकृति' नामान्तर दिया गया है। इसकी पत्नी का | सचैलेय-सवैलेय नामक अत्रिकुलोत्पन्न गोत्रकार का नाम सत्कृति था, जिससे इसे रंतिदेव एवं गुरु नामक दो | नामान्तर । ' पुत्र उत्पन्न हुए थे (म. व. २७८.१७; द्रो. ६७.१%; सच्य-(स्वा. उत्तान.) एक राजा, जो भागवत के भा. ९.२१.१-२)। अनुसार हविधान राजा का पुत्र था। ३. क्षत्रवंशीय संस्कृति राजा का नामान्तर । सजातंबी-कश्यपकुलोत्पन्न एक गोत्रकार । संकोच--एक राक्षस, जो प्राचीनकाल में पृथ्वी का सजीवि-अंगिराकुलोत्पन्न एक गोत्रकार । शासक था। सज्जनाद्रोहक-धर्माकर नामक धार्मिक व्यक्ति का संक्रंदन--भौत्य मनु के पुत्रों में से एक। . नामान्तर । २. विदर्भ देश का एक राजा, जो वपुष्मत् राजा का | संचारक-स्कंद का एक सैनिक (म. श. ४४.६९)। पिता था। इसके पुत्र वपुष्मत् ने दशार्णाधिपः चारुवर्मन् | संजय-लोकाक्षि नामक शिवावतार का एक शिष्य । राजा की कन्या सुमना का हरण करना चाहा। किन्तु | २. (सो. क्षत्र.) एक राजा, जो वायु के अनुसार नरिष्यंत राजा के पुत्र दम ने उसे परास्त किया (नरिष्यंत | प्रतिपद राजा का, एवं भागवत के अनुसार प्रति राजा का एवं सुमना देखिये )। पुत्र था। इसके पुत्र का नाम जय था । विष्णु में प्रतिक्षत्र संक्रम--स्कंद का एक पार्षद, जो विष्णु के द्वारा उसे | राजा के पुत्र का नाम 'संजय' नहीं, बल्कि संजय दिया दिये गये तीन पार्षदों में से एक या। अन्य दो पार्षदों के | गया है (विष्णु. ४.९.२६)। नाम चक्र एवं विक्रम थे (म. श. ४४.१३.)। ३. (सो. अनु.) अनुवंशीय संजय राजा का .. नामान्तर। . संग प्रायोगि--असंग प्रायोगि नामक आचार्य का | ४. (सो. नील) नीलवंशीय पांचाल संजय राजा का नामान्तर (मै. सं. ३.१.९) . पुत्र (संजय ७. देखिये)। संगन-(मौर्य. भविष्य.) एक मौर्यवंशीय राजा, जो ५. (सू. निमि.) विदेह देश का एक राजा, जो विष्णु सुयशयस् राजा का पुत्र, एवं शालिशूक राजा का पिता था | के अनुसार सुपार्श्व राजा का पुत्र था। भागवत में इसे ( भा. १२.१.१४)। विष्णु में इसे दशरथ राजा का पुत्र चित्ररथ कहा गया है। कहा गया है। ६. सौवीर देश का एक राजकुमार, जो विदुला नामक संगर-एक ब्राह्मण, जो गंगास्नान के पुण्य के कारण | रानी का पुत्र था। इसके पिता की मृत्यु के पश्चात् , इस यज्ञोभद्र नामक राजा बन गया (पद्म. क्रि.३)।। अल्पवयी राजा पर सिंधुराजा ने आक्रमण कर, इसे रणसंगव-दुर्योधन का गोशालाधिपति, जिसने घोषयात्रा भूमि से भागने पर विवश किया। उस समय इसकी युद्ध के समय दुर्योधन की सहाय्यता की थी (म. व. माता विदुला ने बहुमूल्य उपदेश प्रदान कर, इसे २२८.२)। पाठ--'सभंग'। पुनः एक बार युयुत्सु बनाया। विदुला के द्वारा इसे किया संग्रह-समुद्र के द्वारा दिये गये दो पार्षदों में से एक। | गया राजनीति पर उपदेश महाभारत में 'विदुला-पुत्र दूसरे पार्षद का नाम विग्रह था (म. श. ४४.३३)। संवाद' नामक उपाख्यान में प्राप्त है (म. उ. १३१- संग्रामजित्-कृष्ण एवं भद्रा के पुत्रों में से एक। १३४; विदुला देखिये)। प्रभासक्षेत्र में हुए यादवीयुद्ध में सुभद्र ने इसका वध | ७. एक राजकुमार, जो सिंधु नरेश वृद्धक्षत्र का पुत्र,एवं किया (भा. ३.७१.२५१)। जयद्रथ के ग्यारह भाइयों में से एक था (म. व. २४९. २. कृष्ण एवं शैब्यकन्या सुदेवी का पुत्र (ब्रह्मांड. ३. | १०)। जयद्रथ के द्वारा किये गये द्रौपदी-हरण के युद्ध ७१.२५१)। में यह अर्जुन के द्वारा मारा गया (म. व. २५५.२७)। ३. युधिष्ठिरसभा में उपस्थित एक राजा (म. स. ४. ८. धृतराष्ट्र के शतपुत्रों में से एक। - १९)। ९. (सू. इ. भविष्य.) एक राजा, जो वायु, विष्णु . ३. कर्ण का एक भाई, जो विराट के उत्तर-गोग्रहण | एवं भागवत के अनुसार रणंजय राजा का, एवं मत्स्य के १००३ Page #1026 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संजय अनुसार रणजय राजा का पुत्र था। इसके पुत्र का नाम शुद्धोद था ( वायु. ९९.२८८६ मत्स्य. २७१.११ ) । १०. एक व्यास, जो वाराह कल्पान्तर्गत वैवस्वत मन्वंतर के सोलहवें युगचक्र में उत्पन्न हुआ था ( बाबु, २३.१७१ ) । प्राचीन चरित्रकोश संजय गावल्गणिधृतराष्ट्र राजा का सारथि एवं सलाहगार मंत्री, जो सूत जाति में उत्पन्न हुआ था, एवं गवल्गण । वगण नामक सूत का पुत्र था (म. आ. ५७.८२) गवगण का पुत्र होने के कारण, इसे 'गावल्गणि' पैतृक नाम प्राप्त हुआ था। यह उन चातिक व्यवसायी लोगों में से था, जो महाभारतकाल में वृत्तनिवेदन एवं वृत्तप्रसारण का काम करते थे ( वातिक देखिये) । " " यह वेद व्यास का कृपापात्र व्यक्ति था, एवं अर्जुन एवं कृष्ण का बड़ा भक्त था । दुर्योधन के अत्याचारों का यह आजन्म ओर से प्रतिवाद करता रहा यह स्वामिभक्त, बुद्धिमान्, राजनीतिज्ञ एवं धर्मज्ञ था । यह धार्मिक विचार वाला स्वामिभक्त मंत्री था, जिसने सत्य का अनुसरण कर सदैव सत्य एवं सच्ची बातें धृतराष्ट्र से कथन की । धृतराष्ट्र का प्रतिनिधित्व -- धृतराष्ट्र के प्रतिनिधि के नाते, यह युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में उपस्थित था, जहाँ युधिष्ठिर ने इसे राजाओं की सेवा तथा सलार में नियुक्त किया था (म. स. ३२.५) । धृतराष्ट्र के आदेश से, काम्यकवन में गये विदुर को बुलाने के लिए यह गया था (म.व. ७ ) । भारतीय युद्ध के पूर्व धृतराष्ट्र के राजदूत के नाते यह उपखभ्य नगरी में पांडवों से मिलने गया था। उपप्लव्य नगरी में संजय के द्वारा किये गये दौत्यकर्म का सविस्तृत वृत्तांत महाभारत के 'संजययानपर्व' में प्राप्त है ( म.उ. २२-३२ ) । अपने इस दौत्य के समय केवल राजदूत के नाते ही नहीं, बल्कि पांडवों के सच्चे मित्र के नाते, इसने उन्हें शान्ति का उपदेश दिया। इसने उन्हें कहा, 'संधि ही शांति का सर्वोत्तम उपाय है । धृतराष्ट्र राजा भी शांति चाहते हैं, युद्ध नहीं'। युधिडिर ने संजय के उपदेश को स्वीकार तो किया, किन्तु यह शर्त रखी कि यदि धृतराष्ट्र शान्ति चाहते हैं, तो इंद्रप्रस्थ का राज्य पांडवों को लौटा दिया जाय । धृतराष्ट्र को उपदेश - हस्तिनापुर लौटते ही इसने सर्वप्रथम धृतराष्ट्र की एकांत में भेटली, एवं उसे युद्ध टालने के लिए पुनः एक बार उपदेश दिया। इसने संजय धृतराष्ट्र से कहा, 'आनेवाले युद्ध में केवल कुलकुला ही नहीं, बल्कि अपनी समस्त प्रजा का भी नाश होगा, यह निश्चित है। विनाशकाल समीप आने पर बुद्धि मलिन हो जाती है एवं अन्याय भी न्याय के समान दिखने लगता है । अपने पुत्रों की अन्धी ममता के कारण आज तुम युद्ध के समीप आ गये हो। युद्ध टालने का मौका अब हाथ से निकलता जा रहा है, तुम हर प्रय कर पांडवों से संधि करो। दूसरे दिन, धृतराष्ट्र के खुली राजसभा में इसने युधिडिर का शान्तिसंदेश कथन किया एवं पांडव पक्ष के सैन्य आदि का आखों देखा हाल भी कथन किया । इस कथन में इसने अर्जुन एवं कृष्ण के स्नेहसंबंध पर विशेष जोर दिया, एवं कहा कि, कृष्ण की मैत्री पांडवों की सबसे बड़ी सामर्थ्य है ( म. उ. ६६ ) । श्रीकृष्ण का महिमा - पश्चात् यह पुनः एक बार धृतराष्ट्र के अंतःपुर गया, एवं वेदव्यास, गांधारी एवं विदुर की उपस्थिति में, इसने धृतराष्ट्र को श्रीकृष्ण का माहात्म्य विस्तृत रूप में कथन किया। इसने कहा, 'श्रीकृष्ण साक्षात् ईश्वर का अवतार है, एवं मेरे ज्ञानदृटि के कारण मैंने उसके इस रूप को पहचान लिया है। मैंने सारे आयुष्य में कभी भी कपट का आश्रय नहीं लिया, एवं किसी मिथ्या धर्म का आचरण भी नहीं किया। इस प्रकार ध्यानयोग के द्वारा मेरा अंतःकरण शुद्ध हो गया है, एवं उसी साधना के कारण, श्रीकृष्ण के सही स्वरूप का शान मुझे का ज्ञान मुझे हो पाया है ' । इसने आगे कहा, 'प्रमाद, हिंसा एवं भोग, इन तीनों के त्याग से परम पद की प्राप्ति, एवं श्रीकृष्ण का दर्शन शक्य है। इसी कारण तुम्हारा यही कर्तव्य है कि इसी ज्ञानमार्ग का आचरण कर तुम मुक्ति प्राप्त कर लो ( म. उ. ६७.६९) । दिव्यदृष्टि की प्राप्ति - भारतीय युद्ध के समय, युद्ध देखने के लिए स्वास ने धृतराष्ट्र को दिव्यदृष्टि देना चाहा, किन्तु धृतराष्ट्र ने उसे इन्कार किया; क्यों कि आपस में ही होनेवाले इस भयंकर संहार को नहीं देखना चाहता था। तदुपरांत व्यास ने संजय को दिया दिव्यदृष्टि का वरदान दिया, जिस कारण, युद्ध में घटित होनेवाली सारी घटनाओं का हाल यह धृतराष्ट्र से कथन करने में समर्थ हुआ। इस दिव्यदृष्टि केसे सामने की अपक्ष परोक्ष की, दिन रात में होनेवाली तथा दोनों पक्षों २००४ Page #1027 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सती प्राचीन चरित्रकोश संजय के मन में सोची हुई बातें इसे ज्ञात होने लगीं। इसी | एक बार बन में लग गये दावानल में धृतराष्ट्र फँस वरदान के साथ साथ, युद्ध में अवध्य एवं अजेय गया। उस समय उसे बचाने की कोशिश इसने की, किंतु रहने का, एवं अत्यधिक परिश्रम करने पर भी थकान | इसके सारे प्रयत्न असफल होने पर, इसने धृतराष्ट्र से प्रतीत न होने का आशीर्वाद भी व्यास के द्वारा इसे | अपना कर्तव्य पूछा । उस समय धृतराष्ट्र ने इससे कहा, प्राप्त हुआ था (म. भी. १६.८-९)। 'मेरे जैसे वानप्रस्थियों के लिए यह मृत्यु अनिष्टयुद्ध-कथन--इसने धृतराष्ट्र से भारतीय युद्ध का जो कारी नहीं है, बल्कि उत्तम ही है । तुम जैसे गृहस्थ धर्मियों वर्णन सुनाया, वह युद्धक्षेत्रीय वृत्तनिवेदन का एक के लिए इस प्रकार आत्मघात करना उचित नहीं है, अतः आदर्श रुप माना जा सकता हैं । कौन वीर किससे लड़ मेरी यही इच्छा है, कि तुम यहा से भाग जाओं'। रहा है, कौन से वाहन पर वह सवार है, एवं कौन से | धृतराष्ट्र के कथनानुसार यह दावानल से निकल पड़ा। अस्त्रों का प्रयोग वह कर रहा है, इन सारी घटनाओं पश्चात् धृतराष्ट्र, गांधारी एवं कुन्ती के साथ भस्म हुआ। की समग्र जानकारी संजय के वृत्तनिवेदन में पायी पश्चात इसने गंगातट पर रहनेवाले तपस्वियों को धृतराष्ट्र जाती है। के दग्ध होने का समाचार सुनाया, एवं यह हिमालय संजय के वृत्ता निवेदनकौशल्य की चरम सीमा इसके की ओर चला गया (म. आश्व. ४५.३३)। 'भगवद्गीता निवेदन' में दिखाई देती है, जहाँ श्रीकृष्ण का सारा तत्त्वज्ञान ही नहीं, बल्कि उसके हावभाव, संजाति--पूरुवंशीय संयाति राजा का नामांतर मुखमुद्रा भी प्रत्यक्ष की भाँति पाठकों के सामने खड़ी हो (संयाति ३. देखिये)। जाती है। . संज्ञा-त्वष्ट की कन्या, जो विवस्वत् की पत्नी थी। युद्ध में उपस्थिति-भारतीय युद्ध में, केवल वृत्त पौराणिक साहित्य के अनुसार, इसे मनु, यम एवं यमी निवेदक के नाते ही नहीं, बल्कि एक योद्धा के नाते नामक संतान उत्पन्न हुई । तत्पश्चात् सूर्य का तेज अधिक भी इसने भाग लिया था । इसने धृष्टद्युम्न पर आक्रमण | काल तक न सह सकने के कारण, इसने छाया नामक अपनी किया था, जिसमें यह उससे परास्त हुआ था। सात्यकि नौकरानी को सूर्य के पास पत्नी के नाते भेज दिया, एवं ने भी इसे एक बार मूछित किया था, एवं जीते जी इसे यह स्वयं तपस्या करने चली गयी (भा. ८.१३.८-९)। • बन्दी बनाया था। आगे चल कर व्यास की कृपा से यह छाया का यम से शनश्चर, मनु सावाण एवं तप सात्यकि के कैदखाने से विमुक्त हुआ था (म. श. २४. नामक तीन संतान उत्पन्न हुए । तीन संतान उत्पन्न होने ५०-५१ )। युद्धभूमि से धृतराष्ट्र को उद्देश्य कर अपने के पश्चात् , यम को छाया का सही रूप ज्ञात हुआ, एवं सारे संदेश दुर्योधन इसीके ही द्वारा भेजा करता था वह संज्ञा को ढूंढने के लिए बाहर निकला । तदुपरान्त (म. श. २८.४८-४९)। | उत्तर कुरु देश के तपोवन में एक अश्वि के रूप में तपस्या - इससे प्रतीत होता है कि, यह युद्धभूमि में स्वयं करनेवाली संज्ञा से उसकी भेंट हुई । उसने अश्व का रूप उपस्थित था। संभव है, यह युद्धभूमि की सारी घटनाएँ धारण कर संज्ञा से संभोग किया, जिससे इसे अश्विनी दिन में देख कर, रात्रि के समय धृतराष्ट्र को बताता कुमार एवं रेवन्त नामक और दो पुत्र उत्पन्न हुए (म. रहा हो। आ. ७.३४; अनु. १००.१७-१८)। युद्धोपरान्त--युद्ध समाप्त हो जाने बाद, इसकी दिव्य- विवस्वत् के तेज का आधिक्य सहन न सकने की दृष्टि विनष्ट हुई (म. सौ. ९.५८)। युधिष्ठिर के राज्या- तकरार इसने अपने पिता विश्वकर्मन् से की। इस कारण रोहण के पश्चात् , उसने इस पर राज्य के आयव्यय | विश्वकर्मन् ने विवस्वत् का बहुत सारा तेज शोषण किया. निरीक्षण का कार्य सौंप दिया था (म. शां. ४१.१०)। एवं उसीसे विष्णु का सुदर्शन चक्र, शिव का त्रिशूल, कुबेर वनगमन--अंत में विदुर की सलाह से यह धृतराष्ट्र । का पुष्पक विमान, एवं कार्तिकेय की शक्ति का निर्माण एवं गांधारी के साथ वन में चला गया (भा. १.१३. किया (ब्रह्मांड. २.२४.९०; सवर्णा एवं छाया देखिये)। २८-५७)। यह वन में धृतराष्ट्र की हर प्रकार की सेवा संज्ञेय--(सो. सह.) सोमवंशीय संहत राजा का करता था, एवं उसके साथ विभिन्न विषयों पर वादसंवाद नामान्तर। भी करता था। । सती--अंगिरस ऋषि की पत्नी, जिसने अथर्वन १००५ Page #1028 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सती प्राचीन चरित्रकोश सत्यकर्मन अंगिरस् को पुत्र के रूप में स्वीकार किया (भा. ६.६. ८. तामस मन्वन्तर का एक देवविशेष । १९)। ९. दक्षसावर्णि मन्वंतर के सप्तर्षियों में से एक। २. दक्ष एवं प्रसूति की कन्या, जो देवी का एक प्रमुख | १०. उत्तम मन्वन्तर का एक अवतार, जो सत्या का अवतार मानी जाती है (देवी तथा शक्ति देखिये) । विष्णु पुत्र माना जाता है । के अंश से यह उत्पन्न हुई (पन. स. १९)। नारी सृष्टि | ११. अट्ठाईस व्यासों में से एक, जो दुसरे द्वापर में का निर्माण करना देवी के इस अवतार का प्रमुख उद्देश्य | उत्पन्न हुआ था। था (शिव. शत. ३; दे. भा. ७)। १२. उच्छवृत्ति नामक ब्राह्मण का अवतार (उच्छइसके पति शिव का अपमान किये जाने के कारण, | वृत्ति देखिये)। यह विदर्भदेश में रहता था, एवं इसने इसके दक्षयज्ञ के अग्निकुण्ड में आत्माहुति देने की कथा | एक अहिंसापूर्ण यज्ञ आयोजित किया था (म. शां. सभी पुराणों में प्राप्त है (भा. ४; वायु. १०.२७; मत्स्य | २६४)। १३.१४-१६; पद्म. सु. ५कालि. १८)। किन्तु शिव १३. सुधामन् देवों में से एक । के द्वारा इसका त्याग किये जाने के कारण, इसके देहत्याग १४. अमिताभ देवों में से एक । करने की चमत्कृतिपूर्ण कथा भी कई पुराणों में प्राप्त है १५. आभूतरजस् देवों में से एक । (शिव. रुद्र. स. २५)। १६. एक आचार्य, जो व्यास की सामशिष्यपरंपरा ३. विश्वामित्रऋषि की पत्नियों में से एक । | में से हिरण्यनाम नामक आचार्य का शिष्य था।' सत्कर्मन् -(सो. अनु.) एक राजा, जो धृतवत | १७. तामस मन्वन्तर का एक देवगण, जिसमें निम्नराजा का पुत्र, एवं अधिरथ राजा का पिता था ( भा. ९. लिखित देव शामिल थे:-१. अश्व; २. आनंद; ३. क्षेम; ४. दिक्पति '.. दिवि; ६. बृहदपु; ७. वचाधामन्; २३.१२)। ८. वाक्यति; ९. विश्व; १०. शंभु; ११. सदश्व; १२. विष्णु एवं वाय में इसे सत्यवर्मन् कहा गया है। यह स्वमृडिक (ब्रह्मांड. २.३४-३५)। स्वयं 'सूतवृत्ति' से रहता था। किन्तु एक ब्राह्मणकन्या १८. युधिष्ठिर की सभा में उपस्थित एक ऋषि (म. स. से इसने विवाह किया था। ४.८)। सत्कृत--पृथक् देवों में से एक। १९. निष्कृति नामक अग्नि का नामान्तर (निष्कृति सत्कृति--संकृति राजा की पत्नी, जो रंतिदेव राजा देखियो । की माता थी। मत्स्य में इसे संकृति राजा के पुत्र महा सत्यक-(सो. वृष्णि.) एक यादव राजा, जो शिनि यशस की कन्या कहा गया है (मत्स्य. ४९.३७ )। राजा का पुत्र, एवं युयुधान (सात्यकि) राजा का पिता सत्य--कलिंग देश का एक योद्धा, जो कलिंगराजा था (म. आ. ५७.८८; भा. ९.२४.१३-१४)। श्रीकृष्ण श्रुतायु का चक्ररक्षक था। भीम ने इसका वध किया के द्वारा रैवतक पर्वत पर आयोजित किये गये उत्सव में (म. भी. ५०.६९)। यह उपस्थित था (म. आ. २११.११)। अभिमन्यु की २. (स्वा. उत्तान.) एक राजा, जो हविर्धान एवं मृत्यु पश्चात् , उसका श्राद्धकर्म इसीके द्वारा किया हविर्धानी के पुत्रों में से एक था। गया था (म. आश्व. ६१.६)। मत्स्य में इसे 'सत्यवत्' ३. उत्तम मन्वन्तर का एक देव विशेष (भा. ८.१०. कहा गया है (मत्स्य. ४५.२२)। २४)। इसका विवाह काशिराज की कन्या से हुआ था, ४. ब्रह्मसावर्णि मन्वन्तर के सप्तर्षियों में से एक (भा. जिससे इसे ककुद, भजमान, शमी एवं कंबलबहिष नामक ८.१३.२२)। पुत्र उत्पन्न हुए थे (वायु, ९६.११५)। ५. दस विश्वेदेवों में से एक (वायु. ६६.५१)। २. रैवत मनु के पुत्रों में से एक। ६. एक राजा, जो वीतहव्यवंशीय वितत्य राजा के ३. कृष्ण एवं भद्रा के पुत्रों में से एक (भा.१०.६१.१७)। पुत्रों में से एक था। इसके पुत्र का नाम संत था (म. ४. तामस मन्वंतर का एक देवगण । अनु. ३०.६२)। सत्यकर्मन्-(सो. अनु.) एक राजा, जो विष्णु ७. एक देव, जो अंगिरस् एवं सुरूपा के पुत्रों में से एवं वायु के अनुसार धृतवत राजा का पुत्र, एवं अतिरंथ एक था (मत्स्य. १९६.२)। राजा का पिता था (वायु. ९९.११७)। १००६ Page #1029 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्यकर्मन् प्राचीन चरित्रकोश सत्यकाम जाबाल सत्यकर्मन त्रैगर्त--त्रिगर्तराज सुशर्मन् का एक भाई, मद्गु नामक जलचर प्राणि का रूप धारण करनेवाले प्राण जो एक 'संशप्तक' योद्धा था (म. द्रो. १६.१७-२०)। ने प्रदान किये। अर्जुन ने इसका वध किया (म. श. २६.३७)। इस प्रकार संपूर्ण ब्रह्मज्ञान प्राप्त कर यह गौतम ऋषि सत्यकाम जाबाल-एक सुविख्यात तत्त्वज्ञ, जो के आश्रम में लौट आया। तत्पश्चात् इसका मुखावलोकन जबाला नामक स्त्री का पुत्र था। मन को ही परब्रह्म मानने कर, गौतम ऋषि ने इससे कहा, 'संपूर्ण ब्रह्मज्ञान तुझे हो वाला यह आचार्य याज्ञवल्क्य वाजसनेय ऋषि का सम- चुका है । जो ज्ञान तुझे हुआ है, उससे बढ़ कर अधिक कालीन था (बृ. उ. ४.१.६ काण्व.)। | ज्ञान इस संसार में कहीं भी प्राप्त होना असंभव है' (छां. उ. ४.४-९)। जन्म-जबाला नामक दासी से किसी अज्ञात पुरुष से यह उत्पन्न हुआ था। इसके जन्म से संबंधित एक ___ तत्त्वज्ञान-आत्मज्ञान की प्राप्ति के लिए सुयोग्य गुरु सविस्तृत कथा छांदोग्य उपनिषद में प्राप्त है, जहाँ उच्च के उपदेश की अत्यधिक आवश्यकता है, ऐसा इसका कुल में जन्म होने की अपेक्षा श्रद्धा एवं तप अधिक श्रेष्ठ । मत था । परमार्थ की साधना के लिए नैतिक सद्गुणों है, यह तत्त्व प्रतिपादित किया गया है। की अत्यधिक आवश्यकता रहती है। किन्तु इस सदा- यह अपनी माता से उस पुरुष के द्वारा उत्पन्न हुआ, चरण के कारण परमार्थ ज्ञान की केवल पूर्वतैयारी मात्र होती है, इस ज्ञान का उपदेश केवल सुयोग्य गुरु ही कर जिसका नाम उसे ज्ञात न था । लज्जा के कारण, उसने सकता है, ऐसा इसका अभिमत था ( छां. उ. ४.१.९)। कभी भी उसका नाम न पूछा था। इसके जन्म के इसका यह अभिमत समस्त औपनिषदिक वाङ्मय में पुनः पश्चात् थोडे ही दिनों में इसका पिता मृत हो गया, जिस पुनः पाया जाता है। कारण इसे अपने पिता का नाम सदैव अज्ञात ही रहा। ___ अंतिम सत्य की व्याख्या औपनिषदिक साहित्य में आगे चल कर यह गौतम हारिद्रुमत नामक आचार्य अनेक प्रकार से की गयी है। इस अंतिम तत्त्व का के पास शिक्षा पाने के लिए गया। वहाँ गौतम ऋषि के द्वारा साक्षात्कार मानवी इंद्रियों के द्वारा नहीं, बल्कि मानवी मन इसका गोत्र आदि पूछे जाने पर इसने उसे अपनी सारी | से होता है, ऐसे कथन करनेवाले आचार्यों में सत्यकाम हकीकत कह सुनायी, एवं कहा, 'मेरा जन्म ऐसे पिता से जाबाल प्रमुख माना जाता है। इसके इसी अभिमत का हुआ है, जिसका नाम मुझसे अज्ञात है। मेरी माता का। विकास आगे चल कर याज्ञवल्क्य वाजसनेय ने किया, जबाला नाम ही केवल मुझे ज्ञात है। जिसने संसार के अंतिम तत्त्व का साक्षात्कार केवल इस के सत्यभाषण के कारण गौतम ऋषि अत्यधिक आत्मा के द्वारा हो सकता है, यह तत्त्व प्रस्थापित किया प्रसन्न हुए, एवं उसने इसका उपनयन कर इसे ब्रह्मचर्य (याज्ञवल्क्य वाजसनेय देखिये )। व्रत की दीक्षा दी। सृष्टि का आद्य अधिष्ठान-सृष्टि का मूल कारण सूर्य, शिक्षा--तदुपरान्त यह गौतम ऋषि के आश्रम चंद्र, विद्युत् आदि पंचमहाभूत न हो कर, आँखों से में ही रह कर अध्ययन करने लगा। इसी कार्य में यह प्रतीत होनेवाले आद्य पुरुष के दर्शन से ही सृष्टि के अनेक वर्षों तक अरण्य में रहा। छांदोग्य-उपनिषद में प्राप्त मूल कारण का ज्ञान हो सकता है, ऐसा इसका अभिमत रूपकात्मक निर्देश से प्रतीत होता है कि, यह चारसौगायें | था । औपनिषदिक तत्त्वज्ञान की उत्क्रान्ति के इतिहास में ले कर अरण्य में गया, एवं उनकी संख्या एक सहस्र होने पंचमहाभूतों को सृष्टि का आधार मानने की शुरु में के काल तक यह अरण्य में रहा। प्रवृत्ति थी । इस प्रवृत्ति को हटा कर पंचेंद्रियों को सृष्टि ब्रह्मज्ञान की प्राप्ति--इसे ब्रह्मज्ञान की प्राप्ति किस | का आद्य अधिष्ठान माननेवाले कई आचार्यों की परंपरा प्रकार हुई, इसकी सविस्तृत जानकारी छांदोग्य-उपनिषद | आगे चल कर उत्पन्न हुई, जिसमें सत्यकाम जाबाल प्रमुख में प्राप्त है। वायु देवता के अंश से उत्पन्न हुए एक वृषभ था। इसी कल्पना का विकास आगे चल कर याज्ञवल्क्य ने इसे ब्रहाज्ञान का चौथा हिस्सा सिखाया। आगे चल वाजसनेय ने किया, जिसने सृष्टि के आद्य अधिष्ठान के कर गौतम ऋषि के आश्रम में स्थित अग्नि ने इसे ब्रह्मज्ञान | रूप में मानवी आमा को दृढ रूप से प्रतिष्ठापित किया। का अन्य चौथा हिस्सा सिखाया। ब्रह्मज्ञान के बाकी दो सत्यकाम-उपकोसल संवाद--सत्यकाम के इसी तत्त्वहिसे इसे हंस का रूप धारण करनेवाले आदित्य ने, एवं ज्ञान का रूपकात्मक चित्रण करनेवाली एक कथा छांदोग्य १००७ Page #1030 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्यकाम जाबाल प्राचीन चरित्रकोश सत्यतपस् ९)। उपनिषद में प्राप्त है । इसके उपकोसल नामक शिष्य ने सत्यकामा--भङ्गकार राजा की कन्या, जो श्रीकृष्ण बारह वर्षों तक इसके आश्रम में रह कर अध्ययन किया। | की पत्नी थी। आगे चल कर सृष्टि के अंतिम सत्य का ज्ञान प्राप्त करने सत्यकेतु-(सो. क्षत्र.) एक महापराक्रमी राजा, के लिए उपकोसल अरण्य में गया। वहाँ उसके द्वारा | जो भागवत, विष्णु एवं वायु के अनुसार धर्म केतु राजा उपासित 'गार्हपत्य', 'अन्वाहार्य' एवं 'आहवनीय' | का पुत्र, एवं धृष्टकेतु राजा का पिता था (भा. ९.१७.८नामक तीन अनि मनुष्य रूप धारण कर उसके सम्मुख उपस्थित हुए, एवं उन्होंने सृष्टि का अंतिम तत्त्व क्रमशः २. एक यक्ष, जिसने उग्रसेन राजा की पत्नी पद्मावती सूर्य, चंद्र, एवं विद्यत् में रहने का ज्ञान इसे प्रदान किया। का हरण किया था ( गोभिल २. देखिये)। आगे चल कर उपकोसल ने अग्नि देवताओं के द्वारा प्राम। सत्यघोष--एक शूद्र, जिसके पुत्रों के नाम गर एवं हुए आत्मज्ञान की कहानी इसे कथन की। उस समय उसे | सगर थे (पा. क्रि. ३)। प्राप्त इए ज्ञान की विफलता बताते हुए इसने उसे कहा, सत्यजित्-एक नाग, जो कश्यप एवं कद्र के पुत्रों में 'अग्नि देवताओं ने जो ज्ञान तुझे बताया है, वह अपूर्ण | से एक था। है । सृष्टि के अंतिम तत्त्व का दर्शन सूर्य, चंद्र एवं विद्युत् २. उत्तम मन्वन्तर का इंद्र (भा. ८.१.२४) । में नहीं, बल्कि मनुष्य के आँखों में दिखाई देनेवाले इस ३. एक यक्ष, जो कार्तिक माह के विष्णु के साथ भ्रमण संसार की प्रतिबिंब में ही पाया जाता है। तत्त्वज्ञ जिसे करता है। अमृत, अभय, एवं तेजःपुंज आत्मा बताते हैं, वह इस ४. एक यादव राजा, जो आनक एवं कंका का पुत्र था प्रतिबिंब में ही स्थित है । (भा. ९.२४.४१)। सत्यकाम के इस तत्त्वज्ञान में आधिभौतिक सृष्टि कनिष्ठ । ५. (सो. मगध. भविष्य.) एक राजा, जो सुनीथ राजा मान कर मानवी देहात्मा उससे अधिक श्रेष्ठ बताया गया का पुत्र, एवं विश्वजित् राजा का पिता था । वायु एवं ब्रह्मांड है। इस प्रकार बाह्य सृष्टि को छोड़ कर मानवी शरीर । में इसे सुनेत्र राजा का पुत्र कहा गया है (भा.९.२२.४९)। की ओर तत्त्वज्ञों की विचारधारा इसने केंद्रित की, यही । ६. पांचाल देश के द्रुपद राजा का भाई, जो भारतीय इसके तत्त्वज्ञान की श्रेष्ठता कहीं जा सकती है। युद्ध में द्रोण के द्वारा मारा गया (म. आ. परि. १.७८ ७९; द्रो. २०.१६)। अन्य निर्देश--शतपथ ब्राह्मण, बृहदारण्यक उपनिषद ७. मरुतो के द्वितीय गण में से एक (वायु. ६७.१२४)। आदि ग्रंथों में इसके अभिमतों के उद्धरण अनेक बार पाये सत्यज्योति-मरुतों के प्रथम.गण में से एक (वायु, जाते हैं। इनमें से शतपथ ब्राह्मण में यज्ञहोम के संबंध में इसका अभिमत पेंग्य ऋषि के साथ उद्धत किया गया ६७.१२३)। है (श. ब्रा. १३.५.३.१)। राज्याभिषेक के समय पठन सत्यतपस्--उतथ्य नामक ऋषि का नामान्तर । इसे किये जानेवाले मंत्र का इसके द्वारा सूचित किया गया एक 'सत्यवत' नामान्तर भी प्राप्त था । यह सदैव सत्यभाषण विभिन्न पाठ ऐतरेय ब्राह्मण में प्राप्त है (ऐ. बा. ८.७)। ही करता था, जिस कारण इसे 'सत्यतपस्' एवं 'सत्यव्रत' मैत्रि उपनिषद में भी इसके नाम का निर्देश प्राप्त है नाम प्राप्त हुए थे। सत्य हमेशा सापेक्ष रहता है, इस तत्त्व (मै. उ. ६.५)। किन्तु अन्य उपनिषद ग्रंथों में निर्दिष्ट का प्रतिपादन करने के लिए इसकी कथा देवी भागवत में सत्यकाम से यह आचार्य अलग प्रतीत होता है। दी गयी है (दे. भा. ३.११)। यह शुरु में अत्यंत आचारहीन एवं विद्याहीन पुरुष २. एक आचार्य, जो जानकि आयस्थूण नामक था। किन्तु एक बार सहज ही इसके मुख से 'ऐ' नामक आचार्य का शिष्य था (बृ. उ. ६.३.१२ काण्व.)। 'सारस्वत बीजमंत्र का उच्चारण होने के कारण, यह सत्यकाम शैब्य-एक तत्त्वज्ञ आचार्य, जो आत्मज्ञान ऋषि बन गया, एवं सत्यकथन की विभिन्न मर्यादा इसे प्राप्त करने के हेतु पिप्पलाद के पास गये हुए पाँच ज्ञात हुई। आचार्यों में से एक था । प्रणव का ध्यान करने से आत्मज्ञान एक बार एक व्याध एक वराह का पीछा करता हुआ प्राप्त होता है, या नहीं, इस संबंध में इसने पिप्पलाद से | इसके पास आया, एवं इससे वराह का पता पूछने लगा। प्रश्न पूछे थे (प्र. उ. १.१, ५.१)। इस समय अपने सत्यकथन से वराह की मृत्यु हो १००८ Page #1031 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्यतपस् । प्राचीन चरित्रकोश सत्यभामा जायेगी, यह जान कर इस सत्यप्रतिज्ञ मुनि ने मौन ३. पांचालराज द्रपद का एक पुत्र, जो भारतीय युद्ध धारण किया। में द्रोण के द्वारा मारा गया (म. क. ४.८१)। २. एक ऋषि, जिसने अपने तप को भंग करने के ४. (सो. वसु.) एक राजा, जो विष्णु के अनुसार लिए आयी हुई अप्सरा को वेर का वृक्ष बनने का शाप | सारण राजा का पुत्र था (विष्णु. ४.१५.२१)। दिया था। आगे चल कर उन अप्सराओं का भरत ऋषि | ५. (सो. ऋक्ष.) ऋक्षवंशीय सत्यधृत राजा का नामांतर ने उद्धार किया (पद्म. उ. १७८; भरत १०. देखिये)। (सत्यधत देखिये)। ३. एक कृष्णभक्त ऋषि, जो अपने अगले जन्म में ६. (सू. निमि.) एक राजा, जो विष्णु के अनुसार भद्रा नामक गोपी बन गया। | महावीर्य राजा का पुत्र था। वायु एवं भागवत में इसे सत्यतर-एक आचार्य, जो वायु एवं ब्रह्मांड के | सुधृति कहा गया है। अनुसार व्यास की ऋक् शिष्यपरंपरा में से सत्यहित नामक | ७. बलराम के पुत्रों में से एक (ब्रह्मांड. ३.७१. आचार्य का पुत्र एवं शिष्य था (वायु. ६०.२९)। । १६६)। सत्यदृष्टि-पृथुक देवों में से एक। सत्यधृति क्षौमि--पाण्डवपक्ष का एक योद्धा, जो क्षेम सत्यदेव--कलिंग देश का एक योद्धा, जो कलिंगराज | राजा का पुत्र था (म. द्रो. २२.४८)। अतायु का चक्ररक्षक था । भारतीय युद्ध में भीमसेन ने सत्यधृति वारुण--एक वैदिक सूक्तद्रष्टा (ऋ. इसका वध किया (म. भी. ५०.६९)। १०.१८५)। सत्यदेवी-देवक राजा की कन्या, जो वसुदेव की । सत्यधृति सौचित्य-पाण्डव पक्ष का एक महारथी सात पत्नियों में से एक थी (मत्स्य. ४४.७३)। योद्धा, जो सुचित्त राजा का पुत्र था (म. उ. परि. १.१४. सत्यधर्म-धर्मसावर्णि मनु के पुत्रों में से एक। | १२)। पाण्डवपक्ष में इसकी श्रेणि 'रथोदार' थी, एवं स्वयं सत्यधर्मन-एक राजा, जिसकी कथा गंगास्नान एवं भीष्म ने भी इसके युद्धकौशल्य की स्तुति की थी। यह नामस्मरण का माहात्म्य बताने के लिए पद्म में दी. गयी | अस्त्रविद्या, धनुर्वेद एवं ब्राह्मवेद में पारंगत था (म. द्रो. है (पझ. क्रि. ९)। २२.४८)। सत्यधर्मन् त्रैगर्त--त्रिगर्तराज सुशर्मन् का एक द्रौपदी स्वयंवर में यह उपस्थित था। इसके रथ के भाई; जो एक 'संशप्तक.' योद्धा था (म. द्रो. १६.१७ | अश्व लाल रंग के थे, एवं सुवर्णमय विचित्र कवचों से वे । २०)। अर्जुन ने इसका वध किया (म. श. २६.३६)। सुशोभित थे । भारतीय युद्ध के आरंभ में इसने घटोत्कच की सत्यधर्मन् सोमक-सोमकवंशीय राजकुमार, जो । सहायता की थी (म. भी. ८९.१२)। अंत में द्रोण भारतीय युद्ध में पाण्डवों के पक्ष में शामिल था (म. उ. ने इसका वध किया (म. क. ४.८३)।। . ३९.२५)। सत्यध्वज-(सू. निमि.) विदेह देश का एक राजा, जो ऊर्जवह राजा का पुत्र था। भागवत एवं वायु में इसे सत्यधृत--(सो. ऋक्ष.) एक राजा, जो विष्णु के क्रमशः 'सनद्वाज' एवं 'सुतद्वाज' कहा गया है । इसके पुत्र . अनुसार पुष्पवत् राजा का पुत्र, एवं सुधन्वन् राजा का का नाम शकुनि था। पिता था । भागवत एवं वायु में इसे 'सत्यहित', एवं मत्स्य | . में 'सत्यधृति' कहा गया है। सत्यनेत्र--वैवस्वत मन्वन्तर के सप्तर्षियों में से एक। सत्यधृति--(सो. द्विमीढ.) एक राजा, जो भागवत | सत्यपाल--युधिष्ठिर की सभा में उपस्थित एक ऋषि के अनुसार कृतिमत् राजा का, तथा मत्स्य एवं वायु के | (म. स. ४.१२)। अनुसार धृतिमत् राजा का पुत्र था (भा. ९.२१.२७; | सत्यभामा--श्रीकृष्ण की रानी, जो यादवराजा मत्स्य. ४९.७०)। सत्राजित् (भङ्गकार) की कन्या थी। सत्राजित् राजा ने २. एक ऋषि, जो शतानंद ऋषि का पुत्र, एवं शरद्वत् स्यमंतक मणि के चोरी का झूटा दोष कृष्ण पर लगाया । गौतम ऋषि का पिता था (भा. ९.२१.३५)। भागवत में | इस संबंध में कृष्ण संपूर्णतया निर्दोष है, इसका सबूत प्राप्त प्राप्त इस निर्देश से यह शरदूत गौतम ऋषि का नामान्तर | होने पर सत्राजित् ने कृष्ण से क्षमा माँगी, एवं अपनी प्रतीत होता है। | ज्येष्ठ कन्या सत्यभामा उसे विवाह में अर्पित की। इसके प्रा. च. १२७] १००९ Page #1032 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्यभामा प्राचीन चरित्रकोश सत्यरथ विवाह के समय, सत्राजित् ने स्यमंतक मणि भी वरदक्षिणा वह इसे बताये। उस समय इसका मज़ाक उड़ाने के हेतु के रूप में देना चाहा, किंतु कृष्ण ने उसे लौटा दिया। नारद ने इसे कहा कि, पारिजात वृक्ष का एवं स्वयं श्रीकृष्ण इसे सत्या नामान्तर भी प्राप्त था। यह अत्यंत का दान उसे कर देने से उसकी यह इच्छा पूरी हो सकती स्वरूपसुंदर थी, एवं अक्रूर आदि अनेक यादव राजा है। नारद की यह सलाह सच मान कर इसने इन दोनों का इससे विवाह करना चाहते थे। किन्तु उन्हें टाल कर दान नारद को कर दिया। पश्चात् अपनी भूल ज्ञात होने सत्राजित् ने इसका विवाह कृष्ण से कर दिया। पर इसने नारद से क्षमा माँगी, एवं उसे विपुल दक्षिणा प्रासाद--श्रीकृष्ण के द्वारा द्वारका नगरी में इसके प्रदान कर कृष्ण एवं पारिजात उससे पुनः प्राप्त किये। लिए एक भव्य प्रासाद बनवाया गया था, जिसका नाम कृष्णनिर्वाण के पश्चात्--कृष्ण का निर्वाण होने के शीतवत् था (म. स. परि. १.२१.१२४१)। पश्चात् , यह स्वर्गलोक की प्राप्ति करने के हेतु तपस्या करने सत्राजित् का वध-आगे चल कर कृष्ण जब बलराम के लिए वन में चली गयी (म. मौ. ८.७२)। के साथ पाण्डवा से मिलन हास्तनापुर गया था, वहा परिवार-इसकी संतान की नामावलि विभिन्न पुराणों सअवसर समझ कर यादवराजा शतधन्वन् ने इसके पिता में प्राप्त है, जो निम्न प्रकार है:-१. विष्ण --भानु एवं सत्राजित का वध किया। अपने पिता की मृत्यु के पश्चात् भैमरिक (विष्णु, ५.३२.१);२. भागवत में-भानु, मुभानु, इसने उसका शरार तल आदि द्रन्या म सुराक्षत रखा, स्वर्भानु, प्रभानु वृहद्भानु, भानुमत् , चंद्रभानु, अतिभानु एवं यह श्रीकृष्ण को बुलाने के लिए हस्तिनापुर गयी। | श्रीभानु एवं प्रतिभानु (भा. १०.६१.१०);३. ब्रह्मांड पश्चात् इसीके द्वारा प्रार्थना किये जाने पर श्रीकृष्ण ने एवं वायु में-सानु, भानु, अक्ष, रोहित, मंत्रय, जरांधक, शतधन्वन का वध किया (सत्राजित् देखिये)। ताभ्रवक्ष, भौभरि, जाधम नामक पुत्र; एवं भानु, भौमरिका, पारिजात वृक्ष की प्राप्ति-नरकासुर के युद्ध के समय, एवं ताम्रपर्णी, जरंधमा नामक कन्याएँ (ब्रांड. ३.७१, ण कइद्रलाक गमन क समय, यह उसके साथ उपस्थित २४७; वायु. ९६.२४०)। थी। स्वर्ग की इसी यात्रा में इसने पारिजात वृक्ष को सत्ययन पौलषि प्राचीनयोग्य--एक आचार्य, दाखा । आग चल कर नारद क द्वारा लाय गय पारिजात पुष्प, जो पुटप एवं प्राचीनयोग नामक आचार्यों का वंशज था कृष्ण ने इसे न दे कर, अपनी रुक्मिणी आदि अन्य रानियों य रानिया (श. ब्रा. १०.६.१.१; छां. उ. ५.११.१)। कई अन्य को दे दिया। इस कारण क्रुद्ध हो कर इसने कृष्ण से ग्रंथों में. इसे 'पुलुप प्राचीनयोग्य' भी कहा गया है प्राथना का कि. वह दद्र स युद्ध कर उसस पारजात-वृक्ष । / मासा प्राप्त करे। तदनुसार कृष्ण ने पारिजात वृक्ष की प्राप्ति कर ली (भा. १०.५९; ह. वं २.६४-७३; विष्णु. सत्ययज्ञ पौलुषित--एक आचार्य (जै. उ. बा. १. सत्यरता--एक केकय राजकन्या, जिसका विवाह. द्वौपड़ी से उपदेश-पाण्डवों के वनवास काल में यह अयोध्या के सत्यव्रत त्रिशंकु से हुआ था (वायु. ८८. श्रीकृष्ण के साथ उनसे मिलने गयी थी। उस समय इसने द्रौपदी से पूछा था कि, अपने पति को वश करने के लिए स्त्री को क्या करना चाहिए। उस समय द्रौपदी ने सत्यस्थ--(सू. निमि.) विदेह देश का एक राजा, इसे सलाह दी. 'अहंकार छोड़ कर निर्दोष वृत्ति से पति जो भागवत के अनुसार समरथ राजा का, एवं विष्णु के की सेवा करना ही पति की प्रीति प्राप्त करने का अनुसार मीनरथ राजा का पुत्र था। इसके पुत्र का नाम उत्कृष्ट साधन है। मैं ने स्वयं ही यही मार्ग अनुसरण उपगुरु था (भा. ९.१३.२४)। किया है। २. (सो. अनु.) एक राजा, जो मत्स्य के अनुसार __ भोलापन-इसका भोलापन एवं कृष्ण की प्रीति प्राप्त | चित्ररथ राजा का पुत्र था (मत्स्य. ४८.९४)। करने के लिए इसके विभिन्न प्रयत्न आदि की अनेक ३. (सू. इ.) एक राजा, जो मत्स्य के अनुसार सत्यत्रत रोचक कथाएँ पौराणिक साहित्य में प्राप्त हैं। एक बार राजा का पुत्र था (मत्स्य. १२.३७)। इसने नारद से प्रार्थना की कि, पति के रूप में श्रीकृष्ण ४. विदर्भ देश का एक राजा, जिसे सत्यसंध नामांतर उसे अगले जन्म में प्राप्त होने के लिए कोई न कोई व्रत भी प्राप्त था (स्कंद. ३.३.६ )। शिवपूजा का माहात्म्य १०१० Page #1033 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्यरथ . प्राचीन चरित्रकोश सत्यवमन् कथन करने क लिए इसकी कथा 'शिवपुराण' में दी गयी | एक पुरुष, एवं यह बाहर निकल पड़े। मछली से उत्पन्न है ( शिव. शत. ३१; पांड्य २. देखिये)। होने के कारण, इसकी शरीर से महली की गंध आती सत्यरथ चैगर्त-एक राजकुमार, जो त्रिगतराज थी। इसी कारण यह 'मत्स्यगंधा' नाम से प्रसिद्ध हुई। सुशर्मन् का भाई था। अपने पाँच 'रथी' (रथोदार) क्षत्रियकुलोत्पन्न वसु राजा की कन्या होने के कारण, यह बन्धुओं का यह नेता था (म. उ. १६३.११)। वयं क्षत्रियकन्या थी (स्कंद. ५.३.९७)। भारतीय युद्ध में एक संशप्तक योद्धा के नाते यह | वेदव्यास का जन्म--आगे चल कर यमुना नदी के कौरवों के पक्ष में शामिल था, एवं इसने अर्जुन को मारने मल्लाहों ने इसे पाल पोस कर बड़ा किया, एवं यह अपने की प्रतिज्ञा की थी (म.द्रो. १६.१७-२०)। किन्तु अंत | पिता की सेवा के लिए यमुना नदी में नाव चलाने का काम में अर्जुन ने इसका वध किया (म. श. २६.४६)। करने लगी (म. आ. ५७.५०-६९)। एक दिन सत्यवचस् राथीतर--एक तत्त्वज्ञ आचार्य, जो पराशर ऋषि ने इसे देखा, एवं इसके साथ समागम की सत्यकथन का विशेष पुरस्कर्ता था (ते. उ. १.९.१)। इच्छा प्रकट की। पराशर ऋषि से इसे वेदव्यास पाराशय रथीतर का वंशज होने से, इसे · राथीतर' पैतृक नाम नामक सुविख्यात पुत्र की उत्पत्ति हुई (म. आ. ५७. प्राप्त हुआ था। . . ८४-८५, पराशर देखिये)। सत्यवत्-एक राजा, जो शाल्वनरेश द्युमत्सेन का शांतनु से विवाह- इस प्रकार इसके कौमार्यावस्था में पुत्र, एवं मद्रराज अश्वपति की कन्या सावित्री का पति | ही व्यास का जन्म होने के पश्चात्, शांतनु राजा से इसका था। इसे बचपन से अश्वों के चित्र चित्रित करने का शोक | विवाह हुआ, जिससे इसे चित्रांगद एवं विचित्रवीर्य नामक था, जिस कारण इसे 'चित्राश्च' नामांतर भी प्राप्त था। दो पुत्र उत्पन्न हुए। इस अल्पायु राजकुमार के प्राण यमधर्म के पंजे से | चित्रांगद एवं विचित्रवीर्य ये इसके दोनों ही पुत्र निपुत्रिक उड़ाने का कार्य इसकी पत्नी सावित्री ने अपने पातिव्रत्य- अवस्था में मृत हुए। अतः कुरुवंश का निवेश न हो इस सामर्थ्य से किया. जिस कारण ये दोनों अमर हो गये हेतु से, इसने अपनी स्नुषा अंबिका एवं अंबालिका को अपने (सावित्री देखिये)। पुत्र व्यास से पुत्र उत्पन्न करने की आज्ञा दी । ये पुत्र ... ३. ( सो. वृष्णि.) यादववंशीय सत्यक राजा का आगे चल कर धृतराष्ट्र एवं पाण्डु नाम से प्रसिद्ध हुए। नामांतर । मत्स्य में इसे शिनि राजा का पुत्र कहा गया है. २. जमदग्नि ऋषि की माता, जो गाधि राजा की कन्या, (सत्यक ४. देखिये)। ऋचीक ऋषि की पत्नी, एवं विश्वामित्र ऋषि की बहन थी। ४. तेजपूर नगरी का एक राजा, जो ऋतंभर राजा का | एक हजार श्यामकर्ण अश्व ले कर गाधि राजा ने पत्र था। इसका पिता ऋतंभर परम रामभक्त, गो-सेवक इसका विवाह ऋचीक ऋषि से किया था (ऋचीक एवं दानी राजा था। राम के अश्वमेध यज्ञ के समय, उसका | देखिये)। जमदग्नि के अतिरिक्त इसके शुनःपुच्छ. अतःदोप अश्वमेधीय अश्व शत्रुघ्न के द्वारा इसकी नगरी में लाया एवं शुनोलांगूल नामक अन्य तीन पुत्र थे (वायु. ९१.९२; गया। उस समय इसने शत्रुघ्न का सहर्ष स्वागत किया, ब्रह्मांड. ३.६६.६४)। अपने पातिव्रत्य धर्म के कारण, यह एवं अश्वरक्षक बन कर उसके साथ यह आगे बढ़ा (पद्म, मृत्यु के पश्चात् स्वर्गलोक चली गयी, एवं अपने अगले जन्म पा. ३०-३२)। | में कौशिकी नदी के रूप में पुनः पृथ्वी पर अवतीर्ण हुई। सत्यवती-शांतनु राजा की पत्नी, जो चित्रांगद एवं ३. अगस्त्य पत्नी लोपामुद्रा का नामांतर । विचित्रवीर्य राजाओं की माता थी। इसे 'काली', ४. अयोध्या के हरिश्चंद्र शंकव नामक राजा की 'मत्स्यगंधा,' 'गंधवती,' 'योजनगंधा,' 'गंधकाली | माता, जो त्रिशंकु राजा की पत्नी थी। आदि नामान्तर भी प्राप्त थे। ५. सुबाहु राजा की पत्नी । राम के अश्वमेध यज्ञ के जन्म--यह उपरिचर वसु राजा की कन्या थी। समय जो ' दंपती' अश्व को नहलाने के लिए सरस्वती इसकी माता का नाम अद्रिका था, जो ब्रह्मा के शाप के नदी के तट पर गये थे, उनमें यह एवं इसका पति सुबह कारण मछली का स्वरूप प्राप्त हुई अप्सरा थी। आगे एक थे (पद्म. पा. ६७)। चल कर, कई मल्लाहों ने अद्रिका मछली को पकड़ लिया, सत्यवर्मन् त्रैगत--त्रिगर्तराज सुशर्मन् का एक एवं उस मछली का पेट चीर दिया, जिससे मत्स्य नामक | भाई, जो 'संशप्तक' योद्धाओं में से एक था (म. द्रो. २०११ Page #1034 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्यवर्मन् प्राचीन चरित्रकोश सत्यश्रवस १६.१७-२०)। भारतीय युद्ध में अर्जुन ने इसका वध | जगमगाती रहेगी। उसी समय एक प्रचंड मछली के रूप किया (म. श. २६.४६ )। में मैं आऊंगा। उस समय.वासुकि सर्प की रस्सी बना कर सत्यवाच-एक देवगंधर्व, जो कश्यप एवं मुनि के | तुम अपनी नौका मेरे सिंग से बाँधना । ब्रह्मा की रात्रि पुत्रों में से एक था। अर्थात् 'ब्राह्मप्रलय' समाप्त होने तक मैं तुम्हें, एवं तुम्हारी २. एक राजा, जो चाक्षुष मनु एवं नड्वला के पुत्रों में | नौका को सुरक्षित स्थान पर बाँध कर रवगा । प्रलय समात से एक था। इसे सत्यवत् नामान्तर भी प्राप्त था (भा. होने पर मैं तुम्हें आत्मज्ञान का उपदेश दूंगा'। ४.१३.१६)। ____ आत्मज्ञान की प्राप्ति-ब्राह्मप्रलय समाप्त होने पर ३. रैवत मनु के पुत्रों में से एक। मत्स्य ने इसे ज्ञान, योग एवं क्रिया का उपदेश दिया, एवं ४. सावर्णि मनु के पुत्रों में से एक। आत्मज्ञानस्वरूपी मत्स्यपुराण का इसे कथन किया। सत्यव्रत--अयोध्या के त्रिशंकु राजा का नामान्तर अन्त में मत्स्य की ही कृपा से यह श्राद्धदेव नामक (त्रिशंकु देखिये)। भागवत में इसे त्रिबंधन राजा का वैवस्वत मनु बन गया। पुत्र कहा गया है (भा. ९.७.५)। . सत्यव्रत-कथा का अन्वयार्थ-मत्स्य पुराण के टीकाकार २. द्रविड देश का एक राजा, जो भगवान् विष्णु के | श्रीधर के अनुसार, सत्यव्रत के आयुःकाल में हुआ जलमत्स्यावतार की कृपा से श्राद्धदेव (वैवस्वत मनु) | प्रलय पृथ्वी का आद्य प्रलय न हो कर, भगवान विष्णु बन गया (भा. ८.२४.१०; मत्स्य. १.२, २९०)। की माया से उत्पन्न हुआ एक 'प्रलयाभास' था, जो पुराणों में प्राप्त इसकी जीवनकथा वैवस्वत मनु के जीवन सत्यव्रत के मन में वैराग्यभावना उत्पन्न करने के लिए, एवं चरित्र में वर्णित मत्स्यावतार से संबंधित कथा से काफ़ी अपने स्वयं के सामर्थ्य के साक्षात्कार की प्रचीति इसे देने के लिए निर्माण किया गया था। इसी प्रकार का अन्य मिलती जुलती है। फर्क सिर्फ इतना ही है कि, इन दाक्षिणात्य पुराणों में वैवस्वत मनु का मूल नाम मन नहीं, बल्कि एक प्रलयाभास विष्णु के द्वारा मार्कडेय ऋपि को दिखाया सत्यव्रत बताया गया है। गया था। तपस्या--अपने राज्य का भार अपने पुत्रों पर सौंप ३.(सो. कुरु.) धृतराष्ट्रपुत्र 'सत्यसंध' का नामांतर। कर, यह मलय पर्वत से उद्भव पानेवाली कृतमाला नदी ४. सत्यतपस् नामक ऋषि का नामान्तर (सत्यतपस् के तट पर तपस्या करने के लिए गया । आधुनिक मदुरा | १. देखिये)। नगरी, जिस वैणा नदी के तट पर बसी हुई है, वही नदी | ५. एक ऋषिसमुदाय, जो धर्मऋषि की संतान मानी प्राचीन काल में कृतमाला नाम से सुविख्यात थी (मार्क. जाती है। ५७: विष्णु. २.३)। पश्चात् विष्णु ने इसे पृथ्वी पर स्थित सत्यव्रत त्रैगर्त--त्रिगर्तराज सुशर्मन का एक भाई, समस्त स्थिरचर प्रदेशों का राजा बनने का आशीवाद | जो संशप्तक योद्धाओं में से एक था (म. द्रो. १६.१७दिया (मत्स्य.१)। २०)।भारतीय युद्ध में अर्जुन ने इसका वध किया। मत्स्यावतार--मत्स्य के अनुसार, एक बार नैमित्तिक सत्यव्रता-धृतराष्ट्र की एक पत्नी, जो गांधारराज ब्राह्मप्रलय के समय हयग्रीव नामक राक्षस ने ब्रह्मा से वेद | सुबल की कन्या, एवं गांधारी की कनिष्ठ भगिनी थी। चुरा लिये। उन्हें पुनः प्राप्त करने के लिए विष्णु ने पुनः सत्यश्रवस्--(सू. नरि.) एक राजा, जो भागवत एक बार मत्स्यावतार धारण किया। विष्णु का यह मत्स्या-: | के अनुसार वीतिहोत्र राजा का पुत्र, एवं उन्श्रवस् राज वतार सत्यव्रत राजा के करांजलि में एक छोटी सी मछली | का पिता था (भा. ९.२.२०)। के रूप में अवतीर्ण हुआ। अवतीर्ण होते ही, थोड़े ही दिन में आनेवाले ब्राह्मप्रलय की सूचना उसने इस राजा २. कौरव पक्ष का योद्धा, जो अभिमन्य के द्वारा को दी (मत्स्य. २.३)। मारा गया (म. द्रो. ४४.३)। उस समय मत्स्यस्वरूपी श्रीविष्णु ने इससे कहा, 'प्रलय ३. एक आचार्य, जो वायु के अनुसार व्यास की के समय, एक नौका तुझे लेने आयेगी, जिसमें अपने ऋशिष्यपरंपरा में से मार्कडेय ऋषि का पुत्र एवं शिष्य परिवार के सभी लोगों को तुम बिठाना । उस समय समस्त था। ब्रह्मांड में इसे मांडुकेय ऋषि का पुत्र एवं शिष्य कहा पृथ्वी पर अंधःकार होगा, फिर भी यह नौका प्रकाश से | गया है (वायु. ६०. २८)। १०१२ Page #1035 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्यश्रवस् सत्यश्रवस् आत्रेय -- एक वैदिक सूक्तद्रष्टा (ऋ ५.७९-८० ) । ऋग्वेद में अन्यत्र इसे वाय्य सत्यश्रवस् कहा गया है (ऋ. १.७९.२ ) प्राचीन चरित्रकोश सत्यश्रवस् वाय्य एक ऋषि, जिसका निर्देश उपन के कृपापात्र व्यक्ति के नाते ऋग्वेद में प्राप्त (ऋ. ५.७९.२) । ऋग्वेद में अन्यत्र निर्दिष्ट सत्यश्रवस् आत्रेय, एवं सुनीथ शौचद्रथ संभवतः यही होगा । लुडविग के अनुसार, यह सुनीथ शौचद्रथ का पुत्र था ( लुडविग ऋग्वेद अनुवाद २.१५६ ) । वच्य का वंशज होने से इसे 'वाय्य' पैतृकनाम प्राप्त हुआ होगा । सत्यश्रीय- एक आचार्य, जो वायु एवं ब्रह्मांड के अनुसार व्यास पी ऋशिष्यपरंपरा में से सत्यहित ( सत्यतर ) नामक 'आचार्य का पुत्र एवं शिष्य था । इसके शिष्यों के नाम शाकल्य, रथीतर, एवं बाष्कलि थे । सत्यसंध - एक प्रजाहितदक्ष राजा, जिसने अपने प्राणों का त्याग कर एक ब्राह्मण की रक्षा की थी ( म. शां. २२६.१६ ) । " २. (सो. कुरु. ) धृतराष्ट्र के शतपुत्रों में से एक। इसे सत्यत्रत एवं संघ नामान्तर भी प्राप्त थे। कौरव पक्ष के ग्यारह महारथियों में से यह एक था । अभिमन्यु, सात्यकि सुषेण आदि राजाओं से इसका युद्ध हुआ था अन्त में भीमसेन के द्वारा यह मारा गया ( म. क. ६२. २२-५ पाठ.) । ( सत्यरथ ५. देखिये) । ४. मित्र के द्वारा स्कंद को दिये गये दो पार्षदों में से • एक । अन्य पार्षद का नाम सुव्रत था। सत्यसहस्-एक राजा, जो रुद्रसावार्ण मन्वन्तर के स्वधामन् नामक अवतार का पिता था। इसकी पत्नी का नाम सुनता था (भा. ८.१.२५ ) । सत्यसेन--उत्तम मन्वन्तर का एक अवतार, जो धर्म एवं मुरता का पुत्र था ( मा. ८.१.२५ ) । २. अंगराज कर्ण का एक पुत्र, जो भारतीय युद्ध में नकुल के द्वारा मारा गया ( म. श. ९.२१ ३९ ) । ३. धृतराष्ट्र के सत्यसंध नामक पुत्र का नामांतर । सत्यसेन रैगर्त – त्रिगर्त राजा सुशर्मन् का एक भाई, जो अर्जुन के द्वारा मारा गया ( म. क. १९.३ - १७ ) । - सत्याषाढ -एक अध्वर्यु एवं आचार्य (मै. सं. १. सत्यहविस ९.१.१५ ) । सत्यहित - ( सो. ऋक्ष. ) ऋक्षवंशीय सत्यधृत राजा का नामान्तर । ४. कोसल देश के नग्नजित् राजा की कन्या, जो श्रीकृष्ण की पटरानी थी। इसके स्वयंवर के समय इसके पिता ने शर्त रखी थी कि सात मस्त डों के साथ जो लड़ेगा उसके साथ इसका विवाह किया जायेगा । यह शर्त जीत कर कृष्ण , ने इसका वरण किया (भा. १०.५८.३२-४७) । अपने विवाह का वृत्तांत इसने द्रौपदी से कथन किया था ( भा. १०. ८३.१३ ) । अपने पूर्वजन्म में किये विष्णुभक्ति ३. सत्यरथ नामक विदर्भ देश के राजा का नामान्तर के कारण, कृष्णपत्नी बनने का भाग्य इसे प्राप्त हुआ । २. एक आचार्य, जो वायु एवं ब्रह्मांड के अनुसार व्यास की ऋशिष्यपरंपरा में से सत्यश्रवस् नामक आचार्य का पुत्र एवं शिष्य था । सत्यसेना -- धृतराष्ट्र की एक पत्नी, जो गांधारराज सुबल की कन्या एवं गांधारी की कनिष्ठ बहन थी । २. (सो. प्रो.) एक यादव राजा, जो पुष्पवत् राजा का पुत्र एवं सुधन्वन् राज का पिता था। सत्या --मन्यु राजा की पत्नी, जो भौवन राजा की की माता थी ( भा. ५.१५.१५ ) । २. धर्म की कन्या, जो शंयु नामक अग्नि की पत्नी थी। इसे भरद्वाज नामक एक पुत्र एवं तीन कन्याएँ उत्पन्न हुई थी ( म. व. २०९.४ ) । ३. मगध देश के बृहद्रथ राजा की पत्नी, जो जरासंध राजा की माता थी । परिवार कृष्ण से इसे निम्नलिखित पुत्र उत्पन्न हुए थे : -- वीर, चंद्र, अश्वसेन, चित्रगु, वेगवत्, वृष, आम, शंकु, वसु एवं कुन्ति (भा. १०.६१.१३ ) । ५. उत्तम मन्वन्तर के सत्य नामक अवतार की माता ( विष्णु. ३.१.३८ ) । ६. बृहन्मनस् राजा की पत्नी, जो शैब्य नामक राजा की कन्या, एवं विजय नामक राजा की माता थी (मत्स्य. ४८.१०५)। सत्याधिकवाच् चैत्ररथि – एक आचार्य (जै. उ. ब्रा. १.३९.१ ) । पुत्र का नामान्तर (मा. ९.१५.१ ) । सत्यायु-- (सो. पुरूरवस्. ) शतायु नामक पुरूरवस सत्याषाढ एक आचार्य, जो कृष्णयजुर्वेद के तैतिरीय शाखान्तर्गत हिरण्यकेशिन् नामक शाखा का प्रवर्तक आचार्य माना जाता है। यद्यपि इसका सही नाम सत्या १०१३ Page #1036 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्याषाढ प्राचीन चरित्रकोश सत्राजित् पाढ था. फिर भी यह हिरण्य के शिन् नाम से ही सुवि- श्रीकृष्ण पर चोरी का दोषारोप--बहुत समय तक ख्यात था (हिरण्यकेशिन् देखिये)। प्रसेन के वापस न आने पर, इसके मन में संशय उत्पन्न सत्येयु--( सो. पूरु.) एक पूरुवंशीय राजा, जो हुआ कि, श्रीकृष्ण के द्वारा ही प्रसेन का वध हुआ है, एवं रुद्राश्व एवं मिश्रकेशी अप्सरा का पुत्र था (म. आ. ८९. | यह क्रूरकर्म करने में उसका हेतु स्यमंतक मणि की प्राप्ति १०)। के सिवा और कुछ नहीं है । इस कारण प्रसेन का खूनी सत्येष गर्त-त्रिगर्तराज सुशर्मन् का एक भाई, | एवं स्यमंतक मणि के अपहर्ता के नाते, यह श्रीकृष्ण पर जो भारतीय युद्ध में अर्जुन के द्वारा मारा गया (म. श. | प्रकट रूप में दोषारोप करने लगा। इस कारण यादव २६.२९)। राजसमूह में श्रीकृष्ण की काफी वेइज्जती होने लगी। सत्राजित् अथवा सत्राजित-(सो. वृष्णि.) एक स्यमंतक मणि की खोज--इस कारण श्रीकृष्ण ने सुविख्यात यादव राजा, जो निम्न राजा का पुत्र था (भा. उपयुक्त दोषारोप से छुटकारा पाने के लिए, स्यमंतक ९.२४) । ब्रह्मांड एवं विष्णु में इसे विघ्न राजा का पुत्र | मणि की खोज़ शुरु की। खोजते खोजते कृष्ण जांबवत कहा गया है । विष्णु, ५.१३.१०, ब्रह्मांड. ३.७१.२१)।। की गुफा में पहुँच गया, जहाँ जांबवत् से अबाईस दिनों इसे शक्तिसेन नामांतर भी प्राप्त था (मत्स्य. ४५.३; तक युद्ध कर उसे परास्त किया, एवं उससे स्यमंतक मणि पद्म. सृ. १३)। इसके जुड़वे भाई का नाम प्रसेन था पुनः प्राप्त किया। पश्चात् कृष्ण ने वह मणि इसे वापस (भा. ९.२४.१३)। सत्यभामा के पिता, एवं स्यमंतक | दिया, एवं उसकी चोरी के संबंध में सारी घटनाएँ इससे. मणि के स्वामी के नाते यादव वंश के इतिहास में इसका | कह सुनायीं। नाम अत्यधिक प्रसिद्ध था। कृष्ण सत्यभामा विवाह---स्यमंतक मणि के संबंध में पूर्वजन्म-पूर्वजन्म में यह मायापुरी में रहनेवाला सत्य हकीकत ज्ञात होते ही, इसने कृष्ण से क्षमा माँगी, . देवशर्मन नामक ब्राह्मण था, एवं इसकी कन्या का नाम एवं अपनी कन्या सत्यभामा का उससे विवाह कर दिया। गणवती था, जो इस जन्म में इसकी सत्यभामा नामक विवाह के समय, इसने कृष्ण को वरदक्षिणा के रूप में कन्या बनी थी। स्यमंतक मणि देना चाहा, किंतु श्रीकृष्ण ने उसे लेने से स्यमंतक मणि की प्राप्ति--सूर्य के प्रसाद से इसे इन्कार किया, एवं उसे इसके पास ही रख दिया। . स्यमंतक नामक एक अत्यंत तेजस्वी मणि प्राप्त हुई थी वध-आगे चल कर, कृष्ण जब हस्तिनापुर में पांडवों (भा. १०.५५.३)। इस मणि में रोगनाशक एवं समृद्धि से मिलने गया था, यही सुअवसर समझ कर, अक्रर एवं वर्धक अनेकानेक देवी गुण थे। यही नहीं, यह मणि प्रति- | ली थे। यही नहीं यह मणि प्रति कृतवर्मन् आदि यादव राजाओं ने इसका वध करने का दिन आठ भार वर्ण देती थी। यह मणि सूर्य के षड्यंत्र रचा । ये दोनों यादव राजा सत्यभामा से विवाह समान तेजस्वी थी, एवं इसे धारण करनेवाला व्यक्ति करना चाहते थे, एवं उन्हें टाल कर कृष्ण को जमाई साक्षात् सूर्य ही प्रतीत होता था। | बनानेवाले सत्राजित् से अत्यधिक रुष्ट थे। एक बार कृष्ण ने इसके पास स्यमंतक मणि देखा, इसी कारण उन्होंने शतधन्वन् नामक अपने कनिष्ठ जिसे देख कर उसने चाहा कि, मथुरा के राजा उग्रसेन भाई को इसका वध कर, स्यमंतक मणि की चोरी करने के पास यह मणि रहे तो अच्छा होगा। इस हेतु कृष्ण स्वयं | की आज्ञा दी। तदनुसार शतधन्वन् ने इसका निद्रित इसके प्रासाद में आया, एवं किसी भी शर्त पर यह मणि अवस्था में ही वध किया, एवं स्यमंतक मणि चुरा लिया उग्रसेन राजा को देने के लिए इससे प्रार्थना की। किन्तु (भा. १०.५७.५)। अपने मृत्यु के पश्चात, सूर्योपासना इसने कृष्ण इस माँग को साफ इन्कार कर दिया। के पुण्य के कारण इसे मुक्ति प्राप्त हुई (भवि. ब्राहा. तदुपरांत एक दिन इसका भाई प्रसेन स्यमंतक मणि ११६-११७)। अपने पिता के निर्धण वध की वार्ता गले में पहन कर शिकार करने गया । वहाँ एक सिंह ने | सत्यभामा ने श्रीकृष्ण से कथन की, एवं किसी भी प्रकार उसका वध किया, एवं वह दैवी मणि ले कर अपनी गुहा शतधन्वन् का वध करने की इसे प्रार्थना की। की ओर जाने लगा। इतने में जांबवत् नामक राक्षस ने ___ शतधन्वन् का वध-पश्चात् शतधन्वन् का पीछा मणि की प्राप्ति की इच्छा से उस सिंह का वध किया, करता श्रीकृष्ण आनर्त देश पहुँच गया। यह ज्ञात होते एवं वह मणि छीन लिया। ही शतधन्वन् ने स्यमंतक मणि अकर के पास दिया, २०१४ Page #1037 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्राजित् प्राचीन चरित्रकोश सनक एवं वह स्वयं विदेह देश भाग गया। वहाँ मिथिला- | का निर्देश 'सत्वत्' और ' सत्वन्' (ऐ. बा. ८.१४; नगरी के समीप स्थित जंगल में श्रीकृष्ण ने उसका वध २.२५) नाम से किया गया है। किया, किंतु फिर भी स्यमंतक मणि की प्राप्ति न होने के कौषीतकि उपनिषद में भी इन लोगों का निर्देश मत्स्य कारण, निराश हो कर वह द्वारका-नगरी पहुँच गया। लोगों के साथ प्राप्त है (को. उ. ४.१)। किन्तु वहाँ पश्चात् मणि अकर के पास ही है, एवं उससे वह प्राप्त इनके नाम का मूल पाठ 'वसत् ' है। करना मुश्किल है. यह जान कर कृष्ण ने उससे संधि की, सत्वत-यादववंशीय सात्वत राजा का नामांतर एवं सारे निकटवर्ती लोगों को इकठा कर वह मणि अपर (सात्वत देखिये)। को दे दिया। । सत्वदंत--एक यादव राजकुमार, जो वसुदेव एवं भद्रा के पुत्रों में से एक था (वायु. ९६.१७१)। निरुका में--न्यमंतक मणि से संबधित उपर्युक्त कथा | सद-एक देव, जो अंगिरा एवं सुरूषा के पुत्रों में से का निर्देश यस्क के निरुक्त में प्राप्त है, जहाँ अक्रूर मणि | एक था (मत्स्य. १९६.२)। धारण करता है (अऋो ददने मणिम् ), इस वाक्य २. (सो. कुरु.) धृतराष्ट्र के शत पुत्रों में से एक । प्रयोग का निर्देश एक कहावत के नाते दिया गया है सदश्व--सत्यदेवों में से एक। (नि..२.११)। इस निर्देश से स्यमंतक मणि के २. (सो. पूरु.) एक राजा, जो विष्णु, वायु, एवं मत्स्य संबंधित उपर्यवत कथा की प्राचीनता एवं ऐतिहासिकता के अनुसार समर राजा का पुत्र था (मत्स्य. ४९.५४)। स्पष्टरूप ने प्रतीत होती है। कई अभ्यासकों के अनुसार, मुगल राज्य में सुविख्यात कोहिनूर ही प्राचीन स्यमंतक ३. यमसभा में उपस्थित एक राजा (म. स.८.१२)। मणि है। सदसस्पति--कश्यप एवं सुरभि का एक पुत्र । २. ग्यारह रुद्रों में से एक (वायु. ६६.६९)। परिवार--इसकी कुल दस पत्नियाँ थी, जो कैकयराज सदस्यवत् अथवा सदस्यमत्--अंगिराकुलोत्पन्न की कन्याएँ थी। इनमें से वीरवती (द्वारवती) इसकी एक गोत्रकार, एवं मंत्रकार। पटरानी थी (ब्रांड. ३.७१.५६; मत्स्य. ४५.१७-१९)। । सदस्यु--आंगिरस कुलांतर्गत कुत्स गोत्री · लोगों का इसके कुल एक सौ एक पुत्र थे, जिनमें से प्रमुख पुत्रों एक प्रवर। की नामावलि विभिन्न पुराणों में विभिन्न दी गयी है : । सदस्योर्मि-यमसभा में उपस्थित एक राजा । पाठभेद १. ब्रह्मांड में-भङ्गकार, वातपति, एवं तपस्वी नामक तीन (भांडारकर संहिता)-सदश्वोमि । पुत्र, एवं सत्यभामा, तिनी एवं दृढव्रता नामक तीन मटाटक राजा जो वाय के अनमार कन्याएँ (ब्रह्मांड. ३.७१.५४-५७); २. वायु में-भङ्गकार, नगरी में राज्य करता था। ब्रह्मांड में इसे विदिशा-नगरी 'तपति, एवं तपस्वांत (वायु. ३४.५३); ३. ब्रह्म में- का नागवंशीय राजा कहा गया है। वसुमेध, भङ्गकार एवं वातपति (ब्रह्म. १६.४६)। सदापण आत्रेय--एक वैदिक सूक्तद्रष्टा (ऋ. ५. सत्राजिती--कृष्णपत्नी सत्यभामा का नामांतर ४५)। ऋग्वेद के कई मंत्रों में भी इसका निर्देश प्राप्त (विष्णु. ५.२८.५)। है (ऋ. ५.४४.५२)। सत्रायण--बृहद्भानु नामक इंद्रसावर्णि मन्वंतर के सद्योजात--शिव के अवतारों में से एक। अवतार का पिता । इसकी पत्नी का नाम विताना था। सध्रि काण्व--एक ऋषि (ऋ. ५.४४.१०)। सत्व--रैवत मनु का एक पुत्र (मत्स्य. ९.२१)। सध्रि वैरूप--एक वैदिक सूक्तद्रष्टा (ऋ. १०. २. (मो. कुरु.) धृतराष्ट्र के शतपुत्रों में से एक। | ११४)। ३. (सो. कोधु.) एक यादव राजा, जो पुरुबह राजा सध्वंस काण्व-एक वैदिक सूक्तद्रष्टा (इ. ८.८)। का पुत्र, एवं सात्वत राजा का पिता था (वायु. ९५.४७)। सनक--ब्रह्मा के चार मानसपुत्रों में से एक, जो सत्वत्-एक जातिविशेष, जो भारतवर्ष के दक्षिण साक्षात् विष्णु का अवतार माना जाता है। इसके साथ विभाग में बसी हुई थी। भरत ने इन राजाओं को परास्त उत्पन्न हुए ब्रह्मा के अन्य तीन मानसपुत्रों के नाम सनकिया, एवं इनका अश्वमेधीय अश्व भी छीन लिया था। कुमार, सनंद, एवं सनातन थे (भा. २.७.५: सनत्कुमार (श. ब्रा. १३.५.४.२१)। ऐतरेय ब्राह्मण में इन लोगों | देखिये)। १०१५ Page #1038 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सनक प्राचीन चरित्रकोश सनत्कुमार ब्रह्मा के ये चारों ही पुत्र, कुमार के रूप में उत्पन्न सनत्कुमार-एक सुविख्यात तत्त्ववेत्ता आचार्य, जो हुए थे, एवं बालक के समान दिखते थे, जिस कारण | साक्षात् विष्णु का अवतार माना जाता है। इसे 'सनत्कुमार', इन्हें कुमार कहा जाता था। 'कुमार' आदि नामांतर भी प्राप्त है । सनत्कुमार का | शब्दशः अर्थ 'जीवन्मुक्त' होता है (म. शां. ३२६. पौराणिक साहित्य में--विष्णु के एक अवतार के ३५)। यह एवं इसके भाई कुमारावस्था में ही उत्पन्न नाते इनका निर्देश विभिन्न पुराणों में प्राप्त है । यह एवं हुए थे, जिस कारण, ये 'कुमार' सामूहिक नाम से इसके भाई जन्म से अत्यधिक विरक्त थे, एवं ब्रह्मा प्रसिद्ध थे। के मानसपुत्र होते हुए भी इन्होंने कभी भी प्रजोत्पादन _ब्रह्ममानसपुत्र-विष्णु के अवतार माने गये ब्रह्ममानसनहीं किया (पद्म. सु. ३.)। एक बार यह अपने पुत्रों की नामावलि महाभारत एवं पुराणों में प्राप्त है :बंधुओं के साथ वैकुंठ गया, जहाँ जय एवं विजय नामक | (१) महाभारत में-इस ग्रंथ में इनकी संख्या सात द्वारपालों ने इसे अंदर जाने से मना किया। इस कारण बतायी गयी है, एवं इनके नाम निम्न दिये गये है :इसने इस दोनों द्वारपालों को शाप दिया (भा. ७.१. १. सन;२. सनत्सुजात; ३. सनक; ४. सनंदन, ४. सन३५)। गंगा नदी के सीता नामक नदी के तट पर कुमार; ६. कपिल; ७. सनातन (म. शां. ३२७.६४इसका नारद के साथ तत्त्वज्ञान पर संवाद हुआ था ६६)। महाभारत में अन्यत्र 'ऋभु' को भी इनके साथ (नारद. १.१-२)। निर्दिष्ट किया गया है (म. उ. ४१.२-५)। .. पारस्कर गृह्यसूत्रों के तर्पण में इसका एवं सनत्कुमार (२) हरिवंश में--इस ग्रंथ में इनकी संख्या सात को छोड़ कर इसके अन्य दो भाइयों का निर्देश प्राप्त हैं, बतायी गयी है :--१. सनक; २. सनंदन; ३. सनातन; एवं ये कंक नामक शिवावतार के शिष्य बताये गये हैं। ४. सनत्कुमार; ५. स्कंद; ६. नारद एवं ७. रुद्र ( ह. वं... निंबार्क के द्वारा प्रणीत कृष्ण एवं राधा के उपासना १.१.३४-३७)। सांप्रदाय, 'सनक सांप्रदाय' नाम से सुविख्यात है, जहाँ (३) भागवत में--इस ग्रंथ में इनकी संख्या चार सनक के रूप में ही कृष्ण की पूजा की जाती है (राधा बतायी गयी है:-१. सनक; २. सनंदन; ३. सनत्कुमार; देखिये )। इसके नाम पर 'सनकसंहिता' नामक एक ग्रंथ एवं ४. सनातन (भा. २.७.५, ३.१२.४; ४.८.१ )। भी उपलब्ध है, जिसमें इसे भृगुकुलोत्पन्न कहा गया है | गुणवर्णन--ये ब्रह्मज्ञानी, निवृत्तिमार्गी, गेगवेत्ता, (C.C.)। इससे प्रतीत होता है कि, इस ग्रंथ की रचना सांख्याज्ञान विशारद, धर्मशास्त्रज्ञ, एवं मोक्षधर्म-प्रवर्तक करनेवाला आचार्य स्वयं यह न हो कर, इसकी उपासना थे (म. शां. ३२७.६६)। ये विरक्त, ज्ञानी, एवं करनेवाला अन्य कोई ऋषि था। . क्रियारहित (निष्क्रिय) थे (भा. २.७.५)। ये निरपेक्ष, २. एक असुर गण, जो वृत्र का अनुयायी था (ऋ.१. वीतराग, एवं निरिच्छ थे (वायु. ६.७१)। ये सर्व३३.४)। गामी, चिरंजीव, एवं इच्छानुगामी थे.(ह. बं. १.१.३४सनक काप्य-एक आचार्य, जो काप्य नामक आचार्य | ३७)। अत्यधिक विरक्त होने के कारण, इन्होंने प्रजा द्वयों में से एक था। इसके साथी दूसरे आचार्य का नाम | निर्माण से इन्कार किया था (विष्णु. १.७.६)। नवक था। इन दोनों ने विभिन्दुकियों के यज्ञ में भाग लिया निवासस्थान--इनका निवास हिमगिरि पर था, जहाँ था (जै. ब्रा. ३.२३३ )। लुडविग के अनुसार, ऋग्वेद | विभांडक ऋषि इनसे मिलने गये थे । अपने इसी निवासमें भी एक यज्ञकर्ता आचार्यद्वय के रूप में इनका निर्देश | स्थान से इन्होंने विभांडक को ज्ञानोपदेश किया था (म. प्राप्त है (ऋ. १.३३.४)। किन्तु इस संबंध में निश्चित- | शां. परि. १.२०)।। रूप से कहना कठिन है। ____ उपदेशप्रदान-इसने निम्नलिखित साधकों को ज्ञान, सनग-एक आचार्य, जो परमेष्ठिन् नामक आचार्य वैराग्य, एवं आत्मज्ञान का उपदेश किया था :--१. का शिष्य, एवं सनातन नामक आचार्य का गुरु था (बृ. नारद-आत्मज्ञान (छां. उ..७.१.१.२६); एवं भागवत उ. २.६.३, ४.६.३ काण्व; श. बा.४१.७.३.२८)। । का महत्त्व (पद्म. उ. १९३-१९८); २. सांख्यायन-- सनति-(सो. द्विमीढ.) एक राजा, जो वायु के | भागवत (भा. ३.८.७), ३. वृत्रासुर-विष्णुमाहात्म्य अनुसार सन्ततिमत् राजा का पुत्र था (वायु. ९९.१८९)।। (म. शां. २७१); ४. रुद्र-तत्त्वसृष्टि (म. अनु. १६५. १०१६ Page #1039 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सनत्कुमार प्राचीन चरित्रकोश सनत्कुमार १६), ५. विभिन्न ऋषिसमुदाय--भगवत्स्वरूप (म. शां. शंकराचार्य आदि आचार्यों ने इस पर स्वतंत्र भाष्य की परि. १.२०); विश्वावसु गंधर्व--आत्मज्ञान (म. शां. भी रचना की है। ३०६.५९-६१); ७. पृतराष्ट्र-धर्मज्ञान (म. उ. पृथ्वी पर अवतार--कृष्णपुत्र प्रद्यन्न इसका ही ४२-४५); ८. ऐल--श्राद्ध (विष्णु. ३.१४.११)। - अवतार माना जाता है (म. आ. ६१.९१)। प्रद्युम्न की - सात्वत धर्म का उपदेश--सात्वत धर्म की आचार्य- मृत्यु होने पर, वह इस के ही स्वरूप में विलीन हुआ परंपरा में सनत्कुमार एक सर्वश्रेष्ठ आचार्य माना जाता | (म. स्व. ५.११)। है। इस धर्म का ज्ञान सर्वप्रथम ब्रह्मा ने इसे प्रदान तत्त्वज्ञान--नारद को उपदेशप्रदान करनेवाला सनकिया, जो आगे चल कर इसने वीरण प्रजापति को दे दिया त्कुमार एक श्रेष्ठ उपनिषद्कालीन तत्त्वज्ञ माना जाता है। (म. शां. ३३६.३७)। इसका समग्र तत्त्वज्ञान इस के द्वारा नारद को दिये गये आगे चल कर सनत्कुमार का यही उपदेश नारद ने उपदेश में प्राप्त है, जो छांदोग्योपनिषद में ग्रथित किया शुक को प्रदान किया, जिसका सार निम्नप्रकार बताया गया है। अपने उस उपदेश में इसने 'आध्यात्मिक सुखगया है :-- वाद' का प्रतिपादन किया है। इस तत्त्वज्ञान के अनुसार, नास्ति विद्यासमं चक्षु नास्ति सत्यसमं तपः । आध्यात्मिक सुख प्राप्ति के लिए मनुष्य कर्म करता है, नास्ति रागसमं दुःखं नास्ति त्यागसमं सुखम् ॥ जिससे आगे चल कर श्रद्धा निर्माण होती है। इसी श्रद्धा से ज्ञान की प्राप्ति होती है, जो आगे चल कर आत्मज्ञान . (म. शां. ३१६.६)। कराती है। अपने इस तत्त्वज्ञान में, आत्मानुभूति की (विद्या के समान श्रेष्ठ नेत्र इस संसार में नहीं है। | नैतिक सोपानपंक्ति सनत्कुमार के द्वारा सुख, कर्म, श्रद्धा, साथ ही साथ, सत्य के समान श्रेष्ठ तप, राग के समान ज्ञान, एवं साक्षात्कार, इस प्रकार बतायी गयी है (छां. उ. बड़ा दुःख, एवं त्याग के समान श्रेष्ठ सुख भी इस संसार ७.१७-२२)। में अन्य कोई नहीं है)। भूमन् ' तत्त्वज्ञान-सनत्कुमार के द्वारा की गयी नारद के द्वारा प्राप्त इस उपदेश के कारण, शुक ने 'भूमन् ' शब्द की मीमांसा इसके तत्त्वज्ञान का एक परंधाम जाने का निश्चय किया, एवं वह आदित्यलोक में महत्त्वपूर्ण भाग मानी जाती है । इस तत्त्वज्ञान के . प्रविष्ट हुआ (शुक वैयासकि देखिये)। अनुसार सृष्टि के हरएक वस्तुमात्र में एक ही परमात्मा · धृतराष्ट्र से उपदेश-महाभारत के 'प्रजागर' नामक | का साक्षात्कार होने की अवस्था को 'भूमन् ' कहा गया उपपर्व में धृतराष्ट्र को सनत्कुमार के द्वारा दिया है । इस साक्षात्कार से मनुष्य को अत्युच्च आनंद की • 'तत्त्वोपदेश प्राप्त है, जो 'सनत्सुजातीय' नाम से सुविख्यात प्राप्ति होती है, जिसकी तुलना में स्त्री, भूमि, ऐश्वर्य आदि है। यह उपदेश कृष्ण दौत्य के पूर्वरात्रि में सनत्सुजात के | ऐहिक वस्तुओं से प्राप्त होनेवाला आनंद यःकश्चित् द्वारा दिया गया था (विदुर देखिये)। प्रतीत होता है (छां. उ. ७.२३-२४)। . उस उपदेश में मानवीय आयुष्य की मृत्यु को इसने सनकुमार के अनुसार, साधक को जब आत्मज्ञान भ्रममूलक बता कर, मनुष्य की सही मृत्यु उसके द्वारा की प्राप्ति होती है (सोऽई आत्मा), उस समय उसे किये गथे प्रमादों में है, ऐसा कथन किया है। इन प्रमादों | 'भूमन् ' तत्त्व का संपूर्ण ज्ञान प्राप्त होता है (छां. उ. से बचने के लिए, मौनादि साधनों का उपयोग करने का. ७.२५)। इस प्रकार, आत्मा ही इस सृष्टी के उत्पत्ति का एवं क्रोधादि दोषों को दूर रखने का उपदेश इसने धृतराष्ट | कारण है, एवं इसी आत्मा से मानवीय आशा एवं स्मृति को दिया। क्रोधादि दोषों का त्याग करने से, एवं मौनादि निर्माण होती है। इसी आत्मा से सृष्टि के हरएक वस्तु गुणों का संग्रह करने से, मनुष्य न केवल प्रमादों से दूर का विकास होता है, एवं विनाश के पश्चात् सृष्टि की रहता है, किन्तु उसे ब्रह्मज्ञान की प्राप्ति भी होती है, | हरएक वस्तु इसी आत्मा में ही विलीन होती है, ऐसा ऐसा अपना अभिमत इसने स्पष्टरूप से कथन किया है सनत्कुमार का अभिमत था। (म. उ. ४२-४५)। __ ग्रंथ-इसके नाम पर निम्नलिखित ग्रंथ एवं आख्यान __ महाभारत में प्राप्त यह 'सनत्सुजातीय' उपदेश भगवद्- प्राप्त हैं:-- १. सनत्कुमार उपपुराण ( कूर्म. पूर्व. १. गीता के समान ही महत्त्वपूर्ण माना जाता है। आद्य | १७); २, सनत्सुजातीय आख्यान (म. उ. ४२-४५, प्रा. च. १२८] १०१७ Page #1040 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सनत्कुमार प्राचीन चरित्रकोश संध्या 101 शांकरभाष्य के सहित ); ३. सनत्कुमार संहिता (शिव. | सनेयक--(सो. पुरूरवस . ) एक राजा, जो मत्त्य के स्कंद. सूतसंहिता. १.२२.२४), ४. सनकुमार वास्तुशास्त्र | अनुसार भद्राश्व राजा का पुत्र था (मत्स्य. ४९.५)। ५. सनत्कुमार तंत्र; ६. सनत्कुमार कल्प (C.C.)। संत-एक राजा, जो वीतहव्यवंशीय सल्य राजा का २. आय नामक वसु का पुत्र (ब्रहाांड ३.३.२४)। | पुत्र था। इसके पुत्र का नाम श्रवस् था (म. अनु. ३०. ३. स्कंद का नामांतर। ६२)। कुंभकोणम् संस्करण में इसे 'शिव' कहा गया है सनत्सुजात-सनत्कुमार नामक आचाय का नामांतर | (म. अनु. ८.६२.कं.)। . (सनत्कुमार १. देखिये)। संतति--(सो. क्षत्र.) क्षत्रवंशीय सन्नति राजा का सनद्वाज--(सो. निमि.) एक राजा, जो शुचि नामांतर (सन्नति २. देखिये)। राजा का पुत्र, एवं अध्यकतु राजा का पिता था। इसे | २. दक्ष की एक कन्या. जो कत की पत्नी थी। वालखिल्य सत्यध्वज नामांतर भी प्राप्त था। इसीके ही संतान माने जाते हैं। २. अंगिराकुलोत्पन्न एक मंत्रकार। संततेयु--(सो. पूरु.) एक राजा, जो भागवत एवं सनंदन--सनक नामक आचार्य का नामांतर (सनक | विष्णु के अनुसार रौद्राश्व राजा का पुत्र था (भा.९.२०. १. देखिये)। | ४)। सनश्रुत--एक आचार्य । इसे सोम की विशेष संतर्जन--स्कंद का एक सैनिक (मः श. ४४.५३)। परंपरा अग्नि के द्वारा प्राप्त हुई थी, जो इसने आगे संतर्दन--एक राजकुमार, जो केकयराज धृष्टकेतु का चल कर अपने अरिंदम नामक शिष्य को प्रदान की थी पुत्र था । युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में यह उपस्थित था (ऐ. ब्रा. ७. ३४)। कई अभ्यासक इसे एक राजा मानते हैं, एवं 'अरिंदम' । (भा. ९.२४.३८)। इसका पैतृक नाम बताते हैं (वैदिक इंडेक्स २.४६६ )। ।। संतानिका--स्कंद की अनुचरी एक मातृका (म. सनातन-ब्रह्मन् के बालब्रह्मचारिन् मानसपुत्रों में से | श. ४५.९)। एक, जो 'कुमार' सामूहिक नाम से प्रसिद्ध थे (सन- संतोष--एक तुपित देव, जो यज्ञ एवं दक्षिणा का कुमार देखिये )। तैत्तिरीय संहिता में इसका निर्देश प्राप्त पुत्र था (भा. ४.११७ )। है, जहाँ यज्ञ के इष्टकों के उपाधान के समय, पूर्व, दक्षिण, २. धर्म एवं तुष्टि का एक पुत्र, जिसे हर्ष नामान्तर भी पश्चिम एवं उत्तर दिशाओं में सानग, सनातन, अहभून प्राप्त था (वायु. १०.३४)। एवं प्रत्न नामक ब्रह्ममानसपुत्रों का निवास बताया गया है | ___ संधग--(सो. क्रोष्टु.) एक राजा, जो विष्णु के (ते. सं. ४.३.३.१)। युधिष्ठिर की मयसभा में भी यह | अनुसार शूर राजा का पुत्र था। अपने अन्य बन्धुओं के साथ उपस्थित था। संधि--(सू. इ.) एक राजा, जो भागवत के अनुसार बृहदारण्यक उपनिषद में इसे सनग नामक आचार्य प्रसुश्रुत राजा का पुत्र, एवं अमर्षण राजा का पिता था । का शिष्य, एवं सनारु नामक आचार्य का गुरु कहा गया (भा. ९.१२.७ )। विष्णु एवं वायु में इसे क्रमशः हैं (बृ. उ. २.६.३ काण्व.)। 'सुगवि' एवं ' सुसंधि' कहा गया है। . २. तामस मनु के पुत्रों में से एक। संध्य--ब्रह्मा के द्वारा उत्पन्न ग्यारह रुद्रों में से एक सनाच्छव--एक आचार्य (क. सं. २०.१)। (पद्म. सृ. ४०)। कपिष्ठल संहिता में इसे 'शहनाच्छिव' कहा गया है (कपि. सं. ३१.३)। संध्या--ब्रह्मा की एक मानसकन्या । इसके प्रति ब्रह्मा सनारु--एक आचार्य, जो सनातन नामक आचार्य | के मन में कामवासना उत्पन्न हुई, जिस कारण इसने देहका शिष्य, एवं व्यष्टि नामक आचार्य का गुरु था (श.बा. त्याग किया। अपने अगले जन्म में यह वसिष्ठपत्नी १४.७.३.२८; बृ. उ. २.६.३; ४.६.३ काण्व.)। अरुंधती बनी (शिव. रुद्र. स. ५, कालि. २२-२३)। २. एक ऋपि, जिसके पुत्र का नाम उपजंध था। २. पुलस्त्य ऋषि की पत्नी (म. उ. ११५.११)। शिवपूजा का माहात्म्य कथन करने के लिए इसकी कथा ३. एक राक्षसी, जो विद्युत् केशिन् राक्षस की पत्नी कंद में दी गयी है (स्कंद. ४.२.९४)। । सालकटंकटा की माता थी। १०१८ Page #1041 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्नति प्राचीन चरित्रकोश सप्तर्षि सन्नति-ब्रह्मदत्त (प्रथम) राजा की तपस्विनी पत्नी, सप्तग आंगिरस--एक वैदिक सूक्तद्रष्टा (ऋ. १०. जिसने अपने पति के साथ मानससरोवर में तपस्या की | ४७)। इसके द्वारा विरचित सूक्त के अंतिम ऋचा में थी (पद्म. सु. १०)। | इसने स्वयं को अंगिरस्कुलोत्पन्न (आंगिरस) बताया है । २. (सो. क्षत्र.) एक राजा, जो विष्णु एवं वायु के ___ सप्तजित्-एक दानव, जो कश्यप एवं दनु के पुत्रों अनुसार अलके राजा का पुत्र था। भागवत में इसे संतति में से एक था (मत्स्य. ६.१९)। कहा गया है, एवं इसके पत्र का नाम सुनीथ दिया गया। सप्तति--(मौर्य. भविष्य.) एक राजा, जो मत्स्य के है (भा. ९.१७.८)। अनुसार दशरथ राजा का पुत्र था। सप्तपाल--युधिष्ठिरसभा में उपस्थित एक ऋषि (म. सन्नतिमत्-(सो. द्विमीढ.) एक राजा, जो स. ४.१२)। पाठभेद (भांडारकर संहिता)-'सत्यपाल'। . भागवत, विष्णु, मत्स्य एवं वायु के अनुसार सुमति राजा सप्तराच--वरुण के पुत्रों में से एक। . का पुत्र था। इसके पुत्र का नाम कृति था (भा. ९. सप्तवार-गरुड की प्रमुख संतानों में से एक २१.२८)। (म. उ. )। सन्नतेयु--(सो. पूरु.) एक राजा, जो पूरु राजा का सप्तर्षि--सात ऋषियों का एक समुदाय, जिनका निर्देश पौत्र, एवं रोद्राश्व राजा का पुत्र था। इसकी माता का ऋग्वेद सर्वानुक्रमणी, महाभारत एवं पुराणों में प्राप्त है। नाम मिश्रकेशी अप्सरा था (म. आ. ८९.१०)। इसने पौराणिक साहित्य में निर्दिष्ट मन्वन्तरों की तालिका में हर इंद्रको परास्त किया था। इसके निम्नलिखित भाई थे:-- एक मन्वन्तर के लिए विभिन्न सप्तर्षि बताये गये हैं। १. रुचेयु; २. पक्षंयु; ३. कृकणेयु; ४. स्थंडिलेयु; ५. | इस प्रकार चौदह मन्वन्तरों के लिए ९८ सप्तर्षियों की वनेयु; ६. जलेयु; ७: तेजेयु; ८. सत्येयु; ९. धर्मेयु (म. | नामावलि पुराणों में दी गयी है (मनु आदिपुरुष आ. ८९.१०)। पाठभेद (भांडारकर संहिता -'संनतेपु'। देखिये)। विभिन्न मन्वन्तरों के सप्तर्षियों के संबंध में सन्नादन--रामसेना का एक वानर (वा. रा. यु. | विभिन्न पुराणों में भी एकवाक्यता नहीं है । इस प्रकार २७.१८)। पौराणिक साहित्य में अनेकानेक सप्तर्षियों के नाम प्राप्त सन्निवेश-त्वष्ट प्रजापति एवं रचना के पुत्रों में से होते हैं। एक (भा. ६.६.४४ )। सप्तर्षि-कल्पना का विकास-पौराणिक साहित्य में - सन्निहित--एक अग्नि, जो मनु का तृतीय पुत्र था मन्वंतर कल्पना के विकास के साथ साथ सप्तर्षि कल्पना का (म. व. २११.१९)। विकास हुआ, जो विभिन्न मन्वन्तरों के मनु, देव,इंद्र, अवतार . सपत्य--एक आचार्य, जो ब्रह्मांड के अनुसार व्यास आदि के साथ मन्वन्तरों के प्रमुख अधियंता-गण माने की यजुःशिष्यपरंपरा में से याज्ञवल्क्य का वाजसनेय गये हैं। इन सप्तर्षियों की संख्या प्रारंभ में केवल सात ही शिष्य था। थी, बल्कि आगे चल कर उनमें अनेकानेक नये नाम समाविष्ट किये गये। इससे प्रतीत होता है कि, उत्तरसपरायण--एक आचार्य, जो वायु के अनुसार कालीन सप्तर्षि आद्य सप्तर्षियों के वंशज थे। विभिन्न व्यास की यजुः शिष्यपरंपरा में से याज्ञवल्क्य का वाज मन्वन्तरों में प्रजोत्पादन का कार्य इन ऋषियों पर निर्भर सनेय शिष्य था। सपौल--एक राजा, जो उन्तीसवें युगचक्र में उत्पन्न रहता था ( ब्रह्मांड, ३६; ह. वं. १.७; मार्क.५०, विष्णु. होनेवाले देवापि राजा का पुत्र माना गया है (सुवर्चस् ३.१, ब्रह्म. ५; मनु आदिपुरुष देखिये)। ९. देखिये)। ___ पौराणिक साहित्य में इन्हें द्वापरयुग के ऋषि कहा गया सप्तकर्ण प्लाक्षि-एक तत्त्वज्ञ आचार्य, जो प्लक्ष नामक | है, एवं इनका निवासस्थान शनैश्चर ग्रह से एक लाख आचार्य का पुत्र था (तै. आ. १.७.३)। योजन दूरी पर बताया गया है (वायु. ५३.९७; विष्णु. सप्तकेत-ब्रह्मसावर्णि मन्वंतर के सप्तर्षियों में से एक।। २.७.९)। इनकी कालगणना मनुष्यप्राणियों से विभिन्न सप्तकृत्-एक सनातन विश्वेदेव (म. अनु. ९१. | थी, एवं इनके एक वर्ष में मानवीय ३०३० वर्ष समाविष्ट ३६)। | होते थे। Page #1042 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तर्षि प्राचीन चरित्रकोश समंज ऋग्वेद सर्वानुक्रमगी में--इस ग्रंथ में, ऋग्वेद के निम्न- सप्तसूर्य-एक ग्रहसमुदाय, जिसमें निम्नलिखित सात लिखित सूक्तद्रष्टा ऋषियों को सप्तर्षि कहा गया है :-- | ग्रह शामिल थे :--१. आरोग; २. भ्राज; ३. पटर; १. भारद्वाज बाहत्यरत्य; २. कश्यप. मारीच; ३. गोतम ४. पतंग, ५. स्वर्णर; ६. ज्योतिष्मन्त; ७. विभास (अ. राहूगण; ४. अत्रि भौम: ५. विश्वामित्र गाथिन; ६. जम- | वे. १३.३.१०; का. सं. ३७.९; तै. आ. १.७; सवितृ दग्नि भार्गव; ७. वसिष्ठ मैत्रावरुणि (ऋ. सर्वानुक्रमणी. ९. | देखिये)। १०७.१-२६; १०.१३७.१-७)। सप्ताश्व--रैवत मन्वंतर के सप्तर्षियों में से एक ऋग्वेद सर्वानुक्रमणी में दो स्थानों पर सप्तर्षियों की । (मत्स्य. ९.२०)। नामावलि प्राप्त है, एवं उनमें संपूर्णतया एकवाक्यता है। सति वाजंभर--एक वैदिक सूक्तद्रष्टा (ऋ. १०. महाभारत में--इस ग्रंथ में सप्तर्षियों की दो | ७९-८०)। नामवलियाँ प्राप्त है, जो निम्नप्रकार है : सप्रथ भारद्वाज--एक वैदिक मंत्रद्रष्टा (र. १०. (१) नामावलि क्रमांक--१. कश्यप; २. अत्रि; ३. १८.२)। भरद्वाज ४. विश्वामित्र; ५. गौतमः ६. जमदग्नि ७. वसिष्ठ | सबल-भौत्य मनु के पुत्रों में से एक । (म.श. ४७.२८७%; अनु. १४.४)। २. दक्षसावर्णि मन्वंतर के सप्तर्षियों में से एक । (२) नामावलि क्रमांक २--१. मरीचि, २. अत्रि; .३. उत्तम मन्वंतर के सप्तर्षियों में से एक ३. अंगिरम् ; ४. पुलस्त्य; ५. पुलह; ६. ऋतु;७. वसिष्ठ सबालेय-अत्रिकुलोत्पन्न एक गोत्रकार । (म. शां. ३२२.२७)। सभाक्ष--( सो. वृष्णि,) एक यादव राजा, जो दिशाओं के स्वामी---महाभारत में अन्यत्र सप्तर्षियों | मङ्गकार राजा का पुत्र था। को दिशाओं के स्वामी कहा गया है, एवं पूर्व, दक्षिण, | सभानर (सो. अनु.) एक राजा, जो भागवत, पश्चिम एवं उत्तर दिशाओं के सप्तर्षियों की नामावलि वहाँ विष्णु, मत्स्य, एवं वायु के अनुसार अनु राजा का पुत्र, निम्न प्रकार दी गयी है : एवं कालानल राजा का पिता था ( भा. ९.२३.१)। (१) पूर्वदिशा के सप्तर्षि :--१. यवक्रीत; २.अर्वावसुः | सभापति--कौरवपक्षीय एक योद्धा, जो अर्जुन के ३. परावसुः ४. कक्षीवत् ; ५. नल; ६. कण्व; ७. बहिषद् । द्वारा मारा गया था (म. क. ६५.२८)। (२) दक्षिण दिशा के सप्तर्षि--१. उन्मुच; २. विमुच, २. मतकर्मन् नामक कौरवपक्षीय योद्धा का नामांतर ३. वीर्यवत् ; ४. प्रमुच्; ५. भगवत् ; ६. अगस्त्यः (भतकर्मन् देखिये)। ७. दृढवत् । सभ्य-एक अग्नि, जो पवमान अग्नि एवं संशति (३.) पश्चिम दिशा के सप्तर्षि--१. रुषद्गु; २. कवष; का पुत्र था। ३. धौम्य; ४. परिव्याध; ५. एकत-द्वित-त्रित; ६. दुर्वासस सम--धृतराष्ट्र के सौ पुत्रों में से एक, जो भीमसेन ७. सारस्वत । के द्वारा मारा गया (म. क. ३५.७-१४)। (४) उत्तर दिशा के सप्तर्षि--१. आत्रेय; २. वसिष्ठ; २. अमिताभ देवों में से एक । ३. कश्यप; ४. गौतम, ५. भरद्वाज; ६. विश्वामित्र; ३. चंपक नगरी के हंसध्वज राजा का पुत्र | ७. जमदग्नि (म. शां. २०१.२६)। समंग--एक ऋपि, जो अपने आयुष्य के पूर्वकाल में समवधि आत्रेय--एक वैदिक सूक्तद्रष्टा, जो अश्विनों कहोलपत्र अष्टावक्र था (अष्टावक्र देखिये ) । ज्ञानप्राप्ति के कृपापात्र व्यक्तियों में से एक था (ऋ.५.७८; ८.७३)। क था ( ऋ5. ५.७८; ८.७३ ) से मानवी दुःख किस प्रकार कम हो सकता है, इस संबंध इसके भाइयों ने इसे एक संदूक में बंद कर रखा था, जहाँ में इसका एवं नारद का तत्त्वज्ञान पर संवाद हुआ था से अश्विनों ने इसकी मुक्तता की थी। अथर्ववेद में भी (म. शां. २७५ )। इसका निर्देश प्राप्त है (अ. वे. ४.२९.४; बृहद्दे. ५.८२- २. दुर्योधन के संगव नामक गोशालाधिपति का ८)। नामांतर (संगव देखिये )। सप्तसिंधु--एक लोकसमूह, जो प्रामुख्यतः आधुनिक समचेतन-एक मरुत्, जो मरुतों के गण में समाविष्ट था।. पंजाब के पाँच नदियों के प्रदेश में निवास करता था (ऋ. ८.२४.२७)। समंज--पारावत देवों में से एक । १०२० Page #1043 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समतापन प्राचीन चरित्रकोश संपाति समतापन--भौमतारन नामक गौरपराशरकुलोत्पन्न | तीर्थ पर ग्राहयोनि से इसका उद्धार किया (म. आ. २०८. गोत्रकार का नामांतर । १९; स. १०.११)। समशुद्धि-शततेजस् नामक शिवावतार का एक शिप्य । समुद्रसेन-पांडवपक्ष का एक राजा, जिसके पुत्र समय--अजित देवों में से एक । का नाम चंद्रसेन था (म. द्रो. २२. ५०)। भीम ने २. खत मन्वंतर के सप्तर्पियों में से एक । अपने पूर्व दिग्विजय के समय, इसे एवं इसके पुत्र चन्द्र ३. जैाप नामक गौरपराशरकुलोत्पन्न गोत्रकार का | सेन को जीता था (म. स. २७.२२)। नामांतर। | भारतीय युद्ध में यह पांडवों के पक्ष में शामिल था, समर-(सो. कुरु.) एक राजा, जो मत्स्य के जहाँ इसका पुत्र चंद्रसेन अश्वत्थामन् के द्वारा मारा गया अनुसार काव्य राजा का पुत्र था ( मत्स्य. ४९.५४ )। था (म. द्रो. १३१.१२८)। विष्णु एवं वायु में इसे नीष राजा का पुत्र, एवं संपार २. कालेयवंश का एक क्षत्रिय राजा, जो भारतीय राजा का पिता कहा गया है । इसकी राजधानी काफिल्य युद्ध में कौरवपक्ष में शामिल था। यह कालेय नामक नगरी में था (वायु. ९९.१७६)। | दैय के अंश से उत्पन्न हुआ था (म. आ. ६१. समरथ--(सू. निमि.) एक राजा, जो भागवत के ५२)। इसने पांडवपक्षीय चित्रसे राजा का वध किया अनुसार क्षेनधि राजा पुत्र, एवं स यरथ राजा का पिता था (म. क. ४.२७.७, पंक्ति १-२)। था (भा. ०.१३.२४) । पाठभेद-'कामरथ'। समृद्ध--'धृतराष्ट्रकुलोत्पन्न एक नाग, जो जनमेजय २. मत्स्यराज विराट के भाइयों में से एक (म. द्रो. के सर्पसत्र में दग्ध हुआ था (म. आ. ५२.१६ )। १३३.४० ) पाठभेद--(भांडारकर सहिता)- 'कामरथ'। समेडी-वंद की अनुचरी एक मातृका (म. समवृत्ति--एक मरुत्, जो मरुतां के छठवां गणों में श. ४५.१३)। समाविष्ट था (ब्रह्मांड. ३.५.९७)। संपाति--एक दीर्घजीवी पक्षी, जो अरुण एवं गृधि के समसौरभ--एक वेदविद्यापारंगत ब्राह्मण,जो जनमजय पुत्रों में से एक था (वा. रा. कि. ५६; ब्रह्मांड. ३.७. के संसत्र का एक सदस्य था (म. आ. ४८.९)। ४४६) अन्य पौराणिक साहित्य में इसकी माता का पाठभेद ( भांडारकर संहिता)--'समसौरभ'। नाम श्येनी दिया गया है (वायु. ७०.३१७; म. आ. समाधि-एक वैश्य, जो सुमेधस् ऋषि के आश्रम में ६०.६७) । इसके भाई का नाम जटायु था। मनःशांति के लिए कुछ काल तक रहा था (सुरथ १३, वाल्मीकि रामायण में, इसका एवं इसके भाई जटायु देखिये। का एक गीध पक्षी के नाते निर्देश पुनः पुनः प्राप्त है। . समान--सुपित देवों में से एक (वायु. ६६.१८)। फिर भी वाल्मीकि रामायण में ही प्राप्त एक निर्देश से समिथ--एक मरुत् , जो मरुतगणों के पाँचवें गण में प्रतीत होता है, यह अपने को एक पक्षी नहीं, बल्कि समाविष्ट था। मनुष्यप्राणी ही मानता था (वा. रा. कि. ५६.४)। समितार--वशवर्तिन देवों में से एक (वायु. १००. अतः संभव यही है कि, वाल्मीकि रामायण में निर्दिष्ट वानरों के समान, संपाति एवं जटायु ये भी गीधयोनिज समितिजय--एक यादव योद्धा, जो द्वारका में रहने- | पक्षी न हो कर, गीधों की पूजा करनेवाले आदिवासी वाले सात महारथियों में से एक था (म. स. १३.५७)। लोगों का प्रतिनिधित्व करते थे (वानर देखिये)। भारतीय युद्ध में यह कौरवपक्ष में शामिल था। इंद्र से युद्ध-यह एवं इसका भाई जटायु विध्यसमीक-एक यादव महारथी, जो द्रोपदीस्वयंवर में पर्वत के तलहटी में रहनेवाले निशाकर (चंद्र अथवा उपस्थित था (म.आ. १७७.१८: स. ७.१४)। भारतीय चंद्रमस् ) ऋषि की सेवा करते थे। एक बार वृत्रासर का युद्ध में यह कौरवपक्ष में शामिल था। छलकपट से वध कर लौट आनेवाले इंद्र से इसकी तथा २. शक्रसभा में उपस्थित एक ऋषि (म. स. ७.१४)। जटायु की भेंट हुई । इन्द्र ने इसको काफी दुरुत्तर दिये समीची--यमसभा की एक अप्सरा, जो वर्गा नामक | जिस कारण इन दोनों में युद्ध प्रारंभ हुआ। इन्द्र ने अपने अप्सरा की सखी थी । ब्राह्मण के शाप के कारण, इसे वज्र से इसे घायल किया, एवं वह जटायु का पीछा ग्राहयोनि में जन्म प्राप्त हुआ था। अर्जन ने 'नारी- | करने लगा। अन्त में जटायु थक कर नीचे गिरने १०२१ Page #1044 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन चरित्रकोश संपाति लगा । अपने भाई को नीचे गिरते हुए देख कर, इसने उसकी रक्षा के लिए अपने पंख फैलाउस पर छाया की इस कार्य में सूर्यताप के कारण इसके पंख दग्ध हो गये, एवं यह एवं जटायु घायल हो कर पृथ्वी पर गिर पड़े। इन में से कटायु बनस्थान में, एवं यह विध्य पर्वत के दक्षिण में निशाकर ऋषि के आश्रम के समीप गिर पड़े। अपने पंख दग्ध होने के कारण, यह अत्यंत निराश हुआ, एवं आत्मत्राव के विचार सोचने लगा। किंतु निशाकर मुनि ने इसे इन विचारों से परावृत किया एवं भविष्य काल में रामसेवा का पुण्य संपादन कर, जीवन्मुक्ति प्राप्त कराने की यह इसे दी। सीताहरण - यह एवं इसका पुत्र सुपार्श्व कितने विशालकाय एवं बलशाली थे, इसका दिग्दर्शन करनेवाली एक कथा 'बादमीकी रामायण' में प्राप्त है। सीता का हरण कर रायण जाट रहा था, उस समय उसे पकड़ पर उसका भक्ष्य बनाने का प्रस्ताव इसके पुत्र सुपार्श्व ने इसके सामने रखा। इसके द्वारा संमति दिये जाने पर, मुवाच ने सुपार्श्व रावण पर हमला कर उसे पकड़ लिया । किन्तु रावण के द्वारा अत्यधिक अनुनय-विनय किये जाने पर उसे छोड़ दिया। जटायुवध – एक बार यह अपनी गुफा में बैठा था, उस समय सीता की खोज के लिए दक्षिण दिशा की ओर जाने वाले अंगदादि बानर इसकी गुफा में आये उन्हीं के द्वारा रायण के द्वारा किये गये अपने भाई जटावु 常 बथ की वार्ता इसे रात हुई। इस पर इसने सीता का हरण रावण के द्वारा ही किये जाने की वार्ता उन्हें कह सुनायी, एवं पश्चात् अंगद के कंधे पर बैठ कर यह दक्षिण समुद्र के किनारे गया। वहाँ इसने अपने भाई जटायु को दर्पण प्रदान किया। पश्चात् निशाकर ऋषि के घर के कारण इसे अपने पंख पुनः प्राप्त हुए (वा. रा. कि. ५६-६३; म. व. २६६.४८-५६; अ. रा. कि. ८ ) । परिवार - इसके सुपार्श्व, बभ्रु, एवं शीघ्रग नामक तीन पुत्र थे (पद्म. सृ. ६; मत्स्य. ६.३५) । इसके एक पुत्र एवं एक कन्या होने का निर्देश वायु में प्राप्त है, किन्तु वहाँ उनके नाम अप्राप्य हैं (वायु. ६९.३२७, ७०.८ - ३६ ) । इसके अनेक पुत्र होने का निर्देश ब्रह्मांड में प्राप्त है ( ब्रह्मांड. ३.७.४४६ ) । सम्राज् ४. रावणपक्ष का एक असुर काहन के समय हनुमत् ने इसका घर जलाया था ( वा. रा. मुं. ६) । ५. एक कौरवपक्षीय योद्धा, जो द्रोण के द्वारा निर्मित गरुडव्यूह के हरयस्थान मे खड़ा था ( म. हो १९.१९६ द्रो पाठ' संपाति ) । संपार - ( सो. कुरु) एक राजा, जो विशु एवं मत्स्य के अनुसार समर राजा का पुत्र था (ना ४९.५४ ) । संप्रिया - विदूरथ राजा की पत्नी, जो मगधराज की कन्या थी (म. आ. १९०.४२ ) । संबंधि-- अंगिराकुलोत्पन्न एक गोत्रकार । संभव -- (सो. ऋक्ष ) एक राजा, जो मत्स्य के अनुसार सर्व राजा का पुत्र था (मत्स्य ५०.३१.) । बायु में इसे नमस् कहा गया है। संभूत -- दक्षसावर्णि मन्वंतर का एक देवगण ।. अनुसार त्रसदस्यु राम का पुत्र एवं अनख्य राजवा २. (सु. इ. ) एक राजा, जो विष्णु एवं वायु के पिता था ( वायु ८८. ७४-७५ ) । मत्स्य में इसे संभुति कहा गया है। संभूति-चाशुष मन्दंतर के अजित नामक अंचार की माता, जिसके पति का नाम वैराज था । २. दक्ष की कन्या, जो मरीचि ऋषि की पत्नी थी। इसके पुत्र का नाम पूर्णमास था (पायु, १०.२७) । ३. जयद्रथ राजा की पत्नी, जिसके पुत्र का नाम विजय था ( भा. ९.२३.१२) | ४. रैवत मन्वंतर के मानस नामक अवतार की माता ( विष्णु ३.१.४० ) । ५ (सु.) एक राजा, ओ मुझ के पुत्रों में से जो वसुदा एक था ( [मत्स्य. १२.२६ ) । पद्म में इसे दुः । एवं नर्मदा का पुत्र कहा गया है। इसके पुत्र का नाम त्रिधन्वन् था (पद्म. सृ. ८ ) । संमर्दन -- वसुदेव एवं देवकी के पुत्रों में से एक ( भा. ९.२४.५४ ) । रण में संमित एक मरुतु, जो मस्ती के समाविष्ट था ( ब्रह्मांड. ३.५.९७ )। समिति-- उत्तम मन्वंतर के सप्तर्षियों में से एक । संमोद -- एक असुर, जो हिरण्याक्ष के युद्ध में वायु २. किंवा नगरी का एक वानर ( वा. रा. कि. के द्वारा मारा गया ( पद्म. सृ. ७५ ) । ३३.१० ) । सम्राज् - - ( स्वा. प्रिय. ) एक राजा, जो चित्ररथ २. विभीषण का एक अमात्य ( वा. रा. सु. ३७ ) | एवं ऊर्जा का पुत्र था। इसकी पत्नी का नाम उत्क १०२२ Page #1045 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्राज प्राचीन चरित्रकोश सरमा था, जिससे इसे मरीचि नामक पुत्र उत्पन्न हुआ था पम के अनुसार, विभीषण के राज्यकाल में राम एवं (भा. ५.१५.१४)। सीता पुनः एकबार लंका गये थे, जिस समय उन्होंने २. चक्रवर्ति राजा की एक सामान्य उपाधि, जो समस्त लंका में स्थित वामनमंदिर का उद्घाटन किया था। अपनी भारतवर्ष को जीतनेवाले राजा को प्राप्त होती थी (वायु.. लंका भेट में सीता ने बड़े ही सौहार्द से इसकी पूछताछ की ४५.८६ )। पौराणिक साहित्य में हरिश्चंद्र एवं कार्तवीय थी ( पन. सृ. ३८)। राजाओं के लिए यह उपाधि प्रयुक्त की गयी है (वायु. २. कश्यप ऋषि की पत्नी, जो दक्ष प्रजापति एवं ८८.११८; ब्रह्मांड. ३.१६.२३; चक्रवर्तिन् देखिये) असिनी की कन्या थी। संसार के समस्त हिंस्त्र पशु वैदिक साहित्य में--ऋग्वेद काल में राजा (राजन् ) की इसीके ही संतान माने जाते हैं (भा. ६.६.२६ )। अपेक्षा शक्ति में श्रेष्ठ शासक को 'सम्राज्' कहा जाता था | सरमा देवशुनी-देवलोक की एक कुतिया, जो इंद्र (ऋ. ३.५५.६०; वा. सं. ५.३२) शतपथ ब्राह्मण में की दूती मानी जाती थी। यम के श्याम एवं शबल नामक वाजपेय यज्ञ करनेवाले राजा को 'सम्राज'कहा गया है (श. दो. कुत्ते इसीके ही पुत्र थे, जिस कारण वे 'सारमेय' बा. ५.१.१.१३) । बृहदारण्यकोपनिषद् में राजा के उपाधि (सरमा के पुत्र ) नाम से सुविख्यात थे। संसार के के नाते 'सम्राज' का निर्देश प्राप्त है (बृ. उ. ४.१.१)। समस्त ' सारमेय' (कुत्ते ) भी इसीके ही संतान माने सयष्टव्य-रैवत मनु के पुत्रों में से एक। | जाते हैं। सरघा--बिंदुमत् राजा की पत्नी, जो मधु र जा | वैदिक साहित्य में--ऋग्वेद में 'इंद्र के दत के रूप में की माता थी ( भा. ५.१५.१५)। | इसका निर्देश प्राप्त है (ऋ. १८.१०८) । यद्यपि ऋग्वेद सरधा-(स्वा. प्रिय.) प्रियव्रतवंशीय बिंदुमत् राजा | में कहीं भी इसे स्पष्ट रूप से कुतिया नहीं कहा गया है, का नामांतर (बिंदुमत्. देखिये)। फिर भी उत्तरकालीन वैदिक साहित्य में, एवं यास्क के सरण्यू-सूर्य की पत्नी ('ऋ. १०.१७.२)। 'निरुक्त' में इसे 'देवों की कुतिया' ( देवशुनी) ही सरभभेरुंड-एक पापी पुरुष, जिसकी कथा गीता- माना गया है। ..पटन का माहात्म्य कथन करने के लिए पद्म में प्राप्त है। इंद्रदौत्य-पणि नामक कृपण लोगों का धन ढूंढ (पद्म. सृ. ३८)। . निकालने के लिए इंद्र ने अपने दूत एवं गुप्तचर सरमा .. सरमा--विभीषण की पत्नी, जो ऋषभ पर्वत पर को पणियों के निवासस्थान में भेजा था (ऋ. १०.१०८. निवास करनेवाले शैलूष नामक गंधर्व की कन्या थी १-२)। पणियों ने वैदिक ऋत्विजों की गायों को पकड़ .( वा. रा. उ. १२.२४-२७ )। कर, उन्हें रसा नामक नदी के तट पर स्थित कंदरों में . जन्म--मानससरोवर के तट पर इसका जन्म हुआ। छिपा रखा था । सरमा ने उन गायों का पता लगाया, इसके जन्म के समय सरोवर में बाढ आने के कारण, | एवं इंद्र के दूत के नाते उनकी माँग की। किन्तु उन्हें उसका पानी लगातार बढ़ रहा था। उस समय इसकी देने से इन्कार कर, पणियों ने सरमा को कैद कर दिया । माता ने घबरा कर बढ़ते हुए पानी से प्रार्थना की, 'सर अन्त में इन्द्र ने सरमा की एवं पणियों के द्वारा बन्दी मा' (आगे मत बढना)। | की गयी गायों की मुक्तता की। इसकी माता की उपर्युक्त प्रार्थना के कारण, सरोवर इंद्र के दूत के नाते इसका पणियों से किया संवाद का पानी बढ़ना बंद हुआ। इस कारण, अपनी नवजात | ऋग्वेद में सरमा-पणि संवाद' नाम से प्राप्त है (ऋ. कन्या का नाम उसने 'सरमा' ही रख दिया। १०८.२, ४, ६:८; १०, ११)। बृहद्देवता में भी इस सीता को सान्त्वना--रावण के द्वारा सीता का हरण संवाद का निर्देश प्राप्त है (बृहद्दे. ८.२४.३६ )। किये जाने पर, उसके देखभाल का कार्य अशोकवन में | उत्तरकालीन वैदिक साहित्य में भी सरमा-पणि कथा इस पर ही सौंपा गया था। यह शुरू से ही सीता से | अधिक विस्तृत स्वरूप में दी गयी है। सहानुभूति रखती थी। इस कारण यह सीता को रावण पौराणिक साहित्य में--इस साहित्य में इसे कश्यप एवं के सारे षड्यंत्र समझाकर उसे सांत्वना देती थी । इसी क्रोधा की कन्या कहा गया है (ब्रह्मांड, ३.७.३१२)। सांत्वना से सीता का भय कम होता था, एवं इसका यह इंद्र की दूती थी, एवं सारे दानव इससे डरते थे धीरज बँधा जाता था (विभीषण देखिये )। (भा. ५.२४.३०)। १०२३ AMA Page #1046 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सरमा प्राचीन चरित्रकोश सान्त एक बार इसका पुत्र जनमेजय के सर्पसत्र में गया, जहाँ सरूपा-भूत ऋषि की पत्नी, जो रुद्रगणों की माता जनभेजय के बांधवों ने उसे खूब पीटा, एवं यज्ञभूमि से मानी जाती है (भा. ६.६.१७)। भगा दिया। अपने पीटे गये पुत्र के दुःख से अत्यधिक सरूप्य-तुर्वसुवंशीय शख्थ राजा का नामान्तर। दुःखी हो कर, इसने जनमेजय को शाप दिया, 'तुम एवं सरोगय---एक असुरविशेष, जिन्होंने भीमसेन तुम्हारे सर्पसत्र पर अनेकानेक आपत्तियाँ आ गिरेंगी पाण्डव को परास्त किया था ( रकंद. १.२.६६)। (म. आ. ३.१-८)। आगे चल कर इसकी यह शापवाणी सरोजवदना--एक स्त्री, जिसकी कथा भगद्गीता के सही सिद्ध हुई, एवं जनये जय का सर्पसत्र आस्तीक ऋषि दसवें अध्याय का महात्म्य कथन करने के लिए पद्म में के द्वारा बंद किया गया। दी गयी है। सरमाण-एक सैहि केय असुर, जो हिरण्यकशिपु का । सर्प--ग्यारह रुद्रों में से एक, जो ब्रह्मा का पौत्र, एवं. भतीजा था (मत्स्य. ६.२७)। । स्थाणु का पुत्र था (म. आ.)। सरय--वीर नामक अग्नि की पत्नी, जिसके पुत्र का २. एक नागजातिविशेष, जिनके राजा का नाम तक्षक नाम सिद्धि था (म. व. २०१.११)। | था (मत्स्य. ८.७; नाग देखिये )। जमीन पर घसीट कर सरस--सारस्वत नगरी के वीरवर्मन् राजा के पुत्रों। | चलने के कारण (सरीसृप ) इन्हें सर्प नाम प्राप्त हुआ में से एक (वीरवर्मन् देखिये)। (मत्स्य. ३८.१०)। | प्राचीन पौराणिक साहित्य में तीन सुविख्यात सघ-- सरस्वत्--एक राजकुमार, जो पुरूरवस् एवं सरस्वती । | सत्रों के निर्देश प्राप्त हैं :- 1. जनमेजय सर्पसत्र, जो के पुत्रों में से एक था। इसके पुत्र का नाम बृहद्रथ था जनमेजय ने अपने पिता परिक्षित् का वध करनेवाले (ब्रह्म. १०१.९)। तक्षक नाग का बदला लेने के लिए आयोजित क्रिया . सरस्वती ब्रह्मा की कन्या शतरूपा का नामान्सर।। या (जनमेजय पारिक्षित देखिये); २. मरुत्त का सर्पसत्र, यह स्वायंभूव मनु की पत्नी थी (म. उ. ११५.१४; जो उसने अपनी मातामही के कहने पर आयोजित किया शतरूपा देखिये )। पद्म में इसे ब्रह्मा की पत्नी कहा गया | था। पश्चात् मरुत्त की माता भामिनी ने मध्यस्थता कर है, एवं इसके 'ज्ञानशक्ति', 'सावित्री' 'गायत्री' एवं मरुत्त का यह सर्पसत्र स्थगित करवा दिया था । मस्त का . 'वाच' नामान्तर दिये गये है ( पद्म. पा. १०७)। यह सर्पसत्र संवर्त ऋषि के द्वारा आयोजित किये गये यज्ञ महाभारत में भी इसे 'शतरूपा' का नामान्तर के पश्चात् आयोजित किया गया था (मार्क. १२६- बताया गया है, एवं इसे दण्ड, नीति आदि शास्त्रों की १२७; मरुत्त आविक्षित एवं भामिनी देखिये); . तीसरा की कहा कया है (म. शां. १२२.२५)। सर्पसत्र, 'जो सपों के समृद्धि के लिए किया गया था २. सार्वभौम नामक विष्णु के अवतार की माता (भा. (जनमेजय देखिये)। ८.१३.१७)। __इनसे उत्पन्न राक्षससग्रह भी 'सर्प' नाम से ही ३. पूरुवंशीय अंतीनार राजा की पत्नी, जिसके पुत्र सविण्यात जिसक पुत्र सुविख्यात था (ब्रह्मांड. २.३२.१)। का नाम त्रस्नु था (म. आ ९०.२६)। ३. कन्या एवं सुरभि के पुत्रों में से एक। ४. पुरुरवस् राजा की पत्नी, जिसके पुत्र का नाम ४. एक राक्षा, जो ब्रह्मधान के पुत्रों में से एक था सारस्वत था (ब्रह्म. १०१.९)। (वायु. ६९.१३३)। ५. दधीचि नापि की पत्नी, जिसके पुत्र का नाम ५. अर्बुद काद्रवेय नामक प्रषि का नामान्तर । सारस्वत था (वायु. ६५.९१; सारस्वत देखिये)। ६. आदित्य की पत्नी, जो दनु एवं दिति की माता सर्पराज्ञी-एक वैदिक सूक्तद्रष्टी, जिसे ऋग्वेद के एक सूक्त (ऋ. २०.१८९) के प्रणयन का श्रेय दिया गया थी (मत्स्य. १७१.७०)।।। ७. रन्ति राजा की पत्नी (वायु. ९९.१२५)। | २.२.६.१; ऐ. बा.५.२३.१.२)। इसके नाम के लिए सरिभवि--अंगिराकुलोत्पन्न एक गोत्रकार।। 'सार्पराज्ञी' पाटभेट प्राप्त है। सरिद्यम वृकक-एक मरुत् , जो मरुतों के पाँचवे सर्पान्त--गरुड की प्रमुख संतानों में से एक (म.उ. गण में समविष्ट था। Page #1047 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्पास्य प्राचीन चरित्रकोश सवर्णा सर्पास्य-एक राक्षस, जो खर राक्षस का अनुयायी सर्वत्रग--धर्मसावर्णि मनु के पुत्रों में से एक । था (वा. रा. अर. २३.३२)। सर्वदमन--दुष्यन्तपुत्र भरत राजा का नामान्तर सर्पिमालिन्-युधिष्ठिर की मयसभा में उपस्थित | (म. आ. ६८.५)। एक ऋषि (म. स. ४.८)। . सर्वधर्मन्-धर्मसावर्णि मनु के पुत्रों में से एक । सर्पित्सि -एक आचार्य, जिसने कई स्तोत्रों का सर्वमेधस्--सुमेधस् देवों में से एक।। पठन कर सौबल नामक राजा को विपुल पशुसंपत्ति प्राप्त सर्ववेग--धर्मसावर्णि मनु के पुत्रों में से एक । करायी थी (ऐ. ब्रा. ६.२४) । सर्वसौज्ञ--एकादश रुद्रों में से एक। सयोति- (सो. पुरूरवस्.) एक राजा, जो मत्स्य | सर्वसारंग-धृतराष्ट्रकुलोत्पन्न एक नाग, जो जनमेके अनुसार पुरूरवस् राजा का पुत्र था। जय के सर्पसत्र में दग्ध हुआ था (म. आ.५२.१६)। . सर्व-(सो. अज.) एक राजा, जो मत्स्म के अनुसार सर्वसेन--(सो. पूरु.) काशी का एक राजा, जो - धनुष राजा का पुत्र था (मत्स्य. ५०.३०)। | ब्रह्मदत्त राजा का पुत्र था। इसने अपने भवन में स्थित सर्वकर्मन्--(सू. इ.) एक राजा, जो मत्स्य के | पूजनी नामक चिड़िया के बच्चों का वध किया, जिस अनुसार सौदास कल्माषपाद राजा का पुत्र था (मत्स्य. | कारण ऋद्ध हो कर पूजनी ने इसकी आँखें फोड़ डाली १२.४६ )। अन्य पुराणों में इसे ऋतुपर्ण राजा का पुत्र (ह. वं. १.२०.८९; पूजनी देखिये)। कहा गया है, एवं इसे नल राजा का मित्र बताया गया है। इसकी कन्या का नाम सुनंदा था, जिसका विवाह सम्राट परशुराम के द्वारा किये गये क्षत्रियसंहार के समय भरत के साथ हुआ था। सुनंदा से उत्पन्न इसके दौहित्र का पराशर ऋषि के द्वारा, इसका रक्षण हुआ था। अपने इस नाम भूमन्यु था (म. आ. ९०.३४)। वनवासकाल में अपना क्षत्रियधर्म छोड़ कर इसने शूद्र ___ सर्वहरि ऐन्द्र--एक वैदिक सूक्तद्रष्टा (ऋ. १०.९६)। के समान आचरण किया, जिस कारण इसे 'सर्वकर्मन् २ , सलोमधि-(आंध्र. भविष्य.) एक राजा, जो भागवत नाम प्राप्त हुआ (म. शां. ४९.६९)। इसे 'सर्वकामन्या के अनुसार चंद्रविज्ञ राजा का पुत्र था (भा. १२.१.२७)। नामान्तर भी प्राप्त था। इसे 'पुलोमार्चि' एवं 'पुलोमत्' नामांतर भी प्राप्त थे। . परशुराम का क्षत्रियसंहार समाप्त होने पर, पृथ्वी की __ सलौगाक्षि-अंगिराकुलोत्पन्न एक गोत्रकार । पुनर्व्यवस्था करनेवाले कश्यप ऋषि को इसके जीवित होने की वार्ता स्वयं पृथ्वी ने बतायी थी ( म. शां. ४९. सवन-(स्वा. प्रिय.) एक ऋषि, जो स्वायंभुव मनु ६९.७८)। . का पौत्र, एवं प्रियव्रत राजा के तीन विरक्त पुत्रों में से . सर्वकाम-(सू. इ.) इक्ष्वाकुवंशीय सर्वकर्मन राजा एक था। प्रियव्रत राजा के अन्य दो विरक्त पुत्रों के का नामान्तर । नाम महावीर एवं कवि थे (प्रियव्रत देखिये)। . सर्वकामदुधा-एक धेनु, जो कामधेनु की कन्या ब्रह्मांड में इसे स्वायंभुव मनु का पुत्र, एवं पुष्करद्वीप का थी (म. उ. १००.१०)। राजा कहा गया है, एवं इसके पुत्रों के नाम महावीर एवं सर्वग--एक राजकुमार, जो भीमसेन एवं बलंधरा | धातकी दिये गये है (ब्रह्मांड. २.१३.१०४)। के पुत्रों में से एक था (म. आ. ९०.८४)। ___२. वारुणि भृगु ऋषि के सात पुत्रों में से एक। इसे .. २. धर्मसावर्णि मनु के पुत्रों में से एक । | एवं इसके भाइयों को 'वारुण' पैतृक नाम प्राप्त था(म. सर्वजनि-एक ब्राह्मण, जिसकी कथा विष्णुमहात्म्य | अनु. ८५.१२९)। कथन करने के लिए पन में दी गयी है ( पद्म. क्रि. १९)। ३, दक्षसावर्णि मन्वंतर के सप्तर्षियों में से एक । सर्वजित--कश्यप एवं मुनि के पुत्रों में से एक। । ४. वसिष्ठ एवं ऊर्जा के सात पुत्रों में से एक (वायु. सर्वज्ञ-शततेजस् नामक शिवावतार का एक शिष्य । | २८.३६ )। सर्वतेजस्---(स्वा. उत्तान.) एक राजा, जो व्युष्ट ५. सूर्य का नामांतर (ब्रह्मांड. २.२४.७६)। एवं पुष्करिणी के पुत्रों में से एक था। इसकी पत्नी का सवर्णा-सागर एवं वेला की कन्या, जो प्राचीननाम आकुति था, जिससे इसे चाक्षुष मनु नामक पुत्र | बर्हिस् प्रजापति की कन्या थी। इसके कुल दस पुत्र थे, उत्पन्न हुआ था (भा. ४.१३.१४)। जो 'प्रचेतस्' सामूहिक नाम से प्रसिद्ध थे। प्रा. च. १२९] १०२५ Page #1048 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सवर्णा प्राचीन चरित्रकोश सवित हरिवंश के अनुसार, इसे शतद्वति नामान्तर भी प्राप्त | प्रमुख है (ऋ. १.११५.१)। इसी कारण संध्यावंदन था ( ह. वं. १.२)। कई अभ्यासक, इसे छाया काही | जैसे धार्मिक नित्यकर्म में इसे प्रतिदिन अयं दे कर, इस प्रतिरूप मानते हैं (मंशा देखिये)। संसार को त्रस्त करनेवाले असुरों से संरक्षण करने के सवितृ--एक खुविख्यात देवता, जो अदिति का पुत्र | लिए इसकी प्रार्थना की जाती है (तै. आ. २, ऐ. बा. माना जाता है । इसी कारण इसे 'आदित्य' अथवा | ४.४)। 'आदितेय' नामान्तर भी प्राप्त थे (ऋ. १.५०.१३, ८. ___ स्वरूपवर्णन--यह स्वर्णनेत्र, स्वर्णहस्त एवं स्वर्ण जिह्वा१०१.११, १०.८८.११) । ऋग्वेद में आदित्य, सूर्य, | वाला बताया गया है (ऋ. १.३५, ६.७१)। इसकी विवस्वत् , पूषन् , आर्यमन् , वरुण, मित्र, भग आदि | भुजाएँ भी स्वर्णमय है, एवं इसके केदा पीले है (ऋ. ६.७१. देवताओं को यद्यपि विभिन्न देवता माना गया है, फिर १०.१३९)। यह पिशंग वेषधारी है, एवं इसके पास भी वे सारे एक ही सूर्य अथवा सवितृ देवता के विभिन्न स्वर्णस्तंभवाला स्वर्णरथ है (ऋ. ४.५३.१.३५ )। इसका रूप प्रतीत होते हैं (ऋ. ५.८१.४, १०.१३३.१; / यह रथ दो प्रकाशमान अश्वों के द्वारा खींच जाता है। विवस्वत् देखिये)। सायण के अनुसार, उदित होनेवाले यह महान् वैभव (अमति) से युक्त है, एवं इस वैभव सूर्य को ऋग्वेद में 'सवितृ' कहा गया है, एवं उदय से को यह वायु, आकाश, पृथ्वी आदि को प्रकाशमय र अस्तकाल तक आकाश में भ्रमण करनेवाले सूर्य को वहाँ | तीनों लोगों में प्रसृत कर देता है (ऋ.७.३८.१)। अपने 'सूर्य' कहा गया है (ऋ. ८.५११. सायणभाष्य )। सुवर्ण ध्वजाओं को उँचा उठा कर यह सभी प्राणियों को उत्पत्ति--सवित की उत्पत्ति किस प्रकार हुई इस | जागृत कर देता है, एवं उन्हें आशीवाद देता है (ऋ२, संबंध में अनेक निर्देश प्राप्त हैं। ऋग्वेद में निम्नलिखित |३८) । देवताओं के द्वारा सवितृ की उत्पत्ति होने का निर्देश को मिलेकाशि पौराणिक साहित्य में--इस साहित्य में इसे कश्यप, प्राप्त हैं:-१. इंद्र (ऋ. २.१२.७); २. मित्रावरुण प्रजापति एवं अदिति का कनिष्ठ पुत्र कहा गया है (विष्णु(ऋ. ४. १३.२);३. सोम (ऋ. ६.४४.२३); ४. इंद्र-सोम | धर्म. १.१०६)। जन्म से ही इसके अवयवरहित होने के (ऋ. ६.७२.२); ५. इंद्र एवं विष्णु ( (ऋ. ७.९९.४); कारण, इसे 'मातड' नामान्तर प्राप्त था । अन्य देवताओं ६. इंद्र-वरुण (ऋ. ७.८२.३); ७. अग्नि एवं धातृ से पहले निर्माण होने के कारण इसे 'आदित्य' भी कहते . (ऋ. १०.१९०.३); ८. अंगिरस् (ऋ. १०.६२.३)। थे (भवि. ब्राह्म, ७५ )। इसी पुराण में अन्यत्र इसे ब्रह्मा गुणवर्णन--सूर्य के गुणवैशिष्टय के संबंध में अनेका के वंशान्तर्गत मरीचि ऋषि का पुत्र कहा गया है (भवि. नेक काव्यमय वर्णन ऋग्वेद में प्राप्त हैं। मनुष्यजाति ब्राहा. १५५)। इसके ज्येष्ठ भाई का नाम अरुण था। की सारी शारीरिक व्याधियाँ दूर कर (अनमीवा), अनुचर-इसके अनुचरों की विस्तृत नामावलि पुराणों यह उनका आयुष्य बढ़ाता है (ऋ. ८.४८.७; १०. में प्राप्त है, जिनमें निम्नलिखित अनुचर प्रमुख बताये , ३७.७)। इस सृष्टि के सारे प्राणि इस पर निर्भर रहते गये हैं :-१. दण्डधारी--राजा एवं श्रोष; २; लेखनिकहैं (ऋ. १.१६४.१०)। यह सारे विश्व को उत्पन्न | पिंगल; ३. द्वारपाल--कल्माष एवं सृष्टि के विभिन्न पक्षिगण करता है, जिस कारण इसे 'विश्वकर्मन्' कहा जाता है (ऋ. / (भवि. ब्राह्म. ७९)। १०.१७०.४)। यह देवों का पुरोहित है (ऋ. ८.१०१. | पत्नियाँ--इसकी निम्नलिखित पत्नियाँ थी:१२)। यह मित्र, वरुण आदि अन्य देवताओं का मित्र १. त्वष्टकन्या संज्ञा; २. रैवतकन्या राज्ञी ३. प्रभा (मत्स्य. है। इसी कारण इन देवताओं की की गयी प्रार्थना इसके ११)। इनके अतिरिक्त इसे द्यौ, राजी, पृथ्वी, एवं द्वारा ही उन्हें पहुँचती है (ऋ. ६०.१)। निक्षुभा नामक अन्य पत्नियाँ भी थीं (स्कंद. ७.१.१८)। ऋग्वेद में सूर्यविन का उल्लेख कर अन्य भी बहुत किन्तु बहुत सारे पुराणों में इसकी संज्ञा नामक एक ही सारा वर्णन प्राप्त है। किन्तु इसे मानव मान कर पत्नी का निर्देश प्राप्त है (वायु. २२.३९; वि. ३.२; ब्रह्म. जितना भी वर्णन ऋग्वेद में दिया है, इतना ही ऊपर | ६; ह. वं. १.९; म. आ. ६०.३४)। दिया गया है। परिवार--अपनी पत्नी संज्ञा से इसे मनु, यम एवं ___ ऋग्वेद में प्राप्त सवितृ के वर्णन में सारी मानवीय यमी नामक तीन संतान उत्पन्न हुर । आगे चल कर इसका सृष्टि इसी पर निर्भर रहती है, यह मध्यवर्ति कल्पना तेज उसे असह्य हुआ, जिस कारण उसने अपने शरीर से १०२६ Page #1049 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सवित प्राचीन चरित्रकोश सहदेव छाया ( सवर्णा) नामक अन्य एक स्त्री उत्पन्न की, एवं उसे २. दक्षसावर्णि मन्वन्तर का एक देवगण । इसकी सेवा में भेज कर वह तपस्या करने चली गयी । इसे सस आत्रेय--एक वैदिक सूक्तद्रष्टा (ऋ. ५.२१)। छाया से श्रुतश्रवस् ( सावर्णि मनु), श्रुतकर्मन् (शनि), सस्मित–उत्तम मन्वन्तर के सप्तर्षियों में से एक । एवं तपती नामक तीन संतान उत्पन्न हुए (संज्ञा देखिये)। २. तामस मन्वन्तर का एक योगवर्धन । आगे चल कर छाया का त्याग कर यह पुनः एक बार सह--स्वायंभुव मनु के पुत्रों में से एक । अपनी संज्ञा नामक पत्नी के पास गया, जिससे इसे २. प्राण नामक वसु के पुत्रों में से एक । अश्विनीकुमार ( नासत्य एवं दस्त्र ), एवं रेवन्त नामक दों ३. उत्तम मनु के पुत्रों में से एक। पुत्र उत्पन्न हुए (विष्णु. ३.२; भवि, ब्राह्म. ७९; मार्क. ४. आभूतरजस् देवों में से एक । ७५) । अन्य पुराणों में इसके पुत्रों की नामावलि निम्न ५. ( सो. पूरु.) धृतराष्ट्र के सौ पुत्रों में से एक, जो प्रकार दी गयी है:--१. संज्ञापुत्र--वैवस्वत मनु भारतीय युद्ध में मारा गया ( म.क. ३५.१४)। पाठभेद (श्राद्ध देव), यम एवं यमुना, २. छायापुत्र--सावर्णि (भांड रकर संहिता)- 'सम'। मनु, शनि, तपती एवं विष्टि २. अश्विनीपुत्र-अश्विनी ६. कृष्ण एवं लक्ष्मणा के पुत्रों में से एक । कुमार, रेवन्त; ४. प्रभापुत्र--प्रभातः ५. राज्ञीपुत्र-- ७. एक अग्नि, जो समुद्र में छिप गया था। इसके रेवत; ५. पृमिपुत्र--सावित्री, व्याहृति, त्रयी, अग्निहोत्र, शरीर के अवयवों से धातुओं की उत्पत्ति हुई। आगे पशु, सोम, चातुर्मास्य, पंचमहायज्ञ (भा. ६.१८.१)। चल कर देवताओं के द्वारा प्रार्थना किये जाने पर, यह इसकी संतानों में से यम एवं यमुना, तथा अश्विनीकुमार अग्नि पुनः एक बार पृथ्वी पर प्रकट हुआ। जुड़वी संतान थीं (मत्स्य. ११: पन. सृ. ८; विष्णु. ३.५; सहज--चेहि एवं मत्स्य.देश का एक कुलांगार नरेश, ब्रह्म. ६; भवि. ब्राह्म. ७९, म. आ. ६७; भा. ८.१३)। जिसने अपने दुर्व्यवहार के कारण, अपने स्वजनों का एवं .कई अन्य पुराणों में इसके इलापति एवं पिंगलापति परिवार के लोगों का नाश किया (म.उ.७२.११-१७)। मामक अन्य दो पुत्र दिये गये हैं, एवं उन्हें 'संज्ञापुत्र' | सहजन्य--एक यक्ष, जो आषाढ माह में सूर्य के कहा गया है (भवि. प्रति. ४.१८; पद्म. सृ. ८)। | साथ भ्रमण करता है (भा. १२.११.३६ )। रूपकात्मक वर्णन--भविष्य पुराण के अनुसार इसकी पत्तियों एवं परिवार का अन्य पुराणों में प्राप्त वर्णन रूप सहजिन्यु--एक अप्सरा, जो हिरण्यकशिपु के प्रिय कात्मक है। इस रूपक में संज्ञा एवं छाया नामक इसकी | अप्सराओं में से एक थी (पद्म. सू. ४५.)। दो पत्नियाँ क्रमशः अंतरिक्ष ( द्यौः ) एवं पृथ्वी हैं। इन सहदेव--(सो. कुरु.) हस्तिनापुर के पाण्डु राजा के दोनों पत्नियों के पुत्र क्रमशः 'जल' एवं 'सस्य' हैं। | पाँच पुत्रों में से एक (सहदेव पाण्डव देखिये)। ग्रीष्म ऋतु में यह जल का शोषण करता है, एवं वही जल २. (सू. इ.) एक राजा, जो दिवाक (दिवाकर) वर्षाऋतु में पृथ्वी पर गिरा कर उससे सस्य (अनाज) की | राजा का पुत्र, एवं बृहदश्व राजा का पिता था ( भा. ९. निर्मिती करता है। इसी कारण इसे समस्त सृष्टि का पिता | १२.११)। माना गया है (भवि. ब्राह्म. ७९)। इसी पुराण में अन्यत्र ३. (सू. इ.) एक राजा, जो विष्णु एवं वायु के इसे चंद्र एवं नक्षत्रों का पिता, एवं स्वामी कहा गया है । अनुसार संजय राजा का पुत्र, एवं कृशाश्व राजा का पिता ३. अट्ठाईस व्यासों में से एक । था (वायु, ८६.२०)। भागवंत में इसे संजय राजा का सवेदस्--भृगुकुलोत्पन्न एक गोत्रकार । पुत्र कहा गया है (सहदेव साञ्जय देखिये)। . सवैलेय--अत्रिकुलोत्पन्न एक गोत्रकार । पाठभेद-- ४. एक राजा, जो भागवत विष्णु एवं वायु के अनुसार 'सचैलेय'। सुदास राजा का पुत्र, एवं सोमक राजा का पिता था (भा. सव्य आंगिरस--एक वैदिक सूक्तद्रष्टा (ऋ. १. | ९.२२.१ )। ५.(सो. मगध.) मगध देश का एक राजा, जो सव्यसिव्य--एक सैहिकेय असुर, जो विप्रचित्ति एवं | जरासंध राजा का पुत्र था। इसकी अस्ति एवं प्राप्ति सिंहिका के पुत्रों में से एक था । परशुराम ने इसका वध नामक दो बहने थीं, जो मथुरा के कंस राजा को विवाह में किया (ब्रह्मांड. ३.६.१८-२२)। | दी गयी थीं। १०२७ Page #1050 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सहदेव प्राचीन चरित्रकोश सहदेव जरासंध के वध के पश्चात् कृष्ण ने इसे मगध देश के युद्ध कर उसे परास्त किया था (म. आ. १८६६७; पंक्ति राजगद्दी पर बिठाया, एवं इससे मित्रता स्थापित की। | २.)। भारतीय युद्ध में यह एक अक्षौहिणी सेना के साथ । दक्षिण दिग्विजय--युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ के समय, पाण्डव पक्ष में शामिल हुआ था। युधिष्ठिरसेना के सात | यह दक्षिण दिशा की ओर दिग्विजय के लिए गया था प्रमुख सेनापतियों में यह एक प्रमुख था। इसके पराक्रम (भा. १०.७२.१३)। सर्वप्रथम इसने शूरसेन देश जीत का गौरवपूर्ण वर्णन संजय के द्वारा किया गया है। अंत कर मत्स्य राजा पर आक्रमण किया। उसे जीतने के बाद में यह द्रोण के द्वारा मारा गया (भा. ९.२२.९,१०.७२. इसने करूप देश के दन्तवन राजा को पराजित किया। ४८; म. द्रो. १०१.४.३)। पश्चात् इसने निम्नलिखित देशों पर विजय प्राप्त किया:परिवार-इसके सोमापि, मार्जारिप एवं मेघसंधि | पश्चिम मत्स्य, निषादभूमि, श्रेष्ठगिरि, गोरांग एवं नरराष्ट्र । नामक तीन पुत्र थे। इसकी मृत्यु के पश्चात् सोमापि इसी दिग्विजय इसने सुमित्र एवं श्रेणिवन् राजा पर (सोमाधि) मगध देश का राजा बन गया। विजय प्राप्त कि । पश्चात् यह कुन्तिभोज राजा के राज्य ६. (सो. वसु.) वसुदेव एवं ताम्रा के पुत्रों में से एक। | में कुछ काल तक ठहरा , जो पाण्डवों का मित्र था। ७. (सू. इ. भविष्य.) एक राजा, जो वायु के अनु- | पश्चात् इसने गर्मण्वती नदी के तट पर कृष्ण के शत्रु सार सुप्रतीत राजा का पुत्र था (व.यु. ९९.२८४)। इसे जंबूकासुर के पुत्र स युद्ध किया। अन्त में घोर संग्राम कर 'मरुदेव' नामान्तर भी प्राप्त था। इसने उसका वध किया। पश्चात यह दक्षिण दिशा की ८. (सो. क्षत्र.) एक राजा, जो वायु के अनुसार | ओर मुड़ा। वहाँ सेक एवं अपरसेक राजाओं को परास्त हर्यश्व राजा का, विष्णु के अनुसार हर्षवर्धन राजा का, कर, एवं उनसे करभार प्राप्त कर यह नर्मदा नदी के तट भागवत के अनुसार हव्यवन राजा का, एवं ब्रह्मांड के अनु पर आ गया। वहाँ अवंती देश के विंद एवं अनुविंद सार हव्यश्व राजा का पुत्र था । इसके पुत्र का नाम हीन राजाओं को पराजित कर, यह भोजकट नगरी में आ पहुंचा। अहीन, अर्दीन ) था (वायु. ९३.९; भा. ९.१७.१७; वहाँ के भीष्मक राजा के साथ इसने दो दिनों तक संग्राम (ब्रह्मांड. ३.६८.९)। किया, एवं उसे जीत लिया। ९. भास्करसंहितांतर्गत 'व्याधिसिंघुविमर्दनतंत्र 'नामक ग्रंथ का कर्ता। आगे चल कर कोसल एवं वेण्या तीर देश के १०. कुण्डल नगरी के सुरथ राजा का पुत्र । राजाओं को पराजित कर, यह कान्तारक देश में प्रविष्ट सहदेव पाण्डव--हस्तिनापुर के पाण्डु राजा का हुआ । वहाँ कान्तारक, प्राक्कोसल, नाटकेय, हैरबक, क्षेत्रज पुत्र, जो अश्विनों के द्वारा पाण्डुपत्नी माद्री के उत्पन्न मारुध, रम्यग्राम, नाचीन, अनयुक देश के राजाओं को इसने पराजित किया। पश्चात् इसी प्रदेश में स्थित हुए दो जुड़वे पुत्रों में से एक था (म. आ. ९०.७२)। वनाधिपतियों को जीत कर, इसने वाताधिप राजा पर यह पाण्डुपुत्रों में से पाँचवाँ पुत्र था, एवं नकुल का छोटा भाई था। स्वरूप, पराक्रम एवं स्वभाव इन सारे गुण आक्रमण किया, एवं उसे जीत लिया। वैशिष्टयों में यह अपने ज्येष्ठ माई नकुल से साम्य रखता। आगे चल कर पुलिंद राजा को परास्त कर यह दक्षिण था, जिस कारण नकुल-सहदेव की जोड़ी प्राचीन भारतीय दिशा की ओर जाने लगा। रास्ते में पाण्डय राजा के इतिहास में एक अभेद्य जोड़ी बन कर रह गयी (नकुल साथ इसका एक दिन तक घोर संग्राम हुआ, एवं इसने देखिये )। इसके जन्म के समय इसकी महत्ता वर्णन करने- | उसे परास्त किया। पश्चात् यह किष्किंधा देश जा पहुँचा, वाली आकाशवाणी हुई थी (म. आ. ११५.१७; भा. जहाँ मैंद एवं द्विविद नामक वानर राजाओं के साथ सात ९.२२.२८; ३०.३१)। दिनों तक युद्ध कर, इसने उन्हें परास्त किया। बाल्यकाल--इसका जन्म एवं उपनयनादि संस्कार पश्चात् इसने माहिष्मती नगरी के नील राजा के साथ अन्य पाण्डवों के साथ शतशंग पर्वत पर हुए थे। द्रोण सात दिनों तक युद्ध किया । इस युद्ध के समय, अग्नि ने ने इसे शस्त्रास्त्रविद्या, एवं शांतिपुत्र शुक्र ने इसे धनुर्वेद नील राजा की सहायता कर, इसकी सेना को जलाना प्रारंभ की शिक्षा प्रदान की थी। खड्गयुद्ध में यह विशेष निपुण | किया। इस प्रकार सहदेव की पराजय होने का धोखा था। द्रौपदीस्वयंवर के समय इसने दुःशासन के साथ | उत्पन्न हुआ। इस समय सहदेव ने शुचिर्भूत हो कर अग्नि १०२८ के उत्पन्न इसन को जान Page #1051 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सहदेव प्राचीन चरित्रकोश सहदेव राजा ने इस कससे संधि की। पौरवश्वका की स्तुति की, एवं उसे संतुष्ट किया । पश्चात् अग्नि की ही ११-१२, भी. २३.१६)। रथयुद्ध में यह अत्यंत सूचना से नील राजा ने इससे संधि की। निष्णात था (म. उ. १६६,१८)। द्रोण के सेनापत्य - आगे चल कर सहदेव ने त्रैपुर एवं पौरवेश्वर राजाओं | काल में इसने उस पर आक्रमण करना चाहा; किन्तु उस को परास्त किया। पश्चात् सुराष्ट्र देश के राजा कौशिका- | समय कर्ण ने इसे परास्त किया (म. द्रो. १४२.१३)। चार्य आकृति राजा को इसने परास्त किया, एवं यह कुछ अत में अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार इसने शकुनि का व काल तक उस देश में ही रहा। | किया (म. श. २७.५८)। पश्चात् इसने पश्चिम समुद्र के तटवर्ति निम्नलिखित भारतीय युद्ध के पश्चात्-युधिष्ठिर के हस्तिनापुर का देशों पर आक्रमण कियाः- शूपारक, तालाकट, दण्डक, राज्याभिषेक किये जाने पर, उसने इस पर धृतराष्ट्र की समुद्रद्वीपवासी, म्लेच्छ, निषाद, पुरुषाद, कर्णप्रावरण, देख काल का कार्य सौंप दिया (म. शां. ४१.१४)। नरराक्षसयोनि, कालमुख, कोलगिरि, सुरभिपट्टण, ताम्रद्वीप, | पाण्डवों के महाप्रस्थान के समय, द्रौपदी के पश्चात् रामकपर्वत, तिमिंगल। | सर्वप्रथम इसका ही पतन हुआ। इसे अपनी बुद्धि का सहदेव के द्वारा किये गये पराक्रम के कारण, निम्न- | अत्यधिक गर्व था, जिस कारण इसका शीघ्र ही पतन हुआ लिखित दक्षिण भारतीय देशों ने बिना युद्ध किये ही, (म. महा. २.८; भा. १.१५.४५)। मृत्यु के समय केवल दूतप्रेषण से ही पाण्डवों का सार्वभौमत्व मान्य इसकी आयु १०५ वर्षों की थी (युधिष्ठिर देखिये)। किया:- एकपाद, पुरुष, वनवासी, केरल, संजयंती, परिवार--स की चार कुल पत्नियाँ थी:-१.द्रौपदी पाषंड, करहाटक, पाण्ड्य, द्रविड, उड़, अंध्र, तालवन, (म. आ. ९०.८१); २. विजया, जो इसके मामा कलिंग, उष्ट्रकणिक, आटवी पुरी, यवनपुर। मत्स्यनरेश शल्य की कन्या थी (म. आ. ९०.८७); इस प्रकार दक्षिण भारत के बहुत सारे देशों पर ३. भानुमती. जो भानु राजा की कन्या थी (ह. बं. २.९०. अपना आधिपत्य प्रस्थापित करने के बाद इसने लंकाधिपति | ७६); ४. मगधराज जरासंध की कन्या (म. आश्र.३२. विभीषण की ओर अपना घटोत्कच नामक दूत भेजा, एवं १२)। उससे भी करभार प्राप्त किया। पश्चात् दक्षिण दिग्विजय ___ इसके कुल दो पुत्र थे :-१. श्रुतकर्मन् , जो द्रौपदी में प्राप्त किया गया सारा करभार ले कर, यह इंद्रप्रस्थ से उत्पन्न हुआ था (म. आ. ९०.८२); २. सुहोत्र, जो नगरी में लौट आया, एवं सारी संपत्ति इसने युधिष्ठिर को इसे विजया से उत्पन्न हुआ था (म. आ. ९०.८७)। अर्पित का (म. स. २८)। राजसूय यज्ञ समाप्त होने पर, ग्रन्थ--इसके नाम पर निम्नलिखित ग्रंथ प्राप्त है।अन्य पाण्डवों के समान इसने भी कृष्ण की अग्रपूजा भी १. व्याधिसंधविमर्दन; २. अग्निस्तोत्र; ३. शकुनपरीक्षा। की (म. स. ३३.३०; भा. १०.७५.४)। .यूतक्रीडा एवं वनवास-युधिष्ठिर के द्वारा पाण्डवों __ सहदेव वार्षागिर-एक राजा, जिसे ऋग्वेद के एक का सारा राज्य यूतक्रीड़ा में हार दिये जाने पर, इस सूक्त के प्रणयन का श्रेय दिया गया है (ऋ. १.१००)। आप्रत्प्रसंगके जिम्मेदार शकुनि को मान कर इसने उसके इसने रुज्राश्व, भयमान, सुराधस् एवं अंबरीष नामक अपने वध करने की प्रतिज्ञा की (म. स. ६८.४१)। भाइयों के साथ इंद्र की स्तुति की थी, जिस कारण यह पाण्डयों के अज्ञातवास में, तंति पाल नाम धारण कर शिम्यु एवं दस्यु नामक अपने शत्रु पर विजय प्राप्त कर यह विराट नगरी में रहता था। यह उत्कृष्ट अश्वचिकि- | सका (ऋ. १.१००.१७-१८)। त्सक था (म. वि. ३.७)। इस कारण विराट की अश्व- सहदेव साञ्जय--एक राजा, जो सोम की एक विशिष्ट शाला में अश्वसेवा का काम इसने स्वीकार किया। परंपरा में से सोमक साहदेव्य नामक आचार्य का शिष्य था अज्ञातवास में इसका सांकेतिक नाम ' जयद्बल' था (म. (ऐ. ब्रा. ७.३-४)। एक धर्मप्रवण राजा के नाते वामदेव वि. ५.३०)। के द्वारा इसकी स्तुति की गयी थी। इसका सही नाम भारतीय युद्ध में-इस युद्ध में इसके रथ के अश्व 'सुप्लन् सार्जय' था, किन्तु 'दाक्षायण' नामक यज्ञ करने पर तित्तिर पक्षी के रंग के थे, एवं इसके ध्वज पर हंस का | इसने ' सहदेव सार्जय' नाम धारण किया (श. बा.२. चिह्न रहता था। इसके धनुष्य का नाम 'अश्विन,' एवं | ४.४.४)। ऋग्वेद एवं ऐतरेय ब्राह्मण में सोमक साहदेव्य शंख का नाम 'मणिपुष्पक' था (म. द्रो. परि. १.५. | नामक आचार्य के साथ इसका निर्देश प्राप्त है (ऋ. ४. १०२९ Page #1052 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सहदेव प्राचीन चरित्रकोश सांयमनि १५.७; ऐ.वा. ७.३४.९)। ब्राह्मण ग्रंथों में अन्यत्र भी सहस्राद-पुरूरवस्वशीय सहस्त्रजित् राजा का इसका निर्देश प्राप्त है (श. ब्रा. १२.८.२.३)। नामान्तर (सहस्त्रजित् १. देखिये)। कई अभ्यासकों के अनुसार सहदेव साजय एवं सहदेव सहस्रानीक--(सो. पू.) एक पूरवंशीय राजा, वागिर दोनों एक ही व्यक्ति थे । जो शतानीक राजा का पुत्र, एवं अश्वमेधज (अश्वमेधदत्त ) सहदेवा--देवक राजा की एक कन्या, जो वसुदेव की | नामक राजा का पिता था (भा. ९.२२.३९; म. आ. पत्नियों में से एक थी। इसके कुल आठ पुत्र थे, जिनमें | ९०.९५)। इसके द्वारा अश्वमेध यज्ञ किये जाने पर भयासख प्रमुख था (भा. ९.२४.२३)। इसे पुत्रप्राप्ति हुई, जिस कारण इसके पुत्र का नाम 'अश्वसहसात्यपुत्र--एक आचार्य, जो वायु के अनुसार मेधदत्त' रखा गया। व्यास की सामशिष्य परंपरा में से लोकाक्षि नामक आचार्य भागवत एवं महाभारत के अतिरिक्त अन्य पुराणों का शिष्य था। में इसका निर्देश अप्राप्य है, जहाँ शतानीक राजा के . सहसाह-परशुराम का सारथि (म. वि.११.२४२%; पुत्र का नाम असीमकृष्ण दिया गया है। ब्रह्मांड. ३.४६.१४)। सहस्राश्व--(सू. इ.) एक राजा, जो मत्स्य एवं सहस्रचित्त्य--केकय देश का एक राजा, शतायूप पद्म के अनुसार अहिनग राजा का पुत्र, एवं चंद्रावलोक राजा का पितामह था। इसने अपने प्राणों को त्याग कर राजा का पिता था (मत्य. १२.५४)। एक ब्राह्मण की जान बच यी (म, अनु. १३७.२०; शां. सहस्वत्--(सू. इ.) इश्वाकुवंशीय महत्वत्, २६६.३०)। पाठभेद-'सहस्रजित् । । राजा का नामांतर। सहस्रजित्-(सो. पुरूरवस् .) एक राजा, जो सहानंदिन-( शिशु. भविष्य.) मगध देश के भागवत, नत्स्य, वायु एवं पद्म के अनुसार वायु राजा का महानन्दिन् राजा का नामांतर । ब्रह्मांड में इसे नंदिवर्धन ज्येष्ठ पुत्र, एवं शत जित् राजा का पिता था। इसे राजा का पुत्र, एवं महापमा राजा का पिता कहा गया है । 'सहस्त्राद' नामान्तर भी प्राप्त था। (ब्रह्मांड. ३.७४. १३४)। २. कृष्ण एवं जांबवती के पुत्रों में से एक। सहाभोज-(सो. क्रोष्टु.) क्रोष्टुवंशीय महाभोज राजा का नामांतर । वायु में इसे सात्वत राजा का पुत्र कहा ३. केकय राजा सहस्र चित्त्य का नामान्तर (म. शां. गया है। २२६.३१)। सहस्रज्योति-विवस्वत् के पुत्रों में से एक । इसके सहितंडिपुत्र--एक आचार्य, जो वायु के अनुसार व्यास की सामशिष्यपरंपरा में से लोकाक्षि नामक आचार्य कुल दस लाख पुत्र थे (म. आ. १.४४)। . का शिष्य था। सहस्रधार--वशवर्तिन् देवों में से एक । सहिष्णु--एक शिवावतार, जो वैवस्वत मन्वंतर के सहस्रपाद-एक ऋ.पे, जो शाप के कारण डुण्डुभ | छब्बीसवें युगचक्र में भद्रवटपुर नामक नगरी में अवतीर्ण नामक सर्प हो गया था। इसी सर्पयोनि में रुरु नामक ऋषि हुआ था। इसके निम्नलिखित चार शिष्य थे:- १. उन्लूक; इसका वध करने के लिए प्रवृत्त हुआ था, किन्तु इसने २. विद्यत: ३. शंबूक; ४. आश्वलायन (शिव. शत. ५)। उसे इस पापकर्म से प्रवृत्त किया था ( रुरु देखिये )। २. चाक्षुष मन्वंतर के सप्तर्षियों में से एक, जो पुलह पटों के वनवास काल में यह द्वैतवन में उनके साथ ऋषि एवं गती का पुत्र था। उपस्थित था (म. व. २७.२२)। . ३. स्वायंभुव मन्वंतर का एक ऋषि, जो पुलह ऋषि एवं सहस्त्रमख--पुष्करद्वीप के रावण नामक राक्षस की गती का पत्र था (माके. ५२.२३-२४)। उपाधि ( रावण सहस्रमुख देखिये )। ४. एक गंधर्व, जो अपने अगले जन्म में एक नामक सहस्रवा-(सो. कुरु.) धृतराष्ट्र के शतपत्रों में कंसपक्षीय असुर बन गया था ( बक. १. देखिये)। से एक । पाठभेद- ' सदसुवाक् । __सांयमनि-(सो. कुरु.) सोमदत्तपुत्र शल राजा का सहस्राजित् --(सो. क्रोष्टु.) एक यादव राजा, नामांतर (म. भी. ६१.११)। जो भजमान एवं उपबाह्यका के पुत्रों में से एक था (विष्णु. २. दुर्योधन के पक्ष के शल्य (शल) नामक राजा का ४.१३.२)। | एक पुत्र । धृष्टद्युम्न ने इसका वध किया। १०३० Page #1053 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सांवरणि प्राचीन चरित्रकोश सात्यकि सांवरणि-- मनु सांवरणि राजा का पैतृक नाम, जो में से सनत्कुमार का शिष्य था। इसके शिष्यों में पराशर उसे संवरण का पुत्र होने के कारण प्राप्त हुआ था (ऋ. एवं बृहस्पति प्रमुख थे (भा. ३.८.७)। ९.१०१.१०-१२ मनु सावाण देखिये)। २. शांखायन नामक सुविख्यात वैदिक आचार्य का साकमश्व देवरात--एक आचार्य, जो विश्वामित्र नामान्तर । ऋषि का शिष्य था (सां. आ. १५.१)। ३. एक ऋषि, जो गायत्री नामक सुविख्यात वैदिक सागर--शलि नामक ऋषि का पैतृक नाम । सूक्तद्रष्ट्री का पूर्वज था। ४. वसिष्ठकुलोत्पन्न एक गोत्रकार। सागरक--सागर देश का एक राजा, जो युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में भेंट ले कर उपस्थित हुआ था। सांग--(स्वा. उत्तान.) हविर्धानपुत्र गय राजा का सागरध्वज--पांड्य देश का एक राजा, जो अस्त्र नामांतर। विद्या में परशुराम, भीष्म, द्रोण, एवं कृप आदि आचार्यों सांगर-एक शाखाप्रवर्तक आचार्य (पाणिनि देखिये)। का शिष्य था। सांजीवीपुत्र-एक आचार्य, जो प्राणीपुत्र आसुरइसके पिता एवं भाई का कृष्ण ने युद्ध में वध किया। वासिन् एवं मांडुकाय नि नामक आचार्यों का शिष्य. एवं इस कारण यह कृष्ण से बदला लेने के लिए, द्वारका नगरी प्राचीनयोगीपुत्र नामक आचार्य का गुरु था (बृ. उ. ६. पर आक्रमण करने के लिए प्रवृत्त हुआ। किन्तु उस | ५.४ काण्वः ६.४.३ माध्य.)। शतपथ ब्राह्मण में अविचार से इसके मित्रों ने इसे परावृत्त किया। अन्यत्र इसे माण्डव्य ऋषि का शिष्य कहा गया है (श. भारतीय युद्ध में यह पांडवों के पक्ष में शामिल था। ब्रा. १०.६.५.९)। इससे प्रतीत होता है कि, यह दो इस के रथ के अश्व चन्द्रकिरणों के समान शुभ्रवर्णीय, एवं आचार्यों की परंपराओं का प्रतिनिधित्व करता थाः--- वैदूर्यरत्नों की जाली से सुशोभित थे। इसकी सेना में एक १. शांडिल्य की अग्निपूजकपरंपरा, जिसका प्रमख लाख चालीस हजार रथ थे, जिन्हें श्वेतवर्णीय अश्व जोते आचार्य माण्डुकाय नि था; २. याज्ञवल्क्य वाजसनेय की गये थे। तत्त्वज्ञान विषयक एरंपरा, जिसका प्रमुख आचार्य प्राणीसाग्नि--एक पितर। पुत्र आसुरवा सिन् था। - सांकाश्य--यमसभा में उपस्थित एक राजर्षि (म.स. सातकर्णि-(आंध्र. भविष्य.) आंध्रवंशीय शातकर्णि राजा का नामान्तर | वायु में इसे कृष्ण राजा का पुत्र '८.१०)। सांकृति-एक क्षत्रोपेत ब्राह्मणसमूह, जो सांकृति कहा गया है। राजा का वंशज था। आगे चल कर, ये आंगिरसगोत्रीय । २. एक आंध्रवंशीय राजा, जो वायु के अनुसार ब्राह्मण बन गये (वायु. ९९.१६४)। | पुत्रिकषेण राजा का पुत्र था। २. अत्रिवंश में उत्पन्न एक ऋषि, जिसने अपने शिष्यों साति ओष्ट्राक्षि--एक आचार्य, जो सुश्रवस वार्षगण को निर्गुण ब्रह्म का उपदेश प्रदान किया था (म. शां. नामक आचाय का शिष्य, एवं मद्रगार शौंगाय नि नामक २२६.२२)। आचार्य का गुरु था (वं. बा. १)। उष्ट्राक्ष नामक ३. विश्वामित्र ऋषि की पत्नियों में से एक। आचार्य का वंशज होने के कारण, इसे 'औष्टाक्षि' पैतक सांकृत्य--एक वैयाकरण( तै. प्रा. ८.२१)। नाम प्राप्त हुआ था। २. एक आचार्य, जो पाराशय नामक आचार्य का गुरु | सात्यकामि--केशिन् नामक आचार्य का पैतृक नाम था (बृ. उ. २.५.२०, ४.५.२६ माध्यं.)। | (ते. सं. २.६.२.३)। सांख्य--अत्रि नामक वैदिक सूक्तद्रष्टा का पैतृक नाम | सात्यकि (युयुधान)--(सो. वृष्णि.) एक यादव (अत्रि देखिये)। | राजा, जो कृष्णार्जुनों का अत्यंत प्रिय मित्र था । यह शिनि सांकतीपुत्र-एक आचार्य, जो अलम्बीपुत्र नामक | नामक यादव राजा का पौत्र, एवं सत्यक राजा का पुत्र था आचार्य का शिष्य, एवं शौंगीपुत्र नामक आचार्य का गुरु | (म. आ. २११.११; भा. ९.२४.१४ )। महाभारत में था (श.बा. १४.९.४.३१)। अन्यत्र इसे शिनि राजा का पुत्र कहा गया है (म. द्रो. सांख्यायन--एक आचार्य, जो भागवत शिष्यपरंपरा | ९७.२७; ५३, ११९.१७ )। १०३१ Page #1054 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सात्यकि प्राचीन चरित्रकोश सात्यकि इसे निम्नलिखित नामान्तर भी प्राप्त थे:-१. सात्वत | कृष्ण की काफी सहायता की थी (भा. १०.७८ )। कृष्ण (म. द्रो. ७३.१३; ८८.१५); २. दाशार्ह (म. द्रो. | के अश्वमेधीय अश्व के साथ यह उपस्थित था। ११७.४); ३. शैनेय; ४. माधव, जो नाम इसे मधु पाण्डवों का मित्र--कृष्ण के समान यह भी पाडवों यादव का वंशज होने के कारण प्राप्त हुआ था (म. द्रो. का हितैषी एवं मित्र था। द्रौपदी के स्वयंवर के समय ७३.११; ८८.२६)। यह उपस्थित था (म. आ. १७७.१७)। अजुन एवं यह वृष्णिकुलभूषण, सत्यप्रतिज्ञ, शत्रुमर्दन वीर था एवं सुभद्रा के विवाह के समय, यह दहेज ले कर इंद्रप्रस्थ इसका स्वभाव अत्यंत क्रोधी एवं निर्भय था । यह कृष्ण को गया था। इंद्रप्रस्थ में किये गये युधिष्ठिर के राज्याभिषेक अपना ज्येष्ठ मित्र, तथा अर्जुन को अपना अस्त्रविद्या का | के समय यह उपस्थित था। गुरु मानता था, जिस कारण आजन्म यह अपने इन दोनों पांडवों के वनवासकाल में--पांडवों के वनगमन ज्येष्ठ मित्रों की सहायता करता रहा । इसकी गणना महा- | के पश्चात् , इसने कृष्ण एवं बलराम को सलाह दी थी भारतकालीन श्रेष्ठ वीरों में की जाती थी। इसका प्रमाण | 'यादवों के द्वारा धृतराष्ट्रपुत्रों का वध कर, अभिमन्यु निम्नलिखित विदुरबचन में पाया जाता है, जो उसने | को हस्तिनापर के राजगद्दी पर बैठा देने से सारी समस्या धृतराष्ट्र से कहा था :-- छूट जायेगी। इस समय कृष्ण ने इसे पांडवों की प्रतिज्ञा येषां पक्षधरों रामो येषां मंत्री जनार्दनः। याद दिलायी, जिसके अनुसार किसी अन्य के द्वारा . किं न तैरजितं संख्ये येषां पक्षे च सात्यकिः ।। जीता हुआ राज्य उन्हें अस्वीकरणीय था। . (म. आ. १९७.२०)। युद्ध का समर्थन--कृष्णदौत्य के पूर्व संपन्न हुई यादव(जिस पक्ष में बलराम एवं सात्यकि जैसे वीरप्रवर | सभा में, पांडवों की माँग की न्यायसंगतता एवं उचितता हैं, एवं जिनके मंत्री स्वयं श्रीकृष्ण है, उन पाण्डवों के इसने स्पष्ट शब्दों में कथन की थी (म. उ. ३ )। पांडवों लिए युद्ध में अजेय क्या हो सकता है ?) के शांतिदूत के नाते कौरवों के यहाँ जानेवाले कृष्ण से स्वरूपवर्णन-- इसका सविस्तृत स्वरूपवर्णन महा- | इसने पुनः पुनः यही कही कहा था कि, केवल युद्ध के भारत में अर्जुन के द्वारा निम्नप्रकार किया गया है:- द्वारा ही पांडवों के न्याय्य माँगों की रक्षा की जा सकती है। 'महान् स्कंध एवं विशाल वक्षःस्थलवाला, अजानुबाहु, । इस समय शान्ति का पुरस्कार करनेवाले कायर लोगों की महाबली, महावीर्यवान् , एवं महारथी सात्यकि मेरा | कटु आलोचना करते हुए इसने कहा :शिष्य एवं मेरा सखा है' (म. द्रो. ८५.६०)। नाधर्मो विद्यते कश्चिच्छन् हत्वाऽततायिनः । विद्याव्यासंग-इसने श्रीकृष्ण से अस्त्रविद्या प्राप्त अधय॑मयशरयं च शात्रवाणां प्रयाचनम् ।। की थी (भा. ३.१.३१) । अर्जुन से भी इसने युद्ध विद्या एवं धनुर्विद्या सीखी थी (भा. ३.१. म. द्रो. १५६.१४)। (म.उ. ४.२०)। वृष्णिवंशीय यादवों के सात अतिरथी वीरों में इसकी (आततायी शत्रु का वध करना अधर्म नहीं है, बल्कि गणना की जाती थी। इसके रथ के अश्व शुभ्र एवं रुपहले | ऐसे शत्रु से कुछ याचना करना अपमान एवं अधर्म थे ( म. द्रो. २३.२७७३.११,११५.१)। कृष्ण का सहायक--कृष्ण के द्वारा किये गये हर एक पश्चात् यह अपने सवारे हुए रथ में चैट कर, कृष्ण युद्ध में यह उसका प्रमुख सहायक रहा करता था। के साथ हस्तिनापुर गया था (म. उ.७९-८१)। बाणासर के युद्ध में यह कृष्ण के साथ उपस्थित था, एवं कौरवों की राजसभा में--कौरवसभा में कर्ण, शक नि. इसने बाणासुर के मंत्री कुभाण्ड से युद्ध किया था (भा. | एवं दुर्योधन ने श्रीकृष्ण को पकड़ने की मंत्रणा की। उस १.३.१६ )। जरासंध के आक्रमण के समय, मथुरानगरी | समय इसने कृतवर्मन् से अपनी सेना व्यूहाकार में संनद्ध के पश्चिम द्वार के संरक्षण का भार इसके ऊपर था। करने की आज्ञा दी। पश्चात् अत्यंत निर्भयतापूर्वक कौरवउस समय इसने जरासंध की सेना को परास्त कर उसका सभा में प्रवेश कर इसने दुर्योधन एवं उसके मित्रों की पाँच योजनों तक पीछा किया था (भा. १०.५०.२०)। अत्यंत. कटु आलोचना की। कृष्ण जैसे पाण्डवों के राजदत शाल्बयद्ध के समय इसने द्वारका नगरी का रक्षण किया को कैदी बनाने का दुर्योधन का षड्यंत्र इस प्रकार विल ' था ( भा. १०.५२)। पौण्डक वासुदेव के युद्ध में, इसने । हुआ। १०३२ Page #1055 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सात्यकि २. भारतीय युद्ध में इस युद्ध के पहले दस दिनों में इसने निम्नलिखित योद्धाओं के साथ युद्ध पर अत्यधिक पराक्रम दिखाया था :-- १. शकुनि ( म. भी. ५४.८९); २. भूरिश्रवस् एवं अलंबुस ( म. भी. ५९-६० ); भीमदुर्योधन, भगदत्त एवं अवत्थामन् द्रोण के सैनापत्यकाल में — भारतीय युद्ध के बारहवें दिन इसने द्रोण के साथ घनघोर युद्ध किया था, एवं उसके एक भी एक धनुषों को खण्डित कर ध्वस्त कर दिया। इसके युद्धकौशल्य से प्रसन्न हो कर, द्रोण ने इसे स्वयंस्फूर्ति से परशुराम, कार्तवीर्य अर्जुन एवं भीम के समान श्रेष्ठ धनुर्धर नाते संबोधित किया प्राचीन चरित्रकोश रामे कार्तवीर्ये धनंजये। भीमे च पुरुषादित्वरे ॥ ( म. द्रो. ७३.३७ ) । पश्चात् युधिष्ठिर के आदेश से, यह द्रोण से युद्ध छोड़ कर अर्जुन की सहायता के लिए चला गया ( म. द्रो. ८५.३९-६८)। जयद्रथवध के दिन युधिष्ठिर की रक्षा का भार इस पर सीग गया था किन्तु अर्जुन को संकट में देख कर इसने भीम को युधिष्ठिर की रक्षा करने के लिए कहा, एवं यह अर्जुन की सहायता के लिए दौड़ा। उस दिन इसका निम्नलिखित योद्धाओं के साथ युद्ध हुआ :- १. कृतवर्मन् ( म. द्रो. ८६.८८ ); २. दुःशासन; ३. भूरिश्रवस् ( म. द्रो. ११७९ १६९.२४ ) ४. दुर्योधन ( म. द्रो. १६४.२८ ); ५. कर्ण ( म. द्रो. ३१.६७ ) । उपर्युक्त युद्धों में से बहुत सारे युद्धों में यह अजेय रहा। केवल भूरिश्रवस् ने इसे पराजित किया, एवं इसके बालों को पकड़ कर वह इसका वध करने के लिए प्रवृत्त हुआ। उस समय अर्जुन ने पीछे से आ कर उसके दोनों हाथ तोड़ दिये। बाद में भूरिश्रवस् आमरण अनशन सनेमात इसने उसका वध किया। इस प्रकार अपने पुत्रों का वध करनेवाले भूरिश्रवसे इसने बदला ले कर्म के सैनापत्यकाल में इस काल में इसने निम्र लिखित योद्धाओं से युद्ध कर काफी पराक्रम दिखायाः १. राजकुमार बिंद एवं अनुविंद ( म. प. ९२०) २. कर्ण (म. क. २१.२४ ); ३. वृषसेन ( म. क. ३२. ४९) ४. शकुनि (म. . ४१.३१-४५) ५. कर्णपुत्र प्रसेन (म. क. ६०.४) । भारतीय युद्ध के अठारहवें दिन युद्ध के अंतिम दिन इसने मपूर्ति एवं मच्छराज शास्त्र का वध किया (म. प्र.च. १२० ] सात्यकि श २०.८-२५) । संजय को जीवित पकड़ कर यह उसे मारने के लिए उद्यत हुआ, किंतु श्रीव्यास की भाजा से इसने उसे छोड़ दिया ( म. श. २८.३८ ) । —— पराक्रम - भारतीय युद्ध में कृष्ण एवं अर्जुन के बाद सब से अधिक पराक्रम सात्यकि ने ही दिखाया। इसी कारण संजय ने धृतराष्ट्र से कहा था, 'कृष्ण एवं अर्जुन के अतिरिक्त, सात्यकि के समान अन्य कोई भी धनुर्धर पाण्डवसेना में नहीं है (म. बो. १२२.७३) । जयद्रथवध के पश्चात् कृष्ण ने भी इसकी अत्यधिक प्रशंसा की थी, वहीं उसने कहा था, 'सात्यकि के खजान कोई भी योद्धा पाण्डव एवं कौरवसेना में नहीं है (यस्य नास्ति समो योधः कौरयेषु कथंचन) (म. प्रो. ११६.११. २५)। भारतीय युद्ध के पश्चात् - युद्ध के उपरान्त यह कृष्ण के साथ द्वारका गया, एवं रैवतक पर्वत पर होनेवाले महोत्सव में सम्मिलित हुआ (म. आश्व. ५८.४ ) | युधिष्ठिर के द्वारा किये गये अश्वमेधीय यज्ञ में भी यह उपस्थित था। मृत्यु -- भारतीय युद्ध में पाण्डव पक्ष के जो थोडे वीर बचे थे, उन में यह एक था । इस युद्ध के पश्चात् यह कई साल तक जीवित रहा। कृतवर्मन् के वध के उपरांत इसने अन्य यादवों का वध करना प्रारंभ किया । कृष्ण ने इसे बहुत रोका, किन्तु इसने उसकी एक न सुनी। इसे सभी यादवों को मारते देख कर उन्होंने इस पर सामूहिक हमला किया, एवं अन्य कोई शस्त्र प्राप्त न होने पर जड़े बर्तनों से ही इसे मारना शुरु किया। इसे इस प्रकार फँसा हुआ देख कर कृष्णपौत्र प्रद्युम्न इसे बचाने के लिए बीच में कूद पड़ा, एवं ये दोनों यादवों के द्वारा मारे गये (म. मौ. ४.३४ ) । परिवार -- महाभारत में इसके पुत्र का नाम यौयुधानि दिया गया है। इसकी मृत्यु के पश्चात् अर्जुन ने उसे १०३३ प्रभास क्षेत्र में हुए यादवी युद्ध के समय, अन्य यादवों के समान इसने भी 'मैरेयक' नामक मद्य का सेवन किया, एवं आपस में लड़ना झगड़ना इसने शुरू किया। उस समय इसका पुरातन शत्रु कृतवर्मन् इससे वाद-विवाद करने लगा उस समय कृतवर्मन् ने कृष्ण के द्वारा किये गये स्यमंतक मणि के अपहरण की चर्चा प्रारंभ की। कृतवर्मन की ये बाते सुन कर सत्यभामा रोने लगी। उसे रोती देख कर यह अत्यधिक क्रुद्ध हुआ, एवं इसने कृतवर्मन् का शिरच्छेद किया (म. मौ. ४.२७) । । Page #1056 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सात्यकि प्राचीन चरित्रकोश साध्य सरस्वती नदी के तट पर स्थित प्रदेश का राजा बनाया | ७. महाभोज । इन पुत्रों में से भजमान इसके पश्चात् (म. मो. ८.६९; सरस्वती देखिये)। राजगद्दी पर बैठा । __ अन्य पुराणों में इसके पुत्र का नाम निम्नप्रकार बताया सास्वत धर्म--इस धर्मपरंपरा का यह प्रमुख संवर्धक गया है :---जय (भा. ९.२४.१४); असंग (मत्स्य. माना जाता है। महाभारत में सात्वत-धर्म एवं उसकी ४६.२३); भूति (वायु. ९६.१००)। परंपरा सविस्तृत रूप में प्राप्त है, जहाँ ब्रह्मा से ले कर सात्यमुग्र-सामवेद का एक शाखा प्रवर्तक आचार्य, इक्ष्वाकु तक के इस पंथ के प्रमुख संवधकों की जानकारी जिसका निर्देश सामवेद के उपकर्मांग तर्पण में प्राप्त है। दी गयी है। हरिगीता नामक ग्रंथ में सात्वत धर्मतत्त्वों पाठभेद-शाट्यमुग्र, 'साह्यमुग्र'। की जानकारी दी गयी है (म. शां. ३३६.३१-४९)। सात्यमुग्री--अंगिराकुलोत्पन्न एक गोत्रकार। ३. भगवान कृष्ण का एक नामांतर (म. शां. ३४२.७७)। - सात्ययज्ञ--एक आचार्य, जिसका निर्देश याशवल्क्य। इस के ही नाम से कृष्ण का एक उपासना सांप्रदाय सात्वतएवं वार्ण नामक आचार्यों के बीच हुए संवाद में प्राप्त है धर्म नाम से सुविख्यात हुआ था ( सात्वत २. देखिये)। (श. ब्रा. ३.१.१.४)। सामसुग्रीवि-अंगिराकुलोत्पन्न एक गोत्रकार । सात्ययनि-सोमशुष्म नामक आचार्य का पैतृक नाम साधक-एक राक्षस, जो हिरण्याक्ष से हए देवासर (श. ब्रा. ११.६.२.१-३)। संग्राम में वायु के द्वारा मारा गया (पद्म. सृ. ७५)। २. एक आचार्यसमूह, जिसका निर्देश शैलन एवं साधन भौवन--एक वैदिक सूक्तद्रष्टा (ऋ. .१०. कारीरादि नामक आचार्य परंपराओं के साथ प्राप्त है | १५७ )। (जै. उ. ब्रा. २.४.५)। साधित--विश्वामित्रकुलोत्पन्न एक गोत्रकार एवं सात्यरथि-(सू. निमि) एक राजा, जो विष्णु के अनुसार सत्यरथ राजा का पुत्र था। साधु-एक वैश्य, जिसकी कथा 'सत्यनारायण-व्रत एवं उसके प्रसाद का माहात्म्य कथन करने के लिए सात्यहव्य वासिष्ठ--एक आचार्य, जो अत्यराति भविष्य एवं स्कंद पुराण में दी गयी है (भवि. प्रति. २. जानन्तपि एवं देवभाग श्रौतर्षि नामक आचार्यों का सम २९, स्कंद. रे. ३.)। वर्तमान स्कंदपुराण के रेवाखंड में कालीन था (ऐ. बा. ८.२३.९; ते. सं. ६.६.२.२)। इसकी कथा अप्राप्य है। उपर्युक्त आचार्यों में से देवभाग से इसका मंत्रपठन के संबंध में संवाद हुआ था। सत्यहव्य का वंशज होने से इसे | | साधु द्विज-शिव का एक अवतार, जो हिमालय | एवं मैनाक पर्वतों की तपस्या में बाधा डालने के लिए 'सात्यहव्य' पैतृक नाम प्राप्त हुआ होगा। उत्पन्न हुआ था। सात्राजित-शतानीक नामक आचार्य का पैतृक नाम इस अवतार के संबंध में एक चमत्कृतिपूर्ण कथा (ऐ. ब्रा. ८.२१.५; श. ब्रा. १३.५.४.१९)। शिवपुराण में प्राप्त है। एक बार हिमालय एवं मैनाक सात्वत--विष्णु का एक पार्षद । पर्वतों ने अत्यंत कठोर शिवोपासना प्रारंभ की। उस २. (सो. क्रोष्ट.) यादवकुलोन्पन्न एक राजा, जो | तपस्या को देख कर देव एवं ऋषियों के मन में डर भागवत के अनुसार आयु राजा का, वायु के अनुसार | उत्पन्न हुआ कि, अगर हिमालय को मोक्षप्राप्ति होगी, सत्व राजा का, मत्स्य के अनुसार जन्तु राजा का, एवं| तो इस संसार की अत्यंत हानि होगी। इस कारण, विष्णु के अनुसार अंश राजा का पुत्र था। यह स्वयं उनकी तपस्या में बाधा डालने की प्रार्थना उन्होंने एक 'वंशकर' राजा था, जो सात्वत राजवंश का मूल | शिव से की। पुरुष माना जाता है । सुविख्यात यादव योद्धा 'सात्यकि' | इस प्रार्थना के अनुसार, साधु नामक ब्राह्मण का वेष इसके ही वंश में उत्पन्न हुआ था। पुराणों में इसके नाम के | धारण कर शिव हिमालय के पास गया, एवं वहाँ शिव की लिए 'सात्वत' (भा. ९.२४.६) एवं 'सत्वत' (विष्णु. | यथेष्ट निंदा कर, इसने हिमालय को शिवभक्ति से निवृत्त ४.१३.१, ह. वं. १.३७.१) ये दोनों पाठ प्राप्त है। किया (शिव. शत. ३५)। इसके निम्नलिखित सात पुत्र थे:-- १. भजमान; २. साध्य-एक देवतासमूह, जो धर्म एवं साध्या के भाजि; ३. दिव्य; ४. वृष्णि; ५. देवावृध; ६. अंधक; पुत्र माने जाते हैं । छांदोग्योपनिषद् में जिन पाँच प्रमुख १०३४ Page #1057 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साध्य , प्राचीन चरित्रकोश सांब देवता-समूहों का निर्देश प्राप्त है, वहाँ इनका निर्देश सानुप्रस्थ--रामसेना का एक वानर । वसु, रुद्र, आदित्य, एवं मरुतों के साथ किया गया है सांदीपनि (सांदीपन) अवंती में रहनेवाला (छां. उ. ३.६-१०)। वहाँ इनकी अधिष्ठात्री देवता ब्रह्मा | एक कश्यपकुलोत्पन्न ब्राह्मण, जो कृष्ण एवं बलराम का गुरु बताया गया है। ऋग्वेद में भी इन देवताओं का अस्पष्ट था। यह अवंती नगरी में रहता था, एवं इसके आश्रम निर्देश प्राप्त है (ऋ. १०.९०.१६)। का नाम 'अंकपाद' था (भा. ३.३.२; १०.४५.३१; पौराणिक साहित्य में-इस साहित्य में इनकी उत्पत्ति | पद्म. उ. २४६ ) । ब्रह्मा के मुख से बतायी गयी है। विभिन्न मन्वंतरों में | कृष्ण एवं बलराम का उपनयन होने के पश्चात् वे दोनों इनके विभिन्न अवतार दिये गये हैं। जो निम्नप्रकार | इसके आश्रम में विद्यार्जन के लिए रहने लगे। इसने उन्हें हैं:-१. स्वायंभुव मन्वंतर-जित देव; २. तामस मन्वंतर- वेद, उपनिषद,धनुर्वेद, राजनीति, चित्रकला, गणित, गांधर्वहरि देवः ३. रेवत मन्वंतर- वैकुंठ देव; ४. स्वारोचिष | वेद, गजशिक्षा, अश्वशिक्षा आदि ६४ कलाएँ सिखायी। मन्वंतर- तुषित देवः ५. उत्तम मन्वंतर- सत्य देव; यह धनर्वेद का श्रेष्ठ आचार्य था। इसने श्रीकृष्ण एवं ६. चाक्षुष मन्वंतर-छांदज देव; ७. वैवस्वत मन्वंतर बलराम को दस अंगों से युक्त धनुर्वेद का ज्ञान प्राप्त साध्य देव । वैवस्वत मन्वंतर में उत्पन्न हुए आदित्य भी कराया। कृष्ण एवं बलराम का विद्यार्जन समाप्त होने पर इन्हींके ही अवतार माने गये हैं (ब्रह्मांड. ३.३.८-१२)। इसने उन्हें गुरुदक्षिणा के रूप में समुद्र में डूबे हुए अपने वसु नामक सुविख्यात देवगण इनके भाई हैं, एवं ये मृत पुत्र को पुनः जीवित कर देने की माँग की । तदनुसार स्वयं भुवर्लोक में रह कर गौ देवता की उपासना करते हैं कृष्ण ने इसका मृतपुत्र पुनः जीवित कराया (म. स. परि. (मत्स्य. १५.१५ )। इनका प्रमुख अधिष्ठात्री देवता १.२१.८५७-८७९; विष्णु. ५.१)। नारायण है। साप्य--नमी नामक आचार्य का पैतृक नाम (ऋ. ६. • नामावलि--चाक्षष एवं वैवस्वत मन्वंतरों में उत्पन्न २०.६)। हुए साध्य-देवों की नामावलि पौराणिक साहित्य में निम्न सामलोमकि--अंगिराकुलोत्पन्न एक गोत्रकार प्रकार दी गयी है:- १. मनस् २. अनुमन्तु, ३. प्राण; - ४. नर; ५. नारायण; ६. वृत्ति (वीति); ७. तपस सामश्रवस--याज्ञवल्क्य वाजसनेय का एक शिष्य (बृ. उ. ३.१.२)। (अपान); ८. हय; ९. हंस; १०. विभु; ११. प्रभु; याज्ञवल्क्य ने इसे अपनी 'स्मृति' की शिक्षा प्रदान १२. धर्म (नय )(मत्स्य. २०३.११; सांब. १८)। की थी। मॅक्स म्यूलर इसे स्वयं याज्ञवल्क्य की उपाधि महाभारत में इस ग्रंथ में इन्हें यज्ञ एवं शुभ कार्यों मानते है, किन्तु इसके याज्ञवल्क्य का शिष्य ही होने की से संबंधित देवतागण माना गया है, एवं निम्नलिखित संभावना अधिक है। प्रसंगों पर इनके उपस्थिति का निर्देश वहाँ प्राप्त है :१. नैमिषारण्य द्वादशवर्षीय सत्र; २. मरुत्त आविक्षित सामश्रवस-कुशीतक नामक आचार्य का पैतृक नाम राजा का यज्ञ; ३. अर्जुन एवं स्कंद के जन्मोत्सव; ४. अमृत | (श. ब्रा. १७.४.३)। के लिए गरुड एवं देवताओं का युद्ध; ५. अर्जुन के द्वारा सामकि--यामुनि नामक कश्यपकुलोत्पन्न गोत्रकार का किया गया खांडववनदाह-युद्ध; ६. स्कंद-तारकासुरयुद्ध | नामान्तर ७. कणाजुन युद्ध । सांब-एक सुविख्यात यादव राजकुमार, जो कृष्ण २. चाक्षुष मनु के पुत्रों में से एक (भा. ६.६.१५)। एवं जांबवती के पुत्रों में से एक था (म. आ. १७७. ३. एक रुद्रगण, जिसमें ८४ करोड़ रुद्रोपासक समाविष्ट | १६; स. ४.२९; भा. १०.६१.११)। विष्णु में इसे कृष्ण थे। रुद्र के ये सारे उपासक तीन नेत्रोंवाले (त्रिनेत्र ) थे | एवं रुक्मिणी का पुत्र कहा गया है, किन्तु यह असं(मत्स्य. ५.३१)। भव प्रतीत होता है । यह अत्यंत स्वरूपसुंदर, एवं ४. शततेजस् नामक शिवावतार.का एक शिष्य । स्वैराचरणी था। साध्या--दक्ष प्रजापति की कन्या, जो धर्मऋषि की दस | जन्म--उपमन्यु ऋषि के आदेशानुसार कृष्ण ने पुत्रपत्नियों में से एक थी। साध्यगणों के देव इसीके ही पुत्र प्राप्ति के लिए शिव की उपासना की थी, जिससे आगे माने जाते हैं (भा. ६.६.४-७)। . चल कर इसका जन्म हुआ। इस कारण इसे 'सांब' नाम १०३५ Page #1058 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सांब प्राचीन चरित्रकोश सायक प्राप्त हुआ। भागवत में इसे शिवपुत्र गुह का अवतार | मौसल युद्ध--दूसरे दिन, सुबह होते ही इसके पेट से कहा गया है (भा. १.१०.२९)। | लोहे का मूसल उत्पन्न हुआ। यादव लोगों ने इस मूसल पराक्रम--यह अत्यंत पराक्रमी था,एवं कृष्ण के द्वारा का नाश करने का काफ़ी प्रयत्न किया, किन्तु उससे कुछ किये गये बहुत सारे युद्धों में इसने भाग लिया था। यादव | फायदा न हो कर, इसी मूसल से इसका एवं समस्त यादवों सेना के साथ इसने बाणासुर की नगरी पर आक्रमण किया का नाश हुआ। प्रभास क्षेत्र में मैरेयक नामक भद्य पीने था, एवं बाणासुर के पुत्र के साथ युद्ध किया था (भा. १०. के कारण इसकी स्मृति नष्ट हुई, एवं उसी क्षेत्र में हुए ६१.२६ )। शाल्व के आक्रमण के समयं इसने द्वारका | मौसल युद्ध में अपने भाई प्रद्युम्न से लड़ते लड़ते इसकी नगरी का रक्षण किया था ( भा. १०.६८.१-१२)। इस | मृत्यु हुई (भा. ११.३०.१६)। समय शाल्व के सेनापति क्षेमधूर्ति के साथ इसका घमा सूर्योपासना--अत्यंत स्वरूपसंपन्न होने के कारण यह सान युद्ध हुआ था । कृष्ण के अश्वमेधीय अश्व के साथ अत्यंत स्वैराचारी था, यहाँ तक कि, कृष्ण की कई पत्नियाँ एवं भी यह उपस्थित था। इसकी सापत्न माताएँ इस पर अनुरक्त थीं। अपने पुत्र द्रौपदीस्वयंवर के लिए उपस्थित राजाओं में यह भी एवं पत्नियों के दुराचरण की यह बात कृष्ण को नारद के शामिल था (म. आ. ९७७.१६)। रैवतक पर्वक पर द्वारा ज्ञात हुई । इस कारण क्रुद्ध हो कर, उसने इसे अर्जुन के द्वारा किये गये सुभद्राहरण के समय यह | कुष्टरोगी होने का, एवं अपनी पत्नियों को चोर लटेरों के उपस्थित था (म. आ. २११.९)। द्वारा भगाये जाने का शाप प्रदान किया । तदनुसार, यह लक्ष्मणा का हरण--दुर्योधनकन्या लक्ष्मणा के स्वयंवर कुष्ठरोगी बन गया, एवं द्वारका नगरी डूब जाने के पश्चात् के समय इसने उसका हरण किया। उस समय कौरवों ने कृष्णस्त्रियों का आभीरों के द्वारा अपहरण किया गया। . इसे कैद किया। यह वार्ता सुनते ही बलराम समस्त | तत्पश्चात् कुष्ठरोग से मुक्ति प्राप्त करने के लिए. नारद यादवसेना के साथ इसकी सहायतार्थ दौड़ा। पश्चात् | के सलाह के अनुसार इसने सूर्योपासना प्रारंभ की, एवं बलराम के युद्धसामर्थ्य से घबरा कर दुर्योधन ने इसकी इस प्रकार यह कुष्ठरोग से मुक्त हुआ। इसके सूर्यतपत्या लक्ष्मणा से विवाह को संमति दे दी ( भा. १०.६८)। का स्थान चंद्रभागा नदी के तट पर स्थित सांबपुर (मूलस्थान) प्रभावती का हरण--सुपुर नगरी के व्रजनाभ नामक | था, जिस नगरी की स्थापना इसने ही की थी। सूर्य की राजा के प्रभावती नामक कन्या का इसने हरण किया। उपासना करने के लिए इसने मग नामक ब्राहाण शाकतद्हेतु यह अपने भाई प्रद्यम्न के साथ-नाटक मंडली का | द्वीप से बुलवाया (सांब. ३; भवि. ब्राहा. ६६.७२खेल ले कर सुपुर नगरी में गया। वहाँ इन्होंने 'रम्भाभिसार' । ७३; ७५; १२७; स्कंद. ४.१.४८;६.२१३; मग देखिये)। 'कौबेर' आदि नाट्यकृतियों का प्रयोग किया, जिनमें इसकी मृत्यु के पश्चात् मग ब्राह्मण मूलस्थान में ही निवास प्रद्युम्न ने नायक का, एवं इसने विदूषक का काम किया | करने लगे। मूलस्थान का यह प्राचीन सूर्य मंदिर, एवं वहाँ था (ह. व. २.९३)। पश्चात् इसने प्रभावती का हरण | स्थित मग ब्राह्मण भारत में आज भी ख्यातनाम हैं। किया। २. एक अंत्यज, जिसकी कथा गणेश-उपासना का दुर्वासस् का शाप--यह शुरू से ही अत्यन्त शरारती माहात्म्य बताने के लिए गणेश पुराण में दी गयी है था, एवं इसकी कोई न कोई हरखत हमेशा चलती ही (गणेश. १.५९)। रहती थी। एक बार इसके सारणादि मित्रों ने इसे स्त्री ___३. चक्रपाणि राजा का प्रधान, जिसकी कथा गणेश वेश में विभूषित किया, एवं इसे दुर्वासस् ऋषि के पास उपासना का माहात्म्य बताने के लिए गणेश पुराण में दी ले जा का झटी नमता से कहा यह बभ यादव की गयी है (गणेश. २.७३.१३)। पत्नी गर्भवती है । आप ही बतायें कि, इसके गर्भ से | ४. एक सदाचारी ब्राह्मण, जिसने धृतराष्ट्र के वनक्या उत्पन्न होगा। यदपत्रों की इन जलील हरकतों | गमन के समय प्रजा की ओर से उसे सांत्वना प्रदान से क्रुद्ध हो कर दुर्वासस् ने कहा, 'श्रीकृष्ण का | की थी (म. आश्र. १५.११)। यह पुत्र सांब लोहे का एक भयंकर मूसल उत्पन्न करेगा, सांमद मत्स्य-एक वैदिक सूक्तद्रष्टागण (ऋ. ८.६७)। जो समस्त वृष्णि एवं अंधक वंश का संपूर्ण विनाश सायक जानश्रुतेय-एक आचार्य,जो जनश्रुत काड्विय कर देगा। नामक आचार्य का शिष्य था (जै. उ. ब्रा. ३.४२.२)। १०३६ Page #1059 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सायकायन प्राचीन चरित्रकोश सारस्वत सायकायन--श्यापर्ण नामक आचार्य का पैतृक नाम | के शोधार्थ इधर उधर घूमने लगे। केवल एक सारस्वत (श. बा. १०.३.६.१०। ५.२.१)। मात्र सरस्वती नदी के किनारे वेदाभ्यास करता हुआ रह '२. एक आचार्य, जो कौशिकाय नि नामक आचार्य गया। इस प्रकार देश के बाकी सारे ऋषियों ने वेदाभ्यास का शिष्य, एवं काशायण नामक आचार्य का गुरु था | छोड़ कर मुसाफिर जीवन अपनाया था, उस समय (बृ. उ. ४.६.३ काण्व.)। इसने वेदाभ्यास की परंपरा जीवित रखी। अकाल के सायकायनि--अंगिराकुलोत्पन्न एक गोत्रकार। . बारह वर्षों में यह नदी में प्राप्त मछलियों पर निर्वाह सायम्-एक राजा, जो पुष्पार्ण एवं प्रभा का पुत्र था। | करता था। २. एक आदित्य, जो धातृ आदित्य एवं कुह का पुत्र अकाल समाप्त होने पर सारे ऋषियों के मन में था (भा. ६.१८.३)। वेदाध्ययन करने की इच्छा उत्पन्न हुई। उस समय केवल सारंग-एक गोप, जिसकी कन्या का नाम रंगवेणी था। सारस्वत के ही वेदविद्या पारंगत होने के कारण, समस्त सारण--(सो. वसु.) एक सुविख्यात योद्धा, जो ऋषिसमुदाय शिष्य के नाते इसके आश्रम में उपस्थित वसुदेव एवं रोहिणी के पुत्रों में से एक था। इसके निम्न हुआ। इस प्रकार साठ हज़ार ऋषियों को इसने वेदविद्या लिखित पुत्र थे:-- १. मार्टि; २. मार्टिमत् ; ३. शिशु; सिखायी (म. श. ५०)। . ४. सत्यधृति (विष्णु. ४.१५.१४)। सारस्वत तीर्थ--आगे चल कर इस के आश्रम का स्थान 'सारस्वत तीर्थ' नाम से प्रसिद्ध हुआ। उस स्थान २. रावण का एक अमात्य एवं गुप्तचर (वा. रा. यु. ५; म. व. २६७.५२; शुक देखिये )। को तुंगकारण्य नामान्तर भी प्राप्त था (म. व.८३.४३.५०)। ३. एक यक्ष, जो मणिवर एवं देवजनी के पुत्रों में से | सारस्वतपाठ-तैत्तिरीय संहिता की दो अध्ययन एक था। पद्धति प्राचीनकाल में प्रचलित थी, जो 'काण्डानुक्रमसारमेय-(सो. वृष्णि.) एक यादव राजा, जो पाठ' एवं 'सारस्वतपाठ' नाम से सुविख्यात थी। श्वफ़ल्क एवं गांदिनी के पुत्रों में से एक था (भा. ९. २४. | उनमें से 'काण्डानुक्रमपद्धति' का आज लोप हो चुका है एवं सारस्वत ऋषि के द्वारा प्राप्त 'सारस्वतपाठ' २. सरमा नामक कुतिया के वंशजों का सामूहिक नाम ही आज सर्वत्र प्रचलित है। • (ब्रह्मांड. ३.७.३१३; सरमा देखिये)। सारस्वतपाठ की स्फूर्ति इसे किस प्रकार हुई इस • सारवाह-अगस्त्यकुलोत्पन्न एक गोत्रकार। संबंध में एक आख्यायिका 'संस्काररत्नमाला' में प्राप्त है। सारस-गरुड की प्रमुख संतानों में से एक (ब्रह्मांड. एक बार दुवास ऋषि के द्वारा दिये गये शाप के कारण ..३.७.४५६)। सरस्वती नदी लुप्त हुई,एवं तत्पश्चात् मानवीय रूप धारण २. (सो. यदु.) यदु राजा का एक पुत्र, जिसने दक्षिण | कर, आत्रयवशीय एक ब्राह्मण के घर अवतीर्ण हुई। भारत में वेणा नदी के तट पर स्थित कोचपूर नामक नगरी | पश्चात् उसी ब्राह्मण से सरस्वती नदी को सारस्वत नामक की स्थापना की। आगे चल कर यही क्रौंचपूर 'वनवासी' | पुत्र उत्पन्न हुआ। नाम से प्रसिद्ध हुआ (ह. वं. २.३८.२७)। पश्चात् सरस्वती नदी ने इसे संपूर्ण वेदविद्या सिखायी, सारस्वत-एक ऋषि, जो दधीचि ऋषि का पुत्र था। | एवं इसे कुरुक्षेत्र में तप करने के लिए कहा। इसी दधीचि ऋषि की तपस्या को भंग करने के लिए इंद्र ने | तपस्या में तैत्तिरीय संहिता का एक स्वतंत्र क्रमपाठ इसे अलंबुषा नामक अप्सरा को भेज दिया। उसे देख कर | प्राप्त हुआ, जो आगे चल कर इसने अपने सारे शिष्यों को दधीचि ऋषि का वीर्य सरस्वती नदी के किनारे स्खलित | सिखाया। पश्चात् इस के इस पाठ को शास्त्रमान्यता एवं हुआ। आगे चल कर उसी वीर्य से सरस्वती नदी को लोकमान्यता भी प्राप्त हुई (संस्काररत्नमाला पृ. ३०२) । एक पुत्र उत्पन्न हुआ, जिसे सरस्वती नदी का पुत्र होने के । २. जैगीषव्य नामक शिवावतार का एक शिष्य (वाय. कारण 'सारस्वत' नाम प्राप्त हुआ। | २३.१३९)। दधीचि ऋषि के आत्मसमर्पण के पश्चात लगातार | ३. भार्गवकुलोत्पन्न एक मंत्रकार एवं गोत्रकार । बारह वर्षों तक भारतवर्ष में अकाल पड़ा। इस समय ४. स्वायंभुव मन्वन्तर का एक व्यास | यह ब्रह्मा का सरस्वती नदी के तट पर रहनेवाले बहुत सारे ऋषि अन्न । पौत्र एवं सरस्वती नदी का पुत्र था। इसे 'अपांतरतम', १०३७ Page #1060 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सारस्वत प्राचीन चरित्रकोश साल्व 'वेदाचार्य एवं 'प्राचीनगर्भ' नामान्तर भी प्राप्त थे । सार्पराज्ञी-सर्पराज्ञी नामक वैदिक सूक्तद्रष्ट्री का इसने स्वायंभुव मन्वन्तर में वेदविभाजन का कार्य अत्यंत नामांतर (पं. ब्रा. ४.९.४; को. ब्रा. २७.४)। यशस्वी प्रकार से किया (म. शां. ३३७.३७-३९; ६६, सार्पि-भृगुकुलोत्पन्न एक गोत्रकार ! व्यास पाराशय देखिये)। सार्वभौम--(सो. द्विमीढ.) एक राजा, जो मत्स्य __ अन्य पुराणों में इसे वैवस्वत मन्वन्तर का व्यास कहा | के अनुसार सुधर्मन् राजा का, एवं वायु के अनुसार गया है । इसे वसिष्ठ ऋषि ने वायुपुराण सिखाया था, | सुवर्मन् राजा का पुत्र था (मत्स्य. ४९.७१; वायु. ९९. जो इसने आगे चल कर अपने त्रिधामन् नामक शिष्य | १८६ )। को प्रदान किया था ( वायु. १०३.६०)। २. (सो. कुरु,) एक राजा, जो विदूरथ राजा का पुत्र, ५. एक आचार्य, जो कौशिक ऋषि के सात शिष्यों में एवं जयसेन (जयत्सेन) राजा का पिता था (भा. ९.. से एक था (अ. रा. ७)। २२.१०)। ६. पश्चिम दिशा में निवास करनेवाला एक ऋषि, जो ३. (सो. पूरु.) एक राजा, जो अहंयाति राजा एवं अत्रि ऋषि का पुत्र का था (म. शां. २०१.३०)। भानुमती का पुत्र था । इसकी पत्नी का नाम सुंदरा था, ७. तुंगकारण्य में निवास करनेवाला एक ऋषि, जिसने | जिससे इसे जयत्सेन नामक पुत्र उत्पन्न हुआ था (म. अपने अनेकानेक शिष्यों को वेदविद्या सिखायी ( पद्म. स्व. आ. ६३.१५)। ३९)। ___४. सावर्णि मन्वन्तर का एक अवतार, जो देवगुह्य एवं ८. एक लोकसमूह, जो पश्चिम भारत में निवास | सरस्वती का पुत्र था (भा. ८.१३.१७)। करता था (भा. १.१०.३४)। सार्वसेनि--शौचेय नामक आचार्य का पैतृक नाम सारिक-युधिष्ठिरसभा में उपस्थित एक ऋषि (म. (ते. सं. ७.१.१०.३)। स. ४.११)। सालकटंकट-अलंबुस नामक राक्षस का नामांतर। . सारमजय--वृष्णिकुल में उत्पन्न एक यादव (म. सालकटंकटा-विद्युत्केश राक्षस की पत्नी, जिसकी आ. १७७.१८)। पाठभेद (भांडारकर संहिता )-- माता का नाम संध्या था ( वा. रा. उ. ४.२३)। 'सारमेजय'। सालकटकटी--हिडिंबा राक्षसी का नामांतर (म.आ. : सारिसृक्क शार्ग-एक वैदिक सूक्तद्रष्टा (ऋ. १४३.१५५६४, पंक्ति ६)। १०.१४२.५-६)। महाभारत में इसे 'सारिसुक्क' कहा सालंकायन--विश्वामित्र ऋषि का एक पुत्र । गया है, एवं इसे मंदपाल ऋषि एवं जरितृ शार्ग का पुत्र | सालिमंजरिसत्य-एक आचार्य, जो वायु के अनुसार बताया गया है। व्यास की सामशिष्यपरंपरा में से हिरण्यनाभ नामक आचार्य खांडववनदाह के समय इसने अग्नि की स्तुति की, का शिष्य था। जिस कारण प्रसन्न हो कर अग्नि ने इसे दाह से मुक्त साल्व-एक प्राचीन लोकसमूह, जिसका निर्देश किया (म. आ. २२३.३)। प्राचीन साहित्य में प्रायः सर्वत्र मत्स्य लोगों के साथ प्राप्त साञ्जय-एक संजय राजा, जिसका निर्देश ऋग्वेद है । आधुनिक दक्षिण पंजाब एवं दक्षिण राजस्थान में अल्वार की एक दानस्तुति में प्राप्त है (ऋ. ६.४७.२५)। यह प्रदेश में ये लोग बसे हुए थे। भरद्वाजों का आश्रयदाता था (श. ब्रा. २.४.४.४; १२. | इन लोगों का प्राचीनतम निर्देश गोपथ ब्राह्मण में प्राप्त ८.२.३)। | है, जहाँ इन्हें मत्स्य लोगों के साथ संबंधित किया गया है २. एक पैतृक नाम, जो निम्नलिखित आचार्यों के (गो. बा. १.२.९)। पाणिनि के व्याकरण में भी इन लिए प्रमुक्त किया गया है :- १.प्रस्तोक (सां. श्री. लोगों का निर्देश प्राप्त है (पा. सू. ४.१.१७३; २.१३५)। १६.११.११); २. सहदेव (ऐ. ब्रा. ७.३.४ ); ३ सुप्लन् । महाभारत के अनुसार, ये लोग कुरुक्षेत्र के समीप बसे (श. ब्रा. २.४.४.४.४)। किंतु सायणाचार्य सहदेव हुए थे, एवं इनकी राजधानी शाल्वपुर (सौभगगनगर) एवं साञ्जय को विभिन्न व्यक्ति मानते है। नगर में थी। भारतीय युद्ध में ये लोग मत्स्य, केकय, सार्धनमि-अंगिराकुलोत्पन्न एक गोत्रकार। अंबष्ठ, त्रिगर्त आदि लोगों के साथ कौरवपक्ष में शामिल सार्धमुग्रीवि--अंगिराकुलोत्पन्न एक गोत्रकार। थे, एवं इनकी गणना भीष्म के सैन्य में की जाती थी। १०३८ Page #1061 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साल्व प्राचीन चरित्रकोश सावित्री इन लोगों के समूह में निम्नलिखित लोग शामिल थे:- ४. एक आचार्य, जिसका निर्देश उपकर्मांगतर्पण में १. उदुंबर; २. तिलखल; ३. मद्रक; ४. युगंधर; ५.भूलिंग; | प्राप्त है। ६. शरदण्ड (का शिका) सावणि सौमदत्ति-एक आचार्य, जो वायु एवं सालडि-अंगिराकुलोत्पन्न एक गोत्रकार। ब्रह्मांड के अनुसार व्यास की पुराण शिष्यपरंपरा में से सावर्ण-युधिष्ठिरसभा में उपस्थित एक ऋषि (म. रोमहर्षण नामक आचार्य का शिष्य था (वायु. ६१. स: ४.१३)। | ५६)। सावयस--अषाढ (आषाढ) नामक आचार्य का सावर्णिक--भृगुकुलो-पन्न एक गोत्रकार । पैतृक नाम (श. ब्रा. १.१.१.७ )। सावय-मनु सावर्णि राजा के 'सावर्णि' पैतृक नाम का सावर्णि---सावर्णि नामक आठवें मन्वन्तर के अधिपति नामान्तर (सावर्णि १. देखिये)। मनु का पैतृक नाम (ऋ. १०.६२.११)। सवर्णा नामक ) सावित्र--ग्यारह रुद्रों में से एक (मत्स्य. ५.३०)। स्त्री के वंशज होने के कारण उसे यह पैतृक नाम प्राप्त हुआ होगा (मनु सावर्णि देखिये)। रौथ के अनुसार २.--कर्ण का नामान्तर (सावित्री ५. देखिये)। 'सवर्णा' सूर्यपत्नी सरंण्यू का ही नामान्तर होगा। इस सावित्र वसु-अष्टवसुओं में से एक, जिसने रावण पैतृक नाम का 'सावर्ण्य' एवं 'सांवरणि' पाठ भी ऋग्वेद में के पितामह सुमालिन् का वध किया था (वा. रा. उ. प्राप्त हैं (ऋ. १०.६२.९)। महाभारत में इस पैतृक नाम | २७.४३-५०)। का 'सौवर्ण' नामान्तर प्राप्त है (म. अनु. १८.४३)। सावित्री-मद्र देशाधिपति अश्वपति राजा की कन्या, पौराणिक साहित्य में भी 'सावर्णि' मनु राजा का मातृक | जो शाल्व देश के सत्यवत् राजा की पत्नी थी। अपने नाम बताया गया है, एवं यह मातृक नाम सवर्णा का पुत्र पातिव्रत्य प्रभाव के कारण इसने अपने अल्पायु पति के • होने के कारण इसे प्राप्त हुआ था ऐसा भी निर्देश वहाँ प्राण साक्षात् यमधर्म से पुनः प्राप्त किये, जिस कारण यह प्राप्त है (विष्णु. ३.२.१३: ब्रह्म.६.१९)। किन्तु अन्य प्राचीन भारतीय साहित्य में पातिव्रत्यधर्म की अमर पुराणों में इसकी माता का नाम सवर्णा नहीं, बल्कि प्रतिमा बन चुकी है । तैत्तिरीय ब्राह्मण में भी सावित्री 'छाया' अथवा 'मृण्मयी' दिया गया है (भा. ६.६.४१%, नाम का निर्देश प्राप्त है, जिससे प्रतीत होता है कि, माक. ७५.३१; म. अनु. ५३.२५ कुं.)। सावित्री की कथा ब्राह्मण ग्रंथों के रचनाकाल में किसी रूप में अस्तित्व में थी ( सीता सावित्री देखिये)। इसके बड़े भाई का नाम श्राद्ध देव था, जो सातवें मन्वन्तर का अधिपति मनु था। अपने ज्येष्ठ बन्धु के वर्ण | जन्म-इसकी माता का नाम मालती (मालवी) के समान होने के कारण इसे सावर्णि उपाधि प्राप्त हुई, था। वसिष्ठ ऋषि की आज्ञा से इसके पिता ने गायत्री ऐसी भी चमत्कृतिपूर्ण कथा कई पुराणों में प्राप्त है, किन्तु मंत्र का दस लाख बार जाप किया, जिस कारण इसका वह कल्पनारम्य प्रतीत होती है । वायु में इसका सही नाम | जन्म हुआ। 'श्रुतश्रवस्' दिया गया है (वायु. ८४.५१)। मनु सावर्णि विवाह--यह अत्यंत स्वरूपसुंदर थी, एवं इसका राजा पूर्वजन्म में चैत्रवंशीय सुरथ नामक राजा था (दे. पिता अत्यंत धनसंपन्न था। इस कारण इसके साथ भा. १०.१०; मार्क. ७८.३; सुरथ १३. देखिये)। विवाह करने में सभी राजपुत्र डरते थे । अतः पति२. सत्ययुग में उत्पन्न एक ऋषि, जिसने छः हजार संशोधनार्थ यह स्वयं निकल पड़ी, एवं इसने शाल्वदेश वर्षों तक शिव की उपासना की थी । इस तपस्या के कारण के युमत्सेन राजा के पुत्र सत्यवत् से विवाह करना शिव ने प्रसन्न हो कर इसे विख्यात ग्रंथकार होने का, निश्चित किया । सत्यवत् अत्यंत गुणसंपन्न था, किन्तु एवं अजरामर होने का आशीर्वाद प्रदान किया था (म. अत्यंत अल्पायु होने के कारण एक वर्ष के पश्चात् ही अनु. ४५. ८७ कुं.)। पश्चात् यह इंद्रसभा का सदस्य उसकी मृत्यु होनेवाली थी। नारद ऋषि ने सत्यवत् का भी बन गया था (म. स. ७.९)। यह भीषण भविष्य इसे कथन किया, एवं उससे विवाह ३. एक ग्रंथकर्ता ऋषि, जो कृतयुग में उत्पन्न | करने के इसके निश्चय से विचलित करने का काफी प्रयत्न हुआ था। किया । किन्तु यह अपने निश्चय पर अटल रही। १०३९ Page #1062 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सावित्री . प्राचीन चरित्रकोश सिंहसेन त्रिराबवत-सत्यवत् की मृत्यु का दिन जब चार दिन | के स्थान पर 'सावित्र' (सूर्य का पुत्र) ऐसा निर्देश है। शेष रहा तब इसने तीन अहोरात्र खड़े रह कर तपस्या | इससे प्रतीत होता है कि, अपने दोनों कुंडल दान में प्रदान करने का 'त्रिरात्रव्रत' किया। इस व्रत के चौथे दिन यह | करनेवाले अंगराज कर्ण की ओर इस कथा में संकेत अपने व्रत की समाप्ति करना चाहती थी, इतने में सत्यवत् | किया है। के मृत्यु की घटिका आ पहुँची । सासिसाहरितायन--कश्यपकुलोत्पन्न एक गोत्रकार । यम से आशीर्वाद प्राप्ति-पश्चात् यम ने अपने पाशों | साश्व-यमसभा में उपस्थित एक प्राचीन राजा (म. के द्वारा सत्यवत् के शरीर में से अंगुष्ठमात्र आकार का | H ९३४)। प्राणपुरुष खींच लिया, एवं वह यमलोक लौट जाने | साहजि--(सो. सह.) सहदेववंशीय संवर्त राजा का लगा। उस समय इसने यम का अत्यधिक अनुनय विनय नामांतर । विष्णु में इसे कुंती राजा का पुत्र कहा गया किया, एवं अनेकानेक अध्यात्मविषयक प्रश्न पूछ कर उसे है। भागवत एवं हरिवंश में इसे क्रमशः 'सोहं जि' एवं निरुत्तर किया। इस कारण यम ने सत्यवत् के प्राण इसे 'साहंज' कहा गया है ( ह. व. १.३३.४ )। इसने वापस दे दिये (म, व. २८१.२५-५३)। 'साहंजनि नगरी (सांची) की स्थापना की थी (ब्रह्म. इसके श्वशुर द्युमत्सेन का राज्य पुनः प्राप्त होने का,एव । १३.१५६।। उसकी खोयी हुई दृष्टि उसे पुनः प्राप्त होने का वर भी यम यम साहदेव्य-सोमक नामक आचार्य की पैतृक नाम ने इसे प्रदान किया। (ऐ. ब्रा. ७.३४.९)। पश्चात् यम के आशीर्वाद के अनुसार इसे सत्यवत् से | साहरि--अंगिराकलोत्पन्न एक गोत्रकार । सौ पुत्र उत्पन्न हुए, एवं द्युमत्सेन का राज्य भी उसे पुनः साहुर-विश्वामित्रकुलीत्पन्न एक गोत्रकार। प्राप्त हुआ। द्युमत्सेन के पश्चात् सत्यवत् शाल्वदेश का राजा बन गया, जहाँ उसने चार सौ वर्षों तक राज्य किया | साय-एक मरुत् , जो मरुत्गणों में से चौथे मन्त (म. व. २७७-२८३; मत्स्य: २०७-२१३: दे.भा.९. गण में शामिल था। २६-३८; ब्रह्मवै. २.२३-२४)। सिंह-कृष्ण एवं लक्ष्मणा के पुत्रों में से एक। . २. ब्रह्मा की पत्नी शतरूपा का नामान्तर (ब्रह्मन् २. राम दाशरथि के सूज्ञ नामक मंत्रि का पुत्र (कुशलवदेखिये)। | देखिये)। . ३. एक देवी, जो सूर्य एवं पृष्णि की कन्या मानी जाती सिंहकेतु-चेदि देश का एक राजकुमार, जो भारतीय है (भा.६.१८.१)। यह गायत्री मंत्र की अधिष्ठात्री युद्ध में पांडवों के पक्ष में शामिल था। कण ने इसका वध देवी मानी गयी है। इसके उपासकों में अश्वपति राजा किया (म. द्रो. ४०.५१)। प्रमुख था, जिसे इसने अग्निहोत्र से प्रकट हो कर प्रत्यक्ष सिंहचंद्र--पांचाल देश का एक राजा, जो युधिष्ठिर दर्शन दिया था (म. व. २७७.१०; मास्य. २०८-६)। त्रिपुर- का मित्र था। भारतीय युद्ध में वह पांडवपक्ष में शामिल दाह के समय शिव ने इसे अपने रथ के घोड़ों की बागडोर, | था ( म. दो. १३३.३७) । एवं संवत्सरमय धनुष्य की प्रत्यंचा बनाया था (म. द्रो. सिंहल--एक म्लेच्छ जातीय लोकसमूह, जो भारतीय १४.५७) । विदर्भ देश में रहनेवाले सत्य नामक ब्राह्मण युद्ध में कौरवपक्ष में शामिल थे। ये लोग द्रोण के द्वारा के गायत्री जप से संतुष्ट हो कर, इसने उसे दर्शन दिया निर्मित गरुड़व्यूह के ग्रीवाभाग में स्थित थे (म. दो. १९. था (म. शां. २६४.१०)। ७)। ४. शिवपत्नी उमा की एक सहचरी (म. व.२२१.२०)। सिंहलेन--पांचाल देश का एक योद्धा, जो भारतीय ५. एक धर्मपरायण राजपत्नी, जिसने दिव्य कुंडलों का युद्ध में पांडवपक्ष में शामिल था। द्रोण ने इसका वध दान कर उत्तम लोक की प्राप्ति की थी (म. शां. २२६. | किया ( म. द्रो. १५.३५. )। २४) । संभवतः इस कथा में सत्यवत् की पत्नी सावित्री की | २. पांचाल देश का एक योद्धा, जो गोपति पांचाल का ओर संकेत किया होगा। पुत्र था। यह भारतीय युद्ध में कर्ण के द्वारा मारा गया महाभारत के अनुशासनपर्व में यही कथा पुनरुद्धृत (म. क. ४०.४८)। इसके रथ के अश्वश्वतरन वर्ण के की गयी है (म. अनु. २०९)। किन्तु वहाँ 'सावित्री' थे ( म. द्रो. २२.४३ )। १०४० Page #1063 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिंहिका प्राचीन चरित्रकोश सिंदूर सिंहिका--प्राचेतस दक्ष प्रजापति की एक कन्या, जो सिद्धि--दक्ष प्रजापति की कन्या, जो धर्मऋषि की कश्यप की पत्नी थी । ' सँहि केय' नामक चार सुविख्यात | पत्नी थी। इसके पुत्र का नाम सुख था (वायु. १०. असुर इसके ही पुत्र माने जाते हैं। २५)। २. एक राक्षसी । हनुमत् के समुद्रोलंधन के सपय | २. भग नामक आदित्य की पत्नी ( भा. ६.१८.२)। इसने उसका मार्ग रोक कर उसे त्रस्त करता चाहा। उस | ३. एक अग्नि, जो वीर नामक अग्नि का पुत्र था। इसकी समय हनुमत् ने इसका वध किया, एवं इसकी लाश | माता का नाम सरयू था । इसने अपनी प्रभा से सूर्य को समुद्र में फेंक दी। आच्छादित कर दिया था (म. व. २०९.११)। ३. एक राक्षसी, जो कश्यप एवं दिति की कन्या, एवं ४. एक देवी, जो कुंती के रूप में पृथ्वी पर अवतीर्ण हिरण्यकशिपु की बहन थी। इसका विवाह विप्रचित्ति हुई थी (म. आ.६१,९८)। दानव से हुआ था, जिससे इसे एक सौ एक पुत्र उत्पन्न | सिनीवाक--युधिष्ठिर की मयसभा में उपस्थित एक हुए। इसके पुत्रों में राहु नामक असुर प्रमुख था (भा. ऋषि (म. स. ४.१२)। पाठभेद (भांडारकर संहिता)। ५.२४.१; वायु. ६७.७; विप्रचित्ति २. देखिये)। -'शिनीवाक'। सिकता निवावरी--एक वैदिक मंत्रद्रष्टी (ऋ. ९. | सिनीवाली-एक देवी, जिसका निर्देश ऋग्वेद के दो ८६.११-२०, ३१-४०)। सूक्तों में प्राप्त है (ऋ. २.३२, १०.१८४)। यह देवों सित--विश्वामित्र ऋषि का एक पुत्र । की बहन मानी गयी है। यह विस्तृत नितंबा, सुंदरभुजाओं २. तामस मन्वंतर का एक योगवर्धन | एवं सुंदर उँगलियोंवाली, बहुप्रसवा एवं विशाल परिवार सिद्ध-एक देवगंधर्व, जो कश्यप एवं प्राधा के पुत्रों की स्वामिनी है। संतानप्रदान करने के लिए इसका स्तवन में से एक था। | किया गया है। सरस्वती, राका, गुंगु आदि देवियों के २. एक देवगण, जो हिमालय पर्वत मैं कण्वाश्रम के साथ इसका आवाहन किया गया है। अथर्ववेद में इसे समीप निवास करता था (म. आ. ५७९%)। विष्णु की पत्नी कहा गया है (अ. वे. ८.४६ )। ३. एक मुनि, जिसने काश्यप ऋषि से निम्नलिखित बाद के वैदिक ग्रंथों में, राका एवं सिनीवाली का चंद्रमा विषयों पर तात्त्विक चर्चा की थी:-- १. अनुगीता; की कलाओं के साथ संबंध दिया गया है, जहाँ सिनीवाली .२. जननमरण; ३. जीवात्मा का गर्भप्रवेश; ४. मोक्षसाधन को नवचंद्रमा (प्रतिपदा) के दिन की, एवं राका को पूर्णिमा (म. आश्व. १६-२२)। शिलोच्छवृत्ति ब्राह्मण नामक | के दिन की अधिष्ठात्री देवी माना गया है। किन्तु इस से भी इसने गंगामाहात्म्य के संबंध में चर्चा की थी (म. कल्पना का ऋग्वेद में कहीं भी निर्देश प्राप्त नहीं है । अनु. ६५.१९)। सिद्धपात्र--स्कंद का एक सैनिक (म. श. ४४.६१ पौराणिक साहित्य में इस साहित्य में इसे अंगिरस् पाठ.)। ऋषि एवं श्रद्धा की तृतीय कन्या कहा गया है। इसका सिद्धसमाधि-कोल्लापूर का एक ब्राह्मण, जिसकी विवाह धातृ नामक आदित्य से हुआ था, जिससे इसे दर्श कथा पद्म में गीता के बारहवें अध्याय का माहात्म्य कथन (सायंकाल) नामक पुत्र उत्पन्न हुआ था। करने के लिए दी गयी है ( पन. उ. १८६ )। यह अत्यंत कृश थी, जिस कारण यह कभी दृश्यमान, सिद्धार्थ--दशरथ राजा का एक आमात्य (वा. रा. एवं कभी अदृश्य रहती थी। इसी कारण इसे 'दृश्यादृश्य' नामान्तर प्राप्त हुआ था (भा. ६.१८.३)। अयो. ३६)। २. एक यक्ष, जो मणिभद्र एवं पुण्यजनी के पुत्रों में २. कर्दमपत्नी देवहूति का नामान्तर । से एक था। ३. बृहस्पति एव शुभा की कन्या, जिसका विवाह कदम ३. एक राजा, जो शुद्धोदन राजा का पुत्र था (मत्स्य. | प्रजापति से हुआ था। अपने पति का त्याग कर, यह १७२.१२)। इसे पुष्कल नामांतर भी प्राप्त था। सोम से प्रेम करती थी ( वायु. ९०.२५)। ४. एक राजा, जो 'क्रोधवश' संज्ञक दैत्य के अंश सिंदूर-एक असुर । श्रीगणेश ने इसका वध कर, से उत्पन्न हुआ था (म. आ. ६१.५५)। इसके रक्त का लेप स्वयं के शरीर पर लगा दिया था ५. खंद का एक सैनिक (म. श. ४४.५९)। | (गणेश, २.१३७ )। प्रा. च. १३१] १०४१ Page #1064 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिंधु सिंधु -- इक्ष्वाकुवंशीय सिंधुद्वीप राजा का नामान्तर (ब्रह्म. १६९.१९) । प्राचीन चरित्रकोश २. एक असुर, जो श्रीगणेश के द्वारा मारा गया ( गणेश. २.७३ - १२६ ) । ३. एक लोकसमूह, जिसका निर्देश प्राचीन साहित्य में सीवीर लोगों के साथ प्राप्त है। ये दोनों लोकसमूह सिंधुनद के तट पर निवास करते थे । बौधायन धर्मसूत्र में इन्हें म्लेच्छ जाति का, एवं अपवित्र माना गया है। भारतीय युद्ध के समय, अपने राजा जयद्रथ के साथ ये लोग कौरवपक्ष में शामिल थे (म. भी. १८.१३-१४) । सतीत्व की साकार प्रतिमा जिस काल में बहुपत्नी काय रूक्षत्रिय समाज में प्रतिष्ठित कत्व थी, उस समय एकपत्नीकत्व का नया आदर्श राम दाशरथि राजा के रूप में वाल्मीकि ने अपने 'वाल्मीकि रामायण' के द्वारा प्रस्थापित किया (राम दाशरथि देखिये ) । उसके साथ ही साथ एकपत्नीकत्व के अत का आचरण करनेवाले क्षत्रिय के फनी को किस प्रकार वर्तन करना चाहिए, इसका आदर्श बा ने सीता के रूप में चित्रित किया। इसी कारण राम दाशरथि के साथ सौता भारतीय स्त्री जाति के सतीद एकनिष्ठा एवं पवित्रता की ज्वलंत एवं साकार प्रतिमा बन कर अमर हो गयी है। सिंधुक - (आंध्र भविष्य . ) आंध्रवंशीय शिप्रक राजा का नामान्तर । वायु एवं ब्रह्मांड में इसे आंध्रवंश का सर्वप्रथम राजा कहा गया है। सिंधुक्षित-एक राजा, जो दुर्भाग्य के कारण राज्यअ हुआ था। आगे चल कर एक साम के पटन से इसे अपना विगत राज्य पुनः प्राप्त हुआ (पं. ब्र. १२. १२.६)। सिंधुक्षित प्रमद -- एक वैदिक सूक्तद्रष्टा (ऋ. १०.७५) । १६९.४)। ३. एक ऋषि, जिसने वेदनाथ नामक ब्राह्मण का उद्धार किया था (स्कंद, १.२.१४ ) । सीता सिंधुसेन - एक राक्षस, जिसने संसार के समस्त मंत्रों का हरण कर उन्हें रसातल में छिपा दिया। इस कारण संसार के सारे यश चन्द पड़ गये। आगे चलकर विष्णु ने वराह का रूप धारण कर इसका नाश किया, एवं यज्ञमंत्रों को रसातल से वापस लाया । सीता वैदेही -- विदेह देश के सीरध्वज जनक राजा की कन्या, जो इक्ष्वाकुवंशीय राम दाशरथि राजा की पत्नी थी । सिंधुद्वीप - (सो. अमा. ) एक राजा, जो जह्नु राजा का पुत्र एवं बलका राजा का पिता था। जन्म से यह क्षत्रिय था, किन्तु आगे चल कर 'पृथूदक तीर्थ में स्नान करने के कारण यह ब्राह्मण बन गया ( म. श. ३९.१०; अनु. ७.४ ) । ' २. एक ऋषि जो ऋषि का भाई था (ब्रहा संबंध में स्वयं रावण कहता है- सिंधुद्वीप - (सु.) एक राजा, जो विष्णु, वायु, एवं मत्स्य के अनुसार अंबरीष राजा का पुत्र एवं अयुतायु राजा का पिता था। भागवत एवं हरिवंश में इसे नाम राजा का पुत्र कहा गया है। सिंधुद्वीप ओवरीष नामक एक वैदिक सूक्तद्रथा का निर्देश ऋग्वेद में प्राप्त है (ऋग्वेद १०.९), जो संभवतः यही होगा। -- सिंधुवीर्यमद्रदेश का एक राजा, जिसकी कन्या का नाम केकयी था। अपनी इस कन्या का विवाह इसने मरुत आविक्षित राजा से किया था। स्वरूप वर्णन - वाल्मीकि रामायण में सीता के स्वरूप का अत्यंत काव्यमय वर्णन प्राप्त है, जहाँ इसे पूर्णचंद्रवदना, अपनी प्रभा से सभी दिशाओं को प्रकाशित करनेवाली (वा. रा. मुं. १५.२० ३९ ) कोमलांगिनी, शुद्धस्वर्णवर्णी (बा. रा अर. ४३.१-२ ) समी एवं ); लक्ष्मी रति की प्रतिरूपा, नखशिख सौंदर्यमयी ( वा. रा. अर, ४६.१६ २२ ) कहा गया है। इसके अप्रतीम सौंदर्य के (बा. रा. अर. ४६.२३) । ( सीता के समान सौंदर्यवती स्त्री मैं ने इस धरती पर देव, गंधर्व, यक्ष, किन्नर आदि में कहीं भी नहीं देखी है।) भूमिजा सीता पर वह सीराज जनक की कन्या मानी जाती है, फिर भी यह उसकी अपनी कन्या न थी । वाल्मीकि रामायण में इसका जन्म भूमि से बताया गया है, एवं इसके जन्म के संबंधी निम्नलिखित कथा वहाँ दी गयी है। एक दिन जनक राजा यज्ञममि तैयार करने के लिए हल चला रहा था, उस समय एक छोटीसी कया मिट्टी से निकली। उसने इसे पुत्री के रूप में ग्रहण किया, एवं उसका नाम सीता रखा ( वा. रा. बा. ६६.१३ १०४२ नैव देवी नवीन यक्षी न किसरी । नैवंरूपा मया नारी दृष्टपूर्वा महीतले ॥ Page #1065 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सीता प्राचीन चरित्रकोश सीता १५)। सीता का यह अवतार उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र में | शाप दिया, 'मैं तुम्हारा एवं तुम्हारे सारे परिवार का हुआ। नाश करने के लिए लंका में फिर आउँगी। रे. बुल्के के अनुसार भमिजा सीता की अलौकिक जन्म | पश्चात् मिथिला के एक ब्राह्मण को जमीन पर हल कथा सीता नामक कृषि की अधिष्ठात्री देवी के प्रभाव से | चलाते समय वही पेटिका प्राप्त हुई, जो उसने राजधन उत्पन्न हुई थी। सीता का शब्दशः अर्थ 'हल से खींची मान कर जनक राजा को सुपूर्द किया । उस पेटिका से हुई रेखा' होता है । अतएव भमि में हल चलाते समय | निकली हुई कन्या को जनक ने बेटी के रूप में पाला, एवं इसके निकलने के कारण इसे सीता नाम प्राप्त हुआ | उसका नाम सीता रख दिया। होगा । संभव है, किसी निश्चित कुलपरंपरा के अभाव में | मातुलिंग से निकलने के कारण इसे 'मातुलिंगी ऐतिहासिक राजकुमारी सीता की जन्मकथा पर कृषि के | रत्न में होने के कारण ' रत्नावलि;' धरणी से निकलने अधिष्ठात्री देवी के व्यक्तित्व का प्रभाव पड़ा हो। के कारण 'धरणीजा;' जनक के द्वारा पाले जाने के जन्मसंबंधी अन्य आख्यायिकाएँ--इसके जन्म के | कारण 'जानकी;' जमीन से निकलने के कारण 'सीता;' संबंध में अन्य आख्यायिकाएँ विभिन्न रामायण ग्रंथों में | अग्नि से निकलने के कारण 'अग्निजा;' एवं पूर्वजन्म के एवं पुराणों में प्राप्त है, जो निम्नप्रकार है :-- नाम के कारण 'पद्मा' आदि नामान्तर प्राप्त हुए (आ. (1) अग्निजा सीता-'आनंद रामायण' (१५ वी रा. ७.३; भावार्थ रा. १.१५)। शताब्दी) के अनुसार इसके पिता का नाम पद्माक्ष दिया (२) रक्तजा सीता-रक्तजा के रूप में सीता गया है। पद्माक्ष राजा ने लक्ष्मी को पुत्रीरूप में पाने के का जन्म होने की कथा 'अद्भुत रामायण' में पायी जाती लिए विष्णु की उपासना की । विष्णु ने उसे महालिंग है । रावण जनस्थान के मुनियों पर अत्याचार करता था, दिया, जिससे एक सुंदर कन्या निकली, जिसका नाम | एवं अपने बाण की नोंक से ऋषियों के शरीर से रक्त • पद्मा रखा गया। निकाल कर एक मटके में जमा करता था। इसी वन में पना के स्वयंवर के समय, दैत्यों ने स्वयंवर मंडप | गृत्समद नामक एक ऋषि रहता था, जो लक्ष्मी के समान ध्वस्त किया, एवं पद्माक्ष राजा का संपूर्ण विनाश हो कर | कन्या की इच्छा से तपस्या करता था। दर्भ के अग्रभाग 'वह स्वयं भी मारा गया। यह देख कर पद्मा ने अग्नि में से दूध को ले कर, मंत्रोच्चारण के साथ वह उसे प्रवेश किया। इसकी खोज के लिए दैत्यों ने बड़ी खोज प्रतिदिन इकट्ठा करता था। बीन की, किन्तु इसका कहीं पता न चला । | एक दिन रावण ने गृत्समद ऋषि का मटका चुरा लिया, एक बार यह अमिकुंड से बाहर आ कर बैठी थी, तब एवं उसमें इकट्ठा किया दूध ऋषियों के रक्त से भरे हुए विमान से जानेवाले रावण ने इसे देखा,एवं वह कामातुर | मटके में डाल दिया, एवं उसे मंदोदरी के पास रखने के हो कर इसकी ओर दौड़ा। उसे आता हुआ देख कर | लिए दे दिया। यह फिर अग्नि में प्रविष्ट हुई । इसे ढूँढने के लिए रावण आगे चल कर रावण के कुकृत्यों से तंग आ कर ने समस्त यज्ञकुंड खोद डाला, जिससे इसे जीवित सीता| मंदोदरी ने आत्महत्या के हेतु से मटके में स्थित दूधयुक्त तो न मिली, किन्तु इसीका ही एक जड़ रूप पाँच रत्नों रक्त प्राशन किया, जिससे वह गर्भवती रही। अपना यह के रूप में प्राप्त हुआ। गर्भ उसने कुरुक्षेत्र की भूमि में गाड़ दिया। उसी गर्भ से - इन रत्नों को एक पेटिका में बन्द रख कर रावण लंका | आगे चल कर सीता का जन्म हुआ, जिसे विदर्भ देश के में गया, एवं उसे अपनी पत्नी मंदोदरी के हाथ सौंप | जनक राजा ने पालपोस कर बड़ा किया (अ. रा.८)। दिया। वहाँ पेटिका खोलते ही पद्मा अपने मूल कन्यारूप (३) रावणात्मजा सीता--सीताजन्म के संबंधित में प्रकट हुई। इस पर पद्माक्ष के सारे कुल का एवं राज्य सर्वाधिक प्राचीन कथा में, सीता को रावण की कन्या माना का विनाश करनेवाली इस कन्या को लंका से बाहर छोड़ गया है। इस कथा के अनुसार रावण ने मय राक्षस की देनेकी प्रार्थना रावण ने मंदोदरी से की । मंदोदरी की इस | कन्या मन्दोदरी से विवाह करना चाहा । उस समय मय प्रार्थना के अनुसार रावण ने इस कन्या को पुनः एक ने रावण से कहा कि, मन्दोदरी के जन्मजातक से मंदोदरी बार पेटिका में बंद किया, एवं वह पेटिका मिथिला | की पहली संतान कुलधातक उत्पन्न होनेवाली है; अतएव में गड़वा दी। पेटिका में बन्द करने के पूर्व इसने रावण को | उस संतान का वध करना उचित होगा। मय की इस १०४३ Page #1066 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सीता प्राचीन चरित्रकोश सीता सलाह को न मान कर,रावण ने अपनी प्रथमजात कन्या को | वह लंका ले जाने लगा। रास्ते में ऋष्यमूक पर्वत पर पेटिका में बन्द कर जनकपुरी में गड़वा दिया। इसी कन्या | इसने अपने उत्तरीय वस्त्र, एवं अलंकार फेंक दिये, ने आगे चल कर रावण के समस्त कुल का नाश कर दिया | जिससे राम को पता चल जाए कि यह हरण की (दे. भा. ४२)। गयी है। (४) जनकात्मजा सीता--महाभारत में सर्वत्र सीता | पश्चात् रावण ने इसे लंका नगरी में स्थित अशोकवन को जनक राजा की अपनी कन्या माना गया है (म. व. में राक्षसियों की रखवाली में रख दिया, एवं वह प्रतिदिन २५८.९)। कामातुर हो कर अपने वश में लाने के लिए इसकी सीता के जन्मसंबंधित उपर्युक्त सारी कथाएँ कल्पनारम्य | प्रार्थना करने लगा। उस समय उसने इसे डराया, धमकाया प्रतीत होती है, जिनकी रचना राम के द्वारा किया गया एवं काफ़ी प्रलोभन भी दिखाये। किन्तु यह अपने सतीत्व रावणवध गृहीते मान कर की गयी हैं। पर अचल रही । रावण के आते ही लोकलज्जा में सीतास्वयंवर--एक बार परशुराम अपना प्रचंड शिव | लिपटी हुई सीता अपने जंघाओं से अपने पेट को, एवं धनुष ले कर जनक राजा से मिलने आया। परशुराम का | अपने दोनो बाहुओं से वक्षःस्थलों को ढंक देती थी (वा. यह धनुष इतना बड़ा था, कि उसे ले जाने के लिए | रा. मुं. १९.३) । परस्त्री पर पापदृष्टि रखने वाले दो सौ पचास बैल-जोड़ियों की शक्ति आवश्यक थी। रावण की इसने काफी निर्भत्सना की । किन्तु रावण पर परशराम का यह अजस्त्रं धनुष इसने सहजही उठा लिया, इसका कुछ भी असर न हुआ, एवं अपने राक्षसियों . एवं उसे घोड़ा बना कर यह खेलने लगी। यह देख कर | के द्वारा वह इसे वश में करने का प्रयत्न करता ही रहा। इसके दैवी अंश के संबंध में परशुराम को आभास मिल गयी, हनुमत् से भेंट--एक दिन सीता के शोध के लिए एवं उसने जनक राजा को अपना धनुष दे कर आज्ञा दी, | राम के द्वारा भेजा गया हनुमत् अशोकवन में आं . 'जो वीर इस धनुष के तोड़ने का सामर्थ्य रखता हो, पहुँचा, एवं उसने राम के द्वारा दी गयी अभिज्ञान की. : उसी के साथ ही सीता का विवाह कर देना (वा. रा. अँगुठी इसे दिखा कर अपना परिचय दिया। उसी समय बा. ६६.२६; आ. रा. सार. ३)। अपने पीठ पर इसे बिठा कर, रावण के कारावास से इसे . परशुराम की आज्ञा के अनुसार, जनक राजा ने इसका मुक्त करने की तैयारी भी हनुमत् ने दिखायी । उस स्वयंवर उद्घोषित किया। इस स्वयंवर में उपस्थित सारे समय एक क्षत्रियकुलोत्पन्न वीरस्त्री के नाते हनुमत् के राजा धनुष तोड़ने में असमर्थ रहे । अन्त में अयोध्या इस प्रस्ताव को अस्वीकार करते हुए इसने कहाके राम दाशरथि राजा ने शिवधनुष को भङ्ग कर सीता बलैः समग्रैर्यदि मां हत्वा रावणमाहवे । का वरण किया (वा. रा. बा. २३.)। विजयी स्वपुरी रामो नयेत्तत् स्याद्यशस्करम् ॥ वनवासगमन- राम के वनवासगमन के समय | यथाहं तस्य वीरस्य वनादुपधिना हृता । वन की भयानकता बता कर राम ने इसे अत्यधिक रक्षसा तद्भयादेव तथा नाहति राघवः। भयभीत किया, किन्तु 'जहाँ राम वहाँ सीता' ऐसे कह (वा. रा. सु. ६८.१२-१३)।। कर यह अपने निश्चय पर अटल रही (वा. रा. अयो. (मेरे पति राम ही रावण को परास्त कर मुझे ले २६-३०)। उस समय इसने यह भी कहा कि, | जाएँगे । रावण के समान लुकछिप कर मुझे ले जाना राम ज्योतिर्विदों के द्वारा बारह वर्ष के वनवास का जातक पहले | को, तथा उसकी कीर्ति को शोभा न देगा)। ही कहा जा चुका है (वा. रा. अयो. २९.८; अ.रा. २. अग्निपरीक्षा-युद्ध के पश्चात् राम ने विभीषण को . ४.७६ )। अपनी सारी आयु राजप्रसादों में व्यतीत करने- इसे अपने पास लाने की आज्ञा दी। तदनुसार सुस्नात वाली सीता को वनवास का सारा ही जीवन अननुभूत हुई यह मूल्यवान् वस्त्र एवं आभूषण पहन कर, एवं था, यहाँ तक कि, वल्कल पहनना भी इसे न आता | शिबिका में बैठ कर यह राम से मिलने गयी । वहाँ ध्यानस्थ था। किन्तु राम के साथ ही यह वानवासिक जीवन से | बैठ हुए राम को इसके आगमन की वार्ता विभीषण ने जल्द ही परिचित हो गयी। | सुनायी। सीताहरण-जनस्थान में रावण ने इसका धोखे से विभीषण के पीछे-पीछे चल कर, यह लाज में लिपटी ' हरण किया, एवं अत्यधिक विलाप करते हुए सीता को हुई अपने पति के सम्मुख गयी। किन्तु राम के चेहरे पर १०४४ Page #1067 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सीता इसे सहानुभूति के स्थान पर कठोरता ही दिखायी दी। पश्चात् पराये घर में एक साल तक निवास करने के कारण राम ने इसको स्वीकार करना चाहा (राम दाशरथि देखिये) । राम का यह निश्चय सुन कर इसने अपने सतीत्व की सौगंध खायी। पश्चात् अग्निपरीक्षा के लिए इसने लक्ष्मण को चिता तैयार करने की आशा दी, एवं उसमें अपना शरीर झोंक दिया । तदुपरान्त इसे हाथ में धारण कर अभि देवता स्वयं प्रकट हुई, एवं इसके सतीत्त्व की साक्ष दे कर कर इसको स्वीकार करने की आज्ञा उसने राम को दी ( वा. रा. सु. ११६.१९ ) । प्राचीन चरित्रकोश , पदचात् राम के साथ यह अयोध्या नगरी में गयी वहाँ इसे राम के साथ राज्याभिषेक किया गया। कुछ समयोपरांत यह गर्भवती हुई, एवं इसने वनविहार की इच्छा राम से प्रकट की । उसी दिन रात को लोकापवाद के कारण राम ने इसका त्याग करने का निश्चय दूसरे दिन सुबह राम ने लक्ष्मण को बुलाया, एवं इसे गंगा के उस पार छोड़ आने का आदेश दिया। तपोवन दिसाने के बहाने लक्ष्मण इसे रथ पर ले गया, एवं उसने इसे वाल्मीकि के आश्रम के समीप छोड़ दिया । उस समय यह आत्महत्या कर के प्राणत्याग करना चाहती थी, होने के कारण यह वह पापकर्म न कर सकी। जन्म-राम के द्वारा परित्याग किये जाने पर वाल्मीकि के आश्रम का सहारा ले कर वह वहीं रहने लगी। पश्चात् इसी आश्रम में इसने दो यमल पुत्रों को जन्म दिया, जिनके नाम वाल्मीकि के द्वारा कुश एवं लव रखे ( वा. रा. उ. ६६ ) । देहत्याग कालोपरान्त राम के द्वारा किये गये अश्वमेध यज्ञ में, इसके पुत्र कुशल की राम से भेंट हुई। उस समय कुशलवों से इसका सारा वृत्तांत जान कर राम ने इसे एनः एक बार अयोध्या बुला लिया वाल्मीकि इसे स्वयं रामसभा में ले गये, एवं भरी सभा में उन्होंने इसके सतीत्व की साक्ष दी। उस समय जनता को विश्वास दिलाने के उद्देश्य से राम ने इससे अनुरोध किया कि यह अपने सतीत्व का प्रभाग दे इस समय इसने सगंध खाते हुए कहा- मनसा कर्मणा वाचा यथा रामं समर्चये । मेमा देवी विदनुते । सीरध्वज ( मन से, कर्म से अथवा वाचा से अगर मैंने राम के सिवा किसी अन्य पुरुष का चिंतन न किया हो, तो पृथ्वीमाता दुभंग हो कर मुझे स्वीकार करें ) । | सीता के द्वारा उपर्युक्त आर्त प्रार्थना किये जाने पर, पृथ्वी देवी एक दिव्य सिंहासन पर बैठी हुई प्रकट हुई, एवं इसे अपने शरण ले कर पुनः एक बार गुप्त हुई । यह दिव्य दृश्य देख कर राम स्तिमित हो उठा, एवं अत्यधिक विलाप करने लगा । पश्चात् उसने इसे लौटा देने का पृथ्वी को अनुरोध किया, एवं इसे न लौटा देने पर समस्त पृथ्वी को दग्ध करने की धमकी दी । अन्त में ब्रह्मा ने स्वयं प्रकट हो कर राम को सांत्वना दी। ( वा. रा. उ. ९७.१५)। चरित्रचित्रण- एक आदर्श भारतीय पतिव्रता मान कर वाल्मीकि रामायण में सीता का चरित्र चित्रण किया गया है। राम इसके लिए देवता है, एकमात्र गति है, इस लोक एवं परलोक का स्वामी है ( इह प्रेत्य च नारिणां पतिरेको गतिः सदा ) ( वा. रा. अयो. २७.६ ) । पातिमत्य धर्म के संबंध में यह सावित्री को आदर्श मानती है (बा. रा. अयो. २९.१९ ) । सावित्री के ही समान यह कुलरीति ( वा. रा. अयो, २६.१०), राजनीति ( वा. रा. अयो, २६.४ ), खौकिक नीति ( वा. रा. कि. ९.२ ) इन सारे तच्चों का ज्ञान रखती है, जिसकी सराहना स्वयं राम के द्वारा की गयी है। मानस में तुलसी के 'मानस' में चित्रित की गयी सीता, शिव, पार्वती, गणेश आदि की उपासिका है (मानस २.२.२६.७-८ ) । यह राम की केवल पत्नी ही नहीं, बल्कि अनन्य भक्त भी है। इसका ध्यान सदैव रामचरण में ही रहता है : सियमन राम चरण मन लागा । ( मानस. २.२.२६.८ )। सीता सावित्री -- प्रजापति की एक कन्या, जो सोम की पत्नी थी (तै. बा. २.१.१०६ प्रजापति देखिये) । । सीमन्तिनी चित्रवर्मन् राजा का कन्या जो चित्रांगद राजा की पत्नी थी 'सोमप्रदोषन्त' का माहात्म्य कथन करने के लिए इसकी कथा स्कंद में दी गयी है। चौदह वर्ष की आयु में इसे वैधव्य प्राप्ति का कुयोग था । उस कुयोग के नाशनार्थ यानी मैत्रेयी ने इसे 'सोमप्रदोषस्त' करने के लिए कहा, जिस कारण इसका पति समुद्र में डूबने से बच गया (स्कंद. ३.३.८ - ९) । सीरध्वज (जनक) - (सू. निमि.) विदेह देश का सुविख्यात राजा, जो सीता का पिता था। इसके पिता का नाम हस्वरोमन् था ( ७१.१२) । 'सीर का शब्दश २०४५ Page #1068 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सीरध्वज प्राचीन चरित्रकोश सुकला अर्थ 'हल' होता है। यही हल इसके कीर्ति का २. मातरिश्वन् ऋषि की पत्नी, जो मंक्रणक ऋषि की कारण बन जाने के कारण, इसे “सीरध्वज' नाम प्राप्त माता थी (म. श. ३७.५० पाठ.)। हुआ (भा. ९.१३.१८)। सुकमल-एक यक्ष, जो मणिवर एवं देवजनी का सीता की प्राप्ति-एक बार यह अग्निचयन के लिए एक पुत्र था (ब्रह्मांड. ३.७.१२९)। भूमि पर हल चला रहा था, उस समय इसे सीता की सुकर्मन्-एक पापी पुरुष, जिसकी कथा गीता के प्राप्ति हुई (सीता देखिये)। सीता बड़ी होने पर दसरे अध्याय के पठन का माहात्म्य कथन करने के लिए सांकाश्या नगरी के सुधन्वन् राजा ने सीता की मांग की। पद्म में दी गयी है (पन. उ. १७२)। इसके द्वारा इस माँग का इन्कार किये जाने पर सुधन्वन् ने २.(सो. वृष्णि) यादव राजा श्वफल्क के पुत्रों में से इस पर हमला किया। उस युद्ध में इसने सुधन्वन् का एक (भा. ९.२४:१६)। वध किया, एवं अपने पुत्र कुशवज को सांकाश्या नगरी । ३. रुद्रसावर्णि मन्वंतर का एक देवगण । का अधिपति नियुक्त किया (वा. रा. बा. ७१.१६-१९) ४. रोच्य मन्वंतर का एक देवगण | मिथिला पर हमला-सीता अत्यंत स्वरूपसुंदर होने ५. एक आचार्य, जो विष्णु एवं भागवत के अनुसार, के कारण, भारतवर्ष के अनेकानेक राजा उससे विवाह व्यास की सामशिष्य परंपरा में से जैमिनि नामक आचार्य करना चाहते थे। सीताविवाह के लिए इसने शिवधर्न का, वायु के अनुसार सुत्वन् का, एवं ब्रह्मांड के अनुसार भंग का प्रण निश्चित किया । वह प्रण किसी भी राजा ने सुन्वत् नामक आचार्य का शिष्य था। इसने सामवेद की पूर्ण नहीं किया। अन्त में सीताविवाह के संबंध में कुल एक सहस्र शाखाएँ तैयार की , एवं वे उदीच्य निराश हुए राजाओं ने एकत्रित हो कर मिथिला नगरी | दिशा से आये हुए पाँच सौ, एवं पूर्व दिशा के से आये . को घेर लिया। यह घेरा लगातार एक वर्ष तक चालू हुए पाँच सौ शिष्यों में बाँट दी। रहा, जिससे यह अत्यधिक त्रस्त हुआ । अन्त में देवी ___ यह अनध्याय के दिन में भी अपने शिष्यों को सहायता के कारण, इस संकट से यह मुक्त हुआ (वा.रा. संहिताओं के पाठ सिखाता था, जिस कारण क्रुद्ध हो कर बा. ६६)। इंद्र ने इसके सारे शिष्यों का वध किया। पश्चात् इसने वाजपेय यज्ञ--आगे चल कर, इसने वाजपेय यज्ञ प्रायोपवेशन कर इंद्र को प्रसन्न किया । फिर इंद्र ने इसके किया, जिस के उपलक्ष्य में विश्वामित्र ऋषि अयोध्या के मारे सिप नीति सारे शिष्य पुनः जीवित किये, इतना ही नही, उसने राजकुमार राम एवं लक्ष्मण को मिथिला नगरी में ले इसे हिरण्यनाभ एवं पौष्यंजि नामक दो नये शिष्य भी आये । शिवधनुभग का इसका प्रग राम ने पूरा किया, | प्रदान किये ( ब्रह्मांड, २.३५.३२)। एवं सीता का वरण किया। ६. युधिष्ठिर की राजसभा में उपस्थित एक क्षत्रिय पश्चात् इसकी दो कन्याएँ सीता एवं ऊर्मिला, एवं (म. स. ४२३)। पाठभेद ( भांडारकर संहिता)इसके भाई कुशध्वज की दो कन्याएँ मांडवी एवं श्रुतकीर्ति के नाम विवाह क्रमश अयोध्या के राजकुमार राम, लक्ष्मण, भरत | ७. कुरुक्षेत्र का एक ब्राह्मण, जिसकी कथा 'मातृपितृएवं शत्रघ्न से सुमुहूर्त पर संपन्न हुए (वा. रा. बा. | माहात्म्य' कथन करने के लिए पद्म में दी गयी है। ७०-७४) । पन में ऊर्मिला इसकी नहीं बल्कि इसके इसने अपने माता पिताओं की सेवा कर, 'सर्ववश्यता' बंधु कुशध्वज की कन्या दी गयी है। नामक सिद्धि प्राप्त की थी। इसी सिद्धि के बल से इसने सुकक्ष आंगिरस-एक वैदिक सूक्तद्रष्टा (ऋ. ८. दशारण्य में उग्र तपस्या करनेवाले पिप्पलाद काश्यप ९२-९३)। नामक ऋषि का गर्वहरण किया (पद्म. भू. ६१-६३; सुकन्या--शर्याति राजा की कन्या, जो च्यवन ऋषि ८४)। की भार्या थी (श. ब्रा. ४.१.५.६; जै. ब्रा. ३.१२१)। ८. एक स्कंद-पार्षद, जो विधातृ के द्वारा स्कंद इसके पुत्र का नाम प्रमति, एवं पौत्र का नाम रुस था | को दिये गये दो पार्षदों में से एक था। दूसरे पार्षद का (म. आ. ८.१; पन. पा. १५, च्यवन १. देखिये)। | नाम सुव्रत था। इसकी कन्या का नाम सुमेधस् था, जिसका विवाह निध्रुव सुकला--वाराणसी के कृकल नामक वैश्य की पत्नी, काण्व ऋषि से हुआ था। | जिसकी कथा पतिपत्नियों के द्वारा एक साथ तीर्थयात्रा १०४६ Page #1069 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुकला . प्राचीन चरित्रकोश सुकेतु करने का माहात्म्य कथन करने के लिए पद्म में दी गयी २. (सो. पूरु.) एक राजा, जो विष्णु एक मत्स्य के है ( पन. स. ४१-६१)। अनुसार पृथु राजा का पुत्र था (मत्स्य. ४९.५५ )। सुकाल-सुमूर्तिमत् नामक पितरों का नामांतर । | वायु में इसे सुकृति कहा गया है । सुकीर्ति-उत्तम मन्वंतर का इन्द्र । सुकृति-ब्रह्मसावर्णि मन्वन्तर के सप्तर्षियों में से एक । २. ब्रह्मसावर्णि मन्वंतर के सप्तर्षियों में से एक। २. स्वारोचिष मनु का एक पुत्र । सुकीर्ति काक्षीवत--एक वैदिक सूक्तद्रष्टा (ऋ. ३. पूरुवंशीय सुकृत राजा का नामांतर । १०.२३१) । ऋग्वेद के ब्राह्मण ग्रंथों में इसे इस सूक्त के सुकृत्त--(सो. मगध. भविष्य.) एक राजा, जो वायु प्रणयन का श्रेय इसे दिया गया है (ऐ. ब्रा. ५.१५.४, के अनुसार निरामित्र राजा का पुत्र था। ब्रह्मांड, विष्णु, ६.२९.१; सां. ब्रा. ३०.५)। भागवत एवं मत्स्य में इसे क्रमशः 'सुक्षत्र', 'सुनक्षत्र' सुकुट्ट--एक लोकसमूह (म.स. १३.२५.)। | एवं 'सुरक्ष' कहा गया है। सुकुंडल-(सो. कुरु.) धृतराष्ट्र के शतपुत्रों में से सुकृष-एक ऋषि, जो विपुलस्वत् ऋषि का पुत्र था। इसकी जीवनकथा शिबि औशीनर राजा से काफी मिलती सुकुमार--(सो. काश्य.) एक राजा, जो धृष्टकेतु जुलती है। इसके कुल चार पुत्र थे। राजा का पुत्र, एवं वीतहोत्र राजा का पिता था ( भा. ९. ___ एक बार इसकी सत्त्वपरीक्षा लेने के लिए इंद्र पक्षीरूप १७.९)। विष्णु एवं वायु में इसे सुविभु राजा का पुत्र कहा से इस के पास आया, एवं नरमांस का भोजन माँगने लगा। गया है। इसने उसकी इच्छा पूर्ण करने का आश्वासन दिया, एवं २. पुलिंद देश का एक राजकुमार, जो सुमित्र राजा अपने पुत्रों को माँस निकाल देने की आज्ञा दी। इसकी का पुत्र था । सहदेव ने अपने दक्षिणदिग्विजय में, एवं यह प्रार्थना इसके पुत्रों ने अस्वीकार कर दी। इस पर ऋद्ध भीम ने अपने पूर्व दिग्विजय में इसे जीता था (म. स. हो कर इसने उन्हें 'तिर्यग्' (पक्षी) योनि में जन्म प्राप्त २६.१०)। भारतीय युद्ध में यह पांडव पक्ष में शामिल होने का शाप दिया। तदनुसार इसके पुत्र गरुडवंश में था। द्रोणपुत्र, पिंगाक्ष, विबोध, सुपुत्र एवं सुमुख नामक पक्षी बन . ३. एक राजा, जो मत्स्य देश के समीप स्थित प्रदेश गये (मार्क. ३.) इसके पुत्रों के द्वारा निदान माँगे जाने का अधिपति था । द्रौपदी स्वयंवर में यह उपस्थित था | पर, इसने उन्हें पक्षीयोनि में रह कर भी ज्ञानी बनने • (म. आ. १७७.९)। सहदेव ने अपने दक्षिण दिग्वि | का उःशाप दिया। जय में इसे जीता था (म. स. २८.४)। इंद्र को दिये गये अभिवचन की पूर्ति के लिए यह ...४. तक्षककुलोत्पन्न एक नाग, जो जनमेजय के सर्पसत्र में दग्ध हुआ था (म. आ. ५२.८)। अपना स्वयं का माँस निकालने लगा। इस पर इद्र अपने ५. एक राजकुमार, जो शाकद्वीपाधिपति भव्य राजा सही रूप में प्रकट हुआ, एवं उसने इसे महाज्ञानी बनने का पुत्र था । इसीके ही नाम से इसका जलधारागिरि के का, एवं तपस्या में कहीं भी विन्न न उत्पन्न होने का समीप स्थित देश को 'सुकुमारवर्ष' नाम प्राप्त हुआ था आशीर्वाद प्रदान किया। (मार्क. ५०.२२; म. भी. १२.२३)। वायु एवं ब्रह्मांड सुकेतन--(सो. क्षत्र.) एक राजा, जो भागवत के में इसके पिता का नाम 'हव्य' दिया गया है। अनुसार सुनीथ राजा का पुत्र, एवं धर्मकेतु राजा का पिता सुकुमारी--परिक्षितपुत्र भीमसेन राजा की पत्नी था (भा. ९.१७.८)। विष्णु एवं वायु में इसे सुकेतु कहा गया है। (म. आ. ९०.४५)। २. संजय राजा की कन्या, जो नारद की पत्नी थी सुकेतु--(सू. निमि.) एक धर्मप्रवृत्त राजा, जो वायु (म. शां. ३०.१२, नारद २. देखिये)। एवं भागवत के अनुसार नंदिवर्धन राजा का पुत्र, एवं सुकुसुमा--स्कन्द की अनुचरी एक मातृका (म. देवरात राजा का पिता था (भा. ९.१३.१४)। श. ४५)। २.क्षत्रवंशीय सुकेतन राजा का नामान्तर। - सुकृत-स्वारोचिष मन्क्न्त र का एक प्रजापति, जो ३. एक दानव, जो ताटका राक्षसी का पिता था (वायु. वसिष्ठ ऋषि का पुत्र था (पद्म. स. ७)। ६८.६)। १०४७ Page #1070 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुकेतु प्राचीन चरित्रकोश सुगति ४. राम दाशरथि राजा के सुज्ञ नामक प्रधान का पुत्र अष्टावक्र के स्वागत समारोह में नृत्य किया था (म. ( कुशलव देखिये) । अनु. १९.४५ ) । २. गांधारराज की एक कन्या, कृष्ण की पत्नी थी। जो द्वारका में स्थित इसके प्रासाद का नाम पद्मकूट था ( म. स. परि. १.२१.१२५१ - १२५२ ) । ३. मगधराज केवी की एक कन्या (तृतीय) राजा की, पत्नी थी ( मार्के. १२८ ) । ४. हेति राक्षस की एक कन्या, जो दुर्जय राक्षस की पत्नी थी ( हेति देखिये ) । जो मरुत्त ५. तुंबुरु की एक कन्या ( वायु. ६९.४९ ) । सुक्रतु-एक राजा, जिसका निर्देश संजय के द्वारा प्राचीन राजाओं की गणना में किया गया है ( म. आ. १.१७५) । सुक्षत्र कोसल देश का एक राजा, जो भारतीय युद्ध में पांडवपक्ष में शामिल था। इसके रथ के अभ अत्यंत सुंदर थे, जिनके उदरभाग का रंग के सदृश वेतवर्णीय था ( मा. द्रो. २२.४७ ) । २. (सो. मगध भविष्य.) मगधवंशीय रा का नामान्तर । ९. सगर राजा का एक पुत्र, जो कपिल ऋषि के शाप से बचे हुए समरपुत्रों में से एक था। सुक्षेत्र त्रासावर्णि मनु के पुत्रों में से एक। सुख - सावर्णि मन्वन्तर का एक देवगण, जिसमें निम्न१०. एक दानव, जो कश्यप एवं दनु का एक लिखित वीस देव शामिल थे:- तप, दान, त -ऋत, पुत्र था । दाम, देव, ध्रुव, निधि, नियम, यम, वित्त, विधान, वैद्य, शम, सोम, स्थान, हव्य, हुत, होम ( ब्रह्मांड. ४.१२० ) । २. धर्म एवं शान्ति के पुत्रों में से एक । ५. पाण्डवपक्ष का एक पराक्रमी राजा, जो चित्रकेतु राजा का पुत्र था (म.आ. १७७.९) । यह द्रौपदीस्वयंवर में भी उपस्थित था । भारतीय युद्ध में कृपाचार्य ने इसका किया (म. क. ३८.२१-२९ ) । पाउमेद- 'अभिगु' । ६. एक राजा, जो अपने सुनामन् एवं सुवर्चस् नामक पुत्रों के साथ द्रौपदी स्वयंवर में उपस्थित था (म. आ. १७७.९) । ७. शिशुपाल का एक पुत्र जो भारतीय युद्ध में पाण्डवपक्ष में शामिल था । द्रोणाचार्य ने इसका वध किया (म. २.८२ ) । ८. एक राक्षस ताटका राक्षसी का पुत्र एवं सुबाहु राक्षस का भाई था। राम के अश्वमेधयज्ञ के समय, अपने भाई सुबाहु के साथ इसने शत्रुन से युद्ध युद्ध किया था। यह गदायुद्ध में अत्यंत प्रवीण था। शत्रुघ्न युद्ध में इसने सीता के भाई लक्ष्मीनिधि से घमासान युद्ध किया था (पद्म. पा. २५-२६ ) । सुकेतुमत्-- भद्रावती नगरी का एक राजा, जिसकी पत्नी का नाम चेपका था 'पुत्रदा एकादशी' के मत का माहात्म्य कथन करने के लिए इसकी कथा पद्म में दी गयी है (पद्म. उ. ४१ ) । सुकेश -- एक राक्षस, जो विद्युत् केश राक्षस का पिता था। इसकी माता का नाम सालकका था। इसने शिवपार्वती की कठोर तपस्या की, जिस कारण इसे रुद्रगणों में स्थान प्राप्त हुआ ( वा. रा. उ. ४.२७ - ३२ ) । ग्रामणी नामक गंध की कन्या इसकी पत्नी थी, जिससे इसे मालिन्, सुमालिन् एवं माल्यवत् नामक तीन पुत्र उत्पन्न हुए थे। सुकेशिन् भारद्वाज -- एक आचार्य, जो आत्मज्ञान प्राप्ति के लिए पिप्पलाद नाम आचार्य के पास गये हुए पाँच आचार्यों में से एक था ( प्र. उ. १.१ ) । ' पोंडष कल पुरुष ' के संबंध में इसने पिप्पलाद से पृच्छा की थी। ३. एक पक्षी, जो गरुड एवं शुकी के पुत्रों में से एक था (ब्रह्मांड २.७.४५० ) | सुखद -- पितरों में से एक । सुखदाकंद की अनुचरी एक मातृका (म. श. ४५ ) । सुखसंगित - एक गंधर्व, जिसकी कन्या का नाम प्रमोदिनी था ( पद्म उ. १२८ ) । सुखामन एवं सुखासीन असावमिन्वन्तर का देवगणद्वय । सुखीनल -- (सो. कुरु. भविष्य.) एक राजा, जो भागवत एवं वायु के अनुसार चक्षु राजा का एक एवं परिप्लव राजा का पिता था ( भा. ९.२२.४१ ) | विष्णु एवं मत्स्य में इसे 'सुखीवल' कहा गया है। सुगति - ( स्वा. वि.) एक राजा, ओ गया ए सुकेशी - अलकापुरी की एक अप्सरा, जिसने । गयंति के पुत्रों में से एक था ( भा. ५.१५.१४ ) । १०४८ Page #1071 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुगति प्राचीन चरित्रकोश सुग्रीव २. हंसध्वज राजा का प्रधान । से बाहर निकाल दिया। पश्चात् यह विजनवासी बन कर सुगंध-एक राक्षस, जो हिरण्याक्ष एवं देवों के संग्राम इधर उधर घूमने लगा। इस समय इसने समस्त भूमंडल में अग्नि के द्वारा दग्ध किये गये सात राक्षसों में से एक का भ्रमण किया, एवं अंत में यह ऋष्यमूक पर्वत पर आ था (पझ. स. ७५)। कर रहने लगा, जो स्थान वालि के लिए अगम्य था २. एक यक्ष, जो मणिवर एवं देवजनी के पुत्रों में से | (वा. रा. कि. ४६; वालिन् देखिये)। एक था। राम से मैत्री--आगे चल कर ऋष्यमूक पर्वत पर, सुगंधा--एक अप्सरा, जिसने अर्जुन के जन्मोत्सव सीता की खोज के लिए आये हुए रामलक्ष्मण से इसकी के समय नृत्य किया था (म. आ. ११४.५२)। भेंट हुई । वहाँ अग्नि को साक्ष रख कर इन्होंने आपस में २. कृतवीर्य राजा की पत्नी। मित्रता प्रस्थापित की, जिसके अनुसार इसने सीताशोध सुगणा-स्कंद की अनुचरी एक मातृका (म. श. | के काय में राम की सहायता करने का, एवं राम ने वालिन् ४५.२६ )। का वध कर इसे किष्किंधा का राजा बनाने का आश्वासन सुगंधी- वसुदेव की तेरह पत्नियों में से एक जिसके | दिया। पुत्र का नाम पुण्ड्र था (वायु..९६.१६१)। | वालिन् वध--पश्चात् अपने आश्वासन के अनुसार, सुगवि--(सू. इ.) इक्ष्वाकुवंशीय संधि राजा का राम ने वालिन् का वध किया एवं इसे किष्किंधा के नामान्तर । | राजगद्दी पर बिठाया। पश्चात् इसे अपनी पत्नी रुमा एवं सुगोप्ता-एक प्राचीन विश्वेदेव (म. अनु. ९१.३७)। वालिन् की पत्नी तारा ये दोनों पत्नियों के रूप में पुनः सुगृधि--कश्यप एवं ताम्रा की कन्याओं में से एक । प्राप्त हुई (वा. रा. कि. २६; वालिन् एवं राम दाशरथि सुग्रीव--किष्किंधा नगरी का एक सुविख्यात वानर | देखिये )। इसी समय वालिन् के पुत्र अंगद को किष्किंधा राजा, जो महेंद्र एवं ऋक्षकन्या विरना का पुत्र था | का यौवराज्याभिषेक किया गया। (ब्रह्मांड. ३.७.२१४-२४८; भा. ९.१०.१२ )। यह ___ लक्ष्मण का क्रोध--इसके राज्याभिषेक के पश्चात् राम वालिन् का छोटा भाई था। वाल्मीकिरामायण के प्रक्षिप्त एवं लक्ष्मण चार महीनों तक प्रस्त्रवण पर्वत पर रहे। इस काण्ड में इसे ऋक्षरजस् नामक वानर का पुत्र कहा गया समय, यह विषयसुखों में इतना निमग्न रहा कि, एक बार है, जिसकी ग्रीवा (गर्दन) से उत्पन्न होने के कारण इसे | भी रामलक्ष्मण को मिलने न गया (वा. रा. कि. ३१.२३; • 'सुग्रीव' नाम प्राप्त हुआ था (वा. रा. उ. प्रक्षिप्त. ६)। ३९, ३३.४३, ४८,५४,५५)। इस कारण लक्ष्मण ने स्वयं इस ग्रंथ में लन्यत्र इसे सूर्य का पुत्र अंशावतार कहा | किष्किंधा नगरी में जा कर इसकी अत्यंत कटु आलोचना गया है । इसके अमात्य का नाम द्विविद था (भा. १०. की, एवं वह उसका वध करने के लिए प्रवृत्त हुआ । इस ६७.२)। | समय तारा ने लक्ष्मण को प्रार्थना कि, वह इसे क्षमा करे। इसके एवं इसकी वानरसेना की सहायता के कारण स्वयं सुग्रीव भी हाथ जोड़ कर खड़ा हुआ, एवं इसने अपने ही, गम दाशरथि लंकाधिपति रावण जैसे बलाढ्य राक्षस अकृतज्ञता के लिए लक्ष्मण से बार बार क्षमा माँगी। पर विजय पा सका। इस कारण समस्त रामकथाओं में पश्चात्ताप-पश्चात् यह स्वयं सीता की खोज करने यह अमर हो चुका है। जाने के लिए प्रवृत्त हुआ, किंतु हनुमत् ने इसे परावृत्त वालिन् से शत्रुत्व-यह वालिन् का छोटा भाई था, किया, एवं चारों दिशाओं में सीता को ढूंढने के लिए जिस कारण वालिन् के सभी पराक्रमों में एवं साहसों में वानरदूत भेज दिये, जिनमें दक्षिण दिशा के वानरों का यह उसकी सहायता करता था। आगे चल कर मायाविन् । नेतृत्व उसने स्वयं स्वीकृत किया। राक्षस के युद्ध में वालिन् एक वर्ष तक किष्किंधा नगरी इसी समय हनुमत् ने इसे उपदेश दिया कि, यह में वापस न आया । इस कारण उसे मृत समझ कर, यह अपने वचनों का ख्याल कर राम के उपकारों का बदला किष्किंधा नगरी का राजा बन गया, एवं वालिन्पत्नी तारा | योग्य प्रकार से चुकाये । हनुमत् का यह उपदेश सुन कर, को इसने पत्नी के रूप में स्वीकार किया। इसे अपने कृतकर्म का पश्चात्ताप हुआ, एवं सीता की ___एक वर्ष के पश्चात् वालिन् किष्किंधा नगरी लौट आया, | मुक्तता करने के लिए अपनी सारी सेना सुसज्ज रखने एवं इसे भ्रातृद्रोही शत्रु मान कर उसने इसे किष्किंधा राज्य | की आज्ञा इसने अपने सेनापति नील को दी। प्रा. च. १३२] १०४९ Page #1072 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुग्रीव प्राचीन चरित्रकोश सुग्रीव युद्ध की तैयारी--हनुमत् के द्वारा सीता का शोध | लगे। उस समय इसने लंका के सभी दरवाजे रोंक कर लगाये जाने पर इसने समस्त वानरसेना एकत्रित कर | राक्षसों का संहार किया। रावण पर आक्रमण करने की तैयारी की । लंका पर राम का राज्याभिषेक--राम-रावण युद्ध समाप्त होने आक्रमण करने के लिए समुद्र में सेतु बँधवाने की कल्पना पर, राम दाशरथि का राज्यारोहणसमरंभ अयोध्या भी इसीने ही राम को दी, एवं उसको धीरज बंधाया। में संपन्न हुआ, जहाँ यह अपने समस्त परिवार के साथ पश्चात् अपनी संपूर्ण सेना के साथ यह समुद्रतट पर | उपस्थित हुआ था। उस समारोह में राम ने इसका आ पहुँचा (वा. रा. यु.२)। अत्यधिक सत्कार किया, एवं युद्ध में यशस्विता प्राप्त होने समुद्रतट पर पहुँचते ही रावण ने इसे संदेश भेजा का बहुत सारा श्रेय इसे प्रदान किया (बा. रा. १२३की यह राम की सहायता न करे, किन्तु यह अपने | १२८)। बाद में राम ने जब देहत्याग किया, तब किष्किंधा निश्चय पर अटल रहा, एवं इसने रावण को प्रतिसंदेश के राजगद्दी पर अंगद को बिठा कर इसने भी मृत्यु भेजा। स्वीकार ली। चरित्रचित्रण-वाल्मीकि रामायण में सुग्रीव का न मेऽसि मित्रं न तथानुकम्प्यो, न चोपकर्तासि न मे प्रियोऽसि । महत्त्व राजनैतिक है, जहाँ इसे 'शरण्य' (शरण जाने के अरिश्च रामस्य महानुबन्धः, लिए योग्य ) कहा गया है। इसकी मैत्री के कारण राम स मेऽसि वालीव वधाई वध्यः । दाशरथि सीता को पुनः प्राप्त कर सका, जिस संबंध में इसकी प्रशंसा राम के द्वारा भी की गयी है (वा. रा. (वा. रा. यु. २०.२३) | कि. ७.१७-१८)। (तुम मेरे मित्र, उपकारकर्ता, प्रिय एवं मेरे प्रति दया सुग्रीव कुशल सैन्यसंचालक था, एवं इसका भौगोलिक भावना रखनेवाले नहीं हो । मेरे मित्र राम के तुम शत्रु ज्ञान भी परमकोटि का था (वा. रा. कि. ४.१७-२९; होने के कारण, वालिन् की भाँति तुम भी वध करने योग्य | ४१.७-४५, ४२.६-४९)। ही हो)। ___ सुग्रीवचरित्र के दोष--वाल्मीकि रामायण में इसके बाद में यह स्वयं छलांग मार कर रावण के राज चरित्र के निम्नलिखित दोषों का निर्देश अंगद के द्वारा प्रासाद में पहुँच गया, जहाँ इसने उसका मुकुट गिरा किया गया है:-१. मायाविन् राक्षस के युद्ध के समय दिया। इस प्रकार राम रावण युद्ध प्रारंभ हुआ (वा. वालिन् को गुफा में बन्द करना; २. वालिबध के रा. यु. ४०)। पश्चात् वालिपत्नी तारा का अपहरण करना; ३. राम राम-रावण युद्ध में--इस युद्ध में इसने एवं इसकी दाशरथि को दिये गये वचन का भंग करना ( वा. रा. वानरसेना ने अत्यधिक पराक्रम दिखाया। इसने निम्न- कि. ५५.२-५)। .. लिखित राक्षसों के साथ युद्ध कर उनका वध कियाः-- परिवार-इसकी तारा एवं कमा नामक दो पत्नियाँ १. कुंभकर्णपुत्र कुंभ (वा. रा. यु. ७५-७६); २. रावण- थी। इसके विजनवास में इसके दोनों पत्नियों को इसके सेनापति विरुपाक्ष; ३. रावणसेनापति महोदर (वा. भाई वालिन् ने भ्रष्ट किया (वा. रा. कि. १८-२२)। रा. यु. ९७)। कुंभकर्ण एवं रावण से भी इसने युद्ध वालिन्वध के पश्चात् इसे पुनः राज्यप्राप्ति होने पर, किया था, जिन दोनों युद्धों में यह उनके हाथों परास्त | इसकी ये दोनों पत्नियाँ पुनः एक बार इसके पास रहने हुआ (वा. रा. यु. ५९; ६७)। लगी। इसकी मोहना नामक अन्य एक पत्नी का निर्देश रामरावणयुद्ध में लक्ष्मण जब मूछित हुआ, तब | भी प्राप्त है ( पन. पा. ६०)। इसने वानरसेना का धीरज बँधा कर मूछित लक्ष्मण इसका कोई पुत्र न था, जिस कारण इसकी मृत्यु के को युद्धभूमि से उठाया, एवं शिबिर पहुँचा दिया (वा. पश्चात् अंगद किष्किंधा नगरी का राजा बन गया। रा. यु. ५०)। ____ मानस में तुलसी द्वारा विरचित मानस में सुग्रीव का ___ कुंभकर्णवध के पश्चात् इसने हनुमत् को आज्ञा दी कि, चरित्रचित्रण एक राजनीतिज्ञ के नाते नहीं, बल्कि राम लंका को आग लगा दी जाये। हनुमत् के द्वारा वैसा ही के एक शरणापन्न सेवक एवं सखा के नाते किया गयाकिये जाने पर लंका के सभी राक्षस इधर उधर भागने | है। इसी कारण राम से इसकी मित्रता राजनैतिक गठ १०५० Page #1073 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुग्रीव प्राचीन चरित्रकोश सुजात नाम (पद्म स.७५) / पुत्रों में से एक देवगंधर्व जो. बंधन नहीं, बल्कि आध्यात्मिक एकात्मता है, जो इसके । ३. (सो. वसु.) एक राजा, जो विष्णु के अनुसार निष्कपट हृदय का द्योतक है। इसी कारण 'मानस' का | प्रतिबाहु राजा का पुत्र था (वायु. ९६.२५१)। यह वज्र सुग्रीव राम के परिवार के अन्य लोगों की भाँति केवल | का पौत्र था, एवं इस प्रकार कृष्ण के छठवें पीढी में उत्पन्न निमित्तमात्र ही है, इसकी असली प्रेरक शक्ति तो स्वयं राम | हुआ था। ही है। सुचित्त-एक राजा, जो सत्यधृति नामक राजा का सुग्रीवी-कश्यप एवं ताम्रा की एक कन्या, जो इस | पिता था ( सत्यधृति सौचित्य देखिये )। संसार के समस्त अश्व, उष्ट्र एवं गर्दभों की आद्य जननी | सुचित्त सैलन-एक आचार्य (जै. उ. बा. १.४.४)। मानी जाती है (मत्स्य.. ६.३०)। सुचित्ति--सुवित्ति नामक अंगिराकुलोत्पन्न मंत्रकार , सुघोर-एक राक्षस, जो हिरण्याक्ष एवं देवों के बीच | का नामान्तर। हुए युद्ध में कार्तिकेय के द्वारा मारा गया (पद्म स.७५)। सुचित्र-(सो. कुरु.) चित्र नामक धृतराष्ट्र पुत्र का सुचंद्र--एक देवगंधर्व जो, कश्यप एवं प्राधा के नामान्तर । इसे 'सुचारु ' नामान्तर भी प्राप्त था। पुत्रों में से एक था (म. आ.६९.४६)। . २. पांचाल देश का एक महारथी राजा, जिसके पुत्र २. एक सैहिकेय असुर, जो कश्यप एवं सिंहिका के पुत्रों का नाम चित्रवर्मन् था। भारतीय युद्ध में द्रोण ने इन में से एक था (म. आ. ५९.३०)। दोनों का वध किया (म.द्रो.२०.१५५५, पंक्ति.८-२२)। ३. (सू. दिष्ट.) एक राजा, जो ब्रह्मांड के अनुसार ३. शिवदेवों में से एक। हेमचंद्र राजा का पुत्र था (ब्रह्मांड. ३.६१.१३)। इसे सुचिरा-एक राजकन्या, जो श्वफल्क एवं गांदिनी की . काली देवी की कृपा से एक कवच प्राप्त हुआ था, जिस कन्या थी (भा. ९.२४.१७)। कारण यह युद्ध में अजेय हुआ था। . सुचेतस्--(सो. क्षत्र.) एक राजा, जो वीतहव्यकार्तवीय एवं परशुराम के बीच हुए युद्ध में यह | वशीय गृत्समद राजा का पुत्र था। इसके पुत्र का नाम कार्तवीर्य के पक्ष में शामिल था (ब्रह्मांड. ३.३९.१८- | वर्चस् था (म. अनु. ३०.६१)। ५३)। उस समय इसके रथ में स्वयं कालीदेवी अवतीर्ण | २. ह्यवंशीय प्रचेतस् राजा का नामान्तर (प्रचेतस् ७. हुई, जिसने परशुराम के द्वारा फेंके गये हर एक शस्त्र- देखिये)। अस्त्र को भक्ष्य करना प्रारंभ किया। इस कारण भयभीत | सुच्छाया-अग्नि की एक कन्या, जो ध्रुवपुत्र शिष्ट हो कर परशुराम ने इसे अपना 'कालीकवच' उतार कर राजा की पत्नी थी। इसके कृप, रिपुंजय, वृक आदि पुत्र थे। देने की प्रार्थना की। इस पर इस उदारचरित राजा ने सुजन--एक देव, हो भृगु एवं पौलोमी के पुत्रों में से अपना कवच उतार कर परशुराम को दे दिया। कवच | एक था। प्राप्त होते ही परशुराम ने इसका वध किया। । सुजन्तु--(सो. अमा.) अमावसुवंशीय पूरु राजा ४. एक यक्ष, जो मणिवर एवं देवजनी के पुत्रों में से | का नामान्तर (पूरु. ३. देखिये) । इसे सुहोत्र नामान्तर एक था (ब्रह्मांड. ३.७.१२९)। भी प्राप्त था। ५. अंधकवंशीय राजा, जो सूर्यग्रहण के समय 'स्यमंत- सुजन्य-एक देव,जो बारह भार्गव देवों में से एक था। पंचा' क्षेत्र में तीर्थयात्रा के लिए गया था। सुजय--भव्य देवों में से एक । सुचल--(सो. मगध. भविष्य.) एक राजा, जो २. एक राजा, जिसने अश्वमेध यज्ञ के समय पांडवों वायु के अनुसार सुमति राजा का पुत्र था। भागवत एवं की मदद की थी (जै. अ. १३)। विष्णु में इसे 'सुकल' एवं मत्स्य में इसे 'अचल' कहा सुजात--(सो. कुरु.) धृतराष्ट्र के शतपुत्रों में से गया है। | एक । भीम ने इसका वध किया (म. श. २५.१५)। सुचारु--धृतराष्ट्रपुत्र 'चारु' का नामान्तर । इसे २. (सो. सह.) एक राजा, जो विष्णु के अनुसार 'चारुचित्र' नामान्तर भी प्राप्त था। अपने अन्य सात भरत राजा का पुत्र था। भाइयों के साथ इसने अभिमन्यु पर आक्रमण किया था। ३. एक वानर राजा, जो पुलह एवं श्वेता के पुत्रों में २. कृष्ण एवं रुक्मिणी का एक पुत्र । | से एक था (ब्रह्मांड. ३.७.१८०-१८१)। १०५१ Page #1074 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुजातवक्र प्राचीन चरित्रकोश सुतंभर सुजातवक्र--एक आचार्य, जिसका निर्देश ऋग्वेदीय | नामक तामस मनु निर्माण होने का उःशाप इसने उसे ब्रह्मयज्ञांगतर्पण में प्राप्त है (आश्व. ग. ३.३)। प्रदान किया (मार्क. ७१)। सुजाता--महर्षि उद्दालक की कन्या, जो कहोल ऋषि ३. भरद्वाजकुलोत्पन्न एक ऋषि । इसकी कुल दो की पत्नी, एवं अष्टावक्र की माता थी (म. व. १३२.७)। | पत्नियाँ थीं। उनमें से एक पितृकन्या थी, जिससे इसे ३. सुराष्ट्र राजा की कन्या,जो दुर्गम राजा की पत्नी थी। कल्याणमित्र नामक पुत्र उत्पन्न हुआ। सुजातेय-विश्वामित्रकुलोत्पन्न, एक गोत्रकार ऋषिगण । । इसकी दूसरी पत्नी पर सूर्य ने बलात्कार किया, जिससे सुजानु--एक ऋषि, जो शांतिदौत्य के लिए जाने इसे अश्विनीसुत नामक पुत्र उत्पन्न हुआ। अपनी इस वाले श्रीकृष्ण से मार्ग में मिले थे (म. उ. ३८८ पाट)। व्यभिचारिणी पनी का नं व्यभिचारिणी पत्नी का, एवं उसके पुत्र का इसने त्याग सुज्ञ--दशरथ राजा का मंत्री, जिसके निम्नलिखित दस किया। किंतु आगे चल कर स्वयं कृष्ण के द्वारा आज्ञा पुत्र थे:--१. जितश्रम; २. धार्मिक, सुकेतु; ४.शत्रुसूदन; दिये जाने पर, इसने अपने इन स्त्रीपुत्रों को पुनः स्वीकार ५. चंद्र; ६. मद; ७. शल; ८. काल; ९. मल्ल; १०. सिंह | किया (ब्रह्म. वै. १.११)। (जै. अ. ३४.४३ )। ४. सावर्णि मन्वंतर का एक देवगण । सुज्येष्ठ--(शुग. भविष्य.) एक राजा, जो अग्नि ५. एक मरुत् , जो मरुतों के पहले गण में मित्र राजा का पुत्र, एवं वसुमित्र राजा का पिता था समाविष्ट था । (भा. १२.१६.१७)। ६. एक प्रजापति, जिसने इस पृथ्वी पर वसुदेव के सुतंजय-त्रिगर्त देश के 'श्रुतंजय' राजा का नामांतर | रूप में जन्म लिया था (भा. १०.३.३२)। (श्रुतंजय ३. देखिये)। ७. उत्तम मन्वंतर के सप्तर्षियों में से एक। ... सुतद्वाज-(सू. निमि.) विदेह देश के सत्यध्वज ८. तामस मनु के पुत्रों में से एक। . राजा का नामांतर। ९. दक्षसावर्णि मन्वंतर का एक ऋषि । । । सुतनु--आहुक (उग्रसेन) राजा की कन्या, जो १०. रुद्रसावर्णि मन्वंतर के सप्तर्षियों में से एक । अक्रूर की पत्नी थी (म. स. १३.१२)। मत्स्यादि में इसे ११.रौच्य मनु के पुत्रों में से एक। वसुदेव की पत्नी कहा गया है, एवं इसके पुत्र का नाम १२. रोच्य मन्वंतर के सप्तर्षियों में से एक। पौण्ड्रक दिया गया है (मत्स्य. ४४.७६; ४६.२१; विष्णु. १३. (सो. अनु.) एक राजा, जो भागवत, विष्णु, ४.१४.५)। एवं वायु के अनुसार हेम राजा का पुत्र, एवं बलि राजा २. उग्रसेन राजा का पुत्र (वायु. ९६.१३२)। का पिता था (भा. ९.२३.४)। मत्स्य में इसे सेन राजा ३. (सो. कुरु.) युधिष्ठिर राजा की कन्या, जिसका | विवाह वज्र राजा के पुत्र अश्वसुत से हुआ था (वाय. का पुत्र कहा गया है। ९६.२५०)। १४. (सू . इ. भविष्य.) एक,राजा, जो भागवत के ४. कलापग्राम में रहनेवाले एक ब्राह्मण का पुत्र अनुसार अंतरिक्ष राजा का पुत्र, एवं अमित्रजित् राजा (स्कंद. १.२.६)। का पिता था (भा. ९.१२.१२)। वायु, विष्णु, मत्स्य, सुतपस्--सावर्णि मन्वंतर का एक देवगण, जिसमें एवं भविष्य में इसे क्रमशः 'सुपर्ण,' 'सुवर्ण,' 'सुषेण, निम्नलिखित बीस देव शामिल थे:--आर्चिष्मत. एवं 'सुवर्णीग' कहा गया है। कीर्ति, ऋतु, कृतिनेमि, तपस् , तेजस् , द्योतन, धर्म, धृति, १५. (सो. कुरु. भविष्य.) एक राजा, जो मत्स्य के प्रभाकर, प्रभास, बुध, भानु, मासकृत् , यशस्, रश्मि, | अनुसार परिष्णव (परिप्लव) राजा का पुत्र था (मत्स्य. विराज, एवं शुक्र ('ब्रह्मांड. ४.१.१२)। ०.८३)। पाठभेद-सुनय । २. एक ऋषि, जो निवृत्तिचक्षु ऋषि का पुत्र था। एक सुतमित्र-एक मरुत् , जो मरुतो के द्वितीय गण में बार इसने उत्पलावती से संभोग की प्रार्थना की । उसके | से एक था। द्वारा इसकी प्रार्थना अस्वीकार किये जाने पर, इसने सुतंभर---एक व्यक्तिनाम (ऋ. ९.६.५)। उसे मृगी बनने का शाप दिया । उत्पलावती के द्वारा सुतंभर आत्रेय-एक वैदिक सूक्तद्रष्टा (ऋ.५.११उःशाप की माँग किये जाने पर, उसके गर्भ से 'लोल' । १४)। इसके सूक्त में 'नहुषपुत्र' राजा का निर्देश तप्प १०५२ Page #1075 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुतंभर प्राचीन चरित्रकोश सुदक्षिण है (ऋ. ५.१३.६ )। ऋग्वेद में अन्यत्र यही नाम एक | सुत्वन् कैरिशिय भार्गायण-एक राजा, जिसे विशेषण के रूप में प्रयुक्त किया गया है (ऋ. ५.४४.१३)। | मैत्रेय कोषारव नामक आचार्य ने 'ब्राह्मण परिमर' सुतरा-श्वफरक राजा की कन्याओं में से एक। नामक अभिचार विद्या सिखायी थी। इस विद्या के कारण सुतसोम--(सो. कुरु.) एक राजकुमार, जो भीमसेन | अपने पाँच शत्रु राजाओं का वध कर, यह महान् राजा एवं द्रोपदी का पुत्र था। इसकी उत्पत्ति विश्वेदेवों के अंश | बन गया (ऐ. बा. ८.२८.१८ )। से हुई थी। भारतीय युद्ध में इसका निम्नलिखित योद्धाओं| सुदक्षिण-पांडवपक्ष का एक राजा, जिसे द्रोणाचार्य के साथ युद्ध हुआ था:--१. विकर्ण (म. भी. ४३. | वध कर रथ से नीचे गिरा दिया था (म. द्रो. २०.४४)। ५५); २. दुर्मुख (म. भी. ७५,३६-३७); ३. विविंशति । २. कामरूप देश का एक शिवभक्त राजा, जिसका (म. द्रो. २४.२४); ४. अश्वत्थामन् (म. क. ३९.१५ - | रक्षण करने के लिए भीमाशंकर ने भीमासुर का वध किया १६) । अन्त में अश्वत्थामन् के द्वारा किये हुए रात्रिसंहार | था (शिव. शत. ४२.१९)। के समय इसका वध हुआ (म. सौ. ८.५२)। | सुदक्षिण कांबोज---एक राजा, जो कांबोज (काबुल) सुतहोत्र--(सो. क्षत्र.) क्षत्रवंशीय महोत्र राजा का | देश का अधिपति था। महाभारत में इसका निर्देश नामान्तर (सुहोत्र २. देखिये )। इसके पुत्र का नाम शल | 'कांबोजाधिपति' (म. आ. १७७.१५ ), एवं 'कांबोज' था (शल ८. देखिये)। . । (म. स. २४.२२) नाम से किया गया है। महाभारत में सतार--एक शिवावतार, जो वैवस्वत मन्वंतर के दसरे अन्यत्र इसे शक एवं यवन लोगों का राजा कहा गया है युगचक्र में उत्पन्न हुआ था। ध्यानयोग की सहायता से | (म. उ. १९.२१)। इसने मोक्ष प्राप्त किया था। इसके निम्नलिखित चार युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ के समय, अर्जुन ने अपने शिष्य थे :--दुंदुभि, शतरूप, हृषीक एवं केतुमत् ( शिव. पश्चिम दिग्विजय में इसे जीता था (म. स. २४.२२)। शत. ४)। ____ भारतीय युद्ध में यह कौरवों के पक्ष में शामिल था, एवं . २. अनुशाल्व राजा का सेनापति । उस पक्ष के उत्कृष्ट रथियों में इसकी गणना की जाती थी . सुतारा--सुप्रभ गंधर्व की कन्या (पा. स्व. २२)। (म. उ. १६३.१)। इस युद्ध में सहदेवपुत्र श्रुतवर्मन् पद्म में अन्यत्र इसे चन्द्रकान्त गंधर्व की कन्या कहा गया | के साथ इसका घमासान युद्ध हुआ था (म. भी. ४३. है ( पद्म. उ. १२८)। ६४)। अन्त में अर्जुन ने इसका एवं इसके छोटे भाई सतीक्ष्ण--एक ऋषि, जो अगस्त्य ऋषि का शिष्य था। का वध किया (म. द्रो.६७-६८; क. ४०.१०५)। इसके ज्ञान एवं कर्म के समुच्चय की शिक्षा अगत्स्य ने इसे दी (यो. मृत शरीर को देख कर इसकी पत्नी ने अत्यधिक विलाप वा. १) । रामकुण्ड पर दीर्घकाल तक तपस्या कर त्रैलोक्य | किया (म. स्त्री. २५.१.५)। में इच्छानुरूप विचरण करने का सामर्थ्य इसने प्राप्त किया सुदक्षिण काशिराज--एक राजा, जो पौड़क वासुथा (स्कंद. ३.१.१८)। राम के वनवासकाल में, वह | देव के साथ कृष्ण का शत्रुत्त्व करनेवाले काशिराज का इसके आश्रम में दो बार आ कर ठहरा था। पुत्र था। सुतेजन-एक राजा, जो भारतीय युद्ध में युधिष्ठिर इसके पिता का कृष्ण के द्वारा वध किये जाने पर, का सहायक था (म. द्रो. १३२.४०)। इसने अपने पिता का बदला लेने के लिए कृष्ण का वध सुतीर्थ--कुरुवंशीय सुनीथ राजा का नामान्तर करने की घोर प्रतिज्ञा की, एवं तत्प्रीत्यर्थ वाराणसी क्षेत्र (सुनीथ ५. देखिये)। में शिव की तपस्या प्रारंभ की। इसकी तपस्या से प्रसन्न सुतेमनस शांडिल्यायन-एक आचार्य, जो अंशु हो कर, शिव ने इसे जारणमारण की अधिष्ठात्री देवी धानंजय्य नामक आचार्य का शिष्य, एवं सुनीथ कापटव दक्षिणानि की आराधना करने का आदेश दिया। नामक आचार्य का गुरु था (वं. बा.१)। शिव के उपर्युक्त आदेशानुसार, इसने अपने ऋत्विजों सुत्रामन्--रौच्य मन्वन्तर का एक गोत्रकार। के साथ दाक्षिणामि की आराधना प्रारंभ की। इस सत्वन्-एक आचार्य, जो ब्रह्मांड एवं वायु के आराधना के कारण इसके यज्ञकुण्ड से एक महाभयंकर अनुसार, व्यास की सामशिष्य परंपरा में से सुमन्तु नामक | 'अभिचार' अग्नि बाहर निकली, एवं दशदिशाओं को । आचार्य का शिष्य था। जलाती हुयी द्वारका नगरी में पहुँच गयी । अक्षक्रीड़ा में १०५३ Page #1076 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदक्षिण प्राचीन चरित्रकोश ___ सुदर्शन निमग्न हुए कृष्ण को वह जलानेवाली ही थी कि, कृष्ण ओधवती नामक कन्या से इसका विवाह हुआ था (भा. ने अपना सुदर्शन चक्र छोड़ कर उस अग्नि को लौटा। ९.२.१८)। दिया। पश्चात् उस अग्नि ने वाराणसी की ओर पुनः एक गृहस्थाश्रमधर्मीतर्गत अतिथिसत्कार आदि का आचबार मुड़ कर, इसे एवं इसके ऋत्विजों को जला कर भस्म रण करने के कारण, प्रत्यक्ष मृत्यु पर विजय प्राप्त कर दिया (भा. १०.६६.२७-४२)। कर यह ब्रह्मलोक में प्रविष्ट हुआ था। इसकी पत्नी सदाक्षिण क्षेमि---एक आचार्य, जिसे तिरस्कृत मान ओघवती भी तपस्विनी थी. जिसने अपने तपोबल से | अपना आधा शरीर एक नदी में रूपांतरित किया था। इसके स्थान पर, शुक्र एवं गोश्रु जाबालि नामक आचार्या अपने बचे हुए आधे शरीर से वह अपने पति के की उस यज्ञ में नियुक्ति की गयी थी (जै. उ. ब्रा. ३.६. साथ स्वर्लोक गयी (म. अनु. ३. ८४)। ३; ७.१.३-६)। ७. एक राजा, जो गांधार देश के नाम जित् राजा के सुदक्षिणा--अंशुमत् राजा के पुत्र दिलीप (प्रथम) लाप (प्रथम) द्वारा बंदी बनाया गया था । कृष्ण ने नम जित् के पुत्रों राजा की पत्नी। का वध कर, इसे बंधमुक्त किया, (म. उ. ४७.६९)। सुदत्ता-श्रीकृष्ण की एक पत्नी। द्वारका में स्थित ८. एक नरेश, जो भारतीय युद्ध में पांडव पक्ष में इसके प्रासाद का नाम 'केतुमत् ' था (म. स. परि. १. शामील था। इस युद्ध में अश्वत्थामन के द्वारा यह २१.१२६४)। मारा गया (म. द्रो. १७.६३)। सुदती-एक अप्सरा, जो कश्यप एवं मुनि की कन्या थी (ब्रह्मांड. ३.७.८)। ९. (सू . इ.) एक राजा, जो मनुवंशीय दीर्घबाहु राजा का पुत्र था। काशिराज की कन्या इसकी पत्नी थी, सुदत्त पाराशर्य-एक आचार्य, जो जनश्रुत वारक्य नामक आचार्य का शिष्य, एवं आषाढ उत्तर नामक आचार्य एवं वसिष्ठ ऋषि इनके पुरोहित थे। संपूर्ण पृथ्वी जीतं कर, यह चक्रवर्ती सम्राट् बन गया था। का गुरु था ( जै. उ. ब्रा. ३.४१; ४.१७)। सुदमोदम-दम नामक अंगिराकुलोत्पन्न गोत्रकार ___एक बार महाकाली देवी ने इसे सपने में आकर दृष्टांत का नामांतर। दिया कि, पृथ्वी में जल्द ही जलप्रलय होनेवाला है।' सुदरिद्र--कांपिल्य नगरी का एक ब्राह्मण, जिसके पश्चात् महालक्ष्मी के आदेशानुसार, यह अपनी पत्नी वेदविद्या निपुण पुत्रों के नाम धृतिमत् , तत्त्वदर्शिन , एवं पुरोहित वसिष्ठ के साथ हिमालय पर्वत के गुफा में जा विद्याचंड, एवं सत्यदर्शिन् थे ( पितृवर्तिन देखिये)। छिपा । तदुपरांत उत्तर दिशा का हिम समुद्र, पश्चिम दिशा का रत्नाकर, एवं दक्षिण दिशा का वाडव समुद्र, इन तीनों खुदर्शन--एक विद्याधर, जो आंगिरस ऋषि के शाप | के कारण सर्प बन गया था। आगे चल कर, इसने में स्थित समस्त देश जलप्लावन से विनष्ट हुए। कृष्ण पिता नंद को निगल लिया, जिस कारण कृष्ण ने आगे चल कर दस सालों के बाद, पृथ्वी का जलप्रलय इसका वध कर, इसे मुक्ति प्रदान की (भा. १०.३४. समाप्त हा कर सारा पृथ्वा पुनः एक बार आबाद हो गयी। इस पर वैशाख शुक्ल तृतीया के दिन यह अयोध्या लौट १-१८)। २. चंपक नगरी के हंसध्वज राजा का एक पुत्र। आया, एवं पुनः एक बार राज्य करने लगा (भवि. प्रति. ३. (सो. कुरु.) धृतराष्ट्र के शतपुत्रों में से एक। भीमसेन ने इसका वध किया (म. द्रो. १०२.९९; श. कालिका पुराण के अनुसार, जलप्लावन के पश्चात् २६.४८)। हिमालय पर्वत का ही एक अरण्य तोड़ कर, इसने वहाँ ४. कौरवपक्ष का एक राजा, जो सात्यकि के द्वारा | खांडवी नामक नगरी की स्थापना की थी। कालोपरांत मारा गया (म. द्रो. ९४.१४)। भैरववंश में उत्पन्न विजय नामक राजा ने इसका वध कर, ५. एक ऋषि, जो शरशय्या पर पड़े हुए भीष्म से | इसका राज्य जीत लिया (कालि. ९२)। मिलने उपस्थित हुआ था (भा. १.९.७)। १०. (सू . इ.) एक राजा, जो ध्रुवसंधि राजा का पुत्र, ६. अग्निदेव का एक पुत्र, जो इक्ष्वाकुवंशीय दुर्योधन एवं कुरुवंशीय अभिवर्ण राजा का पिता था (भा. ९.१२. की कन्या सुदर्शना का पुत्र था। ओघवत् राजा के | ५)। इसकी माता का नाम मनोरमा था। देवी उपासना १०५४ | १.१)। Page #1077 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शन . प्राचीन चरित्रकोश सुदास का माहात्म्य करने के लिए इसकी कथा देवी भागवत में इसकी कुल दो कन्याएँ थीं, जिनमें से एक का विवाह दी गयी है। | विदर्भ राजा भीम से, एवं दूसरे का विवाह चेदिराज इसकी सौतेली माता लीलावती के षड्यंत्रों के कारण | वीरबाहु से हुआ था। इसे राज्य भ्रष्ट होना पड़ा, एवं यह अपनी माता के साथ ४. मोदपुर देश का एक राजा (म. स. २४.१०)। भारद्वाज ऋषि के आश्रम में रहने लगा, जहाँ इसने देवी ५.पाण्डवों के पक्ष का एक राजा, जिसके रथ के की उपासना प्रारंभ की। अश्व मृणालिनी के समान नीले, एवं श्येनपक्षी के समान आगे चल कर, देवी की कृपा से शशिकला नामक | वेगवान् थे (म. द्रो. २२.४२)। राजकन्या ने इसका स्वयंवर में वरण किण । पश्चात् इसे | ६. काशिदेश का एक राजा, जो अभिभू (सुकेतु) अपना विगत राज्य भी देवी की कृपा से पुनः प्राप्त हुआ | नामक राजा का पुत्र था। अपने पिता के साथ यह (दे. भा. ३.१३-२५)। द्रौपदीस्वयंवर में उपस्थित हुआ था। ११. एक यक्ष, जो मणिभद्र एवं पुण्यजनी के पुत्रों में | ७. उत्तरभारत का एक लोकसमूह, जिसे अर्जुन ने से एक था (वायु. ६९.१५६)। अपने उत्तर दिग्विजय के समय जीता था (म. स. १२. एक गंधर्व, जो गालव ऋषि के शाप के कारण | २४.१०)। वैताल बन गया था। 'वेतालवरदतीर्थ' में स्नान करने के ८. स्कंद की अनुचरी एक मातृका (म. श. ४५.१०)। कारण यह मुक्त हुआ (स्कंद. ३.१.९)। ९. एक गोप, जो कृष्ण के आठ प्रमुख गोप सुदर्शना-माहिष्मती के नील (दुर्योधन) राजा की | सखाओं में से एक था (दे. भा. ९.१८.२ )। अपने अनुपम सुंदरी कन्या, जिसकी माता का नाम नर्मदा (नदी) | अगले जन्म में यह शंखचूड नामक राक्षस बना था था। यह प्रतिदिन अपने पिता के अग्निहोत्रगृह में अग्नि (शंखचूड २. देखिये)। को प्रज्वलित करने के लिए उपस्थित होती थी। इसके | १०. चाक्षष मन्वन्तर के सप्तर्षियों में से एक। , दर्शन से अग्निदेव इससे प्रेम करने लगा, एवं अन्त में ११. कंस का एक माली, जिसने मथुरा में आये हुए इसका विवाह उसी के साथ संपन्न हुआ (म. स.२९९४)। | कृष्ण एवं बलराम को पुष्पमालाएँ अर्पित की थी (भा. अग्नि से इसे सुदर्शन नामक पुत्र उत्पन्न हुआ (म. अनु. १०.४१.४३-५२)। १२. एक यादव राजा । जरासंध के द्वारा किये मथुरा २. सुद्यम्न राजा की पत्नी (मुद्युम्न ५. देखिये )। नगरी के आक्रमण के समय, इस पर उस नगरी के उत्तर लुदान--शिवदेवों में से एक। द्वार के संरक्षण का भार सौंपा गया था। संदान्त-(सो. कोटु.) एक राजा, जो वायु के सुदामिनी--वसुदेवबन्धु शमीक की पत्नी । इसे अनुसार हृदीक राजा का पुत्र था (वायु. ९६.१४०)। सुमित्र एवं अर्जुनपाल नामक पुत्र उत्पन्न हुए थे। सुदामन-सीरध्वज जनक राजा का एक मंत्री। सुदास-(सों. नील.) एक राजा, जो विष्णु एवं वायु २.कृष्ण के बालमित्र कुचल का नामान्तर। भागवत के अनुसार च्यवन राजा का पुत्र, एवं सहदेव राजा का में प्राप्त इसकी कथा में, इसका निर्देश सर्वत्र 'कुचेल' नाम पिता था (वाय. ९९.२०८: विष्णु. ४.१९.७१)। मत्स्य से ही किया गया है। किन्तु लोकश्रुति में यह सुदामन् में इसे चैद्य राजा का पुत्र कहा गया (मत्स्य. ५०.१५)। नाम से ही अधिक सुविख्यात है (कुचैल देखिये)। इसे बृहद्रथ नामान्तर भी प्राप्त था । पौराणिक साहित्य श्रीकृष्ण ने इसे एक सुवर्ण नगरी प्रदान की थी, जो में प्राप्त इसकी वंशावलि उत्तर पांचाल देश के सुदास कई अभ्यासकों के अनुसार आधुनिक सुराष्ट्र में स्थित पैजवन राजा से काफी मिलती जुलती है, जिससे प्रतीत पोरबंदर मानी जाती है। कृष्ण की कृपा से इसे स्वर्गलोक | होता है कि ये दोनों एक ही थे (सुदास पैजवन देखिये)। से भी श्रेष्ठ तर 'गोलोक' की प्राप्ति हुई। २. (सो. कुरु.) एक कुरुवंशीय राजा, भागवत के ३. दशाण देश का एक राजा, जो चेदिराज सुबाहु एवं | अनुसार बृद्रथ राजा का पुत्र, एवं शतानीक राजा का विदर्भराजकन्या दमयंती का पितामह था (म. व. ६६. | पिता था (भा. ९.२२.४३)। अन्य पुराणों में इसे तिमि १२)। राजा का पुत्र कहा गया है। Page #1078 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदास प्राचीन चरित्रकोश सुदास ३. एक यवन राजा (मनु. ७)। ऋषि इसके शत्रपक्ष में शामिल हुआ, एवं उसने इसके ४. एक शूद्र, जो अपने अगले जन्म में कृतन नामक विरुद्ध दाशराज्ञ युद्ध में भाग लिया ( वसिष्ठ मैत्रावरुणि एवं पिशाच बन गया । वैशाख व्रत का माहात्म्य बताने के विश्वामित्र देखिये)। उत्तरकालीन वैदिक साहित्य में भी लिए इसकी कथा पद्म में दी गयी है ( पद्म. पा.९८)। सुदास एवं विश्वामित्र ऋषि के घनिष्ठ संबंधों के निर्देश पुनः दास पैजवन--उत्तर पांचाल देश का एक पुनः प्राप्त है। सुविख्यात राजा, जिसने ' दाशराज्ञ युद्ध' नामक मुवि- दाशराज्ञ युद्ध-ऋग्वेद के सभी मंडलों में दाशराज्ञ ख्यात युद्ध में दस सामर्थ्यशाली राजाओं पर विजय युद्ध का निर्देश पुनः पुनः आता है, जिससे प्रतीत होता प्राप्त किया था (३. ७.१८) । दाशराज्ञ में इसके द्वारा है कि उक्त ग्रंथरचना काल में, यह युद्ध काफ़ी महत्त्वपूर्ण प्राप्त किये गये विजय का निर्देश ऋग्वेद में अन्यत्र भी माना जाता था। ऋग्वेद के सातवें मण्डल में इस युद्ध का प्राप्त है (ऋ ७.२०.२, २५.३; ३२.१०)। ' दाशराज्ञ सविस्तृत वर्णन करनेवाले अनेक सूक्त प्राप्त हैं (ऋ. ७, युद्ध' से संबंधित निर्देशों में, इसे सर्वत्र 'तृत्सभरतों' का १८)। राजा कहा गया है। इस युद्ध में इसने तुवंश, द्रा आदि दस राजाओं से नाम-ऋग्वेद में सर्वत्र सुदास राजा को 'पैजवन' युद्ध किया, एवं इन सारे राजाओं को परास्त कर वह उपाधि दी गयी है (ऋ. ७.१८.२३)।सुदास 'पैजवन' विजयी साबित हुआ। दाशराज्ञ युद्ध में इसके विपक्ष में का एक सूक्त भी प्राप्त है (ऋ. १०.१३३)। किन्तु भाग लेनेवाले राजाओं के नाम वैदिक साहित्य में विभिन्न 'पैजवन' इसका पैतृक नाम है, या कुल नाम है यह प्रकार से पाये जाते हैं, जिनकी संख्या १० से कतिपय कहना कठिन है। निरुक्त में इसे 'पिजवन' राजा का पुत्र अधिक प्राप्त होती है। इससे प्रतीत होता है कि इस . कहा गया है, एवं इस प्रकार 'पैजवन' इसका पैतृक नाम युद्ध में 'दाशराज्ञ' (दस राजा) शब्द का प्रयोग 'अनेक बताया गया है (नि. २.२४)। किन्तु प्रत्यक्ष ऋग्वेद में अर्थ से किया गया होगा। एक स्थान पर इसे दिवोदास राजा का पुत्र (ऋ. ७.२८. विपक्षीय राजा-दाशराज युद्ध में सुदास के विपक्ष में २५), एवं देववत् राजा का पौत्र (ऋ. ७.१८.२२) भाग लेनेवाले राजाओं की नामावलि निम्म प्रकार पायी कहा गया है। जाती है:-१. शिम्यु; २. तुवंश; २. द्रा; ४. कवध; ऐतरेय ब्राह्मण में, दिवोदास को वयश्व राजा का ५. पुरु (पूरु.); ६. अनु; ७. भेद ८. शंबर; ९. वैकर्ण; पुत्र कहा गया है। संभवतः 'देववत्' वयश्व राजा १० दूसरा वैकर्ण; ११. यदु, १२. मत्स्य, १३. पक्थ; की ही एक उपाधि होगी, अथवा वह वयश्व का १४. भलानस् ; १५. अलिन् ; १६. विषाणिन : १७. अज; मातामह होगा (ऐ. बा. ८.२१)। आधुनिक अभ्यासक १८. शिव; १९. शिग्र; २०. यक्षः २१. युध्यामधि; इसे 'पिजवन' का पुत्र, एवं दिवोदास का पौत्र मानते २२. याद; २३. देवक मान्यमानः २४. चायमान कपिः है। इसके नाम का 'सुदास् ' पाट भी ऋग्वेद में कई | २५. सुतक; २६. उचथ; २७. अतः २८. वृद्ध; २९. स्थानों पर प्राप्त है। मन्यु. ३०. पृथु. पुरोहित-वसिष्ठ ऋषि के द्वारा इसके राज्याभिषेक उपर्युक्त राजाओं की नामावलि के संबंध में ऋग्वेद किये जाने का निर्देश ऐतरेय ब्राहाण में प्राप्त है (ऐ. ब्रा के भाष्यकारों में भी एकवाक्यता नहीं है। उक्त ८.२१)। किन्तु ऋग्वेद में एक स्थान पर विश्वामित्र को इसका नामावलि में से १३ से १६ तक के नाम, राजाओं के न पुरोहित कहा गया है, एवं विषाश (बियास ) एवं शुतुद्री हो कर पुरोहितों के थे, ऐसा सायणाचार्य का कहना है। (सतलज) नदियों पर इस के विजयी अभियानों के साथ | १७ से २९ तक के राजाओं की ऐतिहासिकता उसके उपस्थित होने का, एवं इसके द्वारा एक अश्वमेध | विवाद्य है। यज्ञ कराने का निर्देश वहाँ प्राप्त है (ऋ. ३.५३.९-११)। | अन्य पराक्रम-ऋग्वेद के एक सूक्त में त्रसदस्यु राजा इन सारे निर्देशों से प्रतीत होता है किः,सर्वप्रथम इसका | के साथ इसके द्वारा युद्ध करने का निर्देश प्राप्त है पुरोहित विश्वामित्र था (ऋ. ३.३३.५३)। किंतु उसके इस (ऋ. ७.१९.३)। ऋग्वेद में अन्यत्र त्रसदत्यु राजा के पद से भ्रष्ट होने के पश्चात् , वसिष्ठ ऋषि भरत राजवंश का पिता पुरुकुत्स राजा के द्वारा यह पराजित होने का निर्देश एवं सुदास राजा का पुरोहित बन गया। तदुपरांत विश्वामित्र प्राप्त है (ऋ. १.६३.७ )। १०५६ Page #1079 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदास प्राचीन चरित्रकोश सुदेव परिवार--इसकी पत्नी का नाम सुदेवी था, जो इसे था । हैहय राजा वीतहव्य ने इसे परास्त कर इसे राज्यअश्विनों की कृपा से प्राप्त हुई थी (ऋ.३.५३.९-११)। भ्रष्ट किया। पश्चात् इसके पुत्र दिवोदास ने अपने पुरोहित इसके पुत्र एवं वंशज 'सौदास' सामूहिक नाम से वसिष्ठ की मदद अपना राज्य पुनः प्राप्त कर दिया। सुविख्यात थे। वसिष्ठ ऋषि के पुत्र शक्ति वासिष्ठ के ८. अंबरीष का एक सेनापति, जो धर्मयुद्ध में मृत सौदासों के साथ किये संघर्ष का निर्देश वैदिक साहित्य में हुआ था। एक बार अंबरीष राजा की आज्ञा से यह राक्षसों प्राप्त है। के साथ लड़ने गया था, जहाँ वियम नामक राक्षस के उत्तरकालीन वैदिक साहित्य में, अयोध्या के मित्रसह | द्वारा यह मारा गया। कल्माषपाद राजा के पिता सुदास, एवं सुदास पैजवन धर्मयुद्ध में मृत होने के कारण, अंबरीष राजा के इन दोनों को एक ही राजा मानने की भूल अनेक बार पूर्व ही इसे स्वर्गलोक प्राप्त हुआ। विना यज्ञ-याग की गयी है । विशेष कर शक्ति वासिष्ठ के संबंधित कथाओं किये बगैर इसे स्वर्गप्राप्ति हुई, यह देख कर अंबरीष में, यह भूल विशेष कर प्रतीत होती है। किन्तु ये दोनो | राजा को अत्यंत आश्चर्य हुआ, एवं इस संबंध में इसने सर्वतः विभिन्न राजा थे ( सुदास सार्वकाम देखिये)। इंद्र से पूछा । फिर इंद्र ने जवाब दिया 'धर्मयुद्ध में सुदास सार्वकाम--(सू. इ.) अयोध्या का एक मृत्यु प्राप्त होने का पुण्य यज्ञयागों के पुण्य से कहीं राजा, जो भागवत एवं विष्णु के अनुसार सर्वकाम राजा | अधिक है (म. शां. ९९.१०-१३)। का पुत्र, एवं मित्रसह कल्माषपाद राजा का पिता था ९. (सो. कुकुर.) एक राजा, जो भागवत, विष्णु, (मा. ९.९.१८; विष्णु. ४.४.३०; कल्माषपाद देखिये)। मत्स्य, वायु एवं पद्म के अनुसार देवक राजा का पुत्र था सुदिवा तण्डि-एक वानप्रस्थाश्रमी ऋषि, जो वानप्रस्थ (भा. ९.२४.२२)। धर्म का पालन करता हुआ स्वर्गलोक को प्राप्त हुआ । १०. एक वैश्य, जो सर्वस्वी अनाथ था। इसके मरने .(म. शां. २३६.१७)। पर, इसका अंत्य संस्कार करने के लिए इसका कोई सम्बन्धी सदीति आंगिरस-एक वैदिक सूक्तद्रष्टा (ऋ.८. न था। इस कारण इसकी मृतात्मा बभ्रुवाहन राजा क' ७१)। पास सपने में गयी, एवं इसने उससे कार्तिक पौर्णिमा के । सदेव-एक वैदिक यज्ञकर्ता (ऋ. ८.५.६ )। दिन 'वृषोत्सर्ग' करने की प्रार्थना की (गरुड. २.९)। २. एक ब्राह्मण, जो विदर्भनरेश भीम के द्वारा दमयंती की खोज में नियुक्त किये गये ब्राह्मणों में से एक था (म. ११. एक राजा, जिसकी कन्या का नाम गौरी था। . उसका विवाह करंधमपुत्र आविक्षित राजा से हुआ था दो, ६५.६)। यह दमयंती के दम नामक भाई का मित्र था। इसने चेदिराज के महल में सैरन्ध्री नामक दासी (मार्क. ११९.१६)। के नाते रहनेवाले दमयंती को पहचान लिया (म. व. १२. एक सुविख्यात राजा, जिसकी कन्या का नाम ६८.२) । पश्चात् इसके द्वारा ही दमयंती ने अयोध्या- | सुप्रभा था । सुविख्यात राजा नाभाग का यह श्वशुर था। नरेश ऋतुपर्ण राजा को स्वयंवर का संदेश भेज | यह राजा प्रारंभ में क्षत्रिय था, किन्तु कालोपरांत च्यवनदिया था। पुत्र प्रमति ऋषि के शाप के कारण यह वैश्य बन गया। ३. स्वारोचिष मन्वन्तर का एक देवगण । इस संबंध में सविस्तृत कथा मार्कंडेय में प्राप्त है। एक ४. (सू . इ.) एक राजा, जो भागवत के अनुसार बार धूम्राक्षबंध नल नामक इसके मित्र ने शराब के नशे चंप राजा का पुत्र था । विष्णु एवं वायु में इसे में प्रमति ऋषि की पत्नी पर बलात्कार करना चाहा। इस चंचु राजा का पुत्र कहा गया है (वायु. ८८. १२०)। समय यह बाजूमें ही खड़ा रह कर, यह सारा पाशवी ५. विदर्भ देश का एक राजा,जो राम दाशरथि का सम- दृश्य देखता रहा। कालीन था। इसके पुत्रों के नाम श्वेत एवं सुरथ थे (वा. उस समय प्रमति ऋषि ने अपनी पत्नी का रक्षण रा. उ. ७८.४)। करने के लिए इसकी बार बार प्रार्थना की । तब इसने बड़ी ६. तुषित देवों में से एक । व्यंग्योक्ति से जवाब दिया, "क्षतों की रक्षा करनेवाला ७. (सो. काश्य.) एक राजा, जो काशिराज हर्यश्व का | एक क्षत्रिय ही केवल तुम्हारी पत्नी की रक्षा कर सकता पुत्र था। यह देवता के समान तेजस्वी एवं न्यायप्रिय हैं। मैं क्षत्रिय कहाँ ? मैं तो पैश्य हूँ। १०५७ Page #1080 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदेव प्राचीन चरित्रकोश सुधनु - इसके इस औद्धत्य से ऋद्ध हो कर प्रमति ऋषि ने इसे ३. गांधारराज सुबल की एक कन्या, जो गांधारी की तत्वाल वैश्य होने का शाप दिया । पश्चात् इसके द्वारा छोटी बहन, एवं तृतराष्ट्र की पत्नियों में से एक थी। उःशाप की प्रार्थना किये जाने पर प्रमति ऋषि ने इसे सुद्य-(सो. पूरु.) एक राजा, जो भागवत के अनुसार उःशाप दिया, 'एक क्षत्रिय के द्वारा तुम्हारी कन्या का हरण चास्पद राजा का पुत्र, एवं बहुगव राजा पिता का पुत्र था किया जायेगा, जिस कारण अप्रत्यक्षतः तुम क्षत्रिय (भा. ९.२०.३ )। इसे धुंधु एवं सुद्युम्न नामान्तर भी बनोगे। प्राप्त थे । विष्णु में इसे अभयद राजा का पुत्र, एवं प्रमति अऽपि के उःशाप के अनुसार इसकी कन्या सुप्रभा बहुगव राजा का पिता कहा गया है ( विष्णु ४.१९.१)। का नाभाग राजा ने हरण किया, एवं इस प्रकार यह पुनः सुद्यम्न--वैवस्वत मनु के इल ( इला ) नामक पुत्र क्षत्रिय बन गया (मार्क. १११-११२)। का नामान्तर (इल देखिये)। १३. एक ऋषिः जिसे मिलने के लिए राम अपने परिवार २. वसिष्ठकुलोत्पन्न एक मंत्रकार । के साथ उपस्थित हुआ था (पद्म. पा. ११७)। ३. एक न्यायी राजा, जिसने शंख एवं लिखित नामक १४. एक वैदिक यज्ञकर्ता (ऋ. ८.५.६)। दो ऋषि बंधुओं के बीच हुए वाद का अत्यंत निःपक्षपाती सोनकायकानावान वृत्ति से न्याय दिया (म. शां. २४, शंखलिखित होने पर किये जाने वाले प्रायश्चित्त का विधान इसके द्वारा १. दाखय)। आग चल कर इसन लिाखत नाष का बताया गया है (तै. आ. २.१८)। विपुल दान प्रदान किया (म. अनु. १३७.१९)। .. सुदेवला-ऋतुपर्ण ऋषि की पत्नी (बौ. श्री. २०.१२)। महाभारत में अन्यत्र इसे युवनाश्व राजा का पिता कहा सुदेवा-काशी के देवराज राजा की कन्या, जो इक्ष्वाकु गया है (म. व. १२६.९) । इस ग्रंथ में निर्दिष्ट यमसभा के वर्णन में इसका निर्देश प्राप्त है (म. स. ८.१५) . राजा की पत्नी थी (पद्म भू. ४२.१-५)। ४. एक राजा, जिसकी पत्नी का नाम सुदर्शना था। २. एक स्त्री, जिसकी कथा स्त्री के द्वारा पति के साथ | राजस्थल नामक तीर्थ में स्नान करने के कारण इसे पुत्रकिये गये दुर्व्यवहार के दुष्परिणाम कथन करने के लिए प्राप्ति हुई (रकंद. ५.१.१४)। पश्न में दी गयी है (पञ्न. भू. ४७.५२)। सुधनु-(सो. रक्ष.) एक राजा, जो कुरु राजा का.' सुदेवी--मेरुकन्या मेरुदेवी का नामान्तर ( भा. २. पुत्र एवं सुहोत्र राजा का पिता था (भा. ९.२२.४) । ७.१०)। मत्स्य एवं वायु में इसे सुधन्वन् कहा गया है। २. सुदास पैजवन राजा की पत्नी (ऋ. १.११२.१९; चेदि एवं मगध देश के ऋक्षवंशीय राजघरानों का सुदास पैजवन देखिये)। यह मूल पुरुष माना जाता है । इसके वंश की सविस्तृत सुदेष्ण--कृष्ण एवं रुक्मिणी के पुत्रों में से एक जानकारी अनेक पुराणों में दी गयी है, जहाँ उपरिचर (भा. १०.६१.१)। बसु इसके वंश का प्रमुख राजा बताया गया है २. एक प्रमुख यादव राजा, जिसे मिलने के लिए (उपरिचर वसु देखिये)। स्वयं देवराज इंद्र उपस्थित हुआ था। २. एक संशप्तक योद्धा, जो भारतीय युद्ध में कौरवपक्ष सुदष्णा--बलि आनव राजा की पत्नी, जिसे दीर्घ- में शामिल था (म, द्रो. १७.२०) । अंत में यह अजुन तमस् ऋषि से निम्नलिखित पुत्र इत्पन्न हुए थे:- १. अंग; के द्वारा मारा गया (म. द्रो. १७.२०-२१)। २. बंग; ३. कलिंग; ४. पुण्ड्र ५. सुह्म (म. आ. ३. पाण्डवपक्ष का एक पांचाल योद्धा,जो द्रुपद राजा का ९८.३०; भा. ९.२३; ह. वं. १. ३१; बलि आनव पुत्र एवं वीरकेतु का भाई था (म. द्रो. २२.१६६.*)। इसके रथ के अश्व कृष्णवर्णीय, एवं विभिन्न वर्ण के पुष्पों २. मत्स्यनरेश विराट की पत्नी, जो रथकार केकय से सशोभित थे (म. द्रो. १२२.१६६* पंक्ति.३)। की द्वितीय पत्नी मालवी की कन्या थी। इसे चित्रा। इसके भाई वीरकेतु के मारे जाने पर इसने अपने भाईयों नामान्तर भी प्राप्त था। इसके छोटे भाई का नाम सहित द्रोण पर आक्रमण किया । इस युद्ध में द्रोण ने कीचक था । इसके उत्तर एवं उत्तरा नामक दो संतानें थी| इसे रथहीन कर के इसका वध किया (म. द्रो. ९८. (म. वि. परि. १.१९-३२-३७; विराट देखिये)। ३७-४०)। १०५८ देखिये)। Page #1081 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधनु . प्राचीन चरित्रकोश सुधामन् ४. एक राजा, जिसे मांधातृ ने जीत लिया था (म. २. एक संशप्तक योद्धा, जो भारतीय युद्ध में कौरव द्रो. परि १.८.१५)। पक्ष में शामिल था। अर्जुन ने इसका वध किया। सुधन्वन्--एक ब्राह्मण, जो धनुर्वेद एवं अर्थशास्त्र में ३. पाण्डव पक्ष का एक राजा, जो भारतीय युद्ध में निष्णात था ( वा. रा. अयो. १००.१४)। से बचे हुए वीरों में से एक था । इस युद्ध में मृत हुए २. सांकाश्य नगरी का एक राजा, जो सीरध्वज जनक वीरों की औव॑ देहिक क्रियाएँ धौम्य, विदुर, युयुत्सु, राजा का समकालीन था। इसने सीरध्वज की कन्या सीता संजय आदि लोगों ने की, उस समय यह उपस्थित था से विवाह करना चाहा। इसका यह प्रस्ताव सीरध्वज (म. स्त्री. २६.२४.)। द्वारा अस्वीकार किये जाने पर, इसने मिथिला नगरी पर ४. दुर्योधन राजा का एक पुरोहित (म. शां, ४०.५, आक्रमण किया। पश्चात् हुए युद्ध में यह स्वयं ही मारा | ४४.१४)। गया (वा. रा. बा. ७१.१६-२१)। इसकी मृत्यु के ५. धर्मसावर्णि मनु के पुत्रों में से एक । पश्चात् सांगाश्य नगरी पर सीरध्वज का बंधु कुशध्वज ६. (सो. वृष्णि.) एक यादव राजा, जो अकर एवं राज्य करने लगा। अश्विनी के पुत्रों में से एक था (मत्स्य.४५.३३)। ३. (सू. निमि.) विदेह देश का एक राजा, जो विष्णु ७.(सो. द्विमीढ.) एक राजा, जो मत्स्य के अनुसार के अनुसार शाश्वत राजा का पुत्र था। दृढ़नेमि राजा का पुत्र था (मत्स्य. ४९.७१)। वायु में ४. (सो. ऋक्ष.) एक राजा, जो विष्णु के अनुसार इसे सुवर्मन् कहा गया है। सत्यधृत राजा का, वायु एवं भागवत के अनुसार सत्यहित ८. रुद्रसावर्णि मन्वन्तर का देवगण | का, एवं मत्स्य के अनुसार सत्यधृति राजा का पुत्र था ९. एक दिकपाल, जो पृथु राजा का समकालीन था (विष्णु. ४.१९.८२, वायु. ९९.२२५)| भागवत एवं (मत्स्य.८.९)। मत्स्य में इसे क्रमशः जह्न एवं धनुष कहा गया है। १०. दक्षसावर्णि मन्वन्तर का एक देवगण । ५. चंपक नगरी के हंसध्वज राजा का कनिष्ठपुत्र, जो ११. रीच्य मन्वन्तर का एक देवगण । अपने पिता के लिखित एवं शंखध्वज नामक दुष्टबुद्धि १२. प्रतर्दन देवों में से एक । प्रधानों के षड़यंत्र के कारण मृत्यु का शिकार बननेवाला १३. काश्मीर देश के भद्रसेन राजा का शिवभक्त पत्र था. किन्तु कृष्णभक्ति के कारण जीवित रहा (लिखित (भद्र सेन ३. देखिये)। २. देखिये)। १४. उत्तम मन्वन्तर का एक देवगण, जिसमें निम्नसुधन्वन आंगिरस-एक तत्त्वज्ञ आचार्य, जो | लिखित बारह देव समाविष्ट थे :--१. इष; २. ऊर्ज; ३. अंगिरस् ऋषि के पुत्रों में से एक था। इसने पतंचल काप्य | क्षम; ४. क्षाम; ५. सत्य; ६. दमः ७. दान्तः ८. धृतिः की कन्या के शरीर में प्रविष्ट हो कर भुज्यु लाह्यायनि | ९. ध्वनि; १०. शुचिः ११. श्रेष्ठ; १२. एवं सपर्ण नामक आचार्य को आत्मज्ञानविषयक ज्ञान प्रदान किया | (ब्रह्मांड. २.३६.२८)। था। इसी ज्ञान के बल से आगे चल कर भुज्यु लाह्यायनि सुधर्मन् दिशापाल-सात्वत धर्म का एक आचार्य, ने याज्ञवल्क्य वाजसनेय को परास्त करना चाहा (बृ. उ. जो शंखपद नामक आचार्य का पुत्र एवं शिष्य था (म. १.३.१; भुज्यु लाह्याय नि देखिये)। | शां. ३३६.३५)। २. अंगिरस ऋषि के पुत्रों में से एक (म. अनु. सुधर्मा--इंद्रसारथि मातलि की पत्नी, जिसकी १३२.४३.) । केशिनी राजकन्या की प्राप्ति के लिए इसने कन्या का नाम गुण केशी था (म. उ. ९५.१९-२०)। विरोचन दैत्य के साथ श्रेष्ठता के संबंध में शर्त लगायी थी, | २. सुराष्ट्र देश के सोमकान्त राजा की पत्नी । जिसमें इसने उसे परास्त किया (म. स. ६१-७६; उ. सुधा--काल नामक रुद्र की पत्नी (भा. ३. ३५; विरोचन १. देखिये)। | १२.१३)। सुधर्मन-पूर्वदशार्ण देश का एक राजा । भीमसेन | सुधामन्-(स्वा. प्रिय.) एक राजा, जो घृतपृष्ठ ने अपने पूर्व दिग्विजय में इससे युद्ध किया था। पश्चात् राजा के पुत्रों में से एक था। इसका राज्य क्रौंचद्वीप इसके पराक्रम से संतुष्ट हो कर इसे अपना सेनापति | में था (भा.५.२०.२१)। बनाया (म. स. २६.५-६)। २. चाक्षुष मन्वन्तर के सप्तर्षियों में से एक । १०५९ Page #1082 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधामन् प्राचीन चरित्रकोश सुनर्तकनट ३. रैवत मन्वन्तर के सप्तार्षेयों में से एक । ४. एक ब्राह्मण, जिसकी कथा गीता के ग्यारहवें ४. लोकाक्षि नामक शिवावतार का एक शिष्य । अध्याय का महत्त्व कथन करने के लिए पाम में दी गयी ५. नारायण नामक शिवावतार का एक शिष्य । है ( पद्म. उ. १८५)। ६. ब्रह्मसावर्णि मन्वंतर का एक देवगण । सुनंदन-(आंध्र. भविष्य.) एक राजा, जो भागवत ' सुधार्मिक--केरल देश का एक राजा, जिसके पुत्र का | के अनुसार पुरुषभीरु राजा का पुत्र, एवं चकोर राजा का नाम चंद्रहास था। पिता था (भा. १२.१.२५)। सुधावत्-पितरों में से एक। सुनंदा-काशिराज सर्वसेन राजा की कन्या, जो सुधिय--तामस मन्वन्तर कः एक देवगण (वायु. दुष्यंतपुत्र सम्राट् भरत की पत्नी थी। इसके पुत्र का नाम ६२.३७)। भुमन्यु था। इसे 'काशेयी सार्वसेनी' नामान्तर भी प्राप्त सुधृति--(सू.. दिष्ट.) एक राजा, जो विष्णु एवं था (म. आ. ९०.३४)। भागवत के अनुसार राज्यवर्धन राजा का पुत्र, एवं नर २. चेदि नरेश वीरबाहु की कन्या, जिसके भाई का राजा का पिता था (भा. ९.२.२९)। नाम सुबाहु था। यह दमयंती की मौसेरी बहन थी (म. २. (सू. दिष्ट.) एक राजा, जो भागवत के अनुसार | व. ६२.४२, दमयंती देखिये)। दम राजा का पुत्र था। __३. केकय देश की एक राजकुमारी, जो कुवंशीय ३. विदेह देश के सत्यधृति राजा का नामान्तर सार्वभौम राजा की पत्नी थी। इसके पुत्र का नाम जय(सत्यधृति ८. देखिये)। भागवत में इसे महावीर्य राजा | त्सेन था (म. आ. ९०.१६)। का पुत्र, एवं धृष्टकेतु राजा का पिता कहा गया है (भा. | ४. वत्सप्रि राजा की पत्नी मुद्रावती का नामांतर। ९.१३.१५)। इसके पुत्र का नाम सुनय था (सुनय ३. देखिये )। . सुनक्षत्र-मगध देश के सुकृत्त राजा का नामान्तर । ५. माहिष्मती नगरी के नीलध्वज राजा का नामांतर भागवत में इसे निरमित्र राजा का पुत्र, एवं बृहत्सेन राजा (जै. अ. ६१)। का पिता कहा गया है (भा. ९.२२.४७)। ६. एक गोपी, जो सुनंदगोप की कन्या थी ( सुनंद २. (सू. इ. भविष्य.) एक राजा, जो वायु के अनुसार ३. देखिये)। सहदेव राजा का पुत्र था (वायु. ९९.२८४)। मत्स्य, सुनंदा मागधी-जनमेजय (प्रथम ) राजा की पत्नी, भागवत एवं विष्णु में इसे मरु देव राजा का पुत्र कहा गया जिसके पुत्र का नाम प्राचीन्वत् था। पाठभेद (भांडारकर है (भा. ९.१२.१२)। संहिता)-'अनंता'। सुनक्षत्रा-स्कंद की अनुचरी एक मातृका (म. श. सुनंदा शैब्या-शिबि देश की राजकन्या, जो प्रतीप ४५.८)। राजा की पत्नी थी। इसके देवापि, शांतनु एवं वाह्रीक सुनंद-(प्रद्योत. भविष्य.) एक राजा, जो भविष्य | नामक तीन पुत्र थे (म. आ. ९०.४६ )। के अनुसार प्रद्योत राजा का पुत्र था। सुनंद राजा के सुनय--(सो. कुरु. भविष्य.) एक राजा, जो परिप्लव पश्चात्, भविष्य पुराण में प्राप्त इतिहासकथन समाप्त राजा का पुत्र, एवं मेधाविन् राजा का पिता था (भा. ९, हो कर, भविष्यकथन प्रारंभ होता है। २२.४३)। इसके पुरोहित का नाम काश्यप प्रमति था इसी राजा के पश्चात् समस्त संसार म्लेंच्छमय होने | (मार्क. ११४)। की आशंका से नैमिषारण्य में रहनेवाले अट्ठासी हज़ार २. (सू. निमि.) एक राजा, जो विष्णु एवं वायु के ऋषि उस अरण्य को छोड़ कर हिमालय की ओर चले | अनुसार क्रतु राजा का पुत्र, एवं वीतहव्य राजा का पिता गये, जहाँ विशाल नगरी में विष्णुपुराण का कथन किया था (वायु. ७.२२)। भागवत में इसे शुनक कहा है (भवि. प्रति. १.४)। गया है। २. विष्णु का एक पार्षद (भा. २.९.१४)। ३. एक गजा, जो वत्सप्रि भालंदन एवं सुनंदा (मुदा३. एक गोप, जो नंदगोप का मित्र था। इसके घर | वती) का पुत्र था (मार्क. ११४.२)। उग्रतपस् नामक ऋषि ने सुनंदा नामक कन्या के रूप में सुनर्तकनट--शिव का एक अवतार, जो तप जन्म लिया (पन. पा. ७२)। करनेवाले पार्वती के सम्मुख प्रकट हुआ था। शिव के १०६० Page #1083 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुनर्तकनट प्राचीन चरित्रकोश सुनीथा द्वारा पार्वती को दृष्टांत मिला कि, वह उसका वरण करने- सुनीति--उत्तानपाद राजा की पत्नी, जो ध्रव एवं • वाला है। कीर्तिमत् की माता थी। इसे सूनृता नामान्तर भी पश्चात् बाये हाथ में सिंगी, दाहिने हाथ में डमरू | प्राप्त था। एवं पीट पर रक्तवर्णीय वस्त्र धारण करनेवाले । सुनीथ-(सो. काश्य.) एक राजा, जो भागवत के एक विचित्र व्यक्ति के रूप में यह पार्वती के आँगन में अनुसार संतति का, एवं विष्णु एवं वायु के अनुसार प्रकट हुआ, एवं बाकी कुछ न कहते हुए इसने पार्वती सन्नति राजा का पुत्र था। इसके पुत्र का नाम सुकेतन से भिक्षा माँगी। शिव के इस रूप में भी पार्वती ने उसे था (भा. ९.१७.८)। पहचान लिया, एवं अपने साथ विवाह करने की प्रार्थना । २. (सो. द्विमीढ.) एक राजा जो मत्स्य के अनुसार की (शिव. शत. ३४)। क्षेम राजा का पुत्र था (मत्स्य. ४९.७९)। भागवत सुनहोत्र--क्षत्रवंशीय सुहोत्र राजा. का नामान्तर विष्णु, एवं वायु में इसे सुवीर कहा गया है। (सुहोत्र २. देखिये)। ३. शिशुपाल राजा का नामान्तर (म. स. ३५, परि. सुनाम--(सो. विदूरथ) एक राजा, जो मत्स्य के । १.२१.२, ३६.१३)। अनुसार अजात राजा का पुत्र था (मत्स्य. ४४.८४)। ४. (सो. कुरु. भविष्य.) एक राजा, जो सुषेण राजा २. कट देश का एक राजा, जिसे अर्जुन ने अपने | का पुत्र, एवं नृचक्षु राजा का पिता था (भा. ९.२२. उत्तर दिग्विजय के समय जीता था (म. स. २३.२७०% ४१)। वायु में इसे सुतीर्थ कहा गया है। पंक्ति. ५-७)। ५. (सो. मगध, भविष्य.) एक राजा, जो सुबल राजा . ३. धृतराष्ट्र के सौ पुत्रों में से एक, जो भारतीय युद्ध का पुत्र एवं सत्यजित् राजा का पिता था (भा. ९.१२, में भीमसेन के द्वारा मारा गया (म. भी. ८४.१२)। ४९) विष्णु में इसे सुनीथ, तथा वायु एवं ब्रह्मांड में ४. वरुण का एक मंत्री, जो अपने पुत्र एवं पौत्रों के | इसे 'सुनेत्र' कहा गया है। साथ गौ एवं पुष्करतीर्थ में वरुण की उपासना करता था। ६. इंद्रसभा में उपस्थित एक ऋषि (म. स. ७.१४)। ५. एक दानव, जो वज्रनाभ दानव का भाई था। ७. यमसभा में उपस्थित एक राजा (म. स.८.११. इसकी चन्द्रवती एवं गुणवती नामक दो कन्याएँ थीं।। १५)। गद एवं सांब नामक असुरों ने इसके उन कन्याओं का ८. एक वृष्णिवंशीय राजकुमार, जिसे कृष्णपुत्र प्रद्युम्न हरण किया (ह. वं. २.९७.१९-२०)। के द्वारा धनुर्वेद की शिक्षा प्राप्त हुई थी (म. व. १८०, सुनामन्-मथुरा के उग्रसेन राजा का पुत्र, जो कंस | २७)। • का भाई था । यह कंस का सेनापति, एवं उसके घुड़सवारों | सुनीथ कापटव-एक आचार्य (वं. ब्रा. १; . की सेना का सरदार था । बलराम ने इसका वध किया | कापटव सुनीथ देखिये)। (भा. ९.२४.२४; म. स. १३.३३; परि. १.२१.८४७)। सुनीथ सौचद्रथ-एक ऋषि, जिसके द्वारा रचित पाठभेद (भांडारकर संहिता)-'सुदामन्। सूक्त में वाय्य सत्यश्रवस् नामक ऋषि को उषस् देवता से २. गरुड के पुत्रों में से एक (म. उ. ९९.२)। प्रकाश प्राप्त होने का निर्देश किया गया है (ऋ. ५.७९. ३. सुकेतु राजा का एक पुत्र, जो द्रौपदीस्वयंवर में | २)। लुडविग के अनुसार, यह वाय्य सत्यश्रवस् का पिता अपने पिता के साथ उपस्थित था (म. आ. १७७.९)। था। पाठभेद (भांडारकर संहिता)-सुदामन् । सुनीथा-अंगराजा की पत्नी, जो यम की कन्या, एवं ४. एक आचार्य, जो ब्रह्मांड के अनुसार, व्यास की | वेन राजा की माता थी (भा. १४.१३.१८)। अपने पुत्र सामशिष्यपरंपस में से लोकाक्षि नामक आचार्य का | वेन की मृत्यु के पश्चात् , अंगराजवंश का निवेश न हो, शिष्य था। इस हेतु से इसने उसके शरीर का मंथन किया, जिससे ५. स्कंद का एक सैनिक । पृथु वैन्य एवं निषाद नामक दो पुत्र उत्पन्न हुए (वेन सुनीक--(प्रद्योत. भविष्य.) प्रद्योतवंशीय शुनक | देखिये)। राजा का नामान्तर। ___ इसे वेन नामक दुष्ट पुत्र क्यों उत्पन्न हुआ, इस संबंध सुनीत-मगध देश के सुनीथ राजा का नामान्तर । । में एक चमत्कृतिपूर्ण कथा पद्म में प्राप्त है । अपने बाल्यकाल १०६१ Page #1084 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुनीथा प्राचीन चरित्रकोश सुपर्ण में इसने तपस्या में निमम हुए सुशंख नामक गंधर्व को | कारण ब्रह्मा ने इन्हें अनेकानेक वर प्रदान किये, जिनमें त्रस्त किया, जिससे क्रुद्ध हो कर उसने इसे एक 'कुलपांसन' मायावी विद्या, अतुल बल, इच्छारूपधारित्व, आदि वरों पुत्र को जन्म देने का शाप दिया (पद्म. सु. ८; भू.३०- के साथ, अपने भाई के अतिरिक्त किसी अन्य मानव ३६)। से अवध्यत्व, यह वर प्रमुख था । सुनेत्र--(सो. कुरु.) एक राजा, जो जनमेजयपुत्र उपर्युक्त वरप्राप्ति के कारण, ये दोनों अत्यंत उन्मत्त हो धृतराष्ट्र के बारह पुत्रों में से एक था (म. आ. ८९२*)। | गये, एवं पृथ्वी पर अनन्वित अत्याचार करने लगे। ये २. गरुड का एक पुत्र । ऋषियों के यज्ञयागों में बाधा डालने लगे, जिस कारण ३. रौच्य मनु के पुत्रों में से एक। इस संसार के सारे यज्ञयाग बंद हो गये। ४. किष्किंधा का एक वानर (वा. रा. कि. ३३)। मृत्यु--अंत में ब्रह्मा ने इन दोनों में कलह निर्माण सुनेत्रा-कश्यप ऋषि की पत्नियों में से एक। कर के इन दोनों का विनाश करने का निश्चय किया। इस सुंद--एक असुर, जो सुंद एवं उपसुंद नामक सुविख्यात | हेतु उसने विश्वकर्मन् के द्वारा एक अप्रतिम लावण्यवती असुरद्वय में से एक था ( सुंदोपसुंद देखिये)। अप्सरा का निर्माण करवाया, जिसका नाम तिलोत्तमा २. एक असुर, जिसकी पत्नी का नाम ताटका था। था। पश्चात् ब्रह्मा की आज्ञानुसार तिलोत्तमा इन दोनों इसके सुबाहु एवं मारीच नामक दो पुत्र थे। इसके पिता राक्षसों के सामने नृत्य करने लगी। उसे देख कर ये दोनों का नाम जंभासुर था। आपसी भ्रातृभाव की भावना को बिलकुल भूल बैठे, एवं सुंदर-एक गंधर्व, जो वीरबाहु गंधर्व का पिता था। तिलोत्तमा की प्राप्ति के आपस में झगड़ने लगे। एक वसिष्ठ के शाप के कारण, इसे राक्षसयोनि प्राप्त हुई, | दूसरे के हाथ से गदायुद्ध में इनकी मृत्यु हो गयी। . किन्तु आगे चल कर श्रीविष्णु ने इसे राक्षसयोनि से मुक्त | सुन्वत्--एक आचार्य, जो सुमन्तु नामक आचार्य . किया (स्कंद. २.१.२४)। का शिष्य था । व्यास शिष्य जैमिनि ने इसे सामवेद की सुंदर शातकर्णि--(आंध्र, भविष्य.) एक आंध्र- एक संहिता सिखायी थी (भा. १२.६.७५)। . वंशीय राजा, जो विष्णु के अनुसार पुलिंदसेन राजा का सुपक्ष--अजित देवों में से एक । पुत्र, एवं शातकणि राजा का पिता था (विष्णु. ४.२४. सुपथ--एक दानव, जो कश्यप एवं दनु के पुत्रों में ४७)। | से एक था (वायु. ९८.११)। सुंरर शांतिकर्ण--(आंध्र. भविष्य.) एक राजा, सुपर्ण--एक ऋषि (तै. सं. ४.३.३.२; का. सं. जो मत्स्य के अनुसार सोम राजा का पुत्र था (मत्स्य. ३९.७)। . २७३)। २. एक ऋषि, जिसने इंद्रियसंयम, एवं मनोनिग्रह के सुंदरा--केकय देश की सुनंदा नामक राजकुमारी | साथ तपश्चर्या की थी। उस तपस्या के कारण इसे स्वयं का नामान्तर (सुनंदा. ३. देखिये), भगवान् पुरुषोत्तम ने सात्वत धर्म का ज्ञान सिखाया, जो सुंदरी--नर्मदा नामक गंधर्वी की कन्या, जो माल्य- इसने आगे चल कर वायुदेव को प्रदान किया (म. शां. वत् राक्षस की पत्नी थी। ३३६.१८-२१)। २. एक अत्यंज स्त्री, जो शिवमंदिर की सफाई करने त्रिसौपर्ण धर्म-महाभारत के अनुसार, भगवान् के कारण स्वर्गलोक को प्राप्त हुई (स्कंद. १.१.७)। पुरुषोत्तम से उपर्युक्त धर्मज्ञान की प्राप्ति इसे ब्रह्मा के सुंदोपसुंद--एक अतिभयंकर राक्षसद्वय, जो निकुंभ तीसरे 'वाचिक-युगांतर' में हुई थी। स्वयं को प्राप्त हुए दैत्य के पुत्र थे। ये दोनों भाई आपस में मिल जुल कर धर्म का यह तीन बार पठन करता था, जिस कारण उस अत्यंत स्नेहभाव से रहते थे। दो भाईयों के आपसी धर्म को 'त्रिसौपर्ण' नाम प्राप्त हुआ। दिन में तीन बार भ्रातृभाव का सब से बड़ा शत्रु स्त्री ही होती है, इस तथ्य धर्मज्ञान का पठन करने के इसी व्रत का निर्देश ऋग्वेद का कथन करने के लिए नारद के द्वारा इनकी कथा | में 'चतुष्कपर्दा युवतिः ' आदि ऋचाओं में किया गया है युधिष्ठिर को सुनाई गयी (म. आ. २००-२०४)। (ऋ. १०.११४.२-३)। ब्रह्मा से वरप्राप्ति-त्रिभुवन पर विजय पाने के लिए ३. पक्षिराज गरुड़ का नामांतर । वैदिक एवं पौराणिक इन दोनों ने अत्यंत उग्र तपस्या की। इस तपस्या के | साहित्य में सर्वत्र सुपर्ण एवं गरुड के द्वारा क्रमशः सोम १०६२ Page #1085 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन चरित्रकोश सुपर्ण एवं अमृत प्राप्त कराने का निर्देश मिलता है। इन सारी कथाओं का मूल स्रोत एक ही है, जहाँ सूर्य के द्वारा प्राप्त नवचैतन्य को अमृत अथवा सोम माना गया है ( श. बा. १०.२.२.४ ) 1 ३. दुर्योधनपक्ष का एक राजा, जो कुपट नामक असुर ४. एक देवगंधर्व, जो कश्यप एवं प्राधा के पुत्रों में से अंश से उत्पन्न हुआ था (म. आ. ११.५५५०६ पछि २१) । एक था (म. आ. ५९.४५ ) । ५. एक देवगंधर्व, ओ कश्यप एवं मुनि के पुत्रों में से एक ( म. आ. ५९.४१ ) 1 ६. मयूर नामक असुर का छोटा भाई, जो कालकीर्ति राजा के रूप में पृथ्वी पर अवतीर्ण हुआ था। । ७. (सं.इ. भविष्य ) एक राजा, जो अंतरिक्ष राजा का पुत्र, एवं अमित्रजित् राजा का पिता था ( वायु. ९९. २८६ ) । ८. सुधामन् देवों में से एक। सुपर्ण काण्व - एक वैदिक सूक्तद्रष्टा (८.५९) । सुपर्ण तार्क्ष्य - एक वैदिक सूक्तद्रष्टा (ऋ. १०.११४)। सुपर्णा- गरुड की माता विनता का नामान्तर मा. ६. ६.२२ ) । ब्रह्म में इसकी कथा 'शिवमाहात्म्य' कथन करने लिए पुनरुद्घृत की गयी है ( ब्रह्म. १०० ) । सुपर्णी- गरुड की माता विनता का नामांतर शतपथ ब्राह्मण के अनुसार, विनता एवं गरुड की सापत्न माता कद्रू इन दोनों का जन्म स्वर्ग से पृथ्वी पर सोम लाने के हेतु हुआ था। इन दोनों की आपसी ईर्ष्या आदि की 'बहुत सारी कथाएँ भी उस ग्रंथ में दी गयी है (श. ब्रा. ३.५.१.१-७; कट्ट देखिये) । इसी ग्रंथ में अन्यत्र 'सुपर्णी' शब्द की व्युत्पत्ति 'वाचा' इस अर्थ से की गयी है (रा. बा. उ. ३.२.२ ) । सुपन पांडव पक्ष का राश, जिसके कृतिपुत्र रुचिपर्व का वध किया था ( म. द्रो. २५.४५ ) । सुप्रतीक २. (सृ. निमि.) एक राजा, जो विष्णु के अनुसार श्रुतायु राजा का पुत्र था ( विष्णु. ४.५.३१ ) । भागवत में इसे सुपार्श्वक कहा गया है। २. ब्रह्मसावर्णि मन्वन्तर के मनु का एक पुत्र । ३. प्राग्ज्योतिषपुर के भगदत्त राजा का नामान्तर (म. प्रो. २५.४५) । ४. एक लोकसमूह, जिनके क्रथ नामक राजा को भीमसेन ने अपने पूर्वदिग्विजय में जीता था। सुपार्श्व - (सो. डिमीट ) एक राजा, जो मत्स्य एवं वायु के अनुसार रुक्मरथ का, तथा भागवत एवं विष्णु अनुसार दृढ़नेमि राजा का पुत्र था ( मत्स्य ४९.७३ भा. ९. २१. २७ ) । भागवत एवं विष्णु में दृढ़नेमि से लेकर सुपार्श्व तक की पीढ़ियों का निर्देश अप्राप्य है । ५. रावण का एक अमात्य, जिसने रावण को सीतावध जैसे पापकर्म करने से परावृत्त किया था ( वा. रा.यु. ९२. ६०)। ६. पक्षिराज संपाति का पुत्र, जिसने सीताबध की वार्ता अपने पिता को सुनायी थी ( वा. रा. कि. ५९.८ ) । इसके सीता की मुक्तता के कार्य में कोई भी प्रयत्न न करने के कारण, इसका पिता इस पर अत्यंत फुद्ध हुआ । इसी कारण यह दर से दूरवर्ती प्रदेश में भाग गया (आ. रा. ७.८ ) । सुपार्श्वक निमिवंशीय सुपार्श्व राजा का नामान्तर (सुपार्श्व २. देखिये) । २. (सो. वृष्णि. ) एक यादव राजा, जो अक्रूर एवं अश्विनी का पुत्र था (मत्स्य. ४५.१२) । ३. (सो. वसु. ) वसुदेव एवं रोहिणी का एक पुत्र ( वायु. ९६.१६८ ) । सुपुंजिक- एक संहिकेय असुर, जो विप्रचित्ति एवं सिंहिका का पुत्र था । परशुराम ने इसका वध किया ( ब्रह्माड. ३.६.१८ - २२ ) । सुप्रचेतस्तदेवों में से एक। सुप्रज्ञा- कोचरश राजा की पत्नी । सुप्रतीक - (सो. सह. ) एक राजा, जो दुर्जया मित्रकर्षण नामक राजा का उर्वशी से उत्पन्न पुत्र था। इसने एवं इसके भाइयों ने गंधर्व कन्याओं से विवाह किया था सुपाटल - राम का एक वानर ( वा. रा. क. ३३ ) | ( कूर्म १.२६ ) । सुपार -- रुद्रसावर्णि मन्वन्तर का एक देवगण | 1 २. (सू. इ. भविष्य . ) एक राजा, जो भागवत के अनुसार प्रतीकाच राजा का विष्णु के अनुसार प्रतीताच राजा का, एवं भविष्य के अनुसार भानुरत्न राजा का पुत्र था। इसके पुत्र का नाम मरुदेव था ( मा. ९.१२.१२ ) । वायु एवं मत्स्य में इसे क्रमशः 'सुप्रतीत' एवं 'सुप्रतीप' कहा गया है। १०६३ Page #1086 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुप्रतीक प्राचीन चरित्रकोश सुबल ३. एक ऋषि, जो विभावसु नामक अपने भाई के शाप ४. कृशाश्व प्रजापति से उत्पन्न दो कन्याओं में से के कारण हाथी बन गया। पश्चात् इसने उसे कछुआ एक, जिसकी बहन का नाम जया था। इन दो बहनों से बनने का शाप दिया (विभावसु ५. देखिये)। आगे चल कर सौ संहारअस्त्रों का निर्माण हुआ, जिन्हें ४. एक दिग्गज, जो ऐरावत के पुत्रों में से एक था विश्वामित्र ऋषि ने प्राप्त किया ( वा. रा. बा. २१.१५)। (म. भी. १३.३३ )। यह हारितवर्णीय था, एवं वरुण ५. आर्टिषेण राजा की स्नुषा, जो उसके भर नामक का अत्यंत प्रिय वाहन था। इसके वंश में नागराज ऐरावत पुत्र की स्त्री थी। वामन, कुमुद, अंजन आदि हाथियों की उत्पत्ति हुई थी। ६. श्रीकृष्ण की एक पत्नी, जिसके द्वारका में स्थित (म. उ. ९५.१५)। इसकी पत्नी का नाम चित्ति था. प्रासाद का नाम सूर्यप्रभ था (म. स.परि.१.२१.१२५४), जिससे इसे प्रहारिन् , संपति एवं पृथु नामक पुत्र उत्पन्न सुप्रवृद्ध-सौवीर देश का एक राजकुमार, जो जयद्रथ हुए ( वायु. ६९.२२५)। | राजा का छोटा भाई था। 'द्रौपदीहरणयुद्ध ' में अर्जुन के ५. (नाग. भविष्य ) एक राजा, जो वायु के अनुसार द्वारा यह मारा गया (म. व. १२१४५% पाठ.)। मथुरा नगरी में राज्य करनेवाले भूमिनंद राजा का सुप्लन् साञ्जय--सहदेव साञ्जय नामक राजा का पुत्र था। नामान्तर। ६. कृतयुग का एक राजा, जिसकी विद्युत्प्रभा एवं सुबंधु गौपायन ( लौपायन)--एक आचार्य, जो कांतिमती नामक दो पत्नियाँ थी। आत्रेय ऋषि की कृपा असमाति राथप्रोष्ठि नामक राजा का पुरोहित था (ऋ. १०. से इसकी पत्नी विद्युत्प्रभा के गर्भ में स्वयं इंद्र ने जन्म ५९.८)। आगे चल कर असमाति राजा ने इसे पौरोहित्यलिया, जो दुर्जय नाम से प्रसिद्ध हुआ। पद से दूर कर, किरात एवं आकुलि नामक आचाया को सुप्रतीक औलुण्ड्य --एक आचार्य, जो बृहस्पति- अपने पुरोहित नियुक्त किये (बृह दे. ७.८३ ) । गुप्त शायस्थि नामक आचार्य का शिष्य, एवं मित्रवर्चस पश्चात् इन नये पुरोहितों ने राजा की प्रेरणा से इसका स्थैयकायण नामक आचार्य का गुरु था (वं. ब्रा. १.)। वध करवाया । किंतु इसके अन्य तीन भाइयों ने कुछ सूक्तों सुप्रतीत एवं सुप्रतीप--इक्ष्वाकुवंशीय सुप्रतीक का उच्चारण कर इसे पुनः जीवित किया (ऋ. १०.५७ ६०; असमाति राथप्रोष्ठि देखिये )। एक वैदिक सूक्तद्रष्टा : राजा का नामान्तर । के नाते भी इसका निर्देश प्राप्त है (ऋ. ५.२४ )। सुप्रभ-एक राजा, जिसे महातेजस् ऋषि ने विष्णू सुबल-गांधार देश का एक सुविख्यात राजा, जो पासना का आदेश दिया था। धृतराष्ट्रपत्नी गांधारी एवं शकुनि का पिता था। यह प्रह्लादसप्रभा--स्वर्भानु (राहू) की एक कन्या, जो | शिष्य नग्नजित् के अंश से उत्पन्न आ था। इस कारण, नमुचि की पत्नी थी (भा. ६.६.३२ )। इसकी सारी संतति धर्मविरोधी एवं धर्मनाशी उत्पन्न हुई। २, वदान्य ऋषि की एक कन्या, जो अष्टावक्र ऋषि | गांधारी का विवाह-इसकी संतानों में से शकुनि एवं की पत्नी थी। गांधारी राज्यशास्त्र में प्रवीण थे (म. आ. ५७.९३३. सुरथ राजा की कन्या, जो नाभाग राजा की पत्नी | ९४)। भीष्म ने हस्तिनापुर के राजा धृतराष्ट्र के लिए थी। इसे कृपावती नामान्तर भी प्राप्त था । एक बार | इसकी कन्या गांधारी की मांग की। धृतराष्ट्र राजा अंधा इसने अगस्य ऋषि को त्रस्त किया, जिस कारण उसने होने के कारण इसके मन में संदेह उत्पन्न हुआ। किन्तु इसे वैश्ययोनि में अधःपतित होने का शाप दिया।| पश्चात् उसका उच्चकुल एवं राज्याधिकार का विचार तदनुसार यह एवं इसका पुत्र भलंदन वैश्य बन गये। कर इसने विवाह के इस प्रस्ताव को मान्यता दी पश्चात् इसका पुत्र बड़ा होने पर इसने उसे क्षत्रियो- (म. आ. १०३.१०-११)। गांधारी के विवाह के चित राजधर्म पर उपदेश किया, जिस कारण सद्गति | साथ, अपनी निम्नलिखित कन्याओं का विवाह भी इसने पा कर- वह पुनः एक बार क्षत्रिय बन गया (मार्क. / धृतराष्ट्र से कराया था:-१. सत्यव्रता; २. सत्यसेना; ११२) । इसकी कथा मार्कडेय में निर्दिष्ट सुदेव राजा | ३. सुदेष्णा; ४. सुसंहिता; ५. तेजश्रवाः ६. सश्रवा; की कथा से काफी मिलतीजुलती प्रतीत होती है | ७. विकृति; ८. शुभा; ९. शंभुवा; १०. दशार्णा (म. आ. (सुदेव १०. देखिये)। २०६४ Page #1087 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुबल प्राचीन चरित्रकोश सुबाहु युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में--इस यज्ञ में यह अपने | था। शत्रुघ्न ने इसे मथुरा (मधुरा) प्रदेश का राज्य पुत्र शकुनि, अचल एवं वृषक के साथ उपस्थित हुआ था | प्रदान किया था (वा. रा. उ. १०८)। (म.स. ३१.६-७)। यज्ञ के पश्चात् नकुल ने अपने ८. (सो. क्षत्र.) एक राजा, जो ऋतध्वज राजा एवं राज्य की सीमा तक इसे सन्मानपूर्वक बिदा किया था। मदालसा का पुत्र था। इसकी कन्या का नाम शशिकला इसका सुभग सौबल नामक और एक पुत्र भी था (सुभग | था, जिसका विवाह सुदर्शन राजा से हुआ था (दे. भा. सौबल देखिये)। ३.२१.२२)। इसने अपने ज्येष्ठ भाई अलर्क पर आक्रमण २. इक्ष्वाकुवंश का एक राजा, जिसका पुत्र जयद्रथ किया था। किन्तु उसने स्वयं ही अपना राज्य इसे दे का साथी था (म. व. २४९.८)। दिया (मार्क. ४१)। ३. गरुड के पुत्रों में से एक (म. उ. ९९.३)। ९. एक वन्यदेशाधिपति, जो किरात, तंगण, कुलिंद ४. एक प्राचीन नरेश (म. आ. १.१७६)। आदि लोगों का अधिपति था। इसका राज्य हिमालय की ५. चंपक नगरी के हंसध्वज राजा के पुत्रों में से एक । | तलहटी में था। पांडवों के वनवासकाल में अर्जुन को छोड़ ६. भौत्य मनु का एक पुत्र । कर बाकी सारे पाण्डव कुछ काल तक यहाँ रहे थे (म. ७. सौराष्ट्र देश के सोमकान्त राजा का एक प्रधान व. १४१.२४-३०; १७४.१५)। भारतीय युद्ध में यह पाण्डवों के पक्ष में शामिल था। गणेश. १.२९)। १०. (सो. वृष्णि.) अक्रूर के पुत्रों में से एक (मत्स्य. ८. कृष्ण एवं बलराम का एक सखा (भा. १०.१५. २०; २२.३१)। . | ४५.३२)। ११. कृष्ण एवं कालिंदी का एक पुत्र । ९. (सो. मगध, भविष्य) एक राजा, जो भागवत एवं १२. एक संशप्तक योद्धा, जो भारतीय युद्ध में वेष्णु के अनुसार सुमति राजा. का पुत्र, एवं सुनीथ राजा दुर्योधन के पक्ष में शामिल था। इसी युद्ध में यादव का पिता था (भा. ९.२२.४५-४८)1 | राजा युयुत्सु ने इसके हाथ तोड़ डाले (म. द्रो. २३. सुबालक-पूरुवंशीय ब्रह्मदत्त राजा के अमात्य | १३-१४)। का पुत्र। १३. (सो. कुरु.) धृतराष्ट्र के शतपुत्रों में से एक । सबाह-रेवत मन्वन्तर के सप्तर्षियों में से एक। भीम ने इसका वध किया (म. भी. ९२.२६; क. ३५. २. एक अप्सरा, जो कश्यप एवं प्राधा की कन्या थी ७-८)। म. आ. ५९.४९)। १४. चोल देश का एक राजा, जिसकी कथा 'दान३. एक नाग, जो कश्यप एवं कदू के पुत्रों में से | माहात्म्य' कथन करने के लिए पद्म में दी गयी है ( पन. एक था। भू. ९४-९९)। ४. चेदि देश का एक राजा, जो वीरबाहु राजा का | १५. एक क्षत्रिय, जिसकी पत्नी का नाम चंद्रकला था पुत्र था । यह दमयंती का मौसेरा भाई था, जिस कारण वह अपने वनवास काल में सैरन्ध्री के रूप में इसके यहाँ १६. काशीदेश का एक राजा, भीमसेन ने अपने पूर्वरही थी (म. व. ६२.१८, ६६.१३)। | दिग्विजय में इसे जीता था। ५. एक राक्षस, जो ताटका राक्षस का पुत्र, एवं १७. स्कंद का एक सैनिक (म. श. ४५)। मारीच का भाई था। इसके पिता का नाम सुंद था। १८. एक प्राचीन नरेश, जिसने अपने जीवन में कभी विश्वामित्र ऋषि के यज्ञ का विध्वंस करने के लिए यह | भी मांस भक्षण नहीं किया था (म. अनु. ११५.६६) । उपस्थित हुआ था। उस समय राम दाशरथि ने इसका १९. अंगराज कर्ण के सुदामन नामक पुत्र का वध किया (म. स. परि. १.२१.५०१)। नामान्तर । . ६. रामसेना का एक वानर। २०. चक्रांग नगरी का एक राजा, जिसने राम दाशरथि । ७. (सू. इ.) एक इक्ष्वाकुवंशीय राजा, जो शत्रुघ्न | के अश्वमेध यज्ञ के पूर्व शत्रुघ्न से युद्ध किया था। अपने दाशरथि राजा का पुत्र था। इसके भाई का नाम शूरसेन | पूर्वजन्म में यह ऋषि था, जो राम की निंदा करने के था (वायु. ८८.१८६)। इसकी पत्नी का नाम सत्यवती | कारण अपनी नयी आयु में एक संसारबद्ध पुरुष बना। प्रा. च. १३४ ] १०६५ Page #1088 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुबाहु प्राचीन चरित्रकोश सुभाषण शत्रुघ्न के साथ हुए युद्ध में हनुमत् ने इसे मूछित | का सारथ्य किया था (म. आ. परि. १.२०)। आगे किया। हनुमत् के स्पर्श के कारण इसका उद्धार हुआ। चल कर अर्जुन की सलाह से एक गोपी का वेश धारण पश्चात् अपने पुत्र दमन को राज्य प्रदान कर, यह स्वयं | कर यह द्रौपदी से मिलने गयी, एवं अपने विवाह के लिए अश्वरक्षा के लिए सेना में शामिल हुआ। इसने उसकी संमति प्राप्त की (म. आ. परि. १.१४. सुबुद्धि--बभ्रुवाहन राजा का अमात्य । २१२-२१४)। सुभग सौबल-गांधारराज सुबल का एक पुत्र, जो द्वारा में कृष्ण ने भी क्रोधित हुए बलराम का मन कनिका छोटा भाई था। भीमसेन ने रात्रियुद्ध में | इस विवाह के लिए अनुकूल बनाया । पश्चात् कुता इसका वध किया ( म. द्रो. १३२.११३६* )। विदुर, युधिष्ठिर आदि ज्येष्ठ लोगों की संमति कृष्ण सुभगा--कश्यर एवं प्राधा (अरिष्टा) की एक ने ही प्राप्त कर ली । इस प्रकार सभी लोगों के आशीर्वाद कन्या । | के साथ इसका एवं अर्जुन का विवाह द्वारका नगरी में २. स्कंद की अनुचरी एक मातृका (म. श.४५.१७)। | संपन्न हुआ (म. आ. २१३.१२)। सुभद्र-(स्वा. प्रिय.) लक्षद्वीप का एक राजा, जो | अर्जुन से विवाह-इसके विवाह के समय कृष्ण ने इध्मजिह्व राजा के पुत्रों में से एक था (भा. ५.२०.३)। अर्जुन को निम्नलिखित वस्तु दहेज के रूप में प्रदान की २. (सो. वस.) वस देव एवं पौरवी के पुत्रों में एक। थी:-एक हजार सुवर्णरथ, दस हजार दुधालु गायें, श्री_ नार , ३. कृष्ण एवं भद्रा का एक पुत्र | एक हजार सुवर्णालंकृत अश्व, पाँच सौ तट्ट, एक हेज़ार ४. एक गोप । इसकी कन्या का नाम भद्रा था, जो दासी, एक लाख बाह्रीकदेशीय अश्व, दस मन सोना, पूर्वजन्म में सत्यतपस् नामक ऋषि थी ( पन. पा. ७२)। एक हज़ार उन्मत्त हाथी (म. आ. २०७८-२०८५०)। ५. एक यक्ष, जो मणिभद्र एवं पुण्यजनी के पुत्रों में ___ परिवार-इसके पुत्र का नाम अभिमन्यु था, जिसका से एक था। विवाह उपप्लव्य नगरी में संपन्न हुआ था (म. आ. ९०. सुभद्रक-रुद्रगणों में से एक । ८५; वि. ६७.२१)। पाण्डवों के वनवास के समय यह सुभद्रा--वसुदेव एवं देवकी की एक कन्या, जो अभिमन्यु के साथ द्वारका नगरी में रही थी (म. व. २३. . कृष्ण एवं बलराम की छोटी बहन थी (म.आ. २११. ४४)। अभिमन्यु की मृत्यु के पश्चात् उसके मृतपुत्रं १४) । स्कंद में इसकी माता का नाम सुप्रभा दिया परिक्षित् को जिलाने के लिए श्रीकृष्ण से प्रार्थना की थी गया है। (म. आश्व. ६७.१३-२४)। नाम--इसे सुभद्रा नाम क्यों प्राप्त हुआ, इस संबंध | अभिमन्यु की मृत्यु के पश्चात् यह सदैव अप्रसन्न एवं में एक चमत्कृतिपूर्ण कथा स्कंद में प्राप्त है। पूर्व हर्षशून्य रहती थी, केवल परिक्षित् को देख कर ही जन्म में यह गालव ऋषि की कन्या माधवी थी। एक बार जीवन धारणा करती थी - (म. आश्र. २८.१५-१६ )। गालव ऋषि इसे विष्णु के पास ले गये, जहाँ यह बाल अपने महाप्रस्थान के पूर्व, परिक्षित एवं वज्र को युधिष्ठिर सुलभता से गद्दी पर बैठ गयी । इस कारण क्रुद्ध हो कर ने इसीके ही हाथों सौंपा दिया था। लक्ष्मी ने इसे अगले जन्म में 'अश्वमुखी' कन्या बनने का | २. सुरभि की एक धेनरूपा कन्या, जो पश्चिम दिशा शाप दिया। इसका जन्म होते ही कृष्ण एवं बलराम ने को धारण करती है (म. उ. १००.९)। ब्रह्म की प्रार्थना कर इसे भद्रमुखी बनाया, जिस कारण ३. दध्यच आथर्वण ऋषि की दासी। इसे 'सुभद्रा' नाम प्राप्त हुआ (स्कंद ६.८१.८४)। | सभटाहरण-बलराम इसका विवाद टर्योधन से सुभव--सुपुष्पित नामक राजा का पिता । करना चाहता था । किन्तु एक बार अर्जुन ने इसे देखा, सुभा--अंगिरस् ऋपि की पत्नी, जिसे बृहत्कीर्ति आदि एवं श्रीकृष्ण के समक्ष इसे अपनी रानी बनाने का अपना | रे मातीनी बनाने का अपना | सात पुत्र उत्पन्न हुए थे (म. व. २०८.१)। मनोदय प्रकट किया (म. आ. २११.२०) । पश्चात् सुभानु-कृष्ण एवं सत्यभामा का एक पुत्र । श्रीकृष्ण की सलाह से रैवतक पर्वत में हुए महोत्सव के | सुभाल-वीरवमन् राजा का एक पुत्र । समय अर्जुन ने यतिवेष में इसका हरण किया (म. सुभाषण--(सू. निमि.) एक राजा, जो भागवंत के आ. २१२)। रैवतक पर्वत से भागते समय इसने अर्जुन | अनुसार युयुध राजा का पुत्र, एवं श्रुत राजा का पिता था १०६६ Page #1089 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुभाषण प्राचीन चरित्रकोश सुमति (भा. ९.१३.२५) । विष्णु में इसे 'सुभास' कहा गया है, ५.(सो. द्विमीढ.) एक राजा, जो सुपार्श्व राजा का एवं इसके पिता का नाम सुधन्वन् दिया गया है। पुत्र, एवं सन्नतिमत् राजा का पिता था (भा. ९. सुभीम--पांचजन्य नामक अग्नि का एक पुत्र, जो यज्ञ | २१.२८)। में विघ्न डालनेवाले पंद्रह 'विनायकों' में से एक माना | ६. (सो. मगध. भविष्य.) एक राजा, जी भागवत के जाता है (म. व. २१०.११ पाठ.)। अनुसार द्युमत्सेन राजा का पुत्र, एवं सुबल राजा का पिता सुभीमा--कृष्ण की एक पत्नी। था (भा. ९.२२.४८)। मत्स्य में इसे 'महिनेत्र' कहा सुभुजा--एक अप्सरा, जो कश्यप एवं मुनि की | गया है। कन्याओं में से एक थी। । ७. एक ऋषि, जो सोमदत्त ऋषि का पुत्र, एवं जनमेजय सुभ्राज--वैवस्वत मनु का पुत्र (म. आ. १.४१)।। ऋषि का पिता था। यह युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में उपस्थित सुभ्राज--सूर्य के द्वारा स्कंद को दिये गये दो पार्षदों | था (भा. १०.७४.८)। में से एक । दूसरे पार्षद का नाम भास्वर था (म. श.४४. | ८. राम दाशरथि के पुत्र लव की पत्नी। २८)। ९. चंपक नगरी के हंसध्वज राजा का मुख्य प्रधान । सुभ्र--(सो. वसु.) वसुदेव एवं रोहिणी का एक पुत्र । १०. बभ्रुवाहन राजा का सेनापति । ११. सावर्णि मनु के पुत्रों में से एक । सुमंगल--अत्रिकुलोत्पन्न एक ऋषि । १२. वरुणसभा का एक असुर (म. स. ९.१३)। सुमंजस--शिव देवों में से एक। १३. (स्वा. प्रिय.) एक राजा, जो भागवत के अनुसार सुमति--(स्वा. प्रिय.) एक राजा, जो भरत एवं गय राजा का पुत्र था। पंचजनी के पुत्रों में से एक था । यह स्वयं जैनधर्मीय १४. नल राजा का पुरोहित (परा. मा. प्रस्तावना)। था, एवं ऋषभदेव का अनन्य उपासक था.। इसी कारण १५. भृगुकुलोत्पन्न एक ब्राह्मण, जिसे अपने दस • जैन लोग इसे देवता मानते है। . हजार जन्मों का स्मरण था। इसने अपने पिता को इसकी वृद्धसेना एवं आसुरी नामक दो पत्नियाँ थी, | आत्मज्ञान सिखाया था (मार्क. १०.१०-१८)। जिनसे इसे क्रमशः देवताजित् एवं देवद्युम्न नामक दो पुत्र उत्पन्न हुए (भा. ५.१५.१-३)। इसके तेजस् नामक १६. अमिताभ देवों में से एक। अन्य एक पुत्र का निर्देश भी प्राप्त है (ब्रह्मांड. २.१४. १७. आभूतरजस् देवों में से एक। १८. सुबाहु राजा का एक प्रधान (पन. पा. २६)। ६२)। १९. एक दुष्ट महाराष्ट्रीय ब्राह्मण, जो वेंकटाचल में . २. (सू. इ.) एक राजा, जो भागवत के अनुसार | स्थित पुष्करिणी तीर्थ में स्नान करने के कारण मुक्त हुआ नृग रोजा का पुत्र, एवं भूतज्योतिस् नामक राजा का पिता (स्कंद. २.१.१४)। था (भा. ९.२.१७)। २०. एक दुष्ट ब्राह्मण, जो पापविनाशन तीर्थ में स्नान ३. (सू. दिष्ट.) विशाल नगरी का एक राजा, जो | करने के कारण मुक्त हुआ (स्कंद. २.१.१४)।। दशरथ राजा का समकालीन था। यह सोमदत्त राजा का | २१. एक ऋषि, जो शरशय्या पर पड़े हुए भीष्म से पुत्र, एवं जनमेजय राजा का पिता था। विष्णु एवं वायु | मिलने उपस्थित हुआ था (म. अनु. २६.४) में इसे क्रमशः 'स्वमति ' एवं 'प्रमाति' कहा गया है,एवं २२. वरुणसभा में उपस्थित एक राक्षस (म. स. इसे जनमेजय राजा कर पुत्र कहा गया है। | ९.१३)। राम एवं लक्ष्मण जब विश्वामित्र के साथ मिथिला नगरी २३. वालिन् वानर की भगिनी।। में जा रहे थे, उस समय वे कुछ काल तक इसके राज्य में सुमति आत्रेय--एक आचार्य, जो विष्णु एवं ब्रह्मांड ठहरे थे ( वा. रा. बा. ४८)। | के अनुसार, व्यास की पुराणशिष्यपरंपरा में से रोमहर्षण ४. (सो. पूरु.) एक राजा, जो भागवत के अनुसार नामक आचार्य का शिष्य था ( वायु. ६१.५६ )। रतिभार राजा का पुत्र, एवं रैभ्य राजा का पिता था (भा. सुमति शैब्या--सगर राजा की पत्नी, जो अरिष्टनेमि ९.२०.६)। | राजा की कन्या थी। सगर राजा से इसे साठ हज़ार पुत्र १८६७ Page #1090 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुमति प्राचीन चरित्रकोश सुमंत्र उत्पन्न हुए थे, जो 'सागर' नाम से प्रसिद्ध थे (ब्रह्मांड. ३. ४. एक केकय राजकन्या, जिसका देवलोक में रहने ६३.१५९)। वाली शांडिल्या देवी से पातिव्रत्य के संबंध में संवाद भागवत में इसे विदर्भराजा की कन्या कहा गया हुआ था (म. अनु. १८५)। है (भा. ९.८.९ )। इसे महती (ब्रह्मांड. ८.६४ ), एवं सुमन्त--(सो. अनु.) एक राजा, जो कूर्म के प्रभा यादवी (मत्स्य. १२.४२) आदि नामान्तर भी अनुसार कौशिक राजा का पुत्र था। प्राप्त थे। और्व ऋषि की कृपा से इसे साठ हज़ार पुत्र सुमन्तु--एक आचार्य, जो व्यास की अथर्व उत्पन्न हुए थे (पद्म. उ. २०-२१; म. व. १०४ वेद शिष्यपरंपरा में से एक शिष्य था। व्यास ने इसे १०७; पहा. उ. २०-२१; ब्रह्मवै. २.६१.१०; सगर महाभारत का भी कथन किया था ( भवि. ब्राह्म. १.३०देखिये)। ३८)। यह जैमिनि नामक आचार्य का पुत्र, एवं सुत्वन्सुमद--एक राजा, जिसने कामाक्षी देवी के कहने (सुन्वन्) नामक आचार्य का पिता था। इसके शिष्यों में पर अपना राज्य शत्रुघ्न को प्रदान किया (पन. पा. कबंध नामक आचार्य प्रमुख था। १२-१३)। सुमध्यमा--मदिराश्च राजा की कन्या, जो हिरण्य- युधिष्ठिर की मयसभा में यह उपस्थित था। इसने हस्त ऋषि की पत्नी थी (म. अनु. १३७. २४)। शतानीक नामक अपने शिष्य को 'भागवत' एवं 'भविष्य सुमन--एक नाग, जो कश्यप एवं कद्र के पुत्रों में से | पुराण' कथन किया था। शरशय्या पर पड़े हुए भीष्म एक था। से मिलने यह उपस्थित हुआ। सुमनस्-(स्वा. उत्तान.) एक राजा, जो उल्मुक एवं २. एक आचार्य, जो व्यास की सामशिष्यपरंपरा में पुष्करिणी के पुत्रों में से एक था ( भा. ४.१३.१७)। से जैमिनि नामक आचार्य का शिष्य था। २. रुद्रसावर्णि मन्वन्तर का एक देवगण | ___३. अट्टहास नामक शिवावतार का एक शिष्य । ३. प्रसूत देवों में से एक। ४. एक स्मृतिकार, जिसके द्वारा रचित स्मृति के गद्य ४. वसिष्ठकुलोत्पन्न एक गोत्रकार । एवं पद्य उद्धरण 'मिताक्षरा', 'विश्वरूप, 'सरस्वती५. वरुणसभा में उपस्थित एक असुर (म. स. | विलास' आदि में प्राप्त हैं। मिताक्षरा में इसके निम्न९.१३)। विषयों से संबंधित उद्धरण प्राप्त है :--१. ब्राहत्त्या ६. यमसभा में उपस्थित एक राजा (म. स. ८.११)।। (३.२३७); २. मद्यपान (३.२५०); ३. सवर्ण का ७. एक किरात राजा, जो युधिष्ठिर की सभा में उपस्थित | अपहरण (३.२५२), ४. परदारागमन (३.२५३था (म. स. ४.२२)। २५४);५. गोहत्त्या (३.२६१)। ८. पितृवर्तिन् के हंसयोनि में उत्पन्न भाइयों में से एक | (पितृवर्तिन् देखिये)। ५. विदर्भ देशाधिपति भीम राजा का नामान्तर (भीम | वैदर्भ देखिये)। सुमना-दशार्णाधिप चारुवर्ण राजा की कन्या, जिस सुमन्तु बाभ्रव गौतम--एक आचार्य, जो वासिष्ठ से भद्रराजपुत्र महानंद, एवं विदर्भराज संऋदनपुत्र | अरेहण्य राजन्य नामक आचार्य का शिष्य, एवं शूष वाह्नेय वपुष्मत् ये दोनोही प्रेम करते थे। इसने अपने स्वयंवर में भारद्वाज नामक आचार्य का गुरु था (वं. वा. २)। नरिष्यंत पुत्र दम को पति के रूप में स्वीकार किया। इस कारण इस से प्रेम करनेवाले दोनों राजपुत्रों ने इसका सुमंत्र--दशरथ के अष्टप्रधानों में से एक । राम दाशरथि हरण किया । कालोपरांत दम ने महानंद का वध कर, के वनवास के समय, यह उसे भागीरथी नदी तक पहुँचाने एवं वपुष्मत् को पराजित कर इससे विवाह किया ( मार्क. । आया था। १३०)। राम दाशरथि के राज्यकाल में यह उसका भी अमात्य २. च्यवन ऋषि की कन्या, जिसके पति का नाम सोम- | था। राम के अश्वमेध यज्ञ के समय, अश्वरक्षणार्थ नौ शर्मन् था। पराक्रमी वीरों का एक दल तैयार करने की आज्ञा राम ३. मधु नामक राजा की पत्नी, जिसके पुत्र का नाम | ने इसे दी थी (पद्म. पा. ११)। वीरजन था। । २. दशरथ का एक सारथि (म. वि. ११.२४२५ )। १०६८ Page #1091 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुमन्यु प्राचीन चरित्रकोश सुमित्रा सुमन्यु-एक राजा, जिसने शांडिल्य ऋषि को खाद्य- | ऋषि ने इसे वीरद्युम्न एवं तनु नामक मुनियों का वृत्तांत सामग्री का पर्वतप्राय ढेर दान के रूप में प्रदान किया सुनाया (म. शां. १२५.८)। (म. अनु. १३७.२२)। पाठभेद--'भूमन्यु'। ६. कुलिंद नगरी के राजा का एक नाम, जिसके पुत्र सुमहायशस्--(सो. नील.) एक राजा, जो मुद्गल | का नाम सुकुमार था। भीम ने अपने पूर्वदिग्विजय में, राजा का पुत्र था। इसे 'ब्रह्मिष्ठ' भी कहा गया है, जो | तथा सहदेव ने अपने दक्षिण दिग्विजय में इसे जीता था संभवतः इसकी उपाधि होगी। | (म. स. २६.१०)। सुमागध--रामसभा में उपस्थित एक विदूषक । ७. सौवीर देश के विपुल नामक यवन राजा का सुमालिन्--एक असुर, जो वृत्र का अनुयायी था। नामान्तर (विपुल ३. देखिये)। यह 'दत्तमित्र' नाम से यह प्रहेति राक्षस का पुत्र था (ब्रह्मांड.३.७.९०)। वृत्र- | भी सुविख्यात था। इंद्र यद्ध में इसने वृत्र के पक्ष में भाग लिया था। असरों ८. अर्जुनपुत्र अभिमन्युका सारथि (म. द्रो. ३४.२९)। के द्वारा किये गये पृथ्वीदोहन में यह बछड़ा बना था (भा. | ९. फेनप नामक भृगुकुलोत्पन्न ऋषि का नामान्तर ६.१०.२१)। (फेनप २. देखिये)। २. रावण का मातामह.एवं मंत्री, जो खश राक्षस का १०. पांचालराज द्रुपद का एक पुत्र, जिसे 'सौमित्र' पुत्र था । इसकी पत्नी का नाम केतुमती था, जिससे इसे नामान्तर भी प्राप्त था। भारतीय युद्ध में जयद्रथ ने इसका निम्नलिखित कन्याएँ उत्पन्न हुई थी :-१. राका; वध किया (म. आ. परि. १.१०३.१०८-१३१)। २. पुष्पोत्कटा; ३. बलाका; ४. कुंभीनसी; ५. कैकसी ११. (सू. इ. भविष्य.) एक राजा, जो मत्स्य के (केशिनी)। इसकी इन कन्याओं में से केशिनी, राका. | अनुसार सुषेण राजा का पुत्र था। पुष्पोत्कटा एवं बलाका का विवाह विश्रवस् ऋषि से, एवं| १२. देवद्युति नामक एक ऋषि का पुत्र (पद्म. उ. कुंभीनसी का विवाह मधु दैत्य से हुआ था (विश्रवस् एवं | १२८)। रावण देखिये)। १३. एक राजा, जो द्रौपदीस्वयंवर में उपस्थित था ३. एक राक्षस, जो कश्यप एवं खशा के पुत्रों में से (म. आ. १७७.९)। एक था। सुमित्र कौत्स–एक वैदिक सूक्तद्रष्टा (ऋ. १०. सुमाल्य-नंदवंश में उत्पन्न एक राजा (नंद ५. १ देखिये)। | सुमित्र वाध्रयश्व-एक वैदिक सूक्तद्रष्टा (ऋ.१०. सुमित्र--(सू. इ. भविष्य.) एक राजा, जो विष्ण. ६९-७०) । वध्रयश्व का वंशज होने के कारण इसे 'वाध्रथश्व' पैतृक नाम प्राप्त हुआ था। इसके वंश के वायु एवं भागवत के अनुसार सुरथ राजा का पुत्र था। यह इक्ष्वाकुवंश का अंतिम राजा माना जाता है, जो पूरु 'सुमित्र' लोगों का निर्देश भी ऋग्वेद में प्राप्त है (ऋ. वंशीय क्षेमक राजा का, एवं मगधवंशीय महानंदी नंद | १०.६९.१; ७-८)। राजा का समकालीन था। इसके ही राज्यकाल में सिकंदर सुमित्रा-मगध देशाधिपति शूर राजा की कन्या, ने भारतवर्ष पर आक्रमण किया था। इसे 'सुमाल्य' नामा- जो इक्ष्वाकुवंशीय दशरथ राजा की तीन पत्नियों में से न्तर भी प्राप्त था (भा. ९.१२.१५-१६)। | एक थी। इसके पुत्रों के नाम लक्ष्मण एवं शतृघ्न थे २. (सो. वृष्णि.) एक राजा, जो विष्णु, पद्म, वायु | (दशरथ देखिये)। एवं भागवत के अनुसार विष्णु राजा का ज्येष्ठ पुत्र, एवं एक अत्यंत विवेकशील एवं धर्मनिष्ठ राजपत्नी के नाते अनमित्र राजा का पिता था (भा. ९.२४.१२)। वाल्मीकि रामायण में सुमित्रा का चरित्रचित्रण किया ३. एक राजा, जो शमीक एवं सुदामिनी के पुत्रों में से | गया है (वा. रा. अयो. ४४.१)। राम के वनगमन के एक था (भा. ९.२४.४४)। समय इसने अपने सकुशल संभाषणों के द्वारा राम की ___४. कृष्ण एवं जांबवती का एक पुत्र, जो यादवीयुद्ध माता कौसल्या को सांत्वना दी थी (वा. रा. अयो. में मारा गया (भा. १०.६१.११)। ४४.३०)। ५. एक हैहय राजा, जिसने ऋषभ ऋषि के साथ मानस में तुलसी के द्वारा विरचित 'मानस' में वर्णित 'आशा' के संबंध में तत्त्वज्ञान पर चर्चा की थी। ऋषभ | सुमित्रा केवल विवेकशील ही नहीं, बल्कि अत्यंत मित १०६९ Page #1092 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुमित्रा प्राचीन चरित्रकोश सुमेधस् भाषणी एवं राजनैतिक जीवन से संपूर्णतया दूर है। सुमुखी-अश्वसेन नाग की माता। खाण्डववनदाह अयोध्या में क्या हो रहा है, इसका कुछ भी पता इस | के समय अर्जुन के द्वारा इसके पुत्र अश्वसेन का वध हुआ सेवापरायण एवं सरलहृदया स्त्री को नहीं है (मानस. | था । इसी कारण यह उससे बदला लेना चाहती थी। २.७३-७४)। भारतीय युद्ध में कर्णार्जुन युद्ध के समय यह कर्ण के २. कृष्ण की एक पत्नी। सर्पमुख बाण पर बैठी, एवं इस बाण के आधार से इसने ३. एक दुराचारी स्त्री, जो शिव को 'बिल्वपत्र' अर्जुन पर हमला करना चाहा । किन्तु . कृष्ण ने इसका चढाने के कारण जीवन्मुक्त हुई (स्कंद. ३.३.२)। दुष्ट हेतु जान कर अपने रथ के अश्व यकायक बिटा दिये, समीढ--(सो. पू.) एक राजा, जो महोत्र राजा | जिस कारण सर्पबाण के साथ यह अर्जन के शिरस्त्राण का पुत्र था। इसके अन्य दो भाइयों के नाम अजमीढ | पर जा टकरायी, एवं वहाँ से भूमि पर गिर पड़ी। पश्चात् एवं पुरुमीढ थे (म. आ. ८९.२६)। अर्जुन ने इसका वध किया (म. क. ६६.५-२४)। समीहळ--एक राजा, जो भरद्वाज ऋषि का आश्रय- २. कुवेरभवन की एक अप्सरा, जिसने अष्टावक्र के दाता था। इसने भरद्वाज ऋषि को सौ गाय दान में दी थी। स्वागतसमारोह में नृत्य किया था (म. अनु.१९.४५)। (ऋ. ६.६३.९)। सुमुष्टि (सो. कुकुर.) एक राजा, जो मत्स्य के सुमुख--गरुड का एक पुत्र (म. उ. ९९.२-१२)। अनुसार उग्रसेन राजा का पुत्र था (मत्स्य. ४४.७८)। २. ऐरावतकुलोत्पन्न एक नाग, जो आर्यक नामक | सुमूर्तिमत्--पितरों का एक समूह, जिसे 'सुकाल' नाग का पौत्र, वामन नामक नाग का दौहित्य, एवं चिकुर | नामान्तर भी प्राप्त था (ह. वं. १.१८)। नामक नाग का पुत्र था (म. आ. ३१.१४)। इसकी ये वसिष्ठ के मानसपुत्र हैं, एवं स्वर्ग के उस पार स्थित पत्नी का नाम गुणकेशी था, जो इंद्रसारथि मातलि की 'ज्योतिर्भासिन' नामक लोक में निवास करते है । श्राद्ध कन्या थी। । करनेवाले ब्राह्मणों के पास इनका आना जाना रहता है। मातलि एवं नारद के द्वारा इसका एवं गुणकेशी का इनकी मानसकन्या का नाम गो था, जो शुक्र की पत्नी विवाह जब निश्चित हो चुका, उसी समय नागों का पुरातन थी (मत्स्य. १५)। शत्रु गरुड इसे अपना भक्ष्य बनाना चाहता था। मातलि सुमेध--एक ऋषि, जो संभवतः नृमेध नामक ऋषि ने इंद्र से प्रार्थना कर इसे अमर बना दिया, एवं इस का भाई था। शकपूत नार्मेध के द्वारा विरचित एक सूक्त प्रकार गरुड के सारे मनोरथ विफल हो गये। में मित्रावरुण के द्वारा इसकी रक्षा करने का निर्देश पश्चात् गरुड क्रुद्ध हो कर इंद्र एवं विष्णु से बदला लेने प्राप्त है। के विचार सोंचने लगा। विष्णु को यह ज्ञात होते ही २. एक ब्राह्मण, जिसने हरिमेध को 'तुलसी माहात्म्य' उन्होंने गरुड की कटु आलोचना की, एवं अपने पैर के | कथन किया था (स्कंद. २.४.८)। अंगुठे से सुमुख नाग को उठा कर उसे गरुड के छाती पर रख दिया। तब से यह हमेशा गरुड के छाती पर ही सुमेधस--भार्गवकुलोत्पन्न एक मंत्रकार । निवास करने लगा (म. उ. १०२-१०३)। २. एक देवगण, जिसमें निम्नलिखित देव शामिल ३. एक ऋषि, जो नारद के साथ युधिष्ठिर की मयसभा थे:-१. अल्पमेधस् ; २. दीप्तिमेधस् ; ३. पृष्णिमेधस् ; में उपस्थित हुआ था (म. स. ५.३)। ४. प्रतिमेधस् ; ५. प्रभुः ६. भूयोमेधस् ; ७. मेधहन्तृ; ४..रामसभा का एक वानर । ८. मेधजस् ; ९.मेधम् ; १०.मेधातिथि; ११. यशोमेधस् ; ५. एक राजा । उद्दण्डता के कारण नष्ट हुए राजाओं १२. सत्यमेधस् ; १३. सर्वमेधस् ; १४. सुमेधस् (ब्रह्मांड. की 'मनुस्मृति' में प्राप्त नामावलि में इसका निर्देश किया | २.३६.५८-६०)। गया है (मनु. ७.४१)। ३. अगत्यकुलोत्पन्न एक गोत्रकार। ६. सुहोत्र नामक शिवावतार का एक शिष्य। ४. चाक्षुष मन्वंतर के सप्तर्पियों में से एक । ७. भरत दाशरथि राजा का प्रधान । ६. एक ऋषि, जिसने राज्य से भ्रष्ट हुए सुरथ राजा ८. धृतराष्ट्र के शत पुत्रों में से एक (म. द्रो. १०२. | को अपने आश्रम में आश्रय दिया था ( सुरथ १३. ६९)। | देखिये)। १०७० Page #1093 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुमेधा . प्राचीन चरित्रकोश सुरथ समेधा-निध्रव काण्व ऋषि की पत्नी, जो च्यवन | राजा ने काशि में स्थित निकुंभ मंदिर का नाश करवाया एवं सुकन्या की कन्या थी। (वायु. ९२.४४-५१; निकुंभ ४. देखिये)। २. सीरध्वज जनक राजा की पत्नी। २. बाहुद राजा की कन्या, जो अनश्वन् राजा के पुत्र ३ औ मा बाटाण की पल्ली औ टेखिये। परिक्षित् (द्वितीय) राजा की पत्नी थी। इसके पुत्र का सुम्तयु-एक आचार्य, जो उद्दालक नामक आचार्य नाम भीमसेन था। इसे 'बहूदा सुयशा' नामांतर भी का शिष्य था (सां. आ. १५.१)। इसके शिष्य का प्राप्त था। पाठभेद-'सुवेषा। नाम बृहदिव आथर्वण था। सुयोधन--धृतराष्ट्रपुत्र दुर्योधन का नामांतर । २. (सू. इ.) एक राजा, जो मत्स्य एवं पद्म के सुयजुस-एक राजा, जो भरत राजा का पौत्र, एवं | अनुसार ककुत्स्थ राजा का पुत्र था (मत्स्य. १२.२८)। भुमन्यु राजा का पुत्र था । इसकी माता का नाम पुष्करिणी | । सुर--एक असुर, जो संह्रादपुत्र बाष्कलि का पुत्र था। था (म. आ. ८९.२१)। | सरकृत्--विश्वामित्र ऋषि का एक पुत्र (म. अनु.४. सुयज्ञ--एक आचार्य, जो शांख्यायनशाखीय गृह्य- | ५७)। सूत्र का रचयिता माना जाता है। इसी कारण ब्रह्मयज्ञांग- | तर्पण में इसका निर्देश प्राप्त है (आश्व. गृ. ३.३.)। सुरक्ष--मगध देश के सुकृत राजा का नामांतर। २. (सो. क्रोष्ट.) यादववंशीय तम राजा का नामांतर सुरघु--एक राजा, जो तपस्या के कारण ज्ञानी बन गया (यो. वा. ५.६१-६४)। (तम २. देखिये )। मत्स्य में इसे पृथुश्रवस् राजा का । पुत्र कहा गया है। सुरजा-एक अप्सरा, जो कश्यप एवं प्राधा की कन्या थी। अर्जुन के जन्मोत्सव में इसने नृत्य किया था (म. ३. उशीनर देश का एक राजा (भा. ७.२.२८)। आ. ५९. ४९ पाठ)। ४. दशरथ का एक पुरोहित, जो वसिष्ठ का पुत्र था। .. ५. राम दशरथि के सभा का एक सदस्य । सुरतचंद्रिका-सौराष्ट्र देश के भद्रश्रवस् नामक राजा की पत्नी (पद्म. ब्र. ११)। ६. (सू. इ.) एक राजा, जो वाडव ऋषि के शाप के | कारण कुष्ठरोगी एवं राज्यभ्रष्ट हो गया (ब्रह्म.वै. २.५५)। सुरता--एक अप्सरा, जो कश्यप एवं प्राधा की कन्या . .७. विष्णु के यज्ञ नामक अवतार का नामांतर (यज्ञ थी। अर्जुन के जन्मोत्सव में इसने नृत्य किया था (म. १. देखिये)। आ. ११४.५२ पाठ.)। सुरथ--एक त्रिगर्तदेशीय राजा, जो जयद्रथ एवं सुयज्ञ शांडिल्य-एक आचार्य, जो कंस वारक्य दुःशला के पुत्रों में से एक था। युधिष्ठिर के अश्वमेधयज्ञ नामक आचार्य का शिष्य था, एवं जयंत वारक्य नामक के समय, अर्जुन इसके देश में अश्वमेधीय अश्व के आचार्य का गुरु था (जै. उ. ब्रा. ४. १७.१)। साथ उपस्थित हुआ। यह समाचार सुन कर, अर्जुन के सुयम--एक राक्षस, जो शतशृंग राक्षस का तृतीय द्वारा किये गये अपने पिता के वध का स्मरण कर यह पुत्र था। अंबरीष राजा के सेनापति सुदेव के द्वारा यह भयभीत हुआ, एवं इसने तत्काल प्राणत्याग किया (म. मारा गया (म. शां. परि. १.११ पाठ)। आश्व. ७७)। किन्तु कृष्ण की कृपा से यह पुनः जीवित . सुयज्ञा-महाभौज नामक पूरुवंशीय राजा की पत्नी, हुआ, एवं युधिष्ठिर के अश्वमेधयज्ञप्तमारोह में उपस्थित जो प्रसेनजित राजा की कन्या एवं 'अयुतनायिन् ' राजा रह सका (जै. अ. १.६१)। की माता थी (म. आ. ९०.१९)। २. एक त्रैगर्त राजकुमार, जो जयद्रथ का छोटा भाई सुयशस्-(मौर्य. भविष्य.) एक राजा, जो भागवत एवं दुर्योधनपक्षीय दस संशप्तक योद्धाओं में से एक एवं विष्णु के अनुसार अशोक राजा का पुत्र, एवं दशरथ था। भारतीय युद्ध में अर्जुन ने इसका वध किया (म. राजा का पिता था (विष्णु. ४.२४.३०)। द्रो. १७.३६)। सुयशा-काशि देश के भीमरथपुत्र दिवोदास राजा | ३. शिबि देश का एक राजा, जो त्रिगर्तराज जयद्रथ की पत्नी जिसने पुत्रप्राप्ति के लिए निकुंभ की आराधना का परम मित्र था। यह सुरत शैब्य नाम से सुविख्यात था, की थी। फिर भी इसे पुत्र प्राप्ति न होने पर, दिवोदास | इसके पुत्र का नाम को टिकाश्य था (म. व. २५०.)। १०७१ Page #1094 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुरथ प्राचीन चरित्रकोश सुराम ४)। जयद्रथ के द्वारा किये गये द्रौपदीहरण के युद्ध | का अधिपति बन गया (दे. भा. ५.३२-३, ब्रह्मवै. २. में नकुल ने इसे परास्त किया (म. व. २५५.१८-२२)। ६२, मार्क. ७८-१०; शिव. उ. ४५)। ४. एक पांचाल राजकुमार, जो द्रुपद राजा का पुत्र था। १४. ( सू. इ. भविष्य.) एक राजा, जो भागवत के भारतीय युद्ध में यह अश्वत्थामन् के द्वारा मारा गया | अनुसार रणक राजा का, विष्णु के अनुसार कुंडक राजा (म. द्रो. १३१.१२६; श. १३.३९)। का, वायु के अनुसार क्षुलिक राजा का, एवं मत्स्य के ५. कृपाचार्य का एक चक्ररक्षक (म. वि. ५२.९२८% अनुसार कुलक राजा का पुत्र था। भागवत एवं विष्णु में पंक्ति. ८)। इसके पुत्र का नाम 'सुमित्र' दिया गया है (भा. ९.१२. ६. यमसभा में उपस्थित एक राजा (म. स. १५; विष्णु ४.२२.९-१०)। ८.११)। सुरथा-उशीनर राजा की पत्नी, जो शिबि राजा की ७. चंपकनगरी के हंसध्वज राजा के पांच पुत्रों में से माता थी। एक । अर्जुन के अश्वमेध-दिग्विजय के समय उसने २. मत्स्यनरेश विराट की प्रथम पत्नी । इसका शिरच्छेद किया था (जै. अ. २०-२१)। सुरपुरंजय-(किलकिला. भविष्य.) एक नागवंशीय ८. कुंडल नगरी का एक राजा, जिसने राम दाशरथि राजा, जो ब्रह्माण्ड के अनुसार वैदेश देश का राजा था। का अश्वमेधीय अश्व पकड़ रक्खा था। इसने हनुमत् , सुरप्रवीर--तप नामधारी पांचजन्य अग्नि का एक सुग्रीव आदि को कैद कर रखा था, एवं शत्रुघ्न को | पुत्र, जो यज्ञ में विघ्न डालनेवाले पंद्रह घिनायकों में से एक . मूछित किया था । पश्चात् स्वयं राम ने युद्ध भूमि में | माना जाता है (म. व. २१०.१३)। प्रविष्ट हो कर, इसे परास्त किया। इसके पुत्र का नाम सुरभ--सारस्वत नगरी के वीरवर्मन् राजा का पुत्र । बलमोदक था (पन. पा. ४९.५२; बलमोदक देखिये)। सुरभि-कामधेनु नामक गौ का नामान्तर, जो प्राचेतस् ९. (सो. ऋक्ष.) एक राजा, जो जह्न राजा का पुत्र, दक्षप्रजापति एवं असिनी की कन्या मानी जाती है । महाएवं विदूरथ राजा का पिता था (मस्य. ५०.३४)। भारत में इसके समुद्र से प्रकट होने का निर्देश प्राप्त है १०. सुरथद्वीप नामक देश का एक राजा, जो कुश- (म. आ. २६९४)। इसी ग्रंथ में अन्यत्र प्रजापति के द्वीपाधिध ज्योतिष्मत् राजा का पुत्र था (मार्क. ५०.२६)। सुरभिगंधयुक्त श्वास से इसकी उत्पत्ति का वर्णन प्राप्त है ११. एक राजा, जो विदर्भ देश के सुदेव राजा का (म. अनु. ७७.१७)। .. पुत्र था (वा. रा. उ. ७८)। इसका निवासस्थान गोलोक में था, जो स्वर्ग से भी १२. एक राजा, जो नाभाग राजा की पत्नी सुप्रभा का बढ़ कर अधिक श्रेष्ठ था। इसने ब्रह्मा की उपासना कर पिता था। गंधमादन पर्वत पर तपस्या करते समय, यह अमरत्व की प्राप्ति की थी (म. अनु. २९.३९)। कश्यप कन्या इसे प्राप्त हुई थी। ऋषि से इसे नंदिनी नामक गाय कन्या के रूप में प्राप्त १३. स्वारोचिष मन्वंतर का एक राजा, जो देवी की हुई थी, जो आगे चल कर वसिष्ठ ऋषि की होमधेनु उपासना करने के कारण अपने अगले जन्म में सावर्णि | बन गयी (म. आ. ९३.८)। इस संसार के सारे गाय मनु नामक राजा बन गया था। एवं बैलों की यह जननी मानी जाती है। इसने कार्तिकेय __एक बार म्लेच्छों में इसके राज्य पर आक्रमण किया, | को एक लाख गायें भेंट के रूप में प्रदान की थी। जिस कारण राज्यभ्रष्ट हो कर यह सुमेधस् ऋषि के आश्रम | सुरभि-इंद्रसंवाद-महाभारत में इसने इंद्र के साथ किये में रहने पर विवश हो गया। आगे चल कर इसे एवं समाधि | एक संवाद का निर्देश प्राप्त है, जहाँ अपने पुत्र वृषभ बैल नामक वैश्य को सुमेधस् ऋषि ने देवी की उपासना करने के साथ एक किसान के द्वारा अत्यंत क्रूरता से व्यवहार का आदेश दिया। तदनुसार आराधना करने पर देवी ने | करने की वात्सल्यपूर्ण शिकायत की गयी है । पत्रस्नेह समाधि वैश्य को स्वर्ग, एवं इसे राज्य पुनः प्राप्त होने से भरपूर इस संबाद का कथन व्यास ने धृतराष्ट्र से किया का आशीर्वाद दिया। __ था (म. व. १०)। देवी के आशीर्वाद के कारण, अपने अगले जन्म में | २. कश्यप एवं क्रोधा की कन्या, जो रोहिणी एवं यह विवस्वत् आदित्य का सावर्णि नामक पुत्र बन गया, | गंधर्वी नामक दो कन्याओं की माता मानी जाती है (म • एवं वैवस्वत मन्वंतर के पश्चात् उत्पन्न हुए सावर्णि मन्वंतर | आ. ६०.५९)। १०७२ Page #1095 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुरभि प्राचीन चरित्रकोश सुरोचन ३. एक गाय, जो ब्रह्मा के हुंकार के उत्पन्न हुई थी। सुराव-एक अश्व, जो इल्वलराजा के द्वारा अगस्त्य इसके बड़ी होने पर इसके वक्ष से पृथ्वी पर दूध टपकने | ऋषि को प्रदान किया गया था (म. व. ९७.१५ पाठ.)। लगा, जिससे ही आगे चल कर क्षीरसागर की उत्पत्ति सुराष्ट्र-एक क्षत्रियवंश, जिसमें रुषर्धिक नामक हुई । इसका निवासस्थान रसातल नामक सातवें भूतल | कुलपांसन राजा उत्पन्न हुआ था (म. उ. ७२.११)। में था। २. दक्षिण पश्चिम भारत का एक लोकसमूह, जहाँ के परिवार--इसकी कुल चार कन्याएँ थी, जो चार कौशिकाचार्य आकृति नामक राजा को सहदेव ने अपने दिशाओं की प्रतिपालक मानी जाति हैं :--१. सुरूपा, दक्षिण दिग्विजय में जिता था (म. स. २८.३९)। (पूर्व दिशा); २. हंसिका ( दक्षिण दिशा); ३. सभद्रा | इस देश में स्थित चमसोद्भेद, प्रभासक्षेत्र, पिंडारक, (पश्चिम दिशा); ४. सर्वकामदुधा (उत्तर दिशा) उज्जयन्त (रैवतक ) आदि विभिन्न तीर्थक्षेत्रों का निर्देश (म. उ. १००)। महाभारत में प्राप्त है (म. व. ८८)। सुरभिमत्--एक अग्नि, जिसे अष्टकपाल नामक ३. दशरथ राजा के अष्टप्रधानों में से एक (वा. रा. हविर्भाग प्रदान किया जाता है। बा. ७)। सुरस-गरुड एवं शुक्री के पुत्रों में से एक। सुरुच-पक्षिराज गरुड का एक पुत्र । .२. एक कश्यपवंशीय नाग (म. उ. १०१.१६ )। सुरुचि--उत्तानपाद राजा की पत्नियों में से एक । सुरसा-एक नाग माता, जो कश्यप एवं क्रोधवशा | २. एक अप्सरा, जो माघ माह में पूषन् नामक सूर्य के का कन्याओं में से एक थी। इसके पत्र का नाम कं| साथ भ्रमण करती है। था । इसने हनुमत् की सत्वपरीक्षा ली थी, जिसमें वह ३. बलि वैरोचन नामक असुर की माता (स्कंद. १.१. सफल होने पर इसने उसे अंगिकृत कार्य यशस्वी होने | १८)। का आशीर्वाद प्रदान किया था (वा. रा. सु. १; स्कंद. ४. कश्यप एवं अरिष्टा का एक पुत्र । ३.१.४६ )। | सुरूप--(सो. क्रोष्टु.) एक पक्षी, जो शुक एवं गरुड सुरा--एक देवी, जो मद्य की अधिष्ठात्रि देवी पानी का पुत्र था (ब्रह्मांड. ३.७.४५०)। जाती है। यह वरुण एवं देवी की कन्या थी. एवं समुद्र- | । २. (सो. क्रोष्टु.) एक राजा, जो असमंजस राजा का पुत्र मंथन के समय वरुणालय (समुद्र) से उत्पन्न हुई थी | था (वायु. ९६.१४१)। (म. आ. १६.३४; विष्णु देखिये)। ३. रौच्य मन्वन्तर के सप्तर्षियों में से एक । सुराजि-रामसभा में उपस्थित एक विदूषक। ४. तामस मन्वन्तर का एक देवगण । , सुराधस् वाषोगिर-एक वैदिक सूक्तद्रष्टा (ऋ. सुरूपा--वैवस्वत मन्वन्तर के मरीचि ऋषि की कन्या. १.१००)। ऋग्वेद में अन्यत्र वृषागिरपुत्र के नाम से | जो वारुणि आंगिरस ऋषि की पत्नी थी। इसका निर्देश अंबरीष, रुद्राश्व आदि ऋषियों के साथ २. दशरथपत्नी कैकेयी का नामान्तर (पद्म. पा.२१६)। (ऋ. १.१००.१७)। ३. मंकिकौशीतकि ऋषि की पत्नियों में से एक। . सुराप-विधृत नामक राजा का प्रधान ( पन. पा. ४. सुरभि की एक धेनुस्वरूपी कन्या, जो पूर्व दिशा को १११)। धारण करती है (म. उ. १००.८)। सुरामित्र--एक मरुत् , जो मरुतों के दूसरे गण में | सुरेणु--संज्ञा का नामान्तर (ह. वं. १.९)। स्कंद में से एक था। इसे संज्ञा की माता कहा गया है। सुरायण--वसिष्ठकुलोत्पन्न एक गोत्रकार । | सुरेश्वर--शिव का एक अवतार, जो उपमन्यु वासिष्ठ सुरारि--एक राजा, जो भारतीय युद्ध में पांडवपक्ष | ऋषि के लिए अवतीर्ण हुआ था (शिव. शत. ३२; में शामिल था (म. उ. ४.२०)। पाठभेद (भांडारकर | उपमन्यु वासिष्ठ १. देखिये)। संहिता)-'अदारि'। सुरैषिण--अंगिराकुलोत्पन्न एक गोत्रकार। सुराल-एक आचार्य, जो वायु एवं ब्रह्मांड के सुरोचन-(स्वा. प्रिय.) शाल्मलीद्वीप का एक अनुसार व्यास की सामशिष्यपरंपरा में से शृंगीपुत्र नामक राजा, जो भागवत के अनुसार इमबाहु राजा का पुत्र था आचार्य का शिष्य था। (भा. ५.२०.९)। प्रा. च. १३५] १०७३ Page #1096 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुरोचना प्राचीन चरित्रकोश सुवर्चला सुरोचना-कंद की अनुचरी एक मातृका (म. श. आयी हूँ, ऐसे मामूली प्रश्नों के उत्तर भी नहीं जानते। ४५.२८)। यदि सचमुच ही मुक्त रहते, तो ऐसी अनभिज्ञता दर्शानेसोचि-वसिष्ठ एवं अरुन्धति का एक पुत्र (भा. वाले प्रश्न तुम नहीं पूछते। जो व्यक्ति मुक्त है, उसे मनुष्य४.१.४१)। | प्राणि कहाँ से आया, एवं कहाँ जानेवाला है इसका ज्ञान सरोमन्--तक्षककुलोत्पन्न एक नाग, जो जनमेजय अवश्य ही होना चाहिए। के सर्पसत्र में दग्ध हुआ था (म. आ. ५२.९)। पाठभेद इस प्रकार अपने तत्त्वपूर्ण संभाषण के द्वारा इसने (भांडारकर संहिता)--' सुमना । जनक राजा का आत्मज्ञान के संबंध का सारा गर्व चूर सुलक्षण--एक राजा, जिसने माण्डव्य ऋषि को कर दिया। अश्व चुराने के इल्जाम में शूली पर चढ़ाया था (पद्म. सुलभा मैत्रेयी--एक तपस्विनी, जो कुणि गर्ग ऋषि उ. १२१)। की कन्या थी। आश्वलायन गृह्यसूत्र के ब्रहायज्ञांगतर्पण सुलभा--एक संन्यासिनी कुमारी, जो प्रधान नामक में इसका निर्देश प्राप्त है, जिससे प्रतीत होती हैं, कि राजा की कन्या थी। यह स्वयं संन्यासमार्ग एवं योग यह कोई सुविख्यात ऋग्वेदी तत्त्ववादिनी स्त्री होगी। मार्ग की पुरस्कर्ती थी, जिसने कर्मयोग एवं गृहस्थाश्रम की प्रशंसा करनेवाले मिथिला नरेश जनक राजा से तत्त्व याज्ञवल्क्य ऋषि की पत्नी मैत्रेयी, एवं जनक राजा के ज्ञान पर वादविवाद की थी। यही संवाद महाभारत में कभी यदी वाट महाभारत में साथ चर्चा करनेवाली सुलभा, इन दोनों ब्रह्मवादिनी स्त्रियों 'सुलभा-जनक संवाद' नाम से प्रसिद्ध है (म. शां. ३०८)। से यह सर्वथा भिन्न स्त्री होगी। सुलभा-जनक संवाद--कर्मयोग एवं गृहस्थाश्रम की सुलोचन--(सो. कुरु.) धृतराष्ट्र का एक पुत्र, जो प्रशंसा करते हुए जनक ने इसे कहा, 'मैं स्वयं गृहस्थाश्रमी भारतीय युद्ध में भीमसेन के द्वारा मारा गया (म. भी.. हैं, फिर भी मेरा मन विषयोपभोग की इच्छा से संपूर्णतया ६०.३२)। अलिप्त है। जिस प्रकार भूमि से बाहर रहा बीज अंकुरित सुलोचना-रावणपुत्र इंद्रजित् की पत्नी, जो अपनी नहीं होता है, उसी प्रकार मेरे मुक्त मन में विषयों की पति के मृत्यु के पश्चात् सती हो गयी। उत्पत्ति नहीं होती है। २. प्लक्षद्वीप के गुणाकर राजा की कन्या। इसका विवाह इतना कह कर जनक ने कहा कि, उपर्युक्त तत्वज्ञान इसे तालध्वज नगरी के विक्रम राजा के माधव नामक पुत्रं से पंचशिख नामक आचार्य के द्वारा प्राप्त हुआ है। आगे हुआ था (पन. क्रि. ५-६; गुणाकर १. एवं माधव चल कर जनक राजा ने अनेकानेग व्यंग्य वचन कह कर | देखिये)। इसका तिरस्कार किया, एवं इसके नाम आदि के संबंध ३. हरिस्वामिन् नामक एक ब्राह्मण की कन्या, जिसकी में पृच्छा कर इसे कोई अगण्य एवं अनधिकारी स्त्री कथा काशीक्षेत्र में स्थित ज्ञानवापी का माहात्म्य कथन साबित करने का प्रयत्न किया। करने के लिए स्कंद में प्राप्त है ( स्कंद. ४.१.३३)। जनक राजा के उपर्युक्त अपमानजनक संभाषण से सुलोमन्--एक व्याध, जो अमावस्या के दिन नदी यह जरा भी विचलित न हुई। इसने अत्यंत शान्ति | में स्नान करने के कारण मुक्त हुआ (पम. भ. ३०)। से अपनी गुरुपरंपरा का परिचय दिला कर, अपने संन्यास | एवं योगशास्त्र विषयक तत्त्वज्ञान का अत्यंत सुस्पष्ट निवेदन | सुवंश-(सो. वसु.) वसुदेव एवं श्रीदेवा का एक किया, 'जिस प्रकार जनुकाष्ठ एवं जलबिंदुओं का संबंध | पुन ( मा. १.४.११)। तत्कालिक रहता है, एवं इन दोनों की मिलावट असंभव २. (सो. भज.) एक राजा, जो पद्म के अनुसार है, उसी तरह आत्मा एवं इंद्रियोपभोग का एक साथ | समौजम् राजा का पुत्र था। रहना असंभव है। इसी कारण मेरा यह कहना है कि, सुवक्त्र--स्कंद का एक सैनिक ( म. श. ४४ )। राजा का कर्तव्य निभानेवाले व्यक्ति को मोक्षज्ञान सुवचोतथ्य-अंगिरसकुलोत्पन्न एक प्रवर । असंभव है । यद्यपि वह उसे प्राप्त भी हो जाये, तो| सुवर्चला--देवल ऋषि की ब्रह्मचारी कन्या। अपने, टिकना असंभव है। पिता के द्वारा आयोजित किये गये स्वयंवर में, इसने सुलभा ने आगे कहा, 'तुम स्वयं को मोक्षधर्म के | श्वेतकेतु औद्दालकि का वरण किया। इस स्वयंवर के समय ज्ञानी कहते हो, फिर भी मैं कौन हूँ, मैं कहाँ से | इसका श्वेतकेतु के साथ किया तत्त्वज्ञान पर संवाद, महा १०७४ Page #1097 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुवर्चला प्राचीन चरित्रकोश सुवर्ण . भारत में 'श्वेतकेतु सुवर्चला संवाद' नाम से प्राप्त है (म. ये तीनों क्षत्रिय लोग अपने योगसामर्थ्य के कारण कलियुग शां.-३०४, २२८.२२९)। के अंत तक क्षत्रिय राजा रहेंगे। यह संवाद महाभारत के केवल कुंभकोणम् संस्करण इनमें से ऐश्वाकव मरु को उन्नीसवें युगचक्र के प्रारंभ में भी प्राप्त है; भांडारकर संहिता में वह परिशिष्ट में | मैं वर्चस् नामक पुत्र उत्पन्न होनेवाला है, जो आगे चल कर दिया गया है। समस्त क्षत्रियकुलों का उद्धार करेगा (ब्रह्मांड. ३.७४, २. परमेष्ठिन् राजा की पत्नी, जिसके पुत्र का नाम २५१)। अन्य पुराणों में देवापि के पुत्र का नाम सपौल प्रतीह था (भा. ५.१५.३)। । अथवा सत्य दिया गया है (वायु. ९९.४३८, मत्स्य, ३. परमेष्ठिन् पुत्र प्रतीह राजा की पत्नी । इसके | २७३.५६-५८)। प्रतिहत आदि तीन पुत्र थे (भा. ५.१५.५)। ९. एक ऋषि, जो भूति ऋषि का भाई था। एकबार ४. सूर्य की पत्नी (म. अनु. १४६.५: विष्णु.| इसने एक यज्ञ का आयोजन किया, जिसके लिए इसने बडे ३.८)। सम्मान से भूति ऋषि को निमंत्रण दिया था (मार्क.९६)। सुवर्चस्-दधीचि ऋषि की पत्नी । इसके पति । १०. एक राजा, जो सुकेति राजा का पुत्र, एवं सुनामन् दधीचि ऋषि की अस्थियों को इंद्र ने इसे धोखा राजा का भाई था। अपने भाई एवं पिता के साथ यह दे कर प्राप्त की (दधीचि देखिये)। देवताओं का, द्रौपदीस्वयंवर में उपस्थित था (म. आ. १७७.९)। विशेषतः इंद्र का यह स्थार्थी कृत्य देख कर इसने उन्हें | ११. एक अग्नि, जो पांचजन्य नामक अग्नि का पुत्र था पशु बनने का एवं उनका निर्देश होने का शाप दिया। (म. व. २१०.१३)। पश्चात् यह अपने पति के साथ सती होने के लिए १२. एक ऋषि, जिसने सत्यवान् एवं सावित्री के विरहप्रवृत्त हुई। उसी समय आकाशवाणी से इसे ज्ञात दुःख से व्याकुल हुए द्युमत्सेन राजा को सांत्वना प्रदान की • हुआ कि, यह गर्भवती है। यह सुन कर इसने पत्थर से | थी (म. व. २८२.१०)। अपना उदर विदीर्ण कर गर्भ बाहर निकाला, एवं उसे | १३. गरुड का एक पुत्र । एक पीपलवृक्ष के पास रख कर, यह पति के मृत देह के | १४. हिमवत् के द्वारा स्कंद को दिये गये दो पार्षदों में साथ सती हो गयी (प. उ. १५५, शिव. शत. २४-२५)। से एक। दूसरे पार्षद का नाम अतिवर्चस् था (म. ___ इसके गर्भ से उत्पन्न हुआ दधीचि ऋषि का पुत्र, श. ४५.४२)। आगे चल कर पिप्पलाद नाम से सुविख्यात हुआ | सुवर्चस् वासिष्ठ--एक ऋषि, जो कुरुवंशीय सम्राट (पिप्पलाद १. देखिये)। संवरण का पुरोहित था (म. आ. ७९.३६ )। २. (सू, निमि.) एक राजा, जो वायु के अनुसार सुवर्ण-एक तपस्वी ब्राह्मण, जिसकी कांति सुवर्ण के स्वागत राजा का पुत्र था। समान थी । इसने मनु से पुष्प, धूप दीप आदि के दानविषय ३. (सू. दिष्ट.) दिष्टवंशीय करंधम राजा का नामान्तर में चर्चा की थी (म. अनु. १५५)। (करंधम २. देखिये)। २. सावर्णि मनु का एक पुत्र । ४. (सो. कुरु.) धृतराष्ट्र का एक पुत्र, जो भारतीय ३. रुद्रसावर्णि मन्वंतर का एक देवगण । युद्ध में भीमसेन के द्वारा मारा गया (म. क. ६२.५)। ४. इक्ष्वाकुवंशीय सुतपस् राजा का नामांतर (सुतपस् ५. कौरवपक्ष का एक योद्धा, जो भारतीय युद्ध में | १५. देखिये)। अभिमन्यु के द्वारा मारा गया (म. द्रो. ४७. १५)। । ५. एक ऋषि, जो कुशध्वज ऋषि के दो पुत्रों में से ६. ब्रह्मसावर्णि मनु का एक पुत्र । एक था । इसने पैर के अंगुठे पर खड़े रह कर तीन ७. रुद्रसावर्णि मनु का एक पुत्र । अक्षरों के एक मंत्र का जाप किया, जिस पुण्य के बल से ८. एक राजा, जो ऐश्वाकव मरु नामक राजा का पुत्र | अगले जन्म में इसे सुवीर नामक गोप के घर एक गोपी माना गया है। पौराणिक साहित्य के अनुसार, कलियुग | का जन्म प्राप्त हुआ (पा. पा. ७२)। में पृथ्वी के समस्त क्षत्रिय लोग विनष्ट होनेवाले है, एवं ६. एक राजा, जिसकी कथा .'ॐ नमो नारायण' विद्यमान क्षत्रियकुलों में से पौरव, देवापि एवं ऐश्वाकव मरु मंत्र का माहात्म्य कथन करने के लिए पद्म में दी गयी है नामक केवल तीन ही वंश इस संहार से बचने वाले हैं। (पन.कि.१०)। १०७५ Page #1098 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन चरित्रकोश सुवर्ण ७. एक देवगंधर्व, जो अर्जुन के जन्मोत्सव में उपस्थित था । सुवर्णचूड -- गरुड का एक पुत्र । सुवर्णरेतस्-- विश्वामित्रकुलोत्पन्न एक ऋषि । सुवर्णवर्मन् काशिराज- काशी देश का राजा, जो जनमेजय पारिक्षित (अंतिम) की पत्नी वपुष्टमा का पिता था। तक्षक नाग के द्वारा परिक्षित् का वध होने के बाद, मंत्रियों ने बालराजा जनमेजय को हस्तिनापुर के राजगद्दी पर बिठाया, एवं उसका विवाह इसकी कन्या वपुष्टम्ग से किया । इसके शतानीक एवं शंख नामक अन्य दो पुत्र भी थे (म. आ. ४०.८- ९; ९०.९५ ) । सुवर्णशिरस् - एक महर्षि, जो पश्चिम दिशा में रह कर अज्ञात-अवस्था में सामगान करता है ( म.उ. १०८.१२ ) । सुवर्णष्ठीविन - एक राजा, जो संजय शैव्य ( चैत्य ) राजा का पुत्र था। इसका धर्म, मल, मूत्र, आदि सारा मलोत्सर्ग सुवर्णमय रहता था। इसी कारण, चोरों ने इसका अपहरण किया, एवं इसका वध किया. ( म. द्रो. परि. १.८.३१०-३२५ ) । आगे चल कर नारद ने इसे पुनः जीवित किया (म. द्रो. ७१.८-९) । महाभारत में अन्यत्र प्राप्त कथा के अनुसार, इसे हिरण्यनाभ नामान्तर प्राप्त था, एवं यह गुणों में साक्षात् इंद्रतुल्य था । अपने गुणों के कारण, भविष्य में यह कहीं इंद्रपद प्राप्त न कर ले, इस आशंका से इंद्र ने व्याघ्र के द्वारा इसका वध किया | मृत्यु के समय इसकी आयु पंद्रह वर्षों की थी। आगे चल कर इसके पिता संजय के द्वारा प्रार्थना किये जाने पर नारद ने इसे पुनः जीवित किया । सुवीर सुवर्णाभ - एक दिक्पाल, जी स्वारोचिप मनु का पौत्र एवं शंखपद का पुत्र था। इसे पिता ने सात्यत धर्म का उपदेश दिया था ( म. शां. ३३६.२५) । पाठभेद ( भांडारकर संहिता ) -- ' सुधर्मन् '। सुवर्णा -- एक इक्ष्वाकुवंशीय राजकन्या, जो पूरुवंशीय सुहोत्र राजा की पत्नी, एवं हस्तिन् राजा की माता थी म. आ. १०.३६ ) । सुवर्मन् -- (सो. कुरु. ) धृतराष्ट्र का पुत्र, जो भीम के द्वारा मारा गया ( म. द्रो. १०२.९८ ) । २. द्विमीढवंशीय सुवर्मन् राजा का नामान्तर (सुधर्मन ८. देखिये) । सुवर्मन् त्रैगर्त - त्रिगर्तराज सुशर्मन् का एक भाई ( म. वि. ३२.४ ) । सुवाच् - एक ऋषि, जो पाण्डवों के वनवास काल में द्वैतवन में उनके साथ निवास करता था (म. व. २७.२४) । २. (सो. कुरु. ) धृतराष्ट्र का एक पुत्र । सुवासन - ब्रह्मसावर्णि मन्वन्तरं का एक देवगण | सुवास्तुक-पाण्डवपक्ष का एक राजा (म. उ. ४.१३ ) । सुवाह - स्कंद का एक सैनिक ( म. श. ४५ ) । सुवित्त- -- एक ऋषिक। सुवित्ति -- अंगिराकुलोत्पन्न एक मंत्रकार । पाठभेद'सुचित्ति' । ' सुविभु - (सो. क्षत्र. ) एक राजा, जो विष्णु एवं वायु के अनुसार विभु राजा का पुत्र, एवं सुकुमार राजा का पिता था ( वायु. ९२.७१ ) । इसकी सुकुमारी नामक एक बहन थी, जो नारद की पत्नी थी। इसकी अकाल मृत्यु के पश्चात् पुत्रशोक से व्याकुल हुए संजय राजा को, नारद ने सोलह श्रेष्ठ प्राचीन राजाओं के जीवनचरित्र (पोडश राजकीय), एवं उनकी मृत्यु की कथाएँ सुनाई, एवं हर एक श्रेष्ठ व्यक्ति के जीवन में मृत्यु अटल बता कर उसे सांत्वना दी । नारद के द्वारा वर्णित यही 'षोडश राजकीय' आख्यान अभिमन्यु वध के पश्चात् व्यास के द्वारा युधिष्ठिर को कथन किया गया था ( म. शां. परि. १ ) । | | सुवीर - सोमवंशीय तोंड्मान् राजा का नामांतर | २. एक राजा, जो सौवीरी नामक राजकन्या का पिता, एवं मरुत्त राजा की श्वशुर था ( मार्क. १२८ ) । ३. (सो. द्विमी. ) द्विमीढवंशीय सुनीथ राजा का नामान्तर ( सुनीथ २. देखिये) । १०७६ ४. (सो. कोटु. ) एक राजा, जो देवश्रवस एवं कंसावती ज्येष्ठ पुत्र था ( भा. ९.२४.४१ ) । ५. (सु. इ. ) एक राजा, जो द्युतिमत् राजा का पुत्र, एवं दुर्जय राजा का पिता था ( म. अनु. २.१० ) । पौराणिक वंशावलियों में इसका नाम अप्राप्य है। का ६. एक क्षत्रियवंश, जिसमें अजविंदु नामक एक कुलांगार राजा उत्पन्न हुआ था (म. उ. ७२.१३ ) । ७. एक राजा, जो क्रोधवश संज्ञक दैत्य के अंश से उत्पन्न हुआ था ( म. आ. ६१.५५)। ८. वाराणसी में रहनेवाला एक वर्णक, जिसकी पत्नी का नाम चित्रा था ( चित्रा ४. देखिये) । Page #1099 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुवीर प्राचीन चरित्रकोश सुशमन् ९. एक गोप, जिसकी कन्या के रूप में सुवर्ण ऋषि ने सुव्रता-दक्ष एवं वीरिणी की एक कन्या, जिसे जन्म लिया था (सुवर्ण ५. देखिये)। दक्ष, धर्म, ब्रह्मा एवं रुद्र से क्रमशः दक्षसावर्णि, धर्मसुवीर शैब्य-(सो. अनु.) सौवीर देश का एक | सावर्णि, ब्रह्मसावर्णि एवं रुद्रसावर्णि नामक पुत्र उत्पन्न राजा, जो विष्णु, मत्स्य एवं भागवत के अनुसार शिबि | हुए थे (ब्रह्मांड, ४.१.३९-५१)। राजा का पुत्र था। इसीके ही कारण इसके राज्य को | सुशंख-एक गंधर्व, जिसके शाप के कारण सुनीथा 'सौवीर' नाम प्राप्त हुआ था। रानी को वेन नामक दुष्ट पुत्र उत्पन्न हुआ था। सुवेधन--पांडव पक्ष का एक राजा (म. द्रो. १३३. सुशर्मन्- कर्ण का एक पुत्र, जो भारतीय युद्ध में ३७)। | नकुल के द्वारा मारा गया। पाठभेद (भांडारकर संहिता)सुवेधस् शैरिषि--एक वैदिक सूक्तद्रष्टा (ऋ. १०. 'सुषेण'। १४७)। २. (कण्व. भविष्य.) कण्ववंश का अंतिम राजा, जो सवेषा-कुरुवंशीय परिक्षित राजा की बाहुदा सुयशा | अपने बलि नामक अमात्य के द्वारा मारा गया (भा. १२. नामक पत्नी का नामान्तर (परिक्षित ३. देखिये)। १.२२)। २. दशरथ राजा की पत्नी, जो पद्म के अनुसार शत्रुघ्न । ३. धर्मसावर्णि मनु का एक पुत्र । की माता थी। ४. एक दुराचारी ब्राह्मण, जिसकी कथा भगवद्गीता के . सुव्रत-पुलह एवं श्वता का एक पुत्र । प्रथम अध्याय का माहात्म्य कथन करने के लिए पद्म में २. (सो. उशी.) एक राजा, जो मत्स्य एवं वायु के | दी गयी है ( पद्म. उ. १७५)। अनुसार उशीनर राजा का पुत्र था (वायु. ९९.२०)। ५. एक ब्राहाण, जो विशाल नामक ब्राह्मण का पुत्र था। ३. एक आचार्य, जिसे पराशर ऋषि ने 'पराशर स्मृति' | बलाक नामक राक्षस ने इसकी पत्नी का हरण किया, कथन की थी। | जिसे आगे चल कर उत्तम नामक राजा ने छुड़ा कर इसे ४. (सो. मगध. भविष्य ) एक राजा, जो भागवत वापस दे दिया (मार्क. ६६.६७)। एवं ब्रांड के अनुसार क्षेम राजा का, एवं विष्णु के सुशर्मन त्रैगर्त प्रस्थलाधिपति--त्रिगत देश का • अनुसार क्षेम्य राजा का पुत्र था । वायु एवं मत्स्य में इसे सुविख्यात राजा, जो वृद्धक्षेम राजा का पुत्र था। इसी क्रमशः 'भुव्रत' एवं 'अनुव्रत' कहा गया है। इसके | कारण, इसे 'वार्धक्षेमि' पैतृक नाम प्राप्त था । यह एवं इसके पुत्र का नाम धर्मसूत्र था । इसने ६४ वर्षों तक राज्य सत्यरथ, सत्यधर्मन् , सत्यवर्मन् , सत्येषु एवं सत्यकर्मन् क्रिया (भा. ९.२२.४८)। नामक पाँच भाई अत्यंत पराक्रमी थे, एवं स्वयं को ...(सो. मगध, भविष्य.) एक राजा, जो वायु के 'संशप्तक' योद्धा कहलाते थे। महाभारत में अन्यत्र इसे अनुसार नृपति राजा का पुत्र था। 'त्रिगर्त' एवं 'प्रस्थलाधिपति' भी कहा गया है (म. द्रो. ६. रौच्य मनु का एक पुत्र, जो मृत्यु के पश्चात् षष्ठी १६.१९)। नामक देवी की कृपा से पुनः जीवित हुआ (ब्रह्मवे. २. विराट से युद्ध --यह शुरु से ही दुर्योधन का पक्षपाती था, एवं पाण्डवों से द्वेष करता था। पाण्डवों के अज्ञात७. एक ऋषि, जिसने विदूरथ राजा को कुजभ राक्षस वास में, इसने दुर्योधन के लिए विराट की गायों का हरण की जानकारी बतायी थी (मार्क. ११३)। किया था, एवं विराट को कैद कर दुर्योधन के सम्मुख ८. मित्र के द्वारा स्कंद को दिये गये दो पार्षदों में पकड़ कर लाया। किन्तु पश्चात् भीम ने इस पर हमला से एक । दूसरे पार्षद का नाम सत्यसंध था (म. श. कर इसे कैदी बनाया, एवं इसे युधिष्ठिर के सामने लाया। ४४.७)। उस समय युधिष्ठिर ने इसे बिना किसी शर्त के मुक्त किया ९. विधात के द्वारा स्कंद को दिये गये दो पार्षदों में (म. वि. २९-३२)। से एक । दूसरे पार्षद का नाम सुकर्मन् था। ___ भारतीय युद्ध में--इस युद्ध में यह कौरवपक्ष में १०. एक राजा, जो पूर्वजन्म में विदिशा के रुक्मभूषण | शामिल था, एवं इसने एवं इसके भाइयों ने अर्जुन का राजा का पुत्र था (पन. भू. २०-२२)। वध करने की प्रतिज्ञा की थी। किन्तु यह एवं इसके सारे १०७७ Page #1100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुशर्मन् प्राचीन चरित्रकोश सुश्रुत भाई अर्जुन के द्वारा मारे गये (म. द्रो. २७; श. सुशोभना--मण्डूक राज की कन्या, जो इक्ष्वाकुवंशीय २६.४४)। परिक्षित् राजा की एक पत्नी थी। इसके शल, दल एवं संशप्तक योद्धा--महाभारत के द्रोणपर्व में 'संशप्तक | बल नामक तीन पुत्र थे। पर्व' नामक एक उपपर्व है, जहाँ इसे एवं इसके पाँचों । २. चेदिराज की कन्या, जो मरुत आविक्षित की पत्नी भाइयों को 'संशप्तक योद्धा' कहा गया है (म.द्रो. १६- | थी (मार्क. १२८)। ३१)। रण में अपने गिशिष्ट प्रतिपक्षी का वध करने की, सुश्यामा--एक अप्सरा, जो आर्टिषेण पुत्र प्रतिध्वज एवं उनमें यशस्वितता प्राप्त न होने पर आत्महत्या करने | की पत्नी थी। इसकी कन्या का नाम वृद्धा था (ब्रह्म. की प्रतिज्ञा करनेवाले वीरों को 'संशप्तक योद्धा' कहा | १०७; वृद्धा देखिये)। जाता था (म. द्रो. १६.३९)। इन योद्धाओं की यह । सुश्रम-(सो. मगध. भविष्य.) मगध देश का एक प्रतिज्ञा होमहवन के साथ, एवं अग्निदेवता की साक्षी में | राजा, जो विष्णु के अनुसार धर्म का, एवं ब्रह्मांड के ली जाती थी। प्रतिज्ञाग्रहण के पश्चात् ये वीर दर्भ से अनुसार नृपति राजा का पुत्र था। बने हुए वस्त्र धारण करते थे, एवं अपने वस्त्रों पर अग्नि सुश्रवस्--एक राजा, जिसने एक साथ साट राजाओं चर्चित घृत का प्रयोग करते थे (म. द्रो. १६. | के साथ युद्ध किया था। इसी युद्ध में इंद्र ने इसकी रक्षा २१-३७)) की थी (ऋ. १.५३.९)। जयद्रथवध के समय अर्जुन ने भी इसी प्रकार की २. एक आचार्य, जो उपगु सौश्रवप्त नामक आचार्य प्रतिज्ञा की थी, किन्तु वहाँ उसे संशप्तक नहीं कहा गया है का पिता था (पं. ब्रा. १४.६.८)। (म. द्रो. ५१.३४-३७)। । ३. देवताओं का एक गुप्तचर, जिसने कात्यायन ऋषि सुशर्मन् वार्धक्षेमि--पांचाल देश का एक योद्धा, | के तप की वार्ता सरस्वती को बतायी थी। इसपर सरस्वती जो भारतीय युद्ध में पाण्डव पक्ष में शामिल था (म. उ.ने कात्यायन को दृष्टान्त दे कर कहा, 'जिस ज्ञान की १६८.१६) । वृद्धक्षेम का पुत्र होने के कारण, यह तुम्हें अपेक्षा है, वह सारस्वत मुनि तुम्हें बतायेंगे' (स्कंद, 'वार्धक्षेमि' नाम से ही अधिक सुविख्यात था ( वाधक्षमि | १२२। १. देखिये )। ४. अभूतरजस् देवों में से एक। सुशर्मन् शांशपायन--एक आचार्य, जो वायु के ५. एक प्रजापति, जो ब्रह्मा के मानसपुत्रों में से एक अनुसार, व्यास की पुराणशिष्यपरंपरा में से रोमहर्षण | था (वायु. ६५.५३ )। नामक आचार्य का शिष्य था (वायु. ६५.५६)। सुशांति--(सो. अज.) एक राजा, जो विष्णु एवं सुश्रवस् कौश्य-एक आचार्य, जो कुश्रि वाजश्रवस नामक आचार्य का समकालीन था (श. वा. १०.. भागवत के अनुसार शांति राजा का पुत्र, एवं पुरुज राजा का पिता था (भा. ९.२१.२१)। २. (सो. नील.) एक राजा, जो मत्स्य एवं वायु के सुश्रवस वार्षगण्य-एक आचार्य, जो प्राप्तरह अनुसार नील राजा का पुत्र था (मत्स्य. १५०.१)। नामक आचार्य का शिष्य, एवं साति औष्ट्राक्षि नामक | आचार्य का गुरु था (वं. बा.१)। ३. उत्तम मन्वन्तर का इंद्र। सुशारद शालंकायन--एक आचार्य, जो ऊर्जवत् सुश्रवा-एक विदर्भ राजकन्या, जो कुरुवंशीय औपमन्यव नामक आचार्य का शिष्य, एवं श्रवणदत्त कोहल जयत्सेन राजा की पत्नी थी । इसके पुत्र का नाम अवाचीन नामक आचार्य का गुरु था (वं. बा. १)। था (म. आ. ९०.१७ पाट.)। सुशील--एक गंधर्व (पा. स्व. २२; उ. १२८)। सुश्रवा सोबला---गांधारराज सुबल राजा की कन्या, सुशीला--स्वर्वेदी नामक गधर्व की कन्या (पद्म, जो धृतराष्ट्र की पत्नियों में से एक थी। स. २२)। पद्म में अन्यत्र इसे सुशील गंधर्व की कन्या सुश्रुत-एक सुविख्यात शल्यचिकित्साशास्त्रज्ञ, जो कहा गया है (पद्म. उ. १२८)। 'सुश्रुत संहिता' नामक विख्यात ग्रंथ का रचियता माना २. दशपुर में रहनेवाले कृष्णदेव नामक ब्राह्मण की जाता है । यह गाधि राजा का पौत्र, एवं विश्वामित्र का पुत्र पत्नी (पन्न. ब्र. १२)। | था (म. अनु. ४.५५)। यह शल्यचिकित्सा के आद्य १०७८ Page #1101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन चरित्रकोश सुश्रुत आचार्य धन्वन्तरि दिवोदास के सात शिष्यों में से एक प्रमुख शिष्य था ( गरुड. १.१७५ ) । अन्य पुराणों में "इसे शालिहोत्र का शिष्य कहा गया है (अप्रि. २९२. ४४) । सुत संहिता आयुर्वेदीय शल्य चिकित्साशास्त्र का आद्य आचार्य धन्वन्तरि दिवोदास माना जाता है, जिसके सात शिष्यों ने मिलकर आयुर्वेदीय 'शत्य चिकित्सापद्धति' का सर्वप्रथम प्रसार किया। इन शिष्यों में से सुश्रुत ही एक आचार्य ऐसा है कि, जिसका 'सुश्रुत संहिता' नामक ग्रंथ आज उपलब्ध है । इस ग्रंथ में, आचार्य धन्वन्तरि से प्राप्त शल्यमूल आयुर्वेदीय ज्ञान इसने तंत्ररूप में संग्रहित किया है। यह ग्रंथ पूर्वतंत्र एवं उत्तरतंत्र नामक दो भागों में विभाजित किया गया है । - उपलब्ध 'सुश्रुत संहिता' से प्रतीत होता है कि, सुश्रुत के द्वारा विरचित आव 'सुश्रुतसंहिता' के प्रतिसंस्करण का कार्य नागार्जुन के द्वारा हुआ था (सु. सं. वि. २.१२) । 'वृद्ध सुश्रुत' नामक और एक संहिता उपलब्ध है, जो संभवतः इसके उत्तरकालीन किसी आचार्य की रचना होगी । समवर्ती आचार्य - सुश्रुता संहिता में, औषधेनेव नामक धन्वंतरि के और एक शिष्य का निर्देश समवर्ती आचार्य के नाते प्राप्त है (सु. सं. सू. ४.९ ) । इसके साथ ही उरभ्र पौष्कलावत, करवीर्य, वैतरण आदि धन्वंतरि - शिष्यों का भी निर्देश भी इसके ग्रंथ में प्राप्त है । सुषेण सुषेण धृतराष्ट्रकुलोत्पन्न एक नाग, जो जनमेजय के सर्पसत्र में दग्ध हुआ था (म. आ. ५७.१६ ) । २ (सो. पूरु. ) एक राजा, जो अविक्षित् पुत्र परिक्षित् राजा का पुत्र था (म. आ. ८९.४८ ) । ३. जमदग्नि एवं रेणुका के पुत्रों में से एक रेणुका का वध करने की जमदग्नि ऋषि की आज्ञा इसने अमान्य की थी । इस कारण उसने इसे शाप दिया। आगे चल कर, परशुराम ने जमदग्नि के शाप से इसे मुक्त कराया (म.व. १३६.१०–१७) । . - ४. (सो. कुरु ) धृतराष्ट्र का एक पुत्र, जो भारतीय युद्ध में भीमसेन के द्वारा मारा गया (म. भी. ७.२८; द्रो. १०२.९४ ) । इसके वध का निर्देश महाभारत में दो स्थानों पर प्राप्त है, जिससे प्रतीत होता है कि, यह एक व्यक्ति न हो कर एक ही नाम के दो व्यक्ति थे । ५. एक यादव राजा, जो बभ्रु राजा का पुत्र एवं सभाक्ष राजा का पिता था (ह. नं. २.३८ ) । ६. (सो. कुरु. भविष्य. ) एक राजा, जो विष्णु एवं मत्स्य के अनुसार कृष्णमत् राजा का, भागवत के अनुसार वृष्टिमत् राजा का, एवं वायु के अनुसार कतिमत् राजा का पुत्र था । ७. कंस के द्वारा मारा गया देवकी का एक पुत्र । ८. स्वारोचिष मनु का एक पुत्र । ९. एक मरुत्, जो मरुतों के द्वितीय गण में समाविष्ट था। परिवार इसके पुत्रपौत्रदि संतानों का निर्देश वाग्भट . ( अष्टांगसंग्रहसूत्र पृ. १५२ ) ; कात्यायन ( महाभाष्य १. ४. ४०६ ) एवं पाणिनि (पा. स. ६.२.२६ कार्तकौजपादिगण ); आदि में प्राप्त है। १०. सुतपस् देवों में से एक ( सुतपस् १६. देखिये) । ११. एक गंधर्व, जो माघ माह के पूषन् के साथ भ्रमण करता है (मा. १२.११.३९ ) । २. (सु. निमि.) एक राजा, जो ब्रह्मांड के अनुसार सुवर्चस् राजा का पुत्र, एवं जय राजा का पिता था ( ब्रह्मांड. ३.६४.२१ ) । विष्णु में इसे सुभाष राजा का पुत्र कहा गया है (विष्णु. ४.५.३१ ) । १२. कर्ण का एक पुत्र एवं चक्ररक्षक, जो दुर्योधन पक्ष का प्रमुख योद्धा था (म.क. १९.४० ) । यह द्रौपदीस्वयंवर में उपस्थित था । भारतीय युद्ध में यह उत्तमौज जस् के द्वारा मारा गया (म. ०.५३.१०.११) । १२. कर्ण का एक पुत्र (म.श. ५.३) । भारतीय युद्ध में यह नकुल के द्वारा मारा गया (म.श. ९.४७४९ ) । | सुषामन - एक व्यक्तिनाम (क. ८.२५.२२), जो संभवतः ऋग्वेद में अन्यत्र निर्दिष्ट वरोसुषामन नामक व्यक्ति का अपभ्रष्ट रूप होगा (ऋ. ८.२३.२८ ) । सायणाचार्य के अनुसार, ये दोनों भी नाम व्यक्तिनाम न हो कर किसी अन्य वस्तु के थे । १४. कर्ण का एक पुत्र, जिसने भारतीय युद्ध में केकयाधिपति उग्रधन्वन् के साथ युद्ध किया था। अंत में यह यादव राजा सात्यकि के द्वारा मारा गया ( म. क्र. ६०.४-६ ) । | सुधिनंदिन - ( किलकिला भविष्य.) एक राजा, जो विष्णु के अनुसार कृतनंद राजा का पुत्र था। वायु एवं ब्रह्मांड में इसे भूतिनंद कहा गया है। सुषेण वानर - एक सुविख्यात वानरप्रमुख, जो नामक वानर का पुत्र एवं वानरराज वालि का अगर धर्म १०७९ Page #1102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुषेण प्राचीन चरित्रकोश महोत्र था। यह एक सुविख्यात युद्धविशारद ही नहीं, बल्कि | सुस्वरा--स्वरवेदी गंधर्व को कन्या (पन. उ.१२८)। वैद्यक शास्त्रज्ञ भी था। सीता शोध के लिए, पश्चिम दिशा सुहनु--वरुण की सभा में उपस्थित एक असुर (म. में गये हुए वानरदल का यह प्रमुख था। | स. ९.१३)। राम-रावण युद्ध में-इस युद्ध में लक्षावधि वानर | सुहवि--(सो. पूरु.) एक राजा, जो भरत राजा का सैनिकों को ले कर, यह राम के पक्ष में शामिल हुआ था। पौत्र, एवं भुमन्यु का पुत्र था। इसकी माता का नाम (म. व. २६७.२)। विद्युन्मालिन् राक्षस से युद्ध कर, पुष्करिणी था (म. आ. सुहोत्र ६. देखिये)। इसने उसका वध किया था ( वा. रा. यु. ४३. १४)। सुहावस् आंगिरस-एक वैदिक सामद्रष्टा (पं.बा. रावणपुत्र इंद्रजित् का वध होने के पश्चात् , रावण १४.३.२५)। ने लक्ष्मण पर अमोघ शक्ति फेंकी, जिस कारण लक्ष्मण सुहस्त--(सो. कुरु.) धृतराष्ट्र का एक पुत्र, जो मूर्छित हो गया, एवं हजारों वानर आहत हो गये । उस भीमसेन के द्वारा मारा गया (म. द्रो. १३२.११३५*)। समय, इसने विशल्यकरिणी, सावर्ण्यकरिणी, संजीवनी सुहस्त्य घौषेय-एक वैदिक सूक्तद्रष्टा (ऋ. १०. संधानी आदि औषधियों का उपयोग कर, लक्ष्मण की ४१)। 'घोषा' का पुत्र होने के कारण, इसे घोषय मृच्छा भंग की । उसी समय, मूर्च्छना लानेवाली औषधियों मातृक नाम प्राप्त हुआ होगा। सायण के अनुसार, घौषेय का उपयोग कर आहत वानर सैनिकों के शरीर में इसका मातृक नाम न हो कर, वह 'सुहस्त्य' का ही घुसे हुए शस्त्र बाहर निकाले (वा. रा. यु. ९१.२४-२७) समानार्थी शब्द है। लक्ष्मण के लिए आवश्यक औषधियाँ महादेव पर्वत से सह--(सो. वृष्णि.) एक यादव राजा, जो उग्रसेन लाने की आज्ञा इसने हनुमत् को दी थी, किंतु उन का पुत्र था ( भा.९.२४.२४)। ओषधियों का ज्ञान न होने के कारण, हनुमत् उस पर्वत | सुहोत्र--एक शिवावतार, जो व्यास की सहायता के को ही अपने हाथ पर उठा कर ले आया (वा. रा. यु. लिए अवतीर्ण हआ था। इसके निम्नलिखित चार शिष्य १०१)। थे:- १. सुहोत्र; २. दुर्मुख; ३. दुदर्भ; ४. दुरतिक्रम __राम के राज्याभिषेक के समय यह उपस्थित था, (शिव. शत. ४) . उस समय दक्षिण समुद्र का पानी इसने राज्याभिषेक के २. (सो. क्षत्र.) एक राजा, जो भागवत के अनुसार . लिए इसने उन्हें आर्पित किया था (वा. रा. यु. १२८. | क्षत्रवृद्ध का, एवं वायु के अनुसार धर्मवृद्ध राजा का पुत्र था (भा. ९.१७.२-३)। यह काश्यवंश का सर्वप्रथम राजा परिवार-इसकी कन्या का नाम तारा था, जिसका माना जाता है। इसके काश्य (कश्यप.), कुश (काश), विवाह वानरराज वालिन् से हुआ था। इसके मैंद एवं एवं गृत्समद नामक तीन पुत्र थे। पौराणिक साहिन्य में द्विविद अन्य नामक दो पुत्र भी थे (वा. रा. कि. ४२.१)। अन्यत्र इसके 'सुनहोत्र', एवं 'सुतहोत्र' नामांतर प्राप्त है.. सुसत्य-एक आचार्य, जो ब्रह्मांड के अनुसार, (अग्नि. २७७; ब्रह्म. १३)। , व्यास की सामशिष्य परंपरा में से लोकाक्षि नामक आचार्य ३. (सो. अज.) एक राजा, जो विष्णु एवं भागवत के का शिष्य था। अनुसार सुधनु राजा का पुत्र, एवं च्यवन राजा का पिता सुसंधि--(सू. इ.) एक राजा, जो प्रसुश्रुत राजा का था (भा. ९.२२)। वायु में इसे सुधन्वन् राजा का पुत्र पुत्र, एव अमर्ष राजा का पुत्र था (वायु. ८८.२११)। | कहा गया है। सुसंभाव्य-रैवत मनु का एक पुत्र । ४. (सो. कुरु.) एक कुरुवंशीय राजा, जो सहदेव सुसामन्--एक धनंजयगोत्रीय ब्राह्मण, जो युधिष्ठिर पांडव का पुत्र था। इसकी माता का नाम माद्री विजया के राजसूय यज्ञ में सामगान करने के लिए उपस्थित | था, जिसे सहदेव ने स्वयंवर का प्रण जीत कर प्राप्त किया था (म. स. ३०.३४)। | था (म. आ. ९०.८७)। सस्वधा--आज्यप पितरों का सामूहिक नाम। ये विष्णु, मत्स्य एवं वायु में, इसे नकुल पांडव का पत्र निपुत्रिक थे, एवं कामदुघलोक में निवास करते थे ( पद्म. कहा गया है, किंतु यह असंभव प्रतीत होता है। सृ. १९)। ५. एक ऋषि, जो वनवासकाल में पांडवों के साथ निवास सुस्वर-गरुड़ का एक पुत्र । करता था (म. व. २७.२४)। १०८० Page #1103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन चरित्रकोश सुहोत्र ६. एक राजा, जो भरत राजा का पौत्र, एवं भुमन्यु का पुत्र था। इसे 'सुहोतृ', 'सुहवि', 'सुयजु' आदि नामांतर भी प्राप्त थे । इसकी माता का नाम पुष्करिणी था । यह अत्यंत दानशूर एवं अतिथिप्रिय राजा था । इसकी दानशूरता से प्रसन्न हो कर, इन्द्र ने इसके राज्य में एक वर्ष तक सुवर्ण की वर्षा की थी । इस सुवर्णवर्षा से प्राप्त सारी संपत्ति इसने ब्राह्मणों में बाँट दी थी ( म. द्रो. परि. १.८.३६० - ३८३; शां. २९.२२१ ) । परिवार — इसकी पत्नी का नाम इक्ष्वाकुकन्या सुवर्णा था, जिससे इसे अजमीढ, सुमीढ एवं पुरुमीढ नामक पुत्र उत्पन्न हुए थे। इसकी निम्नलिखित अन्य पत्नियाँ एवं पुत्र भी थे:१. धूमिनी - ऋक्ष; २. नीली - दुःषन्त, परमेष्ठिन् ; ३. केशिनी – जह्रु, जन एवं रुपिनू (म. आ. ८९.२० - २८ ) । महाभारत में अन्यत्र इसके हस्तिन् नामक पुत्र का निर्देश प्राप्त है, जिसके वंश में आगे चल कर विकुंठन, अजमीढ एवं संवरण आदि राजा उत्पन्न हुए । इनमें से संवरण राजा ‘वंशकर ’ हुआ, जिसने हस्तिनापुर का पूरु वंश आगे चलाया (म. आ. ९०.३५ - ३९ ) । • ७. रामसेना का एक वानर । ८. (सो. अमा. ) एक राजा, जो वायु के अनुसार जह राजा का पुत्र, था । इसकी माता का नाम कावेरी था ( वायु. ९१.७ ) । १०. (सो. पूरु. ) एक राजा, जो बृहत्क्षत्र नामक राजा का पुत्र, एवं हस्तिन् राजा का पिता था ( वायु. ९९. १६५) । सुहोत्र घौषेय - एक वैदिक सूक्तद्रष्टा ऋ. १०. ४१ ) । सुहोत्र भारद्वाज - एक वैदिक सूक्तद्रष्टा (ऋ. ६. ३१-३२) । सूर्य सुहृदय-- घटोत्कचपुत्र बर्बरिक का नामांतर (बर्बरिक देखिये) । सूक्त - एक मंत्रद्रष्टा आचार्य, जो प्राणदेवता का माहात्म्य कथन करनेवाले मंत्र का रचियता माना जाता है ( ऐ. आ. २.२.२ ) । ऐतरेय आरण्यक में इस शब्द का 'वैदिक मंत्रसमुदाय' अर्थ अभिप्रेत है, जो ऋग्वेद मंडल, सूक्त एवं मंत्र में विभाजित हैं । सूक्ष्म-एक दानव, जो कश्यप एवं दनु का पुत्र था । सुक्ष्माणि -- अट्ठाईस व्यासों में से एक (व्यास पाराशर्य देखिये) । सूत -- एक जातिविशेष, जो पुराणों के पठन आदि का कार्य करती थी ( रोमहर्षण 'सूत' देखिये ) | २. विश्वामित्र ऋषि का एक पुत्र ( म. अनु. ४.५७) । ३. एक ऋषि, जो शरशय्या पर पड़े हुए भीष्म से मिलने उपस्थित हुआ था (म. आ. ६६.११* ) । सूरि - शिवदत्त ब्राह्मण का एक पुत्र, जिसे ऋषि शाप के कारण मृगयोनि प्राप्त हुई थी। आगे चल कर अगस्त्या ९. (सो. अमा. ) एक राजा, कांचनप्रभ (कांचन) राजा का पुत्र, एवं जह्न राजा का पिता था ( विष्णु. ४.७. ३) । इसकी पत्नी का नाम केशिनी था । भागवत में इसे 'होत्रक' कहा गया है। | श्रम में राम ने इसका वध किया ( ब्रह्मांड.३.३५ ) । सूर्मी अथवा सूर्या -- अनुहाद नामक राक्षस की पत्नी । सूर्य -- एक देवता, जिसके लिए वैदिक एवं पौराणिक साहित्य में 'सवितृ', 'विवस्वत्' ' पूषन् ' आदि विभिन्न नामान्तर दिये गये है। संभवतः सूर्य की विभिन्न अवस्थाओं को प्रतीकरूप मान कर सूर्यदेवता को ये नामांतर प्राप्त हुए होगे (सवितृ, पूषन् एवं विवस्वत् देखिये) । सुह्म-- (सो. अनु. ) एक राजा, जो बलि आनव राजा के पुत्रों में से एक था ( बलि आनव देखिये ) | २. पूर्व भारत का एक जनपद, जिसे भीमसेन ने अपने पूर्वदिग्विजय में जीता था ( म. स. २७,१४)। प्रा. च. १३६ । सूनामुख -- एक नाग, जो कश्यप एवं कद्रू के पुत्रों में से एक था । १७६ ) । यह संभवतः ऋभु ऋषि का पुत्र होगा । सुनु आर्भव- एक वैदिक सूक्तद्रष्टा (ऋ. १०. सूनृता -- रुद्रसावर्णि मन्वन्तर के स्वधाम नामक अवतार की माता, जो सत्यसह नामक ऋषि की पत्नी थी ( भा. ८.१३.२९) । २. उत्तानपादपत्नी सुनीति का नामान्तर । अथर्ववेद में सूर्य के सात नाम (सप्तसूर्या : ) दिये गये हैं, जो संभवतः सूर्य के सात रश्मियों का प्रतिनिधित्व करते हैं ( अ. वे. १३.३.१०; सवितृ देखिये) । महाभारत में इसके निम्नलिखित बारह नाम दिये गये है :- १. दिवस्पुत्र, २. बृहद्भानु, ३. चक्षु, ४. आत्मा, ५. विभावसुं, ६. सवितृ, ७. ऋचीक, ८. अर्क, ९. भानु, १०८१ Page #1104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूर्य प्राचीन चरित्रकोश सूर्याक्ष १०. आशावह, ११. रवि १२. विवस्वत (म. आ. इसने आहत किया था (ऋ. १.११.१५४११४० 3 एतश देखिये) । सूर्यक - ( प्रद्योत . भविष्य . ) एक राजा, जो मत्स्य के अनुसार विद्यासप राजा का पुत्र था। सूर्यतेजस एक यक्ष मो मणिन्द्र एवं पुण्यव के पुत्रों में से एक था। सूर्यदत्त--विराट का एक भाई, जो भारतीय युद्ध मं द्रोण के द्वारा मारा गया ( म. उ. १६८.१४९ वि. ३०. १२ १२३.१९.५.८३) पानेव (भांडारकर १.४० ) । सूर्यदेवता के कल्पना का उद्गम-- आधुनिक भौतिक शास्त्र के अनुसार पृथ्वी की उत्पत्ति सूर्य से होने की कपना स्वीकृत की गयी है। वैदिक साहित्य में इसी कल्पना को स्वीकार किया गया है, जहाँ सूर्य को इस विश्व का आत्मा एवं पिता माना गया है: आग्रा चावापृथिवी अन्तरिक्षे सूर्य आत्मा जगतस्तस्थुप ऋ. १.११५१) । (इस विश्व के चर एवं अचर वस्तुओं की आत्मा सूर्य ही है)। इसी कलना के अनुसार सूर्यपत्नी अदिति अथवा दिति को विश्व की माता कहा गया है, एवं दितिपुत्र दैत्य को एवं अदितिपुत्रों को 'आदित्य' कहा गया है। पौराणिक साहित्य में कश्यप ऋषिको सूर्य का ही प्रति रूप माना गया है,एवं उसकी अदिति एवं दिति नामक दो पलियाँ दी गयी है, जो क्रमशः दिन एवं रात का प्रतिनिधित्व करती है। इन दोनों का पुत्र अग्नि है, जो पृथ्वी सूर्य का प्रतिनिधित्व करता है। इस प्रकार सूर्य एवं उससे संबंधित देवतापरिवार का संबंध सृष्टिउत्पत्ति एवं सृष्टि संचालन कार्य से स्पष्ट रूप से होता है। सूर्य उपासना -- सूर्य की गति, उपासना एवं इसके एकसौ आठ नामों का जाप प्राचीन काल से भारतवर्ष में प्रचलित है। इसी उपासना का उपदेश धौम्य ऋषि ने युधिष्ठिर को किया था ( म. व. ३.१६-३३; १६०. २४-३७ ) । सूर्य उपासना के ग्रंथ - विश्वामित्र ऋषि के द्वारा विरचित 'गायत्रीमंत्र' एवं विभिन्न 'सौर सूक्त' ऋग्वेद में प्राप्त है, जो सूर्य देवताविषयक सर्वाधिक प्राचीन साहित्य कहा जा सकता है । उपनिषद ग्रंथों में से 'सूर्योपनिषद, सूर्योपासना से ही संबंधित है । 'सूर्य गीता' नामक एक ग्रंथ भी उपलब्ध है, जो 'गुरुशानवासि तत्सारायण ' नामक ग्रंथ में अंत है (कर्मकाण्ड २.१५) । पौराणिक साहित्य में से 'भविष्य' एवं 'ब्रह्मवैवर्त ' 'पुराण 'सौर' पुराण माने जाते हैं। -- संहिता ) - 'सुदर्शन' | सूर्यध्वज-एक राजा, उत था (म. आ. १७७.१०) । सूर्यनेत्र -- गरुड़ का एक पुत्र । सूर्यभास -- कौरवपक्ष का एक राजा, जो भारतीय युद्ध में अभिमन्यु के द्वारा मारा गया (मं.. द्रो. ४७.१५) । सूर्यवर्चस - एक देवगंधर्व, जो कश्यप एवं मुनि के पुत्रों में से एक था। यह कार्तिक माह के विष्णु नामक आदित्य के साथ भ्रमण करता है । अपने अगले जन्म में यह घटोत्कच पुत्र बर्बरिक बन गया । सूर्यवर्मन त्रिगर्त देश का एक राजा, जो ि के अश्वमेधीय अश्व की रक्षा करनेवाले अर्जुन से परास्त हुआ था (म. आच ७२.११) । इसी युद्ध में इसका केतुवर्मन् नामक भाई मारा गया। सूर्यशत्रु का एक राक्षस (बारा. ९)। सूर्यश्री एवं सूर्य सवित्री - एक सनातन विश्वेदेव ( म. अनु. ९१.३३-३४) । सूर्यासावित्री एक -3 १० ८५) । इसके द्वारा रचित सूक्त में इसके विवाह का वर्णन प्राप्त है। ऋग्वेद में अन्यत्र इसे सवितृकन्या कहा गया है, एवं अश्विनी के विवाहस्थ में इसके आद होने का निर्देश प्राप्त है (. १.११६.१७१२९.५)। ऐतरेय ब्राह्मण में, अश्विनों के द्वारा होड़ में विजय प्राप्त करने पर उनका विवाह इसके साथ संपन्न होने का निर्देश स्पष्ट रूप से प्राप्त है ( . ४७ पति देखिये । अश्विनों के साथ इसका विवाह होने का उपर्युक्त वर्णन वस्तुस्थिति निदर्शक है, या रूपकात्मक है यह कहना मुश्किल है । | शाकद्वीप से सूर्यप्रतिमा तथा सूर्योपासना भारत में सर्वप्रथम आयी, जिसका का स्वरूप वैदिक सूर्य उपासना से कई अंश में मित्र था (सांध देखिये) । सूर्याक्ष-- रामसेना का वानर । २. एक राजा, भारतीय युद्ध में कौरवपक्ष में शामिल सूर्य सौवश्व -- एतश नामक ऋषि का शत्रु,, जिसे ! था। यह क्रथ नामक असुर के अंश से उत्पन्न हुआ था। ९०८२ Page #1105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सृगाल प्राचीन चरित्रकोश संजय सृगाल--एक राजा, जो स्त्रीराज्य का अधिपति | निवासस्थान-हिलेबांट के अनुसार सृजय लोग था । कलिंगराज चित्रांगद की कन्या के स्वयंवर में यह | दिवोदास के साथ सिधु नदी के पश्चिम में कहीं निवास उपस्थित था (म. शां. ४.७) । पाठभेद-'शुगाल'|| करते थे। कई अभ्यासक इन्हें युनानी 'सेरांगै' लोगों के संजय-उत्तम मनु के पुत्रों में से एक। साथ समीकृत करते है, एवं इनका आद्य निवासस्थान २. (सु. नाभाग.) एक राजा, जो विष्णु के अनुसार ड्रेन्जिनाना में बताते है। त्सीमर के अनुसार ये लोग नाभाग राजा का पुत्र था। सिंधुघाटी के उपरि भाग में बसे हुए थे। इनके मित्र तृत्सु३. ( सो. अनु.) एक राजा, जो भागवत के अनुसार | गण मध्य देश में स्थित थे, इस कारण इनके सिंधु नदी कालनर राजा का पुत्र, एवं जनमेजय राजा का पिता था। के पूर्व भाग में निवास करने की संभावना प्रतीत होती है। बायु एवं मत्स्य में इसे क्रमशः 'कालनल' एवं 'कोलाहल'| ऐतिहसिक निर्देश-इन लोगों के द्वारा दृष्टरितु पौसायन राजा का पुत्र कहा गहा है। मत्स्य में इसका संजय नामक राजा को, एवं रेवोत्तरस् पाटव चाक्रस्थपति नामक नामान्तर प्राप्त है। यह प्रारंभ से ही कृष्ण का विरोधक अमात्य को अधिकारभ्रष्ट करने का निर्देश शतपथ ब्राह्मण था, जिसने इसको परास्त किया था। में प्राप्त है (श. ब्रा. १२.९.३.१)। आगे चल कर ४. ( सो. नील ) एक राजा, जो पंचजन नामक राजा | रेवोत्तरस् पाटव ने कुरु राजा बाह्निक प्रातीप्य के विरोध के का पिता था (ह. वं. १.३२ )। संभवतः संजय पांचाल | विपरित भी अपने राजा को पुनः एक बार राजगद्दी पर एवं यह दोनों एक ही होंगे (संजय पांचाल देखिये)। प्रतिष्ठापित किया। ५. (सो. क्रोष्टु.) एक राजा, जो भागवत, मत्स्य एवं इन लोगों के राजाओं में, संजय दैववात, प्रस्तोक संजय वायु के अनुसार शूर राजा का पुत्र, एवं धनु एवं वज्र (ऋ. ६.४७.२२); वीतहव्य संजय; साह देव्य सोमक नामक राजाओं का पिता था (मत्स्य. ४६.३)। इसकी। (ऋ.४.१५.७; ऐ. ब्रा. ७.३४.९); एवं साहदेव्य सोमक पत्नी का नाम राष्ट्रपाली था, जो कंस राजा की भगिनी के पिता सहदेव (सुप्लन् ) सार्जय (ऐ.ब्रा. ७.३४.९) थी। कई पुराणों में इसके पुत्रों के नाम कृश एवं दुर्मर्षण का निर्देश विशेष प्रमुखता से पाया जाता है। इनमें से दिये गये हैं। अंतिम दो राजाओं को पर्वत एवं नारद ने राज्याभिषेक किया था। ६. क्षत्रवंशीय संजय राजा का नामांतर (संजय २. देखिये )। | संजय दैववात-संजय लोगों का एक राजा, जिसने ७. एक लोकसमूह, जो भारतीय युद्ध में पाण्डव पक्ष तुर्वश एवं वृचीवन्त जाति के अपने शत्रओं पर विजय में शामिल था (म. द्रो. ३४.५, ३९.१७)। किया था (ऋ. ६.२७.७)। स्वयं इंद्र ने इसकी मदद कर तुर्वशों को इसके हाथ सौंपा दिया । देवत् का वंशज होने वैदिक साहित्य में इस साहित्य में इन लोगों का उल्लेख के कारण इसे 'दैववात' पैतृक नाम प्राप्त हुआ था (ऋ तृत्सु लोगों के साथ प्राप्त है, जहाँ तृत्सु राजा दिवोदास ४.१५.१)। इसके यज्ञाग्नि का निर्देश भी ऋग्वेद में एवं संजय राजा की एकसाथ ही प्रशस्ति की गयी है, एवं | प्राप्त है। उन दोनों को तुर्वशों के शत्रु बताये गये हैं (ऋ. ६.२७. आप बााण में भी देवभाग श्रौतर्षिको क संजय पांचाल-(सो. नील.) पांचाल देश का संजय लोगों का पुरोहित बताया गया है (श. ब्रा. एक राजा, जो विष्णु के अनुसार हर्यश्व राजा का, एवं २.४-५)। वायु के अनुसार रिक्ष राजा का पुत्र था। भागवत अथर्ववेद के अनुसार ये लोग कोई नैसर्गिक आपत्ति | एवं मत्स्य में इसे क्रमशः 'संजय 'एवं 'जय' कहा की शिकार बने थे.एवं इसी आपत्ति में इनके विनष्ट होने गया है, एवं इसके पिता का नाम क्रमशः भाश्व एवं का अस्पष्ट निर्देश वहाँ प्राप्त है (अ. वे. ५.१९.१)। काठक भद्राश्व दिया गया है। संहिता एवं तैत्तिरिय संहिता में भी इसी तर्क की पुष्टि संजय वैतहव्य--एक लोकसमूह, जो संभवतः मिलती है, जहाँ किसी सांस्कारिक त्रुटि के कारण इनके | सृजय लोगों का ही नामान्तर था। भृगु ऋषि की हत्या विनष्ट होने का निर्देश प्राप्त है (का. सं. १२.३; तै. सं. करने के कारण, इन लोगों का नाश हुआ (अ. वे... ६.६.२.२)। | १९.१)। १०८३ Page #1106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सृजय संजय वैशालि - ( एवं विष्णु के अनुसार सहदेव राजा का पिता था दिष्ट. ) एक राग, जो बाबु धूवाव राजा का पुत्र एवं धूम्राश्व (बायु. ८.६.१९ विष्णु. ४.१. प्राचीन चरित्रकोश ५३ ) | ब्रह्मांड में इसे धूम्राश्च राजाका पुत्र कहा गया है । ( ब्रह्मांड ३.६१.१४) भागवत में इसे 'संयम' कहा गया हैं। संजय शेष्य- एक राजा, जो शित्रि राजा का पुत्र था। इसकी पत्नी का नाम कैकेयी था, जिससे इसे सुवर्ण श्री विन्नामक पुत्र उत्पन्न हुआ था । इसकी कन्या का नाम दमयंती (मयंती) अथवा श्रीमती था, जिसका विवाह नारद से हुआ था ( नारद. ३. देखिये) । इसके पुत्र सुवर्णष्ठीविन् की चोरों के द्वारा हत्या होने पर यह अत्यधिक शोक करने लगा। इस पर इसके दामाद नारद ने इसे सांत्वना देने के लिए सोलह श्रेष्ठ राजाओं ( पोटश राजकीय) का एक आख्यान सुनाया, जिसमें मानवीय जीवन में मृत्यु की नित्यता, एवं तद् हेतु शोक करने का वैफल्य बहुत ही सुंदर प्रकार से विशद किया था (म. प्र. परि. १.८.३२५८७२ वी एवं नारद २. देखिये ) । पश्चात् नारद ने इसके पुत्र सुवर्णष्ठीविन् को पुनः जीवित किया । संजय हो वाहन - - एक राजर्षि, जो काशिराज की कन्या अंधा का मातामह, एवं परशुराम का मित्र था अंबा के द्वारा प्रार्थना किये जाने पर वह अपने मित्र परशुराम के पास गया, एवं इसने उसे भीष्म से मिल कर उसका मन अंबा से विवाह करने के लिए अनुकुल बनाने के लिए प्रार्थना की ( म.उ. १७५१५-२७६ ३०) । पाण्डवों के वनवास काल में इसने उनके साथ निवास किया था (म.व. २७.२४) । सृतंजय-मगधवंशीय श्रुतंजय राजा का नामान्तर ( श्रुतंजय ३. देखिये) । सृविंद इंद्र का एक शत्रु, जिसका उसने वध किया। -- सृष्टि - - (सो. वृष्णि. ) उग्रसेन राजा का आठवाँ पुत्र (मा. ९.२४.२४ ) | २. ध्रुव एवं भूमि का एक पुत्र । 4 सेनाविदु । सर्वसत्र में दग्ध हुआ था ( म. आ. ५२.१४ ) | पाठ भेद ( मांडारकर संहिता) मैचक । - ' सेतु - (सो. द्रुह्यु. ) एक राजा, जो मत्स्य एवं वायु के अनुसार दुखु राजा का पुत्र एवं अवद्ध राजा का पिता था (मत्स्य. ४८.६ वायु, ९९.७ )। भागवत में इसे बभ्रु राजा का पुत्र कहा गया है, एवं इसके पुत्र का नाम आरब्ध बताया गया है ( मा. ९.२३.१४ ) । विष्णु में इसे 'सेतुपुत्र' अथवा 'भारत' कहा गया है। महाभारत में निर्दिष्ट अंगारसेतु अथवा अंगार राजा संभवतः यही होगा ( अंगार देखिये) । ( सेदुक एक राजा, जो पद राजय का मित्र या ( वृषदर्भ देखिये ) । सेन -- (सो. अनु.) अनुवंशीय हेम राजा का नामान्तर । सेनक- एक वैयाकरण (पा. सु. ५.४.११२) | सेनजित् -- (सो. अज. ) एक राजा, जो भागवत के अनुसार विपद राजा का पुत्र एवं रुचिराध राजा का पिता था ( मा. ९.२१.२३) । रुचिराध के अतिरिक इसके दृढहनु, काश्य एवं वत्स नामक अन्य तीन पुत्र थे । विष्णु एवं वायु के अनुसार यह विश्वजित रांजा का, एवं मत्स्य के अनुसार अश्वजित् राजा का पुत्र था । इसके द्वारा प्रणीत नीतिशास्त्र ( भवधर्म) का निर्देश महाभारत में प्राप्त है (म. शां. २६.१३-२९ ) । २. (सू. इ. ) एक इक्ष्वाकुवंशीय राजा, जो कृशाश्व राजा का पुत्र एवं युवनाश्व राजा का पिता था (ना. ६.२५) । अन्य पुराणों में इसे प्रसेनजित् कहा गया। ३. (सो. मगध भविष्य) एक राजश, वो बृहत्व राजा का पुत्र था। यह अधिसोमकृष्ण पौरव, एवं दिवाकर ऐक्ष्वाक आदि राजाओं का समकालीन था । इसके ही शासनकाल में पुराणों का लेखन हुआ । । ४. एक अप्सरा, जो फाल्गुन माह के सूर्य के साथ भ्रमण करती है (भा. १२.११.४० ) । ५. एक मरुत्, जो मरुतों के दूसरे गण में समाविष्ट था । सेनानी - - एकादश रुद्रों में से एक ( म. भी. ६०.२७) । ३ ब्रह्मा की सभा में उपस्थित एक देवी ( म. स. १३२) । सेनापति - ( सो. कुरु. ) धृतराष्ट्र का एक पुत्र, जो भारतीय युद्ध में भीमसेन के द्वारा मारा गया ( म. भी. ६०.२७) । सेक-एक टोकसमूह जिसे सहदेव ने अपने दक्षिण दिग्विजय के समय जीता था (म. स. २८.२९७०) । सेबकतराष्ट्रकुलन एक नाग, जो जनमेजय के सेनाबिंदु-एक क्षत्रिय राजा, कोतुहुटु नामक दैत्य के अंश से उत्पन्न हुआ था ( म. आ. ६१.२० ) । इसे {c Page #1107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सेनाबिंदु प्राचीन चरित्रकोश सोमक क्रोधहन्तृ नामान्तर भी प्राप्त था। इसकी राजधानी देव- | __ सोदन्ति--एक आचार्य, जिस पर विश्वामित्र ऋषि ने प्रस्थ नगरी में थी। विजय प्राप्त की थी (पं. ब्रा. १४.५.१३)। . द्रौपदीस्वयंवर में यह उपस्थित था (म. आ. १७७. सोभरि काण्व-एक आचार्य, जिसे ऋग्वेद के कई ८)। अर्जन ने अपने उत्तर दिग्विजय के समय, उलूक- सूक्तों के प्रणयन का श्रेय दिया गया है (ऋ. ८.१९.२२: राज के साथ इस पर आक्रमण कर इसे राज्यभ्रष्ट किया | १०३)। इसके द्वारा विरचित सूक्त में इसके सोभरि था (म. स. २४.९)। नामक पिता का, एवं इसके परिवार के लोगों का कई बार भारतीय युद्ध में यह पाण्डवपक्ष में शामिल था, एवं | उल्लेख प्राप्त है (ऋ. ८.५.२६; १९.३२, २२.१५)। इसकी श्रेणि 'रथसत्तम' थी (म. उ. १६०.१९)। यह | | त्रसदास्यु के द्वारा इसे पचास वधुओं की प्राप्ति होने का श्रीकृष्ण एवं भीमसेन के समान पराक्रमी माना जाता निर्देश वहाँ प्राप्त है । पौराणिक साहित्य में इसी कथा का था। इसके रथ के अश्व पीले रेशम के वर्ण के थे, एवं संकेत प्राप्त है। किन्तु वहाँ इसे सौभरि कहा गया है उन पर स्वर्ण का जीन लगा हुआ था (म. द्रो. २२. (सौभरि देखिये)। १६३४) । इसी युद्ध में यह कर्ण के द्वारा मारा गया (म. सोम--एक वैदिक मंत्रद्रष्टा (ऋ. १०.१२४.१:५-९)। क. ३२.३७)। २. चंद्रमा का नामांतर । यह एक प्रजापति एवं स्वायंसेयन--विश्वामित्र का एक पुत्र । भुव मन्वन्तर के अत्रि ऋषि का पुत्र था। इसकी सत्ताईस पत्नियाँ थी, जो दक्ष प्रजापति की कन्या थी (चन्द्र एवं सैहिकेय--एक सुविख्यात राक्षससमूह, जो विप्रचित्ति दक्ष देखिये)। सप्तर्षियों के द्वारा किये गये पृथ्वीदोहन दानव एवं सिंहिका के पुत्र थे। इस समूह में कुल एक सौ के समय यह बछडा बना था । इसके नगरी का नाम राक्षस थे (विप्रचित्ति देखिये)। विभावरी था, जो मेरु पर्वत की उत्तर में स्थित थी (मस्य. सहिकेय सल्वि--एक असुर, जिसका परशुराम ने २६६.२६)। देवताओं की आज्ञा से वध किया (विष्णुधर्म १.५२)। ३. एक अग्नि, जो भानु एवं निशा के दो पुत्रों में मे सैतव--एक आचार्य, जो पाराशर्य नामक आचार्य | एक था। इसकी बहन का नाम रोहिणी था (म. व. २११. का शिष्य था (बृ. उ. २.५.२१, ४.५.२७)। इसके "शिष्यों में गौतम (बृ. उ. २.६.२, ४.६); एवं आनिवेश्य ४. सवितृ एवं पृष्णि के पुत्रों में से एक । . (श. बा. १४.७.३.२७) प्रमुख थे। ५. अंगिरस्कुलोत्पन्न एक गोत्रकार । सैत्य-अंगिराकुलोत्पन्न एक प्रवर। ६. सुख देवों में से एक। सैन्धव-सिंधु देश के निवासियों का सामूहिक नाम ७. एक शिवावतार । .(म. व. ५१.२१)। ८. एक वसु, जो धर्म एवं वसु के पुत्रों में से एक था सैन्धवायन-विश्वामित्र का एक पुत्र, एवं विश्वामित्र | (विष्णु. १.१५.१११)। कुलोत्पन्न एक गोत्रकार ऋषिगण ।। ९. सोमतन्वी नामक अंगिराकुलोत्पन्न गोत्रकार का २. एक आचार्य, जो व्यास की अथर्वन् शिष्यपरं- नामान्तर । परा में से शौनक नामक आचार्य का शिष्य था। सोम प्रतिवेश्य--एक आचार्य, जो प्रतिवेश्य नामक सैबल्क--वसिष्ठकुलोत्पन्न एक गोत्रकार । पाठभेद- | आचार्य का शिष्य था (सां आ. १५.१)। 'सर्वझौलाब'। सोम शुष्मायण-अट्ठाईस व्यासों में से एक । सरांध्र-कश्यपकुलोत्पन्न एक गोत्रकार। सोमक-कृष्ण एवं कालिंदी का एक पुत्र । सैरंध्री--विराट नगर में अज्ञातवास के समय द्रौपदी २. सोमकवंशीय क्षत्रियों का सामूहिक नाम । के द्वारा धारण किया गया नाम । सोमक साहदेव्य (सार्जेय)-(सो. नील.) संजय २. केकयराज की एक कन्या, जो मरुत्त आविक्षित | लोगों का एक राजा (ऋ.४.१५.७-१०; सुंजय १.देखिये)। राजा की पत्नी थी (मार्क. १२८)। सहदेव का वंशज होने से इसे 'साहदेव्य' पैतृक नाम, एवं सैषिरिरि-विश्वामित्रकुलोत्पन्न एक गोत्रकार । सुजयों का वंशज होने से इसे 'सांर्जय' वांशिक नाम प्राप्त - सोक्ति--भृगुकुलोत्पन्न एक गोत्रकार। । हुआ होगा (ऐ. ब्रा. ७.३४, श. ब्रा. २.४.४.४)। पर्वत Page #1108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोमक प्राचीन चरित्रकोश सोमधेय एवं नारद ऋषि इसके पुरोहित थे (ऐं. ब्रा. ७.३४.९)। भूरिश्रवस् एवं शल नामक तीन पुत्र थे, जिनमें से यह वामदेव ऋषि का आश्रयदाता था, एवं इसने उसे | भूरिश्रवस् इसे रुद्र की कृपा से प्राप्त हुआ था। अपने अनेकानेक अश्व प्रदान किये थे (ऋ. ४.१५८.८)। इन पुत्रों के साथ यह द्रौपदीस्वयंवर में उपस्थित था पौराणिक साहित्य में-इस साहित्य में इसे पांचाल | (म. आ. १७७.९, १४)। देश का राजा कहा गया है, एवं इसके पिता का नाम शिनि यादव से शत्रुत्व--देवकी के स्वयंवर के समय सहदेव बताया गया है (भा. ९.२२; ह. वं.१.३२; ब्रह्म. शिनि नामक यादव ने अपने मित्र वसुदेव के लिए देवकी १३. वायु. ३७)। इसके द्वारा अपने पुत्र का नरमेध का हरण किया। उस समय इसके शिनि से विरोध किये जाने की कथा महाभारत एवं विभिन्न पुराणों में प्राप्त करते ही उसने इसे भूमि पर पटक कर एक लात मार दी, है (म. व. १२७-१२८)। एवं इसकी चुटियाँ पकड़ कर इसे खूब पीटा। शिनि के पुत्र का नरमेध- इसकी कुल सौ पत्नियाँ थी। किन्तु द्वारा छोड़ दिये जाने पर, अपने इस अपमान का बदला लेने के लिए इसने रुद्र कि घोर तपस्या की, एवं शिनि जंतु ( जह्न) नामक केवल एक ही पुत्र था। एक बार चिंटी का वध करनेवाला एक पुत्र उससे माँग लिया । रुद्र के ने जंतु को काट लिया, जिस कारण इसके अंतःपुर की प्रसाद से प्राप्त हुआ इसका पुत्र आगे चल कर भूरिश्रयम् सभी पत्नियाँ रोने लगी। इस प्रसंग को देख कर इसे मन ही नाम से सुविख्यात हुआ। मन अत्यंत दुःख हुआ, एवं इसने सोचा कि, राजा के __ भारतीय युद्ध में- भारतीय युद्ध में यह कौरवपक्ष में लिए केवल एक ही पुत्र रहना दुःख का मूल हो सकता है। | शामिल था। इस युद्ध में इसके पुत्र भूरिश्रवस ने शिनिपश्चात् अधिक पुत्र प्राप्त होने के उद्देश्य से एक नरमेध यादव के पुत्र युयुधान सात्यकि की ठीक वही अवस्था करने की, एवं उसमें इसके जन्तु नामक इकलौते पुत्र का की, जो शिनि राजा ने देवकी स्वयंवर के समय इसकी की हवन करने की कल्पना इसके पुरोहित ने इसे दी। तद थी। इस प्रकार भरिश्रवस ने अपने पिता के अपमान का नुसार इसने अपने पुत्र जन्तु को बलि दे कर एक नरमेध बदला ले ही लिया। किया, जिससे उत्पन्न हुए धुएँ से इसे पृषत् आदि सौ इसी समय सात्यकि का रक्षण करने के लिए उपस्थित पुत्र उत्पन्न हुए। हुए अर्जुन ने भूरिश्रवस् का अत्यंत निधण वध किया (भूरिमृत्यु के पश्चात्--अपनी मृत्यु के पश्चात् यह स्वग-श्रवस् देखिये) आगे चल कर सात्यकि ने ही इसका वध लोक को प्राप्त हआ, किन्तु इसको नरमेध की सलाह | किया (भा.९.२२.१८; म. द्रो. ११९१.३१, १३७)। देनेवाले इसके पुरोहित को नर्क प्राप्त हुआ। अपने २. एक ब्रह्मराक्षस, जिसने कल्माषपाद राजा से तत्वपुरोहित को छोड़ कर स्वयं स्वर्गोपभोग लेने को इसने ज्ञान पर संवाद किया था (कल्माषपाद देखिये)। इन्कार किया, एवं यह स्वयं नर्क में रहने के लिए गया। ३. (सू. दिष्ट.) एक राजा, जो विष्णु एवं भागवत के इसकी यह पुरोहितनिष्ठा देख कर यमधर्म अत्यंत प्रसन्न अनुसार कृशाश्व राजा का पुत्र, एवं सुमति नामक राजा हुआ, एवं उसने इन दोनों को स्वर्ग में स्थान दिया। का पिता था (म. ९.२.१.३५)। इसने सौ अश्वमेध यज्ञ सोमकान्त-सुराष्ट्र देश का एक गणेशभक्त राजा, | कर उत्तम गति प्राप्त की थी। जो कुष्ट रोग से पीडित था । भृगु ऋषि के द्वारा 'गणेश- ४. (सो. नील.) नीलवंशीय सुदास राजा का नामांतर पुराण' का श्रवण किये जाने पर इसका कुष्ट नष्ट हुआ, I (सदास देखिये)। एवं यह पूर्ववत् आरोग्यसंपन्न रहा (गणेश. १.१९)। सोमदत्ति सावर्णि--एक आचार्य, जो व्यास की सोमकीर्ति--(सो. कुरु.) धृतराष्ट्र का एक पुत्र पुराण शिष्यपरंपरा में से रोमहर्षण नामक आचार्य का (म. आ. १०८.८)। शिष्य था! - सोमतन्वी-अंगिरस कुलोत्पन्न एक गोत्रकार । पाठभेद- सोमदा-ऊर्मिला नामक गंधर्व की कन्या, जिसे सोम' एवं 'तन्वी'। चली नामक ऋषि से ब्रह्मदत्त नामक पुत्र उत्पन्न हुआ सोमदक्ष कौश्रेय-एक आचार्य (क. सं. २०.८ था । यही ब्रह्मादत्त आगे चल कर राजा बन गया। २१.९; मै. सं. ३.२.७)। । सोमधेय--पूर्व भारतीय लोकसमूह, जिसे भीमसेन सोमदत्त--(सो. कुरु.) एक कुरुवंशीय राजा, जो | ने अपने पूर्व दिग्विजय में परास्त किया था ( म. स. २७. प्रतीप राजा का पौत्र, एवं बाह्रीक राजा का पुत्र था। इसके | ९)। पाठभेद- सोपदेश'। १०८६ Page #1109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोमनाथ प्राचीन चरित्रकोश सौति सोमनाथ--शिव का एक अवतार, जो काठियावाड सोमशुष्मन् वाजरत्नायन--एक आचार्य, जिसने प्रदेश में अवतीर्ण हुआ था। इसने चंद्र के सारे कष्ट शतानीक राजा का राज्याभिषेक किया था (ऐ. ब्रा. ८. दूर किये, जिस कारण 'चंद्रकुण्ड' नामक नामक स्थान में | २१.५)। चंद्र ने इसकी पूजा की। सोमश्रवस्-एक तपस्यापरायण ऋषि, जो जनमे- इसकी पूजा आदि करने से राजयक्ष्मा कुष्ट आदि जंय (द्वितीय) राजा का पुरोहित था (म. आ. ३.१२)। व्याधियाँ दूर होती है ऐसी उपासकों की श्रद्धा है (शिव. | यह श्रुतश्रवस् ऋषि को एक सर्पिणी से उत्पन्न हुआ शत. ४२)। इसके उपलिंग का नाम उपकेश है (शिव. पुत्र था। कोटी. १)। यह सदैव मूकव्रत से रहता था, एवं ब्राह्मण के द्वारा • सोमप--पितरों का एक समूह, जो मानस ( सूमनस) माँग किये जाने पर उसे पूरी करने का इसका गुप्त नामक स्वर्ग में निवास करते है। इन्हें ब्रह्मत्व प्राप्त हुआ व्रत था। जनमेजय के द्वारा इस व्रत को स्वीकार किये था, एवं ये मूर्तिमान् धर्म ही माने जाते है । मनु के सहित जाने पर ही, इसने उसका पौरोहित्य का कार्य स्वीकृत . सारी चर सृष्टि इन्हींकी ही संतान मानी जाती है। किया था। इनकी मानसकन्या का नाम नर्मदा था ( मत्स्य. १५, __ आगे चल कर इसी व्रत के कारण ही, आस्तीक ऋषि पन. सृ. ९; ह. वं. १.१८)। की माँग पूरी करने के लिए जनमेजय को अपना सर्पसत्र २. रैवत मन्वन्तर के सप्तर्षियों में से एक । बंद करना पड़ा (म. आ. ३.१८)। सोमाहुति भार्गव--एक वैदिक सूक्तद्रष्टा (ऋ. २. ३. जमदग्निपत्नी रेणुका का प्रतिपालक पिता । ४. स्कंद का एक सैनिक ( म. अनु. ९१.३४)। सोम्य--(आंध्र. भविष्य ) एक राजा, जो मस्त्य के ५. एक सनातन विश्वेदेव (म. अनु. ९१.३४)। अनुसार पुरींद्रसेन राजा' का पुत्र था। सोमभोजन--गरुड का एक पुत्र । सोहंजि-(सो. सह.) सहदेववंशीय संवर्त राजा सोमराजन्--एक आचार्य, जो वायु एवं ब्रह्मांड का नामांतर (संवर्त एवं साहजि देखिये)। के अनुसार व्यास की सामशिष्यपरंपरा में से हिरण्यनाभ - सौकारायण--एक आचार्य, जो काशायण नामक -नामक आचार्य का शिष्य था । ब्रह्मांड में इसका 'सोम- आचार्य का शिप्य, एवं माध्यंदिनायन नामक आचार्य का • राजायन' नामान्तर प्राप्त है। गुरु था (बृ. उ. ४.६.२. काण्व )। शतपथ ब्राह्मण में सोमवाह--अगस्त्यकुलोत्पन्न गोत्रकार। इसे त्रैवणि नामक आचार्य का शिष्य कहा गया है (श. ब्रा. १४.७.३.२७)। ... सोमवित्--(सो. अज.) एक राजा, जो मत्स्य के | सौचकि-भृगुकुलोत्पन्न एक गोत्रकार । अनुसार सहदेव राजा का पुत्र था (मत्स्य. ५०.३३)। | सौचित्ति--सत्यधृति नामक पांडवपक्षीय योद्धा का सोमशर्मन--( मौर्य. भविष्य.) एक राजा, जो भागवत के अनुसार शालिशुक राजा का पुत्र, एवं शतधन्व पैतृक नाम (म. उ. परि. १.१४.१२; सत्यधृति देखिये)। सौचीक-अग्नि नामक वैदिक सूक्तद्रष्टा का पैतृक राजा का पिता था (भा. १२.१.१४)। नाम (ऋ. १०.५१.२)। २. शिकशर्मन् नामक ब्राह्मण का पितृभक्त पुत्र, जो सौजन्य-एक देव, जो भृगु एवं पौलोमी के पत्रों में अपने अगले जन्म में प्रह्लाद बन गगी (पद्म. भू. ४-५)। से एक था (मत्स्य. १९५)। ३. वामनक्षेत्र का एक ब्राह्मण, जिसे विष्णु की कृपा से सौजात आराहि- एक आचार्य, जिसके यज्ञाहुति सुव्रत नामक पुत्र उत्पन्न हुआ था। के संबंध के मतों का निर्देश ऐतरेय ब्राह्मण में प्राप्त है। सामील ब्राह्मण जो सौटि-अंगिराकुलोत्पन्न एक गोत्रकार । विदेह देश के जनक राजा से आ मिला था (श. ब्रा. सौति रोमहर्षणसुत--एक सुविख्यात पुराण ११.६.२.१)। जैमिनीय उपनिषद ब्राह्मण में प्रवक्ता आचार्य, जो रोमहर्षण सूत नामक पुराणप्रवक्ता निर्दिष्ट सत्ययज्ञ प्राचीनयोग्य नामक आचार्य संभवतः । आचार्य का पुत्र एवं शिष्य था । यह व्यास की पुराणयही होगा (जै. उ. ब्रा. ३.४०.२)। शिष्यपरंपरा एवं महाभारत परंपरा का प्रमुख आचार्य १०८७ Page #1110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सौति प्राचीन चरित्रकोश सौदास था। इसी कारण पौराणिक साहित्य में इसका निर्देश 'महा- | है। कई अभ्यासकों के अनुसार, महाभारत का आरंभ मुनि' एवं 'जगद्गरु' आदि गौरवात्मक उपाधियों के साथ | 'नारायणं नमस्कृत्य' श्लोक से होता है (म. आ. १.१)। किया गया है (विष्णु. ३.४.१०)। इसका सही नाम | किन्तु अन्य कई अभ्यासक इस ग्रंथ का प्रारंभ 'आस्तिक उग्रश्रवस् था। पर्व' से (म. आ. १३), एवं अन्य कई अभ्यासक उसे कुरुक्षेत्र में समन्त पंचक क्षेत्र में, शौनका दिनैमिषारण्य- उपरिचर वसु की कथा से (म. आ. ५७ ) मानते हैं। वासी ऋषियों को महाभारत की कथा कथन करने का महाभारत के उपलब्ध संस्करण--इस ग्रंथ के मुंबई, ऐतिहासिक कार्य इसने किया। इसी कारण महाभारत- | कलकत्ता एवं मद्रास (कुंभकोणम् ) ये तीन पाठ प्रकाशित परंपरा में इसका नाम व्यास एवं वैसंपायन इतना ही | हो चुके हैं । इस ग्रंथ का एक काश्मीरी पाठ भी उपलब्ध है। आदरणीय माना जाता है। उपर्युक्त सारे पाटों को एकत्रित कर, एवं अनेकानेक । महाभारत की परंपरा--महाभारत की कथा तीन प्राचीन पाण्डुलिपियों का संशोधन कर, इस ग्रंथ का प्रमाणविभिन्न आचार्यों के द्वारा तीन विभिन्न प्रसंगों में कथन की भृत एवं चिकित्सक संस्करण पूना के भांडारकर प्राच्यविद्या गयी थी। इस कथा का आद्य प्रवक्ता व्यास था, जिसने संशोधन मंदिर के द्वारा प्रकाशित किया गया है। इस अपना 'जय' नामक ग्रंथ अपने शिष्य वैशंपायन को | संस्करण के सारे खंड प्रकाशित हुए हैं, केवल हरिवंश ही कथन किया । उसी ग्रंथ को काफी परिवर्धित कर | बाकी है। 'भारत' नाम से वैशंपायन ने उसे जनमेजय राजा को ___ हरिवंश--इस ग्रंथ को महाभारत का खिल (परिशिष्ट) कथन किया था। पर्व कहा जाता है, एवं इसकी रचना एकमात्र सौति के आगे चल कर सौति ने इसी ग्रंथ को अनेकानेक | द्वारा ही हुई है । व्यास एवं वैशंपायन के द्वारा विरचित आख्यान एवं उपाख्यान जोड़ कर, एवं उसमें 'हरिवंश' 'महाभारत' में भारतीय युद्ध का सारा इतिहास संग्रहित । नामक एक स्वतंत्र परिशिष्टात्मक ग्रंथ की रचना कर, उसे हुआ, किन्तु यादववंश में पैदा हुए कृष्ण की एवं उसके शौनकादि आचार्यों को कथन किया । सौति का यही ग्रंथ वंशजों की जानकारी वहाँ कहीं भी नहीं है। इस त्रुटि की 'महाभारत' नाम से प्रसिद्ध हुआ, एव 'महाभारत का पर्ति करने के लिए सौति ने 'हरिवंश' की रचना की, आज उपलब्ध संस्करण सोति के द्वारा विरचित ही है। जिसका कथन 'महाभारत' के 'स्वर्गारोहणपर्व' के पश्चात् इसी कारण, उपलब्ध महाभारत संस्करण के प्रवर्तक सौति के द्वारा किया गया। आचार्य यद्यपि व्यास एवं वैशंपायन है, उसका रचयिता सौत्रामणि-यांचालराजा द्रपद की पत्नी, जिसे कौकिली सौति है । सौति के द्वारा विरचित महाभारत के उपलब्ध | नामान्तर भी प्राप्त था (म. आ. परि. १.७९.९६)। संस्करण काल २०० इ. पू. माना जाता है। महाभारत का विस्तार--भारत एवं महाभारत के | सौदन्ति---एक पुरोहितसमुदाय, जो सुदन्त के वंशज .. स कथन के समय, वैशंपायन एवं जनमेजयः तथा सौति एवं | थे (पं. बा. १४.३.१३)। विश्वामित्र ऋषि के स्पर्धक के शौनक के दरम्यान जो प्रश्नोत्तर हुए, एवं तत्त्वज्ञान पर जो रूप में इनका निर्देश प्राप्त है।। संवाद हुए, इसके कारण ही यह महाभारत ग्रंथ प्रतिदिन | सौदामिनी-एक पक्षिणी, जो कश्यप एवं विनता की बढता ही रहा, यहाँ तक कि, महाभारत के उपलब्ध | कन्या थी। संस्करण में लगभग एक लाख श्लोक संख्या है। सौदास-सुदास राजा के पुत्रों के लिए प्रयुक्त महाभारत का कथन-जनमेजय के सर्पसत्र में वैशं| सामूहिक नाम । इन्होंने वसिष्ठ के पुत्र शक्ति को अग्नि में पायनप्रोक्त 'भारत' ग्रंथ इसने सुना था। पश्चात् शौनक भारत हमने मना था। पश्चात शौनक | फेंक दिया था (जै. उ. ब्रा. २.३९०)। अपने पुत्र का ऋषि के द्वारा नैमिषारण्य में द्वादशवर्षीय सत्र नामक एक वध होने पर वसिष्ठ ने इनसे प्रतिशोध लेना चाहा, एवं यज्ञ का आयोजन किया गया। वहाँ शौनक ऋषि के द्वारा अन्त में उसे इस कार्य में सफलता प्राप्त हुई (ते.सं. ७. प्रार्थना किये जाने पर इसने 'महाभारत' का कथन किया | ४.७.१; को. ब्रा. ४.८, पं. ब्रा. ४.७.३)। (म. आ. १.५, ४)। २. कोसल देश के मित्रसह कल्माषपाद राजा का . महाभारत का प्रारंभ---इस ग्रंथ का प्रारंभ कौन से श्लोक | नामान्तर, जो सुदास राजा का पुत्र होने के कारण उसे प्राप्त से होता है इस संबंध में विद्वानों में एकवाक्यता नहीं | हुआ था (कल्माषपाद देखिये)। १०८८ Page #1111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सौदास प्राचीन चरित्रकोश सौमापि ३. (सो. नील.) नीलवंशीय सहदेव राजा का नामान्तर के पास गया, एवं इसने उसकी एक कन्या विवाह के (सहदेव ३. देखिये)। . लिए माँगी। सौदेव-सुदेवपुत्र दिवोदास राजा का नामान्तर इसे बहुत बुढ़ा देख कर राजा के मन में इस प्रस्ताव (दिवोदास २. देखिये)। के प्रति घृणा उत्पन्न हुई। इसी कारण इसे परेशान सौद्युमिन-इक्ष्वाकुवंशीय युवनाश्व राजा का पैतृक नाम करने के हेतु उसने झूटी नम्रता से कहा 'मेरी पचास (म. व. १२६.९; युवनाश्व ३. देखिये)। कन्याओं में से जो भी कन्या आपका वरण करे उससे २. पूरुवंशीय भरत दौष्यन्ति राजा का पैतृक नाम (श. | आप विवाह कर सकते हैं। ब्रा. १३.५.४.१२)। __ मांधातृ का कपट पहचान कर इसने अपने बुढ़े रूप सौधिक--भृगुकुलोत्पन्न एक गोत्रकार । का त्याग कर, एक नवयुवक का रूप धारण किया, एवं इसी सौनकर्णि-अत्रिकुलोत्पन्न एक गोत्रकार। वेष में यह उसके अंतःपुर में गया। इसके नये रूप को सौनंदा--विदरथराजा की कन्या मुदावती का | देख कर मांधात की सभी कन्याओं ने इसका वरण किया। नामान्तर। आगे चल कर अपनी हर एक पत्नी से इसे सौ सौ पुत्र सौपुरि--अंगिराकुलोत्पन्न एक गोत्रकार । उत्पन्न हुए। सौपुष्पि-अत्रिकुलोत्पन्न एक गोत्रकार । इसप्रकार संसारसुख का यथेष्ट अनुभव लेने के सौबल-गांधार देश के शकुनि राजा का पैतृक नाम । | पश्चात् इसके मन में पुनः एक बार वैराग्यभावना उत्पन्न २. सर्पि वासि नामक आचार्य का एक शिष्य (ऐ. हुई, एवं यह वन में चला गया। इसकी पत्नियाँ भी बा. ६.२४.१६)। . विरागी बन कर इसके साथ वन में चली गयी ( भा. ९. सौबुधि--अंगिराकुलोत्पन्न एक गोत्रकार। ६.३८-५५, विष्णु. ४.२.३; पद्म. उ. २६२, गरुड १. १३८)। सौभग--बृहच्छ्लोक नामक आदित्य का एक पुत्र | २. एक ऋषि, जिसने गरुड को शाप दे कर. उसे यमुना (भा. ६.१८.८)। सौभद्र-(सो. वसु.) वसुदेव एवं रथराजी के पुत्रों नदी में आने में प्रतिबंध डाल दिया था (भा. १०. में से एक १७.१०)। . २. सुभद्रापुत्र अभिमन्यु का मातृक नाम। .. ३. एक आचार्य, जो भागवत के अनुसार, व्यास की .. सौभपति-सौभ देश के शाल्व राजा का नामान्तर। ऋशिष्यपरंपरा में से देवमित्र नामक आचार्य का शिष्य था। सौभर-पथिन् नामक आचार्य का पैतृक नाम, जो • उसे 'सोभरि' का वंशज होने के कारण प्राप्त हुआ था ४. एक ऋषि, जिसका आश्रम विंध्य पर्वत पर स्थित था । युधिष्ठिर के अश्वमेध यज्ञ के समय अर्जुन इसके (बृ. उ. २.५.२२; ४.५.२८ माध्य.)। आश्रम में आया था, जहाँ इसने उसे उद्दालक ऋषि के 'सौभरि-एक ऋषि, जिसने मांधातृ राजा की पचास द्वारा चंडी को दिये गये शाप की पुरातन कथा सुनायी थी। कन्याओं के साथ विवाह किया था। ऋग्वेद में एक वैदिक सूक्तद्रष्टा के नाते निर्दिष्ट सोभरि काण्व नामक ऋषि | आगे चल कर इसने अर्जुन के द्वारा चंडी का उद्धार कराया ( जै. अ. ९६ )। संभवतः यही होगा। ऋग्वेद में इसके द्वारा त्रसदस्यु राजा ' सौमदत्ति-यादव राजा भूरिश्रवस् का पैतृक नाम । की पचास कन्याओं के साथ विवाह करने का निर्देश २. सावर्णि मनु का पैतृक नाम । प्राप्त है (ऋ. ८.१९.३६ )। विष्णु में इसे बढच् कहा गया है (विष्णु. ४.२)। सौमनस्य--(स्वा. प्रिय.) एक राजा, जो भागवत पौराणिक साहित्य में--मांधात राजा की सौ कन्याओं के अनुसार यज्ञबाहु राजा का पुत्र था (भा. ५.२०.९)। के साथ इसका विवाह किस प्रकार हुआ, इसकी कथा | सौमाप--मानुतंतव्य नामक आचार्य का पैतृक नाम पौराणिक साहित्य में प्राप्त है। एक बार यमुना नदी के | (श. बा. १३.५.३.२ )। किनारे तपस्या करते समय, इसने रतिसुख में निमग्न एक / सौमापि--प्रियव्रत नामक ऋषि का पैतृक नाम, जो मछली का जोड़ा देखा, जिसे देख कर इसके मन में | उसे सोमाप ऋषि का वंशज होने के कारण प्राप्त हुआ विवाह की इच्छा उत्पन्न हुई। तदनुसार यह मांधातृ राजा | था (सां. आ, १५.१)। प्रा. च. १३७ ] १०८९ हुआ था | था। युधिष्ठिर का जहाँ इसने उसे Page #1112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सौमायन प्राचीन चरित्रकोश सौमायन--बुध नामक आचार्य का पैतृक नाम, जो सौश्रति--दुर्योधनपक्षीय एक राजा, जो त्रिगर्तराज उसे सोम का वंशज होने के कारण प्राप्त हुआ था (पं. सुशर्मन् का भाई था। भारतीय युद्ध में अर्जुन ने इसका ब्रा. २४.१८.६)। वध किया (म. क. १९.१०)। सौमक-विश्वामित्र कुलोत्पन्न एक गोत्र कार । - सौश्रोमतेय-आषाढि नामक आचार्य का मातृक नाम, सौम्य--एक पितरविशेष (भा. ४.१.६३)। जो उसे 'सुश्रीमता' का वंशज होने के कारण प्राप्त हुआ २. ( सो. क्रोष्टु.) एक यादवराजा, जो मत्स्य के होगा (श. ब्रा. ६.२.२.१.३७) । अनुसार रुपद् राजा का पुत्र था। सौषद्मन--विश्वन्तर नामक आचार्य का पैतृक नाम, ३. बुध ग्रह का पैतृक नाम । जो उसे सुपद्मन् का वंशज होने के कारण प्राप्त हुआ था सौयवसि-अजीगत ऋषि का पैतृक नाम (ऐ. बा. (ऐ. ब्रा. ७.२७.१; ३४.७)। ७. १५.६; सां. श्री. १५.१९.२९)। सौसुक--विश्वामित्रकुलोत्पन्न एक गोत्रकार । सौर--भृगुकुलोत्पन्न एक गोत्रकार। सोह--भृगुकुलोत्पन्न एक गोत्रकार। सौरभेय- एक ऋषि, जो दीर्घतमस् ऋषि का गुरु था सौह सोक्ति--भृगुकुलोत्पन्न एक गोत्रकार । (म. आ. ९८.१०३८* ; पंक्ति १-२)। सौहोत्र--एक पैतृक नाम, जो अजमिहळ एवं पुरुसौरमेयी-एक अप्सरा, जो वर्गा नामक अप्सरा। मिहळ नामक आचार्य बंधुओं के लिए प्रयुक्त किया गया । की सखी थी, एवं एक ब्राह्मण के शाप के कारण ग्राह है (ऋ. ४.४३-४४)। बनी थी । आगे चल कर अर्जुन ने इसका ग्राहयोनि से स्कंद--देवों का सेनापति, जो तारकासुर का वध करने उद्धार किया (म. आ. २०८.१९; स. १०.११)। के लिए इस पृथ्वी पर अवतीर्ण हुआ था। सात दिनों सौरि-भृगुकुलोत्पन्न एक गोत्रकार। की आयु में ही इसने तारकासुर का वध किया। पुराणों - सौर्य--एक पैतृक नाम, जो निम्नलिखित वैदिक सूक्त- में सर्वत्र इसे शिव एवं पार्वती का, अथवा अग्नि का पुत्र द्रष्टाओं के लिए प्रयुक्त किया गया है:-१. अभितपस्। माना गया है, एवं इसे 'छः मुखोंवाला' (षण्मुख) कहा (ऋ. १०.३७); २.धर्म. (ऋ. १०.१८१.३);३. चक्षुस्। गया है। .१०.१५८); ४. विभ्राज् (ऋ. १०.१७०)। जन्मकथा--इसके जन्म के संबंध में विभिन्न कथाएँ सौर्यायणिन् गार्ग्य-एक आचार्य, जो पिप्पलाद के महाभारत एवं पुराणों में प्राप्त हैं । ब्रह्मांड के अनुसार, पास 'स्वप्नविद्या' के संबंध में प्रश्न पूछने गया था | एकबार शिव एवं पार्वती जब एकान्त में बैठे थे, उस (प्र. उ. १.१.४.१)। समय इंद्र ने अष्टवसुओं में से अनल नामक अग्नि के द्वारा सौवर्चनस्--संश्रवस् नामक आचार्य का पैतृक नाम | उन के एकान्त का भंग किया । इस कारण शिव के वीय का (तै. सं. १.७.२.१)। आधा भाग भूमि पर गिर पड़ा। अग्नि के इस औद्धत्य सौवीर--सुवीर शैव्य नामक राजा का नामान्तर। | के कारण पार्वती अत्यंत क्रुद्ध हुई, एवं उसने अग्नि को शाप २. एक लोकसमूह, जिसका निर्देश सिंधु लोगों के दे कर शिव का वीर्य धारण करने पर उसे विवश किया। साथ प्राप्त है । इन लोगों का विपुल नामक राजा अर्जुन शिव के वीर्य को अग्नि ज्यादा समय तक धारण न के द्वारा मारा गया था (म. आ. परि. १.८०.४५)। कर सका, इसलिए उसने उसे गंगा को दे दिया। गंगा सौवीरी--सुवीर राजा की कन्या, जो मरुत्त आविक्षित ने भी उसे कुछ काल तक धारण कर भूमि पर छोड़ दिया। राजा की पत्नी थी (मार्क. १२८)। आगे चल कर उसी वीर्य से स्कंद का जन्म हुआ (ब्रह्मांड. २. पूरुवंशीय मनस्यु राजा की पत्नी (म. आ. ८९. | ३.१०.२२-६०; वायु. ११.२०-४९)। ७)। पाठभेद-'शूरसेनी'। महाभारत में इस ग्रंथ में इसकी जन्मकथा कुछ भिन्न सौवेष्ट--अंगिरस् कुलोत्पन्न एक गोत्रकार । प्रकार से दी गई है। एक बार सप्तर्षियों के यज्ञ में, अग्नि सौश्रवस-उपगु नामक आचार्य का पैतृक नाम सप्तर्षियों के पत्नियों पर कामासक्त हुआ, एवं अपनी (पं. वा. १४.६.८)। इसी के वंशज आगे चल कर अप्रिय पत्नी स्वाहा को छोड़ कर उनसे रमण करने के 'सोश्रवस' नाम से सुविख्यात हुए (का. सं. १३.१२)। लिए प्रवृत्त हुआ । अग्निपत्नी स्वाहा को यह ज्ञात होते ही . सौश्रवस काण्व-एक आचार्य (का.सं.१३.१२)। वह अरुंधती के अतिरिक्त अन्य छः सप्तर्षि पत्नियों में १०९० Page #1113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्कंद प्राचीन चरित्रकोश स्कंद समाविष्ट हुई । पश्चात् उसे ही सप्तर्षिपत्नियाँ समझ कर मस्य. १६०)। महाभारत में इसके द्वारा तारकासुर के अग्नि ने उससे संभोग किया । स्वाहा ने अग्नि से प्राप्त | साथ, महिषासुर का भी वध करने का निर्देश प्राप्त है (म. उसका सारा वीर्य एक कुण्ड में रख दिया, जिससे आगे | श. ४५.६४, अनु. १३३.१९; व. २२१.६६)। चल कर स्कंद का जन्म हुआ (म. व. २२३-२१४)। इसका जन्म अमावास्या के दिन हुआ, एवं शुक्ल छः ऋषिपत्नियों के गर्भ से उत्पन्न होने के कारण, इसे : षष्ठी के दिन इसने तारकासुर का वध किया। तारकासुर छः मुख प्राप्त हुए थे। अमावस्या के दिन इसका जन्म का वध करने के पूर्व शुक्ल पंचमी के दिन देवों ने इसे हुआ था। क्रौंच पर्वत पर (ब्रह्मांड. उ. ३.१०); स्थाणुतीर्थ में - यही कथा महाभारत एवं विभिन्न पुराणों में कुछ फर्क (म. श. ४१.७); अथवा वारुणितीर्थ में (पन. स्व. २७) से दी गयी है (म. व. २२०.९-१२, पन. सू. ४४ | सेनापत्य का अभिषेक किया। उसी दिन से यह देवों स्कंद. १.१.२७; मत्स्य, १५८.२७-२८; वा. रा. बा.| का सेनापति माना गया । शुक्ल पंचमी का इसका अभिषेक ३६)। । दिन, एवं शुक्ल षष्ठी का तारकासुर के वध का दिन कार्तिकेय नामान्तर--महाभारत में इसके विभिन्न नामान्तर की उपासना करनेवाले लोग विशेष पवित्र मानते हैं। निम्न प्रकार दिये गये हैं :-१. स्कंद; जो नाम इसे ___अन्य पराक्रम--तारक एवं महिषासुर के अतिरिक्त 'स्कन्न' वीर्य से उत्पन्न होने के कारण, अथवा इसने त्रिपाद, हृदोदर, बाणासुर आदि राक्षसों का वध किया दानवों का स्कंदन करने के कारण प्राप्त हुआ था; २. | था (म. श.४५.६५-८१)। इसने क्रौंचपर्वत का अपने बाण पाण्मातुर, जो नाम इसे छः ऋषिपत्नियों के गर्भ से उत्पन्न से विदरण किया था, एवं अपने 'शक्ति' से हिमालय पर्वत होने के कारण प्राप्त हुआ था; ३. कार्तिकेय, जो नाम इसे | उखाड देने की प्रतिज्ञा की थी (म. शां. ३१४.८-१०)। छः कृत्तिकाओं के गर्भ से उत्पन्न होने के कारण प्राप्त हुआ | ब्रह्मचर्यव्रत-तारकासुर के वध के पश्चात् पार्वती के • था; ४. विशाख, जो नाम इसे अनेक शाखा (हाथ) अत्यधिक लाड प्यार से यह समस्त देवस्त्रियों पर अपनी होने के कारण प्राप्त हुआ था; ५. षष्मुख, जो नाम इसे पापवासना का जाल बिछाने लगा, एवं बलात्कार करने इसके छः मुख होने के कारण प्राप्त हुआ था; ६. सेनानी लगा। इसके स्वैराचार की शिकायत देवस्त्रियों ने पार्वती अथवा देव सेनापति, जो नाम इसे देवों का सेनापति के पास की । इस पर पार्वती ने इसे सन्मार्ग पर लाने के होने के कारण प्राप्त हुआ था; ७. स्वाहेय, जो नाम | हेतु, सृष्टि की हर एक स्त्री में अपना ही रूप दिखाना इसे अमिपत्नी स्वाहा का पुत्र होने के कारण प्राप्त हुआ | प्रारंभ किया। उन्हें देखते ही इसे कृतकर्मों का अत्यधिक था (म. व. परि. १.२२); ८. सनत्कुमार--(ह. वं. १. | पश्चात्ताप हुआ, एवं इसने पार्वती के पास जा कर प्रतिज्ञा .३; म. व. २१९)। की, 'आज से संसार की सारी स्त्रियाँ मुझे माता के समान __. अस्त्रप्राप्ति--इसका जन्म होते ही विभिन्न देवताओं ने ही हैं' (ब्रह्म. ८१)। - इसे निम्नलिखित अस्त्र प्रदान किये :--१. विष्णु--गरुड, स्त्रियों के प्रति इसकी अत्यधिक विरक्त वृत्ति के कारण मयूर एवं कुक्कुट आदि वाहन; २. वायु-पताका; ३. | आगे चल कर इसका दर्शन भी उनके लिए अयोग्य सरस्वती--वीणा; ४. ब्रह्मा-अज; ५. शंभु-मेंढक; | माना जाने लगा। आज भी स्कंद का दर्शन स्त्रियाँ नहीं ६. भदैत्य--अपराजिता नामक शक्ति, जो इस दैत्य | लेती है, एवं इसकी प्रतिमा के दर्शन से स्त्री को सात के मुख से उत्पन्न हुई थी (ब्रह्मांड. ३.१०.४५-४८)। जन्म तक वैधव्य प्राप्त होता है, ऐसी जनश्रुति है। इस इसका उपनयन संस्कार विश्वामित्र ऋषि ने किया (म. | जनश्रुति के लिए पौराणिक साहित्य में कहीं भी आधार व. २१५.९)। प्राप्त नहीं हैकेवल मराठी 'शिवलीलामृत' ग्रंथ में यह तारकासुर वध-तारकासुर का वध करने के लिए स्कंद ने | कथा प्राप्त है (शिवलीला. १३)। अवतार लिया था । ब्रह्मा ने तारकासुर को अवध्यत्व का परिवार--इसकी पत्नी का नाम देवसेना था, जिससे वर देते हु कहा था कि, इस सृष्टि में केवल सात दिन | इसे शाख, विशाख, एवं नैगमेय नामक पुत्र प्राप्त हुए का अर्भक ही केवल उसका वध कर सकता है । इसी | थे। पौराणिक साहित्य में शाख, विशाख, एवं नैगमेय को कारण जन्म के पश्चात् सात दिनों की अवधि में ही इसने | स्कंद के पुत्र नहीं, बल्कि भाई बताये गये हैं, एवं वे तारकासुर से युद्ध कर, उसका वध किया (पद्म. सृ. ४४; | अनल नामक वसु एवं शांडिल्या के पुत्र बताये गये हैं १०९१ Page #1114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्कंद प्राचीन चरित्रकोश स्थविर ( वसु. १. देखिये)। महाभारत के अनुसार, एक बार स्तंबमित्र शाङ्ग--एक शार्गक पक्षी, जो मंदपाल इन्द्र के द्वारा इसके पीठ पर वज्र प्रहार करने से, उसी ऋषि एवं जरितृ शाम का पुत्र था। खांडववनदाह से इसे प्रहार से इसका विशाख नामक पुत्र, एवं कन्यापुत्र आदि | अग्नि ने मुक्त कराया (म. आ. २२३.१२)। पार्षद उत्पन्न हुए (म. व. २१७.१; २१९)। २. एक वैदिक सूक्तद्रष्टा (ऋ. १०.१४२.७-८)। कई अभ्यासकों के अनुसार इसकी पत्नी देवसेना एक स्तंभ-स्वारोचिष मन्वंतर के सप्तर्गियों में से एक । स्त्री न हो कर, देवों के उस सेना का प्रतिरूप है, जिसका २. एक शाखाप्रवर्तक आचार्य (पाणिनि देखिये)। आधिपत्य इस पर सौंपा गया था। स्तुति--(स्वा. प्रिय.) प्रतिहतू राजा की पत्नी, स्कंद के पार्षद-इसके सैनापत्य के अभिषेक के | निम जिससे इसे अज, एवं समन् नामक पुत्र उत्पन्न हुए थे समय विभिन्न देवताओं के द्वारा इसे अनेकानेक | (भा. ५.१५.५)। पार्षद, एवं महापार्षद दिये गये, जिनकी नामावलि - स्तुत्यवत--(स्वा. प्रिय) एक राजा, जो कुशद्वीप महाभारत में दी गयी है (म. व. २१३-२२१; श. के हिरण्यरेतम् राजा का पुत्र था। इसके राज्य का नाम ४४-४५)। इसीके ही कारण 'स्तुत्यव्रत' नाम से प्रसिद्ध हुआ (भा. __मातृका--स्कंद के सप्तमाताओं को मातृका कहा ५.२०.१४)। जाता है, जिनकी नामावलि निम्नप्रकार प्राप्त है:-१. स्तुभ--भानु नामक अग्नि के छः पुत्रों में से एक । काकी; २; हलिमा; ३. माता; ४. हली; ५. आर्या; ६. बाला; ७. धात्री । इन सप्तमाताओं के ब्राह्मी, स्तोक-एक गोप, जो कृष्ण का मित्र था (भा. १०. माहेश्वरी आदि विभिन्नगण भी प्राप्त हैं। इन मातृकाओं १५.२०)। स्थंडिलेयु--(सो. पूरु.) एक राजा, जो रौद्राश्व राजा । की, एवं इसकी, शिशुओं के आरोग्यप्राप्ति के लिए पूजा की जाती है। के दस पुत्रों में से एक था। इसकी माता का नाम 'घृताची' स्कंद की अनुचरी मातृकाओं की नामावलि भी महा था (भा. १०.२०.४)। भारत में सविस्तृत रूप में प्राप्त है (म. व. २१३-२२१)। स्थपति--जनमेजय राजा का एक सूत, जिसका मूल इन मातृका, एवं उनके साथ उपस्थित पुरुषग्रह ' स्कंद के नाम लौहिताक्ष था। इसे स्थलमापनादि अनेक शास्त्र, ग्रह माने जाते हैं (म. व. २१९)। कई अभ्यासकों के अवगत थे (म. आ. ४७.१४, ५३.१२ )। अनुसार, 'स्कंदापस्मार ' आदि 'स्कंदग्रह ' अपस्मार स्थल--(सू. इ.) एक राजा, जो भागवत के अनुसार आदि व्याधियों का प्रतिनिधित्व करते हैं। बल राजा का पुत्र था। २. एक शाखाप्रवर्तक आचार्य ( पाणिनि देखिये)। स्थलपिंड--भृगुकुलोत्पन्न एक गोत्रकार । ३. धर्मपुत्र आयु नामक वसु का एक पुत्र (आयु स्थलेय--एक राजा, जो रौद्राश्व राजा के दस पुत्रों में ८. देखिये)। एक था। स्कंदस--अंगिराकुलोत्पन्न एक गोत्रकार। स्थविर कौडिन्य--एक वैयाकरण, जिसके द्वारा स्कंदस्वाती--(आंध्र. भविष्य.) एक आंध्रवंशीय | नकार ' का उच्चार सानुनासिक एवं तीव्रतर बताया राजा, जो स्वाती राजा का पुत्र था ( मत्स्य. २७३.६)। | गया है (ते. प्रा. १७.४ )। स्कंध--एक शाखाप्रवर्तक आचार्य (पाणिनि देखिये)। स्थविर जातुकर्ण्य--जातुकर्ण्य नामक आचार्य की २. धृतराष्ट्रकुलोत्पन्न एक नाग, जो जनमेजय के एक उपाधि, जिसका शब्दशः अर्थ श्रेष्ठ' होता है (को. सर्पसत्र में दग्ध हुआ था। ब्रा. ६५.१)। स्कंभ-एक शाखाप्रवर्तक आचार्य (पाणिनि देखिये)। स्थविर शाकल्य--एक उच्चारशास्त्रज्ञ आचार्य स्तनयित्न-धर्मपुत्र विद्योत के पुत्रों का सामूहिक | (ऋ. प्रा. १८५)। शतपथ ब्राह्मण में एक तत्त्वज्ञ नाम (भा. ६.६.५)। आचार्य के नाते इसका निर्देश प्राप्त है, जहाँ मानवीय स्तनित--भृगुकुलोत्पन्न एक गोत्रकार। प्राण में चक्षु, कर्ण आदि पंच इंद्रियाँ सूक्ष्मरूप से विद्यस्तंब-शाभपराशरकुलोत्पन्न एक गोत्रकार । मान होने के इसके मत का निर्देश प्राप्त है (ऐ. आ.३. २. स्वारोचिष मन्वंतर के सप्तर्षियों में से एक । | २.१.६; सां. आ. ७.१६)। पाठभेद-'स्थवीर'। १०९२ Page #1115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थाणु प्राचीन चरित्रकोश स्वधा , स्थाणु--ग्यारह रुद्रों में से एक । यह ब्रह्मा का पौत्र, २. एक राक्षस, जो यातुधान राक्षस का पुत्र, एवं 'स्थाणु' का पुत्र था (म. आ. ६०.३)। इसका | एवं निकुंभ राक्षस का पिता था (ब्रह्मांड. ३.७.९५)। प्रजापति से संवाद हुआ था (म. शां. २४९.१-१२)। स्फोटन-एक व्याकरणकार (अ. प्रा. १.१०३; २. ब्रह्मा का एक मानसपुत्र, जो ग्यारह रुद्रों का पिता | २.३८)। माना जाता है (म. आ. ६०.३)। "स्फोटायन--एक व्याकरणकार (पा. सू. ६.१. ३. इन्द्रसभा में उपस्थित एक ऋषि (म. स. ७.१५)। | १२३)। स्थान--सुख देवों में से एक। स्मदिभ--इन्द्र का एक शत्र, जिसे उसने तुज्र के साथ कुन्स के अधिकार में सौंपा था (ऋ. १०. स्थिरक गार्ग्य-एक आचार्य, जो वसिष्ठ चैकिता | ४९.४ )। नेय नामक आचार्य का शिष्य, एवं मशक गार्ग्य नामक स्मय-स्वारोचिष मन्वंतर का एक प्रजापति । आचार्य का गुरु था (वं. वा. २.)। . २. धर्म एवं पुष्टि का एक पुत्र । स्थूण--विश्वामित्र का एक पुत्र । स्मर--मरीचि एवं ऊर्णा के पुत्रों में से एक । २. स्थूणाकर्ण नामक यक्ष का नामांतर । स्मरदूती--जालंधर दैत्य की वृंदा नामक पत्नी की स्थूणकर्ण-एक ऋषि, जो पांडवों के वनवासकाल में एक सखी (पन. ३.९)। उनके साथ द्वैतवन में निवास करता था (म. स. २७. स्मृत-स्वारोचिष मनु का एक पुत्र । २३)। स्मृति--धर्म एवं मेधा के पुत्रों में से एक । स्थूणाकर्ण--एक यक्ष, जिसने शिखण्डिन् को २. अंगिरस कुलोत्पन्न एक गोत्रकार । अपना पुरुषत्व प्रदान किया था (शिखण्डिन् देखिये)। ३. दक्ष की कन्या, जो अंगिरस् ऋषि की पत्नी थी। यह कुबेर का अनुचर था (म. उ. १९२.२०-२२)। ' स्यातपायन-जपातय नामक पराशरकुलोत्पन्न पाठभेद-' स्थूण'। गोत्रकार का नामांतर। 'स्थूलकर्ण-एक यक्ष, जो मणिवर एवं देवजनी के स्थावास्य- शिखण्डिन् नामक शिवावतार का एक पुत्रों में से.एक था। शिष्य। - स्थूलकेश--एक ऋषि, जिसने जंगल में अनाथ पड़ी स्यमरश्मि--एक वैदिक सूक्तद्रष्टा (ऋ. १०.७७-- हुई प्रमद्वारा को पालपोस कर बड़ा किया था। आगे ७८)। यह अश्विनों के कृपापात्र व्यक्तियों में से एक चल कर यही कन्या इसने कुरु ऋषि को विवाह में प्रदान | था, एवं अपने बाणों से उन्होंने इसकी रक्षा की थी की था (म. आ. ८)। (ऋ. १.११२.१६)। इसके घर में इंद्र सोमपान के . स्थूलशिरस्--एक ऋषि, जो 'अश्वशिरस्' ऋषि का लिए उपस्थित हुआ था। पुत्र था। इसने विश्वावसु नामक गंधर्व को कबंध राक्षस २. एक ऋषि, जो कपिल ऋष का शिष्य था । गोरूप बनने का शाप दिया था ( यवक्रीत देखिये)। धारण करनेवाले कपिल ऋषि से इसका प्रवृत्ति एवं निवृत्ति स्थूलाक्ष--एक राक्षस, जो दूषण राक्षस का अमात्य मार्ग के विषय में संवाद हुआ था (म. शां. २६०था (वा. रा. अर. २३-३०)। २६२)। स्थैरकायन--मित्रवर्चस् नामक आचार्य का पैतृक स्योद--भव्य देवों में से एक । नाम (वं. बा. १)। स्थौर-अग्नियूप (अग्निस्थ ) नामक वैदिक सूक्तद्रष्टा स्त्रवस्--स्वायंभुव मन्वन्तर के जित देवों में से एक। स्वकेतु--निमिवंशीय सुकेतु राजा का नामान्तर । का पैतृक नाम (ऋ. १०.११६ )। स्थौलाष्टीवि--एक वैयाकरण (नि. १०.३.१)। स्वधर्मन्--वैवस्वत मनुपुत्र धृष्ट के पुत्रों में से एक (पद्म. स. ८)। स्नातप--कश्यपकुलोत्पन्न एक गोत्रकार। स्वधा-दक्ष की एक कन्या, जो पितरों को हविर्भाग स्पर्श--तुषित देवों में से एक । पहुँचानेवाले अंगिरस् ऋषि की पत्नी थी। इसकी वयुना स्फूर्ज-एक राक्षस, जो पौष माह में भग नामक सूर्य एवं धारिणी नामक दो कन्याएँ; एवं पितर तथा अथर्व के साथ भ्रमण करता है (भा. १२.११.४२)। । आंगिरस नामक दो पुत्र थे (भा. ४.१.६३, ६.६.९)। १०९३ Page #1116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वधामन् प्राचीन चरित्रकोश स्वर्णा स्वधाम--उत्तम मन्वन्तर का एक देवगण । स्वरदिन--एक गंधर्व, जिसकी कन्या का नाम २. रैवत मन्वन्तर के सप्तर्षियों में से एक । सुत्वरा था। ३. रुद्रसावर्णि मन्वन्तर का एक अवतार, जो सत्यसह स्वरा--मद्रदेशीय राजकन्या ( पन, उ. १०५)। एवं सुनृता के पुत्रों में से एक था । २. उत्तानपाद एवं सूनृता की कन्याओं में से एक। स्वनद्रथ--एक राजा, जो मेधातिथि का आश्रय | स्वराज-कर्दम प्रजापति की एक कन्या, जो अथर्व दाता था (ऋ. ८.१.३२)। लुडविग के अनुसार यह आंगिरस की कन्या थी। इसके अयास्य, उतथ्य, उशिति, आसङ्ग का ही नामान्तर था (लुडविग,ऋग्वेद का अनुवाद- | गौतम एवं वामदेव नामक पाँच पुत्र थ (ब्रह्मांइ. ३.१. ३. १५९)। १०२)। स्वनय आवयव्य--सिंधु देश का एक राजा, जिसने स्वराष्ट्र--एक राजा, जिसकी पत्नी का नाम उत्पलाकक्षीवत् को उपहार प्रदान किया था (ऋ. १.१२६. वती, एवं पुत्र का नाम तामस मनु था (तामस ३. देखिये)। १)। बृहस्पति की कन्या रोमशा इसकी पत्नी थी। स्वरूप--वरुणलोक का एक असुर (म. स. ९.१४)। (ऋ. १.१२६.६-७; बृहदे. ३.१४५-१५५; सा.श्री. १६. | पाठभेद (भांडारकर सहिता)-सुरूप'। ११.५) । इसे 'स्वनय भाव्य' नामान्तर भी प्राप्त था। स्वरोचिष--एक राजा, जो कलि राजा का पात्र, एवं स्वभूमि--(सो. कुकुर.) एक राजा, जो विष्णु के | स्वरोचित दातिमत: स्वरोचिप ( द्युतिमत् ) मनु राजा का पुत्र था। इसकी माता अनुसार उग्रसेन राजा का पुत्र था। का नाम वरुथिनी था। . स्वमति--(स. दिष्ट.) दिष्टवंशीय प्रमति राजा का इसे समस्त प्राणियों की भाषाएँ जानने की विद्या, एवं नामान्तर (प्रमति ५. देखिये)। 'पद्मिनी विद्या' ज्ञात थी, जो इसे क्रमशः मंदारविद्याधर की. स्वमूर्धन--एक देव, जो भृगुऋषि का पुत्र था। कन्या विभावरी, एवं पार यक्ष की कन्या कलावती से प्राप्त स्वमृडीक--सत्य देवों में से एक । हुई थी (मार्क. ६१)। स्वयंप्रभा--एक अप्सरा, जो मेरुस पावणि की कन्या, ___पद्मिनी' विद्या के बल से इसने पूर्व दिशा में पूर्व मामा एवं हेमा नामक अप्सरा की सखी थी। इसे प्रभावती कामरूप में विजय, उत्तर दिशा में नंदवती नगर, एवं नामान्तर भी प्राप्त था। दक्षिण में ताल नगर 'नामक नगरों का निर्माण किया। . इसकी सखी हेमा ने अपने स्वर्गवास के समय,मय के एक बार एक हंसयुगल ने इसे कामासक्त कह कर इसकी द्वारा तैयार किया गया दैवी स्थान इसे प्रदान किया था। आलोचना की, जिस कारण विरक्त हो कर यह बन में चला उसी स्थान के कारण इसे अनेकानेक दैवी शक्तियाँ प्राप्त | गया (मार्क. ६३)। हुई थी। सीताशोध के लिए निकले हुए अंगदा दि वानरों __ परिवार-इसकी मनोरमा, विभावरी एवं कलावती को इसने ही समुद्र के तट पर पहुँचाया था। आगे चल | नामक तीन पत्नियाँ थी, जिससे इसे क्रमशः विजय, कर, राम के दर्शन से मुक्ति प्राप्त कर यह स्वर्गलोक चली मेरुमन्द, एवं प्रभाव नामक तीन पुत्र उत्पन्न हुए थे। गयी (वा. रा. कि. ५०-५२)। आगे चल कर एक वनदेवता से इसे स्वारोचिप अर्थात् स्वयंप्रभु--अट्ठाईस व्यासों में से एक । द्युतिमत् नामक पुत्र उत्पन्न हुआ, जो आगे चल कर स्वयंभु ब्रह्मन--अहाईस व्यासों में से एक। चक्रवर्ती सम्राट् बन गया। स्वयंभू--एक आचार्य, जो श्राद्ध विधि का प्रथम स्वर्ग--धर्म एवं यामी का एक पुत्र, जिसके पुत्र का पुरस्कर्ता माना जाता है (म. अनु. १९१)। . . .) | नाम नंदिन था (भा. ६.६.६)। स्वयंभोज---(सो. कोष्टु.) एक यादव राजा, जो स्वर्जित् नानजित-एक राजा (श. बा. ८.१. भागवत के अनुसार शिनिराजा का पुत्र, एवं हृदिक राजा | ४.१०)। का पिता था (भा. ९.२४,४६)। विष्णु एवं वायु में इसे स्वर्णर-एक यज्ञकर्ता (ऋ. ८.३.१२, १२.२)। क्रमशः प्रतिक्षत्र एवं प्रतिक्षित राजा का पुत्र कहा गया है। स्वर्णरोमन--(सू. निमि.) विदेह देश का एक राजा, स्वरक्षस--अट्ठाईस व्यासों में से एक । जो महारोमन् जनक का पुत्र था। स्वरपुरंजय--एक राजा, जो वायु के अनुसार मथुरा स्वर्णा-एक अप्सरा, जो वृन्दा की माता थी ( पन. नगरी में राज्य करता था। | उ. ४)। १०९४ Page #1117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वर्भानवी प्राचीन चरित्रकोश - स्वायंभुव स्वर्भानवी--आयु राजा की पत्नी, जिसके पुत्र का ___ स्वस्स्यात्रेय--एक ऋषिसमुदाय, जिसका निर्देश नाम नहुष था (म. आ. ७०.२३)। | ऋग्वेद में वैदिक सूक्तद्रष्टा के नाते प्राप्त है (ऋ. ५.५०- स्वर्भानु-एक असुर, जिसके द्वारा सूर्य को ग्रस्त | ५१)। महाभारत में इन्हें अत्रिकुलोत्पन्न ऋषि कहा गया है करने का निर्देश ऋग्वेद में अनेक बार प्राप्त है (ऋ. ५. (म.आ. ८.२०)। हरिवंश में इनकी संख्या दस बतायी २०.५-९)। पौराणिक साहित्य में निर्दिष्ट राहु ग्रह गयी है (ह. वं. १.३१.१७, प्रभाकर एवं अत्रि देखिये)। संभवतः यही हैं ( राहु देखिये)। स्वस्थली--वसिष्ठकुलोत्पन्न एक गोत्रकार। ___ इसने सूर्य को अंधःकार से आवृत किया, एवं सारी स्वह्न-स्वारोचिष मन्वन्तर के देवगणों में से एक । सृष्टि हीनदीन बन गयी । आगे चल कर देवताओं ने साम २. (स्वा. प्रिय.) एक राजा, जो भागवत के अनुसार का पठन कर इस ग्रहण को दूर किया (पं. बा. ४.५.२; | यक्ष एवं दक्षिणा का पुत्र था (भा. ४.१.७)। ६.१३)। यह ग्रहण अत्रि के द्वारा (पं. ब्रा. ६.६.८); | स्वागज--शक्तिपुत्र पराशर ऋषि का नामान्तर। सोम एवं रुद्र के द्वारा (श. ब्रा. ५.३.२.२) दूर होने का स्वागत-(सू. निमि.) एक राजा, जो वायु के निर्देश भी प्राप्त है। अनुसार शकुनि राजा का पुत्र था । . देवताओं के द्वारा ग्रहण नष्ट करने पर, उस विनष्ट | — स्वाति--सोम की सत्ताईस स्त्रियों में से एक। अंधःकार से अनेक वर्ण के मेंढक उत्पन्न हुए, जिनके वर्ण. २.(आंध्र, भविष्य.) एक आंध्रवंशीय राजा जो क्रमशः काले, लाल, एवं सफेद थे। इन सारे मढकों को | मेघस्वाति राजा का पुत्र था। आदित्य को दे कर देवताओं ने विभिन्न ओषधियों का स्वातिवर्ण-(आंध्र. भविष्य.) एक राजा, जो मत्स्य निर्माण किया (तै. सं. २.१.२२; सां. बा. २४.३)। के अनुसार कुन्तलस्वाति राजा का पुत्र था। पौराणिक साहित्य में इस साहित्य में इसे कश्यप स्वायंभुव मनु--एक सुविख्यात राजा, जो स्वायंभुव एवं दनु का पुत्र कहा गया है (भा. ६.६.३; म. आ. नामक पहले मन्वन्तर का अधिपति मनु माना जाता है। ५९.२४; विष्णु. १.२१.५)। इसकी कन्या का नाम प्रभा 'मनुस्मृति' नामक सुविख्यात धर्मशास्त्रविषयक ग्रंथ का (सुप्रभा) था (विष्णु. १.२१.५), जिसका विवाह नमुचि कर्ता यही माना जाता है (मनु स्वायंभुव देखिये)। (मा. ६.६.३२), अथवा नहुष से हुआ था (ब्रह्मांड. राज्यविस्तार--भागवत में नवखण्डात्मक पृथ्वी का ३.६.२३-२५)। वर्णन प्राप्त है, जिनमें से भरतखंड नामक नौवाँ खण्ड २. एक सँहि केय असुर, जो जो विप्रचित्ति एवं सिंहिका आधुनिक भारतवर्ष माना जाता है। इस खण्ड में से के पुत्रों में से एक था। ब्रह्मावर्त नामक प्रदेश में स्थित बहिष्मती नगरी का स्वर्गीथे--(स्वा. उत्तान.) वत्सर राजा की पत्नी, | सर्वाधिक प्राचीन राजा स्वायंभुव मनु माना जाता है। ' जो पुष्णार्ण आदि पाँच पुत्रों की माता थी (भा. ४.१३. - पृथ्वी का सम्राट्र--भागवत में स्वायंभुव मनु को समस्त १२)। पृथ्वी का सम्राट् कहा गया है (भा. ३.२१.२५, २२. स्वश्न-एक असुर, जो इंद्र का शत्रु था। इंद्र ने | २९)। उस समय सारी पृथ्वी समतल एवं अखण्ड थी, इसका वध किया (ऋ. २.१४.५)। वह आज की तरह समुद्रों में विभाजित न थी। स्वश्रव--अंगिराकुलोत्पन्न एक मंत्रकार । परिवार-इसकी पत्नी का नाम शतरूपा (बार्हिष्मती) स्वश्व--एक राजा, जिसके पुत्र के रूप में स्वयं सूर्य | था, जिससे इसे प्रियव्रत एवं उत्तानपाद नामक दो पुत्र जन्म लिया था। एक बार इसका एव एतश राजा का | उत्पन्न हुए । इनमें से अपने ज्येष्ठ पुत्र प्रियव्रत को युद्ध चालु था, उस समय इंद्र ने एतश के पक्ष को सहायता स्वायंभुव ने अपना पृथ्वी का सारा राज्य प्रदान किया। की। इस कारण यह एवं इसका पुत्र पराजित हुए (ऋ. प्रियव्रत के राज्यकाल में पृथ्वी में स्थित समुद्रों का ४.१७.१४)। विस्तार हुआ, एवं सारी पृथ्वी सात द्वीप एवं सात समुद्रों स्वसृप-कौशिक ऋषि के पुत्रों में से एक ( पितृवर्तिन में विभाजित हुई । प्रियव्रत के कुल दस पुत्र थे, जिनमें देखिये)। से तीन बाल्यकाल से ही वन में चले गये। इसी कारण । स्वस्तिकर-वसिष्ठकुलोत्पन्न एक गोत्रकार। अपना सात द्वीपों का पृथ्वीव्याप्त राज्य प्रियव्रत ने अपने स्वस्तितर--अंगिराकुलोत्पन्न एक गोत्रकार । | उर्वरित सात पुत्रों में बाँट दिये। १०९५ Page #1118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वायंभुव प्राचीन चरित्रकोश स्वाहा प्रियव्रत के द्वारा अपने सात पुत्रों में विभाजित किये पौराणिक साहित्य में इस साहित्य में इसे ब्रह्मा का गये सात द्वीपों के नाम,एवं उनका आधुनिककालीन का पुत्र कहा गया है, एवं सृष्टि एवं प्रजा की वृद्धि के संभाव्य भौगोलिक स्थानआदि निम्नलिखित तालिका लिए इसका निर्माण ब्रह्मा के द्वारा किरे जाने का में दिया गया है। प्राचीन-कालीन सप्तद्वीपात्मक पृथ्वी निर्देश वहाँ प्राप्त है (मत्स्य. ३.३१)। इसे विराज की भौगोलिक जानकारी की दृष्टि से यह तालिका अत्यंत नामान्तर भी प्राप्त था (मत्स्य, ३.४५)। महत्वपूर्ण मानी जाती है: ___जन्म के समय यह अर्धनारी देहधारी था। आगे चल कर ब्रह्मा ने इसे आज्ञा दे कर, इसके शरीर के स्त्री एवं पुत्र का नाम द्वीप संभाव्य आधुनिक स्थान पुरुषात्मक दो भाग किये गये जिसमें से पुरुप देह भाग से यह, एवं स्त्री देहभाग से इसकी पत्नी शतरूपा बन गयी (मार्क. ५०, विष्णु. १.७२, भा. ३.१२.५३; वायु. १. अग्निध्र जंबूद्वीप एशिया खण्ड (इसी १.१०) खण्ड में अग्मिन की बाहिमती नामक नगरी थी)। स्वायव-कुशांब लातव्य नामक आचार्य का पैतृक इध्मजिह्व प्पक्षद्वीप यूरप खण्ड। नाम (पं. बा. ८.६.८)। यज्ञबाहु शाल्मलिद्वीप अटलटिस् खण्ड, जहाँ स्वायष्ट-श्वेतपराशर कुलोत्पन्न एक गोत्रकार ऋषिवर्तमानकाल में अटलँटिक गण। महासागर है। स्वार-शिव देवों में से एक। हिरण्यरेतस | कुशद्वीप आफ्रिका खण्ड। घृतपृष्ठ क्रौंचद्वीप उत्तर अमरिका खण्ड । । स्वाचिष मनु-द्वितीय मन्वन्तर का अधिपति मन,जो . मेधातिथि शाकद्वीप दक्षिण अमरिका खण्ड | अग्नि का पुत्र माना जाता है (भा. ८.१.१९)। माकडेय वीतिहोत्र पुष्करद्वीप दक्षिण ध्रुव खण्ड (अँटा- में इसे स्वरोचियू राजा का वनदेवी से उत्पन्न पुत्र माना गया टिका खण्ड)। है। स्वरोचिप का पुत्र होने के कारण, इसे स्वारोचिप पैतृक नाम प्राप्त हुआ (माक. ६३: स्वरोचिए देखिये)। जंबुद्वीप की जानकारी--आंमध्र को जबूदाप का देवी भागवत में इसे प्रियत्रत का पुत्र कहा गया है। राज्य प्राप्त हुआ, जो आगे चल उसने अपने अपने नौ इसने अपने बाल्यकाल में ही देवी की मृण्मय मूर्ति बना पुत्रों में विभाजित किया। प्राचीन जंबूद्वीप (रशिया | कर, एवं केवल सूखे पत्ते खा कर देवी की अत्यंत कठोर खण्ड) के भौगोलिक विभाजन की जानकारी प्राप्त करने उपासना की, जिस कारण इसे मन्वन्तराधिपत्य प्राप्त की दृष्टि से, अभिध का यह राज्यविभाजन अत्यंत महत्त्व. हुआ (दे. भा. १०.८)। पूर्ण माना जाता है: । स्वाह--(सो. क्रोटु.) क्रोष्ट्रवंशीय श्वाहि राजा का नामान्तर। पुत्र का नाम द्वीपविभाग स्वाहा--स्वायंभुव मन्वन्तर के दक्ष एवं प्रमृति की एक कन्या, जो अग्नि की पत्नी थी। इसने अपने पूर्वायुष्य में इलावृत इलावृतवर्ष । अत्यधिक तप किया, जिस कारण देवों को हविभाग रम्यक रम्यकवर्ष । पहुँचाने का शुभार्य इस पर सौंपा गया। हिरण्य हिरण्यवर्ष । ___ अग्नि से इसे पावक, पवमान एवं शुचि नामक तीन उत्तरकुरुवर्ष । अग्निस्वरूपी पुत्र, एवं खारोचिप मनु नामक मन्वन्तराधिप भद्राश्व भद्राश्ववर्ष । राजपुत्र उत्पन्न हुए (ब्रह्मवै. २.४०; भा. ४.१.६०)। किंपुरुप किंपुरुपवर्ष। ____ एक बार इसने सप्तर्षियों की पत्नियां का प धारण नाभि नाभिवर्ष, जो आगे चल कर अजनाभवर्ष कर आनस संभोग किया, जिस कारण इसे 'बंद' नामक अथवा भारतवर्ष नाम से पुत्र उत्पन्न हुआ (म. व. २१४-२२०; स्कंद . १. सुविख्यात हुआ। देखिये) आगे चल कर कंद ने अपनी माता को आशीवाद दिया, 'तुम समस्त प्राणिमात्र के लिए पुज्य १०९६ Page #1119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन चरित्रकोश स्वाहा रहोगी, एवं अग्नि में आहुति देते समय लोग 'स्वाहा' कह कर तुम्हारा नाम लेते रहेंगे' (म. व. २२०.५ ) । २. वैवस्वत मन्वन्तर के बृहस्पति एवं तारा की एक कन्या, जो बेधानर अग्नि की पत्नी थी। इसक काम, अमोघ एवं उक्थ नामक तीन पुत्र थे ( म. व. २०९.२३२५ ) । जो अनि ३. माहिष्मती के नीलध्वज राजा की कन्या, की पत्नी थी (जै. अ. १५ ) । हंस - - ब्रह्मा का एक मानसपुत्र, जो आजन्म ब्रह्मचर्य - व्रत का पालन करता रहा ( भा. ४. ८. १ ) । २. कृतयुग में उत्पन्न श्री विष्णु का एक अवतार, जिसने सनकादि आचार्यों को ब्रह्मा की उपस्थिति में योगं की शिक्षा प्रदान की थी। इसे 'यश' नामान्तर भी प्राप्त था ( मा. ११.१३.१९-४१) । " यह प्रजापति था, एवं इसने साध्यदेवों को मोक्षसाधन का कपन किया था। इसके द्वारा साध्यदेवों को दिया गया यही उपदेश महाभारत में 'हंसगीता' नाम से उपलब्ध है ( म. शां. २८८ ) । भागवत में और एक हंस ' गीता, दी गयी है, जिसमें 'मिक्षुगीता भी समाविष्ट है। ( भा. ११.११ - १३ ) । ३. साध्य देवों में से एक । ४. एक गंधर्व, जो कश्यप एवं अरिष्टा के पुत्रों में से एक था। इसीके ही अंश से धृतराष्ट्र का जन्म हुआ था (म. आ. ६१.७७ ) । ५. शिवदेवों में से एक । हंस स्वाहि-- (सो. क्रोष्टु.) क्रोष्टुवंशीय श्वाहि राजा का नामान्तर । एक । ७. जरासंध का एक मंत्री, जो शास्वाधिपति ब्रह्मदत्त का पुत्र था। इसके भाई का नाम डिम्भक था, एवं ये दोनों अस्त्रविद्या में परशुराम के शिष्य थे ( ह. वं. ३.१०३) । महाभारत में इसके भाई का नाम 'डिमक दिया गया है। ये दोनों भाई जरासंघ के मंत्री, एवं सलाहगार के नाते काम करते थे । | प्रा. च. १३८ ] स्वाहेय - स्कंद का मातृक नाम । स्विष्टकृत् -- एक अग्नि, जो बृहस्पति एवं तारा का एक पुत्र था (म.व. २०९.२१ ) । स्विष्टयन - शौनक नामक आचार्य का पैतृक नाम (श. बा. ११.४.१.२ - ३ ) | शिक्षा इसके मित्रों में विचक्र एवं जनार्दन प्रमुख थे। इनमें से जनार्दन, इसके पिता के मित्रसह नामक मित्र का पुत्र था । । ', हंस, डिम्मक एवं जनार्दन इन तीनों मित्र की शिक्षा एवं विवाह एक साथ ही हुआ था! आगे चल कर इसने एवं डिम्भक ने शिव की कड़ी तपस्या की, जिससे प्रसन्न हो कर शिव में इन्हें युद्ध में अजेयत्व एवं स्वसंरक्षणार्थं दो भूतपार्षद इन्हें प्रदान किये थे। उसीके साथ ही साथ इन्हें रुद्रास्त्र माहेश्वरास्त्र ब्रह्मशिरास्त्र आदि अनेकानेक अख भी शिवप्रसाद से प्राप्त हुए थे (ह. ६. ३.१०५) । दुर्वासस का शाप - शिव से प्राप्त अस्त्रशस्त्रों के कारण, वे दोनों भाई अत्यंत उन्मत्त हुए एवं सारे संसार को त्रस्त करने लगे । एक बार इन्होंने दुर्वासस् ऋषि को त्रस्त करना प्रारंभ किया, जिस कारण क्रुद्ध हो कर उस क्रोधी मुनि ने इन्हें विष्णु के द्वारा विनष्ट होने का शाप दिया ( ह. वं. ३.१०७ - १०८ ) । आगे चल कर अपने शाप का वृत्त दुर्वासस् ने द्वारका में जा कर कृष्ण से कथन किया, .६. (सो. वसु. ) वसुदेव एवं श्रीदेवा के पुत्रों में से एवं इन उन्मत्त भाईयों की वध करने की प्रार्थना उससे की। -- राजसूय यज्ञ अगले साल इन्होंने राजसूय यश किया, एवं तद्हेतु करभार प्राप्त करने के लिए अपने मित्र जनार्दन को इन्होंने कृष्ण के पास भेजा (ह. वं. ३. ११३ - ११५ ) । कृष्ण ने इन्हें करभार देने से इन्कार किया, एवं युद्ध का आह्वान दिया। पश्चात् संपन्न हुए युद्ध में कृष्ण ने इसके मित्र विचक्र का वध किया, १०९७ Page #1120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हंस प्राचीन चरित्रकोश हनुमत् एवं इसे लत्ताप्रहार कर पाताल में ढकेल दिया। वहाँ अर्जुन से युद्ध-युधिष्ठिर के अश्वमेध यज्ञ के समय, अर्जुन पाताल के सपों के दंश से इसकी मृत्यु हो गयी (ह.व. | के द्वारा रक्षण किया गया अश्व इसने पकड़ लिया, जिस ३.१२८)। कारण इसके सुधन्वन् एवं सुरथ नामक दो पुत्रों का अर्जुन महाभारत के अनुसार, अपने भाई डिम्भक के । ने वध किया। वध की वार्ता सुन कर, इसने स्वयं ही यमुना नदी में कूद पश्चात् अत्यधिक क्रुद्ध हो कर यह स्वयं युद्धभूमि में प्रविष्ट कर आत्महत्या कर ली (म. स. १३.४०-४२)। हुआ, एवं अर्जुन से युद्ध करने लगा। इससे युद्ध करने जरासंध का विलाए-इनके वध की वार्ता ज्ञात होते पर अर्जुन की निश्चित ही मृत्यु होगी, यह जान कर कृष्ण ही जरासंध राजा ने अत्यधिक शोक किया, एवं दीर्घकाल | ने इन दोनों में मध्यस्थता की, एवं अश्वरक्षण के कार्य तक विलाप करता रहा। आगे चल कर भीमसेन ने अपने में अर्जुन की सहायता करने की इससे प्रार्थना की। पूर्व दिग्विजय में जरासंध पर आक्रमण किया, उस समय परिवार-इसके सुरथ, सुधन्वन् , सुदर्शन, सुबल एवं सम भी उसने अपने इन दोनों स्वर्गीय मंत्रियों का स्मरण नामक पाँच पुत्र थे ( जै. अ. १७.२१)। किया था (म. स. १३.३६)। हंसवक्त्र--संद का एक सैनिक (म. श. ४४.७०)। ८. जरासंध की सेना का एक राजा, जो कृष्ण एवं हसिका--सुरभि नामक कामधेनु की एक गोस्वरूपी जरासंध के दरम्यान हुए सत्रहवें युद्ध में बलराम के द्वारा कन्या, जो दक्षिण दिशा को धारण करती है (म. उ. मारा गया (म. स. १३.४२-४३)। १००.८)। पाठभेद (भांडारकर संहिता)-'हंसका। ९. एक श्रेष्ठ पक्षी, जो कश्यपपत्नी ताम्रा का पौत्र, एवं हंसी--भगीरथ राजा की कन्या, जो कौत्स ऋषि की ताम्राकन्या धृतराष्ट्री की संतान मानी जाती है (म. आ. पत्नी थी (म. अनु. २००.२६)। ६०.५६)। हंडिदास--अंगिराकुलोत्पन्न एक गोत्रकार। महाभारत में हंस पक्षियों का निर्देश अनेकबार आता हनुमत् अथवा हनूमत्--एक सुविख्यात वानर, जो है । सुवर्ण से विभूषित एक हंस ने नल एवं दमयंती के सुमेरु के केसरिन् नामक वानर राजा का पुत्र, एवं संदेश एक दूसरे को पहुँचा कर, उनमें अनुराग उत्पन्न किष्किंधा के वानरराजा सुग्रीव का अमात्य था। एक किया था (म. व. ५०.१९-३२)। कुशल एवं संभाषणचतुर राजनीतिज्ञ, वीर सेनानी एवं भीष्म की मृत्यु के समय, सप्तर्षियों ने हंस का रूप निपुण दूत के नाते इसका चरित्र-चित्रण वाल्मीकि धारण कर उसे दक्षिणायन में प्राणत्याग करने से रोका था रामायण में किया गया है। (म. भी. ११४.९०) । एक हंस एवं काक का रूपकात्मक वाल्मीकि रामायण में इसे शौर्य, चातुर्य, बल, धैर्य, आख्यान भी कणीजुन युद्ध के समय निर्दिष्ट है (म. क. पाण्डित्य, नीतिमानता एवं पराक्रम इन दैवी गुणों का २८.१०-५४)। आलय कहा गया है- , हंसकायन-एक क्षत्रिय लोकसमूह, जो युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में भेंट ले कर उपस्थित हुआ था। शौर्य, दाक्ष्यं, बलं, धैर्य, प्राज्ञता नयसाधनम् | हंसचूड---कुबेरसभा का एक यक्ष (म. स. १०.१६)। विक्रमश्च प्रभावश्च हनृमति कृतालयाः॥ पाठभेद ( भांडारकर संहिता)-'अंगचूड' । (वा. रा. उ. ३५.३)। हंसजिह्व-भृगुकुलोत्पन्न एक गोत्रकार । इस प्रकार निपुण राजनीतिज्ञ, समयोचित मंत्रणा हंस-डिम्भक-शाल्वदेव का एक राजाद्वय, जो जरासंध | देनेवाला सचिवोत्तम, एवं महापराक्रमी वीर पुरुष हो के प्रमुख मंत्री एवं सलाहगार थे (हंस ७. देखिये)। कर भी यह विनम्रता, निरभिमानता, दीनता, वाणी की __ हंसध्वज--चंपक नगरी का एक विष्णुभक्त राजा, | मनोहारिता आदि सत्त्वगुणों से भी भरपूर था । इसी कारण जिसके विदूरथ, चंद्र केतु, चंद्रसेन आदि बन्धु थे। इसके | एक पराक्रमी वीरपुरुष के नाते नहीं, बल्कि राम के परममंत्रियों के नाम सुमति, सुगति, तुष्ट एवं श्रद्धालु थे, एवं भक्त एवं दासानुदास के नाते ही लोग इसे पहचानते हैं, शंख एवं लिखित नामक बंधुद्वय इसके पुरोहित थे । अपने एवं यही सेवापरायणता इसका सर्वश्रेष्ठ विन्द माना राज्य में इसने एकपत्नीव्रत का पुरस्कार किया था। गया है। १०९८ Page #1121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हनुमत् . प्राचीन चरित्रकोश हनुमत • 'हनुमत्' एक द्राविड शब्द--'रावण' शब्द की भाँति | हनुमत् देवता का सद्यःस्वरूप--भारतवर्ष के सभी 'हनुमत् ' भी एक द्राविड शब्द है, जो 'आणमंदी' | प्रदेशों में हनुमत् की उपासना अत्यंत श्रद्धा से आज की अथवा 'आणमंती' का संस्कृत रूप है; 'अण्' का | जाती है, जहाँ इसे साक्षात् रुद्रावतार एवं सदाचरण का अर्थ है 'नर', एवं 'मंदी' का अर्थ है 'कपि'। इस | प्रतीक रूप देवता माना जाता है। आध्यात्मिक ज्ञान प्रकार एक नरवानर के प्रतीकरूप में हनुमत् की कल्पना सर्व प्रदान करनेवाले शिव की, एवं व्यावहारिक कामनापूर्ति प्रथम प्रसृत हुई । इसी नरवानर को आगे चल कर देवता- | करनेवाले हनुमत् , भारत के सभी ग्रामों में आज सब से स्वरूप प्राप्त हुआ, एवं उत्तरकालीन साहित्य में राम एवं अधिक लोकप्रिय देवता हैं। इनमें से हनुमत् की उपासना लक्ष्मण के समान हनुमत् भी एक देवता माना जाने लगा। आरोग्य, संतान आदि की प्राप्ति के लिए,एवं भूतपिशाच गुणवैशिष्टय--हनुमत् की इस देवताविषयक धारणा आदि की पीड़ा दूर करने के लिए की जाती है । हनुमत् में इसका अर्थ वानराकृति रूप यही सब से बड़ी भूल.कही | का यह 'ग्रामदेवता स्वरूप' वाल्मीकि रामायण में जा सकती है। सुंग्रीव, वालिन् आदि के समान यह निर्दिष्ट हनुमत् से सर्वथा विभिन्न है, एवं वह ई. स. वानरजातीय अवश्य था, किन्तु बंदर न था, जैसा कि, ८ वी शताब्दी के उत्तरकाल में उत्पन्न हुआ प्रतीत आधुनिक जनश्रुति मानती है। वाल्मीकिरामायण में | होता है। निर्दिष्ट अन्य वानरजातीय वीरों के समान यह संभवतः जन्म-जैसे पहले ही कहा जा चुका है, यह सुमेरु उन आदिवासियों में से एक था, जिनमें वानरों को देवता | के राजा केसरिन् एवं गौतमकन्या अञ्जना का पुत्र था। मान कर पूजा की जाती थी ( वानर देखिये)। यह अञ्जना को वायुदेवता के अंश से उत्पन्न हुआ था, हनुमत् के व्यक्तित्व की यह पार्श्वभूमि भूल कर, उसे | एवं इसका जन्मदिन चैत्र शुक्ल पुर्णिमा था। एक सामान्य वानर मानने के कारण इसका स्वरूप, इसके जन्म के संबंध में अनेकानेक कथाएँ पौराणिक पराक्रम एवं गुणवैशिष्टयों को काफी विकृत स्वरूप प्राप्त | साहित्य में प्राप्त है, जो काफ़ी चमत्कृतिपूर्ण प्रतीत हुआ है, जो उसके सही स्वरूप एवं गुणवैशिष्टयों को होती हैं। शिवपुराण के अनुसार, एक बार विष्णु ने मोहिनी धुंधला सा बना देता है। का रूप धारण कर शिव को कामोत्सुक किया । पश्चात् हनुमत् देवता का मूल स्त्रोत-कई अभ्यासकों के | मोहिनी को देख कर स्खलित हुआ शिव का वीर्य सप्तर्षियों अनुसार, प्राचीन काल में हनुमत् कृषिसंबंधी एक देवता / ने अपने कानों के द्वारा अंजनी के गर्भ में स्थापित किया, था, जो संभवतः वर्षाकाल का, एवं वर्षाकाल में उत्पन्न हए | जिससे यह उत्पन्न हुआ (शिव. शत. २०)। वायु का अधिष्ठाता था। इसी कारण हनुमत् का बहुत आनंदरामायण के अनुसार, दशरथ के द्वारा किये गये सारा वर्णन वैदिक मरुत् देवता का स्मरण दिलाता है। पुत्रकामेष्टियज्ञ में उसे अग्नि से पायस प्राप्त हुआ, जो यह वायुपुत्र बादलों के समान कामरूपधर, एवं आकाश- | आगे चल कर उसने अपने पत्नियों में बाँट दिया। इसी गामी है। यह दक्षिण की ओर से, जहाँ से वर्षा आती पायस में से कुछभाग एक चील उड़ा कर ले गयी । आगे है, सीता अर्थात कृषि के संबंध में समाचार राम को चल कर, वहीं पायस चील के चोंच से छूट कर तप करती पहुँचाता है। इस प्रकार इंद्र के समान हनुमत का भी हुयी अञ्जनी के अंजुलि में जा गिरा। उसी पायस- के संबंध वैदिककालीन वर्षादेवता से प्रतीत होता है। | प्रसाद से इसका जन्म हुआ। आँठवी शताब्दी तक यह रुद्रावतार माने जाने भविष्यपुराण में इसके कुरूपता की मीमांसा इसे शिव लगा, एवं इसके ब्रह्मचर्य पर जोर दिया जाने लगा। एवं वायु का अंशावतार बता कर की गयी है। एक बार बाद में महावीर हनुमत् का संबंध, प्राचीम यक्षपूजा | शिव ने अपने रौद्रतेज के रूप में, अंजनी के पति केसरिन् (वीरपूजा) के साथ जुड़ गया, एवं बल एवं वीर्य की वानर के मुह में प्रवेश किया, एवं उसीके द्वारा अंजनी के देवता के नाते इसकी लोकप्रियता एवं उपासना और | साथ संभोग किया । पश्चात् वायु ने भी केसरिन् वानर भी व्यापक हो गयी है। आनंद रामायण के अनुसार, के शरीर में प्रविष्ट हो कर अंजनी के साथ रमण किया। पृथ्वी के सभी वीर हनुमत् के ही अवतार है: इन दो देवताओं के संभोग के पश्चात् अंजनी गर्भवती ये ये वीरास्त्वत्र भूम्यां वायुपुत्रांशरूपिणः। हुई, एवं उसने एक वानरमुख वाले पुत्र को जन्म दिया, ' (आ. रा.८.७.१२३)। | जो हनुमत् नाम से प्रसिद्ध हुआ। इसका विरूप मुख देख १०९९ Page #1122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हनुमत् प्राचीन चरित्रकोश हनुमत कर अंजनी ने उसे पर्वत के नीचे फेंकना चाहा, किंतु | त्रस्त करने लगा। एक बार इसने भृगु एवं अंगिरस् वायु की कृपा से यह जीवित रहा ( भवि. प्रति. ४.१३. ऋषियों को त्रस्त किया, जिस कारण उन्होंने इसे शाप ३१.३६)। दिया, 'अपने अगाध देवी सामथ्र्य का तुम्हें स्मरण न नामांतर- वाल्मीकि रामायण एवं महाभारत में रहेगा, एवं कोई देवतातुल्य व्यक्ति ही केवल उसे पहचान इसे सर्वत्र 'वायुपुत्र , 'पवनात्मज', 'अनिलात्मज', कर उसका सुयोग्य उपलोग कर सकेगा। 'वायुतनय आदि उपाधियों से भूषित किया गया है। सुग्रीव का मंत्री-सूर्य ने इसे व्याकरण, सूत्रवृत्ति, इसके अतिरिक्त इसे निम्नलिखित नामांतर भी प्राप्त वार्तिक, भाष्य, संग्रह आदि का ज्ञान कराया, एवं यह थे :--१. मारुति, जो नाम इसे मरुतपुत्र होने के कारण, सर्वशास्त्रविद् बन गया। पश्चात् सूर्य की ही आज्ञा से प्राप्त हुआ था; २. हनुमत् , जो नाम इसे इन्द्र के वज्र के यह सुग्रीव का स्नेही एवं बाद में मंत्री बन गया (शिव. द्वारा इसकी हनु टूट जाने के कारण प्राप्त हुआ था; शत. २०)। ३. वज्रांग (बजरंग)), जो नाम इसे वज्रदेही होने के सीताशोध के लिए किष्किंधा राज्य में आये हुए कारण प्राप्त हुआ था, ४. बलभीम, जो नाम इसे अत्यंत राम एवं लक्ष्मण से परिचय करने के हेतु सुग्रीव ने इसे बलशाली होने के कारण प्राप्त हुआ था। ही भेजा था। उस समय भिक्षुक का रूप धारण कर यह अस्त्रप्राप्ति--यह बाल्यकाल से ही बलपौरुष से युक्त पंचासरोवर गया, एवं अत्यंत मार्मिक भाषा में अपना है, जिसके संबंध में चमत्कृतिपूर्ण कथाएँ विभिन्न पुराणों / परिचय राम को दे कर, किष्किंधा राज्य में आने का :में प्राप्त है । एक बार अमावास्या के दिन अंजनी फल उसका हेतु पूछ लिया। लाने गयी, उस समय भूखा हुआ हनुमत् खाने के लिए ___संभाषणचातुर्य-उस समय इसकी वाक्चातुर्य एवं फल ढूँढने लगा। पश्चात् उदित होनेवाले रक्तवर्णीय संभाषण पद्धति से राम अत्यधिक प्रसन्न हुआ:--. सूर्यबिंब को देख कर यह उसे ही एक फल समझ बैठा, अविस्तरमसंदिग्धमविलम्बितमव्ययम्। . एवं उसे प्राप्त करने के लिए सूर्य की ओर उड़ा। उरस्थं कण्ठगं वाक्यं वर्तते मध्यमस्वरम् ॥ उड़ान करते समय इसने राह में स्थित राहु को धक्का संस्कारक्रमसंपन्नाम् , अद्रतामविलम्बिताम् । लगाया, जिससे क्रोधित हो कर इंद्र से इसकी शिकायत की। उच्चारयति कल्याणी वाचं हृदयहर्षिणीम् ॥ इंद्र ने अपना वज्र इस पर प्रहार किया, एवं यह एक (वा. रा. कि. ४.३१-३२)। पर्वत पर मूच्छित हो कर गिर पड़ा। अपने पुत्र को मूछित हुआ देख कर वायुदेव इंद्र से युद्ध करने (हनुमत् का संभाषण अविस्तृत, स्पष्ट, सुसंस्कारित के लिए उद्यत हुआ। यह देख कर समस्त देवतागण एवं मुसंगत है। वह कंट, हृदय एवं बुद्धि से एकसाथ घबरा गया, एवं अंत में स्वयं ब्रह्मा ने मध्यस्थता कर उत्पन्न हुआ सा प्रतीत होता है। इसी कारण इसका हनुमत् एवं इंद्र में मित्रता प्रस्थापित की । संभाषण एवं व्यक्तित्व श्रोता के हृदय के लिए प्रसन्न, एवं हर्षजनक प्रतीत होता है)। उस समय इंद्र के सहित विभिन्न देवताओं ने इसे निम्नलिखित अनेकानेक अस्त्र एवं वर प्रदान कियेः-- ___ पश्चात् इसकी ही सहायता से राम एवं सुग्रीव में १. इंद्र--वज्र से अवध्यत्व एवं हनुमत् नाम; २. सूर्य- मित्रता प्रस्थापित हुई । तदुपरांत राम एवं सुग्रीव में जहाँ सूर्यतेज का सौवा अंश, एवं अनेकानेक शास्त्र एवं अस्त्रों कलह के, या मतभेद के प्रसंग आये, उस समय यह उन का ज्ञान; ३. वरुण- वरुणपाशों से अवद्धत्व; ४. यम- दोनों में मध्यस्थता करता रहा। वालिन्वय के पश्चात् आरोग्य, युद्ध में अजेयत्व एवं चिरउत्साह; ५. ब्रह्मा-विषयोपभोग में लिप्त सुग्रीव को इसने ही जगाया, एवं युद्ध में भयोत्पादकत्व, मित्रभयनाशकत्व, कामरूपधारित्व | राम के प्रति उसके कर्तव्य का स्मरण दिलाया (वा. रा. एवं यथेष्टगामित्व; ६. शिव- दीर्घायुष, शास्त्रज्ञत्न एवं | कि. २९)। समुद्रोल्लंबनसामर्थ्य (पद्म. पा. ११४; उ. ६६; नारद । सीताशोध- सीताशोध के लिए दक्षिण दिशा १. ७९)। की ओर निकले हुए वानरदल का यह प्रमुख बना, एवं ऋषियों से शाप--देवताओं से प्राप्त अस्त्रशस्त्रों के सीताशोध के लिए निकल पड़ा । इस कार्य के लिए कारण यह अत्यधिक उन्मत्त हुआ, एवं समस्त सृष्टि को | जाते समय रास्ते में यह कण्डुक ऋषि का आश्रम, लोध्र ११०० Page #1123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हनुमत् . प्राचीन चरित्रकोश हनुमत् वन् .एवं सुपर्णवन आदि होता हुआ तपस्विनी स्वयंप्रभा | पर बैठ कर इसने रामचरित्र एवं स्वचरित्र का गान किया, के आश्रम में पहुँच गया। स्वयंप्रभा ने इसे एवं एवं अपना परिचय सीता से दिया। राम के द्वारा दी गयी अन्य वानरों को समुद्रकिनारे पहुँचा दिया। वहाँ जटायु | अभिज्ञान की अंगूठी भी इसने उसे दी (वा. रा. सं. का भाई संपाति इससे मिला, एवं सीता का हरण रावण के | ३२-३५)। द्वारा ही किये जाने का वृत्त उसने इसे सुनाया । उसी पश्चात् अपने पीठ पर बिठा कर सीता को बंधनमुक्त समय लंका में स्थित अशोकवन में सीता को बंदिनी कराने का प्रस्ताव इसने उसके सम्मुख रखा, किन्तु सीता किये जाने का वृत्त भी इसे ज्ञात हुआ (वा. रा. कि. | के द्वारा उसे अस्वीकार किये जाने पर (सीता देखिये), ४८-५९)। इसने उसे आश्वासन दिया कि, एक महीने के अंदर राम समुद्रोल्लंघन-लंका में पहुंचने में सब से बड़ी समस्या | स्वयं लंका में आ कर उन्हें मुक्त करेंगे (वा. रा. सु.३८)। समुद्रोल्लंघन की थी। इसके साथ आये हुए. बाकी सारे | लंकादहन--सीताशोध का काम पूरा करने के वानर इस कार्य में असमर्थ थे । अतएव इसने अकेले ही | पश्चात् इसने चाहा कि यह रावण से मिले । अपनी समुद्र लांघने के लिए छलांग लगायी। राह में इसे आराम | ओर रावण का ध्यान खींच लेने के हेतु इसने अशोकदेने के लिए मेरुपर्वत समुद्र से उभर आया । देवताओं वन का विध्वंस प्रारंभ किया । यह समाचार मिलते ही उसने के द्वारा भेजी गयी नागमाता सुरसा ने इसके सामर्थ्य की पहले जंबुमालिन् , एवं पश्चात् विरूपाक्षादि पाँच सेनापरीक्षा लेनी चाही, एवं पश्चात् इसे अंगीकृत कार्य में पतियों के साथ अपने पुत्र अक्ष को इसके विनाशार्थ भेजा। यशस्वी होने का आशीर्वाद दिया। किन्तु इन दोनों का इसने वध किया । पश्चात् इंद्रजित् ने ___ आगे चल कर लंका का रक्षण करनेवाली सिंहिका | इसे ब्रह्मास्त्र से बाँध कर रावण के सामने उपस्थित राक्षसी इससे युद्ध करना चाही, किन्तु इसने उसे किया (वा. रा. सु. ४१-४७)। • परास्त किया । पश्चात् एक सूक्ष्माकृति मक्खी का रूप | रावण ने इसके वध की आज्ञा दी, किन्तु विभीषण के धारण कर यह लंब पर्वत पर उतरा, एवं वहाँ से लंका में के द्वारा समझाये जाने पर इसके वध की आज्ञा स्थगित प्रवेश किया (वा. रा. सु. १; म. व. २६६)। वहाँ लंका कर दण्डरवरूप इसकी पूंछ में आग लगाने की आज्ञा दी देवी को युद्ध में परास्त कर यह सीता शोध के लिए | (वा. रा. सु. ५२)। इस समय अपनी माया से पूँछ बढ़ाने 'निकल पड़ा। की, एवं रावणसभा में कोलाहल मचाने की चमत्कृतिपूर्ण , अशोकवन में-सीता की खोज करने के लिए इसने कथा आनंदरामायण में प्राप्त है (आ. रा. सार. ९)। यहाँ लंका के सारे मकान हूँढे । पश्चात् रावण के सारे महल, र महल तक की इसने रावण के मूंछदादी में आग लगायी। शयनागार, भंडारघर, पुष्पक विमान आदि की भी इसने पश्चात् इसने अपनी जलती पूँछ से सारी लंका में छानबीन की। किन्तु इसे कहीं भी सीता न मिली। आग लगायी । पश्चात् इसे यकायक होश आया कि, लंकाअतः सीता की सुरक्षा के संबंध में यह अत्यंत चिंतित हुआ, एवं अत्यंत निराश हो कर वानप्रस्थ धारण करने का दहन से सीता न जल जाये। यह ध्यान आते ही, यह पुनः एक बार सीता के पास आया, एवं उसे सुरक्षित देख कर विचार करने लगा अत्यंत प्रसन्न हुआ। बाद में सीता को वंदन कर एक छलांग हस्तादानो मुखादानो नियतो वृक्षमूलिकः । में यह पुनः एक बार महेंद्र पर्वत पर आया (वा. रा. सं. वानप्रस्थो भविष्यामि अदृष्ट्वा जनकात्मजाम् ॥ . (वा. रा. सु. १३.३८)। | सुग्रीव से भेंट -सीता का शोध लगाने का दुर्घट कार्य (सीताशोध के कार्य में अयशस्विता प्राप्त होने के कारण यशस्वी प्रकार से करने के कारण सुग्रीव ने इसका अभियही अच्छा है कि,मैं वानप्रस्थ का स्वीकार कर,एवं विरागी नंदन किया । पश्चात् राम ने भी एक आदर्श सेवक के बन कर यहीं कहीं फलमूल भक्षण करता रहूँ)। | नाते इसकी पुनः पुनः सराहना की (वा. रा. यु. १. सीता से भेंट--अंत में यह नलिनी नदी के तट पर | ६-७)। उस समय राम ने कहा, 'हनुमत् एक ऐसा स्थित अशोकवन में पहुँच गया, जहाँ राक्षसियों के द्वारा आदर्श सेवक है, जिसने सुग्रीव के प्रेम के कारण एक यातना पाती हुई सीता इसे दिखाई दी। वहाँ एक पेड़ अत्यंत दुर्घट कार्य यशस्वी प्रकार से पूरा किया है ११०१ Page #1124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हनुमत् प्राचीन चरित्रकोश हनुमत् (भृत्यकार्य हनुमता सुग्रीवस्य कृतं महत् ) ( वा. रा. जिसके फलस्वरूप सीता ने इसे अपना हार इसे भंट में यु. १.६)। दिया था। राम-रावण युद्ध में-इस युद्ध में समस्त वानरसेना का ब्रह्मचर्य-प्राचीन वाङ्मय में इसे सर्वत्र 'ब्रह्मचरिन्। एकमात्र आधार, सेनाप्रमुख एवं नेता एक हनुमत् ही 'जितेंद्रिय' ऊर्ध्वरेतम् ' आदि ' उपाधियों से भूपित था । इस युद्ध में इसने अत्यधिक पराक्रम दिखा कर किया गया है। राम के अश्वमेधीय यज्ञ के समय हुए युद्ध निम्नलिखित राक्षसों का वध कियाः-१. जंबुमालिन् में शत्रघ्न आहत हुआ, उस समय इसने अपने ब्रह्मचय (वा. रा. यु. ४३); २ धूम्राक्ष ( वा. रा. यु. ५१-५२; के बल से उसे पुनः जीवित किया था (पन. पा. म. व. २७०.१४); ३. अकंपन (वा. रा यु.५५-५६), ४५.३१)। ४. देवान्तक एवं त्रिशिरस् (वा. रा. यु. ६९-७१); चिरंजीवित्व--प्राचीन साहित्य में इसे सर्वत्र चिरंजीव ५. वज्रवेग (म. व. २७१.२४)। माना गया है। इसके चिरंजीवत्व के संबंध में एक कथा पद्म रामरावण युद्ध के छठवे दिन रावण के ब्रह्मास्त्र के द्वारा में दी है । युद्ध के पश्चात् राम की सेवा करने के हेतु, यह मूच्छित हुए लक्ष्मण को हनुमत् ने ही राम के पास लाया। उसके साथ ही अयोध्या में रहने लगा। इसकी सेवावृत्ति पश्चात् इसके स्कंध पर आरूढ हो कर राम ने रावण को से प्रसन्न हो कर राम ने इसे ब्रह्मविद्या प्रदान की, एवं आहत किया (वा. रा. यु. ५९; राम दाशरथि देखिये )। वर प्रदान दिया, 'जब तक रामकथा जीवित रहेगी तब इंद्रजित के द्वारा किये गये अदृश्ययुद्ध में जब वानरसेना तक तुम अमर रहोंगे' (पद्म. उ. ४०)। . का निर्धण संहार हुआ, तब इसने ही हिमाचल के वृष किंतु पद्म में अन्यत्र राम-रावणयुद्ध के पश्चात , इसका शिखर पर जा कर वहाँ से संजीवनी, विशल्यकरिणी, सुग्रीव के साथ किष्किंधा में निवास करने का निर्देश प्राप्त सुवर्णकरिणी,एवं संधानी नामक ओषधी वनस्पतियाँ ला कर है (पना, सू. ३८)। वानरसेना को जीवित किया (वा. रा. यु.७४)। पश्चात् महाभारत में इसे चिरंजीव कहा गया है, एवं इसका युद्ध के अंतिम दिन रावण के द्वारा लक्ष्मण मूर्छित होने पर | स्थान अर्जन के रथध्वज पर वर्णन किया गया है। यह पुनः एक बार हिमालय के ओषधि पर्वत गया था । (म. व. १४७.३७)। इसके द्वारा भीम का गर्वहरण काफ़ी ढूँढने पर वहाँ इसे वनस्पतियाँ न प्राप्त हुई । इस | करने का निर्देश महाभारत में प्राप्त है (म .व. १४६. कारण सारा शिखर यह अपने बायें हस्त पर उठा कर ले आया (वा. रा. यु. १०१)। वाल्मीकि रामायण के पांडित्य--इसे ग्यारहवाँ व्याकरणकार कहा गया अनुसार, इसने दो बार द्रोणागिरि उठा कर लाया था | है, एवं इसके द्वारा विरचित 'महानाटक' अथवा 'हनुम(वा. रा. यु. ७४; १०१)। नाटक का निर्देश प्राप्त है। युद्ध में इसके दिखाये पराक्रम के कारण राम ने अत्यधिक प्रसन्न हो कर कहा थाः परिवार-इसके ब्रह्मचारी होने के कारण इसका अपना परिवार कोई न था। फिर भी इसके पसीने के न कालस्य, न शक्रस्य, न विष्णोर्वित्तपस्य च। एक बूंट के द्वारा एक मछली से इसे मकरध्वज अथवा कर्माणि तानि श्रयन्ते यानि युद्धे हनूमतः ।। मत्स्यराज नामक एक पुत्र उत्पन्न होने का निर्देश आनंद(वा. रा. उ. ३५.८)। रामायण में प्राप्त है (आ. रा. ७.११; मकरध्वज (इस युद्ध में हनुमत् ने जो अत्यधिक पराक्रम | देखिये)। दिखाया है, वह इंद्र, विष्णु एवं कुवेर के द्वारा भी कभी | मानस में-तुलसी के मानस में चित्रित किया गया किसी युद्ध में नहीं दिखाया गया है)। हनुमत् एक सेनानी नहीं, बल्कि अधिकतर रूप में राम का अयोध्या में युद्ध समाप्त होने पर अयोध्या के सभी परमभक्त हैं। यद्यपि मानस में इसके समुद्रोल्लंघन, लोगों का कुशल देख आने के लिए, एवं भरत को अपने अशोक वाटिकाविध्वंस, लंकादहन, मेघनादयुद्ध,कुंभकर्ण युद्ध आगमन की सूचना देने के लिए राम ने इसे भेजा था आदि पराक्रमों का निर्देश प्राप्त है, फिर भी इन सारे (वा. रा. यु. १२५-१२७; म. व.२६६)। राम के | पराक्रमों की सही पार्श्वभूमि इसकी राम के प्रति अनन्य राज्याभिषेक के समय इसने समुद्र का जल लाया था, भक्ति की है। इसी कारण तुलसी कहते है: ११०२ | ५९-७९)। Page #1125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हनुमत् प्राचीन चरित्रकोश हयग्रीव 'महावीर विनवउँ हनुमाना। देव सिद्ध हुआ। इस कारण क्रुद्ध हो कर, ब्रह्मा ने उसे राम जासु जस आपु बरवाना। उसका मस्तक टूट जाने का शाप दिया। आगे चल कर . (मानस. १.१६.१०)। एक अश्वमुख लगा कर यह देवताओं के यज्ञ में शामिल हुआ। यज्ञसमाप्ति के पश्चात् इसने धर्मारण्य में तप हन्त-अमिताभ देवों में से एक । किया, जहाँ शिव की कृपा से इसका अश्वमुख नष्ट हो कर हय-तुषित एवं साध्य देवों में से एक। इसे अपना पूर्वरूप प्राप्त हुआ। हयग्रीव-विष्णु का एक अवतार । यह अश्वमुखी होने के कारण इसे 'हयग्रीव' नाम प्राप्त हुआ था। हयग्रीव असुर का वध--पौराणिक साहित्य में हयग्रीव इसे 'हयशिरस्। 'अश्वशिरस्' नामांतर भी प्राप्त थे | एवं मधुकैटभ असुरों का वध करने के लिए श्रीविष्णु का (विष्णु देखिये)। | हयग्रीव नामक अवतार होने का निर्देश प्राप्त है। एक बार हयग्रीव नामक असुर ने पृथ्वी में स्थित वेदों का हरण स्वरूपवर्णन--अगस्त्य ऋषि को कांची नगरी में इसके | किया। उस पर ब्रह्मादि सारे देव हयग्रीव की शिकायत दिये दर्शन का वर्णन ब्रह्मांड में प्राप्त है, जहाँ इसे शंख, । ले कर विष्णु के पास गये। पश्चात् विष्णु आदि देव चक्र, अक्षवलय एवं 'पुस्तक' (ग्रंथ ) धारण करनेवाला हयग्रीव के पास पहुँच गये, जहाँ इन्होंने देखा कि, वह कहा गया है (ब्रह्मांड, ४.५,९.३५-४०)। असुर भूमि पर अपने धनुष रख कर पास ही सो गया वैदिक साहित्य में इस साहित्य में सर्वत्र इसे विष्णु है। तदुपरांत विष्णु ने पास ही स्थित दीमक की का नहीं, बल्कि यज्ञ का अवतार कहा गया है। किन्तु सहायता से हयग्रीव असुर के धनुष की प्रत्यंचा को तोड़ तैत्तिरीय आरण्यक में यज्ञ को विष्णु का ही एक प्रतिरूप डाला, एवं उसका नाश किया । कथन किया गया है। इससे प्रतीत होता है कि, वैदिक हयग्रीव के धनुष की प्रत्यंचा टूटते ही विष्णु का स्वयं एवं पौराणिक साहित्य में निर्दिष्ट हयग्रीवकथा का स्रोत का मुख भी टूट गया, जो आगे चल कर विश्वकर्मन् की एक ही है, जिसका प्रारंभिक रूप वैदिक साहित्य में पाया | सहायता से पुनः जोड़ा गया। उस समय विश्वकर्मन् ने जाता है। विष्णु को जो मुख प्रदान किया था, वह अश्व का था। • पंचविंश ब्राह्मण में हयग्रीव अवतार की कथा निम्न इस कारण हयग्रीव असुर का वध करनेवाले इस अवतार प्रकार बतायी गयी है। एक बार अग्नि, इंद्र, वायु एवं यज्ञ को 'हयग्रीव' नाम प्राप्त हुआ (दे. भा. १.५)। (विष्ण) ने एक यज्ञ किया। इस यज्ञ के प्रारंभ में देवी भागवत के अनुसार, हयग्रीव असर को देवी का यह तय हुआ था कि, यज्ञ को जो हविर्भाग प्राप्त होगा, | आशीर्वाद था कि, केवल 'हयग्रीव' नाम धारण करनेवाला वह सभी देवताओं में बाँट दिया जायेगा। उस समय व्यक्ति ही उसका वध कर सकती है। इस कारण हयग्रीव यज्ञ को सर्वप्रथम हविर्भाव प्राप्त हुआ, जिसे ले कर वह का अवतार ले कर विष्णु को इसका वध करना पड़ा। भाग गया। इस कारण बाकी सारे देव इसका पीछा विष्णु के इस अवतार का निर्देश महाभारत में भी प्राप्त करने लगे। है (म. उ. १२८.४९; शां. १२२.४६; ३२६.५६)। अपने दैवी धनुष की सहायता से यज्ञ ने सभी | रसातल में रहनेवाले मधु एवं कैकटक नामक राक्षसों देवताओं को हरा दिया। अन्त में एक दीमक के | का वध भी इसी अवतार के द्वारा होने का निर्देश द्वारा देवों ने यज्ञ के धनुष की प्रत्यंचा कटवा दी, एवं | महाभारत में प्राप्त है (म. शां. ३३५.५२-५५; भा.५. इस प्रकार असहाय हुए यज्ञ का मस्तक कटवा दिया। | १८.१--६)। . तत्पश्चात् अपने कृतकर्म के लिए यज्ञ देवों से माफ़ी क्रम-पाठ-इसीके आराधना से पंचाल ऋषि ने वेदों माँगने लगा । इस पर देवों ने अश्विनों के द्वारा एक का क्रमपाठ प्राप्त किया था (म. शां. ३३५.६९-७१)। अश्वमुख यज्ञ के कबंध पर लगा दिया (पं. ब्रा. ७.५.६; २. एक असुर, जो कश्यप एवं दिति के पुत्रों में से एक तै. आ. ५.१; तै. सं. ४.९.१)। | था ( पन. उ. २३०)। इसका जन्म पूर्वकल्प की रात्रि में पौराणिक साहित्य में--यही कथा स्कंद पुराण आदि हुआ था। पृथ्वीप्रलय के समय इसने वेदों का हरण किया पौराणिक साहित्य में कुछ मामूली फर्क के साथ दी गयी | जिन्हें हयग्रीव का अवतार ले कर श्रीविष्णु ने पुनः प्राप्त है। एक बार देवाताओं की प्रतियोगिता में विष्णु सर्वश्रेष्ठ | किया (हयग्रीव देखिये)। भागवत के अनुसार, इसका ११०३ त हुआ, जिसका पीछा .उ.१२ Page #1126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हयग्रवि प्राचीन चरित्रकोश हरिणाश्व "उ माम11 वध हयग्रीव अवतार के द्वारा नहीं, बल्कि विष्णु के मत्स्या- यह पांडवों के पक्ष में शामिल था, जहाँ कौरव योद्धाओं वतार के द्वारा हुआ था (भा. ८.२४.९-५७)। के द्वारा इसकी मृत्यु हो गयी (म. द्रो. परि. १.२८. ३. एक दानव, जो कश्यप एवं दनु के पुत्रों में से एक ४७; शां. २४८.७)। पाठभेद (भांडारकर संहिता)एक था । यह वृत्र का (भा. ६.१०.१९); हिरण्यकशिपु 'अविकंपक'। का (भा. ७.२.४); एवं तारकासुर का अनुगामी था। । ४. पांडव पक्ष का एक चैद्य राजा, जो भारतीय युद्ध ४. एक असुर, जो नरकासुर का प्रमुख अनुयायी, एवं | में कर्ण के द्वारा मारा गया था (म. क. ४०.५०)। उसके राज्य का रक्षा करनवाल पाच प्रमुख असुरा म स ५. यज्ञ एवं दक्षिणा के पुत्र सुयम का नामांतर । एक था। श्रीकृष्ण ने इसका वध किया (म. स. परि.१. देवताओं का दुःख हरण करने के कारण ब्रह्माने इसे यह १९.१३७७; उ. १२८.४९)। नाम प्रदान किया था (भा. २.७.२)। ५. एक राजा, जिसने क्षात्रधर्मानुसार उत्तम रीति से ६. तामस मन्वंतर का एक देवगण । राज्य कर मुक्ति प्राप्त की थी (म. शां. २५.२२-३३)। ७. तामस मन्वंतर का एक अवतार, जो हरिमेधस् ६. विदेहवंश का एक कुलांगार राजा (म. उ. ७२. एवं हरिणी के पुत्रों में से एक थ। विष्णु के इसी अवतार १५)। | ने गजेन्द्र का उद्धार किया था (भा. ८. ३१)। हयाशरस--विष्णु के हयग्रीव नामक अवतार का ८. गरुड़ के पुत्रों में से एक। . नामांतर (हयग्रीव देखिये)। ९. अंगिरस्कुलोत्पन्न एक गोत्रकार। हर-एकादश रुद्रों में से एक (मत्स्य. ५.२९)। १०. (वा. प्रिय.) एक राजा, जो भागवत के अनुसार . २. एक दानव, जो कश्यप एवं दनु के पुत्रों में से एक ऋषभ एवं जयन्ती के पुत्रों में से एक था। इसीने ही था। यह सुबाहु राक्षस के रूप में पृथ्वी पर अवतीर्ण हुआ निमि को 'भागवतोत्तमधर्म' का उपदेश किया था । था (म. आ. ६१.२४)। (भा. ११.२.४५)। ३. एक असुर, जो विभीषण का अमात्य था। यह मालिन् राक्षस का पुत्र था। ११. रावण पक्ष का एक असुर । ४. रामसेना का एक प्रमुख वानर (वा. रा. यु. २७.३)। १२. हरिहरपुर का एक कर्मठ ब्राह्मण, जिसके दुराचारी पत्नी को एक व्याघ्र ने खा डाला (पन्न. उ. हरकल्प--एक सैहिकेय असुर, जो विप्रचित्ति एवं १८७)। सिहिंका के पुत्रों में से एक था । परशुराम ने इसका वध हरिकर्णी--अंगिरस्कुलोत्पन्न एक गोत्रकार । किया (वायु. ६८.१९)। हरप्रीति-अत्रिकुलोत्पन्न एक गोत्रकार गण । पाठ हरिकेश--गंधमादन पर्वत में रहनेवाले रत्नभद्र भेद-'रसद्वीचि'। नामक यक्ष का एक पुत्र, जो शिव के कृपाप्रसाद से गणेश हरयाण--एक दाता, जिसने विश्वमनस् को दान बन गया (मत्स्य. १८०; पूर्णभद्र २. देखिये)। प्रदान किया था (ऋ. ८.२५.२२)। ऋग्वेद में इसका २. वसुदेव के श्यामक नामक भाई का एक पुत्र । निर्देश उक्षण्यायन एवं वरोसुवाषन् के साथ प्राप्त है। इसकी माता का नाम शरभूमि था (भा. ९.२४.४२)। सायणाचार्य के अनुसार, ये तीनों स्वतंत्र व्यक्ति न हो हरिजटा--एक राक्षसी, जो रावण के द्वारा अशोककर, हरयाण एवं उक्षण्यायन ये दोनो नाम एक ही वरो | वन में सीता के संरक्षणार्थ रक्खी गयी थी (वा. रा. सुं. सुषामन् की उपाधियाँ होगी (नि. ५.१५.)। २३.५)। हरि-श्रीकृष्ण का एक नाम, जो चतुर्व्यह में से एक हरिण-ऐरावतकुलोत्पन्न एक नाग, जो जनमेजय के माना जाता है (म. शां. २२१.८-१७)। सर्पसत्र में दग्ध हुआ था (म. आ. ५२.१०)। २. एक असुर, जो तारकांक्ष नामक असुर का पुत्र था।। २. एक नेवला, जिसका निर्देश महाभारत के बिडालोइसने तपस्या के द्वारा ब्रह्मा को प्रसन्न कर, असुरों के पाख्यान में प्राप्त है (म. शां. १३६.३० पाठ)। तीनों पुरों में मृतसंजीवनी वापियों का निर्माण किया था। हरिणाश्व-एक राजा, जिसे रघुराजा के द्वारा दिव्य ३. अकंपन राजा का पुत्र, जो अस्त्रविद्या में पारंगत खड्ग की प्राप्ति हुई थी। वही खड्ग आगे चलकर इसने एवं युद्ध में इंद्र के समान पराक्रमी था। भारतीय युद्ध में शुनक राजा को प्रदान किया था (म. शां. १६०.७७)। ११०४ Page #1127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हरिणी प्राचीन चरित्रकोश हरिश्चंद्र हरिणी-तामस मन्वंतर के हरि नामक अवतार की | एवं किंपुरुषयोनि के लोग प्रमुख थे (ब्रह्मांड. ३.७. माता, जिसके पति का नाम हरिमेधस् था । १७२)। ३.हिरण्यकशिपु असुर की एक कन्या, जो विश्वपति हरिमंत आंगिरस-एक वैदिक सूक्तद्रष्टा (ऋ. ९. नामक असुर की पत्नी थी। इसे रोहिणी नामांतर भी प्राप्त | ७२)। था (म. व. २११.१८)। हरिमित्र--एक ब्राह्मण, जिसकी कथा 'कमला हरित--(सू. इ.) एक राजा, जो हरिश्चंद्र राजा का | एकादशी के व्रत का माहात्म्य कथन करने के लिए पद्म पौत्र, एवं रोहित राजा का पुत्र था। इसके पुत्र का नाम | में दी गयी है। चंप था। मत्स्य में इसे वृक कहा गया है (भा.१०.८.१)। हरिमेध-एक व्यक्ति, जिसे सुमेध ऋषि ने तुलसी २. शाल्मलिद्वीप में स्थित हरितवर्ष का एक राजा, जो | माहात्म्य कथन किया था (स्कंद. २.४.८)। स्वायंभुव मनु के वपुष्मत् नामक पुत्र का पुत्र था (मा. हरिमेधस्--तामस मन्वन्तर के अवतार का पिता। ५०.२८; ब्रह्मांड. २.३२.३२)। २. एक राजा, जिसके द्वारा किये गये सर्पसत्र को ३. रुद्रसावर्णि मन्वंतर का एक देवगण । आधारभूत मान कर, जनमेजय ने अपना सर्पसत्र आयो- ४. (सू. इ.) एक इक्ष्वाकुवंशीय राजा, जो युवनाश्व जित किया था। इसकी कन्या का नाम ध्वजवती था, राजा का पुत्र था। जो पश्चिम दिशा में निवास करती थी (म. उ. १०८.१३)। ५. (सो. यदु.) यदु राजा का एक पुत्र, जो उसे हरिलोमन्-रामसेना का एक वानर (वा. रा. यु. धूम्रवर्णा नामक नागकन्या से उत्पन्न हुआ था। इसने | ७३)। समुद्रद्वीप में स्वतंत्र राज्य की स्थापना की। आगे चल कर हरिवर्मन्-(सो. तुर्वसु.) एक राजा, जिसके पुत्र उसी द्वीप में स्थित मद्गुर नामक गणों का यह प्रमुख बन का नाम एकवीर था। वंशावलि में इसका नाम अप्राप्य -गया (ह. वं. २.३८.२, २९.३४)। है (एकवीर देखिये)। हरित काश्यप--एक आचाय, जो शिल्प काश्यप | हरिवर्ष-(वा. प्रिय.) निषध देश का एक राजा, जो नामक आचार्य का शिष्य, एवं असित वार्षगण नामक | आग्नीध्र एवं पूर्व चित्ति का पुत्र था (भा. ५.२.१९-२३)। आचार्थ का गुरु था (बृ. उ. ६.५.३ काण्व.)। आगे चल कर इसका देश इसके ही 'हरिवर्ष' नाम • हरितक--अंगिराकुलोत्पन्न एक गोत्रकार। से सुविख्यात हुआ (मार्क. ५०.३५)। यह देश हेमकूट . हरिताश्व--दक्षिण देश का एक राजा, जो इल राजा पर्वत के उत्तर में स्थित था, जहाँ से अर्जुन ने अपने का पुत्र था (पद्म. स. ८)। उत्तरदिग्विजय के समय करभार प्राप्त किया था। . हरिदत्त-एक ब्राह्मण, जो हिमालय में रहनेवाले हरिवर्ष आंगिरस--एक सामद्रष्टा आचार्य (पं. ब्रा. विमलं नामक ब्राह्मण का पुत्र था (पद्म. उ. २०७; विमल | ८.९.४.५)। ३. देखिये)। हरिवाहन-(सो. ऋक्ष.) ऋक्षवंशीय मणिवाहन हरिदास--एक वानर राजा, जो पुलह एवं श्वेता के राजा का नामान्तर। पुत्रों में से एक था (ब्रह्मांड. ३.७.१८१)। हरिवीर-एक राजा, जो अपने नास्तिक मतों के हरिद्रक--कश्यपकुलोत्पन्न एक नाग । कारण विदैवत नामक पिशाच बन गया (पन. पा. ९५, - हरिधामन्--एक ऋषि, जो बीस अक्षरों से युक्त विदैवत देखिये)। कृष्णमंत्र का पाठ करने से, अगले जन्म में रंगवेणी नामक हरिशर्मन्-एक विष्णुभक्त ब्राह्मण, जिसकी कथा गोपी बन गया (पन. पा. ७२)। अन्नदान का माहात्म्य कथन करने के लिए पद्म में दी हरिप्रिया--कृष्ण की एक पत्नी (पद्म. पा. ७०)। | गयी है ( पद्म. क्रि. २०-२१)। हरिणीति-अत्रिकुलोत्पन्न एक गोत्रकार । हरिश्चंद्र वैधस त्रैशंकव–एक सुविख्यात इक्ष्वाकुहरिवभू--युधिष्ठिर की सभा में उपस्थित ऋषि (म. वंशीय राजा, जो त्रिशंकु राजा का पुत्र था। इसकी माता स. ४.१४)। का नाम सत्यवती था (म. स. ११.१३९% )। देवराज हरिभद्रा-कश्यप एवं क्रोधा की एक कन्या, जो वसिष्ठ इसका गुरु था। शैव्या तारामती इसकी पत्नी थी पुलह ऋषि की पत्नी थी। इसके पुत्रों में वानर, किन्नर, (दे. भा. ७.१८; रोहित १. देखिये)। प्रा. च. १३९] ११०५ Page #1128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हरिश्चंद्र प्राचीन चरित्रकोश हर्यन्त वैदिक साहित्य में-इस साहित्य में इसे 'वैधस' (वेधस् पुत्रबलि--यह दीर्घकाल तक निःसंतान था। आगे चल राजा का वंशज), एवं 'ऐश्वाक' (इक्ष्वाकु राजा का वंशज) कर वरुण की कृपाप्रसाद से इसे रोहित नामक पुत्र उत्पन्न कहा गया है। ऐतरेय ब्राह्मण में इसकी कुल सौ पत्नियाँ | हुआ, जिसके बड़ा होते ही पुत्रबलि के रूप में प्रदान करने होने का निर्देश प्राप्त है, एवं वरुण देवता को अपना का आश्वासन इसने दिया था। किन्तु आंग चल कर रोहित रोहित नामक पुत्र बलि के रूप में प्रदान करने के इसके ने अपनी बलि देने से इन्कार कर दिया, एवं वह अरण्य आश्वासन का अस्पष्ट निर्देश वहाँ प्राप्त है (ऐ. ब्रा. ७.१४.२; । में भाग गया। वरुण को दिया गया आश्वासन पूर्ण न होने सां. श्री. १५.१७)। के कारण यह 'वरुण रोग' (जलोदर) से पीडित हुआ। यह ज्ञात होते ही रोहित अरण्य से लौट आया, एवं अपने महाभारत में--इस ग्रंथ में इसे समस्त भूपालों का स्थान पर शुनःशेप नामक ब्राह्मणकुमार उसने यज्ञबलि के सम्राट् कहा गया है, एवं अपने जैत्र नामक रथ में बैट लिए तैयार किया। किन्तु विश्वामित्र ने शुनःशेप की रक्षा अपने शस्त्रों के प्रताप से सातों द्वीपों पर विजय प्राप्त की (रोहित एवं शुनःशेप देखिये)। करने का निर्देश वहाँ प्राप्त है । इसके द्वारा किये गये राजसूय यज्ञ के कारण इसे इंद्रसभा में स्थान प्राप्त हुआ - हरिश्रवस्--(सो. कुरु.) धृतराष्ट्र के शतपुत्रों में से था, एवं इसके ही उदाहरण से प्रभावित हो कर पाण्डु एक। राजा ने अपने पुत्र युधिष्ठिर से राजसूय यज्ञ करने का हरिस्वामिन्--एक ब्राह्मण, जिसकी कन्या का नाम संदेश स्वर्ग से भेजा था (म. स. ११.५२-७०)। सुलोचना था (सुलोचना देखिये )। हारषण-ब्रासावर्णि मनु का एक पुत्र । विश्वामित्र से विरोध-अपने पिता त्रिशंकु के समान हरी--कश्यप एवं क्रोधा की एक कन्या, जो इस संसार . इसका पुरोहित सर्वप्रथम विश्वामित्र ही था । किन्तु आगे | के सिंह, वानर, अश्व एवं लकड़बग्घों की माता मानी जाती चल कर इक्ष्वाकुवंश के भूतपूर्व पुरोहित वसिष्ठ देवराज की है (म. आ. ६०.६२)। प्रेरणा से अपने राजसूय यज्ञ के समय इसने विश्वामित्र हर्यक्ष-(स्वा. उत्तान.) एक राजा, जो पृथु राजा ऋषि का अपमान किया। पश्चात् इस अपमान के कारण एवं अर्चिस् का पुत्र था। अपने पिता की मृत्यु के पश्चात् विश्वामित्र ने इसका पौरोहित्य छोड़ दिया, एवं देवराज यह उसके पूर्व साम्राज्य का अधिपति बन गया। वसिष्ठ पुनः एक बार इसका पुरोहित बन गया (विश्वामित्र २. कुण्डल नगरी के सुरथ राजा का पुत्र । इसके पिता देखिये)। | के द्वारा राम के अश्वमेधीय अश्व पकड़ लिये जाने के पौराणिक साहित्य में इस साहित्य में विश्वामित्र ऋषि समय, इसने राम की सेना के साथ युद्ध किया था (पन. के द्वारा इसे अनेकानेक प्रकार से त्रस्त करने की कल्पना- पा. ४९)। रम्य कथाएँ प्राप्त हैं (मार्क. ८-९)। ब्रह्म के अनुसार, हयंग--(सो. अनु.) एक राजा, जो मत्स्य के अनुसार विश्वामित्र के दक्षिणा की पूर्ति के लिए इसे स्वयं को, अपनी चंप राजा का पुत्र, एवं भद्ररथ राजा का पिता था ( मत्स्य. पत्नी तारामती को, एवं पुत्र रोहित को वेचना पड़ा। इनमें | ४८.९८-९९)। से तारामती एवं रोहित को इसने एक वृद्ध ब्राह्मण को, अपने पिता चंपक को यह पूर्णभद्र वैभाण्डकि ऋषि की एवं स्वयं को एक स्मशानाधिकारी चांडाल को बेच दिया।। कृपा से उत्पन्न हुआ था। वायु में इसे चित्ररथ राजा का __ आगे चल कर, विश्वामित्र ने अपनी माया से रोहित पुत्र कहा गया है (वायु. ९९.१०७)। इसके द्वारा किये का सर्पदंश के द्वारा वध कराया। अपने पुत्र की मृत्यु | गये अश्वमेध यज्ञ में, इसके गुरु पूर्णभद्र ने अपने मंत्रसे शोकविह्वल हो कर यह एवं तारामती अग्निप्रवेश के प्रभाव से इंद्र का ऐरावत लाया था (ब्रह्म. १३.४३; ह. लिए उद्यत हुए। किन्तु वसिष्ठ एव देवों ने इस आपत्प्रसंग व. १.३१; मत्स्य. ४८.९८)। से इसे बचाया, एवं इसका विगत वैभव एवं राज्य पुनः र्यद्वन्त--(सो. क्षत्र.) एक राजा, जो वायु के प्राप्त कराया (ब्रह्म. १०४; मार्क. ७-८)। पुराणों में अनुसार जय राजा का पुत्र था (वायु. ९३.९)। विष्णु निर्दिष्ट ये सभी कथाएँ, वसिष्ठ एवं विश्वामित्र का पुरातन एवं भागवत में इसे क्रमशः हर्षवर्धन एवं हवन कहा विरोध कल्पनारम्य पद्धति से चित्रित करने के लिए दी | गया है। गयी प्रतीत होती है। . हर्यन्त प्रागाथ--एक वैदिक सूक्तद्रष्टा (ऋ. ८.७२)। ११०६ Page #1129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हर्यश्व . प्राचीन चरित्रकोश हविष्मत् हर्यश्व-प्राचेतस दक्ष के दस हजार पुत्रों का सामुहिक हर्षवर्धन–क्षत्रवंशीय हर्यद्वन्त राजा का नामांतर । नाम। हल--वसिष्ठकुलोत्पन्न एक गोत्रकार । २. (सू. इ. ) एक इक्ष्वाकुवंशीय राजा, जो भागवत, हलधर--बलराम का नामान्तर (बलराम देखिये)। विष्णु, एवं वायु के अनुसार दृढाश्व राजा का पुत्र, एवं | हलमय-विश्वामित्रकुलोत्पन्न एक गोत्रकार । पाठभेदनिकुंभ राजा का पिता था (भा. ९.६.२४)। मस्य में इसे 'हलयम'। प्रमोद राजा का पुत्र कहा गया है (मत्स्य. १२.३३)। हला-अत्रिऋषि की पत्नी (ब्रह्मांड. ३.८.७५)। ३. (सू. इ.) अयोध्या नगरी का एक राजा, जो हलिक-कश्यपकुलोत्पन्न एक नाग (म. आ. ३१. भागवत के अनुसार अनरण्य राजा का, विष्णु के अनुसार पृषदश्व राजा का, एवं वायु के अनुसार त्रसदस्यु राजा का हलीसक--वासुकिकुलोत्पन्न एक नाग, जो जनमेपुत्र था। जय के सर्पसत्र में दग्ध हुआ था (म. आ. ५२.५)। ___ एक बार ययातिकन्या माधवी के साथ गालव ऋषि | पाठभेद-- 'हलीमक'। इसकी राजसभा में आये, एवं उन्होंने दो सौ श्यामकर्ण सोया हवन-ग्यारह रुद्रों में से एक (म. अनु. १५०.१३)। अश्वों की माँग इससे की। पश्चात इसने गालव को दो हवि--स्वारोचिष मन्वन्तर का एक प्रजापति, जो सौ अश्व दे कर, एक संतान पैदा कराने के लिए माधवी | वसिष्ठ ऋषि के पुत्रों में से एक था। को अपनी पत्नी बना ली। माधवी के गर्भ से इसे वसु- हविःश्रवस-(सो. कुरु.) एक राजा, जो धृतराष्ट्र मनस नामक पुत्र उत्पन्न हुआ। पुत्रोत्पत्ति के बाद इसने (प्रथम) राजा का पुत्र था (म. आ. ८९.५१)। माधवी को गालव ऋषि के पास वापस दे दिया (म. उ. हविहन-स्वारोचिष् मनु का एक पुत्र । ११४.२०)। .. २. एक धर्मप्रवण नरेश (म. अनु. १६५.५८)। • परिवार-माधवी के अतिरिक्त इसकी निम्नलिखित । हविर्धान--एक तपःसिद्ध राजा, जो विजिताश्व एवं दो पत्नियाँ थी:-१. मधुमती, जो मधु दैत्य की कन्या । नभस्वती के पुत्रों में से एक था। इसकी पत्नी का नाम थी, एवं जिससे इसे मधु नामक पुत्र उत्पन्न हुआ था हविर्धानी था, जिससे इसे बर्हिषद, गय, शुक्ल, सत्य, (ह. वं. २.३७ ); २. दृषद्वती, जिससे इसे अरुण नामक जितव्रत एवं कृष्ण नामक पुत्र उत्पन्न हुए थे (भा. ४. .. पुत्र उत्पन्न हुआ था (ब्रह्मांड. ३.६३.७५)। २४.८)। हविर्धात आंगि--एक वैदिक सूक्तद्रष्ट्रा (ऋ. १०. ४. काशीदेश का एक राजा, जो काशीराज सुदेव राजा ११.१२)। का. पिता, एवं दिवोदास का पितामह था। हैहय राजा हविर्धानी-हविर्धान राजा की पत्नी । वीतहव्य के पुत्रों ने इसका वध किया ( म. अनु.. हविर्भू-कर्दम एवं देवहुति की एक कन्या, जो पुलस्त्य ३०.१०-११)। ऋषि की पत्नी थी। इसके पुत्रों के नाम अगस्त्य एवं ५. (सू. निमि.) विदेह देश का एक राजा, जो विश्रवस् थे (भा. ३.२४.२२)। धृष्टकतु जनक राजा का पुत्र, एवं मनु राजा का पिता था। हविष्कृत् आंगिरस--एक सामदष्टा आचार्य, हर्यश्वि-नीलपराशरकुलोत्पन्न एक गोत्रकार । जिसका निर्देश हविष्मत् आंगिरस नामक आचार्य के हर्यात्मन्-अट्ठाईस व्यासों में से एक । साथ प्राप्त है (पं. ब्रा. ११.१०.९-१०; २०.११.३; हर्ष--धर्म के तीन पुत्रों में से एक । इसकी माता का | तै. सं. ७.१.४.१)। नाम तुष्टि, एवं अन्य दो भाइयों के नाम शम एवं काम हविष्पंद-विश्वामित्र ऋषि का एक पुत्र । थे। इसकी पत्नी का नाम नन्दा था (म. आ. ६०. हविष्मत--चाक्षुष मन्वन्तर के सप्तर्षियों में से एक । ३१-३२)। २. धर्मसावर्णि मन्वन्तर के सप्तर्षियों में से एक । हर्षण--विश्वरूप नामक असुरपुरोहित का पुत्र, ३. इंद्रसभा का एक ऋषि (म. स. ७.११)। जिसकी माता का नाम विष्टि था। यमधर्म की उपासना ४. मरीचिगर्भलोक में निवास करनेवाला एक पित'कर इसने अपने मातापितरों का दुष्टरूप नष्ट किया | समुदाय, जिसकी पूजा क्षत्रियों के द्वारा की जाती है। (ब्रहा. १६५)। | इनकी पत्नी का नाम कुहू था । इनकी मानसकन्या का ११०७ Page #1130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हविष्मत् प्राचीन चरित्रकोश हारिद्रुमत नाम यशोदा था, जो अंशुमत् राजा की पत्नी, एवं दिलीप ___हस्तिदान-कश्यपकुलोत्पन्न एक गोत्रकार ऋषिगण । राजा की माँ थी। हस्तिन्--(सो. पूरु.) एक सुविख्यात पूवंशीय ५. एक देव, जो अंगिरस् एवं सुरूपा के पुत्रों में से राजा, जो भागवत, विष्णु एवं मत्स्य के अनुसार बृहत्क्षत्र एक था (मत्स्य. १८६)। राजा का, एवं वायु के अनुसार सुहोत्र राजा का पुत्र था __ हविष्मत् आंगिरस-एक सामद्रष्टा आचार्य, जिसका (भा. ९.२१.२०-२१; वायु. ९९.१६५)। महाभारत निर्देश हविष्कृत् आंगिरस नामक आचार्य के साथ प्राप्त में इसे सुहोत्र एवं जयंती का पुत्र कहा गया है, एवं इसकी है (हविष्कृत् आंगिरस देखिये)। पत्नी का नाम त्रैगर्ती यशोदा (यशोधरा) दिया गया है, हविष्मती-अंगिरस ऋषि की पाँच कन्याओं में से जिससे इसे विकुंटन नामक पुत्र उत्पन्न हुआ था (म.आ. एक (म. व. २०८.६)। ९०.३६ )। इसीने ही हस्तिनापुर नगर को नया वैभव हवीन्द्र--स्वारोचिष मन्वन्तर का प्रजापति, जो वसिष्ट प्राप्त करा दिया, जिस कारण उस नगर को 'हस्तिनापुर' ऋषि का एक पुत्र था। नाम प्राप्त हुआ। हव्य-स्वायंभुव मनु का एक पुत्र । २. ( सो. कुरु.) धृतराष्ट्र (प्रथम) राजा का एक पुत्र । २. हव्यवाहन नामक दक्षसावर्णि मन्वन्तर के सप्तर्षि | हस्तिपद, हस्तिपिण्ड एवं हस्तिभद्र-कश्यपका नामान्तर। कुलोत्पन्न तीन नाग (म. आ. ३१.९, १४; उ. १०१. ३. सुख देवों में से एक। ४. आद्य देवों में से एक। हस्तिमुख-रावणपक्ष का एक राक्षस (वा.रा.तु.६)। हव्यघ्न--एक राक्षस, जो भरद्वाज ऋषि के यज्ञाग्नि के हस्तीन्द्र--स्वारोचिष मन्वन्तर का एक प्रजापति, जो' धुएँ से उत्पन्न हुआ था। एक बार भरद्वाज ऋषि ने कश्यप ऋषि का एक पुत्र था। गौतमी नदी के किनारे अपनी पैठीनसी नामक पत्नी के हारव-एक राक्षस, जो ब्रह्मा के अश्रुबिन्दुओं से साथ एक यज्ञ प्रारंभ किया। उस यज्ञ के धुएँ में से | उत्पन्न हुआ था। शिवलिंग से निकली हुई एक ज्योति यह उत्पन्न हुआ, एवं हविर्द्रव्य भक्षण करने लगा। के कारण, यह भस्म हुआ (स्कंद. ५.२.४८)। " भरद्वाज ऋषि के द्वारा पूछे जाने पर इसने कहा, हार-हूण--पश्चिमभारत का एक लोकसमूह, जिसे । 'मै ब्रह्मा के द्वारा शापित एक अभागी व्यक्ति हूँ, एवं नकुल ने अपने पश्चिमदिग्विजय में जीता था (म. स. मेरा नाम कृष्ण है। मेरी प्रार्थना है कि, आप मुझे २९.११)। गंगोदक, सुवर्ण एवं गोघृत एवं सोम से 'प्रोक्षण' करे, हारिकर्णि-अंगिरस् कुलोत्पन्न एक गोत्रकार । जिससे मैं मुक्त हो जाऊँगा। हारिकर्णिपुत्र--एक आचार्य, जो भरद्वाजीपुत्र नामक __इसकी प्रार्थना के अनुसार, भरद्वाज ऋषि ने प्रोक्षण | आचार्य का शिष्य था (बृ. उ. ६.४.३०)। किया, जिस कारण यह मुक्त हुआ (ब्रह्म. १३३)। हारितक---कश्यपकुलोत्पन्न एक गोत्रकार हव्यप--रैवत मनु का एक पुत्र । हारितायन--सासिसाहारितायन नामक कश्यपकुलो२. रौच्य मम्वन्तर के सप्तर्षियों में से एक । त्पन्न गोत्रकार का नामान्तर। हव्यवत्--रैवत मनु का एक पुत्र । __ हारिद्रव--एक शाखाप्रवर्तक आचार्य, जो मैत्रायणीय हव्यवाह--धर नामक वसु का एक पुत्र । शाखान्तर्गत माना जाता है। निरुक्त में इसके प्रणीत मतों २. पवमान नामक अग्नि का एक पुत्र । का निर्देश 'हारिद्राविक' नाम से किया गया है (नि. हव्यवाहन--दक्षसावर्णि मन्वन्तर के सप्तर्षियों में | १०.५)। से एक। इसके द्वारा लिखित ' हारिद्राविक ब्राह्मण' नामक ग्रंथ हस्त-दक्ष की कन्या, जो सोम की पत्नी थी। . | का उद्धरण प्राप्त है, किन्तु वह ग्रंथ मूल स्वरूप में २. वसुदेव एवं रोचना के पुत्रों में से एक (भा. ९.२४. | आज अप्राप्य है। ४९)। हारिदुमत गौतम-एक आचार्य, जो सत्यकाम हस्तिकर्ण--एक नाग, जो कश्यप एवं कद्रू के पुत्रों | जाबाल नामक आचार्य का शिष्य था (छां. उ.' में से एक था (म. आ. ३१.१४)। ४.४.३)। ११०८ Page #1131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हारीत . प्राचीन चरित्रकोश हिडिंब हारीत-एक अंगिरसकुलोत्पन्न तत्त्वज्ञ, जिसके द्वारा । ८. मौलिस्थान (मुलतान) में रहनेवाला एक ब्राह्मण, प्रणीत संन्यास मार्ग का तत्त्वज्ञान 'हारीतगीता' नाम से जिसके पुत्र के रूप में स्वयं नृसिंह देवता ने जन्म लिया सुविख्यात है। यही 'हारीतगीता' भीष्म ने युधिष्ठिर | था (पद्म. उ. १७७)। को कथन की (म. शां. २६९)। ९. एक वैयाकरण (ते. प्रा. १४.१८)। २. एक पि, जो युधिष्ठिर की सभा में उपस्थित था। हार्दिक्य-(सो. अंधक.) कृतवर्मन् नामक सुविख्यात शरशय्या पर पड़े हुए भीष्म से भी यह मिलने आया यादव राजा का नामांतर (म. द्रो. ९०.८: भा. १०.७५. था (म. व. २७.२३.)। ६; कृतवर्मन् देखिये)। इसकी मृत्यु के पश्चात् इसका | पुत्र मार्तिकावत नगर की राजगद्दी पर अधिष्ठित हुआ ३. एक स्मृतिकार, जिसके पुत्र का नाम कमठ था | (म. मौ. ८.६७)। यह अश्वपति नामक दैत्य के (स्कंद. १.२.५१)। इसके द्वारा विरचित 'लघुहारीत | अंश से उत्पन्न हुआ था। भारतीय युद्ध में यह स्मृति' एवं 'वृद्ध हारीत स्मृति' नामक दो स्मृति ग्रंथ पांडवपक्ष में शामिल था (म. उ. १९.१७)। आनंदाश्रम स्मृतिसमुच्चय में प्राप्त है। ___ हाल-वसिष्ठकुलोत्पन्न एक गोत्रकार । - इसमें से 'लघुहारीत स्मृति' में ११७ श्लोक है, एवं २. (आंध्र. भविष्य.) एक सुविख्यात आंध्रवंशीय उसमें प्रायश्चित्त का विचार किया गया है। | राजा, जो मत्स्य के अनुसार अरिक्तवर्ण राजा का, ब्रह्मांड अन्य स्मृतिग्रंथ-इसके द्वारा विरचित 'वृद्धहारीत एवं भागवत के अनुसार अनिष्टकर्मन् राजा का, एवं स्मृति' के ११ अध्याय, एवं ३५४ श्लोक है, एवं उसमें वायु के अनुसार नेमिकृष्ण राजा का पुत्र था। भागवत श्रीविष्णु की उपासना आदि की जानकारी प्राप्त है। में इसे टालेय कहा गया है। इसकी अन्य एक स्मृति व्यंकटेश्वर प्रेस के स्मृतिसंग्रह में हालाहल-एक असुर, जो शिव एवं विष्णु के द्वारा प्राप्त है, जिसमें सात अध्याय हो कर चातुर्वण्य के मारा गया ( दे. भा. ७.२९-३०)। आचारादि का विवेचन वहाँ प्राप्त है। हालिङग-एक आचार्य (श. ब्रा. १०.४.५.९)। अभिमत---ब्रह्मचय एवं अभक्ष्य के संबंध में इसके हालेय--आंध्रवंशीय हाल राजा का नामांतर (हाल मतों के उद्धरणं आपस्तंब एवं बौधायन धर्मसूत्र में प्राप्त २. देखिये)। हैं (आप. ध. १.१३.१०; १८.२, १९.१२; बौ. ध. २. हासिनी--कुबेरभवन की एक अप्सरा (म. अनु. . .१.२.२१)। ब्रहावादिनी स्त्रियों को उपनयन, एवं वेदाध्ययन का अधिकार मिलना चाहिये, ऐसा इसका अभिमत हाहा--एक गंधर्व, जो कश्यप एवं प्राधा के पुत्रों में था (स्मृतिचं. १.२४)। इसके स्मृति में राजधर्म-- से एक था (म. आ. ११४.४८)। यह कुवेरसभा का विषयक भी अनेक अभिमत प्राप्त हैं, जो बहुशः अन्य एक सदस्य था। यह ज्येष्ठ माह के सूर्य के साथ भ्रमण स्मृतियों से लिए गये है। करता है (भा. १२.११.३५)। पाठभेद-'हा हा। अन्य ग्रंथ-इसके नाम पर एक शिक्षा ग्रंथ भी प्राप्त है।। हिंसा-लोभ एवं विकृती की एक कन्या, जो धर्म ४. (मृ. इ.) एक राजा, जो भागवत के अनुसार | ऋषि की पत्नी थी। युवनाश्व राजा का, एवं विष्णु के अनुसार मांधातृ राजा हिंस्र--कौशिक डषि का एक पुत्र (पितृवर्तिन् देखिये)। का पुत्र था (भा. ९.७.१)। 'आंगिरस हारीत' नामक हिडिंब--एक नरमांसभक्षक राक्षसराज, जो किर्मीर सुविख्यात ब्राह्मण इसीके ही वंशज माने जाते है। राक्षस एवं हिडिंबा राक्षसी का भाई था (म. व. १२. ५. विश्वामित्र ऋषि का एक पुत्र । ३२)। यह शाल के वृक्ष पर रहता था, एवं जंगल से ६. एक आचार्य, जो व्यास की पुराणशिष्यपरंपरा में | जानेवाले पांथस्थों को भक्ष्य बनाता था। एक बार इसके से रोमहर्पण नामक आचार्य का शिष्य था । जंगल में पांडव आ कर सो गये। उन्हें देख कर इसने ७. एक वैखानसवृत्ति ब्राह्मण, जिसने दिलीप राजा को | अपनी बहन हिडिंबा को उनके पास भेजा, एवं उनका वध माघस्नान का माहात्म्य कथन किया था। इस संबंध में | करने के लिए कहाँ । देववशात् हिडिंबा राक्षसी भीमसेन अधिक जानकारी प्राप्त करने के लिए, इसने दिलीप राजा | पर मोहित हो गयी, एवं इसके द्वारा कहे गये कार्य को को वसिष्ठ ऋषि से मिलने के लिए कहा था। | भूल बैठी। यह ज्ञान होते ही इसने भीमसेन पर आक्रमण Page #1132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिरण्यकशिपु । प्राचीन चरित्रकोश हिरण्यकेशिन् उसके गर्भ में स्थित बालक ने भी सुन लिया, जिस कारण | (१) प्रहलाद शाखा:--प्रह्लाद--विरोचन-गवेष्ठिन्, वह जन्म से पूर्व ही विष्णुभक्त बन गया। कालनेमि, जंभ, बाष्कल, शंभु। " इप्त प्रकार हिरण्यकशिपु जैसे देवताविरोधी असुर के (अ) विरोचन शाखा:-विरोचन-बलि, बाण (सहस्त्रघर में ही. प्रहाद के रूप में एक सर्वश्रेष्ठ विष्णुभक्त का | बाह.) कुंभनाभ, गर्दभाक्ष, कुशि आदि। जन्म हुआ। आगे चल कर प्रह्लाद को शिक्षा देने के लिए (ब) गवेष्ठिन् शाखाः-गवेष्ठिन्–शंभ, निशुंभ, नियुक्त किये गये गुरु ने भी उसे विष्णुभक्ति के पाठ | विश्वकसेन। सिखाये। (क) कालनेमि शाखा:--कालनेमि-ब्रह्मजित् , . हिरण्यकशिपु को यह ज्ञात होते ही, इसने प्रह्लाद की | क्षत्रजित् , देवान्तक, नरान्तक । विष्णभक्ति नष्ट करने के लिए हर तरह के प्रयत्न किये, (ड) जंभ शाखा:-जंभ-शतदुंदुभि, दक्ष, खण्ड। यही नहीं, प्रह्लाद का काफ़ी छल भी किया। किंतु प्रह्लाद (इ) बाप्कल शाखाः-बाष्कल-विराध, मनु, वृक्षायु, अपने विष्णुभक्ति पर अटल रहा (प्रह्लाद देखिये)। । कुशलीमुख। वध-एक बार यह अपने पुत्र प्रह्लाद की विष्णुभक्ति (फ) शंभु शाखाः--शंभु--धनक, असिलोमन् , के संबंध में कटु आलोचना कर रहा था। उस समय पास | नाबल, गोमुख, गवाक्ष, गोमत् । ही स्थित एक खंबे के ओर दृष्टिक्षेप कर, इसने बडी ही २. हृद शाखा:--हृद--निसुंद, सुंद। व्यंजना से प्रह्लाद से कहा, 'सारे चराचर में भरा हुआ (अ) निसुंद शाखा:--निसुंद--मूक, जो अर्जुन के तुम्हारा विष्णु इस खबे में भी होना चाहिये । तुम इसे द्वारा मारा गया। बाहर आने के लिए क्यों नहीं कहते ?' (ब) सुंद शाखा:--सुंद--मारीच, जो राम के द्वारा इतना कहते ही उक्त खंबे से श्रीविष्णु का रौद्र नृसिंहा मारा गया। वतार प्रकट हुआ; एवं उन्होंने अपने नाखुनों से सायंकाल (३) संहाद शाखा:-संहाद--निवातकवच । के समय इसका वध किया। नृसिंह स्वयं अर्धमनुष्य एव (४) अनुहाद शाखा:-अनुवाद-वायु (सिनीवाली) अर्धपशु था। इस कारण, ब्रह्मा से प्राप्त अवध्यत्व के --हलाहलगण। वरदान का भंग न करते हुए भी वह इसका वध कर सका। (५) सिंहिका शाखा:--सिंहिका-सैहिकेय गण • पश्चात् प्रह्लाद के द्वारा प्रार्थना किये जाने पर, नृसिंह ने इसके सारे पूर्वपापों से इसे मुक्तता प्रदान की (तृसिंह (ब्रह्मांड. ३.५.३३-४५, वायु. ६७.७०-८१; म. आ. देखिये )। ५९.१७-२०)। . . परिवार-इसकी निम्नलिखित तीन पत्नियाँ थी :-- | २. एक दानव, जिसने एक अर्बुद वर्षों के लिए सारे १. जंभकन्या कयाध (भा. ६.१८.१२); २, उत्तानपाद देवताओं का ऐश्वर्य शिव की कृपा से प्राप्त किया था। कन्या कल्याणी (पद्म. उ.२३८);३. कीर्ति (वा.रा. सु. २० । आगे चल कर इसने मेरुपर्वत को भी हिलाया था (म. २८)। अनु. १४.७३-७४)। अपनी उपर्युक्त पत्नियों से इसे निम्नलिखित पुत्र उत्पन्न | हिरण्यकेशिन्--एक सुविख्यात आचार्य, जो कृष्ण हुए थे:-१. प्रह्लाद; २. संहाद; २. हाद; ४. अनुहाद | यजुर्वेद के तैत्तिरीय शाखान्तर्गत हिरण्यकेशिन् नामक ५. शिबि६. बाष्कल (भा. ६.१८.१३; विष्णु. १.१७. | शाखा का सूत्रकर्ता माना जाता है। इसके द्वारा प्रणीत १४०; है. वं. १.३; वायु. ६७.७०; म. आ. ५९.१८)। शाखा खाण्डवीय शाखा का पोटविभाग माना जाता है। अपने इन पुत्रों के अतिरिक्त इसकी निम्नलिखित | इसका सही नाम सत्याषाढ था, जिस कारण इसके कन्याएँ भी थी:-१. सिंहिका (भा. ६.१८.१३); | द्वारा प्रणीत श्रौतसूत्र 'सत्याषाढ श्रौतसूत्र' नाम से प्रसिद्ध २. हरिणी अथवा रोहिणी (म. व. २११.१८); | है। आद्य कल्प में यह ब्रह्मदत्त नाम से सुविख्यात था ३. भृगुपत्नी दिव्या (वायु. ६५.७३, ६७.६७, ब्रह्मांड. | (महादेव कृत वैजयंती प्रस्तावना, १२-१४)। स्कंदोप३.१.७४; भृगु देखिये)। पुराण के अनुसार, इसने सह्याद्रि के पूर्व में स्थित परशुराम वंश-इस के पुत्रों से आगेचल कर, विभिन्न दैत्यवंशों का | क्षेत्र में हरणकाशि नदी के तट पर कड़ी तपस्या की, निर्माण हुआ, जिनकी संक्षिप्त जानकारी निम्न प्रकार है:- | जिस कारण यह अनेकानेक सूत्रग्रंथों की रचना कर सका। Page #1133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिरण्यकोशन् प्राचीन चरित्रकोश हिरण्यहस्त ग्रंथ--इसके द्वारा विरचित 'सत्याषाढ श्रौतसूत्र' १०५ संहिसाएँ बना कर उन्हें अपने विभिन्न शिष्यों में सुविख्यात है, जिसके निम्नलिखित उपभाग समाविष्ट हैं:- बाँट दी थी (वायु. ८८.२०७)। १. सत्याषाढ धर्मसूत्र (अ. २६-२७); २. सत्याषाढ | यह त्वयं योगाचार्य भी था, एवं योगविषय में पौष्यंजि गृह्यसूत्र (अ. १९-२०); ३. गुल्बसूत्र (अ. २५)। नामक आचार्य का शिष्य, एवं याज्ञवल्क्य नामक आचार्य इस सूत्र पर महादेव दिक्षित के द्वारा 'वैजयंती' नामक का गुरु था। भाष्य प्राप्त है। इस सूत्रग्रंथ का अंतिम भाग भरद्वाज | हिरण्यरतस-(स्वा. प्रिय.) कुशद्वीप का एक राजा, सूत्रों से लिया गया है। इस सूत्र का आपस्तंब सूत्रों से जो भागवत के अनुसार प्रियव्रत राजा के पुत्रों में से एक भी काफ़ी साम्य प्रतीत होता है। . था। इसके निम्नलिखित सात पुत्र थे:-१. वसु; हिरण्यकेशन लोग--इस शाखा के लोग सह्याद्रि के | २. वसुदान, ३. दृढरुचिः ४. नाभिगुप्त; ५. सत्यत्रता पश्चिम में स्थित चिपलून आदि गाँवों में रहते है। इन ६. विविक्त एवं ७. वामदेव । लोगों का निर्देश पाँचवी शताब्दी इ. स. के कोंगणी अपने इन पुत्रों को इसने अपना कुशद्वीप का राज्य राजाओं के ताम्रपट में प्राप्त है। इससे प्रतीत होता है प्रदान किया था, जो आगे चल कर उन्हीं पुत्रों के नाम कि, हिरण्यकशिन् आचार्य, एवं इसके द्वारा विरचित से सुविख्यात हुआ (भा. ५.१.२५, २०.१४)। सूत्रों का रचनाकाल पाँचवी शताब्दी इ. स. पूर्व में कहीं। २. विश्वामित्रकुलोत्पन्न एक गोत्रकार। होगा (इन्डि. अॅन्टि. ४.१३६)। हिरण्यरोमन अथवा हिरण्यलोमन्-रैवत मन्वंतर. '. हिरण्यगर्भ--उत्तम मन्वन्तर में उत्पन्न ऊर्ज नामक | के सप्तर्षियों में से एक। ऋषि का पिता। २. रुक्मिणी के पिता भीष्मक का नामांतर (म. उ. . हिरण्यगर्भ प्राजापत्य--एक वैदिक सूक्तद्रष्टा (ऋ. | १५५.१)। १०.१२१)। हिरण्यवर्मन दाशार्ण--एक राजा, जिसने अपनी हिरण्यद--इंद्रसभा में उपस्थित एक ऋषि (म. स. कन्या का विवाह शिखण्डिन् के साथ किया था। आगे ७.१६)। चल कर शिखण्डिन् के स्त्रीत्व की जानकारी होते ही, हिरण्यदत् बैद-एक तत्त्वज्ञानी आचार्य (पे. ब्रा. ३. | कुंपित हो कर इसने द्रुपद राजा पर आक्रमण किया (म.उ. ६.३; ऐ. आ. २.१.५)। इसके द्वारा बषटकार का वर्णन १९०-१९३; शिखण्डिन् देखिये)।. किया है, एवं मानवीय प्राण अग्निरूप होने का अभिमत । हिरण्यवाह--कश्यपकुलोत्पन्न एक गोत्रकार। इसके द्वारा प्रकट किया गया है (ऐ. बा. ३.७)। २. वासुकिकुलोत्पन्न एक नाग, जो जनमेजय के सर्पसत्र में दग्ध हुआ था (म. आ. ५२.६)। पाठभेदहिरण्यधनुस्--एक निषाद राजा, जो एकलव्य का 'हिरण्यवाहु। पिता था (म. आ. १२३.२४)। इसे हिरण्यधेनु नामान्तर भी प्राप्त था। हिरण्यशृंग--कुवेर का एक व्रत । हिरण्यस्तूप आंगिरस-एक वैदिक सूक्तद्रष्टा (ऐ. . हिरण्यनाभ--हिरण्यनाभ कौथुमि नामक आचार्य का | ब्रा. १.३२)। ऋग्वेद सर्वानुक्रमणी में ऋग्वेद के अन्य कई नाम (कौथुमि देखिये)। सूक्तों के प्रणयन का श्रेय भी इसे दिया गया है (ऋ. हिरण्यनाम कौसल्य-कोसल देश का एक राजा, १.३१-३५, ९.४,६९)। ऐतरेय ब्राह्मण में आंगिरस नाम जिसके पुरोहित का नाम पर आटनार था (सां. श्री. से इसका स्पष्ट उल्लेख किया गया है (ऐ.बा.३.२४.११)। १६.९.१३)। प्रश्नोपनिषद में भी इसका निर्देश प्राप्त है। एक व्यक्ति के नाते इसका निर्देश ऋग्वेद एवं शतपथ यह स्वयं सामवेदी श्रुतर्षि, एवं योगाचाय था। इसके पुत्र | ब्राह्मण में प्राप्त है (ऋ. १०.१४९.५, श. बा. १.६. का नाम पुष्प था। ४.२)। पौराणिक साहित्य में--भागवत के अनुसार यह विधृति हिरण्यहस्त-वत्रिमती नामक स्त्री का एक पुत्र, राजा का. एवं विष्णु तथा वायु के अनुसार यह व्यास | जो उसे अश्विनों के द्वारा प्रदान किया गया था (ऋ. १. की परंपरा में से सुकर्मन् नामक आचार्य का शिष्य था, ११६.१३,११७.२४, ६.६२.७,१०.३९.७)। ऋग्वेद में एवं इसके शिष्य का नाम कृत था। इसने सामवेद की | अन्यत्र इसे श्याव कहा गया है (ऋ. १०.६५.१२)। १११२ Page #1134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिरण्यहस्त . प्राचीन चरित्रकोश हृत्स्वाशय २. एक प्राचीन ऋषि, जिसे मदिराश्व राजा ने अपनी | हीक-एक पिशाच, जो विपाशा नदी के तट पर सुमध्यमा नामक कन्या विवाह में दी थी (म. अनु. ५३. निवास करता था। इसके साथी का नाम बही था (म. २३,१३७.२४; शां. २२६.३५)। क. ३०.४४; वाहीक एवं बालीक देखिये)। पाठभेद हिरण्याक्ष-एक दैत्य, जो कश्यप एवं दिति का एक (भांडारकर संहिता)-'बाहीक। पुत्र, तथा हिरण्यकशिपु का भाई था। यह स्वायंभुव हीन-(सो. क्षत्र.) एक राजा, जो भागवत के मन्वन्तर में उत्पन्न हुआ था (लिंग. १.९४)। | अनुसार सहदेव राजा का पुत्र, एवं जयसेन राजा का विष्णु से युद्ध-यह अत्यधिक पराक्रमी था, एवं देवों | पिता था (भा. ९.१७.१७)। को काफी त्रस्त करता था । अन्त में इसके भय से सारे हुंड-एक राक्षस, जो विप्रचित्ति दानव का पुत्र था। देवगण भाग गये। पश्चात् विष्णु ने इसके साथ युद्ध | इसके पुत्र का नाम विहुंड था। पार्वती की कन्या अशोकप्रारंभ किया। इस युद्ध में प्रारंभ से ही विष्णु की विजय | सुंदरी पर इसका प्रेम था। किन्तु विवाह के प्रस्ताव होने लगी। यह देख कर यह पृथ्वी ले कर भागने लगा। को उसने नकार दिया । पश्चात् इसने स्त्री रूप धारण कर किन्तु विष्णु ने इसका पीछा किया एवं वराह रूप धारण उसका हरण किया, उस समय उसने इसे शाप दिया, कर इसका वध किया (पन. सृ. ७५)। | 'मेरा भावी पति नहुष तुम्हारा वध करेगा। ' भागवत के अनुसार यह पृथ्वी ले कर समुद्र में भाग नहुष से होनेवाले संभाव्य वध की आशंका से गया। वराहरूपी विष्णु ने पानी से पृथ्वी बाहर निकाली। इसने उसका वध करना चाहा, किन्तु इसके सारे प्रयत्न इस समय वराह के पाँव के नीचे दब कर यह मारा असफल हुए । अन्त में उसने इसका वध किया (पन. गया (भा. ३.२८) भू. ११३-११८)। ____ इसके वध के पश्चात् इसके भाई ‘हिरण्यकशिपु ने हुत-अंगिरस्कुलोत्पन्न एक गोत्रकार । इसके वध का बदला देवों से लेना चाहा। किन्तु अन्त । २. सुख देवों में से एक । में वह भी नृसिंह अवतार के द्वारा मारा गया | हुतहव्यवह--धर नामक वसु के दो पुत्रों में से (हिरण्यकशिपु देखिये)। | एक । दूसरे वसु का नाम द्रविण था (म. आ. . परिवार इसकी पत्नी का नाम रुषाभानु था, जिससें | ६०.२०)। इसे निम्नलिखित पुत्र उत्पन्न हुए थे:-१. उत्कुर (शंबर)। हुण--एक लोकसमूह, जो मध्य एशिया से आये हुए २. शकुनि, ३. कालनाभः ४. महानाभ; ५. विक्रान्त | विदेशीय जातिसमूह में से एक था। नकुल ने अपने (सुविक्रान्त.); ६. भूतसंतापन (मृतसंतापन) (वायु. पश्चिम दिग्विजय में इन लोगों को जीता धा (म. स.२९. ६७.६७-६८; ब्रह्मांड. ३.५.३०-३२)। विष्णु एवं | ११)। भागवत में इसके पुत्रों की नामावलि में झर्जर, धृत, वृक हह--एक गंधर्व, जो कश्यप एवं प्राधा के पुत्रों में से एवं हरिश्मश्रु ये पुत्र अधिक दिये गये हैं (विष्णु. १. एक था । यह कुबेर की सभा का, एवं इंद्र की सभा का २०.३; भा. ७.२.१५)। इसके ये सारे पुत्र- सदस्य था (म. स. परि. १.३.२; व. ४४.१४) । अर्जुन पौत्रादि परिवार के साथ तारकासुरयुद्ध में विनष्ट हुए। के जन्मोत्सव में भी यह उपस्थित था (म. आ. ११४. . २. एक यक्ष, जो मणिभद्र एवं पुण्यजनी के पुत्रों में ४८)। से एक था। देवल ऋषि के शाप से इसे नक्रयोनि प्राप्त हुई थी। ३. एक असुर, जो वैश्वानरकन्या का पति था (भा. किन्तु आगे चल कर गजेंद्र के साथ इसे भी मुक्ति प्राप्त ६.६.३४)। मत्स्य में इसे मयासुरकन्या उपदानवी का पति हुई (भा. ८.४.३; आ. रा. सार. ९)। यह आषाढ माह कहा गया है। के सूर्य के साथ भ्रमण करता है (भा. १२.११.३६)। ४. विश्वामित्र का एक पुत्र । हत्स्वाशय आलकेय माहावृष राजन्-एक आचार्य, ५. वसुदेव के श्याम नामक एक भाई का पुत्र । इसकी | जो सोमशुष्म सात्ययज्ञि प्राचीनयोगी का शिष्य, एवं माता का नाम शरभू अथषा शूरभूमि था (भा. ९. | जनश्रुत काण्ड्विय नामक आचार्य का गुरु था (जै. उ. ब्रा. २४.४२)। ३.४०.२)। प्रा. च. १४०] .१११३ Page #1135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हृदिक प्राचीन चरित्रकोश हेमांग हदिक अथवा हृदीक--(सो. क्रोष्टु.) एक भोजवंशीय हेमकृट-वरुणपुत्र एक वानर, जिसकी जानकारी यादव, जो कृतवर्मन् का पिता था (म. आ. ५७.५२५४)। रावण के शार्दूल नामक गुप्तचर ने उसे कथन की थी भागवत, विष्णु एवं वायु में इसे स्वयंभोज राजा का पुत्र | (वा. रा. यु. ३०)। कहा गया है। कृतवर्मन् के अतिरिक्त इसके देवबाहु, हेमगुह-कश्यपकुलोत्पन्न एक नाग (म. आ. ३१.९)। शतधनु एवं देवमीद नामक अन्य पुत्र भी थे (भा. ९. हेमचंद्र-(म, दिष्ट.) एक राजा, जो विशाल राजा २४.२६)। का पुत्र एवं सुचंद्र राजा का पिता था (भा. ९.२.३४)। मत्स्य एवं पद्म में इसे विदूरथपुत्र राज्याधिदेव राजा | हेमधन्वन्--धर्मसावर्णि मनु का एक पुत्र । का पुत्र कहा गया (पन्न. सू. १३)। हेमधर्म-अविक्षित् राजा की पत्नी बरा का पिता हृद्य-इंद्रसभा में उपस्थित एक ऋषि (म. स. ७. | (मार्क. ११९.१६ )। ११)। हेमनत्र--कुवेरसभा का एक यक्ष (म. स. १०. हृषीक--सुतार नामक शिवावतार का एक शिष्य। | १६)। हृषीकेत--कपिल ऋषि के कोप से बचे हुए चार हेमप्रभा-कांचनपुर के वल्लभ नामक ब्राह्मण की म्री, तगरपुत्रों में से एक (पद्म. उ. २०)। जिसकी कथा 'परिवर्तिनी एकादशी का माहात्म्य कथन हेति अथवा हेतृ--एक असुर, जो प्रहेति नामक असुर | करने के लिए पद्म में दी गयी है (पा. ७.१६)। का भाई था। इसकी पत्नी का नाम कालकन्या भया था, हेभप्रभावती-त्रेतायुग के श्रीधर नामक ब्राह्मण की जिससे इसे विद्युत्केश नामक पुत्र उत्पन्न हुआ था (भा. | स्त्री, जिसकी कथा 'बालवत' का माहात्म्य वर्णन करने के ६.१०.२० वा. रा. उ. ४.१४)। यह वृत्रानुयायी असुरों | लिए पद्म में दी गयी है ( पद्म. व्र.२.५)। . में से एक था। । हेमालिन्-कुबेर का एक यक्ष, जिसकी कथा इसकी कन्या का नाम सुकेशी, एवं इसके भाई योगिनी एकादशी' के व्रत का माहात्म्य कथन करने के प्रहेति की कन्या का नाम मित्रकेशी था। इन दोनों | लिए पद्म में दी गयी है (पा. उ.५२)। कन्याओं का विवाह दुर्जय नामक असुर से हुआ था, २. खर राक्षस का एक अमात्य (बा. रा. अर. जिनसे उसे क्रमशः प्रभव एवं सुदर्शन नामक पुत्र उत्पन्न | २३.३२)। ' हुए थे (वराह. १०)। ३. द्रुपद का एक पुत्र, जो भारतीय युद्ध में अश्वत्थामन् चैत्र माह के साथ भ्रमण करनेवाले असुरों की नामावलि | के द्वारा मारा गया था (म. द्रो. १३१.२८)। पाठभेद में इसका निर्देश प्राप्त है। (भांडारकर संहिता)-रुक्ममालिन् । . हेम--(सो. अनु.) एक राजा, जो भागवत, विष्णु हेमवर्ण-गरुड का एक पुत्र एवं वायु के अनुसार, उपद्रथ राजा का पुत्र, एवं सुतपस् २. रोचमान राजा का पुत्र, जो भारतीय युद्ध में राजा का पिता था (भा. ९.२३.४)। मत्स्य में इसे | पाण्डवपक्ष में शामिल था। इसके अश्व कमल के 'सेन' कहा गया है। रंग के थे। __ हेमकंपन-एक राजा, जो भारतीय युद्ध में दुर्योधन के हेमवर्मन् -दशार्णाधिपति हिरण्यवर्मन् का नामान्तर। पक्ष में शामिल था (म. द्रो. १३१.८५)। पाठभेद । हेमसदन -एकादश रुद्रों में से एक। (भांडारकर संहिता)-'सेमपंकज'। २. मगध देश का राजा, जिसके पुत्र का नाम बुध था हेमकान्त-वंगाधिपति कुशकेतु राजा का पुत्र । इसने | (कंद. १.२.४०)। शतर्ची नामक ऋषि का वध करने के कारण इसे ब्रह्महत्त्या हेमा-एक अप्सरा, जो मयासुर की पत्नी थी। मय का पातक लग गया था। आगे चल कर त्रित नामक ब्राह्मण | के निवासस्थान में से इंद्र के द्वारा भगाया दिये जाने को पानी पिलाने के कारण, यह ब्रह्महत्त्या के पातक से | पर, इसने वह स्थान अपनी सखी स्वयंप्रभा को दे दिया मुक्त हुआ (कंद २.७.१२)। (वा. रा. कि ५०-५२, उ. १२. मय १ देखिये)। हेमकुण्डल--निषधपुर का एक व्यापारी, जिसकी हेमांग--(सू. इ.) एक राजा, जिसकी कथा विद्वत कथा 'दानमाहात्म्य' कथन करने के लिए पद्म में दी गयी है परामर्प माहात्म्य कथन करने के लिए स्कंद में दी गयी है (पम. स्व.३०)। | (स्कंद. १.१६)। Page #1136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन चरित्रकोश ह्रीमत् २. (सू. शर्याति. ) शर्याति वंश में उत्पन्न एक राजा, जो हैहय वंश का आद्य संस्थापक माना जाता है। यह वत्स राजा का पुत्र था, एवं इसे वीतहव्य नामान्तर प्राप्त था ( म. अनु. ३०.७-८; वीतहव्य देखिये) । आगे चल कर, यह भृगु ऋषि का शिष्य बन कर ब्राह्मण हुआ ( म. अनु. ३०.५४ - ५७ ) । होड -- एक ऋषि, जिसने बकुलासंगम पर तप किया था ( पद्म. उ. १३८ ) । होतृ-- पारावत देवों में से एक । होत्रक - - (सो. अमा. ) एक राजा, जो भागवत के अनुसार कांचन राजा का पुत्र, एवं जह्नु राजा का पिता था ( भा. ९.१५.३ ) । वायु में इसे सुहोत्र कहा गया है, एवं इसके पिता का नाम कांचनप्रभ दिया गया है। होत्रवाहन - - संजय नामक राजर्षि का पैतृक नाम । होम - - सुख देवों में से एक । ह्रदोदर -- एक राक्षस, जो स्कंद के द्वारा मारा गया ( म. श. ४५.६६ ) । हस्वकर्ण - - रावणपक्ष का एक राक्षस ( वा. रा. सुं. ६. ) । हस्वरोमन - - (सू. निमि. ) एक राजा, जो भागवत एवं वायु के अनुसार स्वर्णरोमन् राजा का पुत्र, एवं हैरण्यनाभ - पर आटनार नामक आचार्य का पैतृक सीरध्वज एवं कुशध्वज जनक राजाओं का पिता था (भा. नाम (श. बा. १३.५.४.४ ) । ६.१८.१३ ) । विष्णु में इसे सुवर्णरोमन् राजा का पुत्र कहा गया है । 1. हैहय -- क्षत्रियों का एक कुल, जिसका संहार परशुराम ने किया था। इस वंश में उत्पन्न निम्नलिखित राजाओं का निर्देश महाभारत में प्राप्त है: - १. कार्तवीर्य अर्जुन, जो परशुराम के द्वारा मारा गया ( म. स. परि. १.२१. ४३० - ४९० ); २. परपुरंजय, जिसने हैहय वंश की प्रतिष्ठा कतिपय बढ़ायी थी (म. व. १८२.३ - ५ ); ३. उदावर्त, जो एक कुलांगार नरेश था (म. उ. ७२.१३ ); ४. अर्जुन कार्तवीर्य, जो कृतवीर्य राजा का पुत्र था (म. शां. ४९.३०.४३ ); ५. सुमित्र ( म. शां. १२५.९ ) । हाद -- एक नाग, जो बलराम के परंधाम गमन के समय स्वागत के लिए उपस्थित था ( म. मौ. ५.१५ ) । २. हिरण्यकशिपु एवं कयाधु का एक पुत्र । ह्री--ब्रह्मा की सभा में उपस्थित एक देवी, जो स्कंद अभिषेक के समय उपस्थित थी ( म. स. १३२*; श. ४४.१२ ) । अर्जुन के इंद्रलोक जाते समय, उसकी मंगलकामना के लिए द्रौपदी ने इस देवी का स्मरण किया था (म. व. ३८.१४९* ) । | के चांद्रसेनीय कायस्थ प्रभु ज्ञाति का आद्य पुरुष चंद्रसेन हैहयवंशीय ही था ( कायस्थ धर्मप्रदीप ) | किन्तु हैहय वंशावलि में उसका नाम अप्राप्य है । ह्रीनिषेध -- एक दैत्यराज, जो एक समय इस पृथ्वी का शासक था ( म. शां. २२०.५० ) । ह्रीमत् -- एक सनातन विश्वेदेव (म. अनु. ९१.३१)। हेमांगद मांगद -- (सो. वसु. ) बसुदेव एवं रोचना का एक पुत्र २. (सू. इ. ) एक राजा ( स्कंद. २.६ ) । हेमांगी - - द्रविड देश के वीरवर्मन् राजा की पत्नी, जिसकी कथा पद्म में प्रयागक्षेत्र का माहात्म्य कथन करने के लिए दी गयी है (पद्म. उ. २२१-१२२ ) । हेरंब -- शिवकांची का एक शिवभक्त, जिसकी कथा शिव एवं विष्णु का विरोध चित्रित करने के लिए पद्म में दी गयी है (पद्म. उ. २२२ ) । हैतनामन आहत - - एक आचार्य (मै. सं. ३.४.६) । हैमवत--एक यक्ष, जो मणिवर एवं पुण्यजनी के पुत्रों में से एक था। हैमवती -- पार्वती का पैतृक नाम । २. विश्वामित्र ऋषि की पत्नी ( म. उ. ११५.१३ ) । ३. कृष्ण की एक पत्नी, जो उसकी मृत्यु के पश्चात् उसके साथ सती हो गयी (म. मौ. ८.७१ ) । हैमिनी -- विक्रान्त राजा की पत्नी, जिससे इसे चैत्र नामक पुत्र उत्पन्न हुआ था । जातहरिणी ने इसके पुत्र का हरण किया था, किन्तु आगे चल कर इसके पति विक्रान्त ने अपने पुत्र को पुनः प्राप्त कराया ( मार्के. ७३)। १११५ Page #1137 --------------------------------------------------------------------------  Page #1138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट १ जैन ग्रंथों में निर्दिष्ट श्री वर्धमान महावीर के समकालीन प्रमुख व्यक्ति अजित केशि कंबलिन्--एक आचार्य, जो वर्धमान चन्द्र प्रद्योत-गवंती का एक राजा, जो वैशालि के महावीर के सात विरोधकों में से एक था। इसका तत्त्वज्ञान चेटक राजा की कन्या शिवा का पति था। इसे 'चन्द्रप्रद्योत 'उच्छेदवाद' नाम से सुविख्यात था। इसका तत्त्वज्ञान महासेन' नामांतर भी प्राप्त था । इसकी कन्या का नाम 'सबै नास्ति' इस आद्य तत्त्व पर आधारित था, एवं वासवदत्ता था, जो वत्सदेश के उदयन राजा को विवाह में दान, यज्ञ, पापपुण्य, स्वर्ग, दैवी माहात्म्य ये सारे मिथ्या दी गयी थी। कौशांबी के शतानीक राजा के मृगावती नामक है, ऐसा इसका अभिमत था। इसके अनुसार मानवीय पत्नी का यह हरण : करना चाहता था। किन्तु वर्धमान शरीर, चार मूलद्रव्यों से बना हुआ था, जिसमें मृत्यु के महावीर ने इसे इस पापी हेतु से परावृत्त किया। यह स्वयं पश्चात् वह विलीन होता है। इसी कारण, मृत्यु के पश्चात् जैनधर्मीय था, एवं इसने अपनी आठो ही पत्नियों को आत्मा को सद्गति या दुर्गति प्राप्त होने का वर्णन यह जैन धर्म की दीक्षा दी थी। सरासर कल्पनारम्य एवं झूट मानता था (सूय. १.१.१. त्रिशला-वर्धमान महावीर की माता, जो लिच्छवी ११-१२) देश के चेटक राजा की बहन थी। • . इंद्रभूति गौतम---महावीर का सर्वप्रथम शिष्य। नंद वच्छ--आजीवक सांप्रदायों के पूर्वाचार्यों में से . किस संकिच्च--आजीवक सांप्रदाय के पूर्वाचार्यो एक (गोशाल मखलिपुत्त देखिये)। . में से एक (गोशाल मंखलीपुत्त देखिये)। _ निगंठ नातपुत्त-जैन धर्मसांप्रदाय के संस्थापक वर्ध. . गोशाल मंखलीपुत्त--एक आचार्य, जो आजीवक | आजावक मान महावीर का नामांतर (महावीर वर्धमान देखिये)। (नन ) सांप्रदाय के प्रवर्तकों में से एक था। पाली सूत्रों में इसे 'मखली गोशालो' कहा गया है । इसके द्वारा प्रणीत | नेमिनाथ--जैनों का बाइसवाँ तीर्थकर, जो कृष्ण का तत्त्वज्ञान 'संसार विशुद्धि' नाम से सुविख्यात है । इसके चचेरा भाई था। वर्तमानकालीन जैन धर्म के पुनरुत्थान पूर्वाचार्यों में नंद वच्च, किश संकिच्छ ये दो आचार्य का यह आद्य जनक माना जाता है, जिसकी परंपरा आगे चल कर पार्श्वनाथ एवं वर्धमान महावीर ने चलायी। प्रमुख थे (मझिम. ३६, ७६)। _ 'संसार विशुद्धि तत्वज्ञान-इसके द्वारा प्रणीत इस शूरसेन देश के शौरिपुर नामक नगरी में इसका जन्म तत्त्वज्ञान के अनुसार, हर एक प्राणिमात्र के लिए संसार | हुआ.। बाल्यावस्था में ही यह शौरिपुर का त्याग कर के नित्य एवं अपरिहार्य है, एवं इस संसारचक्र से कोई भी द्वारका नगरी आ पहुंचा। द्वारका में कृष्ण ने प्रवृत्ति का प्राणि मुक्ति नहीं पा सकता। मार्ग अपनाया, एवं इसने निवृत्ति का । पश्चिम एवं दक्षिण महाभारतादि ग्रंथों में निर्दिष्ट मंकि नामक आचार्य यही | भारत में इसने जैन धर्म की प्रतिष्ठापना की, जहाँ प्राप्त माना जाता है (मंकि देखिये)। तीर्थंकरों की प्रतिमा में इसकी प्रतिमाएं सर्वाधिक संख्या गोष्ठा माहिल-वर्धमान महावीर के प्रतिस्पर्धियों में में पायी जाती हैं। से एक । वर्धमान के सात पाखंडी प्रतिस्पर्धियों में इसका काठियावाड में स्थित गिरनार (ऊर्जयन्त ) पर्वत में समावेश किया जाता था। इसका निर्वाण हुआ, जहाँ इसके नाम का तीर्थस्थान आज १९१७ Page #1139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नेमिनाथ जैन व्यक्ति भद्रबाहु भी उपलब्ध है। कई अभ्यासकों के अनुसार, पौराणिक यह संवाद श्रावस्ती में तिंदुक उद्यान में हुआ था, साहित्य में निर्दिष्ट अरिष्टनेमि राजा संभवतः यही होगा। जिसमें भिक्षुओं के लिए ब्रह्मचर्यपालन की, एवं श्वेतवस्त्रों पकुध काच्चायन--एक आचार्य, जो 'अशाश्वत | की आवश्यकता पुनरुच्चारित की गयी थी। इस संवाद में वाद' नामक सिद्धांत का आद्य जनक माना जाता है । वर्धमान | महावीर शिष्य गौतम ने कहा था, 'प्रारंभ में भिक्ष सीधेसाधे महावीर के सात प्रमुख विरोधकों में से यह एक था। एवं विरक्त प्रकृति के थे। आगे चल कर वे अधिक चंचल प्रश्नोपनिषद् में निर्दिष्ट ककुद कात्यायन संभवतः यही | प्रकृति के हो गये, एवं धर्माचरण की ओर उनकी प्रवृत्ति होगा। श्वेत दिगंबर सांप्रदाय के 'सूयगड' नामक सूत्रग्रंथ कम होने लगी। इसी कारण नये नियमों का निर्माण 'में इसका निर्देश प्राप्त है (सूय, ३.१.१ -१६)। महावीर को करना पड़ा। पार्श्वनाथ - जैनों का तेइसवाँ तीर्थकर, जिसका काल पूरण कस्सप-एक आचार्य, जो महावीर के सात ७५० इ. पू. माना जाता है। जैन धर्म की तात्त्विक विरोधकों में से एक था। इसका तत्त्वज्ञान ' अक्रियावाद' विचारप्रणाली निर्माण करने का श्रेय इसे दिया जाता है, नाम से सुविख्यात है, जिसके अनुसार पाप एवं पुण्य की जिसका परिवर्धन एवं प्रचार करने का काम आगे चल सारी कल्पनाएँ अनृत एवं कल्पनारम्य मानी गयी थीं। कर जैनों का चोवीसवाँ तीर्थ कर वर्धमान महावीर एवं इसके तत्त्वज्ञान के अनुसार, खून चोरी व्यभिचार आदि उसके शिष्यों ने किया (महावीर वर्धमान देखिये )। से मनुष्यप्राणी को पाप नहीं लगता था, एवं गंगालान दानधर्म आदि से पुण्यप्राप्ति नहीं होती थी। इस प्रकार : बनारस का राजा अश्वसेन का यह पुत्र था, एवं इसकी इसका तत्त्वज्ञान चार्वाक के तत्त्वज्ञान से काफी मिलता माता का नाम वामा था। यद्यपि यह राजा का पुत्र था, जुलता प्रतीत होता है (संयुत्त. २.३.१०)। फिर भी इस ने अपनी सौ वर्ष की आयु में से सत्तर वर्ष भद्रबाहु-एक सुविख्यात जैन आचार्य, जो दक्षिण धार्मिक तत्त्वांचंतन में, एवं निर्वाण प्राप्ति के हेतु तपस्या में | भारत में श्रवण वेलगोल ग्राम में प्रसृत हुए 'श्वतांबर जैन व्यतीत किये । इसने साधकों के लिए एक चतु:सूत्री | सांप्रदाय' का आद्य जनक माना जाता है। इसकी जीवन युक्त आचरण संहिता का प्रणयन किया था। इस | विषयक सारी सामग्री ‘भद्रबाहुचरित्र' नामक ग्रंथ में आचरण संहिता का अनुगमन करनेवाले इसके अनेक प्राप्त हैं। अनुयायी उत्पन्न हुए, जिनमें महावीर के माता पिता बारह वर्षों का अकाल--अवन्ति देश के संप्रति चंद्रगुप्त सिद्धार्थ एवं त्रिशला प्रमुख थे। इनके अनुयायियों राजा का यह राजपुरोहित था, एवं इसने उसे जैनधर्म में मगध देश के लोग प्रमुख थे। की दीक्षा दी थी । एकबार एक वणिक् के घर यह धर्मोकशस्थली नगरी के प्रसेनजित् राजा की प्रभावती पदेशार्थ गया था, जहाँ उस वणिक् के साठ दिन के नामक कन्या से इसका विवाह हुआ था, जिसे इसने एक छोटे शिशु ने इसे 'चले जाओ' कहा । यह दुःश्चिन्ह कलिंग देश के यवन राजा से छुड़ाया था। समझ कर, यह अपने पाँचसौ. शिष्यों को साथ लेकर, इसकी राजप्रतिमा परस्पर सटे हुए दो नागशिरों से अवन्ति देश छोड़ कर दक्षिण देश चला गया। पश्चात् बनी थी, जो इसकी हरएक प्रतिमा एवं इसके द्वारा खोदी अवन्ति देश में लगातार बारह वर्षों तक अकाल उत्पन्न गयी हरएक गुफा पर पायी जाती है। हुआ, जिससे देशांतर के कारण यह एवं इसके शिष्य केशी-गोतमसंवाद-इसके द्वारा साधकों के लिए निर्माण | बच गये। किये गये आचारसंहिता में इसके पश्चात् २५० वर्षों के श्रवण बेलगोल में--श्रवण वेलगोल में पहुँचते ही इसने बाद उत्पन्न हुए महावीर ने पयोप्त परिवर्तन किये, एवं 'श्वेतांबर जैन' सांप्रदाय की स्थापना की। इसके साथ इसके द्वारा विरचित आचरण के बहुतसारे नियम अधिक- ही 'संप्रति मौर्य' दक्षिण में आया था, एवं इसकी सेवा तर कठोर बनाये । कौन सी सामाजिक परिस्थिति के कारण | करता रहा। महावीर को ये परिवर्तन अवश्यक प्रतीत हुए, इसका वृद्धकाल आते ही इसने अपना सारा शिष्यपरिवार विवरण करनेवाला एक संवाद 'उत्तराध्ययन सूत्र' में प्राप्त अपने प्रमुख शिष्य विशाखाचार्य को सौंप दिया, एवं है, जो पार्श्वनाथशिष्य केशिन् , एवं महावीरशिष्य गौतम | यह अपनी मृत्यु की राह देखने लगा। इसकी मृत्यु के बीच हुए संबाद के रूप में वर्णित है । | के पश्चात् इसके प्रिय शिष्य संप्रति मौर्य राजा ने १११८ Page #1140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु . प्राचीन चरित्रकोश महावीर 'संलेखना' (प्रायोपवेशन ) की । इसका निर्वाणकाल २९७ (बंधनरहित ) एवं 'महावीर ' ( परम पराक्रमी पुरुष) ई. पू. माना जाता है। | कहा गया है। जैन वाङ्गमय में इसे 'वीर,'' अतिवीर,' जैन साहित्य में प्राप्त परंपरा के अनुसार, सम्प्रति 'सन्मतिवीर' आदि उपाधियाँ भी प्रदान की गयी हैं। मौर्य को ही चंद्रगुप्त मौर्य माना गया है। किंतु वह इसी 'जिन' के अनुयायी होने के कारण, इस धर्म के असंभव प्रतीत होता है। अनुयायी आगे चल कर जैन' नाम से सुविख्यात हुए। ग्रंथ-इसके नाम पर निम्नलिखित ग्रंथ उपलब्ध है.- बुद्ध का समकालीन-गौतम बुद्ध के ज्येष्ठ समवर्ती १. श्रीमंडलप्रकरणवृत्ति (ज्योतिष); २. चतुर्विशाति- तत्त्वज्ञ के नाते महावीर का निर्देश ' दीघनिकाय' आदि प्रबन्धः ३. दशकालिका नियुक्ति; ४. आवश्यकसूत्रनियुक्ति; | बौद्ध ग्रंथों में प्राप्त है । मगध देश के अजातशत्र राजा ५. उत्तराध्यायनसूत्रनियुक्ति; ६. आचारांगसूत्रनियुक्ति; से मिलने आये छः श्रेष्ठ धार्मिक तत्त्वज्ञों में महावीर एक ७. सूत्रकृतांगसूत्रनियुक्ति; ८. दशश्रुतस्कंधसूत्र; ९. था, जिसका निर्देश बौद्ध ग्रंथों में 'निगंठ नातपुत्त' नाम कल्पसूत्र; १०: व्यवहारसूत्र; ११. सूर्यप्रज्ञप्तिसूत्र; १२. | से किया गया है। अजातशत्रु राजा से मिलने आये अन्य श्रीभाषितसूत्र । पाँच धार्मिक तत्वज्ञों के नाम निम्नप्रकार थें:- १. मक्खली महावीर वर्धमान--जैन धर्म का अंतिम एवं गोसार, जो सर्वप्रथम महावीर का ही शिष्य था, किन्तु चोबीसवाँ तीर्थकर, जो उस धर्म का सर्वश्रेष्ठ संवर्धक | उसने आगे चल कर आजीवक नामक स्वतंत्र सांप्रदाय की माना जाता है। अपने से २५० साल पहले उत्पन्न हुए | स्थापना की; २. पूरण कस्सप, जो 'आक्रियावाद' नामक पार्श्वनाथ नामक तत्त्वज्ञ के धर्मविषयक तत्वज्ञान का परि- तत्वज्ञान का जनक था; ३. अजित केशि कंबलिन्, जो वर्धन कर, महावीर ने अपने धर्मविषयक तत्वज्ञान का 'उच्छेदवाद' नामक तत्त्वज्ञान का जनक माना जाता है. निर्माण किया । इसीसे आगेचल कर जैनधर्मियों के | ४. पकुध काच्यायन, जो 'अशाश्वत ज्ञान' नामक तत्त्वज्ञान प्रातःस्मरणीय माने गये तेइस तीर्थकरों की कल्पना का | का जनक माना जाता है, ५. संजय बेलट्टीपुत्त, जिसका 'विकास हुआ, जिसमें पार्श्वनाथ एवं वर्धमान क्रमशः तत्त्वज्ञान — विक्षेपवाद' नाम से प्रसिद्ध है। तेईसवाँ एवं चोबीसवाँ तीर्थकर माने गये हैं। जन्म--वृजि नामक संघराज्य में वैशालि नगरी के - जैन साहित्य में हर एक तीर्थकर का विशिष्ट शरिरिक समीप स्थित कुण्डग्राम में इसका जन्म हुआ। ५९९ ई. चिन्ह (लांछन) वर्णन किया गया है, जहाँ वर्धमान | पू. इसका जन्मवर्ष माना जाता है। यह ज्ञातृक वंश में •का लांछन 'सिंह' बताया गया है। इसका एक और | उत्पन्न हुआ था, एवं इसके पिता का नाम सिद्धार्थ था. जों भी मंगलचिन्ह प्रचलित है, जो 'वर्धमानक्य' नाम से | 'वृजिगण' में से एक छोटा राजा था। इसकी सुविख्यात है। माता का नाम त्रिशला, एवं जन्मनाम वर्धमान था।आधनिक विश्व के धार्मिक इतिहास में महावीर एक ऐसी | | कालीन बिहार राज्य में मुज़फ्फरपुर जिले में स्थित बसाढ असामान्य विभूति है, जिसने राजाश्रय अथवा किसी भी | ग्राम ही प्राचीन कुण्डग्राम माना जाता है। प्रमुख आधिभौतिक शक्ति का आश्रय न ले कर, केवल इसकी माता त्रिशला वैशालि के लिच्छवी राजा चेटक अपनी श्रद्धा के बल से जैनधर्म की पुनः- की बहन थी। इसी कारण पिता की ओर से इसे स्थापना की। अपनी सारा आयुष्य एक सामान्य मनुष्य | 'ज्ञातृकपुत्र', 'नातपुत्त', 'काश्यप आदि पैतृक नाम, एवं के समान व्यतीत कर, इसने तीर्थकरों के द्वारा प्रतिपादित माता की ओर से इसे 'लिच्छविक' एवं 'वेसालिय' आत्मकल्याण का मार्ग शुद्धतम एवं श्रेष्ठतम रूप में अंगीकृत | नाम प्राप्त हुए थे। किया, एवं अपने सारे आयुष्य में उसी मार्ग का प्रतिपादन | समकालीन नृप--वैशालि के चेटक नामक राजा के किया। परिवार की सविस्तृत जानकारी जैन साहित्य में प्राप्त है, अपने इसी द्रष्टेपन के कारण यह जैन धर्म के पच्चीस- | जिससे महावीर के समकालीन राजाओं की पर्याप्त जानकारी सौ वर्षों के इतिहास में उस धर्म की प्रेरक शक्ति बन कर | प्राप्त होती है । चेटक राजा के कुल दस पुत्र, एवं सात रह गया। इस धर्म के विद्यमान व्यापक स्वरूप एवं कन्याएँ थी, जिनमें से ज्येष्ठ पुत्र सिंह अथवा सिंहभद्र तत्त्वज्ञान का सारा श्रेय इसीको दिया जाता है। इसी | वृजिराज्य का ही सेनापति था। चेटक की सात कन्याओं कारण इसे 'अर्हत् ' (पूज्य,)'जिन' (जेता,) निग्रंथ' में से चंदना एवं ज्येष्ठा 'ब्रह्मचारिणी' महावीर की १११९ Page #1141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जन व्यक्ति महावीर अनुगामिनी थीं। बाकी पाँच कन्याओं का विवाह निम्नलिखित राजाओं से हुआ था-१. मगधराजा विचिसार २. कौशांबीनरेश शतानीकः २. दशार्णराज दशरथ ४. सिंधुसौवीरनरेश उदयन ५. अवंतीनरेश बण्ड प्रद्योत । चेटक राजा के परिवार के ये सारे राजा आगे चलकर महावीर के अनुयायी बन गये। उपर्युक्त राजाओं के अतिरिक्त निम्नलिखित राजा भी महावीर के समकालीन एवं अनुयायी थे. दधिवाहन ( चंपादेश ); २. जितशत्रु (कलिंग ); ३. प्रसेनजित् (श्रावस्ति ); ४. उदितोदय (मथुरा); ५. जीवंधर (मांगद ) ६. पिदा (पीन्यपूर) ७. विजयसेन (पपुर); (चाल) हस्तिनापुरनरेश तपस्या फलिंगनरेश जितशत्रु की कन्या यशोदा के साथ महावीर का विवाह हुआ था । किन्तु आगे चल कर इसके मन में विरक्ति उत्पन्न हुई । तीस वर्ष की आयु में अपने ज्येष्ठ बन्धु की आज्ञा से कर इसने घर छोड़ दिया (६७० ई. पू.)। कई अभ्यासकों के अनुसार, यशोदा के साथ इसके विवाह का प्रस्ताव जब हो रहा था, उसी समय अर्थात् विवाह के पूर्व ही इसने अपना घर छोड़ दिया । महावीर लाख लोगों ने जैन धर्म को स्वीकार किया । वर्धमान का यह शिवसमुदाय मुनि, आवक, आर्यिका एवं आविका इन चारों में विभाजित था। इनमें से तापसजीवन का आचरण कर धर्मप्रचारका कार्य करनेवाले प्रचारक एवं प्रचारिका को 'मुनि ' एवं 'आर्यिका ' कहा जाता था । गृहस्थधर्म का आचरण कर जैन धर्मतत्त्वों का पालन करनेवाले जैनधर्मानुयायी 'भावक एवं आधिका ' श्राविका कहलाते थे। , जाति, वर्ण, वर्ग, लिंग आदि भेदों के निरपेक्ष रह कर, हरएक व्यक्ति को यह अपने तत्त्वज्ञान का उपदेश प्रदान करता था, एवं कौनसा भी मेदाभेद न मान कर हर व्यक्ति को इसके धर्म में प्रवेश प्राप्त होता था इस प्रकार इसके आयक एवं आविका शिष्यपरिवार में भारत के सभी भागों के, सभी वर्णों के, एवं सभी जातियों के स्त्री पुरुष समाविष्ट थे । भारत के बाहर भी गांधार, कपिशा, पारसिक आदि देशों में इसका शिष्यपरिवार उन हुआ था। इसके विकासंघ के प्रमुख का कार्य मगवाम्रा | चेलना पर सौंपा गया था। धर्मसंगठन जैन धर्म के प्रचारकार्य का आजन्म पालन करनेवाले मुनि, एवं आर्यिका कुल नौ गणों (वृंदों) में विभाजित थे, एवं उनके संचालन का . का ग्यारह गणधरों पर निर्भर था। वर्तमान का मु शिष्य गौतम गणेश महावीर उनका प्रमुख माना जाता था । वर्धमान के ग्यारह गणधरों के नाम निम्नप्रकार :-१. इंद्रभूति गौतम २२. वायुभूति, ४. आर्यव्यक्त; ५. सुधर्म; ६. मण्डिकपुत्रः ७. मोयपुत्रः ८. अकंपित ९. अचल १०. मैत्रेयः ११. कौण्डिन्य गोत्रीय प्रभास | पश्चात् बारह वर्षों तक यह अनेकानेक वनों में घूमता एवं तपस्या करता रहा। अन्त में ५४७ . पू. में बिहार प्रान्त में जैकग्राम में या नदी के किनारे एक शालवृक्ष के नीचे ध्यानावस्था में ही इसे केवलज्ञान की प्राप्ति हुई। इस प्रकार यह सर्पश, सर्वदर्शी अर्हत् एवं परमात्मन् बन गया । केवलज्ञान प्राप्ति के समय इसकी आयु ४२ वर्ष की थी। C धर्मप्रचार का कार्य करनेवाले आर्थिक संघ' की अध्यक्षा महासती चंदना थी, जो वैशालि के चेटक राजा की ज्येष्ठ कन्या थी । प्रथम समवशरणसभा -- केवलज्ञान की प्राप्ति के पश्चात् यह पंचशैलपुर नामक नगरी के समीप में स्थित विपुलाचल नामक पर्वत पर आ पहुँचा। वहाँ श्रावण कृष्ण प्रतिपदा के दिन इसने 'प्रथम समवशरण सभा' का आयोजन किया, जहाँ इसने जैनधर्म का तत्त्वज्ञान उपस्थित साधकों को अर्धमागधी लोकभाषा में कथन किया । वर्धमान का यह सर्वप्रथम धर्मप्रवचन गौतम बुद्ध के द्वारा सारनाथ में किये गये 'धर्मचक्रप्रवर्तन' के प्रथम प्रवचन इतना ही महत्त्वपूर्ण माना जाता है। इस प्रवचन के लिए उपस्थित ओताओं में मगध देश का सुविख्यात सम्राट श्रेणिक विसार प्रमुख था। पर्यटन अपने तत्वज्ञान के प्रचाराचे वर्धमान भारतवर्ष के तत्वाधीन सारे जनपदों में एवं ग्रामों में खातार तीस वर्षों तक घूमता रहा । इन जनपदों में से मिथिला, मगध, कलिंग, एवं कोशल जनपदों में इसका संचार अधिकतर रहता था। इसी कार्य में यह गांधार, कपिशा जैसे बृहत्भारतीय देशों में भी गया जैसे पहले ही कहा शिष्यशाखा -- वर्धमान का तत्वज्ञान इतना प्रभावी जा चुका है कि, भारत के बहुतसारे जनपदों के प्रमुख शाबित हुआ कि, इसके जीवनकाल में ही लगभग पाँच | इसके शिष्यों में शामिल थे। यही नहीं, इनमें से अनेक ११२० Page #1142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर. प्राचीन चरित्रकोश महावीर राजा आगे चल कर जैन मुनि बन कर स्वयं ही धर्मप्रसार | फर्क है कि, जहाँ पार्श्व वस्त्र का भी संग्रह न कर अच्चेलक का कार्य करने लगे। (नम ) रहना पसंद करते है, वहाँ वर्धमान के द्वारा निर्वाण-इस प्रकार धर्मसाधना एवं धर्मप्रसार का अपने अनुयायियों को श्वेतवस्त्र परिधारण करने की एवं कार्य अत्यंत यशस्वी प्रकार से निभाने के पश्चात्, मल्ल उनका संग्रह करने की संमति दी गयी है। देश के पावा नगरी में स्थित कमलसरोवरान्तर्गत द्वीप पार्श्व एवं वर्धमान के इस तत्त्वसाधर्म्य के कारण, इन प्रदेश में वर्धमान का निर्वाण हुआ। इसके निर्वाण का दोनों आचार्यों के अनुयायियों ने श्रावस्ती में एक महासभा दिन कार्तिक कृष्ण अमावास्या; समय प्रातःकाल में सूर्योदय । बुला कर इन दोनों सम्प्रदायों को सम्मिलित करने का निर्णय के पूर्व; एवं साल ५२७ इ. पू. (विक्रम. पूर्व. ४७०; शक. लिया। आगे चल कर, इन दोनों सांप्रदायों के सम्मीलन पूर्व. ६०५) माना जाता है। | के द्वारा जैन धर्म का निर्माण हुआ (उत्तराध्ययन . इसके निर्वाण के समय, लिच्छवी राजा चेटक एवं | सूत्र. २३)। मल्लराजा ब्रांत्यक्षत्री हस्तिपाल उपस्थित थे। पश्चात् अहिंसा तत्त्व की महत्ता--दैनंदिन मानवीय जीवन में मल्ल एवं लिच्छवी के जनपदों के नौ नौ राजप्रमुखों ने अहिंसा तत्त्व को सैद्धान्तिक एवं व्यावहारिक दृष्टि से जितना एकत्रित आ कर इसका निर्वाणविधि सुयोग्य रीति से सुस्पष्ट, उँचा एवं व्यापक रूप वर्धमान के द्वारा दिया निभाया, एवं उसी रात्रि को जैन धर्म की परंपरा के गया है, उतना अन्य किसी भी धर्मद्रष्टा में नहीं दिया अनुसार दीपोत्सव भी मनाया। कई अभ्यासकों के होगा। इस प्रकार अहिंसाचरण को दिया यह सर्वोच्च अनुसार, भारतवर्ष में दीपावलि का त्यौहार वर्धमान के विकसित रूप वर्धमान के आचारसंहिता का एक प्रमुख निर्वाण के समय किये गये दीपोत्सव से ही प्रारंभ हुआ। वैशिष्टय कहा जा सकता है। इसके निर्वाण के साथ साथ 'महावीर निर्वाणसंवत्' का वर्षमान का अनेकान्तवाद-आचार संहिता के साथ प्रारंभ हुआ, जो 'वीरसंवत् ' नाम से जैनधर्मीय लोगों में ही साथ, आत्मज्ञान एवं मुक्ति प्राप्त करने के लिए आज भी प्रचलित है। वर्धमान का एक स्वतंत्र तत्त्वज्ञान भी था, जो 'अनेकान्त___ आचारसंहिता-महावीर के द्वारा प्रणीत धमविषयक | वाद' नाम से सुविख्यात है। इस तत्त्वज्ञान के अनुसार तत्त्वज्ञान इसके पंचसूत्रात्मक आचारसंहिता में संग्रहित है, आत्मा को सद्गति केवल सदाचरण से ही प्राप्त होती है, जो इसके २५० साल पहले उत्पन्न हुए पार्श्वनाथ के द्वारा | जिसका मूल दैनंदिन मानवीय जीवन में अहिंसाचरण ही प्रणीत चतुःसूत्रात्मक आचारसंहिता से काफी मिलती कहा जा सकता है। जुलती है। ___ वर्धमान का कहना था कि, इंद्रियोपभोग के आधिक्य महावीर के द्वारा प्रणीत पंचसूत्रात्मक आचारसंहिता से आत्मा मलिन हो जाती है। इसी कारण आत्मा की के सूत्र निम्नप्रकार है:- १. किसी भी जीवित प्राणी अथवा | पवित्रता अबाधित रखने के लिए सर्वोत्कृष्ट मार्ग इंद्रियकीटक की हिंसा न करना (अहिंसा); २. किसी भी दमन है, जो केवल सद्विचार एवं सद्धर्म से साध्य हो वस्तु का किसी के दिये बगैर स्वीकार न करना (अया चि- | सकता है। कत्व); ३. अनृत भाषण न करना (सत्य); ४. आजन्म | वर्धमान का क्रियावाद--जैन सूत्रों में कुल ३६३ ब्रह्मचर्यत-व्रत का पालन करना (ब्रह्मचर्य); ५. वस्त्रों के सांप्रदायों का निर्देश प्राप्त है, जिनमें निम्नलिखित चार प्रमुख अतिरिक्त अन्य किसी वस्तु का संचय न करना थे- १. क्रियावाद; २. अक्रियावाद; ३. अज्ञानवाद; ४. (अपरिग्रह)। विनयवाद । इनमें से महावीर स्वयं 'क्रियावाद' सांप्रदाय का वर्धमान के इस तत्त्वज्ञान में से पहले तीन तत्त्व पार्श्व पुरस्कर्ता था । इस सांप्रदाय के अनुसार, मानवीय के तत्वों से बिलकुल मिलते जुलते है। अंतिम दो तत्त्व आयुष्य का बहुत सारा दुःख मनुष्य के अपने कर्मों के पार्श्व के 'अपरिग्रह ' नामक एक ही तत्त्व से लिये गये हैं, परिणामरूप ही होते है, एवं इस दु:ख के बाकी सारे फर्क केवल इतना है कि, जहाँ पाच ब्रह्मचर्य को अपरिग्रह | कारण प्रासंगिक होते हैं । मानवीय जीवन के ये दुःख में ही समाविष्ट करता है, वहाँ वर्धमान ब्रह्मचर्य को स्वतंत्र जन्म, मृत्यु एवं पुनर्जन्म के दुश्चक्र से उत्पन्न होते तत्त्व बता कर उसे ज्यादा महत्त्व प्रदान करते हैं। पाव हैं । इस दुःख से छुटकारा पाने के लिए आत्मज्ञान एवं वर्धमान के अपरिग्रह की व्याख्या में अन्य एक | एवं सदाचरण ये ही दो मार्ग उपलब्ध है। प्रा. च. १४१] १९२१ Page #1143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर जैन व्यक्ति महावीर बौद्वधर्म से तुलना-यद्यापि वर्धमान एवं गौतम बुद्ध | (४) विष्णुकुमार; (५) नदिमित्र; (६ ) अपराजित दोनों भी अनीश्वरवादी एवं वैदिक धर्म के विरोधी (७) गोवर्धन; (८) श्रुत केवलि भद् बाहु-ये पाँच थे, फिर इन दोनों के धार्मिक तत्त्वज्ञान में पर्याप्त फर्क है। आचार्य जंबुस्वामिन् के पश्चात् क्रमशः जन संघ के जहाँ बुद्ध इंद्रियोसभोग के साथ साथ तपःसाधना को भी आचार्य बन गये। इनमें से अंतिम आचार्य भद्रबाहु का त्याज्य मान कर इन दोनो के बीच का 'मध्यम मार्ग' निर्वाण ३६५ इ. पू. में हो गया। प्रतिपादन करते है, वहाँ वर्धमान ता एवं कृच्छ्र को जीवन- सांप्रदायभेद-भद्रबाहु की मृत्यु के पश्चात् जैनधर्म सुधार का मुख्य उपाय बताता है । तपःसाधना को पाप- 'उदीच्य' (श्वेतांबर ) एवं 'दाक्षिणात्य' (दिगंबर) नाशन का सर्वश्रेष्ठ उपाय माननेवाले जैन तत्त्वज्ञान की इन दो सांप्रदायों में विभाजित हुआ। इ. पू. ३री 'अंगुत्तर' एवं 'टीका निपात' आदि ग्रंथों में व्यंजना | शताब्दी में मध्यदेश के द्वादशवर्षीय अकाल के की गयी है। कारण, भद्रबाहु नामक जैन आचार्य अपने सहस्रावधि ___ ग्रंथ-इसके नाम पर निम्नलिखित बारह ग्रंथ उपलब्ध शिष्यों के साथ मध्यप्रदेश छोड़ कर दक्षिण भारत की हैं, जो इसके तत्त्वज्ञान का संग्रह कर इसके निर्वाण के ओर निकल पड़े। पश्चात् ये लोग कनाटक देश में 'श्रवण पश्चात् ग्रंथनिबद्ध किये गये है। इन सारे ग्रंथों की रचना वेलगोल' नामक स्थान में आ कर स्थायिक हुए, एवं अर्धमागधी भाषा में की गयी है:-१. आचारांग, २, आगे चल कर 'दाक्षिणात्य' अथवा 'दिगंबर' सांप्रदाय सूत्रकृतांग; ३. स्थानांग; ४. समवायांग; ५. भगवती: नाम से प्रसिद्ध हुए। ६. अंतकृदशांग; ७. अनुत्तरोपपातिकदशांग; ८. विपाक; आचार्य स्थूलभद्र के नेतृत्व में बहुत सारे जैन मुनि ९. उपासकदशांगः १०. प्रश्नव्याकरण; ११. ज्ञाताधर्म- मध्यदेश में ही रह गये, जो आगे चल कर, 'श्वेतांबर कथा; १२. दृष्टिवाद। जैन ' नाम से प्रसिद्ध हुए। परंपरा--वर्धमान की मृत्यु के पश्चात् , जैन धर्म की उपर्युक्त सांप्रदायों की संक्षिप्त जानकारी निम्नप्रभार परंपरा अबाधित रखने का कार्य इसके शिष्य प्रशिष्यों ने है:-- किया। इसके इन शिष्य प्रशियों में निम्नलिखित प्रमुख १. दिगंबर जैन-आचार्य भद्रबाहू के नेतृत्व में श्रवण बेलगोल में स्थायिक हुए जैन लोग आगे चल कर दक्षिण (१) इंद्रभूति गौतम --वर्धमान के निर्वाण के पश्चात् भारत के विभिन्न प्रदेशों में जैन धर्म का प्रसार करने लगे। यह प्रमुख गणधर बन गया। वर्धमान के धर्मविषयक | दक्षिण भारत में आने के पश्चात् अपने कठोर नियम, तत्त्वज्ञान को, एवं उपदेशों को सुव्यस्थित रूप में गठित आचारविचार, एवं तात्त्विकता से ये पूर्व से ही अटल एवं वर्गीकृत करने का कार्य इसने किया।५१५ इ. पू. में रहे। इसी कारण भारत के अन्य सभी सांप्रदायों से ये इसका निर्वाण हुआ। अधिक सनातनी, एवं तत्त्वनिष्ठुर साबित हुए। बौद्ध धर्म के संस्थापक गौतम बुद्ध एवं न्यायसूत्र के ! २. श्वेतांबर जैन--आचार्य स्थूलभद्र के नेतृत्व के मध्य अक्षपाद् गौतम का यह समकालीन था। किंतु फिर भी देश में रहनेवाले जैन श्रवणों को अत्यंत दुर्धर अकाल से इन दोनों व्यक्तियों से यह सर्वथा भिन्न व्यक्ति था। सामना देना पड़ा। इसी दुरवस्था के कारण, इनके (२) अर्हत् केवली सुधर्माचार्य--यह इंद्रभूति गौतम आचारविचार, शिथिल पड़ गये, एवं इन लोगों की ज्ञान के पश्चात् जैन धर्म संघ का प्रधान गणधर बन गया। साधना भी क्षीण होती गयी। इन लोगों का केंद्र५०३ इ. पू. में इसका निर्वाण हुआ। स्थान सर्वप्रथम मगध देश के पाटलिपुत्र नगर में था, (३) जंबुस्वामिन्-यह अर्हत् केवली के पश्चात् जिस कारण इन्हें 'मागधी' नामान्तर प्राप्त था। आगे जैनधर्म संघ का प्रमुख बन गया। अपने पूर्वायुष्य में चल कर ये लोग पाटलिपुत्र छोड़ कर उज्जैनी में आ कर यह चम्मा के कोट्याधीश बणिक का पुत्र था। किन्तु रहने लगे। अन्त में ये लोग सौराष्ट्र में बलभीपुर नगर में आगे चल कर जैन मुनि बन गया। मथुरा नगरी के समीप निवास करने लगे। ये ही लोग पहली शताब्दी के अन्त स्थित चौरासी नामक स्थान पर इसने घोर तपस्या की | में श्वेतांबर जैन नाम से सुविख्यात हुए। थी। अन्त में इसी स्थान पर ४६५ इ. पू. में इसका (३) मथुरा निवासी जैन-उत्तरापथ प्रदेश में जैनों निर्वाण हुआ। | के अनेक उपनिवेश थे, जो आगे चल कर मथुरानगरी ९१२२ Page #1144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर प्राचीन चरित्रकोश आम्रपालि में निवास करने लगे। दिगंबर एवं श्वेतांबर जैनों से ये अपने सैन्यदल के अनेक योद्धाओं को भिक्षवेष में धर्मसर्वथा विभिन्न थे, एवं इन लोगों की आचारपद्धति प्रचारार्थ भेजा था। . दिगंबर एवं श्वेतांबर पंथियों की आचारपद्धति के समन्वय दक्षिण भारत में आगमन--एक बार इसके राज्य में से उत्पन्न हुई थी। लगातार बारह वर्षों तक अकाल उत्पन्न हुआ। इस कारण, संप्रति मौर्य-मगध देश का एक राजा. जो अशोक अपने गुरु भद्र बहु के साथ यह दक्षिण भारत में स्थित राजा का पौत्र, एवं कुनाल का पुत्र था। इसे चंद्रगुप्त | श्रवणबेलगोल नामक नगर में आया । भद्रबाहु के निर्वाण (द्वितीय) नामांतर भी प्राप्त था। इसका राज्य काल २१६ के पश्चात् इसने चंद्र गिरि पर्वत पर प्राणत्याग किया। ई. पू.-२०७ ई. पू. माना जाता है। इसकी मृत्यु के पश्चात् शालिशुक मगध देश के राज यह जैन धर्म का एक श्रेष्ठ पुरस्कता था. एवं बौद्ध | गद्दी पर बैठा । तिब्बती साहित्य में इसके उत्तराधिकारी धर्म के इतिहास में अशोक का जो महत्त्व है. वहीं महत्त्व | का नाम वृषसेन दिया गया है, जो संभवतः इसके उस इसे जैन धर्म के इतिहास में दिया जाता है। जैन धर्म | प्रदेश में स्थित राज्य का राजा बन गया होना। के प्रचार के लिए इसने अनेकानेक धर्मोपदेशक गांधार सिद्धार्थ--वर्धमान महावीर का पिता, जो लिच्छवीकपिशा आदि देशों में भेज दिये थे। यही नहीं इसने । गण में से एक गण का राजा था। परिशिष्ट २ बौद्ध ग्रंथों में निर्दिष्ट गौतम बुद्ध के समकालीन प्रमुख व्यक्ति • आडार कालाम--गौतम बुद्ध का एक गुरु, जिसने १. निरोध (संयुत्त. ३. २४); २. लोक (संयुत्त. उसे 'अकिंचन्नायतन' नामक ज्ञान का उपदेश प्रदान ४.५३) ३. वेदना (संयुत्त. ४. २१९-२२१) ४. किया था। किन्तु उस विद्या से समाधान न होने पर बुद्ध भव (अंगुत्तर. १.२२३); ५. समाधि (गुत्तर. ५. अन्यत्र चला गया। | ७); संघभेद (अंगुत्तर. ५. ७५)। - आनंद-गौतम बुद्ध का प्रमुख शिष्य, जो उसका | इसके मित्रों में सारीपुत्त, मौद्गलायन, महाकश्यप, चचेरा भाई था। इसके पिता का नाम अमितोदन था, अनुरुद्ध रैवत आदि प्रमुख थे (मझिम १.२१२)। जो गौतम बुद्ध के पिता शुद्धोदन का छोटा भाई था। बुद्ध की मृत्यु के पश्चात् यह दीर्घकाल तक जीवित रहा। गौतम बुद्ध को आत्मज्ञान होने के पश्चात् बीस वर्षों की | धम्मपद के अनुसार मृत्यु के समय इसकी आयु १२२ कालावधि में नाग श्यामल, नागित, चण्ड, राध, | वर्षों की थी (धम्म. २. ९९)। मेघीय आदि अनेक लोग उसके सेवक के नाते काम करते आम्रपालि ( अम्बपालि)-वैशाली की एक गणिका, थे । बुद्ध की उत्तर आयु में उसे एक विश्वासु मित्र एवं जो गौतमबुद्ध की अनन्य उपासिका थी। अपने निर्वाण के सेवक की आवश्यकता उत्पन्न हुई, उस समय उसने बाकी पूर्व गौतम बुद्ध कोटिग्राम गया था, जिस समय इसने सारे लोगों को दूर कर आनंद की इस कार्य के लिए। उसे वैशाली में अपने घर भोजन के लिए आमंत्रित किया नियुक्ति की। तत्पश्चात् पचीस वर्षों तक यह हर एक था। उसी समय 'आम्रपालिबन' नामक सुविख्यात प्रकार से बुद्ध की सेवा करता रहा (थेरगाथा.५.१०३९)। | उपवन एवं बौद्धसंघ के लिए मेंट में दिया था ( विनय. १. बुद्ध से संवाद-गौतम बुद्ध ने अनेकानेक धार्मिक | २३१.२३३; दीध्य. २.९५-९८)। इसके द्वारा लिखित कई विषयों पर संवाद किये थे, जिनमें निम्न लिखित | धार्मिक गीत 'थेरी गाथा ' में समाविष्ट हैं (थेरीगाथा प्रमुख थे: । २०६-२०७) । ११२३ Page #1145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपालि बौद्ध व्यक्ति उपालि-बुद्ध का एक प्रमुख शिष्य, जिसे स्वयं बुद्ध के द्वारा ' विनय पिटक ' की शिक्षा प्राप्त हुई थी ( दीपवंश ४.२.५)। 6 इसका जन्म कपिलवस्तु के एक नाई कुटुम्ब में हुआ था। शाक्य देश के अनिन्द आदि राजपुत्रों के साथ यह बुद्ध से मिलने गया, जहाँ बुद्ध ने अन्य सभी व्यक्तियों से पहले इसे 'या' प्रदान की, एवं इसे अपना शिष्य बनाया । 'प्रत्रज्या' प्रदान करने के पश्चात् उपस्थित सभी राजकुमारों को बुद्ध ने आशा की कि ये इसे वंदन करे। संघ में सामाजिक प्रतिष्ठा से भी बढ़कर अधिक महत्व व्यक्ति की धर्मविपना को है, इस सत्य का साक्षात्कार कराने के हेतु बुद्ध ने इसके साथ इतने बहुमान से पता किया। , विनयपिटक का अधिकारी व्यक्ति - स्वयं बुद्ध के द्वारा इसे पटकका सर्वश्रेष्ठ आचार्य कहा गया था ( अंगुत्तर, १.२४)। इसके अर्थ के संबंध में वहाँ कहीं शंका उपस्थित होती थी, तब इसीका ही मत अंतिम माना जाता था। इस संबंध में भारकच्छक एवं कुमार कश्यप की कथाओं का निर्देश भौद्ध साहित्य में पुनः पुनः पाया जाता है (विनय २.२९ ) । राजग्रह में हुई बौद्ध सभा में विनयपिटक के अधिकारी व्यक्ति के नाते इसने भाग लिया था ( धम्मपद. ३.१४५ ) । गौतमबुद्ध एवं उपालि के दरम्यान हुए 'विनय' संबंधित से संवाद पर आधारित 'उपाधि पंचक नामक एक अध्याय चौद ग्रंथों में प्राप्त है ( विनय. ५.१८० - २०६ ) । 'गौतम बुद्ध' - - बुद्धधर्म का सुविख्यात संस्थापक, जो बौद्ध वाङ्मय में निर्दिष्टपच्चीस बुद्धों में से अंतिम बुद्ध माना जाता हैं । बोध प्राप्त हुए साधक को बौद्ध वाङ्मय में 'बुद्ध' कहा गया है, एवं ऐसी व्यक्ति धर्म के ज्ञान के कारण अन्य मानवीय एवं देवी व्यक्तियों से श्रे माना गया है। गौतम बुद्ध १. दीपंकर, २. कौंडन्य; ३. मंगल; ४. सुमन, ५. रेवत; ६. शोभित, ७. अनोमदर्षिन् ८. पद्म ९. नारद १०.११. सुमेध १२ १२. प्रियदर्शन १४. अर्थदर्शिन् १५. धर्मदर्शिन्; १६. सिद्धांत; १७. तिप्यः १८. पुण्य | उन्हों की नामावलि 'दीपवंश' जैसे प्राचीनतर बौद्ध ग्रंथ में बुद्धों की संख्या सात बतायी गयी है, एवं उनके नाम निम्न प्रकार दिये गये है :-- १. विपश्यः २. शिखिन् ३. वेश्यभूः ४ ककुसंध; ५. कोणागमन; ६. कश्यप ७. गौतम (दौर. २.५ २.५ ) | 'बुद्धवंश' जैसे उत्तरकालीन बौद्ध ग्रंथ में बुद्धों की संख्या पच्चीस बतायी गयी है, जिनमें उपनिर्दिष्ट बुद्धों के अतिरिक्त निम्नलिखित वृद्ध विपश्य से पूर्वकालीन बताये गये हैं। जन्म -- गौतम के आबस्ती से साठ मी पिता का नाम शुद्धोदन था, जो उत्तर में एवं रोहिणी नदी के पश्चिम तट पर स्थित शाक्यों के संघराज्य का प्रमुख था । शासयों की राजधानी कपिलवल में थी, जहाँ गौतम का जन्म हुआ था। प्राचीन शाक्य जनपद कोसल देश का ही भाग था, इसी कारण गौतम 'शाकीय' एवं 'कोसल' कहखाता था (म. २.१२४ ) । गौतम की माता का नाम महामाया था, जो रोहिणी नदी के पूरव में स्थित कोलिय देश की राजकन्या थी । आषाढ. माह की पौर्णिमा के दिन महामाया गर्भवती हुई, जिस' दिन बोधिसत्व ने एक हाथी के रूप में उसके गर्भ में प्रवेश किया। दस महीनों के बाद कपिलवस्तु से देवदह नगर नामक अपने मायके जाते समय लुंबिनीवन में वह प्रसूतं. हुई। वैशाख माह की पौर्णिमा बौद्ध का जन्मदिन मानी गयी है। इसी दिन इसकी पत्नी राहुतमाता बोध, इसका मंथक नामक अथ एवं छन्न एवं नामक इसके नौकर पृथ्वी पर अवतीर्ण हुए। गौतम का जन्मस्थान बनी आधुनिक काल में 'रुम्मिन देई' नाम से सुविख्यात है, जो नेराल की तराई में वस्ती नामक जिले की सीमा पर स्थित है । इसके जन्म के पश्चात् सात दिनों के बाद इसकी माता की मृत्यु हुई। जन्म के पाँचवे दिन इसकी नामकरणविधि सम्पन्न हुई, जिसमें इसका नाम 'सिद्धा' रक्खा गया । स्वरूपवर्णन इसका स्वरूपवर्णन बौद्ध साहित्य में प्राप्त है | यह लंबे कद का था। इसकी आँखे नीली, रंग गोरा, कान लटकते हुए, एवं हाथ लंबे थे, जिनकी अंगुलियों घुटने तक पहुँचती थी। इसके देश परा थे एवं छाती चौड़ी थी। . इसकी आवाज अतिसुंदर एवं मधुर थी, जिसमें उत्कृष्ट वक्ता के लिए आवश्यक प्रवाह, माधुर्य, सुस्पष्टता, तर्कशुद्धता एवं नादमधुरता ये सारे गुण समाविष्ट थे ( मज्झिम. १.२६९, १७५ ) । बौद्ध साहित्य में निर्दिष्ट महापुरुष के बत्तीस लक्षणों से यह युक्त था । बाल्यकाल एवं साग्य उसकी आयु के पहले उन्तीस वर्ष शाही आराम में व्यतीत हुए। इसके रम्य, सुरम्य, ११२४ Page #1146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गौतम बुद्ध प्राचीन चरित्रकोश गौतम बुद्ध एवं शुभ नामक तीन राजप्रसाद थे, जहाँ यह बर्ष के तीन नामक स्त्री पीने पीपल के वृक्ष के नीचे बैठ हुए इसे वृक्षऋतु व्यतीत करता था (अंगुत्तर. १.१४५)। सोलह वर्ष | देवता समझ कर लगातार पाँच दिनों तक सुवर्ण पात्र में की आयु में सुप्रबुद्ध की कन्या यशोधरा (भद्रकच्छा अथवा | पायस खिलायी। विंबा) से इसका विवाह संपन्न हुआ, जो आगे चल कर परमज्ञानप्राप्ति--वैशाख पौर्णिमा के दिन नैरंजरा राहुलमाता नाम से सुविख्यात हुई। कालोपरांत अपनी | नदी में स्थित सुप्रतीर्थ में इसने स्नान किया, एवं वही स्थित इस पत्नी से इसे एक पुत्र उत्पन्न हुआ, जिसे अपने शालवन में सारा दिन व्यतीत किया । पश्चात् श्रोत्रिय आध्यात्मिक जीवन का बंधन मान कर उसका नाम 'राहुल' के द्वारा दिये गये घांस का आसन बना कर, यह बोधि (बंधन) रख दिया। वृक्ष के पूर्व भाग में बैठ गया। उसी समय, गिरिमेखल विरक्ति-इसकी मनोवृत्ति शुरु से ही चिंतनशील, एवं | नामक हाथी पर आरूढ़ हो कर, मार (मनुष्य की पापी वैराग्य की ओर झुकी हुयी थी । आगे चल कर एक बूढ़ा, वासनाएँ) ने इस पर आक्रमण किया, एवं अपना एक रोगी, एवं एक लाश के रूप में इसे आधिभौतिक चक्रायुध नामक अस्त्र इसपर फेंका । इसने मार को जीत जीवन की टियाँ प्रकर्ष से ज्ञात हुई, एवं लगा कि, लिया, एवं इसके चित्तशान्ति के सारे विक्षेप नष्ट हुए। क्षुद्र मानवीय जंतु जिसे सुख मान कर उसमें ही लिप्त | पश्चात् उसी रात्रि में इसे अपने पूर्वजन्मों का, एवं रहता है, वह केवल क्षणिक ही नहीं, बल्कि समस्त विश्व के उत्पत्ति कारणपरंपरा (प्रतीत्य समुत्पाद) का मानवीय दुःखों का मूल है। उसी समय इसने एक शांत | ज्ञान हुआ, एवं दिव्यचक्षु की प्राप्ति हुई। बाद में एवं प्रसन्नमुख संन्यासिन को देखा, जिसे देख कर इसका | उसे वह बोध (ज्ञान) हुआ, जिसकी खोज़ में यह संन्यास जीवन के प्रति झुकाव और भी बढ़ गया। आज तक भटकता फिरता था। उसी दिन इसे ज्ञात महाभिनिष्कमण--पश्चात् आषाढ माह की पौर्णिमा की हुआ, कि संयमसहित सयाचरण एवं जीवन ही रात्रि में इसने समस्त राजवैभव एवं पत्नीपुत्रों को धर्म का सार है, जो इस संसार के सभी यज्ञ, शास्त्रार्थ त्याग कर, यह अपने कंथक नामक अश्वपर आरुढ हो कर | एवं तपस्या से बढ़ कर हैं। कपिलावस्तु छोड़ कर चला गया। पश्चात् शाक्य, कोल्य, पश्चात् यह तीन सप्ताहों तक बोधिवृक्ष के पास एवं मल राज्यों को एवं अनुमा नदी को पार कर, यह ही चिंतन करता रहा। इसी समय इसके मन में शंका 'राजगृह नगर पहुँच गया । इसे गौतम का महाभिनिष्क्रमण उत्पन्न हुई कि, अपने को ज्ञात हुआ बोध यह अपने कहते है। पास ही रक्खें, अथवा उसे सारे संसार को प्रदान करें। .. तपःसाधना--राजगृह में बिंबिसागर राजा से भेंट उसी समय ब्रह्मा ने प्रत्यक्ष दर्शन दे कर इसे आदेश करने के उपरान्त यह तपस्या में लग गया। आधिभौतिक | दिया कि, 'उत्थान' (सतत उद्योगत रहना) एवं गृहस्थधर्म से यह पहले से ही ऊब चुका था। अब यह 'अप्रमाद' (कभी ढील न खाना) यही इसका जीवन संन्यास देहदण्ड का आचारण कर तपस्या करने लगा। कर्तव्य है। ब्रह्मा के इस आदेश के अनुसार, इस ने स्वयं सर्वप्रथम यह आडार, कालम एवं उद्रक रामपुत्र आदि | को प्राप्त हुए बोध का संसार में प्रसार करना प्रारंभ आनार्यों का शिष्य बना, किन्तु उनकी सूखी तत्त्वचर्चा से | किया। ऊब कर यह उरुवेला में स्थित सेनानीग्राम में गया, एवं | धर्मचक्रप्रवर्तन--अपने धर्मरूपी चक्र का प्रवर्तन वहाँ पंचवर्गीय ऋषियों के साथ इसने छः वर्षोंतक कठोर (सतत प्रचार करना) का कार्य इसने सर्व प्रथम सारनाथ तपस्या की। इस तपस्या के पश्चात् भी इसका मन | (वाराणसी) में प्रारंभ किया, जहा इसने पाँच अशान्त रहा, इस कारण यह हठयोगी तापसी का जीवन | तापमों के समुदाय के सामने अपना पहला धर्मप्रवचन छोड़ कर सामान्य जीवन बिताने लगा। इस समय इसे | दिया। इसने कहा, 'संन्यासियों को चाहिये कि, वे दो प्रतीत हुआ कि, मानवी शरीर को अत्यधिक त्रस्त | अन्तों (सीमाओं) का सेवन न करे। इनमें से एक करना उतना ही हानिकारक है, जितना उसे अत्यधिक | 'अन्त' काम एवं विषय सुख में फँसना है, जो अत्यंत हीन सुख देना है। ग्राम्य एवं अनायें है। दूसरा 'अन्त' शरीर को व्यर्थ पश्चात् यह अकेला ही देहाती स्त्रियों से भिक्षा माँग कर | कष्ट देना है, जो अनार्य एवं निरर्थक है। इन दोनों अन्तों धीरे धीरे स्वाथ्य प्राप्त करने लगा । इसी काल में, सुजाता | का त्याग कर 'तथागत' ठीक समझनेवाले (बुद्ध) ने Page #1147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गौतम बुद्ध बौद्ध व्यक्ति गौतम बुद्ध 'मध्यम प्रतिपदा' (मध्यम मार्ग) को स्वीकरणीय माना | इसी काल में बुद्ध के विरोधकों की संख्या भी है, जो विचारप्रणाली आँखे खोल देनेवाली एवं ज्ञान बढ़ती गयी, जो इसे पाखंडी मान कर अपने वंध्यत्व, प्राप्त करनेवाली है। आदि आपत्तियों के लिए इसे जिम्मेदार मानने लंग। मध्यम मार्ग का प्रतिपादन करनेवाला बुद्ध का यह | किन्तु इसने इन आक्षेपों को तर्कशुद्ध एवं सप्रमाण उत्तर पहला प्रवचन 'धर्मचक्रप्रवर्तन सूत्र' नाम से सुविख्यात दे कर स्वयं को निरपराध साबित किया (विनय १.) है। जिस प्रकार राजा लोग चक्रवर्ती बनने के लिए अपने | कपिलवस्तु में-इसका यश अब कपिलवस्तु तक रथ का चक्र चलाते है, वैसे ही इसने धर्म का चक्र पहुँच गया, एवं इसके पिता शुद्धोपन ने इसे खास निमंत्रण प्रवर्तित किया। वे चातस्य के दिन जिसमें संन्यासियों दिया । पश्चात् फाल्गुन पौर्णिमा के दिन, यह अपने बीस के लिए यात्रा निषिद्ध मानी गयी है। इसी कारण चार हज़ार भिक्षुओं के साथ कपिलवस्तु की ओर निकल पड़ा महिनों तक यह सारनाथ में ही रहा। इसी काल में (थेरगाथा ५२७.३६)। कपिलबस्तु में यह न्यग्रोधाराम इसने 'अन्तलावण सूत्र' नामक अन्य एक प्रवचन किया, मे रहने लगा, एवं वहीं इसने 'वेशान्तर जातक का प्रणयन एवं इसके शिष्यों में साठ भिक्षु एवं बहुत से उपासक किया। दूसरे दिन इसने अन्य भिक्षत्रों के साथ कपिलवस्तु (गृहस्थ अनुयायी) शामिल हो गये। में भिक्षा माँगते हुए भ्रमण किया । पश्चात इसका पिता शुद्धोदन अन्य अन्य भिक्षुओं के साथ इसे अपने बुद्धसंघ की स्थापना--अपने उपयुक्त भिक्षुओं को | महल में ले गया, जहाँ इसकी पत्नी यशोधरा के इसने 'संघ' (प्रजातंत्र) के रूप में संघटित किया, | अतिरिक्त सभी स्त्री पुरुषों में इसका उपदेश श्रवण किया। जहाँ किसी एक व्यक्ति की हुकूमत न हो कर, संघ की | पश्चात् यह सारोपुत्त एवं मौद्गलायन इन दो शिष्यों - ही सत्ता चलती थी । चातुर्मास्य समाप्त होते ही इसने | के साथ यशोधरा के महल में गया, एवं उसे अपने संघ के भिक्षुओं आज्ञा दी, 'अब तुम जनता के | 'चण्डकिन्नर जातक' सुनाया। इसे देखते ही यशोधरा हित के लिए घूमना प्रारंभ करो। मेरी यही इच्छा है गिर पड़ी एवं रोने लगी। किन्तु पश्चात् उसने अपने कि, कोई भी दो भिक्षु एक साथ न जाये, किन्तु अलग आप को सम्हाला, एवं इसका उपदेश स्वीकार लिया। स्थान पर जा कर धर्मोपदेश करता रहे। | पश्चात् इसके पुत्र राहुल के द्वारा 'पितृदाय' की माँग गयाशीर्ष' में--चातुर्मात्य के पश्चात् यह सेनानी- किये जाने पर इसने उसे भी प्रत्रज्या (संन्यास) का ग्राम एवं उरुवेला से होता हुआ गया पहुँच गया। वहाँ दान किया। 'आदिन्त परियाय' नामक सुविख्यात प्रवचन दिया, यह सुन कर शुद्धोदन को अत्यधिक दुःख हुआ, जिस कारण इसे अनेकानेक नये शिष्य प्राप्त हुए। जिससे द्रवित हो कर इसने यह नियम बनाया कि, उनमें तीन काश्यप बन्धु भी थे, जो बड़े विद्वान् कर्मकाण्डी अपनी मातापिताओं की संमति के विना किसी भी थे, एवं जिनके एक सहस्त्र शिष्य थे । इसका प्रवचन सुन बालक को भिक्षु न बना दिया जाय। कर उन्होंने यज्ञों की सभी सामग्री निरंजना नदी में बहा इसकी इस कपिलवस्तु की भेट में ८० हजार शाक्य दी, एवं वे इसके शिष्य बन कर इसके साथ निकल पड़े। लोग भिक्षु बन गये, जिनमें आनंद एवं उपलि प्रमुख कश्यप बन्धुओं के इस वर्तन का काफी प्रभाव मगध की: | थे। आगे चल कर आनंद इस का 'अस्थावक' (खीय जनता पर पड़ा। सहायक) बन गया, एवं उपालि इस के पश्चात् बौद्ध संघ राजगृह में- पश्चात् यह अपने शिष्यों के साथ का प्रमुख बन गया। राजगृह के श्रेणिक बिंबिसार राजा के निमंत्रण पर उस पुनश्च राजगृह में-एक वर्ष के भ्रमण के पश्चात् यह नगरी में गया । वहाँ राजा ने इसका उचित आदरसत्कार पुनः एक बार राजगृह में लौट आया, जहाँ श्रावस्ती का किया, एवं राजगृह में स्थित वेदवन बुद्धसंघ को भेंट में | करोड़पति सुदत्त अनाथपिंडक इसे निमंत्रण देने आया। दे दिया। इसी नगर में रहनेवाले सारिपुत्त एवं मौद्गलायन | इस निमंत्रण का स्वीकार कर यह वैशाली नगरी होता नामक दो सुवेख्यात ब्राह्मण बुद्ध के अनुयायी बन गये, | हुआ श्रावस्ती पहुँच गया। वहाँ सुदत्त ने राजकुमार जो आगे चल कर ' अग्रश्रावक' (प्रमुख शिष्य ) कहलाये जेत से 'जेतवन' नामक एक बगीचा खरीट कर, उसे जाने लगे (विनय. १-२३)। | बुद्ध एवं उसके अनुयायियों के निवास के लिए दान में दे ११२६ Page #1148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गौतम बुद्ध दिया । यह बंगीचा खरीदने के लिए सुदत्त ने जेत को उतने ही सिक्के अदा किये, जितने उस बगीचे में बिछाये जा सकते थे । प्राचीन चरित्रकोश नामक वन इसी काल में श्रावस्ती के विशाखा ने इसे 'पूर्वाराम' भेंट में दिया । श्रावस्ती के उग्रसेन ने भी इसी समय बौद्धधर्म का स्वीकार किया ( धम्मपद, ४.५९) । शुद्धोदन का निधन - इसे परनज्ञान होने के पश्चात् इसके पिता शुद्धोदन का देहान्त हुआ । इसके पिता की मृत्यु के पश्चात्, इसकी माता महाप्रजापति गौतमी एवं अन्य शाक्य स्त्रियों ने बौद्ध भिक्षुणी बनने की इच्छा प्रकट की । इसने तीन बार उस प्रस्ताव का अस्वीकार किया, किन्तु आगे चल कर आनंद की मध्यस्थता के कारण इसने स्त्रियों को बौद्धधर्म में प्रवेश करने की अनुज्ञा दी। तत्पश्चात् भिक्षुणी के संघ की अलग स्थापना की गयी, एवं जिस प्रकार वृद्ध भिक्षु ‘थेर' ( स्थविर ) नाम से प्रसिद्ध थे, उसी प्रकार वृद्ध भिक्षुणियाँ ' थेरी' ( स्थविरी) कहलायी जाने लगी । इन दो बुद्धसंघों का साहित्य क्रमशः 'थेरगाथा' एवं 'थेरीगाथा ' में संग्रहित है । गौतम बुद्ध उपलब्ध सामुग्री से प्रतीत होता है कि, वर्षाकाल के चार महिने यह श्रावस्ती के जेतवन एवं पूर्वाराम में व्यतीत करता था, एवं बाकी आठ महिने विभिन्न स्थानों में घूमने में व्यतीत करता था । भ्रमण गाथा--तदुपरांत अपनी आयु का ४५ वर्षों तक का काल इसने भारत के विभिन्न सोलह जनपदों में भ्रमण करने में व्यतीत किया, जिसकी संक्षिप्त जानकारी निम्न प्रकार है: -- १. छठवें साल में - श्रावस्ती, जहाँ इसने ' यमक गठिहारिय' नामक अभियानकर्म का दर्शन अपने . भिक्षुओं को दिया (धम्मपद. ३.१९९ ); २. सातवें साल में — मंकुलपर्बतः ३. आठवें साल में भर्ग ( मनोरथ . पूरणी. १.२१७ ); ४. नौंवें साल में - कौशांबी; ५. दसवें साल में—पारिलेयक्कवन; ६. ग्यारहवें साल में एकनाला ग्राम; ७. बारहवें साल में——- वेरांजाग्रामः ८. तेरहवें साल मैं चालिक पर्वत ९. चौदहवें साल में -- श्रावस्ती १०. पद्रहवें साल में --कपिलवस्तु; ११. सोलहवें एवं सत्रहवें साल में – अलावी; १२ अठारहवें एवं उन्नीसवें साल में चालिक पर्वत, १३. बीसवें साल में - राजगृह । • भ्रमणस्थल -- बुद्ध के द्वारा भेंट दिये गये स्थानों में निम्नलिखित प्रमुख थे:-- अग्रालवचेतीय; अनवतप्त सरोवर, अंधकविंद, आम्रपालीवन, अंत्रयष्टिकावन, अश्वपुर, आपण, उग्रनगर, उत्तरग्राम, उत्तरका, उत्तरकुरु, उरुवेलाकप्प, एकनाल, ओपसाद, कजंगल, किंबिला, कीटगिरि, कुण्डधानवन, केशपुत्र, कोटिग्राम, कौशांबी, खानुमत, गोशिंगशालवन, चंडालकम्प, चंपा, चेतीय गिरि, जीवकंचचन, तपोदाराम, दक्षिण गिरि, दण्डकम्प, देवदह, नगरक, नगारविंद, नालंदा, पंकधा, पंचशाला, पाटिकाराम, बेलुव, भद्रावती, भद्रिय, भगनगर, मनसाकेत, मातुला, मिथिला, मोरणिवाप, रम्य काश्रम, यष्टिवन, विदेह, वेनागपुर, बेलद्वार, वैशालि, साकेत, श्यामग्राम, शालबाटिक, शाला, शीलावती, सीतावन, सेतव्य, हस्तिग्राम, हिमालय पर्वत । देवदत्त से विरोध - बुद्ध के महानिर्वाण के पूर्व की एक महत्त्वपूर्ण घटना, इसका देवदत्त से विरोध कही जा सकती है। परिनिर्वाण के आठ साल पहले मगध देश का सुविख्यात सम्राट् एवं बुद्ध का एक एकनिष्ठ उपासक राजा बिंबिसार मृत हुआ । इस सुसंधी का लाभ उठा कर देवदत्त नामक बुद्ध के शिष्य ने बौद्धधर्म का संचालकत्व इससे छीनना चाहा। इसी कार्य में मगध देश के नये सम्राट अजातशत्रु ने देवदत्त की सहायता की । गृध्रकूट पर्वत से एक प्रचंड शीला गिरा कर देवदत्त ने इसका वध करने का प्रयत्न किया । यह प्रयत्न तो असफल हुआ, किन्तु आहत हो कर इसे जीवक नामक वैद्यकशास्त्रज्ञ का औषधोपचार लेना पड़ा । इसके वध का यह प्रयत्न असफल होने पर, देवदत्त ने अपने पाँच सौ अनुयायियों के साथ एक स्वतंत्र सांप्रदाय स्थापन करना चाहा, जिसका मुख्य केंद्र गयाशीर्ष में था । किन्तु सारीपुत्त एवं मौदलायन के प्रयत्नों से देवदत्त का यह प्रयत्न भी असफल हुआ, एवं वह अल्पावधी में ही मृत हुआ । अंतयात्रा बुद्ध के अंतीमयात्रा का सविस्तृत वर्णन 'महापरिनिर्वाण' एवं ' महासुदर्शन' नामक सूत्र ग्रंथों में प्राप्त है । गृध्रकूट से निकलने के पश्चात् यह अंत्रयष्टिका, नालंदा, पाटलिग्राम, गोतमद्वार, गोतमतीर्थ, घटन क्रम – प्रचलित बौद्ध साहित्य से प्रतीत होता है कि, पच्चीस वर्ष की आयु में इसे परमज्ञान की प्राप्ति हुई। उसके बाद के पच्चीस साल इसने भारत के विभिन्न जनपदों के भ्रमण में व्यतीत किये। इस भ्रमणपर्व के पश्चात् पच्चीस साल तक यह जीवित रहा, किन्तु बौद्धजीवन से संबंधित इस पर्व की अधिक जानकारी उपलब्ध नहीं है। ११२७ Page #1149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गौतम बुद्ध बौद्ध व्यक्ति गौतम बुद्ध कोटीग्राम आदि ग्रामों से होता हुआ वैशाली नगरी में रूप में, वे दो विभिन्न तत्त्वज्ञान एक ही तत्वज्ञान के पहुँच गया। वहाँ लिच्छवी के नगरप्रमुख के निमंत्रण का दो पहलु कहे जा सकते है। इस तत्वज्ञान में मानवीय अस्वीकार कर, बुद्ध ने आम्रपाली गणिका के आमंत्रण का जीवन दुःवपूर्ण बताया गया है, एवं उस दुःख को उत्पन्न स्वीकार किया। उसी समय आम्रपाली ने वैशालि में करनेवाले कारणों को दूर कर उससे छटकारा पाने स्थित अपना 'आम्रपालीवन' इसे अर्पित किया । पश्चात यह का संदेश बुद्ध के द्वारा दिया गया है। मानवीय जीवन वैशालि से वेलुवग्राम गया, जहाँ यह बीमार हुआ। की इस दुःखरहित अवस्था को बुद्ध के द्वारा 'विाण' ___ महापरिनिर्वाण--बीमार होते ही इसने आनंद से कहा गया है। कहा "मेरा अवतारकार्य समाप्त हो चुका है। जो कुछ बुद्ध के द्वारा प्रणीत 'निर्वाण' की कल्पना परलोक में भी मुझे कहना था वह मैने कहा है। अब तुम अपनी 'मुक्ति' प्राप्त कराने का आश्वासन देनेवाले वैदिक हिंदुधर्म ही ज्योति में चलो, धर्म की शरण में चलो'। पश्चात् से सर्वस्वी भिन्न है। मुमुक्षु साधक को इसी आयु में मुक्ति इसने जन्मचक्र से छुटकारा पाने के लिए एक चतुःसुत्री मिल सकती है, एवं उसे प्राप्त करने के लिए चित्तशुद्धि कथन की, जिसमें पवित्र आचरण, तपःसाधन, ज्ञान- एवं सदाचरण की आवश्यकता है, यह तत्त्व बुद्ध ने ही साधना एवं विचारस्वातंत्र्य का समावेश था। प्रथम प्रतिपादन किया, एवं इस प्रकार धर्म को 'परलोक' पश्चात् मल्हों के अनेक गाँवों से होता हुआ यह पावा का नहीं, बल्कि 'इहलोक' का साधन बनाया। पहुँच गया, वहाँ चुन्द नामक लुहार ने 'सूकरमद्दव' इस निर्वाणप्राप्ति के लिए, 'मध्यममाग' से चलने का . नामक सूकरमाँस से युक्त पदार्थ का भोजन इसे कराया, आदेश बुद्ध के द्वारा दिया गया है, एवं देहदण्ड एवं जिस कारण रक्तातिसार हो कर कुशीनगर के शालवन शारीरिक सुखोपभोग इन दोनों आत्यंतिक विचारों का . में इसका महापरिनिर्वाण (बूझना) हुआ। महापरि- त्याग करने की सलाह बुद्ध के द्वारा ही गयी है। बुद्ध के . निर्वाण के पूर्व अपना अंतीम संदेश कथन करते हुए द्वारा प्रणीत 'मध्यममार्ग' के तत्त्वज्ञान में, निर्वाणप्राप्ति : इसने कहा था, 'संसार की सभी सत्ताओं की अपनी के निम्नलिखित आठ मार्ग बताये गये है:-१.सुयोग्य अपनी आयु होती है । अप्रमाद से काम करते रहो, यही धार्मिक दृष्टिकोन, जो हिंसक यज्ञयाग, एवं परमेश्वरप्रधान - 'तथागत' की अंतिम वाणी है। धार्मिक तत्वज्ञान से अलिप्त है; २. सुयोग्य मानसिक ___ महापरिनिर्वाण के समय इसकी आयु अस्सी वर्ष की निश्चय, जो जातीय, वर्णीय एवं सामाजिक भेदाभेद से थी, एवं इसका काल इ. पूर्व ५४४ माना जाता है। । अलिप्त है; ३. सुयोग्य संभाषण, जो अमृत, काम, क्रोध, __ दाहकर्म--कुशीनगर के मल्लों ने इसका दाहकर्म कर, | भय आदि से अलिप्त है; ४. सुयोग्य वर्तन, जो हिंसा, चौर्यएवं इसकी धातुओं (अस्थियाँ) को भालाधनुषों से घिर, कर्म एवं कामक्रोधादि विकारों से अलिप्त हैं; ५. सुयोग्य कर आठदिनों तक नृत्यगायन किया । पश्चात् इसकी धातु जीवन, जो हिंसा आदि निषिद्ध व्यवसायों से अलिप्त निम्नलिखित राजाओं ने आपस में बाँट लिये:-१. है; ६. सुयोग्य प्रयत्नशीलता, जो व्याक्ति के मानसिक अजातशत्रु (मगध ) २. लिच्छवी (वैशालि); ३. | एवं नैतिक उन्नति की दृष्टिकोन से प्रेरित है: ७. सयोग्य शाक्य (कपिलवस्तु); ४. बुलि (अल्लकप्प ); ५.. तपस्या, जिसमें निर्वाग के अतिरिक्त अन्य कौनसे भी कोलिय ( रामग्राम); ६. मल्ल (पावा ); ७. एक ब्राह्मण विचार निषिद्ध माने गये हैं; ८. सुयोग्य जागृति, जिसमें (बेठद्वीप)। बुद्ध की रक्षा पिप्तलीवन के मोरिय राजाओं मानवीय शरीर की दुर्बलता की ओ सदैव ध्यान दिया ने ले ली। जाता है। ___ पश्चात् बुद्ध की अस्थियों पर विभिन्न स्तूप बनवाये गये। बुद्ध की चतु:सूत्री-बुद्ध के अनुसार, निर्वाणेच्छ किसी पवित्र अवशेष के उपर यादगार के रूप में वास्तु साधक के लिए एक चतु:सूत्रीय आचरण संहिता बतायी बनवाने की पद्धति वैदिक लोगों में प्रचालित थी । बौद्ध गयी है, जिसमें मेत्त (सारे विश्व से प्रम), करुणा, सांप्रदायी लोगों ने उसका ही अनुकरण कर बुद्ध के मुदित (सहानुभूतिमय आनंद), उपेख्य (मानसिक अवशेषों पर स्तूपों की रचना की। | शांति) ये चार आचरण प्रमुख कहे गये हैं। तत्त्वज्ञान--बुद्ध का समस्त तत्वज्ञान तात्त्विक एवं प्रमुक बौद्ध सांप्रदाय---बुद्ध की मृत्यु के पश्चात् , नैतिक भागों में विभाजित किया जा सकता है। किन्तु सही | बौद्ध संघ अनेकानेक बौद्ध सांप्रदायों में विभाजित हुआ, ११२८ Page #1150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गौतम बुद्ध जिनमें निम्नलिखित प्रमुख थे:- १. स्थविरवादिन्, जो बौद्ध संघ में सनातनतम सांप्रदाय माना जाता है; २. महासांधिक, जो उत्तरकालीन महायान सांप्रदाय का आद्य प्रवर्तक सांप्रदाय माना जाता है । बौद्ध संघ में सुधार करने के उद्देश्य से यह सांप्रदाय सर्वप्रथम मगध देश में स्थापन हुआ, एवं उसने आगे चल कर काफी उन्नति की । प्राचीन चरित्रकोश (१) स्थविरवादन - इस सांप्रदाय के निम्नलिखित उपविभाग थेः-- १. सर्वास्तिवादिन् ( उत्तरी पश्चिम भारत प्रमुख पुरस्कर्ता - कनिष्क ); २. हैमवत, ( हिमालय पर्वत ); ३. वाल्सिपुत्रीय, (आवंतिक, अवंतीदेश प्रमुख पुरस्कर्त्री -- हर्षवर्धन भगिनी राज्यश्री ); ४. धर्मगुप्तिक, (मध्य एशिया एवं चीन ); ५. महिशासक ( सिलोन ); (२) महासांघिक सांप्रदाय - इस सांप्रदाय के निम्नलिखित उपविभाग थे;-- १. गोकुलिक ( कुककुलिक ); २. एकव्यावहारिक; ३. चैत्यक; ४. बहुश्रुतीय; ५. प्रज्ञप्ति वादिन् ; ६. पूर्वशैलिक; ७. अपरशैलिकः ८. राजगिरिक ९. सिद्धार्थक । बौद्धधर्म के प्रसारक — इस धर्म के प्रसारकों में अनेक • विभिन्न राजा, भिक्षु एवं पाली तथा संस्कृत ग्रंथकार प्रमुख थे जिनकी संक्षिप्त नामावलि नीचे दी गयी है: ( ९ ) राजा -- बिंबिसार, अजातशत्रु, अशोक, मिनँडर (. मिलिंद ), कनिष्क, हर्षवर्धन | देवदत्त काल तक तुषित स्वर्ग में प्रविष्ट हुआ था; ७. राजगृह, (मगधदेश की राजधानी ), जहाँ देवदत्त के द्वारा छोडे गये नालगिरि नामक वन्य हाथी को इसने अपने चमत्कारसामर्थ्य से शांत किया; ८. वैशालि, जहाँ कई वानरों ने बुद्ध को कुछ शहद ला कर अर्पण किया था। (४) संस्कृत ग्रंथकार - अश्वघोष, नागार्जुन, बुद्धपालित, भावविवेक, असंग, वसुबंधु, दिङ्नाग, धर्मकीर्ति । पौराणिक साहित्य में इस साहित्य में इसे विष्णु का नौवाँ अवतार कहाँ गया है, एवं असुरों का विनाश तथा धर्म की रक्षा करने के लिए इसके अवतीर्ण होने का निर्देश वहाँ प्राप्त है ( मत्स्य. ४७.२४७ ) । पुराणों में अन्यत्र इसे दैत्य लोगों में अधर्म की प्रवृत्ति निर्माण करनेवाला मायामोह नामक अधम पुरुष है ( शिव रुद्र. युद्ध ४९ पद्म. सु. १२.३६६-३७६ ) । किंतु पौराणिक साहित्य में प्राप्त बुद्ध का यह सांप्रदायिक विद्वेष से प्रेरित हुआ प्रतीत होता है। पैदा होते ही माता ने इसका परित्याग किया था । तत्पश्चात् बिंबिसार राजा के पुत्र अभय ने इसे पालपोंस कर बड़ा किया। इसने तक्षशीला में सात वर्षों तक वैद्यकशास्त्र का अध्ययन किया, एवं आयुर्वेद शास्त्रांतर्गत ' कौमारभृत्य' शाखा में विशेष निपुणता प्राप्त की । मगध देश लौटने पर यह सुविख्यात वैद्य बना । यह बुद्ध . ( २ ) भिक्षु - सारीपुत्त, आनंद, मौद्गलायन, आनंद, का अनन्य उपासक था, एवं इसने राजगृह के आम्रवन उपालि । में एक विहार बाँध कर वह बुद्ध को प्रदान किया था ( ३ ) पाली ग्रंथकार - नागसेन, बुद्धद, बुद्धघोष ( सुमंगल. १.१३३ ) । बुद्ध ने इसके लिए 'जीवक सुत्त धम्मपाद ! का उपदेश दिया था। इसी के कहने पर बुद्ध ने अपने भिक्षुओं को टहलने का व्यायाम करने के लिए कहा । " देवदत्त - गौतम बुद्ध का एक शिष्य, जो उसके मामा सुप्रबुद्ध का पुत्र था। इसकी माता का नाम अमिता था । बौद्धधर्म के प्रमुख तीर्थस्थान - बौद्ध साहित्य में बुद्ध के जीवन से संबंधित निम्नलिखित आठ प्रमुख तीर्थस्थानों ( अष्टमहास्थानानि ) का निर्देश प्राप्त है :- १. लुम्बि नीवन, जहाँ बुद्ध का जन्म हुआ था; २. बोधिगया, जहाँ बुद्ध को परमज्ञान की प्राप्ति हुई थी; ३. सारनाथ ( इषि पट्टण ), जहाँ बुद्ध के द्वारा धर्मचक्रप्रवर्तन का पहला प्रवचन हुआ था; ४. कुशिनगर, जहाँ बुद्ध का महापरि - निर्वाण हुआ था; ५. श्रावस्ती ( कोसलदेश की राजधानी), बुद्ध के परिनिर्वाण के आठ वर्ष पहले, इसके मन जहाँ तीर्थिक सांप्रदाय के लोगों को पराजित करने के लिए में इच्छा उत्पन्न हुई कि, गौतमबुद्ध को हटा कर यह बुद्ध ने अनेकानेक चमत्कार दिखाये थे; ६. संकाश्य, बौद्ध संघ का प्रमुख बने। इस हेतु मगध देश के सम्राट जहाँ अपनी माता मायादेवी को मिलने के लिए बुद्ध कुछ | अजातशत्रु की सहायता इसने प्राप्त किया, एवं उसकी बुद्ध की परमज्ञान प्राप्ति के पश्चात् उसके जन्मग्राम कपिलवस्तु में से जो कई शाक्य लोग बौद्ध बने, उनमें यह प्रमुख था । बौद्ध होने के पश्चात् कुछ काल तक चौद्धसंघ में इसका बड़ा सम्मान था । अपने बारह श्रेष्ठ शिष्यों में गौतमबुद्ध ने इसका निर्देश किया था ( संयुत्त निकाय. १८३ ) । प्रा. च. १४२ । ११२९ जीवक - एक सुविख्यात वैद्यकशास्त्रज्ञ, जो राजगृह के शालावती नामक गणिका का पुत्र था। यह मगध देश के बिंबिसार एवं अजातशत्रु राजाओं का वैद्य था । Page #1151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवदत्त सहायता से बुद्ध का वध करने के दो तीन प्रयत्न भी किये। वे प्रयत्न असफल होने पर इसने बौद्ध संघ में विभेद निर्माण करने का भी प्रयत्न किया। इस प्रयत्न में असफलता प्राप्त होने के कारण, अत्यंत निराश अवस्था में जेतवन में इसकी मृत्यु हुई ( विनय ४.६६; गौतम बुद्ध देखिये) । बौद्ध व्यक्ति प्रसेनजित् -- कोशल देश का एक सुविख्यात राजा, जो गीतम बुद्ध का परम मित्र एवं शिष्य था। यह महा कोशल राजा का पुत्र था, एवं इसकी शिक्षा तक्षशिला में हुई थी, जिस समय मल्लराजकुमार बंधुल एवं लिच्छवी राजकुमार महालि इसके सहाध्यायी थे। शिक्षा समाप्त करने के पश्चात् अपने पिता के द्वारा यह कोशल देश का राजा बनाया गया। राजा होने के पश्चात् अल्पावधि में ही इसका बुद्ध से परिचय हुआ, एवं यह बौद्धधर्म का निःसीम उपासक बना था । इसकी बहन कोसलादेवी का विवाह मगध सम्राट् दिवसा से हुआ था। आगे चल कर बिंबिसार के पुत्र अजातशत्रु ने अपने पिता का वध किया, एवं यह स्वयं मगध देश का राजा बन गया। प्रसेनजित् की बहन कोसलादेवी पतिनिधन के दुख से मृत हुई। तत्पश्चात् इसने अजातशत्रु पर आक्रमण कर उसे वेदी बनाया। पश्चात् इसने उससे संधि की एवं अपने वजिरा नामक बहन उसे विवाह में दे दी ( जातक २० २३७) । बिंबिसार श्रेणिय शिशुनाग-मगध देश का एक सुविख्यात सम्राट्, जो गौतम बुद्ध एवं वर्धमान महावीर के अनन्य उपासकों में से एक था। इसे 'अप्य एमे 'हर्यणक ' नामांतर भी प्राप्त थे । इसका राज्यकाल ५२८ इ. १. ५०० इ.पू. माना जाता है। बिंबिसार राजधानी बसायी । इस नगर की रचना महागोविंद नामक स्थापत्यविशारद के द्वारा की गयी थी। बौद्ध साहित्य में - बौद्ध साहित्य के अनुसार, बिंबिसार एवं गौतम बुद्ध शुरू से ही अत्यंत परम मित्र थे, एवं सारनाथ में किये गये ' धर्मचक्रप्रवर्तन' के प्रवचन के पश्चात् गौतम बुद्ध सर्वप्रथम इससे ही मिलने आया था। तत्पश्चात अपने परिवार के ग्यारह लोगों के साथ यह बौद्ध बन गया। अपने सारे जीवनकाल में यह बौद्धधर्म की सहायता करता रहा ( विनय. १.३५ ) । इसके पिता का नाम भट्टिय था, जो कुमारसेन राजा का सेनापति था । भट्टिय ने तालजंघ राजा के द्वारा कुमारसेन लाव करवा कर इस मगध देश के राजगद्दी पर बैठाया। राज्य पर आते ही इसने अंगराज ब्रह्मदत्त पर आक्रमण कर, अंगदेश का राज्य मगध राज्य में शामिल किया। पश्चात् लिपी राजकुमारी चेलना एवं कोशलराजकुमारी लिच्छवी से विवाह कर इसने कोशल एवं वृद्धि देशों से मैत्री संपादन की महाबा के अनुसार, इसके राज्य का विस्तार तीन सौ योजन था, एवं उसमें अस्सी हजार ग्राम थे। इसके पूर्वकाल में मगध देश की राजधानी गिरिवज्र नगरी में थी। इसने उसे बदल कर 'राजगृह' नामक नयी धार्मिक दृष्टिकोण -- बौद्ध एवं जैन साहित्य में, बिंबिसार के द्वारा बौद्ध एवं जैन धर्मों को स्वीकार किये जाने के निर्देश प्राप्त है। पौराणिक साहित्य में भी इसके द्वारा अनेक ब्राह्मणों की परामर्ष लेने का उल्लेख किया गया है। इससे प्रतीत होता है कि, यह किसी भी एक धर्म को स्वीकार न कर, तत्कालीन भारतीय परंपरा के अनुसार सभी धर्मों का एवं धर्मप्रचारकों की समान रूप से परामर्श लेता था। इसके काल में चंद्रधर्म संघ विशेष मियाशील एवं संगठित था, जिस कारण जैन एवं पौराणिक साहित्य की अपेक्षा बौद्ध साहित्य में इसका निर्देश एवं कथाएँ विशेषरूप से पायी जाती है। मृत्यु- बिंबिसार का अन्त अत्यंत दुःखपूर्ण हुआ। इसके पुत्र अजातशत्रु को युद्ध के एक शिष्य देवदत्त ने अपनी सिद्धि के प्रभाव से मोहित किया । पश्चात् देवदत्त ने अगत को अपने पिता विसार का वध करने की अजातशत्रु मंत्रणा दी । किन्तु यह प्रयत्न असफल हुआ, एवं उस प्रयत्न में अजातशत्रु देवदत्त के साथ पकड़ा गया | पश्चात् इसने अजातशत्रु को क्षमा कर उसे मगधदेश ला राज्य प्रदान किया, एवं यह स्वयं राज्य निवृत्त हुआ । राज्यसत्ता प्राप्त होते ही अजातशत्रु ने इसे कैद कर लिया एवं इसे भूखा प्यासा रख कर इस पर अनन्वित अत्याचार करना प्रारंभ किया। इसका फोठरी में घूमना फिरना बंद करने के लिए नाई के द्वारा उसके पैरों में उत्पन्न कराये, एवं उसमें नमक एवं मद्यार्क मरवाया । पश्चात् अजातशत्रु ने कोयले पश्चात् अजातशत्रु ने कोयले के द्वारा इसके पाँव जला दिये। उसी क्लेश में इसकी मृत्यु हो गयी। ११३० अजातशत्रु, उदयन, महापद्म नंद, चंद्रगुप्त मौर्य आदि बौद्धकालीन सम्राट् जैन, हिन्दू एवं धर्म का समानरूप से आदर करते थे, जिससे प्रतीत होता है कि तत्कालीन राजा किसी एक धर्म को स्वीकार न कर सभी धर्मों को आश्रय प्रदान करते थे । - Page #1152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बिबिसार प्राचीन चरित्रकोश समकालीन राजा-इसके समकालीन राजाओं में निम्न- | विशेष सुविख्यात थे। कालशिला नामक ग्राम में निग्रंथ लिखित प्रमुख थे:-१. कोसलराज प्रसेनजित् , जो इसका | नामक लोगों के द्वारा यह मारा गया। इसकी मृत्यु सब से बड़ा मित्र था, एवं जिसके कोसलादेवी नामक बहन | सारीपुत्त के मृत्यु से दो हफ्ते बाद हुई (सारथ्थ. से इसने विवाह किया था;२. तक्षशिला का राजा पुष्कलाति ३.१८१)। ३. उज्जैनी का राजा चंद्र प्रद्योत, जिसकी ऋग्णपरिचर्या के माया अथवा महामाया--गौतम बुद्ध की माता, जो लिए इसने अपना राजवैद्य जीवक उज्जैनी नगरी में भेजा देवदहग्राम के अंजन नामक शाक्य राजा की कन्या थी। था; ४. रोमक देश का राजा रुद्रायण । इसकी माता का नाम यशोधरा था। इसके दण्डपाणि एवं पत्नियाँ-इसकी निम्नलिखित पत्नियाँ थी: सुप्रबुद्ध नामक दो भाई, एवं महाप्रजापति नामक बहन थी। १. कोसलादेवी, जो कोसल देश के महाकोशल राजा की | महाप्रजापति का विवाह भी शुध्दोदन राजा से हुआ था। कन्या, एवं प्रसेनजित् राजा की बहन थी। इसके विवाह के | यह अत्यंत सात्त्विक प्रवृत्ति की थी, एवं मद्यमांसा दि का समय महाकोशल राजा ने बिंबिसार राजा को काशीनगरी कभी भी सेवन न करती थी। इस प्रकार बुद्ध जैसे महान् दहेज के रूप प्रदान की थी; २. क्षेमा; ३. पद्मावती, जो | धर्मप्रवर्तक की माता होने के लिए सारे आवश्यक गुण उज्जैनी नगरी की गणिका थी। इसके पास थे। परिवार--इसके निम्रलिखित पाँच पुत्र थे:-१. अजात- बुद्ध के जन्म के समय इसकी आयु ४०-५० वर्षों की शत्रु; २. विमल; ३. दर्शक; ४, अभय; ५. शीलवन्त । थी ( संमोह. २७८ ) । कपिलवस्तु के समीप ही स्थित इसकी मृत्यु के बाद, अजातशत्रु मगध देश का राजा बन | लुबिनीवन में इसके पुत्र गौतम बुद्ध का जन्म हुआ। गौतम गया। बद्ध के जन्म के पश्चात् सात दिनों के बाद इसकी मृत्यु . वैशालि के आम्रपालि नामक गणिका से इसे द्वीमल | हुई। 'कोंडन्न नामक पुत्र उत्पन्न हुआ था। इनके अतिरिक्त यशोधरा-गौतमबुद्ध की पत्नी, जो राहुल की माता इस के सीसव, जयसेन नामक दो पुत्र, एवं चंडी नामक थी। इसे भद्रकच्छा, बिंबादेवी, बिंबासुंदरी, सुभद्रका एवं एक कन्या उत्पन्न हुई थी। राहुलमाता आदि नामान्तर भी प्राप्त थे । कई अभ्यासकों महामौद्गलायन (महामोग्गलान)-- गौतम बुद्ध के | के अनुसार, इसका सही नाम बिंबा था, एवं इसके बाकी दो प्रमुख शिष्यों में से एक । इसका जन्म राजगृह के सारे नाम उपाधिस्वरूप थे। समीप कोलितग्राम में हुआ था, जिस कारण इसे 'कोलित' नाम प्राप्त हुआ था । यह जन्म से ब्राह्मण था, एवं _इसका एवं गौतम बुद्ध का जन्म दिन एक ही था। इसकी माता का नाम मौद्गलायनी (मोग्गलानी) था। सोलह साल की आयु में इसका गौतम बुद्ध से विवाह गौतमबुद्ध का अन्य एक शिष्य सारीपुत्त इसके ही हुआ था । गौतम बुद्ध के द्वारा बौद्ध धर्म की स्थापना किये ग्राम का रहनेवाला था, एवं इसका परम मित्र था। जाने के पश्चात्, इसने भी बौद्धधर्म की दीक्षा ली (गौतम इसका पिता कोलितग्राम का ग्रामप्रमुख था, एवं इसी कारण अत्यंत श्रीमान् था । किन्तु बाल्यकाल से ही अत्यंत | राहुल--गौतम बुद्ध का इकलौता पुत्र । इसका जन्म विरक्त होने के कारण, इसने एवं सारीपुत्त ने संन्यास लेने | उसी दिन हुआ था, जिस दिन गौतम बुद्ध को सर्वप्रथम का निश्चय किया, एवं ये दोनों संजय नामक ऋषि के | बाह्य विश्व का निरीक्षण करने का अवसर प्राप्त हुआ। आगे शिष्य बन गये। किन्तु मनःशांति प्राप्त न होने पर | चल कर इसने अपने पिता से दाय के रूप में बौद्धधर्म ये दोनों जंबुद्वीप में आदर्श गुरु की खोज़ में घूमते | की दीक्षा देने की प्रार्थना की थी। इस प्रार्थना के रहे। अंत में राजगृह में स्थित वेलुवन में इनकी गौतम | अनुसार, बुद्ध ने इसे दीक्षा दी, एवं इसे कई महत्त्वपूर्ण बद्ध से भेंट हुई । पश्चात् ये उसके शिष्य बन गये, एवं | सूत्रों का उपदेश प्रदान किया। इसकी सात वर्ष की बद्ध ने इन दोनों को अपने प्रमुख शिष्य के नाते | आयु में बुद्ध ने इसे 'अंबयष्टिका राहुलोवादसूत्र' का नियुक्त किया। उपदेश दिया, एवं कभी भी अनृत भाषण न करने के बद्ध के शिष्यों में यह अपने सिद्धि (इद्धि) के | लिए कहा। बुद्ध ने इसे 'महाराहुलोवादसूत्र' का उपदेश कारण, एवं सारीपुत्त अपने संभाषणकौशल्य के कारण | दिया था। ११३१ Page #1153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राहुल सिकंदरकालीन लोकसमूह आग्रेय इसकी मृत्यु तावतिश नामक स्थान में हुई, जिस प्रशंसा की थी (अंगुत्तर. १.२३)। इसी कारण इसे समय गौतम बुद्ध एवं सारीपुत्त उपस्थित थे (दीघ. २. 'धम्मसेनापति' उपाधि प्राप्त हुई। बौद्धधर्म संघ का व्यवस्थापन का कार्य इस पर ही निर्भर सारिपुत्र उपतिश्य (सारिपुत्त)-गौतम बुद्ध का एक था। इस प्रकार देवदत्त जब स्वतंत्र धर्मांप्रदाय की स्थापना प्रमुख शिप्य । यह उपतिश्य ग्राम का रहनेवाला था, जिस करनेवाला था, उस समय मध्यस्थता के लिए बुद्ध ने इसे कारण इसे यह उपाधि प्राप्त हुई थी। यह ब्राहाणकुल में भजा था। उत्पन्न हुआ था, एवं इसके मातापितरों के नाम क्रमशः । इसकी मृत्यु बुद्ध के निर्वाण के पूर्व ही नालयामक नामक रूपसारि एवं वगन्त थे। इसकी माता के नाम के कारण ही गाँव में हुई थी। इसकी मृत्यु से बुद्ध को अत्यधिक दुःख इसे सारीपुत्त नाम प्राप्त हुआ था। संस्कृत साहित्य में हुआ, किंतु मृत्यु की निन्यता ध्यान में ला कर बुद्ध ने अपना इसका निर्देश 'शालिपुत्र,' 'शारिसुत' एवं 'शारद्वतीपुत्र' | मन काबू में लाया। नाम से भी प्राप्त है। इसके चण्ड, उपसेन एवं रेवत नामक सुदत्त-श्रावस्ति का सुविख्यात वणिक, जो गौतम तीन भाई थे, जो सारे बौद्ध धर्म के उपासक थे। बुद्ध के निष्ठावन्त शिष्यों में से एक था। बौद्धधर्म की बुद्ध का शिष्य होने के पहले इसने संजय नामक गुरु दीक्षा लेने के पश्चात् इसे अनाथपिंडक नाम प्राप्त हुआ. के पास विद्या प्राप्त की थी। गौतम बुद्ध ने इसे राजगृह था। इसने गौतम बुद्ध को अत्यंत सम्मान के साथ श्रावस्ति , में 'वेदान्तपरिग्रहसूत्र' का उपदेश दिया था, एवं यह नगरी में बुलाया, एवं श्रावन्ति के राजकुमार जैत से जेतवन अहंत बन गया । पश्चात् यह बुद्ध का सर्वश्रेष्ठ शिष्य बन नामक उपवन खरीद कर उसे बौद्ध को धर्मसंघकाय के . गया, एवं स्वयं बुद्ध ने इसके ज्ञान एवं साधना के संबंध में लिए प्रदान किया (जातक. १.९२; गौतम वृद्ध देखिये )।-- परिशिष्ट ३ सिकंदर के आक्रमणकालीन उत्तर पश्चिम भारतीय लोकसमूह एवं गणराज्य अभिसार-एक गणराज्य, जो वितस्ता एवं असिनी अपने देश लौट जाते समय, सिकंदर ने इन लोगों को नदियों के बीच में हिमालय की उपत्यका में बसा हुआ परास्त किया था। था । आधुनिक कश्मीर के दक्षिण हिमालय के निचले आग्रेय (अगलस्सी, अगिरि, अगेसिनेई )--दक्षिण पहाड़ों के राजौरी, भिम्भर एवं पुंच प्रदेश में यह देश पंजाब का एक जनपद, जो शिबि जनपद के पूर्व भाग में प्राचीन काल में बसा हुआ था । यह देश प्राचीन केकय स्थित था। यह देश आधुनिक झंग-मधियाना प्रदेश में देश के उत्तर में स्थित था, एवं यहाँ का राजा केकयराज पोरस का मित्र था। सिकंदर के साथ पोरस के द्वारा किये बसा हुआ था। अपने देश वापस जाते समय शिवि जनपद के पश्चात् सिकंदर ने इन लोगों के साथ युद्ध गये युद्ध में, यह पोरस की सहायता करना चाहता था । किया था। किन्तु इसकी सहायता के पूर्व ही सिकंदर ने पोरस राजा को परास्त किया ( सिकंदर देखिये)। इस आग्रेय गण का प्रवर्तक अग्रसेन था, एवं इनकी __अंबष्ट (संबटाई)--एक गणराज्य, जो दक्षिण प्रधान नगरी का नाम ही अग्रोदक था, जो सतलज नदी पंजाब में सिंध तथा चिनाब नदियों के संगम के समीप के पूर्वदक्षिण में बसी हुई थी। सिकंदर के समय यह स्थित तीन छोटे गणराज्यों में से एक था। अन्य दो गण अत्यंत शक्तिशाली था, एवं ग्रीक लेखका के अनुसार जनपदों के नाम क्षत्त एवं वसति थे। इनकी जिस सेना ने सिकंदर के साथ युद्ध किया था, ११३२ Page #1154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आग्रेय .. प्राचीन चरित्रकोश क्षुद्रक उसमें चालिस हज़ार पदाति, एवं तीन हज़ार अश्वारोही | सिकंदर के आक्रमण के समय, इन लोगों ने अत्यंत सैनिक थे। वीरता के साथ उसका सामना किया । सांगल की रक्षा इन लोगों को जीत कर सिकंदर ने मालव गण के लोगों | करने के लिए इन लोगों ने उस नगरी के चौगिर्द शकटको जीता था, जिससे प्रतीत होता है कि, ये दोनों गण एक | व्यूह की रचना की, एवं सिकंदर के साथ बड़ा भारी दूसरे के पड़ोस में थे। महाभारत के कर्णदिग्विजय में भी मुकाबला किया। इस युद्ध में प्रारंभ में इन लोगों को इन दोनों गणों का एकत्र निर्देश प्राप्त है (म. व. परि. जीत हो रही थी, किंतु केकयराज पौरस पीछे से १.२४.६७)। पाँच हजार भारतीय सैनिकों के साथ सिकंदर की आश्वकायन (अस्सकेन, अस्सकेनाई)-एक गणराज्य, सहायता करने आ पहुँचा, जिस कारण इन्हें युद्ध में हार जो दक्षिण अफगाणिस्तान में गौरी एवं सुवास्तु नदियों की मानना पड़ी। . घाटी में स्थित था। ये लोग एवं इनके समीप ही इस युद्ध में १७,००० वीरों ने अपने जीवन की बलि स्थित 'अस्पस' ये दोनों मिल कर आधुनिक अफगाण | दी । इस युद्ध के कारण सिकंदर इतना संत्रस्त हो गया लोग बने थे। इन लोगों की राजधानी मस्सग नगरी में कि, सांगल के परास्त हो जाने पर उसने उसे भूमिसात् थी, जो दुर्ग के समान बनी हुई थी। उस नगरी की रक्षा | करने का आदेश दिया । सिकंदर इस नीति का अनुसरण का काम वाहीक देश से लाये गये सात हजार 'भृत' | तभी करता था, जब वह अपने शत्रु से हतप्रभ हो सैनिकों पर सौंपा गया था। सिकंदर ने भृत सैनिकों का | जाता था। विश्वासघात से वध किया, एवं इस देश को अपने आधीन इन लोगों में सौंदर्य को बहुत महत्त्व दिया जाता था। कर लिया (पा. सू. नडादि. ७५ )। एवं राजपुरुषों का चुनाव करते समय भी, सौंदर्य को आश्वायन (अस्सस आस्पिसिओई)--एक गणराज्य, ही सर्वाधिक महत्त्व दिया जाता था। इस जाति के जो दक्षिण अफगाणिस्तान में अलिशांग एवं कुनार नदियों स्त्रीपुरुष अपना विवाह स्वेच्छा से करते थे, एवं उनमें की घाटी में निवास करते थे। भारतवर्ष पर आक्रमण | सती की प्रथा भी विद्यमान थी। करने के पूर्व सिकंदर ने इन लोगों को जीता था (पा. सू.. | केकय-उत्तरीपश्चिम भारत का एक जनपद, जो ४.१,११०)। वितस्ता (जेहलम) नदी के पूर्वभाग में बसा हुआ था। .. यह गणराज्य हस्तिनायन (अस्तकेनोई) लोकसमूह | सिकंदर के आक्रमणकाल में इस देश के राजा का नाम के समीप बसा हुआ था (पा. सू. ६.४.१७४)। पोरस था, जिसने सिकंदर का अत्यंत कड़ा प्रतिकार कट (कठिओई)-एक गणराज्य, जो पंजाब में किया। किन्तु अंत में सिकंदर के हाथों परास्त हो इरावती नदी के पूर्वभाग में बसा हुआ था। आधुनिक कर, उसे सिकंदर की अधीनता स्वीकार करनी पड़ी। अमृतसर (तरनतारन) प्रदेश में संभवतः इस गणराज्य के | (सिकंदर देखिये)। लोगों का निवास था। इन लोगों की राजधानी सांगल नगरी में थी। पाणिनि के अष्टाध्यायी में वाहीक देश की क्षत्तु (क्सॅथरोई)-एक जनपद, जो सिंधु एवं राजधानी के नाते से सांकल नामक ग्राम का निर्देश प्राप्त चिनाब नदियों के संगम के समीप स्थित तीन छोटे जनपदों है, जो संभवतः यही होगा (पा. सू. ४.२.७५)। में से एक था (अम्बष्ठ देखिये)। ___ कठोपनिषद् का निर्माण संभवतः इसी जाति के तत्त्व- शुद्रक (आक्सिडाकोई)--एक गणराज्य, जो दक्षिण चिंतकों के द्वारा हुआ था। ग्रीक लेखकों के अनुसार इन पंजाब में व्यास (बिआस) नदी के किनारे मालवगण के लोगों में यह रिवाज था कि, नवजात बच्चों में जो भी पूर्वभाग में बसा हुआ था। अपने पड़ोस में रहनेवाले बच्चे कुरुप एवं निर्बल हो, वे राजदूतों के द्वारा पकड़वा | मालव लोगों से इनका प्राचीनकाल से वैर था। अपने कर मरवा दिये जाते थे। कठोपनिषद् में नचिकेतस् नामक | देश वापस जानेवाले सिंकदर के द्वारा इन दो गणों-पर बालक को उसके पिता द्वारा यम को प्रदान करने की जो | हमला किये जाने पर, ये दोनों एक हो गये, एवं इन्होंने कथा आती है, वह संभवतः इसी रिवाज की परिचायक | उससे इतना गहरा मुकाबला किया कि, यद्यपि ये युद्ध में होगी। इसी ढंग का रिवाज ग्रीस के स्पार्टा नामक जनपद में | विजय प्राप्त न कर सके, फिर भी सिकंदर ने इनके साथ भी प्रचलित था। | अत्यंत सम्मानपूर्वक संधि की (मालव देखिये)। ११३३ Page #1155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षुद्रक सिकंदरकालीन लोकसमूह मूचिकर्ण पतंजलि के व्याकरण महाभाष्य में, इन लोगों के द्वारा पाणिनीय व्याकरण में पातानप्रस्थ नामक ग्राम और अकेले ही अपने शत्रु पर विजय प्राप्त करने का | लोगों का निर्देश प्राप्त है, जो संभवतः यही होंग निर्देश प्राप्त है (एका किभिः क्षुद्रकैः जितम्) (महा. (महा. २.२९८)। किन्तु कई अभ्यासक इनका सही १.८३,३२१:४१२)। यह निर्देश संभवतः सिकंदर के | नाम 'पात्ताल' मानते है। सिकंदर के आक्रमणकाल साथ इन लोगों के किये युद्ध के उपलक्ष्य में ही किया | में इस राज्य में दो कुलपरंपरागत राजाओं का शासन गया होगा। | था, जो कुलवृद्धों की सभा की सहायता से राज्य का गांधार (पश्चिम)-एक गणराज्य, जो सिंधुनदी के संचालन करते थे। ग्रीक लेखकों ने इन लोगों की शासनपश्चिमतट पर बसा हुआ था। सिकंदर के राज्यकाल में | विधि की तुलना ग्रीक जनपद स्वार्ता के साथ की है। इन लोगों के राजा का नाम हस्ति था। सिकंदर के | ब्राह्मणक--उत्तर सिंध का एक गण गज्य, जो मुचिकर्ण हे-फिस्तियन एवं पक्किम नामक दो सेनापतियों ने इस देश | जनपद के दक्षिण में स्थित था। अपने देश वापस जाते को जीत लिया था। इस देश की राजधानी पुष्करावती | समय सिकंदर ने इन लोगों के साथ युद्ध किया था, एवं थी, जिसे जीतने में सिकंदर के सेनापतियों को एक माह बहुत से ब्राह्मण क लोगों की लाशे खुले रास्ते पर टैंगवा दी। लग गया। इससे प्रतीत होता है कि, सिकंदर के काल मद्र-एक गणराज्य,जो पंजाब में असिनी एवं इरावती . में यह जनपद काफ़ी बलशाली था। (रावी) नदियों के बीच के प्रदेश में स्थित था। सिकंदर , गांधार (पूर्व)--एक जनपद, जो सिंधुनदी के पूर्व के आक्रमण के समय इस देश का राजा पोरस (कनिष्ठ) तट पर बसा हुआ था। इसकी राजधानी तक्षशिला था, जो केकयराज पोरस का भतिजा था । सिकंदर के इस थी। सिकंदर के आक्रमण के समय, इस देश का राजा देश के आक्रमण के समय, केकयराज पोरस उसका मित्र - आम्भि (ऑफिस) था। आम्भि राजा ने सिकंदर की एवं सहायक बना था। इसी कारण मद्रराज पोरम ने भी अधीनता स्वयं ही स्वीकार कर ली। सिकंदर का कोई प्रतिकार न किया, एवं उसकी अधीनता ग्लुचुकायन (ग्लौगनिकाई)--एक गणराज्य, जो स्वीकृत की। उत्तरी पश्चिम भारत में केकय जनपद के समीप ही स्थित | मालव ( मल्लोई)-एक गणराज्य, जो दक्षिण पंजाब था। पतंजलि के महाभाष्य में वाहीक देश में स्थित में इरावती (रावी) नदी के तट पर बसा हुआ था। अपने 'ग्लुचुकायन' गण का निर्देश प्राप्त है, जो मंभवतः ये ही देश वापस जाते समय सिकंदर ने इन्हें एवं व्यास नदी के होगा (महा. २.२९६-२९७)। . | तट पर स्थित क्षुद्रक लोगों को परास्त किया था। इस गणराज्य में कुल ३७ ग्राम थे, जिन पर सिकदर मालव एवं क्षुद्रक पंजाब के सब से अधिक पराक्रमी ने विजय प्राप्त की थी, एवं इस देश का शासन अपने एवं स्वाधीनताप्रिय लोग माने जाते थे। सिकंदर के मित्र ककयराज पोरस के हाथों सौंप दिया। आक्रमण के समय इनके पास कोई खड़ी सेना न थी। नुसा--एक गणराज्य, जो दक्षिण अफगाणिस्तान में इसी कारण इनके बहुत सारे जवान अपने खेतों में ही पाटे गौरा नदी के पूर्व तट पर बसा हुआ था। गौरी नदी के गये। उसी अवस्था में इन्होंने सिकंदर के साथ गहरा पश्चिम तट पर बसे हुर अस्तकेन (अश्वक, अफगाण) मुकाबला किया। लोगों पर विजय प्राप्त करने के पश्चात् सिकंदर ने इन पश्चात् इन्हें एवं शुद्रकों को सिकंदर ने परास्त किया, लोगों को जीत लिया था। एवं इन्हें संधि करने पर विवश किया। संधि करते समय पातानप्रस्थ (पातालेन)-दक्षिण सिंध में स्थित इन्होंने सिकंदर से कहा, 'आज तक हम सदा स्वतंत्र रहे एक गणराज्य, जो सिंधु नदी के मुहाने के प्रदेश में स्थित है, किन्तु सिकंदर के लोकोत्तर पुरुष होने के कारण, हम था। इसका स्थान हैद्राबाद (सिंध) के इर्द गिर्द कहीं स्वेच्छापूर्वक उसकी अधीनता स्वीकृत करते है। होगा। अपने देश लौट जाते समय सिकंदर ने इन लोगों मूचिकर्ण (मुसिकनोई)-उत्तर सिंध का एक जनपद, के साथ युद्ध किया था। इस युद्ध में ये परास्त हुए, एवं जो ब्राह्मणक जनपद के उत्तर भाग में स्थित था। अपने. अपनी स्वतंत्रता की रक्षा करने के लिए अपना प्रदेश देश वापस जाते समय सिकंदर ने इस देश पर आक्रमण छोड़ कर अन्यत्र चले गये। | किया। ११३५ दक्षिण सिंच त है, जिसकी अधीनता Page #1156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूचिकर्ण प्राचीन चरित्रकोश सिकंदर था। एक गणराज्य के नाते पाणिनीय व्याकरण में इसका है। इसी कारण सिकंदर के उत्तरी पश्चिम भारतीय आक्रमण निर्देश प्राप्त है। कई अभ्यासकों के अनुसार, इसका सही का इतिहास प्राचीन भारतीय इतिहास में एक अपूर्व नाम मूषिक था। इनकी राजधानी का नाम रोरुक था, जो | महत्त्व रखता है। . आधुनिक काल में रोरी नाम से सुविख्यात है। रोरी अपनी चतुरंगिणी सेना के साथ सारा भारतवर्ष पादाक्रांत नामक ग्राम के समीप अरोर नामक एक पुरानी वस्ती करने के लिए आये हुए जगज्जेता सिकंदर को उत्तर पश्चिम भी है, जो अब उजड़ी हुई दशा में है। भारतीय जनपदों पर विजय प्राप्त करने के लिए साढेतीन ग्रीक ग्रंथकारों के अनुसार, ये लोग सात्त्विक भोजन | वर्षों तक रातदिन झगड़ना पड़ा। इससे उन जनपदों की करते थे, एवं नियमित जीवन बिताते थे। इस कारण इनकी शूरता एवं पराक्रम पर काफ़ी प्रकाश पड़ता है। आयु एक सौ तीस वर्षों की होती थी। एक ग्राम के सब लोग विशाल इरानी साम्राज्य को चार साल में जीतनेवाले इकट्ठे बैठ कर भोजन करते थे । इन लोगों में दास प्रथा सिकंदर को भारत की उत्तरी पश्चिम विभाग में साढ़े तीन का अभाव था, एवं सब लोगों को एक दृष्टि से देखा जाता वर्ष लगे, एवं वहाँ एग-पग पर सख्त सामना करना पड़ा। इस प्रकार एक आँधी की भाँति इस प्रदेश पर आक्रमण . वसाति (ओस्सदिओई )-एक जनपद, जो दक्षिण पंजाब | करनेवाले सिकंदर को अन्त में एक बगूले की तरह लौट में सिंध एवं चिनाब नदियों के संगम पर स्थित तीन छोटे | जाना पड़ा। जनपदों में से एक था (अम्बष्ठ देखिये)। उत्तरी पश्चिम भारत में स्थित जनसत्ताक पद्धति के छोटे शकस्थान-एक जनपद, जो प्राचीन भारत की पश्चिम | छोटे राज्यों का स्वतंत्र अस्तित्व सिकंदर के आक्रमण के कारण सीमा पर स्थित था। यह देश सेतुमन्त ( हेतुमन्त = विनष्ट हुआ, यही नहीं, प्रबल परकीय आक्रमण के सामने आधु. हेलमन्द) नदी के तट पर बसा हुआ था। भारत- इस पद्धति के छोटे राज्य असहाय साबित होते हैं, यह वर्ष पर आक्रमण करने के पूर्व, सिकंदर ने इस देश को नया राजनैतिक साक्षात्कार भारतीय राजनीतिज्ञों को प्रतीत • ३३० इ. पू. में जीता था। हुआ। इसी अनुभूति से शिक्षा पा कर आर्य चाणक्य शिबि (सिबोही)-एक गणराज्य, जो दक्षिण ने आगे चल कर बलाढ्य साम्राज्यरचना का अभिनव पंजाब में वितस्ता एवं चिनाब के संगम के दाये ओर | प्रयोग चंद्रगुप्त मौर्य के द्वारा कराया, एवं उसे प्राचीन स्थित था। सिकंदर के अपने देश लौटते समय इन | भारत के सर्वप्रथम एकतंत्री एवं सामर्थ्यसंपन्न साम्राज्य लोगों ने बिना लड़े ही उसकी अधीनता स्वीकृत की थी। का अधिपति बनाया। 'सिकंदर (अलेक्झांडर )--एक सुविख्यात मक- भारतवर्ष पर आक्रमण--३३० इ. पू. के अन्त में दूनियन (मॅसिडोनियन ) जगज्जेता सम्राट, जो ३२७ सिकंदर ने सर्वप्रथम भारत की पश्चिम सीमा पर स्थित ई. फू-३२३ इ. पू. के दरम्यान उत्तरी-पश्चिम भारत पर शकस्थान पर हमला किया। उस प्रदेश को जीत कर इसने किये गये आक्रमण के कारण, प्राचीन भारतीय इतिहास | | दक्षिण अफगाणिस्तान पर हमला किया, एवं वहाँ स्थित में अमर हो चुका है। हरउवती (आधु. अरगन्दाब) प्रदेश को जीत लिया। इसके भारतीय आक्रमण के इतिहास की जो प्रमाणित पश्चात् इसने वहाँ सिकन्दरिया (अलेक्झांड्रिया ) नामक सामाग्री उपलब्ध है, उसमें इ.पू ४ थी शताब्दी में नये नगरी की स्थापना की। उत्तरी पश्चिम भारत में स्थित संघराज्यों की अत्यंत महत्त्व पश्चात् इसने बल्ख देश पर आक्रमण किया, तथा वक्ष पूर्ण जानकारी प्राप्त होती है। सिकंदर के भारतीय नदी (आमुदरिया) एवं सीर नदी के बीच में स्थित आक्रमण के उपलक्ष्य में, उत्तरी पश्चिम भारत के संघराज्यों सुग्ध (सोडिंआना, समरकंद ) देश अपने कब्जे में ले की जो जानकारी टॉलेमी आदि ग्रीक इतिहासकारों के द्वारा | | लिया। सुग्ध के इसी युद्ध में सिकंदर को शशिगुप्त नामक पायी जाती है, वह पाणिनीय व्याकरण में निर्दिष्ट | किसी भारतीय राजा से युद्ध करना पड़ा, जो संभवतः जनपदों की जानकारी से काफ़ी मिलती जुलती है। कंबोज महाजनपद का राजा था। इस काल का इतिहास कथन करने वाले महाभारत, इस प्रकार बल्ख एवं सुग्ध पर अपना अधिकार जमा पुराणों जैसे जो भी ग्रंथ उपलब्ध हैं, उनमें उत्तर पश्चिम | कर यह काबूल की घाटी में आ उतरा। काबल भारत के प्राचीन जनपदों की उपर्युक्त जानकारी अप्राप्य | घाटी से सीधे भारतवर्ष पर हमला करने के पूर्व, इसने ११३५ Page #1157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिकंदर सिकंदरकालीन लोकसमूह सिकंदर इस घाटी के उत्तरभाग में स्थित 'आश्वायन', 'आश्वकायन' | पोरस ने अपनी सेना पुनः एक बार इकठा कर सिकंदर ( एवं उसकी राजधानी 'मस्सग') आदि गणराज्यों पर | से जोर से युद्ध किया। आक्रमण किया। मस्सग की इसी लड़ाई में इसने वाहीक | पोरस का सैन्यबल--सैन्यबल की दृष्टि से पोरस सिकंदर देश के सात हजार भृत सैनिकों को विश्वासघात से वध | से काफी भारी था । ग्रीक लेखक प्लुटार्क के अनुसार, पोरस किया। पश्चात् इसने गौरी नदी के पश्चिम तट पर स्थित | के सैन्य में बीस हज़ार पदाती, दो हजार अश्वारोही, नुसा जनपद को जीत लिया। इस प्रकार छः मास तक एक हज़ार रथ, एवं एक सौ तीस हाथी थे। किन्तु निरंतर युद्ध कर के, सिकंदर उत्तरी अफगाणिस्थान में सिकंदर के फूर्तिले सवारों के आगे उसका कोई बस स्थित जातियों एवं जनपदों को जीतने में यशस्वी हुआ। न चला । अन्त में युद्ध में परास्त हो कर, वह आहत __भारतवर्ष में प्रवेश--काबूल से तक्षा शिला तक का अवस्था में सिकंदर के सामने लाया गया। उस समय रास्ता उस समय खैबर घाटी से नहीं, बल्कि पश्चिम गांधार | सिकंदर ने आगे बढ कर उसका स्वागत किया एवं पूछा देशान्तर्गत पुष्करावती नगरी हो कर जाता था। इसी | 'आपके साथ कैसा बर्ताव किया जाये ?' उस समय कारण सिकंदर ने पश्चिम गांधार देश के हस्ति राजा से | पोरस ने अभिमान से कहा, 'जैसा राजा राजाओं के साथ एक महिने तक युद्ध कर उसे परास्त किया, एवं यह | करता है। आगे बढ़ा। सिन्धु नदी के पश्चिम तट पर स्थित विविध पोरस से मित्रता--सिकंदर ने पोरस के साथ वैसा ही जनपदों पर विजय पा कर सिकंदर भारतवर्ष की सीमा बर्ताव किया, एवं उसे उसका राज्य वापस दे दिया। . में प्रविष्ट हुआ। आगे चल कर पोरस ने सिकंदर के भारत आक्रमण में उस समय सिन्धु नदी के पूर्व तटवर्ती प्रदेश पर पूर्व बहुमूल्य सहायता दी । केकय देश में प्राप्त किये विजय । गांधार देश का अधिराज्य था, जिनके राजा का नाम के उपलक्ष्य में सिकंदर ने केकय देश में दो नये नगरों की . आम्भि था। इस प्रदेश की राजधानी तक्षशिला नगरी में स्थापना की:-१. बुकेकला--यह नगर उसी स्थान पर थी। आम्भि ने स्वेच्छापूर्वक सिकंदर की अधीनता | बसा हुआ था, जिस स्थान पर सिकंदर ने वितस्ता नदी • स्वीकार कर ली। पश्चात् ओहिंद (अटक ) नामक नगरी के पार की थी; २. निकीया--यह नगर सिकंदर एवं पोरस, पास सिकंदर ने नौकाओं से द्वारा पूल का निर्माण किया, के रणभूमि पर स्थापन किया गया था। एवं यह तक्षशिला आ पहुँचा। केकय के परास्त हो जाने पर अभिसार ने भी सिकंदर केकयराज पोरस से युद्ध-- सिन्धु एवं वितस्तार की अधीनता स्वीकार ली। (जेहलम) नदियों के बीच पूर्व गांधार देश बसा । हुआ था, उसी प्रकार वितस्ता नदी के पूर्व भाग में ग्लुचुकायन पर विजय--केकयराज्य के पूर्व भाग में. केकय जनपद था, जो उस युग में वाहीक देश (पंजाब) | असिक्नी नदी के किनारे ग्लुचुकायन नामक एक छोटासा का सब से शक्तिशाली राज्य था। वितस्ता एवं असिक्नी गणराज्य था। सिकंदर ने उसे जीत कर, उसे पोरस के : (चिनाब ) नदी के बीच एवं केकयदेश की उत्तर में | हाथ सौप दिया। अभिसार देश (आधुनिक पुंच एवं राजौरी) था, कठ देश पर आक्रमण-पश्चात् सिकंदर ने असिक्नी जिसका राजा केकयराज पोरस का मित्र था, एवं उसकी | एवं इरावती (रावी) नदियों के बीच में स्थित मद्रदेश सहायता करना चाहता था। पर आक्रमण करना चाहा। किन्तु इस देश के पोरस इन दोनों देशों के सैन्य मिलने के पहले ही, सख्त । | (कनिष्ठ ) राजा ने बिना युद्ध किये ही सिकंदर का अधिकार गरमी की चिन्ता न कर सिकंदर वितस्ता नदी के किनारे | स्वीकार लिया । पश्चात् सिकंदर ने इरावती (रावी ) नदी आ पहुँचा। उस समय पोरस वितस्ता नदी के पूर्व तट ! के पूरब में स्थित कठ (आधुनिक अमृतसर प्रदेश ) जनपद पर, अपनी छावनी डाले हुए शत्रु के आक्रमण की पर आक्रमण किया । उस देश के सांकल नामक प्रतीक्षा कर रहा था, एवं दिन के उजाले में वितस्ता । राजधानी में कठों के द्वारा रचे गये शकटव्यूहों का भेद नदीको पार करना असंभव था। इसी कारण एक बरसाती | कर, इसने उन पर विजय प्राप्त की। इस युद्ध में सत्रह रात में सिकंदर ने पोरस की छावनी से बीस मिल पहिले हजार से भी अधिक कठवीरों ने अपने प्राण समर्पण भाग से अपनी बहुसंख्य सेना पार करा दी। इस समय | किये। . ११३६ Page #1158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिकंदर प्राचीन चरित्रकोश सिकंदर इस युद्ध से सिकंदर इतना परेशान हुआ कि, सांकल | वापसी यात्रा प्रारंभ की। इस यात्रा में इसका विशाल पर विजय प्राप्त कराने के पश्चात् , उसने उसे भूमिसात् । जहाजी बेड़ा वितस्ता नदी में चल रहा था, एवं इसकी करने का आदेश अपने सैनिकों को दे दिया। इसके पहले | स्थलसेना नदी के दोनों तट पर उसका अनुगमन करती थी। इरानी साम्राज्य की राजधानी 'पार्सिपोलिस' को भी इसी पश्चात् बिना किसी लड़ाई के, यह वितस्ता एवं असिनी ढंग से इसने भूमिसातू कराया था। इससे प्रतीत होता नदी के संगम पर आ पहुँचा। वहाँ स्थित शिबि लोगों ने है कि, जो शत्रु इसे विशेष कर त्रस्त करता था, उसके इसका अधिकार मान लिया। किन्तु आग्रेय (आगलस्सी) राज्य को यह भूमिसात् करवाता था। नामक लोगों ने इसका विरोध किया। उन लोगों का ___ यवनसेना का विद्रोह--कठों को परास्त कर सिकंदर की निवासस्थान शतद्रु (सतलज) नदी के पूर्व दक्षिण में सेनाएँ विपाशा (व्यास ) नदी के पश्चिमी तट पर आ स्थित प्रदेश में था। अपनी ४० हजार पदाती एवं ३ पहुँची। उस समय सिकंदर चाहता था कि, विपाशा नदी हजार अश्वरोही सैनिको के साथ, इन लोगों के अग्रसेन को पार कर भारतवर्ष में आगे बढ़े, एवं अपने साम्राज्य नामक राजा ने सिकंदर से जोरदार सामना किया। सिकंदर का और भी अधिक विस्तार करे। . ने इन लोगों को युद्ध में परास्त किया। किन्तु नगरी इसके किन्तु इसकी सेना की हिम्मत हार चुकी थी। उन्हें | हाथ आने के पूर्व ही, उन लोगों ने उसे भस्मसात ज्ञात हुआ कि, व्यास नदी के पूर्व में जो जनपद हैं, वह | किया था। कठों से भी अधिक पराक्रमी हैं, एवं उनके आगे नंद का मालव एवं क्षुद्रक-- असिनी नदी के दक्षिण विशाल साम्राज्य है, जिनकी सेना अनंत है । इसी कारण की ओर, इरावती (रावी) नदी के बाये तट पर इसकी सेना ने विपाशा नदी को पार करने से इन्कार मल्ल (मल्लोई) एवं क्षद्रक (ओक्सिड़ाकोई ) लोग कर दिया। निवास करते थे। शिबि आग्रेय आदि लोगों के समान वे - अपनी सेना को उत्साहित करने का इसने अनेक प्रकार | लोग भी ' शस्त्रोपजीवी' थे। पहले तो सिकंदर के से प्रयत्न किया, एवं उनके सम्मुख अनेक व्याख्यान दियें। सैनिक इन लोगों से लड़ाई करने में काफी डरते थे। किन्तु किन्तु अपने प्रयत्न में इसे सफलता न प्राप्त हुई । अन्त में सिकंदर ने उन्हें समझाया कि, क्षुद्रक एवं मालवियों से अत्यंत निराश हो कर यह अपने शिबिर में जा बैठा, एवं सामना किये बिना स्वदेश लौटना संभव नहीं है। पश्चात् कई दिन बाहर न आया। फिर भी इसके सैनिकों के न सिकंदर ने शूद्रक-मालवों में से मालवों पर अचानक मानने पर, इसने व्यास नदी के पश्चिमी तट पर देवताओं हमला कर दिया, एवं बहुत से मालव कृषक अपने खेतों को बलि दिया, एवं सैन्य को वापस लौट जाने की में ही लड़ते हुए मारे गये। मालवों के साथ युद्ध करने आज्ञा दी। . | में सिकंदर की छाती पर सख्त चोट लगी, जो भविष्य सिकंदर की वापसी-वापस जाने के लिए, सिकंदर में उसकी अकाल मृत्यु का कारण बनी। इस घाव के ने दक्षिण पंजाब एवं सिंध के रास्ते से लौट जाने का निश्चय | कारण सिकंदर इतना क्रुद्ध हुआ कि, इसने कत्लेआम का किया, एवं उस कार्य में दो हजार नावों का बेड़ा बनवाया। आदेश दिया। स्त्री-पुरुष-वृद्ध एवं बालक किसी की भी पश्चात् बिना किसी विघ्नबाधा के यह वितस्ता (जेहलम) यवन सैनिकों ने परवाह न की, एवं हजारों नर-नारी नदी के किनारे आ पहुँचा (३२६ ई. पू.)। सिकंदर के क्रोध के शिकार बन गये। वितस्ता नदी के किनारे इसने एक बड़े दरबार का इस बीच में क्षुद्रकसेना मालवों की सहायता के आयोजन किया, एवं उत्तरी पश्चिम भारत में जीते हुए प्रदेश | लिए आ गयी । मालवों के साथ युद्ध करने से सिकंदर में निम्नलिखित शासनव्यवस्था जाहीर की:-१. केकराज | इतना त्रस्त हुआ कि, इसने उनके साथ संधि करना पोरस-विपाश एवं वितस्ता नदी के बीच में स्थित प्रदेश; उचित समझा । क्षुद्रक लोगों ने भी सिकंदर जैसे जगज्जेता २ गांधारराज आंभि-वितस्ता एवं सिंधु नदी के बीच में | वीर के साथ युद्ध करना निरर्थक समझा । इसी कारण स्थित प्रदेश; ३ सेनापति फिलिप्स-सिंधु नदी के पश्चिम | दोनों पक्षों में संधि हुई, उस समय क्षुद्रको एवं मालवों ने में स्थित भारतीय प्रदेश। कहा, 'आज तक हम स्वतंत्र रहे हैं । सिकंदर के लोकोत्तर शिबि एवं आग्रेय-पश्चात् वितस्ता नदी के समीप स्थित | पुरुष होने के कारण हम स्वेच्छापूर्वक उसकी अधीनता सौभूति लोगों को परास्त कर, इसने जलमार्ग से अपनी | स्वीकृत करते हैं। प्रा. च. १४३] ११३७ Page #1159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिकंदरकालीन लोकसमूह सिकंदर कई अभ्यासकों के अनुसार, सिकंदर क्षूद्रक लोगों का पराभव करने में असमर्थ रहा, जिसका अस्पष्ट निर्देश पतंजलि के व्याकरणमहाभाष्य में पाया जाता है ( एका किमि: क्षुद्रकैः जितम् ) ( महा १.८३६ ३२११ ४१२)। इसी कारण क्षुद्रकों से संधि कर लेने में सिकंदर ने अपना कल्याण समझा होगा । - 1 अंबष्ठ, क्षतृ एवं वसाति — मालव एवं क्षुद्रकगणों के साथ समझौता कर सिकंदर दक्षिण की ओर चलने लगा। सिंधु एवं चिनाव नदियों के संगम के समीप अंष्ठ, क्षत्र आदि छोटे-छोटे गणराज्य बसे हुए थे उनमें से अंगण को सिकंदर ने युद्ध में परास्त किया एवं अन्य दो गणराज्यों ने युद्ध के बिना ही सिकंदर की अधीनता स्वीकृत कर ली। सिंधु एवं चिनाब के संगम पर सिकंदर ने अलेक्झांडिया (सिकंदरिया) नामक नगरी की स्थापना की । मूचिकर्ण एवं ब्राह्मणक-- उत्तरी सिंध में पहुँचने के पश्चात् सूचिकर्ण नामक लोगों से सिकंदर को सामना करना पड़ा, जो लड़ाई उन लोगों के रोस्क नामक नगरी में संपन्न हुई । उन लोगों को परास्त कर सिकंदर दक्षिण की ओर आगे बढ़ा। वहाँ ब्राह्मणक नामक गणराज्य के लोगों से इसे युद्ध करना पड़ा। सिकंदर ने क्रूरता के साथ उन लोगों का बध किया, एवं बहुत से ब्राह्मणक लोगों की लाशों को खुले मार्ग पर लटकवा दिया, ताकि अन्य लोग उन्हें देखें, एवं यवनों के विरुद्ध युद्ध करने का साहस न करे । 1 पावानप्रस्थ- पश्चात् सिकंदर सिंध प्रान्त के उस भाग में पहुँचा, जहाँ सिंधुनदी दो धाराओं में विभक्त हो कर समुद्र की ओर आगे बढ़ती है। इस प्रदेश में स्थित पातानप्रस्थ गणराज्य के लोग सिकंदर का मुकाबला करने में असमर्थ रहे, एवं अपनी स्वतंत्रता की रक्षा के लिए अपना प्रदेश छोड़ कर अन्यत्र चले गये । हरउवती बापसी पूर्व मृत्यु इस प्रकार सिंधु नदी के मुहाने पर पहुँचने के पश्चात् सिकंदर ने अपनी सेना को जलसेना - एवं भूमिसेना में विभक्त किया। इनमें से जलसेना को जल सेनापति निवास के आधिपत्य में समुद्रमार्ग से जाने की आज्ञा इसने दी, एवं भूमिसेना के साथ यह स्वयं मकरान के किनारे किनारे भूमिमार्ग से अपने देश की ओर पल पड़ा । पश्चात् अपने देश पहुँचने के पूर्व ही ३२३ ई. पू. में बॅबिलोन में इसकी मृत्यु हो गयी । जो दक्षिण अफगाणिस्तान में सीर नदी के प्रदेश में का सुग्ध ( सोडिआना ) -- एक बृहद्भारतीय जन बसा हुआ था | सिकंदर के आक्रमण के समय इस देश में ईरानी एवं भारतीय दोनों प्रकार के आयों की बस्तियाँ एवं नगरराज्य थे । सौभूति (सौफाइतिज ) - एक गणराज्य, जो दक्षिण पंजाब में वितस्ता नदी के समीपवर्ती प्रदेश में बसा हुआ था। अपने देश वापस जाते समय सिकंदर ने इन लोगों को परास्त किया था इन्हें 'सुभूत' एवं 'सीमत' नामांतर भी प्राप्त था ( पा. सु. ४.२.७५ ; संकलादि गण ) । ग्रीक विवरण से शात होता है कि इन लोगों के सारे गुणवैशिष्ट्य एवं रीतिरिवाज कठ लोगों के समान ही थे, एवं ये लोग शारीरिक सौन्दर्य को अधिकतर महत्व प्रदान एवं निर्बल बच्चों को बचपन में ही मरवा दिया जाता था करते थे। कठ लोगों के समान इनमें यह रिवाज था कि कुरूप ( कट देखिये) । हरउवती- दक्षिण अफगाणिस्तान में स्थित एक देश, जो आधुनिक काल में कंधार नाम से प्रसिद्ध है । शकस्थान देश को जीतने के बाद, सिकंदर ने इस देश को जीत लिया, एवं वहाँ सिकंदरिया नामक नगरी की स्थापना की। वही नगर आधुनिककाल में कंदाहार नाम से सुविख्यात है। ११३८ Page #1160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पौराणिक साहित्य में निर्दिष्ट राजवंशों में निम्नलिखित राजवंश प्रमुख थे: (१) सूर्यवंश - ( सू ), जो मनु वैवस्वत के द्वारा स्थापित किया गया था। (२) सोमवंश - ( सो.), जो सोमपुत्र पुरूरवस् ऐल के द्वारा स्थापित किया गया था । पुत्र का नाम परिशिष्ट ४ पौराणिक साहित्य में निर्दिष्ट राजवंश इक्ष्वाकु 'निमि 'इक्ष्वाकुपुत्र' नाभानेदिष्ट शर्याति नृग नरिष्यन्त (१) सूर्यवंश (सू.) इस वंश का आद्य संस्थापक वैवस्वत मनु माना जाता | नगरी में उसने सुविख्यात इक्ष्वाकु वंश की प्रतिष्ठापन है । वैवस्वत मनु ने भारतवर्ष का अपना राज्य अपने नौ पुत्रों में बाँट दिया। इन नौ पुत्रों में से पाँच पुत्र एवं एक पौत्र ‘वंशकरं ' साबित हुए, जिन्होंने अपने स्वतंत्र राजवंश स्थापित किये: की । इक्ष्वाकु के वंशविस्तार के संबंध में पुराणों में दो विभिन्न प्रकार की जानकारी प्राप्त है । इनमें से छः पुराणों की जानकारी के अनुसार, इक्ष्वाकु को कुल सौ पुत्र थे, जिनमें विकुक्षि, निमि, दण्ड, शकुनि एवं वसात प्रमुख थे । इसके पश्चात् विकुक्षि अयोध्या का राजा बन गया । निमि ने विदेह देश में स्वतंत्र निमिवंश की स्थापना की। बाकी पुत्रों में से शकुनि उत्तरापथ का, एवं वसति दक्षिणापथ का राजा बन गया ( वायु. ८८. ८- ११; ब्रह्मांड. ३.६३. ८-११; ब्रह्म. ७.४५-४८; शिव. ७.६०.३३ - ३५) । अन्य पुराणों के अनुसार, इक्ष्वाकु के सौ पुत्रों में विकुक्षि, दण्ड एवं निमि प्रमुख थे। इनमें से विकुक्षि अयोध्या का राजा बन गया, जिसके कुल १२९ पुत्र थे । उन पुत्रों में से पंद्रह पुत्र मेरु के उत्तर भाग में स्थित प्रदेश के, एवं बाकी ११४ पुत्र मेरु के दक्षिण भाग में स्थित प्रदेश के राजा बन गये ( मत्स्य. १२. २६-२८; पद्म. पा. ८. १३०-१३३; लिंग. १.६५.३१ - ३२ ) । इक्ष्वाकुवंश में कुल कितने राजा उत्पन्न हुए इस संबंध में एकवाक्यता नहीं है । यह संख्या विभिन्न पुराणों में निम्नप्रकार दी गयी है :- १. भागवत - ८८; २. वायु९१; ३. विष्णु-९३; ४. मत्स्य - ६७ । इनमें से मत्स्य में प्राप्त नामावलि संपूर्ण न हो कर केवल कई प्रमुख राजाओं की है, जिसका स्पष्ट निर्देश इस नामावलि के अंत में प्राप्त है ( मत्स्य. १२.५७ ) । पुराणों में प्राप्त इक्ष्वाकुवंश की वंशावलियों में भागवत में प्राप्त वंशावलि सर्वाधिक परिपूर्ण राजवंश अयोध्या विदेह इक्ष्वाकुवंश (सू. इ. निमिवंश (सू. निमि. ) दिष्टवंश (सू. दिष्ट. शर्याति वंश (सू. शर्याति. ) आनर्त वैशाली नृग वंश (सू. नृग.) नरिष्यंतवंश (सू. नरिष्यंत) मनु राजा के उपर्युक्त पाँच पुत्र एवं एक पौत्र यद्यपि पंशकर साबित हुए, फिर भी उनमें से केवस चार पुत्र ही दीर्घजीवी राज्य स्थापित कर सके । बाकी दो पुत्रों का वंश भी अल्पावधि में ही विनष्ट हुआ । (३) स्वायंभुव वंश - - ( स्वा.), जो स्वायंभुव मनु के द्वारा स्थापित किया गया था । मनु के बाकी तीन पुत्र करूष, धृष्ट एवं पृषत्र क्रमशः करूष एवं धृष्ट नामक क्षत्रिय, एवं पृषत्र नामक शूद्र वर्णों के जनक बन गये, एवं अल्पावधि में ही विनष्ट हुए । मनु के वंशकर पुत्रों के द्वारा स्थापित किये गये वंशों की जानकारी निम्नप्रकार है: ( ४ ) भविष्य वंश - जिसमें भारतीय युद्धोत्तर अनेकानेक राजवंश सम्मिलित थे । (५) मानवेतर वंश - जिसमें वानर, रक्षस् आदि मानवेतर वंश समाविष्ट किये जाते हैं । . इक्ष्वाकु वंश - - ( सू. इ. ) -- मनु के ज्येष्ठ पुत्र इक्ष्वाकु को मध्यदेश का राज्य प्राप्त हुआ, जहाँ अयोध्या ११३९ Page #1161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इक्ष्वाकु वंश पौराणिक राजवंश दिष्ट वंश प्रतीत होती है, जो आगे दी गयी 'पौराणिक राजाओं की वंशावलि के अनुसार, इन दो राजाओं में अठारह पीढ़ियों तालिका' में उद्धृत की गयी है। का अन्तर था। यह असंगति भी उपर्युक्त तर्क को पुष्टि ब्रह्मा, हरिवंश, एवं मत्स्य में प्राप्त इक्ष्वाकुवंश की | प्रदान करती है। नामावलि अपूर्ण सी प्रतीत होती है, जो क्रमशः नल, मरु | इसके विरूद्ध इस वंशावलि को पुष्टि देनेवाली एक एवं खगण राजाओं तक ही दी गयी है। जानकारी भी पौराणिक साहित्य में प्राप्त है। कलियुग के प्रमुख राजा--इस वंश में निम्नलिखित राजा विशेष अन्त में जिन दो राजाओं के द्वारा क्षत्रियकुल का पुनमहत्त्वपूर्ण माने जाते हैं : --१. पुरंजय (ककुत्स्थ); | रुद्धार होनेवाला है, उनके नाम पौराणिक साहित्य में मेरु २. श्रावस्त; ३. कुबलाश्व 'धुंधमार' ४. युवनाश्व (द्वितीय) ऐक्ष्वाक, एवं देवापि पौरव दिये गये हैं। भागवत के 'सौद्युम्न'; ५. मांधातृ 'यौवनाश्व' ६. पुरुकुत्स;७. सदस्युः वंशावलि में इन दोनों राजाओं को समकालीन दर्शा गया है, ८. त्रैय्यारुण; ९. सत्यव्रत 'त्रिशंकु' १०. हरिश्चंद्र; जो संभवतः उसकी ऐतिहासिकता का प्रमाण हो सकता है। ११. सगर (बाहु) १२. भगीरथ; १३. सुदास; राम दाशरथि के पश्चात् उसके पुत्र लव ने श्रावस्ती १४. मित्रसह कल्माषपाद सौदास; १५. दिलीप (द्वितीय) | में स्वतंत्र राजवंश की स्थापना की। लव के काल से खटवांगः १६. रघु; १७. राम दाशरथि; १८. हिरण्यनाभ अयोध्या के इक्ष्वाकुवंश का महत्त्व कम हो कर, उसका कौसल्य; १९. बृहद्बल। स्थान 'श्रावस्ती उपशाखा' ने ले लिया। इसी शाखा में पाठभेद एवं मतभेद-भागवत में प्राप्त दृढाश्व एवं | आगे चल कर प्रसेनजित् नामक राजा उत्पन्न हुआ, जो .. हर्यश्व राजाओं के बीच प्रमोद नामक एक राजा का निर्देश गौतम बुद्ध का समकालीन था। गौतम बुद्ध के चरित्र में मत्स्य में प्राप्त है। कल्माषपाद सौदास से लेकर, दिलीप | श्रावस्ती के राजा प्रसेनजित् का निर्देश बार-बार आता खट्वांग तक के राजाओं के नाम ब्रह्म, हरिवंश, एवं मत्स्य | है, किन्तु उस समय अयोध्या के राजगद्दी पर कौन राजा . में भागवत में प्राप्त नामावलि से अलग प्रकार से दिये गये | था. इसका निर्देश कहीं भी प्राप्त नहीं है। . है, जिसमें सर्वकर्मन् , अनरण्य, निन्न, अनमित्र, दुलीदुह | ___ अंतिम राजा-अयोध्या के इक्ष्वाकु वंश का अंतिम आदि राजाओं के नाम प्राप्त हैं। राजा क्षेमक माना जाता है, जो मंगध देश के महापन । पौराणिक साहित्य में कई राजा ऐसे भी पाये जाते है, | नंद राजा का समकालीन माना जाता है। जो इक्ष्वाकुवंशीय नाम से सुविख्यात हैं, किन्तु जिनके नाम इक्ष्वाकुवंश के वंशावलि में अप्राप्य हैं :-१. असमाति | दिष्ट वंश-(सू. दिष्ट.) इस वंश के संस्थापक का ऐक्ष्वाक; २. क्षेमदर्शिन् । ३. सुवीर द्यौतिमत। नाम नाभानेदिष्ट अथवा नेदिष्ट था, जो मनु के नौ पुत्रों कई अभ्यासकों के अनुसार, क्षेमधन्वन् से ले म से एक था। कई पुराणों में उसका नाम दिष्ट दिया है. कर बृहद्रथ राजाओं तक की प्राप्त नामावलि एक एव उस मनु राजा का पात्र एवं मनु पुत्र धृष्ट राजा का ही वंश के लोगों की वंशावलि न होकर. उसमें दो पुत्र कहा गया है। पौराणिक साहित्य में से सात पुराणों विभिन्न वंश मिलाये गये हैं। इनमें से क्षेमधन्वन से लेकर | में, एवं महाभारत रामायण में, इस राजवंश का निर्देश प्राप्त हिरण्यनाभ कौसल्य तक की वंशशाखा पुष्य से ले कर बृहद्रथ | है, जहा कई बार इस वशाल राजवश' कहा गया है (ब्रह्माड. तक के शाखा से संपूर्णतः विभिन्न प्रतीत होती है। प्रश्नोपनिषद् ३.६१.३१८; वायु. ८६.३-२२, लिंग. १.६६.५३; में निर्दिष्ट हिरण्यनाम कौसल्य व्यास की सामशिष्यपरंपरा मार्क. ११०-१३३; विष्णु. ४.१.१६, गरुड. १३८.५में याज्ञवल्क्य नामक आचार्य का गुरु था। प्रश्नोपनिषद १३; भा. ९.२.२३, वा. रा. बा. ४७.११; म. आश्व. में निर्दिष्ट हिरण्यनाभ कौसल्य, एवं पौराणिक साहित्य में निर्दिष्ट हिरण्य नाम कौसल्य ये दोनों एक ही व्यक्ति थे । इस | ___ पौराणिक साहित्य में प्राप्त दिष्ट वंश की जानकारी अवस्था में इक्ष्वाकुवंशीय वंशावलि में हिरण्यनाम कौसल्य प्रमति ( सुमति ) राजा से समाप्त होती है, जो अयोध्या को दिया गया विशिष्टस्थान कालदृष्टि से असंगत प्रतीत के दशरथ राजा का समकालीन था। प्रमति तक का संपूर्ण होता है। वंश भी केवल वायु, विष्णु, गरुड एवं भागवतपुराण में ही स्कंद में इक्ष्वाकुवंशीय राजा विधृति एवं पूरुवंशीय | पाया जाता है। बाकी सारे पुराणों में प्राप्त नामावलियाँ . राजा परिक्षित् को समकालीन माना गया है। भागवत के | किसी न किसी रूप में अपूर्ण हैं। ११४० Page #1162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिष्ट वंश इस वंश में उत्पन्न प्रथम दो राजाओं के नाम भरुंदन एवं वत्सी थे। इनमें से भलंदन आगे चल कर वैश्य वन गया। इसी वंश में उत्पन्न हुए संकील, वत्सप्री एवं वत्स नामक आनायों के साथ, मलंदन का निर्देश एक वैश्य द्रष्टा के नाते प्राप्त है (ब्रह्मांड २.३२.१२१-१२२३ मत्स्य. १४५.११६-११७)। किंतु ऋग्वेद में, इनमें से केवल वत्स भालंदन के ही सूत्र प्राप्त हैं (ऋ. ९.६८; १०. ४५-४६) । इन्हीं सूक्तों की रचना करने के कारण भलंदन पुनः एक बार ब्राह्मण बन गया ( ब्रह्म. ७.४२ ) । प्राचीन चरित्रकोश इसी वंश में उत्पन्न हुए विशाल राजा ने वैशाल नामक नगरी की स्थापना की उसी काल से इस वंश को 'वैशाल' नाम प्राप्त हुआ । निमि वंश - (न.मि.) इस वंश की स्थापना मन राजा के पौत्र एवं इक्ष्वाकु राजा के पुत्र निमि 'विदेह' राजा ने की । निम के पुत्र का नाम मिथि जनक था, जिस कारण इस राजवंश को जनक नामान्तर भी प्राप्त था । इस राजवंश के राजधानी का नाम भी 'मिथिला' ही था, जो विदेह राजा ने अपने पुत्र मिथि के नाम से स्थापित की थी । निमि वंश भागवत में सीरध्वज राजा का पुत्र माना गया है, एवं उसका वंशक्रम निम्न प्रकार दिया गया है इस वंश की सविस्तृत जानकारी पौराणिक साहित्य में प्राप्त है (ब्रह्मोद. ३.६४.१-२४ वायु ८९.१-२३३ विष्णु.'४.५.११-१४; गरुड. १. १३८.४४ - ५८; भा. ९. १३) । वाल्मीकि रामायण में भी इस वंश की जानकारी प्राप्त है, किन्तु वहाँ इस वंश की जानकारी सीरध्वज तक गयी है। इस वंश के राजाओं के संबंध में पौराणिक साहित्य में काफी एकवाक्यता है । किन्तु विष्णु, गरुड एवं भागवत में शकुनि राजा के पश्चात् अंजन, उपगुप्त आदि बारह राजा दिये गये हैं, जो वायु एवं ब्रह्मांड में अप्राप्य हैं । इन दो नामावलियों में से विष्णु, भागवत आदि पुराणों की नामावलि ऐतिहासिक दृष्टि से अधिक सुयोग्य होती । किन्तु कई अभ्यासकों के अनुसार, शकुनि एवं स्वागत के बीच में प्राप्त बारह राजा निर्मिवंश से कुछ अलग शाखा के थे, एवं इसी कारण इस शाखा को आय निमिवंश से अलग माना जाता है (ब्रह्मांड. २.६४६ वायु ८९ भा. ९.१३) । कृतध्वज ' केशिध्वज सीरध्वज 1 कुशध्वज T धर्मध्वज मितध्वज I खांडक्य उपर्युक्त जनक राजाओं में से केशिध्वज एक बड़ा तत्वज्ञानी राजा था, एवं उसका चचेरा भाई सांडिक्स एक सुविख्यात यशकर्ता था । केशिध्वज जनक एवं सांडिक्य की एक कथा विष्णु में दी गयी है, जिससे इस वंशावलि की ऐतिहासिकता पर प्रकाश पड़ता है ( विष्णु. ६.६.७१०४) । महाभारत में देवरात जनक राजा को याज्ञवल्क्य का अच्छी प्रकार से देखने से प्रतीत होता है कि, याशवल्क्य समकालीन कहा गया है, किन्तु वंशावलियों का संदर्भ के समकालीन जनक का नाम देवराति न हो कर जनदेव अथवा उग्रसेन था । पौराणिक साहित्य में निम्नलिखित राजाओं को जनक कहा गया है :- १. सीरध्वज २. धर्मध्वज (विष्णु. ४.२४.५४); २. जनदेव, जो याश्वस्य का समकालीन था; ४. देवराति ५. खांडिक्य; ६. बहुलाश्व, जो श्रीकृष्ण से आ मिला था; ७. कृति, जो भारतीय युद्ध में उपस्थित था। ये सारे राजा 'विदेह', 'जनक', 'निमि' आदि बहुविध नामों से सुविख्यात थे, किन्तु उनका 'स. निमि वर्णन ही ऐति हासिक दृष्टि से अधिक उचित प्रतीत होता है ये सारे राजा आत्मज्ञान में प्रवीण थे ( विष्णु. ६.६.७ - ९ ) । इस वंश का सब से अधिक सुविख्यात राजा सीरध्वज जनक था, जिसके भाई का नाम कुशध्वज था ( ब्रह्मांड. ३.६४.१८–१९; वायु. ८९.१८ वा. रा. बा. ७०.२ - (३) । कुशध्वज सांकाश्या पुरी का राजा था । किन्तु | ११४१ पौराणिक साहित्य में निम्नलिखित राजाओं को निमिवंशीय कहा गया है, किन्तु उनके नाम निमि वंश की वंशावलि में अप्राप्य है: १. कराल २२. उम्र ४. जन - देव ५, पुष्करमालिन् ६. माधव ७. शिखिध्यान । वैदिक साहित्य में - इस साहित्य में निम्नलिखित निमिवंशीय राजाओं का निर्देश प्राप्त है :-१. कुणि (शकुनि) २. रंजन ( अंजन ); ३. उग्रदेव; ४. क्रतुजित् । ये सारे राजा वैदिक यज्ञकर्म में अत्यंत प्रवीण थे । Page #1163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निमि वंश पौराणिक राजवंश सोम वंश वैदिक साहित्य में निर्दिष्ट उपर्युक्त बहुत सारे राजाओं | आगे चल कर, ये लोग क्षत्रियधर्म छोड़ कर ब्राह्मण के नाम पौराणिक साहित्य में प्राप्त वंशावलियों में अप्राप्य बन गये, एवं आग्निवेश्यायान नाम से सुविख्यात हुए। है। संभव है कि, इन सारे राजाओं ने क्षत्रिय धर्म दिष्ट राजवंश में भी नरिष्यंत नामक एक उपशाखा का का त्याग कर ब्राह्मण धर्म स्वीकार लिया होगा। इस निर्देश पाया जाता है, किन्तु वे लोग आद्य नरिष्यंत शाखा वर्णान्तर के कारण उनका राजकीय महत्त्व कम होता गया, से बिलकुल विभिन्न थे। जिसके ही परिणाम स्वरूप पौराणिक राजवंशों में से उनके | नृग वंश (सू. नृग.)-मनु के इस पुत्र के वंश का नाम हटा दिये गये होंगे। निर्देश भागवत में पाया जाता है, जिसमें सुमति, वसु, नभग वंश--(सू. नभग.) मनु के पुत्र नभग के द्वारा ओघवत् नामक राजा प्रमुख थे (भा. ९.२.१७-१८)। प्रस्थापित किये गये वंश का निर्देश पुराणों में अनेक स्थान - शर्याति वंश (सू. शर्याति)-मनु के शांति नामक पर प्राप्त है ( ब्रह्मांड. ३.६३.५-६; भा. ९.४-६; ब्रह्म. | पुत्र ने गुजरात देश में आकार इस स्वतंत्र राजवंश की ७.२४; वायु. ८८.५-७)। इनका राज्य गंगानदी के स्थापना की । शयाति राजा के पुत्र का नाम आनत था, . दोआब में कहीं बसा हुआ था । इस वंश में नाभाग, जिसके ही कारण,प्राचीन गुजरात देश को आनत नाम प्राप्त अंबरीष, विरूप, पृषदश्व, रथीतर आदि राजा उत्पन्न हुआ था। गुजरात में स्थित हैहय राजवंशीय राजाओं से हुए । किन्तु आगे चल कर सोमवंशीय ऐल राजाओं के इन लोगों का अत्यंत घनिष्ठ संबंध था। आक्रमण के कारण इनका राज्य आदि सारा वैभव चला शर्याति राजवंश की जानकारी विभिन्न पुराणों में प्राप्त गया, एवं ये लोग वर्णान्तर कर के अंगिरस्गोत्रीय रथीतर है ( भा. ९.३; ह. वं. १.१०.३१-३३: वायु. ८६,२३ब्राह्मण बन गये। ३०; ब्रह्मांड. ३.६१.१८-२०६३.१; ४, ब्रह्म. ७.२७नरिष्यन्त वंश--(सू. नरि.) मनु के पुत्र नरिष्यन्त २९)। इस वंश में निम्नलिखित राजा उत्पन्न हुए थे.के द्वारा प्रस्थापित किये गये इस वंश का निर्देश पुराणों १. आनर्त; २. रोचमान रेवत; ३. ककुमत् । इन में से में अनेक स्थान पर प्राप्त है (भा. ९.२.१९-२२; वायु. ककुमत् राजा की कन्या रेवती बलराम को विवाह में दी ८६.१२-२१)। इस वंश में उत्पन्न राजाओं में निम्न- गयी थी। इनकी राजधानी कुशस्थली (द्वारका) नगरी में थी। लिखित राजा प्रमुख थे:-१. चित्रसेन; २. दक्ष; इस वंश के आद्य संस्थापक शांति राजा की कन्या - ३. मीट्वस; ४. कूर्च; ५. इंद्रसेन; ६. वीतिहोत्र ७.सत्य- का नाम सुकन्या था, जिसका विवाह च्यवन ऋषि से श्रवसः ८. उरुश्रवम्; १. देवदत्त; १०. कालीन जातुकय; हुआ था। शातिकन्या सुकन्या एवं च्यवन ऋषि की ११. अग्निवेश्य । कथा वैदिक साहित्य में प्राप्त है। (२) सोमवंश (सो.) सोमवंश का महत्त्व-पौराणिक साहित्य में निर्दिष्ट बहुत- उत्तरभारत,एवं उत्तरीपश्चिम दक्षिणी भारत पर सोमवंशीय सारा राजकीय इतिहास सोमवंश में उत्पन्न हुए राजाओं राजाओं का ही राज्य था, जिनकी संक्षिप्त जानकारी का, एवं उनके वंशजों का इतिहास कहा जा सकता है। निम्नलिखित है:यद्यपि प्राचीन इतिहास के प्रारंभ में सूर्यवंश में उत्पन्न हुए राजाओं का भारतवर्ष में काफी प्राबल्य था, फिर भी (१) पौरव शाखा-इनका राज्य काशी एवं शूरसेन उत्तरकालीन इतिहास में उनकी राजसत्ता अयोध्या, विदेह। देश छोड़कर गंगा एवं यमुनानदियों के समस्त समतल एवं वैशालि राज्यों से ही मर्यादित रही। उक्त उत्तर प्रदेश में स्थित था। इस वंश के राज्यों में हस्तिनापुर, कालीन इतिहास में मांधातृ एवं सगर ये केवल दो ही पांचाल, चेदि, वत्स, करूप, मगध एवं मत्स्य आदि राज्य सूर्यवंशीय राजा ऐसे थे, जिन्होंने समस्त उत्तरभारत प्रमुख थे। वर्ष पर अपना स्वामित्व प्रस्थापित किया था। . (२) यादव शाखा--इन लोगों का राज्य पश्चिम में उत्तरकालीन भारतीय इतिहास में अयोध्या, विदेह राजपुताना मरुभूमि से लेकर उत्तर में यमुना नदी तक एवं वैशालि इन तीन देशों को छोड़ कर बाकी सारे फैला हुआ था। ११४२ Page #1164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोम वंश प्राचीन चरित्रकोश सोम वंश (३) अनु शाखा--इन लोगों के एक शाखा का राज्य | गये राजवंश पूरुवंश (सो. पूरु.) सामुहिक नाम से - पंजाब देश में था, जिनमें सिंधु, सौवीर, कैकेय, मद्र, सुविख्यात हुए, जिनमें निम्नलिखित राजवंश प्रमुख थेःवाहीक, शिबि एवं अंबष्ठ प्रमुख थे। इन लोगों के दूसरी १. क्षत्रवृद्धवंश--(सो. क्षत्र), जो आयु राजा के पुत्र एक शाखा का राज्य पूर्व बिहार, बंगाल एवं ओरिसा में क्षत्रवृद्ध के द्वारा स्थापित किया गया था, एवं काशी देश में था, जहाँ इन लोगों के अंग, वंग, पुण्ड, सुह्म एवं कलिंग राज्य करता था; २. यदुवंश, (सो. यदु.) जो आयु राजा राज्य प्रमुख थे। | के पौत्र यदु के द्वारा स्थापित किया गया था; ३. तुर्वसुवंश (४) द्रुह्य शाखा--इन लोगों का राज्य गांधारदेश (सो. तुर्वसु.), जो आयुराजा के पौत्र तुर्वसु के द्वारा में था, एवं कई अभ्यासकों के अनुसार इनका विस्तार | स्थापित किया गया था; ४. वंश (सो. द्रा.), जो उत्तरी पश्चिमभारत की सीमाभाग पर स्थित म्लेच्छ आयुराजा के पौत्र द्रुह्यु राजा के द्वारा स्थापित किया गया लोगों तक फैला हुआ था। था, एवं गांधार देश में राज्य करता था; ५. अनुवंश (५) तुर्वसु शाखा--इन लोगों का उत्तरभारत में (सो. अनु.) जो आयु राजा के पौत्र अनुराजा के द्वारा स्थापित किया गया था; ६. पूरुवंश-(सो. पूरु.), स्थित राज्य तो नष्ट हुआ था। किन्तु कई अभ्यासकों के जो आयुराजा के पौत्र पूरुराजा के द्वारा स्थापित किया अनुसार, दक्षिण भारतवर्ष के पाण्ड्य, चोल एवं केरल गया था। राजवंश इन्हींसे उत्पन्न हुए थे। (६) काश्य शाखा----इन लोगों का राज्य का शिदेश (अ) यदुवंश की उपशाखाएँ -इस राजवंश की में था। इसी कारण ययाति से उत्पन्न पाँच वंशों का राज्य निम्नलिखित उपशाखाएँ प्रमुख थींः--१. सहस्रजित् सारी पृथ्वी पर था, ऐसा स्पष्ट निर्देश पौराणिक साहित्य में शाखा ( सो. सह.), जो वंश यदुपुत्र सहस्रजित् के द्वारा था (वायु. ९३.१०३.९९-४७२, ब्रह्मांड. ३.६८.१०५ स्थापित किया गया था, एवं जो 'हैहय' सामूहिक नाम से १०६)। पौराणिक साहित्य में प्राप्त इस निर्देश से यादव, सुविख्यात था; २. क्रोष्टु शाखा ( सो. क्रोष्ट.), जो वशं तुर्वसु, आनव, द्रुघु एवं पौरव इन पाँच उपशाखाओं क्रोष्टु के द्वारा स्थापित किया गया था, एवं 'यादव' को निर्देश अभिप्रेत है। | सामूहिक नाम से प्रसिद्ध था। • स्थापना-बुध का इला से उत्पन्न पुत्र पुरूरवसू. ऐल (आ) अनुवंश की उपशाखाएँ-इस वंश की निम्नसोमवंश का संस्थापक माना जाता है । यद्यपि इन लिखित उपशाखाएँ प्रमुख थीं:-१. उशीनर शाखा लोगों का राज्य प्रतिष्ठान (आधुनिक प्रयाग) प्रदेश में | (सो. उशी.), जो वंश अनुवंश में उत्पन्न उशीनर राजा था। फिर भी इन लोगों का मूलस्थान हिमालय प्रदेश में | के द्वारा स्थापित किया गया था, एवं जिसमें सौवीर, कहीं था, पुरूरवस् के द्वारा स्थापित किया गया राज्य केकय, मद्रक आदि उपशाखाएँ प्रमुख थी; २. तितिक्षु ऐल राज्य नाम से सुविख्यात था, जो सात द्वीपों शाखा (सो. तितिक्षु.), जो वंश अनुवंश में उत्पन्न में विभाजित था । यही राज्य आगे चल कर, पुरूरवस् | तितिक्षु राजा के द्वारा स्थापित किया गया था, एवं जिसमें के आयु, एवं अमावसु नामक दो पुत्रों के पुत्रपौत्रों में | अंग, वंग आदि अनेक उपशाखाएँ समाविष्ट थी। विभाजित हुआ। इन्हीं से आगेचल कर सोमवंश के (इ) पूरुवंश की उपशाखाएँ-इस वंश के लोग निम्नलिखित शाखाओं का निर्माण हुआः 'भरत' सामूहिक नाम से प्रसिद्ध थे, एवं उनकी निम्न(1) अमावसु शाखा (सो, अमा.)--पुरूरवस् राजा | लिखित शाखाएँ प्रमुख थीं :--१. अजमीढ शाखा (सो. के अमावसु नामक पुत्र के द्वारा यह स्थापित की गयी थी, | अज.), जो अजमीढ के द्वारा स्थापित की गयी थी, एवं एवं कान्यकुब्ज देश पर राज्य करती थी। जिसकी हस्तिनापुर के कुरु (सो.कुरु.), एवं उत्तर पांचाल (२) आयु शाखा (सो. पुरूरवस.)-पुरूरवस् के के नील (सो. नील.) ये दो शाखाएँ प्रमुख थीं; २. द्विमीढ ज्येष्ठ पुत्र आयु के अनेनस, नहष, क्षत्रवृद्ध, रम्भ एवं | शा -(सो. द्विमीढ.), जो भरतवंश में उत्पन्न द्विमीढ रजि नामक पाँच पुत्र थे। इनमें से अनेनस के द्वारा | राजा के द्वारा स्थापित की गयी थी। आयु नामक स्वतंत्र राजवंश (सो. आयु.) की स्थापना | सोमवंश के उपर्युक्त राजवंशों की एवं उनकी विभिन्न की गयी । आयु के बाकी पुत्रों के द्वारा स्थापित किये | शाखाओं की जानकारी अकारादि क्रम से नीचे दी गयी है: ११४३ Page #1165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूर्य एवं सोमवंशों का विस्तार वैवस्वत मनु सोम वंश नभग नृग (सो. नृग) [पुरूरवस् ऐल (प्रतिष्ठान)] इक्ष्वाकु (अयोध्या) नाभानेदिष्ट (वैशाली) शर्याति ( कुशस्थली) नरिप्यंत (सू. इ.) (सू. दिष्ट.) (मू. शति.) (सू. नरि.) निमि (विदेह, सू. निमि.) आयु (प्रतिष्ठान, सो, आयु.) अमावसु (कान्यकुञ्ज) (सो. अमा.) नहुष (प्रतिष्ठान) क्षत्रवर्धन (काशी, सो.क्षत्र) अनेनस् (क्षत्रधर्मन् वंश) ययाति (प्रतिष्ठान) ११४४ तुर्वसु (सो. तुर्वसु.) पूरु (प्रतिष्ठान, सो. पूरु.) द्रुह्यु (गांधार, सो. द्रुह्य.) यदु (मध्यभारत, सो. यद्.) अनु (सो. अनु.) पौराणिक राजवंश भरत हस्तिन् (हस्तिनापुर) सहस्रजित् (हैहय, माहि.) क्रोष्टु (मथुरा) अंधक (मथुरा) उशीनर (गांधार) तितिक्षु (पूर्व भारत) (सो, सह.) (सो. कोप्टु.) (सो. वृष्णि.) (सो. उशी.) (सो. अनु.) अजमीढ ( हस्तिनापुर, सो. ऋक्ष.) द्विमीढ (सो. द्विमीढ.). वंग पुण्डू सुह्म कलिंग नील (उत्तर पांचाल, सो. नील.) ऋक्ष (हस्तिनापुर, सो. ऋक्ष.) कुरु ( हस्तिनापुर, सो, कुरु.) बृहद्वसु ( द. पांचाल) नीप द्रुपद सोमवंश कौरव एवं पांडव वासव (चेदि) Page #1166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अजमीढ वंश प्राचीन चरित्रकोश आनव वंश अजमीढ वंश (सो. अज.)-अजमीढपुत्र बृह दिशु | गांधार शाखा का कई हिस्सा कई स्थानों पर अनु का ही के द्वारा इस वंश की स्थापना हुई, जिसकी संपूर्ण जानकारी | मानकर कई पुराणों में दिया गया है। किन्तु वह गलत छः पुराणों में प्राप्त है (वायु. ९९.१६६; ह. वं. १.२०. | प्रतीत होता है। १८-७६; भा. ९.२१-२२, मत्स्य. ४९.७-५९)। इस | अनेनस वंश-आयु राजा के अनेनस नामक पुत्र राजवंश का राज्य दक्षिण पांचाल देश में था, एवं इनकी | से 'क्षत्रधर्मन् सामूहिक नाम धारण करनेवाले एक राजवंश राजधानी कापिल्य नगरी में थी। इस राजवंश के संस्थापक | की स्थापना हुई, जिसमें निम्नलिखित राजा समाविष्ट थे:अजमीढ़ राजा को प्रियमेध, ऋक्ष, बृहदिशु एवं नील नामक | अनेनसू-क्षत्रधर्मन्-प्रतिक्षत्र- संजय-जय-विजय कृतिचार पुत्र थे। इनमें से बृह दिषु ने हस्तिनापुर के मुख्य राज्य हर्यत्त्वत-सहदेव-अदीन- जयत्सेन- संकृति-कृतधर्मन् की परंपरा आगे चलायी, एवं इस प्रकार वह हस्तिनापुर | (ब्रह्मांड. ३.६८.७-११; वायु. ९३.७-११)। ऋक्षवंशीय (सो. ऋक्ष.) राजवंश का वंशकर राजा साबित | अंधक वंश-यदुपुत्र अंधक राजा के द्वारा प्रस्थापित हुआ। इसी वंश से आगे चल कर हस्तिनापुर के कुरुवंश इस वंश की जानकारी पौराणिक साहित्य में प्राप्त (सो. कुरु.) की उत्पत्ति हुई। है, जहाँ इस वंश की कुकुर, एवं भजमान नामक अजमीढ राजा के पुत्रों में से नील ने आगे चल कर दो शाखाएँ दी गयीं हैं। उनमें से कुकुर वंश में देवक, क्रिवि देश में उत्तर पांचाल (सो. नील.) राजवंश की | उग्रसेन, आदि राजा उत्पन्न हुए थे, एवं भजमान (अंधक) स्थापना की। वंश में प्रतिक्षत्र, कृतवर्मन् , कंवलबर्हिष , असमौजस् आदि - इस राजवंश की वंशावलि के संबंध में पौराणिक साहित्य राजा उत्पन्न हुए थे (ह. वं. १.३४)। में एकवाक्यता नहीं है। इनमें से लगभग पूरि अमावसु वंश-(सो. अमा.) पुरूरवस् के पुत्र वंशावलि मत्स्य में दी गयी है, जो 'पौराणिक राजवंशों अमावसु का वंश सात पुराणों एवं रामायण में प्राप्त है की तालिका' में उदधृत की गयी है। भागवत में प्राप्त (ब्रह्मांड. ३.६६.२२-६८; वायु. ९१.५१-१९८; ब्रह्म. नामावलि में बहुत सारे राजाओं के नाम अनुल्लिखित हैं। १०.१३; ह. वं. १.२७, विष्णु. ४.७.२, वा. रा. बा. गरुड में अंतिम तीन राजाओं के नाम नहीं दिये गये हैं। ३२-३४)। अमावसु स्वयं कान्यकुब्ज देश का राजा था, विष्णु के नामावलि में अंतिम राजा जनमेजय का नाम | एवं उसके वंश में निम्नलिखित राजा प्रमुख थे:अप्राप्य है। मत्स्य में काव्य राजा के पुत्र का नाम समर अमावसु-भीम-कांचनप्रभ-सुहोत्र-जह्न । . दिया गया है। अग्नि एवं महाभारत में इस वंश की मूल पुरुष . अनु वंश--(सो. अनु.) ययाति राजा के पुत्र अनु अमावसु ही बताया गया है, किंतु इसमें उत्पन्न जह्न राजा के द्वारा स्थापित किये गये इस वंश की सविस्तृत जानकारी पौराणिक साहित्य में प्राप्त है (वायु. ९९.१२; ब्रह्म. १३. को 'भरतवंशीय' एवं अजमीढ राजा का पुत्र कहा गया . १५-२१; भा. ९.२३.१-३, मत्स्य. ४८.१०)। अनु | है (अग्नि, २७७.१६-१८)। किन्तु यह जानकारी अनैतिराजा से आठवीं पीढी में उत्पन्न हुए महामनस राजा को | हासिक प्रतीत होती है । जह्न के आठवें पीढ़ी में उत्पन्न उशीनर एवं तितिक्षु नामक दो पुत्र थे, जिन्होंने क्रमशः विश्वामित्र ऋषि को ऋग्वेद एवं अन्य वैदिक साहित्य उशीनर एवं तितिक्षु राजवंशों की स्थापना की। उनमें | में 'भरत' एवं 'भरतर्षभ' जरूर कहा गया है (ऋ. ३. से उशीनर शाखा में से केकय, मद्रक, आदि वंश उत्पन्न | ५३.१२; ऐ. ब्रा. ७.३.५, सां. श्री. १५.२५);. किंतु हुए, एवं तितिक्षु राजवंश में से अंग, वंग, कलिंग, सुह्म. | वहाँ आद्य विश्वामित्र नहीं, बल्कि भरत राजा सुदास राजा पुंड आदि उपशाखाओं का निर्माण हुआ। अनिल, कोटिक | के राजपुरोहित का कार्य करनेवाले आद्य विश्वामित्र के सरथ, आदि वंश के लोग भी अनुवंशीय ही माने जाते हैं। किसी वंशज का निर्देश अभिप्रेत है । इस प्रकार भरत • इस वंश की जानकारी के संबंध में पौराणिक साहित्य | राजा का पुरोहित होने के कारण विश्वामित्र ऋषि स्वयं में प्रायः सर्वत्र एकवाक्यता है । केवल ब्रह्म एवं हरिवंश | अमावसुकुलोत्पन्न हो कर भी 'भरतर्षभ' कहलाया। में इस वंश के आद्य संस्थापक का नाम ययातिपुत्र अनु | आनव वंश-अनु राजा के वंश में उत्पन्न हुए बलि के जगह पूरुवंशीय रौद्राश्व राजा का पुत्र कक्षेयु दिया | आनव के अंग, वंग आदि पाँच पुत्रों ने पूर्व भारत में गया है। ययाति राजा के अन्य एक पुत्र द्रुह्य के | पाँच स्वतंत्र वंशों की स्थापना की। इन पाँच पुत्रों के प्रा. च. १४४ ] । Page #1167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आनव वंश पौराणिक राजवंश क्षत्रवृद्ध वंश की। द्वारा स्थापन किये गये राजवंश 'आनव' सामूहिक कुरुराजा से ले कर पाण्डवों तक के राजा समाविष्ट थे। नाम से प्रसिद्ध थे। इन आनव वंशों में अंग, वंग, पुण्ड्र | इश वंश की जानकारी विभिन्न पुराणों में प्राप्त है ( वायु. सुह्म एवं कलिंग राजवंश समाविष्ट थे, जिनका राज्य | ९९.२१७-२१८; ब्रह्मांड १३.१०८-१२३; ह. वं. ३२. गंजम से ले कर गंगा नदी के त्रिभुज प्रदेश तक फैला | १८०१-१८०२)। हुआ था । कई अभ्यासकों के अनुसार, इन लोगों के द्वारा कुशांब वंश (सो. कुरु.)--इस वंश की स्थापना समुद्र के मार्ग से इन देशों पर आक्रमण किया गया था, | कुरुवंशीय वसु राजा के कुशांब नामक पुत्र के द्वारा की एवं इन प्रदेशों में स्थित सौद्युम्न लोगों को उत्कल पहाडियों | गयी थी। इसी वंश के लोगों ने कौशांबि देश की स्थापना के प्रदेश में ढकेल दिया था। __ आयु वंश-आयु राजा के अनेनस् नामक पुत्र का | कृष्ण वंश--यादववंश की वृष्णि शाखा में उत्पन्न हुए वंश आयु वंश (सो. आयु.) अथवा अनेनस् वंश नाम कृष्ण का सविस्तृत वंश, एवं उसके परिवार की जानकारी से सुविख्यात है (पुरूरवस् देखिये; ह. वं.१.२९)। हरिवंश में दी गयी है (ह. वं. १.३५)। उशीनर वंश--(सो. उशी.) ययातिपुत्र अनु के क्रोष्टु वंश (सो. क्रोष्ट.)--यदुराजा के पुत्र क्रोष्ट ने राजवंश की पश्चिमोत्तर भारत में स्थित शाखा उशीनर वंश मथुरा नगरी के यादव वंश की स्थापना की। इसीके नाम नाम से सुविख्यात थी ( अनु देखिये)। से मथुरा देश का यादव वंश क्रोष्ट नाम से सुविख्यात ऋक्ष वंश--( सो. ऋक्ष.) हस्तिनापुर के हस्तिन् हुआ। आगे चल कर इसी वंश के ज्यामध. भजमान, राजा के अजमीढ एवं द्विमीढ नामक दो पुत्र थे। इनमें | वृष्णि एवं अंधक शाखाओं का निर्माण हुआ (ब्रहा. १४. से अजमीढ एवं उसके पुत्र ऋक्ष का हस्तिनापुर में राज्य | १५: यदु देखिये)। करनेवाला वंश ऋक्षवंश नाम से प्रसिद्ध है। इस वंश के क्षत्रवृद्ध वंश (सो. क्षत्र.)--काशी देश के इस चौथे पुरुष कुरुपुत्र जह्न से हस्तिनापुर में कुरुवंश का | सुविख्यात राजवंश की स्थापना आयुराजा के पौत्र एवं राज्य प्रारंभ हुआ। इसी वंश में उत्पन्न वसुपुत्र बृहद्रथ | क्षत्रवृद्ध राजा के पुत्र सुनहोत्र (महोत्र ) ने की। इस ने आगे चल कर मगधदेश में राज्य करनेवाले मगधवंश | वंश की सविस्तृत जानकारी पौराणिक साहित्य म प्राप्त है । की स्थापना की। इन दो उपशाखाओं के अतिरिक्त ऋक्ष | (ब्रह्मांड ३.६६.२; वायु. ९२.६६-७४; ९३. ७-११; शाखा में उत्पन्न हुए राजा ऋक्षवंशीय (सो. ऋक्ष.) माने ब्रह्म. ११.३२: ह. वं. १.२९; विष्णु. ४.८; भा. ९.१७. जाते हैं। २-५)। काशी देश में राज्य करने के कारण, इस वंश ऐल वंश--पुरूरवस् एवं मनुकन्या इला से उत्पन्न को काश्य नामान्तर भी प्राप्त था। पौराणिक साहित्य में सोमवंश का नामांतर ( सोम वंश देखिये)। वृद्धक्षत्र राजा का वंश भी प्राप्त है, जो प्रायः क्षत्रवृद्ध ___ करूष वंश (सो. कुरु.) इस वंश की स्थापना कुरुवंश वंश से ही मिलता जुलता है। में उत्पन्न वसु राजा के करूष (मत्स्य) नामक पुत्र | इस वंश के पहले चार राजाओं के नाम क्षत्रवृद्ध, के द्वारा की गयी थी। इसी वंश के लोगों ने करूष देश | सुनहोत्र, काश (काश्य ) एवं दीर्घतपस् थे । भारतीय युद्ध की स्थापना की (पूर देखिये )। के काल में इस वंश के सुबाहु एवं अभिभू (सुविभु) काश्य वंश (सो. क्षत्र.)--काशीदेश में राज्य करने | काशी देश में राज्य करते थे। भागवत में प्राप्त इस वंश वाले इस राजवंश की स्थापना पुरुरवस् के पौत्र, एवं | की वंशावलि में काश्य एवं दीर्घतपस् के दरम्यान काशी आयुराजा के पुत्र क्षत्रवृद्ध ने की। इन वंश के पहले चार एवं राष्ट्र इन दो राजाओं के नाम अन्य पुराणों से अधिक राजाओं के नाम क्षत्रवृद्ध, सुनहोत्र (सुहोत्र,) काश | पाये जाते हैं। (काश्य) एवं दीर्घतपस् थे (क्षत्रवृद्ध देखिये)। दिवोदास एवं प्रतर्दन ये सुविख्यात राजा इसी वंश में ___ कुकुर वंश-यादव वंश की एक उपशाखा, जो यादव- उत्पन्न हुए थे। किन्तु दिवोदास (प्रथम) से ले कर दिवोदास वंशीय अंधक राजा एवं उसके पुत्र कुकुर के द्वारा स्थापित | (द्वितीय) तक के राजाओं का निश्चित काल एवं वंशक्रम की गयी थी (ब्रह्म. १५; अंधक वंश देखिये)। समझ में नहीं आता है । हरिवंश, ब्रह्म एवं अग्नि पुराणों कुरुवंश-(सो. पूरु.) हस्तिनापुर के ऋक्ष राजा के वंश में इस वंश के आद्य पुरुप के नाते आयुपुत्र महोत्र का में उत्पन्न हुए एक उपशाखा को कुम्वंश कहते थे, जिसमें | नहीं, बल्कि पौरववंशीय सुहोत्र राजा का नाम दिया गया Page #1168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षत्रवृद्ध वंश प्राचीन चरित्रकाश द्विमीढ़ वंश है। किन्तु इस वंश में उत्पन्न हुए दिवोदास एवं प्रतर्दन | दो पुत्र थे, जिनमें से तितिक्षु ने पूर्व भारत में स्वतंत्र राजा पौरववंशीय सुहोत्र राजा से काफी पूर्वकालीन थे. राजवंश की स्थापना की। यह बात ध्यान में रखते हुए यह जानकारी अनैतिहासिक तुर्वसु वंश--ययाति राजा के तुर्वसु नामक पुत्र के प्रतीत होती है। द्वारा इस वंश की स्थापना हुई, जिसमें निम्नलिखित राजा इस वंश के राजपुरोहित भरद्वाज थे । हैहय राजाओं प्रमुख थे:-- तुर्वसु-वह्नि-गर्भ-गोभानु-त्रिसानु-करंधम से इस वंश के लोगों का अनेकानेक पीढ़ियों तक युद्ध चलता मरुत्त । मरुत्त राजा को कोई पुत्र न होने के कारण, रहा। उसने पूरुवंशीय राजा दुष्यन्त को गोद में लिया, एवं इस काशीदेश के राजाओं के निम्नलिखित राजाओं का | प्रकार तुर्वसु वश पूरुवंश में सम्मिलित हुआ। निर्देश पौराणिक साहित्य में पाया जाता है | किन्तु क्षत्र- किंतु कई पुराणों में इनकी एक दाक्षिणात्य शाखा का वृद्धवंश की नामावलि में उनका नाम अप्राप्य है :--१. निर्देश प्राप्त है, जिसे पांडव चोल, केरल, आदि राजवंशों की अजातरिपु; २. धृतराष्ट्र वैचित्र्यवीय; ३. सुबाहु; ४. स्थापना का श्रेय दिया गया है (पन, उ. २९०.१-२)। सुवर्णवर्मन् ;५.होमवाहन; ६. ययाति; ७. अंबा का पिता। पार्गिटर के अनुसार, किसी तुर्वसु राजकन्या के द्वारा क्षत्रवृद्ध के अन्य एक पुत्र का नाम प्रतिक्षत्र था, जिसने इन दाक्षिणात्य वंशों की स्थापना की गई होगी। - भी अपने स्वतंत्रवंश की स्थापना की । प्रतिक्षत्र के इस वंश | इस वंश की जानकारी विभिन्न पुराणों में प्राप्त है में उत्पन्न हुए १०-१३ राजाओं का निर्देश पौराणिक (ब्रह्मांड, ३.७४.१-४; वायु. ९९.१-३, भा. ९.२३. साहित्य में प्राप्त है। किंतु उनका काल एवं राज्य आदि १६-१८; मत्स्य. ४८.१-५)। अग्नि में गांधार लोगों को के संबंध में निश्चित जानकारी अप्राप्य है। इसी वंश में शामिल किया गया है, किंतु गांधार लोग चेदि अथवा चैद्य वंश-(सो. कुरु.) इस वंश की | तुर्वसवंशीय न होकर द्वावंशीय थे। स्थापना कुरुवंशीय चैद्योपरिचर वसु राजा. के प्रत्यग्रह वैदिक साहित्य में कुरुंग को तुर्वसुवंशीय कहा गया नामक पुत्र के द्वारा की गयी थी। कई अभ्यासकों के है। इसी साहित्य में इसे म्लेंच्छों का राजा कहा गया है। अनुसार, इस वंश का संस्थापक विदर्भपुत्र चिदि था । किंतु हरिवर्मन् नामक एक तुर्वसुवंशीय राजा का निर्देश कई इन दोनों राजाओं के जीवनचरित्र में 'चैद्य' वंश की ग्रंथों में प्राप्त है, किन्तु इसके वंश के वंशावलि में जानकारी अप्राप्य है। उसका नाम अप्राप्य है। इस बंश का सब से सुविख्यात राजा शिशुपाल था, जो ह्य वंश (सो. द्रुह्यु.) ययाति राजा के द्रुह्य नामक कृष्ण एवं पाण्डवों का समकालीन था, निम्नलिखित पुत्र के द्वारा स्थापना किये गये इस वंश का विस्तार प्रायः राजाओं का निर्देश पौराणिक साहित्य में 'चैद्य' नाम से किया पश्चिमोत्तर भारत में था (ब्रह्म. १३.१४८; ह. वं.१.३२; गयां है; किन्तु चैद्य वंश की वंशावलि में उनका निर्देश मत्स्य. ४८.६-१०, विष्णु. ४.१६; भा. ९.२३.१४-१५ अप्राप्य है:--१. दमघोष, जिसके पुत्र का नाम धृष्टकेतु, 'ब्रह्मांड. ३.७४.७; वायु. ९९.७-१२)। एवं पौत्र का नाम शिशुपाल सूनीथ था; २. कशु चैद्य | द्रुह्यु राजा के बभ्रु एवं सेतु नामक दो पुत्र थे, जिनके ३.कौशिक ४. चित्र; ५. चिदि कौशिकपुत्र; ६. दण्डधार; अंगारसेतु, गांधार, धृत, प्रचेतस् आदि वंशजों के द्वारा इस ७. देवापि ८. शलभ; ९. सिंहकेतु; १०.हरिः ११. जह्न। | वंश का विस्तार हुआ। पौराणिक साहित्य के अनुसार, - जह्न वंश-सुविख्यात कुरु वंश का नामान्तर । प्रचेतस् के वंशजों ने भारतवर्ष के उत्तर में स्थित म्लेच्छ ज्यामघ वंश--यादववंश की एक उपशाखा, जो | देशों में नये राज्यों का निर्माण किया। परावृत राजा के पुत्र ज्यामघ के द्वारा स्थापित की गयी। इसी वंश का जो वर्णन ब्रह्म एवं हरिवंश में प्राप्त है, थी (भा. ९.२४; वायु. ९५; ब्रह्म. १५.१२-२९; विष्णु. वहाँ गांधार के बाद उत्पन्न हुए राजा गलती से अनु४.१६; भा. ९.२४)। वंशीय राजा बतलाये गये है। इन लोगों का निर्देश वैदिक तितिक्ष वंश-(सो. अनु.) पूर्व हिंदुस्थान का एक | साहित्य में भी प्राप्त हैं। राजवंश, जिसका विस्तार आगे चल कर पूर्व हिंदुस्थान | द्विमीढ़ वंश-(सो. द्विमीढ़.) पूरुवंशीय हस्तिन् राजा में स्थापित हुए अंग, वंग आदि आनव वंशों में हुआ। के अजमीढ एवं द्विमीढ़ नामक दो पुत्र थे, जिनमें से अनुवंशीय सम्राट महामनस् को उशीनर एवं तितिक्षु नामक | अजमीढ हस्तिनापुर का राजा हो गया, एवं द्विमीढ ने स्वतंत्र ११४७ Page #1169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्विमीद वंश राजवंश की स्थापना की, जो द्विमीढ राजवंश नाम से प्रसिद्ध हुआ (ह. वं. १.२० विष्णु. ४.१९.१३, भा. ९.२१, २७ - ३०; वायु. ९९.१८४; १९३० मत्स्य. ४९. ७०-७९ ) । जनमजेय राजा के पश्चात् यह वंश कुरुवंश में शामिल हुआ। वायु में प्राप्त द्विमवंशीय राजाओं के नाम एवं वंशक्रम की तालिका पौराणिक राजवंशों की नामावलि दी गयी है । मत्स्य एवं हरिवंश में इस राजवंश की स्थापना अजमीढ राजा के द्वारा की जाने का निर्देश गलती से किया गया है। विष्णु में द्विमीट राजा को भल्लाट राजा का पुत्र कहा गया है, जो निर्देश भी अनैतिहासिक प्रतीत होता है। पौराणिक राजवंश वायु एवं विष्णु में प्राप्त इस वंश की नामावलि में उन्नीस राजाओं के नाम प्राप्त है। विष्णु भागवत एवं गरुड में इनमें से सुबर्मन्, सार्वभौम, महत्पौरव एवं रुक्मरथ राजाओं के नाम अप्राप्य हैं। भागवत में उग्रायुध राजा को नीप कहा गया है। इस राजा ने महाटपुत्र जनमेजय राजा का वध कर दक्षिण पांचाल देश की राजगरी प्राप्त की। पश्चात् भीष्म ने उग्रायुध राजा का वध किया | नीप वंश--- (सो. पू.) इस वंश की स्थापना पार राजा के पुत्र नीप राजा ने की। इस वंश में उत्पन्न हुए जनमेजय दुर्बुद्धि नामक कुलांगार राजा का उग्रायुध ने वध किया, एवं इस प्रकार नीपवंश नष्ट हो कर द्विमीढवंश में सम्मीलित हुआ (मत्स्य. ४९; ह. वं. १.२० ) 1 नील वंश -- उत्तर पांचाल देश का एक सुविख्यात राजवंश, जो अजमीदपुत्र नील के द्वारा स्थापित किया गया था। इस वंश में उत्पन्न हुए नील से लेकर पृषत् तक के सोलह राजाओं का निर्देश पुराणो में अनेक स्थानों पर प्राप्त है (वायु. ९३.५५ - १०४; ब्रह्म. १३.२-८; ५०-६२: ८०-८१३ . ६ १.२०.३१-३२ विष्णु. ४. १९; मा. ९.२० - २१९ म. आ..८९-९०९ मत्स्य. ४९. १-४२ ) । इस वंश के भम्यश्व राजा को 'पांचाल' सामूहिक नाम धारण करनेवाले पाँच पुत्र थे, इसी कारण इनके राज्य को ' पांचाल ' नाम प्राप्त हुआ । यह राजवंश बहुत ही महत्त्वपूर्ण माना जाता है, क्यों कि, इस वंश में उत्पन्न हुए मुद्गल, वध्यश्व, दिवोदास, सुदास, च्यवन, सहदेव, सोमक, पिजवन आदि राजाओं का निर्देश वैदिक साहित्य में प्राप्त है। पूरु वंश किया, एवं दक्षिण पांचाल देश का राज्य उसे दे दिया । इसी वंश की एक शाखा ( अहल्या- शतानंद ) आगे चल कर 'आंगिरस ब्राह्मण' बन गयी । पुरूरवस वंश - पुरुरव राजा एवं मेनुकन्या इ से उत्पन्न 'सोमवंश' का नामांतर । पुरूरवम् से ले कर आयु, नहुष, ययाति, एवं यदु तक का राजवंश पुरूरवस् वंश (सो. पुरूरवस्. ) नाम से सुविख्यात है । पुरूरवम् से ले कर आयुपुत्र अनेनस् तक का वश 'आयु वंश' (सो. आयु ) नाम से सुविख्यात है । :-- ऋक्ष, पूरु वंश - ( सो. पूरु.) ययातिपुत्र पुरु से उत्पन्न हुआ वंश पूरु वंश नाम से सुविख्यात है। इस वंश के तीन प्रमुख भाग माने जाते हैं : १. सो. एरु, जिसमें पर ने ले कर अजमीढ तक के राजा समाविष्ट थे; २. सो. जिसमें अजमीढ़ से से कर कुरुप के राजा समाजि ३. सो. कुरु, अथवा सो जल, जिसमें कुरुपुत्र अह्न से ले कर पाण्डवों तक के राजा समाविष्ट थे । इन तीनों वंशों की जानकारी पौराणिक साहित्य में प्राप्त है (बा. ९३.५५१०४ ब्रह्म. १२.२-८३५०-६३९८०-८१ ६.१ २०.३१-२२ विष्णु. ४.१९ . ९२०-२१ म. आ. ८९-९०९ मत्स्य. ४९.१-४२ ) । इस वंश का अंतिम राजा द्रुपद था, जिसे जीत कर द्रोण ने उमर पांचाल देश का राज्य अपने आधीन כי ( १ ) सो. पूरु. वंश -- इस वंश के मतिनार राजा तक सभी पुराणों में एकवाक्यता है। किन्तु महाभारत में प्राप्त वंशावलि कुछ अलग ढंग से दी गयी है । वहाँ रौद्राश्व एवं रुचे राजाओं के नाम अप्राप्य है, एवं अहंयाति तथा मतिनार राजाओं के बीच निम्नलिखित दस राजाओं का समावेश किया गया है: २ जवान अवाचीन; ४. अरिह; ५. महामाम; ६. अयुतानयिन्; ७. अक्रोधन; ८. देवातिथिः ऋ १० । किन्तु महाभारत के द्वारा दी गयी यह नामावलि अनैतिहासिक प्रतीत होती है, क्योंकि वहाँ इन राजाओं के द्वारा अंग कलिंग एवं विदर्भ राजकन्याओं के साथ विवाह करने का निर्देश प्राप्त है, जो राज्य इस काल में अस्तित्व में नहीं थे। इससे प्रतीत होता है कि, इन राजाओं को पूरुवंश के तृतीय विभाग (सो. कुरु) में मुख्य ए ३. के दरम्यान अंतर्भूत करनेवाली पौराणिक परंपरा सहीं प्रतीत होती है । तंसु एवं दुष्यंत के दरम्यान उत्पन्न हुए राजाओं की नामावलि महाभारत एवं पौराणिक साहित्य में एवं अस्पष्ट रूप से प्राप्त है। पौराणिक साहित्य में दुष्यंत राजा की मातामही का नाम इलिना दिया गया है। ११४८ Page #1170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूरु वंश प्राचीन चरित्रकोश यदु वंश महाभारत में उसी इलिना का निर्देश 'इलिन (अनिल) | । बभ्रु वंश-बभ्रु दैवावृध नामक यादवराजा के द्वारा राजा के नाम से किया गया है। स्थापन किये गये इस वंश के नृप भोज मर्तिकावतिक नाम (२)सो. ऋक्ष, वंश-- हस्तिन् राजा को अजमीढ एवं से सुविख्यात थे (ब्रह्म. १९.३५-४५)। यह वंश यादवद्विमीढ नामक दो पुत्र थे । इसमें से अजमीढ एवं ऋक्ष | वंशांतर्गत क्रोष्टु वंश की ही उपशाखा माना जाता था से ले कर कुरु तक का वंश ऋक्ष वंश (सो. ऋक्ष) नाम | (हैं. व. १.३७)। से सुविख्यात था । इस शाखा के राजाओं की नामावलि भजमान वंश-(सो. क्रोष्ट.) यादव राजा अंधकके संबंध में महाभारत एवं पुराणों में एकवाक्यता है, पुत्र भजमान के द्वारा स्थापित इस वंश को अंधक वंश किन्तु फिर भी इन दोनों में प्राप्त नामावलि अपूर्ण सी नामान्तर भी प्राप्त था (यदु देखिये; ब्रह्म. १५.३२प्रतीत होती है । विशेष कर ऋक्ष राजा के पूर्वकालीन एवं | ४५, विष्णु, ४.१४; भा. ९.२४)। उत्तरकालीन राजाओं के संबंध में वहाँ प्राप्त जानकारी भरत वंश-(सो. पूरु.) पूरुवंशीय सम्राट भरत राजा अत्यंत संदिग्ध प्रतीत होती है। आगे चल कर ऋक्ष के. के वंश में उत्पन्न हुई पूरुवंश की सारी शाखाएँ भरतवंश से ही कुरुवंश का निर्माण हुआ। . वंशीय कहलाती थी। इन उपशाखाओं में अजमीढ शाखा, (३) सो. कुरु.वंश--कुरुवंश की स्थापना करनेवाले कुरु । द्विमीढ़ शाखा एवं उत्तर एवं दक्षिण पांचाल के पुरुवंशीय राजा को परिक्षित् , जह्न एवं एवं सुधन्वन् नामक तीन पुत्र राजवंश समाविष्ट थे (वायु. ९९.१३४, मत्स्य. २४.७१: थे। इनमें से परिक्षित राजा को जनमेजय ( प्रथम ) नामक | ब्रहा. १३.५७)। पुत्र, एवं श्रुतसेन एवं भीमसेन नामक पौत्र थे। परिक्षित् भोज वंश-(सो. सह.) हैहय वंश की पाँच उपराजा के इन पौत्रों का निर्देश राजा के नाते कहीं भी प्राप्त | शाखाओं में से एक । अन्य चार उपशाखाओं के नाम नहीं है। इससे प्रतीत होता है कि, राजा के ज्येष्ठ पुत्र वीतिहोत्र, शांति, अवंती एवं तुण्डिकेर थे (हैहय एवं हो कर भी उनका राज्याधिकार नष्ट हो चुका था। इस बभ्रु वंश देखिये)। प्रकार परिक्षित् (प्रथम ) के पश्चात् जह्न राजा के पुत्र सुरथ | मगध वंश-इस राजवंश की स्थापना कुरुपुत्र सुधन्वन् राजा के वंश में उत्पन्न हुए वसु राजा के द्वारा की गयी हस्तिनापुर का राजा बन गया, एवं उसी राजा से कुरुवंश थी। वसुराजा की मृत्यु के पश्चात् उसका पूर्वभारत में को कुरु माम प्राप्त हुआ। सुरथ से ले कर अभिमन्यु तक के राजाओं के संबंध में पौराणिक साहित्य में काफी एक स्थित साम्राज्य उसके निम्नलिखित पुत्रों में निम्नप्रकार बाँट दिया गया :- १. बृहद्रथ (मगध ); २. प्रत्यग्रह वाक्यता है। (चेदि); ३. कुशांब (कौशांबी); ४. यदु (करूष); कुरु राजा का तृतीय पुत्र सुधन्वन् के वंशज वसु ने मगध ५. मावेल्ल (मत्स्य)। एवं चैद्य राजवंशों की स्थापना की (मगध वंश देखिये)। मगध राजवंश की सविस्तृत जानकारी पौराणिक साहित्य पौराणिक साहित्य में निम्नलिखित राजाओं को कौरव में प्राप्त है (विष्णु. ४.१९.१९; वायु. ९९.२१७-२१९; . कहा गया है, किन्तु कौरव वंशावलि में उनका नाम अप्राप्य | भा. ९.२२. ४९; ह वं, १.३२, ८८.९८)। इनमें से है:- १. अभिप्रतारिन् काक्षसे नि; २. उचैःश्रवस्; ब्रह्म की वंशावलि बृहद्रथ राजा के पौत्र ऋषभ राजा तक ३. कौपेय; ४. पौरव; ५. बाह्निक प्रातिपीय; ६. ब्रह्मदत्त । दी गयी है। विष्णु एवं भागवत में जरासंध को बृहद्रथ चैकितानेय । राजा का पुत्र कहा गया है। किन्तु वस्तुतः वह बृहद्रथ प्रतिक्षत्र वंश--इस वंश की स्थापना क्षत्रवृद्धपुत्र राजा की तेरहवी पीढ़ी में उत्पन्न हुआ था। प्रतिक्षत्र राजा के द्वारा हुई थी (क्षत्रवृद्ध देखिये)। यदुवंश अथवा यादव वंश--इस सुविख्यात राजपौराणिक साहित्य में इस वंश का निर्देश अनेक स्थानों पर | वंश का प्रारंभ यदुपुत्र क्रोष्ट्र के द्वारा हुआ। कालक्रम की प्राप्त है (भा. ९.१७.१६-१८ वायु. ९३.७-११; ब्रह्म. दृष्टि से इस वंश के कालखण्ड माने जाते हैं:-- १. क्रोष्ट ११.२७-३१; ह. वं. १.२९.१-५)। से सात्वत तक; २. सात्वत से प्रारंभ होनेवाला बाकी बालेय क्षत्रिय वंश-बलि आनव राजा के द्वारा | उर्वरित भाग। पूर्व भारत में स्थापना किये गये अंग, वंग आदि वंशों से (१) क्रोष्टु से सात्वत तक-इस वंश की जानकारी उपन्न लोगों का सामुहिक नाम (अनु वंश देखिये)। बारह पुराणों में प्राप्त है (वायु. ९६.२५५, ब्रह्मांड. ३. ११४९ Page #1171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यदुवंश पौराणिक राजवंश रजि वंश की। ७०.१४; वायु, ९४-९६; ब्रहा. १३.१५३-२०७; ह. (इ) अंधक शाखा-अंधक राजा को कुल चार पुत्र वं. १.३६; २.३७-३८; पा. स. १२-१३; विष्णु. ४. थे, जिनमें कुकुर एवं भजमान प्रमुख थे। इन दो पुत्रों १२; भा. ९.२३.३०-३४)। महाभारत में भी इस वंश ने क्रमशः कुकुर एवं अंधक नामक राजवंशों की स्थापना की जानकारी प्राप्त है (म. अनु. २५१.२६)। की। ये दोनों वंश मथुरा प्रदेश में राज्य करते थे, एवं उनमें कोष्ट से ले कर परावृत्त तक के राजाओं के संबंध में | क्रमशः कंस एवं कृष्ण उत्पन्न हुए थे। सभी पुराणों में प्रायः एकवाक्यता है। फिर भी कई (४) वृष्णि शाखा (कोष्ट शाखा)---वृष्णि राजा को पुराणाम पृथुश्रवस्, उशनस् , रुक्मकवच, एवं नित्ति सुमित्र (अनमित्र), युधाजित,देवमीढप एवं अनमित्र राजाओं के पश्चात् एक पीढ़ी ज्यादा दी गयी है। परावृत्त । (माद्रीपुत्र ) नामक चार पुत्र थे, जिन्होने चार स्वतंत्र राजा को दो पुत्र थे, जिनमें से ज्यामघ नामक उनका वंशों की स्थापना की। इन वंशों में उत्पन्न हुए प्रमुख यादव कनिष्ठ पुत्र यदुवंश का वंशकर राजा साबित हुआ। उसने निम्न प्रकार थे:-१. सुमित्र शाखा-सत्राजित् , भंगकार, एवं उसके पुत्र विदर्भ ने सुविख्यात विदर्भराज्य की स्थापना २. युधाजित् शाखा-श्वफल्क, अक्रूर; ३, देवमीष की। विदर्भराजा के ज्येष्ठपुत्र रोमणद ने विदर्भ का राज्य शाखा--वसुदेव, बलराम एवं कृष्ण; ४. अनमित्र (मादीआगे चलाया। उसी के वंश में ऋथ (भीम), देवक्षत्र, पुत्र) शाखा--शिनि, युयुधान सात्यकि, अमंग आदि । मधु आदि राजा उत्पन्न हुए, एवं उसी वंश में उत्पन्न हुए ____ अन्य शाखाएँ-उपर्युक्त यादव राजाओं में से शूरसात्वत राजा ने इस वंश का वैभव चरम सीमा पर पुत्र वसुदेव का बंश बसुदेव वंश (सो. बम.) नाम से पहुँचाया। मधु से ले कर सात्वत तक के राजाओं के सुविख्यात है। अंधकवंश ही एक उपशाखा विदरथवंश (सो. नामावलि के संबंध में पुराणों में एकवाक्यता नहीं है। विद्.)नाम से सुविख्यात हैं, जिसमें विदूरथपुत्र राजाधिदेव . विदर्भ राजा के द्वितीय पुत्र का नाम कौशिक था, से ले कर तमौजस तक के राजा समविष्ट थे। जिसने चेदि देश में नये राजवंश की स्थापना की। वायु एवं मत्स्य में यादववंश की क्रमशः ग्यारह, एवं विदर्भ राजा के तृतीय पुत्र का नाम लोमपाद था, . | एक सौ शाखाएँ दी गयी है (वायु. ९६.२५५, मत्स्य, जिसके वंश में उत्पन्न हुए तेरह राजाओं की नामावलि ४७.२५-२८)। भागवत एवं कर्म में निम्न प्रकार दी गयी है:-१ लोमपाद: इन शाखाओं का विस्तार केवल मथुरा में ही नहीं, २. बभ्र; ३. आहृति; ४. श्वेत; ५. विश्वसह; ६. कौशिकः बल्कि दक्षिण हिंदुस्थान में भी हुआ था (ह. व. २. ७. सुयंत; ८. अनल; ९. श्वेनि; १०. द्युतिमंत; ११. ३८.३६-५१)। वपुष्मन्त; १२. बृहन्मेधस् ; १३. श्रीदेव; १४. वीतरथ यदु राजा का अन्य एक पुत्र सहस्रजित् ने सुविख्यात (भा. ९.२४.१-२)। किन्तु इस वंश का राज्य कहाँ था, हैहयवंश की स्थापना की, जो यादववंश की ही एक इस संबंध में कोई भी जानकारी वहाँ नहीं दी गयी है। शाखा मानी जाती है (हैहय वंश देखिये)। (२) सात्वत के पश्चात-(सो. वृष्णि.) सात्वत राजा ने "पौराणिक वंशों की तालिका" में दी गयी यादववंश इक्ष्वाकुवंशीय शत्रुघातिन् राजा से मथुरा नगरी को जीत की जानकारी विष्णुपुराण का अनुसरण कर दी गयी है। कर वहाँ अपना राज्य प्रस्थापित किया । सात्वत राजा को | अन्य पुराणों में प्राप्त जानकारी वहाँ कोष्टक में दी भजमान, देवावृध, वृष्णि, अंधक नामक चार पुत्र थे, गयी है। जिनके द्वारा प्रस्थापित किये गये वंश वृष्णि (सो. वृष्णि.) ययाति वंश--ययाति राजा के यदु, पूरु, तुर्वसु, सामूहिक नाम से सुविख्यात थे। इस वंश की निम्नलिखित | द्रुहयु, अनु आदि पाँच पुत्रों के द्वारा उत्पन्न हुए राजशाखाएँ थी: वंश 'ययाति बंश' सामूहिक नाम से विख्यात ये (अ) भजमान शाखा-भजमान एवं उसके वंश में (वायु. ९३.१५-२८)। उत्पन्न हए अन्य राजा मथुरा में ही राज्य करते थे। रजि वंश-आयु राजा के रजि नामक पुत्र के द्वारा (आ) देवावृध शाखा--देवावृध एवं उसका पुत्र बभ्र उत्पन्न हुआ वंश 'रजि वंश' नाम से विख्यात है। आगे ने मार्तिकावत नगरी में राज्य करनेवाले भोज राजवंश | चल कर इसी वंश से 'राजेय क्षत्रिय' नामक लोकसमूह की स्थापना की। | का निर्माण हुआ (वायु. ९२.७४-१)। ११५० Page #1172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रम्भ वंश प्राचीन चरित्रकोश प्रियव्रत वंश रम्भ वंश-आयुपुत्र रम्भ के द्वारा स्थापन किया गया हैहय वंश (सो. सह.)--यदुराजा के सहस्रजित् वंश 'रम्भवंश' नाम से सुविख्यात है (भा. १०.१७.१०)। नामक पुत्र के द्वारा स्थापित किये गये इस राजवंश की इस वंश के संबंध में अन्य कोई भी जानकारी उपलब्ध जानकारी पौराणिक साहित्य में सर्वत्र प्राप्त है (ब्रह्मांड. नहीं है। ३.६९.३; वायु. ९४.१-१०; विष्णु. ४.११.३; भा. ९. वसुदेव वंश (सो. वसु.)-यादववंशांतर्गत देवमीढुष २३.२०-२८; ब्रह्म. १३.१५४; ह. वं. १.३३)। इस शाखा में से सूरपुत्र वसुदेव राजा का वंश 'वसुदेव वंश' | वंश का मुख्य राज्य मालवा में नर्मदा नदी के किनारे नाम से सुविख्यात है (ब्रह्म. १५.३०)। माहिष्मती नगरी में था, एवं उनकी वीतिहोत्र, शयाति, वासव वंश-कुरुवंशीय सुधन्वन् राजा के वसु नामक भोज, आनर्त (अवंती) एवं तुण्डिकेर (कुण्डिकेर ) ये पुत्र ने पूर्व हिंदुस्थान में स्थित यादवों का चेदि साम्राज्य पाँच शाखाएँ प्रमुख थी। हरिवंश एवं ब्रह्म के अनुसार, जीत लियो, एवं उसे अपने पाँच पुत्रों में बाँट दिया। वे भरत लोगों का अंतर्भाव भी हैहय समूह' में किया पाँच वंश वासव वंश नाम से सुविख्यात थे। जाता था। विदूरथ वंश (सो. विदू.)-सात्वतवंशांतर्गत भजमान ___ इनमें से प्रमुख राजा का नाम तालजंघ था। किन्तु .. शाखा में से विदूरथपुत्र राजाधिदेव से ले कर तमोजस् तक आगे चल कर वह सारे हैहय वंश की उपाधि बन गयी । के राजा विदरथवंशीय (सो. विद.) कहलाते हैं (यद भार्गव ऋषि इन लोगों के पुरोहित थे, एवं इनका उपास्य . देखिये)। . दैवत दत्त आत्रेय था। इसके अतिरिक्त वसिष्ठ, पुलस्त्य विष्णु वंश-यादववंशीय कृष्णवंश को वायु में विष्णु आदि ऋषियों से भी इनका घनिष्ठ संबंध था। वंश कहा गया है (वायु. ९६-९८)। परशुराम जामदग्न्य से इसका प्राणांतिक शत्रुत्व हुआ • वृष्णि वंश-यादववंशांतर्गत सात्वते राजा के वृष्णि | था, जिसने इन्हें जड़मूल से उखाड़ देने की कोशिश की नामक पुत्र का वंश वृष्णि नाम से सुविख्यात है (ब्रह्म. | थी। किन्तु अन्त में अपने इन प्रयत्नों में परशुराम १४.२-१५:३१, ह. वं. १.३४, भा. ९.२४.१२-१८; | असफल हुआ, एवं इनका अस्तित्व अबाधित रहा। यदुं देखिये)। इस वंश के निम्नलिखित राजा विशेष प्रख्यात . . सहस्रजित वंश (सो. सह.)--यदु राजा के पुत्र | थे:-कार्तवीर्य अर्जुन, एकवीर, कुमार, शशिबिंदु, भूत, सहस्र जित् के द्वारा प्रस्थापित किये गये 'हैहय वंश' शंख । इसी वंश में उत्पन्न हुआ वीतहत्य राजा राज्यभ्रष्ट का नामान्तर (हैहय वंश देखिये)। हो कर भृगुवंश का एक श्रेष्ठ ऋषि बन गया । इसी कारणं .. सात्वत वंश--यदुवंशांतर्गत इस वंश शाखा का | पौराणिक साहित्य में उसे राजा न समझ कर उसके वंशसंस्थापक सात्वत माना जाता है। इस वंश की भजमान, | शाखा की कोई भी जानकारी वहाँ नहीं दी गयी है। देववृध, अंधक एवं वृष्णि नामक चार शाखाएँ मानी | महाभारत में वीतहव्य से ले कर शौनक तक के वंश की जाती हैं (म. शां. ३३६.३१-४९)। सात्वत धर्म की जानकारी प्राप्त है । कई अभ्यासकों के अनुसार, वीतहव्य जानकारी भी महाभारत में प्राप्त है। ही हैहयवंश का अंतिम राजा माना गया है। . (३) स्वायंभुव मनु वंश (स्वा.) प्राचीन भारतखण्ड के ब्रह्मावर्त नामक प्रदेश में स्थित प्राप्त है ( भा. ४.८ )। वहाँ हविर्धान राजा के पुत्रों बर्हिष्मती नगरी का सर्वाधिक प्राचीन राजा स्वायंभुव मनु | तक इस वंश की जानकारी दी गयी है । इस वंश में ध्रुव, था. जिसका वंश 'स्वायंभुव मनु बंश' नाम से सुविख्यात | पृथु वैन्य आदि सुविख्यात राजा उत्पन्न हुए थे। है। इस वंश की उत्तानपाद एवं प्रियव्रत नामक दो नाभि वंश--(नामि.) स्वायंभुव मनुपुत्र प्रियव्रत शाखाएँ प्रमुख मानी जाती हैं। राजा के कनिष्ठ पुत्र नाभि का स्वतंत्र वंश विष्णुपुराण में उत्तानपाद वंश-(स्वा. उत्तान.)--स्वायंभुव मन दिया गया है (विष्णु. २.१)। के उत्तानपाद नामक ज्येष्ठ पुत्र के द्वारा प्रस्थापित किये प्रियव्रत वंश-(स्वा. प्रिय.)-स्वायंभुव मनु के गये उत्तानपाद वंश की सविस्तृत जानकारी भागवत में कनिष्ठ पुत्र प्रियव्रत के द्वारा प्रस्थापित किये गये इस ११५१ Page #1173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियव्रत वंश पौराणिक राजवंश भविष्य वंश वंश की सविस्तृत जानकारी भागवत में दी गयी है द्वीप); ६. मेधातिथि ( शाकदीप); ७. वीतिहोत्र ( भा. ५.१; विष्णु. २.११)। प्रियवत राजा के कुल सात (पुष्करद्वीप)। पुत्र थे, जिनमें उसने अपने सप्तद्वीपात्मक पृथ्वी का प्रियवत राजा के ज्येष्ठ पुत्र आग्नीध्र का वंश भी भागवत राज्य विभाजित किया:- १. आनीध्र ( जंबुदीप ); में दिया गया है, जहाँ उसके पुत्रों के नाम निम्न प्रकार २. इध्मजिह्व (पक्षदीप); ३. यज्ञबाहु ( शाल्मलि- बताये गये है:--१. इलावृत; २. रम्यक; ३. हिरण्य; द्वीप ); हिरण्यरेतर (कुशद्वीप); ५. घृतपृष्ठ (कौंच- ४. कुरु, ५ भद्राश्वः ६. किंपुरुषः ७. नाभि । (४) भविष्य वंश (भविष्य.) कलियुग का प्रारंभ-पौराणिक साहित्य के अनुसार, में तत्कालीन सूत एवं मगध लोगों में प्रचलित राजवंशों के भारतीय युद्ध के अंतिम दिन त्रेतायुग की समाप्ति सारे इतिहास की जानकारी ग्रथित की गयी थी। कालो हो कर कलियुग का प्रारंभ हुआ। डॉ. फीट के परांत भविष्य पुराण के इसी संस्करण में उत्तरकालीन अनुसार, इस युग का प्रारंभ भारतीय युद्ध के अंतिम राजवंशों की जानकारी प्रथित की जाने लगी. एवं इस दिन नहीं, बल्कि कृष्ण के निर्माण के दिन हुआ था, प्रकार इस एक ही ग्रंथ के अनेकानेक संस्करण उत्तरकाल जिसका काल भारतीय युद्ध के बीस साल बाद माना जाता में उपलब्ध हुए। है। इसी वर्ष में युधिष्ठिर ने राज्यत्याग कर हस्तिनापुर भविष्य पुराण के इन अनेकानेक संस्करणों को आधारका राज्य अपने पौत्र परिक्षित को दे दिया। इस प्रकार भूत मान कर विभिन्न पुराणों में प्राप्त भविष्यवंशों की परिक्षित के राज्यारोहण से ही कलियुग का प्रारंभ होता जानकारी ग्रथित की गयी है। इस प्रकार मस्य पुराण में है, ऐसा डॉ. फीट का अभिमत है। किन्तु पौराणिक ई. स. ३ री शताब्दी के मध्य में उपलब्ध भविष्यपुराण साहित्य में सर्वत्र भारतीय युद्ध का अंतिम दिन ही के संस्करण का आधार लिया गया है, एवं उसमें आंध्र कलियुग का प्रारंभ माना गया है। राजवंशों के अधःपतन के समय तक के राजाओं की . पौराणिक साहित्य में प्राप्त प्राचीन भारतीय राजाओं जानकारी दी गयी है। . की वंशावलियाँ भारतीय युद्ध से ही समाप्त होती हैं। इसी प्रकार वायु एवं ब्रह्मांड में ३री शताब्दी के मध्य इस युद्ध के उत्तरकाल में भारतवर्ष में उत्पन्न हुए राजाओं में उपलब्ध भविष्य पुराण के संस्करण का आधारग्रंथ के की जानकारी केवल मत्स्य, वायु, ब्रह्मांड, विष्णु, भागवत नाते उपयोग किया हुआ प्रतीत होता है। इसी कारण इन एवं गरुड पुराणों में ही केवल दी गयी है। दोनों ग्रंथों में चंद्रगुप्त (प्रथम) के अंत तक (इ. स. ३३०) यह जानकारी पौराणिक साहित्य में भूतकाल में उत्पन्न के राजवंशों का निर्देश पाया जाता है। इस प्रकार इन ग्रंथों हए राजाओं के नाते नहीं, बल्कि भविष्य में उत्पन्न होने में प्रयाग, साकेत, मगध इन देशों पर गुप्त राजाओं का वाले राजाओं के भविष्यवाणी के रूप में दी गयी है, आधिपत्य होने का निर्देश प्राप्त है, एवं इन देशों के जिसका प्रणयन श्री व्यास के द्वारा किया गया है । इसी परवर्ती प्रदेश पर नाग, मणिधान्य लोगों का राज्य होने कारण, पौराणिक साहित्य में प्राप्त कलियुग के राजाओं का निर्देश स्पष्ट रूप से प्राप्त है । समुद्रगुप्त के भारतव्यापी की जानकारी को 'भविष्य वंश' सामूहिक नाम दिया साम्राज्य का निर्देश वहाँ कहीं भी प्राप्त नहीं है, जिससे गया है। इन पुराणों की रचना का काल निश्चित हो जाता है। " भविष्य राजवंशों का मूल स्रोत---पार्गिटर के अनुसार विष्णु एवं भागवत पुराण में चतुर्थ शताब्दी के अंत कलियुगीन राजाओं की पुराणों में प्राप्त बहुतसारी जानकारी में उपलब्ध भविष्य पुराण का उपयोग किया गया है, सर्वप्रथम 'भविष्य पुराण में ग्रथित की गयी थी, जिसकी एवं उसका रचनाकाल नौवीं शताब्दी माना जाता है। रचना दूसरी शताब्दी के पश्चात् मगध देश में पाली अथवा गरुडपुराण में भी इसी भविष्य पुराण का उपयोग किया अर्धमागधी भाषा में, एवं स्वरोष्ट्री लिपि में दी गयी थी। गया है। किन्तु इस पुराण का रचनाकाल अनिश्चित है। भविष्य पुराण के इस सर्वप्रथम संस्करण की रचना आंध्र महत्त्व-भविष्य वंश में निर्दिष्ट राजवंशों में से आंध्र, . राजा शातकणि के राज्यकाल में (द्वितीय शताब्दी का मगध, प्रद्योत, शिशुनाग आदि वंशो की ऐतिहानिकता अंत ) की गयी थी। भविष्यपुराण के इस आद्य संस्करण प्रमाणित हो चुकी है। इस कारण इन वंशों की पौराणिक ११५२ Page #1174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भविष्य वंश प्राचीन चरित्रकोश काण्वायन वंश साहित्य में प्राप्त जानकारी इतिहासाध्यायन की दृष्टि से | (१८), एवं २४ दी गयी है । ब्रह्मांड, भागवत एवं विष्णु काफी महत्त्वपूर्ण मानी जाती है। किन्तु अन्य कई वंश | के अनुसार, इन राजाओं ने ४५६ वर्षों तक, एवं मत्स्य ऐसे भी है, जिनकी ऐतिहासिकता अनिश्चित एवं | के अनुसार ४६० (३६०) वर्षों तक राज्य किया। इन विवादग्रस्त है। राजाओं का काल ई. स. पू. २२०-ई. स. २२५ माना भविष्य पुराण का उपलब्ध संस्करण--भविष्यपुराण | | गया है। के उपरिनिर्दिष्ट संस्करणों में से कोई भी संस्करण आज इस वंश में उत्पन्न राजाओं की नामावलि, एवं उनका उपलब्ध नहीं है । इस ग्रन्थ के आज उपलब्ध संस्करण | संभाव्य राज्यकाल निम्न प्रकार है:--१. सिमुक ( सिंधुक, में बहुत सारी प्राचीन ऐतिहासिक सामग्री लुप्त | शिप्रक)-२३ वर्ष; २. कृष्ण (भात )- १० वर्ष; हो चुकी है, एवं जो भी सामग्री आज उपलब्ध है, ३. श्रीशातकर्णि (श्रीमल्लकर्णि )-१०; ४. पूर्णोत्संग उसमें मध्ययुगीन एवं अर्वाचीन कालीन अनेकानेक | (पौर्णमास )-१८ वर्षः ५. स्कंधस्तंभ-१८ वर्ष; ६. राजाओं की जानकारी भविष्यकथन के रूप में इतनी भद्दी | शातकर्णि (शांतकर्णि, सातकर्णि )-५६ वर्ष; ७. लंबोदरएवं अनैतिहासिक पद्धति से दी गयी है कि, इतिहास के | १८ वर्ष; ८. आपीतक (आपीलक, दिविलक)-१२ वर्ष; नाते उसका महत्त्व नहीं के बराबर है। उपलब्ध भविष्य | ९. मेघस्वाति-१८ वर्ष; १०. स्वाति (पटुमत , अटमान् )पुराण के प्रतिसर्ग पर्व में निर्दिष्ट किये गये मध्ययुगीन | १८ वर्ष; ११. स्कंदस्वाति-७ वर्षः १२. मृगेंद्रस्वातिकर्णएवं अर्वाचीन प्रमुख राजाओं कि एवं अन्य व्यक्तियों की | ३ वर्षः १३. कुंतलस्वातिकण-८ वर्ष, १४. स्वातिवर्णनामावलि निम्नप्रकार है --अकबर (४.२२); आदम | १ वर्ष; १५. पुलोमावी- ३६ वर्षः १६. अरिष्टकर्ण (१.४); इव्र ( २.५); खुर्दक (४.२२); गंगासिंह (३. (अनिष्टकर्ण )- २५ वर्ष; १७. हाल- ५ वर्ष १८. ४-५, ४.१); गजमुक्ता ( ३.६); गववर्मन् (४.४); मंतलक (पत्तलक, मंदुलक )-७ वर्ष १९. पुरिकर्षण गोविंदशर्मन् (४.७); गोरख ( ३.२४; ४.१२ ); घोर- | (प्रविल्लसेन, पुरीषभीरु )-२१ वर्षः २०. सुंदरशात्कर्णि वर्मन् (४.४); चंडिका ( ३.१५); चतुर्वेदिन् (२.६; (सुनंदन )-१ वर्षः २१. चकोरशातकर्णि-६ माह ४.२१); चन्द्रकान्त ( ३.३२); चंद्रगुप्त चपहानि (४. | २२ शिवस्वाति-२८ वर्षः २३. गौतमीपुत्र शातकर्णि २) चंद्र देय (४.३); चंद्रभट्ट (३.३२); चंद्रराय (४. (गोतमीपुत्र ); २४. पुलोमत्-२८ वर्ष; २५. शातकर्णी '२.); चरउ (२.४) चामुंड (३.९); चित्रगुप्त (४. (शिवशातकर्णि)-२९ वर्ष; २६. शिवश्री-७ वर्ष २७. १८); चित्रिणी (४.७); चूडामणि (२.१२); जयचंद्र | शिवस्कंध- ३ वर्ष २८. यशश्री शातकर्णि-२९ वर्ष (३.६; ४.३); जय देव (४.९.३४-६६; ); जयंत | ३०. विजय- ६ वर्ष; ३१. चंडश्री- १० वर्ष; ३२. .(.३.२३); जयपाल (४.३); जयवान् (३.४१); | पुलोमत् (द्वितीय)-७ वर्ष । जयशर्मन् (३.५); जयसिंह (४.२ ); जूज (१.२५); | उपर्युक्त राजाओं में से पुरुषभीरु राजा से उत्तरतालन ( ३.७); दुमुख (८-९); नादर (४.२२); | कालीन राजाओं की ऐतिहासिकता अन्य ऐतिहासिक न्यूह (१.५); पद्मिनी (३.३०); पृथ्वीराज (३.५-६); | साधनों के द्वारा सिद्ध हो चुकी है। मेघस्वाति राजा के प्रमर (१.६, ४.१); बाबर (४.२२); बुद्धसिंह (२. | द्वारा २७ ई. पू. में काण्वायन राजाओं का विच्छेद किये ७); मध्वाचार्य (४.८; १९); महामत्स्य (४.२२); | जाने का निर्देश प्राप्त है। महामद (३.३); लार्डल (४.२०); विकटावती (४. | | काण्वायन (शंगभृत्य ) वंश-इस वंश का संस्थापक २२); शंकराचार्य (४.२२)। वसुदेव था, जो शंगवंश का अंतिम राजा देवभूति उपयुक्त व्यक्तियो में से जूज, महामद एवं विकटावती ( देवभूमि, क्षेमभूमि ) का अमात्य था। उसने देवभूति क्रमशः जीझस खाइस्ट, महंमद पैगंबर, महारानी को पदच्युत किया,एवं वह स्वयं काण्वायन वंश का पहला व्हिक्टोरिया के संस्कृत रूप हैं। राजा बन गया। भविष्यवंश-पौराणिक साहित्य में प्राप्त भविष्यवंशों | इस वंश के कुल चार राजा थे, जिन्होंने ४५ वर्षों की जानकारी अकारादि क्रम से नीचे दी गयी है:- तक राज्य किया। इस वंश का पहला राजा वसुदेव एवं आंध्र (भृत्य) वंश--इस वंश के राजाओं की अंतिम राजा सुशर्मन् था। दक्षिण प्रदेश में उदित आंध्र संख्या मत्स्य, वायु, एवं विष्णु में क्रमशः ३०, २२ लोगों ने सुशर्मन् को राज्यभ्रष्ट किया, एवं इस प्रकार प्रा. च, १४५ ] Page #1175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काण्वायन वंश काण्वायन वंश का राज्य समाप्त हुआ । इस वंश के 'दिन उपादि से प्रतीत होता है कि, पाण्यायन एवा ब्राह्मण थे। इनका राज्यकाल ई. स. ७२-२७ माना जाता है। ,, पौराणिक राजवंश शिशुनाग वंद इस वंश में से सेनाजित राजा के राज्यकाल में मत्स्य, वायु एवं ब्रह्मोद पुराणों की रचना की गयी थी। वृहद्रथ से लेकर रिपुंजय तक इस वंश में कुल बत्तीस राजा हुए, एवं उन्होंने एक हजार वर्षों तक राज्य किया। इनमें से मत्स्य पुराण की रचना के पश्चात् उत्पन्न हुए श्रुतंजय राजा के सोलह राज्य एवं उन्होंने ७२३ क पश्चात् वर्षों राज्य किया । इसके निम्नलिखित राजा प्रमुख :-१. वसुदेव ९ वर्ग भूमिमित्र १४ वर्ष ३. नारायण १२ - - - वर्षः ४ १० वर्ष । नंद वंश-मगधदेश में राज्य करनेवाले इस वंश में कुल नौ राजा हुए, जिन्होंने सौ वर्षों तक राज्य किया। इनका राज्यकाल ४२२ ई. पू. से ३२२ ई.पू. तक माना जाता है। 2 इनका सर्वप्रथम राज्य महापद्म नंद था, जो महानंदिन राजा को एक शुद्ध स्त्री से उत्पन्न हुआ था। उसने ८८ वर्षों तक राज्य किया एवं पृथ्वी के समस्त क्षत्रियों का उच्छेद किया। उसके पश्चात उसके आठ पुत्रों में से सुकल्प आरूढ राजा राजगद्दी पर आमद हुआ, एवं उसके पश्चात् अन्य सात नंदवंशीय राजा हुए। अंत में कौटिल्य नामक ब्राह्मण ने इस वंश को जड़मूल से उखाड़ दिया, एवं मंगल का राज्य मौर्यवंशीय राजाओं के हाथ चला गया। भविष्यपुराण में मंडवंशीय राजाओं की नामावलि निप्रकार दी गयी है। -१ व २ नं परानंद ४. समानंद ५, प्रियानंद ६. देवानंद ७ यशदत्त ८ मौर्यानंद महानंद प्रयोत वंश-मगधदेश के इस राजवंश की स्थापना शुनक ( पुलिक) के द्वारा की गयी थी, जिसने अवंति के राजाओं में से एक राजा का वध कर, अपने पुत्र प्रद्योत को राजारी पर बिठाया। इस वंश में कुल पाँच राजा उत्पन्न हुए थे, जिन्होंने १२८ तक राज्य किया था इनका राज्य ई.पू. ६८९५५२ माना जाता था। ये राजा मगध के बार्हद्रथ वंश के राजाओं से काफी उत्तरकालीन माने जाते हैं । इसके निम्नलिखित राजा प्रमुख माने जाते हैं:१. २३ वर्ष २. पालक २४ वर्ष २. विशाखयूप२० वर्ष ४.२१ वर्ष ५ नदिवर्धन २० वर्ष मगध वंश (द्रवंश ) भारतीय युद्ध के समय इस वंश का जरासंधपुत्र सहदेव राज्य करता था। इस युद्ध में सहदेव के मारे जाने के बाद, उसका पुत्र सोमाधि गिरिव्रज का राजा बन गया । इस प्रकार मगधदेश का 'भविष्यवंश सोमाधि राजा से प्रारंभ होता है, एवं रिपुंजय राधा से समाप्त होता है। इन राजाओं की सविस्तृत जानकारी पौराणिक साहित्य में प्राप्त है, यहाँ इस वंश के केवल प्रमुख राजाओं की जानकारी दी गयी है (३.७४ वा. ९९.२९६२०९ मा २७३ विष्णु. ४.२२: मा. ९.२२) । - 5 इस वंश में उत्पन्न हुए प्रमुख राजाओं के नाम एवं उनमें से हर एक का राज्यकाल निम्नप्रकार था :- १. सोमावि (सोमापि, मारि) ५८ वर्ष २ -- श्रुतश्रवस् (श्रुतवत्) - ६४ वर्ष २. अयुतायु (अप्रतिवर्मनः अयुतायुत) - २६ वर्ष ४. निरमित्र ४५ ५६ वर्ष ६२३ वर्ष ७ सुक्षत्र - बृहत्कर्मन् सेनाजित् ( सेनजित् कर्मजित्) -- २३ वर्ष ८. श्रुतं जय --४० वर्ष ९. विभु (महाबाहु ) २८ व २०१६ वर्ष, वर्ष ११. क्षेम २८ वर्ष १२. मुक्त (अनु) - ६४ वर्ष १२. सुनेत्र (नेत्र) २५ वर्ष १४. (नृपति) ५८ वर्ष १५. मिनेन) २८ को ( ३८ वर्ष ); १६. दृढसेन ( द्युमत्सेन ) - ४८ वर्ष १७. महीनेत्र ( सुमति ) -- ३३ वर्ष १८३२ १९. सुनेत्र ( सुनीत ) - - ४० वर्ष, २० सत्यजित् -- ८३ वर्ष २१. विश्वजित (वीरजित् ) -- २५ वर्ष २२ रिपुंजय -५० वर्ष मौर्य वंश -- मगध देश के इस वंश की स्थापना चंद्रगुप्त मीर्य के द्वारा हुई इस वंश में कुल दस राज थे, जिन्होंने कुल १२० वर्षों तक राज्य किया। इसका शासनकाल ई. स. पू. ३२१-१८४ माना जाता है। इस वंश में निम्नलिखित राजा प्रमुख थे:- १. चंद्रगुप्त२४ वर्ष २. विंदुसार (हसार--२५ वर्ष २ क वर्धन ( अशोक ) - २६ वर्ष; ४. कुनाल ( सुयशस् ) -८ ५ र ८ संपति ७. शालिशुक - १३ वर्ष ८. देवधर्मन्- ७ वर्ष ९. शतबर्मन-८ वर्ष १०.७ वर्ष । शिशुनाग वंश इस पेशका संस्थापक का देश का राजा शिशुनाग था । उसने मगव देश के प्रद्योत वंशीय अन्तिम राजा नन्दिवर्धन को पर १९५४ Page #1176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिशुनाग वंश प्राचीन चरित्रकोश मानवेतर वंश अपना स्वतंत्र राजवंश मगध देश में प्रस्थापित किया। इस वंश में निम्नलिखित राजा प्रमुख थे:-१. पुष्यमित्र इस वंश के कुल दस राजा थे, जिन्होंने ३६० वर्षों तक -३६ वर्ष; २. अग्निमित्र-८ वर्ष; ३. वसुज्येष्ठ-७ वर्ष, राज्य किया । इस वंश का सर्वाधिक सुविख्यात राजा। ४. वसुमित्र-१० वर्ष; ५. अंध्रक-२ वर्षः ६. पुलिंदकअजातशत्रु था, जिसके राज्यकाल में बौद्ध धर्म का ३ वर्षः ७. घोष-३ वर्ष ८. वज्रमित्र-९ वर्षः ९. उदय हुआ। भागवत-३२ वर्ष; १०. देवभूमि-१० वर्ष । इस वंश के निम्नलिखित राजा प्रमुख माने जाते हैं: __अन्य भविष्य वंश-उपर्युक्त प्रमुख वंशों के अतिरिक्त - १. शिशुनाग-४० वर्ष; २. काकवर्ण-३६ वर्ष ३. क्षेम निम्नलिखित 'भविष्य वंशों का निर्देश भी पौराणिक धर्मन्-२० वर्ष; ४. क्षत्रौज्स् (अजातशत्रु प्रथम)-४० वर्ष; साहित्य में पाया जाता है:- १. अवन्ती; २. आभीर; ५. बिंबिसार श्रेणिक-२८ वर्ष; ६. अजातशत्रु द्वितीय ३. ऐक्ष्वाक, जिसका अंतिम राजा सुमित्र माना जाता है; २५ वर्ष; ७. दर्शक-२५ वर्ष; ८. उदधिन्-३३ वर्ष; ९.. | ४. कलिंग; ५; काशी; ६. कुरु; ७. कैलकिल; ८. गर्द भिल; नन्दिवर्धन-४० वर्ष; १०. महानन्दिन्-४३ वर्ष। ९. तुषार; १०. नंद; ११. पंचाल; १२. पौरव, जिनका शंग वंश-इस वंश की स्थापना पुष्यमित्र शुंग ने की अंतिम राजा क्षेमक माना जाता है; १३. मुरुंड; १४. थी, जो मगध देश के अंतिम मौर्यवंशीय राजा बृहद्रथ मैथिल; १५. मौन; १६. यवन, १७. शक; १८. शूरसेन; का सेनापति था। उसने बृहद्रथ राजा का वध कर १९. हूण (ब्रह्मांड, ३.७४; वायु. ९९.२०७-४६४; शुगवंश की स्थापना की। इस वंश में कुल दस राजा थे, विष्णु. ४.२४; भा. १२.१; मत्स्य. २७३)। इन में से जिन्होंने कुल एक सौ बारह वर्ष तक राज्य किया। बहुत सारे वंश ऐतिहासिक साबित हो चुके हैं। पुष्यमित्र स्वयं शूद्रवर्णीय था। शुंगवंश का राज्यकाल ई. गर्दभिल, मौन, मुरुंड ऐसे थोड़े ही वंश हैं कि, जिनकी स. पू. १८४-ई. स. पू. ७२ तक माना जाता है। ऐतिहासिकता अब तक सिद्ध नहीं हो पायी है। (५) मानवेतर वंश - पौराणिक साहित्य में देव, गंधर्व, दानव, अप्सरा, वानरवंश-ब्रह्मांड पुराण में वानरों को पुलह एवं राक्षस, यक्ष, नाग, गरुड आदि अनेकानेक मानवेतर वंशों | हरिभद्रा की संतान कहा गया है, एवं उनके ग्यारह का निर्देश प्राप्त है। इनमें से बहुत सारे मानवेतर वंशों प्रमुख कुल दिये गये है:- १. द्वीपिन् । २. शरभ; को पौराणिक साहित्य में कश्यप ऋषि की संतान मानी गयी | ३. सिंह; ४. व्याघ्र; ५. नील; ६. शल्यक; ७. ऋश; ८. है, जिसकी तेरह पत्नियों के द्वारा पृथ्वी के सारे मानवेतर मार्जार. ९. लोभास; १०. लोहास; ११. वानर; १२. वंशों का निर्माण होने का निर्देश वहाँ प्राप्त है:-- मायाव (ब्रह्मांड. ३.७.१७६; ३२०)। सप्तर्षियों की संतान-पौराणिक साहित्य एवं महाभारत राक्षसवंश--वायु में राक्षसों को पुलह, पुलस्त्य एवं अगस्त्य ऋषियों की संतान कहा गया है (वायु. ७०.५१ में अन्यत्र राक्षस, यक्ष, एवं गंधर्व आदि को पुलह, | पुलस्त्य, अगस्त्य जैसे सप्तर्षियों की संतान कहा गया है । -६५)। दैत्यो में से हिरण्यकशिपु एवं हिरण्याक्ष का स्वतंत्र वंशवर्णन भी प्राप्त है (वायु. ६७; ब्रह्मांड ३.५)। (म. आ. ६०.५४१)। जिस प्रकार समस्त मानवजाति का पिता मनु वैवस्वत माना जाता है, उसी प्रकार समस्त पौराणिक साहित्य में असुर, दानव, दैत्य एवं राक्षसमानवेतर सृष्टि के प्रणयन का श्रेय सप्तर्षियों को दिया | जातियों का स्वतंत्र निर्देश प्राप्त है (मत्स्य. २५.८; १७; गया प्रतीत होता है। पुलस्य एवं पुलह ऋषियों का सविस्तृत | ३०; ३७; २६.१७)। किन्तु आगे चल कर इन जातियों वंशवर्णन वायु में प्राप्त है ( वायु. ७०.३१-६३, ६४- का स्वतंत्र अस्तित्व नष्ट हो कर, अनार्य एवं दुष्ट जाति के ६५)। लोगों के लिए ये नाम प्रयुक्त किये जाने लगे। ११५५ Page #1177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मानवेतर वंश पौराणिक राजवंश मानवेतर वंश कश्यप ऋषि की मानवेतर संतति वंशविशेष कश्यपपत्नी संतान वंशविशेष कश्यपपत्नी संतान देवगंधर्व (१) अरिष्टा तुंबरु, हंस, वरेण्य आदि | राक्षस, (१) खशा अकंपन, अश्व आदि देवगंधर्व। दैत्य एवं राक्षस । (२) मुनि अर्कपर्ण, उग्रसेन आदि | दानव (२) दनु | पुलोमत् , विप्रचित्ति, सोलह देवगंधर्व । हिरण्यकशिपु आदि दानव । (३) दनायु वृत्र आदि दानव । (४) दिति हिरण्याक्ष, वज्रांग आदि अप्सरा (१) अरिष्टा अनवद्या, अरुणा आदि अप्सरा। (५) पुलोमा पौलोम एवं कालकेय राक्षससमूह। (२)खशा आलंबा, उत्कचोत्कृष्टा (६) सिंहिका सैहिकेय असुर। आदि अप्सरा। (७) सुरसा यातुधानादि राक्षससमूह ।। :) कालका कालकंज राक्षससमूह । । (३) मुनि अजगंधा, अनपाया आदि अप्सरा। (१) विनता गरुड, आरुणि आदि पक्षिराज। नाग (१) कद्दू अक्रूर, धृतराष्ट्रादि नाग (२) ताम्रा क्रौंची, गृध्रिका आदि पक्षी। पक्षी (२) सुरभि अंगारक, अहिर्बुन्य आदि सप। आदित्य अदिति बारह आदित्य । Page #1178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ५ पुराणों में निर्दिष्ट राजाओं की तालिका पौराणिक साहित्य में निर्दिष्ट विभिन्न वंशावलियों का (३) इन राजाओं में से जिन राजाओं का निर्देश निर्देश इससे पहले ही किया जा चुका है। इन राजाओं की | वैदिक साहित्य में प्राप्त है, उनके आगे (*) चिन्ह जो जानकारी उपलब्ध है, उससे उनका निश्चित कालनिर्णय लगाया गया है। एवं उनके समकालीन अन्य राजाओं की पर्याप्त जानकारी (४) तालिकाओं में निर्दिष्ट प्रमुख राजाओं के समप्राप्त होती है। इसी जानकारी को मूलाधार मान कर कालीनता के प्रमाण जब 'प्राचीन चरित्रकोश' में पौराणिक साहित्य में निर्दिष्ट राजाओं की तालिका अगले | दिये गये उन व्यक्तियों के चरित्र में प्राप्त हैं, उनके पृष्ठ पर दी गयी है, जहाँ इन राजाओं की नामावलि नाम अधोरेखांकित किये गये हैं । इसी कारण सूर्य एवं सोम वंशों के विभिन्न उपशाखाओं के अनुक्रम समकालीनता का स्पष्टीकरण तालिकाओं में नहीं दिया से दी गयी है। गया है। ___ यह तालिका विभिन्न राजाओं के समकालीनत्व का ख्याल रख कर दी गयी है, एवं हरै एक राजा की पीढ़ी | (५) तालिका के दाहिनी एवं बायी ओर दिये गये का सष्ट रूप से निर्देश किया गया है, जहाँ वैवस्वत मनु क्रमांक पीढ़ीयों के निर्देशक नहीं, बल्कि अनुक्रम के की पीढ़ी पहली मानी गयी है । इस तालिका के निरीक्षण निर्देशक हैं। के लिए निम्नलिखित सूचनाएँ महत्त्वपूर्व प्रतीत (६) पौराणिक साहित्य, रामायण एवं महाभारत में होती है: प्राप्त वंशावलियों में उन्हीं राजपुरुषों के एवं राजाओं के (१) पौराणिक साहित्य में निर्दिष्ट राजाओं की | नाम दिये गये हैं, जो राजगद्दी पर अधिष्ठित थे । तालिका संपूर्ण नहीं है, एवं उनमें बहुत सारे नाम राजपरिवार के अन्य सदस्यों के, अथवा वर्णीतर से अप्राप्य हैं। पौराणिक साहित्य में से सबसे प्रदीर्घ इक्ष्वाकु- ब्राह्मण वैश्यादि हुए राजाओं के नाम वहाँ अप्राप्य वंश भी इस न्यूनता से अलिप्त नहीं है। पौराणिक है। इसी कारण इक्ष्वाकु, निमि एवं है हय वंश में से साहित्य में अप्राप्य राजाओं के नाम तालिका में (...) अनेक राजपुरुषों के नाम इस वंशावलि में नहीं दिये इस प्रकार बताये गये हैं। | गये हैं। (२) जिन राजाओं की समकालीनता स्पष्टरूप से सिद्ध हो चुकी है, उनके नाम तालिका में स्पष्ट अक्षरों में दिये (७) तालिका के चौदहवे स्तंभ में दिये गये संभाव्यगये हैं, एवं जिनकी समकालीनता केवल तर्काधिष्ठित ही काल परंपरागत पौराणिक साहित्य में प्राप्त परंपरा के है, उनके नाम सादे अक्षरों में दिये गये है। अनुसार दिये गये हैं। १९५७ Page #1179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ५] पौराणिक राजवंश [राजाओं की तालिका सू. इ. सू. निमि.. ( अयोध्या) (मिथिला) मु. दिष्ट, (वैशाली) सो. अमा. (कान्यकुब्ज) सो. पुरूरवस् (प्रतिष्ठान) सो. तुर्वसु. २ । मनु मनु आयु : : : : विविंश बहुगवि मनु ... मनु मनु * इक्ष्वाकु ... * इक्ष्वाकु नाभानेदिष्ट ... इला इला विकुक्षि (शशाद) निमि .. पुरूरवस् ** पुरूरवस् अमावसु अनेनस् ... मिथि जनक * भलंदन * नहुष, रजि पृथुरोमन् ....* वत्सप्री ... भीम ... ययाति विश्वरंधि |चंद्र (आर्द्र) ... उदावसु ... प्रांशु जनमेजय १. ... युवनाश्व १. ... ... कांचनप्रभ प्राचीन्वत् (अविद्ध) शा (श्रा)वस्त ... ... प्रजानि प्रवीर ... नंदिवर्धन ... अविद्ध खनित्र .... सुहोत्र १. मनस्यु ... वह्नि ... क्षुप अभय १४ बृहदश्व ... सुकेतु ... विंश सुद्युम्न, धुंधु । कुवलयाश्व दृढाश्व प्रमोद ... देवरात ....... ... सुहोत्र २. संयाति हर्यश्व १. खनिनेत्र ... भग १९ निकुंभ ... अजक ... भद्राश्व (रौद्राश्व) बर्हणाश्व (संहताश्व) ... बलाकाश्व ऋतेयु (ऋचेयु) कृशाश्व अतिभूति (प्र) सेनजित्... ... करंधम ... अन्तिनार (रेणु) ...... __...(मूर्तरय अमूर्तरजस् ) युवनाश्व २. अविक्षित् ... तंसु * मांधातृ ... बृहद्रथ मरुत्त ... कुशाश्व-कुशिक ... * पुरुकुत्स नरिष्यन्त ... * गाधि किंवा ... * त्रसदस्यु दम ... * गाथिन् (संभूत) राज्यवर्धन अनरण्य सुधृति त्रसदश्व हर्यश्व २. ... केवल त्रिसानु (वसुमत् और वसु- सुधृति मनस्) करंधम वेगवत् * त्रैय्यारुण ... बुध त्रिबंधन ... तृणबिंदू विशाल (विश्रवस)... सत्यव्रत त्रिशंकु ... धृष्टकेतु ... हेमचंद्र ... विश्वामित्र मरुत्त .... कुश बंधुमत् त्रिधन्वन् Page #1180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ५] प्राचीन चरित्रकोश [राजाओं की तालिका • सो. द्रुह्यु. सो, सह. (हैहय) (माहिष्मती) सो. अनु. सो. क्षत्र. सो. यदु. सो. अनु. संभाव्य | तितिक्षु (काशी) | काल | १४ अन्य राजा एवं महत्त्वपूर्ण घटना १६ बलि ... ... ....... ... ... ... मनु ...३१०० हिरण्याक्ष, हिरण्यकशिप १ प्रल्हाद पुरूरवस् ...... आयु ....... विप्रचित्ति, तारक क्षत्रवृद्ध ...... वृषपर्वन् ....... ... ३००० षण्डामर्क, देवासुर-संग्राम . ... यदु ... *अनु ...... सुनहोत्र,प्रति... सहस्रजित् ... क्रोष्टु ....... क्षेत्र ... काश्य ... ... शतजित् ... वृजिनीवत् ... ...... काशिराज... ... हैहय । ... स्वाहि... सभानर ... दीर्घतपस् ... धर्म धन्वतरि ... : ... धर्मनेत्र ... रशादु...... ...... ....कुंति ...... साहजि महिष्मत् ... चित्ररथ कालानल केतुमत् : | भद्रश्रेण्य भीमरथ ... दिवोदास १. अष्टारथ __... संजय ...... रिपु (मांधातृ) ... अंगार ... दुर्दम गांधार शशबिन्दु ...... ... ... ...... ........ ... पुरंजय...... धर्म रावण ...... ... पृथुश्रवस् .... ....... ... (तम) | जनमेजय ... धनक (कनक) उशनस्... महाशाल ... [शिनेयु] ... ....... ....... दुर्गमा ... कृतवीर्य .... ... मरुत्त महामनस् ... ... हर्यश्व ... कंबलबर्हिष| उशीनर तितिक्षु ... रुक्मकवच शिबि ... ... ... सुदेव वृष जान ... प्रचेतस् कार्तवीर्य ...( परावृत्त)... . ... ... दिवोदास २.२५५०. ११५९ Page #1181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ५] पौराणिक राजवंश [राजाओं की तालिका __ सू. इ. (अयोध्या) सू. निमि. सू. दिष्ट. (मिथिला) | (वैशाली) सो. अमा. सो. पूरु. (कान्यकुब्ज) (प्रतिष्ठान) | सो. तुर्वसु ३८ * हरिश्चंद्र सुचंद्र पुष्कराक्ष : :: ...... मधुच्छंदस ... (अष्टक लौहि) ... : : मरु ... नय * दुप्यन्त शरूथ जनापीड (आंडीर) पांड्या दि रोहित हरित, चंप विजय ... हर्यश्व भरुक वृक बाहु (फल्गुतंत्र) प्रतीपक सगर असमंजस् ... कृतिरथ अंशुमत् : धुम्राश्व : : : : : : : : ॐ दुष्यन्त भरत भरद्वाज वितथ भुवन्मन्यु बृहत्क्षत्र महोत्र : दिलीप १. ... देवमीढ :::: : . ५२ ... ...सुंजय : . ....... . हस्तिन् ... सो. अज. .... * अजमीढ़ ... दक्षिण पांचाल... ऋक्ष, * जगु ... बृह दिषु ... बृहद्वसु वृहत्कर्मन् जयद्रथ वश्वजित् ... सहदेव विसृत * भगीरथ अथवा भगेरथ श्रुत महाधृति नाभाग अम्बरीष | सिंधुद्वीप .... कृतिरात ६० अयुतायु ऋतुपर्ण सर्वकाम सुदास ... महारोमन् ६४ मित्रसह कल्माषपाद ... ६५ ... अश्मक मूलक | दशरथ १. स्वर्णरोमन् | ऐडविड ७० विश्वसह १. ...... | दिलीप खटांग २. ... दीर्घबाहु ह्रस्वरोमन् रघु अज दशरथ २. ... सीरध्वज ::::::: कृशाश्व रुचिराश्व ७२ संवरण कुरु ११६० Page #1182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ५ ]. सो. नील. ::: नील सुशांति. पुरुजानु रिक्ष भयश्वि E सो. नील सो. द्विमीढ. सर पांचाल द्विमीट यवीनर मुगल ( ब्रह्मिष्ठ ) ⠀⠀⠀⠀⠀⠀⠀⠀⠀⠀ वध्यश्व :: सो. सह. (हैहय ) ( माहिष्मती) (वृषण) # दिवोदास जयध्वज दुर्जय सुप्रतीक विदर्भ... मद्रक क्रथ कुंति धृष्ट ताप वीतिहोत्र निर्वृति.. (* वीतहव्य) (विदूरथ) अनंत ... धृतिमत् सत्यधृति हढचेनि सुवर्मन् सार्वभौम महलौरव प्रा. च. १४६] ⠀⠀⠀⠀ ::: सो. यदु, सो, अनु. ... ज्यामघ केकय ...... दशाह व्योमन्... जीमूत विकृति... *****. जन्तु प्राचीन चरित्रकोश ... भीमरथ रथवर... दशरथ.. (गोपति) एकादशथ. शकुनि... करंभक... देवरात देवक्षत्र देवन मधु • पुरुवस... पुरुद्वत्... B:::::: ⠀⠀⠀⠀⠀⠀ सो. अनु. सो, क्षत्र संभाग्य (तितिक्षु) (काशी) काल वृषद्रथ... सेन सुतपस् बलि अंग ::::::::: ::::::::: दिविरथ दधिवाहन सुकेतु (अनपान ) ...... ⠀⠀⠀⠀ धर्मरथ चित्ररथ (लोमपाद) ११६१ * प्रतर्दन वत्स अलर्क सन्नति सुनीथ ::::: धर्मकेतु सत्यकेतु विभु सुविभु सुकुमार ... पृष्टकेतु भर्ग वेणुहोत्र : ::m ⠀⠀⠀⠀⠀ [राजाओं की तालिका अन्य राजा एवं महत्वपूर्ण घटना रावण ⠀⠀⠀⠀⠀⠀ ३८ ३९ ४० ४१ ४२ ४३ ... ४४ ४५ ४६. ४७ ४८ ४९ ,५० ५१ ५२ ५३ ५४ ५५ ५६ ५७ ५८ ५९ ६० ६१ ६२ ६३ • ६४ • ६५ ६६ ६७ ६८ ६९ ... ७० ७१ . ७२ ... ७३ ... ७४ १.७५ Page #1183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ५ ] सू. इ. ( अयोध्या ) ७६ राम ७७ कुशलव ७८ अतिथि ७९ निषध ८० नल ८१ नभ ८२ पुंडरीक ८३ क्षेमधन्वन् ८४ देवानीक ८५ अहीन ८६ पारियात्र ८७ बल (दल ) ८८ स्थल ८९ उक्थ ९० वज्रनाभ ९१ खगण ९२ विधृति ( पौंडरीक) ९६ पुष्य ९७ वसंधि १८ सुदर्शन ९९ अग्निवर्ण १०० शीघ्र १०१ मरु १०२ प्रभुत १०३ (सु) संघि १०४ अमर्षण १०५ सहस्वत् १०६ विश्वसाह १०७ प्रसेनजित् १०८ तक्षक १०९ बृहद्बल ११० बृहद्रण १११ ... ११२ उरुक्रिय सू. निमि (मिथिला) कुशध्वज भानुमत प्रद्युम्न शतथुन मुनि ऊर्जवह सुतद्वाज *कुणि ( शकुनि ) ९२ (व्युषिताश्व सत्यरथ ९४ विश्वसह २.)... उपगु ९५ हिरण्यनाम * रंजन ( अंजन ) *उग्रदेव ) * क्रतुजित् अरिष्टनेमि श्रुतायु सुपार्श्व संजय क्षमारि अनेनस् मीनरथ स्वागत सुबर्चस् | धृति *.**. :: बहुलाश्व कृत किंवा कृती महावशिन् पौराणिक राजवंश सू. विष्ट. (वैशाली) श्रुत सुश्रुत जय विजय ऋत सुनुय वीतहव्य दमघोष शिशुपाल परिक्षित् | ७ जनमेजय... सुहोत्र च्यवन कृत सो, चैद्य. प्रत्यग्रह सो. मगध. ११६२ सुधन्वन् वसु चैद्य बृहद्रथ (कुशाग्र) ऋषभ पुष्पवत् सत्यहित सुधन्वन् कर्ज नमस् (संभव) ...... जरासंध | सहदेव सोमापि श्रुतश्रवस अयुतायु ... ⠀⠀⠀⠀⠀⠀ ... [राजाओं की तालिका सो. अत्र (दक्षिण पांचाल) पृथुमेन सो. कुछ सुरथ (ऋक्ष) सार्वभौम जयत्सेन अराधिन् महासत्त्व ( महाभौम ) अयुतायु अक्रोचन | देवातिथि ऋक्ष २. भीमसेन दिलीप प्रतीप (ऋष्टिषेण ) शंतनु भीष्म विचित्रवीर्य ( धृतराष्ट्र, पांडु ) | युधिष्ठिर अभिमन्यु परिक्षित् जनमेजय शतानीक पार १. नीप समर पार २. पृथु सुकृति ब्रह्मदत्त विश्वक्सेन उदक्सेन भल्लाट जनमेजय द्रुपद ...... धृष्टद्युम्न :::: SPELAPELEASEBHABBIEBERRORETIP Page #1184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन चरित्रकोश [राजाओं की तालिका परिशिष्ट ५] सो. नील. (उत्तर पांचाल) सो. द्विमीढ. सो. यदु. संभाव्य अन्य राजा एवं सो. यदु. सो. अनु. सो.क्षत्र., 3.सा. काल | महत्त्वपूर्ण घटना मित्रयु ... रुक्मरथ ...भीम सात्वत... ... चतुरंग...... ...१९५० रावण मैत्रेय (सोम)... अंधक ... भजमान,वृष्णि... (सुंजय)... सुपार्श्व कुकुर ...... व्यवन ...... ... धृष्ट ... विदूरथ ...... .... ** पंचजन, (पिजवन) *सुदास ... ... ... (वृष्णि शूर ...... दाशराज्ञ युद्ध * सहदेव ... सुमति धृति)... शमिन् ... पृथुलाक्ष सोमक ...... कपोतरोमन प्रतिक्षत्र ... चंप .. जन्तु-पृषत् ... . हर्यग ...... ... सन्नतिमत् स्वयंभोज ... भद्ररथ... (तैत्तिरि) बृहत्कर्मन् ... | हृदीक ... बृहद्रथ... बृहद्भानु सनति विलोमन् ... भव ...... ...(नल) ... कृत किंवा कृति ... ...... अभिजित् ... ...... .......... ... जयद्रथ... ..., पुनर्वसु .... ...... ... आहुक | देवमीष ... बृहद्रथ . : उग्रायुध कार्ति | उग्रसेन | क्षेम दृढरथ...... सुवीर नृपंजय बृहद्रथ दव ... जनमेजय अधिरथ कर्ण ... ... ...१४०० वृषसेन अश्वत्थामन् भारतीय युद्ध ... वज्र अचल ११६३ Page #1185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ५] पौराणिक राजवंश [राजाओं की तालिका अन्य सो. पूरु. सो. मगध. अन्य व्यक्ति क. सू. इ. सो. पूरु. मगध देश व्यक्ति ११४ विप्र Gm,OK १६७ ... सुनीथ ११३ वत्संवृद्ध निरमित्र दंडपाणी अजय (उदय) सुनक्षत्र निरमित्र नंदिवर्धन ११५/ प्रतिव्योमन् बृहत्सेन क्षेमक महानंदि नंद सिकंदर सुमाल्यादि ८ (ई. पू. ११७ भानु बृहत्कर्मन् चंद्रगुप्त मौर्य | ३३०११८ दिवाकर असीमकृष्ण सेनाजित् | (ई. स. पू. ३२६) वायु, ब्रह्मांड एवं मत्स्य पुराणों के रचनाकाल ये राजा ३२२-१८५). राज्य करते थे। आंध्र बिन्दुसार अशोक (ई.स. ११९| सहदेव । निमिचक्र (सृतंजय १२० बृहदश्व उक्थ शिप्रक सुयशस् १२१ भानुमत् चित्ररथ | शुचि ई . स. पू. २४० (संपदि) १२२ प्रतीकाश्व कविरथ क्षेम कृष्ण दशरथ अटिओकस १२३ सुप्रतीक वृष्टिमत् निर्वृत्ति संगत (सीरिया १२४ मरुदेव सुषेण सुव्रत शालिशूक और १२५/ सुनक्षत्र सुनीथ धर्मसूत्र सोमशर्मन् बक्ट्रिया १२६ पुष्कर नृचक्षु शम श्रीमल्लकर्णि शतधन्वन् । ई. पू. १२७ अंतरिक्ष | सखीनल सुमति पूर्णोत्संग बृहद्रथ २०६) १२८ सुतपस् परिप्लव सुबल १७० खारवेल ई.स.पू.१८४-७२ पुष्यमित्र शुंग मिलिंद सुनय शातकर्णि (मिनॅन्डर मेधाविन | सत्यजित् अग्निमित्र ई. पू. नृपंजय विश्वजित् सुज्येष्ठ वसुमित्र अवंती राजा -आर्द्रक १३४ अमित्रजित् दुर्व वीतिहोत्र पुलिंदक १३५ बृहद्राज प्रद्योत घोषवसु १३६ ... तिमि पालक लंबोदर | वज्रामित्र कनिष्क १३७ बर्हि विशाखयूप अपीतक । भागवत कुशान १३८ कृतंजय अजक .देवभूति १३९/ ... बृहद्रथ | नंदिवर्धन वसुदेव काण्व कुशान १४०/ रणंजय शिशुनाग (ई. स. पू. साम्राज्य (ई. पू. ६४२) ७३-२७-) | ई. स. १४॥ स्वाति सुदास काकवर्ण भूमित्र ९०-२२० १४२ संजय स्कंधस्वाति क्षेमधर्मन् नारायण ई. तक क्षेत्रज्ञ मृगेन्द्र स्वातिकर्ण १८४ ... कुन्तल स्वातिकणे सुशर्मन् १४४ शाक्य शतानीक विधिसार | शुद्धोद (काण्वायन | महावीर ... स्वातिकर्ण... १४६ लांगल भूमिमित्र) १८६ ... अरिक्तकर्ण . प्रसेनजित् उदयन उ अजातशत्र गोतम बुद्ध ... (नेमिकृष्ण) ( ई. स. पू. हाल १४८ क्षुद्रक वहीनर दर्भक ('गाथा सप्तशती' का कर्ता) १८८ ... | मंदुलक Mmmmmmm 03 Mr m पुरंजय शक | मेघस्वाति १८१ ... १८२ ... १४५ १४७ ११६४ Page #1186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजाओं की तालिका प्राचीन चरित्रकोश - आंगिरस वंश आंध्र शक सत्रप.. अन्य व्यक्ति क्र. आंध्र शक सत्रप अन्य न्यक्ति १९८ शिवस्कंध *यज्ञश्री विजय जमदामन् रुद्रसिंह चष्टण ई. स. १८९ पुरींद्रसेन १९० सौम्य १९१ *सुंदरशांति कर्ण १९२. चकोर स्वातिकर्ण १९३ *शिवस्वाति १९४ *गौतमीपुत्र २०१ चंडश्री रुद्रसेन संघदामन् दामसेन (ई. स.२२३) २०३*पुलोमा इ.स. २११ १९५ *पुलोमत् १९६/ *शातकर्णि १९७ *शिवश्री जयदामन् रुद्रदामन दामजदश्री २० * चिन्हांकित राजाओं के प्रस्तरलेख अथवा सिक्के उपलब्ध हैं, जिनके कारण उनकी ऐतिहासिकता सुनिश्चित है। परिशिष्ट ६ पुराणों में निर्दिष्ट ऋषियों के वंश प्राचीन राजाओं की तरह, प्राचीन ऋषियों के वंश | हैं:-१. भृगुः २. अंगिरस् ; ३. मरीचिः ४. अत्रि, भी पौराणिक साहित्य में उपलब्ध हैं। किन्तु जहाँ राजवंश | ५. वसिष्ठ; ६. पुलस्त्य; ७. पुलह; ८. ऋतु। राजाओं के कुलों का अनुसरण कर तैयार किये गये हैं, ___ इन आठ ब्रह्ममानसपुत्रों में से पुलस्त्य, पुलह एवं वहाँ ऋषियों के वंश प्रायः सर्वत्र शिष्यपरंपरा के ऋतु की संतान मानवेतर जाति हुई, एवं उनसे कोई भी रूप में हैं, जो सही रूप में 'विद्यावंश' कहे जा ब्राह्मण वंश उत्पन्न नहीं हुआ । बाकी बचे हुए सकते हैं। | पाँच ब्रह्ममानस पुत्रों में से अंगिरस्, वसिष्ठ एवं भृगु पौराणिक साहित्य में प्राप्त ऋषियों के वंश राजाओं के | इन तीन ऋषियों के द्वारा ही प्राचीन ऋषिवंशों (मूलगोत्र) वंशों जैसे परिपूर्ण नहीं हैं, एवं उनमें काफ़ी त्रुटियाँ भी हैं। | का निर्माण हुआ । पुराणों में प्राप्त चार मूल गोत्रकार इसी कारण ऐतिहासिक दृष्टि से ऋषियों के वंश इतने | ऋषियों में अत्रि एवं कश्यप ऋषियों का नाम अप्राप्य है, महत्त्वपूर्ण प्रतीत नहीं होते हैं, जितने राजाओं के जिससे प्रतीत होता है कि, अत्रि एवं कश्यप कुलोत्पन्न वंश माने जाते हैं। ब्राह्मण अन्य मूलगोत्रकार ऋषियों से काफी उत्तरकालीन थे। .. ऋषिवंश की कल्पना का विकास--जिस प्रकार उपर्युक्त पाँच प्रमुख ब्राह्मण वंशों की जानकारी नीचे प्राचीन सभी राजवंश वैवस्वत मनु से उत्पन्न माने जाते | दी गयी है:हैं, उसी प्रकार सभी प्राचीन ऋषि वंश आठ ब्रह्ममानस- आंगिरस वंश--अंगिरस ऋषि के द्वारा स्थापित पुत्र ऋषियों से उत्पन्न माने जाते हैं । इन ब्रह्ममानस- किये गये इस वंश की जानकारी ब्रह्मांड, वायु एवं मत्स्य पत्रों के नाम पौराणिक साहित्य में निम्नप्रकार दिये गये | में प्राप्त है (ब्रह्मांड. ३.१.१०१-११३; वायु, ६५. ११६५ Page #1187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आंगिरस वंश पौराणिक ऋषिवंश भार्गव वंश ९७-१०८; मत्स्य. १९६)। इनमे से पहले दो ग्रंथों में | पूर्वातिथि । पार्गिटर के अनुसार, श्यावाश्व एवं बलगूतक इस वंशों की जानकारी दी गयी है, एवं अंतिम ग्रंथ में | ये दोनों एक ही व्यक्ति के नाम थे। इस वंश के ऋषियों की एवं गोत्रकारों की नामावलि दी | अत्रिऋषि के गोत्रकार--निम्नलिखित ऋषियों का गयी है। इस जानकारी के अनुसार, इस वंश की निर्देश आत्रेय वंश के गोत्रकार के नाते प्राप्त है:- १. स्थापना अथर्वन अंगिरस् के द्वारा की गयी थी। इस श्यावाश्व; २. मुद्गल (प्रत्वस् ); ३. बलारक (वाग्भूतक वंश के निम्नलिखित ऋषियों का निर्देश प्राप्त हैं:-१. ववल्गु); ४. गविष्ठिर (मत्स्य. १४५.१०७-१०८)। अयास्य आंगिरस, जो हरिश्चंद्र के द्वारा किये गये शुनः- काश्यप वंश--कश्यपऋषि के द्वारा प्रस्थापित किये शेप के बलिदान के यज्ञ में उपस्थित था; २. उशिज | गये इस वंश की जानकारी चार पुराणों में प्राप्त है ( वायु. आंगिरस एवं उसक तीन पुत्र उचथ्य, बृहस्पति एवं | ७०.२४-२९; ब्रह्मांड. ३.८.२८-३३; लिंग. १.६३.४९संवर्त, जो वैशाली के करंधम, अविक्षित् एवं मरुत्त ५५ कूर्म. १.१९.१-७)। इस वंश के ऋषियों एवं गोत्रआविक्षित राजाओं के पुरोहित थे; ३. दीर्घतमस् एवं | कारों की नामावलि मत्स्य में दी गयी है (मत्स्य.१९७)। भारद्वाज, जो क्रमशः उचथ्य एवं बृहस्पति के पुत्र थे। पौराणिक साहित्य में काश्यपवंश की वंशावलि निम्न इनमें से भरद्वाज ऋषि का शि के दिवोदास (द्वितीय) | प्रकार दी गयी है:-- कश्यप-वत्सार एवं असित-निध्रुव - राजा का राजपुरोहित था। दीर्घतमस् ऋषि ने अंग देश रैभ्य, एवं देवल। ये ही छः ऋषि आगे चल कर 'काश्यप में गौतम शाखा की स्थापना की थी; ४. वामदेव गौतमः | ब्रह्मवादिन्' नाम से सुविख्यात हुए। ५. शरद्वत् गौतम, जो उत्तरपंचाल के दिवोदास राजा के इस वंश के निम्नलिखित ऋषि विशेष सुविख्यात माने अहल्या नामक बहन का पति था; ६. कक्षीवत् दैर्घतमस जाते हैं:-- १. कण्व काश्यप, जो दुष्यंत एवं शकुंतला औशिज; ७. भरद्वाज, जो उत्तरपंचाल के पृषत् राजा का का समकालीन था; २. विभांडक काश्यप, जो ऋश्यशृंग ऋषि समकालीन था। | का पिता था; ३. असित काश्यप, जो देवल ऋषि का आत्रेय वंश--अत्रिऋषि के द्वारा स्थापित किये गये | पिता था; ४. धौम्य; ५. याज, जो द्रुपद राजा का इस वंश की जानकारी पौराणिक साहित्य में प्राप्त है | पुरोहित था। ( ब्रह्मांड. ३.८.७३-८६; वायु. ७०.६७-७८, लिंग. भार्गव वंश-भृगुषि के द्वारा प्रस्थापित किये गये १.६३.६८-७८)। पौरव राजवंश से संबंधित इस वंश | इस वंश की सविस्तृत जानकारी पौराणिक साहित्य में प्राप्त की जानकारी ब्रह्म एवं हरिवंश में प्राप्त है (ब्रह्म. १३.५- | है (वायु. ६५.७२-९६; ब्रह्मांड. ३.१.७३-१००; मत्स्य १४; है. वं. ३१.१६५८; १६६१-१६६८)। इस वंश १९५.११-४६)। इनमें से पहले दो ग्रंथों में भार्गववंश के ऋषि एवं गोत्रकारों की नामावलि मत्स्य में दी गयी है की सविस्तृत वंशावलि दी गयी है, एवं अंतिम ग्रंथ में (मत्स्य. १९७)। पौराणिक साहित्य में आत्रेय वंश के इस वंश के ऋषि एवं गोत्रकारों की नामावलि दी गयी है। आद्य संस्थापक अत्रि ऋषि एवं प्रभाकर को एक माना गया ____ महाभारत के अनुसार भृगु ऋषि के उशनस् शुक्र एवं है, एवं उसे सोम का पिता कहा गया है। च्यवन नामक दो पुत्र थे। उनमें से शुक्र एवं उसका परिवार दैत्यों के पक्ष में शामिल होने के कारण नष्ट ___ इस वंश के निम्नलिखित ऋषि विशेष सुविख्यात हुआ। इस प्रकारं च्यवन ऋषि ने भार्गव वंश की अभिमाने जाते हैं:- १. प्रभाकर आत्रेय (अत्रि ऋषि,) वृद्धि की। महाभारत में दिया गया च्यवन ऋषि का वंश जिसका विवाह पौरव राजा भद्राश्व (रौद्राश्व ) एवं धृताची | क्रम निग्नप्रकार है:-च्यवन (पत्नी-मनुकन्या आरुषी)के दस कन्याओं के साथ हुआ था; २. स्वस्त्यात्रेय, जो | और्व-ऋचीक-जमदग्नि--परशुराम । प्रभाकर के दस पुत्रों का सामूहिक नाम था, एवं उनसे भृगुऋषि के पुत्रों में से च्यवन एवं उसका परिवार ही आगे चलकर, आत्रेयवंश के ऋषियों का जन्म हुआ । पश्चिम हिंदुस्तान में आनर्त देश से संबंधित था। उशनस् था; ३. दत्त आत्रेय; ४. दुवासस् । शुक्र उत्तर भारत के मध्यविमाग से संबंधित था। निम्नलिखित आत्रेय ऋषियों का निर्देश सूक्तद्रष्टा के इस वंश के निम्नलिखित व्यक्ति प्रमुख माने जाते हैं: नाते प्राप्त है:-१. अत्रि; २. अर्चनानस् ३, श्यावाश्व; - १. ऋचीक और्व; २. जमदग्नि; ३. परशुराम; ४. इंद्रोत . ४. गविष्ठिर; ५. बल्गूतक (अविहोत्र, कर्णक); ६. शौनकः ५. प्राचेतस वाल्मीकि ।। ११६६ Page #1188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भार्गव वंश प्राचीन चरित्रकोश ऋषियों की तालिका क्षत्रिय ब्राह्मण--भार्गववंश में अनेक ब्राह्मण ऐसे भी का निर्देश ब्रह्मांड में प्राप्त है (ब्रह्मांड. २.३२.१०४थे कि, जो स्वयं भार्गव न हो कर भी इस वंश में १०६)। शामिल हो गये थे। ये ब्राह्मण 'क्षत्रिय ब्राह्मण' कहलाते थे, वसिष्ठ वंश-अयोध्या के राजपुरोहित के नाते एवं उनमें निम्नलिखित लोग शामिल थे:- १. मत्स्य | काम करनेवाले वसिष्ठ वंश की सविस्तृत जानकारी २. मौदगलायन; ३. सांकृत्य; ४. गाायन; ५. गार्गीय; | पौराणिक साहित्य में प्राप्त है (वायु. ७०.७९-९०; ६. कपि७. मैत्रेय; ८. वध्यश्व; ९. दिवोदास (मत्स्य. ब्रह्मांड. ३.८.८६-१००, लिंग. १.६३.७८-९२)। इस १४९.९८-४००)। वंश के ऋषियों एवं गोत्रकारों की नामावलि मत्त्य में दी गयी है (मत्स्य. २००-२०१)। इस वंश में उत्पन्न भार्गव समूह --मत्स्य में निम्नलिखित भार्गववंशीय | निम्नलिखित ऋषि विशेष महत्त्वपूर्ण माने जाते हैं:'समूहों (पक्ष) का निर्देश प्राप्त है:-१. वत्स; २. विद; | १. देवराज; २. आपव; ३. अथर्वनिधि; ४. वारुणि; ३. आर्टिषेण, ४. यास्क; ५. वैन्य; ६. शौनकः ७. | ५. श्रेष्ठभाज; ६. सुवर्चस् ; ७. शक्ति; ८.मैत्रावरुणि । वसिष्ठ मित्रयु (मत्स्य. १९५)। एकवीस भार्गव सूक्तद्रष्टाओं वंश की अन्य एक शाखा जातूकर्ण लोग माने जाते हैं। पौराणिक ऋषिवंशों की तालिका पौराणिक साहित्य में निर्दिष्ट विभिन्न ऋषिवंशों की एवं संभाव्य स्थान कहाँ था, इसकी सूचना प्राप्त करने के लिए .. ऋषियों की तालिका नीचे दी गयी है। इस तालिका में इक्ष्वाकुवंशीय राजाओं की संपूर्ण तालिका इस तालिका के भार्गव, आंगिरस, वासिष्ठ, एवं अन्य ऋषिवंशों में उत्पन्न | साथ ही दी गयी है। इस तालिका में निर्दिष्ट इक्ष्वाकुवंशीय ऋषियों की नामावलि उनके समकालीनत्व के अनुसार दी राजाओं की नामावलि पौराणिक राजवंशों की तालिका में • गयी है। तत्कालीन राजकीय इतिहास में इन ऋषियों का | से पुनरुद्धृत की गयी है। समकालीन राजा (इक्ष्वाकु वंश) भार्गव वासिष्ठ आंगिरस अन्य ऋषि च्यवन वसिष्ठ वसिष्ठ वसिष्ठ मनु इक्ष्वाकु विकुक्षि शशाद अनेनस् संहताश्व न्यैय्यारुण उशनस् शुक्र बृहस्पति प्रभाकर आत्रेय ३०. ३१. ऊर्व ऋचीक और्व जमदग्नि, अजीगर्त वरुण आपवारुणि देवराज ३२. सत्यव्रत त्रिशंकु ३३. हरिश्चंद्र दत्त एवं दुर्वासस् आत्रेय विश्वामित्र मधुच्छंदस, ऋषभ रेणु, अष्टक, कति (कत), गालव विश्वामित्र, शुनःशेप देवराज, विश्वामित्र | हरित, चंप | बाहु (असित) परशुराम, शुनःशेप अथर्वन् उशिज ग्नि और्व, वीतहव्य अथर्वनिधि उचथ्य बृहस्पति, (प्रथम), आपव संवर्त कश्यप ११६७ Page #1189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऋषियों की तालिका पौराणिक ऋषिवंश ऋषियों की तालिका समकालीन राजा (इक्ष्वाकु वंश) भार्गव वासिष्ठ आंगिरस अन्य ऋषि सगर | असमंजस अंशुमत् दिलीप (प्रथम) दीर्घतमस्, भरद्वाज, शरवंत (१ ला) विश्वामित्र (शकुंतला पिता) कण्व काश्यप अगस्त्य (एवं लोपामुद्रा) कक्षीवत् (१ ला) शयु विदथिन्-भरद्वाज (भरत ने गोद में लिया) श्रुत सिंधुद्वीप अयुतायु ऋतुपर्ण सर्वकाम मित्रसह कल्माषपाद | गर्ग, नर उरुक्षय संकृति ऋजिश्वन् कपि श्रेष्ठभाज भरद्वाज (अजमीढ़ के समवेत) कण्व भेधातिथि काण्व अथर्वनिधि (२) मौदगल्य शांडिल्य-काश्यप अश्मक मूलक दिलीप (खट्वांग) दीर्घबाहु वध्रयश्व दिवोदास अज मित्रायु, परुःशेप दैवोदासि पायु, शरद्वंत(द्वितीय) अर्चनानस्-आत्रेय सौभरि-काण्व | विभांडक-काश्यप वसिष्ठ (दशरथ के समवेत) ऋश्यशंग एवं रेभ काश्यप, श्यावाश्व आत्रेय पजिय अंधिगु-आत्रेय मैत्रेय, प्रतर्दन देवोदासि प्रचेतस् ..... कक्षीवत् (द्वितीय)) आत्रेयः सुमित्र वाध्यश्व वसिष्ठ (सुदास के समवेत) शक्ति, शतयातु विश्वामित्र (सुदास के समवेत), निध्रुव काश्यप | निषध पराशर, शाक्त्य, वामदेव सुवर्चस् बृहदुक्थ ... नल नमस् क्षेमधन्वन देवापि शौनक इंद्रोत-शौनक वैभांडकि-कश्यप ११६८ Page #1190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऋषियों की तालिका प्राचीन चरित्रकोश कालगणनापद्धति समकालीन राजा (इक्ष्वाकुवंश) भार्गव वासिष्ठ आंगिरस अन्य ऋषि सुदर्शन अग्निवर्ण जैगीषव्य शंख एवं लिखित, कण्डरीक, बाभ्रव्य पांचाल मरु प्रसुश्रुत सगर पराशर-सागर जातुकर्ण्य | सुसंधि भरद्वाज असित-काश्यप, विष्वक्सेन (जातुकर्ण्य) अग्निवेश अमर्ष एवं सहस्वन्त | विश्रुतवंत कृष्ण द्वैपायनव्यास शुक कृप, द्रोण, . असित-देवल, धौम्य एवं याज, काश्यपवंशीय ऋषि ९४. बृहद्बल वैशंपायन भूरिश्रवस् आदि अश्वत्थामन् , पैल । लोमश, जैमिनि, सुमन्तु अन्य ऋषि परिशिष्ट ७ कालनिर्णयकोश wwwman १ प्राचीन कालगणनापद्धति पौराणिक साहित्य में तीन प्रमुख कालगणनापद्धतियाँ __ कृतयुग- .. १७,२८,००० वर्ष उपलब्ध हैं:- 1. युगगणनापद्धति, जो सत्य, त्रेता, त्रेतायुग १२,९६,००० वर्ष द्वापर, कलि आदि युगों की कल्पना पर अधिष्ठित है; द्वापरयुग ८,६४,००१ वर्ष २. मन्वन्तर कालगणनापद्धति-जो स्वायंभुव, स्वारोचिष कलियुग-- ४,३२,००० वर्ष आदि चौदह मन्वन्तरों की कल्पना पर अधिष्ठित है। ३. - ४३,२०,००१ वर्ष सप्तर्षियुग की कल्पना-जो आकाश में स्थित सप्तर्षि ग्रहों .:. ब्रह्मा का एक दिन-- ४३,२०,००१४१,००० के स्थिति के मापन पर आधारित है, एवं इस प्रकार = ४,३२,००,००,००१ वर्ष खगोलशास्त्र से संबधित है। (विष्णु. ३.२.४८) युगगणनापद्धति-पौराणिक साहित्य में प्राप्त युग- एक उपपत्ति -- सुप्रसिद्ध इतिहासकार जयचंद्र गणना पद्धति के अनुसार, ब्रह्मा का एक दिन एक हजार | विद्यालंकार के अनुसार, यद्यपि पौराणिक साहित्य में निर्दिष्ट पर्यायों में विभाजित किया गया है, जिनमें से हर एक युगों की कल्पना शास्त्रीय एवं ऐतिहासिक है, फिर भी पर्याय निम्नलिखित चार युगों से बनता है:- वहाँ दी गयी हर युग की कालमर्यादा अतिशयोक्तिपूर्ण है। प्रा. च. १४७ ] Page #1191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कालगणनापद्धति कालनिर्णयकोश कालगणनापद्धति युगपीढीया ऐतिहासिक इसी कारण जयचंद्रजी ने कृतयुग, त्रेतायुग, एवं त्रेतायुग-२३०० ई. प.-१९०० ई. पू. द्वापरयुग के पौराणिक कालविभाजन की समीक्षा राजनैतिक द्वापारयुग-१९०० ई. पू.-१४२५ ई. पू. दृष्टि से करने का सफल प्रयत्न किया है । इस समीक्षा में पौराणिक साहित्य में निर्दिष्ट वंशावलियाँ संपूर्ण न हो उन्होंने वैवस्वत मनु से ले कर भारतीय युद्ध तक ९४ | कर उनमें केवल प्रमुख राजा ही समविष्ट किये गये हैं | पीढीयों का परिगणन करनेवाले पार्गिटर के सिद्धान्त को | इस बात पर ध्यान देते हुए, केवल उपलब्ध राजाओं के ग्राह्य माना है, एवं उसी सिद्धान्त को भारतीय युद्ध तक | पीढ़ीयों के परिगणन के आधार पर कालनिर्णय का कृत, त्रेता एवं द्वापरयुग समाप्त होने के जनश्रुति से | कौनसा भी सिद्धांत व्यक्त करना अशास्त्रीय प्रतीत होता है। मिलाने का प्रयत्न उन्होंने किया है। इन दोनों सिद्धान्तों | फिर भी पौराणिक जानकारी को तर्कशुद्ध एवं ऐतिहासिक को एकत्रित कर वे सगर राजा (४० वीं पीढ़ी) के साथ | चौखट में बिठाने का एक प्रयत्न इस नाते जयचंद्रजी का कृतयुग की समाप्ति, राम दाशरथि (६५ वीं पीढी) के उपर्युक्त सिद्धान्त महत्त्वपूर्ण प्रतीत होता है। साथ त्रेतायुग का अंत, एवं कृष्ण (९५ वीं पीढ़ी) के मन्वन्तर कालगणना पद्धति-पौराणिक साहित्य में देहावसान के साथ द्वापरयुग की समाप्ति ग्राह्य मानते हैं। उपलब्ध अन्य एक कालपरिगणनापद्धति ' मन्वन्तर (वायु. ९९-४२९)। उनका यही सिद्धांत निम्नलिखित पद्धति' नाम से सुविख्यात है। इस परिमाणपद्धति के तालिका में ग्रथित किया गया है: अनुसार, कुल चौदह मन्वन्तर दिये गये हैं, जिनके अधिपति राजाओं को मनु कहा गया है। चौदह मन्वन्तर मिल कर एक कल्प बन जाता है । मन्वन्तर कालगणना कालमर्यादा कालमर्यादा पद्धति के परिमाण पौराणिक साहित्य में निम्नप्रकार दिये । गये है :कृतयुग १-४० प्रारंभ से ४०४ १६ = २ त्रुटि = ३ निमेष. पीढ़ीयाँ सगर राजा ६४० वर्ष २ आधा निमेष = १ निमेष. तक २५ निमेष = १. काष्ठा. ३० काष्ठा = १ कला. त्रेतायुग ४१-६५ सगर राजा २५४ १६ = पीढ़ीयाँ से राम ४०० वर्षे ३० कला = १ मूहूर्त. दाशरथि तक ३० मुहूर्त = १ अहोरात्र. २५ अहोरात्र दिन = १ पक्ष. द्वापरयुग | ६६-९५ रामदाशरथि ३०४ १६ = २ पक्ष = १ महीना. पीढीयाँ से कृष्ण तक ४८० वर्ष ६ महीने = १ अयन. २ अयन = १ वर्षे । कलियुग - | भारतीय युद्ध के पश्चात् (१०५० वर्ष) ४३ लक्ष २० हजार वर्ष = १ पर्याय (महायुग), जिसमें कृत, त्रेता, द्वापर एवं कलि के प्रत्येकी एक युग समाविष्ट है। कुल पीढ़ीयाँ -९५ पहले तीन युगों की ७१ पर्याय = १ मन्वन्तर. कालमर्यादा-१,५२० वर्ष १४ मन्वन्तर = १ कल्प, (भवि. ब्राह्म. २; मार्क. ४३; विष्णु. १.३; मत्स्य. जयचन्द्रजी के अनुसार, कृत, त्रता एवं द्वापर युगों १४२, स्कंद. ६.१५४; ७.१.१०५, पन. सृ. ३)। की कुल कालावधि क्रमशः ६५०,४००, एवं ४७५ साल मानी गयी है। भारतीय युद्ध का काल १४२० ई. पू. पौराणिक साहित्य के अनुसार, वराहकल्प में से निर्धारित करते हुए वे कृतयुग, त्रेतायुग, एवं द्वापरयुग स्वायंभुव, स्वारोचिष, उत्तम, तामस, रैवत एवं चाक्षुष का कालनिर्णय निम्नप्रकार करते हैं : नामक छः मन्वन्तर अब तक हो चुके है, एवं वर्तमान काल में वैवस्वत मन्वन्तर शुरू है । इस मन्वन्तर के पश्चात् कृतयुग-२९५० ई. पू.-५३०० ई. पू. | सावर्णि, दक्षसावर्णि, ब्रह्मसावर्णि, धर्मसावर्णि, रुद्रसावर्णि, ११७० Page #1192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कालगणनापद्धति प्राचीन चरित्रकोश कालगणनापद्धति रोच्य एवं भौत्य नामक सात मन्वन्तर क्रमशः आनेवाले | नक्षत्र के काल में की गयी थी। खगोल एवं ज्योतिःशास्त्र के हिसाब से, कृत्तिका एवं मृगशिरा नक्षत्रों में वसंतपौराणिक साहित्य में प्राप्त कल्पना के अनुसार, मनु | संपात क्रमशः आज से ४५०० एवं ६५०० सालों के पूर्व वैवस्वत को इस सृष्टि का पहला राजा माना गया है, थी। इसी हिसाब से ब्राह्मण ग्रंथ एवं वैदिक संहिता का काल एवं उस साहित्य में निर्दिष्ट सूर्य, सोम आदि सारे वंश | क्रमशः २५०० ई. पू. एवं ४५०० ई. पू. लगभग निश्चित उसीसे उत्पन्न माने गये हैं। यदि भारतीय युद्ध का किया जाता है। काल १४०० ई. पू. माना जाये, तो मनु वैवस्वत का सप्तर्षि शक-ज्योतिर्विज्ञान की कल्पना के अनुसार, काल इस युद्ध के पहले ९५ पीढ़ीयाँ अर्थात् (९५४ आकाश में स्थित सप्तर्षि तारकापुंज की अपनी गति रहती १८ वर्ष + १४०० =) ३११० ई. पू. साबित होता है। है, एवं वे वह सौ साल में एक नक्षत्र भ्रमण करते हैं । कल्पों की नामावलि-मन्वंतरों के साथ-साथ. कल्पांतरों | इस प्रकार समस्त नक्षत्र मंडळ का भ्रमण पूर्ण करने के की नामावलि भी पौराणिक साहित्य में प्राप्त है, किन्तु | लिए उन्हें २७०० साल लगते हैं, जिस कालावधि को अतिशयोक्त कालमर्यादाओं के निर्देश के कारण, ये सारी | 'सप्तर्षि चक्र' कहते है। नामावलियाँ अनैतिहासिक एवं कल्पनारम्य प्रतीत होती __ सप्तर्षिकाल एवं शक का निर्देश पौराणिक साहित्य हैं। इनमें से मत्स्य में प्राप्त नामावलि विभिन्न पाठभेदों के साथ नीचे दी गयी है:- १. श्वेत (भव, भुव, भवोद् में प्राप्त है (वायु. ९९.४१८-४२२; भा. १२.२. २६-३१, ब्रह्मांड. ३.७४.२३१-२४०, विष्णु. ४.२४. भुव); २. नीललोहित (तप); ३. वामदेव (भव ); | ३३; मत्स्य, २७३.३९-४४)। इस शक को 'शक४. रथंतर (रंभ); ५. रौरव (रौक्म, ऋतु); ६. देव काल' एवं 'लौकिक काल' नामांतर भी प्राप्त थे। (प्राण, ऋतु ); ७. बृहत् (वह्नि); ८. कंदर्प (हव्यवा काश्मीर के ज्योतिर्विदों के अनुसार, कलिवर्ष २७ वाहन); ९. सद्य (सावित्र); १०. ईशान (भुव, शुद्ध); चैत्रशुक्ल प्रतिपदा के दिन इस शक का प्रारंभ हुआ था। ११. तम (ध्यान, उशिक); १२. सारस्वत (कुशिक); इसी कारण इस शक में क्रमशः ४६ एवं ६५ मिलाने से १३. उदान (गंधर्व); १४. गरुड (ऋषभ ); १५. कौम (षडज् ); १६, नारसिंह ( मार्जालिय, मजालिय) १७. परंपरागत शकवर्ष एवं ई. स. वर्ष पाया जाता है। अल्बेरुनी के ग्रंथ में ( शक ९५२) 'सप्तर्षि शक' का समान-(समाधि, मध्यम ); १८. आग्नेय (वैराजक; १९.. निर्देश प्राप्त है, जहाँ उस समय यह शक मुलतान, सोम-( निषाद); २०.मानव (भावन, पंचम); २१. तत्पुरुष पेशावर आदि उत्तर पश्चिमी भारत में प्रचलित होने का (सुप्तमाली, मेघवाहन ) २२. वैकुंठ (चिंतक, चैत्रक); निर्देश प्राप्त है। आधुनिक काल में यह शक काश्मीर, २३. लक्ष्मी (अर्चि, आकूति ) २४. सावित्री (विज्ञाति, एवं उसके परवर्ति प्रदेश में प्रचलित है। सुविख्यात ज्ञान); २५. घोरकल्प (लक्ष्मी, मनस्, सुदर्श); २६. 'राजतरंगिणी' ग्रंथ में भी इसी शक का उपयोग किया वाराह (भावदर्श, दर्श); २७. वैराज (गौरी, बृहत् ); २८. गौरी (अंध, श्वेतलोहित ); २९. माहेश्वर (रक्त); | ३०. पितृ ( पीतवासस् ); ३१. सित (असित); ३२. __ भारतीय युद्ध का कालनिर्णय-प्रानीन भारतीय विश्वरूप (वायु. २१, लिंग. १.४, मत्स्य. २८९; स्कंद | इतिहास में भारतीय युद्ध एक ऐसी महत्त्वपूर्ण घटना है ७.१०५)। कि, जिसका कालनिर्णय करने से बहुत सारी घटनाएँ सुलभ - वसंतारंभकाल-ज्योतिर्विज्ञानीय तत्त्व का आधार | हो सकता है। ले कर प्राचीन वैदिक साहित्य का कालनिर्णय करने का | पुलकेशिन् (द्वितीय) के सातवीं शताब्दी के ऐहोल अद्वितीय प्रयत्न लोकमान्य तिलकजी ने किया। शिलालेख में भारतीय युद्ध का काल ३१०२ ई. पू. दिया उन्होंने प्रमाणित आधारों पर सिद्ध किया कि, जिस | गया है। सुविख्यात ज्योतिर्विद आर्यभट्ट के अनुसार समय कृत्तिका नक्षत्र में वसंतारंभ था, एवं उसी | कलियुग का प्रारंभ भी उसी समय तय किया गया है। नक्षत्र के आधार पर दिन-रात की गणना की जाती। किंतु पलीट के अनुसार, भारतीय युद्ध के कालनिर्णय थी, उस समय ब्राह्मण ग्रंथों का निर्माण हुआ था। उसी | की आर्यभट्ट की परंपरा काफी उत्तरकालीन एवं अनैतिप्रकार, वैदिक मंत्रसंहिताओं की रचना भी मृगशिरा हासिक है । वृद्धगर्ग, वराहमिहिर आदि अन्य ज्योतिर्विद गया है। ११७१ Page #1193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कालगणनापद्धति कालनिर्णयकोश ग्रंथों का कालनिर्णय एवं कल्हण जैसे इतिहासकार भारतीय युद्ध का काल कई प्रमुख शक--सप्तर्षि शक के अतिरिक्त पौराणिक कलियुग के पश्चात् ६५३ वर्ष, अर्थात् २४४९ ई. पू. साहित्य में कई अन्य शकों का निर्देश पाया जाता है, मानते हैं। भारतीय ज्योतिषशास्त्र की इन दो परस्पर जिनमें निम्नलिखित शक प्रमुख माने जाते हैं:-- विरोधी परंपराओं से ये दोनों कालनिर्णय अविश्वसनीय १. परशुराम शक--इस शक का प्रारंभ शालिवाहन प्रतीत होते हैं। शक वर्ष ७४७ में हुआ। इसकी परिगणना, एक हज़ार पौराणिक साहित्य में प्राप्त राजवंश एवं पीढ़ीयों के साल का एक चक्र, इस हिसाब से होती है । इस प्रकार आधार से भारतीय युद्ध का कालनिर्णय करने का सफल इस शक का चतुर्थ चक्र सांप्रत चालू है । सौर पद्धति के . प्रयत्न पार्गिटर ने किया है । मगध देश के राजा महा- अनुसार इस शक का परिगणन किया जाता है । पद्यनंद से पीछे जाते हुए जनमेजयपौत्र अधिसीमकृष्ण दक्षिण भारत के केरल प्रांत में मंगलोर से लेकर कन्यातक छब्बीस पीढ़ीयों की गणना कर, पार्गिटर ने कुमारी तक एवं तिनीवेल्ली जिले में यह पाया जाता है। इस भारतीय युद्ध का काल ९५० ई. पू. सुनिश्चित किया है शक का प्रारंभ केरल प्रांत में कन्या माह से, एवं तिनीवेल्ली (पार्गि. १७९-१८३)। जिले में सिंह माह से प्रारंभ होता है । ईसवी सन में से ८२५ किन्तु पौराणिक साहित्य एवं महाभारत में प्राप्त साल कम करने से परशुराम शक का हिसाब हो सकता है। निर्देशों के अनुसार परिक्षित् राजा का जन्म, एवं महा- २. विक्रम संवत्-इस संवत् का प्रारंभ ई. स. पू. ५७. पद्म नंद राजा के राज्यारोहण के बीच १०१५ वर्ष माना जाता है। इस संवत् का प्रचार, गुजरात एवं बंगाल बीत चुके थे। महापद्म नंद का राज्यारोहण का वर्ष ३८२ के अतिरिक्त बाकी सारे उत्तर भारत में पाया जाता है। ई. पू. माना जाता है । इसी हिसाब से भारतीय युद्ध नर्मदा नदी के उत्तर प्रदेश में इस संवत् का प्रारंभ चैत्र ।। का काल १०१५ + ३८२ = १३९७ इ. पू. सिद्ध होता माह में होता है, एवं माह का परिगणन पौर्णिमा तक रहता . है। इसी काल में पौराणिक राजवंशों के ९५ पीढ़ीयों के है। गुजरात प्रदेश में इस संवत् का वर्ष कार्तिक माह काल में १७१० वर्षों का काल मिलाये जाने पर वैवस्वत में शुरु होता है। मनु का काल निश्चित होता है। यह काल निश्चित करने से। ३. कलियुग संवत्--(भारतीय युद्ध संवत् अथवा ययाति, मांधातृ, कार्तवीर्य अर्जुन, सगर, राम दाशरथि युधिष्ठिर संवत् )-इस संवत् का प्रारंभ ई. पू. ३१०२ में आदि का काल सुनिश्चित किया जा सकता है। माना जाता है। स्कंद पुराण में यह प्रयुक्त है। २. ग्रंथों का कालनिर्णय वेद, उपवेद, उपनिषद्, स्मृति, महाभारत, पुराण tive Catalogue of Sanskrit Manuscripts in आदि प्रमुख प्राचीन ग्रंथों का काल निर्णय नीचे अकारादि | the Collections. क्रम से दिया गया है । इस कालनिर्णय के लिए उपयोग ध. शा.-History of Dharmashastra ( डॉ. पां. किये गये आधार ग्रंथों की नामावलि, एवं उनके लिए | वा. काणे) . प्रयुक्त संक्षेप निम्नप्रकार हैं: भारतीय विद्याभवन--History and Culture of गी. र.-गीतारहस्य (लो. बा. गं. टिळक) | Indian People (भारतीय विद्याभवन) धा. र.--धर्मरहस्य (के. ल. दप्तरी) स्मिथ--The Early History of Indian People पु. नि.--पुराण निरीक्षण (व्यं. गु. काळे) । (व्हिन्सेन्ट स्मिथ) भा.का.नि.-भारतीय युद्धकालानर्णय (के. ल. दप्तरी) रॅप्सन--Cambridge History of India, Vol.I - भा. ज्यो.--भारतीय ज्योतिःशास्त्र का इतिहास (शं. (ई.जी. रॅप्सन) बा. दिक्षित) डॉ. बेलवलकर-Systems of Sanskrit Grammar भा. सा.--भारत सावित्री (डॉ. वेलवलकर) म. उ.--महाभारत का उपसंहार (चिं. वि. वैद्य) ई. पू.--ईसा पूर्व रा. का. नि.-रामचंद्र जन्मकालनिर्णय (के. ल. दप्तरी) ____ शा. पू.-शालिवाहन शक के पूर्व ह.प्र.-हरप्रसादशास्त्री की प्रस्तावना (Descrip ११७२ Page #1194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अग्नि पुराण प्राचीन चरित्रकोश गौडपाद अग्नि पुराण--ई. स. ६००-९०० (हजरा); रचनाकाल ई. पू. ४००० ई.पू. १५००; ऋक्ससंहिता ई. स. ५००-५५० (पु. नि. १०२); ई. स. ८००- का संहिताकरण (कृष्णद्वैपायन व्यास के द्वारा)- ई. पू. ९०० (ह. प्र. १४७ )। २०००-ई. पू. १५००)। अपराकृत याज्ञवल्क्यस्मृतिभाष्य--ई. स. | एकाघ्र पुराण (ओरिसा)--१० वीं-११ वीं शताब्दी ११००-११३० (डॉ. काणे)। अष्टांगहृदय-६ वी शताब्दी । ऐतरेय ब्राह्मण--ई. पू. ४०००-ई. पू. १०००। अथर्ववेद संहिता-ई. पू. ४०००-ई. पू. १०००; | कपिलकृत सांख्यसूत्र-ई. पू. ६ वी शताब्दी । कई सूक्त ई. पू. ४००० के पूर्व । कल्कि पुराण--१८ वी शताब्दी (हजरा)। आदि पुराण--ई. स. १२०३-१२२५ (हजरां)। आपस्तंब गृह्य, धर्म एवं श्रौतसूत्र-ई. पू. ८०० कपिल संहिता-ई. स. ११००-१२०० (ह. प्र. -४०० (डॉ. काणे); ई. पू. ३ री शताब्दी के पूर्व २१८)। (गी. र. ५६१-५६२ ); ई. पू. १४२० (चिं. वि. वैद्य, | कल्हणकृत राजतरंगिणी--ई. स. ११५०-ई. स. संस्कृत वाङ्मय का इतिहास (अंग्रेजी), ३.७३)। । ११६०। आर्यभटकृत 'आर्यभटीयम् -- ई. स. ४७६- | कात्यायन वररुचिकृत वार्तिक--ई. पू. ३०० ई. पू. २०० (पाणिनिकालीन भारतवर्ष, डॉ. अगरवाल); आश्वलायन गृह्य एवं श्रौतसूत्र-ई.स. पू.८०० ई. पू. ५००-इ. पू. ४०० (पु. नि. २९१); ई. पू. ४००; ई. स. पू. १०० (म. उ. ५३)। ६००-ई. पू. ४०० (डॉ. बेलवलकर )। ईश्वरकृष्णकृत सांख्यकारिका- ई. स. २५०- | का-ई. स. २५०- | कात्यायन श्रौतसूत्र (पारस्कर सूत्र)-ई. पू. ३२५। ८००-ई. पू. ४०० (डॉ. काणे); ई. पू. १००० 'उत्पलकृत वराहमिहिर ग्रंथो के भाष्यग्रंथ-ई. | (चिं. वि. वैद्य, संस्कृतवाङ्मय का इतिहास )। स. ७८०-८७० । कात्यायन स्मृति--ई. स. ४००-७०० (डॉ. उपनिषद-उपलब्ध उपनिषद ग्रंथों के कालदृष्टि से | काणे, २१८)। तीन विभाग माने जाते है : कालिका पुराण--ई. स. १००० (हजरा)। (१) ब्राह्मण ग्रंथों के समकालीन उपनिषद ग्रंथ-ई. | काशिका (वामन एवं जयादित्य कृत)--ई. स. पू..१००० के पूर्व; १. ऐतरेय उपनिषद; २. कौषीतकी | ६५०-६६० ।। उपनिषद; ३. तैत्तिरीय उपनिषद, ४. बृहदारण्यक उप- कुमारिलभट्टकृत तंत्रवार्तिक एवं श्लोकवार्तिक निषद; ५. छांदोग्य उपनिषद; ६. केन उपनिषद । इन |-ई. स. ६५०-७०० । उपनिषदों का काल पाणिनि के पूर्वकालीन माना जाता है। कुल्लककृत मनुस्मृतिभाष्य-ई. स. ११५० (२) बुद्ध के पूर्वकालीन उपनिषद-१. कठ; २. | १३००। श्वेताश्वतर; ३. ईश; ४. मुण्डक; ५. प्रश्न ६.महानारायण कूर्म पुराण-ई. स. २ री शताब्दी (ह. प्र. उपनिषद । १८७); ई. स. ५०० के पूर्व (पु. नि. १४७)। (३) बुद्धोत्तरकालोन उपनिषद (सांप्रदायिक उप कौटिलीय अर्थशास्त्र--ई. पू. ३००-ई. पू. निषद ग्रंथ)--१. जाबाल उपनिषद, २. परमहंस उपनिषद; १००। ३. सुबाल उपनिषद आदि । उपवर्षकृत पूर्वमीमांसा एवं वेदांतसूत्र-ई. पू. | . गरुड पुराण-ई. स. ६५०- ई. स. ९५० (हजरा); १००-ई. स. १००। ई. स. ३ री शताब्दी (ह. प्र. १९३)। उशनस्स्मृति-(स्मृति देखिये)। | गर्ग संहिता-ई. पू. १४५ (म. उ. ४७); ई. स. ऋग्वेद-प्राचीनतम सूक्त ई. पू. ४००० (डॉ. काणे); | १० वी शताब्दी (ह. प्र. २१७)। ई. प. २००० ( ब्लुमफिल्ड); ई. पू. २५००-ई. पू. | गौडपादकृत सांख्यकारिकाटीका एवं यक्ति२००० (विन्टरनिट्ज)। ऋग्वेदसंहिता का सर्व सामामान्य | दीपिका--ई. स. ७००-७५०। ११७३ Page #1195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गौतम धर्मसूत्र कालनिर्णयकोश भगवद्गीता गौतम धर्मसूत्र -ई. पू. ६००-ई. पू. ४०० (डॉ. निरुक्त (यास्ककृत)---ई. पू. ८००-५०० काणे); ई. पू. ६०० (ध. र. २३०); ई. पू. ३५० पतंजलिकृत योगसूत्र--ई. पू. १००-ई. स. ३००; (डॉ. जायसवाल ); पुनर्सस्करण ई. पू. २००। १५० ई. पू. (डॉ. भांडारकर ) (म. उ. ५८)। चरक संहिता-ई. पू. २ री शताब्दी, जो काल | पतंजलिकृत व्याकरण महाभाष्य-ई. पू. १५०आचार्य चरक कनिष्क राजा के समकालीन होने के कारण | ई. स. १०० (म. उ. ५८); ई. पू. १४० (पु. नि. निश्चित किया गया है । इस ग्रंथ का उपलब्ध संस्करण | २८९)। दृढबल वाग्भट के द्वारा किया गया है, जिसका काल ई. | पद्म पुराण--ई. स. १४ वीं शताब्दी; उत्तरकाण्डपू. १ ली शताब्दी माना जाता है । . ई. स. ९००-१५०० (हजरा)। चार्वाक दर्शन--युधिष्ठिरशक ६६१।। पराशर स्मृति--ई. स, १००-५०० (डॉ. काणे, जातूकर्ण्य स्मृति-ई. स. २००-४०० (डॉ. काणे)। पृ. १५५)। जैन सूत्र-ई. पू. ३०० । इन सूत्रों में निम्नलिखित पाणिनिकृत अष्टाध्यायी--ई. पू. ५००-ई. पू. ग्रंथ समाविष्ट हैं:--१. आचारांग सूत्र; २. सूत्रकृतांग; ३००; ई. पू. १२००-ई. पू. ६०० (पु. नि. २९१३. स्थानांग; ४. समवायांग; ५. भगवती सूत्र;६.ज्ञाताधर्म- | ९२); ई. पू. ४८०-४१० (डॉ. आगरवाल)। कथा; ७. उपासकदशांग; ८. अंतकृद्दशां; ९. अनुत्तरौप- पारस्कर गृह्यसूत्र-ई. पू. ५००; वर्तमान संस्करणपार्तिकदीगः १०. प्रश्नव्याकरण; ११. विपाक; १२. २०० ई. पू. (डॉ. जायसवाल)। . .. दृष्टिवाद। पुलस्त्य स्मृति--ई. स. ४००-७०० (डॉ. काणे, जैमिनि अश्वमेध--ई. पू. १०० (पु. नि. ८२)। | २२८)। जैमिनिकृत पूर्वमीमांसा-ई. पू. ४००-ई. पू. बृहस्पति स्मृति--ई. स. २००-४०० ( डॉ. काणे, . २००। | २१०); ई. स. ७ वीं शताब्दी (सेक्रेड बुक्स ऑफ दी तैत्तिरीय संहिता-ई. पू. ४०००-ई. पू. १०००; ईस्ट, ३३.२७६)। कई सूक्त ई. पू. ४००० के पूर्व (डॉ. काणे); ई. पू. बौधायन धर्मसूत्र--ई. पू. ५००-२०० (डॉ. २३५० (लो. तिलक, ओरायन); ई. पू. १४२६ (वेद- काणे, ३०)। . कालनिर्णय पृष्ठ २६)। ___ बौधायन श्रौतसूत्र--ई. पू. ८००-४०० (डॉ. त्रिपिटक–ई. पू. १ ली शताब्दी । बौद्ध धर्म के ये | नाटक काणे, गीतारहस्य ५६२)। अनुश्रुतिग्रंथ विनयपिटक (७ ग्रंथ ), सुत्तपिटक (५ बौधायन स्मृति--ई. पू. ४०२ (स्मृति देखिये )। संकलन), अभिधम्मपिटक (७ ग्रंथ ) इन तीन विभागों ब्रह्म पुराण--मूल रचना-ई. स. ५ वीं शताब्दी के में विभाजित है। | पूर्व; ई. स. १० वी-१२ वीं शताब्दी; वासुदेवमहात्म्य देवल स्मृति-ई. स. ४००-६०० (डॉ. काणे. पृ. | अ. १७६-२१३-१३ वी शताब्दी (हजरा)। ब्रह्मवैवर्त पुराण--ई. स. ८००-९०० (ह. प्र. देवी पुराण--७ वीं शताब्दी का उत्तरार्ध (हजरा)। | १५९)। धर्मसिंधु (काशीनाथ उपाध्याय कृत)-ई. स. | ब्रह्मांड पुराण--ई. स. ३००-६०० ( हजरा); ई. १७९०। स. ४०० के पूर्व (पु. नि. १४३); ई. स. ४ थी-५ वी नंदी पुराण--८ वीं-९वीं शताब्दी (हजरा)। शताब्दी (ह. प्र.)। नारद पुराण---ई. स. ७००-१००० (हजरा)। | बृहद्धर्म पुराण--१३ वीं-१४ वीं शताब्दी। इस पुराण में अन्य पुराणों की एक सूची प्राप्त है, बृहस्पति स्मृति--ई. स. ३००-५००। जिसका काल ई. स. ५०० के पूर्व का माना जाता है भगवद्गीता-ई. पू. २०० (विंटरनिट्ज); ई. (पु. नि. ९४)। पू. ५०० (गी. र. ५६४); ई. पू. ५००-२०० (डॉ. नारद स्मृति--ई. स. १००-४०० ( डॉ. काणे.)। | काणे.); ई. पू. २०००-१००० चिं. वि. वैद्यकृत संस्कृत नृसिंह पुराण-९ वी शताब्दी (हजरा); ई. स. | वाङ्मय का इतिहास); ई. पू. ११९७ (ध. र. १६६१४०० के पूर्व (ह. प्र.)। ११७५ २२१)। Page #1196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवद्गीता प्राचीन चरित्रकोश वायु पुराण भगवद्गीताकथन की तिथि-- मार्गशीर्ष शुक्ल १३ , माठरकृत माठरवृत्ति-(सांख्यकारिकाभाष्य) ई. (भारतसावित्री, नीलकंठी टीका ); मार्गशीर्ष शुक्ल ११ स. ४००-५००। (ज. स. करंदीकर ); मार्गशीर्ष अमावास्या (ध. र.)। मार्कडेय पुराण-ई. स. ३००-६०० (हजरा ); भविष्य पुराण--६ वी-७ वी शताब्दी (हजरा)। 'सप्तशती' आख्यान-ई. स. ९९८ । शंकराचार्य, बाणभविष्योत्तर पुराण--ई. स. १०० (हजरा)। भट्ट एवं मयुरभट्ट ने अपने ग्रन्थों में इस पुराण का निर्देश भागवत--५ वीं-१० वीं शताब्दी (हजरा); ५ वीं किया है। शताब्दी के मध्य में (कृष्णमूर्ति शर्मा ); ९ वीं शताब्दी मेधातिथिकृत मनुस्मृतिभाष्य--ई. स. ८२५(डॉ. काणे); ई. स. ८०० के पूर्व में (पु. नि. ९०); ९००। ई. स. ३९८ (ध. र.)। मैत्र्युपनिषद-ई. पू. १९०० (चिं. वि. वैद्यकृत भासकृत नाट्यकृतियों-ई, स. २००-३०० । संस्कृत वाङ्मय का इतिहास)। (गी. र. ५५५); ई. पू. २००-३०० (पं. गणपति- यमस्मृति-(स्मृति देखिये)। शास्त्री)। यास्ककृत निरुक्त-ई. पू. ७००। मत्स्य पुराण-ई. स. २००-४०० (हजरा ); ई. याज्ञवल्क्य स्मृति-ई. पू. ३००-ई. स. १०० (डॉ. स. २ री शताब्दी के पूर्व में (ह. प्र. १९१; पु. काणे. १८४); ई. पू. १०२ (ध. र. २२७)। नि. १५२)। युक्तिदीपिका (सांख्यकारिकाभाष्य)-ई. स. ६००मनु स्मृति-ई. पू. २००-ई. स.१०० (डॉ. काणे); | ६५०। ई. पू. १५२ (स्मृति देखिये)। लगधकृत ऋग्वेदी वेदांगज्योतिष-- ई.प. महाभारत-ई. पू. १४०० (हिस्ट्री ऑफ इंडियन १२६९-११८१ (लो. टिळक-ओरायन ३७-३८); कल्चर अँड पीपल), जो कालनिर्णय पुराणों में प्राप्त ई. पू. १४०० (भा. ज्यो. ८८)। कलियुगीन राजाओं की वंशावलि, एवं आचार्यों की लिखित स्मृति-ई. पू. ४०२-२०२ (डॉ. काणे, नामावलि के आधार पर तय किया गया है । इसी ग्रंथों २३७)। . के आधार से पार्गिटर ने भारतीय युद्ध का काल ९५० ई. वररुचिकृत प्राकृतप्रकाश-ई. स. ६ वीं शताब्दी। प. तय किया है। किन्तु इस कालनिर्णय की अपेक्षा ई. पू. वराह पुराण-ई.स.१० वीं शताब्दी के पूर्व (हजरा)। १४०० ही अधिक सुयोग्य प्रतीत होता है। वराहमिहिरकृत 'बृहज्जातक,' 'बृहत्संहिता,' ज्योतिषशास्त्रीय अनुमान-आर्यभट के अनुसार एवं पंचसिद्धांतिका'-ई. स. ५००-५७५।। भारतीय युद्ध का काल ई. पू. ३१०२ तय किया गया वसिष्ठ धर्मसूत्र--ई. पू. ५००-३०० (डॉ. काणे) है। वृद्धगर्ग, वराहमिहिर एवं कल्हण के अनुसार वसिष्ठ स्मृति--ई. पू. ६०० (डॉ. काणे)। २४४९ ई. पू. माना गया है। वाग्भट--ई. स. ४ थी शताब्दी। डॉ. जायसवाल के अनुसार महाभारत की आधार वाचस्पतिकृत योगसूत्रभाष्य-ई. स. ८२०भूत सामग्री यद्यपि प्राचीन है, फिर भी उसका उपलब्ध ९००। संस्करण ई. पू. १५० में तैयार किया गया है, एवं ई. स. ५०० तक उस संस्करण में अनेकानेक नई सामग्री का वात्स्यायन कामसूत्र--ई. स. ३०० (चकलदार)। जोड़ देने का कार्य शुरू था। वात्स्यायन न्यायसूत्रभाष्य--ई. स. ४०० (डॉ. __डॉ. सुखटणकर के अनुसार, महाभारत की रचना | विद्याभूषण)। सर्वप्रथम बद्रिकाश्रम में हुई, एवं ई. पृ. ३ री --२ री वामन पुराण--ई. स. ६००-९०० (हजरा); ई. शताब्दी तक भृगुवंशीय ब्राह्मणों के द्वारा उसके संपादन, स. २ री शताब्दी (ह. प्र. १८३)। परिवर्तन एवं संशोधन का कार्य होता ही रहा। चिं. वि. वायु पुराण--ई. स. ३५०-५५० (हजरा); मूलग्रंथ वैद्य एवं जयचन्द्र विद्यालंकार के अनुसार, महाभारत का. की रचना ई. पू. २०३८ (ध. र. १६४); उपलब्ध मूल रचनाकाल ३५० ई. पू. एवं ५०० ई. पू. माना ! संस्करण ई. स. ६२० (पार्गि. ५०); ई. स. ४०० (पु. जाता है। | नि. ७०)। ११७५ Page #1197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाल्मीकि रामायण वाल्मीकि रामायण - वाल्मीकि कृत आदिकाव्यई. पू. ३००, वाल्मीकि का प्रचलित रामायणग्रंथ - ई. पू. २ री शताब्दी । कालनिर्णयकोश अन्य मत -- डॉ. याकोबी - ई. पू. ६ वीं शताब्दी; डॉ. मॅक्डोनेल - ई. पू. ६ वीं शताब्दी; डॉ. मोनियर विल्यम्स - ई. पू. ५ वीं शताब्दी; श्री. चिं. वि. वैद्यई. पू. ५ वी शताब्दी, डॉ. कीथ - ई. पू. ४ थी शताब्दी; डॉ. विंटर नित्स - ई. पू. ३ री शताब्दी । विलुप्त धर्मसूत्रग्रंथ (काठक, कालापक, मौदक, पैप्पलाद, आर्थवण आंगिरस ) - ई. पू. ७०० । विश्वरूपकृत वृहदाण्यकोपनिषद भाष्य - ई. स. ७९०-८५०; याज्ञवल्क्य स्मृतिभाप्य - ई. स. ७९०.८५० । विष्णु पुराण -- ई. स. ३०० - ५०० (हजरा ); ई. स. ५ वी शताब्दी (पार्गि. ८० ); ई. स. ३ री शताब्दी ( ह. प्र. ) । विष्णुधर्मसूत्र - - ई. स. १००-५५० ( डॉ. काणे ) । विष्णुधर्मोत्तर पुराण -- ई. स. ६००-९०० (हजरा ) | वेदांग ज्योतिष ( लगधकृत ) - ई. पू. ८०० - ४०० | वेदांतसूत्र - ई. पू. १५०-१०० ( म. उ. ५१ ) । उपलब्ध वेदांतसूत्रों में जैन, बौद्ध एवं पांचरात्र धर्मसिद्धांतों का खंडन प्राप्त है, जिससे प्रतीत होता है कि, इस ग्रंथ का उपलब्ध संस्करण बुद्धोत्तरकालीन है। व्याडिकृत ' संग्रह ' ( व्याकरणग्रंथ ) -- ई. पू. ३०० । व्यासकृत योगसूत्रभाष्य - ई. स. ४००-५००। व्यासस्मृति - ई. स. २००-५०० ( डॉ. काणे, २३८ ) । शंकराचार्यकृत गीता, उपनिषद, एवं ब्रह्मसूत्रभाष्य - ई. स. ७८८ - ८२० ( डॉ. काणे. २६१ ) । शंखस्मृति - ई. पू. ४०२ - २०२ ( डॉ. काणे. २.३७) । शतपथ ब्राह्मण ई. पू. ४००० - १००० ( डॉ. काणे); ई. पू. ३१०० ( भा. ज्यो. १२८ ); ई. पू. २५०० ( रामायण समालोचना ८.४१ ); ई. पू. १४२२ ( विविधज्ञानविस्तार १९२८, पृ. २७ ) । इस ग्रन्थ का उत्तरार्ध काफी उत्तरकालीन माना जाता है, जिसका काल ई. स. पू. ११२२ माना जाता है । शबरकृत पूर्वमीमांसाभाष्य - ई. स. २०० - ४०० । हाल सातवाहन शाकटायनकृत उणादि सूत्रपाठ -- ई. पू. १००० ( डॉ. वेलवलकर) । शिव पुराण - ई. स. ९ वीं शताब्दी (हजरा ) । शौनक गृत्समदकृत ऋग्वेदानुक्रमणी -- ई. पू. २०५० (पु. नि. २८५ - २८६ ) । संवर्त स्मृति-- (स्मृति देखिये ) | सत्याषाढ श्रौतसूत्र -- ई. पू. ८००-४०० । सांब पुराण -- ई. स. ९ वीं शताब्दी । सायण कृत ऋक्संहिता भाष्य - ई. स. १३००१३८६ । सुश्रुत संहिता - काल अनिश्चित, किंतु ८ वीं शताब्दी में इस ग्रन्थ की ख्याति विदेश में पहुँची थी । स्कंद पुराण -- ई. स. ७ वीं शताब्दी - ९ वीं शताब्दी | स्मृति - विभिन्न स्मृतिग्रंथों की जानकारी कालानुक्रम से नीचे दी गयी है: (१) गौतम स्मृति - ई. पू. ६०२ । ( २ ) वसिष्ठ स्मृति-- ई. पू. ६०२ ( गौतमस्मृति के उत्तरकालीन ) । ( ३ ) शंखलिखित स्मृति - - ई. पू. ४०२ - २०२ । ( ४ ) पौधायन स्मृति - ई. पू. ४०२ । (५) विष्णु स्मृति - ई. पू. १७५ । (६) मनुस्मृति - ( भृगुप्रोक्त. ) -- ई. पू. १५२ (७) बृहस्पति स्मृति - ई. पू. १२७ । (८) व्यास स्मृति - महाभारतकालीन । ( ९ ) अत्रिस्मृति (१०) अंगिरस्स्मृति (११) आपस्तं स्मृति (१२) उशनस्स्मृति (१३) कात्यायनस्मृति (१४) दक्षस्मृति (१५) पराशरस्मृति (१६) यमस्मृति (१७) याज्ञवल्क्यस्मृति (१८) शांतात पस्मृति (१२) हारित स्मृति पू. १०२ स्मृतिचंद्रिका (देवन्नभट्टकृत ) -- ई. स. १२००१२२५ । हरदत्तकृत गौतमसूत्रभाष्य – ई. स. ११५०१३०० । ११७६ हाल सातवाहनकृत गाथासप्तशती - ई. स. ९९-१०२ (पु. नि. २१९ ) । Page #1198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अजातशत्रु प्राचीन चरित्रकोश ३. व्यक्तियों का कालनिर्णय अजातशत्रु ( शिशु. भविष्य ) -- ई. पू. ४८८ ( डॉ. दप्तरी ); मृत्यु. ई. पू. ५२७ ( रॅप्सन ) । अधिसीम कृष्ण -- (सो. पूरु. भविष्य ) जनमेजय राजा के इस प्रपौत्र से कलियुग का प्रारंभ होता है । पार्गिटर के अनुसार, इस राजा से लेकर महापद्म नंद तक छब्बीस पीढीयाँ (२६× १८ = ४६८ वर्ष) बीत गयी थीं । कृत, त्रेता, द्वापर, एवं कलि इन चार युगों के १००० साल बीत जाने के बाद द्वादशवर्णीय सत्र किया जाता था। उनमें से द्वितीय द्वादशवर्णीय सत्र के समय यह राज्य करता था ( डॉ. दप्तरी ) | अभिमन्यु -- विवाह - आषाढ शुक्ल एकादशी, मृत्युमार्गशीर्ष शुक्ल द्वादशी (भा. का. नि. ); पौष कृष्ण अष्टमी ( भा.सा.) । अशोक - - (मौर्य. भविष्य . ) राज्याभिषेक - ई. पू. २७३ (गौरीशंकर ओझा)। २४९, आंध्र--(भविष्य.) इस राजवंश का प्रारंभ ई. पू. एवं समाप्ति ई. स. २२५ मानी जाती है (स्मिथ) । इस वंश के राजाओं ने ई. पू. ५५ में मगध देश जीत · लिया था ( डॉ. दप्तरी ) | अपिशालि (व्याकरणकार )--ई. पू. ७५० -ई. पू. 1006 आयु -- (सो. पुरुरवस्.) ई. पू. २१८७ - ई. पू. २१०० (.पु. नि. ३२७ ); ई. पू. २१०२ (डॉ. दप्तरी ६.३ ) । इक्ष्वाकु – ई. पू. २६०० ( पु. नि. ३१५ ); ई. पू. २१२७ ( डॉ. दप्तरी ) । - उलूक-वध- पौष अमावास्या ( भा. सा. ) । कंस वध - ई. पू. १२३७ ( डॉ. दप्तरी ) । कर्ण वध कृष्ण १४ ( भा. सा.) । कलि (युग ) - इस युग का प्रारंभ ई. पू. ३१०२ माना जाता है। कल्कि -- इस अवतार का प्रारंभ ई. पू. ४०२ में माना जाता है (डॉ. दप्तरी ) | प्रा. च. १४८ ] तृणबिंदु कश्यप -- इस ऋषि का काल ई. पू. ५६९४ माना है ( पु. नि. ३०९ ) । काकवर्ण - (शिशु. भविष्य . ) राज्यकाल - ई. पू. ७०० के पूर्व (पु. नि. ३२४); ई. पू. ५७२ - ई. पू. ५५४ ( डॉ. दप्तरी ) । काण्व वंश - ( काण्व. भविष्य . ) राज्यकाल - ई. पू.. ७०० के पूर्व (पु. नि. ३२४ ); ई. पू. १०० - ई. पू. ५५ ( डॉ. दप्तरी ) । किलकिल वंश (कैनकिल ) -- समाप्ति - ई. स. ५५० ( पु. नि. २३७ ) । कृष्ण - - (सो. वृष्णि . ) ई. पू. १२५१ - ११७५ (डॉ. दप्तरी); निर्वाण ई. पू. १२८९ । आधुनिक इतिहास की दृष्टि से कृष्ण एवं उसके परिवार का काल ई. पू. १९५०१४०० माना जाता है। २. (आंध्र. भविष्य.) ई. पू. १६८ - ई. पू. १५० ( पु. नि. २१ ) । क्षेमक वंश - (सो. पूरु. भविष्य . ) ई. पू. ३८४ (पु. नि. २७९; २२७ ); समाप्ति - ई. पू. ८०१ । गर्ग ( यादव पुरोहित) - ई. पू. ११८१ (पु. नि. २५० ) । ४२७) । गुप्त वंश - राज्यकाल - ई. स. ३१९-४९९ (पु. नि. २. ई. पू. ११९२ - ११८२ ( पु. नि. २४६ ) । गौतमीपुत्र - (आंध्र. भविष्य. ) राज्यकाल - ई. स. १४२-१४३ (पु. नि. २१९ ) । इडविडा -- ई. पू. १६६४ ( रा. का. नि. ४६ ) । उदयन--(सो. कुरु. भविष्य.) ई. पू. ६०० (पु. नि. २७९) । घटोत्कच - वध - पौष कृष्ण ११ । चंद्रगुप्त - - ( मौर्य. भविष्य . ) राज्यकाल - ई. पू. ३२१ उपवर्ष (पाणिनीय परंपरा का व्याकरणकार ) - . पू. - २९७ ( रॅप्सन ); राज्याभिषेक - ई. पू. ३१२ ( पु. नि. १२०० - ई. पू. ९०० | १९३; २०४; ३१५; डॉ. दप्तरी ) । चाक्षुष मनु-- ई. पू. २४२२ ( रा. का. नि. ) । जनमेजय पारिक्षित (द्वितीय) -- ई. पू. ११८७ (पु. नि. २७७ ) । जयद्रथ - - वध - पौष कृष्ण ९ ( भा. सा. ) । जरासंध -- वध - ई. पू. १२१० ( डॉ. दप्तरी ) । तृणबिंदु (राजा) -- ई. पू. १६९४ ( रा. का. नि. ४६)। गोनर्द राजा (गोनंद राजा ) - राज्यकाल - ई. पू. १०६३ (पु. नि. २४५ ) । कृष्ण के द्वारा वध - ई. पू. १३१५ (राजतरंगिणी १.५०-७० ) । ११७७ Page #1199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दक्ष प्रजापति कालनिर्णयकोश मन्वन्तर दक्ष प्रजापति--ई. पू. ५७७४ (पु. नि. ३१४)। प्रद्योत--(प्रद्योत. भविष्य.) ई. पू. ४७० (पु. नि. २. (स्वायंभुव )-ई. पू. २६५४ (डॉ. दप्तरी)। | १९२)। आधुनिक इतिहास की दृष्टि से इसका राज्यकाल ३. (चाक्षुष)-राज्यकाल-ई. पू. २२०६-ई. पू. | ई. पू. ९२०-ई. पू. ७८२ माना जाता है। २१५०। प्रसेनजित्--(सू. इ. भविष्य.) ई. पू. ६०० दिवाकर--(सू. इ. भविष्य.) ई. पू. ११०६ (ध. (पु. नि. २७९)। यह बुद्ध का समकालीन राजा था। र. १७१)। बलि वैरोचन--इंद्रपदप्राप्ति- ई. पू. १६७८ (डॉ. दीर्घतमस् (ऋषि)--ई. पू. २००० (पु. नि. २८१)। । दप्तरी)। दुर्योधन-वध-पौष अमावस्या (भा. सा.)। बुद्ध--ई. पू. ७९४-ई. पू. ५१० (पु. नि. ४६७)। द्रपद--वध-पौष कृष्ण १३ (भा. सा.)। आधुनिक इतिहास की दृष्टि से गौतम बुद्ध का निर्वाण द्रोण--वध-पौष कृष्ण १२ (भा. सा.)। काल ई. पू. ५४४ माना जाता है। धृष्टद्यम्न-वध- पौष अमावस्या (भा. सा.)। बृहद्रथ--(सो. मगध.) ई. पू. १४०१ ( डॉ. दसरी) नंद वंश-(नंद. भविष्य.) राज्यकाल-ई. पू.३८४३१२ (पु. नि. २०२); ई. पू. ४२२-ई. पू. ३२२ | भगदत्त--वध--पौष कृष्ण १० ( भा. ६)। (ध. र. २१७)। भर्तृहरि--ई. स. ६१० (पु. नि. २९१)। नारायण--(कण्व. भविष्य.) मृत्यु- ई. पू. ६५ | __ भास (कवि)--ई. स. २००-३०० (गी. रं. ५५५)। (डॉ. दप्तरी)। भीष्म-पतन-पौष कृष्ण ८; निर्याण-फाल्गुन कृष्ण ८ । निमि-(सू. निमि.) ई. पू. २१०२ (पु. नि.२७८)। मगध वंश-(सो. मगध. भविष्य.) राज्यकालं पंचशिख (आचार्य)--ई. पू. २१०२ (पु. नि. | ई. पू. १९२०-ई. पू. ९२०। .. २७८)। मनु (स्वायंभुव)-ई. पू. २६७० (रा. का. नि. २. बुद्ध के समकालीन एक आचार्य (म. उ. ५९)। | ५५)। परशुराम( जामदग्न्य )-- जन्म-ई. पू. १५८८ मन्द (असुर देश का शूद्र राजवंश)--राज्यकाल-- (पु. नि. २६७)। आधुनिक इतिहास की दृष्टि से परशुराम एवं उसके 'भार्गव' वंशजों का काल ई. पू. २५५०-२३५० | ई. पू. ७००--ई. पू. ५५० (पु. नि. २९४ )। माना जाता है (वेदिक एज, २८९)। मन्वन्तर--विभिन्न मन्वन्तरों का कालनिर्णय निम्न प्रकार है:परिक्षित्--(सो. कुरु.) ई. पू. १२६३ (पु. नि. १९१)। पालक--(प्रद्योत. भविष्य.) ई. स. ४७० (पु. मन्वन्तर कालमर्यादा नि. १९२)। पुरूरवस् – ई. पू. २१७७ (पु. नि. २७७; २७९)। स्वायंभुव मन्वन्तर ई. पू. २७७०-२६६६ स्वारोचिष मन्वन्तर - इसीके राज्यकाल में पहला द्वादशवर्षीय सत्र संपन्न उत्तम मन्वन्तर ई. पू. २६६६-२६२२ हुआ था (ध. र. १५०)। तामस मन्वन्तर पुलोमत्--(आंध्र. भविष्य.) ई. स. २४९-२५० रैवत मन्वन्तर ई. पू. २६२२-२४२२ (पु. नि. २२०); ई. स. २११-२२५ (स्मिथ)। चाक्षुष मन्वन्तर ई. पू. २४२२-२१५० वैवस्वत मन्वन्तर ई. पू. २१५० से आगे। पुष्यमित्र--( शुंग. भविष्य.) राज्यकाल-ई. पू. आधुनिक इतिहास की दृष्टि से १७५-१३९ (पु. नि. २८९); ई. पू. १८४-१४८; वैवस्वत मनु का काल ई. पू. जन्मकाल-ई. पू. २१३; अश्वमेधारंभ ई. पू. १७५ ३१०० माना जाता है। (युग पुराण)। पृषदश्व--ई.पू. २१०२.(पु. नि. २७९)। (रा. का. नि. ४६-५६) ११७८ Page #1200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरु प्राचीन चरित्रकोश मरु – (सू. इ. ) ई. पू. १३३० ( ध. र. १६५ ) । महानंदिन --( शिशु. भविष्य.) ई. पू. ३८४ (पु. नि. २७९ ); अंत - ई. पू. ४१२ ( डॉ. दप्तरी ) । महावीर जन्म ई. पू. ५९९; निर्वाण - ई. पू. ५२७ ( पु. नि. १९२ - १९३) । महापद्म-- (नंद. भविष्य.) राज्याभिषेककाल - ई. (भा.. सा.) । पू. ३९८ ( डॉ. दप्तरी ) । मांधातृ - - जन्म - ई. पू. २१८० ( पु. नि. २६७ ) । आधुनिक इतिहास की दृष्टि से मांधातृ का काल ई. पू. २७५० लगभग माना जाता है ! मौर्य वंश--राज्यकाल - ई. पू. ३१२ - ई. पू. १७५ (पु. नि. २१५ ); ई. पू. ३२२ - ई. पू. (स्मिथ) । १८५ ययाति -- (सो. आयु. ) ई. पू. २१०२ ( पु. नि. २७९); पू. २०४२ (ध. र. २०९ ) । आधुनिक इतिहास की दृष्टि से ययाति का राज्यकाल ई. पू. ३००० • लगभग माना जाता है । युधिष्ठिर-- ई. पू. १२६३ (पु. नि. २६३ ) । युधिष्ठिर शक -- पौराणिक परंपरा के अनुसार, ई. पू. ३१०२ यह युधिष्ठिर शक का प्रारंभ माना जाता है । इस शक के प्रारंभ के संबंध में अन्य कई अभ्यासकों के अभिमत निम्नप्रकार है: - - ई. पू. २२०० - ज. स. करंदीकर ; ई. पू. २५२६ - राजतरंगिणी; ई. पू. १९२०आर्यभट । शौनक विक्रमादित्य (विलव ) -- (आंध्र. भविष्य.) मगधपू. १३३ (डॉ. दप्तरी ) विजय - ई. राम दाशरथि -- आधुनिक इतिहास की दृष्टि से राम दाशरथि एवं उसके वंशजों का काल ई. पु. २३५०१९५० माना जाता है । वृषसेन -- वध - पौष कृष्ण १२ प्रातः काल में रैवत (मनु ) -- ई. पू. २६२२ ( रा. का. नि. ५५ ) । लगध ( वेदांगज्योतिष का कर्ता - ई. पू. १२६९१९८१ (लो. तिलक, ओरायन ) ) वैवस्वत मनु -- ई. पु. २५५० (पु. नि. २७९ ); ई. पु. २१५० (रा. का. नि. ४७ ) । आधुनिक इतिहास की दृष्टि से वैवस्वत मनु का काल ई. पू. ३१०० माना जाता है ( मन्वंतर देखिये ) व्यास- जन्म - ई. पू. १२९३ - २१८९ ( डॉ. दप्तरी ) । २. भागवत का रचयिता, जो बुद्धोत्तर काल (ई. पू.४०० ) में उत्पन्न हुआ था। महाभारत के शांति एवं अनुशासन पर्वों की रचना इसके द्वारा ही हुई थी। शकुनि -- मृत्यु - पौष अमावस्या के दिन (भा. सा.)। शंकराचार्य - ई. स. ७८८-८२० ( डॉ. काणे, २६१ ) । जन्म - ई. स. ६१० ( गी. र. ५५९ ) । शतानीक - (सो. कुरु. भविष्य . ) ई. पू. ६०० (पु. नि. ३२६ ) । शल्य -- वध - पौष अमावस्या ( भा. सा. ) । शाकटायन - (व्याकरणकार ) - ई. पू. १००० (डॉ. बेलवलकर) । यौवनाश्व -- ई. पू. २१७० ( पु. नि. २७९ ) । शिखंडिन -- वध - पौष अमावस्या ( भा. सा. ) । रजि -- (सो. पुरुरवस्.) इंद्रपदप्राप्ति - ई. पू. १६५० . ( डॉ. दप्तरी ) । इसने प्रह्लाद से इंद्रपद की प्राप्ति की थी । शिशुक - ( आंध्र. भविष्य . ) ई. पू. १९१ - १६८ पु. नि. २१८ ) । ( शालिशूक - (मौर्य. भविष्य.) ई. पू. २१९ (पु. नि. ३१७)। शिशुनाग वंश - - ( शिशु. भविष्य.) ई. पू. ७८२ - ४२२; ई. पू. ६४२ - ३२० (स्मिथ) । शुंग -- ( शुंग. भविष्य . ) ई. पू. १८५ - १७३ । शुचि - - (सो. मगध भविष्य . ) ई. पू. ९६७ - ९३८ ( ध. र. १७२ ) । शौनक -- (सो. क्षत्र. ) ई. पू. २०५० ( पु. नि. वराहमिहिर -- जन्म - ई. पू. ५१८८ डॉ. ( दप्तरी ) । | २८५-२८६ ) । ११७९ Page #1201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शौनक कालनिर्णयकोश हिरण्यकशिपु २. ई. पू. ११०२-१०९० (पु. नि. २८६)। यह वर्ष) के पहले इस सृष्टि की उत्पत्ति हुई थी। भूगर्भशास्त्रशतानीकपुत्र जनमेजय राजा का समकालीन था। ज्ञों के अनुसार यही काल १।। अब्ज-३ अब्ज वर्ष मानी. श्रीशातकर्णि-- (आंध्र. भविष्य.) ई. पू. १५०- | गयी है। १४० (पु. नि. २१८)। ! धार्मिक संकल्प में 'अद्य ब्रह्मणो द्वितीये परार्धे, श्रीश्वेतश्वेतकेतु--ई. पू. २१०२ (ध. र. १७९)।। वाराहकल्पे, वैवस्वत मन्वन्तरे, कलियुगे इत्यादि शब्दों सहस्रार्जुन--(सो. सह.) ई. पू. १५८७-१५६७ में इस शक का निर्देश प्राप्त है। (पु. नि. २८४)। स्वायंभुव मनु-- ई. स. पू. ३१०२ (पु. नि. सावर्णि मनु-ई. पू. १६७८-१६७४(ध. र. २०६)। ३१५)। इसका एवं इसके वंशजों का राज्यकाल ई. ५. सुपर्ण-(सू. इ. भविष्य. ) ई. पू. ९५० (ध. र. | | २६७०-२१५० माना जाता है (डॉ. दप्तरी)। १७१)। सुमित्र--(सू. इ. भविष्य.) मृत्यु-ई. पू. ३८४ | हाल--(आंध्र. भविष्य.) ई. स. ९९-१०२ (पु. (पु. नि. २१४; २७९); ई. पू. ६०१ (डॉ. दप्तरी)। नि. २१९)। सृष्टि-उत्पत्तिशक-- पौराणिक कालगणना के हिरण्यकशिपु (असुर )-- ई. पृ. १६९०-१६७८. अनुसार लगभग दो अब्ज ( वर्षों १, ९६,०८, ५३०३४ । (डॉ. दप्तरी)। १९८० Page #1202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमुख चरित्रों की व्यक्तिसूचि (इस सूचि में दी गयी जानकारी व्यक्ति, पृष्ठांक एवं उपशीर्षक इस क्रम से दी गयी है)। अर्जुन ...३५-४० कश्यप की स्त्रियाँ; अदितिपुत्र; अरिष्टापुत्र; अरिष्टाविद्यार्जन; परीक्षाः पराक्रम; तीर्थयात्रा; वस्तुप्राप्ति | कन्या; कद्र पुत्र; कपिलापुत्र; कालकापुत्रः कालापुत्र; दिग्विजय; वनवास; अज्ञातवास; कृष्णसहाय्य; भारतीय काष्ठापुत्र; क्रोधवशाकन्या; खशापुत्र; ग्रावापुत्र; ताम्रायुद्ध; भीष्मवध; जयद्रथवध; युद्धसमाप्ति; अश्वमेध यज्ञ; कन्या; तिमिपुत्र; दनुपुत्र; दनायुपुत्र; दयापुत्र; दितिपुत्र; पुत्रभेंट; हतबलता; मृत्यु; कौटुंबिक ।। धनुपुत्र; पतंगीपुत्र; पुलोमापुत्र; प्राधापुत्र, प्रोवापुत्र; अहल्या ...५२-५३ मुनिपुत्र; यामिनीपुत्र; विनतापुत्र; विश्वापुत्र; सरमापुत्र; ___ जन्म; विवाह; भ्रष्टता; शाप एवं उःशाप; समर्थन | सिंहिकापुत्र; सुरभिपुत्र; सुरसापुत्र; सूर्यापुत्र; नया दृष्टिकोण; डॉ. रवींद्रनाथ टागोर का अभिमत । मानसपुत्र; गोत्रकार; मंत्रकार | इंद्र ...६८-७३ | कार्तवीर्य अर्जुन . ...१३५-१३७ शत्रु; शस्त्रसंभार; पदमाहात्म्य; पौराणिक कल्पनाएँ; | दत्त उपासना एवं वरप्राप्ति; पराक्रम; चक्रवर्तीपद; गरुड से संबंध; महाशनिवध; त्रिपुर उत्पत्ति; सुकर्माख्यान; संतति । यज्ञहविर्भाग; मरुताख्यान; सागरमंथन; वृत्रउत्पत्ति; | कृष्ण ...१५८-१६४ वृत्रवध; ब्रह्महत्यामुक्ति पुरंजयवाहन; जयापजय पुराणों बाललीला; कंसवध; शिक्षा; विवाह; जरासंधवध; शिशुमें स्थान; अधिकार; परस्परसंवाद; कृष्णसंबंध; ग्रंथनिर्मिति। पालवध; यादवी; निर्याण; तत्त्वज्ञ कृष्ण; विश्वरूपदर्शन; इंद्रजित् ...७३-७४ | ऐतिहासिक चर्चा । ___ यज्ञ; इंद्र पर जय; हनुमत् से युद्ध; विभीषण की गणपति ....१८०-१८१ भर्त्सना; युद्ध; मायावी युद्ध; दिव्य रथ; वध । अवतार; अष्टविनायक के स्थान । गौतम ....१९५-१९६ देवकार्यार्थ गमन: गुरुसेवा; संकटपरंपरा; देवयानी- शाखाप्रवर्तक धर्मशास्त्रकार; धर्मसूत्रकार । प्रणय; शाप-प्रतिशाप; गौरव । गौतम बुद्ध ....११२४-११२९ ...११७-१२१ | बुद्धों की नामावलि; जन्म; स्वरूपवर्णन; बाल्यकाल शिक्षा; गोवत्सहत्या; अवहेलना; कृतज्ञता; विवाह; एवं तारुण्य; विरक्ति; महाभिनिष्क्रमण; तपःसाधना; . बुद्धिभेदयत्न; भेंट; गंधर्वयुद्ध; विराटनगरी में दिग्विजय; परमज्ञानप्राप्ति; धर्मचक्रप्रवर्तन; बुद्ध संघ की स्थापना; राज्यविस्तार; औदार्य; शक्तिप्राप्ति; घटोत्कचवध; सैनापत्त्य; गयाशीर्ष में; राजगृह में; कपिलवस्तु में पुनश्च राजगृह में; मृत्यु; परिवार । शुद्धोदन का निधन; भ्रमणगाथा; घटनाक्रम; भ्रमणस्थल; कल्माषपाद ...१२४-१२५ | देवदत्त से विरोध; अंतिम यात्रा; महापरिनिर्वाण; दाहकर्म; नामप्राप्ति; वसिष्ठकोप; संयम; अन्य मत; असुर जीवन | तत्त्वज्ञान; बुद्ध की चतु:सूत्री; प्रमुख बौद्ध सांप्रदाय%; मुक्ति राज्याभिषेक। बौद्धधर्म के प्रमुख तीर्थस्थान; पौराणिक साहित्य में । कश्यप ___ ...१२७-१३१ चरक ...२०६-२०७ गोत्रकार; कुल; क्षत्रियरक्षा; पुत्रप्राप्ति; सों को शाप; चरक संहिता दैत्यसंहार; तीर्थोत्पत्ति; विष्णुवाहन गरुडा पृथ्वीरक्षा | दत्त आत्रेय . ....२६१-२६२ क्षत्रियाधिपति पृथ्वीपर्यटन, परिसंवाद; ग्रंथ; परिवार; । अवतारकार्य; आत्मज्ञान एवं शिष्यपरंपरा; आश्रमः १९८१ कर्ण . कण Page #1203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दत्त आत्रेय व्यक्तिसूचि प्रजापति आयु राजा को पुत्रदान; सहस्रार्जुन को वरप्रदान; भाष्य का पुनरुद्धरण; अन्य ग्रंथ; योगसूत्रपरिचय; योगदजन्मकाल; ग्रंथ; दत्त सांप्रदाय । शन । दध्यंच आथर्वण ...२६३-२६४ । परशुराम जामदग्न्य ....३८८-३९४ प्रवऱ्या विद्या; मधुविद्या; अस्थिप्रदान । शिक्षा; शिष्य; आश्रम; रेणुकावध; अस्त्रविद्या; हैहयों दुर्योधन ...२८०-२८५ ! से शत्रुत्व; कामधेनुहरण; युद्ध; कार्तवीर्यवध; जमदग्निजन्म; अस्त्रविद्या; पाण्डवों को विषप्रयोग; लाक्षागृहदाह; वध; मातृतीर्थ की स्थापना, हैहयविनाश; निःक्षत्रिय विवाह; अर्धराज्यप्रदान; इतक्रीडा; घोषयात्रा; वैष्णव- पृथ्वी; अश्वमेध यज्ञ; नया हत्याकाण्ड; हत्याकाण्ड से बचे यज्ञ; द्रौपदीसत्त्वपरीक्षा; विराट नगरी में; संजयदौत्य क्षत्रिय; शूपारक की स्थापना; परशुरामकथा का अन्वकृष्णदौत्य; भारतीय युद्ध; मृत्यु; दुर्योधन का मनोगत । यार्थ; महाभारत में; रामायण में; कालविपर्यास; परशुराम दुर्वासस् आत्रेय ...२८५-२८७ | सांप्रदाय के ग्रन्थ; परशुराम शक । __ जन्मकथा; स्वरूपवर्णन; अनुग्रहकथा; क्रोधकथा; पराशर ...३९५-३९८ देवी ...३००-३०३ राक्षससत्र; व्यासजन्म; आदरणीय ऋषि; वेदव्यास; तात्त्विक चर्चा; धर्मशास्त्रकार; ज्योतिषशास्त्रज्ञ; आयुवर्देशास्त्रकार; पुराणविभिन्न अवतार-दूर्गा; महिषासुरमर्दिनी एवं महा- | इतिहासज्ञः पराशर वंश। लक्ष्मी; चामुंडा; शांकमरी; सती; पार्वती, काली एवं गौरी ...३९९-४०१ कालिका; मातृका; जन्म राज्य में कलिप्रवेश; शाप; तक्षकदंश; परिक्षित् अन्य अवतार-सिद्धांबिका; तारा; भास्करा; योगेश्वरी; | कथा का अन्वयार्थ पौराणिककाल । त्रिपुरा; कोलंबा; कपालेशी; सुवर्णाक्षी; चर्चिता; त्रैलोक्य- | पाणिनि ...४०५-४१० विजया; वीरा; हरसिद्धि; चंडिका; भूतमाला अथवा नामान्तर; मातापिता; अध्ययन; निवासस्थानः काल; भूमाता; पूर्वाचार्य; अष्टाध्यायी; पाणिनीय व्याकरणशास्त्र; पाणिनिदेवीपीठ । कालीन भूगोल; सिक्के; परिमाणदर्शक शब्द; अष्टाध्यायी के द्रोण ...३०७-३०९ वार्तिककार; अष्टाध्यायी के पूर्वाचार्य, पाणिनि के व्याकरणजन्म; शिक्षा; हस्तिनापुर में; द्रुपदपराभव; भारतीय | ग्रंथ । युद्ध; वध । पाण्डु ...४१०-४१२ द्रौपदी ...३१०-३१३ | जन्म; शिक्षा विवाह; राज्यप्राप्ति; शाप; पुत्रेच्छा; जन्म; स्वयंवर; पंचपतित्व; द्यूत; द्रौपदी का प्रश्न | पुत्रप्राप्ति; मृत्यु। वनवास; अज्ञातवास; राज्यप्राप्ति; स्वभाव । पितर ...४१९-४२२ धन्वन्तरि उत्पत्ति; प्रिय खाद्यपदार्थ; मनोविकार; पितृगण; दैवी स्वरूपवर्णन; मनसा से युद्ध; ग्रंथ । पितर; मूर्त अथवा मानुष पितर; पितृकन्या; पितृकन्या का नारद ...३६०-३६६ अन्वयार्थ; पितृवंश। स्वरूपवर्णन; जन्म; पुनर्जन्म; देवों का वार्ताहर पिप्पलाद .....४२५-४२६ तत्त्वज्ञ नारद; संगीतकलातश; नारदनारदी; विवाह; सुवर्ण- | पैप्पलाद संहिता; अन्यग्रंथ; तत्वज्ञान । ठीविनकथा; शत्रुघ्न को चेतावनी; कलियुग में; कृष्ण- प्रथ वैन्य ४४२-४५२ कथाओं में नारद; इंद्रसभा में; धर्मशास्त्रकार; शिक्षाकार, | पृथ्वीदोहन अथवा नवसमाजरचना; दोहक-गण; अन्य ग्रंथ । राज्यभिषेकपृथु की राजप्रतिज्ञा; पुत्र; पृथुवंश । नृसिंह ...३७५:३७६ प्रजापति ...४६१-४६६ नृसिंह उपासना; नृसिंहस्थान । सर्वप्रमुख देवता; सृष्टि आरंभ; सूर्यपूजा-अर्घ्य इंद्र पतंजलि ...३८२-३८६ । की उत्पत्ति; यज्ञारंभ; सृष्टि निर्माण व व्यवस्था; कन्याविवाह; नामान्तर; काल; जीवनचरित्र; व्याकरणमहाभाष्य; | दुहितृगमन; प्रजापतियों की संख्या; प्रजापतियों की शुद्ध उच्चारण का महत्त्व प्राचार्य; टीकाकार; महा- | नामावलि। Page #1204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रह्लाद . प्राचीन चरित्रकोश भृगु वारुणि प्रहाद ...४७९-४८१ | भरत दौःषन्ति ...५४७-५४८ . जन्म, विष्णुभक्ति; इंद्रपदप्राप्ति परिवार; संवाद; पूर्व- जन्म; परिवार; भरतवंश । जन्मवृत्त । भरद्वाज . ...५४८-५५२ बक दाल्भ्य ...४८७-४८८ वेदों का अथांगत्व; अर्थशास्त्रकार; अन्य ग्रंथ । धृतराष्ट्र से विरोध तत्त्वज्ञान; छांदोग्य उपनिषद में। | भागुरि बलराम ...४९३-४९५ | व्याकरणशास्त्रकार; कोशकार; ज्योतिषशास्त्रकार; स्मृतिबाल्यकाल; जल्दबाज स्वभाव; बलराम की तीर्थयात्रा | कार; साम एवं यजुःशाखाओं का आचार्य अलंकारतीर्थयात्रा का द्वितीय पर्व। शास्त्रज्ञ; सांख्यदर्शनकार; दैवतशास्त्रज्ञ । बलि वैरोचन . ...४९७-५०१ | भीमसेन 'पाण्डव'. ...५६१-५७१ बलिकथा का अन्वयार्थ; स्वर्गप्राप्ति; समुद्रमंथन; समुद्र- स्वरूपवर्णन; बाल्यकाल; दुर्योधन के षड्यंत्र; नागलोक मंथन से प्राप्त हुए रत्न इंद्रबलि संग्राम:इंद्रपदप्राप्ति प्रह्लाद | में शिक्षा; लाक्षागृहदाह; हिडिंबाविवाह; बकासुरवध; के द्वारा शाप; वामन को दान; बलिबंधन; रावण का गर्व- | द्रौपदी स्वयंवर; जरासंधवध; पूर्व दिग्विजय राजसूय यज्ञ; हरण; संवाद; परिवार; बलि की उपासना । द्रौपदीवस्त्रहरण; वनवास; गर्वहरण; कुबेर से विरोध बाण ...५०२-५०५ नहुषमुक्ति; दुर्योधन-चित्रसेन युद्ध; जयद्रथ से युद्ध; शिवभक्तिः उषा अनिरुद्ध प्रणयः कृष्ण से युद्ध; वर- | यक्षप्रश्न; अज्ञातवास; कीचकवध; भीम-कृष्णसंवाद; प्राप्ति; उषा-अनिरुद्धविवाह; बाणकथा का अन्वयार्थ | भारतीय युद्ध; प्रथम दिन; चौथा दिन; छठवाँ दिन; बादरायण ...५०५-५०६ | आठवा दिन; नौवा दिन; दसवाँ दिन; ग्यारहवाँ दिनः बादरि-बादरायण भिन्नता; ब्रह्मसूव । चौदहवाँ दिन; पंद्रहवाँ दिन; द्रोणवध; सोलहवाँ दिन; • बृहस्पति ....५१८-५२३ कर्ण से युद्ध; दुःशासन वध; अठारहवाँ दिन; दुर्योधनवध; 'जन्म; रूपवर्णन; गुणवर्णन; दैत्यों की पराजय; संवाद; | अश्वत्थामानमणिग्रहण; परिवार, ग्रेन। धृतराष्ट्रविद्वेष; युवराजपद; भीमजलाकी एकादशी; बौधायन । ....५२३-५२५ | गर्वपरिहार; मृत्यु; परिवार । 'बौधायन शाखा; बौधायन सूत्रः बौधायनसूत्रों के विभाग; | भोष्म ...५७२-५७९ बौधायन धर्मसूत्र; टीकाकार; बौधायन स्मृति। ___ध्येयवादी व्यक्तिमत्त्व; योग्यता; जन्म हस्तिनापुर में; ब्रह्मन् ...५२६-५३१ भीष्मप्रतिज्ञा; शंतनु की मृत्यु; उग्रायुधवध; विचित्रवीर्य ..जन्म; चतुर्मुख; शंकर से विरोध; सृष्टि का निर्माण; | का राज्यारोहण; अंबाविरोध; परशुराम से युद्ध वेदों का निर्माण प्रभास क्षेत्र में यज्ञ; सावित्री से शाप; | शिखण्डिजन्म; विचित्रवीर्य की मृत्यु; धृतराष्ट्र एवं पाण्डु गायत्री से वरदान; अन्य रचनाएँ; ब्रह्मा की कालगणना; का जन्म;.. ग्रंथ; स्थान । ___भारतीय युद्ध; कौरव पाण्डव का बलाबल; कर्णभगीरथ ___ ...५३४-५३५ | भीष्मविरोध; सैनापत्य; दुर्योधनआक्षेप; कृष्णभेंट; शरगंगावतरण; भगीरथकथा का अन्वयार्थ । शय्या; प्राणत्याग; भीष्मचरित्र का एक कलंकित क्षण: भरत ...५४०-५४३ | कुछ धूमिल स्थल; अन्य धूमिल स्थल । . नाट्यशास्त्र की उत्पत्ति; नाट्यकला का पृथ्वी पर | भूत ...५८१-५८१ आगमन; भारतीय नाट्यशास्त्र कालनिर्णय । ___ जन्म; स्वरूपवर्णन; भूतनायक; असुरों से युद्ध । भरत 'जड ....५४३-५४४ | भृगु प्रजापति __...५८५-५८६ प्रथम जन्म; द्वितीय जन्म; तृतीय जन्म; रहूगग राजा | देवदैत्यसंग्राम; देवों की परीक्षा; परिवार । से संवाद परिवार। ...५८६-५९० भरत दाशरथि ___...५४४-५४७ | | जन्म; वेदोत्पत्ति; नहुष को शाप; संवाद; आश्रम; __ कैकेयी का षड्यंत्र; राम की खोज; राम से भेंट; | तत्त्वज्ञान; परिवार; भार्गवगण; श्वत्रिय ब्राहाण; भृगुनंदिग्राम में; युद्धप्रसंग; तुलसी रामायण में । आंगिरस परिवार; विवाहसंबंध: ग्रंथ भृगुकुल के मंत्रकार । भृगु वारुणि Page #1205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भैरव व्यक्तिसूचि यक्ष भैरव ....५९१ मांडव्य ...६३५-६३६ ब्रह्महत्त्या; वंश । चोरी का इल्जाम; प्रमोदिनी से विवाह; यम से संवाद मतंग ..५९८-५९९ | ब्राह्मण का शाप; संवाद । गर्दभी से संवाद; तपस्या । मातरिश्वन् मत्स्य ...५९९-६०१ अग्नि का दिव्यरूप; व्युत्पत्ति । मत्स्यावतार; पुराणों में; मत्स्यकथा का अन्वयार्थ | मातृका भौगोलिक मर्यादा। ...६३२-६३९ जन्मकथा; मातृकाओं की संख्या; मातृकाओं की मनु आदिपुरुषं ...६०५-६१० प्राचीनता; मातृकाओं की प्रतिमा । ___ मानव जाति का पिता; यज्ञसंस्था का आरंभकर्ता; यज्ञ | माधवी ...६४१-६४२ से ऐश्वर्यप्राप्ति; समकालीन ऋषि; मन्वन्तरों का निर्माण; __ गालव ऋषि को दान; हर्यश्व से विवाह; दिवोदास से चौदह मन्वन्तर; उत्तम मन्वन्तर; तामस मन्वन्तर; रैवत | विवाह; उशीनर से विवाह; विश्वामित्र से विवाह; स्वयंवर; मन्वन्तर; चाक्षुष मन्वन्तर; वैवस्वत मन्वन्तर; सावर्णि- | पुत्र; ययाति का उद्धार; ययाति को पुण्यदान; कालमन्वन्तर; दक्षसावर्णि मन्वन्तर; ब्रह्मसावर्णि मन्वन्तर; धर्मः | | विपर्यास । सावर्णि मन्वन्तर; रुद्रसावर्णि मन्वन्तर; रोच्य मन्वन्तर; भौत्य मन्वन्तर । मान्धातृ यौवनाश्व मनु वैवस्वत जन्म; संगोपन एवं नामकरण; पराक्रम; व्रतवैकल्प; ...६११-६१३ सृष्टिप्रलयः विभिन्न साहित्यों में प्राप्त जलप्लावन संवादः मृत्यु; परिवार । मार्कण्डेय कथा; प्रलयोत्तर मानवी समाज का आदिपुरुषः काल ...६४७-६४९ निर्णय; परिवार; इलापुत्र: हिंदी साहित्य में। . जन्म; अमरत्व; तपस्या; श्रेष्ठता; उपदेश; मार्कण्डेयमनु स्वायंभुव युधिष्ठिर संवाद; ग्रन्थ; परिवार; आश्रम । स्मृतिकार; धर्मशास्त्र की निर्मितिः मनुस्मृति का। माल्यवत् ...६५०-६५१ प्रणयन; मानव-धर्मशास्त्र का पुनःसंस्करण; विषयानु- तपस्या; विष्णु से युद्ध; लंकाप्रवेश; परिवार। क्रमणिका; मनुस्मृति में निर्दिष्ट ग्रंथ; मनुस्मृति के भाष्य; मुचुकंद मनुस्मृति का रचनाकाल; अन्य ग्रंथ । मुचुकुंद-वैश्रवणसंवाद; कालयवन का वधः कृष्णदर्शन; मय ...६१८-६२० । संवादः परिवार । __शिल्पशास्त्रज्ञ; खांडववन में; मयसभा; परिवार; ज्ञाति मृत्यु नाम। ब्रह्म से संवाद; सनत्सुजात-आख्यान । मरुत् ___जन्म पत्नी; वस्त्र एवं अलंकार; रथ; कार्य; गायन; वैदिक ऋषिः काण्व शाखा । झंझावात का देवता; व्युत्पत्ति; दिति के पुत्र; इंद्र-दिति मैत्रेय कौशारव संवाद; सात मरुद्गण; मरुद्गणों के स्थान । नाम: दुर्योधन का शाप; व्यास-मैत्रेय-संवाद; विदुरमरुत्त आविक्षित कामप्ति ...६२५-६२६ मैत्रेय संवाद। इंद्र-मरुत्त विरोध; मरुत्त का यज्ञ; रावण से विरोध; राज्यवैभव; महाभारत में; परिवार । मैत्रेयी ...६६६ महावीर वर्धमान ...१११९-११२३ मैत्रेयी-याज्ञवल्क्य संवाद । बुद्ध का समकालीन; जन्म; समकालीन नृप; तपस्या; म्लेच्छ ___...६६८-६६९ प्रथम समवशरणसभा; शिष्यशाखा; धर्मसंगठन, पर्यटनः भाषा; महाभारत में | निर्वाण; आचारसंहिता; अहिंसातत्त्व की महत्ता; वर्धमान | ...६६९-६०० का अनेकान्तवाद; वर्धमान का क्रियावाद; बौद्धधर्म से कुबेर के सेनापति; कुवेर की सभा में; स्वरूपवर्णन; तुलना; ग्रन्थ; परंपरा सांप्रदायभेद । परिवार। १९८४ ...६२२-६२५ | मेधातिथि काण्व मान यक्ष Page #1206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यदु . प्राचीन चरित्रकोश राम दाशरथि ...६७२-६७४ | तीर्थयात्रा नहुष-मुक्ति; घोषयात्रा; जयद्रथ की मुक्तता; . शाप: परिवार; यादव वंश; सात्वत शाखा; अन्य- | यक्ष-प्रश्न; अज्ञातवास; संधि का प्रयत्न; युधिष्ठिर-कृष्ण शाखाएँ; अठारह महारथ; आये संस्कृति का प्रचार; | संवाद; कृष्ण-दौत्य; यादव निन्दा। भारतीय युद्ध-पाण्डव पक्ष के योद्धा; कौरव पक्ष के यम वैवस्वत ...६७४-६७७ | देश; युद्ध-शिबिर; सांख्यिक-बलाबल; सेनाप्रमुख एवं पहला राजा; निवासस्थान; दूत; मित्रपरिवार; यम- | सेनापति; युद्धप्रारंभ; प्रारंभ में; भीष्म के बाद द्रोण; यमी-संवाद, आत्मसमर्पण; मृत्यु का देवता; व्युत्पत्ति; कर्णवध; युधिष्ठिर- अर्जुन संवाद; दुर्योधन-बध; बचे वेदोकालोपरान्त यम; यम को शाप; पितरों का प्रमुख; यम- | हुए वीर; नचिकेत संवाद; यम-गीता; महाभारत-वर्णित यमः यम | विरक्ति; युधिष्ठिर-अर्जुन संवाद; राज्याभिषेक की उपासना; ग्रंथ; धर्मशास्त्रकार। गर्वहरण; धृतराष्ट्र वनगमन; महाप्रस्थान; स्वर्गारोहण; ययाति ___...६७७-६८२ | मृत्यु; स्वर्गप्रवेश; यमधर्म से भेंट; परिवार; आयु; कालजन्म; देवयानी से भेंट; ययाति-देवयानी संवाद | निर्णय; तिथिनिर्णय । विवाह; पुत्रप्राप्ति: शुक्र से शाप; पुत्रों को शाप; यौवन | रक्षस् ....७११-७१४ प्राप्ति; विरक्तावस्था; वानप्रस्थाश्रम; उत्तर-यायात स्वरूपवर्णन; नानाविधरूप; आहार; मनुष्यों को पीड़ा; आख्यान; वाल्मीकि रामायण में पद्म में अश्रुबिन्दुमती | विचरण; अग्नि से विरोध; व्युत्पत्ति; असुरों का वैयक्तीसे विवाह; श्रेष्ठ सम्राट; धार्मिकता; परिवार; ययातिपुत्रों करण; ऋग्वेद में; ईरान में असुरपूजा; उपनिषदों में; के राज्य । अष्टाध्यायी में पुराणों में; सामान्य उपाधि । यवक्रीत ....६८२-६८३ | रंतिदेव सांकृत्य ...७१८-७१९ • तपस्या; इन्द्र से भेंट; रैभ्य से विरीध; मुक्ति । यज्ञपरायणता; दानशूरता; सांकृत्य ब्राह्मण । यवन ...६८३-६८४ | राधा ...७२२-७२४ उन्ननिवेश; महाभारत में। जन्म, पृथ्वी पर अवतार; कृष्ण से विवाह; राधा की याज्ञवल्क्य वाजसनेय ...६८५-६९३ | उपासना। नाम, योग्यता; यजुःशिष्यपरंपरा; कृष्णःयजुर्वेद शुद्धी- | राम दाशरथि ...७२५-७४२ करण; जनमेजय की राजसभा में; शुक्लयजुर्वेद का प्रणयन | आदर्श पुरुषश्रेष्ठ; वैयक्तिक सद्गुणों का आदर्श नाम: ईश उपनिषदः शतपथ ब्राह्मण; जन्म; अवतार; रूपवर्णन; नामकरण एवं शिक्षा; वसिष्ठ .' वैशंपायन से विरोधः सूर्य से वेदप्राप्तिः कालनिर्णयः | से उपदेशप्राप्ति; विश्वामित्रसहवास; ताटकावधः मारीच दार्शनिक समस्याओं का आचार्य जनक के दरबार में एवं सुबाहु से युद्ध; अहिल्योद्धार; सीतास्वयंवर; परशुवादविवाद के विषय निष्प्रपंच सिद्धान्त; पुराणों में राम से संघर्षः यौवराज्याभिषेक; कैकेयी से संभाषण: याज्ञवल्क्य-मैत्रेयी संवाद; ध्येयात्मक अद्वैतवाद; | वनवास; दण्डकारण्यप्रवेश; राक्षसविरोध; पंचवटी में; अमरत्व की प्राप्ति; जनक- याज्ञवल्क्यसंवाद; मृत्युवर्णनः । शुर्पणखा-विरूपत्व; सीताहरण; कबंधवध; वालिआक्षेप: तत्त्वज्ञान; चरित्रचित्रण; आत्मगत भाषण; परिवार; सीता की खोज; लंका पर आक्रमण; विभीषण से मित्रता; शिष्यपरंपरा; शाखाप्रवर्तक शिष्य; ग्रन्थ; शुक्ल यजुर्वेद; | सेतुबन्ध; लंका का अवरोध; दूतप्रेषणः प्रथम याज्ञवल्क्य स्मृति। दिन; नागपाश; राक्षससंहार; इंद्रजित्वध; रावणयास्क ...६९४-६९५ वधः अग्निपरीक्षा; दक्षिण की विजययात्रा; राक्षस निरुक्त पूर्वाचार्य; भाषाशास्त्रज्ञ। . संग्राम का तिथिनिर्णय; लंका का स्थल निर्णय; वानर ...६९६-७०९ कौन थे? उत्तर काण्ड का विश्लेषण; अयोध्यागमन; तत्त्वदर्शी राजा; चिन्तनशील व्यक्तित्व जन्म स्वरूप- राज्याभिषेक; सीतात्याग; कुशलवजन्म; अश्वमेधयज्ञ; वर्णन; ध्वज एवं आयुधः शिक्षा; यौवराज्याभिषेक; | सीता का भूमिप्रवेश; देहत्याग; रामकथा का तिथि निर्णय लाक्षागृहदाह; अर्धराज्यप्राप्ति; राजसूय यज्ञ; दुर्योधन- | सर्वमान्य तिथियाँ ताम्रपटों का निर्देश;'कालनिर्णय रामायण' विद्वेष; तपराजय; वनवास; द्रौपदी-युधिष्ठिर संवाद; | ग्रन्थ; चरित्र-चित्रण; राम चरित्र के दोष परिवार: प्रा. च. १४९] युधिष्ठिर Page #1207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राम दाशरथि व्यक्तिसूचि वसिष्ठ ७७५-७८९ वाल्मीकि रामायण, पुराणों में रामकथा; राम- | लक्ष्मण दाशरथि ७७६-७८१ भक्तिसंप्रदाय, रामभक्ति से प्रभावित उपनिषद् ग्रन्थ; नाम; बाल्यकाल; वनगमन से पूर्व वनवास; सीतारामभक्ति का विकास; सांप्रदायिक रामायण ग्रन्थ; बौद्ध एवं हरण; राम से सांत्वना; सीता की खोज; राम-रावण युद्ध; ' जैन वाङ्मय में रामकथा; आधुनिक भारतीय भाषाओं में इंद्रजित् युद्ध; राक्षससंहार; रावण से युद्ध; सीतात्याग; रामकथा। मृत्यु; परिवार; चरित्रचित्रणः मानस में। रावण दशग्रीव ....७४३-७४८ | लक्ष्मी ...७८१-७८४ नामः खरूपवर्णन; जन्म तपश्चर्याः अत्याचार: गर्व- | लक्ष्मी देवता की उत्क्रांति; स्वरूपवर्णन; निवासस्थान; हरण; विवाह; वेदवती से शाप; विजययात्रा; पराजय जन्म; भृगु से वरदान; भृगु का शाप; लक्ष्मी के अवतार; पराजय की अन्य कथाएँ; सीताहरण; रावण-सीता लक्ष्मी के दोष; परिवार; लक्ष्मीप्रद सूक्त । संवाद; रावण विभीषण संवादः सेनावर्णन; राम-रावण लगध ...७८४ युद्ध; वध; परिवार; चरित्रचित्रण; महापंडित रावण; वेदांगज्योतिष; जन्मस्थान; कालनिर्णय । तुलसी रामायण में। लाट्यायन रुक्मिणी ...७५१-७५२ लाट्यायन श्रौतसूत्र; पूर्वाचार्य । श्रीकृष्ण से प्रेम, श्रीकृष्ण का आगमन रुक्मिणी-हरण; लोपामुद्रा रुक्मिन् की पराजय; प्रासादवर्णन; पुत्र-प्राप्तिः अग्निप्रवेश; जन्म; अगत्स्य से विवाहः पुत्रप्राप्ति; दक्षिण भारत में। परिवार। लोमश ....७८९-७९०० रुक्मिन् ...७५२-७५३ इंद्र से भेंट; तीर्थयात्रा; आख्यानकथन; वरप्रदान; . श्रीकृष्ण से पराजय; भारतीय युद्ध में परिवार। ग्रन्थ; लोमशकथित रामकथा; आश्रम । रुद्र-शिव ...७५४-७६६ । वररुचि स्वरूपवर्णन; निवास-स्थान; तपस्यास्थान; वाहन एवं प्राकृतप्रकाश; अन्य ग्रन्थ । ध्वज; आयुधः पराक्रम तैत्तिरीय संहिता में; अथर्ववेद में; वराह ब्राह्मण ग्रन्थों में: उपनिषदों में; केन उपनिषद में; गृह्य ...७९८-७९९ वैदिक साहित्य में; पुराणों में; वराहस्थानः वराह सूत्रों में; महाभारत में; अवतार का अन्वयार्थ । उपासक गण; अष्ट रुद्र; एकादश रुद्र; विभिन्न पुराणों वरुण ...७९९-८०२ में; जन्मकथाएँ; पराक्रम, तामस रूप; शिवदेवता की वैदिक साहित्य में; स्वरूपवर्णन; निवासस्थान; गुप्तचर; उत्क्रांति; परिवार; सृष्टि का राजा; असुर वरुण; वरुण देवता का अन्वयार्थ; रुद्रोपासना; मुँहेंजोदड़ो में; पश्चिम अशिया में; सुमेर जल का स्वामी; सेमेटिक साहित्य में; महाभारत में; वरमें शिव के अवतार; शिव उपासना के सांप्रदाय; शिव प्रदान परिवार। उपासना का आद्य सांप्रदाय; द्रविड देश में शिवपूजा; वसिष्ठ ....८०४-८०६ शक्तिपूजा; शिवरात्रिः शिव उपासना के ग्रन्थ । ___ जन्म; विश्वामित्र से शत्रुवि; परिवार; वसिष्ठ की रैक्व सयुक्वा ...७६९-७७० वंशावलि. वकिल के गोववार. मिश : वंशावलि; वसिष्ठकुल के गोत्रकार; वसिष्ठ कुल में उत्पन्न जनश्रुति से मेंट; तत्त्वज्ञान । प्रमुख व्यक्ति ८०४; जातुकर्ण्य लोग; वसिष्ठकुल के मंत्रकार । रोमहर्षण सूत ...७७२-७७४ । वभिष्ठ 'धर्मशास्त्रकार' ...८०७-८०८ कुलवृत्तांत; पुराणों की निर्मिती; शिष्यपरंपरा; पुराणों | ग्रन्थ। का निर्माण; पुराणकथन; मृत्यु; मृत्युतिथि; ग्रंथ; सूतजाति | वसिष्ठ मैत्रावरुणि ...८०८-८१० की उत्पत्ति; परिवार। ___ जन्म; विश्वामित्र से विरोध; यज्ञकर्ता आचार्य कर्तृत्व; रोहित ...७७५ आश्रम; वैदिकोत्तर साहित्य में पुराणों में विश्वामित्र से शुनःशेपाख्यान; परिवार। शत्रुत्व; व्रतवैकल्य, परिवार । ११८६ Page #1208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसु बसु पौराणिक साहित्य में अहवसुः अष्टावसुओं का परिवार । वसुदेव पत्नियाँ पुत्र | वसुमनस्] कौशस्य ... ८१४-८१६ कृष्ण जन्म; पराक्रम; अश्वमेधयज्ञः मृत्युः परिवारः ययाति को पुण्यदानः संवाद | वात्स्यायन ...८११-८१२ परिवारः भागवत में प्राचीन चरित्रकोश विदुर ...८४३-८४७ विदुर का हीनकुलीनत्व - एक समस्या; जन्म; पूर्वजन्म; पांडयों की सहायताः धृतराष्ट्र का सलाहगार; विदुरनीति; विदुरतीर्थयात्रा; युधिष्ठिर के राज्यकाल में; अंतिम समय; मृत्युः अंत्यसंस्कार; परिवार । ...८१७ ...८२०-८२२ व्यक्तिपरिचयः कालनिर्णय पूर्वाचार्यः कामसूत्र काम विप्रचित्ति सूत्र का तत्वज्ञानः । वानर ...८२२-८२३ राज्य एवं समाजव्यवस्था; पुराणों में; वानरसमूह; वानरवंश जैन ग्रंथों में वानर कौन थे। वामदेव गौतम वामन जन्मः संबंधित व्यक्तिः तस्वशानः आत्मानुभूति | ...८२५-८२६ वैदिक साहित्य में; वामन अवतार की उत्क्रांति; शतपथ ब्राह्मण में; पुराणों में; वामन अवतार का अन्वयार्थ; उपासना | वायु जन्म एवं स्वरूपवर्णन पुराणों में; परिवार । वालखिल्य ...८२६-८२७ विदुला ...८२८-८२९ वैदिक साहित्य में; पौराणिक साहित्य में; स्वरूपवर्णन; इंद्र निर्माण; तपःसामर्थ्य; परिवार । बालिन् विदुला पुत्र संवाद | ...८२९-८३१ जन्म; पराक्रम; दुंदुभिवधः सुग्रीव से शत्रुत्व रामसुग्रीव की मित्रता; वालिबधः राम की आलोचना; अंत्यविधि; स्वभाव चित्रण | वाल्मीकि आदिकवि ...८३२-८३७ नामः रामायण के बाल एवं उत्तरकांड में आश्रम 'आख्यायिकाएँ: अध्यात्म रामायण में; आख्यायिकाओं का अन्वयार्थः कौंचवध रामायण की जन्मकथाः सीता संरक्षण; रामसभा में; पौराणिक वाङ्मय की प्रस्थानत्रयी; व्यक्तिगुणों का आदर्श महाभारत से तुलना रामायण की श्रेष्ठता रामायण की ऐतिहासिकता; आदिकवि वाल्मीकि; गेय महाकाव्य, आर्ष महाकाव्य, वाल्मीकि रामायण में प्राप्त भूगोल वर्णन रामायण का रचनाकाल महाभारत में प्राप्त रामायण के उद्धरण, वाल्मीकि रामायण के संस्करण | विदेह वैदिक साहित्य में; महाभारत में । विश्वामित्र पराक्रमः परिवार । विभीषण ...८५४-८५६ जन्मः तपस्याः रावण से विरोधः रावण की सभा में शरणागत विभीषण; राम की सहायता, मायावी युद्ध; ...८२४-८२५ | रावण का अंत्यसंस्कार; राज्याभिषेक, अश्वमेधयज्ञ; राम का आशीर्वादः परिवार । विराट ...८४७ ...८४८ ...८५२-८५३ ...८५८-८६० पांडवों का आशातवास कीचकवधः सुधर्मन् से युद्ध दुर्योधन से युद्ध; युधिष्ठिर का अपमान; उत्तरा - अभिमन्यु विपाह; भारतीय युद्ध में; मृत्युः परिवार । विरोचन ...८६०-८६१ प्रह्लाद की न्यायप्रियता; इंद्र- विरोचन संवाद; मृत्युः परिवार विवस्वत् ...८६२-८६३ ऋग्वेद में; निवासस्थान; देवताओं का मित्र; व्युत्पत्तिः विवस्वत् देवता का अन्वयार्थ । विशाल ...८६४-८६५ वैशालि नगरी: वैशाल राजवंश विश्वकर्मन् ...८६६-८६७ वैदिक साहित्य में स्वरूपवर्णन गुणवर्णनः महाभारत एवं पुराणों में शिल्पशास्त्रशः अस्त्रों का निर्माणः परिवारः ग्रंथ विश्वरूप त्रिशिरस् स्वा ...८६९-८७० वैदिक साहित्य में; महाभारत एवं पुराणों में; स्वरूपवर्णन; देवों का पुरोहित । विश्वामित्र ...८७०-८७७ व्युत्पत्तिः जन्मः समवर्ती ोग राज्यप्राप्तिः वसि से विरोध; आपत्प्रसंग; त्रिशंकु की सहायता; त्रिशंकु का राजपुरोहित त्रिशंकु को सदेह स्वर्गारोहणः विश्वामित्र के कार्य का महस्य हरिश्चंद्र के राज्य काल में मार्कडेय ११८७ Page #1209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विश्वामित्र व्यक्तिसूचि शाकपूणि पुराण में; ब्रह्मर्षि पदवी की प्राप्ति; सत्त्वपरीक्षा; आश्रम; | व्याडि दाक्षायण ...९१५-९१६ परिवार; पत्नियाँ; पुत्र; वंश; ऋक्प्रतिशाख्य में; पाणिनीय व्याकरण का विश्वामित्रकुलोत्पन्न गोत्रनाम; विश्वामित्रकलोत्पन्न गोत्र- | व्याख्याता; संग्रह; कालनिर्णय; ग्रंथ । कार; गाथिन् का वंशज; नदीसूक्त, वसिष्ठ से विरोध; शक्ति | व्यास पाराशर्य ...९९६-९२९ का वध । __ सनातन हिंदुधर्म का रचयिता; वैदिक साहित्य में; विश्वेदेव 14/17 | पाणिनीय व्याकरण में; महाभारत एवं पुराणों में; जन्मवैदिक साहित्य में नामावलि; ऐतरेय ब्राह्मण में;पुराणों तिथि; विभिन्न नामांतर; में; नामावलि; ब्रह्मा की उपासना । तपस्या; कौरव-पांडवों का पितामह; जनमेजय के यज्ञ विष्णु मंडप में; पांडवों का हितचिंतक; श्रुतिस्मृति-विद्या का ___...८७९-८८७ उपदेश; भारतीय युद्ध में; भारतीय युद्ध के पश्चात् ; वैदिक साहित्य में; स्वरूपवर्णन; निवासस्थान पराक्रम; शकदेव को उपदेश; उपदेशक व्यास, अश्वमेध यज्ञ में; विष्णु के तीन पग; नियमबद्ध गतिमानता; एक सौर देवता; परिवार; व्यासवंश; चिरंजीवीत्व; व्यासस्थल; अट्ठाईस भक्तवत्सलता; अवंध्यता का देवता; व्युत्पत्ति; ब्राह्मण ग्रंथों व्यास; व्याससहायक शिवावतार; में विष्णु का श्रेष्ठत्व; अवतारों का निर्देश; उपनिषदों में कर्तृत्व; वेदसंरक्षणार्थ वेदविभाग; व्यास की वैदिक गृह्यसूत्रों में; महाभारत में; शिष्यपरंपरा; ऋग्वेद की प्रमुख शाखाएँ; उपलब्ध वैदिक विष्णु--उपासना के तीन स्रोत; विष्णु देवता की ग्रंथ; वैदिक संहिताओं का विशुद्ध रूप; विनष्ट हुए ब्राह्मण उक्रान्ति; पौराणिक साहित्य मे स्वरूपवर्णन; विष्ण की ग्रंथ; उपासना; विष्णु के अवतार; नामावलिः विष्णु सांप्रदाय के - पुराणग्रंथों का प्रणयन पुराणों के प्रकार; पुराणों में ग्रंथ; विष्णु के तीर्थस्थान; कई प्रमुख वैष्णव सांप्रदाय।। चर्चित विषय; पुराणों के विभिन्न प्रकार: श्लोकसंख्याः । विष्णुगुप्त चाणक्य ...८८७-८८९ पुराणों के वक्ता; महापुराण; महापुराणों की नामावलि; नाम; नामांतर; जीवनवृत्तांत; कौटिलीय अर्थशास्त्र महापुराणों की तालिका3; पुराणों का देवतानुसार पृथक्करणः .. भाषाशैली; पूर्वाचार्य कौटिलीय अर्थशास्त्र का प्रभाव; गीताग्रंथ; व्यास की पुराण शिष्यपरंपरा; रोमहर्पण शाखा; मेगॅस्थिनिस् के 'इंडिका' से तुलना। महाभारत का निर्माण; इतिहास पुराण; महाभारत की विष्णुयशस् कल्कि ८८९-८९० व्याप्ति; महाभारत की शिष्यपरंपरा; महाभारत के पर्व; अवतारहेतु। महाभारत के उपपर्वः हरिवंश; व्यास की संशय निवृत्ति; वीरभद्र ...८९२-८९४ व्यास का जीवनसंदेश। जन्म; दक्षयज्ञविध्वंस; वरप्राप्ति; पराक्रम; देवों का | ....९४१-९४३ संरक्षणकर्ता; वीरक आख्यान; नृसिंहदमन; उपासना ग्रंथ । राम का यौवराज्याभिषेक; पादुका संरक्षण; लवणवध; मधुरा की स्थापना; राम से भेंट; राम का अश्वमेध यज्ञ; ...८९६-८९८ वृत्र दिग्विजय; मृत्युः परिवार। जन्म; स्वरूपवर्णन; निवासस्थान; पराक्रम; वध; व्युत्पत्ति; सामूहिक नाम; तैत्तिरीय संहिता में; ब्राह्मण ग्रंथों में महा ......९५१-९५२ भारत एवं पुराणों में; तपस्या; इन्द्र से युद्ध; वध; तत्त्वज्ञ; माद्री का विवाह; द्रौपदी स्वयंवर में; युधिष्ठिर के परिवार। राजसूय यज्ञ में, भारतीय युद्ध में युद्धप्रसंग; कर्ण का सारथ्य; कण-शल्य संवाद; सेनापति शल्य । वैशंपायन ....९११-९१३ वैदिक साहित्य में; पाणिनीय व्याकरण में; कृष्ण- शाकटायन ___...९५३-९५४ यजुर्वेद का प्रवर्तन शिष्यशाखा; याज्ञवल्क्य का तिरस्कार; नाम; गुरुपरंपरा; उणादि सूत्र; दैवतशास्त्रज्ञ; कृष्ण यजुर्वेद का प्रचार; महाभारत का कथन; 'भारत' ग्रंथ | अन्य ग्रंथ। का निर्माण; 'भारत' ग्रंथ का कथन; वैशंपायन कृत आस्तीक | शाकपूणि पर्व 'भारत' ग्रंथ का प्रचार; याज्ञवल्क्य से विरोध; ग्रंथ ।। ऋग्वेदार्थ का ज्ञान । शल्य Page #1210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शाकल प्राचीन चरित्रकोश सत्राजित् ...९५६ शाकल ...९५५-९५६ | शूर ....९८०-९८१ ब्राह्मण ग्रंथों में; व्याकरण ग्रंथों में; शाकल शाखा; परिवार, अन्य पत्नियाँ । शाकल्य संहिता।। शौनक गृत्समद .. ९८५-९८७ शाकल्य ___ जन्मवृत्त; पौराणिक साहित्य में; कर्तृत्व; ऋग्वेद की शाखाप्रवर्तक आचार्य पदपाठ का रचयिता; व्याक- अनुक्रमणी; गृहपति' शौनका प्रमुख ग्रंथ; अन्य ग्रंथ; रणाचार्य; पाणिनि के अष्टध्यायी में, याज्ञवल्क्य से संघर्ष; व्याकरणशास्त्रकार; शिक्षाकार शौनक; तत्त्वज्ञानी शौनक; पौराणिक साहित्य में; ग्रंथ। । शिष्यपरंपरा। शांखायन ___...९५७-९५८ श्वेतकेतु औद्दालकि आरूणेय ...९९५-९९७ शांखायन संहिता; शांखायन ब्राह्मण; शाखायन आर- | निवासस्थान; कालनिर्णय; बाल्यकाल; विद्यार्जन; घमण्डिण्यक:शांखायन (कौषीतकि) उपनिषद; शांखायन श्रौतसूत्र; पन; 'तत्त्वमसि' उपदेश; यज्ञसंस्था का आचार्य शांखायन गृह्यसूत्र; आचार्यपरंपरा । धर्मसूत्रों में; कामशास्त्र का प्रणयिता; महाभारत में; शाट्यायनि .....९५८-९५९ | परिवार। आचार्यपरंपरा; शाट्यायन ब्राह्मण; जैमिनीय उप- | संवरण ...९९९-१००० -निषद् ब्राह्मण (गाव्युपनिषद); शिष्यपरंपरा। | राज्य से पदच्युति; तपती से विवाह; परिवार । शांडिल्य ...९५९-९६० | संवर्त यज्ञप्रक्रियों का आचार्य शतपथ ब्राह्मण के अमिकांड; संवर्त स्मृति । 'बृहदारण्यक उपनिषद' में; तत्त्वज्ञान; आत्मा का स्वरूप; संवर्त आंगिरस गोत्रकार आचार्य; ग्रंथ। वैदिक साहित्य में; बृहस्पति से ईर्ष्याः देवताओं पर शाल्व . ...९६६-९६७ प्रभाव; कुणप-आख्यान । . जरासंधदौत्य; सौभ विमान की प्राप्ति, प्रद्युम्न से सगर ...१००१-१००२ युद्ध; कृष्ण से युद्ध; भीष्म से युद्ध; भारतीय युद्ध में।। जन्म: शिक्षा; पराक्रम; अश्वमेध यज्ञ; परिवार; पुत्र । शिखण्डिन् ...९६७-९६८ संजय गावल्गणि ...१००४-१००५ - बाल्यकाल एवं विवाह; भारतीय युद्ध में; भीष्मवध | धृतराष्ट्र का प्रतिनिधित्व; धृतराष्ट्र को उपदेश; श्रीकृष्ण 'वध; भीष्मवध का पूर्ववृत्त । की महिमा; दिव्यदृष्टि की प्राप्ति; युद्ध वार्ता कथन; युद्ध में शिवि औशीनर (औशीनरि) ...९७०-९७१ उपस्थिति; युद्धोपरांत; वनगमन। .. वैदिक साहित्य में; महाभारत एवं पुराणों में; औदार्य; सत्यकाम जाबाल १००७-१००८ 'औदार्य की अन्य कथाएँ; पुण्यशील राजा; दान का ___ जन्म; शिक्षा; ब्रह्मज्ञान की प्राप्ति; तत्त्वज्ञान; सृष्टि का महत्त्व; मृत्यु, परिवार। आद्य आधिष्ठान; सत्यकाम-उपकोसल संवाद; अन्य शिशुपाल ...९७३-९७४ निर्देश । ___ जन्म; कृष्ण का विद्वेष; शिशुपाल के अनाचार; कृष्ण | सत्यभामा १००९-१०१० की निंदा; शिशुपालवधी परिवार। प्रासाद; सत्राजित् का वध; पारिजात वृक्ष की प्राप्ति; शुक वैयासकि ....९७५-९७६ | द्रौपदी से उपदेश; भोलापन; कृष्णनिर्वाण के पश्चात् ; ___ जन्म, विद्याध्ययन; विरक्ति; भागवत का कथन; व्यास परिवार। . शुक संवाद; शुक-निर्वाण; व्यास से तुलना। सत्यवत ....१०१३ शुक उशनम् : ...९७६ -९७७ तपस्या; मत्स्यावतार; आत्मज्ञान की प्राप्ति, सत्यव्रतदैत्यों का आचार्य संजीवनी विद्या; बार्हस्पत्यशास्त्र | कथा का अन्वयार्थ । परिवार। सत्राजित् अथवा सत्राजित ...१०१४-१०१५ शुनःशेप आजीगति ...९७८-९७९ पूर्वजन्म; स्यमंतक मणि की प्राप्ति; श्रीकृष्ण पर चोरी का हरिश्चंद्राख्यान, पौराणिक साहित्य में; शुनःशेपकथा | दोषारोपण; स्यमंतक मणि की खोज; कृष्ण-सत्यभामा का अन्वयार्थ। विवाह; वधः शतधन्वन् का वध; निरुक्त में परिवार । ११८९ Page #1211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सनत्कुमार व्यक्तिसूचि हयग्रीव संजय सनत्कुमार ...१०१६-१०१८ सुग्रीव १०४९-१०५१ ब्रह्ममानसपुत्र; गुणवर्णन; निवासस्थान; उपदेश-प्रदान; | वालिन् से शत्रुत्व; राम से मैत्री; वालिनबध; लक्ष्मण सात्वतधर्म का उपदेश; धृतराष्ट्र से उपदेश; पृथ्वी पर | का क्रोध; पश्चाताप; युद्ध की तैयारी; राम-रावण युद्ध में; अवतार; तत्त्वज्ञान; "भमन्' तत्त्वज्ञान; ग्रन्थ । राम का राज्याभिषेक; चरित्रचित्रण; सुग्रीवचरित्र के सप्तर्षि ...१०१९-१०२० दोष; मानस में। सप्तर्षि कल्पना का विकास; ऋग्वेद सर्वानुक्रमणी में; सुदास पैजवन ...१०५६-१०५७ महाभारत में दिशाओं के स्वामी । नामः पुरोहित; दाशराज्ञ युद्ध; विपक्षीय राजा; अन्य संपाति ...१०२१-१०२२ पराक्रम, परिवार । इंद्र से युद्ध; सीताहरण; जटायुवध, परिवार । सुशर्मन् गर्न प्रस्थलाधिरति ...१०७७-१०७८ सम्राज़ ...१०२२-१०२३ | विराट से युद्ध; भारतीय युद्ध में; संशप्तक योद्धा । वैदिक साहित्य में। सूर्य ....१०८१-१०८२ समा देवशुनी ...१०२३-१०२४ । सूर्य देवता की कल्पना का उद्गम; सूर्य उपासना; सूर्य वैदिक साहित्य में; इंद्रदौत्य; पौराणिक साहित्य में; | उपासना के ग्रंथ । परिवार । सवित ...१०२६-१०२७ | वादक साहित्य मा निवासस्थान पर वैदिक साहित्य में निवासस्थान ऐतिहासिक निर्देश ।. उत्पत्ति; गुणवर्णन; स्वरूपवर्णन; पौराणिक साहित्य में | सोमक साहदेव्य (साञ्जय) १०८५-१०८६ अनुचर; पत्नियाँ; परिवार; रूपकात्मक वर्णन । पौराणिक साहित्य में; पुत्र का नरमेध; मृत्यु के पश्चात् । । सहदेव पांडव ...१०२८-१०२९ सोमदत्त बाल्यकाल; दक्षिण दिग्विजय; द्यूतक्रीडा एवं वनवास; शिनि यादव से शत्रुत्व; भारतीय युद्ध। .: भारतीय युद्ध में भारतीय युद्ध के पश्चात् ; परिवार; ग्रंथ। सौति रोमहर्षणसुत ___...१०८७-२०१८ सात्यकि (युयुधान) ...१०३१-१०३४ महाभारत की परंपरा; महाभारत का विस्तार; महा- . स्वरूपवर्णन; विद्याव्यासंग; कृष्ण का सहायक; पाण्डवों भारत का कथन; महाभारत का प्रारंभ; महाभारत के का मित्र; पांडवों के वनवासकाल में; युद्ध का समर्थन; कौरवों | उपलब्ध संस्करण; हरिवंश । की राजसभा में भारतीय युद्ध में; द्रोण के सेनापत्यकाल ...१०९०-१०९२ में; कर्ण के सेनापत्यकाल में भारतीय युद्ध के अठारहवें जन्मकथा; महाभारत में नामान्तर, अस्त्रप्राप्ति; दिन; पराक्रम; भारतीय युद्ध के पश्चात् ; मृत्यु, परिवार। तारकासुरवध; अन्य पराक्रमः ब्रह्मचर्यव्रत; परिवार; स्कंद सात्वत ...१०३४ के पार्षद; मातृका। सात्वत धर्म। स्वायंभुव मनु ...१०९५-१०९६ साध्य ...१०३४-१०३५ राज्यविस्तार; पृथ्वी का सम्राट्, परिवार, जंबुद्धीप पौराणिक साहित्य में; नामावलि; महाभारत में। की जानकारी; पौराणिक साहित्य में । सांव ...१०३५-१०३६ हनुमत् अथवा हनुमत् ....१०९८-११०२ जन्म; पराक्रम, लक्ष्मणाहरण; प्रभावती का हरण; 'हनुमत् ' एक द्रविड शब्द; गुणशिष्टय; हनुमत्दुर्वासस का शाप; मौसलयुद्ध; सूर्योपासना। देवता का मूल स्त्रोत; हनुमत्देवता का सद्यःस्वरूप; जन्म; नामान्तर; अपप्राप्ति; ऋषियों से शाप; सुग्रीव सावित्री ...१०३९-१०४० का मंत्री संभाषणचातुर्य; सीताशोध; समुद्रोलंघन; अशोकजन्मः विवाहः त्रिरात्रवत; यम से आशावादप्राप्ति । वन में: सीता से भेंट: लंकादहनः सुग्रीव स भट; रामसीता वैदेही १०४२-१०४५ रावण युद्ध में; अयोध्या म; ब्रहाचर्य; चिरंजीवित्व; __ सतीत्व की साक्षात् प्रतिमा; स्वरूपवर्णन; भूमिजा पांडित्य परिवारः मानस में । सीता; जन्मसंबंधी अन्य भाख्यायिकाएँ; सीतास्वयंवर; | हयग्रीव ...११०३-११०४ वनवासगमन; सीताहरण; हनुमत् से भेंट; अग्निपरीक्षा | स्वरूपवर्णनः वैदिक साहित्य में; पौराणिक साहित्य । राज्ञीपद; पुत्रजन्म देहत्याग; चरित्रचित्रण; मानस में। 7 में हयग्रीव असुर का वधक्रमपाठ । ११९० स्कंद Page #1212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयसूचि (इस सूचि में विशेष महत्त्वपूर्ण विषयों का ही केवळ अंतर्भाव किया गया है ) । अग्नि के तीन प्रकार - अन्वाहार्य आहवनीय एवं याज्ञवल्क्य वाजसनेय ६८९ - ६९०; वामदेव गौतम ८२५; गार्हपत्य (सत्यकाम जाबाल ) १००८ | शुक वैयासकि ९७५; सत्यकाम जाबाल १००७; सत्यत्रत १०१२ । अयोनिसंभव (संतान) - स्त्रीगर्भ के बिना जन्म हुई व्यक्ती ( धृष्टद्युम्न, द्रोण द्रौपदी ) ३०७ । --अग्नि से ( सीता ) १०४३; यज्ञ से ( द्रौपदी, धृष्टद्युम्न ३१० ); कुंभ से (अगस्त्य, एवं वसिष्ठ ) ८०८; जंघा से (और्व ) १०५; द्रोण में से (द्रोण ) ३०७ रक्तबिंदु से ( अंधक, सीता ) २३; १०४३; कान की मैल से ( मधुकैटभ) ६३०; अश्रुबिंदुओं से ( बिंदुमती, मंगल ) ५१० ५९६; घर्मबिंदु से ( अंधक, मकरध्वज, मंगल, मधुकैटभ) २३; ५९६; ६०३ / - -- ब्रह्मा के शरीर के विभिन्न अवयवों से ( विभिन्न पशु ) ५२८-५२९; ब्रह्मा के वामांग से ( शतरुपा ) ९४०; · मृत्तव्यक्ति के बाहिने हाथ एवं दाहिनी जंघा के मंथन से ( पृथु बैन्य, निषाद) ९०७; मछली से (सत्यवती) - १०११; सरस्वती नदी से ( सारस्वत ) १०३७ । अर्थस्य पुरुषो दासः -- तात्त्विक अर्थ ( भीष्म ) ५७८ असुर संघ - कालकेय १३८; त्रिपुर २५२; वृत्र ८९७; सैंहिकेय १०८५ | अरत्र—अग्नि अस्त्र (सगर) १००१; आग्नेय ( और्य; द्रोण ) १०५; ३०७; ऐषिक (अश्वत्थामन्) ८२; -- नारायण ( अश्वत्थामन्, भीम ) ४६ ५६२ ; ब्रह्म ( रुक्मिन्, हनुमत् ) ७५३; ११००; --महावीर्य ( वेदशिरस् ) ९०६; मायावी ( बभ्रुवाहन ) ४३०; वारुण ( भीम) ५६२; वैष्णव (भगदत्त ) ५३४; सुदर्शन ( इंद्रद्युम्न २. ) ७५ ॥ आख्यान -- आख्यानकथन ( लोमश ) ७९०; कुणप - आख्यान ( संवर्त आंगिरस ) १००; यायात आख्यान (पूर्व एवं उत्तर ) ६८०; वीरक आख्यान ( वीरभद्र ); शुनःशेप आख्यान (रोहित) ७७५; हरिश्चंद्र आख्यान ( विश्वामित्र) ९७८ । आत्मसमर्पण -- दधीचि २६४; यम वैवस्वत ६७५ । आत्मज्ञान (परमज्ञान ) की प्राप्ति - गौतम बुद्ध ११२७; दत्त आत्रेय २६१; महावीर वर्धमान ११२०; आश्रमस्थान - जामदग्न्य ३९४; परशुराम ३९४; दत्त आत्रेय २६१; भृगु (भृगुतुंग ) ५८७; लोमश ७९०; वसिष्ठ ( वसिष्ठशिला; कृष्णशिला ) ८०७; वामन ८२६; वाल्मीकि ८३३; विश्वामित्र ८७३; विश्रवस् ८६६; शतयूप ७०७ । आसुरी सांप्रदाय ८६१ | ऋग्वेद के सूक्त --आप्री सूक्त ( विश्वेदेव ) ८७७ नदी सूक्त (विश्वामित्र ) ८७६; खिल सूक्त ( वालखिल्य ) ८२८; निद्रा सूक्त ८०९; महामृत्युंजय सूक्त ८०९ । ऋषिसमूह -- यायावर ६९४; वातरशन ८१९६ वालखिल्य ८२८; विभिदुकीय ८५४; विश्वसृज ८७०; वेदव्यास ९०६ ; वैखानस ९०८; स्वस्त्यात्रेय १०९५ । कामशास्त्रकार - बाभ्रव्य पांचाल ५०७ वात्स्यायन ८२०-८२२; वात्स्यायन के पूर्वाचार्य - कुचुमार; गोणिकापुत्र गोनर्दीय; घोटकमुख; चारायणाचार्य; दत्तका - चार्य; नंदिन् ८२१; श्वेतकेतु औद्दालकि ९९७ । कालगणना- - पुराणों की १०६९-१०७०; ब्रह्मा की ५३ । कालनिर्णय - कालनिर्णय कोश १९६९-११८०; ग्रंथों का कालनिर्णय ११७२; व्यक्तियों का कालनिर्णय ११७८ । -- कौटिलीय अर्थशास्त्र ८८९; पतंजलि ३८२; पाणिनि ४०६; भरत ५४३; मनुस्मृति ६१५; महाभारत १०८८; याज्ञवल्क्य वाजसनेय ६८८; लगध ७८४; वात्स्यायन ८२१; वाल्मीकि रामायण ८३६; व्याडि दाक्षायण ९१६; श्वतकेतु औद्दलकि आरुणेय ९९५ । कुलपांसन नरेश - अजबिंदु १३ ; अर्कज ५०१; जनमे - जय नीप (६.) २२; दुःशासन २७०; धारण ३२३; धौतमूलक ३३२; पुरूरवस् ( २ ) ४३६; बाहु ( ३ ) ५०९; वरप्र ७९७ विगाहन ८४०; शम (६.) ९४५ सहज १०२७; हयग्रीव १९०४ । ११९१ Page #1213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कौटिलीय अर्थशास्त्र विषयसूचि तत्त्वज्ञान कौटिलीय अर्थशास्त्र-चर्चित विषय ८८८; भाषाशैली | --वाक्यपदीय (भर्तृहरि) ५५२, वात्स्यायन कामसूत्र ८८८; पूर्वाचार्य ८८८; कौटिलीय अर्थशास्त्र का प्रभाव | (वात्स्यायन) ८२१; वार्तिक (कात्यायन) १३२; ८८९; मेगस्थिनिस के इंडिका से तुलना ८८९ । वाल्मीकि रामायण (वाल्मीकि ) ८३५-८३७; वास्तुशास्त्र क्षत्रिय ब्राह्मण-भार्गव वंशांतर्गत (भृगु वारुणि) ५८८ । (ब्रह्मन् ) ५११; गीता--अनुगीता (कृष्ण) १६३; ईश्वरगीता (व्यास) --शालिहोत्र तंत्र (शालिहोत्र) ९६५, शुक्लयजुर्वेद; ९२७; उद्धवगीता (कृष्ण)१६३; गणेशगीता (गणपति) शतपथ ब्राह्मण एवं याज्ञवल्क्य स्मृति (याज्ञवल्क्य वाज१८०; बोध्यगीता (बोध्य) ५२३; ब्रह्मगीता (रोम- सनेय ) ६९२-६९३; शांखायन आरण्यक, उपनिषद, हर्षण) ७७३; भिक्षुगीता (हंस) १०९७; मंकिगीता ब्राह्मण, संहिता ९५७; शाट्यायनि ब्राह्मण; श्वेताश्वतर (मंकि) ७९५, यमगीता (यम वैवस्वत) ६७६; विचख्नु उपनिषद (श्वेताश्वतर ) ९४८; संग्रह (ब्याडि) ९१६; गीता (विचख्नु) ४८०; व्यासगीता (व्यास) ९२७; | सत्यापाढ श्रौतसूत्र १११२, सुश्रुत संहिता (सुश्रुत) शंकरगीता (परशुराम) ३९३; शंपाकगीता (शंपाक) | १०७८; हरिवंश (सौति) १०८८ । ९४६; सूतगीता (रोमहर्षण) ७७३; सूर्यगीता.(सूर्य) ग्रन्थों के प्रामाणिक संस्करण--कौटिलीय अर्थशास्त्र १०८२, हरीतगीता (हरित) ११०९; हंसगीता | ८८९; पतंजलि महाभाष्य ३८५, महाभारत १०८८। (हंस)१०९७ । चक्रवर्तिन् सम्राट-२०१, पृथु वैन्य ४४२-४५२, गोत्रकार--अंगिरस्कुलोत्पन्न ११; अत्रि १७; कश्यप मांधातृ यौवनाश्व ६४३; ययाति ६८१; युधिष्ठिर ६९६: । ' १२७; भृगु ५८९; वसिष्ठ ८०५, विश्वामित्र ८७५ । सगर १००१। ग्रह-चंद्र २०२; बुध ५११-५१२, बृहस्पति ११८ चरित्रदोष-- भीष्म ५७७-५७९; राम दाशरथि ७२९; ' ५२०; मंगल ५९६; राहु (स्वर्भानु) ७४९; १०९५, सुग्रीव १०५०। शनि ९४३-९४४ । __ जैन धर्म-महावीर वर्धमान जीवनचरित्र १११९; ___ ग्रंथ-अथर्ववेद शिक्षा (मण्डूक) ५९८: अष्टाध्यायी | प्रथम समवशरणसभा ११२०, शिष्यशाखा ११२०; (पाणिनि) ४०७-४०९; आपस्तंब कल्पसूत्र (आपस्तंब) आचार संहिता ११२१; बौद्धधर्म से तुलना ११२३; ६०; आश्वलायन गृह्यसूत्र (आश्वलायन) ६७; परंपरा ११२२; सांप्रदाय ११२२। . --ऐतरेय ब्राह्मण एवं ऐतरेय आरण्यक (महिदास जैनधर्म ग्रंथ---महावीरकृत जैनसूत्र-११२२, ११७४ । ऐतरेय) ६३१; ऋग्वेद सर्वानुक्रमणी (शौनक ) ९८५; । छन्दःशास्त्रज्ञ-पिंगल ४१७; वैयास्क ९११। --का शिका (वामन एवं जयादित्य कृत) ४०९; ज्योतिषशास्त्रकार---गर्ग १८५, पराशर ३९८; भागुरि कौटिलीय अर्थशास्त्र (विष्णुगुप्त चाणक्य) ८८९, ५५५ अन्य ज्योतिषशास्त्रकार ३९८; ज्योतिषशास्त्र के --चरक संहिता (चरक) २०७; छंदःशास्त्र (पिंगल)| पूर्वाचार्य ३९८ । . ४१७; जैमिनि अश्वमेध (जैमिनि) २३६; जैमिनि सूत्र | तत्त्वज्ञान-अजित केशि कंबलिन्'(उच्छेदवाद) १११७; (जैमिनि) २३६, --कृष्ण १६२, गोशाल मंखलिपुत्त (संसारविशुद्धि-पराशर स्मृति (पराशर) ३९७; पातंजल योगसूत्र | तत्त्वज्ञान) १११७; गौतमबुद्ध ११२८; (पतंजलि) ३८५, पारस्कर गृह्यसूत्र (पारस्कर) ४१४; | --चार्वाक २०९; प्राकृत प्रकाश (वररुचि) ७९७; पितामह स्मृति --पकुध काच्चायन (अशाश्वतवाद) ११२८; पूरण (पितामह ) ४२२; पैप्पलाद ( पिप्पलाद ) ४२९; पौराणिक | कस्सप (अक्रियावाद) १११८; पतंजलि ( योगदर्शन) साहित्य (व्यास पाराशर्य) ९२५-९२७; फिटसूत्र | ३८६; पंचशिख (सांख्य तत्त्वज्ञान) ३८०; पिप्पलाद (शान्तनव) ९६२, ब्रह्मसूत्र (बादरायण) ५०५, बौधा- | ४२६; पैंग्य (पैंग्य मत) ४५५, प्रतर्दन ४६७; बक दाल्भ्य नय सूत्र (बौधायन) ५२४; भगवद्गीता (कृष्ण) १६३ | ४८७; भृगु ७८७; महावीर वर्धमान (अनेकान्तवाद, भारतीय नाट्यशास्त्र (भरत मुनि) ५४१, मनुस्मृति (स्वायंभुव मनु) ६१३-६१५, महाभारत (व्यास | --याज्ञवल्क्य वाजसनेय ६९०-६९१; रैक सयुग्वा पाराशय; वैशंपायन; सौति) ९१६, ९१२, १०८७; मैत्रि ७७०, विदुर (विदुरनीति) ८४५, वृत्र ८९८; व्याँस उपनिषद (मैत्रि).६६४; पाराशय ९२९; ११९२ Page #1214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन चरित्रकोश तत्त्वज्ञांन - शांडिल्य ९६० ; शौनक (तत्त्वमासि तत्त्वज्ञान ) ९८७; सनत्कुमार (भ्रमन् तत्वज्ञान) १०१८ सात्वत ( सात्यत धर्म) १०३४ सुपर्ण (त्रिसौपर्ण धर्म) १०६३, सुलभा १०७४ । तिथिनिर्णय - भारतीय युद्ध ७०८; राम-रावण युद्ध शिव, विष्णु ) ७६१; ८८३; ७३७-७३८ । तीर्थयात्रा - अर्जुन ३६; धौम्य ३३३; बलराम ४९४; युधिडिर ६९९ खोमश ७८९ बिदुर ८४५ । तीर्थस्थान गवाशिरम् १८२ ज्योतिलिंग २३७३ देवीपी ३०२ पृथूदकीचे (सिंधुद्वीप) १०४२: प्रभासक्षेत्र (ब्रह्मन का यज्ञस्थान ) ५२९: बौद्धधर्म के तीर्थस्थान १९२९: मातृतीर्थ (रेणुकातीर्थ ) ३९१ वराहस्थान ७९९ वामनस्थान ८२६ विष्णु के तीर्थस्थान ८७९-८८७ व्यास ९२६ ९२९ शक्तिपीठ ३०१ समन्तपंचक क्षेत्र १०८८; त्रिपुर- उत्पत्ति (इंद्र) ६९: विनाश (त्रिपुर) २५२ । दानशूरता निर्मिदू ८५२० पद १०१ वृषादर्मि शैब्य ९०२: शिवि भौशीनर ९७१: अतवर्मन् ताक्षं ९९२ । . दाशराज्ञयुद्व - - १०५६; विपक्षीय राजाओं की नामावलि १०५६ । देवता उपासना (३) स्त्रीदेवता देवी ३००-३०३ मातृका ६१८६३९ रात्रि ७२२ राधा ७२२-७२४ विद्या ८४९ क्ष्मी ७२१-७२४ । • देवता उपासना- देवता कल्पना की उत्पति (रुद्र दिग्विजय- अर्जुन (उत्तर) २० कर्ण (उत्तर) ११९ नकुल ३३८ भीमसेन (पूर्व) ५६२: रावण ७४५ . सहदेव (दक्षिण) १०२८; सिकंदर १९३५-११३८ । देवता -- ओ वैदिक, पौराणिक एवं स्त्री देवता इन तीन उपविभागों में विभाजित है: -- (१) वैदिक देवता - अग्नि ५-६; अश्विनि ४८; आदित्य ५८ ६८-७२ त २५१६ पून् ४४६४४७ प्रजापति ४६१-४६५ प्रापतियों की संख्या एवं नामावली ४६५ बृहस्पति ५१८-५२०० भग ५३२ : मन्यु ६१८; मरुत् ६२२ - ६२५; मातरिश्वन् ६३८; मित्र ६५२ रु ७९९-८०२ वायु ८२६ विवस्वत् ८२६ २०२६ सूर्य १०८१ । (१) ज्योतिर्लिंग उपासना २३७ - २३९ ज्योतिलिंग स्थान २३८-२३९ ( रुद्र- शिव देखिये ) महाकाल ६२७; भीमशंकर ५६० । शक ३९४ । -- (६) राम दाशरथि - - रामभक्ति सांप्रदाय ७४०; राम भक्ति से प्रभावित उपनिषद ग्रंथ ७४० राममक्ति का यामुयायणदो वंशों के पिताओं का पुत्र विकास ७४० सांप्रदायिक रामायण ग्रंथ ७४० बौद्ध एवं - (भरद्वाज) ५५० । जैन वाङ्मय में रामकथा ७४१; आधुनिक भारतीय भाषाओं में रामकथा ७४१ | (७) रुद्र - शिव - शिवदेवता की उत्क्रान्ति ७६१; शिव के अवतार ७६३: शिव उपासना के सांप्रदाय ७६४-७६५; शिवरात्री ७६५; शिव उपासना के ग्रंथ ७६५ ( ज्योतिर्लिंग देखिये ) । - ( २ ) अन्य देवता - दत्त आत्रेय २६१ - २६२ ; कृष्ण १५८-१६४ परशुराम जामदम्य २८८-३९४ पितर ४१९-४२२ ब्रह्मन् ५२६-५२१ मे १९१३ राम दाशरथि ७२५-७४२ रुद्र- शिव ७५४-७६६ बामन ८२५-८२६: विष्णु ८७९-८८७९ शनि ९४३-९४४ हनुमत् १०९८ - ११०२ । प्रा. च. १५० ] -- ( २ ) दत्त आत्रेय -- आमज्ञान एवं शिष्यपरंपरा २६१० दत्त आश्रम २६१ दत्त जन्मकाल २६२० दत्तमत प्रतिपादक ग्रंथ २६२ दत्त सांप्रदाय २६२ । - ( ३ ) देवी उपासना साविक पार्श्वभूमि २००६ देवीपीठ २०२ ३०३ शक्तिपीठ ९२२० - ( ४ ) नृसिंह उपासना - ३७५ - ३७६; नृसिंह. स्थान ३७६ । - (५) परशुराम - परशुराम के स्थान १९४० परशुरामजयन्ति ३९४ परराम सांप्रदाय के ग्रंथ ३९४: परशुराम -- (८) वामन ९८४; -- (९) विष्णु विष्णु उपासना के तीन स्त्रोत ८८२३ विष्णु देवता की उत्क्रान्ति ८८३३ विष्णु की उपासना ८८४ विष्णु के अवतारों की नामावलि ८८४ (विष्णु के अवतार देखिये ); विष्णुं सांप्रदाय के ग्रंथ ८८६; विष्णु के तीर्थस्थान ८८७ कई प्रमुख वैष्णव सांप्रदाय ८८७ । -- (१०) वीरभद्र - ८२६; - ( ११ ) वेंकटेश उपासना - ९०४ - ९०५ । - ( १२ ) सूर्य सप्तसूर्य १०८१ सूर्य देवता की कल्पना का उद्गम १०८२ ; सूर्योपासना १०८२ ; सूर्य उपासना के ग्रंथ १०८२ । (१३) हनुमत् गुणवैशिष्टय १०९८: हनुमत् देवता का मूल स्त्रोत १०९८ हनुमत् देवता का सद्यःस्वरूप १०९८ । ११९३ - Page #1215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवतासमूह विषयसूचि नियोगज संतति देवतासमूह-आदित्य (ग्यारह ) ९८; तुषित २४८; --मग (निक्षुभ) ३६८; मगध ५९४; मत्तमयूर ५९९; पितर ४४९; प्रजापति (इक्कीस) ६२१; याम ६९३; यूथग | मत्स्य ६००-६०१; मत्स्याहारिन् ३३८; मद्र ६०२; मलद ७१०; योगेश्वर ७१०; वशवर्तिन् ८०३; वसु (अष्ट) ७२६; महीषक ६३४; माचेल्लक ६३४; मालव ६४९; ८११-८१३; वातस्कंध ८२०; विश्वेदेव ८७७; साध्य | मार्तिकावत ६४९; मावेलक ६५१, मेकल ६६१, मूतिब . १०३४-१०३५ सप्तर्षि १०१९, सूर्य (सप्त) १०८१।। (विश्वामित्र) ९७०, देवासुर-संग्राम--- द्वादश देवासुर संग्राम २९१; इंद्र --यमक ६७७; यवन (नकुल; मनु, विश्वामित्र ) ६८३; वृत्रयुद्ध ८९६-८९७; इंद्र- बलियुद्ध (समुद्रमंथन के | ३३८; ६०५, ९७०; याद ६९३; रामठ ७४२; रोमक पश्चात् ) ४९८; स्कंदतारकासुर-युद्ध १०९१ । ७७१; रोहीतक ७७५; लंपाक ७८४; ललाटाक्ष ७८५; देश,लोकसमूह अथवा जातिसमूह-जो वैदिक,पाणिनि --वर्मक ८०३; वश ८०३; वाहीक ८३८; विदर्भ (४.) कालीन, सर्वसामान्य एवं सिकंदरकालीन, इन चार उप-८४३; विषाणिन (शिष्ट ) ९७४; वैकर्ण ९०८; व्याध विभागों में विभाजित हैं: (एकलव्य) १००; शबर १४४; शिबि ९६९; --(१) पाणिनिकालीन लोकसमूह--४०८; | --शक (नकुल, भीम, मनु)३३८; ५६१; ६०५, शबर --(२) वैदिक लोकपमूह-अनु २१; तृत्सु २४९; (विश्वामित्र) ९७०; शिबि ९६९; शिव (शिष्ट ९७४) दृह्य ३०६, पक्थ ३७०; पंचजन ३७८; पंचाल ३८० | शूद्र (नकुल) ३३२, श्रोणिमत् (भीम) ५६९; सप्तसिंधु ८१, पारावत ४१४; पूरु ४४४; बालक ५०२ १०२०; सारस्वत १०३८ साल्व १०३८; सिंहल १०४०; भरत ५४०; मूजवन्त् ६५८; यक्षु ६७०; यति ६७१; सिंधु १०४२, सुमित्र १०६९; सोमधेय (भीम) ५६१; . यमक ६७७; सौदन्ति ( विश्वामित्र ) ९७५; --यौगंधर ७१०; रथकार ७१७; वारशिख ७९८; -हारहण (नकुल) ३३८; हैहय (और्व) १०४ विषाणिन् ८७८; वृचिवत् ८९६; वैकरण ९०८; वैतहव्य धनुष--गांडीव (अर्जुन) ५७; माहेंद्र ( युधिष्टिर) ५७; ९०९; शांडिल ८९५; शिबि ९६९; विजय (रुक्मिन् ) ७५३; वायव्य ( भीमसेन )५६१। .. --(३) सिकंदरकालीन लोकसमूह--अभिसार ११३२; ___ धर्मशास्त्र-मनु स्वायंभुव के द्वारा धर्मशास्त्र का अंबष्ठ ११३२, आग्रेय ११३२; आश्वकायन ११३३; निर्माण ६१४; मानवधर्मशास्त्र, का पुनर्सस्करण ६४०; आश्वायन ११३३;कठ ११३३; केकय ५१३३; क्षतृ (क्षुद्रक) मनुस्मृति की विषयानुक्रमणिका ६१४ । ११३३; गांधार (पश्चिम) ११३४; गांधार (पूर्व ) ११३४; धर्मशास्त्रकार-अंगिरस् ११, उशनस् ९१; नारद ३६५ ग्लुचुकायन ११३४; नुसा ११३४; पातानप्रस्थ ११३४; ब्राह्मणक ११३४; मद्र ११३४; मालव ११३४; मूचिकर्ण पराशर ३९७; पितामह ४२२; पुलस्त्य ४३८; पैठीनसि ११३४; वसाति ११३५शकस्थान ११३; शिबि ११३५, ४५५, प्रचेतस् ४६०, प्रजापति ४६५: बुध ५१२; भरद्वाज सुग्ध ११३८; सौभूति ११३८; हरउवती ११३८ । ५५१, भागुरि ५९५, मनु स्वायंभुव (मनुस्मृति ) ६१३; --(४) सर्वसामान्य लोकसमूह--अश्व (विश्वामित्र) ९७०%, यम वैवस्वत ६७७; याज्ञवल्क्य ६९३; शंख ९३६, व्यास ९१६, विश्वामित्र ८७६ । आंध्र (मनु) ६९५; आभीर (अष्टावक्र)४°; उत्सवसंकेत ३३२; कांबोज ( मनु) ६०५; किरात (विश्वामित्र) ९७०; । निःक्षत्रिय पृथ्वी (परशुराम-हैहय संग्राम) ३८९कुरु (कुरु ३.) १५१; कोलगिरेय (अर्जुन) ३५; कोलि ३९२, हैहयों से शत्रुत्व ३८९; युद्ध ३९०; कार्तवीर्यवध (गरुड) १८३; गज (इरावती २.) ७६; ग्रामणीय ३९०; जमदग्निवध ३९०; हैहयविनाश ३९१; निःक्षत्रिय (नकुल) ३३२; चीन (मनु) ६११; जालंधरायण २३४; पृथ्वी ३९१; अश्वमेध यज्ञ ३९२, नया हत्याकांड ३९२; ---दस्यु (कायव्य ) १३४; द्रविड (मनु) ६११; द्वारपाल हत्याकांड से बचे हुए क्षत्रिय ३९२, परशुरामकथा का (नकुल) ३३८; नाग (कायव्य)१३४नैमिषीय ३७७; अन्वयार्थ ३९२; पक्थ (शिष्ट ) ९७४; पटच्चर ३८१; पन्नग १४०; परशु --हत्त्याकांड की समाप्ति, एवं परशुराम के द्वारा शूर्पारक ४०३; पह्नव (नकुल, विश्वामित्र ) ३३८, ९७०; पांचाल | देश की स्थापना ( ३९२ )। ४०४; पारद ४१३; पुण्ड ९७०; पुलिंद ९७०, पौरवक | नियोगज संतति--८४१; धृतराष्ट्र ३२५; पाण्डु ४१०; ४५८; प्रियमेध (कर्ण, नकुल, भीम) ११७; ३३८,५६१; । हीनकुलीनत्व (विदुर) ८४४ । ११९४ Page #1216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निर्वाण प्राचीन चरित्रकोश ब्राह्मण जातिसमूह निर्वाण--अश्वत्थ वृक्ष के नीचे निर्वाण (कृष्ण पौराणिक साहित्य-परिचय ७२५-९२७; पुराणों का १६२, कुशीनगर के शालवन में महापरिनिर्वाण (गौतम आद्यप्रवर्तक (व्यास) ९२५, आद्यनिवेदक-रोमहर्षण बुद्ध) ११२८; पृथ्वी के विवर में प्रवेश (सीता) १०४५, सूत ७७२; विभिन्न प्रकार ९२५, चर्चित विषय ९२५, महाप्रस्थान के समय देहपतन (अर्जन, द्रौपदी, भीमसेन, | श्लोक-संख्या ९२५, वक्ता ९२५, महापुराणों की नकुल एवं सहदेव) ७०७; युधिष्ठिर के दृष्टि में दृष्टि | तालिका ९२६; उपपुराणों की नामावलि ९२६; देवतामिला कर निर्वाण (विदुर) ८४६; युद्धभूमि पर मृत्यु (कर्ण, | नुसार पृथक्करण ९२७; व्यास की पुराणशिष्यपरंपरा दुर्योधन, रावण) १२१, २८४; ७४७-७४८; योगिक | ९२७; निर्दिष्ट राजवंश ११३९-११५६; निर्दिष्ट राजा मार्ग से देहत्याग (बलराम) ४९५; वायुलोक से सूर्यलोक | ११६६; निर्दिष्ट ऋषिवंश ११६७।। में प्रवेश (शुक) ९७६; शरशय्या पर देहत्याग (भीष्म) पौराणिक नामों की व्युत्पत्ति-अगस्त्य४; अपोद (धौम्य) ५७७; सदेह स्वर्गारोहण (सत्यव्रत त्रिशंकु, युधिष्ठिर ) ३३३; आस्तीक ६५, गालव; (विश्वामित्र) ८७०; २५४-२५५, ७०७। । ८७१; वेंकटेश (वेंकटेश) ९७४। निवासस्थान--यम वैवस्वत ६७४; रावण दशग्रीव पूषन् ४४८; प्रातिसुत्वन् ४७०; बृहस्पति (लंका) ७३५, रुद्र-शिव.७५५; लक्ष्मी ७८२, लगध | ५१८; भृगु ५८५ मरुत् माण्ड ६४९; मिथि जनक ७८४; वरुण ८००, विवस्वत् ८६२, विष्णु ८७९; वृत्र; | ६५३; मुध्रवाच् ६६०; मेदिनी ६५२, यायावर ६९४, ९६; श्वेतकेतु औद्दालकि ९९५; मुंजय १०८३ । रावण ७४३; वरुण ८०१; विवस्वत् ८६३; विष्णु ८८१; . पक्षी---अरुण ३३; गरुड १८२-१८५; जटायु २१८ वृत्र ८९७; हनुमत् १०९९ ।। ता: २४४; भारुंड (पक्षीसमूह) ५५७; संपाति १०२१ । पौराणिक कथाओं का अन्वायार्थ-अहिल्या ५३; परशुपतंजलि का व्याकरणशास्त्र--३८३-३८५; शुद्ध राम जामदग्न्य ३९२; परिक्षित् ४०१; पितृकन्या ४२२; 'उच्चारण का महत्त्व ३८४, पूर्वाचार्य ३८४; टीकाकार पृथु वैन्य ४४९; बलि वैरोचन ४९७; बाण ५०५भगीरथ ३८४; महाभाष्य का पुनरुद्धार ३८५; अन्य ग्रन्थ ३८५। । ५३५; मत्स्य ६००; वराह ७९९; वरुण ८००, वामन .१२६; विवस्वत् ८६३; सत्यव्रत १०१२; सीता (भूमिजा) पाणिनि का व्याकरणशास्त्र--४०६-४०९; पूर्वाचार्य १०४३। ४०६; पाणिनि का समन्वयवाद; ४०८; लोकजीवन 'प्रतिग्रह ' का दोषारोप-(बुडिल आश्वतराश्वि) ४०८; पाणिनिकालीन · भूगोल ४०८; सिक्के ४०९ | परिमाणदर्शक शब्द ४०९; प्रमुख यज्ञ--द्वादशवर्षीय सत्र (नैमिषारण्य) ७३३; -पाणिनि की अष्टाध्यायी ४०७; अष्टाध्यायी के वार्तिक ब्रान् का यज्ञ (प्रभास क्षेत्र) ५२९; बलि वैरोचन का कार ४०९; अष्टाध्यायी के वृत्तिकार ४०९; पाणिनि के यज्ञ (भृगुकच्छ) ४९९ जनमेजय का सर्पसत्र ( हस्तिनाअन्य व्याकरणग्रन्थ ४०९। पुर) २१९-२२२ । पूर्वाचार्य--चाणक्य ( कौटिलीय अर्थशास्त्र) ८८८; ____प्राणिसृष्टि--कश्यप की संतान १२९; पक्षी-स्तंबमित्र पतंजलि (व्याकरण महाभाष्य) ३८३; पाणिनि ( अष्टा शाङर्ग १०९२; हाथी-ऐरावत १०२९सुप्रतीक १०६४; ध्यायी ) ४०६; ४०९; यास्क ( निरुक्त ) ६९४; -गाय-कामधेनु: (सुरमि) १०७२, नाग-धृतराष्ट्र ३२८; लाट्यायन (श्रौतसूत्र ) ७८६; वात्स्यायन ( कामसूत्र ) | वामकि ३८ ८२१ । प्राचीन कालगणनापद्धति-११६९-११७२, युगपृथ्वी का पहला राजा-पृथु वैन्य ४४९-४५१; | गणना पद्धति ११६९; ब्रह्मा का एक दिन ११६९; पृथ्वीदोहन ४४९; पृथु की राजप्रतिज्ञा ४५१ । आधुनिक उपपत्ति ११६९; मन्वन्तर कालगणनापद्धति -२. यम वैवस्वत ६७४ । । ११७०; कल्पों की नामावलि ११७१, सप्तर्षियुग की पृथ्वीदोहन--पृथु वैन्यकृत ४४९; पृथ्वीदोहन की | कल्पना ११७१ । अन्य कथाएँ ४५० । . ब्राह्मण जातिसमूह--जातूकर्ण्य ८०५, भृगु (भार्गवपौराणिक काल-व्याख्या ४०१, कलियुग का प्रारंभ | गण) ५८८; रथीतर ७१८; रहूगण ७२०; विभिंदुकीय ११५२। | ८५४; व्यश्व ९१४: हिरण्यकेशिन् १११२। ११९५ Page #1217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ब्राह्मण शाखा विषयसूचि माहात्म्य ब्राह्मण शाखा--काण्वायन ६६२; चरक ६४७; मैत्रेय | पंचाक्षर (धुंधमूक) ३२४; शिवषडक्षर (धुंधुमूक) ३२४; ६६६ । षडक्षर (जमदग्नि) ३२३; संजीवनी ( उलूपी; कच भृगु बौद्धधर्म-गौतमबुद्ध का जीवनचरित्र ११२४; बुद्धों की २.)५८५; सामर्थ्य (परुच्छेद दैवोदासि) ४०२। । नामावलि ११२४; प्रमुख बौद्ध सांप्रदाय ११२८; तत्त्व- महाभारत---प्रणयन ( व्यास, वैशंपायन; सौति) ज्ञान ११२८; बौद्ध धर्म के प्रसारक ११२९; बौद्ध धर्म | ९२७; ९१२; १०८८; महाभारत के पर्व एवं उपपर्व के प्रमुख तीर्थस्थान ११२९; बौद्धधर्म ग्रन्थ-त्रिपिटक ९२८; व्यास की महाभारतशिष्यपरंपरा ९२९; महाभारत ११२४। का खिलपर्व (हरिवंश) ९२८; भारतीय युद्ध--५६६-६७०, ७०१ ७०६, कृष्ण- --प्रमुख उपपर्व-आस्तीकपर्व (वैशंपायन ) ९१२ दौत्य ७०१; पांडव पक्ष के देश ७०१; कौरवपक्ष के देश | प्रजागरपर्व (विदुर ) ८४५, मार्कडेयसमस्यापर्व ७०२, कौरव एवं पांडवसेना का बलाबल ५७५-५७६; (मार्कंडेय) ६४८; शुकानुप्रश्न (शुक्र) ५७६ । सांख्यिक बल ७०३; युद्धशिबिर ७०३; सेनाप्रमुख एवं | मानव (मनुष्येतर) जातिसमूह-गंधर्व १८२, देव सेनापति ७०३; युद्ध का प्रारंभ ७०४; प्रथम दिन से २९०-२९२, दैत्य ३०३; नाग ३५७-३५८; पिशाच अठारहवें दिन तक का युद्धवृत्तांत ५६६-५७०; युद्ध से ४२६-४२८; भूत ५८०; मरुत् ६२४; यक्ष ६६९, रक्षस् बचे हुए वीर ७०५। ७११-७१४; वानर ८२२-८२४; विद्याधर ८४९; वैताल __ भौगोलिक स्थान--जिनमें निम्नलिखित विभाग प्रमुख | ९०५, सर्प १२२४; --मानवेतर वंश११५५। --(१)द्वीप--पृथ्वी के सात द्वीप, एवं उनका संभाव्य मानस में प्राप्त चरित्रचित्रण-भरत दाशरथि ५४७; . आधुनिकस्थान १०९६; सागरोपद्वीप (सगर) १००२; . राम दाशरथि ७४०;रावण दाशग्रीव ७४८; लक्ष्मण ७४०; --(२) वर्ष--जंबूद्वीप के सात वर्ष (इलावृत; रम्यक | सीता १०४५; सुमित्रा १०६९; हनुमत् ११०२ . हिरण्य; कुरु, भद्राश्व, किंपुरुष, नाभि) १०९६; माहात्म्य--अन्नदान (रतिविदग्धा ) ७१६: अरुणाचल -(३) देश-(देश, लोकसमूह, एवं गणराज्य देखिये)। (नंदिन; पार्वती; वज्रांगद) ३४४, ४१५, ७९३; आकाश--(४) नगर--मथुरा-९४२, लंका- ७३५, वैजयंत- | दीप (वालखिल्य) ८२९; ३६९; वैशाली ८६४; श्रावस्ति ९९०, सांची १००१ । । --एकादशी--अधिक माह की एकादशी ( जयशर्मन्) --(५) पर्वत-गृध्रकूट ५१७; हिमवत् १११०। २३८; कार्तिकी एकादशी (अंबरीष) २८; जया मन्वंतर-मानव जाति का पिता-मनु आदिपुरुष ६०५ | एकादशी ( माल्यवत् ; पुष्पदंती) ६५१, ४४२, पापमन्वंतरों का निर्माण ६८६१; चौदह मन्वंतर ६०६; | मोचनी एकादशी ( मेधाविन् ) ६६३, रमा एकादशी पाठभेद-६०७; विभिन्न मन्वंतरों के मनु, ऋषि, इंद्र (शोभन ) ९८५, विजया एकादशी (बक दाल्भ्य) ४८८% आदि की जानकारी (६०७-६१०)। | सफला एकादशी (लुपक) ७८७;; मंत्र-अश्लील ( अभ्यग्नि ऐतशायन )२७; अष्टाक्षर | -कमल (लोमश, पुष्पवाहन) ४४२, ७८९; कार्तिक (जय-विजय) २२७; उत्कर्ष ( वसिष्ठ वैडव)८१०, कन्या (देवशर्मन् )२९८; काशी ( दमन) २६५, श्रीरकुण्ड प्राप्ति (श्राद्धदेव ) ९८९; गर्भाधान (आत्रेय ) ५७; (मुद्गल ) ६५७; -तीन अक्षरी (सुवर्ण २.) १०७५, दीर्घायुष्य ( वत्सप्रि | --गंगामहात्म्य (पद्मावती) ३८७; मही ६३३; रत्नाकर भालंदन) ७९४; पठण (औपमन्यव) १०४; पारीक्षित | ७१६; वसु (३६.) ८१६; सागर १००२, सत्यधर्मन् (परीक्षित् )३९९; १००९; --भूतखेत (कश्यप)१३१; भैरव ( भैरव १.) ५९१; | -गया नदी (युगादिदेव) ६९५; भोज (प्रगाथ) ४५९; (काण्व) १३१; मतभेद -गीतामाहात्म्य-कुशीबल १५४; खड्गधर १७७; (भस्मासुर)५५४; महामृत्युंजय (१ वसिष्ठ)८०६; राम | चंद्रशर्मन् (२.) २०४; ज्ञानश्रुति २३७; दुःशासना (२.) (वाल्मीकि)८३३; वाग्भव (औत्तम; चाक्षुष)१०३, २०८ | २७७; देवशर्मन् (६.) २९८; धीरधी ३२३; सिंगल -शांति ( उपरि बभ्रवः कांकायन; कोरुपथि; जाटिकायन) (६.)४८८; बटु ४८८; माधव ( ६.) ६४१; मित्रवत् ८८; १३१, १६९; २३२, शिव (दाशाई )२७०; शिव-६५३; शंकुकर्ण ( ९.) ९३५; सरभभेरुंड १०२३; सरो ११९६ Page #1218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माहात्म्य प्राचीन चरित्रकोश युद्ध जवदना १०२४; सिद्धसमाधि १०४१; सुकर्मन् (१.)। वैरोचन, बाहु, भरत दौःषान्ति, मरुत्त आविक्षित, मित्रसह १०४६; सुनंद (२.) १०६०; सुशर्मन् (४.) १०७७; | कल्माषपाद, युधिष्ठिर, राम दाशरथि, वसुदेव, विजिताश्व, -गोमाहात्म्य--(कल्माषपाद; च्यवन) १२५, २१५ । शर्यात मानव, श्विन, सगर, सुदास पैजान) ६१७५; गोदान (नचिकेतस् ) ३४१; ७३; २२१, २५०; २९४; ३०४; ३५०; ४९९; ५०९; --गौतमीमाहात्म्य( शूरसेन ) ९८१; गौरीव्रत ( इंद्राणी) | ५४७; ६२५; १२४; ७०७; ७३६; ८४२; ९५०;९९९; ७६; चिताभस्ममाहात्म्य (शबर २.) ९४४; १००१, १०५६; अश्वमेध यज्ञ का शास्त्रार्थ (मुंडिभ-तुलसीमाहात्म्य (धर्मदत्त १; पवित्र १; भक्षक; शबर ३.); | औदन्य) ६५६; एकोनपंचाशद्रात्र याग (वसिष्ठ मैत्रा३१९: ४०४, ५३२, ९४४: त्रितकप (त्रित ) २५२, | वरुणि) ८०९; गोमेध (इंद्र जित् ) ७३: गोवर्धन याग दीप (निष्ठुर १.) ३७२; दीपदान (बुध १०; वृद्ध गार्ग्य) (इंद्र) १६; ५१३, ८९९; देवी भागवत ( लोमश. १. ) ७९०; नदी | --चतुरात्रयाग-(अत्रि जमदग्नि) १६; २२२; ज्योतिष्टोम (गौतम ) १८५; पिता पितृमाहात्म्य ( नरोत्तम )३४९; | याग-(अरुंधती, मेधातिथि) २०, ३४; ६६२, तृष्टोम पातिव्रत्य ( इंद्र; कौशिक) ७३; १७०, पादत्राण (शंख क्षत्रधृति यज्ञ (वृद्धद्युम्न आभिप्रतारिण)८९९; दाशरात्र २.) ९३७, प्रयाग (मार्कडेय)६४८; ब्राह्मण ( इंद्र) याग- (उर्दक शौल्बायन) ८३ ६८; ७३; भागवत (वज्रनाभ ४.) ७९३; भूमिदान | --सप्तरात्र याग-(कुसुरुबिंदु औद्दालकि) २५५ (भद्रमति) ५३८; माहेश्वरव्रत ( शारदा २.) ९६४; दाक्षायण याग-(देवभाग श्रौतर्ष, सहदेव साजय) २९३, माघस्नान (कार्तवीर्य); भद्रक (हारीत ७.) १३५, १०२९; द्विरात्रयाग-(कपिवन भौवायन, चित्ररथ )११५, ५३७; ११०९; २११; धनुर्याग-(कंस, कूट, चाणूर) १०७; २५५,२०९; --रामनाममाहात्म्य--(अरिष्टनेमिः जीवंती) ३२ | नरमेध (शुनःशेप, सोमक साहदेव्य) ९७८; १०८६; २३५, रुद्र (आलंबायन )६३, वाराणसी तीर्थ (वंजुल) नवमास यज्ञ (नवग्व) ३५५, नेत्रपाप्ति यज्ञ (रजन .७९३; वेतसी-वेत्रवती संगम (धरापाल) ३१७; वैशाख कोणेय ) ७१५, पंचरात्र याग (शौचेय सार्वसेनि ) ९८५; (कीर्तिमत्; रुपवती; शंख २.) १४३, ७६८; ९३७; --पुत्रकामेष्टि यज्ञ (इल; जनक; दशरथ; दिवोदास) ७७; व्याघेश्वरं (दुंदुभि निहा ) २७८; २२०; ७२६; २७२, बहुसुवर्णक यज्ञ (इंद्रजित् ) ७३; . --शमीमाहात्म्य ( पिंगल ९.) ४१८; शिवभक्ति माहेश्वर याग (इंद्रजित् )७३। (भद्रसार ३.) ५३८; शिवसहस्रनाम (तंडि) २४०; --राजसूय यज्ञ (इंद्रजित्, कृष्ण, जैत्रायण सहोजित; संगमस्नान (विदुर) ८४६; सत्यनारायण ( लीलावती) मांधातृ, युधिष्ठिर, हरिश्चंद्र) ७३; १६१; २३५, ६४३; ७८७; सरस्वती बीजमंत्र (सत्यतपस् ) १००८ साभ्रमती ६९७; २२२, वक्तृत्त्व याग (बबर प्रावाहणि) ४२९; (गंगा; विकर्तन) १७९; ८३९; सूर्योपासना (कौथुमि; वाजपेय यज्ञ (औपावि जानश्रुतेय; सीरध्वज) १०४; भद्रेश्वर ) १६९; ५३० । १०४६; विश्वजित् यज्ञ (बक दाल्भ्य; बलि वैरोचन; मुख-अश्वमुख ( हयग्रीव ) ११०३; चतुर्मुख रघु) ४८७; ४९८; ७१४; वैष्णव यज्ञ( इंद्रजित् , मुद्गल) (ब्रह्मन् ) ५२७; वानरमुख ( हनुमत् ) १०१९; षण्मुख | ७३, ६५७ । (स्कंद) १०९०; -शमनीचमेद् (कुषीतक सामश्रवस् ) १५५; स्तोम मेगॅस्थिनिस कृत इंडिका कौटिलीय अर्थशास्त्र से | (शुनस्कर्ण बाष्किह) ९७९; शांत्युदक (युवन् कौशिक ) तुलना ८८८। ७०९; सर्वमेध यज्ञ (विश्वकर्मन) ८६७; सप्तरात्रयाग यज्ञविशेष- अग्निचयन (कालकंज, शांडिल्यायन, (कुसुरुबिंद औदालकि, ऋतुजित जानकि) १५५; १७३; सीरध्वज) १३७,९६१,१०४६; अग्निष्टोम (इंद्रजित् सोमयाग (वम्र, श्यापर्ण।) ७९६, ९८७, सौत्रामणि भंगास्वन) ७३, ५३६; अंसुग्रह (राम औपतस्विनि) (दुष्टरितु पौंस्यायन) २८७; संततिदायी यज्ञ (वीतहव्य ७२४; अतिरात्र(भौवायन) ५९३; अभिचार (भद्रसेन श्रायस) ८९१)। आजातशत्रव) ५३९; | युद्ध--इंद्र-बलिसंग्राम (बलि वैरोचन) ४९८; तारका-अश्वमेध (अंबष्ठय, इंद्रद्युम्न, इंद्रजित्, जनमेजय | सुरसंग्राम (स्कंद) १०९१; त्रिपुर संग्राम (त्रिपुर) २५२, पारिक्षित, त्रसदस्यु पौरुकुत्स, जनक दैवराति, नल, बलि | दाशराज्ञयुद्ध (सुदास ) १०५६; ११९७ Page #1219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ युद्ध विषयसूचि वंश -परशराम-हैहय संग्राम ३९१-३९२ (निःक्षत्रिय कर मृत्यु ( जरासंध) २३०; सामान्य श्वापद जैसा मृत्य पृथ्वी देखिये); बाणासुर संग्राम (बाण ) ५०३; भारतीय (कार्तवीर्य अर्जुन) ३९० । युद्ध (भीमसेन; युधिष्ठिर) ५६६-५७०; ७०१-७०६; व्रत--अनशन (चित्रसेन) २१३; अशून्यशयन (भारतीय युद्ध देखिये); भूरिश्रवस्-सात्यकि युद्ध (भूरि- (दिव्यादेवी) २७३; उपवास (च्यवन) २१६; श्रवस् ) ५८३; मौसल युद्ध (कृष्ण; सांब) १६२, १०३६; --एकादशी-इंदिरा (इंद्रसेन ) ७६; कमला (हरिमित्र) --राम-रावणयुद्ध (राम दाशरथि) ७३१-७३५, ११०५, त्रिस्पृशा (इंद्र; गंगा) ७१, १८०; पक्षवर्धिनी ७४७-७४८ ( राम-रावण युद्ध देखिये )। (ध्रुव १; वसिष्ठ ); ३३६, ८१०; पापनाशिनी (ककुत्स्थ) युद्धवार्ताहर--संजय गावल्गणि १००४-१००५, १०८; योगिनी (हेममालिन् ) १११४; युद्धवार्ता का कथन १००५; युद्धवार्ताहर संघ-वातिक --गौरी (इंद्राणी; पार्वती) ६०६; ४१५ त्रिरात्र ८२० । (सावित्री) १०४०; दमनक (कुशध्वज) १५२; योद्धा विभिन्न श्रेणि (अतिरथ; अर्धरथ; एकरथ; --द्वादशी (पुष्पवाहन; मुद्गल; मालिनी) ४४२, ६५७; चक्ररक्षक; महारथ; रथ; रथमुख्य; रथयूथपयूथप; ६५०; भीम (इंद्र) ६९; रथवर; रथसत्तम; रथिन् ; रथोत्तम; रथोदार) ५७५ । --बाल (श्रीधर)९९०; भीष्मपंचक (भृगु २०. वसिष्ठ) संशप्तक योद्धा (सुशर्मन् ) १०७८ ।। ५८७, ८१०; मूक (सोमश्रवस् ) १०८७; राधाष्टमी . राजसूय यज्ञकर्ता राजा-- दो प्रमुख प्रकार:-(१) (लीलावती ५.) ७८७; लक्ष्मीव्रत (श्यामबाला ) ९८८; : देवराजन्--जो उपाधि यह यज्ञ करनेवाले देवों के राजाओं लिंगपूजा (धुंधुमूक) ३२४, सोमप्रदोष (सीमन्तिनी) को प्राप्त होती थी [ वक्षीवत् (काक्षीवत) दीर्घश्रवस्; पृथु; सिंधुक्षित] २९६; (२) मनुष्यराजन्--जो उपाधि । वंश, जो राजवंश एवं ऋषियों के वंश, एवं मानवेतर - यह यज्ञ करनेवाले मनुष्यों के राजाओं को प्राप्त होती | वंश में विभाजित है :--- थी (दैवोदास; वाध्यश्व; वैतहव्य )। -(१) राजवंश-अजमीढ वंश ११४५५; अनु वंश राजनीतिशास्त्रज्ञ-मातंग ६३७; मनु प्राचेतस ६१०, ११४५; अनेनस वंश ११४५; अंधक वंश ११४५ विष्णुगुप्त चाणक्य ८८८-८८९; विष्णुगुप्त चाणक्य के अमावसु वंश ११४५; 'आनव वंश ११४५, आंध्र वंश पूर्वाचाय ८८८-८८९; विश्ववेदिन् ८७०; ११३; आयु वंश ६१; ११४५, इक्ष्वाकु वंश ११३९; राक्षससत्र-पराशरकृत ३९६; . उशीनर ११४६; उत्तानपाद ११५१; ऐल ११४६; रामरावणयुद्ध-७३१-७३५, ७४७-७४८; लंका पर --कष ११४६, काण्वायन ११५३; काश्य ११४६; कुकुर आक्रमण ७३१; सेतुबंध ७३९; लंका का अवरोध ७३२; ११४६; कुरु ११४६; कुशांच ११४६; कृष्ण ११४६; दूतप्रेषण ७३२, रावणसेना का वर्णन ७४७; प्रथम दिन क्रोष्ट ११४६; क्षत्रवृद्ध ११४६; चेदि (चैद्य) ११४७; से अंतिम दिन तक के युद्ध का वर्णन ७३२-७३४; - जमु ११४७; ज्यामघ ११४७; तितिक्षु ११४७; तुर्वसु रावणवध ७३४; राक्षस संग्राम का तिथिनिर्णय ७३५ | २४८; ११४७; द्रुह्य ११४७; दिष्ट ११४०; द्विमीढ . ७३७-७३८। ११४७; नभग ११४२; नरिष्यंत ११४२, नृग ११४२; रोगविशेष -अपस्मार (स्कंद) १०९२, कुष्ठरोग | नंद ११५४; नाभि ११५१; निमि ११४१; नीप ११४८; (घोषा, नंद, रजन कोणेय,विदारुण, सांब, सुयज्ञ, सोमकान्त, | नील ११४८; सोमनाथ) २००,३४२, ७१५, ८४३, १०३६, १०७१, --पुरुरवस् ११४८; पुरु ४४५११४८; प्रति१०८६, १०८७; त्वक्रोग ( देवापि अर्टिषेण) ३००; | क्षत्र ११४९; प्रद्योत ११५४; प्रियव्रत ११५१; बालेय राजयक्ष्मा (चंद्र, विचित्रवीर्य) २०२, ८४१; शीतज्वर क्षत्रिय ११४९; बभ्र ११४९; भजमान ११४९; भरत (ज्वर) २३८ । ५४८; ११४९; भोजवंश ५९१, ११४९; मगध ११४९; वध-अपने ही शाप से मृत्यु (वृद्धक्षत्र) ८९९; मनुवंश ६१२; मौर्य ११५४; यदु ६७३; ११४९; ययाति अपने ही सर पर हाथ रख कर मृत्यु (भस्मासुर) ५५४; ११५०; रजि ११५०, रम्भ ११५१, वसुदेव ११५१; क्लेशदायक मृत्यु (बिंबिसार श्रेणिय) ११३०; वक्षःस्थल वासव ११५१; विदूरथ ११५१; विष्णु ११५१, वैशाल फोड कर मृत्यु (दुःशासन) २७७; शरीर के दो टुकडे हो | वंश ८६४; वृष्णि ९०३, ११५१; सहस्रजित् ११५१; Page #1220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वंश प्राचीन चरित्रकोश विवाह सात्वत ११५१; शर्याति ११४२; शिशुनाग ११५४; | चाक्षुषी (अंगारपर्ण ९.); जलस्तंभन विद्या (दुर्योधन) शुंग २१५५; हैहय ११५१ ।। २८४; देवहूति (दुर्वासस् ) २८६; धनुर्वेद (युधिष्ठिर ) --(२) ऋषिवंश-अत्रिवंश १७:११६६; अंगिरस् वंश .६९७; धनुष्य (धर्मव्याध, नहुष, युधिष्ठिर, सत्यध्रुति ११,११६५, काश्यपवंश १२९,११६६; पराशरवंश ३९८; | सौचित्य) ३२१,३५५,५७, १००९; भार्गववंश ५८८; वसिष्ठवंश ८०४,११६७; विश्वामित्रवंश । --पंचाक्षरी (दुरासद) २९८; पमिनी ( स्वरोचिषु ) ८७४। १०९४; पर्वतस्तंभन (अगत्य) ४; पुष्पविद्या ( उपरिचर --(३) मानवेतर वंश-प्रमुख मानवेतर वंश ११५५; वसु; नल) ८६, ३५२; प्रतिस्मृतिविद्या (व्यास ) ९१८; --कश्यप वंश १२९-१३०; नागवंश ३५७; पितृवंश | प्रवग्यविद्या (दधीचि) २६३, प्राणविद्या (आरुणेय, ४२२, पलत्स्यवंश ४३६: पलहवंश ·४३८ भैरववंश | उपकौसल कामलायन, ब्रह्मद्दत्त चकितानेय) ६२,८५, ५९१; यक्षवंश ६६९; (मणिभद्र शाखा ५९७; मणिवर | ५२६; ब्रह्मविद्या ( उद्दालक आरुणि; कबंधी कात्यायन; 'गुह्यक' शाखा ५९७); वानरवंश. ८२३; हिरण्य- त्वष्टाधर; नारद; प्रतर्दन; बलराम; ब्रह्मन् ; यदु; यम) कशिपुवंश ११११, . . ८४; ११५:२५७,३६०:४६६,४९३,५२६;१०३२,८९९; वानर-- आदिमानव ७३५ राज्य एवं समाज ब्राह्मणपरिमर १०५३; मंत्रतंत्र (अश्विनीसुत, धन्वन्तरि) व्यवस्था ८२२; वानरवंश ८२२; जैन ग्रंथों में ८२३। मधुविद्या (दध्यञ्च) २६३, महामाया (शंबर) ९४६; वातिक-वृत्तनिवेदन एवं वृत्तप्रसारण करनेवाला --यथेष्टगामित्व (हनुमत् ) ११०० वारिविद्या (गर्ग) एक लोकसमूह ८२०, संजय गावलगणि १००४ । १८५, विषहारीविद्या (काश्यप) १०१, वैद्यकविद्या ___ वाल्मीकि रामायण--रामायण की जन्मकथा ८३३; (पुनर्वसु आत्रेय; धन्वन्तरि ) ३१५, ४३०; वैश्यविद्या पौराणिक वाङ्मय की प्रस्थानत्रयी'८३४: व्यक्तिगणों का (यात) ६७१, आदर्श ८३४; महाभारत से तुलना ८३४; रामायण की ---शांडिल्यविद्या (शांडिल्य) ९५९; शिल्पविद्या श्रेष्ठता ८२४, रामायण की ऐतिहासिकता ८३५; आदि- | (त्वष्ट) २५६; संजीवनी (कच; भृगु; शुक्र) ९७७; काव्य ८३६; गेय महाकाव्य ८३६; आर्ष महाकाव्य ८३६; | -सर्ववश्यता १०४६ ससर्परीविद्या ( जमदग्नि; विश्वाघाल्मीकि रामायण में प्राप्त भूगोलवर्णन ८३६, रामायण का | मित्र; शक्ति) २२२, ९३४; सामविद्या (चैकिता'रचनाकाल ८३६; महाभारत में प्राप्त रामायण के उद्धरण | नेय) २१५ सोमविद्या ( नारद १; भीमवैदर्भ ) ३६१; ८३७; वाल्मीकि रामायण के उपलब्ध संस्करण ८३७ । । ५६०; स्थलमापनविद्या (स्थपति) १०९२ स्थापत्य.' . वास्तुशास्त्रज्ञ एवं शिल्पशास्त्रज्ञ--विश्वकर्मन् ८६६- | विद्या (जनमेजय )२२१ । '८६७; के द्वारा निर्मित नगर ८६७; के द्वारा निर्मित अस्त्र | विवाह-आर्य एवं अनार्य (उपदानवी २) ८५; ८६७ त्वष्ट २५६; मय ६१८-६२०। क्षत्रिय एवं अप्सरा (आमीध्र) ५५; क्षत्रिय एवं ऋक्ष विद्याविशेष- अक्षहृदयविद्या (ऋतुपर्ण, नल, (जांबवत् ३.) २३३, क्षत्रिय एवं गंधर्व (पुरूरवस् ) बृहदश्व, युधिष्ठिर ) ९७, ३५२, ५१५; अग्निशिरास्त्र | ४३४; क्षत्रिय एवं देवता (तपती) २४१; क्षत्रिय एवं नाग (अंगारपर्ण) ९; अध्यात्मविद्या (उद्दालक, उदंक | (आर्यक; उलूपी) ६३, ९१, क्षत्रिय एवं पितर (दिलीप शौल्बायन, धर्मारण्य) ८३, ८४; ३२२; अंतर्धानविद्या | खट्वांग) १२७१, क्षत्रिय एवं ब्राह्मण (कच; गो २; (विभीषण ) १७४; अन्नविद्या (नल); | देवयानी;) ११०; १९३; २९४; क्षत्रिय एवं पर्वत --अश्वविद्या (ऋतुपर्ण; नकुल; नल) ९७, ३३९; अस्त्रविद्या (गिरिका) १९०, क्षत्रिय एवं राक्षस ( भीमसेन पाण्डव) (कृप, घटोत्कच, द्रोण, नकुल, शतानीक) १५७;१९९,३३८; ५६३; क्षत्रिय एवं शूद्र (चंद्रगुप्त) २०३; गंधर्व एवं ३३८,९४१; आत्मविद्या (कुशध्वज जनक, खांडिक्य कौनक) राक्षस ( सुकेश) १०४८; २१९:१७८;९४१; आयुर्वेद (इंदीवराक्ष) ६८; उत्खनन- --दानव एवं अप्सरा (मय) ६२०; देव एवं ग्वाला विद्या (खनक) १७७; (सावित्री) १८८; देव एवं नाग (गुणकेशी) १९१; ---कर्ममार्ग (खांडिक्य) १७८; कामरुपीधरत्व | देव एवं पर्वत (गिरिका) १९०; देव एवं ब्राह्मण (घटोत्कच, हनुमान ) १९९,११००; गानविद्या (उत्तरा) (उशनस् ) ९१, देव एवं राक्षस (त्वष्ट) २५६; नदी एवं ८२, गारुड (आकृति )५५, गोरति (दीर्घतमस् ) २७४ | अग्नि (गोपति ४.) १९४; ११९९ Page #1221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विवाह विषयसूचि शाखाप्रवर्तक आचार्य --पक्षी एवं ऋषि (ताी) २४४; ब्राह्मण एवं देव वैदिक संहिता-वेदों का निर्माण ५८७; वैदिक साहित्य (ज्येष्ठा ३.) २६७; ब्राह्मण एवं देवता (दत्त) २६१; | का अथांगत्व (भरद्वाज); वेदसंरक्षणार्थ वेदविभाग ब्राह्मण एवं नाग (आस्तीक) ६४; ब्राह्मण एवं पर्वत | (व्यास पाराशर्य) ९१९; वेदों का विभाजन ९२०; वैदिक (जैगीषव्य) २३५, ब्राह्मण एवं मछुआ (गरुड) १८३- | संहिताओं का विशुद्ध स्वरूप ९२४; उपलब्ध वैदिक ग्रंथ १८४; ब्राहाण एवं शूद्र (गौतम) १९५, ब्राह्मण एवं | ९२२; विनष्ट हुए ब्राह्मण ग्रंथ ९२४ । सूत (सत्कर्मन् ) १००६; __ वैद्यकशास्त्रज्ञ--अश्विनीकुमार ४८; चरक २०६; -मनुष्य एवं गंधर्व ( रुचि २, शुक वैयासकि) जीवक ११२९; धन्वन्तरि ३१५-३१७; पतंजलि ३८५; ७५३; ८७५; मनुष्य एवं नदी (दधीच) २६३; मनुष्य पराशर ३९८, पालकाप्य (हस्त्यायुर्वेदतज्ज्ञ) ४१६; एवं पितर (विरजा २; शुक वैयासकि; सुतपस् ) ८७५; पुनर्वसु आत्रेय ४३०; शालिहोत्र (पशुवैद्यकशास्त्रज्ञ). ९७५; १०५२; मनुष्य एवं पिशाच (पंड २.) ९३८; ९६५; सुश्रुत (शल्य चिकित्साशास्त्रज्ञ) १०७८ । मनुष्य एवं राक्षस (शूर्पणखा) ९८१; मनुष्य एवं वानर वैदिक आचार्यपरंपरा-व्यास की ऋशिष्यपरंपरा (विरजा १.) ८५७; मनुष्य एवं सर्प (जनमेजय पारिक्षित; (व्यास पाराशर्य) ९२०; व्यास की यजुःशिष्यपरंपरा नर्मदा ३; श्रुतश्रवस् २२१, २४९; ९९२; ९२३; व्यास की अथर्व शिष्यपरंपरा ९२४; व्यास की -राक्षस एवं ब्राह्मण (कैकसी) १६७; वानर एवं सामशिष्यपरंपरा ९२३; व्यासोत्तर वैदिक वाङ्मय का गंधर्व (नल ९.) २६१; वैश्य एवं शूदः (श्रावण)९८९ । | विकास ९२४। वैद्यकशास्त्र से संबंधित देवता-अवध्यता का देवता विश्वरूपदर्शन-( भगवान् कृष्ण के द्वारा) १६३८; (विष्णु) ८८१; गर्भवृद्धि का देवता (त्वष्ष्ट्र ) २५६; १. अक्रूर से; २. अर्जुन से; ३. उत्तंक ऋषि से; ४. दुर्योधन देवों के धन्वंतरि (अश्विनीकुमार ) ४८; मृत्यु का देवता से; ५. भीष्म से; ६. यशोदा से)। (मृत्यु) ६६०; विषबाधा का निराकरण करनेवाली देवी व्याकरणकार--अन्यतरेय २४; अग्निवेश्यायन ५५; आमवश्यायन ५५ | (मनसा देवी)६०४; अपत्यप्राप्ति (सिनीवाली) १०४१; आत्रेय ५७; आपिशालि ६०; उख्य ७९; उत्तमोत्तरीय शक—(कालगणना)-परशुराम शक ३९४; ११७२; . ८२; औदुंबरायण १०४; औपमन्यव १०४; और्णवाभ विक्रमसंवत् ११७२; कलिसंवत् ( युधिष्ठर शक, भारतीय १०४; कामायन, कांडायन, काण्व १३१; कात्यायन १३२; युद्ध संवत् ) ७०८; ११७२। , काशकृत्स्न १४१; काश्यप १४२, कुणरवाडव १४५; शत्रुत्व-इंद्र-मरुत्त ६२५, कौरव-पांडव ७०१-७०५; कूशांच-(स्वायव लातव्य)१५६; कोण्डरव्य १६८; कौडिन्य १६८; क्रौष्टुकि १७४; गाय॑ १८८; चर्मशिरस् २०८; द्रोण- द्रुपद ३०८- ३०९; परशुराम-कार्तवीर्य अर्जुन ३९०-३९१, वसिष्ठ-विश्वामित्र ८०८ वालिन्-सुग्रीव ८३०॥ जातूकर्ण्य २३२, दाल्भ्य २७०, शस्त्र--झाग एवं हिम (इंद्र) ६९; धनुष्य-बाण --पतंजलि ३८२-३८५, पतंजलि के पूर्वाचार्य ३८४; (मरुत्)६२३; पाश (नरक) ३४७; फौलादी शक्ति पाणिनि ४०५-४१०, पाणिनि के पूर्वाचार्य ४०६ पौष्कर | (धृष्टकेतु) ३३१; मूसल (बलराम; जरासंध) ४९४; सादि; ४५९; प्लाक्षायण ४८५, प्लाक्षि ४८५, वाडभी ५२९; वज्र (प्रजापति; इंद्र) ४६२, ६९-७०; वासवीकार (वाडवीकार) ५०२; भर्तृहरि ५५२; भागुरि ५५४; | शक्ति (घटोत्कच; कर्ण) १९९; १२०; सुदर्शनचक्र माचाकीय; रज्जुभार ७५६, रामकृष्ण ७४२; वरतंतु ७९७, (कृष्ण; शाल्व; जलंधर) १६१, ९६६; २३१; हल वररुचि ७९७; वाडव ८१९; वात्सप्र २०, वाल्मीकि (बलराम; त्रिजट)१४९४, २५१। ८३१ वेदमित्र ९०६; व्याडि दाक्षायण ९१४; शाखाप्रवर्तक आचार्य-उख ७९; औद्भारि १०४; --शाकटायन ( उणादीसूत्रकर्ता) ९५३-९५४; शाकपूणि कठ १११; कात्यायन १३२; कापेय १३३; कौडिन्य ९५३; शाकल्य ९५६; शांतनव ( 'फिट' सूत्रकार) ९६१, १६८; कौथुम पाराशर्य १६९; कौशिक १७०; कौषीतकी शैत्यायन ९८३; शौनक गृत्समद ९८५-९८७; स्फोटायन | १८१; खंडिक औद्भारि १७७; गोखल्य १९३; गोभिल १०९३; स्थविर कौडिन्य १०९२, स्थविर शाकल्य १०९२ १९४; गौतम१९५, चरक २०६; छगलिन् २१६; जैमिनी हनुमत् (ग्यारहवा व्याकरणकार) ११०२, हारीत | २३५; तलवकार २४२; तित्तिरि २४५, देवदर्श २९३; ११०९। देवदत्त शठ २९३; द्राह्यायणि ३०५, पुरुषासक ४३३; १२०० Page #1222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शाखाप्रवर्तक आचार्य प्राचीन चरित्रकोश सप्तद्वीपा पृथ्वी भाल्लवि ५५२; शार्दूल ९६५: ( हिरण्यकेशिन् ) खांडवीय - - रावण - विभीषण संवाद ७४७; रावण सीता संवाद ११११ । "शिक्षाग्रंथ - अमरेश २७; आत्रेय; ५७; कात्यायन ३३; जयंत पाराशर्य २२७; नारद ३६६; पाणिनि ४१०; पाराशर ४१४; बाभ्रव्य पांचाल ५०६; मण्डूक (१०) ५९८; मल्ल गार्ग्य ६२७; माध्यंदिन (२.) ६४२; याज्ञवल्क्य वाजसनेय ६९२; रामकृष्ण (१.) ७४२; शौनक १.९८७ । शिवावतार- चार ७६३; पाँच ७६३; दस ८६३; अट्ठाईस ७६३-७६४; बारह ज्योतिर्लिंग २३७ । श्राद्धविधि -- का प्रवर्तक ( निमि; श्रीमत् ) ९९० । षोडश राजकीय - - अंबरीष नाभाग २८; गय आमूर्तरयस १८२; दिलीप ऐलविल २७१; परशुराम जामदग्न्य ३८८; पृथु वैन्य ४४९; पौरव ४५८; भगीरथ ऐश्वाक ५३४; भरत दौःषन्ति ५४५ मरुत्त आविक्षित ६२५; मांधातृ यौवनाश्व ६४३; ययाति नाहुष ३७७; रंतिदेव सांकृत्य ८१८; राम दाशरथि ७२५; शशबिंदु यादव ९५२; शिबि औशीनर ९६०; सुहोत्र वैतिथिन १०८१ । संवाद -- इंद्र के संवाद (अंबरीष; अग्नि; गौतम; दिति; प्रतर्दन; प्रह्लाद; बृहस्पति; मातलि मांधाता; विद्युत्प्रथ शंबर शुक; सुरार्थ) १७२-७३ ६२४; ८४९, १०७२; कर्ण - शल्य संवाद ९५२; -- केशी - गौतम संवाद १११८; कौशिक - इक्ष्वाकु संवाद ६७;. जनमेजय-अग्नि संवाद २२; दुर्योधन के संवाद (कृष्ण; भीष्म) २८४; धौम्य - युधिष्ठिर संवाद ३३४; -- बकदाल्भ्य के संवाद ( अर्जुन; इंद्र ) ४८७-४८८; बलि के संवाद ( इंद्र; प्रह्लाद; शुक्र ) ५००; बाध्वबाष्कलि संवाद ( बाध्व २. ) ५०६, बृहस्पति के संवाद ( इंद्र; उपरिचर वसु; मांधातृ युधिष्ठिर; वसुमनस् ); ५२०–५२१; ६४४; भरत - रहूगण संवाद ५४४; भीमकृष्ण संवाद ५६६; भीष्म-कर्ण संवाद ५७६; मांडव्य के संवाद (यम; विदेहराज जनक ) ३३६; -- मार्कडेय - युधिष्ठिर संवाद ( मार्कडेयसमस्या पर्व ) ६४; मुचुकुंद के संवाद (परशुराम वैश्रवण ) ६५५; ६५४; मैत्रेयी-याज्ञवल्क्य संवाद ६६६, यम के संवाद (नचि - केत; यमी ) ६७६; ६७७; - याज्ञवल्क्य के संवाद (अश्वल; उदंक शौल्बायन; उद्दालक आरुणि; उपस्त चाक्रायण; कहोल कौषीतकेय; गर्दभीविपीत भारद्वाज; गार्गी वाचक्नवी; जारत्कारव आर्तभाग; बर्क वार्ष्ण; भुज्यु लाह्याय नि; विदग्ध शाकल्यः सत्यकाम जाबाल ) ६८८-६८९; प्रा. च...१५१ ] ७४६; -- लक्ष्मी के संवाद ( इंद्र; प्रह्लाद; रुक्मिणी ) ७८२ ; -- वसिष्ठ - कराल जनक संवाद ११७; वसुमनस् कौसल्य के संवाद (बृहस्पति; वामदेव ) ८१७; विदुला - पुत्रसंवाद ८४७; विदुर के संवाद (धृतराष्ट्र मैत्रेय ) ८४५; ६६५; विरुप के संवाद ( इक्ष्वाकु विकृत ) ८६०; विश्वावसुयाज्ञवल्क्य संवाद ८७७; वीरद्युम्न - तनुविप्र संवाद ८९२; वृत्र-उशनस् संवाद ८९८; व्यास के संवाद ( मैत्रेय; शुक) ६६५; शिशुपाल - कृष्ण संवाद ९७३; सत्यकाम - उपकोसल संवाद १००७; सनत्कुमार - नारद संवाद १०१६; सुलभाजनक संवाद । सती -- माद्री ६४०; रुक्मिणी ७५२; वृंदा ८९९ वसुदेव ( पत्नियाँ ) ८१५ वेदवती ९०६ । सत्यनिष्ठा -- कौशिक ३.१७०; नाभाग ३६०; प्रह्लाद ४७९; सत्यकाम जाबाल १००८ । सत्र - - ( अच्युत; अंगिरस; कुण्डपायिन्; गौश्रायणि दार्तेय; नवक, नाभाग; सरमा देवशुनी ) १३,५६;१४५; १९७; २७०; ३५५; ३६०;१०२५; -- (१) दीर्घसत्र (जनमेजय पारिक्षित; श्रुतश्रवस् ) २२१; ९९२९ - - ( २ ) प्रथम द्वादशवर्षीय सत्र ( अंतिनार, पुरूरवस्; रोमहर्षण; बक दाल्भ्य; सौति ) २३; ४३५; ७७३; ४८७; १०८८; -- -- ( ३ ) ब्रह्मसत्र ( नारद ) ३६५% - - ( ४ ) राक्षससत्र (पराशर) ३९६, (५) शतसंवत्सरात्मक ( श्वेतकि ) ९९५; ( ६ ) सर्पसत्र ( प्रथम ) ( ऐरावत; चक्क ) १०२; २००; नाग ३५८; -- (७) सर्पसत्र (द्वितीय) ( जनमेजय कौतस्त; चंद्रभार्गव च्यावन; मुंडवेदांग; मुद्गर; शांखायन; शिख; श्रुतश्रवस् ) २२०; २०१; ६५६; ६५७; ९५८; ९६७ ९९२ सर्पसत्र के ऋत्विज २२०-२२२; - (८) सहस्रवार्षिक सत्र (गृत्समद ; निमि ) १९२, ३६९ । सप्त चिरंजीव - अश्वत्थामन् ४५; कृपाचार्य १५८; ३९० परशुराम जामदग्न्य ५; बलि वैरोचन ५७०; व्यास पाराशर्य ९९८; विभीषण ८५४; हनुमत् ११०२ । सप्तद्वीपा पृथ्वी -- पृथ्वी के सात द्वीप जम्बुद्वीप, पुक्षद्वीप, शाल्मलिद्वीप, कुशद्वीप, क्रौंचद्वीप, शाकद्वीप, १२०१ Page #1223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तद्वीपा पृथ्वी विषयसूचि हीनकुली । पुष्करद्वीप (स्वायंभुव) १०९६; इन द्वीपों का संभाव्य । सुराज्य--अश्वपति केकय ४७; कार्तवीर्य १३७. आधुनिक स्थान (स्वायंभुव) १०९६ । जनमेजय १. २२१; जालंदर २३४ । समुद्र--लौहित्य (सलिलार्णव) ७०७ । __ सूत--पुराणकथन एवं निवेदन का कार्य करनेवाल समुद्रमंथन से निकले हुए रत्न-४९८ । | एक लोकसमूह ७७४; रोमहर्षण सूत ७७२; सौति रोमहर्षण सर्पसत्र-जनमेजय सर्पसत्र (प्रथम) २२१; जनमेजय सुत १०८७; सर्पसत्र (द्वितीय)२२१; मरुत्त सर्पसत्र (मरुत्त) ६२६; सेनागणनापद्धति--भारतीय युद्धकालीन (अक्षौहिणी भामिनी ५५६ । सात्वत धर्म–१०३४; सात्वत धर्म का उपदेश १०१७; गण, गुल्म, पत्ती, सेनामुख, वाहिनी, पृतना, चनु आनीकिनी) ७०३। साम--वत्सप्रि भालंदन ७९४; । --सामगायन से ईप्सित वस्तुओं का लाभ-गाय (मेधातिथि | सौर देवता--आदित्य ५८; पूषन् ४४६; भग ५३२ काण्व; स्वर्ग (शंमद) ९४७; वैभव की प्राप्ति (गोतम) १९३; | विवस्वत् ८६२, विष्णु ८७९; सवितृ १०२६; सूर्य १०८१ स्वरूपवर्णन--दुर्वासस् २२६; धन्वंतरि ३१५ दिवोदास अतिथिग्व २०३; सिंधुक्षित् १०४२ स्वयंवर-कमा (विमद) ८५६; कुन्ती १४६; | नारद ३६१; भूत ५२०; यक्ष ६६९; युधिष्ठिर ६९६ केशिनी १६६; दमयन्ती २१५; द्रौपदी ३१०; मान्यवती रक्षस् ७१२; राम दाशरथि ७२६; रावण दशग्रीव ७४६ ६४५; वैशालिनी ९१५; शशिकला (सुदर्शन १०.) रुद्र-शिव ७५५, लक्ष्मी ७८१; वरुण ७९९; वायु ८२६ १०५५, सीता १०४४। वालखिल्य ८२९; विश्वकर्मन ८६६, विश्वरूप त्रिशिर सायणकृत वैदिक अर्थ-नगरिन् जानश्रुतेय ३४०; त्वाष्ट्र ८६९; विष्णु ८७९; वृत्र ८९६; सवितृ १०२६ नमजित् गांधार ३४०; नमी साप्य ३४५, पणि ३८१ । सात्यकि (युयुधान) १०३२, सीता वैदेही १०४६ सावित्राग्नि--देवभाष्य श्रौतर्ष २९३, प्लक्ष दय्यांपति हयग्रीव ११०३। सृष्टि का निर्माण--मैथुनज सृष्टि का प्रारंभ (दा ४८५। सिकंदरकालीन भारतवर्ष के नगर- अग्रोदक प्राचेतस प्रजापति )२५९; प्रजापति ४६२-४६३; ब्रह्मन् ११३२; मस्सग ११३३, सांगल (सांकल) ११३३: ५२८-५२९ । सृष्टिप्रलय-मनु वैवस्वतकालीन सृष्टिप्रलय ६१ सिकंदरिया ११३५, पुष्करावती ११३४; पातानप्रस्थ (११३४); रोरुक (१९३५)। विभिन्न साहित्यों में जलप्लावनकथा ६११; प्रलयोर __ --नदियाँ-वितस्ता (जेहलम) ११३३; व्यास (बिआस) मानव समाज का आदि पुरुष ६११, कालनिर्णय ६१: ११३३; गौरी ११३४; असिनी १९३४; इरावती ११३४; हिंदी साहित्य में जलप्लावनकथा ६१२ । सेतुमंत (आधु. सेलमंद) ११३५ । । हीनकुलीनत्व-कर्ण ११८; विदुर ८४४ । १२०२ Page #1224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुद्धिपत्र रनेर है पृष्ठ एवं चरित्र अगस्त्य अंधीगु झ्यावाश्वि अभिमति आत्मदेव उच्चैःश्रवस कौपयेय ऊजी ऋचीक ऐतश T रेत कुंभ में स्खलित हुआ अंधीगु श्यावाश्वि (भा. ६.६.११) नाम धुंधुकारि रखा (जै. उ. ब्रा. ३.२९.१-३) (भा. ४.१.४०-४१) (ह. वं. १.२७) संभवतः ऐतश की होगी २. रेवती २. देखिये। कामकटंकटा (म. आ. ६१.६७) गालवपुत्र शुंगवत् के साथ (म. व. २७१.१७) (म. मौ. ४.२७) युधिष्ठिर कौडरव्य (वा. रा. कि. २२.२७) (म. शां. २२) कामकटंकटा काशिराज २. कुणिगर्ग १४१ .. कुंभकर्ण अशुद्ध रेत कमल पर स्खलित हुआ अंधिगु श्यावाश्व (भा.६.११) नाम धुंधुकारी रखा (चै. उ. ब्रा. ३.२९.१-३) (भा. ४.१.३८) (हः वं. ११.७) संभवतः एतश की होगी २..रेवती देखिये। कामकंटका (म. आ.६१-६७) . गांधर्वपुत्र शुंगवत् के साथ (म. व. २७१-१७) (म. मौ..३) युधिष्ठिर कौंटरव्य (वा. रा. कि. २२.२७-३७) (म. शां. २८) (सू. उ.) पृषदाच्य में प्रथम अभिधार तैटिकि (भीम २३ देखिये) (म.. व. २५.९.१०) (भा. ८.१३;) (वायु. १.२४.१६) (धर्म १३. देखिये) (म. अनु. २७१.११. कुं.) (म. आ. १०७.२-१४) (वायु. ९०.२७.५२) निवृत्ति नैधृव मीष्म ने युधिष्ठिर यज्ञ के लिए एकत्रिय अंत में परशुरान ने पराशर के नये सत्र से १२०३ १५६ : कृतवर्मन् १६३ कृष्ण . १६८ कौंडरव्य . १९४ । गोलभ । २०१ 'चक्रवर्तिन् २०३ .. चंद्रगिरि २०७ चरक ३. २४९ नैटीकि . तोंडमान . . २७८ २९९ देवसावर्णि ३०५ . द्रविडा ३२२ धर्मसूत्र ३२४ धूमोर्णा ३२८. धृतराष्ट्र पृषदाज्य में प्रथम अभिधार तैटीकि (भीम २४ देखिये) (म. व. २६०.१०) (भा. ८.१३; ३०) (वायु. ८६.१६) (धर्म १६. देखिये) (म. अनु. १६५.११) (म. आ. १०८.२-१५) (वायु. ९२.२७-५२) निर्वृति नैध्रुव भीष्म ने युधिष्ठिर यज्ञ के लिए एकत्रित अंत में परशुराम ने पराशर के नये सत्र को ३७१ निर्वृति ३७६ . नैध्रुव पंचचूडा परशुराम जामदग्न्य ३९३ परशुराम जामदग्न्य ३९६ पराशर ३९२ Page #1225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ एवं चरित्र ४०० ४१० ४२८ ४२९ ४३३ ४३७ ४४ १ ४५८ ५२७ ५३३ ५३९ ܘ ܐ ५५८ ८६५ ८८१ ८९७ ९२९ १००१ १००५ १००५ १०६२ १०८६ परिक्षित् पाण्डु पीवरी ११२४ १५२८ पुत्र पुरुमीहूळ सौहोत्र पुलस्व पुष्कल ५७० ६०० ६०४ ६१७ ६३२ ७१३ ७२६ ७३० ७३१ ८१९ वातरशन ८४१ विचित्रवीर्य ८५४-८५५ विभीषण विशाल ५. विष्णु ब्रह्मन् भगदत्त भट्टा काशीन ३. भरद्वाज भागवण भीमसेन मत्स्य मधुचैवमित्र मन्दपाल महिषासुर रक्षं राम दाशरथि राम दाशरथि राम दाशरथि वृत्र व्यास पारावार्थ सगर པ་ ཀྰ་ ཟྭ संज्ञा संज्ञा सुंदर शांति सोमदत्त गौतम बुद गौतम बुद अशुद्ध महाभातर जन्मतः पाण्डुरोग से पीड़ित अग्निष्वान्त पितरों की कन्या स्वारोचिप मनु के पुरुमिळ सामूहिक नाम से अश्वमेध यज्ञ का ( म. द्रो. १७१-६४ ) ब्रह्मा से भी आयु में उसका एवं उसके सात पुत्रों को (म. आ. १२०.२३-२६ ) राज्याधिकारी ना कर (सुत्वन् कैरिशीय भागवण) अश्वत्थामा वध मकर देय ने ( प्रातःकालिन स्तुतिस्तोत्र ) लपिता नामावाली दक्षिणी शाश्वत स्थान किया । प्राप्त विरोचन देव्य आँखों में पुत्रकामेष्टी यज्ञ कराया शूर्पणखावच मसीता को ढूंढने के लिए (ऋ. १०.१३२.१०२. भीष्म ने वित्रा एवं अंचालिका इसने ही किया। जो परिक्षित राजा की विष्णुरुच्यते (य साम दुर्विष इसे सगर विषयुक्त नाम छाया को यम से यम को छाया का सुंदर शांतिकर्ण भूरिश्रवस् का अत्यंत निर्घृण बंध किया निम्नलिखित क्रुद्ध विपश्य से प्रमुक बौद्ध सांप्रदाय १२०४ शुद्ध महाभारत जन्मतः पण्डुरोग से पीड़ित अग्निष्वात्त पितरों की कन्या स्वायंभुव मनु के पुरुमीहळ सामूहिक नाम से अश्वमेधयज्ञ का में ( म. द्रो. १७१.६४) ब्रह्मा से भी आयु उसको एवं उसके सात पुत्रों को (म. आ. ११२.३३ ) राज्याधिकारी बना कर (सुत्वन कैरिशिय भागण ) अश्वत्थामा मणिहरण शंख देखने ( प्रातःकालीन स्तुतिस्तोत्र ) लपिता नामवाली पक्षिणी शाश्वतस्थान प्राप्त किया । विरोचन देव्य आँखों में पुत्रकामेष्टि यज्ञ कराया शूर्पणखाविरूपत्य सीता को ढूंढने के लिए १. १०.१३६.२० भीष्म ने अंबिका एवं अंबालिका इसने ही किया था । जो विक्षित राजा की विष्णुरुच्यते . (ऋक्, यद्य, सामं ऊम्पेष इसे सगर ( विषयुक्त ) नाम छाया को सूर्य से सूर्य को छाया का सुंदर शांतिकर्ण भूरिश्रवस् के हाथ काट डाले निम्नलिखित बुद्ध विपश्य से प्रमुख बौद्ध सांप्रदाय Page #1226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हमारे महत्त्वपूर्ण आगामी प्रकाशन भारतवर्षीय अर्वाचीन चरित्रकोश (१८१८ ई.स.-१९६५ के अंत तक) इस ग्रंथ में अर्वाचीन काल में भारत देश के हरएक प्रांत में उत्पन्न राजकारण, साहित्य, विज्ञान, समाजकारण, धर्मकारण आदि क्षेत्रों में कार्य करनेवाले व्यक्तियों के जीवनचरित्र साधार एवं सप्रमाण रूप में एकत्रित किये गये है । भारतीय इतिहास के स्वातंत्र्योत्तर कालखंड में उत्पन्न हुए महत्त्वपूर्ण व्यक्तियों की अर्वाचीन चरित्रकोश' में एकत्रित की गयी जानकारी हरएक इतिहासाभ्यासकों के उपयुक्त एवं स्फूर्तिदायक प्रतीत होगी। 'अर्वाचीन चरित्रकोश' का मराठी संस्करण लगभग बीस साल पहले मराठी में प्रकाशित हो चुका था। इसी ग्रंथ का परिवर्धित हिंदी संस्करण अब प्रकाशित हो रहा है, जिसमें मूल ग्रंथ से अधिक ६०० पृष्ठों की नयी जानकारी समाविष्ट की गयी है । इस परिवर्धित ग्रंथ को पृष्ठसंख्या 'डबल क्राऊन' साईज में लगभग १२०० होंगी! Page #1227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 24AAAAAAA00000 AA000 भारतवर्षीय प्राचीन चरित्रकोश इस ग्रन्थ में वेद, स्मृति, पुराण, उपनिषद्, वेदांग, बौद्ध, जैन आदि प्राचीन भारतीय साहित्य में निर्दिष्ट व्यक्तियों के जीवनचरित्र एवं तद्विषयक संदर्भसहित सामग्री अकारादि वरम से एवं सप्रमाण प्रस्तुत की गयी है। प्राचीन भारतीय इतिहास से संबंधित बहुतसी सामग्री प्रायः व्यक्तिचरित्रात्मक ही है । व्यक्तिचरित्रविषयक इस समस्त सामग्री को 'प्राचीन चरित्रकोश' में एकत्रित किया गया है, जो प्राचीन भारतीय इतिहास एवं संस्कृति के प्रत्येक विद्यार्थी, अध्यंता, संशोधक एवं सर्वसामान्य पाठक के लिये अत्यंत उपादेय है। 'प्राचीन चरित्रकोश' का मराठी संस्करण लगभग तीस साल पहले प्रकाशित हो चुका था, जिसके संबंध से अपना अभिमत व्यक्त करते समय 'टाईम्स ऑफ इंडिया', बंबई, ने लिखा था :-- This is an extremely useful dictionary of Indian Classical Biography, and one cannot but admire the enormous labour its compilation must have entailed. An English or Hindi Edition might make it a standard reference work all over the world. - Times of India, 23rd Dec. 1932. मराठी में प्रसिद्ध हुए ‘प्राचीन चरित्रकोश' का परिवर्धितहिदी संस्करण अब प्रकाशित हो रहा है, जिसमें मूल मराठी ग्रन्थ से अधिक ५५० पृष्ठों की नयी जानकारी समाविष्ट की गयी है। इतिहासोत्तमादस्मात् जायन्ते कविबुद्धयः। 'नवीनराष्ट्रनिर्माणं संस्कृतिप्रसरस्तथा' ।। अस्मिन्नर्थश्च धर्मश्च निखिलेनोपदिश्यते ।। इतिहासे महापुण्ये बुद्धिश्च परिनैष्टिकी ।। उदयप्रेप्सुभिर्भूत्यैरभिजात इवैश्वरे । इतिहासोत्तमे ह्यस्मिन् अर्पिता बुद्धिरुत्तमा ।। KHAS GIWALE detatalesosesanRSDA40404 BARAdimantipur SHRE