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रक्षस्
प्राचीन चरित्रकोश
पौराणिक साहित्य एवं महाभारत, रामायण में रक्षस्, (अ. वे. ५.२९)। ये मनुष्यों की वाचाशक्ति नष्ट कर असुर, दैत्य दानव ये सारे शब्द समानार्थी मान कर देते थे, एवं उनमें अनेक विकृतियाँ निर्माण कर देते थे । प्रयुक्त किये गये है। जिससे प्रतीत होता है कि, उस समय विचरण-संध्यासमय अथवा रात्रि के समय ये लोग मनुष्य एवं देवों के शत्रुओं के लिए ये सारे नाम उलझे विचरण करते थे। उस समय, ये लोग नर्तन करते हुए, हए रूप में प्रयुक्त हो जाने लगे थे। उपनिषदों में भी गद्धों की भाँति चिल्लाते हुए, अथवा खोपड़ी की अस्थि से मानवी देह को आत्मा माननेवाले दुष्टात्माओं को असुर जलपान करते हुए नज़र आते थे (अ.वे. ८.६)। इनके अथवा रक्षस् कहा गया है।
विचरण का समय अमावास्या की रात्रि में रहता था। ऋग्वेद में पचास से अधिक बार रक्षसों का निर्देश
| पूर्व दिशा में प्रकाशित होनेवाले सूर्य से ये डरते थे। प्राप्त है, जहाँ प्रायः सर्वत्र किसी देवता को इनका विनाश | (अ. वे. १.१६:२.६)। करने के लिए आवाहन किया गया है, अथवा रक्षसों ये लोग दिव्य यज्ञों में विघ्न उत्पन्न कर देते थे, एवं हवि के संहारक के रूप में देवताओं की स्तुति की गयी है। को इधर उधर फेंक देते थे (ऋ. ७.१०४)। ये पूर्वजों
रक्षसों का वर्णन करनेवाले ऋग्वेद के दो सूक्तों में, की आत्माओं का रूप धारण कर पितृयज्ञ में भी बाधा इन्हें यातु ( ऐन्द्रजालिक) नामान्तर प्रदान किया गया | उत्पन्न करते थे (अ. वे. १८.२)। है। (ऋ.७.१०४.१०८७)। यजुवद म यतः' शब्द का अग्नि से विरोध-अंधःकार को भगानेवाला एवं यज्ञ प्रयोग एक दुष्ट जाति के रूप में किया गया है, एवं इन्हें
का अधिपति अग्नि रक्षसों का सर्वश्रेष्ठ संहारक माना गया रक्षसों की उपजाति कहा गया है।
है। वह इन्हें भस्म करने का, भगाने का एवं नष्ट करने का स्वरूपवर्णन--अथर्ववेद में रक्षसों का अत्यंत विस्तृत काम करता है (ऋ. १०.८७)। इसी कारण अग्नि को . स्वरूपवर्णन प्राप्त है, जहाँ उन्हे प्रायः मानवीय रूप हो कर 'रक्षोहन्' (रक्षसों का नाश करनेवाला) कहा गया है। . भी, उनमें कोई न कोई दानवी विरूपता होने का वर्णन | ये केवल अपनी इच्छा से नही, किन्तु अभिचारियों के . प्राप्त है। इन्हें तीन सर, दो मुख, रीछों जैसी ग्रीवा, चार | द्वारा बहकाने से मनुष्यजाति को दुःख पहुँचाते है। इसी नेत्र, पाँच पैर रहते थे, इनके पैर पीछे की ओर मुड़े कारण रक्षसों को बहकानेवाले अभिचारियों को ऋग्वेद में हये एवं उँगलीविहीन रहते थे। इनके हाथों पर सिंगरहते | 'रक्षोयुज् (रक्षसों को कार्यप्रवण करनेवाला ) कहा गया :थे (अ. वे. ८.६)। इनका वर्ण नीला, पीला अथवा हरा है (ऋ. ६.६२)। अथर्ववेद में अन्यत्र रक्षसों की प्रार्थना रहता था (अ. वे. १९.२२)। इन्हें मनुष्यों जैसी पनि, की गयी है कि, वे उन्हीं को भक्षणं करे जिन्हों ने इन्हे पुत्र आदि परिवार भी रहता था (अ. वे. ५.२२)। भेजा है (अ. वे. २.२४)।
नानाविध रूप--ये लोग कुत्ता, गृध्र, उलूक, बंदर व्युत्पत्ति-भाषाशास्त्रीय दृष्टि से रक्षस् शब्द 'रक्ष' आदि पशुपक्षियों के वेशान्तर में (ऐंद्रजालिक विद्या में) (क्षति पहुँचाना) धातु से उत्पन्न माना जाता है। किन्तु अत्यंत प्रवीण थे (अ. वे.७.१०४).भाई, पति अथवा कई अभ्यासकों के अनुसार, यहाँ रक्ष धातु का अर्थ रक्षित प्रेमी का वेश ले कर ये लोग स्त्रियों के पास जाते थे, एवं करना लेना चाहिये, एवं रक्षस्' शब्द की व्युत्पत्ति 'वह, उनकी संतानों को नष्ट कर देते थे (अ.वे. १०.१६२)। जिससे रक्षा करना चाहिये' माननी चाहिये। बर्गेन के
आहार--ये लोग मनुष्यों एवं अश्वों का मांस भक्षण | अनुसार, ये लोग किसी दिव्य संपत्ति के 'रक्षक (लोभी) करते थे एवं गायों का दूध पिते थे (ऋ. १०.८७)। थे, जिस कारण इन्हें रक्षस् नाम प्राप्त हुआ था। माँस एवं रक्त की अपनी क्षुधा तृप्त करने के लिए, ये| रक्षस कल्पना का विकास-दैनिक जीवन में मनुष्यलोग प्रायः मनुष्य के शरीर में प्रवेश कर उन पर आक्रमण | जाति पर उपकार करनेवाले आधिभौतिक शक्ति को प्राचीन करते थे। मनुष्यों के शरीर में इनका प्रवेश (आ विश) | साहित्य में देव नाम दिया गया। उसी तरह मनुष्यजाति रोकने के लिए ऋग्वेद में अग्नि का आवाहन किया गया | को घिरा कर उन्हें क्षति पहूँचानेवाले दुष्टात्माओं की
कल्पना विकसित हो गयी, जिसका ही विभिन्न रूप असुर, मनुष्यों को पीडा--ये लोग प्रायः भोजन के समय रक्षस् , पिशाच आदि में प्रतीत होता है। इस तरह इन मुख से मनुष्यों के शरीर में प्रवेश करते थे, एवं तत्पश्चात् | सारी जातियों को मनुष्यों को त्रस्त करनेवाले दुष्टात्माओं उनके माँस को विदीर्ण कर उन्हे व्याधी-ग्रस्त कर देते थे। | का वैयक्तीकृत रूप कहा जा सकता है।