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________________ रक्षस् प्राचीन चरित्रकोश रक्षस् इस कल्पना का प्रारंभिक रूप इंद्र एवं वृत्रासुर के | वैदिक साहित्य में किया गया। भारतीय वैदिक आर्यों युद्ध में प्रतीत होता है। बाद में वही कल्पना क्रमशः में सुर देवों की पूजा प्रस्थापित होने के पूर्वकाल में प्रायः देवों एवं असुरों के दो परस्परविरोधी एवं संघर्षरत सभी वैदिक देवताओं को 'असुर' कहा गया है, जिनके दलों के रूप में विकसित हुयी। नाम निम्नलिखित है :-अग्नि (ऋ. ३.३.४ ); इन्द्र असुरों का वैयक्तीकरण--वैदिक साहित्य में रक्षस् एवं (ऋ. १.१७४.१); त्वष्ट्र (ऋ. १.११०.३); पर्जन्य (ऋ. पिशाचों की अपेक्षा, असुरों का वैयक्तीकरण अधिक प्रभाव- ५.८३.६); पूषन् (ऋ. ५.५१.११); मरुत् (ऋ. १. शाली रूप में आविष्कृत किया गया है, जहाँ देवों से | ६४.२)। विरोध करने वाले निम्नलिखित असुरों का निर्देश स्पष्ट उपनिषदों में--छांदोग्य उपनिषद में विरोचन दैत्य की रूप से प्राप्त है:-अनर्शनि (ऋ. ८.३२); अर्बद (ऋ. कथा प्राप्त है, जिसमें देव एवं असुरों के जीवन एवं आत्म१०.६७); इलीबिश (ऋ. १.१.३३); उरण (ऋ. २. ज्ञानविषयक तत्त्वज्ञान का विभेद अत्यंत सुंदर ढंग से दिया १४) चुमुरि (ऋ. ६.२६); त्वष्ट (ऋ. १०.७६); गया है। उस कथा के अनुसार, प्रजापति के मिथ्याकथन दभीक (ऋ.२.१४); धुनि (२.१५); नमुचि (ऋ. २. को सही मान कर, विरोचन दैव्य आँखों में, आइने में, एवं १४.५); पिघु(ऋ.१०.१३८); रुधिका (ऋ.२.१४.५); पानी में दिखनेवाले स्वयं के परछाई को ही आत्मा समझ बल (ऋ. १०.६७); वर्चिन् (ऋ. ७.९९); विश्वरूप बैठा। इस तरह छांदोग्य उपनिषद के अनुसार, मानवी (ऋ. १०.८); वृत्र (ऋ5 ८.७८); शुष्ण (ऋ. ४.१६); देह का अथवा उसकी परछाई को आत्मा समझनेवाले श्रबिंद (ऋ.८.३२); स्वर्भान (ऋ. ५.४०)। मैत्रायणि तामस लोग असुर कहलाते हैं। आगे चल कर, इन्ही असुर संहिता में कुसितायी नामक एक राक्षसी का निर्देश प्राप्त लोगों की परंपरा देहबुद्धि को आत्मा मानने की भूल है, जिसे कुसित की पत्नी कहा गया है (मै. सं. ३.२. | करनेवाले चार्वाक आदि तत्वज्ञों ने चलायीं (छां. उ. ८.७, विरोचन देखिये)। ऋग्वेद में--स्वयं देवता हो कर भी. जिनमें मायावी अष्टाध्यायी में-पाणिनि के अष्टाध्यायी में रक्षस , असुर अथवा गुह्यशक्ति हो, ऐसे देवों को भी ऋग्वेद में 'असर' आदि लोगों का अलग अलग निर्देश प्राप्त है । वहाँ निम्नकहा गया है। इससे प्रतीत होता है कि, अमरों की लिखित असुरों का निर्देश देवों के शत्रु के नाते से किया गया दृष्टता की कलना उत्तर ऋग्वेदकालीन है। ऋग्वेदरचना के है :--दिति, जो दैत्यों की माता थी (पा. सू. ४.१.८५ ): प्रारंभिक काल में गुह्य शक्ति धारण करनेवाले सभी देवों कद्रू, जो सपों की माता थी (पा. सू. ४.१.७१)। इनके को 'असुर' उपाधि प्रदान की जाती थी। जेंद अवेस्ता | अतिरिक्त निम्नलिखित असुर जातियों का भी निर्देश में भी असरों का निर्देश, 'अहर' नाम से किया गया अष्टाध्यायी में प्राप्त है :-असुर (पा. सू. ४.४.१२३); है। ऋग्वेद एवं अवेस्ता में असुर (अहुर) शब्द, कई रक्षस् (पा. सू. ४.४.१२१); यातु (पा. सू. ४.४.१२१)। जगह एसी सर्वोच्च देवताओं के लिए प्रयुक्त किया गया इसी ग्रंथ में 'आसुरी माया' का निर्देश भी प्राप्त है, जिसका है, जो पामप्रतापी माने गये हैं। झरतुष्ट धर्म का आद्य प्रयोग असुर विद्या के लिए होता था (पा. सू. ४.४. संस्थापक अहुर मझ्द स्वयं एक असुर ही था। १२३)। इरान में असुरपूजा--कई अभ्यासकों के अनुसार, अष्टाध्यायी में असुर, पिशाच एवं रक्षस् इन तीनों वैदिक आर्य प्राचीन पंजाब देश में आये, उस समय उन जातियों का निर्देश 'आयुधजीवी' संघों में किया गया है, में 'सुर' एवं 'असुर' दोनों देवों की पूजा पद्धति शुरु थी। जिनकी जानकारी निम्नप्रकार है :-- कालोपरान्त वैदिक आयों की दो शाखाएँ उत्पन्न हुयी, (१) असुर-पशुसंघ की भाँति असुर लोग भी मध्य जिनमें से असुर देवों की उपासना करनेवाले वैदिक आर्य | एशिया में रहते थे, जिनका निवासस्थान आधुनिक मध्य एशिया में स्थित इरान में चले गये। दूसरी शाखा | असिरिया में था। ये लोग वैदिक आर्यों के पूर्वकाल में भारत में रह गयी, जिसमें सुर देवों की पूजा जारी रही। भारतवर्ष में आये.थे, एवं सिंधु-घाटी में स्थित सिंधु सभ्यता इसी कारण उत्तरकालीन भारतीय वैदिक साहित्य में | के जनक संभवतः यही थे । बहिस्तून के शिलालेख में 'असुर' देव निंद्य एवं गर्हणीय माने जाने लगे, एवं उन्हें । इनका निर्देश 'अथुरा' एवं 'अश्शुर' नाम से किया देवताविरोधी मान कर उनका चरित्रचित्रण उत्तरकालीन | गया है। अष्टाध्यायी में पशु आदि आयुधजीवी गण में प्रा. च. ९०] ७१३
SR No.016121
Book TitleBharatvarshiya Prachin Charitra Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSiddheshwar Shastri Chitrav
PublisherBharatiya Charitra Kosh Mandal Puna
Publication Year1964
Total Pages1228
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size32 MB
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