________________
विश्वामित्र
प्राचीन चरित्रकोश
विश्वामित्र
काति एवं अष्टक को क्रमशः कात्यायन एवं लौहि नामक संश्रुत (ग), संश्रुत्य ( ग ), साधित ( ग ), सैंधवान (ग), हलयम ( ग ) ।
पुत्र उत्पन्न हुए थे ।
(५) वायु एवं ब्रह्मांड में - मधुच्छन्दस्, नय एवं देव ( वायु. ९१.९६; ब्रह्मांड. ३.६६ ) ।
( ब ) वैश्वामित्र, दैवश्रवस, दैवरात प्रवरों के गोत्रकारकारुकायण (कामुकायन, ग ), कुशिक, देवश्रवस्, वैदेह( ६ ) ब्रह्म मैं -- मौद्गल्य, गालव, कात्यायन ( ब्रह्म. रात, वैदेहजात, वैदेहनात, वैदेवराज ( ग ), सुजातेय, ( १०.१३ ) । सौमुक (तौसुक) ।
विश्वामित्रकुलोत्पन्न गोत्रनाम - विश्वामित्रकुल में उत्पन्न निम्नलिखित गोत्रों की नामावलि महाभारत एवं पुराणों में दी गयी है: -- १. उदुंबर, २. कारूपक ( करीषय, कारीपव, कारीवि.); ३. कौशिक ( कुशिक ); ४. गालव ५. चांद्रव ( यमभुंन्चत ); ६. जाचाल; ७ तालकायन (तारक) तारकायन ); ८. देवरात; ९. देवल. १०. ध्यानजान्य; ११. पणिन ( पाणिन्, पाणिनि ); १२. पार्थिव १३. बभ्रु; १४. बादर; १५. बाष्कल (वास्कल ); १६. मधुच्छेदस्; १७. यमदूत ( यामदूत, यामभूत ); १८. याज्ञवल्क्यः १९. रेणव; २०. लालाक्य (ददाति ); २१. लौहित ( लोहित, लोहिण्य ); २२. वाताड्य ( उदुम्लान ); २३. शालंकायन; २४. श्यामायन ( शालावत्य ); २५. समर्पण; २६. सांकृत ( स्यैकृत); २७ सैंधवायनः २८. सौश्रव (सोश्रुत, सोश्रुम ); २९. हिरण्याक्ष ( म. अनु. ४.५०-६०; वायु. ९१.९७ - १०२, ब्रह्मांड. ३.६६.६९७४: ह. वं. २७.१४६३-१४६९; ब्रह्म. १०.६१-६३३ १३ ) |
उपर्युक्त नामावलि में से १०-२६ नाम ब्रह्म के तेरहवें अध्याय में, एवं १२-२६ नाम ब्रह्म के दसवें अध्याय में अप्राप्य हैं।
विश्वामित्रकुलोत्पन्न गोत्रकार - इन गोत्रकारों के त्रिश्वरान्वित (तीन प्रवरांवाले ) एवं द्विप्रवरान्वित ( दो 'प्रवरांवाले) ऐसे दो प्रमुख प्रकार है :
( १ ) प्रवरान्वित गोत्रकार - विश्वामित्रकुल के बहुसंख्य गोत्रकार ‘तीन प्रवरांवाले' ही हैं, किंतु प्रवरभेद के अनुसार उनके अनेक उपविभाग हैं, जिनकी जानकारी नीचे दी गयी हैं :--
(क) वैश्वामित्र, माधुच्छंस, आज (आद्य) प्रवरों के गोत्रकार -- कपर्देय, धनंजय, परिकूट, पाणिनि ।
(ङ) अधर्षण, मधुच्छंद एवं विश्वामित्र प्रवरों के गोत्रकार - आद्य, माधुच्छंदस, विश्वामित्र ।
(इ) आइमरथ्य, वंजुलि एवं वैश्वामित्र प्रवरों के गोत्रकार -- अश्मरथ्य ( ग ), कामलायनिज, वंजुलि ।
(ई) ऋणवत्, गतिन् एवं विश्वामित्र प्रवरों के गोत्रकार -- उदरेणु, विश्वामि, उदाहि, क्रथक
( उ ) खिलिखिलि, आज ( विद्य) एवं वैश्वमित्र प्रवरों के गोत्रकार -- उदुंबर, करीराशिन्, त्राक्षायणि, मैं जाय नि कौजाय नि ), लावकि शाख्यायनि ( कात्यायनि ), शालंकायनि, सैषिरिटि । इन गोत्रकारों के लिए खिलि, क्षितिमुखाविद्ध, एवं विश्वामित्र ये प्रवर भी कई पुराणों में प्राप्त हैं ।
(
(२) विरान्वित गोत्रकार - विश्वामित्र एवं पूरण दो प्रवरों के गोत्रकार- अधक, पूरण, लोहित (मत्स्य. १९८ ) ।
२. एक ऋषि, जिसे ऊर्वशी अप्सरा से शकुंतला नामक कन्या उत्पन्न हुई थी ( भा. ९.१६.२८-३७ ) । यह ऋषि पूरुवंशीय दुष्यंत एवं भरत राजाओं का समकालीन था । इस प्रकार, अयोध्या के त्रिशंकु, हरिश्चंद्र आदि राजाओं से यह काफी उत्तरकालीन था ।
३. एक ऋषि, जिसने अयोध्या के राम दाशरथि के द्वारा ताटका राक्षसी, एवं मारीच, सुबाहु आदि राक्षसों का वध करवाया था ( वा. रा. बा. २४- २७; राम दाशरथि देखिये) । यह साक्षात् धर्म का अवतार था, एवं इसके समान पराक्रमी एवं विद्यावान् सारे संसार में दूसरा कोई न था ( वा. रा. बा. २१ ) |
( अ ) उद्दल, देवरात एवं विश्वामित्र प्रवरों के गोत्रकार – अभय, आयतायन, उलूप ( ग, उल्लप), औपहाव ( ग ), करीष ( ग ), खरवाच, जनगदप ( ग ), जाबाल (ग), देवरात, पयोद ( ग ), बाभ्रव्य ( ग ), याज्ञवल्क्य (ग), वतंड, वास्तुकौशिक ( ग ), विश्वामित्र, ऋग्वेद में इसने स्वयं को 'कुशिक' का वंशज कहलाया बैकृतिगाव (वैकलिन यन ), शलंक, श्यामायन ( ग ) | है ( ऋ. ३.५३.५ ) | इसी कारण इसका निर्देश
८७५
४. एक ऋषि, जो उत्तर पंचाल देश के पैजवन सुदास राजा का पुरोहित था (ऋ. ३.५३, ७.१२ ) । ऋग्वेद के तृतीय मंडल के प्रणयन का श्रेय इसे एवं इसके वंश में उत्पन्न ऋपियों को दिया गया है।