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________________ सवर्णा प्राचीन चरित्रकोश सवित हरिवंश के अनुसार, इसे शतद्वति नामान्तर भी प्राप्त | प्रमुख है (ऋ. १.११५.१)। इसी कारण संध्यावंदन था ( ह. वं. १.२)। कई अभ्यासक, इसे छाया काही | जैसे धार्मिक नित्यकर्म में इसे प्रतिदिन अयं दे कर, इस प्रतिरूप मानते हैं (मंशा देखिये)। संसार को त्रस्त करनेवाले असुरों से संरक्षण करने के सवितृ--एक खुविख्यात देवता, जो अदिति का पुत्र | लिए इसकी प्रार्थना की जाती है (तै. आ. २, ऐ. बा. माना जाता है । इसी कारण इसे 'आदित्य' अथवा | ४.४)। 'आदितेय' नामान्तर भी प्राप्त थे (ऋ. १.५०.१३, ८. ___ स्वरूपवर्णन--यह स्वर्णनेत्र, स्वर्णहस्त एवं स्वर्ण जिह्वा१०१.११, १०.८८.११) । ऋग्वेद में आदित्य, सूर्य, | वाला बताया गया है (ऋ. १.३५, ६.७१)। इसकी विवस्वत् , पूषन् , आर्यमन् , वरुण, मित्र, भग आदि | भुजाएँ भी स्वर्णमय है, एवं इसके केदा पीले है (ऋ. ६.७१. देवताओं को यद्यपि विभिन्न देवता माना गया है, फिर १०.१३९)। यह पिशंग वेषधारी है, एवं इसके पास भी वे सारे एक ही सूर्य अथवा सवितृ देवता के विभिन्न स्वर्णस्तंभवाला स्वर्णरथ है (ऋ. ४.५३.१.३५ )। इसका रूप प्रतीत होते हैं (ऋ. ५.८१.४, १०.१३३.१; / यह रथ दो प्रकाशमान अश्वों के द्वारा खींच जाता है। विवस्वत् देखिये)। सायण के अनुसार, उदित होनेवाले यह महान् वैभव (अमति) से युक्त है, एवं इस वैभव सूर्य को ऋग्वेद में 'सवितृ' कहा गया है, एवं उदय से को यह वायु, आकाश, पृथ्वी आदि को प्रकाशमय र अस्तकाल तक आकाश में भ्रमण करनेवाले सूर्य को वहाँ | तीनों लोगों में प्रसृत कर देता है (ऋ.७.३८.१)। अपने 'सूर्य' कहा गया है (ऋ. ८.५११. सायणभाष्य )। सुवर्ण ध्वजाओं को उँचा उठा कर यह सभी प्राणियों को उत्पत्ति--सवित की उत्पत्ति किस प्रकार हुई इस | जागृत कर देता है, एवं उन्हें आशीवाद देता है (ऋ२, संबंध में अनेक निर्देश प्राप्त हैं। ऋग्वेद में निम्नलिखित |३८) । देवताओं के द्वारा सवितृ की उत्पत्ति होने का निर्देश को मिलेकाशि पौराणिक साहित्य में--इस साहित्य में इसे कश्यप, प्राप्त हैं:-१. इंद्र (ऋ. २.१२.७); २. मित्रावरुण प्रजापति एवं अदिति का कनिष्ठ पुत्र कहा गया है (विष्णु(ऋ. ४. १३.२);३. सोम (ऋ. ६.४४.२३); ४. इंद्र-सोम | धर्म. १.१०६)। जन्म से ही इसके अवयवरहित होने के (ऋ. ६.७२.२); ५. इंद्र एवं विष्णु ( (ऋ. ७.९९.४); कारण, इसे 'मातड' नामान्तर प्राप्त था । अन्य देवताओं ६. इंद्र-वरुण (ऋ. ७.८२.३); ७. अग्नि एवं धातृ से पहले निर्माण होने के कारण इसे 'आदित्य' भी कहते . (ऋ. १०.१९०.३); ८. अंगिरस् (ऋ. १०.६२.३)। थे (भवि. ब्राह्म, ७५ )। इसी पुराण में अन्यत्र इसे ब्रह्मा गुणवर्णन--सूर्य के गुणवैशिष्टय के संबंध में अनेका के वंशान्तर्गत मरीचि ऋषि का पुत्र कहा गया है (भवि. नेक काव्यमय वर्णन ऋग्वेद में प्राप्त हैं। मनुष्यजाति ब्राहा. १५५)। इसके ज्येष्ठ भाई का नाम अरुण था। की सारी शारीरिक व्याधियाँ दूर कर (अनमीवा), अनुचर-इसके अनुचरों की विस्तृत नामावलि पुराणों यह उनका आयुष्य बढ़ाता है (ऋ. ८.४८.७; १०. में प्राप्त है, जिनमें निम्नलिखित अनुचर प्रमुख बताये , ३७.७)। इस सृष्टि के सारे प्राणि इस पर निर्भर रहते गये हैं :-१. दण्डधारी--राजा एवं श्रोष; २; लेखनिकहैं (ऋ. १.१६४.१०)। यह सारे विश्व को उत्पन्न | पिंगल; ३. द्वारपाल--कल्माष एवं सृष्टि के विभिन्न पक्षिगण करता है, जिस कारण इसे 'विश्वकर्मन्' कहा जाता है (ऋ. / (भवि. ब्राह्म. ७९)। १०.१७०.४)। यह देवों का पुरोहित है (ऋ. ८.१०१. | पत्नियाँ--इसकी निम्नलिखित पत्नियाँ थी:१२)। यह मित्र, वरुण आदि अन्य देवताओं का मित्र १. त्वष्टकन्या संज्ञा; २. रैवतकन्या राज्ञी ३. प्रभा (मत्स्य. है। इसी कारण इन देवताओं की की गयी प्रार्थना इसके ११)। इनके अतिरिक्त इसे द्यौ, राजी, पृथ्वी, एवं द्वारा ही उन्हें पहुँचती है (ऋ. ६०.१)। निक्षुभा नामक अन्य पत्नियाँ भी थीं (स्कंद. ७.१.१८)। ऋग्वेद में सूर्यविन का उल्लेख कर अन्य भी बहुत किन्तु बहुत सारे पुराणों में इसकी संज्ञा नामक एक ही सारा वर्णन प्राप्त है। किन्तु इसे मानव मान कर पत्नी का निर्देश प्राप्त है (वायु. २२.३९; वि. ३.२; ब्रह्म. जितना भी वर्णन ऋग्वेद में दिया है, इतना ही ऊपर | ६; ह. वं. १.९; म. आ. ६०.३४)। दिया गया है। परिवार--अपनी पत्नी संज्ञा से इसे मनु, यम एवं ___ ऋग्वेद में प्राप्त सवितृ के वर्णन में सारी मानवीय यमी नामक तीन संतान उत्पन्न हुर । आगे चल कर इसका सृष्टि इसी पर निर्भर रहती है, यह मध्यवर्ति कल्पना तेज उसे असह्य हुआ, जिस कारण उसने अपने शरीर से १०२६
SR No.016121
Book TitleBharatvarshiya Prachin Charitra Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSiddheshwar Shastri Chitrav
PublisherBharatiya Charitra Kosh Mandal Puna
Publication Year1964
Total Pages1228
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size32 MB
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