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बृहस्पति
गुणावली गायी गई है (ऋ. ४.४९, ७.९७ ) । इस ग्रन्थ में बृहस्पति नाम प्रायः एक सौ बीस बार, एवं 'ब्रह्मणस्पति' के रूप में इसका नाम लगभग पचास बार भाया है। ऋग्वेद के लोकपुत्र नामक सूक्त के प्रणयन का भी श्रेय इसे प्राप्त है (ऋ. १०.७१ - ७२ ) ।
प्राचीन चरित्रकोश
जन्म--उच्चतम आकाश के महान् प्रकाश से बृह स्पति का जन्म हुआ था | जन्म होते ही इसने अपनी महान तेजस्वी शक्ति एवं गर्जन द्वारा अन्धकार को जीत कर उसका हरण किया (ऋ. ४.५०; १०.६८ ) इसे दोनों लोगों की सन्तान, तथा त्वष्ट्र द्वारा उत्पन्न हुआ भी कहा जाता है (ऋ. ७.९७ २.२३ ) । जन्म की कथा के साथ साथ यह भी निर्देश प्राप्त होता है की यह देवों का पिता है, तथा इसने लुहार की भाँति देवों को धमन द्वारा उत्पन्न किया है (ऋ. १०.७२) ।
रूप-वर्णन ऋग्वेद के सूक्तों में इसके दैहिक गुणों का सांगोपांग वर्णन तो नहीं मिलता, फिर भी उसकी एक स्पष्ट झलक अवश्य प्राप्त है । यह सप्त-मुख एवं सप्तरश्मि, सुन्दर जिह्वावाला, तीक्ष्ण सीघोंवाला, नील पृष्ठवाला तथा शतपंखोंवालां वर्णित किया गया है (ऋ ४.५०; १.१९०; १०.१५५ ५. ४३, ७.९७ ) । इसका वर्ण-स्वर्ण के समान अरुणिम आभायुक्त है, तथा यह उज्वल, विशुद्ध तथा स्पष्ट वाणी बोलनेवाला कहा गया है (ऋ. ३.६२; ५.४३; ७.९७) ।
इसके पास एक धनुष्य है, जिसकी प्रत्यंचा ही 'ऋत ' है; एवं अनेक श्रेष्ठ बाण हैं, जिन्हें शस्त्र के रूप में प्रयोग करता है ( २.२४; अ. वे. ५.१८ ) । यह स्वर्ण कुठार एवं लौह कुठार धारण करता है, जिसे त्वष्टा तीक्ष्ण रखता हैं (ऋ. ७.९७ १०.५३ ) । इसके पास एक सुन्दर रथ है । यह ऐसे ऋत रूपी रथ पर खड़ा होता है, जो राक्षसों का वध करनेवाला, गाय के गोष्टों को तोड़नेवाला, एवं प्रकाश पर विजय प्राप्त करनेवाला है । इसके रथ को अरुणिम अश्व खींचते हैं (ऋ. १०.१०३; २.२३)।
बृहस्पति
(ऋ. १.१०९ १.४० ) । यह मानवीय पुरोहितों को स्तुतियों प्रदान करनेवाला देव है (ऋ. १०.९८.२७) ।
बृहस्पति एक पारिवारिक पुरोहित है ( ऋ. २.२४ ) । शतपथ बाह्राण में इसे सोम का पुरोहित कहा गया है। (श. बा. ४.१.२ ), एवं ऋग्वेद में इसे प्राचीन ऋषियों ने पुरोहितों में श्रेष्ठपद (पुरो - धा) पर प्रतिष्ठित किया है । वाद के वैदिक ग्रन्थों में इसे ब्रह्मन् अथवा पुरोहित कहा गया है।
बृहस्पति युद्धोपम प्रवृत्तियों को अर्जित करनेवाला है । इसने सम्पत्ति से भरे पर्वत का भेद कर, शम्बर के गढ़ों को मुक्त किया था (ऋ. २.२४ ) । इसे दोनों लोकों में गर्जन करनेवाला, प्रथमजन्मा, पवित्र, पर्वतों में बुद्धिमान्, वृत्रों (वृत्राणि) का वध करनेवाला, दुर्गों को छिन्न-भिन्न करनेवाला, तथा शत्रुविजेता कहा गया (ऋ. ६.७३ ) । यह शत्रुओं को रण में पछाड़नेवाला, उनका दमन करनेवाला, युद्धभूमि में असाधारण योद्धा है, जिसे कोई जीत नहीं सकता (ऋ. १०.१०३, २.२३; १.४० ) । इसीलिए युद्ध के पूर्व आह्वान करनेवाले देवता के रूप में इसका स्मरण किया जाता है (ऋ. २.२३ ) ।
इन्द्रपुराकथा में, गायों को मुक्त करनेवालों में, अग्नि की भाँति बृहस्पति का भी नाम आता है । बृहस्पति जब गोष्ठों को खोला तथा इन्द्र को साथ लेकर अन्धकार द्वारा आवृत्त जलस्रोतों को मुक्त किया, तब पर्वत इनके वैभव के आधीन हो गया (ऋ. २.२३) । अपने गायकदल के साथ, इसने गर्जन करते हुए 'बल' को विदीर्ण किया; तथा अपने सिंहनाद द्वारा रेंभती गायों को बाहर कर दिया (ऋ. ४.५० ) । पर्वतों से गायों को ऐसा मुक्त किया गया, जिस प्रकार एक निष्प्राण अण्डे को फोड़ कर जीवित पक्षी उन्मुक्त किया जाता है (ऋ. १०.६८) ।
बृहस्पति त्रिताओं का हरणकर्ता एवं समृद्धि प्रदाता देव के रूप में, अपने भक्तों द्वारा स्मरण किया जाता है (ऋ. २.२५ ) । यह एक ओर भक्तों को दीर्घव्याधियाँ से मुक्त करता है, उनके समस्त संकटो, विपत्तियों, शापों तथा यंत्रणाओं का शमन करता है (ऋ. १.१८ २.२३ ); तथा दूसरी ओर उन्हें बांछित फल, सम्पत्ति, बुद्धि तथा समृद्धि से सम्पन्न करता है (ऋ. ७.१०.९७)।
गुणवर्णन--बृहस्पति को ‘ब्रह्मणस्पति ' ( स्तुतियों का स्वामी) कहा गया है, क्यों कि, यह अपने श्रेष्ठ रथ पर आरूढ़ हो कर देवों तथा स्तुतियों के शत्रुओं को जीतता है (ऋ. २. २३) । इसी कारण यह द्रष्टाओं में सर्वश्रेष्ठ एवं स्तुतियो का श्रेष्ठतम अधिराज कहा गया है (ऋ. २.२३) । यह समस्त स्तुतियों को उत्पन्न एवं उच्चारण करनेवाला है
बृहस्पति मूलतः यज्ञ को सस्पन्न करनेवाला पुरोहित है, अतएव इसका एवं अग्नि का सम्बन्ध अविछिन्न है । मैक्स मूलर इसे अग्नि का एक प्रकार मानता है । रौथ कहता है,
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