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बृहस्पति
प्राचीन चरित्रकोश
बृहस्पति
'यह पौरोहित्य-प्रधान देवता स्तुति की शक्ति का प्रत्यक्ष | वहाँ जा कर, जयन्ती ने उसे अपने सेवाभाव तथा मोहपाश प्रतिरूप है।
| में बाँध लिया। इस अवसर का लाभ उठाकर बृहस्पति चतुर्विंश तथा अन्य याग इसके नाम पर उल्लिखित ने तेजबल से शुक्र का रूप धारण कर एवं दानवों में है (ते. सं. ७.४.१)। इसके नाम पर कुछ साम भी है, नास्तिक धर्म प्रचार से उन्हें धर्मभ्रष्ट करने लगा। तब जिनके स्वरों के गायन की तुलना क्रौंच पक्षी के शब्दों से दैत्यों का पराभव हुआ (पद्म. स. १३; उशनस् देखिये)। की गयी है (छां. उ. १.२.११)।
इन्द्रपद प्राप्त कर नहुष. तामसी प्रवृत्तियों में इतना इसके पत्नी का नाम धेना था (गो.बा.२-९)। धेना का
लिप्त हो गया कि, उसने धार्मिक विधियों को त्याग कर अर्थ 'वाणी' है। इसकी जुहू नामक एक अन्य पत्नी का भी उल्लेख प्राप्त है।
स्त्रीभोग में ही अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ ली, तथा
उत्पात मचाने लगा। एक बार उसने इन्द्राणी को देखा, ___ कई अभ्यासकों के अनुसार, आकाश के सौरमंडल में
तथा उसके रूपयौवन पर मोहित हो कर उसे पकड़ मंगाया। स्थित बृहस्पति नामक नक्षत्र यही था। इसकी पत्नी का
तब वह भागती हुई वृहस्पति के पास आयी, तथा इसने नाम तारा था, जिसे सोम के द्वारा अपहार किया गया था। बृहस्पति की पत्नी तारा से सोम को बुध नामक
इसे आश्वासन दिया, 'इन्द्र तेरी रक्षा करेगा, तेरा सतीत्व
रक्षित है। तुम्हें चिन्ता की आवश्यकता नहीं।' इसने ही पुत्र भी उत्पन्न हुआ था (वायु. ९०.२८-४३; ब्रह्म. ९.१९-३२; म. उ. ११५.१३)। ज्योतिर्विदों के
इन्द्राणी को सलाह दी कि, नहुष से वह कुछ अवधि माँये
तथा इस प्रकार उसे धीरज दिला कर तरकीब से अपनी अनुसार बृहस्पति के इस कथा में निर्दिष्ट सोम, तारा. बुध एवं बृहस्पति ये सारे सौरमंडल में स्थित विभिन्न नक्षत्रों
रक्षा करे (म. उ. १२.२५)। बाद को इन्द्र के द्वारा बताये के नाम हैं (बुध देखिये)।
हुए मार्ग पर चल कर, इन्द्राणी ने नहुष पर विजय प्राप्त
की (म. उ. ११, नहुष देखिये)। २. एक ऋषि; जो देवों का गुरु एवं आचार्य था। (ऐ. ब्रा. ८.२६ )। महाभारत में इसे एवं सोम को उपरिचर वसु के द्वारा निमंत्रण दिया जाने पर ब्राह्मणों का राजा कहा गया है (म. आश्व. ३)। यह | बृहस्पति ने उसके द्वारा किये यज्ञ में होता होना स्वीकार दैत्य एवं असुरों का गुरु 'भार्गव उशनस् शुक्र' का समवर्ती | किया । उपरिचर वसु विष्णु का परम भक्त था । इसीलिये था । देवदैत्यों का सुविख्यात संग्राम, जिसमें बृहस्पति एवं | विष्णु ने इस यज्ञ में स्वयं भाग ले कर यज्ञ के प्रसाद शुक्र इन दोनों ने बड़ा ही महत्वपूर्ण भाग लिया था, (पुरोड़ाश) को प्राप्त किया। बृहस्पति को विष्णु की इक्ष्वाकुवंशीय ययाति राजा के राज्यकाल में हुआ था। उपस्थिति का विश्वास न हुआ। उसने समझा कि, उपरिचर दैत्यगुरु शुक्र की कन्या देवयानी से ययाति ने विवाह किया झूट बोल रहा है, तथा स्वयं की महत्ता बढ़ाने के लिए था। इस कारण, शुक्र एवं देवगुरु वृहस्पति ययाति के खुद पुरोड़ाश खाकर विष्णु की उपस्थिति का बहाना कर समकालीन प्रतीत होते है।
रहा है। यह समझ कर इसने उसे शाप देना चाहा। किन्तु एक बार, देवगुरु बृहस्पति का इंद्र ने अपमान किया, एकत, द्वित तथा त्रित ने बृहस्पति के क्रोध को शांत जिसके कारण, इसने इंद्र तथा देवों को त्याग दिया। कराया, एवं विश्वास दिलाया कि, 'उपरिचर सत्य कहता लेकिन जब बिना बहस्पति के, तरह तरह की अड़चने | है। हम लोगों ने स्वयं विष्णु के दर्शन किये है'(म. शां. पड़ने लगी, तब देवों ने मिलकर इससे माफी माँगी, और | ३२३)। इसने उपरिचर वसु राजा को 'चित्रशिखण्डिपुनः इसे देवगुरु के स्थान पर सुशोभित किया (भा.६.७)। शास्त्र' का ज्ञान विधिवत् प्रदान किया था (म. शां.
दैत्यों का पराजय--देवदानवों के बीच घोर संग्राम | ३२३.१-३)। हुआ, जिसमें देवों को हार का मुँह देखना पड़ा। असुर एवं गंधवों के समान देवों ने भी पृथ्वी का दानवों ने शक्ति, शासन और संजीवनी आदि के बल पर | दोहन किया । उस समय देवों ने बृहस्पति को वत्स देवों को हर प्रकार के कष्ट देना आरम्भ किया । यही बनाया था (भा. ४.१८.१४)। अथर्ववेद के अनुसार, नहीं, शुक्राचार्य देवों को समूल नष्ट करने के लिए घोर | ऋषियों के द्वारा किये पृथ्वीदोहन में बृहस्पति दोग्धा तपस्या में लग गया। तब इन्द्र ने अपनी कन्या जयन्ती (दोहन करनेवाला) बनाया था, सोम को वत्स, तथा छंदस' को शुक्र के पास उसके तप को भंग करने के लिये भेजा। को पात्र बनाया गया था। उस दोहन से तप तथा वेदों
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