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________________ पाणिनि उच्चारण करने मात्र से ही शब्दों का शुद्ध तथा अर्थबोधक ध्वनि निकलती है । इसलिए केवल वर्णों के पठनमात्र से ही नहीं बल्कि आघातादि सहित शब्दों का उच्चारण वांछनीय है । इसलिए पाणिनि ने स्वरप्रक्रिया लिखी तथा 'फिट्सूत्र' जो उदात्त, अनुदात्त व स्वरित शब्दों का संग्रह तथा नियम बतलाया है और उसको मान्यता दी है । प्राचीन चरित्रकोश गणपाट, धातुपाठ, उणादि, लिंगानुशासन, फिंट्सूत्र तथा शिक्षा ये पाणिनि सूत्रों के महत्त्वपूर्ण अंग हैं। इनका संग्रह करने से, सूत्रों की रचना करने में, पाणिनि को सुलभता प्राप्त हुई। इस प्रकार व्याकरण के क्षेत्र में एक रचनात्मक कार्य करके पाणिनि ने संस्कृत भाषा को सर्वाधिक शक्तिशाली बनाया। पाणिनि का समन्वयवाद — व्याकरणशास्त्र में पाणिनि ने नैरुक्त एवं गार्ग्य सम्प्रदायों के बीच समन्वय स्थापित करने का प्रयत्न किया | नैरुक्त संप्रदाय एवं शाकटायन के अनुसार, संज्ञावाचक शब्द धातुओं से ही बने हैं। गार्ग्य तथा दूसरे वैय्याकरणों का मत इससे कुछ भिन्न था। उनका कहना था, खींचतान करके प्रत्येक शब्द को धातुओं से सिद्ध करना उचित नहीं है । पाणिनि ने ‘उणादि ’ शब्दों को अव्युत्पन्न माना है, तथा धातु से प्रत्यय लगाकर, सिद्ध हुये शब्दों को 'कृदन्त' प्रकरण में स्थान दिया है । पाणिनि के अनुसार, ' संज्ञाप्रमाण' एवं ' योगप्रमाण' दोनों अपने अपने स्थान पर इष्ट एवं आवश्यक हैं। शब्द से जाति का बोध होता है, या व्यक्ति का, इस संबंध में भी पाणिनि ने दोनों मतों को समयानुसार मान्यता दी है। धातु का अर्थ 'क्रिया' हो, अथवा 'भाव' हो, यह भी एक प्रश्न आता है । पाणिनि ने दोनों को स्वीकार किया है। पाणिनि पाणिनिकालीन भूगोल -- अष्टाध्यायी में प्राप्त भौगोलिक विवरण का महत्त्व अन्य सारे विवरणों की अपेक्षा कहीं अधिक है । ५०० ई. पू. प्राचीन भारत के जनपदों, पर्वतों, नदियाँ, वनों एवं ग्राम व नगरों की स्थिति का अत्यधिक प्रामाणिक ज्ञान अष्टाध्यायी द्वारा प्राप्त होता है। लोकजीवन -- जैसे पहले कहा जा चुका पाणिनि की अष्टाध्यायी में, ५०० ई. पू. के प्राचीन भारतवर्ष के सांस्कृतिक, सामाजिक राजनैतिक एवं धार्मिक लोकजीवन की ऐतिहासिक दृष्टि से अत्यधिक प्रामाणिक जानकारी प्राप्त होती है। प्राचीन भारतवर्ष के वर्ण, एवं जातियों, आर्य एवं दासों के संबंध, शिक्षा आदि सामाजिक विषयों पर पाणिनि ने काफ़ी प्रकाश डाला है । पाणिनिकालीन भारत में राजशासित एवं लोकशासित दोनों प्रकार की शासन पद्धतियाँ वर्तमान थीं जिसका विवरण अष्टाध्यायी में प्राप्त है। ( १ ) जनपद - पाणिनि के अष्टाध्यायी, एवं गणपाठ में निम्नलिखित जनपदों का निर्देश प्राप्त है: -- अंबष्ठ (८. २.९७ ); अजाद ( ४.१.१७१ ); अवन्ति ( ४.१.१७६); अश्मक ( ४.१.७३ ); उदुंबर (४.३.५३ ); उरश (४. ३.९३; गण. ); उशीनर ( ४.२.११८ ); ऐषुकारि (४. २.५४ ); कंबोज ( ४.१.१७५ ); कच्छ ( ४.२.१३४ ); कलकूट ( ४.१.१७१ ); कलिंग ( ४.१.१७० ); काश्मिर ( ४.२.१३३; ४.३.९३; गण. ); कारस्कर (६.१.१५६ ); काशि ( ४.१.११६ ); किष्किंधा ( ४.३.६३; गण. ); . कुरु ( ४.१.१७२; १७६ २.१३० ); कुंति ( ४.१. १७६ ); केकय ( ७.३.२ ); कोसल ( ४.१.१७१ ); गंधारि ( ४.१.१६९ ); गब्दिका ( ४.३.६३; गण. ) त्रिगर्त ( ५.३.११६ ); दरद् ( ४.३.९३; गण. ); धूम ( ४.२.१२७ ); पटच्चर ( ४.२.११०; गण. ) प्रत्यग्रंथ ( ४.१.१७१ ); पारस्कर ( ६.१.१४७ बर्बर ( ४.३.९३; गण. ); ब्राह्मणक (५.२.७१ ); मर्ग (४.१.१११ ); भारद्वाज (४.१.११० ); मौरिकि (४.२. ५४ ); मगध ( ४.१.१७० ); मंद्र ( ४.२.१३१ ); यकृलोम (४.२.११०९ गण. ); युगंधर (४.२.१३० ); यौधेय ( ४.१.१७८१ ५.३.११७); रंकु (४.२.१०० ); वाहीक ( ४.२.११७ ); वृजि ( ४.२.१३१ ); सर्वसेन ( ४.३.९२; गण. ); साल्व ( ४.२.१३५ ); साल्वावयव ( ( ४.१.१७३ ); साल्वेय ( ४.१.१६९ ); सूरमस ( ४.१.१७० ); सिंधु (४.३.९२); सौवीर (४.२.७६) । (२) पर्वत - पाणिनि के अष्टाध्यायी में निम्नलिखित पर्वतों का निर्देश प्राप्त है:-अंजनागिरि, किंशुलगिरि, (६.२.११६ ); त्रिककुत् ( ५.४.१४७ ); भंजनागिरि; लोहिता गिरि; विदूर (४.३.८४ ); शाल्वका गिरि । (३) नदियाँ -- पाणिनि के अष्टाध्यायी में निम्नलिखित नदियों का विवरण प्राप्त है: -- अजिरवती (६.३.११७); उभय (३.१.११५ ); चर्मण्वती ( ८.२.१२ ); देविका ( ७.३.१ ); भिद्य (३.१.११५ ); वर्णु ( ४.२.१०३ ); विपाश् ( ४.२.७४ ); शरावती ( ६.३.११९ ); सरयू (६.४. १७४ ); सिंधु ( ४.६.९३ ); सुवास्तु ( ४.२. ७७)। ४०८
SR No.016121
Book TitleBharatvarshiya Prachin Charitra Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSiddheshwar Shastri Chitrav
PublisherBharatiya Charitra Kosh Mandal Puna
Publication Year1964
Total Pages1228
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size32 MB
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