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पाणिनि
प्राचीन चरित्रकोश
पाणिनि
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शाकटायन (३.४. १११, ८.३.१९; ४.५१), सेनक कुल ३९९५ सूत्र हैं। इन सूत्रों में 'अइउण' आदि १४ (५.४.११२), स्फोटायन (६.१.१२१)।
माहेश्वरी सूत्रों का भी संग्रह है। ___ 'अष्टाध्यायी' में निम्नलिखित ग्रंथों का निर्देश प्राप्त | ___लौकिक संस्कृत भाषा को व्याकरणीय नीतिनियमों में है-अनुब्राह्मण (४.२.६२), अनुप्रवचन (२.१.१११), बिठाना, यह 'अष्टाध्यायी' के अंतर्गत सूत्रों का प्रमुख कल्पसूत्र (४.३.१०५), क्रम (४.२.६१), चात्वारिंश उद्देश्य है । वहाँ संस्कृत भाषा का क्षेत्र वेद एवं लोकभाषा (ऐतरेय ब्राह्मण) (५.१.६२), त्रैश (सांख्यायन ब्राह्मण) | माना गया है, तथा उन दोनों भाषाओं का परामर्श (५.१.६२), नटसूत्र (४.३.११०), पद (४.२.६१), 'अष्टाध्यायी' में लिया गया है । संस्कृत की भौगोलिक भिक्षुसूत्र (४.३.११०), मीमांसा (४.२.६१), शिक्षा | मर्यादा, गांधार से आसम (सूरमस ) में स्थित सरमा (४.२.६१)। उपनिषद एवं आरण्यक ग्रंथों का निर्देश नदी तक, एवं कच्छ से कलिंग तक मानी गयी है। उत्तर 'अष्टाध्यायी' में अप्राप्य है।' उपनिषद' शब्द
के काश्मीर कांबोज से ले कर, दक्षिण में गोदावरी नदी 'पाणिनीय व्याकरण' में आया है। किंतु वहाँ उसका अर्थ | के तट पर स्थित अश्मक प्रदेश तक वह मर्यादा मानी 'रहस्य के रूप में लिया गया है (१.४.७९)। गयी है।
'अष्टाध्यायी के लिये जिन वैदिक ग्रंथों से, पाणिनि अष्टाध्यायी में किया गया शब्दों का विवेचन, दुनिया ने साधनसामग्री ली उनके नाम इस प्रकार है:-- की भाषाओं में प्राचीनतम समझा जाता है । उस ग्रंथ में अनार्ष (१.१.१६, ४.१.७८.), आथर्वणिक (६.४. | किया गया प्रकृति एवं प्रत्यय का भेदाभेददर्शन, तथा १७४), ऋच् (४.१.९; ८.३.८), काठक-यजु (७.४. | प्रत्ययों का कार्य निर्धारण के कारण पाणिनि की व्याकरण३८), छन्दस् (.१.२.३६), निगम (३.८१; ४.७४; ४. | पद्धति शास्त्रीय एवं अतिशुद्ध बन गयी है। ९, ६.३.११३; ७.२.६४), ब्राह्मण (२.३.६० ५.१.
पाणिनीय व्याकरणशास्त्र--पाणिनि ने अपनी 'अष्टा६२), मंत्र ( २.४.८०), यजुस् (६.१.११५, ७.४.
ध्यायी' की रचना गणपाठ, धातुपाठ, उणादि, लिंगानु३८८.३.१०२), सामन् (१.२.३४)।
शान तथा फिटसूत्र ये ग्रंथों का आधार ले कर की है। 'अष्टाध्यायी' में निम्नलिखित वैदिक शाखाप्रवर्तक
उच्चारण-शास्त्र के लिये अष्टाध्यायी के साथ शिक्षा ग्रंथों ऋषियों का निर्देश प्राप्त है :-- अश्वपेज, उख, कठ, | के पठन-पाठन की भी आवश्यकता रहती है। पाणिनि कठशाठ, कलापिन् , कषाय, (कशाय, का.) काश्यप, | प्रणीत व्याकरणशास्त्र में इन सभी विषयों का समावेश कौशिक, खंडिक, खाडायन, चरक, द्दगल, छंदोग, तल, | होता है। पतंजलि के अनुसार, गणपाठ की रचना तलवकार, तित्तिरि, दण्ड, देवदर्शन, देवदत्त शठ, पैङ्गच पाणिनि व्याकरण के पूर्व हो चुकी थी (महाभाष्य. १. (४.३-१०५, उदाहरण), पुरुषांसक (पुरुषासक), | ३४)। परस्पर भिन्न होते हुए भी व्याकरण के एक बहवृच, (४.३.१२९), याज्ञवल्क्य (वातिक) रज्जुकंठ, | नियम के अंतर्गत आ जानेवाले शब्दों का संग्रह रज्जुभार, वरतंतु, वाजसनेय, वैशंपायन, शापेय (सपिय, | 'गणपाठ' में समाविष्ट किया गया है। गणपाठ में का.), शाष्पेय (शाखेय, का.) शानरव (सांगरव, का.)
संग्रहीत शब्दों का अनुक्रम प्रायः निश्चित रहता है। शाकल, शौनक, सापेय, स्कन्द, स्कन्ध, स्तंभ (स्कंभ, गण में छोटे छोटे नियमों के लिये अंतर्गणसूत्रों का का.) (पा. सू, ४.३.१०२-१०९ गणों सहित; १२८, |
प्रणयन भी दिखलायी पड़ता है। गणपाठ की रचता १२९)।
पाणिनिपूर्व आचार्यों द्वारा की गयी होगी। फिर भी वह इन में केवल तलवकार तथा वाजसनेय प्रणीत ब्राह्मण
पाणिनि व्याकरण की महत्त्वपूर्ण अंग बन गयी है। ग्रंथ आज उपलब्ध हैं। अन्य लोगों के कौन से ग्रन्थ थे
धातुपाठ तथा उणादि सूत्र भी पाणिनि पूर्व आचार्यों यह बताना असंभव है।
द्वारा प्रणीत होते हुए भी, 'पाणिनि व्याकरण' का महत्त्वउलप, तुंबरु तथा हरिद्रु (४.३.१९४) ये नाम पर्ण अंग बन गयी है। लिंगानुशासन पाणिनिरचित है। 'काशिका' में अधिक हैं।
'पाणिनीय शिक्षा में पाणिनि के मतों का ही संग्रह है। 'अष्टाध्यायी'--पाणिनि की 'अष्टाध्यायी' ग्रंथ | फिटसूत्रों की रचना शांतनवाचार्य ने की है। फिर भी आठ अध्यायों में विभक्त है । प्रत्येक अध्याय में चार पाणिनि ने उनको स्वीकार किया है। प्रत्येक शब्द पाद हैं । बत्तीस पाद एवं आठ अध्यायों के इस ग्रंथों में | स्वाभाविक उदात्तादि स्वरयुक्त हैं। तदनुसार, शब्दों का
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