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रावण
प्राचीन चरित्रकोश
राहूगण
रा.१७)।
गया हैं (मानस. ३.२३.८; ३.२८.८)। इससे प्रतीत | निर्दिष्ट स्वभानु का स्थान ही वैदिकोत्तर पुराकथाशास्त्र होता है कि, राम के चरित्रचित्रण में तुलसी का मन जितना | में राहु के द्वारा लिया गया है, जिस कारण इसे 'चंद्रार्करमा है, उतना उसके प्रतिपक्षी रावण के चित्रण में नही । | प्रमर्दन' (चंद्र एवं सूर्य को जीतनेवाला) कहा गया है
रावण शतमुख-मायापुरी का राक्षस नृप, जो (भा. ५.२३.७)। कई पुराणों में इसका नामान्तर कुंभकर्ण का पौत्र पौंडक राजा का मित्र था । विभीषण के | स्वभीनु बताया गया है (ब्रह्मांड. ३.६.२३) । शिशुमार विरोधी पक्ष में होने के कारण राम ने इसका वध किया | चक्र के गले में इसका निवासस्थान था। (आ. रा. राज्य. ५)।
| शिरच्छेद–समुद्रमंथन के उपरान्त देव-गण अमृतरावण सहस्रमुख-पुष्करद्वीप का एक सहस्रमुखी | पान करने लगा, जब यह दानव भी प्रच्छन्न रूप धारण राक्षस, जिसका सीता के द्वारा वध हुआ था (अद्भुत | कर अमृतपान में शामिल हुआ। अमृत इसके गले तक ही
पहुँच पाया था कि, सूर्यचंद्र ने यह दैत्य होने की सूचना राष्ट्र-(सो. क्षत्र ) एक राजा, जो वायु के अनुसार | विष्णु को दी । विष्णु ने तत्काल इसका शिरच्छेद किया, काशि राजा का पुत्र था।
जिससे इसका सिर बदन से अलग हो कर धरती पर जा राष्ट्रपाल--(सो. वृष्णि.) एक यादव राजकुमार, जो | गिरा (म. आ. १७.४.६ )। कंस राजा का भाई, एवं उग्रसेन के नौ पुत्रों में से एक था। पश्चात् इसके सिर से केतु का निर्माण हुआ, एवं यह
राष्ट्रपाला अथवा राष्ट्रपालिका-मथुरा के उग्रसेन | सिरविरहित अवस्था में घूमने लगा। तदोपरान्त विष्णु राजा की कन्या, जो वसुदेव के भाई संजय राजा की पत्नी | की डर से ये दोनों भाग गये। किन्तु सूर्य एवं चंद्रमा के थी। इसे वृक एवं दुर्मषण नामक दो पुत्र थे (भा. ९. | प्रति राहु-केतुका द्वेष कम न हुआ। इसी कारण, ये २४-२५, ४२)।
आज भी उन्हे ग्रासते रहते हैं, जिसे क्रमशः सूर्यग्रहण एवं राष्ट्रपिंड-अंगिराकुलोत्पन्न एक गोत्रकार।
चंद्रग्रहण कहते हैं ( पन. ब्र. १०)। राष्ट्रभृत--अथर्ववेद में निर्दिष्ट तीन अप्सराओं में राहु ग्रह का आकार वृत्ताकार माना जाता है। इसका से एक (अ. वे. १६.११८; वा. सं. १५.१५-१९)। व्यास बारह हज़ार योजन, तथा दायरा बयालिस हज़ार अन्य दो अप्सराओं के नाम उग्रजित एवं उग्रपश्या थे। | योजन है ।
२. (स्वा. प्रिय.) एक राजा, जो भागवत के अनुसार जिस समय शंकर एवं जालंधर का युद्ध हुआ था, उस भरत एवं पंचजनी के पुत्रों में से एक था।
समय यह जालंधर की ओर से राजदूत बन कर शंकर राष्ट्रवर्धन---दशरथ राजा के अष्टप्रधानों में से एक | के पास गया था (पद्म. उ. १०)। किन्तु वहाँ शंकर की (वा. रा. बा. ७.३)।
क्रोधानी से डर कर यह भाग गया (प. उ. १९)। २. राज्यवर्धन राजा का नामान्तर (राज्यवर्धन देखिये)। इस पापग्रह के प्रभाव की जानकारी संजय ने धृतराष्ट्र को
राह--एक दानव, जो अष्टग्रहों में से एक पापग्रह | बताई थी (म. स. १३.३९-४१)। ब्रह्मा की सभा में माना जाता है । सूर्य को ग्रसित करनेवाले दानव के रूप | उपस्थित ग्रहों में भी इसका नाम प्राप्त है। में इसका निर्देश अथर्ववेद में प्राप्त है (अ. वे. १९.९- इसकी कन्या का नाम सुप्रभा था (पन.स. ६), जिसे १०)।
भागवत में स्वर्भानुपुत्री कहा गया है। कई अन्य पुराणों में पुराणों में इसे कश्यप एवं दनु का पुत्र बताया गया है। इसकी कन्या का नाम प्रभा दिया गया है (ब्रह्मांड. ३.६. अन्य ग्रंथों में से इसे कश्यप एवं सिंहिका का पुत्र कहा | २३; विष्णु. १.२१)। गया है (म. आ. ५९.३०; विष्णुधर्म. १.१०६; पद्म. सु. राहुकर्णि-अंगिराकुलोत्पन्न एक गोत्रकार । पाठभेद४०)। भागवत एवं ब्रह्मांड में इसे विप्रचित्ति एवं | 'रागकर्णि'। सिहिका का पुत्र कहा गया है (भा. ६.६.३७; १८.१३; राहुल-(सू. इ. भविष्य.) शुद्धोदन राजा के पुत्र ब्रह्मांड. ३.६.१८-२०)।
पुष्कल राजा का नामान्तर (पुष्कल. २. देखिये)। स्वर्भानु नामक एक आसुर प्राणि का निर्देश ऋग्वेद में राहगण-गोतम नामक आचार्य का पैतृक नाम प्राप्त है, जिसे सूर्य के प्रकाश को रोकनेवाला माना गया | (श. ब्रा. १.४.१.१०)। रहुगण का वंशज होने से, इसे है (ऋ. ५.४०%; स्वर्भानु देखिये)। वैदिक साहित्य में | यह पैतृक नाम प्राप्त हुआ होगा (रहूगण देखिये)।
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