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________________ भरत प्राचीन चरित्रकोश भरत दुष्टता दर्शाने के लिये नाट्यवेद का निर्माण मैने किया की रचना, एवं उसके उद्घाटन के लिये आवश्यक धार्मिक है। मानवी जीवन की साकार प्रतिमा दर्शकों के सामने | विधि (अ. २-३): नृत्य एवं अभिनय में शारीरीक प्रगट करना, इस कला का मुख्य ध्येय है। जीवन के सारे . चलनवलन से वसंत, ग्रीष्मादि ऋतु, एवं त्वेष, दुःख पहलू, यथातथ्य रूप में प्रगट कर, एवं दुनिया के उत्तम, | हर्षादि भावना कैसी सूचित करे (अ. ४-५); नानाविध मध्यम एवं नीच व्यक्तियों को दिखा कर, दर्शको को ज्ञान रस, भावना, एवं अलंकार आदि का नाटयकृति में एवं मनरंजन एकसाथ ही प्रदान करना नाट्यमाध्यम का आविष्कार (अ. ६-८, १६); पात्रों की भाषा उनका मुख्य उद्देश्य है । इसी कारण दुनिया का सारा कला- | देश एवं व्यवसाय के अनुसार कैसी बदल देना चाहिये ज्ञान, शास्त्र, धार्मिक विचार एवं यौगिक सामर्थ्य का (अ. १७); नाट्यकृतिओं के दस प्रकार, एवं उनके दर्शन इस कला में तुम्हे प्राप्त होगा। वैशिष्टय (अ. १८); नाटयकृति की गतिमानता बढ़ाना नाव्यकला का पथ्वी पर अगमन-स्वर्ग में स्थित इंद्र | (अ. १९); नाटयशैली के विभिन्न प्रकार (अ.२०): प्रासाद में सर्वप्रथम निर्मित भरत की नाट्यकृति पृथ्वी | देव, दानव, मनुष्यों के पात्रचित्रण के लिये नानाविध पर कैसी अवतीर्ण हयी, इसकी कथा भी 'भरत | वेषभूषा, रंगभूषा आदि (अ. २१); नाट्यकृति के नाट्यशास्त्र में दी गयी है। इस कथा के अनुसार, इस | नायक, नायिका, खलनायक आदि पात्रों के विभिन्न नाटयकृति में भाग लेनेवाले अभिनेताओं ने उप- | प्रकार (अ. २२-२४); अभिनेताओं की नियुक्ति स्थित ऋषिओं का व्यंजनापूर्ण हावभावों से उपहास | एवं शिक्षा (अ. २६, ३५), नाटय-प्रयोग का समय, .. किया, जिस कारण ऋषिओं ने कृद्ध होकर नाटयव्यवसायी | स्थल एवं प्रसंग की नियुक्ती (अ. २७); नाटयसंगीत एवं लोगो को शाप दिया, 'उच्च श्रेणी के कलाकार हो कर | नृत्य (अ. २८-३४)। भी समाज की दृष्टि से तुम नीच एवं गिरे हुए होकर | भरत के नाट्यशास्त्र में, नाट्यकृतिओं के निम्न- . . रहोगे । अपनी स्त्रिया एवं पुत्रों के सहारे तुम्हे जीना | लिखित दस प्रकार माने गये है:- नाटक, प्रकरण, पडेगा'। भाण, प्रहसन, डीम, व्यायोग, समवकार, वीथी, उश्रुटठांक ऋषिओं के इस शाप के कारण नाट्यकला नष्ट न | एवं इहामृग । अग्निपुराण में भरत नाट्यशास्त्र के काफ़ी हो, इस हेतु से भरत ने यह कला अपने पत्र एवं स्वर्ग उद्धरण लिये गये है (अग्नि, ३३७-३४१)। किंतु वहाँ की अप्सराओं को सिखायी, एवं उन्हे पृथ्वी पर जा कर | नाट्यकृतिओं के सत्ताईस प्रकार दिये गये है। उसका प्रसार करने के लिए कहा। पृथ्वी पर जाने से | भरत के नाट्यशास्त्र में, निम्नलिखित आठ रसों का पहले ब्रह्मा ने उन्हे वर प्रदान किया, 'तुम्हारी कला | विवरण प्राप्त है :-शंगार, हास्य, करुण, रौद्र, वीर, सदैव लोगों को प्रिय, अतएव अमर रहेगी। भयानक, बीभत्स, एवं अद्भुत । इस नामावलि में शांतरस मस्त्य के अनुसार, भरतमुनि रचित 'लक्ष्मी स्वयंवर' का अंतर्भाव नहीं किया गया है, क्यो कि, वह विदग्ध नामक नाट्यकृति में लक्ष्मी की भूमिका करनेवाली उर्वशी काव्य का रस माना जाता है। अप्सरा से कुछ त्रुटि हो गयी, जिस कारण भरत ने उसे नाटयकृति का संविधानक (वस्तु, इतिवृत्त), नायक एवं पृथ्वी पर जाने का, एवं पुरूरवस् राजा की पत्नी बनने का नायिकाओं के विभिन्न प्रकार भी भरत नाट्यशास्त्र में दिये शाप दिया (मस्त्य. २४.१-३२)। गये है। भारतीय नाट्यशास्त्र एवं मत्स्य में प्राप्त इन कथाओं विंटरनिट्स के अनुसार, भरत की नाट्यकृति में रस, से ज्ञात होता है कि, उस समय नाटयकाल आज की नायक आदि की वर्गीकरणपद्धति अधिकतर ग्रांथिक पद्धति भाँति लोकप्रिय थी, एवं जनमानस में उसके प्रति अतीव की है, व्यवहारिक उपयोगिता एवं नये विचारों का दिगआकर्षण था। दर्शन उसमें कम है। __ भारतीय नाट्यशास्त्र--भरतरचि नाट्यशास्त्र में काल-हरप्रसाद शास्त्री के अनुसार, उपलब्ध नाट्यनाटयकृति का केवल साहित्यिक दृष्टि से नही, बल्की शास्त्र का काल ई. स. दुसरी शताब्दी माना लेना चाहिये । कला, संगीत, नृत्य, अभिनय आदि सर्वांगीण दृष्टि से संभव है, नाट्यशास्त्र में अंतर्गत अभिनयसंबंधी कारिका विचार किया गया है । उस ग्रन्थ में नाट्यप्रयोग संबंधी इससे पुरानी हो । देवदत्त भांडारकर के अनुसार, इस ग्रंथ निम्नलिखित विषयों का परामर्श लिया गया है:-रंगमंच में प्राप्त संगीतसंबंधी अध्याय काफी उत्तरकालीन, अतएव
SR No.016121
Book TitleBharatvarshiya Prachin Charitra Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSiddheshwar Shastri Chitrav
PublisherBharatiya Charitra Kosh Mandal Puna
Publication Year1964
Total Pages1228
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size32 MB
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